विचार/लेख
-डॉ. राजू पाण्डेय
साम्प्रदायिक एकता गांधी जी के लिए महज एक आदर्श नहीं थी वह उनकी आत्मा में रची बसी थी। साम्प्रदायिक सद्भाव तथा समरसता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की कल्पना इसी बात से की जा सकती है कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे साम्प्रदायिक हिंसा से आहत थे, व्यथित थे, राष्ट्र ध्वज फहराने तथा राष्ट्र के नाम संदेश देने के अनिच्छुक थे और नोआखाली के ग्रामों की संकीर्ण गलियों में अपने प्राणों की परवाह किए बिना प्रेम, दया, क्षमा और करुणा का संदेश दे रहे थे। गांधी जी ने बहुत पहले ही यह संकेत कर दिया था कि अधिनायकवादी नजरिया रखने वाली और देश की विविधताओं और संघीय ढांचे की अनदेखी करने वाली कथित रूप से मजबूत सरकार जब जब लोगों पर बलपूर्वक राजनीतिक एकता थोपने का प्रयास करेगी तब तब दूरियां घटने के बजाए बढ़ेंगी और एकता के स्थान पर बिखराव और हिंसक असन्तोष को बढ़ावा मिलेगा। गांधीजी के अनुसार - "कौमी या सांप्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीतिक एकता नहीं है। राजनीतिक एकता तो जोर जबरदस्ती से भी लादी जा सकती है। मगर एकता के सच्चे मानी तो यह है - वह दिली दोस्ती जो किसी के तोड़े न टूटे। इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेस जन, फिर वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों अपने को हिंदू,मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी वगैरह सभी कौमों का नुमाइंदा समझें। हिंदुस्तान से करोड़ों बाशिंदों में से हर एक के साथ वे अपनेपन का, आत्मीयता का अनुभव करें यानी कि उनके सुख-दुख में अपने को उनका साथी समझें। इस तरह की आत्मीयता सिद्ध करने के लिए हर एक कांग्रेसी को चाहिए कि वह अपने धर्म से भिन्न धर्म का पालन करने वाले लोगों के साथ निजी दोस्ती कायम करे और अपने धर्म के लिए उसके मन में जैसा प्रेम हो, ठीक वैसा ही प्रेम दूसरे धर्म से भी करे।" (रचनात्मक कार्यक्रम, पृष्ठ 11-12)।
पिछले सात वर्षों में गोरक्षकों द्वारा हिंसा और मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाएं चिंता उत्पन्न करती हैं। इधर सांप्रदायिकता का जहर जैसे जैसे फैल रहा है हम देखते हैं कि मुसलमानों को सड़कों पर नमाज पढ़ने से रोकने के लिए हिन्दू समुदाय भी सड़क पर आरती और हनुमान चालीसा के पाठ जैसे आयोजन कर रहा है। एक समुदाय की धार्मिक प्रार्थनाएं दूसरे समुदाय हेतु असहनीय शोर का रूप ग्रहण कर रही हैं। इस प्रकार हिंसक संघर्ष की स्थिति बार बार बन रही है। यंग इंडिया में आज से लगभग 88 वर्ष पूर्व महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई यह पंक्तियां इन दोनों दुर्भाग्यपूर्ण और लज्जाजनक प्रवृत्तियों का न केवल सम्पूर्ण विश्लेषण करती हैं बल्कि उनका प्रायोगिक समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। गांधी जी लिखते हैं- "हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी आदि को अपने मतभेद हिंसा का आश्रय लेकर और लड़ाई झगड़ा करके नहीं निपटाने चाहिए। हिंदू और मुसलमान मुंह से तो कहते हैं कि धर्म में जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं है लेकिन यदि हिंदू गाय को बचाने के लिए मुसलमान की हत्या करें तो वह जबरदस्ती के सिवा और क्या है। यह तो मुसलमान को बलात हिंदू बनाने जैसी ही बात है। इसी तरह यदि मुसलमान जोर-जबरदस्ती से हिंदुओं को मस्जिदों के सामने बाजा बजाने से रोकने की कोशिश करते हैं तो यह भी जबरदस्ती के सिवा और क्या है। धर्म तो इस बात में है कि आसपास चाहे जितना शोरगुल होता रहे फिर भी हम अपनी प्रार्थना में तल्लीन रहें। यदि हम एक दूसरे को अपनी धार्मिक इच्छाओं का सम्मान करने के लिए बाध्य करने की बेकार कोशिश करते रहें तो भावी पीढ़ियां हमें धर्म के तत्वों से बेखबर जंगली ही समझेंगी।"
गांधीजी के अनुसार "गोरक्षा को मैं हिंदू धर्म का प्रधान अंग मानता हूं। प्रधान इसलिए कि उच्च वर्गों और आम जनता दोनों के लिए यह समान है। फिर भी इस बारे में हम जो केवल मुसलमानों पर ही रोष करते हैं, यह बात किसी भी तरह से मेरी समझ में तो नहीं आती। अंग्रेजों के लिए तो रोज इतनी गाय कटती है किंतु इस बारे में तो हम कभी जबान तक भी शायद ही हिलाते होंगे। केवल जब कोई मुसलमान गाय की हत्या करता है तभी हम क्रोध के मारे लाल पीले हो जाते हैं। गाय के नाम से जितने झगड़े हुए हैं उनमें से प्रत्येक में निरा पागलपन भरा शक्ति क्षय हुआ है। इससे एक भी गाय नहीं बची। उलटे मुसलमान ज्यादा जिद्दी बने हैं और इस कारण ज्यादा गायें कटने लगी हैं। गोरक्षा का प्रारंभ तो हम ही को करना है हिंदुस्तान में पशुओं की जो दुर्दशा है वह ऐसी दुनिया के किसी भी दूसरे हिस्से में नहीं है। हिंदू गाड़ी वालों को थक कर चूर हुए बैलों को लोहे की तेज आर वाली लकड़ी से निर्दयता पूर्वक हांकते देख कर मैं कई बार रोया हूं। हमारे अधभूखे रहने वाले जानवर हमारी जीती जागती बदनामी के प्रतीक हैं। हम हिंदू गाय को बेचते हैं इसीलिए गायों की गर्दन कसाई की छुरी का शिकार होती है। ऐसी हालत में एकमात्र सच्चा और शोभास्पद उपाय यही है कि हम मुसलमानों के दिल जीत लें और गाय का बचाव करना उनकी शराफत पर छोड़ दें। गोरक्षा मंडलों को पशुओं को खिलाने पिलाने, उन पर होने वाली निर्दयता को रोकने, गोचर भूमि के दिन रात होने वाले लोप को रोकने, पशुओं की नस्ल सुधारने, गरीब ग्वालों से उन्हें खरीद लेने और मौजूदा पिंजरापोलों को दूध की आदर्श स्वावलंबी डेयरी बनाने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ऊपर बताई हुई बातों में से एक के भी करने में हिंदू चूकेंगे तो वे ईश्वर और मनुष्य दोनों के सामने अपराधी ठहरेंगे। मुसलमानों के हाथ से होने वाले गोवध को वे रोक न सकें तो इसमें उनके पाप नहीं चढ़ता लेकिन जब गाय को बचाने के लिए मुसलमानों के साथ झगड़ा करने लगते हैं तब वे जरूर भारी पाप करते हैं।"
गांधी जी हमें सहिष्णु बनने और मैत्री भाव रखने की सीख देते हैं- "मैंने सुना है कि कई जगह हिंदू लोग जानबूझकर और मुसलमानों का दिल दुखाने के इरादे से ही आरती ठीक उसी समय करते हैं जब मुसलमानों की नमाज शुरू होती है। यह हृदयहीन और शत्रुता पूर्ण कार्य है। मित्रता में मित्र के भावों का पूरा पूरा ख्याल रखा ही जाना चाहिए। इसमें तो कुछ सोच विचार की भी बात नहीं है। लेकिन मुसलमानों को हिंदुओं से डरा धमकाकर बाजा बंद करवाने की आशा नहीं रखनी चाहिए। धमकियों अथवा वास्तविक हिंसा के आगे झुक जाना अपने सम्मान और धार्मिक विश्वासों का हनन है। लेकिन जो आदमी धमकियों के आगे नहीं झुकेगा, वह जिनसे प्रतिपक्षी को चिढ़ होती हो ऐसे मौके हमेशा यथासंभव कम करने की और संभव हो तो टालने की भी पूरी कोशिश करेगा।
मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि यदि नेता ना लड़ना चाहें तो आम जनता को लड़ना पसंद नहीं है इसलिए यदि नेता लोग इस बात पर राजी हो जाएं कि दूसरे सभ्य देशों की तरह हमारे देश में भी आपसी लड़ाई झगड़ों का सार्वजनिक जीवन से पूरा उच्छेद कर दिया जाना चाहिए और वह जंगलीपन एवं अधार्मिकता के चिह्न माने जाने चाहिए तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम जनता शीघ्र ही उनका अनुकरण करेगी।" (यंग इंडिया, 24 दिसंबर 1931)
महात्मा गांधी रिलिजन को स्पिरिचुअलिटी की सूक्ष्मता प्रदान करते हैं और इस प्रकार कर्मकांडों को गौण बना देते हैं जबकि कट्टरवादी विचारधारा स्थूल धार्मिक प्रतीकों और रूढ़ कर्मकांडों की रक्षा को राष्ट्र गौरव का विषय मानती है। मैं आप सबसे आग्रह करता हूँ कि गांधी जी को पढ़ते समय यह ध्यान रखें कि किसी शब्द विशेष का प्रयोग वे किस अर्थ में करते रहे हैं। उदाहरण स्वरूप राम राज्य शब्द को लिया जा सकता है। इसका प्रयोग महात्मा गांधी ने पौराणिक राम राज्य के लिए नहीं अपितु ऐसे राज्य के लिए किया था जो न्यूनतम शासन करता हो। गांधी जी टॉलस्टॉय और थोरो से प्रभावित थे और एनलाइटण्ड अनार्की के समर्थक थे। उनका मत था कि आदर्श स्थिति में लोग नैतिक रूप से इतने विकसित हो जाएंगे कि स्वयं को नियमित और नियंत्रित कर सकेंगे, इस दशा में राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी। किंतु आज गांधी जी के राम राज्य का उपयोग गलत संदर्भों में किया जा रहा है।
गांधीजी के अनुसार - "दुनिया में कोई भी एक धर्म पूर्ण नहीं है। सभी धर्म उनके मानने वालों के लिए समान रूप से प्रिय हैं। इसलिए जरूरत संसार के महान धर्मों के अनुयायियों में सजीव और मित्रतापूर्ण संपर्क स्थापित करने की है ना कि हर संप्रदाय द्वारा दूसरे धर्मों की अपेक्षा अपने धर्म की श्रेष्ठता जताने की व्यर्थ कोशिश करके आपस में संघर्ष पैदा करने की। ऐसे मित्रतापूर्ण संबंध के द्वारा हमारे लिए अपने अपने धर्मों की कमियों और बुराइयों को दूर करना संभव होगा।" (यंग इंडिया, 23 अप्रैल 1931)
गांधी लिखते हैं- " किसी भी धर्म में यदि मनुष्य का नैतिक आचार कैसा है इस बात की परवाह न की जाए तो फिर पूजा की पद्धति विशेष- वह पूजा गिरजाघर मस्जिद या मंदिर में कहीं भी क्यों न की जाए- एक निरर्थक कर्मकांड ही होगी, इतना ही नहीं वह व्यक्ति या समाज की उन्नति में बाधा रूप भी हो सकती है और पूजा की अमुक पद्धति के पालन का अथवा अमुक धार्मिक सिद्धांत के उच्चारण का आग्रह, हिंसा पूर्ण लड़ाई झगड़ों का एक बड़ा कारण बन सकता है। यह लड़ाई झगड़े आपसी रक्तपात की ओर ले जाते हैं और इस तरह उनकी परिसमाप्ति मूल धर्म में यानी ईश्वर में ही घोर अश्रद्धा के रूप में होती है।"(हरिजन सेवक, 30-01-1937)
गांधीजी समावेशी राष्ट्रवाद की हिमायत करते हैं। वे हमारी बहुलताओं की स्वीकृति के पक्षधर हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म एक व्यक्तिगत विषय है और राज्य को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कदापि नहीं करना चाहिए। वे धर्म और राजनीति को पृथक रखने का प्रबल आग्रह करते हैं। गांधीजी राष्ट्र के निर्माण और उसके स्थायित्व के लिए धार्मिक सहिष्णुता को प्राथमिक आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे बहुत शालीनता से हमें चेतावनी देते हैं कि सर्व धर्म समभाव की अवधारणा न केवल नैतिक रूप से वरेण्य है अपितु इस पर अमल करना हमारी विवशता भी है क्योंकि इसी प्रकार हम अपनी और अपने राष्ट्र की रक्षा तथा उन्नति कर सकते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म हमारे देश की नागरिकता का आधार नहीं बन सकता। गांधी जी के अनुसार- "हिंदुस्तान में चाहे जिस मजहब के मानने वाले रहे उससे अपनी एकजुटता मिटने वाली नहीं। नए आदमियों का आगमन किसी राष्ट्र का राष्ट्रपन नष्ट नहीं कर सकता। यह उसी में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई देश एक राष्ट्र माना जाता है। उस देश में नए आदमियों को पचा लेने की शक्ति होनी चाहिए। हिंदुस्तान में यह शक्ति सदा रही है और आज भी है। यूं तो सच पूछिए तो दुनिया में जितने आदमी हैं उतने ही धर्म मान लिए जा सकते हैं। पर एक राष्ट्र बनाकर रहने वाले लोग एक दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते। करें तो समझ लीजिए वे एक राष्ट्र होने के काबिल ही नहीं हैं। हिंदू अगर यह सोच लें कि सारा हिंदुस्तान हिंदुओं से ही भरा हो तो यह उनका स्वप्न मात्र है। मुसलमान यह मानें कि केवल मुसलमान इस देश में बसें तो इसे भी दिन का सपना ही समझना होगा। हिंदू मुसलमान पारसी ईसाई जो कोई भी इस देश को अपना देश मानकर यहां बस गए हैं वह सब एक देशी, एक मुल्की हैं। देश के नाते भाई भाई हैं और अपने स्वार्थ अपने हित खातिर भी उन्हें एक होकर रहना ही होगा। दुनिया में कहीं भी एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं माना गया, हिंदुस्तान में भी कभी नहीं रहा। हिन्दू मुसलमान के बीच सहज बैर की धारणा तो उन लोगों के दिमाग की उपज है जो दोनों के दुश्मन हैं। जब हिंदू मुसलमान एक दूसरे से लड़ते थे तब ऐसी बात जरूर कहते थे और उनकी लड़ाई तो कब की खत्म हो चुकी है। हिंदू मुसलमान के और मुसलमान हिंदू के राज्य में रहते आए हैं। कुछ दिन बाद दोनों ने समझ लिया कि लड़ने झगड़ने में किसी का लाभ नहीं। लड़ने से जैसे कोई अपना धर्म नहीं छोड़ता वैसे ही अपना हक भी नहीं छोड़ता इसलिए दोनों ने आपस में मेलजोल से रहने की ठहरा ली।" (हिन्द स्वराज, अध्याय-10, हिंदुस्तान की हालत- 3)
गांधीजी के मतानुसार- "हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए हैं और पले हैं और जो दूसरे किसी देश का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों बेनी इजरायलों, हिंदुस्तानी ईसाईयों मुसलमानों और दीगर गैर हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज्य हिंदुओं का नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और उसका आधार किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समूचे राष्ट्र के प्रतिनिधियों पर होगा। मैं एक ऐसे मिश्र बहुमत की कल्पना कर सकता हूं जो हिंदुओं को अल्पमत बना दे। स्वतंत्र हिंदुस्तान में लोग अपनी सेवा और योग्यता के आधार पर ही चुने जाएंगे। धर्म एक निजी विषय है जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पाई जाती है उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने बनावटी फिरके बन गए हैं।"(हरिजन सेवक, 1-08-1942)
गांधी धर्म को राज्य संचालन का आधार बनाने का विरोध करते हैं- "अपने धर्म पर मेरा अटूट विश्वास है। मैं उसके लिए अपने प्राण दे सकता हूं। लेकिन वह मेरा निजी मामला है। राज्य को उससे कुछ लेना देना नहीं है। राज्य हमारे लौकिक कल्याण की - स्वास्थ्य, आवागमन विदेशों से संबंध, करेंसी आदि की- देखभाल करेगा लेकिन हमारे या तुम्हारे धर्म की नहीं। धर्म हर एक का निजी मामला है।"(हरिजन सेवक, 22-01-1946)
गांधीजी की इतिहास दृष्टि में मध्य काल के इतिहास को हिन्दू मुस्लिम संघर्ष के काल के रूप में देखने की प्रवृत्ति बिल्कुल नहीं थी। वे यह मानते थे कि शासक किसी भी धर्म का हो, यदि वह अत्याचारी है तो उसका अहिंसक प्रतिकार किया जाना चाहिए। यदि आप सब प्रबुद्ध जन इतिहास का सावधानी पूर्वक अध्ययन करें तो आपको यह ज्ञात होगा कि चाहे राजा हिन्दू रहा हो या मुसलमान आम लोगों के जीवन में, किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया था। इन आम लोगों में हिन्दू भी सम्मिलित थे और मुसलमान भी। हिन्दू सैनिक मुसलमान राजाओं को ओर से युद्ध करते थे और मुसलमान सैनिक हिन्दू राजाओं की तरफ से लड़ा करते थे। गांधी जी की दृष्टि में साम्प्रदायिक एकता बनाए रखने का दायित्व बहुसंख्यक समुदाय पर अधिक है क्योंकि वह अधिक शक्तिशाली है, उसे अल्पसंख्यक समुदाय को विश्वास में लेना चाहिए। किंतु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि जिस स्थान पर जो समुदाय अधिक समर्थ और मजबूत है उसका दायित्व बनता है कि वह अपने सामर्थ्य और सक्षमता का उपयोग दूसरे समुदाय की बेहतरी के लिए करे। गांधी जी यह भी संकेत करते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय यदि निरन्तर अत्याचार करता रहे तो अल्पसंख्यक हिंसा की ओर उन्मुख हो सकते हैं। गांधी जी के मतानुसार - "अगर हिंदू लोग विविध जातियों के बीच एकता चाहते हैं तो उनमें अल्पसंख्यक जातियों का विश्वास करने की हिम्मत होनी चाहिए। यदि हम सत्याग्रह का सही उपयोग करना सीख गए हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि उसका उपयोग किसी भी अन्यायी शासक के खिलाफ - वह हिंदू मुसलमान या अन्य किसी भी कौम का हो- किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। इसी तरह न्यायी शासक या प्रतिनिधि, हमेशा और समान रूप से अच्छा होता है फिर वह हिंदू हो या मुसलमान। हमें सांप्रदायिक भावना छोड़नी चाहिए। इसलिए इस प्रयत्न में बहुसंख्यक समाज को पहल करके अल्पसंख्यक जातियों में अपनी ईमानदारी के विषय में विश्वास पैदा करना चाहिए। मेल और समझौता तभी हो सकता है जबकि ज्यादा बलवान पक्ष दूसरे पक्ष के जवाब की राह देखे बिना सही दिशा में बढ़ना शुरु कर दे।" (यंग इंडिया, 29-05-1924)
गांधी सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए इसके समाधान की ओर संकेत करते हैं- "अगर स्थिति यह हो कि बड़े संप्रदाय को छोटे संप्रदाय से डर लगता हो तो वह इस बात की सूचक है या तो (1) बड़े संप्रदाय के जीवन में किसी गहरी बुराई ने घर कर लिया है और छोटे संप्रदाय में पशु बल का मद उत्पन्न हुआ है (यह पशु बल राजसत्ता की बदौलत हो या स्वतंत्र हो) अथवा (2) बड़े संप्रदाय के हाथों कोई ऐसा अन्याय होता आ रहा है जिसके कारण छोटे संप्रदाय में निराशा से उत्पन्न होने वाला मर मिटने का भाव पैदा हो गया है। दोनों का उपाय एक ही है बड़ा संप्रदाय सत्याग्रह के सिद्धांतों का अपने जीवन में आचरण करे। वह अपने अन्याय, सत्याग्रही बनकर चाहे जो कीमत चुका कर भी दूर करे और छोटे संप्रदाय के पशु बल को अपनी कायरता को निकाल बाहर करके सत्याग्रह के द्वारा जीते। छोटे संप्रदाय के पास यदि अधिक अधिकार, धन, विद्या, अनुभव आदि का बल हो और इस बड़े संप्रदाय को उससे डर लगता रहता हो तो छोटे संप्रदाय का धर्म है कि शुद्ध भाव से बड़े संप्रदाय का हित करने में अपनी शक्ति का उपयोग करे। सब प्रकार की शक्तियां तभी पोषण योग्य समझी जा सकती हैं जब उनका उपयोग दूसरे के कल्याण के लिए हो। दुरुपयोग होने से वे विनाश के योग्य बनती हैं और चार दिन आगे या पीछे उनका विनाश होकर ही रहेगा। यह सिद्धांत जिस प्रकार हिंदू- मुसलमान- सिख आदि छोटे-बड़े संप्रदायों पर घटित होते हैं उसी प्रकार अमीर-गरीब, जमींदार-किसान, मालिक-नौकर, ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर इत्यादि छोटे-बड़े वर्गों के आपस में संबंधों पर भी घटित होते हैं।"(किशोर लाल मशरूवाला, गांधी विचार दोहन, पृष्ठ 73-74)
गांधीजी सांप्रदायिकता की उत्पत्ति के लिए अंग्रेज शासकों को उत्तरदायी मानते हैं और इसे एक नई एवं आरोपित प्रवृत्ति सिद्ध करते हैं- "हिंदू इतिहासकारों और मुसलमान इतिहासकारों ने उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि जब अंग्रेजों का शासन नहीं था तब हम -हिंदू मुसलमान और सिख- आपस में मिल जुल कर रहते। थे उन दिनों हम बिल्कुल ही नहीं लड़ते थे। यह लड़ाई झगड़ा पुराना नहीं है।" (यंग इंडिया 24-12-1931)
साठ के दशक में मार्टिन लूथर किंग जूनियर और उनके साथियों ने गांधी को थोड़ा बहुत आत्मसात किया और उनका अनुकरण किया फलस्वरूप वे अमेरिका में नागरिक अधिकारों के आंदोलन का नेतृत्व सफलतापूर्वक कर सके। गांधी से प्रेरित नेल्सन मंडेला ने 1990 के दशक में लंबे कारावास और अत्याचारों की कटुता को भुलाते हुए जब नए दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की समाप्ति और श्वेतों के लिए भी बिना किसी भेदभाव के समान अधिकारों की घोषणा की तब घृणा, हिंसा और प्रतिशोध के लंबे एवं दुःखद अध्याय की समाप्ति हुई और स्थायी शांति स्थापित हुई। गांधी जी द्वारा दमन और शोषण के अहिंसक प्रतिरोध का तरीका जिसमें शत्रुओं के लिए भी किसी प्रकार की कटुता एवं वैमनस्य के लिए स्थान न था, पूरे विश्व में कितने ही छोटे बड़े संघर्षों के सम्पूर्ण समाधान का जरिया बना और स्थायी शांति एवं एकता की स्थापना में सहायक भी रहा।
दुर्भाग्य से हम भारतीय ऐसा न कर सके और हमने गांधी जी को हाशिए पर डालने के लिए अपनी अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के अनुकूल उनके अपूर्ण और संकीर्ण पाठ तैयार किए जो न केवल गांधीवाद से असंगत थे अपितु अनेक बार गांधी जी की मूल अवधारणाओं से एकदम विपरीत भी थे। हमने राष्ट्रपिता के साथ केवल इतनी रियायत बरती कि उन्हें एकदम से रद्दी की टोकरी में नहीं फेंक दिया। हमने उन्हें भव्य स्मारकों और संग्रहालयों में कैद करने की कोशिश की। उन्हें विशाल अजीवित प्रतिमाओं में बदलने की चेष्टा की। हमने सत्याग्रही गांधी को स्वच्छाग्रही गांधी के रूप में रिड्यूस करने का प्रयास किया। हिन्दू धर्म के सबसे उदार एवं अहिंसक समर्थक को हमने निर्ममतापूर्वक ठोक पीटकर हिंसक हिंदुत्व के संकीर्ण खांचे में डालने की कोशिश की। कभी उनके आकलन में हमसे चूक हुई और हमने उन्हें वर्ग संघर्ष और सर्वहारा के राज्य का विरोधी और जनक्रांति के मार्ग में बाधक प्रतिक्रियावादी तथा धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान वादी की संज्ञा दी। हम गांधी की सीखों पर अमल न कर पाए और हमने स्वयं को हिंसा- प्रतिहिंसा एवं घृणा की लपटों में झुलसकर नष्ट होने के लिए छोड़ दिया है। गांधीवाद हमारी अस्तित्व रक्षा के लिए आवश्यक है और इससे हमारा विचलन हमें गंभीर सामाजिक विघटन की ओर ले जा सकता है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नवजोतसिंह सिद्धू का मामला अभी अधर में ही लटका हुआ है और इधर कल-कल में कुछ ऐसी घटनाएं और भी हो गई हैं, जो कांग्रेस पार्टी की मुसीबतों को तूल दे रही हैं। पहली बात तो यह कि पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदरसिंह दिल्ली जाकर गृहमंत्री अमित शाह से मिले। क्यों मिले? बताया गया कि किसान आंदोलन के बारे में उन्होंने बात की। की होगी लेकिन किस हैसियत में की होगी ? अब वे न मुख्यमंत्री हैं, न कांग्रेस अध्यक्ष! तो बात यह हुई होगी कि अमरिंदर का अगला कदम क्या होगा ? वे भाजपा में प्रवेश करेंगे या अपनी नई पार्टी बनाएंगे या घर बैठे कांग्रेस की जड़ खोदेंगे? उधर गोवा के शीर्ष कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ल्युजिनो फलीरो ने कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। गोवा में कांग्रेस की दाल पहले से ही काफी पतली हो रही है और अब नौ अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ फलीरो का तृणमूल में जाना गोवा की कांग्रेस के चार विधायकों की संख्या को घटाकर आधी न कर दे?
यह ठीक है कि कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस से जुडऩे की घोषणा कर दी है। ये दोनों युवा नेता दलितों और वंचितों को कांग्रेस से जोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वे कांग्रेस में रहकर वैसा कर पाएंगे? इस समय कांग्रेस में माँ-बेटा और बहन के अलावा जितने भी नेता हैं, क्या उनकी स्थिति देश के दलितों से बेहतर है? दलितों के कुछ संवैधानिक अधिकार तो हैं और उन पर अन्याय हो तो वे अदालत की शरण में जा सकते हैं लेकिन कांग्रेसी जब दले जाते हैं तो वे किसकी शरण में जाएँ? जी-23 के नेता कपिल सिब्बल चाहे दावा करें कि उनके 23 पत्रलेखक कांग्रेसी नेता जी-23 तो हैं लेकिन वे जी-हुजूर—23 नहीं हैं, लेकिन उनके इस दावे पर मुझे एक शेर याद आ रहा है- 'इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन। आखरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे?Ó इंदिरा कांग्रेस में वहीं नेता अभी तक टिक सके हैं और आगे बढ़ सके हैं, जो चापलूसी के महापंडित हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे कितने नेता हैं ? इंदिराजी ने नई कांग्रेस का जो बीज बोया था, वह वटवृक्ष बन गया था।
इस वटवृक्ष में अब घुन लग गया है। दो साल हो गए, पार्टी का कोई बाकायदा अध्यक्ष नहीं है और पार्टी चल रही है, जैसे युद्ध में बिना सर के धड़ चला करते हैं। पता नहीं, यह धड़ अब कितने कदम और चलेगा? राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के इस शरीर के लडख़ड़ाने की खबर आती रहती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी आज की कांग्रेस मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले की तरह अपनी आखरी सांसें गिन रही है। देश के लोकतंत्र के लिए इससे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या हो सकती है? यदि कांग्रेस बेजान हो गई तो भाजपा को कांग्रेस बनने से कौन रोक सकता है? तब पूरा भारत ही जी-हुजरों का लोकतंत्र बन जाएगा। इस वक्त भाजपा और कांग्रेस का अंदरुनी हाल एक-जैसा होता जा रहा है लेकिन आम जनता में अब भी भाजपा की साख कायम है। याने अंदरुनी लोकतंत्र सभी पार्टियों में शून्य को छू रहा है लेकिन यही प्रवृत्ति बाहरी लोकतंत्र पर भी हावी हो गई तो हमारी पार्टियों की इस नेताशाही को तानाशाही में बदलते देर नहीं लगेगी। यदि हम संयुक्तराष्ट्र संघ में जाकर भारत को 'लोकतंत्र की अम्माÓ घोषित कर रहे हैं तो हमें अपनी इस अम्मा के जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए सदा सावधान रहना होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
इतिहासकार गोपाल कृष्ण गाँधी ने महात्मा गाँधी की शव यात्रा के बारे में लिखा है कि यह एक विडम्बना ही थी कि अहिंसा के पुजारी गाँधीजी के शव को तोप ढोने वाले वाहन में रखा गया था। गाँधीजी के सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि गाँधीजी अपने शव को रसायन में लपेटकर सुरक्षित रखने के विरोधी थे और उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि जहाँ उनकी मृत्यु हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। पर प्यारेलाल के दस्तावेजों में यह उल्लेख भी मिलता है कि उनके दाह संस्कार में ‘पंद्रह मन चन्दन की लकडिय़ाँ, चार मन घी, दो मन धूप, एक मन नारियल के छिलके और पंद्रह सेर कपूर का उपयोग हुआ’। जो इंसान एक फक़ीर की तरह रहा, और अपना जीवन बस थोड़े से सामान के साथ बिताया, उसके दाह संस्कार में इतना कुछ खर्च किया गया! यदि गाँधी इस बारे में पूरी स्पष्टता से निर्देश देते तो शायद यह सब थोड़े संयम के साथ होता, जैसा वे शायद खुद भी चाहते। इस मामले में दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति बड़े स्पष्ट थे।
कृष्णमूर्ति से उनके निकट सहयोगियों ने पूछा था कि उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। उन्होंने बड़े विस्तार से बताया था कि शव को स्नान करवाने के बाद एक साफ कपड़े में लपेटा जाए, जो महंगा न हो और फिर जितनी जल्दी हो सके, उसका दाह संस्कार कर दिया जाए। शव को कम से कम लोग देखें, कोई कर्मकांड न हो। अस्थियों का क्या किया जाना चाहिए, इस सवाल पर उन्होंने कहा कि आप जो चाहे करें बस उसके ऊपर कोई स्मारक, मंदिर वगैरह न बनाया जाए।
सुकरात से भी उनके मित्रों ने पूछा था उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। सुकरात ने कहा- ‘पहले मुझे पकड़ तो लेना, और सुनिश्चित कर लेना कि जिसे पकड़ा है वह मैं ही हूँ; फिर जो चाहे कर लेना!’ एंड्रू रोबिनसन ने सत्यजित रे की जीवनी ‘द इनर ऑय’ में एक दिलचस्प बात लिखी है। कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद सत्यजित रे टैगोर के घर पहुँच गए थे और वहां नन्दलाल बोस को सफेद फूलों से गुरुदेव के शव को सजाते हुए देखा। यहाँ तक तो ठीक था, पर जब शवयात्रा शुरू हुई, तो जिसके लिए मुमकिन हुआ उन लोगों ने कविगुरु की दाढ़ी का कम से कम एक बाल नोचने की कोशिश की, अपनी स्मृति के लिए!
पंजाब में हो रही उठापटक अब कांग्रेस की एकमात्र चिंता नहीं रही. पार्टी अब वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी, दूसरे राज्यों में भी संगठन के स्तर पर संकट और प्रतिरोधी मीडिया से भी लड़ रही है.
डॉयचे वेले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
पिछले कुछ दिनों में पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के पद से नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफे ने सारी सुर्खियां जरूर बटोर लीं, लेकिन यह इस समय कांग्रेस की एकलौती समस्या नहीं है. 27 सितंबर को गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लुईजिनियो फलेरो ने भी कांग्रेस से इस्तीफा दे कर तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया था.
फलेरो ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेजे अपने इस्तीफे में लिखा कि "यह अब वो पार्टी नहीं रही जिसके लिए हमने त्याग और संघर्ष किया था." उन्होंने यह भी लिखा कि उन्हें अब "पार्टी के विनाश को बचाने की ना कोई उम्मीद नजर आती है और ना इच्छाशक्ति."
"जी-23" बनाम "जी हुजूर 23"
इसके कुछ ही दिन पहले कांग्रेस की युवा नेता और उस समय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. इस्तीफों की इस लंबी फेहरिस्त की ओर इशारा करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिबल ने एक समाचार वार्ता में कहा कि जिन नेताओं को पार्टी नेतृत्व के करीबी समझा जाता था वो इस्तीफा दे रहे हैं जबकि "हमलोग" जिन्हें पार्टी नेतृत्व के करीब नहीं समझा जाता अभी भी पार्टी के साथ खड़े हैं.
सिबल ने कहा, "हम जी-23 हैं, जी हुजूर 23 नहीं हैं." जी-23 उन 23 कांग्रेस नेताओं को कहा जाता है जिन्होंने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को एक चिट्ठी लिखकर पार्टी के बार बार चुनावों में हारने पर चिंता व्यक्त की थी और पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन की मांग की थी.
इस समूह में सिबल के अलावा गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, वीरप्पा मोइली, भूपेंद्र सिंह हूडा जैसे कई बड़े नेता शामिल हैं. ताजा इस्तीफों के मद्देनजर सिबल के साथ साथ आजाद ने भी मांग की है कि पार्टी के अंदरूनी फैसले लेने वाली सर्वोच्च संस्था कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक बुलाई जाए.
जी-23 के नेताओं को लेकर पार्टी के एक धड़े में शुरू से लेकर नाराजगी रही है लेकिन 29 सितंबर को पहली बार सिबल के बयान के बाद कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा हिंसक प्रतिक्रिया देखी गई. युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में सिबल के घर के बाहर प्रदर्शन किया, उनके घर पर टमाटर फेंके और उनकी एक गाड़ी को नुकसान पहुंचाया.
आक्रामक कार्यकर्ता
कार्यकर्ताओं ने "जल्दी ठीक हो जाओ, कपिल सिबल" के पोस्टर उठा रखे थे. उन्होंने "पार्टी छोड़ दो! होश में आओ!" और "राहुल गांधी जिंदाबाद!" नारे भी लगाए. इन घटनाओं के बाद आनंद शर्मा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के इस आचरण की निंदा की और कहा कि "असहिष्णुता और हिंसा कांग्रेस की संस्कृति के खिलाफ हैं". उन्होंने सोनिया गांधी से इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की.
दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की अंदरूनी कलह में एक बार फिर उफान आ गया. राज्य के कम से कम 15 कांग्रेस विधायक नई दिल्ली आ गए हैं, जिसकी वजह से एक बार फिर फिर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देओ के बीच सत्ता की लड़ाई को लेकर अटकलें तेज हो गई हैं.
सिंह देओ के समर्थकों का कहना है कि बघेल के कार्यकाल के ढाई साल पूरे हो गए हैं और पार्टी को अब अपने वादे के मुताबिक सिंह देओ को मुख्यमंत्री बना देना चाहिए. छत्तीसगढ़ में यह संकट काफी समय से चल रहा है लेकिन पार्टी हाई कमान ने अभी तक बघेल को मुख्यमंत्री पद से हटाने का कोई संकेत नहीं दिया है.
मीडिया से लड़ाई
इस बीच अंदरूनी झगड़ों से जूझती पार्टी ने उसके प्रति विशेष रूप से प्रतिरोधी होते मीडिया के एक धड़े के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया है. 28 सितंबर को टाइम्स नाउ टीवी चैनल पर एक बहस के दौरान चैनल की मुख्य सम्पादक नाविका कुमार ने राहुल गांधी के खिलाफ एक अपशब्द का इस्तेमाल कर दिया, जिसका पार्टी ने काफी आक्रामक तरीके से विरोध किया.
भूपेश बघेल समेत कई नेताओं ने सोशल मीडिया पर मीडिया को चेतावनी दी.
उसके बाद कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने चैनल के दफ्तर में घुस कर प्रदर्शन किया और चैनल के अधिकारियों के सामने अपना विरोध जताया. पूरे प्रकरण के बाद नाविका कुमार और टाइम्स नाउ ने अभद्र टिप्पणी के लिए माफी मांगी.
कुल मिला कर नजर यही आ रहा है कि एक पूर्ण कालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के अभाव से जूझती कांग्रेस इस समय कई चुनौतियों का एक साथ सामना कर रही है. देखना होगा कि पार्टी इन प्रकरणों का सामना मजबूत से कर पाती है या नहीं. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब की कांग्रेस में खड़े हुए संकट के फलितार्थ क्या-क्या हो सकते हैं? इस संकट का सबसे पहला संदेश तो यही है कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। माँ-बेटा और भाई-बहन पार्टी के नेताओं ने सबसे पहले अमरिंदरसिंह को मुख्यमंत्री पद छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया। अमरिंदर क्या अब चुप बैठेंगे? वे जो भी निर्णय करें, वे अपने अपमान का बदला लेकर रहेंगे। शीघ्र ही होनेवाले पंजाब के चुनाव में अमरिंदर का जो भी पैंतरा होगा, वह कांग्रेस की काट करेगा। दूसरा, नए मुख्यमंत्री के लिए चरणसिंह चन्नी की नियुक्ति राजनीतिक दृष्टि से उचित थी, क्योंकि अन्य प्रतिद्वंदी पार्टियां भी अनुसूचित नेताओं को आगे कर रही हैं लेकिन पार्टी अध्यक्ष नवजोतसिंह सिद्धू का इस्तीफा अपने आप में इतनी बड़ी घटना है कि उसने कांग्रेस पार्टी की रही-सही छवि को भी तार-तार कर दिया है।
सिद्धू ने जो सवाल उठाए हैं, उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता। उन्होंने ऐसे मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति पर प्रश्न-चिन्ह खड़े कर दिए हैं, जो अकाली पार्टी के घनघोर समर्थक रहे हैं या जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप रहे हैं। लेकिन सिद्धू के इस एतराज़ पर उनका एकदम इस्तीफा दे देना क्या दो बातों का सूचक नहीं है? एक तो सिद्धू अपनी उपेक्षा से अपमानित महसूस कर रहे हैं और दूसरा, वे इतने घमंडी हैं कि उन्होंने अपना असंतोष दिल्ली को बताना भी जरुरी नहीं समझा। पार्टी-अध्यक्ष के नाते वे शायद चाहते थे कि हर नियुक्ति में उनकी राय को लागू किया जाए। यदि ऐसा होता तो मुख्यमंत्री चन्नी रबर की मुहर के अलावा क्या दिखने लगते? चन्नी की नियुक्ति के समय कहा जा रहा था कि वे तो चुनाव तक कामचलाऊ मुख्यमंत्री हैं। चुनाव तो लड़ा जाएगा, सिद्धू के नाम पर और वे ही पक्के मुख्यमंत्री बनेंगे। लेकिन उनके इस्तीफे ने कांग्रेस को इतना बड़ा झटका दे दिया है कि उसका चुनाव जीतना मुश्किल हो गया है। अब पंजाब की कांग्रेस कई खेमों में बंट गई है।
अब अमरिंदर और सिद्धू के ही दो खेमे नहीं हैं। अब सुनील जाखड़, सुखजिंदर रंधावा और राणा गुरजीतसिंह के खेमे भी अपनी-अपनी तलवार भांजे बिना नहीं रहेंगे। टिकिटों के बंटवारे को लेकर गृहयुद्ध मचेगा। जो भी अब नया कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा या सिद्धू यदि फिर लौटेंगे तो यह मानकर चलिए कि उन्हें कांग्रेस के लकवाग्रस्त शरीर को चुनाव तक अपने कंधों पर घसीटना होगा। कांग्रेस के इस अंदरूनी दंगल ने आप पार्टी, भाजपा और अकाली दल की बांछें खिला दी हैं। यदि सिद्धू को वापस लाया जाता है तो चन्नी की स्थिति शून्य हो जाएगी और सिद्धू का इस्तीफा मंजूर होता है तो कांग्रेस मस्तकविहीन शरीर बन जाएगी। पंजाब की इस दुर्घटना से यही निष्कर्ष निकलता है कि कांग्रेस-जैसी महान पार्टी अब भस्मासुर का रूप धारण करती जा रही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिसे 'आयुष्मान भारत डिजिटल मिशनÓ कहकर शुरु किया है, उसे मैं हिंदी में 'इलाज-पत्रÓ कहता हूँ। नौकरशाहों द्वारा यह अधकचरी अंग्रेजी में गढ़ा गया नाम यदि सादी भारतीय भाषा में होता तो वह आम आदमी की जुबान पर आसानी से चढ़ जाता लेकिन जो भी हो, यह 'इलाज पत्रÓ भारत की आम जनता के लिए बहुत ही लाभकारी सिद्ध होगा। भारत सरकार की इस पहल का स्वागत इस रफ्तार से होना चाहिए कि यह कोरोना के टीके से भी जल्दी सबके हाथों तक पहुंच जाए। यह 'इलाज पत्रÓ ऐसा होगा, जो मरीजों और डाक्टरों की दुनिया ही बदल देगा। दोनों को यह मगजपच्ची से बचाएगा और इलाज को सरल बना देगा।
अभी तो होता यह है कि कोई भी मरीज़ अपनी तबियत बिगडऩे पर किसी अस्पताल या डॉक्टर के पास जाता है तो दवाई देने के पहले डॉक्टर उसके स्वास्थ्य का पूरा इतिहास पूछता है। जरूरी नहीं है कि मरीज़ को याद रहे कि उसे कब क्या तकलीफ हुई थी और उस समय डॉक्टर ने उसे क्या दवा दी थी। अब जबकि यह इलाज-पत्र उसके जेबी फोन में पूरी तरह से भरा हुआ मिलेगा तो मरीज तुरंत वह डॉक्टर को दिखा देगा और उसको देखकर डॉक्टर उसे दवा दे देगा। जरुरी नहीं है कि मरीज और डॉक्टर आमने-सामने बैठकर बात करें और अपना समय खराब करें। यह सारी पूछ-परख का काम घर बैठे-बैठे मिनिटों में निपट जाएगा। अस्पताल और डॉक्टरों के यहां भीड़-भड़क्का भी बहुत कम हो जाएगा। चिकित्सा के धंधे में ठगी का जो बोलबाला है, वह भी घटेगा, क्योंकि उस 'इलाज-पत्रÓ में हर चीज़ अंकित रहेगी।
दवा-कंपनियों के साथ प्राय: डॉक्टरों की सांठ-गांठ के किस्से भी सुनने में आते हैं। इन कंपनियों से पैसे लेकर या कमीशन खाकर कुछ डॉक्टर और दवा-विक्रेता मरीजों को नकली या बेमतलब दवाएं खरीदने को मजबूर कर देते हैं। अब क्योकि हर दवा का इस 'इलाज-पत्रÓ में नाम और मूल्य दर्ज रहेगा, इसलिए फर्जी इलाज और लूट-पाट से मरीजों की रक्षा होगी। भारत में इलाज इतना मंहगा और मुश्किल है कि बीमारी से वह ज्यादा जानलेवा बन जाता है। एक मरीज़ तो जाता ही है, उसके कई घरवाले जीते जी मृतप्राय: हो जाते हैं। उनकी जमीन-जायदाद बिक जाती है और वे कर्ज के कुएं में डूब जाते हैं। ऐसा नहीं हैं कि भारत की स्वास्थ्य-व्यवस्था में यह 'इलाज-पत्रÓ क्रांति कर देगा लेकिन उसमें कुछ महत्वपूर्ण सुधार जरुर करेगा।
देश की स्वास्थ्य-सेवाओं में समग्र सुधार के लिए बहुत-से बुनियादी कदम उठाए जाने की जरुरत अभी भी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। यदि भारत की परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों में नए अनुसंधान को बढ़ाया जाए तो निश्चिय ही वे एलोपेथी से अधिक प्रभावशाली और सस्ती सिद्ध होंगी। वे जनता को भी शीघ्र स्वीकार्य होंगी। घरेलू इलाज से डॉक्टरों का बोझ भी कम होगा। इसका अर्थ यह नहीं कि हम ऐलोपेथी के फायदे उठाने में चूक जाएं। मेरा अभिप्राय सिर्फ यही है कि भारत के 140 करोड़ लोगों को समुचित चिकित्सा और शिक्षा लगभग उसी तरह उपलब्ध हो, जैसे हवा और रोशनी उपलब्ध होती है। यदि ऐसा हो सके तो भारत को कुछ ही समय में संपन्न, शक्तिशाली और खुशहाल होने से कोई रोक नहीं सकता।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुधा अरोरा
मुंबई में ऑटो रिक्शा का न्यूनतम किराया अब 21- रुपए हो गया है। बरसों तक यह 18/-ही था।
कल मैं अपने घर के नजदीक डी मार्ट से कुछ सामान लेकर लौटी तो ऑटो ले लिया। वैसे तो दस मिनट पैदल का ही रास्ता है पर सामान का वजन ज्यादा हो या घर पहुंचने की जल्दी हो तो अक्सर रिक्शा कर लेती हूं । घर पर उतरी, उसे बीस का नोट थमाने के बाद पर्स टटोल ही रही थी कि ऑटो वाले ने बड़े प्यार से कहा- आंटी, रहने दो... कितनी बार आपसे अठारह का बीस लिया है। कभी आपने छुट्टा नहीं लिया... मैंने एकदम उसकी ओर देखा और कहा- अच्छा...मैंने पहचाना नहीं। वह बोला- लेकिन हम सब आपको जानते हैं, सब बोलते हैं- आंटी कभी चिल्लर नहीं लेती। रिक्शा आगे बढ़ाते हुए मुस्कुराकर बोला- जब किराया अठारह रुपया था तो दो रुपया कोई नहीं छोड़ता था, अब इक्कीस है तो एक रुपया छोड़ देते हैं हम!
यह सीख कई साल पहले मेरी बिटिया गुंजन की दी हुई थी। मैं उसके साथ ऑटो में लौटी तो ऑटो वाले ने मुझे बीस का नोट लेने के बाद फौरन दो का सिक्का थमाया। मैंने आदतन ले लिया। गुंजन ने घर लौट कर मुझे डांट लगाई-मां, आपने दो रुपए क्यों लिए रिक्शे वाले से? मैं ठिठकी, फिर कहा- उसने दो के सिक्कों का ढेर रखा हुआ था, दिया तो ले लिया। अपनी सफाई भी दी। कई बार ऑटोवालों के पास छुट्टा नहीं होता तो नहीं लेती। वह कहने लगी-मां, आपके लिए दो रुपए की क्या कीमत है? कुछ नहीं। पर उस रिक्शे वाले से पांच लोग भी दो का सिक्का न लें तो उस को फर्क पड़ता है न! मत लिया करो आगे से! उसकी यह हिदायत मन में खुभ कर रह गई।
उस दिन के बाद से मैं कोशिश यही करती हूं कि ठेले वाले, भाजी वाले, रिक्शे वाले से कभी छुट्टे पैसे न लूं। भाजीवाला भी अब हिसाब करने के बाद चार छह का जोड़ घटाव खुद ही करके राउंड फिगर लेता है।
मुझे हैरानी जरूर होती है कि हम, जिन्हें पांच दस रुपयों से बिल्कुल कोई फर्क नहीं पड़ता, ठेले वाले से भाजी का मोल भाव जरूर करते हैं। ठेले वाला अगर दस रुपए के चार नींबू देता है तो दस रुपए के जबरन पांच या छह नींबू लेकर, एक-दो अतिरिक्त नींबू हमें कैसा सुकून देते है, सोचना पड़ता है!
बड़े-बड़े स्टोर से नामी ब्रांड के महंगे कपड़े खरीदते हुए हम अपना क्रेडिट कार्ड खुशी से काउंटर पर थमा देते हैं, पर भाजी वाले से मोल भाव करना, उसे पांच सात रुपए कम देना हमारे लिए बहुत बड़ी नियामत है।
कौन सा मनोविज्ञान काम करता है यहां ? इसे बदलना क्या इतना मुश्किल है ?
कृषि क्षेत्र से होने वाली कुल आमदनी भले ही 7.8 फीसदी बढ़ी है लेकिन साथ ही मुद्रास्फीति 16 फीसदी की रफ्तार से बढऩे से आज हमारा एक किसान औसतन सिर्फ 27 रुपये रोज कमा रहा है। खेती से होने वाली आय 48 फीसदी से कम होकर 38 फीसदी पर आ गई है।
कठोर सालों में अगर किसी क्षेत्र ने खामोश विनम्रता से करोड़ों गरीबों को ग्रामीण क्षेत्र में जिलाए रखा, और शहरों की सुरसाकार भूख मिटाई तो वह किसानी ही है। फिर भी शहरी उद्योगों को विकास के नाम पर तवज्जो देते हुए किसान की पीठ पर नए कानूनों को रख देना उसे अपनी रीढ़ टूटना लग रहा है। 2019-20 से अगस्त, 2021 तक इस क्षेत्र से लगभग 20 लाख निराधार खेत मजूर बेदखल हुए हैं। फिर भी यह तादाद इसी दौरान शहरों में घटे 30 लाख 70 हजार रोजगारों से कम हैं। तालाबंदी के दौरान बेरोजगारों की एक भारी भीड़ शहरों से गांवों को भागी थी, आज वह फिर लौटने को बाध्य है क्योंकि उसने देखा कि किस तरह कृषि का क्षेत्र बदहाल होता जा रहा है।
भारतीय किसानों का नए किसानी कानूनों के खिलाफ लगभग साल भर से चल रहा धरना इसी दशा का आईना है। गुलाबी अखबारों में राजनीति से अर्थजगत तक में शहरी विकास के पैरोकार लगातार फैलते शहरीकरण की दुहाई देकर खेती की बजाय शहरी उद्योगों में ही अधिक निवेश करने का मंत्र सरकार के कानों में फूंक रहे हैं। पर चंद सच्चाइयां वे नहीं बता रहे।
एक, आज भी देश में अनौपचारिक क्षेत्र और उसमें भी खेती-बाड़ी सबसे अधिक (लगभग 58 फीसदी) रोजगार मुहैया कराता है। और जब तालाबंदी के दौरान देश के उद्योगों और सेवा क्षेत्र की सकल उत्पाद दर औधे मुंह जा गिरी थी, उस समय भी किसानी ने ही बांह गही। गोदी मीडिया में इस धारणा को बल देते हुए प्रचंड उपभोक्तावाद और भौतिक वैभव के अशिष्ट दिखावे की छवियां दिखाई जा रही हैं, जैसे शहरों में कोई कारूं का खजाना धरा हो। सचाई यह है कि असली दुनिया में हताशा में अपनी उपज सडक़ों पर फेंकने को बाध्य किसान तमाम कष्ट सहकर भी पहली बार लंबे धरने पर उतर आए हैं। सरकारी अवहेलना और शिखर की चुप्पी से उनका गुस्सा इतना गहरा चुका है कि उनको रोकने-तोडऩे की साम- दाम-दंड-भेद की कोई कोशिश परवान नहीं चढ़ सकीं। अलबत्ता हाल में अपनी पुलिस को लामबंद किसानों के सर फोडऩे का बेशर्म हुकुम देते अफसर को टीवी पर देखकर जनता का गुस्सा भी उबल पड़ा। लिहाजा वे पहले स्थानांतरित किए गए और फिर जांच होने तक छुट्टी पर भेज दिए गए।
श्रम मंत्रालय (आईएलओ) के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में ‘मनरेगा’ (जिसकी मौजूदा सरकार ने शुरू में जमकर खिल्ली उड़ाई और आवंटित राशि में कटौती की) ने सबसे कमजोर तबके, महिला खेत मजूरों को रोजगार तो दिया, पर 2020-21 की तुलना में उसके लिए आवंटित राशि 34 फीसदी कम होने से लगभग बीस लाख महिलाएं काम से बेदखल हो गईं। उनको राहत के नाम पर फौरी तौर से जो राशि या मुफ्त गैस सिलेंडर वगैरा बांटे गए, वह अंधेरे में भटके को चंद पल दिया सलाई की रोशनी दिखाने से अधिक नहीं निकला। लिहाजा ग्रामीण बेरोजगार फिर शहर लौटने को लाचार हुए। पर शहरों में भी धीरे-धीरे खुल रहे उपक्रमों में अभी उतनी नौकरियां नहीं हैं। शेयर बाजार का ताजा उछाल शहरी अर्थव्यवस्था की तरक्की का प्रमाण नहीं माना जा सकता। यह बढ़त फार्मा या शिपिंग या पेट्रो पदार्थों (तथा मीडिया) के मु_ी भर घरानों की निजी दौलत बेशुमार बढऩे से उपजी है।
हमारे देश में आज भी 80 फीसदी लोग कम वेतन, कम सुरक्षा के बावजूद अनौपचारिक क्षेत्र में ही नौकरी पा रहे हैं जहां पहले अप्रशिक्षित महिलाओं की बड़ी तादाद होती थी। इधर कई हुनरमंद पुरुष औपचारिक क्षेत्र की छंटनियों से दर-बदर होकर इस क्षेत्र में घुस आए हैं और अधिकतर काम उन्होंने पकड़ लिए हैं। अनुभवी पुरुष घर आ जाने से ग्रामीण महिलाएं खेती क्षेत्र से भी बाहर जाने को मजबूर हो रही हैं। शहरों में वे प्राय: अवैतनिक घरेलू काम कर रही हैं या फिर निर्माण क्षेत्र में ठेके पर काम करते पुरुष मजूरों से कहीं कम तनख्वाह पर उनकी मदद।
हर तरफ से हारा सरकारी योजनाकार हारे को हरिनाम चरितार्थ करता हुआ धार्मिक पर्यटन को धुकाने में जुट गया है। कोविड की तालाबंदी के बीच सेवा क्षेत्र बंद हुआ तो सरकार एक अपरिचित शब्दावली धार्मिक पर्यटन और पवित्र स्नानों का हवाला देकर तीर्थ स्थलों के ताले खुलवाने लगी। ऐसे बिकाऊ धर्म में न पुरानी आत्मीयता है, और न ही लोकल स्वास्थ्य या पर्यावरण के लिए कोई चिंता। हमको कहा जा रहा है कि सरकारी निर्माण योजना से सडक़ और पुल निर्माण में नौकरियां निकलने वाली हैं। साथ ही यह भी कि आपको यह अच्छी सडकें फोकट में नहीं मिलेंगी। भरपूर टोल देना होगा। कुदरती साधनों के दोहन से तैयार तथाकथित राजमार्गों और बेहतरीन पर्यटन सडक़ों की दशा हिमालयीन इलाके में जाकर देख लें। अत्यधिक खोदा- खादी और ब्लास्ट ने इन बारिशों में ही पहाड़ों को मलबे में तब्दील कर सडक़ों का ऐसा भुरकुस निकाला कि चारधाम यात्रा बार-बार बंद करनी पड़ी। इस बीच वॉटरशेड, यानी जलागम विकास के नाम पर हो रहा काम नदियों को गाद से भर गया! पर जब चमोली की तरह कोई बड़ी झील यकायक फटी, तब मुख्यमंत्री दिल्ली तलब हुए और आग लगने पर कुएं खोदे गए।
अभी उत्तराखंड के बीसेक गांवों के लोगों ने बिल्डरों द्वारा जल दोहन को लेकर नैनीताल में धरना दिया। हरित क्रांति ने करीब चार दशकों तक अपना हल-बखर चलाकर विकासशील दुनिया को उन्नत किसम के बीज बोने पर राजी कर लिया तो पहाड़ से मैदान तक बीजों के साथ कीटनाशक और भरपूर पानी की मांग बढ़ी। अब अन्न की उपज के साथ उसके वितरण के क्षेत्र में भी मेगा ग्लोबल कंपनियां आ गई हैं। सदियों से किसानों और बाजार के बीच का सेतु रही मंडियों को नए कानून चुनौती दे रहे हैं। बिना उनसे सलाह-मशवरा किए ताबड़तोड़ निर्माण या कृषि कानूनों पर ग्रामीण विनम्रता से बातचीत करना चाहते हैं, तो उनको सुनने वाले कान नहीं मिलते। उल्टे सडक़ों पर अवरोधक लग जाते हैं।
यह भी गौरतलब है कि अमीर देशों की जिन बीज कंपनियों ने पहले ही विकासशील देशों में केले तथा कोको से लेकर रबर तक की विविध किस्मों की रज जमाकर शोध रोक दिया था, वे पारंपरिक तिलहनों की जगह सस्ते लेकिन पर्यावरण को खतरा पेश करने वाले पाम तेल का गुणगान शुरू करा रही हैं। बड़े ग्लोबल सौदागरों की झोली ऐसे तमाम टोटकों से भरी हुई है। बीजों की रज पर कब्जे का मतलब है पौधों की आनुवंशिकता से लेकर बिकवाली तक खेती से जुड़े हर फैसले पर किसान की बजाय कंपनी का नियंत्रण। किसानों का अब तक का अनुभव रहा है कि सिंचित इलाकों की अधिकतर फसल रोकड़ फसल होती है जो तिजोरी कुछ समय तक के लिए भरने की चीज भले दिखे, अंत में कीमती खरपतवार नाशक, कीटनाशक और बनावटी खाद के दाम उनकी कमाई को लीलने में देर नहीं लगाते।
इधर लंबे समय बाद राष्ट्रीय आंकड़ों के बड़े स्रोत नेशनल स्टैटिस्टिकल सर्वे के द्वारा 2019 में ग्रामीण इलाकों के खेतिहर परिवारों की आमदनी पर शोध आया है। वह (सिचुएशनल असेसमेंट सर्वे 2018-19) स्वीकारता है कि कृषि क्षेत्र से होने वाली कुल आमदनी भले ही 7.8 फीसदी बढ़ी है लेकिन साथ ही मुद्रास्फीति 16 फीसदी की रफ्तार से बढऩे से आज हमारा एक किसान औसतन सिर्फ 27 रुपये रोज, यानी कुल 810 रुपये प्रतिमाह कमा रहा है। खेती से होने वाली आय तो 48 फीसदी से कम होकर 38 फीसदी पर आ गई है और जो आय की क्षीण बढ़ोतरी हुई है, वह खेती से नहीं, बल्कि पशुपालन और किसानी मजूरी दर बढऩे से हुई है। सर्वे यह भी बता रहा है कि प्रति किसानी परिवार के सर पर फार्म लोन का बोझ 2012- 13 की तुलना में 2019 तक आते-आते 16.5 फीसदी (47,000 सालाना से बढक़र 74,100 रुपये) हो गया है। इस सबके उजास में किसानों की हताशा और गुस्सा समझ में आते हैं।
आम तौर से देश के हाशिये पर शांति से अपना काम करता रहा किसान ऊपरी आश्वासनों पर भरोसा नहीं करता। इसीलिए सरकारी अमलों और नेताओं को किसानों ने मुजफ़्फरनगर, गाजीपुर, टीकरी, करनाल से अलीगढ़ तक मंच से बलपूर्वक उतारना शुरू किया है। सोचिए, जब उनको टीवी पर साफ दिखता हो कि हमारे उच्चवर्गीय शहरी युवा घर बैठे काम से इतना धन कमा रहे हैं कि हजार रुपया प्रति व्यक्ति की दर पर बड़े रेस्तरां से बजरिये स्विगी या जमाटो घर पर ही बेहतरीन खाना मंगवा सकें, तो वे जो देश के अन्नदाता हैं, कब तक 810 रुपये प्रतिमाह की अपनी कमाई पर चुपचाप बिना प्रतिवाद किए जिएं? जब चुनाव सर पर खड़े हों (और इस विशाल देश में वे कब नहीं होते?) तो गरीब मतदाता भी मंच पर सीधा खड़ा होकर मन की बात करने लगता है। (navjivanindia.com)
-अपूर्व गर्ग
शहीद भगत सिंह ने अपनी कालकोठरी जो उनका अध्ययन कक्ष था, गंभीर अध्ययन करते अपनी आत्मकथा सहित 4 महत्वपूर्ण किताबें लिखी थीं? क्या हुआ उन पुस्तकों का?
ये सवाल भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र सिंधु जो भगतसिंह के छोटे भाई कुलतारसिंह की बेटी हैं, उन्होंने 28 दिसंबर 1968 को अपनी पुस्तक ‘युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’ में उठाया। वीरेंद्र सिंधु ने लिखा है-उन्होंने फाँसी कोठरी में बैठे-बैठे वक्तव्य तो जाने कितने लिखे थे, पर कई पुस्तकें भी लिखी थीं ,इनमें महत्वपूर्ण पुस्तकें थीं-
1-आइडियल ऑफ सोशलिज्म
2-द डोर टू डेथ
3-ऑटोबायोग्राफी
4-द रिवोल्यूशनरी मूवमेंट ऑफ इंडिया विथ शार्ट बायोग्राफिक स्केचेस ऑफ थे रिवोल्यूशनरीज
इन पुस्तकों में भगतसिंह ने नई समाज व्यवस्था को रेखांकित कर विकल्प के रूप में और समाधान के तौर पर समाजवाद को प्रस्तुत किया था। ‘आइडियल ऑफ सोशलिज्म’ को भगतसिंह तुरंत छपवाना चाहते थे, उनका कहना था इस पुस्तक की ‘पोलिटिकल वैल्यू’ बहुत अधिक है।
क्या हुआ उन पुस्तकों का ? इसका जवाब देते हुए वीरेंद्र सिंधु ने लिखा है-भगत सिंह का आदेश था सारी सामग्री लज्जावती जी को दे दी जाएँ। इसके बाद कुलबीर सिंह द्वारा सामान उन तक पहुँच गया।
इसके बाद की कहानी भी कुलबीर सिंह के शब्दों में 1933-34 में मैंने इस साहित्य की बात चाचाजी सरदार अजीतसिंह को लिखी, जो उस समय जर्मनी में थे। उन्होंने उत्तर दिया उस सब साहित्यकी नकल करवाकर मुझे भेज दो। मैं उन्हें यहाँ अंग्रेजी, जर्मनी और अन्य भाषाओं में छपा दूँगा ।
मैं लज्जावतीजी के पास गया। उन्होंने कहा, वह देश की संपत्ति है, इसलिए मैंने पंडित जवाहरलाल नेहरू को दे दी थी। कुछ दिनों के बाद पंडित नेहरू लाहौर आये, तो मैंने उनसे उस साहित्य की नकल दे देने को कहा। वे बोले तुमसे किसने कहा कि मेरे पास वो साहित्य है? मैंने लज्जावतीजी का नाम लिया। वो चुप हो गए फिर कुछ बोले।
इसके बाद मैंने लज्जावतीजी से फिर पूछा, तो वे बोलीं ‘मैंने पुस्तकें विजय कुमार सिन्हा को दे दी हैं। मिलने पर श्री विजय कुमार सिन्हा ने स्वीकार किया और 1946 तक कहते रहे कि उन्हें देखभाल कर जल्दी ही छपवाएंगे, पर बाद में उन्होंने कहा कि वे पुस्तकें सुरक्षा के ख्याल से किसी मित्र के पास रखी थीं, वहीं नष्ट हो गई।’ तो एक बात तो ये कि ये दस्तावेज नेहरूजी तक कभी पहुंचे ही नहीं...
वीरेंद्र सिंधुजी के लिखे विवरण से जाहिर है-
1-भगत सिंह के कहने पर पुस्तकें लज्जावती को दी गईं।
2-ये पुस्तकें नेहरूजी तक बिल्कुल नहीं पहुंची।
3-लज्जावतीजी ने जब दोबारा भगतसिंह के साथ विजय कुमार सिन्हा का नाम लिया और सिन्हाजी ने स्वीकार किया। पुस्तकें उन तक पहुंची।
4-विजय कुमार सिन्हा ने छपवाने का वादा किया पर अचानक कुलबीर सिंह को जवाब दिया कि-नष्ट हो गईं!
वीरेंद्र सिंधु ने बहुत पीड़ा के साथ आगे लिखा है कि बहुत दर्दनाक है ये संस्मरण, यह इतिहास की धरोहर के छिन जाने की कहानी है। इतिहास इसके लिए किसे दोष देगा मैं नहीं जानती।
भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी शिव वर्मा ने ‘शहीद ‘भगतसिंह की चुनी हुई कृतियों’ के आमुख में लिखा है-दुर्भाग्यवश जेल में भगतसिंह द्वारा लिखी गई चार पुस्तकों [उपरोक्त] की पांडुलिपियाँ नष्ट हो चुकी हैं। ये चारों पांडुलिपियाँ चोरी-छिपे जेल से बाहर लाई गईं और कुमारी लज्जावती के पास जालंधर भेज दी गई थीं, जिन्होंने 1938 में इनको विजय कुमार सिन्हा के हवाले कर दिया। 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने के बाद सिन्हा को लगा, और ठीक ही लगा, कि उनकी गिरफ्तारी और उनके घर की तलाशी हो सकती है। इसलिए पांडुलिपियों को पुलिस के हाथों पडऩे से बचाने के लिए उन्होंने, उनको सुरक्षित रख-रखाव के उद्देश्य से अपने एक मित्र के हवाले कर दिया।
लेकिन 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के बाद जब पुलिस दमन जोरों पर था, यह दोस्त बेहद डर गया और उसने पांडुलिपियों को नष्ट कर दिया।’
यानी भगत सिंह के सबसे नजदीकी कामरेड शिव वर्मा जी चारों किताबों की पुष्टि करते हैं, जिसके वे जेल में भी प्रत्यक्ष गवाह रहे।
शिव वर्मा ये भी कन्फर्म करते हैं कि चारों किताबें लज्जावती के हाथों विजय कुमार सिन्हा को मिली बस और आगे जो शिव वर्मा ने सुना किताबें नष्ट होना, उस सुनी हुई बात को लिखा।
जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और ‘भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज’ के संपादक प्रोफेसर चमनलाल ने ‘उद्भावना’ द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका में शिववर्मा को उद्धृत कर लिखा है-लज्जावती ने उन दस्तावेजों को ‘पीपुल’ के संपादक फिरोजचंद को दिए।
फिरोजचंद ने उसमे से कुछ कागज चुनकर बाकी लज्जावती को वापिस कर दिए, जिन्हें लज्जावती ने 1938 में विजय कुमार सिन्हा को दिया।
उन दस्तावेजों में फिरोजचंद ने 27 सितम्बर 1931 के अंक में ‘मैं नास्तिक क्यों’ शीर्षक लेख प्रकाशित किया।
भगतसिंह के पिता भी उन दस्तावेजों को पाने, देखने के लिए बहुत परेशान थे, लेकिन भगतसिंह के निर्देशानुसार लज्जावती ने इसके लिए सख्ती से इंकार कर दिया।
इस पूरे परिदृश्य का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इन दस्तावेजों के प्रति उदासीनता का है, जिसकी चर्चा अब महत्वपूर्ण है। कुमारी लज्जावती ने ही नहीं बल्कि फिरोजचंद ने भी यहाँ तक की विजय कुमार सिन्हा ने भी उन दस्तावेजों के प्रति उदासीनता बरती।’
आगे प्रोफेसर चमनलाल इन पुस्तकों पर सवाल उठाते हैं कि जो शिव वर्मा ने देखा हो वह पूर्ण पाण्डुलिपि थी अथवा जेल डायरी की तरह दर्ज टिप्पणियाँ ही थी, इस वषय में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता। सतही तौर पर देखें तो इतने अल्प समय [लगभग 2 बरस, 8 अप्रैल 1929 से 23 मार्च 1931 ] 4 पुस्तक लिखना कठिन है...
प्रोफेसर साहब क्या सचमुच भगत सिंह जैसे महान विचारक-क्रांतिकारी के लिए 2 बरस में सिर्फ 4 पुस्तकें लिखना असंभव है?
भगत सिंह को पढ़ते हुए हमें लगता है कि 4 तो कुछ भी नहीं ? यही वजह है चमनलालजी के साथ कई विद्वानों की बहुत असहमतियाँ हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील और विख्यात लेखक अरविन्द जैन का भगतसिंह पर विस्तृत लेख ‘हँस’ अर्धशती विशेषांक (1997) में छपा ।
इस लेख में अरविन्द जैनजी ने इस मुद्दे को खास तौर पर रेखांकित किया।
मैंने अरविन्द जैनजी से पूछा-भगत सिंह की चारो पुस्तकें जो नष्ट हो गई कुमारी लज्जावती ने विजय कुमार सिन्हा को सौंपी तो आखिर पुस्तकें गयीं कहाँ ? क्या आसानी से नष्ट हो गईं?
जैन साहब ने फेसबुक पर ही मेरे सवाल के जवाब में कहा-‘कुछ भी कहना कठिन है।’
विजय कुमार सिन्हा ने अंत में जिन्हे ये पुस्तकें या अमूल्य धरोहर सौंपी क्या ये संभव है वो नष्ट कभी की जा सकती थीं ?
संभव है कि ये किसी रूप में मौजूद हों! वाकई कुछ नहीं कहा जा सकता....
जो भी हो एक बार फिर इन पुस्तकों को ढूंढने के विषय में पूरे प्रयास होने चाहिए।
टूटी छूटी कडिय़ों को जोडक़र पहल करनी चाहिए, यदि मिल गईं तो हिन्दुस्तान की सबसे अमूल्य धरोहर होंगी।
[तस्वीर-‘पुस्तक युग द्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’-पेज नंबर -306 ]
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के मुख्य न्यायाधीश न.व. रमन ने पिछले हफ्ते भारत की न्याय व्यवस्था को भारतीय भाषाओं में चलाने की वकालत की थी, इस हफ्ते उन्होंने एक और कमाल की बात कह दी है। उन्होंने भारत की अदालतों में महिला जजों की कमी पर राष्ट्र का ध्यान खींचा है। उन्होंने कहा है कि भारत के सभी न्यायालयों के जजों में महिलाओं की 50 प्रतिशत नियुक्ति क्यों नहीं होती? देश में कानून की पढ़ाई में महिलाओं को क्यों नहीं प्रोत्साहित किया जाता? महिला वकीलों की संख्या पुरुष वकीलों के मुकाबले इतनी कम क्यों है? उनकी राय है कि देश की न्याय व्यवस्था में महिलाओं की यह कमी इसलिए है कि हजारों वर्षों से उन्हें दबाया गया है। न्यायमूर्ति रमन ने मांग की है कि राज्य सरकारें और केंद्र सरकार इस गलती को सुधारने पर तुरंत ध्यान दें।
यदि भारत के नेताओं और लोगों को यह बात ठीक से समझ में आ जाए तो हमारी अदालतों की शक्ल ही बदल जाएगी। सबसे पहले हम यह समझें कि आंकड़े क्या कहते हैं। हमारे सर्वोच्च न्यायालय में इस समय 34 जज हैं। उनमें से सिर्फ चार महिलाएं हैं। अभी तक सिर्फ 11 महिलाएं इस अदालत में जज बन सकी हैं। छोटी अदालतों में महिला जजों की संख्या ज्यादा है लेकिन वह भी 30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। इस समय देश की अदालतों में कुल मिलाकर 677 जज हैं। इनमें से महिला जज सिर्फ 81 हैं याने सिर्फ 12 प्रतिशत ! प्रदेशों के उच्च न्यायालयों में 1098 जज होने चाहिए लेकिन 465 पद खाली पड़े हैं। इन पदों पर महिलाओं को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती ? प्राथमिकता देने का यह अर्थ कतई नहीं है कि अयोग्य को भी योग्य मान लिया जाए। महिलाओं को या किसी को भी जो 50 प्रतिशत आरक्षण मिले, उसमें योग्यता की शर्त अनिवार्य होनी चाहिए।
देश के वकीलों में सुयोग्य महिलाओं की कमी नहीं होगी लेकिन दुर्भाग्य है कि देश के 17 लाख वकीलों में मुश्किल से 15 प्रतिशत महिलाएं हैं। राज्यों के वकील संघों में उनकी सदस्यता सिर्फ दो प्रतिशत है और भारत की बार कौंसिल में एक भी महिला नहीं है। देश में कुल मिलाकर 60 हजार अदालतें हैं लेकिन लगभग 15 हजार में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं हैं। हमारे इस पुरुषप्रधान देश की तुलना जरा हम करें, यूरोप के देश आइसलैंड से ! वहाँ कल हुए संसद के चुनाव में 63 सांसदों में 33 महिलाएँ चुनी गई हैं याने 52 प्रतिशत। वहां की प्रधानमंत्री भी महिला ही हैं- श्रीमती केटरीन जेकबस्डोटिर। उसके पड़ौसी देश स्वीडन की संसद में 47 प्रतिशत महिलाएँ हैं और अफ्रीका के रवांडा में 61 प्रतिशत हैं। दुनिया के कई छोटे-मोटे और पिछड़े हुए देशों में भी उनकी संसद में भारत के मुकाबले ज्यादा महिलाएँ हैं। भारत गर्व कर सकता है कि उसके राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष पद पर महिलाएं रह चुकी हैं लेकिन देश के मंत्रिमंडलों, संसद और अदालतों में महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व मिले, यह आवाज अब जोरों से उठनी चाहिए। इस स्त्री-पुरुष समता का समारंभ हमारे राजनीतिक दल ही क्यों नहीं करते?
(नया इंडिया की अनुमति से)
28 सितंबर को 30 वीं पुण्यतिथि पर याद
-बाबा मायाराम
शंकर गुहा नियोगी, छत्तीसगढ़ के मशहूर मजदूर नेता थे, उनकी बहुत ही कम आयु में हत्या 28 सितंबर, 1991 को कर दी गई, जब वे मात्र 48 वर्ष के थे, लेकिन उस समय तक उनकी ख्याति देश-दुनिया में फैल चुकी थी। वे एक किंवदंती बन चुके थे। उन्होंने न केवल मजदूरों की जिंदगी की बेहतरी के लिए काम किए, वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि पूरी जिंदगी के लिए काम किया। व्यापक तौर पर सामाजिक बदलाव के नए प्रतिमान बनाए, उन्हें जमीन पर करके दिखाया। वे जन आंदोलन व सामाजिक बदलाव की एक उम्मीद बन गए।
शंकर गुहा नियोगी का जन्म जलपाईगुड़ी (पश्चिम बंगाल में हुआ। पर विद्यार्थी जीवन में ही भिलाई आ गए। भिलाई इस्पात संयंत्र में काम भी किया। लेकिन जल्दी ही गांव की तरफ रुख कर लिया। गांव-गांव घूमे, खुद मजदूरी की, पत्थर तोड़े, छोटे छोटे काम कर जीवन चलाया। गरीबी व लोगों की तंगदिली को करीब से देखा। उनमें संगठन बनाने की कोशिश की। कई बार जेल गए, उन्होंने अपने जीवन के 6 वर्ष जेल में बिताएं। वहां यातनाएं भी झेली।
उनकी कर्मस्थली बना छत्तीसगढ़ का कस्बा दल्ली राजहरा, जो अब बालोद जिले में है, पहले दुर्ग जिले में था। दल्ली और राजहरा नाम की दो लौह खदानों के नाम पर ही इसका नाम दल्ली राजहरा पड़ा। इन खदानों से लौह अयस्क भिलाई इस्पात संयंत्र को जाता था। इन खदानों में जो ठेका मजदूर काम करते थे, उन मजदूरों को बहुत ही कम रोजी मिलती थी। उनक़ी हालत अच्छी नहीं थी। उस समय के यूनियन उचित नेतृत्व देने में सक्षम नहीं थे, वे प्रबंधन के साथ मिले थे। ऐसे समय में नियोगी जी के कुशल नेतृत्व के आगे प्रबंधन को मजदूरों की मांगें माननी पड़ी। और एक के बाद एक संघर्ष के आगे सफलताएं मिलती गईं।
नियोगी की व्यापक सोच थी। उन्होंने मजदूरों के लिए 17 विभाग बनाए, जिन पर लगातार काम होता रहा। किसानों की समस्याओं से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, शराबबंदी, महिला संगठन इत्यादि। एक अनूठा स्वास्थ्य आंदोलन चला- मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए मेहनतकशों का संघर्ष। इसके तहत् शहीद अस्पताल बना, जो आज एक सर्वसुविधायुक्त अस्पताल बन गया है। कोविड-19 के दौरान इस अस्पताल ने बहुत ही अच्छा काम किया है। कोविड वार्ड बनाकर रात-दिन मजदूरों की सेवा की है। इस अस्पताल ने लोगों का विश्वास जीता है और साख अर्जित की है, जो बड़े बड़े अस्पतालों के पास नहीं है। इसी तरह अर्द्धमशीनीकरण की उनकी सोच मौजूं है। जिसमें खदानों में जोखिम वाले काम मशीन से करने और बाकी काम मजदूरों से करवाने की सोच थी।
अपना जंगल पहचानो, के नाम से छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के कार्यालय के पीछे लगाया जिसमें कई तरह के देसी प्रजाति के पेड़ हैं। पिछली बार मैं गया तो उस जंगल में घूमा था। वे उन आदिवासियों व जंगल में रहनेवाले लोगों की समस्या से भी लड़ते थे, जिन्हें जलाऊ लकड़ी के लिए वनविभाग परेशान करता था।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, जिसके नियोगी के संस्थापक थे, के नेतृत्व के लिए भी उन्होंने कई नियम बनाए थे। छमुमो के कार्यकर्ता संघर्ष में तपकर निकलते थे। जेल जाना, पुलिस की लाठियां खाना, सादगी से रहना और मजदूरों के बीच उनकी तरह जीवन बिताना, कार्यकर्ताओं की पहचान थी।
जनकलाल ठाकुर, जो छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष है, की सादगी मिसाल है।शेख अंसार, भीमराव बागड़े, गणेशराम चौधरी, डा शैवाल जाना जी जैसे कई लोग हैं, जिनकी जिंदगी ही बदल गई। फागूराम यादव जी, ने ऐसे जनगीत रचे, जो जनांदोलन के प्रमुख गीत बन गए। चल मजदूर चल किसान, देश के हो महान, ऐसा ही लोकप्रिय गीत है। लोक संस्कृति को आंदोलन की संस्कृति से जोड़ा। वह आंदोलन की जान थी। छमुमो ने ऐसे कई गीत रचनेवाले बनाए, जो बहुत ही अनूठी बात है। नियोगी जी ने सैकड़ों लोगों को छुआ व बदला।
मुझे 80 के दशक के शुरूआत में नियोगी जी से मिलने और उनके साथ इलाके में घूमने का मौका मिला। वर्ष 84 में दल्ली राजहरा में करीब एक माह रहा और कई गांवों में घूमा। इस दौरान मैंने देखा कि वे हमेशा ही मजदूरों से घिरे रहते थे, उनकी छोटी छोटी समस्याओं से लेकर बड़ी समस्याओं से सुलझाते रहते थे।
मैंने देखा कि वे इतने व्यस्त रहते थे कि दोपहर में भोजन भी नहीं कर पाते थे। एक बार मैंने याद दिलाया, तो बोले सब मजदूर खाएंगे तो हम भी खा लेंगे। मजदूरों के बीच से निकल कर भोजन करना भी उन्हें गंवारा न था। वे एक झोपड़ी में रहते थे। खुद कुएं से पानी खींचकर नहाते थे। कपड़े धोते थे। उन्हें पेड़-पौधों में गहरी दिलचस्पी थी। उनके घर में खूब पौधे थे, एक बिना बीजवाला नींबू वे हमारे ही इलाके से लेकर गए थे, जो अब भी उनके यहां है।
उनका जीवन पारदर्शी था। वे एक झोपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते थे। उनके बेटे और बेटियां का नाम उन्होंने क्रांति, जीत और मुक्ति रखा। उनका एक-एक कदम आदर्श से भरा था। जो कहते थे वैसा जीते थे। निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद नहीं था। कोई भी मजदूर उनकी चूल्हे की हांडी में क्या पक रहा है, देख सकता था।
उसके बाद भी मैं कई बार नियोगी जी से मिला, उनकी हत्या के 10 दिन पहले जब वे होशंगाबाद आए थे, तब उनसे आखिरी मुलाकात हुई थी, उन्होंने मुझे जल्द ही दल्ली राजहरा मिलने के लिए बुलाया था, कहा था कि बाबा, मजदूरों का एक अखबार निकालना है, लेकिन जब दल्ली गया तब वे नहीं थे। दल्ली राजहरा के बस स्टैंड पर उतरते ही उनकी फोटो के लिए झपटते मजदूरों को देखा, जो एक व्यक्ति बेच रहा था, अभी उनकी फोटो चिपकाए कई मजदूर व बुजुर्ग मिल जाते हैं, नियोगी उनके दिलों में जिंदा हैं। उनके लिए बड़े महल व स्मारक बनवाने की जरूरत नहीं हैं, जो खंडहर बन जाते हैं। वे छत्तीसगढ़ के किसान-मजदूरों के दिलों में सदैव ही जिंदा रहेंगे।
-ध्रुव गुप्त
अपनी शुरुआत से अबतक हिंदी सिनेमा में पुरुष संगीतकारों का वर्चस्व रहा। फिल्म संगीत के नब्बे साल के सफर मे बस इक्का-दुक्का स्त्री संगीतकार ही पुरुषों के आधिपत्य वाले इस क्षेत्र में अपनी थोड़ी-बहुत पहचान बना पाई हैं। पिछली सदी के तीसरे-चौथे दशक की एक संगीतकार सरस्वती देवी को हिंदी सिनेमा की पहली स्त्री संगीतकार होने का गौरव हासिल है। उस दौर में अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दनबाई तथा बाद में पाकिस्तान जा बसी इशरत सुल्ताना ने भी कुछ फिल्मों का संगीत दिया था, लेकिन जानकार पहली स्त्री संगीतकार होने का श्रेय सरस्वती देवी को देते हैं। पंकज मलिक और आर.सी बोराल जैसे दिग्गज संगीतकारों के उस दौर में सरस्वती देवी की लोकप्रियता चरम पर थी।
1912 में एक पारसी परिवार में जन्मी ख़ुर्शीद मिनोचर होमजी उर्फ सरस्वती देवी ने विष्णु नारायण भातखंडे से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने के बाद रेडियो पर गाना शुरू किया था। रेडियो पर उन्हें सुनकर बॉम्बे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय ने उन्हें अपनी पहली फिल्म ‘जवानी की हवा’ और ‘जीवन नैया’ के संगीत निर्देशन का भार सौंपा। इन फिल्मों का संगीत खूब चला। अशोक कुमार की आवाज़ में ‘जीवन नैया’ का एक गीत ‘कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा’ तब बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके बाद अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत उनकी फिल्म ‘अछूत कन्या’ ने सफलता के झंडे गाड़े। उस फिल्म का एक गीत ‘मैं बन की चिडिय़ा बन के वन-वन बोलूं रे’ हिंदी सिनेमा के अमर गीतो में एक साबित हुआ। सरस्वती देवी ने पचास से ज्यादा फिल्मों के लिए संगीत रचा था जिनमें से कुछ चर्चित फिल्में हैं - जीवन नैया, अछूत कन्या, प्रेम कहानी, ममता, कंगन, झूला, बंधन, भाभी, निर्मला, वचन और आम्रपाली। गायक किशोर कुमार और संगीतकार मदन मोहन ने उनकी कई फिल्मों में कोरस गाया था। उनकी फिल्म ‘उषा हरण’ में गाने वाली लता मंगेशकर का मानना है कि सरस्वती देवी से उन्हें संगीत की कई बारीकियां सीखने को मिली थी।
उनकी फिल्म ‘जीवन नैया’ के गीत ‘कोई हमदम न रहा’ को 1961 में किशोर कुमार ने फिल्म ‘झुमरू’ में अपनी आवाज देकर अमर कर दिया था। उनकी फिल्म ‘झूला’ में अशोक कुमार की आवाज में एक गीत ‘एक चतुर नार करके सिंगार’ को दोबारा राहुल देव बर्मन ने फिल्म ‘पड़ोसन’ में किशोर कुमार और मन्ना डे की आवाज में रिक्रिएट किया था। उनकी फिल्म ‘बंधन’ के एक मशहूर गीत ‘चनाजोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार’ का इस्तेमाल मनोज कुमार ने कुछ फेरबदल के साथ 1981 की अपनी फिल्म ‘क्रांति’ में किया था।
चौथे दशक में बॉम्बे टॉकीज के बंद होने और नौशाद, हुस्नलाल भगतराम, अनिल बिस्वास, सी रामचंद्र, शंकर जयकिशन जैसे संगीतकारों के उदय के साथ फिल्म संगीत में नए-नए प्रयोगों की बाढ़ आने के बाद सरस्वती देवी धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चली गई। उनके बाद हिंदी फिल्म संगीत में बदलाव के कई दौर आए, लेकिन यह निर्विवाद है कि हिंदी फिल्म संगीत को उसका वर्तमान स्वरूप देने में सरस्वती देवी की भूमिका अहम रही थी। उनके बाद छठे दशक में एक दूसरी स्त्री संगीतकार उषा खन्ना अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हो सकी थी। दुर्भाग्य से फिल्म संगीत के इतिहास ने सरस्वती देवी को वह श्रेय नहीं दिया जिसकी वे वाकई हकदार थीं।
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा भारतीय मीडिया में पिछले तीन-चार दिन छाए रही। सभी टीवी चैनलों और अखबारों में उसे सबसे ऊँचा स्थान मिला लेकिन हम अब उस पर ठंडे दिमाग से सोचें, यह भी जरुरी है। मेरी राय में सिर्फ दो बातें ऐसी हुईं, जिन्हें हम सार्थक कह सकते हैं। एक तो अमेरिका की पांच बड़ी कंपनियों के कर्त्ता—धर्त्ताओं से मोदी की भेंट। यह भेंट अगर सफल हो गई तो भारत में करोड़ों-अरबों की विदेशी पूंजी का निवेश होगा और तकनीक के क्षेत्र में भारत चीन से भी आगे निकल सकता है। दूसरी सार्थक बात यह हुई कि अमेरिका से मोदी अपने साथ 157 ऐसी प्राचीन दुर्लभ भारतीय कलाकृतियाँ और मूर्तियाँ भारत लाए हैं, जिन्हें किसी न किसी बहाने विदेशों में ले जाया जाता रहा है।
यह भारत के सांस्कृतिक गौरव की रक्षा की दृष्टि से उत्तम नीति है लेकिन राजनीतिक दृष्टि से मोदी की इस अमेरिका-यात्रा से भारत को ठोस उपलब्धि क्या हुई ? भारत का विदेश मंत्रालय दावा कर सकता है कि अमेरिका जैसे देश ने पहली बार यह कहा है कि भारत को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाया जाए। मेरी राय में अमेरिका का यह कथन सिर्फ जबानी जमा-खर्च है। संयुक्तराष्ट्र का पूरा ढांचा जब तक नहीं बदलेगा, तब तक सुरक्षा परिषद में सुधार की आशा करना हवा में लट्ठ चलाना है। ‘चौगुटे’ (क्वाड) की बैठक में नई बात क्या हुई ? चारों नेताओं ने पुराने बयानों को फिर से दोहरा दिया। अगर ‘आकुस’ (त्रिगुटा) ने जैसे आस्ट्रेलिया को परमाणु-पनडुब्बियां दिलवा दीं, वैसे ही ‘क्वाड’ भारत को भी दिलवा देता तो कोई बात होती। संयुक्तराष्ट्र में दिए गए मोदी के भाषण में इमरान खान के भाषण के मुकाबले अधिक संयम और मर्यादा से काम लिया गया और इमरान के अनाप-शनाप भारत-विरोधी हमले का तगड़ा जवाब नहीं दिया गया।
उसका कारण यह रहा हो सकता है कि अफसरों ने मोदी का हिंदी भाषण पहले से ही तैयार करके रखा होगा लेकिन भारत की महिला कूटनीतिज्ञ ने इमरान के नहले पर दहला मार दिया। मोदी ने यह भी ठीक ही कहा कि पाकिस्तान ने आतंकवाद को अपना हथियार बनाकर खुद का नुकसान ही ज्यादा किया है। लेकिन इमरान के भाषण ने अमेरिका की पोल खोलकर रख दी। अमेरिका ने ही तालिबान, मुजाहिदीन और अल-क़ायदा को खड़ा करते समय पाकिस्तान को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया था और अब वह उसे छूने को भी तैयार नहीं है। इसीलिए इमरान न्यूयार्क नहीं गए। मोदी व्हाइट हाउस में बाइडन के साथ डिनर करें और इमरान निमंत्रण का इंतजार करते रहें, यह कैसे हो सकता था ? अभी भारत-अमेरिका संबंध चरम उत्कर्ष पर हैं लेकिन मोदी को इमरान से सबक लेना होगा। अमेरिका केवल तब तक आपके साथ रहेगा, जब तक उसके स्वार्थ सिद्ध होते रहेंगे। ज्यों ही चीन से उसके संबंध ठीक हुए कि वह भारत को अधर में लटका देगा, जैसे आजकल उसने पाकिस्तान को लटका रखा है। इसीलिए मैं बराबर कहता रहा हूँ कि हमारी अपनी मौलिक अफगान नीति होनी चाहिए। हम अमेरिका की हाँ में हाँ मिलाने की मजबूरी क्यों दिखाएँ? (डॉ. वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. जैन
आज पुत्री दिवस यानी डाटर्स डे है। इस मौके पर मैं नेहरूजी द्वारा इंदिरा जी को जेल से लिखे उनके पत्रों का संकलन ‘एक पिता के पुत्री के नाम पत्र’ की पुस्तक से सभ्यता की व्याख्या पर संक्षिप्त में लिख रहा हूँ।
एक पिता की भूमिका में लिखा गया नेहरू का यह पत्र सभ्यता की सबसे सुंदर और सरल व्याख्या है।
जवाहरलाल नेहरू ने यह पत्र दस साल की इंदिरा गांधी को तब लिखा था जब वे मसूरी में थीं। अंग्रेजी में लिखे इस पत्र का हिंदी अनुवाद मशहूर लेखक प्रेमचंद ने किया था। मैं आज तुम्हें पुराने जमाने की सभ्यता का कुछ हाल बताता हूं। लेकिन इसके पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यता का अर्थ क्या है? कोश में तो इसका अर्थ लिखा है अच्छा करना, सुधारना, जंगली आदतों की जगह अच्छी आदतें पैदा करना. और इसका व्यवहार किसी समाज या जाति के लिए ही किया जाता है। आदमी की जंगली दशा को, जब वह बिल्कुल जानवरों-सा होता है, बर्बरता कहते हैं। सभ्यता बिल्कुल उसकी उल्टी चीज है। हम बर्बरता से जितनी ही दूर जाते हैं उतने ही सभ्य होते जाते हैं।
लेकिन हमें यह कैसे मालूम हो कि कोई आदमी या समाज जंगली है या सभ्य? यूरोप के बहुत-से आदमी समझते हैं कि हमीं सभ्य हैं और एशिया वाले जंगली हैं. क्या इसका यह सबब है कि यूरोप वाले एशिया और अफ्रीका वालों से ज्यादा कपड़े पहनते हैं? लेकिन कपड़े तो आबोहवा पर निर्भर करते हैं। ठंडे मुल्क में लोग गर्म मुल्क वालों से ज्यादा कपड़े पहनते हैं। तो क्या इसका यह सबब है कि जिसके पास बंदूक है वह निहत्थे आदमी से ज्यादा मजबूत और इसलिए ज्यादा सभ्य है? चाहे वह ज्यादा सभ्य हो या न हो, कमजोर आदमी उससे यह नहीं कह सकता कि आप सभ्य नहीं हैं। कहीं मजबूत आदमी झल्ला कर उसे गोली मार दे, तो वह बेचारा क्या करेगा?
तुम्हें मालूम है कि कई साल पहले एक बड़ी लड़ाई हुई थी! दुनिया के बहुत से मुल्क उसमें शरीक थे और हर एक आदमी दूसरी तरफ के ज्यादा से ज्यादा आदमियों को मार डालने की कोशिश कर रहा था. अंग्रेज जर्मनी वालों के खून के प्यासे थे और जर्मन अंग्रेजों के खून के. इस लड़ाई में लाखों आदमी मारे गए और हजारों के अंग-भंग हो गए कोई अंधा हो गया, कोई लूला, कोई लंगड़ा।
तुमने फ्रांस और दूसरी जगह भी ऐसे बहुत-से लड़ाई के जख्मी देखे होंगे। पेरिस की सुरंग वाली रेलगाड़ी में, जिसे मेट्रो कहते हैं, उनके लिए खास जगहें हैं. क्या तुम समझती हो कि इस तरह अपने भाइयों को मारना सभ्यता और समझदारी की बात है? दो आदमी गलियों में लडऩे लगते हैं, तो पुलिसवाले उनमें बीच बचाव कर देते हैं और लोग समझते हैं कि ये दोनों कितने बेवकूफ हैं. तो जब दो बड़े-बड़े मुल्क आपस में लडऩे लगें और हजारों और लाखों आदमियों को मार डालें तो वह कितनी बड़ी बेवकूफी और पागलपन है। यह ठीक वैसा ही है जैसे दो वहशी जंगलों में लड़ रहे हों। और अगर वहशी आदमी जंगली कहे जा सकते हैं तो वह मूर्ख कितने जंगली हैं जो इस तरह लड़ते हैं?
अगर इस निगाह से तुम इस मामले को देखो, तो तुम फौरन कहोगी कि इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रंास, इटली और बहुत से दूसरे मुल्क जिन्होंने इतनी मार-काट की, जरा भी सभ्य नहीं हैं। और फिर भी तुम जानती हो कि इन मुल्कों में कितनी अच्छी-अच्छी चीजें हैं और वहां कितने अच्छे-अच्छे आदमी रहते हैं।
अब तुम कहोगी कि सभ्यता का मतलब समझना आसान नहीं है, और यह ठीक है। यह बहुत ही मुश्किल मामला है। अच्छी-अच्छी इमारतें, अच्छी-अच्छी तस्वीरें और किताबें और तरह-तरह की दूसरी और खूबसूरत चीजें जरूर सभ्यता की पहचान हैं। मगर एक भला आदमी जो स्वार्थी नहीं है और सबकी भलाई के लिए दूसरों के साथ मिल कर काम करता है, सभ्यता की इससे भी बड़ी पहचान है। मिलकर काम करना अकेले काम करने से अच्छा है और सबकी भलाई के लिए एक साथ मिल कर काम करना सबसे अच्छी बात है।
-संजय श्रमण
ज्योतिबा फुले ने भारतीय महिलाओं को शुद्रातिशूद्र की श्रेणी में गिना था। न केवल शूद्रों की तरह उनका शोषण होता है बल्कि सवर्णों और शुद्रो दोनों श्रेणियों के मर्दों द्वारा भी उनका एक ही जैसा शोषण होता है।
भारतीय समाज व्यवस्था में बंगाल सहित पूरे देश में सवर्ण जातियों में एक पुरुष बहुत कम उम्र की बच्ची से शादी कर सकता था। ईश्वरचंद विद्यासागर के गुरू ने सत्तर पार की उम्र में पांच साल की लडक़ी से शादी की थी। ऐसे ही ज्योतिबा फुले के एक ब्राह्मण मित्र ने भी एक बच्ची से शादी की थी। उम्र में इस अमानवीय अंतर के साथ अवसरों में भी अंतर था। एक विधुर, अलग हो चुका या पहले से ही विवाहित पुरुष कई बार विवाह कर सकता था।
ऐसे में बूढ़े पति की मृत्यु से या चार पांच पत्नियों के एक पति की मृत्यु से समाज में विधवाओं और अबलाओं की संख्या बढ़ जाती थी, इस कारण समाज में व्यभिचार, अनैतिक संबन्ध आदि बढ़ जाते थे। इस बड़ी समस्या का इलाज विश्वगुरु ने अपने ही निराले अंदाज में निकाला। दुनिया का कोई सभ्य समाज ऐसे उपायों की कल्पना नहीं कर सकता। ये इलाज पूरे भारत में प्रचलित और स्वीकृत थे।
पहला इलाज था सती प्रथा, हर स्त्री को अपने पति के साथ जल मरना चाहिए।
दूसरा इलाज था कि विधवा घर के एक कोने में गाय बकरी की तरह आजन्म बंधी रहे या आत्महत्या कर ले या कुपोषित रहकर खुद ही मर जाये।
तीसरा इलाज था वैश्यालय जो हर बड़े धार्मिक तीर्थ के आसपास बन जाया करते थे।
सबसे पहले ज्योतिबा फुले ने इन स्रियों की बेहतरी के लिए आवाज उठाई, उन्होंने विधवा गर्भवतियों के लिए एक आश्रम खोला और ‘अवैध’ बच्चों की जिम्मेदारी खुद उठाई। ऐसे ही एक ब्राह्मणी विधवा के बेटे को उन्होंने अपना बेटा बनाकर पाला। इसी क्रम में स्त्रीयों के लिए स्कूल भी खोले और बेहद गरीबी की हालत में इन स्कूलों को चलाया। इस बात की चर्चा नहीं होती। क्योंकि फूले एक शुद्र हैं।
अंग्रेजों के साथ उठने बैठने के दौरान बंगाली भद्रलोक के कुछ लोगों को इसपर बड़ी शर्म महसूस हुई और उन्हीने कम से कम सती प्रथा को विराम लगाने का प्रयास किया। राजा राम मोहन रॉय ने बडे संघर्ष के बाद अंग्रेजी सरकार की मदद और प्रेरणा से इस कुप्रथा को बंद किया। इस बात की खूब चर्चा होती है। क्योंकि रॉय एक ब्राह्मण हैं।
सोचिये अगर यूरोपीय सभ्य समाज का सम्पर्क भारत से न हुआ होता तो क्या क्या नहीं चल रहा होता इस देश में?
-चिन्मय मिश्रा
सन् 1978 में महाश्वेता देवी ने ‘‘द्रोपदी’’ शीर्षक से एक लघु कथा लिखी थी। पितृसत्ता से लडऩे वाली और नक्सलवादी होने के आरोप के मद्देनजर उसकी गिरफ्तारी होती है। पुलिस अधिकारी अपने कुछ सिपाहियों से उसका बलात्कार करने को कहता है। बलात्कार करने के बाद सिपाही उससे पुन: कपड़े पहनने को कहते हैं। परंतु द्रोपदी कपड़े पहनने से इंकार कर देती है। और दांतों से अपने बाकी के कपड़े भी फाड़ देती है। बड़े अफसर के सामने वह नि:वस्त्र ही जाती है और कहती है, ‘‘मैं कपड़े क्यों पहनू ? यहां कोई इंसान ऐसा नहीं है, जिससे मैं शर्माऊ।’’ इस कहानी के लिखे जाने के भी 6 बरस पहले 26 मार्च 1972 को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के देसाईगंज थाना परिसर में मथुरा नाम की एक आदिवासी लडक़ी (14 से 16 वर्ष के मध्य) के साथ दो पुलिसकर्मियों ने बलात्कार किया था। सेशन न्यायालय ने अभियुक्तों को बरी कर दिया था। बम्बई उच्च न्यायालय ने दोनों को सजा दी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1979 में उच्च न्यायालय के फैसले को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि मथुरा ने, ‘‘कोई शोर नहीं मचाया और उसके शरीर पर चोट के कोई निशान नहीं थे, संघर्ष के भी कोई चिन्ह नहीं मिलते अतएव कोई बलात्कार नहीं हुआ। चूंकि वह संभोग की आदी थी, तो संभव है उसने पुलिस वालों को उकसाया हो (वे ड्यूटी के दौरान नशे में थे) कि वे उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए’’ (साधारण भाषा में अनुवाद) इस निर्णय के पश्चात प्रो. उपेन्द्र बक्शी सहित तमाम लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय को पत्र लिखा, देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए। निर्णय तो नहीं बदला परंतु बलात्कार संबंधी कानून में जरुर परिवर्तन हुआ।
वस्तुत: स्थितियां बहुत नहीं बदलीं। 15 जुलाई 2004 को मणिपुर की 12 महिलाओं ने मनोरमा थंगजाम की मृत्यु व कथित बलात्कार के खिलाफ, इंफाल स्थित असम राईफल्स के मुख्यालय के सामने नग्न होकर प्रदर्शन किया था। इन बारह माँ या इमा के हाथों में तख्तियां थीं जिन पर लिखा था ‘‘भारतीय सेना हमारा बलात्कार करो’’ और ‘‘भारतीय सेना हमारा माँस ले लो।’’ मनोरमा के गोलियों से छलनी शरीर के निजी अंगों पर गोलियों के घाव थे। परिस्थितियों में उसके बाद तब भी कोई बदलाव नहीं आया। सन् 2012 में दिल्ली में हुआ निर्भया कांड जघन्यता की सभी सीमाओं को झुठला चुका था। सारा देश विचलित हुआ। फिर नए सिरे से कानूनों पर मनन हुआ और इस कांड में शामिल चार वयस्कों को 20 मार्च 2020 को फाँसी भी दे दी गई। फाँसी की सजा का अभी स्मृति लोप भी नहीं हुआ था कि 14 सितंबर 2020 को हाथरस जिले में एक 19 वर्षीय दलित युवती के साथ बलात्कार और उसके बाद दी गई यातनाओं की वजह से उसकी करीब दो हफ्ते बाद अस्पताल में मृत्यु हो गई। यानी 200 दिनों तक भी फाँसी का कोई प्रभाव नहीं रहा। इससे भारतीय पुरुष समाज या पितृसत्तात्मक मानसिकता के दंभ को समझा जा सकता है।
जघन्यता, कू्ररता व वीभत्सता की निरंतरता को हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी देखें! दिल्ली के एक श्मशान घाट का पुजारी और उसके साथ एक 9 वर्षीय बालिका के साथ बलात्कार के दौरान आरोपी उसका मुँह इतनी जोर से बंद रखते हैं कि उसकी दम घुटने से मृत्यु हो जाती है। हैवानियत की शायद कोई सीमा नहीं होती। इस बालिका के साथ संभवत: उसकी मृत्यु के बाद भी सामूहिक बलात्कार का दौर चलता रहा होगा। मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में सामूहिक बलात्कार की प्रक्रिया में युवती आँखों को एसिड (पुलिस के अनुसार जहरीली वनस्पति) से जला दिया जाता है। महाराष्ट्र में एक नाबालिग लडक़ी के साथ 8 महीनों में 33 लोग बलात्कार करते हैं। ग्वालियर में 4 साल की लडक़ी के साथ बलात्कार होता है। अपने एक शोध के दौरान मैं और मेरी पत्नी ऐसे 2 बच्चों से मिले जिनकी उम्र 3 वर्ष से कम थी और उनके साथ बलात्कार हुआ था। बारह वर्ष की ऐसी बालिका से मिले जो कि यौन संबंधों की आदी हो चुकी है और उसका परिवार उसे किराये पर देता था। वैसे अब वह मुक्त है। अनगिनत मामले हैं, महिलाओं, युवतियों और बच्चियों (और अब किशोरों व लडक़ों) के साथ भी यौन अपराधों के परंतु हमारा समाज इस समस्या से आँख नहीं मिलाना चाहता।
महाश्वेता जी की कहानी न तब काल्पनिक थी न अब! इसे एक शाश्वत सच्चाई की तरह स्वीकारना होगा। मर्दो की नंगई अब सभी सीमाएं पार कर गई है। सामूहिक बलात्कार करते हुए उन्हें अपने नग्न चित्रण तक में कोई संकोच नहीं होता। क्या यह मनुष्य कहलाने के काबिल भी हैं ? बलात्कार के वीडिया सार्वजनिक कर देने से (ना) मर्दों के सम्मान को कोई ठेस नहीं पहुंचती। शायद ऐसा इसलिए कि उन्होंने नग्नता को अपना आभूषण और अपनी मर्दानगी का सबूत समझ लिया है। गिरने की सीमा को पुरुष समाज का एक अंश तोड़ चुका है। यह नंगई शौर्य प्रदर्शन का क्या कोई नया तरीका है ? भारत के तकरीबन हर अंचल में बलात्कार व यौन प्रताडऩा देने के नए-नए वीभत्स तरीके सामने आ रहे हैं। महिलाओं का प्रतिकार समाज में उनके प्रति समर्थन जुटा पाने में असमर्थ है। कारण? संभवत: यही की पीडिताएं अधिकांशत: वंचित, आदिवासी या अल्पसंख्यक वर्गो से ताल्लुक रखती हैं। ऐसा क्यों? इस अलगाव की जड़ें बहुत पहले मजबूत की जा चुकी हैं। सीमोनंद बुआ बताती हैं। अरस्तु स्त्री को परिभाषित करते हुए कहते हैं, औरत कुछ गुणवत्ताओं की कमियों के कारण ही औरत बनती है। हमें स्त्री के स्वभाव से यह समझना चाहिए कि प्राकृतिक रूप से उसमें कुछ कमियां हैं। वह एक प्रासंगिक जीव है। वह आदम की एक अतिरिक्त हड्डी से निर्मित है। अत: मानवता का स्वरूप पुरुष है और पुरुष से संबंधित ही परिभाषित करता है। वह औरत को स्वायत्त व्यक्ति नहीं मानता। वह अपने बारे में सोच भी नहीं सकती। इसका अर्थ यह है कि वह अनिवार्यत: पुरुष के भोग की एक वस्तु है और इसके अलावा और कुछ नहीं। यानी पुरुष पूर्ण है जबकि औरत बस ‘‘अन्या’’।
भारतीय बलात्कारियों ने भले ही अरस्तु को न पढ़ा हो लेकिन वे इस वैश्विक भेदभाव को सहस्त्राब्दियों से अपने मन में सहेजे हुए हैं और उसे अपना अधिकार मानते हैं। ऐसा लगा था कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की निर्णायक भूमिका के चलते उनकी परिस्थिति में आमूलचूल परिवर्तन आएगा। कुछ परिवर्तन आए भी। परंतु पुरुषवादी सोच में बहुत अंतर नहीं आया। गौरतलब है डॉ. राममनोहर लोहिया सन् 1967 के अपने लेख, ‘‘औरतें और यौन शुचिता’’ में लिखते हैं, ‘‘भारत का दिमाग बड़ा क्रूर हो गया है। जानवरों पर जैसी क्रूरता इस देश में होती है अन्य कहीं वैसी नहीं। मनुष्य एकदूसरे के प्रति क्रूर हैं। गांव क्रूर है, महल्ला क्रूर है। लेकिन ऐसे कितने कुटुम्ब और लड़कियां हैं जो गांव अथवा महल्ले की क्रूरता से बच सकें। इसलिए उन्हें परंपरा की रस्सियों और बेडिय़ों में जकड़ कर रखना पड़ता है।’’ परंतु 55 साल बाद यह प्रवृत्ति गांवों से बरास्ता कस्बों, नगरों, शहरों से होते हुए महानगरों को भी अपनी चपेट में ले चुकी है। हर राज्य, हर शहर, हर कस्बा, हर गांव अपने तई दावा करता है कि वह भारत का सबसे सुरक्षित स्थान है, महिलाओं के लिए। परंतु हर सुरक्षित क्षेत्र सेंधमारी का शिकार है। किसी जमाने में मुंबई सबसे सुरक्षित माना जाता था। वर्तमान में वहां भी महिलाएं नए तरह की जघन्यताओं की शिकार हो रहीं हैं। केरल को अपवाद माना जाता था, लेकिन अब? मध्यप्रदेश को तो शांति का टापू कहा जाता था लेकिन आज यहां बच्चों और महिलाओं पर होने वाले अपराधों का रिकार्ड बनता जा रहा है। दु:खद स्थिति यह है कि उत्तरपूर्वी भारत जो महिलाओं के लिए हमेशा से सुरक्षित रहा है, वहां भी उनके लिए परिस्थितियां प्रतिकूल होती जा रहीं हैं।
भारत में महिलाओं की बेहतर के लिए लगातार नए कानून बनते जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर एक वर्ग निरंतर यह दोहरा रहा है कि महिलाओं और बच्चों से संबंधित कानूनों का दुरुपयोग हो रहा है। इस विरोधाभासी स्थिति को लगातार प्रोत्साहित कर भेदभाव को कायम रखने की पुरजोर कोशिश जारी है। ठीक ऐसा ही अनुसूचित जाति व जनजाति संबंधी कानूनों को लेकर भी कहा व किया जा रहा है। जब भी स्थितियां ज्यादा प्रतिकूल होती हैं तो भारतीय शास्त्रों के कुछ उद्धहरण हमारे सामने आ जाते हैं। यह कुछ वैसा ही है कि हम अपने घरों के आसपास स्वतंत्रता दिवस और गणराज्य दिवस पर देशप्रेम के गीतों का खोखला शोर सुनते हैं। हममें से अधिकांश उन्हें आत्मसात करने की कोशिश ही नहीं करते। इस परिस्थिति को बदलने के लिए वास्तविक राजनीतिक प्रतिबद्धता और शक्ति की आवश्यकता है।
कवि चन्द्रकान्त देवताले अपनी कविता, ‘‘इधर मत आना.... यह काटीगाँव हैं’’, में महाश्वेता देवी को याद करते हुए लिखते हैं ‘अलबत्ता आ जाये दीदी महश्वेता/ बैठ जाए जीमने/ और तोड़ टुकड़ा घास रोटी का/पूछ लें काए से खाऊँ इसे?/ और कह दे अक्समात बुढिय़ा कोई/ आँसू टपकाकर भूख मिलाकर खा ले माई। तो क्या यह दुबारा। धरती फट जाने जैसा नहीं होगा?’’
भारत में तो रोज ही धरती फट रही है, पर वह भी औरतों को में समा नहीं पा रही।
-ध्रुव गुप्त
भारत की सबसे पहली बोलती फिल्म थी ‘आलम आरा’। वर्ष 1931 की इस फिल्म के निर्देशक थे अर्देशिर ईरानी। उन्होंने भारतीयों के बीच संगीत की लोकप्रियता को समझा और इस फिल्म में सात गाने डाले। उनमें से पहला गाना था ‘दे दे खुदा के नाम पे प्यारे’। यह एक प्रार्थना गीत था जिसके गायक थे अभिनेता वजीर मोहम्मद खान। वज़ीर खान ने फिल्म में एक फकीर का चरित्र निभाया था। ‘आलम आरा’ सिर्फ एक सवाक फिल्म नहीं थी बल्कि यह बोलने-गाने वाली फिल्म थी जिसमें बोलना कम और गाना ज्यादा था। इस फिल्म के संगीतकार थे फिरोजशाह मिस्त्री और बी ईरानी। इसी फिल्म के साथ हमारे यहां फिल्मी संगीत की नींव पड़ी। फिल्म के साथ इसके संगीत को भी व्यापक सफलता हासिल हुई। ‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे’ को भारतीय फिल्म के पहले गीत और वजीर खान को पहला गायक होने का गौरव प्राप्त हुआ। उस दौर में फिल्मों में पार्श्व गायन की परंपरा शुरु नहीं हुई थी। गीत को हारमोनियम और तबले के साथ सजीव रिकॉर्ड किया गया था।
दुर्भाग्य से भारत की पहली बोलती फिल्म का कोई भी प्रिंट अब उपलब्ध नहीं है। गीत की उपलब्ध रिकॉर्डिंग बेहद अस्पष्ट है। फिल्म शोधकर्ताओं ने इस ऐतिहासिक गीत को श्रीमती कृष्णा अटाडकर की आवाज में रिकॉर्ड कर भारतीय सिनेमा के पहले गीत के जादू को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है।
-डॉ राजू पाण्डेय
कांग्रेस शासित प्रदेशों में से मध्यप्रदेश में पहले ही कांग्रेस ने अपनी अंतर्कलह के कारण बहुत कठिनाई से अर्जित सत्ता गंवा दी थी। कांग्रेस शासित शेष तीन राज्यों पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में लंबे समय से पार्टी में असंतोष और गुटबाजी की चर्चाएं होती रही हैं। पंजाब में असंतुष्ट धड़े को सफलता मिली है और कैप्टन अमरिंदर सिंह के इस्तीफे के बाद दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के मुख्यमंत्री बने हैं। इस पूरे प्रकरण को नवजोत सिद्धू की विजय और कांग्रेस आलाकमान के सम्मुख उनके बढ़ते कद के संकेत के रूप में देखा जा रहा है।
इन सभी राज्यों में स्थानीय क्षत्रपों की अतृप्त महत्वाकांक्षाओं के कारण ही कांग्रेस की सरकारें संकट में आई हैं। कांग्रेस आलाकमान परिस्थिति के वस्तुनिष्ठ आकलन द्वारा कोई व्यावहारिक समाधान निकालने में नाकाम रहा है। आलाकमान की कार्यप्रणाली में श्रीमती इंदिरा गांधी के जमाने से चली आ रही उस वर्षों पुरानी रणनीति की झलक नजर आती है जिसके तहत जनाधार वाले क्षेत्रीय नेताओं के पर कतरे जाते थे और दरबारी किस्म के वफादार नेताओं को महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपे जाते थे। दुर्भाग्य से श्रीमती इंदिरा गांधी का करिश्मा और अपने बलबूते पर चुनाव जिताने की क्षमता गांधी परिवार के वर्तमान सदस्यों के पास नहीं है, इसलिए क्षेत्रीय नेतृत्व को सम्मान देना इनके लिए न केवल नैतिक रूप से उचित है बल्कि एकमात्र कूटनीतिक विकल्प भी है।
नरेन्द्र मोदी अपने मन मंदिर के किसी गुप्त अंधकारमय कक्ष में श्रीमती इंदिरा गांधी की तस्वीर अवश्य सजाकर रखते होंगे क्योंकि उनकी कार्यप्रणाली में श्रीमती गांधी के शासनकाल की अनेक नकारात्मक विशेषताओं की झलक मिलती है जिनके लिए वे आलोचना की पात्र बनी थीं। पिछले मार्च से कर्नाटक, उत्तराखंड और गुजरात में भाजपा ने भी मुख्यमंत्री बदले हैं तथा अनेक प्रबल दावेदारों और वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा कर अल्प चर्चित चेहरों को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी है। वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी चुनाव जिताने की करिश्माई शक्ति रखते हैं इसलिए इन फैसलों पर पार्टी में कोई असंतोष व्यक्त कर पाने का साहस नहीं कर पाया है। लेकिन पंजाब में कांग्रेस द्वारा सुनील जाखड़, सुखजिंदर सिंह रंधावा आदि की उपेक्षा के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
पंजाब कांग्रेस के वर्तमान संकट को कांग्रेस आलाकमान ने सुलझाने के बजाए उलझाने में अपना योगदान दिया है। सच तो यह है कि आलाकमान के वरदहस्त के कारण ही नवजोत सिंह सिद्धू अमरिंदर सिंह पर लगातार हमलावर होते रहे। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अमरिंदर सिंह की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट आई थी। वे न तो जनता के लिए सहज उपलब्ध थे न विधायकों के लिए। लेकिन इस बात को भी भुलाया नहीं जा सकता कि श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को मिल रही असाधारण सफलताओं के बीच पंजाब में कांग्रेस को सत्तासीन कराने वाले अमरिंदर सिंह ही थे। पंजाब के विगत विधानसभा चुनावों के समय यह अमरिंदर ही थे जिन्होंने आलाकमान से कहा कि वह चुनाव प्रचार से दूरी बनाकर रखे और उन्हें फ्री हैंड दिया जाए। ऐसा साहसिक कदम आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता था अगर अमरिंदर पराजित हो जाते किंतु उन्हें प्रभावशाली जीत मिली। इसके बाद यह स्वाभाविक ही था कि उन्हें कांग्रेस के एक प्रभावी कद्दावर नेता के रूप में देखा जाने लगा।
यदि कांग्रेस आलाकमान ने राजपरिवार के अमरिंदर को अपने फार्म हाउस से सत्ता का संचालन करने वाले, जनता और जनप्रतिनिधियों से कट चुके अलोकप्रिय मुख्यमंत्री के रूप में चिह्नित कर हटाया है तब भी इसे देर से उठाए गए एक सही कदम की संज्ञा ही दी जा सकती है। वह भी इतनी देर कि इस कदम के सुपरिणाम कदाचित ही मिल सकें। इतिहास भी कांग्रेस के इस निर्णय के साथ नहीं है। कांग्रेस आलाकमान द्वारा 20 नवंबर 1996 को अर्थात 7 फरवरी 1997 को होने वाले विधानसभा चुनावों से करीब ढाई माह पूर्व राजिंदर कौर भट्टल को हरचरन सिंह बरार के स्थान पर पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया गया था। कारण तब भी यही गुटबाजी और अंतर्कलह थे। तब कांग्रेस को 117 सदस्यीय विधानसभा में केवल 14 सीटें मिलीं थीं। चन्नी को जितना समय मिला है उसमें कभी न पूरी होने वाली लोकलुभावन घोषणाएं ही की जा सकती हैं।
यदि आलाकमान अमरिंदर की खुद्दारी और खुदमुख्तारी से परेशान था और उसने अमरिंदर के विरुद्ध व्याप्त असंतोष का आश्रय लेकर अपनी नाराजगी की अभिव्यक्ति की है तो हालात कांग्रेस के लिए अच्छे नहीं हैं। अगर जनता और जनप्रतिनिधियों से अमरिंदर ने दूरी बना ली थी तो क्या वे अपने नेता श्री राहुल गांधी का ही अनुसरण नहीं कर रहे थे जो सबके लिए सहज उपलब्ध नहीं हैं और अमरिंदर के लिए तो कदापि नहीं थे। अमरिंदर, राहुल के पिता स्व. श्री राजीव गांधी के स्कूली मित्र रहे हैं और राहुल उनके लिए पुत्रवत हैं। किंतु उनसे मिलने के लिए राहुल के पास समय न था। अमरिंदर को अपदस्थ करने के लिए नवजोत सिंह सिद्धू को प्रश्रय देना कांग्रेस आलाकमान की बड़ी चूक सिद्ध हो सकती है। सिद्धू अतिशय महत्वाकांक्षी हैं, वे भाजपा में रह चुके हैं,कांग्रेस उनका वर्तमान ठिकाना है और मुख्यमंत्री पद नहीं मिलते देख आम आदमी पार्टी में जाने में उन्हें देर न लगेगी जिसके प्रति वे अपना सकारात्मक रुझान पहले ही जाहिर कर चुके हैं। जब बतौर बल्लेबाज़ उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण किया था तो उन्हें स्ट्रोकलेस वंडर कहा जाता था। कालांतर में उन्होंने अपने स्ट्रोक्स की रेंज बहुत बढ़ा ली थी और सिक्सर सिद्धू बन गए थे। पहले क्रिकेट कमेंटेटर और अब बतौर राजनेता उनके पास अब भी स्ट्रोक्स की भरमार है। लेकिन दिक्कत यह है कि सही समय पर सही स्ट्रोक का चयन करने की उनकी क्षमता खत्म सी हो गई है। अंग्रेजी और हिंदी के मुहावरों के कोष उन्हें कंठस्थ हैं। वे इनका प्रयोग परिस्थितियों के अनुसार कम ही करते हैं, वे इनके प्रयोग के लिए अवसर पैदा करने की कोशिश ज्यादा करते हैं और अनेक बार तो उनके यह शब्दालंकार खीज अधिक पैदा करते हैं, चमत्कार कम। कमेंटेटर और राजनेता दोनों ही भूमिकाओं में वे अपने बयानों को लेकर विवादित रहे हैं। हो सकता है कि वक्ताओं की कमी से जूझ रही कांग्रेस यह सोचती हो कि विस्फोटक सिद्धू उसके लिए उपयोगी होंगे किंतु सिद्धू के पास शब्दों का जो गोला बारूद है वह आत्मघाती अधिक है। वे कांग्रेस में चली आ रही मणिशंकर अय्यर की परंपरा के योग्य उत्तराधिकारी हैं, नाजुक मौकों पर दिए गए जिनके बयान जीती बाजी को हार में तब्दील करने के लिए कुख्यात रहे हैं। नाराज अमरिंदर पहले ही सिद्धू के इमरान और बाजवा से रिश्तों को लेकर सवाल उठा चुके हैं और उन्हें राष्ट्र विरोधी तक कह चुके हैं। इस प्रकार आगामी चुनावों के लिए भाजपा को बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल गया है। सिद्धू अपने ही शब्दों में इतने खो जाते हैं कि देश,काल और परिस्थिति का बोध उन्हें नहीं रह पाता। वे उतने ही उत्साह से, उतनी ही निर्लज्जता से उन्हीं शब्दों का प्रयोग राहुल-सोनिया की प्रशंसा के लिए कर सकते हैं जो उन्होंने चंद दिन पहले मोदी के लिए प्रयुक्त किए थे।
श्री नरेंद्र मोदी का अनुकरण करते हुए कांग्रेस भी प्रतीकों की राजनीति की ओर उन्मुख हो रही है। जो भी हो दलित मुख्यमंत्री बनाना एक स्वागतेय कदम है। 1972 में मुख्यमंत्री बनने वाले ज्ञानी जैल सिंह ओबीसी वर्ग से थे। इसके बाद से पंजाब में मुख्यमंत्री पद के लिए जाट सिख समुदाय के नेता ही राजनीतिक दलों की पहली पसंद रहे हैं यद्यपि इसकी आबादी 19 प्रतिशत ही है। प्रदेश की जनसंख्या के 32 प्रतिशत का निर्माण करने वाले दलित समुदाय को पहली बार पंजाब की कमान दी गई है।
क्या कांग्रेस चरणजीत सिंह चन्नी को आगामी विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रस्तुत करने का साहस करेगी? यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही दलितों का समर्थन कांग्रेस को मिलेगा।
कांग्रेस आलाकमान ने पंजाब में राजपरिवार के सदस्य की छुट्टी कर एक दलित को सत्ता सौंपी है। क्या इस कदम से यह संकेत भी मिलता है कि छत्तीसगढ़ में ओबीसी वर्ग के भूपेश बघेल पर फिलहाल कोई संकट नहीं है क्योंकि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी दावेदारी ठोंक रहे टी एस सिंहदेव भी राजपरिवार के ही सदस्य हैं और उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस उन आरोपों को आधार प्रदान करना नहीं चाहेगी जिनके अनुसार कांग्रेस सवर्णों और अभिजात्य वर्ग की पार्टी है।
एक प्रश्न आयु का भी है। 79 वर्षीय अमरिंदर का स्थान लेने वाले चन्नी मात्र 58 वर्ष के हैं। ऐसी दशा में क्या यह माना जाए कि 70 वर्षीय अशोक गहलोत के स्थान पर 44 वर्षीय सचिन पायलट पार्टी को नई ऊर्जा दे सकते हैं।
कांग्रेस आलाकमान को अपने फैसलों में एकरूपता रखनी होगी तभी जनता में यह संकेत जाएगा कांग्रेस एक सुविचारित रणनीति के तहत वंचित समुदाय की राजनीति कर रही है और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के लिए पार्टी में अब युवाओं को वृद्ध होने तक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी।
पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी वर्ग की रणनीति में एक स्पष्ट एवं निर्णायक बदलाव देखा जा रहा है। कांग्रेस को भाजपा को सत्ताच्युत करने में सक्षम किसी भी भाजपा विरोधी मोर्चे की धुरी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रकार पर्दे के पीछे से कांग्रेस पार्टी को संचालित करने वाले पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी को स्वतः ही श्री नरेन्द्र मोदी से आमने सामने के संघर्ष के लिए विपक्ष के सेनापति का दर्जा मिल जाता है, वे विजयी होने पर प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन जाते हैं।
हमें यह तो स्वीकारना ही होगा कि भाजपा को आगामी लोकसभा चुनावों में पराजित करने की कोई भी रणनीति कांग्रेस की उपेक्षा करके अथवा उसे पूर्ण रूप से खारिज करके तैयार नहीं की जा सकती। यह भी एक ध्रुव सत्य है कि नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस अविभाज्य रूप से अन्तरसम्बन्धित हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। यह रिश्ता इतना अनूठा और अपरिभाषेय है कि कांग्रेस की दुर्दशा के लिए नेहरू-गांधी परिवार को जिम्मेदार मानने वाले भी यह जानते हैं कि अगर कांग्रेस को सत्ता वापस कोई दिला सकता है तो वह नेहरू-गांधी परिवार ही है। रुग्ण और वृद्ध सोनिया की घटती सक्रियता के बीच यह चमत्कार करने के लिए इस परिवार के दो सदस्य हमारे बीच हैं- लगभग 17 वर्ष पुरानी अपनी राजनीतिक पारी का स्वरूप एवं दिशा निर्धारित करने में अब भी असमंजस के शिकार राहुल गांधी और बहुत देर से राजनीति में प्रवेश करने वाली प्रियंका गांधी जिन्हें कांग्रेस में अपनी भूमिका तय करनी है। 17 वर्षों के राजनीतिक सफर के बाद राहुल आज कांग्रेस पार्टी के किसी महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर नहीं हैं। जब कांग्रेस केंद्र में सत्ता में थी तब भी उन्होंने कोई महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व लेकर प्रशासनिक अनुभव प्राप्त करने की चेष्टा नहीं की थी।
राहुल राजनीति में सफल और लंबी पारी खेलने के लिए आवश्यक निरंतरता दिखाने में सफल नहीं हो पाए हैं। राजनेताओं की प्राण रक्षा के लिए उन्हें सुरक्षा घेरे में रखा जाता है किंतु कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को सुरक्षा देने के बहाने बंधक बनाकर रखने वाले दरबारियों और चाटुकारों से छुटकारा पाने में राहुल नाकामयाब रहे हैं। उन्होंने दरबारियों और चाटुकारों की पुरानी टीम को तो चलता किया लेकिन इनकी नई टीम बना ली। जब शीर्ष नेतृत्व प्रादेशिक नेताओं के लिए सहज उपलब्ध नहीं रहता, उन्हें प्रत्यक्ष भेंट और सीधे संवाद का अवसर नहीं देता अपितु मध्यस्थों और बिचौलियों को प्रश्रय देता है तब गलतफहमी एवं दूरी बढ़ने की गुंजाइश हमेशा रहती है।
राहुल अपने प्रतिभावान युवा साथियों को लेकर क्यों असुरक्षित महसूस करते हैं यह समझ पाना कठिन है। इस असुरक्षा का केवल एक ही स्पष्टीकरण दिया जा सकता है- वे स्वयं गांधी परिवार की ताकत और करिश्मे को लेकर सशंकित हैं।
राहुल ने कई बार अपनी नेतृत्व क्षमता से प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए अपरिहार्य समझे जाने वाले अजीत जोगी को दरकिनार कर नंदकुमार पटेल, भूपेश बघेल और टी एस सिंहदेव को छत्तीसगढ़ कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का उत्तरदायित्व देना एक साहसिक निर्णय था। पिछले विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश में युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया की आक्रामकता और अनुभवी कमलनाथ की संगठन क्षमता का बेहतर उपयोग लेना भी राहुल के नेतृत्व कौशल का प्रमाण था। राजस्थान कांग्रेस को दुबारा गढ़ने की जिम्मेदारी युवा सचिन पायलट को देकर राहुल ने एक चुनौतीपूर्ण पहल की थी और सचिन पायलट ने भी उन्हें सही साबित किया। पंजाब में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह को विधानसभा चुनावों में फ्री हैंड देकर राहुल ने उदारता एवं दूरदर्शिता का परिचय दिया था।
हाल के डेढ़ साल में कोविड-19 विषयक राहुल के आकलन एवं भविष्यवाणियां आश्चर्यजनक रूप से सटीक रही हैं। उन्होंने कोविड-19 के मसले पर नरेन्द्र मोदी की तुलना में अलग ढंग से सोचा, वे अधिक तार्किक एवं विज्ञान सम्मत विचार प्रस्तुत करते रहे, उन्होंने सरकार को समयपूर्व चेतावनी भी दी और सकारात्मक सुझाव भी प्रस्तुत किए।
भाजपा ने कांग्रेस और गांधी परिवार पर निरंतर आक्रमण कर इस बात को परिपुष्ट किया है कि भारतीय राजनीति में यदि भाजपा का विकल्प कोई है तो वह गांधी परिवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही है। किंतु कांग्रेस और राहुल को भावी विपक्षी गठबंधन के नेतृत्वकर्ता के रूप में प्रस्तुत करने की हड़बड़ी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के संघर्ष को कुछ इस तरह हवा दे सकती है कि सारे विपक्षी दल एक मंच पर एकत्रित ही न हो पाएं। कांग्रेस यदि मुद्दों की राजनीति करे, एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम प्रस्तुत करे तो विपक्षी एकता का कठिन कार्य सरल हो सकता है। पूर्व में ऐसा हुआ भी है। कांग्रेस चाहे तो वैकल्पिक मंत्रिपरिषद बना कर मोदी सरकार की हर नीति पर अपना पक्ष रख सकती है। राहुल को यह तय करना होगा कि वे किंग बनना चाहते हैं या किंग मेकर की भूमिका उन्हें अधिक उपयुक्त लगती है। यदि वे किंग बनना चाहते हैं तो उन्हें अधिक सक्रिय, सहज उपलब्ध, जनोन्मुख तथा आक्रामक होना होगा। बतौर किंग मेकर राहुल को कांग्रेस जनों के मध्य यह संदेश पहुंचाना होगा कि कांग्रेस के लिए यह निर्णायक संघर्ष है, अस्तित्व की लड़ाई है। यही बात अन्य विपक्षी दलों को भी समझानी होगी। उन्हें कांग्रेसवाद की सर्वसमावेशी प्रकृति को आचरण में लाना होगा।
राहुल एक अलग ढंग से मोदी का विकल्प प्रस्तुत करते हैं। मोदी की लार्जर दैन लाइफ छवि उन्हें जनता से बहुत ऊपर एक देवतुल्य व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करती है, जिसे केवल दूर से देखा जा सकता है, जिसकी केवल पूजा की जा सकती है किंतु जिससे संवाद नहीं किया जा सकता। मोदी की अभिव्यक्तियों और निर्णयों में कठोर यांत्रिकता दिखती है जिसमें भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। राहुल को एक आम मानव मानव के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो भूलता और गलती करता है, गिरता और संभलता है। उनकी अपूर्णता, अपरिपक्वता और अनगढ़पन उन्हें आम आदमी के अधिक नजदीक ला सकते हैं। हमने लालू प्रसाद यादव की ठेठ ग्रामीण और अनगढ़ अभिव्यक्तियों के जादू को देखा है। जनता राहुल को उनकी कमियों और कमजोरियों के साथ भी अपना सकती है, शर्त यह है कि वे इन से उबरने के लिए नायकोचित संघर्ष करते दिखें।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-पुष्य मित्र
किसी का सिविल सेवा के लिये चयनित होना उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि हो सकती है। हद से हद उसके अपने परिवार की उपलब्धि। यह पूरे समाज की उपलब्धि है यह मुझे नहीं लगता।
कल से लोग जिला, राज्य, जाति, समाज के आधार पर सिविल सेवा पास करने वाले लोगों के लिये गौरवान्वित हुए जा रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि इस सत्ता ने समाज के बीच से एक सबसे अधिक प्रतिभाशाली व्यक्ति को चुन लिया है, जो अब समाज के लिए नहीं बल्कि सत्ता की मजबूती के लिये काम करेगा।
मेरा नजरिया आपको काफी नकारात्मक लग सकता है। वह शायद इसलिये भी है कि कल दो ब्यूरोक्रेट से मिलकर और उनका रवैया देखकर आया हूं। सौ में से 95 अफसर अमूमन ऐसे ही हैं। उनका काम यह तय करना है कि लोगों के काम को किन सरकारी बहानों से रोका जाये। वे अमूमन वही काम करते हैं, उसी योजना को आगे बढ़ाते हैं जिसमें उनके लिये कुछ आय की या दूसरे किस्म की सफलता की गुंजाईश हो। फिर मंत्रियों को समझाते हैं कि यह योजना उनके लिये कैसे लाभकारी है। फिर उस योजना में जनता की भलाई का रसायन मिलाया जाता है। भ्रम पैदा किया जाता है कि यह तो जनता के हित में है। मगर 75 साल का इतिहास गवाह है कि जनता के हित के नाम से जितनी योजनाएं बनी हैं उससे जनता समृद्ध हुई या नहीं यह तो पता नहीं पर नेता और अफसर हर बार समृद्ध हुए।
पिछले 75 वर्ष से इस देश पर इन सिविल सर्वेंटों की स्थायी सत्ता है। ये पढ़े-लिखे लोग हैं। इन्हें ट्रेन किया जाता है कि ये जनता पर कैसे डोमीनेट करें। इनकी सत्ता हमेशा कायम रहती है। इनकी सरकार कभी नहीं बदलती। मगर पिछले 75 वर्षों में इन्होंने देश को कितना बदला यह जाहिर है। ये लोगों पर रौब डालना जानते हैं। इनके दफ्तर का सेटअप देखिये कितना सामन्ती है। ये नेताओं और मंत्रियों को बेवकूफ बनाना जानते हैं। ये अंग्रेजी राज के बाद देश में छूट गये भारतीय अंग्रेज हैं।
कल अपने प्रिय कवि आलोक धन्वा की कविता जिलाधीश याद आ गई। आप भी पढि़ए-
जिलाधीश
तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो
तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो
जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो
एक ऐसे समय की भाषा जब संसद का जन्म नहीं हुआ था
तुम क्या सोचते हो
संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को वैसा ही रहने दिया है
जैसी वह राजाओं के जमाने में थी
यह जो आदमी
मेज की दूसरी ओर सुन रहा है तुम्हें
कितने करीब और ध्यान से
यह राजा नहीं जिलाधीश है !
यह जिलाधीश है
जो राजाओं से आम तौर पर
बहुत ज्यादा शिक्षित है
राजाओं से ज्यादा तत्पर और संलग्न !
यह दूर किसी किले में- ऐश्वर्य की निर्जनता में नहीं
हमारी गलियों में पैदा हुआ एक लडक़ा है
यह हमारी असफलताओं और गलतियों के बीच पला है
यह जानता है हमारे साहस और लालच को
राजाओं से बहुत ज़्यादा धैर्य और चिन्ता है इसके पास
यह ज़्यादा भ्रम पैदा कर सकता है
यह ज़्यादा अच्छी तरह हमें आजादी से दूर रख सकता है
कड़ी
कड़ी निगरानी चाहिए
सरकार के इस बेहतरीन दिमाग पर!
कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है !
मैं मानता हूं, यह पोस्ट काफी नकारात्मक है। कुछ लोग सिविल सेवा की सामन्ती ट्रेनिंग के बाद भी अच्छे बच जाते हैं। मगर यह भी हमने देखा है कि वे फिर पूरी उम्र मिसफिट रह जाते हैं। गलत विभागों में ड्यूटी करते हुए, तबादला झेलते हुए। उनके लिये यह नौकरी अभिशाप हो जाती है। इतनी ऊंची नौकरी है कि वे अमूमन छोडऩे की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते। अपनी लॉबी भी इनके पक्ष में कभी खड़ी नहीं होती। मैं उनकी बात नहीं कर रहा। यह उन लोगों के बारे में है जो बहुसंख्यक हैं। अपनी परम्परा को फॉलो करते हैं। जो संगठित हैं।
-अपूर्व गर्ग
शिमला में हम जहाँ रहते हैं उस फ्लैट का नंबर 14 है। 13 नंबर फ्लैट गायब है पर फ्लैट नंबर 12 के बाद 13 की जगह 12ए है। इसी तरह ब्लॉक 13 की जगह ब्लॉक 12ए है। इसी तरह शिमला के रिपन अस्पताल में बेड नंबर 12 के बाद सीधे बेड 14 है।
कुछ समय पहले हिमाचल के ही नाहन में बीजेपी ने वार्ड चुनावों में 13 वार्डों में से 12 वार्डों के अधिकृत प्रत्याशी घोषित किए जब वार्ड 13 का न घोषित करने का कारण पूछा गया तो वही मसला 13 के अशुभ होने का था।
सिर्फ हिमाचल ही नहीं ये देश और दुनिया 13 के शुभ-अशुभ चक्कर में शुरू से उलझी रही है।
जब अटल बिहारी वाजपेयी ने 13 मई 1996 को पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन बहुमत साबित न होने पर 13 दिन बाद सरकार गिर गई तो किस तरह 13 को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया था, भूला नहीं जा सकता।
हिंदुस्तान छोडिय़े बताते हैं आज भी यूरोप तक में कई होटलों में 13 नंबर के कमरे नहीं होते, 13 लोग मिलकर कोई काम या पार्टी नहीं करते।
हरिवंशराय बच्चन बताते हैं उन्हें जब 13 विलिंगटन क्रिसेंट आबंटित हुआ तो 13 का नाम सुनते है दिमाग में एक खटका हुआ, अशुभ संख्या है, कहीं इस घर में जाना अमंगलकारी न हो! पर उन्होंने गुरुनानक की बात याद की।
गुरुनानक का मन सांस्कारिक कार्य में न लगता था। उनके पिता ने उन्हें कुछ कम्बल देकर कुछ लाभ कमाने को कहा तो उन्होंने ठंड से कांपते साधुओं को दान दे दिए।
उनके पिता ने उन्हें दूसरे काम मज़दूरों को 15-15 सेर अनाज मज़दूरी के रूप में तौल कर देने कहा। नानक ने तौलना आरम्भ किया- तौल ठीक रखने के लिए संख्या उच्चारित करते जाते थे-1, 2, 7, 10, 12, 13 तरह को तेरा भी कहा जाता है, 13 पर उनका ध्यान चला गया होगा कबीर के इस दोहे पर
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर॥
और फिर तेरा, तेरा कह कर वो अनाज देते चले गए क्योंकि नानक के लिए सब ‘तेरा’ था ‘मेरा’ कुछ भी नहीं-‘इदं न मम’।
बच्चन जी कहते हैं मैं भी तेरह को तेरा मान कर 13 विलिंगटन क्रिसेंट में चला गया और इस घर में आगे जो हुआ मंगलमय है हुआ।
13 संख्या यदि अशुभ होती तो देश और दुनिया में 13 तारीख को कई बड़े महान कार्य संपन्न नहीं होते।
13 नवंबर 1975 ही वो दिन है जब एशिया की चेचक से मुक्ति की घोषणा हुई।
13 मई 1952 ही वो शुभ दिन है जब स्वतंत्र भारत की पहली संसद का सत्र शुरू हुआ ।
13 अक्टूबर 1911 को हिन्दुस्तान के महान अभिनेता अशोक कुमार हमारे दादा मुनि का जन्म हुआ तो हम सब के प्रिय कवि शमशेर बहादुर सिंह 13 जनवरी 1911 को अवतरित हुए
इसलिए छुटकारा 13 नंबर से नहीं अन्धविश्वास से पाना चाहिए
नानक की सुनिए तेरह...तेरा है..
-रमेश अनुपम
सन 1952 में हिंदी फिल्म में नई-नई आई हुई माला सिन्हा को लेकर किशोर साहू ने शेक्सपियर के मशहूर नाटक ‘हैमलेट’ पर इसी नाम से एक फिल्म का निर्माण किया। इसके नायक की भूमिका में वे स्वयं थे और नायिका ओफिलिया की भूमिका में माला सिन्हा। किन्ही कारणों से किशोर साहू की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई।
सन 1953 में किशोर साहू ने एक महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मयूर पंख’ का निर्माण किया। यह फिल्म कई दृष्टि से एक ऐतिहासिक महत्व की फिल्म थी। इस फिल्म की दो नायिकाओं में एक ओडेट फर्ग्यूसन थी, जो उस जमाने की एक मशहूर फ्रेंच अभिनेत्री थी।
दूसरी अभिनेत्री के रूप में हिंदी फिल्म की जानी मानी अभिनेत्री सुमित्रा देवी थीं। किशोर साहू ने इस फिल्म को ईस्टमैन कलर में बनाने का निर्णय लिया, जो उस जमाने में काफी महंगी मानी जाती थी। इस फिल्म के नायक की भूमिका में स्वयं किशोर साहू थे और निर्देशन भी उन्हीं का था।
यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पिट गई, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फिल्म को बेहद सराहा गया। सन 1954 में कांस फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म को ग्रैंड पुरुस्कार के लिए नामांकित किया गया।
इस फिल्म के निर्माण के समय का एक दिलचस्प प्रसंग का जिक्र भी जरूरी है। इस फिल्म के निर्माण के दरम्यान किशोर साहू का मध्यप्रदेश के दो दिग्गज राज नेताओं से परिचय हुआ। वे दो राजनेता कोई और नहीं, बल्कि श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल थे।
श्यामाचरण शुक्ल जब भी बंबई जाते, किशोर साहू के निवास ‘वाटिका’ में खाने पर अवश्य निमंत्रित किए जाते।
एक बार किशोर साहू ने श्यामाचरण शुक्ल से उनके भविष्य की कार्ययोजना के बारे में पूछा। जिसके जवाब में श्यामाचरण शुक्ल ने कहा ‘कि मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि मैं बिजनेस में जाऊं या पॉलिटिक्स म’।
किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘तब मैं नहीं जानता था, न वे ही जानते थे कि एक दिन वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे। पिता के बाद कोई पुत्र किसी प्रांत का मुख्यमंत्री बना हो ऐसा उदाहरण स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभूतपूर्व था।’
विद्याचरण शुक्ल ‘मयूर पंख’ फिल्म का एक हिस्सा बन चुके थे। सन 1953 में विद्याचरण शुक्ल ‘एल्विन कूपर’ नामक एक शिकार कंपनी चला रहे थे। ‘मयूरपंख’ फिल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग कान्हा किसली में की गई, जिसका ठेका विद्याचरण शुक्ल को दिया गया। इस फिल्म की शूटिंग के दरम्यान किशोर साहू ने विद्याचरण शुक्ल को बेहद निकट से देखा और जाना था।
अपनी आत्मकथा में किशोर साहू ने उन दिनों को याद करते हुए विद्याचरण शुक्ल के बारे में जो लिखा है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है- ‘उनमें सतर्क दिमाग की पैनी धार थी।’
आगे चलकर किशोर साहू की यह भविष्यवाणी कितनी सच साबित हुई है, हम सब इसके गवाह हैं। विद्याचरण शुक्ल भारतीय राजनीति में धूमकेतु की तरह सिद्ध हुए।
श्रीमती इंदिरा गांधी के निकट के राजनेताओं में उनकी गिनती होती थी। सतर्क दिमाग की पैनी धार अंत तक उनमें विद्यमान रही।
सन 1958 किशोर साहू के फिल्मी कैरियर के लिए एक नया मोड़ साबित हुआ। उन दिनों कमाल अमरोही, राजकुमार और मीना कुमारी को लेकर ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ बनाने की सोच रहे थे। उन्होंने किशोर साहू को इस फिल्म के निर्देशन का ऑफर दिया। इस फिल्म में वे पहले से ही राजकुमार को हीरो के रूप में ले चुके थे।
किशोर साहू राजकुमार की जगह दिलीप कुमार को बतौर हीरो लेना चाहते थे, मीनाकुमारी भी यही चाहती थी, पर कमाल अमरोही राजकुमार को ही इस फिल्म में हीरो के रूप में लेना चाहते थे। मीना कुमारी तब तक कमाल अमरोही से शादी कर चुकी थी।
मीना कुमारी तो किशोर साहू को इस फिल्म में हीरो के रूप में लेना चाहती थी, पर कमाल अमरोही को न दिलीप कुमार चाहिए था और न ही किशोर साहू, राजकुमार पर वे अडिग थे।
बहरहाल 20 जून सन 1958 को इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई। 1959 में बनकर तैयार भी हो गई। इस फिल्म का ट्रायल शो हुआ जिसमें कमाल अमरोही, शंकर जयकिशन, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मीना कुमारी, राजकुमार और किशोर साहू का परिवार शामिल हुआ।
फिल्म सबको पसंद आई पर कमाल अमरोही को यह फिल्म बिल्कुल ही पसंद नहीं आई। शैलेंद्र ने भी कमाल अमरोही का साथ दिया।
फिल्म की कहानी और सीन बदलने के लिए कमाल अमरोही ने किशोर साहू पर तरह-तरह के दबाव बनाने शुरू किए, पर किशोर साहू को वे इसके लिए राजी नहीं कर सके। किशोर साहू अपनी इस फिल्म में किसी तरह के छेड़छाड़ के खिलाफ थे।
मीना कुमारी और राजकुमार भी किशोर साहू की राय पर कायम थे।
कमाल अमरोही की जिद के चलते यह फिल्म काफी दिनों तक रिलीज नहीं हो पाई। अंत में के. आसिफ के कारण ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ फिल्म प्रदर्शन का मुंह देख पाई, लेकिन कमाल अमरोही ने निर्माता से अपना नाम हटाकर मीना कुमारी के सेक्रेटरी एस.ए.बाकर का नाम डलवा दिया, यह सोचकर कि यह फिल्म बुरी तरह से फ्लॉप सिद्ध होगी।
29 अप्रैल 1960 को यह फिल्म बंबई के रॉक्सी और कोहिनूर थियेटर में रिलीज हुई। ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ सुपरहिट फिल्म साबित हुई।
कमाल अमरोही का बुरा हाल था।इस फिल्म की अपार सफलता को देखकर उन्होंने मुंबई में लगे हुए सारे पोस्टरों से निर्माता एस.ए. बाकर का नाम मिटवा कर अपना नाम लिखवाना शुरू कर दिया।
यह था किशोर साहू के निर्देशन का जादू , जो सर चढक़र बोलता था।
कहना न होगा ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ हिंदी फिल्म में एक मील का पत्थर साबित हुई।
फिल्म की कहानी, राजकुमार और मीना कुमारी का अभिनय, शंकर जयकिशन का संगीत और किशोर साहू के निर्देशन को भुला पाना सबके लिए मुश्किल साबित हुआ।
(बाकी अगले हफ्ते)
-संदीप पौराणिक
पितृ पक्ष के दौरान कौए को आदर-सम्मान दिया जाता है। यही मौका है जब हम जनसाधारण को कौए की वैज्ञानिक वास्तविकताओं से परिचित करा सकते हैं और इसे शकुन-अपशकुन के घेरे से बाहर ला सकते हैं। कौआ हमेशा से अमंगल नहीं रहा हैं जबकि समाज में किसी व्यक्ति के मरने के बाद मृत आत्मा की शांति के लिए जो गरूड़ पुराण का पाठ कराया जाता हैं। उस कथा भी कागभुसंुडी जी के मुखारबिंद से ही गरूड़ जी को सुनाई जाती हैं तथा मृतक की आत्मा की शांति के लिए इसे मंगलकारी माना गया हैं। लेकिन अब शहरों में कौओं की संख्या घटती जा रही है और पितृपक्ष में ये देखने नहीं नहीं मिलते जबकि हिंदू मान्यता के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितरों के लिए बनाए जाने वाले व्यंजन कौवे के माध्यम से पितरों तक पहुंचाए जाते हैं । कौए के घटने का प्रमुख कारण कीटनाशक व चूहे तथा काकरोच जैसे जीवों पर अंधाधुंध जहरीली दवाईयों का उपयोग है। इन मरे हुए कीट मकोड़ों को खाने से भी कौवों की संख्या घटी है। लगातार दूषित होते हुए पर्यावरण के कारण पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त होती जा रही है उनमें से एक कौवा भी है।कौवे का सिर्फ धार्मिक ही नहीं पर्यावरण की दृष्टि से भी महत्त्व है। कौवा द्वारा खाए जाने वाले पीपल बरगद एवं अन्य बीजों को अपने विष्ठा द्वारा बाहर निकाल कर फैलाया जाता है। पीपल और बरगद का पेड़ पर्यावरण एवं ऑक्सीजन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है
कौऐ को साल भर दुतकारा जाता है। पर पितृ-पक्ष के इन पंद्रह दिनों कौए की खूब आवभगत की जाती है। इसे बुला-बुला कर ‘कौर’ खिलाया जाता है। दरअसल कौए से हमारा बड़ा पुराना रिश्ता रहा है। इसके साथ अनेक शकुनों-अपशकुनों को जोड़ा गया है। इन अंधविश्वासों से परे कौआ एक बुद्धिमान पक्षी है। साथ ही हमारा दोस्त भी है।
कौआ हमारा सबसे करीबी पक्षी है। हमारी जिंदगी में कौए का जितना दखल और किसी भी पक्षी का नहीं है। यह सिलसिला आज का नहीं सदियों पुराना है। प्राचीनतम वेदों से लेकर आधुनिक साहित्य तक में किसी न किसी रूप में कौए का जिक्र लगातार होता रहा है। यही वजह है कि संस्कृत भाषा में कौए जितने नाम और किसी भी पक्षी के नहीं है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कौए के छत्तीस पर्यायवाची गिनाए गए हैं, फिर भी इसे पूरी सूची नहीं माना जा सकता। इसे संस्कृत साहित्य में द्रोणकाक, काकोल, करट, चौरिकाक, बसंतराज, ग्रामीण काक जैसे अनेक नामों से पुकारा गया है।
सवाल उठता है कि कौए को इतनी अहमियत क्यों दी गई? इसकी दो वजहें लगती है। एक तो कौआ बेहद बुद्धिमान पक्षी है और दूसरे मानव-बस्तियों को साफ-सुथरा रखने में इसका भारी योगदान है। आज वैज्ञानिकों ने ढेरों प्रयोग करके कौए की असाधारण बौद्धिक क्षमता के सबूत पेश किए हैं। पर हमारे यहां प्राचीन काल से ही कौए के तेज दिमाग का लोहा मान लिया गया था। अनेक जातक-कथाओं और लोक-कथाओं में कौए को बुद्धिमान पक्षी के रूप में दर्शाया गया है। पंचतंत्र की कहानियों का ‘काकोलूकीय’ बुद्धिमत्ता और चातुर्य का साक्षात प्रतीक है। यह तो सभी जानते हैं कि घड़े की पेंदी में मौजूद पानी को किसी तरह प्यासा कौआ ऊपर तक लाया। ऊपर तक लाया वर्तमान में ऐसे कई वीडियो अभी भी सोशल मीडिया में दिखाई देते हैं जिसमें कौवा पानी को अपनी बुद्धिमानी से ऊपर लाता है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि कौए मनुष्यों की शक्लों को याद रखते हैं और लगभग दस तक की गिनती भी गिन सकते हैं। मशहूर कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण शायद इन्हीं खूबियों के कारण कौओं के अनन्य प्रेमी थे। उन्होंने कौओं के शायद कई चित्र बनाए हैं। साथ ही उनके व्यवहार और आदतों पर भी अध्ययन किया है।
कौए का एक रूप मनहूसियत और दुष्टता का भी है। खासतौर पर वैदिक काल में कौए को अमंगलकारी माना गया है। किसी भी शुभ कार्य में कौए का दिखना या अचानक आ धमकना विघ्नकारी माना जाता था। वैदिक काल के बाद शकुन-अपशकुन विचारा जाने लगा तो कौए की स्थिति कुछ संभली। इसे कई अच्छे शकुनों से भी जोड़ा गया। जैसे घर की मुंडेर पर कौए का कांव-कांव करना किसी अतिथि के आने का सूचक माना जाता है। परंतु किसी के सिर पर कौए का बैठना अमंगलकारी जाना जाता है। कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को जल्दी ही किसी निकट संबंधी की मौत की खबर मिलती है। प्राचीन साहित्य में कौए के इन रूपों का भरपूर उल्लेख है।
कौए की दुष्टता और लालचीपन को भी किस्सों-कहानियों और प्राचीन साहित्य में जगह मिली है। ‘रामायण’ के एक प्रसंग में इंद्र के पुत्र जयंत ने कौए का रूप धरकर सीता को खूब तंग किया। क्रोधित होकर श्रीराम ने बाण चलाया और कौए की एक आंख सदा के लिए नष्ट कर दी। बहुत लोगों का विश्वास है कि आज भी कौए के एक ही आंख होती है। यह सच नहीं है। संभवतः भगवान राम द्वारा अभिशापित होने के कारण ही उत्तर रामायण काल में कौए की प्रतिष्ठा बहुत ज्यादा गिर गई। तांत्रिकों द्वारा किए जाने वाले दुष्कर्मों में भी कौए का इस्तेमाल होने लगा। ऐसा उल्लेख है कि तांत्रिक अपने अनुष्ठानों में कौए की चोंच, पंजे, आंख, पंख वगैरह का इस्तेमाल करते हैं।
कौए की आदतों में सबसे अनोखा इसका चौकन्नापन और फुर्ती है। इसी वजह से यह हमारे हाथ की रोटी छीनने का भी दुस्साहस कर डालता है और अक्सर कामयाब भी रहता है। तभी कवि रसखान ने भी लिखा
काग के भाग बड़ंे सजनी
हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।
प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने लिखा है कि कौआ आपकी नाश्ते की मेज से भी अंडा ‘उड़ा’ सकता है। कौए को मनुष्य के मनोभावों को समझने में भी महारत हासिल है। असाधारण चौकन्नेपन के कारण ही ‘अग्निपुराण’ में राजा को कौए की तरह चौकन्ना रहने की सलाह दी गई है।
व्यवहार में इन सारी खूबियों के साथ ही कौआ हमारा दोस्त भी है। यह सड़ी-गली हर तरह की चीजें खाकर मानव बस्तियों के आस-पास सफाई रखने का काम करता है। कौए को कूड़-करकट के ढेर को कुरेद-कुरेद कर अपना भोजन तलाशते देखा जा सकता है। गंदगी का सफाया करके यह कई रोगों को फैलने से रोकता है। कौए टिड्डियों, दीमकों आदि हानिकारक कीड़ों को भारी संख्या में हजम कर जाते हैं। इस तरह यह किसानों का दोस्त भी है। पर कभी-कभी गेहूं, मक्का आदि की फसलों पर धावा बोलकर यह किसानों का नुकसान भी कर डालता है। इसीलिए बहुत से किसान कौए को न दोस्त मानते हैं और न दुश्मन। कौए तमाम जानवरों के अंडे, मेंढक, छिपकली, मुर्दे, रोटी, दाल-चावल और वह सभी कुछ जो हम खाते हैं या फेंक देते हैं, खाते हैं।
सलीम अली ने अपनी पुस्तक में देश में पाए जाने वाले दो तरह के कौओं का उल्लेख किया है - घरेलु कौआ और जंगली कौआ। कौओं के कुल को वैज्ञानिकों ने ‘कोर्विडी’ का नाम दिया है। इसमें कौए के अलावा इससे मिलते-जुलते चार पक्षी है - डिगडाल, मुटरी, बनसर्रा और जाग। घरेलु कौए को वैज्ञानिक रूप सेकोर्वस स्प्लेनडेंस नाम से पुकारा जाता है। वैसे इसे पाती कौआ, नौआ कौआ, देशी कौआ, नाऊ कौआ और ग्रामीण काक नाम से जाना जाता है।
सभी ने देखा है कि घरेलू कौआ पूरा काला नहीं होता। इसका सीना और गला सलेटी रंग का होता है। इसके कालेपन में एक बैंगनी-नीली-हरी सी चमक होती है। नर और मादा दिखने में एक जैसे होते हैं। यह साल भर लगभग पूरे देश में दिखाई देता था। हिमालय में यह चार हजार फुट की ऊंचाई तक घूमता-फिरता है। ये दिन भर भोजन की तलाश में घर-घर, बस्ती-बस्ती घूमते हैं। पर रात को झुंड बनाकर एक ही जगह बसेरा कर लेते हैं। बरगद और पीपल जैसे विशाल पेड़ों पर कई हजार कौओं का झुंड देखा जा सकता था। जब इनका पूरा झंुड एक साथ उड़ता है तो तेज आवाज होती है। इनकी बोली से ‘कॉ-ऑ-ऑ, कॉ-ऑ-ऑ’ की ध्वनि निकलती है।
घरेलू कौए का जोड़ा बांधने और अंडे देने का समय अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग है। पश्चिम भारत में इन्हें अप्रैल से जून के बीच घोंसला बनाते देखा जा सकता है। बंगाल में इसके पहले ही घोंसले देखे जा सकते हैं। कुछ इलाकों में दिसंबर और जनवरी की कड़ाकेदार सर्दी में भी ये अंडे देते हैं। घरेलू कौआ घोंसला बनाने में बड़ा फूहड़ है। यह पेड़ की गुलेल जैसे आकार की शाखा पर घास-फूस, तार, डंडियों आदि की मदद से ऊबड़-खाबड़ घोंसला बनाता है। इसका घोंसला देखने में भले ही बदसूरत हो, पर अंदर से आरामदायक होता है। मादा इसके भीतर रूई, चिथड़े आदि लगाकर खूब आरामदेह बना देती है। मादा एक बार में चार-पांच अंडे देती है। ये हल्के नीले-हरे होते हैं, जिन पर भूरी-सलेटी चित्तियां पड़ी होती है। घोंसला बनाने से लेकर शिशुओं के लालन-पालन तक में नर और मादा बराबरी का सहयोग देते हैं। चालाक और बुद्धिमान होने के बावजूद कोयल इनकी आंखों में धूल झोंककर अपने अंडे भी कौए के घोंसले में रख देती है। कौआ दंपत्ति ही इसके शिशुओं को पालते हैं। बाद में कोयल के बच्चे इनको धता बताकर फुर्र हो जाते हैं।
घरेलू कौए के बाद सबसे ज्यादा दिखाई देने वाले कौए को जंगली कौआ या काला या डोम कौआ कहा जाता है। इसे वैज्ञानिकों ने कोर्वस मैक्रोरिकोस का नाम दिया है। इसका आकार घरेलू कौए से बड़ा, पर चील से छोटा होता है। घरेलू कौए के विपरीत इसका पूरा शरीर काला भुजंग होता है पर चोंच मोटी होती है। इसकी आवाज भी घरेलू कौए से बहुत ज्यादा कर्कश होती है। इनमें झुंड बनाने की आदत नहीं है। एक जगह पर ज्यादा से ज्यादा पंद्रह-बीस कौए दिखाई देते हैं। ये शहरों में कम ही आते हैं। इनका निवास ज्यादातर गांव और बस्तियों से बाहर होता है। खासतौर से ऐसे स्थानों पर जहां गंदगी फेंकी जाती हो, मरे हुए जानवरों की लाशें फेंकी जाती हों तथा और भी कूड़ा-कड़कट जमा रहमा हो। जंगली कौए इसी में से अपनी पेट भरते हैं। इस तरह ये भी साफ-सफाई रखने में हमारी मदद करते हैं।
बरसात के मौसम में जंगली कौए,केकड़ों से अपना पेट भरते हैं। केकड़े अंकुरित हो रही फसलों को खा जाते हैं। इस तरह जंगली कौए भी किसानों के दोस्त साबित होते हैं। जंगल में ये कौए ऐसी जगह मंडराते हैं, जहां किसी जानवर की लाश पड़ी हो। शिकारी अक्सर इनकी कांव-कांव से बाघों-शेरों के ठिकाने का पता लगा लेते हैं। मैदानी इलाकों में जंगली कौए मार्च और मई के बीच अंडे देते हैं। घोसला बनाने, अंडा देने और शिशुओं के लालन-पालन में इनका व्यवहार ठीक घरेलू कौए की तरह है। कोयल इनके घोंसलों में भी अंडे देती है।
देश के पहाड़ी इलाकों में एक छोटा कौआ खूब दिखाई देता है। इसकी लंबाई मात्र तेरह इंच होती है। यह पूरा काला नहीं होता। इसके शरीर के कुछ हिस्सों पर भूरी स्लेटी पट्टी पड़ी होती है। इसे चौकी काक या चोर कौआ भी कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने इसे कोवर्स मौनेकुला का नाम दिया है।
पहाड़ी कौआ अक्टूबर से मार्च तक पंजाब और हिमालय के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में ज्यादा दिखाई देता है। इसकी बोली अप्रिय नहीं लगती। स्थानीय लोगों ने तो पहाड़ी कौए की बोली को संगीतमय माना है। इनकी उड़ने की रफ्तार अन्य कौओं की तुलना में तेज होती है। पहाड़ी कौए पेड़ों की बजाय चट्टानों और मकानों के सुराखों में घोसला बनाना ज्यादा पसंद करते हैं। मादा कौआ चार से छह अंडे देती है, जिनके दोनों सिरे नुकीले होते हैं। कोयल इनके घोसलों में अपने अंडे नहीं रखती।
कोई दो फुट लंबाई का एक कौआ रैवेन कोर्वस के नाम से जाना जाता है। इसे द्रोण काक भी कहते हैं। इसके काले शरीर पर बैंगनी-नीली झलक रहती है। ये देश के पश्चिमी इलाके में दिखाई पड़ते हैं। इनके डैने काफी मजबूत होते हैं। इसलिए इनकी उड़ान सीधी और तेज होती है। खाने-पीने के मामले में ये अन्य कौओं से काफी मिलते-जुलते हैं। इसका घोंसला काफी मजबूत होता है, जिसे पेड़ की उंची शाखा पर सूखी टहनियों से बनाया जाता है। कभी-कभी इनके घोंसले ऊंचाई पर पहाड़ों के सुराखों में भी दिखाई देते हैं।
अगर कहें कि कुछ कौए भुर्राक सफेद भी होते हैं तो शायद आपको विश्वास न हो, पर यह सच है। रंजकहीनता यानी अल्बीनिज्म के कारण कुछ कौए सफेद हो जाते हैं। ऐसे घरेलू कौए यदा-कदा दिखाई दे जाते हैं, पर हम पहचान नहीं पाते। प्राचीन संस्कृत साहित्य में इसे श्वेत काक या शुुक्ल काक के नाम से पुकारा गया है।
जिस तरह से कौए और अन्य पक्षी गौरैया समाप्त होते जा रहे हैं इसका एक प्रमुख कारण मोबाइल टावर से निकलने वाला विकिरण भी है यह बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है। कहीं ऐसा ना हो पक्षियों में सबसे चालाक पक्षी कौवा का हश्र डोडो पक्षी जैसा हो जाए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्त राष्ट्रसंघ के वार्षिक अधिवेशन में इस बार अफगानिस्तान भाग नहीं ले पाएगा। जरा याद करें की अशरफ गनी सरकार ने कुछ हफ्ते पहले ही कोशिश की थी कि संयुक्तराष्ट्र महासभा के अध्यक्ष का पद अफगानिस्तान को मिले लेकिन वह श्रीलंका को मिल गया। देखिए, भाग्य का फेर कि अब अफगानिस्तान को स.रा. महासभा में सादी कुर्सी भी नसीब नहीं होगी। इसके लिए तालिबान खुद जिम्मेदार हैं। यदि 15 अगस्त को काबुल में प्रवेश के बाद वे बाकायदा एक सर्वसमावेशी सरकार बना लेते तो संयुक्तराष्ट्र संघ भी उनको मान लेता और अन्य राष्ट्र भी उनको मान्यता दे देते। इस बार तो उनके संरक्षक पाकिस्तान ने भी उनको अभी तक औपचारिक मान्यता नहीं दी है। किसी भी देश ने तालिबान के राजदूत को स्वीकार नहीं किया है। वे स्वीकार कैसे करते? खुद तालिबान किसी भी देश में अपना राजदूत नहीं भेज पाए हैं।
संयुक्तराष्ट्र के 76 वें अधिवेशन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपने प्रवक्ता सुहैल शाहीन की राजदूत के रूप में घोषणा की है। जब काबुल की सरकार अभी तक अपने आपको ‘अंतरिम’ कह रही है और उसकी वैधता पर सभी राष्ट्र संतुष्ट नहीं है तो उसके भेजे हुए प्रतिनिधि को राजदूत मानने के लिए कौन तैयार होगा ? सिर्फ पाकिस्तान और क़तर कह रहे हैं कि शाहीन को सं.रा. में बोलने दिया जाए लेकिन सारी दुनिया प्रधानमंत्री इमरान खान की उस भेंटवार्ता पर ध्यान दे रही है, जो उन्होंने बी.बी.सी. को दी है। उसमें इमरान ने कहा है कि यदि तालिबान सर्वसमावेशी सरकार नहीं बनाएंगे तो इस बात की संभावना है कि अफगानिस्तान में गृहयुद्ध हो जाएगा। अराजकता, आतंकवाद और हिंसा का माहौल मजबूत होगा। शरणार्थियों की बाढ़ आ जाएगी। उन्होंने औरतों पर हो रहे जुल्म पर भी चिंता व्यक्त की है। इसमें शक नहीं कि तालिबान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है। उन्होंने कहा है कि संयुक्तराष्ट्र पहले उन्हें मान्यता दे तो वे दुनिया की सलाह जरुर मानेंगे।
संयुक्त राष्ट्र के सामने कानूनी दुविधा यह भी है कि वर्तमान तालिबान मंत्रिमंडल के 14 मंत्री ऐसे है, जिन्हें उसने अपनी आतंकवादियों की काली सूची में डाल रखा है। सं. रा. की प्रतिबंध समिति (सेंक्शन्स कमेटी) ने कुछ प्रमुख तालिबान नेताओं को विदेश-यात्रा की जो सुविधा दी है, वह सिर्फ अगले 90 दिन की है। यदि इस बीच तालिबान का बर्ताव संतोषजनक रहा तो शायद यह प्रतिबंध उन पर से हट जाए। फिलहाल रूस, चीन और पाकिस्तान के विशेष राजदूत काबुल जाकर तालिबान तथा अन्य अफगान नेताओं से मिले हैं। यह उनके द्वारा तालिबान को उनकी मान्यता की शुरुआत है। वे हामिद करजई और डाॅ. अब्दुल्ला से भी मिले हैं याने वे काबुल में मिली-जुली सरकार बनवाने की कोशिश कर रहे हैं। भारत क्या कर रहा है ? हमारे राजदूत, विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री सिर्फ बातों की जलेबियां उतार रहे हैं। सीधे अफगान नेताओं से बात करने की बजाय वे दुनिया भर के अड़ौसियों-पड़ौसियों से ‘गहन संवाद’ में व्यस्त हैं। वे यह क्यों भूल रहे हैं कि भारत के राष्ट्रहितों की रक्षा करना उनका प्रथम कर्तव्य है। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-संजीव बख्शी
प्रिय मित्र हरिहर वैष्णव नहीं रहे। यह बहुत ही दुखद हुआ। बहुत ही नेक इंसान थे वे। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि। उनकी स्मृति में पुरानी बातें याद आ रही हैं।
कोंडागाँव में हरिहर वैष्णव ने अपने घर में ‘लक्ष्मी जगार’ का पहली बार आयोजन करवाया था। मैं भी देखने गया था। सात से लेकर ग्यारह दिनों तक यह जगार चलता है। दो महिलाएं, जिन्हें गुरुमाँय कहते हैं, इस लोक महाकाव्य को ही भाषा में गाती हैं और सब सुनते हैं। उसे हरिहर वैष्णव रिकार्ड कर रहे थे। बाद में उन्होंने उसका लिप्यांतरण (ट्रांसक्रिप्शन) किया और हिंदी में अनुवाद भी। ऑस्ट्रेलिया के ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, केनबरा से क्रिस ग्रेगोरी आए तो उन्हें सुनाने के लिए फिर से एक बार ‘लक्ष्मी जगार’ का आयोजन किया गया और फिर हल्बी हिंदी और अंग्रेजी में इसे प्रकाशित कराया गया। इसमें चित्रकारी खेम वैष्णव ने की। यह अब तक वाचिक परम्परा में ही रहा परंतु पहली बार हरिहर वैष्णव ने लिखित में लाया। यह उनका एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। ‘लक्ष्मी जगार’ के अलावा ‘तीजा जगार’, ‘आठे जगार’, ‘बाली जगार’ और इसी तरह से अन्य वाचिक परम्परा की चीजों को हरिहर वैष्णव ने लिखित स्वरूप में लाकर महत्त्वपूर्ण कार्य किया हरिहर वैष्णव ने बताया था कि गुरुमाँय सुखदयी कोर्राम गरीब स्थिति में अपने जीवन का निर्वाह किया करती थीं। उन्हें आस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय की ओर से सम्मानजनक राशि दिलाई गई। इसके साथ ही उन्हें क्रिस ग्रेगोरी और उनकी पत्नी जूडिथ रॉबिन्सन की ओर से प्रति माह सम्मानजनक राशि अब भी प्रदान की जा रही है।
यहाँ यह बताना शायद प्रासंगिक होगा कि क्रिस ग्रेगोरी की पत्नी जूडिथ रॉबिन्सन 2010 से 2012 तक फिजी में ऑस्ट्रेलियाई उच्चायुक्त के पद पर भी पदस्थ रहीं। मुझे स्मरण है कि 1999 में तो हरिहर वैष्णव के साहित्यिक विदेश प्रवास के लिए विदेशी आयोजकों ने टिकट आदि सब करवा लिये थे और कोंडागाँव से निकलने की तारीख में वे हरिहर को फोन कर पूछते हैं कि वे निकले कि नहीं? जवाब मिला कि उन्हें मलेरिया हो गया है और वे खाट से उठ नहीं पा रहे हैं। वे ठीक हुए उसके बाद सन् 2000 में फिर से उन्हें बुलाने के लिए सब व्यवस्था की गई तब वे गए। विदेश से लौटने के बाद उनका एक बहुत ही आत्मीय पत्र आया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दक्षेस (सार्क) के विदेश मंत्रियों की जो बैठक न्यूयार्क में होनेवाली थी, वह स्थगित हो गई है। उसका कारण यह बना कि अफगान सरकार का प्रतिनिधित्व कौन करेगा? सच पूछा जाए तो 2014 के बाद दक्षेस का कोई शिखर सम्मेलन वास्तव में हुआ ही नहीं। 2016 में जो सम्मेलन इस्लामाबाद में होना था, उसका आठ में से छह देशों ने बहिष्कार कर दिया था, क्योंकि जम्मू में आतंकवादियों ने उन्हीं दिनों हमला कर दिया था। नेपाल अकेला उस सम्मेलन में सम्मिलित हुआ था, क्योंकि नेपाल उस समय दक्षेस का अध्यक्ष था और काठमांडो में दक्षेस का कार्यालय भी है। दूसरे शब्दों में इस समय दक्षेस बिल्कुल पंगु हुआ पड़ा है। यह 1985 में बना था लेकिन अब 35 साल बाद भी इसकी ठोस उपलब्धियां नगण्य ही हैं, हालांकि दक्षेस-राष्ट्रों ने मुक्त व्यापार, उदार वीजा-नीति, पर्यावरण-रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में परस्पर सहयोग पर थोड़ी बहुत प्रगति जरुर की है लेकिन हम दक्षेस की तुलना यदि यूरोपीय संघ और 'एसियानÓ से करें तो वह उत्साहवर्द्धक नहीं है।
फिर भी दक्षेस की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसे फिर से सक्रिय करने का भरसक प्रयत्न जरुरी है। जिन दिनों 'सार्कÓ याने 'साउथ एशियन एसोसिएशन ऑफ रीजनल कोऑपरेशनÓ नामक संगठन का निर्माण हो रहा था तो इसका हिंदी नाम 'दक्षेसÓ मैंने दिया था। 'नवभारत टाइम्सÓ के एक संपादकीय में मैंने 'दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघÓ का संक्षिप्त नाम 'दक्षेसÓ बनाया था। उस समय याने अब से लगभग 40 साल पहले भी मेरी राय थी कि दक्षेस के साथ-साथ एक जन-दक्षेस संगठन भी बनना चाहिए याने सभी पड़ौसी देशों के समान विचारों वाले लोगों का संगठन होना भी बहुत जरुरी है। सरकारें आपस में लड़ती-झगड़ती रहें तो भी उनके लोगों के बीच बातचीत जारी रहे।
यह इसलिए जरुरी है कि दक्षिण और मध्य एशिया के 16-17 देशों के लोग एक ही आर्य परिवार के हैं। उनकी भाषा, भूषा, भोजन, भजन और भेषज अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन उनकी संस्कृति एक ही है। अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और त्रिविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव के इस प्रदेश में खनिज संपदा के असीम भंडार भरे हुए हैं। यदि भारत चाहे तो इन सारे पड़ौसी देशों को कुछ ही वर्षों में मालामाल किया जा सकता है और करोड़ों नए रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। यदि हमारे ये देश यूरोपीय राष्ट्रों की तरह संपन्न हो गए तो उनमें स्थिरता ही नहीं आ जाएगी बल्कि यूरोप के राष्ट्रों की तरह वे युद्धमुक्त भी हो जाएंगे। पिछले 50-55 वर्षों में लगभग इन सभी राष्ट्रों में मुझे दर्जनों बार जाने और रहने का अवसर मिला है। भारत के लिए उनकी सरकारों का रवैया जब-तब जो भी रहा हो, जहां तक इन देशों की जनता का सवाल है, भारत के प्रति उनका रवैया मैत्रीपूर्ण रहा है। इसीलिए भारत के प्रबुद्ध और संपन्न नागरिकों को जन-दक्षेस के गठन की पहल तुरंत करनी चाहिए। वह दक्षेस के नहले पर दहला सिद्ध होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)