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-ललिता मौर्य
आज सब तरफ ऑनलाइन शॉपिंग की धूम है। आप रोजमर्रा की चीजों जैसे दाल, सब्जी से लेकर गाड़ी तक घर बैठे ऑनलाइन खरीद सकते हैं। भारत में अमेज़न, फ्लिपकार्ट जैसे बड़े नाम आपकी जरुरत की हर चीज घर बैठे ही उपलब्ध करा देते हैं। पर क्या यह ऑनलाइन शॉपिंग जेब के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है?
अमेरिकन केमिकल सोसाइटी के जर्नल एनवायर्नमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी में इससे जुड़ा एक शोध प्रकाशित हुआ है। जो पर्यावरण पर पड़ने वाले इसके प्रभाव की भी व्याख्या करता है। इसके अनुसार खरीदारी करते समय ऑनलाइन और स्वयं जाकर खरीदारी करने के विकल्प को चुनते समय उससे होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को भी ध्यान में रखना चाहिए, जिससे पर्यावरण की भी रक्षा की जा सके, तभी तो वो हमारी भी रक्षा कर सकेगा।
पैदल और साइकिल पर जाकर खरीदारी करने से 40 फीसदी घट सकता है उत्सर्जन
इस अध्ययन के अनुसार आमतौर पर व्यक्तिगत और घरेलु उत्पादों जैसे दाल चावल को उपभोक्ता स्वयं दुकान पर जाकर खरीदना पसंद करते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार जब सामान को ऑनलाइन खरीदा जाता है और उसकी डिलीवरी किसी दुकान के जरिये की जाती है तो पारम्परिक तरीके से खरीदारी करने की तुलना में इससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 63 फीसदी कम होता है।
इसका मतलब है कि यह पर्यावरण के दृष्टिकोण से अधिक फायदेमंद होता है। जबकि इसके विपरीत ऑनलाइन खरीदारी करने के बाद जब सामान की डिलीवरी किसी अन्य पार्सल डिलीवरी कंपनी के जरिये की जाती है तो उससे पारम्परिक खरीदारी की तुलना में 81 फीसदी अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। शॉपिंग और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ा यह अध्ययन यूके पर आधारित है। जिसमें शोधकर्ताओं ने वस्तु के परिवहन, भण्डारण, वितरण और पैकेजिंग से होने वाले उत्सर्जन का विश्लेषण किया है।
साथ ही शोधकर्ताओं का यह भी मानना है कि यदि उपभोक्ता खुद पैदल या साइकिल के जरिये दुकान पर जातें हैं तो वो उत्सर्जन को 40 फीसदी तक कम कर सकते हैं, जबकि यदि पार्सल डिलीवरी कंपनी ऑनलाइन विक्रेता केंद्रों से उपभोक्ताओं के घरों तक उत्पादों की डिलीवरी के लिए वैन की जगह इलेक्ट्रिक बाइक का इस्तेमाल करती है तो वो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 26 फीसदी की कटौती कर सकते हैं।(downtoearth)
- ललिता मौर्य
2017 से 2030 के बीच भारत में 68 लाख बच्चियां का जन्म नहीं होगा, क्योंकि बेटे की लालसा में उन्हें जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाएगा। यह जानकारी 19 अगस्त को जर्नल प्लोस में छपे एक नए शोध में सामने आई है। शोधकर्ताओं ने इसके लिए देश भर में हो रही कन्या भ्रूण हत्या को जिम्मेवार माना है। यह शोध फेंग्किंग चाओ और उनके सहयोगियों द्वारा किया गया है जोकि किंग अब्दुल्ला यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, सऊदी अरब से जुड़े हैं।
भारत में कन्या भ्रूण हत्या का इतिहास कोई नया नहीं है। लम्बे समय से लड़कों को दी जा रही वरीयता का असर लिंगानुपात पर भी पड़ रहा है। समाज में फैली इस कुरुति ने संस्कृति का रूप ले लिया है। लड़का वंश चलाएगा यह मानसिकता आज भी भारत में फैली हुई है। सिर्फ अनपढ़ और कम पढ़े-लिखे परिवारों में ही नहीं बल्कि शिक्षित लोगों में आज भी यह मानसिकता ख़त्म नहीं हुई है। 1970 के बाद से तकनीकी ज्ञान ने इस काम को और आसान कर दिया है। इसमें भ्रूण की पहचान बताने वाले अल्ट्रासाउंड सेंटर और नर्सिंग होम की एक बड़ी भूमिका है।
हर साल औसतन 469,000 कन्या भ्रूण नहीं ले पाएंगी जन्म
इस शोध में शोधकर्ताओं ने देश के 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को शामिल किया है और उनमें जन्म के समय लिंगानुपात का विश्लेषण किया है। 2011 के आंकड़ों के अनुसार यह देश की 98.4 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिसमें से 9 में स्पष्ट तौर पर बेटे की वरीयता साफ झलकती है। इसमें से उत्तरपश्चिम के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है।
यदि पूरे भारत को देखें तो 2017 से 2030 के दौरान 68 लाख कन्या भ्रूण जन्म नहीं ले पाएंगी। यदि 2017 से 2025 के बीच का वार्षिक औसत देखें तो यह आंकड़ा 469,000 के करीब है। जबकि 2026 से 2030 के बीच यह बढ़कर प्रति वर्ष 519,000 पर पहुंच जाएगी। शोधकर्ताओं के अनुसार कन्या जन्म में सबसे अधिक कमी उत्तर प्रदेश में होगी, जिसमें अनुमान है कि 2017 से 2030 के बीच 20 लाख बच्चियां जन्म नहीं ले पाएंगी।
केवल कानून से नहीं मानसिकता बदलने से आएगा बदलाव
हालांकि देश में इसको रोकने के लिए पीसी पीएनडीटी एक्ट अर्थात प्रसव पूर्व निदान तकनीक (विनियमन एवं दुरूपयोग निवारण अधिनियम-1994) बनाया गया था जिसे 1996 में लागु किया गया था। वर्ष 2003 में इसे संशोधित किया गया था, इसके तहत लिंग निर्धारण करते हुए पहली बार पकड़े जाने पर तीन वर्ष की सजा एवं 50 हजार का जुर्माना लगाने का प्रावधान था। जबकि दूसरी बार पकड़े जाने पर पांच वर्ष की जेल एवं एक लाख रुपये का अर्थ दंड निर्धारित किया गया है। इसके बावजूद देश में अभी भी इस कानून का उल्लंघन जारी है।
यह स्थिति तब तक नहीं सुधरेगी जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलती। केवल कानून बना देने से इस समस्या का समाधान नहीं होगा। भारतीय समय में मानसिकता के बदलाव की जो प्रक्रिया है वो बहुत धीमी है। आज भी लोग बेटियों की जगह बेटों को तरजीह देते हैं। जिसके पीछे की मानसिकता यह है कि बेटों से वंश चलता है, जबकि बेटियां पराया धन होती हैं। जो शादी के बाद पराये घर चली जाती हैं।
देश में आज भी लड़की का मतलब परिवार के लिए अतिरिक्त खर्च होता है। इसमें समाज की भी बहुत बड़ी भूमिका है, बच्चियों के खिलाफ बढ़ते अपराधों की वजह से भी लोग बेटी के बदले बेटा चाहते हैं। तकनीक की मदद से गर्भ में ही बच्चे के लिंग का पता चल जाता है और बेटी होने पर गर्भपात करा दिया जाता है। ऐसे में कानून के साथ-साथ मानसिकता में भी बदलाव लाने की जरुरत है, जिससे वास्तविकता में बेटियों को बराबरी का हक़ दिया जा सके।(downtoearth)
-रमेश शर्मा
कई ऐतिहासिक अन्यायों को सुधारते हुये, न्याय की स्थापना के लिये लाये गये वनाधिकार क़ानून (2006) की लोकप्रियता इस बात से समझी जा सकती है कि एशिया और अफ्रीका के कुछ देश अपने मूलवासियों के लिये भी ऐसी ही पहल करना चाहते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का विश्व खाद्य और कृषि संगठन पहले ही इसे मूलवासियों/ आदिवासियों के अधिकारों के लिये दुनिया के बेहतरीन कानून का दर्जा दे चुका है। दुनिया के अनेक देशों में लोगों के जंगल-जमीन पर अधिकारों की मान्यता और स्थापना के लिये भारत का यह वनाधिकार क़ानून, आज सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण सन्दर्भ है।
भारत में वन कानूनों के जन्मने का इतिहास और लागू होने का भूगोल यहां के अनेक उन सशक्त जमीनी आंदोलनों के प्रतिक्रियास्वरूप आकार लेते गये, जो विगत दो सदी में हुये। स्वाधीनता के पूर्व के संघर्ष, यदि उन गुलाम बनाने वाले कानूनों के प्रति खिलाफत थे, तो आजादी के बाद के आंदोलन उन औपनिवेशिक कानूनों की समाप्ति का सत्याग्रह बना। वनाधिकार कानून के लिये संघर्ष और सफलता का अध्याय इसी बिंदु से शुरू होता है। वनाधिकार कानून लागू करते हुए भारत सरकार की यह स्वीकारोक्ति की यह कानून 'ऐतिहासिक अन्याय' को समाप्त करने में मील का पत्थर साबित होगा, बेहद महत्वपूर्ण वैधानिक प्रयास था। लेकिन जारी ऐतिहासिक अन्याय समाप्त हुआ या नहीं आज इसके ज़मीनी पड़ताल की आवश्यकता है।
यह जगजाहिर है कि अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का, भारत सहित तीसरी दुनिया के जंगलों के प्रति हरित-प्रेम के अपने सुलझे-उलझे आर्थिक तर्क रहे हैं । दुर्भाग्य से सरकार का एक पूरा तंत्र और अमला उन हरे-भरे अंतर्राष्ट्रीय निवेशों का लाभार्थी था/है, जिसके लिये आदिवासी को जंगल में अतिक्रमणकर्ता और अवांछित साबित कर दिया गया। भारत में वन संपदा के दोहन और संरक्षण के नाम पर लाये गये तमाम वानिकी परियोजनाओं के विस्तार और उनके विध्वंसक परिणामों के प्रभाव-दुष्प्रभाव से यह देखा और समझा जा सकता है। जाहिर है, अंतर्राष्ट्रीय निवेशों के लिये बनाये गये इस वन-तंत्र में जंगल के सनातन रक्षक अर्थात आदिवासी समाज के मौलिक अधिकारों को खारिज़ किये बिना, वन संपदा की खुली लूट संभव थी ही नहीं।
बाद के बरसों में वैश्वीकरण और निजीकरण के नये आर्थिक तर्कों के साथ नवें दशक के मध्य से तथाकथित विकास के नाम पर जल जंगल और जमीन जैसे संसाधनों के संगठित लूट के ऐतिहासिक अन्याय का जो अध्याय शुरू हुआ वो आज तक तमाम अंतर्विरोधों और बाहरी प्रतिरोधों के बावज़ूद भी जारी है। नयी सदी के भारत गढ़ने के लिये जनहित के नाम पर शुरू की गयी विकास - योजनाओं की तमाम सदाशयताओं के साथ ही जल जंगल और जमीन के अधिग्रहणों का जो दौर आया, उसमें आदिवासी समाज, लगभग नेपथ्य में धकेल दिया गया। भारत में उत्खनन, औद्योगीकरण और वृहत परियोजनाओं का अवांछित परिणाम हुआ कि करोड़ों आदिवासी और वनाश्रित लोगों को हमेशा के लिये उजाड़-उखाड़ दिया गया। इसीलिये वनाधिकार कानून जैसे कवच की जरूरत थी जो जारी ऐतिहासिक अन्यायों और आदिवासी / वनाश्रित समाज के मध्य सुरक्षात्मक दीवार बन सके।
ऐतिहासिक अन्याय के प्रमाणों और परिणामों के तर्कों के साथ लाये गये अब तक के सबसे क्रांतिकारी वनाधिकार कानून (2006) का प्रथम लक्ष्य, आदिवासी और वनाश्रित समाज के उन लिखित-अलिखित अधिकारों की पुनर्स्थापना और मान्यता थी, जिसके बिना देश के प्रथम समुदाय के न्याय, अस्मिता और सम्मान का मार्ग प्रशस्त होना संभव ही नहीं था। वास्तव में ऐतिहासिक अन्याय के दृष्टिकोण से उन सभी कानूनों, नियमों, नीतियों और व्यवस्था को समाप्त किया जाना अपरिहार्य था जो अब तक अन्याय को पोषित करते रहे थे। लेकिन आदिवासी और वनाश्रित समाज के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित वन कानूनों और उससे जुड़े वन-तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन के अभाव में वनाधिकार कानून का क्रियान्वयन वास्तव में आज विरोधाभासों से भर गया है।
आदिवासी और वनाश्रित समाज को निर्णायक भूमिका में लाने की प्रतिबद्धता के साथ वनाधिकार क़ानून का जो प्रारूप लागू हुआ वह निःसंदेह 'अस्मिता और अधिकारों' के सवालों का सबसे सार्थक उत्तर था/है। लेकिन वनाधिकार कानून के लागू होने के बाद लगभग एक दशक से अधिक के प्रयास और परिणाम यह साबित कर रहे हैं कि समूचे तंत्र के माध्यम से पोषित जारी ऐतिहासिक अन्यायों को महज़ एक नये क़ानून भर से समूल समाप्त नहीं किया जा सकता है। वास्तविक चुनौती तो उस पूरे तंत्र से है जहां आदिवासी अस्मिता और अधिकारों को अब भी नैतिक, राजनैतिक और वैधानिक रूप से पूरी तरह आत्मसात नहीं किया गया है। यथार्थ है कि वन विभाग और मौजूदा वन कानूनों के दायरे में यदि आदिवासी समुदाय महज़ एक लाभार्थी और आवेदनकर्ता भर है तो पंचायत विभाग भी अब तक पांचवी अनुसूची के प्रावधानों को धरातल पर नहीं उतार सका है। प्रशासनिक तंत्र के लिये आदिवासी समाज जहाँ केवल एक अनुसूचित वर्ग है तो राजनैतिक बिरादरी के लिये आदिवासी अधिकारों के सवाल, महज़ उलझाये रखे जा सकने वाले चंद मुद्दे हैं। आज वनाधिकार क़ानून का आधा-अधूरा क्रियान्वयन इन विरोधाभासों का ही प्रतिबिम्ब है।
जाहिर है आदिवासी समाज को अतिक्रमणकर्ता मानने वाले असंवैधानिक प्रावधानों को समूल समाप्त किये बिना आदिवासी समाज के अस्मिता और अधिकार की स्थापना न तब संभव था और न आज है। इसीलिये जंगल को राजस्व का साधन और संसाधन मानने वाले समूचे वन-तंत्र और आदिवासी समाज के आदिवासियत के मौलिक मूल्यों बीच यह सनातन द्वन्द आज भी जारी है। वनाधिकार कानून की सीमित सफलतायें और संदिग्ध क्रियान्वयन, अब तक जारी द्वंदों का ही सार्वजनिक प्रमाण और परिणाम है।
वनाधिकार क़ानून (2006) के लागू होने के बाद विगत 12 बरसों के लेखा-जोखा से इसे समझने की कोशिश की जा सकती है। जनगणना (2011) के अनुसार भारत में कुल आदिवासी परिवारों की संख्या लगभग 2.2 करोड़ है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा जारी रिपोर्ट (2020) के अनुसार अब तक लगभग 20 लाख परिवारों को वनाधिकार प्रदान किया गया है। अर्थात विगत 12 बरसों में अब तक 10 फ़ीसदी से भी कम आदिवासी परिवारों को वनाधिकार दिया गया है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा 2 जुलाई 2020 को जारी एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अब तक लगभग 12 लाख प्रकरणों का निरस्तीकरण हुआ है। इन सरकारी रिपोर्टों का सारांश यह है कि लगभग 80 फ़ीसदी आदिवासी परिवार अब भी अपने अस्मिता और अधिकार के लिये आवेदकों के कतार में बेबस प्रतीक्षारत खड़े हैं।
एक समसामयिक सवाल यह हो सकता है कि क्या वन विभाग के बिना, जंगल और आदिवासी समाज दोनों संपन्न रह सकते हैं? यदि बहुमत इसके पक्ष में है, तो आज फिर ऐतिहासिक न्याय की स्थापना लिये जंगल-जमीन के पूरे नये लोकतंत्र की जरूरत होगी। किन्तु लोकतांत्रिक राज्य का इसके पक्ष में न होने का संभावित परिणाम उन सभी संघर्षों की नये सिरे से शुरुआत होगी जिसे वनाधिकार कानून (2006) के बाद आदिवासी तथा वनाश्रित समाज के न्याय और विकास के लिये संधि मान लिया गया था। आदिवासी और वनाश्रित समाज समाज आज किसी स्पष्ट उत्तर की प्रतीक्षा में है। (downtoearth)
-पुलकित भारद्वाज
राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट पिछले हफ्ते जयपुर लौट आए. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से अदावत के चलते वे एक महीने से ज़्यादा समय से भाजपा शासित हरियाणा में रुके हुए थे. जयपुर आने से एक दिन पहले पायलट और उनके समर्थक विधायकों ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी से मुलाकात की थी. सचिन पायलट गुट का दावा है कि इस मुलाकात में उनकी मांगों और शिकायतों को तफ़सील से सुना गया. इस मुलाकात में कथित तौर पर सचिन पायलट ने भी भरोसा दिलाया कि गहलोत सरकार को कार्यकाल पूरा करने में उनकी तरफ़ से कोई व्यवधान नहीं पहुंचेगा. इसके बाद 14 अगस्त को बुलाए गए विधानसभा सत्र में अशोक गहलोत सरकार ध्वनिमत से बहुमत साबित करने में सफल रही. वहीं रविवार देर रात पार्टी हाईकमान ने पायलट की मांगों और शिकायतों के निदान के लिए वरिष्ठ नेता अहमद पटेल, के सी वेणुगोपाल राव और अजय माकन की सदस्यता वाली कमेटी का गठन कर दिया.
इस सब को देखते हुए जानकारों के एक वर्ग का मानना है कि राजस्थान में अब तक जो सियासी घमासान मचा हुआ था उसका निपटारा हो चुका है. लेकिन कई विश्लेषक ऐसे भी हैं जिनके मुताबिक यह खींचतान फिलहाल भले ही थमती नज़र आ रही है. लेकिन यह स्थिति कब तक बनी रहेगी, इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल है.
पहले सचिन पायलट की ही बात करें तो वे राजस्थान आ तो गए हैं, लेकिन अब उनके पास न तो उपमुख्यमंत्री का पद है और न ही पार्टी प्रदेशाध्यक्ष का. फिर जयपुर आने के बाद उन्होंने मीडिया में जितने भी बयान दिए हैं उनमें एक ही लाइन को बार-बार दोहराया है कि ‘पद हो या ना हो, प्रदेश की जनता के प्रति अपने दायित्व को निभाता रहूंगा’. उनकी इस बात का यह मतलब निकाला जा रहा है कि शायद राजस्थान में उन्हें पार्टी या सरकार में हाल-फिलहाल कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिलने वाली है. वे अपने समर्थकों को जताना चाहते हैं कि उनकी लड़ाई सिर्फ स्वाभिमान के लिए ही थी और उन्हें कभी किसी पद का कोई लालच नहीं था. संभावना यह भी जताई जा रही है कांग्रेस हाईकमान पायलट को संगठन में प्रदेश के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर कोई जिम्मेदारी सौंप सकता है. हालांकि यह किसी से नहीं छिपा है कि उनका मन केंद्र के बजाय राजस्थान की राजनीति में ही ज़्यादा रमता है.
विश्लेषकों के मुताबिक यदि सचिन पायलट तमाम हालातों के मद्देनज़र दिल्ली में कोई जिम्मेदारी संभाल लेते हैं तो उनके लिए 2023 के अगले विधानसभा चुनाव तक राजस्थान की सरकार और पार्टी संगठन में कोई प्रत्यक्ष और प्रभावशाली भूमिका निभा पाने की गुंजाइश कम ही नज़र आती है. इस हिसाब से राजस्थान की राजनीति में सचिन पायलट का करियर कम से कम तीन वर्ष के लिए पीछे खिसकता दिख रहा है. और यदि 2023 में राजस्थान के मतदाताओं ने चुनाव-दर-चुनाव सत्ता बदलने की अपनी परंपरा को बरक़रार रखा तो मुख्यमंत्री बनने के लिए पायलट को कम से कम आठ साल का इंतज़ार करना पड़ेगा. तब तक उनकी उम्र 50 का आंकड़ा पार कर चुकी होगी. और उस वक्त भी उनका वक्त तब आएगा जब सारी राजनीतिक परिस्थितियां उनके पक्ष में होंगी.
कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इस दौरान पार्टी हाईकमान सूबे में किसी तीसरे चेहरे को मुख्यमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाने पर भी विचार कर सकता है. कई पायलट समर्थकों का भी यह कहना है कि सचिन पायलट की पूरी लड़ाई ख़ुद मुख्यमंत्री बनने की नहीं बल्कि गहलोत को पद से हटाने की थी. इनकी बात के समर्थन में कहा जा सकता है कि तीसरे मुख्यमंत्री का विकल्प पायलट ने 2018 में भी पार्टी शीर्ष नेतृत्व के सामने रखा था. हालांकि इसे समझना कोई मुश्किल बात नहीं कि पायलट के लिए यह मजबूरी का विकल्प ही रहा होगा. और इस विकल्प को सामने रखकर वे किसी न किसी तरह खुद की दावेदारी ही मजबूत करना चाह रहे होंगे
वर्तमान घटनाक्रम से पहले तक इस बात का ठीक-ठीक अंदाजा शायद कम ही लोगों को था कि राजस्थान में कांग्रेस के सभी विधायकों में से कितने पायलट के पक्ष में हैं और कितने गहलोत के. लेकिन हालिया घटनाक्रम के दौरान पायलट के साथ पार्टी के 100 में से सिर्फ 18 और तेरह निर्दलीय में से महज तीन विधायकों ने ही हरियाणा में डेरा जमाया था. ग़ौरलतब है कि मुख्यमंत्री गहलोत के ख़िलाफ़ खोले गए मोर्चे में पायलट अपने कई करीबी विधायकों और मंत्रियों तक का समर्थन हासिल नहीं कर पाए. इनमें राज्य के परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास प्रमुख थे जो इस पूरे विवाद के दौरान अपने बयानों के ज़रिए पायलट पर बड़े हमले बोलने की वजह से चर्चाओं में रहे थे. जबकि स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा बहुत पहले ही पायलट से दूरी बना चुके हैं.
जानकारों की मानें तो कांग्रेस आलाकमान राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन की सचिन पायलट की मांग पर सिर्फ़ तभी विचार कर सकता था जब वे पांच सप्ताह हरियाणा में जमे रहने के बजाय शुरुआती दिनों में ही उससे जाकर मिल लेते. सूत्रों के मुताबिक उन दिनों ख़ुद प्रियंका गांधी ने कई बार पायलट से संपर्क साधने की कोशिश की थी. पर नाकाम रहीं. लेकिन जब पायलट को इस बात का अहसास हुआ कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उन्हें और उनके समर्थक विधायकों को अयोग्य घोषित करवाने के बाद बहुमत भी साबित कर देंगे तब जाकर उन्हें गांधी परिवार की याद आई. पायलट के इस डर को भाजपा की कद्दावर नेता व प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अस्पष्ट राजनीतिक रुझानों ने भी हवा देने का काम किया. दरअसल सचिन पायलट आरोप लगाते रहे हैं कि विपक्षी दलों से होने के बावजूद सिंधिया और गहलोत पर्दे के पीछे एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं.
ऐसे में जानकारों का मानना है कि पायलट अब एक खुली मुट्ठी की तरह हो गये हैं जिनके लिए कांग्रेस हाईकमान ने अपने दरवाजे भले ही खोल दिए हों लेकिन वह उनकी हर शर्त को मानेगा ही यह कह पाना मुश्किल है! हालांकि राजस्थान में पायलट समर्थकों को शीर्ष नेतृत्व द्वारा गठित की गई कमेटी से बड़ी उम्मीदें है. इन समर्थकों का मानना है कि यह कमेटी ऐसा कोई रास्ता ज़रूर निकालेगी जिसके सहारे उनके नेता सूबे में सम्मानजनक तरीके से सक्रिय रह सकें. लेकिन विश्लेषकों का यह भी मानना है कि यदि कमेटी पायलट गुट को कुछ खास संतुष्ट कर पाने में नाकाम रही तो एक बार फिर कांग्रेस को राजस्थान में अस्थिरता का माहौल देखने को मिल सकता है. ग़ौरतलब है कि मीडिया को दिए अपने बयानों में पायलट ने जिस एक और बात को दोहराया है उसका लब्बोलुआब है कि ‘जो बीत गया उसकी चर्चा आवश्यक नहीं और जो भविष्य में होने वाला है उसके बारे में आज निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता है.’
सचिन पायलट की नाराज़गी के दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का एक बयान ख़ूब चर्चाओं में रहा था कि ‘पायलट बिना रगड़ाई के ही पार्टी प्रदेशाध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री बन गए, इसलिए वे अच्छा काम नहीं कर पा रहे हैं.’ इस पर प्रदेश के एक वरिष्ठ पत्रकार चुटीले लहजे में कहते हैं कि बीते एक महीने में पूर्व उपमुख्यमंत्री की शायद उचित रगड़ाई हो चुकी है. इस दौरान उन्होंने अपने विश्वस्तों की सलाह को आंख मूंदकर मानने के दुष्परिणाम भी झेले हैं और राजनीति के कई रंगों से भी उनका सामना पहली बार ही हुआ है.
ग़ौरतलब है कि जैसे ही पायलट के गांधी परिवार के साथ मुलाकात की ख़बरें सामने आईं, उनके खेमे के कुछ विधायक तुरंत ही जयपुर स्थित मुख्यमंत्री आवास पर हाज़िरी लगाने पहुंच गए. भंवरलाल शर्मा ऐसा करने वाले पायलट गुट के पहले विधायक थे. वे शर्मा ही थे जिन पर कांग्रेस ने एक ऑडियो टेप जारी कर राजस्थान में विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करने और गहलोत सरकार को गिराने का षडयंत्र रचने का आरोप लगाया था. इस टेप में शर्मा कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से फ़ोन पर बात कर रहे थे. लेकिन गहलोत से मुलाकात के बाद भंवरलाल शर्मा ने मीडिया को स्पष्ट बयान दिया कि ‘अन्य बाग़ी विधायकों को भी जयपुर लौट आना चाहिए. राजस्थान में हमारे मुखिया अशोक गहलोत हैं.’
सचिन पायलट के साथ हरियाणा जाने वाले विधायकों में प्रदेश के कुछ पुराने व नए जाट विधायक विशेष तौर पर सुर्ख़ियों में रहे थे. इनमें भरतपुर के पूर्व राजघराने से ताल्लुक रखने वाले विश्वेंद्र सिंह और छात्र राजनीति से जुड़े रहे नागौर जिले के मुकेश भाकर और रामनिवास गावड़िया शामिल थे. बग़ावत के दौरान विश्वेंद्र सिंह ने कई बार भाकर और गावड़िया की हरसंभव तरीके से जमकर हौसला अफजाई और तारीफ़ें की थीं. कहा जा रहा है कि ऐसा उन्होंने जान-बूझकर किया ताकि वे दोनों मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राजस्थान के दिग्गज जाट नेताओं की नज़रों में खटक सकें. जानकार कहते हैं कि विश्वेंद्र सिंह अपने बेटे अनिरुद्ध सिंह को मुख्यधारा की राजनीति में उतारने की तैयारी में हैं. ऐसे में वे शायद ही चाहेंगे कि राज्य में सर्वाधिक आबादी वाले जाट समुदाय से अनिरुद्ध सिंह का हमउम्र कोई भी नेता ज़्यादा आगे बढ़े.
यदि इन कयासों में थोड़ी भी सच्चाई है तो सचिन पायलट को भविष्य में कोई बड़ी उड़ान भरने से पहले न सिर्फ़ विपक्ष और कांग्रेस में अपनेे विरोधी गुट बल्कि अपने ख़ुद के खेमे में भी पनप रही राजनीति को समझते हुए उससे पार पाने का हुनर भी सीखना होगा. ग़ौरतलब है कि जयपुर आने के बाद अन्य बाग़ी विधायकों की ही तरह सिंह ने भी अशोक गहलोत को अपना नेता मानने से गुरेज़ नहीं किया. जबकि कांग्रेस ने जो ऑडियो टेप जारी किया था उसमें उसने भंवरलाल शर्मा के साथ विश्वेंद्र सिंह की भी आवाज़ होने का दावा किया था. शर्मा और सिंह के जयपुर आने के बाद प्रदेश कांग्रेस ने उन्हें निलंबित करने के आदेश को रद्द कर दिया है और इन दोनों नेताओं के ख़िलाफ़ बैठाई गई सभी जांचें भी अब ठंडे बस्ते में जाती दिखाई दे रही हैं.
बहरहाल; पायलट के ही लहजे में कहा जाए तो ‘भविष्य में जो भी हो’ लेकिन हाल-फिलहाल इस पूरी उठापटक का उनकी लोकप्रियता पर विपरीत प्रभाव पड़ता नज़र आया है. दरअसल राजस्थान के जनमानस में पायलट ने जाने-अनजाने अपनी छवि एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित कर ली थी जिससे पीछे हटने की उम्मीद कम ही की जा सकती है. ऐसे में एक बड़ा राजनीतिक बवाल खड़ा करने के बाद क़दम पीछे खींच लेने की वजह से उनके समर्थकों में निराशा है. इसे सूत्रों के इस दावे से समझा जा सकता है कि बुधवार को पायलट पहले विमान से दिल्ली से जयपुर आने वाले थे. फिर उन्होंने इस यात्रा के लिए सड़क मार्ग को चुना. लेकिन यह बात चौंकाने वाली थी कि 250 किलोमीटर से ज़्यादा के उस सफ़र में कहीं भी उनका कोई बड़ा स्वागत नहीं हुआ. जबकि यह पूरा क्षेत्र गुर्जर बाहुल्य है और सचिन पायलट व उनके दिवंगत पिता राजेश पायलट की कर्मभूमि रह चुका दौसा जिला भी इसी रास्ते में पड़ता है. यही नहीं पूर्व उपमुख्यमंत्री के स्वागत के लिए उनके जयपुर स्थित निवास पर भी जो भीड़ जुटी वह भी अपेक्षा से बेहद कम थी.
इसके जवाब में सचिन पायलट के करीबी होने का दावा करने वाले लोग कहते हैं कि उनके नेता ख़ुद इस तरह का कोई आयोजन नहीं चाहते थे. वहीं कुछ जानकारों के मुताबिक यह भी हो सकता है कि हाईकमान की तरफ़ से ही पायलट को ऐसा कोई भी राजनीतिक स्टंट न करने का निर्देश मिला हो.
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर असर!
इस पूरी उठापटक में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जीते हुए भी नज़र आ रहे हैं और नहीं भी! वे अपने पद और सरकार को तो बचा पाने में सफल नज़र आ रहे हैं. लेकिन उनकी जो मुख्य कवायद पायलट की सदस्यता रद्द करवाकर उन्हें हमेशा के लिए पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने की थी उसमें वे नाकाम हुए हैं. कुछ जानकारों के अनुसार शायद गहलोत को इस बात का अंदाजा पहले से था कि देर-सवेर गांधी परिवार पायलट के साथ संवाद करने के लिए तैयार हो जाएगा. इसलिए ही उन्होंने इस मामले में अति की जल्दबाज़ी भी दिखाई. लेकिन पहले तो पायलट गुट ने अदालत जाकर और फिर राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने विधानसभा बुलाने की अनुमति न देकर गहलोत को अपनी रणनीति में कामयाब नहीं होने दिया.
कांग्रेस का राजनीतिक इतिहास बताता है कि वह बाग़ियों को मौके देने में विश्वास रखती आई है. इसे सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट के उदाहरण से ही समझा जा सकता है. 1998 में जब सोनिया गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए दावेदारी पेश की तो बाग़ी नेता जितेंद्र प्रसाद ने उनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. उस चुनाव में राजेश पायलट ने जितेंद्र प्रसाद का साथ दिया था. लेकिन इसके बावजूद राजेश पायलट के ख़िलाफ़ पार्टी आलाकमान ने कोई बड़ा क़दम नहीं उठाया. अब उस हिसाब से देखें तो सचिन पायलट की बग़ावत कुछ भी नहीं है.
इस पूरे विवाद के दौरान गांधी परिवार की तरफ़ से कभी भी पायलट के ख़िलाफ़ खुलकर नाराज़गी ज़ाहिर नहीं की गई. पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तो कोरोना महामारी के दौरान राजस्थान सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करने का आरोप लगाया था. लेकिन तब भी उन्होंने सीधे पायलट को लेकर कुछ नहीं कहा. वहीं, सचिन पायलट भी इस पूरी अवधि में पार्टी या किसी भी नेता के ख़िलाफ़ बयान देने से बचते रहे, फ़िर चाहे वह अशोक गहलोत ही क्यों न हों. जानकारों के मुताबिक आख़िर में पायलट को इस ख़ामोशी का बड़ा फ़ायदा मिला है. भले ही यह राजनीतिक कमज़ोरी की वजह से अपनाई गई थी या रणनीति के तहत या फिर मर्यादा के चलते.
जानकारों की मानें तो इस पूरी रस्साकशी के बाद सचिन पायलट को राहुल गांधी के करीबी होने का लाभ तो मिला ही है, लेकिन कहा यह भी जा रहा है कि पायलट को पार्टी से बाहर कर गांधी परिवार भी गुजरात से लेकर राजस्थान, उत्तरप्रदेश और दिल्ली तक के बड़े हिस्से में अपना प्रभाव रखने वाले गुर्जर समुदाय को नाराज़ नहीं करना चाहता है. कुछ लोग यह कयास भी लगाते हैं कि इन विपरीत परिस्थितियों में पायलट के ससुराल पक्ष यानी कश्मीर के अब्दुल्ला परिवार ने उनके और कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व के बीच एक मजबूत कड़ी का काम किया. वहीं कुछ का मानना है कि खास तौर पर प्रियंका गांधी को इस बात का अनुमान लग गया था कि सचिन पायलट की विदाई के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक बार तो बहुमत के मुहाने पर खड़ी अपनी सरकार को बचा लेंगे. लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के इस मामले में खुलकर सक्रिय होने के बाद गहलोत के लिए भी ऐसा लंबे समय तक कर पाना आसान काम नहीं होता. और शायद गहलोत भी इस बात को समझ रहे थे इसीलिए उन्होंने इस विवाद के आख़िरी दिनों में बाग़ी विधायकों को लेकर अपना रुख नर्म कर लिया था.
मुख्यमंत्री गहलोत के राजनीतिक करियर में इससे पहले ऐसा कोई मोड़ नज़र नहीं आता जब वे प्रदेश कांग्रेस में मन की कर पाने या अपने किसी बड़े विरोधी नेता को पूरी तरह पटकनी दे पाने में नाकाम रहे हैं. इस पूरे घटनाक्रम से पायलट का क़द ज़रूर प्रभावित हुआ है, लेकिन उनके तेवर और संतुलन में कोई कमी नहीं आई है. शुक्रवार को भी विधानसभा सत्र के दौरान जब उनके बैठने की व्यवस्था को हमेशा की तरह आगे की बजाय पीछे गैलेरी में कर दिया गया तो प्रतिक्रिया में उन्होंने बहुत प्रभावी ढंग से यह कहकर अपने आलोचकों का भी ध्यान खींच लिया कि - आपने (विधानसभा अध्यक्ष) मेरी सीट में बदलाव किया. पहले जब मैं आगे बैठता था, सुरक्षित और सरकार का हिस्सा था. फिर मैंने सोचा मेरी सीट यहां क्यों रखी है. मैंने देखा कि यह पक्ष और विपक्ष की सरहद (बगल में भाजपा विधायकों की लाइन शुरु होती) है. सरहद पर अपने सबसे मजबूत योद्धा को भेजा जाता है... इस सरहद पर कितनी भी गोलीबारी हो मैं कवच और ढाल, गदा और भाला बनकर इसे सुरक्षित रखुंगा.’
जबकि इसी सत्र के दौरान अशोक गहलोत ने उनकी सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगाते हुए भारतीय जनता पार्टी के साथ पायलट पर भी अप्रत्यक्ष रूप से जमकर निशाना साधा था. विश्लेषकों का मानना है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान गहलोत जिस तरह से पेश आए वह उनकी छवि के बिल्कुल विपरीत था. एक-एक शब्द को कई-कई बार सोचकर बोलने के लिए पहचाने जाने वाले मुख्यमंत्री गहलोत ने बीते दिनों मीडिया को दिए बयान में पायलट को नकारा और निकम्मा तक कह दिया था. इसके लिए उन्हें बड़े स्तर पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. इसके अलावा उन्होंने यह साबित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी कि सचिन पायलट भारतीय जनता पार्टी के संपर्क में आकर ही उनकी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इस सब के बाद भी गांधी परिवार जिस तरह से सचिन पायलट को अपनाने के लिए तैयार दिखा है उससे निश्चित तौर पर गहलोत को झटका लगा होगा.
इसकी ताजा बानगी के तौर पर रविवार देर रात प्रदेश संगठन में हुए बदलाव को देखा जा सकता है. कांग्रेस आलाकमान ने राजस्थान में पार्टी प्रभारी अविनाश पांडे को हटाकर उनकी जगह पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय माकन को ये जिम्मेदारी सौंपी है. ग़ौरतलब है कि पायलट-गहलोत विवाद के बीच अविनाश पांडे का झुकाव शुरुआत से ही गहलोत की तरफ़ देखा गया था. पायलट ने इसकी शिकायत शीर्ष नेतृत्व से कर दी और पांडे को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा. सूत्र बताते हैं कि पांडे को बचाने के लिए मुख्यमंत्री गहलोत ने अपनी तरफ़ से हर ज़रूरी प्रयास किया. लेकिन सफल नहीं हो पाए. वहीं, माकन राहुल गांधी के विश्वस्त नेताओं में शुमार रहे हैं. इसलिए माना जा रहा है कि पार्टी हाईकमान ने उन्हें दोहरी जिम्मेदारी (प्रभारी और कमेटी में सदस्यता) देकर सचिन पायलट को सहज रखने की कोशिश की है. आलाकमान के इस निर्णय ने पायलट के पक्ष में बड़ी हवा बनाने का काम किया है.
इस सब को देखते हुए कयास लगाए जा रहे हैं कि राजस्थान में बहुप्रतिक्षित मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों का सिलसिला कुछ और समय के लिए ठंडे बस्ते में जा सकता है. क्योंकि मुख्यमंत्री गहलोत अपने साथ रुके सौ से ज़्यादा विधायकों के हितों को प्राथमिकता देने की घोषणा सार्वजनिक तौर पर कर चुके हैं. वहीं दूसरी तरफ़ सचिन पायलट भी अपने करीबी विधायकों को लाभ पहुंचाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकने में शायद ही कोई कसर छोड़ेंगे. सूत्र बताते हैं कि इन हालातों के मद्देनज़र मुख्यमंत्री गहलोत जल्द ही कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात करने दिल्ली जा सकते हैं. यदि ऐसा हुआ तो देखने वाली बात होगी कि वे वहां सचिन पायलट को लेकर कितना मोल-भाव कर पाते हैं.
हाईकमान द्वारा गठित की गई कमेटी की भूमिका!
कांग्रेस हाईकमान द्वारा गठित की गई उच्चस्तरीय कमेटी में राज्यसभा सांसद अहमद पटेल का शामिल होना इस पूरे मामले के सबसे अहम पहलुओं में से एक साबित हो सकता है. यह तो तय है कि पायलट-गहलोत विवाद को लेकर यह कमेटी जो भी रिपोर्ट तैयार करेगी उस पर पटेल का बड़ा प्रभाव रहेगा. लिहाजा पटेल का झुकाव इन दोनों कद्दावर नेताओं में से जिस किसी की भी तरफ़ रहेगा कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व द्वारा उसी के पक्ष में जाने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे में विश्लेषकों की मानें तो सचिन पायलट और मुख्यमंत्री गहलोत के बीच चयन की स्थिति में अहमद पटेल गहलोत को तवज्जो दे सकते हैं. इसके तीन बड़े कारण माने जा रहे हैं.
पहला तो यह कि बीते कुछ वर्षों से कांग्रेस पार्टी बड़े स्तर पर युवा बनाम वरिष्ठ नेताओं की अंदरूनी खींचतान से जूझ रही है. पार्टी में जब तक राहुल गांधी का वर्चस्व रहता है युवा नेताओं का पलड़ा भारी हो जाता है जो वरिष्ठ नेताओं के अनुभवों को दरकिनार कर नए तौर-तरीकों से संगठन को दोबारा खड़ा करना चाहते हैं. लेकिन संगठन में अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का दखल बढ़ते ही वे वरिष्ठ नेता मजबूत स्थिति में आ जाते हैं जो इंदिरा गांधी के जमाने से ही पार्टी के विश्वस्त रहे हैं. यह खेमा पार्टी के युवा नेताओं को कम योग्य भी समझता है लेकिन उनसे असुरक्षित भी महसूस करता है. लिहाजा ये दोनों ही गुट एक-दूसरे को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कमतर साबित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. ऐसे में इस बात की संभावना जताई जा सकती है कि राजस्थान कांग्रेस की भी युवा बनाम वरिष्ठ की इस लड़ाई में अहमद पटेल का रुख स्वाभाविक तौर पर वरिष्ठ के प्रति ही ज़्यादा नरम रहेगा.
दूसरे, 2017 में गुजरात की तीन सीटों के लिए हुए राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल को जितवाने में अशोक गहलोत ने बड़ी भूमिका निभाई थी. वे तब कांग्रेस की तरफ़ से गुजरात के चुनाव प्रभारी थे. भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सीधे दखल वाला यह चुनाव पटेल के लिए नाक का सवाल बन गया था जिसमें उनकी लाज बड़ी मुश्किल से बच पाई थी. ऐसे में माना जा रहा है कि अशोक गहलोत के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने का अहमद पटेल के पास यह एक अच्छा मौका हो सकता है. सूत्र बताते हैं कि 2018 में भी मुख्यमंत्री की रेस में पटेल ने पायलट की बजाय गहलोत को आगे बढ़ाने में अंदरखाने जमकर मदद की थी.
और तीसरे, अहमद पटेल हमेशा से केंद्रीय राजनीति में सक्रिय रहे हैं जबकि मुख्यमंत्री गहलोत का ध्यान प्रदेश की राजनीति पर ज़्यादा रहा है. अब यदि किसी कारण से गहलोत को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ता है तो उनके क़द के हिसाब से हाईकमान को उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी जिम्मेदारी देते हुए दिल्ली बुलाना पड़ेगा. और उनके दिल्ली पहुंचने से कांग्रेस के जिस नेता पर सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ सकता है वे अहमद पटेल ही हैं. क्योंकि पटेल की ही तरह गहलोत भी सोनिया गांधी के विश्वस्त हैं. गुजरात और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में जिस तरह पार्टी ने उनके मार्गदर्शन में बेहतर प्रदर्शन किया उसके चलते वे पटेल से इक्कीस नज़र आने लगे हैं. ऐसे में सामान्य समझ से भी यह बात कही जा सकती है कि पटेल गहलोत को उनके ही नहीं बल्कि अपने फ़ायदे के लिए भी राजस्थान तक ही सीमित रखना चाहेंगे. और ऐसा तभी हो सकता है जब वे मुख्यमंत्री बने रहें. लेकिन यह शायद सचिन पायलट को बर्दाश्त नहीं होगा.
इस सब के मद्देनज़र राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार राकेश गोस्वामी हम से कहते हैं कि ‘पहले भी हाईकमान ने इन दोनों नेताओं (पायलट और गहलोत) के बीच राजीनामे के लिए एक कमेटी का गठन किया था. लेकिन बमुश्किल उसकी एक ही बैठक आयोजित हो पाई थी. लिहाजा ये संभावना कम ही लगती है कि ये नई कमेटी भी इन दोनों नेताओं के बीच विवाद का कोई उचित हल निकाल पाने में कामयाब रहेगी.’ बकौल गोस्वामी, ‘पायलट और गहलोत की अदावत कोई तात्कालिक तो है नहीं जिसे दो-पांच दिन में मिल-बैठकर दूर कर लिया जाए. ये नाराज़गी कई वर्षों की उपज है जिसे दूर करने में भी एक समय लगेगा. हाल-फिलहाल तो इन दोनों कद्दावर नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर हाथ मिला लिए हैं. लेकिन इनके दिल भी कभी मिल पाएंगे, ये कहना मुश्किल है!’
वहीं वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजन महान का इस बारे में मानना है कि ‘आने वाले दिनों में मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों के मौके पर एक बार फिर राजस्थान कांग्रेस में बड़ी उठापटक देखने को मिल सकती है. क्योंकि दोनों ही खेमे सत्ता में ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी चाहते हैं. ऐसे में दोनों में से किसी एक पक्ष के विधायकों को तो मन मसोस कर रहना पड़ेगा.’ सत्याग्रह से हुई बातचीत में महान आगे जोड़ते हैं, ‘इस सब के चलते राजस्थान कांग्रेस में जो अस्थिरता पैदा हो सकती है उसे भुनाने में भारतीय जनता पार्टी इस बार कोई चूक नहीं करेगी. वो तो वैसे भी किसी भी राज्य में ‘ऑपरेशन लोटस’ को अंजाम देने के लिए हरदम तैयार रहती है!’(satyagrah)
एक खास इंटरव्यू में पूर्व प्रदेश कॉग्रेसाध्यक्ष ने कहा
नई दिल्ली, 21 अगस्त (आईएएनएस)| राज्यसभा सांसद और पंजाब में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिह को तानाशाह करार दिया है और उनके काम करने के तरीकों पर निशाना साधा है। बाजवा ने मुख्यमंत्री पर स्मगलर और मादक पदार्थ की तस्करी करने वालों को बचाने का आरोप लगाया है।
दरअसल यह मतभेद हाल ही में जहरीली शराब पीकर 121 लोगों की मौत के बाद उभरे हैं। राज्यसभा सांसद ने कहा कि कैप्टन कुछ बाबुओं के सहारे सरकार चला रहे हैं।
यहां प्रताप सिंह बाजवा के साथ साक्षात्कार के कुछ अंश पेश हैं।
प्रश्न : आपके और कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच झगड़े का क्या कारण है?
उत्तर : मेरे और कैप्टन के बीच कोई निजी दुश्मनी नहीं है। यह मैं था, जिसने चुनाव से पहले पीसीसी अध्यक्ष के रूप में काम किया। बीते 3 वर्षो में यह मेरा ही कठिन परिश्रम था, जिसके अच्छे नतीजे रहे। इसलिए कोई निजी एजेंडा नहीं है।
समस्या यह है कि चुनाव के दौरान वादे किए गए , लेकिन यह वादे पूरे नहीं किए गए और हम मूक दर्शक बने नहीं रह सकते।
अमरिंदर ने कहा था कि उन्हें चुनाव के दौरान 4 हफ्तों का समय चाहिए। उन्होंने कहा था, "मैं सबकुछ ठीक कर दूंगा और उन पांच माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई करूंगा। लेकिन कोई भी कार्रवाई नहीं की गई और मैं उनसभी का नाम ले सकता हूं, लेकिन सभी इन माफियाओं का नाम जानते हैं।"
प्रश्न : और अन्य मुद्दे जो विवाद के केंद्र में हैं?
उत्तर : मुख्यमंत्री के साथ मतभेद के अन्य मुद्दे गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी को लेकर है, क्योंकि इससे पहले की अकाली सरकार राजनीतिक स्वार्थ के लिए डेरा सच्चा सौदा के साथ हाथ मिला रही थी और गलत कार्यो में फंस गई और बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए, जिसमें दो युवा मारे भी गए।
अमरिंदर सिंह ने मामले को देखने का वादा किया था और जिन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की थी, उन्हें कटघरे में लाने का भी वादा किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों युवाओं को न्याय दिलाया जाएगा। लेकिन वह भी नहीं हुआ।
प्रश्न : क्या आप यह संकेत दे रहे हैं कि सरकार स्मगलिंग और मादक पदार्थो की तस्करी में शामिल लोगों के साथ बराबर की भागीदार है?
उत्तर : यह वही है जो मैंने उन्हें कहा था, निश्चित तौर पर अगर आप उन्हें समाप्त नहीं करेंगे तो यह क्या दिखाता है?
मुख्यमंत्री खुद आबकारी मंत्री और गृहमंत्री हैं, और बीते तीन साल में जहरीली शराब की वजह से पंजाब को करीब 2700 करोड़ रुपये की हानि हुई है और आबकारी विभाग उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं।
यह पहली बार है कि इस बाबत लक्ष्य पूरा नहीं होगा और इससे खजाने में हानि होगी, जहां पहले से ही त्रासदी हुई है और इसमें 121 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है।
प्रश्न : इससे पहले क्या प्रक्रिया थी?
उत्तर : पहले बोली लगती थी। पहले से ही एक निश्चित लक्ष्य था-यह वह पैसा था, जिसे आप शराब से हासिल कर सकते थे। यह पहली बार है जब लक्ष्य पूरा नहीं होगा और राज्य पहले ही 2700 करोड़ रुपये की हानि झेल रहा है और राज्य में अगस्त के पहले सप्ताह में जहरीली शराब पीने से तीन जिलों में 121 लोगों की मौत हो गई। पूरी चीजें किसी आबकारी माफिया की ओर इशारा करती हैं।
प्रश्न : लेकिन पार्टी ने कहा है कि आपको पार्टी के अंदर मामला उठाना चाहिए। आप सीधे राज्यपाल के पास क्यों गए?
उत्तर : हम मामला उठाते रहे हैं। इसे कई बार उठाया गया है।
यहां तक की दो महीने पहले, कैप्टन ने पंजाब के सभी विधायकों की बैठक बुलाई। मेरे सहयोगी व विधायक शमशेर सिंह डुल्लो और मैंने यह मामला उठाया। और भी कुछ विधायक थे, जिन्होंने हमारा इस मुद्दे पर समर्थन किया और उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसा लगता है कि सरकार इस तरह के तत्वों को समर्थन देती है।
वे कहते हैं, "आप उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं करते"
प्रश्न : फिर क्या हुआ?
उत्तर : जब मीडिया पंजाब के मुख्यमंत्री से हमारे पत्रों के बारे में पूछती है तो वह कहते हैं कि 'मुझे ये पत्र नहीं मिले हैं और अगर मुझे यह मिलता भी है तो इसका जवाब देना जरूरी नहीं है। यह मेरा कोई निजी काम नहीं है।' वह मीडिया को कहते हैं, 'हम एक एजेंडा सेट करने के बारे में बात करते हैं।'
हम राज्यपाल के पास क्यों गए? क्योंकि जांच के आदेश जालंधर कमिश्नर को दिए गए हैं और कैसे जालंधर के कमिश्नर उन लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दे सकते हैं जो शक्तिशाली हैं और उसका क्या हो जो मुख्यमंत्री के कार्यालय में मौजूद हैं।
हम माननीय राज्यपाल के पास सीबीआई जांच या ईडी की जांच के लिए गए थे, क्योंकि ये सर्वोच्च संस्थाएं हैं और दोषी को पकड़ा जा सकता है।
प्रश्न : तो फिर आप क्या सोचते हैं कि पार्टी आपके और मुख्यमंत्री के बीच निर्णय लेगी?
उत्तर : यह बात सही नहीं है, क्योंकि मैंने कभी नहीं कहा कि मैं मुख्यमंत्री पद का दावेदार हूं।
मुद्दा यह है कि काफी सारा समय बीत गया, जनादेश का सम्मान नहीं किया गया और पंजाब के लोग यह सोचते हैं कि हमने जनादेश का अपमान किया है।
कैप्टन वादे के ठीक विपरीत काम कर रहे हैं।
लेकिन आप अगर पार्टी को बचाना चाहते हैं तो, कांग्रेस को अमरिंदर सिंह और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष को हटाने का निर्णय लेना होगा। बदलाव के लिए ऐसे व्यक्ति को लाना होगा, जो कांग्रेसमैन है। पहले वरिष्ठता दूसरा इमानदारी और तीसरा क्षमता पर विचार करना होगा।
प्रश्न : क्या आपको लगता है कि अमरिंदर कांग्रेस कार्यकर्ताओं की नहीं सुन रहे हैं?
उत्तर : यह पसंद गलत थी, क्योंकि 1984 से 1998 के बीच अमरिंदर अकाली दल के साथ थे और इसलिए वह पार्टी की विचारधारा से जुड़े नहीं हैं और कांग्रेस कार्यकर्ता पूरी तरह से निराशा महसूस कर रहे हैं।
ऐसा लगता है कि पंजाब में राज्यपाल का शासन है। ऐसा लगता ही नहीं है कि राज्य में लोकप्रिय कांग्रेस शासन है।
प्रश्न : क्या आपको लगता है कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व कमजोर है, जो मुख्यमंत्री को और इस तरह के विभेदों पर काबू नहीं कर पा रहा है।
उत्तर : मैं इसपर कुछ नहीं कहना चाहता हूं और हम राज्य में इस संकट पर काफी चिंतित हैं।
प्रश्न : क्या वह तानाशाही स्टाइल में काम कर रहे हैं?
उत्तर : उन्हें पटियाला के महाराज की तरह व्यवहार करना बंद करना चाहिए और अगर वह लोकतांत्रिक मुख्यमंत्री की तरह कार्य का संचालन नहीं करते हैं तो फिर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए।
वह पांच महीने बाद अपने फार्महाउस से बाहर आए, जब हमने जहरीली शराब के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया। अगर कोई मुख्यमंत्री अपने घर से पांच महीने बाद बाहर आएगा तो उस राज्य की हालत क्या होगी।
ट्रंप का छठां पूर्व सलाहकार, जिस पर अपराधिक जुर्म दर्ज
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पूर्व सलाहकार स्टीव बैनन को अमरीका-मैक्सिको सीमा पर बन रही दीवार के लिए फ़ंड जुटाने के अभियान में गड़बड़ी करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, हालांकि बाद में उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया.
अमरीकी न्याय मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि बैनन और तीन अन्य लोगों ने मिलकर वी बिल्ड द वॉल अभियान के दौरान लाखों डॉलर का हेरफेर किया है. इस अभियान में कुल 25 मिलियन डॉलर की रकम जमा की गई थी.
आरोपों के मुताबिक बैनन को इसमें एक मिलियन डॉलर की रकम मिली है और इसमें से कुछ पैसे उन्होंने अपने निजी खर्चों में इस्तेमाल किए हैं.
हालांकि अदालत में बैनन ने खुद को बेकसूर बताने वाली याचिका दाखिल की है.
बैनन को डोनाल्ड ट्रंप की 2016 की राष्ट्रपति चुनाव में जीत का प्रमुख आर्किटेक्ट माना जाता रहा है. बैनन की दक्षिणपंथी और 'बाहर से आए लोगों के ख़िलाफ़' वाली नीति के चलते ट्रंप अमरीका फ़र्स्ट अभियान शुरू कर पाए थे.
बैनन को 150 फुट लंबे यॉट से अमरीकी पोस्टल इंस्पेक्शन सर्विस के अधिकारियों ने गिरफ्तार किया, इसी सर्विस के पास बिल्ड द वॉल अभियान से जुड़े आर्थिक गड़बड़ियों की जांच का जिम्मा है. अमरीकी मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक यह यॉट चीनी अरबपति ग्यू वेंगुई का था.
वैसे बैनन अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के छठे पूर्व सलाहकार बन गए हैं जिन पर अपराधिक मामला दर्ज किया गया है. उनसे पहले ट्रंप के अभियान के चैयरमैन पॉल मानाफोर्ट, वरिष्ठ राजनीतिक सलाहकरा रोजर स्टोन, ट्रंप के पूर्व वकील माइकल कोहन, अभियान के पूर्व उप मैनेजर रिक गेट्स और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार माइकल फ़्लिन पर अपराधिक मुक़दमे चल चुके हैं.
बैनन की गिरफ़्तारी पर अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि उन्हें बहुत बुरा लग रहा है. उन्होंने कहा कि उनका वी बिल्ड द वॉल अभियान से कोई लेना देना नहीं है.
उन्होंने कहा, "मैंने तब कहा था कि यह सरकार के लिए है, यह निजी लोगों के लिए नहीं है. लेकिन यह दिखावे की तरह लग रहा है. मुझे लगता है कि उस वक्त मुझे अपनी बात और दृढ़ता से रखनी चाहिए थी."
बैनन पर क्या आरोप है
'वी बिल्ड द वॉल' अभियान डोनाल्ड ट्रंप के 2016 के चुनावी अभियान की सबसे बड़ी घोषणा अमरीका-मैक्सिको के बीच दीवार को पूरा करने के लिए शुरू की गई थी.
बैनन पर आरोप है कि इस अभियान के लिए आम लोगों से जो पैसा जुटाया गया उसमें गड़बड़ियां की हैं. बैनन को अपने एक गैर सरकारी संगठन के माध्यम से इस अभियान के लिए एक मिलियन डॉलर मिले थे, जिसमें से हजारों डॉलर उन्होंने अपने निजी ख़र्चे में इस्तेमाल कर लिए.
बैनन पर जिस तरह के आरोप लगाए गए हैं, उनमें आर्थिक गबन के अलावा मनी लॉड्रिंग के भी आरोप हैं और इन दोनों ही मामलों में अधिकतम 20-20 साल की सज़ा का प्रावधान है.
बैनन को गिरफ़्तारी के तुरंत बाद वीडियो लिंक के ज़रिए फ़ेडरल कोर्ट में पेश किया गया जहां उन्हें पांच मिलियन डॉलर की जमानत पर रिहा किया गया है. लेकिन वे ना तो देश से बाहर जा सकते हैं और नहीं ही उन्हें प्राइवेट प्लेन या बोट में यात्रा कर पाएंगे.
पूर्व इनवेस्टमेंट बैंकर बैनन डोनाल्ड ट्रंप के 2016 के राष्ट्रपति चुनाव अभियान के समय में दक्षिण पंथी मीडिया वेबसाइट ब्रेटबार्ट को प्रमोट कर रहे थे और बाद व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के प्रमुख रणनीतिकार बने. उनका इतना असर था कि बैनन की सलाह पर ही अमरीका पेरिस जलावयु परिवर्तन से अलग हो गया था. अगस्त 2017 में उन्हें यह पद छोड़ना पड़ा. इसके बाद वे फिर से दक्षिणपंथी वेबसाइट ब्रेटबार्ट से जुड़ गए लेकिन ट्रंप की नीतियों की आलोचना के चलते उन्हें वहां से भी हटना पड़ा.
उनकी आलोचनाओं पर ट्रंप ने कहा था, "स्टीव बैनन का ना तो मेरे या मेरे पद से कोई लेना देना है. जब उन्हें यहां से निकाला गया, तब उन्होंने ना केवल अपनी नौकरी गंवाई बल्कि अपना दिमाग़ी संतुलन भी खो दिया है."
अमरीका-मैक्सिको दीवार की स्थिति
यह दीवार डोनाल्ड ट्रंप के सबसे प्रमुख चुनावी घोषणाओं में शामिल था. उन्होंने तब कहा था कि दीवार अमरीका बनाएगा, मैक्सिको पैसा देना होगा. ट्रंप ने अपनी घोषणाओं में 2000 मील लंबी दीवार बनाने की बात कही थी लेकिन बाद उसे आधा कर दिया गया. कहा गया कि आधा हिस्सा पर्वत और नदी पूरी कर रहे हैं.
इस दीवार को बनाने का काम जारी है. ट्रंप प्रशासन का इरादा 2020 के अंत तक 509 मील तक दीवार को बना लेना है.(bbc)
पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राजीव गांधी की जयंती पर राजीव के हिंदुत्व और मंदिर निर्माण में बड़ी भूमिका का विज्ञापन देकर हिंदुत्व की राजनीति का रुख मोड़ दिया, कमलनाथ वैसे भी पुराने हनुमान भक्त हैं।
-कुमार दिग्विजय
हनुमानभक्त कमलनाथ राम मंदिर को लेकर इतने खुले तौर पर सामनेआयेंगे,इसकी कल्पना भाजपा ने कभी नही की होगी। दरअसल राम मंदिर को मुद्दा बनाकर सत्ता के शीर्ष तक का सफर तय करने वाली भारतीय जनता पार्टी पिछले कुछ दिनों से हैरान हैऔर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के तेवरों को देखकर परेशान भी है। राम मंदिर के भूमिपूजन के ठीक पहले 4 अगस्त को हनुमान चालीसा का उद्घोष मध्यप्रदेश के कोने कोने में सुनाई दिया।
कमलनाथ ने राम मंदिर को लेकर साफ कहा था कि इसकी शुरुआत तो राजीव गाँधी के कार्यकाल में ही हो गई थी और इसका श्रेय राजीव गाँधी को ही दिया जाना चाहिए। इसका असर पूरे मध्यप्रदेश में दिखाई दिया, कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने एकजुटता से गाँव गाँव समारोहपूर्वक हनुमान पाठ करवाए। इस समय मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा पर कांग्रेसने बढ़त ले ली।
अब राजीव गाँधी की जयंती पर एक बार फिर कमलनाथ की फोटो के साथ जो विज्ञापन जारी हुआ है,उसमे कांग्रेस ने राम राज्य की कल्पना को लेकर खुले तौर पर अपनी भावनाओं का इजहार किया है। विज्ञापन में राजीव गाँधी को याद करके लिखा गया है कि राजीव गांधी के समय में ही रामराज्य की नींव रखने की कवायद शुरू हो चुकी थी। उस समय ही राजीव गांधी ने भारतीयों की आस्था और धार्मिकता का सम्मान किया था। कांग्रेस ने इस बात को भी विज्ञापन में शामिल किया है कि महात्मा गांधी के रामराज्य की भावना का प्रभाव राजीव गांधी पर पड़ा था जिसके कारण ही 1985 में दूरदर्शन पर रामायण का टेलीकास्ट शुरू हुआ था।
इसके बाद ही 1986 में यूपी के तत्कालीन सीएम वीरबहादुर सिंह को राम जन्मभूमि के ताले खोले थे और 1989 में राममंदिर शिलान्यास को इजाजत मिली तथा तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह को इसके लिए भेजा गया। इतना ही नहीं यह भी बताया गया है कि चेन्नई में राजीव गांधी ने अपनी अंतिम प्रेस कांफ्रेस में कहा था कि अयोध्या में ही राममंदिर बनेगा।
कांग्रेस ने राजीव गांधी को नवोदय स्कूल खोलने का श्रेय देते हुए बताया है कि राजीव गांधी रामराज्य की गतिशील यात्रा के कुशल सारथी थे जो आधुनिक भारत में राम राज्य का सपना देखते थे। विज्ञापन को लेकर कांग्रेस का राम मंदिर और राम राज्य को लेकर खुले तौर स्वीकारोक्ति से यह भी साफ हो गया है कि अब कांग्रेस हिंदुत्व को लेकर भाजपा के सामने है।
पुराने हनुमान भक्त है कमलनाथ
ऐसा भी नही है कि कांग्रेस यह सिर्फ दिखावे के लिए कर रही है क्योंकि कमलनाथ हनुमान भक्त है और उन्होंने अपने गृह जिला छिंदवाड़ा में भगवान हनुमान की एक विशाल मूर्ति स्थापित की हुई है। यह देश की सबसे ऊंची हनुमान प्रतिमाओं में से एक है जो प्रदेश के छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय से 15 किमी सिमरिया के मंदिर में है।
इस हनुमान प्रतिमा की ऊंचाई लगभग 101 फीट की है। मंदिर के रखरखाव के लिए छिंदवाड़ा मंदिर ट्रस्ट भीबनाया,जिसकी मुख्य ट्रस्टी सांसद कमलनाथ की पत्नी अलका नाथ हैं।
कमलनाथ जब मुख्यमंत्री बने तब भी उन्होंने हनुमान भक्ति को लेकर अपनी भावनाओं का खुलकर इजहार किया था और इस साल जनवरी में हनुमान जयंती पर भोपाल के मिन्टों हाल में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन कर इसका सीधा प्रसारण दुनिया के कई देशों में किया गया था।
इसके पहले 2018 विधानसभा चुनाव के समय से ही कमलनाथ को हनुमान भक्त बताया गया था और सरकार बनने के बाद राम वन गमन पथ योजना हो, गौशालाओं के निर्माण की योजना हो या मंदिरों के सौंदर्यीकरण की योजना हो, कांग्रेस ने खुद को हिंदुत्व से दूर नहीं होने दिया
नेहरू ने सोमनाथ का जीर्णोद्धार कराया, पर कांग्रेस ने कभी प्रचार नहीं किया
अभी तक कांग्रेस नेताओं का धर्म को लेकर सार्वजनिक प्रदर्शन और बयानबाज़ी नकरने का एक कारण यह भी रहा कि आज़ादी के आन्दोलन में सबकी भागीदारी रही और इसीलिए सबका सम्मान करने के लिए कांग्रेस नेताओं ने आस्था कोउदारता पूर्वक स्वयं तक सीमित रखा। महमूद गजनवी द्वारा तोड़े गये सोमनाथमंदिर का जीर्णोद्धार पंडित नेहरु के कार्यकाल में ही हो गया था,लेकिन कांग्रेस ने कभी इसे चुनावी मुद्दा नही बनाया। कुल मिलाकर अभी तक हिंदुत्व को लेकर कांग्रेस पर हमलावर रहनेवाली भाजपा हैरान है की यदि यह मुद्दा उनके हाथ से निकल गया तो मुकाबले में कांग्रेस बहुत आगे निकल जायेगी।(politics)
नई दिल्ली, 21 अगस्त (आईएएनएस)| कोरोना संकट में लगे लॉकडाउन के दौरान हजारों प्रवासी मजदूर अपने-अपने घर लौट गए थे, लेकिन काम की तलाश में एक बार फिर प्रवासी मजदूर यूपी, बिहार और झारखंड से वापस लौटने लगे हैं। दिल्ली के आनंद विहार बस स्टैंड पर रक्षाबंधन के बाद से ही रोजाना हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने घरों से वापस आ रहे हैं। किसी के मालिक, तो किसी के ठेकेदार ने बुलाया, तो कोई नौकरी की तलाश में दिल्ली वापस आ रहा है।
राम चन्दर आजमगढ़ से फिर दिल्ली वापस आए हैं। 5 महीने पहले कोरोना की वजह से अपने घर चले गए थे, लेकिन गांव में काम न होने की वजह से दिल्ली वापस आना पड़ा है। उन्होंने बताया, "जिस कंपनी में वो काम करते थे, उसके मालिक ने फोन करके वापस बुलाया है। गांव में ज्यादा काम नहीं है, कमाने के लिए तो बाहर निकलना ही पड़ेगा। मेरी दो लड़कियां और एक लड़का है, इनका पेट कौन पालेगा।" राम चन्दर दिल्ली के नांगलोई में जूते की कंपनी में काम करते थे। अब फिर से उसी कंपनी में काम करेंगे।
आनंद विहार बस स्टैंड पर बसों के ड्राइवर और कंडक्टर 20 से ज्यादा सवारी नहीं बैठाते। लेकिन पहले जाने की होड़ में सवारियों में ही आपस में झगड़ा हो जाता है और एक साथ बसों में लोग चढ़ना शुरू कर देते हैं। जिसकी वजह से सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का उल्लंघन भी हो रहा है और जान पर खतरा भी बढ़ रहा है।
फिलहाल जब से प्रवासी मजदूर वापस लौटने लगे हैं, तब से दिल्ली के आनंद विहार बस स्टैंड पर बस रूट नम्बर- 236, 165, 534, 469, 473, 543 से जाने वाली सवारियों की संख्या में इजाफा हो गया है। ये सभी बसें नांगलोई, महरौली, और कापसहेड़ा बॉर्डर की ओर जाती हैं। हालांकि बस स्टैंड के बाहर भी सैंकड़ों की संख्या में प्रवासी मजदूर मौजूद रहते हैं।
संभल के रहने वाले दीपक दिल्ली में फल की ठेली लगाते थे। होली पर त्यौहार मनाने अपने गांव चले गए। उसके बाद लॉकडाउन लग गया, जिसकी वजह से वहीं फंसे रहे गए। उन्होंने बताया, "होली पर घर गया था, उसके बाद वहीं रह गया। इधर मकान मालिक 5 महीने का किराया मांग रहा है। अब जाकर वापस आए हैं तो फिर से फल की ठेली लगाएंगे।"
यूपी के बिजनौर के रहने वाले शादाब पहले हिमाचल प्रदेश में पुताई का काम करते थे। फिर लॉकडाउन में रोजगार चले जाने की वजह से घर चले गए। अब गुड़गांव नौकरी की तलाश में आए हैं। पूछे जाने पर उन्होंने बताया, "यूपी के बीजनौर से गुड़गांव नौकरी की तलाश में आया हूं। ठेकेदार ने बुलाया है। घर पर कोई काम नहीं मिला। राज मिस्त्री का भी काम किया।"
-सैली नबील
हाल में ही दो साल के लिए जेल में डाल दी गईं एक सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर मवादा अल अदम की बहन रहमा कहती हैं, "हम बेहद शॉक में थे. उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया था. मेरी बहन कोई अपराधी नहीं है. वे केवल मशहूर होना चाहती थीं."
22 साल की यूनिवर्सिटी छात्र मवादा को मिस्र के पारिवारिक मूल्यों का उल्लंघन करने का दोषी पाया गया था.
टिकटॉक और इंस्टाग्राम पर मशहूर गानों पर फैशनेबल कपड़े पहनकर लिप-सिंक करते नाचते हुए के वीडियो पोस्ट करने की वजह से उन्हें पिछले साल मई में गिरफ्तार कर लिया गया था. अभियोक्ता ने उनके वीडियोज को अभद्र माना था.
रहमा ने बताया, "मेरी मां अब बमुश्किल अपने बिस्तर से उठ पाती है. वे हर वक्त रोती रहती हैं. कई दफा वे रात में जाग जाती हैं और पूछती हैं कि क्या मवादा घर वापस आ गई हैं."
'टिकटॉक वाली लड़कियां'
मवादा उन पांच युवा लड़कियों में से एक हैं जिन्हें एक जैसी जेल की सजा दी गई है. इसके अलावा इन पर करीब 20,000 डॉलर का जुर्माना भी लगाया गया है. इन पांचों को टिकटॉक वाली लड़कियां कहा जाता है. इनमें एक अन्य सोशल मीडिया स्टार हनीन होसाम भी शामिल हैं. बाकी तीन लड़कियों के नाम नहीं दिए गए हैं.
रहमा का कहना है कि उनकी बहन कई मशहूर फैशन ब्रैंड्स के लिए सोशल मीडिया पर मॉडलिंग करती थी. वे कहती हैं, "वे केवल बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी थीं. वे एक अदाकारा बनना चाहती थीं."
एनजीओ एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक, अभियोजन अधिकारियों ने सबूत के तौर पर मवादा की 17 फोटोज का इस्तेमाल किया और बताया कि ये फोटोज अभद्र हैं. मवादा का कहना है कि ये फोटो उनके पिछले साल उनके चोरी हुए फोन से लीक हुई हैं.
मवादा क्यों?
17 अगस्त को अपील होनी है और रहमा को उम्मीद है कि उनकी बहन की कम से कम सजा घटा दी जाएगी.
वे गुस्से में पूछती हैं, "वही क्यों? कई अभिनेत्रियां बेहद खुले तरीके से कपड़े पहनती हैं. कोई उन्हें छूता भी नहीं है."
उनके वकील अहमद बहकिरी के मुताबिक, शुरुआती फैसला आने के बाद मवादा बेहोश हो गई थीं.
वे कहते हैं, "जेल कोई उपाय नहीं है. भले ही उनके कुछ वीडियोज हमारे सामाजिक नियमों और परंपराओं के खिलाफ क्यों न हों. जेल से अपराधी पैदा होते हैं. अधिकारियों को पुनर्वास पर ध्यान देना चाहिए."
अभिव्यक्ति की आजादी
मिस्र मुस्लिम बहुसंख्या वाला देश है. यहां रूढ़िवादी समाज है और ईजिप्ट के कुछ लोग इन टिकटॉक वीडियोज को अश्लील मानते हैं.
बचाव करने वालों के व्यवहार को अनुचित कहकर उनकी आलोचना की जाती है. अन्य लोगों का कहना है कि लड़कियां केवल मौजमस्ती कर रही थीं और उन्हें जेल नहीं भेजा जाना चाहिए.
मानव अधिकार कार्यकर्ताओं ने इन लड़कियों को रिहा करने की मांग की है. इनका मानना है कि ये गिरफ्तारियां अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने की दिशा में उठाया गया एक और कदम है और इसके जरिए सरकार डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहती है.
2014 में जबसे सेना समर्थित राष्ट्रपति अब्दल फतह सीसी सत्ता में आए हैं, तब से स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन राज्य की सख्त नीतियों की आलोचना करते आ रहे हैं.
ये कार्यकर्ता दसियों हजार राजनीतिक कैदियों की बात करते हैं जिनमें उदारवादी, इस्लामिस्ट्स, पत्रकार और मानव अधिकार वकील शामिल हैं.
राष्ट्रपति ने जोर दिया है कि मिस्र में जमीर वाला कोई भी कैदी नहीं है. साथ ही अधिकारी मानव अधिकार रिपोर्ट्स की साख पर सवाल उठाते हैं.
लिंगभेद
एक एनजीओ ईजिप्टियन कमीशन फॉर राइट्स एंड फ्रीडम्स के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर मोहम्मद लोट्फी कहते हैं, "महिलाओं को सोशल मीडिया पर केवल सरकार के निर्देशों के हिसाब से चलने की आजादी है." यह एनजीओ इन लड़कियों की रिहाई की मांग कर रहा है.
लोट्फी का मानना है कि यह केस सीधे तौर पर लैंगिक भेदभाव का मामला है. वे कहते हैं, "लड़कियों पर आरोप है कि उन्होंने ईजिप्ट के पारिवारिक मूल्यों को तोड़ा है, लेकिन किसी ने भी आज तक इन मूल्यों को परिभाषित नहीं किया है."
महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने वाले मुज्न हसन इस बात से सहमत हैं. वे कहते हैं, "यह बेहद लिंग-आधारित मामला है जो कि राज्य की पितृसत्तात्मक सोच को दिखाता है."
लोट्फी कहते हैं कि भले ही इन लड़कियों को छोड़ दिया जाए, लेकिन युवा लड़कियों में एक डर का संदेश भेज दिया गया है.
वे कहते हैं, "अधिकारियों ने साफ कर दिया है कि आप अपनी मनमर्जी से कुछ भी कह या कर नहीं सकते हैं."
हाल के महीनों में सरकारी अभियोक्ताओं ने ऐसे कई बयान जारी किए हैं जिनमें 'डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के हमारे युवाओं के सामने मौजूद खतरों' को रेखांकित किया गया है. अभियोक्ताओं ने पेरेंट्स से अपने बच्चों पर ज्यादा ध्यान देने के लिए कहा है.
वर्ग और प्रभाव
मवादा के टिकटॉक पर 30 लाख से ज्यादा फॉलोअर्स हैं. इंस्टाग्राम पर उनके फॉलोअर्स की संख्या 16 लाख है. कुछ आलोचकों का कहना है कि अधिकारी लड़कियों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हैं.
कुछ सोशल मीडिया यूजर्स को लगता है कि कहीं इन इनफ्लूएंसर्स को इस वजह से तो अरेस्ट नहीं किया गया क्योंकि ये सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं और इनके कोई बड़े संपर्क नहीं हैं.
इनका तर्क है कि ऊंचे सामाजिक दर्जे वाली दूसरी लड़कियां सोशल मीडिया पर बिना किसी डर के इसी तरह से व्यवहार करती हैं.
लोट्फी कहते हैं, "उच्च दर्जे की लड़कियां आमतौर पर सत्ता से नजदीकी रखने वाले परिवारों से होती हैं. ऐसे में इनके सरकार विरोधी राय जाहिर करने के आसार नहीं होते हैं."
एमनेस्टी इंटरनेशऩल के मिडल ईस्ट और नॉर्थ अफ्रीका के एक्टिंग रीजनल डायरेक्टर लिन मालूफ कहते हैं, "महिलाओं की ऑनलाइन निगरानी करने की बजाय सरकार को महिलाओं के खिलाफ होने वाली सेक्शुअल और जेंडर आधारित हिंसा को रोकने पर जोर देना चाहिए."(bbc)
ब्राज़ील की संसद ने राष्ट्रपति का मास्क-विरोध ख़ारिज किया
ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो को ब्राज़ीली संसद में हार का सामना करना पड़ा जब प्रतिनिधियों ने स्कूलों, प्रार्थना की जगहों और कारोबारी जगहों पर मास्क लगाने के फ़ैसले पर उनके वीटो को नहीं माना.
ब्राज़ील की संसद ने जुलाई में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसके मुताबिक बंद जगहों पर भी फेस मास्क का इस्तेमाल अनिवार्य कर दिया गया था.
लेकिन बोलसोनारो ने इस प्रस्ताव का यह कहते हुए विरोध किया कि इससे लोग अपने घरों में भी मास्क पहनने को बाध्य होंगे. उन्होंने संसद के प्रस्ताव पर वीटो लगाते हुए दावा किया कि कोरोना से बचाव में मास्क कारगर नहीं है.
हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन कई बार यह कह चुका है कि मास्क के इस्तेमाल से संक्रमण के रुकने और लोगों के जीवन को बचाने में मदद मिलती है.
बोलसोनारो मास्क के इस्तेमाल के आलोचक रहे हैं और जुलाई महीने में कोरोना पॉजिटिव होने के बाद पत्रकारों से बात करते हुए भी उन्होंने अपना मास्क हटा लिया था. (bbc)
भारत में अब एक दिन में कोविड-19 के नौ लाख टेस्ट हो रहे हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़, WHO के परामर्श के अनुरूप, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हर रोज़ प्रति 10 लाख व्यक्ति 140 से ज़्यादा टेस्ट हो रहे हैं.
दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के मामले दो करोड़ 25 लाख से ज़्यादा, अब तक सात लाख 89 हज़ार लोगों की मौत
अमरीका में कोरोना संक्रमण के मामले 55 लाख 60 हज़ार से ज़्यादा, अब तक एक लाख 74 हज़ार लोगों की मौत
भारत में गुरुवार को 69 हज़ार से ज़्यादा संक्रमण के मामले, कुल मामलों की संख्या 29 लाख के क़रीब, अब तक संक्रमण से 54 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत
संक्रमण के लिहाज से ब्राज़ील दूसरे पायदान पर, 34 लाख 56 हज़ार से ज़्यादा संक्रमण के मामले, अब तक एक लाख 11 हज़ार लोगों की मौत
मुंबई, 21 अगस्त (आईएएनएस)| ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स पर बनी एक फिल्म में बॉलीवुड अभिनेता शरमन जोशी, स्टीफन बाल्डविन और शारी रिग्बी जैसे हॉलीवुड कलाकारों संग नजर आएंगे। हिंदी में 28 अगस्त को यह फिल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज होगी। 'द लीस्ट ऑफ द: द ग्राहम स्टेन्स स्टोरी' उस चौंकाने वाली घटना पर आधारित है जिसके तहत भारत में इस ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी की उनके दोनों बेटों सहित हत्या कर दी जाती है। यह फिल्म पिछले साल अंग्रेजी में रिलीज हुई थी। यह बाल्डविन और रिग्बी जैसे हॉलीवुड कलाकारों के साथ शरमन की पहली फिल्म हैं जिसमें ये क्रमश: ग्राहम स्टेन्स और उनकी पत्नी ग्लैडिस के किरदार में नजर आएंगे।
हिंदी में यह फिल्म 'ग्राहम स्टेन्स, एक अनकही सच्चाई : द लीस्ट ऑफ दिस' के नाम से रिलीज होगी।
शरमन इस पर कहते हैं, "मैं मानव बनर्जी नामक एक पत्रकार का किरदार निभा रहा हूं जो सही और गलत के बीच उलझा हुआ रहता है, फिर उसके हाथ एक ऐसी सच्चाई लगती है कि वह अपने काम को दोबारा परखने के लिए मजबूर हो जाता है। कहानी को इस किरदार के माध्यम से बेहतर ढंग से समझाया जाता है और इसे निभाकर मैं काफी खुश हूं।"
उन्होंने आगे यह भी कहा कि फिल्म को हिंदी में रिलीज करने से यह और भी अधिक दर्शकों तक पहुंच पाएगी।
फिल्म के निर्देशक अनीश डैनियल ने बताया कि वह यथासंभव ढंग से ग्राहम स्टेन्स को सम्मानित करना चाहते थे इसलिए उन्होंने एक ऐसी फिल्म को बनाने का फैसला लिया जिनमें अपनी आखिरी सांस तक उनके द्वारा लाए गए बदलावों को प्रदर्शित किया जा सकें।
फिल्म के हिंदी संस्करण को शेमारूमी बॉक्स ऑफिस पर रिलीज किया जाएगा।
नई दिल्ली, 21 अगस्त (आईएएनएस)| सितंबर के दूसरे सप्ताह में संसद के मानसून सत्र की शुरूआत के संकेत के साथ सरकार पर 11 अध्यादेशों को प्राथमिकता के आधार पर पूरा करने का दबाव है।
संसद का यह सत्र पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में चीन के साथ चल रहे गतिरोध के बीच होने वाला है, जिसमें 20 भारतीय सैनिकों ने अपनी शहादत दी थी।
दिसंबर में होने वाले शीतकालीन सत्र से पहले ही इन 11 अध्यादेशों को संसद के आगामी सत्र में पारित किया जाना जरूरी है।
इनमें से प्रमुख अध्यादेशों का जिक्र करें तो इनमें संसदीय कार्य मंत्रालय से जुड़ा मंत्रियों का वेतन और भत्ते (संशोधन) अध्यादेश शामिल है, जिसे नौ अप्रैल, 2020 को जारी किया गया। ये अध्यादेश मंत्रियों का वेतन और भत्ते एक्ट, 1952 में संशोधन करता है।
इसके अलावा स्वास्थ्य मंत्रालय के महामारी रोग (संशोधन) अध्यादेश को 22 अप्रैल 2020 को जारी किया गया। ये अध्यादेश महामारी रोग एक्ट 1897 में संशोधन करता है। इसमें खतरनाक महामारी की रोकथाम से संबंधित प्रावधान है।
वहीं अगर तीसरे संशोधन की बात करें तो यह उपभोक्ता मामले एवं खाद्य वितरण मंत्रालय का अनिवार्य वस्तुएं (संशोधन) अध्यादेश, 2020 है, जिसे पांच जून 2020 को जारी किया गया था। उक्त अध्यादेश अनिवार्य वस्तुएं एक्ट 1955 में संशोधन करता है।
इसके अलावा कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का ही किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020 को पांच जून, 2020 को जारी किया गया था, जिसे पारित किया जाना है।
इसके बाद कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता अध्यादेश, 2020 को पांच जून 2020 को जारी किया गया था।
स्वास्थ्य मंत्रालय के होम्योपैथी सेंट्रल काउंसिल (संशोधन) अध्यादेश 2020 को 24 अप्रैल, 2020 को जारी किया गया। उक्त अध्यादेश होम्योपैथी सेंट्रल काउंसिल एक्ट 1973 में संशोधन करता है।
सरकार ने वित्त मंत्रालय के टैक्सेशन और अन्य कानून (विभिन्न प्रावधानों में राहत) अध्यादेश, 2020 को 31 मार्च, 2020 को जारी किया था, जिसे पारित किया जाना है।
वहीं दिवालियापन संहिता (संशोधन) अध्यादेश, 2020 को छह जून को घोषित किया गया था और 26 जून को घोषित बैंकिंग विनियमन (संशोधन) अध्यादेश को रखा गया है।
इन अध्यादेशों का उद्देश्य अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना है और साथ ही कृषि और संबद्ध गतिविधियों में लगे किसानों के कल्याण के माध्यम से ग्रामीण भारत को सशक्त बनाना है।
मानसून सत्र में पारित नहीं होने पर इनमें से लगभग पांच से छह अध्यादेश समाप्त हो जाएंगे।
अध्यादेश अस्थायी कानून हैं, जिन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर प्रख्यापित किया जाता है, जिसका संसद के अधिनियम के समान प्रभाव होगा। अध्यादेश का छह महीने का जीवन होता है और जिस दिन से सत्र शुरू होता है, उसे एक विधेयक द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए, जिसे छह सप्ताह के भीतर संसद द्वारा पारित किया जाना चाहिए, अन्यथा यह समाप्त हो जाता है।
लंदन, 21अगस्त (आईएएनएस)| बॉलीवुड अभिनेत्री लारा दत्ता भूपति कई महीनों की लॉकडाउन के बाद सेट पर वापस आकर बेहद खुश हैं। वर्तमान में लारा फिल्म 'बेलबॉटम' की शूटिंग के लिए अपने सह कलाकार अक्षय कुमार और वाणी कपूर और हुमा कुरैशी के साथ ब्रिटेन में हैं।
अभिनेत्री ने अपने इंस्टाग्राम पर एक तस्वीर साझा किया, जिसमें वह अपने टीम मेंबर्स के साथ दिखाई दे रही हैं। तस्वीर में सभी मास्क पहने हुए दिखाई दे रहे हैं।
उन्होंने इसे कैप्शन देते हुए लिखा, "और ये शुरू हुआ। मैं उन लड़कियों के लिए दावा कर रही हूं, जो 42 साल के उम्र में एक अभिनेत्री के रूप में कोरोना काल में बॉलीवुड के सेट पर आकर अद्भूत महसूस कर रही है।"
उन्होंने शूटिंग के दौरान सेट पर सुरक्षित माहौल बनाने के लिए निमार्ताओं को धन्यवाद दिया।
फिल्म के पहले अंतर्राष्ट्रीय शेड्यूल के लिए कुछ दिनों पहले कलाकार ब्रिटेन पहुंचे थे।
सैन फ्रांसिस्को, 21अगस्त (आईएएनएस)| एप्पल कथित तौर पर अगले साल तक 11 इंच के डिस्प्ले और यूएसबी-सी कनेक्टर से लैस आईपैड एयर 4 को लॉन्च करने की योजना बना रहा है। चीनी साइट माईड्राइवर्स के अनुसार, आईपैड एयर 4 मार्च में लॉन्च कर सकता है, हालांकि 11 इंच आईपैड प्रो से इसमें कुछ अंश लिया जा सकता है, जो फिलहाल बिक्री में है।
रिपोर्ट के अनुसार, एप्पल डिजाइन और फीचर्स के मामले में आईपैड एयर 4 को वर्तमान आईपैड प्रो के काफी करीब लाएगा।
आईपैड एयर 4 में नए मैजिक कीबोर्ड को सपोर्ट करने के लिए इसके रियर पर एक स्मार्ट कनेक्टर होगा।
आईपैड एयर ए14 प्रोसेसर से लैस है। यह 128 जीबी, 256जीबी और 512जीबी स्टोरेज वेरिएंट में उपलब्ध होगा।
इसके अलावा रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि नया आईपैड एयर की कीमत 649 डॉलर से शुरू होगी, जो कि पिछले जनरेशन की तुलना में अधिक है।
एप्पल सितंबर या अक्टूबर में अपने प्रीमियम आईपैड प्रो लाइनअप को बदलने के लिए तैयार है।
एप्पल आईपैड के दो नए वेरिएंट लॉन्च करने की योजना बना रहा है, जिसमें 10.8 इंच आईपैड जो इस साल के अंत में लॉन्च किया जाएगा, वहीं 8.5 इंच आईपैड मिनी को 2021 में लॉन्च करेगा।
नई दिल्ली, 21 अगस्त (आईएएनएस)| आम आदमी पार्टी की ओर से उत्तराखंड में 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा पर भाजपा ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधा है। पार्टी ने कहा है कि आम आदमी पार्टी की सरकार को डूबती दिल्ली नहीं, उत्तराखंड की चिंता है। वह दिल्ली को अधर में छोड़कर भाग जाना चाहते हैं।
उत्तर पूर्व दिल्ली के सासंद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने कहा, अरविंद केजरीवाल को डूबती दिल्ली की नहीं, उत्तराखंड के चुनाव की चिंता है। उनके राजनैतिक इतिहास पर नजर डालें तो उन्होंने किसी भी कार्य को पूरा नहीं किया है और एक बार फिर दिल्ली को अधर में छोड़ कर भाग जाने की फिराक में है। मुख्यमंत्री को जिम्मेदारी से भागने नही देंगे।
दिल्ली बीजेपी के मीडिया रिलेशंस हेड नीलकांत बख्शी ने भी कहा कि कोरोना के बाद बारिश के मौसम में डूबती दिल्ली को छोड़कर फिर मुख्यमंत्री केजरीवाल पलायन करने के मूड में हैं।
भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ने आईएएनएस से कहा कि बनारस से लेकर पंजाब तक अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़कर देख चुके हैं। 2014 में उन्होंने सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा था। भ्रष्टाचार समाप्त करने की बात कहकर दिल्ली की सत्ता में आए अरविंद केजरीवाल से पूछना चाहता हूं कि वह दिल्ली का कोई एक जिला बता दें, जो भ्रष्टाचार मुक्त हो गया हो।
नई दिल्ली, 21 अगस्त (आईएएनएस)| अफगानिस्तान के हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों को न केवल भारत में, बल्कि अमेरिका में भी समर्थन मिला है।
हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में कांग्रेस की जैकी स्पीयर द्वारा सात अन्य लोगों द्वारा एक प्रस्ताव पेश किया गया, जो कि अफगानिस्तान में उत्पीड़ित धार्मिक समुदायों को फिर से संगठित करना चाहते हैं।
पिछले सप्ताह पेश किए गए प्रस्ताव में कहा गया है, सिख और हिंदू अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक और लुप्तप्राय अल्पसंख्यक हैं।
प्रस्ताव में कहा गया है, हाल के वर्षों में सिखों, हिंदुओं और अफगानिस्तान में अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ लक्षित हिंसा के एक बड़े पैटर्न का पालन हो रहा है।
इन दोनों समुदायों के सदस्यों को अमेरिकी शरणार्थी प्रवेश कार्यक्रम के तहत फिर से बसाया जाएगा।
अफगान समाचार एजेंसी टोलो न्यूज के अनुसार, पिछले तीन दशकों में इन दो अल्पसंख्यक समुदायों में लगभग 99 फीसदी लोग अफगानिस्तान से पलायन कर चुके हैं।
एक समय अफगानिस्तान के प्राचीन शासकों ने हिंदुओं को नगण्य कर दिया था, जबकि सिक्खों, जिनका 500 साल पुराना इतिहास है, उनकी संख्या सिर्फ 600 रह गई, वे भी इस देश को छोड़ने वाले अंतिम मुट्ठी भर लोग हैं। इन दोनों समुदायों की संख्या महज 700 रह गई है, जो कि 1970 के दशक में 700,000 थी।
अफगानिस्तान के काबुल और जलालाबाद शहरों में ऐसे हमले भी हुए हैं, जिनमें इन समुदायों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। इनमें एक हमला एक जुलाई, 2018 को जलालाबाद में हुआ था, जो कि आत्मघाती हमला था, जिसमें 19 सिख और हिंदू मारे गए थे। इसके अलावा इस साल 25 मार्च को काबुल में गुरुद्वारा गुरु हर राय साहिब के हमले में 25 लोग मारे गए।
जून में 20 अमेरिकी सीनेटरों के एक द्विदलीय समूह ने ट्रंप प्रशासन से अफगानिस्तान से सिख और हिंदू समुदायों को आपातकालीन शरणार्थी सुरक्षा देने का आग्रह किया था।
उन्होंने कहा, अफगानिस्तान में सिख और हिंदू समुदाय अपने धर्म के कारण आईएसआईएस-के से एक संभावित खतरे का सामना कर रहे हैं। हम धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए आग्रह करते हैं कि आप इन धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए जरूरी कदम उठाएं।
गुरुद्वारा गुरु हर राय साहिब पर हमले ने न केवल पलायन की स्थिति को उजागर किया, बल्कि दो समुदायों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला।
जैसा कि भारत सरकार ने जुलाई में भयभीत समुदाय के लिए वीजा में तेजी लाई, कांग्रेसी जिम कोस्टा ने एक ट्वीट में भारत के रुख की सराहना करते हुए कहा, यह अफगानिस्तान के सिख और हिंदू समुदायों को आतंकवादियों के हाथों विनाश से बचाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
भारत सरकार ने 23 जुलाई को कहा था कि अफगान हिंदुओं और सिखों को भारत की यात्रा करने के लिए वीजा प्रदान करने के अलावा सरकार भारतीय नागरिकता के लिए उनके अनुरोध को भी देख रही है।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा था कि केंद्र सरकार को इन समुदायों से अनुरोध प्राप्त हो रहे थे कि वे भारत में आना चाहते हैं और यहां बसना चाहते हैं। उन्होंने कहा, कोविड-19 महामारी के बावजूद हम अनुरोधों को सुविधाजनक बना रहे हैं।
रायपुर 341 !
'छत्तीसगढ़' संवाददाता
रायपुर 19 अगस्त। छत्तीसगढ़ में रात 11.15 पर 136 नए कोरोना पॉजिटिव के साथ आज राज्य में पहली बार कोरोना ने हज़ार पार कर लिया है. आज प्रदेश में 1052 कोरोना पॉजिटिव पाए गए. आज कोरोना के बाद मरने वाले भी 8 हुए हैं.
राजधानी रायपुर के जिले में 11 और मरीज मिलने के साथ 341 पॉजिटिव हुए हैं.
बाकी जिलों के आंकड़े हमारे पिछले समाचार (नीचे के लिंक को क्लिक करें) के बाद इस बुलेटिन में हैं.
https://dailychhattisgarh.com/article-details.php?article=51001&path_article=24
'छत्तीसगढ़' संवाददाता
रायपुर 19 अगस्त। रायपुर में आज तीन बड़ी स्टील फर्मों पर इनकम टैक्स के सर्वे हुए हैं. ये तीनों कंपनियां एक ही दंपत्ति की बताई गयीं हैं. हनुमान स्टील, श्री कपीश्वर स्टील, और केशरीनंदन स्टील के मालिक रोहित मित्तल और उनकी पत्नी बताये गए हैं.
इन कंपनियों के मारुती लाइफस्टाइल और अविनाश लाइफस्टाइल में मौजूद ऑफिसों में दोपहर से जांच चल रही है. ये सर्वे इन्कमटैक्स के छत्तीसगढ़ के अन्वेषण प्रमुख, प्रिंसिपल डायरेक्टर आलोक जौहरी के निर्देश पर हुए. उनके दो सहायक निदेशक दोनों सर्वे टीम लीड कर रहे थे. बहुत बड़ी टैक्स गड़बड़ी पकड़ने की खबर है.
नई दिल्ली, 20 अगस्त। देश में उठे फेसबुक विवाद के बीच कांग्रेस सांसद शशि थरूर को आईटी मामलों की संसदीय स्थाई समिति के चेयरमैन पद से हटाने की मांग उठी है। कमेटी के सदस्य और बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने गुरुवार को लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को पत्र लिखकर शशि थरूर पर संसदीय नियम-कायदों के उल्लंघन और कमेटी की गरिमा से खिलवाड़ करने का आरोप लगाया है। दुबे ने आरोप लगाया कि शशि थरूर स्टैंडिंग कमेटी ऑन इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी के चेयरमैन के दायित्व निभाने में फेल साबित हुए हैं।
भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को लिखे पत्र में कहा है, आईटी मामलों की संसद की स्थाई समिति के प्रमुख की हैसियत से शशि थरूर ने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चक्कर में पहली बार विवाद नहीं खड़ा किया है। वह संसदीय संस्थाओं का दुरुपयोग कर मेरी पार्टी(भाजपा) को निशाना बनाते हैं। जब से शशि थरूर कमेटी के चेयरमैन बने हैं, वह अनप्रोफेशनल तरीके से संचालन कर रहे हैं। अफवाह फैलाकर वह मेरी पार्टी को बदनाम करने की कोशिश कर राजनीतिक हित साध रहे हैं।
बीजेपी सांसद ने कुल चार उदाहरण देते हुए थरूर पर कमेटी के चेयरमैन की हैसियत से नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाया।
कहा गया है कि पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल के मसले पर उन्होंने कमेटी में चर्चा किए बगैर सोशल मीडिया पर सवाल खड़े किए थे। वहीं 59 चाइनीज ऐप पर बैन लगाने के दौरान भी शशि थरूर ने ट्विटर पर नाराजगी जताई थी।
इसके अलावा कई मौकों पर कमेटी के चेयरमैन के तौर पर दायित्वों के निर्वहन में शशि थरूर फेल हुए हैं। बीजेपी सांसद ने लोकसभा सांसद ओम बिरला से संबंधित नियमों का प्रयोग करते हुए शशि थरूर को कमेटी के चेयरमैन पद से हटाने की मांग की है।
दरअसल, एक विदेशी अखबार की रिपोर्ट में बीते दिनों फेसबुक पर बीजेपी को लेकर नरम रुख अपनाने की बात कही गई थी जिस पर शशि थरूर ने स्टैंडिंग कमेटी ऑन आईटी की ओर से इस मसले पर फेसबुक से सफाई मांगने की बात कही थी।
इस पर बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने कहा था कि समिति के सभी सदस्यों से विचार-विमर्श के बाद ही शशि थरूर फैसला ले सकते हैं। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने कहा था कि ये मुद्दे संसदीय समिति के नियमों के मुताबिक उठाए जा सकते हैं।(IANS)
बेंगलुरू, 20 अगस्त। रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर की टीम इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के 13वें सीजन की शुरूआत अत्यधिक सुरक्षित और बायो सिक्योर वातावरण के साथ करेगी, जोकि टीम को मनोवैज्ञानिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से मजबूती देगा। फ्रेंचाइजी ने गुरुवार को एक बयान में बताया कि उसने इस सीजन के अपने सपोर्ट-स्टाफ को मजबूत किया है, जिसमें स्पोर्ट्स साइकोलॉजिस्ट चैतन्य श्रीधर और चार्ल्स मिंज के रूप में विशेषज्ञ टीम-डॉक्टर शामिल हैं।
सुरक्षा की दृष्टी से, बेंगलोर की टीम ने बेहद कड़े दिशानिदेशरें का पालन करेगी, जोकि बीसीसीआई द्वारा जारी किए गए स्वास्थ्य और सुरक्षा प्रोटोकॉल के पालन में से एक हैं।
दिशानिदेशरें के अनुसार, तीन स्तरों पर कोविड-19 टेस्ट किया जाएगा और साथ ही दुबई पहुंचने से पहले उन्हें क्वारंटीन में रहना होगा। बायो बबल में जाने से पहले टीम छह दिन तक क्वारंटीन में रहेगी और तीन बार उनका टेस्ट होगा।
बेंगलोर की टीम 21 अगस्त को दुबई पहुंचेगी और भारतीय तथा विदेशी खिलाड़ियों के साथ तीन सप्ताह के कैम्प में भाग लेगी।(IANS)
मुंबई, 20 अगस्त। बॉलीवुड के एक्शन स्टार टाइगर श्रॉफ लगभग पांच महीने के बाद काम पर दोबारा वापसी करने वाले हैं। टाइगर ने इंस्टाग्राम पर अपनी एक तस्वीर साझा की है जिसके उनके हाथ में 'फेथ' लिखा नजर आ रहा है।
अपने इस पोस्ट के कैप्शन में टाइगर लिखते हैं, "वापस काम पर हैशटैगकिपदफेथ।"
हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि वह फिलहाल किसकी शूटिंग कर रहे हैं।
टाइगर ने इससे पहले अपना एक वीडियो साझा किया था जिसमें वह वर्कआउट करते और अपनी बॉडी को फ्लॉन्ट करते दिख रहे थे।
फिल्मों की बात करें, तो उन्हें आखिरी बार अहमद खान द्वारा निर्देशित 'बागी 3' में देखा गया था जो कि इस फिल्म की तीसरी किश्त थी। रिलीज होने के बाद फिल्म की शुरूआती कमाई अच्छी रही, लेकिन लॉकडाउन के चलते ऐसा होना बंद हो गया।(IANS)
नई दिल्ली, 20 अगस्त। संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में कोरोना वायरस के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, यही वजह है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) की चिंता बढ़ गई है, क्योंकि बीसीसीआई इस बार आईपीएल के 13वें सीजन का आयोजन यूएई में करा रहा है।
19 सितंबर से यूएई में शुरू होने वाली आईपीएल लीग के लिए किंग्स इलेवन पंजाब और राजस्थान रॉयल्स की टीम पहले ही दुबई पहुंच चुकी हैं। बाकी अन्य टीमें आगामी दिनों में यूएई पहुंच जाएगी।
बीसीसीआई के एक अधिकारी ने आईएएनएस से कहा है कि सभी खिलाड़ियों और आईपीएल टीम मालिकों से कह दिया गया कि, वे खुद की देखभाल करें।
अधिकारी ने कहा, " खिलाड़ियों, कोचिंग स्टाफ, मालिकों और अन्य सदस्यों को सख्त निर्देश दिया गया है। हम नहीं चाहते हैं कि किसी की गलती के कारण कोई दूसरा प्रभावित हो।"
उन्होंने कहा, "यूएई खिलाड़ियों (चिकित्सा या अन्य) की सुरक्षा के बारे में आवश्यक सभी सहायता प्रदान करेगा। टीमों के मालिकों को यहां और वहां स्वतंत्र रूप से घूमने के लिए भी मना किया गया है क्योंकि कोरोनावायरस के मामले उस देश में भी कम नहीं हैं। इतने समय के बाद आईपीएल होने जा रहा है और हर किसी को इसका सम्मान करना होगा और अधिक जिम्मेदार होना होगा।"
पिछले महीने ही इंग्लैंड के तेज गेंदबाज जोफ्रा आर्चर को वेस्टइंडीज के खिलाफ दूसरे टेस्ट की अंतिम एकादश से बाहर कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने टीम के बायो सिक्योर बबल नियम को तोड़ा था।(IANS)
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
रायपुर, 20 अगस्त। स्वास्थ्य विभाग को प्रदेश में रात 8.30बजे तक 916 कोरोना पॉजिटिव मिले हैं। इनमें सर्वाधिक रायपुर में 330 और दुर्ग में 183 पॉजिटिव पाए गए हैं। इसके अलावा दंतेवाड़ा 38, सुकमा 37, सरगुजा 34, रायगढ़ 32, जांजगीर-चांपा 30, कोरिया 27, नारायणपुर व कांकेर 20-20, कोरबा व जशपुर 19-19, सूरजपुर 17, राजनांदगांव 16, बिलासपुर 15, कोण्डागांव 14, बलौदाबाजार 9, गरियाबंद, मुंगेली व बीजापुर 8-8, धमतरी, महासमुंद व बस्तर 6-6, कबीरधाम 5, बेमेतरा व बलरामपुर 4-4 बालोद 1 पॉजिटिव मिले हैं।
राज्य में आज कुल 554 मरीज स्वस्थ होकर डिस्चार्ज किए गए। कोरोनाग्रस्त 4 की मृत्यु हुई है।
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
रायपुर, 20 अगस्त। छत्तीसगढ़ में आज शाम 7.40 तक 694 कोरोना पॉजिटिव मिले हैं। ये आंकड़े केन्द्र सरकार के संगठन आईसीएमआर के हैं, और राज्य शासन देर रात तक अपने कुछ बुलेटिन में इन तक पहुंचता है।
आईसीएमआर के आंकड़ों के मुताबिक के 634 में आधे से अधिक 375 पॉजिटिव रायपुर जिले में हैं। दुर्ग 113, राजनांदगांव 42, सरगुजा 26, बालोद और बिलासपुर 14-14, कांकेर 13, कबीरधाम, नारायणपुर 9, बलौदाबाजार, गरियाबंद, महासमुंद 8-8, जांजगीर-चांपा 7, जशपुर 6, बेमेतरा, धमतरी 5-5, कोरबा, कोरिया, रायगढ़ 4-4, सूरजपुर 3, बस्तर, बीजापुर, सुकमा 2-2, बलरामपुर 1-1 कोरोना पॉजिटिव मिले हैं।
प्रदेश में 258 पॉजिटिव, रायपुर में 115
स्वास्थ्य विभाग के शाम 7 के आंकड़े
स्वास्थ्य विभाग को प्रदेश में शाम 7 बजे तक 258 कोरोना पॉजिटिव मिले हैं। इनमें सर्वाधिक रायपुर में 115 और दुर्ग में 65 पॉजिटिव पाए गए हैं। इसके अलावा सरगुजा 23, जांजगीर-चांपा 16, जशपुर 12, महासमुंद 5, कांकेर 4, बलौदाबाजार और सूरजपुर 3-3, धमतरी, रायगढ़ 2-2 पॉजिटिव मिलने की सूचना है। यह जानकारी राज्य कोरोना नियंत्रण कंट्रोल रूम ने दी है।
राज्य शासन कोरोना पॉजिटिव रिजल्ट के एक-एक नतीजों के नाम की जांच करता है कि उनमें कोई पिछले दिनों के पॉजिटिव का रिपीट टेस्ट तो नहीं है। इसलिए स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े पीछे चलते हैं।