विचार/लेख
-रमेश अनुपम
लोहंडीगुड़ा गोली कांड स्थानीय प्रशासन और मध्यप्रदेश सरकार के लिए एक ऐसा सबक था, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता था। लोहंडीगुड़ा गोली कांड के बाद बस्तर के आदिवासियों की न्यायोचित मांगों और प्रवीर चंद्र भंजदेव के प्रति संवेदनशील दृष्टि से विचार किए जाने की जरूरत थी। पर दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ नहीं हुआ।
लोहंडीगुड़ा गोली कांड के बाद आदिवासियों की मांग पर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को जेल से रिहा तो कर दिया गया पर कोर्ट ऑफ वार्ड्स से उनकी संपत्ति को मुक्त नहीं किया गया ।
गैर आदिवासी व्यापारियों का बाजारों में आदिवासियों को लूटना भी बंद नहीं हुआ और न ही उनके विकास की किन्हीं ठोस योजनाओं को मूर्त रूप देने की कहीं कोई कोशिश ही की गई।
परिणामस्वरूप आदिवासियों में असंतोष बढ़ता चला गया। स्थानीय प्रशासन और सरकार इस सबसे आंखें मूंदे बेखबर बनी रही।
लोहंडीगुड़ा गोली कांड 31 मार्च सन 1961 को हुआ था। दो वर्ष बीतने को आ रहे थे लेकिन अब तक बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति को सरकार ने कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त करना जरूरी नहीं समझा था।
पिछले दो वर्षों से आदिवासियों के भीतर फिर से गुस्से की आग सुलगने लगी थी। स्थानीय प्रशासन और सरकार पर उनका भरोसा उठता जा रहा था।
9 अप्रैल सन 1963, लगभग सौ आदिवासी नेताओं ने बस्तर कलेक्टर मोहम्मद अकबर से मुलाकात की और उनसे निवेदन किया कि महाराजा की संपत्ति को कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त किया जाए।
10 अप्रैल सन 1963 की शाम को आदिवासी नेता मंगल मांझी ने भोपाल ट्रंक कॉल कर प्रदेश के राज्यपाल हरि विनायक पाटस्कर को आदिवासियों के असंतोष की जानकारी और इस पर तत्काल कार्रवाई किए जाने का निवेदन किया साथ ही राज्यपाल को बस्तर आकर वस्तुस्थिति को स्वयं देखने का आग्रह भी।
प्रदेश के सर्वोच्च मुखिया ने शायद आदिवासी नेता मंगल मांझी की बात को गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं समझी।
11 अप्रैल 1963 को आदिवासी एक-एक कर जगदलपुर में एकत्र होने लगे। हेड पोस्ट ऑफिस जगदलपुर के सामने आदिवासियों की भीड़ लगनी शुरू हो गई।
मध्यप्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को टेलीग्राम भेजा गया कि उनकी मांगों को सरकार 13 अप्रैल तक पूर्ण करें।
स्थानीय प्रशासन ने 13 अप्रैल की सुबह से ही जगदलपुर में धारा 144 लगा दिया। बस्तर के तत्कालीन कलेक्टर मोहम्मद अकबर ने प्रेस को बताया कि जगदलपुर में आदिवासियों की बढ़ती हुई भीड़ को देखकर प्रशासन को यह निर्णय लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
जगदलपुर में स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही थी, पर शासन-प्रशासन को जैसे इसकी कोई चिंता ही नहीं थी।
कमिश्नर, कलेक्टर चाहते तो आने वाली अप्रिय स्थिति को रोक सकते थे। आदिवासियों को समझा-बुझा कर शांत कर सकते थे। उनकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर सकते थे, पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।
मध्यप्रदेश के राज्यपाल हरि विनायक पाटस्कर और मुख्यमंत्री डॉ . कैलाश नाथ काटजू महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति को चाहते तो कोर्ट ऑफ वार्ड्स से रिलीज करवा सकते थे।
किंतु शासन ने शायद पहले से ही मन बना लिया था कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और आदिवासियों को मज़ा चखाना है।
भोपाल को बस्तर से न कोई सहानुभूति थी और न ही किसी तरह का कोई लेना देना। इसे निष्ठुरता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है।
कुल मिलाकर बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और बस्तर के आदिवासियों की पीड़ा को समझने की कोशिश न स्थानीय प्रशासन को थी और न ही राज्य सरकार या केंद्र सरकार को।
सरकार के लिए न प्रवीर चंद्र भंजदेव उपयोगी थे और न ही उनसे अथाह प्रेम करने वाले बस्तर के भोले-भाले आदिवासी ।
बस्तर के नृशंस गोली कांड की पूरी भूमिका लगभग तैयार हो चुकी थी। दावानल की चिंगारी भडक़ चुकी थी, पत्तियां जल उठी थीं पूरे जंगल का सुलगना अभी बाकी था। मध्यप्रदेश सरकार के दिग्गज नेता और स्थानीय प्रशासन तो शायद यही चाहते भी थे।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह खुशी की बात है कि भारत सरकार अब म्यांमार (बर्मा) के बारे में सही और स्पष्ट रवैया अपना रही है। जिस दिन म्यांमार की नेता आंग सान सू ची को चार साल की सजा घोषित हुई थी, उसी समय मैंने लिखा था कि भारत सरकार की चुप्पी ठीक नहीं है। जब भी पड़ौसी देशों में लोकतंत्र का हनन हुआ है, भारत कभी चुप नहीं रहा है। चाहे वह पूर्वी पाकिस्तान हो, नेपाल हो, भूटान हो या मालदीव हो। लेकिन अब हमारे विदेश सचिव हर्षवर्द्धन श्रृंगला ने स्वयं म्यांमार जाकर उसके फौजी शासकों, सू ची के पार्टी नेताओं और कई देशों के राजदूतों से खुला संवाद किया है।
श्रृंगला ने साहसिक पहल की और फौजी शासकों से कहा कि वे जेल जाकर सू ची से मिलना चाहते हैं। फौजियों ने उसकी अनुमति उन्हें नहीं दी लेकिन इससे यह तो प्रकट हो ही गया कि भारत म्यांमार की घटनाओं के प्रति तटस्थ या उदासीन नहीं है। श्रृंगला ने फौजी शासकों को स्पष्ट कर दिया है कि भारत अपने इस पड़ौसी देश के लोकतंत्र के बारे में पूरी तरह से चिंतित है। ‘एसियान’ संगठन का म्यांमार सदस्य है लेकिन उसने आजकल म्यांमार का बहिष्कार कर रखा है लेकिन भारत उसके प्रति इतना सख्त रवैया नहीं अपना सकता। उसके दो कारण हैं।
पहला तो यह कि भारत के नगा और मणिपुर के बागियों को नियंत्रित करने में बर्मी फौज भारत की सक्रिय मदद करती है और दूसरा चीन वहां हर कीमत पर अपना वर्चस्व बढ़ाने पर आमादा है। संयुक्तराष्ट्र संघ में म्यांमार के फौजियों की काफी लानत-मलामत हो रही है लेकिन भारत ने म्यांमार पर मध्यम मार्ग अपना रखा है। वह फौज के खिलाफ खुलकर नहीं बोल रहा है, लेकिन उस पर अपना कूटनीतिक दबाव बराबर बना रहा है ताकि बर्मा में लोकतंत्र की वापसी हो सके। भारत ने पहले भी सू ची और फौज के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी। म्यांमार में स्थित महाशक्तियों के राजदूतों ने भी श्रृंगला को सचेत करना उचित समझा। यह सच है कि ‘एसियान’ और संयुक्तराष्ट्र संघ में म्यांमार के खिलाफ सिर्फ प्रस्ताव पारित कर देने से खास कुछ होनेवाला नहीं है। भारत का मध्यम मार्ग ही इस समय व्यावहारिक और उचित है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
एक सामान्य और असहाय नागरिक को अपनी प्रतिक्रिया किस तरह से देना चाहिए ? पंजाब कांग्रेस के मुखिया और मुख्यमंत्री पद के दावेदार नवजोत सिंह सिद्धू के इस उत्तेजक बयान पर राहुल गांधी समेत सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की ज़ुबानों पर ताले पड़ गए हैं कि (धार्मिक) बेअदबी के गुनहगारों को खुले आम फाँसी दे देना चाहिए। अमृतसर और कपूरथला के दो धर्मस्थलों पर पवित्र गुरु ग्रंथ साहब के अपमान की अलग-अलग घटनाओं के सिलसिले में दो लोगों को "धर्मप्राण" भी़ड़ ने पीट-पीट मार डाला।जिन लोगों की जानें गईं हैं उनकी पहचान को लेकर किसी भी तरह की जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है। जिन लोगों ने मारपीट की घटना को अंजाम दिया उनके भी नाम-पते भी अज्ञात हैं। घटना की जांच रिपोर्ट भविष्य में जब भी सामने आएगी तब तक के लिए सब कुछ रहस्य की परतों में क़ैद रहने वाला है।
विधानसभा चुनावों के ऐन पहले इन घटनाओं का होना (इसी तरह की एक घटना 2017 के चुनावों के पहले 2015 में हुई थी ) और उन पर एक ज़िम्मेदार नेता की उग्र प्रतिक्रिया लोकतंत्र और न्याय-व्यवस्था की मौजूदगी और प्रभाव के प्रति डर पैदा करती है।सिद्धू की माँग न सिर्फ़ भविष्य को लेकर चिंताएँ उत्पन्न करती है, अतीत की उन तमाम दुर्भाग्यपूर्ण मॉब लिंचिंग घटनाओं को भी वैधता प्रदान करती है जिनमें धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के आरोपों में एक समुदाय विशेष के लोगों को अपनी जानें गँवाना पड़ीं थीं।दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उस तरह की घटनाएँ अब बंद हो चुकी हैं।(हरिद्वार में हाल ही में हुई हिंदू संसद में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ दिए गए उत्तेजक भाषण उसका संकेत है ।)सत्ता की राजनीति ने सबको ख़ामोश कर रखा है। ऐसा लगता है सब कुछ किसी पूर्व-निर्धारित स्क्रिप्ट के मुताबिक़ ही चल रहा है।
किसी समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँचाने अथवा बेअदबी करने के आरोप में बिना किसी साक्ष्य, मुक़दमे और गवाही के धार्मिक स्थलों अथवा सड़कों पर भीड़ द्वारा ही अगर सजा तय की जानी है तो हमें अपने देश की भौगोलिक सीमाएँ उन मुल्कों के साथ समाप्त कर देना चाहिए जहां धर्म के नाम पर इस तरह की क़बीलाई संस्कृति आज के आधुनिक युग में भी क़ायम है। हम जिस सिख समाज को अपनी आँखों का नूर मानते आए हैं वह इस तरह के भीड़-न्याय को निश्चित ही स्वीकृति नहीं प्रदान कर सकता।
कहना मुश्किल है कि वे तमाम राजनीतिक दल और धर्मगुरु, जो नागरिकों की बेअदबी और जीवन जीने के ईश्वर-प्रदत्त अधिकारों के सरेआम अपहरण के प्रति अपमानजनक तरीक़े से मौन हैं, जलियाँवाला बाग जैसी कुरबानियों में झुलसकर निकले राष्ट्र को 1947 के दौर में वापस ले जाना चाहते हैं या अक्टूबर 1984 में प्रकट हुए देश के तेज़ाबी चेहरे की ओर।
अहिल्याबाई होलकर के जिस ऐतिहासिक इंदौर शहर में मैं रहता हूँ उसमें 31 अक्टूबर 1984 के दिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की आँखों देखी याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सिख रिहाइशी इलाक़ों में चुन-चुनकर घर जलाए जा रहे थे, धार्मिक स्थल सूने और असुरक्षित हो गए थे। लोग मदद के लिए गुहार लगा रहे थे। आग बुझाने वाली गाड़ियाँ एक कोने से दूसरे कोने की ओर भाग रहीं थीं। पुलिस चौकियों पर जलते मकानों से सुरक्षित बचाए गए सामानों के ढेर लगे हुए थे। कोई ढाई सौ साल पहले मराठा साम्राज्य के दौरान होलकरों द्वारा निर्मित ऐतिहासिक राजवाड़ा के एक हिस्से में आग लगा दी गई थी।
इंदिरा गांधी के अस्थि कलश का जुलूस जब उसी राजवाड़ा की दीवार के नज़दीक से गुज़र रहा था उसके जलाए जाने की क़ालिख इस ऐतिहासिक इमारत और शहर के चेहरे पर मौजूद थी। वे तमाम सिख जो उस दौर की यंत्रणाओं और अपमान से गुज़रे थे उनके परिवार आज उसी शहर में शान और इज्जत से रहते हैं। उन दुर्दिनों के बाद भी किसी ने यह माँग नहीं की कि घटना के दोषियों को सड़कों पर फाँसी की सजा दी जानी चाहिए।
बेअदबी की घटनाओं के बाद राहुल गांधी की किसी भी संदर्भ में की गई इस टिप्पणी में कि लिंचिंग शब्द भारत में 2014 के बाद आया है, कांग्रेस की असहाय स्थिति और सिद्धू की फाँसी की माँग पर भाजपा (और उसके अनुषांगिक संगठनों )की चुप्पी में कट्टरपंथी पार्टी के अपराध बोध की तलाश जा सकती है। सिद्धू के इस आरोप के क्या मायने निकाले जाने चाहिए कि :’एक समुदाय के ख़िलाफ़ साज़िश और कट्टरपंथी ताक़तें पंजाब में शांति भंग करने की कोशिश कर रही हैं’? सिद्धू अपनी बात को साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहना चाहते ?
कोई साल भर तक राजधानी दिल्ली के बार्डरों (सिंघु ,टिकरी और ग़ाज़ीपुर) पर चले अत्यंत अहिंसक आंदोलन और उसके दौरान कोई सात सौ निरपराध किसानों के मौन बलिदानों से उपजी सहानुभूति के आईने में पंजाब के मौजूदा घटनाक्रम को देखकर डर महसूस होता है। पंजाब के किसानों के सामने चुनौती अब अपनी कृषि उपज को उचित दामों पर बेचने की नहीं बल्कि यह बन गई है कि राज्य की हुकूमत को किन लोगों के हाथों में सौंपना ज़्यादा सुरक्षित रहेगा !
किसी भी धर्म या आस्था को लेकर की गई बेअदबी हो अथवा नागरिक जीवन का हिंसा के ज़रिए असम्मान किया गया हो ,क्या दोनों स्थितियाँ अलग-अलग हैं या एक ही चीज़ है? अगर अलग-अलग हैं तो दोनों के बीच के फ़र्क़ को अदालतें तय करेंगी या यह काम भीड़ के ज़िम्मे कर दिया जाएगा? दूसरे यह कि क्या ऐसा मानना पूरी तरह से सही होगा कि लिंचिंग की घटनाओं को क़ानूनों के ज़रिए रोका जा सकता है ? कहा जा रहा है कि पंजाब द्वारा केंद्र की स्वीकृति के लिए भेजे गए क़ानूनी प्रस्तावों को अगर मंज़ूरी मिल जाती तो बेअदबी की घटनाएँ नहीं होतीं। लिंचिंग एक मानसिकता है जो धर्मांधता से उत्पन्न होती है ।सिर्फ़ क़ानूनी समस्या नहीं है। दुनिया का कोई भी धर्म या क़ानून भीड़ की हिंसा को मान्यता नहीं देता। दिक्कत यह है कि लिंचिंग को धर्म के बजाय सत्ता की ज़रूरत में तब्दील किया जा रहा है।मुमकिन है सिद्धू का बयान भी सत्ता की तात्कालिक ज़रूरत की ही उपज हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कर्नाटक की विधानसभा ने धर्म-परिवर्तन विरोधी कानून पारित कर दिया है। भाजपा ने उसका समर्थन किया है और कांग्रेस ने उसका विरोध! इस तरह के कानून भाजपा-शासित कई अन्य राज्यों ने भी बना दिए हैं और कुछ अन्य बनाने जा रहे हैं। कर्नाटक के इस कानून के विरोध में कई ईसाई संगठनों ने बेंगलूरु में प्रदर्शन भी कर दिए हैं। कई मुस्लिम नेता भी इस कानून के विरोध में अपने बयान जारी कर चुके हैं। इस तरह के जितने भी कानून बने हैं, उनके कुछ प्रावधानों से किसी-किसी पर मतभेद तो जायज हो सकता है लेकिन भारत-जैसे देश में धर्म-परिवर्तन पर कुछ जरुरी प्रतिबंध अवश्य होने चाहिए।
वास्तव में धर्म-परिवर्तन है क्या? यह वास्तव में धर्म-परिवर्तन के नाम पर ताकत का खेल है। इसका एक मात्र उद्देश्य अपने-अपने समुदाय का संख्या-बल बढ़ाना है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में संख्या-बल के आधार पर ही सत्ता पर कब्जा होता है। सिर्फ सत्ता पर औपचारिक कब्जा ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी अपना वर्चस्व कायम करने में मजहबी-संख्या की जबर्दस्त भूमिका होती है। जो लोग अन्य लोगों का धर्म-परिवर्तन करवाते हैं, उनसे कोई पूछे कि वे जिस धर्म के हैं, क्या वे उस धर्म का पालन अपने खुद के जीवन में ईमानदारी से करते रहे हैं ?
यूरोप का इतिहास बताता है कि वहां एक हजार साल की अवधि को अंधकार युग माना जाता है, क्योंकि उस काल में पोप की सत्ता ही सर्वोपरि रहती थी। कर्नल इंगरसोल ने अपनी रचनाओं में पोपों और पादरियों के भ्रष्टाचार, दुराचार, व्यभिचार आदि की पोल खोलकर रख दी है। पादरियों के दुराचार की खबरें आज भी अमेरिका और यूरोप से आए दिन संसार को चमकाती रहती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि सभी पादरी या धर्मध्वजी भ्रष्ट होते हैं लेकिन यह कहने का अर्थ यही है कि धर्म की आड़ में पादरियों, मौलवियों, पंडितों, पुरोहितों, साधुओं और संन्यासियों ने सदियों से अपना ठगी का धंधा चला रखा है।
सारे संगठित धर्म राजनीति से भी अधिक खतरनाक होते हैं, क्योंकि वे अंधश्रद्धा पर आधारित होते हैं। कोई भी व्यक्ति जब अपना धर्म-परिवर्तन करता है तो क्या वह वेद, त्रिपिटक, बाइबिल, जिंदावस्ता, कुरान या गुरु ग्रंथसाहिब पढक़र और समझकर करता है? हम लोग जिस भी धर्म को मानते हैं, वह इसलिए मानते हैं कि हमारे माँ-बाप ने उसे हमें घुट्टी में पिला दिया था।
यदि कोई व्यक्ति किसी भी धर्म, संप्रदाय, पंथ या विचारधारा को सोच-समझकर उसमें दीक्षित होना चाहता है तो उसे परमात्मा भी नहीं रोक सकता लेकिन जो व्यक्ति लालच, भय, प्रतिरोध, अज्ञान और ठगी के कारण धर्म-परिवर्तन करता है, उसे वैसा करने से जरुर रोका जाना चाहिए। इसीलिए ये धर्म-परिवर्तन विरोधी कानून बन रहे हैं लेकिन इन कानूनों को शुद्ध प्रेम पर आधारित अंतरजातीय विवाहों और तर्क पर आधारित धर्म-परिवर्तन के मार्ग की बाधा नहीं बनना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हरियाणा के एक गांव उटावड में ग्राम महापंचायत ने बड़े कमाल के फैसले लिये हैं। ग्रामीणों की इस महापंचायत ने यह घोषणा की है कि जो कोई भी गोहत्या करेगा, उस पर 51000 रु. का जुर्माना ठोक दिया जाएगा और उसका सामाजिक बहिष्कार भी किया जाएगा। गोहत्या पर कानूनन सजा तो मिलती ही है, जुर्माना भी लाखों में होता है लेकिन यदि कोई पंचायत यह निर्णय करती है तो इसे अदालत के मुकाबले ज्यादा आसानी से लागू किया जा सकता है।
जिन अपराधों या अतियों पर कानूनी बंदिशें नहीं हैं, उन्हें करने पर भी इस पंचायत ने सजा के प्रावधान किए हैं। जैसे उस गांव के किसी भी होटल में मांसाहारी भोजन बनाने पर भी प्रतिबंध होगा। सिर्फ चिकन बनाने की अनुमति होगी। यदि कोई बड़े जानवर का मांस बेचेगा या जोर से गाने बजाएगा या शराब पीकर गांव में घूमेगा तो उस पर भी हजारों रु. का जुर्माना किया जाएगा। सबसे अनूठा नियम इस महापंचायत ने यह जारी किया है कि विवाह-समारोहों में दहेज का दिखावा नहीं किया जाएगा और शादियों में 52 बरातियों से ज्यादा नहीं आ सकेंगे।
यों तो दहेज मांगने पर सजा का प्रावधान कानून में है लेकिन देश में बहुत कम शादियां बिना दहेज के होती हैं। फिर भी यदि उसके दिखावे पर प्रतिबंध होगा तो वह लेने-देनेवालों को कुछ हद तक हतोत्साहित जरुर करेगा। वास्तव में इस महापंचायत को चाहिए था कि वह गांव के सभी अविवाहित युवक-युवतियों से दहेज-विरोधी प्रतिज्ञा करवाती। उसने जुए और सट्टे पर भी प्रतिबंध लगा दिया है।
ऐसा लगता है कि इस महापंचायत के सदस्य पलवल के इस गांव को भारत का आदर्श ग्राम बनाना चाहते हैं। सबसे मजेदार बात यह है कि इन निर्णयों का जो लोग भी उल्लंघन करेंगे, उनका सुराग देनेवालों को पंचायत 5100 रु. का पुरस्कार देगी। अगर पंचायत अपने ये सब जबर्दस्त फैसले लागू कर सके तो उसके क्या कहने लेकिन उसमें कई कानूनी अड़चनें भी आ सकती हैं।
ये फैसले तो सराहनीय हैं लेकिन जुर्मानें वगैरह से भी ज्यादा कारगर होते हैं— संस्कार। यदि गांवों और शहरों के बच्चों को बचपन से ही इन बुराइयों के विरुद्ध संस्कार मिल जाएं तो इतने सख्त नियमों की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। उटावड को आदर्श ग्राम बनाने की इस महापंचायत के अध्यक्ष कोई रोहतास जैन हैं तो उनका समर्थन करनेवाले पूर्व सरपंच अख्तर हुसैन, मकसूद अहम और आस मुहम्मद हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के आंकड़ों के बाद भारत में बढ़ती आर्थिक असमानता फिर चर्चा में है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 प्रतिशत सर्वाधिक अमीर लोगों के पास 2021 में कुल राष्ट्रीय आय का 22% हिस्सा था, जबकि शीर्ष 10% लोग राष्ट्रीय आय के 57 प्रतिशत भाग पर काबिज थे। हमारे देश की आधी आबादी सिर्फ 13.1 फीसदी कमाती है। रिपोर्ट के आने के बाद होने वाली चर्चाएं प्रायः शीर्ष के एक प्रतिशत संपन्न लोगों पर केंद्रित हो जाती हैं। किंतु अभाव एवं गरीबी में जीवन गुजार रही आधी आबादी की दशा पर विमर्श कहीं अधिक आवश्यक है।
आर्थिक समानता हमारे संवैधानिक लोकतंत्र की समानता की अवधारणा को साकार करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। हाशिए पर धकेले गए समुदायों को समान अवसर और अधिक प्रतिनिधित्व मिले यह सुनिश्चित करने में आर्थिक समानता की बड़ी भूमिका है। आर्थिक असमानता अर्थव्यवस्था को अस्थिर बना सकती है। इसके कारण स्वास्थ्य, शिक्षा एवं अनुसंधान जैसे आवश्यक क्षेत्रों में निवेश में कमी आ सकती है। हाल में किए गए अध्ययनों ने यह दर्शाया है कि कोरोना काल में घटती हुई मजदूरी और आय ने कुल मांग पर विपरीत प्रभाव डाला है क्योंकि आम लोगों के उपभोग में कमी आई है।
अनेक आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार कम आय में जीवन बिताने वाले बहुसंख्य लोगों की इस दशा के लिए शीर्ष पर मौजूद मुट्ठी भर लोगों के पास संपत्ति का एकत्रीकरण उत्तरदायी नहीं है। यदि इस विवादित स्थापना को स्वीकार कर भी लिया जाए तब भी इतना तो तय है कि शीर्ष के चंद लोगों के पास संपत्ति के एकत्रीकरण ने आम लोगों के जीवन स्तर और रहन सहन तथा उन्हें मिलने वाली सुविधाओं पर विपरीत प्रभाव डाला है।
जहाँ तक भारत का संबंध है यहाँ आर्थिक गैरबराबरी के लिए केवल वितरण की असमानता को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। जाति प्रथा और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियां तथा श्रम बाजार में जातिगत भेदभाव वे कारक हैं जो दलितों को भूमि और संपत्ति तथा उनके श्रम के उचित मूल्य से वंचित रखने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। सावित्री बाई फुले विश्वविद्यालय पुणे,जेएनयू तथा इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज द्वारा 20 राज्यों के 110800 परिवारों को सम्मिलित करते हुए सन 2015 से 2017 के मध्य किए गए अध्ययन के बाद संबंधित अध्ययनकर्ताओं ने अपने निष्कर्ष में बताया कि 22.3 प्रतिशत उच्चतर जातियों के हिंदुओं के पास देश की 41 प्रतिशत संपत्ति है। जबकि 7.8 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति की आबादी के पास 3.7 प्रतिशत संपत्ति ही है। हिन्दू अनुसूचित जाति के लोगों के पास केवल 7.6 प्रतिशत संपत्ति ही है। अनुसूचित जाति का कोई श्रमिक सामान्य जाति के अपने समकक्ष श्रमिक की आय का केवल 55 प्रतिशत ही प्राप्त कर पाता है।
लैंगिक असमानता की स्थिति भी कम भयानक नहीं है। श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी के मामले में वैश्विक दृष्टि से भारत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी में भारी गिरावट देखने में आई है। वर्ष 2011-19 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यस्थलों पर महिलाओं की भागीदारी 35.8% से घटकर 26.4% ही रह गई। महिलाओं पर ऐसे घरेलू काम का बोझ बहुत ज्यादा है जिसके लिए किसी भुगतान का प्रावधान नहीं है। महिलाओं को मिलने वाली मजदूरी पुरुषों की तुलना में बहुत कम होती है। श्रम बाजार में लैंगिक भेदभाव इतना अधिक है कि बहुत से कार्य एवं व्यवसाय पुरुषों के लिए आरक्षित हैं। तमाम कानूनी प्रावधानों तथा सामाजिक जागरूकता अभियानों के बावजूद संपत्ति और भूमि के अधिकार से महिलाओं को वंचित रखा जाता है। महिलाएं शहरों और ग्रामों को मिलाकर हमारी कुल पेड वर्क फ़ोर्स का 18 से 19 प्रतिशत हैं। कोई महिला अपने पुरुष समकक्ष को होने वाली आय का केवल 62.5 प्रतिशत ही कमा पाती है।
आदिवासी समुदाय औद्योगिक विकास से सर्वाधिक प्रभावित होता है। यह विस्थापन की मार झेलता है एवं अपने पारंपरिक व्यवसाय को त्यागने हेतु विवश होता है। स्वाभाविक रूप से आदिवासी समूहों के आय एवं जीवन स्तर में गिरावट देखी जाती है।
भारतीय समाज में अंतर्निहित विसंगतियों के कारण आर्थिक असमानता का विमर्श पहले ही अनेक जटिलताओं से युक्त था। इसी दौरान नव उदारवाद और वैश्वीकरण के उभार ने ऐसी आर्थिक नीतियों को जन्म दिया जिनमें असमानता विकास प्रक्रिया का एक अपरिहार्य बाय प्रोडक्ट थी। विश्व असमानता रिपोर्ट के पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि शीर्ष पर स्थित 1 प्रतिशत जनसंख्या की संपत्ति में असाधारण वृद्धि हो रही है। नवउदारवादी नीतियों के कारण शहरों में आर्थिक असमानता बढ़ी है। गांवों और शहरों के मध्य आर्थिक असमानता की खाई गहरी हुई है जिसके परिणाम स्वरूप अलग अलग क्षेत्रों में विकास की मात्रा एवं स्वरूप में गहरा अंतर पैदा हुआ है।
अनेक अर्थशास्त्रियों को यह आशा थी कि नव उदारवाद और वैश्वीकरण जैसी आधुनिक अवधारणाएं भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जातीय और लैंगिक गैर बराबरी को दूर करने में सहायक होंगी किंतु ऐसा हुआ नहीं। औद्योगिक संस्थानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हमेशा प्रशिक्षित, कार्यकुशल, दक्ष एवं सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले कर्मचारियों तथा श्रमिकों की आवश्यकता होती है जिनसे अधिकतम कार्य लेकर सर्वाधिक मुनाफा कमाया जा सके। निजी क्षेत्र का तर्क यह है कि सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (दलित-आदिवासी-महिला) में इस तरह के सुयोग्य श्रमिकों का स्वाभाविक रूप से अभाव होता है, इस कारण उन्हें निजी क्षेत्र में अवसर नहीं मिल पाता।
सरकारी नौकरियों में तो आरक्षण की सशक्त व्यवस्था है किंतु निजी क्षेत्र में तो ऐसा भी नहीं है। यही कारण है कि अर्थव्यवस्था में कॉरपोरेट वर्चस्व के बाद जो नए रोजगार सृजित हुए हैं उनमें वंचित समुदायों की हिस्सेदारी नहीं के बराबर है।
वर्ष 2006 में यूपीए सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति हेतु सकारात्मक कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए एक समिति का गठन किया था। इसका उद्देश्य निजी क्षेत्र में इन वर्गों को नौकरियों में प्रतिनिधित्व दिलाना था। लगभग एक दशक तक इस दिशा में कुछ खास नहीं हुआ। इन वर्गों में बढ़ते असंतोष के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विषय में सितंबर 2018 में एक बैठक ली। इसमें विभिन्न औद्योगिक एसोसिएशनों द्वारा दिए गए आंकड़े निराशाजनक परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं। इन एसोसिएशनों से सम्बद्ध 17788 कंपनियों में से केवल 19 प्रतिशत ने ही सकारात्मक कार्रवाई की स्वैच्छिक संहिता को स्वीकार किया है।
यह आश्चर्यजनक है कि निजी क्षेत्र अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्रों को व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं छात्र वृत्ति देने के मामले में तो उदारता दर्शाता है लेकिन जब इन्हें रोजगार देने की बात आती है तो वह पीछे हटने लगता है। फिक्की, सीआईआई और एसोचैम ने इन समुदायों के क्रमशः 277421, 320188 तथा 36148 लोगों को वोकेशनल ट्रेनिंग दी जबकि इन संस्थाओं से छात्रवृत्ति पाने वालों की संख्या क्रमशः 3118, 159748 तथा 3500 रही। लेकिन सीआईआई और फिक्की में रोजगार पाने वाले अनुसूचित जाति एवं जनजाति के व्यक्तियों की संख्या केवल एक लाख है। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट के अनुसार कम वेतन वाली नौकरियों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों का प्रतिनिधित्व आनुपातिक दृष्टि से बहुत अधिक है जबकि उच्च वेतन वाली नौकरियों में नगण्य के बराबर है।
महिलाओं के लिए भी निजी क्षेत्र ने बहुत अधिक अवसर उत्पन्न किए हों ऐसा नहीं है। यद्यपि संगठित निजी क्षेत्र में 24.3 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ महिलाओं का प्रतिनिधित्व संगठित सार्वजनिक क्षेत्र से अधिक है जहां उनकी मौजूदगी केवल 18.07 प्रतिशत है। नैसकॉम के अनुसार ई कॉमर्स, रिटेल तथा आईटी कुछ ऐसे सेक्टर हैं जहां महिलाओं की हिस्सेदारी क्रमशः 67.7,52 तथा 34 प्रतिशत के आंकड़े के साथ कुछ उम्मीद जगाती है। किंतु कोविड-19 के कारण निजी क्षेत्र के कर्मचारियों ने नौकरियां गंवाईं हैं। इनके वेतन में भी कटौती की गई है। निजी क्षेत्र में कार्यरत महिलाएं इससे सर्वाधिक प्रभावित हुई हैं। बहुत सी महिलाएं पारिवारिक दबावों और कार्यस्थल की आवश्यकताओं के बीच तालमेल न बना पाने के कारण नौकरी छोड़ने को मजबूर हुई हैं।
अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के लाभ तभी हमारे श्रमिकों को मिल सकते हैं जब उनकी कुशलता में सुधार आए। किंतु अकुशल एवं अर्द्ध कुशल श्रमिकों को कुशल बनाने की आशा कम से कम निजी क्षेत्र से तो नहीं की जा सकती। निजी क्षेत्र का उद्देश्य मुनाफा कमाना है न कि हमारे विशाल अप्रशिक्षित श्रमिक वर्ग को स्किल डेवलपमेंट की प्रक्रिया द्वारा योग्य बनाकर उनकी आय बढ़ाना। उसकी पसंद तो पूर्व प्रशिक्षित, कुशल एवं अनुभवी श्रमिक ही होंगे। जाहिर है कि इसकी जिम्मेदारी सरकार को ही उठानी होगी। ऐसा लगा कि मोदी सरकार इस विषय को गंभीरता से लेगी। पहली बार कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय की स्थापना वर्ष 2014 में की गई। जुलाई 2015 से प्रारंभ स्किल इंडिया मिशन के अंतर्गत 2022 तक 40 करोड़ लोगों को रोजगार पाने योग्य स्किल ट्रेनिंग देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। 2016 से शुरू हुई प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना में कंस्ट्रक्शन, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा हार्डवेयर, फूड प्रोसेसिंग,फर्नीचर एवं फिटिंग, हैंडीक्रॉफ्ट, जेम्स और ज्वेलरी तथा लेदर टेक्नोलॉजी जैसे करीब 40 तकनीकी क्षेत्र सम्मिलित किए गए हैं। इसके तहत 2016 से 2020 की अवधि में एक करोड़ युवाओं को कुशल बनाने का लक्ष्य था। किंतु इस अवधि में 50 लाख युवाओं को ही कुशल बनाया जा सका है। योजना के तहत देश भर में खोले गए 2500 केंद्रों में से अनेक बंद हो गए हैं। इन केंद्रों के संचालकों का आरोप है कि सरकार उन्हें काम न देकर केवल बड़े बड़े औद्योगिक घरानों को ही काम दे रही है। सरकार कौशल विकास विषयक नीतियों में बार बार परिवर्तन कर रही है जिससे असमंजस की स्थिति बनी है। कौशल अर्जित करने वाले युवाओं में से केवल 57 प्रतिशत का ही प्लेसमेंट हो पाया है। कुल मिलाकर स्किल इंडिया मिशन मोदी सरकार की अनेक बहुप्रचारित योजनाओं की भांति ही सरकारी विज्ञापनों में ही सफल है। सरकार इसके लिए समुचित बजट तक नहीं देती।
ऑक्सफेम द्वारा जनवरी 2019 में प्रकाशित रिपोर्ट "पब्लिक गुड ऑर प्राइवेट वेल्थ" में असमानता खत्म करने हेतु अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशें की गई हैं। रिपोर्ट के अनुसार सरकारों को स्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य सार्वजनिक सेवाओं की सार्वभौम उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए। इनका निजीकरण बंद हो। सामाजिक सुरक्षा और पेंशन तथा शिशु कल्याण सरकारी नीतियों का अंग हों। सरकारों की सभी योजनाएं महिलाओं के लिए समान रूप से लाभकारी हों। महिलाएं अपने परिवार की देखरेख में बिना किसी भुगतान के लाखों घण्टे खपाती हैं, सरकारी योजनाएं उन्हें इससे मुक्ति दिलाने पर ध्यान केंद्रित करें। कर प्रणाली की समीक्षा के लिए वैश्विक स्तर पर सहमति बनाई जाए। इस हेतु वैश्विक स्तर पर नियमों और संस्थाओं का गठन होना चाहिए। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इनमें विकासशील देशों की परिस्थितियों की उपेक्षा न हो। हमें कॉरपोरेट्स और सुपर रिच लोगों द्वारा किए जाने वाले कर अपवंचन पर रोक लगानी होगी। इन पर अधिक करारोपण करना होगा। करों का बोझ केवल आम आदमी पर न डाला जाए बल्कि यह न्याय संगत होना चाहिए।
हाल ही में अमेरिका जैसे देश में एलेक्जेंड्रिया ओकेसिओ कॉर्टेज, एलिज़ाबेथ वारेन तथा बर्नी सैंडर्स जैसे राजनेताओं ने धनपतियों पर भारी करारोपण का सुझाव देकर कर प्रणाली में सुधार के विषय को आम जनता के बीच बहस का मुद्दा बना दिया है। भारत में भी इस विषय पर खुली चर्चा होनी चाहिए।
हमने सतत विकास लक्ष्य क्रमांक दस हेतु अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है। इसकी भावना के अनुरूप हमें असमानता मिटाने के लिए ठोस एवं समयबद्ध नीतियों तथा कार्य योजना का निर्माण करना ही होगा।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-प्रकाश दुबे
उत्तर प्रदेश को मिले अनेक वरदानों ने उसे प्रश्न प्रदेश बनाने में कम सहयोग नहीं दिया। सुफला नदियों और उर्वर जमीन का लाभ उठाने के लिए स्वार्थ आधारित आर्थिक कारणों ने नया अवतार लिया। बाहुबल, जातीय और धार्मिक तनाव के प्रयोग ने विषमता को बढ़ाया। कई सदियों के इस रोग को राम, कृष्ण आदि के अवतारों के माध्यम से मेलजोल और समता का संदेश देने वाले कवि-कलाकार, साहित्यकार और समाजसेवी सम्मानित हुए। उनके संदेश पर सत्ता की चाह हावी होती गई। समता वंचित नारी सहित विवश जन समुदाय ने कोई नृप होय हमें का हानी। दासी छोड़ न बनिहैं रानी वाली मुद्रा अपना ली। असहाय आम आदमी ने जब जब होय धरम की हानी—तब-तब प्रभु धरि मनुज शरीरा कहते हुए अवतारवाद के आगे घुटने टेक दिए। यह किसी एक धर्म के कारण नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश में भारत के दो प्रमुख धर्मावलंबियों के आस्था और शिक्षण केन्द्र हैं। हथियार और अहिंसा दोनों के बूते देश को आज़ाद कराने सबने कुर्बानी दी है। हिंदी और उर्दू प्रचार पत्रकों में वंदे मातरम और इन्कलाब जिंदाबाद के नारे साथ छपे और लगे। देवबंद से अंग्रेजों को किसी कीमत भगाने का उपदेश दिया गया। स्वतंत्रता मिलने के बाद राम, शिव और कृष्ण के जन्मस्थान पर खींचतान शुरु हुई। फिरंगी जा चुके थे। देश बंट चुका था। घाव गहरे थे। इस राजनीति को समझते हुए संवाद और न्यायपालिका के सहारे नया देश रचने के प्रयास हुए। तनाव और चुनावी आशंकों के बावजूद जिन लोगों का दिमाग ठिकाने रहता है, वे जानते हैं कि धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करने के पीछे सत्ता की ताकत जताना मुख्य उद्देश्य था। सत्ताधारियों ने यह आदत ने तो किसी दूसरे देश से आकर सीखी थी और न अपने पुरखों से। भक्तिमार्गी और मठवादी कुरीतियों से धर्म को मुक्त कर नया पंथ बनाने वालों के हठधर्मी बाहुबली इससे पहले भी तोडफ़ोड़ करते रहे हैं। जिनके प्रमाण साहित्य और इतिहास में दर्ज हैं। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने समाजवादी युवजनों को धार्मिक स्थलों पर अतिक्रमण के घाव दूर करने के लिए प्रेरित किया। केरल के वर्तमान राज्यपाल सहित अनेक जन इस पहल से सहमत थे। डा राम मनोहर लोहिया ने आदिवासी बहुल चित्रकूट में रामायण मेला आयोजित किया। ताकि विषमता पर भी उतना ही कठोर प्रहार हो।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उत्तर भारत में जिन्ना प्रभाव नहीं बना सके। भारत की कुरीतियों का इसमे अपना योगदान है। धर्म बदलने वाला हर ईसाई या मुसलमान समान सामाजिक या आर्थिक दर्जा प्राप्त नहीं कर सका। अन्य धर्म को स्वीकार करने वाले भी अपने को सवर्ण मानते हुए नर-नारी समता तक को स्वीकार नहीं कर सके। दूसरी ओर विवशता, लोभ या आर्थिक संकट से बचाव के लिए धर्म बदलने वाला वंचित वर्ग आज भी गैर बराबरी का बड़ी हद तक शिकार है। मध्यकालीन शासकों ने सिर्फ जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन नहीं कराया। ओहदा और आर्थिक लाभ के लालची उच्चवर्णीय भी गए। तब चुनाव नहीं होते थे। धर्म परिवर्तन, स्वधर्म वापसी और क्षतिग्रस्त आस्था केन्द्र वैचारिक मुद्दा तब भी थे। एक व्यक्ति, एक वोट का युग आया। अब ये राजनीतिक मुद्दा हैं। रामायण के भाष्यकार डा कामिल बुल्के धर्मपरस्तों को पसंद हैं। उनके नाम से पहले फादर जुड़ा होने के बावजूद सम्मान कायम है।कितनों के गले से यह बात उतरेगी कि डा पीसी अलेक्जेंडर को वाजपेयी सरकार राष्ट्रपति बनाना चाहती थी। विरोध कांग्रेस ने किया था।
दुनिया भर में फैला हरे राम हरे कृष्ण आंदोलन भारतीय आस्थावानों को पुलकित करता है। दूसरे धर्म में शामिल होने पर अलग अलग स्थितियों में अलग प्रतिक्रिया होती है। बरसों पहले तमिलनाडु के वंचित-बेरोजगार लोगों ने इस्लाम कबूल करने का ऐलान किया। जर्बदस्त प्रतिक्रिया हुई। ओडिशा में धर्म परिवर्तन की अफवाहों के चलते एक पादरी की सपरिवार हत्या कर दी गई। महाराष्ट्र में इसी तरह के आरोपों में बंदी पादरी की जेल में सुविधाओं के अभाव में मौत हुई। मेवाड़ राजघराने के भांजे दिलीप सिंह जूदेव वर्तमान छत्तीसगढ़ी आदिवासियों के चरण-पूज कर घरवापसी कराते थे। जबर्दस्त लोकप्रियता के बावजूद एक दांव में फंसे। उनका राजनीतिक अवसान हुआ। भारत और अन्य कुछ देशों में धर्मांतरण कर हिंदू धर्म अपनाने वालों का स्वागत होता है। स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन पर न कानूनी रोक और न किसी को आपत्ति होगी। इतना विचार अवश्य होना चाहिए कि पिछले धर्म से आपत्ति रही या उसका पालन कराने वाले समुदायों अथवा सत्ता से। इससे हर धर्म को अपनी कुरीतियों को छोडऩे में मदद मिलेगी। अरब देशों में उदारता की हवा पहुंच रही है। महिलाओं को आंशिक अधिकार, अमानवीय कानूनों और सजा पर पुनर्विचार किया जा रहा है। धार्मिक उदारता में हिंदू धर्म को ऊंचाई से खींचने वालों कारणों में छुआछूत और जातिवाद समाप्त करने के उपायों का लाभ हुआ है परंतु समस्या को अब तक समूल नष्ट नहीं किया जा सका। किसी भी धर्म के प्रति आकर्षण और लगाव तभी होगा जब वह वर्तमान की कसौटी पर खरा उतर सके। सत्ता के बूते खरीदे गए विधायक बदल सकते हैं। धर्म बदलना इतना आसान नहीं होता। धर्मावलंबी संख्या में बढ़ोत्तरी कर राजनीति में लाभ पाने के उदाहरण अधिक नहीं हैं। किसी सरकार में धर्मांतरण का विभाग नहीं हो सकता। इसकी पहली शर्त है-लोकतंत्र को समाप्त करना या फिर जबर्दस्त ज्वार पैदा कर उत्तेजित समुदाय तैयार करना। उसके लिए उपासना के तरीके और स्थल निशाने बनाए जाते हैं।
वर्ष 2021 के आखिरी पखवाड़े में हरनाथ यादव ने उपासना स्थल विशेष उपबंध कानून को निरस्त करने की मांग की ताकि मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि का नए सिरे से निर्माण किया जाए। वर्ष 2002 तक वे इस तरह के कानून के कट्टर हिमायती रहे। समाजवादी पार्टी की बदौलत दो बार उत्तर प्रदेश विधान परिषद में पहुंचे। अगला चुनाव हारते ही पार्टी निष्ठा बदली। उन्हें लपकने में सफल राजनीतिक दल ने सही दांव चला। प्रदेश संगठन में पद, राज्यसभा सदस्यता दी। मैनपुरी वासी हरनाथ को मुलायम सिंह के क्षेत्र का प्रभारी बनाया। उपासना स्थलों में 15 अगस्त 1947 वाली स्थिति रखने का कानून 1991 में प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने बनाया था। लोगों को अपना विचार बदलने का अधिकार है। बानियान में बुद्ध की ऐतिहासिक प्रतिमा तोडक़र तालिबानियों ने कट्टरता को संजीवनी दी। चुनावी लाभ के लिए कट्टरता को मनोरोग बनने से रोकना आसान नहीं रहा। बीते एक अप्रैल को 80 वर्ष पूरे कर चुके हरनाथ जानते हैं कि परिहास का शिकार बनने से कोई भी समाज और देश बचना चाहेगा। सुनील दत्त, नरगिस ने मोर्चे पर तैनात जवानों का मनोरंजन करने की शुरुआत की। सार्वजनिक मंचों पर बड़बोले तुरही वादकों की टोलियां आजकल अन्य धर्मावलंबी को अपशब्द कहकर तालियां मांगकर कमाई करती हैं। दबाव डालकर धर्मांतरण कराना किसी राजनीतिक दल या सत्ता का लक्ष्य नहीं हो सकता। संगठनों को अपने विचार फैलाने की संविधान में गारंटी है। लोकतंत्र और धर्म में श्रद्धा और असहमति की अवहेलना से नए पंथ जन्मे। कोई धर्म इससे नहीं बचा। सहनशीलता के लिए सुपरिचित धर्म और स्वामी विवेकानंद जैसे धर्म विश्लेषक को नारे की तरह इस्तेमाल करना आसान है। एकतरफा प्रचार के बावजूद लोकतंत्र में असहमति कायम रहती है। कविता और लोकतंत्र का दिलचस्प संगम हाल ही नागपुर के खासदार महोत्सव में देखने मिला जहां संचालक ने वीरत्व बेचते कवि पर चुटकी ली-आप तो कोर्स की कविता पढ़ रहे हैं। दूसरी तरफ राजनीति में अपनी हालत का दर्द भी बखान किया। जनप्रतिनिधि इस तरह के आयोजनों से लोकतंत्र को मजबूत करते हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आधार-कार्ड को मतदाता पहचान-कार्ड से जोडऩे के विधेयक को लोकसभा ने पारित कर दिया है। वह राज्यसभा में भी पारित हो जाएगा लेकिन विपक्ष ने इस नई प्रक्रिया पर बहुत-सी आपत्तियां की हैं। उनकी यह आपत्ति तो सही है कि बिना पूरी बहस किए हुए ही यह विधेयक कानून बन रहा है लेकिन इसकी जिम्मेदारी क्या विपक्ष की नहीं है। विपक्ष ने सदन में हंगामा खड़ा करना ही अपना धर्म बना लिया है तो सत्तापक्ष उसका फायदा क्यों नहीं उठाएगा ? वह दनादन अपने विधेयकों को कानून बनाता चला जाएगा। जहां तक आधार कार्ड को मतदाता-कार्ड के साथ जोडऩे का सवाल है, पहली बात तो यह है कि ऐसा करना अनिवार्य नहीं है याने कोई मतदाता पंजीकृत है और उसके पास अपने मतदाता होने का परिचय पत्र है और आधार-कार्ड नहीं है तो उसे वोट डालने से रोका नहीं जा सकता। तो फिर यह बताएं कि आधार कार्ड की जरुरत ही क्या है?
इसकी जरुरत बताते हुए सरकार का तर्क यह है कि कई लोग फर्जी नामों से मतदान कर देते हैं और कई लोग कई बार वोट डाल देते हैं। यदि आधार-कार्ड और मतदाता पहचान-पत्र साथ-साथ रहेंगे तो ऐसी धांधली करना असंभव होगा। यह ठीक है लेकिन यदि किसी व्यक्ति के पास सिर्फ आधार कार्ड है तो क्या उसे वोट डालने का अधिकार होगा? आधार-कार्ड तो ऐसे लोगों को भी दिया जाता है, जो भारत के नागरिक नहीं हैं लेकिन भारत में रहते हैं। वह तो एक तरह का प्रामाणिक पहचान-पत्र है। यदि आधार-कार्ड के आधार पर वोट डालने का अधिकार नहीं है तो मतदान के समय उसकी कीमत क्या होगी? जिनके पास आधार-कार्ड नहीं है या जो उसे सबको दिखाना नहीं चाहते, उन्हें भी वोट देने का अधिकार होगा तो फिर इस कार्ड की उपयोगिता क्या हुई? आधार-कार्ड में उसके धारक की निजता छिपी होती है।
उसके नंबर का दुरुपयोग कोई भी कर सकता है। इसी आधार पर विपक्षी सांसदों ने इस प्रावधान का विरोध किया है। यदि मतदान करते वक्त मतदाता के आधार कार्ड से उसके नाम और नंबर का पता चल जाए और उसे मतपत्र से जोड़ दिया जाए तो यह आसानी से मालूम किया जा सकता है किसने किसको वोट दिया है याने गोपनीयता भंग हो गई। इस डर के मारे हो सकता है कि बहुत-से लोग वोट डालने ही न जाएं। यह भी तथ्य है कि अभी तक 131 करोड़ लोगों ने अपना आधार कार्ड बनवा लिया है। लेकिन यदि इस विधेयक पर विस्तार से बहस होती तो इसकी कमियों और उनसे पैदा होनेवाली शंकाओं को दूर किया जा सकता था। मतदान की प्रक्रिया को प्रामाणिक बनाने के एक उपाय की तरह यह कोशिश जरुर है लेकिन इस पर सांगोपांग बहस होती तो बेहतर होता।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व भारद्वाज
मोदी सरकार का महिलाओं की शादी की उम्र 18 से 21 साल करने का फैसला बिल्कुल बचकाना और नासमझी भरा है। भारत में आज भी 30 प्रतिशत महिलाओं की शादी 18 वर्ष से पहले हो जाती है। 1978 में यह कानून बाल विवाह को रोकने के लिए लाया गया था पर आज भी बाल
विवाह की दर 27 से 47 फीसदी तक है। अगर शादी की उम्र 21 साल हो गई तो यह दर 10 फीसदी तक और बढ़ जाएगी, विवाह से पहले गर्भवती होने की दर 30 फीसदी बढ़ सकती है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि बाल विवाह की दर ज्यादा होने का कारण अशिक्षा और कम जागरूकता नहीं बल्कि इसके पीछे बड़े आर्थिक और सामाजिक कारण है जिसको एड्रेस किए बगैर इस कानून का कोई फायदा नहीं है और उल्टे नुकसान होने की ज्यादा संभावना है। जिन खाते-पीते परिवारों और समाजों में आज भी महिलाओं का बाहर काम करना अच्छा नहीं समझा जाता है। जैसे ही अच्छा बंदा मिलता है वो उनकी शादी कर देते हंै। यहां शिक्षा वाला लॉजिक फेल है।
ग्रामीण और मजदूरों के परिवार में जहाँ दोनों माता-पिता काम करते है वहां लडक़ी 10वीं तक भी पढ़ ली तो माता-पिता उसकी सुरक्षा के कारण उसकी शादी जल्दी ही कर देते हैं। सोचिए अगर वो लडक़ी 12वीं तक भी पढ़ ले तो उसकी उम्र 17-18 हो जाएगी और बहुत से गाँव और कस्बों में कॉलेज नहीं है और 70 फीसदी गरीब ग्रामीण लोग आज भी अपनी बच्चियों को पढऩे नहीं भेजते, शहर नहीं भेजते तो ऐसे में लडक़ी 21 वर्ष तक इंतजार करेंगे क्या? नहीं बिल्कुल नहीं करेंगे और इस कानून की धज्जियां उड़ा देंगे?
अब आप पूछोगे कि इस समस्या का हल क्या है तो सीधा सा उत्तर है जब तक उस शोषित समाज को यह यकीन नहीं हो जाता कि महिलाएं भी पुरुषों के समान आर्थिक रूप से योगदान कर सकती हंै और परिवार को आर्थिक रूप से परिवार को सुरक्षा प्रदान कर सकती हंै तब वो उन्हें कोई बोझ नहीं समझेंगे। इसलिए महिलाओं को रोजगार, शिक्षा और राजनीति में समान भागीदारी और समान प्रतिनिधित्व के अलावा कोई उपाय नहीं है। इसलिए अगले 10 साल तक मैं हर फील्ड में 50 फीसदी महिला आरक्षण का कट्टर समर्थक हूँ।
अगर महिलाएं सुरक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होंगी तो उन्हें किसी कानून की आवश्यकता नहीं होगी। अगर किसी कानून की देश को आवश्यकता है तो वो है महिला आरक्षण। क्योंकि लडक़ी है तो लड़ सकती है और अपने मर्जी से जब चाहे शादी भी कर सकती है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले सप्ताह एक ही समय में दो सम्मेलन हुए। एक भारत में और दूसरा पाकिस्तान में ! दोनों सम्म्मेलन मुस्लिम देशों के थे। पाकिस्तान में जो सम्मेलन हुआ, उसमें दुनिया के 57 देशों के विदेश मंत्रियों और प्रतिनिधियों के अलावा अफगानिस्तान, रुस, अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया जबकि भारत में होनेवाले सम्मेलन में मध्य एशिया के पांचों मुस्लिम गणतंत्रों के विदेश मंत्रियों ने भाग लिया। इन विदेश मंत्रियों ने इस्लामाबाद जाने की बजाय नई दिल्ली जाना ज्यादा पसंद किया। यों भी इस्लामाबाद के सम्मेलन में इस्लामी देशों के एक-तिहाई विदेश मंत्री पहुंचे।
पाकिस्तानी सम्मेलन का केंद्रीय विषय सिर्फ अफगानिस्तान था जबकि भारतीय सम्मेलन में अफगानिस्तान पर पूरा ध्यान दिया गया लेकिन उक्त पांचों गणतंत्रों— कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान और किरगिजिस्तान के साथ भारत के व्यापारिक, आर्थिक, सामरिक और सांस्कृतिक सहकार के मुद्दों पर भी संवाद हुआ। इस तरह का यह तीसरा संवाद है। इन पांचों विदेश मंत्रियों के पाकिस्तान न जाने को भारत की जीत मानना तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि इस सम्मेलन की तारीखें पहले से तय हो चुकी थीं। इस समय तो खेद की बात यह है कि इस्लामाबाद के सम्मेलन में भारत को नहीं बुलाया गया जबकि चीन, अमेरिका और रूस आदि को भी बुलाया गया था। याद रहे कि भारत ने जब अफगानिस्तान पर पड़ौसी देशों के सुरक्षा सलाहकारों का सम्मेलन बुलाया था तो उसमें पाकिस्तान और चीन, दोनों निमंत्रित थे लेकिन दोनों ने उसका बहिष्कार किया। अफगान-संकट के इस मौके पर मैं पाकिस्तान से थोड़ी दरियादिली की उम्मीद करता हूं।
पाकिस्तान भी भारत की तरह कह रहा है कि अफगानिस्तान में सर्वसमावेशी सरकार बननी चाहिए, उसे आतंकवाद का अड्डा नहीं बनने देना है और दो-ढाई करोड़ नंगे-भूखे लोगों की प्राण-रक्षा करना है। भारत ने 50 हजार टन अनाज और डेढ़ टन दवाइयां काबुल भिजवा दी हैं। उसने यह खिदमत करते वक्त हिंदू-मुसलमान के भेद को आड़े नहीं आने दिया। पाकिस्तान चाहे तो इस अफगान-संकट के मौके पर भारत-पाक संबंधों को सहज बनाने का रास्ता निकाल सकता है। 57 देशों के इस अफगान-सम्मेलन में भी इमरान खान कश्मीर का राग अलापने से नहीं चूके लेकिन क्या वे यह नहीं समझते कि कश्मीर को भारत-पाक खाई बनाने की बजाय भारत-पाक सेतु बनाना दोनों देशों के लिए ज्यादा फायदेमंद है? यदि भारत-पाक संबंध सहज हो जाएं तो अफगान-संकट के तत्काल हल में तो मदद मिलेगी ही, मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के राष्ट्रों के बीच अपूर्व सहयोग का एतिहासिक दौर भी शुरु हो जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिव्या आर्य
भारत में शादी करने की न्यूनतम उम्र लडक़ों के लिए 21 और लड़कियों के लिए 18 है। बाल विवाह रोकथाम कानून 2006 के तहत इससे कम उम्र में शादी गैर-कानूनी है, जिसके लिए दो साल की सजा और एक लाख रुपए का जुर्माना हो सकता है। अब सरकार लड़कियों के लिए इस सीमा को बढ़ाकर 21 करना चाह रही है और संबंध में संसद में बिल पेश करने की तैयारी की जा रही है। पर इस बिल को लेकर कई विपक्षी दलों और संगठनों की अपनी शंकाएं भी हैं। इससे पहले सांसद जया जेटली की अध्यक्षता में 10 सदस्यों के टास्क फोर्स का गठन किया गया था जिसे अपने सुझाव नीति आयोग को देने थे।
भारत के बड़े शहरों में लड़कियों की पढ़ाई और करियर के प्रति बदलती सोच की बदौलत उनकी शादी अमूमन 21 साल की उम्र के बाद ही होती है।
यानी इस फैसले का सबसे ज्यादा असर छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में होगा, जहाँ लडक़ों के मुकाबले लड़कियों को पढ़ाने और नौकरी करवाने पर जोर कम है, परिवार में पोषण कम मिलता है, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच मुश्किल है और उनकी शादी जल्दी कर देने का चलन ज़्यादा है।
बाल विवाह के मामले भी इन्हीं इलाक़ों में ज़्यादा पाए जाते हैं।
क्या शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने से इन लड़कियों की जिंदगी सँवर जाएगी?
टास्क फोर्स के साथ इन्हीं सरोकारों पर जमीनी अनुभव बाँटने और प्रस्ताव से असहमति जाहिर करने के लिए कुछ सामाजिक संगठनों ने ‘यंग वॉयसेस नेशनल वर्किंग ग्रुप’ बनाया।
इसके तहत जुलाई महीने में महिला और बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा आदि पर 15 राज्यों में काम कर रहे 96 संगठनों की मदद से 12 से 22 साल के 2,500 लडक़े-लड़कियों से उनकी राय जानने की कवायद की गई।
सीधे से सवाल के जवाब बहुत टेढ़े निकले। राय एक नहीं थी, बल्कि सरकार को कई तरीके से आईना दिखाते हुए लड़कियों ने कुछ और माँगे सामने रख डालीं।
जैसे राजस्थान के अजमेर की ममता जांगिड़, जिन्हें न्यूनतम उम्र बढ़ाने का ये प्रस्ताव सही नहीं लगा, जबकि वो ख़ुद बाल विवाह का शिकार होते-होते बची थीं।
आठ साल की उम्र में हो जाता बाल विवाह
ममता अब 19 साल की हैं, लेकिन जब उनकी बहन 8 साल की थी और वो 11 साल की, तब उनके परिवार पर उन दोनों की शादी करने का दबाव बना।
राजस्थान के कुछ तबकों में प्रचलित आटा-साटा परंपरा के तहत परिवार का लडक़ा जिस घर में शादी करता है, उस घर को लडक़े के परिवार की एक लडक़ी से शादी करनी होती है।
इसी लेन-देन के तहत ममता और उसकी बहन की शादी की माँग की गई पर उनकी माँ ने उनका साथ दिया और बहुत ताने और तिरस्कार के बावजूद बेटियों की जिंदगी ‘खराब’ नहीं होने दी।
ये सब तब हुआ, जब कानून के तहत 18 साल से कम उम्र में शादी गैर-कानूनी थी। ममता के मुताबिक यह सीमा 21 करने से भी कुछ नहीं बदलेगा।
उन्होंने कहा, ‘लडक़ी को पढ़ाया तो जाता नहीं, ना ही वो कमाती है, इसलिए जब वो बड़ी होती है, तो घर में खटकने लगती है, अपनी शादी की बात को वो कैसे चुनौती देगी, माँ-बाप 18 तक तो इंतजार कर नहीं पाते, 21 तक उन्हें कैसे रोक पाएगी?’
ममता चाहती हैं कि सरकार लड़कियों के लिए स्कूल-कॉलेज जाना आसान बनाए, रोजगार के मौके बनाए, ताकि वो मजबूत और सशक्त हो सकें।
आखिर शादी उनकी मर्जी से होनी चाहिए, उनका फैसला, किसी सरकारी नियम का मोहताज नहीं।
यानी अगर कोई लडक़ी 18 साल की उम्र में शादी करना चाहे, तो वो वयस्क है और उस पर कोई कानूनी बंधन नहीं होने चाहिए।
बाल-विवाह नहीं किशोर-विवाह
विश्व के ज़्यादतर देशों में लडक़े और लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 18 ही है।
भारत में 1929 के शारदा कानून के तहत शादी की न्यूनतम उम्र लडक़ों के लिए 18 और लड़कियों के लिए 14 साल तय की गई थी।
1978 में संशोधन के बाद लडक़ों के लिए ये सीमा 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल हो गई।
वर्ष 2006 में बाल विवाह रोकथाम कानून ने इन्हीं सीमाओं को अपनाते हुए और कुछ बेहतर प्रावधान शामिल कर, इस कानून की जगह ली।
यूनिसेफ (यूनाइटेड नेशन्स इंटरनेशनल चिल्ड्रन्स फंड) के मुताबिक विश्वभर में बाल विवाह के मामले लगातार घट रहे हैं, और पिछले एक दशक में सबसे तेज़ी से गिरावट दक्षिण एशिया में आई है।
18 से कम उम्र में विवाह के सबसे ज़्यादा मामले उप-सहारा अफ्रीका (35 फीसदी) और फिर दक्षिण एशिया (30 फीसदी) में हैं।
यूनिसेफ के मुताबिक 18 साल से कम उम्र में शादी मानवाधिकारों का उल्लंघन है। इससे लड़कियों की पढ़ाई छूटने, घरेलू हिंसा का शिकार होने और प्रसव के दौरान मृत्यु होने का खतरा बढ़ जाता है।
इसी परिवेश में सरकार के टास्क फोर्स को लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने पर फैसला उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के हित को ध्यान में रखते हुए करना है।
‘प्री-मैरिटल सेक्स’
भारत में प्रसव के दौरान या उससे जुड़ी समस्याओं की वजह से माँ की मृत्यु होने की दर में काफ़ी गिरावट दर्ज की गई है।
यूनिसेफ के मुताबिक भारत में साल 2000 में 1,03,000 से गिरकर ये आँकड़ा साल 2017 में 35,000 तक आ गया। फिर भी ये देश में किशोरावस्था में होने वाली लड़कियों की मौत की सबसे बड़ी वजह है।
शादी की उम्र बढ़ाने से क्या इस चुनौती से निपटने में मदद मिलेगी?
‘यंग वॉयसेस नेशनल वर्किंग ग्रुप’ की दिव्या मुकंद का मानना है कि माँ का स्वास्थ्य सिर्फ गर्भ धारण करने की उम्र पर निर्भर नहीं करता, ‘गरीबी और परिवार में औरत को नीचा दर्जा दिए जाने की वजह से उन्हें पोषण कम मिलता है, और ये चुनौती कुछ हद तक देर से गर्भवती होने पर भी बनी रहेगी।’
जमीनी हकीकत थोड़ी पेचीदा भी है।
भारत में ‘एज ऑफ कन्सेंट’, यानी यौन संबंध बनाने के लिए सहमति की उम्र 18 है। अगर शादी की उम्र बढ़ गई, तो 18 से 21 के बीच बनाए गए यौन संबंध, ‘प्री-मैरिटल सेक्स’ की श्रेणी में आ जाएँगे।
शादी से पहले यौन संबंध क़ानूनी तो है, लेकिन समाज ने इसे अब भी नहीं अपनाया है।
‘यंग वॉयसेस नेशनल वर्किंग ग्रुप’ की कविता रत्ना कहती हैं, ‘ऐसे में गर्भ निरोध और अन्य स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं तक औरतों की पहुँच कम हो जाएगी या उन्हें ये बहुत तिरस्कार सह कर ही मिल पाएँगी।’
उम्र के हिसाब से नहीं होनी चाहिए शादी
देशभर से लड़कियों से की गई रायशुमारी में कई लड़कियाँ न्यूनतम उम्र को 21 साल तक बढ़ाए जाने के हक़ में भी हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कानून की वजह से वो अपने परिवारों को शादी करने से रोक पाएँगी।
साथ ही वो ये भी मानती हैं कि उनकी जिंदगी में कुछ और नहीं बदला और वो सशक्त नहीं हुईं तो ये कानून बाल विवाह को रोकेगा नहीं, बल्कि वो छिपकर किया जाने लगेगा।
दामिनी सिंह उत्तर प्रदेश के हरदोई के एक छोटे से गाँव में रहती हैं। करीब 70 परिवारों वाले गाँव में ज़्यादातर लोग खेती करते हैं।
दामिनी के मुताबिक शादी देर से ही होनी चाहिए, लेकिन उम्र की वजह से नहीं। जब लडक़ी अपने पैसे कमाने लगे, आत्मनिर्भर हो जाए, तभी उसका रिश्ता होना चाहिए फिर तब उसकी उम्र जो भी हो।
उनके गाँव में सिर्फ पाँच परिवारों में औरतें बाहर काम करती हैं। दो स्कूल में पढ़ाती हैं, दो आशा वर्कर हैं और एक आंगनबाड़ी में काम करती हैं। इनके मुकाबले 20 परिवारों में मर्द नौकरीपेशा हैं।
दामिनी ने बताया, ‘हमारे गाँव से स्कूल छह किलोमीटर दूर है, दो किलोमीटर की दूरी हो तो वो पैदल चली जाएँ, लेकिन उससे ज़्यादा के लिए गरीब परिवार रास्ते के साधन पर लड़कियों पर पैसा नहीं खर्च करना चाहते, तो उनकी पढ़ाई छूट जाती है और वो कभी अपना अस्तित्व नहीं बना पातीं।’
दामिनी के मुताबिक, सरकार को लड़कियों के लिए प्रशिक्षण केंद्र खोलने चाहिए ताकि वो अपने पैरों पर खड़े होकर अपने फैसले खुद कर सकें, और उनके लिए लडऩा पड़े तो आवाज उठा सकें।
लड़कियों को बोझ समझनेवाली सोच
झारखंड के सराईकेला की प्रियंका मुर्मू सरकार के प्रस्ताव के खिलाफ हैं और दामिनी और ममता की ही तरह बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की जरूरत की बात रखती हैं।
उनके मुताबिक मूल समस्या लड़कियों को बोझ समझने वाली सोच है, और जब तक वो नहीं बदलेगी, तय उम्र 18 हो या 21, परिवार अपनी मनमर्जी ही करेंगे।
लेकिन अगर लड़कियाँ कमाने लगें, तो उन पर शादी का दबाव कम हो जाएगा।
प्रियंका का दावा है कि उनके इलाक़े में अब भी बहुत बाल विवाह हो रहे हैं, ‘लोगों को मौजूदा कानून की जानकारी है, लेकिन डर नहीं, किसी मामले में सख्ती से कार्रवाई हो तो कुछ बदलाव आए, वर्ना 21 साल करने से भी कुछ नहीं बदलेगा, क्योंकि घर में लडक़ी की आवाज़ दबी ही रहेगी।’
वो चाहती हैं कि लड़कियों को लडक़ों के बराबर हक़ मिले, ताकि वो ये बेहतर तय कर सकें कि उन्हें शादी कब करनी है।
गलत इस्तेमाल का डर
शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाए जाने से जुड़ा एक डर ये भी है कि लड़कियों की जगह उनके माँ-बाप अपने मतलब के लिए इसका गलत इस्तेमाल कर सकते हैं।
दिव्या मुकंद के मुताबिक, ‘18 साल की वयस्क लड़कियाँ जब परिवार के खिलाफ अपनी पसंद के लडक़े से शादी करना चाहेंगी, तो मां-बाप को उनकी बात ना मानने के लिए क़ानून की आड़ में एक रास्ता मिल जाएगा, नतीजा ये कि लडक़ी की मदद की जगह ये उनकी मर्जी को और कम कर देगा और उनके लिए जेल का खतरा भी बन जाएगा।’
इस कवायद में ज़्यादातर लड़कियों ने इस बात पर जोर दिया कि सरकार जो भी फैसला ले, उससे पहले उनकी बात को तरजीह दे।
उनके मुताबिक वो शादी को अपनी जिंदगी का केंद्र बनाए जाने से थक गई हैं, उनकी जिंदगी की दशा और दिशा वो और पैमानों पर तय करना चाहती हैं।
कविता ने बताया, ‘वो बस अपने मन का करने की आजादी और मजबूती चाहती हैं। सरकार इसमें मदद करे तो सबसे बेहतर।’ (bbc.com/hindi)
-शकील अख्तर
करीब ढाई साल बाद राहुल गांधी जब वापस अमेठी पहुंचे तो उनका जैसा स्वागत हुआ वह चकित कर देने वाला था। छह किलोमीटर की लंबी जनसम्पर्क यात्रा में तिल धरने की जगह नहीं थी। लोग उमड़े पड़ रहे थे और सबसे खास बात यह थी कि उत्साह में थे। उनके साथ छोटी बहन प्रियंका भी थीं। जो 2004 में भी राहुल को अमेठी लेकर गईं थीं। उनका परिचय करवाते हुए कहा था - ये मेरे बड़े भाई है। यहां से चुनाव लड़ेंगे। आपको समर्थन देना है। प्रियंका राजनीति में बहुत देर से आई मगर अमेठी रायबरेली बहुत पहले से आती रही हैं। 40 साल पहले 1981 में जब राजीव गांधी पहली बार चुनाव लड़े, तो छोटी सी प्रियंका बॉब कट बालों में राजीव के साथ वहां आईं थीं। लोगों ने उन्हें प्यार से 'भैया जी' कहा। आज भी अमेठी और रायबरेली में उन्हें भैया जी कहा जाता है। और वैसा ही प्यार और सम्मान मिलता है।
2019 की अमेठी की हार ने राहुल से ज्यादा प्रियंका को चोट पहुंचाई थी। 1999 में जब अमेठी से पहली बार सोनिया चुनी गईं। तब से प्रियंका ही अमेठी और रायबरेली का काम देख रही थीं। सोनिया और राहुल का अपने संसदीय क्षेत्रों में कम दखल था सभी महत्वपूर्ण फैसले प्रियंका ही करती रही हैं। लेकिन वहां के लोगों की नाराज़गी का सिलसिला 2014 से ही शुरू हो गया था। अभी अमेठी में दोनों ने जैसी संयुक्त रैली निकाली, वैसी ही 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अमेठी के जायस में निकालना पड़ी थी। उससे पहले कभी संयुक्त रैली की जरूरत नहीं पड़ी थी।
सच तो यह है कि राहुल और सोनिया अपने संसदीय क्षेत्रों में चुनाव के दौरान भी गिनती के बार ही जाते थे। प्रियंका ही सारी चुनाव व्यवस्था करती थीं। प्यार से, डांट कर, लड़ कर वे कार्यकर्ताओं से काम लेती रहती थीं। मगर दस साल सरकार के दौरान वहां बीच के कुछ लोग ज्यादा ही मदमस्त हो गए थे। उन पर नियंत्रण नहीं हो सका था। जिन्हें क्षेत्र की ज़िम्मेदारी दी गई उन्होंने कार्यकर्ताओं की बात सुनना, जनता से मिलना बंद कर दिया था। ऐसा नहीं है कि यह शिकायतें गांधी नेहरू परिवार के पास नहीं पहुंची थीं मगर जिस पर विश्वास कर लिया, उस पर कर लिया के स्वभाव से मजबूर परिवार ने बरसों से जमे लोगों के खिलाफ कुछ नहीं किया। और ज़्यादा सच यह है कि सुनना भी पसंद नहीं किया।
नतीजा यह हुआ कि प्रसिद्ध कवि मलिक मोहम्मद जायसी के नाम पर बसे शहर जायस की रैली से प्रियंका बाजी पलटने में सफल तो हो गईं। राहुल जीते मगर बहुत कम मार्जिन से। केवल 12 प्रतिशत के अंतर से। जबकि 2009 में 57 प्रतिशत के शानदार फ़र्क से वे जीते थे। 2014 से 2019 तक बहुत समय था मगर कोई समीक्षा नहीं हुई। उन लोगों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई जिनकी वजह से लोगों में नाराज़गी थी। नतीजा राहुल की हार के रूप में सामने आया। मगर यह कुछ ख़ास नहीं था। 2014 के घटनाक्रम का विस्तार ही था। अमेठी में भी और देश में भी।
परिवार ने जिस तरह अमेठी में जमे हुए लोगों को नहीं हटाया, उसी तरह देश की राजनीति में भी किया। दस साल यूपीए की सरकार रही। और दस साल पूरे एक ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दिए। एक ही उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को दिए। 15 साल दिल्ली में शीला दीक्षित, असम में गोगोई, दस साल हरियाणा में भूपेंद्र हुड्डा को दिए। इसके बहुत सारे दुष्परिणाम हुए। नया नेतृत्व विकसित नहीं हो पाया। दूसरी पंक्ति के नेता निराशा से भरते चले गए। जम गए नेताओं ने कार्यकर्ताओं की बात सुनना बंद कर दिया। नए विचार आना बंद हो गए। और नेता खुद को तोपचंद समझने लगे। जनता वोट देती थी कार्यकर्ताओं की मेहनत और परिवार के प्रति आस्था के कारण। लेकिन नेताओं को गुमान हो गया कि वोट उन्हें मिलते हैं।
अभी पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर सिंह का उदाहरण ताज़ा है। विधायकों का बहुमत खोते ही उन्होंने सीधा यू टर्न ले लिया। भाजपा से मिल गए। ऐसे ही जी 23 के कई नेता भाजपा के साथ जाने की जुगाड़ में लगे हुए हैं। अभी जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारी जयपुर के महंगाई हटाओ सम्मेलन से लौटते हुए दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले थे। सोनिया ने दुखी भाव से उनसे पूछा कि गुलाम नबी आज़ाद को क्या नहीं दिया? अब और क्या चाहिए ? आज़ाद जम्मू कश्मीर में मोदी की तारीफ़ करते हुए, राहुल और प्रियंका पर सवाल उठाते हुए घूम रहे हैं। बिना प्रदेश कांग्रेस को विश्वास में लिए खुद सम्मेलन कर रहे हैं। 26 दिसंबर को सीमावर्ती क्षेत्र छम्ब में एक बड़ा सम्मेलन करने की उनकी तैयारी है।
सोनिया ने जम्मू कश्मीर के नेताओं से पूछा कि इस समय भाजपा और मोदी से लड़ने की जरूरत है या कांग्रेस से? जम्मू कश्मीर के नेता क्या जवाब देते? वे तो आज से कई साल पहले कह चुके थे कि आज़ाद अपने लोगों को आगे बढ़ा रहे हैं। कांग्रेस के वफ़ादार लोगों को नहीं। मगर जैसा कि परिवार की आदत है कि वह शिकायत नहीं सुनती। इसे भी तथ्य नहीं, शिकायत माना गया। कम लोगों को याद होगा कि कई साल पहले कांग्रेस में एक अखिल भारतीय महासचिव गुलचैन सिंह चंडोक बनाए गए थे। उन्हें बिहार का प्रभारी बनाया गया था। यह कौन थे किसी को नहीं पता।
कांग्रेस में महासचिव पद और फिर राज्य का प्रभारी बहुत बड़ा पद होता है। लेकिन जम्मू से आने वाले स्कूल, कालेजों और प्रॉपर्टी के बड़े कारोबारी के रूप में पहचान रखने वाले यह शख़्स कांग्रेस में अचानक बड़े नेता बन गए। किस की मेहरबानी से? और क्यों? इससे बिहार को कितना नुक़सान हुआ? यह एक अलग अध्याय है। मगर कांग्रेस में पूरी ज़िन्दगी गुज़ार देने वाले लोग सचिव तक नहीं बन पाते। ये महाशय महासचिव बनकर दिल्ली कांग्रेस मुख्यालय में बैठते थे। जम्मू कश्मीर के पार्टी के समर्पित नेताओं ने यह उस समय भी पूछा था। मगर जैसा कि परंपरा है, जिस पर विश्वास है तो आंखें बंद करके है। वह किसी भी नाम की सिफारिश कर दे उसे ऊंचे से ऊंचा ओहदा दे दिया जाएगा। बहुत उदाहरण हैं। उन सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा और भारत रत्न तक दे दिया गया। जो अभी किसानों के खिलाफ ट्वीट कर रहे थे।
लेकिन अभी अमेठी के लोगों ने वापस राहुल का दिल से स्वागत करके बताया कि जनता इस परिवार को प्यार करती है और विश्वास करती है। हार-जीत अलग बात है। मगर रायबरेली तो 1952 के पहले चुनाव से जब फिरोज़ गांधी जीते थे से लेकर अमेठी जहां से 1980 में संजय गांधी पहला चुनाव जीते थे तक परिवार को जिताती रही। एक बार 1977 में रायबरेली से इन्दिरा गांधी को और 2019 में अमेठी से राहुल को छोड़कर। परिवार भी इस प्यार को जानता है। इसलिए बार बार ताक़त वापस आने यहीं आता है।
अमेठी की हवा बाकी यूपी में कितना असर करेगी, कहना मुश्किल है। मगर यह परिवार के लिए ज़रूर एक सबक है कि जनता - जिससे ये कभी विमुख नहीं हुए, और कार्यकर्ता - जिसकी सुनवाई ज़रूर कमज़ोर हो गई है, के महत्व को फिर से स्थापित किया जाए। नेताओं की पार्टी और सिद्धांतों के लिए प्रतिबद्धता की कसौटी कड़ी की जाए। यूपीए के दस साल ये नेता मंत्री पदों और संगठन के महत्वपूर्ण स्थानों पर रहकर क्या कर रहे थे इसकी पार्टी जांच करे। ग़लत लोगों को अगर अभी भी प्रश्रय देना बंद नहीं किया गया तो राहुल और प्रियंका की राजनीति में यह समस्या बनते रहेंगे। भाजपा, सपा, बसपा, आरजेडी, टीएमसी, आप, कम्युनिस्ट पार्टियां, एनसीपी, शिवसेना, अकाली किसी भी पार्टी में ऐसी अनुशासनहीनता है? कहीं कोई अपने शीर्ष नेता को चुनौती देते घूमता है? कांग्रेस को यह समझना चाहिए।
- प्रकाश दुबे
बुजर्गों का ध्यान रखने में योगी आदित्यनाथ का सानी नहीं है। महात्मा गांधी से लेकर पं दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी होते हुए नरेन्द्र मोदी तक जा पहुंचे। अखिलेश को नाम लिए बगैर रगड़ दिया। कहा-हम पिता को भुला नहीं देते। बुजुर्गों को पेंशन देते हैं। चुनाव पूर्व अनुदान मांगों पर उत्तर देते हुए मुख्यमंत्री पांच साल पुराना प्रसंग याद दिला रहे थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मंत्री काका शिवपाल से सारे विभाग छीने। पिता मुलायम सिंह ने अखिलेश की जगह शिवपाल को प्रदेश पार्टी की कमान सौंपी। दूरी बढ़ी। लोकसभा चुनाव में शिवपाल ने योगी-मोदी की मदद कर दी। बजट मांगों में योगी ने पांसा फेंका। बुजुर्गों की पेंशन बढऩे की घोषणा की। बहू डिंपल और भतीजे धर्मेन्द्र को हराने वाले शिवपाल राजनीतिक पेंशन और चुनावी तोहफे के मोह से बचे। योगी बाबा के बजट के दो दिन बाद अखिलेश ने काका के घर जाकर चरण छुए। चुनावी तालमेल कर लिया।
जरा सामने तो आओ छलिए
कोलकाता नगर निगम के चुनाव में चेहरा गायब है, आवाज गूंज रही है। भारतीय जनता पार्टी वाले बाबुल सुप्रियो का तृणमूल की धज्जियां उड़ाने वाला गाना बजा रहे हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बाबुल मंच पर गाते थे। अब तृणमूल कांग्रेस पार्टी में शामिल हो चुके हैं। इसके मुकाबले ममता बनर्जी के हाथ दूसरा हथियार मिला। यूनेस्को ने दुर्गा पूजा को सांस्कृतिक विरासत में शामिल कर लिया। ममता बनर्जी केन्द्र सरकार की खिंचाई करते हुए प्रचार में कहती रहीं कि हमारी साझी विरासत को यूनेस्को ने माना। विधानसभा चुनाव से पहले इसकी घोषणा होती तो बात ही अलग थी। अब तो इस एक मुद्दे पर ही कोलकाता निगम चुनाव में वोट मिलेंगे। ममता के निशाने पर केन्द्र सरकार है। वैसे भी वे गोवा जाकर कह आईं कि हमारी पार्टी टीएमसी में टी टेंपल मंदिर एम मस्जिद और सी गिरजाघर चर्च समझना। विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार में जुटे कई घायल शेर बाबुल सुप्रियो की तरह कोलकाता से लापता हैं।
आह और वाह की परवाह
दिन बुधवार और निमित्त प्रवर्तन निदेशालय। दो शब्दों में कहें तो ईडी। उच्चतम न्यायालय ने उषा मार्टिन केस में केन्द्रीय जांच एजेंसियों को फटकार लगाई। भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमणा की खंडपीठ ने आप सौ रुपए की भी जांच करने पहुंच जाओगे। जिस अधिनियम के अंतर्गत काम करते हो, उसे पनीला बना रहे हो। सरकार का पक्ष लेने वाले अतिरिक्त सालिसिटर जनरल एस वी राजू की बोलती बंद। तीसरे दिन आयकर दस्ते अखिलेश यादव के नजदीकी लोगों के घर जा पहुंचे। फटकार को उस किस्से से मत जोडि़ए। चुनाव पास हों या दूर ईडी, सीबीआई या आयकर वाले मेहमान राजनीति से जुड़े लोगों के पास आते रहते हैं। उषा मार्टिन नाम की कंपनी पर ईडी ने धावा बोला। यह कंपनी बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल से दैनिक अखबार प्रकाशित करती है। नामी पत्रकार हरिवंश उसके आद्य संपादक थे। इन दिनों राज्यसभा के उपसभापति हैं। नीतीश कुमार के मित्र। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के प्रेस सलाहकार रहे। इस तरह की जानकारी से चकित होने का रिवाज खत्म हो चुका है।
बिजली गुल
मोहम्मद अजहर उद्दीन के नाम से अब भले बिजली न दौड़े, अपने वक्त में क्रिकेट और बखेड़ों के कारण चर्चित रहे। नाम का नूर कायम है। इसलिए केन्द्रीय मंत्री अमित शाह के बेटे और अनुराग ठाकुर के भाई की देखरेख में पनपने वाले क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से जुड़े हैं। अजहर लोकसभा सदस्य रह चुके हैं। उनको हैदराबाद क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष बनाने के बावजूद अंधेरा नहीं छंटा। अध्यक्ष के हवाई अड्डे पर उतरने से पहले ही राजीव गांधी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम की बिजली काट दी गई। बिजली का बरसों से करीब डेढ़ करोड़ रुपए बकाया है। उससे ज्यादा एक करोड़ चौसठ लाख जुर्माना। चालीस दिन तक किसी ने नोटिस पर ध्यान नहीं दिया। छह साल पहले बिजली चोरी के कारण करीब तीन करोड़ रुपए जुर्माना ठोंका गया था। क्रिकेट के सट्टे में करोड़ों कमाने वालों और इस कारोबार से अरबपति बनने वाले खिलाडिय़ों और खेल संचालकों ने तवज्जो नहीं दी। बिजली गुल करने वालों ने तनिक भी न सोचा कि पत्नी का नाम संगीता बिजलानी है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रविवार को गोवा में गोवा मुक्ति दिवस (गोवा लिब्रेशन डे) समारोह में शामिल होंगे.
इस दौरान प्रधानमंत्री ऑपरेशन विजय में शामिल रहे पूर्व सैनिकों को सम्मानित भी करेंगे.
गोवा की आज़ादी में अहम भूमिका निभाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के सम्मान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आग्वाडा फोर्ट जेल में संग्रहालय का अनावरण भी करेंगे.
इसके अलावा मोदी गोवा में कई विकास कार्य योजनाओं का उद्घाटन भी करेंगे.
गोवा लिब्रेशन डे हर साल 19 दिसंबर को मनाया जाता है. इस दिन गोवा में सरकारी छुट्टी भी रहती है.
भारतीय सेना ने गोवा को पुर्तगाल के शासन से मुक्त कराने के लिए ऑपरेन विजय चलाया था. इस ऑपरेशन के कामयाब होने के बाद गोवा भारत में शामिल हो गया था. इसी की याद में गोवा लिब्रेशन डे मनाया जाता है.
भारतीय सेना के ऑपरेशन विजय के 36 घंटों के भीतर ही पुर्तगाली जनरल मैनुएल एंटोनियो वसालो ए सिल्वा ने "आत्मसमर्पण" के दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिए थे.
गोवा का इतिहास
वास्को डी गामा 1498 में भारत आए और इसके 12 वर्षों के भीतर पुर्तगालियों ने गोवा पर कब्ज़ा जमा लिया था.
1510 से शुरू हुआ पुर्तगाली शासन गोवा के लोगों को 451 सालों तक झेलना पड़ा.
लेकिन गोवा को ये आज़ादी आसानी से नहीं मिली थी.
बँटवारे और भयावह सांप्रदायिक हिंसा के बाद भारत को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिल गई लेकिन गोवा पुर्तगाल के ही कब्ज़े में रहा.
यहां तक कि 1954 में फ़्रांसीसी पांडिचेरी छोड़कर चले गए मगर गोवा आज़ाद नहीं हो पाया.
गोवा में ममता बनर्जी की बढ़ी दिलचस्पी की वजह क्या है?
भारत सरकार ने 1955 में गोवा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए. इन प्रतिबंधों के जवाब में पुर्तगाल ने क्या किया, इसकी जानकारी गोवा में रहने वाले एक बुज़ुर्ग होटल व्यवसायी ने बीबीसी को दी थी. तब हिगिनो रोबेलो की उम्र 15 साल थी.
उन्होंने बताया, "हम वास्को में रहते थे जो मुख्य पोर्ट था. भारतीय प्रतिबंध के बाद नीदरलैंड्स से आलू, पुर्तगाल से वाइन, पाकिस्तान से चावल और सब्ज़ियां और श्रीलंका (तब सीलोन) से चाय भेजी जाने लगी."
पुर्तगाली दमन से परेशान गोवा के हिंदुओं और कैथोलिक ईसाइयों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ली और ख़ुद को संगठित करना शुरू किया.
गोवा से पुर्तगालियों को हटाने के काम में एक क्रांतिकारी दल सक्रिय था, उसका नाम था- आज़ाद गोमांतक दल. विश्वनाथ लवांडे, नारायण हरि नाईक, दत्तात्रेय देशपांडे और प्रभाकर सिनारी ने इसकी स्थापना की थी.
इनमें से कई लोगों को पुर्तगालियों ने गिरफ़्तार करके लंबी सज़ा सुनाई और इनमें से कुछ लोगों को तो अफ़्रीकी देश अंगोला की जेल में रखा गया.
विश्वनाथ लवांडे और प्रभाकर सिनारी जेल से भागने में कामयाब रहे और लंबे समय तक क्रांतिकारी आंदोलन चलाते रहे.
आख़िरकार आज़ादी कैसे मिली?
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आज़ादी मिलने से कुछ महीने पहले एक बयान में कहा कि "गोवा की पराधीनता भारत के गाल पर एक छोटी-सी फुंसी है, जिसे अंग्रेज़ों के जाते ही आसानी से मसलकर हटाया जा सकता है."
गोवा को 19 दिसंबर 1961 को कैसे आज़ादी मिली, इसकी कहानी बहुत दिलचस्प है. जिस फुंसी की बात नेहरू कर रहे थे, उसे मसलना उतना आसान नहीं था जितना उन्होंने सोचा था.
पुर्तगाल आसानी से गोवा को छोड़ने के मूड में नहीं था, वह नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नेटो) का सदस्य था और नेहरू किसी सैनिक टकराव से हिचक रहे थे.
प्रधानमंत्री नेहरू ने गोवा की आज़ादी की आज़ादी के लिए कई कूटनीतिक प्रयास किए लेकिन वो नाकाम रहे.
1961 के नवंबर महीने में पुर्तगाली सैनिकों ने गोवा के मछुआरों पर गोलियां चलाईं जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई, इसके बाद माहौल बदल गया. भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री केवी कृष्णा मेनन और नेहरू ने आपातकालीन बैठक की.
इस बैठक के बाद 17 दिसंबर को भारत ने 30 हज़ार सैनिकों को ऑपरेशन विजय के तहत गोवा भेजने का फ़ैसला किया, इस ऑपरेशन में नौसेना और वायुसेना भी शामिल थी.
भारतीय सेना की बढ़त को रोकने के लिए पुर्तगालियों ने वास्को के पास का पुल उड़ा दिया. लेकिन 36 घंटे के भीतर पुर्तगाल ने कब्ज़ा छोड़ने का फ़ैसला कर लिया.
साढ़े चार सौ साल तक पुर्तगाली राज के बाद 1961 में एक नए गोवा का जन्म हुआ जो आज़ाद था और पश्चिम और पूर्वी संस्कृति का एक हसीन संगम भी था.
पुर्तगाली शासन से आज़ादी के 60 साल बाद भी गोवा की संस्कृति और ज़िंदगी पर पुर्तगाल का असर है.
गोवा अब पर्यटन के लिए दुनियाभर में अपनी पहचान बना चुका है और यहां पर्यटन नावों पर अब भी पुर्तगाली संगीत सुनाई है.
गोवा में पुर्तगाल की सबसे जीती जागती निशानी यहां का ईसाई धर्म है. यहां के ईसाइयों के नाम भी अधिकतर पुर्तगाली ही हैं.
पुर्तगाल के शासन के दौरान बहुत से स्थानीय निवासियों ने ईसाई धर्म अपना लिया था. इनमें स्थानीय ब्राह्मण भी शामिल थे.
गोवा के अधिकतर बड़े गिरजाघर पुर्तगाल के काल में ही बने हैं. कैथोलिक चर्च गोवा के ईसाइयों की ज़िंदगी में अहल रोल अदा करता है. यह परंपरा पुर्तगाल के काल से चली आ रही है.(bbc.com)
तेरह दिसम्बर, 2021 के दिन को ऐतिहासिक बनाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी का काशी विश्वनाथ कॉरिडोर अपने असंख्य हिंदू भक्तों को समर्पित कर दिया। इस अवसर पर उन्होंने कहा :'विश्वनाथ धाम का यह नया परिसर एक भव्य भवन भर नहीं है। यह प्रतीक है हमारे भारत की सनातन संस्कृति का। यह प्रतीक है हमारी आध्यात्मिक आत्मा का। यह प्रतीक है भारत की प्राचीनता का, परम्पराओं का। भारत की ऊर्जा का, गतिशीलता का।’
कोई पाँच दशक पहले (22 अक्टूबर, 1963), देश के प्रथम प्रधानमंत्री और ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के रचनाकार पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पंजाब में सतलुज नदी पर निर्मित भारत की सबसे बड़ी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना राष्ट्र को समर्पित करते हुए कहा था :'मेरी आँखों के सामने एक नमूना हो जाता है ये काम, सारे हिंदुस्तान के बढ़ने का, हिंदुस्तान की एकता का। आप इसे एक मंदिर भी पुकार सकते हैं या एक गुरुद्वारा भी या एक मस्जिद।’ लगभग 284 करोड़ रुपए की लागत से निर्मित तब के इस सबसे बड़े बांध के पूरा होने के पहले नेहरू तेरह बार निर्माण-स्थल पर गए थे।
एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक राष्ट्र के नागरिक होने के तौर पर क्या हम यह विचार नहीं करना चाहते कि 1963 के बाद के लगभग साठ साल की विकास यात्रा के बाद आधुनिक भारत के मंदिरों के स्थान अचानक से क्यों और कैसे बदल गए? पौराणिक महत्व के मान्य स्थलों के जीर्णोद्धार/पुनरुद्धार के ज़रिए देश में धार्मिक क्रांति और आध्यात्मिक/साम्प्रदायिक पुनर्जागरण तो हो सकता है, आर्थिक-सामाजिक न्याय की कल्पना कैसे साकार की जा सकती है? क्या भय नहीं महसूस होता कि आगे बढ़ने के स्थान पर देश को किसी ऐसे कालखंड में धकेला जा रहा है जो नागरिकों को किसी काल्पनिक मोक्ष की प्राप्ति तो करवा सकता है, साक्षात रोटी और रोज़गार नहीं दिला सकता!
काशी-विश्वनाथ धाम की यात्रा से कोई दो सप्ताह पहले नवम्बर के अंतिम रविवार को प्रसारित ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने एक ऐसी बात कही थी जिस पर उन विशेषज्ञों ने भी ध्यान नहीं दिया जो अनंतकाल तक सत्ता में बने रहने की लालसा रखने वाले शासनाध्यक्षों के मनोविज्ञान का बारीकी से अध्ययन करते हैं। ‘मन की बात’ कार्यक्रम में आयुष्मान कार्ड के ज़रिए इलाज करवाने वाले एक व्यक्ति ने जब मोदी को सत्ता में बने रहने का आशीर्वाद दिया तो प्रधानमंत्री ने जवाब दिया :'मुझे सत्ता में बने रहने का आशीर्वाद मत दीजिए, मैं हमेशा सेवा में जुटे रहना चाहता हूँ।’
सत्ता के मुक़ाबले सेवा में जुटे रहने की बात प्रधानमंत्री के किसी स्क्रिप्ट लेखक के दिमाग़ की उपज हो सकती है इसमें संदेह है। इस बात में भी शक है कि उनके किसी सलाहकार की इतनी हिम्मत हो सकती है कि नेहरू के क़द का कोई वाक्य ऐसी शख़्सियत के मुँह से प्रकट करा दे जिसने आधुनिक भारत के मंदिरों की परिभाषा को पूरी तरह से उलट दिया है। लगता यही है कि चर्चा के दौरान किसी कमजोर क्षण में इस तरह की बात मुँह से निकल गई होगी।
देश के नागरिकों में अब यह जिज्ञासा प्रबल हो जाना चाहिए कि वे अपने प्रधानमंत्री को किस तरह के भारत-निर्माता के रूप में याद करना और उनके शासनकाल में पुनर्लिखित किस तरह के इतिहास को अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों के हाथों में सौंपना चाहेंगे! विश्व नागरिक के रूप में हम इस समय जिस कालखंड के साक्षी हैं उसमें अमेरिका, चीन, रूस, ब्राज़ील, तुर्की, सीरिया आदि देशों के शासन प्रमुख अलग-अलग तरीक़ों से इतिहास बनाने में जुटे हैं। इनमें शायद ही कोई हो जो नेहरू, तब के युगोस्लाविया के मार्शल टीटो, मिस्र के अब्दुल गमाल नासिर, अमेरिका के रूज़वेल्ट या कैनेडी, ब्रिटेन के चर्चिल के क़द का हो। अपने वर्तमान प्रधानमंत्री को हम किनके साथ रखना चाहेंगे?
चिंता के साथ कल्पना की जा सकती है कि आने वाले समय में देश की मूल समस्याओं को नागरिकों द्वारा भुला दिए जाने या उनसे इस आशय का अभिनय कराने के उद्देश्य से जीर्णोद्धार के काम के लिए नए-नए धार्मिक स्थलों की खोज उन मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में कराई जाए जिन्हें वाराणसी में विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया था। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की अपनी महत्वाकांक्षाओं को राष्ट्रीय चेतना के अलिखित घोषणापत्र में भी तब्दील कर सकते हैं। इसमें यह भी समाहित है कि किसी नए नामकरण के साथ ‘भारत’ एक हिंदू राष्ट्र के रूप में घोषित/स्थापित कर दिया जाए। चूँकि ऐसा करना हमारा अंदरूनी मामला होगा, किसी अन्य राष्ट्र को हस्तक्षेप का अधिकार भी नहीं होगा। तर्क दिया जा रहा है कि :'दुनिया में या तो ईसाई राष्ट्र हैं या फिर मुसलिम। अतः एक हिंदू राष्ट्र भी क्यों नहीं हो सकता? जिस तरह ईसाई और मुसलिम राष्ट्रों में दूसरे धर्मों और आस्थाओं के लोग रहते हैं उसी तरह से एक हिंदू राष्ट्र में भी मुसलिम और अन्य धर्मों के लोग रह सकते हैं। दुनिया में कोई एक हिंदू राष्ट्र भी होना चाहिए !(नेपाल किसी समय एक हिंदू राष्ट्र के तौर पर जाना जाता था पर हिंदू बहुल जनसंख्या के बावजूद 2008 से वह एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।)’
संघ और भाजपा अगर मोदी को ऐसे बड़े हिंदू नायक के रूप में स्थापित करने का इरादा रखते हैं, जो अठारहवीं शताब्दी की महारानी अहिल्या बाई होलकर की तरह से देश भर में मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार करने वाले हैं, तो हम राष्ट्र के एक नए युग में प्रवेश करने की कल्पना से रोमांचित भी हो सकते हैं और सिहर भी सकते हैं। तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में ‘एक नई शुरुआत करने और नए सिरे से आगे बढ़ने’ की बात कही थी। जिस समय किसान सिंधु, ग़ाज़ीपुर और टिकरी बॉर्डर से अपने घरों को लौट रहे थे, काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर से देश में एक नई शुरुआत करने के स्वर और संकेत चारों दिशाओं में गूंज रहे थे।
भारत में केंद्र सरकार ने भले ही लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाकर 21 साल करने का फैसला किया हो, लेकिन इससे बाल विवाह पर अंकुश लगाना आसान नहीं होगा. समस्या की जड़ें सामाजिक और आर्थिक हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
केंद्र सरकार के ताजा फैसले के बाद यही सवाल पूछा जा रहा है किया कानून में संशोधन से बाल विवाह पर अंकुश लगेगा. पहले जब न्यूनतम उम्र 18 साल थी तब भी पश्चिम बंगाल समेत देश के कई दूसरे राज्यों से अक्सर बाल विवाह की खबरें सामने आती रहती थी. खासकर कोरोना महामारी के दौरान तो बाल विवाह की तादाद और बढ़ी है. वर्ष 2011 की जनगणना में यह तथ्य सामने आया था कि युवतियों के बाल विवाह के मामले में बंगाल सबसे आगे है. राज्य में यह औसत 7.8 फीसदी था जो राष्ट्रीय औसत (3.7 फीसदी) के मुकाबले दोगुने से भी ज्यादा था.
इन आंकड़ों में भले मामूली हेरफेर हुआ हो, कुल मिला कर हालात जस के तस हैं. अब 43 साल बाद कानून में यह अहम बदलाव होने जा रहा है. मोटे अनुमान के मुताबिक, देश में हर साल लगभग 15 लाख लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में होती है. 15 से 19 साल की उम्र की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां शादीशुदा हैं.
ताजा फैसला
बाल विवाह पर अंकुश लगाने के प्रयास के तहत केंद्र ने अब लड़कियों की शादी की उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी है. नए प्रस्ताव के मंजूर होने के बाद अब सरकार बाल विवाह निषेध कानून, स्पेशल मैरिज एक्ट और हिंदू मैरिज एक्ट में संशोधन करेगी. नीति आयोग में जया जेटली की अध्यक्षता में साल 2020 में बने टास्क फोर्स ने इसकी सिफारिश की थी. इस टास्क फोर्स का गठन "मातृत्व की आयु से संबंधित मामलों, मातृ मृत्यु दर को कम करने, पोषण स्तर में सुधार और संबंधित मुद्दों" की जांच कर उचित सुझाव देने के लिए किया गया था.
टास्क फोर्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पहले बच्चे को जन्म देते समय लड़की की उम्र 21 वर्ष होनी चाहिए. यूनीसेफ ने दो साल पहले अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि देश के कई राज्यों में बाल विवाह के मामले अक्सर सामने आने के बावजूद बहुत कम मामलों में ही दोषियों के खिलाफ कार्रवाई हो पाती है.
वर्ष 1929 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की ओर से बनाए गए एक कानून के तहत शादी के लिए लड़कियों की न्यूनतम उम्र 14 साल और लड़कों की 18 साल तय की गई थी. वर्ष 1978 में इसमें संशोधन कर इसे बढ़ा कर क्रमशः 18 और 21 साल कर दिया गया था. लेकिन ऐसे तमाम संशोधनों के बावजूद बाल विवाह पर पूरी तरह अंकुश नहीं लगाया जा सका है. यही वजह है कि अब ताजा फैसले के बाद सवाल उठने लगा है कि क्या इससे बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई पर पूरी तरह अंकुश लगाया जा सकेगा? भारत में ही सबसे ज्यादा बाल विवाह होते हैं.
बंगाल में भी
पश्चिम बंगाल जैसा राज्य भी बाल विवाह के मामले में शीर्ष तीन राज्यों में शामिल हैं. सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद इस पर ठोस तरीके से अंकुश नहीं लगाया जा सका है. यह स्थिति तब है जब ममता बनर्जी सरकार ने बाल विवाह पर अंकुश लगाने के लिए कन्याश्री समेत कई योजनाएं शुरू की हैं.
कलकत्ता हाईकोर्ट ने बीते साल आए अम्फान तूफान के बाद राज्य के ग्रामीण इलाकों में बढ़ते बाल विवाह की घटनाओं पर चिंता जताते हुए राज्य बाल संरक्षण आयोग को इस पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाने का निर्देश दिया था. आयोग में बाल विवाह और बाल तस्करी के मामले देखने वाले आयोग की विशेष सलाहकार सुदेष्णा राय बताती हैं, "बीते साल अम्फान और कोरोना महामारी के दौरान ऐसी दो सौ से ज्यादा शिकायतें मिली थीं. इनमें से ज्यादातर सही पाई गईं."
गैर-सरकारी संगठन सेव द चिल्ड्रेन के उपनिदेशक (पूर्व) चित्तप्रिय साधु कहते हैं, "पश्चिम बंगाल में पहले से ही दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा बाल विवाह होते रहे हैं. नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) की चौथी रिपोर्ट में कहा गया था कि 20 से 24 साल की 41 फीसदी महिलाओं का विवाह 18 साल से कम उम्र में ही हो गया था."
समस्या की असली वजह गरीबी
भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), कोलकाता में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे अनूप सिन्हा कहते हैं, "अम्फान के बाद ऐसे मामलों का तेजी से बढ़ना कोई आश्चर्यजनक नहीं है. गरीबी ही इस समस्या की मूल वजह है. ऐसे में सरकार की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. ऐसे परिवारों की शिनाख्त कर पंचायतों के जरिए उनको आर्थिक सहायता पहुंचा कर समस्या की गंभीरता को काफी हद तक कम किया जा सकता है." उनका कहना है कि कोई विकल्प नहीं होने की वजह से ही गरीब परिवार बाल विवाह का विकल्प चुन रहे हैं.
समाजशास्त्रियों का कहना है कि देश के खासकर ग्रामीण इलाकों में अब भी बाल विवाह की समस्या गंभीर है. इसके लिए सामाजिक और आर्थिक वजहें जिम्मेदार हैं. समाजशास्त्र के प्रोफेसर मनोहर सेनगुप्ता कहते हैं, "महज कानून बनाने से अगर इस सामाजिक बुराई पर अंकुश संभव होता तो अब तक यह समस्या दूर हो गई होती. इसके लिए लोगों में जागरूकता फैलाने के साथ ही पंचायतों की भागीदारी के जरिए जमीन पर इस कानून को लागू करना जरूरी है. इसके अलावा सरकार को गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिल कर बाल विवाह की मूल वजह का भी ठोस समाधान निकालना होगा." (dw.com)
जर्मनी का एर्त्सगेबिर्गे क्षेत्र अपनी सजावटी कला परंपरा के लिए जाना जाता है. बेहतरीन उत्पादों की श्रृंखला बहुत बड़ी है, लेकिन हार्डी ग्राउपनर बताते हैं कि इनमें भी धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर्स अपने आप में विशेष हैं.
जर्मनी में सैक्सनी के योहानगियॉर्गेनस्टाट आए पर्यटकों का एक समूह, शहर के बीचोंबीच एक विशाल सजावटी संरचना की तस्वीरें ले रहा है. पास से देखने पर धातु के बने एक बड़े मेहराब के नीचे कई चित्रित आकृतियां दिखती हैं. दोपहर का समय है, लेकिन आसानी से कल्पना की जा सकती है कि जब रात उतरती है और इस मेहराब पर लगी इलेक्ट्रिक मोमबत्तियां जलती हैं तो यह इलाका गर्म और सुकून देती रोशनी के आगोश में खो जाता है.
यह शहर और किसी खास चीज के लिए नहीं जाना जाता. चेक गणराज्य से लगा हुआ यह एक छोटा शीतकालीन खेल रिसॉर्ट है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यह शहर उस जगह होने पर गर्व करता है जहां एर्त्सगेबिर्गे के धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर्स की उत्पत्ति हुई. इन होल्डर्स को जर्मन भाषा में श्विबबोगेन कहा जाता है. और सभी को यह याद दिलाने के लिए कि योहानगियॉर्गेनस्टाट में ही दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा मोमबत्ती होल्डर है.
दिसंबर के ठंडे दिनों में इसके आसपास इकट्ठा होने वाले पर्यटक वास्तव में इससे प्रभावित होते हैं. यह संरचना 25 मीटर चौड़ी और 14.5 मीटर ऊंची है. इस विशाल मेहराब में बिजली की बड़ी मोमबत्तियों का एक सेट होता है जो मेहराब के भीतर रखे खनन से संबंधित विभिन्न आकृतियों को रोशन करता है.
एक पर्यटक बताता है, "मैं यहां पहले भी आया हूं. लेकिन हर बार जब मैं आता हूं तो मुझे लगता है कि मोमबत्ती होल्डर और भी लंबा हो गया है." उनकी मित्र भी उससे सहमत है. वह कहती है, "यदि आप इसके ठीक बगल में खड़े हैं तो यह आपको बहुत छोटा महसूस कराता है."
गहरी जड़ें जमा चुकी परंपरा
हालांकि, यहां पर्यटकों की संख्या में भारी गिरावट आई है क्योंकि कोरोनो वायरस महामारी की चौथी लहर ने पर्यटन क्षेत्र को प्रभावित किया है. लेकिन धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर्स को देखने के लिए जर्मनों का जुनून जरा भी कम नहीं हुआ है. एर्त्सगेबिर्गे क्षेत्र में लगभग सभी लोग और इसके बाहर रहने वाले बहुत से लोग मानते हैं कि उनके पास क्रिसमस की सजावट होनी चाहिए जो आम तौर पर घर पर एक खिड़की पर रखी जाती है, वहां से गुजरने वालों की खुशी के लिए.
रीजनल एसोसिएशन ऑफ आर्टिसंस एंड टॉयमेकर्स के प्रमुख फ्रेडरिक गुंटर डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "धनुषाकार कैंडल होल्डर हमारे अन्य उत्पादों की तरह एर्त्सगेबिर्गे क्षेत्र की विशेषता को दर्शाते हैं. हर कोई उन्हें खिड़कियों में देख सकता है और यह कहना उचित होगा कि वे हमारे क्षेत्र और हमारे उत्पादों के राजदूत हैं."
उत्पत्ति पर बहस जारी है
लेकिन ये वास्तव में कहां से आया और इस इलाके में कब से हैं? अपने शहर के इतिहास में गहरी दिलचस्पी लेने वाले योहानगियॉर्गेनस्टाट के एक लकड़ी तराशने वाले टॉम पोटे इस बारे में कुछ बताना चाहते हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, "पहला धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर साल 1740 में योहानगियॉर्गेनस्टाट में योहान टेलर नाम के एक लोहार ने बनाया था. वह जिन खनिकों के लिए काम करता था, उन्हें 'धन्यवाद' कहने का ये उसका तरीका था. तब से लेकर अब तक इस कस्बे में ऐसे कैंडल होल्डर बनते आ रहे हैं."
लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर्स के आकार किससे प्रेरित हैं. पोटे कहते हैं, "यदि आप आस-पास पूछें कि मूल धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर्स का प्रतीक क्या था, तो करीब 80 फीसद लोग कहेंगे कि मेहराब एक खान में जाने वाली सुरंग के प्रवेश द्वार पर बनाया गया था." फिर भी उनका मानना है कि आकार वास्तव में योहानगियॉर्गेनस्टाट के पुराने चर्च में चित्रित मेहराब पर आधारित था जो बाद में एक भीषण आग में जल गया था. पोटे जोर देकर कहते हैं कि साल 1740 में मेहराब के निर्माता निस्संदेह उस चर्च में गए और वहां के मेहराबों से प्रेरित महसूस किया होगा.
अलग अलग कहानियां
ड्रेसडेन में सैक्सन लोक कला संग्रहालय में काम करने वाले इगोर येनसेन के पास धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर के बारे में एक अन्य कहानी है. वो साल 1719 की ओर इशारा करते हैं जब ऑगस्टस द स्ट्रॉन्ग के बेटे फ्रेडरिक ऑगस्टस ने ऑस्ट्रियाई सम्राट की बेटी से शादी की थी.
कई हफ्तों तक चलने वाले इस उत्सव में, एर्त्सगेबिर्गे क्षेत्र के खनिकों सहित कई लोगों को ऑपेरा, मुखौटों और त्योहार के कई अन्य सामानों के साथ देखा जा सकता है. वहां, लोगों ने मेहराबों वाली एक बड़ी परेड के लिए रखी गई इमारतें भी देखीं, जो मोमबत्ती होल्डर्स के लिए एक ढांचे के रूप में काम कर सकती थीं.
धातु बनाम लकड़ी
सदियों तक क्रिसमस की प्रसिद्ध सजावट की चीजें धातु से बनती थीं. पोटे बताते हैं, "केवल 1940 के दशक में उन्होंने लकड़ी से धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर बनाना शुरू किया और इसके साथ विभिन्न रूपांकनों और दृश्यों की भरमार हो गई. इनकी बिक्री ज्यादा होती है क्योंकि वे आमतौर पर कम खर्चीले होते हैं, लेकिन ये वस्तुएं लकड़ी और प्रीमियम स्टील दोनों ही रूप में साथ-साथ मौजूद होती हैं. नक्काशीदार लकड़ी के होल्डर्स खिड़की पर बेहतर दिखते हैं, जबकि स्टील मोमबत्ती होल्डर्स ज्यादा टिकाऊ होते हैं क्योंकि उनमें जंग नहीं लगती है."
एर्त्सगेबिर्गे क्षेत्र से कई अन्य लकड़ी के सजावटी सामान हैं जो विदेशों में हाथोंहाथ बिकते हैं, जैसे लकड़ी के बने हुए सरौते. हालांकि धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर्स का मामला थोड़ा अलग है. रीजनल एसोसिएशन ऑफ आर्टिसंस एंड टॉयमेकर्स के प्रमुख फ्रेडरिक गुंटर बताते हैं, "धनुषाकार मोमबत्ती होल्डर मुख्य रूप से जर्मन बाजार के लिए उत्पादित होते हैं. जहां तक विदेशी बाजार का संबंध है, उदाहरण के लिए जर्मनी और अमेरिका में विभिन्न वोल्टेज के कुछ तकनीकी मुद्दे हैं, इसलिए हर मॉडल दोनों बाजारों के लिए उपलब्ध नहीं है."
गुंटर कहते हैं कि अमेरिका के संभावित खरीदारों को, जो इस क्षेत्र का दौरा करते हैं, उन्हें सतर्क रहना होगा कि मोमबत्ती होल्डर्स के लिए अलग-अलग बल्बों की भी जरूरत होती है.
महामारी की वजह से नुकसान
कोरोना महामारी के दौरान, निर्माता और खुदरा विक्रेता दोनों घरेलू मांग पर कड़ी नजर रख रहे हैं. गुंटर कहते हैं, "ऐसे निर्माता जो मजबूती से चीजों को संग्रह करने की क्षमता रखते हैं, वो ऑनलाइन तरीके से अच्छा कारोबार कर रहे हैं और कोविड प्रतिबंधों से शायद ही प्रभावित हों. लेकिन छोटे-मोटे स्टोर वाले खुदरा विक्रेताओं के लिए, पर्यटकों के दूर रहने के कारण कोविड महामारी की वजह से बड़ी समस्या है.”
वे कहते हैं, "और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जर्मनी में अधिकांश क्रिसमस बाजार इस वर्ष बहुत कम सूचना पर रद्द कर दिए गए थे. कई व्यापारियों ने पहले से ही अपना स्टैंड यह जानने के बावजूद किराये पर लिया था कि बाजारों को बंद किया जा सकता है और कोई भी उनके नुकसान की क्षतिपूर्ति नहीं करेगा."
-डॉ. लखन चौधरी
छत्तीसगढ़ कांग्रेस सरकार ने तीन साल के कार्यकाल में अपने घोषणापत्र के लगभग सभी बड़े वादे पूरे कर दिये हैं, और इस समय राज्य की विशेषकर ग्रामीण जनता सरकार के कामकाज से लगभग खुश एवं संतुष्ट दिखती एवं लगती है। शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर सरकार कुछ खास कर रही है। मगर शराबबंदी पर सरकार लगातार यू-टर्न ले रही है। ‘नरवा, गरवा, घुरवा और बारी’ जमीन पर दिखती नहीं है। राज्य में प्रशासनिक कसावट के लिए कवायदें जारी हैं, लेकिन विभागीय कामकाज में दिखता नहीं है। अधिकारियों-कर्मचारियों की मनमानी पर लगाम लगाने में सरकार नाकाम रही है। स्पष्ट है राज्य में कुछ जरूरी बदलाव की बयार आना अभी भी बाकि है।
छत्तीसगढ़ कांग्रेस सरकार का तीन वर्ष का कार्यकाल पूरा हो गया है। इस कार्यकाल में सरकार अपने घोषणापत्र के मुताबिक जनता से किए गए वादे पर खरा उतरने की बात कह रही है, और अपने कार्यकाल को सफल बता रही है एवं इस सफलता के लिए जश्न मना रही है। विपक्ष विफलताओं को गिना रही है। इस बीच महत्वपूर्णं सवाल यह है कि इन तीन सालों में आमजनता को क्या मिला? मीडिया विज्ञापन लेकर गुणगान, यशगान भी कर रही है, और विपक्ष से विज्ञापन लेकर दबे स्वर में खामियों की तरफ भी ईशारा कर रही है। असली सवाल यही है कि सत्ता परिवर्तन के इन छत्तीस महीनों में जनता के हाथ एवं हक में क्या आया? इस बीच राज्य की जनता की क्या प्रतिक्रिया है? इस पर भी विमर्ष होना चाहिए।
जनता के सपने कितने पूरे हुए जो उसने उस दिन देखे थे, जब उसने भाजपा के 15 सालों की सत्ता को बदलने का साहस किया था? क्या वाकई इन तीन सालों में राज्य के हालातों में सुधार हुआ या आया है ? इस तीन साल में आम आदमी के लिए सरकार के दरवाजे कितने खुले, कितने आसान और सुलभ हुए? क्या इस अवधि में आमजनता के छोटे-छोटे काम आसानी से होने लगे हैं? राज्य की नौकरशाही पर कितना लगाम लगा है? या नौकरशाही कितनी सुधरी है? नौकरशाही के कामकाज में कितना सुधार एवं बदलाव आया है? आमजनता के प्रति अधिकारियों और कर्मचारियों के व्यवहार में कितना बदलाव एवं सुधार आया है? आखिरकार सरकार की उपलब्धियों का मूल्यांकन का पैमाना क्या हो या क्या है या क्या होता है? क्या सरकार को उपलब्धियों का जश्न मनाने का नैतिक अधिकार होता है? क्या हमारे जनप्रतिनिधि जनता को गुमराह करने से बाज आ रहे हैं?
शराबबंदी की दिशा में सरकार ने क्या पहल की है? क्या अब आमजनता के काम बिना रिश्वत दिए होने लगे हैं? क्या सडक़ों की हालत सुधरी है? क्या सिंचाई सुविधाओं को बढ़ाने को लेकर कोई बड़े काम की नींव रखी गई है? क्या युवाओं के रोजगार को लेकर कोई बड़ी पहल हुई है? क्या प्रशासनिक सुधार को लेकर कोई ठोस पहल हुई है? क्या किसानों को खाद-दवाईयां समय पर मिलने लगे हैं? क्या सडक़ों और गलियों से आवारा पशुएं, कुत्ते, गाय और जानवर गायब हो गए हैं? क्या नदी-नालों में पानी रुकना शुरू हो गया है? क्या अखबारों से बड़े-बड़े विज्ञापन बंद हो गए हैं? क्या बिना मतलब के बड़े-बड़े सरकारी कार्यकम, समारोह आयोजित होना बंद हुए हैं? जिनकी उपयोगिता, फलदायकता और सार्थकता बिल्कुल भी नहीं रहती है। क्या सरकार के एजेंट अब लोगों को गुमराह करना एवं ठगना बंद कर दिए हैं ? क्या शिक्षकों को चुनाव ड्यूटी सहित गैर शैक्षणिक गतिविधियों से मुक्त कर दिया गया है ?
छत्तीसगढ़ कांग्रेस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि सरकार ने आमजनता के बीच एक विश्वास कायम करने में सफलता हासिल की है। भाजपा के 15 साल के कार्यकाल में छत्तीसगढ़ की जनता जिस तरह से हाशिए पर जा रही थी, उस विश्वास को जीतने में इस सरकार ने भरपूर प्रयास किया है। इधर घोषणापत्र में किए गए वादे के मुताबिक सरकार ने बड़ी मात्रा में किसानों की कर्जमाफी की है। 2500 रूपये के समर्थन मूल्य पर धान खरीदी हो रही है। बिजली बिल आधा किया गया है। जमीन और प्रापर्टी के सरकारी मुल्यों पर 30 की कटौती जारी है। कुल मिलाकर सरकार ने अपने घोषणापत्र के लगभग सभी बड़े वादे पूरे कर दिए हैं, और इस समय राज्य की अधिकांश जनता सरकार के कामकाज से संतुष्ट दिखती एवं लगती है।
मगर शराबबंदी पर सरकार लगातार यू-टर्न ले रही है। ‘नरवा, गरवा, घुरवा और बारी’ अभी तक केवल एक जुमला साबित हुई है। इस पर कोई ठोस पहल नहीं हुई है। प्रशासनिक कसावट का अभाव है। अधिकारियों-कर्मचारियों की मनमानी पर लगाम लगाने में सरकार नाकाम रही है। बहुत कुछ अच्छे काम हुए हैं, लेकिन बहुत काम अभी बाकि है। इन तीन सालों में राज्य को राष्ट्रीय स्तर एक नई पहचान मिली है, इसमें कोई दो मत नहीं है।
सवाल उठाना इसलिए भी बेहद जरुरी है, क्योंकि पिछली सरकार से जनता ठगा हुआ महसूस कर रही थी और इसलिए सरकार बदलने का साहस किया है। जनता एवं विपक्ष को आलोचना करने का हक और अधिकार है। तभी तो आने वाले समय में सुधारों की उम्मीद रहती है। देखना है बचे दो सालों में राज्य सरकार आम जनता की उम्मीदों पर कितना खरा उतरती है और खरा उतरने के लिए कितनी तैयार और तत्पर है? याद रखिए बचे दो सालों में सरकार यदि जनमानस का विश्वास बनाए रखनेे में असफल होगी तो हाथ से सत्ता निकलना तय है, लेकिन बचे सालों में जनता का विश्वास इसी तरह कायम रहा तो सरकार की वापसी भी लगभग तय दिखती है।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मुरारीबापू और बाबा रामदेव में बुनियादी अंतर है। मुरारीबापू कथा कहते हैं। कथा के बहाने व्यापार नहीं करते। वे जो कथा कहते हैं उसका पारिश्रमिक लेते हैं। अपनी रचनाओं को बेचते हैं, यह उनका एक परंपरागत बुद्धिजीवी के नाते सही काम है। लेकिन बाबा रामदेव तो योग के बहाने औषधि उद्योग चला रहे हैं। योग को राजनीतिक प्रचार का मंच और माध्यम के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। संतई में राजनीतिक घालमेल यानी साम्प्रदायिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। जबकि मुरारी बापू सीधे परंपरागत पाठ और सम-सामयिक उदात्त जीवन मूल्यों की बातें कहते हैं।
सामान्य तौर पर हमारे बौद्धिक जगत का भारतीय ज्ञान और आख्यान परंपरा से कम संबंध है और उनको वह कम जानता है। मुरारीबापू जैसे संतों का महत्व यह नहीं है कि उनके पास कितना बड़ा एम्पायर है, कितनी दौलत है, कितने राजनेता उनकी चरणवंदना करते हैं। ये चीजें गौण महत्व की हैं। काम की बात है आज के आम आदमी के लिए सटीक संदेश। मुरारीबापू ने एक कथा में महात्मा बुद्ध के हवाले से कहा- ‘कभी किसी के प्रभाव में नहीं जीना, अपने प्रभाव में जीना। सत्य जहाँ से मिले ले लो, पर किसी से प्रभावित नहीं होना।’
मुरारीबापू की कथा में अनेक ऐसी बातें आती हैं जो समानतावादी और विवेकपूर्ण विमर्श को बढ़ावा देती हैं। कायदे से मुरारीबापू को मासकल्चर के अंग के रूप में पढ़ें, वे मास कल्चर के अंग के रूप में भारतीय पाठ बना रहे हैं। मुरारीबापू का मानना है विवेक चार प्रकार से मिलता है-
1) एक मांगने से मिलता है। फिर वो कृपा करे तो।
2) मंथन से मिलता है। खुद के चिंतन से।
3) सत्संग करने से।
4) हमारा गुरु बिन बोले हमें विवेक प्रदान करता है।
मुरारी बापू ने बाबा कयामुद्दीन द्वारा 325 वर्ष पूर्व भारतीय वेदांत और कुरान का समन्वय करते हुए लिखी गई पुस्तक ‘नूर-ए-रोशन’ का लोकार्पण करते हुए कहा कि देश में लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा की तर्ज पर एक ‘सद्भावना सभा’ भी होना चाहिए। जहाँ देश के बुद्धिजीवी, संत और विद्वान बैठकर देश की समस्याओं पर चिंतन कर सके।
मुरारी बापू ने खुँमार बाराबंकवी के शेर में अपनी बात यों कही-
न हारा है इश्क़ न दुनिया थकी है,
दिया जल रहा है और हवा चल रही है।
वो जहाँ भी रहेगा रोशनी फैलाएगा,
चिरागों का कोई मकाँ नहीं होता।
तसबी छोड़ दी मैने इस खयाल से,
गिनकर नाम क्या लेना, वो तो बेहिसाब देता है।
मुरारी बापू ने भी अपने उद्बोधन में एक घटना सुनाते हुए कहा कि बरसों पहले जब मैं ऋषिकेश में अकेला रहता था और प्रतिदिन यज्ञ करता था तो यज्ञ समाप्त होने के बाद देर रात एक बजे गंगा नदी पार कर एक सूफी फकीर बाद यज्ञ की वेदी पर आता था। ये सिलसिला सात दिन तक चलता रहा। एक दिन मैने उससे पूछा कि तुम इतनी रात को यज्ञ की वेदी के पास आकर क्यों बैठते हो, तो उसने कहा, मैं एक मुसलमान फकीर हूँ और कहीं मेरी वजह से हिन्दू लोग नाराज नहीं हो जाए इसलिए रात के अंधेरे में आकर इस पवित्र अग्नि के पास आकर बैठता हूँ। मुरारी बापू ने कहा कि इसके बाद हम दोनों देर रात को अकेले ही चुपचाप यज्ञ की वेदी पर बैठे रहते थे, कभी हमने कोई बात नहीं की, मगर ऐसा लगता है कि उस सूफी फकीर ने मुझ पर अपनी सारी करुणा बरसा दी और मैं आज तक उसमें भिगा हुआ हूँ।
मुझे मुरारीबापू की निम्नलिखित तीन बातें पसंद हैं- वे कहते हैं-
हमारे देश में तीन वस्तु आदमी को आदर के साथ मिलनी चाहिए-
- आगम/ शिक्षण- सबको शिक्षा मिलनी चाहिये।
- उसको अन्न मिलना चाहिये; कोई आदमी भूखा नहीं रहना चाहिये, बच्चे तो खासतौर पर।
- आदमी को आदर के साथ आरोग्य प्राप्त होना चाहिये।
-रमेश अनुपम
लोहंडीगुड़ा गोली कांड के तीन दिन बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू बस्तर आए। 4 अप्रैल को उन्होंने आला अधिकारियों के साथ बैठक की और खानापूर्ति के नाम पर घटनास्थल तक गए।
बस्तर के संवाददाताओं के सवालों के जवाब में उन्होंने कहा कि लोहंडीगुड़ा में लॉ एंड ऑर्डर की दृष्टि से गोली कांड की घटना उचित है। जैसा कि अधिकारियों ने उन्हें बताया कि वहां स्थिति बेहद गंभीर थी इसलिए गोली चलाना जरूरी था। डॉ. काटजू के साथ तत्कालीन उपमंत्री जनसंपर्क एवं योजना एस. जाजू भी उपस्थित थे।
हमारे मुख्यमंत्री जी ने यह भी कहा कि बस्तर के आदिवासियों के उत्थान के लिए हम निरंतर नई-नई योजनाओं को अंजाम दे रहे हैं। उनके विकास के लिए हमारी सरकार कृतसंकल्पित है आदि-आदि।
4 अप्रैल सन् 1961 को मुख्यमंत्री डॉ कैलाशनाथ काटजू से एक प्रतिनिधिमंडल ने भी जगदलपुर में मुलाकात कर तीन सूत्रीय मांग से संबंधित एक ज्ञापन सौंपा। इन तीन सूत्रीय मांग में पहली मांग इस पूरे कांड की ज्यूडिशियल इंचरी, दूसरी इस घटना के परिपेक्ष्य में जगदलपुर में सर्वदलीय बैठक का आयोजन तथा तीसरी मांग इस गोली कांड से संबंधित अधिकारियों का तत्काल बस्तर से अन्यत्र कहीं स्थानांतरण।
इस प्रतिनिधिमंडल में सोशलिस्ट पार्टी से आर.एस.वाजपेयी एवं सूरजमल बाफना, कम्युनिस्ट पार्टी से सुधीर मुखर्जी, जनसंघ से पंडरी राव कृदत तथा डॉ. पाटनकर शामिल थे।
लोहंडीगुड़ा गोलीकांड में 59 आदिवासियों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। उन पर सशस्त्र विद्रोह का आरोप लगाया गया था। पूरा बस्तर ही नहीं मध्यप्रदेश और समूचा देश इस गोली कांड से और आदिवासियों पर होने वाले जुल्म से क्षुब्ध था।
देर से ही सही पर अंतत: मुख्यमंत्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू को लोहंडीगुड़ा गोली कांड की ज्यूडिशियल इंचरी का आदेश देना पड़ा। एडिशनल सेशन जज बी.एल. सक्सेना को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई।
सुनवाई में भी देर हुई। 1962 के अक्टूबर माह से इसकी सुनवाई जगदलपुर में शुरू हुई।
जनक कुमार आई.पी.एस.जो बस्तर में उन दिनों स्पेशल ड्यूटी पर तैनात थे, उन्हें तत्कालीन एस.पी. मिश्रा ने लोहंडीगुड़ा जाने का आदेश दिया था। सुनवाई में उनकी गवाही महत्वपूर्ण थी । उन्हें जांच कमेटी के सामने खड़े होना पड़ा।
इस सुनवाई के दरम्यान कलेक्टर आर.एस.एस. राव, डी.आई.जी. पी. सी. राय, ,एस.पी.आर. पी. मिश्र, एस. डी.एम. मुदलियार के बयान लिए गए।
पुलिस और प्रशासन के सभी अधिकारियों ने लॉ एंड ऑर्डर की दुहाई देते हुए लोहंडीगुड़ा गोली कांड को उचित ठहराया था।
एक सरकारी गवाह मोहन पटेल जिसे बाद में सरकारी वकील ने होस्टाइल करार कर दिया उसके बयान मायने रखते हैं। मोहन पटेल लोहंडीगुड़ा का ही रहने वाला था। आदिवासियों की भीड़ उसके घर के आसपास ही जमा थी।
मोहन पटेल ने जांच कमेटी को बताया कि भीड़ महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को तुरंत रिहा करने की मांग कर रही थी। अधिकारियों ने उनसे कहा कि तीन दिन में वे महाराजा को रिहा करवाकर बस्तर ले आयेंगे। आदिवासी उनकी बात ठीक से नहीं समझ सकें। उन्हें कोई हल्बी में समझाने वाला नहीं था। आदिवासी अपने मुंह से सक-सक की आवाज निकालने लगे। पुलिस ने पहले बिना सोचे-समझे भीड़ पर अश्रु गैस का प्रयोग करना शुरू कर दिया और इसके बाद तुरंत उन पर ताबड़-तोड़ गोली चलाना प्रारंभ कर दिया।
बचाव पक्ष के वकील के रूप में रविशंकर वाजपेयी, एम. श्रीनिवासम, सुरेश दत्त झा, गोरेलाल झा, विंधेश दत्त मिश्रा तथा एल.एन. सोनी इस सुनवाई के दरम्यान उपस्थित रहे।
बहरहाल इस जांच कमेटी की सुनवाई से जो निष्कर्ष निकलकर सामने आया उससे यह साबित होता है कि पुलिस और प्रशासन अगर चाहती तो इस अप्रिय गोली कांड से बचा जा सकता था। इस व्यापक नरसंहार की जरूरत बिल्कुल ही नहीं थी।
भोले-भाले निरीह और निहत्थे आदिवासियों पर 40 राउंड गोली चलाकर पुलिस ने कोई बहादुरी का काम नहीं किया था।
दरअसल यह गोली बस्तर के आदिवासियों के सीने पर नहीं उनके स्वाभिमान पर चलाई गई थी, जो केवल अपने प्रिय महाराजा की शांतिपूर्वक रिहाई की मांग कर रहे थे।
अप्रैल 1963 में लोहंडीगुड़ा गोली कांड में कैद किए गए 59 आदिवासियों को न्यायालय ने निर्दोष करार दिया और उन्हें जेल से रिहा किया गया। पुलिस उन सबके खिलाफ एक भी साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रही।
कुल मिलाकर लोहंडीगुड़ा गोली कांड शासन और प्रशासन की विफलता साबित हुई।
शासन-प्रशासन की नियत और आदिवासियों के प्रति उनकी सोच को इस गोली कांड ने जैसे पूरी तरह से एक्सपोज कर दिया था।
आदिवासी हमारे लिए न पहले कोई चिंता का विषय थे और न अब हैं। लोहंडीगुड़ा गोली कांड को बीते हुए भले ही आज साठ वर्ष हो गए हों पर वह आदिवासियों के सीने को भेदती हुई गोली आज भी आदिवासियों के सीने पर धंसी हुई हैं।
आदिवासियों की दैत्याकार मूर्ति बनाकर भले ही मुक्तांगन से लेकर बस्तर के प्रवेश द्वार चारामा तक लगवा दिए जाएं, आदिवासी लोक नृत्य के नाम पर उन्हें नचवाकर अपनी पीठ भी थप-थपा ली जाए पर आदिवासियों के साथ आज भी हम कितना न्याय कर पाए हैं, इस पर गंभीरता और ईमानदारी के साथ विचार करने की आज सबसे अधिक जरूरत है। अन्यथा इस थोथे आदिवासी प्रेम की कलई खुलने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
लोहंडीगुड़ा गोल कांड आज भले ही इतिहास के पृष्ठों में कहीं दफन हो चुका है। इस गोली कांड की धमक भले ही अतीत के गर्त में समा चुका है, पर हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास कभी-कभी करवटें भी बदलता है और जब वह ऐसा करता है तो बीता हुआ इतिहास वर्तमान बनकर हमारे सामने चुनौती देते हुए न केवल खड़ा हो जाता है वरन् हमारी आंखों में आंखें डालकर हमसे सच पूछने का साहस भी कर सकता है।
वह समय शायद अब आ चुका है।
(बाकी अगले हफ्ते)
पढ़ें बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लड़कियों की शादी की उम्र को 18 साल से बढ़ाकर 21 साल कर दिया जाएगा। अब लड़कों के समान लड़कियों की शादी की उम्र 21 साल हो जाएगी। इस फैसले का कई लोग विरोध भी कर रहे हैं। उनका तर्क है कि यह फैसला भी कृषि-कानूनों की तरह मनमाना है। क्या सरकार ने इसके बारे में भारत की लड़कियों से भी पूछा है? किसी कांग्रेसी महिला नेता ने सवाल किया है कि जब आपने 18 साल की लड़कियों को वोट का अधिकार दिया है तो उन्हें 18 साल में शादी का अधिकार क्यों नहीं देते?
कुछ लोगों ने कहा है कि यह कानून नाकाम रहेगा, जैसे शराबबंदी का कानून रहता है। इसके अलावा कुछ लोगों का तर्क यह भी है कि गांवों की गरीब और अशिक्षित लड़कियां यदि 21 साल तक अविवाहित रहेंगी तो उन्हें बेकारी और दुराचार का सामना भी करना पड़ सकता है। इन सब तर्कों को हम एकदम निराधार नहीं कह सकते हैं लेकिन पहली बात तो यह है कि सरकार ने यह फैसला अचानक नहीं किया है। इस मुद्दे पर भलीभांति विचार करने के लिए पिछले दो साल से एक आयोग काम करता रहा है। 1929 में लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 14 साल तय की गई थी और 1978 में उसे 18 साल कर दिया गया था। भारत में तो लड़के-लड़कियों की शादियां उनके गर्भ में रहते हुए ही तय हो जाया करती थीं।
इस बाल-विवाह की कुप्रथा का विरोध आर्यसमाज ने जमकर किया, जिसके फलस्वरुप 1929 में शारदा एक्ट का जन्म हुआ। अब जो फैसला हुआ है, वह स्त्री-पुरुष समानता का प्रतीक है। यदि लड़कों की शादी की न्यूनतम उम्र 21 साल है तो लड़कियों की भी वही उम्र क्यों न हो? नारियों को नरों से कमजोर क्यों समझा जाए? अभी भी देश की 23-24 प्रतिशत महिलाओं की शादी 18 साल के पहले ही हो जाती है। जब से लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ी है, देश में पैदा होनेवाले बच्चों की संख्या काफी घटी है और पैदा होते से ही मरनेवालों बच्चों की संख्या भी घटी है। उनका स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ है।
लड़कियां देर से शादी करती हैं तो उनका शिक्षा का स्तर भी ऊँचा होता है और उनका रोजगार भी। उनका आत्म विश्वास भी ज्यादा होगा। इससे जनसंख्या पर नियंत्रण भी होगा। भारत शायद दुनिया का एकमात्र और पहला देश होगा, जहां लड़कियों की शादी की उम्र 21 साल होगी। चीन में यह 20 साल है। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि में यह 18 साल है। रुस में 16 साल और ईरान में 13 साल है।
अमेरिका के कुछ राज्यों में इससे भी कम है। वैसे भारतीय हिसाब से शादी की न्यूनतम उम्र 25 साल होनी चाहिए, क्योंकि यही ब्रह्मचर्य आश्रम का काल माना जाता है। इस तरह का कानून तभी कारगर हो सकता है, जबकि देश में सामाजिक जागृति का कोई बड़ा आंदोलन चले। भारत में यदि करोड़ों लोग इस मर्यादा का पालन करें तो उसे विश्व-गुरु बनने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक पांडे
मशहूर फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ का सम्पादन करते हुए अरविन्द कुमार को दस साल बीत चुके थे। कम्पनी ने नेपियन सी रोड पर रहने को घर दिया हुआ था, कम्पनी के ही दिए लोन से एम्बेसेडर गाड़ी खरीद रखी थी। दिन भर खूब काम करना होता और रातों को अक्सर पार्टियों में जाना होता। हफ्ते में नियमित रूप से एक-दो फिल्मों के प्रीमियर भी देखने होते। ‘माधुरी’ का जलवा था इसलिए तमाम फिल्मी हस्तियों में अरविन्द कुमार से दोस्ती करने की होड़ रहती। यूं दिन में अठारह-अठारह घंटे व्यस्त रहने के बावजूद बंबई में अपनी पत्नी, एक बेटे और एक बेटी के साथ रह रहे अरविन्द कुमार का जीवन खासा सफल कहा जा सकता था।
दिसंबर 1973 का दिन था। वे हस्बे-मामूल सुबह की सैर के वास्ते अपनी पत्नी कुसुम के साथ छह बजे हैंगिंग गार्डन पहुँच गए। दोनों ने नियमपूर्वक रोज इस गार्डन के पांच फेरे लगाने को दिनचर्या का हिस्सा बनाया हुआ था।
मॉर्निंग वॉक करते हुए उनकी निगाहें एक पेड़ की टहनी पर अटकी सुनहरी रोशनी पर पड़ीं। सूरज उग रहा था। तभी वह निर्णायक पल घटा। पिछली रात वे देर तक किसी पार्टी में थे। आँखों से नींद गायब थी। मन में अजीब सी वितृष्णा थी। यूँ दिन के अठारह घंटे रोज खर्च करते रहना अचानक व्यर्थ लगने लगा। खुद से पूछने लगे- ‘क्यों? किसलिए? कब तक?’
अरविन्द कुमार अपनी भाषा को प्यार करने वाले आदमी थे। हिन्दी में किसी थिसॉरस का न होनी उन्हें खटकता था। वे अक्सर सोचते थे कोई न कोई एक दिन उसे जरूर बना ही देगा। उस दिन हवा में कुछ था जो उनसे कह रहा था कि यह काम तुमने ही करना है।
हैंगिंग गार्डन का पहला फेरा लगाते समय उन्होंने अपने मन में उभर रहे इरादे को पत्नी के सामने बयान कर दिया। यह भी कहा कि उस काम के लिए नौकरी छोडऩी पड़ सकती है, पैसे की तंगी हो सकती है वगैरह-वगैरह। पत्नी ने तुरंत हां कह दिया।
दूसरा फेरा लगाते समय उन्होंने उन चीजों की फेहरिस्त बनाई जो उनके पक्ष में थीं-दिल्ली में पैतृक घर था जिसमें हाल ही में एक कमरा खाली हुआ था जहाँ वे तुरंत शिफ्ट कर सकते थे। उसमें किताबें रखने की भी भरपूर जगह थी।
तीसरा चक्कर लगाते हुए उन्होंने माइनस पॉइंट्स की गिनती की स्कूल जाने वाले दो बच्चे थे जिनके जीवन को दांव पर नहीं लगाया जा सकता था, कुछ कर्ज था जिसे उतारने के लिए अप्रैल 1978 तक का समय था। उस समय तक बच्चे पढ़ाई की ऐसी अवस्था पर पहुँच जाने वाले थे कि शहर बदला जा सके। लडक़ा बारहवीं पास कर लेगा, लडक़ी आठवीं। बचत बिल्कुल नहीं था।
चौथा फेरा पैसे की उधेड़बुन में बीता। खर्चा तत्काल कम करना होगा। छोटे-मोटे खर्चों से हाथ खींचना होगा। बचत बढ़ानी होगी। घर में साज-सामान नहीं के बराबर था। सोफा सैट तक नहीं था। उसे खरीदने की योजना थी जिसे तुरंत मुल्तवी कर दिया गया। बचत बढ़ाने के तरीके सोचे गए। प्राविडैंट फंड के नाम पर तनख्वाह का दस प्रति शत कटता था। फैसला लिया गया कि अब से बीस प्रतिशत कटवाया जाए और दफ्तर में इस बाबत अर्जी लगा दी जाए।
पांचवा फेरा आने तक यह बात समझ में आ गई कि यदि अप्रैल 1978 तक दो लाख रुपयों की व्यवस्था हो जाय तो इस काम को उठाया जा सकता है। हो सकता है दिल्ली में कुछ और काम मिल जाय, कोई संस्था अनुदान दे दे, कहीं से कोई और मदद मिल जाए...दोनों पति-पत्नी कड़ी मेहनत कर के थिसॉरस को दो साल में तैयार कर सकते थे।
पांचवें चक्कर के दौरान उन्होंने किताब बनाने के लिए की जाने वाली आवश्यक तैयारियों के बारे में गहनता से विचार किया। इसमें अप्रैल 78 तक अपने आप को आवश्यक उपकरणों से लैस करना, तमाम संदर्भ ग्रंथ खऱीदना और काम करने के लिए हज़ारों की तादाद में जरूरी कार्ड छपवाना जैसी डीटेल्स शामिल थीं। यह भी तय हुआ कि नौकरी छोडऩे से पहले सुबह शाम किताब पर काम कर के देखा जाय। पूरा अनुभव हो जाए, हाथ सध जाए, तभी दिल्ली जाया जाय।
यह हिन्दी के पहले थिसॉरस के बनने की कथा का शुरुआती अध्याय भर है। अरविन्द कुमार 1930 में जन्मे थे। 15 साल की आयु में उन्होंने दिल्ली प्रेस के साथ अपना करियर शुरू किया था। बाद में वे अनेक पत्रिकाओं के सम्पादक रहे जिनमें टाइम्स ग्रुप की ‘माधुरी’ (जो बाद में ‘फिल्मफेयर’ के नाम से जानी गई) और ‘रीडर्स डाइजेस्ट; का हिन्दी संस्करण ‘सर्वोत्तम’ शामिल रहे। जब उनका थिसॉरस छप कर आया उनकी आयु छियासठ की हो चुकी थी यानी जिस काम के बारे में उनका खयाल था कि दो साल में हो जाएगा, उसे पूरा करने में अठारह साल लगे।
बंबई के हैंगिंग गार्डन में उस सुबह की सैर को याद करते हुए उन्होंने एक संस्मरण में लिखा है- ‘उगता मायावी चालाक सूरज पेड़ों की फुनगियों को और हमारे दृष्टिकोण को सुनहरी किरणों से रंग रहा था। राह के गड्ढों और काँटों को हमारी नजऱों से ओझल कर रहा था। कभी-कभी आदमी को ऐसे ही छलिया सूरजों की जरूरत होती है। ऐसे सूरज न उगें, तो नए प्रयास शायद कभी न हों। हमें सारा भविष्य सुनहरा लगने लगा। खुशी-खुशी हम लोग माउंट प्लैजेंट रोड के ढलान से उतर कर नेपियन सी रोड पर प्रेम मिलन नाम की इमारत में सातवीं मंजिल पर 76वें फ्लैट पर लौट आए। मैं दफ्तर जाते ही प्राविडैंट फंड की राशि बढ़वाने वाले आवेदन का मजमून बनाने लगा।’
इस साल 27 अप्रैल को कोविड से अरविन्द कुमार जी का देहान्त हो गया। उनका और कुसुम जी द्वारा तैयार किया तीन खंडों वाला यह बेजोड़ शब्दकोष शताब्दियों तक बना रहने वाला है।
-गीता पांडेय
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल 22,372 गृहिणियों ने आत्महत्या की थी। इसके अनुसार हर दिन 61 और हर 25 मिनट में एक आत्महत्या हुई है। देश में 2020 में हुईं कुल 153,052 आत्महत्याओं में से गृहिणियों की संख्या 14.6 प्रतिशत है और आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से ज़्यादा है। ये स्थिति केवल पिछली साल की नहीं है। 1997 में जब से एनसीआरबी ने पेशे के आधार पर आत्महत्या के आंकड़े एकत्रित करने शुरू किए हैं तब से हर साल 20 हजार से ज्यादा गृहणियों की आत्महत्या का आंकड़ा सामने आ रहा है। साल 2009 में ये आंकड़ा 25,092 तक पहुंच गया था। रिपोर्ट में इन आत्महत्याओं के लिए ‘पारिवारिक समस्याओं’ या ‘शादी से जुड़े मसलों’ को जिम्मेदार बताया गया है। लेकिन, क्या वजहें हैं कि जिनके कारण हजारों गृहणियां अपनी जान ले लेती हैं?
घरेलू हिंसा झेलती महिलाएं
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इसका एक प्रमुख कारण बड़े पैमाने पर घरेलू हिंसा है। हाल ही में हुए एक सरकारी सर्वे में 30 प्रतिशत महिलाओं ने बताया था कि उनके साथ पतियों ने घरेलू हिंसा की है। रोज की ये तकलीफें शादियों को दमनकारी बनाती हैं और घरों में महिलाओं का दम घुटता है।
वाराणसी में क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर उषा वर्मा श्रीवास्तव कहती हैं, ‘महिलाएं बहुत सहनशील होती हैं लेकिन सहने की भी एक सीमा होती है।’
‘18 साल होते ही अधिकतर लड़कियों की शादी हो जाती है। वह पत्नी और बहू बन जाती हैं और पूरा दिन घर पर खाना बनाते, सफाई करते और घर के काम करके बिताती हैं। उन पर सभी तरह की पाबंदियां लगी होती हैं, उन्हें बहुत कम आजादी होती है और अपने लिए उन्हें कभी-कभी ही पैसे मिल पाते हैं।’
वह कहती हैं, ‘उनकी शिक्षा और सपने कोई मायने नहीं रखते और उनकी महत्वाकांक्षा धीरे-धीरे खत्म होने लगती है और उन पर निराशा छा जाती है। उनका अस्तित्व ही प्रताडऩा बन जाता है।’
डॉक्टर उषा वर्मा कहती हैं कि बुज़ुर्ग महिलाओं में आत्महत्या का कारण अलग होता है।
उन्होंने बताया, ‘कई महिलाएं अकेलेपन का सामना करती हैं। उनके बच्चे बढ़े हो जाते हैं और घर से अलग हो जाते हैं। कई मेनोपॉज़ से पहले के लक्षणों का सामना करती हैं जिससे अवसाद और उदासी आती है।’
डॉक्टर के मुताबिक आत्महत्या को आसानी से रोका जा सकता है और ‘अगर आप किसी को एक सेकेंड के लिए भी रोक देते हैं तो वो रुक सकते हैं।’
मनोचिकित्सक सौमित्र पठारे इसे समझाते हैं कि भारत में अधिकतर आत्महत्याएं आवेश में होती हैं। ‘पति घर आता है, पत्नी को मारता है और वो अपनी जान ले लेती है।’
डॉक्टर सौमित्र बताते हैं कि स्वतंत्र शोध के मुताबिक आत्महत्या करने वालीं एक तिहाई भारतीय महिलाएं घरेलू हिंसा झेल चुकी होती हैं। लेकिन, एनसीआरबी के आंकड़ों में घरेलू हिंसा का जि़क्र भी नहीं किया गया है।
मेंटल हेल्थ ऐप वायसा के साथ जुड़ीं मोनोचिकित्सक चैताली सिन्हा कहती हैं, ‘घरेलू हिंसा झेलने वाली महिलाएं अनौपचारिक सहयोग से ही अपना हौसला बनाए रख पाती हैं।’
चैताली सिन्हा तीन साल तक मुंबई में एक सरकारी मनोरोग अस्पताल में काम कर चुकी हैं। वो आत्महत्या का प्रयास कर चुके लोगों की काउंसलिंग करती थीं।
डॉक्टर चैताली बताती हैं कि उन्होंने पाया कि महिलाएं ट्रेन में सफर करते या पड़ोसियों के साथ सब्जी खरीदते अपना एक ग्रुप बना लेती हैं जिससे उन्हें थोड़ा बहुत सहयोग मिलता है। जहां वो अपने मन की बात रख पाती हैं।
वह बताती हैं, ‘उनके पास मन हल्का करने के लिए कोई और जगह नहीं होती। कभी-कभी उनकी हिम्मत किसी एक व्यक्ति से होने वाली बातचीत पर ही निर्भर करती है।’
‘पति के घर से चले जाने पर गृहणियों के लिए घर में रहना सुरक्षित होता है लेकिन महामारी के दौरान ये भी ख़त्म हो गया। महिलाएं घरेलू हिंसा करने वाले पति के साथ दिनभर घर में रहने को मजबूर थीं। उनका बाहर आना-जाना भी कम हो गया और अपना सुख-दुख बांटकर मिलने वाली खुशी और शांति भी छिन गई। ऐसे में उनके अंदर गुस्सा, दुख और उदासी इक_े होते गए और आत्महत्या उनके लिए आखऱिी सहारा बन गया।’
वैश्विक स्तर पर भारत में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएं होती हैं। भारत में आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या दुनिया की एक चैथाई है। वहीं, 15 से 39 साल के समूह में आत्महत्या करने वालों में महिलाओं की संख्या 36 प्रतिशत है।
आत्महत्या का सही आंकड़ा
लेकिन, मानसिक विकृतियों और आत्महत्या रोकथाम पर पर शोध करने वाले डॉक्टर पठारे कहते हैं कि भारत की आधिकारिक संख्या को गलत समझा जाता है और वो समस्या को पूरी तरह सामने नहीं लाते हैं।
वह कहते हैं, ‘अगर आप मिलियन डेथ स्टडी (जिसने 1998-2014 के बीच 24 लाख घरों में लगभग एक करोड़ 40 लाख लोगों की निगरानी की) या लैंसेट के अध्ययन को देखें, तो भारत में आत्महत्याओं की संख्या 30 फीसदी और 100 फीसदी के बीच कम रिपोर्ट की जाती हैं।’
‘आत्महत्या पर अब भी खुलकर बात नहीं होती। इसे कलंक के तौर पर देखा जाता है और अधिकतर परिवार इसे छुपाने की कोशिश करते हैं। ग्रामीण भारत में अटॉप्सी की कोई जरूरत नहीं होती और अमीर स्थानीय पुलिस के जरिए आत्महत्या को आकस्मिक मृत्यु दिखाने के लिए जाने जाते हैं। पुलिस की प्रविष्टियां सत्यापित नहीं होती हैं।’
डॉक्टर पठारे कहते हैं कि ऐसे समय में जब भारत राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति विकसित कर रहा है तो आंकड़ों की गुणवत्ता को ठीक करना प्राथमिकता होना चाहिए।
वह कहते हैं, ‘अगर भारत में होने वाली आत्महत्याओं की संख्या देखें तो वो बहुत कम है। दुनिया भर में आमतौर पर वास्तविक संख्या चार से 20 गुना ज़्यादा होती है। इस तरह भारत में देखें तो पिछले साल आत्महत्या के डेढ़ लाख मामले दर्ज किए गए तो इस तरह आंकड़ा छह लाख और 60 लाख तक हो सकता है।’
डॉक्टर पठारे के मुताबिक ये जोखिम वाली पहली आबादी है जिसे आत्महत्या से रोकने के लिए लक्षित किया जाना चाहिए लेकिन खराब आंकड़ों के कारण हम ये काम ठीक से नहीं कर पाते।
डॉक्टर ने कहा, ‘संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य है कि 2030 तक दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को एक तिहाई तक कम किया जाए। लेकिन, पिछले साल के मुकाबले हमारे यहां ये संख्या 10 प्रतिशत बढ़ गई है। ऐसे में इसे घटना एक सपने जैसा है।’ (bbc.com/hindi/india)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार की उस याचिका को रद्द कर दिया है, जिसमें यह मांग की गई थी कि केंद्र सरकार उसे पिछड़ी जातियों के आंकड़े उपलब्ध कराए ताकि वह अपने स्थानीय चुनावों में महाराष्ट्र के पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण दे सके। केंद्र सरकार ने 2011 में जो व्यापक जन-गणना करवाई थी, उसमें नागरिकों की समााजिक-आर्थिक स्थिति पर भी आंकड़े इक_े किए गए थे। न्यायाधीशों ने उस याचिका को रद्द कर दिया और कहा कि खुद केंद्र सरकार ने उन आंकड़ों को इसीलिए प्रकाशित नहीं किया, क्योंकि 'वे प्रामाणिक और विश्वसनीय नहींÓ थे।
10 साल पहले की गई जातीय जनगणना से पता चला कि भारत में कुल 46 लाख अलग अलग जातियां हैं। उनमें कौन अगड़ी है और कौन पिछड़ी, यह तय करना आसान नहीं है, क्योंकि एक प्रांत में जिन्हें अगड़ी माना जाता है, दूसरे प्रांत में उन्हें ही पिछड़ी माना जाता है। एक ही गौत्र कई अगड़ी और पिछड़ी जातियों में एक साथ पाया जाता है। कई तथाकथित अगड़ी जाति के लोग बेहद गरीब होते हैं और पिछड़ी जातियों के कई लोग काफी अमीर होते हैं।
जब अंग्रेजों ने भारत में जन जातीय जनगणना शुरु की थी तो उनका इरादा भारत की एकता को जातीय क्यारियों में बांटने का था ताकि 1857 के स्वातंत्र्य-संग्राम में उभरी राष्ट्रीय चेतना भंग हो जाए। लेकिन अंग्रेज शासकों की इस प्रवृत्ति के विरोध में गांधीजी के नेतृत्व में जातीय जनगणना का इतना तीव्र विरोध हुआ कि 1931 से इसे बंद कर दिया गया लेकिन हमारे ज्यादातर नीतिविहीन राजनीतिक दलों ने अपनी जीत का आधार जाति को बना लिया। इसीलिए उनके जोर देने पर कांग्रेस सरकार ने जातीय जनगणना फिर से शुरु कर दी लेकिन इस जनगणना का विरोध करने के लिए जब मैंने 'मेरी जाति हिंदुस्तानीÓ आंदोलन शुरु किया तो लगभग सभी दलों ने उसका समर्थन किया।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहल पर वह जातीय जनगणना बीच में ही रुकवा दी गई। उसके आंकड़े न तो कांग्रेस सरकार ने प्रकट किए और न ही भाजपा सरकार ने। यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान सरकारी वकील ने जातीय जनगणना को अवैज्ञानिक और अशुद्ध बताया है। उसने यह भी कहा है कि महाराष्ट्र सरकार ने किसी व्यवस्थित जानकारी के बिना ही 27 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों को दे दिया, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो रोक लगाई है, वह ठीक है।
इस वक्त बिहार, उत्तरप्रदेश और दक्षिण के भी कुछ नेता जातीय गणना की मांग पर डटे हुए हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारे राजनीतिक दल वैचारिक और व्यावहारिक दृष्टि से लगभग दीवालिया हो चुके हैं। इसीलिए वे जाति और मजहब के नाम पर थोक वोट कबाडऩे के लिए मजबूर हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की अपंगता का सूचक है। देश के गरीब और कमजोर लोगों को जातीय आधार पर नौकरियों में नहीं बल्कि शिक्षा और चिकित्सा में जरुरत के आधार पर आरक्षण अवश्य दिया जाना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुशीला सिंह
भारत की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तरप्रदेश में अब विधानसभा चुनाव चंद महीने ही दूर हैं। यहां समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव विजययात्रा रथ निकाल रहे हैं तो कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी लगातार एक के बाद एक रैलियां कर रही हैं। वे महिलाओं को 40 प्रतिशत टिकट देने और इंटर पास होने वाली लड़कियों को स्मार्टफोन और स्कूटी देने का एलान भी कर चुकी हैं। यानी युवा और महिलाओं को साधने में उनका खासा जोर दिखाई दे रहा है।
चुनाव प्रचार में बीजेपी भी पीछे नहीं है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दो महीनों में छह बार पूर्वांचल का दौरा कर चुके हैं। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी आए दिन प्रदेश में रैलियां कर रहे हैं। लेकिन एक चेहरा है जो यूपी के चुनावी मैदान से नदारद दिखता है और वो है बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायवती का।
कहां हैं मायावती?
साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में मायावती ने 19 सीटें जीतकर तीसरा स्थान हासिल किया था। ऐसे में उनके चुनावी मैदान से गायब होने को लेकर चर्चाएं तेज हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैरानी जता रहे हैं कि चार बार राज्य की मुख्यमंत्री रहीं मायावती आखिर इस बार चुनाव में सक्रिय क्यों नहीं दिख रही हैं? वो भी ऐसे समय में जब उनके कई विधायक छिटक चुके हैं और उनके पास इक्के-दुक्के विधायक ही रह गए हैं।
उत्तरप्रदेश की राजनीति पर पैनी नजऱ रखने वाले जानकार मायावती की अगामी चुनाव में राजनीतिक निष्क्रियता को उन पर चल रहे आय से अधिक संपति मामले से जोडक़र देखते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी मानते हैं कि ये हैरान करने वाली बात है कि मायावती कहीं दिख क्यों नहीं रही हैं। उनके अनुसार, ‘संभवत: ये कहा जा रहा है कि उनपर और उनके परिवार के सदस्यों पर आय से अधिक संपति के मामलों के कारण वे दबाव में हैं। नतीजन उन्होंने बयान दिया था कि विधानसभा या राज्यसभा के चुनाव में मुझे अगर जरूरत पड़ेगी तो मैं बीजेपी की मदद कर दूंगी।’
जातिगत वोटबैंक
बीबीसी से बातचीत में रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि राम मंदिर आंदोलन से ही बीजेपी और संघ की ये रणनीति रही है कि वो दलित वोटरों को अपने खेमे में लाए और ऐसा हुआ भी है। ऐसे में अगर मायावती इस दबाव से निष्क्रिय होती हैं इससे उन्हें मदद ही मिलेगी।
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान भी रामदत्त त्रिपाठी की बात से सहमत दिखते हैं। वो कहते हैं कि उन पर सीबीआई और ईडी की जो तलवार लटकी है उसी के डर से उन्होंने चुनाव से दूरी बनाए रखने का फैसला किया है।
साथ ही वे कहते हैं कि मायावती का जातिगत आधार वाला निश्चित वोटबैंक है जो उन्हें मिलता ही है। लेकिन वे इस लड़ाई में अब कहीं दिखाई नहीं देती। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन इस बात से सहमत नहीं दिखतीं।
बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं कि मायावती की कार्यशैली देखें तो वे हमेशा से चुनाव से ठीक पहले ही रैलियां करना शुरू करती हैं। हालांकि पिछले चुनावों से तुलना की जाए तो वो इस बार में थोड़ी सुस्त नजर आ रही हैं।
वो कहती हैं, ‘मायावती अपने काडर को लामबंद करती हैं। मायावती बूथ लेवल पर तैयारी करवाती हैं और ये देखती हैं कि वो किन विधानसभा सीटों पर फोकस कर रहे हैं।’ साथ ही भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सुनीता एरॉन कहती हैं कि ये बड़ा मुद्दा हो सकता है लेकिन जनता का मुद्दा नहीं है।
वो कहती हैं, ‘ये चर्चा चल रही है कि बीजेपी एक हैंडल की तरह इस मुद्दे का उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रही है। ऐसी चर्चाएं तो नेताओं के ख़िलाफ़ चलती रहती हैं लेकिन चुनाव के समय तो नेता मैदान में आते ही हैं।’
नेताओं ने छोड़ा मायावती का साथ
माना जाता है कि इंद्रजीत सरोज, लालजी वर्मा और सुखदेव राजभर के बहुजन समाज पार्टी छोडऩे की मुख्य वजह मायावती की राजनीतिक निष्क्रियता ही रही।
सुखदेव राजभर बसपा के विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष भी रह चुके थे। उनका हाल ही में निधन हुआ है। सुखदेव भी अपने बेटे को अखिलेश यादव की पार्टी से जोड़ गए थे वहीं हाल ही में हरीशंकर तिवारी भी अपने बेटों और भांजे को सपा की साइकिल पर सवार कर चुके हैं। ऐसे में पूर्वांचल की राजनीति में ओबीसी और ब्राह्मण इन दो बड़े चेहरों का निकलना भी मायावती के लिए एक बड़े झटके के तौर पर ही माना जा रहा है। वहीं ब्राह्मणों से जोडऩे के लिए मायावती ने पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्र को जिम्मेदारी दी हुई है। इस बीच उनकी पत्नी कल्पना मिश्र का भी ब्राह्मण समाज की महिलाओं को संबोधित करते हुए वीडियो सोशल मीडिया पर डाला गया था।
पार्टी में यंग ब्रिगेड माने जाने वाले आकाश आनंद और कपिल मिश्र पार्टी को युवाओं से जोडऩे का काम कर रहे हैं और सोशल मीडिया पर रणनीति बना रहे हैं। हालांकि राजनीति विश्लेषक मानते हैं कि हर पार्टी के पास आईटी सेल और सोशल मीडिया है और अगर तुलना की जाए तो बीजेपी और सपा की टीम इस मामले में बसपा से बेहतर और आगे हैं।
मायावती का ग्राफ गिरा
शरत प्रधान कहते हैं, ‘मायावती मुख्य लड़ाई में कहीं दिखाई नहीं देती। वे केवल अपने कुछ लोगों को भेजकर ब्राह्मण सम्मेलन करा देती हैं, प्रेस नोट जारी करवाती हैं या ट्वीट कर देती हैं, ऐसे में उनका जो वोटर उनके साथ जुड़ता था वो इस सीमित कोशिश से कैसे जुड़ेगा?ज्ज्
मायावती साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रही थीं। वो जब सत्ता में आती हैं उनका ग्राफ बढ़ता है और हटती है तो वो गिर जाता है। आंकड़े बताते हैं कि साल 2007 के बाद से साल 2012 और 2017 में उनका जनाधार गिरा है।
हालांकि साल 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए उन्होंने ब्राह्मणों को जोडऩे की कोशिश की और दलित-ब्राह्मण एकता के नाम पर सम्मेलन भी करवाए गए। इसका असर दिखाई दिया लेकिन विश्लेषक ये भी मानते हैं कि उस दौरान मुलायम सिंह यादव के विरोध में भी बयार बह रही थी। क्योंकि उस दौरान क़ानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं थी जिसका फायदा मायावती को मिल पाया था।
राज्य में तकरीबन 22 फ़ीसद दलित आबादी है और मायावती इस बार आरक्षित सीटों पर अपनी रणनीति केंद्रित करती दिख रही हैं। लेकिन इस पर रामदत्त त्रिपाठी तर्क देते हुए आरक्षित सीटों का गणित समझाते हैं।
वो कहते हैं, ‘आरक्षित सीटों पर दलित वोट बंट जाते हैं क्योंकि हर पार्टी का उम्मीवार ही दलित या पिछड़ी जाति से होता है। ऐसी सीटें वही पार्टी जीतती है जिसके साथ बाकी समुदाय भी जुड़े हुए हों। और फिलहाल इस कोशिश में मायावती सफल होती नहीं दिख रही हैं।’
सुनीता एरॉन मानती हैं कि इस बार प्रदेश में बीजेपी काफ़ी मजबूत स्थिति में दिख रही है।
वो बताती है कि हालांकि बीजेपी के सामने एंटी-इनकमबेंसी और अन्य मुद्दे जैसे मुख्यमंत्री से नाराजग़ी, कृषि कानूनों या गन्ना किसानों को उचित दाम ना मिलना आदि उनके विरोध में काम कर सकते हैं लेकिन वो बूथ से लेकर विधानसभा क्षेत्रों में काम कर रही है। उनका संगठनात्मक ढ़ांचा बड़ा है।
उनके अनुसार जो मजबूत है वो इतनी मेहनत कर रहा है तो जिनकी कम सीटें हैं उन्हें और ज़्यादा मेहनत करने की ज़रूरत है। वहीं अखिलेश ने भी देर से शुरुआत की है लेकिन उनकी रैली में भीड़ और उत्साह दिखता है। प्रियंका गांधी भी मैदान में मायावती से ज़्यादा ही दिख रही हैं। ऐसे में ये चुनाव सभी पार्टियों के लिए काफी मुश्किल है। ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि वो जल्दी अपनी मुहीम शुरू करेंगी लेकिन इसके विपरित ये देखा जा रहा है कि वे पंजाब की राजनीति पर फोकस कर रही हैं।
वहीं विश्लेषक ये भी मानते हैं कि मायावती कहीं न कहीं ्रढ्ढरूढ्ढरू के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की तरह भूमिका निभा कर बीजेपी को फायदा और सपा को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन उनकी आगे की रणनीति चुनाव के नतीजों के बाद ही पता चल पाएगी। (bbc.com/hindi)