विचार/लेख
-डॉ राजू पाण्डेय
कांग्रेस शासित प्रदेशों में से मध्यप्रदेश में पहले ही कांग्रेस ने अपनी अंतर्कलह के कारण बहुत कठिनाई से अर्जित सत्ता गंवा दी थी। कांग्रेस शासित शेष तीन राज्यों पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में लंबे समय से पार्टी में असंतोष और गुटबाजी की चर्चाएं होती रही हैं। पंजाब में असंतुष्ट धड़े को सफलता मिली है और कैप्टन अमरिंदर सिंह के इस्तीफे के बाद दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के मुख्यमंत्री बने हैं। इस पूरे प्रकरण को नवजोत सिद्धू की विजय और कांग्रेस आलाकमान के सम्मुख उनके बढ़ते कद के संकेत के रूप में देखा जा रहा है।
इन सभी राज्यों में स्थानीय क्षत्रपों की अतृप्त महत्वाकांक्षाओं के कारण ही कांग्रेस की सरकारें संकट में आई हैं। कांग्रेस आलाकमान परिस्थिति के वस्तुनिष्ठ आकलन द्वारा कोई व्यावहारिक समाधान निकालने में नाकाम रहा है। आलाकमान की कार्यप्रणाली में श्रीमती इंदिरा गांधी के जमाने से चली आ रही उस वर्षों पुरानी रणनीति की झलक नजर आती है जिसके तहत जनाधार वाले क्षेत्रीय नेताओं के पर कतरे जाते थे और दरबारी किस्म के वफादार नेताओं को महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपे जाते थे। दुर्भाग्य से श्रीमती इंदिरा गांधी का करिश्मा और अपने बलबूते पर चुनाव जिताने की क्षमता गांधी परिवार के वर्तमान सदस्यों के पास नहीं है, इसलिए क्षेत्रीय नेतृत्व को सम्मान देना इनके लिए न केवल नैतिक रूप से उचित है बल्कि एकमात्र कूटनीतिक विकल्प भी है।
नरेन्द्र मोदी अपने मन मंदिर के किसी गुप्त अंधकारमय कक्ष में श्रीमती इंदिरा गांधी की तस्वीर अवश्य सजाकर रखते होंगे क्योंकि उनकी कार्यप्रणाली में श्रीमती गांधी के शासनकाल की अनेक नकारात्मक विशेषताओं की झलक मिलती है जिनके लिए वे आलोचना की पात्र बनी थीं। पिछले मार्च से कर्नाटक, उत्तराखंड और गुजरात में भाजपा ने भी मुख्यमंत्री बदले हैं तथा अनेक प्रबल दावेदारों और वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा कर अल्प चर्चित चेहरों को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी है। वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी चुनाव जिताने की करिश्माई शक्ति रखते हैं इसलिए इन फैसलों पर पार्टी में कोई असंतोष व्यक्त कर पाने का साहस नहीं कर पाया है। लेकिन पंजाब में कांग्रेस द्वारा सुनील जाखड़, सुखजिंदर सिंह रंधावा आदि की उपेक्षा के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
पंजाब कांग्रेस के वर्तमान संकट को कांग्रेस आलाकमान ने सुलझाने के बजाए उलझाने में अपना योगदान दिया है। सच तो यह है कि आलाकमान के वरदहस्त के कारण ही नवजोत सिंह सिद्धू अमरिंदर सिंह पर लगातार हमलावर होते रहे। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अमरिंदर सिंह की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट आई थी। वे न तो जनता के लिए सहज उपलब्ध थे न विधायकों के लिए। लेकिन इस बात को भी भुलाया नहीं जा सकता कि श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को मिल रही असाधारण सफलताओं के बीच पंजाब में कांग्रेस को सत्तासीन कराने वाले अमरिंदर सिंह ही थे। पंजाब के विगत विधानसभा चुनावों के समय यह अमरिंदर ही थे जिन्होंने आलाकमान से कहा कि वह चुनाव प्रचार से दूरी बनाकर रखे और उन्हें फ्री हैंड दिया जाए। ऐसा साहसिक कदम आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता था अगर अमरिंदर पराजित हो जाते किंतु उन्हें प्रभावशाली जीत मिली। इसके बाद यह स्वाभाविक ही था कि उन्हें कांग्रेस के एक प्रभावी कद्दावर नेता के रूप में देखा जाने लगा।
यदि कांग्रेस आलाकमान ने राजपरिवार के अमरिंदर को अपने फार्म हाउस से सत्ता का संचालन करने वाले, जनता और जनप्रतिनिधियों से कट चुके अलोकप्रिय मुख्यमंत्री के रूप में चिह्नित कर हटाया है तब भी इसे देर से उठाए गए एक सही कदम की संज्ञा ही दी जा सकती है। वह भी इतनी देर कि इस कदम के सुपरिणाम कदाचित ही मिल सकें। इतिहास भी कांग्रेस के इस निर्णय के साथ नहीं है। कांग्रेस आलाकमान द्वारा 20 नवंबर 1996 को अर्थात 7 फरवरी 1997 को होने वाले विधानसभा चुनावों से करीब ढाई माह पूर्व राजिंदर कौर भट्टल को हरचरन सिंह बरार के स्थान पर पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया गया था। कारण तब भी यही गुटबाजी और अंतर्कलह थे। तब कांग्रेस को 117 सदस्यीय विधानसभा में केवल 14 सीटें मिलीं थीं। चन्नी को जितना समय मिला है उसमें कभी न पूरी होने वाली लोकलुभावन घोषणाएं ही की जा सकती हैं।
यदि आलाकमान अमरिंदर की खुद्दारी और खुदमुख्तारी से परेशान था और उसने अमरिंदर के विरुद्ध व्याप्त असंतोष का आश्रय लेकर अपनी नाराजगी की अभिव्यक्ति की है तो हालात कांग्रेस के लिए अच्छे नहीं हैं। अगर जनता और जनप्रतिनिधियों से अमरिंदर ने दूरी बना ली थी तो क्या वे अपने नेता श्री राहुल गांधी का ही अनुसरण नहीं कर रहे थे जो सबके लिए सहज उपलब्ध नहीं हैं और अमरिंदर के लिए तो कदापि नहीं थे। अमरिंदर, राहुल के पिता स्व. श्री राजीव गांधी के स्कूली मित्र रहे हैं और राहुल उनके लिए पुत्रवत हैं। किंतु उनसे मिलने के लिए राहुल के पास समय न था। अमरिंदर को अपदस्थ करने के लिए नवजोत सिंह सिद्धू को प्रश्रय देना कांग्रेस आलाकमान की बड़ी चूक सिद्ध हो सकती है। सिद्धू अतिशय महत्वाकांक्षी हैं, वे भाजपा में रह चुके हैं,कांग्रेस उनका वर्तमान ठिकाना है और मुख्यमंत्री पद नहीं मिलते देख आम आदमी पार्टी में जाने में उन्हें देर न लगेगी जिसके प्रति वे अपना सकारात्मक रुझान पहले ही जाहिर कर चुके हैं। जब बतौर बल्लेबाज़ उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण किया था तो उन्हें स्ट्रोकलेस वंडर कहा जाता था। कालांतर में उन्होंने अपने स्ट्रोक्स की रेंज बहुत बढ़ा ली थी और सिक्सर सिद्धू बन गए थे। पहले क्रिकेट कमेंटेटर और अब बतौर राजनेता उनके पास अब भी स्ट्रोक्स की भरमार है। लेकिन दिक्कत यह है कि सही समय पर सही स्ट्रोक का चयन करने की उनकी क्षमता खत्म सी हो गई है। अंग्रेजी और हिंदी के मुहावरों के कोष उन्हें कंठस्थ हैं। वे इनका प्रयोग परिस्थितियों के अनुसार कम ही करते हैं, वे इनके प्रयोग के लिए अवसर पैदा करने की कोशिश ज्यादा करते हैं और अनेक बार तो उनके यह शब्दालंकार खीज अधिक पैदा करते हैं, चमत्कार कम। कमेंटेटर और राजनेता दोनों ही भूमिकाओं में वे अपने बयानों को लेकर विवादित रहे हैं। हो सकता है कि वक्ताओं की कमी से जूझ रही कांग्रेस यह सोचती हो कि विस्फोटक सिद्धू उसके लिए उपयोगी होंगे किंतु सिद्धू के पास शब्दों का जो गोला बारूद है वह आत्मघाती अधिक है। वे कांग्रेस में चली आ रही मणिशंकर अय्यर की परंपरा के योग्य उत्तराधिकारी हैं, नाजुक मौकों पर दिए गए जिनके बयान जीती बाजी को हार में तब्दील करने के लिए कुख्यात रहे हैं। नाराज अमरिंदर पहले ही सिद्धू के इमरान और बाजवा से रिश्तों को लेकर सवाल उठा चुके हैं और उन्हें राष्ट्र विरोधी तक कह चुके हैं। इस प्रकार आगामी चुनावों के लिए भाजपा को बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल गया है। सिद्धू अपने ही शब्दों में इतने खो जाते हैं कि देश,काल और परिस्थिति का बोध उन्हें नहीं रह पाता। वे उतने ही उत्साह से, उतनी ही निर्लज्जता से उन्हीं शब्दों का प्रयोग राहुल-सोनिया की प्रशंसा के लिए कर सकते हैं जो उन्होंने चंद दिन पहले मोदी के लिए प्रयुक्त किए थे।
श्री नरेंद्र मोदी का अनुकरण करते हुए कांग्रेस भी प्रतीकों की राजनीति की ओर उन्मुख हो रही है। जो भी हो दलित मुख्यमंत्री बनाना एक स्वागतेय कदम है। 1972 में मुख्यमंत्री बनने वाले ज्ञानी जैल सिंह ओबीसी वर्ग से थे। इसके बाद से पंजाब में मुख्यमंत्री पद के लिए जाट सिख समुदाय के नेता ही राजनीतिक दलों की पहली पसंद रहे हैं यद्यपि इसकी आबादी 19 प्रतिशत ही है। प्रदेश की जनसंख्या के 32 प्रतिशत का निर्माण करने वाले दलित समुदाय को पहली बार पंजाब की कमान दी गई है।
क्या कांग्रेस चरणजीत सिंह चन्नी को आगामी विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रस्तुत करने का साहस करेगी? यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही दलितों का समर्थन कांग्रेस को मिलेगा।
कांग्रेस आलाकमान ने पंजाब में राजपरिवार के सदस्य की छुट्टी कर एक दलित को सत्ता सौंपी है। क्या इस कदम से यह संकेत भी मिलता है कि छत्तीसगढ़ में ओबीसी वर्ग के भूपेश बघेल पर फिलहाल कोई संकट नहीं है क्योंकि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी दावेदारी ठोंक रहे टी एस सिंहदेव भी राजपरिवार के ही सदस्य हैं और उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस उन आरोपों को आधार प्रदान करना नहीं चाहेगी जिनके अनुसार कांग्रेस सवर्णों और अभिजात्य वर्ग की पार्टी है।
एक प्रश्न आयु का भी है। 79 वर्षीय अमरिंदर का स्थान लेने वाले चन्नी मात्र 58 वर्ष के हैं। ऐसी दशा में क्या यह माना जाए कि 70 वर्षीय अशोक गहलोत के स्थान पर 44 वर्षीय सचिन पायलट पार्टी को नई ऊर्जा दे सकते हैं।
कांग्रेस आलाकमान को अपने फैसलों में एकरूपता रखनी होगी तभी जनता में यह संकेत जाएगा कांग्रेस एक सुविचारित रणनीति के तहत वंचित समुदाय की राजनीति कर रही है और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के लिए पार्टी में अब युवाओं को वृद्ध होने तक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी।
पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी वर्ग की रणनीति में एक स्पष्ट एवं निर्णायक बदलाव देखा जा रहा है। कांग्रेस को भाजपा को सत्ताच्युत करने में सक्षम किसी भी भाजपा विरोधी मोर्चे की धुरी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रकार पर्दे के पीछे से कांग्रेस पार्टी को संचालित करने वाले पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी को स्वतः ही श्री नरेन्द्र मोदी से आमने सामने के संघर्ष के लिए विपक्ष के सेनापति का दर्जा मिल जाता है, वे विजयी होने पर प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन जाते हैं।
हमें यह तो स्वीकारना ही होगा कि भाजपा को आगामी लोकसभा चुनावों में पराजित करने की कोई भी रणनीति कांग्रेस की उपेक्षा करके अथवा उसे पूर्ण रूप से खारिज करके तैयार नहीं की जा सकती। यह भी एक ध्रुव सत्य है कि नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस अविभाज्य रूप से अन्तरसम्बन्धित हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। यह रिश्ता इतना अनूठा और अपरिभाषेय है कि कांग्रेस की दुर्दशा के लिए नेहरू-गांधी परिवार को जिम्मेदार मानने वाले भी यह जानते हैं कि अगर कांग्रेस को सत्ता वापस कोई दिला सकता है तो वह नेहरू-गांधी परिवार ही है। रुग्ण और वृद्ध सोनिया की घटती सक्रियता के बीच यह चमत्कार करने के लिए इस परिवार के दो सदस्य हमारे बीच हैं- लगभग 17 वर्ष पुरानी अपनी राजनीतिक पारी का स्वरूप एवं दिशा निर्धारित करने में अब भी असमंजस के शिकार राहुल गांधी और बहुत देर से राजनीति में प्रवेश करने वाली प्रियंका गांधी जिन्हें कांग्रेस में अपनी भूमिका तय करनी है। 17 वर्षों के राजनीतिक सफर के बाद राहुल आज कांग्रेस पार्टी के किसी महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर नहीं हैं। जब कांग्रेस केंद्र में सत्ता में थी तब भी उन्होंने कोई महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व लेकर प्रशासनिक अनुभव प्राप्त करने की चेष्टा नहीं की थी।
राहुल राजनीति में सफल और लंबी पारी खेलने के लिए आवश्यक निरंतरता दिखाने में सफल नहीं हो पाए हैं। राजनेताओं की प्राण रक्षा के लिए उन्हें सुरक्षा घेरे में रखा जाता है किंतु कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को सुरक्षा देने के बहाने बंधक बनाकर रखने वाले दरबारियों और चाटुकारों से छुटकारा पाने में राहुल नाकामयाब रहे हैं। उन्होंने दरबारियों और चाटुकारों की पुरानी टीम को तो चलता किया लेकिन इनकी नई टीम बना ली। जब शीर्ष नेतृत्व प्रादेशिक नेताओं के लिए सहज उपलब्ध नहीं रहता, उन्हें प्रत्यक्ष भेंट और सीधे संवाद का अवसर नहीं देता अपितु मध्यस्थों और बिचौलियों को प्रश्रय देता है तब गलतफहमी एवं दूरी बढ़ने की गुंजाइश हमेशा रहती है।
राहुल अपने प्रतिभावान युवा साथियों को लेकर क्यों असुरक्षित महसूस करते हैं यह समझ पाना कठिन है। इस असुरक्षा का केवल एक ही स्पष्टीकरण दिया जा सकता है- वे स्वयं गांधी परिवार की ताकत और करिश्मे को लेकर सशंकित हैं।
राहुल ने कई बार अपनी नेतृत्व क्षमता से प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए अपरिहार्य समझे जाने वाले अजीत जोगी को दरकिनार कर नंदकुमार पटेल, भूपेश बघेल और टी एस सिंहदेव को छत्तीसगढ़ कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का उत्तरदायित्व देना एक साहसिक निर्णय था। पिछले विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश में युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया की आक्रामकता और अनुभवी कमलनाथ की संगठन क्षमता का बेहतर उपयोग लेना भी राहुल के नेतृत्व कौशल का प्रमाण था। राजस्थान कांग्रेस को दुबारा गढ़ने की जिम्मेदारी युवा सचिन पायलट को देकर राहुल ने एक चुनौतीपूर्ण पहल की थी और सचिन पायलट ने भी उन्हें सही साबित किया। पंजाब में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह को विधानसभा चुनावों में फ्री हैंड देकर राहुल ने उदारता एवं दूरदर्शिता का परिचय दिया था।
हाल के डेढ़ साल में कोविड-19 विषयक राहुल के आकलन एवं भविष्यवाणियां आश्चर्यजनक रूप से सटीक रही हैं। उन्होंने कोविड-19 के मसले पर नरेन्द्र मोदी की तुलना में अलग ढंग से सोचा, वे अधिक तार्किक एवं विज्ञान सम्मत विचार प्रस्तुत करते रहे, उन्होंने सरकार को समयपूर्व चेतावनी भी दी और सकारात्मक सुझाव भी प्रस्तुत किए।
भाजपा ने कांग्रेस और गांधी परिवार पर निरंतर आक्रमण कर इस बात को परिपुष्ट किया है कि भारतीय राजनीति में यदि भाजपा का विकल्प कोई है तो वह गांधी परिवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही है। किंतु कांग्रेस और राहुल को भावी विपक्षी गठबंधन के नेतृत्वकर्ता के रूप में प्रस्तुत करने की हड़बड़ी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के संघर्ष को कुछ इस तरह हवा दे सकती है कि सारे विपक्षी दल एक मंच पर एकत्रित ही न हो पाएं। कांग्रेस यदि मुद्दों की राजनीति करे, एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम प्रस्तुत करे तो विपक्षी एकता का कठिन कार्य सरल हो सकता है। पूर्व में ऐसा हुआ भी है। कांग्रेस चाहे तो वैकल्पिक मंत्रिपरिषद बना कर मोदी सरकार की हर नीति पर अपना पक्ष रख सकती है। राहुल को यह तय करना होगा कि वे किंग बनना चाहते हैं या किंग मेकर की भूमिका उन्हें अधिक उपयुक्त लगती है। यदि वे किंग बनना चाहते हैं तो उन्हें अधिक सक्रिय, सहज उपलब्ध, जनोन्मुख तथा आक्रामक होना होगा। बतौर किंग मेकर राहुल को कांग्रेस जनों के मध्य यह संदेश पहुंचाना होगा कि कांग्रेस के लिए यह निर्णायक संघर्ष है, अस्तित्व की लड़ाई है। यही बात अन्य विपक्षी दलों को भी समझानी होगी। उन्हें कांग्रेसवाद की सर्वसमावेशी प्रकृति को आचरण में लाना होगा।
राहुल एक अलग ढंग से मोदी का विकल्प प्रस्तुत करते हैं। मोदी की लार्जर दैन लाइफ छवि उन्हें जनता से बहुत ऊपर एक देवतुल्य व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करती है, जिसे केवल दूर से देखा जा सकता है, जिसकी केवल पूजा की जा सकती है किंतु जिससे संवाद नहीं किया जा सकता। मोदी की अभिव्यक्तियों और निर्णयों में कठोर यांत्रिकता दिखती है जिसमें भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। राहुल को एक आम मानव मानव के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो भूलता और गलती करता है, गिरता और संभलता है। उनकी अपूर्णता, अपरिपक्वता और अनगढ़पन उन्हें आम आदमी के अधिक नजदीक ला सकते हैं। हमने लालू प्रसाद यादव की ठेठ ग्रामीण और अनगढ़ अभिव्यक्तियों के जादू को देखा है। जनता राहुल को उनकी कमियों और कमजोरियों के साथ भी अपना सकती है, शर्त यह है कि वे इन से उबरने के लिए नायकोचित संघर्ष करते दिखें।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-पुष्य मित्र
किसी का सिविल सेवा के लिये चयनित होना उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि हो सकती है। हद से हद उसके अपने परिवार की उपलब्धि। यह पूरे समाज की उपलब्धि है यह मुझे नहीं लगता।
कल से लोग जिला, राज्य, जाति, समाज के आधार पर सिविल सेवा पास करने वाले लोगों के लिये गौरवान्वित हुए जा रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि इस सत्ता ने समाज के बीच से एक सबसे अधिक प्रतिभाशाली व्यक्ति को चुन लिया है, जो अब समाज के लिए नहीं बल्कि सत्ता की मजबूती के लिये काम करेगा।
मेरा नजरिया आपको काफी नकारात्मक लग सकता है। वह शायद इसलिये भी है कि कल दो ब्यूरोक्रेट से मिलकर और उनका रवैया देखकर आया हूं। सौ में से 95 अफसर अमूमन ऐसे ही हैं। उनका काम यह तय करना है कि लोगों के काम को किन सरकारी बहानों से रोका जाये। वे अमूमन वही काम करते हैं, उसी योजना को आगे बढ़ाते हैं जिसमें उनके लिये कुछ आय की या दूसरे किस्म की सफलता की गुंजाईश हो। फिर मंत्रियों को समझाते हैं कि यह योजना उनके लिये कैसे लाभकारी है। फिर उस योजना में जनता की भलाई का रसायन मिलाया जाता है। भ्रम पैदा किया जाता है कि यह तो जनता के हित में है। मगर 75 साल का इतिहास गवाह है कि जनता के हित के नाम से जितनी योजनाएं बनी हैं उससे जनता समृद्ध हुई या नहीं यह तो पता नहीं पर नेता और अफसर हर बार समृद्ध हुए।
पिछले 75 वर्ष से इस देश पर इन सिविल सर्वेंटों की स्थायी सत्ता है। ये पढ़े-लिखे लोग हैं। इन्हें ट्रेन किया जाता है कि ये जनता पर कैसे डोमीनेट करें। इनकी सत्ता हमेशा कायम रहती है। इनकी सरकार कभी नहीं बदलती। मगर पिछले 75 वर्षों में इन्होंने देश को कितना बदला यह जाहिर है। ये लोगों पर रौब डालना जानते हैं। इनके दफ्तर का सेटअप देखिये कितना सामन्ती है। ये नेताओं और मंत्रियों को बेवकूफ बनाना जानते हैं। ये अंग्रेजी राज के बाद देश में छूट गये भारतीय अंग्रेज हैं।
कल अपने प्रिय कवि आलोक धन्वा की कविता जिलाधीश याद आ गई। आप भी पढि़ए-
जिलाधीश
तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो
तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो
जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो
एक ऐसे समय की भाषा जब संसद का जन्म नहीं हुआ था
तुम क्या सोचते हो
संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को वैसा ही रहने दिया है
जैसी वह राजाओं के जमाने में थी
यह जो आदमी
मेज की दूसरी ओर सुन रहा है तुम्हें
कितने करीब और ध्यान से
यह राजा नहीं जिलाधीश है !
यह जिलाधीश है
जो राजाओं से आम तौर पर
बहुत ज्यादा शिक्षित है
राजाओं से ज्यादा तत्पर और संलग्न !
यह दूर किसी किले में- ऐश्वर्य की निर्जनता में नहीं
हमारी गलियों में पैदा हुआ एक लडक़ा है
यह हमारी असफलताओं और गलतियों के बीच पला है
यह जानता है हमारे साहस और लालच को
राजाओं से बहुत ज़्यादा धैर्य और चिन्ता है इसके पास
यह ज़्यादा भ्रम पैदा कर सकता है
यह ज़्यादा अच्छी तरह हमें आजादी से दूर रख सकता है
कड़ी
कड़ी निगरानी चाहिए
सरकार के इस बेहतरीन दिमाग पर!
कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है !
मैं मानता हूं, यह पोस्ट काफी नकारात्मक है। कुछ लोग सिविल सेवा की सामन्ती ट्रेनिंग के बाद भी अच्छे बच जाते हैं। मगर यह भी हमने देखा है कि वे फिर पूरी उम्र मिसफिट रह जाते हैं। गलत विभागों में ड्यूटी करते हुए, तबादला झेलते हुए। उनके लिये यह नौकरी अभिशाप हो जाती है। इतनी ऊंची नौकरी है कि वे अमूमन छोडऩे की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते। अपनी लॉबी भी इनके पक्ष में कभी खड़ी नहीं होती। मैं उनकी बात नहीं कर रहा। यह उन लोगों के बारे में है जो बहुसंख्यक हैं। अपनी परम्परा को फॉलो करते हैं। जो संगठित हैं।
-अपूर्व गर्ग
शिमला में हम जहाँ रहते हैं उस फ्लैट का नंबर 14 है। 13 नंबर फ्लैट गायब है पर फ्लैट नंबर 12 के बाद 13 की जगह 12ए है। इसी तरह ब्लॉक 13 की जगह ब्लॉक 12ए है। इसी तरह शिमला के रिपन अस्पताल में बेड नंबर 12 के बाद सीधे बेड 14 है।
कुछ समय पहले हिमाचल के ही नाहन में बीजेपी ने वार्ड चुनावों में 13 वार्डों में से 12 वार्डों के अधिकृत प्रत्याशी घोषित किए जब वार्ड 13 का न घोषित करने का कारण पूछा गया तो वही मसला 13 के अशुभ होने का था।
सिर्फ हिमाचल ही नहीं ये देश और दुनिया 13 के शुभ-अशुभ चक्कर में शुरू से उलझी रही है।
जब अटल बिहारी वाजपेयी ने 13 मई 1996 को पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन बहुमत साबित न होने पर 13 दिन बाद सरकार गिर गई तो किस तरह 13 को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया था, भूला नहीं जा सकता।
हिंदुस्तान छोडिय़े बताते हैं आज भी यूरोप तक में कई होटलों में 13 नंबर के कमरे नहीं होते, 13 लोग मिलकर कोई काम या पार्टी नहीं करते।
हरिवंशराय बच्चन बताते हैं उन्हें जब 13 विलिंगटन क्रिसेंट आबंटित हुआ तो 13 का नाम सुनते है दिमाग में एक खटका हुआ, अशुभ संख्या है, कहीं इस घर में जाना अमंगलकारी न हो! पर उन्होंने गुरुनानक की बात याद की।
गुरुनानक का मन सांस्कारिक कार्य में न लगता था। उनके पिता ने उन्हें कुछ कम्बल देकर कुछ लाभ कमाने को कहा तो उन्होंने ठंड से कांपते साधुओं को दान दे दिए।
उनके पिता ने उन्हें दूसरे काम मज़दूरों को 15-15 सेर अनाज मज़दूरी के रूप में तौल कर देने कहा। नानक ने तौलना आरम्भ किया- तौल ठीक रखने के लिए संख्या उच्चारित करते जाते थे-1, 2, 7, 10, 12, 13 तरह को तेरा भी कहा जाता है, 13 पर उनका ध्यान चला गया होगा कबीर के इस दोहे पर
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर॥
और फिर तेरा, तेरा कह कर वो अनाज देते चले गए क्योंकि नानक के लिए सब ‘तेरा’ था ‘मेरा’ कुछ भी नहीं-‘इदं न मम’।
बच्चन जी कहते हैं मैं भी तेरह को तेरा मान कर 13 विलिंगटन क्रिसेंट में चला गया और इस घर में आगे जो हुआ मंगलमय है हुआ।
13 संख्या यदि अशुभ होती तो देश और दुनिया में 13 तारीख को कई बड़े महान कार्य संपन्न नहीं होते।
13 नवंबर 1975 ही वो दिन है जब एशिया की चेचक से मुक्ति की घोषणा हुई।
13 मई 1952 ही वो शुभ दिन है जब स्वतंत्र भारत की पहली संसद का सत्र शुरू हुआ ।
13 अक्टूबर 1911 को हिन्दुस्तान के महान अभिनेता अशोक कुमार हमारे दादा मुनि का जन्म हुआ तो हम सब के प्रिय कवि शमशेर बहादुर सिंह 13 जनवरी 1911 को अवतरित हुए
इसलिए छुटकारा 13 नंबर से नहीं अन्धविश्वास से पाना चाहिए
नानक की सुनिए तेरह...तेरा है..
-रमेश अनुपम
सन 1952 में हिंदी फिल्म में नई-नई आई हुई माला सिन्हा को लेकर किशोर साहू ने शेक्सपियर के मशहूर नाटक ‘हैमलेट’ पर इसी नाम से एक फिल्म का निर्माण किया। इसके नायक की भूमिका में वे स्वयं थे और नायिका ओफिलिया की भूमिका में माला सिन्हा। किन्ही कारणों से किशोर साहू की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई।
सन 1953 में किशोर साहू ने एक महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मयूर पंख’ का निर्माण किया। यह फिल्म कई दृष्टि से एक ऐतिहासिक महत्व की फिल्म थी। इस फिल्म की दो नायिकाओं में एक ओडेट फर्ग्यूसन थी, जो उस जमाने की एक मशहूर फ्रेंच अभिनेत्री थी।
दूसरी अभिनेत्री के रूप में हिंदी फिल्म की जानी मानी अभिनेत्री सुमित्रा देवी थीं। किशोर साहू ने इस फिल्म को ईस्टमैन कलर में बनाने का निर्णय लिया, जो उस जमाने में काफी महंगी मानी जाती थी। इस फिल्म के नायक की भूमिका में स्वयं किशोर साहू थे और निर्देशन भी उन्हीं का था।
यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पिट गई, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फिल्म को बेहद सराहा गया। सन 1954 में कांस फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म को ग्रैंड पुरुस्कार के लिए नामांकित किया गया।
इस फिल्म के निर्माण के समय का एक दिलचस्प प्रसंग का जिक्र भी जरूरी है। इस फिल्म के निर्माण के दरम्यान किशोर साहू का मध्यप्रदेश के दो दिग्गज राज नेताओं से परिचय हुआ। वे दो राजनेता कोई और नहीं, बल्कि श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल थे।
श्यामाचरण शुक्ल जब भी बंबई जाते, किशोर साहू के निवास ‘वाटिका’ में खाने पर अवश्य निमंत्रित किए जाते।
एक बार किशोर साहू ने श्यामाचरण शुक्ल से उनके भविष्य की कार्ययोजना के बारे में पूछा। जिसके जवाब में श्यामाचरण शुक्ल ने कहा ‘कि मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि मैं बिजनेस में जाऊं या पॉलिटिक्स म’।
किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘तब मैं नहीं जानता था, न वे ही जानते थे कि एक दिन वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे। पिता के बाद कोई पुत्र किसी प्रांत का मुख्यमंत्री बना हो ऐसा उदाहरण स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभूतपूर्व था।’
विद्याचरण शुक्ल ‘मयूर पंख’ फिल्म का एक हिस्सा बन चुके थे। सन 1953 में विद्याचरण शुक्ल ‘एल्विन कूपर’ नामक एक शिकार कंपनी चला रहे थे। ‘मयूरपंख’ फिल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग कान्हा किसली में की गई, जिसका ठेका विद्याचरण शुक्ल को दिया गया। इस फिल्म की शूटिंग के दरम्यान किशोर साहू ने विद्याचरण शुक्ल को बेहद निकट से देखा और जाना था।
अपनी आत्मकथा में किशोर साहू ने उन दिनों को याद करते हुए विद्याचरण शुक्ल के बारे में जो लिखा है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है- ‘उनमें सतर्क दिमाग की पैनी धार थी।’
आगे चलकर किशोर साहू की यह भविष्यवाणी कितनी सच साबित हुई है, हम सब इसके गवाह हैं। विद्याचरण शुक्ल भारतीय राजनीति में धूमकेतु की तरह सिद्ध हुए।
श्रीमती इंदिरा गांधी के निकट के राजनेताओं में उनकी गिनती होती थी। सतर्क दिमाग की पैनी धार अंत तक उनमें विद्यमान रही।
सन 1958 किशोर साहू के फिल्मी कैरियर के लिए एक नया मोड़ साबित हुआ। उन दिनों कमाल अमरोही, राजकुमार और मीना कुमारी को लेकर ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ बनाने की सोच रहे थे। उन्होंने किशोर साहू को इस फिल्म के निर्देशन का ऑफर दिया। इस फिल्म में वे पहले से ही राजकुमार को हीरो के रूप में ले चुके थे।
किशोर साहू राजकुमार की जगह दिलीप कुमार को बतौर हीरो लेना चाहते थे, मीनाकुमारी भी यही चाहती थी, पर कमाल अमरोही राजकुमार को ही इस फिल्म में हीरो के रूप में लेना चाहते थे। मीना कुमारी तब तक कमाल अमरोही से शादी कर चुकी थी।
मीना कुमारी तो किशोर साहू को इस फिल्म में हीरो के रूप में लेना चाहती थी, पर कमाल अमरोही को न दिलीप कुमार चाहिए था और न ही किशोर साहू, राजकुमार पर वे अडिग थे।
बहरहाल 20 जून सन 1958 को इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई। 1959 में बनकर तैयार भी हो गई। इस फिल्म का ट्रायल शो हुआ जिसमें कमाल अमरोही, शंकर जयकिशन, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मीना कुमारी, राजकुमार और किशोर साहू का परिवार शामिल हुआ।
फिल्म सबको पसंद आई पर कमाल अमरोही को यह फिल्म बिल्कुल ही पसंद नहीं आई। शैलेंद्र ने भी कमाल अमरोही का साथ दिया।
फिल्म की कहानी और सीन बदलने के लिए कमाल अमरोही ने किशोर साहू पर तरह-तरह के दबाव बनाने शुरू किए, पर किशोर साहू को वे इसके लिए राजी नहीं कर सके। किशोर साहू अपनी इस फिल्म में किसी तरह के छेड़छाड़ के खिलाफ थे।
मीना कुमारी और राजकुमार भी किशोर साहू की राय पर कायम थे।
कमाल अमरोही की जिद के चलते यह फिल्म काफी दिनों तक रिलीज नहीं हो पाई। अंत में के. आसिफ के कारण ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ फिल्म प्रदर्शन का मुंह देख पाई, लेकिन कमाल अमरोही ने निर्माता से अपना नाम हटाकर मीना कुमारी के सेक्रेटरी एस.ए.बाकर का नाम डलवा दिया, यह सोचकर कि यह फिल्म बुरी तरह से फ्लॉप सिद्ध होगी।
29 अप्रैल 1960 को यह फिल्म बंबई के रॉक्सी और कोहिनूर थियेटर में रिलीज हुई। ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ सुपरहिट फिल्म साबित हुई।
कमाल अमरोही का बुरा हाल था।इस फिल्म की अपार सफलता को देखकर उन्होंने मुंबई में लगे हुए सारे पोस्टरों से निर्माता एस.ए. बाकर का नाम मिटवा कर अपना नाम लिखवाना शुरू कर दिया।
यह था किशोर साहू के निर्देशन का जादू , जो सर चढक़र बोलता था।
कहना न होगा ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ हिंदी फिल्म में एक मील का पत्थर साबित हुई।
फिल्म की कहानी, राजकुमार और मीना कुमारी का अभिनय, शंकर जयकिशन का संगीत और किशोर साहू के निर्देशन को भुला पाना सबके लिए मुश्किल साबित हुआ।
(बाकी अगले हफ्ते)
-संदीप पौराणिक
पितृ पक्ष के दौरान कौए को आदर-सम्मान दिया जाता है। यही मौका है जब हम जनसाधारण को कौए की वैज्ञानिक वास्तविकताओं से परिचित करा सकते हैं और इसे शकुन-अपशकुन के घेरे से बाहर ला सकते हैं। कौआ हमेशा से अमंगल नहीं रहा हैं जबकि समाज में किसी व्यक्ति के मरने के बाद मृत आत्मा की शांति के लिए जो गरूड़ पुराण का पाठ कराया जाता हैं। उस कथा भी कागभुसंुडी जी के मुखारबिंद से ही गरूड़ जी को सुनाई जाती हैं तथा मृतक की आत्मा की शांति के लिए इसे मंगलकारी माना गया हैं। लेकिन अब शहरों में कौओं की संख्या घटती जा रही है और पितृपक्ष में ये देखने नहीं नहीं मिलते जबकि हिंदू मान्यता के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितरों के लिए बनाए जाने वाले व्यंजन कौवे के माध्यम से पितरों तक पहुंचाए जाते हैं । कौए के घटने का प्रमुख कारण कीटनाशक व चूहे तथा काकरोच जैसे जीवों पर अंधाधुंध जहरीली दवाईयों का उपयोग है। इन मरे हुए कीट मकोड़ों को खाने से भी कौवों की संख्या घटी है। लगातार दूषित होते हुए पर्यावरण के कारण पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त होती जा रही है उनमें से एक कौवा भी है।कौवे का सिर्फ धार्मिक ही नहीं पर्यावरण की दृष्टि से भी महत्त्व है। कौवा द्वारा खाए जाने वाले पीपल बरगद एवं अन्य बीजों को अपने विष्ठा द्वारा बाहर निकाल कर फैलाया जाता है। पीपल और बरगद का पेड़ पर्यावरण एवं ऑक्सीजन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है
कौऐ को साल भर दुतकारा जाता है। पर पितृ-पक्ष के इन पंद्रह दिनों कौए की खूब आवभगत की जाती है। इसे बुला-बुला कर ‘कौर’ खिलाया जाता है। दरअसल कौए से हमारा बड़ा पुराना रिश्ता रहा है। इसके साथ अनेक शकुनों-अपशकुनों को जोड़ा गया है। इन अंधविश्वासों से परे कौआ एक बुद्धिमान पक्षी है। साथ ही हमारा दोस्त भी है।
कौआ हमारा सबसे करीबी पक्षी है। हमारी जिंदगी में कौए का जितना दखल और किसी भी पक्षी का नहीं है। यह सिलसिला आज का नहीं सदियों पुराना है। प्राचीनतम वेदों से लेकर आधुनिक साहित्य तक में किसी न किसी रूप में कौए का जिक्र लगातार होता रहा है। यही वजह है कि संस्कृत भाषा में कौए जितने नाम और किसी भी पक्षी के नहीं है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कौए के छत्तीस पर्यायवाची गिनाए गए हैं, फिर भी इसे पूरी सूची नहीं माना जा सकता। इसे संस्कृत साहित्य में द्रोणकाक, काकोल, करट, चौरिकाक, बसंतराज, ग्रामीण काक जैसे अनेक नामों से पुकारा गया है।
सवाल उठता है कि कौए को इतनी अहमियत क्यों दी गई? इसकी दो वजहें लगती है। एक तो कौआ बेहद बुद्धिमान पक्षी है और दूसरे मानव-बस्तियों को साफ-सुथरा रखने में इसका भारी योगदान है। आज वैज्ञानिकों ने ढेरों प्रयोग करके कौए की असाधारण बौद्धिक क्षमता के सबूत पेश किए हैं। पर हमारे यहां प्राचीन काल से ही कौए के तेज दिमाग का लोहा मान लिया गया था। अनेक जातक-कथाओं और लोक-कथाओं में कौए को बुद्धिमान पक्षी के रूप में दर्शाया गया है। पंचतंत्र की कहानियों का ‘काकोलूकीय’ बुद्धिमत्ता और चातुर्य का साक्षात प्रतीक है। यह तो सभी जानते हैं कि घड़े की पेंदी में मौजूद पानी को किसी तरह प्यासा कौआ ऊपर तक लाया। ऊपर तक लाया वर्तमान में ऐसे कई वीडियो अभी भी सोशल मीडिया में दिखाई देते हैं जिसमें कौवा पानी को अपनी बुद्धिमानी से ऊपर लाता है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि कौए मनुष्यों की शक्लों को याद रखते हैं और लगभग दस तक की गिनती भी गिन सकते हैं। मशहूर कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण शायद इन्हीं खूबियों के कारण कौओं के अनन्य प्रेमी थे। उन्होंने कौओं के शायद कई चित्र बनाए हैं। साथ ही उनके व्यवहार और आदतों पर भी अध्ययन किया है।
कौए का एक रूप मनहूसियत और दुष्टता का भी है। खासतौर पर वैदिक काल में कौए को अमंगलकारी माना गया है। किसी भी शुभ कार्य में कौए का दिखना या अचानक आ धमकना विघ्नकारी माना जाता था। वैदिक काल के बाद शकुन-अपशकुन विचारा जाने लगा तो कौए की स्थिति कुछ संभली। इसे कई अच्छे शकुनों से भी जोड़ा गया। जैसे घर की मुंडेर पर कौए का कांव-कांव करना किसी अतिथि के आने का सूचक माना जाता है। परंतु किसी के सिर पर कौए का बैठना अमंगलकारी जाना जाता है। कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को जल्दी ही किसी निकट संबंधी की मौत की खबर मिलती है। प्राचीन साहित्य में कौए के इन रूपों का भरपूर उल्लेख है।
कौए की दुष्टता और लालचीपन को भी किस्सों-कहानियों और प्राचीन साहित्य में जगह मिली है। ‘रामायण’ के एक प्रसंग में इंद्र के पुत्र जयंत ने कौए का रूप धरकर सीता को खूब तंग किया। क्रोधित होकर श्रीराम ने बाण चलाया और कौए की एक आंख सदा के लिए नष्ट कर दी। बहुत लोगों का विश्वास है कि आज भी कौए के एक ही आंख होती है। यह सच नहीं है। संभवतः भगवान राम द्वारा अभिशापित होने के कारण ही उत्तर रामायण काल में कौए की प्रतिष्ठा बहुत ज्यादा गिर गई। तांत्रिकों द्वारा किए जाने वाले दुष्कर्मों में भी कौए का इस्तेमाल होने लगा। ऐसा उल्लेख है कि तांत्रिक अपने अनुष्ठानों में कौए की चोंच, पंजे, आंख, पंख वगैरह का इस्तेमाल करते हैं।
कौए की आदतों में सबसे अनोखा इसका चौकन्नापन और फुर्ती है। इसी वजह से यह हमारे हाथ की रोटी छीनने का भी दुस्साहस कर डालता है और अक्सर कामयाब भी रहता है। तभी कवि रसखान ने भी लिखा
काग के भाग बड़ंे सजनी
हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।
प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने लिखा है कि कौआ आपकी नाश्ते की मेज से भी अंडा ‘उड़ा’ सकता है। कौए को मनुष्य के मनोभावों को समझने में भी महारत हासिल है। असाधारण चौकन्नेपन के कारण ही ‘अग्निपुराण’ में राजा को कौए की तरह चौकन्ना रहने की सलाह दी गई है।
व्यवहार में इन सारी खूबियों के साथ ही कौआ हमारा दोस्त भी है। यह सड़ी-गली हर तरह की चीजें खाकर मानव बस्तियों के आस-पास सफाई रखने का काम करता है। कौए को कूड़-करकट के ढेर को कुरेद-कुरेद कर अपना भोजन तलाशते देखा जा सकता है। गंदगी का सफाया करके यह कई रोगों को फैलने से रोकता है। कौए टिड्डियों, दीमकों आदि हानिकारक कीड़ों को भारी संख्या में हजम कर जाते हैं। इस तरह यह किसानों का दोस्त भी है। पर कभी-कभी गेहूं, मक्का आदि की फसलों पर धावा बोलकर यह किसानों का नुकसान भी कर डालता है। इसीलिए बहुत से किसान कौए को न दोस्त मानते हैं और न दुश्मन। कौए तमाम जानवरों के अंडे, मेंढक, छिपकली, मुर्दे, रोटी, दाल-चावल और वह सभी कुछ जो हम खाते हैं या फेंक देते हैं, खाते हैं।
सलीम अली ने अपनी पुस्तक में देश में पाए जाने वाले दो तरह के कौओं का उल्लेख किया है - घरेलु कौआ और जंगली कौआ। कौओं के कुल को वैज्ञानिकों ने ‘कोर्विडी’ का नाम दिया है। इसमें कौए के अलावा इससे मिलते-जुलते चार पक्षी है - डिगडाल, मुटरी, बनसर्रा और जाग। घरेलु कौए को वैज्ञानिक रूप सेकोर्वस स्प्लेनडेंस नाम से पुकारा जाता है। वैसे इसे पाती कौआ, नौआ कौआ, देशी कौआ, नाऊ कौआ और ग्रामीण काक नाम से जाना जाता है।
सभी ने देखा है कि घरेलू कौआ पूरा काला नहीं होता। इसका सीना और गला सलेटी रंग का होता है। इसके कालेपन में एक बैंगनी-नीली-हरी सी चमक होती है। नर और मादा दिखने में एक जैसे होते हैं। यह साल भर लगभग पूरे देश में दिखाई देता था। हिमालय में यह चार हजार फुट की ऊंचाई तक घूमता-फिरता है। ये दिन भर भोजन की तलाश में घर-घर, बस्ती-बस्ती घूमते हैं। पर रात को झुंड बनाकर एक ही जगह बसेरा कर लेते हैं। बरगद और पीपल जैसे विशाल पेड़ों पर कई हजार कौओं का झुंड देखा जा सकता था। जब इनका पूरा झंुड एक साथ उड़ता है तो तेज आवाज होती है। इनकी बोली से ‘कॉ-ऑ-ऑ, कॉ-ऑ-ऑ’ की ध्वनि निकलती है।
घरेलू कौए का जोड़ा बांधने और अंडे देने का समय अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग है। पश्चिम भारत में इन्हें अप्रैल से जून के बीच घोंसला बनाते देखा जा सकता है। बंगाल में इसके पहले ही घोंसले देखे जा सकते हैं। कुछ इलाकों में दिसंबर और जनवरी की कड़ाकेदार सर्दी में भी ये अंडे देते हैं। घरेलू कौआ घोंसला बनाने में बड़ा फूहड़ है। यह पेड़ की गुलेल जैसे आकार की शाखा पर घास-फूस, तार, डंडियों आदि की मदद से ऊबड़-खाबड़ घोंसला बनाता है। इसका घोंसला देखने में भले ही बदसूरत हो, पर अंदर से आरामदायक होता है। मादा इसके भीतर रूई, चिथड़े आदि लगाकर खूब आरामदेह बना देती है। मादा एक बार में चार-पांच अंडे देती है। ये हल्के नीले-हरे होते हैं, जिन पर भूरी-सलेटी चित्तियां पड़ी होती है। घोंसला बनाने से लेकर शिशुओं के लालन-पालन तक में नर और मादा बराबरी का सहयोग देते हैं। चालाक और बुद्धिमान होने के बावजूद कोयल इनकी आंखों में धूल झोंककर अपने अंडे भी कौए के घोंसले में रख देती है। कौआ दंपत्ति ही इसके शिशुओं को पालते हैं। बाद में कोयल के बच्चे इनको धता बताकर फुर्र हो जाते हैं।
घरेलू कौए के बाद सबसे ज्यादा दिखाई देने वाले कौए को जंगली कौआ या काला या डोम कौआ कहा जाता है। इसे वैज्ञानिकों ने कोर्वस मैक्रोरिकोस का नाम दिया है। इसका आकार घरेलू कौए से बड़ा, पर चील से छोटा होता है। घरेलू कौए के विपरीत इसका पूरा शरीर काला भुजंग होता है पर चोंच मोटी होती है। इसकी आवाज भी घरेलू कौए से बहुत ज्यादा कर्कश होती है। इनमें झुंड बनाने की आदत नहीं है। एक जगह पर ज्यादा से ज्यादा पंद्रह-बीस कौए दिखाई देते हैं। ये शहरों में कम ही आते हैं। इनका निवास ज्यादातर गांव और बस्तियों से बाहर होता है। खासतौर से ऐसे स्थानों पर जहां गंदगी फेंकी जाती हो, मरे हुए जानवरों की लाशें फेंकी जाती हों तथा और भी कूड़ा-कड़कट जमा रहमा हो। जंगली कौए इसी में से अपनी पेट भरते हैं। इस तरह ये भी साफ-सफाई रखने में हमारी मदद करते हैं।
बरसात के मौसम में जंगली कौए,केकड़ों से अपना पेट भरते हैं। केकड़े अंकुरित हो रही फसलों को खा जाते हैं। इस तरह जंगली कौए भी किसानों के दोस्त साबित होते हैं। जंगल में ये कौए ऐसी जगह मंडराते हैं, जहां किसी जानवर की लाश पड़ी हो। शिकारी अक्सर इनकी कांव-कांव से बाघों-शेरों के ठिकाने का पता लगा लेते हैं। मैदानी इलाकों में जंगली कौए मार्च और मई के बीच अंडे देते हैं। घोसला बनाने, अंडा देने और शिशुओं के लालन-पालन में इनका व्यवहार ठीक घरेलू कौए की तरह है। कोयल इनके घोंसलों में भी अंडे देती है।
देश के पहाड़ी इलाकों में एक छोटा कौआ खूब दिखाई देता है। इसकी लंबाई मात्र तेरह इंच होती है। यह पूरा काला नहीं होता। इसके शरीर के कुछ हिस्सों पर भूरी स्लेटी पट्टी पड़ी होती है। इसे चौकी काक या चोर कौआ भी कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने इसे कोवर्स मौनेकुला का नाम दिया है।
पहाड़ी कौआ अक्टूबर से मार्च तक पंजाब और हिमालय के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में ज्यादा दिखाई देता है। इसकी बोली अप्रिय नहीं लगती। स्थानीय लोगों ने तो पहाड़ी कौए की बोली को संगीतमय माना है। इनकी उड़ने की रफ्तार अन्य कौओं की तुलना में तेज होती है। पहाड़ी कौए पेड़ों की बजाय चट्टानों और मकानों के सुराखों में घोसला बनाना ज्यादा पसंद करते हैं। मादा कौआ चार से छह अंडे देती है, जिनके दोनों सिरे नुकीले होते हैं। कोयल इनके घोसलों में अपने अंडे नहीं रखती।
कोई दो फुट लंबाई का एक कौआ रैवेन कोर्वस के नाम से जाना जाता है। इसे द्रोण काक भी कहते हैं। इसके काले शरीर पर बैंगनी-नीली झलक रहती है। ये देश के पश्चिमी इलाके में दिखाई पड़ते हैं। इनके डैने काफी मजबूत होते हैं। इसलिए इनकी उड़ान सीधी और तेज होती है। खाने-पीने के मामले में ये अन्य कौओं से काफी मिलते-जुलते हैं। इसका घोंसला काफी मजबूत होता है, जिसे पेड़ की उंची शाखा पर सूखी टहनियों से बनाया जाता है। कभी-कभी इनके घोंसले ऊंचाई पर पहाड़ों के सुराखों में भी दिखाई देते हैं।
अगर कहें कि कुछ कौए भुर्राक सफेद भी होते हैं तो शायद आपको विश्वास न हो, पर यह सच है। रंजकहीनता यानी अल्बीनिज्म के कारण कुछ कौए सफेद हो जाते हैं। ऐसे घरेलू कौए यदा-कदा दिखाई दे जाते हैं, पर हम पहचान नहीं पाते। प्राचीन संस्कृत साहित्य में इसे श्वेत काक या शुुक्ल काक के नाम से पुकारा गया है।
जिस तरह से कौए और अन्य पक्षी गौरैया समाप्त होते जा रहे हैं इसका एक प्रमुख कारण मोबाइल टावर से निकलने वाला विकिरण भी है यह बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है। कहीं ऐसा ना हो पक्षियों में सबसे चालाक पक्षी कौवा का हश्र डोडो पक्षी जैसा हो जाए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्त राष्ट्रसंघ के वार्षिक अधिवेशन में इस बार अफगानिस्तान भाग नहीं ले पाएगा। जरा याद करें की अशरफ गनी सरकार ने कुछ हफ्ते पहले ही कोशिश की थी कि संयुक्तराष्ट्र महासभा के अध्यक्ष का पद अफगानिस्तान को मिले लेकिन वह श्रीलंका को मिल गया। देखिए, भाग्य का फेर कि अब अफगानिस्तान को स.रा. महासभा में सादी कुर्सी भी नसीब नहीं होगी। इसके लिए तालिबान खुद जिम्मेदार हैं। यदि 15 अगस्त को काबुल में प्रवेश के बाद वे बाकायदा एक सर्वसमावेशी सरकार बना लेते तो संयुक्तराष्ट्र संघ भी उनको मान लेता और अन्य राष्ट्र भी उनको मान्यता दे देते। इस बार तो उनके संरक्षक पाकिस्तान ने भी उनको अभी तक औपचारिक मान्यता नहीं दी है। किसी भी देश ने तालिबान के राजदूत को स्वीकार नहीं किया है। वे स्वीकार कैसे करते? खुद तालिबान किसी भी देश में अपना राजदूत नहीं भेज पाए हैं।
संयुक्तराष्ट्र के 76 वें अधिवेशन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपने प्रवक्ता सुहैल शाहीन की राजदूत के रूप में घोषणा की है। जब काबुल की सरकार अभी तक अपने आपको ‘अंतरिम’ कह रही है और उसकी वैधता पर सभी राष्ट्र संतुष्ट नहीं है तो उसके भेजे हुए प्रतिनिधि को राजदूत मानने के लिए कौन तैयार होगा ? सिर्फ पाकिस्तान और क़तर कह रहे हैं कि शाहीन को सं.रा. में बोलने दिया जाए लेकिन सारी दुनिया प्रधानमंत्री इमरान खान की उस भेंटवार्ता पर ध्यान दे रही है, जो उन्होंने बी.बी.सी. को दी है। उसमें इमरान ने कहा है कि यदि तालिबान सर्वसमावेशी सरकार नहीं बनाएंगे तो इस बात की संभावना है कि अफगानिस्तान में गृहयुद्ध हो जाएगा। अराजकता, आतंकवाद और हिंसा का माहौल मजबूत होगा। शरणार्थियों की बाढ़ आ जाएगी। उन्होंने औरतों पर हो रहे जुल्म पर भी चिंता व्यक्त की है। इसमें शक नहीं कि तालिबान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है। उन्होंने कहा है कि संयुक्तराष्ट्र पहले उन्हें मान्यता दे तो वे दुनिया की सलाह जरुर मानेंगे।
संयुक्त राष्ट्र के सामने कानूनी दुविधा यह भी है कि वर्तमान तालिबान मंत्रिमंडल के 14 मंत्री ऐसे है, जिन्हें उसने अपनी आतंकवादियों की काली सूची में डाल रखा है। सं. रा. की प्रतिबंध समिति (सेंक्शन्स कमेटी) ने कुछ प्रमुख तालिबान नेताओं को विदेश-यात्रा की जो सुविधा दी है, वह सिर्फ अगले 90 दिन की है। यदि इस बीच तालिबान का बर्ताव संतोषजनक रहा तो शायद यह प्रतिबंध उन पर से हट जाए। फिलहाल रूस, चीन और पाकिस्तान के विशेष राजदूत काबुल जाकर तालिबान तथा अन्य अफगान नेताओं से मिले हैं। यह उनके द्वारा तालिबान को उनकी मान्यता की शुरुआत है। वे हामिद करजई और डाॅ. अब्दुल्ला से भी मिले हैं याने वे काबुल में मिली-जुली सरकार बनवाने की कोशिश कर रहे हैं। भारत क्या कर रहा है ? हमारे राजदूत, विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री सिर्फ बातों की जलेबियां उतार रहे हैं। सीधे अफगान नेताओं से बात करने की बजाय वे दुनिया भर के अड़ौसियों-पड़ौसियों से ‘गहन संवाद’ में व्यस्त हैं। वे यह क्यों भूल रहे हैं कि भारत के राष्ट्रहितों की रक्षा करना उनका प्रथम कर्तव्य है। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-संजीव बख्शी
प्रिय मित्र हरिहर वैष्णव नहीं रहे। यह बहुत ही दुखद हुआ। बहुत ही नेक इंसान थे वे। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि। उनकी स्मृति में पुरानी बातें याद आ रही हैं।
कोंडागाँव में हरिहर वैष्णव ने अपने घर में ‘लक्ष्मी जगार’ का पहली बार आयोजन करवाया था। मैं भी देखने गया था। सात से लेकर ग्यारह दिनों तक यह जगार चलता है। दो महिलाएं, जिन्हें गुरुमाँय कहते हैं, इस लोक महाकाव्य को ही भाषा में गाती हैं और सब सुनते हैं। उसे हरिहर वैष्णव रिकार्ड कर रहे थे। बाद में उन्होंने उसका लिप्यांतरण (ट्रांसक्रिप्शन) किया और हिंदी में अनुवाद भी। ऑस्ट्रेलिया के ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, केनबरा से क्रिस ग्रेगोरी आए तो उन्हें सुनाने के लिए फिर से एक बार ‘लक्ष्मी जगार’ का आयोजन किया गया और फिर हल्बी हिंदी और अंग्रेजी में इसे प्रकाशित कराया गया। इसमें चित्रकारी खेम वैष्णव ने की। यह अब तक वाचिक परम्परा में ही रहा परंतु पहली बार हरिहर वैष्णव ने लिखित में लाया। यह उनका एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। ‘लक्ष्मी जगार’ के अलावा ‘तीजा जगार’, ‘आठे जगार’, ‘बाली जगार’ और इसी तरह से अन्य वाचिक परम्परा की चीजों को हरिहर वैष्णव ने लिखित स्वरूप में लाकर महत्त्वपूर्ण कार्य किया हरिहर वैष्णव ने बताया था कि गुरुमाँय सुखदयी कोर्राम गरीब स्थिति में अपने जीवन का निर्वाह किया करती थीं। उन्हें आस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय की ओर से सम्मानजनक राशि दिलाई गई। इसके साथ ही उन्हें क्रिस ग्रेगोरी और उनकी पत्नी जूडिथ रॉबिन्सन की ओर से प्रति माह सम्मानजनक राशि अब भी प्रदान की जा रही है।
यहाँ यह बताना शायद प्रासंगिक होगा कि क्रिस ग्रेगोरी की पत्नी जूडिथ रॉबिन्सन 2010 से 2012 तक फिजी में ऑस्ट्रेलियाई उच्चायुक्त के पद पर भी पदस्थ रहीं। मुझे स्मरण है कि 1999 में तो हरिहर वैष्णव के साहित्यिक विदेश प्रवास के लिए विदेशी आयोजकों ने टिकट आदि सब करवा लिये थे और कोंडागाँव से निकलने की तारीख में वे हरिहर को फोन कर पूछते हैं कि वे निकले कि नहीं? जवाब मिला कि उन्हें मलेरिया हो गया है और वे खाट से उठ नहीं पा रहे हैं। वे ठीक हुए उसके बाद सन् 2000 में फिर से उन्हें बुलाने के लिए सब व्यवस्था की गई तब वे गए। विदेश से लौटने के बाद उनका एक बहुत ही आत्मीय पत्र आया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दक्षेस (सार्क) के विदेश मंत्रियों की जो बैठक न्यूयार्क में होनेवाली थी, वह स्थगित हो गई है। उसका कारण यह बना कि अफगान सरकार का प्रतिनिधित्व कौन करेगा? सच पूछा जाए तो 2014 के बाद दक्षेस का कोई शिखर सम्मेलन वास्तव में हुआ ही नहीं। 2016 में जो सम्मेलन इस्लामाबाद में होना था, उसका आठ में से छह देशों ने बहिष्कार कर दिया था, क्योंकि जम्मू में आतंकवादियों ने उन्हीं दिनों हमला कर दिया था। नेपाल अकेला उस सम्मेलन में सम्मिलित हुआ था, क्योंकि नेपाल उस समय दक्षेस का अध्यक्ष था और काठमांडो में दक्षेस का कार्यालय भी है। दूसरे शब्दों में इस समय दक्षेस बिल्कुल पंगु हुआ पड़ा है। यह 1985 में बना था लेकिन अब 35 साल बाद भी इसकी ठोस उपलब्धियां नगण्य ही हैं, हालांकि दक्षेस-राष्ट्रों ने मुक्त व्यापार, उदार वीजा-नीति, पर्यावरण-रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में परस्पर सहयोग पर थोड़ी बहुत प्रगति जरुर की है लेकिन हम दक्षेस की तुलना यदि यूरोपीय संघ और 'एसियानÓ से करें तो वह उत्साहवर्द्धक नहीं है।
फिर भी दक्षेस की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसे फिर से सक्रिय करने का भरसक प्रयत्न जरुरी है। जिन दिनों 'सार्कÓ याने 'साउथ एशियन एसोसिएशन ऑफ रीजनल कोऑपरेशनÓ नामक संगठन का निर्माण हो रहा था तो इसका हिंदी नाम 'दक्षेसÓ मैंने दिया था। 'नवभारत टाइम्सÓ के एक संपादकीय में मैंने 'दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघÓ का संक्षिप्त नाम 'दक्षेसÓ बनाया था। उस समय याने अब से लगभग 40 साल पहले भी मेरी राय थी कि दक्षेस के साथ-साथ एक जन-दक्षेस संगठन भी बनना चाहिए याने सभी पड़ौसी देशों के समान विचारों वाले लोगों का संगठन होना भी बहुत जरुरी है। सरकारें आपस में लड़ती-झगड़ती रहें तो भी उनके लोगों के बीच बातचीत जारी रहे।
यह इसलिए जरुरी है कि दक्षिण और मध्य एशिया के 16-17 देशों के लोग एक ही आर्य परिवार के हैं। उनकी भाषा, भूषा, भोजन, भजन और भेषज अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन उनकी संस्कृति एक ही है। अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और त्रिविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव के इस प्रदेश में खनिज संपदा के असीम भंडार भरे हुए हैं। यदि भारत चाहे तो इन सारे पड़ौसी देशों को कुछ ही वर्षों में मालामाल किया जा सकता है और करोड़ों नए रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। यदि हमारे ये देश यूरोपीय राष्ट्रों की तरह संपन्न हो गए तो उनमें स्थिरता ही नहीं आ जाएगी बल्कि यूरोप के राष्ट्रों की तरह वे युद्धमुक्त भी हो जाएंगे। पिछले 50-55 वर्षों में लगभग इन सभी राष्ट्रों में मुझे दर्जनों बार जाने और रहने का अवसर मिला है। भारत के लिए उनकी सरकारों का रवैया जब-तब जो भी रहा हो, जहां तक इन देशों की जनता का सवाल है, भारत के प्रति उनका रवैया मैत्रीपूर्ण रहा है। इसीलिए भारत के प्रबुद्ध और संपन्न नागरिकों को जन-दक्षेस के गठन की पहल तुरंत करनी चाहिए। वह दक्षेस के नहले पर दहला सिद्ध होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
भारत में बीते दशकों में सभी धर्मों के लोगों की जन्मदर में बड़ी गिरावट हुई है. अमेरिकी संस्था प्यू रिसर्च सेंटर का एक ताजा अध्ययन बताता है कि 1951 से भारत की धार्मिक बनावट में मामूली बदलाव हुए हैं.
डॉयचे वेले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट
प्यू रिसर्च सेंटर के ताजा अध्ययन में पता चला है कि भारत के सभी धर्मों में जन्मदर लगातार घटी है जिस कारण देश की मूल धार्मिक बनावट में मामूली बदलाव हुए हैं. 1.2 अरब आबादी वाले देश में 94 प्रतिशत लोग हिंदू और मुस्लिम धर्म के हैं. बाकी छह फीसदी आबादी में ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन आते हैं.
प्यू रिसर्च सेंटर ने नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) और जनगणना के आंकड़ों का विस्तृत अध्ययन किया है. इस अध्ययन के जरिए यह समझने की कोशिश की गई है कि भारत में धार्मिक संरचना में किस तरह के बदलाव आए हैं और अगर ऐसा हुआ है तो उनकी क्या वजह हैं.
1951 की जनगणना में भारत की आबादी 36.1 करोड़ थी जो 2011 में 1.2 अरब हो गई थी. प्यू का अध्ययन कहता है कि इस दौरान सभी धर्मों की आबादी में वृद्धि हुई है. हिंदुओं की जनसंख्या 30.4 करोड़ से बढ़कर 96.6 करोड़ हो गई है. इस्लाम को मानने वाले 3.5 करोड़ से बढ़कर 17.2 करोड़ पर पहुंच गए जबकि ईसाइयों की आबादी 80 लाख से 2.8 करोड़ हो गई.
जन्मदर का अंतर घटा
अध्ययन के मुताबिक अब भी भारत में सबसे ज्यादा जन्मदर मुसलमानों की है. 2015 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में मुस्लिम जन्मदर प्रति महिला 2.6 थी. इसके बाद हिंदुओं का नंबर आता है जो प्रति महिला 2.1 बच्चों को जन्म दे रही थी. जैन धर्म की जन्मदर सबसे कम 1.2 रही.
लेकिन अध्ययन इस बात को उजागर करता है कि यह चलन ज्यादा बदला नहीं है. शोध के मुताबिक 1992 में भी मुसलमानों की जन्मदर सबसे ज्यादा (4.4) थी जो हिंदुओं से (3.3) ज्यादा थी. स्टडी कहती है, "लेकिन, विभिन्न धर्मों के बीच जन्मदर में अंतर पहले से बहुत कम हो गया है.”
ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि अल्पसंख्यकों की जन्मदर बढ़ने में सबसे ज्यादा कमी आई है. शुरुआती दशकों में मुस्लिम जन्मदर बहुत तेजी से बढ़ रही थी जबकि अब यह काफी कम हो चुकी है. प्यू रिसर्च सेंटर की वरिष्ठ शोधकर्ता स्टेफनी क्रैमर लिखती हैं कि एक ही पीढ़ी में 25 वर्ष से कम आयु की मुस्लिम औरतों के बच्चे जनने की दर में लगभग दो बच्चों की कमी हो गई है.
क्रैमर के मुताबिक 1990 के दशक में प्रति भारतीय महिला 3.4 बच्चे जन्म ले रहे थे जो 2015 में घटकर 2.2 पर आ गए. इसमें सबसे बड़ा योगदान मुस्लिम महिलाओं का है. 1990 के दशक में हर मुस्लिम महिला औसतन 4.4 बच्चों को जन्म दे रही थी जो 2015 में घटकर 2.6 पर आ गया. यानी 1992 में मुस्लिम महिलाएं हिंदुओं की अपेक्षा 1.1 बच्चे ज्यादा जन रही थीं और 2015 में यह अंतर घटकर 0.5 बच्चों पर आ गया.
मुसलमानों की आबादी सबसे ज्यादा बढ़ी
बीते 60 साल में मुसलमानों की आबादी 4 प्रतिशत बढ़ी है जबकि हिंदुओं की आबादी लगभग इतनी ही कम हुई है. बाकी धर्मों की आबादी लगभग स्थिर रही है.
2011 की जनगणना के हिसाब से भारत में 96.6 करोड़ हिंदू थे जो कुल आबादी का 79.8 प्रतिशत है. 2001 की जनगणना की तुलना में यह संख्या 0.7 फीसदी कम थी और 1951 की जनगणना से तुलना करें तो हिंदुओं की आबादी 4.3 प्रतिशत कम हुई थी, जो तब 84.1 प्रतिशत हुआ करते थे.
इसकी तुलना में मुसलमानों की आबादी बढ़ी है. 2001 में भारत में 13.4 प्रतिशत मुसलमान थे जो 2011 में बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गए. 1951 की तुलना में मुसलमानों की आबादी 4.4 प्रतिशत बढ़ी थी. ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन धर्म के मानने वालों की संख्या में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ.
जनसंख्या में यह बदलाव पूरे देश में समान नहीं हुआ है. कुछ राज्यों में आबादी की संरचना में बदलाव बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा देखा गया है. मसलन, अरुणाचल प्रदेश में हिंदुओं की आबादी 2001 से 2011 के बीच 6 प्रतिशत घट गई थी लेकिन पंजाब में 2 प्रतिशत बढ़ी. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काफी दिनों बाद इस हफ्ते विदेश यात्रा करनेवाले हैं। वे वाशिंगटन और न्यूयार्क में कई महत्वपूर्ण मुलाकातें करनेवाले हैं। सबसे पहले तो वे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस से मिलेंगे और फिर चौगुटे (क्वाड) के नेताओं से मिलेंगे याने जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सूगा और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मोरिसन से भी मिलेंगे। इस दौरान वे अमेरिका की कई बड़ी कंपनियों के मालिकों से भी भेंट करेंगे। रूशस्रद्ब द्घद्बह्म्ह्यह्ल द्वद्गद्गह्लद्बठ्ठद्द ड्ढद्बस्रद्गठ्ठ
संयुक्तराष्ट्र संघ में उनके भाषण के अलावा उनका सबसे महत्वपूर्ण काम होगा— चौगुटे के सम्मेलन में भाग लेना। यह चौगुटा बना है— अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया को मिलाकर! इसका अघोषित लक्ष्य है— चीनी प्रभाव को एशिया में घटाना लेकिन चीन ने इसका नया नामकरण कर दिया है। वह कहता है कि यह 'एशियाई नाटोÓ है। यूरोपीय नाटो बनाया गया था, सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए और यह बनाया गया है, चीन का मुकाबला करने के लिए लेकिन चीन मानता है कि यह समुद्र के झाग की तरह हवा में उड़ जाएगा। भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि अभी पिछले हफ्ते ही अमेरिका ने एक नया संगठन खड़ा कर दिया है। उसका नाम है ऑकुस याने आस्ट्रेलिया, युनाइटेड किंगडम और यूएस ! इसमें भारत और जापान छूट गए हैं और ब्रिटेन जुड़ गया है।
अमेरिका ने यह नए ढंग का गुट क्यों बनाया है, समझ में नहीं आता। हो सकता है कि यह अंग्रेजीभाषी एंग्लो-सेक्सन गुट है। यदि ऐसा है तो माना जा सकता है कि अब चौगुटे का महत्व घटेगा या उसका दर्जा दोयम हो जाएगा। इस नए गुट में अमेरिका अब आस्ट्रेलिया को कई परमाणु-पनडुब्बियां देगा। क्या वह भारत को भी देगा ? परमाणु पनडुब्बियों का सौदा पहले आस्ट्रेलिया ने फ्रांस से किया हुआ था। वह रद्द हो गया। फ्रांस बौखलाया हुआ है।
यदि मोदी-बाइडन भेंट और चौगुटे की बैठक में अफगानिस्तान, प्रदूषण और कोविड जैसे ज्वलंत प्रश्नों पर भी वैसी ही घिसी-पिटी बातें होती हैं, जैसी कि सुरक्षा परिषद, शांघाई सहयोग संगठन और ब्रिक्स की बैठकों में हुई हैं तो भारत को क्या लाभ होना है ? भारत और अमेरिका के आपसी संबंधों में घनिष्टता बढ़े, यह दोनों देशों के हित में है लेकिन हम यह न भूलें कि पिछले 74 साल में भारत किसी भी महाशक्ति का पिछलग्गू नहीं बना है। सोवियत संघ के साथ भारत के संबंध अत्यंत घनिष्ट रहे लेकिन शीतयुद्ध के दौरान भारत अपनी तटस्थता के आसन पर टिका रहा। फिसला नहीं। अब भी वह अपनी गुट-निरपेक्षता या असंलग्नता को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहता है। वह रूस, चीन, फ्रांस या अफगानिस्तान से अपने रिश्ते अमेरिका के मन मुताबिक क्यों बनाए? मोदी को अपनी इस अमेरिका-यात्रा के दौरान भारतीय विदेश नीति के इस मूल मंत्र को याद रखना है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ध्रुव गुप्त
1968 से 1972 के बीच तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री, इंदिरा गांधी की सरकार में दो साल केंद्रीय शहरी विकास मंत्री और राज्यसभा तथा विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे स्व. भोला पासवान शास्त्री को राजनीति का विदेह कहा जाता है। ऐसा विदेह जिसकी ईमानदारी, सादगी, फक्कड़पन, सच्चरित्रता की आज भी मिसालें दी जाती है। बिहार के पूर्णिया जिले के छोटे से गांव बैरगाछी में जन्मे भोला बाबू सूबे के अकेले मुख्यमंत्री रहे हैं जो हमेशा पैदल ही अपने कार्यालय जाते थे। अपने आगे-पीछे गाडिय़ों का काफिला लेकर चलने वाले मुख्यमंत्रियों को देखने के अभ्यस्त लोगों को यकीन नहीं होगा कि भोला बाबू के पास कभी अपनी गाड़ी नहीं रही और न सरकारी गाडिय़ों का इस्तेमाल उन्होंने व्यक्तिगत और रूटीन कामों में किया। उदारता ऐसी कि वेतन और भत्ते की ज्यादा रकम जरूरतमंदों में बांट दिया करते थे। अपनी जड़ों से लगाव ऐसा कि औपचारिक और खर्चीली सभाएं आयोजित करने के बजाय पेड़ के नीचे जमीन पर कंबल बिछाकर अधिकारियों और अपने लोगों से संवाद करना ज्यादा पसंद किया करते थे। सरलता ऐसी कि मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतरने के अगले ही दिन वे रिक्शे पर बैठकर पटना की सडक़ों पर घूमने और लोगों से मिलने-जुलने निकल गए। मरे तो बैंक खाते में श्राद्ध कर्म के लायक पैसे भी नहीं थे। जिला प्रशासन को उनके अंतिम संस्कार का इंतजाम करना पड़ा था। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी, लेकिन पूर्णिया के उनके पैतृक गांव में उनके परिजन आज भी खेती-मजदूरी करते हैं। उस दौर में बिहार के इस दलित मुख्यमंत्री का क्रेज ऐसा था कि युवकों में उनके जैसे बाल-दाढ़ी रखने का फैशन चल पड़ा था। अफसोस यह रहा कि उनके बाद स्व. कर्पूरी ठाकुर के एक अपवाद को छोडक़र सार्वजनिक जीवन की शुचिता कभी क्रेज नहीं बन सकी।
आज बिहार-विभूति स्व. भोला पासवान शास्त्री की जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि!
-श्याम मीरा सिंह
एक दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाना और राष्ट्रपति बनाने में अंतर है। राष्ट्रपति को हमारे संविधान के अनुसार ‘रबर स्टाम्प’ कहते हैं, जबकि मुख्यमंत्री को विधानसभा का ‘असली’ नेता कहते हैं।
यूपी के मुख्यमंत्री के आगे देश के राष्ट्रपति भी सर झुकाकर सलाम करते हैं। इसलिए नहीं कि यूपी का मुख्यमंत्री साधुभेष बनाया हुआ है। बल्कि इसलिए क्योंकि मुख्यमंत्री की पॉवर में और राष्ट्रपति की असल पॉवर में अंतर है, यूपी का मुख्यमंत्री बहुत कुछ पॉवर एक्सरसाईज करता है।
हालाँकि बहुत से सीएम भी रबर स्टांप रहे हैं, मगर ये सीएम के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। अगर उनमें दम है तो राष्ट्रीय नेतृत्व में हस्तक्षेप रख सकते हैं। उतना स्पेस मिलने की उन्हें गुंजाइश मिल सकती है। लेकिन अगर बात राष्ट्रपति की करें तो अतीत में ऐसा कोई राष्ट्रपति नहीं रहा जिसने राष्ट्रीय नेतृत्व में कोई राजनीतिक हस्तक्षेप किया हो। क्योंकि उसे संवैधानिक ताकत ही नहीं हैं। अधिकतर राष्ट्रपतियों का काम राष्ट्रपति बनने के बाद प्रिंटर से प्रिंट निकालना भर रह गया।
किसी भी पार्टी की मदद से कोई दलित नेता मुख्यमंत्री बनता है तो उसके साथ ‘प्रतिनिधित्व और विविधता’ का मूल्य भी आता है। ये अंत नहीं है मगर एक शुरुआत जरूर है। ये उस बात की शुरुआत के लिए अच्छा है जिसके बाद सीएम ही दलित नहीं होगा बल्कि वह अपनी पार्टी का शीर्ष नेता भी होगा। यानी जड़ और फल दोनों एक जगह से होंगे। अभी फल और जड़ में एक गहरा अंतर है। पैंतीस प्रतिशत दलित जनसंख्या वाला पंजाब आज पहली बार अपना सीएम देख रहा है। इसलिए जो भी है, अच्छी शुरुआत है।
दलित सीएम को लेकर इस देश का अनुभव ये रहा है कि वे अक्सर सांप्रदायिकता को बढऩे नहीं देते। अपनी क्षमता में अस्पताल और स्कूलों पर ध्यान देते हैं। सबसे अधिक ध्यान क़ानून व्यवस्था पर देते हैं क्योंकि उन्हें पता है थानों और चौकियों का सबसे अधिक शिकार उनका ही समाज रहता है। अब तक सवर्णों का राज देखने वाले इस बात को नहीं समझेंगे।
उन्हें मायावतीजी की सिर्फ मूर्तियाँ दिखेंगी, ‘सौ सैंया’ अस्पताल नहीं दिखेंगे। थानों में जिस तरह से सख्ती की गई वो नहीं दिखेगी, नकल रोकने का काम किया गया वो नहीं दिखेगा। वे हेलिकॉप्टर में उड़ते शाह-मोदी को देख सकते हैं मगर नोटों की माला पहनी मायावती नहीं। इसलिए भी जरूरी है कि इस मानसिकता और विचार पर चोट हो।
-कृष्ण कांत
यूपी के विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित महात्मा गांधी की तुलना राखी सावंत से कर रहे हैं। उनका कहना है, ‘गांधी जी कम कपड़े पहनते थे, धोती ओढ़ते थे। गांधी जी को देश ने बापू कहा। अगर कोई कपड़े उतार देने भर से महान बन जाता तो राखी सावंत महान बन जातीं।’
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लोग इस लायक भी नहीं हैं कि वे अपने मुंह से गांधी का नाम ले सकें, वे गांधी के बारे में ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं। ये किस स्तर की निकृष्ट राजनीति है कि गांधी की हत्या पर मिठाई बांटने वाले लोग आज 70 साल बाद भी गांधी की चरित्रहत्या पर आमादा हैं।
गांधी वे शख्स हैं जिन्हें सुभाष चंद्र बोस ने ‘राष्ट्रपिता’ घोषित किया। गांधी वे शख्स हैं जिन्हें रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘महात्मा’ नाम दिया। गांधी वे शख्स हैं जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जनता का आंदोलन बनाया। यह न सिर्फ गांधी जी का, बल्कि सुभाष चंद्र बोस, रवींद्रनाथ टैगोर और पूरे स्वतंत्रता आंदोलन का अपमान है। यह विक्षिप्तता और आपराधिक मानसिकता से उपजा बयान है। यह वही मानसिकता है जिसके तहत गांधी-नेहरू के खिलाफ वॉट्सएप विषविद्यालय में अभियान चलाया जाता है।
गांधी उस शख्सियत का नाम है जो आर्थिक संकट के समय किसी लुटेरे की तरह 8000 करोड़ के जहाज से नहीं घूमता था। गांधी उस शख्सियत का नाम है जो उद्योगपतियों के हाथ देश बेचने पर आमादा नहीं था। गांधी उस शख्सियत का नाम है जिसने 50 सालों तक निर्विवाद रूप से सबसे ताकतवर रहकर भी एक धोती में जिंदगी गुजारी। गांधी उस शख्सियत का नाम है जिसने अपने देश की जनता को नंगा और भूखा देखा तो अपना बैरिस्टर का लिबास उतारकर उनके साथ आ गया और जिंदगी एक धोती में काट दी।
हृदय नारायण दीक्षित को ये समझना चाहिए कि वे जिस संगठन और पार्टी की दलाली कर रहे हैं, वह दशकों तक अंग्रेजों की दलाली करती थी। हृदय नारायण को समझना चाहिए कि वे इस लायक भी नहीं हैं कि वे अपनी जबान पर महात्मा गांधी का नाम भी ला सकें।
हृदय नारायण दीक्षित यूपी की विधानसभा में अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठकर उस कुर्सी को कलंकित कर रहे हैं। वे एक सम्मानजनक पद पर हैं। भारत के स्वतंत्रता सेनानियों, भारतीय आजादी के नायकों और देश के शहीदों का अपमान करना देश की आत्मा में छुरा घोंपने जैसा जघन्य अपराध है। यह राष्ट्रीय आंदोलन के साथ उसी किस्म की गद्दारी है जो उस समय आरएसएस कर रहा था। ये बेहद शर्मनाक और अक्षम्य है।
माननीय अध्यक्ष जी! मैं आपसे कहना चाहता हूं कि आपकी फौज ऊंचे पदों पर बैठकर चाहे जितना नीचे गिर ले, गांधी अपने जीवन में ही विश्वपुरुष थे, हैं और रहेंगे। उनकी महानता को अंग्रेज भी नहीं लीप सके तो आप किस खेत की मूली हैं? आप तो उस कलंकित कुनबे के एक अदना प्रतिनिधि हैं जिनसे आजादी आंदोलन तक के साथ गद्दारी की हो!
महात्मा गांधी इस देश का गर्व हैं! यकीन न हो तो नरेंद्र मोदी से पूछ लीजिए। विदेशी धरती पर जाकर वे भी कलेजे पर पत्थर रखकर कहते हैं कि मैं गांधी के देश से आया हूं।
महात्मा गांधी के बारे में ऐसी बातें करके आप आसमान पर थूक रहे हैं जो हर हाल में लौटकर आपके चेहरे पर आएगा और शर्म की तरह चिपक जाएगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब, गुजरात, उत्तराखंड और कर्नाटक में जिस तरह मुख्यमंत्री बदले गए हैं, क्या इस प्रक्रिया के पीछे छिपे गहरे अर्थ को हम समझ पा रहे हैं? किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह काफी चिंता का विषय है। इन चारों राज्यों में पिछले दिनों जिस तरह से मुख्यमंत्रियों को बदला गया है, उस तरीके में चमत्कारी एकरुपता दिखाई पड़ रही है। पंजाब में कांग्रेस है और शेष तीन राज्यों में भाजपा है। ये दोनों अखिल भारतीय पार्टियां हैं। इनमें से भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। और कांग्रेस दुनिया की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक है। ये दोनों पार्टियाँ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की सबसे बड़ी पार्टियाँ है।
इन दोनों पार्टियों की कार्यपद्धति में आजकल अदभुत समानता दिखाई पडऩे लगी है। चारों राज्यों में सत्ता-परिवर्तन चुटकी बजाते ही हो गया। कोई दंगल नहीं हुआ। कोई उठा-पटक नहीं हुई। हटाए गए मुख्यमंत्री अभी तक अपनी पार्टी में ही टिके हुए हैं। उन्होंने बगावत का कोई झंडा नहीं फहराया। दोनों पार्टियों के जो मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में अभी भी टिके हुए हैं, उन्हें डर लग रहा है कि कहीं अब उनकी बारी तो नहीं है। जो नए मुख्यमंत्री लाए गए हैं, उनकी चिंता यह है कि अगले चुनाव में अपनी पार्टी को कैसे जितवाया जाए? दोनों पार्टियों की कोशिश है कि उन्होंने जो नए मुख्यमंत्री ऊपर से उतारे हैं, वे येन-केन-प्रकारेण चुनाव की वैतरणी तैर कर पार कर लें।
दोनों पार्टियाँ अपने आपको राष्ट्रीय कहती हैं लेकिन उनका चुनावी पैंतरा शुद्ध जातिवादी है। गुजरात में भाजपा यदि पटेल वोटों पर लार टपका रही है तो पंजाब में कांग्रेस ने दलित वोटों का थोक सौदा कर लिया है। उसने अपने कई सुयोग्य प्रांतीय नेताओं को वैसे ही दरकिनार कर दिया है, जैसे गुजरात में भाजपा ने किया है। दलित वोट पटाने के लिए उसने एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना दिया है, जिस पर कई तुच्छ कोटि के आरोप पहले से ही लगे हुए हैं। यहां असली सवाल यह है कि इन दोनों महान पार्टियों को इस वक्त जातिवाद का नगाड़ा क्यों पीटना पड़ रहा है। कांग्रेस के बारे में तो यह कहने की जरुरत नहीं है कि उसका केंद्रीय नेतृत्व जनता की दृष्टि में लगभग निष्प्रभावी हो गया है। लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का भी विश्वास खुद पर से हिल गया दिखता है। जो नेतृत्व हरयाणा में एक पंजाबी और गुजरात में एक जैन को मुख्यमंत्री बनाकर अपने दम पर जिता सकता था, अब उसकी भी सांस फूलती दिखाई पड़ रही है। वह भी नए चेहरों और जातिवादी थोक आधार की तलाश में जुट गया है। जनता में चाहे दोनों नेतृत्व कम-ज्यादा हिले हों लेकिन अपनी-अपनी पार्टी में उनकी जकड़ पहले से ज्यादा मजबूत हो गई है। लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए यह शुभ नहीं है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अनिल जैन
‘सबसे अजब-सबसे गजब मध्य प्रदेश’ में लेखकों और साहित्यकर्मियों को उनकी प्रथम कृति प्रकाशित कराने के नाम पर 20-20 हजार रुपए का अनुदान दिए जाने का उपक्रम मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद की साहित्य अकादमी के तत्वावधान में होने वाला एक किस्म का घोटाला ही है, जिसे हर साल एक अनुष्ठान के तौर पर अंजाम दिया जाता है।
इस अनुष्ठान में दिल्ली, भोपाल, जयपुर, मेरठ, गाजियाबाद, गुरूग्राम, इंदौर आदि शहरों के प्रकाशकों का गिरोह भी श्राद्धपक्ष के पंडों की तरह शामिल रहता है। सरकारी अनुदान के लिए कई लोगों की पांडुलिपियों का चयन तो प्रकाशकों की सिफारिश पर ही होता है। ये प्रकाशक इन पांडुलिपियों को छापते हैं और फिर इनकी ऊंचे दामों पर सरकारी खरीद होती है। सरकारी महकमों और शिक्षा संस्थानों में ये किताबें पड़े-पड़े सड़ते हुए दीमकों और चूहों का आहार बनती हैं।
मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद या साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार या अनुदान के नाम पर रेवडिय़ां बांटने का इतिहास पुराना है। यह काम कांग्रेस के जमाने में भी होता था, लेकिन उस समय कुछ तो लोकलाज का ध्यान रखा जाता था। तब इस तरह के अनुदान प्राप्त करने वालों की सूची 15-20 फीसदी नाम ही फर्जी लेखकों या साहित्यकारों के होते थे, लेकिन अब मामला एकदम उलट गया है।
अब ऐसी सूची में 15-20 फीसदी ही नाम ऐसे होते हैं, जिनका वास्तविक रूप से लिखने-पढऩे से सरोकार होता है और बाकी सारे नाम ऐसे होते हैं, जिन्हें साहित्य की खरपतवार या गाजरघास कहा जा सकता है।
इस बार साहित्य परिषद ने दो साल के लिए कुल जिन 80 नामों का चयन किया है, उनमें 10-12 ही अपवाद होंगे, जिनका पढऩे-लिखने से वास्ता होगा। मैंने 80 लोगों की सूची में से कुछ लोगों का फेसबुक प्रोफाइल देख कर उनके बारे में जानने की कोशिश की तो पाया कि अधिकांश ने अपने प्रोफाइल पर ताला ठोक रखा है।
ताला लगी फेसबुक प्रोफाइल वालों को मैं निहायत असामाजिक और संदिग्ध चरित्र का व्यक्ति मानता हूँ, चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो। चयनित सूची में जिन लोगों के प्रोफाइल खुले पाए गए, उनमें से भी ज्यादातर पर सिवाय मित्रों और परिजनों को जन्मदिन और शादी की सालगिरह के बधाईसंदेश और सैरसपाटे तथा पारिवारिक आयोजन की तस्वीरें ही दिखीं। कुछ की फेसबुक वाल पर संदेश विहीन लघुकथा, कविता और व्यंग्य टाइप का भी कुछ चस्पा किया हुआ दिखा, जिसमें व्याकरण अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाती पाई गई।
हालांकि ऐसे लोग स्थानीय अखबारों में भी खूब छपते हैं, लेकिन इसमें हैरान होने जैसी कोई बात नहीं, क्योंकि अखबारों को अपने पन्नों पर विज्ञापन और पेड न्यूज के बाद बची खाली जगह भरने के लिए इन लोगों से मुफ्त में सामग्री मिल जाती है। वैसे अखबारों में छापने के लिए रचनाओं का चयन करने वाले कारकूनों की लिखत-पढ़त का स्तर इन्हीं कथित रचनाकारों जैसा होता है।
इस बार साहित्य अकादमी ने जिन पांडुलिपियां का चयन किया है, उनमें ज्यादातर लघुकथाओं और कविताओं की हैं, जो इस बात की परिचायक है कि साहित्य की इन दोनों विधाओं के पतन में मध्य प्रदेश की साहित्य अकादमी भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि मध्य प्रदेश की संस्कृति परिषद और साहित्य अकादमी आवारा गायों की गौशाला जैसी हो गई हैं (जैसे स्मृतिशेष व्यंग्यकार शरद जोशी भोपाल के भारत भवन को कला और संस्कृति का कब्रस्तान कहते थे), जिसमें कुछ कुलीन गायें भी जाने-अनजाने चली जाती हैं या उन्हें प्रवेश दे दिया जाता है। लेकिन जब उनके साथ भी आवारा गायों जैसा सुलूक होता है तो वे गौशाला संचालकों के चाल-चलन को देख कर अपने को अपमानित महसूस करती हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के मुख्य न्यायाधीश नथालपति वेंकट रमन ने कल वह बात कह दी, जो कभी डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे। जो बात न्यायमूर्ति रमन ने कही है, मेरी स्मृति में ऐसी बात आज तक भारत के किसी न्यायाधीश ने नहीं कही। रमनजी ने एक स्मारक भाषण देते हुए बोला कि भारत की न्याय व्यवस्था को औपनिवेशिक और विदेशी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। यह शिकंजा क्या है? यह शिकंजा है- अंग्रेजी की गुलामी का! हमारे देश को आजाद हुए 74 साल हो गए लेकिन आज तक देश में एक भी कानून हिंदी या किसी भारतीय भाषा में नहीं बना। हमारी संसद हो या विधानसभाएं- सर्वत्र कानून अंग्रेजी में बनते हैं। अंग्रेजी में जो कानून बनते हैं, उन्हें हमारे सांसद और विधायक ही नहीं समझ पाते तो आम जनता उन्हें कैसे समझेगी? हम यह मानकर चलते हैं कि हमारी संसद में बैठकर सांसद और मंत्री कानून बनाते हैं लेकिन असलियत क्या है ?
इन कानूनों के असली पिता तो नौकरशाह होते हैं, जो इन्हें लिखकर तैयार करते हैं। इन कानूनों को समझने और समझाने का काम हमारे वकील और जज करते हैं। इनके हाथ में जाकर कानून जादू-टोना बन जाता है। अदालत में वादी और प्रतिवादी बगलें झांकते हैं और वकीलों और जजों की गटर-पटर चलती रहती है। किसी मुजरिम को फांसी हो जाती है और उसे पता ही नहीं चलता है कि वकीलों ने उसके पक्ष या विपक्ष में क्या तर्क दिए हैं और न्यायाधीश के फैसले का आधार क्या है। इसी बात पर न्यायमूर्ति रमन ने जोर दिया है। इस न्याय-प्रक्रिया में वादी और प्रतिवादी की जमकर ठगी होती है और न्याय-प्रक्रिया में बड़ी देरी हो जाती है। कई मामले 20-20, 30-30 साल तक अदालतों में लटके रहते हैं। न्याय के नाम पर अन्याय होता रहता है।
इस दिमागी गुलामी का नशा इतना गहरा हो जाता है कि भारत के मामलों को तय करने के लिए वकील और जज लोग अमेरिका और इंग्लैंड के अदालती उदाहरण पेश करने लगते हैं। अंग्रेजी के शब्द-जाल में फंसकर ये मुकदमे इतने लंबे खिंच जाते हैं कि देश में इस समय लगभग चार करोड़ मुकदमे बरसों से अधर में लटके हुए हैं। न्याय के नाम पर चल रही इस अन्यायी व्यवस्था को आखिर कौन बदलेगा? यह काम वकीलों और जजों के बस का नहीं है। यह तो नेताओं को करना पड़ेगा लेकिन हमारे नेताओं की हालत हमारे जजों और वकीलों से भी बदतर है। हमारे नेता, सभी पार्टियों के, या तो अधपढ़ (अनपढ़ नहीं) हैं या हीनता ग्रंथि से ग्रस्त हैं। उनके पास न तो मौलिक दृष्टि है और न ही साहस कि वे गुलामी की इस व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन कर सकें। हाँ, यदि कुछ नौकरशाह चाहें तो उन्हें और देश को इस गुलामी से वे जरुर मुक्त करवा सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
शांघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार अफगानिस्तान पर अपना मुँह खोला। उन्हें बधाई, उनके जन्मदिन की भी! पिछले डेढ़-दो महिने से ऐसा लग रहा था कि भारत की विदेश नीति से हमारे प्रधानमंत्री का कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने विदेश नीति बनाने और चलाने का सारा ठेका नौकरशाहों को दे दिया है लेकिन अब वे बोले और अच्छा बोले। उन्होंने अफगानिस्तान में सर्वसमावेशी सरकार और आतंक-मुक्ति की बात पर जोर दिया, जो बिल्कुल ठीक थी लेकिन उसमें नया क्या था? वह तो सुरक्षा परिषद और मानव अधिकार आयोग की बैठक में सभी राष्ट्र कई बार प्रस्ताव पारित कर चुके हैं। सबसे ज्यादा खेदजनक बात यह हुई कि इस शांघाई संगठन की बैठक में भाग लेनेवाले राष्ट्रों में से चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान ने अपनी एक अलग बैठक की। इन चारों राष्ट्रों ने भारत को पूछा तक नहीं। भारत को अछूत मानकर इन राष्ट्रों ने उसे अलग बैठाए रखा। ये यह बताएं कि भारत की गलती क्या है?
भारत ने आज तक हमेशा अफगानिस्तान का भला ही किया है। उसने वहाँ कभी अपना कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं किया। अफगानिस्तान की आम जनता में भारत के लिए जो सराहना का भाव है, वह दुनिया के किसी राष्ट्र के लिए नहीं है। आज अकालग्रस्त अफगानिस्तान की जैसी मदद भारत कर सकता है, दुनिया का कोई राष्ट्र नहीं कर सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि सारे पड़ौसी राष्ट्रों के दिल में यह बात घर कर गई है कि भारत सरकार की कोई अफगान नीति नहीं है। वह अमरीका का पिछलग्गू बन गया है। इस धारणा को गलत साबित करते हुए हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी को आश्वस्त किया है कि वे हमारे सेनापति बिपिन रावत के चीन-विरोधी बयान से भी असहमत हैं और भारत किसी तीसरे देश (अमेरिका) के कारण चीन से भारत के आपसी संबंधों को प्रभावित नहीं होने देगा।
यह तो बहुत अच्छा है लेकिन अफगानिस्तान के मुद्दे पर भी हम यह बात क्यों नहीं लागू कर रहे हैं? नरेंद्र मोदी का यह आशय ठीक है कि तालिबान सरकार को मान्यता देने में जल्दबाजी न की जाए लेकिन अफगान जनता की मदद में कोताही भी न की जाए। तालिबान से संपर्क किए बिना इस नीति पर हम अमल कैसे करेंगे? अब अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने चीन को घेरने के लिए सामरिक समझौता, नाटो की तरह कर लिया है लेकिन अमेरिका का सारा जोर चीन के खिलाफ लग रहा है। उसे दक्षिण और मध्य एशिया की कोई चिंता नहीं है, जो भारत का सदियों पुराना परिवार (आर्यावर्त्त) है। अमेरिका से भारत के रिश्ते मधुर रहें, यह मैं चाहता हूं लेकिन हमें अपने राष्ट्रहित को भी देखना है या नहीं? यदि चीन, पाकिस्तान, रूस और ईरान जैसे राष्ट्र तालिबान की वर्तमान सरकार से खतरा महसूस कर रहे हैं और उससे निपटने का इंतजाम कर रहे हैं तो हम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हुए हैं?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
अफगानिस्तान मामले की सामरिक और कूटनीतिक जटिलताओं से एकदम अलग स्त्री विमर्श पर आधारित इसका पाठ है। आश्चर्यजनक रूप से यह पाठ एकदम सरल है। यह पाठ दरअसल एक सदियों पुरानी हौलनाक दास्तान है जो प्रकारांतर से हर युग में, हर मुल्क में थोड़े बहुत समयानुकूल परिवर्तनों के साथ दुहराई जाती है। इस दास्तान में कुछ धर्मांध शासक हैं जो सदियों पुराने धार्मिक कानूनों के आधार पर राज्य चला रहे हैं। देश की आधी आबादी इनकी भोग लिप्सा और कुंठाओं की पूर्ति के लिए बंधक बनाकर रखी गई है। जब वे जीत का जश्न मनाते हैं तो औरतों से बर्बरता करते हैं, जब वे हार का शोक मनाते हैं तो औरतों पर जुल्म ढाते हैं, जब वे मित्रता करते हैं तो भोगने के लिए औरतों को उपहार में देते हैं, जब वे शत्रुता करते हैं तो औरतों को नोचते -खसोटते, मारते-काटते हैं, जब वे अपने धर्म का पालन करते हैं तो औरतों को आज्ञापालक गुलामों की भांति बंधक बनाकर रखते हैं। समय के साथ इनके नाम बदल जाते हैं। जैसे आजकल जिस मुल्क में ऐसे हालात हैं उसका नाम अफगानिस्तान है जहाँ के कट्टरपंथी शासक तालिबान कहे जाते हैं। यह आधुनिक युग है। इसलिए यूएनओ और सार्क जैसे संगठन हैं, नारी स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली ढेर सारी संस्थाएं हैं, उत्तरोत्तर उदार और प्रजातांत्रिक होते विश्व के लोकप्रिय और शक्तिशाली सत्ता प्रमुख हैं। किंतु जो बात अपरिवर्तित है वह है अफगान महिलाओं की नारकीय स्थिति। क्या यह स्थिति अपरिवर्तनीय भी है?
तालिबानी शासन का पिछला दौर महिलाओं के लिए भयानक रहा था। यूएस डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट द्वारा 2001 में जारी की गई रिपोर्ट ऑन द तालिबान्स वॉर अगेंस्ट वीमेन के अनुसार 1977 में अफगानिस्तानी विधायिका में महिलाओं की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत थी। एक अनुमान के अनुसार नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में 70 प्रतिशत स्कूल शिक्षक, 50 प्रतिशत शासकीय कर्मचारी एवं विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी तथा 40 प्रतिशत डॉक्टर महिलाएं ही थीं। तालिबान जब 1996 में निर्णायक रूप से सत्ता में आया तो कथित पश्चिमी प्रभाव को समाप्त करने के लिए उसे महिलाओं की स्वतंत्रता पर प्रहार करना एवं उनके मानव अधिकारों को छीनना सबसे जरूरी लगा। इस प्रकार महिलाएं तालिबान का पहला और आसान शिकार बनीं।
1996 से 2001 के बीच अफगानी महिलाएं पढ़ाई और काम नहीं कर सकती थीं। वे बिना परिवार के पुरुष सदस्य के बाहर नहीं निकल सकती थीं। वे राजनीति में हिस्सा नहीं ले सकती थीं। वे सार्वजनिक रूप से श्रोताओं के सम्मुख भाषण भी नहीं दे सकती थीं। वे स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित कर दी गई थीं। यहाँ तक कि उनके लिए सार्वजनिक तौर पर अपनी त्वचा का प्रदर्शन करना भी प्रतिबंधित था। इन पाबंदियों का उल्लंघन करने पर कोड़े मारने और पत्थर मार मार कर हत्या कर देने जैसी सजाओं का प्रावधान था।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने नवम्बर 2001 में अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान टेक्सास के छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि दरअसल अफगानिस्तान में महिलाओं के साथ मनुष्यों जैसा बर्ताव नहीं होता।
दिसंबर 2001 में जब जॉर्ज डब्लू बुश ने अफगानी महिलाओं और बच्चों की सहायता के लिए फण्ड स्वीकृत किए थे तब लारा बुश का कथन था कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई महिलाओं के अधिकारों और उनकी गरिमा की रक्षा के लिए संघर्ष भी है।
किंतु अब जैसा जाहिर हो रहा है कि विश्व की इन महाशक्तियों की प्रतिबद्धता अपने सामरिक-कूटनीतिक हितों के प्रति हमेशा ही रही है, अफगानी स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने के इनके प्रयास सदैव एक आनुषंगिक रणनीति का भाग मात्र रहे हैं।
यूएन वीमेन इन अफगानिस्तान की उप प्रमुख डेविडियन के अनुसार वर्तमान तालिबानी शासन स्त्रियों के प्रति उदार होने के अपने तमाम वादों के बावजूद 1990 के दशक की याद दिलाता है जब महिलाओं को काम करने से रोका गया था और उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया था। अपनी नई पारी में तालिबानी हुक्मरानों के तेवर बदले नहीं हैं। आतंकवादियों से निर्मित तालिबान कैबिनेट में न तो कोई महिला सदस्य है न ही महिलाओं के लिए कोई मंत्रालय। महिलाएं केवल पुरुष रिश्तेदार के साथ ही निकल सकती हैं। अनेक सूबों में महिलाओं को काम पर जाने से रोका जा रहा है। हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए बनाए गए सुरक्षा केंद्रों तथा महिला मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं के लिए निर्मित सुरक्षित आवासों को निशाना बनाया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग करने वाली स्थानीय महिला एक्टिविस्ट और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता खास तौर पर तालिबानियों के रडार पर हैं। महिलाओं के क्रिकेट और अन्य खेलों में हिस्सा लेने पर पाबंदी लगाई जा रही है क्योंकि यह तालिबानी शासकों के अनुसार गैरजरूरी है और इसके लिए महिलाओं को ऐसे कपड़े पहनने पड़ेंगे जिससे उनका शरीर दिखाई देगा।
यदि वर्ष के प्रथम छह महीनों को आधार बनाया जाए तो 2021 के पहले छह महीनों में अफगानिस्तान में हताहत महिलाओं और बच्चों की संख्या 2009 के बाद से किसी वर्ष हेतु अधिकतम संख्या है।
यूएन रिफ्यूजी एजेंसी के अनुसार 2021 में अब तक लगभग 3 लाख 30 हजार अफगानी युद्ध के कारण विस्थापित हुए हैं और चौंकाने वाली बात यह है कि पलायन करने वालों में 80 प्रतिशत महिलाएं हैं जिनके साथ उनके अबोध और मासूम शिशु भी हैं। कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ यूएन स्पेशल प्रोसीजर्स की प्रमुख अनीता रामासस्त्री के अनुसार इस तरह की बहुत सारी महिलाएं छिपी हुई हैं। तालिबानी उन्हें घर घर तलाश कर रहे हैं। इस बात की जायज आशंका है कि इस तलाश की परिणति प्रतिशोधात्मक कार्रवाई में होगी।
अफगान महिलाओं की एक पूरी पीढ़ी स्वतंत्र वातावरण में पली बढ़ी है। उसे तालिबान के अत्याचारों का अनुभव नहीं है। यह महिलाएं चिकित्सक, शिक्षक, अधिवक्ता, स्थानीय प्रशासक और कानून निर्माताओं की भूमिका निभाती रही हैं। इनके लिए तालिबानी शासन एक अप्रत्याशित आघात की भांति है। जब वे देखती हैं कि तालिबानी अपने लड़ाकों की यौन परितुष्टि के लिए बारह से पैंतालीस वर्ष की आयु की महिलाओं की सूची बना रहे हैं, अचानक महिलाओं को खास तरह की पोशाक पहनने के लिए बाध्य किया जा रहा है, बिना पुरुष संरक्षक के उनके अकेले निकलने पर पाबंदी लगाई जा रही है और उन्हें नेतृत्वकारी स्थिति से हटाकर छोटी और महत्वहीन भूमिकाएं दी जा रही हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि जो कुछ थोड़ी बहुत स्वतंत्रता उन्होंने हासिल की है वह न केवल छीनी जा रही है बल्कि इस स्वतंत्रता के अब तक किए उपभोग का दंड उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
टोलो न्यूज़ द्वारा ट्विटर पर पोस्ट किए गए एक वीडियो में काबुल के शोमाल सराय इलाके में शरण लेने वाली दर्जनों महिलाओं को चीख चीख कर अपनी दुःख भरी दास्तान कहते देखा जा सकता है। इनके परिजनों की हत्या कर दी गई है और इनके घरों को नष्ट कर दिया गया है।
अफगानी महिला पत्रकार शाहीन मोहम्मदी के अनुसार अपने अधिकारों की मांग करती महिलाओं पर तालिबानी बर्बरता कर रहे हैं।
यद्यपि 17 अगस्त 2021 को तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा- शरीया कानून के मुताबिक हम महिलाओं को काम की इजाजत देंगे। महिलाएं समाज का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और हम उनका सम्मान करते हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों में - जहाँ भी उनकी आवश्यकता होगी- उनकी सक्रिय उपस्थिति होगी। किंतु तालिबान जिस शरीया कानून का पालन करता है वह विश्व के अन्य मुस्लिम देशों को भी स्वीकार्य नहीं है और इसमें महिलाओं के लिए जो कुछ है वह केवल अनुशासनात्मक और दंडात्मक है। कठोर प्रतिबंध और इनका पालन करने में असफल रहने पर क्रूर एवं अमानवीय दंड इसका मूल भाव है।
महिलाओं के लिए सबसे भयानक परिस्थिति यौन दासता की होगी। लड़ाकों को तालिबान के प्रति आकर्षित करने के लिए उन्हें महिलाएं भेंट की जाती रही हैं। हालांकि इसे शादी का नाम दिया जाता है लेकिन यह है प्रच्छन्न यौन दासता ही। तालिबानियों द्वारा महिलाओं का यौन शोषण जिनेवा कन्वेंशन के अनुच्छेद 27 का खुला उल्लंघन है। वर्ष 2008 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा प्रस्ताव 1820 के माध्यम से बलात्कार और अन्य प्रकार की यौन हिंसा को युद्ध अपराध तथा मानवता के विरुद्ध कृत्य का दर्जा दिया गया है। किंतु शायद कबीलाई मानसिकता से संचालित तालिबान के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बहुत अधिक मायने नहीं रखता।
ह्यूमन राइट्स वाच की एसोसिएट एशिया डायरेक्टर पैट्रिशिया गॉसमैन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से हस्तक्षेप की अपील करते हुए कहती हैं कि एलिमिनेशन ऑफ वायलेंस अगेंस्ट वीमेन कानून को सख्ती से लागू कराने के लिए विश्व के सभी देशों को अफगानिस्तान की सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं के हटने का एक परिणाम यह भी होगा कि अफगानिस्तान को मिलने वाली सहायता में कमी आएगी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की रुचि इस मुल्क के प्रति घटेगी। इसका सर्वाधिक प्रभाव महिलाओं पर पड़ेगा क्योंकि उनकी आवाज़ को मिलने वाला अंतरराष्ट्रीय समर्थन अब उपलब्ध नहीं होगा।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की प्रमुख मिशेल बचेलेट ने अगस्त 2021 में परिषद के आपात अधिवेशन को संबोधित करते हुए नए तालिबानी शासकों को चेतावनी भरे लहजे में कहा कि महिलाओं और लड़कियों के साथ किया जाने वाला व्यवहार वह आधारभूत लक्ष्मण रेखा है जिसका उल्लंघन करने पर तालिबानियों को गंभीर दुष्परिणाम भुगतने होंगे। लेकिन यह कठोर भाषा आचरण में परिवर्तित होती नहीं दिखती। अफगानिस्तान इंडिपेंडेंट ह्यूमन राइट्स कमीशन की प्रमुख शहरज़ाद अकबर के अनुसार अफगानिस्तान अपने सबसे बुरे दौर में है और उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहायता की जैसी जरूरत अब है वैसी पहले कभी न थी। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के मसौदा प्रस्ताव को हास्यास्पद बताया।
एशिया सोसाइटी का 2019 का एक सर्वेक्षण यह बताता है कि 85.1 प्रतिशत अफगानी ऐसे हैं जिन्हें तालिबानियों से कोई सहानुभूति नहीं है। इसके बावजूद तालिबान सत्ता पर काबिज हो चुके हैं। अफगानिस्तान गृह युद्ध की ओर बढ़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय चिंताजनक रूप से अफगानिस्तान की आधी आबादी की करुण पुकार को अनुसना कर रहा है। चंद औपचारिक चेतावनियों और प्रस्तावों के अतिरिक्त कुछ ठोस होता नहीं दिखता। दुनिया के ताकतवर देशों के लिए अपने कूटनीतिक लक्ष्य अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनका ध्यान इस बात पर अधिक है कि विस्फोटक, विनाशक और अराजक तालिबान को अपने फायदे के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जाए। विश्व व्यवस्था का पितृसत्तात्मक चरित्र खुलकर सामने आ रहा है।
अफगानिस्तान के मौजूदा हालात उन लोगों के लिए एक सबक हैं जो धर्म को सत्ता संचालन का आधार बनाना चाहते हैं। परिस्थितियां ऐसी बन रही हैं कि धार्मिक कट्टरता को परास्त कर समानतामूलक लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए भावी निर्णायक संघर्ष का नेतृत्व शायद अब महिलाओं को ही संभालना पड़ेगा। महिलाओं की अपनी मुक्ति शायद पितृसत्तात्मक शोषण तंत्र का शिकार होने वाले करोड़ों लोगों की आज़ादी का मार्ग भी प्रशस्त कर सके।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-रमेश अनुपम
बचाइए हुजूर! प्रदेश के संस्कृति विभाग से किशोर साहू को बचाइए
इस बार आप सबसे क्षमा मांगते हुए किशोर साहू के संबंध में कुछ जरूरी बातें करना चाहता हूं।
शायद यह आप सब लोगों की शुभेच्छा का असर है कि छत्तीसगढ़ शासन लंबी नींद से जागकर किशोर साहू को इस वर्ष याद करने जा रहा है।
कांग्रेस शासन सत्तानशीन होने के दो वर्ष के पश्चात् किशोर साहू अलंकरण की सुधि ले रहा है। पर इसमें अफसरशाही के रवैए से मुझे कुछ तकलीफ हो रही है। जाहिर है कि सच्चाई जानकर आप सबको भी कोई कम तकलीफ नहीं होगी।
14 सितंबर 2021 को संस्कृति विभाग का एक विज्ञापन समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है। जिसमें संस्कृति विभाग ने इस वर्ष के किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण के लिए देश के निर्देशकों से आवेदन पत्र भेजने का निर्देश दिया है। जैसे कि देश के नामी फिल्म निर्देशक इसके निर्धारित प्रपत्र को भरकर इसके लिए आवेदन पत्र संस्कृति विभाग को भेजने के लिए आतुर बैठे हों। बलिहारी हो संस्कृति विभाग की।
क्या कहें अफसरशाही और वह भी संस्कृति विभाग में, बिना साहित्य और संस्कृति की समझ वाले अधिकारी जहां होंगे वहां ऐसा ही होगा, जैसे वे लोक निर्माण विभाग का कोई टेंडर निकाल रहे हों।
संस्कृति विभाग के पिछले बीस वर्षों के कारनामों को देख लें और एक बार उनके द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘बिहनियां’ का दर्शन कर लें तो वैसे ही इनकी समझ की एक झलकी तो जरूर मिल जायेगी कि इन्हें साहित्य और संस्कृति की कितनी गहरी और गंभीर समझ है।
किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण पिछले तीन वर्षों से बंद था। मैं व्यक्तिगत स्तर पर इस कोशिश में जुटा था कि यह सम्मान बंद न हो चलता रहे। यह छत्तीसगढ़ के सपूत किशोर साहू के नाम पर दिया जाने वाला राष्ट्रीय और प्रादेशिक अलंकरण हमारे छत्तीसगढ़ राज्य के लिए गौरव की बात है।
सन 2017 का किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण (10 लाख रुपए और प्रशस्ति पत्र) प्रख्यात फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल को प्रदान किया गया और प्रादेशिक अलंकरण (2 लाख रुपए और प्रशस्ति पत्र) मनोज वर्मा को 2018 में दिया गया।
सन 2016 में मेरी पहल पर तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह जी ने राजनांदगांव में दो दिवसीय किशोर साहू जन्म शताब्दी समारोह का आयोजन करवाया और उसमें किशोर साहू की अब तक अप्रकाशित आत्मकथा को राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित करवाया था।
मुख्यमंत्री जी ने इस अवसर पर किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण और प्रादेशिक अलंकरण की घोषणा भी की। यह घोषणा उन्होंने किशोर साहू की अभिनेत्री सुपुत्री नयना साहू, सुपुत्र विक्रम साहू और राजनांदगांव के हजारों लोगों के सामने की, जिसे उन्होंने सन 2017 में निभाया भी।
अब थोड़ी सी कहानी इस अलंकरण के बारे में भी। सन 2017 में प्रदेश में संस्कृति सचिव निहारिका बारीक जी थी। एक दिन वे अपने संस्कृति विभाग के अमले के साथ मुख्यमंत्री आवास में अपने लैपटाप के द्वारा मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह जी को यह बता रही थीं कि उन्होंने किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण के लिए आवेदन पत्र का प्रारूप तैयार कर लिया है। संस्कृति सचिव ने अपना लैपटॉप खोला ही था कि सी.एम. साहब ने मुझे इस अंदाज में देखा कि बरखुरदार तुम्हारा क्या ख्याल है ?
मैंने बिना समय गंवाए सी.एम. साहब से कहा सर क्या मृणाल सेन और श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक आवेदन पत्र भरकर संस्कृति विभाग के सचिव को भेजेंगे कि हुजूर मैं भी सम्मान पाने के लिए लाइन में खड़ा हुआ हूं। मैंने कहा कि सर मध्यप्रदेश की तर्ज पर तीन लोगों की ज्यूरी बनवाइए और उन्हें इसका निर्णय लेने दीजिए।
सी.एम. साहब ने मुस्करा दिया और संस्कृति सचिव और उनके हुक्मरान उस दिन मुझ पर कितना बरसे होंगे, इसका मुझे अनुमान नहीं।
बहरहाल सन 2017 में बिना आवेदन के श्याम बेनेगल को यह राष्ट्रीय अलंकरण प्राप्त हुआ। उस वर्ष संस्कृति विभाग ने मुझे निमंत्रित करने लायक भी नहीं समझा। हालांकि बकायदा एक आदमी को मेरे घर भेजकर मुझसे पिछले वर्ष का निमंत्रण पत्र मंगवाया गया और हुबहू वैसा ही निमंत्रण पत्र सन 2017 में भी छपवाया गया।
अब फिर 14 सितंबर को प्रकाशित विज्ञापन की चर्चा कर लें। इस विज्ञापन में किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण और किशोर साहू प्रादेशिक अलंकरण की तो कैटेगरी ही गायब है। इस अलंकरण की दो कैटेगरी है राष्ट्रीय और प्रादेशिक।
इस विज्ञापन में आवेदन की अंतिम तिथि 11 अक्टूबर है। किशोर साहू का जन्मदिवस 22 अक्टूबर है। क्या दस दिन के पश्चात आने वाले किशोर साहू के जन्मदिन तक किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण की तैयारी संस्कृति विभाग के आला अधिकारी संभव कर पाएंगे ?
मैंने पूर्व में सुझाव दिया था कि हर वर्ष अगस्त माह में किशोर साहू राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक अलंकरण की तीन सदस्यीय ज्यूरी (दोनों के लिए पृथक-पृथक ) बना ली जाए और 22 अगस्त तक इसकी घोषणा कर दी जाए, ताकि जिसे सम्मान प्राप्त हो रहा है 22 अक्टूबर को अपनी तिथि खाली रख सके।
मैंने ज्यूरी के लिए नाम भी सुझाए थे...
राष्ट्रीय अलंकरण-
1. श्री श्याम बेनेगल
2. श्री जावेद अख्तर
3. श्री जयप्रकाश चौकसे
प्रादेशिक अलंकरण-
1. श्री मनु नायक
2. श्री मनोज वर्मा
3. श्री जयंत देशमुख
यह भी कि ज्यूरी की बैठक रायपुर में हो। ज्यूरी की सम्मति अलंकरण समारोह के दिन प्रकाशित कर एक बुकलेट के रूप में वितरित की जाए ताकि अलंकरण संबंधी पारदर्शिता का परिचय मिल सके।
पर संस्कृति विभाग तो मदमस्त हाथी की तरह है उसे इस तरह का सुझाव या किसी जानकार आदमी की क्या दरकार। वहां तो वैसे भी एक से एक नगीने हैं।
अब आप ही तय करें कि हमारे संस्कृति विभाग के अधिकारी कितने जवाबदेह और गंभीर संस्कृति की समझ रखने वाले अधिकारी हैं। जब ऐसे अधिकारियों के हाथों छत्तीसगढ़ की साहित्य, कला, संस्कृति हो तो सोच लीजिए कि आगे क्या होने वाला है।
किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण का जो हश्र होने वाला है उसे सोचकर ही अभी से मन कांप रहा है।
(अगले सप्ताह पैतीसवीं कड़ी हिंदी सिनेमा का नायाब सितारा : किशोर साहू...)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अपने देश के मंत्रियों और नेताओं का व्यवहार कुछ ऐसा बन गया है, कि कभी-कभी हमें उनकी कड़ी आलोचना करनी पड़ती है लेकिन अभी-अभी हमारे दो मंत्रियों और एक मुख्यमंत्री के ऐसे किस्से सामने आए हैं, जो हमें इतिहास-प्रसिद्ध महाराजा सत्यवादी हरिश्चंद्र और सम्राट विक्रमादित्य के आदर्श आचरण की याद दिला देते हैं। सबसे पहले लें केंद्रीय मंत्री श्री नितिन गडकरी को! गडकरी ने कल दिल्ली-मुंबई महापथ के निर्माण-कार्य का निरीक्षण करते हुए अपना एक किस्सा सुनाया। उस समय वे महाराष्ट्र सरकार में लोक निर्माण मंत्री थे। उनकी शादी अभी-अभी हुई थी। नागपुर के रामटेक में सरकार सड़क बनवा रही थी। उस सड़क के बीचोंबीच उनके ससुर का मकान भी खड़ा था। उन्होंने अपनी पत्नी को भी नहीं बताया और उस मकान को गिरवा दिया। गडकरी जैसे कितने मंत्री अपने देश में हुए हैं ? इसीलिए गडकरी को गदगदकरी कहता हूँ।
जब हम लोग बच्चे थे तो इंदौर में महारानी अहिल्याबाई के किस्से सुना करते थे। उसमें एक किंवदती यह थी कि उन्होंने अपने राजपुत्र को किसी संगीन अपराध के कारण भरे दरबार में हाथी के पाँव के नीचे दबवा दिया था। सच्चा राजा वही है, सच्चा जन-सेवक वही है, जो अपने-पराए के भेदभाव से ऊपर उठकर निष्पक्ष न्याय करे। ऐसी ही कथा सत्यवादी हरिश्चंद्र के बारे में हम बचपन से सुनते आए हैं। वे अपना राज-पाट त्यागने के बाद जब एक श्मशान घाट में नौकरी करने लगे तो उन्होंने अपने बेटे रोहिताश्व की अंत्येष्टि के पहले अपनी पत्नी तारामती से नियमानुसार शुल्क मांगा। उनके पास पैसे नहीं थे। इस पर हरिश्चंद्र ने कहा 'अपनी आधी साड़ी ही फाड़कर दे दो। यही शुल्क हो जाएगा।Ó इन आदर्शों का पालन हमारे नेता करें तो यह कलियुग सतयुग में बदल सकता है। कुछ इसी तरह का काम छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कुछ दिन पहले कर दिखाया। उनके पिता ने ब्राह्मणों के विरुद्ध कोई आपत्तिजनक बयान दे दिया था। उन्होंने कोई लिहाज-मुरव्वत नहीं दिखाई। उन्होंने अपने पिता को गिरफ्तार कर लिया। भूपेश स्वयं पितृभक्त और मित्रभक्त है लेकिन उन्होंने अपना राजधर्म निभाया।
ताजा खबर यह है कि नए स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया साधारण मरीज़ बनकर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल पहुंच गए। वे एक बेंच पर जाकर बैठ गए। चौकीदार ने डंडा मारा और उन्हें वहाँ से उठा दिया। यह बात उन्होंने जब नरेंद्र मोदी को बताई तो नरेंद्र भाई ने उनसे पूछा कि 'उसे मुअत्तिल कर दिया गया?Ó तो मनसुख भाई ने कहा कि 'नहीं, क्योंकि वह व्यवस्था को बेहतर बना रहा था।ÓÓ अद्भुत है, यह प्रतिक्रिया, एक मंत्री की! देश में कितने मंत्री हैं, जो साधारण वेश पहनकर इस तरह जन-सुविधाओं की निगरानी करते हैं? यदि हमारे मंत्री और नेता (और प्रधानमंत्री भी) इस तरह का सत्साहस करें तो उनके डर के मारे ही बहुत-सी अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से देश को मुक्ति मिल सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
1990 की दशक की शुरुआत में श्री हर्षमन्दर रायगढ़ जिले (तब के मध्यप्रदेश) में कलेक्टर बन कर आये थे।
उन दिनों की प्रचलित व्यवस्था के अनुसार जिले की शराब दुकानों के लिए साल भर के लिए ठेका होता था। बोलियां लगाने वाले कई होते थे किन्तु सफल होने वाले बहुत कम- वर्षों से जमे घाघ किस्म के लोग।
रायगढ़ जिले में पिछले अनेक वर्षों से पांच लोगों का एक समूह ठेका लेता आ रहा था। इस बीच कलेक्टर और दूसरे अधिकारी आते रहे जाते रहे पर शराब दुकानें यही समूह चलाता रहा।
समूह के अंदर मौके पर रहकर काम देखने वाला पार्टनर केवल एक था। बाकी चार वे थे जिन्हे ‘स्लीपिंग पार्टनर’ कहा जाता है- रहते भी थे दूसरे शहरों में। पांचों में बहुत अच्छी मित्रता और आपसी समझ और विश्वास था। पहला व्यक्ति ही पैसों का हिसाब किताब रखता था। उनमें ‘ऊपरी’ खर्च का विवरण भी शामिल रहता। अलग अलग अधिकारियों और कार्यालयों की ‘दरें’ तय थीं सो अविश्वास या धोखाधड़ी का अवसर नहीं बनता था। इसलिए सब कुछ ठीक चल रहा था।
और तभी कलेक्टर के रूप में हर्षमन्दर पहुंचे। हर्षमन्दर को आज तक न मालूम होगा पर वे इन पांचों ठेकेदार की बरसों पुरानी दोस्ती और पार्टनरशिप टूटने का कारण बन गये थे।
हुआ यूं कि साल के अंत में पहले पार्टनर ने बाकी चार के सामने जब बही-खाता रखा तो उसमें कलेक्टर के नाम पर पहले सालों की तरह 25,000 की राशि दर्ज थी।
हर्षमन्दर की रेपुटेशन इतनी जबरदस्त साबित हुई कि बाकी चारों ने पार्टनरशिप तोडऩा स्वीकार कर लिया पर पहले पार्टनर के हिसाब पर विश्वास नहीं किया। हर्षमन्दर ने पैसे लिए यह बात वे किसी कीमत पर हजम नहीं कर पाये।
उस वर्ष के बाद जिले के ठेकेदार बदल गये।
हर्षमन्दर का मन समाज सेवा में अधिक था। सो ज्यों ही सरकारी सेवा के बीस वर्ष पूरे हुए और उन्हें पेन्शन की पात्रता मिली, उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और सामाजिक गतिविधियों के मैदान में कूद पड़े।
हर्षमन्दर इस बीच अक्सर समाचारों में रहे। कभी गुजरात के दंगा पीडि़तों के बीच काम करते तो कभी दिल्ली के दंगा पीडि़तों के लिए तो कभी लॉकडाऊन में पैदल घर लौटते मजदूरों के लिए अपनी वकील बेटी सुरूर के साथ आधी रात को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते, तो कभी फुटपाथ पर जीवन बसर करते बच्चों का जीवन सुधारते।
आज फिर वे सुर्खियों में हैं। ई.डी. (ऐन्फोर्समेन्ट डायरेक्टोरेट) ने उनके निवास और कार्यालय में रेड की है।
ई. वी. रामासामी पेरियार जयंती विशेष
-डॉ. गोल्डी एम. जॉर्ज
ई. वी. रामासामी पेरियार (17 सितंबर, 1879 - 24 दिसंबर, 1973) भारत में दलित-बहुजन दर्शन व आंदोलन के प्रमुख नायकों में से एक हैं। जोतीराव फुले और डॉ. भीमराव आंबेडकर के साथ उनकी तिकड़ी ने बहुजन आंदोलन को सटीक बौधिक जमीन दी। इन तीनों नायकों में पेरियार, ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपने अधिक तीखे विचारों के लिये जाने जाते हैं। ब्राह्मणवाद और हिंदू धर्म की कुरीतियों पर उन्होंने जिस तरह से तीखा प्रहार किया है, वैसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं। विचारों से बहुत क्रांतिकारी पेरियार ने अपने विवेक और तर्क से ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को कटघरे में खड़ा किया। वे जाति व्यवस्था के घोर विरोधी थे। उन्होंने ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता युक्त संस्कृति की जगह दलित, बहुजन, द्रविड़ संस्कृति को पेश किया और वे राम की जगह रावण को अपना नायक मानते थे।
खेदजनक है कि आत्मसम्मान आंदोलन के जनित्र पेरियार का बड़ा प्रभाव दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु तक ही सीमित रहा गया और उन्हें पिछड़ों के रेता के रूप में समेत दिया। हिंदी पट्टी में आज भी बहुसंख्यक लोग उनके विचारों के विविध आयामों से अनजान हैं। पेरियार एक नए समाज की रचना करना चाहते थे, जिसमें समाज की जाति-धर्म भेदभाव और विसंगति से परे राजनीति, समतामूलक जनवादी सामाज, मेहनत और श्रम आधारित अर्थव्यवस्था, नए तौर-तरीके से ग्रामीण विकास, बुद्धिवाद आधारित शिक्षा और आर्य वर्चास्वा के विपरीत समाज बनाना चाहते थे।
1927 में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। पेरियार और गांधी एक-दूसरे से बंगलौर में मिले, जो उन दिनों मैसूर का हिस्सा था। बातचीत के दौरान पेरियार ने साफ शब्दों में कहा कि हिंदू धर्म को मिट जाना चाहिए। पेरियार के अनुसार हिंदू धर्म ब्राह्मणों द्वारा फैलाई गई केवल एक भ्रांति है। पेरियार गांधी को बताते है दूसरे धर्मों का इतिहास है, आदर्श हैं और कुछ सिद्धांत हैं, जिन्हें लोग स्वीकार करते हैं। पर इसमें कहने लायक क्या है? सिवाय जातीय भेदभाव और ऊंच-नीच जैसे ब्राह्मण, शूद्र और पंचम (अछूत) के उसकी कोई आचार संहिता नहीं है। न ही उसका कोई साक्ष्य है। इस जन्माधारित विभाजन में भी ब्राह्मणों को ऊंचा माना जाता है। जबकि शूद्र और पंचम को नीचा समझा जाता है। रोजमर्रा के जीवन में इंसानों के बीच केवल उंच-नीच का रिश्ता ही रह जाता है।
बुद्धिवाद से युक्त इस बहस में गांधी महज एक प्रतीक थे। उनकी जगह कोई धुरंधर धर्म-आचार्य भी होता तो लगभग उन्हीं तर्कों को देता। कारण है कि धर्म के पक्ष में कहने के लिए उसके समर्थकों के पास ‘आस्था’ और ‘विश्वास’ के अलावा और कोई तर्क होता ही नहीं है। इसलिए छोटे-से-छोटा तथा बड़े-से-बड़ा धर्माचार्य भी धर्म को अनुकरण का मामला बताकर, विमर्श की सभी संभावनाओं से बचते है। उनकी बातों पर विश्वास कर आस्था की डगर चलते हुए, भोले-भाले लोग कब अज्ञान की राह पर निकल पड़ते हैं : यह उन्हें पता ही नहीं चलता।
‘सच्ची रामायण’ पेरियार की बहुचर्चित और विवादित पुस्तक रही है। यह 1944 में तमिल भाषा में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने रामायण की ऐतिहासिकता पर सवाल उठाते हुये इसे काल्पनिक बताया है। दरअसल पेरियार मानते थे कि रामायण को धार्मिक नहीं बल्कि एक राजनीतिक किताब माना जाना चाहिए, जिसे उत्तर भारत के आर्यों ने दक्षिण के अनार्यों पर अपने तथाकथित जीत, विजय और प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए लिखा गया है। ‘सच्ची रामायण’ में एक तरह से रामायण की आलोचना पेश की गई है और इसमें राम सहित सभी अच्छे माने जाने वाले पात्रों के विचारों पर सवाल खड़ा करते हुये रावण को नायक के तौर पर स्थापित किया गया है।
‘सच्ची रामायण’ की वजह से काफी विवाद हुआ था। इसकी वजह यह कि इस किताब में राम सहित रामायण के कई पत्रों को खलनायक के रूप में पेश किया गया है। पेरियार ने राम को बेहद साधारण व्यक्ति माना है। इसमें उन्होंने राम के विचारों को लेकर सवाल खड़े किए थे और राम-रावण की तुलना पर भी उनके अलग विचार थे।
वैसे तो ‘सच्ची रामायण’ का हिंदी अनुवाद 1968 में ही राम आधार ने अनुवाद किया जिसका प्रकाशन ललई सिंह यादव ने किया। परंतु, तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पर 1969 में पाबंदी लगा दी थी। हालांकि बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस पाबंदी को हटा दिया था। आज पेरियार के दर्शन, चिंतन और कार्यों को जानने का एकमात्र मध्यम उनके आंदोलन, भाषण और लेख है।
1924 में उनके आंदोलन की तीव्रता का एक मिसाल वैक्यम सत्याग्रह में देखने को मिला। केरल में त्रावणकोर के राजा के मंदिर की ओर जाने वाले रस्ते पर दलितों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने का विरोध हुआ था। इसका विरोध करने वाले नेताओं को राजा के आदेश से गिरफ्तार कर लिया गया और इस लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए कोई नेतृत्व नहीं था। तब, आंदोलन के नेताओं ने इस विरोध का नेतृत्व करने के लिए पेरियार को आमंत्रित किया। इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए पेरियार ने मद्रास राज्य काँग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दिया और त्रावणकोर गए। त्रावणकोर पहुंचने पर उनका राजकीय स्वागत हुआ क्योंकि वो राजा के दोस्त थे। लेकिन उन्होंने इस स्वागत को स्वीकार करने से मना कर दिया क्योंकि वो वहां राजा का विरोध करने पहुंचे थे। उन्होंने राजा की इच्छा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया, अंतत: गिरफ्तार किए गए और महीनों के लिए जेल में बंद कर दिए गए। केरल के नेताओं के साथ भेदभाव के खिलाफ उनकी पत्नी नागमणि ने भी महिला विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया।
‘भविष्य की दुनिया’ शिर्षिक आलेख में उन्होंने बिना ईश्वर और धर्म के दुनिया की कल्पना की है। इसी प्रकार ‘सुनहरे बोल’ में विभिन्न विषयों पर पेरियार के प्रतिनिधि उद्धरणों के चयनित संकलन को पेश किया गया है। इससे पता चलता है कि पेरियार राजनीति, समाज, श्रमिकों, बुद्धिवाद को लेकर क्या सोचते थे और किस तरह का समाज बनाना चाहते थे।
‘बुद्धिवाद : पाखंड व अंधविश्वास से मुक्ति का मार्ग’ में वे तर्कवाद से पैदा हुये ज्ञान को ही असली ज्ञान मानते हुये लिखते हैं कि ‘हमारे देशवासियों की स्थिति इस ज्ञान का उपयोग न करने के कारण बेहद खराब हो रही है।’ ‘ब्राह्मणवादी धर्म-ग्रंथों में क्या है?’ में उन्होंने ब्राह्मणवादी साहित्य को अज्ञानता का साहित्य बताया है। ‘दर्शन-शास्त्र क्या है?’ शीर्षक लेख में उन्होंने ईश्वर और धर्म पर गहनता से अपने विचारों को प्रस्तुत किया है।
‘जाति का उन्मूलन’ अपेक्षाकृत छोटा लेख है, जिसमें वे सवाल करते हैं कि ‘यदि हमारे लोग जाति, धर्म, आदतों और रीति-रिवाजों में सुधार लाने को तैयार नहीं होते हैं, तो स्वतंत्रता, प्रगति और आत्म-सम्मान पाने की शुरूआत कैसे कर सकते हैं?’ वे आगे लिखते हैं कि ‘हर व्यक्ति स्वतंत्र और समान है इस स्थिति को पैदा करने के लिए जाति का उन्मूलन जरूरी है।’
पेरियार स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल समर्थक थे। इस संबंधित में उनके दो लेख ‘महिलाओं के अधिकार’ और ‘पति-पत्नी नहीं, बनें एक-दूसरे के जीवनसाथी’ में पितृसत्ता से जुड़े बहुत एहम सवाल को उठाते है।
‘महिलाओं के अधिकार’ में वे सवाल उठाते हैं कि ‘अगर किसी महिला को संपत्ति का अधिकार और अपनी पसंद से किसी को चुनने तथा प्रेम करने की स्वतंत्रता नहीं है, तो वह पुरुष की स्वार्थ-सेवा करने वाली एक रबड़ की पुतली से ज़्यादा और क्या है?’ इसी लेख में वे इस सवाल का जवाब भी देते हैं कि ‘प्रत्येक महिला को एक उपयुक्त पेशा अपनाना चाहिए ताकि वह भी कमा सके। अगर वह कम से कम खुद के लिए आजीविका कमाने में सक्षम हो जाए, तो कोई भी पति उसे दासी नहीं मानेगा।’
‘पति-पत्नी नहीं, बनें एक-दूसरे के जीवनसाथी’ में वे पति और पत्नी जैसे उद्बोधनों पर ही सवाल उठाते हुए इस रिश्ते को ‘एक-दूसरे का साथी’ और ‘सहयोगी’ की नई परिभाषा देते हुये लिखते हैं कि ‘विवाहित दम्पत्तियों को एक-दूसरे के साथ मैत्री भाव से व्यवहार करना चाहिए। किसी भी मामले में, पुरुष को अपने पति होने का घमंड नहीं होना चाहिए, पत्नी को भी इस सोच के साथ व्यवहार करना चाहिए कि वह अपने पति की दासी या रसोइया नहीं है।’
इस तरह से देखा जाए तो एक नए समाज की रचना के लिए पेरियार अनेक क्रांतिकारी उपाय बताए है, जो वास्तव में दलित-बहुजन समाज के लिए मुक्ति का नया तत्वज्ञान है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान ने संयुक्तराष्ट्र मानव अधिकार परिषद और 'इस्लामी सहयोग संगठनÓ (आईआईसी) में कश्मीर का मुद्दा फिर से उठा दिया है। पाक प्रवक्ता ने यह नहीं बताया कि कश्मीर में मानव अधिकारों का उल्लंघन कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे हो रहा है? यदि वह अपनी बात प्रमाण सहित कहता तो न सिर्फ भारत सरकार उस पर ध्यान देने को मजबूर होती बल्कि भारत में ऐसे कई संगठन और श्रेष्ठ व्यक्ति हैं, जो मानव अधिकारों के हर उल्लंघन के खिलाफ निडरतापूर्वक मोर्चा लेने को तैयार हैं। इस समय कश्मीर के लगभग सभी नजरबंद नेताओं को मुक्त कर दिया गया है। यह ठीक है कि उन्हें कई महिनों तक नजरबंद रहना पड़ा है, जो कि अच्छी बात नहीं है लेकिन कोई बताए कि उन्हें सुरक्षित रखना भी जरुरी था या नहीं?
यदि धारा 370 और 35ए के खात्मे के बाद कश्मीर में उथल-पुथल मचती तो पता नहीं कितने लोग मरते और कितने घर बर्बाद होते। इन बड़े कश्मीरी नेताओं की नजरबंदी के कारण उनकी जान तो बची ही, सैकड़ों लोग हताहत होने से भी बच गए। हमें यही सोचना चाहिए कि उनकी जान बड़ी है या उनकी जुबान बड़ी है? इसके अलावा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पाकिस्तान अभी भी इस मरे चूहे को क्यों घसीटे चला जा रहा है? उसे पता है कि वह हजार साल भी चिल्लाता रहे तो भी कश्मीर उसका हिस्सा नहीं बन सकता। कश्मीर-कश्मीर चिल्लाते-चिल्लाते उसने अपना कितना नुकसान कर लिया है। भारत के साथ उसने तीन बड़े युद्ध लड़े। उनमें वह हारा। उसने लगातार आतंकी भेजे। सारी दुनिया की बदनामी झेली। अपने आम आदमी की जिंदगी में सुधार करके वह भारत से आगे निकल जाता तो जिन्ना भी बहिश्त में खुश हो जाते लेकिन उसे पहले अमेरिका की गुलामी करनी पड़ी और अब चीन की करनी पड़ रही है। क्या जिन्ना ने पाकिस्तान इसीलिए बनवाया था?
जरुरी यह है कि वह कश्मीर को आजादी दिलाने के पहले खुद आजाद होकर दिखाए। यदि वह अपने नागरिकों के मानव अधिकारों की रक्षा कर रहा होता तो वह इस्लामी जगत ही नहीं, सारी दुनिया का सितारा बन जाता लेकिन उसके हजारा, पठानों, सिंधुओं, बलूचों, हिंदुओं, सिखों और शियाओं की हालत क्या है? खुद प्रधानमंत्री इमरान खान और विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी उस पर कई बार अफसोस जाहिर कर चुके हैं। पाकिस्तान की जनता और सरकार पहले खुद अपने मानवों के अधिकारों की रक्षा करके दिखाए, तब उन्हें भारत या किन्हीं देशों के बारे में बोलने का अधिकार अपने आप मिलेगा। जहाँ तक 'इस्लामी सहयोग संगठनÓ का सवाल है, उससे तो मैं इतना ही कहूँगा कि वह पाकिस्तान का सहयोग सबसे ज्यादा करे। उसे अमेरिका और चीन-जैसे देशों के आगे झोली पसारने के लिए मजबूर न होने दे। उसे युद्ध और आतंकवाद में फंसने से बचाए। इस्लाम के नाम पर बना वह दुनिया का एक मात्र देश है। उसे वह ऐसा देश क्यों न बनाए कि सारी दुनिया उस पर और इस्लाम पर नाज़ करे?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अवधेश बाजपेयी
कोई भी सम्पन्न सफल व्यक्ति अपने बच्चों को, किसी भी फाइन आर्ट्स में नहीं भेजना चाहता होगा भी तो लाखों में एक। सभी बच्चों को, आईआईएम, आईआईटी, आईएफएस, एमबीबीएस, आईएएस, एमएमबी आदि जगहों या सीधे यूरोप और अमेरिका भेज देते हैं। ज्यादातर वही बच्चे कला और साहित्य की तरफ जाते हैं जिनके घर, परिवार या माहौल में कला, संस्कृति का वातावरण रहता है या जिन युवाओं के मा बाप का करियर ले लिए बहुत प्रेशर नहीं होता। ज्यादातर ये युवा गांव से आते हैं। क्योंकि किसी भी कला में, भविष्य में कला के साथ आर्थिक सफलता मिले इसकी कोई गारंटी नहीं होती और जीवन-मरण का रिस्क भी है।
कोई भी धनिक अमीर अपने बच्चों को किसी भी फाइन आर्ट में नहीं भेजेगा, जो जाएगा भी तो विद्रोह करके जाएगा पर यह अब पुराने जमाने की बात है। तो सीधी बात है जो देश दुनिया के नीति निर्धारक हैं वो अमीर सफल व्यक्ति ही होते हैं और जिस समाज में वह जीते हैं उसी के अनुकूल ही सारी नीतियां बनती हैं। कला और संस्कृति ऐसा विभाग है जिसका सबसे न्यूनतम बजट होता। इसमें किसी भी राजनेता या अफसर की कोई रुचि नहीं होती और इस कारण सारी कला अकादमियाँ बाबू लोगों के हाथों में चली जाती हैं अभी मध्यप्रदेश की ही सारी अकादमियाँ ज्यादातर बाबू, क्लर्क लोग चला रहे हैं।
इनके अंडर में पूरे प्रदेश के कला विद्यालय हैं, इसके कारण वहां जो कलाकार शिक्षक हैं वो अक्सर अपमानित महसूस करते हैं, इस कारण सारे सरकारी कला विद्यालय बीमार हो चुके हैं या भविष्य में बंद ही हो जाएंगे, क्योंकि सरकार को इससे कोई फायदा नहीं हैं। इसमें तत्काल कोई व्यापार नहीं है और सरकारों के अनुसार समाज के लिए कोई उपयोगी चीज नहीं है इसलिए जैसा चलता है चलने दो वैसे भी कबीर तुलसी के जमाने में कौन से आर्ट कॉलेज थे।
ये नीति निर्धारकों के तर्क होते हैं। देश दुनिया का जो आर्ट मार्केट हैं उन्हें अपने काम के हिसाब से कुछ चंद कलाकार मिल ही जाते हैं जिससे उनका काम चल जाता है और उन कलाकारों को महानगरों में ही रहना पड़ता और गैलरी के बाजार के अनुकूल मिलजुलकर काम करना होता है। यदि कला में व्यावसायिक सफलता चाहिए तो यह सब करना होता है। कर रहे हैं।
कला ही ऐसी चीज है जिसका निजीकरण नहीं हो सकता। वैसे ये हो रहा है पर मैं उसे कुछ समय के लिये ही मानता हूं बाद में वह फिर अपनी प्रकृति की ओर लौटती है। जैसे विचारों का निजीकरण नहीं हो सकता। सरकारें संपत्तियों का ही निजीकरण करेंगे जैसे कला विद्यालयों के भवनों का। यह सब हो रहा है। समाज में जितनी भी हस्त शिल्प की धाराएं थीं सब सुख चुकी हैं, सरकारें हस्तशिल्प के विकास के लिए काम नहीं करती हैं बल्कि मौजूद हस्तशिल्प, यांत्रिक शिल्पों को इकट्ठा कर म्यूजियम बनाकर शहरी को दिखाकर राजस्व वसूलती है। गांव में कभी कुम्हार मटके बना रहे हैं, बेच रहे हैं पर सरकार के लिए वो म्यूजियम की चीज है कितना भद्दा मजाक है। यह सब आधुनिक कलाकारों के निर्देशन में होता है। फिर सरकार उनका विभूषणों से सम्मान करती है।महानगरों के कला विद्यालयों में अब कोई गरीब युवा नहीं पढ़ सकता।
इतिहास में अभी तक जितने महान चित्रकार हुए हैं वो सब इन्हीं गांवों से निकले गरीब युवा ही हुए हैं। वैसे यह सब लिखने के पहले यह लिखना चाह रहा था कि हम जो चित्र बना रहे हैं वो दीवार में टांगने के लिये या गैलरी में दिखाने के लिये या फुटपाथ में बेचने के लिए या इस आभासी दुनिया में दिखाने के लिए। क्योंकि इसमें बहुत सारे संसाधन लगते हैं और इन अभावों के कारण यह सारी कलाएं भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के हाथों में चली जायेगी। बचेगा वही जो अपनी रिस्क में रचनात्मक जीवन जियेगा और शहीद होता रहेगा। आगे आप खुद विस्तार कर लीजिये।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई आजकल पहले से भी अधिक गहरी होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि भारत की समृद्धि बढ़ नहीं रही है। समृद्धि तो बढ़ रही है, लेकिन उसके साथ-साथ आर्थिक विषमता भी बढ़ रही है। अभी एक जो ताजा सरकारी सर्वेक्षण हुआ है, उसका कहना है कि देश के 10 प्रतिशत मालदार लोग देश की 50 प्रतिशत संपदा के मालिक हैं और 50 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनके पास 10 प्रतिशत संपदा भी नहीं है। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में यह असमानता और भी भारी है। यदि अपने गांवों में यह असमानता हम देखने जाएं तो हमारा माथा शर्म से झुक जाएगा। वहाँ ऊपर के 10 प्रतिशत लोग गांव की 80 प्रतिशत संपदा के मालिक होते हैं जबकि निचले 50 प्रतिशत लोगों के पास सिर्फ 2.1 प्रतिशत संपदा होती है। हमारे देश में गरीबी की रेखा के नीचे वे लोग माने जाते हैं, जिनकी आमदनी 150 रु. रोज़ से कम है। ऐसे लोगों की संख्या सरकार कहती है कि 80 करोड़ है लेकिन इन 80 करोड़ लोगों को डेढ़ सौ रु. पूरे साल भर रोज मिलता ही रहेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
कौन हैं, ये लोग? ये हैं- खेतिहर मजदूर, गरीब किसान, आदिवासी, पिछड़े, मेहनतकश मजदूर, ग्रामीण और अनपढ़ लोग! इनकी जिंदगी में अंधेरा ही अंधेरा है। इन्हें सरकार मनरेगा के तहत रोजगार देने का वायदा करती है लेकिन अफसर बीच में ही पैसा हजम कर जाते हैं। ये किसके पास जाकर शिकायत करें? इनके पास अपनी आवाज बुलंद करने का कोई जरिया नहीं है। गांवों की जिंदगी से तंग आकर ये बड़े शहरों में शरण ले लेते हैं। शहरों में इन्हें कौनसा काम मिलता है? चौकीदार, सफाई कर्मचारी, घरेलू नौकर, कारखाना मजदूर, ट्रक और मोटर चालक आदि के ऐसे काम मिलते हैं, जिनमें जानवरों की तरह लगे रहना पड़ता है। गंदी बस्तियों में झोपड़े बनाकर इन्हें रहना पड़ता है। इनके बच्चे पाठशालाओं में जाने की बजाय या तो सड़कों पर भीख मांगते हैं या घरेलू नौकरों की तरह काम करते हैं। देश के इन लगभग 100 करोड़ लोगों को 2000 केलोरी का भोजन भी नहीं मिल पाता है। कई परिवारों को तो भूखे पेट ही सोना पड़ता है।
जिनके पास पेट भरने के लिए पैसे नहीं हैं, वे बीमार पडऩे पर अपना इलाज कैसे करवा सकते हैं? ये गरीब लोग पैदाइशी तौर पर कमजोर होते हैं। बीमार पडऩे पर ये जल्दी ही मौत के शिकार हो जाते हैं। कोरोना की महामारी ने सबको प्रभावित किया है लेकिन देश के गरीबों की दुर्गति बहुत ज्यादा हुई है। अचानक तालाबंदी घोषित करने से करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए और गांवों की तरफ मची भगदड़ में सैकड़ों लोग हताहत भी हुए। सरकारी आंकड़े देश में गरीबी के सच्चे दर्पण नहीं है। गरीबी रेखा वाले लोगों की संख्या अब काफी बढ़ गई है। निम्न मध्यम वर्ग के शहरी और ग्रामीण नागरिकों को अपना रोजमर्रा का जीवन गरीबी रेखा के आस-पास ही बिताना पड़ता है। देश के कुछ मु_ीभर मालदार लोगों ने महामारी के दौरान अपनी जेबें जमकर गर्म की हैं। अमीर ज्यादा अमीर हो गए हैं और गरीब ज्यादा गरीब। हमारी सरकारों ने आम लोगों की मदद के लिए पूरी कोशिश की है लेकिन वह नाकाफी रही है। अब देखें, इस आर्थिक संकट से भारत कैसे बाहर निकलता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)