विचार/लेख
-डॉ. अमिता नीरव
बात ज्यादा पुरानी है। हमारे प्रदेश में तब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। प्रदेश भयानक बिजली संकट से जूझ रहा था। याद आता है कि शहर में भी गर्मियों की रातों में दो-दो घंटे बिजली कटौती हुआ करती थी। चुनाव आने ही वाले थे, ऐसे ही किसी मौके पर किसी के सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री ने कहा था कि कौन कहता है कि चुनाव काम से जीते जाते हैं, चुनाव तो मैनेजमेंट से जीते जाते हैं। इस बयान ने अचंभित कर दिया था। गुस्सा भी बहुत आया था। उस साल चुनाव में वोट ही नहीं किया था। कांग्रेस भी चुनाव हार गई थी।
पत्रकारिता शुरू करने के कुछ ही सालों बाद हमारे अखबार में यह चर्चा शुरू हो गई थी कि अखबार के संपादक की जगह मैनेजर की नियुक्ति की जानी चाहिए। आखिर तो संपादक की जरूरत ही क्या है? हर विभाग में संपादक हैं ही, वे अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाते ही हैं ऐसे में अखबार के संपादक की जरूरत ही क्या है! उन्हीं दिनों जाना था कि बड़े-बड़े अंग्रेजी अखबारों में अब संपादकों की जगह मैनेजर्स ले चुके हैं। उन्हीं दिनों अलग तरह से लेख लिखा था जो सन्डे सप्लीमेंट की कवर स्टोरी के रूप में छपा था।
लेख का शीर्षक था ‘जरूरत वैज्ञानिकों की हैं, हम पैदा कर रहे हैं मैनेजर्स...’। धीरे-धीरे संपादक विहीन खबरों की दुनिया का पतन होना शुरू हो गया था। जहाँ कहीं संपादकों की जरूरत को स्वीकार किया गया, वहाँ भी संपादक को अंततः मैनेजर की भूमिका तक ही महदूद कर दिया गया। अखबारों की दुनिया में पत्रकारिता मैनेजमेंट का रूप लेती चली गई और संपादक, बाजार, राजनीति, खबर, नफा-नुकसान को मैनेज करने के लिए मैनेजर होने लगे। यहीं से पत्रकारिता के लुप्त होने की भूमिका बनने लगी।
2014 के आम चुनाव में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के बाद हर जगह प्रशांत किशोर का नाम पढ़ने और सुनने के बाद जाना कि अब लोकतंत्र में एक नए उद्योग की शुरुआत हो गई है। इलेक्शन मैनेजमेंट... ऐसा नहीं है कि इससे पहले यह विधा नहीं थी। हर काम जिसमें कई लोग लगे होते हैं उसका मैनेजमेंट तो किया ही जाता है। जब घर के चार लोगों के बीच भी मैनेजमेंट की दरकार होती है तो चुनाव में क्यों नहीं होगी? लेकिन इलेक्शन मैनेजमेंट चुनाव जितवा सकता है इस तथ्य औऱ सत्य ने जैसे बुरी तरह से हिला दिया था।
आज सोचती हूँ तो पाती हूँ अण्णा आंदोलन, देश के औद्योगिक घरानों का नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के लिए समर्थन, कांग्रेस के खिलाफ लगातार भ्रष्टाचार के आरोप, तमाम घोटालों का उन्हीं दिनों भंडाफोड़ होना, विनोद राय के आरोप औऱ बाद में प्रशांत किशोर... ये सब कुछ एक ही जंजीर की कड़ियाँ हैं। दरअसल हम जिसे मैनेजमेंट समझते हैं मैनेजमेंट उससे कहीं ज्यादा औऱ विस्तृत विधा है।
पत्रकारिता करने के दौरान कभी-कभी फिल्म के पेज की जिम्मेदारी भी उठाई है। कई बार फिल्म के सप्लीमेंट के लिए लिखा भी है तब जाना कि दरअसल इमेज मेकिंग भी एक करियर ऑप्शन हैं। तब तो लगता था कि यह सिर्फ ग्लैमर इंडस्ट्री का ही सच है। जिन दिनों सलमान खान जेल में थे, उन दिनों एकाएक कई लोग उनके बीईंग ह्यूमन और लोगों को मदद करने के उनके जज्बे पर लिख रहे थे। क्या वो सब इत्तफाक था? नहीं वो सब इमेज मेकिंग का हिस्सा था। पब्लिक सेंटीमेंट को मैनेज करने की ट्रिक थी।
2008 के मुंबई हमले में पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब के बारे में सरकार के वकील उज्जवल निकम ने प्रेस को बताया था कि कसाब ने जेल में बिरयानी की माँग की है। एकाएक देश का पब्लिक सेंटिमेंट उसके खिलाफ हो गया। 2015 में जब कसाब को फाँसी हुए तीन साल हो चुके थे, उज्जवल निकम ने एक इंटरव्यू में कहा कि कसाब ने न तो कभी जेल में बिरयानी की माँग की औऱ न ही उसे बिरयानी दी गई। ये हमने पब्लिक सेंटीमेंट को उसके खिलाफ करने के लिए फेब्रिकेट किया था।
अभी देखिए बीजेपी ने देश के सामने राहुल गाँधी को पप्पू सिद्ध कर दिया है। अच्छे खासे पढ़े लिखे, समझदार लोगों को राहुल को पप्पू कहते सुनती हूँ। यह सब भी उसी इलेक्शन मैनेजमेंट का हिस्सा है। प्रधानमंत्री नवरात्रि में उपवास करते हैं, कब अपनी माँ से मिलने जाते हैं, कब माँ को प्रधानमंत्री निवास में बुलाया जाता है। अलग-अलग भाव-भंगिमा में प्रधानमंत्री के फोटो थोड़े-थोड़े अंतराल पर रिलीज करना। ये सब कुछ मैनेजमेंट ही है।
इन दिनों फिर से पीके की चर्चा है। सोचती हूँ कौन है पीके... प्रशांत किशोर। कौन हैं और ये इलेक्शन मैनेज करते-करते राजनीति में घुसपैठ क्यों करने लगे हैं? 2014 के चुनावों की सफलता में आंशिक योगदान के अतिरिक्त इनकी और क्या योग्यता है? एक औऱ डरावनी बात यह है कि जिस तरह से पिछले दस सालों से भारतीय लोकतंत्र में मैनेजमेंट का दौर चल रहा है, उससे लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में जो थोड़ा बहुत दम बचा है वह भी निकल ही जाना है।
बाजार ने लोकतंत्र को भी अपना औजार बना लिया है। हम इमेज मेकिंग, इवेंट मैनेजमेंट और पॉलिटिकल मैनेजमेंट के नए दौर में कदम रख चुके हैं। यदि आँख-कान को खुला और दिमाग को सतर्क नहीं रखा तो आप भी इसी बाजार का हिस्सा होने जा रहे हैं। फिर ऐसा वक्त भी आ सकता है कि बाजार आपको अपने खिलाफ भी इस्तेमाल कर लें। आप तब समझेंगे, जब आप खुद को ही ठग चुके होंगे।
यकीन कीजिए मैनेजमेंट ठगी का नया रूप है।
-कविता कृष्णन
जिनके लेखन, कविता, पत्रकारिता, राजनीतिक आदर्श आदि का हम आदर करते हैं, उनके खिलाफ यौन उत्पीडऩ, यौन हिंसा आदि के आरोपों पर हमारा रिस्पॉन्स कैसा होना चाहिए? मेरा मानना है कि यह संभव और उचित है कि किसी के काम का आदर करते हुए उनको हम यौन उत्पीडऩ आदि के लिए जवाबदेह रखने में सफल हो सकते हैं।
पाब्लो नेरुदा ने अपने आत्मकथा में श्री लंका में उनके कमरे से मल ढोने वाली महिला के साथ बलात्कार का खुद विवरण किया। फि़ल्मकार ङ्खशशस्र4 ्रद्यद्यद्गठ्ठ ने अपनी ही 7 वर्षीय बेटी पर यौन हिंसा किया और क्रशद्वड्डठ्ठ क्कशद्यड्डठ्ठह्यद्मद्ब ने 13 वर्षीय बच्ची का बलात्कार किया। कवि नागार्जुन पर पिछले वर्ष आरोप लगा कि उन्होंने एक छोटी बच्ची पर यौन हिंसा किया। क्या हम यौन हिंसा पर चुप मार लें या उसे झूठा बता दें महज इसलिए कि यह हमारे चहेते व्यक्ति के प्रति हमारे प्रेम और आदर के लिए असुविधाजनक है? ऐसा करके हम कह रहे हैं कि यौन हिंसा झेलने वालों का जीवन, हमारे चहेते व्यक्ति की शोहरत से कम मूल्य रखता है।
ताजा उदाहरण पत्रकार विनोद दुआ का है। हिंदी पत्रकारिता जिस समय गोदी मीडिया संकट से गुजर रहा है उसी समय दुआ ने निस्संदेह उसकी लाज रखी। पर प्तरूद्गञ्जशश के आरोपों के मामले में दुआ पत्रकारिता और पर्सनल दोनों मामलों में जो मानक हैं उन पर खरे नहीं उतरे। उनके लिए लिखे जाने वाले दर्जनों ओबिचूएरी में इस मामले पर चुप्पी, महिलाओं के अस्तित्व और इंसानियत को खारिज करता है।
दुआ पर आरोप लगाने वाली महिला क्या चाहती थी? शायद सिर्फ इतना कि वे कई वर्षों पहले के उनके किए के लिए वे माफी माँगें, स्वीकार करें कि उन्होंने किसी युवा महिला के साथ अन्याय किया।
पर ऐसा करने के बजाय दुआ ने महिला पर झूठ बोलने का आरोप लगाया। एंकर होने के प्लेटफार्म का दुरुपयोग किया और द वायर द्वारा बनाए गए जाँच कमेटी के सामने पेश ही नहीं हुए। उस महिला के बयान कहीं से भी कमजोर नहीं था- वे खुद सेक्युलर है और उनके पास दुआ पर गलत आरोप लगने के लिए कोई मकसद नहीं है।
ये ‘कैन्सल कल्चर’ नहीं है। विनोद दुआ के काम को खारिज करने को नहीं कहा जा रहा है। पर उनका व्यक्तिगत असेस्मेंट करते हुए इस यौन उत्पीडऩ वाले पक्ष को और उसके साथ उस महिला और सभी महिलाओं के मूल्य को सिरे से कैन्सल (खारिज) मत करिए।
-रवीश कुमार
विनोद दुआ का बिना देखे गुजऱ जाना भी याद है और देख कर तृप्त कर देना भी याद रहेगा।
जब आप बहुत नए होते हैं तो किसी बहुत पुराने को बहुत उम्मीद और घबराहट से देखते हैं। उसके देख लिए जाने के लिए तरसते हैं और उससे नजरें चुराकर देखते रहते हैं। उसके जैसा होने या उससे अच्छा होने का जुनून पाल लेते हैं। वो तो नहीं हो पाते लेकिन उसी की तरह का कुछ और हो जाते हैं। विनोद दुआ को हमने इन्हीं सब उम्मीदों और निराशाओं की अदला-बदली के साथ देखा। बहुत लंबा साथ रहा। व्यक्तिगत तो नहीं, पेशेवर ज़्यादा रहा। पेशेवर संबंधों की स्मृतियां व्यक्तिगत संबंधों से बहुत अलग होती हैं। हमेशा उन्हें नजऱ उठा कर सीधे चलते देखा। मैं हैरान होता था कि कोई हमेशा ऐसे कैसे चल सकता है। बहुत आसानी से नजर नहीं मोड़ते थे। चलते थे तो सीधा चलते थे। ऐसे में बहुत कम संभावना थी कि उनकी नजऱ आपकी तरफ़ मुड़ जाए। एक ही रास्ता बचता था कि आप उनके सामने आ जाएं लेकिन बिना कुछ किए उनके सामने आना आसान नहीं था। महफिलबाज थे लेकिन दफ्तर से चेले बनाकर महफि़लें नहीं सजाते थे। उनके अपने दोस्त यार थे जिनके साथ महफि़लें सजाते थे। हर समय कुछ गुनगुनाते हुए उनका आना राहत देता था। वर्ना ऐसी ठसक वाला व्यक्ति बहुतों की हालत खराब कर सकता है। विनोद का गुनगुनाना उनके आस-पास विनोद का वातावरण बना देता था। आप सहज़ हो जाते थे। कुछ लापरवाहियां और बेपरवाहियां थीं मगर वो उनके जीने के अंदाज का हिस्सा था और कई बार इसकी वजह से उन सीमाओं को भी लांघ जाते थे जिसे खुद अपने और सबके लिए बनाया था। उन्हें अच्छा लगता था कि कोई उनसे ठसक से मिल रहा है। उन्हें किसी में लिजलिजापन पसंद नहीं आता था।
काम करने की जगह पर उनकी मौजूदगी सबको बराबर होने का मौका देती थी। लोग आसानी से उन्हें टोक आते थे और कई बार उनकी गलतियों पर हाथ रख देते थे। लेकिन जब वे किसी की गलती पर हाथ रख देते तो हालत खराब हो जाती। विनोद के पास जानकारियों का खजाना था। उनकी स्मृति गजब की थी। किसी शायर का पूरा शेर, तुलसी की चौपाई और कबीर के दोहे यूं जुबान पर आ जाया करते थे। यकीन करना मुश्किल हो जाता था कि उन्हें इतना सब कुछ याद कैसे हो सकता है। इससे अंदाजा होता था कि पब्लिक के बीच आने के पहले के विनोद दुआ हम सभी से अनजान किसी कमरे में अपनी तैयारियों में बहुत व्यस्त रहते होंगे। साहित्य और शास्त्रीय संगीत की जानकारी पर कोई चलते फिरते इतना अधिकार नहीं रख सकता था। यही कहना चाहता हूं कि हम सबने विनोद दुआ को काम करने की जगह पर तो देखा लेकिन वहां आने से पहले विनोद दुआ ख़ुद को विनोद दुआ कैसे बनाते थे, नहीं देखा।
गणेश जी के दीवाने थे। उनके घर में गणेश की अनगिनत आकृतियां थीं। मूर्तियां थीं। शायद गणेश से उन्होंने परिक्रमा उधार ली और भारत की खूब परिक्रमा की। हर दिशा में कई बार गए। कई तरह के फार्मेट के कार्यक्रम के लिए गए। कैमरे के सामने उनकी उपस्थिति अपने आप में एक नई भाषा बनाती थी। उनकी भाषा में एक खास किस्म की दृश्यता थी। किसी बेहतरीन नक्शानवीस की तरह ख़ाका खींच देते थे। बहुत मुश्किल है इतने लंबे जीवन में आप केवल शतकीय पारी ही खेलते रह जाएं। बहुत सी पारियां शून्य की भी रहीं और रन बनने से पहले ही आउट होकर पवेलियन लौट आने के भी किस्से हैं। विनोद के हाथ से बल्ला छूटा भी है और विनोद ने ऐसी गेंद पर रन बनाए हैं जिस पर सटीक नजर उन्हीं की पड़ सकती थी। उन्हें विनोद कहलाना पसंद था।
काफी लंबा साथ रहा है। उन्होंने कभी हाथ पकड़ा तो कभी केवल रास्ता दिखाया। गुडग़ांव में मजदूरों पर पुलिस ने लाठी चार्ज की थी। उसका लाइव कवरेज कर रहा था। शाम को दफ्तर लौटा तो सीढि़ओं पर मिल गए। मुझे रोक लिया, कहने लगे कि एकदम वल्र्ड क्लास टेलिविजन था। ऐसा दुनिया के टेलिविजन में भी नहीं होता होगा जो तुमने किया। उस वक्त हमें नहीं पता था और आज भी नहीं पता कि वल्र्ड क्लास क्या होता है, पर विनोद ने इस तरह जोर दिया कि अपने काम के प्रति विश्वास बढ़ गया। कई मौके आए जब उन्होंने उदारता के साथ फोन कर कहा कि ये वल्र्ड क्लास है। मैं सोचता रहा कि विनोद दुआ के लिए वल्र्ड क्लास क्या है। मैं कभी पूछ नहीं सका क्योंकि सिर्फ इतना भर कह देने से लाजवंती की तरह खुशी के मारे सिमट जाता था। उनकी तारीफों का मेरे पास पूरा हिसाब नहीं है मगर उन तारीफों ने मुझे बेहिसाब खुशियां दी हैं। हौसला दिया है।
आजादी के पचास साल हो रहे थे। मैं नहीं चाहता था कि शो बन जाने से पहले कोई मेरी स्क्रिप्ट देखे। मैंने यह बात विनोद से कह दी। विनोद ने कहा कि कुछ शरारत कर रहे होगे। मैंने कहा नहीं सर। कुछ लिखने और बनाने से पहले क्या किसी को दिखाना। तो उन्होंने कहा कोई नहीं, कह देना कि विनोद दुआ ने देख लिया है और क्लियर कर लिया है। विनोद दुआ ने जब पेश किया तो उस कार्यक्रम में उन पर भी टिप्पणी थी। उन्होंने सोचा नहीं होगा कि जिस विनोद दुआ के दम पर इसने कार्यक्रम बनाया है उसमें विनोद दुआ पर भी टिप्पणी होगी। अचानक आई उस टिप्पणी से विनोद दुआ जैसा सधा हुआ बल्लेबाज सकपका गया लेकिन उन्होंने बुरा नहीं माना। पूरे कार्यक्रम में हर हिस्से के बाद वे तारीफ ही करते रहे कि ये सिर्फ रवीश कर सकता है। मैं दूसरे छोर पर एक नए पेशेवर की तरह सकुचाया खड़ा रहता था। हर दिन अपना आत्मविश्वास खोता रहता था और हर दिन पाता रहता था। उनके प्रति सम्मान इसलिए था कि वे माध्यम का हुनर रखते थे। वे माध्यम के हिसाब से मेरी तारीफ करते थे। मेरे अंदर माध्यम के प्रति मोहब्बत भर देते थे। उनसे इतना मिला, वो काफी था।
इसके बाद भी हम व्यक्तिगत रूप से करीब नहीं थे लेकिन मेरी यादों में वे किसी करीबी से कम नहीं हैं। उनका बिना देखे गुजऱ जाना भी याद है और देख कर तृप्त कर देना भी याद रहेगा। उनसे खूब दाद मिली और और कभी दाद नहीं भी मिली। एक अच्छा उस्ताद यही करता है। अपना हक अदाकर हिस्सा नहीं मांगता है। वो किसी और रास्ते चला जाता है और हम किसी और रास्ते चले गए। जिसने जो दिया उसके प्रति हमेशा शुक्रगुजार होना चाहिए। विनोद दुआ का दिया हुआ आत्मविश्वास आगे की यात्राओं में बहुत काम आया। जिससे आप ड्राइविंग सीखते हैं, हर मोड़ पर उसे याद नहीं करते हैं लेकिन सफर में किसी मोड़ पर उसकी कुछ बातें याद आ जाती हैं। आपकी रफ्तार बदल जाती है। सफर का अंदाज बदल जाता है। विनोद दुआ, दुआ साहब, विनोद, आप जिंदगी के बदलते गियर के साथ याद आते रहेंगे।
-कनक तिवारी
किसी मजहब का मतावलंबी होना व्यक्तिगत अधिकार है अथवा उसी मजहब का सम्बन्धित व्यक्ति पर अधिकार? संविधान के अनुसार व्यक्ति धर्म संबंधी अबाध स्वतंत्रता रखता है। किसी मजहब में शामिल होकर प्रचार का अधिकार भी उसे है। संविधान की आयतों में उल्लेख नहीं है कि मजहब के बहुमत के अनुयायी उसी मजहब के व्यक्ति को अनुशासन में रहने का फतवा जारी कर सकते हैं। फतवे जारी हैं। हुक्म नहीं मानने वालों के सर तोड़े भी जा रहे हैं।
हिन्दू धर्म में जाति समस्या को धर्म की आंतरिकता बना दिया गया। जाति प्रथा का जहर दलितों में वर्षों से घुलता रहा है। विवेकानंद और गांधी के अनोखे और पुरअसर तर्क थे कि जाति और वर्णाश्रम व्यवस्था के कुछ सकारात्मक पक्ष भी हैं। अंबेडकर ने इस हाइपोथीसिस को कतई मंजूर नहीं किया। उन्होंने जाति प्रथा की सड़ी गली रूढ़ि के खिलाफ जेहाद का बिगुल फूंका। अंबेडकर आधुनिक नीति-संहिता का विधायन रचने के प्रखर आग्रही बने रहे। उस नवोन्मेष के जरिए दलित समूह में रियायतें मांगने के बदले संपूर्ण अधिकारों के लिए संघर्ष करने की वर्ग चेतना पैदा करते रहे। बौद्ध धर्म में उनका प्रवेश धर्म आधारित आदेशों के तहत रहकर दलित वर्ग की सामाजिक स्थिति को सुधारना भर नहीं था। बौद्ध धर्म की बहुप्रचारित अवधारणाओं स्वतंत्रता, समता और सामाजिक बंधुत्व का मनोवैज्ञानिक माहौल मुहैया कराकर दलितों को एक नया जीवनशास्त्र देने का प्रयत्न भी था।
बहुत सावधानी चुस्ती और चालाकी के साथ देश के कई राजनीतिक नेताओं ने वितंडावाद रचा है। उसके परिणामस्वरूप राजसत्ता सदैव उच्च वर्गों के हाथ ही रही। भारत में धर्म प्रमुख सामाजिक ताकत, जरूरत और उपस्थिति है। धर्म का झुनझुना बजाकर लोगों को गाफिल किया जा सकता है। उसका शख बजाकर घबराहट पैदा की जा सकती है। धर्म है कि राजनीति का खिलौना बना हुआ है। कुछ हिन्दू मान्यताओं का फतवा दिया जाता है। उनमें यह सोच कहां था कि भारत कभी एक राष्ट्र-राज्य या संवैधानिक सार्वभौम देश के रूप में निर्मित किया जा सकेगा? प्राचीन हिन्दू सोच में विदेशी राज्य पद्धतियों का विवेचन कहां है? उन असंगत धर्मादेशों को किस तरह हिन्दू या अन्य मतावलंबियों पर क्यों लागू किया जाए?
दलित उत्थान की नयी सामाजिक वैचारिकी को राष्ट्रीय स्तर पर षुरू करने का श्रेय मुख्यतः डा0 अम्बेडकर को है। अपने अंतिम वर्षों में हिन्दू धर्म की रूढ़ियों से त्रस्त होकर डाॅ. अंबेडकर ने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उससे एक समतामूलक समाज भूमि पर खड़ा होने का पहला मौका तो दलित वर्ग को मिल सका। ऐसा नहीं है कि अंबेडकर ने समाज के लिए धर्म की आवश्यकता प्रतिपादित नहीं की। लेकिन अपने अनुयायियों से उन्होंने कुछ विशिष्ट मानकों पर धर्म की गत्यात्मकता को जांचने का आग्रह किया। उनके अनुसार सामाजिक नीतिशास्त्र, विवेकशीलता, शांतिमय सहअस्तित्व और अंधविश्वास पर अनास्था एक नए समाज धर्म के अवयव हो सकते हैं। अंबेडकर ने कहा कि ऐसे तत्व हिन्दू धर्म में दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि वह जाति प्रथा की गिरफ्त में है। उनके तर्क में बुद्ध की शिक्षाओं के अतिरिक्त पश्चिम के ज्ञानशास्त्र से उपजा नवउदारवाद भी था।
ईसाई धर्म में अंतरित होने से आदिवासियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, आधुनिकता और सामाजिकता की स्थितियों में बेहतर संभावनाएं नजर आती रही हैं। ईसाई मिशनरियों का केवल इतना सोचना नकारात्मक समाजशास्त्रीय परिकल्पना है। मनुष्य में पशुत्व तो है लेकिन मनुष्य केवल पशु ही नहीं है। भौतिक सुविधाओं के कारण धर्म परिवर्तन करना गहरी सामाजिक भूल है और अभिशाप भी। ईसाइयत के मूल्यों में समानता और बंधुत्व की समाजशास्त्र सम्मत परिकल्पनाएं, व्यवस्थाएं और व्यवहारगत स्थितियां हैं। उनका समानांतर हिन्दू व्यवस्थाओं में नहीं है। दलित आदिवासी को सामाजिक धार्मिक और निजी आयोजनों में साथ बैठने, भोजन करने और बराबरी के आधार पर सम्मान पाने के अवसर देने की परंपरा हिन्दू धर्म में कहां है? संघ परिवार इस बात की कभी ताईद नहीं करेगा कि वह अपने निजी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों में दलितों और आदिवासियों की सम्मानजनक बराबरी की भागीदारी प्रत्यक्ष कर दिखा दे। जातीय व्यवस्था के चलते वैवाहिक अवरोधों, शिक्षा के अवसरों, चिकित्सा सुविधाओं और अन्य सामाजिक स्थितियों में लगातार वही ढाक के तीन पात हैं।
अंबेडकर ने राजनीति में धर्म के प्रयोग के कारण पाकिस्तान बनने और सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका को आंखों से देखा था और गांधी की हत्या को भी। अंबेडकर वाकिफ थे कि संप्रदायवाद धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सहिष्णुता को कतई बर्दाश्त नहीं करता। जबकि ये दोनों तत्व आधुनिक राष्ट्र राज्य की परिकल्पना के आधार स्तंभ हैं। इन्हें अंततः संविधान के जीवंत उद्देश्यों के रूप में शामिल किया गया। उन्होंने यह भी देखा कि धर्म सामाजिक नीतिशास्त्र के रूप में आधुनिक मूल्यों की हेठी करता है। दलित और स्त्रियां मिलाकर देश की आधी से ज्यादा आबादी हैं। इन दोनों वर्गों को मोटे तौर पर लगातार घरेलू और सामाजिक स्तर पर जाति प्रथा के सहित या रहित शोषित किया जाता रहा है। स्वतंत्र और संविधानसम्मत भारत में पीड़ित वर्गों को सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर समुन्नत होने का कम ही अवसर मिलने की संभावना अंबेडकर ने देखी थी, जब सामाजिक दुराग्रहों का उनके जीवन से लोप कर दिया जाए। यह मिथकीय विचार या यूटोपिया बनकर नहीं रह जाए। इसलिए अंबेडकर उन्हें अनंत यात्रा के पथिक के रूप में ऐसे पड़ाव पर खड़ा कर देना चाहते थे जो कम से कम उस राह का प्रस्थान बिन्दु तो हो। ऐसा करना जातिग्रस्त हिन्दू समाज की व्यवस्थाओं के तहत संभव नहीं था। एक नई संविधानिक व्यवस्था के मानक सिद्धान्तों की स्वप्नषीलता को साकार करने में बौद्ध धर्म की तात्विक घोषणाओं की वृहत्तर भूमिका से अंबेडकर ने तत्कालीन राजनीति को इसीलिए सम्पृक्त किया था। एक अनीष्वरवादी आध्यात्मिक दर्शन ही अम्बेडकर के अनुसार संविधान का पाथेय हो सकता है। उनका यह उत्तर-आधुनिक सोच अब तक बहस के केन्द्र में नहीं आया है।
-अशोक मिश्रा
विनोद दुआ का निधन उत्कृष्ट, सटीक और गम्भीर पत्रकारिता के एक बड़े स्तम्भ का निधन है।
विनोद से मेरा परिचय 79 में हुआ। ज़रिया बने सुप्रसिद्ध अभिनेता वीरेंद्र सक्सेना।विनोद वीरेंद्र के दोस्त थे। हमारा एन.एस.डी. में एडमिशन हुआ था। विनोद वीरू से मिलने अपनी लम्ब्रेटा स्कूटर से मंडी हाउस आते। हम मिलते चाय पीते और गपियाते थे। यह अक्सर होने लगा। विनोद विनोदी थे। मुझे भी वही लोग अच्छे लगते हैं जिनका सेंस ऑफ ह्यूमर अच्छा हो। उनकी राजनीतिक समझ तभी से जनहित में रूप लेने लगी थी।
फिर वो मेरे नाटक भी देखने आते और हम उसपर चर्चा करते।
मैं मुम्बई चला आया। मोबाइल का युग नहीं था सो बातचीत का सिलसिला टूट गया।
मैंने सुप्रसिद्ध निर्देशक सईद मिजऱ्ा के लिए नसीम नामकी फि़ल्म लिखी। पहला ड्राफ्ट लिखने के बाद सईद को सुनाने उनके घर गया तो सुखद आश्चर्य हुआ कि विनोद भी उनसे मिलने आये थे। सईद ने उन्हें भी सुनने के लिए बिठा लिया। स्क्रिप्ट पाठ समाप्त हुआ। फि़ल्म के राजनैतिक एंगल पर विनोद की टिप्पणियां कमाल की थीं। मसलन ‘अल्पसंख्यकों के डर पर लाल मिर्ची नहीं छिडक़नी चाहिए।’
‘इस दौर में हर सेंसबिल इंसान अल्पसंख्यक है।’... और भी बहुत कुछ।
फिर विनोद की पत्नी का निधन हुआ। मैंने बात करने की कोशिश की मगर वो ख़ुद करोना की चपेट में थे।
मुझे यक़ीन था वो स्वस्थ हो जाएंगे।
लेकिन मेरे यक़ीन से क्या होता है।
उफ़ विनोद का न रहना बड़ी क्षति है।
एक आदमी अकेला नहीं जीता-मरता, उसके साथ उसके चाहने वाले भी थोड़ा थोड़ा जीते-मरते हैं। दुआ तो बहुत मांगी थी लेकिन ये सच है कि विनोद हमें छोड़ गए।
अबकि बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल कि़ताबों में मिलें।
-राजेश अग्रवाल
बोलने की आजादी जब संकट में हो तब ऐसे मुखर पत्रकार के चले जाने से बड़ा अफसोस होता है। वे बिना डरे दिल की बात जुबान पर लाते थे। वे वही कहते थे जो महसूस करते थे।
पद्मश्री विनोद दुआ का निधन उन सभी पत्रकारों के लिए गहरे शोक की ख़बर है जो बेबाकी से अपनी बात रखते हैं। कुछ महीने पहले ही उनकी पत्नी डॉक्टर पद्मावती का कोरोना से निधन हो गया था। हो सकता है, सदमा उन्हें रहा हो।
उनका परिवार विभाजन की त्रासदी के बीच पाकिस्तान के ख़ैबर पख्तून से भारत आया था। शुरुआती दिनों में वे दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में भी रहे। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत अभिनय से की थी और नुक्कड़ नाटकों के जरिए अनेक सामाजिक मुद्दों को उठाया। वे और उनकी पत्नी बहुत अच्छे सुरों के मालिक थे। आप उनके गाए हुए गाने इंटरनेट पर सर्च कर सकते हैं।
विनोद दुआ ने हंसराज कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में बैचलर डिग्री ली, फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर डिग्री हासिल की। मंचीय प्रस्तुतियों के दौरान ही वे अमृतसर दूरदर्शन से जुड़े। सन् 70 के दौर में युवा मंच नाम का एक कार्यक्रम होता था जिसमें उनके कई धारावाहिक प्रसारित हुए। इस कार्यक्रम में रायपुर के युवाओं को भी मौका मिला। इसके बाद दूरदर्शन में उन्होंने ‘जवान-तरंग’ नाम के एक कार्यक्रम की प्रस्तुति शुरू की। 1981 में उन्होंने एक पारिवारिक पत्रिका ‘आपके लिए-संडे मॉर्निंग’ नाम से शुरू किया जो 1984 तक चला।
दुआ को ख्याति मिली अपने सटीक चुनाव विश्लेषणों से। प्रणब रॉय जो आज एनडीटीवी के मालिक हैं, उनके साथ 80 के दौर में वे चुनाव समीक्षा करते थे। मुझे याद है रात-रात भर हम दूरदर्शन देखा करते थे। हिंदी में विनोद दुआ, अंग्रेजी में प्रणव राय बारी-बारी चुनाव परिणामों की चर्चा करते थे। दुआ को काफी सराहा गया। इसके बाद अनेक निजी टीवी चैनल आ गए थे, जहां उनके विश्लेषण लगातार प्रसारित होते रहे।
एनडीटीवी के शुरू होने पर उन्होंने ‘जायका इंडिया का’ की मेजबानी की। उन्होंने देश भर के शहरों में घूम-घूम कई व्यंजनों का स्वाद चखा और इनकी खूबियों को हमें भी बताया। एनडीटीवी ने इन्हें प्रसारित किया और यू-ट्यूब पर भी ये मौजूद हैं।
इस समय लगातार ताजा मुद्दों पर उनके विचार सुनने को मिलते थे। लोग बेसब्री से देखा करते थे। वे एचडब्ल्यू न्यूज नेटवर्क के सलाहकार संपादक थे। वे अक्सर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की आलोचना करते थे। लेकिन यह नहीं कह सकते वह कांग्रेस के पक्षधर थे। उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व पर भी लगातार हमले किए। सभी दलों के नेताओं से उनकी अच्छी दोस्ती रही, पर वे कभी किसी के तरफदार नहीं दिखे।
उन्होंने अक्षय कुमार को बीते साल तब आड़े हाथों लिया जब उनकी बेटी मल्लिका दुआ, जो बॉलीवुड से जुड़ी हैं, उनके खिलाफ अश्लील टिप्पणी की थी। फिल्म निर्देशक निष्ठा जैन ने उनके विरुद्ध आपत्तिजनक टिप्पणी करने और उत्पीडऩ करने का आरोप लगाया था जिसे उन्होंने सिरे से ख़ारिज किया था। एक अध्याय का अंत हुआ...।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यदि भारत को महासंपन्न और महाशक्तिशाली बनाना है तो हमारा सबसे ज्यादा जोर शिक्षा और चिकित्सा पर होना चाहिए, यह निवेदन मैंने अपने कई प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्री से किया है। इन क्षेत्रों में थोड़ी प्रगति तो हुई है लेकिन अभी बहुत काम होना बाकी है। मुझे यह जानकार बड़ी खुशी हुई कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने अपने प्रदेश में एक 'योग आयोगÓ स्थापित करने की घोषणा की है। योग गुरु बाबा रामदेव को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने सारे भारत में योग का डंका बजा दिया है।
उन्हीं के कार्यक्रम में इस योग आयोग की घोषणा हुई है। क्या संयोग है कि यह योग का आयोग है। लेकिन एक बार देश के सभी लोगों को अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि योग का अर्थ सिर्फ शारीरिक व्यायाम नहीं है। सिर्फ आसन और प्राणायाम ही नहीं है। यह तो एकदम शुरुआती चीज़ है। वास्तव में अष्टांग योग ही योग है। योग दर्शन में योग की परिभाषा करते हुए मंत्र कहता है- 'योगश्च चित्तवृत्ति निरोध:। याने योग मूलत: चित्तवृत्ति का नियंत्रण है। यदि आपका काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह पर नियंत्रण है तो आप सच्चे योगी हैं।
भारत और विदेशों में मैं ऐसे कई योगियों को जानता रहा हूं, जो योगासन तो बहुत बढिय़ा सिखाते हैं लेकिन उनकी चित्तवृत्ति पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। वे कंचन-कामिनी के फेर में अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। कभी-कभी जेल की हवा भी खाते हैं। वे जीवेम शरद: शतं का पाठ रोज करते हैं लेकिन सौ वसंत देखने के बहुत पहले ही वे परलोकगमन कर जाते हैं। गीता के इस श्लोक पर ध्यान दीजिए— मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: । याने अपने बंधन और मोक्ष का असली कारण मन ही है। मन पर नियंत्रण हो तो खान-पान और व्यायाम भी सदा सधा हुआ रहेगा?
आप बीमार ही क्यों पड़ेंगे? मैं 90-95 वर्ष के ऐसे लोगों से भी परिचित हूं, जिन्हें मैंने कभी किसी बीमारी से ग्रस्त नहीं पाया। वे कहते हैं कि मन स्वस्थ रहे तो शरीर भी स्वस्थ रहता है और शरीर स्वस्थ रहे तो मन भी बुलंद रहता है। शास्त्रों में कहा भी गया है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनंÓ। याने धर्म का पहला साधन शरीर है। शरीर गया तो सब कुछ गया। शरीर बचा रहे तो खोया हुआ आनंद भी लौटाया जा सकता है। भारत में तन और मन, दोनों की सहित-साधना की प्राचीन परंपरा रही है, इसी कारण भारत विश्व गुरु कहलाता था और विश्व का सबसे धनी देश बना हुआ था।
जो काम मध्यप्रदेश की सरकार शुरु कर रही है, यदि उसे देश के सभी स्कूलों और सरकारी दफ्तरों में अनिवार्य कर दिया जाए तो आप देखेंगे कि भारत को एक ही दशक में विश्व-शक्ति बनने से कोई रोक नहीं सकता। भारत की शिक्षा-प्रणाली सारे विश्व के लिए अनुकरणीय बन जाएगी और चिकित्सा पर खर्च भी काफी घट जाएगा। योग का आयोग सिर्फ मध्यप्रदेश में ही क्यों, सारे देश में क्यों न बने?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ओम थानवी
विनोद दुआ नहीं रहे। चिन्ना भाभी के पास चले गए। जीवन में साथ रहा। अस्पताल में साथ रहा। तो पीछे अकेले क्यों रहें।
उनका परिवार डेरा इस्माइल ख़ान से आया था। मैं उन्हें पंजाबी कहता तो फ़ौरन बात काट कर कहते – हम सरायकी हैं, जनाब। दिल्ली शरणार्थी बस्ती से टीवी पत्रकारिता की बुलंदी छूने का सफ़र अपने आप में एक दास्तान है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई — “जैसी करते थे, करते थे” — के साथ कुछ रंगमंच का तजुर्बा हासिल करते हुए टीवी की दुनिया में चले आए। कीर्ति जैन ने उनकी प्रतिभा को पहचाना, यह बात उन्हें हमेशा याद रही। दूरदर्शन सरकारी था। काला-सफ़ेद था। उन्होंने उसमें पेशेवराना रंग भर दिया। उनके मुँहफट अन्दाज़ ने किसी दिग्गज को नहीं बख़्शा। जनवाणी केंद्रीय मंत्रिमंडल के रिपोर्ट-कार्ड सा बन गया, जिसे प्रधानमंत्री राजीव गांधी तक देखते थे।
कम लोगों को मालूम होगा कि विनोद कभी कार्यक्रम की स्क्रिप्ट नहीं तैयार करते थे। न प्रॉम्प्टर पर पढ़ते थे। बेधड़क, सीधे। दो टूक, बिंदास। कभी-कभी कड़ुए हो जाते। पर अमूमन मस्त अन्दाज़ में रहते। परख के लिए आतंकवाद के दिनों में पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह से बात की। उन्हें कुछ गाकर सुनाने को कहा। ना-ना-ना करते गवा ही आए।
विनोदजी का हिंदी और अंगरेज़ी पर लगभग समान अधिकार था। प्रणय रॉय के साथ चुनाव चर्चा की रंगत ही और थी। बाद में विनोदजी ने अपनी कम्पनी बनाई। उससे परख, अख़बारों की राय जैसे अनेक कार्यक्रम दिए। पर वे कार्यक्रम रहे उनके गिर्द ही।
फिर वे अपने पुराने मित्र के चैनल एनडीटीवी इंडिया से आ जुड़े। चैनल की शान बने। राजनेताओं से उलझना उनकी फ़ितरत में था। चाहे किसी भी पार्टी के हों। चैनल ने बाद में उन्हें ज़ायक़ा इंडिया का जैसा कार्यक्रम दे दिया। उन्हें खाने-पीने का शौक़ था। कार्यक्रम के लिए देश में घूमा किए। चाव से। हम देश के लिए खाते हैं, उनका लोकप्रिय जुमला बना।
पर दिल से वे राजनीति के क़रीब थे। उन्होंने अंततः ज़ायक़ा बदल दिया। आइबीएन-7 का एक कार्यक्रम पकड़ा। मुझे मालूम था कि वहाँ निभेगी नहीं। सहारा समूह में सुबह के अख़बारों वाले कार्यक्रम प्रतिदिन से काफ़ी पैसा मिलता था। किसी बात पर सहाराश्री से खटपट हुई। मेरे सामने — आईआईसी के बगीचे से — लखनऊ फ़ोन किया और गाली से बात की। क़िस्सा ख़त्म।
मगर सिद्धार्थ वरदराजन के साथ वायर में उनकी ख़ूब निभी। जन की बात जबर हिट हुआ। मोदी सरकार पर इतना तीखा नियमित कार्यक्रम दूसरा नहीं था। पर मी-टू में वे एक आरोप मात्र से घिर गए। वायर ने नैतिकता के तक़ाज़े पर उनसे तोड़ ली। जो असरदार सिलसिला चला था, थम गया। बाद में सिद्धार्थ इससे त्रस्त लगे और विनोद भी।
इसके बाद भी विनोद सक्रिय रहे। नए दौर के यूट्यूब चैनल एचडब्ल्यू न्यूज़ पर उनका विनोद दुआ शो चलने लगा। पर पहले अदालती संघर्ष — जिसमें वे जीते — और फिर कोरोना से लड़ाई — उससे भी वे निकल आए। लेकिन कमज़ोरी से घिरते चले गए। चेहरा उदासी में ढल गया। और, जैसा कि कहते हैं, होनी को कुछ और मंज़ूर था।
विनोद दुआ से मेरी दोस्ती कोई तीस साल पहले हुई। वे और मशहूर पियानोवादक ब्रायन साइलस चंडीगढ़ आए थे। मित्रवर अशोक लवासा — पूर्व निर्वाचन आयुक्त — के घर जलसा था। विनोद अशोकजी के सहपाठी रहे हैं। हमें नहीं मालूम था कि विनोद गाते भी हैं। हम खाना खाकर निकलने लगे तो विनोदजी ने बड़ी आत्मीयता से रास्ता रोकते हुए, मगर तंज में, कहा कि हम सीधे दिल्ली से चले आ रहे हैं और आप महफ़िल को इस तरह छोड़कर निकल रहे हैं।
और उस रोज़ की दोस्ती हमारे घरों में दाख़िल हो गई।
दिल्ली में बसने पर चिन्ना भाभी को क़रीब से जाना। उनमें विनोदजी वाली चंचलता और शरारत ज़रा नहीं थी। कम बोलती थीं, पर आत्मीय ऊष्मा और मुस्कुराहट बिखेरने में सदा उदार थीं। दक्षिण से आती थीं, मगर हिंदी गीत यों गातीं मानो इधर की ही हों। दोनों किसी न किसी दोस्ताना महफ़िल में गाने के लिए उकसा दिए जाते थे। तब लगता था दोनों एक-दूसरे के लिए अवतरित हुए हों।
दिल्ली में उनसे कमोबेश रोज़ मिलना होता था। कई दफ़ा तो दो बार; पहले टीवी स्टूडियो में, फिर आइआइसी में। लेकिन घर की बैठकें भी बहुत हुईं। चिन्ना भाभी के दक्षिण के तेवर जब-तब भोजन में हमें तभी देखने को मिले।
ग्यारह साल पहले जब हमारे बेटे मिहिर और ऋचा का जयपुर में विवाह हुआ, दुआ दम्पती घर के सदस्यों की तरह खड़े रहे। इतना ही नहीं, लंगा मंडली के गायन के अंतराल में विनोदजी और चिन्ना भाभी ने गीत गाए। सिर्फ़ राजस्थानी ढोल और करताळ की ताल पर, क्योंकि वही संगत उपलब्ध थी!
उनकी याद में आँखें नम हैं। लाखों की होंगी। डरपोक और ख़ुशामदी मीडिया के ज़माने में वैसी बेख़ौफ़ और प्रतिबद्ध प्रतिभा खोजे न मिलेगी।
बकुल-मल्लिका बहादुर हैं। पिछले लम्बे कष्टदायक दौर को उन्होंने धीरज से झेला है। उनका धैर्य बना रहे। हमारी सम्वेदना उनके साथ है।
मानव अधिकार कार्यकर्ता, वकील, श्रमिक नेता और बुद्धिजीवी सुधा भारद्वाज को बंबई हाईकोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के तहत राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी (एनआईए) की ओर से निर्धारित समय पर चार्टषीट पेष नहीं करने आरोपियों की रिमांड अवधि बढ़ाने का अधिकार नहीं होने से जमानत दे दी है। वह कानूनी जुमले में डिफॉल्ट जमानत कही जाती है अर्थात पुलिसिया जिम्मेदारियों की चूक की वजह से लाभ मिलने वाली जमानत। संहिता की धारा 167 में कड़ा प्रतिबंध है कि पुलिस या अभियोजन निर्धारित अवधि में चालान पेश नहीं करे, तो अभियुक्त या आरोपी को तत्काल जमानत मिल जाएगी। सुधा और उनके साथियों के खिलाफ विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (यूपीए) 1967 में आरोप है। उसमें अभियोजन द्वारा आवेदन देने से चालान की अवधि 180 दिन तक बढ़वाई जा सकती रही है।
सुधा को 14 मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और वकीलों आदि के साथ बदनाम यूएपीए अधिनियम में 2018 से निरोधित कर रखा गया है। आरोप है सब ने 31 दिसंबर 2017 को भीमा कोरेगांव में एल्गार परिषद के आयोजन में भडक़ाऊ भाषण दिए थे। उसके कारण हिंसा फैली। इस कारण एक व्यक्ति की मौत होने के साथ कई व्यक्ति घायल भी हुए। मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने नवंबर 2018 में पुणे की अदालत ने पांच हजार पृष्ठों का चालान पेश किया। इल्जाम लगाया कि सभी आरोपी माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी से गहरे रूप से जुड़े हैं। वे भारत सरकार के खिलाफ युद्ध भडक़ाने जैसी कार्यवाही के अलावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की संभावनाओं के मद्देनजर निरोधित किए गए। महाराष्ट्र में भाजपा सरकार हारने के बाद जनवरी 2020 में केन्द्र ने मामला एनआईए के सुपुर्द कर दिया।
सुधा 2018 से पहले घर में, फिर जेल में गिरफ्तारी में हैं। जजों एस एस शिंदे और एन. जे. जामदार ने सुधा को डिफॉल्ट जमानत देते एनआईए अदालत के सामने 8 दिसंबर को पेश किए जाने का आदेश दिया है। जमानत आवेदन पत्र में उल्लेख है कि जज के. डी. वडाने ने पूना पुलिस को सुधा भारद्वाज की गिरफ्तारी अवधि बढ़ाने का आदेश दिया था। जज को आदेश देने की वैधानिक अधिकारिता नहीं थी। जज ने खुद को विशेष जज बताया जबकि यूएपीए के तहत ‘स्पेशल जज’ होने की उनकी नियुक्ति नहीं थी।
जमानत आदेश से असहमत होते एनआईए में सुप्रीम कोर्ट में सुधा की जमानत खारिज करने दस्तक दी है। लगता नहीं कि एनआईए के पक्ष में मामले में गंभीर कानूनी मुद्दे उपलब्ध होंगे। हाईकोर्ट ने आदेश देने में जरूरी सावधानी बल्कि देरी की भी की है। आदेश में सुप्रीम कोर्ट के दो हालिया मामलों का हवाला भी दिया है जिनमें डिफॉल्ट जमानत देने के न्यायालीय प्रतिमान स्थिर हो चुके हैं। 2 अक्टूबर 2020 को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच की ओर से जस्टिस रोहिंग्टन नरीमन ने फैसला देते विक्रमजीत सिंह नामक आरोपी को षस्त्र अधिनियम के मामले में भी जमानत दे दी।
फिर तीन सदस्यों की दूसरी बेंच ने एम. रवीन्द्रन बनाम डायरेक्टर रेवेन्यू इंटेलिजेन्स ने महत्वपूर्ण फैसले में लिखा कि अदालत की परिभाषा में यूएपीए के तहत अपराधों का विचारण करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन क्षेत्राधिकार रखने वाला न्यायालय ही होगा। वह एनआईए अधिनियम 2008 की धारा 11 के तहत अथवा उसी अधिनियम की धारा 21 के तहत गठित विशेष न्यायालय होगा। पुणे के जज ने खुद को स्पेशल जज कहते, समझते एनआईए को चार्जशीट पेष करने के लिए अधिनियम के तहत 180 दिन की बढ़ी हुई मोहलत कैसे दे दी? मामला पूरी तौर पर अधिनियमित क्षेत्राधिकार का है। इसमें कोई ढिलाई या एनआईए को रियायत नहीं दी जा सकती।
सुधा भारद्वाज 1961 में अमेरिका में पैदा हुईं। करीब दस वर्ष बाद माता पिता के साथ भारत आईं। उसके बाद उन्होंने अमेरिकी नागरिकता छोड़ दी। सुधा की ओर से आवेदन में कहा गया कि अनधिकृत जज के. डी. वडाने ने 26 नवंबर 2018 को चार्जशीट पेश करने के लिए 180 दिन की मोहलत दी तथा दूसरा आदेश 21 दिसंबर 2019 को चार्जशीट पेश होने पर आरोपियों को नोटिस जारी किया। हाईकोर्ट ने सूचना के अधिकार के तहत बताया कि जज वडाने अतिरिक्त जज थे। यूएपीए के तहत विशेष जज नहीं थे। कई मुद्दे और हो सकते हैं लेकिन सुधा की जमानत की गुणवत्ता पर असर पडऩे की सम्भावना नहीं थी। सुधा को मिली जमानत दंड प्रक्रिया संहिता के भाग 33 के तहत मिली पक्की जमानत है। प्रकरण के चलते तक तकनीकी आधार पर उसे खारिज या वापिस नहीं किया जा सकता, जब तक ऐसे आरोप लगाए जाएं कि गवाहों को तोडऩे या भडक़ाने की कोशिशें की गई हैं या आरोपी द्वारा मामले की सुनवाई छोडक़र कहीं भाग जाने की पुख्ता जानकारी है।
सुुधा के मामले में हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध एनआईए ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक तो दी है। सुप्रीम कोर्ट में कई फैसलों के बाद न्याय सिद्धांत निर्धारित किए हैं। उनको देखते ऐसा नहीं लगता इस संबंध में एनआईए द्वारा बहुत पुख्ता आधारों पर दस्तक दी गई होगी। एनआईए द्वारा अनधिकृत जज से चार्जषीट पेष करने के लिए 180 दिन का समय लेकर पहले ही लगभग तीन साल बीत चुके है। उस अवधि में सुधा को अवैध और अकारण जेल में रहना पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने सभी फैसलों में सबसे ज्यादा नागरिक आजादी के मूल सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 21 पर भरोसा करते कहा है कि किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक आजादी से वंचित नहीं किया जा सकता जब तक कि उसके खिलाफ कोई ठोस कानूनी आधार या प्रावधान हो। यह प्रकरण में तो प्रथम दृष्टि में सिरे से गायब दिखाई दिया है।
-रमेश अनुपम
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव इन्हीं सब बातों की चर्चा करने के लिए पहले भोपाल गए और मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू से मिले। वहां से दिल्ली जाकर देश के गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत से मिले। महाराजा ने सोचा था कि भोपाल और दिल्ली में बैठे हुए नए हुक्मरान बस्तर के आदिवासियों के दुख दर्द को समझेंगे और इसका कोई हल निकालेंगे।
लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा ही। महाराजा को कहीं से भी न्याय नहीं मिला। उल्टे दिल्ली से बस्तर वापसी के समय उन्हें धनपूंजी नामक गांव में गिरफ्तार कर लिया गया।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी एक तरह से शासन-प्रशासन की बहुत बड़ी भूल थी। जिसका आसानी से कोई हल निकाला जा सकता था, उसे जानबूझ कर इतना उलझा दिया गया।
बस्तर के आदिवासियों की संवेदना महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के साथ जुड़ी हुई थी, वे उन्हें अपने रक्षक के रूप में देखते थे और शासन-प्रशासन को अपने शत्रु के रूप में।
महाराजा की इस तरह की बेतुकी गिरफ्तारी के चलते बस्तर के आदिवासियों का शासन-प्रशासन के प्रति आक्रोशित होना स्वाभाविक ही था।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी के विरोध में बस्तर में भीतर ही भीतर चिंगारी सुलगने लगी थीं, जो लोहांडीगुड़ा में एक दिन ज्वालामुखी के रूप में आखिर फूट ही पड़ी।
आज भी बस्तर के स्वर्णिम इतिहास में लोहांडीगुड़ा गोली कांड एक कलंकित और काले अध्याय की तरह याद किया जाता है।
शासन द्वारा 11 फरवरी सन 1961 को महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को गिरफ्तार कर उनके अनुज विजय चंद्र भंजदेव को बस्तर रियासत का महाराजा घोषित किया गया। इसके ठीक 40 दिनों बाद ही 24 और 25 मार्च सन 1961 को लोहांडीगुड़ा और आस-पास के गावों में आदिवासियों के भीतर का आक्रोश फूट पड़ा।
पहली बार 24 मार्च को प्रत्येक शुक्रवार के दिन लगने वाले हाट में आदिवासियों ने बाजार टैक्स अदा करने से मना कर दिया तथा साथ ही गैर आदिवासी व्यापारियों के बाजार में दुकान लगाने का विरोध किया।
उस दिन सभी आदिवासियों के हाथों में लाठी और कुल्हाड़ी थी। शासन द्वारा महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी ने हमेशा शांत रहने वाले भोले-भाले आदिवासियों के हृदय में ज्वाला प्रज्वलित कर दी थी।
उस दिन उन्होंने हाट में मौके पर उपस्थित तहसीलदार पर हमला करने की कोशिश भी की पर तहसीलदार किसी तरह अपने प्राण बचाकर भागने में सफल हो गए।
देवड़ा और करंजी में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में भी आदिवासियों ने इसी तरह का विरोध किया।
इस तरह की घटनाओं को देखते हुए स्थानीय प्रशासन ने जगदलपुर से हथियारबंद जवानों को वहां भेजा। अनेक आदिवासी नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार किया।
लोहांडीगुड़ा, तोकापाल, सिरसागुडा सभी जगह महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को तत्काल रिहा किए जाने की मांग जोर पकड़ती चली गई।
साप्ताहिक हाट बाजारों में बाजार टैक्स वसूली तथा गैर आदिवासी व्यापारियों के बाजार में दुकान लगाने के खिलाफ नाराजगी बढ़ती चली गई। इसी के साथ महाराजा को रिहा करने की मांग भी जोर पकड़ती चली गई।
सोमवार को तोकापाल में लगने वाले हाट बाजार में पुलिस को भीड़ को तितर-बितर करने के लिए टियर गैस का सहारा लेना पड़ा। उस दिन आदिवासियों ने पुलिस बल पर पत्थर फेंके जिससे कुछ पुलिस वाले बुरी तरह से घायल हो गए।
घटना स्थल पर उपस्थित पुलिस सुपरिटेंडेट आर.पी. मिश्रा पर भी आदिवासियों ने पत्थर फेंके, पर वे किसी तरह बच निकले। पुलिस ने इससे क्षुब्ध होकर कुछ आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया।
आदिवासियों की भीड़ ने अपने नेताओं को छुड़ाने के लिए पुलिस वैन को घेर लिया।
यह सब 31 मार्च के लोहांडीगुड़ा गोली कांड की पूर्वपीठिका ही थी, जिसे या तो शासन-प्रशासन समझ पाने में असमर्थ था या फिर जानबूझकर इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत ही नहीं समझी गई।
31 मार्च सन 1961, दिन शुक्रवार, हमेशा की तरह लोहांडीगुड़ा का हाट बाजार का दिन। हमेशा की तरह आस-पास के आदिवासी सौदा सुलुफ करने लोहांडीगुड़ा पहुंचने लगे थे। पर आज नजारा आम दिनों में लगने वाले हाट बाजार से कुछ अलग सा था।
आज भीड़ कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। आदिवासियों के चेहरे भी आज कुछ अलग दिखाई दे रहे थे। आज उनकी आंखों में जैसे चिंगारियां फूट रही थी।
देखते ही देखते 10 हजार आदिवासी लोहांडीगुड़ा बाजार में इक_े हो गए। सभी माडिय़ा आदिवासी महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के अनन्य भक्त। ज्यादातर आदिवासी अपने-अपने हाथों में धनुष, टंगिया लिए हुए।
आज का दिन जैसे उनके लिए कयामत का दिन था। अपने देवता तुल्य महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के लिए कुछ करने और शासन-प्रशासन से दो-दो हाथ करने का दिन।
लोहांडीगुड़ा की हवा में उस दिन कुछ अलग ही गंध थी और फिजा में कुछ अलग ही रंगत।
31 मार्च सन 1961 का दिन बस्तर के इतिहास में कोई मामूली दिन नहीं था।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जो काम भारत को करना चाहिए था, वह अब यूरोपीय संघ करेगा। चीन ने 'रेशम महापथ' की अपनी पुरानी चीनी रणनीति को नया नाम देकर एशिया और अफ्रीका में फैला दिया है। भारत के लगभग सभी पड़ौसी राष्ट्रों को उसने अपने बंधन में बांध लिया है। लगभग सभी उसके कर्जदार बन गए हैं। उसने एशिया और अफ्रीका के देशों को एक विशाल सड़क से जोडऩे की योजना तो बनाई ही है, वह इन देशों में बंदरगाह, रेलवे, नहर, बिजलीघर, गैस और तेल की पाइपलान वगैरह कई चीजें बनाने का लालच उन्हें दे रहा है।
इन निर्माण-कार्यों से इन देशों को अरबों-खरबों रु. का टैक्स मिलने के सपने भी दिखा रहा है। उसने लगभग 65 देशों से भी ज्यादा को अपने चंगुल में फंसा लिया है। अब तो 139 देशों ने इस चीनी पहल से सहमति जताई है। इन देशों की कुल जीडीपी वैश्विक जीडीपी की 40 प्रतिशत है। अभी तक चीन ने एशिया और अफ्रीका के जिन देशों को मोटे-मोटे कर्ज दिए हैं, यदि उनके मूल दस्तावेज आप पढ़ें तो उनकी शर्तें जानकर आप भौंचक रह जाएंगे। यदि निश्चित समय में वे राष्ट्र चीनी कर्ज नहीं चुका पाएंगे तो उन निर्माण-कार्यों पर चीन का अधिकार हो जाएगा।
चीन उनका संचालन करेगा और अपनी राशि ब्याज समेत वसूल करेगा या किंही दूसरे स्थलों को अपने नियंत्रण में ले लेगा। एक अर्थ में यह नव-उपनिवेशवाद है। इसका मुकाबला भारत को कम से कम दक्षिण और मध्य एशिया में तो करना ही था। उसे नव-उपनिवेशवाद नहीं, इस क्षेत्र में वृहत परिवारवाद का परिचय देना था लेकिन अब यह काम यूरोपीय संघ करेगा। उसने घोषणा की है कि वह चीन के रेशम महापथ की टक्कर में 'विश्व महापथÓ प्रारंभ करेगा। वह 340 अरब डॉलर लगाएगा और अफ्रो-एशियाई देशों को समग्र विकास के लिए अनुदान देगा।
चीन की तरह वह ब्याजखोरी नहीं करेगा। उसकी कोशिश होगी कि वह इन विकासमान राष्ट्रों को प्रदूषण-नियंत्रण, शिक्षा, स्वास्थ्य, रेल, हवाई अड्डे, सड़क-नहर निर्माण तथा अन्य कई क्षेत्रों में न सिर्फ आर्थिक मदद देगा बल्कि हर तरह का सहयोग करेगा ताकि इन देशों के साथ उसका व्यापार भी बढ़े और इन देशों के लोगों को नए-नए रोजगार भी मिलें। चीन भी इन देशों में रोजगार बढ़ाता है लेकिन वह सिर्फ चीनी मजदूरों का ही बढ़ाता है। यूरोपीय संघ उत्तर-अफ्रीकी देशों को आपस में जोडऩेवाला एक भूमध्यसागरीय महापथ भी बनानेवाला है।
यूरोपीय संघ की यह उदारता सर्वथा सराहनीय है लेकिन हम यह न भूलें कि यूरोप की समृद्धि का रहस्य उसके पिछले 200 साल के उपनिवेशवाद में भी छिपा है। यूरोप हो, अमेरिका हो या रूस हो, इनमें से प्रत्येक राष्ट्र की मदद के पीछे उसका राष्ट्रहित भी निहित होता ही है, लेकिन वह चीन की तरह अपने चंगुल में फंसाने के लिए नहीं होती। मुझे प्रसन्नता तब होगी जबकि दक्षिण और मध्यएशिया के लगभग 16 देशों में यूरोप की तरह एक साझा बाजार, साझी संसद और साझा महासंघ बन जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक पांडे
हम चटोरों के देश का असली बादशाह था यह सींकिया बूढ़ा। सुनहरी मूठ वाली नफीस छड़ी और राजस्थानी साफे को उसने अपने कॉस्टयूम का जरूरी हिस्सा बना लिया था। वह इंटरव्यू लेने आने वालों को बार-बार बताता था कि वह पांचवीं फेल है। उसके काम ऐसे थे कि सरकार ने उसे पद्मभूषण से नवाजा। जब लोग उसके मरने की अफवाह उड़ाया करते वह अपनी कंपनी से 21 करोड़ की तनख्वाह ले रहा होता था।
वह अपने प्रोडक्ट्स के विज्ञापनों में खुद एक्टिंग करता था और भारतीय संस्कारों को बेचता था। इन विज्ञापनों में उसके सामने पडऩे पर जींसधारी बहू-बेटियां सर पर दुपट्टा डाल लेतीं और उसके पैर छुआ करतीं। बहुत कम टीवी देखने वाले मेरे पिताजी की बांछें उसे टीवी पर देखते ही खिल जाया करतीं और वे खुश होकर बुदबुदाते- ‘बड़ा जबरदस्त बुढ्ढा है यार!’
27 मार्च 1923 को चानन देवी और महाशय चुन्नीलाल के जिस आर्यसमाजी घर में महाशय धर्मपाल गुलाटी पैदा हुए वह बेहद धार्मिक था। गुलाटी परिवार मनुष्यता की सेवा करने को अपना मूलधर्म मानता था। यह आदर्शवादी परिवार मानता था कि अगर आदमी अपना सर्वश्रेष्ट समाज को देता है तो सर्वश्रेष्ठ अपने आप उस तक वापस लौटता है।
पांचवीं जमात के बाद स्कूल छूट गया और महाशय धर्मपाल गुलाटी ने फेरी लगाकर आईने बेचने का काम शुरू किया। उसमें फायदा नहीं हुआ तो घर-घर जाकर एक स्थानीय फैक्ट्री में बनने वाला साबुन बेचना शुरू किया। उसमें मन न लगा तो बढ़ईगिरी शुरू कर दी। बहुत छोटी उम्र में ही उनके भीतर आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाने का जज़्बा था। बढ़ईगिरी रास न आई तो चावल की तिजारत की। कपड़े और गुसलखानों की फिटिंग्स बेचने का धंधा भी किया। उनके खानदान को सियालकोट में देगी मिर्च वाले कहा जाता था और उनके पिता ने महाशियाँ दी हट्टी के नाम से छोटी-मोटी मसालों की दुकान खोल रखी थी। किशोर धर्मपाल ने अंतत: पिता के धंधे में साथ देने का फैसला किया। इस समय तक घाट-घाट का पानी पी चुकने के बाद उन्हें व्यापार और ग्राहक की जबरदस्त पहचान हो चुकी थी।
फिर 1947 आया। विभाजन हुआ और परिवार दिल्ली आ पहुंचा। धर्मपाल गुलाटी के पास कुल डेढ़ हज़ार रुपये थे। मन में तो मसालों का व्यापार करने की इच्छा थी लेकिन नई जगह में अजनबी को कौन पूछता। साढ़े छ: सौ रूपये में तांगा खरीदा और दो आना फी सवारी की दर से दिल्ली रेलवे स्टेशन से करोल बाग और बाड़ा हिंदूराव के बीच सवारियां ढोने लगे। थोड़ी रकम बची तो किसी नए बने परिचित की सिफारिश पर करोल बाग की अजमल खान रोड पर चौदह बाई नौ का एक खोखा मिल गया। मंडी से थोक में साबुत मसाले खरीदे गए और परिवार के सारे सदस्यों को उन्हें कूटने-बाँधने में लगाया गया। इस काम को करने में उन्हें खानदानी महारत हासिल थी। पर्याप्त माल बन गया तो दुकान पर सियालकोट के देगी मिर्च वालों की महाशियाँ दी हट्टी का बोर्ड टांग दिया गया।
महाशियाँ दी हट्टी से एमडीएच बनने की कहानी लंबी है लेकिन उसके भीतर वही तत्व हैं जो सफलता की हर कहानी में पाए जाते हैं- मेहनत, विश्वास, परोपकार और इंसानियत। पिछले साल इस कंपनी ने दो हजार करोड़ से ऊपर की आमदनी हासिल की।
महाशय धर्मपाल गुलाटी ने गरीबों के लिए अस्पताल बनाए, बीस से अधिक स्कूल खोले और अनगिनत बेसहारा लड़कियों की शादियाँ कराईं।
आज इस जबरदस्त बूढ़े की पहली बरसी है। साल भर से वह देवताओं की रसोई में स्वाद पैदा कर रहा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में शिक्षा और चिकित्सा की जितनी दुर्दशा है, उतनी तो कुछ पड़ौसी देशों में भी नहीं है। ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें यदि भारत सरकार जमकर पैसा लगाए और ध्यान दे तो भारत दुनिया के विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में अगले 10 साल में ही पहुंच सकता है। भारत में शिक्षा और चिकित्सा की परंपराएं दुनिया की सबसे प्राचीन हैं और समृद्ध हैं। इन दोनों क्षेत्रों में भारत का दबदबा इतना मशहूर था कि चीन और जापान से लेकर अरब राष्ट्रों और यूरोप से भी छात्र भारत आते थे और सदियों तक आते रहे हैं लेकिन बाहरी आक्रमणकारियों ने अपनी अहंकारवृत्ति के चलते भारत की पारंपरिक शिक्षा और चिकित्सा प्रणालियों को हतोत्साहित किया।
उसके कारण शोधकार्य बंद हो गया और भारत पश्चिम का नकलची बन गया। अब भी जो देश संपन्न और शक्तिशाली हैं, यदि हम उनके इतिहास को देखें तो पाएंगे कि उनकी समृद्धि और शक्ति का रहस्य भारत-जैसे प्रगत राष्ट्रों के शोषण में तो छिपा ही है, उससे भी ज्यादा इसमें है कि उन्होंने सबसे ज्यादा जोर शिक्षा और चिकित्सा पर लगाया है। द्वितीय महायुद्ध के पहले तक अमेरिका अपने बच्चों को उच्च शिक्षा और शोध तथा अपने मरीजों को चिकित्सा के लिए ब्रिटेन और यूरोप भेजा करता था लेकिन ज्यों ही उसने इन दोनों क्षेत्रों में पैसा लगाना और ध्यान देना शुरु किया, वह विश्व की सर्वोच्च महाशक्ति बन गया।
आज भी जो राष्ट्र इन दोनों मदों में ज्यादा खर्च करते हैं, उनकी जनता का जीवन-स्तर हमसे कहीं बेहतर है। भारत में हम अपने समग्र उत्पाद (जीडीपी) का शिक्षा पर 3 प्रतिशत भी बड़ी मुश्किल से खर्च करते हैं जबकि मोटी आय वाले कई छोटे राष्ट्र हमसे दुगुना खर्च करते हैं। कुछ राष्ट्रों, जैसे केनाडा में विद्यालयीन शिक्षा बिल्कुल मुफ्त है। हमारे यहां सरकारी स्कूलों की हालत तो अनाथालयों जैसी है और जिन्हें अच्छा माना जाता है, ऐसे अंग्रेजी माध्यम के स्कूल तो बेहिसाब ठगी के अड्डे बने हुए हैं।
हमारी स्कूली शिक्षा आज भी हमारे बच्चों को बाबूगीरी के अलावा क्या सिखाती है? उन्हें मौलिक चिंतन, इतिहास बोध, कार्यक्षमता और जीवनकला में निपुण बनाने की बजाय वह डिग्रीधारी बनाने में अधिक रूचि लेती है। यही हाल हमारी चिकित्सा-व्यवस्था का भी है। स्वास्थ्य-रक्षा पर हमारी सरकारें एक डेढ़ प्रतिशत खर्च करके संतुष्ट हो जाती हैं। करोड़ों लोगों को स्वस्थ जीवन-पद्धति सिखाने का कोई अभियान उनके पास नहीं होता।
बच्चों की शिक्षा में आसन-प्राणायाम और स्वास्थ्य संबंध जानकारियों की अनिवार्यता कहीं नहीं है। एलोपेथी का लाभ उठाने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हमारे आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपेथी और हकीमी में शोध और उपचार को प्रोत्साहित किया जाए तो कुछ ही वर्षों में भारतीय लोगों की कार्यक्षमता और दीर्घायु में विलक्षण वृद्धि हो सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ओशो
जीवन में पहली बार मैं हैरान रह गया। क्योंकि मैं तो एक राजनीतिज्ञ से मिलने गया था। और जिसे मैं मिला वह राजनीतिज्ञ नहीं वरन कवि था। जवाहर लाल राजनीतिज्ञ नहीं थे। अफसोस है कि वह अपने सपनों को साकार नहीं कर सके। किंतु चाहे कोई खेद प्रकट करे, चाहे कोई वाह-वाह कहे, कवि सदा असफल ही रहता है। यहां तक कि अपनी कविता में भी वह असफल होता है। असफल होना ही उसकी नियति है। क्यों कि वह तारों को पाने की इच्छा करता है। वह क्षुद्र चीजों से संतुष्ट नहीं हो सकता। वह समूचे आकाश को अपने हाथों में लेना चाहता है।
ज्एक क्षण के लिए हमने एक दूसरे की आंखों में देखा। आँख से आँख मिली और हम दोनों हंस पड़े। और उनकी हंसी किसी बूढ़े आदमी की हंसी नहीं थी। वह एक बच्चे की हंसी थी। वे अत्यंत सुंदर थे, और मैं जो कह रहा हूं वही इसका तात्पर्य है। मैंने हजारों सुंदर लोगों को देखा है किंतु बिना किसी झिझक के मैं यह कह सकता हूं कि वह उनमें से सबसे अधिक सुंदर थे। केवल शरीर ही सुंदर नहीं था उनका।
अभी भी मैं विश्वास नहीं कर सकता कि एक प्रधानमंत्री उस तरह से बातचीत कर सकते है। वे सिर्फ ध्यान से सुन रहे थे और बीच-बीच में प्रश्न पूछकर उस चर्चा को और आगे बढ़ा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे चर्चा को सदा के लिए जारी रखना चाहते थे। कई बार प्रधानमंत्री के सेक्रेटरी ने दरवाजा खोल कर अंदर झाँका। परंतु जवाहरलाल समझदार व्यक्ति थे। उन्होंने जानबूझकर दरवाजे की ओर पीठ की हुई थी। सेक्रेटरी को केवल उनकी पीठ ही दिखाई पड़ती थी। परंतु उस समय जवाहरलाल को किसी की भी परवाह नहीं थी। उस समय तो वे केवल विपश्यना ध्यान के बारे में जानना चाहते थे।
जवाहरलाल तो इतने हंसे कि उनकी आंखों में आंसू आ गए। सच्चे कवि का यही गुण है। साधारण कवि ऐसा नहीं होता। साधारण कवियों को तो आसानी से खरीदा जा सकता है। शायद पश्चिम में इनकी कीमत अधिक हो अन्यथा एक डॉलर में एक दर्जन मिल जाते है। जवाहरलाल इस प्रकार के कवि नहीं थे—एक डॉलर में एक दर्जन, वे तो सच में उन दुर्लभ आत्माओं में से एक थे जिनको बुद्ध ने बोधिसत्व कहा है। मैं उन्हें बोधिसत्व कहूंगा।
मुझे आश्चर्य था और आज भी है कि वे प्रधानमंत्री कैसे बन गए। भारत का यह प्रथम प्रधानमंत्री बाद के प्रधानमंत्रियों से बिल्कुल ही अलग था। वे लोगों की भीड़ द्वारा निर्वाचित नहीं किए गए थे, वे निर्वाचित उम्मीदवार नहीं थे—उन्हें महात्मा गांधी ने चुना था। वे महात्मा गांधी की पसंद थे।
और इस प्रकार एक कवि प्रधानमंत्री बन गया। नहीं तो एक कवि का प्रधानमंत्री बनना असंभव है। परंतु एक प्रधानमंत्री का कवि बनना भी संभव है जब वह पागल हो जाए। किंतु यह वही बात नहीं है। तो मैंने सोचा था कि जवाहरलाल तो केवल राजनीति के बारे में ही बात करेंगे, किंतु वे तो चर्चा कर रहे थे काव्य की और काव्यात्मक अनुभूति की।
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
एक रोचक घटना है, ‘गाइड’ के लिए शैलेन्द्र लिखित गीत ‘मोसे छल किए जाए, सैंया बेईमान...’ का संगीत तैयार किया जा रहा था। प्रैक्टिस के दौरान सचिन दा के नियमित तबलावादक मारुतीराव कीर उस समय उपस्थित नहीं थे इसलिए संतूरवादक पंडित शिवकुमार शर्मा ने तबला सम्हाल लिया। दादा ने शिवकुमार का तबलावादन सुनकर आदेश दिया, ‘इस गाने की रिकॉर्डिंग में तबला तुम बजाओगे।’
शिवकुमार शर्मा ने कहा, ‘दादा, मैं अब तबला नहीं बजाता, केवल संतूर बजाता हूँ।’
‘वो ठीक है पर इस गाने में तबला तुम ही बजाएगा।’ दादा ने अंतिम फैसला सुनाया।
‘मोसे छल किए जाए, सैंया बेईमान...’ को आपने कई बार सुना होगा। लताजी की शिकायत भरी मीठी आवाज का असर ऐसा है कि इस गीत के संगीत पर ध्यान ही नहीं जाता। एक बार आप इस गीत को फिर से सुनिए और तबले की थाप पर अपना ध्यान केन्द्रित करिएगा, ताल के कितने रंग है, इस गीत में! तबले की थाप को सुनो तो ऐसा लगता है जैसे आकाश में कोई पतंग लहरा रही हो, बल खा रही हो और गर्वोन्मत्त होकर आसमान को भेद रही हो। यह संतूरवादक पंडित शिवकुमार शर्मा का तबलावादन था।
सात ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ हासिल करने वाली इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार न मिलना आश्चर्यजनक है जबकि बॉलीवुड की सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व संगीत की सूची में ‘गाइड’ का ग्यारहवें स्थान पर प्रतिष्ठित है।
‘गाइड’ जैसी फिल्म का निर्माण हिंदी सिनेमा के लिए अभूतपूर्व प्रयास था। इस फिल्म की खासियत यह है कि यह हर दृष्टि से उत्कृष्ट कृति है और दर्शकों में अत्यंत लोकप्रिय भी हुई।
सिनेमा तो कल्पना को वास्तविकता में परावर्तित करने का कलात्मक विधा ह। ‘गाइड’ का हर फ्रेम दर्शक को इस तरह बांधता है जैसे दर्शक स्वयं कहानी का हिस्सा हो। इसे ही तो नाट्यशास्त्र के प्रवर्तक भरत मुनि कहते हैं, ‘दर्शक का कथा से तादात्मीकरण।’
(शीघ्र प्रकाश्य फिल्म वृत्तांत ‘सिनेमची’ का एक अंश है यह)
-अशोक पांडे
जिस तेजी से संसार की सत्ता पर मूर्खों और पागलों का अधिकार होता जा रहा है, यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम एक दूसरे को ऐसी कथाएँ सुनाएं जो बताती हों हम कौन हैं, हम क्यों हैं, हम कहाँ से आए हैं और कौन-कौन सी चीजें कर सकना हमारे लिए अब भी संभव हैं। यह भी बताया जाए कौन सी चीजें असंभव हो चुकी हैं और यह भी कि फैंटेसी कोई नकली, अमूर्त चीज नहीं होती।
यह कहानी 1913 में शुरू होती है। बीस साल का एक उत्साही युवक आल्प्स के पहाड़ी इलाके में यात्रा करने निकलता है। एक दिन वह खुद को बंजर हो चुकी एक उदास घाटी के एक परित्यक्त गाँव में पाता है। चटियल नंगी जमीन पर दूर-दूर तक कहीं एक पेड़ तक नहीं दिखाई देता। उसे कहीं पीने का पानी भी नहीं मिलता। पानी की तलाश में काफी देर तक भटकने के बाद इस थके-हारे युवक को एक चरवाहा मिलता है। पचास-पचपन साल का यह चरवाहा उसे पानी पिलाता है और रात बिताने के लिए अपनी झोपड़ी में ले जाता है।
अगली सुबह जब चरवाहा अपनी भेड़ों को लेकर घाटी में जाता है तो युवक भी उसके साथ हो लेता है। युवक देखता है कि चरवाहा अपने साथ लाई लोहे की एक छड़ की मदद से जमीन में सूराख बनाता जाता है और उनके भीतर बांज के बीज रोपता जाता है। उस दिन वह सौ बीज रोपता है।
बातचीत में पता लगता है चरवाहे की बीवी और इकलौते बेटे की मौत हो चुकी है और वह तीन सालों से उस घाटी में अकेला रह रहा है। उस समय तक वह एक लाख बीज रोप चुका था जिनमें से बीस हजार में कोंपलें फूट चुकी थीं। उसे उम्मीद थी उनमें से आधे बच जाएंगे।
अगले दिन युवक वापस चला जाता है। कुछ दिनों बाद पहला विश्वयुद्ध शुरू होता है और युवक को अगले पांच साल उसमें सिपाही की तरह हिस्सा लेना पड़ता है। पांच साल की अमानवीय हिंसा और विभीषिका झेलने के बाद जीवन से त्रस्त हो चुके युवक को उसी चरवाहे की याद आती है और वह उसी बंजर घाटी की यात्रा पर निकल पड़ता है।
उसे यकीन होता है कि चरवाहा तब तक मर चुका होगा क्योंकि बीस साल की आयु में आप पचास साल के आदमी को ऐसा बूढ़ा समझते हैं जिसके पास मरने के अलावा कोई और काम नहीं बचा होता। लेकिन चरवाहा न सिर्फ जि़ंदा है उसका स्वास्थ्य पहले से भी बेहतर हो गया है। उसने भेड़ें पालना छोड़ मधुमक्खियाँ पालना शुरू कर दिया है क्योंकि भेड़ें उसके लगाए बीजों से उगने वाले पौधों-कोंपलों को चर जाती थीं। युवक देखता है कि घाटी में जहाँ तक निगाह जाती है चरवाहे के लगाए पौधे फैल गए हैं और उसके उसके कन्धों जितने ऊंचे हो गए हैं।
युवक को अचरज होता है गाँव में पानी की वह धारा भी पुनर्जीवित हो चुकी है जिसके बहने की स्मृति तक किसी को नहीं थी।
युवक को समझ में आता है कि चरवाहे ने निचाट अकेलेपन में उस काम को अंजाम दिया है और एक ऐसी बंजर जगह को स्वर्ग में बदल दिया है जिसके उद्धार की कोई सूरत नजर नहीं आती थी। वह उस सुबह को याद करता है जब उसने चरवाहे को जमीन में बीज रोपता हुआ देखा था। युवक को अहसास होता है कि पूरा नया जंगल एक अकेले आदमी के दो हाथों और उसकी आत्मा के कारण अस्तित्व में आया है। कहानी सुना रहा युवक आपको बताता है कि दुनिया में खुद को ईश्वर समझकर उसके भीतर विनाश करता आ रहा आदमी चाहे तो ईश्वर की ही तरह निर्माण भी कर सकता है।
बाद के सालों में जब उस इलाके में हजारों लोग आकर बस चुके होते हैं चरवाहे के बारे में कोई नहीं जानता। उसकी कहानी के बारे में किसी को भी मालूम नहीं होता।
एल्जार बूफिये की इस कहानी को मशहूर फ्रांसीसी लेखक ज्यां जिओनो ने अपनी छोटी सी किताब ‘द मैन हू प्लांटेड ट्रीज’ में सुनाया है। बीसवीं सदी के यूरोपीय साहित्य के स्तंभों में गिने जाने वाले ज्यां जिओनो की इस किताब को दुनिया की अनेक भाषाओं में अनूदित किया गया और इसकी करोड़ों प्रतियों को मुफ्त बांटा गया।
ज्यां जिओनो मानते थे कि लोगों ने अपने घरों की दीवारों के भीतर इतनी यातना झेल ली है कि वे आजाद रहना भूल गए हैं। आदमी को अपार्टमेंटों, सबवे ट्रेनों और ऊंची इमारतों में रहने के लिए नहीं बनाया गया था क्योंकि घास और पानी उसके पैरों की स्मृति के बड़े हिस्से पर आज भी काबिज हैं।
‘द मैन हू प्लांटेड ट्रीज’ का कथावाचक युवक खुद ज्यां जिओनो थे और किताब के छपने के कई बरसों तक लोग समझते थे कि एल्जार बूफिये की कहानी सच्ची थी।
जिओनो मानते थे कि जीने के अधिकार के बदले में आदमी का फर्ज बनता है कि उम्मीद को अपनी वृत्ति बनाए, उम्मीद को अपना पेशा बनाए।
‘द मैन हू प्लांटेड ट्रीज’ एक ऐसा रूपक है जो बताता है कि अगर देखने को मिली आँखों और सुनने को मिले कानों का सही इस्तेमाल करना आ जाय तो यह धरती हमारे भीतर के कलाकार, कवि, इंसान, किस्सागो और किसान-सभी को जगा सकती है।
एल्ज़ार बूफिये की कहानी निर्माण और उम्मीद की कहानी है। यह हम सब की कहानी भी हो सकती है। अगर कहीं कोई भगवान, कोई सृष्टा, कोई सर्वशक्तिमान था तो उसने इस धरती को हम सब के लिए साझा घर के तौर पर बनाया था जिसके हर दु:ख को बांटते रहने के लिए हमारे कुछ फर्ज तय थे।
उम्मीद हमारा सबसे बड़ा फर्ज था।
-सुसंस्कृति परिहार
भीमा कोरेगांव कांड में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बीच एकमात्र महिला सामाजिक कार्यकर्ता एडवोकेट सुधा भारद्वाज जी को गिरफतार किया गया था पिछले तीन साल बाद उन्हें मुंबई हाईकोर्ट ने जमानत दी है।
कौन हैं सुधाजी और उन्होंने ऐसा क्या किया जिसकी वजह से उन्हें गिरफ़्तार होना पड़ा। सुधाजी का जन्म अमरीका के मैसाच्युसेट्स में हुआ था, उनके माता-पिता के भारत वापस लौटने के बाद उन्होंने भी अपना अमरीकी पासपोर्ट छोड़ दिया वे भारत आ गई और आगे चलकर वो एक प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता बनीं और ट्रेड यूनियन में भी शामिल रहीं। वे खनिजों से समृद्ध छत्तीसगढ़ में हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों के अधिकारों के लिए लड़ती रहीं हैं छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य हैं, जहां देश के कुछ सबसे ग़रीब और शोषित लोग रहते हैं। सुधा देश की एक यूनिवर्सिटी में लॉ पढ़ाती रही हैं। उन्होंने आदिवासी अधिकार और भूमि अधिग्रहण पर एक सेमिनार में हिस्सा लिया था। छत्तीसगढ़ में तीस सालों तक ग़रीबों के लिए काम करने वाली सुधा, न्याय के लिए लड़ रहे कई लोगों की उम्मीद बन गईं। उन्होंने 2015 में एक पत्रकार से कहा था, "मैं जानती हूं कि कई लोग मेरे दुश्मन बन जाएंगे, इसके बावजूद मैं अपना संघर्ष जारी रखूंगी"वे निरंतर उत्पीड़न दूर करने गरीबों, शोषितों के साथ संघर्ष करती रहीं। नक्सलियों के बीच काम करने के कारण उन्हें भी माओवादी समझा गया।
मगर उन पर कहर बरपाया गया पुणे के भीमा कोरेगांव की घटना से। इसलिए उसकी पृष्ठभूमि जाने बिना इस घटना को नहीं समझा जा सकता विदित हो पेशवाओं के नेतृत्व वाले मराठा साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुए युद्ध के लिए जाना जाता है भीमा कोरेगांव। एक जनवरी 2018 को इस युद्ध की 200वीं सालगिरह थी।बात यह हुई कि मराठा सेना यह युद्ध हार गई थी और कहा जाता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी को महार रेजीमेंट के सैनिकों की बहादुरी की वजह से जीत हासिल हुई थी। बाद में भीमराव आंबेडकर यहां हर साल आते रहे। यह जगह पेशवाओं पर महारों यानी दलितों की जीत के एक स्मारक के तौर पर स्थापित हो गई, जहां हर साल उत्सव मनाया जाने लगा।
एक जनवरी 2018 का दिन था।इस गांव में 'शौर्य दिन प्रेरणा अभियान' के बैनर तले कई संगठनों ने मिलकर एक रैली आयोजित की, जिसका नाम यलगार परिषद रखा गया। शनिवार वाड़ा के मैदान पर हुई इस रैली में 'लोकतंत्र, संविधान और देश बचाने' की बात कही गई थी।दिवंगत छात्र रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला ने रैली का उद्घाटन किया, इसमें कई नामी हस्तियां मसलन- प्रकाश आंबेडकर, हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस बीजी कोलसे पाटिल, गुजरात से विधायक जिग्नेश मेवानी, जेएनयू छात्र उमर ख़ालिद, आदिवासी एक्टिविस्ट सोनी सोरी आदि मौजूद रहे।इनके भाषणों के साथ कबीर कला मंच ने सांस्कृतिक कार्यक्रम भी पेश किए. अगले दिन जब भीमा कोरेगांव में उत्सव मनाया जा रहा था, आस-पास के इलाक़ों- मसलन संसावाड़ी में हिंसा भड़क उठी. कुछ देर तक पत्थरबाज़ी कुछ चली, कई वाहनों को नुकसान हुआ और एक नौजवान की जान चली गई।
इस मामले में दक्षिणपंथी संस्था समस्त हिंद अघाड़ी के नेता मिलिंग एकबोटे और शिव प्रतिष्ठान के संस्थापक संभाजी भिड़े के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गई। पुणे की ग्रामीण पुलिस ने ऐलगार परिषद से जुड़ी दो और एफ़आईआर पुणे शहर के विश्रामबाग पुलिस थाने में दर्ज की गईं। पहली एफ़आईआर में जिग्नेश मेवानी और उमर ख़ालिद पर भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाया गया था। दूसरी एफ़आईआर तुषार दमगुडे की शिकायत पर यलगार परिषद से जुड़े लोगों के ख़िलाफ़ दर्ज की गई. इस एफ़आईआर के संबंध में जून में सुधीर धवले समेत पांच एक्टिविस्ट गिरफ़्तार किए गए. इसे बाद 28 अगस्त को पुणे पुलिस ने गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, अरुण फरेरा और वरनॉन गोन्ज़ाल्विस को गिरफ़्तार कर लिया।
पुलिस ने कहा कि दलितों को भ्रमित करना और असंवैधानिक और हिंसक विचारों को फैलाना प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) की नीति है और इसी के तहत सुधीर धवले आदि कई महीनों से पूरे महाराष्ट्र में भड़काऊ भाषण दे रहे थे और अपने नुक्कड़ नाटकों और गीतों आदि में इतिहास को ग़लत रूप में पेश कर रहे थे। पुलिस ने कहा है कि इसी वजह से भीमा कोरेगांव में पत्थरबाज़ी और हिंसा शुरू हुई। यलगार परिषद में बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व जज बीजी कोलसे पाटिल भी शामिल थे. उन्होंने मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि यलगार परिषद को 300 से ज़्यादा संगठनों का समर्थन हासिल था।
याद करें कि भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में आरोपी फादर स्टेन स्वामी की मौत हो गई है। वो लंबे समय से बीमार थे। स्टेन स्वामी की मौत के बाद अन्य आरोपियों को रिहा करने की मांग तेज हो गई। इस केस में एक्टिविस्ट सुधा भारद्वाज व अन्य ने जमानत के लिए याचिका लगाई थी। बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को एल्गार परिषद में एक कथितआरोपी सुधा भारद्वाज डिफॉल्ट जमानत दे दी। अधिवक्ता-कार्यकर्ता भारद्वाज को अदालत ने तकनीकी खामी के आधार पर जमानत दी है लेकिन समान आधार पर दायर की गई आठ अन्य लोगों की जमानत याचिका को खारिज कर दिया।
यह भी ज्ञात हुआ है कि विल्सन के वकील के निवेदन पर लैपटॉप की जो इलेक्ट्रॉनिक कॉपी मिली है इसके बाद फर्म आर्सेनल ने इसका विश्लेषण किया। बुधवार को विल्सन ने बॉम्बे हाईकोर्ट में दायर याचिका में इस रिपोर्ट को शामिल किया और निवेदन किया कि उनके क्लाइंट के खिलाफ मामलों को निरस्त किया जाए। सुदीप पासबोला ने वॉशिंगटन पोस्ट से बातचीत में कहा कि आर्सेनल की रिपोर्ट से साबित होता है कि उनके क्लाइंट निर्दोष हैं।
कुल मिलाकर ये मामला गरीब शोषितों को जीवन जीने का अधिकार सिखाने वालों और उनके हक के लिए संघर्षरत लोगों के खिलाफ है। वे नहीं चाहते कि दलित और गरीब तबका अपने संवैधानिक अधिकारों को जाने। इसलिए उन पर आंदोलन भड़काने की तथाकथित जो कहानियां गढ़ी गई। कम्प्यूटर में जो अनर्गल मेटर प्रविष्ट कराया गया उसकी भी पोल खुल ही गईं है वह दिन दूर नहीं जब हमारे तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सिर्फ़ जमानत ही नहीं मिलेगी बल्कि वे बाइज्जत बेदाग बाहर आयेंगे। जिन्हें तीन साल से अधिक समय से निबद्ध कर रखा गया है। वे संविधान, लोकतंत्र और देश बचाने की बात करते रहे हैं।यह आज बड़ा गुनाह है। धीरे धीरे अंधेरा छट रहा है। नई सुबह आने को है। सुधाजी और तमाम साथियों को क्रांतिकारी सलाम।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सरकार ने कृषि-कानून हड़बड़ी में वापस ले लिया और राज्यसभा के 12 सदस्यों को वर्तमान सत्र के लिए मुअत्तिल भी कर दिया। इन दोनों मुद्दों को लेकर विपक्षी दल यदि संसद के वर्तमान सत्र का पूर्ण बहिष्कार कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा, हालांकि कुछ विपक्षी सांसदों की राय है कि बहिष्कार नहीं किया जाना चाहिए। मैं भी सोचता हूं कि संसद के दोनों सदनों का यदि विपक्ष बहिष्कार करेगा तो उसका तो कोई फायदा नहीं होगा बल्कि सत्तारुढ़ दलों को ज्यादा आसानी होगी। वे अपने पेश किए गए विधेयकों को बिना बहस के कानून बनवा लेंगे। इस सरकार का जैसा रवैया है याने इसने नौकरशाहों को पूरी छूट दे रखी है कि वे जैसे चाहें, वैसे विधायक बनाकर पेश कर दें। नतीजा क्या होगा? कुछ कानून तो शायद अच्छे बन जाएंगे लेकिन कुछ कानून कृषि-कानूनों की तरह बड़े सिरदर्द भी बन सकते हैं। वर्तमान स्थिति में यदि ऐसा हुआ तो क्या इसका दोष विपक्ष के माथे नहीं आएगा? विपक्षी सदस्यों ने पिछले सत्र में जो हंगामा राज्यसभा में मचाया था, वह काफी शर्मिंदगी पैदा करनेवाला था। कुछ विरोधी सदस्यों ने सुरक्षाकर्मियों के साथ धक्का-मुक्की और मारपीट भी की।
उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू इतने परेशान हुए कि उनकी आंखों में आंसू भर आए। पिछले 60 साल से मैं भी संसद को देख रहा हूं। ऐसा दृश्य मैंने पहले कभी नहीं देखा और इस बार तो उस दृश्य को टीवी चैनलों पर सारा देश देख रहा था। सत्तारुढ़ दल ने कोशिश भी की कि अनुशासन की कार्यवाही करने के पहले विरोधी दलों से परामर्श किया जाए लेकिन उसका भी उन्होंने बहिष्कार कर दिया। ऐसे में 12 हंगामी सदस्यों को मुअत्तिल कर दिया गया। राज्यसभा के नियम 256 के मुताबिक ऐसी कार्रवाई सत्र के चालू रहते ही की जाती है, जो अब से पहले 13 बार की गई है लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस सत्र में किए गए दोष की सजा अगले सत्र में दी जाए। पिछले सत्र में हुए इस हंगामे के कारण इस सत्र को बेमजा कर देना ठीक नहीं है।
हंगामेबाज सांसदों को चाहिए कि राज्यसभा-अध्यक्ष और उप-राष्ट्रपति वैंकय्या से वे लोग उन्हें दुखी करने के लिए क्षमा मांगे और भविष्य में मर्यादा-पालन का वायदा करें ताकि संसद के दोनों सदन इस बार सुचारु रूप से चल सकें। यदि इन दोनों सदनों का विपक्षी दल बहिष्कार करेंगे तो वे देश में चल रही लोकतांत्रिक व्यवस्था को पहले से भी अधिक क्षीण करने के दोषी होंगे। मोदी सरकार की मोटर गाड़ी यों भी बहुत तेज भागती रहती है। यदि विरोधी दल घर बैठ जाएंगे तो यह गाड़ी बिना ब्रेक की हो जाएगी। इसके वैसा हो जाने में विरोधी दल अपना फायदा देख रहे हो सकते हैं लेकिन यह देश के लिए बहुत घातक होगा। विरोधी दलों को चाहिए कि वे इस विकट स्थिति में अधिक मुखर हों और भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य की रक्षा करें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
प्रधानमंत्री ने संविधान दिवस पर व्यवस्था में रिश्ते-नातों की मजबूती पर चोट की। मानने के मापदंड सबके अलग अलग हैं। राहुल और प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी, तेजप्रताप, सुप्रिया सुले, अजीत पवार से लेकर पीयूष गोयल, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अनुराग ठाकुर तक के राग-अनुराग का पता लगता है। ममता बनर्जी पर प्रधानमंत्री की आलोचना का असर नहीं हैं। भाई का बेटा-भतीजा लोकसभा सदस्य है। भाभी कोलकाता नगर निगम की वार्ड मेंबरी की उम्मीदवार हैं। वह भी भवानीपुर विधानसभा क्षेत्र के वार्ड से। विधानसभा सदस्य ममता का वोट पक्का है। इसी इलाके की सांसद माला राय नगरनिगम चुनाव लडऩे वाली एकमात्र सांसद हैं। ममता से अनबन के बाद माला राय ने पार्टी छोड़ दी थी। साल 2015 में ममता-माला सुलह के साथ माया की वापसी हुई। निगम चुनाव लड़वाया। जीतने पर नगर निगम में सभापति बनने वाली पहली महिला बनीं । वर्ष 2019 में लोकसभा भेजा। कोलकाता नगर निगम चुनाव में तृणमूल कांग्रेस पार्टी की 45 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं हैं। नाता इतना गहरा है।
परम सत्य
कभी स्काटलैंड यार्ड के मुकाबले शोहरत पाने वाली मुंबई पुलिस की कहानी नए मोड़ पर है। फिल्मों में पुलिस के दोनों रूप दिखाए जाते हैं। पुलिस आयुक्त के कारनामे भी परदे पर चमके। मुंबई का पुलिस आयुक्त बनने के बाद परमवीर सिंह ने गृहमंत्री पर सौ करोड़ रुपए की वसूली का आरोप मढ़ा। मंत्री और बेटा कैद में। आयुक्त भगोड़ा। ऐसी कहानी तो सलीम-जावेद भी नहीं सोच सके। पुलिस की छवि सुधारने के लिए पार्टी अध्यक्ष शरद पवार ने दिलीप वलसे पाटील को गृहमंत्री बनाया। पुलिस और अदालत के तकादों के बाद परमवीर अवतरित हुए। अब कहते हैं-मेरे पास प्रमाण नहीं हैं। परमवीर की साख और पुलिस की बदहाली का सबूत जगह जगह मिलता है। मुंबई में भारत का सबसे अधिक यात्रियों वाला हवाई अड्डा है। महानगर में परमवीर के कदम रखने के एक दिन पहले विमानतल के पुलिस बूथ पर नकदी की मांग की जाने लगी। पुलिस संचालित टेक्सी केन्द्र का उपकरण खराब होने से मशीन ठप हुई। वह भी 26 नवम्बर से ठीक दो दिन पहले। परम सत्य।
लेन-देन बंद
लाव लश्कर के साथ दिल्ली की सर्दी और प्रदूषण का सामना कोई वीर ही कर सकता है। लेकिन इस वीर को पुरस्कार तो दूर, प्रधानमंत्री ने मिलने का समय तक नहीं दिया। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव प्रधानमंत्री को हजूराबाद उपचुनाव जीतने की बधाई देने कदापि नहीं गए थे। उनके विरोधी को उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने चुनाव जीता है। कृषि विधेयकों की वापसी के निर्णय पर भले ही राव बधाई देते। प्रधानमंत्री को भेंट करने के लिए मुख्यमंत्री ने गुलों की खुश बू से लेकर कई उपहार तैयार रखे थे। चांवल की खरीद पर बात करने के लिए प्रधानमंत्री ने समय नहीं निकाला। मुख्यमंत्री मुंह लटकाए वापस हैदराबाद पहुंचे। यह दुख भी राव झेल जाते। इन दिनों तेलंगाना राष्ट्र समिति पर भाजपा की नजरे- इनायत कम हो रही है। मुख्यमंत्री विमान तल से उतर तक नहीं पाए थे। दिल्ली में चहेते पत्रकारों तक खबर पहुंच गई। उन्हें बताया गया कि प्रधानमंत्री ने चंद्रशेखर राव को न आने के लिए कहा था और न आने का समय तय हुआ था। किस्सा खत्म।
परिवार का पहिया
केन्द्रीय वित्त मंत्री एक ही महीने में दो-दो बार किसी शहर का दौरा करें तब स्थिति को गंभीर मानना चाहिए। यदि वह शहर देश की आर्थिक राजधानी हो तब गौर करने की बात ही है। निवेशकों को विकास की गुलाबी तस्वीर दिखाना, प्रधानमंत्री के कहे मुताबिक चीजों को करीने से जाने जैसे कई काम वित्त मंत्री के सिपुर्द हैं। निर्मला सीतारामन के बजाय उसी शहर में रहने वाले पीयूष गोयल बखूबी यही काम करते हैं। कृषि कानूनों की वापसी के बाद वित्त मंत्री उद्योगपतियों को समझा-बुझा रही थीं। पति परमेश्वर पंजाब के किसानों के बीच विचर रहे थे। लगभग एक पखवाड़े के दौरे के बाद मंत्रीपति ने पत्नी के किए कराए पर पानी फेर दिया। उन्होंने कहा-कानून वापसी का प्रधानमंत्री की पार्टी को पंजाब में फायदा मिलने की उम्मीद नहीं है। अर्धांगिनी से अधिक वाणी-संयमी पति प्रभाकर ने खास अदा में फरमाया-पंजाब के आम जन प्रधानमंत्री का जिक्र सम्मान साथ नहीं करते हैं। पति परकाला प्रभाकर आंध्रप्रदेश सरकार के संवाद सलाहकार रह चुके हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद के दोनों सदनों में कृषि-कानून उतनी ही जल्दी वापिस ले लिये गए, जितनी जल्दी वे लाये गए थे। लाते वक्त भी उन पर आवश्यक विचार-विमर्श नहीं हुआ और जाते वक्त भी नहीं। ऐसा क्यों ? ऐसा होना अपने आप में शक पैदा करता है। यह शक पैदा होता है कि इस कानून में कुछ न कुछ उस्तादी है, जिसे सरकार छिपाना चाहती है जबकि सरकार का दावा है कि ये कानून लाए ही इसलिए गए थे कि किसानों को संपन्न और सुखी बनाया जाए। यदि इन कानूनों के जाते और आते वक्त जमकर बहस होती तो किसानों को ही नहीं, देश के आम लोगों को भी पता चलता कि भाजपा सरकार खेती के क्षेत्र में अपूर्व क्रांति लाना चाहती है। मान लिया कि अपने कानूनों से सरकार इतनी ज्यादा खुश थी कि उसने सोचा कि उन्हें तत्काल लागू किया जाए लेकिन अब यदि संसद में इसकी वापसी के वक्त लंबी बहस होती तो सरकार इसके फायदे विस्तार से गिना सकती थी और देश की जनता को वह यह संदेश भी देती कि वह अहंकारी बिल्कुल नहीं है। वह अपने अन्नदाताओं का तहे-दिल से सम्मान करती है।
इसीलिए उसने इन्हें वापस कर लिया है। इस संसदीय बहस में उसे कई नए सुझाव भी मिलते लेकिन लगता है कि इन कानूनों की वापसी ने सरकार को बहुत डरा दिया है। उसका नैतिक बल पैंदे में बैठ गया है। उसे लगा कि यदि बहस हुई तो उसके विरोधी दल उसकी चमड़ी उधेड़ डालेंगे। उसका यह डर सही निकला। विरोधियों ने बहस की मांग के लिए जैसा नाटकीय हंगामा किया, उससे क्या प्रकट होता है? क्या यह नहीं कि विरोधी दल किसानों को फायदा पहुंचाने की बजाय खुद को किसानों का ज्यादा बड़ा हितैषी सिद्ध करना चाहते हैं।
दूसरे शब्दों में हमारे पक्षियों और विपक्षियों, दोनों की भूमिका लोकतंत्र की दृष्टि से संतोषजनक नहीं रही। ये तो हुई राजनीतिक दलों की बात लेकिन हमारे किसान आंदोलन का क्या हाल है? वह अपूर्व और एतिहासिक रहा, इसमें जरा भी शक नहीं है लेकिन यह ध्यान रहे कि यह आंदोलन पंजाब, हरयाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मालदार किसानों का आंदोलन था। सरकार को उन्हें तो संतुष्ट करना ही चाहिए लेकिन उनसे भी ज्यादा उसकी जिम्मेदारी उन 86 प्रतिशत किसानों के प्रति है, जो देश के 700 जिलों में अपनी रोजी-रोटी भी ठीक से नहीं प्राप्त कर पाते हैं। उपज के न्यूनतम सरकारी मूल्य के सवाल पर खुलकर विचार होना चाहिए। वह म_ीभर मालदार किसानों की बपौती न बने और वह सभी किसानों के लिए लाभप्रद रहे, यह जरुरी है। आज की स्थिति में किसान आंदोलन की बजाय किसान मंथन की ज्यादा जरुरत है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने इधर जातीय भेदभाव के आधार पर होनेवाली हिंसा के बारे में कुछ बुनियादें बातें कह डाली हैं। जजों ने 1991 में तीन लोगों के हत्यारों की सजा पर मोहर लगाते हुए पूछा है कि इतने कानूनों के बावजूद देश में से जातीय घृणा का उन्मूलन क्यों नहीं हो रहा है? अदालत की अपनी सीमाएं हैं। वह सिर्फ कानून लागू करवा सकती है। वह खुद कोई कानून बना नहीं सकती। वह कोई समाजसेवी संस्था भी नहीं है कि वह जातिवाद के विरुद्ध कोई अभियान चला सके। यह काम हमारी संसद और हमारे नेताओं को करना चाहिए लेकिन वे तो बेचारे दया के पात्र बने रहते हैं। उनका मुख्य काम है— वोट और नोट का कटोरा फैलाये रखना। उनमें इतना नैतिक बल कहां है कि उनके अनुरोध पर लोग अपने जातिवाद से मुक्त हो जाएं? उनकी दुकान चल ही रही है जातिवाद के दम पर !
डॉ. लोहिया ने जात-तोड़ो आंदोलन चलाया था लेकिन उनकी माला जपनेवाले नेता ही आज जातिवाद के दम पर थिरक रहे हैं। जातीय जन-गणना के शव को दफनाए हुए 90 साल हो गए लेकिन वे अब उसे फिर से जिंदा करने की मांग कर रहे हैं। 'मेरी जाति हिंदुस्तानीÓ आंदोलन की वजह से मनमोहनसिंह सरकार ने जातीय-गणना बीच में ही रुकवा दी थी लेकिन भारत में जातिवाद को जिंदा रखनेवाले 'जातीय आरक्षणÓ को खत्म करने की आवाज आज कोई भी दल या नेता नहीं लगा रहा है। इस देश में सरकारी नौकरी और शिक्षा में जब तक जातीय आधार पर भीख बांटी जाएगी, जातिवाद का विष-वृक्ष हरा ही रहेगा। मु_ीभर अनुसूचितों और पिछड़ों के मुंह में चूसनी लटकाकर देश के करोड़ों वंचितों और गरीबों को सड़ते रहने के लिए हम मजबूर करते रहेंगे। इस समय देश में जातिवाद के विरुद्ध जबर्दस्त सामाजिक अभियान की जरुरत है। सबसे पहले जातिगत आरक्षण खत्म किया जाए। दूसरा, जातिगत उपनाम हटाए जाएं।
तीसरा, किसी भी संस्था और संगठन जैसे अस्पताल, स्कूल, धर्मशाला, शहर या मोहल्ले आदि के नाम जातियों के आधार पर न रखे जाएं। चौथा, अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित किया जाए। पांचवां, आम चुनावों में किसी खास चुनाव-क्षेत्र से किसी खास उम्मीदवार को खड़ा करने की बजाय पार्टियां अपनी सामूहिक सूचियां जारी करें और अपने जीते हुए उम्मीदवारों को बाद में अलग-अलग चुनाव-क्षेत्र की जिम्मेदारी दे दें। इससे चुनावों में चलनेवाला जातिवाद अपने आप खत्म हो जाएगा। मतदाता अपना वोट देते समय उम्मीदवार की जाति नहीं, पार्टी की विचाारधारा और नीति को महत्व देंगे। इसके कारण हमारे लोकतंत्र की गुणवत्ता तो बढ़ेगी ही, जातीय आधार पर थोक वोट कबाडऩेवाले अपराधियों, ठगों, अकर्मण्य और आलसी लोगों से भारतीय राजनीति का कुछ न कुछ छुटकारा होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में गरीबों की हालत कितनी शर्मनाक है। आजादी के 74 वर्षों में भारत में अमीरी तो बढ़ी है लेकिन वह मुट्ठीभर लोगों और मुट्ठीभर जिलों तक ही पहुंची है। आज भी भारत में गरीबों की संख्या दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है। हमारे देश के कई जिले ऐसे हैं, जिनमें आधे से ज्यादा लोगों को पेट भर रोटी भी नहीं मिलती। वे दवा के अभाव में ही दम तोड़ देते हैं। वे क ख ग भी न लिख सकते हैं न पढ़ सकते हैं।
मैंने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी जिलों में लोगों को नग्न और अर्ध-नग्न अवस्था में घूमते हुए भी देखा है। रंगराजन आयोग का मानना था कि गांवों में जिसे 972 रु. और शहरों में जिसे 1407 रु. प्रति माह से ज्यादा मिलते हैं, वह गरीबी रेखा से ऊपर है। वाह क्या बात है? यदि इन आंकड़ों को रोजाना आमदनी के हिसाब से देखें तो 30 रु. और 50 रु. रोज भी नहीं बनते हैं। इतने रुपए रोज़ में आज किसी गाय या भैंस को पालना भी मुश्किल है।
दूसरे शब्दों में भारत के गरीब की जिंदगी पशुओं से भी बदतर है। विश्व भर के 193 देशों वाली गरीबी नापने वाली संस्था का कहना है कि यदि गरीबों की आमदनी इससे भी ज्यादा हो जाए तो भी उसने जो 12 मानदंड बनाए हैं, उनके हिसाब से वे गरीब ही माने जाएंगे, क्योंकि कोरी बढ़ी हुई आमदनी उन्हें न तो पर्याप्त स्वास्थ्य-सुविधा, शिक्षा, सफाई, भोजन, स्वच्छ पानी, बिजली, घर आदि मुहय्या करवा पाएगी और न ही उन्हें एक सभ्य इंसान की जिंदगी जीने का मौका दे पाएगी।
दूसरे शब्दों में व्यक्तिगत आमदनी के साथ-साथ जब तक पर्याप्त राजकीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं होंगी, नागरिक लोग संतोष और सम्मान का जीवन नहीं जी सकेंगे। सभी सरकारें ये सब सुविधाएं बांटने का काम भी करती रहती हैं। उनका मुख्य लक्ष्य तो इन सुविधाओं की आड़ में वोट बटोरना ही होता है लेकिन जब तक भारत में बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम का भेदभाव नहीं घटेगा, यहां गरीबी खम ठोकती रहेगी। शिक्षा और चिकित्सा, ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, जो नागरिकों के मष्तिष्क और शरीर को सबल बनाते हैं।
जब तक ये सबको सहज और मुफ्त न मिलें, हमारा देश कभी भी सबल, संपन्न और समतामूलक नहीं बन सकता। ऊपर दिए गए आंकड़ों के आधार पर आज भी आधे से ज्यादा बिहार, एक-तिहाई से ज्यादा झारखंड और उप्र तथा लगभग 1/3 म.प्र. और मेघालय गरीबी में डूबे हुए हैं। यदि विश्व गरीबी मापन संस्था के मानदंडों पर हम पूरे भारत को कसे तो हमें मालूम पड़ेगा कि भारत के 140 करोड़ लोगों में से लगभग 100 करोड़ लोग वंचितों, गरीबों, कमजोरों और जरुरतमंदों की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। पता नहीं, इतने लोगों का उद्धार कैसे होगा और कौन करेगा?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सनियारा खान
चाय बेचने वाले लोग भी अलग-अलग तरह के होते हैं। वैसे तो हमारे प्रधानमंत्रीजी भी चाय बेच-बेचकर प्रधानमंत्री बने। खैर, अभी हम प्रधानमंत्रीजी की नहीं, कोलकाता की टुकटुकी दास की बात करेंगे।
टुकटुकी के पिता एक वैन ड्राईवर है और मां एक छोटी सी किराना दुकान चलाती है। टुकटुकी के अति साधारण माता-पिता एक ही सपना देखते थे कि उनकी बेटी खूब मेहनत कर अपनी पढ़ाई पूरी करे और कुछ अच्छा काम करे। वैसे तो वे लोग चाहते थे कि उनकी बेटी एक शिक्षिका बने। टुकटुकी आखिर अंग्रेजी साहित्य में एमए जो थी। लेकिन उसे कोई नौकरी नहीं मिली। फिर इंटरनेट पर उसे कई नामी चायवालों के बारे में पता चला। मध्यप्रदेश का प्रफुल्ल किसान का बेटा था। बार-बार कॉमन एडमिशन टेस्ट देकर भी असफल होने के बाद उसने चाय की दुकान का व्यवसाय करने का सोचा। आज पूरे देश में प्रफुल्लजी के अनेकों आउटलेट्स हैं। ये सब पढक़र हिम्मत करके टुकटुकी ने भी हावड़ा स्टेशन में एक चाय की दुकान खोल ली। उस समय उसके माता-पिता को ये सोचकर बहुत बुरा लग रहा था कि इतना पढ़-लिखकर बेटी एक चाय की दुकान चलाएगी। उन्हें समझा-बुझाकर इसी साल की एक नवंबर को चाय दुकान खोलने वाली टुकटुकी ने पहले दिन सभी को पैसे लिए बिना ही चाय पिलाई। उसने अपनी चाय दुकान का नाम रखा-‘एमए इंग्लिश चाय वाली।’
यात्री और अन्य लोग भी इस नाम से आकर्षित होकर खींचे चले आते थे।
आज टुकटुकी दास एक ऐसा नाम बन गया, जो समाज को एक यह संदेश देता है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। अब उसके माता-पिता भी उसे लेकर गौरव महसूस करते हैं। धीरे-धीरे कामयाब हो रही टुकटुकी को अब कई मंत्री और दूसरे लोग भी मदद करना चाहते हैं, जिसे उसने विनम्रता से ठुकरा दिया। अपने बलबूते पर ही वह आगे बढऩा चाहती है। टुकटुकी दास का यू-ट्यूब पर अपना चैनल भी है। अगर उससे कोई सवाल करे कि उसे कहां से प्रोत्साहन मिला तो एमबीए चायवाला प्रफुल्ल बिल्लोर के अलावा भी बीटेक चाय चलाने वाले आनंद और मुहम्मद शफी, अनुभव दुबे की चाय सुट्टा और फिर ऑस्ट्रेलिया की चायवाली उप्पमा विरदी के बारे में भी हम बहुत कुछ जान पाएंगे। मैंने इसीलिए शुरू में ही कहा था कि चाय बेचने वाले लोग भी कई तरह के होते हैं। ये और बात है कि आप किससे प्रेरणा लेना चाहते है!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संविधान-दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह का कुछ विपक्षी दलों ने बहिष्कार क्यों किया, यह समझ में नहीं आता। शायद उन्हें शक था कि सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को न तो मंच पर बिठाया जाएगा और न ही उसे बोलने भी दिया जाएगा। छोटे-मोटे अन्य विपक्षी दलों की उपेक्षा तो संभावित थी ही! यदि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की उपेक्षा उक्त प्रकार से की जाती तो इस समारोह का बहिष्कार सर्वथा उचित होता लेकिन लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा है कि कांग्रेस के दोनों संसदीय नेताओं का राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ मंच पर बैठने का इंतजाम किया गया था।
इस दृष्टि से संविधान-दिवस का बहिष्कार करके कांग्रेस, जो कि उसकी जन्मदाता है, अपनी ही कृति को सम्मानित करने में हिचकिचा गई। ऐसे में नरेंद्र मोदी का चिढ़ जाना स्वाभाविक था। शायद इसीलिए उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को हास्यास्पद बताने वाले परिवारवाद की मजाक उड़ाई है। भारत की सिर्फ दो पार्टियों— भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर सभी पार्टियों का क्या हाल है? लगभग सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन चुकी हैं। कोई मां-बेटा पार्टी है, कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई चाचा-भतीजा पार्टी है, कोई पति-पत्नी पार्टी है, कोई बुआ-भतीजा पार्टी है, कोई मामा-भानजा पार्टी है, कोई मौसी-भानजा पार्टी है।
आप समझ गए होंगे कि मैं किन पार्टियों का उल्लेख कर रहा हूं। इन पार्टियों की सिर्फ एक ही विचारधारा है। वह है— सत्ता ! सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता ! याने नोट से वोट और वोट से नोट ! इसी के चलते अपने कई स्वनामधन्य मुख्यमंत्री जेल की हवा खा चुके हैं। आजकल उनके बेटे और पोते उनकी प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां चला रहे हैं। ज्यादातर ऐसी पार्टियां भेड़-चाल पर निर्भर हैं। याने अपनी जातियों के वोट-बैंक ही उनकी प्राण-वायु हैं।
इन अंधे जातीय वोट बैंकों की नींव पर ही भारतीय लोकतंत्र का भवन खड़ा हुआ है। इस जातीय लोकतंत्र को परिवारवाद ने खोखला कर रखा है लेकिन हमारा भवन क्यों नहीं ढहता है? हमारे शानदार संविधान की वजह से! सारे पड़ौसी देशों के संविधान कई बार बदल चुके हैं और वहां सत्ता-पलट भी कई बार हो चुके हैं लेकिन भारत का लोकतंत्र जैसा भी है, आजतक दनदना रहा है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बना हुआ है। हम भारतीयों को गर्व होना चाहिए कि हमारा संविधान काफी लचीला है और लचीला होने के बावजूद उसने डेढ़ अरब लोगों के लोकतंत्र को अपने सबल कंधों पर थाम रखा है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संविधान-दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह का कुछ विपक्षी दलों ने बहिष्कार क्यों किया, यह समझ में नहीं आता। शायद उन्हें शक था कि सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को न तो मंच पर बिठाया जाएगा और न ही उसे बोलने भी दिया जाएगा। छोटे-मोटे अन्य विपक्षी दलों की उपेक्षा तो संभावित थी ही! यदि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की उपेक्षा उक्त प्रकार से की जाती तो इस समारोह का बहिष्कार सर्वथा उचित होता लेकिन लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा है कि कांग्रेस के दोनों संसदीय नेताओं का राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ मंच पर बैठने का इंतजाम किया गया था।
इस दृष्टि से संविधान-दिवस का बहिष्कार करके कांग्रेस, जो कि उसकी जन्मदाता है, अपनी ही कृति को सम्मानित करने में हिचकिचा गई। ऐसे में नरेंद्र मोदी का चिढ़ जाना स्वाभाविक था। शायद इसीलिए उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को हास्यास्पद बताने वाले परिवारवाद की मजाक उड़ाई है। भारत की सिर्फ दो पार्टियों— भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर सभी पार्टियों का क्या हाल है? लगभग सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन चुकी हैं। कोई मां-बेटा पार्टी है, कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई चाचा-भतीजा पार्टी है, कोई पति-पत्नी पार्टी है, कोई बुआ-भतीजा पार्टी है, कोई मामा-भानजा पार्टी है, कोई मौसी-भानजा पार्टी है।
आप समझ गए होंगे कि मैं किन पार्टियों का उल्लेख कर रहा हूं। इन पार्टियों की सिर्फ एक ही विचारधारा है। वह है— सत्ता ! सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता ! याने नोट से वोट और वोट से नोट ! इसी के चलते अपने कई स्वनामधन्य मुख्यमंत्री जेल की हवा खा चुके हैं। आजकल उनके बेटे और पोते उनकी प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां चला रहे हैं। ज्यादातर ऐसी पार्टियां भेड़-चाल पर निर्भर हैं। याने अपनी जातियों के वोट-बैंक ही उनकी प्राण-वायु हैं।
इन अंधे जातीय वोट बैंकों की नींव पर ही भारतीय लोकतंत्र का भवन खड़ा हुआ है। इस जातीय लोकतंत्र को परिवारवाद ने खोखला कर रखा है लेकिन हमारा भवन क्यों नहीं ढहता है? हमारे शानदार संविधान की वजह से! सारे पड़ौसी देशों के संविधान कई बार बदल चुके हैं और वहां सत्ता-पलट भी कई बार हो चुके हैं लेकिन भारत का लोकतंत्र जैसा भी है, आजतक दनदना रहा है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बना हुआ है। हम भारतीयों को गर्व होना चाहिए कि हमारा संविधान काफी लचीला है और लचीला होने के बावजूद उसने डेढ़ अरब लोगों के लोकतंत्र को अपने सबल कंधों पर थाम रखा है।
(नया इंडिया की अनुमति से)