दयाशंकर मिश्र

जब हमारे सरोकार सबसे हटकर केवल स्वयं पर आकर टिक जाते हैं, तो हम अक्सर क्रोधित और बात-बात पर अपमानित महसूस करने लगते हैं। जिनका सारा ध्यान अपने पर रहता है उनके साथ यह अक्सर होता है!
एक-दूसरे से बात करते, सहमत-असहमत होते हुए हम एक-दूसरे को ऐसा बहुत कुछ कह जाते हैं, जो असल में कहना नहीं चाहते, लेकिन बहुत कुछ भीतर उमड़-घुमड़ तो रहा ही होता है। बारिश होने से पहले बादल भारी होते ही हैं। भीतर के बिना कुछ भी बाहर नहीं आता। बाहर से कितना भी प्रेम दिखाएंगे, लेकिन अगर वह भीतर बनना बंद हो गया है, तो बाहर कहां से आएगा। कारण कुछ भी हो सकते हैं। बहुत छोटी-छोटी बात पर हम एक-दूसरे से नाराज बने रहते हैं, लेकिन नाराजगी को बाहरी तल पर नहीं ले जाते। बाहर केवल उसे रखते हैं जो दिखाना होता है। घर का कचरा भी दो-चार दिन घर के भीतर रह जाए, तो परेशानी पैदा करने लगता है। फिर यह तो मन का कचरा है। अगर इसे सरलता से निकलने का रास्ता नहीं मिला, तो यह दूसरे रास्ते खोज लेता है।
गुस्से में चिल्लाना, अतीत की बातों को दोहराना, अव्यक्त को कह देना। इस बात को बताते हैं कि भीतर हम कुछ भरते गए हैं। संभव है हमारी नजर उस पर न पड़ी हो, लेकिन गया तो कुछ होगा ही। यह जो भीतर हलचल मच जाती है, उसका कारण भीतर की उठापटक में ही होता है। जब हमारे सरोकार सबसे हटकर केवल स्वयं पर आकर टिक जाते हैं, तो हम अक्सर क्रोधित और बात-बात पर अपमानित महसूस करने लगते हैं। जिनका सारा ध्यान अपने पर रहता है उनके साथ यह अक्सर होता है!
आपने सिगमंड फ्रायड का नाम सुना होगा। मन के विज्ञान को सरलता से समझाने वाले फ्रायड से एक बार किसी ने पूछा, आप इतने सारे लोगों की मानसिक बीमारियों का अध्ययन करते हैं। प्रश्नों के जवाब देते हैं। सुबह से शाम हो जाती है। इतने सारे लोगों के जटिल प्रश्नों के उत्तर देते हुए आपका दिमाग खराब नहीं होता! आप पागल नहीं हो जाते!
बुजुर्ग फ्रायड ने मुस्कराते हुए कहा, अपने पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता। अपने पर ध्यान दिए बिना पागल होना बहुत मुश्किल है। सुबह से लग जाता हूं, दूसरों की चिंता में। अपने पर ध्यान देने का अवसर नहीं मिलता।
कितनी सुंदर बात कही है, फ्रायड ने। उनकी इस बात की पुष्टि, हमें बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, आविष्कारकों, डॉक्टरों और शोधार्थियों के जीवन में भी देखने को मिलती है। अक्सर ऐसे लोग फ्रायड की तरह ही होते हैं। उनका ध्यान अपने पर नहीं, अपने काम पर होता है। जिसका ध्यान अपने पर जाएगा, वह मान-अपमान और अहंकार की पकड़ में आए बिना नहीं रह सकता। हम अपने मन को इतना कमजोर बना लेते हैं कि छोटी-छोटी बातों को अपने पर हमले के रूप में देखने लगते हैं। छोटी-छोटी असहमतियों को स्वाभिमान और ‘सेल्फ रिस्पेक्ट’ के टूटने से जोडक़र देखने लगते हैं। ऐसे समय में सबसे जरूरी यही है कि ध्यान कहां है! जब ध्यान अपने से हटकर रचनात्मकता, सृजन पर चला जाएगा, अपमान के भाव हल्के होते जाएंगे।
सुपरिचित कवि भवानीप्रसाद मिश्र की सुंदर कविता है, ‘अपमान’...
अपमान का
इतना असर
मत होने दो अपने ऊपर
सदा ही
और सबके आगे
कौन सम्मानित रहा है भू पर
मन से ज्यादा
तुम्हें कोई और नहीं जानता
उसी से पूछकर जानते रहो
उचित-अनुचित
क्या-कुछ
हो जाता है तुमसे
हाथ का काम छोडक़र
बैठ मत जाओ
ऐसे गुम-सुम से!
क्या आपके साथ भी यह होता है? अपमान असल में गुस्से, चलते हुए विचारों के परिणाम के रूप में हमारे सामने आता है। यह सोचना भी जरूरी है कि हम अक्सर अपमान की शिकायत किससे करते हैं! उनसे ही जिनके हम प्रेम में हैं। प्रेम पर कभी जरूरत से ज्यादा जोर मत दीजिए। नहीं तो, वह भी आपको निराशा की ओर ले जाएगा। हमें जीवन को ऐसी जगह ले जाना होगा, जहां वह केवल जीवन रह जाए। सुख-दुख की छाया जब जीवन पर एक जैसा असर करने लगे, तो समझिए जीवन अपने होने को उपलब्ध हो रहा है। अपमान की परतें मन को बदलापुर में बदलने का काम करती हैं। इसलिए, उनके प्रति सजग रहिए। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र