अंतरराष्ट्रीय
एटा (उप्र), 6 जून | उत्तर प्रदेश के एटा जिले से एक चौंकाने वाली घटना सामने आई है, जिसमें एक दुल्हन को ब्याहने दो-दो दूल्हे मंडप पर पहुंच गए। दुल्हन ने एक को वरमाला पहनाई, तो दूसरे संग विदा हुई। यह घटना एटा जिले के कोतवाली देहात थाना क्षेत्र के सिरों गांव की है।
शादी के बाद दूसरे दूल्हे के साथ विदा होते ही पहले दूल्हे व उसके परिवारवालों ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। मामले को तूल पकड़ता देख पुलिस को बीच में आना पड़ा।
पुलिस अधिकारी अब लड़की के पिता और चाचा को हिरासत में लेकर पूछताछ कर रहे हैं। पुलिस ने दूसरे दूल्हे के परिजनों को भी गिरफ्तार कर लिया है और मामले की जांच कर रही है।
वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इनकार करते हुए कहा कि यह अभी भी जांच के दायरे में है।(आईएएनएस)
अरुल लुईस
न्यूयॉर्क, 6 जून | भारत के खिलाफ अमेरिकी टैरिफ वॉर को राष्ट्रपति जो बाइडन ने फिर से मजबूती दी है। नई दिल्ली द्वारा दिग्गज तकनीकी कंपनियों पर डिजिटल सेवा कर (डीएस) लगाने के प्रतिशोध में बाइडन ने झींगा और बासमती चावल से लेकर फर्नीचर और आभूषणों तक कई वस्तुओं के आयातों पर आयात शुल्क बढ़ाने की धमकी दी है।
अमेरिका की व्यापार प्रतिनिधि कैथरीन ताई ने 2 जून को इस योजना की घोषणा की, जिसके तहत उन्होंने बताया कि भारत से 26 वस्तुओं की टैरिफ में 25 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा की जा रही है और यह बढ़ोत्तरी दिसंबर तक जारी रहेगी।
भारत ने पिछले साल अप्रैल की शुरूआत में अमेजन, फेसबुक और गूगल जैसे विदेशी तकनीकि और ई-कॉमर्स कंपनियों द्वारा देश में की जा रही कमाई पर दो प्रतिशत टैक्स लगा दिया था। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन ने इसका विरोध किया था और अब बाइडेन ने मोर्चा संभाल लिया है।
व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय ने कहा था, भारत का डीएसटी अनुचित व भेदभावपूर्ण है और अमेरिकी वाणिज्य पर बोझ या प्रतिबंध लगाता है।
कार्यालय ने इस बात का अनुमान लगाया था कि भारत से चयनित आयातों पर बढ़ा हुआ कर डीएसटी के तहत अमेरिकी कंपनियों पर भारत द्वारा निर्धारित करों के बराबर होगा।
अनुमानों से इसका संकेत मिलता है कि यूएस-आधारित कंपनी समूहों द्वारा भारत को देय डीएसटी का मूल्य प्रति वर्ष लगभग 5.5 करोड़ डॉलर तक होगा। इस कार्रवाई के तहत पांच तरह के सामानों को शामिल किया गया है। अनुमान है कि इससे भारत के सामनों पर लगाए गए टैरिफ से प्राप्त राशि भारत द्वारा निर्धारित करों की राशि के बराबर होगा।
अन्य सामानों में बांस, विंडो शटर, सिगरेट पेपर, मोती, तांबे की पन्नी और बेडरूम फर्नीचर शामिल हैं।
व्यापार युद्धों के नए चरण का उद्घाटन करते हुए बाइडन प्रशासन ने अपने डीएसटी पर पांच अन्य देशों - ब्रिटेन, ऑस्ट्रिया, इटली, स्पेन और तुर्की को भी आयात पर शुल्क बढ़ाने की भी धमकी दी। (आईएएनएस)
कोलम्बो, 6 जून | बीते दो दिनों से जारी भारी बारिश और उसके बाद भूस्खलन की घटनाओं के कारण श्रीलंका में कम से कम 14 लोगों की मौत हो गई है जबकि इससे 2.5 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। अधिकारियों ने रविवार को कहा कि मौसम का रौद्र रूप जारी रहेगा और इसे लेकर लोगों के बीच अलर्ट जारी कर दिया गया है।
आपदा प्रबंधन केंद्र के अधिकारी ने कहा कि दक्षिण पश्चिम मानसून के कारण देश के पश्चिमी, दक्षिणणी और मध्य भाग में जोरदार बारिश हो रही है और इसी के कारण भूस्खलन की घटनाएं भी हो रही हैं।
शनिवार को कोलम्बो से 90 किलोमीटर पूर्व में स्थित अरान्याका में भूस्खलन से एक ही परिवार के चार लोगों की मौत हो गई। ये सब भूस्खलन के कारण मिट्टी में दब गए थे।
इसी तरह बाकी के लोग या तो भूस्खलन में मारे गए या फिर पानी के प्रवाह में बह गए।
अधिकारी ने कहा कि पूरे इलाके से तकरीबन 2 लाख लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है।(आईएएनएस)
पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्लाह मोहिब की टिप्पणियों के जवाब में इमरान ख़ान हुकूमत के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने शनिवार को कहा कि उन्हें अपनी भाषा में सुधार लाना चाहिए.
पाकिस्तानी अख़बार 'डॉन' के मुताबिक़ मुल्तान में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक सभा को संबोधित करते हुए शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा, "अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कान खोलकर मेरी बात सुन लो...."
"अगर तुम ऐसी जुबान का इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आए या पाकिस्तान पर जो इलज़ाम तुम लगा रहे हो, जो तुम कर रहे हो, तो पाकिस्तान के विदेश मंत्री की हैसियत से मैं कह रहा हूँ कि कोई पाकिस्तानी न तुम से हाथ मिलाएगा और न ही तुम से बात करेगा."
शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा कि पाकिस्तान ने चरमपंथ की वजह से जान-माल की बड़ी क़ीमत चुकाई है. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान इस इलाक़े में केवल शांति और स्थिरता चाहता है.
'वॉइस ऑफ़ अमेरिका' की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मई की शुरुआत में नंगरहार सूबे के दौरे पर थे जहाँ उन्होंने पाकिस्तान को 'चकलाघर' कहा था.
अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्लाह मोहिब
अफ़ग़ानिस्तान एनएसए के भाषण पर प्रतिक्रिया
रिपोर्ट के मुताबिक़ हमदुल्लाह मोहिब पाकिस्तान पर अक्सर ही अफ़ग़ान तालिबान को समर्थन और मदद देने का आरोप लगाते रहे हैं.
शाह महमूद क़ुरैशी ने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि पाकिस्तान की तरफ़ से प्रधानमंत्री और सेना-प्रमुख से लेकर विदेश मंत्री तक अमन के लिए काबुल का दौरा करते रहे हैं लेकिन इसके बावजूद अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को पाकिस्तान को 'चकलाघर' कहते हैं.
क़ुरैशी ने अफ़ग़ानिस्तान के एनएसए पर तमतमाते हुए कहा, "तुम को इस बात पर शर्म आनी चाहिए. कोई कहे या न कहे लेकिन जब से मैंने नंगरहार में तुम्हारी तक़रीर सुनी है, मेरा तो ख़ून खौल रहा है. डंके की चोट पर कह रहा हूँ, अपना रवैया सुधार लो."
"मैं ये बात अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से भी कहना चाहूँगा कि अगर यही बर्ताव जारी रहता है तो ये आदमी जो ख़ुद को अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कहता है, तो ये अमन का माहौल बिगाड़ने वाला काम कर रहा है."
उन्होंने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान एनएसए अमन की राह में बाधाएं खड़ी कर रहे हैं. वे इसमें सुधार करने के बजाय हालात बिगाड़ रहे हैं. इसलिए अफ़ग़ानिस्तान और उसके अमनपसंद समझदार नागरिकों को उनसे अपील करनी चाहिए कि वे अपना बर्ताव ठीक कर लें.
अफ़ग़ानिस्तान का जवाब
शाह महमूद क़ुरैशी ये बात पहले भी उठाते रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में ऐसे लोग मौजूद हैं जो अमन की राह में रोड़ा अटका रहे हैं.
अफ़ग़ानिस्तान की न्यूज़ वेबसाइट 'टोलो न्यूज़' की रिपोर्ट के अनुसार इसी हफ़्ते यूरोपीय संघ की संसद को एक वर्चुअल संबोधन के दौरान उन्होंने ये बात कही थी. उसके बाद इसी हफ़्ते इस्लामाबाद में तजाकिस्तान के राष्ट्रपति इमोमाली रहमान के साथ मुलाक़ात में उन्होंने ये आरोप फिर से लगाया था.
उन्होंने कहा था, "अफ़ग़ानिस्तान के अंदर और बाहर ऐसे लोग हैं जो शांति और सुरक्षा नहीं चाहते हैं. हमें ऐसे काम बिगाड़ने वाले लोगों से सतर्क रहना चाहिए."
इस पर अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने जवाब देते हुए कहा कि अमन के दुश्मन वे लोग हैं जिन्होंने हिंसा जारी रखकर अफ़ग़ानिस्तान की आवाम और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की अपील को ठुकराया है.
"इस नाज़ुक मोड़ पर इलज़ाम लगाने से कुछ भी अच्छा नहीं होने वाला है. अफ़ग़ानिस्तान में अमन इस क्षेत्र के मुल्कों ख़ासकर पाकिस्तान के हित में है. सार्थक शांति वार्ता शुरू करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के लोग और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी पाकिस्तान से व्यावहारिक क़दम की उम्मीद रखते हैं."
अफ़ग़ानिस्तान के सांसद नेमतुल्लाह कारयाब ने कहा, "पाकिस्तान के विदेश मंत्री का हालिया बयान अफ़ग़ानिस्तान के अंदरूनी मामलों में साफ़ तौर पर दखलंदाज़ी है."
शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा कि वे अगले साल मार्च में कश्मीर के मुद्दे पर बात करने के लिए मुस्लिम देशों के विदेश मंत्रियों को इस्लामाबाद बुलाएंगे.
पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र में फ़लस्तीन का मुद्दा उठाते वक़्त उन्होंने कश्मीरियों और फ़लस्तीनियों की मांग के बीच समानता की याद दिलाई थी.
क़ुरैशी ने कहा, "मैं ये वादा करता हूं कि मैंने जिस तरह से फ़लस्तीनियों के लिए लड़ा हूँ, अगर ख़ुदा ने वक्त दिया तो मार्च, 2022 में इस्लामिक जगत के विदेश मंत्रियों को इस्लामाबाद बुलाऊंगा और उनके सामने कश्मीर का मुद्दा रखेंगे. कश्मीरियों का मु्द्दा सच और इंसाफ़ का है जो उनके सामने रखा जाएगा."
अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सैनिकों की वापसी
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की है कि अफ़ग़ानिस्तान में तैनात सभी अमेरिकी सैनिक सितंबर की 11 तारीख़ तक लौट जाएंगे. टोलो न्यूज़ के अनुसार इमरान ख़ान चाहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सैनिकों के जाने से पहले कोई शांति समझौता हो जाए. अमेरिका की इस डेडलाइन पर पाकिस्तान की नज़र है. पाकिस्तान का कहना है कि अमेरिकी सैनिकों के वापस जाने को अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया से जोड़ा जाना चाहिए.
बीस साल यहाँ रहने के बाद अमेरिकी और ब्रिटिश सेना अफ़ग़ानिस्तान छोड़ रहीं हैं. अप्रैल में राष्ट्रपति बाइडन ने घोषणा की थी कि बचे हुए 2,500-3,500 अमेरिकी सैनिक 11 सितंबर तक वापस चले जाएंगे. ब्रिटेन भी अपने बचे हुए 750 सैनिकों को वापस बुला रहा है.
अल-क़ायदा ने अमेरिका पर 9/11 हमले को अफ़ग़ानिस्तान की धरती से अंजाम दिया था. उसके बाद अमेरिका के नेतृत्व में योजनाबद्ध तरीक़े से वहां से तालिबान को सत्ता से हटाया गया और अस्थायी रूप से अल-क़ायदा को बाहर किया गया.
20 साल तक सेना को बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी है- पैसों और ज़िदगियों से. अमेरिकी सेना के 2300 से ज़्य़ादा पुरुष और महिलाओं को जान गंवानी पड़ी और 20,000 से ज़्यादा घायल हुए. इसके अलावा ब्रिटेन के 450 सैनिकों समेत दूसरे देशों के सैंकड़ों सैनिक मारे गए या घायल हुए.
लेकिन सबसे ज़्यादा नुकसान अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को हुआ है. उनके 60,000 से अधिक सुरक्षाकर्मी इस दौरान मारे गए और इससे दोगुनी संख्या में नागरिक की जान गई.
अमेरिकी सैनिकों के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने का फ़ैसला अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा में 2020 में हुई संधि के बाद आया था.
इसकी आधिकारिक घोषणा इसी साल अप्रैल में हुई, जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि 11 सितंबर तक अमेरिकी सैनिक लौट आएंगे.
11 सितंबर, 2021 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले की 20वीं बरसी भी है. इस हमले के बाद ही अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया था. (bbc.com)
बीजिंग, 6 जून : चीन ने 3 से 17 साल तक की उम्र के बच्चों के लिए सिनोवैक बायोटेक की वैक्सीन के इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी दे दी है. चीन, तीन साल की उम्र के बच्चों के लिए वैक्सीन की मंजूरी देने वाला पहला देश बन गया. वहां अबतक 18 वर्ष और उससे अधिक उम्र के लोगों को ही वैक्सीन लगाई जा रही थी.
एक ऑफिशियल स्टेटमेंट में सिनोवैक बायोटेक के चेयरमैन यिन वेइदोंग ने शुक्रवार को इस फैसले की जानकारी दी. सरकार ने अभी तक इसकी जानकारी नही दी है कि बच्चों का टीकाकरण कब से शुरू किया जाएगा. स्थानीय मीडिया ने यिन के हवाले से कहा है कि वैक्सीन कब से लगाई जाएगी, यह चीन की टीकाकरण रणनीति तैयार करने वाले स्वास्थ्य अधिकारियों पर निर्भर करता है.
ट्रायल में सेफ और सुरक्षित पाई गई वैक्सीन
पहले और दूसरे फेज के क्लीनिकल ट्रायल के प्रारंभिक रिजल्ट में वैक्सीन को सेफ और सुरक्षित पाया गया है और इसके प्रतिकूल प्रभाव अब तक माइल्ड रहे हैं. यिन ने कहा कि ट्रायल के दौरान प्रतिभागियों ने अपने दो रेगुलर शॉट देने के बाद तीसरी बूस्टर डोज दी गई. इसके परिणामस्वरूप एक सप्ताह में एंटीबॉडी के स्तर में 10 गुना और 15 दिन महीने में 20 गुना वृद्धि हुई. उन्होंने कहा कि कंपनी तीन डोज का टेस्ट और एंटीबॉडी अवधि का निरीक्षण करना जारी रखेगी और इसके बाद ही सिफारिश करेगी कि तीसरी डोज कब दी जानी चाहिए।
सिनोफार्म ने भी बच्चों के लिए वैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की मांगी अनुमति
सिनोवैक के बाद सिनोफार्म ने भी सरकार से बच्चों के लिए अपनी वैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति मांगी है. एक और कंपनी कैनसिनो बायोलॉजिक्स भी 6 से 17 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए वैक्सीन बना रही है और इसके दूसरे फेज के ट्रायल चल रहे हैं.
केवल पांच दिन में लगाए 10 करोड़ टीके
इस बीच, चीन में टीकाकरण अभियान तेज किया गया है. केवल पांच दिनों में 10 करोड़ वैक्सीन लगाई गई हैं. चीन के स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा है कि उनका लक्ष्य साल के अंत तक 1.4 अरब की आबादी में से 80 फीसदी लोगों को टीका लगाने का है.
वाशिंगटन, 6 जून| पूरे विश्व में कोरोना के मामले बढ़कर 17.28 करोड़ हो गए हैं। इस महामारी से अब तक कुल 37.1 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई हैं। यह आंकड़े जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय ने साझा किए हैं। रविवार की सुबह अपने नवीनतम अपडेट में, यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिस्टम साइंस एंड इंजीनियरिंग (सीएसएसई) ने खुलासा किया कि वर्तमान में पूरे विश्व में मामले और मरने वालों की संख्या क्रमश: 172,859,512 और 3,718,408 है।
सीएसएसई के अनुसार, दुनिया में सबसे ज्यादा मामलों और मौतों की संख्या क्रमश: 33,357,080 और 597,377 के साथ अमेरिका सबसे ज्यादा प्रभावित देश बना हुआ है।
कोरोना संक्रमण के मामले में भारत 28,694,879 मामलों के साथ दूसरे स्थान पर है।
सीएसएसई के आंकड़े के मुताबिक
30 लाख से ज्यादा मामलों वाले अन्य सबसे खराब प्रभावित देश ब्राजील (16,907,425), फ्रांस (5,769,291), तुर्की (5,282,594), रूस (5,058,221), यूके (4,527,577), इटली (4,230,153), अर्जेंटीना (3,939,024), जर्मनी (3,706,934) , स्पेन (3,697,981) और कोलंबिया (3,547,017) हैं।
कोरोना से हुई मौतों के मामले में ब्राजील 472,531 संख्या के साथ दूसरे नंबर पर है।
भारत (344,082), मैक्सिको (228,568), यूके (128,099), इटली (126,472), रूस (121,365) और फ्रांस (110,135) में 100,000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। (आईएएनएस)
ग़ज़ा में हमास के नेता याह्या सिनवार ने दावा किया है कि इसराइल उन सुरंगों के जाल को तबाह करने में नाकाम रहा है जिन्हें पिछले महीने हुई लड़ाई में बर्बाद करना उसका प्रमुख मक़सद था.
इसराइल में इन सुरंगों के नेटवर्क को मेट्रो कहा जाता है.
शनिवार को दिए एक भाषण में हमास नेता याह्या सिनवार ने कहा कि इसराइल इन सुरंगों के नेटवर्क का तीन फीसदी से भी कम हिस्सा बर्बाद कर पाया है.
हमास के अख़बार 'फ़लस्तीन' की वेबसाइट पर पांच जून को प्रकाशित हुई रिपोर्ट के मुताबिक़ ग़ज़ा में अकादमिक और सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, "इसराइल के साथ 11 दिनों तक चली लड़ाई हमास के लिए अपनी सैन्य क्षमताओं को आज़माने का मौका था."
याह्या सिनवार ने ये भी कहा कि इसराइल के साथ रिश्ते सुधारने के लिए अरब देशों की ओर से बढ़ाए गए क़दम के कारण भी तेल अवीव का ग़ज़ा पर हमला करने का हौंसला बढ़ा.
'मध्य पूर्व का नक़्शा बदल जाएगा'
उन्होंने कहा कि हमास ने फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन को फिर से संगठित करने का हक़ जीत लिया है. अब इसमें हमास और इस्लामिक जिहाद समेत सभी फ़लस्तीनी धड़ों को नुमाइंदगी करने का हक़ मिलेगा.
उन्होंने कहा, "अगर इसराइल के साथ दोबारा संघर्ष शुरू होता है तो मध्य-पूर्व का नक़्शा बदल जाएगा."
"ग़ज़ा में सक्रिय फ़लस्तीनी गुटों ने इसराइल के साथ ताज़ा दौर के संघर्ष में केवल अपनी आधी ही ताक़त का इस्तेमाल किया था. दुश्मन यरूशलम और शेख जर्राह की हकीकत को नहीं बदल सकेगा. और न ही वो फ़लस्तीनियों के आपसी मतभेद का फायदा उठा सकेगा."
उन्होंने कहा, "हमने दुश्मन के सामने ये साबित कर दिया है कि अल-अक़्सा मस्जिद की रक्षा करने वाले लोग हैं और ये रणनीतिक मक़सद फ़लस्तीनियों ने हासिल कर लिया है. वेस्ट बैंक और इसराइली अरबों के खड़े होने से उन पर बहुत दबाव पड़ा है."
'इसराइल को दिखाया कि छोटे स्तर का युद्ध कैसा होता है'
सिनवार ने कहा, "इसराइल का मक़सद 50 फीसदी प्रतिरोधियों की हत्या करने का और ग़ज़ा को दशकों पीछे ले जाने का था लेकिन सिर्फ़ शून्य हासिल हुआ."
उन्होंने कहा, "समुद्र में हमने अपनी मिसाइलों का कई बार परीक्षण किया है और यह ज़रूरी है कि हम उसका अभ्यास करते रहें. यह सिर्फ़ हमारी क्षमताओं का अभ्यास था और इसराइल को दिखाना था कि एक छोटे स्तर का युद्ध कैसा हो सकता है."
ग़ज़ा के पुनर्निर्माण को लेकर सिनवार ने कहा, "हम हर उस पक्ष के लिए दरवाज़े खोलेंगे जो ग़ज़ा का समर्थन करना चाहता है और उनके काम को सुविधाजनक बनाएंगे."
उन्होंने कहा, "ग़ज़ा के पुनर्निर्माण के लिए आवंटित किए गए पैसे का इस्तेमाल हमास और प्रतिरोध के लिए नहीं होगा और हम किसी भी पक्ष को ग़ज़ा को कमज़ोर करने की अनुमति नहीं देंगे."
21 मई को इसराइल और ग़ज़ा में फ़लस्तीनी धड़े के बीच संघर्ष विराम हुआ था. यह संघर्ष 11 दिनों तक चला था जिसमें ग़ज़ा में 250 से अधिक लोग मारे गए थे.
हालिया संघर्ष यरूशलम में अल-अक़्सा मस्जिद कंपाउंड में हुई हिंसा और शेख़ जर्राह से फ़लस्तीनी परिवारों को निकालने की योजना के बाद शुरू हुआ था. (bbc.com)
बुरकिना फासो सरकार का कहना है कि देश के उत्तरी इलाक़े में बसे याघा प्रांत के एक गाँव में हुए हमले में 132 से अधिक लोगों की मौत हो गई है. मारे जाने वालों में सात बच्चे भी शामिल हैं.
सरकार ने कहा है कि हाल के सालों में हुआ यह सबसे भयंकर हमला है.
रात को बंदूकधारियों ने याघा प्रांत के साहेल इलाक़े के सोलान नामक गाँव पर हमला किया. इस दौरान उन्होंने घरों और स्थानीय बाज़ारों को आग के हवाले कर दिया.
अब तक किसी भी चरमपंथी समूह ने इस हमले की ज़िम्मेदारी नहीं ली है, लेकिन हाल के वर्षों में देश के सीमावर्ती इलाकों, ख़ासकर नाइजर और माली से लगे इलाक़ों में इस्लामी चरमपंथी समूहों के हमले बढ़े हैं.
संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटेरेश ने इस हमले की निंदा की और आक्रोश व्यक्त किया है.
उन्होंने कहा, "मैं कड़े से कड़े शब्दों में इस जघन्य हमले की निंदा करता हूँ. अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए कि वो हिंसक चरमपंथ और इसके कारण हो रही मौतों से जूझने के लिए अपने सदस्य देश को दी जाने वाली मदद जल्द से जल्द दोगुनी करें."
एक ट्वीट में उन्होंने कहा, "बुरी ताक़तों के ख़िलाफ़ हमें एक साथ डटकर खड़े रहना होगा." उन्होंने कहा कि सुरक्षाबल हमलावरों की तलाश में जुटे हैं.
शुक्रवार को एक अन्य हमले में सोलान शहर से 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तदरयात गाँव के 14 लोग मारे गए थे.
वहीं बुरकिना फासो के पूर्वी इलाक़े में पिछले महीने हुए एक और बड़े हमले में 30 लोगों की मौत हुई थी. (bbc.com)
बांग्लादेश ने अपने ई-पासपोर्ट से ‘इस्राएल को छोड़कर’ हिस्सा हटा दिया है, लेकिन वह इस्राएल की मान्यता पर अपने पुराने रुख पर कायम है. कई लोग अब ये पूछ रहे हैं कि क्या बांग्लादेश के नागरिक इस्राएल की यात्रा कर सकते हैं.
डॉयचे वैले पर अराफातुल इस्लाम की रिपोर्ट
नए बांग्लादेशी ई-पासपोर्ट से ‘इस्राएल को छोड़कर' हटाने के बाद यह बहस तेज हो गई है कि क्या यह देश इस्राएल के साथ अपने संबंधों को सामान्य कर सकता है और बांग्लादेशी नागरिकों के मध्य पूर्व देश में जाने का रास्ता साफ कर सकता है. बांग्लादेश के पुराने पासपोर्ट पर लिखा होता था, "यह पासपोर्ट इस्राएल को छोड़कर दुनिया के सभी देशों के लिए मान्य है.” हालांकि, जब करीब छह महीने पहले बांगलादेश ने इलेक्ट्रोनिक चिप वाले अपना ई-पासपोर्ट लॉन्च किया, तब उसमें ‘इस्राएल को छोड़कर' वाक्यांश शामिल नहीं था. ऐसा करने से पहले सरकार ने किसी तरह की सूचना भी जारी नहीं की थी.
बदलाव की यह खबर जंगल में आग की तरह उस समय फैली जब दो बांग्लादेशी नागरिकों ने दावा किया कि उन्हें दो हफ्ते पहले "यह पासपोर्ट दुनिया के सभी देशों के लिए मान्य है" लिखा हुआ पासपोर्ट मिला है. इस पूरे मामले पर बांग्लादेश के गृह मंत्री असदुज्जमां खान कमाल ने जल्द ही बदलाव को स्वीकार करते हुए कहा कि उनकी सरकार ने "इस्राएल को छोड़कर" वाक्यांश को हटा दिया, ताकि यह पक्का हो सके कि यह पासपोर्ट "अंतर्राष्ट्रीय मानकों" को पूरा करता है.
इस्राएल के विदेश मंत्रालय में पब्लिक इंक्वायरी डिवीजन की प्रमुख रूथ जाख ने बांग्लादेश के इस कदम की सराहना की है. उन्होंने डॉयचे वेले को बताया, "इस्राएल बांग्लादेशी पासपोर्ट से 'इस्राएल को छोड़कर' वाक्यांश हटाने का स्वागत करता है.”
इस्राएल के विदेश मंत्रालय में एशिया और प्रशांत क्षेत्र के उप महानिदेशक गिलाद कोहेन ने भी इस बदलाव का स्वागत किया. साथ ही, उन्होंने बांग्लादेशी सरकार से आगे बढ़ने और इस्राएल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने का आह्वान किया.
बांग्लादेश का इस्राएल से सामान्य संबंधों से इनकार
पासपोर्ट से ‘इस्राएल को छोड़कर' वाक्यांश हटाने के फैसले से कई लोग हैरान रह गए. वजह ये है कि बांग्लादेश इस्राएल को एक देश के तौर पर मान्यता नहीं देता है और दशकों से अपने नागरिकों को वहां जाने पर रोक लगा रखा है. 1971 में पाकिस्तान से अलग होकर एक स्वतंत्र मुल्क बनने के बाद से बांग्लादेश ने सिर्फ फलस्तीन को एक देश के तौर पर मान्यता दी है. बांग्लादेश ने कहा है कि वह तब तक इस्राएल को मान्यता नहीं देगा जब तक कि फलस्तीन एक आजाद मुल्क नहीं बन जाता.
बांग्लादेश का कहना है कि वह "1967 से पहले की सीमाओं और पूर्वी यरुशलम को फलस्तीन की राजधानी के रूप में मान्यता देने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के आलोक में फलस्तीन-इस्राएल संघर्ष के ‘दो देशों वाले समाधान' का समर्थन करता है."
पिछले मई महीने में ही इस्राएल और हमास के बीच 11 दिनों तक चले संघर्ष के दौरान फलस्तीनी एनक्लेव गजा में काफी ज्यादा हवाई हमले हुए. इस्राएल की बमबारी में 232 फलस्तीनी मारे गए जिनमें 65 बच्चे और तीन दर्जन से अधिक महिलाएं शामिल हैं. हमास सशस्त्र फलस्तीनी आतंकवादी समूह है जिसे यूरोपीय संघ और अमेरिका ने आतंकवादी संगठन के तौर पर वर्गीकृत किया है. इससे पहले इस्राएल और हमास के बीच 2014 में 50 दिनों तक भीषण संघर्ष हुआ था.
बांग्लादेश में फलस्तीनी प्राधिकरण के राजदूत यूसेफ रमदान ने स्थानीय मीडिया को बताया कि वह पासपोर्ट में इस्राएल को बाहर न करने के बांग्लादेश के कदम से "दुखी" हैं. उन्होंने कहा, "यह हमारे लिए स्वीकार्य नहीं हो सकता.” हालांकि, बांग्लादेश ने इस्राएल के साथ अपने संबंधों को सामान्य बनाने की योजना से इनकार किया है. साथ ही कहा है कि इस्राएल को लेकर उसकी विदेश नीति में कोई बदलाव नहीं आया है. यात्रा पर लगी रोक जारी रहेगी.
बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमेन ने कहा, "कोई भी बांग्लादेशी नागरिक इस्राएल की यात्रा नहीं कर सकता है. अगर कोई ऐसा करता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी.” मोमेन ने कहा कि ई-पासपोर्ट में बदलाव सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रखते हुए किया गया है. मंत्री ने कहा, "पासपोर्ट सिर्फ एक पहचान है और यह किसी देश की विदेश नीति को नहीं दिखाता है. बांग्लादेश की विदेश नीति वैसी ही बनी हुई है जैसी बंगबंधु (शेख मुजीबुर रहमान) के समय थी.”
जर्मनी में बांग्लादेश के राजदूत मुशर्रफ हुसैन भुइयां ने कहा कि ‘इस्राएल को छोड़कर' वाक्यांश बांग्लादेशी पासपोर्ट से एक साल पहले हटाया गया था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम इस्राएल के साथ राजनायिक संबंध स्थापित करने जा रहे हैं. हमारी नीति में कोई बदलाव नहीं होगा. अभी तक करीब एक लाख ऐसे पासपोर्ट जारी हो चुके हैं जिसमें लिखा है ‘यह पासपोर्ट दुनिया के सभी देशों के लिए मान्य है'.
पासपोर्ट में बदलाव से पैदा हुई भ्रम की स्थिति
ई-पासपोर्ट से वाक्यांश को हटाने के बांग्लादेश के फैसले ने इस्राएल की यात्रा पर सरकार के रुख के बारे में कई लोगों को हैरान कर दिया है. वाशिंगटन स्थित वुडरो विल्सन सेंटर फॉर स्कॉलर्स में दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ माइकल कुगेलमैन ने डॉयचे वेले को बताया, "बांग्लादेश ने जो संदेश दिया है उसमें अभी और स्पष्टता की जरूरत है. अब इन नए पासपोर्ट में यह नहीं लिखा है कि इस्राएल जाने पर प्रतिबंध है, तो आप यह कैसे कह सकते हैं कि अभी भी इस्राएल जाने पर प्रतिबंध लागू है? यह काफी विचित्र स्थिति है.”
ढाका में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शाहिदुल आलम का कहना है कि यात्रा पर प्रतिबंध की बात तब तक "तर्कहीन" है जब तक इसे पासपोर्ट में लिखित तौर पर शामिल नहीं किया जाता. उन्होंने डॉयचे वेले को बताया, "यह पूरी तरह तर्कहीन है कि आप किसी व्यक्ति को ऐसा दस्तावेज देते हैं जिस पर लिखा है कि आप पूरी दुनिया में कहीं भी यात्रा कर सकते हैं और फिर कहते हैं कि ‘इस तरह' की यात्रा की अनुमति नहीं है.”
क्या बांग्लादेश इस्राएल की यात्रा पर प्रतिबंध लगा सकता है?
कतर स्थित अल जजीरा न्यूज आउटलेट ने आव्रजन अधिकारियों का हवाला देते हुए बताया कि बदलाव के बाद, बांग्लादेशी नागरिक को अब किसी तीसरे देश से वीजा मिल जाता है, तो वे उस स्थिति में इस्राएल की यात्रा कर सकते हैं. अल जजीरा ने मोमेन की कानूनी कार्रवाई के दावे का खंडन करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा कि किसी देश की यात्रा करने के लिए सिर्फ पासपोर्ट होना ही जरूरी नहीं है. इसके लिए वीजा भी चाहिए होता है. बांग्लादेश के आव्रजन नियमों को नियंत्रित करने वाले 17 कानूनी धाराओं में से किसी के तहत इस्राएल की यात्रा पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है.
रूथ जाख ने कहा कि बांग्लादेशी नागरिक अभी भी इस्राएल की यात्रा पर जा सकते हैं. उन्होंने डॉयचे वेले से कहा, "बांग्लादेशी नागरिक पुराने पासपोर्ट के साथ भी इस्राएल जा सकते थे. हमने हमेशा 'इस्राएल को छोड़कर' वाक्यांश को नजरअंदाज किया जब यह दूसरे देशों के पासपोर्ट में दिखाई दिया. हजारों पर्यटक और तीर्थयात्री जिनके पास 'इस्राएल को छोड़कर' का पासपोर्ट होता है, हर साल इस्राएल आते हैं और उनका गर्मजोशी से स्वागत किया जाता है.”
इलिनॉय स्टेट यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अली रियाज ने डॉयचे वेले को बताया, "जिस व्यक्ति को इस्राएल जाने के लिए वीजा मिल जाएगा, उसे न तो रोका जा सकता है और न ही उस पर किसी तरह का मुकदमा चलाया जा सकता है. ऐसा कोई कानून नहीं है जिससे उस व्यक्ति को यात्रा करने से रोका जा सके. हालांकि, अगर सरकार किसी दूसरे कानून के तहत मुकदमा चलाती है, तो यह अलग मामला है.”
इस्राएल संबंध मजबूत करने को तैयार
रूथ जाख कहती हैं, "इस्राएल बांग्लादेश के साथ अपने राजनायिक संबंध स्थापित करने के लिए तैयार है. 73 साल पहले अपनी स्थापना के बाद से इस्राएल की नीति पृथ्वी पर मौजूद सभी देशों तक पहुंचने और उन सभी के साथ संबंध स्थापित करने की थी. बांग्लादेश कोई अपवाद नहीं है. इस्राएल बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा के तुरंत बाद उसे मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक था.”
जाख कहती हैं, "2017 में इस्राएल ने बांग्लादेशी अधिकारियों से संपर्क किया था और पड़ोसी देश म्यांमार से भागे रोहिंग्या शरणार्थियों को मानवीय और चिकित्सा सहायता देने की अनुमति मांगी थी. पहले हमारी उपेक्षा की गई और फिर हमें मना कर दिया गया. प्रस्ताव अभी भी मेज पर है.”
विश्व बैंक के वर्ल्ड इंटीग्रेटेड ट्रेड सॉल्यूशन डेटाबेस से पता चलता है कि बिना किसी राजनयिक संबंध के बांग्लादेश और इस्राएल के बीच अभी भी व्यापार होता है. डेटाबेस के मुताबिक, इस्राएल ने 2010 और 2018 के बीच अन्य देशों के माध्यम से बांग्लादेश से लगभग 27.35 करोड़ यूरो के उत्पादों का आयात किया. (dw.com)
चीन ने अपनी जनसंख्या नीति में बदलाव करते हुए अपने नागरिकों को तीन बच्चे पैदा करने की अनुमति दी है. सरकार के इस फैसले के बावजूद बहुत सी चीनी महिलाएं अब ज्यादा बच्चे पैदा नहीं करना चाहती हैं. आखिर ऐसा क्यों है?
डॉयचे वैले पर विलियम यांग की रिपोर्ट
चीन पिछले कुछ सालों से अपने देश में उभरते आबादी के संकट से निपटने के लिए प्रभावी उपाय अपनाने की कोशिश कर रहा है. सरकार ने अपने हाल के फैसले में विवाहित जोड़ों को तीन बच्चे पैदा करने की अनुमति दी है. इस कदम ने पिछले कुछ दशकों में चीनी नागरिकों के बच्चे पैदा करने के अधिकारों पर सरकार के कड़े नियंत्रण को और कम कर दिया है. लेकिन इसके बावजूद कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस नीति का चीन की प्रजनन दर की प्रवृत्ति पर सीमित प्रभाव पड़ेगा.
हांगकांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में सामाजिक विज्ञान और सार्वजनिक नीति के प्रोफेसर स्टुअर्ट गिटेल-बास्टेन ने डॉयचे वेले को बताया कि उनके कुछ सर्वे से यह निष्कर्ष सामने आया है कि चीन में सिर्फ कुछ ही लोग वास्तव में तीसरा बच्चा पैदा करना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि बच्चों को पालने में होने वाले खर्च और कामकाजी महिलाओं के करियर के लिए अवसर जैसी चीजें कई चीनी महिलाओं को अधिक बच्चे पैदा करने के बारे में सोचने से हतोत्साहित कर सकती हैं. वे कहते हैं, "हमें ऐसा नहीं लगता है कि सरकार की नई नीति की वजह से बच्चा पैदा करने को लेकर सामाजिक तौर पर कोई बड़ा बदलाव आएगा.”
तीन बच्चे पैदा करने की नीति लागू करने से पहले, चीन ने 2015 के अंत में दो बच्चे पैदा करने की छूट दी थी. इससे पहले देश में एक बच्चा पैदा करने की नीति सख्ती से लागू थी. इस नीति की शुरुआत 1979 में की गई थी. उस समय चीन की सरकार का कहना था कि गरीबी मिटाने और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण जरूरी है. 2015 के अंत में दो बच्चों की नीति लागू होने के बाद देश में प्रजनन दर में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि नहीं दर्ज की गई. हाल के आंकड़ों से पता चलता है कि 2020 में चीन की प्रजनन दर प्रति महिला 1.3 बच्चे थी. इससे चीन जापान और इटली जैसे देशों के बराबर पहुंच गया जहां युवाओं से ज्यादा आबादी बुजुर्गों की होती जा रही है.
विवाहितों को मनाने की चुनौती
चीन की कुछ महिलाएं तीन बच्चे पैदा करने की नीति को उस उपाय के तौर पर देखती हैं जो उन्हें अपने परिवार नियोजन की मूल योजना से अलग दिशा में ले जाती है. 25 वर्षीय छात्रा ब्रेंडा लियाओ ने डीडब्ल्यू को बताया कि उसकी उम्र के आसपास की कई चीनी महिलाएं अब चीन में "ले डाउन" नामक एक नई जीवन शैली का अभ्यास कर रही हैं. यह एक धारणा को दिखाता है जो चीन में महिलाओं और पुरुषों को जीवन में कर्तव्यों या जरूरतों को पूरा करने के लिए कम से कम कोशिश करने के लिए प्रोत्साहित करता है.
लियाओ कहती हैं, "इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार परिवार नियोजन के लिए कौन सी नीति लागू करती है, क्योंकि मैं पहले से ही अपने ऊपर बच्चे पैदा करने की कोई अपेक्षा न थोपकर 'लाइंग डाउन' की भावना को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हूं. मेरे कई दोस्तों का भी यही विचार है. वे भी इसी तरह से जिंदगी जीना चाहती हैं.”
कई ऐसी भी महिलाएं हैं जो ज्यादा बच्चे नहीं पैदा करना चाहती हैं. इसकी वजह चीन के बड़े शहरों में बच्चों के लालन-पालन पर होने वाला खर्च है. वे कहती हैं कि बच्चों की परवरिश में होने वाले खर्च की वजह से वे तीन बच्चों की नीति का पालन नहीं करेंगी. यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत लिली बी कहती हैं, "मैं चीन के टियर-वन शहर में रहती हूं, इसलिए बच्चों को पालने में होने वाला खर्च मुझे बहुत चिंतित करता है. मुझे नहीं लगता कि मैं अन्य सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ बच्चे की ठीक से परवरिश करने की चिंता का सामना कर सकती हूं.”
कुछ ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि दशकों से परिवार नियोजन की सख्त नीतियों को लागू करने के बाद चीनी सरकार को अब अपनी ही दवा का स्वाद मिल रहा है. चीन की एक घरेलू महिला अंबर चेन कहती हैं, "सरकार ने महिलाओं पर तीन दशकों तक एक से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए जुर्माना लगाया और अब वे जनसांख्यिकीय संकट के कारण अपनी ही नीतियों में तुरंत बदलाव कर रहे हैं. वे अपनी मनमानी नीतियों की कीमत चुका रहे हैं. उन्हें पता होना चाहिए था कि महिलाओं का बच्चा पैदा करने का अधिकार एक बुनियादी मानवाधिकार है और उन्हें इसे हमसे नहीं छीनना चाहिए था.”
दरअसल, माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म वीबो पर सरकारी न्यूज एजेंसी सिन्हुआ द्वारा चलाया गया एक सर्वे भी कई चीनी महिलाओं के साझा किए गए विचारों का समर्थन करता है. सर्वेक्षण में पूछा गया कि क्या वे तीन बच्चों की नीति के लिए तैयार हैं. इस सर्वे में हिस्सा लेने वाले 31,000 लोगों में से 28,000 से अधिक ने कहा कि वे इस पर कभी विचार नहीं करेंगे. पोल को बाद में वीबो से हटा दिया गया था.
सरकार और नागरिकों के बीच ‘सिविल वार'
सरकार ने तीन बच्चे पैदा करने की नीति लाकर बच्चे पैदा करने के अपने कठोर कानून में छूट दी है, लेकिन यह कानून अभी भी चीनी नागरिकों के मूल अधिकारों में दखल देता है. संयुक्त राज्य अमेरिका में विस्कॉन्सिन-मैडिसन यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिक यी फुक्सियान ने डॉयचे वेले को बताया, "तीन बच्चों की नीति अभी भी एक तरह से परिवार नियोजन, जनसंख्या नियंत्रण, और जनसंख्या को एक बोझ की तरह मानने जैसा है.”
फुक्सियान कहते हैं, "परिवार नियोजन चीनी सरकार और चीनी जनता के बीच आधी सदी तक चल रहा गृहयुद्ध है. इस गृहयुद्ध को समाप्त करने के लिए, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी, नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की राष्ट्रीय कांग्रेस के निर्णय से जनसंख्या नीति की दिशा में पूरी तरह बदलाव करने की जरूरत है. शायद इस बार बहुत देर हो चुकी थी, इसलिए चीनी अधिकारियों ने सबसे पहले पोलित ब्यूरो की बैठक में एक उपाय के तौर पर तीन बच्चों की नीति की घोषणा की.”
प्रजनन क्षमता बढ़ाने के उपायों की जरूरत
हांगकांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के गिटेल-बास्टेन का मानना है कि तीन बच्चों की नीति के अलावा, चीनी सरकार को और भी ठोस कदम उठाने की जरूरत है, ताकि "अंतिम छोर तक की समस्या को ठीक किया जा सके.” वे कहते हैं, "महिलाओं के बच्चों की संख्या बढ़ाकर चीन की जनसांख्यिकीय चुनौतियों का समाधान नहीं हो पाएगा. अगर चीन की सरकार जन्मदर को बढ़ाना चाहती है, तो उसे इसके लिए लोगों में बच्चा पैदा करने की चाहत बढ़ानी होगी. इसके लिए लोगों की सहायता करने की जरूरत है.
तीन बच्चों की नीति के अलावा, सरकार ऐसे अन्य सहायक उपायों को शुरू करने पर विचार कर रही है जिससे चीन की जनसंख्या संरचना में मौलिक रूप से सुधार हो सके. सरकार शिक्षा में होने वाले खर्च को कम करने, आर्थिक और आवास सहायता बढ़ाने के साथ-साथ कामकाजी महिलाओं के कानूनी अधिकारों की रक्षा करने की योजना बना रही है.
तीन बच्चों की नीति की आलोचना के बावजूद, गिटेल-बास्टेन का कहना है कि अभी भी कुछ सकारात्मक बदलाव हो सकते हैं, ताकि चीनी महिलाएं जिन चीजों का सामना करती हैं उन स्थितियों में सुधार किया जा सके. वे कहते हैं, "इस नीति से ऐसे लोगों की जिंदगी में बड़ा बदलाव आएगा जो तीसरा बच्चा पैदा करना चाहते हैं. साथ ही, महिलाओं को नसबंदी और गर्भपात जैसी परेशानियों से भी काफी हद तक छुटकारा मिलेगा.”
रिपोर्टिंग में जर्मन सार्वजनिक मीडिया एआरडी के शंघाई ब्यूरो की जोस कियान ने मदद की. (dw.com)
मंगल पर जीवन की तलाश को लेकर दुनिया भर में अध्ययन और अंतरिक्ष के अभियान जारी हैं. क्या मंगल को रहने लायक बनाने के सूत्र इंसानी जीन्स में छिपे हैं? मशहूर अमेरिकी जनेटिसिस्ट क्रिस्टोफर जेसन ने ऐसे सवालों पर खोज की है.
डॉयचे वैले पर जुल्फिकार अबानी की रिपोर्ट
अमेरिकी आनुवांशिकी विज्ञानी क्रिस मेसन का कहना है कि जीवन के तमाम रूपों की हिफाजत, हमारा नैतिक कर्तव्य है. उन्होंने मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश के लिए 500 साल का एक खाका तैयार किया है.
डीडब्ल्यू: जब बात आती है मंगल जैसे ग्रहों में इंसानीं जिंदगियों की, तो हमारा रुख टेक्नोलॉजी के समाधानों की ओर मुड़ जाता है, जैसे स्पेस सूट और सुरक्षित रिहाइशें. लेकिन अपनी किताब, द नेक्स्ट 500 इयर्सः इंजीनियरिंग लाइफ टू रीच न्यू वर्ल्ड्स, में आपने मनुष्य प्रजाति में ज्यादा बुनियादी, जैविक बदलाव प्रस्तावित किए हैं. आप जीवन के सभी रूपों की हिफाजत की दार्शनिक ड्यूटी की बात भी करते हैं. हमें जरा खुल कर बताइए.
क्रिस्टोफर मेसनः हम अक्सर अंतरिक्ष में भौतिक-प्राकृतिक या यांत्रिक सुरक्षा उपायों के बारे में सोचते हैं, या औषधीय उपायों के बारे में, जैसे जिंदा रहने में मददगार दवाएं. हम ये कर चुके हैं. मैं कहता हूं कि इन चीजों के विस्तार के रूप में बचाव और सुरक्षा के जैविक तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए.
मिसाल के लिए, सीएआर-टी कोशिकाएं (कार्ट सेल) एक तरह की डिजाइनदार टी कोशिकाएं हैं जिनका उपयोग हम अपनी लैब में करते हैं और रूटीनी तौर पर और जगह भी. लोगों को कैंसर से मुक्त रखने के लिए, वैज्ञानिक एक तयशुदा ढांचे के तहत निर्धारित विकास और निर्धारित स्वरूप वाली कोशिकाओं का उपयोग करते हैं. लेकिन इस पर लोग न हैरान होते हैं न चिंतित.
ऐसे ट्रायल भी हुए हैं जो जीवित मरीजों में सीआरआईएसपीआर (क्रिस्पर- जीन एडिटिंग प्रौद्योगिकी) का इस्तेमाल कर रहे हैं. ये एक या दो नहीं, दर्जनों और सैकड़ों हैं.
मंगल पर जीवित रहने के औजार
मैं इसे हर रोज देखता हूं. इसलिए मेरा विचार, मौजूदा उपचार से जुड़े हमारे परहेजों का बस एक तार्किक विस्तार ही है...लोग सर्वश्रेष्ठ कोशिकाएं बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, माइक्रोबायोम यानी जीवाणुओं को रूपांतरित करने से लेकर प्रतिरोधक कोशिकाओं को बदलने तक. ये सब हो रहा है बीमारी का उपचार करने या उसे रोकने के लिए.
हम यही कोशिश कर रहे हैं, दूसरे ग्रहों में हमारे जीने के लिए मददगार टूल बक्से में, टेक्नोलॉजी के उपयोग से एक अतिरिक्त औजार और मुहैया कराने की कोशिश कर रहे हैं. यही एक तरीका नहीं हैं. मैं दूसरे यांत्रिक और औषधीय तरीकों की बात भी करता हूं. 20 साल और लगेंगे ये सब सही ढंग से कर पाने में. इसीलिए ये प्लान 500 साल का बनाया गया है!
ये दिलचस्प है कि आप नागवार और चरम हालातों में रह सकने वाले जीवाणुओं, एक्सट्रीमोफाइल्स से काफी सबक ले रहे हैं. ये जीव चरम पर्यावरणों जैसे महासागरों की अत्यधिक गहराइयों या उष्मजलीय निकासों (हाइड्रोथर्मल वेंट्स) में रहते हैं. अंतरिक्ष जैसे चरम पर्यावरण में हमारे भविष्य पर इसका क्या असर पड़ सकता है?
एक्सट्रीमोफाइल्स का अध्ययन करना दिलचस्प रहा है. इनमें वे सूक्ष्मजीव भी हैं जो अंतरिक्ष के निर्वात या अंतरिक्ष स्टेशन में रहते हैं. विकिरण के प्रतिरोध, सूखेपन के प्रतिरोध के अलावा एक्स्ट्रीमोफाइल में डीएनए मरम्मत के लिए हम बहुत सारी जीन्स की तलाश करते रहते हैं. लगता है कि चरम अवस्था वाले जीवन के हिसाब से ढलने लायक कई मिलतीजुलती खूबियां उनमें मौजूद हैं.
जितना ज्यादा हम देखते जाएंगे ये चरम हालात में टिके रह जाने वाले जीव हमें उन तमाम जगहों पर मिलेंगे जहां खारापन या तापमान या विकिरण के स्तरों को देखते हुए, आप आमतौर पर यही मानते आए हैं कि वहां तो जीवन हो ही नहीं सकता. लेकिन देखिए, हम लगातार गलत साबित होते रहते हैं.
अगर हम जेनेटिक इंजीनियरिंग से जुड़े तमाम नैतिक और तकनीकी सवाल हम सुलझा लेते हैं, तब क्या होगा?
जी हां, ये मानते हुए कि तमाम प्रश्नों के उत्तर मिल गए तो फिर दो अहम सवाल उभरते हैं, क्या हम सोचते हैं कि ये चीज काम करेगी और क्या ऐसा किया ही जाना चाहिए. लेकिन क्रियात्मक रूप से हमने टार्डिग्रेडों (बहुत छोटे इनवर्टिब्रेट) की जीन्स का अध्ययन किया है जो विकिरण के खिलाफ अपनी प्रतिरोधी क्षमता को 80 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं. तो तकनीकी रूप से ये संभव है.
लोग जीन के संपादन को लेकर या उनमे जोड़घटाव को लेकर अक्सर परेशान हो उठते हैं. जीन्स को बारबार खोलकर और बंद कर हम जीन्स की "क्षणिक सक्रियता” भी देख रहे हैं. अगर आप विकिरण की चपेट में हैं और मैं आपकी मौजूदा जीन्स लेकर उन्हें ऊपर नीचे खिसकाऊं और बाद में उन्हें वापस लौटा दूं तो मेरे ख्याल से एक अलग चीज होगी.
अंतरिक्ष में सेक्स
सबसे बड़े मुद्दों में एक है कि हम मंगल में आबादी कैसे बढ़ाएंगे. आप कहते हैं कि मनुष्य अगले 200 साल तक मंगल में पैदा नहीं होगे.
हां, प्रारंभिक मंगलवासियों पर तो ये बात लागू होगी, जिनमें दोनों मातापिता वहां पैदा हुए हों और फिर उनकी संतानें भी वहीं पैदा हुई हों.
मुझे यकीन है कि उससे पहले मंगल में लोग पैदा हो जाएंगे. चलिए मान लेते हैं कि 2030 के मध्य या 2040 में वहां पर लोग होंगे, तो हो सकता है कि लोगों को 10 साल वहां पर रह चुकने के दौरान बच्चा भी पैदा हो जाए. ये लगभग अवश्यंभावी है, अगर दोनों स्त्री पुरुष वहां है और लोग बोर होने लगें...तो ये तो होकर रहेगा...
हम करोड़ों साल से दूसरे बुरे पर्यावरणों में ये करते आ रहे हैं इसलिए ये वहां पर भी होगा. लेकिन दूसरी पीढ़ी के मंगलवासियों का, या मंगल के नागरिकों का बच्चा होने में थोड़ा ज्यादा समय लगेगा.
अंतरिक्ष में प्रकाश के बारे में क्या कहेंगे या भूमिगत जीवन के बारे में? आप विटामिन संश्लेषण या विटामिन सिंथेसिस की बात भी करते हैं.
हां, मंगल में रोशनी अलग होगी...लिखते हुए ये हिस्सा मजेदार था, एक इच्छा सूची की तरहः क्या हो अगर हमारी आंखें अलग हों?
"सावधान, हम सबकुछ गुड़गोबर न कर दें”
इवोल्युशन यानी क्रमिक विकास का अधिकांश इतिहास दुर्घटना ही रहा है. लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि हमारे पास कोई नियंत्रण आ जाए, अनियंत्रित विकास की अपेक्षा एक नियंत्रित विकास का. अगर हमें चीजों को थोड़ा बेहतर करने के तरीके हासिल हो जाएं?
ये भी हो सकता है कि आप सब कुछ गुड़गोबर कर दें, इसलिए आपको बहुत सावधानी बरतनी पड़ेगी.
लेकिन आप अलग अलग वेव लेंथों में देख पाने की कल्पना कर सकते हैं. या अपने तमाम विटामिनों या अमीनो एसिड्स को संश्लेषित कर सकने का ख्वाब देख सकते हैं. लेकिन निराशा की बात है कि आज हम ऐसा कर पाने की स्थिति में हैं ही नहीं. मैं इसे "मॉलीक्युलर इनेप्टिट्यूड” यानी "आणविक अयोग्यता” कहता हूं. अपने अमीनो एसिड या विटामिन सी को ही लीजिए, हम भला क्यों नहीं बना सकते हैं? गीली नाक वाले लेमुर जैसे प्राइमेट यानी नरवानर अभी भी ये कर सकते हैं लेकिन हमने ये क्षमता गंवा दी और देखा जाए तो बहुत लंबा समय नहीं हुआ है. ऐसा महज इसलिए हुआ क्योंकि हमें अपनी खुराक से ये चीजें पर्याप्त मात्रा में मिल गयीं.
लेकिन ये तो वाकई दिलचस्प चीज है कि ये बात सिर्फ आगे की ओर क्रमिक विकास की नहीं बल्कि पीछे लौटने की भी है कि हम कैसे हुआ करते थे. आपको इस बात की चिंता नहीं होती कि लोग आपको सनकी कहेंगें?
नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं! आज हम न कर पाएं लेकिन अगले कुछ दशक बहुत खोजपूर्ण होंगे. लेकिन ये एक जरूरी कर्तव्य है, हमारी तमाम नस्लों के लिए एक बहुत जरूरी ड्यूटी. अगर उन औजारों की बदौलत हम बचे रह पाते हैं और अपनी संरक्षक वाली भूमिका निभा पाते हैं, तो मैं उनके पक्ष में हूं.
संरक्षक के रूप में हमारा कर्तव्य
हो सकता है हम खुशकिस्मत हों, हम लोगों को मंगल पर भेज पाएं और वे वहां खुद को ढाल लें. फिर तो क्या ही बात होगी. लेकिन पर्यावरण को देखते हुए मुझे लगता है कि ये नहीं होगा. वैसे ये अनैतिक भी होगा क्योंकि हमारे पास अगर किसी को बचाने के औजार आ गए लेकिन हमने उनका उपयोग ये कहते हुए नहीं किया कि, "विकिरण की चपेट में आ रहे हो तो आ जाओ. हम तुम्हें बचा तो सकते हैं लेकिन हम ऐसा करेंगे नहीं,” तो मेरे हिसाब से ये बहुत बुरा होगा.
विलुप्ति का अहसास सिर्फ इंसानी नस्ल को ही है.
लेकिन मैं जोर देकर कहूंगा कि ये सिर्फ इंसानी नजरिया नहीं है. अगर ऑक्टोपस भी सचेतन हो जाएं और सवाल पूछना शुरू कर दें तो मैं तब भी यही कहूंगा. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में भी. लेकिन जब तक कोई कारण या कर्तव्य-बोध नहीं होगा, कोई भी ये नहीं करेगा.
तो जैसा कि हम अपने जीवन को जानते हैं, ये उसकी हिफाजत की बात भी है. लेकिन आपका कहना है कि महाविस्फोट से पहले ब्रह्मांड किसी दूसरे रूप में रहा होगा, जैसा कि हम सोचते हैं कि हम पहले से ही "दूसरा संस्करण” हों...
सबसे बड़ा सवाल ये हैः हम क्या करेंगे अगर ये हमारा दूसरा चक्कर हो? क्या ब्रह्मांड को दोबारा फटने और खुद को तीसरे महाविस्फोट से रोकना गलत होगा? क्या हमें ये उम्मीद है कि दोबारा जीवन घटित हो जाएगा? या हम अपने ब्रह्मांड के अंत को रोकने की कोशिश करेंगे? मैं सोचता हूं कि हमें ये करना पड़ेगा क्योंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि ऐसा दोबारा भी होगा. सारी बात यही है.
क्रिस्टोफर ई मेसन आनुवांशिकी विज्ञानी और कंप्यूटेशनल जीवविज्ञानी हैं. वो न्यू यार्क स्थित वाइल कॉरनेल मेडिसिन में प्रोफेसर भी हैं. उनकी किताब "द नेक्स्ट 500 इयर्सः इंजीनियरिंग लाइफ टू रीच न्यू वर्ल्ड्स” अप्रैल 2021 में एमआईटी प्रेस से प्रकाशित हुई है. (dw.com)
आसमान में उड़ती अजीब चीजों के बारे में अमेरिकी रक्षा विभाग की टास्क फोर्स की रिपोर्ट का सबको इंतजार है, लेकिन उसके कोई सबूत नहीं हैं. लेकिन जो कुछ दिख रहा है उससे एलियन के अस्तित्व से पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता.
डॉयचे वैले पर कार्ला ब्लाइकर की रिपोर्ट
अगर यूएफओ या उड़नतश्तरियों के बारे में आप दिलचस्पी रखते हैं तो हमेशा ये सोचते हैं कि अमेरिकी सरकार और खुफिया सेवाएं उनके बारे में ठीक ठीक क्या सोचती हैं तो जून आपके लिए काम का महीना हो सकता है. अनआइडेन्टिफाइड एरियल फिनोमेना (यूएपी) टास्क फोर्स नाम से अमेरिकी रक्षा विभाग ने एक बल का गठन किया था. ये टीम इस महीने अपनी रिपोर्ट कांग्रेस में पेश करने वाली है. ये रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होगी. इसमें पेंटागन अधिकारी यूएपी पर अपनी जानकारी का ब्यौरा देंगे और ये भी बताएंगे कि इस बारे में वो क्या कर रहे हैं.
अज्ञात हवाई वस्तु यानी यूएपी शब्दावली का इस्तेमाल वे सैन्य अधिकारी और शोधकर्ता करते हैं जो उन चीजों को यूएफओ कहने से परहेज करते हैं जो आसमान में अदृश्य रूप से उड़ने वाली बतायी जाती हैं और जो भौतिकी के हमारे ज्ञान में फिट नहीं बैठती हैं. अमेरिकी रक्षा विभाग के अधिकारी, सीनेटरों को बताएंगे कि देश के हवाई क्षेत्र में उन्होंने यूएफओ के बारे में क्या मालूमात हासिल की है.
ये तमाम जानकारी जनता को भी हासिल हो पाएगी (हालांकि कांग्रेस में रिपोर्ट की प्रस्तुति और आम लोगों में पूरी रिपोर्ट के जारी होने के बीच देरी हो सकती है). ये एक बेलाग खुली रिपोर्ट होगी ना कि खुफिया सैन्य ठिकानों के बारे में कोई कानाफूसी जैसी. कॉन्सीपिरेसी थ्योरी वालों के मुताबिक यही कानाफूसी तबसे चली आ रही है जबसे एक यूएफओ की कथित रूप से न्यू मेक्सिको के रौसवेल इलाके में 1947 की गर्मियों में क्रैश होने की खबर आयी थी.
'सेना ने जुटाया है दस्तावेजी सबूत'
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में साइंस के प्रोफेसर और हार्वर्ड-स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स में इंस्टीट्यूट ऑफ थ्योरी एंड कम्प्यूटेशन के निदेशक अवी लोएब ने डीडब्लू को बताया कि ये अवसर इतना महत्त्वपूर्ण कैसे बना. डीडब्ल्यू को ईमेल के जरिए लोएब ने बताया, "ये नयी रिपोर्ट यूएफओ या यूएपी पर पुरानी बहसों से इस रूप में अलग है क्योंकि ये सैन्य कर्मियों के जुटाए दस्तावेजी सबूतों पर आधारित हैं. रडार, इंफ्रारेड कैमरा, ऑप्टिकल कैमरा जैसे बहुत सारे उपकरणों की मदद से ये साक्ष्य मिले हैं.”
रिपोर्ट में मौजूद सूचना, "हमारे पास उपलब्ध प्रौद्योगिकी की व्याख्याओं के दायरे से बाहर की चीजों के संभावित अस्तित्व” की ओर इशारा कर सकती है.
95 प्रतिशत मामलों की आमफहम व्याख्या
2019 में गैलप के एक पोल में दिखाया गया था कि अमेरिका के एक तिहाई बालिग मानते हैं कि कम से कम कुछ मामलों में यूएफओ दिखने की घटनाओं में वाकई एलियन के स्पेसशिप थे. हांस-वैर्नर पाइनिगर का 15 साल की उम्र में यूएफओ की ओर झुकाव हुआ था. उन्हें यूएफओ के बारे में शोध करते हुए 50 साल हो चुके हैं. जर्मनी में यूएफओ पर सोसायटी फॉर रिसर्च (जीईपी) के प्रमुख पाइनिगर बताते हैं कि देखे जाने की अधिकांश घटनाओं पर कुदरती और इंसानों की बनायी व्याख्याओं का ही बोलबाला है.
पाइनिगर ने डीडब्ल्यू को बताया कि "1972 से हमने करीब 4500 घटनाएं नोट की हैं” जिनके बारे में उन्हें प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया था. उनके मुताबिक, "करीब पांच प्रतिशत घटनाओं के बारे में ही हमें कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं मिलती है.”
पाइनिगर के मुताबिक बाकी घटनाओं में जिन चीजों को लेकर यूएफओ के दिखने के दावे आते हैं वे मेलों में दिखने वाले हीलियम गुब्बारे होते हैं, या उड़ान भरते कीटपतंगे जो फोटुओं में उड़नतश्तरी की तरह दिख सकते हैं, मौसम की कोई परिघटना या सैटेलाइट. रही बात पांच प्रतिशत मामलों की तो "हो सकता है वे ऐसी कुदरती परिघटनाएं हैं जिन्हें हम अभी साफतौर पर समझा नहीं सकते हैं.”
ये रिपोर्ट अब क्यों आ रही है?
ये संयोग नही है कि अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को इस महीने यूएपी पर और जानकारी मिल रही है. यूएपी टास्क फोर्स की विस्तृत रिपोर्ट, उस विशाल 2.3 अरब डॉलर वाले बजट का हिस्सा है जिसे कांग्रेस ने दिसंबर 2020 में पास किया था. छह महीने के भीतर कानूनी प्रावधान के साथ, रक्षा विभाग और डायरेक्टर ऑफ नेशनल इंटेलिजेंस के ऑफिस को "अज्ञात हवाई परिघटना, यूएपी के डाटा और इंटेलिजेंस का विस्तृत विश्लेषण” पेश करना होगा.
आज डेमोक्रेटस और रिपब्लिकन्स यूएफओ पर रिपोर्ट की मांग कर रहे हैं. ये वो विषय था जो बहुत समय नहीं हुआ जब साइंस फिक्शन वाली फिल्मों, कॉन्सपिरेसी थ्योरी वाले लोगों और एलियन के चहेतों के बीच ही लोकप्रिय था. नयी रुचि ये दिखाती है कि आला अमेरिकी अधिकारी को ये संभावना पहले की तरह उतनी अटपटी नहीं लगती कि दूसरे ग्रहों में भी ज्ञान वाले प्राणी हो सकते हैं.
पिछले साल यूएपी से जुड़ी बहुत सी महत्त्वपूर्ण घटनाएं हुई थीं. उसके बाद से ही ये अभियान शुरू हुआ. अप्रैल 2020 में रक्षा विभाग के अधिकारियों ने नेवी पायलटों के खींचे तीन वीडियो जारी किए थे जो सालों पहले लीक हो चुके थे. इन रिकॉर्डिंग्स में दिखाया गया है कि कि चीजें कुछ इस अजीब अंदाज में आसमान में चक्कर काट रही थीं कि पायलटों का उन पर ध्यान जाना स्वाभाविक था.
रक्षा विभाग ने वीडियो को प्रामाणिक पाया लेकिन सालों पहले यूएफओ के चहेते लोग ऑनलाइन पर उपलब्ध वीडियो का छोटा से छोटा हिस्सा पहले ही खंगाल चुके थे. पेंटागन की एक प्रेस रिलीज के मुताबिक "वीडियो की सच्चाई को लेकर जनता में किसी भ्रामक धारणा को साफ करने के लिए” उनकी प्रामाणिकता की जांच की गयी थी. उसके मुताबिक, "तीनों वीडियो में दिखने वाली हवाई चीजों का वजूद ‘अज्ञात' पाया गया है.”
यूएफओ में कोई समानता नहीं मिली
चार महीने से कम समय में, यूएपी टास्कफोर्स का गठन कर दिया गया. और अब उसके शोधकर्ता कांग्रेस के समक्ष अपने नतीजे पेश करेंगे. इसी साल "एक्स्ट्राटैरेसट्रियलः द फर्स्ट साइन ऑफ इंटेलिजेंट लाइफ बियॉन्ड अर्थ” नाम से किताब प्रकाशित करने वाले हार्वर्ड प्रोफेसर लोएब कहते हैं कि नेवी के पुराने वीडियो फिर से जारी करना ही काफी नहीं है. बल्कि अधिकारियों को अब पूरी मुस्तैदी से प्रमाण जुटाने चाहिए.
डीडब्ल्यू को भेजे अपने ईमेल में लोएब ने लिखा, "वैज्ञानिक विशेषज्ञता न रखने वाले चश्मदीदों की इस्तेमाल की हुई पुरानी तकनीकों की झलक दिखाते दस्तावेजों को सार्वजनिक करने के बजाय ज्यादा अच्छा होता कि उन ठिकानों पर आला दर्जे के रिकॉर्डिग उपकरण लगाए जाते जहां से यूएपी की रिपोर्टें आयी थीं और उनके जरिए अस्वाभाविक सिग्नलों की शिनाख्त की जाती.”
पाइनिगर कहते हैं कि उन्होंने जितने मामलों का अध्ययन किया है, वो देखते हुए उन्हें इस बात पर संदेह होता है कि दिखने वाली कोई भी यूएपी, किसी एलियन का जहाज होगा. कथित रूप से इन अंतरिक्षयानों के आकार या उड़ान के पैटर्न के बारे में उदाहरण देते हुए वो इस ओर इशारा करते हैं कि "अगर वाकई कोई परग्रही बौद्धिकता या जीव हमसे मिलने आया तो उनके यूएफओ में कुछ न कुछ समान बात जरूर होनी चाहिए. लेकिन हमने जितने मामलों को देखा है उनमें ऐसा कुछ नजर नहीं आया.” पाइनिगर का कहना है कि, "मैं पूरी तरह उन्हें खारिज नहीं करना चाहता हूं. लेकिन मैं ये मानता हूं कि दूसरे ग्रह के लोग फिलहाल हमसे मिलने नहीं आ रहे हैं.” (dw.com)
वाशिंगटन, 5 जून | पूरे विश्व में कोरोना के मामले बढ़कर 17.24 करोड़ से ज्यादा हो गए हैं। इस महामारी से अब तक कुल 37 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। ये आंकड़े जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय ने साझा किए हैं।
शनिवार की सुबह अपने नवीनतम अपडेट में, यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिस्टम साइंस एंड इंजीनियरिंग (सीएसएसई) ने खुलासा किया कि वर्तमान में पूरे विश्व में कोरोना मामले और मरने वालों की संख्या क्रमश: 172,449,514 और 3,708,248 हो गई है।
सीएसएसई के अनुसार, दुनिया में सबसे ज्यादा मामलों और मौतों की संख्या क्रमश: 33,342,974 और 596,999 के साथ अमेरिका सबसे ज्यादा प्रभावित देश बना हुआ है।
कोरोना संक्रमण के मामले में भारत 28,574,350 मामलों के साथ दूसरे स्थान पर है।
सीएसएसई के आंकड़े के अनुसार, 30 लाख से ज्यादा मामलों वाले अन्य सबसे प्रभावित देश ब्राजील (16,841,408), फ्रांस (5,762,637), तुर्की (5,276,468), रूस (5,049,210), यूके (4,521,919), इटली (4,227,719), अर्जेंटीना (3,915,397), जर्मनी (3,704,685) , स्पेन (3,697,981) और कोलंबिया (3,518,046) हैं।
कोरोना से हुई मौतों के मामले में ब्राजील 470,842 संख्या के साथ दूसरे नंबर पर है।
भारत (340,702), मैक्सिको (228,362), यूके (128,086), इटली (126,415), रूस (120,974) और फ्रांस (110,078) में 100,000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है।(आईएएनएस)
नई दिल्ली, 5 जून| भारत सरकार ने मॉरीशस के पूर्व राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ के निधन पर एक दिन के राजकीय शोक की घोषणा की। सरकार ने कहा है कि गुरुवार को अंतिम सांस लाने वाले अनिरुद्ध के सम्मान में शनिवार को एक दिन का राजकीय शोक रखा जाएगा।
मॉरीशस के पूर्व प्रधानमंत्री जगन्नाथ ने गुरुवार को 91 साल की उम्र में अंतिम सांस ली थी।
जैसा कि प्रोटोकॉल में है। शनिवार को पूरे भारत में तिरंगा आधा झुका रहेगा और उस दिन सरकार की ओर से कोई आधिकारिक मनोरंजन कार्यक्रम नहीं होगा। (आईएएनएस)
काठमांडू, 5 जून| कोरोना महामारी के तीसरे या चौथे वेभ (लहर) में बच्चों पर होने वाले सम्भावित खतरे को देखते हुए नेपाल सरकार ने शुक्रवार को अस्पतालों को बच्चों के इलाज के लिए तैयार रहने को कहा है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के मुताबिक, स्वास्थ्य और जनसंख्या मंत्रालय ने एक नोटिस जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि स्वास्थ्य सुविधाओं की मौजूदा व्यवस्था वयस्कों के इलाज पर आधारित है क्योंकि पहली और दूसरी लहर ने व्यस्क ही कोरोना की चपेट में आए हैं।
मंत्रालय के प्रवक्ता कृष्ण प्रसाद पौडेल ने कहा, "कम से कम कुछ व्यवस्कों को टीक लग चुका है और अब वे कोरोना से कुछ हद तक बचाव में रहेंगे लेकिन बच्चे जो कि 18 साल से कम उम्र के हैं, टीका के अभाव में आसान निशाना बन सकते हैं।"
सरकारी आंकड़े के मुताबिक नेपाल की जनसंख्या तकरीबन तीन करोड़ है और इनमें से 40 फीसदी लोग 18 साल से कम के हैं।
मई में देश में कोरोना बहुत चरम पर था। रोजोना 8 से 9 हजार मामले सामने आ रहे थे लेकिन अब बीते सप्ताह तक देश में कोरोना मामलों की संख्या 5000 ेसे कम तक पहुंच गई है।
शुक्रवार को बीते 24 घंटे में 4624 मामले सामने आए जबकि 101 लोगों की मौत हुई। इस देश में कुल संक्रमितों की संख्या 581,560 तक पहुंच गई है जबकि 7731 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। (आईएएनएस)
बीजिंग, 4 जून | अमेरिकी नव सरकार की चीन नीति, यानी प्रतिस्पर्धा और टकराव का नीतिगत ढ़ांचे का रूप उभरने लगा है। इस नीति के तहत चीन के खिलाफ निरंतर दबाव बनाए रखने की आवश्यकता है। यानी अमेरिका, नैतिक मूल्य हमलों, कूटनीतिक अलगाव, तकनीकी अवरोधों और आर्थिक व व्यापार बाधाओं के माध्यम से, चीन के विकास को चौतरफा तरीके से अवरुद्ध करने का प्रयास कर रहा है। और साथ ही एक चीन विरोधी शिविर को भी स्थापित करने की पूरी कोशिश करनी पड़ेगी। इसी नीति के मार्गदर्शन में, अमेरिका 'मध्य देशों', यानी कि ऐसे देश जो चीन और अमेरिका दोनों के साथ समान संबंध बनाए रखते हैं, को अपनी ओर खीचने का अथक प्रयास भी करता रहेगा। अमेरिका के दबाव में, कुछ छोटे और मध्यम वाले देशों को दुबधा का सामना करना पड़ता है। एक तरफ, वे अपने चीन के साथ घनिष्ठ आर्थिक संबंधों को त्याग करना नहीं चाहते हैं, पर दूसरी ओर, अमेरिकी दबाव के कारण, उन्होंने 'पक्ष चुनने' के अमेरिका के अनुरोध को अस्वीकार करने का साहस भी नहीं है। अमेरिका के दबाव में उन्हें चीन की घरेलू और विदेशी नीतियों पर आलोचनात्मक टिप्पणी करनी पड़ी। हालांकि, इसका नतीजा यह है कि उनके चीन के साथ बनाए गए मैत्रीपूर्ण संबंधों को प्रभावित किया गया है। उदाहरण के लिए, न्यूजीलैंड के विदेश मंत्री ने हाल ही में मीडिया से कहा, "न्यूजीलैंड और चीन के बीच संबंध ठंडा बनने का दिन आएगा।" विश्लेषकों के अनुसार, न्यूजीलैंड के विदेश मंत्री की टिप्पणी से संकेत मिलता है कि न्यूजीलैंड सरकार अमेरिका के बढ़ते दबाव का सामना कर रही है।
दूसरी ओर, छोटे और मध्यम वाले देशों को अपनी ओर खींचने के लिए, अमेरिका ने चीनी उत्पादों पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक श्रृंखला के पुनर्गठन की योजना पेश की है। इससे पहले, वैश्वीकरण के विकास से दुनिया की प्रारंभिक स्थिति बनाई है, जहां विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक साथ अन्योन्याश्रित और समृद्ध हैं। चीन की मजबूत उत्पादकता विश्व बाजार को माल प्रदान करना जारी रखती है, जिसने अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों को घरेलू मुद्रास्फीति के दबाव से बचने और बुनियादी औद्योगिक उत्पादों की जरूरतों को पूरा करने की अनुमति दी है, जबकि उनके उद्योग उच्च अंत उद्योगों में स्थानांतरित हो रहे हैं। हालांकि, औद्योगिक श्रृंखला का पुनर्गठन करने से दुनिया की आर्थिक संरचना को बाधित कर दिया गया है। कुछ कंपनियों को फेरबदल का सामना करना पड़ रहा है, और कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों, जो चीन से जल्दबाजी में निकल गयी हैं, को नये औद्योगिक वातावरण में असंख्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
पर अधिकांश मध्यवर्ती देशों के लिए, वे चीन और अमेरिका के बीच चयन करने के लिए बेहद अनिच्छुक हैं। इससे एक तरफ, वे महा-शक्तियों के संघर्षों में शामिल होने के जोखिम से बच सकते हैं, दूसरी तरफ वे खुद को ऐसी स्थिति में डाल सकते हैं जो महा-शक्तियों द्वारा जीती जाती है। यदि उन्हें विश्व महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा में पक्ष चुनने के लिए मजबूर किया जाता है, तो वे केवल अपने हितों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। वर्तमान में, अपनी राजनीतिक और सैन्य शक्ति के साथ, अमेरिका ने कुछ छोटे और मध्यम देशों को अमेरिका का समर्थन और चीन की आलोचना का बयान देने के लिए मजबूर किया है। लेकिन साथ ही, इन देशों को चीन के साथ आर्थिक और व्यापारिक संबंधों से लाभ उठाने का अवसर भी खोना होगा।
डिकॉप्लिंग और डी-सिनिसाइजेशन के अमेरिकी आक्रमण का सामना करने में, चीन ने खुलेपन का विस्तार जारी रखने और वैश्वीकरण के प्रति अपने वायदे को ²ढ़ बनाने का प्रयास किया है। और चीन का विशाल उपभोक्ता बाजार और लगभग असीमित उत्पादन क्षमता विश्व अर्थव्यवस्था का एक अनिवार्य तत्व बन गई है। यह दुनिया के आर्थिक विकास में चीन का सबसे बड़ा योगदान भी है। मानव जाति के साझा भाग्य समुदाय के निर्माण के आदर्श के तहत, चीन समावेशी और पारस्परिक लाभ को सुरक्षित रखने की कूटनीतिक नीति अपनाता है, और चीन अन्य सभी देशों के साथ समानता और पारस्परिक लाभ वाले संबंधों को विकसित करने को तैयार है। चीन की विदेश नीति ने दुनिया के अधिकांश देशों की समझ और समर्थन हासिल किया है। लेकिन अमेरिका के द्वारा चीन को रोकने के लिए खेमे को स्थापित करने की कोशिशें, जो पूरी दुनिया के हितों को नुकसान पहुंचाता है, पूरी दुनिया की जनता के विरोध करने के कारण से विफल हो जाएंगी।(आईएएनएस)
वॉशिंगटन. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि कोविड-19 का वायरस वुहान लैब से आया है, हमारा ये कहना बिल्कुल सही था. अब ट्रंप चाहते हैं कि दुनियाभर में हुई मौतों के लिए चीन उसका मुआवजा भरे. दरअसल अमेरिकी मीडिया के हाथ वहां के शीर्ष महामारी विशेषज्ञ डॉ. एंथोनी फाउची का एक ईमेल लगा है, जिससे कई बड़े खुलासे हुए हैं. लीक हुए इस ईमेल से पता चला है कि डॉ. फाउची कोरोना के संक्रमण के शुरूआती महीनों में चीन के वैज्ञानिकों के संपर्क में थे.
इसके बाद ट्रंप ने कहा कि चीन और डॉ. फाउची के बीच जो पत्राचार हुआ, वो इतना अहम है कि उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. ट्रंप का कहना है कि अब चीन की वजह से मौतें और क्षति हुई उसके लिए अमेरिका और दुनिया को 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान करना चाहिए. ट्रंप ने कहा, ‘उनका कहना पूरी तरह से सही था कि वायरस चीन की वुहान लैब से आया है, अब इस बात को सभी मान रहे हैं उसमें उनके दुश्मन भी शामिल हैं.’
क्या है इस ईमेल में?फ्रीडम ऑफ इन्फॉर्मेशन एक्ट के ज़रिये वॉशिंगटन पोस्ट, बज़फीड न्यूज़ और सीएनएन ने जनवरी से जून 2020 तक का जो 3000 पन्नों का ई मेल प्राप्त किया था. उससे ये खुलासा हुआ कि यूएस में कोविड महामारी के फैलने के शुरुआती दिनों में ही डॉ. फाउची और उनके साथियों का मानना था कि कोविड-19 चीन की वुहान लैब से लीक हो सकता है. चीन की वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलोजी वुहान के उस सीफूड मार्केट के पास ही है जहां 2019 में यह वायरस सामने आया और महामारी का रूप ले लिया.
इस ईमेल में अमेरिकी मीडिया वॉशिंगटन पोस्ट को 866 पन्नों का एक लीक ईमेल मिला है. इस ईमेल को 28 मार्च 2020 को चाइनीज सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के निदेशक जॉर्ज गाओ ने डॉ. फाउची को भेजा था. इस मेल में गाओ नेफाउची से अमेरिका में लोगों को मास्क पहनने के लिए प्रोत्साहित नहीं करने पर की गई अपनी आलोचना के लिए माफी मांगी थी. बता दें कि गाओ ने पहले कहा था कि अमेरिका अपने लोगों को मास्क पहनने के लिए न कहकर भारी गलती कर रहा है.
बाइडन ने 90 दिन में मांगी है रिपोर्ट
गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी अमेरिकी खुफिया एजेंसियों से कोविड-19 महामारी की उत्पत्ति की जांच के अपने प्रयासों को 'दोगुना' करने के लिए कहा. उन्होंने कहा कि यह निष्कर्ष निकालने के लिए अपर्याप्त सबूत हैं कि 'क्या यह किसी संक्रमित जानवर के साथ मानव संपर्क से उभरा है या प्रयोगशाला में हुई दुर्घटना से उभरा है.'
बाइडन ने एक बयान में कहा, 'अधिकांश खुफिया समुदाय को यह नहीं लगता है कि इसका आकलन करने के लिए पर्याप्त जानकारी है कि किसकी संभावना अधिक है.' उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को जांच में सहायता करने का निर्देश दिया और चीन से महामारी की उत्पत्ति को लेकर अंतरराष्ट्रीय जांच में सहयोग करने का आह्वान किया.
इससे पहले ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों का भी अब मानना है कि ऐसा 'संभव' है कि कोविड-19 महामारी चीन की प्रयोगशाला से कोरोना वायरस के लीक होने से फैली हो. एक मीडिया रिपोर्ट में रविवार को यह दावा किया गया. उसके बाद ब्रिटेन के टीका मंत्री नाधिम ज़हावी ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से इस घातक वायरस की उत्पत्ति के संबंध में पूर्ण जांच की मांग उठायी. कोविड-19 की उत्पत्ति व्यापक बहस का मुद्दा रही है. कई वैज्ञानिक एवं नेता इस घातक वायरस के प्रयोगशाला से फैलने की आशंका जता चुके हैं.
सूत्रों के हवाले से 'द संडे टाइम्स' ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि शुरुआत में ब्रिटेन समेत पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियों का विचार था कि इस बात की बेहद कम संभावना है कि कोरोना वायरस इस प्रयोगशाला से लीक हुआ, जहां चमगादड़ों में पाए जाने वाले वायरस पर अनुसंधान किया जाता है और यह वायररस कोविड-19 के वायरस से काफी मिलता -जुलता है.
संडे टाईम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, लेकिन अब इसको लेकर दोबारा आकलन किए जाने के बाद इस बात की संभावना को बल मिला है कि ये वायरस किसी प्रयोगशाला से निकलकर दुनिया में फैला. इस रिपोर्ट में सूत्रों का हवाला दिया गया है.
आईएस खत्म हो चुका है. पर उसकी विरासत जिंदा है. और सीरिया में सुलग रही है. अल होल कैंप में रह रहे हजारों बच्चे, जिनकी परवाह किसी को नहीं है, इस सुलगती विरासत को शोलों में बदल सकते हैं.
सीरिया का अल होल कैंप. देश के उत्तर पूर्व में स्थित इस कैंप में जगह-जगह बच्चे खेलते दिख जाएंगे. दिनभर वे कच्ची सड़कों पर इधर से उधर भागते रहते हैं. बाहर से आया कोई व्यक्ति उनके खेल देखकर चौंक सकता है लेकिन इस्लामिक स्टेट आतंकवादियों का रूप धरकर जब वे नकली तलवारें और काले झंडे उठाए दिखते हैं, तो वहां रहने वाले वयस्क नहीं चौंकते. इन बच्चों को यही शिक्षा मिल रही है. ज्यादातर पढ़ना-लिखना नहीं जानते. जिन्हें थोड़ी-बहुत शिक्षा अपनी मांओं से मिली है, वह आईएस का प्रोपेगैंडा ही है.
दो साल पहले आईएस को खत्म किया जा चुका है. लेकिन उसकी विरासत अल होल कैंप में मौजूद है. इस कैंप में इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने वाले लोगों के परिवार रह रहे हैं, 27 हजार बच्चों के साथ. इनमें से ज्यादातर अभी किशोर नहीं हुए हैं. उनका बचपन, अधर में लटका है. जिन हालात में वे रह रहे हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है. वर्तमान के नाम पर न स्कूल है, न खेल का मैदान. और किसी की भी उनकी हालत में कोई दिलचस्पी भी नहीं है. उनके पास अगर कुछ है तो इस्लामिक स्टेट नाम का गुजरा वक्त, जिसमें यदा-कदा वर्तमान की आहट सुनती रहती है. आज भी इस्लामिक स्टेट से सहानुभूति रखने वाले लोग और कार्यकर्ता इस कैंप में मौजूद हैं. पूर्वी सीरिया में इस्लामिक स्टेट के लोग थोड़े बहुत सक्रिय रहते हैं. और बहुत से निष्क्रिय हैं, लेकिन सिर्फ सही मौके की तलाश में.
यहां बचपन नहीं है
कुर्द अधिकारियों और सहायता समूहों को डर है कि यह कैंप उग्रवादियों की नर्सरी न बन जाए. उन देशों से बार-बार गुहार लगाई जा रही है कि अपनी नागरिक महिलाओं और बच्चों को यहां से ले जाएं. लेकिन वे देश भी इस डर में हैं कि इन बच्चों और महिलाओं के रूप में उनके यहां आतंकवादी न घुस जाएं. सेव द चिल्ड्रन्स की सीरिया रेस्पॉन्स निदेशक सोनिया खुश कहती हैं कि ये बच्चे आईएसआईएस के पीड़ित हैं.
वह बताती हैं, "चार साल के बच्चे की कोई विचारधारा नहीं होती. उसकी जरूरतें होती हैं. उसे सुरक्षा चाहिए और वह सीखना चाहता है. कैंप बच्चों के बड़े होने की जगह नहीं हो सकते. वहां उन्हें सीखने, समझने और अपना बचपन जी पाने का कोई मौका ही नहीं मिलता. जिस तरह के अनुभवों से वे गुजरे हैं, उनके घावों को भरने का मौका नहीं मिलता.”
कैंप के चारों ओर बाड़ लगी है. अंदर टेटों की लंबी कतारें हैं जो करीब एक वर्गमील में फैले हैं. हालात बुरे हैं. कई कई परिवार अक्सर एक ही टेंट में रहने को मजबूर होते हैं. स्वास्थ्य सुविधाएं नाम मात्र हैं. साफ पानी की उपलब्धता नगण्य है. सर्दी में बारिश होती है तो पानी टेंटों में भर जाता है. कई बार आग लग चुकी है. और इन हालात में 50 हजार सीरियाई और इराकी लोग रहने को मजबूर हैं जिनमें से 20 हजार बच्चे और बाकी ज्यादातर महिलाएं हैं. ये महिलाएं आईएस लड़ाकों की पत्नियां और विधवाएं हैं.
आईएस जिंदाबाद बोलने वाले
एक अलग भाग है, जहां पहरा बेहद कड़ा है. इस हिस्से में 57 देशों की दो हजार महिलाएं रहती हैं. इन्हें आईएस की सबसे कट्टर समर्थक माना जाता है. इन महिलाओं के साथ लगभग आठ हजार बच्चे भी हैं.
देखने भर से पता चल जाता है कि इन बच्चों पर इस्लामिक स्टेट का प्रभाव कितना ज्यादा है. जब रिपोर्टर्स वहां पहुंचे तो बच्चों ने पथराव शुरू कर दिया. दस साल का लगने वाला एक बच्चा चिल्लाया, "हम तुम्हें मार देंगे क्योंकि तुम काफिर हो. तुम अल्लाह के दुश्मन हो. हम इस्लामिक स्टेट हैं. तुम शैतान हो और मैं तुम्हें एक चाकू से मार दूंगा. मैं तुम्हें ग्रेनेड के धमाके से उड़ा दूंगा.”
एक अन्य बच्चे ने हाथ से गर्दन काटने का इशारा किया. कैंप के अंदर एक बाजार में महिलाएं शैंपू, बोतलबंद पानी और पुराने कपड़े बेच रही हैं. एक महिला ने रिपोर्टर को देखकर कहा, "इस्लामिक स्टेट जिंदाबाद.”
सीरिया और इराक के हिस्सों पर आईएस का अधिपत्य करीब पांच साल रहा. इस दौरान आईएस ने बच्चों को इस्लामिक स्टेट का पाठ पढ़ाने पर पूरा जोर दिया था. वे बच्चों को इस्लामिक कानून की बेहद क्रूर व्याख्या बता रहे थे. उन्होंने बच्चों को लड़ाके बनने की ट्रेनिंग दी, गुड़ियाओं का इस्तेमाल कर उन्हें सिर काटने सिखाए और प्रोपेगैंडा वीडियो में उनसे कत्ल तक करवाए.
बच्चों का क्या कसूर?
कैंप में सभी लोग कट्टर समर्थक नहीं हैं. वहां अलग-अलग तरह की महिलाएं हैं. कुछ आज भी आईएस जिंदाबाद बोलती हैं तो बहुत सी महिलाओं का मोहभंग हो चुका है. कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें इस्लामिक स्टेट से कोई लेना-देना नहीं था और उनके पति या परिवार वाले जबरन ले गए थे.
कैंप में रूसी मूल की एक महिला खुद को मदीना बकराव बताती है. वह कहती हैं कि उन्हें इन बच्चों के भविष्य के लिए डर लगता है, जिनमें उनका अपना एक बेटा और एक बेटी है. 42 साल की बकराव कहती हैं, "हम अपने बच्चों के लिए पढ़ाई चाहते हैं. उन्हें लिखना और गिनना आना चाहिए. हम अपने घर जाना चाहते हैं, जहां हमारे बच्चे अपना बचपन गुजार सकें.” बकराव पूरी तरह काले रंग से ढकी थीं. उनके हाथ पांव तक नजर नहीं आ रहे थे. उन्होंने बताया कि उनके पति की मौत हो चुकी है. लेकिन मौत कैसे हुई, यह नहीं बताया.
मार्च 2019 में आखिरी इलाके पर आईएस का कब्जा खत्म होने के बाद से कुर्द अधिकारी विदेशियों को उनके घर वापस भेजने का संघर्ष कर रहे हैं. इस साल की शुरुआत में सैकड़ों सीरियाई परिवार कैंप से अपने घर चले गए क्योंकि उनके कबीलों के साथ समझौता हो गया था जिसके तहत उन्हें स्वीकार कर लिया गया. पिछले महीने ही सौ इराकी परिवार सीरियाई कैंप छोड़कर इराक के एक कैंप में रहने चले गए. सोवियत रूस में शामिल रहे कुछ देशों ने अपने नागरिकों को वापस आने की इजाजत दी है. लेकिन अरब, यूरोपीय और अफ्रीकी देश आज भी इन लोगों को लेने को तैयार नहीं हैं.
यूएन की बच्चों की लिए काम करने वाली एजेंसी यूनिसेफ के मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के निदेशक टेड चाईबान कहते हैं कि इन बच्चों की तो कोई गलती नहीं है और इन्हें इनके माता-पिताओं के किए की सजा नहीं मिलनी चाहिए.
वीके एए (एपी)
अफगानिस्तान में नाटो और अमेरिकी सेना के लिए अनुवादक के रूप में काम करने वाले कई अफगान अंतरराष्ट्रीय सैनिकों की वापसी के साथ खुद भी देश छोड़ना चाहते हैं. वे डरे हुए हैं कि तालिबान उन्हें मार डालेगा.
कई पश्चिमी दूतावासों ने हजारों अफगान अनुवादकों और उनके परिवारों को वीजा जारी किया है, लेकिन कई अनुवादकों के वीजा आवेदन भी खारिज कर दिए गए हैं. कई आवेदक कहते हैं कि वीजा नहीं दिए जाने का उन्हें उचित कारण तक नहीं बताया गया. साल 2018 से लेकर 2020 तक अमेरिकी सेना के लिए अनुवादक रहे ओमीद महमूदी सवाल करते हैं, "जब एक मस्जिद में एक इमाम सुरक्षित नहीं है, एक स्कूल में 10 साल की बच्ची सुरक्षित नहीं है, तो हम कैसे सुरक्षित हो सकते हैं?"
विदेशी सैनिकों के साथ कर चुके हैं काम
नियमित पॉलीग्राफ टेस्ट में फेल होने के बाद महमूदी की नौकरी खत्म कर दी गई. दूतावास ने उसी आधार पर उनका अमेरिका के लिए वीजा आवेदन खारिज कर दिया. वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि एक पॉलीग्राफ टेस्ट, जो यह जानने की कोशिश करता है कि कोई व्यक्ति सच बोल रहा है या झूठ, जरूरी नहीं कि हर बार सटीक परिणाम दे. हालांकि, अमेरिका आज भी इस जांच का इस्तेमाल करता है, खास तौर से अत्यधिक संवेदनशील नौकरियों की भर्ती प्रक्रिया में.
कई अफगान जो वीजा हासिल करने में विफल रहे, उनका कहना है कि तालिबान उन्हें दोषी मानता है. महमूदी कहते हैं, "वे हमारे बारे में सब कुछ जानते हैं, तालिबान हमें माफ नहीं करेगा. वे हमें मार डालेंगे. वे हमारा सिर कलम कर देंगे."
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि जिन लोगों को विदेशी सैनिकों ने काम से हटा दिया है, उनके वीजा मामलों पर दोबारा से विचार किया जाना चाहिए क्योंकि तालिबान उन सभी लोगों के साथ अमेरिका के सहयोगी के रूप में व्यवहार करेगा.
उमर नाम के एक अनुवादक ने दस साल तक अमेरिकी दूतावास के साथ काम किया, लेकिन उनका भी करार रद्द कर दिया गया क्योंकि वह भी पॉलीग्राफ टेस्ट में फेल हो गए. उमर कहते हैं, "मुझे अमेरिका के लिए काम करने का अफसोस है, यह मेरी सबसे बड़ी गलती थी." उमर कहते हैं कि उनके चाचा और चचेरे भाई उन्हें "अमेरिकी एजेंट" मानते हैं.
परिवार के सदस्यों को नहीं मिलता वीजा
बीते दिनों काबुल में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान 32 साल के वहीदुल्ला हनीफी ने कहा कि उनके वीजा आवेदन को फ्रांसीसी अधिकारियों ने खारिज कर दिया था क्योंकि उनका मानना था कि उनकी जान को कोई खतरा नहीं है. हनीफी ने 2010 से 2012 तक फ्रांसीसी सेना के साथ काम किया. हनीफी के मुताबिक, "हम अफगानिस्तान में फ्रांसीसी सैनिकों की आवाज थे, लेकिन अब उन्होंने हमें तालिबान के हवाले कर दिया है. अगर मैं इस देश में रहता हूं, तो मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं है. फ्रांसीसी सेना ने हमें धोखा दिया है."
कई अफगान नागरिक भी हैं जिन्हें वीजा तो मिल गया लेकिन उनके परिवार के सदस्यों को वीजा नहीं जारी नहीं किया गया. ऐसी ही है 29 साल के जमाल की कहानी. जमाल ने ब्रिटिश सेना के साथ अनुवादक के रूप में काम किया. उन्हें 2015 में यूके में रेजीडेंसी दी गई थी, लेकिन छह साल बाद सिर्फ उनकी पत्नी को यूके आने की इजाजत दी गई. जमाल के पिता एक ब्रिटिश सैन्य अड्डे पर काम करते थे और अभी भी अफगानिस्तान में हैं. जमाल के मुताबिक, "जब आप ब्रिटिश सैनिकों के साथ काम करते हैं, तो आपको उनसे उम्मीद बंधी रहती है."
एए/वीके (एएफपी)
पाकिस्तान में ईशनिंदा के एक और मामले में मौत की सजा खारिज हो गई है. सालों से जेल में बंद पति-पत्नी को अब रिहाई मिल सकती है. लेकिन लगभग 80 लोग ऐसे ही खतरे के साये में जेलों में बंद हैं.
पाकिस्तान की एक अदालत ने एक इसाई पति-पत्नी को ईशनिंदा के आरोपों में मिली मौत की सजा खारिज कर दी है. गुरुवार को एक अदालत ने 2014 के निचली अदालत के फैसले को खारिज कर दिया. शफाकत इमानुएल मसीह और उनकी पत्नी शगुफ्ता कौसर मसीह पर अपने एक मुस्लिम सहकर्मी को ऐसे संदेश भेजेने का आरोप था, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर मुहम्मद साहब का अपमान किया था. मसीह पति-पत्नी खुद को अनपढ़ बताते हैं.
इस जोड़े ने दावा किया कि उनके मुस्लिम सहकर्मी ने उन्हें साजिशन फंसाया था क्योंकि उनका काम को लेकर कोई विवाद चल रहा था. शगुफ्ता की सहकर्मी ने कथित तौर पर उनके दस्तावेज चुराए और उनसे एक फोन व नंबर खरीद लिया था. मसीह पति-पत्नी को जब गिरफ्तार किया गया था, तब पाकिस्तान में फोन नंबर उपलब्ध करवाने वाली कंपनियां ग्राहकों से अंगूठे का निशान नहीं लगवाती थीं.
मसीह पति-पत्नी की इस मामले में रिहाई यूरोपीय संसद के अप्रैल में लाए गए एक प्रस्ताव का समर्थन करती है, जिसमें ईशनिंदा के बढ़ते मामलों पर चिंता जताई गई थी. इस मामले पर टिप्पणी करते हुए सांसदों ने कहा था कि मसीह दंपती के खिलाफ सबूत बहुत ज्यादा दोषपूर्ण हैं. यूरोपीय सांसदों ने मौत की सजा को फौरन और बिना किसी शर्त के खारिज करने की मांग की थी.
क्यों अहम है यह मामला?
गुरुवार को फैसले के बाद मसीह दंपती के वकील सैफुल मलूक ने कहा कि अगले हफ्ते तक दोनों के जेल से छूट जाने की उम्मीद है. उन्होंने कहा, "मुझे बहुत खुशी है कि हम उन्हें रिहा कराने में कामयाब रहे. वे समाज के सबसे कमजोर तबके से आते हैं.” मुस्लिम बहुल देश पाकिस्तान में ईशनिंदा बहुत गंभीर मामला है. देश के कई इलाकों में सिर्फ अफवाहों के कारण अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों पर हमले हो जाते हैं.
मसीह दंपती को जब गिरफ्तार किया गया था, तब वे अपने चार बच्चों के साथ गोजरा कस्बे में रहते थे. वहां, 2009 में एक कुरान को नुकसान पहुंचाए जाने की अफवाह फैलने पर भीड़ ने ईसाई मोहल्ले पर हमला कर दिया था, जिसमें कम से कम सात लोग मारे गए थे. इस दंपती के वकील सैफुल मसीह ने ही चर्चित आसिया बीबी मामले की वकालत भी की थी. बीबी को ईशनिंदा के मामले में मौत की सजा सुनाई गई थी.
हालांकि मीडिया में यह मामला काफी चर्चित हो गया था और पश्चिमी देशों के दबाव में आसिया बीबी की मौत की सजा पलट दी गई थी. 2018 में जब आसिया बीबी को रिहा किया गया तो देश में बड़े विरोध प्रदर्शन हुए थे. आसिया बीबी बाद में कनाडा चली गई थीं. स्थानीय अखबार डॉन की एक खबर के मुताबिक पाकिस्तान में आज भी लगभग 80 लोग ईशनिंदा के आरोपों में जेलों में बंद हैं. उनमें से कम से कम आधे मौत की सजा या उम्रकैद पा सकते हैं.
वीके/सीके (एएफपी, रॉयटर्स)
अफ्रीका में विदेशी सेनाओं के दखल के बावजूद हिंसक विवाद ज्यों के त्यों बने हुए हैं. महाद्वीप में कई जगह हिंसा लोगों का जीना लगातार दूभर किए हुए हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र के मिशन कोई मदद नहीं कर पाए हैं. क्यों?
डॉयचे वैले पर आईजैक मुगाबी की रिपोर्ट
जहां कहीं विवाद हिंसक हो जाता है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को लगता है कि उसमें हथियारबंद दखल की जरूरत है, वहां संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशन भेजे जाते हैं. मसलन, अफ्रीका में कई ऐसे अभियान चल रहे हैं. लेकिन ज्यादातर अभियान लगातार फेल होते जा रहे हैं. डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, दक्षिणी सूडान, माली और सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक जैसे देशों में संयुक्त राष्ट्र के शांति सैनिक ऐसे राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल से जूझ रहे हैं जिसे वे बहुत कम समझते हैं.
कई बार संयुक्त राष्ट्र के खिलाफ काम करने से हित भी जुड़े होते हैं. मसलन, 1999 में जब डीआरसी में संयुक्त राष्ट्र का स्थिरता अभियान (MONUSCO) शुरू किया गया था तो मकसद था हथियारबंद समूहों को खत्म करना, देश के अधिपत्य के खतरे को समाप्त करना और स्थिरता बढ़ाने वाली गतिविधियों के लिए सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराना. लेकिन आज तक भी विवादास्पद दक्षिणी और उत्तरी कीवू इलाकों में कानून का राज स्थापित नहीं हो पाया है. वहां दर्जनों मराऊडिंग मिलिशिया सक्रिय हैं जो हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसी गतिविधियां करते रहते हैं.
एसओएएस लंदन यूनिवर्सिटी के फिल क्लार्क कहते हैं कि यूएन के मिशन बहुत धीमे सीख रहे हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में क्लार्क ने कहा, "किंशासा में सरकार के साथ दोस्ताना संबंध बनाने के लिए यूएन मिशन को खासी मेहनत करनी पड़ी है. और वह सावधानीपूर्वक कॉन्लीज सेना के साथ खड़ा हो गया है जबकि यह सेना आम लोगों पर अत्याचार कर रही है.”
कांग्लो सरकार और शांति सेना के बीच इस तरह के संबंधों ने स्थानीय लोगों में मनमुटाव पैदा किया है और वे मिशन को निष्पक्ष नहीं मानते. अप्रैल में सैकड़ों युवाओं ने बेनी और गोमा शहरों में यूएन शांति मिशन के खिलाफ कई दिन तक प्रदर्शन किए. वे लोग मिशन की वापसी की मांग कर रहे थे क्योंकि ये खून-खराबा रोकने में विफल रहे.
फ्रीडिरष एबर्ट स्टिफ्टुंग में अफ्रीका विभाग के अध्यक्ष हेनरिक माईहैक कहते हैं कि अफ्रीका में संयुक्त राष्ट्र अभियानों के सामने रोज ऐसी दिक्कतें आ खड़ी होती हैं, जिनका उन्हें अंदाजा भी नहीं होता. माईहैक कहते हैं, "संबंधित देश की राजनीतिक इच्छा के कारण उनका हथियारबंद समूहों से सीधे बात करना भी संभव नहीं हो पाता.”
पिछले दो दशक से डीआरसी पर अध्ययन करने वाले क्लार्क मानते हैं कि पूर्वी कांगो में आमतौर पर यह माना जाता है कि यूएन शांति मिशन ने भले ही कुछ ना किया हो, पर उसका जाने से कुछ बुरा हो सकता है. वह बताते हैं, "यूएन मिशन आम नागरिकों पर रोजाना होने वाली हिंसा को थोड़ा-बहुत कम कर पाया है लेकिन नरसंहार और किसी खास समुदाय पर होने वाले हमलों का जवाब देने में वह बहुत धीमा रहता है.”
दक्षिण अफ्रीका के प्रेटोरिया में इंस्टीट्यूट ऑफ सिक्यॉरिटी स्टडीज में सीनियर शोधकर्ता डेविड जोनमेनो भी ऐसा ही मानते हैं. वह कहते हैं, "संयुक्त राष्ट्र का मिशन वहां कांगो के लोगों और सरकार के साथ मिलकर देश में सुरक्षा स्थापित करने के लिए है. लेकिन समस्या यह है कि देश की ज्यादातर राजनीतिक हस्तियां विद्रोही समूहों की ही पैदाइश हैं और वे अपने पुराने समूहों से संबंध बनाकर रखते हैं ताकि उनका इस्तेमाल राजनीतिक दबाव बनाने में कर सकें.”
कांगो के कुछ बड़े राजनेताओं को विद्रोही समूहों से फायदा भी पहुंचता है. जैसे कि राजनीतिक दबदबा बनाए रखने के लिए वे प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर पाते हैं. जब भी कांगो में कोई विवाद होता है, यूएन मिशन को सबसे आखिर में पता चलता है. और उसकी प्रतिक्रिया बहुत धीमी और आमतौर पर असरहीन होती है. सबसे आधुनिक हथियारों के बावजूद यूएन सेनाएं उत्तरी कीवू राज्य में सबसे बदनाम मिलिशिया अलायड डेमोक्रैटिक फोर्सेस (एडीएफ) से उलझने में नाकाम रही हैं. और एडीएफ, इलाके में सक्रिय 122 समूहों में से एक है लेकिन वे अब तक सबसे ज्यादा घातक साबित हुए हैं. मार्च में अमेरिका ने उन्हें इस्लामिक स्टेट से संबंध रखने वाले आतंकी समूहों की सूची में डाल दिया था.
माली में तख्तापलट का असर
संयुक्त राष्ट्र सेनाओं की मौजूदगी के बावजूद माली में तख्तापलट हो गया. उत्तरी माली में, जहां इस्लामिक संगठन सक्रिय हैं, वहां हालात लगातार गंभीर बने हुए हैं. फ्रांस ने अफ्रीका के साहेल इलाके में करीब पांच हजार सैनिक तैनात कर रखे हैं. इसके अलावा यूएन का शांति मिशन सक्रिय है जिसमें जर्मन सैनिक शामिल हैं. और संयुक्त राष्ट्र का एक अलग मिशन माली के सैनिकों के ट्रेनिंग दे रहा है. फिर भी, लगभग दो करोड़ लोगों की आबादी वाले इलाके में खून-खराबा जारी है जो बुरकीना फासो और नाइजर तक फैला हुआ है. माली में हुए तख्ता पलट के बाद फ्रांस ने सेनाएं वापस बुला लेने की धमकी दी थी.
अफ्रीका में शांति अभियानों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि 25 साल का अनुभव भी उसे सुधार नहीं पाया है. ऐसा लगता है कि ये अभियान स्थानीय लोगों की सुरक्षा के बजाय आर्थिक हितों के लिए वहां काम कर रहे हैं. जब तक शांति अभियानों की यह पूरी व्यवस्था नहीं बदलती, और उसका मकसद लोगों की सुरक्षा नहीं हो जाता, तब तक तो आबादी के पास मिलिशिया के रहम ओ करम पर जीने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. (dw.com)
नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफ़ज़ई का दिया गया लगभग हर बयान पाकिस्तान में चर्चा का विषय बन जाता है. लेकिन वोग मैगज़ीन को दिए गए उनके हाल ही के एक इंटरव्यू में, शादी और पार्टनरशिप पर की गई बातचीत ने तो जैसे सोशल मीडिया पर हंगामा ही मचा दिया.
मलाला यूसुफ़ज़ई ब्रिटिश फ़ैशन मैगज़ीन वोग के जुलाई अंक के कवर पेज पर हैं.
हालांकि, सोशल मीडिया पर यूज़र्स अब जिस बयान की बात कर रहे हैं, वह शादी के विषय पर मलाला की हिचकिचाहट के बारे में है.
वोग मैगज़ीन को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि "मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि लोग शादी क्यों करते हैं. अगर आपको जीवनसाथी चाहिए तो आप शादी के काग़ज़ों पर दस्तख़त क्यों करते हैं, यह एक पार्टनरशिप क्यों नहीं हो सकती?"
मलाला के इस बयान की सोशल मीडिया पर काफ़ी आलोचना हुई, जिसमें यूज़र्स ने इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किए.
बहुत से यूज़र्स ऐसे थे जो बातचीत की पृष्ठभूमि और वास्तविक अर्थ से अपरिचित होने के कारण तीखी आलोचना कर रहे थे और आलोचना इस हद तक बढ़ गई कि मलाला के पिता ज़ियाउद्दीन यूसुफ़ज़ई को यह समझाना पड़ा कि उनकी बेटी के इंटरव्यू को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा है.
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कुछ यूज़र्स ने इस बयान को "ग़ैर-इस्लामी" तक कहा, तो दूसरी तरफ़ कुछ लोगों ने एक जटिल मुद्दे पर अपने मन की बात कहने के लिए मलाला की प्रशंसा भी की. ऐसे लोग भी थे जिन्होंने बिना शादी के पार्टनर के साथ रहने को लेकर क़ानूनी पहलू पर बातें कीं और बिना कॉन्ट्रैक्ट के रिश्तों का नाजायज़ फ़ायदा उठाने पर भी बात की गई.
इस विषय पर यूज़र्स समाज में शादी के महत्व और इसके कारण महिलाओं को मिलने वाले अधिकारों के बारे में बात करते हुए भी दिखाई दिए. वहीं दूसरी ओर कई यूज़र्स यह कहते नज़र आए कि मलाला के बयान को ठीक तरह से समझा ही नहीं गया.
इस बयान पर होने वाली बहस का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पेशावर में क़ासिम अली ख़ान मस्जिद के इमाम मुफ़्ती पोपलज़ई की तरफ़ से किये गए एक ट्वीट में मलाला के पिता ज़ियाउद्दीन यूसुफ़ज़ई से सफ़ाई मांगी गई है.
उन्होंने लिखा, "सोशल मीडिया पर कल से एक ख़बर घूम रही है, कि आपकी बेटी मलाला यूसुफ़ज़ई ने शादी को स्पष्ट रूप से ख़ारिज करते हुए कहा है कि शादी करने से बेहतर है कि निकाह के बजाय पार्टनरशिप की जाए. इस बयान से हम सभी बेहद आहत हैं. आप स्पष्ट करें."
इसके जवाब में मलाला के पिता ने लिखा, ''प्रिय मुफ़्ती पोपलज़ई साहब, ऐसी कोई बात नहीं है. मीडिया और सोशल मीडिया ने उनके इंटरव्यू के अंश को तोड़-मरोड़ कर अपनी-अपनी व्याख्याओं के साथ शेयर किया हैं और बस."
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मलाला ने इंटरव्यू में क्या कहा?
लेकिन मलाला ने इस इंटरव्यू में ऐसा क्या कहा जो इतना विवाद बन गया है.
निश्चित रूप से आपने सोशल मीडिया पर इंटरव्यू में मलाला का दिया गया 'विवादास्पद बयान' पढ़ा होगा, लेकिन इससे पहले और बाद में जो कहा गया, वह आपने नहीं सुना होगा. इसलिए सबसे पहले हम आपको मलाला की तरफ़ से प्रेम संबंधों पर कही गई बातों को बताते हैं.
वोग पत्रिका की सीरीन केल के साथ एक इंटरव्यू में, मलाला प्रेम संबंधों के बारे में शुरुआती सवालों से शर्मा गई थीं. केल के अनुसार, वह उन्हें और परेशान नहीं करना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने बातचीत का रुख़ बदल दिया.
हालांकि इस इंटरव्यू के ख़त्म होने के बाद मलाला ने ख़ुद से ही प्यार और रिश्तों के बारे में बात करनी शुरू की. मलाला ने बताया कि "उनके सभी दोस्तों को पार्टनर मिल रहे हैं, लेकिन वो इस बारे में कन्फ़्यूज़ हैं."
उन्होंने कहा, कि "सोशल मीडिया पर हर कोई अपने प्रेम संबंधों के बारे में लिखता है तो आप परेशान हो जाते हैं. क्या आप किसी पर भरोसा कर सकते हैं, और यह बात आप कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं?"
मलाला अपने माता-पिता की शादी को अरेंज्ड प्यार का नाम देती हैं, यानी वे एक-दूसरे से प्यार करते थे, लेकिन शादी उनके माता-पिता की इच्छा से हुई थी. हालांकि, मलाला ख़ुद यह नहीं जानतीं कि वह कभी शादी करेंगी या नहीं.
"मुझे यह बात समझ नहीं आती कि लोग शादी क्यों करते हैं. अगर आप जीवन साथी चाहते हैं, तो आपको शादी के काग़ज़ों पर हस्ताक्षर क्यों करने हैं? यह पार्टनरशिप क्यों नहीं हो सकती?"
मलाला ने यह भी कहा कि उनकी मां उनकी इस बात से सहमत नहीं हैं और वो कहती हैं कि, ''तुम फिर कभी ऐसी बात नहीं करोगी. तुम्हें शादी करनी है, शादी एक बहुत ख़ूबसूरत रिश्ता है.''
इस बीच, पाकिस्तान के लड़के उनके पिता को ईमेल के ज़रिए मलाला से शादी करने की पेशकश करते हैं.
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मलाला कहती हैं, कि "यूनिवर्सिटी के दूसरे वर्ष तक, मैं यही सोचती थी कि मैं कभी शादी नहीं करूंगी, बच्चे पैदा नहीं करूंगी, बस काम करूंगी. मैं ख़ुश रहूंगी और हमेशा अपने परिवार के साथ रहूंगी. लेकिन मुझे नहीं पता था कि हम हमेशा एक जैसे इंसान नहीं रहते. हमारे अंदर बदलाव आता है और हमारी सोच बदल जाती है."
"सबसे अच्छी शादी वास्तव में पार्टनरशिप होती है."
पत्रकार सबाहत ज़करिया ने इस विषय पर मलाला का समर्थन करते हुए कहा, कि "मलाला उन लोगों के जमे हुए दिमाग़ को हिलाने में कामयाब हुई हैं जो वह सब कुछ मान लेते हैं, जो उन्हें यह समाज बताता है."
उन्होंने आगे लिखा है "रिश्ते कैसे होने चाहिए यह अपने आप में एक बहुत ही दिलचस्प विषय है और इस पर मलाला की ताज़गी से भरपूर राय सुनकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई. सभी अच्छी शादियां असल में पार्टनरशिप ही होती हैं."
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शाहबाज़ तासीर ने लिखा कि आप एक तरफ़ 'फ़लस्तीन आज़ाद करो' का नारा और दूसरी तरफ़ तालिबान के हाथों घायल होने वाली लड़की को बुरा-भला नहीं कह सकते.
उन्होंने कहा, "मलाला की तरफ़ से जवानी में शादी के बारे में सवाल करना और यह कहना कि वह अपने परिवार को नहीं छोड़ना चाहती थीं, यह एक बेटी की तरफ़ से की गई बहुत ही ख़ूबसूरत बात है."
हालांकि बानो नामक यूज़र ने क़ानूनी बिंदु बताते हुए मलाला के बयान को त्रुटिपूर्ण बताया.
उन्होंने इस बारे में एक थ्रेड लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि मैं शादी के बिना साथ रहने के रिश्ते का जितना समर्थन करती हूं, वह अपनी जगह पर है, लेकिन मैं फिर भी यह नहीं कह सकती कि शादी ज़रूरी नहीं क्योंकि इसका क़ानूनी महत्व अपनी जगह है.
उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा, कि "ज़्यादातर देश जैसे पाकिस्तान में पार्टनर की कोई अहमियत नहीं होती. शादी आपको अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए एक क़ानूनी रास्ता देती है. ब्रिटेन में भी आपको एक कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करने होते हैं. हमें यहां शादी को दो लोगों के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट के रूप में देखना होगा."
"जहां महिलाओं को शादी के दौरान और इसके बाद अधिकार नहीं दिए जाते, वहां एक बिना कॉन्ट्रैक्ट के रिश्ते में पुरुष कितने नाजायज़ फ़ायदे उठायेंगे?"
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इस संबंध में मेराज हसन ने लिखा कि बिना शादी के पार्टनरशिप करने का उन पुरुषों को फ़ायदा होता है जो महिलाओं के शरीर का नाजायज़ फ़ायदा उठाना चाहते हैं और कोई ज़िम्मेदारी लिए बिना रिश्ता ख़त्म कर देते हैं.
"शादी को इन चीज़ों को रोकने के लिए ही डिज़ाइन किया गया है और इसमें तलाक़ के बाद के ख़र्च देने और हक़ मेहर जैसी शर्तें शामिल होती हैं. उन्होंने लिखा कि "पश्चिम में महिलाओं के पास यह सुरक्षा नहीं है."
ज़्यादातर यूज़र्स मलाला के बयान को ग़ैर-इस्लामी बताते दिखे, लेकिन इस बारे में एडवोकेट जलीला हैदर ने मलाला के समर्थन में ट्वीट करते हुए इन लोगों को जवाब दिया.
उन्होंने कहा, "बलूचिस्तान और क़बाइली इलाक़ों में आज भी जब निकाह पढ़ाई जाती है तो हमारे बुज़ुर्गों की ज़ुबान ही निकाह की गवाही होती है, काग़ज़ नहीं."
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इस संबंध में अभिनेत्री मथिरा के एक बयान की ख़ूब चर्चा हुई. जिसमें उन्होंने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट में कहा कि मुझे कवर पेज पर उनकी तस्वीर बहुत पसंद आई है, लेकिन हमें इस पीढ़ी को शादी के महत्व और सुन्नत के अनुसार उसका पालन करने के बारे में बताना है.
"यह कोई प्लॉट की ख़रीदारी नहीं है जिसके लिए आप दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर कर रहे हैं, बल्कि इसका मतलब दुआओं के साये में एक नया जीवन शुरू करना है."
उन्होंने आगे कहा कि "जबरन शादी ग़लत है, कम उम्र में शादी ग़लत है और हिंसक रिश्तों की भी निंदा की जानी चाहिए लेकिन अल्लाह के लिए इस रिश्ते को स्थापित करना भी अच्छा है."
यह बहस तो शायद कभी ख़त्म न हो, लेकिन अधिकांश यूज़र्स इसमें हास्य और व्यंग का पहलु ढूंढते नज़र आये.
पत्रकार मारिया मेमन ने लिखा है कि जितनी ऊर्जा हम मलाला से नफ़रत करने में लगा देते हैं, अगर वह ऊर्जा सकारात्मक तरीक़े से लगे, तो पाकिस्तान बिजली उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बन जाएगा.
एक यूज़र अरहम ने व्यंग्य करते हुए लिखा कि मलाला ने हमारे समाज के सबसे सम्मानित रिश्ते, शादी का अपमान किया है, जिसका मतलब है कि उसने (अपनी राय व्यक्त करके) हमारे देश, संस्कृति और धर्म का अपमान किया है. हम इससे कैसे उबर सकते हैं? मेरे माता-पिता का तलाक़ होने वाला है.
वोग के कवर पर प्रतिक्रिया
इससे पहले ट्विटर पर वोग मैगज़ीन के जुलाई अंक की कवर फ़ोटो शेयर करते हुए मलाला ने लिखा था, "मैं जानती हूं कि एक जवान लड़की जिसका कोई मिशन, कोई विचारधारा हो उसके दिल में कितनी ताक़त होती है. और मुझे उम्मीद है कि हर लड़की जो इस कवर को देखेगी उसे पता होगा कि वह भी दुनिया को बदल सकती है."
ध्यान रहे कि ये शब्द वोग को दिए गए मलाला के हालिया इंटरव्यू से हैं, जिसमें उन्होंने अपने परिवार, अपने भविष्य और सांस्कृतिक रूप से अपने पहनावे के महत्व पर बात की थी.
मलाला ने अपने इंटरव्यू में यह भी कहा था कि "यह पहनावा प्रतिनिधित्व करता है कि मैं कहाँ से आई हूँ."
उन्होंने कहा, "मुस्लिम लड़कियां या पश्तून लड़कियां या पाकिस्तानी लड़कियां, जब हम अपने पारंपरिक कपड़े पहनते हैं, तो हमें उत्पीड़ित या बे-आवाज़ या पुरुषों के संरक्षण में जीवन गुज़ारने वाला माना जाता है."
"मैं सभी को बताना चाहती हूं कि आप अपनी संस्कृति में अपनी आवाज़ बन सकते हैं."
सोशल मीडिया पर पाकिस्तान समेत दुनिया भर में वोग के कवर पेज की सराहना हो रही है.
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बीना शाह ने लिखा है, "ज़्यादातर लोग वोग के कवर पेज पर आने को सम्मान मानते हैं, लेकिन मलाला के मामले में यह वोग के लिए एक बड़ा सम्मान है."
ब्रिटिश पत्रकार सीरीन काले ने लिखा है, "यह एक सपना था जो सच हो गया. मैं कभी भी मलाला जैसे किसी और व्यक्तित्व से नहीं मिली."
एक अन्य यूज़र ने लिखा है, "मलाला हमेशा की तरह सलवार क़मीज़ पहनकर और सिर ढके हुए. यह शायद वोग का अपनी तरह का पहला कवर पेज है."
एक और यूज़र ने लिखा, "वोग के कवर पेज पर मलाला, यह मेरी तरह का ग्लैमर है."
इमरान मुनीर ने लिखा है, "यह पाकिस्तान के लिए गर्व का क्षण है. वह अपने देश की संस्कृति को पेश कर रही हैं."
लेकिन बात मलाला की हो और उनकी आलोचना न की जाये यह कैसे संभव है. कुछ यूज़र्स जो मलाला को पसंद नहीं करते, उन्होंने वोग के कवर पेज पर उनकी तस्वीर पर सवाल भी उठाये.
एक यूज़र ने मलाला के ट्वीट के जवाब में लिखा, "आप फ़लस्तीनियों और कश्मीरियों के लिए आवाज़ उठा सकती थीं, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया. मेरी इच्छा है कि, इस कवर को देखने वाली हर लड़की को पता होता कि आपके पास बदलाव लाने का एक मौक़ा था, लेकिन आपने अपने मक़सद के लिए ऐसा नहीं किया."
याद रहे कि मलाला यूसुफ़ज़ई को अक्टूबर 2012 में तालिबान के जानलेवा हमले के बाद इलाज के लिए इंग्लैंड भेजा गया था और ठीक होने के बाद वह शिक्षा के लिए वहीं रह रही हैं.
मलाला ने पिछले साल ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र में डिग्री हासिल की थी और उन्हें 2014 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. वह दुनिया में अब तक की सबसे कम उम्र की नोबेल पुरस्कार विजेता हैं.
मलाला लगभग एक दशक से लड़कियों को शिक्षित करने के मिशन पर काम कर रही हैं. (bbc.com)
पाकिस्तान की एक अदालत ने एक ईसाई पति-पत्नी को ईशनिंदा के जुर्म में सुनाई गई मौत की सज़ा से बरी कर दिया है. सुबूतों के अभाव में कोर्ट ने इस फ़ैसला पलट दिया.
शगुफ़्ता कौसर और उनके पति शफ़क़त इमैनुअल को 2014 में पैगंबर मोहम्मद के अपमान के जुर्म में सज़ा सुनाई गई थी.
इस दंपती के वकील सैफ़ अल मलूक ने गुरुवार को बताया कि लाहौर हाईकोर्ट ने दोनों को बरी कर दिया है.
वहीं अभियोजन पक्ष ने न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि इस फ़ैसले को आगे चुनौती दी जाएगी.
पाकिस्तान में ईशनिंदा के जुर्म में मौत की सज़ा तक हो सकती है. हालांकि, आज तक किसी को इस जुर्म में फांसी नहीं दी गई है, लेकिन ईशनिंदा का आरोप लगने के बाद दर्जनों लोग भीड़ के हाथों हत्या के शिकार हुए हैं.
मलूक ने न्यूज़ एजेंसी एएफ़पी से बात करते हुए कहा, 'मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी है कि हम उस जोड़े को रिहा कराने में कामयाब हुए हैं, जो हमारे समाज के कुछ सबसे असहाय लोगों में से एक हैं.'
उन्होंने उम्मीद जताई है कि अगले हफ़्ते कोर्ट का आदेश जारी होने पर ये लोग रिहा हो जाएंगे.
मानवाधिकार संगठनों ने इस फ़ैसले का स्वागत किया है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल के दक्षिण एशिया के डिप्टी डायरेक्टर दिनुसिका दिसानायके ने अपने एक बयान में कहा, "इस फ़ैसले ने सात साल के अग्निपरीक्षा दे रहे इस जोड़े के संघर्ष पर विराम लगा दिया है. इस जोड़े को पिछली अदालत में ही मौत की सज़ा नहीं होनी चाहिए थी."
क्या था आरोप?
इस शादीशुदा जोड़े को 2014 में ईशनिंदा के जुर्म में मौत की सज़ा सुनाई गई थी. इन पर आरोप था कि इन्होंने एक स्थानीय इमाम को फ़ोन पर पैगंबर मोहम्मद के बारे में अपमानजनक संदेश भेजा था. जिस नंबर से मेसेज भेजा गया था, वो कौसर के नाम पर दर्ज था.
कौसर ने भाई ने पिछले साल बीबीसी से बातचीत में कहा था कि ये जोड़ा बेक़ुसूर है. उन्होंने इस जोड़े के इतना पढ़े-लिखे होने पर संदेह जताया था कि वो एक अपमानजनक मेसेज लिखकर भेज सकें.
कौसर एक ईसाई स्कूल में देखभाल का काम करती हैं. उनके पति आंशिक रूप से लकवाग्रस्त हैं.
मानवाधिकार संगठनों का मानना है कि पाकिस्तान में आपसी रंज़िश के मामलों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए ईशनिंदा के ख़ूब आरोप लगाए जाते हैं.
इस जोड़े के वकील ने पिछले साल बीबीसी को बताया था कि मुक़द्दमे में उन्होंने ये दलील पेश की थी कि इस जोड़े का एक ईसाई पड़ोसी के साथ कुछ विवाद था. हो सकता है कि उन्होंने कौसर के नाम पर एक सिमकार्ड ख़रीदकर उन्हें फंसाने के लिए उस नंबर से ईशनिंदा का मेसेज भेजा हो.
अप्रैल में यूरोपीय संसद ने धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में विफल रहने के मुद्दे पर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ निंदा-प्रस्ताव पारित किया था. इस प्रस्ताव के केंद्र में कौसर और इमैनुअल का मामला था.
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट से बरी होने के बाद आसिया बीबी पाकिस्तान छोड़कर चली गई थीं. ईशनिंदा के आरोप में उन्हें एक दशक से ज़्यादा वक़्त तक जेल में रहना पड़ा था. सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले का तमाम कट्टरपंथी संगठनों ने हिंसक विरोध किया था.
पाकिस्तान में ईसाई
मुस्लिम बहुल आबादी वाले पाकिस्तान में ईसाइयों की तादाद 1.6 फ़ीसदी है.
इनमें से ज़्यादातर उन हिंदुओं के वंशज हैं, जिन्होंने ब्रितानी शासन के दौरान ईसाई धर्म कुबूल कर लिया था.
इनमें से कई वो लोग थे, जो अपने कथित निचले दर्जे से उबरने के लिए ईसाई बन गए. इनमें से कई पाकिस्तान में सबसे ग़रीब तबके से आते हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी जंग की वजह से भी ईसाइयों के प्रति ग़ुस्से और ईशनिंदा क़ानून के तहत उन पर शिकंजा कसने के मामले बढ़े हैं. (bbc.com)
अमेरिकी उप राष्ट्रपति कमला हैरिस और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच गुरुवार को वैक्सीन सप्लाई पर बातचीत हुई. अमेरिका ने वैश्विक टीका साझेदारी के तहत भारत को भी वैक्सीन सप्लाई का आश्वासन दिया है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट
दोनों नेताओं के बीच फोन पर बातचीत के बाद मोदी ने ट्वीट कर कहा, "कुछ देर पहले उप राष्ट्रपति कमला हैरिस से बात हुई है. मैंने वैश्विक टीका साझेदारी के लिए अमेरिकी रणनीति के हिस्से के रूप में भारत को वैक्सीन की सप्लाई के आश्वासन की सराहना की. इसके अलावा अमेरिकी सरकार, कारोबारियों और प्रवासी भारतीयों से मिले समर्थन के लिए भी उनका धन्यवाद दिया."
उन्होंने एक और ट्वीट में लिखा, "भारत-अमेरिका के बीच टीका साझेदारी को और मजबूत करने के लिए जारी प्रयासों और कोविड-19 के बाद स्वास्थ्य व आर्थिक क्षेत्र के सुधार में योगदान देने की दोनों देशों की साझेदारी की संभावनाओं पर भी हमने चर्चा की."
बीते दिनों भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपने अमेरिका दौरे के दौरान राष्ट्रपति बाइडेन प्रशासन के अहम अधिकारियों से मुलाकात की थी और वैक्सीन साझेदारी पर भी चर्चा हुई थी. अमेरिका ने गुरुवार को घोषणा की कि वह अपनी "वैश्विक वैक्सीन साझा करने की रणनीति" के तहत भारत को कोविड-19 टीका देगा.
अमेरिका करेगा अन्य देशों से टीका साझा
गुरुवार को अमेरिका ने वैश्विक वैक्सीन सप्लाई नीति के बारे में घोषणा करते हुए कहा कि शुरुआत में 2.5 करोड़ डोज सप्लाई होंगे. उसने कहा कि वह वैक्सीन उत्पादन के लिए अमेरिका द्वारा निर्मित आपूर्ति तक अन्य देशों की पहुंच को आसान बनाएगा. विकसित और विकासशील देशों के बीच वैक्सीन की भारी असमानता को देखते हुए बाइडेन ने इस महीने तक वैक्सीन की आठ करोड़ डोज उपलब्ध कराने की घोषणा की है. राष्ट्रपति ने कहा कि बिना किसी राजनीतिक समर्थन की उम्मीद के वे टीका देंगे.
बाइडेन ने बयान में कहा कोवैक्स अंतरराष्ट्रीय वैक्सीन साझा कार्यक्रम के तहत 1.9 करोड़ डोज दान किए जाएंगे. इस कार्यक्रम के तहत करीब 60 लाख खुराक लातिन अमेरिकी और कैरेबियाई देशों को दी जाएंगी. इसके अलावा करीब 70 लाख डोज दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया को दिए जाएंगे और 50 लाख डोज अफ्रीकी देशों को भेजे जाएंगे. बाकी बची 60 लाख खुराक उन देशों को भेजी जाएंगी जहां कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. इनमें कनाडा, मेक्सिको, भारत और दक्षिण कोरिया शामिल हैं.
अमेरिका ने 2.5 करोड़ डोज का पहला बैच भेजने की तैयारी कर ली है.
बाइडेन ने कहा, "हम इन टीकों की आपूर्ति जान बचाने के लिए और महामारी को समाप्त करने के लिए कर रहे हैं. महामारी की समाप्ति के लिए अमेरिका अपनी शक्ति और मूल्यों के साथ दुनिया का नेतृत्व कर रहा है." अमेरिका के ऐलान के बाद भारत को इस महीने के अंत वैक्सीन मिलने की उम्मीद जताई जा रही है.
यूएफओ देखे जाने की घटनाओं पर अमेरिकी संसद में एक दिलचस्प रिपोर्ट पेश होने वाली है. न्यू यॉर्क टाइम्स अखबार का दावा है कि रिपोर्ट में इनके एलियन के विमान होने से इनकार किया गया है. तो फिर ये हैं क्या?
न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों को इस बात का कोई सबूत नहीं मिला है कि बीते सालों में नौसेना के विमान पायलटों द्वारा देखे गए ये अज्ञात विमान एलियन के अंतरिक्ष विमान थे. हालांकि इस विषय पर जल्द ही जारी होने वाली अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट में इस तरह के विमानों के देखे जाने के रहस्य का पूरी तरह से खुलासा नहीं किया गया है.
अखबार के मुताबिक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पिछले दो दशकों में दर्ज की गई इस तरह की घटनाओं में से अधिकतर के पीछे ना तो अमेरिकी सेना की कोई तकनीक थी ना अमेरिकी सरकार के किसी और विभाग की विकसित तकनीक. अखबार का दावा है कि यह जानकारी उसे रिपोर्ट से परिचित अमेरिकी सरकार के अधिकारियों ने दी है. इस रिपोर्ट के लिए अध्ययन अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन की एक टास्क फोर्स ने किया था.
इसमें 120 से भी ज्यादा ऐसी घटनाएं शामिल हैं, जिनकी खबर अमेरिकी नौसेना के अधिकारियों ने दी थी. अखबार ने कहा कि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों को विश्वास है कि इनमें से कुछ घटनाओं के पीछे तो किसी प्रतिद्वंदी देश की प्रयोगात्मक तकनीक का हाथ हो सकता है. एक अनाम वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ने अखबार को बताया कि अमेरिकी खुफिया तंत्र और सैन्य अधिकारियों को चिंता है कि संभव है कि चीन या रूस हाइपरसॉनिक तकनीक के साथ प्रयोग रहे हैं.
खारिज नहीं हुई यूएफओ थ्योरी
द टाइम्स ने कहा रिपोर्ट 25 जून तक संसद में पेश की जा सकती है और इसमें और भी कुछ निष्कर्ष सामने आएंगे. वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि रिपोर्ट की अस्पष्टता का मतलब है कि सरकार निर्णायक ढंग से इन अनुमानों को खारिज नहीं कर पाई है कि यह अज्ञात विमान परग्रही हो सकते थे. सरकार ने इस यूएपी टास्क फोर्स का गठन इस तरह की कई घटनाओं के सामने आने के बाद किया था.
सेना के पायलटों ने कई बार अज्ञात चीजों को ऐसी गति और फुर्ती से उड़ते देखा जो ज्ञात तकनीक और भौतिक-विज्ञान के नियमों के परे हैं. पेंटागन की प्रवक्ता सू गो ने बताया कि नौसेना के नेतृत्व में इस टास्क फोर्स का गठन पिछले साल किया गया था ताकि "हमारे प्रशिक्षण क्षेत्रों और निर्धारित हवाई क्षेत्र में देखे गए यूएपी के बारे में जानकारी हासिल की जा सके और उन्हें समझा जा सके."
सू ने कहा कि ऐसी घटनाएं चिंता का विषय हैं क्योंकि इनमें सुरक्षा के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी चिंताएं हैं. दिसंबर 2017 से सरकारी शब्दावली में यूएफओ (अनआइडेंटिफाइड फ्लाइंग ऑब्जेक्ट्स) को यूएपी (अनआइडेंटिफाइड एरियल फेनोमेना) में बदल दिया गया है. उसी समय पेंटागन ने पहली बार आधिकारिक तौर पर बताया था कि उसके युद्ध विमानों और जहाजों ने यूएपी घटनाओं को दर्ज कराया था और उनकी सूची बनाने की कोशिश चल रही है. यह पहली बार था जब इसे एक वर्जित विषय समझने की दशकों पुरानी नीति को बदला गया था.
सीके/एए (रॉयटर्स)