राष्ट्रीय

-चिंकी सिन्हा
मैंने ये बात स्कूल में बताई थी. मुझे लगता है कि मैं ये बात हर जगह कहती फिरती थी. मेरे पिताजी की दो माँएं थीं. ये कोई ऐसी बात नहीं थी, जो किसी ने पहले न सुनी हो.
बहुत से लोग दो-दो बीवियां रखते थे. इसकी तमाम वजहें भी होती थीं. किसी ने पहली पत्नी के बच्चा न होने के चलते दूसरी शादी कर ली. तो, किसी के बेटा न हुआ तो वो दूसरी औरत ब्याह लाया. कोई शादी के बाद किसी और के इश्क़ में गिरफ़्तार हुआ, तो उससे शादी कर ली. ऐसे बहुत से कारण होते हैं. लेकिन, मेरे मामले में जो बात थोड़ी अलग थी.
वो ये थी कि मेरी दूसरी दादी ईसाई थीं. मेरी ये ईसाई दादी, बड़े दिन या क्रिसमस पर हमारे लिए केक भेजा करती थीं. मुझे उन दिनों की कोई ख़ास याद तो नहीं है. बस इतना याद रह गया है कि मुझे अपनी एक ईसाई दादी होने पर बड़ा ग़ुरूर था.
एक बार जब मैं अपने ननिहाल गई, तो मैंने इतराते हुए अपनी नानी को बताया था, 'मेरे पिताजी की दो माँएं हैं.'
ये राज़ छुपाकर रखा जाता था, क्योंकि बहुत से परिवारों में किसी ग़ैर मज़हबी से शादी करके लक्ष्मण रेखा पार करने वाले को बिरादरी से बाहर कर दिया जाता था.
मगर, मोहब्बत तो मोहब्बत है और ये बात शायद मेरे ननिहाल वाले भी समझते थे. परिवार में बहुत सी बेटियां और पोतियां थीं, जिनका ब्याह किसी खाते-पीते और रसूख़ वाले घरों में करना होता था. ऐसे में लोगों को ये लगता था कि उनके किसी रिश्तेदार का एक ईसाई औरत से शादी करना कहीं मुश्किलें न खड़ी करे.
मेरी माँ की शादी के वक़्त मेरे ननिहाल वालों को ये बताया गया था कि वो जो दूसरी औरत है, जो औरों से बिल्कुल अलग दिखती है, वो असल में मेरी दादी की बहन है. लंबे समय तक मेरी माँ को भी ये क़िस्सा नहीं पता था. जब मैं अपनी माँ के पेट में थी और एक दिन मेरी दादी किसी काम से घर से बाहर गई थीं, तब मेरी बुआ ने माँ को इस बारे में बताया था.
परिवार का अनकहा नियम
पटना में मौजूद घर
CHINKI SINHA
अपनी नौकरी से रिटायर होने के बाद मेरे दादा की प्रेमिका हमारे परिवार के साथ रहने आ गई थीं. तब हमारे परिवार में कुछ मुश्किलें खड़ी हो गई थीं.
सबको हिदायत थी कि वो उन्हें भी उसी तरह सम्मान दें, जैसे हम अपनी दादी यानी दादा की क़ानूनी पत्नी को देते हैं. ये हमारे परिवार का अनकहा नियम था. जब तक हमारे दादा ज़िंदा रहे, तब तक इन नियमों का सख़्ती से पालन किया गया.
मेरे पिता और उनके दस भाई-बहन अपनी सगी मां को 'मैया' और दूसरी माँ को 'ममा' कहकर बुलाते थे. इसी तरह हमारी उन दादी का जो एक बेटा था, वो भी दोनों महिलाओं को ऐसे ही पुकारता था.
हम सब एक बड़े से ख़ानदान का हिस्सा थे और मिल-जुलकर रहते थे. मुझे कभी ये ख़याल नहीं आया कि उन दिनों में पटना जैसे शहर में रहते हुए कोई हिंदू परिवार इस बात को क्यों छुपाए कि उनकी एक दादी ईसाई हैं. ऐसा लगता था कि हमारे सिवा, सबको उनके बारे में पता है. हमने हालात को मंज़ूर कर लिया था.
हमें ये नहीं पता था कि वो कौन थीं. कहां से आई थीं. और, उन्होंने क्यों हमारे साथ रहने का फ़ैसला किया था.
हम उन्हें दादी माँ कहकर बुलाते थे. वो छोटी कद काठी की महिला थीं. उनके दांत बड़े-बड़े थे. आम तौर पर कोई बिहारी किसी महिला को ख़ूबसूरती के जिस पैमाने पर तौलता है, वो उस खांचे में फिट नहीं बैठती थीं.
मैं उम्मीद करती हूं कि अब वो सोच बदल गई होगी. पर मुझे याद है कि लोग उनकी बदसूरती के बारे में हमसे इशारों में बात किया करते थे.
इन बातों को सुनकर हम बच्चों को उन पर यक़ीन हो जाता था. उन्हें ग़ुस्सा बहुत आता था. वो धीरे-धीरे चलती थीं. लेकिन, मुझे उनकी चश्मा लगी सूरत आज भी बख़ूबी याद है. वो बड़ी मोटी ऐनक लगाती थीं. मेरी वो दादी हमेशा कलफ़दार सूती साड़ी पहना करती थीं और बड़े करीने से रहती थीं.
दादा और दादी की तस्वीर
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मेरी पैदाइश से ठीक पहले वो अपने बेटे-बहू और उनके नवजात बच्चे, जो हमारा कज़िन है, के साथ किसी और जगह रहने चली गई थीं. वो एक नर्स थीं और किसी और शहर में सरकारी क्वार्टर में रहा करती थीं.
वो अक्सर हमारे घर आया करती थीं. जब पहली दफ़ा मेरे दादा उन्हें घर लेकर आए थे, तो उन्होंने अपनी पत्नी और हमारी दादी को बताया कि वो एक दोस्त की बेवा हैं और हमारे साथ ही रहेंगी.
दादा ने कहा था कि उनका छोटा बेटा भी परिवार के साथ ही रहेगा, क्योंकि उनका कोई और ठिकाना नहीं है. वक़्त के साथ-साथ परिवार को अंदाज़ा हुआ कि असल में वो महिला तो उनकी प्रेमिका हैं और वो बच्चा भी उन्हीं का है. और, परिवार को ये भी पता चला कि वो ईसाई हैं.
हमारी एक बुआ जो अब नहीं रहीं, वो अपनी इन आधुनिक सौतेली मां और उनके 'सेवा भाव' से बहुत प्रभावित हुई थीं. वो ख़ुद भी नई माँ की शागिर्द बनना चाहती थीं.
हमारे दादा ने उनसे कभी शादी नहीं की. लेकिन, हमेशा ही उन्हें दूसरी बीवी कहा गया और परिवार ने उन्हें पूरी इज़्ज़त दी. अब जो भी हो, मेरे लिए तो मेरी इन दो दादियों की कहानी बहुत अहम है. पहले तो ये समझने के लिए कि मैं कैसे परिवार से आती हूं. और, दूसरी वजह इश्क़ करने के पीछे की महिलावादी राजनीति को समझने की है.
मेरे दादाजी के कमरे में हमेशा दो बेड हुआ करते थे, जो एक दूसरे से लगकर रखे रहते थे. ये अपने आप में इस बात की गवाही थी कि उन्होंने मुहब्बत की थी. साथ ही साथ. इसके चलते परिवार को जो कुछ गंवाना पड़ा था, उसका भी ये सबूत था. हम जब भी इस मुद्दे को छेड़ते, तो हमें ये कहकर चुप करा दिया जाता था कि परिवार की इज़्ज़त का कुछ तो ख़याल करो.
गर्व है दो दादियों पर
अब 41 बरस की उम्र में आज मैं उन बंदिशों से आज़ाद हूँ. परिवार की ज़्यादातर लड़कियों की शादी हो चुकी है. हालांकि, मैं ख़ुद अकेली रहती हूं. और, यक़ीन जानिए मुझे इस बात से अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कोई क्या सोचता है.
तो अब मैं आपको ये कहानी सुना रही हूं. इसमें शर्मिंदगी की कोई बात ही नहीं है. बल्कि, सच तो ये है कि मुझे गर्व है कि मेरी दो दादियां थीं.
जवानी के दिनों में आंटीज
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मुझे नहीं पता कि सच क्या है, पर कम से कम मुझे बताया तो यही गया था. मेरे दादा एक दिलकश नौजवां थे. वो पटना के मोईन-उल-हक़ स्टेडियम में फुटबॉल खेला करते थे. उनके पास मॉरिस माइनर कार हुआ करती थी. मेरे दादा पुलिस अधिकारी थे. हमारे परिवार को इस बात का बड़ा ग़ुरूर है कि उस ज़माने में हमारे दादा पटना के उन गिने-चुने लोगों में से एक थे जिनके पास कार हुआ करती थी.
मेरी दादी बड़ी गोरी-चिट्टी थीं. उनकी ख़ूबसूरती बेदाग़ थी. वो अफ़ग़ान स्नो क्रीम इस्तेमाल करती थीं. उनके दस बच्चे हुए थे. मेरी दादी पटना की रहने वाली थीं. उनके भाई भी उनसे बहुत लगाव रखते थे. उनकी सास भी उन्हें बहुत चाहती थीं. वो मेरी दादी को बहुत पढ़ाना चाहती थीं. लेकिन, घर में इतना काम होता था कि मेरी दादी को फ़ुर्सत ही नहीं मिलती थी.
एक बार मेरे दादा किसी अपराधी की तलाश में झारखंड गए थे. उस वक़्त झारखंड अलग राज्य नहीं बना था. वो बिहार का ही हिस्सा हुआ करता था. उनके घुटने में गोली लग गई थी. जिसके चलते मेरे दादा को इलाज के लिए कुछ वक़्त अस्पताल में भी रहना पड़ा था. वहीं, पर उनकी मुलाक़ात मेरी दूसरी दादी से हुई थी. वो एक नर्स थीं. उन्हें ही मेरे दादा की देख-भाल करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी. वो अंग्रेज़ी बोलती थीं. मेरे दादा को उनसे प्यार हो गया. बाद में वो उन्हें अपने घर ले आए.
जब उनकी पोस्टिंग पटना में हुई, तो वो वहां के नर्सेज़ क्वार्टर में रहती थीं. लेकिन, वो तब भी हमारे घर आया करती थीं. लोग कहते हैं कि एक दिन मेरी दादी उनके पास गईं और अपने पान के डिब्बे से उन्हें पान भेंट किया.
मेरी दादी ने उनसे कहा कि हमें एक दूसरे को स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि इसमें हमारी कोई ग़लती नहीं है. मुझे लगता है कि मेरी दादी महिलावादी थीं, क्योंकि वो बहनापे में यक़ीन रखती थीं. और घरेलू मसलों के अलावा कई बार कुछ अन्य बातों की वजह से उनके नाज़ुक रिश्ते के टूटने का ख़तरा भले ही पैदा हुआ हो. लेकिन, दोनों ही ज़िंदगी भर एक-दूसरे की दोस्त बनी रही थीं.
दादा की तस्वीर
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बुढ़ापे में मेरी दूसरी दादी की आंखों रौशनी चली गई थी. वो अपने पोते पोतियों या नौकरों को कहा करती थीं कि वो हाथ पकड़कर उन्हें हमारे घर ले चलें.
फिर वो दोनों साथ बैठ कर पान चबाते हुए शाम ढलने तक दुनिया जहान की बातें करती रहती थीं. ये सिलसिला तब टूटा जब मेरे चाचा ने उस मुहल्ले को छोड़कर, शहर में दूसरी जगह रहना शुरू किया. ममा को भी घर छोड़ना पड़ा.
मुझे लगता है कि ममा के जाने के बाद मेरी दादी अकेलापन महसूस करने लगी थीं. उनकी देख-भाल करने के लिए गंगाजली नाम की एक महिला रहती थी. आख़िर में उनकी याददाश्त भी चली गई. वो बमुश्किल ही चल पाती थीं. मेरी बुआ ने उनके बाल काट दिए थे. अपने आख़िरी दिनों में वो एक छोटी बच्ची जैसी दिखने लगी थीं. कटे हुए बाल, दुबली पतली काठी और मोटे चश्मे से ढंकी आंखें. एक रोज़ वो चल बसीं. और बस क़िस्सा तमाम.
आख़िरी इच्छा
मै उस समय स्कूल में थीं. ममा उनसे ज़्यादा दिन तक ज़िंदा रही थीं. मुझे नहीं पता कि वो अब भी चर्च जाया करती थीं या नहीं. लेकिन मुझे ये पता है कि उनकी आख़िरी इच्छा ये थी कि उन्हें जलाने के बजाय दफ़न किया जाए.
पर मैं उस मसले में नहीं पड़ना चाहती. मैं बस अपनी दोनों दादियों की वो तस्वीर याद करना चाहती हूं, जब दोनों साथ बैठकर बातें करती रहती थीं. कई बार एक दूसरे का हाथ भी पकड़ लेती थीं. उन दोनों को पान खाना बहुत पसंद था. जब हम बच्चों की सालगिरह आती थी, तो ममा पूरियां तलती थीं और मेरी सगी दादी मटन करी पकाया करती थीं.
पुराना रसोई घर
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आज उन दिनों को याद करके, मैं ये कह सकती हूं कि मेरी दादी थोड़ी दुखी ज़रूरी हुई होंगी. उनके साथ छल हुआ था. लेकिन, उन्हें पता नहीं था कि वो इसके बदले में क्या करें. पहले तो उन्होंने इसका विरोध किया होगा. लेकिन, बाद में तो दोनों अच्छी सहेलियां बन गईं.
ममा और मेरी सगी दादी. वो मिल-जुलकर घर चलाती थीं. आख़िर उन दोनों ने ही एक मर्द को साझा करना जो सीख लिया था. उसके बाद उन्हें जोड़ने वाला मर्द बेमानी हो गया.
उस बात को याद करते हुए मुझे लगता है कि दोनों ही औरतें बड़ी तन्हा थीं. शायद मेरे दादा भी अकेलेपन के शिकार थे. मुझे याद है, मैं छोटी सी थी, जब वो बाथरूम में फिसलकर गिर पड़े थे और उनकी मौत हो गई थी. लोग कहते हैं कि उन्हें लकवा मार गया था.
मेरे दादा ऐसे इंसान थे, जिन्होंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की. कोई कसर नहीं छोड़ी. वो दोनों औरतों का ख़याल रखते थे. दादाजी ने दोनों बीवियों के लिए पूरा इंतज़ाम किया था.
ख़ामोशी का वो क़रार तोड़ डाला
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हमारे घर के सामने मौजूद ममा का घर
मुझे पूरी बात तो नहीं मालूम. लेकिन, मैं यही यक़ीन बनाए रखना चाहूंगी कि उन्होंने किसी से नाइंसाफ़ी नहीं की.
मेरी दादी, दादा के गुज़र जाने के कुछ बरस बाद तक ज़िंदा रही थीं. वो उसी कमरे में रहती थीं, जहां दो बिस्तर जोड़ कर लगे हुए थे. वो बिस्तर ठीक वैसे ही लगे रहे थे, जैसे इस क़िस्से के आग़ाज़ के वक़्त लगा करते थे.
मेरी नज़र में, मेरी कमज़ोर सी दिखने वाली दादी असल में बड़े मज़बूत इरादों वाली और तटस्थ महिला थीं.
मेरी दादी, मेरी मां से कहा करती थीं कि मर्द तो कुत्तों जैसे होते हैं. वो अपनों के प्रति कभी वफ़ादार नहीं होते हैं. शायद यही वजह है कि मुझे बिल्लियां पसंद हैं.
मैं समझती हूं कि मैंने अपनी ये कहानी इसलिए लिखी, ताकि ख़ुद को बता सकूं कि मैं ऐसी जगह से ताल्लुक़ रखती हूं, जहां हम मोहब्बतें निभाया करते हैं. और मेरे पास एक क्रॉस भी है. बल्कि दो हैं. जिन्हें मैं अपनी उन ममा की याद में अपने पास रखती हूं. मेरे पास मदर मेरी के भी चित्र हैं और क्रिसमस पर मैं अपने अपार्टमेंट को सितारों से सजाती हूं.
मैं अपनी ममा के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो सकी थी. मैं बस ये उम्मीद करती हूं कि मेरी याददाश्त मेरा ये भरोसा बनाए रखेगी कि उन्होंने मेरी ममा की आख़िरी ख़्वाहिश का सम्मान किया होगा. मगर, याददाश्त एक बददुआ भी है. मेरी दादी का पीतल का वो डिब्बा आज भी मेरी ड्रेसिंग टेबल की शोभा बढ़ाता है, जिसमें वो पान रखा करती थीं.
मैंने धर्मनिरपेक्षता की विरासत उन्हीं से पाई है. मेरी दादी से. परिवार में और भी कई कहानियां थीं. लेकिन, ये क़िस्सा मेरी असल विरासत है. क्रिसमस का वो पेड़, ममा के चर्च जाने और केक बनाने की यादें.
ज़िंदगी के इस लंबे उतार-चढ़ाव के बावजूद न तो उन्होंने अपना नाम बदला और न ही मज़हब. फिर एक हिंदू और एक ईसाई महिला की दोस्ती और ये हक़ीक़त कि शायद उन दोनों ने एक ही इंसान से मोहब्बत की थी.
मुझे नहीं पता कि प्यार क्या होता है. लेकिन, मुझे ये ज़रूर लगता है कि इसका कोई न कोई ताल्लुक़ इज़्ज़त करने से ज़रूर है. हम ममा और उनके धर्म का सम्मान करते थे. बल्कि, हम इसका जश्न मनाते थे. बात बस इतनी सी है कि हम कभी इसकी चर्चा नहीं करते थे. लेकिन, आज मैंने ख़ामोशी का वो क़रार तोड़ डाला है. (bbc.com)