विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन में माओ त्से तुंग के बाद चार बड़े नेता हुए। तंग स्याओ फिंग, च्यांग जोमिन, हू जिन्ताओ और शी चिन फिंग ! माओ के बाद तंग को इसीलिए सबसे बड़ा नेता माना गया, क्योंकि उन्होंने चीन को नई दिशा दी थी। माओ की सांस्कृतिक क्रांति तथा अन्य साम्यवादी कदमों के कारण चीन में लाखों की जान चली गई और आर्थिक विपन्नता भी बढ़ गई लेकिन तंग स्याओ फिंग ने काफी उदारवादी और सुधारवादी रवैया अपनाया। उनकी एक प्रसिद्ध कहावत तो चीनी इतिहास का विषय बन गई है। उन्होंने कहा था कि इससे कुछ नहीं फर्क पड़ता कि बिल्ली काली है या गोरी है। देखना यह है कि वह चूहे मार सकती है या नहीं? उन्होंने अपनी आर्थिक नीतियों से चीन को विश्व की महाशक्तियों की पंगत में ले जाकर बिठा दिया। उन्हीं की तरह शी चिन फिंग ने अपने पिछले नौ साल के शासन-काल में चीन को विश्व-शक्ति बनाने का भरपूर प्रयत्न किया।
उन्होंने चीन को इस लायक बना दिया कि अमेरिका उससे गलबहियां मिलाने के लिए उद्यत हो गया और जब चीन फिसला नहीं तो आज चीन के साथ अमेरिका के वैसे रिश्ते बनते जा रहे हैं, जैसे शीतयुद्ध के दौरान रूस और अमेरिका के हो गए थे। शी के चीन की फौजी बुलंदी ही कारण है, जिसने उसके आस-पास अमेरिकी चौगुटे (क्वाड) को जन्म दिया है और पश्चिम एशिया में भी वैसा ही गठबंधन बनने जा रहा है। शी की रेशम महापथ की महायोजना ने पूरे एशिया को समेटने की कोशिश की है। शी का चीन प्राचीन चीनी 'माध्यमिक साम्राज्यÓ की धारणा को बदलकर पूरे एशिया और अफ्रीका में छा जाना चाहता है।
शी ने 2018 में चीनी संविधान में संशोधन करवाकर अपने लिए आजीवन राष्ट्रपति रहने का प्रावधान करवा लिया है। इस समय तीन शीर्ष पद उनके पास हैं। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के वे महासचिव हैं, देश के राष्ट्रपति हैं और केंद्र सैन्य आयोग के अध्यक्ष हैं। जाहिर है कि अगले साल वे पांच साल के लिए और चुन लिये जाएंगे। पिछले 100 साल के चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास में माओ और तंग के बाद शी ही ऐसा नेता होंगे, जिनकी प्रशंसा में पार्टी कसीदे काढ़ेगी। शी को इस बात का श्रेय तो है कि उन्होंने चीन को महाशक्ति और महासंपन्न बनाने का भरसक प्रयत्न किया है और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जबर्दस्त पहल की है। दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के लिए शी चिन फिंग एक पहेली भी हैं। वे यह प्रश्न भी सबके सामने उछाल रहे हैं कि अपने देश की जनता के भले के लिए क्या अच्छा है, भारत की तरह का लोकतंत्र या चीन की तरह का नेतातंत्र?
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की बैठक अब लगभग दो साल बाद हुई, जबकि उसे हर तीसरे महिने होनी चाहिए थी। उसे नहीं करने का बहाना यह बनाया गया कि कोरोना महामारी के दौरान उसके सैकड़ों सदस्य एक जगह कैसे इक_े होते? एक जगह इक_े होने के इस तर्क में कुछ दम नहीं है, क्योंकि जैसे अभी आडवाणीजी, जोशीजी और कई मुख्यमंत्रियों ने घर बैठे उस बैठक में भाग ले लिया, वैसे ही सारे सदस्य ले सकते थे। लेकिन अब आनन-फानन यह बैठक कुछ घंटों के लिए बुलाई गई, यह बताता है कि हाल ही में हुए उप-चुनावों ने भाजपा में चिंता पैदा कर दी है। यह कोई संयोग मात्र नहीं है कि नरेंद्र मोदी इतनी ठंड में गर्म कपड़े लादकर केदारनाथ गए और वेटिकन में जाकर पोप से गल-मिलव्वल करते रहे। इन तीनों घटनाओं— कार्यकारिणी की बैठक, पोप से गल-मिलव्वल और केदारनाथ की प्रचारपूर्ण यात्रा— का सीधा संबंध पांच राज्यों के आगामी चुनावों से है।
उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के चुनाव अगले कुछ माह में ही होनेवाले हैं। पोप से भेंट गोवा और मणिपुर के ईसाई वोटरों को फुसलाए बिना नहीं रहेगी और केदारनाथ-यात्रा का असर उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के मतदाताओं पर पड़े बिना नहीं रहेगा। मोदी का यह कदम सामयिक और सार्थक है, क्योंकि राजनीति में वोट और नोट— ये ही दो बड़े सत्य हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को खास तौर से दिल्ली बुलाकर असाधारण महत्व इसीलिए दिया गया है कि यदि उ.प्र. हाथ से खिसक गया तो दिल्ली की कुर्सी भी हिलने लगेगी।
खुद गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि यदि आप 2024 में मोदी को दिल्ली में तिबारा लाना चाहते हैं तो पहले योगी को लखनऊ में दुबारा लाकर दिखाइए। कार्यसमिति की इस बैठक में सभी वक्ताओं ने पिछले दो साल की सरकार की उपलब्धियों पर अपने-अपने ढंग से प्रकाश डाला। किसी भी वक्ता ने यह नहीं बताया कि सरकार कहां-कहां चूक गई? सभी मुद्दों पर खुली बहस का सवाल तो उठता ही नहीं है। कांग्रेस हो या भाजपा, इन दोनों महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पार्टियों में आंतरिक बहस खुलकर होती रहे तो भारतीय लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी। भाजपा सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने भी कोरोना महामारी के दौरान काफी लगन से काम किया, केंद्र सरकार ने कमजोरों की मदद के भी कई उपाय किए लेकिन विदेश नीति और अर्थ नीति के मामलों में कई गच्चे भी खाए। इन सभी मुद्दों पर दो-टूक बहस के बजाय भाजपा कार्यकारिणी ने अपना सारा जोर पांच राज्यों के आसन्न चुनावों पर लगा दिया। यह जरुरी है, लेकिन इससे भी ज्यादा जरुरी यह था कि देश भर से आए प्रतिनिधि सरकार के कार्यों की स्पष्ट समीक्षा करें और भविष्य के लिए रचनात्मक सुझाव दें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
5 नवम्बर 1930 को जन्मे मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह भारत की केंद्रीय राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण हैसियत रखते थे। उनका बहुत लोगों से संबंध रहा होगा जिनकी संख्या गिनी नहीं जा सकती। मुझसे उनका सीमित संपर्क था लेकिन वह सीमित संपर्क एक खास समय में बहुत निजी और आत्मीय घनत्व का हो गया था। उसकी जानकारी बहुतों को नहीं होगी।
अर्जुन सिंह चाहते थे मैं उनके साथ रहकर राजनीति में काम करूं लेकिन छत्तीसगढ़ की क्षेत्रीय बनावट के कारण और फिर दुर्ग जिले की अलग बनावट के कारण यहां दो तरह के समूह चल रहे थे। एक विद्याचरण शुक्ल के नेतृत्व में जिसमें हम लोग थे। दूसरा चंदूलाल चंद्राकर के नेतृत्व में दुर्ग जिले की राजनीति में रहा है। उसमें भी हमें बीच-बीच में काम करना था ।
एक ऐसा वक्त आया जब प्रदेश के एक शीर्ष नेता मेरे पिताजी से निजी रूप में नाराज हो गए । राजनांदगांव शहर से लगभग 5 किलोमीटर के बाद हमारे गांव पेंडरी के पास की सारी जमीन अचानक नोटिफाई हो गई कि वहां राजनांदगांव का इंडस्ट्रियल स्टेट आएगा। उस समय भू अर्जन अधिनियम के तहत इतना कम पैसा मिलता था कि वह तो बहुत घाटे का सौदा हो जाता । मेरे पिताजी परेशान हुए उन्होंने मुझसे कहा।
मैंने कुछ नहीं सोचा। अर्जुन सिंहजी को फोन किया। संयोग से फोन पर मिल गए। मैंने अपनी बातें बताईं। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा आधे घंटे बाद क्या मुझे याद दिलाएंगे? आधे घंटे के अंदर ही उनके निजी सचिव यूनुस का फोन आ गया। कहा साहब ने मुख्यमंत्री से बात कर ली है और वह जो नोटिफिकेशन था डीनोटिफाई हो जाएगा। अगले दिन वह हो गया और हमारे गांव से बहुत आगे चलकर राजनांदगांव जिले का औद्योगिक केंद्र बनाया गया। उससे हमारी जमीन की कीमत बढ़ी। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद और भी बढ़ी। एक मध्यमवर्गीय परिवार की उन्होंने ऐसे मदद की जिसके एक प्रतिनिधि अर्थात मुझको चाहते थे कि मैं उनके साथ राजनीति करूं।
इसके अलावा एक बात और बीच के दौर में उन्होंने की। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अपने निजी कक्ष में एक दिन मुझे ले गए। वहां उत्तर प्रदेश के भाजपा नेता और विधायक वगैरह भी आए थे। उनके सामने मेरी बातें भी हुर्ईं और और उन्होंने उत्तर प्रदेश के भाजपा नेताओं से मेरे बारे में कहा कि ये बहुत विश्वासपात्र हैं। आप लोग निश्चिंत होकर बात करें। उन्होंने नेहरू युवा केंद्र के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद के लिए मुझसे प्रस्ताव किया कि मैं उसे स्वीकार कर लूं। शर्त रखी कि मुझे अपने खास आदिवासी सांसद मित्र अरविंद नेताम जो दूसरे ग्रुप के थे, उनसे राजनीतिक संबंध तोडऩे पड़ेंगे। मैंने अपने दिमाग से कह दिया कि मैं पद छोड़ दूंगा लेकिन दोस्ती नहीं छोडूंगा।
उन्होंने कहा कि ठीक है इसके बाद आप और हम साहित्य संस्कृति पर ही बात करेंगे। यह पद उन्होंने बाद में प्रसिद्ध पत्रकार उदयन शर्मा को दिया। हमारा यह रिश्ता बहुत ही सौहार्दपूर्ण ढंग से आगे चलता रहा। राजनीतिक नहीं था।
मैं जब मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी का महामंत्री हुआ उसके पहले अजीत जोगी के साले पार्टी छोडक़र चुनाव लड़ गए। रत्नेश सोलोमन को पार्टी से निकाला गया था। पता नहीं क्यों मैंने उन्हें कांग्रेस में शामिल करा दिया। अर्जुन सिंह बीमार थे और अस्पताल में थे। वहां उन्होंने बुलाया। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सरोज सिंह ने मुझसे पूछा कि मैंने उनसे पूछे बिना ऐसा क्यों किया। तो मैंने अपने चेहरे को भोला बनाते यही कहा कि मुझे यह बात समझ नहीं आई। मैंने सोचा एक कांग्रेस के कार्यकर्ता को वापस पार्टी में ले लिया जाए।
श्रीमती सिंह ने मुस्कुराकर मुझसे कहा आप जितने भोले बनना चाहते हैं इतने भोले हैं नहीं। अर्जुन सिंहजी ने अपनी कमजोर आवाज में यही कहा कनकजी! आगे कोई भी फैसला करें तो इतना तो समझ लें कि मैं अभी भी कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर हूं। मुझसे पूछ लिया करें। उसके बाद मैंने ऐसा कुछ नहीं किया कि उनसे पूछने की ज़रूरत पड़ती। हमारा संबंध उसी तरह सौहार्दपूर्ण बना रहा।
मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम का अध्यक्ष मैं बना। पता नहीं किन कारणों से दुर्ग में बहुत भारी भरकम स्वागत के बाद जब मैं कांग्रेस भवन पहुंचा अपने भाषण में मैंने कह दिया कि अर्जुन सिंह मेरे बौद्धिक नेता हैं। हमारे गु्रप के छत्तीसगढ़ के नेता विद्याचरण शुक्ल जिन्हें हम अपना बड़ा भाई मानते थे बहुत नाराज हुए। उन्होंने फोन पर मुझे बहुत डांटा और कहा कि अर्जुन सिंह कब से तुम्हारे बौद्धिक नेता हो गए। मैं कोई जवाब नहीं दे पाया।
मेरे कांग्रेस महामंत्री बनने का अर्जुनसिंह के समर्थकों में बहुत गुस्सा था। पता नहीं क्यों अजीत जोगी के अशोक रोड स्थित मकान में उनके सारे साथी अर्जुन सिंहजी के सभी समर्थक बैठे। अरविंद नेताम कार्यवाहक अध्यक्ष थे। उन्हें मैंने सलाह दी कि चलो साथियों के बीच चलते हैं। जो होगा देखा जाएगा। हम सब वहां पहुंचे देखा। सब बहुत नाराज़ हैं। कुछ लोगों ने अपनी बात कही। वह हमें सुनने में अच्छी तो नहीं लगी लेकिन हम चुप रहे। फिर बाद में मैंने अजीत जोगी से अनुरोध किया कि मुझे भी कहने का मौका दिया जाए।
अपने छोटे से भाषण में मैंने केवल यही बताया कि आप सब जितने उनके समर्थक यहां बैठे हैं कृपया मुझे बताएं कि अर्जुन सिंहजी के समर्थन में आज तक कितने लेख अखबारों में लिखे हैं। जितने मैंने लिखे हैं। जाहिर था किसी ने नहीं लिखे थे। मैंने तो लगातार लिखे। चाहे किसी को कैसा भी अच्छा बुरा लगा हो।
उसके बाद उनके पुत्र अजय सिंहजी ने कहा कि देखिए अब कनकजी ने दस्तावेजी सबूत एक वकील के रूप में पेश कर दिये हैं। अब आगे इस बैठक का, वाद विवाद का, झगड़े का कोई अर्थ नहीं है। शालीन मोड़ पर बैठक खत्म हो गई।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार में जहरीली शराब पीकर मरने वालों की खबर दिल दहलाने वाली थी। जिस प्रांत में पूर्ण शराबबंदी हो, उसमें दर्जनों लोग शराबपान के चलते मर जाएं और सैकड़ों लोग अधमरे हो जाएं, इसका अर्थ क्या निकला? क्या यह नहीं कि शराबबंदी के बावजूद शराब बिहार में दनदना रही है। यह तो जहरीली थी, इसलिए इसका पता चल गया। उसने खुद अपना पता दे दिया। अपने-आपको पकड़वा दिया लेकिन जिस शराब के चलते लोगों को सिर्फ नशा होता है, उनकी संख्या कितनी होगी, कुछ पता नहीं।
यह भी हो सकता है कि अब पहले से भी ज्यादा शराब बन रही हो, ज्यादा बिक रही हो और ज्यादा पी जा रही हो। इसमें सरकारी अधिकारियों और पुलिसवालों की भी पूरी मेहरबानी होती है। नीतीश कुमार के साहस का मैं बड़ा प्रशंसक रहा हूं कि उन्होंने शराबबंदी का यह साहसिक कदम उठाया। उनके पहले हमारे समाजवादी मित्र मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने भी बिहार में शराबबंदी कर दी थी। 2017 में जब पटना में नीतीश से मेरी भेंट हुई तो उन्होंने मेरे आग्रह पर पटना की होटलों में शराब की जो छूट थी, उसे भी तत्काल उठा लिया था।
स्वयं नीतीश और नशाबंदी के आग्रही मेरे जैसे लोगों को इस तथ्य का जरा भी अंदाज नहीं है कि जिन्हें शराब की लत पड़ गई है, उसे कानून से नहीं छुड़ाया जा सकता है। जिसने पीने की ठान रखी है, वह बिहार की सीमा पार करेगा और किसी अन्य प्रांत या नेपाल के सीमांत में घुसकर पिएगा। आम कंपनियों की बोतलें नहीं बिकने देगें तो वह उन्हें तस्करी से प्राप्त करेगा और यदि आपने उसे रोकने का बंदोबस्त कर लिया तो वह घरों में बनी शराब पिएगा।
घरों में बनी यह शराब पियक्कड़ों के होश तो उड़ाती ही है, उनकी जान भी ले बैठती है। हरयाणा में बंसीलाल और आंध्र में रामाराव ने भी शराबबंदी की थी लेकिन वह चल नहीं पाई। अब तो कांग्रेस की कार्यसमिति के सदस्यों पर से भी शराबबंदी की पाबंदी हटाई जा रही है। मेरे कई प्रधानमंत्री मित्रों को मैंने कई बार गुपचुप शराब पीते हुए देखा है। लेकिन मैं ऐसे सैकड़ों आर्यसमाजियों, सर्वोदयियों, गांधीवादियों, रामकृष्ण मिश्नरियों और मुसलमानों को भी जानता हूं, जिन्होंने लाख आग्रहों के बावजूद शराब की एक बूंद भी जीवन में कभी नहीं छुई। मैं जब मास्को में पढ़ता था तो यह देखकर दंग रह जाता था कि कम्युनिस्ट नेताओं के साथ-साथ पादरी लोग भी चलती मेट्रो रेल में बेहोश पड़े होते थे।
वैसे इस्लामी देशों और भारत में शराब का प्रचलन उतना नहीं है, जितना यूरोपीय और अफ्रीकी देशों में है। इसका मूल कारण बचपन में पड़े दृढ़ संस्कार हैं। कानून तभी अपना काम करेगा, जब पहले माता-पिता और शिक्षकगण बच्चों में नशा-विरोधी संस्कार पैदा करेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चिन्मय मिश्र
‘मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि जूरी के निर्णय के बाद भी मैं खुद को बेगुनाह मानता हूं। वस्तुओं की नियति को उच्च शक्तियां निर्धारित करती हैं और हो सकता है परमात्मा की यही इच्छा हो कि जिसके लिए मैं लड़ रहा हूं, वह मेरे जेल से बाहर रहने के बजाय मेरे तकलीफ उठाने पर अधिक फूले फले ।’
- बाल गंगाधर तिलक
बंबई उच्च न्यायालय के केंद्रीय कक्ष में इस पट्टिका का अनावरण करते हुए बंबई उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम. सी. चागला ने कहा था कि ‘तिलक की स्मृति में आज सुबह इस पट्टी के अनावरण का जो सौभाग्य मुझे मिला, उसकी तुलना किसी और सम्मान या प्रतिष्ठा से नहीं की जा सकती है । 12 साल की अवधि में दो बार इस पक्ष में वे अभियुक्त के कटघरे में खड़े हुए और उन्हें दोनों ही बार कारावास का दंड सुनाया गया। भारत के इस महान और विख्यात सपूत को इन सजाओं द्वारा जो तकलीफ दी गई उसका प्रायश्चित करने के लिए हम यहां इक_ा हुए हैं।’ न्यायमूर्ति चागला ने कहा था कि यह इतिहास पर धब्बा है। ये दंड न्याय का तकनीकी अनुपालन भर थे। गौरतलब है उन्हें धारा 124 (अ) देशद्रोह 153 (अ)के अंतर्गत सजा दी गई थी। अपने संबोधन में वे एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह भी कहते हैं कि, ‘हमारे समकालीन हम पर जो फैसला सुनाते हैं, हमारा समय हम पर जो निर्णय सुनाता है,उसका अधिक मूल्य नहीं होता। मूल्यवान होता है इतिहास का अपरिहार्य निर्णय और इतिहास का अपरिहार्य निर्णय है कि आजादी और देश प्रेम की आवाज दबाने वाली यह दोनों सजाएं निंदनीय हैं। तिलक ने जो किया वह देश के लिए लडऩे वाले हर व्यक्ति का न्याय संगत अधिकार है । यह दोनों सजाएं विस्मृत हो चुकी हैं और तिलक की महानता स्थापित हो चुकी है।’
ठीक इसी समय सन् 1908 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में एशियाटिक एक्ट का जबरदस्त विरोध करते हुए कह रहे थे, ‘मेरे हिसाब से यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि शुरुआत एशियाटिक एक्ट को रद्द करने से शुरू हुई और नही यह कि एशियाटिक एक्ट के रद्द होने से समाप्त हो जाएगी। मैं पूरी तरह से जानता हूं कि इस उपनिवेश की सरकार आज इस कानून को रद्द करने के लिए तैयार है, यह हमारी आंखों में धूल झोंकना ही है क्योंकि वे इसके बाद और अधिक कठोर वह अपमानजनक कानून लाएंगे। लेकिन मैं इससे स्वयं यह सीखना चाहता हूं और अपने देशवासियों को सिखाना चाहता हूं कि अभी हम भले ही कितने असहाय नजर आ रहे हो, लेकिन हमें सशक्त बनना होगा हमें समझना होगा कि हम इस महान सृष्टि का एक हिस्सा है और इन राजाओं के बजाय वहही दें जो हमारे नियति तय करता है। हमें उसमें विश्वास रखना चाहिए। और चाहे जैसा भी कानून पारित हो यदि वह अन्याय पूर्ण है तो हमें उसका विरोध करना चाहिए अपने सिरे पर चढऩे नहीं देना चाहिए। (सामान्य अनुवाद)
हम दोनों घटनाओं के करीब 115 वर्ष बाद और आजादी के। पांच वर्षों बाद भारत में वे सभी धाराएं लागू हैं जिनके आधार पर तिलक को जेल भेजा गया था। इतना ही नहीं अब तो उससे भी अधिक दमनकारी, खतरनाक, जनविरोधी कानून भारत में प्रचलित हैं और लगातार उन्हें स्वीकार्य भी बनाया जा रहा है। भीमा कोरेगांव मामले में जेल में निरुद्ध सभी बुद्धिजीवी, इसी तरह के दमनकारी कानूनों में निरुद्ध हैं, 3 साल से भी कोई फैसला सामने आना तो दूर ठीक से सुनवाई भी शुरू नहीं हो पाई है। फादर स्टेन स्वामी स्वर्ग सुधार चुके हैं। अन्य में से अधिकांश का स्वास्थ्य खराब है। सुधा भारद्वाज व गौतम नवलखा भी बीमार हैं। सुधा भारद्वाज छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ काम करती हैं, इस संगठन के प्रणेता शहीद शंकर गुहा नियोगी कि मार्च 1991 में दुर्ग जिले में लिखी कविता है, ‘मैं हूं यहां अकेला जो जुटे हुए हैं खेतों में कारखानों में/व्यस्त हैं जुलूसों में उनसे दूर यह अकेलापन क्या नहीं है असंगत?’ हम आजादी का अमृत महोत्सव बड़े जोर-शोर से मना रहे हैं, परंतु क्या यह आवश्यक नहीं है कि आजादी के जश्न में उन्हें शामिल किया जाए जो हम से असहमत हैं, सरकार का विरोध देश विरोध का पर्याय नहीं हो सकता। भारतीय लोकतंत्र की सार्थकता तो तभी सिद्ध होगी कि आजादी के। पांचवें वर्ष में उन लोगों से राजनैतिक स्तर पर सीधी बात की जाए जो वर्तमान शासन व्यवस्था से असंतुष्ट हैं। इस दौरान उनसे भी बात की जानी चाहिए जिन्होंने हिंसात्मक विकल्प को चुनने की गलती की है। परंतु हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। क्यों? शायद हम इतना नैतिक साहस नहीं जुटा पा रहे हैं कि असहमत से आंख मिलाकर बात कर सकें। कानून और पुलिस किसी भी समस्या को अंजाम तक नहीं पहुंचा सकते, विशेषकर तब जबकि समस्या राजनैतिक हो। नियोगीकी एक और कविता की पंक्तियों पर गौर करिए, ‘अध्यादेश पर अध्यादेश/ संशोधन पर संशोधन/धौंस.... संग्राम..... आतंक पूरा देश बना जेलखाना/पुलिस हुई विचार्कला 60करोड़ नागरिकों का हाल बेहाल/यही तो है 26 जून का आपातकाल।’ आपातकाल को लगाए और बीते करीब 50 वर्ष बीतने आए। परंतु क्या लगता है, आपातकाल चला गया या उसका कोई नया नामकरण हो गया है।
गौरतलब है न्याय का अर्थ है नई दिशा की ओर बढऩा ना कि अतीत की परिस्थितियों की ओर वापस लौटना। क्या हमें ऐसा होता दिखाई दे रहा है? वर्तमान परिस्थितियों तो जैसे प्रतिशोध आधारित न्याय की ओर इंगित कर रही हैं। क्या यह उचित है? संविधान का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता की बात करता है। अनुच्छेद 19 वाक् स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही साथ शांतिपूर्ण और निरायुद्ध सम्मेलन को स्थापित करता है। परंतु हमारी वर्तमान प्रणाली एक तरफा प्रतीत होती है? क्या कानून संविधान के ऊपर है?
वर्तमान परिस्थितियां हमें यह सोचने पर बातें कर रही हैं कि दया और प्रेम न्याय से अलग या इसके विपरीत हैं। क्या ऐसा होना चाहिए? सामान्य परिस्थितियों में न्यायाधीश फैसला सुनाते हैं और उसके बाद सजा पर विचार करते हैं ।वे अपने निर्णय में दयावश दंड देने की अवधि व मात्रा पर भी विचार करते ही हैं। हम न्याय/कानून की इस नई व्यवस्था को अपना चुके हैं वह धार्मिक (बाइबिल) न्याय से उभरी थी और प्रेम उसका अनिवार्य हिस्सा था। वास्तविकता भी यही है कि प्रेमपूर्वक किया गया न्याय मनुष्य को बस दंडित करने के बजाय उसे ठीक करने में विश्वास रखता है। आज इस विचार को न केवल नकारा जा रहा है बल्कि पूरी ताकत से यह विचार प्रचार किया जा रहा है कि जैसे क्रूरता वर्तमान न्याय व्यवस्था की एक अनिवार्यता बन गई है या बनती जा रही है। आज मृत्यु दंड से कम की मांग नहीं होती है।
11वीं-12वीं शताब्दी में बदली परिस्थितियों के मद्देनजर वर्तमान कानून व्यवस्था के आकार ग्रहण करना आरंभ कर दिया। धीरे-धीरे राज्य पीडि़त की ओर से खड़ा होने लगा और धीरे-धीरे पीडि़त की स्थिति एक फुट नोट तक सीमित होकर रह गई। यह भी तय है कि निजी न्याय और राज्य द्वारा किए जा रहे न्याय में फर्क तो होना चाहिए। परंतु राज्य उस महीन सीमा रेखा का लगातार अतिक्रमण करता चला जा रहा है। यह सब वैश्विक स्तर पर भी हो रहा है। आरोपी को सार्वजनिक तौर पर क्रूरता व पीड़ा से बचाने के लिए ही तो कारागार ओ की स्थापना की गई थी। यह एक ऐसा विचार था जिसके अंतर्गत अभियुक्त को अमानुषिकयातना से बचाया जाना सुनिश्चित किया जाना था। परंतु आज क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है? निजी व सार्वजनिक दर्द के स्थान पर एकांत स्थान को यातना का बनाया जा रहा है । जेल के भीतर एक और जेल । जेल के भीतर अंडा सेल जैसे उदाहरण यह बता रहे हैं कि व्यवस्था किस कदर असफल और राज्य सरकार केंद्रित होती जा रही है। जेल सुधार मात्र भौतिक सुविधाओं से बेहतर होने तक ही सीमित नहीं है, यह इसमें इससे बहुत आगे की स्थिति है । सबसे प्रमुख बात तो यह है कि राजनैतिक असहमति को सिर्फ कानूनी नजरिए से कैसे शांत किया जा सकता है? राजनीतिक पहल क्यों नहीं प्रारंभ की जा रही?अमृता प्रीतम लिखती हैं ‘खुदा रहम करे इस घर पर, जहां कभी रांझा बजता था, यहां खेड़ा की पदचाप सुनाई देती है।’ वहीं पंजाबी के ही एक अन्य कवि मोहनजीत कहते हैं ‘मैं यहीं जन्मा/पैदा हुआ। मैं इस धरती का गौरव मैं ही इसका शोक गीत हूं।’
रांझा की जगह खेड़ा का आना और गौरव का शो कितने बदल जाना वास्तव में बेहद शोचनीय स्थिति है । कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तकरीबन प्रत्येक राज्य फिर वे भाजपा शासित हो या विपक्ष शासित दमनकारी कानूनों को अपना बनाए हुए हैं। जनता का एक हिस्सा स्तब्ध है तो दूसरा निर्लिप्त। दोनों ही परिस्थितियों एक जीवंत लोकतंत्र के लिए प्राणघातक ही हैं। क्या विपक्ष शासित राज्य इस और पहल कर सकते हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता अपनी पूरी शिद्दत से स्थापित हो सके। हमें याद रखना चाहिए कि पूर्ण व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अभाव में लोकतंत्र को भी पूर्ण स्वतंत्र नहीं माना जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय का पेगासस मामले में दिया गया निर्णय इसका सीधा-सीधा उदाहरण है। नियोगी लिखते हैं, ‘रो माँ रो नहीं तो तेरे बच्चे का दर्द मेरे देशवासियों के सीने में बैठ जाएगा।’
केंद्र सरकार को चाहिए कि वे एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर एक सकारात्मक अभियान चलाये। दमनकारी कानूनों में निरुद्ध राजनैतिक कैदियों को पैरोल पर रिहा कर उनसे उच्च स्तर पर चर्चा की जाए। असहमति को पनपने दिया जाए जिससे कि वह फटने की स्थिति में ना पहुंच पाए। यह एक कठिन निर्णय है लेकिन समाधान तो इसी से निकल सकता है। भारत जैसे लोकतंत्र में एक भी राजनीतिक बंदी का होना, हमारी असफलता का घोतक है। शंकर गुहा नियोगी की इन पंक्तियों पर गौर करिए, ‘सात कटीले तार अब तक छूता था मजदूर जब कभी इन तारों को होता था लहूलुहान उसका शरीर अब वह बन गया सितार के साथ तार पैदा करेगा मजदूर आंदोलन इन तारों से आवाज।’ दिल्ली के किसान आंदोलन के आगे लगे कटीले तारों का संगीत सुन रहे हैं न!
-डॉ राजू पाण्डेय
त्रिपुरा में भी साम्प्रदायिक हिंसा का जहर पहुंच ही गया। मुख्यधारा के मीडिया ने इस दुःखद एवं दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम पर मौन बनाए रखा। प्रदेश की सरकार का कहना था कि अव्वल तो कुछ हुआ ही नहीं और अगर कुछ हुआ भी तो वह अत्यंत मामूली था और उस पर नियंत्रण पा लिया गया है। अनेक न्यूज़ पोर्टल्स ने ग्राउंड रिपोर्टिंग के जरिए अल्पसंख्यक समुदाय में व्याप्त भय और असुरक्षा को चित्रित किया तथा उग्र भीड़ द्वारा संपत्ति को पहुंचाए गए नुकसान की तस्वीरें साझा कीं। स्थानीय सरकार यह मानती दिखी कि ऐसी हर रपट एकांगी और अतिरंजित है जो अल्पसंख्यक समुदाय के साथ हुई हिंसा को उजागर करती है तथा इससे शांति और व्यवस्था बनाए रखने के उसके प्रयासों को नुकसान ही होगा।
मुस्लिम समुदाय त्रिपुरा की कुल जनसंख्या का लगभग 9 प्रतिशत मात्र है। त्रिपुरा सरकार का स्वयं का 2014 का एक सर्वेक्षण यह बताता है कि सरकारी नौकरियों में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व 2.69 प्रतिशत है। इसी वर्ष उच्च शिक्षा विषयक एक सर्वेक्षण में ज्ञात हुआ कि महाविद्यालयों में केवल 3.6 प्रतिशत छात्र एवं 1.5 प्रतिशत छात्राएं ही मुस्लिम समुदाय की हैं। अर्थात यहां मुस्लिम समुदाय न तो जनसंख्या की दृष्टि से न ही आर्थिक-प्रशासनिक-शैक्षणिक रूप से ही वर्चस्व की स्थिति में है। यहां तक कि राजनीतिक दृष्टि से भी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी समेत सभी पार्टियों में ऊंची जातियों के हिंदुओं का बोलबाला है, मुस्लिम समुदाय यहां भी उपेक्षित है।
त्रिपुरा अब तक बंगाली हिंदुओं एवं स्थानीय आदिवासी समुदाय के मध्य होने वाले संघर्षों एवं विवादों के लिए जाना जाता था। माणिक्य वंश के काल से बंगाली हिंदुओं को प्रशासन चलाने के लिए और बंगाली मुसलमानों को खेती के लिए शासकों द्वारा निमंत्रित और प्रोत्साहित किया जाता था जबकि अंग्रेजों की बेजा मांगों की पूर्ति के लिए आदिवासियों पर अतिरिक्त करारोपण किया जाता था।
देश के विभाजन और रियासतों के विलीनीकरण के दौर में त्रिपुरा के शासकों ने भारत के साथ रहने का निर्णय किया। इस समय हजारों बंगाली हिन्दू शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से यहां आए ऐसा ही तब हुआ जब 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष चल रहा था। जबकि मुसलमानों की आबादी के एक हिस्से ने तब पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश के लिए पलायन किया। धीरे धीरे स्थानीय आदिवासी समुदाय अल्पसंख्यक हो गया और बंगाली भाषी त्रिपुरा में बहुसंख्यक बन गए। मुसलमानों की आबादी भी 1941 के 24.09 प्रतिशत से घटकर आज के 9 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है। स्वतंत्रता के बाद त्रिपुरा के आदिवासी बहुल इलाके विकास की दृष्टि से पिछड़ते चले गए और इनमें व्याप्त असंतोष ने उग्रवाद को जन्म दिया। अर्थात यहां हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष की परिस्थिति पहले नहीं थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक पहले एक संपन्न ठेकेदार अब्दुल बारिक उर्फ गेन्दू मियां ने अंजुमन ए इस्लामिया नामक पार्टी का गठन किया। यह पार्टी त्रिपुरा को पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहती थी। लेकिन स्थानीय लोगों एवं राजनीतिक दलों के समर्थन के अभाव में वे नाकामयाब रहे। यहां भी साम्प्रदायिक विभेद का कारक गौण ही रहा।
त्रिपुरा में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ लंबे समय से सक्रिय है। जब बैप्टिस्ट चर्च को मानने वाले नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा ने चर्च पर विश्वास न जताने वाले बंगालियों और आदिवासियों पर हमले किए तब से संघ वहां कार्य कर रहा है। एक अवसर ऐसा भी आया जब उग्रवादियों ने संघ के तीन प्रचारकों को अपहृत कर उनकी हत्या कर दी। इस प्रसंग में भी मुस्लिम समुदाय धर्मांतरण में शामिल नहीं था।
साम्प्रदायिक वैमनस्य का कोई इतिहास न होते हुए भी त्रिपुरा अक्टूबर माह के अंतिम सप्ताह में साम्प्रदायिक हिंसा की आग में झुलसता रहा। अक्टूबर माह में ही कुछ पहले बांग्लादेश में नवरात्रि के दौरान दुर्गा पूजा पंडालों में तोड़फोड़ की गई थी। इसका विरोध करने के लिए उत्तरी त्रिपुरा के पानीसागर उपमंडल में विश्व हिंदू परिषद द्वारा एक रैली आयोजित की गई थी जिसमें लगभग 3500 लोग सम्मिलित थे। इसी दौरान हिंसा भड़की और अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक स्थल को नुकसान पहुंचाने की खबरें सामने आईं। इसके बाद एक सप्ताह तक अनेक न्यूज़ पोर्टल्स में उग्र दक्षिणपंथी हिंदूवादी संगठनों द्वारा त्रिपुरा के विभिन्न स्थानों में साम्प्रदायिक हिंसा और तोड़फोड़ के समाचार प्रकाशित होते रहे और प्रदेश की सरकार ऐसी किसी भी घटना से इनकार करती रही। यहां तक कि प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय, प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय द्वारा इस संबंध में कोई ट्वीट तक नहीं किया गया।
चुनाव आयोग ने इसी बीच त्रिपुरा में 25 नवंबर से नगरीय निकायों के चुनावों का एलान किया है। बंगाली हिंदुओं के निर्णायक वोटों पर सभी राजनीतिक दलों की नजर है चाहे वह वाम दल हो अथवा कांग्रेस और टीएमसी हों। यही कारण है कि इन घटनाओं पर इनका विरोध प्रतीकात्मक रहा है और इनके शीर्ष नेता घटनास्थल पर जाने से भी परहेज करते रहे हैं।
राज्य में विधानसभा चुनाव 2023 में होंगे। 2018 के चुनावों में बीजेपी आदिवासियों के असंतोष को अपने पक्ष में भुनाने में कामयाब रही थी। उसने इंडिजिनस पीपल्स फ्रंट के साथ गठबंधन भी किया। किंतु बीजेपी ने आदिवासियों का भरोसा तोड़ा है। नागरिकता संशोधन कानून के कारण 1971 के बाद त्रिपुरा में आने वाले बंगाली हिंदुओं की राह आसान हुई है। त्रिपुरा की जनजातियां बीजेपी के प्रति आक्रोशित हैं। तृणमूल कांग्रेस इस गुस्से का लाभ लेना चाहेगी। तृणमूल कांग्रेस को मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिलने के भी आसार हैं। अतः बंगाली हिन्दू वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए साम्प्रदायिक रणनीति बीजेपी के लिए सरल और जांचा-परखा विकल्प है।
त्रिपुरा उत्तर,दक्षिण और पश्चिम की ओर से बांग्लादेश से घिरा हुआ है।त्रिपुरा के जिन इलाकों में साम्प्रदायिक तनाव उत्पन्न हुआ है वे बांग्लादेश से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित हैं। बांग्लादेश में उत्पन्न साम्प्रदायिक तनाव बीजेपी हेतु साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए एक आदर्श अवसर बनकर आया है एवं विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, हिन्दू जागरण मंच और आरएसएस जैसे संगठन अपनी सक्रियता बढ़ाकर इसमें बीजेपी की सहायता कर रहे हैं। बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्ष सरकार ने उपद्रवियों और अराजक तत्वों पर सख्त कार्रवाई की है जबकि त्रिपुरा की भाजपा सरकार तो किसी घटना के होने से ही इनकार कर रही है तो दोषियों की गिरफ्तारी का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
त्रिपुरा अपने आर्थिक हितों के लिए अनेक प्रकार से बांग्लादेश पर निर्भर है। किंतु बांग्लादेश सरकार द्वारा त्रिपुरा में आयोजित होने वाले त्रिदिवसीय बांग्लादेश फ़िल्म फेस्टिवल को रद्द करना दर्शाता है कि अब पारस्परिक संबंधों में सब कुछ सामान्य नहीं है। बांग्लादेश सरकार द्वारा निकट स्थित चिट्टागोंग पोर्ट के उपयोग की अनुमति त्रिपुरा को देने के कारण प्रदेश के व्यापारिक केंद्र बनने की संभावना थी। 2019 में हुए एक समझौते के बाद त्रिपुरा को बांग्लादेश की फेनी नदी से 1.82 क्यूसेक पानी लेने का अधिकार मिला था। क्या बांग्लादेश से यह सहयोग उसे अब भी प्राप्त होगा? इस प्रश्न का उत्तर भविष्य ही देगा।
त्रिपुरा उच्च न्यायालय ने उनाकोटी एवं सिपाहीजाला जिलों में हुई हिंसा पर स्वत: संज्ञान लेते हुए राज्य द्वारा उठाए गए निवारक उपायों की जानकारी चाही है और राज्य सरकार से पूछा है कि सांप्रदायिक उन्माद भड़काने की साजिश को असफल बनाने के लिए सरकार की क्या कार्य योजना है? राज्य सरकार को उत्तर देने के लिए दस नवंबर 2021 तक का समय दिया गया है। राज्य सरकार को यह भी बताना होगा कि उसने गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार लोगों पर क्या कार्रवाई की है और जिनकी आजीविका पर असर पड़ा है उन्हें क्या राहत दी गई है। माननीय उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को यह स्मरण दिलाया कि कानून और व्यवस्था बनाए रखने के अतिरिक्त नागरिकों को उनके जीवन, आजीविका और संपत्तियों की सुरक्षा प्रदान करने का उत्तरदायित्व राज्य सरकार का ही है।
राज्य सरकार ने माननीय उच्च न्यायालय को बताया कि जनता को उत्तेजित करने के लिए सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे लेख या दृश्य एवं फुटेज शेयर किए जा रहे हैं, जिनसे या तो छेड़छाड़ की गई है अथवा वे त्रिपुरा राज्य से संबंधित नहीं हैं। माननीय न्यायालय ने ऐसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर कार्रवाई करने के निर्देश दिए और सोशल मीडिया से अधिक जिम्मेदार बनने को कहा।
त्रिपुरा की साम्प्रदायिक हिंसा क्या इस बात की सूचक है कि हिंसा की रणनीति अब एक नए युग में प्रवेश कर चुकी है जब इच्छानुसार बिना किसी स्थानीय विवाद के निहित स्वार्थों की सिद्धि के लिए सोशल मीडिया जैसे सूचना माध्यमों की सहायता से हिंसा फैलाई जा सकती है? शायद ऐसा है भी और नहीं भी। पहले अफवाहें चोरी छिपे बांटे जाने वाले या दीवारों चस्पा किए जाने वाले पर्चों के जरिए फैलती थीं। या शायद कोई कम और कभी कभार छपने वाला गैर जिम्मेदार अखबार कोई भ्रामक और भड़काऊ खबर छाप देता था। अब सोशल मीडिया के आने के बाद झूठ को अधिक प्रामाणिक ढंग से, बार बार और जल्दी जल्दी लोगों के मानस पर प्रक्षेपित किया जा सकता है।
ऐसे वीडियो और समाचार भी वायरल हो रहे हैं जिनमें बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार होते दिखाया-बताया गया है और जांच करने पर यह गलत पाए गए हैं। त्रिपुरा में मुस्लिम समुदाय के साथ हो रही हिंसा के वीडियो भी सामने आएंगे और इनके सच-झूठ का निर्धारण होते होते ही होगा।
यदि त्रिपुरा सरकार साम्प्रदायिक हिंसा को रोकना चाहती थी तो उसे इस तरह के जुलूसों और प्रदर्शनों की अनुमति नहीं देनी थी। यदि अनुमति दी भी गई तो संख्या पर अंकुश लगाया जा सकता था या संवेदनशील इलाकों से ऐसी रैलियों को गुजरने से रोका जा सकता था। संभव है कि सरकार से स्थिति के आकलन में चूक हुई हो और इस कारण साम्प्रदायिक हिंसा हुई हो। किंतु अगर सरकार हिंसा की सही परिस्थिति को प्रस्तुत करती, दोषियों पर कार्रवाई करती, पीड़ितों को राहत देती और स्थायी शांति एवं सद्भाव की स्थापना हेतु प्रयत्नशील होती तो सोशल मीडिया की अफवाहें स्वतः महत्वहीन हो जातीं। किंतु सरकार का मौन भय और भ्रम उत्पन्न करने वाला है। दुःखद है कि हम किस पक्ष ने कितने झूठे और भड़काऊ वीडियो सोशल मीडिया में डाले जैसी निरर्थक बहस में लगे हैं।
उन कारणों को समझना होगा जिन्होंने सोशल मीडिया को इतना शक्तिशाली और विश्वसनीय बना दिया है कि सूचनाओं की प्राप्ति के लिए आम जन इस पर निर्भर होने लगे हैं। जब सरकार वस्तुनिष्ठ और प्रामाणिक सूचनाएं उपलब्ध कराने में रुचि न ले और मुख्यधारा का मीडिया सरकारी प्रचार तंत्र का रूप ग्रहण कर ले तब सूचनाओं का जो संकट उत्पन्न होता है वह सोशल मीडिया की शरण में जाने हेतु लोगों को बाध्य करता है। सूचनाओं की तलाश में सोशल मीडिया की ओर धकेले गए लोगों पर मानक-अमानक, सत्य-असत्य, अतिरंजित-काल्पनिक समाचारों की ऐसी बमवर्षा होती है कि इसका धुंआ केवल भ्रम ही पैदा कर सकता है। सोशल मीडिया का अराजक स्वभाव अशान्तिकामी और हिंसाप्रिय शक्तियों को बहुत रास आता है। हमें धीरे धीरे साम्प्रदायिक हिंसा का अभ्यस्त बनाया जा रहा है। हम किसी भी हिंसा की घटना के वीडियो को सांप्रदायिक चश्मे से देखने के लिए प्रशिक्षित किए जा रहे हैं। हमें इस लायक नहीं छोड़ा गया है कि हम अपनी तर्क बुद्धि का प्रयोग करें।
हिंसा को न्यायोचित ठहराने के नित नूतन तर्क गढ़े जा रहे हैं, इनमें अधिकांश अतीत का आश्रय लेते हैं और काल्पनिक इतिहास पर आधारित होते हैं- अल्पसंख्यकों के साथ जो हो रहा है वह तो प्राकृतिक न्याय है, विभाजन के दौरान जो क्रूरता हुई थी उसका फल कभी न कभी तो मिलना ही था, आक्रांताओं के अत्याचारों की तुलना में आज जो हो रहा है वह कुछ भी नहीं, पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ जो हो रहा है वैसा ही यहां मुसलमानों के साथ होना चाहिए- कुछ ऐसे ही तर्क हैं।
सरकार पता नहीं इस बात को समझ रही है या नहीं कि बहुसंख्यकवाद को राष्ट्रवाद सिद्ध करने और अल्पसंख्यकों को उपेक्षित करने की उसकी जिद विश्व के 48 देशों में फैले 2 करोड़ प्रवासी भारतीयों के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है। हो सकता है कि विश्व के 85 देशों में अध्ययनरत 10 लाख से ज्यादा भारतीय छात्रों को नस्ली और धार्मिक आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़े। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े बताते हैं कि लगभग एक करोड़ सत्तर लाख भारतीय दूसरे देशों में कार्यरत हैं जो भारी मात्रा में धन भारत को भेजते हैं। यदि अन्य देश भी संकीर्णता का आश्रय लेने लगें तो कैसी कठिन परिस्थिति पैदा हो जाएगी।
एक प्रश्न जो बार बार इन दिनों बुद्धिजीवियों को आंदोलित कर रहा है फिर उपस्थित हो रहा है क्या सरकार के लिए सांप्रदायिकता महज अपनी असफलताओं और बुनियादी मुद्दों से ध्यान हटाने का एक जरिया है अथवा साम्प्रदायिक दृष्टि से असहिष्णु समाज बनाना ही इसकी पहली प्राथमिकता है और अन्य विषय महत्वहीन हैं? आने वाले दिन शायद इस प्रश्न का उत्तर दे सकें।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-रवीश कुमार
आपने नहीं समझने की नई परंपरा कायम कर दी है। पटाखों के खिलाफ जिन-जिन लोगों ने समझाने की कोशिश की है, उन-उन लोगों से नहीं समझ कर आपने श्रेष्ठ कार्य किया है। आपके ही नहीं समझने का सुंदर परिणाम है कि बाहर कुछ भी सुंदर नहीं दिख रहा है। धुआँ है और उसके आगे धुआँ है। हवा साँस लेने लायक नहीं है। जहर हो गई है। क्या दिवाली से पहले हवा में जहर नहीं था? बिल्कुल था। आपके दिमाग में भी जहर था। जब आपने दिमाग का नहीं सोचा तो फेफड़े की क्यों सोचना।
जिन लोगों ने घरों की सफाई की, सजाया कि घर दूर से ही रौशन दिखेगा, मेहमान आएँगे तो कऱीब से भी सुंदर दिखेगा लेकिन आपने धुआँ-धुआँ कर नहीं समझने का जो परिचय दिया है वो शानदार है। पटाखे नहीं छोडऩे की बात हिन्दू परंपरा पर हमला है। जब आपने हिन्दू होने नाम पर नेता की किसी नाकामी को नहीं समझा, तो पटाखों से हानि को भी नहीं समझ कर राष्ट्रीय निरंतरता का परिचय दिया है। बल्कि निरंतरता का राष्ट्रीयकरण किया है। इससे पता चलता है कि एक तरह से नहीं समझने वाले लोगों की भरमार हो गई है। हिन्दू राष्ट्र में 110 रुपया लीटर पेट्रोल हो सकता है, प्रदूषण क्यों नहीं हो सकता?
जिन लोगों ने भी समझाया है उन्हें बकरीद के समय नालियों की तस्वीर खींच कर बताना कि अब प्रदूषण नहीं हो रहा है? इस वक्त ही प्रदूषण हो रहा है जो सभी लोग हुआं हुआं कर रहे हैं? जिन स्कूलों में पटाखों के न छोडऩे की सीख दी जाती है उन्हें बंद कराने की जरूरत है। ऐसे तो प्रदूषण ही ख़त्म हो जाएगा। आपने दिवाली के नाम पर हर हाल में प्रदूषण को बचाने का काम किया है। आगे भी कीजिए। कोई कुछ भी कहें नहीं समझा कीजिए।
पर्यावरण संकट पर सम्मेलन होते रहेंगे। वहाँ बड़ी बड़ी बातें कही जाती रहेंगी। मन की बात में तरह तरह के नैतिक संदेश देने वाले प्रधानमंत्री ने पटाखे न छोडऩे का कोई नैतिक संदेश न देकर शानदार काम किया। उन्हें पता है इतनी मुश्किल से नहीं समझने वाले तैयार हुए हैं, कहीं समझ गए तो पर्यावरण से ज़्यादा राजनीति का नुकसान हो जाएगा। नहीं समझने वाला यह जन आंदोलन कमजोर पड़ जाएगा। इसलिए मैंने भी पटाखे न छोडऩे की कोई अपील नहीं की।
मुझे उम्मीद है कि नहीं समझने वाले आप सभी लोग मिलकर एक प्रदूषण पर्व मनाएँगे। उस दिन केवल हवा ही नहीं पानी भी प्रदूषित कीजिए ताकि जीना मुश्किल हो जाए। नहीं समझने के राष्ट्रीय आंदोलन का एक मकसद तो यह भी है कि जीना आसान न हो। जिनके फेफड़े खऱाब होते हैं होते रहें।
मैं तो काफी खुश हूँ कि दिवाली के अगले और तीसरे दिन भी पटाखे छूटने की आवाज आ रही है। आप नहीं समझने वाले नहीं होते तो प्रदूषण कम हो जाता और यह अच्छा नहीं होता।
नहीं समझने वालों के दिमाग और फेफड़े नहीं होते वे इसके बिना भी होते हैं। वे प्रदूषण को ही पर्व में बदल देते हैं।
ग्रीन सलाम
नहीं समझने वालों का घोर समर्थक
-अनिल जैन
गोवर्धन पूजा यानी उत्तर भारत में पशुपालकों का बड़ा पर्व। यह पर्व भारतीय संस्कृति में स्थापित मान्यताओं के प्रति उस पहले विद्रोह का प्रतीक भी है, जो द्वापर युग में देवराज इंद्र की निरंकुश सत्ता-व्यवस्था के खिलाफ कृष्ण के नेतृत्व में हुआ था। इसी विद्रोह से कृष्ण की सामाजिक क्रांति के योद्धा-नायक की छवि उभरती है। इस छवि को उकेरने आवश्यक सामग्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं में भी है और भागवत में भी यह उपलब्ध है।
इंद्र प्रतीक थे पुरातन धार्मिक व्यवस्था के। वह व्यवस्था बंधी थी यज्ञ-याग और कर्मकांड से। ब्रजभूमि में भी इंद्र की पूजा का रिवाज था। यशोदा और नंदबाबा भी परंपरा के अनुसार इंद्र की पूजा कर उन्हें भोग लगाते हैं, लेकिन बाल कृष्ण उनके ऐसा करने पर ऐतराज करते हैं। वे इंद्र को लगाया जाने वाला भोग खुद खा जाते और कहते हैं, ‘देखो मां, इंद्र सिर्फ वास लेता है और मैं तो खाता हूं।’’ यशोदा और नंद बाबा ने कृष्ण को समझाया कि मेघराज इंद्र अपनी पूजा से प्रसन्न होते हैं’ उनकी पूजा करो और उन्हें भोग लगाओ तो वे जल बरसाते हैं और ऐसा न करने पर वे नाराज हो जाते हैं।
यशोदा और नंद बाबा की यह बात कृष्ण के गले नहीं उतरती है। वे आसमानी देवताओं के भरोसे धरती पर चलने वाली इस व्यवस्था को चुनौती देते हैं। गोपों की आजीविका को इंद्र की राजी-नाराजी पर निर्भर रहने देने के बजाय उसे उनके अपने ही कर्म के अधीन बताते हुए कृष्ण कहते हैं कि इस सबसे इंद्र का क्या लेना-देना। वे इंद्र को चढ़ाई जाने वाली पूजा यह कहते हुए गोवर्धन को चढ़ाते हैं कि हम गोपालक हैं, वनों में घूमते हुए गायों के जरिए ही अपनी जीविका चलाते हैं। गो, पर्वत और वन यही हमारे देव हैं।
आसमानी देवताओं या आधुनिक संदर्भों में यूं कहें कि शासक वर्ग और स्थापित सामाजिक मान्यताओं से जो टकराए और चुनौती दे उसे बड़ा पराक्रम दिखाने तथा तकलीफें झेलने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। अपनी पूजा बंद होने से नाराज इंद्र के कोप के चलते प्रलयंकारी मेघ गरज-गरजकर बरसे थे ब्रज पर। आकाश से वज्र की तरह ब्रजभूमि पर लपकी थीं बिजलियां। चप्पा-चप्पा पानी ने लील लिया था और जल प्रलय से त्रस्त हो त्राहिमाम कर उठे थे समूची ब्रज भूमि के गोप-ग्वाल। अपने सहचरों पर आई इस विपदा की कठिन घड़ी में समर्थ और कुशल क्रांतिकारी की तरह रक्षक-प्रहरी बनकर आगे आए थे कृष्ण। उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से गोपों और गायों की रक्षा की थी।
कृष्ण के गोवर्धन धारण करने का एक ही अर्थ है कि जो व्यक्ति स्थापित व्यवस्था को चुनौती दे उसे मुक्त क्षेत्र का रक्षक-प्रहरी भी बनना पड़ता है। ब्रजभूमि के गोपों में इतना साहस कहां था कि वे इंद्र को चुनौती देते। किसी भी समाज में स्थापित मान्यताओं और व्यवस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह एकाएक ही नहीं फूट पड़ता। उसके पीछे सामाजिक चेतना और उससे प्रेरित संकल्प के अनेक छोटे-बड़े कृत्य हैं। कृष्ण की बाल लीला ऐसे ही कृत्यों से परिपूर्ण थी।
नायक के अद्भुत साहस और पराक्रम को अलौकिक मानने वाली दृष्टि ने कृष्ण के इस रक्षक रूप को परम पुरुष की योगमाया या अवतार पुरुष के चमत्कार से जोड़ दिया। लेकिन ज्यादा संभावना यही है कि कंस के संगी-साथियों और सेवकों के अत्याचारों से पीडि़त ब्रजवासियों में कृष्ण ने अत्याचारों का प्रतिकार करने की सामथ्र्य जगाई हो। यह सामथ्र्य उपदेशों प्रवचनों से जाग्रत नहीं होती, बल्कि उसके लिए नायक को खुद पराक्रम करते हुए दिखना पड़ता है।
कृष्ण लीला में जिन्हें पूतना, तृणावर्त, बकासुर, अधासुर, धनुकासुर कहकर आसुरी परंपरा से संबद्ध कर दिया गया है, वे सभी किसी न किसी रूप में क्रूरकर्मा कंस की अत्याचारी व्यवस्था से जुड़े हुए थे। वे सभी उस व्यवस्था की रक्षा के लिए और उसके दम पर ही लोगों पर अत्याचार करते थे। ऐसे सभी आततायियों से कृष्ण लड़े और जीते। इससे ही गोप-ग्वालों में इतनी जाग्रति आई कि वे देवराज इंद्र को भी चुनौती दे पाए और कंस की अत्याचारी व्यवस्था के विरुद्ध भी संगठित हो सके। क्रांति शास्त्र का सार्वकालिक और सर्वमान्य सिद्धांत है कि साहस का एक काम हजारों-हजार उपदेशों से ज्यादा प्रभावी होता है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभी-अभी हुए 13 राज्यों के जो चुनाव-परिणाम सामने आए हैं, उनसे क्या संदेश निकलता है? वैसे तो तीन लोकसभा सीटों और 29 विधानसभा सीटों के आधार पर अगले आम चुनाव के बारे में कुछ भी भविष्यवाणी करना वैसा ही है, जैसा कि नदी में बहती हुई मछलियों को गिनना। फिर भी यदि इन चुनाव-परिणामों का विश्लेषण करें तो सारे भारत में जनता के रवैए की कुछ झलक तो जरुर मिल सकती है। जैसे हिमाचल, राजस्थान और कर्नाटक में भाजपा के उम्मीदवारों का हारना और जीती हुई कुछ सीटों का खोया जाना किस बात का संकेत है?
इसका स्पष्ट संकेत यह तो है ही कि इन प्रांतों के प्रादेशिक भाजपा-नेतृत्व की योग्यता संदेहास्पद है। यदि इन राज्यों के मुख्यमंत्री और प्रदेशाध्यक्षों ने बढिय़ा काम किया होता तो भाजपा इतनी बुरी तरह से नहीं हारती। इन चुनावों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि इन पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का भी कोई असर नहीं पड़ा है। भाजपा के केंद्रीय नेताओं के लिए यह भी विशेष चिंता का विषय हो सकता है, क्योंकि अगले कुछ माह में ही लगभग आधा दर्जन राज्यों की विधानसभा के चुनाव मुंह बाए सामने खड़े हैं।
यदि उनमें भी इसी तरह के परिणाम आ गए तो अगले लोकसभा चुनाव का हाथी किसी भी करवट बैठ सकता है। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, आजकल वह जिस प्रकार नेता और नीतिविहीन हो चुकी है, उस स्थिति में उसकी छवि ज्यादा नहीं बिगड़ी है लेकिन हिमाचल और राजस्थान में उसकी शानदार विजय का श्रेय हिमाचल में भाजपा के मुख्यमंत्री और राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को दिया जा सकता है।
हिमाचल के भाजपा मुख्यमंत्री ने कांग्रेस की जीत के लिए महामारी, बेरोजगारी और मंहगाई को हिम्मेदार ठहराया है। लेकिन मध्यप्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने अपने धुआंधार चुनाव अभियान के जरिए खंडवा की लोकसभा सीट तो जीती ही, दो विधानसभा सीटें भी जीत लीं।
असम, बिहार, आंध्र, तेलंगाना आदि में प्राय: प्रांतीय पार्टियों का वर्चस्व रहा लेकिन प. बंगाल में ममता की तृणमूल कांग्रेस ने विधानसभा की चारों सीटों से भाजपा को तृणमूल याने घांस के तिनके की तरह उखाड़ फेंका। एक उम्मीदवार की तो जमानत ही जब्त करवा दी। भाजपा से टूट-टूटकर कई नेता आजकल तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। ममता बनर्जी धीरे-धीरे उत्तर भारत के प्रांतों में भी अपनी जड़ें जमाने की कोशिश कर रही हैं।
यह कांग्रेस के लिए भी चिंता का विषय है, क्योंकि ममता का मानना है कि कांग्रेस की कमजोरियों का फायदा उठा-उठाकर ही भाजपा बलवान बनी है। इन उप-चुनावों के परिणाम विपक्षी दलों को पहले से अधिक नजदीक आने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। ग्लासगो सम्मेलन से लौटते ही नरेंद्र मोदी को अपनी सरकार के साथ-साथ अपनी पार्टी की सुधि लेनी पड़ेगी।
-रमेश अनुपम
‘बस्तर भूषण’ के दूसरे अध्याय में आदिवासियों के खेती के तरीके और बाहरी संसार से उनसे संपर्क पर प्रकाश डाला गया है। सन् 1900 के बाद बाहर के साहूकारों की बस्तर में दिलचस्पी बढऩे लगी थी। बस्तर व्यापार की दृष्टि से अच्छा था। व्यापारी अब तक बस्तर अंचल से बहुत दूर और बस्तर को लेकर सशंकित थे। आवागमन की दृष्टि से भी बस्तर उन दिनों दुरूह अंचल माना जाता था। पर अब इक्का-दुक्का साहूकार बस्तर आने लगे थे और अपने साथ कपड़े, शक्कर, मसाला आदि लाने लगे थे और इसके बदले यहां से धूप, मोम, तिखूर आदि वन उपज बाहर ले जाने भी लगे थे। इन साहूकारों के लिए बस्तर अब प्रचुर मुनाफा देने वाला अंचल साबित हो रहा था।
इसी अध्याय में बस्तर की तत्कालीन जमींदारियों की भी चर्चा केदार नाथ ठाकुर द्वारा विस्तारपूर्वक की गई है।
उस समय बस्तर में 8 जमींदारियां थीं। जिनमें
1.भोपालपटनम,
2.कुटरू , 3.सुकमा,
4. दंतेवाड़ा ,
5.चिंतलनार,
6.कोटापाल,
7.फोटकेल,
8.परलकोट प्रमुख थे।
‘बस्तर भूषण’ के तीसरे अध्याय में बस्तर स्टेट की चर्चा की गई है। इस अध्याय में यह भी बताया गया है कि महाराज दलपत के समय ही बस्तर स्थित राजधानी को जगदलपुर स्थांतरित किया गया था। इस तरह बस्तर की जगह जगदलपुर को महाराज दलपत ने अपनी राजधानी घोषित किया। यह जगदलपुर का भाग्योदय था। इससे बस्तर की जगह अब जगदलपुर व्यापार और प्रगति का केंद्र बनता चला गया।
केदार नाथ ठाकुर ने अपने इस ग्रंथ में बताया है कि सन 1896 में जे.एल. करनल फैगन पहले अंग्रेज थे, जो एडमिनिस्ट्रेटर होकर बस्तर आए थे। उनके पश्चात जी. डबल्यू गेयर पोलिस सुपरिंटेंडेंट बस्तर स्टेट के एडमिनिस्ट्रेटर बनाये गये।
‘बस्तर भूषण’ से ही यह जानकारी मिलती है कि सन 1897 में बस्तर में भूमि बंदोबस्त का काम पहली बार शासकीय स्तर पर प्रारंभ हुआ। मुंशी ज्वालाप्रसाद पहले सेटिलमेंट ऑफिसर के रूप में बस्तर में पदस्थ किए गए।
इसी अध्याय में केदार नाथ ठाकुर ने बस्तर दशहरा का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। दशहरा उस समय से ही बस्तर का एक लोकप्रिय उत्सव रहा है।
बस्तर दशहरा के बारे में लिखते हुए केदार नाथ ठाकुर ने कहा है कि-
‘दशहरा के समय में जगदलपुर मानो इंद्रपुरी बन जाता है। कलकत्ते में जिस प्रकार नवरात्रि की धूम-धाम घर-घर मच जाती है, उससे बढक़र बस्तर में होता है।’
अपने इस ग्रंथ की भूमिका में ही केदारनाथ ठाकुर ने इस ग्रंथ के विषय में अपना मंतव्य प्रकट करते हुए लिखा है कि-
‘जहां तक बना है, पुस्तक में राज्य के सभी हाल लिखने का प्रयत्न किया है जैसे- सीमा, नदी, पहाड़, जंगल, फल, फूल, जड़ी बूटी, जानवर, पक्षी, औषधि, आदिवासियों के गीत, पुरातन तथा नवीन इतिहास, मनुष्य गणना, राज्य प्रबंध इत्यादि।’
आगे अपने विषय में केदार नाथ ठाकुर ने यह लिखने से भी गुरेज नहीं किया है कि-
‘मैं कोई ग्रंथकार नहीं हूं, न मेरी चाह है कि कोई मेरी लेख प्रणाली को देख मेरी बड़ाई करे, जबकि हिंदी के महाधुरंधर लेखक भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र, राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद, प्रताप नारायण मिश्र तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी सरीखे विद्वानों के लेख पद्धति की भी बहुत लोग सराहना नहीं करते तो मैं किस खेत की मूली हूं।’
केदारनाथ ठाकुर जानते थे कि हर युग में अच्छे कामों के प्रशंसक और गुण गाहक कम ही होते हैं। हर युग में मीडियाकर और दोयम दर्जे के लोगों की पौ बारह रहती है पर यह भी उतना ही सच है कि ऐसे लोगों को समय बुहार कर फेंक देता है और प्रतिभाशाली सर्जक ही युगों-युगों तक अपनी कृतियों के माध्यम से जीवित रहते हैं।
‘बस्तर भूषण’ और उसके रचयिता केदारनाथ ठाकुर इसलिए आज भी याद किए जाते हैं।
‘बस्तर भूषण’ एक ऐसा आईना है जिसमें हम बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक के बस्तर की तस्वीर को साफ-साफ देख सकते हैं।
जाहिर है आज का बस्तर इन सौ वर्षों में बहुत बदल चुका है। जंगल, पहाड़ और नदियों को हमने आदिवासियों से छीन ही नहीं लिया है बल्कि उसे बड़े कॉरपोरेट के हवाले भी कर दिया है।
बस्तर में खनिज संसाधन के दोहन की जैसे होड़ सी लगी हुई है कि जितनी जल्दी हो सके सारे खनिज संसाधन पर अधिकार कर लिए जाएं।
पहाड़ और धरती का सीना चीर-चीर कर सारा लौह अयस्क निकाल लेने की होड़ मची हुई है। जंगल और वन्यपशु तो पहले ही नष्ट किए जा चुके हैं। आने वाले भविष्य के लिए शायद हम कुछ भी बचाकर नहीं रखना चाहते हैं।
बस्तर और बस्तर के आदिवासी किसी भी सरकार की प्राथमिकता में कभी शामिल नहीं रहे।
हां मुक्तांगन से लेकर जगह-जगह उनकी भीम काय मूर्ति बनाकर या तरह-तरह के शासकीय आयोजनों में उन्हें नचवा कर हमें लगता है कि हम आदिवासियों के सच्चे हितैषी हैं।
पर आज भी सुदूर अबूझमाड़ में या गोलापल्ली, आवापल्ली में बस्तर की असली और बदरंग तस्वीर विकास और प्रगति का मुंह चिढ़ाते हुए दिखाई देती है। विकास केवल कागजों में ही दिखाई देता है, हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है।
आज भी पुलिस और नक्सलियों की बंदूक के बीच बस्तर के आदिवासी तय नहीं कर पा रहे हैं कि उनके मित्र कौन है और शत्रु कौन ?
(अगले हफ्ते महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव...)
-पुष्य मित्र
आज से ठीक नौ रोज पहले जब लालूजी ने इस शब्द का उपयोग बिहार कांग्रेस के प्रभारी भक्तचरण दास के लिए किया था, तब से इस शब्द की खूब व्याख्या हुई। लोगों ने बहुत रस लेकर इस शब्द का अर्थ समझाया और एक मित्र ने तो यहां तक कहा कि इस शब्द का अर्थ है, लालू इज बैक। मैंने अपने कई गंभीर मित्रों और जिम्मेदार लोगों को इस शब्द को अपने मुंह में लगभग चुभलाते हुए देखा और चुप रहा। क्योंकि मैं इस शब्द के मायने को समझता था और आज तक किसी भी इंसान के लिए इस शब्द का कभी इस्तेमाल नहीं किया। उस तरह तो बिल्कुल नहीं, जिस लहजे में लालू जी ने इस शब्द का इस्तेमाल किया था।
और सच यह है कि इस शब्द को उचारते हुए लालू जी के जिस अंदाज ने मेरे मित्रों को उत्साह से भर दिया था, उस लहजे को देखकर मैं अवाक रह गया था। मेरे मन में पहला रिएक्शन यही आया था, लालू अब भी नहीं बदले। वैसे के वैसे हैं। दुनिया बदल गयी, मगर वे उसी जमाने में जी रहे हैं।
पिछले दिनों लल्लनटॉप के कार्यक्रम नेतानगरी में मुझसे जब पूछा गया कि लालू जी की वापसी का बिहार की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा। तब भी मैंने यही कहा था कि लालू जी का आना राजद के लिए दोधारी तलवार की तरह है। यह फायदा भी दे सकता है, तो नुकसान भी कर सकता है। बैकफायर भी कर सकता है। क्योंकि मैंने कम से कम पिछले दस साल से नीतीश जी को अपने वोटरों को लालूजी के नाम पर डराकर चुनाव जीतते हुए देखा है। सुशील मोदी जी का तो पूरा राजनीतिक कैरियर है लालू विरोध पर टिका है। जब तक लालू हैं, नीतीश भी हैं और सुशील मोदी का राजनीतिक करियर भी है। बहरहाल यह अलग बात है।
सच यह है कि जब सभी लोग भकचोन्हर शब्द की व्याख्या कर रहे थे तो मैं चुप था। यह सोचकर कि अभी इस शब्द की व्याख्या करने का उचित समय नहीं है। मैं चुनाव में इस शब्द के असर को देखकर इसके असली अर्थ को समझना चाहता था। और आज जब उपचुनाव की दोनों सीटों के नतीजे आ गए हैं, तो मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि राजद के लिए यह भकचोन्हर शब्द बैकफायर कर गया है। उसे उस पार्टी जदयू ने करारी शिकस्त दी, जिसके बारे में सब जानते हैं कि उसका कोई अपना कैडर वोटर नहीं है। न कोई जात, न जमात। वह चुनावी तौर पर पुछल्ली पार्टी है, जो जिस कैडर बेस पार्टी के पीछे लग जाती है, उसी का वोट हासिल करती है।
और यह भी तय है कि इस बार भाजपा ने जदयू की मदद के लिए अपनी कोई ताकत नहीं लगायी थी। इसके बावजूद अगर जदयू ने इस विपरीत हालत में दोनों सीटें जीत लीं तो वह इस भकचोन्हर शब्द का ही कमाल था। एक बार फिर लालू जी की पुरानी छवि और उनका पुराना दबंग अंदाज नीतीश के काम आया। अगर लालू जी ने बस उस एक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया होता तो शायद उनकी पार्टी दोनों सीटों पर जीत रही होती। देश भर में जो नतीजे सामने आये हैं, उसके हिसाब से तो यही लगता है।
कई लोगों को यह बात अतिश्योक्तिपूर्ण लग सकती है। मगर उन्होंने इस बात को कभी महसूस नहीं किया कि राजद का एग्रेसन ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। इसी एग्रेसन ने उसे पिछले साल के विधानसभा चुनाव में मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते सत्ता से दूर कर दिया था। आखिरी चरणों में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त राजद कार्यकर्ताओं ने जिस तरह का एग्रेसन दिखाया था, उसने न सिर्फ बिहार की सवर्ण बल्कि दलित और अति पिछड़ी जाति को भी सचेत कर दिया था। लालू राज वापस आ रहा है। क्योंकि लालू राज के आखिरी दिनों में राजद सिर्फ यादव और मुसलमानों की पार्टी रह गई थी और अतिपिछड़े और दलित उसके कार्यकर्ताओं से भय खाने लगे थे। ये वही लोग थे, जिन्हें लालूजी ने अपने पहले टर्म में बोलना और मुखर होना सिखाया था। जिसकी बात आज तक की जाती है। मगर अंत आते आते राजद कार्यकर्ता इन्हीं दबे-कुचले लोगों पर सामंती मिजाज के हमले करने लगे थे। इनके विधायकों ने अपने आवास में गरीब मेहनतकश लोगों के नाखून तक उखारे हैं। सीवान का तेजाब कांड भला कौन भूल सकता है।
राजद को पता है कि उसकी यही पहचान उसकी असल कमजोरी है। लंबे समय से पार्टी इस टैग से उबरने की कोशिश कर रही है। 2017 में राजद ने जब राजगीर में कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया था तो दो बातें विशेष रूप से कही गयी थी, पहली हमें गठबंधन के साथियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करना है, दूसरा हमें सभी दलित और पिछड़ी-अतिपिछड़ी जातियों के लिए उसी तरह बड़े भाई की भूमिका निभानी है, जैसी भूमिका हमने 1990-95 के बीच निभायी थी।
पिछले साल के विधानसभा चुनाव में पोस्टरों से लालू जी की तस्वीर को हटाना, सामाजिक न्याय के बदले आर्थिक न्याय की बातें करना। मकसद एक ही था। राजद अपनी पिछली छवि से उबरना चाहती थी। ऐसा लगा था कि कम से कम लालू परिवार के स्तर पर अब लोग इस बात को लेकर सतर्क हैं कि हमें अपनी दबंग, भ्रष्ट और विवादित छवि से पीछा छुड़ाना है। ताकि यह कहा जा सके कि लालू जी ने जब दबंगई दिखायी तो वह उस वक्त के सामाजिक न्याय की जरूरत है। हम लोग स्वभाव से वैसे नहीं हैं।
मगर लालूजी कभी नहीं बदले। और यह उनके पहले ही बयान से जाहिर हो गया। भकचोन्हर शब्द के कई अर्थ लोगों ने बताये। मगर पहली बार सुनकर ही मुझे लग गया था कि यह शब्द अपमानित करने वाला शब्द है। यह सहज मजाक नहीं है, वैसा मजाक भी नहीं जैसा कपिल शर्मा अपने शो में करते हैं। यह विशुद्ध अवमानना है। इस शब्द को बोलने का उनका अंदाज विशुद्ध रूप से सामंती था।
यह सब मैंने अपने बचपन में देखा सुना है। गांव के बड़े किसान और भू-स्वामी अपने दरवाजे पर आने वाले मजदूर तबके के लोगों के साथ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। यह शब्द विशुद्ध रूप से किसी को नीचा दिखाने या उसका आत्मविश्वास कम करने के लिए बोला जाता है। लालू जी ने भक्त चरण दास के लिए इस शब्द का इसलिए सहजता से इस्तेमाल कर लिया, क्योंकि वे न सिर्फ एक दलित नेता थे, बल्कि उनकी निगाह में भक्तचरण दास की कोई औकात नहीं थी, क्योंकि उनकी बातचीत तो सीधे सोनिया गांधी से हुआ करती थी।
मगर दौर बदल गया है। अब गांवों में लोग खेतिहर मजदूरों को भी नुनू-बाबू कहकर बात करते हैं। शहर के दफ्तरों में भी बॉस अपना लहजा नियंत्रित रखते हैं और सबोर्डिनेट कर्मियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करते हैं। यह सच है कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में सवर्णों के इस तरह के सामंती मिजाज को बदलने में लालू जी की बड़ी भूमिका रही है। मगर बड़े नेता बनने के बाद उन्होंने इस सामंती मिजाज को अपना लिया है, और वह उनसे छूटती नहीं है।
अगर लोगों से ठीक से बात की जाए, खासकर इन दोनों इलाकों की अति पिछड़ी आबादी से तो वे अब कहेंगे कि लालू जी की इस तरह की एंट्री ने उन्हें कितना डराया है। लालू जी और राजद नेताओं के ऐसे ही मिजाज के कारण कई मौके पर बिहार की अति पिछड़ी आबादी नीतीश के पीछे मजबूती से खड़ी हो जाती है। लालू जी के पास अपनी जाति के वोट हैं और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों की मजबूरी है, उनके पीछे खड़ा होना। मगर पिछले कई चुनावों से जाहिर है कि इन दोनों जात और जमात के भरोसे जीत हासिल करना उनके लिए नामुमकिन है। इसलिए उन्हें अपना दायरा बड़ा करना पड़ता है। गठबंधन बनाना पड़ता है।
उन्हें और राजद को इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ती। उन्हें बस इतना करना था कि वे दलितों-अति पिछड़ों को यह भरोसा दिला पाते कि वे आज भी उसी तरह उनके लिए मजबूती से खड़े हैं, जैसे वे पिछली सदी के आखिरी दशक में थे। मगर कहते हैं न आदतें छूटती नहीं। और जिस सामंती मिजाज से लालू जी ने बिहार के सवर्णों को छुटकारा दिला दिया, वह मिजाज अब उनकी जिह्वा पर सवार है। वरना वे भकचोन्हर के बदले कुछ और भी कह सकते थे।
-गिरीश मालवीय
कल एसबीआई के पूर्व चेयरमैन प्रतीप चौधरी को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर जो आरोप है वो बहुत दिलचस्प है, जो भी आर्थिक विषयों में रुचि रखते हैं उन्हें इस विषय में जरूर जानना चाहिए।
तो हुआ यूं कि राजस्थान के गोडावन ग्रुप जो एक होटल चेन चलाता है उसने साल 2008 में एसबीआई से 24 करोड़ रुपए का लोन ये कहकर लिया था कि वह यहां होटल बनाएगा। उस वक्त ग्रुप के बाकी के होटल अच्छी तरह से रन कर रहे थे तो उसे लोन दे दिया गया। बाद में ग्रुप की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई और ग्रुप लोन का भुगतान नहीं कर पाया, और लोन एनपीए में बदल गया। एसबीआई बैंक ने दोनों होटलों को सीज करने की ओर कदम बढ़ाया। इस दौरान प्रतीप चौधरी एसबीआई के चेयरमैन थे।
प्रतीप चौधरीजी ने ‘आपदा में अवसर’ देखते हुए नीलामी की प्रक्रिया को नहीं अपनाया बल्कि एक कदम आगे बढक़र ग्रुप के होटलों को एक कंपनी अल्केमिस्ट एआरसी कंपनी को बहुत सस्ते में 24 करोड़ रुपए में बिकवा दिया।
अल्केमिस्ट एआरसी कंपनी को 2016 में इन होटल को हैण्डओवर किया गया। 2017 में जब इसका मूल्यांकन हुआ तो पता लगा कि प्रॉपर्टी का मार्केट प्राइज 160 करोड़ रुपए था और आज इसकी कीमत 200 करोड़ रुपए है।
अब सबसे दिलचस्प बात यह है कि 2011 से 2013 तक चेयरमैन पद पर बने रहने के बाद चौधरी साहब जब रिटायर हुए तो वह अल्कमिस्ट आर्क कंपनी में बतौर डायरेक्टर जाकर कुर्सी पर बैठ गए।
इस सौदे में हुई धोखाधड़ी के खिलाफ ग्रुप ने जोधपुर की सीजेएम अदालत में केस दायर किया और अदालत ने एसबीआई चेयरमैन को दोषी माना और आईपीएस धारा 420 (धोखाधड़ी), 409 (लोक सेवक, या बैंकर द्वारा आपराधिक विश्वासघात), और 120 बी (आपराधिक साजिश की सजा) के तहत गिरफ्तारी वारंट जारी किया। कल इसी केस में उन्हें गिरफ्तार किया गया है।
अब प्रतीप चौधरीजी का जो होगा सो होगा? लेकिन इस गिरफ्तारी के बाद जो बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या अकेले सिर्फ प्रतीप चौधरी ही एसबीआई के चेयरमैन रहने के बाद रिटायर होकर किसी निजी ग्रुप में जाकर डायरेक्टर बने है?
उनके बाद एसबीआई की चेयरमैन बनी अरुंधति भट्टाचार्य को आप क्यों भूल रहे हैं! अरुंधति भट्टाचार्य ने साल 2017 में एसबीआई के चेयरपर्सन के पद को छोड़ा था। इसके बाद भट्टाचार्य ने सात भारतीय कंपनियों में डायरेक्टर के तौर पर काम किया है। अजय पीरामल के नेतृत्व वाली पीरामल इंटरप्राइजेज लिमिटेड और मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज का भी नाम शामिल है। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल लिमिटेड में एडिशनल इंडेपेंडेट डायरेक्टर के तौर पर भी काम किया है।
भारत सरकार के पूर्व सचिव ईएएस शर्मा ने अरुधंति भट्टाचार्य के लोकपाल सर्च कमेटी का सदस्य बनने पर 10 अक्टूबर 2018 को भारत सरकार को पत्र लिखा था इस पत्र में शर्मा जी कहते हैं।
एसबीआई की पूर्व चेयरमैन अरुंधति भट्टाचार्य का जुड़ाव फाइनेंसियल सर्विस प्रदान करने वाली कम्पनी क्रिस कैपिटल को सलाह देने वाले पद से है। इस फाइनेंसियल कम्पनी का नाम भी कर चोरी से जुड़े पनामा पेपर्स में शामिल है
वह आगे लिखते हैं लोकपाल सर्च कमेटी का सदस्य बना दिए जाने के बाद अरुंधती का रिलायंस इंडस्ट्रीज का स्वतंत्र निदेशक बनाया जाना परेशान करने वाली बात हो जाती है। साल 2011-12 की एसबीआई रिपोर्ट की तहत यह बात ध्यान देने वाली हो जाती है कि बैंक ने आरबीआई द्वारा कम्पनियों को दिए जाने वाले कर्ज की सीमा से अधिक रिलायंस इंडस्ट्री को कर्ज दिया।
अनिल अम्बानी को कर्ज देने में एसबीआई ग्रुप का नाम टॉप पर आता है। 26 अगस्त 2018 के अखबारों के बिजनेस पेज की खबर है कि एसबीआई ने अनिल अम्बानी के कर्ज को राहत देने के लिए दूरसंचार विभाग को पत्र लिखा है, यानी कि एसबीआई द्वारा शुरू से अनिल अम्बानी के रिलायंस ग्रुप को जमकर कर्ज बांटा गया और बाद में भाई की कम्पनी में इंडिपेंडेंट डायरेक्टर बनवाकर हजारों करोड़ रफा-दफा कर दिए गए। आज अनिल अम्बानी दीवालिया हो गए हैं।
इतना ही नहीं विजय माल्या के सिलसिले में भी एसबीआई के चेयरमैन की भूमिका संदिग्ध रही है। सुप्रीम कोर्ट के वकील दुष्यंत दवे ने बयान दिया था कि उन्होंने एसबीआई प्रबंधन के शीर्ष अधिकारी से मिलकर उन्हें यह बताया था कि विजय माल्या भारत से भाग सकता है। उन्होंने बताया कि एसबीआई के शीर्ष अधिकारी से उनकी मुलाकात रविवार 28 फरवरी, 2016 को हुई थी। दरअसल, दवे ने एसबीआई को माल्या का पासपोर्ट रद्द करने की सलाह दी थी। इस सलाह पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। इसके 4 दिन बाद माल्या ने देश छोड़ दिया।
साफ दिख रहा है कि 25 करोड़ जैसी छोटी रकम में हुई धोखाधड़ी में केस दर्ज कर गिरफ्तारी तक हो जाती है लेकिन जब मामला हजार करोड़ से ऊपर का हो तो जरा सी भी चू तक नहीं होती, घोटाले दोनो करते हैं जो पकड़ा जाता है उसे लोग चोर कह देते हैं जो नहीं पकड़ा जाता वह ईमानदार बना रहता है।
-प्रकाश दुबे
रावण का वध करने के बाद राम ने विभीषण का राजतिलक कर लंका का अधिपति बनाया। नए नृपति विभीषण ने श्री राम को पुष्पक विमान से सहयोगियों सहित अयोध्या भेजा। अयोध्या में दीप पर्व मनाया गया। त्रेता युग की कहानी का कलयुगी रूप उपचुनावों में देखा जा सकता है।
कांग्रेस छोडक़र भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर छह बरस के अंदर असम के मुख्यमंत्री बने हिमांत विश्व शर्मा ने उपचुनाव में सारी विधानसभा सीटें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की झोली में डाल दीं। उन विधानसभा क्षेत्रो में भी सत्ता पक्ष की जीत हुई जहां कांग्रेस से जीते विधायक दलबदल कर भाजपा में शामिल हुए। विभीषण-दांव का मध्य प्रदेश में लाभ हुआ। कांग्रेस विधायक सचिन बिरला ने भाजपा में शामिल होकर खंडवा लोकसभा उपचुनाव का पांसा पलटने में मदद की। पिछड़े समुदाय के वोटों के कारण सचिन सचमुच बिड़ला साबित हुए। कांग्रेस का मनोबल तोडऩे में उनके योगदान का जल्दी ही पुरस्कार मिल सकता है। उत्तर प्रदेश से सटे पृथ्वीपुर में भाजपा ने शिशुपाल सिंह को उम्मीदवार बनाया। समाजवादी पार्टी के शिशुपाल को आस्था बदलने का ईनाम मिला।
उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने दूसरी बार झपट रणनीति खेली। सपा से चुने गए नितिन अग्रवाल कुछ दिन पहले ही उप्र विधानसभा के उपसभापति चुने गए। अखिलेश यादव के कान खड़े हुए होंगे। तेलंगाना की हुजूराबाद सीट से एटाला राजेन्दर उपचुनाव जीते। जमीन घोटाले में लिप्त राजेंदर को मंत्रिमंडल से हटाया गया था। उन्हें विशेष विमान से दिल्ली ले जाकर गाजे-बाजे के साथ भाजपा में शामिल कराया गया था।
बंगाल में विभीषण-दांव नहीं चला
केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री निशीथ प्रमाणिक के पास युवा मामले और खेल मंत्रालय का जिम्मा भी है। उनके लोकसभा क्षेत्र में दिनहाटा में तृणमूल कांग्रेस के उदयन गुहा ने भाजपा प्रत्याशी को एक लाख 60 हजार मतों के अंतर से पराजित किया। विधानसभा के उपचुनाव में यह संभवत: विश्व कीर्तिमान है।
दबंग छवि वाले 35 वर्षीय प्रमाणिक के विरुद्ध 11 फौजदारी मामले दर्ज हैं। उनकी शैक्षणिक योग्यता के दावे पर विवाद के कारण परिचय से स्नातक शब्द गायब किया गया। वर्ष 2018 में तृणमूल कांग्रेस से निष्कासित निशीथ को मार्च 2019 में भाजपा में शामिल किया गया। अजय मिश्र के बाद दूसरे गृह राज्यमंत्री प्रमाणिक ने केन्द्रीय गृह मंत्री की नाक नीची कर दी।
80 वर्षीय सोवनदेव चट्टोपाध्याय ने ममता बनर्जी के लिए भवानीपुर की विधायकी से त्यागपत्र दिया था। खरदा में जीता तृणमूल विधायक कोरोना की बलि चढ़ा। इसलिए उपचुनाव हुआ। खरदा उपचुनाव में 93 हजार से अधिक वोट से जीते। वफादारी को भारी जीत मिली? आर्थिक मामलों के वरिष्ठ पत्रकार प्रज्ञानंद चौधुरी ने याद दिलाया-पेट्रोल एक सौ बारह रुपए लिटर बिक रहा है। डीजल सौ पार कर चुका। हर क्षेत्र में महंगाई से उपजे असंतोष को न भूलें।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-दिनेश श्रीनेत
अकेलेपन, बिछोह और बीमारियों से लड़ते-जूझते रहने के डेढ़-पौने दो वर्ष बाद रौनक फिर से दिख रही है। उत्सव मनाकर जैसे हम साबित करना चाहते हैं कि महामारी से हम टूटे नहीं हैं बल्कि फिर उठ खड़े हुए हैं। दो लहरों के बीत जाने के बाद अभी तीसरी या चौथी लहर का अंदेशा बाकी है। हर तूफान अपने पीछे तबाही के बहुत सारे निशान छोड़ जाता है, ये महामारी भी छोड़ गई है।
हर आपदा जीवन के लिए कुछ सबक भी दे जाती है। अज्ञेय के शब्दों में ‘दु:ख सबको माँजता है।’ यह हमें भीतर से खाली और हल्का कर देता है। किसी नए सुख महसूस करने और नई आपदाओं को स्वीकार करने लायक एक बेहतर इनसान बनाता है। गुजरी आपदा ने मेरे लिए भी कुछ सबक छोड़े हैं। कोई बड़ी बात नहीं है, बहुत छोटी-छोटी बातें हैं पर मुझे लगता है कि अहम हैं सो साझा कर रहा हूँ।
अजनबियों को देखकर मुस्कुरायें। क्योंकि जब तक यह जीवन है तभी तक इस दुनिया में इतने सारे लोग हैं, जो अलग कपड़े पहनते हैं, अलग तरीके से हँसते और दुखी होते हैं, अलग तरीके से आपकी जिंदगी में दाखिल होते हैं। हर नया इनसान आपके लिए एक नई दुनिया का दरवाजा खोलता है। आपके सबसे बेहतरीन दोस्त भी कभी अजनबी थे, बस वह एक पल था जब आप अपरिचय की वह सीमा रेखा लांघकर आगे बढ़े। बेहतर हो जब तक जिएँ नए दोस्त बनाएं, भले वह जीवन भर के लिए हों, कुछ सालों के लिए या कुछ घंटों के लिए। वह ऑफिस में मिलें, पड़ोस में या ट्रेन का इंतजार करते वक्त।
जिन्होंने आपके साथ कुछ बुरा किया है, उनसे नाराज़ होने की बजाय उन पर तरस खाएं। सोचें कि जीवन इतना छोटा है कि उनमें से बहुत अपने गलतियों पर बिना किसी बोध के इस दुनिया से चले जाएंगे। यानी कि उनके जीवन में आत्मसाक्षात्कार का एक पल भी नहीं आएगा कभी। बिना किसी चेतना, बोध या पश्चाताप के इस जीवन का क्या मोल है?
गलती करें। हम सब गलती करने से डरते हैं। जीवन एक बंधी लीक पर चलता रहता है। हर भूल या गलती जीवन में एक नया द्वार खोल देती है। अक्सर गलती के पीछे मकसद अच्छा ही होता है सिर्फ हम उस मकसद तक पहुँच नहीं पाते, हां उसके थोड़ा करीब जरूर चले जाते हैं। गलती न करने का गुरूर हमें घमंडी बनाता है और जीवन के प्रति अवास्तविक और गैर-ईमानदार नजरिया विकसित हो जाता है। बेहतर हो खुद को परफेक्ट न मानें और सबके सामने यह स्वीकार करें कि आप परफेक्ट नहीं हैं।
भूल जाएं। बहुत सारी बातों को, लोगों को, स्मृतियों को। बहुत कुछ आप याद नहीं रखना चाहते हैं। उनका बोझ लेकर जीने से कोई फायदा नहीं है। जीवन की हर तकलीफ आपके भीतर बहुत कुछ जो जर्जर हो चुका है अपने साथ बहाकर ले जाती है। उसे बह जाने देना चाहिए। जो बाकी रह गया दरअसल वही आप हैं।
एकांत का सम्मान करें। खुद के और दूसरों के एकांत का भी। अपने आप को समय दें। अपने सेल्फ को रेस्पेक्ट दें। आम तौर पर हम अपने वज़ूद को न वक्त देते हैं और न ही उसे सम्मान देते हैं। मृत्यु समेत जीवन में ऐसे बहुत से पल आते हैं जब हमारा यह ‘सेल्फ’ ही हमारे साथ रह जाता है। तब हम उससे भयभीत होते हैं। गलती भी हमारी ही है, हमने कब उसका हालचाल पूछा? कब एकांत में खुद से बातें कीं? कब हमने अपने-आप को, अपनी पूरी मानवीय गरिमा को उसका वह सम्मान दिया, जिसका कि वह हकदार है?
अंत में, जीवन एक स्तरीय नहीं बहुस्तरीय है। एक जीवन में हम चाहें तो बहुत सारे जीवन जी सकते हैं। यह हमारे ऊपर है कि हम अपने सरल रैखिक जीवन को कितनी गहराई और बहुस्तरीयता से जी सकते हैं। हर नया अनुभव, हर नई यात्रा, हर नया इनसान हमारे जीवन में एक और आयाम जोड़ देता है।
मुझे लगता है कि हमें इस जीवन को एक यात्रा की तरह जीना चाहिए, बिना किसी मोह के क्योंकि हमारी तरह इस धरती पर करोड़ों-खरबों दिल धडक़ रहे हैं, अंधेरे के इस महासागर में खरबों रोशनियां टिमटिमा रही हैं, प्रज्ज्वलित हो रही हैं और बुझ रही हैं। इस पूरे जीवन, इस विशाल धरती, ब्रह्मांड को देख-समझ पाने के लिए भी हमारी उम्र बहुत छोटी है। बस, ये आती-जाती सांस ही सच है, यही एक काम पूरी शिद्दत से कर लें। (फेसबुक से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में अल्पसंख्यकों के साथ कोई भी गड़बड़ होती है तो वह विपक्षी नेताओं की बंदूक में बारुद का गोला बनकर बरसने लगती है। उसे बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया जाता है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत को नहीं बख्शा जाता। इसका यह अर्थ कतई नहीं कि भारत के अल्पसंख्यकों के साथ कोई अन्याय नहीं होता। अन्याय कई शक्लों में होता है और वह जब उतरता है तो वह जाति, मजहब, भाषा और प्रांत वगैरह की सीमाएं लांघ जाता है।
यदि आप अल्पसंख्यक हैं तो जाहिर है कि अन्यायकर्त्ता को जुल्म करते हुए ज्यादा डर नहीं लगता लेकिन जरा हम यह भी देखें कि अपने पड़ौसी देशों में अल्पसंख्यकों की दशा कैसी है? मैं जिन पड़ौसी देशों की बात कर रहा हूं, वे किसी समय भारत के ही हिस्से थे। भारत थे लेकिन आजकल वहां के अल्पसंख्यक कौन हैं ? पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और मालदीव इस्लामी राष्ट्र हैं। वहां हिंदू, सिख और ईसाई अल्पसंख्यक हैं। भूटान बर्मा और श्रीलंका बौद्ध राष्ट्र हैं। वहां हिंदू, मुसलमान और ईसाई अल्पसंख्यक हैं।
भारत और नेपाल हिंदू राष्ट्र नहीं, हिंदू-बहुल राष्ट्र हैं। इनमें मुसलमान, ईसाई और यहूदी अल्पसंख्यक हैं। अब जऱा हम तुलना करें कि इन सब राष्ट्रों में उनके अल्पसंख्यकों के साथ उनकी सरकारें और उनकी जनता कैसा व्यवहार करती है? पाकिस्तान और बांग्लादेश की सरकारें काफी सतर्क हैं। उनके अल्पसंख्यकों के मंदिरों और गिरजों पर हमले होते हैं तो वे उनकी रक्षा करने की भरपूर कोशिश करते हैं लेकिन उनसे कोई पूछे कि उनके देशों में उनके अल्पसंख्यकों की संख्या दिनोंदिन घटती क्यों जा रही है? उनके हिंदू और ईसाई लोग अपना देश छोड़कर विदेश क्यों भाग रहे हैं? उनके यहां जबरन धर्म-परिवर्तन की खबरें हमेशा गर्म क्यों रहती हैं?
वे अपने देशों में ही नहीं, दक्षिण एशिया के सभी देशों में धर्म-परिवर्तन के लिए लालच, ठगी, धोखा, झूठ, फर्जी सेवा आदि का बहाना बनाए रखते हैं। जो लोग मुसलमान या ईसाई बनते हैं, वे कुरान और बाइबिल का क ख ग भी नहीं जानते। वे ईसा या मुहम्मद के जीवन से भी कुछ नहीं सीखते। वे अपनी जातीय पहचान और चरित्र से भी चिपके रहते हैं। बौद्ध देशों का भी यही हाल है। गौतम बुद्ध की अहिंसा को अपने आचरण में उतारने की जगह वे हिंसा का सहारा खुले-आम लेते हैं। म्यांमार और श्रीलंका में हमने देखा कि अपने आप को भिक्खु या संत या मुनि समझनेवाले लोग अल्पसंख्यकों का नर-संहार करने में जऱा भी संकोच नहीं करते।
इन सब पड़ौसी देशों में उनके अल्पसंख्यकों की संख्या इतनी कम है कि उनके क्रोध या असंतोष की कोई चिंता ही नहीं करता लेकिन भारत में जब भी अल्पसंख्यकों के साथ कोई ज्यादती होती है तो वे स्वयं तो अपनी आवाज खुलकर बुलंद करते ही हैं, उनका समर्थन करने के लिए अनेक नेता, बुद्धिजीवी और निष्पक्ष लोग सामने आने से डरते नहीं हैं। यही भारत की खूबी है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-तारण प्रकाश सिन्हा
कवियों की एक पंक्ति खुसरों, कबीर, तुलसी की भी है, जिनकी कविताएं समय की सीमाओं को लांघकर कविताएं नहीं रहीं, जन-उद्गार बन गयीं। कोई कवि यूं ही जन-कवि नहीं बना जाता। कोई कविता यूं ही जन-उद्गार नहीं बन जाती। लोक के मनो-मस्तिष्क को छू लेना यूं ही नहीं हो जाता। लोक से उठकर, लोक में ही उतर जाने के लिए लोक की आत्मा का होना जरूरी है, कवि में भी, और कवि की कविता में भी। लक्ष्मण मस्तुरिया ऐसे ही कवि थे। वे इसी पंक्ति के कवि थे। वे लोक की आत्मा के साथ जिये, और रच-रच कर लोक को समर्पित करते रहे। वे उन बिरले कवियों में हैं जिनके गीत खेतों-खलिहानों में इतने गुनगुनाए गए कि लोक-गीत ही बन गए। चंदैनी गोंदा के लिए उन्होंने अनेक गीत लिखे। आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले उनके लिखे गीतों ने मई-जून की तपती हुई न जाने कितने गांवों की कितनी दोपहरियों में ठंडक घोली, कितनी ही सुबहों में रंगे भरे, कितनी ही शामों में किसानों और मजदूरों की थकावटें पोंछी। वे माटी के कवि थे, माटी की ताकत पर भरोसा करने वाले कवि थे। उनके पास सुमति की सरग निसैनी थी, जिस पर हर छत्तीसगढ़िया को चढ़ता हुआ देखना चाहते थे। मोर संग चलव कह कर, उन्होंने एक ही गीत में छत्तीसगढ़ महतारी की महिमा का बखान करते हुए स्वाभिमान के जागरण का मंत्र फूंक दिया। वे घर में, खेत में, मंचों पर, फिल्मों में केवल और केवल लक्ष्मण मस्तुरिया ही थे। वे माटी से टूटते हुए लोगों को बार-बार माटी की ओर लौटा लाते। आवाज देकर कहते - छइहां, भुइंहा ला छोड़ जवैया तै थिराबे कहां रे...। लक्ष्मण मस्तुरिहा मां सरस्वती के लाडले बेटे थे। सरस्वती ने उन्हें शब्दों से भी मालामाल किया और सुरों से भी। उन्होंने बेहतरीन आवाज पाई थी। संगीत की समझ पाई थी। उनके विशाल व्यक्तित्व और कृतित्व के आगे यह चर्चा गौण हो जाती है कि वे कहां जन्मे थे, कब जन्मे थे। उनका जिक्र होते ही बिलासपुर जिले का मस्तुरी गांव फैलकर पूरा छत्तीसगढ़ हो जाता है। 07 जून 1949 का दिन एक ऐसी तारीख हो जाता है, जिसे छत्तीसगढ़ के लोक-गीतों से मोहब्बत करने वाली हर पीढ़ी एक ऐतिहासिक तारीख के रूप में हमेशा याद रखेगी, जिस तारीख में एक कालजयी कवि, लेखक, गायक ने जन्म लिया था। हम 03 नवंबर 2018 की वह तारीख भी कभी नहीं भूलेंगे, जब अपने शब्दों और गीतों को छत्तीसगढ़ महतारी पर न्यौछावर करते हुए अमरत्व को प्राप्त हो गए। आज उनकी पुण्य तिथि पर मेरी उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
-डॉ. नितिन म. नागरकर
सरकार के अथक प्रयास और जनभागीदारी की बदौलत कुछ ही दिनों में देश में कोरोना टीकाकरण में सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया जाएगा। भारत जैसे विशाल जनसंख्या घनत्व वाले देश के लिए यह एक अहम उपलब्धि है। देश के कोने कोने में हमारे कोरोना वॉरियर ने टीका पहुंचाया। लेकिन सरकार की रणनीति और इन योद्धाओं की मेहनत तब ही कारगर होगी जब हम आने वाले कुछ महीने में और अधिक समझदारी का परिचय देगें। कोरोना अभी खत्म नहीं हुआ है, कुछ राज्यों में अभी भी एक्टिव केस का प्रतिशत ज्यादा है। वैक्सीन को लोगों ने कोरोना से सुरक्षा के हथियार को अपना लिया है उन्हें भी त्योहार में विशेष एहतियात बरतनी होगी।
अधिक दिन नहीं हुए जब देश ने कोरोना की दूसरी लहर का एक भयानक मंजर देखा। मुझे याद है हमारे रायपुर एम्स में मरीजों की लाइन लगी हुई थी और हम उपलब्ध संसाधनों में सभी को इलाज और ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की भरकस कोशिश कर रहे थे। एक एक जान बचाने के लिए दिन रात ड्यूटी पर तैनात नर्स और डॉक्टर्स, वहीं मेडिकल संसाधनों की जरूरत के अनुसार आपूर्ति करने में सरकार की कोशिशें, वह सब कुछ ऐसे नहीं भुलाया जा सकता। कोरोना की दूसरी लहर में जिन लोगों ने अपने प्रियजनों को खोया वह अभी तक उस गम से उबर नहीं पाए है। आने वाले कुछ महीने इस संदर्भ में अति महत्वपूर्ण होने वाले हैं, कोरोना संक्रमण अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। हमारे देश में त्योहारों को हर्षोल्लाष के साथ मनाने की परंपरा रही है, हम एक दूसरे के घर जाते हैं, समूह में अपनी खुशियों को सबके साथ साझा करते हैं, लेकिन हमें इस बात को अच्छी तरह याद रखना है कि कोरोना महामारी अभी खत्म नहीं हुई है। जिन लोगों ने कोविड की पहली या दूसरी डोज ले ली है, उन्हें भी त्योहारों में कोविड अनुरूप व्यवहार का पालन करना है। निर्धारित दूरी, मास्क का प्रयोग और नियमित रूप से हाथ धोते रहने की आदत को व्यवहार में शामिल करें, ऐसा करने से हम अपने आसपास के वातावरण को कोरोना संक्रमण से सुरक्षित रख सकते हैं। इस संदर्भ में केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य सचिव द्वारा सितंबर महीने में ही राज्यों को दिशा निर्देश जारी कर त्योहार के समय कोविड अनुरूप व्यवहार का पालन करने के लिए अनुचित बंदोबस्त करने के निर्देश दिए गए। सामूहिक रूप से मनाए जाने वाले त्योहार व्यक्तिगत तरीके से घर पर मनाएं जा सकते हैं, हम फोन या वीडियो कॉल के माध्यम से अपने प्रियजनों को त्योहारों की बधाइयां दे सकते हैं। रायपुर में इस बारे में लंबे समय से लोगों को जागरूक किया जा रहा है, छत्तीसगढ़ में आयोजित होने वाले पारंपरिक त्योहार पर स्वास्थ्य विभाग और सरकार की पूरी नजर है। कोरोना के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए स्वास्थ्य विभाग की मोबाइल वैन जिला स्तर पर भेजी गई जिससे गांव व हाट बाजार में भी लोग संक्रमण के प्रति जागरूक हो सकें। त्योहार पर लोगों की खुशियां बाधित न हो, इसके लिए पहले से ही सभी को कोविड अनुरूप व्यवहार का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया।
(निदेशक, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, रायपुर, छत्तीसगढ़)
-डॉ. दिनेश मिश्र
ग्रीन पटाखे या ईको फ्रेंडली पटाखे वे पटाखे है जिनसे सामान्य पटाखों की तुलना में प्रदूषण कम होता है और पर्यावरण के लिए बेहतर होते हैं। इसलिए ऐसे पटाखों को ग्रीन पटाखा या इको फ़्रेंडली पटाखे कहा जाता है।
ग्रीन पटाखों को विशेष तरह से तैयार किया जाता है और इनके जरिए 30 से 40 फीसद तक प्रदूषण कम होता है। ग्रीन पटाखों में वायु प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले हानिकारक रसायन नहीं होते हैं।
ग्रीन पटाखे राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) की खोज हैं. जो आवाज से लेकर दिखने तक पारंपरिक पटाखों जैसे ही होते हैं पर इनके जलने से कम प्रदूषण होता है. नीरी ने ग्रीन पटाखों पर कुछ वर्ष पहले इस सम्बंध में शोध आरम्भ किया था कि सामान्य पटाखे से निकलनेवाली गैस सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड कार्बन मोनो ऑक्साइड और हेवी मेटल्स सल्फर, लेड, क्रोमियम, कोबाल्ट, मरकरी मैग्निशियम का कितना दुष्प्रभाव होता है .
वैसे भी सामान्य पटाखों के जलाने से भारी मात्रा में नाइट्रोजन और सल्फ़र गैस निकलती है, तथा नीरी के शोध का लक्ष्य इनकी मात्रा को कम करना था. ग्रीन पटाखों में इस्तेमाल होने वाले रसायन बहुत हद तक सामान्य पटाखों से अलग होते हैं सी. एस आई आर और नीरी ने कुछ ऐसे फ़ॉर्मूले बनाए हैं जो हानिकारक गैस कम पैदा करते हैं.
ग्रीन पटाखे ना सिर्फ आकार में कुछ छोटे होते हैं, बल्कि इन्हें बनाने में रॉ मैटीरियल (कच्चा माल) का भी कम इस्तेमाल होता है. इन पटाखों में पार्टिक्यूलेट मैटर (PM) का विशेष ख्याल रखा जाता है ताकि पटाखे छोड़ने के बाद कम से कम प्रदूषण फैले. वातावरण में ऊष्मा उत्सर्जन और शोर कम हो एवं इस तरह के पटाखों से निकलने वाला पीएम 2.5 भी कम हो।
एक और बात सामान्य पटाखों में से कुछ में लेड, बेरियम, ओर पारा अधिक मात्रा में होता है जिनके कारण जो धुआ निकलता है उसमे पीएम 2.5 का स्तर बढ़ जाता है .और कुछ सामान्य पटाखों में परक्लोरेट, नाइट्राइट और क्लोराइड काफी मात्रा में होता हैं। इसके अलावा बेरियम भी कई पटाखों में मिलता हैं।
ग्रीन पटाखों में बेरियम नाइट्रेट का इस्तेमाल नहीं होता और इसमें एल्युमिनियम की मात्रा भी काफी कम होती है. इनमें राख का इस्तेमाल नहीं किया जाता. दावा किया जा रहा है कि इन पटाखों को छोड़ने से पीएम 2.5 और पीए 10 की मात्रा में 30 से 35 पर्सेंट की गिरावट आती है.
सीएसआईआर वाले ग्रीन पटाखों में नाइट्रोजन बेस्ड नाइट्रो सेलुलोस हैं, जो कम प्रदूषण करेगा
ईको-फ्रेंडलीपटाखों से 35-40 डिसेबल आवाज के होते हैं, और। उसमें से धुआं अधिक नहीं निकलता है. वैसे जानकारी के लिए बता दें, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का भी कहना है कि शहरी आबादी में 34 से 45 डेसिबल आवाज के पटाखे फोड़ने चाहिए. ये कानों को नुकसान नहीं पहुंचाते. जबकि इंडस्ट्रियल इलाके में ये साउंड का लेवल 50 से 60 डेसिबल से अधिक नहीं होना चाहिए.
ग्रीन पटाखे
चार तरह के बनाए गए हैं, पहला, सेफ़ वाटर रिलीज़र: ये पटाखे जलने के बाद पानी के कण पैदा करेंगे, जिसमें सल्फ़र और नाइट्रोजन के कण घुल जाएंगे. सेफ़ वाटर रिलीज़र नाम नीरी ने दिया है. पानी प्रदूषण को कम करने का बेहतर तरीका माना जाता है.
दूसरे हैं स्टार क्रैकर: स्टार क्रैकर का फुल फॉर्म है सेफ़ थर्माइट क्रैकर. इनमें ऑक्सीडाइज़िंग एजेंट का उपयोग होता है, जिससे जलने के बाद सल्फ़र और नाइट्रोजन कम मात्रा में पैदा होते हैं. इसके लिए ख़ास तरह के कैमिकल का उपयोग होता है
सफल (SAFAL) पटाखे: इन पटाखों में सामान्य पटाखों की तुलना में 50 से 60 फ़ीसदी तक कम एल्यूमीनियम का इस्तेमाल होता है. इसे संस्थान ने सेफ़ मिनिमल एल्यूमीनियम यानी सफल ( SAFAL) का नाम दिया है.
चौथे हैं अरोमा क्रैकर्सः इन पटाखों को जलाने से न सिर्फ़ हानिकारक गैस कम पैदा होगी बल्कि ये अच्छी खुशबू भी देते हैं.
ग्रीन पटाखे फ़िलहाल भारत के बाज़ारों में उपलब्ध हैं. पर अभी ये जानकारी न होने से लोकप्रिय नहीं हो पाए पर यकीन मानिए आने वाला कल ग्रीन पटाखों या इको फ़्रेंडली पटाखों का ही है
(लेखक वरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञ हैं.)
-श्याम मीरा सिंह
गौरी शाहरुख़ को छोड़कर मुंबई चली आईं थीं, तब शाहरुख़ आज के शाहरुख़ नहीं थे, एक कॉलेज में पढ़ने वाले एक नार्मल से लड़के थे जो एक लड़की से प्यार करने लगा था जिसे अपने कॉलेज की एक पार्टी में एक लड़के के साथ डांस करते हुए देखा था. तब का दिल ऐसा लगा कि फिर कहीं लगा ही नहीं. ये लड़का इतना पजेसिव था कि सामने खड़ा 'कबीर सिंह' भी संत आदमी लगे, इसको पसंद नहीं था कि गौरी खुले बाल रखें, ये नहीं चाहता था कि गौरी स्विमिंगसूट पहनें. प्यार बहुत था लेकिन इंसिक्योरिटी उससे भी ज्यादा थी, हो भी क्यों न, खुले बाल में गौरी कमाल जो दिखतीं थीं। वैसे भी स्त्री का खुलापन ही वह एकमात्र चीज है जिससे पुरुष को सबसे ज्यादा भय लगता है. शाहरुख़ नहीं चाहते थे कि कोई और लडका गौरी की तरफ देखे, शाहरुख़ कहते 'मेरे पास मत बैठो, चलेगा, पर किसी और लड़के के पास मत बैठा करो, मुझसे प्यार नहीं करती, चलेगा, लेकिन किसी और से प्यार करोगी तो मुश्किल होगी'.
क्या कोई कह सकता है रोमांस का बादशाह कभी इतना इनसिक्योर और इतना पजेसिव रहा होगा? शाहरुख़ की पजेसिवनेस ने गौरी को असहज कर दिया. इतना असहज कर दिया कि शाहरुख़ को बिना बताए गौरी मुंबई आ गईं और शाहरुख़ दिल्ली में ही रह गए. गौरी का दिल्ली से मुम्बई आ जाना इस कहानी का वो टर्निंग पॉइंट था जिसके लिए ये कहानी लिखी गई है. जिसकी भूमिका में पचासों शब्द बिता दिए गए.
शाहरुख ने खूब दम लगा दी ये जानने में कि गौरी मुंबई में कहाँ गईं हैं. तब फेसबुक नहीं था, न इन्स्टाग्राम था कि जो एक बार ब्लॉक हो गए तो दूसरी आईडी से पूछ लें कि कहाँ हो? क्या प्लीज हम दो मिनट बात कर सकते हैं. गौरी के बिना बताए जाने ने ऐसा अवकाश पैदा कर दिया कि शाहरुख़ तय नहीं कर पा रहे थे कि गौरी के चले जाने को मन में कहाँ रखें. ऐसी हालत हो गई कि मां को पूछना पड़ गया कि क्या बात है? इतना बुझे-बुझे क्यों रहते हो?
बेटे कि नाजुक हालत देख माँ ने हाथ में दस हजार रुपए थमा दिए, और कहा जा जिससे प्यार करता है ढूंढ ले. शाहरुख़ को सिर्फ इतना पता था कि उनकी प्रेमिका, उनकी गौरी मुंबई शहर में रहती है जिसके किनारों पर समुंदर आता है. लेकिन ये मालुम नहीं था कि इतने बड़े शहर में गौरी कहाँ होगी. हाँ एक बात और पता थी कि गौरी को समुद्र के 'बीच' पसंद हैं. पानी किनारे बैठना पसंद है. सोचा जरूर ही गौरी मुम्बई के बीच पर आती होगी. सोचा बीच ही तो हैं, ढूंढ लेंगे. पर मुंबई आकर पता चला यहां अनगिनत बीच हैं, हर बीच पर गौरी को ढूंढा, गौरी नहीं मिलीं. 2 दिन बीत गए. साथ में एक दोस्त था. जिस दोस्त के घर पर दो दिन ठहरे थे उसके माँ-बाप वापस लौट आए, सो दोस्त का घर छोड़ना पड़ा. रात एक स्टेशन के बाहर रखी बैंच पर सोकर काटी. अगले दिन फिर इस बीच से उस बीच गौरी को ढूंढा. पर गौरी कहाँ ही मिलनी थी? ऐसा थोड़े ही होता है, कोई फिल्म थोड़े ही है. प्रेम में दूसरी बार मिलना नहीं होता, प्रेम में दूसरी बार मिलना दूसरे जन्म लेने जितना होता है.
दो-एक दिन ऐसे ही कटे, धूप-छाँव क्या! माँ के लाए पैसे बीत गए, अपना सबसे पसंदीदा कैमरा बेच दिया. वह भी मामूली से पैसों में. दोस्त कहते यार चल, चलते हैं न, गौरी नहीं मिलनी. बीच पर खड़े शाहरुख ने खाली जेब में हाथ डालकर अपने दोस्त से कहा "One day I will rule this City" मतलब कि एक दिन इस शहर पर राज करूँगा (ऐसा शाहरुख की जीवनी लिखते हुए उनके दोस्त ने लिखा है)
जैसे जैसे दिन बीते, जेब खाली हो गईं, आखिरी दिन तय हुआ कि आज आखिरी बार और ढूंढ लेते हैं. एक बीच से दूसरे बीच घुमते रहे, पर गौरी नहीं मिली. तभी एक प्राइवेट बीच दिखा. ऑटो वाले से कहा रुको!, थोड़ा उधर चलते हैं. उम्मीद थी क्या पता जाते-जाते गौरी मिल ही जाए. ऊपर वाले को भी एक सुंदर सी प्रेम कहानी रचनी थी इतने मोड़ रख दिए कहानी में कि हर मोड़ पर दम निकले. आज ही दिल्ली लौटना था और आज ही गौरी दिख गईं. गौरी शाहरुख़ को देख रही थीं शाहरुख़ गौरी को. क्या गजब इत्तेफाक था..... गौरी की आंखों से टप टप आंसू टपकते रहे. शाहरुख़ को गौरी मिल चुकी थी, गौरी को उसका शाहरुख़. लेकिन किसको मालूम था कि ये लड़का अगले कुछ सालों में शाहरुख़ हो जाएगा.
जन्मदिन मुबारक शाहरुख़!
-ध्रुव गुप्त
आज धन्वंतरि त्रयोदशी या धन्वन्तरि जयंती की बधाई
लेते-देते या धनवर्षा की प्रत्याशा में किसी कर्मकांड में शामिल होने के पहले यह जान लेना जरूरी है कि आज के दिन का धन-संपत्ति से कहीं कोई संबंध नहीं है। यह धन का नहीं, आरोग्य का दिन है। पुराणों के अनुसार यह दिन उस घटना की स्मृति है जब समुद्र मंथन के अभियान में देवों और असुरों ने समुद्र पार के किसी देश में अमृत-घट के साथ महान चिकित्सक धन्वंतरि की खोज की थी। प्राकृतिक चिकित्सा-विज्ञान में पारंगत धन्वंतरि को आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का आदिपुरुष कहा जाता है। देवों ने उन्हें अपना चिकित्सक बनाया और उन्हें भगवान विष्णु का अवतार तक घोषित किया। हजारों वर्षों से लोगों का यह विश्वास रहा है कि इस दिन संध्या समय धन्वंतरि को याद कर यम को दीपदान करने से रोगों से होने वाली अकाल मृत्यु से सुरक्षा मिलती है। पता नहीं कैसे कालांतर में विकृतियों का शिकार होकर आयुर्वेद को समर्पित यह दिन धन की वर्षा का दिन बन गया। हमारी धनलिप्सा ने एक महान चिकित्सक को भी धन का देवता बना दिया।धनतेरस का यह वर्तमान स्वरुप बाजार और उपभोक्तावाद की देन है जिसने हमें बताया कि धनतेरस के दिन सोने-चांदी में निवेश करने, विलासिता के महंगे सामान खरीदने या जुआ-सट्टा खेलने से धन तेरह गुना तक बढ़ जाता है।
आज के दिन कहीं निवेश करना है तो आयुर्वेद के आदिपुरुष धन्वंतरि को याद कर अपने आरोग्य में निवेश कीजिए। अच्छे स्वास्थ्य से बड़ा इस दुनिया में कोई धन नहीं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तालिबान सरकार के मंत्री जबीउल्लाह मुजाहिद ने काबुल में एक पत्रकार परिषद में बोलते हुए दुनिया के देशों को धमकी दी है कि यदि विभिन्न राष्ट्रों ने तालिबान सरकार को शीघ्र ही मान्यता नहीं दी तो उसका दुष्परिणाम सारी दुनिया को भुगतना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि मान्यता उनका हक है और उससे उन्हें वंचित करना किसी के हित में नहीं है। तालिबान की पहली बात व्यावहारिक है और सत्य है लेकिन दूसरी बात अर्धसत्य है। तालिबान को मान्यता देना यदि राष्ट्रों के हित में होता तो वे अभी तक चुप क्यों बैठे रहते?
पाकिस्तान-जैसे देश भी उसकी मान्यता को अटकाए हुए हैं। सउदी अरब और यूएई जैसे देशों ने भी तालिबान सरकार को मान्यता अभी तक नहीं दी है जबकि पिछली तालिबान सरकार को उन्होंने सत्तारुढ़ होते ही मान्यता दे दी थी। तालिबान को सबसे पहले एक सवाल खुद से पूछना चाहिए। वह यह कि पाकिस्तान को अभी तक उनसे क्या परहेज है? पाकिस्तान की मदद के बिना तालिबान जिंदा ही नहीं रह सकते थे। काबुल पर उनका कब्जा होते ही पाकिस्तान ने अपने गुप्तचर प्रमुख और विदेश मंत्री को काबुल भेजा था। उसने तालिबान को यह अनुमति भी दे दी है कि वह इस्लामाबाद में अपना राजदूतावास चला ले लेकिन वहां कोई राजदूत नहीं होगा।
तालिबान के प्रतिनिधि अमेरिका, चीन, रूस, तुर्की, ईरान और यूरोपीय संघ से बराबर मिल रहे हैं। ये देश अफगान जनता को भुखमरी से बचाने के लिए दिल खोलकर मदद भी भिजवा रहे हैं लेकिन तालिबान सरकार को मान्यता देने की हिम्मत कोई भी देश क्यों नहीं जुटा पा रहा है? इसके कई कारण हैं। एक तो तालिबान ने अपनी सरकार को खुद ही 'कामचलाऊÓ घोषित कर रखा है याने उसे अधर में लटका रहा है तो दुनिया के देश उसे जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी क्यों लें? दूसरा, तालिबान सरकार कई गिरोहों से मिलकर बनी हुई है।
कब कौनसा गिरोह किसे कत्ल कर देगा, कुछ पता नहीं। 40 साल पहले का खल्की-परचमी जमाना लोग भूले नहीं हैं। तीसरा, ढाई माह गुजर गए लेकिन अभी तक तालिबान ऐसी सर्वसमावेशी सरकार नहीं बना पाए, जिसे संपूर्ण अफगान जनता का प्रतिनिधि कहा जा सके। चौथा, अब भी अफगानिस्तान से ऐसी खबरें बराबर आ रही हैं, जो तालिबान की छवि पर धब्बा लगाती हैं। वहां की औरतों, सिखों, छात्रों, पत्रकारों को मारने और सताने की खबरें रुक ही नहीं रही हैं।
चाहे खुद तालिबान नेता इस तरह के क्रूर कारनामों को प्रोत्साहित न करते हों लेकिन वे अपने समर्थकों को रोकने में भी असमर्थ हैं। यदि यही स्थिति चलती रही तो तालिबान को मान्यता मिलना कठिन होगा और अफगानिस्तान की जो 10 अरब डॉलर की राशि अमेरिकी बैंकों में पड़ी हुई है, वह भी उसे नहीं मिल पाएगी। इस समय जरुरी यह है कि अफगान जनता को भुखमरी और अराजकता से बचाया जाए और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तालिबान को यदि अपने अनुयायिओं के विरुद्ध कठोर कदम उठाना पड़ें तो वे भी बेहिचक उठाए जाएं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के साथ ही योगी आदित्यनाथ को नए गंठजोड़ का सामना करना होगा। प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और योगी बाबा की तिकड़ी ने पश्चिम बंगाल में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी की नाक में दम कर दिया था। ममता बनर्जी ने इस उपकार का बदला चुकाने की तैयारी कर ली है। तृणमूल कांग्रेस पार्टी उप्र में चुनाव लड़ेगी। साथी होंगे-समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी। सपा ने बंगालवासी हिंदीभाषियों को तृणमूल का साथ देने के लिए कहा था। तृणमूल का लक्ष्य राष्ट्रीय दल बनने के साथ ही मोदी विरोधी चेहरे को चमकाना है। बरसों पहले सपा ने बांग्लाभाषी को पर्यटन निगम का अध्यक्ष बनाया था। खबर यह भी है कि कोलकाता के हिंदी अखबार के स्वामी और तृणमूल सांसद विवेक गुप्ता के संपर्कों का भी लाभ लिया जाएगा। गोवा में खिलाड़ी काम आए। उत्तर प्रदेश के अखाड़े में पत्रकार, साहित्यकार और कलाकार उतारने की तैयारी है।
नरकासुर युद्ध
परेशानियों को अवसर में बदलने वाली सूक्ति सबने सुनी है। कोरोना महामारी को प्रचार का हथियार बनाया जा सकता है तो प्रदूषण को क्यों नहीं? देश की राजधानी दिल्ली में केजरीवाल सरकार है। सरकार को हटाने में तो केन्द्र सरकार नाकाम रही। सरकार से कई अधिकार जरूर छीन चुकी है। प्रचार के तरीके नहीं छीन सकी। हवाई अड्डे, रेल्वे स्टेशनों, बस अड्डों, चौराहों और बगीचों में दिल्ली सरकार ने नौजवानों को नियुक्त कर रखा है। उनकी टी शर्ट पर लिखा है-युद्ध। आसपास मोटे-मोटे अक्षरों में लिखी इबारत के फलक लगे रहते हैं। दोनों मिलकर होते हैं- प्रदूषण से युद्ध। आम के आम और गुठलियों के दाम। हरियाणा-पंजाब से आने वाली जलती पराली और जाड़ों में कुहासे से परेशान दिल्ली को जगाने और नाम कमाने का अवसर तो है ही। इस बहाने युवा-युवतियों को कुछ दिन के लिए रोजगार मिला। चौराहों और बगीचों के दिन बहुरे। विचार किसी की खोपड़ी से निकला हो, केजरीवाल सरकार की वाहवाही से केन्द्र सरकार का दिल तो दुखेगा ही।
लक्ष्मी पूजा
राजस्थान के किलों और हवेलियों को होटल में तब्दील करने से कई काम सधे। राजा-रानी रंक होने से बचे। हाथ पर हाथ धरे बैठने की बजाय उन्हें विदेशी सैलानियों को सदियों पुराने निर्माण दिखाने और तफरीह कराने का अवसर मिला। कारोबार से केन्द्र सरकार हाथ खींच रही है। दिल्ली के कनाट प्लेस के मुहाने पर बने अधिकांश होटल निजी हाथों में जा चुके हैं। सरकार संचालित प्रतिष्ठानों में ऊंचा स्थान रखने वाले होटल जनपथ में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कलाकेन्द्र का बसेरा है। हरियाली से घिरी कला केन्द्र की इमारतें, नाट्य गृह आदि के साथ विशाल भूभाग सेंट्रल विस्ता के जबड़ों में चला गया। जनपथ होटल का हाल वही था, जो जनता का है। कला केन्द्र का कार्यालय बनने से रौनक आई। अध्यक्ष राम बहादुर राय के कार्यालय का गलियारा मधुबनी पेंटिंग से सजा। पहले तल पर सचिव सच्चिदानंद जोशी का गलियारा पश्चिम और दक्षिण भारत की कलाकृतियों से संवरा। सेंट्रल विस्ता बनने के बाद कलाकेन्द्र का डेरा जनपथ से हटकर मुंबई की चाल की तरह के नए पते पर जाएगा। जनपथ पहुंचने में टूट-फूट नहीं हुई। आगे (राम बहादुर) जानें।
अन्नकूट
चुनाव में इज्जत की नौका डूबने का खतरा हमेशा रहता है। बोली बिगड़ती है। ऐन दीपावली से पहले होली वाली गालियों से अधिक घटिया बातें सुनकर फजीहत करानी पड़ती है। हैदराबाद नगरनिगम के चुनाव से भाजपा का हौसला बढ़ा। हम भी हैं, तुम हो, दोनों हैं आमने-सामने वाली अदा में ताल ठोंकी। तेलंगाना सरकार से निष्कासित मंत्री के दलबदल से जोश बुलंदी पर है। चंद्रशेखर राव पर परिवारवाद का आरोप लगाया। जवाबी हमले का मोर्चा बेटे और मंत्री तारक रामाराव ने संभाला। आम सभाओं में जनता से पूछते-हम इसी भाषा में कहने लगें कि भारत को गुजराती चला रहे हैं? मोदी-शाह की दुकड़ी तेल के दाम बढ़ाती जाए और राज्यों से उसकी भरपाई करने कहे? शालीन बनकर कहा-वे लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को गाली गलौज में बदल रहे हैं। चतुर मुख्यमंत्री और सयाने बाप ने बेटे को कलयुगी अभिमन्यु बनाया। 30 अक्टूबर को उपचुनाव के लिए मतदान हो चुका है। गोवर्धन पूजा की प्रतीक्षा है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस भावभीने ढंग से वेटिकन में पोप फ्रांसिस से मिले, उसके फोटो अखबारों और टीवी पर देखकर कोई भी चकित हो सकता है। वैसे मोदी सभी विदेशी महाप्रभुओं से इसी गर्मजोशी के साथ मिलते हैं, चाहे वह डोनाल्ड ट्रंप हो या जो बाइडन हो। लेकिन यह एकतरफा अति उत्साह नहीं है। सामने वाले की गर्मजोशी भी उतनी ही दर्शनीय हो जाती है। लेकिन मोदी की पोप से हुई भेंट को न तो केरल के कुछ ईसाई और न ही कुछ कम्युनिस्ट नेता आसानी से पचा सकते हैं लेकिन वे यह न भूलें कि पोप से मिलने वाले ये पहले भारतीय प्रधानमंत्री नहीं है।
इनके पहले चार अन्य भारतीय प्रधानमंत्री पोप से वेटिकन में मिल चुके हैं। वे हैं— जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, इंदर गुजराल और अटलबिहारी वाजपेयी। अप्रैल 2005 में जब पिछले पोप का निधन हुआ तो भारत के उप-राष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत स्वयं वेटिकन गए थे। उस समय यह प्रश्न भारत और फ्रांस दोनों जगह उठा था कि यदि आपका राष्ट्र धर्म-निरपेक्ष है तो केथोलिक धर्म गुरु की अंत्येष्टि में आपका प्रतिनिधि शामिल क्यों हो? इसका जवाब यह है कि पोप की धार्मिक हैसियत तो है ही लेकिन वेटिकन एक राज्य भी है और पोप उसके सर्वोच्च शासक हैं।
यों भी किसी भी देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री रोम जाते हैं तो वे पोप से प्राय: मिलते हैं लेकिन मोदी और पोप की इस भेंट से जो लोग नाराज हुए हैं, उनकी शिकायत है कि मोदी-राज में ईसाइयों और मुसलमानों पर काफी जुल्म हो रहे हैं लेकिन भाजपा इस भेंट का इस्तेमाल उन जुल्मों पर पर्दा डालने के लिए करेगी। इतना ही नहीं, गोवा और मणिपुर के आसन्न चुनावों में ईसाई वोटों को भी इस भेंट के बहाने पटाने की कोशिश करेगी। इस भेंट का इस्तेमाल नगालैंड, मिजोरम तथा देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले ईसाइयों को लुभाने के लिए भी किया जाएगा।
यह संदेह निराधार नहीं है लेकिन सरकार के प्रवक्ता ने दो-टूक शब्दों में कहा है कि इस भेंट के दौरान धर्मांतरण का सवाल उठा ही नहीं। धर्मांतरण के सवाल पर भाजपा-शासित राज्य कड़े कानून बना रहे हैं और संघ के महासचिव दत्तात्रय होसबोले ने भय और लालच दिखाकर किए जा रहे धर्मांतरण को अनैतिक और अवैधानिक बताया है। सिर्फ संख्या बढ़ाने के लिए धर्म-परिवर्तन कराने के गलत तरीकों पर पोप भी कोई रोक नहीं लगाते। अब तो पोपों की व्यक्तिगत पवित्रता पर कभी सवाल नहीं उठता लेकिन यूरोप में उसके पोप-शासित हजार साल के समय को अंधकार-युग माना जाता है।
इस काल में पोपों को अनेक कुत्सित कुकर्म करते हुए और लोगों को ठगते हुए पाया गया है। इसीलिए ईसाई परिवारों में पैदा हुए वाल्तेयर, विक्टर ह्यूगो, कर्नल इंगरसोल और बुकनर जैसे विख्यात बुद्धिजीवियों ने पोप-लीला के परखचे उड़ा दिए थे। केथोलिक चर्च के इसी पाखंड पर प्रहार करने के लिए कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। आशा है, पोप फ्रांसिस जब भारत आएंगे तो वे अपने पादरियों से कहेंगे कि ईसा के उत्तम सिद्धांतों का प्रचार वे जरुर करें लेकिन सेवा के बदले भारतीयों का धर्म नहीं छीनें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उप-राष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने अपने पिछले कई भाषणों में इस बात पर बड़ा जोर दिया है कि प्राचीन काल में भारत विश्व गुरु था और अब उसे वही भूमिका निभाना चाहिए। इसी बात पर उन्होंने पिछले सप्ताह गोवा के एक कालेज-भवन का उद्घाटन करते हुए अपना तर्कपूर्ण भाषण दिया। आश्चर्य है कि हमारे कोई भी शिक्षा मंत्री इस तरह के विचार तक प्रकट नहीं करते। उन्हें अमली जामा पहनाना तो बहुत दूर की बात है। इस मोदी सरकार ने शिक्षा मंत्री की जगह राजीव गांधी सरकार द्वारा गढ़ा गया फूहड़ शब्द 'मानव संसाधन मंत्रीÓ बदल दिया, यह तो अच्छा किया लेकिन क्या हमारे शिक्षा मंत्रियों और अफसरों को पता है कि विश्व-गुरु होने का अर्थ क्या है? यदि उन्हें पता होता तो आजादी के 74 साल बाद भी हम विश्व गुरु नहीं, विश्व चेले क्यों बने रहते ? अंग्रेजी राज ने हमारी नस-नस में गुलामी और नकल का खून दौड़ा रखा है।
हमारे बड़े से बड़े नेता हीनता ग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं। हमारे वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ पश्चिम की नकल में व्यस्त रहते हैं। हमारी लगभग सारी शिक्षा संस्थाएं अमेरिकी और ब्रिटिश स्कूलों और विश्वविद्यालयों की नकल करती रहती हैं। अपने आप को बहुत योग्य और महत्वाकांक्षी समझनेवाले लोग विदेशों में पढऩे और पढ़ाने के लिए बेताब रहते हैं। इन देशों के छात्र और अध्यापक क्या कभी भारत आने की बात भी उसी तरह सोचते हैं, जैसे सदियों पहले चीन से फाहयान और ह्वेनसांग आए थे? भारत के गुरुकुलों की ख्याति चीन और जापान जैसे देशों तक तो थी ही, मिस्र, इटली और यूनान तक भी थी। प्लेटो और अरस्तू के विचारों पर भारत की गहरी छाप थी। प्लेटो के 'रिपब्लिकÓ में हमारी कर्मणा वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन पढ़कर मैं आश्चर्यचकित हो जाया करता था। मेकियावेली का 'प्रिंसÓ तो ऐसा लगता था, जैसे वह कौटिल्य के अर्थशास्त्र का हिस्सा है।
इमेनुअल कांट और हीगल के विचार बहुत गहरे थे लेकिन मैं उन्हें दार्शनिक नहीं, विचारक मानता हूं। कपिल, कणाद और गौतम आदि द्वारा रचित हमारे छह दर्शनग्रंथों के मुकाबले पश्चिमी विद्वानों के ये ग्रंथ दार्शनिक नहीं, वैचारिक ग्रंथ प्रतीत होते हैं। जहां तक विज्ञान और तकनीक का सवाल है, पश्चिमी डॉक्टर अभी 100 वर्ष पहले तक मरीज़ों को बेहोश करना नहीं जानते थे, जबकि हमारे आयुर्वेदिक ग्रंथों में ढाई हजार साल पहले यह विधि वर्णित थी। अब से 400 साल पहले तक भारत विश्व का सबसे बड़ा व्यापारी देश था। समुद्री मार्गों और वाहनों का जो ज्ञान भारत को था, किसी भी देश को नहीं था। लेकिन विदेशियों की लूटपाट और अल्पदृष्टि ने भारत का कद एकदम बौना कर दिया। अब आजाद होने के बावजूद हम उसी गुलाम मानसिकता के शिकार हैं। वैंकेय्या नायडू ने पश्चिम की इसी चेलागीरी को चुनौती दी है और भारतीय शिक्षा और भारतीय भाषाओं के पुनरुत्थान का आह्वान किया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिव्या आर्य
लिव-इन रिलेशनशिप, यानी शादी किए बगैर लंबे समय तक एक घर में साथ रहने पर बार-बार सवाल उठते रहे हैं। किसी की नजर में ये मूलभूत अधिकारों और निजी जिंदगी का मामला है, तो कुछ इसे सामाजिक और नैतिक मूल्यों के पैमाने पर तौलते हैं।
एक ताजा मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे दो व्यस्क जोड़ों की पुलिस सुरक्षा की मांग को जायज ठहराते हुए कहा है कि ये ‘संविधान के आर्टिकल 21 के तहत दिए राइट टू लाइफ’ की श्रेणी में आता है।
याचिकाकर्ताओं ने अदालत से कहा था कि दो साल से अपने पार्टनर के साथ अपनी मजऱ्ी से रहने के बावजूद, उनके परिवार उनकी जिंदगी में दखलअंदाजी कर रहे हैं और पुलिस उनकी मदद की अपील को सुन नहीं रही है।
कोर्ट ने अपने फैसले में साफ किया कि, ‘लिव-इन रिलेशनशिप को पर्सनल ऑटोनोमी (व्यक्तिगत स्वायत्तता) के चश्मे से देखने की जरूरत है, ना कि सामाजिक नैतिकता की धारणाओं से।’
भारत की संसद ने लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई क़ानून तो नहीं बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसे रिश्तों के क़ानूनी दर्जे को साफ़ किया है।
इसके बावजूद इस तरह के मामलों में अलग-अलग अदालतों ने अलग-अलग रुख़ अपनाया है और कई फैसलों में लिव-इन रिलेशनशिप को ‘अनैतिक’ और ‘गैर-कानूनी’ करार देकर पुलिस सुरक्षा जैसी मदद की याचिका को बर्खास्त किया है।
कानून की नजर में सही कब?
पंद्रह साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने साल 2006 के एक केस में फैसला देते हुए कहा था कि, ‘वयस्क होने के बाद व्यक्ति किसी के साथ रहने या शादी करने के लिए आजाद है।’
इस फैसले के साथ लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता मिल गई। अदालत ने कहा था कि कुछ लोगों की नजर में ‘अनैतिक’ माने जाने के बावजूद ऐसे रिश्ते में रहना कोई ‘अपराध नहीं है।’
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी फैसले का हवाला साल 2010 में अभिनेत्री खुशबू के ‘प्री-मैरिटल सेक्स’ और ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ के संदर्भ और समर्थन में दिए बयान के मामले में दिया था।
खुशबू के बयान के बाद उनके खिलाफ दायर हुईं 23 आपराधिक शिकायतों को बर्खास्त करते हुए कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था, ‘इसमें कोई शक नहीं कि भारत के सामाजिक ढांचे में शादी अहम है, लेकिन कुछ लोग इससे इत्तेफाक नहीं रखते और प्री-मैरिटल सेक्स को सही मानते हैं। आपराधिक कानून का मकसद ये नहीं है कि लोगों को उनके अलोकप्रिय विचार व्यक्त करने पर सजा दे।’
लिव-इन रिलेशनशिप कब अपराध की श्रेणी में आ जाता है?
साल 2006 में भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत ‘अडल्ट्री’ यानी व्याभिचार गैर-कानूनी था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत मिली आज़ादी उन मामलों पर लागू नहीं थी जो शादी के बाहर संबंध यानी अडल्ट्री की श्रेणी में आते थे।
शादीशुदा व्यक्ति और अविवाहित व्यक्ति के बीच, या फिर दो शादीशुदा लोगों के बीच लिव-इन रिलेशनशिप कानून की नजऱ में मान्य नहीं था।
फिर साल 2018 में एक जनहित याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ‘अडल्ट्री’ कानून को ही रद्द कर दिया।
याचिका दर्ज करनेवाले वकील कालेश्वरम राज ने बीबीसी से बातचीत में इस फैसले के लिव-इन रिलेशनशिप पर असर के बारे में बताया।
उन्होंने कहा, ‘अब कोई लिव-इन रिलेशनशिप इस वजह से गैर-कानूनी नहीं करार दिया जा सकता कि वो ‘अडल्ट्री’ की परिभाषा में आता है। सुप्रीम कोर्ट के साल 2006 और 2018 के फैसले एकदम साफ है और संविधान के आर्टिकल 141 के तहत उतने ही मजबूत कानून हैं जैसे संसद या विधानसभा द्वारा पारित कानून।’
लेकिन देश की अदालतों में शादीशुदा व्यक्ति के बिना तलाक़ लिए लिव-इन रिलेशनशिप में होने की सूरत में कई बार उनके रिश्ते को अब भी गैर-कानूनी बताया जा रहा है।
हाई कोर्ट के अलग-अलग फैसले
इसी साल अगस्त में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पुलिस सुरक्षा की एक याचिका बर्खास्त कर दी और 5,000 रुपए जुर्माना लगाते हुए कहा कि, ‘ऐसे गैर-कानूनी रिश्तों के लिए पुलिस सुरक्षा देकर हम इन्हें इनडायरेक्ट्ली (अप्रत्यक्ष रूप में) मान्यता नहीं देना चाहेंगे।’
इसके फौरन बाद आए राजस्थान हाई कोर्ट के एक फैसले में भी ऐसे रिश्ते को ‘देश के सामाजिक ताने-बाने के खिलाफ’ बताया गया।
कालेश्वरम राज कहते हैं, ‘कानून की जानकारी और समझ का अभाव एक बड़ा मुद्दा है जो आम जनता, पुलिस सबके बीच व्याप्त है। 2018 के ‘अडल्ट्री’ के फैसले के एक साल बाद भी जब मैंने उत्सुकतावश भारतीय दंड संहिता पर बाज़ार में उपलब्ध कुछ किताबों पर नजर डाली तो पाया कि सेक्शन 497 को उनमें से हटाया नहीं गया था।’
कई निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के ध्यान में रखते हुए सुनवाई कर भी रही हैं।
इसी साल सितंबर में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के सामने एक अविवाहित महिला और एक शादीशुदा मर्द ने उनकी पत्नी और परिवार से पुलिस सुरक्षा की याचिका दाखिल की।
हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के ‘अडल्ट्री’ को रद्द करनेवाले फैसले का हवाला देते हुए याचिकाकर्ताओं के हक में फैसला दिया और पुलिस को सुरक्षा मुहैया करने की हिदायत दी।
कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा, ‘शादीशुदा होने के बावजूद लिव-इन रिलेशनशिप में रहना कोई गुनाह नहीं है और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि शादीशुदा व्यक्ति ने तलाक की कार्रवाई शुरू की है या नहीं।’ (bbc.com/hindi)