अंतरराष्ट्रीय
वाशिंगटन, 25 अक्टूबर| न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार बेन हूबार्ड को जून 2018 से जून 2021 तक तीन साल की अवधि में इजरायल स्थित एनएसओ ग्रुप के पेगासस स्पाइवेयर से बार-बार निशाना बनाया गया। यनिनिवर्सिटी टोरंटो की सिटिजन लैब की रिपोर्ट में रविवार को कहा गया कि यह प्रयास तब हुआ, जब वह सऊदी अरब पर रिपोर्टिग कर रहा था और सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के बारे में एक किताब लिख रहा था।
हबर्ड ने एनवाईटी पर एक लेख में लिखा था, "मुझे हैक किया गया था। मेरे खिलाफ इस्तेमाल किया गया स्पाइवेयर हम सभी को कमजोर बनाता है।"
उन्होंने कहा कि हालांकि यह खबर आश्चर्यजनक नहीं थी, लेकिन यह अभी भी अशांत करने वाली थी।
हबर्ड को पहली बार 2018 में एक संदिग्ध पाठ संदेश के साथ लक्षित किया गया था, जिसे सिटीजन लैब ने एनएसओ समूह के पेगासस नामक सॉफ्टवेयर का उपयोग करके सऊदी अरब द्वारा भेजे जाने की संभावना निर्धारित की थी।
इसी तरह की हैकिंग का प्रयास, उसी वर्ष, अरबी भाषा के व्हाट्सएप संदेश के माध्यम से आया, जिसने हबर्ड को नाम से वाशिंगटन में सऊदी दूतावास में विरोध प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया। दोनों प्रयास सफल नहीं हुए क्योंकि उसने लिंक पर क्लिक नहीं किया।
हूबार्ड ने कहा कि उनका फोन 2020 और 2021 में दो बार फिर से हैक किया गया था तथाकथित 'जीरो-क्लिक' कारनामों के साथ, जिसने हैकर को बिना किसी लिंक पर क्लिक किए मेरे फोन के अंदर जाने की अनुमति दी।(आईएएनएस)
गैबोरोन, 24 अक्टूबर | बोत्सवाना में पिछले तीन वर्षों में शिकारियों द्वारा लगभग 100 गैंडे मारे गए हैं। एक वन्यजीव अधिकारी ने शनिवार को यह जानकारी दी। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, बोत्सवाना के पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और पर्यटन मंत्रालय में वन्यजीव और राष्ट्रीय उद्यान विभाग के निदेशक काबेलो सेन्यात्सो ने कहा कि देश ने 2018, 2019 और 2020 में 5, 30 और 62 गैंडे खो दिए।
हालांकि, सेन्यात्सो ने यह भी कहा कि अवैध शिकार के कारण दक्षिणी अफ्रीकी देश की गैंडों की आबादी कभी भी विलुप्त होने के स्तर तक नहीं पहुंच पाएगी, क्योंकि बोत्सवाना में शिकारियों से बचाने के लिए गैंडों की प्रजातियों के लिए हमेशा कुछ खास हस्तक्षेप होंगे।
सेन्यात्सो ने कहा, "ओकावांगो डेल्टा के भीतर गैंडों के अवैध शिकार में वृद्धि के बाद, समस्या का समाधान करने के लिए कई पहलों को लागू किया गया था। इस पहल में पैदल और हवाई गश्त में वृद्धि, गैंडों को हटाना और गंभीर रूप से लुप्तप्राय काले गैंडों को बाड़ वाले क्षेत्रों से हटाना शामिल है।
सेन्यात्सो ने कहा, बोत्सवाना में अवैध शिकार विरोधी गतिविधियों के लिए संसाधनों को तैनात करने के लिए प्रतिबद्ध है। बोत्सवाना के उत्तरी भाग में अवैध शिकार विरोधी प्रयासों को बनाए रखते हुए स्वार्थी महत्वाकांक्षा वाले लोगों द्वारा इसके समृद्ध वन्यजीव संसाधनों को नष्ट नहीं किया जाता है।"
पिछले महीने जारी 2021 इंटरनेशनल राइनो फाउंडेशन की स्थिति रिपोर्ट ने संकेत दिया कि बोत्सवाना में गैंडों की आबादी को एक महत्वपूर्ण अवैध शिकार का सामना करना पड़ रहा है, जबकि देश कई पहल करके इस मुद्दे को हल करने के लिए आवश्यक कदम उठा रहा है।(आईएएनएस)
संजीव शर्मा
नई दिल्ली, 23 अक्टूबर| ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि अफगानिस्तान के कई प्रांतों में तालिबान के अधिकारियों ने अपने ही समर्थकों को जमीन बांटने के लिए जबरन विस्थापित कर दिया है।
इनमें से कई निष्कासन में सामूहिक दंड के रूप में हजारा शिया समुदायों के साथ-साथ पूर्व सरकार से जुड़े लोगों को निशाना बनाया गया है।
अक्टूबर 2021 की शुरुआत में तालिबान और उससे जुड़े लड़ाकों ने दक्षिणी हेलमंद प्रांत और उत्तरी बल्ख प्रांत से हजारा परिवारों को जबरन बेदखल कर दिया।
ये पहले दाइकुंडी, उरुजगन और कंधार प्रांतों से बेदखली के बाद हुए। अगस्त में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से उन्होंने इन पांच प्रांतों में कई हजारों और अन्य निवासियों को अपने घरों और खेतों को छोड़ने के लिए कहा है। कई मामलों में केवल कुछ दिनों के नोटिस के साथ और भूमि पर अपने कानूनी दावों को पेश करने का कोई अवसर नहीं दिया है।
संयुक्त राष्ट्र के एक पूर्व राजनीतिक विश्लेषक ने कहा कि उन्होंने निवासियों को बेदखली के नोटिसों को यह कहते हुए देखा कि यदि वे इसका पालन नहीं करते हैं, तो उन्हें 'परिणामों के बारे में शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं है।'
ह्यूमन राइट्स वॉच की एसोसिएट एशिया डायरेक्टर पेट्रीसिया गॉसमैन ने कहा, "तालिबान, जातीयता या राजनीतिक राय के आधार पर तालिबान समर्थकों को इनाम देने के लिए हजारों और अन्य लोगों को जबरन बेदखल कर रहा है। वह भी धमकियों के साथ और बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के किया गया यह निष्कासन, गंभीर दुर्व्यवहार हैं जो सामूहिक दंड की तरह हैं।"
बल्ख प्रांत में मजार-ए-शरीफ के कुबत अल-इस्लाम जिले के हजारा निवासियों ने कहा कि स्थानीय कुशानी समुदाय के हथियारबंद लोग स्थानीय तालिबान सुरक्षा बलों के साथ परिवारों को छोड़ने के लिए मजबूर करने के लिए काम कर रहे थे, और ऐसा करने के लिए उन्हें केवल तीन दिन का समय दिया था। तालिबान अधिकारियों ने दावा किया कि बेदखली एक अदालत के आदेश पर आधारित थी, लेकिन बेदखल निवासियों का दावा है कि उनके पास 1970 के दशक से जमीन का स्वामित्व है। परस्पर विरोधी दावों पर विवाद 1990 के दशक में सत्ता संघर्ष से उत्पन्न हुए।
हेलमंद प्रांत के नवा मिश जिले के निवासियों ने ह्यूूमन राइट्स वॉच को बताया कि तालिबान ने सितंबर के अंत में कम से कम 400 परिवारों को एक पत्र जारी कर उन्हें जमीन छोड़ने का आदेश दिया। इसके लिए इतना कम समय दिया गया कि परिवार अपना सामान लेने या अपनी फसल की पूरी कटाई करने में असमर्थ थे। एक निवासी ने कहा कि तालिबान ने आदेश को चुनौती देने की कोशिश करने वाले छह लोगों को हिरासत में लिया, जिनमें से चार अभी भी हिरासत में हैं।
एक अन्य निवासी ने कहा कि 1990 के दशक की शुरुआत में, स्थानीय अधिकारियों ने अपने रिश्तेदारों और समर्थकों के बीच जमीन के बड़े हिस्से को बांट दिया, जिससे जातीय और आदिवासी समुदायों के बीच तनाव बढ़ गया।
हेलमंद के एक कार्यकर्ता ने कहा कि संपत्ति को आधिकारिक पदों पर बैठे तालिबान सदस्यों के बीच फिर से बांटा जा रहा है। उन्होंने कहा कि वे भूमि और अन्य सार्वजनिक वस्तुओं का भक्षण कर रहे हैं और इसे अपने स्वयं के बलों को फिर से वितरित कर रहे हैं।
एचआरडब्ल्यू ने कहा कि सबसे बड़ा विस्थापन दाइकुंडी और उरुजगन प्रांतों के 15 गांवों में हुआ है, जहां तालिबान ने सितंबर में कम से कम हजारा निवासियों को निकाला था। परिवार अपना सामान और फसल छोड़कर दूसरे जिलों में चले गए।
एक पूर्व निवासी ने कहा, "तालिबान के कब्जे के बाद हमें तालिबान से एक पत्र मिला जिसमें हमें सूचित किया गया कि हमें अपने घरों को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि जमीन पर विवाद है। कुछ प्रतिनिधि जिले के लोग अधिकारियों के पास जांच की गुहार लगाने गए, लेकिन उनमें से लगभग पांच को गिरफ्तार कर लिया गया है।"
ह्यूमन राइट्स वॉच यह तय करने में अभी असमर्थ है कि उन्हें रिहा कर दिया गया है या नहीं।
एक पूर्व निवासी ने कहा कि तालिबान ने गांवों से बाहर सड़कों पर चौकियां स्थापित की हैं और किसी को भी अपने साथ अपनी फसल नहीं ले जाने दिया। निष्कासन के मीडिया कवरेज के बाद, काबुल में तालिबान के अधिकारियों ने कुछ दाइकुंडी गांवों के लिए बेदखली के आदेश वापस ले लिए, लेकिन 20 अक्टूबर तक, कोई भी निवासी वापस नहीं आया था।
तालिबान ने कंधार प्रांत में सरकारी स्वामित्व वाले आवासीय परिसर के निवासियों को जाने के लिए तीन दिन का समय दिया। संपत्ति पिछली सरकार द्वारा सिविल सेवकों को वितरित की गई थी। (आईएएनएस)
जापान में कई लोग सेवानिवृत्ति के बाद आराम करने की बजाय अपने कौशल और ज्ञान का उपयोग अपने समाज के हित में करना पसंद करते हैं. ये लोग रिटायरमेंट के बाद फिर काम पर लौट जाते हैं ताकि मानसिक और शारीरिक रूप से फिट बने रहें.
डॉयचे वैले पर आने जूलियान रायल की रिपोर्ट-
अत्सुको कासा 68 साल की हैं. काफी तेज और ऊर्जावान हैं और जीवन की रफ्तार धीमी करने का उनका कोई इरादा भी नहीं है. कासा जापान के शहर योकोहामा में अपने घर के करीब सिल्वर जिनजई सेंटर में तब तक काम करना जारी रखने की योजना बना रही हैं, जब तक वो ऐसा कर सकती हैं.
वह मजाक में कहती हैं कि रिटायरमेंट की उम्र से वह अभी बहुत छोटी हैं. कासा दूसरों की मदद करना चाहती हैं.
कासा एक सौंदर्य प्रसाधन कंपनी के लेखा विभाग में काम करती थीं और वह उन बुजुर्ग जापानी नागरिकों में से एक हैं, जिन्होंने बागवानी, दोस्तों के साथ मिलने-जुलने और पोते-पोतियों की देखभाल करने जैसे पारंपरिक सेवानिवृत्ति शौक अपनाने की बजाय कार्यस्थल पर लौटने का विकल्प चुना है.
कुछ लोगों का तो मानना है कि रिटायरमेंट के बाद वे सिल्वर जिनजई संगठन के जरिए कुछ अतिरिक्त आय अर्जित करते हैं लेकिन ज्यादातर लोग यह काम सिर्फ पैसों के लिए ही नहीं करते. जापान में करीब सात लाख लोग इस देशव्यापी संगठन के साथ पंजीकृत हैं जिसकी शुरुआत साल 1975 में टोक्यो में हुई थी. इन बुजुर्ग लोगों का इसके पीछे मुख्य उद्देश्य खुद को व्यस्त रखना और समाजसेवा करना है.
अन्य लोगों की मदद करना
डीडब्ल्यू से बातचीत में कासा कहती हैं, "जैसे-जैसे मैं बड़ी होने लगी, मुझे लगा कि मेरी दुनिया छोटी होती जा रही है. एक सार्थक जीवन जीने के लिए मैंने एक नौकरी शुरू करने का फैसला किया जहां मैं अन्य लोगों की मदद कर सकूं. मेरे पास कोई विशेष कौशल नहीं है लेकिन मैं हमेशा उदार मन से काम करती हूं.”
कासा योकोहामा में विकलांग लोगों के लिए एक सहायता समूह में काम करती हैं. वह एक कैफे में विशेष सुविधा में भोजन तैयार करने में मदद करती हैं. वह कहती हैं, "मैं ऐसी दुनिया में काम करने की चुनौतियों का सामना करना चाहती थी जिसका मैंने पहले कभी अनुभव न किया हो.”
कासा कहती हैं, "मैं इस नौकरी को पसंद करती हूं. लोग ईमानदार, साफ-सुथरे और दयालु हैं. दरअसल, मैं उनसे प्यार करती हूं. साथ ही, उन कर्मचारियों के साथ काम करना जो आपकी स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं, मेरे जीवन को समृद्ध करते हैं, इसके लिए मैं उन लोगों की आभारी हूं.”
संगठन के अध्यक्ष ताकाओ ओकाडा कहते हैं कि योकोहामा सिल्वर जिनजई केंद्र के साथ काम करने के लिए लगभग दस हजार लोग पंजीकृत हैं और हाल के वर्षों में यह संख्या बढ़ रही है. कार्यालय के दस्तावेजों में सबसे वृद्ध व्यक्ति 100 वर्ष के हैं.
ओकाडा कहते हैं, "ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो स्वस्थ हैं और काम करने के लिए बहुत उत्साहित हैं. हमारे सदस्य क्यों काम करना चाहते हैं इसके कई कारण हैं. निश्चित तौर पर, कुछ तो आर्थिक जरूरतों के लिए करते हैं लेकिन बहुत से लोग अपने स्वास्थ्य को बनाए रखना चाहते हैं जबकि कुछ अन्य लोग समाज में योगदान देना चाहते हैं या अपने अनुभव और कौशल का अधिकतम लाभ उठाना चाहते हैं.”
रोजगार के अवसर
ओकाडा कहते हैं कि सिल्वर जिनजाई के कार्यकर्ता आमतौर पर सप्ताह में अधिकतम 20 घंटे काम करते हैं यानी करीब दो या तीन दिन. ये लोग आमतौर पर सुपरमार्केट में काम करते हैं जैसे क्लीनर, माली, रिसेप्शनिस्ट, बढ़ई या चाइल्ड केयर असिस्टेंट के रूप में या फिर बुजुर्ग लोगों की देखभाल करने में मदद करने जैसे काम करते हैं.
अन्य लोग कंप्यूटर एडेड डिजाइन में तकनीक का इस्तेमाल करते हैं या शहर की सड़कों पर कूड़ा उठाने में मदद करते हैं. ओकाडा कहते हैं कि विदेशी भाषा कौशल वाले लोगों की खासतौर पर मांग रहती है.
मेहनताने का भुगतान अलग-अलग दरों पर किया जाता है और वे देश भर में अलग-अलग होते हैं. लेकिन घरेलू कामों में सहायता से आमतौर पर सिल्वर जिन्जई कार्यकर्ता प्रति घंटे 870 येन यानी 6.70 यूरो तक कमा लेते हैं. इसके अलावा खिड़कियों की सफाई का मेहनताना 910 येन है और बागवानी का 1,040 येन है. उत्तरी प्रान्त में बर्फ साफ करने जैसे कठिन काम की मजदूरी 1,855 येन प्रति घंटा है.
अतिरिक्त आय प्रदान करने और देश की बुजुर्ग आबादी को काम में व्यस्त रखने के साथ-साथ यह योजना जापान में श्रमिकों की बढ़ती कमी को दूर करने में भी मदद कर रही है.
जापान में श्रमिकों की भारी कमी
जापान में हालांकि देश में काम करने वालों की उम्र सीमा बढ़ रही है लेकिन जन्म दर गिर रही है और बड़ी संख्या में लोग वृद्धावस्था में जी रहे हैं.
मौजूदा समय में, चार में से एक जापानी व्यक्ति की उम्र 65 साल से अधिक है और यह अगले 15 वर्षों में तीन में से एक तक पहुंचने का अनुमान है. इसका मतलब यह हुआ कि जापान की जनसंख्या जर्मनी की तुलना में दोगुनी और फ्रांस की तुलना में चार गुना तेज गति से वृद्ध हो रही है.
सरकार ने इस प्रवृत्ति को बदलने के उपायों की शुरुआत की है, खासतौर पर अप्रैल में अनिवार्य सेवानिवृत्ति की आयु को 65 से 70 तक बढ़ाकर, लेकिन विश्लेषकों का सुझाव है कि जापान में साल 2030 तक 64.4 लाख श्रमिकों की संभावित कमी होगी.
और, हालांकि सिल्वर जिनजाई नेटवर्क मौजूदा श्रम की कमी में मदद कर रहा है लेकिन विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि भविष्य में इस कमी की पूर्ति होने की संभावना है, खासकर अगर बेहतर भुगतान विकल्प उपलब्ध हैं.
तोहोकू विश्वविद्यालय में बुजुर्ग लोगों और समाज पर शोध कर रहे प्रोफेसर हिरोशी योशिदा कहते हैं, "वापस लौटकर 1975 के दौर में आएं तो जब इसे पहली बार स्थापित किया गया था तब ज्यादा से ज्यादा बुजुर्ग लोग थे जो सेवानिवृत्ति के बाद काम करना चाहते थे क्योंकि उन्हें लगा कि यह उन्हें उम्र बढ़ने के साथ फिट रखेगा.”
वह कहते हैं, "हालांकि बुजुर्ग लोग आज पहले की तुलना में ज्यादा स्वस्थ और ऊर्जावान हैं और वह बस खुद को बहुत बूढ़ा नहीं मानते. संस्थान से जुड़े लोगों का समूह काम करना चाहता है लेकिन वे एक बेहतर वेतन भी चाहते हैं, इसलिए वे सिल्वर जिनजाई प्रणाली के बाहर नौकरियों की तलाश कर रहे हैं.” (dw.com)
जर्मनी की सरकार ने पांच साल पहले वेश्यावृत्ति संरक्षण अधिनियम को लागू किया था. इसका मकसद यौनकर्मियों को सुरक्षा प्रदान करना था, लेकिन अब वही इस नियम का विरोध कर रही हैं. आखिर क्यों?
डॉयचे वैले पर इलियट डगलसकी रिपोर्ट-
ओलिविया जर्मनी की राजधानी बर्लिन में रहती हैं. वह पिछले करीब एक दशक से सेक्स वर्कर के तौर पर काम कर रही हैं. इस नए नियम को वह दखलअंदाजी के तौर पर देखती हैं. मुस्कुराते हुए कहती हैं, "यूं ही नहीं लोग कहते हैं कि यह दुनिया का सबसे पुराना पेशा है. लोग हमेशा सेक्स वर्क करने का कोई न कोई तरीका खोज ही लेंगे."
वेश्यावृत्ति को पेशे के तौर पर अपनाने की उनकी कोई योजना नहीं थी. वह तो रोमांचक जीवन की तलाश में देश के एक छोटे से शहर से बर्लिन चली आई थीं. हालांकि, बाद में दोस्त के कहने पर वह वेश्यावृत्ति के पेशे में आ गईं. अब उनकी उम्र 30 साल होने को है.
इस दौरान अब तक उन्होंने करीब हर तरह का सेक्स वर्क किया है. वह लक्जरी एस्कॉर्ट के तौर पर भी सेवा दे चुकी हैं और इरॉटिक मसाज करने वाली के तौर पर भी. उन्होंने वेश्यालय में भी काम किया है और घर पर भी ग्राहकों को सेवा दी है.
ओलिविया विस्तार से बताती हैं, "आय और सुरक्षा के लिहाज से कई तरह के लेवल हैं." उन्होंने अपने काम के दौरान ब्लैक सेक्स वर्कर्स कलेक्टिव के साथ मिलकर एक समुदाय की स्थापना की. ब्लैक सेक्स वर्कर्स अमेरिकी लोगों की एक पहल है. साथ ही, ओलिविया सेक्स वर्कर्स यूनियन की सदस्य भी हैं.
इसके बावजूद, वह जर्मनी की उन हजारों सेक्स वर्कर्स में से एक हैं जिनका रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है. पिछले पांच वर्षों से वह मुकदमा होने के खतरे के बीच अपना काम कर रही हैं.
90 प्रतिशत का नहीं है रजिस्ट्रेशन
ओलिविया ने जब सेक्स वर्कर के तौर पर काम करना शुरू किया था, तब जर्मनी में सेक्स वर्कर्स के अधिकारों को आज की अपेक्षा अच्छी तरह से संरक्षित किया गया था. 2002 के वेश्यावृत्ति अधिनियम ने औपचारिक रूप से इसे व्यवस्थित कर रखा था. इसका उद्देश्य सेक्स वर्कर्स की स्वास्थ्य देखभाल और बेरोजगारी बीमा जैसे लाभ तक पहुंच सुनिश्चित करना था.
हालांकि, कुछ सांसदों को चिंता थी कि यह कानून काफी ज्यादा नर्म है. सेंटर लेफ्ट सोशल डेमोक्रेट्स (एसपीडी) की पूर्व परिवार कल्याण मंत्री मानुएला श्वेजिग ने 2014 में जर्मन अखबार डि त्साइट को बताया था, "इस देश में स्नैक बार से ज्यादा आसान वेश्यालय खोलना है."
इसके एक साल बाद, उनकी गठबंधन की सरकार ने नए कानून का बिल पेश किया. इसके तहत सभी सेक्स वर्कर्स को रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य बनाया गया. यह कानून 21 अक्टूबर 2016 को अधिनियमित किया गया और 1 जुलाई 2017 को लागू हुआ.
इसका मतलब, सेक्स वर्कर्स को अपना पता, संपर्क की जानकारी, असली नाम जैसे निजी डेटा देना और नियमित तौर पर स्वास्थ्य से जुड़ा परामर्श लेना अनिवार्य हो गया. इस स्थिति में अगर कोई सेक्स वर्कर रजिस्ट्रेशन नहीं कराती है, तो वह कानून तोड़ रही है. वजह चाहे गोपनीयता से जुड़ी चिंता हो या जर्मनी में कोई स्थायी या कानूनी पता न होना, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है.
इस अधिनियम के तहत, सेक्स वर्क के दौरान कंडोम का इस्तेमाल करना भी जरूरी होता है. साथ ही, वेश्यालय चलाने के लिए परमिट चाहिए होता है.
2019 के आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि वेश्यावृत्ति संरक्षण अधिनियम के तहत 40 हजार यौनकर्मियों का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है. हकीकत में यह आंकड़ा चार लाख से अधिक हो सकता है. इसका मतलब है कि जर्मनी में 90 प्रतिशत सेक्स वर्कर का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है और वे कानूनी रूप से अवैध हैं.
कानूनी तौर पर वैध सेक्स वर्कर का बड़ा हिस्सा वेश्यालयों में काम करता है. वहीं, जिन्होंने रजिस्ट्रेशन नहीं कराया है उनमें से ज्यादातर अपने घर या गलियों में ग्राहकों को सेवा देती हैं.
गोपनीयता से जुड़ी चिंता
कानून का उद्देश्य सेक्स वर्कर्स की स्थितियों में सुधार करना, मानव तस्करी, शोषण और गुलामी की संभावना को कम करना था. हालांकि, सेक्स वर्कर्स का कहना है कि इसने वास्तव में उनकी स्थिति को और खराब कर दिया है.
हाइड्रा संगठन की प्रवक्ता रूबी रेबेल्डे कहती हैं, "जिन लोगों को सेक्स वर्क के बारे में कोई जानकारी नहीं है, वे कहते हैं कि यह उतना बुरा नहीं है. लेकिन जर्मनी में आज भी सेक्स वर्क को बुरे नजरिए से देखा जाता है. और इसका मतलब है कि बहुत से लोग खुलकर अपनी पहचान जाहिर नहीं कर सकते हैं."
बर्लिन में 40 साल पहले सेक्स वर्कर्स के लिए वकालत और परामर्श सेवा की स्थापना की गई थी. जब से नया कानून बना है, तब से यह संस्था इस कानून का विरोध कर रही है.
जर्मनी में काम करने वाली कई सेक्स वर्कर दूसरे देशों की हैं. वे लंबी प्रक्रिया और उलझनों की वजह से रजिस्ट्रेशन नहीं कराती हैं. रजिस्ट्रेशन कराने वाली गैर-जर्मन सेक्स वर्कर्स में सबसे ज्यादा संख्या यूरोपीय संघ के सदस्य रोमानिया और बुल्गारिया की है. लेकिन रेबेल्डे का मानना है कि जर्मनों की तुलना में विदेशी सेक्स वर्कर्स के रजिस्ट्रेशन की संभावना कम होती है.
रेबेल्डे कहती हैं, "इसका मतलब है कि जो लोग जर्मनी में सेक्स वर्कर के रूप में काम करने के लिए आती हैं, उन्हें वेश्यावृत्ति संरक्षण अधिनियम के तहत ‘अवैध' बना दिया जाता है."
इन सभी बातों के अलावा, इसका यह भी मतलब हुआ कि कोरोना वायरस महामारी के दौरान जब लॉकडाउन लगाया गया तो उन सेक्स वर्कर्स को सहायता नहीं मिली जिनका रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ था. इस दौरान रजिस्टर्ड सेक्स वर्कर्स की संख्या में भी काफी कमी देखी गई.
साथ मिलकर काम करना ज्यादा सुरक्षित
नए कानून के तहत, सेक्स वर्कर एक जोड़े या समूह के तौर पर नहीं रह सकते और न ही काम कर सकते हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि तकनीकी रूप से अपार्टमेंट या घर शेयर करने से वह जगह वेश्यालय बन सकती है. और वेश्यालय के लिए परमिट चाहिए होता है जबकि यह एक सामान्य व्यवस्था है कि अगर सेक्स वर्कर समूह में होती हैं, तो ग्राहकों द्वारा हिंसा करने या ब्लैकमेल करने की संभावना कम होती है.
ओलिविया कहती हैं, "अगर मैं घर पर अकेले काम करूं, तो इससे मैं अधिक खतरे में पड़ सकती हूं. नए कानून के लागू होने के बाद, अपार्टमेंट में अकेले में काम करने के दौरान मेरे साथ दुर्व्यवहार और ब्लैकमेल के प्रयास पहले की तुलना में ज्यादा हुए हैं."
रेबेल्डे कहती हैं, "साथ काम करना ज्यादा सुरक्षित है क्योंकि आप एक-दूसरे पर नजर रख सकते हैं. अपने अनुभव साझा कर सकते हैं."
नए कानून का समर्थन
कुछ लोग नए कानून का समर्थन भी करते हैं. समर्थकों का कहना है कि नए कानून ने वाकई में सेक्स वर्कर्स की सुरक्षा बढ़ा दी है. बर्लिन शहर के सेक्स वर्क की प्रवक्ता और एसपीडी की निर्वाचित प्रतिनिधि एन कैथरीन बीवेनर कहती हैं, "वेश्यावृत्ति संरक्षण अधिनियम के अनुसार, रजिस्ट्रेशन कराने से राज्यों के पास इस बात की जानकारी होती है कि कितने लोग यह काम कर रहे हैं. इन आंकड़ों के आधार पर उनके अधिकरों के लिए काम किया जाता है."
कैथरीन पूरे बर्लिन शहर में रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया की देखरेख के लिए जिम्मेदार हैं. वह कहती हैं, "रजिस्ट्रेशन की वजह से, सेक्स वर्क चोरी-छिपे नहीं होता. इससे सेक्स वर्कर्स की स्थिति में सुधार करने में मदद मिलती है."
नॉर्डिक मॉडल
महामारी के दौरान, जब सोशल डिस्टेंसिंग नियमों के तहत सेक्स वर्क पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, तब एसपीडी के सांसदों और तत्कालीन चांसलर अंगेला मैर्केल की सेंटर-राइट क्रिश्चियन डेमोक्रेट पार्टी ने वेश्यालय को और भी लंबे समय तक बंद करने और सेक्स वर्क इंडस्ट्री की पूरी तरह समीक्षा करके इसमें सुधार करने की बात कही थी.
उनके और कई अन्य लोगों ने इसके लिए जो समाधान बताए उसे तथाकथित नॉर्डिक मॉडल कहते हैं. इसके तहत, सेक्स के लिए पैसे देना अवैध है, लेकिन सेक्स बेचना अवैध नहीं है.
हालांकि, ओलिविया यह नहीं मानती हैं कि ऐसी व्यवस्था जर्मनी में काम करेगी और सेक्स वर्क पर लगाम लगा पाएगी. वह कहती हैं, "यहां कुछ भी नहीं रुकेगा. कीमतें और बढ़ जाएंगी. अपराध, हिंसा, मानव तस्करी, और ब्लैकमेलिंग बढ़ जाएगी. मुझे इसमें किसी तरह का सकारात्मक पक्ष नजर नहीं आता है.”
नए अधिनियम का संघीय मूल्यांकन 2025 तक पूरा करने की योजना है. एक अंतरिम रिपोर्ट में सिर्फ 2017 और 2018 की घटनाओं को शामिल किया गया है. अब तक, यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं कि मानव तस्करी को कम करने के लिए अधिनियम का कोई भी कानून सफल रहा है या नहीं.
इस बीच कई राज्यों ने अपने-अपने मूल्यांकन प्रकाशित किए हैं. ब्रेमेन राज्य के दिसंबर 2020 की रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है कि रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया जारी है. हालांकि, सेक्स वर्कर और पेशेवर राजनेता आलोचना करते हैं कि यह कानून तस्करी के खिलाफ पर्याप्त रूप से सुरक्षा उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं है. साथ ही, सेक्स वर्कर्स की स्थिति में सुधार नहीं हो पा रहा है. वे कलंक और भेदभाव की वजह से रजिस्ट्रेशन कराने के लिए अधिकारियों के पास जाने से डरते हैं. यह कानून सेक्स वर्कर्स की सभी जरूरतों को पूरा नहीं करता है.
वहीं, हाइड्रा रेबेल्डे कहती हैं कि अगली बार जब भी हो, सेक्स वर्कर्स की समस्या और उनकी आवाज को सरकार तक पहुंचाया जाएगा, ताकि उनके हिसाब से कानून में संशोधन हो सके. वह कहती हैं, "सेक्स वर्कर्स से बात किए बिना सेक्स वर्कर्स के बारे में बात करना, यह ठीक नहीं है." (dw.com)
नॉर्वे की स्की जंपिंग स्टार मारेन लुंडबी ने प्रतिस्पर्धी खेलों में जानबूझकर कम खाने के बारे में चर्चा को हवा दी है. विशेषज्ञों का कहना है कि जानबूझकर कम खाने से ईटिंग डिसऑर्डर हो सकता है और इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.
डॉयचे वैले पर डेविस ऐली वान ओपडोर्प की रिपोर्ट-
सबरीना मॉकेनहॉप्ट ने डीडब्ल्यू को बताया, "मुझे हमेशा अतीत में भी कहा गया था कि सामने पेंसिल चलती हैं, रबड़ नहीं. यह बात आपको कभी-कभी ही सुनने को मिल सकती है, लेकिन जल्दी ही आपकी दिमाग में बैठ सकती है.Ó 40 वर्षीय मॉकेनहॉप्ट लंबी दूरी की धावक रह चुकी हैं. इन्होंने अपने करियर में 40 जर्मन चैंपियनशिप खिताब जीते हैं.
वह कहती हैं, "मैं कभी बहुत पतली नहीं थी. शायद इसलिए मेरा करियर इतना लंबा था. मुझे नहीं लगता कि 20 साल की उम्र के जो धावक अभी पतले-दुबले हैं वे 35 साल की उम्र तक दौड़ रहे होंगे."
नॉर्वे की स्की जंपिंग स्टार मारेन लुंडबी ने हाल ही में शीर्ष स्तर के खेल में कम खाने की वजह से होने वाले ईटिंग डिसऑर्डर के खतरे के बारे में चर्चा को फिर से हवा दी है. ओलंपिक और विश्व स्तर पर चैंपियन रह चुकीं लुंडबी ने सभी को हैरान करते हुए अक्टूबर की शुरुआत में, चीन में 2022 में होने वाले शीतकालीन ओलंपिक के पूरे सेशन को छोड़ने का फैसला किया.
27 वर्षीय लुंडबी ने एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में कहा, "मेरा वजन सीमा से कुछ किलो ज्यादा है. मैं वजन कम करने के लिए बेवजह की चीजें नहीं करूंगी."
लुंडबी ने कहा कि वह युवा एथलीटों को भी एक संदेश देना चाहती हैं, "सामान्य तौर पर नियंत्रित वजन कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. आप उसके साथ सब कुछ कर सकते हैं."
खतरनाक है ईटिंग डिसऑर्डर
जर्मनी के ट्यूबिंगेन यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में प्रोफेसर और ईटिंग और वेट डिसऑर्डर की विशेषज्ञ कटरीन गील ने डॉयचे वेले को बताया, "मुझे लगता है कि वह बिल्कुल सही काम कर रही हैं. वह स्वस्थ और बेहतर तरीके से व्यवहार कर रही हैं."
गेल ने विस्तार से बताया, "शीर्ष स्तर के खेल में हमेशा बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव होता है. प्रतिस्पर्धी एथलीट बेहतर प्रदर्शन करने के लिए, कुछ हद तक खुद को प्रताड़ित भी करते हैं और दर्द भी सहते हैं. शायद कभी-कभी सीमा से आगे भी निकल जाते हैं. इसमें खाने पर सख्ती से नियंत्रण करना भी शामिल है." वह कहती हैं, "अगर आप ईटिंग डिसऑर्डर की चपेट में आ गए, तो इससे बाहर निकलना काफी मुश्किल हो जाता है."
ट्यूबिंगेन क्लिनिक में अभिजात वर्ग के एथलीटों के लिए रेड-एस (RED-S) परामर्श है. इसमें RED-S का मतलब है, ‘रिलेटिव एनर्जी डेफिसिट इन स्पोर्ट्स'. जो लोग अपने शरीर का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते हैं और पर्याप्त कैलरी नहीं लेते हैं, तो उन्हें स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर समस्या हो सकती है.
इस परामर्श केंद्र की प्रमुख और स्पोर्ट्स मेडिसिन विशेषज्ञ क्रिस्टीन कोप्प कहती हैं, "उदाहरण के लिए, अगर 20 के दशक की उम्र वाली किसी महिला एथलीट को पीरियड नहीं आता है, तो यह उसके लिए खतरे की घंटी है. इसके अलावा अगर उन्हें हाइपोथायरॉयडिज्म है, तो थकान और अवसाद हो सकता है. ऐसा वजन कम होने की वजह से भी हो सकता है."
स्की जंपिंग के अलावा, ईटिंग डिसऑर्डर के ज्यादा खतरे वाले खेलों में जिमनास्टिक, डाइविंग, ट्रायथलॉन, लंबी दूरी की दौड़, बायथलॉन, क्रॉस-कंट्री स्कीइंग वगैरह शामिल हैं.
सोशल मीडिया पर रोल मॉडल
स्की जंपिंग स्टार लुंडबी के साथ साक्षात्कार की तरह ही, ट्यूबिंगेन में परामर्श के दौरान अक्सर अपने बारे में चिंतित लोगों या उनके माता-पिता की आंखों से आंसू बहते हैं. कोप्प ने डॉयचे वेले को बताया, "उन्हें अपने बेटे या बेटी पर गर्व था जिन्होंने खेल में सफलता पाई. लेकिन अचानक घर पर बना हर खाना समस्या बन जाता है."
वह आगे कहती हैं, "कई मामलों में, बच्चों की जान जा सकती है. वहीं, दूसरी ओर उनका बेटा या बेटी खेल के बिना नहीं रह सकते हैं. यह लगभग किसी नशे जैसा हो जाता है. ऐसे में इसका इलाज सिर्फ पेशेवर चिकित्सक ही कर सकते हैं."
कोप्प के रेड-एस परामर्श में सलाह लेने वालों में, औसतन अगर एक पुरुष होता है, तो 10 महिलाएं होती हैं. यह मोटे तौर पर ईटिंग डिसऑर्डर में महिला और पुरुष का अनुपात है.
मनोवैज्ञानिक गील कहती हैं कि रोगी के दृष्टिकोण और व्यवहार के अलावा समाजिक कारण भी बड़ी भूमिका निभाते हैं. वह कहती हैं, "एनोरेक्सिया क्लासिक फीमेल डिसऑर्डर है. स्लिम बने रहना भी एक आदर्श की तरह स्थापित होता जा रहा है. यह स्थिति महिलाओं और लड़कियों पर विशेष रूप से दबाव डाल सकती है. हमारे पश्चिमी देशों में सोशल मीडिया के जरिए भी स्लिम रहने को काफी बढ़ावा दिया जा रहा है."
खेल चिकित्सक कोप्प को भी ऐसा अनुभव हुआ है. वह ‘स्टूपिड इमेज ऑफ ब्यूटी' का दोष देती हैं जिसे सोशल मीडिया के जरिए और अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है.
वह कहती हैं, "मेरे सामने युवा महिला एथलीट बैठी हैं जिनके रोल मॉडल कुछ प्रभावशाली लोग हैं. ये लोग यूट्यूब पर दावा करते हैं कि आपको पतला और चुस्त होना चाहिए, शरीर में फैट नहीं होना चाहिए, एक विशेष तरीके से खाना चाहिए! लड़कियां खुद को आईने में देखती हैं और कहती हैं कि मुझे भी उनके जैसा ही बनना है और वे फिर उसी तरह काम करने लगती हैं."
प्रतिद्वंदियों से तुलना
गेल के मुताबिक, इस प्रक्रिया को अक्सर बाहर से मजबूती दी जाती है. खाने को लेकर शुरू किए गए प्रयोग से शुरुआत में उपलब्धि की भावना मिलती है. जैसे, जब प्रदर्शन में सुधार होता है या जब कोच या टीम के साथी कहते हैं, ‘अरे वाह! आपने तो वजन कम कर लिया है.'
आसपास के माहौल से भी दबाव बन सकता है. जैसे कि लंबी दौड़ की खिलाड़ी मॉकेनहॉप्ट कहती हैं, "जब मुझे एक बार ट्रेनिंग के दौरान पहाड़ पर चढ़ने में परेशानी हुई, तो कोच ने कहा, 'अपने आप को देखो!' जब आपके शरीर के आधार पर कोई ऐसे बोलता है, तो दबाव बढ़ जाता है."
वह कहती हैं कि यह स्थिति उस समय और भी कठिन हो जाती है जब आप अपनी तुलना अपने प्रतिद्वंदियों से करते हैं. व्यक्तिगत उदाहरण के तौर पर वह लंदन में 2012 में हुए ओलंपिक की एक घटना का जिक्र करती हैं.
वह कहती हैं, "मैं वाकई उससे ईर्ष्या करती थी. वह काफी पतली थी, लेकिन वह मुझसे तेज दौड़ सकती थी. मुझे आश्चर्य हुआ कि वह यह कैसे कर सकती है. और उसने यह कहा कि, ‘मैं अभी भी बहुत मोटी हूं.' इससे मैं और असहज महसूस करने लगी."
कोई बदनाम नहीं होना चाहता
मॉकेनहॉप्ट ने कहा कि उस धावक ने लंदन में अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन एक साल बाद उसका करियर समाप्त हो गया. खुद मॉकेनहॉप्ट ने अपने करियर में एक बार ज्यादा प्रशिक्षण लेने और कम खाने की कोशिश की थी, लेकिन इसका उल्टा असर हुआ और उनका प्रदर्शन खराब हो गया.
ईटिंग डिसऑर्डर के खतरे के बारे में खेल संघों के बीच हाल के वर्षों में जागरूकता बढ़ी है. यह बात अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति तक पहुंच गई है.
मनोवैज्ञानिक गील कहती हैं, "कई एथलीट ईटिंग डिसऑर्डर की समस्या से जूझते हैं और इसे जाहिर नहीं करना चाहते हैं. वे इसे बदनामी के तौर पर देखते हैं. इससे उनके आसपास मौजूद लोगों को भी इस समस्या के बारे में पता लगाना मुश्किल हो जाता है."
कोप्प भी इस बात से सहमत हैं. वह कहती हैं, "कोई भी मीडिया के सामने यह कहना पसंद नहीं करता है कि मुझे ईटिंग डिसऑर्डर है. और मैं केवल तभी खेल सकता हूं जब मैं बाथरूम जाकर आऊं और पहले से तीन बार ज्यादा थूकूं. कोई भी बदनाम नहीं होना चाहता है." (dw.com)
दो हफ्तों से भी कम समय में ग्लासगो में कॉप 26 शुरू होने वाला है. शताब्दी की पिछली तिमाही में हुए जलवायु बैठकों से क्या हासिल हो पाया है और क्या नहीं- यहां इसका एक जायजा लेते हैं.
डॉयचे वैले पर आने सोफी ब्रैंडलीन की रिपोर्ट-
इस साल 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन शाखा (यूएनएफसीसीसी) के तत्वाधान में 26वां जलवायु सम्मेलन होने जा रहा है. इसे कहा गया है कॉप26 यानी 26वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज.
कॉप की पहली बैठक बर्लिन में 1995 में हुई थी. सदस्य देश तभी से उत्सर्जन में कटौती की जरूरत को देख रहे थे और ग्लोबल वॉर्मिंग पर नियंत्रण बनाए रखने के तरीकों पर चर्चा के लिए हर साल मिलने पर भी राजी हुए थे.
लेकिन इन 25 साल के में कौन से ठोस कदम उठाए जा सके? बहुत से जलवायु परिवर्तन एक्टिविस्टों के मुताबिक, ज्यादा कुछ नहीं. ग्रेटा थनबर्ग ने हाल में द गार्जियन अखबार को बताया, "पिछले कुछ सालों से वास्तव में कुछ नहीं बदला है. हम चाहे जितनी मर्जी कॉप कर लें लेकिन हकीकत में उनसे कुछ निकलने वाला नहीं.”
तो क्या हमें वाकई अब भी सीओपी यानी कॉप कही जाने वाली जलवायु बैठकों की जरूरत है?
पेरिस संधिः जलवायु बैठकों का मील का पत्थर
जानकार इस बात पर सहमत हैं कि इन तमाम सालाना बैठकों में महत्त्वपूर्ण प्रगति नहीं हो पाई थी और निर्णय लेने की गति भी उम्मीद से बहुत कम रही है. फिर भी उनका मानना है कि सीओपी की अभी तक की सबसे जीवंत उपलब्धि कॉप21 के तहत हुआ पेरिस समझौता है. ये जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सबसे बड़ी वैश्विक संधि है.
वहां तक पहुंचने के लिए वार्ताओं के 20 साल खपाने पड़ सकते थे लेकिन 2015 में 196 देशों की मंजूरी से पेरिस समझौता अस्तित्व में आ गया जिसमें औद्योगिक काल पूर्व के स्तरों के मुकाबले ग्लोबल वॉर्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य घोषित किया गया, वैसे इस कोशिश को प्राथमिकता देने पर सहमति बनी थी कि ये लक्ष्य डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक आ जाए.
गैर सरकारी पर्यावरणीय और विकास संगठन, जर्मन वॉच में अंतरराष्ट्रीय जलवायु राजनीति के टीम लीडर डेविड राइफिश कहते हैं कि पेरिस संधि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में एक बड़ा बदलाव लाने में कामयाब रही और इसने हमारे आगे का रास्ता तय कर दिया. उन्होंने डीडब्लू से कहा, "मैं मानता हूं कि पेरिस संधि बदलावों की समूची ऋंखला का प्रारंभिक बिंदु है. ये वो संकेत है जो वास्तविक अर्थव्यवस्था को मिला है, दूसरे अभिप्रेरकों को भी ये संकेत गया है कि देशों की मंशा वास्तविक है और इसके वास्तविक निहितार्थ होंगे.”
रीफिश के मुताबिक कॉप और उसका पेरिस समझौता पहले ही अमल में आ चुका है यानी उसका असर दिख रहा है. साफ ऊर्जा की कीमतों में नाटकीय गिरावट आई है, वित्तीय सेक्टर फॉसिल ईंधनों से दूर जा रहा है और नये कोयला प्रोजेक्टों में अनिच्छा दिखाने लगा है, और देशों में कोयले और ईंधन से निजात पाने की कोशिशें तेज की जा रही हैं.
सीओटू की चुनौती
फिर भी समझौते के सबसे करीबी प्रभावों को वाकई जज्ब कर पाना कठिन है.
पेरिस संधि और कॉप की चुनौती ये है कि वो सीओटू के इर्दगिर्द बुनी गई है. ये वो ग्रीनहाउस गैस है जो आज दुनिया में सबसे ज्यादा गर्मी पैदा करने की जिम्मेदार है.
लैंकास्टर यूनिवर्सिटी में जलवायु वैज्ञानिक पॉल यंग ने डीडब्लू को बताया, "अगर हम जलवायु समस्या से निपटना चाहते हैं तो सीओटू हमारा प्रमुख मुद्दा होना चाहिए. सीओटू हर चीज को अपनी चपेट में ले लेती है, पूरी अर्थव्यवस्था को. और उस तेल के टैंकर को हटाना काफी कठिन हो जाता है. कार्बन डाइऑक्साइड ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे हम दूसरे रसायन से जब चाहें बदल दें.”
स्वीडन की उप्पासला यूनिवर्सिटी में राजनीतिविज्ञानी चार्ल्स पार्कर के अध्ययन के केंद्र में जलवायु परिवर्तन की राजनीति, नेतृत्व और संकट प्रबंधन जैसे मुद्दे रहे हैं. वह इस बात से सहमत हैं. वह कहते हैं, "हमें आखिरकार फॉसिल ईंधनों का विकल्प तो देखना ही पड़ेगा और निम्न कार्बन वाले या कार्बन मुक्त ऊर्जा संसाधनों की तलाश करनी पड़ेगी. लेकिन कई सारे स्वार्थ भी जुड़े हैं. वीटो लगाने वाली शक्तियां हैं और ऐसी लॉबियां हैं जो ये सब तो होने नहीं देना चाहेंगी.”
महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का निर्धारण आसान नहीं
इसीलिए कॉप में लक्ष्यों को लेकर वार्ताएं इतनी जरूरी और मूल्यवान हैं. पेरिस समझौते पर दस्तखत करने वाले हर देश को वादा करना था, इसे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान, एनडीसी भी कहा गया कि अपने उत्सर्जनों को कम करने के लिए उनके पास क्या योजना है, कैसे कम करेंगे.
समय के साथ उन्हें इन लक्ष्यों को और महत्वाकांक्षी बनाना होगा यानी उन्हें और करीब लाना होगा. इस प्रक्रिया को रैचिट प्रविधि भी कहा जाता है. इस तरह हर पांच साल में देशो को अपने नये अपडेटड योगदानों का ब्यौरा जमा करना होगा जिससे ये पता चल पाए कि 2015 मे किए गए वादों को वे किस तरह पूरा करना चाहते हैं.
रीफिश कहते हैं, "2015 और 2020 के दरम्यान हम इन लक्ष्यों में महत्त्वपूर्ण सुधार आता देख चुके हैं. डेढ़ डिग्री सेल्सियस के हिसाब से तो ये पर्याप्त नहीं हैं लेकिन उल्लेखनीय सुधार तो हैं ही. यह पहला स्पष्ट संकेत है कि कोई चीज काम तो कर रही है.”
कई आलोचक जो समस्या देखते हैं वो ये है कि देश अगर अपने लक्ष्य हासिल न कर पाएं तो उन पर किसी किस्म के वित्तीय या कानूनी प्रतिबंध नहीं हैं. रीफिश कहते हैं ये प्रतिबंध बल्कि जन दबाव से ही आते हैं क्योंकि देशों को अपनी साख भी बचानी होती है. वो कहते हैं, "इस तरह ये पूरा मामला असल में सिविल सोसायटी, युवाओं के आंदोलन और अकादमिक जगत की भूमिका तक आ जाता है कि वे लोग ही अपने अपने देशों में सरकार से जवाब तलब करें. जाहिर है कुछ देशों की अपेक्षा कुछ अन्य देशों में ये तरीका बेहतर काम करता है. लेकिन पेरिस के निष्कर्षों और जमीनी स्तर पर सिविल सोसायटी के पिछले कई वर्षों के दौरान की कार्रवाइयों में एक सहजीविता तो है ही.”
कॉप और जलवायु कार्रवाईः एक सहजीवन
इस सहजीविता की ओर इशारा करने वाला दूसरा संकेत है यूरोप में हाल के दो अदालती मामले. जर्मनी की संघीय अदालत ने फैसला दिया कि युवाओं की आजादी और बुनियादी अधिकारों का हनन, अपर्याप्त जलवायु सुरक्षा के रूप में पहले ही काफी किया जा चुका है.
उधर नीदरलैंड्स में एक अदालत ने गैस कंपनी शेल को अपने विश्वव्यापी सीओटू उत्सर्जन में, 2019 के स्तरों की तुलना में, 2030 तक 45 प्रतिशत की कटौती करने का आदेश दिया है.
रीफिश करते हैं, "अब जबकि हमारे पास कामयाबी की ये कहानियां है, मैं मानता हूं कि और कंपनियां और देश भी अदालतों के कठघरे में खड़े किए जाते रहेंगे.”
वह मानते हैं कि इसके नतीजा एक चेन रिएक्शन के रूप में होगा और अदालतों से बचने के लिए कंपनियों और देशों को कार्रवाई के लिए मजबूर करेगा.
वह कहते हैं, "सीओपी यानी कॉप के बिना ये सब बिल्कुल भी मुमकिन नहीं होता.”
तो अपनी कमियों के बावजूद, जानकारों को उम्मीद है कि वैश्विक सरकारों की आगामी जलवायु बैठक भविष्य के लिए बहुत ही अहम है.
रीफिश कहते हैं, "मैं पक्के तौर पर मानता हूं कि हमें सीओपी की जरूरत है. हम लोग एक निर्णायक दशक में हैं जहां हम डेढ़ डिग्री सेल्सियस की हद में अभी भी रह सकते हैं. ग्लासगो की बैठक को दिखाना होगा कि सीमा तो डेढ़ डिग्री की ही है.”
लेकिन वहां तक पहुंचना आसान नहीं होगा. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, अगरचे संपन्न देश उत्सर्जनों में कटौती को लेकर प्रतिबद्ध नहीं होते हैं तो इस शताब्दी के अंत तक दुनिया 2.7 डिग्री सेल्सियस गर्मी के विनाशकारी रास्ते पर होगी.
दुनिया की सरकारों के सामने चुनौती
विशेषज्ञों का मानना है कि सीओपी बैठकें निरर्थक नहीं हैं और लक्ष्यों तक पहुंचने के साफ-स्पष्ट रास्ते की स्थापना के लिए आने वाले वर्षों में उनकी जरूरत बनी रहेगी.
रीफिश के मुताबिक विकसित देश उत्सर्जन में कटौती के अपने वादे पूरे नहीं कर पाए- ये देखते हुए उन्हें भरपाई का एक ऐसा तरीका खोजना होगा ताकि विकासशील देशों को ही सारा खामियाजा न भुगतना पड़े.
वह कहते हैं, "हमें समझना होगा कि कई देशों को विकास की जरूरत है लेकिन इसके लिए वे फॉसिल ईंधन का वही भयंकर रास्ता नहीं अख्तियार कर सकते जो एक दौर में अमीर देशों ने किया था.”
राजनीतिविज्ञानी चार्ल्स पार्कर इस बात से सहमत हैं कि इसीलिए विकसित देशों के लिए ये अत्यधिक महत्त्व की बात होनी चाहिए कि वो विकासशील देशों के साथ एकजुटता दिखाएं और उनकी वित्तीय सहायता करें.
वह कहते हैं, "तो पेरिस का ये दूसरा इम्तहान है.”रीफिश आशावादी हैं कि पेरिस समझौता इस इम्तहान को पास कर लेगा. वह कहते हैं, "पिछले वर्षों में मैंने नये मोड़, क्रांतिकारी बदलाव देखे हैं. मैंने कार्रवाई में आती तेजी देखी है और देखा है कि चीजें घटित हो पा रही हैं और आखिरकार, कॉप वो सब डिलीवर कर रहा है जिसकी हम यूं उम्मीद कर रहे होते कि वो पिछले दशकों पहले ही दे चुका था.” (dw.com)
कोलंबिया में ‘हवाना सिंड्रोम’ के पांच मामले सामने आए हैं. अगस्त महीने में, अमेरिकी उप राष्ट्रपति कमला हैरिस की वियतनाम यात्रा में भी इसी वजह से देरी हो गई थी. सिंड्रोम कैसे आया, यह स्पष्ट नहीं है.
डॉयचे वैले पर कार्ला ब्लाइकर की रिपोर्ट-
कोलंबिया में बोगोटा स्थित अमेरिकी दूतावास में कथित हवाना सिंड्रोम के कई मामले सामने आए हैं. वॉल स्ट्रीट जर्नल में रिपोर्ट किए जाने के बाद, कोलंबिया के राष्ट्रपति इवान ड्यूक ने एएफपी समाचार एजेंसी से इस तथ्य की पुष्टि की. न्यूयॉर्क की यात्रा के दौरान उन्होंने कहा, "बेशक हमें इस स्थिति की जानकारी है, लेकिन मैं इसे अमेरिकी अधिकारियों पर छोड़ना चाहता हूं, जो खुद इसकी जांच में लगे हैं और यह मामला उनके अपने कर्मचारियों से संबंधित है.”
ऐसा माना जा रहा है कि कोलंबिया में अमेरिकी दूतावास से जुड़े कम से कम पांच परिवारों ने इस रहस्यमयी सिंड्रोम के लक्षणों का अनुभव किया है. बोगोटा का अमेरिकी मिशन दुनिया के सबसे बड़े मिशनों में से एक है. राजनयिकों और कर्मचारियों के अलावा, कई खुफिया एजेंट और ड्रग प्रवर्तन प्रशासन के अधिकारी भी वहां तैनात हैं.
अगस्त में हनोई में भी कई मामले सामने आए
वियतनाम में यह सिंड्रोम इसी साल अगस्त महीने में चर्चा में आया. अमेरिकी उप राष्ट्रपति कमला हैरिस 24 अगस्त को सिंगापुर से वियतनाम के लिए उड़ान भरने वाली थीं, जहां वियतनाम के राष्ट्रपति गुयेन जुआन फुक के साथ उनकी एक बैठक थी. लेकिन वियतनाम की राजधानी में हवाना सिंड्रोम के दो संभावित मामलों के बारे में उनकी टीम को सूचित किए जाने के बाद उनकी उड़ान में तीन घंटे से अधिक की देरी हुई.
हनोई में अमेरिकी दूतावास के एक बयान में कहा गया कि हैरिस के कार्यालय ने पूरी समीक्षा के बाद फैसला किया था कि उप राष्ट्रपति यात्रा कर सकती हैं और उसमें किसी भी तरह की सुरक्षा का कोई संकट नहीं है. उसके बाद हैरिस ने हनोई में योजना के अनुसार बात की.
दूतावास के बयान ने हाल ही में ‘असंगत स्वास्थ्य घटना' की बात की. हवाना सिंड्रोम के बारे में बात करते समय अमेरिकी राजनयिक हमेशा भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन वास्तव में इसका क्या मतलब है?
पहली बार क्यूबा में दिखा
इस सिंड्रोम के बारे में पहली बार साल 2016 में पता चला था जब क्यूबा की राजधानी में अमेरिका और कनाडा के राजनयिकों और उनके परिवार के सदस्यों के बीच ऐसे दर्जनों मामलों का पता चला था. प्रभावित लोगों को सुस्ती, थकान, सिरदर्द और सुनने और देखने संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा. पीड़ित लोगों में से कुछ की सुनने की क्षमता भी स्थाई रूप से चली गई.
क्यूबा में ऐसी घटनाओं के बाद रूस, चीन, ऑस्ट्रिया और हाल ही में बर्लिन में भी अमेरिकी राजनयिकों और खुफिया अधिकारियों में ऐसे लक्षणों की बार-बार सूचना दी गई है.
वॉल स्ट्रीट जर्नल ने लिखा है कि घटना से प्रभावित लोगों ने उलटी, चक्कर आना, गंभीर सिरदर्द, कान दर्द और थकान की सूचना दी और उनमें से कुछ तो काम करने में भी असमर्थ दिखे.
अखबार के मुताबिक, हवाना सिंड्रोम वाले अमेरिकी प्रतिनिधियों को अन्य यूरोपीय देशों में भी पंजीकृत किया गया है. प्रभावित लोगों में से कुछ गैस निर्यात, साइबर सुरक्षा और राजनीतिक हस्तक्षेप जैसे मुद्दों से जुड़े थे.
कंपकंपी जैसे लक्षण
ये लक्षण अचानक प्रकट होते हैं. जीक्यू मैगजीन की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2017 में मॉस्को में रात में बिस्तर पर लेटे हुए एक मरीज प्रभावित हुआ था. चक्कर आने के कारण उसने शुरू में सोचा कि उसे फूड पॉइजनिंग हुई है, लेकिन फिर उसे इतना चक्कर आया कि वह बाथरूम में जाने की कोशिश करते हुए गिर पड़ा.
सीआईए के एक कर्मचारी ने मैगजीन को बताया, "उस व्यक्ति को ऐसा महसूस हुआ कि जैसे वो एक ही उलटी आने और बेहोश होने का सामना कर रहा हो.”
हालांकि, साल 2016 में हवाना में दूतावास में कुछ अमेरिकी नागरिकों के विपरीत, उस व्यक्ति का कहना था कि उसने कोई तेज आवाज नहीं सुनी.
पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर ब्रेन इंजरी एंड रिपेयर के विशेषज्ञों ने क्यूबा में घायल हुए कुछ अमेरिकी नागरिकों का अध्ययन किया और साल 2018 में अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के जर्नल में इससे संबंधित एक रिपोर्ट को प्रकाशित किया.
रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने लिखा है कि इसमें रोगी अपना संतुलन और विवेक खो बैठते हैं. साथ ही पीड़ित लोगों में चालक और संवेदी तंत्रिकाओं में भी विकार आ जाता है. ये लक्षण काफी कुछ उसी तरह होते हैं जैसे गंभीर चोट लगने के बाद कुछ लोगों में देखे जाते हैं.
लेकिन मस्तिष्काघात के विपरीत, ये लक्षण गायब नहीं हुए बल्कि कुछ समय के लिए शांत हो गए लेकिन जब वापस दिखे तो और भी ज्यादा तीव्रता के साथ दिखे.
कारण अज्ञात है
अमेरिकी खुफिया समन्वयक एवरिल हैन्स ने हाल ही में कहा था कि अधिकारी इस बारे में दुविधा में हैं कि इस तरह की ‘असामान्य स्वास्थ्य घटनाएं' किस वजह से हो रही हैं. लेकिन अनुमान लाजिमी है, स्पष्ट है.
अमेरिका में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज, इंजीनियरिंग और मेडिसिन के विशेषज्ञों ने दिसंबर 2020 में सुझाव दिया कि इन लक्षणों के पीछे रेडियो-फ्रीक्वेंसी ऊर्जा के लक्षित आवेग भी एक वजह हो सकते हैं.
अन्य शोधकर्ताओं का मानना है कि हवाना सिंड्रोम माइक्रोवेव हथियारों के कारण होता है जो अमेरिका के विरोधी, खासतौर पर राजनयिकों, खुफिया अधिकारियों और उनके परिवारों को लक्षित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. उच्च-आवृत्ति विकिरण को नियोजित करने वाले ऐसे हथियार पहले ही विकसित किए जा चुके हैं.
माइक्रोवेव एक से 300 गीगाहर्ट्ज की रेंज में काम करते हैं. घरों में भोजन को गर्म करने वाला माइक्रोवेव ओवन, भोजन को 2.5 गीगाहर्ट्ज की आवृत्ति पर गर्म करता है. जैसे-जैसे आवृत्ति बढ़ती है, विकिरण में ऊर्जा भी बढ़ती जाती है. सही उपकरणों का उपयोग करके और आवृत्ति को मैनेज करके, इसे लोगों पर लक्षित किया जा सकता है. ऐसी स्थिति में किरणें शरीर में गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं और वहां नुकसान पहुंचा सकती हैं.
उदाहरण के लिए, अमेरिकी रक्षा विभाग ने एक हथियार प्रणाली विकसित की है जो 95 गीगाहर्ट्ज की आवृत्ति पर माइक्रोवेव का उपयोग करती है.
लक्षण का एक अन्य संभावित कारण जिसे माना गया है वह ध्वनि हथियार है. इसके पीछे तर्क यह है कि हवाना सिंड्रोम से पीड़ित कुछ लोगों ने अपने लक्षणों के शुरू होने से पहले एक तेज आवाज सुनी. हालांकि हवाना सिंड्रोम के ही अन्य पीड़ितों ने ऐसा कुछ नहीं सुना.
जानकारों के मुताबिक, ऐसी प्रणालियां भी हो सकती हैं जो अश्रव्य सीमा में हमलों की अनुमति देती हैं लेकिन इनके बारे में बहुत कम जानकारी है, सिवाय इसके कि सैन्य अधिकारी उन पर शोध कर रहे हैं. अब तक, विशेषज्ञों ने उनके अस्तित्व को अत्यधिक असंभाव्य के रूप में वर्गीकृत किया है.
हवाना सिंड्रोम के लिए कौन जिम्मेदार है, यह सवाल उतना ही अस्पष्ट है जितना कि इसके पीछे के कारण हैं.
मई महीने में, अमेरिकी सरकार के अधिकारियों ने नाम न बताने की शर्त पर पोलिटिको पत्रिका से बातचीत में कहा था कि उन्हें रूस की जीआरयू सैन्य खुफिया एजेंसी पर हमलों के पीछे होने का संदेह था. हालांकि वाइट हाउस ने फिलहाल आधिकारिक तौर पर ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया है.(dw.com)
बीजिंग, 23 अक्टूबर | चीन के भीतरी मंगोलिया स्वायत्त क्षेत्र में एक केमिकल प्लांट में हुए विस्फोट में चार लोगों की मौत हो गई और तीन अन्य घायल हो गए। स्थानीय अधिकारियों ने शनिवार को यह जानकारी दी। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, शुक्रवार की रात को करीब 11 बजे अल्क्सा लीग (प्रान्त) में बायन ओबो औद्योगिक पार्क में एक केमिकल प्लांट की एक कार्यशाला में धमाका हुआ था।
विस्फोट के कारण लगी आग शनिवार की सुबह बुझा दिया गया।
फर्म का कानूनी प्रतिनिधि स्थानीय सार्वजनिक सुरक्षा अधिकारियों के पास है और कंपनी उत्पादन रोक रही है।
दुर्घटना के कारणों की जांच के लिए क्षेत्रीय सरकार ने एक टीम का गठन किया है।(आईएएनएस)
लंदन, 23 अक्टूबर | यूके हेल्थ सिक्योरिटी एजेंसी (यूकेएचएसए) ने पुष्टि की है कि डेल्टा वैरिएंट सब-लाइनेज (डेल्टा एवाई.4.2) को 20 अक्टूबर को वैरिएंट अंडर इन्वेस्टिगेशन (वीयूआई) नामित किया गया था और इसे आधिकारिक नाम वीयूआई-21अक्टूबर-01 दिया गया है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, यूकेएचएसए ने कहा कि यह पदनाम इस आधार पर बनाया गया था कि यह हाल के महीनों में देश में आम हो गया है और कुछ शुरूआती सबूत हैं कि डेल्टा की तुलना में ब्रिटेन में इसकी वृद्धि दर बढ़ सकती है।
20 अक्टूबर तक, इंग्लैंड में 15,120 पुष्ट मामले थे। यहां पहली बार जुलाई में इसका पता चला था।
पिछले सप्ताह के दौरान सभी मामलों में यह लगभग 6 प्रतिशत था। इंग्लैंड के सभी नौ क्षेत्रों में पूरे जीनोम अनुक्रमण के माध्यम से मामलों की पुष्टि की गई है।
यूकेएचएसए ने कहा कि वह इसकी बारीकी से निगरानी कर रहा है। हालांकि मूल डेल्टा वैरिएंट देश में 'अत्यधिक प्रभावी' है, जो कुल मामलों का लगभग 99.8 प्रतिशत है।
अभी तक यह सामने नहीं आया है कि यह वैरिएंट अधिक गंभीर बीमारी का कारण बनता है या वर्तमान में तैनात टीकों को कम प्रभावी बनाता है।
यूकेएचएसए के मुख्य कार्यकारी जेनी हैरिस ने कहा, "वायरस अक्सर अपनी मर्जी से फैलते हैं और यह अप्रत्याशित नहीं है कि महामारी के चलते नए वैरिएंट पैदा होते रहेंगे, खासकर जब मामले की दर अधिक रहती है।"
नए आंकड़ों से पता चलता है कि ब्रिटेन में 12 वर्ष और उससे अधिक आयु के 86 प्रतिशत से अधिक लोगों को टीके की पहली खुराक मिली है और लगभग 79 प्रतिशत ने दोनों खुराक प्राप्त की हैं।(आईएएनएस)
आइजोल, 23 अक्टूबर | सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने उत्तरी मिजोरम के कोलासिब जिले में एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है और उसके पास से छह करोड़ रुपये की हेरोइन बरामद की है। अधिकारियों ने शनिवार को यह जानकारी दी। बीएसएफ के एक प्रवक्ता ने कहा कि एक गुप्त सूचना पर कार्रवाई करते हुए, अर्ध-सैनिक बलों ने शुक्रवार शाम को राष्ट्रीय राजमार्ग -306 के किनारे छिनलुआंग गांव में जाल बिछाया और 47 वर्षीय ड्रग तस्कर रामनीथांगा को हिरासत में लिया। उसके कब्जे से 808.6 ग्राम हेरोइन बरामद की गई।
नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सबस्टेंस (एनडीपीएस) एक्ट के तहत आगे की कानूनी कार्रवाई के लिए पकड़े गए व्यक्ति को जब्त किए गए मादक पदार्थ के साथ आबकारी और नारकोटिक्स विभाग को सौंप दिया गया है।
अधिकारियों को संदेह है कि ड्रग्स की तस्करी पड़ोसी देश म्यांमार से की गई थी। ड्रग्स विशेष रूप से हेरोइन और अत्यधिक नशे की लत वाली मेथामफेटामाइन टैबलेट है, जिसे आमतौर पर 'याबा' या 'पार्टी टैबलेट' या 'डब्ल्यूवाई' (वल्र्ड इज योर) के रूप में भी जाना जाता है। यह एक सिंथेटिक दवा है जिसमें मेथामफेटामाइन और कैफीन और कई अन्य नशीले पदार्थो का मिश्रण होता है। (आईएएनएस)
सुमी खान
ढाका, 23 अक्टूबर | बांग्लादेश के डिजिटल सुरक्षा कानून (डीएसए) के तहत सोशल मीडिया के जरिए लोगों को भड़काने के आरोप में मोहम्मद फैयाज को जेल भेज दिया गया है। कमिला जिले के पुलिस सुपर ऑफ सीआईडी खान मोहम्मद रेजवान ने कहा कि वरिष्ठ न्यायिक मजिस्ट्रेट मिथिला जजन निपा ने शुक्रवार को बयान दर्ज किया, जिसके बाद फैयाज को जेल भेज दिया गया।
रेजवान ने आईएएनएस को बताया, "फैयाज ने मजिस्ट्रेट के सामने कबूल किया कि पवित्र कुरान को वहां रखे जाने की बात सुनकर वह 13 अक्टूबर को कुमिला शहर के नानुआ दिघिर पर पूजा मंडप में पहुंचा था। इसके बाद उसने फेसबुक लाइव के जरिए इसका प्रसार किया।"
पुलिस अधिकारी ने कहा कि फैयाज ने मजिस्ट्रेट को बताया कि पवित्र कुरान को नीचा दिखाया गया था, वह लोगों को उकसाने के लिए फेसबुक पर लाइव हो गया था, लेकिन यह नहीं जानता था कि इससे देश भर में व्यापक सांप्रदायिक हिंसा भड़केगी।
यह पूछे जाने पर कि क्या घटना में फैयाज के साथ कोई मिलीभगत थी, जांच अधिकारी ने कहा, "जो लोग फैयाज से जुड़े हैं, उनकी जांच तकनीक की मदद से की जा रही है।"
13 अक्टूबर को, पुलिस ने नानुआर दिघी पर पूजा मंडप में फैयाज को गिरफ्तार किया, जिसमें उसके लाइवस्ट्रीम के बाद तोड़फोड़ की गई थी।
बाद में पुलिस ने उसके खिलाफ कोमिला कोतवाली मॉडल थाने में डिजिटल सुरक्षा कानून के तहत मामला दर्ज किया।
17 अक्टूबर को मामला पुलिस से सीआईडी को ट्रांसफर कर दिया गया था। कोर्ट ने पूछताछ के लिए दो दिन की रिमांड मंजूर कर ली है।(आईएएनएस)
-सारा अतीक़
तालिबान ने 2011 में काबुल के जिस पाँच सितारा इंटरकॉन्टिनेंटल होटल में आत्मघाती हमला किया था, नौ साल बाद तालिबान के आत्मघाती हमलावरों के परिवारों को उसी पाँच सितारा इंटरकॉन्टिनेंटल होटल में आमंत्रित किया गया और उन्हें पैसे और तोहफ़े बांटे गए.
हक़्क़ानी नेटवर्क के प्रमुख और अफ़ग़ानिस्तान के गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक़्क़ानी ने इस समारोह में भाग लिया और उन आत्मघाती हमलावरों की प्रशंसा करते हुए कहा, "वे देश के और हमारे हीरो हैं."
तालिबान ने आत्मघाती हमलावरों के परिवारों को 10 हज़ार अफ़ग़ानी रुपयों के साथ-साथ एक प्लॉट देने का भी वादा किया था.
हालांकि अफ़ग़ान तालिबान युद्ध रणनीति में आत्मघाती हमलावरों का इस्तेमाल करने वाला पहला और एकमात्र समूह नहीं है, जापान सहित दुनिया भर की विभिन्न सेनाओं ने, सैन्य और चरमपंथी समूहों ने दुश्मन ताक़तों के ख़िलाफ़ आत्मघाती हमलों का सहारा लिया है. लेकिन तालिबान का अपने आत्मघाती हमलावरों को खुले तौर पर प्रोत्साहित करने से, जहां बहुत से लोग हैरान हो गए, वहीं बहुत से लोगों ने इस पर नाराज़गी भी ज़ाहिर की.
इस नाराज़गी का मुख्य कारण यह था कि इन आत्मघाती हमलों में मारे गए लोगों में ज़्यादातर आम अफ़ग़ान नागरिक थे, और यह कोई संयोग नहीं है कि जिस होटल में आत्मघाती हमलावरों को 'राष्ट्र का हीरो' कहा गया है, उस पर तालिबान ने एक बार नहीं बल्कि दो बार हमला किया था जिसमे दर्ज़नों अफ़ग़ान नागरिकों की मौत हुई थी.
जब तालिबान की तरफ़ से इस समारोह की तस्वीर सोशल मीडिया पर जारी की गई, तो बहुत से अफ़ग़ान नागरिकों ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि तालिबान द्वारा आत्मघाती हमलावरों की प्रशंसा इसलिए भी दुःखद है, क्योंकि इन हमलों में विदेशी सैनिकों के अलावा बहुत से आम अफ़ग़ान नागरिक भी मारे गए थे.
हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब तालिबान ने सत्ता में आने के बाद अपने आत्मघाती हमलावरों की इस तरह से तारीफ़ की है. काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद, तालिबान नेता अनस हक़्क़ानी ने एक आत्मघाती हमलावर की क़ब्र पर 'फ़ातिहा' पढ़ी (श्रद्धांजलि) और उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर भी पोस्ट की थी.
इसके अलावा तालिबान ने हमलावरों की प्रशंसा में एक वीडियो भी जारी किया है, जिसमें तालिबान के लिए आत्मघाती हमला करने वालों की तस्वीरें और नाम थे. इसके बाद, तालिबान से जुड़े सोशल मीडिया अकाउंट्स से एक ऐसा वीडियो भी जारी किया गया, जिसमें उन हमलों में इस्तेमाल होने वाली आत्मघाती जैकेट्स को दिखाया गया है.
दुनिया चाहे कुछ भी कहे 'आत्मघाती हमलावर हमारे हीरो हैं'
एक तरफ़, जहां अफ़ग़ान तालिबान की कोशिश है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़र में उनकी चरमपंथी समूह वाली छवि बदले और उन्हें एक ज़िम्मेदार राज्य के रूप में स्वीकार किया जाये, वहीं दूसरी तरफ़ चरमपंथ की निशानी समझे जाने वाले आत्मघाती हमलों की प्रशंसा क्या उनकी परेशानी की वजह बन सकती है?
तालिबान के गृह मंत्रालय के प्रवक्ता क़ारी सईद ख़ोस्ती ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय सेना के ख़िलाफ़ युद्ध में मारे गए लोगों की वजह से ही उन्हें यह सफलता मिली है.
"ये आत्मघाती हमलावर हमारे हीरो हैं, अपने हीरो की प्रशंसा करना हमारा कर्तव्य है और यह हमारा आंतरिक मामला है, इसलिए किसी को भी हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है."
क़ारी सईद ने आत्मघाती हमलावरों की प्रशंसा की आलोचना को ख़ारिज करते हुए दावा किया कि इन हमलों में अफ़ग़ान नागरिक नहीं मारे गए हैं.
हालांकि, सिर्फ़ 2011 में काबुल के इंटरकॉन्टिनेंटल होटल में होने वाले आत्मघाती हमले में 11 अफ़ग़ान नागरिक मारे गए थे, और 20 साल तक चली इस जंग में ऐसे सैकड़ों हमले हुए, जिनमें लाखों अफ़ग़ान नागरिक मारे गए.
तालिबान सरकार ने ट्वीट किया कि अमेरिका और नेटो बलों के ख़िलाफ़ आत्मघाती हमलावर इस्लाम और हमारे देश के हीरो हैं. हालांकि, इस फ़ोटो में गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का चेहरा छुपाया गया है.
इमेज स्रोत,@REALEMARTISLAMI
तालिबान सरकार ने ट्वीट किया कि अमेरिका और नेटो बलों के ख़िलाफ़ आत्मघाती हमलावर इस्लाम और हमारे देश के हीरो हैं. हालांकि, इस फ़ोटो में गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का चेहरा छुपाया गया है
सार्वजनिक तौर पर आत्मघाती हमलावरों की प्रशंसा करने का क्या उद्देश्य है?
काउंटर टेररिज़म विशेषज्ञ अब्दुल सईद का कहना है, "तालिबान के यहां आत्मघाती हमलावरों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. जैसे कि सिराजुद्दीन हक़्क़ानी ने इस समारोह को संबोधित करते हुए भी कहा, कि आत्मघाती हमलावर अमेरिका और उसके सहयोगियों के ख़िलाफ़ तालिबान की कामयाबी के असली हथियार हैं.
इसलिए, यह तालिबान की ओर से उनके लड़ाकों के लिए संदेश था, कि भले ही वो ज़िंदा न रहें, लेकिन फिर भी तालिबान नेतृत्व के लिए उनकी बहुत अहमीयत और सम्मान हैं."
हक़्क़ानी ने यह भी कहा कि मारे गए सभी आत्मघाती हमलावरों के परिवारों को तालिबान की तरफ़ से विशेष कार्ड दिए जाएंगे, ताकि देश में उनके साथ विशेष सम्मानजनक बर्ताव किया जाए.
अब्दुल सईद का कहना है कि तालिबान के इस क़दम ने उनकी सरकार को मान्यता दिलाने की कोशिशों को नुक़सान पहुँचाया है.
अब्दुल सईद कहते हैं, "अंदरूनी तौर पर तो तालिबान समर्थक और सदस्य इस समारोह के आयोजन के लिए, सिराजुद्दीन हक़्क़ानी की काफ़ी सराहना कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ़ बाहरी दुनिया में इससे तालिबान की बहुत आलोचना हुई है, जिससे उनकी राजनीतिक परेशानी बढ़ने की आशंका है."
उनका कहना है कि तालिबान दुनिया को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके साथ भाईचारे वाला बर्ताव किया जाये, जिसके लिए दुनिया तालिबान से अपने हिंसक अतीत से बाहर आने की उम्मीद करती है. लेकिन तालिबान के लिए यह मुमकिन नहीं है, कि वो उन लोगों से रिश्ता ख़त्म कर ले, जिन्होंने उनके लिए मानव बम की भूमिका निभाई है, और तालिबान अपनी सफलता का श्रेय उन्हें देते हैं.
तालिबान की इस हरकत से पश्चिमी मीडिया में ये सवाल उठना शुरू हो गए हैं कि क्या तालिबान को अपने इस हिंसक अतीत पर गर्व करते हुए एक ज़िम्मेदार राज्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है?
तालिबान ने 2011 में काबुल के जिस पाँच सितारा इंटरकॉन्टिनेंटल होटल में आत्मघाती हमला किया था, नौ साल बाद तालिबान के आत्मघाती हमलावरों के परिवारों को उसी पाँच सितारा इंटरकांटिनेंटल होटल में आमंत्रित किया गया.
तालिबान का रवैया शासकों के जैसा नहीं बल्कि चरमपंथियों जैसा है
अफ़ग़ानिस्तान के रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक अज़ीज़ अमीन का कहना है कि तालिबान में भी तीन तरह के समूह हैं.
उनके अनुसार एक समूह उदारवादी है, जो दोहा में राजनीतिक परामर्श और कूटनीति में लगा हुआ है, दूसरा समूह चरमपंथियों का है, जिनमें हक़्क़ानी नेटवर्क भी शामिल है, जो मानते हैं कि उनकी सफलता उनकी युद्ध रणनीति के कारण है, इसलिए तालिबान को अपने कट्टर रुख़ से नहीं हटना चाहिए.
तीसरा समूह वह है, जो बहुत ही ध्यान से इन दोनों की ताक़त की समीक्षा कर रहा है ताकि सही समय आने पर फ़ैसला करे कि उन्हें किसका साथ देना है.
अज़ीज़ अमीन के अनुसार, "जहां एक समूह कूटनीति के ज़रिए अफ़ग़ान तालिबान को दुनिया के सामने एक उदार और शांतिप्रिय समूह के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है, वहीं दूसरा समूह अपनी विचारधारा के अनुरूप सख़्त क़दम उठा रहा है. जिससे यह संकेत मिलता है कि तालिबान में एक समान नीति पर सहमति नहीं है."
अज़ीज़ अमीन का कहना है कि तालिबान का यह क़दम सिर्फ़ अपने लड़ाकों को ख़ुश करने की कोशिश है, भले ही इससे उनकी आंतरिक और बाहरी विश्वसनीयता प्रभावित हो जाये.
अमीन कहते हैं, "तालिबान का रवैया शासकों जैसा नहीं है, बल्कि चरमपंथियों जैसा है, इसलिए उन्हें इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि आम जनता को इससे कितना दुःख पहुँचता है, क्योंकि इन हमलों में मारे गए लोगों में ज़्यादातर अफ़ग़ान नागरिक थे."
आत्मघाती हमलावरों की प्रशंसा से क्षेत्र में उग्रवाद को बढ़ावा मिलेगा
इस समारोह की मेज़बानी हक़्क़ानी नेटवर्क के प्रमुख सिराजुद्दीन हक़्क़ानी ने की. ध्यान रहे कि हक़्क़ानी नेटवर्क को अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक आतंकवादी संगठन घोषित किया हुआ है और अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल तक चले युद्ध में नेटो और अमेरिकी सेना पर सबसे विनाशकारी हमलों के पीछे हक़्क़ानी नेटवर्क का हाथ रहा है.
इसके अलावा हक़्क़ानी नेटवर्क दुनिया भर में लड़ाकों और आत्मघाती हमलावरों को प्रशिक्षण देने और इस्तेमाल करने के लिए भी जाना जाता है, यहां तक कि ओसामा बिन लादेन और अब्दुल्लाह यूसुफ़ अज़्ज़ाम जैसे लड़ाकों को हक़्क़ानी नेटवर्क ने भर्ती किया और प्रशिक्षण दिया है.
काउंटर टेरररिज़म विशेषज्ञ अब्दुल सईद का कहना है कि तालिबान की ओर से आत्मघाती हमलावरों की खुले तौर पर प्रशंसा करने से क्षेत्र में चरमपंथ को बढ़ावा मिलेगा. अब्दुल सईद का मानना है कि इस तरह के उपाय आतंकवादी समूहों के लिए अपनी जनशक्ति बढ़ाने और अपने सदस्यों का विश्वास जीतने के लिए बहुत उपयोगी हैं.
अब्दुल सईद कहते हैं, "जिस सम्मान के साथ इन मारे गए आत्मघाती हमलावरों को जिहादियों के गौरवशाली हीरो के रूप में पेश किया गया है, यह निश्चित रूप से अन्य युवाओं के लिए भी अपने समाज या दोस्तों के सर्कल में इस तरह के सम्मान प्राप्त करने के लिए आकर्षित करता है. ख़ास तौर से वो युवा जो ज़िंदगी में सभी प्रकार की निराशाओं और नाउम्मीदियों का सामना कर रहे हैं. जो आसानी से ज़्यादातर ऐसे समूहों का हिस्सा बन जाते हैं."
-सलमान रावी
अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत अपनी नीति में बदलाव के स्पष्ट संकेत मिलने शुरू हो गए हैं. पहले दोहा में भारतीय राजदूत की तालिबान प्रतिनिधि से मुलाक़ात और अब मॉस्को में विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव की तालिबान प्रतिनिधियों के साथ बैठक.
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय सहायता की बात भी स्वीकार की. साथ ही आर्थिक और कूटनीतिक संबंघ बेहतर करने पर भी ज़ोर दिया गया.
अमेरिका, तालिबान, चीन, इसराइल, भारत और कश्मीर पर क्या बोले इमरान ख़ान
तालिबान के 'दोस्तों' की पड़ताल वाले अमेरिकी बिल पर पाकिस्तान को भारत पर शक़
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत तालिबान से 'एंगेज' न करने की नीति पर चलता आया था.
लेकिन जानकारों का कहना है कि सामरिक दृष्टि से भारत की नीति में बदलाव आवश्यक है. नीति में बदलाव के संकेत उस समय आना शुरू हुए, जब क़तर की राजधानी दोहा में तालिबान के प्रतिनिधियों से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ था.
हालाँकि भारत ने खुले तौर पर 'बैक डोर चैनल' से तालिबान के साथ बातचीत करने की बात कभी स्वीकार नहीं की, लेकिन 31 अगस्त को दोहा में भारत के राजदूत से तालिबान के शीर्ष नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्टैनिकज़ई की मुलाक़ात हुई.
तालिबान के नेता ख़ुद भारतीय दूतावास गए थे और इस दौरान भारत के राजदूत दीपक मित्तल से उनकी लंबी बातचीत हुई. स्टैनिकज़ई दोहा में स्थित तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख भी रहे हैं. तालिबान के साथ भारत की ये पहली औपचारिक बातचीत थी.
भारत के विदेश मंत्रालय ने इस बातचीत के बारे में जो बयान दिया, उसमें कहा गया कि ये बैठक तालिबान के अनुरोध पर हुई थी, जिसमे मूलतः अफ़ग़ानिस्तान में रह रहे भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और वहाँ रह रहे अल्पसंख्यकों को भारत आने की अनुमति पर बात हुई.
भारत ने तालिबान के शीर्ष नेता के साथ सामरिक मुद्दे को भी उठाया, जिसमें आश्वासन भी मिला कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल भारत के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा.
तालिबान के साथ दूसरी औपचारिक बैठक 21 अक्तूबर को हुई, जब मॉस्को में विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जेपी सिंह के नेतृत्व में भारत का एक प्रतिनिधिमंडल तालिबान के प्रतिनिधियों से मिला. तालिबान के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व उनके उप प्रधानमंत्री अब्दुल सलाम हनफ़ी कर रहे थे.
ये प्रतिनिधिमंडल रूस के निमंत्रण पर अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर आयोजित 'मोस्को फ़ॉर्मेट' सम्मेलन में शामिल होने गया था और सम्मेलन के इतर भारत और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत हुई.
तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहउल्लाह मुजाहिद के हवाले से अफ़ग़ानिस्तान की समाचार एजेंसी 'टोलो' का कहना था कि दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने एक दूसरे की चिंताओं को ध्यान में रखने पर विचार किया. इसके अलावा दोनों देशों के बीच आर्थिक और कूटनीतिक संबंधों को बेहतर बनाने की बात पर ज़ोर भी दिया गया.
सम्मलेन के समापन के दौरान इसमें शामिल भारत सहित 10 देशों ने अफ़ग़ानिस्तान को मानवीय सहायता देने के साझा प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए. अगस्त की 15 तारीख़, यानी वो दिन जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर नियंत्रण कर लिया था, तब से लेकर 21 अक्तूबर तक अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत की नीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला.
पहले भारत कह रहा था कि वो तालिबान की सरकार को मान्यता नहीं देगा और विश्व समुदाय से भी अपील की थी कि तालिबान के शासन को मान्यता देने में कोई जल्दबाज़ी नहीं की जानी चाहिए. भारत के तब के रुख़ और अब के रुख़ में बड़ा बदलाव है.
इतना ही नहीं भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर चार देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक आयोजित करने का प्रस्ताव भी रखा है. इन देशों में चीन, रूस और पाकिस्तान भी शामिल हैं. इस प्रस्तावित बैठक की कोई तारीख़ पक्की नहीं की गई है.
लेकिन विदेश मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि ये 10 या 11 नवंबर को दिल्ली में आयोजित हो सकती है और इन सभी देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इसमें ख़ुद मौजूद रहेंगे. सूत्रों का कहना है कि इस सम्मलेन के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ़ को भी औपचारिक रूप से न्योता भेजा गया है.
अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत की कभी 'कोई एक नीति' नहीं रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि भारत ने अमेरिका और नेटो की फ़ौजों पर सुरक्षा और सामरिक मुद्दों को छोड़ दिया था और अपना पूरा 'फ़ोकस' अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण तक ही रखा.
चाहे वो छात्रवृति देने की बात हो, नए संसद और डैम का निर्माण हो या फिर बिजली और सड़क की योजनाएँ हों. भारत ने सिर्फ़ इसी तक अपना दायरा सीमित रखा और भारी निवेश भी किया.
लेकिन सामरिक मामलों के विशेषज्ञों को लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान के मामले में भारत बहुत दिनों तक 'मैदान से बाहर बैठकर' सब कुछ नहीं देखता रह सकता है. वो ये भी मानते हैं कि 'तालिबान अपना शासन नियम से चलाए' कहते रहने से और उसका इंतज़ार करते रहने से भारत को कुछ हासिल भी नहीं हो सकता है.
'थिंक टैंक' ऑब्ज़ेर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की चयनिका सक्सेना मानती हैं कि भारत के लिए ये सही नहीं होगा कि वो अफ़ग़ानिस्तान में बदलते हुए हालात से ख़ुद को दूर रखे और उस देश में जो हो रहा है, उसे भाग्य भरोसे छोड़ दे. खास तौर पर तब, जब वो क्षेत्रीय ताक़तें या देश, जिनके साथ भारत के संबंध अच्छे नहीं है, वे वहाँ बड़े सक्रिय दिख रहे हैं.
अपने एक शोध में चयनिका सक्सेना लिखती हैं, "भारत को अफ़ग़ानिस्तान में एक पैर हमशा दरवाज़े के अंदर ही रखना होगा. तालिबान से संपर्क रखने को कहीं से भी इस दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए कि भारत उसे मान्यता दे रहा है. इसे इस रूप में देखा जाना चाहिए कि भारत ऐसी सरकार से डील कर रहा है जो अपने निर्णय लेने में कमज़ोर है. भारत को अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की ख़ातिर वहाँ अपनी मौजूदगी बनाए रखनी चाहिए."
विशेषज्ञ मानते हैं कि जिस तरह से पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान के मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है, उससे भारत को भी अपनी नीति पर पुनर्विचार करने के ज़रूरत है.
हाल ही में बीबीसी से इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए भारत के उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके अरविंद गुप्ता का कहना था कि भारत को अभी सब्र के साथ ही काम लेना चाहिए. उनका ये भी मानना था कि तालिबान से भारत को कुछ हासिल होने वाला नहीं है.
बीबीसी से बातचीत के क्रम में अरविंद गुप्ता ने ये भी कहा था कि तालिबान के असली चेहरे से सब परिचित हैं जो अभी तक एक 'घोषित चरमपंथी गुट' ही है. उनके अनुसार 'चरमपंथ और रूढ़िवाद' बड़ी समस्या बने रहेंगे. क्योंकि वो सोच कहीं से ख़त्म नहीं होने वाली है. तालिबान के सत्ता पर दख़ल से जिहादी सोच और भी विकसित होगी, जिसके दुष्परिणाम पूरी दुनिया ने पहले ही देख लिए हैं.
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान और चीन के बढ़ते प्रभाव और हस्तक्षेप की वजह से सामरिक मामलों के विशेषज्ञ अब मानने लगे हैं कि भारत को भी अपने अफ़ग़ानिस्तान नीति की समीक्षा और उस पर पुनर्विचार करना चाहिए.
शायद यही वजह है कि तालिबान से दशकों तक दूरी बनाए रखने के बाद अब भारत भी आगे क़दम बढ़ा रहा है. चाहे दोहा के दूतावास में तालिबान के प्रतिनिधि से राजदूत दीपक इत्तल की मुलाक़ात हो या फिर मॉस्को फ़ॉर्मेट सम्मलेन के इतर भारत और तालिबान के प्रतिनिधिमंडल के बीच हुई मुलाक़ात हो. अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत के रुख़ में बदलाव या नीति में बदलाव स्पष्ट रूप से झलकता है.
अगले महीने चार देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की दिल्ली में प्रस्तावित बैठक को भी राजनयिक हलकों में बड़े क़दम के रूप में ही देखा जा रहा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा है कि चीन अगर ताइवान पर हमला करता है तो अमेरिका ताइवान का बचाव करेगा. राष्ट्रपति बाइडन ने ताइवान पर अमेरिका के पुराने रुख़ से अलग लाइन लेते हुए यह बयान दिया है.
अमेरिकी राष्ट्रपति से पूछा गया था कि क्या अमेरिका ताइवान की रक्षा करेगा तो बाइडन ने कहा, ''हाँ, ऐसा करने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं.''
लेकिन बाद में व्हाइट हाउस के एक प्रवक्ता ने अमेरिकी मीडिया से कहा कि इस टिप्पणी को नीति में बदलाव के तौर पर नहीं लेना चाहिए.
उधर ताइवान ने कहा है कि बाइडन के बयान से चीन को लेकर उसकी नीति में कोई बदलाव नहीं आएगा. अमेरिका में एक क़ानून है जिसके तहत ताइवान की सुरक्षा में मदद की बात कही गई है. लेकिन अमेरिका में इस बात को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है कि चीन ने ताइवान पर हमला किया तो वह क्या करेगा. अमेरिका के रुख़ को 'रणनीतिक पेच' कहा जाता है.
बाइडन और व्हाइट हाउस ने क्या कहा?
अमेरिकी न्यूज़ चैनल सीएनएन के टाउनहॉल प्रोग्राम में एक प्रतिभागी ने हाल में चीन के कथित हाइपसोनिक मिसाइल परीक्षण की रिपोर्ट का ज़िक्र किया और पूछा किया क्या बाइडन ताइवान की रक्षा को लेकर प्रतिबद्ध हैं? बाइडन चीन की सेना का सामना करने के लिए क्या करेंगे?
इन सवालों के जवाब में बाइडन ने कहा, ''हाँ और हाँ. इसे लेकर निराश होने की ज़रूरत नहीं है कि वे और मज़बूत हो रहे हैं क्योंकि चीन, रूस और बाक़ी दुनिया को पता है कि दुनिया के इतिहास में हमारी सेना सबसे ताक़तवर है.''
बाइडन से सीएनएन एंकर एंडर्सन कूपर ने एक और सवाल किया कि अगर चीन ताइवान पर हमला करता है तो क्या अमेरिका मदद के लिए सामने आएगा? इस पर बाइडन ने कहा, ''हाँ, ऐसा करने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं.''
लेकिन बाद में बाइडन की टिप्पणी पर व्हाइट हाउस के एक प्रवक्ता ने स्पष्टीकरण दिया और कहा कि अमेरिका ने अपनी नीति में किसी भी तरह के बदलाव की घोषणा नहीं की है. यह कोई पहली बार नहीं है जब ऐसा हुआ है.
इससे पहले अगस्त महीने में भी बाइडन ने एबीसी न्यूज़ को दिए इंटरव्यू में ताइवान पर इसी तरह का बयान दिया था. उस वक़्त भी व्हाइट हाउस ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा था कि अमेरिका की ताइवान पर नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है.
ताइवान के राष्ट्रपति कार्यालय ने कहा कि हम न तो दबाव में झुकेंगे और न ही कोई समर्थन मिलने पर जल्दबाज़ी में कोई क़दम उठाएंगे. ताइवान की राष्ट्रपति के प्रवक्ता ज़ेवियर चेंग ने कहा, ''ताइवान मज़बूती से आत्मरक्षा करेगा.''
चेंग ने माना कि अमेरिका के बाइडन प्रशासन ने लगातार ताइवान को ठोस समर्थन दिया है. चीन ने बाइडन के बयान पर अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
लेकिन टाउन हॉल में बाइडन के बयान से पहले गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र में चीन के राजदूत चांग जुन ने ताइवान पर अमेरिकी रुख़ को ख़तरनाक बताया था.
हाल के हफ़्तों में ताइवान और चीन में तनाव बढ़ा है. चीन के दर्जनों लड़ाकू विमानों ने ताइवान के हवाई क्षेत्र में अतिक्रमण किया था.
चीन ने ताइवान को अपने में मिलाने की कोशिश की तो यह भीषण होगा और यह एक मुश्किल टास्क है. इसका मतलब ये नहीं है कि ये कभी नहीं होगा लेकिन जो भी चीनी नेता हमले का आदेश देगा, वह अपनी ही नस्ल हान चीनियों को आपस में ख़तरनाक हथियारों से लड़ने पर मजबूर करेगा.
इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि चीनी सरकार ने अपने यहाँ लोगों को इस संघर्ष के लिए कितना तैयार किया है. भले ताइवान को लेकर अलगाववादी होने का प्रॉपेगैंडा फैलाया गया हो.
यह भी बहुत मायने नहीं रखता है युद्ध के लिए हमेशा भड़काने वाला ग्लोबल टाइम्स अख़बार ताइवान के ख़िलाफ़ युद्ध को गौरव से किस हद तक जोड़ता है. जब एक ही नस्ल के सैनिकों की लाशें बिछेंगी तो उस पर पर्दा डालना आसान नहीं होगा.
अगर चीन ताइवान पर कब्ज़ा कर भी लेता है तो उस पर नियंत्रण को लेकर कई चुनौतियां होंगी. 2.40 करोड़ की आबादी वाले ताइवान के ज़्यादातर लोग चीन के कम्युनिस्ट शासन को स्वीकार नहीं करेंगे.
ताइवान पर हमले के लिए जो भी नेता आदेश देगा वो पूरे इलाक़े में अस्थिरता के लिए भी ज़िम्मेदार होगा. चीन अगर हमला करता है तो अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की सेना भी शामिल हो सकती हैं.
शी जिनपिंग अपने नेतृत्व में ताइवान को मिलाने की चाहत रखते हैं लेकिन ऐसा करेंगे तो बहुत कुछ दाँव पर लग जाएगा. चीन मीडिया में हमले का शोर चाहे जितना मचे लेकिन चीन की सरकार में ऐसे तमाम लोग होंगे जो हमले के पक्ष में नहीं होंगे. हालाँकि चीन की बढ़ती सैन्य ताक़त की वजह से अगले कुछ सालों में ये सारे समीकरण बदल भी सकते हैं. (bbc.com)
हांगकांग में एक घातक संक्रमण ने दस्तक दी है. इस संक्रमण के चपेट में आने से सात लोगों की मौत की पुष्टि हुई है. ऐसे में इस संक्रमण के फैलने से हांगकांग स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, ये संक्रमण फ्रेश पानी की मछली से फैला है. हांगकांग के वेट (नम) मार्केट ने मछली से फैले इस संक्रमण के प्रकोप की रिपोर्ट दी है. वहीं, समुद्री खाद्य विशेषज्ञों ने खरीदारों को इन नम बाजारों में फ्रेश पानी की मछली को छूने को लेकर आगाह किया है.
स्वास्थ्य अधिकारियों ने सितंबर और अक्टूबर 2021 में इस घातक ग्रुप बी स्ट्रेप्टोकोकस सूक्ष्मजीव संक्रमण के 79 मामले आने के बाद चेतावनी दी है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इस संक्रमण से कम से कम सात लोगों के मरने की जानकारी मिली है. रिपोर्ट के जवाब में स्वास्थ्य सुरक्षा केंद्र (सीएचपी) ने गुरुवार को पुष्टि की कि इस संक्रमण की पहचान एसटी283 के रूप में हुई है. संक्रमित 32 लोगों से ये पुष्टि हुई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रति 30 दिनों में करीब 26 मामले आए हैं और अब इस संक्रमण की चपेट में आने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है.
वहीं, चीन के वुहान से पूरी दुनिया में फैला कोरोना वायरस ने चीन में एक बार फिर अपना कहर बरपाना शुरू कर दिया है. कई फ्लाइटें रद्द हो चुकी हैं. स्कूल बंद किए जा रहे हैं. कुछ जगहों पर फिर से लॉकडाउन लगा दिया गया है. चीन ने शुरुआती समय में इस संक्रमण पर काबू पा लिया था. संक्रमण के फिर से मामले बढ़ने पर सरकार ने व्यापक स्तर पर टेस्टिंग शुरू कर दी है.
अबुजा, 22 अक्टूबर | नाइजीरिया के उत्तर-पश्चिमी राज्य केब्बी के एक माध्यमिक विद्यालय से चार महीने पहले अगवा किए गए तीस स्कूली बच्चों को उनके बंधकों ने रिहा कर दिया है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, केब्बी राज्य सरकार ने एक बयान में रिहाई की पुष्टि करते हुए कहा कि छात्र राज्य की राजधानी बिरनिन केब्बी पहुंचे हैं और अपने परिवारों के साथ फिर से जुड़ने से पहले मेडिकल स्क्रीनिंग और सहायता से गुजरेंगे।
बयान में कहा गया कि "बचे हुए लोगों की रिहाई के लिए प्रयास अभी भी जारी हैं।"
इसमें कहा गया, "हम उन सभी लोगों को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने रिहाई दिलाने में मदद की।"
अज्ञात बंदूकधारियों के एक समूह ने 17 जून को माध्यमिक विद्यालय पर हमला किया, जिसमें एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई और छात्रों और पांच शिक्षकों का अपहरण कर लिया गया। (आईएएनएस)
सैन फ्रांसिस्को, 22 अक्टूबर | मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि डच फोरेंसिक शोधकर्ताओं की एक टीम ने टेस्ला के डेटा स्टोरेज सिस्टम को डिक्रिप्ट किया, जिससे जानकारी की एक टुकड़ी तक पहुंच प्रदान की जा सके। यह दुर्घटना की जांच में उपयोगी हो सकती है। द वर्ज के अनुसार, टेस्ला अपने ग्राहकों के ड्राइविंग व्यवहार के बारे में जानकारी रिकॉर्ड करती है, दोनों अपने उन्नत ड्राइवर सहायता प्रणाली, ऑटोपायलट में सुधार करने के लिए और दुर्घटना की स्थिति में, जांचकर्ताओं को प्रदान करने के लिए सहायता प्रदान करती है।
हालांकि, नीदरलैंड फोरेंसिक इंस्टीट्यूट (एनएफआई) के शोधकर्ताओं ने पाया कि टेस्ला के वाहन गति, त्वरक पेडल स्थिति, स्टीयरिंग व्हील कोण और ब्रेक उपयोग सहित पहले से ज्ञात की तुलना में कहीं अधिक विस्तृत डेटा संग्रहित करते हैं।
संस्थान ने कहा, इस डेटा में से कुछ को एक वर्ष तक संग्रहित किया जा सकता है।
टीम ऑटोपायलट के साथ एक टेस्ला से जुड़े एक दुर्घटना की जांच कर रही थी, जिसने अप्रत्याशित रूप से ब्रेक लगाने के बाद एक अन्य वाहन को पीछे से खत्म कर दिया था। टेस्ला से डेटा की तलाश करने के बजाय, डच जांचकर्ताओं ने कंपनी के डेटा लॉग को "निष्पक्ष रूप से" मूल्यांकन करने के लिए "रिवर्स इंजीनियर" को चुना।
एनएफआई के एक डिजिटल अन्वेषक फ्रांसिस हुगेंडिजक ने एक बयान में कहा, "इन आंकड़ों में फोरेंसिक जांचकर्ताओं और यातायात दुर्घटना विश्लेषकों के लिए जानकारी का खजाना है और एक घातक यातायात दुर्घटना या चोट के साथ दुर्घटना के बाद आपराधिक जांच में मदद कर सकता है।"
एनएफआई ने कहा कि भले ही टेस्ला ने अतीत में सरकार के डेटा अनुरोधों का अनुपालन किया हो, लेकिन कंपनी ने बहुत सारे डेटा को छोड़ दिया जो उपयोगी साबित हो सकते थे।
एनएफआई की रिपोर्ट में कहा गया है, "टेस्ला हालांकि केवल एक विशिष्ट समय सीमा के लिए सिग्नल का एक विशिष्ट सबसेट प्रदान करता है, केवल अनुरोध किया जाता है, जबकि लॉग फाइलों में सभी रिकॉर्ड किए गए सिग्नल होते हैं।"
हैक की खबर का अमेरिकी जांचकर्ताओं के लिए निहितार्थ हो सकता है जो ऑटोपायलट के उपयोग के दौरान टेस्ला वाहनों और आपातकालीन वाहनों से जुड़े दुर्घटनाओं की एक दर्जन घटनाओं की जांच कर रहे हैं। (आईएएनएस)
न्यूयॉर्क, 22 अक्टूबर | बांग्लादेश के अधिकारियों से हिंदुओं की रक्षा करने के लिए कहते हुए, अंतर्राष्ट्रीय समूह मानव अधिकार निकाय ने कहा है कि कानून एजेंसी को 'सावधानी और संयम के साथ' कार्य करना चाहिए। एचआरडब्ल्यू के एशिया निदेशक ब्रैड एडम्स ने समूह द्वारा जारी एक बयान में कहा कि अधिकारियों को हिंसा को कम करने की जरूरत है, न कि भीड़ में गोला बारूद चलाने की।
उन्होंने कहा कि बांग्लादेश के अधिकारी बेहद तनावपूर्ण स्थिति से निपट रहे हैं, जो आसानी से और भी अधिक रक्तपात में बदल सकती है, अगर कानून एंजेंसी ने सावधानी और संयम के साथ काम नहीं किया।
एचआरडब्ल्यू के बयान ने बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमलों को अंजाम देने वालों की पहचान और सीधे तौर पर निंदा नहीं की।
हालांकि, एचआरडब्ल्यू ने स्वीकार किया कि हिंदू, जो बांग्लादेश की मुस्लिम-बहुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा हैं, बार-बार हमले के शिकार हुए हैं।
"पहले हमलों के बाद से, भीड़ ने पूरे देश में दर्जनों हिंदू घरों और मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ी है।"
एचआरडब्ल्यू के बयान में एक बांग्लादेशी मानवाधिकार समूह, ऐन ओ सलीश केंद्र के हवाले से बताया गया है कि जनवरी 2013 से हिंदू समुदाय पर कम से कम 3,679 हमले हुए हैं, जिनमें बर्बरता, आगजनी और लक्षित हिंसा शामिल है।
एडम्स ने कहा कि हसीना को शब्दों और कार्यों में यह दिखाने के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण का सामना करना पड़ रहा है कि वह लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए अपनी पार्टी की प्रतिबद्धताओं के बारे में गंभीर है।
बयान में कहा गया है कि अधिकारियों ने कथित तौर पर हिंसा के संबंध में कम से कम 71 मामले दर्ज किए हैं और 450 लोगों को गिरफ्तार किया है। साथ ही हसीना ने कड़ी कार्रवाई का वादा किया है, यह घोषणा करते हुए कि किसी को भी नहीं बख्शा जाएगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस धर्म के हैं।
कानून प्रवर्तन द्वारा संयम के अपने आह्वान का समर्थन करते हुए, एचआरडब्ल्यू ने कहा कि कानून प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा बल और आग्नेयास्त्रों के उपयोग पर संयुक्त राष्ट्र के मूल सिद्धांत में कहा गया है कि सुरक्षा बलों को 'बल और आग्नेयास्त्रों के उपयोग का सहारा लेने से पहले अहिंसक साधनों को लागू करना चाहिए, ' और यह कि 'जब भी बल और आग्नेयास्त्रों का वैध उपयोग अपरिहार्य है, कानून प्रवर्तन अधिकारी (ए) इस तरह के उपयोग में संयम बरतें और अपराध की गंभीरता और प्राप्त किए जाने वाले वैध उद्देश्य के अनुपात में कार्य करें, (बी) कम से कम क्षति और चोट, और सम्मान और मानव जीवन की रक्षा का ध्यान रखें। (आईएएनएस)
काठमांडू, 22 अक्टूबर | नेपाल में लगातार हो रही मूसलाधार बारिश से कहर बरपा हुआ है। यहा, खराब मौसम और भारी बर्फबारी के कारण 'मेरा पीक' पर फंसे पांच पर्वतारोहियों जिसमें चार विदेशी और एक गाइड को बचा लिया गया है, जबकि एक पर्वतारोही अभी भी लापता है। इस बात की जानकारी शुक्रवार को प्रशासन ने दी है। गुरुवार देर रात एक बयान में, नेपाल पर्वतारोहण संघ ने कहा, पर्वतारोही शिखर पर पहुंचकर लौटते समय पहाड़ पर फंस गए थे। उन्हें मंगलवार को बचाया गया और हेलीकॉप्टर से राजधानी काठमांडू लाया गया। उनका काठमांडू स्थित अस्पताल में इलाज करवाया जा रहा है।
अभियान दल के साथ नेपाली पर्वतारोही अभी भी माउंट एवरेस्ट के करीब 6,476 मीटर ऊंची चोटी पर लापता है, एसोसिएशन ने कहा कि 5,800 मीटर से 6,500 मीटर तक 27 हिमालयी पहाड़ों की चढ़ाई के लिए परमिट जारी किया जाता है।
एसोसिएशन के अध्यक्ष शांता बीर लामा ने सिन्हुआ को बताया कि पर्वतारोही मंगलवार की रात से फंसे हुए थे क्योंकि मौसम अचानक खराब हो गया था। जिसके कारण उनके लिए राहत और बचाव कार्य के लिए हेलीकॉप्टर भी नहीं भेज सकते थे।
उन्होंने कहा, एक ब्रिटिश नागरिक सहित तीन पर्वतारोही पिछले तीन दिनों से 5,600 मीटर की ऊंचाई पर एक गुफा में रह रहे थे, जबकि अन्य पर्वत के आधार शिविर में फंसे हुए थे।
गौरतलब है कि पांच पर्वतारोही को समय रहते बचा लिया गया। वहीं, एक नेपाली पर्वतारोही की तलाश की जा रही है। नेपाल में पिछले कुछ दिनों सें बेमौसम बारिश हो रही है, जिससे बाढ़ और भूस्खलन स्थिति पैदा हो गई है। इस आपदा में 101 लोगों की मौत हो गई है जबकि 41 लापता हैं। (आईएएनएस)
एक नए शोध में सामने आया है कि अफ्रीका के मोजाम्बीक में सालों से चल रहे गृह-युद्ध और तस्करी की वजह से हाथियों की एक बड़ी आबादी के कभी भी दांत नहीं उग पाएंगे.
भारी भारी दांत अमूमन हाथियों के लिए फायदेमंद होते हैं. इनका इस्तेमाल कर वो पानी के लिए मिट्टी खोद सकते हैं, खाने के लिए पेड़ों की छाल को उतार सकते हैं और दूसरे हाथियों के साथ खेल खेल में भिड़ भी सकते हैं.
लेकिन हाथी दांत की भारी तस्करी के माहौल में बड़े दांत बोझ बन जाते हैं. शोधकर्ताओं ने दिखाया है कि मोजाम्बीक में गृह युद्ध और तस्करी ने बड़ी संख्या में हाथियों को दांतों से वंचित ही कर दिया है.
जीन करते हैं निर्धारित
1977 से 1992 तक चली लड़ाई के दौरान दोनों तरफ के लड़ाकों ने हाथियों को मारा ताकि उनके दांतों से जंग के खर्च का इंतजाम हो सके. आज गोरोंगोसा राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाने जाने वाले इलाके में करीब 90 प्रतिशत हाथियों को मार दिया गया था.
युद्ध के पहले जहां हाथियों की कुल आबादी के सिर्फ पांचवें हिस्से के बराबर हाथियों के दांत नहीं थे, युद्ध के बाद जो बच गए उन में से लगभग आधी हथिनियां प्राकृतिक रूप से बिना दांतों के थीं. उनके दांत कभी उगे ही नहीं.
इंसानों में आंखों के रंग की तरह ही, हाथियों को अपने माता पिता से विरासत में दांत मिलेंगे या नहीं यह जीन निर्धारित करते हैं. अफ्रीका के हाथियों में दांतों का ना होना कभी दुर्लभ था लेकिन आज ये वैसे ही सामान्य हो गया है जैसे आंखों का कोई दुर्लभ रंग कभी बहुतायत में मिलने लगे.
सालों तक किया अध्ययन
युद्ध के बाद जीवित बचीं उन बिना दांतों की हथिनियों से उनके जीन उनके बच्चों में चले गए जिसके नतीजे कुछ अपेक्षित भी थे और कुछ चौंकाने वाले भी. उनकी बेटियों में से करीब आधी दंतहीन थीं. और ज्यादा हैरान करने वाली बात यह थी कि उनके बच्चों में से दो-तिहाई मादा निकलीं.
प्रिंसटन विश्वविद्यालय के इवोल्यूशनरी बायोलॉजिस्ट शेन कैंपबेल-स्टैटन कहते हैं कि सालों की अशांति ने "उस आबादी के क्रम विकास को ही बदल दिया." वो अपने सहकर्मियों के साथ यह जानने के लिए निकल पड़े कि हाथी दांत के व्यापार के दबाव ने कैसे प्राकृतिक चुनाव के संतुलन को हिला दिया.
उनकी शोध के नतीजे हाल ही में साइंस पत्रिका में छपे हैं. मोजाम्बीक में बायोलॉजिस्ट डॉमिनिक गोंसाल्वेस और जॉयस पूल समेत शोधकर्ताओं ने राष्ट्रीय उद्यान के करीब 800 हाथियों का कई सालों तक अध्ययन किया और माओं और उनके बच्चों की एक सूची बनाई.
पूल कहते हैं, "मादा बच्चे अपनी माओं के साथ ही रहते हैं और एक उम्र तक नर बच्चे भी ऐसा ही करते हैं." पूल गैर लाभकारी संस्था एलिफैंट वॉइसेस के वैज्ञानिक निदेशक और सह-संस्थापक हैं.
चौंकाने वाले नतीजे
पूल ने इससे पहले भी यूगांडा, तंजानिया और केन्या जैसी जगहों पर भी हाथियों में अनुपातहीन रूप से ज्यादा संख्या में दंतहीन हथिनियों को देखा था. इन जगहों पर भी बहुत तस्करी हुई थी. पूल ने बताया, "मैं लंबे समय से यह सोच रहा हूं कि मादाएं ही क्यों दंतहीन होती हैं."
गोरोंगोसा में टीम ने सात दांत वाली और 11 दंतहीन हथिनियों के खून के सैंपल लिए और फिर उनके बीच में अंतर का पता लगाने के लिए उनके डीएनए की समीक्षा की. इस डाटा से उन्हें थोड़ा अंदाजा मिला कि आगे कैसे बढ़ा जाए.
शोधकर्ताओं ने एक्स क्रोमोजोम पर ध्यान लगाया क्योंकि मादाओं में दो एक्स क्रोमोजोम होते हैं जबकि नारों में एक एक्स और एक वाई होता है. उन्हें यह भी शक था कि संभव है मादामों को दंतहीन होने के लिए एक ही जीन की जरूरत होती हो और अगर ये नर भ्रूणों में चला जाए तो ये उनके विकास को ही रोक सकता है.
शोध के सह लेखक और प्रिंसटन में इवोल्यूशनरी बायोलॉजिस्ट ब्रायन आरनॉल्ड ने बताया, "जब माएं इस जीन को आगे दे देती हैं, हमें लगता है कि तब बेटों की गर्भ में ही जल्दी मृत्यु हो जाती है."
कनाडा के विक्टोरिया विश्वविद्यालय में कंजर्वेशन साइंटिस्ट क्रिस डैरिमोंट कहते हैं, "उन्होंने जेनेटिक बदलावों का जबरदस्त सबूत पेश किया है." डैरिमोंट खुद इस शोध का हिस्सा नहीं थे. उन्होंने आगे कहा कि इस शोध से "वैज्ञानिकों और आम लोगों को यह समझने में मदद मिलेगी कि कैसे हमारे समाज का दूसरे प्राणियों के क्रम विकास पर भारी असर पड़ सकता है."
सीके/एए (एपी)
ऐसे समय में जब विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों की लगातार चेतावनी दे रहे हैं, एक अंतरराष्ट्रीय शोध में पाया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की स्वास्थ्य समस्याओं को बदतर बना रही है.
विज्ञान पत्रिका लांसेट की वार्षिक रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप 44 स्वास्थ्य समस्याओं को सूचीबद्ध किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन की वजह से स्वास्थ्य समस्याएं गंभीर होती जा रही हैं. रिपोर्ट में 44 वार्षिक स्वास्थ्य मुद्दों को जलवायु परिवर्तन से जोड़ा गया है, जिसमें गर्मी से संबंधित मौतें, संक्रामक रोग और भूख शामिल हैं.
लांसेट काउंटडाउन प्रोजेक्ट की शोध निदेशक और बायोकेमिस्ट मरीना रोमानिलो ने कहा, "इनमें से हर एक बीमारी बदतर होती जा रही है."
रिपोर्ट की सह-लेखक और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में पर्यावरणीय स्वास्थ्य की प्रोफेसर क्रिस्टी एबी कहती हैं, "ये सभी बढ़ते तापमान के कारण हो रहे हैं."
कोड रेड
द लांसेट ने दो रिपोर्ट जारी की हैं. एक दुनिया के लिए है और दूसरा केवल संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए है. स्वस्थ भविष्य के लिए कोड रेड के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के जोखिम वाले वृद्ध और युवा लोग पिछले वर्ष की तुलना में अधिक खतरनाक तापमान के संपर्क में हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि 1986 और 2005 की तुलना में पिछले साल 65 वर्ष से अधिक आयु के तीन अरब से अधिक लोगों को अत्यधिक गर्मी का सामना करना पड़ा.
उनमें से ज्यादातर उन जगहों पर रहते थे जहां पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बीमारियां फैल सकती थीं. पिछले एक दशक में प्रशांत महासागर के बाल्टिक, उत्तरपूर्वी और उत्तर-पश्चिमी तटीय क्षेत्र विब्रियो बैक्टीरिया के लिए गर्म हो गए हैं. जहां उनकी संख्या में वृद्धि हुई है.
कुछ गरीब देशों में मच्छर जनित मलेरिया के मौसम की अवधि 1950 के दशक की तुलना में अधिक लंबी है.
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ मिशेल बेरी ने कहा कि रिपोर्ट को "कोड रेड" कहना पर्याप्त नहीं है. उन्होंने कहा, "इस नई रिपोर्ट के नतीजे पिछली लांसेट रिपोर्ट की तुलना में एक गंभीर और संवेदनशील मुद्दा है. यह दुखद है कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं."
वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में पर्यावरणीय स्वास्थ्य और आपातकालीन चिकित्सा के प्रोफेसर और अध्ययन में शामिल डॉ. जेरेमी हसी ने कहा कि उन्होंने गर्मियों में सिएटल में आपातकाल में काम करते हुए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखा. वे बताते हैं, "मैंने पैरामेडिक्स को देखा जो फ्लू के रोगियों की देखभाल खुद करते थे. मैंने कई रोगियों को हीटस्ट्रोक से मरते हुए भी देखा है."
बॉस्टन विश्वविद्यालय के एक अन्य डॉक्टर ने कहा कि शोध अब उन चीजों की पुष्टि कर रहा है जो वह वर्षों से देखी जा रही थीं, जैसे कि एलर्जी के कारण अस्थमा के मामलों की बढ़ती संख्या.
रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ. रेनी सालास कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन स्वास्थ्य संकट का नंबर एक कारण है.
जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के डीन डॉ. लिन गोल्डमैन का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं "कुछ साल पहले की तुलना में बहुत तेजी से बिगड़ रही हैं."
रिपोर्ट में कहा गया है कि 84 में से 65 देश जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर सब्सिडी दे रहे हैं जिससे जलवायु परिवर्तन होता है.
पर्यावरणविद डॉ. रिचर्ड जैक्सन कहते हैं, "इसका एक उदाहरण है जब एक व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार रोगी की देखभाल के नाम पर सिगरेट और जंक फूड दे रहा हो."
एए/सीके (एपी)
लीबिया के तानाशाह मुआम्मर गद्दाफी की 20 अक्टूबर 2011 को हत्या कर दी गई थी. इस घटना को एक दशक बीत चुका है, लेकिन लीबिया अभी तक संघर्ष, अराजकता और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से बाहर नहीं निकला है.
डॉयचे वैले पर कैर्स्टन क्निप की रिपोर्ट
नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल (एनटीसी) के प्रवक्ता अब्दुल हफीज घोघा ने 20 अक्टूबर 2011 को ऐलान किया, "हम दुनिया को बताना चाहते हैं कि गद्दाफी क्रांति में मारा गया है. दमन और तानाशाही खत्म हो गई है."
फरवरी 2011 में पड़ोसी देश ट्यूनीशिया में क्रांति से प्रेरित लीबिया के लोग तानाशाह मुआम्मर गद्दाफी के खिलाफ उठ खड़े हुए, जो 1969 के विद्रोह का नेतृत्व करने के बाद सत्ता में आए थे.
संयुक्त राष्ट्र ने मार्च में नागरिकों को तानाशाही से बचाने के लिए एक सैन्य अभियान को मंजूरी दी थी. नाटो ने लीबिया की तानाशाही ताकतों को कमजोर करते हुए गद्दाफी की सेना पर हमले शुरू किए थे.
एक खूनी अंत
गद्दाफी राजधानी त्रिपोली से भाग गए. महीनों तक छिपने के बाद त्रिपोली से 450 किलोमीटर पूर्व में सिर्ते शहर में उनका ठिकाना खोजा गया. आखिरकार "क्रांतिकारी नेता" को तब पकड़ लिया गया जब उन्होंने एक सीवर से भागने की कोशिश की. विद्रोहियों ने उन्हें उसी समय बहुत हिंसक तरीके से मार डाला उनके खून से लथपथ शरीर की तस्वीरें पूरी दुनिया में प्रसारित की गईं.
हैम्बर्ग स्थित मध्य पूर्व अध्ययन संस्थान में लीबिया मामलों की विशेषज्ञ हजर अली कहती हैं कि गद्दाफी की सरकार के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत के बाद से खाद्य कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई है और युवाओं बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है. लोग शुरू से ही लोकतंत्र और मानवाधिकारों की मांग करते आए हैं. हजर अली का कहना है कि लीबिया के लोग मानवाधिकारों के हनन की जांच देखना चाहते थे, जैसे कि त्रिपोली की अबू सलीम जेल में 1996 का नरसंहार. इस घटना में 1,200 से 1,700 कैदी मारे गए थे.
लीबिया के लोग एक नई सुबह के बारे में आशावादी थे, हालांकि कुछ पर्यवेक्षकों ने उन्हें सतर्क रहने की सलाह दी थी. संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने उस वक्त कहा था, "आने वाले दिन लीबिया और उसके लोगों के लिए बहुत कठिन और चुनौतीपूर्ण होंगे. अब लीबिया के लोगों के एकजुट होने का समय है. राष्ट्रीय एकता और मेल-मिलाप से ही लीबिया के लोगों का भविष्य बेहतर हो सकता है."
हालांकि यह केवल एक प्रशंसा थी, क्योंकि सार्वजनिक आक्रोश और तनाव 2014 में गृहयुद्ध में बदल गए. हजर अली का कहना है कि इस स्थिति के लिए काफी हद तक गद्दाफी खुद जिम्मेदार थे. उन्होंने लीबिया के सैन्य कर्मियों को सत्ता से बाहर रखा और उनकी रक्षा के लिए विदेशी सैनिकों को नियुक्त किया. वे कहती हैं, "इस रणनीति के कारण, लोग प्रतिद्वंद्वी बन गए और तानाशाह की मृत्यु के बाद वर्षों तक यह प्रवृत्ति जारी रही."
विद्रोह के दौरान विभिन्न समूहों ने गद्दाफी को बाहर करने के लिए एक अल्पकालिक गठबंधन बनाया लेकिन गद्दाफी के पतन के साथ ही गठबंधन बिखर गया. ऐसी कोई राजनीतिक स्थिति नहीं थी जहां लोग अपने मतभेदों को सुलझा सकें और एक साथ बैठ सकें. अली कहती हैं, "इस दौरान कई चुनाव हुए लेकिन राष्ट्रीय एकता के निर्माण में कोई सफलता नहीं मिली."
एक असफल देश
देश की सत्ता बिखर गई और जल्द ही दो सरकारें बन गईं. एक त्रिपोली में और दूसरा तब्रुक के पूर्वी हिस्से में. अपने खुद के हितों को पूरा करने के लिए, कई अन्य देशों ने भी गृहयुद्ध में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया. इनमें रूस, तुर्की, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात शामिल थे. पैसे के लिए दूसरे देशों के लिए काम करने वाले सशस्त्र समूह अभी भी इस देश में मौजूद हैं.
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोवान ने भूमध्यसागरीय क्षेत्र में गैस के भंडार के लिए तुर्की के दावे पर जोर देने के प्रयास में तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त फैज अल-सिराज सरकार के साथ गठबंधन किया है. मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात ने तब्रुक में कथित निर्वासित सरकार का समर्थन किया है, जिसका संबंध मिलिशिया कमांडर खलीफा हफ्तार से है. मिस्र को उम्मीद थी कि ऐसा करने से लीबिया को इस्लामवादी ताकतों, खासकर मुस्लिम ब्रदरहुड के चंगुल से खुद को आजाद करने में मदद मिलेगी. .
लीबिया को स्थिरता कैसे मिले
गृहयुद्ध को समाप्त करने और लीबिया को स्थिर करने के लिए कई कदम उठाए गए हैं. कई संयुक्त राष्ट्र विशेष दूतों ने युद्धरत पक्षों को वार्ता की मेज पर लाने की कोशिश की. आखिरी बार जर्मनी में 2020 और 2021 में लीबिया कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया.
फरवरी में के लोग अब्दुल हमीद दाबीबा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाने के लिए सहमत हुए. उन्हें दिसंबर में राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव कराने का काम सौंपा गया था. लेकिन अब संसदीय चुनाव एक और महीने के लिए टाल दिया गया है. (dw.com)
अफगान महिलाओं के एक समूह ने संयुक्त राष्ट्र से अपील की है कि वो तालिबान को संस्था के अंदर ना आने दे. तालिबान चाह रहा है कि उसके प्रवक्ता सुहैल शाहीन को संयुक्त राष्ट्र में उसके राजदूत के रूप में मान्यता दी जाए.
अफगान महिलाओं का यह समूह यह अपील ले कर न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय गया हुआ है. वहां महिलाओं ने संस्था से अपील की उनके देश को संस्था में बेहतर प्रतिनिधित्व की जरूरत है.
अफगानिस्तान की पूर्व राजनेता और शांति वार्ताकार फौजिया कूफी ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के बाहर पत्रकारों को बताया, "यह बहुत ही सीधी बात है. संयुक्त राष्ट्र को यह सीट उसी को देनी चाहिए जो अफगानिस्तान में सबके अधिकारों का सम्मान करता हो."
तालिबान ने तोड़ा वादा
अफगान महिलाओं के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, "हमारे बारे में बातें बहुत होती हैं, लेकिन हमारी आवाज सुनी नहीं जाती." उन्होंने यह भी कहा, "मदद, पैसा, मान्यता - यह सब वो चीजें हैं जिनका लाभ उठा कर दुनिया को समावेश, महिलाओं के अधिकारों के सम्मान और सभी के अधिकारों के सम्मान की बात करनी चाहिए."
कूफी के साथ पूर्व राजनेता नाहिद फरीद, पूर्व राजनयिक असीला वरदक और पत्रकार अनीसा शाहीद भी थीं. फरीद ने कहा, "जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया था तब उन्होंने कहा था कि वो महिलाओं को नौकरी करने की, स्कूल में पढ़ने की इजाजत देंगे लेकिन उन्होंने अपना वादा तोड़ दिया."
अगस्त में सत्ता हथियाने के बाद तालिबान के नेताओं ने वचन दिया है कि वो इस्लामिक कानून शरिया के मुताबिक महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करेंगे.
लेकिन 1996 से 2001 के बीच तालिबान के शासन के दौरान महिलाओं काम नहीं कर सकती थीं और लड़कियों के स्कूल जाने पर प्रतिबंध था. महिलाओं को घर से बाहर निकलने पर अपने चेहरे ढक लेने होते थे और एक पुरुष रिश्तेदार को साथ रखना होता था.
मिल जाएगी संयुक्त राष्ट्र में सीट?
संयुक्त राष्ट्र इस समय अफगानिस्तान के प्रतिनिधित्व को लेकर प्रतियोगी दावों पर विचार कर रहा है. तालिबान ने दोहा में रहने वाले उसके प्रवक्ता सुहैल शाहीन को संयुक्त राष्ट्र में राजदूत के लिए मनोनीत किया है जबकि तालिबान द्वारा हटाई गई सरकार के संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधि गुलाम इसकजाई ने पद पर रहने का दावा किया है.
संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को साल के अंत तक इस पर फैसला लेना है. वरदक ने सदस्य देशों से कहा कि वो तालिबान पर दबाव डालें कि वो महिलाओं के अधिकारों के विषय में "अपनी कथनी को करनी में बदले". उन्होंने यह भी कहा, "अगर आप उन्हें सीट देने वाले हैं तो उनके सामने शर्तें रखें."
ये महिलाएं पत्रकारों से संयुक्त राष्ट्र एक आयोजन के पहले बात कर रही थीं जिसमें अफगान महिलाओं और लड़कियों के लिए समर्थन पर बात होनी है. इस बैठक का आयोजन ब्रिटेन, कतर, कनाडा, यूएन वीमेन और जॉर्जटाउन इंस्टीट्यूट फॉर वीमेन, पीस एंड सिक्योरिटी ने किया है. महिलाएं, शांति और समृद्धि पर चर्चा करने के लिए सुरक्षा परिषद की भी अलग से बैठक हुई.
15 सदस्यीय परिषद को इसकजाई ने बताया, "अफगानिस्तान की महिलाओं और लड़कियों ने इसी परिषद और संस्था से अपनी उम्मीदें और सपने बांधे हुए हैं कि वो काम करने, यात्रा करने और स्कूल जाने के अधिकार फिर से हासिल करने में उनकी मदद करेंगे." उन्होंने कहा, "अगर हम कुछ नहीं कर पाए और उन्हें निराश कर दिया तो यह नैतिक रूप से निंदनीय होगा."
सीके/एए (रॉयटर्स)
भारत दुनिया के उन 11 देशों में से एक है जिन पर अमेरिकी इंटेलिजेंस एजेंसियों की नजर है. एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका मान रहा है कि इन देशों पर जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ा कहर बरपा सकता है.
भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान 11 देशों की इस सूची में शामिल हैं. यह सूची ऐसे देशों की है जिन पर जलवायु परिवर्तन का बेहद बुरा असर पड़ सकता है. अमेरिकी एजेंसियों के मुताबिक ये देश जलवायु परिवर्तन के कारण आने वालीं प्राकृतिक और सामाजिक आपदाओं को झेलने के लिए तैयार नहीं हैं.
ऑफिस ऑफ डायरेक्टर ऑफ नेशनल इंटेलिजेंस (ओडीएनआई) की ताजा रिपोर्ट ‘नेशनल इंटेलिजेंस एस्टीमेट' में पूर्वानुमान जाहिर किया गया है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण 2040 तक भू-राजनीतिक तनाव बढ़ेंगे जिसका अमेरिका की सुरक्षा पर भी असर होगा.
ये पूर्वानुमान अमेरिका की विभिन्न जासूसी एजेंसियों द्वारा जाहिर किए गए हैं. गुरुवार को जारी हुई रिपोर्ट में 11 देशों को लेकर विशेष चिंता जाहिर की गई है. इनमें अफगानिस्तान, भारत और पाकिस्तान के अलावा म्यांमार, इराक, उत्तर कोरिया, ग्वाटेमाला, हैती, होंडूरास, निकारागुआ और कोलंबिया भी शामिल हैं. ओडीएनआई की इस रिपोर्ट का कुछ हिस्सा सार्वजनिक किया गया है.
दक्षिण एशिया में युद्धों का खतरा
रिपोर्ट कहती है कि गर्मी, सूखा, पानी की कमी और प्रभावहीन सरकार के कारण अफगानिस्तान की स्थिति काफी चिंताजनक है. भारत और बाकी दक्षिण एशिया में पानी की कमी के कारण विवाद उभर सकते हैं.
यह तनाव इन देशों के बीच गंभीर विवाद में बदल सकता है. जैसे कि दक्षिण एशिया में पाकिस्तान अपने भूजल के लिए भारत से निकलती नदियों पर निर्भर रहता है. दोनों परमाणु संपन्न देश 1947 में आजाद होने के बाद से कई युद्ध लड़ चुके हैं.
भारत के दूसरी तरफ बांग्लादेश की कुल आबादी 16 करोड़ का लगभग 10 प्रतिशत पहले ही ऐसे तटीय इलाकों में रह रहा है जो समुद्र का जल स्तर बढ़ने के सबसे ज्यादा खतरे में हैं.
रिपोर्ट का अनुमान है कि बढ़ता तापमान दक्षिण अमेरिका, दक्षिण एशिया और अफ्रीका के सहारा क्षेत्र की तीन प्रतिशत आबादी यानी करीब 14.3 करोड़ लोगों को अगले तीन दशक में ही विस्थापित कर सकता है. ये लोग दूसरे देशों की ओर पलायन करेंगे.
नए विवाद उभरने की आशंका
रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी एजेंसियां दो और क्षेत्रों को लेकर चिंतित हैं. रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के कारण "मध्य अफ्रीका और प्रशांत महासागर के छोटे छोटे द्वीपों” को लेकर विशेष चिंता जताई गई है और कहा गया है कि ये दुनिया के दो सबसे ज्यादा खतरे वाले इलाकों में शामिल हैं.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए अपनाई जा रही रणनीतियों में काफी अंतर है. रिपोर्ट कहती है कि जो देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं के लिए जीवाश्म ईंधनों के निर्यात पर निर्भर हैं वे "जीरो कार्बन संसार की ओर अग्रसर होने का विरोध करते रहेंगे क्योंकि वे ऐसा करने की आर्थिक, राजनीतिक या भू-राजनीतिक कीमत से डरते हैं.”
आर्कटिक और गैर-आर्कटिक देशों के बीच बढ़ते रणनीतिक संकट को भी एक खतरे के तौर पर पेश किया गया है. रिपोर्ट कहती है कि इन दो पक्षों के बीच "निश्चित तौर पर प्रतिद्वन्द्विता बढ़ेगी क्योंकि तापमान बढ़ने और बर्फ कम होने से पहुंच आसान हो जाएगी.”
इस रिपोर्ट में अनुमान जाहिर किया गया है कि आर्कटिक क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वन्द्विता मोटे तौर पर आर्थिक होगी लेकिन "गलत गणना का खतरा 2040 तक मध्यम रूप से बढ़ेगा क्योंकि व्यावयसायिक और सैन्य गतिविधियां बढ़ेंगी और अवसरों के लिए ज्यादा संघर्ष होगा.”
अभी बनानी होंगी नीतियां
अमेरिकी एजेंसियां वर्षों से जलवायु परिवर्तन को अपने देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताती रही हैं लेकिन इस रिपोर्ट में पहली बार क्षेत्रों को साफ तौर पर चिन्हित किया गया है. एक अन्य रिपोर्ट में ऐसे उपाय खोजे जा रहे हैं जिनके जरिए ऐसे लोगों पर नजर रखी जा सके जो जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापन को मजबूर होंगे.
संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी उच्चायोग के मुताबिक हर साल तूफान, मौसमी बारिश और औचक प्राकृतिक आपदाओं के कारण दुनियाभर के औसतन करीब दो करोड़ 15 लाख लोग विस्थापित होते हैं. रिपोर्ट कहती है, "आज और आने वाले सालों में बनाई गईं नीतियां और योजनाएं जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों के कारण विस्थापित हो रहे लोगों के अनुमान को प्रभावित करेंगी.”
अमेरिकी जासूसी एजेंसियों का निष्कर्ष है कि हमारे ग्रह को पैरिस समझौते में तय की गई तापमान की सीमा के अंदर रखने में संभवतया पहले ही देर हो चुकी है. यूं तो अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र दोनों का आधिकारिक लक्ष्य वही 1.5 डिग्री सेल्सियस है, लेकिन बहुत से वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि तापमान इससे ज्यादा बढ़ेगा और भारी विनाश लेकर आएगा.
वीके/सीके (रॉयटर्स, एपी)