आजकल

दिमाग से लेकर बाकी बदन तक, इस्तेमाल न हों, तो कई बीमारियां
सुनील कुमार ने लिखा है
11-May-2025 7:00 PM
दिमाग से लेकर बाकी बदन तक,  इस्तेमाल न हों, तो कई बीमारियां

इन दिनों जिन लोगों को बड़े डॉक्टरों से जांच कराने की सहूलियत रहती है, उनके घर के बुजुर्गों में कुछ तरह की दिमाग से जुड़ी हुई बीमारियां सुनाई पड़ती हैं, किसी को अल्जाइमर सुनाई पड़ता है, किसी को पार्किंसंस, और किसी को किसी किस्म का डिमेंशिया। अब इनके बारे में अधिक लिखने से आज का पूरा कॉलम इन बीमारियों के ब्यौरे में ही खत्म हो जाएगा, इसलिए इतना बता देना ठीक है कि ये उम्र के साथ-साथ याददाश्त खोने वाली बीमारियां हैं, जिनमें लोग अपने ही सबसे करीबी लोगों को पहचानना बंद कर देते हैं, या उन्हें किसी और किस्म की याद नहीं रह जाती।

अब ऐसी बीमारियों को पूरी तरह टाला जा सकता हो, ऐसा तो अभी सामने नहीं आया है, लेकिन इन्हें दूर जरूर धकेला जा सकता है। डॉक्टरों का यह मानना है कि जो लोग मानसिक रूप से सक्रिय रहते हैं, जो पढ़ते-लिखते हैं, पहेलियां सुलझाते हैं, कोई नई भाषा या कोई नया हुनर सीखते हैं जिससे कि दिमाग पर जोर पड़ता है, दिमाग को सक्रिय रहना पड़ता है, तो उससे ये बीमारियां कुछ पीछे धकेली जा सकती हैं। लोग यह भी कहते हैं कि सुडोकू किस्म की गणित वाली पहेली हल करने से ये बीमारियां कुछ दूर धकेली जा सकती हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि अगर आप दो मोबाइल फोन इस्तेमाल करते हैं, तो उनमें से एक एंड्रॉइड पर काम करने वाला रखिए, और दूसरा किसी और किस्म के ऑपरेटिंग सॉफ्टवेयर वाला, ताकि आपके दिमाग पर अलग-अलग किस्म से फोन को कंट्रोल करने का दबाव बना रहे। कुछ लोग जो लैपटॉप और डेस्कटॉप दोनों पर काम करते हैं, वे भी इसी तरह माइक्रोसॉफ्ट-विंडोज, और मैक पर काम करते हैं, ताकि दिमाग पर जोर पड़ता  रहे। जब तक दिमाग का इस्तेमाल अधिक होता है, तब तक दिमाग उम्र के साथ आने वाली बीमारियों को कुछ दूर धकेलते जाता है।

बात है तो मेडिकल साईंस की, लेकिन उसे सहज और सरल तरीके से समझाने की आजादी ली जाए, तो बुढ़ापे में मर्दों को होने वाली, प्रोस्टेट बढऩे की बीमारी से जुड़ी एक मिसाल है। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि प्रोस्टेट बढ़ जाने पर भी हर व्यक्ति को प्रोस्टेट का कैंसर नहीं हो जाता। कुछ को होता है, बहुत से लोगों को नहीं होता। वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि जो लोग प्रोस्टेट बढ़ जाने के बाद भी एक सक्रिय यौन जीवन जीते हैं, उन्हें प्रोस्टेट के कैंसर का खतरा कम रहता है। मतलब यह कि पौरूषग्रंथी बढ़ जाने की यह बीमारी कैंसर में तब्दील होने से बच सकती है, अगर पुरूष एक सक्रिय यौन जीवन जीता है। और इस सक्रियता के लिए जरूरी नहीं है कि उस पुरूष के किसी और से ही संबंध हों, वह अपने आपकी संतुष्टि करके भी कैंसर के खतरे को कम कर सकता है। दिमागी सक्रियता से बुढ़ापे के दिमाग की बीमारियों से जिस तरह से बचा जा सकता है, उसी तरह यौन सक्रियता से प्रोस्टेट के कैंसर का खतरा कम होता है।

अब आज इस मुद्दे पर लिखना इसलिए सूझा कि समाचार-विचार की एक प्रमुख जर्मन वेबसाइट, डीडब्ल्यू पर अभी एक लेख आया है जो कहता है कि नई भाषाएं सीखने से लोगों का दिमाग तेज चलता है, उसे सीखने में जो जोर पड़ता है, उससे दिमाग की संरचना, और कार्यप्रणाली में बदलाव आते हैं। नई भाषा सीखने से इंसान का दिमाग अधिक सेहतमंद रहता है, ठीक उसी तरह जिस तरह नियमित कसरत करने से लोगों की मांसपेशियां अधिक मजबूत होती हैं, और शरीर के अधिकतर अंग अधिक स्वस्थ रहते हैं।

भाषा की विविधता से अगर दिमाग तेज काम करता है, कसरत करने वालों से कहा जाता है कि वे हर दिन बिल्कुल एक ही किस्म की कसरत न दोहराएं, और उसमें कुछ फेरबदल भी करते रहें, साइकिल चलाने वालों से कहा जाता है कि वे कभी तेज, और कभी धीमी साइकिल चलाएं, और खानपान के बारे में भी लोगों से कहा जाता है कि रोजाना एक ही किस्म का खाना खाने के बजाय उसमें विविधता बेहतर रहती है। लोगों का यह भी मानना है कि इंसानों के लगाए हुए कितने भी बड़े वृक्षारोपण के मुकाबले प्राकृतिक जंगल अधिक अच्छे रहते हैं। जो लोग एक ही धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, पेशे, और जेंडर के लोगों के बीच उठते-बैठते हैं, उनके मुकाबले विविधता के बीच जीने वाले लोगों का मानसिक विकास बेहतर होता है।

इस बात से मुझे याद पड़ता है कि जब फेसबुक पर मुझे कुछ दोस्तों को जोडऩे की जरूरत पड़ती है, तो मैं ऐसे प्रदेश, धर्म, जेंडर, पेशे, या राष्ट्रीयता के लोग देखता हूं जैसे लोग अभी तक मेरे दोस्तों की लिस्ट में नहीं हैं। किसी एक किस्म के लोगों को अंतहीन जोड़ते चले जाना मुझे नहीं सुहाता, क्योंकि उस तरह की सोच वाले लोगों की संगत तो मुझे वैसे ही हासिल है। लेकिन जिस तरह दिमाग पर जोर पडऩे से बुढ़ापे की मानसिक-बीमारियां टलती हैं, उसी तरह का जोर किसी भी उम्र में तब भी पड़ता है जब हम विपरीत विचारधारा वाले लोगों से मिलते हैं। हमारे दिमाग में अपनी विचारधारा, पूर्वाग्रहों, और अपने स्वार्थ के लिए जो धारणाएं बनी रहती हैं, वे उनसे असहमत लोगों से बात करने पर एक चुनौती पाती हैं, जिस तरह कसरत से बदन की चर्बी पर जोर पड़ता है, लचीलापन खो बैठी रीढ़ की हड्डी पर जोर पड़ता है, उसी तरह का वैचारिक जोर असहमत विचारधारा से बातचीत में भी पड़ता है। हमें अपने ही पूर्वाग्रहों के आरामदेह सोफे से उठकर सीमेंट की पथरीली बेंच पर बैठना पड़ता है, और अपने को नापसंद, या अपने से असहमति रखने वाले तर्कों, और तथ्यों को सुनना पड़ता है, जो कि दिमाग पर खासा जोर डालने का काम रहता है, लेकिन इसी से लोगों का व्यक्तित्व विकास भी हो सकता है।

हमखयाल या समविचारकों के साथ ही हर दिन उठना-बैठना, गप मारना आरामदेह तो हो सकता है, लेकिन उससे उतना ही नफा हो सकता है जितना कि किसी धर्म के मानने वालों के बीच कीर्तन या उस सरीखा कुछ और करने पर हासिल होता है। असहमत विचारधारा दिल-दिमाग पर जोर डालती है, और अपने को नापसंद बातें सुन-सुनकर दिल मजबूत होता है, और दिमाग भी धारदार बनता है। जिस तरह किसी चाकू-छुरी पर धार करने के लिए उसकी सतह को उससे कड़ी किसी सतह पर घिसना पड़ता है, और घिसकर ही यह धार हो पाती है, इसी तरह वैचारिक असहमति से जूझकर ही वैचारिक मजबूती पाई जा सकती है। अपने जैसे लोगों के बीच उठ-बैठकर सोफा पर बैठे चिप्स खाते और टीवी देखते हासिल होने वाली चर्बी ही मिल सकती है।

जो लोग दूसरे धर्म, जाति, क्षेत्रीयता, भाषा, और जेंडर या पेशे सरीखी बातों से परहेज करते हैं, उनका दिमाग धीरे-धीरे बुढ़ापे की बीमारियों की तरफ बढ़ता है। हमको रोजाना की असल जिंदगी में सुडोकू सरीखी आने वाली चुनौतियों से जूझना सीखना चाहिए, तभी बुढ़ापा बेहतर हो सकता है। ये तमाम बातें मेडिकल रिसर्च पर आधारित बातें हैं, लेकिन इनको हमने जिंदगी के दूसरे पहलुओं पर भी लागू करके देखा है, और दिल-दिमाग का हाल बाकी शरीर सरीखा ही है। लोगों को लगातार असहमति और चुनौतियों का सामना करना चाहिए, उनसे जूझना सीखना चाहिए। इंसानी दिमाग कई किस्म की विपरीत विचारधारा, नई परिस्थितियों, नए लोगों से जूझने की ताकत रखता है, और जब इस ताकत का इस्तेमाल बंद हो जाता है, तो फिर शरीर के उन हिस्सों का उपयोग भी खत्म होने लगता है, और वे पार्किसंस से लेकर अल्जाइमर, और प्रोस्टेट कैंसर तक कई किस्म की बीमारियों का खतरा झेलने लगते हैं। असहमति को सुने बिना विचारधारा भी बीमार होने लगती है।     (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


अन्य पोस्ट