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जीवन नींद में होने से उतने संकट में नहीं है, जितना नींद का नाटक करने में है। जो नींद में है, संभव है किसी तरह जाग जाए, लेकिन जो नाटक कर रहा है, उसने तो मन के सारे दरवाजे बंद कर लिए हैं। जिसने दरवाजे बंद कर लिए वह कैसे बाहर आएगा?
हम बहुत सारी बातें जानते हैं। सुनते रहते हैं। अनसुना करते रहते हैं। यह ऐसा सिलसिला है, जो जीवनभर चलता ही रहता है। जीवन ऐसे ही गुजर जाए, जैसे किसी गहरी नींद में हम होते हैं। हमें कई बार पता भी होता है कि उठना है, जागना है, लेकिन नींद कहां टूटती है! जिंदगी की कहानी इससे कुछ अलग नहीं! जापान में बौद्ध धर्म की एक शाखा जेन परंपरा के रूप में बहुत लोकप्रिय है। जेन का सारा मामला तुरंत घटने पर है। इसी समय। बिना किसी तैयारी के। वहां जेन परंपरा के दो रूप हैं। इनमें से एक की चर्चा आज दूसरे की फिर किसी दिन। यह परंपरा है, तत्क्षण संबोधि! इसे अंग्रेजी में सडन इनलाइटनमेंट कहते हैं। भाषा को थोड़ा और सरल करें, तो इसी समय। इसी पल जो घटता है वही असल में घटता है।
इस परंपरा के एक ख्यात गुरु को एक बार जापान के सम्राट ने अपने महल में आमंत्रित किया। गुरु का आना हुआ। भव्य आसन बनाया गया उनके लिए। सम्राट उनके चरणों में बैठा। बड़ी संख्या में लोग उनके वचन सुनने के लिए तत्पर बैठे थे। गुरु जी ने थोड़ी देर इधर-उधर देखा, उसके बाद एक टेबल पर जोर से दो-चार मुक्के मारकर चले गए। उनको वहां बुलाने वाले वजीर से सम्राट नाराज हो गया। उसने कहा, ‘मैंने इतने प्रबंध किए। लेकिन यह कैसे गुरु हैं। आए और बिना कुछ कहे चले गए।’ वजीर अनुभवी था। उसने सम्राट से कहा, ‘यह उनका सबसे महत्वपूर्ण भाषण था। इतना सुंदर भाषण, तो उन्होंने कभी दिया ही नहीं।’
सम्राट का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने कहा, ‘एक टेबल पर दो-चार मुक्के मार देना और बिना कुछ कहे चले जाना। तुम इसे भाषण कह रहे हो!’ वजीर ने कहा, ‘वह ऐसे ही हैं। वह केवल हमें नींद से जगाने की कोशिश करते हैं। मैंने इन गुरु के और भी अनेक व्याख्यान सुने हैं, लेकिन इतना स्पष्ट व्याख्यान कहीं और नहीं था।’
सम्राट को कुछ बात समझ न आई। उसने कहा, ‘मैं नींद में था ही कब। मैं तो बचपन से ही जागा हुआ हूं।’ वजीर समझ गया कि अब संकट उस पर ही है। उसने कहा, ‘आप चिंतित न हों, क्योंकि मैंने इनके बहुत व्याख्यान सुने हैं, लेकिन मैं भी अभी तक जागा नहीं। आपने तो एक ही सुना है! आप पर इसका कोई प्रभाव नहीं होगा।’
सम्राट और वजीर की तरह हम भी गहरी नींद में हैं। जो चला आ रहा है उसकी खुमारी बड़ी प्रिय होती है। उससे प्रिय कुछ नहीं होता। किसी नशे की तरह हमें इसके अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। अहंकार को सबसे अधिक ऊर्जा ऐसे ही मिलती है! राजा है या रंक। वर्तमान, वैभव की आकांक्षा में हम इतने अधिक डूबे हुए हैं कि हम में कतई भी जागने की इच्छा नहीं। यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे कोई बच्चा नींद में नहीं है, लेकिन नींद में होने का नाटक कर रहा है। जो नींद में होने का नाटक कर रहा है, उसे उठाना आसान नहीं होता। हमारे मन और चेतना को इसी तरह का खाद-पानी दिया गया है, जिसमें नींद में होने का हमें गहरा अभ्यास हो चला है।
जीवन नींद में होने से उतने संकट में नहीं है, जितना नींद का नाटक करने में है। जो नींद में है, संभव है किसी तरह जाग जाए, लेकिन जो नाटक कर रहा है, उसने तो मन के सारे दरवाजे बंद कर लिए हैं। जिसने दरवाजे बंद कर लिए, वह कैसे बाहर आएगा?
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं और क्या कर रहे हैं। सारा अंतर इस बात से पड़ता है कि जीवन के प्रति दृष्टि कैसी है। सुख-दुख को लेकर हम कितने सहज हैं। जीवन हमारे कुछ होने से अधिक हमारी जीवन आस्था और ऊर्जा से शक्ति लेता है। कोशिश करें जीवन के अर्थ को उपलब्ध होने की और अपनी बनी हुई दुनिया से बाहर निकलकर जीवन को समझने की। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
- श्रवण गर्ग
हरिवंश नारायण सिंह के ‘सभापतित्व ‘में राज्यसभा का कुछ ऐसा इतिहास रच गया है कि पत्रकारिता और सत्ता की राजनीति के बीच के घालमेल को लेकर पीछे मुडक़र देखने की ज़रूरत पड़ गई है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू की अध्यक्षता में गठित प्रेस काउन्सिल ऑफ इंडिया का एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से नामांकित मैं भी एक सदस्य था। बात अब लगभग दस साल पुरानी होने को आयी। जस्टिस काटजू मीडिया की आज़ादी को लेकर तब बहुत ही आक्रामक तरीक़े से काम कर रहे थे। इस सम्बंध में कई राज्यों से शिकायतें आ रहीं थीं। बिहार में मीडिया पर नीतीश सरकार के दबाव को लेकर प्राप्त शिकायतों के बाद एक समिति का गठन कर उसे बिहार भेजा गया और एक रिपोर्ट तैयार होकर काउन्सिल के समक्ष प्रस्तुत की गई। कि़स्सा इतना भर ही नहीं है !
वे तमाम लोग जो नीतिपरक (एथिकल ) पत्रकारिता की मौत और चैनलों द्वारा परोसी जा रही नशीली खबरों को लेकर अपने छाती-माथे कूट रहे हैं, उन्हें हाल में दूसरी बार राज्यसभा के उपसभापति चुने गए खाँटी सम्पादक-पत्रकार हरिवंश नारायण सिंह को लेकर मीडिया में चल रही चर्चाओं पर नजऱ डालने के बाद अपनी चिंताओं में संशोधन कर लेने चाहिए। वैसे यह बहस अब पुरानी पड़ चुकी है कि कैसे उस ‘काले’ रविवार (बीस सितम्बर) को लोकतंत्र की उम्मीदों का पूरी तरह से तिरस्कार करते हुए देश के कोई करोड़ों किसानों और खेतिहर मज़दूरों को सडक़ों पर उतरने के लिए मज़बूर कर दिया गया।
यह आलेख मूलत: उन सुधी पाठकों के लिए है, जो पत्रकारिता और राजनीति के बीच गहरी होती जा रही साठगाँठ को अंदर से समझना चाहते हैं। बिहार की वर्तमान राजनीति के महत्वाकांक्षी नायक नीतीश कुमार के आधिपत्य वाली जद (यू ) की ओर से वर्ष 2014 में राज्यसभा में पहुँचने के पहले तक हरिवंश नारायण सिंह की उपलब्धियाँ एक निर्भीक और वैचारिक रूप से पारदर्शी समाजवादी पत्रकार की रही हैं। मेरा भी उनके साथ कोई दो दशकों से इसी रूप में परिचय रहा है। उनके साथ पत्रकारों के दल में एक-दो विदेश यात्राएँ भी की हैं। उनके अख़बार ‘प्रभात खबर’ के एक बड़े समारोह में पत्रकारिता पर बोलने के लिए राँची भी गया हूँ और उसके लिए लिखता भी रहा हूँ। पर हाल में काफ़ी कुछ हो जाने के बाद भी उन्हें लेकर पुरानी छबि में अभी पूरी दरार क़ायम नहीं हुई है। एक-दो झटके और ज़रूरी पड़ेंगे।
पिछले रविवार को हरिवंश के ‘सभापतित्व’ में राज्यसभा में जो कुछ हुआ उसे लेकर दो-तीन सवाल इन दिनों मीडिया की चर्चाओं में हैं। पहला तो यह कि एक पत्रकार के रूप में क़ायम अपनी छबि के अनुसार हरिवंश अगर अपने अख़बार के लिए उस दिन के ऐसे ही घटनाक्रम की रिपोर्टिंग कर रहे होते और ‘सभापति’ की कुर्सी पर कोई और बैठा हुआ होता तो वे क्या कुछ लिखना चाहते ? दूसरा सवाल यह कि अगर ऐसे ही किसी और (महत्वाकांक्षी) पत्रकार को राजनीति में इसी तरह से नायक बनकर उभरने के अवसर प्राप्त हो जाएँ तो पाठकों को उससे अब किस तरह की उम्मीदें रखी जानी चाहिए ? तीसरा यह कि कुर्सी पर उस दिन एक पत्रकार की आत्मा के बजाय किसी अनुभवी राजनीतिक व्यक्तित्व का शरीर उपस्थित होता तो क्या वह भी इतने ज़बरदस्त हो-हल्ले के बीच इतने ही शांत भाव और ‘कोल्ड ब्लडेड’ तरीक़े से कागज़़ों में गर्दन समेटे ध्वनिमत से सबकुछ सम्पन्न कर देते या फिर जो सांसद मत विभाजन की माँग कर रहे थे, उनकी ओर भी नजऱें घुमाकर देखते ? इस बहस में जाने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है कि मत विभाजन (वोटिंग) अगर हो जाता तो ‘विवादास्पद’ कृषि विधेयकों और सरकार की स्थिति क्या बनती ? क्या एक पत्रकार दिमाग़ की शांत सूझबूझ से स्थिति सरकार के पक्ष में नहीं हो गई ?
हरिवंश नारायण सिंह के ‘सभापतित्व ‘में राज्यसभा का कुछ ऐसा इतिहास रच गया है कि पत्रकारिता और सत्ता की राजनीति के बीच के घालमेल को लेकर पीछे मुडक़र देखने की ज़रूरत पड़ गई है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू की अध्यक्षता में गठित प्रेस काउन्सिल ऑफ इंडिया का एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से नामांकित मैं भी एक सदस्य था। बात अब लगभग दस साल पुरानी होने को आयी।जस्टिस काटजू मीडिया की आज़ादी को लेकर तब बहुत ही आक्रामक तरीक़े से काम कर रहे थे। इस सम्बंध में कई राज्यों से शिकायतें आ रहीं थीं। बिहार में मीडिया पर नीतीश सरकार के दबाव को लेकर प्राप्त शिकायतों के बाद एक समिति का गठन कर उसे बिहार भेजा गया और एक रिपोर्ट तैयार होकर काउन्सिल के समक्ष प्रस्तुत की गई। कि़स्सा इतना भर ही नहीं है !
कि़स्सा यह है कि प्रेस काउन्सिल की समिति द्वारा तैयार की गई तथ्यपरक रिपोर्ट को चुनौती तब प्रभात खबर के सम्पादक हरिवंश नारायण सिंह द्वारा दी गई। काउन्सिल के सदस्यों को आश्चर्य हुआ कि रिपोर्ट को एकतरफ़ा और मनगढ़ंत नीतीश सरकार नहीं, बल्कि एक प्रतिष्ठित पत्रकार करार दे रहा है। हरिवंश ने रिपोर्ट के खिलाफ़ अख़बार में बड़ा आलेख लिखा और उसके निष्कर्षों को झूठा करार दिया। वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री द्वारा घोषित की गई नोटबंदी के समर्थन में जिन कुछ पत्रकारों ने प्रमुखता से आलेख लिखे उनमें हरिवंश भी थे। इसके साल भर के बाद तो जद(यू)-भाजपा की आत्माएँ मिलकर एक हो गईं और उसके एक साल बाद हरिवंश राज्यसभा में उप-सभापति बन गए।
राज्यसभा में जो कुछ हुआ उसका क्लायमेक्स यह है कि हरिवंश सोमवार सुबह धरने पर बैठे आठ निलम्बित सांसदों के लिए चाय-पोहे लेकर पहुँच गए जिसका कि उन्होंने (सांसदों ने )उपयोग नहीं किया । उसके अगले दिन हरिवंश ने राष्ट्रपति के नाम एक मार्मिक पत्र लिखकर स्थापित कर दिया कि वास्तव में तो पीडि़त वे हैं और अपनी पीड़ा में एक दिन का उपवास कर रहे हैं।प्रधानमंत्री ने न सिफऱ् हरिवंश के निलम्बित सांसदों के लिए चाय ले जाने की ट्वीटर पर तारीफ़ की ,उनके द्वारा राष्ट्रपति को लिखे पत्र को भी जनता के लिए ट्वीटर पर जारी करके बताया कि कैसे उसके(पत्र के) एक-एक शब्द ने लोकतंत्र के प्रति ‘हमारे विश्वास को नया अर्थ दिया है।’ समूचे घटनाक्रम के ज़रिए अब जो कुछ भी प्राप्त हुआ है उसे हम एक ऐतिहासिक दस्तावेज मानकर पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों के लिए उपयोग में ला सकते हैं।
हरिवंश राजनीतिक रूप से तीन लोगों के काफ़ी कऱीब रहे हैं और उसके कारण उन्हें कभी पीछे मुडक़र नहीं देखना पड़ा ये हैं : चंद्र शेखर, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी। तीनों के ही व्यक्तित्व, स्वभाव और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ लगभग एक जैसी रही हैं।अत: असीमित सम्भावनाएँ व्यक्त की जा सकती हैं कि अपनी शांत प्रकृति, प्रत्यक्ष विनम्र छबि और तत्कालीन राजनीति की जरूरतों पर ज़बरदस्त पकड़ के चलते हरिवंश आने वाले समय में काफ़ी ऊँचाइयों पर पहुँचेंगे। सोचना तो अब केवल उन पत्रकारों को है जो फि़लहाल तो जनता की रिपोर्टिंग कर रहे हैं, पर कभी सत्ता की रिपोर्टिंग के भी आमंत्रण मिलें तो उन्हें क्या निर्णय करना चाहिए !
दुख का सामना करने की हमारी कोई तैयारी नहीं। काश! जीवन को हमने शिक्षा से इतना अलग न किया होता। अगर हममें तनाव, दुख सहने, संभालने की शक्ति नहीं, तो हमें ऐसी शिक्षा, समाज को बदलने के लिए तैयार होना होगा!
कोरोना वायरस के हमारे सामाजिक-आर्थिक जीवन पर जो प्रभाव पड़ रहे हैं, उनका ठीक-ठीक अध्ययन होना बाकी है, लेकिन इतना तो स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि दुख का सामना करने की हमारी कोई तैयारी नहीं। काश! जीवन को हमने शिक्षा से इतना अलग न किया होता। अगर हममें तनाव, दुख सहने, संभालने की शक्ति नहीं, तो हमें ऐसी शिक्षा, समाज को बदलने के लिए तैयार होना होगा! कोरोना वायरस के कारण हमारी आर्थिक स्थिति पर निश्चित रूप से प्रभाव पड़ रहा है। बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिन पर इसकी छाया पडऩी शुरू हो गई है। व्यापार, नौकरी सबमें कटौती की तलवार लटक रही है। जीवन संवाद को नियमित रूप से ई-मेल और संदेश मिल रहे हैं। जीवन से जुड़े सभी प्रश्नों पर आपके प्रिय कॉलम में नियमित रूप से चर्चा होती रहती है। दुख के बारे में भी हमने बहुत विस्तार से बात की है।
आज दुख पर चर्चा करने का एक बड़ा कारण कोरोना वायरस का हमारे ऊपर पडऩे वाला मानसिक प्रभाव है। हमें इस बात को समझना होगा कि केवल हम ही परेशान नहीं। केवल हमीं दुखी नहीं हैं। पूरी दुनिया पर दुख की छाया है। इस दुख को सहना तब और अधिक मुश्किल हो जाता है जब हम यह मान लेते हैं कि ऐसा केवल मेरे साथ ही हो रहा है। इस बारे में मेरा सुझाव है कि अगर हम इन दो बातों को मन में बैठा लें, तो हमारे बहुत से संकट सुलझ सकते हैं! सबसे जरूरी और पहली बात। यह केवल आपके साथ नहीं हो रहा। कोरोना के कारण करोड़ों लोगों के जीवन में उथल-पुथल है। सब अपने-अपने तरीके से इस संकट से निकलने की कोशिश कर रहे हैं। कोई भी संकट कितना भी गहरा क्यों न हो, बहुत देर तक हमारे साथ नहीं रहता, इसलिए जीवन की आस्था को मजबूत कीजिए। जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण और नजरिए को ठोस और गहरा बनाइए।
दूसरी बात। मैं ही क्यों! मैंने कभी किसी का बुरा नहीं किया! पति के साथ दूसरे शहर में विस्थापित होने के लिए विवश हुई एक युवा कारोबारी की पत्नी ने आंखों में आंसू लिए हुए मुझसे पूछा। मैंने उनके पति की आंखों में देखते हुए कहा, ‘क्या आपने इनके साथ केवल सुख का वादा किया है?’ पत्नी ने तुरंत उत्तर दिया, ‘मैं हर दुख में इनके साथ हूं।’ मैंने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘आप हर दुख में अगर साथ हैं, तो इन शब्दों को अपने जीवन में उतार लीजिए- जीवन बहुत बड़ी संभावना है। यात्रा है। हम परिवार के साथ केवल सुख के लिए नहीं हैं। दुख की तैयारी जीवन में वैज्ञानिकता का प्रमाण है। अगर हम इसके लिए तैयार रहें, तो अवसाद, तनाव और? भीतर की व्याकुलता से सहज दूर रहेंगे। दुख सहने का बोध जीवन की यात्रा में हमारे मन का सबसे बड़ा साथी है!’
एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। गुरु नानक का काफिला एक बार एक गांव के बाहर रुका, तो उनकी शिक्षा से असहमत गांव के कुछ लोगों ने उनको वहां से जाने के लिए विवश किया। स्वागत-सत्कार तो बहुत दूर की बात है। उनके शिष्य ने पूछा, ‘इनके लिए क्या कहेंगे।’ नानक ने आसमान की ओर देखते हुए कहा, ‘इनको मेरा आशीर्वाद है कि यह सदा यही रहें। यहीं बस जाएं और फले फूलें।’
जल्द ही दूसरे गांव के बाहर उनका गहरी आत्मीयता और प्रेम के साथ सत्कार किया गया। ऐसा स्वागत जिसमें प्रेम ही प्रेम टपक रहा था। आनंदित थे, लोग वहां अपने बीच नानक को पाकर! वहां से जाते हुए भी जब उसी शिष्य ने पूछा, ‘इनके लिए क्या आशीर्वाद है।’ नानक ने अपने करुणामयी स्वर में कहा, ‘यह लोग जल्द ही बिखर जाएंगे। गांव का हर व्यक्ति अलग-अलग दिशा में चला जाएगा।’
शिष्य को बात समझ में नहीं आई। उसने कहा, ‘जिन्होंने कष्ट दिया वह वहीं रहें। जिनके मन में प्रेम है वह बिखर जाएं। मुझे यह बात समझ नहीं आ रही’। नानक ने समझाया, ‘अगर ऐसे लोग दुनिया में फैल गए, जो दूसरों को कष्ट देते हैं, तो यह खूबसूरत दुनिया नष्ट हो जाएगी, लेकिन इस दुनिया को खतरा तब भी है, जब सारे प्रेम और करुणा में डूबे लोग एक ही जगह बस जाएं।’
जीवन में आस्था, सबसे बड़ा मानवीय गुण है। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि मैंने जो कुछ सीखा जीवन में, ऐसे लोगों से ही सीखा है जो लगातार संघर्ष करते रहे। लेकिन उनके मन में कभी जीवन के प्रति कठोरता नहीं आई। जीवन के प्रति निराशा नहीं आई। यह जो संकट आया है, जाने के लिए ही आया है। कहना निश्चित रूप से सरल है और इसे भोगना उतना ही अधिक कष्टदायक। लेकिन जीवन की आस्था इसे जीने में ही है। जीवन की शुभकामना सहित... (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
हमें मन के उस कोने की खोज करनी है, जो हमारी पूरी शक्ति का सबसे बड़ा केंद्र है। उसके बाद पूरी सजगता से उसे संभालना है। जीवन के लिए गति जरूरी है, लेकिन ठहराव उससे भी जरूरी है!
अपने लिए हम क्या करते हैं। कुछ ऐसा जिसका संबंध विशुद्ध रूप से हमारे भीतर से हो। कुछ होने या न होने से नहीं। ऐसी कोई एक गतिविधि जो हमें आत्मिक आनंद से भर दे। ऐसा कुछ जिससे मन पूरी तरह झूम उठे। जीवन से जुड़ी हमारी अधिकांश शिक्षाएं अब केवल डायरी और किताबों में ही मिलेंगी, क्योंकि हमने सबकुछ पाने की आशा में अपने जीवन का बहुत जरूरी हिस्सा विश्राम खो दिया है। आनंद खो दिया है, क्योंकि सबकुछ नतीजे पर केंद्रित हो गया! ऐसा करने से क्या हासिल होगा! किसलिए! किसलिए! किसलिए!
हमने अपने दिमाग को कुछ इस तरह से प्रशिक्षित किया है कि वह केवल यही दोहराता रहता है कि इस काम का हासिल क्या है। जीवन में श्रेष्ठता की ओर यात्रा अच्छा विचार है, लेकिन कोई भी रास्ता अगर दुनिया के दूसरे रास्ते से कट जाता है, तो वह अंतत: अकेला ही हो जाता है। ऐसा रास्ता, हमें केवल भटकाता है! कहीं पहुंचाता नहीं। कहीं पहुंचने के लिए दिमाग का ठीक तरह से समावेशी होना जरूरी है। उसका टुकड़े में बंटा होना, हमारे जीवन के लिए अच्छा नहीं है। पिछले कुछ दिनों में लखनऊ और पटना से दो युवा उद्योगपतियों से संवाद हुआ। दोनों ही तनाव को ठीक से नहीं संभाल पा रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य हो सकता है कि दोनों का ही संकट आर्थिक नहीं है। हां, इस संकट के कारण अवश्य उनकी पूरी अर्थव्यवस्था मुश्किल में पड़ गई है।
दोनों के व्यक्तित्व में सबसे बड़ी समस्या उनका पूरी तरह से पूर्ण होना है। इतने पूर्णता से भरे हुए हैं कि प्रेम, स्नेह के लिए कोई जगह ही नहीं। परिवार, पत्नी और बच्चों के साथ होते हुए भी दूर हैं। जीवन संवाद में हम इस बात पर सबसे अधिक जोर देते आए हैं कि धन में इतनी शक्ति जरूर है कि वह हमारी सुविधाएं बढ़ा दे। कुछ कष्ट कम कर दे, लेकिन वह हमें सुखी करने के लिए पर्याप्त रूप से शक्तिशाली नहीं है। हमने महत्वाकांक्षाओं के चक्कर में धन को बहुत अधिक शक्तिशाली समझ लिया। सुख, मन के शांत और समभाव होने से उपजा भाव है। इतना दुर्लभ कि किसी से भी पूछ लीजिए कि वह सुखी है, तो वह घबरा जाता है। सुख की बात सुनकर घबराने वाला मन सुखी कैसे होगा! ऐसे प्रश्न के उत्तर में संभव है, कुछ यह कह दें कि वह तो सुखी हैं, लेकिन तुरंत ही संभाल लेंगे कि अगर यह हो जाता, तो मैं सुखी हो जाता। मेरा सुख अभी यहां अटका हुआ है!
जीवन में अतृप्ति का यह अभाव ही हमारे संकट का सबसे बड़ा कारण है। खुद से दूरी का सबसे बड़ा कारण यही है। जब हम खुद को हमेशा स्वयं से ही घेरे रहेंगे तो धीरे-धीरे हम अपने आसपास से आने वाली ऊर्जा, ताजे विचार और प्रेम से खुद को वंचित करते जाएंगे! अपने को केवल ऐसी चीजों से व्यस्त रखना जिनसे नौकरी/कारोबार/आजीविका चलती हो, वास्तव में एक ऐसी कोठरी में बंद कर लेना है, जहां पर केवल चारों ओर आप ही की तस्वीर लगी हो। ऐसा व्यक्ति धीरे-धीरे समाज और दुनिया से दूर खिसकता जाता है!
इसलिए बहुत जरूरी है कि हम अपने को वक्त दें। स्वयं को कुछ ऐसी चीजों से जोड़ें, जो हमारे आंतरिक मन को ऊर्जा, आनंद से भर सकें। सबके लिए यह काम अलग-अलग हैं। हमें मन के उस कोने की खोज करनी है, जो हमारी पूरी शक्ति का सबसे बड़ा केंद्र है। उसके बाद पूरी सजगता से उसे संभालना है। जीवन के लिए गति जरूरी है, लेकिन ठहराव उससे भी जरूरी है! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
हमारी विचार प्रक्रिया के हिसाब से केवल हम ही निर्दोष हैं। सारी दुनिया हमें सता रही है। केवल हम ही सबसे भले हैं। अपने प्रति यह अतिरिक्त उदारता, भावुकता ही हमें दूसरों के प्रति कठोरता प्रदान करती है।
हम आजीविका के लिए जरूरी साक्षरता पर इतना अधिक जोर देते गए कि धीरे-धीरे हमारे भीतर शिक्षा के मूल्य, नैतिकता के बोध पीछे छूटते चले गए। जीवन के प्रति समझ कमजोर होती गई। एक-दूसरे को हम चुनौती मानने में इतने अधिक व्यस्त हो गए कि सहज प्रेम की डोर उलझने लगी। जिन मूल्यों के सहारे हम मजबूती से कठिनतम समय में भी टिके रहते थे, अब उनके सहारे एक दिन कटना भी मुश्किल हो जाता है! हमेशा जीवन को अपने ही दृष्टिकोण से समझने के प्रयास में रहते हैं। अपने नजरिए को ही अपनी नजर बना लेते हैं, जबकि जीवन एकतरफा नहीं। हम जीवन नदी के तट पर भी समन्वय को नहीं आने देते। नाव में साथ सफर की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है! दूसरे की जगह खड़े होकर देखने की कोशिश कीजिए, जीवन के उत्तर स्वयं मिलने लगेंगे!
महात्मा बुद्ध से जुड़ा संवाद आपसे साझा करता हूं। संभव है, इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो पाएगी। बुद्ध सुबह प्रार्थना करते, तो रोज वह क्षमा मांगते, संसार से। एक दिन आनंद ने उनसे पूछा, ‘आप तो किसी को कष्ट देते नहीं, फिर किस बात की क्षमा! आप तो किसी को चोट भी नहीं पहुंचाते। फिर किस बात की माफी मांगते हैं’। बुद्ध ने बड़ी सुंदर बात कही। वह कहते हैं, ‘मुझे अपने अज्ञान के दिनों की याद है। कोई मुझे चोट नहीं भी पहुंचाता था, तो भी पहुंच जाती थी। आज जब मैं इस बात से परिचित हूं कि हर तरफ अज्ञान के समूह हैं। इन समूहों को मेरे बिना पहुंचाए भी अनेक बार मेरी बातों से चोट पहुंच रही होगी। फिर मैंने पहुंचाई या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनको तो तकलीफ पहुंच रही होगी। मैं उसी तकलीफ की क्षमा चाहता हूं’!
आनंद ने कहा, ‘चोट उन्हें भले पहुंच रही हो, लेकिन पहुंचाने वाले तो आप नहीं हैं’! बुद्ध ने फिर बात दोहराई, ‘निमित्त तो मैं ही हूं! अगर मैं न रहूं, तो मुझसे चोट नहीं पहुंचेगी। मेरा होना ही काफी है। इसलिए मैं क्षमा मांगता रहूंगा। यह क्षमा किसी किए गए अपराध के लिए नहीं, बल्कि हो गए अपराध के लिए है। और हो गए अपराध में मेरा कोई योगदान न हो, उसके लिए भी है’!
महात्मा बुद्ध के उलट हमारी विचार प्रक्रिया के हिसााब से केवल हम ही निर्दोष हैं। सारी दुनिया हमें सता रही है। केवल हम ही सबसे भले हैं। अपने प्रति यह अतिरिक्त उदारता, भावुकता ही हमें दूसरों के प्रति कठोरता प्रदान करती है। जीवन के प्रति अपनी दृष्टि को बदले बिना हमारा बदलना संभव नहीं। केवल कपड़े बदल लेने से हम नहीं बदल जाते। हां, नए और सुंदर कपड़ों से संभव है दुनिया को हम कुछ और नजर आने लगें, लेकिन जिस तरह हमारे माता-पिता हमें पहचानने में गलती नहीं करेंगे, ठीक उसी तरह हमारा मन कपड़ों से नहीं बदलता। हां, शरीर की भाषा बदल सकती है। संभव है दूसरों का हमारे प्रति व्यवहार बदल जाए, लेकिन इन सबसे हम खुद को बहुत अधिक नहीं संभाल सकते।
असली बात तो वही है जो भीतर है। अपने भीतर को सहेजना सबसे जरूरी है। हमारे जीवन में सबसे अधिक संकट इससे ही आते हैं कि हम खुद को हमेशा, दुखी, पीडि़त और संघर्षशील बताते रहते हैं। बताते हुए मानने लगते हैं, जबकि अपने अतिरिक्त सबको दोषी, अपराधी, अन्यायपूर्ण साबित करने में जुटे रहते हैं। इसे बंद करना होगा। हम दूसरों को समझने की जितनी अधिक कोशिश करेंगे, हमारे भीतर करुणा और कोमलता उतनी ही बढ़ती जाएगी। वहां से जो सुंदर, सुलझी और सुगंधित शांति जीवन में प्रवेश करेगी, वह उन सभी संकटों को संभालने में सक्षम होगी जिनके कारण अभी हमको अनावश्यक संघर्ष करना होता है। इस अनावश्यक मानसिक संघर्ष से जीवन की आस्था और ऊर्जा का बहुत नुकसान होता है! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
क्षमा तो ऐसे मांगी जाती है, जैसे खूब प्यासे होने पर किसी पानी पिलाने वाले के प्रति गहरी श्रद्धा/स्नेह हो मन में! क्षमा जब तक मन में उतरकर नहीं मांगी जाएगी, अतीत का मैल सरलता से साफ नहीं होगा!
हम अक्सर एक-दूसरे की कमजोर कड़ी खोजते रहते हैं। कमियों/ गलतियों को मन की तिजोरी में संभाले रखते हैं। कितने निर्मम होते जा रहे हैं हम! अतीत की गली में हम एक-दूसरे को लेकर जितना जाएंगे, जीवन को उतनी ही बेचैनी मिलेगी। जीवन संवाद को देश के अलग-अलग हिस्सों से पाठकों की ईमेल और संदेश मिलते रहते हैं। इनमें हम पति-पत्नी/ दांपत्य जीवन के प्रश्नों पर विचार करने पर पाते हैं कि आज के सुख से अधिक हमारा ध्यान उन कमियों/गलतियों पर अधिक रहता है जो जाने अनजाने घटित होती रहीं।
आज से दस बरस पहले दो लोगों के बीच जो कुछ भी हुआ हो उसे हमेशा आज की नजर से देखने पर दुख ही मिलेगा। हम सभी जिस रिश्ते में भी हों समय के साथ एक-दूसरे के प्रति समझ बेहतर होती है। ऐसे में बीते समय में क्या हुआ, उस पर हमारा दृष्टिकोण कैसा रहा, केवल इन बातों को ही दोहराना जीवन के पांव को जंजीरों से बांधने जैसा है।
रांची से धर्मेंद्र झा ने लिखते हैं, ‘कुछ वर्षों पहले तक उनके घर में सबसे अधिक बहस इस बात पर होती थी कि कैसे अनेक अवसरों पर कभी उनकी पत्नी का ससुराल में अपमान हुआ, तो कब-कब पत्नी के मायके में धर्मेंद्र जी को ठीक से सम्मान नहीं मिला।’
धर्मेंद्र कहते हैं कि ‘जीवन संवाद’ ने करुणा, प्रेम और स्नेह के प्रति जागरूक करने में मदद की। जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को बदला! हम उनकी ईमानदार प्रतिक्रिया का सम्मान करते हैं। सामने आकर ऐसा कहने के लिए भीतर जीवन के प्रति गहरी आस्था और समझ का होना बहुत जरूरी है!
भारत में अक्सर रिश्ते अतीत की गलियों में टहलते हुए कमजोर होते रहते हैं। हर छोटी-छोटी बात में अपने अहंकार को ले आना, हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता जा रहा है।
कभी-कभी तो यह लगता है कि हम इस प्रतीक्षा में ही रहते हैं कि कैसे कुछ ऐसा घटे, जिससे सामने वाले के अहंकार पर चोट की जा सके। हमें उसके अहंकार की इतनी चिंता नहीं, जितनी असल में अपने अहंकार की है। हमारा अहंकार इस बात से ही खाद-पानी पाता है कि कैसे हम अपने तर्कों से सामने वाले (जो हमारा ही है। पति/पत्नी/भाई/ बहन/पड़ोसी/रिश्तेदार) को उसकी गलती का अहसास करा दें। ? इसे ही जीवन संवाद में हम ‘दुखी करने की आदत कहते हैं’।
बीस/दस/पांच साल पहले जो भी घटा था, उसे पकड़े रहने से कुछ नहीं मिलेगा। अगर कुछ मिलेगा तो वह केवल मन/आत्मा के लिए अहितकारी ही होगा। उससे कुछ अमृत नहीं निकलने वाला।
जब शाम होने को आती है, तो हम इस बात में नहीं उलझते कि घर में कल किसने रोशनी की थी। हमारा ध्यान तो केवल इस पर रहता है कि कोई उठकर आज दीया जला दे। जिस रूप में भी उजाला उपलब्ध है, उस उजाले तक हमें पहुंचा दे। फिर छोटी मोटी बातों पर अतीत की यात्राओं के लिए मन में इतनी व्याकुलता किसलिए!
एक छोटा-सा उपाय आपसे कहता हूं । जब कभी, किसी से भी संवाद में हों, मन अतीत को जाने लगे तो केवल इतना कहिए, आज नहीं कल! इससे भी बात न बने, तो बिना उलझे केवल क्षमा मांगिए। क्षमा से मैल धुलता है, मन का! लेकिन क्षमा ऐसे मत मांगिए, जैसे कोई एहसान किया जा रहा हो। क्षमा तो ऐसे मांगी जाती है, जैसे खूब प्यासे होने पर किसी पानी पिलाने वाले के प्रति गहरी श्रद्धा /स्नेह हो मन में! क्षमा जब तक मन में उतरकर नहीं मांगी जाएगी, अतीत का मैल सरलता से साफ नहीं होगा! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
सहज जिज्ञासा है कि लोग पूछ रहे हैं- ‘अब क्या करना चाहिए?’ एक विशाल देश और उसके एक दूसरे से लगातार अलग किए जा रहे नागरिक जिस मुकाम पर आज खड़े हैं, वे जानना चाह रहे हैं कि उन्हें अब किस दिशा में आगे बढऩा चाहिए? आम आदमी की साँसों को प्रभावित करने वाला ऐसा कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जिसमें अभावों के साथ-साथ बाकी सभी चीजें भी अपने निम्नतम स्तरों पर नहीं पहुँच गई हों। होड़ मची हुई है कि कौन ज़्यादा नीचे गिर सकता है। संविधान निर्माता सात दशक पहले के काल में वर्तमान परिदृश्य की कल्पना नहीं कर पाए होंगे वरना वे कुछ तो लिखकर अवश्य जाते।
हमने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया कि हमारे आसपास की चीज़ें कितनी तेजी से फास्ट-फ़ॉरवर्ड हो रही हैं और पलक झपकते ही पुरानी के स्थान पर नई आकृतियाँ प्रकट हो रही हैं। केवल एक उदाहरण ले लें क्या हमने नोटिस किया कि मॉब-लिंचिंग जैसी घटनाएँ अचानक बंद हो गई हैं, जैसे किसी ने स्विच ऑफ करके ऐसा न करने का फरमान जारी कर दिया हो। इसका यह मतलब कतई नहीं कि वे तत्व जो इस तरह की कार्रवाईयों में जुटे थे, उनका कोई हृदय परिवर्तन हो गया है और वे एक नेक इंसान बन गए हैं। न ही कुछ ऐसा हुआ है कि जो घटनाएँ अतीत में घट चुकी हैं, उनके दोषियों को पर्याप्त सजाएँ और पीडि़त परिवारों को न्याय और राहत नसीब हो चुकी है।
लोग तकलीफ के साथ महसूस कर रहे हैं कि इस समय जो कुछ चल रहा है, वह और भी ज़्यादा डराने वाला है। ऐसा इसलिए कि इस नए खेल में जो हिस्सा ले रहे हैं, उनका संबंध समाज के सम्पन्न लोगों की जमात से है। असीमित सम्पन्नता के बोझ से जन्मा यह नया उग्रवाद मॉब लिंचिंग या धार्मिक आतंकवाद के मुकाबले ज्यादा खतरनाक इसलिए है कि इसे स्थानीय सत्ताओं का राजनीतिक संरक्षण और प्रश्रय प्राप्त है। इसे राजनीति ने सत्ता की जरूरत का नया हथियार बना लिया है। इसका भयभीत करने वाला चेहरा एक ही देश के भीतर कई देशों का विकसित हो जाना है। इस खेल में उन अस्सी करोड़ लोगों की कोई भागीदारी नहीं है, जिन्हें राशन की कतारों में खड़ा कर दिया गया है, जो करोड़ों की तादाद में बेरोजग़ार हैं अथवा इलाज के अभाव में अस्पतालों की सीढिय़ों पर दम तोड़ रहे हैं।
प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकानमिस्ट‘ ने पिछले दिनों रूस के सम्बन्ध में प्रकाशित अपने एक अग्रलेख में कहा है कि लोगों का पेट जैसे-जैसे तंग होने लगता है, सरकारों के पास उन्हें देने के लिए राष्ट्रवाद और विषाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। अग्रलेख में यह भी कहा गया है कि जो सरकारें अपनी जनता के ख़िलाफ़ भय का इस्तेमाल करके शासन करती हैं, वे अंतत: खुद भी भय में ही रहने लगती हैं। लगभग पच्चीस करोड़ की आबादी वाले उत्तरप्रदेश में इस समय जो चल रहा है वह बताता है और इशारा भी करता है कि आपातकाल लगाने के लिए अब किसी औपचारिक घोषणा की जरूरत नहीं रहेगी।
उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा जारी एक अधिसूचना के अनुसार अब राज्य के किसी भी व्यक्ति को बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति और वारंट के गिरफ़्तार किया जा सकेगा। बिना सरकार की इजाज़त के कोर्ट भी ऐसी कार्रवाई करने वाले किसी अधिकारी के खिलाफ संज्ञान नहीं ले सकेगा। माना जा सकता है कि आगे या पीछे और सरकारें भी उत्तर प्रदेश से प्रेरणा ले सकती हैं। क्योंकि जो चिंताएँ देश की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य की हो सकती हैं, वे और प्रदेशों की भी तो हो सकती हैं। सवाल यह है कि उत्तरप्रदेश की इस ‘व्यवस्था’ को नागरिकों के सशक्तीकरण की दिशा में उठाया गया कदम माना जाए या फिर किसी अन्य आशंका और अज्ञात भय की दृष्टि से देखा जाना चाहिए ?
मेरे पिछले आलेख (‘कोरोना पर भारी पड़ गई कंगना’) को लेकर कई मित्रों की जो अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं हैं, उनमें केवल दो का उल्लेख करना चाहूँगा। दोनों के सवाल एक जैसे ही हैं।ग्वालियर के कवि-मित्र पवन करण ने कहा-‘दुखद है। क्या किया जाए!’ और शिवपुरी के डॉ. महेंद्र अग्रवाल की प्रतिक्रिया है कि सही कहा, पर क्या होगा ?’ सवाल जायज़ हैं और हरेक व्यक्ति जानना भी चाहता है कि परिस्थितियों के प्रति मन में क्षोभ हो और अहिंसक तरीकों से भी नाराजगी को ज़ाहिर करने के खिलाफ सडक़ों पर अवरोध खड़े कर दिए जाएँ तो फिर एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवेदनशील नागरिकों को क्या करना चाहिए? (हमें यह जानकर थोड़ा आश्चर्य हो सकता है कि दुनिया के कोई एक चौथाई से ज़्यादा यानी साठ देशों में इस समय नागरिक अपनी माँगों अथवा सरकारों के कामकाज के खिलाफ सडक़ों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इनमें तानाशाही हुकूमतें भी शामिल हैं। अमेरिका के तो सभी राज्यों में 25 मई के बाद से ऐसा हो रहा है।)
महात्मा गांधी ने वैसे तो अहिंसक और शांतिपूर्ण प्रतिकार के कई रास्ते बताए हैं, पर उनका पालन हमारे लिए कठिन है। दूसरा यह कि इस समय हमारे पास गांधीजी जैसा कोई व्यक्तित्व भी नहीं है। अब यह भी संभव नहीं कि केवल एक या कुछ व्यक्ति ही बोलते रहें और बाकी मौन रहें। सरकारों को सुविधाजनक लगता है कि कुछ लोग विरोध करते रहें और बाक़ी खामोशी ओढ़े रहें। इससे दुनिया में भी संदेश चला जाता है कि देश में बोलने पर कोई पाबंदी नहीं है और कहीं कुछ बदलता भी नहीं।
प्रतिष्ठापूर्ण नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करने वाली अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने शांतिपूर्ण प्रतिकारों के क्षेत्र में कई तरीके ईजाद किए हैं। ये तरीके अधिनायकवादी हुकूमतों पर भी असर डालते हैं और लोकतांत्रिक सरकारों को भी जवाब देने के लिए बाध्य करते हैं। एमनेस्टी की पहल पर कई देशों में जेलों में बंद सत्ता-विरोधी लोग रिहा हुए हैं और मौत की सजाएँ भी रद्द हुई हैं। एमनेस्टी के काम करने के कई और तरीकों में एक यह भी है कि वह नागरिकों को प्रेरित करती है कि व्यवस्थाओं के प्रति अपना प्रतिरोध व्यक्त करने के लिए वे शासन-प्रमुखों के नाम चिट्ठियां और मेल लिखें या अन्य साधनों से संदेश प्रेषित करें।
हमारे यहाँ तो सवाल उन कतिपय मीडिया संस्थानों का भी है, जो राष्ट्रीय स्तर पर अराजकता फैला रहे हैं। नागरिक चाहें तो यह काम लगातार कर सकते हैं और ऐसे सभी लोगों, संस्थाओं और शासन में बैठे जि़म्मेदार व्यक्तियों को अपने विरोध और असहमति से अवगत करा सकते हैं, जिन्होंने लोकतंत्र को एक मजाक बनाकर रख दिया है। नागरिकों में अगर किसी भी तरह का विरोध या असहमति व्यक्त करने का साहस ही नहीं बचा है तो फिर उन्हें जो कुछ चल रहा है, उसे चुपचाप स्वीकार करते रहना चाहिए। अभी ऐसा ही हो रहा है कि गिने-चुने लोग ही बोल रहे हैं और बहुसंख्या में मौन।
एक हरा-भरा पेड़ तने और पत्तियों के सहारे नहीं होता। उसकी शक्ति जड़ में होती है। हमने बचत की भारतीय जीवनशैली के उलट जाकर कर्ज से अपने को लहलहता पेड़ बनाने का प्रयास किया। इसका नतीजा यही होना है। जिसे हम अर्थव्यवस्था समझ रहे हैं उसका हमारे सुख-चैन से कोई रिश्ता नहीं।
एक छोटी-सी कहानी से संवाद शुरू करते हैं। जैन आश्रम में भूकंप आया। पूरा आश्रम कांपने लगा। कुछ कमजोर कुटिया तो गिर ही गईं। थोड़ी देर बाद भूकंप थम गया। आश्रम के सबसे वरिष्ठ साधक सामने आए और उन्होंने कहा, आज आपको यह देखने का मौका मिला होगा कि एक सच्चा जैन साधक संकटकाल में भी विचलित नहीं होता। आपने देखा कि भूकंप शुरू होते ही सब घबरा गए थे, पर मैंने आत्मनियंत्रण बिल्कुल भी नहीं खोया। मैं शांत और स्थिर भाव से सबकुछ देखता रहा। जैसा हमें सिखाया गया है, मैं इसके अनुकूल बना रहा।
मैंने ठंडे दिमाग से सोचा कि सबकी सुरक्षा के लिए क्या करना है और सभी डरे घबराए लोगों को एक साथ आश्रम के बड़े रसोई घर में ले गया, क्योंकि उसकी इमारत काफी पक्की, मजबूत है। उसके गिरने का डर नहीं था, लेकिन मैं यह स्वीकार करता हूं कि आत्मनियंत्रण के बाद भी दूसरों की चिंता में मैं थोड़े तनाव में आ गया था, इसलिए रसोई घर में पहुंचते ही मैंने एक गिलास पानी पिया। जिसकी सामान्य स्थिति में मुझे जरूरत न होती। ऐसा कहकर अपनी अभिमानपूर्ण मुस्कान के साथ उन्होंने सबके चेहरे पर नजर दौड़ाई। तभी पीछे से गुरुजी निकलकर आए और हंसने लगे।
साधक ने अपने गुरुजी से पूछा, आप हंस क्यों रहे हैं? क्या मुझसे कुछ गलती हुई? गुरुजी ने शांत भाव से उत्तर दिया, तुमने जो पिया, वह पानी नहीं सिरके से भरा गिलास था। हम घबराहट के मामले में इस साधक के बहुत नजदीक हैं। संकट में दिखाते तो ऐसे हैं जैसे भीतर कोई खलबली न हो, लेकिन पानी की जगह सिरके से भरा गिलास अक्सर पीते रहते हैं।
संकट आने पर घबराहट स्वाभाविक है। हम बस इतना कर सकते हैं कि धैर्य, सरलता, सहजता बनी रहे। घबराहट गहरे न उतरे। वह आए, लेकिन घर की दहलीज से ही गुजर जाए। भीतर प्रवेश न करने पाए। बीते दस-पंद्रह बरस में समाज में तीन चीजें बहुत तेजी से बढ़ीं। पहली, कर्ज (ईएमआई) को आसान मानना। दूसरी, हर चीज ईएमआई पर खरीदना। तीसरी, वर्तमान में रहने की जगह हर समय भविष्य के आधार पर सपने बुनना। यह सपना बुनते समय भी अपनी बचत से अधिक कर्ज की क्षमता पर भरोसा करना!
अगर आप ध्यान से देखेंगे, तो पाएंगे कि इन तीन चीजों में सबसे बड़ी भूमिका ईएमआई का सामान्य बुद्धि में सहज होते जाना है। ‘जीवन संवाद’ को कोरोनावायरस, लॉकडाउन के हमारे जीवन में आने के बाद से घबराहट, गुस्सा, गहरी चिंता और डिप्रेशन के सवाल बड़ी संख्या में मिल रहे हैं। लोग अपने भविष्य को लेकर बेचैन हो रहे हैं। जिनके सामने संकट नहीं आया है वह उसकी आशंका में अपने दिल को परेशान किए हुए हैं। दूसरी ओर जिनके सामने संकट आ गया है, वह ऐसे पेश आ रहे हैं जैसे यह संकट पहली बार आया हो। वैसे उनकी परेशानी एकदम सही है।
पिछली बार लगभग एक दशक पहले जब आर्थिक मंदी दुनियाभर में अपने पैर पसार रही थी, तो भारत में उसका मुकाबला पारिवारिक शक्ति ने किया था। बचत ने किया था। सांझा चूल्हा ने किया था। घर के बड़े-बुजुर्गों की देखरेख में संकट का सामना किया गया था। अब एक दशक में ही हमारा समाज बचत से अधिक कर्ज की ओर बढ़ गया है। हर चीज़ ईएमआई पर है। वेतन का अस्सी प्रतिशत कर्ज में लौटाने वाला सुखी कैसे हो सकता है!
एक हरा-भरा पेड़ तने और पत्तियों के सहारे नहीं होता। उसकी शक्ति जड़ में होती है। हमने बचत की भारतीय जीवनशैली के उलट जाकर कर्ज से अपने को लहलहता पेड़ बनाने का प्रयास किया। इसका नतीजा यही होना है। जिसे हम अर्थव्यवस्था समझ रहे हैं उसका हमारे सुख-चैन से कोई रिश्ता नहीं। हमारे सुख-चैन में हमारी जीवनशैली की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, इसीलिए भूटान इतना सुखी है। आनंदित है। प्रसन्नता और आनंद के मानकों पर खरा उतरता है।
जीवन सुविधा से नहीं अपने चुनाव से अपनी गति को प्राप्त होता है। मैंने सुना है लोग वहां केवल वर्तमान की छांव में रहते हैं। भूटान जीवन के स्तर को सकल राष्ट्रीय खुशी (जीएनएच) से नापता है, न कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से। सरकार का कहना है कि इसमें भौतिक और मानसिक रूप से ठीक होने के बीच संतुलन कायम किया जाता है। हमें भी अब इन रास्तों पर जाने के बारे में गंभीरता से विचार करना होगा।
-दयाशंकर मिश्र
आत्महत्या, उदासी के खयाल मन को सताएं, तो सबसे पहले अकेलेपन की दीवार तोडि़ए। बात शुरू कीजिए। मन की गिरह खोलिए। मत सोचिए आंसुओं से आपको कमजोर समझा जाएगा। यह दुनिया कोमलता, आंसू पर ही टिकी है!
संतोष, आनंद और थोड़े को बहुत समझने वाले भोपाल से आत्महत्या की खबरों का बढऩा, जीवन का गहरे संकट की ओर बढ़ जाना है। हमें समझना होगा कि बाढ़ का पानी बहुत दूर नहीं है, बस घर तक पहुंचने ही वाला है! मध्य प्रदेश के सुपरिचित पत्रकार, लेखक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति दीपक तिवारी ने मंगलवार की सुबह भोपाल में तनाव और आत्महत्या से जीवन पर उपजे संकट के बारे में सोशल मीडिया पर जरूरी टिप्पणी की है। ‘जीवन संवाद’ का उन्होंने सहृदयता और आत्मीयता से उल्लेख किया है। इसके लिए उनका आभार।
मध्य प्रदेश से छपने वाले अखबारों में भोपाल में आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को आसानी से देखा जा सकता है। मैं अपने सभी पाठकों को बताना चाहूंगा कि लगभग दस दिन पहले देर रात मुझे भोपाल से एक फोन आया था। फोन करने वाले मित्र गहरे आर्थिक संकट से घिरे हुए थे। फोन पर वह लगभग आधा घंटा रोते रहे। अपने कर्ज में फंसे व्यापार, व्यक्तिगत लेनदारों का दबाव उनके ऊपर बहुत भारी पड़ता जा रहा था। लगभग एक सप्ताह के संवाद के बाद मुझे यह कहते हुए संतोष हो रहा है कि वह तनाव, आत्महत्या के खतरे से काफी हद तक दूर हैं! अब वह रास्ते तलाशने पर ध्यान दे रहे हैं, जीवन को समाप्त करने पर नहीं!
हम सबको यह समझने की जरूरत है कि जब कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो निश्चित रूप से उसके भीतर बहुत कुछ टूट रहा होता है। वह अकेला पड़ता जाता है। संघर्ष, रास्ता तलाशने की कोशिश में। हम सब जो उसके आसपास हैं, कई बार साथ रहकर भी उसके भंवर में होने को नहीं समझ पाते।
कोरोना वायरस के हमारे जीवन में संक्रमण से पहले एक-दूसरे से मिलना इतना मुश्किल नहीं था, लेकिन उस मिलने के दौरान भी हमारी निकटता में दरार तो पड़ ही गई थी। कोरोना वायरस के हमले ने हमारी सामाजिकता, प्रेम, स्नेह को खुली चुनौती दी है।
हम इस चुनौती को स्वीकार करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते। मैं ऐसे सभी लोगों से यह बात दोहराता हूं कि जिसे हम जीकर नहीं बदल सकते, वह हमारे मरने से नहीं बदलेगा। लोग आत्महत्या का निर्णय ऐसे मोड़ पर आकर करते हैं, जहां से दूसरा उपाय दिखाई नहीं देता। बस यहीं आकर हमें अपने लोगों का खयाल रखना है। खयाल रखने का मतलब केवल सांत्वना नहीं है, बल्कि सांझा चूल्हे, संयुक्त परिवार और मिल-जुलकर एक ही रोटी के दो हिस्से कर लेना है। यह जो आर्थिक संकट आ रहा है। यकीन मानिए थोड़े समय में जाने वाला नहीं। यह रुकेगा, ठहरेगा और मनुष्यता की परीक्षा लेगा। इसलिए अपने खर्चों को ध्यान से देखिए। अपनी संचित निधि को केवल अपने लिए नहीं, उनके लिए भी बचाइए जिनके साथ आप जीवित रहना चाहते हैं!
आत्महत्या, उदासी के खयाल मन को सताएं, तो सबसे पहले अकेलेपन की दीवार तोडि़ए। बात शुरू कीजिए। मन की गिरह खोलिए। मत सोचिए आंसुओं से आपको कमजोर समझा जाएगा। यह दुनिया कोमलता, आंसू पर ही टिकी है! इसलिए, जितना संभव हो अपनों को संवाद के दायरे में लाइए। जिनको आप हर कीमत पर अपने जीवन में रखना चाहते हैं, उनसे नियमित संवाद कीजिए। कोरोनावायरस का टीका पता नहीं कब आएगा, लेकिन प्रेम का टीका तो हमारे पास ही है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
प्रेम, क्षमा, करुणा और स्नेह को दुर्लभ मत बनाइए। इनका अधिकतम उपयोग कीजिए, यह उस सुख की नींव हैं, जिसकी तमन्ना में हम जिए जा रहे हैं!
अक्सर हम यह सवाल करते रहते हैं, सबसे अच्छा कौन है! किसका व्यवहार, आचरण सबसे अच्छा है। कबीर का इस बारे में सुंदर प्रसंग है। कबीर से एक बार किसी ने पूछा, इस गांव में सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति कौन है। उत्तर मिला, वही जो तेरे पड़ोस में रहता है। पूछने वाले ने कहा, उस पर तो कभी मेरा ध्यान ही नहीं गया। वह बड़ा सीधा-सादा आदमी है। चुपचाप अपनी मस्ती में रहता है।
उसने गलत नहीं कहा था, हम सब सीधे-सच्चे लोगों पर कहां ध्यान देते हैं। हमारा ध्यान ही उन लोगों पर होता है, जो कोई न कोई गड़बड़ करते रहते हैं। पूछने वाले का पड़ोसी भी अपनी दुनिया में मग्न रहने वाला था। अगले दिन वह पड़ोसी से मिले, तो देखा उसके चेहरे पर एक अलग तरह की चमक है। उन्होंने कबीर से कहा, ‘मैं हमेशा इस आदमी की पूजा करूंगा। आज से वह मेरा गुरु हुआ’!
फिर उन्होंने कबीर से कहा, ‘बस एक और सवाल है, इस गांव का सबसे बुरा आदमी कौन है, जिससे मैं बचने की कोशिश करूं’। कबीर का जवाब पुराना वाला ही था- वही तेरा पड़ोसी! पूछने वाले का माथा चकरा गया। उसने कहा, ‘यह तो उलझन हो गई। थोड़ी रोशनी डालिए’। कबीर ने कहा, ‘मैं क्या करूं। कल जब तुमने पूछा था, तुम्हारा पड़ोसी उस समय अच्छे भाव में था। उसके भीतर प्रेम उमड़ रहा था। मनुष्यता की लहर बड़ी ऊंची थी। आज जब तुमने पूछा, तो वह एकदम उल्टे विचार में था। मैं कुछ नहीं कर सकता। यह हर पल, हर क्षण बदलता मन है। कल सुबह मैं नहीं कह सकता कि क्या हालत होगी, संभव है, तुम्हारा पड़ोसी फिर अच्छे भाव में आ जाए’!
कबीर समझाते हैं, ‘हम वही होते हैं, जो इस समय होते हैं। हमारा मन हर पल बदलता है। इसलिए अच्छे-बुरे का फैसला लंबे हिसाब-किताब से नहीं किया जा सकता। जो है, सो अभी है। जैसे हवा जो बह रही है अगले क्षण वह नहीं होगी। नदी जो बह रही है अगले ही पल में बदल जाती है। ठीक ऐसे ही हमारे विचार हमें प्रतिपल बदलते रहते हैं! अच्छे-बुरे के फेर में हम सबसे अधिक नुकसान अपना करते हैं, क्योंकि हम अपनी धारणाएं इसके अनुसार बनाते हैं। हम भावनाओं का बोझ अपने मन पर डालते हैं। किसी को अच्छा मानने से मन को उतनी प्रसन्नता नहीं मिलती, जितना किसी को बुरा मानने से निंदा का रस आता है। इसलिए लोगों की छोड़ो, अपने मन पर ध्यान केंद्रित करो। स्वयं को देखो’।
इसीलिए कबीर कहते हैं-
‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।’
दूसरों के लिए बहुत सारे नकारात्मक विचार मन में रखते हुए हम अपने मन को ही दूषित करते हैं। घर में कचरा जमा हो, तो उसकी गंध असहज करती है। मन भी ऐसे ही परेशान होता है, उस कचरे से जो दूसरों का है, लेकिन हम उसे अपने मन में दबाए बैठे हैं। दूसरे के शब्द/व्यवहार के लिए स्वयं को सजा देना ठीक नहीं!
इसलिए, दूसरे को सजा देने का ख्याल असल में स्वयं को सजा देने जैसा है। किसी को सुधारना अगर इतना आसान होता, तो यह दुनिया अब तक कब की बदल गई होती। हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम कम से कम स्वयं को वैसा बना सकें, जैसा हम दूसरे के बारे में बातें करते हैं। प्रेम, क्षमा, करुणा और स्नेह को दुर्लभ मत बनाइए। इनका अधिकतम उपयोग कीजिए, यह उस सुख की नींव हैं, जिसकी तमन्ना में हम जिए जा रहे हैं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
पटना और मुंबई के बीच सत्रह सौ किलो मीटर की जितनी दूरी है लगभग उतनी ही शिमला और मुंबई के बीच भी है। दोनों ही राज्यों में इस समय एक ही पार्टी के दबदबे वाली हुकूमतें भी हैं। बिहार और हिमाचल दोनों का मौसम और मिजाज अलग-अलग किस्म का है पर राजनीतिक जरूरतों ने दोनों की आत्माओं को एक कर दिया है। एक राज्य की सरकार को चुनाव जीतने के लिए अपने सितारा बेटे की मौत का इंसाफ चाहिए और दूसरे ने अपनी सितारा बेटी के सम्मान की रक्षा करने की जिम्मेदारी उठा ली है। उधर मुंबई में भी एक सितारा बेटी की जिंदगी दांव पर लगी हुई है और एक राजनीतिक मराठा बेटे ने महाराष्ट्र के गौरव की रक्षा करने का दायित्व अपनी तलवार की धार पर धारण कर लिया है। चूँकि दोनों ही सितारा बेटियाँ बॉलीवुड से जुड़ी हुई हैं, फिल्मी हस्तियों की जिंदगियों से जुड़े तमाम अंतर्वस्त्रों को फिल्मी नगरी की सडक़ों पर पताकाओं की तरह लहराया जा रहा है।
दूसरी ओर, अपनी टीआरपी को हर कीमत पर बढ़ाने में जुटा मीडिया इन दृश्यों को बिना किसी अतिरिक्त चार्ज के नशे की गोलियों की तरह बेच रहा है। इस काम में भी कुछ ख्याति प्राप्त ‘बेटियाँ’ भी सितारा वस्त्रों को मार्केट की जरूरत के मुताबिक ठीक से धोकर टीवी स्क्रीन के रंगीन पर्दों पर सुखाने में मदद कर रही हैं।चैनलों पर चल रही ‘मीडिया ट्रायल’ के नशे में खोए हुए देश की कोई एक चौथाई आबादी ने तलाश करना बंद कर दिया है कि कोरोना के ‘वैक्सीन की ट्रायल’ की ताज़ा स्थिति क्या है ! मुंबई में महामारी के दस लाख के आँकड़े और तीस हज़ार को छूने जा रही मौतों के बीच रंगीन खबरों के जो 24@7 रक्तहीन विस्फोट हो रहे हैं उन्हें देश में प्रशिक्षित दस्ते ही अंजाम दे रहे हैं और उनके असली हैंडलर्स कौन हैं किसी को भी आधिकारिक जानकारी नहीं है।
देश के नागरिक कथित तौर पर चीन के द्वारा निर्यात की गई कोरोना की महामारी का मुक़ाबला करने में तो आत्मनिर्भर हो सकते हैं और ‘भगवान’ के कोप के कारण अवतरित हुए आर्थिक संकट के खिलाफ भी भूखे पेट पर पवित्र शिलाएँ बांध सकते हैं ,पर उस मानव-निर्मित त्रासदी का मुकाबला नहीं कर सकते जिससे कि वे इस समय मुखातिब हैं।एक ऐसी त्रासदी जिसे प्रांतवाद के नाम पर ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप’ के मार्फत अंजाम दिया जा रहा है। इसमें खरीदने का कोई काम ही नहीं है, सबकुछ बेचा ही जाना है। अब तक कहा जाता रहा है कि प्यार में सबकुछ जायज है ,पर इस समय जो नाजायज है सिर्फ उसे ही ढूँढा जा रहा है। ताजा घटनाक्रम की किरदार सभी हस्तियों के मामले में यही हो रहा है। कहना मुश्किल है कि आज अगर सुशांत सिंह जीवित होते तो चुनावी पोस्टरों के लिए किसके चेहरे को ढूँढा जाता और अगर बाला साहब ‘मातोश्री’ की अपनी शानदार कुर्सी पर बिराजे हुए होते तो क्या शिव सेना में ‘आ कंगना मुझे मार’ जैसा कुछ भी संभव हो पाता ?
महामारी और बेरोजगारी से जूझ रही देश की औद्योगिक और वित्तीय राजधानी को अपने संकट से उबरने के लिए शिव सेना किसी सोनू सूद से भी मदद की माँग नहीं कर सकती।उन्हें भी पहले ही हडक़ाया जा चुका है। ‘महाराष्ट्र किसी के बाप का नहीं’ कंगना के कहने के कारण नहीं बल्कि अब इसलिए लगने लगा है कि इतने बड़े राज्य का कोई ‘माई-बाप’ ही नहीं बचा लगता है। कोरोना संकट से अपने आपको सफलता पूर्वक बचा लेने वाले धारावी के भले रहवासी भी शायद ऐसा सोचते होंगे कि एक नई और बड़ी संभ्रांत झोपड़ पट्टी का निर्माण उनके इलाकै के बाहर महानगर में हो रहा है।
क्या विडम्बना है कि संसद की बैठकों के ‘प्रश्न काल ‘को भी कोरोना का संक्रमण हो गया है और किसी को भी उसके इलाज की नहीं पड़ी है। सारे ‘प्रश्न’ केवल एक ही आदमी सडक़ों पर उठा रहा है जिसे उस मीडिया ने राजनीतिक ताश की गड्डी का ‘पप्पू’ बना रखा है जो कंगना के दफ्तर के बाहर खड़े होकर एक पोस्टमैन से सवाल पूछ रहा है कि बीएमसी के द्वारा ‘मणिकर्णिका’ के कि़ले में तोडफ़ोड़ क्यों की गई? कभी कोई ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हो जाए कि थोड़े लम्बे समय के लिए राष्ट्रीय पावर ग्रिड में ‘ब्रेक डाउन ‘ हो जाए या फिर युद्ध की परिस्थितियों का अभ्यास करने के लिए ‘ब्लैक आउट’ लागू करना पड़ जाए तो पता नहीं कितनी बड़ी आबादी पागल होकर सडक़ों पर थालियाँ कूटने लगेगी !
देश का पूरा ध्यान एक अभूतपूर्व संकट से सफलतापूर्वक भटका दिया गया है। चालीस सालों में पहली बार इतना बड़ा आर्थिक संकट, करोड़ों लोगों की बेरोजगारी, महामारी से प्रतिदिन संक्रमित होने वालों के आँकड़ों में दुनिया में नंबरवन बन जाना, चीन द्वारा सीमा पर चार महीनों से दादागीरी के साथ लगातार अतिक्रमण और जानकारी के नाम पर सरकार द्वारा देशवासियों को झूला-झूलाते रहना सब कुछ धैर्यपूर्वक बर्दाश्त किया जा रहा है। हमें बिल्कुल भी डरने नहीं दिया रहा है कि हर महीने कोई सोलह हजार लोग कोरोना की भेंट चढ़ रहे हैं।
कथित तौर पर अवसाद और नशे की लत में पड़े एक सुदर्शन अभिनेता की मौत सरकारों को तो हिला देती है पर लॉकडाउन से उपजे अभावों और बेरोजगारी से पैदा हुए अवसाद के कारण हुई सैंकड़ों आत्महत्याओं की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। मैंने दक्षिण भारत के चार राज्यों-आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में अपने पत्रकार मित्रों से बात की तो पता चला कि सुशांत-रिया-कंगना को लेकर वहाँ खबरों का कोई नशा नहीं बिक रहा है। वहाँ सरकारें और लोग अपनी दूसरी समस्याओं को लेकर चिंतित हैं। इसे हिंदी (मराठी भी) भाषी राज्यों का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि एक ऐसे समय जबकि अधिकतर इलाकों में महामारी के साथ-साथ वर्षा और बाढ़ के कारण उत्पन्न हुई कठिनाइयों के घने बादल छाए हुए हैं, हमारा राजनीतिक नेतृत्व मीडिया के एक वर्ग की मदद से पापड़-बड़ी बनाकर सडक़ों पर सुखा रहा है। वह थोड़ी सी जनता जो इस तमाशे का हिस्सा नहीं है इसी कशमकश में है कि जो कुछ चल रहा है उसके लिए खुद शर्मिंदगी महसूस करे या उन्हें शर्मिंदा करने के अहिंसक और शांतिपूर्ण उपाय तलाशे जो इस दुरावस्था के असली जिम्मेदार हैं !
कभी मत सोचिए कि दूसरे के दुख / संकट को अपना समझने में आपका अहित है, क्योंकि आज उसका दुख / संकट छोटा हो सकता है, लेकिन कल आपका संकट इतना बड़ा हो सकता है कि उसे सहने के लिए बहुत सारे साहस, साथ की जरूरत हो।
एक छोटी-सी कहानी। मन के स्वभाव, व्यवहार के बारे में मुझे खूब कहानियां सुनने को मिलीं। मां की सुनाई अधिकतर कहानियां मन में सुरक्षित हैं। हरिश्चंद्र, नल-दमयंती से लेकर राजा ढोलना तक। जीवन की आस्था और संघर्ष ही इनके किरदार हैं। जीवन संवाद में आपसे जो कहानियां कहता हूं, उनकी जड़ें गर्मियों की चांदनी, शीतल रातों में हैं। लौटते हैं आज की कहानी में!
एक राजा को अपनी छवि से बहुत प्यार था। वैसे तो सुंदरता को लेकर पागलपन साधारण मनोरोग है, लेकिन राजाओं में कुछ ज्यादा होता है। स्वयं पर मुग्धता, राजा होने का पहला प्रमाण है। लक्षण है। इस राजा को भी वैसा ही था। उसे खुद को देखना, अपनी तारीफ सुनना बहुत प्रिय था, इसलिए उसने एक महल बनवाया। इसके भीतर केवल चारों ओर कांच लगे थे। बड़े-बड़े आईने। अलग-अलग कोण पर लगाए गए थे। राजा को यहां आकर बहुत अच्छा लगता। इसके भीतर प्रवेश करने की अनुमति राजा के अतिरिक्त किसी को न थी। दूसरा कोई इन छवियों को देखकर करता भी क्या! हां, राजा के पास इस तरह का अवकाश होता था। उसे सुख मिलता था। अपने मन के शीशमहल में, स्वयं को देखने का। खुद पर इठलाने का!
राजा को अपने कुत्ते से भी बहुत प्रेम था। एक ही कुत्ता था उसके पास। जिसकी देखभाल में थोड़ी सी भी लापरवाही राजा को बर्दाश्त न थी। जानवर का एक बड़ा लाभ यह होता है कि आप तो उससे सब कुछ कह सकते हैं, लेकिन वह जो कहना चाहता है, आपसे पूरी तरह नहीं कह सकता। इसलिए उसकी नाराजगी में भी हमें प्रेम मालूम होता है।
एक दिन राजा अपने शीशमहल में गया तो गलती से अपने कुत्ते को भी ले गया। वह शीशमहल पहुंचा ही था कि उसे किसी बहुत जरूरी काम से लौटना पड़ा। तब तक कुत्ता शीशमहल के भीतर चला गया था। जल्दबाजी में राजा उसे अपने साथ ले जाना भूल गया! उधर शीशमहल में कुत्ते को चारों ओर अपनी ही आकृति दिखी। उसे लगा अवश्य ही राजा ने उससे नाराज होकर दूसरे कुछ कुत्ते भी अपने मनोरंजन के लिए रख लिए हैं। उसने तुरंत ही उन पर भौंकना, चिल्लाना, गुस्सा करना शुरू कर दिया। बात यहीं नहीं रुकी, कुछ ही घंटों में उसने आईनों में दिख रहे कुत्तों पर हमला शुरू कर दिया। रातभर यह सब चलता रहा। सुबह-सुबह जब राजा को उसकी याद आई तो वह शीशमहल की ओर दौड़ा।
भीतर जाकर देखा तो उसका प्रिय कुत्ता अपनी प्रतिध्वनि, आईनों से लड़ता हुआ संसार से विदा हो गया था। गुस्से में राजा ने सारे आईने तुड़वा दिए। लेकिन आईने तुड़वाने से क्या होता है। असली आईने तो मन में बने हैं। असली दुविधा तो मन की है।
यह कथा केवल राजा के कुत्ते के संकट की नहीं है। असल में हम सबकी यही कहानी है। यह कहानी हमारी जीवनशैली, सोच-विचार के खंडहर हो जाने की कहानी है। हम भूल रहे हैं कि जीवन केवल पेड़ नहीं है। जीवन गहरी छाया भी है। पेड़, जितना अपने लिए है, उतना ही दूसरे के लिए! हमारे सुख-दुख आपस में मिले हुए हैं। इनको अलग करते ही संकट बढ़ता है! जबकि इसे समझते ही सारे संकट आसानी से छोटे होते जाते हैं। सुलझते जाते हैं।
कभी मत सोचिए कि दूसरे के दुख / संकट को अपना समझने में आपका अहित है, क्योंकि आज उसका दुख / संकट छोटा हो सकता है, लेकिन कल आपका संकट इतना बड़ा हो सकता है कि उसे सहने के लिए बहुत सारे साहस, साथ की जरूरत हो। इसलिए अपने-अपने शीशमहल से बाहर निकलकर हम सबको एक-दूसरे का साथ अधिक आत्मीयता और प्रेम से निभाने की जरूरत है। कोरोना का संकट उतना छोटा भी नहीं है, जितना हम उसको मान बैठे हैं!
-दयाशंकर मिश्र
जैसी धारणा वैसे परिणाम। धारणा को परिणाम बनते देर नहीं लगती। इसीलिए रिश्ते बिगड़ते हैं, तो बिगड़ते ही चले जाते हैं। हम सारी शक्ति मन के बाहर लगाते हैं, जबकि धारणा तो मन के भीतर दुबकी है!
मन इतना शक्तिशाली है कि अगर हम ठीक से उसे न संभालें, समझें तो बहुत संभव है कि वह हमें ऐसे भंवर में उलझा दे, जिसकी हमने कल्पना भी न की हो। आज संवाद की शुरुआत एक छोटे से मनोवैज्ञानिक प्रयोग से करते हैं। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहे थे। एक दिन वह एक बड़ी-सी बोतल जो अच्छी तरह से सील बंद थी, अपनी क्लास में लेकर पहुंचे। विद्यार्थियों से उन्होंने कहा, ‘इस बोतल में अमोनिया गैस है। मैं यह प्रयोग करना चाहता हूं कि कक्षा के अंतिम विद्यार्थी तक पहुंचने में यह कितना समय लेती है। जैसे ही मैं इसका ढक्कन खोलूंगा, आपको अपनी जगह बैठे-बैठे हाथ उठाना है। जैसे ही आपको इसकी गंध महसूस हो तुरंत हाथ उठा दीजिए। जैसे-जैसे पहले विद्यार्थी से अंतिम विद्यार्थी तक यह गंध पहुंचे वह हाथ उठाता चले।’
विद्यार्थी तैयार। सारी दुनिया से मन काटकर उन्होंने गंध महसूस करने में लगा दिया। मनोवैज्ञानिक ने बोतल से तेजी से ढक्कन उठाया और उतनी ही फुर्ती से अपनी नाक पर रूमाल रख ली। दो सेकंड में ही सबसे आगे बैठे विद्यार्थी ने हाथ उठा दिया, फिर उसी के अनुसार दूसरे, तीसरे और कुछ ही पलों में सबसे आखिरी में बैठे विद्यार्थी ने भी बता दिया कि अमोनिया गैस उस तक पहुंच रही है। पंद्रह-बीस सेकंड में पूरी कक्षा ने अमोनिया की गंध महसूस कर ली। कुछ विद्यार्थियों ने तो यहां तक बताया कि उनकी तबीयत ठीक नहीं होने के कारण वह ठीक से गंध महसूस नहीं कर पा रहे हैं।
प्रोफेसर चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठ गए। कुछ मिनट बाद बोतल को चारों ओर घुमाते हुए जोरदार ठहाका लगाया। उन्होंने कहा, इसमें कोई अमोनिया नहीं है। इस बोतल में कोई गैस नहीं है। अमोनिया की गंध आपके मन के भीतर है। जैसी धारणा वैसे परिणाम। धारणा को परिणाम बनते देर नहीं लगती। इसीलिए रिश्ते बिगड़ते हैं, तो बिगड़ते ही चले जाते हैं। हम सारी शक्ति मन के बाहर लगाते हैं, जबकि धारणा तो मन के भीतर दुबकी है!
मत सोचिए कि यह मनोवैज्ञानिक प्रयोग केवल किसी विश्वविद्यालय में घटते हैं। हमारा मन हर जगह एक जैसा ही है। असली बात तो यह है कि जीवन से बड़ी कोई दूसरी प्रयोगशाला नहीं। जीवन में तो ऐसे प्रयोग हर दिन ही करते रहते हैं। जिस तरह इस कक्षा में बिना गंध के भी विद्यार्थी गंध महसूस करने लगे, ठीक उसी तरह से हम जीवन में जिस दिशा में विचार करते जाते हैं, धारणाएं बनाते जाते हैं। उसके अनुकूल ही हमारे परिणाम आते हैं और हम उसी दिशा में आगे बढ़ते जाते हैं।
जीवन संवाद को ‘लॉकडाउन’ और उसके बाद पैदा हुए आर्थिक सामाजिक संकट के कारण जीवन में आ रहे प्रभावों के बारे में हर दिन इसी तरह के अनुभव मिल रहे हैं। बहुत से लोगों के संकट वास्तविक हैं, लेकिन लगभग उतने ही लोगों के संकट मनोवैज्ञानिक हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि जिनके संकट वास्तविक हैं, वह कहीं मजबूती से अपने सीने में संघर्ष का लोहा लेकर चल रहे हैं। उनकी इच्छाशक्ति मजबूत है। जीवन के प्रति आस्था गहरी है। लेकिन, जिस तक संकट नहीं आया। आने को है, लेकिन आया नहीं। उसका मन सबसे अधिक घबराहट में है।
इस दौरान मैं तीन तरह के लोगों से नियमित रूप से संवाद कर रहा हूं। पहले वे जिनका कोरोना-वायरस के कारण बहुत अधिक नुकसान हुआ, नौकरी चली गई। आर्थिक संकट घर में प्रवेश कर गया। दूसरे वे जो थोड़े-थोड़े प्रभावित हुए। नौकरी गई तो नहीं, लेकिन वेतन बहुत कम हो गया। तीसरे और सबसे अधिक वह, जिनको लग रहा है कि संकट गहराने को है। आया नहीं है, उसके आने की गंध आ रही है। उस गंध से बेचैनी महसूस हो रही है।
सबसे खतरनाक असली संकट नहीं है। जो आ गया है वह संकट भी नहीं है। सबसे अधिक संकटपूर्ण स्थिति मानसिक है। संकट आ गया, तो क्या करेंगे! आया नहीं, लेकिन सपनों में आ गया है। जो मन में आया है उसका भय उसके प्रकट होने से कहीं अधिक ज्यादा है। इसी कारण ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो निराशा, संकट आने की आहट के कारण अपना जीवन दांव पर लगा रहे हैं।
दीये तूफान से पहले मन निराश नहीं करते। उनका जीवन उजाले के प्रति समर्पित है। वह पहले हार नहीं मानते। कोरोना से लड़ाई दीये और तूफान जैसी है। निर्बल की लड़ाई बलवान से! सबसे जरूरी मन का साहस है। मन का साहस सबसे पहले। उसे संभालिए। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
आंसू मन के आसमां पर आनंद के बादल हैं। उनको केवल दुख से मत जोडि़ए। कोमलता, करुणा, सहज स्वभाव से समझिए। जिस मन में कोमलता नहीं, वहां सुख के बीज नहीं उगते। जहां बीज नहीं, वहां आनंद के पौधे नहीं लगेंगे!
कोमलता, जीवन का पर्यायवाची है! कोमलता है, तो जीवन है। फूल का खिलना/बच्चे का संसार में आना/ओस की बूंद का पत्तों पर ठहरना/ आंसुओं का मन के पहाड़ तोडक़र गालों पर छलकना, सब कोमलता के निशान हैं। पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि पुरुष अवश्य ही पहले रोते रहे होंगे। इसीलिए कोमलता मनुष्यता के लंबे सफर के बावजूद कायम है। हां, यह कम होती जा रही है, क्योंकि पुरुष अब रोते नहीं। वह मन के सहज उपचार, सुख से दूर होते जा रहे हैं।
आंसुओं का अर्थ केवल दुख नहीं है। करुणा, प्रेम, आनंद भी है। आंसू इनके भी प्रतिनिधि हैं। जो आंसू को कमजोरी समझ लेते हैं, वह जीवन की कोमलता से दूर होते जाते हैं। हम आए दिन घर-परिवार में सुनते हैं, ‘लड़कियों की तरह रोना बंद करो’, ‘तुम बहादुर लडक़े हो, लडक़े कभी रोते नहीं।’ कितनी अजीब बात है, हम नन्हें बच्चों के मन को करुणा और कोमलता से दूर करते जा रहे हैं।
आंसू मन के आसमां पर आनंद के बादल हैं। उनको केवल दुख से मत जोडि़ए। कोमलता, करुणा, सहज स्वभाव से समझिए। जिस मन में कोमलता नहीं, वहां सुख के बीज नहीं उगते। जहां बीज नहीं, वहां आनंद के पौधे नहीं लगेंगे!
एक छोटी-सी घटना आपसे कहता हूं। बात थोड़ी पुरानी है। भोपाल के सभागार में महात्मा का प्रवचन चल रहा था। बड़ी संख्या में लोग उनको सुन रहे थे। उनकी शिक्षा, कहने का ढंग ऐसा अनूठा था कि लोग रोने लगे। बड़ी संख्या में लोग भावुक हो गए। कार्यक्रम के अंत में मेजबान के साथ कुछ लोग उनसे मिलने पहुंचे, तो एक नौजवान ने कहा, प्रवचन के समय अनेक लोग फूट-फूटकर रो रहे थे। यह आपकी वाणी का असर है या सुनने वालों का कमजोर मन।
महात्मा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘रोनेवालों का तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन ऐसा लगता है, आप कठोर मन के हैं। आंसू केवल उनकी आंखों में नहीं होते, जिनका मन मरुस्थल हो जाता है। रेगिस्तान हो जाता है! जो रोते हैं, उनके भीतर दूसरों के मुकाबले कहीं अधिक प्यार, करुणा, आनंद का गहरा भाव होता है।
आज अनेक वर्षों के बाद मुझे उनकी यह बात इसलिए याद आई, क्योंकि किसी पाठक ने अपने आंसुओं को कमजोरी से जोड़ लिया। आंसू मन की कोमलता, करुणा के प्रतीक हैं। पुरुष अगर स्त्रियों की तरह रोने लग जाएं, तो धरती न जाने कितने युद्धों से बच जाएगी। प्रेम से भर जाएगी। संसार के सारे युद्ध पुरुषों के ही रचे हुए हैं। पुरुष समाज (जानबूझकर समाज लिखा) के कठोरता की ओर निरंतर बढ़ते जाने के कारण ही हिंसा इतनी बढ़ी है।
‘जीवन संवाद’ जीवन के प्रति प्रार्थना है। जीवन में बढ़ते तनाव, संकट को केवल प्रेम से ही हल किया जा सकता है। प्रेम अगर फल है, तो कोमलता वह धरती है, जिस पर प्रेम के उगने की संभावना है। आंसू, धरती और बीज के बीच सबसे जरूरी कड़ी है, जिससे गुजरकर प्रेम और कोमलता एक-दूसरे को उपलब्ध हो पाते हैं!
आइए, मिलकर कोशिश करते हैं कि हमारे समीप जो भी पुरुष इतने कठोर हो चले हैं कि आंसू उनकी आंखों में नहीं उतरते। उन्हें रोना सिखाना जरूरी है। उनकी आंखों में करुणा, उदारता का उतरना जरूरी है। आंसू हमारे चित्त की उदारता का आईना हैं। इनको कमजोरी से जोडक़र देखना मनुष्यता के विरुद्ध अपने को खड़ा करना है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हमने मन को बहुत अधिक कमजोर नाजुक, जरा-सी धूप में कुम्हलाने वाला बना लिया है। हमें समझने की जरूरत है कि हर चीज के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं।
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहि! कबीर की यह सीख जितनी पुरानी है उतनी ही पुरानी हमारी जिद है, भीतर को अनदेखा करने की। मृग का भटकना तो फिर भी समझ में आता है, क्योंकि हम मनुष्य तो स्वयं ही यह मानते हैं कि हम जीवधारियों में सबसे बेहतर हैं। यह बात और है कि सारे फैसले हम स्वयं ही कर लेते हैं। क्या कभी हमने यह समझने की कोशिश की है कि मृग तो अपनी कस्तूरी के लिए बाहर भटकता, दौड़ता है, लेकिन उसकी यह बात पूरे जगत को बताने वाले हम उसकी स्थिति जानने के बाद भी उसके ही जैसा कर रहे हैं। यह तो कुछ ऐसा ही है जैसे बच्चे से हम कह रहे हैं कि तुम देखकर चलो और खुद आंखों में पट्टी बांधकर घर से निकलते हैं!
हमारे चारों तरफ अदृश्य अकेलापन है। हम भीड़ में हैं, लेकिन अकेले पड़ते जा रहे हैं। अकेले पड़ते जाने से भीतर बेचैनी बढ़ती जाती है। गुस्सा बढ़ता जाता है। टेलीविजन पर इन दिनों जो आप गुस्सा देख रहे हैं, वह गुस्सा असल में हमारे भीतर की कुंठा का है। किसी भी कीमत पर सबकुछ हासिल कर लेने के लिए तैयार होने के बाद भी कुछ हासिल न होने का है। हम बड़े घरों में शांति, सुकून, आनंद की खोज में जुटते गए। पुराना सबकुछ बेकार था, नए में आनंद है। नया ही सबसे अच्छा है। हमारा नए के प्रति आग्रह इतना तीव्र होता गया कि पुराने की महक पीछे छूटती गई। प्रेम, विनम्रता, दूसरों को साथ लेकर चलने जैसी बातें हमें पुरानी लगने लगीं, क्योंकि हम हर कीमत पर जीतना चाहते थे। जीतने में कोई बुराई नहीं, लेकिन हर कीमत का अर्थ क्या है? बहुत से लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि प्रेम और जंग में सबकुछ जायज है। मुझे लगता है यह बिना जाने-समझे केवल शब्दों को दोहराते जाना है। दोहराव है। प्रेम और जंग में सबकुछ कभी जायज नहीं हो सकता। किसी के लिए भी सबकुछ जायज नहीं हो सकता। इसीलिए तो जंग के भी नियम बनाए जाते हैं। उनका पालन करने वालों का नाम दुनिया लेती है, जो इनको नहीं मानते, उनकी आलोचना होती है।
आपको याद होगा एक जमाने में ऑस्ट्रेलियाई टीम ने एक ऐसी संस्कृति विकसित की थी, जिसमें जीत ही सबकुछ थी। आगे चलकर डेविड वॉर्नर और स्टीव स्मिथ जैसे खिलाडिय़ों पर ऑस्ट्रेलिया को प्रतिबंध केवल इसलिए लगाना पड़ा ताकि समाज में नैतिक मूल्यों की साख बनी रहे। यूएस ओपन में जोकोविच जैसे शांत समझे जाने वाले खिलाड़ी ने भी अनजाने में ही जब लाइन रेफरी को चोट पहुंचा दी, तो उनकी लोकप्रियता के बावजूद उन्हें टूर्नामेंट से बाहर कर दिया गया।
भारत में हम नैतिक नियमों का गुणगान तो बहुत करते हैं, लेकिन थोड़ा ठहरकर सोचेंगे, तो पाएंगे कि इस मामले में दुनिया हमसे अच्छा प्रदर्शन कर रही है। अमेरिका का नागरिक समाज, ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड का प्रदर्शन, जोकोविच का इतने बड़े टूर्नामेंट से बाहर किया जाना, इसके सहज प्रमाण हैं। हम बच्चों को सिखाते हैं कि आंखों में शर्म होनी चाहिए। मन में अपनी गलती का एहसास गहरा होना चाहिए, लेकिन यह दोनों खूबसूरत बातें उम्र बढऩे के साथ भूलने लगते हैं।
बाहर जो इतना तनाव दिख रहा है। घुटन, आत्महत्या दिख रही है। वह भीतर की सुगंध न होने के कारण ही तो है। एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे। संभव है, मेरी बात आप तक अधिक सरलता से पहुंच सके।
एक दिन एक युवा निराश होकर आत्महत्या के विचार से नदी किनारे पहुंचा। वहीं एक साधु धूनी रमाए बैठा था। समय रहते उसकी नजर पड़ गई और उसने नौजवान को रोक लिया। नौजवान उसकी बातों से बिल्कुल प्रभावित नहीं हुआ और कहा कि उसे अपने जीवन का कोई उद्देश्य नजर नहीं आता। साधु ने कहा, ‘दो दिन इंतजार करो। तीसरे दिन अगर मैं न समझा पाया, तो मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा’। दो दिन बीतते-बीतते साधु ने अपनी योजना तैयार कर ली। तीसरे दिन सुबह-सुबह उसके दो शिष्य एक मरीज को लेकर आए और साधु से कहा कि इसकी एक किडनी खराब है और इसके लिए किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है, जो अपनी किडनी दान दे सके। इसका जीवन बच जाएगा। इसके कोई निकट संबंधी इस बात के लिए तैयार नहीं।
साधु ने उस युवक की ओर इशारा करके कहा, ‘इसकी किडनी ले लीजिए’। उन लोगों ने बताया कि इसके बदले वह पर्याप्त रकम देने को भी राजी हैं। उसके बाद भी वह युवक तैयार न हुआ। उसने कहा, ‘मेरी किडनी की कीमत आप कैसे लगा सकते हैं’। दो दिन पहले जो मरने को राजी था, आज वह अपने अंगों की कीमत पर बहस कर रहा है। साधु ने कहा, ‘जब तुम्हारी किडनी अनमोल है, तो शरीर के बाकी अंगों का भी कुछ हिसाब तय करो। परमात्मा ने तुम्हें कितना अनमोल बनाया है, जरा यह भी तो सोचो’!
नौजवान साधु के कदमों में अपना सिर रखकर रोने लगा। साधु ने उसे उठाते हुए कहा, ‘जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के लिए ईश्वर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। एक जैसी बारिश में भीगने पर सबको अलग-अलग अनुभूति होती है, तो इसमें दोष बरसात का नहीं। हमने मन को बहुत अधिक कमजोर नाजुक, जरा-सी धूप में कुम्हलाने वाला बना लिया है। हमें समझने की जरूरत है कि हर चीज के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं। हमें छोटे-छोटे संकटों में जीवन को दांव पर लगाने से बचना चाहिए। फूलों की तरह निर्दोष होकर खिलने की कोशिश करनी चाहिए। खिलते वह हैं, सुगंध संसार को मिलती है। फूल कांटों से नहीं घबराते, उनका उपयोग करते हैं! जीवन भी कुछ इसी तरह होना चाहिए।
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
आज से केवल छप्पन दिनों के बाद भारत सहित पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाली घटना के परिणामों को लेकर अब हमें भी प्रतीक्षा करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। इस बात पर दु:ख व्यक्त किया जा सकता है कि मीडिया ने एक महत्वपूर्ण समय में जनता का पूरा ध्यान जान बूझकर गैरजरूरी विषयों की तरफ़ लगा रखा है। इस बातचीत का सम्बंध अमेरिका में तीन नवम्बर को महामारी के बीच एक युद्ध की तरह सम्पन्न होने जा रहे राष्ट्रपति पद के चुनावों और जो कुछ चल रहा है उसके साथ नत्थी हमारे भी भविष्य से है।
पिछले सितम्बर की ही बात है। अपनी सात-दिवसीय अमेरिका यात्रा के दौरान ह्यूस्टन में आयोजित भव्य ‘हाउडी मोदी’ रैली में वहाँ के सभी राज्यों से पहुँचे कोई पचास हज़ार लोगों की उपस्थिति से अभिभूत होकर प्रधानमंत्री मोदी ने दस भारतीय भाषाओं में उस देश में बसने वाले भारतीय मूल के लगभग पचास लाख नागरिकों को आश्वस्त किया था कि वे क़तई चिंतित नहीं हों। भारत में सब कुछ ठीक चल रहा है। ‘ऑल इज वेल।’ (देश के एक सौ तीस करोड़ नागरिक ही अब अपने सीने पर हाथ रखकर इस ऑल इज़ वेल’ की हक़ीक़त बता सकते हैं)। पर यहाँ हमारी बातचीत का सम्बंध किसी और विषय से है :
भारत के प्रधानमंत्री ने ह्यूस्टन की रैली में अमेरिकी राष्ट्रपति की उपस्थिति में जो एक और ज़बरदस्त बात कही वह यह थी कि : ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार।’ रैली में उपस्थित लोगों ने जोरदार ध्वनि के साथ मोदी के नारे का स्वागत किया था। मोदी और ट्रम्प दोनों ही ने तब नहीं सोचा होगा कि साल भर से कम वक्त में दोनों देशों की तस्वीरें इस तरह से बदल जाएँगी ! अमरीकियों के साथ-साथ ही भारतीय मूल के लाखों नागरिक अपने अब तक के सबसे बड़े धर्म संकट में हैं कि ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ होना चाहिए या नहीं !
बताने की ज़रूरत नहीं कि भारतीय मूल के लोगों का फ़ैसला अमेरिकी चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की स्थिति में रहता है। ट्रम्प और उनके प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रैट जो बायडन दोनों ही भारतीयों को रिझाने में लगे हुए हैं। बायडन ने तो भारतीय मूल की माँ की अश्वेत संतान कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया है। उद्देश्य ट्रम्प से नाराज़ अश्वेत नागरिकों और भारतीय मूल के लोगों दोनों को ही अपने पक्ष में लेना है। मुद्दा यह है कि इस बार के अमेरिकी चुनावों में दांव पर बहुत कुछ लगा हुआ है और वहाँ भी परिस्थितियाँ लगभग वैसी ही हैं जैसी कि भारत में हैं। इसे महज़ संयोग ही माना जा सकता है कि चुनावों के ठीक पहले सार्वजनिक हुए व्हाइट हाउस के टेप्स में पूर्व रिपब्लिकन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अत्यंत ज़हरीले अन्दाज़ में यह कहते हुए बताया गया है कि भारतीय महिलाएँ दुनिया में सबसे अधिक अनाकर्षक हैं। भारतीय महिलाओं की सेक्स सम्बन्धी क्षमताओं पर भी उन्होंने घटिया टिप्पणी की है। भारत के सपनों के अमेरिका को इस समय जिन कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है उसकी पूरी जानकारी हमें प्राप्त नहीं हो रही है। वहाँ अब संकट सिर्फ़ कोरोना संक्रमण के बढ़ते हुए आँकड़ों या मौतों तक सीमित नहीं रह गया है। वहाँ की सडक़ों पर कई महीनों से हिंसा की घटनाएँ हो रही हैं। सरकार के खिलाफ़ ज़बरदस्त प्रदर्शन हो रहे हैं। पुलिस पर पक्षपातपूर्ण नस्लवादी हिंसा के आरोप लगाए जा रहे हैं (जैसा कि हमारे यहाँ भी होता है !)। आरोप हैं कि वहाँ नस्लवादी भेदभाव को सरकार का समर्थन प्राप्त है। अमेरिकी समाज इस समय दो फाड़ नजऱ आ रहा है। खऱाब आर्थिक स्थिति, बेरोजग़ारी की समस्याएँ अलग से हैं। चुनाव तय करने वाले हैं कि चमड़ी के रंग के आधार पर पनप रहे नस्लवाद और अल्पसंख्यकों (अश्वेतों) के समान अधिकारों को लेकर अमेरिकी समाज का क्या रुख है? ट्रम्प की पार्टी को सवर्णों (गोरी चमड़ी वालों) की समर्थक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि ट्रम्प की सत्ता में वापसी अमेरिका में लोकतंत्र को समाप्त कर देगी। यह भी आरोप है कि ट्रम्प अमेरिका को पुतिन के रूस की तरह चलना चाहते हैं। और यह भी कि पिछली बार की तरह ही रूस इस बार भी वहाँ हस्तक्षेप करेगा।
अमेरिका के चुनावी नतीजे न सिर्फ़ दुनिया में भविष्य के व्यापार की दिशा, सैन्य समझौते, लड़ाइयाँ और उनमें होने वाली मौतों, शांति वार्ताओं और समझौतों को तय करते हैं बल्कि उन हुकूमतों को भी प्रभावित करते हैं जहां किसी न किसी तरह का लोकतंत्र अभी क़ायम है। भारत की समस्याएँ भी वे ही सब हैं जो अमेरिका में हैं। अमेरिकी सवर्णों के पक्षधर नस्लवाद को लेकर जो आरोप ट्रम्प के खिलाफ़ हैं वही हमारे यहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यकों को लेकर भाजपा सरकार के विरुद्ध भी हैं। वहाँ जैसा ही विभाजन यहाँ भी है। यहाँ भी सरकार की मूल ताक़त बहुसंख्यक समुदाय ही है।भारत के समझदार नागरिक कमला हैरिस की उम्मीदवारी को लेकर तो गर्व महसूस कर रहे हैं पर वहाँ के चुनाव परिणामों के भारत के लोकतंत्र पर पड़ सकने वाले प्रभावों से पूरी तरह बेख़बर हैं। ट्रम्प अगर दावा कर रहे हैं कि ; ‘मोदी मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं ,भारतीय-अमेरिकी मेरे लिए वोट करेंगे’ तो हो सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति इस प्रतीक्षा में भी हों कि प्रधानमंत्री उनके पक्ष में ह्यूस्टन रैली जैसी कोई अपील एक बार फिर से कर देंगे।
ओपीनियन पोल्स में बताया जा रहा है कि जो बायडन राष्ट्रपति ट्रम्प से आगे हैं पर यह छलावा और भुलावा भी साबित हो सकता है। कोई चमत्कार ही ट्रम्प को हरा सकता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव लडऩे के लिए अगर दो अवधि की संवैधानिक बाध्यता नहीं हो (जैसी कि स्थिति हमारे यहाँ है) तो ट्रम्प भी पुतिन की तरह ही राज करने की क्षमता रखते हैं। अमेरिकी सडक़ों पर हिंसा जितनी बढ़ती जाएगी, मतदाता ट्रम्प की वापसी के पक्ष में बढ़ते जाएँगे। शाहीन बाग का अनुभव हम याद कर सकते हैं कि किस तरह से धरने पर बैठी महिलाओं की लड़ाई से हमदर्दी रखने वाले मुस्लिम नेता बाद में भाजपा में शामिल हो गए थे और यह आरोप भी लगे कि समूचा विरोध-प्रदर्शन सत्तारूढ़ दल द्वारा ही प्रायोजित था। यह संदेह अब दूर हो जाना चाहिए कि सरकारें अपनी जनता को वास्तव में ही जागरूक देखना चाहती हैं। सरकारों की कल्पना के लोकतंत्रों की हिफाजत के लिए तो जनता को लम्बे समय तक मूर्ख बनाए रखना बेहद जरूरी है और यह काम वे उन्हीं तत्वों की मदद से कर सकतीं हैं जिनके जिम्मे नागरिकों को सही जानकारी देने का काम है।
नेता की पत्नी ने कहा, ‘अब चलो भी! तुम्हारी प्रसन्नता का कोई अर्थ मुझे समझ नहीं आता। तुम भूल गए हो कि तुम मर गए’। नेता ने कहा, ‘अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ आती है, तो मैं बहुत पहले मर जाता। कौन इतने चकल्लस में पड़ता!’
आज संवाद की शुरुआत एक छोटे-से मजेदार किस्से से। एक राजनेता की मृत्यु हो गई। तीन वर्ष पहले उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। जैसे ही मरकर वह दूसरे लोक को पहुंचे, पत्नी ने द्वार पर ही उनका स्वागत किया। उन्हें भीतर चलने को कहा, लेकिन राजनेता राजी न हुए। उन्होंने कहा, ‘पहले जरा देख तो लूं, कितने लोग विदा करने आए हैं’। पत्नी ने कहा, ‘अरे! अब इस बात का क्या मतलब। शरीर तो मिट्टी था पीछे छूट गया। अब हम देह से मुक्त हैं’। नेता ने कहा, ‘यह तो मैं भी जान गया हूं, फिर भी नए लोक में जाने से पहले चलो देख लें एक बार कौन-कौन आए और कितनी भीड़ जुटी है’।
दोनों अदृश्य थे। उनको कोई देख नहीं सकता था। दोनों अर्थी के आगे-आगे चलने लगे। कितनी भीड़ इक_ा हो गई थी। फूल ही फूल। तोपों की सलामी। अमरता का जयघोष। चारों ओर जिंदाबाद के नारे। नेता की पत्नी ने कहा, ‘अब चलो भी! तुम्हारी प्रसन्नता का कोई अर्थ मुझे समझ नहीं आता। तुम भूल गए हो कि तुम मर गए’। नेता ने कहा, ‘अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ आती है, तो मैं बहुत पहले मर जाता। कौन इतने चकल्लस में पड़ता’। नेताजी ने मरने के बाद ही सही, लेकिन सुंदर बात कही, मरने पर भीड़ आए, इसके लिए ही तो हम जीते हैं!
कितनी मेहनत करनी पड़ती है, तब जाकर यह मान, प्रतिष्ठा और सम्मान दूसरों की आंखों में आकर उमड़ता है। जिसके लिए मेहनत करनी पड़े, वह कभी स्वाभाविक नहीं होता। असल में वह रचा हुआ पाखंड है, लेकिन हम सब स्वाभाविक से रूप खुद को दूसरों के अनुकूल रचने में व्यस्त हैं! नेताओं का तो फिर भी काम चल जाता है। उनका जीवन दूसरे प्रकार का है, लेकिन हम सामान्यजन पूरे जीवन दूसरों के लिए दौड़ते-भागते रहते हैं। बस, दर्शक बनकर रह जाते हैं। कोई कह देता है कि बुद्धिमान हो, तो मान लेते हैं। लोग आकर कह दें कि तुम सफल हुए तो सफल मान लेते हैं। कुछ लोग द्वार पर आकर कह दें कि तुम्हारे जैसा सुंदर और क्रांतिकारी कोई दूसरा नहीं दिखता, तो फूलकर कुप्पा हो जाते हैं! सबकुछ दूसरे की आंखों से होता है। दुनिया जैसी हमें देखना चाहती है, हम वैसे ही होते जाते हैं। इससे हम दुनिया के अनुकूल होते जाते हैं, लेकिन स्वयं से दूर!
इसीलिए आपने देखा होगा कि जब हम दुनिया की नजर में सफल हो रहे होते हैं, तो ऐसे लोगों से घिर जाते हैं, जो हमारी महानता का ढोल रात-दिन पीटते रहते हैं। हम अपने आसपास एक घेरा बना लेते हैं खुशामद करने वालों का। उनकी नजरों में खुद को देवता बनाकर बैठा देते हैं। जिस दिन सफलता की परत उतरनी शुरू होती है, हम अकेले ही पड़ते जाते हैं।
अगर खुद को जानना हो, तो लोगों की आंखों में छवि का मोह छोडऩा पड़ेगा। दूसरों की ओर देखना बंद करना होगा। दूसरे के चश्मे से स्वयं को कभी नहीं समझा जा सकता। मन अपने प्रकाश से आलोकित होना चाहिए। चंद्रमा की तरह सबका काम दूसरे के उजाले से नहीं चल सकता!
हम अक्सर लोग क्या कहेंगे, लोकमत से ही संचालित होते हैं। दूसरों को प्रसन्न करने, उनकी नजर में छवि बनाए रखने के फेर में हम एक नकली जीवन जीने की ओर बढ़ते जाते हैं। अपने स्वभाव के विपरीत। अपनी सहजता से दूर। हम ऐसी दुनिया, रास्ते बनाते जाते हैं, जिसमें दूसरों की कही बातें ही हम अपने बारे में सत्य मानते जाते हैं। जब तक हम अपने सत्य से परिचित नहीं होते। दुनिया तो बहुत दूर की कौड़ी है, हमें अपने ही मन का आनंद उपलब्ध नहीं होगा! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
-विष्णु नागर
मोदीजी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्हें एक वही काम नहीं आता,जो उन्हें आना चाहिए, बाकी सारे काम आते हैंं। मसलन वे प्रधानमंत्री हैं। उन्हें इसका भरपूर से भी भरपूर फायदा उठाना आता है मगर इस नाते जो उन्हें आना चाहिए, वह नहीं आता। मसलन वे प्रधानमंत्री बने, तब इकनॉमी ठीक-ठाक चल रही थी। उनके होते हुए भी यह इसी तरह चलती रहे, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्हें इकानामी पर अपनी मोहर लगवाना थी। उन्होंने फटाफट नोटबंदी की और कहा कि देखो अभी इससे कालाधन छूमंतर हुआ जाता है और साथ में आतंकवाद भी गायब हो जाएगा। कोई बात नहीं करोड़ों लोग हैरान-परेशान हुए, कुछ लाइन में लगे- लगे मर गए, तो क्या! मरना -जीना तो ऊपरवाले के हाथ में है, एक्ट ऑफ गॉड है। चलो अब जीएसटी ले आते हैं। व्यापारियों की समस्या एक ही झटके मेंं खत्म। ये अलग बात है कि इससे व्यापारी ही खत्म हो जानेवाले थे। वह तो शुक्र है कि बालों-बाल बच गए। इतने से संतोष नहीं हुआ तो सारे देश में लॉकडाउन करवा दिया। कहा कि व्यापारी भाइयो, इस बार बर्बादी में तुम अकेले नहीं हो, फैक्ट्री-कारखानेदार, मजदूर, रेहड़ीवाले सभी शामिल हैं। तुम्हारे मन को इससे शांति मिलेगी कि बर्बादी संयुक्त है। जीएसटी की तरह इस बार तुम अकेले नहीं हो। और दिखाऊँ काबिलीयत, चलो इकॉनामी को मैं शून्य से भी नीचे-27 पर ले आता हूँ। अब खुश! नहीं? चलो अभी वक्त है। मेरे कमाल देखते जाओ।
अब क्या-क्या गिनाएँ उनकी ऐसी महान ‘उपलब्धियाँ’! यह विषय इतना विस्तृत और गहन है कि इस पर ‘मोदी चरित मानस’ की रचना संभव है। इसके लिए आधुनिक तुलसीदास चाहिए और जहाँ तक दृष्टि जाती है, कोई दीखता नहीं। वैसे मोर और अन्य कविताएँ लिखकर मोदीजी ने साबित कर दिया है कि अपने मानस के तुलसीदास वे स्वयं हो सकते हैं। यह काम वे लॉकडाउन में करें तो यह रचना अमरग्रंथों की श्रेणी में सम्मिलित हो जाएगी। इससे भक्तों के सामने संकट पैदा हो जाएगा कि वे रामचरित मानस पढ़ें या ‘मोदीचरित मानस’!
तो खैर इस तरह वह देश की सारी समस्याएँँ ‘हल’ करते चले जा रहे हैं। रुके नहीं, थमे नहीं, पीछे मुडक़र नहीं देखा कभी। बेरोजगारी एक बड़ी भारी समस्या थी, चाय-पकोड़ा उद्योग का पुनरुत्थान करके उसे हल कर दिया। कोरोना को उन्होंने ताली-थाली बजवाकर छूमंतर करा दिया। और जो समस्याएँ छूमंतर नहीं हो सकींं, उनके लिए जवाहर लाल नेहरू जिम्मेदार थे! फिर भी उन्होंने अपने ऊपर नेहरूजी के बनाए सरकारी उपक्रमों को बेचने की जिम्मेदार ली और बेशक उसे मन-प्राण से पूरा कर रहे हैं। और जहाँ वे कुछ नहीं कर पाए, वहाँ कम से कम नाम तो बदलवा ही दिए। रेसकोर्स रोड अब लोककल्याण मार्ग है। मुगलसराय स्टेशन अब दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन है।योजना आयोग अब नीति आयोग है। सूरज का नाम सूरज और चाँद का नाम चाँद इसलिए है क्योंंकि ये नाम न नेहरू जी ने दिए थे, न मुगलों ने!
ऐसे सारे काम मोदीजी को खूब आते हैं। जंगल कटवा कर प्रकृति से प्रेम करना आता है। मोर पर कविता लिखना आता है। नगाड़ा बजाना आता है।योग करना और करवाना आता है। अंबानी के प्राडक्ट का विज्ञापन करना और अडाणी के खिलाफ सारे केस पक्ष में निबटवाना आता है। डिजाइनर कपड़े पहनना आता है। गुफा में तपस्या करना आता है। ज्ञान बघारना तो उन्हें इतना आता है कि बड़े-बड़े विद्वान शर्म से चुल्लू भर पानी में डूबने की ट्रेनिंग ले रहे हैं। मन है नहीं मगर मन की बात करना आता है। कभी अपने को इस योजना, कभी उस कार्यक्रम के माध्यम से लांच और रिलांच और रि-रि-रि लांच करना आता है। ऊँची से ऊँची मूर्ति बनवाने में उनका सानी नहीं। बच्चों को परीक्षा पास करवाना और खुद फर्जी डिग्री लेना आता है। भाषण देना और उसमें विशेष रूप से फेंकने की कला में उनका स्थान वही है, जो कला में पिकासो और कविता में कालिदास का है। फर्जी को असल बनाना उन्हें आता है। जरूरी बातों पर चुप रहना और फालतू बातों पर ट्वीट पे ट्वीट करना आता है। मीडिया से लेकर अदालत तक के मैनेजमेंट के वह जगद्गुरु हैं।उन्हें वह सब करना भी आता है, जिसका वे प्रधानमंत्री पद बनने से पहले विरोध करते थे। उन्हें अपने सारे विरोधियों को नाना प्रकार से ‘ठीक’ करना आता है।उन्हें ट्रंपादि चुनिंदा लोगों की झप्पीशप्पी इतनी जोर से लेना आता है कि सामने वाले की साँस घुट जाए! आँकड़ों और झूठ का घनघोर उत्पादन करने वाला तो उनके जैसा पराक्रमी देश के इतिहास में कभी हुआ नहीं। हिंदू-मुस्लिम करना तो जैसे उनके डीएनए में है।
इसके अलावा वह हर हफ्ते-पंद्रह दिन में एक नया नारा ईजाद करते हैं। परेशानी के बायस बन चुके नारों को लोग किस प्रकार भूलें, ये कला उन्हें आती है। उन्होंने आज तक ये इंडिया और वो इंडिया और वो भी इंडिया, ऐसे न जाने कितने इंडिया बनवा डाले हैं कि उन्हें भी अब याद नहीं कि ऐसे कितने बन और मिट चुके हैं। अभी ‘न्यू इंडिया’ बना रहे थे, अभी-अभी आत्मनिर्भर इंडिया बनाने लगे। एक- दो महीने बाद कोई और इंडिया बनाने लगेंगे। उनसे जो चाहे बिकवा लो, इंडिया तो बिकवा ही लो मगर इस नारे के साथ बिकवाना पड़ेगा कि मैं देश नहीं बिकने दूँगा।
-विष्णु नागर
भक्तों और वोटरों को इस सच्चाई की गाँठ बाँध लेना चाहिए कि लोकतंत्र वगैरह तो सब ठीक है। तुम-हम वोट देते हैं, यह भी ठीक ही है मगर सच ज्यादा संगीन है। हमें मालूम है मगर हम इसे स्वीकार नहीं करते, भक्त तो आज बिल्कुल ही मंजूर नहीं करेंगे कि वोट नहीं, बड़े सेठों के नोट लोकतंत्र का असली सारतत्व बन चुके हैं। इस भयानक मंदी में जब अर्थव्यवस्था माइनस 27 तक आ पहुँची है, जो आजादी के बाद आज तक नहीं हुआ था, मगर सेठ मुकेश अंबानी की संपत्ति फिर भी बढ़ रही है। देश डूब रहा है, वह विदेशी कंपनियाँ खरीद रहा है। तुम्हारी छोटी-मोटी नौकरी चली जाती है, धंधा पिट जाता है। कई आत्महत्या कर चुके हैं और कई और करेंगे अभी लेकिन सेठ साहब जीडीपी, भारत और वैश्विक मंदी से परे जा चुके हैं।
समस्त सेठ समाज अभी भी लगभग खुश है। नाराजगी थोड़ी है, वह औपचारिक है, दोस्ताना है। क्यों? क्योंकि तुम्हारे वोट और तुम्हारे हिंदुत्व से ज्यादा ताकतवर है, सेठ का पैसा, उसका समर्थन। जिस दिन सेठों ने तुम्हारे हिंदुत्व से हाथ खींच लिया, तुम्हारा हिंदुत्व भाँप की तरह आकाश में विलीन हो जाएगा और हाँ तुम्हीं हमसे ज्यादा हिंदुत्व विरोधी नजर आओगे, हाँ तुम्हीं। मोदीजी को गाली देने वालों की अग्रिम पंक्ति में हमसे आगे तुम रहोगे।
इन एंकर-एंकरानियों की भक्ति और वीरता कटी पतंग की तरह गोते खाते हुए नीचे आ जाएगी, माइनस के भी माइनस में चली जाएगी। ये एंकर-एंकरानियाँ मोदीजी की कृपा पर नहीं,चैनल मालिक की मेहरबानी पर निर्भर हैं। ये सेठ चाहें तो जिसको चाहें, धूल चटा दें और पहले अच्छे -अच्छों को चटाई भी है। हिंदुत्व तुम्हारे लिए है, ईज आफ डूइंग बिजनेस, आत्मनिर्भरता उनके लिए है। सेठ हिंदुत्व से पगलाया हुआ नहीं है, उसे यह भी ‘सूट’ करता है, इसलिए चुप है, समर्थक जैसा नजर आता है। जिस दिन हिंदुत्व उसे भार की तरह नजर आएगा,वह मोदीजी से कहेगा, रिवर्स गेअर में गाड़ी ले लो और मोदीजी खुशी-खुशी ले लेंगे। और नहीं लेंगे तो देखना जो विकल्पहीनता तुम्हें-हमें आज नजर आती है, अचानक भारत में विकल्पों की भरमार हो जाएगी। इस खेल को जो नहीं समझता, समझना नहीं चाहता, उसके लिए शब्द तो मेरे पास हैं मगर लिखूंगा नहीं।
एक राजा ने एक बार अपने मंत्रियों, विद्वानों को बुलाया। उनसे कहा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि मैं राजा क्यों हूं’। मैं ऐसे अनेक व्यक्तियों से मिलता हूं, जो मुझसे अधिक योग्य दिखते हैं, लेकिन उसके बाद भी मैं ही राजा हूं। मुझे पांच दिन के भीतर इस प्रश्न का उत्तर चाहिए...
हम कई बार कहना कुछ और चाहते हैं, कह दूसरा जाते हैं! एक बार स्वभाव में यह बात बैठ जाए, तो आसानी से दूर नहीं होती। फिर चाहे हम प्रार्थना करें, क्रोध करें या फिर किसी से सामान्य संवाद। शब्दों के अर्थ गहरे होते हैं। जो उनको समझ जाते हैं वह सरलता से जीवन को उपलब्ध होते रहते हैं। अपने शब्दों को कभी व्यर्थ न जाने दें। हम बहुत व्याकुल, गुस्सैल और आत्मकेंद्रित हो रहे हैं। दूसरों के प्रति सहयोग और जीवन के प्रति आस्था को मजबूत कीजिए। प्रेम, अनुराग और सहृदयता जीवन मूल्य हैं। इनको केवल शब्द समझने से बचना होगा।
छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात सरलता से आप तक पहुंच जाए। एक राजा ने एक बार अपने मंत्रियों, विद्वानों को बुलाया। उनसे कहा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि मैं राजा क्यों हूं’। मैं ऐसे अनेक व्यक्तियों से मिलता हूं, जो मुझसे अधिक योग्य दिखते हैं, लेकिन उसके बाद भी मैं ही राजा हूं। मुझे पांच दिन के भीतर इस प्रश्न का उत्तर चाहिए। आप सभी लोग अगर ऐसा नहीं कर पाए, तो आपके पद समाप्त कर दिए जाएंगे।’
राजा की घोषणा के बाद मंत्रियों और विशेषज्ञों में हडक़ंप मच गया। जिन लोगों को बुलाया गया उनमें राजा का एक माली भी था, जिसकी सहज बुद्धि से राजा प्रभावित था, इसलिए माली होने के बाद भी उसे दरबार में प्रमुख स्थान प्राप्त था। जब चार दिन बीत गए, तो सभी को बड़ी चिंता हुई। माली ने घर पहुंचकर रात भोजन नहीं किया। उसकी बेटी ने पूछा, पिताजी क्या बात है। माली ने चिंता का कारण बता दिया। बेटी ने कहा, कोई बात नहीं।
कल मुझे राजमहल ले चलना। मैं राजा से बात करूंगी! उसकी बेटी से राजा भी परिचित था। माली को उसकी बात पर भरोसा तो न हुआ, लेकिन थोड़ी सांत्वना मिल गई। ठीक वैसे जैसे रेगिस्तान में प्यास से जूझते किसी यात्री को कुछ बूंदें मिल जाएं। माली ने सुकून के साथ भोजन किया और विश्राम को चला गया। अगले दिन वह बेटी को लेकर राजमहल पहुंचा।
बेटी ने राजा से कहा, ‘इस प्रश्न का उत्तर महल में नहीं मिल सकता। आपको मेरे पीछे-पीछे आना होगा’। राजा, मंत्रियों सहित प्रजा भी उसके पीछे चल दी। कुछ किलोमीटर दूर जाने पर एक कुएं के पास एक मेंढक प्यास से तड़प रहा था। माली की बेटी ने पूछा, ‘बताओ मेंढक, राजा राजा क्यों है’! मेंढक ने कहा, ‘यह मेरे बस की बात नहीं। यहां से कुछ मील दूर जाओ। ऐसे ही एक कुएं के पास धूल में लोटता मेंढक मिलेगा, उसके पास तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है’।
गर्मियों के दिन थे, लेकिन चिलचिलाती धूप में भी कारवां अगले कुएं की ओर बढ़ गया। कुएं के पास जाकर धूल में लोटता हुआ मेंढक मिला। इस मेंढक से भी वही प्रश्न दोहराया गया। मेंढक ने कहा, ‘पिछले जन्म की कहानी सुनाता हूं। हम तीन भाई थे। बहुत गरीबी और मुश्किल के दिन थे। किसी तरह हम लोगों को थोड़ा-थोड़ा भोजन मिला। हम लोग भोजन कर ही रहे थे, उसी समय एक भूखा बुजुर्ग व्यक्ति आ गया। हमारे पास बहुत ही थोड़ा भोजन था। मैं सबसे बड़ा था, उसने मुझसे खाना मांगा, तो मैंने उससे कहा, मैं तुम्हें दे दूंगा, तो क्या मैं धूल खाऊंगा।
फिर उसने दूसरे भाई से कहा, तो उसने कहा, तुमको अपना भोजन देकर क्या मैं भूख-प्यास से मर जाऊं। जब उसने तीसरे और सबसे छोटे भाई से भोजन मांगा, तो उसने अपने हिस्से का सारा भोजन चुपचाप भूखे बुजुर्ग को यह कहते हुए दे दिया कि मैंने तो कल भी खाया था! जबकि वह स्वयं दो दिन से भूखा था। यह राजा, इसलिए राजा है, क्योंकि यही वह तीसरा भाई है। इसके शब्दों के अर्थ का महत्व है। कहते तो बहुत से लोग हैं, लेकिन करते नहीं। इसने शब्द के महत्व को व्यर्थ नहीं किया। उसे कर्म में भी बदल दिया’!
यह राजा के राजा होने के कारण से अधिक हमारे व्यवहार और जीवन मूल्य की कहानी है। इसको इसी भाव से स्वीकार कीजिए!
-दयाशंकर मिश्र
विष्णु नागर
वही जस्टिस अरुण मिश्रा-जो प्रशांत भूषण मामले के कारण कुचर्चित होकर अवकाश ले चुके हैं-उनका एक और विवादास्पद निर्णय आया है-दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में रेलवे के किनारे बसी 48 हजार झुग्गी झोपडिय़ों को हटाने के बारे में।सरकार का पक्ष है कि राजनीतिक दखलअंदाजी के कारण ये झुग्गी झोपडिय़ाँ बसी हुई हैं।
मैं इन झुग्गी झोपडिय़ों के पक्ष में हजार तर्क नहीं दूँगा मगर एक सवाल उठाऊँगा-जो मशहूर जनपक्षधर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज उठाते रहे हैं-कि सरकार कोई हो, अदालत कोई हो, उसके निशाने पर हमेशा झुग्गी बस्तियाँ क्यों रहती हैं? हर शहर में और हमारे दिल्ली महानगर में लाखों कारें और स्कूटर-मोटर साइकिलें वगैरह बारहों महीने सडक़ और पटरियों को घेरे रहती हैं। इस पर किसी सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता? जाएगा भी नहीं। किसी अदालत का भी नहीं जाएगा। आदेश कभी निकलता भी है तो अगले दिन फुस्स हो जाता है।
वजह है मध्यवर्ग-उच्च मध्यवर्ग की मजबूत, हल्लेबाज ब्रिगेड। वह सरकार की हवा टाइट कर देगी।मोदीजी जैसे शूरवीरों को भी जगह दिखा देगी। दूसरा यह वाहन उद्योग बहुत ताकतवर है।खरबों रुपये इसमें लगे हैं-देशी कम, विदेशी उद्योगपतियों के। चाहे जितना प्रदूषण फैले, चाहे जितनी दुर्घटनाओं में चाहे जितने लोग मरें, वैश्विक स्तर पर सरकारों में सहमति है कि किसी भी कीमत पर इसे बढ़ाना है। इसके लिए कोई कीमत अधिक नहीं। तीसरा इस तरह के निर्णय से कारपोरेट हित भी जुड़े हैं। झुग्गियों से जो जमीन खाली होगी, वह रेलवे निजीकरण की प्रक्रिया में कारपोरेट जगत को लाभ देगी और कारपोरेट जगत के लाभ में सरकार का और विपक्ष का, दोनों का हित है।
समान नहीं,तो असमान सही, मगर है।
और गरीबों की कोई लाबी तो है नहीं,चाहे उनकी तादाद करोड़ों में हो। ज्यादा से ज्यादा झुग्गी उजाड़ोगे तो वे रो लेंगे। गुस्सा करेंगे, तोडफ़ोड़ करेंगे, कुछ मर जाएँगे, कुछ मार दिए जाएँगे। गोदी चैनल इनके खिलाफ मुसलसल आंदोलन चला देंगे।
एक रवीश कुमार इनके पक्ष में ज्यादा से ज्यादा दो दिन-तीन दिन करुण दृश्य दिखा देगा। दो चार एनजीओवालों-वकीलों को बोलने का मौका दे देगा। रवीश को भी मालूम है कि इससे कुछ होगा नहीं।
उधर कारें, स्कूटर, मोटरसाइकिलें बदस्तूर सडक़ों-पटरियों को घेरे रहेंगी। उनसे किसी नियम कानून का उल्लंघन नहीं होगा, चाहे आप देश की ऊँची से ऊँची अदालत जाकर देख लो, सडक़ पर आंदोलन करके देख लो। ज्यादा करोगे तो हममें से कोई अर्बन नक्सल बना दिया जाएगा। पड़े रहो जेल में। होगा वही,जो जयश्री राम चाहेंगे और जयश्रीराम का मतलब यहाँ राजनीतिक राम हैं,भाजपा के, मोदीजी के राम हैं। राम भी सबके अलग-अलग हैं अब।
सरलता को उपलब्ध होना, सबसे कठिन काम है। यह सरलता कुछ और नहीं, सुख-दुख में अपने मन की एक जैसी दशा को प्राप्त कर लेना है। अपने मन को ऐसी जगह ले जाकर खड़ा कर देना जहां से वह लाभ-हानि और सुख-दुख को समान भाव से देख पाए।
जीवन संवाद की शुरुआत एक छोटी-सी कहानी से। सूफी फकीर से किसी ने पूछा, ‘मुझे ईश्वर से बहुत शिकायत है। मैं बहुत धार्मिक व्यक्ति हूं, लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि ईश्वर मेरी बात नहीं सुनता। मेरी मन्नतों के प्रार्थना पत्र लगता है वह देखता ही नहीं! मेरी बात की उसके यहां सुनवाई नहीं। ऐसा क्यों होता है जबकि मैं तो किसी के साथ कुछ भी गलत नहीं करता। मेरी छोटी से छोटी ख्वाहिश भी अधूरी रह जाती है’।
फकीर ने बड़े प्रेम से उसे अपने पास बैठने का संकेत करते हुए कहा, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता, फिर भी चलो परख लेते हैं। तुम्हारे परिवार में तुम्हारे पिता, तुम और तुम्हारे बच्चे सभी लोग सेहतमंद हैं। किसी को कोई शारीरिक अक्षमता नहीं। बीमारी नहीं। कोई भूखा नहीं। कोई विवाद नहीं। अब तुम्हें ईश्वर की प्रसन्नता का क्या सबूत चाहिए।
अपनी हर परेशानी के लिए किसी और को दोष देना, भले ही वह ईश्वर क्यों न हो, ठीक नहीं लगता! इससे मन में असंतोष बढ़ता रहता है। अपने कामों के प्रति निष्ठा कम होती है। जीवन के प्रति आस्था प्रभावित होती है। नन्हा पौधा उगते हुए खराब मौसम की शिकायत नहीं करता। स्वयं को हवा, मौसम के अनुकूल बनाता है। हंसते हुए कष्ट सहता है। सब सहते हुए पेड़ बनने की यात्रा पर होता है। हमारी जीवन आस्था भी ऐसी ही हो, तो संकट सरलता से बीतते हैं’।
आप जिस किसी को भी जानते हैं अगर उससे हर छोटी-छोटी बात की शिकायत करेंगे। हर काम उसके ऊपर टालेंगे, तो धीरे-धीरे वह भी आपकी बातों से परेशान होने लगेगा। जब मनुष्य की यह हालत है, तो आप जिसे ईश्वर कहते हैं उसके पास तो प्रार्थना पत्रों का अंबार है।
सूफी फकीर ने यह कहते हुए अपनी बात खत्म की, ‘अपने उन प्रश्नों को ईश्वर की ओर मत भेजो, जिनका उत्तर तुम खुद हासिल कर सकते हो। अपनी हर तकलीफ को भाग्य से मत जोड़ो। जीवन को समझने की कोशिश करो, हम सब सरलता-सरलता कहते हैं, लेकिन सरलता को उपलब्ध होना, सबसे कठिन काम है। यह सरलता कुछ और नहीं, सुख-दुख में अपने मन की एक जैसी दशा को प्राप्त कर लेना है। अपने मन को ऐसी जगह ले जाकर खड़ा कर देना जहां से वह लाभ-हानि और सुख-दुख को समान भाव से देख पाए, सबसे बड़ा काम है।
हमारी प्रार्थना हमसे अलग हटकर होगी, तो उसके पूर्ण होने की संभावना कहीं अधिक है। असल में हम मांगना ही नहीं जानते। घर, गाड़ी, कपड़े, नौकरी, प्रमोशन, तबादले, यही सब तो मांगते रहते हैं! जबकि यह सुख नहीं हैं, सुख के साधन हैं। ऐसे छोटे-छोटे प्रार्थना पत्र जब हमें परेशान करते रहते हैं और हम स्वयं उन पर बहुत अधिक ध्यान नहीं देते, तो जिसके पास हम यह एप्लीकेशन भेज रहे हैं वह तो और अधिक व्यस्त है। इसलिए ईश्वर से कुछ मांगना है तो बड़ा मांगिए। महाभारत में पांडवों की कहानी इसका सबसे सरल और सहज उदाहरण है।’
कोरोना के कारण इस समय समाज पर गहरा संकट है। आर्थिक, शारीरिक, मानसिक। इन संकटों को हम जितना अधिक साझा कर सकते हैं। हमें करना चाहिए। यह सोचकर नहीं कि दूसरे के लिए किया जा रहा है, बल्कि यह सोचते हुए कि ऐसा करके हम अपने संकट कम कर रहे हैं। अपने लिए फूल चाहने वालों को, दूसरों के रास्ते के कांटे निकालते चलना चाहिए। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
पानी कितना ही कीमती क्यों न हो एक सीमा के बाद घड़ा उसे लेने से इंकार कर देता है। मनुष्य के अलावा हर कोई इंकार कर देता है। हम मन को भरते ही जाते हैं। इच्छा, देखा-देखी, नित नए सुख की चाह हमें रिक्त होने ही नहीं देती!
घड़ा कितना ही बड़ा क्यों न हो, सीमा से अधिक पानी भरते ही हांफने लगता है। वह साफ-साफ कह देता है, बस! पानी कितना ही कीमती क्यों न हो, एक सीमा के बाद घड़ा उसे लेने से इंकार कर देता है। मनुष्य के अलावा हर कोई इंकार कर देता है। हम मन को भरते ही जाते हैं। इच्छा, देखा-देखी, नित नए सुख की चाह हमें रिक्त होने ही नहीं देती! हमारे आसपास प्रेम करुणा और अनुराग की कमी का बड़ा कारण मन का खाली न होना है। मन में जगह नहीं होगी, तो कोमलतम भावना, विचार, प्रेम को भी उसके भीतर रखना संभव नहीं। मन ऐसे भरे-भरे क्यों हैं! इससे अधिक इस पर बात होनी चाहिए कि मन को भरने से कैसे रोका जाए। खाली करने से सरल है, भरने की सीमा का पता होना। कितना भरना है इसका बोध हो, तो मन के अत्यधिक भर जाने और उतराने की समस्या नहीं आती। बड़े से बड़े बांध अत्यधिक बारिश से हांफ जाते हैं। उन्हें बचाने के लिए उनके द्वार खोलने होते हैं। जिससे पानी की वह मात्रा जिसे वह संजोकर नहीं रख सकते, उसे बाहर निकाला जा सके।
ठीक वैसे ही जैसे बांध को बचाने के लिए अतिरिक्त पानी को बाहर फेंकना जरूरी है, वैसे ही अपने को स्वस्थ और मन को उदार, स्नेहिल बनाए रखने के लिए मन को खाली करते रहना जरूरी है। मन को खाली करना एक प्रक्रिया है। एक पाठ्यक्रम है। जिससे हमारे ठीक होने की संभावना बनी रहती है। सफलता की दौड़ में हम ऐसे झोंक दिए गए हैं कि हर चीज का पैमाना केवल आर्थिक रह गया है। मन की आंखें अगर जीवन का मर्म नहीं देख पाती हैं, तो वह उसके लबालब होने और तटबंध टूटने की आशंका को भी समझ नहीं पाएंगी। बांध के द्वार कब खोले जाएंगे, इसकी बकायदा घोषणा होती है, जिससे आसपास के क्षेत्र सुरक्षित दूरी पर रहें। नदी, नालों से दूर रहें।
ठीक यही व्यवहार मन का भी है! यह समझना जरूरी है कि मन के भीतर क्या भरा है! बरस दर बरस ईष्र्या, प्रेम की कमी और दूसरों से आगे निकलने की होड़ के कारण मन में खरपतवार उग आते हैं। समय-समय पर इनकी सफाई मन की सेहत के लिए अनिवार्य है!
हमारी सोच, समझ, विचार उसी तरह से आगे बढ़ते हैं, जिस तरह का खाद-पानी उनको मिलता रहता है। मन के प्रति सजगता व्यक्ति को बाहर से आने वाली कुंठा, दुख की बौछार से सरलता से बचा लेती है, इसलिए मन पर सबसे अधिक ध्यान देना जरूरी है, कि मन का व्यवहार कहीं बदल तो नहीं रहा। पहले तो हर चीज मन सुन लेता था उसके बाद अपनी प्रतिक्रिया देता था। अब अगर ऐसा नहीं हो रहा है, तो क्या हो रहा है! हमें अधिक तेजी से गुस्सा आने लगा है। हम बिना पूरी बात सुने ही गुस्से से उबलने लगे हैं, तो हमें समझना चाहिए कि मन के भीतर कुछ ऐसा घट रहा है जो बाहर से नहीं दिख रहा है। बहुत से लोगों के लिए मन में प्रेम कम होता जा रहा है। करुणा कम होती जा रही है, तो थोड़ा ठहरकर मन को संभालना जरूरी है।
मन को चौबीस घंटे भरना बंद करना पड़ेगा। मनोविज्ञान की भाषा में इसे ऐसे समझें कि आटे की चक्की वाला ऊपर से गेहूं डालता जाता है और नीचे आटा गिरता जाता है। वह कहता है इस आटे को कैसे रोक कर रखूं। उसका ध्यान आटा रोकने पर है, जबकि उसे गेहूं डालना बंद करने के बारे में सोचना चाहिए। चक्की को खाली करने के लिए आटे पर नहीं गेहूं पर ध्यान देना है। मन को थोड़ा-सा विश्राम, आराम देकर हम जीवन के सुकून, प्रेम को उपलब्ध हो सकते हैं!
-दयाशंकर मिश्र
-विष्णु नागर
किराए के घर बदलने का सबका अपना- अपना एक दिलचस्प इतिहास होता है। मेरा भी है।
शाजापुर में तो जैसा भी था, अपना मकान था, घर था। घर बदलना क्या होता है, किराएदार होना क्या होता है, इसका कोई अनुभव नहीं था। वहाँ ज्यादातर दोस्तों के अपने मकान थे। कुछ के पिता छोटे-मोटे अफसर थे, उनके पिता का स्थाानांंतरण होता रहता था, इसलिए वे किराए के मकानों मेंं रहते थे मगर दोस्त खुद तब किराएदार-मकानमालिक संबंधों के बारे में कुछ जानते न रहे होंगे। कभी यह विषय हमारी बातचीत में आया नहीं। वहाँ उस समय वैसे किराएदार मिल जाना ही बड़ी बात थी, तो तंग भी कौन करता! हमारे कच्चे मकान में भी आठ, दस और पाँच रुपये महीने के तीन किराएदार थे मगर मेरी माँँ ने उन्हें कभी तंग किया, यह याद नहीं।
दिल्ली आने के बाद ही मैं किराएदार बना, घर पर घर बदले। उनकी गिनती करने बैठूँगा तो शायद गड़बड़ा जाऊँ। बहुत आरंभ मेंं करीब एक महीने तक नार्थ एवेन्यू के एक फ्लैट की छत पर रात को सोनेभर की सुविधा मिली। नित्यकर्म की सुविधा भी वहाँ नहीं थी लेकिन कडक़ी के दिनों में सोने का ठिकाना मुफ्त में मिला तो शिकायत कैसी? शुक्रिया सर्वेश्वरजी, शुक्रिया कमलेशजी। आप दोनों इस दुनिया में नहीं हैं तो क्या हुआ, शुक्रिया।
उसके बाद हमारी सवारी किराए के मकान के लिए पहली बार यमुना पार के लिए चली।तब कहावत थी कि सारे दुखिया जमना पार।हम कौनसे तब सुखिया थे, सो उधर ही चल पड़े। ऐसे ही घूमते -घामते ,पूछते एक गली के एक छोटे दूकानदार के पास पहुँचे। उसने अभी-अभी कुछ एक-एक कमरे किराए पर देने के लिए बनाए थे। मेरे सीमित साधनों की दृष्टि से वह कमरा अच्छा लगा।टीमटाम कुछ था नहीं अपने पास। दिन में तो सब वहाँ सुहावना था। रात को वहाँ भयंकर मच्छर थे। उनसे बचाव का अपने पास कोई साधन नहीं था। दो दिन में वह घर बदला। उसका किराया था- तब 30 रुपये महीना। मकान मालिक से शिकायत की तो उस भले आदमी ने कहा, एक और कमरा है मेरे पास खाली पर यह उससे छोटा है। किराया 20 रुपये महीने।सीधे दस रुपये महीने की बचत मुझे हो रही थी। रहे होंगे उस कमरे में कोई छह महीने या शायद ज्यादा। अस्थायी रूप से आर्थिक स्थिति कुछ सुधरी तो एक बेहतर जगह छत पर एक कमरा और किचन ले लिया। इस बीच माँ को भी ले आया। इस बार किराया था 60 या पैंसठ रुपये। मकान मालिक- खासकर मालकिन काफी भली औरत थी। मुझे बहुत सीधा-अच्छा लडक़ा मानती थी, जो मैं था भी (मियांमि_ू) मगर सारा गड़बड़झाला मकान मालिक की लडक़ी ने किया। वह तब रही होगी- कोई चौदह-पंद्रह साल की। मैं इक्कीस का। उसकी बड़ी बहन एक और किराएदार से प्रेम करती थी। वह छोटामोटा व्यापारी था। उसकी माँ को भी इस प्रेम का पता था। वह खुद भी चाहती थी, यह मामला बढ़े और शादी तक पहुँचे। दोनों परिवार पंजाबी थे।
इधर उसकी छोटी बहन को भी बड़ी से प्रेम करने की प्रेरणा प्राप्त हुई होगी। उसे मैं इसका सुपात्र नजर आया। वह मेरी अनुपस्थिति में मेरी माँ का हालचाल लेने के बहाने आई और किताबों के बीच प्रेमपत्र रख गई। शाम को आया तो देखा।
अब अपना सीधापन एक न एक दिन गायब होना ही था। प्रेम घर चलकर आए तो हम भी कैसे रुक सकते थे! इतने भी सीधे, इतने भी बेवकूफ नहीं थे। अपनी और उसकी प्रेम करने में योग्यता-अयोग्यता, खतरे और संभावना पर विचार कौन करता तब!
उसी फ्लोर पर एक और शादीशुदा, दो बच्चोंवाले परिवार का मुखिया हमारे इस बढ़ते प्रेम का दुश्मन बना हुआ था। वह अपने कमरे के दरवाजे और खिडक़ी को हल्का सा उघड़ा रखता था। प्रेमिका ने इन दिनों छत पर कपड़े सुखाने की जिम्मेदारी ले रखी थी। वह आती और हम उसके नजदीक जाकर कुछ कहने की कोशिश करते तो वह हरामी खाँसखुँस कर रेड अलर्ट जारी कर देता। अरे भई तू शादीशुदा, तेरी बीवी सुंदर, तेरे दो बच्चे हैं। उम्र तेरी कोई बत्तीस-पैंतीस साल। मकान मालिक की तीन में से कोई लडक़ी, उस नाटे खूसट से प्रेम करे, इसकी कोई संभावना नहीं। तू भी किराएदार, हम भी किराएदार। तो तू काहे को दालभात में मूसलचंद बना हुआ है! ईष्र्या हो रही हो तो बीवी से ज्यादा प्रेम कर, बच्चों पर ध्यान दे और अपनी दुकान पर जा, खा-पी, मौज कर। पर नहीं साहब। जासूसी में लगे हुए हैं। उसे इस काम पर मकान मालिक ने लगानहीं रखा था, फिर भी स्वयंसेवक बने हुए हैं, चौकीदार बने हुए हैं।
उस चौकीदार ने हालत यह कर दी कि हम उसके हाथ भी क्या दो चार उँगली को जरा सा छूने से आगे न बढ़ सके।बस खतोकिताबत तक मामला सिमटकर रह गया। वह उस लडक़ी की माँ को भी भड़ाकाता था मगर हमारा उन पर इंप्रेशन इतना अच्छा था कि इसका उन पर कोई असर नहीं हो रहा था,यह बाद में पता चला। वह मान ही नहीं सकती थी कि मैं यानी यह नौजवान ऐसी ‘नीच’ हरकत भी कर सकता है!भली औरतों के ऐसे भोलेपन की अभ्यर्थना ही की जा सकती है।
मामला प्रेमपत्रों का हो और लंबा चले तो एक न एक दिन भांडा फूट ही जाता है पर इस सत्य का ज्ञान तब नहीं था। ज्ञान होता भी तो ज्ञानी बने रहना संभव नहीं था। एक दिन बालिका नहा रही थी। बाथरूम का ऊपर का हिस्सा हमेशा से खुला रहता था। इतनी ही हिम्मत थी कि प्रेमपत्र फेंकने का साहस किया। बालिका की उस पर नजर नहीं पड़ी। पत्र बाथरूम में पड़ा रहा और बालिका नहाकर बाहर आ गई।बस जी हमारे भलेपन की शामत आ गई। मकान मालकिन ने होहल्ला मचाना रणनीतिक दृष्टि से उचित नहीं समझा। वह मेरे पास आईं और धमकाया कि जान बचाना हो तो आज ही मकान ढूँढ कर सामान ले जा। इसके बाप को पता लगा तो तुझे काट डालेगा। और मैं तुझे सीधा समझती थी, यह तो दोहराया ही और बताया भी कि तेरी शिकायत तो मिली थी पर मैंने विश्वास नहीं किया। हम प्रेम में कटने-मरने तो आए नहीं थे दिल्ली। फौरन रणजीत नगर में नया मकान ढूँढा, सामान समेटा। वहाँ फायदा यह था कि पास ही शादीखामपुर में नेत्रसिंह रावत रहते थे, मेरे अभिन्न। उनके यहाँ जाना-मिलना आसान हो गया।
कान पकड़े कि अब से मकानमालकिन की लडक़ी या पड़ोसन से प्रेम नहीं करेंगे और इस एक प्रतिज्ञा पर हम अटल रहे। रंजीत नगर में एक कमरा -किचन था। शायद किराया 80 रुपये था।पास में एक और परिवार रहता था। उसका मुखिया एक दर्जी था। उसकी दो लड़कियाँ थीं। बड़ी कर्कशा थी, छोटी बेहद सीधी सादी, डरपोक। छोटी स्कूल जाती थी, बड़ी नहीं मगर छोटी बहन पर बहुत हुकुम चलाती थी। छोटी बेचारी जवाब नहीं दे पाती थी। सहती रहती थी। छोटी पर दया आती थी और प्रेम भी उमड़ता था। आँखों-आँखों में वह शायद समझ भी गई होगी मगर हमने इस बार कोई रिस्क नहीं ली। दूध के जले थे, तो हमने छाछ को फूँक-फूँक कर पीना भी मुनासिब नहीं समझा। छाछ को छुआ तक नहीं। प्रेम के क्षेत्र में कायर बने रहे क्योंकि पहले प्रेम के प्रेमपत्र के अलावा कुछ पल्ले नहीं पड़ा था।कुल ठोस उपलब्धि यही थी।
फिर शायद कम किराए के मकान के चक्कर में उसी इलाके में दूसरा कमरा लिया, उसमें किचन नहीं था। कुछ महीने ही रहे होंगे कि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में प्रशिक्षु पत्रकार की नौकरी के लिए बंबई प्रस्थान किया। दिलचस्प बात यह थी कि आखिरी दिन हमारे सामने रहनेवाली किसी अधेड़ औरत को पता चला कि हम सबकुछ छोड़छाड़ दिल्ली से जा रहे हैं। माँ भी मेरे साथ थी तो घर में कुछ सामान भी था। अचानक उसका हमारे प्रति प्रेम और सहानुभूति उमड़ पड़ी। वह मदद के लिए आ गई और जो भी हमारे पास छोडक़र जाने लायक सामान था, वह गरीब औरत माँगकर ले गई। एक तरह से उसने हमारी समस्या कम की।
ये था किस्सा आजतक। इंतजार करें कल तक।...
-श्रवण गर्ग
बहस का विषय इस समय यह है कि वकील प्रशांत भूषण अगर अपने आपको वास्तव में ही निर्दोष मानते हैं तो उन्हें बजाय एक रुपए का जुर्माना भरने के क्या तीन महीने का कारावास नहीं स्वीकार कर लेना चाहिए था? सवाल बहुत ही वाजिब है। पूछा ही जाना चाहिए। प्रशांत भूषण ने भी अपनी अंतरात्मा से पूछकर ही तय किया होगा कि जुर्माना भरना ठीक होगा या जेल जाना ! प्रशांत भूषण के ट्वीटर अकाउंट पर सत्रह लाख फालोअर्स के मुकाबले एक सौ सत्तर लाख से अधिक फालोअर्स की हैसियत रखने वाले ‘चरित्र’ अभिनेता अनुपम खेर ने भी अपना सवाल ट्वीटर पर ही उठाया है :’एक रुपया दाम बंदे का ! और वह भी उसने अपने वकील से लिया !! जय हो !! ’। निश्चित ही लाखों लोग अब इसी तरह के सवाल प्रशांत भूषण से पूछते ही रहेंगे और उनका जीवन भर पीछा भी नहीं छोड़ेंगे। वे अगर चाहते तो जुर्माने या सजा पर कोई अंतिम फैसला लेने से पहले पंद्रह सितम्बर तक की अवधि खत्म होने तक की प्रतीक्षा कर सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। हो सकता है वे न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के सेवा निवृत होने के पूर्व ही प्रकरण को समाप्त करना चाह रहे हों !
मैंने अपने हाल ही के एक आलेख (‘प्रशांत भूषण को सजा मिलनी ही चाहिए और वे उसे स्वीकार भी करें’) में गांधीजी से सम्बंधित जिस प्रसंग का उदाहरण दिया था उसे ताजा संदर्भ में दोहरा रहा हूँ। वर्ष 1922 में अंग्रेजों के खिलाफ अपने समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ में लेखन के आरोप में (तब ट्वीटर की कोई सुविधा नहीं थी) गांधीजी को अहमदाबाद स्थित उनके साबरमती आश्रम से गिरफ्तार करने के बाद छह वर्ष की सजा हुई थी। गांधीजी तब आज के प्रशांत भूषण से ग्यारह वर्ष कम उम्र के थे। कहने की जरूरत नहीं कि वे तब तक एक बहुत बड़े वकील भी बन चुके थे। हम इस कठिन समय में न तो प्रशांत भूषण से गांधीजी जैसा महात्मा बन जाने या किसी अनुपम खेर से प्रशांत भूषण जैसा व्यक्ति बन जाने की उम्मीद कर सकते हैं। गांधीजी पर आरोप था कि वे विधि के द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ घृणा उत्पन्न करने अथवा असंतोष फैलाने का प्रयास कर रहे हैं। अब इसी आरोप को प्रशांत भूषण के खिलाफ उनके द्वारा की गई सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना के संदर्भ में भी पढ़ सकते हैं। गांधी जी ने अपने ऊपर लगे आरोपों और अंग्रेज जज द्वारा दी गई छह वर्ष की सजा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया था।
प्रशांत भूषण को अगर सजा सिर्फ इतने तक सीमित रहती कि या तो वे एक रुपए का जुर्माना भरें या तीन महीने की जेल काटें तो निश्चित रूप से वे कारावास को प्राथमिकता देना चाहते। पर अदालत ने (कानून की व्याख्या और बार कौंसिल ऑफ इंडिया का हवाला देते हुए) जैसा कि कहा है प्रशांत भूषण अगर जुर्माना नहीं भरते हैं तो उन्हें तीन महीने की जेल के साथ ही तीन वर्ष के लिए वकालत करने पर प्रतिबंध भी भुगतना पड़ेगा। बातचीत का यहाँ मुद्दा यह है कि अंग्रेज जज एन. बू्रफफील्ड अगर गांधीजी की सजा के साथ यह भी जोड़ देते कि वे सजा के छह वर्षों तक सरकार के खिलाफ किसी भी प्रकार का लेखन कार्य भी नहीं करेंगे तो फिर महात्मा क्या करते?
क्या यह न्यायसंगत नहीं होगा कि प्रशांत भूषण द्वारा एक रुपए का जुर्माना भरकर मुक्त होने के मुद्दे को करोड़ों लोगों की ओर से जनहित के मामलों में सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने से तीन वर्षों के लिए वंचित हो जाने की पीड़ा भुगतने से बच जाने के रूप में लिया जाए? अनुपम खेर या उनके जैसे तमाम लोग इस मर्म को इसलिए नहीं समझ पाएँगे कि प्रशांत भूषण किसी फिल्मी अदालत में ‘अपने निर्देशकों’ द्वारा पढ़ाई गई स्क्रिप्ट नहीं बोलते। और न ही जनहित से जुड़ी किसी कहानी में भी स्क्रिप्ट की माँग के अनुसार नायक और खलनायक दोनों की ही भूमिकाएँ स्वीकार करने को तैयार बैठे रहते हैं।
प्रशांत भूषण का पूरे विवाद से सम्मानपूर्वक बाहर निकलना इसलिए जरूरी था कि नागरिकों की जिंदगी और उनके अधिकारों से जुड़े कई बड़े काम सुप्रीम कोर्ट से बाहर भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। बिना किसी अपराध के जेलों में बंद लोगों को इस समय उनकी कानूनी सहायता और सांत्वना की सख्त जरूरत है, जो कि ट्वीटर हैंडल पर उनके खिलाफ ट्रोल करने वाले कभी प्रदान नहीं कर सकते।साथ ही इसलिए भी जरूरी था कि अब प्रशांत भूषण उन तमाम लोगों का अदालतों में बचाव कर सकेंगे, जो अपने सत्ता-विरोधी आलोचनात्मक ट्वीट्स या लेखन के कारण अवमाननाओं के आरोप झेल सकते हैं।
जिस तरह की परिस्थितियाँ इस समय देश में है उसमें तीन साल तक एक ईमानदार वकील के मुँह पर ताला लग जाना यथा-स्थितिवाद विरोधी कई निर्दोष लोगों के लिए लम्बी सजाओं का इंतजाम कर सकता था। किन्ही दो-चार लोगों के आत्मीय सहारे के बिना तो केवल वे ही सुरक्षित रह सकते हैं, जो शासन-प्रशासन की खिदमत में हर वक्त हाजिर रहते हैं। प्रशांत भूषण को अगर जुर्माने और सजा के बीच फैसला करते वक्त अपनी अंतरात्मा के साथ किंचित समझौता करना पड़ा हो तो भी उन्होंने करोड़ों लोगों की आत्माओं को अब और ज़्यादा आजादी के साथ साँस लेने की स्वतंत्रता तो उपलब्ध करा ही दी है। क्या हमारे लिए इतनी उपलब्धि भी पर्याप्त नहीं है?