विचार/लेख
भारत में बीते दशकों में सभी धर्मों के लोगों की जन्मदर में बड़ी गिरावट हुई है. अमेरिकी संस्था प्यू रिसर्च सेंटर का एक ताजा अध्ययन बताता है कि 1951 से भारत की धार्मिक बनावट में मामूली बदलाव हुए हैं.
डॉयचे वेले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट
प्यू रिसर्च सेंटर के ताजा अध्ययन में पता चला है कि भारत के सभी धर्मों में जन्मदर लगातार घटी है जिस कारण देश की मूल धार्मिक बनावट में मामूली बदलाव हुए हैं. 1.2 अरब आबादी वाले देश में 94 प्रतिशत लोग हिंदू और मुस्लिम धर्म के हैं. बाकी छह फीसदी आबादी में ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन आते हैं.
प्यू रिसर्च सेंटर ने नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) और जनगणना के आंकड़ों का विस्तृत अध्ययन किया है. इस अध्ययन के जरिए यह समझने की कोशिश की गई है कि भारत में धार्मिक संरचना में किस तरह के बदलाव आए हैं और अगर ऐसा हुआ है तो उनकी क्या वजह हैं.
1951 की जनगणना में भारत की आबादी 36.1 करोड़ थी जो 2011 में 1.2 अरब हो गई थी. प्यू का अध्ययन कहता है कि इस दौरान सभी धर्मों की आबादी में वृद्धि हुई है. हिंदुओं की जनसंख्या 30.4 करोड़ से बढ़कर 96.6 करोड़ हो गई है. इस्लाम को मानने वाले 3.5 करोड़ से बढ़कर 17.2 करोड़ पर पहुंच गए जबकि ईसाइयों की आबादी 80 लाख से 2.8 करोड़ हो गई.
जन्मदर का अंतर घटा
अध्ययन के मुताबिक अब भी भारत में सबसे ज्यादा जन्मदर मुसलमानों की है. 2015 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में मुस्लिम जन्मदर प्रति महिला 2.6 थी. इसके बाद हिंदुओं का नंबर आता है जो प्रति महिला 2.1 बच्चों को जन्म दे रही थी. जैन धर्म की जन्मदर सबसे कम 1.2 रही.
लेकिन अध्ययन इस बात को उजागर करता है कि यह चलन ज्यादा बदला नहीं है. शोध के मुताबिक 1992 में भी मुसलमानों की जन्मदर सबसे ज्यादा (4.4) थी जो हिंदुओं से (3.3) ज्यादा थी. स्टडी कहती है, "लेकिन, विभिन्न धर्मों के बीच जन्मदर में अंतर पहले से बहुत कम हो गया है.”
ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि अल्पसंख्यकों की जन्मदर बढ़ने में सबसे ज्यादा कमी आई है. शुरुआती दशकों में मुस्लिम जन्मदर बहुत तेजी से बढ़ रही थी जबकि अब यह काफी कम हो चुकी है. प्यू रिसर्च सेंटर की वरिष्ठ शोधकर्ता स्टेफनी क्रैमर लिखती हैं कि एक ही पीढ़ी में 25 वर्ष से कम आयु की मुस्लिम औरतों के बच्चे जनने की दर में लगभग दो बच्चों की कमी हो गई है.
क्रैमर के मुताबिक 1990 के दशक में प्रति भारतीय महिला 3.4 बच्चे जन्म ले रहे थे जो 2015 में घटकर 2.2 पर आ गए. इसमें सबसे बड़ा योगदान मुस्लिम महिलाओं का है. 1990 के दशक में हर मुस्लिम महिला औसतन 4.4 बच्चों को जन्म दे रही थी जो 2015 में घटकर 2.6 पर आ गया. यानी 1992 में मुस्लिम महिलाएं हिंदुओं की अपेक्षा 1.1 बच्चे ज्यादा जन रही थीं और 2015 में यह अंतर घटकर 0.5 बच्चों पर आ गया.
मुसलमानों की आबादी सबसे ज्यादा बढ़ी
बीते 60 साल में मुसलमानों की आबादी 4 प्रतिशत बढ़ी है जबकि हिंदुओं की आबादी लगभग इतनी ही कम हुई है. बाकी धर्मों की आबादी लगभग स्थिर रही है.
2011 की जनगणना के हिसाब से भारत में 96.6 करोड़ हिंदू थे जो कुल आबादी का 79.8 प्रतिशत है. 2001 की जनगणना की तुलना में यह संख्या 0.7 फीसदी कम थी और 1951 की जनगणना से तुलना करें तो हिंदुओं की आबादी 4.3 प्रतिशत कम हुई थी, जो तब 84.1 प्रतिशत हुआ करते थे.
इसकी तुलना में मुसलमानों की आबादी बढ़ी है. 2001 में भारत में 13.4 प्रतिशत मुसलमान थे जो 2011 में बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गए. 1951 की तुलना में मुसलमानों की आबादी 4.4 प्रतिशत बढ़ी थी. ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन धर्म के मानने वालों की संख्या में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ.
जनसंख्या में यह बदलाव पूरे देश में समान नहीं हुआ है. कुछ राज्यों में आबादी की संरचना में बदलाव बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा देखा गया है. मसलन, अरुणाचल प्रदेश में हिंदुओं की आबादी 2001 से 2011 के बीच 6 प्रतिशत घट गई थी लेकिन पंजाब में 2 प्रतिशत बढ़ी. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काफी दिनों बाद इस हफ्ते विदेश यात्रा करनेवाले हैं। वे वाशिंगटन और न्यूयार्क में कई महत्वपूर्ण मुलाकातें करनेवाले हैं। सबसे पहले तो वे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस से मिलेंगे और फिर चौगुटे (क्वाड) के नेताओं से मिलेंगे याने जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सूगा और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मोरिसन से भी मिलेंगे। इस दौरान वे अमेरिका की कई बड़ी कंपनियों के मालिकों से भी भेंट करेंगे। रूशस्रद्ब द्घद्बह्म्ह्यह्ल द्वद्गद्गह्लद्बठ्ठद्द ड्ढद्बस्रद्गठ्ठ
संयुक्तराष्ट्र संघ में उनके भाषण के अलावा उनका सबसे महत्वपूर्ण काम होगा— चौगुटे के सम्मेलन में भाग लेना। यह चौगुटा बना है— अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया को मिलाकर! इसका अघोषित लक्ष्य है— चीनी प्रभाव को एशिया में घटाना लेकिन चीन ने इसका नया नामकरण कर दिया है। वह कहता है कि यह 'एशियाई नाटोÓ है। यूरोपीय नाटो बनाया गया था, सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए और यह बनाया गया है, चीन का मुकाबला करने के लिए लेकिन चीन मानता है कि यह समुद्र के झाग की तरह हवा में उड़ जाएगा। भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि अभी पिछले हफ्ते ही अमेरिका ने एक नया संगठन खड़ा कर दिया है। उसका नाम है ऑकुस याने आस्ट्रेलिया, युनाइटेड किंगडम और यूएस ! इसमें भारत और जापान छूट गए हैं और ब्रिटेन जुड़ गया है।
अमेरिका ने यह नए ढंग का गुट क्यों बनाया है, समझ में नहीं आता। हो सकता है कि यह अंग्रेजीभाषी एंग्लो-सेक्सन गुट है। यदि ऐसा है तो माना जा सकता है कि अब चौगुटे का महत्व घटेगा या उसका दर्जा दोयम हो जाएगा। इस नए गुट में अमेरिका अब आस्ट्रेलिया को कई परमाणु-पनडुब्बियां देगा। क्या वह भारत को भी देगा ? परमाणु पनडुब्बियों का सौदा पहले आस्ट्रेलिया ने फ्रांस से किया हुआ था। वह रद्द हो गया। फ्रांस बौखलाया हुआ है।
यदि मोदी-बाइडन भेंट और चौगुटे की बैठक में अफगानिस्तान, प्रदूषण और कोविड जैसे ज्वलंत प्रश्नों पर भी वैसी ही घिसी-पिटी बातें होती हैं, जैसी कि सुरक्षा परिषद, शांघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स की बैठकों में हुई हैं तो भारत को क्या लाभ होना है ? भारत और अमेरिका के आपसी संबंधों में घनिष्टता बढ़े, यह दोनों देशों के हित में है लेकिन हम यह न भूलें कि पिछले 74 साल में भारत किसी भी महाशक्ति का पिछलग्गू नहीं बना है। सोवियत संघ के साथ भारत के संबंध अत्यंत घनिष्ट रहे लेकिन शीतयुद्ध के दौरान भारत अपनी तटस्थता के आसन पर टिका रहा। फिसला नहीं। अब भी वह अपनी गुट-निरपेक्षता या असंलग्नता को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहता है। वह रूस, चीन, फ्रांस या अफगानिस्तान से अपने रिश्ते अमेरिका के मन मुताबिक क्यों बनाए? मोदी को अपनी इस अमेरिका-यात्रा के दौरान भारतीय विदेश नीति के इस मूल मंत्र को याद रखना है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ध्रुव गुप्त
1968 से 1972 के बीच तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री, इंदिरा गांधी की सरकार में दो साल केंद्रीय शहरी विकास मंत्री और राज्यसभा तथा विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे स्व. भोला पासवान शास्त्री को राजनीति का विदेह कहा जाता है। ऐसा विदेह जिसकी ईमानदारी, सादगी, फक्कड़पन, सच्चरित्रता की आज भी मिसालें दी जाती है। बिहार के पूर्णिया जिले के छोटे से गांव बैरगाछी में जन्मे भोला बाबू सूबे के अकेले मुख्यमंत्री रहे हैं जो हमेशा पैदल ही अपने कार्यालय जाते थे। अपने आगे-पीछे गाडिय़ों का काफिला लेकर चलने वाले मुख्यमंत्रियों को देखने के अभ्यस्त लोगों को यकीन नहीं होगा कि भोला बाबू के पास कभी अपनी गाड़ी नहीं रही और न सरकारी गाडिय़ों का इस्तेमाल उन्होंने व्यक्तिगत और रूटीन कामों में किया। उदारता ऐसी कि वेतन और भत्ते की ज्यादा रकम जरूरतमंदों में बांट दिया करते थे। अपनी जड़ों से लगाव ऐसा कि औपचारिक और खर्चीली सभाएं आयोजित करने के बजाय पेड़ के नीचे जमीन पर कंबल बिछाकर अधिकारियों और अपने लोगों से संवाद करना ज्यादा पसंद किया करते थे। सरलता ऐसी कि मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतरने के अगले ही दिन वे रिक्शे पर बैठकर पटना की सडक़ों पर घूमने और लोगों से मिलने-जुलने निकल गए। मरे तो बैंक खाते में श्राद्ध कर्म के लायक पैसे भी नहीं थे। जिला प्रशासन को उनके अंतिम संस्कार का इंतजाम करना पड़ा था। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी, लेकिन पूर्णिया के उनके पैतृक गांव में उनके परिजन आज भी खेती-मजदूरी करते हैं। उस दौर में बिहार के इस दलित मुख्यमंत्री का क्रेज ऐसा था कि युवकों में उनके जैसे बाल-दाढ़ी रखने का फैशन चल पड़ा था। अफसोस यह रहा कि उनके बाद स्व. कर्पूरी ठाकुर के एक अपवाद को छोडक़र सार्वजनिक जीवन की शुचिता कभी क्रेज नहीं बन सकी।
आज बिहार-विभूति स्व. भोला पासवान शास्त्री की जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि!
-श्याम मीरा सिंह
एक दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाना और राष्ट्रपति बनाने में अंतर है। राष्ट्रपति को हमारे संविधान के अनुसार ‘रबर स्टाम्प’ कहते हैं, जबकि मुख्यमंत्री को विधानसभा का ‘असली’ नेता कहते हैं।
यूपी के मुख्यमंत्री के आगे देश के राष्ट्रपति भी सर झुकाकर सलाम करते हैं। इसलिए नहीं कि यूपी का मुख्यमंत्री साधुभेष बनाया हुआ है। बल्कि इसलिए क्योंकि मुख्यमंत्री की पॉवर में और राष्ट्रपति की असल पॉवर में अंतर है, यूपी का मुख्यमंत्री बहुत कुछ पॉवर एक्सरसाईज करता है।
हालाँकि बहुत से सीएम भी रबर स्टांप रहे हैं, मगर ये सीएम के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। अगर उनमें दम है तो राष्ट्रीय नेतृत्व में हस्तक्षेप रख सकते हैं। उतना स्पेस मिलने की उन्हें गुंजाइश मिल सकती है। लेकिन अगर बात राष्ट्रपति की करें तो अतीत में ऐसा कोई राष्ट्रपति नहीं रहा जिसने राष्ट्रीय नेतृत्व में कोई राजनीतिक हस्तक्षेप किया हो। क्योंकि उसे संवैधानिक ताकत ही नहीं हैं। अधिकतर राष्ट्रपतियों का काम राष्ट्रपति बनने के बाद प्रिंटर से प्रिंट निकालना भर रह गया।
किसी भी पार्टी की मदद से कोई दलित नेता मुख्यमंत्री बनता है तो उसके साथ ‘प्रतिनिधित्व और विविधता’ का मूल्य भी आता है। ये अंत नहीं है मगर एक शुरुआत जरूर है। ये उस बात की शुरुआत के लिए अच्छा है जिसके बाद सीएम ही दलित नहीं होगा बल्कि वह अपनी पार्टी का शीर्ष नेता भी होगा। यानी जड़ और फल दोनों एक जगह से होंगे। अभी फल और जड़ में एक गहरा अंतर है। पैंतीस प्रतिशत दलित जनसंख्या वाला पंजाब आज पहली बार अपना सीएम देख रहा है। इसलिए जो भी है, अच्छी शुरुआत है।
दलित सीएम को लेकर इस देश का अनुभव ये रहा है कि वे अक्सर सांप्रदायिकता को बढऩे नहीं देते। अपनी क्षमता में अस्पताल और स्कूलों पर ध्यान देते हैं। सबसे अधिक ध्यान क़ानून व्यवस्था पर देते हैं क्योंकि उन्हें पता है थानों और चौकियों का सबसे अधिक शिकार उनका ही समाज रहता है। अब तक सवर्णों का राज देखने वाले इस बात को नहीं समझेंगे।
उन्हें मायावतीजी की सिर्फ मूर्तियाँ दिखेंगी, ‘सौ सैंया’ अस्पताल नहीं दिखेंगे। थानों में जिस तरह से सख्ती की गई वो नहीं दिखेगी, नकल रोकने का काम किया गया वो नहीं दिखेगा। वे हेलिकॉप्टर में उड़ते शाह-मोदी को देख सकते हैं मगर नोटों की माला पहनी मायावती नहीं। इसलिए भी जरूरी है कि इस मानसिकता और विचार पर चोट हो।
-कृष्ण कांत
यूपी के विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित महात्मा गांधी की तुलना राखी सावंत से कर रहे हैं। उनका कहना है, ‘गांधी जी कम कपड़े पहनते थे, धोती ओढ़ते थे। गांधी जी को देश ने बापू कहा। अगर कोई कपड़े उतार देने भर से महान बन जाता तो राखी सावंत महान बन जातीं।’
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लोग इस लायक भी नहीं हैं कि वे अपने मुंह से गांधी का नाम ले सकें, वे गांधी के बारे में ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं। ये किस स्तर की निकृष्ट राजनीति है कि गांधी की हत्या पर मिठाई बांटने वाले लोग आज 70 साल बाद भी गांधी की चरित्रहत्या पर आमादा हैं।
गांधी वे शख्स हैं जिन्हें सुभाष चंद्र बोस ने ‘राष्ट्रपिता’ घोषित किया। गांधी वे शख्स हैं जिन्हें रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘महात्मा’ नाम दिया। गांधी वे शख्स हैं जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जनता का आंदोलन बनाया। यह न सिर्फ गांधी जी का, बल्कि सुभाष चंद्र बोस, रवींद्रनाथ टैगोर और पूरे स्वतंत्रता आंदोलन का अपमान है। यह विक्षिप्तता और आपराधिक मानसिकता से उपजा बयान है। यह वही मानसिकता है जिसके तहत गांधी-नेहरू के खिलाफ वॉट्सएप विषविद्यालय में अभियान चलाया जाता है।
गांधी उस शख्सियत का नाम है जो आर्थिक संकट के समय किसी लुटेरे की तरह 8000 करोड़ के जहाज से नहीं घूमता था। गांधी उस शख्सियत का नाम है जो उद्योगपतियों के हाथ देश बेचने पर आमादा नहीं था। गांधी उस शख्सियत का नाम है जिसने 50 सालों तक निर्विवाद रूप से सबसे ताकतवर रहकर भी एक धोती में जिंदगी गुजारी। गांधी उस शख्सियत का नाम है जिसने अपने देश की जनता को नंगा और भूखा देखा तो अपना बैरिस्टर का लिबास उतारकर उनके साथ आ गया और जिंदगी एक धोती में काट दी।
हृदय नारायण दीक्षित को ये समझना चाहिए कि वे जिस संगठन और पार्टी की दलाली कर रहे हैं, वह दशकों तक अंग्रेजों की दलाली करती थी। हृदय नारायण को समझना चाहिए कि वे इस लायक भी नहीं हैं कि वे अपनी जबान पर महात्मा गांधी का नाम भी ला सकें।
हृदय नारायण दीक्षित यूपी की विधानसभा में अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठकर उस कुर्सी को कलंकित कर रहे हैं। वे एक सम्मानजनक पद पर हैं। भारत के स्वतंत्रता सेनानियों, भारतीय आजादी के नायकों और देश के शहीदों का अपमान करना देश की आत्मा में छुरा घोंपने जैसा जघन्य अपराध है। यह राष्ट्रीय आंदोलन के साथ उसी किस्म की गद्दारी है जो उस समय आरएसएस कर रहा था। ये बेहद शर्मनाक और अक्षम्य है।
माननीय अध्यक्ष जी! मैं आपसे कहना चाहता हूं कि आपकी फौज ऊंचे पदों पर बैठकर चाहे जितना नीचे गिर ले, गांधी अपने जीवन में ही विश्वपुरुष थे, हैं और रहेंगे। उनकी महानता को अंग्रेज भी नहीं लीप सके तो आप किस खेत की मूली हैं? आप तो उस कलंकित कुनबे के एक अदना प्रतिनिधि हैं जिनसे आजादी आंदोलन तक के साथ गद्दारी की हो!
महात्मा गांधी इस देश का गर्व हैं! यकीन न हो तो नरेंद्र मोदी से पूछ लीजिए। विदेशी धरती पर जाकर वे भी कलेजे पर पत्थर रखकर कहते हैं कि मैं गांधी के देश से आया हूं।
महात्मा गांधी के बारे में ऐसी बातें करके आप आसमान पर थूक रहे हैं जो हर हाल में लौटकर आपके चेहरे पर आएगा और शर्म की तरह चिपक जाएगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब, गुजरात, उत्तराखंड और कर्नाटक में जिस तरह मुख्यमंत्री बदले गए हैं, क्या इस प्रक्रिया के पीछे छिपे गहरे अर्थ को हम समझ पा रहे हैं? किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह काफी चिंता का विषय है। इन चारों राज्यों में पिछले दिनों जिस तरह से मुख्यमंत्रियों को बदला गया है, उस तरीके में चमत्कारी एकरुपता दिखाई पड़ रही है। पंजाब में कांग्रेस है और शेष तीन राज्यों में भाजपा है। ये दोनों अखिल भारतीय पार्टियां हैं। इनमें से भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। और कांग्रेस दुनिया की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक है। ये दोनों पार्टियाँ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की सबसे बड़ी पार्टियाँ है।
इन दोनों पार्टियों की कार्यपद्धति में आजकल अदभुत समानता दिखाई पडऩे लगी है। चारों राज्यों में सत्ता-परिवर्तन चुटकी बजाते ही हो गया। कोई दंगल नहीं हुआ। कोई उठा-पटक नहीं हुई। हटाए गए मुख्यमंत्री अभी तक अपनी पार्टी में ही टिके हुए हैं। उन्होंने बगावत का कोई झंडा नहीं फहराया। दोनों पार्टियों के जो मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में अभी भी टिके हुए हैं, उन्हें डर लग रहा है कि कहीं अब उनकी बारी तो नहीं है। जो नए मुख्यमंत्री लाए गए हैं, उनकी चिंता यह है कि अगले चुनाव में अपनी पार्टी को कैसे जितवाया जाए? दोनों पार्टियों की कोशिश है कि उन्होंने जो नए मुख्यमंत्री ऊपर से उतारे हैं, वे येन-केन-प्रकारेण चुनाव की वैतरणी तैर कर पार कर लें।
दोनों पार्टियाँ अपने आपको राष्ट्रीय कहती हैं लेकिन उनका चुनावी पैंतरा शुद्ध जातिवादी है। गुजरात में भाजपा यदि पटेल वोटों पर लार टपका रही है तो पंजाब में कांग्रेस ने दलित वोटों का थोक सौदा कर लिया है। उसने अपने कई सुयोग्य प्रांतीय नेताओं को वैसे ही दरकिनार कर दिया है, जैसे गुजरात में भाजपा ने किया है। दलित वोट पटाने के लिए उसने एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना दिया है, जिस पर कई तुच्छ कोटि के आरोप पहले से ही लगे हुए हैं। यहां असली सवाल यह है कि इन दोनों महान पार्टियों को इस वक्त जातिवाद का नगाड़ा क्यों पीटना पड़ रहा है। कांग्रेस के बारे में तो यह कहने की जरुरत नहीं है कि उसका केंद्रीय नेतृत्व जनता की दृष्टि में लगभग निष्प्रभावी हो गया है। लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का भी विश्वास खुद पर से हिल गया दिखता है। जो नेतृत्व हरयाणा में एक पंजाबी और गुजरात में एक जैन को मुख्यमंत्री बनाकर अपने दम पर जिता सकता था, अब उसकी भी सांस फूलती दिखाई पड़ रही है। वह भी नए चेहरों और जातिवादी थोक आधार की तलाश में जुट गया है। जनता में चाहे दोनों नेतृत्व कम-ज्यादा हिले हों लेकिन अपनी-अपनी पार्टी में उनकी जकड़ पहले से ज्यादा मजबूत हो गई है। लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए यह शुभ नहीं है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अनिल जैन
‘सबसे अजब-सबसे गजब मध्य प्रदेश’ में लेखकों और साहित्यकर्मियों को उनकी प्रथम कृति प्रकाशित कराने के नाम पर 20-20 हजार रुपए का अनुदान दिए जाने का उपक्रम मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद की साहित्य अकादमी के तत्वावधान में होने वाला एक किस्म का घोटाला ही है, जिसे हर साल एक अनुष्ठान के तौर पर अंजाम दिया जाता है।
इस अनुष्ठान में दिल्ली, भोपाल, जयपुर, मेरठ, गाजियाबाद, गुरूग्राम, इंदौर आदि शहरों के प्रकाशकों का गिरोह भी श्राद्धपक्ष के पंडों की तरह शामिल रहता है। सरकारी अनुदान के लिए कई लोगों की पांडुलिपियों का चयन तो प्रकाशकों की सिफारिश पर ही होता है। ये प्रकाशक इन पांडुलिपियों को छापते हैं और फिर इनकी ऊंचे दामों पर सरकारी खरीद होती है। सरकारी महकमों और शिक्षा संस्थानों में ये किताबें पड़े-पड़े सड़ते हुए दीमकों और चूहों का आहार बनती हैं।
मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद या साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार या अनुदान के नाम पर रेवडिय़ां बांटने का इतिहास पुराना है। यह काम कांग्रेस के जमाने में भी होता था, लेकिन उस समय कुछ तो लोकलाज का ध्यान रखा जाता था। तब इस तरह के अनुदान प्राप्त करने वालों की सूची 15-20 फीसदी नाम ही फर्जी लेखकों या साहित्यकारों के होते थे, लेकिन अब मामला एकदम उलट गया है।
अब ऐसी सूची में 15-20 फीसदी ही नाम ऐसे होते हैं, जिनका वास्तविक रूप से लिखने-पढऩे से सरोकार होता है और बाकी सारे नाम ऐसे होते हैं, जिन्हें साहित्य की खरपतवार या गाजरघास कहा जा सकता है।
इस बार साहित्य परिषद ने दो साल के लिए कुल जिन 80 नामों का चयन किया है, उनमें 10-12 ही अपवाद होंगे, जिनका पढऩे-लिखने से वास्ता होगा। मैंने 80 लोगों की सूची में से कुछ लोगों का फेसबुक प्रोफाइल देख कर उनके बारे में जानने की कोशिश की तो पाया कि अधिकांश ने अपने प्रोफाइल पर ताला ठोक रखा है।
ताला लगी फेसबुक प्रोफाइल वालों को मैं निहायत असामाजिक और संदिग्ध चरित्र का व्यक्ति मानता हूँ, चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो। चयनित सूची में जिन लोगों के प्रोफाइल खुले पाए गए, उनमें से भी ज्यादातर पर सिवाय मित्रों और परिजनों को जन्मदिन और शादी की सालगिरह के बधाईसंदेश और सैरसपाटे तथा पारिवारिक आयोजन की तस्वीरें ही दिखीं। कुछ की फेसबुक वाल पर संदेश विहीन लघुकथा, कविता और व्यंग्य टाइप का भी कुछ चस्पा किया हुआ दिखा, जिसमें व्याकरण अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाती पाई गई।
हालांकि ऐसे लोग स्थानीय अखबारों में भी खूब छपते हैं, लेकिन इसमें हैरान होने जैसी कोई बात नहीं, क्योंकि अखबारों को अपने पन्नों पर विज्ञापन और पेड न्यूज के बाद बची खाली जगह भरने के लिए इन लोगों से मुफ्त में सामग्री मिल जाती है। वैसे अखबारों में छापने के लिए रचनाओं का चयन करने वाले कारकूनों की लिखत-पढ़त का स्तर इन्हीं कथित रचनाकारों जैसा होता है।
इस बार साहित्य अकादमी ने जिन पांडुलिपियां का चयन किया है, उनमें ज्यादातर लघुकथाओं और कविताओं की हैं, जो इस बात की परिचायक है कि साहित्य की इन दोनों विधाओं के पतन में मध्य प्रदेश की साहित्य अकादमी भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि मध्य प्रदेश की संस्कृति परिषद और साहित्य अकादमी आवारा गायों की गौशाला जैसी हो गई हैं (जैसे स्मृतिशेष व्यंग्यकार शरद जोशी भोपाल के भारत भवन को कला और संस्कृति का कब्रस्तान कहते थे), जिसमें कुछ कुलीन गायें भी जाने-अनजाने चली जाती हैं या उन्हें प्रवेश दे दिया जाता है। लेकिन जब उनके साथ भी आवारा गायों जैसा सुलूक होता है तो वे गौशाला संचालकों के चाल-चलन को देख कर अपने को अपमानित महसूस करती हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के मुख्य न्यायाधीश नथालपति वेंकट रमन ने कल वह बात कह दी, जो कभी डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे। जो बात न्यायमूर्ति रमन ने कही है, मेरी स्मृति में ऐसी बात आज तक भारत के किसी न्यायाधीश ने नहीं कही। रमनजी ने एक स्मारक भाषण देते हुए बोला कि भारत की न्याय व्यवस्था को औपनिवेशिक और विदेशी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। यह शिकंजा क्या है? यह शिकंजा है- अंग्रेजी की गुलामी का! हमारे देश को आजाद हुए 74 साल हो गए लेकिन आज तक देश में एक भी कानून हिंदी या किसी भारतीय भाषा में नहीं बना। हमारी संसद हो या विधानसभाएं- सर्वत्र कानून अंग्रेजी में बनते हैं। अंग्रेजी में जो कानून बनते हैं, उन्हें हमारे सांसद और विधायक ही नहीं समझ पाते तो आम जनता उन्हें कैसे समझेगी? हम यह मानकर चलते हैं कि हमारी संसद में बैठकर सांसद और मंत्री कानून बनाते हैं लेकिन असलियत क्या है ?
इन कानूनों के असली पिता तो नौकरशाह होते हैं, जो इन्हें लिखकर तैयार करते हैं। इन कानूनों को समझने और समझाने का काम हमारे वकील और जज करते हैं। इनके हाथ में जाकर कानून जादू-टोना बन जाता है। अदालत में वादी और प्रतिवादी बगलें झांकते हैं और वकीलों और जजों की गटर-पटर चलती रहती है। किसी मुजरिम को फांसी हो जाती है और उसे पता ही नहीं चलता है कि वकीलों ने उसके पक्ष या विपक्ष में क्या तर्क दिए हैं और न्यायाधीश के फैसले का आधार क्या है। इसी बात पर न्यायमूर्ति रमन ने जोर दिया है। इस न्याय-प्रक्रिया में वादी और प्रतिवादी की जमकर ठगी होती है और न्याय-प्रक्रिया में बड़ी देरी हो जाती है। कई मामले 20-20, 30-30 साल तक अदालतों में लटके रहते हैं। न्याय के नाम पर अन्याय होता रहता है।
इस दिमागी गुलामी का नशा इतना गहरा हो जाता है कि भारत के मामलों को तय करने के लिए वकील और जज लोग अमेरिका और इंग्लैंड के अदालती उदाहरण पेश करने लगते हैं। अंग्रेजी के शब्द-जाल में फंसकर ये मुकदमे इतने लंबे खिंच जाते हैं कि देश में इस समय लगभग चार करोड़ मुकदमे बरसों से अधर में लटके हुए हैं। न्याय के नाम पर चल रही इस अन्यायी व्यवस्था को आखिर कौन बदलेगा? यह काम वकीलों और जजों के बस का नहीं है। यह तो नेताओं को करना पड़ेगा लेकिन हमारे नेताओं की हालत हमारे जजों और वकीलों से भी बदतर है। हमारे नेता, सभी पार्टियों के, या तो अधपढ़ (अनपढ़ नहीं) हैं या हीनता ग्रंथि से ग्रस्त हैं। उनके पास न तो मौलिक दृष्टि है और न ही साहस कि वे गुलामी की इस व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन कर सकें। हाँ, यदि कुछ नौकरशाह चाहें तो उन्हें और देश को इस गुलामी से वे जरुर मुक्त करवा सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
शांघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार अफगानिस्तान पर अपना मुँह खोला। उन्हें बधाई, उनके जन्मदिन की भी! पिछले डेढ़-दो महिने से ऐसा लग रहा था कि भारत की विदेश नीति से हमारे प्रधानमंत्री का कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने विदेश नीति बनाने और चलाने का सारा ठेका नौकरशाहों को दे दिया है लेकिन अब वे बोले और अच्छा बोले। उन्होंने अफगानिस्तान में सर्वसमावेशी सरकार और आतंक-मुक्ति की बात पर जोर दिया, जो बिल्कुल ठीक थी लेकिन उसमें नया क्या था? वह तो सुरक्षा परिषद और मानव अधिकार आयोग की बैठक में सभी राष्ट्र कई बार प्रस्ताव पारित कर चुके हैं। सबसे ज्यादा खेदजनक बात यह हुई कि इस शांघाई संगठन की बैठक में भाग लेनेवाले राष्ट्रों में से चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान ने अपनी एक अलग बैठक की। इन चारों राष्ट्रों ने भारत को पूछा तक नहीं। भारत को अछूत मानकर इन राष्ट्रों ने उसे अलग बैठाए रखा। ये यह बताएं कि भारत की गलती क्या है?
भारत ने आज तक हमेशा अफगानिस्तान का भला ही किया है। उसने वहाँ कभी अपना कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं किया। अफगानिस्तान की आम जनता में भारत के लिए जो सराहना का भाव है, वह दुनिया के किसी राष्ट्र के लिए नहीं है। आज अकालग्रस्त अफगानिस्तान की जैसी मदद भारत कर सकता है, दुनिया का कोई राष्ट्र नहीं कर सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि सारे पड़ौसी राष्ट्रों के दिल में यह बात घर कर गई है कि भारत सरकार की कोई अफगान नीति नहीं है। वह अमरीका का पिछलग्गू बन गया है। इस धारणा को गलत साबित करते हुए हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी को आश्वस्त किया है कि वे हमारे सेनापति बिपिन रावत के चीन-विरोधी बयान से भी असहमत हैं और भारत किसी तीसरे देश (अमेरिका) के कारण चीन से भारत के आपसी संबंधों को प्रभावित नहीं होने देगा।
यह तो बहुत अच्छा है लेकिन अफगानिस्तान के मुद्दे पर भी हम यह बात क्यों नहीं लागू कर रहे हैं? नरेंद्र मोदी का यह आशय ठीक है कि तालिबान सरकार को मान्यता देने में जल्दबाजी न की जाए लेकिन अफगान जनता की मदद में कोताही भी न की जाए। तालिबान से संपर्क किए बिना इस नीति पर हम अमल कैसे करेंगे? अब अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने चीन को घेरने के लिए सामरिक समझौता, नाटो की तरह कर लिया है लेकिन अमेरिका का सारा जोर चीन के खिलाफ लग रहा है। उसे दक्षिण और मध्य एशिया की कोई चिंता नहीं है, जो भारत का सदियों पुराना परिवार (आर्यावर्त्त) है। अमेरिका से भारत के रिश्ते मधुर रहें, यह मैं चाहता हूं लेकिन हमें अपने राष्ट्रहित को भी देखना है या नहीं? यदि चीन, पाकिस्तान, रूस और ईरान जैसे राष्ट्र तालिबान की वर्तमान सरकार से खतरा महसूस कर रहे हैं और उससे निपटने का इंतजाम कर रहे हैं तो हम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हुए हैं?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
अफगानिस्तान मामले की सामरिक और कूटनीतिक जटिलताओं से एकदम अलग स्त्री विमर्श पर आधारित इसका पाठ है। आश्चर्यजनक रूप से यह पाठ एकदम सरल है। यह पाठ दरअसल एक सदियों पुरानी हौलनाक दास्तान है जो प्रकारांतर से हर युग में, हर मुल्क में थोड़े बहुत समयानुकूल परिवर्तनों के साथ दुहराई जाती है। इस दास्तान में कुछ धर्मांध शासक हैं जो सदियों पुराने धार्मिक कानूनों के आधार पर राज्य चला रहे हैं। देश की आधी आबादी इनकी भोग लिप्सा और कुंठाओं की पूर्ति के लिए बंधक बनाकर रखी गई है। जब वे जीत का जश्न मनाते हैं तो औरतों से बर्बरता करते हैं, जब वे हार का शोक मनाते हैं तो औरतों पर जुल्म ढाते हैं, जब वे मित्रता करते हैं तो भोगने के लिए औरतों को उपहार में देते हैं, जब वे शत्रुता करते हैं तो औरतों को नोचते -खसोटते, मारते-काटते हैं, जब वे अपने धर्म का पालन करते हैं तो औरतों को आज्ञापालक गुलामों की भांति बंधक बनाकर रखते हैं। समय के साथ इनके नाम बदल जाते हैं। जैसे आजकल जिस मुल्क में ऐसे हालात हैं उसका नाम अफगानिस्तान है जहाँ के कट्टरपंथी शासक तालिबान कहे जाते हैं। यह आधुनिक युग है। इसलिए यूएनओ और सार्क जैसे संगठन हैं, नारी स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली ढेर सारी संस्थाएं हैं, उत्तरोत्तर उदार और प्रजातांत्रिक होते विश्व के लोकप्रिय और शक्तिशाली सत्ता प्रमुख हैं। किंतु जो बात अपरिवर्तित है वह है अफगान महिलाओं की नारकीय स्थिति। क्या यह स्थिति अपरिवर्तनीय भी है?
तालिबानी शासन का पिछला दौर महिलाओं के लिए भयानक रहा था। यूएस डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट द्वारा 2001 में जारी की गई रिपोर्ट ऑन द तालिबान्स वॉर अगेंस्ट वीमेन के अनुसार 1977 में अफगानिस्तानी विधायिका में महिलाओं की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत थी। एक अनुमान के अनुसार नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में 70 प्रतिशत स्कूल शिक्षक, 50 प्रतिशत शासकीय कर्मचारी एवं विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी तथा 40 प्रतिशत डॉक्टर महिलाएं ही थीं। तालिबान जब 1996 में निर्णायक रूप से सत्ता में आया तो कथित पश्चिमी प्रभाव को समाप्त करने के लिए उसे महिलाओं की स्वतंत्रता पर प्रहार करना एवं उनके मानव अधिकारों को छीनना सबसे जरूरी लगा। इस प्रकार महिलाएं तालिबान का पहला और आसान शिकार बनीं।
1996 से 2001 के बीच अफगानी महिलाएं पढ़ाई और काम नहीं कर सकती थीं। वे बिना परिवार के पुरुष सदस्य के बाहर नहीं निकल सकती थीं। वे राजनीति में हिस्सा नहीं ले सकती थीं। वे सार्वजनिक रूप से श्रोताओं के सम्मुख भाषण भी नहीं दे सकती थीं। वे स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित कर दी गई थीं। यहाँ तक कि उनके लिए सार्वजनिक तौर पर अपनी त्वचा का प्रदर्शन करना भी प्रतिबंधित था। इन पाबंदियों का उल्लंघन करने पर कोड़े मारने और पत्थर मार मार कर हत्या कर देने जैसी सजाओं का प्रावधान था।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने नवम्बर 2001 में अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान टेक्सास के छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि दरअसल अफगानिस्तान में महिलाओं के साथ मनुष्यों जैसा बर्ताव नहीं होता।
दिसंबर 2001 में जब जॉर्ज डब्लू बुश ने अफगानी महिलाओं और बच्चों की सहायता के लिए फण्ड स्वीकृत किए थे तब लारा बुश का कथन था कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई महिलाओं के अधिकारों और उनकी गरिमा की रक्षा के लिए संघर्ष भी है।
किंतु अब जैसा जाहिर हो रहा है कि विश्व की इन महाशक्तियों की प्रतिबद्धता अपने सामरिक-कूटनीतिक हितों के प्रति हमेशा ही रही है, अफगानी स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने के इनके प्रयास सदैव एक आनुषंगिक रणनीति का भाग मात्र रहे हैं।
यूएन वीमेन इन अफगानिस्तान की उप प्रमुख डेविडियन के अनुसार वर्तमान तालिबानी शासन स्त्रियों के प्रति उदार होने के अपने तमाम वादों के बावजूद 1990 के दशक की याद दिलाता है जब महिलाओं को काम करने से रोका गया था और उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया था। अपनी नई पारी में तालिबानी हुक्मरानों के तेवर बदले नहीं हैं। आतंकवादियों से निर्मित तालिबान कैबिनेट में न तो कोई महिला सदस्य है न ही महिलाओं के लिए कोई मंत्रालय। महिलाएं केवल पुरुष रिश्तेदार के साथ ही निकल सकती हैं। अनेक सूबों में महिलाओं को काम पर जाने से रोका जा रहा है। हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए बनाए गए सुरक्षा केंद्रों तथा महिला मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं के लिए निर्मित सुरक्षित आवासों को निशाना बनाया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग करने वाली स्थानीय महिला एक्टिविस्ट और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता खास तौर पर तालिबानियों के रडार पर हैं। महिलाओं के क्रिकेट और अन्य खेलों में हिस्सा लेने पर पाबंदी लगाई जा रही है क्योंकि यह तालिबानी शासकों के अनुसार गैरजरूरी है और इसके लिए महिलाओं को ऐसे कपड़े पहनने पड़ेंगे जिससे उनका शरीर दिखाई देगा।
यदि वर्ष के प्रथम छह महीनों को आधार बनाया जाए तो 2021 के पहले छह महीनों में अफगानिस्तान में हताहत महिलाओं और बच्चों की संख्या 2009 के बाद से किसी वर्ष हेतु अधिकतम संख्या है।
यूएन रिफ्यूजी एजेंसी के अनुसार 2021 में अब तक लगभग 3 लाख 30 हजार अफगानी युद्ध के कारण विस्थापित हुए हैं और चौंकाने वाली बात यह है कि पलायन करने वालों में 80 प्रतिशत महिलाएं हैं जिनके साथ उनके अबोध और मासूम शिशु भी हैं। कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ यूएन स्पेशल प्रोसीजर्स की प्रमुख अनीता रामासस्त्री के अनुसार इस तरह की बहुत सारी महिलाएं छिपी हुई हैं। तालिबानी उन्हें घर घर तलाश कर रहे हैं। इस बात की जायज आशंका है कि इस तलाश की परिणति प्रतिशोधात्मक कार्रवाई में होगी।
अफगान महिलाओं की एक पूरी पीढ़ी स्वतंत्र वातावरण में पली बढ़ी है। उसे तालिबान के अत्याचारों का अनुभव नहीं है। यह महिलाएं चिकित्सक, शिक्षक, अधिवक्ता, स्थानीय प्रशासक और कानून निर्माताओं की भूमिका निभाती रही हैं। इनके लिए तालिबानी शासन एक अप्रत्याशित आघात की भांति है। जब वे देखती हैं कि तालिबानी अपने लड़ाकों की यौन परितुष्टि के लिए बारह से पैंतालीस वर्ष की आयु की महिलाओं की सूची बना रहे हैं, अचानक महिलाओं को खास तरह की पोशाक पहनने के लिए बाध्य किया जा रहा है, बिना पुरुष संरक्षक के उनके अकेले निकलने पर पाबंदी लगाई जा रही है और उन्हें नेतृत्वकारी स्थिति से हटाकर छोटी और महत्वहीन भूमिकाएं दी जा रही हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि जो कुछ थोड़ी बहुत स्वतंत्रता उन्होंने हासिल की है वह न केवल छीनी जा रही है बल्कि इस स्वतंत्रता के अब तक किए उपभोग का दंड उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
टोलो न्यूज़ द्वारा ट्विटर पर पोस्ट किए गए एक वीडियो में काबुल के शोमाल सराय इलाके में शरण लेने वाली दर्जनों महिलाओं को चीख चीख कर अपनी दुःख भरी दास्तान कहते देखा जा सकता है। इनके परिजनों की हत्या कर दी गई है और इनके घरों को नष्ट कर दिया गया है।
अफगानी महिला पत्रकार शाहीन मोहम्मदी के अनुसार अपने अधिकारों की मांग करती महिलाओं पर तालिबानी बर्बरता कर रहे हैं।
यद्यपि 17 अगस्त 2021 को तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा- शरीया कानून के मुताबिक हम महिलाओं को काम की इजाजत देंगे। महिलाएं समाज का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और हम उनका सम्मान करते हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों में - जहाँ भी उनकी आवश्यकता होगी- उनकी सक्रिय उपस्थिति होगी। किंतु तालिबान जिस शरीया कानून का पालन करता है वह विश्व के अन्य मुस्लिम देशों को भी स्वीकार्य नहीं है और इसमें महिलाओं के लिए जो कुछ है वह केवल अनुशासनात्मक और दंडात्मक है। कठोर प्रतिबंध और इनका पालन करने में असफल रहने पर क्रूर एवं अमानवीय दंड इसका मूल भाव है।
महिलाओं के लिए सबसे भयानक परिस्थिति यौन दासता की होगी। लड़ाकों को तालिबान के प्रति आकर्षित करने के लिए उन्हें महिलाएं भेंट की जाती रही हैं। हालांकि इसे शादी का नाम दिया जाता है लेकिन यह है प्रच्छन्न यौन दासता ही। तालिबानियों द्वारा महिलाओं का यौन शोषण जिनेवा कन्वेंशन के अनुच्छेद 27 का खुला उल्लंघन है। वर्ष 2008 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा प्रस्ताव 1820 के माध्यम से बलात्कार और अन्य प्रकार की यौन हिंसा को युद्ध अपराध तथा मानवता के विरुद्ध कृत्य का दर्जा दिया गया है। किंतु शायद कबीलाई मानसिकता से संचालित तालिबान के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बहुत अधिक मायने नहीं रखता।
ह्यूमन राइट्स वाच की एसोसिएट एशिया डायरेक्टर पैट्रिशिया गॉसमैन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से हस्तक्षेप की अपील करते हुए कहती हैं कि एलिमिनेशन ऑफ वायलेंस अगेंस्ट वीमेन कानून को सख्ती से लागू कराने के लिए विश्व के सभी देशों को अफगानिस्तान की सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं के हटने का एक परिणाम यह भी होगा कि अफगानिस्तान को मिलने वाली सहायता में कमी आएगी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की रुचि इस मुल्क के प्रति घटेगी। इसका सर्वाधिक प्रभाव महिलाओं पर पड़ेगा क्योंकि उनकी आवाज़ को मिलने वाला अंतरराष्ट्रीय समर्थन अब उपलब्ध नहीं होगा।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की प्रमुख मिशेल बचेलेट ने अगस्त 2021 में परिषद के आपात अधिवेशन को संबोधित करते हुए नए तालिबानी शासकों को चेतावनी भरे लहजे में कहा कि महिलाओं और लड़कियों के साथ किया जाने वाला व्यवहार वह आधारभूत लक्ष्मण रेखा है जिसका उल्लंघन करने पर तालिबानियों को गंभीर दुष्परिणाम भुगतने होंगे। लेकिन यह कठोर भाषा आचरण में परिवर्तित होती नहीं दिखती। अफगानिस्तान इंडिपेंडेंट ह्यूमन राइट्स कमीशन की प्रमुख शहरज़ाद अकबर के अनुसार अफगानिस्तान अपने सबसे बुरे दौर में है और उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहायता की जैसी जरूरत अब है वैसी पहले कभी न थी। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के मसौदा प्रस्ताव को हास्यास्पद बताया।
एशिया सोसाइटी का 2019 का एक सर्वेक्षण यह बताता है कि 85.1 प्रतिशत अफगानी ऐसे हैं जिन्हें तालिबानियों से कोई सहानुभूति नहीं है। इसके बावजूद तालिबान सत्ता पर काबिज हो चुके हैं। अफगानिस्तान गृह युद्ध की ओर बढ़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय चिंताजनक रूप से अफगानिस्तान की आधी आबादी की करुण पुकार को अनुसना कर रहा है। चंद औपचारिक चेतावनियों और प्रस्तावों के अतिरिक्त कुछ ठोस होता नहीं दिखता। दुनिया के ताकतवर देशों के लिए अपने कूटनीतिक लक्ष्य अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनका ध्यान इस बात पर अधिक है कि विस्फोटक, विनाशक और अराजक तालिबान को अपने फायदे के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जाए। विश्व व्यवस्था का पितृसत्तात्मक चरित्र खुलकर सामने आ रहा है।
अफगानिस्तान के मौजूदा हालात उन लोगों के लिए एक सबक हैं जो धर्म को सत्ता संचालन का आधार बनाना चाहते हैं। परिस्थितियां ऐसी बन रही हैं कि धार्मिक कट्टरता को परास्त कर समानतामूलक लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए भावी निर्णायक संघर्ष का नेतृत्व शायद अब महिलाओं को ही संभालना पड़ेगा। महिलाओं की अपनी मुक्ति शायद पितृसत्तात्मक शोषण तंत्र का शिकार होने वाले करोड़ों लोगों की आज़ादी का मार्ग भी प्रशस्त कर सके।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-रमेश अनुपम
बचाइए हुजूर! प्रदेश के संस्कृति विभाग से किशोर साहू को बचाइए
इस बार आप सबसे क्षमा मांगते हुए किशोर साहू के संबंध में कुछ जरूरी बातें करना चाहता हूं।
शायद यह आप सब लोगों की शुभेच्छा का असर है कि छत्तीसगढ़ शासन लंबी नींद से जागकर किशोर साहू को इस वर्ष याद करने जा रहा है।
कांग्रेस शासन सत्तानशीन होने के दो वर्ष के पश्चात् किशोर साहू अलंकरण की सुधि ले रहा है। पर इसमें अफसरशाही के रवैए से मुझे कुछ तकलीफ हो रही है। जाहिर है कि सच्चाई जानकर आप सबको भी कोई कम तकलीफ नहीं होगी।
14 सितंबर 2021 को संस्कृति विभाग का एक विज्ञापन समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है। जिसमें संस्कृति विभाग ने इस वर्ष के किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण के लिए देश के निर्देशकों से आवेदन पत्र भेजने का निर्देश दिया है। जैसे कि देश के नामी फिल्म निर्देशक इसके निर्धारित प्रपत्र को भरकर इसके लिए आवेदन पत्र संस्कृति विभाग को भेजने के लिए आतुर बैठे हों। बलिहारी हो संस्कृति विभाग की।
क्या कहें अफसरशाही और वह भी संस्कृति विभाग में, बिना साहित्य और संस्कृति की समझ वाले अधिकारी जहां होंगे वहां ऐसा ही होगा, जैसे वे लोक निर्माण विभाग का कोई टेंडर निकाल रहे हों।
संस्कृति विभाग के पिछले बीस वर्षों के कारनामों को देख लें और एक बार उनके द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘बिहनियां’ का दर्शन कर लें तो वैसे ही इनकी समझ की एक झलकी तो जरूर मिल जायेगी कि इन्हें साहित्य और संस्कृति की कितनी गहरी और गंभीर समझ है।
किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण पिछले तीन वर्षों से बंद था। मैं व्यक्तिगत स्तर पर इस कोशिश में जुटा था कि यह सम्मान बंद न हो चलता रहे। यह छत्तीसगढ़ के सपूत किशोर साहू के नाम पर दिया जाने वाला राष्ट्रीय और प्रादेशिक अलंकरण हमारे छत्तीसगढ़ राज्य के लिए गौरव की बात है।
सन 2017 का किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण (10 लाख रुपए और प्रशस्ति पत्र) प्रख्यात फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल को प्रदान किया गया और प्रादेशिक अलंकरण (2 लाख रुपए और प्रशस्ति पत्र) मनोज वर्मा को 2018 में दिया गया।
सन 2016 में मेरी पहल पर तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह जी ने राजनांदगांव में दो दिवसीय किशोर साहू जन्म शताब्दी समारोह का आयोजन करवाया और उसमें किशोर साहू की अब तक अप्रकाशित आत्मकथा को राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित करवाया था।
मुख्यमंत्री जी ने इस अवसर पर किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण और प्रादेशिक अलंकरण की घोषणा भी की। यह घोषणा उन्होंने किशोर साहू की अभिनेत्री सुपुत्री नयना साहू, सुपुत्र विक्रम साहू और राजनांदगांव के हजारों लोगों के सामने की, जिसे उन्होंने सन 2017 में निभाया भी।
अब थोड़ी सी कहानी इस अलंकरण के बारे में भी। सन 2017 में प्रदेश में संस्कृति सचिव निहारिका बारीक जी थी। एक दिन वे अपने संस्कृति विभाग के अमले के साथ मुख्यमंत्री आवास में अपने लैपटाप के द्वारा मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह जी को यह बता रही थीं कि उन्होंने किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण के लिए आवेदन पत्र का प्रारूप तैयार कर लिया है। संस्कृति सचिव ने अपना लैपटॉप खोला ही था कि सी.एम. साहब ने मुझे इस अंदाज में देखा कि बरखुरदार तुम्हारा क्या ख्याल है ?
मैंने बिना समय गंवाए सी.एम. साहब से कहा सर क्या मृणाल सेन और श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक आवेदन पत्र भरकर संस्कृति विभाग के सचिव को भेजेंगे कि हुजूर मैं भी सम्मान पाने के लिए लाइन में खड़ा हुआ हूं। मैंने कहा कि सर मध्यप्रदेश की तर्ज पर तीन लोगों की ज्यूरी बनवाइए और उन्हें इसका निर्णय लेने दीजिए।
सी.एम. साहब ने मुस्करा दिया और संस्कृति सचिव और उनके हुक्मरान उस दिन मुझ पर कितना बरसे होंगे, इसका मुझे अनुमान नहीं।
बहरहाल सन 2017 में बिना आवेदन के श्याम बेनेगल को यह राष्ट्रीय अलंकरण प्राप्त हुआ। उस वर्ष संस्कृति विभाग ने मुझे निमंत्रित करने लायक भी नहीं समझा। हालांकि बकायदा एक आदमी को मेरे घर भेजकर मुझसे पिछले वर्ष का निमंत्रण पत्र मंगवाया गया और हुबहू वैसा ही निमंत्रण पत्र सन 2017 में भी छपवाया गया।
अब फिर 14 सितंबर को प्रकाशित विज्ञापन की चर्चा कर लें। इस विज्ञापन में किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण और किशोर साहू प्रादेशिक अलंकरण की तो कैटेगरी ही गायब है। इस अलंकरण की दो कैटेगरी है राष्ट्रीय और प्रादेशिक।
इस विज्ञापन में आवेदन की अंतिम तिथि 11 अक्टूबर है। किशोर साहू का जन्मदिवस 22 अक्टूबर है। क्या दस दिन के पश्चात आने वाले किशोर साहू के जन्मदिन तक किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण की तैयारी संस्कृति विभाग के आला अधिकारी संभव कर पाएंगे ?
मैंने पूर्व में सुझाव दिया था कि हर वर्ष अगस्त माह में किशोर साहू राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक अलंकरण की तीन सदस्यीय ज्यूरी (दोनों के लिए पृथक-पृथक ) बना ली जाए और 22 अगस्त तक इसकी घोषणा कर दी जाए, ताकि जिसे सम्मान प्राप्त हो रहा है 22 अक्टूबर को अपनी तिथि खाली रख सके।
मैंने ज्यूरी के लिए नाम भी सुझाए थे...
राष्ट्रीय अलंकरण-
1. श्री श्याम बेनेगल
2. श्री जावेद अख्तर
3. श्री जयप्रकाश चौकसे
प्रादेशिक अलंकरण-
1. श्री मनु नायक
2. श्री मनोज वर्मा
3. श्री जयंत देशमुख
यह भी कि ज्यूरी की बैठक रायपुर में हो। ज्यूरी की सम्मति अलंकरण समारोह के दिन प्रकाशित कर एक बुकलेट के रूप में वितरित की जाए ताकि अलंकरण संबंधी पारदर्शिता का परिचय मिल सके।
पर संस्कृति विभाग तो मदमस्त हाथी की तरह है उसे इस तरह का सुझाव या किसी जानकार आदमी की क्या दरकार। वहां तो वैसे भी एक से एक नगीने हैं।
अब आप ही तय करें कि हमारे संस्कृति विभाग के अधिकारी कितने जवाबदेह और गंभीर संस्कृति की समझ रखने वाले अधिकारी हैं। जब ऐसे अधिकारियों के हाथों छत्तीसगढ़ की साहित्य, कला, संस्कृति हो तो सोच लीजिए कि आगे क्या होने वाला है।
किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण का जो हश्र होने वाला है उसे सोचकर ही अभी से मन कांप रहा है।
(अगले सप्ताह पैतीसवीं कड़ी हिंदी सिनेमा का नायाब सितारा : किशोर साहू...)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अपने देश के मंत्रियों और नेताओं का व्यवहार कुछ ऐसा बन गया है, कि कभी-कभी हमें उनकी कड़ी आलोचना करनी पड़ती है लेकिन अभी-अभी हमारे दो मंत्रियों और एक मुख्यमंत्री के ऐसे किस्से सामने आए हैं, जो हमें इतिहास-प्रसिद्ध महाराजा सत्यवादी हरिश्चंद्र और सम्राट विक्रमादित्य के आदर्श आचरण की याद दिला देते हैं। सबसे पहले लें केंद्रीय मंत्री श्री नितिन गडकरी को! गडकरी ने कल दिल्ली-मुंबई महापथ के निर्माण-कार्य का निरीक्षण करते हुए अपना एक किस्सा सुनाया। उस समय वे महाराष्ट्र सरकार में लोक निर्माण मंत्री थे। उनकी शादी अभी-अभी हुई थी। नागपुर के रामटेक में सरकार सड़क बनवा रही थी। उस सड़क के बीचोंबीच उनके ससुर का मकान भी खड़ा था। उन्होंने अपनी पत्नी को भी नहीं बताया और उस मकान को गिरवा दिया। गडकरी जैसे कितने मंत्री अपने देश में हुए हैं ? इसीलिए गडकरी को गदगदकरी कहता हूँ।
जब हम लोग बच्चे थे तो इंदौर में महारानी अहिल्याबाई के किस्से सुना करते थे। उसमें एक किंवदती यह थी कि उन्होंने अपने राजपुत्र को किसी संगीन अपराध के कारण भरे दरबार में हाथी के पाँव के नीचे दबवा दिया था। सच्चा राजा वही है, सच्चा जन-सेवक वही है, जो अपने-पराए के भेदभाव से ऊपर उठकर निष्पक्ष न्याय करे। ऐसी ही कथा सत्यवादी हरिश्चंद्र के बारे में हम बचपन से सुनते आए हैं। वे अपना राज-पाट त्यागने के बाद जब एक श्मशान घाट में नौकरी करने लगे तो उन्होंने अपने बेटे रोहिताश्व की अंत्येष्टि के पहले अपनी पत्नी तारामती से नियमानुसार शुल्क मांगा। उनके पास पैसे नहीं थे। इस पर हरिश्चंद्र ने कहा 'अपनी आधी साड़ी ही फाड़कर दे दो। यही शुल्क हो जाएगा।Ó इन आदर्शों का पालन हमारे नेता करें तो यह कलियुग सतयुग में बदल सकता है। कुछ इसी तरह का काम छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कुछ दिन पहले कर दिखाया। उनके पिता ने ब्राह्मणों के विरुद्ध कोई आपत्तिजनक बयान दे दिया था। उन्होंने कोई लिहाज-मुरव्वत नहीं दिखाई। उन्होंने अपने पिता को गिरफ्तार कर लिया। भूपेश स्वयं पितृभक्त और मित्रभक्त है लेकिन उन्होंने अपना राजधर्म निभाया।
ताजा खबर यह है कि नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया साधारण मरीज़ बनकर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल पहुंच गए। वे एक बेंच पर जाकर बैठ गए। चौकीदार ने डंडा मारा और उन्हें वहाँ से उठा दिया। यह बात उन्होंने जब नरेंद्र मोदी को बताई तो नरेंद्र भाई ने उनसे पूछा कि 'उसे मुअत्तिल कर दिया गया?Ó तो मनसुख भाई ने कहा कि 'नहीं, क्योंकि वह व्यवस्था को बेहतर बना रहा था।ÓÓ अद्भुत है, यह प्रतिक्रिया, एक मंत्री की! देश में कितने मंत्री हैं, जो साधारण वेश पहनकर इस तरह जन-सुविधाओं की निगरानी करते हैं? यदि हमारे मंत्री और नेता (और प्रधानमंत्री भी) इस तरह का सत्साहस करें तो उनके डर के मारे ही बहुत-सी अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से देश को मुक्ति मिल सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
1990 की दशक की शुरुआत में श्री हर्षमन्दर रायगढ़ जिले (तब के मध्यप्रदेश) में कलेक्टर बन कर आये थे।
उन दिनों की प्रचलित व्यवस्था के अनुसार जिले की शराब दुकानों के लिए साल भर के लिए ठेका होता था। बोलियां लगाने वाले कई होते थे किन्तु सफल होने वाले बहुत कम- वर्षों से जमे घाघ किस्म के लोग।
रायगढ़ जिले में पिछले अनेक वर्षों से पांच लोगों का एक समूह ठेका लेता आ रहा था। इस बीच कलेक्टर और दूसरे अधिकारी आते रहे जाते रहे पर शराब दुकानें यही समूह चलाता रहा।
समूह के अंदर मौके पर रहकर काम देखने वाला पार्टनर केवल एक था। बाकी चार वे थे जिन्हे ‘स्लीपिंग पार्टनर’ कहा जाता है- रहते भी थे दूसरे शहरों में। पांचों में बहुत अच्छी मित्रता और आपसी समझ और विश्वास था। पहला व्यक्ति ही पैसों का हिसाब किताब रखता था। उनमें ‘ऊपरी’ खर्च का विवरण भी शामिल रहता। अलग अलग अधिकारियों और कार्यालयों की ‘दरें’ तय थीं सो अविश्वास या धोखाधड़ी का अवसर नहीं बनता था। इसलिए सब कुछ ठीक चल रहा था।
और तभी कलेक्टर के रूप में हर्षमन्दर पहुंचे। हर्षमन्दर को आज तक न मालूम होगा पर वे इन पांचों ठेकेदार की बरसों पुरानी दोस्ती और पार्टनरशिप टूटने का कारण बन गये थे।
हुआ यूं कि साल के अंत में पहले पार्टनर ने बाकी चार के सामने जब बही-खाता रखा तो उसमें कलेक्टर के नाम पर पहले सालों की तरह 25,000 की राशि दर्ज थी।
हर्षमन्दर की रेपुटेशन इतनी जबरदस्त साबित हुई कि बाकी चारों ने पार्टनरशिप तोडऩा स्वीकार कर लिया पर पहले पार्टनर के हिसाब पर विश्वास नहीं किया। हर्षमन्दर ने पैसे लिए यह बात वे किसी कीमत पर हजम नहीं कर पाये।
उस वर्ष के बाद जिले के ठेकेदार बदल गये।
हर्षमन्दर का मन समाज सेवा में अधिक था। सो ज्यों ही सरकारी सेवा के बीस वर्ष पूरे हुए और उन्हें पेन्शन की पात्रता मिली, उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और सामाजिक गतिविधियों के मैदान में कूद पड़े।
हर्षमन्दर इस बीच अक्सर समाचारों में रहे। कभी गुजरात के दंगा पीडि़तों के बीच काम करते तो कभी दिल्ली के दंगा पीडि़तों के लिए तो कभी लॉकडाऊन में पैदल घर लौटते मजदूरों के लिए अपनी वकील बेटी सुरूर के साथ आधी रात को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते, तो कभी फुटपाथ पर जीवन बसर करते बच्चों का जीवन सुधारते।
आज फिर वे सुर्खियों में हैं। ई.डी. (ऐन्फोर्समेन्ट डायरेक्टोरेट) ने उनके निवास और कार्यालय में रेड की है।
ई. वी. रामासामी पेरियार जयंती विशेष
-डॉ. गोल्डी एम. जॉर्ज
ई. वी. रामासामी पेरियार (17 सितंबर, 1879 - 24 दिसंबर, 1973) भारत में दलित-बहुजन दर्शन व आंदोलन के प्रमुख नायकों में से एक हैं। जोतीराव फुले और डॉ. भीमराव आंबेडकर के साथ उनकी तिकड़ी ने बहुजन आंदोलन को सटीक बौधिक जमीन दी। इन तीनों नायकों में पेरियार, ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपने अधिक तीखे विचारों के लिये जाने जाते हैं। ब्राह्मणवाद और हिंदू धर्म की कुरीतियों पर उन्होंने जिस तरह से तीखा प्रहार किया है, वैसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं। विचारों से बहुत क्रांतिकारी पेरियार ने अपने विवेक और तर्क से ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को कटघरे में खड़ा किया। वे जाति व्यवस्था के घोर विरोधी थे। उन्होंने ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता युक्त संस्कृति की जगह दलित, बहुजन, द्रविड़ संस्कृति को पेश किया और वे राम की जगह रावण को अपना नायक मानते थे।
खेदजनक है कि आत्मसम्मान आंदोलन के जनित्र पेरियार का बड़ा प्रभाव दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु तक ही सीमित रहा गया और उन्हें पिछड़ों के रेता के रूप में समेत दिया। हिंदी पट्टी में आज भी बहुसंख्यक लोग उनके विचारों के विविध आयामों से अनजान हैं। पेरियार एक नए समाज की रचना करना चाहते थे, जिसमें समाज की जाति-धर्म भेदभाव और विसंगति से परे राजनीति, समतामूलक जनवादी सामाज, मेहनत और श्रम आधारित अर्थव्यवस्था, नए तौर-तरीके से ग्रामीण विकास, बुद्धिवाद आधारित शिक्षा और आर्य वर्चास्वा के विपरीत समाज बनाना चाहते थे।
1927 में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। पेरियार और गांधी एक-दूसरे से बंगलौर में मिले, जो उन दिनों मैसूर का हिस्सा था। बातचीत के दौरान पेरियार ने साफ शब्दों में कहा कि हिंदू धर्म को मिट जाना चाहिए। पेरियार के अनुसार हिंदू धर्म ब्राह्मणों द्वारा फैलाई गई केवल एक भ्रांति है। पेरियार गांधी को बताते है दूसरे धर्मों का इतिहास है, आदर्श हैं और कुछ सिद्धांत हैं, जिन्हें लोग स्वीकार करते हैं। पर इसमें कहने लायक क्या है? सिवाय जातीय भेदभाव और ऊंच-नीच जैसे ब्राह्मण, शूद्र और पंचम (अछूत) के उसकी कोई आचार संहिता नहीं है। न ही उसका कोई साक्ष्य है। इस जन्माधारित विभाजन में भी ब्राह्मणों को ऊंचा माना जाता है। जबकि शूद्र और पंचम को नीचा समझा जाता है। रोजमर्रा के जीवन में इंसानों के बीच केवल उंच-नीच का रिश्ता ही रह जाता है।
बुद्धिवाद से युक्त इस बहस में गांधी महज एक प्रतीक थे। उनकी जगह कोई धुरंधर धर्म-आचार्य भी होता तो लगभग उन्हीं तर्कों को देता। कारण है कि धर्म के पक्ष में कहने के लिए उसके समर्थकों के पास ‘आस्था’ और ‘विश्वास’ के अलावा और कोई तर्क होता ही नहीं है। इसलिए छोटे-से-छोटा तथा बड़े-से-बड़ा धर्माचार्य भी धर्म को अनुकरण का मामला बताकर, विमर्श की सभी संभावनाओं से बचते है। उनकी बातों पर विश्वास कर आस्था की डगर चलते हुए, भोले-भाले लोग कब अज्ञान की राह पर निकल पड़ते हैं : यह उन्हें पता ही नहीं चलता।
‘सच्ची रामायण’ पेरियार की बहुचर्चित और विवादित पुस्तक रही है। यह 1944 में तमिल भाषा में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने रामायण की ऐतिहासिकता पर सवाल उठाते हुये इसे काल्पनिक बताया है। दरअसल पेरियार मानते थे कि रामायण को धार्मिक नहीं बल्कि एक राजनीतिक किताब माना जाना चाहिए, जिसे उत्तर भारत के आर्यों ने दक्षिण के अनार्यों पर अपने तथाकथित जीत, विजय और प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए लिखा गया है। ‘सच्ची रामायण’ में एक तरह से रामायण की आलोचना पेश की गई है और इसमें राम सहित सभी अच्छे माने जाने वाले पात्रों के विचारों पर सवाल खड़ा करते हुये रावण को नायक के तौर पर स्थापित किया गया है।
‘सच्ची रामायण’ की वजह से काफी विवाद हुआ था। इसकी वजह यह कि इस किताब में राम सहित रामायण के कई पत्रों को खलनायक के रूप में पेश किया गया है। पेरियार ने राम को बेहद साधारण व्यक्ति माना है। इसमें उन्होंने राम के विचारों को लेकर सवाल खड़े किए थे और राम-रावण की तुलना पर भी उनके अलग विचार थे।
वैसे तो ‘सच्ची रामायण’ का हिंदी अनुवाद 1968 में ही राम आधार ने अनुवाद किया जिसका प्रकाशन ललई सिंह यादव ने किया। परंतु, तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पर 1969 में पाबंदी लगा दी थी। हालांकि बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस पाबंदी को हटा दिया था। आज पेरियार के दर्शन, चिंतन और कार्यों को जानने का एकमात्र मध्यम उनके आंदोलन, भाषण और लेख है।
1924 में उनके आंदोलन की तीव्रता का एक मिसाल वैक्यम सत्याग्रह में देखने को मिला। केरल में त्रावणकोर के राजा के मंदिर की ओर जाने वाले रस्ते पर दलितों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने का विरोध हुआ था। इसका विरोध करने वाले नेताओं को राजा के आदेश से गिरफ्तार कर लिया गया और इस लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए कोई नेतृत्व नहीं था। तब, आंदोलन के नेताओं ने इस विरोध का नेतृत्व करने के लिए पेरियार को आमंत्रित किया। इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए पेरियार ने मद्रास राज्य काँग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दिया और त्रावणकोर गए। त्रावणकोर पहुंचने पर उनका राजकीय स्वागत हुआ क्योंकि वो राजा के दोस्त थे। लेकिन उन्होंने इस स्वागत को स्वीकार करने से मना कर दिया क्योंकि वो वहां राजा का विरोध करने पहुंचे थे। उन्होंने राजा की इच्छा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया, अंतत: गिरफ्तार किए गए और महीनों के लिए जेल में बंद कर दिए गए। केरल के नेताओं के साथ भेदभाव के खिलाफ उनकी पत्नी नागमणि ने भी महिला विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया।
‘भविष्य की दुनिया’ शिर्षिक आलेख में उन्होंने बिना ईश्वर और धर्म के दुनिया की कल्पना की है। इसी प्रकार ‘सुनहरे बोल’ में विभिन्न विषयों पर पेरियार के प्रतिनिधि उद्धरणों के चयनित संकलन को पेश किया गया है। इससे पता चलता है कि पेरियार राजनीति, समाज, श्रमिकों, बुद्धिवाद को लेकर क्या सोचते थे और किस तरह का समाज बनाना चाहते थे।
‘बुद्धिवाद : पाखंड व अंधविश्वास से मुक्ति का मार्ग’ में वे तर्कवाद से पैदा हुये ज्ञान को ही असली ज्ञान मानते हुये लिखते हैं कि ‘हमारे देशवासियों की स्थिति इस ज्ञान का उपयोग न करने के कारण बेहद खराब हो रही है।’ ‘ब्राह्मणवादी धर्म-ग्रंथों में क्या है?’ में उन्होंने ब्राह्मणवादी साहित्य को अज्ञानता का साहित्य बताया है। ‘दर्शन-शास्त्र क्या है?’ शीर्षक लेख में उन्होंने ईश्वर और धर्म पर गहनता से अपने विचारों को प्रस्तुत किया है।
‘जाति का उन्मूलन’ अपेक्षाकृत छोटा लेख है, जिसमें वे सवाल करते हैं कि ‘यदि हमारे लोग जाति, धर्म, आदतों और रीति-रिवाजों में सुधार लाने को तैयार नहीं होते हैं, तो स्वतंत्रता, प्रगति और आत्म-सम्मान पाने की शुरूआत कैसे कर सकते हैं?’ वे आगे लिखते हैं कि ‘हर व्यक्ति स्वतंत्र और समान है इस स्थिति को पैदा करने के लिए जाति का उन्मूलन जरूरी है।’
पेरियार स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल समर्थक थे। इस संबंधित में उनके दो लेख ‘महिलाओं के अधिकार’ और ‘पति-पत्नी नहीं, बनें एक-दूसरे के जीवनसाथी’ में पितृसत्ता से जुड़े बहुत एहम सवाल को उठाते है।
‘महिलाओं के अधिकार’ में वे सवाल उठाते हैं कि ‘अगर किसी महिला को संपत्ति का अधिकार और अपनी पसंद से किसी को चुनने तथा प्रेम करने की स्वतंत्रता नहीं है, तो वह पुरुष की स्वार्थ-सेवा करने वाली एक रबड़ की पुतली से ज़्यादा और क्या है?’ इसी लेख में वे इस सवाल का जवाब भी देते हैं कि ‘प्रत्येक महिला को एक उपयुक्त पेशा अपनाना चाहिए ताकि वह भी कमा सके। अगर वह कम से कम खुद के लिए आजीविका कमाने में सक्षम हो जाए, तो कोई भी पति उसे दासी नहीं मानेगा।’
‘पति-पत्नी नहीं, बनें एक-दूसरे के जीवनसाथी’ में वे पति और पत्नी जैसे उद्बोधनों पर ही सवाल उठाते हुए इस रिश्ते को ‘एक-दूसरे का साथी’ और ‘सहयोगी’ की नई परिभाषा देते हुये लिखते हैं कि ‘विवाहित दम्पत्तियों को एक-दूसरे के साथ मैत्री भाव से व्यवहार करना चाहिए। किसी भी मामले में, पुरुष को अपने पति होने का घमंड नहीं होना चाहिए, पत्नी को भी इस सोच के साथ व्यवहार करना चाहिए कि वह अपने पति की दासी या रसोइया नहीं है।’
इस तरह से देखा जाए तो एक नए समाज की रचना के लिए पेरियार अनेक क्रांतिकारी उपाय बताए है, जो वास्तव में दलित-बहुजन समाज के लिए मुक्ति का नया तत्वज्ञान है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान ने संयुक्तराष्ट्र मानव अधिकार परिषद और 'इस्लामी सहयोग संगठनÓ (आईआईसी) में कश्मीर का मुद्दा फिर से उठा दिया है। पाक प्रवक्ता ने यह नहीं बताया कि कश्मीर में मानव अधिकारों का उल्लंघन कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे हो रहा है? यदि वह अपनी बात प्रमाण सहित कहता तो न सिर्फ भारत सरकार उस पर ध्यान देने को मजबूर होती बल्कि भारत में ऐसे कई संगठन और श्रेष्ठ व्यक्ति हैं, जो मानव अधिकारों के हर उल्लंघन के खिलाफ निडरतापूर्वक मोर्चा लेने को तैयार हैं। इस समय कश्मीर के लगभग सभी नजरबंद नेताओं को मुक्त कर दिया गया है। यह ठीक है कि उन्हें कई महिनों तक नजरबंद रहना पड़ा है, जो कि अच्छी बात नहीं है लेकिन कोई बताए कि उन्हें सुरक्षित रखना भी जरुरी था या नहीं?
यदि धारा 370 और 35ए के खात्मे के बाद कश्मीर में उथल-पुथल मचती तो पता नहीं कितने लोग मरते और कितने घर बर्बाद होते। इन बड़े कश्मीरी नेताओं की नजरबंदी के कारण उनकी जान तो बची ही, सैकड़ों लोग हताहत होने से भी बच गए। हमें यही सोचना चाहिए कि उनकी जान बड़ी है या उनकी जुबान बड़ी है? इसके अलावा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पाकिस्तान अभी भी इस मरे चूहे को क्यों घसीटे चला जा रहा है? उसे पता है कि वह हजार साल भी चिल्लाता रहे तो भी कश्मीर उसका हिस्सा नहीं बन सकता। कश्मीर-कश्मीर चिल्लाते-चिल्लाते उसने अपना कितना नुकसान कर लिया है। भारत के साथ उसने तीन बड़े युद्ध लड़े। उनमें वह हारा। उसने लगातार आतंकी भेजे। सारी दुनिया की बदनामी झेली। अपने आम आदमी की जिंदगी में सुधार करके वह भारत से आगे निकल जाता तो जिन्ना भी बहिश्त में खुश हो जाते लेकिन उसे पहले अमेरिका की गुलामी करनी पड़ी और अब चीन की करनी पड़ रही है। क्या जिन्ना ने पाकिस्तान इसीलिए बनवाया था?
जरुरी यह है कि वह कश्मीर को आजादी दिलाने के पहले खुद आजाद होकर दिखाए। यदि वह अपने नागरिकों के मानव अधिकारों की रक्षा कर रहा होता तो वह इस्लामी जगत ही नहीं, सारी दुनिया का सितारा बन जाता लेकिन उसके हजारा, पठानों, सिंधुओं, बलूचों, हिंदुओं, सिखों और शियाओं की हालत क्या है? खुद प्रधानमंत्री इमरान खान और विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी उस पर कई बार अफसोस जाहिर कर चुके हैं। पाकिस्तान की जनता और सरकार पहले खुद अपने मानवों के अधिकारों की रक्षा करके दिखाए, तब उन्हें भारत या किन्हीं देशों के बारे में बोलने का अधिकार अपने आप मिलेगा। जहाँ तक 'इस्लामी सहयोग संगठनÓ का सवाल है, उससे तो मैं इतना ही कहूँगा कि वह पाकिस्तान का सहयोग सबसे ज्यादा करे। उसे अमेरिका और चीन-जैसे देशों के आगे झोली पसारने के लिए मजबूर न होने दे। उसे युद्ध और आतंकवाद में फंसने से बचाए। इस्लाम के नाम पर बना वह दुनिया का एक मात्र देश है। उसे वह ऐसा देश क्यों न बनाए कि सारी दुनिया उस पर और इस्लाम पर नाज़ करे?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अवधेश बाजपेयी
कोई भी सम्पन्न सफल व्यक्ति अपने बच्चों को, किसी भी फाइन आर्ट्स में नहीं भेजना चाहता होगा भी तो लाखों में एक। सभी बच्चों को, आईआईएम, आईआईटी, आईएफएस, एमबीबीएस, आईएएस, एमएमबी आदि जगहों या सीधे यूरोप और अमेरिका भेज देते हैं। ज्यादातर वही बच्चे कला और साहित्य की तरफ जाते हैं जिनके घर, परिवार या माहौल में कला, संस्कृति का वातावरण रहता है या जिन युवाओं के मा बाप का करियर ले लिए बहुत प्रेशर नहीं होता। ज्यादातर ये युवा गांव से आते हैं। क्योंकि किसी भी कला में, भविष्य में कला के साथ आर्थिक सफलता मिले इसकी कोई गारंटी नहीं होती और जीवन-मरण का रिस्क भी है।
कोई भी धनिक अमीर अपने बच्चों को किसी भी फाइन आर्ट में नहीं भेजेगा, जो जाएगा भी तो विद्रोह करके जाएगा पर यह अब पुराने जमाने की बात है। तो सीधी बात है जो देश दुनिया के नीति निर्धारक हैं वो अमीर सफल व्यक्ति ही होते हैं और जिस समाज में वह जीते हैं उसी के अनुकूल ही सारी नीतियां बनती हैं। कला और संस्कृति ऐसा विभाग है जिसका सबसे न्यूनतम बजट होता। इसमें किसी भी राजनेता या अफसर की कोई रुचि नहीं होती और इस कारण सारी कला अकादमियाँ बाबू लोगों के हाथों में चली जाती हैं अभी मध्यप्रदेश की ही सारी अकादमियाँ ज्यादातर बाबू, क्लर्क लोग चला रहे हैं।
इनके अंडर में पूरे प्रदेश के कला विद्यालय हैं, इसके कारण वहां जो कलाकार शिक्षक हैं वो अक्सर अपमानित महसूस करते हैं, इस कारण सारे सरकारी कला विद्यालय बीमार हो चुके हैं या भविष्य में बंद ही हो जाएंगे, क्योंकि सरकार को इससे कोई फायदा नहीं हैं। इसमें तत्काल कोई व्यापार नहीं है और सरकारों के अनुसार समाज के लिए कोई उपयोगी चीज नहीं है इसलिए जैसा चलता है चलने दो वैसे भी कबीर तुलसी के जमाने में कौन से आर्ट कॉलेज थे।
ये नीति निर्धारकों के तर्क होते हैं। देश दुनिया का जो आर्ट मार्केट हैं उन्हें अपने काम के हिसाब से कुछ चंद कलाकार मिल ही जाते हैं जिससे उनका काम चल जाता है और उन कलाकारों को महानगरों में ही रहना पड़ता और गैलरी के बाजार के अनुकूल मिलजुलकर काम करना होता है। यदि कला में व्यावसायिक सफलता चाहिए तो यह सब करना होता है। कर रहे हैं।
कला ही ऐसी चीज है जिसका निजीकरण नहीं हो सकता। वैसे ये हो रहा है पर मैं उसे कुछ समय के लिये ही मानता हूं बाद में वह फिर अपनी प्रकृति की ओर लौटती है। जैसे विचारों का निजीकरण नहीं हो सकता। सरकारें संपत्तियों का ही निजीकरण करेंगे जैसे कला विद्यालयों के भवनों का। यह सब हो रहा है। समाज में जितनी भी हस्त शिल्प की धाराएं थीं सब सुख चुकी हैं, सरकारें हस्तशिल्प के विकास के लिए काम नहीं करती हैं बल्कि मौजूद हस्तशिल्प, यांत्रिक शिल्पों को इकट्ठा कर म्यूजियम बनाकर शहरी को दिखाकर राजस्व वसूलती है। गांव में कभी कुम्हार मटके बना रहे हैं, बेच रहे हैं पर सरकार के लिए वो म्यूजियम की चीज है कितना भद्दा मजाक है। यह सब आधुनिक कलाकारों के निर्देशन में होता है। फिर सरकार उनका विभूषणों से सम्मान करती है।महानगरों के कला विद्यालयों में अब कोई गरीब युवा नहीं पढ़ सकता।
इतिहास में अभी तक जितने महान चित्रकार हुए हैं वो सब इन्हीं गांवों से निकले गरीब युवा ही हुए हैं। वैसे यह सब लिखने के पहले यह लिखना चाह रहा था कि हम जो चित्र बना रहे हैं वो दीवार में टांगने के लिये या गैलरी में दिखाने के लिये या फुटपाथ में बेचने के लिए या इस आभासी दुनिया में दिखाने के लिए। क्योंकि इसमें बहुत सारे संसाधन लगते हैं और इन अभावों के कारण यह सारी कलाएं भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के हाथों में चली जायेगी। बचेगा वही जो अपनी रिस्क में रचनात्मक जीवन जियेगा और शहीद होता रहेगा। आगे आप खुद विस्तार कर लीजिये।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई आजकल पहले से भी अधिक गहरी होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि भारत की समृद्धि बढ़ नहीं रही है। समृद्धि तो बढ़ रही है, लेकिन उसके साथ-साथ आर्थिक विषमता भी बढ़ रही है। अभी एक जो ताजा सरकारी सर्वेक्षण हुआ है, उसका कहना है कि देश के 10 प्रतिशत मालदार लोग देश की 50 प्रतिशत संपदा के मालिक हैं और 50 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनके पास 10 प्रतिशत संपदा भी नहीं है। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में यह असमानता और भी भारी है। यदि अपने गांवों में यह असमानता हम देखने जाएं तो हमारा माथा शर्म से झुक जाएगा। वहाँ ऊपर के 10 प्रतिशत लोग गांव की 80 प्रतिशत संपदा के मालिक होते हैं जबकि निचले 50 प्रतिशत लोगों के पास सिर्फ 2.1 प्रतिशत संपदा होती है। हमारे देश में गरीबी की रेखा के नीचे वे लोग माने जाते हैं, जिनकी आमदनी 150 रु. रोज़ से कम है। ऐसे लोगों की संख्या सरकार कहती है कि 80 करोड़ है लेकिन इन 80 करोड़ लोगों को डेढ़ सौ रु. पूरे साल भर रोज मिलता ही रहेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
कौन हैं, ये लोग? ये हैं- खेतिहर मजदूर, गरीब किसान, आदिवासी, पिछड़े, मेहनतकश मजदूर, ग्रामीण और अनपढ़ लोग! इनकी जिंदगी में अंधेरा ही अंधेरा है। इन्हें सरकार मनरेगा के तहत रोजगार देने का वायदा करती है लेकिन अफसर बीच में ही पैसा हजम कर जाते हैं। ये किसके पास जाकर शिकायत करें? इनके पास अपनी आवाज बुलंद करने का कोई जरिया नहीं है। गांवों की जिंदगी से तंग आकर ये बड़े शहरों में शरण ले लेते हैं। शहरों में इन्हें कौनसा काम मिलता है? चौकीदार, सफाई कर्मचारी, घरेलू नौकर, कारखाना मजदूर, ट्रक और मोटर चालक आदि के ऐसे काम मिलते हैं, जिनमें जानवरों की तरह लगे रहना पड़ता है। गंदी बस्तियों में झोपड़े बनाकर इन्हें रहना पड़ता है। इनके बच्चे पाठशालाओं में जाने की बजाय या तो सड़कों पर भीख मांगते हैं या घरेलू नौकरों की तरह काम करते हैं। देश के इन लगभग 100 करोड़ लोगों को 2000 केलोरी का भोजन भी नहीं मिल पाता है। कई परिवारों को तो भूखे पेट ही सोना पड़ता है।
जिनके पास पेट भरने के लिए पैसे नहीं हैं, वे बीमार पडऩे पर अपना इलाज कैसे करवा सकते हैं? ये गरीब लोग पैदाइशी तौर पर कमजोर होते हैं। बीमार पडऩे पर ये जल्दी ही मौत के शिकार हो जाते हैं। कोरोना की महामारी ने सबको प्रभावित किया है लेकिन देश के गरीबों की दुर्गति बहुत ज्यादा हुई है। अचानक तालाबंदी घोषित करने से करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए और गांवों की तरफ मची भगदड़ में सैकड़ों लोग हताहत भी हुए। सरकारी आंकड़े देश में गरीबी के सच्चे दर्पण नहीं है। गरीबी रेखा वाले लोगों की संख्या अब काफी बढ़ गई है। निम्न मध्यम वर्ग के शहरी और ग्रामीण नागरिकों को अपना रोजमर्रा का जीवन गरीबी रेखा के आस-पास ही बिताना पड़ता है। देश के कुछ मु_ीभर मालदार लोगों ने महामारी के दौरान अपनी जेबें जमकर गर्म की हैं। अमीर ज्यादा अमीर हो गए हैं और गरीब ज्यादा गरीब। हमारी सरकारों ने आम लोगों की मदद के लिए पूरी कोशिश की है लेकिन वह नाकाफी रही है। अब देखें, इस आर्थिक संकट से भारत कैसे बाहर निकलता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक तिवारी
पिछले लगभग 5 वर्षों से जब से मैंने छत्तीसगढ़ से अन्यत्र जाकर बस गए छत्तीसगढ़िया लोगों के बारे में कुछ जानने समझने की कोशिश की है, तब से ऐसा कुछ हुआ कि यह इच्छा लगातार बढ़ती ही गई और उसका दायरा बहुत व्यापक होने लगा। इस क्रम में मैंने असम में रहने वाले छत्तिसगढ़िया लोगों के साथ संपर्क कर उनके बीच क्षेत्रकार्य करते हुए एक प्रारंभिक किताब की भी रचना की है। ज्ञातव्य है कि असम में लगभग 20 लाख छत्तिसगढ़िया निवासरत हैं। मेरी इस शुरुआत के बहुत अच्छे परिणाम आये हैं। अब छत्तीसगढ़ में लोग अपने असम में रहने वाले बांधवों के बारे में जानने लगे हैं औऱ वहाँ इस साल हुए विधानसभा के निर्वाचन के दौरान दो राष्ट्रीय दलों ने उनकी वोट शक्ति को रिझाने छत्तीसगढ़ से दर्जनों लोग प्रचारक भेजे थे। हमारे असमिया छत्तीसगढ़ी भाइयों का भी अब छत्तीसगढ़ के लोगों से लगातार संपर्क होने लगा है और वे अब सोसल मीडिया के माध्यम से नियमित रूप से राज्य और लोगों से जुड़े रहते हैं। उनके साथ मेरा संपर्क सतत बना हुआ है। इसी क्रम में असम के अतिरिक्त अन्य राज्य में खासकर उत्तर पूर्व में रहने वाले छत्तीसगढ़िया लोगों से संपर्क करने की मेरी कोशिश जारी है।
इस बीच एक महत्वपूर्ण बात यह हुई कि मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई कि आज से लगभग 150 वर्ष पहले छत्तीसगढ़िया लोगों को अंग्रेजों द्वारा चाय बागानों में काम करने के लिए जब असम ले जाना आरंभ या गया किया गया, उस दौर में अंग्रेज अपने सभी उपनिवेशों में वहां की संपदा का दोहन करने के लिए त्वरित कार्यवाही कर रहा था जिसके अंतर्गत कृषि, बागवानी और उद्योग सब कुछ सम्मिलित थे। भारत में चाय बागानों की शुरुआत भी अंग्रेजी शासनकाल में हुई। अंग्रेज सरकार ने बहुत कम मूल्य में या निशुल्क जमीन देकर असम में चाय उगाने के लिए अंग्रेजों को आमंत्रित किया और साथ ही दूसरे अनेक उपनिवेशों में गन्ना, रबर आदि बागवानी के लिए भी अंग्रेजों ने अपना कारोबार बढ़ाया। इन सभी कामों में अंग्रेजों को मेहनतकश मजदूरों की आवश्यकता थी जिसके लिए उन्होंने भारत सहित अपने अन्य उपनिवेशों से लोगों को इंडेंचर्ड लेबर के रूप में ले जाना शुरू किया। किंतु अंग्रेजी सत्ता वाले देशों में भारतवर्ष एक ऐसा देश था जहां से सर्वाधिक संख्या में लोगों को इंडेंचर्ड लेबर के रूप में अपने अन्य उपनिवेशों में ले जाया गया। कालांतर में वे लोग उन्हीं देशों में बसते गए और वही के स्थाई निवासी हो गए। 1834 से लेकर 1916 तक अंग्रेजों द्वारा ब्रिटिश गयाना, त्रिनिडाड, जमैका, नटाल, मॉरीशस, सूरीनाम, ग्रेनाडा, पूर्वा अफ्रीका, फिजी, सेसल्स इत्यादि देशों में ले जाने का कार्य किया। इन देशों में काम करने गए लाखों लोगों में अधिकतर इंडेंचर्ड लेबर उत्तर प्रदेश और बिहार से गए किंतु उसके साथ ही कुछ संख्या में देश के दूसरे हिस्सों से भी मजदूर उन देशों में गए। इनमें से एक संदर्भ ऐसा भी प्राप्त हुआ है जिसमें यह ज्ञात होता है की सन उन्नीस सौ में छत्तीसगढ़ से भी लोग गन्ने के खेत में काम करने के लिए फिजी गए थे। उनके वहां से लौटने के बारे में तो कोई जानकारी नहीं मिली है तथा यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे लोग भी वहां पर स्थायी रूप से बस गए होंगे। ब्रज विलास लाल जो स्वतः एक निवासी प्रवासी भारतीय हैं तथा जिन्होंने फिजी के प्रवासी भारतीयों पर महत्वपूर्ण शोध कार्य किया हुआ है उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक से यह जानकारी मिलती है कि छत्तीसगढ़ के रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिलों से लगभग 980 लोग फिजी गए जिसमें सर्वाधिक संख्या रायपुर से गए लोगों की 744 थी। वे लिखते हैं कि उस दौर में मध्य प्रदेश के अन्य क्षेत्रों जिसे तब मध्य प्रांत कहा जाता था, वहां से भी लोग गए थे। उनके पुस्तक में उल्लेख है कि तत्कालीन मध्यप्रान्त से 2802 लोग फिजी गए थे। इनमें छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से यह जाने वालों की संख्या 2450 थी तथा शेष विदर्भ क्षेत्र के नागपुर, भंडारा आदि जिलों से गए थे। मध्य प्रदेश के जिन तत्कालीन जिलों से लोग फिजी गए वह जिले हैं बैतूल, बालाघाट, छतरपुर, छिंदवाड़ा, उज्जैन, दमोह, होशंगाबाद, जबलपुर, सागर, भोपाल, ग्वालियर, इंदौर, मंडला, रीवा, सिवनी, नरसिंहपुर, आदि। भारत से सन 1879 से लेकर 1916 तक 37 वर्षों में 60965 लोग मजदूर के रुप में फिजी गए। उनमें यदि तब की स्थिति देखी जाए तो छत्तीसगढ़ से गए लोगों की संख्या लगभग 1.60% थी और यदि यह बात पूरे मध्यप्रदेश से गये लोगों के संदर्भ में देखें तो यह संख्या लगभग 4% होती है। मैंने असम में पाया वहां मध्य प्रदेश के दूसरे जिलों जिसमें सिवनी, बालाघाट, मंडला, छिंदवाड़ा, रीवा आदि सम्मिलित हैं से जो लोग काम करने के लिए गए हैं और वहीं बस गए हैं वे भी अपने आप को छत्तीसगढ़ी कहते हैं तथा असम के छत्तीसगढ़िया ही उनके सबसे समीपवर्ती लोग हैं, और उन्होंने छत्तीसगढ़ी को ही अपनी बोलचाल की भाषा के रूप में स्वीकार किया हुआ है।संभव है कि यदि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के अन्य जिलों से गये सभी लोग फिजी में भी एक दूसरे के निकट या संपर्क में रह रहे हों तो शायद वहां पर भी सभी के बीच छत्तीसगढ़ी प्रचलित हो सकती है, क्योंकि उन लगभग ढाई हजार लोगों में छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक अर्थात करीबन एक हज़ार थी।
वर्तमान में फिजी की कुल जनसंख्या लगभग 8 लाख है जिसमें 40% से करीब लोग भारतवंशी हैं।यदि 1916 की भारतीयों की संख्या में छत्तीसगढ़ के लोगो की संख्या को आधार माना जाए तो अभी की वहां पर भारतीयों की संख्या जो 3 लाख से ऊपर हो सकती है, में 1916 के आधार पर 1.6 प्रतिशत की दर से छत्तीसगढ़ी लोगों की संख्या अभी लगभग 5 हज़ार हो सकती है, और यदि मध्यप्रदेश से गये सभी लोगों के संदर्भ में देखें तो यह लगभग 12 हज़ार आंका जा सकता है।
सभी केरेबियन देशों, मॉरीशस और सूरीनाम इन सब के प्रवासी भारतीयों के बारे में यह वर्णित है कि वहाँ अधिकांश लोग उत्तर प्रदेश तथा बिहार और बाकी अन्य राज्यों से गये थे जिनमें कुछ संख्या में लोग मध्यभारत से भी थे।मेरा अनुमान है कि इन मध्भारत से गये लोगों में छत्तीसगढ़ के लोग भी रहे होंगे। छत्तीसगढ़ के लोगों में आजीविका के लिए अन्यत्र जाने का विवरण हमे 1875 से ही मिलता है जिसके असम और फिजी महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। जिस तरह से हमारे देश के अन्य अनेक राज्यों में वहाँ की प्रवासी लोगों के लिए प्रवासी मंत्रालय या विभाग की स्थापना की है उसी तरह से छत्तीसगढ़ में भी एक प्रवासी छत्तीसगढ़िया विभाग की स्थापना की जानी चाहिए जो इन ज्ञात-अज्ञात कड़ियों को जोड़े तथा छत्तीसगढ़ के एक समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास की रचना करे और छत्तीसगढ़ से बाहर देश-विदेश में रहने वाले छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए नवीन सांस्कृतिक सेतु का निर्माण करे।
मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए होने वाली नीट को लेकर विवाद है। इस बीच तमिलनाडु सरकार ने राज्य में नीट को खत्म करने का फैसला किया है। उसने तर्क दिया है कि यह परीक्षा गरीबों को दरकिनार करती है।
-प्रीति सिंह
देश भर के सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए होने वाली परीक्षा राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नेशनल एंट्रेंस कम इलिजिबिलिटी टेस्ट यानी नीट) को लेकर विवाद जारी है। तमिलनाडु ने विधानसभा में एक विधेयक पारित कर राज्य में नीट को ख़त्म करने का फैसला किया है। इस पर राष्ट्रपति की मंजूरी की जरूरत होगी। सरकार के मुताबिक नीट परीक्षा ख़त्म करना सामाजिक न्याय के लिए जरूरी है, क्योंकि यह अमीरों के पक्ष में है। दरअसल, तमिलनाडु के सेलम के मेटूर (कोझियार) निवासी 19 वर्ष के छात्र एम धनुष ने नीट में खराब प्रदर्शन के डर से आत्महत्या कर ली। उसने 2019 में 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और इस साल तीसरी बार नीट की परीक्षा देने जा रहा था। इसके बाद से ही राज्य में हंगामा मचा था। विपक्षी दल अन्नाद्रमुक नीट परीक्षा को लेकर सवाल उठा रहा था। अन्नाद्रमुक नेता और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एडप्पादी के पलानीसामी ने आरोप लगाया था कि नीट परीक्षा को लेकर द्रमुक सरकार का कोई रुख नहीं है और इस परीक्षा को लेकर छात्र व अभिभावक दोनों ही भ्रमित हैं। पलानीसामी ने छात्र की आत्महत्या के लिए भी द्रमुक सरकार को जि़म्मेदार ठहराया था। इसके बाद राज्य की स्टालिन सरकार ने नीट के खिलाफ विधानसभा में प्रस्ताव पेश किया। तमिनलाडु सरकार ने नीट खत्म करने के लिए कई तर्क दिए हैं। सरकार का कहना है कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए इंटरमीडिएट परीक्षा के अंकों के आधार पर मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश दिया जाएगा। सरकार का कहना है कि इस परीक्षा की प्रणाली साफ-सुथरी नहीं है, और इससे अमीर और इलीट तबके को लाभ मिलता है। राज्य सरकार ने विधेयक में कहा है कि संपन्न तबके के विद्यार्थी इस परीक्षा के माध्यम से मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पाते हैं और वे स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के लिए विदेश चले जाते हैं, जिससे राज्य को नुकसान उठाना पड़ता है। राज्य सरकार ने कहा है कि इसकी वजह से राज्य में काम करने वाले डॉक्टरों की कमी हो गई है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय, जिसे अब शिक्षा मंत्रालय के रूप में जाना जाता है, ने नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) का गठन किया है। एनटीए ही नीट की परीक्षा कराता है, जो 13 भाषाओं- अंग्रेज़ी, हिंदी, असमी, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, ओडिया, पंजाबी, तमिल, तेलुगु और उर्दू में होती है। नीट (यूजी) के परिणामों का इस्तेमाल एमबीबीएस, बीडीएस, बीएएमएस, बीएसएमएस, बीयूएमएस, बीएचएमएस में प्रवेश के साथ नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) ऐक्ट, 2019 की धारा 14 के मुताबिक मंजूरी प्राप्त मेडिकल, डेंटल, आयुष और अन्य कॉलेजों व डीम्ड यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए होता है।इसके पहले नीट में आरक्षण कोटा को लेकर लंबा बवाल चला। राज्यों के मेडिकल कॉलेजों में 15 प्रतिशत सीटें केंद्रीय कोटे में रखी जाती हैं। केंद्र सरकार अपने मेडिकल कॉलेजों में ओबीसी, एससी, एसटी को आरक्षण देती थी, लेकिन राज्यों से ली गई 15 प्रतिशत सीटों पर ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं था। इसे लेकर तमाम विपक्षी दल आंदोलित हुए।
खासकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन इस मसले पर ज़्यादा मुखर हुए और उन्होंने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर ओबीसी रिजर्वेशन लागू किए जाने की मांग की।
आखिरकार केंद्र सरकार ने जुलाई, 2021 में ऑल इंडिया कोटा में ओबीसी को 27 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) तबके के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया। केंद्र ने कहा कि इस साल से हर साल एमबीबीएस में 1,500 ओबीसी छात्रों, पोस्ट ग्रेजुएशन में हर साल 2,500 ओबीसी छात्रों, एमबीबीएस में 550 ईडब्ल्यूएस छात्रों व पोस्टग्रेजुएशन में करीब 1,000 ईडब्ल्यूएस छात्रों को हर साल फायदा होगा। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने 6 सितंबर, 2021 को इस कोटे को चुनौती देने वाली याचिका स्वीकार ली है और केंद्र सरकार को नोटिस भेजा है। इस कोटे का भविष्य अब उच्चतम न्यायालय की शरण में है। इस समय देश में कुल 558 मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें से 289 मेडिकल कॉलेज सरकारी हैं, जबकि 269 मेडिकल कॉलेज प्राइवेट हैं। एमबीबीएस में पढ़ाई के लिए सरकारी मेडिकल कॉलेजों में लगातार फीस बढ़ रही है, लेकिन प्राइवेट मेडिकल कॉलेज जितनी फीस लेते हैं, वह निम्न मध्य वर्ग और इससे नीचे के लोगों की पहुँच से बाहर है। ऊँची फीस की वजह से निम्न मध्य वर्ग या इससे नीचे के परिवारों के विद्यार्थियों को निजी मेडिकल कॉलेजों में पढ़ पाने की कोई गुंज़ाइश नहीं रहती है। अगर निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों की गुणवत्ता देखें तो टाईम्स ऑफ इंडिया के एक विश्लेषण के मुताबिक़ 2018 में सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 720 में से 448 नंबर तक पाने वाले अभ्यर्थियों का एडमिशन हुआ, जबकि प्राइवेट नियंत्रण वाले मेडिकल कॉलेजों में महज 306 अंक पाने वाले अभ्यर्थियों को भी प्रवेश मिल गया। दिलचस्प है कि सरकारी कॉलेजों में अनुसूचित जाति के उन्हीं अभ्यर्थियों को प्रवेश मिल सका था, जिन्होंने 398 अंक से ज़्यादा हासिल किए थे। यानी अगर आपके पास पैसे हैं तो अनुसूचित जाति से कम नंबर पाकर भी आप निजी कॉलेजो से डॉक्टर बन सकते हैं।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सरकार की निजीकरण की नीति के कारण पिछले 10 साल में एमबीबीएस की सरकारी व प्राइवेट सीटें बराबर हो चुकी हैं।
सरकारों की इस बेईमानी के खिलाफ किसी तरफ से भी आवाज नहीं उठ रही है कि निजी मेडिकल कॉलेज में खराब मेरिट के विद्यार्थी एडमिशन पा रहे हैं और एक तरह से वे पैसे के दम पर एमबीबीएस की डिग्रियाँ खरीद रहे हैं। वे लोग भी प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की गुणवत्ता पर खामोशी ओढ़े हुए हैं, जिन्हें लगता है कि आरक्षण होने की वजह से परीक्षा में कम नंबर पाने वाले विद्यार्थियों का एडमिशन होता है और इससे डॉक्टरों की गुणवत्ता पर असर पड़ता है।नीट परीक्षा के खिलाफ तमिलनाडु ने विद्रोह कर दिया है। हालाँकि इस विधेयक का भविष्य केंद्र सरकार के हाथ में है। 2017 में राज्य की अन्नाद्रमुक सरकार ने भी इस तरह का विधेयक पारित किया था, जिसे राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिली। इसे देखते हुए स्टालिन सरकार के इस विधेयक का भविष्य भी अधर में नजर आता है।
बहरहाल, तमिलनाडु सरकार ने इस विधेयक के पक्ष में तो तर्क रखे हैं, उससे एक नई बहस जन्म लेगी कि क्या केंद्रीय स्तर पर परीक्षा कराने की वजह से समाज के वंचित तबकों के विद्यार्थियों को नुकसान हो रहा है? क्या इस परीक्षा से सिर्फ इलीट और धनाढ्य लोगों के बच्चों को फायदा हो रहा है? सरकारी मेडिकल कॉलेज गऱीब परिवारों या कहें कि देश की 90 प्रतिशत आबादी का सहारा होते हैं। मध्य वर्ग और इससे नीचे का तबक़ा इन्हीं सरकारी मेडिकल कॉलेजों के सहारे अपने बच्चों को डॉक्टर बनाने का सपना देखता है। सरकारी मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस की सीटें अब कुल सीटों की आधी ही रह गई हैं और आधी सीटें निजी हाथों में जा चुकी हैं। अगर नीट परीक्षा से समाज के वंचित तबके को नुकसान हो रहा है तो यह सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं, देश के हर राज्य की समस्या है। खासकर यह वंचित तबकों पर बड़ा आघात और यह उनके बचे खुचे सपनों की हत्या करने वाली परीक्षा है। (सत्यहिंदी)
-पुष्य मित्र
यह बड़ा दुर्लभ चित्र है। इस चित्र में बाईं तरफ कोने में बापू बैठे हैं। मुंह पर मास्क लगाये। सामने कई डॉक्टर नजर आ रहे हैं। यह पटना के पीएमसीएच के ऑपरेशन थियेटर का दृश्य है। तारीख 15 मई 1947, रात के 8 से 9 बजे के बीच। गांधी की पोती मनु का अपेंडिक्स का ऑपरेशन चल रहा है।
यह चित्र इसलिये भी दुर्लभ है क्योंकि गांधी इलाज के लिये एलोपैथी पर बिल्कुल भरोसा नहीं करते थे। वे अपना इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से ही करते थे और दूसरों को भी इस बारे में सलाह देते थे। मगर जब मनु गांधी का दर्द बर्दास्त से बाहर हो गया तो उन्होंने एलोपैथी की सर्जरी के आगे आत्मसमर्पण कर दिया।
यह उस दौर की बात है जब बिहार के साम्प्रदायिक दंगों के बाद शांति मिशन के सिलसिले में गांधी पटना आये थे। वे लगभग दो महीने मार्च से मई तक यहां रहे। मनु गांधी नोआखली से ही उनकी सेवा के लिए उनके साथ रहती थी। आखिर तक रही। पटना में गांधी मैदान के पास डॉ सैयद महमूद के घर में उनका ठिकाना था। गांधी इस लम्बी अवधि के दौरान जहां ठहरे थे वह छोटा सा मकान आज भी एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के परिसर में है। मगर अब वहां लगभग कोई नहीं जाता। कोई आयोजन नहीं होता। एकाध बार इसकी मरम्मत जरूर हुई मगर अब भी उपेक्षित पड़ा है।
उसी मकान में रहते हुए मनु गांधी के एपेंडिक्स का दर्द शुरू हुआ था। पहले तो गांधी ने उनका उपचार प्राकृतिक चिकित्सा के जानकारों से करवाया। उन लोगों ने साफ कह दिया कि यह अपेंडिक्स का दर्द नहीं है। मगर जब एलोपैथी चिकित्सकों ने एपेंडिसाइटिस की पुष्टि की तो वे मजबूरन तैयार हो गये। ऑपरेशन थियेटर में भी वे सिर्फ इसी वजह से थे, क्योंकि वे देखना चाहते थे कि कौन सही है।
ऑपरेशन पटना के डॉ. भार्गव ने किया। उनकी भतीजी भी पीएमसीएच में डॉक्टर थीं वे मनु गांधी का खास ख्याल रखती थीं। ऑपरेशन के बाद जब मनु को प्राइवेट रूम में ले जाया जाने लगा तो गांधीजी ने साफ मना कर दिया यह कहते हुए कि यह तो गरीब की बेटी है। मगर डॉक्टरों ने कहा कि इनकी जनरल वार्ड में रहने से काफी भीड़ होने लगेगी। तब बापू माने।
मनु अस्पताल में 5 से 6 दिन रहीं। गांधी लगभग रोज उन्हें देखने आते। उनके आने पर मरीज भी अपने बिस्तर से उठकर मनु के कमरे के पास पहुँच जाते। तब डॉक्टरों के कहने पर गांधी रोज खुद ही अस्पताल के वार्डों का चक्कर लगाने लगे। इसके बाद मरीजों की भीड़ कम हुई।
-जावेद अख्तर
3 सितम्बर 2021 को जब मैंने एनडीटीवी को इंटरव्यू दिया था तो मुझे मालूम नहीं था कि मेरी बातों पर इस तरह की तीखी प्रतिक्रिया पैदा होगी। एक तरफ कुछ लोगों ने बड़े कड़े शब्दों में अपनी नाराजगी और गुस्से का इजहार किया है, और दूसरी तरफ देश के हर कोने और इलाके से लोगों ने मेरी बात की तस्दीक की है, मेरे नजरिए से सहमति जताई है। मैं उन सबका शुक्रिया अदा करना चाहूँगा, पर उससे पहले मैं उन आरोपों और अभियोगों का जवाब देना चाहूँगा जिन्हें मेरे इंटरव्यू से नफरत करने वालों ने मुझ पर लगाया है। क्योंकि इलजाम लगाने वाले हर एक इन्सान को अलग-अलग जवाब देना संभव नहीं है, मैं यहाँ एक समवेत जवाब दे रहा हूँ।
मेरे आलोचकों का इलजाम है कि मैं हिन्दू दक्षिणपंथियों की आलोचना तो करता हूँ, मगर कभी मुसलिम उग्रपंथियों के खिलाफ नहीं बोलता। उनका अभियोग है कि मैं तीन-तलाक, पर्दे-हिजाब, और मुसलमानों के दूसरे पिछड़ेपन के दस्तूरों के बारे में कभी कुछ नहीं बोलता। मुझे कोई आश्चर्य नहीं कि इन लोगों को मेरे बरसों से किए इन कामों का जरा भी इल्म नहीं है। आखिरकार मैं इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति तो नहीं हूँ कि सब को मेरे क्रिया-कलापों की खबर हो जो मैं लगातार करता रहा हूँ।
दरअसल सचाई यह है कि पिछले दो दशकों में दो बार मुझे पुलिस की सुरक्षा दी गई क्योंकि मुझे मुसलिम चरमपंथियों की ओर से जान की धमकियाँ दी जा रही थीं। पहली बार यह तब हुआ जब मैंने ‘तीन तलाक’ का पुरजोर विरोध तब किया था, जब यह विषय राष्ट्र के सामने उछला भी नहीं था। किन्तु उसी समय से मैं, ‘मुस्लिम्स फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी’ नाम के संगठन के साथ भारत के बहुत से शहरों-जैसे हैदराबाद, इलाहाबाद, कानपुर, अलीगढ़ जाकर इस पुरातनपंथी रूढि़ के खिलाफ बोल रहा था। इसका नतीजा यह हुआ कि मुझे जान की धमकियाँ मिलने लगीं, और मुंबई के एक अखबार ने उन धमकियों के अपने एक अंक में साफ-साफ दोहराया भी। उन दिनों के मुंबई के पुलिस-कमिश्नर एएन रॉय ने उस अख़बार के संपादक और प्रकाशक को तलब करके यह कहा कि अब अगर मुझ पर कोई हिंसक हमला हुआ, तो उसका जिम्मेदार मुंबई पुलिस उस अखबार को ही मानेगी।
सन 2010 में, एक टीवी चैनल पर एक जाने-माने मुसलिम मौलाना कल्बे जवाद से मेरा एक वाद-विवाद हिजाब-बुर्के की सड़ी-गली परंपरा के बारे में हुआ। उसके बाद वो मौलाना साहब मुझसे इतने नाराज हो गए कि कुछ ही दिनों में लखनऊ में मेरे पुतले जलाए जाने लगे और मुझे मौत की धमकियाँ मिलने लगीं। उस वक्त फिर से मुझे मुंबई पुलिस ने सुरक्षा कवच दिया। इसलिए मुझ पर यह इलजाम कि मैं चरमपंथी मुसलमानों के खिलाफ खड़ा नहीं होता, सरासर गलत है।
कुछ ने मुझ पर तालिबान को महिमामंडित करने का आरोप लगाया है। इससे अधिक झूठ और बेतुकी कोई बात हो ही नहीं सकती। तालिबान और तालिबानी सोच के लिए मेरे पास निंदा और तिरस्कार के अलावा कुछ और है ही नहीं। मेरे एनडीटीवी साक्षात्कार से एक सप्ताह पूर्व, 24 अगस्त को मैंने अपने ट्वीट में लिखा था।
‘यह चौंकाने वाली बात है कि मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दो सदस्यों ने अफगानिस्तान में बर्बर तालिबान के काबिज होने पर खुशी जताई है। हालाँकि संगठन ने खुद को इस बयान से दूर रखा है, किन्तु इतना काफ़ी नहीं है, और यह जरूरी है कि मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस विषय पर अपना दृष्टिकोण साफ करे।’
It is shocking that two members of Muslim personal law board have e&press their e&treme happiness at the take over of AFG by the Barbarian Talibans Although the board has distanced it self but it is not enoughÐMSLB must give their POV in the most unambiguous wordsÐwe are waiting
— Javed Akhtar (@Javedakhtarjadu) August 24, 2021
मैं यहाँ अपनी बात को दोहरा रहा हूँ, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हिंदू दक्षिणपंथी लोग इस झूठ के परदे के पीछे छिपें कि मैं मुसलिम संप्रदाय की दकिय़ानूसी पिछड़ी प्रथाओं के विरोध में खड़ा नहीं होता।
उन्होंने मुझ पर हिन्दुओं और हिंदू-धर्म की अवमानना करने का अभियोग भी लगाया है। इस आरोप में रत्ती भर भी सच नहीं है। सच यह है कि अपने इंटरव्यू में मैंने साफ़ कहा है कि पूरी दुनिया में, ‘हिंदू जनसमुदाय सबसे सज्जन और सहिष्णु बहुसंख्यक समाज है।’ मैंने इस बात को बार-बार दोहराया है कि हिन्दुस्तान कभी अफग़़ानिस्तान जैसा नहीं बन सकता क्योंकि भारतीय लोग स्वभाव से ही अतिवादी नहीं हैं, और मध्यमार्ग और उदारता हमारी नस-नस में समाई है।
आपको हैरानी होगी कि मेरे यह मानने और कहने के बावजूद क्यों कुछ लोग मुझसे नाराज हैं? इसका उत्तर यह है कि मैंने साफ शब्दों में हर प्रकार के दक्षिणपंथी-अतिवादियों, कट्टरपंथियों और धर्मांध लोगों की भर्त्सना की है, फिर वो चाहे जिस धर्म-मजहब-पंथ के हों। मैंने जोर देकर कहा है कि धार्मिक-कट्टरवादी सोच चाहे जिस रंग की हो उसकी मानसिकता एक ही होती है।
हाँ, मैंने अपने साक्षात्कार में संघ और उसके सहायक संगठनों के प्रति अपनी शंका जाहिर की है। मैं हर उस सोच के खिलाफ हूँ जो लोगों को धर्म-जाति-पंथ के आधार पर बांटती हो, और मैं हर उस व्यक्ति के साथ हूँ जो इस प्रकार के भेदभाव के खिलाफ हो। शायद इसीलिए सन 2018 में देश के सबसे पूज्य-मान्य मंदिरों में से एक, काशी के ‘संकट मोचन’ हनुमान मंदिर ने मुझे आमंत्रित कर मुझे ‘शांति दूत’ की उपाधि दी और मुझ जैसे ‘नास्तिक’ को मंदिर में व्याख्यान देने का दुर्लभ सौभाग्य भी दिया।
मेरे विरोधी इस बात से भी उत्तेजित हैं कि मुझे तालिबानी सोच और हिंदू-चरमपंथियों के बीच बहुत समानता दीखती है। तथ्य यह है कि दोनों की सोच में समानता है ही। तालिबान ने एक मज़हब पर आधारित इसलामी सरकार बना ली है, और हिंदू दक्षिणपंथी भी एक धर्माधारित हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। तालिबान औरतों के हक और स्वतंत्रता को खत्म कर उन्हें हाशिये पर लाना चाहता है, और हिन्दू चरमपंथियों को भी औरतों की आजादी पसंद नहीं है। उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक में युवक-युवतियों को सिर्फ इसलिए मारा-पीटा गया है कि वो साथ-साथ किसी पार्क या रेस्टोरेंट में देखे गए हैं। मुसलिम और हिंदू दोनों चरमपंथियों को यह हजम नहीं होता कि कोई लडक़ी अपनी पसंद से किसी और धर्म के आदमी से शादी कर ले।
हाल में ही एक बड़े नामी दक्षिणपंथी नेता ने बयान दिया कि महिलाएँ स्वतंत्र होने और अपने फैसले खुद लेने लायक नहीं है। तालिबान की तरह ही हिंदू चरमपंथी भी अपनी ‘आस्था’ को किसी भी मनुष्य के बनाए नियम-कानून और संविधान से ऊपर मानते हैं।
तालिबान किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के अस्तित्व और हकों को नहीं मानता। हिंदू चरमपंथी भी अपने देश के अल्पसंख्यकों के प्रति जो भावना रखते हैं उसका पता उनके बयानों, नारों, और जब मौका मिले तो उनके कर्मों से जग-जाहिर होता ही रहता है।
तालिबान और हमारे चरमपंथियों के बीच अंतर सिर्फ इतना है कि तालिबान ने अफगानिस्तान में अपना एकछत्र शासन जमा लिया है, और भारत में हमारे चरमपंथियों की भारतीय संविधान-विरोधी ‘तालिबानी’ सोच की जबरदस्त मुखालिफत होती रहती है। हमारे संविधान में धर्म, जाति, पंथ और लिंग के आधार पर भेद की जगह नहीं है, और हमारे देश में न्यायालय और मीडिया जैसी संस्थाएँ अभी जिंदा हैं। बड़ा अन्तर सिर्फ इतना है कि तालिबान अपने मकसद में सफल हो गया है, और हिन्दू दक्षिणपंथी वहाँ पहुँचने के प्रयास में लगे हैं। खुशकिस्मती से यह भारत है, जहाँ के नागरिक इन प्रयासों को असफल करके ही दम लेंगे।
कुछ लोग मेरी इस बात से भी नाखुश हैं कि मैंने अपने इंटरव्यू में जिक्र किया है कि एमएस गोलवलकर ने नाजियों और अल्पसंख्यकों से निपटने के नाजी तरीकों की भी तारीफ की है। श्री गोलवलकर 1940 से 1973 तक संघ के मुखिया थे, जिन्होंने दो पुस्तकें भी लिखी थीं, ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ और ‘अ बंच ऑफ़ थॉट्स’। ये दोनों किताबें इन्टरनेट पर आसानी से उपलब्ध हैं। पिछले कुछ समय से उनके शिष्यों ने पहली किताब के बारे में यह कहना शुरू कर दिया है कि यह गुरुजी की किताब नहीं है। उन्हें ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि बड़े से बड़ा धर्मांध व्यक्ति भी उस किताब में लिखी बातों का आज समर्थन नहीं कर पायेगा। उनका कहना है कि गलती से गुरुजी का नाम उस किताब से जुड़ गया। हालाँकि कई वर्षों से उसके बहुत संस्करण छपते रहे और तब कभी किसी ने कोई बात नहीं की।
‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ सन् 1939 में प्रकाशित हुई थी और स्वयं गुरुजी सन् 1973 तक संसार में विद्यमान थे, और 34 वर्षों में उन्होंने कभी इस पुस्तक का खंडन नहीं किया। इसका अर्थ हुआ कि उनके चेलों द्वारा अब इस किताब का खंडन केवल राजनीतिक मजबूरी है। इस किताब से एक उद्धरण देखिये-
‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ (पृष्ट 34-35; पृष्ठ 47-48)
‘अपनी नस्ल और संस्कृति को विशुद्ध रखने के लिए जर्मनी ने विधर्मी यहूदियों का सफ़ाया करके दुनिया को अचंभित कर दिया। अपनी नस्ल-प्रजाति पर गर्व का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जर्मनी। जर्मनी ने यह भी सिद्ध कर दिया कि मूल से ही विपरीत नस्लों और संस्कृतियों का साथ रहना और एक होना कितना असंभव है। इस सबक से हम भारतीय लोग कितना कुछ सीख कर लाभान्वित हो सकते हैं।
‘भारत में रह रहे विदेशी नस्ल के लोगों (क्रिस्तानों और मुसलमानों) को या तो हिन्दू सभ्यता, भाषा और हिन्दू धर्म को सीखना और उसका आदर करना पड़ेगा, और यह भी कि हिन्दू जाति और संस्कृति की वो इज्ज़त करें, अर्थात वो हिन्दू राष्ट्र को मानें।और अपनी पृथक पहचान को भूल कर वो हिंदू प्रजाति में समाहित हो जाएँ और तभी इस देश में रहें। उन्हें किसी प्रकार के अलग विशेषाधिकारों की बात तो छोडिय़े, किसी तरह के नागरिक अधिकार भी नहीं मिलने चाहिए।’
‘अ बंच ऑफ थॉट्स’ (पृष्ठ 148-164, और 237-238, भाग 2, अध्याय षष्ठम)
‘आज भी सरकार में उच्च पदों पर आसीन मुसलमान और दूसरे भी राष्ट्रविरोधी सम्मेलनों में खुलेआम बात करते हैं।
‘...कई प्रमुख ईसाई मिशनरी पादरियों ने साफ़ कहा है कि उनका उद्देश्य इस देश को ‘प्रभु येशु का क्रिस्तान साम्राज्य बनाने का है’।...’
दोनों उद्धरण अपने आप में स्पष्ट हैं।
बड़े मजे की बात है कि मुझसे नाराज हिन्दू दक्षिणपंथियों के एक वरिष्ठ नेता ने स्वयं महाराष्ट्र विकास अघाड़ी की सरकार को ‘तालिबानी’ कहा है। महाराष्ट्र का शासन बड़े सुचारू ढंग से चलाने वाली सरकार में शामिल तीन पार्टियों में से किसी का मैं सदस्य नहीं हूँ। किन्तु इतना स्पष्ट है कि आज महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री उद्धव ठाकरे की लोकप्रियता और सुशासन की तुलना बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में स्टालिन से की जाती है। उनके सबसे कठोर आलोचक भी उनपर किसी प्रकार के भेदभाव या अन्याय का आरोप नहीं लगा सकते। कैसे कोई श्री उद्धव ठाकरे की सरकार को ‘तालिबानी’ कह सकता है, यह मेरी समझ से परे है। (जनादेश)
(सत्य हिन्दी से साभार)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पेगासस-जासूसी का मामला उलझता ही जा रहा है। जब यह पेगासस-कांड हुआ, तभी मैंने लिखा था कि सरकार को कुछ प्रमुख विरोधी नेताओं की सर्वथा गोपनीय बैठक बुलाकर उन्हें जरुरी बातें बता देनी चाहिए ताकि जासूसी का यह मामला सार्वजनिक न हो। हर सरकार को जासूसी करनी ही पड़ती है। कोई भी सरकार जासूसी किए बिना रह नहीं सकती लेकिन यदि वह यह सबको बता दे कि वह किस-किस की जासूसी करती है और कैसे करती है तो उसकी भद्द पिटे बिना नहीं रह सकती। सरकार की बेइज्जती तो होती ही है, उससे बड़ा नुकसान यह होता है कि देश के दुश्मनों, आतंकवादियों, तस्करों, ठगों और चोरों को भी सावधान होने का मौका मिल जाता है। ऐसा नहीं है कि यह पेंच हमारी सरकार को पता नहीं है लेकिन उसने पेगासस के मामले को कमरे में बैठकर सुलझाने की बजाय अब उसे अदालत के अखाड़े में खम ठोकने के लिए छोड़ दिया है। कुछ पत्रकारों ने याचिका लगाकर सरकार से पूछा है कि वह दो सवालों का जवाब दे। एक तो उसने पेगासस का सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया है या नहीं? यदि किया है तो किस-किस के विरुद्ध किया है ? उसमें क्या पत्रकारों और नेताओं के नाम भी है? वे राष्ट्रविरोधियों और आतंकियों के नाम नहीं पूछ रहे हैं।
अब सर्वोच्च न्यायालय भी यही पूछ रहा है। उसने पूछा है कि जासूसी करते समय सरकार ने क्या अपने ही बनाए हुए नियमों का पालन किया है? सरकार की घिग्घी बंध गई है। कभी वह कहती है कि इस सूचना को वह सार्वजनिक नहीं कर सकती। कभी कहती है कि वह विशेषज्ञों की एक निष्पक्ष कमेटी से जांच करवाने को तैयार है। अदालत का कहना है कि कमेटी अपनी रपट जब पेश करेगी तो सारे रहस्य क्या खुल नहीं जाएंगे? अदालत ने सरकार से पूछा है कि पहले वह यह बताए कि उसने पेगासस-उपकरणों का इस्तेमाल किया भी है या नहीं? सरकार की बोलती बंद है। एक शेर उसकी स्थिति का सुंदर वर्णन करता है- 'साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं। अजब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं।Ó यदि अदालत अड़ गई तो यह चिलमन भी चूर-चूर हो जाएगी। यदि सरकार ने निर्दोष नेताओं, पत्रकारों और उद्योगपतियों की जासूसी की है तो वह उनसे माफी मांग सकती है और ऐसी गलती कोई भी सरकार भविष्य में न कर सके, उसका इंतजाम कर सकती है। उसका वर्तमान तेवर उसकी छवि को धूमिल कर रहा है और संसद के आगामी सत्र में उसको विपक्ष के आक्रमण का भी सामना करना पड़ेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-बिकास के शर्मा
विगत एक सौ दस वर्षों की अपनी यात्रा में भारतीय सिनेमा विशेषकर हिंदी फिल्मों ने स्वदेश के साथ-साथ विदेशों में भी गाढ़ी लोकप्रियता हासिल की है। भारत में बनाने वाली हिंदी फिल्में संयुक्त अरब, यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका, पाकिस्तान, श्रीलंका, मॉरीसस आदि देशों में हिन्दी भाषा को प्रोत्साहित करती रहीं हैं और उन देश की सरहद के पार वहां के लोगों के मनोरंजन का एक प्रचलित साधन बनकर सामने आईं हैं। भारत जैसे बहुलतावादी देश में तो करीब-करीब सभी राज्यों में हिन्दी फिल्में देखी जाती हैं और उनके प्रमुख अभिनेता, अभिनेत्रियों को जनता काफी पसंद भी करती है। इन फिल्मों ने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया है। भारत की प्रथम सवाक फिल्म 'आलमआरा' का निर्माण एक गैर हिंदी भाषी नागरिक आर्देशिर ईरानी ने वर्ष 1931 में हिंदी भाषा में किया था।
अनुमान लगाएं कि श्री ईरानी से उनके हिंदी में फिल्म बनाने के कारणों को पूछा जाये तो निश्चित रूप से वो कहते कि हिन्दी तो हिन्दुस्तान के जनमानस की भाषा है। बहरहाल वर्तमान में हिन्दी फिल्में जितनी लोकप्रिय हैं शायद ही किसी अन्य भाषा की फिल्में होंगी। विश्व में बनने वाली हर चौथी फिल्म हिन्दी भाषा की होती है। हमारे देश में 60 प्रतिशत फिल्में हिन्दी भाषा में बनती हैं और वे ही सर्वाधिक चर्चा का विषय होतीं हैं। क्षेत्रीय भाषा की फिल्में विशेषकर असमी, बांग्ला, तेलुगु, मलयाली, भोजपुरी आदि भाषाई फिल्में अपने क्षेत्रों में ही लोकप्रियता के शिखर को छूतीं हैं वहीँ इसके बरअक्स हिन्दी भाषा में बानी फिल्में समूचे देश में विभिन्न भाषाई दर्शकों द्वारा देखी जाती है। इसका एक कारण यह भी है कि हिन्दी हमारी संपर्क भाषा है, जो अन्य भाषाओं के संग जुड़ने के सेतु का कार्य कुशलतापूर्वक करती है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक हो अथवा गोवा से असम तक, हिन्दी लिखने, पढ़ने, बोलने वाले मिल ही जाएँगे। कुछ सीमा तक दक्षिण में हिन्दी का विरोध है, लेकिन हिन्दी फिल्में लोकप्रिय वहां भी हैं। खासकर तमिलनाडु में हिन्दी भाषा का विरोध देखा जाता है लेकिन वहीँ के शहरों मदुरै, चेन्नई और कोयम्बटूर में रमेश सिप्पी द्वारा निर्मित प्रसिद्द हिन्दी फिल्म 'शोले' ने स्वर्ण जयंती मनाई थी। 'शोले' के अलावा 'हम आपके हैं कौन', 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे', 'बॉर्डर', 'दिल तो पागल है' भी पूरे देश में सफल रहीं। 'गदर' और 'लगान' जैसी कितनी ही फिल्में आई हैं जिन्होंने पूरे देश में सफलता के झंडे गाड़ दिए। हिन्दी फिल्मों में अहिन्दी भाषी कलाकारों के योगदान के कारण भी हिन्दी को अहिन्दी भाषी प्रांतों में हमेशा बढ़ावा मिला है।
सुब्बालक्ष्मी, बालसुब्रह्मण्यम, पद्मिनी, वैजयंती माला, रेखा, श्रीदेवी, हेमामालिनी, कमल हासन, चिरंजीवी, एआर रहमान, रजनीकांत आदि प्रमुख सितारे हिन्दी में भी उतने ही लोकप्रिय रहे हैं जितने की अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में। बांग्ला बोले जाने वाले बंगाल प्रदेश से मन्ना डे, पंकज मल्लिक, हेमंत कुमार, आरसी बराल, बिमल रॉय, शर्मिला टैगोर, उत्त कुमार, राखी गुलजार सहित सिक्किम के डैनी डेंग्जोग्पा और प्रसिद्ध संगीतकार सचिन देवबर्मन तथा राहुल देव बर्मन त्रिपुरा से ताल्लुकात रखते हुए भी हिंदी भाषियों में काफी लोकप्रिय रहे और आज भी हैं। इसी प्रकार हिन्दी फिल्मों के लोकप्रिय कलाकार राजकपूर, धर्मेद्र, प्रेम नाथ, जितेंद्र आदि पंजाबी होने के बावजूद हिंदी के साथ-साथ दक्षिण में भी पहचाने और माने जाने वाले नाम हैं।
यहाँ तक कि राजकपूर की 'आवारा' और 'श्री 420' ने रूस में लोकप्रियता के झंडे गाड़े थे और वहां के लोग राज कपूर की एक झलक पाने को बेताब रहते थे। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, लता मंगेशकर एवं हिन्दी फिल्मों के अन्य कई कलाकार सारी दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में अपने रंगमंचीय प्रदर्शन सफलतापूर्वक कर चुके हैं। हिंदी फिल्मों के गीतों की जनप्रियता का अंदाजा लगाने के लिए यह पर्याप्त है कि आॅल इंडिया रेडियो के उर्दू कार्यक्रमों के फर्माइशकर्ता 90 प्रतिशत पाकिस्तानी श्रोता होते हैं। पाकिस्तानी नागरिक मेहँदी हसन, गुलाम अली और अदनान सामी के हिन्दी गीत हमारे मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ चुके हैं। उल्लेखनीय है कि अमेरिका में हिंदी फिल्मी गीतों के माध्यम से पढ़ाई जाती है और प्रवासी भारतवंशी हिंदी की अलख और संस्कृति को जगाए हुए हैं। वहां पर हिंदी के विकास में चार संस्थाएं प्रयासरत हैं, जिनमें अखिल भारतीय हिंदी समिति, हिंदी न्यास, अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति प्रमुख हैं। अमेरिका की भाषा नीति में दस नई विदेशी भाषाओं को जोड़ा गया है, जिनमें हिंदी भी शामिल है।
हिंदी शिक्षा के लिए डरबन में हिंदी भवन का निर्माण और सामुदायिक रेडियो के माध्यम से सोलह घंटे हिंदी में सीधा प्रसारण कई लोगों के लिए कौतुहल का विषय हो सकता है। मॉरीशस में तो हिंदी का वर्चस्व ही स्थापित है तथा उस देश का संकल्प हिंदी को विश्व की सर्वोच्च भाषा बनाने का है। क्या ऐसा कोई संकल्प भारत में हिंदी की बिंदी कहलवाने वालों अथवा हिंदी के भरोसे चलने वाले मुंबई फिल्म उद्योग से जुडी हस्तियों को नहीं लेना चाहिए?
(लेखक युवा पत्रकार हैं)
-अवधेश बाजपेयी
कला की नीलामी के बारे में बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए कि फलाने की पेंटिंग अरबों में बिकी। जब पता करते हैं वो कौन चित्रकार था? तो पता चलता है वो गरीबी, समाज की विवेकहीनता, समकालीन समाज में कला की विकसित समझ न होने के कारण उस चित्रकार ने आत्महत्या कर ली थी। आज उसी चित्रकार की हर पेंटिंग अरबों रुपये की है। अब भारतीय चित्रकारों की पेंटिंग भी करोड़ों में नीलामी होने लगी है। अभी यूरोपियन व अमेरिकन चित्रकारों से बहुत पीछे हैं। लेकिन ये खेल है और युवा चित्रकार नीलामी के सपने के शिकार हो जाते हैं। यह गंभीर विषय है इसपर सबको विचार करना चाहिए। ज्यादातर चित्रकारों को उनकी सफलता वृद्धावस्था में मिलती है, तब तक उनके धन का कोई मूल्य नहीं रह पाता। जब चित्रकार शारीरिक रूप से लाचार होता है तब कोई उसे बताता है आपका चित्र इतने करोड़ में बिका, वह सुन भी नहीं पाता और यह भी होता है कि उस चित्र का मालिक वो नहीं है बल्कि वह हैं जिसे उसने भुखमरी के दौर में चंद रुपयों में दे दिया था। बस उसका नाम है। उस चित्रकार के पैसे का आनंद उसके छर्रे लेते हैं। कला की इस वाहियात हरकत के कारण कलाकारों ने इंस्टॉलेशन और परफार्मिंग आर्ट शुरू किया इसके लिये दुशाम्प व जोसेफ बॉयज का काम महत्वपूर्ण है। लेकिन बाजार भी कम नहीं वो इसे भी खरीदने लगा। इसका भी बाजार है। नीलामी की बात समाज में ऐसी फैल गई कि जीना मुश्किल हो जाता है। एक बार मैं किसी धनाड्य को चित्र दिखा रहा था, मेरी हालत यह थी, मेरे पास महीनों से पैसे नहीं थे, दिहाड़ी से काम चला रहा था। वह तथाकथित कलाप्रेमी मेरे चित्रों को देखकर यह बोल रहा था कि देखो अभी इनको कोई नहीं पूँछ रहा पर देखना एकदिन इनके चित्र करोड़ों में बिकेंगे और वह मुझे धन्यवाद देते हुए यह कह रहा था कि कोई अच्छा चित्र बने तो मुझे जरूर दिखाना, मैं लोगों से कहूंगा की आपके चित्रों को समझें। और दुनिया को बताएं कि हमारे शहर में भी इतनी विश्व स्तरीय प्रतिभायें हैं। तभी मुझे कबीर की याद आई उन्होंने अपनी जीविका पार्जन के लिये चदरिया बुनते थे और अपनी कला से रोटी के लिए आश्रित नहीं थे। तभी से मैंने अपने को हर तरह के काम के लिए निपुड़ बनाया और आज मैं कला का कोई भी व्यावसायिक काम कर सकता हूँ, मैंने फिर और भी तरह के काम सीखे। जैसे झाड़ू कैसे लगाते हैं यह भी सिखाता हूँ। तो भाई, चित्रकला अलग है व्यवसाय अलग है । यह बात अलग है कि किसी को आपका चित्र पसंद आ जाये और उसके बदले में कुछ धन दे दे। लेकिन आपको अपने चित्र की कीमत मालूम होना चाहिए। भले वह वापस लौट जाए। चित्रकार का ब्रांड बनना उसकी खुद की मृत्यु है। ब्रांड बाजार की चीज है कला की नहीं। प्यार ब्रांड की चीज नहीं है ।नीलामी की खबर, सट्टे की खबर की तरह है जो कभी या आज तक सच नहीं हुआ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिंदी दिवस हम हर साल 14 सितंबर को मनाते हैं, क्योंकि इसी दिन 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा बनाया था। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि हिंदी वास्तव में भारत की राजभाषा है भी या नहीं है? यदि हिंदी राजभाषा होती तो कम से कम भारत का राज-काज तो हिंदी भाषा में चलता लेकिन आजकल राजकाज तो क्या, घर का काम-काज भी हिंदी में नहीं चलता। अंग्रेज की गुलामी के दिनों में फिर भी हिंदी का स्थान ऊंचा था, लेकिन आज हिंदी की हैसियत ऐसी हो गई है, जैसी किसी अछूत या दलित की होती है। संसद का कोई कानून हिंदी में नहीं बनता, सर्वोच्च न्यायालय का कोई फैसला या बहस हिंदी में नहीं होती, सरकारी काम-काज अंग्रेजी में होता है। सारे विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी अनिवार्य है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी है। छोटे-छोटे बच्चों पर भी अंग्रेजी इस तरह लदी होती है, जैसे हिरन पर घास लाद दी गई हो। बच्चे अपने माँ-बाप को भी आजकल मम्मी-डैडी कहने लगे हैं।
माताजी-पिताजी शब्दों का लोप हो चुका है। 'जीÓ अक्षर उनके संबोधन से हट चुका है। भाषा से मिलने वाले संस्कार लुप्त होते जा रहे हैं। हिंदी अखबारों और टीवी चैनलों को अंग्रेजी शब्दों के बोझ ने लंगड़ा कर दिया है। हर साल जो करोड़ों बच्चे अनुत्तीर्ण होते हैं, उनमें सबसे बड़ी संख्या अंग्रेजी में अनुत्तीर्ण होनेवालों की है। भारत के बाजारों में चमचमाते अंग्रेजी के नामपटों को देखकर लगता है कि भारत अभी भी अंग्रेजों का ही गुलाम है। अगर आप बैंकों में जाकर देखें तो मालूम पड़ेगा कि लगभग सभी खातेदारों के दस्तखत अंग्रेजी में हैं।
आपका नाम हिंदी में है, फिर हस्ताक्षर अंग्रेजी में क्यों है? यदि नकल ही करना है तो पूरी नकल कीजिए। अपना नाम भी आप चर्चिल या जॉनसन क्यों नहीं रखते ? नकल भी अधूरी ? हिंदी कभी राजभाषा बन पाएगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता लेकिन वह लोकभाषा बनी रहे, यह बहुत जरुरी है। राजभाषा वह तभी बनेगी, जब हमारे नेतागण नौकरशाहों की नौकरी करना बंद करेंगे। हमारे नेता वोट और नोट में ही उलझे रहते हैं। उन्हें शासन चलाने की फुर्सत ही कहां होती है। यदि देश में कोई सच्चा लोकतंत्र लाना चाहे तो वह स्वभाषा के बिना नहीं लाया जा सकता। दुनिया के जितने भी शक्तिशाली और मालदार राष्ट्र हैं, उनमें विदेशी भाषाओं का इस्तेमाल सिर्फ विदेश व्यापार, कूटनीति और शोध-कार्य के लिए होता है लेकिन भारत में आपको कोई भी महत्वपूर्ण काम करना है या करवाना है तो वह हिंदी के जरिए नहीं हो सकता। हिंदी-दिवस इसीलिए एक औपचारिकता बनकर रह गया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)