विचार/लेख
14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष
-रमेश सर्राफ धमोला
किसी भी देश की भाषा और संस्कृति उस देश में लोगों को लोगों से जोड़े रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से हिन्दी और देवनागरी के मानकीकरण की दिशा में अनेक क्षेत्रों में प्रयास हुये हैं। हिन्दी भारत की सम्पर्क भाषा भी हैं। अत: हम कह सकते है की हिन्दी एक समृद्ध भाषा हैं। भारत की राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने में हिन्दी भाषा का बहुत बड़ा योगदान हैं।
हिन्दी के ज्यादातर शब्द संस्कृत, अरबी और फारसी भाषा से लिए गए हैं। यह मुख्य रूप से आर्यों और पारसियों की देन है। इस कारण हिन्दी अपने आप में एक समर्थ भाषा है। जहां अंग्रेजी में मात्र 10 हजार मूल शब्द हैं। वहीं हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या 2 लाख 50 हजार से भी अधिक है। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन,समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ हमारी राजभाषा भी है। भारत की मातृ भाषा हिन्दी को सम्मान देने के लिये प्रति वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी की खड़ी बोली ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाते लगा है जो हिंदी भाषा के महत्व को दर्शाता है। पिछले 68 सालों से हम प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाते आ रहे हैं। इस वर्ष भी मनायेगें। मगर कोरोना महामारी के चलते पाबंदियां लगी होने के कारण इस बार हिन्दी दिवस पर देश भर में कहीं भी बड़े कार्यक्रमों का आयोजन नहीं हो पायेगा।
हिन्दी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, और दिल्ली राज्यों की राजभाषा भी है। राजभाषा बनने के बाद हिन्दी ने विभिन्न राज्यों के कामकाज में लोगों से सम्पर्क स्थापित करनें का अभिनव कार्य किया है। लेकिन विश्व भाषा बनने के लिए हिन्दी को अब भी संयुक्त राष्ट्र के कुल सदस्यों के दो तिहाई देशों के समर्थन की आवश्यकता है। भारत सरकार इस दिशा में तेजी से कार्य कर रही है। हम संभावनाएं जता सकते हैं कि शीघ्र ही हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा में शामिल कर लिया जायेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी विदेश यात्रा के दौरान अधिकतर अपना सम्बोधन हिन्दी भाषा में ही देते हैं। जिससे हिन्दी भाषा का महत्व विदेशी धरती पर भी बढऩे लगा है।
हिन्दी ने भाषा, व्याकरण, साहित्य, कला, संगीत के सभी माध्यमों में अपनी उपयोगिता, प्रासंगिकता एवं वर्चस्व कायम किया है। हिन्दी की यह स्थिति हिन्दी भाषियों और हिन्दी समाज की देन है। लेकिन हिन्दी भाषा समाज का एक तबका हिन्दी की दुर्गति के लिए भी जिम्मेदार है। अंग्रेजी बोलने वाला ज्यादा ज्ञानी और बुद्धिजीवी होता है। यह धारणा हिन्दी भाषियों में हीन भावना लाती है। जिंदगी में सफलता पाने के लिये हर कोई अंग्रेजी भाषा को बोलना और सीखना चाहता है। हिन्दी भाषी लोगों को इस हीन भावना से उबरना होगा, क्योंकि मौलिक विचार मातृभाषा में ही आते हैं। शिक्षा का माध्यम भी मातृभाषा होनी चाहिए। शिक्षा विचार करना सिखाती है और मौलिक विचार उसी भाषा में हो सकता है जिस भाषा में आदमी जीता है। हमें अहसास होना चाहिये कि हिन्दी दुनिया की किसी भी भाषा से कमजोर नहीं है।
बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में हिन्दी का अन्तरराष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ है। विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैंकड़ों छोटे-बड़े केन्द्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई है। विदेशों से हिन्दी में दर्जनों पत्र-पत्रिकाएं नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं। हिन्दी भाषा और इसमें निहित भारत की सांस्कृतिक धरोहर सुदृढ और समृद्ध है। इसके विकास की गति बहुत तेज है।
हिंदी भाषा एक दूसरे के साथ बातचीत करने के लिए बहुत आसान और सरल माध्यम प्रदान करती है। यह प्रेम, मिलन और सौहार्द की भाषा है। हिन्दी विविध भारत को एकता के सूत्र में पिरोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो। उस भाषा के प्रति आज भी इतनी उपेक्षा व अवज्ञा क्यों ? प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति हिन्दी भाषा को आसानी से बोल-समझ लेता है। इसलिए इसे सामान्य जनता की भाषा अर्थात जनभाषा कहा गया है।
हिन्दी के प्रयोग एवं प्रचार हेतु मनाया जाने वाला हिन्दी-दिवस न केवल हिन्दी के प्रयोग का अवसर प्रदान करता है, बल्कि इस बात का ज्ञान भी दिलाता है कि हिन्दी का प्रयोग भारतीय जनता का अधिकार है। जिसे उनसे छीना नहीं जा सकता है। हम जानते हैं कि इतने बड़े जनसमुदाय वाले देश में अपने अधिकार की लड़ाई लडऩा आसान नहीं है। यदि महात्मा गांधी, स्वामी दयानन्द सरस्वती, पण्डित मदनमोहन मालवीय, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, आचार्य केशव सेन, काका कालेलकर, गोविन्दवल्लभ पन्त जैसे अनेको महान व्यक्तियों के अथक प्रयासों से हमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहने का अधिकार मिला है तो उसे हम छोड़े क्यों ? हिन्दी हमारी मातृ भाषा है और हमें इसका आदर और सम्मान करना चाहिये।
देश में तकनीकी और आर्थिक समृद्धि के एक साथ विकास के कारण हिन्दी ने कहीं ना कहीं अपना महत्ता खो दी है। आज हिन्दी भाषा में अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन तेजी से बढऩे लगा है। बहुत से बड़े समाचार पत्रों में भी अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी का उपयोग किया जाने लगा है। जो हिन्दी भाषा के लिये शुभ संकेत नहीं हैं। रही सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है। जहां सॉफ्टवेयर की मदद से रूपांतर कर अंग्रेजी से हिन्दी भाषा बनायी जाती है। जिसमें ना मात्रा का ख्याल रहता है और ना ही शुद्ध वर्तनी का। वर्तमान समय में हिन्दी भाषा के समाचार पत्र व पत्रिकायें धड़ाधड़ बंद हो रहे हैं।
हिन्दी दिवस के अवसर पर हमें यह संकल्प लेना चाहिये की हम पूरे मनोयोग से हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में अपना निस्वार्थ सहयोग प्रदान कर हिन्दी भाषा के बल पर भारत को फिर से विश्व गुरु बनवाने का सकारात्मक प्रयास करेंगें। अब तो कम्प्यूटर पर भी हिन्दी भाषा में सब काम होने लगे हैं। कम्प्यूटर पर हिन्दी भाषा के अनेको सॉफ्टवेयर मौजूद हैं जिनकी सहायता से हम आसानी से कार्य कर सकते हैं।
चीनी भाषा मंदारिन के बाद हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। नेपाल, पाकिस्तान की तो अधिकांश आबादी को हिंदी बोलना, लिखना, पढना आता है। बांग्लादेश, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। फिजी, सुरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देश की सरकारे तो हिंदी भाषियों द्वारा ही चलायी जा रही हैं। पूरी दुनिया में हिंदी भाषियों की संख्या करीबन एक सौ करोड़ से अधिक है।
आदिकाल से अब तक हिन्दी के आचार्यों, सन्तों, कवियों, विद्वानों, लेखकों एवं हिन्दी-प्रेमियों ने अपने ग्रन्थों, रचनाओं एवं लेखों से हिन्दी को समृध्द किया है। परन्तु हमारा भी कर्तव्य है कि हम अपने विचारों, भावों एवं मतों को विविध विधाओं के माध्यम से हिन्दी में अभिव्यक्त करें एवं इसकी समृध्दि में अपना योगदान दें। कोई भी भाषा तब और भी समृध्द मानी जाती है जब उसका साहित्य भी समृध्द हो। हिन्दी के विकास के लिये हमें निरंतर प्रयासरत रहकर काम करना चाहिये।
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)
-पुष्य मित्र
कल दिल्ली में जो हुआ और जो दो साल पहले पटना में हुआ था। मुंबई में लगभग हर साल हो रहा है और दुनिया भर के शहरों में यह अब न्यू नॉर्मल है। मगर यह न्यू नॉर्मल कोई अच्छी खबर नहीं है।
इस मसले को इस तरह समझिये कि कल महज एक दिन में दिल्ली में 390 मिमी बारिश हो गयी। अगर आप बारिश के आंकड़ों को समझते हैं तो इसका मतलब समझ ही रहे होंगे। अगर नहीं समझ रहे तो यूं समझिये कि अगर किसी जगह पूरे साल में 1200 मिमी बारिश हो जाये तो उसे अब सामान्य से बेहतर बारिश मानते हैं। दिल्ली में सिर्फ एक दिन में इतनी बारिश हो गयी जो पूरे साल की बारिश का एक चौथाई थी।
आप यह समझिये कि 2019 में पटना में चार दिन में 476 मिमी से अधिक बारिश हुई थी तो शहर दो तीन हफ्ते पानी में डूबा रहा। एक बार नेपाल में तीन दिन में 500 मिमी बरसात हो गयी तो बिहार में जबरदस्त बाढ़ आ गयी थी। अब आप एक दिन में बरसे 390 मिमी पानी का मतलब समझ सकते हैं। मतलब यह कि इतना पानी बरसा कि पूरी दिल्ली में हर जगह औसतन 39 सेमी पानी जमा हो गया होगा।
यही वजह थी कि दिल्ली के एयरपोर्ट तक पर आपको पानी बहता नजर आया। अब जबकि यह बारिश रुक गयी या कम हो गयी होगी तो जलजमाव की स्थिति क्या होगी यह देखने वाली बात होगी। हम तो पटना के अपने अनुभव से जानते हैं कि अगर एक दिन में इतनी बारिश हुई होती तो हम फिर हफ्तों डूबे रहते।
मगर यह कैसा संकट है और क्यों है? इन दिनों क्यों दुनिया के अलग अलग इलाकों से ऐसी बारिश की खबर आ रही है? क्या हम इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं?
दरअसल यह वह संकट है जिसे बार-बार क्लाइमेट क्राइसिस कहा जा रहा है। धरती लगातार गर्म हो रही है और इस बुखार की हालत में ऐसी अजीबोगरीब घटनाएं लगातार हो रही हैं। आने वाले वर्षों में बारिश की ऐसी घटना आम होने वाली है।
यह तो वह संकट है जिसे हम अकेले रोक नहीं सकते। जलवायु संकट और ग्लोबल वार्मिंग किसी एक शहर या एक देश की परिस्थिति नहीं। यह पूरी दुनिया का संकट है और पूरी दुनिया गम्भीरता से एक साथ कोशिश करेंगी तभी धरती का बुखार कम होगा।
मगर एक काम तो हमें ही करना है। इस संकट का सामना कैसे करें इसकी तैयारी। अगर ऐसी बारिश साल में तीन चार दफे हो जाये तो क्या हमने ऐसी व्यवस्था की है कि पानी शहर की गलियों में लम्बे समय तक ठहरेगा नहीं। अभी कल ही मैंने मुजफ्फरपुर में हफ्तों से जमे पानी की तस्वीर दिखायी थी। सामान्य बारिश का पानी शहर से निकल नहीं पा रहा।
यह दोहरा संकट है। एक ही दिन टूट कर बरस जाने वाले बादल अब रूटीन हो चले हैं मगर हमारे शहरों में बारिश का पानी निकालने का सिस्टम लगातार बिगड़ रहा है। ड्रेनेज सिस्टम फेल हो रहे हैं। कहीं उनपर अतिक्रमण कर घर बनाये जा रहे तो अमूमन हर जगह पॉलिथीन की वजह से ये चोक हो रहे हैं। नगर निगम की अपनी विशेषज्ञता भी उस स्तर की नहीं है कि वह इन परिस्थितियों का सामना कर सके। शहरों में लगातार बढ़ रही आबादी भी मसले को और गम्भीर बना रही।
और क्या शहर का पानी ड्रेन कर नदियों में डाल देना ही इसका समाधान है? क्या शहरों में फिर से तालाबों, झीलों को जिंदा करना और वाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य बनाना वैकल्पिक समाधान हो सकता है? यह सब अब गम्भीरता से सोचना का वक्त आ गया है। बदलता मौसम तो यही इशारा कर रहा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की दोनों प्रमुख अखिल भारतीय पार्टियों— भाजपा और कांग्रेस— में आजकल जोर की उठापटक चल रही है। यदि कांग्रेस में पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों के बदलने की अफवाहें जोर पकड़ रही हैं तो पिछले छह माह में भाजपा ने अपने पाँच मुख्यमंत्री बदल दिए हैं। ताजा बदलाव गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी का है। इसके पहले असम में सर्वानंद सोनोवाल, कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा और उत्तराखंड में त्रिवेंद्रसिंह रावत और तीरथसिंह रावत को बदल दिया गया। असम के अलावा इन सभी राज्यों में जल्दी ही चुनाव होनेवाले हैं। चुनावों की तैयारी साल-डेढ़ साल पहले से होने लगती है।
यहां असली सवाल है कि पुराने मुख्यमंत्री को चलता कर देने और नए मुख्यमंत्री को ले आने का प्रयोजन क्या होता है ? यह प्राय: तभी होता है, जब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को ऐसा लगने लगता है कि जनता के बीच उसकी दाल पतली हो रही है। यदि चुनाव जीतना है तो अन्य पैंतरे तो हैं ही, जरुरी यह भी है कि जनता के सामने कोई ताजा चेहरा भी लाया जाए। अब जैन रूपाणी की जगह कोई पटेल चेहरे की तलाश क्यों हो रही है? क्योंकि गुजरात में पटेलों के 13 प्रतिशत थोक वोट की आमदनी के लिए भाजपा की लार टपक रही है।
राष्ट्रवादी भाजपा पार्टी की चिंताएं भी वही हैं, जो देश की अन्य जातिवादी और सांप्रदायिक पार्टियों की होती हैं। उसे भी जातियों के थोक वोट चाहिए। भारतीय लोकतंत्र को जातिवाद के इस भूत से कब मुक्ति मिलेगी, कहा नहीं जा सकता। 2017 के चुनाव में गुजरात में मिली कम सीटों ने भाजपा के कान पहले से खड़े कर रखे थे। यदि अगले चुनाव में भाजपा के हाथ से गुजरात खिसक गया तो दिल्ली को बचाना मुश्किल हो सकता है। मुख्यमंत्रियों को तड़ातड़ बदलने का एक अदृश्य अर्थ यह भी है कि हमारी अखिल भारतीय पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व का विश्वास खुद पर से हिल रहा है।
उन्हें लग रहा है कि वे इन राज्यों का चुनाव अपने दम पर शायद जीत नहीं पाएंगे। यदि उन्हें खुद पर आत्म-विश्वास होता तो कोई मुख्यमंत्री किसी भी जाति का हो और उसका कृतित्व बहुत प्रभावशाली न भी रहा हो तो भी वे अपने दम पर चुनाव जीतने का माद्दा रख सकते हैं। फिलहाल, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की तुलना, कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से नहीं की जा सकती।
यह एक अकाट्य तथ्य है कि मोदी को हिला सके, ऐसा कोई नेता आज भी देश में नहीं है लेकिन यदि कोई खुद ही हिला हुआ महसूस करे तो आप क्या कर सकते हैं। कोरोना की महामारी, लंगड़ाती अर्थ-व्यवस्था, अफगानिस्तान पर हमारी अकर्मण्यता और विदेश नीति के मामले में अमेरिका का अंधानुकरण यह बताता है कि मोदी सरकार से राष्ट्र को जो अपेक्षाएं थीं वे अभी पूरी होनी बाकी हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
तमिल फिल्म 'सुपर डीलक्स' (2019) बीते कुछ सालों में नियो-नॉयर शैली में बनी कुछ बेहतरीन फिल्मों में से एक है। इस फिल्म में सिर्फ डार्क ह्यूमर ही नहीं है बल्कि यह एक असंगत यानी एब्सर्ड फिल्म भी है। पूरी फिल्म में एब्सर्ड घटनाओं की भरमार है।
सेक्स के दौरान एक विवाहित महिला का पूर्व प्रेमी मर जाता है, अब वह और उसका पति न सिर्फ लड़-झगड़ रहे हैं बल्कि लाश को ठिकाने लगाने के लिए भी भागदौड़ कर रहे हैं। कई सालों के इंतज़ार के बाद एक महिला का पति घर लौटता है तो पता चलता है कि उसने अपना सेक्स चेंज करा लिया है। पांच लड़के छुपकर पोर्न फिल्म देखने बैठते हैं तो उस फिल्म की नज़र आने वाली अभिनेत्री उसमें से एक लड़के की मां निकलती है। एक व्यक्ति सुनामी में बच जाता है तो उसको लगता है कि जीसस के स्टैच्यू के रूप में किसी ईश्वरीय ताकत ने उसे बचा लिया और अंधभक्ति में डूब जाता है।
ये सारी कहानियां कहीं एक-दूसरे से जुड़ती हैं तो कहीं बहुत करीब से होकर निकल जाती हैं। फिल्म एक जगह कहती है, "धरती पर इतने खरबों लोग रहते हैं, ज़िंदगियां एक-दूसरे का रास्ता काटेंगी ही। एक के किए का असर दूसरे पर पड़ेगा ही।" फिल्म में कई जगह हास्य मौजूद है मगर निर्देशक ने हंसाने का जरा भी प्रयास नहीं किया है। ज्यादातर सिचुएशन बहुत ही अटपटी, बिडम्बनापूर्ण और और कई जगह हिंसा या अनादर और वेदना से भरी हैं, मगर हास्य की एक महीन सी परत पूरी फिल्म पर छाई रहती है।
फिल्म में एक अयथार्थवादी प्रसंग पूरी फिल्म के टोन को डिस्टर्ब करता है, नहीं तो यह फिल्म और भी बेहतरीन बन पड़ती। हर कहानी विरोधाभासों पर टिकी हुई है। निर्देशक ने पति-पत्नी, मां-बेटे, पिता और बेटे, दोस्तों के बीच रिश्तों को बेहतर एबसर्ड सिचुएशन में रखते हुए उन्हें पुनर्परिभाषित किया है। उनको एक नया अर्थ और जीवन दृष्टि देने का प्रयास किया है।
एक छोटा बच्चा जो बरसों से अपने पिता का इंतज़ार कर रहा है, वह उसके बदले हुए रूप को भी स्वीकार कर लेता है और जब उसके दोस्त जेंडर बदले हुए उसके पिता का मजाक़ उड़ाते हैं तो वह उनसे पूछता है, "पापा मम्मियों जैसे क्यों नहीं दिख सकते?" एक पोर्न वीडियो में काम करने वाली स्त्री कहती है, "एक फिल्म में मैंने देवी का रोल किया था। कोई मुझे देवी समझ सकता है, कोई मुझे वेश्या समझ सकता है।" फिल्म ट्रांसजेंडर की आंतरिक पीड़ा और उसके सामाजिक तिरस्कार को बहुत निर्मम ढंग से दर्शाती है।
'सुपर डीलक्स' में बहुत सारे ट्विस्ट और टर्न हैं, जिनका यहां जिक्र करने से मज़ा खराब हो सकता है। फिल्म के निर्देशक थिगराजन कुमारराजा की आठ साल के अंतराल पर यह दूसरी फिल्म है, उन्होंने सन् 2011 में तमिल नियो-नॉयर थ्रिलर फिल्म 'अरण्य कांडम' से डेब्यू किया था।
यह थ्रिलर देखे जाने के बाद लंबे समय तक याद रह जाएगी, क्योंकि यह कुछ दार्शनिक नोट्स पर ख़त्म होती है, दिलचस्प यह है कि उसे भी एक सी-ग्रेड फिल्म के माध्यम से बयान किया गया है। फिल्म की शुरुआत और अंत में बप्पी लहरी की फिल्म 'डिस्को डांसर' का गीत सुनना भी दिलचस्प है। (फेसबुक से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जब से जो बाइडन अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं, चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग से उनकी खुलकर बात पहली बार हुई है। यह बात डेढ़ घंटे चली। दोनों राष्ट्रपतियों ने अपने मामले बातचीत से सुलझाने की बात कही। दोनों ने जलवायु-प्रदूषण और परमाणु खतरे पर एक-जैसे विचार व्यक्त किए लेकिन दोनों राष्ट्रों के बीच कई मुद्दों पर जबर्दस्त टकराव है। इस समय पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका और चीन के बीच वही माहौल बन गया है जो 50-60 साल पहले सोवियत रूस और अमेरिका के बीच था याने शीत युद्ध का माहौल ! दोनों देशों की फौजों की चाहे सीधी टक्कर दुनिया में कहीं भी नहीं हो रही है, लेकिन हर देश में चीनी और अमेरिकी दूतावास एक-दूसरे पर कड़ी नजर रख रहे हैं। दोनों देशों में एक-दूसरे के राजनयिकों पर भी काफी सख्ती रखी जाती है। संयुक्तराष्ट्र संघ में भी दोनों देशों के प्रवक्ता एक-दूसरे का विरोध करने से बाज नहीं आते। अमेरिका को डर है कि चीन उसे विश्व-बाजार में कहीं पटकनी नहीं मार दे। उसका सस्ता और सुलभ माल उसे अमेरिका के मुकाबले बड़ा विश्व-व्यापारी न बना दे। अमेरिका को डर है कि अगले 15-20 साल में चीन कहीं विश्व का सबसे मालदार देश न बन जाए।
अमेरिका को सामरिक खतरे भी कम महसूस नहीं होते। चीन जो अरबों-खरबों रु. खर्च करके रेशम-पथ बना रहा है, वह पूरे एशिया के साथ-साथ यूरोप और अफ्रीका में चीनी प्रभाव को कायम कर देगा। लातीनी अमेरिका, जिसे अमेरिका अपना पिछवाड़ा समझता है, वहाँ भी चीन ने अपने पाँव पसार लिये हैं। उसने एशिया में अमेरिका के हर विरोधी से गठजोड़ बनाने की कोशिश की है। ईरान-अमेरिका के परमाणु-विवाद का फायदा चीन जमकर उठा रहा है। उसने ईरान के साथ तगड़ा गठजोड़ बिठा लिया है। पाकिस्तान तो बरसों से चीन का हमजोली है। इन दोनों देशों की 'इस्पाती दोस्तीÓ अब अफगानिस्तान के तालिबान के ऊपर भी मंडरा रही है। भारत के सभी पड़ौसी देशों पर चीन ने डोरे डाल रखे हैं।
मध्य एशिया के पाँचों मुस्लिम गणतंत्रों के साथ उसके संबंध बेहतर बनते जा रहे हैं। अमेरिका को नीचा दिखाने के लिए आजकल चीन ने रूस से हाथ मिला लिया है। अमेरिका भी कम नहीं है। उसने दक्षिण चीनी समुद्र में चीनी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के साथ मिलकर एक चौगुटा खड़ा कर लिया है। वह ताइवान के सवाल पर भी डटा हुआ है। जाहिर है कि इतने मतभेदों और परस्पर विरोधी राष्ट्रहितों के होते हुए दोनों नेताओं के बीच कोई मधुर वार्तालाप तो नहीं हो सकता था लेकिन एक-दूसरे के जानी दुश्मन राष्ट्रों के दो नेता यदि आपस में बात कर सकते हैं तो हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिम्मत क्यों नहीं जुटाते? यह ठीक है कि गलवान में हमारी मुठभेड़ हो गई लेकिन जब हमारे फौजी अफसर चीनियों से बात कर सकते हैं तो अपने मित्र शी चिन फिंग से, जिनसे मोदी दर्जन बार से भी ज्यादा मिल चुके हैं, सीधी बात क्यों नहीं करते ?
(लेखक, भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चिन्मय मिश्र
‘‘किसान वास्तविक धन का उत्पादक है, क्योंकि वह मिट्टी को गेहूँ, चावल, कपास के रूप में परिणत करता है। दो घंटे रात रहते खेतों में पहुंचता है। जेठ की तपती दुपहरी हो या माघ-पूस के सबरे की हड्डी छेदने वाली सर्दी, वह हल जोतता है, ढेले फोड़ता है, उसका बदन पसीने तरबतर हो जाता है, उसके एक हाथ में सात-सात घट्टे पड़ जाते हैं फिर भी वह मशक्कत करता रहता है। क्योंकि उसे मालूम है कि धरती माता के यहां रिश्वत नहीं चल सकती। वह स्तुति प्रार्थना के द्वारा अपने ह्दय को नहीं खोल सकती।’’
राहुल सांकृत्यापन
किसान आंदोलन ने संघर्ष के नौ माह पूरे कर लिए। इसलिए यह सवाल उठना लाजमी है कि इससे क्या हासिल किया और क्या खोया ? किसान आन्दोलन खोने और पाने से आगे की स्थिति पर पहुंच गया है। यह भारत को पुनः लोकतंत्र की ओर मोढ़ने वाला उपक्रम बन गया है। इस आंदोलन ने मूलतः दो बातों को पुर्नस्थापित किया है। पहली यह कि भारतीय संविधान का पूर्ण क्षरण नहीं हुआ है और दूसरी अधिनायकवादी लोकतंत्र को जवाब दिया जा सकता है, उसका विकल्प अभी भी मौजूद है। इस आंदोलन के प्रति सरकार/सरकारों की बेरुखी भी यह दर्शा रही है कि शासक वर्ग किसानों की सच्ची निर्मलता से आँख मिला पाने में असमर्थ है। साथ ही सरकार को अपने को सही सिद्ध करवाना कमोवेश असंभव होता जा रहा है। इसलिए आम जनता का ध्यान लगातार बटाया जा रहा है। नवीनतम उदाहरण है कि प्रधानमंत्री का जन्मदिन 17 सितंबर से 7 अक्टूबर तक पूरे देश में समारोहित किया जाएगा। यह ऐसे समय हो रहा है, जबकि कोरोना महामारी अभी थमी नहीं हैं, इससे तड़प - तड़पकर हुई मौतों का मंजर अभी आँखों से ओझल नहीं हुआ है, बेराजगारी अपने चरम पर है, अर्थव्यवस्था हांफ रही है, अपराध दिन दूले रात चैगुने हो रहे हैं, मँहगाई रोज नए रिकार्ड बना रही है, सांप्रदायिकता नये कलेवर के साथ सर्वव्यापी होने को तैयार है 2 अक्टूबर को गाँधी जयंती भी है, आदि - आदि।
किसान आंदोलन के दौरान पिछले नौ महीनों में यह बतला दिया कि भारत में एक बार पुनः संघर्ष की राह पर चलने की ललक पैदा की है। साथ ही सामुहिकता का असाधारण संकल्प भी सामने आया। 500 से ज्यादा आंदोलनकारियों की मृत्यु के बावजूद किसान आंदोलन का अहिंसक बना रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है। हाल ही में करनाल में हुई महापंचायत, प्रदर्शन व सचिवालय का घेराव इसकी गवाही दे रहे हैं। आधुनिक समाज का बड़ा वर्ग सत्य और अहिंसा से बचना चाह रहा है, यह आंदोलन उनके लिए मिसाल है। इस आंदोलन ने सत्ता के दंभ को भी बेनकाब किया है और स्वयं को लगातार विस्तारित किया है। किसान आंदोलन ने भारतीय मीडिया को भी आईना दिखाया है। उन्होंने मीडिया को भी यह समझा दिया है कि उनके बिना भी आंदोलन किया जा सकता है।
यह तय है कि भारत के तमाम लोग कृषि क्षेत्र व किसान की समस्याओं के प्रति अनभिज्ञ हैं और इस तरह के आंदोलन को कमोवेश गैरजरुरी मानते हैं। इस अलगाव के पीछे बहुत से कारण हैं और सबसे बड़ा कारण यह है कि संपन्न वर्ग किसान व किसानी को समझना ही नहीं चाहता। राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है, ‘‘महीनों की भूख से अधमरे उसके बच्चे चाहभरी निगाह से उस राशि (अनाज) को देखते हैं। वे समझते हैं दुख की अंधेरी रात कटने वाली है और सुख का सबेरा आने वाला है। उनको क्या मालूम कि वह उनके लिए नहीं है। इसके खाने के अधिकारी सबसे पहले वे स्त्री-पुरुष हैं, जिनके हांथों में एक भी घट्टा नहीं है, जिनके हाथ गुलाब जैसे लाल और मक्खन जैसे कोमल हैं, जिनकी जेठ की दुपहरिया खस की टट्टियों (अब एयर कंडीशनर), बिजली के पंखों या शिमला और नैनीताल में बीतती है।’’ दशकों बाद भी आज वहीं स्थिति है। अधिकांश किसान उन 80 करोड़ भारतीयों में आते हैं जो सरकार द्वारा दी जा रही 15 किलो राशन की कथित सौगात को प्रधानमंत्री की तस्वीर वाले झोले में अपने घर ले जाकर जैसे तैसे अपना पेट भर रहे हैं। पोषण तो दूर की कौड़ी है।
वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों ने भी इस अवसर पर वैसा कुछ भी नहीं किया, जिसकी की उनसे अपेक्षा थी। दुखद यह है कि किसान आंदोलन तीन कानूनों और एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) तक सिमटा सा दिख रहा है। हमें यह भी समझना होगा कि मूल्य बढ़ा देने आदि से भी कृषि लंबे समय तक बच नहीं पाएगी। आंदोलन की अवधि का उपयोग इस तलाश में होना था कि किस तरह से सामान्य किसान खेती कर पाए। वर्तमान कृषि का यह औद्योगिक स्वरूप किसान के विनाश का सबसे बड़ा कारण है। कितना भी परिश्रम वर्तमान कृषि प्रणाली के अन्तर्गत कर लिया जाए अंततः वह अस्थायी ही सिद्ध होगा। जमीन से यदि वर्ष में 3-4 फसलें ली जाएंगी तो उसमें कितने दिन तक उर्वश शक्ति बनी रहेगी ? क्या सिंचाई होने से कृषि संकट समाप्त हो जाएगा ? रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक कृषि को स्थायित्व प्रदान कर पाएंगे ? बिक्री की आसानी हो जाने से क्या कृषि का उद्धार संभव है ? क्या हाईब्रीड व जीएम फसलें खेती - किसानी को बचा पाएंगी ? क्या नकदी फसलें उगा लेने से किसान संकट मुक्त हो जाएंगे ? ऐसे और भी तमाम प्रश्न कृषि के सामने हैं। कृषि और पर्यावरण के आपसी संबंधों पर विचार करना होगा। कृषि में बढ़ती ऋणगस्तता भी चिंता का विषय है। कृषि का घटता रकबा भी विचारणीय प्रश्न है।
उपरोक्त तमाम प्रश्नों या जिज्ञासा पर पिछले नौ महीनों में गंभीरता से विचार होना चाहिए था। किसानों के सामने भी सुनहरा मौका था, जबकि वे अपने बारे में विस्तार से विचार कर सकते थे। ऐसा ही कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों को करना चाहिए था। अगर अब तक नहीं किया है तो, अभी भी देरी नहीं हुई है। कृषि की जटिलताओं पर बहुत गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। इतने दिनों में किसी विकल्प पर बात तो शुरु होना चाहिए थी। किसान तो आंदोलन कर ही रहे हैं। परंतु अधिकांश विपक्ष प्रतिक्रिया देने में ही है। किसानों के बारे में सभी को सम्मिलित रूप से विचार करना होगा। कृषि कानूनों की वापसी और फसलों का उचित मूल्य आज की अनिवार्यता है। परंतु यह तो केवल आरंभ है। कृषि की वास्तविक समस्या उसकी आधुनिक उत्पादन पद्धति है और उसमें सुधार नहीं आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता महसूस हो रही है। अतएव राजनीतिक दलों और कृषि विशेषज्ञों का यह कर्तव्य बनता है कि वे कृषि पर बरप रहे संकटों पर गंभीरता से विचार करें। वे प्रतिक्रिया से क्रिया पर लौटें। अब लगने लगा है कि राजनीतिक दलों में कृषि और कृषक को लेकर धैर्य ही नहीं समझ भी कम होती जा रही है। राजनीति में चुनाव जब भी मुख्य मुद्दा बन जाता है, तब राजनीति अर्थात सामाजिक सरोकर जिसका पर्यायवाची है, कहीं पीछे छूट जाती है।
आज से करीब 80 बरस पहले राहुल सांकृत्यायन ने एक निबंध लिखा था, ‘‘तुम्हारी जोकों की क्षय’’। यह आज के संदर्भ में बेहद समकालीन लगता है और दूसरी ओर यह भी समझाता है कि आजादी के बाद तस्वीर ज्यादा नहीं बदली बल्कि पिछले कुछ बरसों में यह बेहद डरावनी हो गई है। ’’जोंके ? जो अपनी परवरिश के लिए धरती पर मेहनत का सहारा नहीं लेतीं। वे दूसरों के अर्जित खून पर गुजर करती हैं। मानुषी जोंके पाशविक जोकों से ज्यादा भयंकर होती हैं।’’ बाकी के लेख में वे मानुषी जोंकों की उत्पत्ति, उनके विकास व उसके द्वारा किए जा रहे विध्वंस को समझाते हैं और यह आलेख हिटलर पर आकर पूर्ण होता है। गौरतलब है भारत ही नहीं दुनियाभर के किसान बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है। अब तो गर्व से बताया जा रहा है कि अमुक धनपति के पास ढ़ाई लाख एकड़ से भी ज्यादा जमीन है।
और वहीं भारत में जो किसान नौ महीनों से उम्मीद लगाए बैठे हैं, रोज अपमानित हो रहे हैं, जिन्हें वही अन्न खाते हुए गरिआया जाता है, जो उन्होंने अपने हाथ में घट्टे बनाकर उपजाया है। ऐसे घट्टे जिनकी वजह से हाथ में अब पानी भी नहीं ठहर पाता, इन उतार चढ़ावों से बह जाता है, और गुलाब के फूल के रंग की मक्खनी हथेलियां अठखेलियां करतीं रहतीं हैं। भारत में किसानों के पास औसतन 3 एकड़ से कम जमीन है और उस पर औद्योगिक कृषि का थोपा जाना सबसे बड़ा अन्याय है। रोज नई खाद, नए बीज, नए ट्रेक्टर के विज्ञापन बता रहे हैं कि कैसे जमीन को दांव पर लगातार और निश्चित तौर पर हारकर उसे जुए में गवां देना बजाए अपराध की श्रेणी में आने के विकास के नए पैमाने और मायने बनते जा रहे हैं।
लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। कुछ भी नतीजा सामने नहीं आया। लाखों किसान करनाल में धरना दिए बैठे है। एक एसडीएम तक को बर्खास्त तो क्या निलंबित नहीं करवा पा रहे हैं। यह किसानों की नहीं लोकतंत्र की हार है। दिल्ली में नौ महीनों से बैठे किसानों की सुनवाई न होना लोकतंत्र की हार के साथ ही पूरे विपक्ष की भी हार है। कछुआ केवल कहानियों में ही जीतता है। असल जिंदगी में कछुए व खरगोश की दौड़ होती ही नहीं है। परंतु लोकतंत्र न तो कछुआ है और न खरगोश। अपशब्द बोलने वाले अधिकारी को सजा न दे पाना राजनीतिक शासन तंत्र की बेचारगी का प्रतीक है। यह घटना हमें बता रही है कि अफसरशाही पूरी व्यवस्था पर हावी हो चुकी है और राजनीति व राजनीतिज्ञ कठपुतलियों की तरह पीछे से आ रहे आदेशों को दोहरा रहे हैं। व्यवस्था अंततः नागरिकों की रक्षा करने के लिए बनाई जाती है ना कि उन्हें दंडित करने के लिए।
ऑलिवर गोल्ड स्मिथ कहते हैं, ‘‘वो देश बदहाल होता है जहां दौलत इकट्ठा होने लगती है और इंसान का पतन होने लगता है।’’ करोड़ों किसान दौलत का विकेन्द्रीयकरण करते हैं। वे अपने पास कुछ भी जमा रख ही नहीं पाते। उनके द्वारा अर्जित धन हमेशा प्रचलन में रहता है, एक हाथ से दूसरे हाथ में आता - जाता रहता है। इसलिए यदि इस विश्व को बचना है तो उसे छोटी जोत की खेती को बचाना होगा। अडाणी - अंबानी महज प्रतीक हैं। पूरी दुनिया में खासकर विकसित देशों में नया नारा है ‘‘फूड इज गोल्ड’’ यानी खाद्यान्न सोना है। तो सोचिए समृद्ध समाज यह सोना छोटे, मझौले व गरीब किसान को की हतेली में क्यों डालेगा । वो तो इसे रोकेगा ही। भारत सहित दुनियाभर की सरकारें यहीं कर रहीं हैं।
भारत के किसान के लिए खुले में बैठना या सोना कोई अंजान स्थिति नहीं है। वह साल के आधे दिन ऐसे ही रहता है। वह जितने दिन खुले में रहेगा, लोकतंत्र उतना ही झुर्रीदार होता जाएगा। केंद्र सरकार से अपेक्षा रखना स्वयं को धोखे में रखना है। विपक्षी दलों के पास मौका है खुद को, भारत के लोकतंत्र को और संविधान को बचाने का। एक समानांतर राजनीतिक आंदोलन आज की अनिवार्यता है जो कि पूरी तरह किसानों को भूमिहीनों को, खेत मजदूरों को समर्पित हो। संभव हो तो गांधी के भारत लौटने के बाद के शुरुआती सालों की राजनीति और उनके हस्तक्षेप को समझें। हल उसी में छिपा है। क्योंकि सत्य तो हर काल में सत्य ही होता है।
भारतीय कृषि की वर्तमान स्थिति पर फुकुओका का की पुस्तक एक तिनके से क्रांति (वन स्ट्रा रिवोल्युशन) की ये पंक्तियां याद आती हैं। वे कहते हैं, ‘‘इंसान अपनी छेड़छाड़ से कुछ गलत कर बैठते हैं और उस नुकसान को सुधारते नहीं और जब तमाम दुष्प्रभाव इकट्ठे होने लगते हैं तो उन्हें सुधारने पर पिल पड़ते हैं। और जब सुधार संबंधी काम ठीक जान पड़ते हैं तो वे इसे बेहतरीन उपलब्धि मान बैठते हैं। लोग ऐसा बार - बार करते हैं। यह कुछ ऐसा है कि कोई बेवकूफ अपने ही घर की छत पर उछलकूद मचाए और छत के सारे कबेलू तोड़ डाले। बरसात में जब छत टपकने लगे तो उसे खपरेल की मरम्मत करे। अंततः इस बात की खुशी मनाए कि उसने कैसा अद्भुत समाधान ढूंढा है।
क्या हम भी यही नहीं कर रहे हैं ?
-रमेश अनुपम
‘नदिया के पार’ किशोर साहू के लिए छत्तीसगढ़ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने और हिंदी सिनेमा में दो नए-नए आए हुए दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को प्रमोट करने के लिए बनाई गई फिल्म थी।
छत्तीसगढ़ के लिए किशोर साहू के मन में गजब का आकर्षण और अपार प्रेम था। अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने जगह-जगह पर छत्तीसगढ़ के प्रति अपने इस प्रेम का इजहार किया है।
राजनांदगांव, सक्ती और रायगढ़ का जगह-जगह बखान किया है। सक्ती में उनके दादा आत्माराम साहू दीवान थे। उस समय वहां लीलाधर सिंह राजा थे। राजा साहब आत्माराम साहू का बहुत सम्मान करते थे। किशोर साहू की दूसरी और तीसरी कक्षा की पढ़ाई सक्ती में ही संपन्न हुई। किशोर साहू के दादा की मृत्यु सक्ती में हो जाने के पश्चात उनका पूरा परिवार भंडारा चला गया था।
चूंकि भंडारा महाराष्ट्र में है इसलिए वहां मराठी मीडियम से पढ़ाई-लिखाई होती थी। किशोर साहू छत्तीसगढ़ से हिंदी मीडियम से पढक़र गए थे इसलिए जाहिर है मराठी मीडियम उन्हें रास नहीं आ रहा था।
इसलिए किशोर साहू को हिंदी मीडियम में आगे पढऩे के लिए उनके मामा श्यामलाल महोबे जो उन दिनों बी.एन.सी.मिल्स. में असिस्टेंट इंजीनियर थे अपने साथ राजनांदगांव ले आए।
राजनांदगांव के स्टेट हाई स्कूल में सातवीं कक्षा में उनका दाखिला करा दिया गया। राजनांदगांव का जितना सुंदर वर्णन किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में किया है, वह अद्भुत है, वैसा वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है।
सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ किशोर साहू के प्राणों में धडक़ता था और राजनांदगांव उनकी आत्मा में बसता था।
राजनांदगांव छत्तीसगढ़ का पहला शहर था जहां सबसे पहले बिजली पहुंची थी। किशोर साहू ने 12 वर्ष की उम्र में सन 1928 में पहली बार बिजली राजनांदगांव में ही देखी थी। उस समय का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘राजनांदगांव रियासत अपने पूरे उत्थान पर थी। शहर पर बहार आई हुई थी। कुछ ही वर्षों पहले सर्वेश्वरदास गद्दी पर बैठे थे। राजा बनते ही उन्होंने शहर में बिजली लगवा दी, सडक़ें ठीक कराई, बाग के लिए बड़े वेतन पर लायक और डिग्री प्राप्त अनुभवी व्यक्ति को रखा जिससे शहर से लगा हुआ बलदेव बाग, जिसे उनके पूर्वज बलदेव दास ने लगाया था, खिल उठा।’
किशोर साहू ने राजनांदगांव के तीनों तालाब रानी सागर, लालसागर और बूढ़ा सागर का जिक्र और उसके विरल सौंदर्य का वर्णन अपनी इस आत्मकथा में शिद्दत के साथ किया है।
अब चलें किशोर साहू की फिल्मी यात्रा पर थोड़ा और नजर डालने।
‘नदिया के पार ’ को बहुत खूबसूरती के साथ पार करने के बाद किशोर साहू के पांव हिंदी सिनेमा के विराट समुद्र को लांघने की ओर बढ़ चले।
किशोर साहू पर हिंदी सिनेमा का जुनून सवार था। सफलता जैसे उनकी बाट जोहती हुई खड़ी थी। छत्तीसगढ़ के इस अनमोल रत्न के पास जैसे जादू की कोई छड़ी थी वे जिस पर भी अपनी छड़ी रख दें वह सोना हो जाए।
उन्होंने अपनी अगली फिल्म का नाम रखा ‘सावन आया रे’। यह फिल्म सचमुच किशोर साहू और हिंदी सिनेमा के लिए किसी सावन की तरह खुशगवार और बादलों की तरह अपार सफलता की बारिश करने वाला सिद्ध हुआ।
इस फिल्म की नायिका के रूप में उस जमाने की शोख नटखट चुलबुली नायिका रमोला को लिया गया। रमोला उन दिनों कोलकाता में रहती थी। किशोर साहू कोलकाता गए और रमोला से इस फिल्म के लिए बातचीत की। उस जमाने के सबसे सफलतम नायक , निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक किशोर साहू के साथ हर नायिका काम करने के लिए जैसे लालायित रहती थीं। रमोला को तो जैसे गड़ा हुआ कोई अनमोल खजाना हाथ लग गया था।
किशोर साहू ने अपनी इस नई फिल्म के माध्यम से हिंदी सिनेमा जगत में वर्षों से चली आ रही रूढि़ को भी तोड़ दिया। सन 1948 तक फिल्मों की सारी शूटिंग या तो स्टूडियो में होती थी या फिर बहुत ज्यादा हुआ तो बंबई के आस-पास शूटिंग कर ली जाती थी। आउटडोर शूटिंग उन दिनों प्रचलित ही नहीं थी। अपनी पूरी फिल्म यूनिट के साथ बंबई से बाहर जाकर फिल्म बनाने के बारे में तब तक किसी ने सोचा भी नहीं था।
किशोर साहू ने तय किया कि वे इस रूढि़ को तोड़ेंगे साथ में यह भी कि ‘सावन आया रे’ की सारी शूटिंग वे आउटडोर शूटिंग करेंगे। इसके लिए उन्होंने नैनीताल का चुनाव किया।
नियत समय पर किशोर साहू अपनी पत्नी प्रीति और पूरी फिल्म यूनिट के साथ तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार नैनीताल की वादी में पहुंच गए। नैनीताल में आउटडोर शूटिंग के निर्णय में उनकी पत्नी प्रीति का भी कोई कम योगदान नहीं था।
‘सावन आया रे’ 13 मई 1949 को बंबई के कृष्ण और कैपिटल थियेटर में रिलीज हुई और सुपर हिट फिल्म साबित हुईं । किशोर साहू और रमोला की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा के दर्शकों का ही दिल नहीं जीता वरन फिल्म समीक्षकों का भी दिल जीत लिया था। उस जमाने की सुप्रसिद्ध फिल्मी पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ ने लिखा-
‘किशोर साहू कृत ‘सावन आया रे’ निर्देशकों के लिए एक पाठशाला है- एक महाकाव्य’
‘संडे न्यूज ऑफ इंडिया’ ने लिखा-
‘1949 का सर्वश्रेष्ठ चित्र’
सबसे सुंदर ‘ईव्ज वीकली’ ने लिखा :
‘सावन आया रे’ किशोर साहू की विलक्षण रचनात्मक कलाकृति है। यह ऐसा प्रतिभाशाली व्यक्ति है, जिसका फिल्म उद्योग में कोई जोड़ नहीं।’
सचमुच उस समय हिंदी सिनेमा में किशोर साहू का कोई जोड़ नहीं था।
हिंदी फिल्म में किशोर साहू का अन्य कोई दूसरा विकल्प नहीं था।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
'ब्रिक्स' नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था में पांच देश हैं। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका ! इसकी 13 वीं बैठक का अध्यक्ष इस बार भारत है लेकिन ब्रिक्स की इस बैठक में अफगानिस्तान पर वैसी ही लीपा-पोती हुई, जैसी कि सुरक्षा परिषद में हुई थी। सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता भी भारत ने ही की है। भारत सरकार के पास अपनी मौलिक बुद्धि और दृष्टि होती तो इन दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण संगठनों में वह ऐसी भूमिका अदा कर सकती थी कि दुनिया के सारे देश मान जाते कि भारत दक्षिण एशिया ही नहीं, एशिया की महाशक्ति है। लेकिन हुआ क्या ? इस बैठक में रूसी नेता व्लादिमीर पूतिन ने भाग लिया तो चीन के नेता शी चिन फिंग ने भी भाग लिया।
द. अफ्रीका और ब्राजील के नेता भी शामिल हुए लेकिन रूस और चीन के राष्ट्रहित अफगानिस्तान से सीधे जुड़े हुए हैं। गलवान घाटी की मुठभेड़ के बाद मोदी और शी की यह सीधी मुलाकात थी लेकिन इस संवाद में से न तो भारत-चीन तनाव को घटाने की कोई तदबीर निकली और न ही अफगान-संकट को हल करने का कोई पक्का रास्ता निकला। पांचों नेताओं के संवाद के बाद जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ, उसमें वही घिसी-पिटी बात कही गई, जो सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों में कही गई थी। याने अफगानिस्तान के लोग 'मिला-जुला संवाद करेंÓ और अपनी जमीन का इस्तेमाल सीमापार के देशों में आतंकवाद फैलाने के लिए न करें। यह सब तो तालिबान नेता पिछले दो तीन महिनों में खुद ही कई बार कह चुके हैं। क्या यही बासी कढ़ी परोसने के लिए ये पांच बड़े राष्टों के नेता ब्रिक्स सम्मेलन में जुटे थे?
जहां तक चीन और रूस का सवाल है, वे तालिबान से गहन संपर्क में हैं। चीन ने तो करोड़ों रु. की मदद तुरंत काबुल भी भेज दी है। पाकिस्तान और चीन अब अफगान सरकार से अपनी स्वार्थ-सिद्धि करवाएंगे। भारत ब्रिक्स का अध्यक्ष था तो उसने यह प्रस्ताव क्यों नहीं रखा कि अगले एक साल तक अफगानिस्तान की अर्थ-व्यवस्था की जिम्मेदारी वह लेता है और उसकी शांति-सेना काबुल में रहकर साल भर बाद निष्पक्ष चुनाव के द्वारा लोकप्रिय सरकार बनवा देगी? भारत ने दूसरी बार यह अवसर खो दिया। वह दोहा-वार्ता में भी शामिल हुआ लेकिन किसी बगलेंझांकू की तरह। अमेरिका के अनुचर की तरह! अभी भी दक्षिण एशिया का शेर गीदड़ की खाल ओढ़े हुए हैं। वह तालिबान से सीधी बात करने से क्यों डरता है? यदि ये तालिबान पथभ्रष्ट हो गए और अलकायदा और खुरासान-गिरोह के मार्ग पर चल पड़े तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होगा। अफगानिस्तान की हालत वही हो जाएगी, जो पिछले 40 साल से है। वहां हिंसा का ताडंव तो होगा ही, परदेसियों की दोहरी गुलामी भी शुरु हो जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
गणेश चतुर्थी पर विशेष
-रमेश सर्राफ धमोरा
हिन्दू मान्यता के अनुसार हर अच्छी शुरूआत व हर मांगलिक कार्य का शुभारंभ भगवान गणेश के पूजन से किया जाता है। गणेश शब्द का अर्थ होता है जो समस्त जीव जाति के ईश अर्थात् स्वामी हो। गणेशजी को विनायक भी कहते हैं। विनायक शब्द का अर्थ है विशिष्ट नायक। वैदिक मत में सभी कार्य के आरंभ जिस देवता का पूजन से होता है वही विनायक है। गणेश चतुर्थी के पर्व का आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्व है। मान्यता है कि वे विघ्नों के नाश करने और मंगलमय वातावरण बनाने वाले हैं।
भारत त्योहारों का देश है और गणेश चतुर्थी उन्हीं त्योहारों में से एक है। गणेशोत्सव को 10 दिनों तक बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस त्योहार को गणेशोत्सव या विनायक चतुर्थी भी कहा जाता है। पूरे भारत में भगवान गणेश के जन्मदिन के इस उत्सव को उनके भक्त बहुत उत्साह के साथ मनाते हैं।
गणेश चतुर्थी का त्योहार महाराष्ट्र, गोवा, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु सहित पूरे भारत में काफी जोश के साथ मनाया जाता है। किन्तु महाराष्ट्र में विशेष रूप से मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान गणेश का जन्म हुआ था। गणेश चतुर्थी पर भगवान गणेशजी की पूजा की जाती है। कई प्रमुख जगहों पर भगवान गणेश की बड़ी-बड़ी प्रतिमायें स्थापित की जाती है। इन प्रतिमाओं का नौ दिन तक पूजन किया जाता है। बड़ी संख्या में लोग गणेश प्रतिमाओं का दर्शन करने पहुंचते है। नौ दिन बाद गणेश प्रतिमाओं को समुद्र, नदी, तालाब में विसर्जित किया जाता है।
गणेश चतुर्थी का त्योहार आने से दो-तीन महीने पहले ही कारीगर भगवान गणेश की मिट्टी की मूर्तियां बनाना शुरू कर देते हैं। गणेशोत्सव के दौरान बाजारों में भगवान गणेश की अलग-अलग मुद्रा में बेहद ही सुंदर मूर्तियां मिल जाती है। गणेश चतुर्थी वाले दिन लोग इन मूर्तियों को अपने घर लाते हैं। कई जगहों पर 10 दिनों तक पंडाल सजे हुए दिखाई देते हैं जहां गणेशजी की मूर्ति स्थापित होती हैं। प्रत्येक पंडाल में एक पुजारी होता है जो इस दौरान चार विधियों के साथ पूजा करते हैं। सबसे पहले मूर्ति स्थापना करने से पहले प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। उन्हें कई तरह की मिठाईयां प्रसाद में चढ़ाई जाती हैं। गणेशजी को मोदक काफी पंसद थे। जिन्हें चावल के आटे, गुड़ और नारियल से बनाया जाता है। इस पूजा में गणपति को लड्डूओं का भोग लगाया जाता है।
इस त्योहार के साथ कई कहानियां भी जुड़ी हुई हैं जिनमें से उनके माता-पिता माता पार्वती और भगवान शिव के साथ जुड़ी कहानी सबसे ज्यादा प्रचलित है। शिवपुराण में रुद्रसंहिता के चतुर्थ खण्ड में वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपने मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपाल बना दिया था। भगवान शिव ने जब भवन में प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इससे पार्वती नाराज हो उठीं। भयभीत देवताओं ने देवर्षि नारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया।
भगवान शिवजी के निर्देश पर विष्णुजी उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड़ पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्र पूज्य होने का वरदान दिया।
देश की आजादी के आंदोलन में गणेश उत्सव ने बहुत महत्वपूण भूमिका निभाई थी। 1894 मे अंग्रेजो ने भारत में एक कानून बना दिया था जिसे धारा 144 कहते हैं जो आजादी के इतने वर्षों बाद आज भी लागू है। इस कानून में किसी भी स्थान पर 5 से अधिक व्यक्ति इक_े नहीं हो सकते थे। और न ही समूह बनाकर कहीं प्रदर्शन कर सकते थे।
महान क्रांतिकारी बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 में वन्देमातरम नामक एक गीत लिखा था जिस पर भी अंग्रेजों प्रतिबंध लगाकर गीत गाने वालों को जेल में डालने का फरमान जारी कर दिया था। इन दोनों बातों से लोगों में अंग्रेजों के प्रति बहुत नाराजगी व्याप्त हो गई थी। लोगों में अंग्रेजों के प्रति भय को खत्म करने और इस कानून का विरोध करने के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक ने गणपति उत्सव की स्थापना की और सबसे पहले पुणे के शनिवारवाड़ा मे गणपति उत्सव का आयोजन किया गया।
1894 से पहले लोग अपने अपने घरों में गणपति उत्सव मनाते थे। लेकिन 1894 के बाद इसे सामूहिक तौर पर मनाने लगे। पुणे के शनिवारवडा के गणपति उत्सव में हजारों लोगों की भीड़ उमड़ी। लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजों को चेतावनी दी कि हम गणपति उत्सव मनाएंगे। अंग्रेज पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके दिखाए। कानून के मुताबिक अंग्रेज पुलिस किसी राजनीतिक कार्यक्रम में एकत्रित भीड़ को ही गिरफ्तार कर सकती थी। लेकिन किसी धार्मिक समारोह में उमड़ी भीड़ को नहीं।
20 अक्तूबर 1894 से 30 अक्तूबर 1894 तक पहली बार 10 दिनों तक पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव मनाया गया। लोकमान्य तिलक वहां भाषण के लिए हर दिन किसी बड़े नेता को आमंत्रित करते। 1895 में पुणे के शनिवारवाड़ा में 11 गणपति स्थापित किए गए। उसके अगले साल 31 और अगले साल ये संख्या 100 को पार कर गई। फिर धीरे -धीरे महाराष्ट्र के अन्य बड़े शहरों अहमदनगर, मुंबई, नागपुर, थाणे तक गणपति उत्सव फैलता गया। गणपति उत्सव में हर वर्ष हजारों लोग एकत्रित होते और बड़े नेता उसको राष्ट्रीयता का रंग देने का कार्य करते थे। इस तरह लोगों का गणपति उत्सव के प्रति उत्साह बढ़ता गया और राष्ट्र के प्रति चेतना बढ़ती गई।
1904 में लोकमान्य तिलक ने लोगों से कहा कि गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य स्वराज्य हासिल करना है। आजादी हासिल करना है और अंग्रेजो को भारत से भगाना है। आजादी के बिना गणेश उत्सव का कोई महत्व नहीं रहेगा। तब पहली बार लोगों ने लोकमान्य तिलक के इस उद्देश्य को बहुत गंभीरता से समझा। आजादी के आंदोलन में लोकमान्य तिलक द्धारा गणेश उत्सव को लोकोत्सव बनाने के पीछे सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य था। लोकमान्य तिलक ने ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों की दूरी समाप्त करने के लिए यह पर्व प्रारंभ किया था जो आगे चलकर एकता की मिसाल बना।
जिस उद्देश्य को लेकर लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव को प्रारंभ करवाया था वो उद्देश्य आज कितने सार्थक हो रहें हैं। आज के समय में पूरे देश में पहले से कहीं अधिक धूमधाम के साथ गणेशोत्सव मनाये जाते हैं। मगर आज गणेशोत्सव में दिखावा अधिक नजर आता है। आपसी सदभाव व भाईचारे का अभाव दिखता है। आज गणेश उत्सव के पण्डाल एक दूसरे के प्रतिस्पर्धात्मक हो चले हैं। गणेशोत्सव में प्रेरणाएं कोसों दूर होती जा रही हैं और इनको मनाने वालों में एकता नाम मात्र की रह गई है।
इस बार भी कोरोना महामारी के कारण लगी सरकारी पाबंदियों के चलते सार्वजनिक स्थानों पर गणेशोत्सव का भव्य आयोजन नहीं हो पायेगा। ऐसे में लोगों को अपने घरों में ही मिट्टी की गणेश प्रतिमा बनाकर उसका पूजन करना चाहिए। लागों को गणेश पूजन करते समय विश्व शांति की कामना करनी चाहिए। कोरोना के बढ़ते संक्रमण को रोकने के लिये गणेश पूजन करते समय भी हमें निर्धारित शारीरिक दूरी बनाये रखनी चाहिए। इस बार मन में गणेश पूजा करनी चाहिए। जो पैसा हम गणेशोत्सव मनाने पर हर बार खर्च करते थे उसे इस बार कोरोना से बचाव पर खर्च करें। इस साल के लिए यही सर्वश्रेष्ठ गणेश पूजा होगी।
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)
-अवधेश कुमार
भारत की अफगानिस्तान और तालिबान संबंधी नीतियों को लेकर जिस तरह के दुष्प्रचार और अफवाह बार-बार सामने आ रहे हैं उनसे आम भारतीय के अंदर भी कई प्रकार की आशंकाएं पैदा हो रही है। सोशल मीडिया पर सबसे बड़ा प्रचार यह हुआ कि भारत ने तालिबान को मान्यता दे दिया। यह भी कहा जा रहा है कि भारत ने गुपचुप तरीके से तालिबान से बातचीत की और उसके साथ काम करने को तैयार हो गया है। इसके पहले यह दावा किया जा रहा था कि सुरक्षा परिषद में भारत की अध्यक्षता में ही तालिबान को आतंकवादी संगठनों की सूची से बाहर कर दिया गया और भारत ने उसका समर्थन किया। इस तरह की खबरें अगर बार-बार सामने आए तो फिर संभ्रम और संदेह पैदा होना बिल्कुल स्वाभाविक है। तो सच क्या है?
सबसे पहले सुरक्षा परिषद संबंधी प्रस्ताव और मान्यता देने की खबरों पर बात करें। 15 अगस्त को तालिबान द्वारा काबुल पर आधिपत्य के बाद अगले दिन भारत की अध्यक्षता में 16 अगस्त को सुरक्षा परिषद की बैठक हुई और जो कुछ भी उसमें हुआ उसे एक बयान के रूप में जारी किया गया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति के हस्ताक्षर से जो बयान जारी किया गया उसे देखिए- ‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आंतकवाद से मुकाबला करने के महत्व का जिक्र किया है। ये सुनिश्चित किया जाए कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, और न ही तालिबान और न ही किसी अन्य अफगान समूह या व्यक्ति को किसी अन्य देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन करना चाहिए।’ दोबारा 27 अगस्त को काबुल हवाईअड्डे पर हुए बम विस्फोटों के एक दिन बाद फिर परिषद की ओर से एक बयान जारी किया गया। इसमें 16 अगस्त को लिखे गए पैराग्राफ को फिर से दोहराया गया। लेकिन इसमें एक बदलाव करते हुए तालिबान का नाम हटा दिया गया। इसमें लिखा था- ‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने के महत्व को दोहराया ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी भी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, और किसी भी अफगान समूह या व्यक्ति को किसी भी देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन नहीं करना चाहिए।’ तो इतना ही है। इसमें तालिबान को मान्यता देने या तालिबान को आतंकवादी संगठनों की सूची से निकालने की कोई बात नहीं है। यह अफवाह उड़ाने वालों का उद्देश्य क्या हो सकता है इसके बारे में आप अपना निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र है।
भारत ने अपने एक महीने की अध्यक्षता में पहल करके पहले अफगानिस्तान पर बैठक बुलाई और तालिबान का नाम लिए बिना आतंकवाद के बढ़ते खतरे को लेकर दुनिया को आगाह किया और उसमें समर्थन भी मिला। सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 2593 अफगानिस्तान को लेकर भारत की मुख्य चिंताओं को संबोधित करता है। आतंकवाद संबंधी प्रस्ताव पर नजर डालिए-‘अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी और देश पर हमले, उसके दुश्मनों को शरण देने, आतंकियों को प्रशिक्षण देने या फिर आतंकवादियों का वित्तपोषण करने के लिए नहीं किया जाएगा। इस प्रस्ताव में खासतौर पर जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का भी नाम लिया गया है। आज की परिस्थिति में भारत की दृष्टि से इससे अनुकूल प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता था।
अब आएं तालिबान के साथ बातचीत पर। 31 अगस्त को भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर जानकारी दी कि भारत ने तालिबान से बातचीत की है। विदेश मंत्रालय ने बताया कि कतर में भारत के राजदूत दीपक मित्तल ने तालिबान के दोहा राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्तनेकजई से दोहा स्थित भारतीय दूतावास में मुलाकात हुई जिसके लिए तालिबान ने अनुरोध किया था। तालिबान ने इसका खंडन नहीं किया। चूँकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि तालिबान के अनुरोध पर बातचीत हुई यानी भारत ने बातचीत और संपर्क की पहल नहीं की तो इसे शत-प्रतिशत सच मानना ही होगा। बातचीत हुई तो किन विषयों पर?
प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार भारतीय राजदूत ने अफगानिस्तान में फंसे भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और उनकी भारत वापसी पर विस्तृत बातचीत की तथा कहा कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी भी तरह से भारत विरोधी गतिविधियों और आतंकवाद के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसके अनुसार शेर मोहम्मद अब्बास स्तनेकजई ने आश्वासन दिया कि इन मुद्दों को सकारात्मक नजरिए से संबोधित किया जाएगा। ऐसे समय जब चीन, रूस, तुर्की, कतर जैसे देश तालिबान के साथ सहयोगात्मक रवैया अपना चुके हैं। अनेक देश उनके साथ काम करने के लिए आगे आ रहे हैं तथा एक बड़े समूह में दुविधा की स्थिति है। भारत ऐसी बातचीत के प्रस्ताव को ठुकराकर भविष्य के लिए जोखिम नहीं उठा सकता था। वैसे भी अफगानिस्तान में जो भारतीय हैं उनकी सुरक्षा या उनको वहां से वापस लाने के लिए इस समय तालिबान से ही बात करनी होगी। भारत का राष्ट्रीय हित इसी में है कि किसी तरह आतंकवादी समूह और पाकिस्तान अफगानिस्तान की भूमि का उपयोग भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए न कर पाए। इसके लिए तालिबान से बातचीत करने में कोई समस्या नहीं है। बातचीत का कतई अर्थ नहीं है कि भारत ने तालिबान को आतंकवादी मानना छोड़ छोड़ दिया या उन्हें बिल्कुल मान्यता ही दे दिया । तालिबान के नेताओं ने कई बार कहा है कि भारत इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण देश है और हम भारत से अच्छे रिश्ते चाहते हैं। उनके प्रवक्ताओं ने भारत को अपनी परियोजनाओं पर काम जारी रखने को भी कहा है। उनका यह भी बयान आया है कि तालिबान किसी भी देश के विरुद्ध अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। पर तालिबान की विश्वसनीयता इतनी संदिग्ध है कि हम उनके आश्वासन पर एकाएक भरोसा नहीं कर सकते। एक ओर तालिबान का यह बयान है तो दूसरी ओर यह भी कि जम्मू-कश्मीर सहित दुनिया भर के मुसलमानों के लिए आवाज उठाने का उसे अधिकार है। अल कायदा ने तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के साथ यह भी ऐलान कर दिया है कि जम्मू-कश्मीर को आजाद करने के लिए काम करेगा। तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद का बयान है कि चीन उसका सबसे निकट का साझेदार होगा। उसके अनुसार अफगानिस्तान चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का अंग बनेगा। तालिबान ने चीन को अपने खनिज पदार्थों के दोहन का भी खुला निमंत्रण दे दिया है ।
कहने का तात्पर्य कि भारत के लिए इसमें तत्काल आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति है। यह ऐसा समय है जिसमें भारत के लिए निर्णय करना अत्यंत कठिन है। अगर राजनीतिक मतभेद को अलग कर एक देश के हित के नाते हम विचार करेंगे तो सबका निष्कर्ष यही आएगा। एक बड़े वर्ग का आरोप है कि तालिबान और अफगानिस्तान को लेकर हमारी नीति अस्पष्ट है और यह उचित नहीं है। अगर थोड़ी गहराई से पिछले कुछ महीनों में तालिबान और अफगानिस्तान के संदर्भ में घट रही घटनाएं तथा तालिबान के आधिपत्य से अब तक भारतीय रवैया पर नजर डालें तो निष्कर्ष थोड़ा अलग आएगा। वास्तव में अस्पष्टता ही इस समय के लिए स्पष्ट नीति है। अस्पष्टता की बात कर आलोचना करने वाले का अपना मत हो सकता है लेकिन विचार तो सारी परिस्थितियों को एक साथ मिलाकर करना होगा। अमेरिका ने भी तालिबान को मान्यता देने या राजनयिक संबंध बनाने की बात नहीं की है। राष्ट्रपति जो बिडेन नहीं कहा है कि तालिबान का चरित्र क्रूर रहा है पहले देखना होगा कि वे अपने को बदलते हैं या नहीं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का भी बयान इतना ही है कि हम तालिबान के साथ बातचीत करना चाहते हैं। इसी तरह का विचार कई देशों का है और ज्यादातर देश अभी इस मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं। तालिबान के साथ तुरंत संबंध बनाने का सुझाव किसी दूरगामी विचार विमर्श से नहीं आया। यह कहना आसान है कि भारत की नीति गलत है और हम अफगानिस्तान से बाहर हो गए। यानी अफगानिस्तान में बने रहना है तो तालिबान को मान्यता दे देना चाहिए। यह बात अलग है कि मान्यता देने के अफवाह में भी इसके विरुद्ध तीखे स्वर ही हैं।
भारत के लिए यह तो जरूरी है कि किसी न किसी माध्यम से वह वहां संपर्क और संवाद में रहे। स्तनेकजई इसके लिए एक बेहतर व्यक्तित्व है । सैनिक जनरल का उनका प्रशिक्षण देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री अकादमी में हुआ। इस कारण भारत से उनके संबंध पुराने हैं। भारत के अनेक वर्तमान और पूर्व जनरलों से उनके व्यक्तिगत रिश्ते हैं । दोहा में भारतीय राजदूत से मुलाकात के पहले ही एक वीडियो संदेश में कहा था कि भारत के साथ हम व्यापारिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को बहुत अहमियत देते हैं और इस संबंध को बनाए रखना चाहते हैं। स्तनेकजई ने भारत द्वारा बनाए जा रहे चाबहार बंदरगाह को भी उन्होंने महत्वपूर्ण बताया। हम जानते हैं कि चाबहार बंदरगाह और उससे जुड़ी परियोजनाएं कारोबारी और रणनीतिक दृष्टि से कितने महत्वपूर्ण हैं। कोई तालिबान नेता इन सबके पक्ष में बयान दे रहा है और वह भारत से बातचीत का आग्रह करता है तो उसे हर दृष्टि से स्वीकार किया जाना चाहिए था। इस नाते भारत का यह बिल्कुल सही कदम था। 15 अगस्त को काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद भारत ने जब दूतावास खाली करना शरू किया था तब स्तनेकजई की तरफ से ही भारतीय अधिकारियों से संपर्क साधा गया था और कहा गया था कि भारत अपना दूतावास बंद नहीं करे। भारत इन परिस्थितियों में कोई जोखिम नहीं उठा सकता। हम चीन नहीं हैं जिसके लिए पाकिस्तान लगातार सक्रिय था और उसके माध्यम से चीन का तालिबानों के साथ तालमेल भी बन गया। भारत कतर और तुर्की भी नहीं है। अफगानिस्तान पर सर्वदलीय बैठक में सरकार की ओर से विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट कहा कि हम लगातार सक्रिय हैं, हमारे लिए राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकता है और इसके बाद हमारी व्यापारिक-रणनीतिक और अन्य आवश्यकताएं भी अफगानिस्तान से जुड़ी हैं। लेकिन आज की परिस्थितियों में तालिबान के नेतृत्व को लेकर हम जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहते। इसलिए वेट एंड वॉच यानी लगातार नजर रखना और समय की प्रतीक्षा करने की नीति पर चल रहे हैं। भारत के लिए इस समय यही सर्वाधिक सुसंगत और उपयुक्त नीति मानी जाएगी। लेकिन परिस्थिति बिल्कुल अलग है। हमारे लिए अफगानिस्तान में तालिबानों का आधिपत्य सबसे ज्यादा चुनौतियां का प्रश्न बन गया है। ऐसे समय अत्यंत ही सधे हुए और परिपच् विचार एवं व्यवहार की आवश्यकता है। अफवाह उड़ाने, अनावश्यक निंदा करने से देश को क्षति होगी। भारत की छवि कमजोर होती है।
-गिरीश मालवीय
कल शाम को फोर्ड मोटर्स द्वारा भारत में कामकाज समेटने की खबर आई। इस घटना पर देश के प्रमुख अखबार नवभारत टाईम्स ने यह खबर लगाई कि ‘फोर्ड ने रतन टाटा को औकात दिखाने की कोशिश की, टाटा मोटर्स ने ऐसे रौंदा कि ताले लग गए।’
यानी सरकार से इस बात का जवाब माँगने के बजाए कि फोर्ड जैसी कम्पनी भारत में बिजनेस क्यों बंद कर रही है मीडिया देश की जनता को बरगलाने में लगी है कि फोर्ड तो इसलिए भाग खड़ी हुई क्योंकि उसे टाटा मोटर्स ने पीट दिया उसे धूल चटा दी।
परसाई ने लिखा है ‘शर्म की बात पर हम ताली पीटते है इस समाज का क्या ख़ाक भला होगा।’
पिछले दिनों देश की सबसे बड़ी ऑटो कंपनी मारुति सुजुकी इंडिया के चेयरमैन आर सी भार्गव ने वाहन उद्योग संगठन सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैनुफैक्चरर्स (एसआईएएम) के 61वें सालाना सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि सरकारी अधिकारी ऑटो इंडस्ट्री को सपोर्ट देने के बारे में बयान तो बहुत देते हैं, लेकिन जब बात सही में कदम उठाने की आती है, वास्तव में कुछ नहीं होता। उन्होंने कहा, ‘हम ऐसी स्थिति से गुजर रहे हैं, जहां इस उद्योग में लंबे समय से गिरावट आ रही है।
आर सी भार्गव ने इस भाषण में एक बहुत महत्वपूर्ण आंकड़ा दिया, उन्होंने कहा कि अगर वाहन उद्योग को अर्थव्यवस्था तथा विनिर्माण क्षेत्र को गति देना है, देश में कारों की संख्या प्रति 1,000 व्यक्ति पर 200 होनी चाहिए जो अभी 25 या 30 है। इसके लिए हर साल लाखों कार के विनिर्माण की जरूरत होगी।
इसका अर्थ यह है कि पैसेंजर कार मार्केट में ग्रोथ की बहुत बड़ी संभावना अभी भी मौजूद है ऐसे में फोर्ड का जाना मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर प्रश्नचिन्ह लगने के समान है लेकिन न ही मीडिया इस घटना को ऐसा दिखा रहा है कि फोर्ड टाटा मोटर्स से डरकर भाग खड़ा हुआ
मारुति सुजुकी के चेयरमैन आर सी भार्गव ने इस भाषण में मंच पर उपस्थित अमिताभ कांत (नीति आयोग के सीईओ) से पूछा कि , ‘क्या हम आश्वस्त हैं कि देश में पर्याप्त संख्या में ग्राहक हैं जिनके पास हर साल लाखों कार खरीदने के साधन हैं? क्या आय तेजी से बढ़ रही है? क्या नौकरियां बढ़ रही है ?
हम जानते ही है कि छोटी बजट कारों की खरीद मुख्यत: मध्यम वर्ग करता है, अगस्त में 15 लाख नौकरी जाने की खबर आई है यानी देश का मध्य वर्ग बुरी तरह से परेशानियों से जूझ रहा है फोर्ड भी समझ गई है कि इन तिलों में तेल नहीं है इसलिए उसने अपना बोरिया बिस्तर समेट लिया है।
-सुसंस्कृति परिहार
अजीब बात है जब कोई आंदोलन चरम पर होता है उसके साथ बड़ा हुजूम समर्थन में खड़ा हो ही जाता है तो एक फिकरा ज़रुर सामने आता है कि यह सब राजनीति है और इसके पीछे विरोधियों का हाथ है।जबकि मूल बात आंदोलनकारियों की मांगे होती हैं जिनकी पूर्ति यदि हो जाती है तो आंदोलन सहजता से समाप्त हो जाते हैं।ऐसा कई दफ़े राज्य और केंद्र सरकारों ने किया है।कभी कभी पूरी मांगे नहीं मानी जाती कुछ मांगों की पूर्ति कर आंदोलन ख़त्म किये गए हैं जो स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था के परिचायक हैं।
पिछले सात साल से ये सब सिरे से गायब है। हरेक आंदोलनों को बुरी तरह कुचला गया है यहां तक कि शिक्षा देने वाली महिलाओं तक पर लाठी प्रहार हुए हैं। मध्यप्रदेश हो या उत्तर प्रदेश वहां की सरकारों ने नियुक्ति मांग रहे शिक्षक शिक्षिकाओं को इस कदर परेशान किया हैं कि उन्हें अदालतों से निर्णय लेने मज़बूर होना पड़ा। नौकरियों के लिए आंदोलन करते हुए उच्चशिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की जिस तरह सरकारों ने फजीहत की।वह सबकी जानकारी में है।किसी सामाजिक समस्या को लेकर हुए प्रदर्शनों को भी इस दौरान बुरी तरह रौंदा जाता है कि अब जैसे आंदोलन करना जुर्म बन गया है। फिर भी बीएसएनएल, बीमा कंपनियों, बैंक, रेल, स्वास्थ्य आदि विभाग के कर्मचारियों ने शालीन तरीके से आवाज उठाई है पर उसे भी अनसुना किया गया। हां, इस बीच एनआरसी के ख़िलाफ़ शाहीन बाग आंदोलन ने ज़रूर अपना रुतबा कायम किया। दुनिया में पहली बार इस आंदोलन में महिलाओं की भारी भागीदारी की चर्चाएं हुईं। लंबे समय चले इस आंदोलन को कोरोना की वज़ह से जबरिया पुलिस के बल पर ख़त्म कराया गया पर उनकी मांगे आज भी ठंडे बस्ते हैं। विदित हो,ये सभी आंदोलन शांति पूर्ण और अहिंसात्मक रुप से चलाए गए। कहीं कभी कोई गड़बड़ी नहीं हुई।
ऐसे ख़तरनाक दौर में आज का सबसे बड़ा आंदोलन किसान आंदोलन दसवें माह में प्रवेश कर चुका है।उनकी मांगों पर कोई समझौता नहीं हो सका है क्योंकि सरकार एक कदम भी पीछे हटने तैयार नहीं तो किसान क्यों पीछे हटने वाले हैं?ये तीनों कृषि बिल जिन्हें किसान काले कानून कहता है उनकी रीढ़ तोड़ कर उनके खेत-खलिहान और उत्पादन छीनने वाले हैं। सरकार ने अपने पूंजीपति मित्रों की खातिर यह बिल आनन-फानन में पास कराए थे।जिस पर ना तो सदन में चर्चा हुई और ना कृषक नेताओं से कोई सलाह मशविरा किया गया। तकरीबन दस बार किसानों से दिखाऊ वार्ता की कोशिशें हुई आंदोलन तोड़ने के षड्यंत्र भी किए गए पर कहीं सरकार को कामयाबी नहीं मिली।बल्कि सड़क से टिकैत को उठाने की बर्बर कार्रवाई के बाद टिकैत के आंसुओं ने आंदोलन की धार को और तेजतर कर दिया।
जब सरकार ने किसानों को सुनने से इंकार किया तब उन्होंने खुद की संसद चलाई अपने विचार उन तक पहुंचाने की पुरजोर कोशिश की।यह भी दांव जब सफल नहीं रहा तो किसानों ने जनता के बीच जाने का फैसला किया है और वे महापंचायत करके अब सरकार को कठघरे में खड़ा करने प्रतिबद्ध हैं।इसे ही राजनीति प्रेरित कहा जा रहा है। किसानों को समर्थन देने अन्य दलों के लोग वहां पहुंच रहे हैं तो कैसी आपत्ति? उनके साथ बड़ी संख्या में सामाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, कलाकार और सांस्कृतिक जत्थे जुड़ रहे हैं तो दर्द कैसा ? किसान मोर्चा प्रतिबद्ध है वे चुनाव नहीं लड़ेंगे अब कोई राजनैतिक दल इसका फायदा ले ले तो उनकी क्या गलती। उनमें से कोई चुनाव लड़ने भी खड़ा हो जाए तो यह भी उनका अपना अधिकार होगा। सात आठ माह जो किसान भाजपा सरकार में अपनी मुक्ति देखते रहे हों उनका इस तरह मोहभंग होगा ये किसी ने सोचा नहीं होगा। उत्तर प्रदेश हो या उत्तराखंड या अन्य कोई राज्य, किसान मोर्चा हर जगह इस सरकार को शिकस्त देने पहुंचेगा और ये तय है वे रुकने वाले नहीं हैं।तुम्हें जितने अपने अडानी अंबानी पसंद हैं उससे कहीं ज़्यादा उन्हें अपनी ज़मीन और मेहनत से प्राप्त अन्न पसंद हैं जिसकी वे होली, दीपावली मनाकर खुशियां मनाते हैं। उनके साथ सारा देश भी खुशी मनाता है।
यह किसान ही एकमात्र ऐसा उत्पादक है जो अपने श्रम का मूल्य निर्धारित नहीं करता ये सरकार पर छोड़ता है।पर जब लागत बढ़ जाए तो उसी अनुपात में मूल्य सरकार को बढ़ाना चाहिए। इसे एम एस पी कहते हैं।अभी अभी सरकार ने फिर किसानों को बेवकूफ़ बनाने के लिए जो नया मूल्य निर्धारण किया है वह इतना कम है कि उस पर बात नहीं बन सकती। आईए गेहूं को ही देख लीजिए मात्र चालीस पैसे प्रति किलोग्राम रेट बढ़ाए हैं एक क्विंटल पर चालीस रुपए। यानि गेहूं की कीमत 1975 प्रति क्विंटल से बढ़ा कर 2015 कर मात्र 2 प्रतिशत की वृद्धि की गई है। यह महंगाई की मार से दिवालियापन की स्थिति तक पहुंचे किसानों के जले पर नमक छिड़कना जैसा है।
सरकार ने दावा किया हुआ है कि उसने स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू कर दिया है। इस रिपोर्ट के अनुसार किसानों की जुताई, सिंचाई खाद, बीज, बिजली, कीटनाशक आदि की लागत+ उसका श्रम और देखरेख का खर्च+ उगायी गयी फसल वाली जमीन का किराया जोड़ कर एमएसपी निर्धारित किया जाना चाहिए। लेकिन सरकार ने इस बीच डीजल पेट्रोल बिजली के दाम आसमान पर पहुंचा दिये, खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर और अन्य क्रषी उपकरणों के दामों में भारी बढ़ोत्तरी कर दी, अब प्रमुख फसलों पर मात्र 2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर एमएसपी को बेमानी बना दिया है।यही हाल अन्य जिन्सों का है।
भाकपा के उत्तर प्रदेश राज्य सचिव डाॅ गिरीश ने कहा है कि लगता है देश भर में चल रहे ऐतिहासिक किसान आंदोलन से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और किसानों की परेशानी बढ़ाने वाला असरहीन एमएसपी घोषित कर दिया। इस धोखाधड़ी से किसानों में और भी गुस्सा बढ़ेगा और किसान आंदोलन और व्यापक होगा।
ये तमाम बिगड़ती परिस्थितियां यकीनन देश में एक सरकार विरोधी लहर को जन्म दे रहीं हैं। इससे साफ़ तौर पर यह दिखाई देने लगा है कि आगत चुनावों में किसान आंदोलन की अहम भूमिका रहेगी। जिसकी शुरुआत मुजफ्फरनगर से हो चुकी है।यह मुहिम निरंतर विस्तार लेगी इसमें शकोसुबह की कोई गुंजाइश नहीं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान में तालिबान ने अंतरिम सरकार की घोषणा कर दी है। इसके 33 मंत्रियों की सूची को ध्यान से देखने पर लगता है कि इसमें ज्यादातर मंत्री पख्तिया और कंधार के हैं। इन दो प्रांतों में गिलजई पठानों का वर्चस्व रहा है। अफगानिस्तान के राष्ट्रगान में 14 तरह के लोगों को गिनाया गया है लेकिन इस मंत्रिमंडल में पठानों के कई प्रमुख कबीलों को भी जगह नहीं मिली है। अन्य लोगों— बलूच, उजबेक, हजारा, तुर्कमान, ताजिक, अरब, गुर्जर, पामीरी, नूरिस्तानी, बराहवी, किजिलबाश, ऐमक, पशाए, हिंदू और सिखों आदि को कहीं कोई स्थान नहीं मिला है। सिर्फ दो ताजिक और एक उजबेक को इस सरकार में जगह मिली है। 33 में से ये तीन गैर-पठान लोग वे हैं, जो तालिबान के गहरे विश्वासपात्र रहे हैं और जिन्हें इनकी अपनी जातियां न तो अपना प्रतिनिधि मानती हैं और न ही अपना हितैषी।
अब कोई पाकिस्तानी फौज से पूछे कि आप जो मिली-जुली सरकार की बातें बार-बार दोहरा रहे थे, उसका क्या हुआ ? क्या वह कोरा ढोंग था? पाकिस्तान की सक्रिय मदद से तालिबान ने पंजशीर घाटी पर कब्जा किया लेकिन क्या अब वह पाकिस्तान की भी नहीं सुनेगें? ऐसा लगता है कि तालिबान, संपूर्ण विश्व-जनमत की भी अनदेखी कर रहे हैं। तालिबान के प्रधानमंत्री सहित ऐसे कई मंत्री हैं, जिन्हें संयुक्तराष्ट्र संघ ने आतंकवादी घोषित कर रखा है और उनके सिर पर एक करोड़ और 50-50 लाख डॉलर के इनाम रख रखे हैं। कुछ मंत्री ऐसे हैं, जो ग्वांनटेनामो की जेल भी काट चुके हैं। हक्कानी गिरोह के मुखिया सिराजुद्दीन हक्कानी को गृहमंत्री और उसके अन्य साथी भी मंत्री बनाए गए हैं। यह वही गिरोह है, जिसने हमारे काबुल के राजदूतावास पर 2008 में हमला करके दर्जनों हत्याएं की थीं।
दूसरे शब्दों में काबुल में फिलहाल जो सरकार बनी है, उसमें पुराने भारत-विरोधी तत्वों की भरमार है। मुल्ला अब्दुल गनी बिरादर को प्रधानमंत्री बनाने की बजाय मुल्ला हसन अखुंड को प्रधानमंत्री बनाया गया है। मुल्ला बिरादर और शेरु स्थानकजई जैसे उदार और मर्यादित लोग पीछे खिसका दिए गए हैं। जाहिर है कि तालिबान की यह सरकार उनकी 25 साल पुरानी सरकार-जैसी ही है। इसका लंबे समय तक टिके रहना मुश्किल है। यदि यह चीन और पाकिस्तान के टेके पर टिक भी गई तो कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ ही दिनों में इन दोनों राष्ट्रों का भी मोहभंग हो जाए। क्या पता कि काबुल की तालिबानी सरकार डूरेंड लाइन का विरोध करने लगे और चीन के उइगर मुसलमानों का समर्थन करने लगे। दुर्भाग्य है कि तालिबान से सीधा संवाद टालकर भारत सरकार ने एक सुनहरा मौका खो दिया। वह अमेरिका का पिछलग्गू बना रहा। अब भी हमारे विदेश मंत्री वगैरह अमेरिका और रूस के सुरक्षा अफसरों से मार्गदर्शन ले रहे हैं। उन्हें समझ नहीं पड़ रहा है कि वे क्या करें। अफगान जनता के मन में भारत के लिए जो सम्मान है, वह किसी भी देश के लिए नहीं है। अफगान जनता के समर्थन के बिना तालिबान का अब काबुल में टिके रहना मुश्किल है। देखते है कि सत्तारूढ़ होने के पहले तालिबान प्रवक्ताओं ने जो कर्णप्रिय घोषणाएं की थीं, उन पर उनकी यह अंतरिम सरकार कहां तक अमल करती हैं?
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं। वे अफगान नेताओं के साथ सतत संपर्क में हैं।)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. लखन चौधरी
नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन योजना के अंतर्गत सरकार आने वाले चार साल में रेल्वे, एयरपोर्ट और हाईवे जैसी प्रॉपर्टीज के इस्तेमाल के अधिकार बेचकर 6 लाख करोड़ रुपए (81 बिलियन डॉलर) जुटाने की तैयारी कर रही है। इसके लिए सरकार ने रोडमैप जारी कर दिया है। केंद्र सरकार संपत्तियों के नियत अवधि तक इस्तेमाल का अधिकार बेचकर और इनविट जैसे निवेश के अन्य तरीकों से अपना खजाना भरने और वित्तीय घाटे को काबू में रखने की योजना को अमलीजामा पहना रही है। सरकार का तर्क है कि इससे इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को लॉन्ग टर्म में सपोर्ट मिलेगा। पुराने और चालू हालत वाले एसेट्स में निजी निवेश आकर्षित करने की इस योजना को सरकार ने नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन का नाम दिया है। देखना है कि यह योजना कितनी सफल होगी और देश के निजी कार्पोरेट घरानों, उद्योगपतियों एवं पूंजीपतियों को कितनी आकर्षित करेगी ?
इस योजना के तहत सडक़, रेलवे संपत्तियों, एयरपोर्ट, पावर ट्रांसमिशन लाइनों और गैस पाइपलाइनों को बेचे बिना उनमें निजी क्षेत्र का निवेश लाया जाएगा। मॉनेटाइजेशन का पैसा इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ाने में लगाया जाएगा। सरकार के अनुसार नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन योजना अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए प्रमुख भूमिका निभाएगी। सरकार पब्लिक प्रॉपर्टी में निजी निवेश लाने के लिए उनको मॉनेटाइज करेगी। इससे जो भी रकम आएगी उसका इस्तेमाल देश के इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ाने एवं मजबूत करने में किया जाएगा। जिन संपत्तियों का पूरा वित्तीय इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है, उनको बेहतर बनाने के लिए निजी क्षेत्र को साथ लाया जाएगा। पब्लिक प्रॉपर्टी को नहीं बेचा जाएगा और उनका मालिकाना हक सरकार के पास रहेगा। इस योजना के तहत सिर्फ केंद्र सरकार की संपत्तियों का मॉनेटाइजेशन किया जाएगा।
राज्यों को अपने एसेट मॉनेटाइज करने को बढ़ावा देने के लिए केंद्र उनको इनसेंटिव देगा। उनको 50 साल का बिना ब्याज का लोन दिया जाएगा, जिसके लिए इस वित्त वर्ष के बजट में 5,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। अगर राज्य मॉनेटाइज करते हैं, तो केंद्र 33 फीसदी की वित्तीय सहायता देगा। राज्य अपनी किसी कंपनी को बेचते हैं, तो केंद्र उससे मिलने वाली रकम के बराबर वित्तीय सहायता देगा। अगर वे उसको शेयर बाजार में लिस्ट कराते हैं, तो उससे मिलने वाली रकम का आधा हिस्सा और अगर उसको मॉनेटाइज करते हैं, तो केंद्र 33 फीसदी हिस्सा सहायता के तौर पर देगा। योजना के तहत 20 से ज्यादा एसेट क्लास मॉनेटाइज किए जाएंगे। नीति आयोग के अनुसार नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन के तहत 20 से ज्यादा एसेट क्लास को मॉनेटाइज किया जाएगा। इसके तहत पहले साल यानी मौजूदा वित्त वर्ष में 88,000 करोड़ रुपए जुटाने की योजना बनाई गई है।
एनएमपी के टॉप 3 सेक्टर में रोड, रेलवे और पावर सेक्टर शामिल होंगे। इसका मकसद पब्लिक प्रॉपर्टी में सरकारी निवेश की पूरी कीमत वसूल करना है। अगले चार साल में 15 रेलवे स्टेडियम, 25 एयरपोर्ट और 160 कोयले की खानों को मॉनेटाइज किया जाएगा। निजी क्षेत्र के निवेशक एसेट का इस्तेमाल करेंगे और तय समय के बाद सरकार को लौटा देंगे। जिन उपक्रमों के गोदाम पुराने हो गए हैं उनकी जगह नए और बेहतर सुविधाओं वाले गोदाम बनाने के लिए निजी क्षेत्र को आगे लाया जाएगा। निजी क्षेत्र के निवेशक गोदाम बनाने के बाद उनको निश्चित अवधि तक इस्तेमाल करेंगे और फिर उनको वापस सरकार को लौटा देंगे।
निजीकरण पर कांग्रेस ने सरकार पर हमला बोलते हुए कहा है कि देश में 70 साल में जो भी पूंजी बनी, मोदी सरकार ने उसे बेच रही है। देश के प्रधानमंत्री सब कुछ बेच रहे हैं। सरकार 1.50 लाख करोड़ में रेलवे बेच रही। रेलवे के 400 स्टेशन, 150 ट्रेनें और रेलवे ट्रैक बेच रही है। वेयरहाउसिंग बेचने की तैयारी में सरकार 1.6 लाख करोड़ रुपए का 26,700 किलोमीटर नेशनल हाई-वे, 42,300 पावर ट्रांसमिशन, 8 हजार किलोमीटर की गेल की पाइपलाइन, 4 हजार किलोमीटर की पेट्रोलियम पाइपलाइन, 2.86 लाख करोड़ की केबल कनेक्टिविटी और 29 हजार करोड़ रुपए की वेयरहाउसिंग को बेच रही है। केंद्र सरकार माइनिंग, 25 एयरपोर्ट, 9 पोर्ट और 31 प्रोजेक्ट्स भी बेच रही है। नेशनल स्टेडियम भी बेचने की तैयारी की जा रही है। कांग्रेस का तर्क है कि वह निजीकरण के खिलाफ नहीं है, लेकिन कांग्रेस सरकार मोनोपॉली को खत्म करने के लिए रणनीतिक क्षेत्रों में निजीकरण से परहेज करती है। जिन क्षेत्रों में नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन प्रोग्राम लागू किया जा रहा है, वे सभी स्ट्रेटेजिक सेक्टर हैं, जहां अब मोनोपॉली आएगी। प्रधानमंत्री मोदी इस देश के क्राउन ज्वेल्स को बेच रहे हैं। नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन की वजह से देश में बेरोजगारी बढ़ेगी। यह देश के युवाओं पर हमला है।
1991 के आर्थिक सुधारों के बाद यह वह समय है जब अर्थव्यवस्था को लेकर इस कदर घमासान चल रहा है। सरकार लगातार सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेशीकरण या निजीकरण करती जा रही है। दशकों से बनी-बनाई या जमी-जमाई अरबों-खरबों की संपत्तियों एवं सरकारी संस्थानों को कौडिय़ों के दाम पर निजी कार्पोरेट घरानों को सौंपे जा रहे हैं। बैंकिंग सेक्टर, भारतीय जीवन बीमा, रेल्वे, एयरपोर्ट, रेल्वे स्टेशन, सडक़ों को प्रायवेट सेक्टर को देकर सरकार अर्थव्यवस्था को चमकाना चाहती है। सरकार के इन निर्णयों से अर्थव्यवस्था की स्थिति कितनी चमकेगी या कितनी सुधरेगी यह तो भविष्य में पता चलेगा लेकिन इतना तय है कि इससे सार्वजनिक उपक्रमें चरमराकर धीरे-धीरे खत्म होने लगेंगी।
दरअसल में सरकार अपनी आर्थिक नीतिगत नाकामी, अक्षमता को छिपाने के लिए लगातार इस तरह के निर्णय लेकर जनमानस को भ्रमित करते रहना चाहती है। इससे अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद व्यर्थ है, क्योंकि विशालतम आबादी वाले देश में निजीकरण से विकास के सपने पूरे हो नहीं सकते हैं। दरअसल में नोटबंदी और जीएसटी के झटकों से उबरने के पहले कोरोना की मार ने अर्थव्यवस्था को झकझोर दिया है। अब सरकार वृहद एवं व्यापक पैमाने पर चौतरफा निजीकरण करना चाहती है। सरकार का यह निर्णय बेहद चिंताजनक एवं दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो सार्वजनिक उपक्रम फायदे में चल रहे हैं, उसमें निजीकरण का क्या औचित्य है ? ऐसे में चिंता स्वाभाविक है। सरकार अमेरिका, यूरोप के नक्शेकदम पर चलकर देश को निजी कार्पोरेट कंपनियों के हाथों सौंपना चाहती है। सरकार मिश्रित अर्थव्यवस्था वाली भारत को पूंजीवादी बनाना चाहती है? याद रहे भारत महज एक देश नहीं है, भारत एक ऐसा उपमहाद्वीप है, जिसकी जनसंख्या अमेरिका से चार गुनी और पूरे यूरोप से दोगुनी से भी अधिक है।
-प्रीति चांडक
हर साल 10 सितंबर विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसे मनाने का उद्देश्य लोगों को आत्महत्या करने से रोकना एवं इसके प्रति जागरूकता फैलाना है।
आत्महत्या क्या है? अपनी मर्जी से मरना या खुद को खत्म करना आत्महत्या हैं।
सोचने वाली बात है कि हर व्यक्ति दीर्घायु जीवन जीना चाहता है, पर ऐसी क्या मजबूरी होती है कि वह समय से पहले ही मौत को गले लगा लेता है?
दोस्तों जिन व्यक्ति में तनावया निराशा ज्यादा होता है और जब यह निराशाअवसाद में बदल कर चरम सीमा में पहुंच जाती है तब व्यक्ति को चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा नजर आने लगता है और उसे जीने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती है। वह इतना मजबूर हो जाता है कि उसे अपनी समस्या से निपटने के लिए जीने से बेहतर मरना आसान लगता है। अफसोस होता है कि काश हमने उनके लिए कुछ किया होता। हमने उनसे उनकी समस्या पूछी होती या फिर बस इतना ही कहा होता कि ‘‘मैं तुम्हारे साथ हूं’’ तो शायद हालात कुछ और होते।
जैसा कि इस वर्ष का थीम है 'creating hope through action' कार्यवाही (कर्म) के माध्यम से आशा जगाना-दोस्तों अब वक्त है कि किस प्रकार हम कर्म से और कार्यवाही से ऐसे लोगों में जीने की उम्मीद जगा सके। हमारे कार्य चाहे कितने भी छोटे हो, संघर्ष करने वालों को आशा प्रदान कर सकते हैं ।कार्यों के माध्यम से आप किसी को उनके सबसे कठिन क्षणों में समाज के सदस्य के रूप में, माता-पिता के रूप में, जीवनसाथी के रूप में, या फिर मित्र और सहकर्मी के रूप में मदद कर सकते हैं। शोध कहते हैं हर 10 में से 8 व्यक्ति आत्महत्या से पहले कुछ संकेत देते हैं।
1. आत्मघाती विचार आ रहे व्यक्तियों में निम्न लक्षण- - खुद को मारने के बारे में सोचना, अपने आप को बहुत समझना, खुद को अकेला महसूस करना, किसी प्रकार के जाल में फंसा महसूस करना, अचानक नशा करना या ज्यादा नशे का सेवन करना, घर परिवार से दूर कहीं चले जाने की बात कहना, आक्रमक व्यवहार, खुद को असहाय समझना, किसी भी क्रियाकलाप में शामिल नहीं होना, और हमेशा नकारात्मक बातें करना।
2. आत्मघाती विचार के कारण निम्न है-असाध्य रोग, जीवन साथी से अलगाव या जीवन साथी की मृत्यु, शारीरिक शोषण, मानसिक विकार, बुलिंग/रैगिंग, आर्थिक क्षति, प्रताडऩा, या प्रेम प्रसंग में असफलता।
3. आत्मघाती विचार वाले व्यक्ति क्या करें- मेडिटेशन करें, पर्याप्त नींद ले, संतुलित भोजन करें, अपनी बातों को किसी विश्वसनीय व्यक्ति से साझा करें, अपने अंदर कुछ रचनात्मक सृजन करें, प्रार्थना करें, जब भी नकारात्मक विचार आए तो मन को डाइवर्ट करें, अपने किसी भी फेवरेट काम मेंऔर मनोवैज्ञानिक/मनोचिकित्सक की सलाह ले।
4. एक सपोर्टर के रूप में हम क्या कर सकते हैं : खुल कर बात करें, ऐसे व्यक्ति जिनमें आत्मघाती विचार आ रहे हैं उनसे खुलकर बात कीजिए यह बिल्कुल न सोचे कि उनसे अगर आत्महत्या के बारे में पूछेंगे तो कहीं उनकी तीव्रता न बढ़ जाए।
आप कैसे हैं? क्या आप ठीक हैं? मैं आपकी किस प्रकार मदद कर सकता हूं? इस प्रकार से पूछ कर आप उनकी समस्या थोड़ी कम कर सकते हैं। नॉन जजमेंटल रहे हैं- उन्हें विश्वास दिलाये कि आप उनकी समस्या को समझ रहे हैंऔर उनसे ऐसी कोई बात न करें जिससे वह खुद को दोषी माने। उनसे कहिए कि आप हमेशा उनके साथ है इसलिए एक वह प्रॉमिस करें कि जब तक आप उनकी समस्या का कोई हल नहीं निकाल लेते तब तक वह खुद को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाएंगे।
यह भी आवश्यक है ऐसी चीजें दूर राखी जाएँ जिन्हें देखकर उन्हें बुरी यादें याद आती हो। घातक चीजों को भी उनकी पहुंच से दूर रखें। उन्हें अकेला न छोड़े और उन्हें यह एहसास दिलाने की कोशिश कीजिए कि उनकी जिंदगी खुद के लिए और उनके परिवार वालों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है।
दोस्तों अगर हम थोड़ा समय, थोड़ी संवेदना थोड़ी उम्मीद जगायेंगे तो निश्चित रूप से हम एक जिंदगी बचा सकते हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि उस एक जिंदगी के पीछे बहुत सारी जि़ंदगियाँ जुड़ी होती है।
प्रीति चांडक, जिला अस्पताल, नारायापुर में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट है।
आत्महत्या के विचार आते हों तो 104 नंबर पर फोन करें।
हर जिला अस्पताल में स्पर्श क्लिनिक में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में सलाह और उपचार नि:शुल्क उपलब्ध है।
मानसिक रोगों का नाम गुप्त रखा जाता है।
-सुसंस्कृति परिहार
पिछले दिनों दमोह से तकरीबन 65 किमी दूर जबेरा के ग्राम बनिया में कई सालों बाद एक भूली-बिसरी रस्म को दोहराया गया जिसने यह साबित कर दिया कि जिले में अभी भी अंधविश्वास और प्राचीन रस्मों में भरोसा कायम है। ज्ञातव्य हो दमोह जिला इस साल अब तक हुई कम वर्षा की वजह से सूखे की चपेट में है। खेतों में खड़ी धान और सोयाबीन की लहलहाती फसलें सूखने लगीं हैं। जिले का जबेरा क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित है।
कहते हैं जब आसमान बारिश के बादलों से ढंका रहता है किन्तु पानी नहीं गिरता। इस अजीबोगरीब हालात में लोग कहते हैं कि किसी ने नमक गाड़कर टोटका किया है ताकि पानी न गिरे। यह इल्जाम व्यापारियों के नाम जाता है क्योंकि उसकी तमन्ना होती है पानी न बरसेगा तो वह अपने यहां रखा अनाज ऊंचे दाम में बेच देगा। आदिवासी अंचलों में ओला, पानी बांधने वाले भी मिलते हैं जो आकर मंत्र-तंत्र से जमीन बांध देते हैं। वे कहते हैं बांधी हुई जमीन पर ओला नहीं गिरता। वे फसल कटने पर दक्षिणा अनाज के रूप में लेते हैं। ये प्रथाएं लोगों के विश्वास के कारण बराबर चल रही है।
मध्यप्रदेश के कई गांवों में ऐसा माना जाता है कि शिवलिंग को पूरी तरह से पानी में डुबोकर रखे जाने से अच्छी बारिश होती है। मालवा से छूते निमाड़ क्षेत्रों में अच्छी बारिश के लिए जीवित व्यक्ति की शवयात्रा निकाली जाती है। बारिश को बुलाने के लिए 'बेड़' नाम का एक टोटका भी आजमाया जाता है। विदिशा के एक पठारी कस्बे की मान्यता के मुताबिक गाजे-बाजे के साथ ग्रामीण महिलाएं किसी खेत पर अचानक हमला बोल देती हैं। वो खेत पर काम कर रहे किसान को बंधक बना लेती हैं। किसान को गांव में लाकर दुल्हन की तरह सजाया जाता है और किसान की पैसे देकर विदाई की जाती है। मान्यता है कि ऐसा करने से इंद्र देव प्रसन्न होते हंै। खंडवा जिले के बीड़ में गांव के लोग मंदिर के कैंपस में खाली मटके जमीन में गाड़ देते हैं और अच्छे मानसून की कामना करते हैं। उज्जैन की बडऩगर तहसील में पंचदशनाम जूना अखाड़ा के श्री शांतिपुरी महाराज ने साल 2002 में बारिश के लिए जमीन के अंदर 75 घंटे की समाधि ली। जब समाधि पूरा होने के बाद उन्हें बाहर निकाला गया, तो वे मृत पाए गए। इंदौर में अच्छी बारिश के लिए विचित्र बारात निकाली जाती है। किसान और व्यापारी मिलकर ये बारात निकालते हैं। इस बारात में दूल्हे को घोड़े के बजाय गधे पर बिठाया जाता है। बारात में शामिल लोग मस्त होकर डांस भी करते चलते हैं। माना जाता है कि इस टोटके से बारिश की अच्छी संभावना होती है।
वहीं उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और उत्तरपूर्वी राज्यों में अच्छी बारिश के लिए पूरे हिंदू रीति-रिवाजों से मेंढक-मेंढकी की शादी करवाई जाती है। इतना ही नहीं ओडिशा में तो मेंढकों का नाच तक करवाया जाता है।
उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के कई गांवों में मान्यता है कि अगर महिलाएं रात के समय नग्न होकर खेतों में हल चलाएं तो बारिश होती है। इस टोटके में महिलाएं समूह बनाकर खेत को घेर लेती हैं जिससे कोई यह सब देख नहीं पाए। उत्तरप्रदेश के कई गांवों में औरतें रात में बगैर कपड़े पहने खेतों में हल चलाती रही हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से देवता ख़ुश होकर धरती की प्यास बुझा देंगे।
पूर्वी ओडिशा में किसानों ने मेंढकों के नाच का आयोजन किया जिसे स्थानीय भाषा में 'बेंगी नानी नाचा' के नाम से जाना जाता है। गाजे-बाजे के बीच लोग एक मेंढक को पकड़कर आधे भरे मटके में रख देते है जिसे दो व्यक्ति उठाकर एक जुलूस के आगे-आगे चलते हैं। कुछ इलाकों में तो दो मेंढकों की शादी कर उन्हें एक ही मटके से निकालकर स्थानीय तालाब में छोड़ दिया जाता है। वहीं कर्नाटक, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों से वर्षा के लिए यज्ञ कराए जाने की खबर आती रहती हैं।
लेकिन आज जिस घटना के कारण दमोह की चर्चा का कोहराम मचा है वह भी एक प्राचीन आस्था से जुड़ी हुई है। बहुत पहले तकरीबन दो दशक पूर्व एक मान्यता यहां भी थी कि यदि पानी नहीं बरसता है तो गांव की दो महिलाएं नग्न होकर रात्रि में हलबखर चलाएंगी तो पानी गिरेगा। बताते हैं चोरी-छिपे ये परम्परा दूरस्थ अंचलों में अब भी विद्यमान है। इसी से मिलती-जुलती घटना जबेरा के बनिया ग्राम में हुई जब कुछ आदिवासी महिलाओं ने अपने घरों की चार बच्चियों को नंगा करके उनके कांधों पर मूसल रखा, उस पर मेंढकी को लटकाया और खेरमाई मंदिर तक भजन-कीर्तन करते उन्हें ले गए। जहां माई पर गोबर लेपन हुआ। मान्यता है ऐसा करने पर माता अपने गोबर को छुटाने भरपूर वर्षा करेंगी।
चूंकि यहां मामला चार बच्चियों की नग्नता से जुड़ा हुआ था तो जब यह बात बाल अधिकार संरक्षण आयोग के संज्ञान में आई। तो आयोग ने बच्चियों को इस हालत में घुमाए जाने पर आपत्ति दर्ज की और कलेक्टर को नोटिस जारी कर दिया। इधर कलेक्टर ने आनन-फानन में अपने अधीनस्थ अधिकारियों को गांव भेजा। वहां अधिकारियों की गाडिय़ां और भीड़ देखकर गांव के लोग पहले तो घरों में दुबक गए। जब पंचायत सचिव जगदीश्वर राय ने आगे बढ़कर संबंधित महिलाओं से पूछताछ करवाई तो उन्होंने सहजता से बताया कि वे ये नहीं जानती थीं कि ये अपराध होता है। उन्होंने पानी बरसाने के लिए टोटका किया था। उन्होंने महिला बाल विकास अधिकारियों, टीआई, पुलिस वगैरह से हाथ जोड़कर क्षमा मांगी और भविष्य में इस तरह किसी भी कुरीति नहीं करने का आश्वासन भी दिया। उपस्थित अधिकारियों ने पंचनामा बनाकर कलेक्टर को भेज दिया है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
'शिक्षक पर्व' के उत्सव में भाग लेते हुए प्रधानमंत्री ने पिछले सात साल के अपने शासन-काल की उपलब्धियाँ गिनाईं और गैर-सरकारी शिक्षा संगठनों से अनुरोध किया कि वे शिक्षा के क्षेत्र में विशेष योगदान करें। इसमें शक नहीं है कि पिछले सात साल के आंकड़े देखें तो छात्रों, शिक्षकों, स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की संख्या में अपूर्व बढ़ोतरी हुई है। इस बढ़ोतरी का श्रेय सरकार लेना चाहे तो उसे जरुर मिलना चाहिए, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हमारी शिक्षा नीति में जो मूल-परिवर्तन होने चाहिए थे, वे हुए हैं या नहीं ?
सात साल में चार शिक्षा मंत्री हो गए, मोदी सरकार में। औसतन किसी मंत्री को दो साल भी नहीं मिले याने अभी तक सिर्फ जगह भरी गई। कोई ऐसा शिक्षा मंत्री नहीं आया, जिसे शिक्षा-व्यवस्था की अपनी गहरी समझ हो या जिसमें मौलिक परिवर्तन की दृष्टि हो। जो शिक्षा-पद्धति 74 साल से चली आ रही है, वह आज भी ज्यों की त्यों है।
नई शिक्षानीति की घोषणा के बावजूद कोई सुधार नजर नहीं आ रहा है। यदि सचमुच हमारी सरकार के पास कोई नई दृष्टि होती और उसे अमली जामा पहनाने की इच्छा शक्ति किसी मंत्री के पास होती तो वह अपनी कुर्सी में पांच-सात साल टिकता और पुराने सड़े-गले औपनिवेशिक शिक्षा-ढांचे को उखाड़ फेंकता। लेकिन लगता है कि हमारी राजनीतिक पार्टियां किसी भी राष्ट्र के निर्माण में शिक्षा का महत्व क्या है, इसे ठीक से नहीं समझतीं।
इसीलिए प्रधानमंत्री मजबूर होकर गैर-सरकारी शिक्षा-संगठनों से कृपा करने के लिए कह रहे हैं। गैर-सरकारी शिक्षा-संगठनों ने निश्चय ही सरकारी संगठनों से बेहतर काम करके दिखाया है। इसीलिए प्रधानमंत्रियों और शिक्षा मंत्रियों के बच्चे भी निजी स्कूलों और कालेजों में पढ़ते रहे हैं। शिक्षा-व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन करने के लिए तो बहुत-से सुझाव हैं लेकिन क्या मोदी सरकार यह एक प्रारंभिक कार्य कर सकती है?
वह यह है कि देश के सभी जन-प्रतिनिधियों-पंचों से लेकर राष्ट्रपति तक और समस्त सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के लिए यह अनिवार्य कर दे कि वे सिर्फ सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में ही पढ़ेंगे। यह कर दे तो देखिए रातों-रात क्या चमत्कार होता है? सरकारी स्कूलों का स्तर निजी स्कूलों से अपने आप बेहतर हो जाएगा। मेरे इस सुझाव पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 8-10 साल पहले मुहर लगा दी थी, लेकिन वह आज तक उत्तरप्रदेश में लागू नहीं हुआ है।
निजी शिक्षा-संस्थाएं और निजी अस्पताल आज देश में खुली लूट-पाट के औजार बन गए हैं। देश का मध्यम और उच्च वर्ग लुटने को तैयार बैठा रहता है लेकिन देश के गरीब, ग्रामीण, पिछड़े, आदिवासी और मेहनतकश लोगों को शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाएं उसी तरह कठिनाई से मिलती हैं, जैसे किसी औपनिवेशिक शासन में गुलाम लोगों को मिलती हैं। यदि अपने स्वतंत्र भारत को महाशक्ति और महासंपन्न बनाना है तो सबसे पहले हमें अपनी शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन करने होंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. अमजद अयूब मिर्जा
लंदन, 8 सितम्बर| पाकिस्तान में 6 सितंबर को 1965 के भारत-पाक युद्ध की याद में रक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो 17 दिनों तक चला था।
हालांकि, जब कई पूर्व सैन्यकर्मी और रणनीतिक विश्लेषक शाम के प्रसारण के दौरान वर्दी में पुरुषों (सैनिक) की भूमिका की प्रशंसा करने के लिए एक-दूसरे के बीच प्रतिस्पर्धा करते हुए टेलीविजन चैनलों पर दिखाई दे रहे थे, तब सादे कपड़ों में पुरुष लोकप्रिय पाकिस्तानी यूट्यूब ब्लॉगर जफर नकवी के दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे, जो कि फेडरल ब्यूरो ऑफ रेवेन्यू (एफबीआर) से प्रतीत हो रहे थे।
नकवी प्रधानमंत्री इमरान खान की आर्थिक नीतियों के अटूट आलोचक हैं। मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों की उनकी तीखी आलोचना जारी रहने के कारण उनके यूट्यूब सब्सक्राइबर (सदस्य) बढ़ गए हैं। अपने लोकप्रिय समर्थन से उत्साहित नकवी ने उन मामलों को भी जोर-शोर से उठाने का फैसला किया, जिन्हें बहुत संवेदनशील माना जाता है, जिसमें पाकिस्तान सेना भी शामिल है।
20 जून को अपलोड किए गए एक वीडियो में, नकवी ने अपने दर्शकों को बताया कि इस्लामाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सुनवाई से इनकार किए जाने के बाद एक याचिका अब लाहौर उच्च न्यायालय में दायर की गई है। याचिका पाकिस्तानी सेना के एक पूर्व मेजर जनरल मंजूर अहमद ने दायर की है, जिन्होंने सैन्य प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा द्वारा अनुमोदित फैसले को चुनौती दी थी। अहमद ने सेना पर अनुचित बर्खास्तगी का आरोप लगाया है।
जफर नकवी पत्रकार हैं, जिन्होंने 2020 में अपना यूट्यूब चैनल लॉन्च करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला करने से पहले टेलीविजन चैनल अब-तक टीवी, एआरवाई और बोल के लिए काम किया है। शुरुआत से ही नकवी ने सैन्य विरोधी कहानी साझा की है जिसके लिए पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के नेता नवाज शरीफ ने टॉन यानी स्वर सेट किया।
लेकिन मुझे गलत मत समझो। हालांकि नकवी ने राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार के मामले में सैन्य जनरलों की भूमिका की आलोचना की है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह एक संस्था के रूप में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ हैं। नकवी किसी भी विदेशी आक्रमण के खिलाफ एक आवश्यकता के रूप में पाकिस्तानी सेना की भूमिका का समर्थन करते हैं। लेकिन वह प्रमुख बात नहीं है। मुद्दा यह है कि पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के किसी भी संकेत के गले में सेंसरशिप का फंदा कस रहा है।
अपहरण, मार-पीट, यहां तक कि पत्रकारों की हत्या भी ऐसी हरकतें हैं जो अब बहुत बार हो चुकी हैं और समझा जाता है कि यह कार्रवाई चेतावनी के रूप में काम करती है और मीडिया पर खुद पर आत्म-सेंसरशिप लगाने के लिए मजबूर करती है। हाल ही में ऐसी दो घटनाएं अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचने में कामयाब रहीं। एक अपहरण मतिउल्लाह जान (जनवरी 2021) और दूसरा ब्लॉगर असद अली टूर (मई 2021) का देखने को मिला है।
आवाज उठाने वाले का अपहरण कर लिया गया और उसे जमकर पीटा गया और कुख्यात अज्ञात हमलावरों द्वारा उसके आवास पर ही पीट-पीटकर उसकी हड्डियों को तोड़ दिया गया।
पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई को संदर्भित करने के लिए आमतौर पर पाकिस्तान में इस्तेमाल किया जाने वाला एक वाक्यांश, 'ये जो नामालूम हैं, ये सब को मालूम है', अब एक लोकप्रिय नारा बन चुका है, जो कि सरकार विरोधी प्रदर्शनों और रैलियों में समान रूप से उठाया जाता है।
पाकिस्तान मीडिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (पीएमडीए) नामक एक नई मीडिया कानून प्रवर्तन एजेंसी के निर्माण के लिए एक मसौदे को अब इमरान खान कैबिनेट (23 अगस्त) ने मंजूरी दे दी है और इसे मंजूरी के लिए संसद में पेश किए जाने की उम्मीद है।
पीएमडीए के लिए मसौदा इस तरह से डिजाइन किया गया है कि जिस दिन इसे पारित किया जाता है और संसद द्वारा एक अधिनियम बनाया जाता है, यह देश के समाचार पत्रों की लगभग 50 प्रतिशत घोषणाओं (लाइसेंस) को स्वचालित रूप से रद्द कर देगा।
पीएमडीए के पास इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन के लिए 25 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगाने का अधिकार होगा। इसके अलावा कोई भी पाकिस्तानी यूट्यूबर कम से कम 30 प्रतिशत पाकिस्तानी सामग्री (कंटेंट) को प्रसारित करने के लिए बाध्य होगा।
प्रस्तावित पीडीएमए को ऑल पाकिस्तान न्यूजपेपर्स सोसाइटी, काउंसिल ऑफ पाकिस्तान न्यूजपेपर्स एडिटर्स, पाकिस्तान ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन, पाकिस्तान फेडरल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एडिटर्स एंड न्यूज डायरेक्टर्स ने खारिज कर दिया है और इसकी कड़ी आलोचना की है।
6 सितंबर को रात 10.25 बजे जब अज्ञात लोगों ने एफबीआर के अधिकारी होने का नाटक करते हुए जफर नकवी का दरवाजा खटखटाया तो उन्होंने दरवाजा नहीं खोला और हो सकता है कि वह पाकिस्तान में मुखर पत्रकारों के खिलाफ चल रहे विच हंट के शिकार होने से बच गए हों।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा 13 सितंबर के लिए पत्रकारों द्वारा जारी रैली कॉल है, जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति डॉ. आरिफ अल्वी संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित कर सकते हैं। पाकिस्तान फेडरल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स ने उस दिन इस्लामाबाद में नेशनल असेंबली के गेट पर विरोध प्रदर्शन करने की घोषणा की है।
(डॉ. अमजद अयूब मिर्जा एक लेखक और पीओजेके के मीरपुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। वह वर्तमान में ब्रिटेन में निर्वासन में रह रहे हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं)
अनिल जैन
पूरे 97 बरस तक जीने के बाद राम जेठमलानी दो साल पहले आज ही के दिन अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से समय निकाल कर खर्च हो गए थे।
देश के सबसे वरिष्ठ, सबसे महंगे, सबसे मुंहफट, सबसे चर्चित और सबसे विवादास्पद वकील के तौर पर जाने गए राम जेठमलानी देश के न्यायिक इतिहास में एकमात्र ऐसे वकील रहे जिन्होंने महज 17 साल की उम्र में एलएलबी की डिग्री लेकर वकालत की सनद हासिल की थी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे बचपन में भी कितने प्रतिभाशाली रहे होंगे।
जिस समय उन्होंने एलएलबी पास की थी, उस समय वकालत शुरू करने के लिए 21 साल की उम्र जरूरी थी, मगर जेठमलानी के लिए एक विशेष प्रस्ताव पारित कर 18 साल की उम्र में प्रैक्टिस करने की इजाजत दी गई।
उन्होंने वकालत के अपने 80 साल के कॅरिअर में कई दुर्दांत नामी-गिरामी लोगों के मुकदमे लडे। इन नामी-गिरामी लोगों में हत्यारे आतंकवादियों, भ्रष्ट और दंगाखोर नेताओं, बलात्कारी बाबाओं, तस्करों, बेईमान और घोटालेबाज कारोबारियों-उद्योगपतियों आदि का शुमार था।
वे बेहद महंगे वकील थे और लाखों में उनकी में फीस होती थी उनकी। लेकिन कुछ नेताओं से उन्होंने पैसे के बजाय राज्यसभा की सदस्यता के रूप में फीस वसूली। जिन नेताओं से उन्होंने उनके मुकदमे लडऩे की एवज में राज्यसभा की सदस्यता वसूली उनमें नरेंद्र मोदी, लालू प्रसाद, बाल ठाकरे और जयललिता शामिल हैं।
जेठमलानी के जीवन का सबसे चमकदार और सार्थक मुकदमा रहा मंडल आयोग की सिफारिशों से संबंधित, जिसमें उन्होंने बिहार सरकार के वकील की हैसियत से सुप्रीम कोर्ट में त्रावणकोर के राजा के एक दस्तावेज के जरिए साबित किया कि वर्ग ही जाति है और जाति ही वर्ग है।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के वीपी सिंह सरकार के फैसले को सही माना। उस फैसले के कारण पिछड़ी जातियों के करोड़ों लोगों को लोगों को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में फायदा मिला और भारतीय राजनीति का व्याकरण भी बदला।
मेरी उनसे दो बार प्रत्यक्ष मुलाकात हुई उनके सरकारी आवास पर। एक मुलाकात के दौरान मैंने उनसे उनकी फिटनेस का राज पूछा तो उन्होंने बताया कि वे सुबह-शाम नियमित रूप से बैडमिंटन खेलते हैं, शाम के वक्त नियंत्रित मात्रा रसरंजन करते हैं और खाना बहुत कम खाते हैं।
राम जेठमलानी अपने मुंहफट अंदाज और अक्खड मिजाज के लिए भी खूब मशहूर रहे। एक हाई कोर्ट में किसी मुकदमे की पैरवी करते हुए उन्होंने बहस के दौरान जज को कुछ समझाने की कोशिश की। उनकी यह कोशिश जज साहब को अपनी शान में गुस्ताखी लगी।
जज साहब शायद जेठमलानी के इतिहास और मिजाज से भलीभांति परिचित नहीं थे, सो उन्होंने अपनी जज वाली ठसक में जेठमलानी से कह दिया कि अब आप मुझे कानून समझाएंगे! जेठमलानी ने हडकाने के अंदाज में कहा कि बिल्कुल, मेरा काम ही जज को कानून की बारीकियां समझाना है। फिर उन्होंने जज से उनकी उम्र पूछी और कहा कि जितनी आपकी उम्र है उससे ज्यादा साल हो गए है मुझे प्रैक्टिस करते हुए। बेचारा जज....!
गोगोई, मिश्र और बोबड़े टाइप के जजों की खुशनसीबी रही कि उनका जेठमलानी से ज्यादा सामना नहीं हुआ।
जेठमलानी ने अपनी राजनीति की शुरुआत जनसंघ से की थी और कुछ साल उन्होंने भाजपा में भी बिताए, लेकिन अपने जीवन के आखिरी वर्षों में उन्होंने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति का मुखर विरोध किया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने मुंबई की एक सभा में कहा कि मुसलमान नेताओं को कट्टरपंथियों के खिलाफ दो-टूक रवैया अपनाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि यह एतिहासिक सत्य है कि भारत में इस्लाम विदेशी हमलावरों की वजह से आया है। लेकिन उन्होंने साथ-साथ यह भी कहा कि सारे भारतीयों का डीएनए एक ही है। हम सबके पूर्वज एक ही हैं। हम सब भारतमाता की ही संतान हैं। जिसकी मातृभूमि भारत है, वह हिंदू है। उसकी जाति, भाषा, रंग-रुप और मजहब चाहे जो हो। वास्तव में मोहन भागवत ने हिंदू शब्द की यह जो परिभाषा की है, यह उदारतापूर्ण तो है ही, विदेशियों की दृष्टि में यह पूर्ण सत्य भी है। मैं जब चीन के गांवों में जाया करता था तो चीनी लोग मुझे 'इंदुरैनÓ कहा करते थे याने हिंदू आदमी ! अफगानिस्तान और ईरान में मैंने किसी भी आदमी को 'भारतÓ या 'इंडियाÓ कहते हुए नहीं सुना। वे हमेशा भारत को हिंदुस्थान या हिंदुस्तान ही कहते हैं याने हिंदुओं का स्थान! अफगान और ईरानी विद्वानों के मुंह से मैंने 'आर्यावर्त्तÓ शब्द भी भारत के लिए सुना है। सच्चाई तो यह है कि किसी भी भारतीय प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में मैंने हिंदू शब्द नहीं पढ़ा है।
वेद, उपनिषद, दर्शन, रामायण, महाभारत आदि किसी धर्मग्रंथ में हिंदू शब्द नहीं है। यह हिंदू शब्द भी हमें विदेशी मुसलमानों का दिया हुआ है। इसका सीधा-साधा अर्थ यह है कि सिंधु नदी के आर-पार जो भी रहता है, वह हिंदू है। फारसी भाषा में हमारे 'सÓ का उच्चारण 'हÓ होता है। जैसे सप्ताह का हफ्ता! इस दृष्टि से जो भी भारत का नागरिक है, वह हिंदू है। यह ठीक है कि हिंदू की यह व्यापक और उदार परिभाषा सावरकर को स्वीकार नहीं होगी, क्योंकि उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'हिंदुत्वÓ में लिखा है कि हिंदू वही है, जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि, दोनों ही भारत हो अर्थात भारतीय मुसलमानों की पुण्यभूमि मक्का-मदीना और ईसाइयों की रोम है तो वे हिंदू कैसे कहला सकते हैं ? सावरकर ने यह उन दिनों लिखा था जब मुस्लिम लीग जोरों पर थी और खिलाफत आंदोलन अपने शबाब पर था। अब पिछले 100 साल में दुनिया काफी बदल गई है। लोगों को एक-दूसरे देशों की असलियत का पता बराबर चलता रहता है।
अब कौन भारतीय मुसलमान भारत छोड़कर मक्का-मदीना में रहना चाहेगा और कौन ईसाई रोम में बसना चाहेगा? जो लोग विभाजन के समय भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए थे, उनको भी मैंने कराची, लाहौर और इस्लामाबाद में पछताते हुए देखा है। वास्तव में भारतीय मुसलमान तो 'हिंदू मुसलमानÓ ही हैं। उन्हें अरब देशों में 'हिंदीÓ या 'हिंदवीÓ ही कहा जाता है। भारतीय मुसलमानों की धमनियों में हजारों वर्षों से चली आ रही उत्कृष्ट भारतीय संस्कृति ही बह रही है। इसीलिए मैं उन्हें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मुसलमान कहता हूं। वे अपने आचरण से यह सिद्ध करें और कट्टरपंथ का अंधानुकरण न करें, यह जरुरी है। हिंदू शब्द इतना व्यापक और उदार है कि इसमें दुनिया का कोई भी धर्म, कोई भी जाति, कोई भी कबीला समा सकता है। जो भी भारतीय है, वह हिंदू है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
हमारी आवाज़, उच्चारण और बोलने का तरीका हमारे बारे में बहुत कुछ बताता है। हिंदी में आंचलिक उच्चारण के प्रति एक किस्म की हिकारत का भाव है। जो खड़ी बोली है उसकी कोई जमीन नहीं है। हर क्षेत्र, हर प्रदेश की हिंदी अलग है। इस लिहाज से वह हिंदी शुद्ध मानी गई है जो या तो संस्कृतनिष्ठ हो या उर्दू के तलफ़्फ़ुज़ की शर्तें पूरी करती हो लेकिन अगर वो किसी बोली की रंगत लेकर आती है तो उसे 'अशुद्ध' मान लिया जाता है।
मुझे लगता है कि यह 'भाषा का अभिजात्य' है। हम जो बात करते हैं, उसमें जहां से हम हैं, उस मिट्टी की खुशबू क्यों नहीं होनी चाहिए? अंगरेजी स्कूलों के बच्चे एक जैसा सॉरी, थैंक्यू और शिट बोलते हैं। बिल्कुल मै'कडोनाल्ड के बरगर की तरह कि आप उसे दिल्ली में खाएं, पटना में खाएं या जयपुर में उसका स्वाद, रंग-रूप एक ही होगा। अब भला ऐसा बरगर खाने कोई दिल्ली से जयपुर क्यों जाएगा? वह तो बेड़मी पूरी खाने जाएगा जो किसी खास इलाके में होगी और उसके जैसी कहीं और नहीं होगी। भाषा को बरतने में ऐसी अपेक्षा क्या करना कि लगे सारा प्रोडक्ट किसी फैक्टरी से निकल रहा है। एक दक्षिण भारतीय या एक बंगाली जब अंगरेजी बोलता है तो शायद ही अपने अंचल का पुट आने पर शर्मिंदा होता है। उनकी अंगरेजी कानों को ज्यादा सुखद, ज्यादा कर्णप्रिय लगती है।
दक्षिण भारतीयों के उच्चारण में एक किस्म का रिदम होता है, जो उनकी अंगरेजी को भी ज्यादा सहज बनाता है। यही स्थिति यूरोप की है, पुर्तगाली और स्पेनिश लोगों की अंगरेजी तो बिल्कुल ही अलग होती है पर उससे वे शर्मिंदा नहीं होते। सारी दुनिया ने उसे मान्यता भी दे दी है। उत्तर भारत में अंगरेजी को पश्चिमी तरीके से बोलने पर बहुत जोर दिया जाता है। पाकिस्तान में भी जब लोग अंगरेजी बोलते हैं तो उनकी कोशिश होती है कि उनका उच्चारण किसी अंगरेज जैसा हो।
इस बात पर लौटते हैं कि हिंदी में आंचलिक स्वरों के प्रति ऐसी हिकारत क्यों है? शायद इसकी सबसे बड़ी वजह यह मुझे यह लगती है कि हिंदी भाषी लोग अपनी आंचलिकता के प्रति हीनभाव से ग्रस्त रहते हैं। एक उत्तर भारतीय दुनिया के किसी कोने में जाता है तो अपनी आंचलिक पहचान के बिना जीना चाहता है। इसकी वजह क्या है, यह तो नहीं पता पर यह मेरा और बहुत से लोगों का व्यावहारिक अनुभव है।
अगर किसी के बोलने के तरीके में भोजपुरी, राजस्थानी या अवधी का पुट है तो उसे सुसंस्कृत नहीं समझा जाता है। यहां तक कि व्याकरण की अशुद्धियों की जब बात की जाती है तो भी लोग यह भूल जाते हैं कि आंचलिक बोलियों ने अपने समाज की बनावट के मुताबिक अपनी भाषा और व्याकरण गढ़ा है। जैसे कि पूर्वांचल में 'मैं' के लिए 'हम' का इस्तेमाल, यह एक ऐसा समाज है जिसमें अब तक 'मैं' का अस्तित्व ही नहीं था। कम्युनिटी का भाव इतना गहरा था कि 'मैं' का कोई अर्थ ही नहीं होता था, हर व्यक्ति अपने में एक समूह या समाज का प्रतिनिधित्व करता था, इसलिए वह खुद के लिए 'हम' का प्रयोग करता था। शायद वहां 'मैं' का प्रयोग एक किस्म की अभद्रता या स्वार्थपरकता माना जाएगा।
भोजपुरी और अवधी बोलने के अंदाज़ में एक किस्म का संगीत पैदा होता है। ये और ऐसी बहुत सी बोलियां 'लिरिकल' बोलियां है। यह संगीत समाज की बनावट से ध्वनित होता है। यह कितना अश्लील है कि जिस जमीन से हमारी भाषा में रंग और खुशबू पैदा हुई है उसे मिटाकर हम एक कृत्रिम भाषा को खुद पर ओढ़ लें। हास्यास्पद तरीके से अंगरेजों जैसा बोलने की कोशिश करें या एक बनावटी हिंदी जो किताबों से निकली है, उसे बोलना शुरू कर दें।
शुद्धता की अवधारणा यूनीवर्सैलिटी यानी सार्वभौमिकता से जुड़ी है। यानी कि ऐसी भाषा गढ़ी जाए जो हर जगह चल जाए। हॉलीवुड ने अपने सिनेमा के लिए एक ऐसी सिनेभाषा को जन्म दिया है कि वह दुनिया के किसी भी कोने में देखी जा सकती है, ऐसा इसलिए क्योंकि वह एक ग्लोबल मार्केट के लिए काम कर रहा है। किसी ज़माने में हिंदी फिल्मों में पुलिसवाला नफीस उर्दू बोलता था। ऐसा क्यों? क्योंकि मुंबई में बनी फिल्मों को एक साथ राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली में रिलीज़ करना होता था। एक अंचल की भाषा दूसरे अंचल के लिए अजनबी हो सकती थी।
लेकिन समय के साथ यह सब कुछ उलट गया है। इन दिनों कोई भी फिल्म तब तक नहीं सजती है जब तक कि उसके एक-दो पात्र अपने आंचलिक रंग के साथ नहीं आते। करीब 15 साल पहले बिहार का बोलबाला था, फिर हरियाणवी टोन हिट रही, इन दिनों फिल्मों में अवधी टोन खूब सुनने को मिल रही है। इतना ही नहीं बहुत सी फिल्में तो दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में बसे लोगों की बोलियों का टोन भी पकड़ ले रही हैं।
ऐसा इसलिए कि लोग बनावटी चीजों को पकड़ लेते हैं, कोई भाषा को किस तरह बरत रहा है इसमें उसका पूरा चरित्र और पृष्ठभूमि छिपा है। वास्तविक दिखने पहली शर्त है कि आपकी भाषा भी बनावट से रहित होनी चाहिए। आकाशवाणी और दूरदर्शन ने बोली जाने वाली भाषा के मानक स्थापित किए लेकिन उसे ही फॉलो किया जाए यह एक अव्यवहारिक शर्त है। सोशल मीडिया पर पुष्पा जिज्जी जैसे वीडियो इसीलिए लोकप्रिय होते हैं क्योंकि उस बोली से लोग खुद को एसोसिएट कर लेते हैं और जो नहीं कर पाते वे कम से कम उसकी विश्वसनीयता से प्रभावित होते हैं।
हिंदी के कुछ चर्चित पैरोकार भाषा की शुद्धता और अभिजात्य पर लगभग किसी लठैत की मुद्रा में होते हैं। उनकी शुद्धता की परिभाषा में शब्दकोश और मानक हिंदी के तौर-तरीके तो आते हैं मगर भाषा जिस जमीन से सहज रूप से जन्म रही है, उस पर कोई दृष्टि नहीं दिखती। मुझे लगता है कि हिंदी को सबसे पहले अपनी आंचलिकता पर शर्म करना छोड़ना चाहिए।
वे नहीं जो लिख रहे हैं, बल्कि वे लोग जो नए माध्यमों जैसे यूट्यूब या पॉडकास्ट पर आ रहे हैं, बोल रहे हैं, उन्हें शुद्धतावादी होने से बचना चाहिए। इससे संवाद ज्यादा सहज और जीवंत होगा। उनका अपना अंदाज़-ए-बयां होगा। वे बोलेंगे तो उनकी मिट्टी की महक भी बोल उठेगी। बोलियों के रंग में रंगी हिंदी भाषा और निखरेगी।
धारणा बन गई है कि स्कूलों के बंद रहने के बीच ऑनलाइन पढ़ाई एक अच्छा विकल्प बन गई है, लेकिन असल में ऑनलाइन शिक्षा का दायरा बेहद सीमित है. एक नए सर्वे के अनुसार ग्रामीण इलाकों में सिर्फ आठ फीसदी बच्चे ऑनलाइन पढ़ पा रहे हैं.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
इस नए सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि महामारी की वजह से स्कूलों के बंद होने का बच्चों पर 'अनर्थकारी' असर पड़ा है. ग्रामीण इलाकों में यह असर और ज्यादा गंभीर है जहां सिर्फ आठ प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ पा रहे हैं. इन इलाकों में 37 प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई तो ठप ही हो गई है.
यह सर्वेक्षण जाने माने अर्थशास्त्री ज्याँ द्रेज और रितिका खेड़ा के संचालन में कराया गया. इसमें 15 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पहली से लेकर आठवीं कक्षा तक में पढ़ने वाले 1400 बच्चों और उनके अभिभावकों से बात की गई.
स्मार्टफोन हैं ही नहीं तो पढ़ाई कैसे हो
इन राज्यों में असम, बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल हैं. सर्वे में शामिल किये गए परिवारों में से करीब 60 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में रहते हैं. इसके अलावा लगभग 60 प्रतिशत परिवार दलित या आदिवासी समुदायों से संबंध रखते हैं.
अध्ययन में यह भी पाया गया कि इन इलाकों में भी जो परिवार अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे थे, उनमें से एक चौथाई से भी ज्यादा परिवारों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में डाल दिया. ऐसा उन्हें या तो पैसों की दिक्कत की वजह से करना पड़ा या ऑनलाइन शिक्षा ना करा पाने की वजह से.
ऑनलाइन शिक्षा का दायरा इतना सीमित होने की मुख्य वजह कई परिवारों में स्मार्टफोन का ना होना पाई गई. ग्रामीण इलाकों में तो पाया गया कि करीब 50 प्रतिशत परिवारों में स्मार्टफोन नहीं थे. जहां स्मार्टफोन थे भी, उन ग्रामीण इलाकों में भी सिर्फ 15 प्रतिशत बच्चे नियमित ऑनलाइन पढ़ाई कर पाए क्योंकि उन फोनों का इस्तेमाल घर के बड़े करते हैं.
शहरों में भी स्थिति अच्छी नहीं
काम पर जाते समय इन लोगों को फोन साथ में लेकर जाना पड़ता है और ऐसे में फोन बच्चों को नहीं मिल पाता है. ऐसा भी नहीं है कि यह तस्वीर सिर्फ ग्रामीण इलाकों की है. शहरी इलाकों में चिंताजनक स्थिति ही पाई गई.
मिसाल के तौर पर जहां ग्रामीण इलाकों में नियमित ऑनलाइन शिक्षा पाने वाले बच्चों की संख्या सिर्फ आठ प्रतिशत पाई है, शहरी इलाकों में यह संख्या सिर्फ 24 प्रतिशत पाई है. यानी शहरों में भी हर 100 में से 76 बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं.
यही हाल स्मार्टफोन होने और ना होने के मोर्चे पर भी है. स्मार्टफोन वाले घरों में भी जहां ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 15 प्रतिशत बच्चे नियमित ऑनलाइन पढ़ पा रहे हैं, शहरों में यह संख्या बस 31 प्रतिशत पाई गई.
बच्चों की क्षमता पर असर
कुल मिला कर इस स्थिति का असर बच्चों की लिखने और पढ़ने की क्षमता पर भी पड़ा है. शहरी इलाकों में 65 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में 70 प्रतिशत अभिभावकों को लगता है कि इस अवधि में उनके बच्चों की लिखने और पढ़ने की क्षमता में गिरावट आई है.
इन कारणों की वजह से ग्रामीण और शहरी दोनों ही इलाकों में 90 प्रतिशत से ज्यादा गरीब और सुविधाहीन अभिभावक चाहते हैं कि अब स्कूलों को खोल दिया जाए.
सर्वे में मध्यम वर्ग और अमीर परिवारों को शामिल नहीं किया गया था, लेकिन कई राज्यों में इन वर्गों के परिवार अभी बच्चों को स्कूल भेजने से डर रहे हैं. भारत में अभी 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए कोविड-19 के खिलाफ टीकाकरण शुरू नहीं हुआ है. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जो काम हमारे देश में नेताओं को करना चाहिए, उसका बीड़ा भारत के जैन समाज ने उठा लिया है। सूरत, अहमदाबाद और बेंगलुरु के कुछ जैन सज्जनों ने एक नया अभियान चलाया है, जिसके तहत वे लोगों से निवेदन कर रहे हैं कि वे दिन में कम से कम 3 घंटे अपने इंटरनेट और मोबाइल फोन को बंद रखें। इसे वे ई-फास्टिंग कह रहे हैं। यों तो उपवास का महत्व सभी धर्मों और समाजों में है लेकिन जैन लोग जैसे कठोर उपवास रखते हैं, दुनिया में कोई समुदाय नहीं रखता।
जैन-उपवास न केवल शरीर के विकारों को ही नष्ट नहीं करते, वे मन और आत्मा का भी शुद्धिकरण करते हैं। जैन संगठनों ने यह जो ई-उपवास का अभियान चलाया है, यह करोड़ों लोगों के शरीर और चित्त को बड़ा विश्राम और शांति प्रदान करेगा। इस अभियान में शामिल लोगों से कहा गया है कि ई-उपवास के हर एक घंटे के लिए एक रुपया दिया जाएगा याने जो भी व्यक्ति एक घंटे तक ई-उपवास करेगा, उसके नाम से एक रुपए प्रति घंटे के हिसाब से वह संस्था दान कर देगी।
क्या कमाल की योजना है! आप सिर्फ अपने इंटरनेट संयम की सूचना-भर दे दीजिए, वह राशि अपने आप दानखाते में चली जाएगी। इस अभियान को शुरु हुए कुछ हफ्ते ही बीते हैं लेकिन हजारों की संख्या में लोग इससे जुड़ते चले जा रहे हैं। यह अभियान सबसे ज्यादा हमारे देश के नौजवानों के लिए लाभदायक है। हमारे बहुत-से नौजवानों को मैंने खुद देखा है कि वे रोज़ाना कई घंटे अपने फोन या कंप्यूटर से चिपके रहते हैं। उन्हें इस बात की भी चिंता नहीं होती कि वे कार चला रहे हैं और उनकी भयंकर टक्कर भी हो सकती है।
वे मोबाइल फोन पर बात किए जाते हैं या फिल्में देखे चले जाते हैं। भोजन करते समय भी उनका फोन और इंटरनेट चलता रहता है। खाना चबाने की बजाय उसे वे निगलते रहते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं चलता कि उन्होंने क्या खाया और क्या नहीं ? और जो खाया, उसका स्वाद कैसा था। इसके अलावा इंटरनेट के निरंकुश दुरुपयोग पर सर्वोच्च न्यायालय काफी नाराज था। आपत्तिजनक कथनों और अश्लील चित्रों पर भी कोई नियंत्रण नहीं है।
कमोबेश यही हाल हमारे टीवी चैनलों ने पैदा कर दिया है। हमारे नौजवान घर बैठे-बैठे या लेटे-लेटे टीवी देखते रहते हैं। वह शराबखोरी से भी बड़ा नशा बन गया है। इंटरनेट और टीवी के कारण लोगों का चलना-फिरना तो घट ही गया है, घर के लोगों से मिलना-जुलना भी कम हो गया है। इन साधनों ने आदमी का अकेलापन बढ़ा दिया है। उसकी सामाजिकता सीमित कर दी है।
इसका अर्थ यह नहीं कि इंटरनेट और टीवी मनुष्य के दुश्मन हैं। वास्तव में इन संचार-साधनों ने मानव-जाति को एक नये युग में प्रवेश करवा दिया है। उनकी उपयोगिता असीम है लेकिन इनका नशा शराबखोरी से भी ज्यादा हानिकारक है। जरुरी यह है कि मनुष्य इनका मालिक बनकर इनका इस्तेमाल करे, न कि इनका गुलाम बन जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
जन्मदिन पर अपने-पराए बधाई देते हैं। नुक्स नहीं निकाले जाते। पूरा विदेश मंत्रालय इसी काम में लगा रहा। भारतीय राजदूत कतर के दोहा में बधाई देते रहे। विदेश सचिव महामारी के बीच अमेरिका पहुंचे। मंत्री चकरघिन्नी हैं। आपस में गले मिले या दूर से सलाम किया? पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के मुखिया जनरल फैज हमीद बता सके। काबुल पर तालिबान की जीत के दिन गोलियां दागकर जश्न मनाया जा रहा था। जनरल हमीद तालिबानी सरगना के साथ मिलकर उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना कर रहे थे। सरकार के जश्न में शामिल होने शनिवार को जनरल हमीद ने काबुल में कदम रखा। तालिबान के हमलावर दस्ते हक्कानी के उस्ताद वही हैं। आपस में गोलियां चलना दरअसल जनरल को सलामी देने जैसा है। भारत का अभिमन्यु सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता की चार दिन की चांदनी और ब्रिक्स में रूस-चीन की जोड़ी के चक्रव्यूह में फंसा है। सुरक्षा परिषद की सौ आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल नाम पूछकर विदेश मंत्री को मत सताना। भोला राम भारतीयों से निवेदन है-फिलहाल जय जय जयशंकर का जाप करना उचित होगा।
जन्म जन्म के फेरे
हरियाणा के किसानों के सिर फोडऩे का 28 अगस्त को आदेश देने वाले आईएएस आयुष सिन्हा पल भर में सबसे मशहूर अधिकारी बन गए। दो दिन तक राज्य सरकार ने कार्रवाई नहीं की। सोशल मीडिया प्रचारकों ने कहना शुरु किया-समय पड़ा बांका। काम आया राकेश काका। राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा और आयुष को चचा-भतीजा बताया गया। संबंध है। आयुष की मां हिमाचल प्रदेश में प्रोफेसर हैं। राकेश दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेज में प्रोफसरी कर चुके हैं। राष्ट्रपति ने वर्ष 2017 में राकेश को राज्यसभा में मनोनीत किया। उसी बरस आयुष भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल हुए। जातिनाम समान है। सिन्हा भाजपा में शामिल होने से पहले पार्टी का बचाव करते रहे हैं। गृह मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य हैं। पांच सितम्बर को जन्मदिन मनाते समय मीडिया प्रचार की कड़वाहट नहीं भूले। सोशल मीडिया प्रचारकों के आत्मघाती हमले से खफा सांसद को खीझकर चेतावनी देनी पड़ी-विवादास्पद अधिकारी से मेरा दूर दूर तक रिश्ता नहीं है। गलत प्रचार करने वालों के खिलाफ कानूनी कर्रवाई करने की धमकी दे डाली।
सूरज रे जलते रहना
साल 2019 में दुनिया की सबसे बड़ी खिलौना कंपनी बिकी। चीनी समूह ने करीब सवा छह अरब रुपए में भारतीय उद्योगपति ने खरीदी कर बिकाऊ खिलौनों की औकात बता दी। लोकसभा चुनाव नतीजों की घोषणा के महज दस दिन पहले सौदा हुआ। सवा खरब आबादी वाला भारत जाने कि कंपनी 50 हजार तरह के खिलौने बेचती है। फ्यूचर ग्रुप का भाग्य मुट्ठी में करने से महामारी भी नहीं रोक सकी। 35 खरब रुपए में जस्ट डायल का सौदा अब जाकर हुआ। संचार माध्यम अंगुली के इशारे पर था था थैया नाचने की तैयारी में है। सूरज को हनुमान की तरह गड़पने की तैयारी है। मुकाबला अडानी और सार्वजनिक उपक्रम एनटीपीसी से है। राष्ट्रीय ताप बिजली निगम गुजरात के कच्छ में सोलर पार्क लगाकर पांच गीगावाट से कम सौर ऊर्जा बनाने में जुटा है। गीगावाट कितना होता है? रिलायंस न्यू सोलर इनर्जी दस साल में सौ गीगावाट सौर ऊर्जा तैयार करेगी। बिजली मंत्री आर के सिंह कहते हैं-सूरज सबका है।
बरसी पर बुलावा
विमान दुर्घटना में 12 बरस पहले डॉ. वाय एस राजेशखर रेड्डी का निधन हुआ। जेल जाने के बाद बेटा जगन्मोहन आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बन गया। बेटी शर्मिला तेलंगाना के राजनीतिक अखाड़े में कूद चुकी है। रेड्डी की विधवा विजयलक्ष्मी ने पति की तेरहवीं में जय जयकार करने वाले चुनिंदा पुराने समर्थकों को खुद फोन कर 12 वीं बरसी पर भोज में आने का न्यौता दिया। दर्जन से अधिक विधायक और मंत्री तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल हो चुके हैं। उनमें से किसी ने बरसी में मुंह नहीं दिखाया। राजशेखर सरकार में मंत्री सविता रेड्डी समेत कुछ मंत्री हैदराबाद छोडक़र दिल्ली उड़ गए। दिवंगत रेड्डी की बरसी के जमावड़े में हाजिरी लगाने वालों के साथ भूतपूर्व विशेषण लग चुका है। कोई मंत्री था, कोई सांसद, कोई महापौर। बड़े अरमान से किया इंतजाम। दस प्रतिशत लोग ही पहुंचे। राजशेखर कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे। इसलिए जगन से दूरी के बावजूद कुछ कांग्रेस नेता श्रद्धांजलि देने जा पहुंचे।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को एकदम मान्यता देने को कोई भी देश तैयार नहीं दिखता। इस बार तो 1996 की तरह सउदी अरब और यूएई ने भी कोई उत्साह नहीं दिखाया। अकेला पाकिस्तान ऐसा दिख रहा है, जो उसे मान्यता देने को तैयार बैठा है। अपने जासूसी मुखिया ले. जनरल फैज हमीद को काबुल भेज दिया है। यह मान्यता देने से भी ज्यादा है। सभी राष्ट्र, यहां तक कि पाकिस्तान भी कह रहा है कि काबुल में एक मिली-जुली सर्वसमावेशी सरकार बननी चाहिए। जो चीन बराबर तालिबान की पीठ ठोक रहा है और जो मोटी पूंजी अफगानिस्तान में लगाने का वादा कर रहा है, वह भी आतंकवादरहित और मिली-जुली सरकार की वकालत कर रहा है लेकिन मैं समझता हूं कि सबसे पते की बात ईरान के नए राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने कही है। उन्होंने कहा है कि काबुल में कोई भी सरकार बने, वह जनता द्वारा चुनी जानी चाहिए। उनकी यह मांग अत्यंत तर्कसंगत है।
मैंने भी महिने भर में कई बार लिखा है कि काबुल में संयुक्तराष्ट्र संघ की शांति सेना एक साल के लिए भेजी जाए और उसकी देखरेख में चुनाव के द्वारा लोकप्रिय सरकार कायम की जाए। यदि अभी कोई समावेशी सरकार बनती है और वह टिकती है तो यह काम वह भी करवा सकती है। जो कट्टर तालिबानी तत्व हैं, वे यह क्यों नहीं समझते कि ईरान में भी इस्लामी सरकार है या नहीं ? यह इस्लामी सरकार आयतुल्लाह खुमैनी के आह्वान पर शाहे-ईरान के खिलाफ लाई गई थी या नहीं ? शाह भी अशरफ गनी की तरह भागे थे या नहीं? इसके बावजूद ईरान में जो सरकारें बनती हैं, वे चुनाव के द्वारा बनती हैं। ईरान ने इस्लाम और लोकतंत्र का पर्याप्त समन्वय करने की कोशिश की है। ऐसा काम और इससे बढिय़ा काम तालिबान चाहें तो अफगानिस्तान में करके दिखा सकते हैं।
हामिद करजई और अशरफ गनी को अफगान जनता ने चुनकर ही अपना राष्ट्रपति बनाया था। पठानों की आर्य काल की परंपराओं में सबसे शानदार परंपरा लोया जिरगा की है। लोया जिरगा याने महा सभा! सभी कबीलों के प्रतिनिधियों की लोकसभा। यह पश्तून कानून याने पश्तूनवली का महत्वपूर्ण प्रावधान है। यह 'सभा और 'समिति की आर्य परंपरा का पश्तो नाम है। यही लोया जिरगा अब आधुनिक काल में लोकसभा बन सकती है। बादशाह अमानुल्लाह (1919-29) और ज़ाहिरशाह (1933-1973) ने कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर लोया जिरगा आयोजित की थी। पिछले 300 साल में दर्जनों बार लोया जिरगा समवेत की गई है। इस महान परंपरा को नियमित चुनाव का रूप यह तालिबान सरकार दे दे, ऐसी कोशिश सभी राष्ट्र क्यों न करें ? इससे अफगानिस्तान और इस्लाम दोनों की इज्जत में चार चांद जुड़ जाएंगे। बहुत-से इस्लामी देशों के लिए अफगानिस्तान प्रेरणा का स्त्रोत भी बन जाएगा।
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)