विचार/लेख
भारत में बिजली की गंभीर कमी होने की बात कही जा रही है. विद्युत मंत्री जहां कोयले कमी की को नकार रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से पावर प्लांट में कोयले की कमी का निरीक्षण कराए जाने की खबरें हैं.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी का लिखा-
कई पावर प्लांट्स में बिजली उत्पादन के लिए बिल्कुल भी कोयला न होने की खबरें हैं. इसके लिए मॉनसून के दौरान कोयला खनन में आई गिरावट और कोरोना की दूसरी लहर के बाद बढ़ी बिजली की मांग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. हालांकि सरकार की ओर से अब तक इस मामले पर जो प्रतिक्रिया आई है, वह उलझाने वाली है. विद्युत मंत्री ने कोयले की कमी की होने की बात को पूरी तरह नकार दिया था. वहीं मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से थर्मल पावर प्लांट में कोयले की कमी का निरीक्षण किया जा रहा है.
कोयोले की कमी की खबरों में कितनी सच्चाई है, इसे समझने के लिए डीडब्ल्यू ने 'कोयला घोटाले' के नाम से मशहूर कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले के मामले में मुख्य याचिकाकर्ता रहे छत्तीसगढ़ के वकील और एक्टिविस्ट सुदीप श्रीवास्तव से बात की. इस मामले में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर, 2014 में कोयल ब्लॉक आवंटन को मनमाना और गैरकानूनी ठहराया था. सुदीप इस मुद्दे पर भी सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं कि चूंकि भारत के 15 फीसदी से भी कम हिस्से में घने वन बचे हैं, इसलिए कोयले की मांग को पूरा करने के लिए इसे नहीं छुआ जाना चाहिए.
वह दावा करते हैं, "भारत में कोयले की पर्याप्त मौजूदगी है और राज्यों के अंतर्गत आने वाले पावर प्लांट्स में इसकी कमी की अलग-अलग वजहें हैं." वह यह भी कहते हैं, "भारत के किसी भी कोने में पावर प्लांट हो, कोयला पहुंचाने में अधिकतम तीन दिनों का समय लगेगा. बाकी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के पावर प्लांट्स में यह कुछ घंटों में पहुंचाया जा सकता है, ऐसे में यह डर बेवजह बनाया गया है."
बिजली कमी में कितनी सच्चाई?
सुदीप श्रीवास्तव के मुताबिक, पिछले साल अप्रैल से सितंबर के बीच छह महीनों में कोयले का उत्पादन 28.2 करोड़ टन था. इस साल यह 31.5 करोड़ टन रहा है. यानी इसमें 12 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. कोरोना काल में इस पर ज्यादा असर नहीं पड़ा है क्योंकि इस दौरान सरकारी कंपनियां काम कर रही थीं. आम तौर पर मॉनसून के दौरान उत्पादन में कमी आती है लेकिन आंकड़े स्पष्ट कर रहे हैं कि इस बार पिछले साल से ज्यादा उत्पादन हुआ है. साल भर को पैमाना मानें तो भी 2019-20 के मुकाबले कोयला उत्पादन में खास कमी नहीं है.
कोल इंडिया के एक अधिकारी ने भी नाम न छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू को बताया, "राज्य सरकारों के अंतर्गत आने वाले पावर प्लांट और एनटीपीसी जैसी सरकारी कंपनियों को कोयले की सप्लाई फ्यूल सप्लाई अग्रीमेंट (FSA) के तहत होती है. इसके बाद कोयले की सप्लाई पहले ही कर दी जाती है और भुगतान बाद में लिया जाता है. कई राज्यों ने समय से भुगतान नहीं किया है, जिसके चलते कोल इंडिया ने इनकी सप्लाई रोक दी है." ऐसा करने वाले चार बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और राजस्थान हैं.
'जान-बूझकर बनाया खतरा'
जानकार मानते हैं कि कोल इंडिया की आपूर्ति रुकने के बाद भी चिंता नहीं होनी चाहिए. सुदीप श्रीवास्तव के मुताबिक, "भारत के पास जल, सौर और पवन ऊर्जा के जरिए करीब 1.4 लाख मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता है. बिजली वितरण कंपनियों से इसका इस्तेमाल करने के लिए क्यों नहीं कहा जा रहा? भारत की कुल बिजली उत्पादन क्षमता में कोयला और लिग्नाइट का हिस्सा 56 फीसदी है. लेकिन कुल बिजली उत्पादन का 76 फीसदी इनसे आता है. यानी हम अन्य स्रोतों की आधी क्षमता का भी इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं."
वह कहते हैं, "भारत की कुल उत्पादन क्षमता करीब 3.9 लाख मेगावाट है. लेकिन बिजली की अधिकतम मांग अब तक 2 लाख मेगावाट से ज्यादा नहीं रही है. ऐसे में तब तक खतरा नहीं होना चाहिए, जब तक उसे जान-बूझकर न खड़ा किया जाए." वह मानते हैं कि इसके पीछे कई स्तर पर प्राइवेट कंपनियों का हाथ है. ऐसा माहौल इन कंपनियों के लिए कानूनी छूट का प्रबंध करने के लिए बनाया जा रहा है. इसलिए विद्युत मंत्रालय ऐसे पावर प्लांट्स की लिस्ट नहीं जारी कर रहा, जिनके पास सिर्फ चार दिनों का कोयला बचा हुआ है."
कोल ब्लॉक भी चाह रही हैं कंपनियां
सुदीप बताते हैं, "प्राइवेट कंपनियां अच्छी कोयला क्षमता वाली जमीनों को हथियाना चाह रही हैं. ये कंपनियां कोल बियरिंग एरियाज एक्विजीशन एंड डेवलपमेंट एक्ट, 1957 के तहत भी आना चाह रही हैं. इस कानून के तहत किसी जमीन पर रहने वाले लोगों को मुआवजा देने से पहले ही वहां कोयले का खनन शुरू किया जा सकता है. अभी तक कोल इंडिया जैसी कंपनियों को इस कानून के तहत कोयला खनन का अधिकार है. अब प्राइवेट कंपनियां भी चाहती हैं कि यह कानून उन पर लागू हो."
ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ के हसदेव जंगलों में आने वाले पारसा कोल ब्लॉक का भी है. राजस्थान सरकार के अंतर्गत आने वाली विद्युत कॉरपोरेशन कंपनी राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को हजारों किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ में यह कोल ब्लॉक दिया गया था. उसने फिलहाल इसे खनन के लिए अडानी इंटरप्राइजेज को दे दिया है. यानी अपनी ही आवंटित जमीन से राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड बहुत महंगा कोयला खरीद रहा है.
सुदीप कहते हैं, "ये प्राइवेट कंपनियां, बिजली बेचने के दौरान खुले बाजार की बातें करती हैं लेकिन कोल ब्लॉक आवंटन जैसे मामलों में सरकारी छूट चाहती हैं. इनका ऐसा दोहरा रवैया क्यों है."
लोगों को चुकाने होंगे ज्यादा पैसे
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सरकार की ओर से टाटा पावर और अडानी पावर को एक्सचेंज पर राज्यों को और बिजली बेचने का निर्देश दिया गया है. ऐसा एक्सचेंज पर बिजली के दाम औसतन 16 रुपये प्रति यूनिट तक चले जाने के बाद किया गया है. बिजली एक्सचेंज पर बिजली खरीदी-बेची जा सकती है. यहां मांग-आपूर्ति के हिसाब से बिजली का दाम तय होता है, यानी इसके दामों में बढ़ोतरी और गिरावट होती रहती है.
इस निर्देश के बाद अडानी पावर और टाटा पावर अपने आयातित कोयला आधारित गुजरात के प्लांट्स में एक या दो दिनों में बिजली उत्पादन शुरू कर सकते हैं. जानकार मानते हैं, जाहिर है कि इससे दामों में बहुत थोड़ी ही कमी होगी.
खास असर न होने की एक वजह यह भी है कि अब तक भारत में ज्यादातर आयातित कोयले से चलने वाले पावर प्लांट्स काम नहीं कर रहे हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कोयला बाजारों में कोयले के दाम 150 डॉलर प्रति टन तक के स्तर पर पहुंच चुके हैं. अडानी पावर और टाटा पावर देश के कई राज्यों से बिजली बेचने का करार भी कर रहे हैं. जानकार कहते हैं सभी बातें इस दिशा में बढ़ रही हैं कि जल्द ही भारत में बिजली उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में प्राइवेट कंपनियों की भूमिका बढ़ने वाली है और लोगों को बिजली के लिए ज्यादा पैसा चुकाना होगा. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्री मोहन भागवत ने यह बिल्कुल ठीक कहा है कि शादी की खातिर धर्म-परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए। अक्सर यह देखा जाता है कि जब किसी हिंदू और मुसलमान लड़के और लड़की के बीच शादी होती है तो उनमें से कोई एक अपना धर्म-परिवर्तन करवा लेता है। कई बार तो यह भी देखा गया है कि शादी भी इसीलिए की जाती है कि किसी का धर्म-परिवर्तन करवाना है। यह तो धर्म-परिवर्तन नहीं, धर्म-हनन है। यह अधर्म नहीं तो क्या है? शादी का लालच तो रूपयों और ओहदों के लालच से भी बुरा है। धर्म-परिवर्तन वही किसी हद तक ठीक माना जा सकता है, जो बहुत सोच-समझकर, पढ़-लिखकर और लालच व भय के बिना किया जाए।
दुनिया में ज्यादातर धर्म-परिवर्तन भय, लालच या धोखे से किए जाते हैं। ईसाइयत और इस्लाम का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है। यदि ऐसी घटनाएं स्वयं ईसा मसीह या पैगंबर मुहम्मद के सामने होतीं तो क्या वे उन्हें उचित ठहराते? बिल्कुल नहीं। तो उनके अनुयायी यही सब कुछ करने पर क्यों तुले रहते हैं? इसका कारण उनकी अंधभक्ति और अज्ञान है। इसी कारण यूरोप और पश्चिम एशिया में खून की नदियां बहती रहीं। इन मुल्कों में महत्वाकांक्षी लोगों ने मजहब को सत्ता और अय्याशी के साधन के रुप में इस्तेमाल किया। भारत भी इस प्रवृत्ति का शिकार कई बार हुआ लेकिन अब जो आधुनिक भारत है, उसे अपने आप को इस अंधकूप में गिरने से बचाना होगा।
दो व्यक्तियों में यदि पति-पत्नी का संबंध बनता है और उसका आधार परस्पर प्रेम और पसंदगी है तो उससे बड़ा धर्म कोई नहीं है। सारे धर्म और मजहब उसके आगे छोटे पड़ जाते हैं। मज़हब तो माँ-बाप का दिया होता है और मोहब्बत तो खुद की पैदा की हुई होती है। मजहबमजबूरी है और मोहब्बत आजादी है। इस आजादी को आप मजबूरी का गुलाम क्यों बनाएँ? पति और पत्नी, दोनों को अपना-अपना नाम,काम और मजहब बनाए रखने की आजादी क्यों नहीं होनी चाहिए? मेरे ऐसे दर्जनों मित्र देश और विदेशों में हैं, जिन्होंने अंतरधार्मिक शादियाँ की हैं लेकिन उनमें से किसी ने भी अपना धर्म-परिवर्तन नहीं करवाया। भारत में तो धर्म से भी ज्यादा जातियों ने कहर ढाया है। धर्म तो बदल सकता है लेकिन आप जाति कैसे बदलेंगे? अंतरजातीय विवाह ही जातिवाद को खत्म कर सकता है। यदि भारत में अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह बड़े पैमाने पर होने लगें तो राष्ट्रीय एकता तो मजबूत होगी ही, लोगों के जीवन में समरसता और आनंद का अतिरिक्त संचार भी तेजी से होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्राण चड्ढा
अंग्रेज जंगल में भी जब रेस्ट हाउस बनवाते तो सड़क से दूर हट कर ताकि कोई दखलंदाजी न हो शोर गुल ना है। छत्तीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व में पहले बिलासपुर-अमरकंटक रोड पर अचानकमार, छपरवा और लमनी में एक ही वास्तुशिल्प के तीन रेस्ट हाउस हैं। जहां सैलानी गतिविधियां अब प्रतिबंधित हैं। यहां रस्सी से खींचने वाला पंखा और शीतकाल में आग सेंकने का बंदोबस्त भीतर है।
''कोई मानेगा ''अचानकमार टायगर रिजर्व'[छत्तीसगढ़] का ये डाक बंगला महज 2573 रूपये में कभी बना होगा ..?
पर हकीकत यही है.
घने जंगल में समुद्र सतह से 1468 फीट की ऊंचाई पर ये रेस्ट हाउस सन 1911 में बना था अब ये कोर एरिया में है ,, यहाँ सैलानी अब नहीं ठहरते, इसे म्यूजियम का रूप दे दिया गया है, ये कैंप कार्यालय का हिस्सा है !
सैलानी अब रिजर्व के बाहरी क्षेत्र शिवतराई में नए बने आवासीय स्थल में रुकते हैं!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
क्या नरेंद्र मोदी तानाशाह हैं? एक टीवी चैनल के इस प्रश्न का जवाब देते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि नहीं, बिल्कुल नहीं। यह विरोधियों का कुप्रचार-मात्र है। नरेंद्र मोदी सबकी बात बहुत धैर्य से सुनते हैं। इस समय मोदी सरकार जितने लोकतांत्रिक ढंग से काम कर रही है, अब तक किसी अन्य सरकार ने नहीं किया। देश के भले के लिए मोदी आनन-फानन फैसले करते हैं और छोटे-से-छोटे अफसर से सलाह करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता। अमित शाह ने ऐसे कई कदम गिनाए, जो मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री रहते हुए उठाए और उन अपूर्व कदमों से लोक-कल्याण संपन्न हुआ। अमित भाई के इस कथन से कौन असहमत हो सकता है? क्या हम भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के बारे में कह सकते हैं कि उसने लोक-कल्याण के कदम नहीं उठाए? चंद्रशेखर, देवगौड़ा और इंदर गुजराल तो कुछ माह तक ही प्रधानमंत्री रहे लेकिन उन्होंने भी कई उल्लेखनीय कदम उठाए। शास्त्रीजी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह और वि.प्र. सिंह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए लेकिन उन्होंने भी भरसक कोशिश की कि वे जनता की सेवा कर सकें।
जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, नरसिंहराव, अटलजी और राजीव गांधी की आप जो भी कमियाँ गिनाएँ लेकिन इन पूर्वकालिक प्रधानमंत्रियों ने कई एतिहासिक कार्य संपन्न किए। मनमोहनसिंह हालांकि नेता नहीं हैं लेकिन प्रधानमंत्री दो अवधियों तक रहे और उन्होंने भी अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने में उल्लेखनीय योगदान किया। इसी प्रकार नरेंद्र मोदी भी लगातार कुछ न कुछ योगदान कर रहे हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यदि उनका योगदान शून्य होता तो भारत की जनता उन्हें 2019 में दुबारा क्यों चुनती ? उनका वोट प्रतिशत क्यों बढ़ जाता? सारा विपक्ष मोदी को अपदस्थ करने के लिए बेताब है लेकिन वह एकजुट क्यों नहीं हो पाता है? क्योंकि उसके पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं है। उसके पास न तो कोई नेता है और न ही कोई नीति है। यह तथ्य है, इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि देश की व्यवस्था में हम कोई मौलिक परिवर्तन नहीं देख पा रहे हैं। यह ठीक है कि कोरोना महामारी का मुकाबला सरकार ने जमकर किया और साक्षरता भी बढ़ी है।
धारा 370 और तीन तलाक को खत्म करना भी सराहनीय रहा। गरीबों, पिछड़ों, दलितों, किसानों और सभी वंचितों को तरह-तरह के तात्कालिक लाभ भी इस सरकार ने दिए हैं लेकिन अभी भी राहत की पारंपरिक राजनीति ही चल रही है। इसका मूल कारण हमारे नेताओं में सुदूर और मौलिक दृष्टि का अभाव है। वे अपनी नीतियों के लिए नौकरशाहों पर निर्भर हैं। नौकरशाहों की यह नौकरी तानाशाही से भी बुरी है। नरेंद्र मोदी का निजी जीवन निष्कलंक है लेकिन न तो वे अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह जनता-दरबार लगाते हैं, न उन्होंने आज तक अपने 'मार्गदर्शक मंडल' की एक भी बैठक बुलाई। उन्होंने अपने तीन-चार अत्यंत महत्वपूर्ण मंत्रालय नौकरशाहों के भरोसे छोड़ रखे हैं। मैंने कभी नहीं सुना कि अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह वे विशेषज्ञों से नम्रतापूर्वक कभी कोई सलाह भी लेते हैं। इसका नतीजा क्या है? नोटबंदी बुरी तरह से मार खा गई और हमारी विदेश नीति दुमछल्ला बनकर रह गई। यदि मंत्रिमंडल में नोटबंदी पर बहस हुई होती तो देश पर उसक कहर टूटता क्या? डर यही है कि भाजपा कहीं आपात्काल के पहले की इंदिरा कांग्रेस न बन जाए? सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र शून्य होता जा रहा है। पत्रकारिता पर कोई प्रत्यक्ष बंधन नहीं है लेकिन पता नहीं, पत्रकार क्यों घबराए हुए हैं? जब आप अपने आप को चूहाशाह बना दे रहे हैं तो सामनेवाले को आप तानाशाह क्यों नहीं कहेंगे?
(नया इंडिया की अनुमति से)
सुप्रीम कोर्ट ने लखीमपुर मामले में आठ अक्टूबर को सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए वकील हरीश साल्वे से सवाल किया था कि किसानों की हत्या के आरोप में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को तुरंत गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? साल्वे ने जवाब दिया था कि गोली चलने का आरोप है मगर सबूत नहीं है। अगर सबूत साफ हों तो हत्या का मामला बनेगा। पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट में गोली चलने से मौत की पुष्टि नहीं हुई है। यही कारण है कि आरोपी को पूछताछ के लिए बुलाया गया है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने तो केस की सुनवाई बीस अक्टूबर तक के किए स्थगित कर दी पर उसके पहले ही लखनऊ में आशीष से सिर्फ बारह घंटों की पूछताछ के दौरान ही पुलिस को सारे सबूत भी मिल गए और मंत्री-पुत्र को गिरफ्तार कर लिया गया। अब पूछा जा रहा है कि इतने के बाद भी केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का इस्तीफा होगा या नहीं ? पूरे घटनाक्रम से प्रधानमंत्री की छवि को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितनी क्षति पहुँची है और उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों पर क्या असर पड़ेगा उसका आकलन होना अभी बाक़ी है।
गोरखपुर में एक टी वी चैनल के साथ मुलाकात में मुख्यमंत्री योगी ने जब यह कहा कि बिना सबूत के कोई गिरफ्तारी नहीं होगी तो जनता सवाल करने लगी थी कि अदालत को सबूत जुटाकर देने का काम किसका है और आरोपियों को कौन और क्यों बचा रहा है? क्या दोनों ही काम कोई एक ही एजेंसी तो साथ-साथ नहीं कर रही है ?
लखीमपुर कांड की निष्पक्ष जाँच और आरोपियों को उचित सजा न्यायपालिका की ताक़त और लोकतंत्र के भविष्य को तय करने वाली है। उसके बाद इस चिंता भी पर गौर किया जाना चाहिए कि सरकारें अगर अदालतों के निर्देशों को न मानने या टालने का फैसला कर लें तो उस स्थिति में जजों को क्या करना चाहिए! किसी भी विधिवेत्ता ने इस आशंका पर अभी अपना मत प्रकट नहीं किया है कि अगर कोई निरंकुश शासन न्यायपालिका के निर्देश/आदेश का सम्मान करने से इंकार कर दे, आपराधिक न्याय के लिए दो तरह की व्यवस्थाएँ कायम कर दे—एक सामान्य व्यक्तियों के लिए और दूसरी विशिष्टजनों के लिए—तो ऐसी स्थिति से निपटने के लिए संविधान में क्या प्रावधान हैं और उनका पालन करवाने की जिम्मेदारी किसकी रहेगी? सुप्रीम कोर्ट ने हरीश साल्वे से भी यही सवाल किया था कि- ’अगर आरोपी कोई आम आदमी होता तब भी क्या पुलिस का रवैया यही होता ?’
बहस का विषय केवल यहीं तक सीमित नहीं है कि केंद्र में एक जिम्मेदार विभाग का कामकाज सम्भाल रहा व्यक्ति ही गंभीर आरोपों के घेरे में है और प्रधानमंत्री ‘अज्ञात’ कारणों से उसे हटा नहीं पा रहे हैं और कि मुख्यमंत्री प्रतिष्ठापूर्ण विधानसभा चुनावों के ठीक पहले एक अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति के खिलाफ करवाई कर पहले से नाराज बैठे एक वर्ग विशेष के परशुराम क्रोध का ख़तरा मोल नहीं लेना चाह रहे थे पर सुप्रीम कोर्ट के दबाव में उन्हें अंतत: लेना ही पड़ा। बहस का विषय यह भी है कि वर्तमान लोकसभा में आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या 233 पर पहुँच गई है जो पिछली लोकसभा में 187, उसके पहले (2009 में) 162 और वर्ष 2004 में 128 थी। अत: कल्पना की जा सकती है कि संसदीय लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है।पूछा जा सकता है कि अजय मिश्रा की मंत्रिमंडल में इतने महत्वपूर्ण विभाग में नियुक्ति से पहले क्या उनकी और उनके निकटस्थ जनों की पारिवारिक और आपराधिक पृष्ठभूमि की जाँच नहीं करवाई गई थी ?
न्यायमूर्ति एन वी रमना ने इसी जून में ‘क़ानून का राज’ विषय पर दिए गए व्याख्यान में और बातों के अलावा तीन मुद्दे प्रमुख रूप से उठाए थे : न्यायपालिका को पूरी आज़ादी की ज़रूरत है जिससे कि वह सरकार की शक्तियों और कारवाई पर नियंत्रण रख सके। न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तरीक़े से नियंत्रित नहीं किया जा सकता वरना कानून का राज मायावी हो जाएगा। तीसरा यह कि शासक को कुछेक साल में बदलते रहने का अधिकार मात्र ही निरंकुशता के विरुद्ध गारंटी नहीं हो सकता।
न्यायपालिका के आदेशों/निर्देशों की अवहेलना, उपेक्षा अथवा उनके प्रति असम्मान के भाव को इस तरह भी लिया जा सकता है कि अगर किसी शासक को निरंकुश बहुमत प्राप्त हो जाए तो फिर सरकार ही न्यायपालिका का काम भी करने लगती है। उस स्थिति में व्यवस्था जिसे अपराधी करार देगी उसे न्याय के लिए न्यायपालिका को सौंपने के बजाय फर्जी अथवा गैर-फर्जी मुठभेड़ों के जरिए सडक़ों पर ही सजा देने की गलियाँ तलाश लेगी और जिन्हें अपराधी होते हुए भी दोषी नहीं मानेगी उनके खिलाफ सबूत जुटाने का काम न्यायालयीन मंशाओं के अनुरूप सम्पन्न नहीं होने देगी। ऐसे में न्यायपालिका की उपयोगिता के प्रति जनता में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। उस स्थिति में जजों को क्या करना चाहिए जब उन्हें लगने लगे कि देश तानाशाही की तरफ जा रहा है और न्यायपालिका की अवमानना की जा रही है?
इंग्लैंड के प्रसिद्ध मीडिया उपक्रम ‘द गार्डियन’ ने पिछले महीने जारी अपनी एक रिपोर्ट में पूर्वी योरप के देश पोलैंड के जजों द्वारा टी-शर्ट और जींस पहनकर शहर-शहर घूमते हुए देश के संविधान की प्रतियाँ जनता के बीच बाँटने के प्रयोग का जिक्र किया है। पोलैंड में सत्तारूढ़ दल इस समय अदालतों में ‘सुधार’ का काम कर रहा है। इसके अंतर्गत सरकार ने न सिर्फ अपने समर्थकों को संवैधानिक अदालतों में नियुक्त कर दिया है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ‘अनुशासनात्मक चेंबर ’ भी गठित कर दिया है जो जजों के अपने प्रति मुकदमों से प्रतिरक्षा के अधिकार को छीन रहा है।
अपने देश को अधिनायकवाद की तरफ जाते देख वहाँ के जजों ने सत्ता के समक्ष समर्पण करने के बजाय संविधान को लोगों तक ले जाने का तय किया। इस काम के लिए उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त मिनी बस का इंतजाम किया और जनता को यह समझाने निकल पड़े कि उसे कानून के राज (न्यायमूर्ति रमना के व्याख्यान का विषय) की चिंता क्यों करना चाहिए। कहा जा रहा है कि कानून के राज के लिहाज से पोलैंड इस वक्त अपने सर्वाधिक काले दौर से गुजर रहा है। बीस सितम्बर तक ये जज कोई अस्सी शहरों का दौरा पूरा कर चुके थे। पोलैंड की कहानी काफी लंबी है पर यह कहानी कभी भारत के जजों को भी ऐसी ही परीक्षा में डाल सकती है। अधिनायकवाद बिना दस्तक दिए ही दाखिल होता है।
-मनीष सिंह
लोग कह रहे हैं कि एयर इंडिया का फेलियर, उसका घाटे में जाना पिछले सत्तर सालों की सरकार का कलेक्टिव फेलियर है।
क्या सच यही है? कैसे एयर इंडिया गले-गले तक घाटे में गिरी, हिस्ट्री पर चलते है। बाकी तो आप समझ लेंगे।
हवाई जहाज का कमर्शियल इस्तेमाल 1930 के बाद ही शुरू हुआ। पर बेहद छोटा, नया सेक्टर था। युद्ध के दौर में जहाज सैनिकों और फौजी साजो-सामान ढोने के लिए बड़ी मात्रा में इस्तेमाल हुए। युद्ध के बाद बचे जहाज बड़ी मात्रा में दुनिया के धन्ना सेठों ने सस्ते में खरीद लिए, हवाई टैक्सी चलाने लगे। अब दो चार टैक्सी हो जाये, तो इसे एयरलाइन कहते हैं।
तो आजादी के वक्त भारत में भी छोटी-छोटी एयरलाइंस थी। चार छह सेकेंड हैंड डकोटा प्लेन्स, यात्री, कार्गो और मेल एक साथ ढोते। ऐसी 14 एयरलाइन थी।
बंटवारे के बाद भारत मे 9 बची। इनके छकड़ा प्लेन्स से इस सेक्टर का भला न होना था। स्पीडली ट्रान्सपोर्ट अब आम जरूरत बन रही थी। इस सेक्टर में इन्वेस्टमेंट की जरूरत थी। बड़े, चमकते एयरपोर्ट चाहिए, हैंगर चाहिए। बड़े हवाई जहाज चाहिए। ट्रेंड पायलट चाहिए जो कम्पनी में डेली वेजेस में काम न करें। तमाम ग्राउंड क्रू टेक्नीशियन चाहिए तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय किये मानकों में खरे उतरें।
टाटा बिड़ला इस महादरिद्र देश मे दो तीन सौ करोड़ के मालिक थे। इसलिए कहावतों में बड़े आदमी के रूप में मशहूर थे। लेकिन जेब या जिगर के इतने भी बड़े न थे, कि इक_ा एक सेक्टर में सारी जमापूंजी लगा दें। अब पैसा, या तो निजी कम्पनी में विदेशी निवेश से आता, या सरकार को लगाना होता ...
लुटे-पिटे साधुओं और सांपों के देश मे पैसा कौन सी एयरलाइन लगाती। अब सब सरकार को ही करना था। तो इस छकड़ा कम्पनियों को तिरोहित कर एयर इंडिया/इंडियन एयरलाइंस बनी। और इसमें पूंजी डाली गई सरकार की, तो जाहिर है, मालिक भी सरकार होगी, जनता होगी, देश होगा। यही नेशनलाइजेशन है।
9 कम्पनियों में अकेले टाटा ही थे, जिनको इंटरनेशनल एविएशन का थोड़ा मोड़ा अनुभव था। उन्हें इस सरकारी कम्पनी का चेयरमैन बनाया गया। वे आगे 30 साल चेयरमैन रहे। सीखते गए, करते गए, और एयरइंडिया बुलंदियों पर चढ़ गई।
दुनिया की टॉप एयरलाइन्स में हो गई। सरकार को, देश को मुनाफा मिलता रहा। कर्मचारियों को सैलरी, जॉब्स और इज्जत मिली। तभी देश में क्रांति हो गई।
मोरारजी शुद्ध सात्विक आदमी थे। बम्बई के थे, पोलिटीशियन थे। बम्बई के उद्योगपति और बम्बई के नेता के बीच, लुटे और लुटेरे का संबंध होता है। यानी दोनों एक दूसरे से खार खाए रहते हैं। तो शुद्ध सात्विक पीएम को एयर इंडिया में पूछ लिया गया- व्हाट वुड यू लाइक टू ड्रिंक सर?
जाहिर है, जिन, ब्रांडी, रम, व्हिस्की, वोडका, शैम्पेन एवलेबल थी, लेकिन स्वमूत्र नहीं। मोरारजी उखड़ गए, और एयरइंडिया में शराब पेश करने पर सरकार ने अड़ंगा लगा दिया।
ये ही नहीं, और भी कई अड़ंगेबाजी हुई। चिढक़र जेआरडी टाटा ने रिजाइन कर दिया गया। उन्हें कुछ और भी सरकारी बोर्ड और कमेटियों से बर्खास्त कर दिया गया।
इस दौर में पहली बार एयर इंडिया का ग्राफ गिरा।
1980 में इंदिरा, जेआरडी को वापस ले आयी। पर एयर इंडिया टॉप से खिसक चुकी थी। जेआरडी भी उम्रदराज हो चुके थे। पर स्थिति नियंत्रण में रही। उनके बाद कुछ और चेयरमैन आये। ये सभी सरकारी नौकर थे, आईएएस थे। जिन्हें हर चीज का ज्ञान होता है। एरोप्लेन का भी..पर सर्विसेज का नहीं। सेवा झुककर होती है, अफसरी की अकड़ के साथ नही। एयर इंडिया सरकारी अफसर ज्यादा थी। लेकिन एविएशन में सरकार की मोनोपॉली थी, इसलिए नुकसान नहीं हुआ।
हज सब्सिडी, असल मे एयर इंडिया को सब्सिडी थी। तमाम घाटे को सरकार से मिलने वाले पैसे से भर लिया जाता। इसके बदले एयर इंडिया को, भारतीय मुस्लिम्स को सस्ते टिकट देकर, मक्का घुमाकर लाना होता।
1991 के बाद भारत में लिबरलाइजेशन आया। हर सेक्टर खोला जाने लगा। एविएशन का नम्बर 1995 में आया। नरसिंह राव सरकार ने आखिरी साल में ‘ओपन स्काई’ पॉलिसी बनाई। कहा-एयर इंडिया/इंडियन एयरलाइंस की मोनोपॉली नहीं रहेगी। प्राइवेट ऑपरेटर को लाइसेंस मिलेगा। ये बोलकर नरसिंहराव चले गए। इम्पलीमेंट आगे की सरकारों ने किया।
हवाई जहाज अमीरों का शौक था। अमीर दिल्ली-मुम्बई-कलकत्ते में रहते थे। प्राइवेट ऑपरेटरों ने इन्ही रुट पर लाइसेंस लिए। अब तक जो एयर इंडिया/इंडियन एयरलाइंस से चलते थे, उन्हें विकल्प मिल गया।
सरकारी एयरलाइंस के टिकट दस हजार के, तो प्राइवेट वाले पांच हजार में देते। उन्हें टिकट की कीमत खुद तय करनी थी, सरकारी एयरलाइन को मंत्रीजी तक फाइल चलानी पड़ती थी।
घाटा होने लगा। लेकिन अब भी दस बीस करोड़ की रेंज में था। इसलिए कि प्राइवेट ऑपरेटर की फ्लाइट्स सीमित थी।
फिर आये अटल और प्रमोद महाजन। उन्होंने थोक के भाव रूट बांट दिये, देश मे भी, विदेश में भी। एयर इंडिया के स्लॉट, लैंडिंग राइट जबरन प्राइवेट वालों को सस्ती लीज पर दिए। कहा- ये घाटा पूरा करने का मास्टरस्ट्रोक है।
लेकिन एयरइंडिया और इंडियन एयरलाइंस के घाटा तो बढऩे लगा। प्राइवेट ऑपरेटर मालामाल होने लगे। ये फायदे की बात थी। क्योंकि एयर इंडिया का मुनाफा देश को जाता है, प्राइवेट का चन्दा-पार्टी को।
इस दौर में हज सब्सिडी के पैसे भी घटे। यानी मक्का घुमाने का टारगेट कट हो गया। जो घुमाए, उसके भी पैसे जारी न हुए। आपको लगा कि मुल्ले टाइट हो गए। नहीं जी-एयर इंडिया फूल टाइट हो गई।
महाजन ऐसे ही, पार्टी के फंड रेजर नहीं बने। अब मुम्बई के नेता और मुम्बई के धन्नासेठों के बीच रिश्ता बदल गया था। लुटे हुए लुटेरे थे, लुटेरा लुट कर मस्त था।
येन महाजनों गत: स पंथ: । वह पथ आज भी हैवी ट्रैफिक में है।
तो अटल सरकार गयी। नए मिनिस्टर आये, प्रफुल्ल पटेल। इस बन्दे ने सिरियस कोशिश की। प्रति जहाज स्टाफ ज्यादा था। खर्च वेतन ज्यादा थे। उस पर भी तलवार चलाई। नतीजा, पायलटों की हड़ताल.. उस दौर के न्यूज हेडलाइन देखिये। बार बार हड़तालें होती रही। एयर इंडिया की और बदनामी हुई।
सर्विसेज बेहतर करने की कोशिश हुई। ऑनलाइन बुकिंग, सर्ज प्राइसिंग आदि के द्वारा, प्राइवेट वालों के लटके झटके अपनाए गए। जहाज सब 30-40 साल पुराने थे। तो नए जहाज खरीद लिए गए।
पर जो रुट लीज पर थे, उसे कैसे वापस लेते। नए प्लेन से जितना कर्ज चढ़ा उतना बिजनेस न बढ़ा। नतीजा, जो घाटा चार पांच सौ करोड़ का था, चार-पांच हजार करोड़ की रेंज में आ गया।
ब्याज, आगे के दस साल के वेतन, मेंटेनेंस, तेल पानी पर हर साल बढ़ता हुआ कर्ज, कुल मिलाकर 45000 करोड़ तक आ गया। अब एयर इंडिया तो बेच दी गई। पर कर्ज सरकार के सिर पर बना हुआ है। यानी मेरे सिर बना हुआ है। मैं 100 रुपये के पेट्रोल खरीदकर उसे भर रहा हूँ।
अरे हां- हज की सब्सिडी बन्द नही हुई है। अब वो प्राइवेट एयरलाइन को मिलेगी। बेरोकटोक मिलेगी, और देख लेना, टारगेट बढ़ेंगे। इसे सबके साथ सबके विकास के रूप में चित्रित किया जाएगा। लेकिन इस सबके बीच आकाश के महाराजा की लाश, टाटा के दरवाजे पर लटकती हुई दिखती दिखेगी।
कत्ल का इल्जाम नेहरू पर होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश शेखर कुमार यादव ने आकाश जाटव नामक व्यक्ति को जमानत पर रिहा करते हुए कहा कि राम और कृष्ण के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी करनेवालों के विरुद्ध सख्त सजा का प्रावधान होना चाहिए। ये दोनों महापुरुष भारत के राष्ट्रपुरुष हैं। संविधान में संशोधन करके ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए। जज यादव ने बयान में यह ढील जरुर दी है कि कोई नास्तिक भी हो सकता है (या विधर्मी भी हो सकता है या वह राम और कृष्ण को चाहे भगवान नहीं माने) लेकिन उसे अधिकार नहीं है कि वह उनका अपमान करे। सैद्धांतिक दृष्टि से यादव की बात ठीक है कि किसी भी महापुरुष का अपमान नहीं किया जाना चाहिए और यदि उनके विरुद्ध कोई अश्लील टिप्पणी करे और जिससे दंगे भी भड़क सकते हों तो उस पर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन यह बात सिर्फ राम और कृष्ण के बारे में ही लागू क्यों हो?
महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध के बारे में भी क्यों नहीं और यदि उनके बारे में हो तो यह मांग भी उठेगी कि ईसा मसीह, पैगंबर मुहम्मद और गुरु नानक के बारे में भी क्यों नहीं? इस तरह की मांग द्रौपदी के चीर की तरह लंबी होती चली जाएगी और उसमें आसाराम और राम रहीम जैसे लोग भी जुड़ जाएंगे। मैं समझता हूं कि किसी भी महापुरुष या तथाकथित भगवान या नेता या विद्वान की आलोचना करने का अधिकार सदा सुरक्षित रहना चाहिए। लोग तो विपदा पडऩे पर सीधे भगवान को भी कोसने लगते हैं। यदि इस अधिकार से लोग वंचित होते तो आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती शायद एक शब्द भी न लिख पाते और न बोल पाते।
उन्होंने कुरान, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहब की खरी-खरी आलोचना की तो अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में हिंदू धर्म के नाम से प्रचलित सभी संप्रदायों के भी परखचे उड़ा दिए। महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति आज की दुनिया में कहीं ढूंढने से भी नहीं मिल सकता लेकिन उनके विरुद्ध गुजराती, मराठी, हिंदी और अंग्रेजी में कई ऐसे ग्रंथ और लेख लिखे गए हैं, जो बिल्कुल कूड़े की टोकरी के लायक हैं लेकिन उनके लेखकों को सजा देने की बात बिल्कुल नाजायज़ है। यदि आलोचकों को सजा की संवैधानिक प्रावधान होता है तो हम भारत को क्या पाकिस्तान नहीं बना देंगे ? पाकिस्तान में कितने ही लोगों को ईशा-निंदा के अपराध में मौत के घाट उतार दिया गया है। भारत में तो नास्तिकों और चार्वाकों की अदभुत परंपरा रही है। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार दिया है। ऐसे सर्वसमावेशी राष्ट्र को कठमुल्ला देश नहीं बनाना है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चिन्मय मिश्र
‘‘मैं एक उद्देश्य लेकर सन् 1914 के अंत में अफ्रीका से भारत लौटा था। वह उद्देश्य था- जीवन के हर क्षेत्र में हिंसा और झूठ के बजाए सत्य और अहिंसा का मानव मात्र में प्रचार करना। सत्याग्रह के सिद्धांत की कभी पराजय नहीं होती।’’
-महात्मा गांधी
कुचला जाना जब मुहावरे से निकलकर यर्थाथ बनता हैं तो लखीमपुर खीरी में स्वयं को चरितार्थ करता है। यह कोई साधारण घटना नहीं है। इस घटना ने यह जतलाने की कोशिश की है कि भारत में संविधान ‘‘स्थगित’’ हो गया है। इस काल में उस पर अमल करने की प्रतिबद्धता लगातार अर्थहीन घोषित की जा रही है। आप पैदल जा रहे हों, यासडक़ पर प्रदर्शन कर रहे हों, तो आपसे चर्चा की आवश्यकता नहीं है। कुचल दिया जाना इससे बेहतर विकल्प है। संविधान स्थगित है, इसलिए संविधान की उद्देशिका भी स्थगित है, जो सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता के साथ ही साथ व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता की बात करती है। स्थगित है भारत के नागरिकों को संविधान प्रदत मौलिक अधिकार। स्थगित है समता का अधिकार। स्थगित है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार। स्थगित है शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन का अधिकार। स्थगित है अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण का अधिकार। स्थगित है कुछ दशाओं में गिरफ्तारी से संरक्षण का अधिकार। स्थगित है शोषण के विरूद्ध अधिकार। स्थगित है धार्मिक कार्यो के प्रबंध की स्वंतत्रता का अधिकार। स्थगित है भारत में कहीं भी निर्बाध आवागमन का अधिकार। स्थगित हैं अल्पसंख्यक वर्ग के अधिकार।
तो साहब सब स्थगित है। लखीमपुर से 125 किलोमीटर दूर स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव में घरों की चभियां दी जा रहीं हैं, लेकिन उजड़े घरों की बात नहीं होती। चिथड़े-चिथड़े हुए मनुष्यों की बात नहीं होती। जश्न भले ही आजादी का ही क्यों न हो क्या यहअपने नागरिकों की दुर्दशा की स्वीकारोक्ति का माध्यम नहीं बन सकता? न मालूम क्यों इस लोमहर्षक घटना पर महेश कटारे की कहानी ‘‘मुर्दा स्थगित’’ याद आ गई है। कहानी एक शासन प्रमुख की बेटी के विवाह की शोभायात्रा से शुरू होती है। घोषणा हो चुकी है हुजूर की पुत्री ससुराल जाएगी, सारा शहर रोएगा। कर्तव्य पालन में अखबार चौकस थे। खबर फैला दी गई। कहानी बताती है, सवाल उठता है, लोकतंत्र। क्या चीज है यह ? आदरणीय यह एक शब्द भर है जिसे उछाला जा सकता है, चुभलाया जा सकता है। इसके नाम से तुम विरोधी पर हमला कर सकते हो। ताकत हो तो लतिया भी सकते हो। लोकतंत्र समाजवाद वगैरह आज के, ‘अल्लाहो अकबर’ और ‘हर-हर महादेव’ हैं। कहानी के अंत में हलचल मचती है कि क्योंकि गरीब की मृत्यु हो गई है। पुलिस वाले मंत्रणा कर रहे है कि यह कोई राजनीतिक साजिश तो नहीं है कि मुर्दा समय पर खड़ा हो जाए। परंतु मुर्दा तो वास्तव में मुर्दा ही है। शोभायात्रा निकलती है। पुलिस इस तरह से स्वयं को तैनात करती है कि मुर्दा न दिखे। परंतु युवराज की नजर वहां खड़े घुटमुंड, सफेद कपड़ा डाले बच्चे पर पड़ती है। युवराज मुस्कराते हैं उसे देख! बच्चा अचकचा जाता है। वह भी मुस्कराता है और चौंककर लडक़ा अपने हाथों के फूल उस शोभायात्रा पर उछाल देता है। कहानी यहां खत्म नहीं होती। शायद यहीं से शुरू होती है। मुर्दा स्थगित है। शवयात्रा स्थगित है। शवदाह स्थगित है। शोभायात्रा जारी है। समारोह जारी है। लखनऊ में भी चल रहा है। दिल्ली में भी चल रहा है। शोक तो यह देश भूल गया है। शोक अब नितांत व्यक्तिगत बनकर रह गया है। जितना बड़ा शोक, उतना बड़ा मुआवजा। इसके बाद तो शोक मुक्त हो जाइये। मुस्कराइये। अपने भाग्य पर इतराइये। आपको कम से कम मुआवजा तो मिल गया वरना! वरना क्या?भारतेंदु हरिशचंद्र का नाटक अंधेर नगरी पढ़ लीजिए सब समझ जाएंगें। आपको विश्वास हो जाएगा कि कुछ रचनाएं कालातीत होती हैं। भले ही उनकी पृष्ठभूमि राजतंत्र की हो, लेकिन वे वर्तमान लोकतंत्र पर भी खरी उतरती हैं।
भारत में जो कुछ घट रहा है, वह वास्तव में लगातार इतिहास के पुनरावलोकन की ओर धकेल रहा है। भविष्य कहीं नजर नहीं आ रहा। वर्तमान हमेशा अतीत को दोहरता नजर आ रहा है। यह भयानक है। एक फिल्मस्टार के बेटे की जमानत का इसलिए विरोध होता है कि वह प्रभावशाली है और सबूतों से छोड़छाड़ कर सकता है। वहीं देश के गृह राज्यमंत्री के बेटे की गिरफ्तारी इसलिए नहीं होती क्योंकि मुख्यमंत्री का कहना है कि पुख्ता सबूतों पर ही गिरफ्तारी होगी। भाईये लोग इतने अशक्त हैं कि सबूतों से छेड़छाड़ नहीं कर सकते। चश्मदीद गवाहों से इतना डरते हैं कि बीमार हो गए और घर में आराम करने लगते हैं। पुलिस भी इन शक्तिहीन लोगों के प्रति बेहद संवेदनशील है। वह उनकी निद्रा में व्यवधान नहीं डालती। घर के बाहर समन चस्पा कर देती है। नियत दिनांक और समय पर मंत्री सुपुत्र नहीं पहुंचते। सर्वोच्च न्यायालय थोड़ा गुस्सा दिखाता है तो दूसरा समन दे दिया जाता है। वे अगले दिन 11 बजे थाने पहुंचने का समय दे देते हैं। इतना ही नहीं जांच के लिए पहुंच कर हम सबको कृतार्थ भी कर देते हैं। वे बेहद शालीनता का परिचय देते हुए सफेद बुर्राक कपड़ों (शायद खादी के हो) में पहुंचते हैं। सवाल है कानून-व्यवस्था संभालने वालों की निष्पक्षता और नीयत का।
कपड़ों से एक बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाचक्र याद आ रहा है। भारत में भी इसे दोहराने का आरंभिक दौर प्रारंभ हो गया है। पिछले कुछ वर्षों से इस परिस्थिति में उछाल सा आया भी है। यह है इटली में फाजिस्म के उत्कर्ष के दौरान गठित युवाओं का समूह जिसे ‘‘ब्लेकशर्ट’’ (काली कमीज) नाम दिया गया था। ब्लेक शर्ट का पहला दस्ता जिसे एक्शन स्चयड कहा गया था। इसकी शुरुआत मार्च 1919 में हुई थी। सन् 1920 के अंत तक इस ब्लेकशर्ट ने अपने कार्यवाही शुरू कर दी थी। इस दौरान इन्होंने समाजवादियों के साथ ही साथ कम्युनिस्टों, रिपब्लिकनों, कैथोलिक, ट्रेड यूनियन नेताओं और हजारों नागरिकों को मारा। इन्हीं की वजह से सन् 1922 में मुसोलिनी सत्ता में आया। इसके अगले ही साल ब्लेकशर्ट को राष्ट्रीय मिलिशिया (नागरिक सेना या अन्य पेशे वाले लोग जो लड़ाई के समय सिपाही का काम करें) में परिवर्तित कर दिया गया। ज्यादा विस्तार में जाना बेहद लोकहर्षक हो जाएगा। गौर करिए मुंबई में क्रूज पर नारकोटिक्स ब्यूरो के छापे में सत्ताधारी दल से जुड़े लोग आरोपियों को पकड़ कर ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। क्या पहले कभी किसी राजनीतिक दल का पुलिस कार्यवाही में इतना सीधा हस्तक्षेप देखा है? यह बेहद खतरनाक स्थिति है जो संविधान व कानून के स्थगित होने का प्रमाण दे रही है। देश भर में हो रहे मॉब लिंचिंग जिसका स्वरूप अब सिर्फ सांप्रदायिक नहीं रह गया है भारत में ब्लेकशर्ट के आगमन की सूचना तो नहीं है? लखीमपुर खीरी में जीप से कुचले गए लोगों के प्रति व वहां मारे गए अन्य व्यक्तियों के प्रति सत्ताधारी दल के मुखियाओं की चुप्पी भी बहुत कुछ समझा रही है।
शासन व्यवस्था या तंत्र के चरमराने को उसके एकपक्षीय होने से समझा जा सकता है। इसके पीछे सीधा समन्तव्य यही होता है कि बजाए आक्रामक होने के दूसरे पक्ष की नितांत अवहेलना करना शरू कर दिया जाए। मजेदार बात यह है कि भारत में मीडिया का अधिकांश हिस्सा भी एकपक्षीय हो गया। ऐसा तभी होता है कि जब व्यक्ति अपने आत्मसम्मान और गरिमा का अंतिम संस्कार कर दे। गांधी कहते हैं कि कायरता सबसे बड़ी हिंसा है। किसी हिंसक मनुष्य के किसी दिन अहिंसक बनने की आशा हो सकती है मगर बुजदिल के लिए ऐसी कोई आशा नहीं होती। निहत्थों और बेकसूर लोगों पर जीप चढ़ाने वाले हिंसक से ज्यादा कायर है। उनका लोकतांत्रिक मूल्यों में कोई विश्वास नहीं है। उसकी एक वजह यह भी है कि वे अपने आसपास कायरों का बोलबाला देख रहे हैं। आम जनता के साथ अन्याय करने वाले प्रत्येक कायर को समाज नए सिरे से प्रतिष्ठित कर रहा है। हमारी संवेदनाएं दिनों दिन मरती जा रहीं हैं। हम एक तरह से संज्ञाशून्य होते जा रहे हैं। हमें किसी अन्य का दर्द महसूस ही नहीं होता। इसे कंडीशनिंग या अनूकूलता भी कहा जा सकता है। हांगकांग के रेस्टारेंट में एक पानी भरे जार में मछली को डाल दिया जाता है और नीचे आग जला दी जाती है। पानी नीचे से धीरे-धीरे गरम होता है। मछली आंच महसूस करती है और शनै: शनै: ऊपर आती जाती है वह छटपटाती भी नहीं। पानी गरम होता जाता है और इस क्रम में वह एकदम ऊपर पहुंचती है। अपना मुंह पानी से बाहर निकालती है। परंतु तब तक वह उबल चुकी होती है। बाहर निकाल कर हमें परोस दी जाती है। हम भी इसी तरह परोसे जा रहे हैं। कायराना हिंसा के उबलते पानी में हम बिना छटपटाए, बिना विचलित हुए शिकार हो रहे हैं, किसी का आहार बन रहे हैं।
लखीमपुर खीरी की घटना हमें यह भी समझा रही है कि भारत में अब सत्याग्रह की क्षमता संभवत: किसानों में ही बची है। इतनी बड़ी घटना हो जाने के बावजूद उनका शांत बना रहना हमें समझा गया है कि ये समुदाय अपने लक्ष्यों के प्रति किस हद तक समर्पित है। गौरलतब हैं मौन सबसे सशक्त अभिव्यक्ति और आवाज है। किसान आंदोलन और किसानों ने भारतीय शासन तंत्र को यह जतला दिया है कि वे बदलाव की लड़ाई लड़ रहे हैं, निजी स्वार्थों की नहीं। इस पूरे घटनाक्रम में हमारे मध्यवर्ग की चुप्पी बता रही है कि वे भारत की मुख्यधारा से बाहर हैं और महज अपने निजी हित और स्वार्थ तक सीमित हैं।
लखीमपुर खीरी में कुचले जाने वाले मुहावरे का यथार्थ में परिवर्तित हो जाना हमें समझा रहा है कि जीवन के प्रत्येक आयाम से हिंसा की विदाई करना ही होगी। शासन तंत्र को यह समझना होगा कि असंतोष का विप्लव में परिवर्तन एकाएक नहीं हो जाता। असंतोष लगातार बढ़ रहा है। और यदि उसकी अनदेखी करते रहेंगे तो विस्फोटक स्थिति अब बहुत दूर नहीं है। जीप से कुचला जाना कोई साधारण घटना नहीं है। यह लोकतंत्र को शाब्दिक और वास्तविक दोनों अर्थों में कुचलने का दुस्साहस है। गृह राज्यमंत्री का त्यागपत्र न देना राजनीति में व्याप्त अनैतिकता को अधिक स्पष्ट कर रहा है। विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों की इस विवाद में नजरबंदी और नाकाबंदी ढहती व्यवस्था का प्रतीक है, जो सच्चाई से आँखे नहीं मिला सकती। उम्मीद करते है, लखीमपुर - खीरी कुचले जाने का आखिरी उदाहरण होगा। फिराक गोरखपुर कहते हैं,
जिसे कहते हैं दुनिया कामयाबी वाए नादानी,
उसे किन कीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फिलीपींस की महिला पत्रकार मारिया रेसा और रूस के पत्रकार दिमित्री मोरातोव को नोबल पुरस्कार देने से नोबेल कमेटी की प्रतिष्ठा बढ़ गई है, क्योंकि आज की दुनिया अभिव्यक्ति के भयंकर संकट से गुजर रही है। इन दोनों पत्रकारों ने अपने-अपने देश में शासकीय दमन के बावजूद सत्य का खांडा निर्भीकतापूर्वक खड़काया है। जिन देशों को हम दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे पुराना लोकतंत्र कहते हैं, ऐसे देश भी अभिव्यक्ति की आजादी के हिसाब से एकदम फिसड्डी-से दिखाई पड़ते हैं। 'विश्व प्रेस आजादी तालिकाÓ के 180 देशों में फिलीपींस का स्थान 138 वां है और भारत का 142 वां ! यदि पत्रकारिता किसी देश की इतनी फिसड्डी हो तो उसके लोकतंत्र का हाल क्या होगा ? लोकतंत्र के तीन खंभे बताए जाते हैं।
विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ! मेरी राय में एक चौथा खंभा भी है। इसका नाम है— खबरपालिका, जो सबकी खबर ले और सबको खबर दे। पहले तीन खंभों के मुकाबले यह खंभा सबसे ज्यादा मजबूत है। हर शासक की कोशिश होती है कि इस खंभे को खोखला कर दिया जाए। शेष तीनों खंभे तो अक्सर पहले से काबू में ही रहते हैं लेकिन पत्रकारिता ने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी उनके राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के दम फुला रखे हैं। यही काम मारिया ने फिलीपींस में और मोरातोव ने रूस में कर दिखाया है। फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिग्गो दुतर्ते ने मादक-द्रव्यों के विरुद्ध ऐसा जानलेवा अभियान चलाया कि उसके कारण सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए और जेलों में ठूंस दिए गए। इस नृशंस अत्याचार के खिलाफ मारिया ने अपने डिजिटल मंच 'रेपलरÓ से राष्ट्रपति की हवा खिसका दी थी। राष्ट्रपति ने मारिया के विरुद्ध भद्दे शब्दों का इस्तेमाल किया और उनकी हत्या की भी धमकी दी थी लेकिन वे अपनी टेक पर डटी रहीं। इसी प्रकार मोरातोव ने अपने अखबार 'नोवाया गज्येताÓ के जरिए राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के अत्याचारों की पोल खोलकर रख दी।
रूस में तो अखबारों पर कम्युनिस्ट पार्टी का कठोर शिकंजा कसे रखने की पुरानी परंपरा थी। अब से 50-55 साल पहले जब मैं मॉस्को में 'प्रावदाÓ और 'इजवेस्तियाÓ पढ़ता था तो इन रूसी भाषा के ऊबाऊ अखबारों को देखकर मुझे तरस आता था लेकिन अब कम्युनिस्ट शासन खत्म होने के बावजूद पत्रकारिता की आजादी के हिसाब से रूस का स्थान दुनिया में 150 वाँ है। ऐसी दमघोंटू दशा में भी मोरातोव ने 'नोवाया गज्येताÓ के जरिए पूतिन की गद्दी हिला रखी थी। सरकारी भ्रष्टाचार और चेचन्या में किए गए पाशविक अत्याचारों की खबरें मोरातोव और उनके साथियों ने उजागर कीं। उनके छह साथी पत्रकारों को इसीलिए मौत के घाट उतरना पड़ा। इसीलिए नोबेल पुरस्कार स्वीकार करते हुए उन्होंने इन छह साथी पत्रकारों को श्रद्धांजलि दी और कहा कि यह पुरस्कार उन्हीं को समर्पित है। भारत समेत दुनिया के कई देशों में ऐसे निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकार अभी भी कई हैं, जो नोबेल पुरस्कार से भी बड़े सम्मान के पात्र हैं। उक्त दो पत्रकारों का सम्मान ऐसे सभी पत्रकारों का हौसला जरुर बढ़ाएगा। मारिया और मोरातोव को बधाई!
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
मंत्री के बेटे से पूछताछ हो रही तो मंत्री का प्रतिनिधि वहां क्या कर रहा है?
केंद्रीय गृह मंत्रालय में मंत्री के पद पर होते हुए, मंत्री के बेटे से, मंत्री के प्रतिनिधि के सामने, मंत्री की पुलिस क्या पूछ डालेगी?
किसानों को गाड़ी से रौंदकर मारने वाले मंत्री के बेटे को पुलिस ने बतौर गवाह नोटिस भेजा था। जिसपर कत्ल का इल्जाम हो, उसे बतौर गवाह नोटिस देकर बुलाना अद्भुत है। खैर, मंत्री का बेटा छह दिन बाद अपनी मर्जी से आज पुलिस दफ्तर पहुंचा है। कहा जा रहा है कि पूछताछ हो रही है। मंत्री का बेटा अपने साथ एक दर्जन हलफनामे और कुछ इलेक्ट्रॉनिक सबूत भी लेकर गया है। मंत्री का बेटा अपनी जांच खुद ही कर रहा है। खुद ही सबूत लेकर पुलिस को दे देगा, जिसे पुलिस मान लेगी। क्योंकि अभी तक पुलिस ने इस मसले में अपनी तरफ से एक भी व्यक्ति को जिम्मेदार नहीं माना है।
मंत्री ने बेटे के साथ वकील और अपना एक ‘प्रतिनिधि’ भी भेजा है। वकील कानूनी मदद के लिए होता है। केंद्रीय मंत्री का प्रतिनिधि वहां क्या कर रहा है? पुलिस जांच में केंद्रीय मंत्री के प्रतिनिधि का क्या काम होता है? क्या वह केंद्र सरकार की तरफ से पुलिस को धमकाने गया है? दूसरे, मंत्री के गुर्गे की मौजूदगी में किस पुलिस अधिकारी की हिम्मत है जो बेटे से कुछ उगलवा लेगी?
पूछताछ से पहले मंत्री ने बयान दे दिया कि ‘जांच निष्पक्ष होगी’। ये वो मंत्री बयान दे रहा है जो खुद इस पूरे फसाद की जड़ है। किसानों के नरसंहार का आरोपी सिर्फ बेटा नहीं है। इसकी वजह वह भडक़ाऊ भाषण है जो मंत्री ने दिया था कि दो मिनट नहीं लगेगा, लखीमपुर छोडऩा पड़ जाएगा। अब वही मंत्री गृह मंत्रालय में बैठकर पूरा तंत्र कंट्रोल कर रहे हैं।
मंत्री के घर के बाहर समर्थक इक_ा हैं। नारेबाजी कर रहे हैं। मंत्री ने उनसे वादा किया है, ‘पूछताछ के लिए गया है। ऐसी वैसी कोई बात नहीं है। ऐसी वैसी कोई बात हुई तो हम आपके साथ हैं।’
मंत्री की इस बात का क्या मतलब है? वे समर्थकों से क्या कहना चाहते हैं? क्या वे अपने बेटे की गिरफ्तारी होने पर समर्थकों को भडक़ा रहे हैं? क्या मंत्री अपनी ही सरकार को अपने समर्थकों का डर दिखा रहे हैं? पहले उन्होंने किसानों को धमकी दी जिसका विरोध करने उतरे किसानों को उनके बेटे ने कुचल कर मार डाला। अब सुप्रीम कोर्ट के भी दखल से गिरफ्तारी की संभावना बढ़ गई है, इसलिए वे धमकी भी दे रहे हैं। वे सुपर एक्टिव हैं। बार बार बयानबाजी कर रहे हैं। बार बार झूठ बोल रहे हैं जो पकड़ा जा रहा है।
उनके मंत्री के पद से हटे बगैर न्याय संभव नहीं है। इस मामले में मंत्री के बेटे से ज्यादा खुद मंत्री जिम्मेदार है। उनके पद का दुरुपयोग उनके बेटे ने किया है। सत्ता के नशे में उसने किसानों को रौंद डाला और अब बाप बेटे मिलकर पुलिस को भी ठेंगे पर लिए घूम रहे हैं।
ये सब वे तथ्य हैं जो प्रथमदृष्टया छप रही खबरों में मौजूद हैं। अब आप समझिए कि अंदरखाने क्या हो रहा होगा? जैसा कि कल सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था कि ऐसा वीआईपी ट्रीटमेंट किस हत्यारोपी को मिलता है?
जो कुछ हो रहा है, वह जांच के नाम पर अश्लील किस्म का तमाशा है।
-लक्ष्मण सिंहदेव
ध्यान रहे एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं और वो देश काल के अनुरूप परिवर्तित होते हैं।
पहचान एक बड़ा सामाजिक घटक है जो किसी वयक्ति को परिभाषित करता है। सही-सही पहचान करना और उसका पता होना लाखों में एकाध व्यक्ति को ही होता है। यथा हिन्दू पुराने समय में एक भौगोलिक पहचान थी, सिंधु के पार के सभी लोग हिन्दू थे भले ही वो किसी भी मत/धर्म के हो। सल्तनत काल में हिन्दू बेग नाम का उल्लेख मिलता है। मुझे गाजा में एक व्यक्ति (अरबी) मिला, जिसने बताया कि उन्हें हिंदी कहा जाता है क्योंकि उसके पूर्वज कभी हिन्द से आए थे। तुर्की के कुर्दिस्तान में मुझे एक कुर्द लडक़ा मिला, धर्म और पंथ के हिसाब से वो सुन्नी मुसलमान था लेकिन उसे वहां लोग हिन्दू कहते हैं, पता चला उसका पिता कोई बंगाली मुसलमान था जो 60 के दशक में तुर्की मजदूरी करने गया और वहां एक कुर्द महिला से विवाह कर लिया। इसलिए वो थोड़ा अलग दिखता है।
हिन्दू सांस्कृतिक पहचान भी है, वियतनाम में वियतनाम की मूल नस्ल (मंगोलाइड) के 50 हजार हिन्दू हैं, जो धर्म से हिन्दू हैं, उसी प्रकार इंडोनेशिया के बाली द्धीप में 5 लाख हिन्दू हैं जिनका भौगोलिक रूप से जम्बूद्वीप (भारत भूमि) से कोई मतलब नहीं है।
एक शब्द और है जिसमें लोग काफी भ्रमित होते हैं वो है- पंजाबी, बचपन से ही सुनते आ रहे थे पंजाबी कोई एक पर्टिकुलर हिन्दुओं की जाति है। मूल खोजने पर पता चला तो केवल हिंदुओं की खत्री बिरादरी के लोग प्रचलित रूप से इस जाति के दायरे में आते हैं जबकि पंजाबी एक भौगोलिक , भाषाई शब्द है, वस्तुत: जिसका मूल पंजाब राज्य से हो या जो पंजाबी भाषी हो वो पंजाबी होगा। लेकिन पंजाबी शब्द का पर्याय कुछ लोगों के लिए सिख धर्म से भी है भले ही उनका पंजाब से कोई मतलब न हो। महाराष्ट्र के इलाके में गुरु गोविन्द सिंह अनेक लोगों को सिख बनाया क्या हम उन महाराष्ट्रीयन लोगों को पंजाबी कह सकते हैं?
वैसे भारत के पंजाब राज्य से चार गुना बड़ा पंजाब पाकिस्तान में है और वहां के लोग भी अपनी इस भौगोलिक भाषायी विशेषता पर गर्व करते हैं।
भारत के अनपढ़ टाइप काफी पत्रकार इत्यादि लोग अफ्रीकी एवं अन्य जगह के काली नस्ल के लोगों के लिए अश्वेत शब्द का प्रयोग करते हैं जबकि शब्द से अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि अश्वेत वो जो श्वेत नहीं उसमें भारतीय और मंगोलायड नस्ल के लोग भी आ जायेंगे। ऐसा मैंने कई बार पढ़ा, नवभारत टाईम्स जैसे अखबारों में और एनडीटीवी जैसे टीवी चैनल में देखा। एक बार तो नवभारत टाईम्स में रेड इंडियन का अनुवाद लाल भारतीय भी पढ़ा। मारवाड़ी शब्द भौगोलिक पहचान है लेकिन मारवाड़ी का गूढ़ अर्थ बनिया हो गया, भले ही वो किसी भी इलाके का हो। कुछ लोगों के लिए हर अग्रवाल, मारवाड़ी है। जबकि अग्रवालों का मूल स्थान अग्रोहा (हरियाणा) में है। शेखावटी, मेवाड़ के लोगों को भी लोग मारवाड़ी कह देते हैं। बंगाली नार्थ इण्डिया की एक जाति भी है जो दलित है, भौगोलिक पहचान रूढ़ बनकर जातीय पहचान के रूप में प्रकट हुई।
जयपुर में हिन्दू पठानों की एक कॉलोनी है जो इस रूढ़ धारणा को ध्वस्त करती है कि पठान नस्ल के सभी लोग मुसलमान होते हैं। खैबर पख्तून खवाह में अभी भी मु_ी भर हिन्दू पठान हैं। काबुल का एकमात्र जीवित यहूदी तो बहुत प्रसिद्ध है जो नस्ल से पठान है। वैसे पठान, नस्ल अपने मूल में यहूदी ही है। पठानों के बड़े कबीलों के नाम इसके द्योतक भी हैं, जैसे युसुफज़़ई, दाउदजाई। कुछ लोगों के लिए हर खान टाइटल लगाया हुआ व्यक्ति पठान है जबकि आधे से ज्यादा यूपी में खान लिखने वाले लोग राजपूत कन्वर्टेड मुसलमान हैं। जब कुछ राजपूत, मुसलमान बने तो उन्होंने भी अपने आपको विदेशी मूल का दिखाने का पूरी कोशिश की और यहाँ तक कि किस-किस पश्तून कबीले के हैं वो भी जबरदस्ती जोड़ लिया। कुछ अपनी राजपूत पहचान पर ही डटे रहे।
अभी कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान के प्रसिद्ध मौलाना तारिक जमील का एक वीडियो देखा जिसमें वो कह रहा है कि वो पृथ्वीराज चौहान का वंशज है।
मेरे जिले के अधिकतर शियाओं को मैं सैयद ही समझता था बाद में पता चला वहां भी वेरायटी बहुत है। भारत में शियाओं का सबसे बड़ा असरफ समूह नस्ली तौर पर मुझे लगता है तुर्क हैं। मध्य युग में तुर्क या तुरक शब्द विदेशी मूल के मुसलमान के लिए प्रयोग होने वाला सामान्य शब्द था वैसे कुछ राजपूत शिया भी मिले। मैंने मुसलमान कायस्थ भी देखे जो ज्यादातर फारुकी टाइटल लगाते हैं।
10 फीसदी अरबी गैर मुस्लिम भी हैं। ज्यादातर ईसाई हैं, धर्म से यहूदी भी हैं। सीरिया में ईसाई अरबों से मैं खुद मिला। अफ्रीका के सभी लोग काले नहीं, उत्तरी अफ्रीका की नस्ल बहुत गोरी है। ऐसे ही अधिकतर भारतीयों के लिए ज्यादातर गोरी नस्ल के यूरोपीय लोग अंग्रेज हैं। जबकि वो कोई स्पेनी है कि स्वीडिश, या अन्य टाइटल से भी किसी की पहचान बता पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे सैकड़ों टाइटल हैं जो कई बिरादरी एक साथ प्रयोग करती हैं। यथा तंवर, राजपूत भी मिलेंगे, गुर्जर, चमार, जाट भी। टाइटल भी समझना आसान नहीं।
-दिलीप मण्डल
भारतीय राजनीति में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। और दूसरी बार ऐसा कब होगा, यह सवाल भविष्य के गर्भ में है। लगभग 50 साल की उम्र में एक व्यक्ति, वर्ष 1984 में एक पार्टी का गठन करता है। और देखते ही देखते देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, जहां से लोक सभा की 85 सीटें थीं, में इस पार्टी की मुख्यमंत्री शपथ लेती है।
यह पार्टी पहले राष्ट्रीय पार्टी और फिर वोट प्रतिशत के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है। और जिस व्यक्ति ने इस पार्टी का गठन किया, वह बेहद साधारण परिवार से संबंधित था। उस समुदाय से, जिसे पढऩे-लिखने का हक नहीं था और जिन्हें छूने की शास्त्रों में मनाही है।
यह चमत्कार कितना बड़ा है, इसे समझने के लिए बीजेपी (जनसंघ) और कांग्रेस जैसी मुकाबले की दूसरी पार्टियों को देखें, जिनकी लंबी-चौड़ी विरासत है और जिन्हें समाज के समृद्ध और समर्थ लोगों का साथ मिला।
सरकारी कर्मचारी पद से इस्तीफा दे चुके इस व्यक्ति के पास संसाधन के नाम पर कुछ भी नहीं था। न कोई कॉर्पोरेट समर्थन, न कोई और ताकत, न मीडिया, न कोई मजबूत विरासत।
सिर्फ विचारों की ताकत, संगठन क्षमता और विचारों को वास्तविकता में बदलने की जिद के दम पर इस व्यक्ति ने दो दशक से भी ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति को कई बार निर्णायक रूप से प्रभावित किया। दुनिया उन्हें कांशीराम के नाम से जानती है। समर्थक उन्हें मान्यवर नाम से पुकारते थे।
कांशीराम ने जब अपनी सामाजिक-राजनीतिक यात्रा शुरू की, तो उनके पास पूंजी के तौर पर सिर्फ एक विचार था। यह विचार भारत को सही मायने में सामाजिक लोकतंत्र बनाने का विचार था, जिसमें अधिकतम लोगों की राजकाज में अधिकतम भागीदारी का सपना सन्निहित था। कांशीराम अपने भाषणों में लगातार बताते थे कि वे मुख्य रूप से संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन बाबा साहब भीमराव आंबेडकर और उनके साथ क्रांतिकारी विचारक ज्योतिराव फुले के विचारों से प्रभावित रहे।
1980 में लखनऊ में एक सभा में उन्होंने कहा था कि ‘अगर इस देश में फुले पैदा न होते, तो बाबा साहब को अपना कार्य आरंभ करने में बहुत कठिनाई होती।’ कांशीराम ने बहुजन का विचार भी फुले की ‘शुद्रादिअतिशूद्र’ (ओबीसी और एससी) की अवधारणा का विस्तार करके ही हासिल किया। कांशीराम के बहुजन का अर्थ देश की तमाम वंचित जातियां और अल्पसंख्यक हैं, जिनका आबादी में 85 फीसदी का हिस्सा है।
कांशीराम मानते थे देश की इस विशाल आबादी को राजकाज अपने हाथ में लेना चाहिए। इसे वे सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना और देश के विकास के लिए अनिवार्य मानते थे। इसके लिए वे सामाजिक वंचितों के आर्थिक सबलीकरण के भी प्रबल पक्षधर रहे।
-सचिन कुमार जैन
भारत को 5 लाख करोड़ डॉलर की इकोनामी बनाना है। आपने यानी भारत के लोगों ने ही यह तय किया है। यह अलग बात है कि आपको यह कुछ अता पता नहीं है कि इसका मतलब क्या होता है? वैसे आजकल बड़े तबके किसी बात के मतलब से, अर्थ से, तर्क से कोई लेना देना नहीं होता है। उसने आटा और डाटा में से डाटा को चुना है।
5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का निर्माण एक यज्ञ है। इसमें देश के 99.99999 प्रतिशत लोगों को बलिदान देना है। 0.00001 प्रतिशत स्वाहा: करने की भूमिका में है।
पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए पेट्रोल 150 रु. लीटर., दाल 300 रु किलो., बिजली 20 रु. यूनिट की जाना जरूरी है। इससे लोगों ने भविष्य सुरक्षा के लिए जो कुछ जमा कर रखा है वह बाहर निकल आएगा। जीवन जीने के लिए जरूरी सामग्रियों की कीमत दो से पांच गुना बढ़ा देने से ही तो 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल होगा। इतना ही नहीं सत्ता संचालकों ने यह तकनीक भी सीख ली है कि जो कुछ भी लूटा जाना है या बेंचा जाना है, उसकी किल्लत पैदा कर दो। जैसे कोयले की किल्लत बता कर संसाधनों की कौडिय़ों के भाव निजी हाथों में देने की कोशिश।
5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए रेल, सडक़, अस्पताल, स्कूल, जंगल बेचे जाना जरूरी है। इस अर्थव्यवस्था में जनकल्याण और संविधान नाम की अवधारणाओं का कोई स्थान न होगा। जनकल्याण, सबको स्वास्थ्य, रोजग़ार, समान शिक्षा से 5 लाख करोड़ डॉलर की इकोनामी न बनती है।
20-40 ग्राम हशीश, चरस वाले फुटकरिये गिरफ्तार होंगे। 3000 किलो चरस, हेरोइन वाले थोक कारपोरेट को स्वतंत्रता और सम्मान मिलेगा। इससे, यानी नशाखोरी से लोग, खासकर युवा बेरोजगारी, मंहगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा के संकट को भूल जाएंगे। वे माया मोह से मुक्त रहेंगे। उन्हें यह अहसास ही नहीं होगा कि वे बेरोजगारी के भौतिक भ्रमजाल में फंसे हैं।
उन्हें यह दुख छू भी न पायेगा कि उनकी मां को दवा, उपचार नहीं मिला और वह बीमारी से नहीं संवेदनहीनता के कारण दुनिया छोड़ गई। उनके बच्चे भूखे रहते हैं और गाहे बगाहे उन्हें सूखी रोटी या चावल मिल जाता है। इससे पेट भर जाता है लेकिन मांसपेशियां, हड्डियां और दिमाग कमज़ोर होते जाते हैं। ऐसे बच्चे नई 5 लाख डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए अनिवार्य होते है क्योंकि इनसे ऐसी कमज़ोर पीढ़ी जन्म लेगी जो मूलभूत मानवीय और संवैधानिक मूल्यों का सपना भी न देख पाएगी।
देश के नीति बनाने वाले से लेकर शेयर बाजार से बड़े दलाल तक, बड़े नेता से लेकर बेरोजग़ार युवा तक खुल के कहने लगे हैं कि लोकतंत्र नहीं चाहिए। इससे विकास बाधित होता है। संविधान नहीं चाहिए, बर्बर मजहबी मुल्क चाहिए। 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थ व्यवस्था के लिए बर्बरता और हिंसा सबसे बड़ी जरूरत है।
हम यह नहीं सोचना चाहते हैं कि आखिर ये 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का मतलब क्या है? इस अर्थ व्यवस्था में ऐसा कैसे होता है कि 2 उद्योगपति कोविड-19 महामारी के विकट काल में 1500 करोड़ रुपये रोज़ कमा पाते हैं और बाकी लोगों की घर संपत्ति बिक जाते हैं, 10 करोड़ लोगों का रोजगार चला जाता है? इसमें एक शेयर दलाल 250000000000 का मालिक हो जाता है।
हमनें आजादी के बाद वैज्ञानिक नजरिया, बंधुता, न्याय, तर्क के पाठ उस पीढ़ी को पढ़ाये ही नहीं, इसलिए हम अब एक ऐसी पीढ़ी के दौर में पहुंच गए हैं, जहां यह कहावत मूल सिद्धांत है-लाठी जरूरी कि तर्क? इस पीढ़ी का जवाब है-लठैत।
5 लाख करोड डालर की अर्थव्यवस्था की समझने की कोशिश न करने वाले, संविधान और लोकतंत्र का विरोध करने वाले, भीड़ हिंसा को उचित मानने वाले, आसमानी मंहगाई और बेरोजगारी पर चुप रहने वाले, किसानों की कुचल देने का नारा लगाने वाले, शिक्षा और स्वास्थ्य को देश का मुद्दा न मानने वाले एक ही हैं। क्या आप उस अर्थव्यवस्था का समर्थन करते हैं, जिसमें देश की सभी सार्वजनिक संपत्तियां बिक चुकी होंगी? जिसमें अराजक और अमानवीय तत्व मुख्य भूमिका में होंगे?
हम ऐसे दौर में पहुंच गए हैं, जहां राष्ट्रघात को राष्ट्रवाद का मुखौटा पहना कर हवन यज्ञ किये जा रहे हैं। ये पीढ़ी इतनी कमज़ोर हो चुकी है कि इसमें उस मुखौटे को उतारने की ताकत भी नहीं रही। जबकि इस काम के लिए उसे कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। उसे केवल दूसरे इंसान, बच्चों की आंखों में झांकने की जरूरत है। खुद से सवाल पूछने की जरूरत है कि क्या भीड़ हिंसा जरूरी है? क्या बस्ती उजाड़ कर चमकदार धार्मिक स्थल बनाने जरूरी हैं? बेरोजगारी, भुखमरी फैलाकर हम कौन सी सांस्कृतिक पहचान स्थापित कर रहे हैं?
-रमेश अनुपम
बंबई में रहते हुए और फिल्मों में बेहद व्यस्त रहते हुए भी किशोर साहू के सीने में छत्तीसगढ़ धडक़ता रहता था।
राजनांदगांव, खैरागढ़, सक्ती की धूसर स्मृतियां उनके भीतर किसी खुशबू की तरह महकती रहती थी।
राजनांदगांव के राजकुमार दिग्विजय दास (जिन्हें प्यार से वे दिग्वि राजा कहते थे) के साथ उनकी गहरी मित्रता थी। मित्रता ऐसी कि जब दिग्विजय दास को विवाह के लिए दो राजकुमारियों में से किसी एक को पसंद करना था तो उन्होंने पसंद करने की जिम्मेदारी किशोर साहू और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती प्रीति (पांडेय) साहू पर डाल दी।
यह दिलचस्प किस्सा कुछ इस तरह से है। नवंबर 1953 में दिग्विजय दास ने किशोर साहू को पत्र लिखकर सूचित किया कि वे अपनी मां रानी साहिबा ज्योति देवी के साथ लडक़ी देखने के लिए बंबई आ रहे हैं।
बंबई में पहले से ही इंदौर महाराजा अपनी सुपुत्री राजकुमारी और बारिया महाराजा अपनी राजकुमारी बहन के साथ पहुंच चुके थे। दिग्विजय दास को इन्हीं में से एक को अपनी वधू के रूप में चुनना था।
दिग्विजय दास असमंजस की स्थिति में थे। वे तय नहीं कर पा रहे थे कि अपनी भावी रानी के रूप में किसे पसंद करें। रानी साहिबा ज्योति देवी बार-बार अपने राजकुमार बेटे पर अपनी पसंद बताने के लिए दबाव बना रही थीं।
रानी साहिबा का रुझान बारिया महाराजा की बहन संयुक्ता देवी की ओर अधिक था पर दिग्विजय दास किशोर साहू और प्रीति साहू की पसंद के बिना इस पर मुहर लगाने को तैयार नहीं थे।
सो दिग्विजय दास के दबाव के चलते रानी साहिबा, दिग्विजय दास, बारिया महाराजा जयदीप सिंह, उनकी बहन राजकुमारी संयुक्ता देवी सभी मोटरों में बैठकर किशोर साहू के निवास स्थान वाटिका पहुंचे।
वाटिका में किशोर साहू और प्रीति ने सभी मेहमानों की आवभगत की। दोनों ने राजकुमारी संयुक्ता देवी से बातचीत की। दिग्विजय दास से भी उनकी पसंद के बारे में पूछताछ की और संयुक्ता देवी के पक्ष में अपना निर्णय सुना दिया।
इस तरह 11 दिसंबर 1953 को बारिया में धूमधाम से दिग्विजय दास और राजकुमारी संयुक्ता देवी का विवाह संपन्न हुआ।
बारात में किशोर साहू भी सम्मिलित हुए। विवाह में देश भर से राजा महाराजा शामिल हुए। खैरागढ़ के राजा बहादुर वीरेंद्र बहादुर सिंह और सक्ती राजा लीलाधर सिंह भी उपस्थित थे।
सक्ती के जिस राजा के अधीन किशोर साहू के दादा जी दीवान हुआ करते थे, उस परिवार के वारिस राजा लीलाधर सिंह से मिलना उनके लिए किसी रोमांचक अनुभव से कम नहीं था।
27 अप्रैल 1954 को राजनांदगांव में राजकुमार दिग्विजय सिंह का राज्याभिषेक हुआ। दिग्वि का राजतिलक हो और वहां किशोर साहू उपस्थित न हो, यह संभव ही नहीं था। किशोर साहू इस राज्याभिषेक समारोह में अपनी धर्मपत्नी प्रीति के साथ राजनांदगांव आए और इस समारोह में शरीक हुए।
राजतिलक होने के बाद दिग्वि राजा को तिमाही 70,000 हजार रुपए प्रिविपर्स के रूप में मिलने लगे थे। साल भर तो दिग्वि राजा अपनी पत्नी रानी साहिबा संयुक्ता देवी उर्फ टाइनी के साथ राजनांदगांव स्थित लालबाग पैलेस में रहे। पर राजनांदगांव न दिग्वि राजा को रास आ रहा था न महारानी साहिबा संयुक्ता देवी को। इसलिए वे बंबई चले आए। बंबई के महालक्ष्मी स्थित वसुंधरा में एक फ्लैट किराए पर लेकर रहने लगे।
बंबई में राजासाहब रात-दिन शापिंग करते और फिल्में देखते थे। पर इससे भी जब वे उकता गए तो उन्होंने स्वयं को व्यस्त रखने के लिए महेन्द्र एंड महेंद्र कंपनी में अवैतनिक नौकरी ज्वाइन कर ली। रोज कार में बैठकर ऑफिस जाते थे और दिनभर नीली वर्दी पहनकर, हाथ में मोटर सुधारने का औजार लेकर वे यहां-वहां घूमते रहते थे। उनके लिए समय बिताना सबसे कठिन काम था।
कौन जानता था कि एक दिन दिग्वि राजा आत्महत्या जैसी आत्महंता कदम उठाएंगे और मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में वे सबको रोता-बिलखता छोडक़र एक दूसरी दुनिया में चले जायेंगे।
दिग्विजय दास की आत्महत्या यूं तो आज भी रहस्यमय मानी जाती है, पर इस संबंध में किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बोनाई के जंगल में दिग्विजय दास ने एक जंगली हाथी का शिकार किया। गोली उन्होंने हाथी की कनपटी पर मारी थी। वहां के आदिवासियों को यह सब अच्छा नहीं लगा था। वे लोग हाथी को गणेश भगवान का रूप मानते थे। दिग्विजय दास को भी इसका अफसोस होने लगा था कि उसने उस निर्दोष हाथी की हत्या क्यों की। उन्होंने स्वयं इस घटना के बारे में किशोर साहू को जानकारी दी थी और अपने हृदय की वेदना को उनके समक्ष प्रकट किया था।
दो दिन बाद दिग्विजय दास राजनांदगांव चले गए। तीसरे दिन वहां से खबर आई कि दिग्वि राजा ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल तानकर आत्महत्या कर ली।
यह आत्महत्या ठीक उसी तरह की थी जिस तरह उन्होंने हाथी की कनपटी पर बंदूक चलाकर उसे मार डाला था। क्या यह केवल एक संयोग मात्र था?
22 जनवरी 1958 को किशोर साहू के अभिन्न मित्र और राजनांदगांव के युवा राजा दिग्विजय दास सदा-सदा के लिए अनंत में विलीन हो गए। छोड़ गए ढेर सारे अनुउत्तरित प्रश्न, जो आज भी उत्तर की प्रत्याशा में हैं।
किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘राजनांदगांव का वह राजवंश जो वास्तव में गोसाई वंश था और जिस वंश पर श्राप था कि किसी राजा (महंत) के संतान नहीं होगी- संपूर्णत : नष्ट हो गया। ’
शेष अगले सप्ताह...
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीर फिर पटरी से उतरता नजर आ रहा है। पिछले डेढ़-दो साल में वहाँ जो शांति का माहौल बना था, वह उग्रवादियों को रास नहीं आ रहा है। हत्याओं और आतंक का दौर फिर से शुरु हो गया है। पिछले 40 घंटों में 5 हत्याएं कर दी गईं। इन हत्याओं में प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित और केमिस्ट माखनलाल बिंद्रू, प्राचार्या सतिंदर कौर और अध्यापक दीपकचंद के नामों पर विशेष ध्यान जाता है। ये लोग ऐसे थे, जिन पर हर कश्मीरी को गर्व हो सकता है। बिंद्रू को दसियों साल पहले कई पंडितों ने आग्रह किया कि वे कश्मीर छोड़ दें, उनके साथ चलें और भारत में कहीं और बस जाएं लेकिन उन्होंने कहा कि मुझे अपनी जगह से प्यार है। मैं यहीं जिऊंगा और यहीं मरुंगा। उन्हें आतंकवादियों ने उनकी दुकान में घुसकर मार डाला। उनकी बेटी ने, जो प्रोफेसर है, इतना साहसिक बयान दिया है कि किसी भी आतंकवादी के लिए वह डुबाकर मार देनेवाला है। बिंद्रू परिवार की बहादुरी और धैर्य अनुकरणीय है। आतंकवादियों ने जो दूसरा हमला किया, वह एक स्कूल में घुसकर किया। उस स्कूल की सिख प्राचार्या और हिंदू अध्यापक को उन्होंने अलग किया और गोलियों से भून दिया। उन्हें पता नहीं था कि उस स्कूल के स्टाफ में कौन क्या है?
इसीलिए पहले उन्होंने मुसलमानों को अलग किया और पंडितों को अपना निशाना बना लिया। इसका एक अर्थ और भी निकला। वह यह कि उन्हें तो बस दो-चार पंडितों को मारना था, वे चाहे कोई भी हों। क्या उन्हें पता था कि सतिंदर कौर सिख महिला थी? सतिंदर जैसी महिलाएं दुनिया में कितनी हैं? वे ऐसी थीं कि उन पर हिंदू और मुसलमान क्या, हर इंसान गर्व करे। वे अपनी आधी तनख्वाह गरीब बच्चों पर खर्च करती थीं और उन्होंने एक मुस्लिम बच्ची को गोद ले रखा था। इस बच्ची को उन्होंने एक मुस्लिम परिवार को ही सौंप रखा था और उसे वह इस बच्ची की परवरिश के खातिर 15 हजार रु. महिना दिया करती थीं। ऐसी महिला की हत्या करके इन हत्यारों ने क्या कश्मीरियत और इस्लाम को कलंकित नहीं कर दिया है? यह कौनसा जिहाद है ? ये हत्यारे अल्लाह के दरबार में मुंह दिखाने लायक रहेंगे क्या ?
इन हत्याओं की जिम्मेदारी लश्करे-तय्यबा की एक नई शाखा ने ली है। उसने कहा है कि इन अध्यापकों को इसलिए मारा गया है कि इन्होंने छात्रों पर 15 अगस्त समारोह मनाने के लिए जोर डाला था। पिछले दिनों हुए इन हमलों का कारण यह भी माना जा रहा है कि कश्मीर से भागे हुए पंडितों की कब्जाई हुई संपत्तियों को वापिस दिलाने का जोरदार अभियान चला हुआ है। इस अभियान के फलस्वरुप लगभग 1 हजार मकानों और ज़मीनों से कब्जाकारियों को बेदखल किया गया है। ये गुस्साए हुए कश्मीरी मुसलमान अब हिंसा पर उतर आए हैं। कश्मीरी नेताओं को चाहिए कि इन हिंसक घटनाओं की वे कड़ी भर्त्सना करें और हत्यारों को पकड़वाने में सरकार की मदद करें। ये हत्यारे यदि पकड़े जाएं तो इन्हें तुरंत सजा दी जाए और इतनी कठोर सजा दी जाए कि भावी हत्यारों के रोंगटे खड़े हो जाएं। कश्मीर के हिंदुओं, सिखों और शांतिप्रिय मुसलमानों की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था भी जरुरी है। गृहमंत्री अमित शाह से उम्मीद की जाती है कि वे इस दिशा में अविलंब कोई ठोस कदम उठाएंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
भारत में निष्प्रभावी होता एन्टीवेनम
-संदीप पौराणिक
सांप ही एक ऐसा सरीसृप है कि जिससे मनुष्य सबसे ज्यादा डरता है। संसार में सांप की लगभग 2500 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसमें से लगभग 216 प्रजातियंासांप भारत में पाये जाते हैं। सामान्यतः सांपों को दो श्रेणियों में बांटा गया है। विषहीन और विषैले, भारत में प्रतिवर्ष 2 लाख से अधिक व्यक्तियों को विषैले सापों द्वारा डसा जाता है, जिसमें लगभग 70 हजार व्यक्ति इनके विष के प्रभाव से दम तोड़ देते हैं। इस मृत्युदर की तुलना यदि हम संसार के दूसरे देशों से करें तो भारत में यह काफी अधिक है। हम अगर अफ्रीका की ही बात करें तो यहां पर संसार के सबसे ज्यादा विषैले सांप पाये जाते हैं, लेकिन उनके द्वारा डसे गये अधिकांश लोगों को बचा लिया जाता है। इसका सबसे प्रमुख कारण वहां के लोगों में जागरूकता एवं वहां की प्रभावी एन्टीवेनम है।
भारत में लगभग 14 प्रजातियांे के जहरीले सांप पाये जाते हैं, जबकि एन्टीवेनम सिर्फ चार प्रजाति के सांपों से ही निर्मित हैं। ये चार प्रजातियां निम्न हैं, नाग या कोबरा इसे हम चश्मे वाला कोबरा नाजा-नाजा भी कहते हैं। दूसरा कामन करेत बंगारस केरूलस., रसेल वाइपर डेबोइया रसेली और सा स्केल्ड वाइपर या इचिस। भारत में पॉलीवेलेन्ट एन्टीवेनम की उपलब्धता के बावजूद, यहां के ग्रामीण एवं कृषि समुदायों में सर्पदंश एक गंभीर समस्या बना हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप भारत में सर्पदंश एवं उससे होने वाली मौतों का प्रतिशत अन्य देशेां की तुलना में बहुत ज्यादा है।
हाल के वर्षों में भारत सरकार एवं विश्व समुदाय ने इस गंभीर समस्या पर ध्यान देना शुरू किया तथा लगभग 6000 वर्ग किलोमीटर के सर्पों के उन रहवास क्षेत्रों व उनकी प्रजातियों तथा उनके भोजन व उनके दुश्मन जो कि सापों को खाते हैं, इनका अध्ययन करवाया तो जो तथ्य सामने आये थे बेहद ही चौकाने वाले हैं। जैसे भारत का प्रमुख जहरीला सांप नाग, जिसे भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों के लिए जिम्मेवार माना जाता है, इससे नाग के 6000 किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र का वृहद अध्ययन किया गया, इसमें सांप प्रजाति के जहर की संरचना और उसके कार्य की विशेषता बनाई गयी है, जिसमें इस प्रजाति के सांपों की अब तक की सबसे व्यापक प्रोटिओनिम और प्रोफाइल तैयार की गई। हमारे वैज्ञानिकों ने इन विट्रो और विवो प्रयोगों के परिणामों ने विष रचनाओं, सहक्रियात्मक औषधि प्रभावों एवं विषों की विवों शक्ति में नाटकीय अंतर पाया। वैज्ञानिकों ने यह भी देखा कि देश के विभिन्न हिस्सों में प्राप्त जहरों को बेअसर करने के लिए प्रमुख एन्टीवेनम की प्रभावशीलता का इस भिन्नता पर अलग-अलग कम या ज्यादा प्रभाव परिलक्षित होता है। वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हमारा वर्तमान में एन्टीवेनम देश के समूचे क्षेत्रों में एक जैसा प्रभाव नहीं रखता। अतः अब पुनः नये एन्टीवेनम बनाने की आवश्यकता है।
वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि जैव भौगोलिक विष परिवर्तनशीलता, सर्पदंश चिकित्सा के उपचार पर नकारात्मक असर डालती है। भारत में सर्पदंश के उपचार के लिए एन्टीवेनम का निर्माण तमिलनाडु के सांपों की आबादी बिग फोर-नाग, कैरेत, वाइपर, सा स्केल्ड वाइपर के जहर से निर्मित की जाती है। वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि यदि इस एंटीवेनम को नाग द्वारा डसे गये आंध्रप्रदेश एवं तमिलनाडु के तटीय निवासियों को सिर्फ (0.80 मिलीग्राम) एम.एल जहर की विपणन चिकित्सा शक्ति की तुलना में इसकी एक खुराक ही जहर को बेअसर कर देती है। यही एंटीवेनम, गंगा के मैदान, अर्धशुष्क क्षेत्र, डक्कन के पठार में इसकी ज्यादा या बहुत ज्यादा खुराक या डोज की आवश्यकता पड़ती हैं और यही एंटीवेनम, रेगिस्तान क्षेत्र में अपना प्रभाव लगभग खो चुका है । अर्थात यदि राजस्थान में किसी व्यक्ति को बिग फोर सर्प में से किसी ने डसा है तो उस पर इस दवा एंटी वेनम का प्रभाव बिल्कुल नहीं पड़ रहा है। अतः भारत के इन क्षेत्रों में मौतों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। वैज्ञानिक इस बात पर बल दे रहे हैं कि फिर से देशव्यापी या रिजनल एंटी वेनम का निर्माण हो ताकि देश के सुदूर प्रान्तों के लोगों को इसका समुचित लाभ मिल सके और उनकी जान बचाई जा सके।
छत्तीसगढ़ का नागलोक -
छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले में स्थित नागलोक भी इंसानों को इन सर्पों द्वारा डसे जाने के लिए कुख्यात है। वैसे तो समूचे छत्तीसगढ़ में नाग तथा करैत की मौजूदगी है तथा यहां की आबोहवा भी इन सरीसृप के लिए काफी अनुकूल है। हाल के अध्ययन में ज्ञात हुआ है कि छत्तीसगढ़ में विश्व के सबसे जहरीले सांपों में से एक किंग कोबरा भी यहां के जंगलों में मौजूद है। यह ज्यादातर सघन वनों या ज्यादा बारिश वाले इलाकों में ही पाया जाता है। इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ में करैत की ही प्रजाति का बेन्डेड करैत भी पाया जाता है, जिसे यहां की भाषा में अहिराज कहा जाता है, जबकि अहिराज किंग कोबरा का भी नाम है। इसमें नाग की तुलना में 16 प्रतिशत ज्यादा विष पाया जाता है, किन्तु इसके अभी तक किसी मनुष्य को काटने की कोई पुष्टि नहीं हुई है। मैंने स्वयं इसे रायगढ़ जिले के कई स्थानों पर लोगों व बच्चों के गले में लपेटे देखा है। इसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी बहुत मांग है इसके कारण ही छत्तीसगढ़ से तस्करी के मामले भी सामने आए हैं। अतः राज्य सरकार व केन्द्र सरकार को चाहिए कि छत्तीसगढ़ के तपकरा क्षेत्र में शीघ्र एक सर्प उद्यान व राष्ट्रीय स्तर का सरीसृप अध्ययन केन्द्रच खोला जाए।
छत्तीसगढ़ में भी सैकड़ों लोग सांपों द्वारा डसे जाने पर मारे जाते हैं। इसका प्रमुख कारण लोगों की अज्ञानता व झाड़फूंक को माना जाता है। यदि सांप द्वारा डसे जाने के दो-तीन घंटे के भीतर व्यक्ति को एंटीवेनम मिल जाता है तो उसके बचने की संभावना बढ़ जाती है। छत्तीसगढ़ में सांपों द्वारा डसे व्यक्तियों की मौत का एक प्रमुख कारण जमीन पर सोना भी है। व्यक्ति जमीन पर धान का पुआल इत्यादि बिछाकर उस पर सोता है तथा सांप भी गर्म खून का होने के कारण तथा ठंड व बारिश से बचने लोगों के बिस्तरों में घुस जाता है। छत्तीसगढ़ में आश्रम छात्रावासों मे रहने वाले दर्जनों बच्चों की भी सर्पदंश के कारण असमय मृत्यु हो रही है।
शासन से अनुरोध है कि सरकार छत्तीसगढ़ के उन ग्रामीण इलाकों का सर्वे करवाकर आदिवासी, किसानों, ग्रामीणों को खाट या लोहे के पलंग दें तथा उन्हें उस पर ही सोने के लिए प्रेरित करें। छत्तीसगढ़ के नागलोक के ग्रामीणों से जब मैंने पूछा कि वे खाट का उपयोग क्यों नहीं करते तो उन्होंने कहा कि चूंकि हमारे समाज में जब कोई व्यक्ति मर जाता है तभी उसे हम खाट पर लिटाकर ले जाते हैं। अतः जिंदा व्यक्ति का खाट पर सोना सामाजिक व धार्मिक रूप से निषिद्ध है। पर अब यह परंपरा टूट रही है। भुक्तभोगी परिवार अब खाट या पलंग पर सो रहे हैं। मेरा छत्तीसगढ़ सरकार से अनुरोध है कि वह भी वर्तमान में प्रचलित एंटीवेनम का छत्तीसगढ़ प्रदेश पर कितना असर है, इसका परीक्षण जरूर करवाएं तथा यहां सर्पदंश से हो रही असमय मौतों को रोकने का प्रबंध करें तथा आश्रमों,छज्ञत्रावासों में भी पलंग की व्यवस्था करे ताकि बच्चों की जान सुरक्षित रह सके।
अपूर्व गर्ग
अरबों की हेरोइन पकड़ी गई, कोई हंगामा नहीं, चुटकी भर ड्रग्स पर चौबीस घंटे छापामारी की खबरें क्यों?
देश लूटकर कई कॉर्पोरेट विदेश भाग गए, ये सोते रहे, पर आये दिन बॉलीवुड के कलाकारों, प्रोड्यूसरों पर छापे क्यों?
बातों-बातों पर फिल्मों के प्रदर्शन रुकवाए जाते हैं, दूसरी तरफ एक वर्ग लगातार नफरत फैलाता है, पर हमले बॉलीवुड पर ही होते हैं क्यों?
जाहिर है इन दिनों बॉलीवुड पर सबसे गंभीर हमले लगातार हो रहे, आलम ये है जो टीवी में दिख रहा है एनसीबी की कार्यवाही में बीजेपी का नेता अफसर की तरह एक्शन में दिख रहा ...आखिर ऐसे संगीन, खुले हमले क्यों?
अगर हम समझते हैं कि बॉलीवुड पर पिछले कुछ समय से चौतरफे हमले सिर्फ इसलिए हो रहे क्योंकि सरकार बॉलीवुड को लखनऊ शिफ्ट करना चाहती है, तो ये कथन अपूर्ण है। नोएडा में ही अब तक बहुत हाथ-पैर मारकर भी क्या स्थापित कर लिया?
अगर हम ये समझते हैं बॉलीवुड पर हमले इसलिए हो रहे ताकि कुछ और अनुपम-अजय-अक्षय मिलें जो ये इंटरव्यू लेें कि आम चूस के खाते हैं या काट के खाते हैं?...सिर्फ ये भी कारण नहीं है ।
बॉलीवुड के रूप में नोट छापने वाली मशीन मिल जाएगी, ये भी मुख्य कारण नहीं है ।
दरअसल, बड़ी आबादी तक सबसे आसान तरीके से पहुँचने का सशक्त माध्यम टीवी और सिनेमा है। नब्बे फीसद आबादी को कुछ भी पढ़ाइये उतना असर न होगा जितना किसी फिल्म से होगा। ये कड़वा सच है ।
टीवी पर काबिज होने के बाद इस सरकार की पूरी कोशिश है हिन्दुस्तान का ये सबसे तगड़ा माध्यम उनकी मु_ी में हो। इस सरकार की कोशिश है कि ऐसे लोग जिनका आजादी के आंदोलन में कोई योगदान न रहा उन पर फिल्में बनें और वो जनता के सामने हीरो के तौर पर उभर सकें।
आज के सेक्युलर, कभी प्रगतिशील रहे हिन्दुस्तान के बनने में सिनेमा का भी बड़ा योगदान रहा। पृथ्वी राज कपूर, बलराज साहनी, कैफी आजमी ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरु दत्त, दिलीप कुमार राजकपूर, सलिल चौधरी, साहिर, उत्पल दत्त सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बासु भट्टाचार्य, मृणाल सेन, राही मासूम रजा, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीर, ओम पुरी अदूर गोपालकृष्णन गोविन्द निहलानी गिरीश कर्नाड , जावेद अख्तर जैसी लंबी सूची है ।
इसी तरह गायकों अन्य अभिनेताओं, सिने वर्कर्स कि भी लम्बी सूचि है, जिन्होंने देश को सुंदर, प्रेरक, देशभक्ति की, सांप्रदायिक सदभाव बनाए रखने की लगातार फिल्में देश को दीं ।
फिल्मी लेखन का इतिहास देखिये गुलजार तो अब भी हैं कभी कमलेश्वर, नीरज, गीतकार शैलेन्द्र, अमृत लाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, अश्क सुदर्शन, नरेंद्र शर्मा और प्रेमचंदजी भी जुड़े थे। समझिये आज सरकार को दो बीघा जमीन, गर्म हवा, काबुलीवाला, नया दौर, शहीद, आक्रोश, अर्धसत्य, मिर्च मसाला, बाजार, तमस, मंडी, पार, दामुल, फायर, वॉटर, माचिस, मुल्क जैसी फिल्में नहीं बल्कि अंधविश्वास, कट्टरता अपने नेताओं पर बायोपिक और अपनी विचार धारा पर आधारित फिल्में चाहिये। इसलिए सिर्फ शिक्षा, इतिहास से छेड़छाड़ से काम नहीं चलेगा जब तक सूचना और मनोरंजन के पूरे साधनों पर कब्जा न हो जाये तब तक इनका अभियान चलेगा ताकि आसानी से मध्ययुग-बर्बर युग में वापिसी हो सके। इस रास्ते पर वापिस जाने के लिए जरूरी है लोगों की वैज्ञानिक चेतना का नाश हो ।
न्यू इंडिया के निर्माण के लिए जरूरी है लोगों को अंधराष्ट्रवादी और अलोकतांत्रिक बनाना। ये जहर सिर्फ मीडिया नहीं फैला सकता सिनेमा इसके लिए बहुत जरूरी है। सती प्रथा को जब फिल्मों से महिमामंडित किया जायेगा तो रूप कंवर जैसों की चीखें किसी को क्यों विचलित करेंगी?
पड़ोसियों को सिर्फ दुश्मन के तौर पर पेश किया जायेगा तो युद्ध उन्माद छाया रहेगा, हथियार बिकते रहेंगे भले ही गरीबी भूखमरी बढ़ती रहे ।
कश्मीर सिर्फ आतंकवाद की घाटी है और सेना ही इसकी सर्जरी कर सकती है, ये यकीन भला सिनेमा से बेहतर कौन दिला सकता है ?
आतंकवाद , युद्ध , दंगों पर अपने विचार जनता के दिमाग में डालने और उन्हें विश्वास दिलाने कि ये सरकारी लाइन सही है, फिल्म उद्योग पर नियंत्रण जरूरी है। बॉलीवुड के गले से इनकी ही आवाज निकले कॉलर पकडक़र गला इसलिए तो दबाया जा रहा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश में कोरोना की महामारी घटी तो अब मंहगाई की महामारी से लोगों को जूझना पड़ रहा है। कोरोना घटा तो लोग घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर बाहर जाना चाहते हैं लेकिन जाएं कैसे ? पेट्रोल के दाम 100 रु. लीटर और डीजल के 90 रु. को पार कर गए। कार-मालिकों को सोचना पड़ रहा है कि क्या करें ? कार बेच दें और बसों, मेट्रो या आटो रिक्शा से जाया करें लेकिन उनके किराए भी कूद-कूदकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। पेट्रोल और डीजल की सीधी मार सिर्फ मध्यम वर्ग पर ही नहीं पड़ रही है, गरीब वर्ग भी परेशान है। तेल की कीमत बढ़ी तो खाने-पीने की रोजमर्रा की चीजों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं। सब्जियां तो फलों के दाम बिक रही हैं और फल ग्राहकों की पहुंच के बाहर हो रहे हैं।
दुकानदार हाथ मल रहे हैं कि उनके फल अब बहुत कम बिकते हैं और पड़े-पड़े सड़ जाते हैं। लोगों ने सब्जियाँ और फल खाना कम कर दिया लेकिन दालों के भाव भी दमघोटू हो गए हैं। आम आदमी की जिंदगी पहले ही दूभर थी लेकिन कोरोना ने उसे और दर्दनाक बना दिया है। सरकारी नौकरों, सांसदों और मंत्रियों के वेतन चाहे ज्यों के त्यों रहे हों लेकिन गैर-सरकारी कर्मचारियों, मजदूरों, घरेलू नौकरों की आमदनी तो लगभग आधी हो गई। उनके मालिकों ने कोरोना-काल में हाथ खड़े कर दिए। वे ही नहीं, इस आफतकाल में पत्रकारों-जैसे समर्थ लोगों की भी बड़ी दुर्दशा हो गई। कई छोटे-मोटे अखबार तो बंद ही हो गए। जो चल रहे हैं, उन्होंने अपने पत्रकारों का वेतन आधा कर दिया और दर्जनों पत्रकारों को बिदा ही कर दिया। जो सेवा-निवृत्त पत्रकार लेख लिखकर अपना खर्च चलाते हैं, उन्हें कई अखबारों ने पारिश्रमिक भेजना ही बंद कर दिया।
बेचारे दर्जियों और धोबियों की भी शामत आ गई। जब लोग अपने घरों में घिरे रहे तो उन्हें धोबी से कपड़े धुलाने और दर्जी से नए कपड़े सिलाने की जरुरत ही कहां रह गई? भवन-निर्माण का धंधा ठप्प होने के कारण लाखों मजदूर अपने गांवों में ही जाकर पड़े रहे। यही हाल ड्राइवरों का हुआ। बस मौज किसी की रही तो डॉक्टरों और अस्पताल मालिकों की रही। उन्होंने नोटों की बरसात झेली और मालामाल हो गए लेकिन वे डॉक्टर, वे नर्सें और वे कर्मचारी हमेशा श्रद्धा के पात्र बने रहेंगे, जिन्होंने इस महामारी के दौरान मरीजों की लगन से सेवा की और उनमें से कइयों ने अपनी जान की भी परवाह भी नहीं की। वे मनुष्य के रुप में देवता थे। लेकिन यह न भूलें कि मंहगाई के इस युग में लाखों ऐसे मरीज भी रहे, जिन्हें ठीक से दवा भी नसीब नहीं हुई। हजारों की जान इलाज के अभाव में चली गई। केंद्र और राज्य सरकारों ने कोरोना को काबू करने का भरसक प्रयत्न किया है लेकिन यदि वह इस मंहगाई पर काबू नहीं कर सकी तो ये मुनाफाखोर लोग उसे ले डूबेंगे। मंहगाई की मार कोरोना की मार से ज्यादा खतरनाक सिद्ध होगी। कोरोना को तो भगवान का प्रकोप मानकर लोगों ने किसी तरह सह लिया लेकिन मंहगाई का गुस्सा मुनाफाखोरों पर तो उतरेगा ही, जनता सरकार को भी नहीं बख्शेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
ध्रुव गुप्त
प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म तीन मुख्य सम्प्रदायों में बंटा रहा है-विष्णु का उपासक वैष्णव, शिव का उपासक शैव और शक्ति का उपासक शाक्त संप्रदाय। दुनिया के सभी दूसरे धर्मों की तरह वैष्णव और शैव संप्रदाय जहां सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति पुरुष को मानते हैं, शाक्तों की दृष्टि में सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति स्त्री शक्ति है। देवी को ईश्वर के रूप में पूजने वाला शाक्त धर्म दुनिया का संभवत: एकमात्र धर्म है।
स्त्री-शक्ति की आराधना की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस विषय पर इतिहासकारों में मतभेद है। ज्यादातर लोग शक्ति पूजा की परंपरा की शुरुआत इतिहास के गुप्त काल से मानते हैं जब ‘देवी महात्मय’ नाम के ग्रंथ की रचना हुई थी। दसवीं से बारहवीं सदी के बीच ‘देवी भागवत पुराण’ की रचना के बाद शाक्त परंपरा उत्कर्ष पर पहुंची थी। सच यह है कि स्त्री-शक्ति की पूजा की जड़ें प्रागैतिहासिक काल में ही मौजूद हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी की सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का प्रचलन था। खुदाई में उस काल की देवी की कई मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ऋग्वेद के दसवें मंडल में भी वाक्शक्ति की प्रशंसा में एक देवीसूक्त मिलता है, जिसमें वाक्शक्ति कहती है : मैं ही समस्त जगत की अधीश्वरी तथा देवताओं में प्रधान हूं। मैं सभी भूतों में स्थित हूं। देवगण जो भी कार्य करते हैं वह मेरे लिये ही करते हैं। वेदों की कई अन्य ऋचाओं में अदिति का मातृशक्ति के रूप में वर्णन है जो माता, पिता, देवगण, पंचजन, भूत, भविष्य सब कुछ हैं। कालांतर में शक्ति पूजा की इस प्राचीन परंपरा के साथ असंख्य मिथक और कर्मकांड जुड़ते चले गए।
योगियों की शक्ति उपासना की पद्धति थोड़ी अलग है। वे शक्ति का अस्तित्व किसी दूसरी दुनिया या आयाम में नहीं, मानव शरीर के भीतर ही मानते हैं। रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति के रूप में। विभिन्न यौगिक क्रियाओं और ध्यान के माध्यम से इस शक्ति की ऊध्र्व यात्रा शुरू कराई जाती है। जब यह शक्ति शरीर के छह चक्रों का भेदन करती हुई मस्तिष्क में स्थित सातवें चक्र में पहुंच जाती है तो योगी को असीम शक्ति और परमानंद की अनुभूति होती है।
मित्रों को स्त्री-शक्ति की उपासना के नौ-दिवसीय आयोजन नवरात्रि की शुभकामनाएं, इस आशा के साथ कि स्त्री-शक्ति की पूजा की यह गौरवशाली परंपरा स्त्रियों के प्रति सम्मान के अपने मूल उद्देश्य से भटककर महज कर्मकांड बनकर न रह जाए !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लखीमपुर-खीरी में जो कुछ हुआ, वह दर्दनाक तो है ही, शर्मनाक भी है। शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे किसानों पर कोई मोटर गाडिय़ाँ चढ़ा दे, उनकी जान ले ले और उन्हें घायल कर दे, ऐसा जघन्य कुकर्म तो कोई डाकू या आतंकवादी भी नहीं करना चाहेगा। लेकिन यह एक केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के काफिले ने किया। वह हत्यारी कार तो उस गृहमंत्री की ही थी। गृहमंत्री का कहना है कि उन कारों में न तो वे खुद थे और न ही उनका बेटा था लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि मंत्री का बेटा ही वह कार चला रहा था और लोगों पर कार चढ़ाने के बाद वह वहां से भाग निकला।
यह तो जांच से पता चलेगा कि किसानों पर कारों से जानलेवा हमला किन्होंने किया या किनके इशारों पर किया गया लेकिन यह भी सत्य है कि कोई मामूली ड्राइवर इस तरह का भीषण हमला क्यों करेगा? उसकी हिम्मत कैसी पड़ेगी? लेकिन देखिए, किस्मत का खेल कि उन कारों के दो ड्राइवर तो तत्काल मारे गए और किसानों की भीड़ ने भाजपा के दो अन्य कार्यकर्ताओं को भी तत्काल मौत के घाट उतार दिया। इसे यों भी कहा जा रहा है कि जैसे को तैसा हो गया। चार लोग मंत्री के मारे गए, क्योंकि मंत्री के लोगों ने किसानों के चार लोग मार दिए थे।
लेकिन दोनों पक्षों ने खून-खराबे का यह रास्ता चुना, यह दोनों पक्षों की निकृष्टता का सूचक है। यह थोड़े संतोष का विषय है कि किसान नेता राकेश टिकैत की मध्यस्थता के कारण हताहत किसानों और मंत्रिपक्ष के लोगों को उ.प्र. की सरकार मोटा मुआवजा और नौकरी देने पर राजी हो गई है लेकिन आश्चर्य है कि स्थानीय पुलिस हत्याकांड को होते हुए देखती रही और वह कुछ न कर सकी। जाहिर है कि इस हत्याकांड से सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही नहीं, सारे देश में लोगों ने गहरा धक्का महसूस किया है।
कृषि-कानूनों को डेढ़ साल तक ताक पर रखे जाने के बावजूद किसान नेता रास्ते रोक रहे हैं और हिंसा-प्रतिहिंसा पर उतारु हो रहे हैं। जाहिर है कि बड़े किसानों के इस आंदोलन को आम जनता और औसत किसानों का जैसा समर्थन मिलना चाहिए था, नहीं मिल रहा है। फिर भी उनके साहस की दाद देनी पड़ेगी कि वे इतने लंबे समय से अपनी टेक पर डटे हुए हैं। यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार जरुर है लेकिन रास्ते रोकने से आम लोगों को जो असुविधाएं हो रही हैं, उनके कारण इस आंदोलन की छवि पर आंच आ रही है और सर्वोच्च न्यायालय को इस पर अप्रिय टिप्पणी भी करनी पड़ी हैं।
उधर उप्र सरकार के आचरण पर भी सवाल उठ रहे हैं। उसने कई विपक्षी नेताओं को भी लखीमपुर जाने से रोका है और कुछ को गिरफ्तार कर लिया है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को अपने केंद्रीय मंत्री और पार्टी-कार्यकर्त्ताओं के साथ भी निर्भीकतापूर्वक पेश आना चाहिए। उन्हें कुछ माह बाद ही वोट मांगने के लिए जनता के सामने अपनी झोली पसारनी है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
लखीमपुर खीरी की घटना एक चेतावनी है- हमारे लोकतंत्र का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। श्री अजय कुमार मिश्र जिनके हिंसा भड़काने वाले बयान एवं गतिविधियां चर्चा में हैं, कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। वे देश के गृह राज्य मंत्री हैं। उन पर देश में संविधान एवं कानून का राज्य बनाए रखने की जिम्मेदारी है- शांति-व्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व है। यह तभी संभव है जब वे अराजकता का विरोध करें, अहिंसा का आश्रय लें, यह समझें कि विरोध और असहमति लोकतांत्रिक समाज के जीवित-जाग्रत होने का प्रमाण हैं। प्रदर्शनरत किसान उनके शत्रु नहीं हैं न ही उनका विरोध व्यक्तिगत है। वे उस राजनीतिक दल एवं सरकार का विरोध कर रहे हैं जिसका श्री मिश्र एक महत्वपूर्ण अंग हैं।
किंतु सोशल मीडिया में वायरल एक वीडियो के अनुसार 25 सितंबर 2021 को श्री मिश्र ने एक जनसभा में किसानों को धमकी भरे लहजे में कहा- '10 या 15 आदमी वहां बैठे हैं, अगर हम उधर भी जाते हैं तो भागने के लिए रास्ता नहीं मिलता।' उन्होंने कहा ‘हम आप को सुधार देंगे 2 मिनट के अंदर.. मैं केवल मंत्री नहीं हूं, सांसद विधायक नहीं हूं। सांसद बनने से पहले जो मेरे विषय में जानते होंगे उनको यह भी मालूम होगा कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं हूं और जिस दिन मैंने उस चुनौती को स्वीकार करके काम करना शुरू कर दिया उस दिन बलिया नहीं लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा यह याद रखना..।’ उनका एक अन्य वीडियो भी चर्चा में है जिसमें वे प्रदर्शनकारी किसानों को चिढ़ाते हुए दिखते हैं। यदि श्री अजय कुमार मिश्र में उस संवैधानिक पद की मर्यादा एवं गरिमा का बोध समाप्त हो गया है जिस पर वे आसीन हैं तथा अपने वक्तव्य व आचरण में निहित अभद्रता एवं असहिष्णुता को समझने में वे नाकाम हैं तो उन पर क्रोधित होने के स्थान पर उनके लिए चिंतित होना उचित लगता है। वे मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं और उन्हें शायद काउन्सलिंग की जरूरत है। बतौर देश के गृह राज्य मंत्री उनका बने रहना उचित नहीं है।
जब देश का शासन चला रहे महानुभावों में से अधिसंख्य सरकार की नीतियों के विरोध को व्यक्तिगत शत्रुता का रूप देने लगें तथा प्रतिशोधी एवं भड़काऊ बयान देकर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से असहमत स्वरों के विरुद्ध हिंसा के लिए अपने समर्थकों को उकसाने लगें तो देश की जनता का चिंतित एवं भयभीत होना स्वाभाविक है। श्री अजय कुमार मिश्र के आचरण को एक अपवाद नहीं माना जा सकता। वे केंद्र और भाजपा शासित राज्यों के नेताओं की उस परंपरा का एक हिस्सा हैं जिसमें "पश्चाताप रहित आक्रामक एवं हिंसक बयानबाजी" को एक प्रशंसनीय गुण माना जाता है। अब तक यह बयानबाजी साम्प्रदायिक विद्वेष से प्रेरित हुआ करती थी किंतु अब इस प्रवृत्ति का विस्तार हुआ है और आंदोलनकारी किसान इन जहरीले बयानों का निशाना बने हैं।
जुलाई 2021 में केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी ने किसानों को मवाली कहा था। केंद्रीय राज्य मंत्री रतन लाल कटारिया ने मार्च 2021 में बयान दिया था कि किसान वो दिन याद करें जब गन्ने की पेमेंट के लिए कांग्रेस ने किसानों को घोड़ों के पैरों तले कुचलवाया था। इससे पूर्व दिसंबर 2020 में केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने कहा था कि किसान आन्दोलन में प्रदर्शन कर रहे कई लोग किसान नहीं दिखते हैं। यह किसान नहीं है जिन्हें कृषि कानूनों से कोई समस्या है, बल्कि वो दूसरे लोग हैं। विपक्ष के अलावा, कमीशन पाने वाले लोग इस विरोध के पीछे हैं।
यह बयान उत्तरोत्तर हिंसक होते गए हैं। पंजाब बीजेपी के प्रवक्ता हरिमंदर सिंह ने 15 सितंबर 2021 को कहा कि अगर मुझे किसानों से बात करने के लिए बोला जाता तो मैं मार-मार के पैर तोड़ देता और जेल में बंद करवा देता। आगे उन्होंने कहा कि किसानों का यही हाल करना चाहिए।
इस कड़ी का नवीनतम एवं सर्वाधिक चिंता तथा भय उत्पन्न करने वाला बयान हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर द्वारा दिया गया है। सोशल मीडिया एवं अन्य समाचार माध्यमों में दिखाए जा रहे वीडियो के अनुसार श्री खट्टर कह रहे हैं - 'दक्षिण हरियाणा में समस्या ज्यादा नहीं है, मगर उत्तर-पश्चिम हरियाणा के हर जिले में है। अपने किसानों के 500-700-1000 लोग आप अपने खड़े करो। उन्हें वालंटियर बनाओ और फिर जगह-जगह 'शठे शाठ्यम समाचरेत'! क्या मतलब होता है इसका? क्या अर्थ होता है इसका? कौन बताएगा? अंग्रेजी में बता दिया! हिंदी में बताओ! 'जैसे को तैसा' 'जैसे को तैसा' उठा लो डंडे! हां ठीक है, (पीछे से स्वर आता है कि बचा लोगे, जमानत करवा लोगे)। वह देख लेंगे और दूसरी बात यह है जब डंडे उठाएंगे डंडे तो जेल जाने की परवाह ना करो! महीना-दो महीने रह आओगे तो इतनी पढ़ाई हो जाएगी जो इन मीटिंग में नहीं होगी! अगर 2-4 महीने रह आओगे तो बड़े नेता अपने आप बन जाओगे! (हंसने की आवाजें आती हैं)। बड़े नेता अपने आप बन जाओगे चिंता मत करो, इतिहास में नाम अपने आप लिखा जाता है!' यह बयान अक्टूबर 2021 का है।
इससे पहले अगस्त 2021 में करनाल में किसानों पर हुए बर्बर लाठी चार्ज के ठीक पहले का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एसडीएम आयुष सिन्हा ने साफ तौर पर सिपाहियों से कहा था कि यह बहुत सिंपल और स्पष्ट है। कोई कहीं से हो, उसके आगे नहीं जाएगा। अगर जाता है तो लाठी से उसका सिर फोड़ देना। कोई निर्देश या डायरेक्शन की जरूरत नहीं है।उठा-उठा कर मारना। तब भी हरियाणा के मुख्यमंत्री पुलिस की बर्बर कार्रवाई और अधिकारी के निर्णय से सहमत नजर आए थे। उन्होंने कहा था- शब्दों का चयन ठीक नहीं था। हालांकि कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए सख्ती जरूरी थी।
इन बयानों के परिप्रेक्ष्य में ही आशीष मिश्रा या उस जैसे किसी युवक के हिंसक पागलपन को देखा जाना चाहिए। इस नौजवान के मन में इतना जहर भरा जा चुका है कि गुस्से, भय, नफरत और हिंसा के अतिरिक्त उसे और कुछ नहीं सूझता। उसके अपने क्षेत्र के परिचित लोग उसे शत्रु की भांति लगते हैं। वह सत्ता के संरक्षण को लेकर आश्वस्त है। शायद उसके मन में यह आशा भी हो कि वह नायक बन जाएगा और उसे पुरस्कृत किया जाएगा। इस घातक मनोदशा में वह जघन्यतम अपराध करने की ओर अग्रसर होता है। यह भी संभव है कि उसके मन में कोई पश्चाताप न हो। हो तो यह भी सकता है कि सोशल मीडिया में सक्रिय हिंसा और घृणा के पुजारी इस लड़के की कायरता को वीरता का दर्जा दें और अन्य नवयुवकों को इसके अनुकरण की सलाह दें। इस घटना के बाद पता नहीं एक पिता के तौर पर श्री अजय कुमार मिश्र अपने पुत्र के लिए कैसी राय रखेंगे? किंतु मुझे लगता है कि उन्हें चिंतित होना चाहिए। उनका लड़का जेहनी तौर पर बीमार है। उन्हें स्वयं पर लज्जित होना चाहिए। वे कैसा हिंसा प्रिय घृणा संचालित समाज बनाने में योगदान दे रहे हैं? आशीष के बर्ताव पर देश के हर माता-पिता को शर्मिंदा होना चाहिए; उन्हें भयभीत एवं फिक्रमंद होना चाहिए। यह उनके लिए सतर्क होने का समय है। यदि नफरत और बंटवारे की इस आंधी को न रोका गया तो कोई भी नहीं बचेगा। ऐसा बिलकुल नहीं है कि हिंसा की आग हिंसा प्रारंभ करने वाले को बख्श देगी। इस आग में सब झुलसेंगे - हम सब।
इस जघन्य वारदात की पटकथा तब से ही रची जाने लगी होगी जब किसानों को पाकिस्तान परस्त, खालिस्तानी, विलासी, आम टैक्स पेयर के पैसे से ऐश करने वाला सब्सिडीजीवी, अराजक, हिंसक एवं राजनीतिक दलों का पिट्ठू ठहराने वाली झूठ से भरी पहली जहरीली पोस्ट सोशल मीडिया में फैलाई गई होगी। यह पटकथा तब और पुख्ता हो गई होगी जब किसी वायरल पोस्ट के माध्यम से सरकार की गलत नीतियों के कारण बेरोजगारी और गरीबी की मार झेल रहे नौजवानों को यह विश्वास दिलाया गया होगा कि उनकी दुर्दशा के लिए अल्पसंख्यकों के बाद कोई जिम्मेदार है तो वह किसान ही हैं। इन किसानों को मार भगाना उनका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है। इससे भी बहुत पहले जब पहली बार युवाओं की किसी हिंसक भीड़ ने किसी निर्दोष को अपना अपराधी चुनकर उसका अपराध तय किया होगा और फिर उसे मृत्यु दंड दिया होगा तब ऐसे निर्मम एवं अमानवीय कृत्य की पूर्व पीठिका तैयार हो गई होगी। उस समय हम सब चुप थे, हमने इन नफरत फैलाने वाली पोस्ट्स का आनंद लिया, प्रतिवाद नहीं किया। हम यह सोचकर खुश होते रहे कि हम हिंसा करने वालों में से एक हैं, इसका शिकार बनने वाले तो कोई और हैं। हम अपने बच्चों को हिंसक शैतानों का जॉम्बी बनते देखते रहे। अब भी हम आत्मघाती चुप्पी के शिकार हैं। गांधी के देश में अहिंसा को कमजोरी बताकर खारिज किया जा रहा है और हम तमाशबीन बने हुए हैं।
सत्ताएं असहमत स्वरों को कुचलने के लिए अनेक रणनीतियां अपनातीं हैं। इनमें से सर्वाधिक घातक है-राज्य पोषित हिंसा। कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग और पुलिसिया दमन के लिए राज्य को प्रत्यक्ष रूप से कटघरे में खड़ा किया जा सकता है, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और विश्व जनमत उस पर लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों की रक्षा के लिए दबाव बना सकते हैं। किंतु राज्य पोषित हिंसा से स्वयं को अलग कर लेना राज्य के लिए बहुत आसान होता है। अब भी सरकार की यही रणनीति है। सरकार यह जाहिर करने का प्रयास करेगी कि वह तो असीम धैर्य से अराजक किसानों की हठधर्मिता को झेल रही थी किंतु जनता का धैर्य जवाब दे गया और उसने किसानों को सबक सिखाने का फैसला किया। इसके बाद किसानों पर हिंसक आक्रमण होंगे। कहीं न कहीं, कभी न कभी किसानों का संयम टूटेगा और हिंसा-प्रतिहिंसा का चक्र चल निकलेगा। फिर सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर उतरेगी और किसानों की गिरफ्तारी एवं दमन की प्रक्रिया चल पड़ेगी। असहमति रखने वाले वर्ग को सरकार समर्थक मीडिया एवं सोशल मीडिया के माध्यम से राष्ट्रद्रोही सिद्ध करना और फिर सरकार के हिंसक समर्थकों को राष्ट्र भक्ति के नाम पर उन पर हिंसक आक्रमण की छूट देना- यह रणनीति सरकार को बड़ी आकर्षक एवं कारगर लग सकती है लेकिन समाज को अलग अलग परस्पर शत्रु समूहों में बांटकर हिंसा को बढ़ावा देने के घातक दुष्परिणाम निकल सकते हैं और सामाजिक विघटन तथा गृह युद्ध के हालात बन सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी माह दिए गए एक साक्षात्कार में यह स्पष्ट कर दिया है कि कृषि कानूनों को वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है। उन्होंने हमेशा ही किसान आंदोलन को विपक्षी दलों के षड्यंत्र के रूप में चित्रित किया है। इस बार भी कृषि कानूनों पर विपक्ष के रवैये को 'बौद्धिक बेईमानी' और 'राजनीतिक छल' करार देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए कड़े और बड़े फैसले लेने की आवश्यकता है। ये फैसले दशकों पहले ही लिए जाने चाहिए थे। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार प्रारंभ से ही कह रही है कि वह विरोध करने वाले कृषि निकायों के साथ बैठकर उन मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तैयार है, जिन पर असहमति है। उन्होंने कहा कि इस संबंध में कई बैठकें भी हुई हैं, लेकिन अब तक किसी ने भी किसी विशेष बिंदु पर असहमति नहीं जताई है कि हमें इसे परिवर्तित करना चाहिए।
प्रधानमंत्रीजी भी अनेक बार उसी विभाजनकारी नैरेटिव का प्रयोग किसान आंदोलन को महत्वहीन एवं अनुचित बताने के लिए कर चुके हैं जिसे उनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर गढ़ा है। अपने भाषणों में इन कृषि कानूनों को छोटे किसानों हेतु लाभकारी बताकर वे यह संकेत देते हैं कि आंदोलन में केवल मुट्ठी भर बड़े किसान शामिल हैं। कभी वे आन्दोलनजीवी जैसी अभिव्यक्ति का उपयोग कर यह दर्शाते हैं कि समाजवादी और वामपंथी विचारधारा से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता इस आंदोलन के लिए जिम्मेदार हैं। कभी वे कांग्रेस पर हमलावर होते हैं कि उसे कृषि कानूनों के विरोध का कोई अधिकार नहीं है। अभी भी वर्तमान साक्षात्कार में जब वे कहते हैं कि नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े और कड़े फैसले लेने पड़ते हैं तो इसमें यह अर्थ निहित होता है कि आंदोलनरत किसान देश के नागरिकों को मिलने वाले लाभों के मार्ग में रोड़े अटका रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री जी इन बैठकों की कार्रवाई से भी अनभिज्ञ हैं अन्यथा उन्हें किसान नेताओं द्वारा कंडिकावार दी गई आपत्तियों का ज्ञान होता। कोरोना काल की अफरातफरी में किसानों से बिना पूछे कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाले, किसानों पर जबरन थोपे गए यह बिल किसानों को अस्वीकार्य हैं, कम से कम प्रधानमंत्री जी को इतना तो ज्ञात होगा। यदि आम जनता से बिना संवाद किए उस पर अपना निर्णय थोपना, जनमत की अनदेखी करना, जन असंतोष को षड्यंत्र समझना तथा हिंसा एवं विभाजन को समर्थन देने वाले अपने अधीनस्थों को संरक्षण देना मजबूत नेता के लक्षण हैं तो आदरणीय प्रधानमंत्री जी निश्चित ही इस कसौटी पर खरे उतरते हैं।
आदरणीय प्रधानमंत्रीजी की इस स्पष्टोक्ति के बाद कि कृषि कानून वापस नहीं होंगे उनके अंध समर्थकों को यह अपना नैतिक उत्तरदायित्व लग रहा है कि वे किसानों को जबरन खदेड़कर आंदोलन समाप्त कर दें। आदरणीय प्रधानमंत्री जी को यह स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए कि आंदोलित किसानों से भले ही उनकी असहमति है किंतु वे इन किसानों के विरोध दर्ज करने के अधिकार का सम्मान करते हैं और वे इन पर होने वाली किसी भी प्रकार की दमनात्मक एवं हिंसक कार्रवाई के साथ नहीं हैं।
आने वाला समय किसान आंदोलन के नेतृत्व के लिए कठिन परीक्षा का है। उकसाने वाली हर कार्रवाई के बाद भी उसे आंदोलन को अहिंसक बनाए रखना होगा। किसान नेताओं को जनता को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि वे हर प्रकार की हिंसा के विरुद्ध हैं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने चीन की बढ़ती आक्रामकता पर अपने लोकतंत्र का बचाव करते हुए कहा है कि अगर चीन ने ताइवान को अपने नियंत्रण में ले लिया तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे।
साई इंग-वेन ने फॉरेन अफेयर्स में एक लेख लिखा है, उसी में ये बात कही है। हाल ही में चीन के 38 लड़ाकू विमान ताइवान के हवाई क्षेत्र में अतिक्रमण करते हुए घुसे थे। मंगलवार को ताइवान के प्रधानमंत्री सु सेंग-चांग ने कहा था कि चीन की यह आक्रामकता क्षेत्रीय शांति के लिए खतरा है और ताइवान को सतर्क रहने की जरूरत है।
चीन की सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए ने अक्टूबर महीने के पहले चार दिनों में 150 के करीब प्लेन ताइवान के हवाई क्षेत्र में भेजे थे। चीन की मीडिया में इसे शक्ति के प्रदर्शन के तौर पर देखा गया है, लेकिन दुनिया भर की कई सरकारों ने इसे भय दिखाने और चीन की आक्रामकता के तौर पर लिया है।
फ़ॉरेन अफेयर्स में साई इंग-वेन ने लिखा है, ‘हम शांति चाहते हैं लेकिन हमारे लोकतंत्र और जीवन शैली को ख़तरा पहुँचा तो ताइवान आत्मरक्षा के लिए जो भी जरूरी समझेगा, करने के लिए तैयार है।’
ताइवान ने दुनिया भर के देशों से आग्रह किया है कि चीन के व्यापक खतरे को समझना होगा। ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने कहा, ‘दुनिया को समझने की जरूरत है कि ताइवान अगर चीन के हाथ में चला गया तो क्षेत्रीय शांति के लिए यह विनाशकारी होगा। यह लोकतांत्रिक साझेदारी के लिए भी विध्वंसकारी साबित होगा।’
वहीं ताइवान के रक्षा मंत्री चिउ कुओ-चेंग ने कहा है कि पिछले 40 सालों में चीन और ताइवान का सैन्य संबंध सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। ताइवान के रक्षा मंत्री ने कहा है कि चीन 2025 तक ताइवान पर हमला कर सकता है।
चिउ कुओ-चेंग ने कहा, ‘चीन के पास क्षमता है लेकिन युद्ध इतना आसान नहीं होगा। कई अन्य चीजों पर भी विचार करना होगा।’
चीन का दावा और ताइवान का पक्ष
चीन दावा करता है कि ताइवान उसका एक प्रांत है और उसे अपने नियंत्रण में लेने के लिए प्रतिबद्ध है। चीन का कहना है कि अगर खुद में मिलाने के लिए ताकत का भी इस्तेमाल करना पड़ा तो किया जाएगा। चीन ताइवान में राष्ट्रपति साई इंग-वेन की सरकार को अलगाववादी मानता है। लेकिन साई इंग-वेन कहती हैं कि ताइवान एक संप्रभु देश है और उसे अलग से स्वतंत्र घोषित करने की ज़रूरत नहीं है। उनका ये भी कहना है कि वो टकराव नहीं चाहती हैं।
साई इंग-वेन ने अपने लेख में लिखा है, ‘पीएलए की दैनिक घुसपैठ के बावजूद चीन के साथ हमारा संबंध बदला नहीं है। ताइवान दबाव में झुकेगा नहीं। कोई भी दु:साहस हमें डिगा नहीं सकता है। उसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिलता है, तब भी ऐसा नहीं होगा।’
कुछ देशों ने ताइवान को संप्रभु राष्ट्र के तौर पर मान्यता दे रखी है। कई देशों के साथ ताइवान के अनाधिकारिक साझेदारी और समझौते हैं और अंतराष्ट्रीय मंचों पर वो नॉन स्टेट पक्ष की तरह रहता है।
साई ने लिखा है कि दुनिया भर में ताइवान की साझेदारी बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि ताइवान अहम लोकतंत्र, कारोबारी साझेदार और वैश्विक सप्लायर है। उन्होंने कहा कि ताइवान उत्तरी जापान से बोर्नियो द्वीप तक फैला एक अहम द्वीप समूह है।
‘अंतरराष्ट्रीय अस्थिरता का ख़तरा’
साई ने कहा, ‘अगर जबरन इस लाइन को तोड़ा गया तो इसका नतीजा होगा कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार तबाह होगा और पूरा पश्चिमी प्रशांत अस्थिर हो जाएगा। ताइवान अगर अपनी रक्षा करने में नाकाम रहता है तो यह केवल ताइवान के लोगों के लिए विनाशकारी नहीं होगा बल्कि इससे सुरक्षा की वो दीवार गिर जाएगी जो सात दशकों से शांति और असाधारण विकास के लिए खड़ी थी।’
विश्लेषकों में बहस है कि यह ख़तरा कितना वाजिब है, लेकिन इसी हफ्ते टकराव बढ़ चुका है और इसने कई देशों के कान खड़े कर दिए हैं।
मंगलवार को जापान के विदेश मंत्री तोशिमित्शु मोटेगी ने कहा था, ‘हम उम्मीद करते हैं कि चीन और ताइवान विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझा लेंगे। हमारी नजर स्थिति पर बनी हुई है और हम अपनी स्थिति का मूल्यांकन कर रहे हैं।’
इसके बाद अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की तरफ से भी इस पर टिप्पणी आई। दोनों देशों ने कहा कि चीन तनाव कम करे और बल का प्रयोग ना करे। व्हाइट हाउस ने कहा है कि चीन की आक्रामकता के बारे में राजनयिक स्तर पर भी बात हुई है। ताइवान के विदेश मंत्री ने मंगलवार को घोषणा की है कि फ्रांस के सीनेटरों का एक समूह इसी हफ़्ते ताइवान पहुँच रहा है।
ताइवान को लगता है कि मजबूत अंतरराष्ट्रीय सहयोग से उसे चीन को रोकने में मदद मिलेगी। ताइवान अमेरिका के ज़रिए अपनी सुरक्षा क्षमता भी बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। साई ने कहा है, ‘इन सभी कदमों से ताइवान खुद को अधिकतम आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहा है। हमारी तैयारी इस बात को लेकर भी है कि हम अपना बोझ खुद उठा सकें और हमें किसी की मदद की ज़रूरत ना पड़े।’
ताइवान बनाम चीन
विश्व की एक महाशक्ति चीन के सामने ताइवान एक छोटा-सा द्वीप है जो क्यूबा जितना बड़ा भी नहीं है। ताइवान, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना से महज 180 किलोमीटर दूर है। ताइवान की भाषा और पूर्वज चीनी ही हैं लेकिन वहाँ अलग राजनीतिक व्यवस्था है और यही चीन और ताइवान के बीच दुश्मनी की वजह भी है।
ताइवान की खाड़ी के एक तरफ 130 करोड़ की आबादी वाला चीन है, जहाँ एकदलीय राजव्यवस्था है जबकि दूसरी तरफ ताइवान है, जहाँ दो करोड़ 30 लाख लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं।
चीन और ताइवान के बीच 1949 से विवाद चला आ रहा है, जिसकी वजह से ताइवान की पहुँच अंतरराष्ट्रीय संगठनों तक नहीं है और उसे सीमित अंतरराष्ट्रीय मान्यता ही मिली हुई है। दुनिया के सिफऱ् 15 देश ही ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र मानते हैं।
वहीं, चीन इसे अपने से अलग हुआ हिस्सा और एक विद्रोही प्रांत मानता है। साल 2005 में चीन ने अलगाववादी विरोधी कानून पारित किया था जो चीन को ताइवान को बलपूर्वक मिला लेने का अधिकार देता है। उसके बाद से अगर ताइवान अपने आप को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करता है तो चीन की सेना उस पर हमला कर सकती है।
वर्ष 1642 से 1661 तक ताइवान नीदरलैंड्स की कॉलोनी था। उसके बाद चीन का चिंग राजवंश वर्ष 1683 से 1895 तक ताइवान पर शासन करता रहा। लेकिन साल 1895 में जापान के हाथों चीन की हार के बाद ताइवान, जापान के हिस्से में आ गया।
दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने तय किया कि ताइवान को उसके सहयोगी और चीन के बड़े राजनेता और मिलिट्री कमांडर च्यांग काई शेक को सौंप देना चाहिए।
च्यांग की पार्टी का उस वक़्त चीन के बड़े हिस्से पर नियंत्रण था। लेकिन कुछ सालों बाद च्यांग काई शेक की सेनाओं को कम्युनिस्ट सेना से हार का सामना करना पड़ा। तब च्यांग और उनके सहयोगी चीन से भागकर ताइवान चले आए और कई वर्षों तक 15 लाख की आबादी वाले ताइवान पर उनका प्रभुत्व रहा।
कई साल तक चीन और ताइवान के बीच बेहद कड़वे संबंध होने के बाद साल 1980 के दशक में दोनों के रिश्ते बेहतर होने शुरू हुए। तब चीन ने ‘वन कंट्री टू सिस्टम’ के तहत ताइवान के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वो अपने आपको चीन का हिस्सा मान लेता है तो उसे स्वायत्तता प्रदान कर दी जाएगी। ताइवान ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
वन चाइना पॉलिसी और ताइवान
1. वन चाइना पॉलिसी का मतलब उस नीति से है, जिसके मुताबिक ‘चीन’ नाम का एक ही राष्ट्र है और ताइवान अलग देश नहीं, बल्कि उसका प्रांत है।
2. पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (पीआरसी), जिसे आम तौर पर चीन कहा जाता है, वो साल 1949 में बना था। इसके तहत मेनलैंड चीन और हांगकांग-मकाऊ जैसे दो विशेष रूप से प्रशासित क्षेत्र आते हैं।
3. दूसरी तरफ रिपब्लिक ऑफ चाइना (आरओसी) है, जिसका साल 1911 से 1949 के बीच चीन पर कब्जा था, लेकिन अब उसके पास ताइवान और कुछ द्वीप समूह हैं। इसे आम तौर पर ताइवान कहा जाता है।
4. वन चाइना पॉलिसी का मतलब ये है कि दुनिया के जो देश पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (चीन) के साथ कूटनीतिक रिश्ते चाहते हैं, उन्हें रिपब्लिक ऑफ चाइना (ताइवान) से सारे आधिकारिक रिश्ते तोडऩे होंगे।
5. कूटनीतिक जगत में यही माना जाता है कि चीन एक है और ताइवान उसका हिस्सा है। इस नीति के तहत अमरीका, ताइवान के बजाय चीन से आधिकारिक रिश्ते रखता है। लेकिन ताइवान से उसके अनाधिकारिक, पर मजबूत ताल्लुक हैं।
6. ताइवान ओलंपिक खेल जैसे अंतरराष्ट्रीय समारोह में ‘चीन’ का नाम इस्तेमाल नहीं कर सकता। इसकी वजह वो लंबे समय से ऐसे मंचों पर ‘चाइनीज़ ताइपे’ के नाम के साथ शिरकत करता है।
7. इस मुद्दे पर चीन का रुख़ स्वीकार करना चीन-अमरीका संबंधों का आधार ही नहीं, बल्कि चीन की तरफ़ से नीति-निर्माण और कूटनीति के लिए भी अहम है।
8. अफ्रीका और कैरेबियाई क्षेत्र के कई छोटे देश अतीत में वित्तीय सहयोग के चलते चीन और ताइवान, दोनों से बारी-बारी रिश्ते बना और तोड़ चुके हैं।
9. इस नीति से चीन को फायदा हुआ और ताइवान कूटनीतिक स्तर पर अलग-थलग है। दुनिया के ज्यादातर देश और संयुक्त राष्ट्र उसे स्वतंत्र देश नहीं मानते। लेकिन इसके बावजूद वो पूरी तरह अलग नहीं है।
10. जाहिर है कि यथास्थिति में चीन ज्यादा ताकतवर है और इस वजह से कूटनीतिक रिश्तों के लिहाज से ताइवान बैकफुट पर है। ये देखना होगा कि ट्रंप का हालिया बयान क्या किसी बदलाव की आहट दे रहा है। (bbc.com/hindi)
कॉपी-रजनीश कुमार
-दिनेश श्रीनेत
मुझे हिंदी पट्टी के ऐसे बौद्धिक लोग नापसंद हैं या कम से कम उनकी यह बात नापसंद है- जब वे बिना किसी परिप्रेक्ष्य के स्थानीय बोली, अपने इलाके, क्षेत्रीय संस्कृति, पूर्वांचली, पहाड़ी या बिहारी संस्कृति का गुणगान करने में लग जाते हैं। मुझे हमेशा लगता है कि यह न सिर्फ अपरोक्ष रूप से क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है बल्कि लोगों के बीच फर्क की बारीक सी रेखा खींचने में मदद करता है। वैसे भी अपनी ही चीजों पर गर्व करते रहने को बहुत विकसित मानसिकता नहीं माना जा सकता।
और कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि गर्व करने के लिए हिंदी पट्टी के पास रह क्या गया है? घिसे-पिटे रीति-रिवाज, खत्म होती भाषा या अप्रासंगिक हो चुके रहन-सहन के तरीके...बस। जो लोग अपनी लोक-संस्कृति पर गर्व जताते हैं, उनके यहां भी शादियों में डीजे पर पंजाबी या हरियाणवी गीत ही बजते हैं। हिंदी पट्टी के ये बुद्धिजीवी अपनी लोक संस्कृति की बात तो करते हैं मगर तेजी से बढ़ती अपसंस्कृति पर चुप्पी साध जाते हैं। मंदिरों में होने वाले भजन तो कब के नरेंद्र चंचल जैसे लोगों की वजह से फिल्मी गीतों की भेंट चढ़ गए। किसी जमाने में भोजपुरी में अश्लील गीतों को स्थापित करने वाले बालेश्वर यादव को प्रदेश सरकार सम्मान देती है। भोजपुरी सिनेमा की वजह से आज पूर्वांचल की गलियों, आटो, बसों और शादियों में घनघोर अश्लील गाने बजते हैं और उसी पूर्वांचल की संस्कृति पर गर्व करने वालों के परिवारों की स्त्रियां हवा में तैरती अश्लीलता के बीच खुद को समेटे दुनिया जहान के काम पर निकलती हैं।
जिस पूर्वांचल को मैं जानता हूँ, वहां के गांवों, कसबों, शहरों का समाज घनघोर जातिवादी और पितृसत्तात्मक नजर आता है। मैं पाता हूँ कि इन इलाकों में बसने वाले ज्यादातर लोग सभ्य नागरिक होने की चेतना से कोसों दूर हैं। मेलों और शादियों में मर्दों के मनोरंजन के लिए छोटे बच्चों की मौजदगी में अश्लील नाच होते हैं। बंदूकों और बड़ी गाडिय़ों से शक्ति का प्रदर्शन किया जाता है। अधिकतर लोग कर्मकांडी और पाखंडी हैं। औरतों के प्रति सामंती दृष्टिकोण है। सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में एक-दूसरे की जाति देखकर बात की जाती है। घरों में साल में कई बार लाउडस्पीकर पर बेसुरी आवाजों में कीर्तन होते हैं और लोग अपने बेटों के विवाह में ज्यादा से ज्यादा दहेज बटोरने में लगे रहते हैं। क्या इन्हीं सब पर हम गर्व करना चाहते हैं?
बौद्धिक लोग जब क्षेत्रीय संस्कृति पर अभिमान की बात करते हैं तो वह किस समाज के बारे में बात करना चाहते हैं? उनका मंतव्य क्या है? कभी इस पर चर्चा नहीं होती। यदि हम दूसरी संस्कृति को अपने जीवन में जगह नहीं दे पा रहे हैं तो इसे हमारी सांस्कृतिक चेतना की विपन्नता ही कहा जाएगा। दुनिया में संपर्क के साधन जिस तेजी से बढ़ रहे हैं हम जिस तरह से भिन्न संस्कृति के लोगों से मिलते हैं, उनके साथ संवाद करते हैं, क्या खुद में सिमटे रहने को किसी भी तरह से उचित ठहराया जा सकता है? बंगाल ने ब्रिटिश संस्कृति से तालमेल बिठाया और उनके यहां अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतिभाएं सामने आईं। क्यों एक उत्तर प्रदेश का व्यक्ति राजस्थान के मांगनिहार ब्रदर्स के गीतों को नहीं सराह सकता? या फिर बिहार के लोग पहाड़ी लोक संगीत क्यों नहीं सुन सकते?
जाहिर है यह निजी पसंद नापसंद का मामला है, मगर हमें अपने दरवाजे कम से कम खोलकर रखने चाहिए। हिंदी पट्टी के लोगों को अपनी संस्कृति पर झूठा
गर्व करने की बजाय दूसरों की संस्कृति को सम्मान देने का चलन विकसित करना चाहिए। जब दूसरे की संस्कृति को सम्मान देंगे तो अपनी संस्कृति को सम्मान देना खुद-ब-खुद आ जाएगा। मराठी या बंगाली समाज के मुकाबले हिंदी क्षेत्रों में नृत्य, संगीत या नाटक के प्रति हिकारत का भाव है। बचपन में मैं देखता था कि गोरखपुर के लोग बंगाली या ईसाई लोगों का मजाक उड़ाया करते थे और उनके प्रति असहयोग की भावना रखते थे। जबकि दोनों ही समुदायों का इस शहर के सांस्कृतिक विकास में गहरा योगदान रहा है।
यह अच्छा है कि उत्तर भारत की नई पीढ़ी अपनी क्षेत्रीयता के झूठे अहंकार और जकड़बंदी से दूर है। ज्यादातर मिडिल क्लास फैमिली के बच्चे अपना शहर छोडक़र पुणे, चेन्नई, मुंबई, पढऩे जा रहे हैं और वहीं पर नौकरियां कर रहे हैं। जिस मल्टीनेशनल कंपनी में वे काम करते हैं वहां बिहार के लडक़े के बगल की सीट पर महाराष्ट्र की लडक़ी और उसके बगल में आंध्र का लडक़ा और उसके बगल में बंगाली या नार्थ ईस्ट की लडक़ी बैठे होते हैं। जब उनके बीच संवाद होता है तो यह समझ में आता है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दोनों की भाषा और खान-पान अलग है, अंतत: दोनों को ही नेटफ्लिक्स पर ‘मनी हेस्ट’ सिरीज पसंद है। दोनों एक जैसे चुटकुलों पर हँस सकते हैं। दोनों एक-दूसरे के खाने का स्वाद ले सकते हैं।
नई संस्कृति में इस उदारता के लिए जगह बनानी होगी। ऐसा क्यों है कि हिंदी पट्टी के लोग अब तक देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले सम्मानजनक स्थिति नहीं हासिल कर सके हैं? कहीं न कहीं उनका अपने पुराने तौर-तरीके से चिपके रहना है। वे अपने रहन-सहन, आचार-व्यवहार और सोच में प्रगतिशील नहीं हैं। नई चीजों और नए लोगों के प्रति संदेह रखते हैं। वे अवसरवादी हैं। और हमारे बुद्धिजीवी किसी गोष्ठी में कहते पाए जाते हैं, मुझे गर्व है कि मैं फलां जगह आता हूँ। माफ कीजिए, मुझे गर्व करने लायक कोई बात नजऱ नहीं आती। यदि गर्व कहना है तो पहले अपने समाज को इस लायक बनाइए कि उसकी सराहना खुद घूम-घूमकर न करनी पड़े। साथ ही जिन्हें हम विचारक, चिंतक मानते हैं, जिनकी बातों से सोसाइटी में ओपिनियन बनती है, उन्हें अपने इस ‘क्षेत्रवाद’ से बाहर आना होगा।
पाश ने लिखा था-
जब भी कोई समूचे भारत की
‘राष्ट्रीय एकता’ की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है —
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
मैं यहां पर ‘समूचे भारत की राष्ट्रीय एकता’ की जगह ‘हमारे क्षेत्र की संस्कृति’ लिखना चाहूँगा। बाकी टोपियां उछालनी जरूरी हैं...
(फेसबुक से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काला धन छिपाने और टैक्स चोरी करने के कई तरीके हैं लेकिन जब आपके हाथों अरबों-खरबों आ जाएं तो आप कुछ ऐसे तरीके अपनाते हैं कि आप सरकार की पकड़ के बिल्कुल बाहर हो जाएं। इनमें आजकल सबसे ज्यादा पसंदीदा तरीका यह है कि आप अपना सारा पैसा कुछ ऐसे छोटे-मोटे देशों जैसे पनामा, बरमूदा, लग्जमबर्ग और स्विटरजरलैंड आदि की बैंकों में छिपाकर रख दें। ये बैंक गोपनीयता बनाए रखते हैं और बहुत कम शुल्क लेते हैं। 2015-16 में जब 'पनामा पेपर्सÓ ने पोल खोली थी तो दुनिया में उससे काफी तहलका मचा था। कुछ भारतीयों के नाम भी उसमें थे। भारत सरकार ने उन्हीं दिनों इस तरह के काले धन को पकडऩे और दंडित करने का कठोर कानून भी बनाया था लेकिन अभी 'पेंडोरा पेपर्सÓ के भांडाफोड़ ने सारी दुनिया में तहलका मचा दिया है। कई देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और बादशाहों के नाम भी उजागर हो रहे हैं।
खोजी पत्रकारों के एक समूह ने 14 कंपनियों के लगभग सवा करोड़ दस्तावेजों में से खोजबीन करके 2900 खातों को पकड़ा है, जिनमें 130 बिलियन डॉलर जमा हैं। इनमें 300 भारतीय और 700 पाकिस्तानी खातेदारों के नाम भी हैं। इन लोगों में ज्यादातर उद्योगपति और व्यापारी हैं लेकिन नेताओं, अधिकारियों, अपराधियों और तस्करों के नामों की भी भरमार है। उद्योगपति और व्यापारी तो प्राय: अपनी मेहनत का पैसा वहाँ छिपाते हैं, सिर्फ टैक्स बचाने के लिए लेकिन नेताओं, अफसरों और तस्करों का पैसा तो सर्वथा अनैतिक और अवैधानिक कामों से पैदा होता है। लेकिन उनके इस अपराध का फायदा सभी उठाना चाहते हैं। सबको पता है कि जहां नेता और अफसर फंसते हैं, वहां झट से पर्दा डाल दिया जाता है, क्योंकि हर पार्टी के नेता यही धंधा करते हैं। सरकार किसी भी पार्टी की हो, वह नेताओं पर हाथ कैसे डाल सकती है?
इसीलिए भारत के 300 खातेदारों के नाम अभी तक बताने में सरकार हिचकिचा रही है। सरकार चाहे तो उसका रवैया दो-टूक हो सकता है। जिन लोगों ने अपना पैसा विदेशी बैंकों में जमा करते वक़्त कानून का पालन किया है, उन्हें किस बात का डर है? पाकिस्तान के कई मंत्रियों और अफसरों के नाम उजागर हो गए हैं और वे अपनी सफाइयाँ पेश कर रहे हैं। यहां असली सवाल यह है कि सरकार आयकर-कानून ऐसे क्यों नहीं बनाती कि लोग कम से कम कर-चोरी करें ? मैं तो सोचता हूं कि सरकार को आमदनी के बजाय खर्च पर कर लगाना चाहिए। यदि हर आदमी की आय करमुक्त हो जाए तो जो भी पैसा बचेगा, वह किसी अच्छे काम में लगेगा। यदि खर्च को करयुक्त बनाया जाए तो देश में जबर्दस्त बचत का अभियान चल पड़ेगा। देश के विकास के लिए पूंजी ही पूंजी उपलब्ध हो सकेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
किसान आंदोलन एक वर्ष पूर्ण कर रहा है। हर डिबेट में आजकल प्रायः एक सवाल परंपरागत सरकार समर्थक मीडिया द्वारा घुमा फिरा कर पूछा ही जाता है- इस किसान आंदोलन का हासिल क्या है? सरकार तो स्पष्ट कर चुकी है कि यह तीन कृषि कानून वापस नहीं लिए जाएंगे। यदि किसानों के कुछ सुझाव हैं तो उन पर सकारात्मक चर्चा हो सकती है। फिर भी किसानों द्वारा आंदोलन जारी रखना क्या हठधर्मिता नहीं है? क्या किसान आंदोलन नेतृत्व के अहंकार की लड़ाई बन गया है?
यह प्रश्न बहुत तार्किक लगते हैं और लगता है कि इनके उत्तर आंदोलित किसानों के पास नहीं होंगे किंतु ऐसा नहीं है। किसान आंदोलन का जारी रहना और उत्तरोत्तर व्यापक तथा मजबूत होना ही इस आंदोलन का हासिल है। किसान आंदोलन का हासिल यह भी है कि इसने सरकार को बेनकाब कर दिया है। यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार खेती को कॉरपोरेट कंपनियों के हवाले करना चाहती है। धीरे धीरे यह भी उजागर हो रहा है कि सरकार कॉरपोरेट घरानों के चयन में भी पक्षपात कर रही है और कुछ पसंदीदा मित्रों के लाभ के लिए यह कृषि कानून गढ़े गए हैं। सरकार कांट्रैक्ट फॉर्मिंग की ओर अग्रसर है।
सरकार न केवल खेती-किसानी अपितु देश की प्रकृति में ही परिवर्तन लाना चाहती है। भारत गांवों में बसता है और भारत कृषि प्रधान देश है जैसे कथन अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को नापसंद रहे हैं और भूमि स्वामी किसानों को शहरी मजदूरों में तबदील करने विषयक आदेशात्मक दिशा निर्देश उनके द्वारा वर्षों से दिए जाते रहे हैं। कृषि की रोजगारमूलक प्रकृति को बदल कर मुनाफा केंद्रित बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें मानव संसाधन की भूमिका सीमित होगी। देश की तासीर को बदलने के इस अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र पर किसान आंदोलन के कारण कम से कम चर्चा तो हो रही है।
किसान आंदोलन का एक हासिल यह भी है कि इसने सत्ता और कॉरपोरेट मीडिया के चरित्र,उसकी प्राथमिकताओं एवं रणनीतियों को आम लोगों के सम्मुख उजागर किया है। हमारी सरकारें जन आंदोलनों से निपटने के लिए उन्हीं रणनीतियों का सहारा लेती दिख रही हैं जो गुलाम भारत के अंग्रेज शासकों द्वारा अपनाई जाती थीं। सरकार समर्थकों द्वारा किसानों को पाकिस्तान परस्त,खालिस्तानी, राष्ट्र विरोधी, अराजक, विलासी आदि की संज्ञाएं दी जाती रही हैं। संदेह एवं अविश्वास पैदा करना, फूट डालना तथा हिंसक क्रिया-प्रतिक्रिया के दुष्चक्र को बढ़ावा देना उस विचारधारा की विशेषताएं हैं जो सत्ताधारी दल के शीर्ष नेतृत्व को पोषण देती है। यही कारण है कि किसानों के मध्य आपस में फूट डालने तथा किसानों को आम जनता से अलग दिखाने की कुछ बहुत हास्यास्पद कोशिशें की गई हैं। अनुशासित टैक्स पेयर विरुद्ध सब्सिडी पर पलने वाले अराजक किसान, अमीर और बड़े किसान विरुद्ध गरीब और छोटे किसान, हरियाणा-पंजाब के समृद्ध किसान विरुद्ध शेष भारत के पिछड़े किसान कुछ ऐसी आधारहीन तुलनाएं हैं जो बचकानी होते हुए भी व्हाट्सएप विश्व विद्यालय के उच्च मध्यमवर्गीय छात्रों को रुचिकर लगती हैं। घृणा और हिंसा का यह जहर फैलने लगा है। लखीमपुर खीरी में एक केंद्रीय मंत्री के बेटे द्वारा चार प्रदर्शनकारी किसानों किसानों को अपनी गाड़ी से कुचलने की घटना यह बताती है कि हम एक जेहनी तौर पर बीमारी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं।
हमने सरकार समर्थक मीडिया को किसानों पर हमलावर होते और छिद्रान्वेषण करते देखा है। अनेक बार तो कॉरपोरेट मालिकों द्वारा वित्त पोषित समाचार चैनलों के संवाददाता और एंकर पुरस्कार के लोभ में दुस्साहसिक षड्यंत्र रचने वाले महत्वाकांक्षी गुप्तचरों की भांति लगते हैं। किसान आंदोलन ने वैकल्पिक मीडिया के महत्व को उजागर किया है और अनेक साहसी पत्रकारों की कवरेज को देश की जनता ने बहुत ध्यान से देखा है।
किसान आंदोलन की एक उपलब्धि यह भी है कि इसने महात्मा गांधी की अहिंसक प्रतिरोध की युक्ति की प्रासंगिकता, शक्ति एवं महत्व को रेखांकित किया है। यदि आंदोलन इतनी लंबी अवधि तक चलकर सशक्त एवं विस्तृत हुआ है तो इसके पीछे इसका अहिंसक स्वरूप एक प्रमुख कारण है।
हम जैसे बहुत सारे शुद्धतावादी यह मानते हैं कि किसानों को राजनीतिक दलों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए और उन्हें चुनावी राजनीति से स्वयं को अलग रखना चाहिए। किंतु किसान आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व का यह विश्वास है कि प्रजातांत्रिक देश में चुनी हुई सरकारें नीति निर्धारण एवं क्रियान्वयन का कार्य करती हैं इसलिए चुनावों में जनमत को प्रभावित किए बिना अपने लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है, यही कारण है कि उन्होंने कुछ समय पूर्व हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को वोट न देने की जनता से अपील की और आगे भी उनकी यही रणनीति दिख रही है।
सरकार किसान नेताओं पर विपक्षी दलों के एजेंट के रूप में कार्य करने का आरोप लगाती रही है। विपक्षी दलों द्वारा किसानों को दिए जा रहे समर्थन में उनकी राजनीतिक मजबूरियों का योगदान अधिक है। यह समझना कि भारत के दरवाजे उदारीकरण एवं वैश्वीकरण हेतु खोलने वाली कांग्रेस तथा विकास के प्रचलित मॉडल के साथ कदमताल करने को अपनी प्रगतिशीलता समझने वाले क्षेत्रीय दलों का हृदय परिवर्तन हो गया है, भोली आशावादिता होगी। आज कांग्रेस समेत सारे विपक्षी दल जमीनी संघर्ष से कतराने की कमजोरी के शिकार हैं। जनांदोलन खड़ा करने की न तो इनमें इच्छा शक्ति है न ही साहस। इनके लिए किसान आंदोलन एक वरदान की तरह है। इनके लिए सारा परिश्रम कोई और कर रहा है, इन्हें बस चुनावों के पहले चंद शतरंजी चालें चलकर जन असन्तोष को अपने पक्ष में मतों में परिवर्तित करना है।
यही वह कठिन मोड़ है जहाँ पर किसान नेताओं के चातुर्य एवं उनकी भविष्यदृष्टि की परीक्षा होगी। और हाँ, यहीं उनकी नीयत भी परखी जाएगी। हो सकता है कि आने वाले समय में होने वाले उत्तरप्रदेश आदि राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा अच्छा प्रदर्शन न कर पाए और वह संघ समर्थित किसान संगठनों के माध्यम से किसी सम्मानजनक समझौते की कोशिश करे। यह भी संभव है विपक्षी दल अपनी हालिया चुनावी सफलताओं से उत्साहित होकर आगामी लोकसभा चुनावों में किसानों से संबंधित कुछ आकर्षक घोषणाएं करें। यह भी संभव है कि राजनीतिक दलों द्वारा किसान प्रधानमंत्री का विचार विमर्श में डाला जाए और इसके लिए संयुक्त किसान मोर्चा के कद्दावर नेताओं को अपने दल की ओर आकर्षित कर महत्वाकांक्षा की विनाशक दौड़ प्रारंभ की जाए।
किसान आंदोलन धीरे धीरे उन दार्शनिक प्रश्नों का प्रतिनिधित्व करने लगा है जिन पर चर्चा करना भी विकास विरोधी मान लिया गया था। क्या हमारी अर्थव्यवस्था और राजनीति के केंद्र में अब ग्राम और किसान को स्थान दिया जाएगा? क्या हम विकास के जवाहर-इंदिरा मॉडल और नरसिम्हा-मनमोहन मॉडल से परे हटकर गाँधी-लोहिया के पुनर्पाठ के लिए तैयार हैं? क्या हम ग्राम स्वराज्य, सहकारिता और हस्त शिल्प एवं कुटीर उद्योगों की सार्थकता पर पुनर्विचार करने हेतु प्रतिबद्ध हैं? सबसे बढ़कर क्या हममें अर्थव्यवस्था की वैश्विक प्रणाली के दबावों का मुकाबला करने का साहस है?
किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर करने वाली कुछ घोषणाएं हासिल करके यदि किसान आंदोलन समाप्त हो जाता है तो यह एन्टी क्लाइमेक्स ही कहा जाएगा। कोई भी सरकार किसानों को आर्थिक फायदा देने से पहले उनके शोषण की नई रणनीतियां तैयार कर लेगी और किसानों के कारण राजकोष को हुई कथित "क्षति" की भरपाई किसानों से ही करने के लिए धूर्त कॉर्पोरेट समर्थक अर्थशास्त्री अपनी चालाक रणनीति पहले ही बना लेंगे। किसानों और मजदूरों के हाथों में राजनीतिक सत्ता हो और वे अर्थव्यवस्था के संचालन की शक्ति अर्जित कर सकें- यही इस आंदोलन का लक्ष्य होना चाहिए। किसान आंदोलन ने धर्म और जाति की संकीर्णताओं को तोड़ने का कार्य किया है। हर धर्म और हर जाति के किसानों ने इस आंदोलन में बढ़चढ़कर भाग लिया है। दंगों के लिए कुख्यात मुजफ्फरनगर में अल्लाहु अकबर और हर-हर महादेव के नारे गुंजायमान हुए हैं। यह स्थिति तब है जब करोड़ों कृषि मजदूरों तथा सीमांत और लघु किसानों को अभी किसान आंदोलन ने स्पर्श ही किया है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि गलत सूचनाओं और फर्जी जानकारी पर आधारित जहरीली सोशल मीडिया पोस्ट्स के आधार पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं और साम्प्रदायिक दंगे हो जाते हैं किंतु किसान आंदोलन का संदेश करोड़ों भूमिहीन कृषि मजदूरों एवं लघु तथा सीमांत किसानों तक वर्ष भर में भी ठीक से पहुँच नहीं पाता है। किसान आंदोलन के नेताओं को गाँधी से रणनीति के पाठ सीखने होंगे। गांधी के युग में संचार के साधन लगभग नहीं थे लेकिन गाँधी की एक पुकार पर पूरा देश उठ खड़ा होता था। उनका संदेश विद्युत स्फुल्लिंग की भांति पल भर में देश के एक छोर से दूसरे छोर का फासला तय कर लेता था।
किसान नेताओं को प्रधानमंत्री समेत विपक्षी दलों के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को खुली चर्चा के लिए आमंत्रित करना चाहिए। किसानों को नौकरशाहों द्वारा तैयार किए गए हील हवाले वाले जटिल और कुटिल जवाबों की जरूरत नहीं है। देश के प्रधानमंत्री से केवल एक ही प्रश्न पूछा जाना चाहिए-पार्टनर, तुम्हारी राजनीति क्या है? विपक्ष से भी आग्रह करना होगा कि वह सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करे कि किसानों के लिए उसके पास क्या है? राजनीतिक दलों की सच्चाई जब जनता के सामने आ जाएगी तो स्वतंत्र मोर्चे के रूप में किसानों के सीधे चुनावी राजनीति में प्रवेश का मार्ग सरल बन जाएगा। पारंपरिक राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में किसान-मजदूर को स्थान दिलाने में नाकामयाब होने पर संयुक्त किसान मोर्चा इन दलों में मौजूद समान विचार वाले नेताओं के साथ संवाद कर नई संभावनाएं भी तलाश कर सकता है।
हाल ही में किसान नेतृत्व द्वारा आहूत बंद को मजदूर संगठनों तथा कर्मचारियों का व्यापक समर्थन मिला था। किसान आंदोलन को न केवल हर प्रान्त तक ले जाने की आवश्यकता है बल्कि इसके फलक को व्यापक बनाकर इससे हर शोषित-वंचित-पीड़ित को जोड़ने की आवश्यकता है। जब किसान आंदोलन का राष्ट्रव्यापी विस्तार होगा तब स्वाभाविक रूप से अनेक ऊर्जावान योग्य साथी इससे जुड़ेंगे। इस प्रकार किसान आंदोलन के नेतृत्व के विकेन्द्रित होने की संभावनाएं बनेंगी और यह इस आंदोलन की दीर्घजीविता के लिए आवश्यक भी है। मीडिया किसान आंदोलन के नायक की तलाश में है। जैसे ही यह नायक उसे मिल जाएगा इस नायक को आंदोलन से बड़ा बनाने की कोशिश प्रारंभ हो जाएगी और इस बहाने आंदोलन को कमजोर किया जाएगा। यद्यपि भारतीय मतदाता नायक पूजा का आदी है और हमारी राजनीतिक पार्टियों के अपने अपने नायक हैं, लेकिन जन आंदोलनों का नेतृत्व सामूहिक ही रहना चाहिए। यदि भविष्य में किसान आंदोलन से किसी राजनीतिक पार्टी का जन्म हो तो इसे भी नायक पूजा से परहेज रखना चाहिए। नायक हमेशा बुनियादी मुद्दों और जन समस्याओं को गौण बना देते हैं। किसान आंदोलन को यदि किसी नायक की आवश्यकता भी है तो यह जनता द्वारा चयनित नायक होना चाहिए न कि मीडिया द्वारा निर्मित। मीडिया द्वारा निर्मित नायक कितने मायावी हो सकते हैं इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण आदरणीय नरेंद्र मोदी जी हैं जबकि नवीनतम उदाहरण श्री कन्हैया कुमार हैं जिन्हें मीडिया भारतीय वामपंथ के भविष्य के रूप में चित्रित करता था किंतु आज हम उन्हें कांग्रेस की तकदीर संवारते देख रहे हैं।
किसान आंदोलन के लंबे समय तक चलने और राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त करने में किसान आंदोलन के नेताओं की एकजुटता एवं सतर्क रणनीतियों का योगदान रहा है। सरकार की हठधर्मिता ने भी किसानों को संगठित होने का अवसर प्रदान किया है। अब किसान आंदोलन के नेतृत्व की असली परीक्षा है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा इस आंदोलन से उपजे जन असंतोष का लाभ किसी ऐसे राजनीतिक दल को न मिल जाए जो अपनी प्रकृति से किसान विरोधी है। उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि कोई लोकलुभावन आर्थिक समाधान अब इस मोड़ पर अपर्याप्त माना जाएगा। अब किसान आंदोलन को किसान मजदूरों की राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के व्यापक लक्ष्य की ओर ध्यान देना होगा। यह व्यापक लक्ष्य तभी प्राप्त हो सकेगा जब किसान नेता तुच्छ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर उदात्त भूमिका का निर्वाह करें।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)