विचार/लेख
-डॉ राजू पाण्डेय
किसान आंदोलन एक वर्ष पूर्ण कर रहा है। हर डिबेट में आजकल प्रायः एक सवाल परंपरागत सरकार समर्थक मीडिया द्वारा घुमा फिरा कर पूछा ही जाता है- इस किसान आंदोलन का हासिल क्या है? सरकार तो स्पष्ट कर चुकी है कि यह तीन कृषि कानून वापस नहीं लिए जाएंगे। यदि किसानों के कुछ सुझाव हैं तो उन पर सकारात्मक चर्चा हो सकती है। फिर भी किसानों द्वारा आंदोलन जारी रखना क्या हठधर्मिता नहीं है? क्या किसान आंदोलन नेतृत्व के अहंकार की लड़ाई बन गया है?
यह प्रश्न बहुत तार्किक लगते हैं और लगता है कि इनके उत्तर आंदोलित किसानों के पास नहीं होंगे किंतु ऐसा नहीं है। किसान आंदोलन का जारी रहना और उत्तरोत्तर व्यापक तथा मजबूत होना ही इस आंदोलन का हासिल है। किसान आंदोलन का हासिल यह भी है कि इसने सरकार को बेनकाब कर दिया है। यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार खेती को कॉरपोरेट कंपनियों के हवाले करना चाहती है। धीरे धीरे यह भी उजागर हो रहा है कि सरकार कॉरपोरेट घरानों के चयन में भी पक्षपात कर रही है और कुछ पसंदीदा मित्रों के लाभ के लिए यह कृषि कानून गढ़े गए हैं। सरकार कांट्रैक्ट फॉर्मिंग की ओर अग्रसर है।
सरकार न केवल खेती-किसानी अपितु देश की प्रकृति में ही परिवर्तन लाना चाहती है। भारत गांवों में बसता है और भारत कृषि प्रधान देश है जैसे कथन अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को नापसंद रहे हैं और भूमि स्वामी किसानों को शहरी मजदूरों में तबदील करने विषयक आदेशात्मक दिशा निर्देश उनके द्वारा वर्षों से दिए जाते रहे हैं। कृषि की रोजगारमूलक प्रकृति को बदल कर मुनाफा केंद्रित बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें मानव संसाधन की भूमिका सीमित होगी। देश की तासीर को बदलने के इस अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र पर किसान आंदोलन के कारण कम से कम चर्चा तो हो रही है।
किसान आंदोलन का एक हासिल यह भी है कि इसने सत्ता और कॉरपोरेट मीडिया के चरित्र,उसकी प्राथमिकताओं एवं रणनीतियों को आम लोगों के सम्मुख उजागर किया है। हमारी सरकारें जन आंदोलनों से निपटने के लिए उन्हीं रणनीतियों का सहारा लेती दिख रही हैं जो गुलाम भारत के अंग्रेज शासकों द्वारा अपनाई जाती थीं। सरकार समर्थकों द्वारा किसानों को पाकिस्तान परस्त,खालिस्तानी, राष्ट्र विरोधी, अराजक, विलासी आदि की संज्ञाएं दी जाती रही हैं। संदेह एवं अविश्वास पैदा करना, फूट डालना तथा हिंसक क्रिया-प्रतिक्रिया के दुष्चक्र को बढ़ावा देना उस विचारधारा की विशेषताएं हैं जो सत्ताधारी दल के शीर्ष नेतृत्व को पोषण देती है। यही कारण है कि किसानों के मध्य आपस में फूट डालने तथा किसानों को आम जनता से अलग दिखाने की कुछ बहुत हास्यास्पद कोशिशें की गई हैं। अनुशासित टैक्स पेयर विरुद्ध सब्सिडी पर पलने वाले अराजक किसान, अमीर और बड़े किसान विरुद्ध गरीब और छोटे किसान, हरियाणा-पंजाब के समृद्ध किसान विरुद्ध शेष भारत के पिछड़े किसान कुछ ऐसी आधारहीन तुलनाएं हैं जो बचकानी होते हुए भी व्हाट्सएप विश्व विद्यालय के उच्च मध्यमवर्गीय छात्रों को रुचिकर लगती हैं। घृणा और हिंसा का यह जहर फैलने लगा है। लखीमपुर खीरी में एक केंद्रीय मंत्री के बेटे द्वारा चार प्रदर्शनकारी किसानों किसानों को अपनी गाड़ी से कुचलने की घटना यह बताती है कि हम एक जेहनी तौर पर बीमारी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं।
हमने सरकार समर्थक मीडिया को किसानों पर हमलावर होते और छिद्रान्वेषण करते देखा है। अनेक बार तो कॉरपोरेट मालिकों द्वारा वित्त पोषित समाचार चैनलों के संवाददाता और एंकर पुरस्कार के लोभ में दुस्साहसिक षड्यंत्र रचने वाले महत्वाकांक्षी गुप्तचरों की भांति लगते हैं। किसान आंदोलन ने वैकल्पिक मीडिया के महत्व को उजागर किया है और अनेक साहसी पत्रकारों की कवरेज को देश की जनता ने बहुत ध्यान से देखा है।
किसान आंदोलन की एक उपलब्धि यह भी है कि इसने महात्मा गांधी की अहिंसक प्रतिरोध की युक्ति की प्रासंगिकता, शक्ति एवं महत्व को रेखांकित किया है। यदि आंदोलन इतनी लंबी अवधि तक चलकर सशक्त एवं विस्तृत हुआ है तो इसके पीछे इसका अहिंसक स्वरूप एक प्रमुख कारण है।
हम जैसे बहुत सारे शुद्धतावादी यह मानते हैं कि किसानों को राजनीतिक दलों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए और उन्हें चुनावी राजनीति से स्वयं को अलग रखना चाहिए। किंतु किसान आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व का यह विश्वास है कि प्रजातांत्रिक देश में चुनी हुई सरकारें नीति निर्धारण एवं क्रियान्वयन का कार्य करती हैं इसलिए चुनावों में जनमत को प्रभावित किए बिना अपने लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है, यही कारण है कि उन्होंने कुछ समय पूर्व हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को वोट न देने की जनता से अपील की और आगे भी उनकी यही रणनीति दिख रही है।
सरकार किसान नेताओं पर विपक्षी दलों के एजेंट के रूप में कार्य करने का आरोप लगाती रही है। विपक्षी दलों द्वारा किसानों को दिए जा रहे समर्थन में उनकी राजनीतिक मजबूरियों का योगदान अधिक है। यह समझना कि भारत के दरवाजे उदारीकरण एवं वैश्वीकरण हेतु खोलने वाली कांग्रेस तथा विकास के प्रचलित मॉडल के साथ कदमताल करने को अपनी प्रगतिशीलता समझने वाले क्षेत्रीय दलों का हृदय परिवर्तन हो गया है, भोली आशावादिता होगी। आज कांग्रेस समेत सारे विपक्षी दल जमीनी संघर्ष से कतराने की कमजोरी के शिकार हैं। जनांदोलन खड़ा करने की न तो इनमें इच्छा शक्ति है न ही साहस। इनके लिए किसान आंदोलन एक वरदान की तरह है। इनके लिए सारा परिश्रम कोई और कर रहा है, इन्हें बस चुनावों के पहले चंद शतरंजी चालें चलकर जन असन्तोष को अपने पक्ष में मतों में परिवर्तित करना है।
यही वह कठिन मोड़ है जहाँ पर किसान नेताओं के चातुर्य एवं उनकी भविष्यदृष्टि की परीक्षा होगी। और हाँ, यहीं उनकी नीयत भी परखी जाएगी। हो सकता है कि आने वाले समय में होने वाले उत्तरप्रदेश आदि राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा अच्छा प्रदर्शन न कर पाए और वह संघ समर्थित किसान संगठनों के माध्यम से किसी सम्मानजनक समझौते की कोशिश करे। यह भी संभव है विपक्षी दल अपनी हालिया चुनावी सफलताओं से उत्साहित होकर आगामी लोकसभा चुनावों में किसानों से संबंधित कुछ आकर्षक घोषणाएं करें। यह भी संभव है कि राजनीतिक दलों द्वारा किसान प्रधानमंत्री का विचार विमर्श में डाला जाए और इसके लिए संयुक्त किसान मोर्चा के कद्दावर नेताओं को अपने दल की ओर आकर्षित कर महत्वाकांक्षा की विनाशक दौड़ प्रारंभ की जाए।
किसान आंदोलन धीरे धीरे उन दार्शनिक प्रश्नों का प्रतिनिधित्व करने लगा है जिन पर चर्चा करना भी विकास विरोधी मान लिया गया था। क्या हमारी अर्थव्यवस्था और राजनीति के केंद्र में अब ग्राम और किसान को स्थान दिया जाएगा? क्या हम विकास के जवाहर-इंदिरा मॉडल और नरसिम्हा-मनमोहन मॉडल से परे हटकर गाँधी-लोहिया के पुनर्पाठ के लिए तैयार हैं? क्या हम ग्राम स्वराज्य, सहकारिता और हस्त शिल्प एवं कुटीर उद्योगों की सार्थकता पर पुनर्विचार करने हेतु प्रतिबद्ध हैं? सबसे बढ़कर क्या हममें अर्थव्यवस्था की वैश्विक प्रणाली के दबावों का मुकाबला करने का साहस है?
किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर करने वाली कुछ घोषणाएं हासिल करके यदि किसान आंदोलन समाप्त हो जाता है तो यह एन्टी क्लाइमेक्स ही कहा जाएगा। कोई भी सरकार किसानों को आर्थिक फायदा देने से पहले उनके शोषण की नई रणनीतियां तैयार कर लेगी और किसानों के कारण राजकोष को हुई कथित "क्षति" की भरपाई किसानों से ही करने के लिए धूर्त कॉर्पोरेट समर्थक अर्थशास्त्री अपनी चालाक रणनीति पहले ही बना लेंगे। किसानों और मजदूरों के हाथों में राजनीतिक सत्ता हो और वे अर्थव्यवस्था के संचालन की शक्ति अर्जित कर सकें- यही इस आंदोलन का लक्ष्य होना चाहिए। किसान आंदोलन ने धर्म और जाति की संकीर्णताओं को तोड़ने का कार्य किया है। हर धर्म और हर जाति के किसानों ने इस आंदोलन में बढ़चढ़कर भाग लिया है। दंगों के लिए कुख्यात मुजफ्फरनगर में अल्लाहु अकबर और हर-हर महादेव के नारे गुंजायमान हुए हैं। यह स्थिति तब है जब करोड़ों कृषि मजदूरों तथा सीमांत और लघु किसानों को अभी किसान आंदोलन ने स्पर्श ही किया है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि गलत सूचनाओं और फर्जी जानकारी पर आधारित जहरीली सोशल मीडिया पोस्ट्स के आधार पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं और साम्प्रदायिक दंगे हो जाते हैं किंतु किसान आंदोलन का संदेश करोड़ों भूमिहीन कृषि मजदूरों एवं लघु तथा सीमांत किसानों तक वर्ष भर में भी ठीक से पहुँच नहीं पाता है। किसान आंदोलन के नेताओं को गाँधी से रणनीति के पाठ सीखने होंगे। गांधी के युग में संचार के साधन लगभग नहीं थे लेकिन गाँधी की एक पुकार पर पूरा देश उठ खड़ा होता था। उनका संदेश विद्युत स्फुल्लिंग की भांति पल भर में देश के एक छोर से दूसरे छोर का फासला तय कर लेता था।
किसान नेताओं को प्रधानमंत्री समेत विपक्षी दलों के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को खुली चर्चा के लिए आमंत्रित करना चाहिए। किसानों को नौकरशाहों द्वारा तैयार किए गए हील हवाले वाले जटिल और कुटिल जवाबों की जरूरत नहीं है। देश के प्रधानमंत्री से केवल एक ही प्रश्न पूछा जाना चाहिए-पार्टनर, तुम्हारी राजनीति क्या है? विपक्ष से भी आग्रह करना होगा कि वह सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करे कि किसानों के लिए उसके पास क्या है? राजनीतिक दलों की सच्चाई जब जनता के सामने आ जाएगी तो स्वतंत्र मोर्चे के रूप में किसानों के सीधे चुनावी राजनीति में प्रवेश का मार्ग सरल बन जाएगा। पारंपरिक राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में किसान-मजदूर को स्थान दिलाने में नाकामयाब होने पर संयुक्त किसान मोर्चा इन दलों में मौजूद समान विचार वाले नेताओं के साथ संवाद कर नई संभावनाएं भी तलाश कर सकता है।
हाल ही में किसान नेतृत्व द्वारा आहूत बंद को मजदूर संगठनों तथा कर्मचारियों का व्यापक समर्थन मिला था। किसान आंदोलन को न केवल हर प्रान्त तक ले जाने की आवश्यकता है बल्कि इसके फलक को व्यापक बनाकर इससे हर शोषित-वंचित-पीड़ित को जोड़ने की आवश्यकता है। जब किसान आंदोलन का राष्ट्रव्यापी विस्तार होगा तब स्वाभाविक रूप से अनेक ऊर्जावान योग्य साथी इससे जुड़ेंगे। इस प्रकार किसान आंदोलन के नेतृत्व के विकेन्द्रित होने की संभावनाएं बनेंगी और यह इस आंदोलन की दीर्घजीविता के लिए आवश्यक भी है। मीडिया किसान आंदोलन के नायक की तलाश में है। जैसे ही यह नायक उसे मिल जाएगा इस नायक को आंदोलन से बड़ा बनाने की कोशिश प्रारंभ हो जाएगी और इस बहाने आंदोलन को कमजोर किया जाएगा। यद्यपि भारतीय मतदाता नायक पूजा का आदी है और हमारी राजनीतिक पार्टियों के अपने अपने नायक हैं, लेकिन जन आंदोलनों का नेतृत्व सामूहिक ही रहना चाहिए। यदि भविष्य में किसान आंदोलन से किसी राजनीतिक पार्टी का जन्म हो तो इसे भी नायक पूजा से परहेज रखना चाहिए। नायक हमेशा बुनियादी मुद्दों और जन समस्याओं को गौण बना देते हैं। किसान आंदोलन को यदि किसी नायक की आवश्यकता भी है तो यह जनता द्वारा चयनित नायक होना चाहिए न कि मीडिया द्वारा निर्मित। मीडिया द्वारा निर्मित नायक कितने मायावी हो सकते हैं इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण आदरणीय नरेंद्र मोदी जी हैं जबकि नवीनतम उदाहरण श्री कन्हैया कुमार हैं जिन्हें मीडिया भारतीय वामपंथ के भविष्य के रूप में चित्रित करता था किंतु आज हम उन्हें कांग्रेस की तकदीर संवारते देख रहे हैं।
किसान आंदोलन के लंबे समय तक चलने और राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त करने में किसान आंदोलन के नेताओं की एकजुटता एवं सतर्क रणनीतियों का योगदान रहा है। सरकार की हठधर्मिता ने भी किसानों को संगठित होने का अवसर प्रदान किया है। अब किसान आंदोलन के नेतृत्व की असली परीक्षा है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा इस आंदोलन से उपजे जन असंतोष का लाभ किसी ऐसे राजनीतिक दल को न मिल जाए जो अपनी प्रकृति से किसान विरोधी है। उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि कोई लोकलुभावन आर्थिक समाधान अब इस मोड़ पर अपर्याप्त माना जाएगा। अब किसान आंदोलन को किसान मजदूरों की राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के व्यापक लक्ष्य की ओर ध्यान देना होगा। यह व्यापक लक्ष्य तभी प्राप्त हो सकेगा जब किसान नेता तुच्छ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर उदात्त भूमिका का निर्वाह करें।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-Sharad Shankarrao Rotkar
A star brat has been caught in a narcotics raid. Everyone is happy. Including the brat and his parents.
The brat has got a lot of publicity. In BollyDawood, there's no bad publicity. There are many who are already sympathizing with the young 23 year old 'victim', who is as innocent as the lamb that his father slaughters on Bakrid. When he gets bail today or tomorrow, he'll be booked by twenty film producers who would want to star him in their next project to encash on the victim's current fame.
The father of the brat- whose career was sagging- will get a new lease of life- he's now become another victim of a totalitarian regime, when he's actually a distressed parent who's already in deep pain because his son went astray despite his best parenting efforts.
The Narcotics Bureau that nabbed the brat are happy. This is like inheriting a gold mine. All they have to do is dilute the charges on the brat and hit paydirt. The defence lawyers are licking their lips in anticipation of the fat bills they will write. So are the court employees for fixing early hearing for bail as well as a host of sundry mentionable and other holy cows who may not be mentioned who all foresee an unanticipated fortune for a slight bending of the law.
The media is like a monkey that has overdosed on potent rum. They will run behind the brat, his father, mother, girlfriend, lawyer, driver and his pet dog, to boost their TRPs.
The politicians are also happy. The ruling regime can flex its muscles in favour of the brat as he's from the permanent victimhood cult. That gives them an opportunity to prove their secular credentials. The opposition can go to town about the vindictiveness of the ruling regime and how they are hounding a young darra hua chooha.
After bail, the case will drag on for 25 years with plenty of adjournment by the courts, benefitting the legal fraternity for long. After the mandatory 25 years, the brat, now a middle-aged, botoxed buffoon still romancing 18 somethings, would be honorably acquitted for lack of evidence when you and I are dead and gone and those living don't remember what the case was about.
In the unfortunate event of the brat getting convicted and jailed, he will get parole, which is another lucrative opportunity for the cops and the rulers.
So you see how when a rich brat is arrested for a misdemeanor or felony, the entire ecosystem is benefitted. It helps the economy by redistribution of wealth and lifting many from poverty or a mendacious middle-class status.
All involved, will be laughing to the Bank while morons like you and me think this would lead to a clean-up of the drug problem or that the guilty would be punished.
-प्रकाश दुबे
भारत के नक्शे में रुदौली तलाशना आसान नहीं है। राजा रुद्रमल्ल पासी के राज का रुद्रावली घिसते-घिसते रुदौली हो गया। अनजान कस्बे की किस्मत जागी। अयोध्या की संगत में रुदौली चर्चा में आ गया। मजलिस ए इत्तहादुल मुसलमीन के सर सेनापति सांसद ओवैसी चुनाव मौसम में पहुंचे। उन्होंने फैजाबाद इलाके के रुदौली कस्बे को क्यों चुना? बताते हैं। वाक्या यूं हुआ कि योगी बाबा और उनके सूरमा भिड़ गए-जानते नहीं, जिला अयोध्या है। फैजाबाद खत्म। ओवैसी की चुनावी तैयारी हो चुकी है। ओवैसी ने फरमाया-हमारी नजऱ लोकसभा क्षेत्र फैजाबाद के रुदौली है। जिला भले अयोध्या होगा। अब इस सवाल का जवाब, कि रुदौली क्यों? सूफी संत मख्दूम साहब की प्रसिद्ध दरगाह रुदौली में है। योगी और ओवैसी दोनों जानते हैं कि कस्बे में कलह नहीं होता। अमन चैन है। चुनाव में माहौल बिगडऩे से भी तो फायदे की गुंजाइश होती है। इसलिए शब्दों के नेजे-बरछे चमकने लगे। बंगाल में एमआईएम का जादू नहीं चला। इस बीच किसान हत्या से योगी बाबा के खेमे में हडक़ंप मच गया है।
पीड़ पराई जाने रे
कहा बापू ने। उनकी तस्वीर के नीचे विराजमान लोगों ने अमल किया। दिनू बोगाभाई सोलंकी ने तरह-तरह के अपराधों का खाता खोल रखा है। पुलिस से पुराना नाता है। बात यहां तक पहुंची कि सूचना के अधिकार का प्रयोग भांडा फोडऩे वाले अमित जेठवा की हत्या के कारण दिनू सोलंकी आजीवन कारावास प्राप्त कर चुके हैं। सोलंकी-सेना ने धरना, प्रदर्शन के साथ अदालत का सहारा लिया। दिनू सांसद थे। अपनी पार्टी की सरकार में कृष्ण जन्मस्थली पहुंचे। समर्थकों का दावा है कि आपसी खींचतान के कारण दुश्मनों ने भाई को फंसा दिया। अदालत को याद आया-गांधी जी ने कहा था-पाप से घृणा करो। पापी से नहीं। केस डायरी और दलीलें सुनकर अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि दिनू को बेगुनाही के विकल्प का मौका नहीं मिला। गांधी जयंती पर अपराधी 2 अक्टूबर को छूटें या नहीं, दिनू बोगाभाई सोलंकी के विरुद्ध आजीवन कारावास का मामला बेकार रहा। इस बार भी पराजय का ठीकरा सीबीआई के मत्थे मढ़ा जाएगा। विशेष अदालत में मामला उन्होंने चलाया। नए मुख्यमंत्री भूपेन्द्र भाई पटेल को कुछ नहीं करना पड़ा।
के बोले मां, आमी अबले
संसदीय परंपरा और इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों का ध्यान पश्चिम बंगाल की गुत्थी ने खींच रखा है। आम तौर पर विरोधी दल के सदस्य को लोक लेखा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है। मुकुल राय भारतीय जनता पार्टी की तरफ से जीत कर आए। विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी का पलड़ा भारी रहा। वर्षाकालीन मेंढक की नफासत के साथ वापस दीदी सेना में भर्ती हो गए। दीदी ने भी उन्हें लोक लेखा समिति का अध्यक्ष नियुक्त करा दिया। करा दिया, इसलिए कि निर्णय विधानसभा अध्यक्ष के नाम पर होता है। चुनावी हार के बाद दूसरी चपत पडऩे से बौखलाए भाजपा विधायक अम्बिका राय से लेकर अब नेता प्रतिपक्ष सुवेन्दु अधिकारी तक ने न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी। अदालत ने मध्य मार्ग अपनाया। पश्चिम बंगाल विधानसभा अध्यक्ष को निर्णय लेने का निर्देश दिया। दल बदल के कारण मुकुल की सदस्यता रद्द करने की मांग पर अदालत ने अध्यक्ष विमान बंद्योपाध्याय को ही फैसला करने का अधिकार दिया। उधर राज्यपाल ने विधान सभा अध्यक्ष से नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ दिलाने का अधिकार छीन लिया।
लंका विजय
कोई अदना इंसान अदानी की आत्मनिर्भरता का बखान नहीं कर सकता। बंदरगाह संभालने और माल की आवाजाही में उनकी महारत अचूक है। मुंद्रा से लेकर नवी मुंबई के जवाहर लाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट तक सब जानते हैं। कभीकहीं छापापड़ा तब भी चूं पटाक नहीं होती। दुश्मन ताकते रहे। अदानी समूह ने लंका जीत ली। कोलंबो बंदरगाह बनाने, संचालित करने और तैयार कर सौंपने के बारे श्रीलंका बंदरगाह प्राधिकरण से करार हो चुका है। यह जीत है बड़ी। इससे पहले भारत सरकार के साथ समझौता होने वाला था। विरोध हुआ। अब निजी क्षेत्र को सौंपने पर सुलह हो गई। समूह के अध्यक्ष गौतम भाई ने भारत सरकार को विशेष रूप से धन्यवाद दिया है। जहाजरानी मंत्री सर्बानंद सोनोवाल को खुश होना चाहिए। केन्द्र में मंत्री बने। निर्विरोध राज्यसभा के लिए चुन लिए गए। जहाज चल रहे हैं। मंत्रालय की फजीहत मत माना। सागर दर्शन के दौरान हजार किलो नशीले पदार्थ पकड़े गए लेकिन असली अपराधी और इसकी खबर सामने नहीं आई। कुछ ग्राम खबर ने तहलका मचा रखा है। सुपर स्टार का लाडला जो गिरफ्त मे आया। विकास की दिशा में बड़ा कदम।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
धार्मिक संस्थानों में कितना दुराचार होता है, इसकी ताजा खबर अभी पेरिस से आई है। फ्रांस के रोमन केथोलिक चर्च के एक आयोग ने गहरी छान-बीन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि पिछले 70 साल में उसके 3000 पादरियों और कर्मचारियों ने बच्चों के साथ व्यभिचार किया है। इस छान-बीन में आयोग ने लगभग ढाई वर्ष लगाए, हजारों दस्तावेज़ खोजे और सैकड़ों लोगों की गवाहियाँ लीं। उसने पाया कि फ्रांस में 1950 से अब तक लगभग एक लाख 15 हजार पादरी और चर्च के अधिकारी रहे। उनमें से पता नहीं, कितनों ने क्या-क्या किया होगा लेकिन जब भी केथोलिक स्कूलों में जानेवाले या आश्रम और अनाथालय में रहनेवाले बच्चों के माता-पिता ने शिकायत की तो उसकी जाँच हुई लेकिन असली सवाल यह है कि कौनसे किस्से ज्यादा होते हैं ? वे ज्यादा होते हैं, जिनकी शिकायत नहीं होती। किसी धर्मध्वजी याने पादरी, पुरोहित और इमाम के खिलाफ शिकायत करना अपने आप में गुनाह बन जाता है।
ऐसा नहीं है कि दुराचार के ये अनैतिक धंधे सिर्फ यूरोप के चर्चों में ही होते हैं, भारत के चर्चों में भी इस तरह की शर्मनाक घटनाओं की खबरें अक्सर आती रहती हैं। अभी केरल के एक पादरी के कुकर्म का मामला भी गरमाया हुआ है। ऐसा नहीं है कि यह गंदगी ईसाई संगठनों में ही फैली हुई है। हिंदू मंदिरों के कई पुजारी और तथाकथित साधु-संत आज भी जेल की हवा खा रहे हैं। इस्लाम में स्त्री-पुरुष संबंधों की कड़ी मर्यादा के बावजूद अनेक अप्रिय किस्से भी सुनने में आते हैं। कहने का अर्थ यह कि दुराचारियों और व्यभिचारियों के लिए मजहब की झीनी चदरिया बहुत बड़ा सुरक्षा कवच बन जाता है। इसीलिए यूरोप के इतिहास का एक हजार साल का काल अंधकार-युग कहलाता है।
प्रसिद्ध अमरीकी विद्वान कर्नल इंगरसोल ने पादरियों के विरुद्ध सौ वर्ष पहले जबर्दस्त अभियान चलाया था। उनका मानना था कि केथोलिक आश्रमों में व्यभिचार और बलात्कार की घटनाएं इसीलिए प्राय: होती रहती हैं कि पादरियों और साध्वियों का अविवाहित रहना अनिवार्य होता है। ये लोग अवसर मिलते ही यौनाचार में प्रवृत्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी धर्मध्वजी यही करते हैं। मैं स्वयं रोम के वेटिकन में पादरियों के साथ और ईरान में मशद और कुम के आयतुल्लाहों के साथ भी रहा हूँ और उनके श्रेष्ठ आचरण का साक्षी रहा हूं। फ्रांस के चर्च और पोप फ्रांसिस को दाद देनी होगी कि वे पादरियों की आचरण-शुद्धि के मामले में कठोर रूख अपना रहे हैं। पिछले दिनों अमेरिका के एक बिशप ने भी यह बीड़ा उठाया था। इस मामले में मेरी राय यह है कि सभी धर्मों और व्यक्तियों के लिए भारत की आश्रम व्यवस्था श्रेष्ठ, सरल और व्यावहारिक है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति यदि 25-25 साल रहे तो सभी के लिए सदाचारी रहना अधिक संभव है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली के 'सेंटर फार पालिसी रिसर्चÓ ने अभी एक महत्वपूर्ण शोध-पत्र प्रकाशित किया है, जो हमारी वर्तमान भारतीय सरकार के लिए उत्तम दिशाबोधक हो सकता है। इस सेंटर की स्थापना हमारे सम्माननीय मित्र डॉ. पाई पणंदीकर ने की थी। यह शोध-केंद्र मौलिक शोध और निर्भीक विश्लेषण के लिए जाना जाता है। इस सेंटर ने अभी जो शोध-पत्र प्रकाशित किया है, उसके रचनाकारों में भारत के अत्यंत अनुभवी कूटनीतिज्ञ, सैन्य अधिकारी और विद्वान लोग हैं। उनका मानना है कि भारत की विदेश नीति पर हमारी आंतरिक राजनीति हावी हो रही है। वर्तमान सरकार बहुसंख्यकवाद (याने हिंदुत्व), ध्रुवीकरण और विभाजनकारी राजनीति चला रही है ताकि अगले चुनाव में उसके थोक वोट पक्के हो जाएं। इस समय भारतीय लोकतंत्र जितने संकीर्ण मार्ग पर चल पड़ा है, पहले कभी नहीं चला। भारतीय विदेश नीति पर हमारी आंतरिक राजनीति का अंकुश कसा हुआ है।
इन शोधकर्ताओं का इशारा शायद पड़ौसी देशों के शरणार्थियों में जो धार्मिक भेदभाव का कानून बना है, उसकी तरफ है। इन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि 'पड़ौसी राष्ट्र पहलेÓ की नीति गुमराह हो चुकी है। लगभग सभी पड़ौसी राष्ट्रों से भारत के संबंध असहज हो गए हैं। चीन का मुकाबला करने के लिए भारत ने चौगुटे (क्वाड) में प्रवेश ले लिया है लेकिन क्या भारत महाशक्ति अमेरिका का मोहरा बनने से रूक सकेगा? शीतयुद्ध के ज़माने में सोवियत संघ के साथ घनिष्ट संबंध बनाए रखते हुए भी किसी गुट में भारत शामिल नहीं हुआ था। वह गुट-निरपेक्ष आंदोलन का अग्रणी नेता था लेकिन अब वह इस अमेरिकी गुट में शामिल होकर क्या अपनी 'सामरिक स्वायत्तताÓ कायम रख सकेगा ?
इन विद्वानों द्वारा उठाया गया यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। इन्होंने दक्षेस (सार्क) के पंगु होने पर भी सवाल उठाया है, जब से (2014) पाकिस्तान सार्क का अध्यक्ष बना है, भारत ने सार्क सम्मेलन का बहिष्कर कर रखा है। दक्षिण एशिया के करोड़ों लोगों की जिंदगी में रोशनी भरने के लिए भारत को शीघ्र ही कोई पहल करनी चाहिए। मैं तो इसलिए सरकारों से अलग सभी देशों की जनता का एक नया संगठन, जन-दक्षेस, बनाने का पक्षधर हूं। ये विद्वान पाकिस्तान से बात करने का समर्थन करते हैं। मैं समझता हूँ कि अफगान-संकट को हल करने में भारत-पाक संयुक्त पहल काफी सार्थक सिद्ध हो सकती है। इसी तरह अमेरिका के इशारे पर चीन से मुठभेड़ करने की बजाय बेहतर यह होगा कि हम चीन के साथ 'कोलूपीटिव मॉडलÓ याने सहयोग और प्रतिस्पर्धा की विधा अपनाएँ तो बेहतर होगा। जब तक भारत की आर्थिक शक्ति प्रबल नहीं होगी, उसके पड़ौसी भी चीन की चौपड़ पर फिसलते रहेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
बिहार के मधुबनी जिले में दिलचस्प फैसला हुआ। अभियुक्त को छह महीने तक पूरे गांव की महिलाओं के कपड़े धोने होंगे और उन पर इस्तरी करने के बाद भिजवाना होगा। झंझारपुर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अविनाश कुमार ने देश की प्रति गांव के मुखिया जी को भिजवाई ताकि पता रहे कि पालन हो रहा है या नहीं?
दूसरा फैसला विंध्याचल के दक्षिण में तेलंगाना में हुआ। अदालत के बजाय सरकार ने फैसला किया। चंद्रशेखर राव सरकार ने गौड़ समुदाय को शराब ठेकों में 15 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय किया। मुख्यमंत्री ने बरसों पहले आश्वासन दिया था। अपना वचन पूरा किया। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में गौड़ या गौड़ा समुदाय परंपरागत रूप से ताड़ी उतारने, शराब बनाने और बिक्री का व्यवसाय करता रहा है। सरकार ने अनुसूचित जाति के लिए भी दस प्रतिशत और जनजाति के लिए पांच प्रतिशत आरक्षण कर दिया।
बिहार के 20 वर्षीय ललन कुमार ने महिला से बलात संबंध बनाने का प्रयास किया था। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अविनाश कुमार ने प्रताडि़ता सहित पूरे गांव की महिलाओं के वस्त्र साफ करने का आदेश दिया। इन न्यायाधीश ने कुछ समय पहले शराबबंदी कानून तोडऩे वाले अपराधी को सशर्त जमानत दी। शर्त यह थी कि वह तीन महीने तक पांच गरीब बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाएगा।
अनेक लोग अपराधी को सुधरने का अवसर देने की हिमायत करेंगे। धोबी जाति में पैदा व्यक्ति को खास तरह की सजा दी गई। खास जाति में पैदा होने वाले व्यक्तियों को पुश्तैनी व्यवसाय करने के लिए आरक्षण दिया। संविधान ने जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव मिटाने कहा। जाति जारी रखने नहीं। समता का नारा लगाते लगाते उप जातियों में बंट गए। आरक्षण के कारण सबको बराबरी पर लाने का दावा किया जाता है। फिर भी गहरी खाई बाकी है। महीना भर पहले मिजोरम राज्य की पहली जनजाति महिला मार्ली वानकुन को गुवाहाटी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में काम करने के आठ महीने बाद वानकुन पदोन्नत की गई। राजधानी आइजोल में उत्सव मनाया गया। सात दशक बीतने के बाद उच्च न्यायालय में वानकुन को अवसर मिला। अन्य किसी मिजो महिला को इस ऊंचाई तक पहुंचने में दस साल से अधिक लग सकते हैं। मार्ली फौजी की बेटी है। शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में होने का उसे लाभ हुआ। केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय ने स्वीकार किया कि देश के सर्वोच्च सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में दाखिला पाने के बावजूद बीच में पढ़ाई छोडऩे वाले 63 प्रतिशत विद्यार्थी अनुसूचित यानी आरक्षित वर्ग के हैं। गुवाहाटी में 88 प्रतिशत और दिल्ली में 76 प्रतिशत।
जाति गणना, जातीय आधार पर आरक्षण का समर्थन और विरोध अपनी जगह। उत्तरप्रदेश के हाथरस में महिला के साथ बलात्कार हुआ। संवाद माध्यमों के कुछ सचित्र-विचित्र प्राणी कटघरे में होने की पात्रता रखते हैं। तरह तरह की खबरें नमक मिर्च लगाकर छापी गईं। पीडि़ता की देह के अपराधग्रस्त अंग की 11 दिन बाद फारेंसिंक जांच की गई। विडम्बना यह, कि इन उत्साही महानुभावों ने चटपटी खबरें देते समय यह जानने, समझने और जनता को बताने की तकलीफ गवारा नहीं की कि इतना समय बीत जाने के बाद सबूत सुरक्षित कैसे रह सकता है?
29 सितम्बर 2006 को महाराष्ट्र के खैरलांजी में भैयालाल भोतमांगे की पत्नी, दो बेटों और बेटी की हत्या कर दी गई। इसे जातीय विद्वेष का परिणाम बताया गया। संवेदना सूखने के लिए 15 वर्ष का समय बहुत होता है। दुख इस बात का है कि गांव जाकर हाल जानने का कष्ट उठाने वाले नहीं हैं। जातीय मनमुटाव समाप्त करने का प्रयास नहीं हुआ।
भारतीय भाषाओं के नुमाइंदे चूक गए। तसल्ली इस बात की है कि अंग्रेजी अखबार के पत्रकार ने घटना स्थल पर जाकर लोगों का मन जाना। पत्रकार प्रदीप कुमार मैत्र की पिछले पखवाड़े छपी खबर से पता लगता है कि जातीय विषमता और तनाव समाप्ति के पर्याप्त प्रयास नहीं हुए। खबर के मुताबिक पीडि़त परिवार के कुछ सदस्य गांव छोड़ चुके हैं। नाते-रिश्तेदारों से दूसरे समुदाय का बोलचाल बंद है। जाति विशेष के मुख्यमंत्री और मंत्री बनाकर वोट की फसल काटने की जुगत में भिड़े लोग इस सत्य का सामना नहीं करना चाहते कि जातीय-द्वेष की जड़ में विद्यमान आर्थिक-सामाजिक विषमता का मुकाबला संवाद और समझाईश के बूते ही किया जा सकता है। आंकड़ों की बारिश और होर्डिंग में मुस्कुराते चेहरे बदलाव नहीं लाते।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-गिरीश मालवीय
सिर्फ 2 हफ्ते हुए है इस लग्जरी कार्डेलिया क्रूज सर्विस को चालू हुए और ड्रग्स पार्टियां भी होने लगी, हैरानी की बात यह है कि क्रूज चलाने वाली कम्पनी की पार्टनरशिप आईआरसीटीसी से है। इस क्रूज पर बार, रेस्तरां और थिएटर, जैसी तमाम लग्जरी सुविधाए मौजूद है।
कॉर्डेलिया क्रूज अभी मुंबई से लक्षद्वीप, मुंबई से गोवा, मुंबई से दीव, मुंबई से चेन्नई और मुंबई से कोच्चि के लिए क्रूज सेवा उपलब्ध कराता है। इसी साल सितंबर महीने में ही इसकी शुरुआत हुई थी। देश में आईआरसीटीसी के सहयोग से इस क्रूज लाइनर की शुरुआत अभी 18 सितंबर को ही हुई थी। इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन यानी आईआरसीटीसी अक्सर लोगों को ट्रेन के जरिये देश में जगह-जगह घुमाने के लिए नए-नए पैकेज लेकर आता रहता है, लेकिन अब वह क्रूज लाइनर भी चला रहा है। उसने भारत में लग्जरी क्रूज के प्रमोशन और मार्केटिंग के लिए मैसर्स वाटरवेज लीजर टूरिज्म प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी की ओर से संचालित कॉर्डेलिया क्रूज के साथ हाथ मिलाया है और समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
दो हफ्तों में ही इस क्रूज में ड्रग्स पार्टी भी होने लगी है। कल रात नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के जोनल डायरेक्टर और ऑपरेशन को अंजाम देने वाली टीम की अगुवाई कर रहे समीर वानखेड़े ने कहा है कि आठ लोगों की गिरफ्तारी की गई है। एनसीबी की ये छापेमारी करीब 7 घंटे तक चली। एनसीबी के हाथ छापेमारी में 4 तरह के ड्रग्स एमडीएमए मेफेड्रोन, कोकीन और हशीश बरामद भी हुए हैं जिन्हें पार्टी में इस्तेमाल किया जाना था
बॉलीवुड स्टार शाहरुख के बेटे ने कहा है कि उन्हें गेस्ट के रूप में बुलाया गया था और उन्होंने पार्टी में शामिल होने के लिए किसी तरह का कोई पैसा नहीं दिया। वहीं, एनसीबी के जोनल डायरेक्टर समीर वानखेड़े का कहना है कि आर्यन को अब तक गिरफ्तार नहीं किया गया है। एनसीबी से पूछताछ में आर्यन ने दावा किया है कि शिप में हो रही पार्टी में उनके नाम पर लोगों को बुलाया (इनवाइट) गया था।
क्रूज के अंदर चल रही पार्टी का एक वीडियो भी एनसीबी के हाथ आया है जिसमें शाहरूख के बेटे आर्यन नजर आ रहे हैं। वीडियो में दिखाई दे रहा है पार्टी के दौरान आर्यन ने व्हाइट टी-शर्ट, ब्लू जींस, रेड ओपन शर्ट और कैप लगा रखी थी। एनसीबी से जुड़े सूत्रों का कहना है कि जिन लोगों को पकड़ा गया है, उनके पास से रोलिंग पेपर भी बरामद हुए हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गांधीजी को हम कम से कम उनके जन्मदिन पर याद कर लेते हैं, यह भी बड़ी बात है। हम ही याद नहीं करते। सारी दुनिया उन्हें याद करती है। दुनिया में बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी हुए हैं लेकिन उन्हें कौन याद करता है? भारत में ही दर्जनों राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हो गए हैं लेकिन युवा-पीढ़ी से पूछें तो उन्हें उनके नाम तक याद नहीं हैं। इसका अर्थ क्या यह नहीं निकला कि आपके पद का उतना महत्व नहीं है, जितना कि आपके अपने व्यक्तित्व का है। गांधीजी का व्यक्तित्व इतना निराला था कि महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंटस्टीन के शब्दों में ही उसकी सही व्याख्या हो सकी है। उन्होंने कहा था कि आनेवाली पीढिय़ों को विश्वास ही नहीं होगा कि गांधी-जैसा कोई हाड़-मांस का महापुरुष पृथ्वी पर हुआ भी होगा।
यों तो राम और कृष्ण, बुद्ध और महावीर, ईसा और मुहम्मद, नानक और कबीर जैसे महापुरुषों की कथाएं हम सुनते रहे हैं लेकिन हम लोग कितने भाग्यशाली हैं कि हमने गांधी-जैसे महापुरुष को अपनी आंखों से देखा है या उन लोगों के सानिध्य में रहे हैं, जो गांधीजी के साथी थे। गांधी के नाम पर कोई धर्म और संप्रदाय नहीं बना है। बन भी नहीं सकता, क्योंकि गांधी कोरे सिद्धांत नहीं हैं। गांधी व्यवहार हैं। गांधी की तुलना प्लेटो, अरस्तू, हीगल और मार्क्स से नहीं की जा सकती, क्योंकि गांधी ने किसी दार्शनिक या विचारक की तरह कोरे सिद्धांत नहीं गढ़े हैं लेकिन उन्होंने कुछ सिद्धांतों का अपने जीवन में पालन इस तरह से किया है कि दुनिया में गांधी बेमिसाल हो गए हैं। उनके जैसा कोई और नहीं दिखता। उनका व्यवहार ही सिद्धांत बन गया है। जैसे इस सिद्धांत को सभी धर्म मानते हैं कि 'ब्रह्म सत्यम्Ó याने ब्रह्म ही सत्य है लेकिन गांधी ने कहा कि सत्य ही ब्रह्म है। सत्य का पालन ही सच्ची ईश्वर भक्ति है। उन्होंने सभी धर्मों की इस परंपरागत धारणा को उलटकर देखा, परखा और उसे करके दिखाया।
उन्होंने सत्य और अहिंसा का पालन अपने व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं करके दिखाया, बल्कि उसे संपूर्ण स्वाधीनता संग्राम की प्राणवायु बना दिया। कई बार मैं महसूस करता हूं कि बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट में जो यह कहा गया है कि ''ईश्वर मनुष्य का पिता हैÓÓ, इसका उल्टा सत्य है याने मनुष्य ही ईश्वर का पिता है। मुनष्यों ने अपने-अपने मनपसंद ईश्वर गढ़ लिये हैं। इसीलिए ईश्वर, यहोवा, अल्लाह, अहुरमज्द में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। यह धारणा ही सर्वधर्म समभाव को जन्म देती है। देश-काल के कारण धर्मों की कई धारणा में फर्क हो सकता है लेकिन धार्मिकों में तो परस्पर सद्भाव ही होना चाहिए। गांधी की इस धारणा ने ही उन्हें 1947 में भारत-विभाजन के समय विवादास्पद बना दिया था। जिस कारण सकुरात को अपने प्राण-विसर्जन करने पड़े, गांधी-वध का भी कारण वही बना लेकिन यदि हम अब गांधी के सपनों का भारत बना हुआ देखना चाहते हैं तो हमें सिर्फ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के ही नहीं, अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और उसमें मध्य एशिया को भी जोड़कर एक महासंघ का निर्माण करना होगा, जो गांधी के साथ-साथ महावीर, बुद्ध और दयानंद के सपनों का आर्यावर्त्त होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
‘दिल अपना और प्रीत पराई’ की अपार सफलता के पश्चात किशोर साहू ने मद्रास (चेन्नई) के सुप्रसिद्ध निर्माता एस.एस.वासन के लिए जैमिनी प्रोडक्शन के बैनर तले ‘गृहस्थी’ नामक अपनी ही पटकथा पर फिल्म का निर्देशन किया।
इस फिल्म के लिए उनके ही सुझाव पर अशोक कुमार और उस समय फिल्मी दुनिया में नए-नए कदम रखे मनोज कुमार को अनुबंधित किया गया। नायिका के लिए उन्होंने मशहूर निर्माता, निर्देशक वी. शांताराम की बेटी राजश्री को लेने का सुझाव वासन को दिया, उसे वासन ने थोड़ा ना-नुकुर करने के बाद आखिरकार राजश्री के लिए हां कर दिया।
इस फिल्म के अन्य कलाकारों के रूप में किशोर साहू ने फिल्म इंडस्ट्री में नए आए महमूद और शोभा खोटे को लिया।
लगातार नौ महीने तक मद्रास में रहकर ही उन्होंने ‘गृहस्थी’ फिल्म पूरी कर ली। जैमिनी प्रोडक्शन के बैनर तले बनाई गई फिल्म ‘गृहस्थी’ सफलतम फिल्म साबित हुई।
बंबई तथा अनेक शहरों में इस फिल्म ने जुबली मनाई। मनोज कुमार और राजश्री की जोड़ी देखते ही देखते सुपरहिट जोड़ी साबित हुई।
महमूद और शोभा खोटे की जोड़ी भी हिंदी फिल्मों में लोकप्रिय हो गई।
इस फिल्म के बाद तो जैसे हास्य अभिनेता महमूद की गाड़ी चल निकली।
सन् 1963 में किशोर साहू ने एक और फिल्म का निर्देशन किया ‘घर बसा के देखो’। इस फिल्म में बतौर नायक मनोज कुमार तथा नायिका के रूप में उन्होंने दोबारा राजश्री को लिया। यह फिल्म भी बॉक्स आफिस पर सफल रही।
मनोज कुमार और राजश्री इसके बाद हिंदी सिनेमा के जगमगाते सितारों में गिने जाने लगे। किशोर साहू जैसे कमाल के निर्देशक ने उनके भीतर की अभिनय प्रतिभा को तराश कर एक नया रूप दे दिया था।
एस.एस. वासन ने जिस राजश्री के लिए ठिगनी और सांवली लडक़ी कहकर ‘गृहस्थी’ की हीरोइन के रूप में नापसंद किया था, जिसे किशोर साहू के समझाने के बाद उन्हें लेना पड़ा था, वह लडक़ी हिंदी सिनेमा के लाखों दर्शकों की नायिका बन चुकी थी। किशोर साहू की आंखें अभिनय प्रतिभा को दूर से देखकर ही पहचान लेती थी।
सन् 1965 में ‘पूनम की रात’ फिल्म का निर्देशन किशोर साहू ने किया। इस फिल्म में भी उन्होंने हीरो के रूप में मनोज कुमार को ही लिया। तब तक मनोज कुमार और किशोर साहू अच्छे दोस्त बन चुके थे।
‘पूनम की रात’ में उन्होंने एक नई हीरोइन कुमुद छुगानी को अनुबंधित किया। यह फिल्म भी सफल रही।
सन् 1966 में किशोर साहू ने ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ फिल्म का निर्माण और निर्देशन किया। इस फिल्म के लिए उन्होंने पहले से ही विश्वजीत का नाम तय कर रखा था। नायिका के लिए वे किसी नई लडक़ी की तलाश में थे। दिल्ली और बंबई की कई लड़कियों का वे इंटरव्यू भी ले चुके थे, पर इस फिल्म के अनुरूप उनमें से कोई भी उन्हें नहीं जची थी।
उन्हीं दिनों नयना जो हॉस्टल में रहकर अपना ग्रेजुएशन का कोर्स कर रही थी, घर आई हुई थी।
पिता ने पुत्री को देखा और लगा कि जिसकी तलाश में वे भटक रहे थे वह तो अपने घर पर ही मौजूद है। किशोर साहू को लगा कि ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ की नायिका की जो कल्पना उन्होंने की थी वह तो हू-ब-हू नयना ही है, उसकी अपनी प्यारी और खूबसूरत बेटी।
पिता ने पुत्री से पूछा- ‘पिक्चर में काम करोगी’ ?
पुत्री ने थोड़ा आश्चर्य के साथ अपने पिता से पूछा- ‘कौन मैं’?
पिता ने कहा- ‘हां तुम’
पुत्री ने पूछा- ‘कौन से पिक्चर में’ ?
पिता ने कहा- ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ में।
बेटी ने पूछा- ‘कौन सा रोल’ ?
पिता ने अपनी बेटी से कहा- ‘हीरोइन का रोल’।
बेटी के लिए यह सब कुछ अप्रत्याशित है। वह अपने पिता से डरी सहमी से पूछती है- ‘क्या यह रोल मैं कर सकूंगी’ ?
पिता आश्वस्त होकर बेटी से कहते हैं- ‘क्यों नही’।
‘हरे कांच की चूडिय़ां’ का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। पिता निर्माता, निर्देशक हैं और उनकी प्यारी बिटिया इस फिल्म की नायिका।
अद्भुत है यह प्रसंग। हिंदी सिनेमा जगत के लिए भी यादगार। कोई पिता अपनी ही सुपुत्री को नायिका के रूप में अपनी ही किसी फिल्म में डायरेक्ट करे, यह शायद हिंदी फिल्म में अकेली घटना है।
बहरहाल यह खूबसूरत फिल्म 4 मई सन् 1967 को बंबई की लिबर्टी में रिलीज हुई। यह फिल्म सफल रही। एक कुंवारी लडक़ी की मां बनने की कहानी वाली इस लीक से अलग हटकर बनाई गई फिल्म को दर्शकों ने बेहद पसंद किया।
विश्वजीत और नयना साहू के अभिनय का जादू लोगों के सिर चढक़र बोलने लगा।
इस फिल्म के गाने हर जुबान पर थिरकने लगे। खासकर ‘धानी चुनरी पहन, सज के बन के दुल्हन, जाऊंगी उनके घर, जिनसे लागी लगन, आएंगे जब सजन, देखने मेरा मन, कुछ न बोलूंगी मैं, मुख न खोलूंगी मैं, बज उठेंगी हरे कांच की चूडिय़ां’।
शैलेंद्र के इस खूबसूरत गीत को संगीत से संवारा था शंकर जयकिशन ने और इसे वाणी दी थी अप्रतिम गायिका आशा भोसले ने।
बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने नयना साहू को सन् 1967 की श्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब दिया। उत्तरप्रदेश, राजस्थान, आंध्रप्रदेश फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने भी नयना साहू को उत्कृष्ट अभिनय के लिए पुरस्कृत और सम्मानित किया।
किशोर साहू की यह खूबसूरत हीरोइन बेटी किशोर साहू जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने 22 अक्टूबर 2016 में राजनांदगांव आई थी।
23 अक्टूबर को उनके सम्मान में उनकी फिल्म ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ का प्रदर्शन राजनांदगांव में किया गया।
छत्तीसगढ़ ने अपने लाडले सपूत किशोर साहू की इस सुंदर और प्रतिभाशालिनी बिटिया को भरपूर मान सम्मान और दुलार दिया।
22 जनवरी 2017 को हमारी यह खूबसूरत नायिका सदा-सदा के लिए हम सबसे दूर चली गई।
(बाकी अगले हफ्ते)
-ओम थानवी
ऊपर दिए गए कवर-फ़ोटो को ध्यान से देखिए। लंदन की घटना है जब ‘डिक्टेटर’ चैप्लिन मिले थे महात्मा से। उस घड़ी की तसवीर, उस खिडक़ी से जहां से गांधीजी की प्रतीक्षा कर रहे चार्ली चैप्लिन नीचे का कोलाहल सुन यह दृश्य निहारने उठ खड़े हुए।
भारत तो भारत, इंग्लैंड में भी गांधीजी की प्रतिष्ठा का आलम यह था!
अफ्ऱीका से भारत लौट आने के बाद गांधी केवल एक बार विदेश यात्रा पर गए: 1931 में गोलमेज़ वार्ता में शरीक होने। वार्ता तो विफल रही, लेकिन अंगरेज़ों का दिल उन्होंने बहुत जीत लिया।
लंदन में गांधीजी किसी ऊँचे होटल में नहीं रुके, पूर्वी लंदन के पिछड़े इलाके में सामुदायिक किंग्सली हॉल (अब गांधी फाउंडेशन) के एक छोटे-से कमरे में ठहरे। ज़मीन पर बिस्तर लगाया। लंदन की ठंड में भी अपनी वेशभूषा वही रखी- सूती अधधोती, बेतरतीब दुशाला, चप्पल। वे कोई तीन महीने वहां रहे।
यह तस्वीर तभी की है। चार्ली चैप्लिन हॉलीवुड में चरम प्रसिद्धि बटोर कर अपने वतन लौट आए थे। वे राजनेताओं से राजनीति की चर्चा में रुचि लेने लगे थे। अपनी फि़ल्म ‘सिटी लाइट्स’ के प्रीमियर के लिए वे लंदन में ही थे।
किसी ने चैप्लिन को सुझाया कि गांधीजी से मिलना चाहिए। उन्होंने गांधीजी को पोस्टकार्ड लिख दिया।
गांधीजी जब लंदन में अपनी डाक पढ़ रहे थे, तब उनकी मेज़बान मुरिएल लेस्टर ने उन्हें चैप्लिन के बारे में विस्तार से बताया। यह भी कहा कि राजनीति में आपका और कला की दुनिया में चैप्लिन का रास्ता जुदा नहीं। गांधीजी ने मुलाकात की मंजूरी दे दी।
चैप्लिन को कैनिंग टाउन में डॉक्टर चुन्नीलाल कतियाल के यहां 22 सितंबर, 1931 की शाम का वक़्त दिया गया, जहाँ उस रोज गांधीजी को जाना था।
गांधीजी से मुलाकात का दिलचस्प जि़क्र चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में विस्तार से किया है; नेहरू और इंदिरा गांधी के प्रवास का भी।
गांधीजी से मिलने को चैप्लिन कुछ पहले (या शायद अंगरेज़ी क़ायदे के मुताबिक़ ठीक वक़्त पर) पहुंच चुके थे। चैप्लिन के अपने शब्दों में- ‘अंतत: जब वे (गांधी) पहुंचे और अपने पहनावे की तहें संभालते हुए टैक्सी से उतरे तो स्वागत में भारी जयकारे गूंज उठे। उस छोटी तंग गऱीब बस्ती (स्लम) में क्या अजब दृश्य था जब एक बाहरी शख़्स एक छोटे-से घर में जन-समुदाय के जय-घोष के बीच दाखिल हो रहा था।’
डॉ. कतियाल की बैठक में चैप्लिन को घेर बैठी एक युवती को एक दबंग महिला (संभवत: सरोजिनी नायडू) ने डपट कर चुप कराया, ‘क्या अब आप इनको गांधीजी से बात करने देंगी?’ कमरे में ‘सन्नाटा’ छा गया। गांधीजी चैप्लिन की ओर देख रहे थे।
चैप्लिन लिखते हैं कि गांधीजी से तो मैं उम्मीद नहीं कर सकता था कि वे मेरी किसी फि़ल्म पर बात शुरू करेंगे और कहेंगे कि बड़ा मज़ा आया; ‘मुझे नहीं लगता था कि उन्होंने कभी कोई फि़ल्म देखी भी होगी।’
सो चैप्लिन ने अपना ‘गला साफ़ किया’ और कहा कि मैं स्वाधीनता के लिए भारत के संघर्ष के साथ हूं, पर आप मशीनों के ख़िलाफ़ क्यों हैं, उनसे तो दासता से मुक्ति मिलती है, काम जल्दी होता है और मनुष्य सुखी रहता है?
गांधीजी ने मुस्कुराते हुए शांत स्वर में उन्हें अहिंसा से लेकर आज़ादी के संघर्ष का सार पेश कर दिया। गांधीजी ने कहा- आप ठीक कहते हैं, मगर हमें पहले अंगरेज़ी राज से मुक्ति चाहिए।
गांधीजी ने आगे कहा कि मशीनों ने हमें अंगरेज़ों का ज़्यादा ग़ुलाम बनाया है। इसलिए हम स्वदेशी और स्व-राज की बात करते हैं। हमें अपनी जीवन-शैली बचानी है।
अपनी बात का गांधीजी ने और खुलासा यों किया — हमारी आबोहवा ही आपसे बिलकुल जुदा है। ठंडे मुल्क में आपको अलग कि़स्म के उद्योग और अर्थव्यवस्था की ज़रूरत है: खाना खाने के लिए आपको छुरी-कांटे आदि उपकरणों की ज़रूरत पड़ती है, सो आपने इसका उद्योग खड़ा कर लिया। पर हमारा काम तो उंगलियों से चल जाता है। हमें अनावश्यक चीज़ों से भी आज़ादी दरकार है।
चर्चा में चैप्लिन आज़ादी को लेकर गांधीजी की अनूठी दलीलों, उनके विवेक, क़ानून की समझ, राजनीतिक दृष्टि, यथार्थवादी नज़रिए और अटल संकल्पशक्ति से अभिभूत हो गए।
पर तब चैप्लिन सहसा हैरान रह गए जब गांधीजी ने एक मुक़ाम पर कहा कि माफ़ कीजिए, हमारी प्रार्थना का वक़्त हो गया। हालाँकि उन्होंने चैप्लिन को विनय से यह भी कहा कि आप चाहें तो यहां रुक सकते हैं। चैप्लिन रुक गए।
चैप्लिन ने सोफ़े पर बैठे-बैठे देखा: गांधीजी और पांच अन्य भारतीय जन ज़मीन पर पालथी मार कर बैठ गए और रघुपतिराघव राजा-राम, पतित-पावन सीता-राम; वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे समवेत स्वर में गाने लगे।
चैप्लिन को विचार-सम्पन्न गांधीजी के ‘गान-वान’ में इस तरह मशगूल हो जाने में अजीब ‘विरोधाभास’ अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि महात्मा में उन्होंने जो ‘राजनीतिक यथार्थ की विलक्षण सूझ’ देखी थी, वह इस समूह-गान में मानो तिरोहित हो गई।
मगर क्या सचमुच? शायद यही वह सांस्कृतिक भेद था जिसे क्या चैप्लिन, क्या अंगरेज़, गांधीजी अंत तक इसकी समझ और प्रेरणा हम भारतवासियों तक को देते रहे!
(साथ की तस्वीर में बीच में बैठे हैं चार्ली चैप्लिन और गांधीजी। सबसे दाएँ सरोजिनी नायडू। आलेख डॉ. राजेश कुमार व्यास के संपादन में ‘सुजस’ में प्रकाशित।)
-ध्रुव गुप्त
आज महात्मा गांधी की जयंती पर मैं थोड़ी-सी चर्चा उस एक शख्स की करना चाहता हूं जो अगर न होता तो न गांधी नहीं होते और न हमारे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास वैसा होता जैसा आज हम जानते हैं। वे एक शख्स थे चंपारण के बतख मियां। बात 1917 की है जब दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद चंपारण के किसान और स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गांधी डॉ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य लोगों के साथ अंग्रेजों के हाथों नीलहे किसानों की दुर्दशा का जायजा लेने चंपारण आए थे।
चंपारण प्रवास के दौरान उन्हें जनता का अपार समर्थन मिला था। लोगों के आंदोलित होने से जिले में विद्रोह और विधि-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की प्रबल आशंका थी। वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में गांधी जी को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। बतख मियां इरविन के ख़ास रसोईया हुआ करते थे। इरविन ने गांधी की हत्या के के उद्देश्य से बतख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। निलहे किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नजऱ आई थी। उनकी अंतरात्मा को इरविन का यह आदेश कबूल नहीं हुआ। उन्होंने गांधी जी को दूध का ग्लास देते हुए वहां उपस्थित राजेन्द्र प्रसाद के कानों में यह बात डाल दी।
उस दिन गांधी की जान तो बच गई लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों ने उन्हें बेरहमी से पीटा, सलाखों के पीछे डाला और उनके छोटे-से घर को ध्वस्त कर कब्रिस्तान बना दिया। देश की आजादी के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के क्रम में देश के पहले राष्ट्रपति बने डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बतख मियां की खोज खबर ली और प्रशासन को उन्हें कुछ एकड़ जमीन आबंटित करने का आदेश दिया। बतख मियां की लाख भागदौड़ के बावजूद प्रशासनिक सुस्ती के कारण वह जमीन उन्हें नहीं मिल सकी। निर्धनता की हालत में ही 1957 में बतख मियां ने दम तोड़ दिया।चंपारण में उनकी स्मृति अब मोतिहारी रेल स्टेशन पर बतख मियां द्वार के रूप में ही सुरक्षित हैं!
आज गांधी जयंती पर बापू के साथ बतख मियां की स्मृतियों को भी सलाम !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब में कांग्रेस की उथल-पुथल पूरे देश का ध्यान खींच रही है। लेकिन वहीं से एक ऐसा बयान भी आया है, जिस पर नेताओं और नौकरशाहों को तुरंत ध्यान देना चाहिए। वह बयान है— दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का। केजरीवाल आजकल अपनी आप पार्टी का चुनाव अभियान चलाने के लिए पंजाब की यात्रा पर हैं। वे अपने भाषणों में कांग्रेस और भाजपा की टांग खिंचाई करते हैं, जो स्वाभाविक है लेकिन वहाँ उन्होंने एक गजब की बात भी कह दी है, जिसकी वकालत मैं अपने भाषणों और लेखों में वर्षों से करता रहा हूँ। मेरा निवेदन यह है कि जब तक कोई राष्ट्र अपनी शिक्षा और चिकित्सा को सबल नहीं बनाएगा, वह निर्बल हुआ पड़ा रहेगा। भारत की लगभग सभी सरकारों ने इन दोनों क्षेत्रों में थोड़े-बहुत सुधार की कोशिश जरुर की है लेकिन ये दोनों क्षेत्र यदि बलवान हो जाएं तो भारत को महासंपन्न और महाशक्ति बनने से कोई रोक नहीं सकता।
अरविंद केजरीवाल ने इस दिशा में पहले दिल्ली में कदम बढ़ाया और अब यही काम बड़े पैमाने पर पंजाब में करने की घोषणा उन्होंने की है। उन्होंने कहा है कि पंजाब के हर गांव में एक अस्पताल खुलेगा। सबका इलाज़ मुफ्त होगा। जाँच मुफ्त होगी। हर आदमी का इलाज-पत्र बनेगा ताकि उसमें उसकी सारी बिमारियों और इलाजों का ब्यौरा रहेगा। जिन नागरिकों की शल्य-चिकित्सा होगी, वह 15 लाख रु. तक मुफ्त होगी। विरोधी दल कह सकते हैं कि केजरीवाल ने यह चुनावी फिसलपट्टी खड़ी कर दी है ताकि इस लालच में वोट फिसलते चले आएं। मैं पूछता हूं कि आपको किसने रोका है? आप भी ऐसी घोषणा क्यों नहीं कर देते? कोई हारे, कोई जीते, जनता का तो भला ही होगा। यह सबको पता है कि इलाज़ के नाम पर भारत में आजकल कितनी जबर्दस्त ठगी होती है। यह खुशी की बात है कि राजस्थान के हर जिले में मेडिकल कॉलेज खोलने का बीड़ा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उठाया है और प्रधानमंत्री ने भी उनका समर्थन किया है लेकिन इन मेडिकल कॉलेजों में हिंदी में पढ़ाई कब शुरु होगी? कौन माई का लाल यह हिम्मत करेगा?
पिछले सात वर्षों में हमारे दो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रियों ने स्वभाषा में मेडिकल की पढ़ाई शुरु करवाने का वायदा मुझसे कई बार किया लेकिन वह आज तक शुरु नहीं हुई। ऐलोपेथी अब भी जादू-टोना बनी हुई है, अंग्रेजी के कारण। इसी कारण ग्रामीणों और गरीबों के बच्चे डाक्टर नहीं बन पाते। ठगी का भी कारण यही है। यदि डॉक्टरी की पढ़ाई हिंदी में शुरु हो जाए और ऐलोपेथी, आयुपेथी, होमियोपेथी और यूनानीपेथी की संयुक्त पढ़ाई हो तो यह भारत का ही नहीं, दुनिया का नया चमत्कार होगा और ठगी भी खत्म होगी। अमेरिका ने द्वितीय महायुद्ध के बाद अपने शिक्षा और चिकित्सा के बजट में जबर्दस्त बढ़ोतरी की थी। उसने यूरोप को पीछे छोड़ दिया और वह आज दुनिया के सबसे अधिक संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र बन गया है। शिक्षा मन को मजबूत करेगी और चिकित्सा तन को! तब धन तो अपने आप बरसेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
साम्प्रदायिक एकता गांधी जी के लिए महज एक आदर्श नहीं थी वह उनकी आत्मा में रची बसी थी। साम्प्रदायिक सद्भाव तथा समरसता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की कल्पना इसी बात से की जा सकती है कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे साम्प्रदायिक हिंसा से आहत थे, व्यथित थे, राष्ट्र ध्वज फहराने तथा राष्ट्र के नाम संदेश देने के अनिच्छुक थे और नोआखाली के ग्रामों की संकीर्ण गलियों में अपने प्राणों की परवाह किए बिना प्रेम, दया, क्षमा और करुणा का संदेश दे रहे थे। गांधी जी ने बहुत पहले ही यह संकेत कर दिया था कि अधिनायकवादी नजरिया रखने वाली और देश की विविधताओं और संघीय ढांचे की अनदेखी करने वाली कथित रूप से मजबूत सरकार जब जब लोगों पर बलपूर्वक राजनीतिक एकता थोपने का प्रयास करेगी तब तब दूरियां घटने के बजाए बढ़ेंगी और एकता के स्थान पर बिखराव और हिंसक असन्तोष को बढ़ावा मिलेगा। गांधीजी के अनुसार - "कौमी या सांप्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीतिक एकता नहीं है। राजनीतिक एकता तो जोर जबरदस्ती से भी लादी जा सकती है। मगर एकता के सच्चे मानी तो यह है - वह दिली दोस्ती जो किसी के तोड़े न टूटे। इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेस जन, फिर वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों अपने को हिंदू,मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी वगैरह सभी कौमों का नुमाइंदा समझें। हिंदुस्तान से करोड़ों बाशिंदों में से हर एक के साथ वे अपनेपन का, आत्मीयता का अनुभव करें यानी कि उनके सुख-दुख में अपने को उनका साथी समझें। इस तरह की आत्मीयता सिद्ध करने के लिए हर एक कांग्रेसी को चाहिए कि वह अपने धर्म से भिन्न धर्म का पालन करने वाले लोगों के साथ निजी दोस्ती कायम करे और अपने धर्म के लिए उसके मन में जैसा प्रेम हो, ठीक वैसा ही प्रेम दूसरे धर्म से भी करे।" (रचनात्मक कार्यक्रम, पृष्ठ 11-12)।
पिछले सात वर्षों में गोरक्षकों द्वारा हिंसा और मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाएं चिंता उत्पन्न करती हैं। इधर सांप्रदायिकता का जहर जैसे जैसे फैल रहा है हम देखते हैं कि मुसलमानों को सड़कों पर नमाज पढ़ने से रोकने के लिए हिन्दू समुदाय भी सड़क पर आरती और हनुमान चालीसा के पाठ जैसे आयोजन कर रहा है। एक समुदाय की धार्मिक प्रार्थनाएं दूसरे समुदाय हेतु असहनीय शोर का रूप ग्रहण कर रही हैं। इस प्रकार हिंसक संघर्ष की स्थिति बार बार बन रही है। यंग इंडिया में आज से लगभग 88 वर्ष पूर्व महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई यह पंक्तियां इन दोनों दुर्भाग्यपूर्ण और लज्जाजनक प्रवृत्तियों का न केवल सम्पूर्ण विश्लेषण करती हैं बल्कि उनका प्रायोगिक समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। गांधी जी लिखते हैं- "हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी आदि को अपने मतभेद हिंसा का आश्रय लेकर और लड़ाई झगड़ा करके नहीं निपटाने चाहिए। हिंदू और मुसलमान मुंह से तो कहते हैं कि धर्म में जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं है लेकिन यदि हिंदू गाय को बचाने के लिए मुसलमान की हत्या करें तो वह जबरदस्ती के सिवा और क्या है। यह तो मुसलमान को बलात हिंदू बनाने जैसी ही बात है। इसी तरह यदि मुसलमान जोर-जबरदस्ती से हिंदुओं को मस्जिदों के सामने बाजा बजाने से रोकने की कोशिश करते हैं तो यह भी जबरदस्ती के सिवा और क्या है। धर्म तो इस बात में है कि आसपास चाहे जितना शोरगुल होता रहे फिर भी हम अपनी प्रार्थना में तल्लीन रहें। यदि हम एक दूसरे को अपनी धार्मिक इच्छाओं का सम्मान करने के लिए बाध्य करने की बेकार कोशिश करते रहें तो भावी पीढ़ियां हमें धर्म के तत्वों से बेखबर जंगली ही समझेंगी।"
गांधीजी के अनुसार "गोरक्षा को मैं हिंदू धर्म का प्रधान अंग मानता हूं। प्रधान इसलिए कि उच्च वर्गों और आम जनता दोनों के लिए यह समान है। फिर भी इस बारे में हम जो केवल मुसलमानों पर ही रोष करते हैं, यह बात किसी भी तरह से मेरी समझ में तो नहीं आती। अंग्रेजों के लिए तो रोज इतनी गाय कटती है किंतु इस बारे में तो हम कभी जबान तक भी शायद ही हिलाते होंगे। केवल जब कोई मुसलमान गाय की हत्या करता है तभी हम क्रोध के मारे लाल पीले हो जाते हैं। गाय के नाम से जितने झगड़े हुए हैं उनमें से प्रत्येक में निरा पागलपन भरा शक्ति क्षय हुआ है। इससे एक भी गाय नहीं बची। उलटे मुसलमान ज्यादा जिद्दी बने हैं और इस कारण ज्यादा गायें कटने लगी हैं। गोरक्षा का प्रारंभ तो हम ही को करना है हिंदुस्तान में पशुओं की जो दुर्दशा है वह ऐसी दुनिया के किसी भी दूसरे हिस्से में नहीं है। हिंदू गाड़ी वालों को थक कर चूर हुए बैलों को लोहे की तेज आर वाली लकड़ी से निर्दयता पूर्वक हांकते देख कर मैं कई बार रोया हूं। हमारे अधभूखे रहने वाले जानवर हमारी जीती जागती बदनामी के प्रतीक हैं। हम हिंदू गाय को बेचते हैं इसीलिए गायों की गर्दन कसाई की छुरी का शिकार होती है। ऐसी हालत में एकमात्र सच्चा और शोभास्पद उपाय यही है कि हम मुसलमानों के दिल जीत लें और गाय का बचाव करना उनकी शराफत पर छोड़ दें। गोरक्षा मंडलों को पशुओं को खिलाने पिलाने, उन पर होने वाली निर्दयता को रोकने, गोचर भूमि के दिन रात होने वाले लोप को रोकने, पशुओं की नस्ल सुधारने, गरीब ग्वालों से उन्हें खरीद लेने और मौजूदा पिंजरापोलों को दूध की आदर्श स्वावलंबी डेयरी बनाने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ऊपर बताई हुई बातों में से एक के भी करने में हिंदू चूकेंगे तो वे ईश्वर और मनुष्य दोनों के सामने अपराधी ठहरेंगे। मुसलमानों के हाथ से होने वाले गोवध को वे रोक न सकें तो इसमें उनके पाप नहीं चढ़ता लेकिन जब गाय को बचाने के लिए मुसलमानों के साथ झगड़ा करने लगते हैं तब वे जरूर भारी पाप करते हैं।"
गांधी जी हमें सहिष्णु बनने और मैत्री भाव रखने की सीख देते हैं- "मैंने सुना है कि कई जगह हिंदू लोग जानबूझकर और मुसलमानों का दिल दुखाने के इरादे से ही आरती ठीक उसी समय करते हैं जब मुसलमानों की नमाज शुरू होती है। यह हृदयहीन और शत्रुता पूर्ण कार्य है। मित्रता में मित्र के भावों का पूरा पूरा ख्याल रखा ही जाना चाहिए। इसमें तो कुछ सोच विचार की भी बात नहीं है। लेकिन मुसलमानों को हिंदुओं से डरा धमकाकर बाजा बंद करवाने की आशा नहीं रखनी चाहिए। धमकियों अथवा वास्तविक हिंसा के आगे झुक जाना अपने सम्मान और धार्मिक विश्वासों का हनन है। लेकिन जो आदमी धमकियों के आगे नहीं झुकेगा, वह जिनसे प्रतिपक्षी को चिढ़ होती हो ऐसे मौके हमेशा यथासंभव कम करने की और संभव हो तो टालने की भी पूरी कोशिश करेगा।
मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि यदि नेता ना लड़ना चाहें तो आम जनता को लड़ना पसंद नहीं है इसलिए यदि नेता लोग इस बात पर राजी हो जाएं कि दूसरे सभ्य देशों की तरह हमारे देश में भी आपसी लड़ाई झगड़ों का सार्वजनिक जीवन से पूरा उच्छेद कर दिया जाना चाहिए और वह जंगलीपन एवं अधार्मिकता के चिह्न माने जाने चाहिए तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम जनता शीघ्र ही उनका अनुकरण करेगी।" (यंग इंडिया, 24 दिसंबर 1931)
महात्मा गांधी रिलिजन को स्पिरिचुअलिटी की सूक्ष्मता प्रदान करते हैं और इस प्रकार कर्मकांडों को गौण बना देते हैं जबकि कट्टरवादी विचारधारा स्थूल धार्मिक प्रतीकों और रूढ़ कर्मकांडों की रक्षा को राष्ट्र गौरव का विषय मानती है। मैं आप सबसे आग्रह करता हूँ कि गांधी जी को पढ़ते समय यह ध्यान रखें कि किसी शब्द विशेष का प्रयोग वे किस अर्थ में करते रहे हैं। उदाहरण स्वरूप राम राज्य शब्द को लिया जा सकता है। इसका प्रयोग महात्मा गांधी ने पौराणिक राम राज्य के लिए नहीं अपितु ऐसे राज्य के लिए किया था जो न्यूनतम शासन करता हो। गांधी जी टॉलस्टॉय और थोरो से प्रभावित थे और एनलाइटण्ड अनार्की के समर्थक थे। उनका मत था कि आदर्श स्थिति में लोग नैतिक रूप से इतने विकसित हो जाएंगे कि स्वयं को नियमित और नियंत्रित कर सकेंगे, इस दशा में राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी। किंतु आज गांधी जी के राम राज्य का उपयोग गलत संदर्भों में किया जा रहा है।
गांधीजी के अनुसार - "दुनिया में कोई भी एक धर्म पूर्ण नहीं है। सभी धर्म उनके मानने वालों के लिए समान रूप से प्रिय हैं। इसलिए जरूरत संसार के महान धर्मों के अनुयायियों में सजीव और मित्रतापूर्ण संपर्क स्थापित करने की है ना कि हर संप्रदाय द्वारा दूसरे धर्मों की अपेक्षा अपने धर्म की श्रेष्ठता जताने की व्यर्थ कोशिश करके आपस में संघर्ष पैदा करने की। ऐसे मित्रतापूर्ण संबंध के द्वारा हमारे लिए अपने अपने धर्मों की कमियों और बुराइयों को दूर करना संभव होगा।" (यंग इंडिया, 23 अप्रैल 1931)
गांधी लिखते हैं- " किसी भी धर्म में यदि मनुष्य का नैतिक आचार कैसा है इस बात की परवाह न की जाए तो फिर पूजा की पद्धति विशेष- वह पूजा गिरजाघर मस्जिद या मंदिर में कहीं भी क्यों न की जाए- एक निरर्थक कर्मकांड ही होगी, इतना ही नहीं वह व्यक्ति या समाज की उन्नति में बाधा रूप भी हो सकती है और पूजा की अमुक पद्धति के पालन का अथवा अमुक धार्मिक सिद्धांत के उच्चारण का आग्रह, हिंसा पूर्ण लड़ाई झगड़ों का एक बड़ा कारण बन सकता है। यह लड़ाई झगड़े आपसी रक्तपात की ओर ले जाते हैं और इस तरह उनकी परिसमाप्ति मूल धर्म में यानी ईश्वर में ही घोर अश्रद्धा के रूप में होती है।"(हरिजन सेवक, 30-01-1937)
गांधीजी समावेशी राष्ट्रवाद की हिमायत करते हैं। वे हमारी बहुलताओं की स्वीकृति के पक्षधर हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म एक व्यक्तिगत विषय है और राज्य को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कदापि नहीं करना चाहिए। वे धर्म और राजनीति को पृथक रखने का प्रबल आग्रह करते हैं। गांधीजी राष्ट्र के निर्माण और उसके स्थायित्व के लिए धार्मिक सहिष्णुता को प्राथमिक आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे बहुत शालीनता से हमें चेतावनी देते हैं कि सर्व धर्म समभाव की अवधारणा न केवल नैतिक रूप से वरेण्य है अपितु इस पर अमल करना हमारी विवशता भी है क्योंकि इसी प्रकार हम अपनी और अपने राष्ट्र की रक्षा तथा उन्नति कर सकते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म हमारे देश की नागरिकता का आधार नहीं बन सकता। गांधी जी के अनुसार- "हिंदुस्तान में चाहे जिस मजहब के मानने वाले रहे उससे अपनी एकजुटता मिटने वाली नहीं। नए आदमियों का आगमन किसी राष्ट्र का राष्ट्रपन नष्ट नहीं कर सकता। यह उसी में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई देश एक राष्ट्र माना जाता है। उस देश में नए आदमियों को पचा लेने की शक्ति होनी चाहिए। हिंदुस्तान में यह शक्ति सदा रही है और आज भी है। यूं तो सच पूछिए तो दुनिया में जितने आदमी हैं उतने ही धर्म मान लिए जा सकते हैं। पर एक राष्ट्र बनाकर रहने वाले लोग एक दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते। करें तो समझ लीजिए वे एक राष्ट्र होने के काबिल ही नहीं हैं। हिंदू अगर यह सोच लें कि सारा हिंदुस्तान हिंदुओं से ही भरा हो तो यह उनका स्वप्न मात्र है। मुसलमान यह मानें कि केवल मुसलमान इस देश में बसें तो इसे भी दिन का सपना ही समझना होगा। हिंदू मुसलमान पारसी ईसाई जो कोई भी इस देश को अपना देश मानकर यहां बस गए हैं वह सब एक देशी, एक मुल्की हैं। देश के नाते भाई भाई हैं और अपने स्वार्थ अपने हित खातिर भी उन्हें एक होकर रहना ही होगा। दुनिया में कहीं भी एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं माना गया, हिंदुस्तान में भी कभी नहीं रहा। हिन्दू मुसलमान के बीच सहज बैर की धारणा तो उन लोगों के दिमाग की उपज है जो दोनों के दुश्मन हैं। जब हिंदू मुसलमान एक दूसरे से लड़ते थे तब ऐसी बात जरूर कहते थे और उनकी लड़ाई तो कब की खत्म हो चुकी है। हिंदू मुसलमान के और मुसलमान हिंदू के राज्य में रहते आए हैं। कुछ दिन बाद दोनों ने समझ लिया कि लड़ने झगड़ने में किसी का लाभ नहीं। लड़ने से जैसे कोई अपना धर्म नहीं छोड़ता वैसे ही अपना हक भी नहीं छोड़ता इसलिए दोनों ने आपस में मेलजोल से रहने की ठहरा ली।" (हिन्द स्वराज, अध्याय-10, हिंदुस्तान की हालत- 3)
गांधीजी के मतानुसार- "हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए हैं और पले हैं और जो दूसरे किसी देश का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों बेनी इजरायलों, हिंदुस्तानी ईसाईयों मुसलमानों और दीगर गैर हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज्य हिंदुओं का नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और उसका आधार किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समूचे राष्ट्र के प्रतिनिधियों पर होगा। मैं एक ऐसे मिश्र बहुमत की कल्पना कर सकता हूं जो हिंदुओं को अल्पमत बना दे। स्वतंत्र हिंदुस्तान में लोग अपनी सेवा और योग्यता के आधार पर ही चुने जाएंगे। धर्म एक निजी विषय है जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पाई जाती है उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने बनावटी फिरके बन गए हैं।"(हरिजन सेवक, 1-08-1942)
गांधी धर्म को राज्य संचालन का आधार बनाने का विरोध करते हैं- "अपने धर्म पर मेरा अटूट विश्वास है। मैं उसके लिए अपने प्राण दे सकता हूं। लेकिन वह मेरा निजी मामला है। राज्य को उससे कुछ लेना देना नहीं है। राज्य हमारे लौकिक कल्याण की - स्वास्थ्य, आवागमन विदेशों से संबंध, करेंसी आदि की- देखभाल करेगा लेकिन हमारे या तुम्हारे धर्म की नहीं। धर्म हर एक का निजी मामला है।"(हरिजन सेवक, 22-01-1946)
गांधीजी की इतिहास दृष्टि में मध्य काल के इतिहास को हिन्दू मुस्लिम संघर्ष के काल के रूप में देखने की प्रवृत्ति बिल्कुल नहीं थी। वे यह मानते थे कि शासक किसी भी धर्म का हो, यदि वह अत्याचारी है तो उसका अहिंसक प्रतिकार किया जाना चाहिए। यदि आप सब प्रबुद्ध जन इतिहास का सावधानी पूर्वक अध्ययन करें तो आपको यह ज्ञात होगा कि चाहे राजा हिन्दू रहा हो या मुसलमान आम लोगों के जीवन में, किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया था। इन आम लोगों में हिन्दू भी सम्मिलित थे और मुसलमान भी। हिन्दू सैनिक मुसलमान राजाओं को ओर से युद्ध करते थे और मुसलमान सैनिक हिन्दू राजाओं की तरफ से लड़ा करते थे। गांधी जी की दृष्टि में साम्प्रदायिक एकता बनाए रखने का दायित्व बहुसंख्यक समुदाय पर अधिक है क्योंकि वह अधिक शक्तिशाली है, उसे अल्पसंख्यक समुदाय को विश्वास में लेना चाहिए। किंतु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि जिस स्थान पर जो समुदाय अधिक समर्थ और मजबूत है उसका दायित्व बनता है कि वह अपने सामर्थ्य और सक्षमता का उपयोग दूसरे समुदाय की बेहतरी के लिए करे। गांधी जी यह भी संकेत करते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय यदि निरन्तर अत्याचार करता रहे तो अल्पसंख्यक हिंसा की ओर उन्मुख हो सकते हैं। गांधी जी के मतानुसार - "अगर हिंदू लोग विविध जातियों के बीच एकता चाहते हैं तो उनमें अल्पसंख्यक जातियों का विश्वास करने की हिम्मत होनी चाहिए। यदि हम सत्याग्रह का सही उपयोग करना सीख गए हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि उसका उपयोग किसी भी अन्यायी शासक के खिलाफ - वह हिंदू मुसलमान या अन्य किसी भी कौम का हो- किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। इसी तरह न्यायी शासक या प्रतिनिधि, हमेशा और समान रूप से अच्छा होता है फिर वह हिंदू हो या मुसलमान। हमें सांप्रदायिक भावना छोड़नी चाहिए। इसलिए इस प्रयत्न में बहुसंख्यक समाज को पहल करके अल्पसंख्यक जातियों में अपनी ईमानदारी के विषय में विश्वास पैदा करना चाहिए। मेल और समझौता तभी हो सकता है जबकि ज्यादा बलवान पक्ष दूसरे पक्ष के जवाब की राह देखे बिना सही दिशा में बढ़ना शुरु कर दे।" (यंग इंडिया, 29-05-1924)
गांधी सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए इसके समाधान की ओर संकेत करते हैं- "अगर स्थिति यह हो कि बड़े संप्रदाय को छोटे संप्रदाय से डर लगता हो तो वह इस बात की सूचक है या तो (1) बड़े संप्रदाय के जीवन में किसी गहरी बुराई ने घर कर लिया है और छोटे संप्रदाय में पशु बल का मद उत्पन्न हुआ है (यह पशु बल राजसत्ता की बदौलत हो या स्वतंत्र हो) अथवा (2) बड़े संप्रदाय के हाथों कोई ऐसा अन्याय होता आ रहा है जिसके कारण छोटे संप्रदाय में निराशा से उत्पन्न होने वाला मर मिटने का भाव पैदा हो गया है। दोनों का उपाय एक ही है बड़ा संप्रदाय सत्याग्रह के सिद्धांतों का अपने जीवन में आचरण करे। वह अपने अन्याय, सत्याग्रही बनकर चाहे जो कीमत चुका कर भी दूर करे और छोटे संप्रदाय के पशु बल को अपनी कायरता को निकाल बाहर करके सत्याग्रह के द्वारा जीते। छोटे संप्रदाय के पास यदि अधिक अधिकार, धन, विद्या, अनुभव आदि का बल हो और इस बड़े संप्रदाय को उससे डर लगता रहता हो तो छोटे संप्रदाय का धर्म है कि शुद्ध भाव से बड़े संप्रदाय का हित करने में अपनी शक्ति का उपयोग करे। सब प्रकार की शक्तियां तभी पोषण योग्य समझी जा सकती हैं जब उनका उपयोग दूसरे के कल्याण के लिए हो। दुरुपयोग होने से वे विनाश के योग्य बनती हैं और चार दिन आगे या पीछे उनका विनाश होकर ही रहेगा। यह सिद्धांत जिस प्रकार हिंदू- मुसलमान- सिख आदि छोटे-बड़े संप्रदायों पर घटित होते हैं उसी प्रकार अमीर-गरीब, जमींदार-किसान, मालिक-नौकर, ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर इत्यादि छोटे-बड़े वर्गों के आपस में संबंधों पर भी घटित होते हैं।"(किशोर लाल मशरूवाला, गांधी विचार दोहन, पृष्ठ 73-74)
गांधीजी सांप्रदायिकता की उत्पत्ति के लिए अंग्रेज शासकों को उत्तरदायी मानते हैं और इसे एक नई एवं आरोपित प्रवृत्ति सिद्ध करते हैं- "हिंदू इतिहासकारों और मुसलमान इतिहासकारों ने उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि जब अंग्रेजों का शासन नहीं था तब हम -हिंदू मुसलमान और सिख- आपस में मिल जुल कर रहते। थे उन दिनों हम बिल्कुल ही नहीं लड़ते थे। यह लड़ाई झगड़ा पुराना नहीं है।" (यंग इंडिया 24-12-1931)
साठ के दशक में मार्टिन लूथर किंग जूनियर और उनके साथियों ने गांधी को थोड़ा बहुत आत्मसात किया और उनका अनुकरण किया फलस्वरूप वे अमेरिका में नागरिक अधिकारों के आंदोलन का नेतृत्व सफलतापूर्वक कर सके। गांधी से प्रेरित नेल्सन मंडेला ने 1990 के दशक में लंबे कारावास और अत्याचारों की कटुता को भुलाते हुए जब नए दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की समाप्ति और श्वेतों के लिए भी बिना किसी भेदभाव के समान अधिकारों की घोषणा की तब घृणा, हिंसा और प्रतिशोध के लंबे एवं दुःखद अध्याय की समाप्ति हुई और स्थायी शांति स्थापित हुई। गांधी जी द्वारा दमन और शोषण के अहिंसक प्रतिरोध का तरीका जिसमें शत्रुओं के लिए भी किसी प्रकार की कटुता एवं वैमनस्य के लिए स्थान न था, पूरे विश्व में कितने ही छोटे बड़े संघर्षों के सम्पूर्ण समाधान का जरिया बना और स्थायी शांति एवं एकता की स्थापना में सहायक भी रहा।
दुर्भाग्य से हम भारतीय ऐसा न कर सके और हमने गांधी जी को हाशिए पर डालने के लिए अपनी अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के अनुकूल उनके अपूर्ण और संकीर्ण पाठ तैयार किए जो न केवल गांधीवाद से असंगत थे अपितु अनेक बार गांधी जी की मूल अवधारणाओं से एकदम विपरीत भी थे। हमने राष्ट्रपिता के साथ केवल इतनी रियायत बरती कि उन्हें एकदम से रद्दी की टोकरी में नहीं फेंक दिया। हमने उन्हें भव्य स्मारकों और संग्रहालयों में कैद करने की कोशिश की। उन्हें विशाल अजीवित प्रतिमाओं में बदलने की चेष्टा की। हमने सत्याग्रही गांधी को स्वच्छाग्रही गांधी के रूप में रिड्यूस करने का प्रयास किया। हिन्दू धर्म के सबसे उदार एवं अहिंसक समर्थक को हमने निर्ममतापूर्वक ठोक पीटकर हिंसक हिंदुत्व के संकीर्ण खांचे में डालने की कोशिश की। कभी उनके आकलन में हमसे चूक हुई और हमने उन्हें वर्ग संघर्ष और सर्वहारा के राज्य का विरोधी और जनक्रांति के मार्ग में बाधक प्रतिक्रियावादी तथा धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान वादी की संज्ञा दी। हम गांधी की सीखों पर अमल न कर पाए और हमने स्वयं को हिंसा- प्रतिहिंसा एवं घृणा की लपटों में झुलसकर नष्ट होने के लिए छोड़ दिया है। गांधीवाद हमारी अस्तित्व रक्षा के लिए आवश्यक है और इससे हमारा विचलन हमें गंभीर सामाजिक विघटन की ओर ले जा सकता है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नवजोतसिंह सिद्धू का मामला अभी अधर में ही लटका हुआ है और इधर कल-कल में कुछ ऐसी घटनाएं और भी हो गई हैं, जो कांग्रेस पार्टी की मुसीबतों को तूल दे रही हैं। पहली बात तो यह कि पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदरसिंह दिल्ली जाकर गृहमंत्री अमित शाह से मिले। क्यों मिले? बताया गया कि किसान आंदोलन के बारे में उन्होंने बात की। की होगी लेकिन किस हैसियत में की होगी ? अब वे न मुख्यमंत्री हैं, न कांग्रेस अध्यक्ष! तो बात यह हुई होगी कि अमरिंदर का अगला कदम क्या होगा ? वे भाजपा में प्रवेश करेंगे या अपनी नई पार्टी बनाएंगे या घर बैठे कांग्रेस की जड़ खोदेंगे? उधर गोवा के शीर्ष कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ल्युजिनो फलीरो ने कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। गोवा में कांग्रेस की दाल पहले से ही काफी पतली हो रही है और अब नौ अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ फलीरो का तृणमूल में जाना गोवा की कांग्रेस के चार विधायकों की संख्या को घटाकर आधी न कर दे?
यह ठीक है कि कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस से जुडऩे की घोषणा कर दी है। ये दोनों युवा नेता दलितों और वंचितों को कांग्रेस से जोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वे कांग्रेस में रहकर वैसा कर पाएंगे? इस समय कांग्रेस में माँ-बेटा और बहन के अलावा जितने भी नेता हैं, क्या उनकी स्थिति देश के दलितों से बेहतर है? दलितों के कुछ संवैधानिक अधिकार तो हैं और उन पर अन्याय हो तो वे अदालत की शरण में जा सकते हैं लेकिन कांग्रेसी जब दले जाते हैं तो वे किसकी शरण में जाएँ? जी-23 के नेता कपिल सिब्बल चाहे दावा करें कि उनके 23 पत्रलेखक कांग्रेसी नेता जी-23 तो हैं लेकिन वे जी-हुजूर—23 नहीं हैं, लेकिन उनके इस दावे पर मुझे एक शेर याद आ रहा है- 'इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन। आखरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे?Ó इंदिरा कांग्रेस में वहीं नेता अभी तक टिक सके हैं और आगे बढ़ सके हैं, जो चापलूसी के महापंडित हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे कितने नेता हैं ? इंदिराजी ने नई कांग्रेस का जो बीज बोया था, वह वटवृक्ष बन गया था।
इस वटवृक्ष में अब घुन लग गया है। दो साल हो गए, पार्टी का कोई बाकायदा अध्यक्ष नहीं है और पार्टी चल रही है, जैसे युद्ध में बिना सर के धड़ चला करते हैं। पता नहीं, यह धड़ अब कितने कदम और चलेगा? राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के इस शरीर के लडख़ड़ाने की खबर आती रहती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी आज की कांग्रेस मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले की तरह अपनी आखरी सांसें गिन रही है। देश के लोकतंत्र के लिए इससे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या हो सकती है? यदि कांग्रेस बेजान हो गई तो भाजपा को कांग्रेस बनने से कौन रोक सकता है? तब पूरा भारत ही जी-हुजरों का लोकतंत्र बन जाएगा। इस वक्त भाजपा और कांग्रेस का अंदरुनी हाल एक-जैसा होता जा रहा है लेकिन आम जनता में अब भी भाजपा की साख कायम है। याने अंदरुनी लोकतंत्र सभी पार्टियों में शून्य को छू रहा है लेकिन यही प्रवृत्ति बाहरी लोकतंत्र पर भी हावी हो गई तो हमारी पार्टियों की इस नेताशाही को तानाशाही में बदलते देर नहीं लगेगी। यदि हम संयुक्तराष्ट्र संघ में जाकर भारत को 'लोकतंत्र की अम्माÓ घोषित कर रहे हैं तो हमें अपनी इस अम्मा के जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए सदा सावधान रहना होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
इतिहासकार गोपाल कृष्ण गाँधी ने महात्मा गाँधी की शव यात्रा के बारे में लिखा है कि यह एक विडम्बना ही थी कि अहिंसा के पुजारी गाँधीजी के शव को तोप ढोने वाले वाहन में रखा गया था। गाँधीजी के सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि गाँधीजी अपने शव को रसायन में लपेटकर सुरक्षित रखने के विरोधी थे और उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि जहाँ उनकी मृत्यु हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। पर प्यारेलाल के दस्तावेजों में यह उल्लेख भी मिलता है कि उनके दाह संस्कार में ‘पंद्रह मन चन्दन की लकडिय़ाँ, चार मन घी, दो मन धूप, एक मन नारियल के छिलके और पंद्रह सेर कपूर का उपयोग हुआ’। जो इंसान एक फक़ीर की तरह रहा, और अपना जीवन बस थोड़े से सामान के साथ बिताया, उसके दाह संस्कार में इतना कुछ खर्च किया गया! यदि गाँधी इस बारे में पूरी स्पष्टता से निर्देश देते तो शायद यह सब थोड़े संयम के साथ होता, जैसा वे शायद खुद भी चाहते। इस मामले में दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति बड़े स्पष्ट थे।
कृष्णमूर्ति से उनके निकट सहयोगियों ने पूछा था कि उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। उन्होंने बड़े विस्तार से बताया था कि शव को स्नान करवाने के बाद एक साफ कपड़े में लपेटा जाए, जो महंगा न हो और फिर जितनी जल्दी हो सके, उसका दाह संस्कार कर दिया जाए। शव को कम से कम लोग देखें, कोई कर्मकांड न हो। अस्थियों का क्या किया जाना चाहिए, इस सवाल पर उन्होंने कहा कि आप जो चाहे करें बस उसके ऊपर कोई स्मारक, मंदिर वगैरह न बनाया जाए।
सुकरात से भी उनके मित्रों ने पूछा था उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। सुकरात ने कहा- ‘पहले मुझे पकड़ तो लेना, और सुनिश्चित कर लेना कि जिसे पकड़ा है वह मैं ही हूँ; फिर जो चाहे कर लेना!’ एंड्रू रोबिनसन ने सत्यजित रे की जीवनी ‘द इनर ऑय’ में एक दिलचस्प बात लिखी है। कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद सत्यजित रे टैगोर के घर पहुँच गए थे और वहां नन्दलाल बोस को सफेद फूलों से गुरुदेव के शव को सजाते हुए देखा। यहाँ तक तो ठीक था, पर जब शवयात्रा शुरू हुई, तो जिसके लिए मुमकिन हुआ उन लोगों ने कविगुरु की दाढ़ी का कम से कम एक बाल नोचने की कोशिश की, अपनी स्मृति के लिए!
पंजाब में हो रही उठापटक अब कांग्रेस की एकमात्र चिंता नहीं रही. पार्टी अब वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी, दूसरे राज्यों में भी संगठन के स्तर पर संकट और प्रतिरोधी मीडिया से भी लड़ रही है.
डॉयचे वेले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
पिछले कुछ दिनों में पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के पद से नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफे ने सारी सुर्खियां जरूर बटोर लीं, लेकिन यह इस समय कांग्रेस की एकलौती समस्या नहीं है. 27 सितंबर को गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लुईजिनियो फलेरो ने भी कांग्रेस से इस्तीफा दे कर तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया था.
फलेरो ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेजे अपने इस्तीफे में लिखा कि "यह अब वो पार्टी नहीं रही जिसके लिए हमने त्याग और संघर्ष किया था." उन्होंने यह भी लिखा कि उन्हें अब "पार्टी के विनाश को बचाने की ना कोई उम्मीद नजर आती है और ना इच्छाशक्ति."
"जी-23" बनाम "जी हुजूर 23"
इसके कुछ ही दिन पहले कांग्रेस की युवा नेता और उस समय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. इस्तीफों की इस लंबी फेहरिस्त की ओर इशारा करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिबल ने एक समाचार वार्ता में कहा कि जिन नेताओं को पार्टी नेतृत्व के करीबी समझा जाता था वो इस्तीफा दे रहे हैं जबकि "हमलोग" जिन्हें पार्टी नेतृत्व के करीब नहीं समझा जाता अभी भी पार्टी के साथ खड़े हैं.
सिबल ने कहा, "हम जी-23 हैं, जी हुजूर 23 नहीं हैं." जी-23 उन 23 कांग्रेस नेताओं को कहा जाता है जिन्होंने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को एक चिट्ठी लिखकर पार्टी के बार बार चुनावों में हारने पर चिंता व्यक्त की थी और पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन की मांग की थी.
इस समूह में सिबल के अलावा गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, वीरप्पा मोइली, भूपेंद्र सिंह हूडा जैसे कई बड़े नेता शामिल हैं. ताजा इस्तीफों के मद्देनजर सिबल के साथ साथ आजाद ने भी मांग की है कि पार्टी के अंदरूनी फैसले लेने वाली सर्वोच्च संस्था कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक बुलाई जाए.
जी-23 के नेताओं को लेकर पार्टी के एक धड़े में शुरू से लेकर नाराजगी रही है लेकिन 29 सितंबर को पहली बार सिबल के बयान के बाद कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा हिंसक प्रतिक्रिया देखी गई. युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में सिबल के घर के बाहर प्रदर्शन किया, उनके घर पर टमाटर फेंके और उनकी एक गाड़ी को नुकसान पहुंचाया.
आक्रामक कार्यकर्ता
कार्यकर्ताओं ने "जल्दी ठीक हो जाओ, कपिल सिबल" के पोस्टर उठा रखे थे. उन्होंने "पार्टी छोड़ दो! होश में आओ!" और "राहुल गांधी जिंदाबाद!" नारे भी लगाए. इन घटनाओं के बाद आनंद शर्मा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के इस आचरण की निंदा की और कहा कि "असहिष्णुता और हिंसा कांग्रेस की संस्कृति के खिलाफ हैं". उन्होंने सोनिया गांधी से इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की.
दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की अंदरूनी कलह में एक बार फिर उफान आ गया. राज्य के कम से कम 15 कांग्रेस विधायक नई दिल्ली आ गए हैं, जिसकी वजह से एक बार फिर फिर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देओ के बीच सत्ता की लड़ाई को लेकर अटकलें तेज हो गई हैं.
सिंह देओ के समर्थकों का कहना है कि बघेल के कार्यकाल के ढाई साल पूरे हो गए हैं और पार्टी को अब अपने वादे के मुताबिक सिंह देओ को मुख्यमंत्री बना देना चाहिए. छत्तीसगढ़ में यह संकट काफी समय से चल रहा है लेकिन पार्टी हाई कमान ने अभी तक बघेल को मुख्यमंत्री पद से हटाने का कोई संकेत नहीं दिया है.
मीडिया से लड़ाई
इस बीच अंदरूनी झगड़ों से जूझती पार्टी ने उसके प्रति विशेष रूप से प्रतिरोधी होते मीडिया के एक धड़े के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया है. 28 सितंबर को टाइम्स नाउ टीवी चैनल पर एक बहस के दौरान चैनल की मुख्य सम्पादक नाविका कुमार ने राहुल गांधी के खिलाफ एक अपशब्द का इस्तेमाल कर दिया, जिसका पार्टी ने काफी आक्रामक तरीके से विरोध किया.
भूपेश बघेल समेत कई नेताओं ने सोशल मीडिया पर मीडिया को चेतावनी दी.
उसके बाद कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने चैनल के दफ्तर में घुस कर प्रदर्शन किया और चैनल के अधिकारियों के सामने अपना विरोध जताया. पूरे प्रकरण के बाद नाविका कुमार और टाइम्स नाउ ने अभद्र टिप्पणी के लिए माफी मांगी.
कुल मिला कर नजर यही आ रहा है कि एक पूर्ण कालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के अभाव से जूझती कांग्रेस इस समय कई चुनौतियों का एक साथ सामना कर रही है. देखना होगा कि पार्टी इन प्रकरणों का सामना मजबूत से कर पाती है या नहीं. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब की कांग्रेस में खड़े हुए संकट के फलितार्थ क्या-क्या हो सकते हैं? इस संकट का सबसे पहला संदेश तो यही है कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। माँ-बेटा और भाई-बहन पार्टी के नेताओं ने सबसे पहले अमरिंदरसिंह को मुख्यमंत्री पद छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया। अमरिंदर क्या अब चुप बैठेंगे? वे जो भी निर्णय करें, वे अपने अपमान का बदला लेकर रहेंगे। शीघ्र ही होनेवाले पंजाब के चुनाव में अमरिंदर का जो भी पैंतरा होगा, वह कांग्रेस की काट करेगा। दूसरा, नए मुख्यमंत्री के लिए चरणसिंह चन्नी की नियुक्ति राजनीतिक दृष्टि से उचित थी, क्योंकि अन्य प्रतिद्वंदी पार्टियां भी अनुसूचित नेताओं को आगे कर रही हैं लेकिन पार्टी अध्यक्ष नवजोतसिंह सिद्धू का इस्तीफा अपने आप में इतनी बड़ी घटना है कि उसने कांग्रेस पार्टी की रही-सही छवि को भी तार-तार कर दिया है।
सिद्धू ने जो सवाल उठाए हैं, उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता। उन्होंने ऐसे मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति पर प्रश्न-चिन्ह खड़े कर दिए हैं, जो अकाली पार्टी के घनघोर समर्थक रहे हैं या जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप रहे हैं। लेकिन सिद्धू के इस एतराज़ पर उनका एकदम इस्तीफा दे देना क्या दो बातों का सूचक नहीं है? एक तो सिद्धू अपनी उपेक्षा से अपमानित महसूस कर रहे हैं और दूसरा, वे इतने घमंडी हैं कि उन्होंने अपना असंतोष दिल्ली को बताना भी जरुरी नहीं समझा। पार्टी-अध्यक्ष के नाते वे शायद चाहते थे कि हर नियुक्ति में उनकी राय को लागू किया जाए। यदि ऐसा होता तो मुख्यमंत्री चन्नी रबर की मुहर के अलावा क्या दिखने लगते? चन्नी की नियुक्ति के समय कहा जा रहा था कि वे तो चुनाव तक कामचलाऊ मुख्यमंत्री हैं। चुनाव तो लड़ा जाएगा, सिद्धू के नाम पर और वे ही पक्के मुख्यमंत्री बनेंगे। लेकिन उनके इस्तीफे ने कांग्रेस को इतना बड़ा झटका दे दिया है कि उसका चुनाव जीतना मुश्किल हो गया है। अब पंजाब की कांग्रेस कई खेमों में बंट गई है।
अब अमरिंदर और सिद्धू के ही दो खेमे नहीं हैं। अब सुनील जाखड़, सुखजिंदर रंधावा और राणा गुरजीतसिंह के खेमे भी अपनी-अपनी तलवार भांजे बिना नहीं रहेंगे। टिकिटों के बंटवारे को लेकर गृहयुद्ध मचेगा। जो भी अब नया कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा या सिद्धू यदि फिर लौटेंगे तो यह मानकर चलिए कि उन्हें कांग्रेस के लकवाग्रस्त शरीर को चुनाव तक अपने कंधों पर घसीटना होगा। कांग्रेस के इस अंदरूनी दंगल ने आप पार्टी, भाजपा और अकाली दल की बांछें खिला दी हैं। यदि सिद्धू को वापस लाया जाता है तो चन्नी की स्थिति शून्य हो जाएगी और सिद्धू का इस्तीफा मंजूर होता है तो कांग्रेस मस्तकविहीन शरीर बन जाएगी। पंजाब की इस दुर्घटना से यही निष्कर्ष निकलता है कि कांग्रेस-जैसी महान पार्टी अब भस्मासुर का रूप धारण करती जा रही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिसे 'आयुष्मान भारत डिजिटल मिशनÓ कहकर शुरु किया है, उसे मैं हिंदी में 'इलाज-पत्रÓ कहता हूँ। नौकरशाहों द्वारा यह अधकचरी अंग्रेजी में गढ़ा गया नाम यदि सादी भारतीय भाषा में होता तो वह आम आदमी की जुबान पर आसानी से चढ़ जाता लेकिन जो भी हो, यह 'इलाज पत्रÓ भारत की आम जनता के लिए बहुत ही लाभकारी सिद्ध होगा। भारत सरकार की इस पहल का स्वागत इस रफ्तार से होना चाहिए कि यह कोरोना के टीके से भी जल्दी सबके हाथों तक पहुंच जाए। यह 'इलाज पत्रÓ ऐसा होगा, जो मरीजों और डाक्टरों की दुनिया ही बदल देगा। दोनों को यह मगजपच्ची से बचाएगा और इलाज को सरल बना देगा।
अभी तो होता यह है कि कोई भी मरीज़ अपनी तबियत बिगडऩे पर किसी अस्पताल या डॉक्टर के पास जाता है तो दवाई देने के पहले डॉक्टर उसके स्वास्थ्य का पूरा इतिहास पूछता है। जरूरी नहीं है कि मरीज़ को याद रहे कि उसे कब क्या तकलीफ हुई थी और उस समय डॉक्टर ने उसे क्या दवा दी थी। अब जबकि यह इलाज-पत्र उसके जेबी फोन में पूरी तरह से भरा हुआ मिलेगा तो मरीज तुरंत वह डॉक्टर को दिखा देगा और उसको देखकर डॉक्टर उसे दवा दे देगा। जरुरी नहीं है कि मरीज और डॉक्टर आमने-सामने बैठकर बात करें और अपना समय खराब करें। यह सारी पूछ-परख का काम घर बैठे-बैठे मिनिटों में निपट जाएगा। अस्पताल और डॉक्टरों के यहां भीड़-भड़क्का भी बहुत कम हो जाएगा। चिकित्सा के धंधे में ठगी का जो बोलबाला है, वह भी घटेगा, क्योंकि उस 'इलाज-पत्रÓ में हर चीज़ अंकित रहेगी।
दवा-कंपनियों के साथ प्राय: डॉक्टरों की सांठ-गांठ के किस्से भी सुनने में आते हैं। इन कंपनियों से पैसे लेकर या कमीशन खाकर कुछ डॉक्टर और दवा-विक्रेता मरीजों को नकली या बेमतलब दवाएं खरीदने को मजबूर कर देते हैं। अब क्योकि हर दवा का इस 'इलाज-पत्रÓ में नाम और मूल्य दर्ज रहेगा, इसलिए फर्जी इलाज और लूट-पाट से मरीजों की रक्षा होगी। भारत में इलाज इतना मंहगा और मुश्किल है कि बीमारी से वह ज्यादा जानलेवा बन जाता है। एक मरीज़ तो जाता ही है, उसके कई घरवाले जीते जी मृतप्राय: हो जाते हैं। उनकी जमीन-जायदाद बिक जाती है और वे कर्ज के कुएं में डूब जाते हैं। ऐसा नहीं हैं कि भारत की स्वास्थ्य-व्यवस्था में यह 'इलाज-पत्रÓ क्रांति कर देगा लेकिन उसमें कुछ महत्वपूर्ण सुधार जरुर करेगा।
देश की स्वास्थ्य-सेवाओं में समग्र सुधार के लिए बहुत-से बुनियादी कदम उठाए जाने की जरुरत अभी भी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। यदि भारत की परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों में नए अनुसंधान को बढ़ाया जाए तो निश्चिय ही वे एलोपेथी से अधिक प्रभावशाली और सस्ती सिद्ध होंगी। वे जनता को भी शीघ्र स्वीकार्य होंगी। घरेलू इलाज से डॉक्टरों का बोझ भी कम होगा। इसका अर्थ यह नहीं कि हम ऐलोपेथी के फायदे उठाने में चूक जाएं। मेरा अभिप्राय सिर्फ यही है कि भारत के 140 करोड़ लोगों को समुचित चिकित्सा और शिक्षा लगभग उसी तरह उपलब्ध हो, जैसे हवा और रोशनी उपलब्ध होती है। यदि ऐसा हो सके तो भारत को कुछ ही समय में संपन्न, शक्तिशाली और खुशहाल होने से कोई रोक नहीं सकता।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुधा अरोरा
मुंबई में ऑटो रिक्शा का न्यूनतम किराया अब 21- रुपए हो गया है। बरसों तक यह 18/-ही था।
कल मैं अपने घर के नजदीक डी मार्ट से कुछ सामान लेकर लौटी तो ऑटो ले लिया। वैसे तो दस मिनट पैदल का ही रास्ता है पर सामान का वजन ज्यादा हो या घर पहुंचने की जल्दी हो तो अक्सर रिक्शा कर लेती हूं । घर पर उतरी, उसे बीस का नोट थमाने के बाद पर्स टटोल ही रही थी कि ऑटो वाले ने बड़े प्यार से कहा- आंटी, रहने दो... कितनी बार आपसे अठारह का बीस लिया है। कभी आपने छुट्टा नहीं लिया... मैंने एकदम उसकी ओर देखा और कहा- अच्छा...मैंने पहचाना नहीं। वह बोला- लेकिन हम सब आपको जानते हैं, सब बोलते हैं- आंटी कभी चिल्लर नहीं लेती। रिक्शा आगे बढ़ाते हुए मुस्कुराकर बोला- जब किराया अठारह रुपया था तो दो रुपया कोई नहीं छोड़ता था, अब इक्कीस है तो एक रुपया छोड़ देते हैं हम!
यह सीख कई साल पहले मेरी बिटिया गुंजन की दी हुई थी। मैं उसके साथ ऑटो में लौटी तो ऑटो वाले ने मुझे बीस का नोट लेने के बाद फौरन दो का सिक्का थमाया। मैंने आदतन ले लिया। गुंजन ने घर लौट कर मुझे डांट लगाई-मां, आपने दो रुपए क्यों लिए रिक्शे वाले से? मैं ठिठकी, फिर कहा- उसने दो के सिक्कों का ढेर रखा हुआ था, दिया तो ले लिया। अपनी सफाई भी दी। कई बार ऑटोवालों के पास छुट्टा नहीं होता तो नहीं लेती। वह कहने लगी-मां, आपके लिए दो रुपए की क्या कीमत है? कुछ नहीं। पर उस रिक्शे वाले से पांच लोग भी दो का सिक्का न लें तो उस को फर्क पड़ता है न! मत लिया करो आगे से! उसकी यह हिदायत मन में खुभ कर रह गई।
उस दिन के बाद से मैं कोशिश यही करती हूं कि ठेले वाले, भाजी वाले, रिक्शे वाले से कभी छुट्टे पैसे न लूं। भाजीवाला भी अब हिसाब करने के बाद चार छह का जोड़ घटाव खुद ही करके राउंड फिगर लेता है।
मुझे हैरानी जरूर होती है कि हम, जिन्हें पांच दस रुपयों से बिल्कुल कोई फर्क नहीं पड़ता, ठेले वाले से भाजी का मोल भाव जरूर करते हैं। ठेले वाला अगर दस रुपए के चार नींबू देता है तो दस रुपए के जबरन पांच या छह नींबू लेकर, एक-दो अतिरिक्त नींबू हमें कैसा सुकून देते है, सोचना पड़ता है!
बड़े-बड़े स्टोर से नामी ब्रांड के महंगे कपड़े खरीदते हुए हम अपना क्रेडिट कार्ड खुशी से काउंटर पर थमा देते हैं, पर भाजी वाले से मोल भाव करना, उसे पांच सात रुपए कम देना हमारे लिए बहुत बड़ी नियामत है।
कौन सा मनोविज्ञान काम करता है यहां ? इसे बदलना क्या इतना मुश्किल है ?
कृषि क्षेत्र से होने वाली कुल आमदनी भले ही 7.8 फीसदी बढ़ी है लेकिन साथ ही मुद्रास्फीति 16 फीसदी की रफ्तार से बढऩे से आज हमारा एक किसान औसतन सिर्फ 27 रुपये रोज कमा रहा है। खेती से होने वाली आय 48 फीसदी से कम होकर 38 फीसदी पर आ गई है।
कठोर सालों में अगर किसी क्षेत्र ने खामोश विनम्रता से करोड़ों गरीबों को ग्रामीण क्षेत्र में जिलाए रखा, और शहरों की सुरसाकार भूख मिटाई तो वह किसानी ही है। फिर भी शहरी उद्योगों को विकास के नाम पर तवज्जो देते हुए किसान की पीठ पर नए कानूनों को रख देना उसे अपनी रीढ़ टूटना लग रहा है। 2019-20 से अगस्त, 2021 तक इस क्षेत्र से लगभग 20 लाख निराधार खेत मजूर बेदखल हुए हैं। फिर भी यह तादाद इसी दौरान शहरों में घटे 30 लाख 70 हजार रोजगारों से कम हैं। तालाबंदी के दौरान बेरोजगारों की एक भारी भीड़ शहरों से गांवों को भागी थी, आज वह फिर लौटने को बाध्य है क्योंकि उसने देखा कि किस तरह कृषि का क्षेत्र बदहाल होता जा रहा है।
भारतीय किसानों का नए किसानी कानूनों के खिलाफ लगभग साल भर से चल रहा धरना इसी दशा का आईना है। गुलाबी अखबारों में राजनीति से अर्थजगत तक में शहरी विकास के पैरोकार लगातार फैलते शहरीकरण की दुहाई देकर खेती की बजाय शहरी उद्योगों में ही अधिक निवेश करने का मंत्र सरकार के कानों में फूंक रहे हैं। पर चंद सच्चाइयां वे नहीं बता रहे।
एक, आज भी देश में अनौपचारिक क्षेत्र और उसमें भी खेती-बाड़ी सबसे अधिक (लगभग 58 फीसदी) रोजगार मुहैया कराता है। और जब तालाबंदी के दौरान देश के उद्योगों और सेवा क्षेत्र की सकल उत्पाद दर औधे मुंह जा गिरी थी, उस समय भी किसानी ने ही बांह गही। गोदी मीडिया में इस धारणा को बल देते हुए प्रचंड उपभोक्तावाद और भौतिक वैभव के अशिष्ट दिखावे की छवियां दिखाई जा रही हैं, जैसे शहरों में कोई कारूं का खजाना धरा हो। सचाई यह है कि असली दुनिया में हताशा में अपनी उपज सडक़ों पर फेंकने को बाध्य किसान तमाम कष्ट सहकर भी पहली बार लंबे धरने पर उतर आए हैं। सरकारी अवहेलना और शिखर की चुप्पी से उनका गुस्सा इतना गहरा चुका है कि उनको रोकने-तोडऩे की साम- दाम-दंड-भेद की कोई कोशिश परवान नहीं चढ़ सकीं। अलबत्ता हाल में अपनी पुलिस को लामबंद किसानों के सर फोडऩे का बेशर्म हुकुम देते अफसर को टीवी पर देखकर जनता का गुस्सा भी उबल पड़ा। लिहाजा वे पहले स्थानांतरित किए गए और फिर जांच होने तक छुट्टी पर भेज दिए गए।
श्रम मंत्रालय (आईएलओ) के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में ‘मनरेगा’ (जिसकी मौजूदा सरकार ने शुरू में जमकर खिल्ली उड़ाई और आवंटित राशि में कटौती की) ने सबसे कमजोर तबके, महिला खेत मजूरों को रोजगार तो दिया, पर 2020-21 की तुलना में उसके लिए आवंटित राशि 34 फीसदी कम होने से लगभग बीस लाख महिलाएं काम से बेदखल हो गईं। उनको राहत के नाम पर फौरी तौर से जो राशि या मुफ्त गैस सिलेंडर वगैरा बांटे गए, वह अंधेरे में भटके को चंद पल दिया सलाई की रोशनी दिखाने से अधिक नहीं निकला। लिहाजा ग्रामीण बेरोजगार फिर शहर लौटने को लाचार हुए। पर शहरों में भी धीरे-धीरे खुल रहे उपक्रमों में अभी उतनी नौकरियां नहीं हैं। शेयर बाजार का ताजा उछाल शहरी अर्थव्यवस्था की तरक्की का प्रमाण नहीं माना जा सकता। यह बढ़त फार्मा या शिपिंग या पेट्रो पदार्थों (तथा मीडिया) के मु_ी भर घरानों की निजी दौलत बेशुमार बढऩे से उपजी है।
हमारे देश में आज भी 80 फीसदी लोग कम वेतन, कम सुरक्षा के बावजूद अनौपचारिक क्षेत्र में ही नौकरी पा रहे हैं जहां पहले अप्रशिक्षित महिलाओं की बड़ी तादाद होती थी। इधर कई हुनरमंद पुरुष औपचारिक क्षेत्र की छंटनियों से दर-बदर होकर इस क्षेत्र में घुस आए हैं और अधिकतर काम उन्होंने पकड़ लिए हैं। अनुभवी पुरुष घर आ जाने से ग्रामीण महिलाएं खेती क्षेत्र से भी बाहर जाने को मजबूर हो रही हैं। शहरों में वे प्राय: अवैतनिक घरेलू काम कर रही हैं या फिर निर्माण क्षेत्र में ठेके पर काम करते पुरुष मजूरों से कहीं कम तनख्वाह पर उनकी मदद।
हर तरफ से हारा सरकारी योजनाकार हारे को हरिनाम चरितार्थ करता हुआ धार्मिक पर्यटन को धुकाने में जुट गया है। कोविड की तालाबंदी के बीच सेवा क्षेत्र बंद हुआ तो सरकार एक अपरिचित शब्दावली धार्मिक पर्यटन और पवित्र स्नानों का हवाला देकर तीर्थ स्थलों के ताले खुलवाने लगी। ऐसे बिकाऊ धर्म में न पुरानी आत्मीयता है, और न ही लोकल स्वास्थ्य या पर्यावरण के लिए कोई चिंता। हमको कहा जा रहा है कि सरकारी निर्माण योजना से सडक़ और पुल निर्माण में नौकरियां निकलने वाली हैं। साथ ही यह भी कि आपको यह अच्छी सडकें फोकट में नहीं मिलेंगी। भरपूर टोल देना होगा। कुदरती साधनों के दोहन से तैयार तथाकथित राजमार्गों और बेहतरीन पर्यटन सडक़ों की दशा हिमालयीन इलाके में जाकर देख लें। अत्यधिक खोदा- खादी और ब्लास्ट ने इन बारिशों में ही पहाड़ों को मलबे में तब्दील कर सडक़ों का ऐसा भुरकुस निकाला कि चारधाम यात्रा बार-बार बंद करनी पड़ी। इस बीच वॉटरशेड, यानी जलागम विकास के नाम पर हो रहा काम नदियों को गाद से भर गया! पर जब चमोली की तरह कोई बड़ी झील यकायक फटी, तब मुख्यमंत्री दिल्ली तलब हुए और आग लगने पर कुएं खोदे गए।
अभी उत्तराखंड के बीसेक गांवों के लोगों ने बिल्डरों द्वारा जल दोहन को लेकर नैनीताल में धरना दिया। हरित क्रांति ने करीब चार दशकों तक अपना हल-बखर चलाकर विकासशील दुनिया को उन्नत किसम के बीज बोने पर राजी कर लिया तो पहाड़ से मैदान तक बीजों के साथ कीटनाशक और भरपूर पानी की मांग बढ़ी। अब अन्न की उपज के साथ उसके वितरण के क्षेत्र में भी मेगा ग्लोबल कंपनियां आ गई हैं। सदियों से किसानों और बाजार के बीच का सेतु रही मंडियों को नए कानून चुनौती दे रहे हैं। बिना उनसे सलाह-मशवरा किए ताबड़तोड़ निर्माण या कृषि कानूनों पर ग्रामीण विनम्रता से बातचीत करना चाहते हैं, तो उनको सुनने वाले कान नहीं मिलते। उल्टे सडक़ों पर अवरोधक लग जाते हैं।
यह भी गौरतलब है कि अमीर देशों की जिन बीज कंपनियों ने पहले ही विकासशील देशों में केले तथा कोको से लेकर रबर तक की विविध किस्मों की रज जमाकर शोध रोक दिया था, वे पारंपरिक तिलहनों की जगह सस्ते लेकिन पर्यावरण को खतरा पेश करने वाले पाम तेल का गुणगान शुरू करा रही हैं। बड़े ग्लोबल सौदागरों की झोली ऐसे तमाम टोटकों से भरी हुई है। बीजों की रज पर कब्जे का मतलब है पौधों की आनुवंशिकता से लेकर बिकवाली तक खेती से जुड़े हर फैसले पर किसान की बजाय कंपनी का नियंत्रण। किसानों का अब तक का अनुभव रहा है कि सिंचित इलाकों की अधिकतर फसल रोकड़ फसल होती है जो तिजोरी कुछ समय तक के लिए भरने की चीज भले दिखे, अंत में कीमती खरपतवार नाशक, कीटनाशक और बनावटी खाद के दाम उनकी कमाई को लीलने में देर नहीं लगाते।
इधर लंबे समय बाद राष्ट्रीय आंकड़ों के बड़े स्रोत नेशनल स्टैटिस्टिकल सर्वे के द्वारा 2019 में ग्रामीण इलाकों के खेतिहर परिवारों की आमदनी पर शोध आया है। वह (सिचुएशनल असेसमेंट सर्वे 2018-19) स्वीकारता है कि कृषि क्षेत्र से होने वाली कुल आमदनी भले ही 7.8 फीसदी बढ़ी है लेकिन साथ ही मुद्रास्फीति 16 फीसदी की रफ्तार से बढऩे से आज हमारा एक किसान औसतन सिर्फ 27 रुपये रोज, यानी कुल 810 रुपये प्रतिमाह कमा रहा है। खेती से होने वाली आय तो 48 फीसदी से कम होकर 38 फीसदी पर आ गई है और जो आय की क्षीण बढ़ोतरी हुई है, वह खेती से नहीं, बल्कि पशुपालन और किसानी मजूरी दर बढऩे से हुई है। सर्वे यह भी बता रहा है कि प्रति किसानी परिवार के सर पर फार्म लोन का बोझ 2012- 13 की तुलना में 2019 तक आते-आते 16.5 फीसदी (47,000 सालाना से बढक़र 74,100 रुपये) हो गया है। इस सबके उजास में किसानों की हताशा और गुस्सा समझ में आते हैं।
आम तौर से देश के हाशिये पर शांति से अपना काम करता रहा किसान ऊपरी आश्वासनों पर भरोसा नहीं करता। इसीलिए सरकारी अमलों और नेताओं को किसानों ने मुजफ़्फरनगर, गाजीपुर, टीकरी, करनाल से अलीगढ़ तक मंच से बलपूर्वक उतारना शुरू किया है। सोचिए, जब उनको टीवी पर साफ दिखता हो कि हमारे उच्चवर्गीय शहरी युवा घर बैठे काम से इतना धन कमा रहे हैं कि हजार रुपया प्रति व्यक्ति की दर पर बड़े रेस्तरां से बजरिये स्विगी या जमाटो घर पर ही बेहतरीन खाना मंगवा सकें, तो वे जो देश के अन्नदाता हैं, कब तक 810 रुपये प्रतिमाह की अपनी कमाई पर चुपचाप बिना प्रतिवाद किए जिएं? जब चुनाव सर पर खड़े हों (और इस विशाल देश में वे कब नहीं होते?) तो गरीब मतदाता भी मंच पर सीधा खड़ा होकर मन की बात करने लगता है। (navjivanindia.com)
-अपूर्व गर्ग
शहीद भगत सिंह ने अपनी कालकोठरी जो उनका अध्ययन कक्ष था, गंभीर अध्ययन करते अपनी आत्मकथा सहित 4 महत्वपूर्ण किताबें लिखी थीं? क्या हुआ उन पुस्तकों का?
ये सवाल भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र सिंधु जो भगतसिंह के छोटे भाई कुलतारसिंह की बेटी हैं, उन्होंने 28 दिसंबर 1968 को अपनी पुस्तक ‘युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’ में उठाया। वीरेंद्र सिंधु ने लिखा है-उन्होंने फाँसी कोठरी में बैठे-बैठे वक्तव्य तो जाने कितने लिखे थे, पर कई पुस्तकें भी लिखी थीं ,इनमें महत्वपूर्ण पुस्तकें थीं-
1-आइडियल ऑफ सोशलिज्म
2-द डोर टू डेथ
3-ऑटोबायोग्राफी
4-द रिवोल्यूशनरी मूवमेंट ऑफ इंडिया विथ शार्ट बायोग्राफिक स्केचेस ऑफ थे रिवोल्यूशनरीज
इन पुस्तकों में भगतसिंह ने नई समाज व्यवस्था को रेखांकित कर विकल्प के रूप में और समाधान के तौर पर समाजवाद को प्रस्तुत किया था। ‘आइडियल ऑफ सोशलिज्म’ को भगतसिंह तुरंत छपवाना चाहते थे, उनका कहना था इस पुस्तक की ‘पोलिटिकल वैल्यू’ बहुत अधिक है।
क्या हुआ उन पुस्तकों का ? इसका जवाब देते हुए वीरेंद्र सिंधु ने लिखा है-भगत सिंह का आदेश था सारी सामग्री लज्जावती जी को दे दी जाएँ। इसके बाद कुलबीर सिंह द्वारा सामान उन तक पहुँच गया।
इसके बाद की कहानी भी कुलबीर सिंह के शब्दों में 1933-34 में मैंने इस साहित्य की बात चाचाजी सरदार अजीतसिंह को लिखी, जो उस समय जर्मनी में थे। उन्होंने उत्तर दिया उस सब साहित्यकी नकल करवाकर मुझे भेज दो। मैं उन्हें यहाँ अंग्रेजी, जर्मनी और अन्य भाषाओं में छपा दूँगा ।
मैं लज्जावतीजी के पास गया। उन्होंने कहा, वह देश की संपत्ति है, इसलिए मैंने पंडित जवाहरलाल नेहरू को दे दी थी। कुछ दिनों के बाद पंडित नेहरू लाहौर आये, तो मैंने उनसे उस साहित्य की नकल दे देने को कहा। वे बोले तुमसे किसने कहा कि मेरे पास वो साहित्य है? मैंने लज्जावतीजी का नाम लिया। वो चुप हो गए फिर कुछ बोले।
इसके बाद मैंने लज्जावतीजी से फिर पूछा, तो वे बोलीं ‘मैंने पुस्तकें विजय कुमार सिन्हा को दे दी हैं। मिलने पर श्री विजय कुमार सिन्हा ने स्वीकार किया और 1946 तक कहते रहे कि उन्हें देखभाल कर जल्दी ही छपवाएंगे, पर बाद में उन्होंने कहा कि वे पुस्तकें सुरक्षा के ख्याल से किसी मित्र के पास रखी थीं, वहीं नष्ट हो गई।’ तो एक बात तो ये कि ये दस्तावेज नेहरूजी तक कभी पहुंचे ही नहीं...
वीरेंद्र सिंधुजी के लिखे विवरण से जाहिर है-
1-भगत सिंह के कहने पर पुस्तकें लज्जावती को दी गईं।
2-ये पुस्तकें नेहरूजी तक बिल्कुल नहीं पहुंची।
3-लज्जावतीजी ने जब दोबारा भगतसिंह के साथ विजय कुमार सिन्हा का नाम लिया और सिन्हाजी ने स्वीकार किया। पुस्तकें उन तक पहुंची।
4-विजय कुमार सिन्हा ने छपवाने का वादा किया पर अचानक कुलबीर सिंह को जवाब दिया कि-नष्ट हो गईं!
वीरेंद्र सिंधु ने बहुत पीड़ा के साथ आगे लिखा है कि बहुत दर्दनाक है ये संस्मरण, यह इतिहास की धरोहर के छिन जाने की कहानी है। इतिहास इसके लिए किसे दोष देगा मैं नहीं जानती।
भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी शिव वर्मा ने ‘शहीद ‘भगतसिंह की चुनी हुई कृतियों’ के आमुख में लिखा है-दुर्भाग्यवश जेल में भगतसिंह द्वारा लिखी गई चार पुस्तकों [उपरोक्त] की पांडुलिपियाँ नष्ट हो चुकी हैं। ये चारों पांडुलिपियाँ चोरी-छिपे जेल से बाहर लाई गईं और कुमारी लज्जावती के पास जालंधर भेज दी गई थीं, जिन्होंने 1938 में इनको विजय कुमार सिन्हा के हवाले कर दिया। 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने के बाद सिन्हा को लगा, और ठीक ही लगा, कि उनकी गिरफ्तारी और उनके घर की तलाशी हो सकती है। इसलिए पांडुलिपियों को पुलिस के हाथों पडऩे से बचाने के लिए उन्होंने, उनको सुरक्षित रख-रखाव के उद्देश्य से अपने एक मित्र के हवाले कर दिया।
लेकिन 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के बाद जब पुलिस दमन जोरों पर था, यह दोस्त बेहद डर गया और उसने पांडुलिपियों को नष्ट कर दिया।’
यानी भगत सिंह के सबसे नजदीकी कामरेड शिव वर्मा जी चारों किताबों की पुष्टि करते हैं, जिसके वे जेल में भी प्रत्यक्ष गवाह रहे।
शिव वर्मा ये भी कन्फर्म करते हैं कि चारों किताबें लज्जावती के हाथों विजय कुमार सिन्हा को मिली बस और आगे जो शिव वर्मा ने सुना किताबें नष्ट होना, उस सुनी हुई बात को लिखा।
जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और ‘भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज’ के संपादक प्रोफेसर चमनलाल ने ‘उद्भावना’ द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका में शिववर्मा को उद्धृत कर लिखा है-लज्जावती ने उन दस्तावेजों को ‘पीपुल’ के संपादक फिरोजचंद को दिए।
फिरोजचंद ने उसमे से कुछ कागज चुनकर बाकी लज्जावती को वापिस कर दिए, जिन्हें लज्जावती ने 1938 में विजय कुमार सिन्हा को दिया।
उन दस्तावेजों में फिरोजचंद ने 27 सितम्बर 1931 के अंक में ‘मैं नास्तिक क्यों’ शीर्षक लेख प्रकाशित किया।
भगतसिंह के पिता भी उन दस्तावेजों को पाने, देखने के लिए बहुत परेशान थे, लेकिन भगतसिंह के निर्देशानुसार लज्जावती ने इसके लिए सख्ती से इंकार कर दिया।
इस पूरे परिदृश्य का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इन दस्तावेजों के प्रति उदासीनता का है, जिसकी चर्चा अब महत्वपूर्ण है। कुमारी लज्जावती ने ही नहीं बल्कि फिरोजचंद ने भी यहाँ तक की विजय कुमार सिन्हा ने भी उन दस्तावेजों के प्रति उदासीनता बरती।’
आगे प्रोफेसर चमनलाल इन पुस्तकों पर सवाल उठाते हैं कि जो शिव वर्मा ने देखा हो वह पूर्ण पाण्डुलिपि थी अथवा जेल डायरी की तरह दर्ज टिप्पणियाँ ही थी, इस वषय में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता। सतही तौर पर देखें तो इतने अल्प समय [लगभग 2 बरस, 8 अप्रैल 1929 से 23 मार्च 1931 ] 4 पुस्तक लिखना कठिन है...
प्रोफेसर साहब क्या सचमुच भगत सिंह जैसे महान विचारक-क्रांतिकारी के लिए 2 बरस में सिर्फ 4 पुस्तकें लिखना असंभव है?
भगत सिंह को पढ़ते हुए हमें लगता है कि 4 तो कुछ भी नहीं ? यही वजह है चमनलालजी के साथ कई विद्वानों की बहुत असहमतियाँ हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील और विख्यात लेखक अरविन्द जैन का भगतसिंह पर विस्तृत लेख ‘हँस’ अर्धशती विशेषांक (1997) में छपा ।
इस लेख में अरविन्द जैनजी ने इस मुद्दे को खास तौर पर रेखांकित किया।
मैंने अरविन्द जैनजी से पूछा-भगत सिंह की चारो पुस्तकें जो नष्ट हो गई कुमारी लज्जावती ने विजय कुमार सिन्हा को सौंपी तो आखिर पुस्तकें गयीं कहाँ ? क्या आसानी से नष्ट हो गईं?
जैन साहब ने फेसबुक पर ही मेरे सवाल के जवाब में कहा-‘कुछ भी कहना कठिन है।’
विजय कुमार सिन्हा ने अंत में जिन्हे ये पुस्तकें या अमूल्य धरोहर सौंपी क्या ये संभव है वो नष्ट कभी की जा सकती थीं ?
संभव है कि ये किसी रूप में मौजूद हों! वाकई कुछ नहीं कहा जा सकता....
जो भी हो एक बार फिर इन पुस्तकों को ढूंढने के विषय में पूरे प्रयास होने चाहिए।
टूटी छूटी कडिय़ों को जोडक़र पहल करनी चाहिए, यदि मिल गईं तो हिन्दुस्तान की सबसे अमूल्य धरोहर होंगी।
[तस्वीर-‘पुस्तक युग द्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’-पेज नंबर -306 ]
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के मुख्य न्यायाधीश न.व. रमन ने पिछले हफ्ते भारत की न्याय व्यवस्था को भारतीय भाषाओं में चलाने की वकालत की थी, इस हफ्ते उन्होंने एक और कमाल की बात कह दी है। उन्होंने भारत की अदालतों में महिला जजों की कमी पर राष्ट्र का ध्यान खींचा है। उन्होंने कहा है कि भारत के सभी न्यायालयों के जजों में महिलाओं की 50 प्रतिशत नियुक्ति क्यों नहीं होती? देश में कानून की पढ़ाई में महिलाओं को क्यों नहीं प्रोत्साहित किया जाता? महिला वकीलों की संख्या पुरुष वकीलों के मुकाबले इतनी कम क्यों है? उनकी राय है कि देश की न्याय व्यवस्था में महिलाओं की यह कमी इसलिए है कि हजारों वर्षों से उन्हें दबाया गया है। न्यायमूर्ति रमन ने मांग की है कि राज्य सरकारें और केंद्र सरकार इस गलती को सुधारने पर तुरंत ध्यान दें।
यदि भारत के नेताओं और लोगों को यह बात ठीक से समझ में आ जाए तो हमारी अदालतों की शक्ल ही बदल जाएगी। सबसे पहले हम यह समझें कि आंकड़े क्या कहते हैं। हमारे सर्वोच्च न्यायालय में इस समय 34 जज हैं। उनमें से सिर्फ चार महिलाएं हैं। अभी तक सिर्फ 11 महिलाएं इस अदालत में जज बन सकी हैं। छोटी अदालतों में महिला जजों की संख्या ज्यादा है लेकिन वह भी 30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। इस समय देश की अदालतों में कुल मिलाकर 677 जज हैं। इनमें से महिला जज सिर्फ 81 हैं याने सिर्फ 12 प्रतिशत ! प्रदेशों के उच्च न्यायालयों में 1098 जज होने चाहिए लेकिन 465 पद खाली पड़े हैं। इन पदों पर महिलाओं को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती ? प्राथमिकता देने का यह अर्थ कतई नहीं है कि अयोग्य को भी योग्य मान लिया जाए। महिलाओं को या किसी को भी जो 50 प्रतिशत आरक्षण मिले, उसमें योग्यता की शर्त अनिवार्य होनी चाहिए।
देश के वकीलों में सुयोग्य महिलाओं की कमी नहीं होगी लेकिन दुर्भाग्य है कि देश के 17 लाख वकीलों में मुश्किल से 15 प्रतिशत महिलाएं हैं। राज्यों के वकील संघों में उनकी सदस्यता सिर्फ दो प्रतिशत है और भारत की बार कौंसिल में एक भी महिला नहीं है। देश में कुल मिलाकर 60 हजार अदालतें हैं लेकिन लगभग 15 हजार में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं हैं। हमारे इस पुरुषप्रधान देश की तुलना जरा हम करें, यूरोप के देश आइसलैंड से ! वहाँ कल हुए संसद के चुनाव में 63 सांसदों में 33 महिलाएँ चुनी गई हैं याने 52 प्रतिशत। वहां की प्रधानमंत्री भी महिला ही हैं- श्रीमती केटरीन जेकबस्डोटिर। उसके पड़ौसी देश स्वीडन की संसद में 47 प्रतिशत महिलाएँ हैं और अफ्रीका के रवांडा में 61 प्रतिशत हैं। दुनिया के कई छोटे-मोटे और पिछड़े हुए देशों में भी उनकी संसद में भारत के मुकाबले ज्यादा महिलाएँ हैं। भारत गर्व कर सकता है कि उसके राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष पद पर महिलाएं रह चुकी हैं लेकिन देश के मंत्रिमंडलों, संसद और अदालतों में महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व मिले, यह आवाज अब जोरों से उठनी चाहिए। इस स्त्री-पुरुष समता का समारंभ हमारे राजनीतिक दल ही क्यों नहीं करते?
(नया इंडिया की अनुमति से)
28 सितंबर को 30 वीं पुण्यतिथि पर याद
-बाबा मायाराम
शंकर गुहा नियोगी, छत्तीसगढ़ के मशहूर मजदूर नेता थे, उनकी बहुत ही कम आयु में हत्या 28 सितंबर, 1991 को कर दी गई, जब वे मात्र 48 वर्ष के थे, लेकिन उस समय तक उनकी ख्याति देश-दुनिया में फैल चुकी थी। वे एक किंवदंती बन चुके थे। उन्होंने न केवल मजदूरों की जिंदगी की बेहतरी के लिए काम किए, वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि पूरी जिंदगी के लिए काम किया। व्यापक तौर पर सामाजिक बदलाव के नए प्रतिमान बनाए, उन्हें जमीन पर करके दिखाया। वे जन आंदोलन व सामाजिक बदलाव की एक उम्मीद बन गए।
शंकर गुहा नियोगी का जन्म जलपाईगुड़ी (पश्चिम बंगाल में हुआ। पर विद्यार्थी जीवन में ही भिलाई आ गए। भिलाई इस्पात संयंत्र में काम भी किया। लेकिन जल्दी ही गांव की तरफ रुख कर लिया। गांव-गांव घूमे, खुद मजदूरी की, पत्थर तोड़े, छोटे छोटे काम कर जीवन चलाया। गरीबी व लोगों की तंगदिली को करीब से देखा। उनमें संगठन बनाने की कोशिश की। कई बार जेल गए, उन्होंने अपने जीवन के 6 वर्ष जेल में बिताएं। वहां यातनाएं भी झेली।
उनकी कर्मस्थली बना छत्तीसगढ़ का कस्बा दल्ली राजहरा, जो अब बालोद जिले में है, पहले दुर्ग जिले में था। दल्ली और राजहरा नाम की दो लौह खदानों के नाम पर ही इसका नाम दल्ली राजहरा पड़ा। इन खदानों से लौह अयस्क भिलाई इस्पात संयंत्र को जाता था। इन खदानों में जो ठेका मजदूर काम करते थे, उन मजदूरों को बहुत ही कम रोजी मिलती थी। उनक़ी हालत अच्छी नहीं थी। उस समय के यूनियन उचित नेतृत्व देने में सक्षम नहीं थे, वे प्रबंधन के साथ मिले थे। ऐसे समय में नियोगी जी के कुशल नेतृत्व के आगे प्रबंधन को मजदूरों की मांगें माननी पड़ी। और एक के बाद एक संघर्ष के आगे सफलताएं मिलती गईं।
नियोगी की व्यापक सोच थी। उन्होंने मजदूरों के लिए 17 विभाग बनाए, जिन पर लगातार काम होता रहा। किसानों की समस्याओं से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, शराबबंदी, महिला संगठन इत्यादि। एक अनूठा स्वास्थ्य आंदोलन चला- मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए मेहनतकशों का संघर्ष। इसके तहत् शहीद अस्पताल बना, जो आज एक सर्वसुविधायुक्त अस्पताल बन गया है। कोविड-19 के दौरान इस अस्पताल ने बहुत ही अच्छा काम किया है। कोविड वार्ड बनाकर रात-दिन मजदूरों की सेवा की है। इस अस्पताल ने लोगों का विश्वास जीता है और साख अर्जित की है, जो बड़े बड़े अस्पतालों के पास नहीं है। इसी तरह अर्द्धमशीनीकरण की उनकी सोच मौजूं है। जिसमें खदानों में जोखिम वाले काम मशीन से करने और बाकी काम मजदूरों से करवाने की सोच थी।
अपना जंगल पहचानो, के नाम से छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के कार्यालय के पीछे लगाया जिसमें कई तरह के देसी प्रजाति के पेड़ हैं। पिछली बार मैं गया तो उस जंगल में घूमा था। वे उन आदिवासियों व जंगल में रहनेवाले लोगों की समस्या से भी लड़ते थे, जिन्हें जलाऊ लकड़ी के लिए वनविभाग परेशान करता था।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, जिसके नियोगी के संस्थापक थे, के नेतृत्व के लिए भी उन्होंने कई नियम बनाए थे। छमुमो के कार्यकर्ता संघर्ष में तपकर निकलते थे। जेल जाना, पुलिस की लाठियां खाना, सादगी से रहना और मजदूरों के बीच उनकी तरह जीवन बिताना, कार्यकर्ताओं की पहचान थी।
जनकलाल ठाकुर, जो छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष है, की सादगी मिसाल है।शेख अंसार, भीमराव बागड़े, गणेशराम चौधरी, डा शैवाल जाना जी जैसे कई लोग हैं, जिनकी जिंदगी ही बदल गई। फागूराम यादव जी, ने ऐसे जनगीत रचे, जो जनांदोलन के प्रमुख गीत बन गए। चल मजदूर चल किसान, देश के हो महान, ऐसा ही लोकप्रिय गीत है। लोक संस्कृति को आंदोलन की संस्कृति से जोड़ा। वह आंदोलन की जान थी। छमुमो ने ऐसे कई गीत रचनेवाले बनाए, जो बहुत ही अनूठी बात है। नियोगी जी ने सैकड़ों लोगों को छुआ व बदला।
मुझे 80 के दशक के शुरूआत में नियोगी जी से मिलने और उनके साथ इलाके में घूमने का मौका मिला। वर्ष 84 में दल्ली राजहरा में करीब एक माह रहा और कई गांवों में घूमा। इस दौरान मैंने देखा कि वे हमेशा ही मजदूरों से घिरे रहते थे, उनकी छोटी छोटी समस्याओं से लेकर बड़ी समस्याओं से सुलझाते रहते थे।
मैंने देखा कि वे इतने व्यस्त रहते थे कि दोपहर में भोजन भी नहीं कर पाते थे। एक बार मैंने याद दिलाया, तो बोले सब मजदूर खाएंगे तो हम भी खा लेंगे। मजदूरों के बीच से निकल कर भोजन करना भी उन्हें गंवारा न था। वे एक झोपड़ी में रहते थे। खुद कुएं से पानी खींचकर नहाते थे। कपड़े धोते थे। उन्हें पेड़-पौधों में गहरी दिलचस्पी थी। उनके घर में खूब पौधे थे, एक बिना बीजवाला नींबू वे हमारे ही इलाके से लेकर गए थे, जो अब भी उनके यहां है।
उनका जीवन पारदर्शी था। वे एक झोपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते थे। उनके बेटे और बेटियां का नाम उन्होंने क्रांति, जीत और मुक्ति रखा। उनका एक-एक कदम आदर्श से भरा था। जो कहते थे वैसा जीते थे। निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद नहीं था। कोई भी मजदूर उनकी चूल्हे की हांडी में क्या पक रहा है, देख सकता था।
उसके बाद भी मैं कई बार नियोगी जी से मिला, उनकी हत्या के 10 दिन पहले जब वे होशंगाबाद आए थे, तब उनसे आखिरी मुलाकात हुई थी, उन्होंने मुझे जल्द ही दल्ली राजहरा मिलने के लिए बुलाया था, कहा था कि बाबा, मजदूरों का एक अखबार निकालना है, लेकिन जब दल्ली गया तब वे नहीं थे। दल्ली राजहरा के बस स्टैंड पर उतरते ही उनकी फोटो के लिए झपटते मजदूरों को देखा, जो एक व्यक्ति बेच रहा था, अभी उनकी फोटो चिपकाए कई मजदूर व बुजुर्ग मिल जाते हैं, नियोगी उनके दिलों में जिंदा हैं। उनके लिए बड़े महल व स्मारक बनवाने की जरूरत नहीं हैं, जो खंडहर बन जाते हैं। वे छत्तीसगढ़ के किसान-मजदूरों के दिलों में सदैव ही जिंदा रहेंगे।
-ध्रुव गुप्त
अपनी शुरुआत से अबतक हिंदी सिनेमा में पुरुष संगीतकारों का वर्चस्व रहा। फिल्म संगीत के नब्बे साल के सफर मे बस इक्का-दुक्का स्त्री संगीतकार ही पुरुषों के आधिपत्य वाले इस क्षेत्र में अपनी थोड़ी-बहुत पहचान बना पाई हैं। पिछली सदी के तीसरे-चौथे दशक की एक संगीतकार सरस्वती देवी को हिंदी सिनेमा की पहली स्त्री संगीतकार होने का गौरव हासिल है। उस दौर में अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दनबाई तथा बाद में पाकिस्तान जा बसी इशरत सुल्ताना ने भी कुछ फिल्मों का संगीत दिया था, लेकिन जानकार पहली स्त्री संगीतकार होने का श्रेय सरस्वती देवी को देते हैं। पंकज मलिक और आर.सी बोराल जैसे दिग्गज संगीतकारों के उस दौर में सरस्वती देवी की लोकप्रियता चरम पर थी।
1912 में एक पारसी परिवार में जन्मी ख़ुर्शीद मिनोचर होमजी उर्फ सरस्वती देवी ने विष्णु नारायण भातखंडे से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने के बाद रेडियो पर गाना शुरू किया था। रेडियो पर उन्हें सुनकर बॉम्बे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय ने उन्हें अपनी पहली फिल्म ‘जवानी की हवा’ और ‘जीवन नैया’ के संगीत निर्देशन का भार सौंपा। इन फिल्मों का संगीत खूब चला। अशोक कुमार की आवाज़ में ‘जीवन नैया’ का एक गीत ‘कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा’ तब बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके बाद अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत उनकी फिल्म ‘अछूत कन्या’ ने सफलता के झंडे गाड़े। उस फिल्म का एक गीत ‘मैं बन की चिडिय़ा बन के वन-वन बोलूं रे’ हिंदी सिनेमा के अमर गीतो में एक साबित हुआ। सरस्वती देवी ने पचास से ज्यादा फिल्मों के लिए संगीत रचा था जिनमें से कुछ चर्चित फिल्में हैं - जीवन नैया, अछूत कन्या, प्रेम कहानी, ममता, कंगन, झूला, बंधन, भाभी, निर्मला, वचन और आम्रपाली। गायक किशोर कुमार और संगीतकार मदन मोहन ने उनकी कई फिल्मों में कोरस गाया था। उनकी फिल्म ‘उषा हरण’ में गाने वाली लता मंगेशकर का मानना है कि सरस्वती देवी से उन्हें संगीत की कई बारीकियां सीखने को मिली थी।
उनकी फिल्म ‘जीवन नैया’ के गीत ‘कोई हमदम न रहा’ को 1961 में किशोर कुमार ने फिल्म ‘झुमरू’ में अपनी आवाज देकर अमर कर दिया था। उनकी फिल्म ‘झूला’ में अशोक कुमार की आवाज में एक गीत ‘एक चतुर नार करके सिंगार’ को दोबारा राहुल देव बर्मन ने फिल्म ‘पड़ोसन’ में किशोर कुमार और मन्ना डे की आवाज में रिक्रिएट किया था। उनकी फिल्म ‘बंधन’ के एक मशहूर गीत ‘चनाजोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार’ का इस्तेमाल मनोज कुमार ने कुछ फेरबदल के साथ 1981 की अपनी फिल्म ‘क्रांति’ में किया था।
चौथे दशक में बॉम्बे टॉकीज के बंद होने और नौशाद, हुस्नलाल भगतराम, अनिल बिस्वास, सी रामचंद्र, शंकर जयकिशन जैसे संगीतकारों के उदय के साथ फिल्म संगीत में नए-नए प्रयोगों की बाढ़ आने के बाद सरस्वती देवी धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चली गई। उनके बाद हिंदी फिल्म संगीत में बदलाव के कई दौर आए, लेकिन यह निर्विवाद है कि हिंदी फिल्म संगीत को उसका वर्तमान स्वरूप देने में सरस्वती देवी की भूमिका अहम रही थी। उनके बाद छठे दशक में एक दूसरी स्त्री संगीतकार उषा खन्ना अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हो सकी थी। दुर्भाग्य से फिल्म संगीत के इतिहास ने सरस्वती देवी को वह श्रेय नहीं दिया जिसकी वे वाकई हकदार थीं।
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा भारतीय मीडिया में पिछले तीन-चार दिन छाए रही। सभी टीवी चैनलों और अखबारों में उसे सबसे ऊँचा स्थान मिला लेकिन हम अब उस पर ठंडे दिमाग से सोचें, यह भी जरुरी है। मेरी राय में सिर्फ दो बातें ऐसी हुईं, जिन्हें हम सार्थक कह सकते हैं। एक तो अमेरिका की पांच बड़ी कंपनियों के कर्त्ता—धर्त्ताओं से मोदी की भेंट। यह भेंट अगर सफल हो गई तो भारत में करोड़ों-अरबों की विदेशी पूंजी का निवेश होगा और तकनीक के क्षेत्र में भारत चीन से भी आगे निकल सकता है। दूसरी सार्थक बात यह हुई कि अमेरिका से मोदी अपने साथ 157 ऐसी प्राचीन दुर्लभ भारतीय कलाकृतियाँ और मूर्तियाँ भारत लाए हैं, जिन्हें किसी न किसी बहाने विदेशों में ले जाया जाता रहा है।
यह भारत के सांस्कृतिक गौरव की रक्षा की दृष्टि से उत्तम नीति है लेकिन राजनीतिक दृष्टि से मोदी की इस अमेरिका-यात्रा से भारत को ठोस उपलब्धि क्या हुई ? भारत का विदेश मंत्रालय दावा कर सकता है कि अमेरिका जैसे देश ने पहली बार यह कहा है कि भारत को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाया जाए। मेरी राय में अमेरिका का यह कथन सिर्फ जबानी जमा-खर्च है। संयुक्तराष्ट्र का पूरा ढांचा जब तक नहीं बदलेगा, तब तक सुरक्षा परिषद में सुधार की आशा करना हवा में लट्ठ चलाना है। ‘चौगुटे’ (क्वाड) की बैठक में नई बात क्या हुई ? चारों नेताओं ने पुराने बयानों को फिर से दोहरा दिया। अगर ‘आकुस’ (त्रिगुटा) ने जैसे आस्ट्रेलिया को परमाणु-पनडुब्बियां दिलवा दीं, वैसे ही ‘क्वाड’ भारत को भी दिलवा देता तो कोई बात होती। संयुक्तराष्ट्र में दिए गए मोदी के भाषण में इमरान खान के भाषण के मुकाबले अधिक संयम और मर्यादा से काम लिया गया और इमरान के अनाप-शनाप भारत-विरोधी हमले का तगड़ा जवाब नहीं दिया गया।
उसका कारण यह रहा हो सकता है कि अफसरों ने मोदी का हिंदी भाषण पहले से ही तैयार करके रखा होगा लेकिन भारत की महिला कूटनीतिज्ञ ने इमरान के नहले पर दहला मार दिया। मोदी ने यह भी ठीक ही कहा कि पाकिस्तान ने आतंकवाद को अपना हथियार बनाकर खुद का नुकसान ही ज्यादा किया है। लेकिन इमरान के भाषण ने अमेरिका की पोल खोलकर रख दी। अमेरिका ने ही तालिबान, मुजाहिदीन और अल-क़ायदा को खड़ा करते समय पाकिस्तान को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया था और अब वह उसे छूने को भी तैयार नहीं है। इसीलिए इमरान न्यूयार्क नहीं गए। मोदी व्हाइट हाउस में बाइडन के साथ डिनर करें और इमरान निमंत्रण का इंतजार करते रहें, यह कैसे हो सकता था ? अभी भारत-अमेरिका संबंध चरम उत्कर्ष पर हैं लेकिन मोदी को इमरान से सबक लेना होगा। अमेरिका केवल तब तक आपके साथ रहेगा, जब तक उसके स्वार्थ सिद्ध होते रहेंगे। ज्यों ही चीन से उसके संबंध ठीक हुए कि वह भारत को अधर में लटका देगा, जैसे आजकल उसने पाकिस्तान को लटका रखा है। इसीलिए मैं बराबर कहता रहा हूँ कि हमारी अपनी मौलिक अफगान नीति होनी चाहिए। हम अमेरिका की हाँ में हाँ मिलाने की मजबूरी क्यों दिखाएँ? (डॉ. वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)