विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इत्र से कितनी बदबू फैल सकती है, यह दुनिया को पहली बार पता चला। कन्नौज के इत्रवाले दो जैन परिवारों पर पड़े छापों ने इत्र के साथ उत्तरप्रदेश की राजनीति की बदबू को भी उजागर कर दिया है। सच्चाई तो यह है कि इन छापों ने भारत की सारी राजनीति में फैली बदबू को सबके सामने फैला दिया है। 22 दिसंबर को जब पीयूष जैन के यहां छापा पड़ा तो उसमें 197 करोड़ रु., 26 किलो सोना और 600 किलो चंदन पकड़ा गया और पीयूष को जेल में डाल दिया गया।
सारे खबरतंत्र से यह प्रचारित किया गया कि यह छापा समाजवादी पार्टी के कुबेर के संस्थानों पर पड़ा है। दूसरे शब्दों में यह पैसा अखिलेश यादव का है। कानपुर की एक सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने विरोधियों पर हमला करते हुए कहा कि यह भ्रष्टाचार का इत्र है। इसकी बदबू सर्वत्र फैल गई है। यह बदबू 2017 के पहले फैली थी। तब तक अखिलेश उप्र के मुख्यमंत्री थे लेकिन अखिलेश ने कहा कि यह छापा गलतफहमी में मार दिया गया है। दो जैनों में सरकार भ्रमित हो गई। पीयूष जैन का समाजवादी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार ने पुष्पराज जैन की जगह गलती से पीयूष जैन के यहां छापा मार दिया।
अब सरकार ने पुष्पराज जैन के यहां भी छापा मार दिया है। अखिलेश का मंतव्य है कि पीयूष के यहां से निकला धन भाजपा का है तो भाजपा नेताओं का कहना है कि पुष्पराज तो समाजवादी पार्टी के विधायक हैं। उनके यहां जो भी काला धन पकड़ाएगा, वह सपा का ही होगा। यदि अखिलेश पहले छापे का मजाक नहीं उड़ाते तो शायद उनके जैन पर दूसरा छापा नहीं पड़ता लेकिन अब भाजपा ने हिसाब बराबर कर दिया है। इन छापों से हमारे सभी नेताओं की छवि खराब होती है। जनता को लगता है कि ये सभी भ्रष्ट हैं। इनमें से कोई दूध का धुला नहीं है।
चुनावों के मौसम में की जा रही इस छापामारी से सत्तारुढ़ दल की छवि भी चौपट होती है। अपने विरोधियों को बदनाम और तंग करने के लिए ही ऐसे छापे इस समय मारे जाते हैं। पिछले कई साल से सरकार को लकवा क्यों हुआ पड़ा था? इसके अलावा ये छापे उसी राज्य में क्यों पड़ रहे हैं, जिसमें चुनाव सिर पर हैं? क्या भाजपा को हार का डर सता रहा है? यदि देश में अर्थ-शुद्धि करनी है तो ऐसे छापे सबसे पहले सरकारों को अपने ही पार्टी-नेताओं पर मारने चाहिए, क्योंकि उनके पास शुद्ध हरामखोरी का ही पैसा जमा होता है।
उद्योगपति और व्यापारी तो अपनी बुद्धि और मेहनत से पैसा कमाते हैं, ये बात अलग है कि उनमें से कई टैक्स-चोरी करते हैं। इन छापों ने यह भी सिद्ध किया है कि मोदी सरकार की नोटबंदी की नाक कट गई है। नोटबंदी के बावजूद यदि करोड़ों-अरबों रु. इत्रवालों के यहां से नकद पकड़े जा सकते हैं तो बड़े-बड़े उद्योगपतियों और व्यापारियों ने अपने यहां तो खरबों रु. नकद छिपा रखे होंगे। नेताओं और पैसेवालों की सांठ-गांठ ने ही भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय शिष्टाचार बना दिया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ईश्वर सिंह दोस्त
एक जनवरी, 2022. अप्रतिम रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल को जन्मदिन पर उनके रचनाकर्म के बरक्स आलोचना की चुनौतियों पर एक छोटी सी टिप्पणी-
विनोद कुमार शुक्ल बहुत ही सहज मगर अद्भुत वाक्यों के सर्जक हैं, जो पाठक को एक ही साथ आश्वस्ति और आश्चर्य की दुनिया में ले जाते हैं। इन वाक्यों की परस्परता से बनी एक ऐसी आत्मीय दुनिया, जहां से गुजरकर कोई भी ज्यादा नई अंतर्दृष्टियां हासिल कर सके और ज्यादा भाव-संपन्न हो जाए। ये वाक्य कथा, उपन्यास, कविता ही नहीं, बातचीत और संस्मरण का भेष भी धरे हो सकते हैं। कागज पर उभरे हुए हो सकते हैं और आवाज बन हवा में उभरते और विलीन होते हुए। एक वाक्य का कौतुक दूसरे की तरफ खींचता है। एक वाक्य का अर्थ दूसरे में घुल जाता है।
विनोद कुमार शुक्ल गद्य और पद्य के बने-बनाए साँचों की और तमाम दूसरे साँचों की भंगुरता के विधान के लेखक हैं। वे उन विरल रचनाकारों में हैं, जो आलोचना के प्रचलित प्रतिमानों के लिए चुनौती बन जाते हैं। आलोचना कभी ऐसी रचनाशीलता को खारिज करती है, कभी शर्तों के साथ स्वीकार करती है। मगर एक वक्त वह आता है, जब आलोचना अपनी ही प्रामाणिकता की खोज में खुद से सवाल करती है और अपने अधूरेपन की आत्म-चेतना के आलोक में नया रास्ता तलाशती है।
वैसे आलोचना का एक मुख्य काम प्रतिमान बनाना होता है। संस्कृति व साहित्य सिद्धांतों में बड़ी तबदीली से ये बनते हैं। मगर नई रचनाशीलता भी नए प्रतिमानों को गढऩे का दबाव बनाती रहती है। विनोद कुमार शुक्ल हमारे वक्त के ऐसे ही रचनाकार हैं, जिनसे मुखातिब होकर आलोचना प्रतिमानों में उलट-फेर कर सकती है।
रचना के बरक्स आलोचना की मजबूरी यह होती है कि वह अवधारणाओं का सहारा लेती है। अवधारणाएं ऐसी सवारी है जो जल्द ही सवार पर सवार हो जा सकती है। अवधारणाओं का हश्र अकसर द्विभाजनों में होता रहा है। यथार्थवाद बनाम रूपवाद एक ऐसा ही अखाड़ा था, जहां रूप और यथार्थ (जानबूझ कर मैं यहां कथ्य नहीं कह रहा हूं) की द्वंद्वात्मकता को पीट-पीटकर इकहरा बना दिया जाता था। मानो रचना में यथार्थ और रूप का निबाह एक-दूसरे से विलगाव से ही हो सकता हो।
पहले शमशेर, मुक्तिबोध और अब विनोद कुमार शुक्ल ने यह सोचने के लिए मजबूर किया है कि यथार्थ इतना बहुस्तरीय, बहुलार्थी और अंतर्विरोधी हो सकता है कि किसी एक लेखन शैली की पकड़ में नहीं आ सके। साहित्य यथार्थ को मु_ी में भरता है, मगर रेत और समय की तरह हाथ से फिसलने भी देता है।
यूरोप में 18वीं-19वीं सदी में उभरा व भारत में 20वीं सदी में फला-फूला यथार्थवाद एक शिल्प के रूप में थक गया है। जिन रचनाकारों ने यथार्थ को इस शिल्प के पुराने चौखटे से बाहर निकाला और यथार्थ की समझ को नया व विस्तृत किया, उनमें विनोद जी एक प्रमुख नाम हैं।
विनोद जी के शिल्प में कामनाएं, फंतासी, निराशा और उम्मीद यथार्थ के परिसर से बाहर नहीं की जाती। फिर भी उनके संदर्भ में लातीनी अमेरिका में उदित हुआ जादुई यथार्थवाद नामक पद काफी अधूरा और अपर्याप्त लगता है, जिसे अकसर उनके साथ जोड़ दिया जाता है। फंतासी, जादुई कल्पनाशीलता ये सब कुछ तो विनोद जी के यहाँ हैं ही। मगर जो बात उनकी ही खालिस देन लगती है, वह है कथन की निश्चयात्मकता में भी संभावना की संभावना को खुला रखना। हम जानते हैं कि नाम देना और निरूपित करना यथार्थ में बिखरी बहुत सी संभावनाओं को सीमित कर देता है। मगर विनोद जी अपनी कविताओं, कथाओं व उपन्यासों में यथार्थ के कथन को एक प्रस्तावना की तरह रखते हैं, मानो पाठक उसमें सहज ही कुछ घटा या जोड़ सकता हो।
कहना न होगा कि विनोद कुमार शुक्ल के वाक्य कविता या उपन्यास, बातचीत जिस भी रूप में हों, पाठक को सोचने की जगह देते जाते हैं। वैसे भी साहित्य का काम ज्ञान बांटना नहीं, बल्कि नए अहसासों व दृष्टियों के जरिए सोचने के लिए नए परिप्रेक्ष्य मुहैया कराना होता है। ज्ञान का काम दूसरे अनुशासन पहले से बखूबी कर रहे हैं।
विनोद कुमार शुक्ल पाठक को नए अनुभव संसार में ले जाते हैं। जहां वह पहले से देखे और बरते गए और किन्हीं छवियों या मान्यताओं के रूप में रूढ़ हो गए अपने संसार से अपरिचित हो सकता है। यह बगैर कल्पना और/या फंतासी के संभव नहीं, मगर विनोद जी उसे यथार्थ की तरह ही सामने लाते हैं। नतीजे में पाठक रोजमर्रे के जीवन की किसी बंधी हुई वास्तविकता से बाहर कदम रख एक वैकल्पिक खिडक़ी के जरिए अपने ही होनेपन या अस्तित्व की नई संभावनाशीलता में दाखिल हो जाता है। जो है और जो होना चाहिए (‘इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए’) एक दूसरे में घुलमिलकर एक संभावनाशील यथार्थ खड़ा कर देते हैं।
हमारे समय में विनोद कुमार शुक्ल का रचना संसार बहुत से द्विभाजनों या बाइनरीज की अपर्याप्तता का विश्वसनीय संकेतक है। इनमें से एक द्विभाजन सत्य और सौंदर्य का भी है। यथार्थ व रूप की तरह विनोद जी राजनीति, लोकतंत्र, प्रकृति जैसी वास्तविकताओं को भी नया अर्थ विस्तार देते हैं। (जिस पर चर्चा फिर कभी।)
- रमेश अनुपम
आदिवासियों का असंतोष बढ़ता ही जा रहा था पर शासन-प्रशासन को जैसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से रिलीज ही नहीं की जा रही थी। मध्यप्रदेश सरकार जैसे उन्हें सबक सिखाने पर उतारू थी।
मई में स्थिति पुन: विस्फोटक होने लगी। तीन सौ आदिवासी राजमहल में एकत्र हो गए। इसके पश्चात पूरे नगर में जुलूस निकाली गई। जुलूस कोर्ट ऑफ वार्ड्स के भवन के भीतर घुस गई। आदिवासियों ने कोर्ट ऑफ वार्ड्स भवन के दरवाजे और खिड़कियों को तोड़ दिया। यही नहीं कोर्ट ऑफ वार्ड्स तथा सिंहदेवड़ी में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का झंडा भी फहरा दिया। वहां तैनात संतरी चंदन सिंह पर पत्थर फेंका गया।
दूसरे दिन भी दूर-दराज से आदिवासियों की भीड़ राजमहल में एकत्र होने लगी। 8 मई को लगभग 500 आदिवासी राजमहल में एकत्र हो गए जिसमें 100 महिलाएं भी शामिल थीं।
उस समय आदिवासियों का नेतृत्व करने वाले आदिवासी नेताओं में मंगल मांझी, सोमारु गाड़ा, माटा माडिय़ा प्रमुख नेताओं में से थे।
जगदलपुर जल रहा था। आदिवासियों के दिलों में तूफान उठ रहे थे, साल और सागौन के पेड़ दहक रहे थे। इंद्रावती कुछ-कुछ बेकाबू होकर मचल रही थी। पर इन सबसे शासन-प्रशासन असंवेदनशील ही बना रहा।
इसके दस दिनों बाद ही बस्तर में मुरिया और माडिय़ा जाति के आदिवासी लाल मिर्च और आम की डाल गांव-गांव में घुमाने लगे थे। आदिवासियों के विद्रोह का यह अपना प्राचीन और प्रचलित तरीका है। सन् 1857 की क्रांति में भी इसका प्रयोग किया गया था।
बस्तर भीतर ही भीतर सुलग रहा था पर शासन-प्रशासन ने इसे गंभीरता से लेने की जगह इसका ठीक उल्टा ही किया। लोहंडीगुड़ा गोली कांड से भी कुछ सीखने की कोई जरूरत नहीं समझी गई।
मध्यप्रदेश सरकार के कुछ नहीं करने पर विवश होकर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने जुलाई में देश के राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन को एक मार्मिक स्मरण पत्र भेजा , जिसमें उन्होंने लिखा- ‘मेरे राज्य के विलीनीकरण के एक दो वर्ष उपरांत ही मेरी व्यक्तिगत संपत्ति राज्य सरकार द्वारा जब्त कर ली गई और मुझे पागल घोषित कर दिया गया।
मेरी संपत्ति को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत रखने के कारणों के उल्लेख में केवल इतना ही कहा गया कि मैं अपनी रियासत पुन: वापिस पाने की लालसा से ही अपनी संपत्ति लोगों के बीच बांट रहा हूं साथ ही समस्त प्रजा के बीच भय और आतंक की सृष्टि कर मुझसे मिलने से रोक लगा दिया गया। मेरी भी बाहर के लोगों से मिलने पर पाबंदी लगाई गई। एक खूनी अपराधी की भांति मुझ पर सीआईडी और पुलिस की कड़ी निगरानी रखी जाती है और मेरे नाम के आड़ में निर्दोष आदिवासियों को कैद कर जेल में डाला जाता है।
मैं राजमहल में नितांत अकेला रहता हूं। मेरे हमदर्द व्यक्तियों पर पुलिस अफसरों और कांग्रेस के लोगों द्वारा अत्याचार किया जाता है और मेरे बारे में यह प्रचारित किया जाता है कि मैं बस्तर में विद्रोह करना चाहता हूं।
स्मरण पत्र के अंत में प्रवीर चंद्र भंजदेव ने राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से यह सवाल पूछते हुए कहा कि ‘क्या ये सब अत्याचार उस समझौते के विरुद्ध नहीं है- जो विलीनीकरण के समय भारत सरकार और नरेशों के बीच हुआ था। यदि सरकार यह स्वीकार करती है कि मेरे प्रति अन्याय व अत्याचार किया गया है तो मेरा मान-सम्मान जैसा पहले था मुझे पुन: वापस दिलाया जाए।’
प्रवीर चंद्र भंजदेव द्वारा राष्ट्रपति को लिखे गए इस पत्र का असर हुआ।
24 जुलाई को मध्यप्रदेश के आदिमजाति कल्याण मंत्री राजा नरेशचंद्र सिंह ने सर्किट हाउस के सामने एकत्र सैकड़ों आदिवासियों की भीड़ के सामने यह घोषणा की कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति जल्द ही कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी जाएगी।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिंदी को लेकर तमिलनाडु में फिर बवाल मच सकता है। केरल तथा कुछ अन्य प्रांतों में उनके राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों में पहले से भिड़ंत हो रही है। उस भिड़ंत का मुद्दा है— विश्वविद्यालयों के उप-कुलपतियों की नियुक्ति लेकिन तमिलनाडु में मुद्दा यह बन गया है कि उसकी पाठशालाओं में केंद्र का त्रिभाषा-सूत्र लागू किया जाए या नहीं? राज्यपाल आर.एन. रवि ने तमिलनाडु की सभी शिक्षा-संस्थाओं को निर्देश दिया है कि वे अपने विद्यार्थियों को तमिल, हिंदी और अंग्रेजी अनिवार्य रुप से पढ़ाएं। लेकिन तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कडग़म सरकार का कहना है कि वह बच्चों की पढ़ाई में हिंदी को अनिवार्य नहीं करेगी। हिंदी का विकल्प खुला रहेगा। जो बच्चा पढऩा चाहेगा, वह पढ़ेगा।
किसी भाषा को किसी भी राज्य पर थोपना गलत है। द्रमुक के स्वर में स्वर मिलाते हुए तमिलनाडु की भाजपा ने भी हिंदी की अनिवार्य पढ़ाई का विरोध किया है। गत वर्ष जब एम.के. स्तालिन मुख्यमंत्री बने, तभी उन्होंने कह दिया था कि वे नई शिक्षा नीति के त्रिभाषा-सूत्र को लागू नहीं करेंगे। हमें सोचना चाहिए कि अकेले तमिलनाडु के नेता इस तरह की घोषणाएं क्यों कर रहे हैं? इसका एक मात्र कारण है, उस प्रांत की हिंदी-विरोधी राजनीति! हिंदी-विरोध के दम पर ही तमिलनाडु की राजनीति चलती रही है। अन्नादुरई, करुणानिधि, जयललिता और स्तालीन आदि हिंदी-विरोध के दम पर ही वहां मुख्यमंत्री बने हैं।
1965-66 में जब मेरे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के शोधग्रंथ को हिंदी में लिखने की बात उठी थी तो अन्नादुरई, के. मनोहरन और अंबझगान- जैसे सांसदों ने संसद को ठप्प कर दिया था और तमिलनाडु के हिंदी-विरोधी आंदोलन में स्वतंत्र राष्ट्र की मांग भी उठा दी गई थी। अब तमिलनाडु में पहले जैसा हिंदी विरोध नहीं है लेकिन उसमें किसी भी पार्टी की हिम्मत नहीं है कि वह हिंदी के पक्ष में अपना मुंह खोल सके।
हिंदी की उपयोगिता अब इतनी बढ़ गई है कि उसे तमिल बच्चे अपने आप सीखेंगे। उसे आपको उन पर थोपने की जरुरत नहीं है। वे खुद उसे खुद पर थोपना चाहेंगे। बस जरुरत यह है कि देश की सभी भर्ती परीक्षाओं में आप अंग्रेजी की थुपाई बंद कर दें। अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओं की एच्छिक पढ़ाई जरुर हो लेकिन भारतीय भाषाओं के जरिए देश के उच्चतम पदों तक पहुंचने की पूर्ण सुविधा होनी चाहिए। हिंदी अपने आप आ जाएगी। जो हिंदी नहीं सीखेंगे, वे अपने प्रांत के बाहर जाकर क्या लोगों की बगलें झांकेगें? वे अपना नुकसान खुद क्यों करेंगे? क्या स्वतंत्र भारत में कोई ऐसी सरकार भी कभी आएगी, जो सचमुच राष्ट्रवादी होगी और जो राष्ट्रभाषा के जरिए सारे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का बीड़ा उठाएगी? (नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. विज
25 अगस्त, 1988 को मसूरी प्रशासन अकादमी से प्रारंभ भारतीय पुलिस सेवा की यात्रा आज 31 दिसंबर, 2021 को समाप्त हो जायेगी। अनुभवों से लदी हुई इस लंबी यात्रा ने मेरे जीवन, निजी एवं प्रोफेशनल, दोनों को एक जीवंत अर्थ दिया है। निजी जीवन में मेरी क्षमताओं का विकास एवं लोगों (खासतौर पर पीडि़तों) की सहायता करने का जज्बा, पुलिस सेवा की ही देन है। प्रोफेशनली-इलेक्ट्रॉनिक सहित तकनीकी क्षेत्र, कानून, नक्सल समस्या, आपातकालीन सेवाएं, पुलिस अधोसंरचना की बेहतरी आदि ऐसे विषय है जिन पर बखूबी काम करने का मौका मुझे मिला। मैं ईश्वर को धन्यवाद देना चाहता हूं कि मुझे वर्दी में लोगों की सेवा करने का अवसर दिया।
तैंतीस वर्ष से लंबी इस सेवा के दौरान मैंने पुलिस और समाज में कई बदलाव देखे। इस दौरान न केवल आम जनता की अपेक्षाएं पुलिस के प्रति बढ़ीं बल्कि पुलिस को अधिक जिम्मेदार बनाने में भी जनता का काफी हाथ रहा। जब-जब पुलिस ने अपनी शक्तियों की सीमा लांघी, तब-तब न्यायालयों, विभिन्न आयोगों एवं जनता ने पुलिस पर अंकुश लगाये। हथकड़ी लगाने एवं गिरफ्तारी के मापदण्ड बदले गये, सूचना का अधिकार ने पुलिस को अधिक जवाबदेह बना दिया।
एफआईआर की प्रति प्राप्त करने के लिये अब थाने के चक्कर काटने नहीं पड़ते, पुलिस की वेबसाइट पर अब एक क्लिक करना ही पर्याप्त है। थाने के लॉकअप की सारी गतिविधियां अब कैमरे में कैद हो जाती है। पहले जैसी मनमानी पुलिस अब नहीं कर पाती। डंडे वाली पुलिस अब कम्प्यूटर चलाने लगी है, पूछताछ के पुराने हथकंडे छोडक़र अनुसंधान में डीएनए जांच एवं ब्रेन मैपिंग कराने लगी हैं। प्रजातंत्र के विकास का असर प्रजातांत्रिक संस्थाओं में दिखने लगा है ।
इसी दौरान कई नए कानूनों जैसे एससी-एसटी एक्ट, जे.जे.एक्ट, आई.टी.एक्ट, पॉक्सो एक्ट आदि ने जन्म लिया। संवैधानिक मर्यादाओं को पूरा करने के लिये ये कानून जरूरी भी थे। महिलाओं, बच्चों एवं कमजोर वर्ग के प्रति पुलिस की संवदेनशीलता बढ़ी है, हालांकि इस क्षेत्र में अभी और मेहनत करने की जरूरत है। निजी डेटा सुरक्षा कानून के प्रवर्तन की जिम्मेवारी भी पुलिस को आने वाले समय में अन्य प्राधिकारियों से साझी करनी होगी।
छत्तीसगढ़ में माओवाद से निपटने के लिये सरकारों ने कई कदम उठाये हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि माओवाद से प्रभावित क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहा है। बस्तर क्षेत्र में शांति बहाल करने के लिये छत्तीसगढ़ में हुए बलिदानों को कभी भूला नहीं जा सकता। पर अभी सुरक्षाबलों को और आगे बढऩा है एवं पूरे क्षेत्र को हिंसा एवं विनाश से मुक्त करना है। पुलिस को साइबर क्राईम से निपटने के लिये अपनी कमर कसनी होगी। राज्य शासन को इस क्षेत्र में पुलिस के संसाधन और बढ़ाने होंगे। मध्यप्रदेश सहित अधिकांश राज्यों में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू हो चुकी हैं। छत्तीसगढ़ को भी इसमें पहल करनी होगी। छत्तीसगढ़ में पुलिस बल में समुचित वृद्धि हुई है, परंतु पुलिस द्वारा रिपोर्ट न लिखने एवं दुर्व्यवहार की शिकायतों में अपेक्षित कमी नहीं हुई है। विगत वर्षों में लोगों में काफी जागरूकता आयी है, वे अपने अधिकारों को समझने लगे हैं। ऐसी स्थिति में यह और जरूरी हो जाता है कि पुलिस पूर्णत: कानून के मुताबिक काम करे। साथ ही, सडक़ सुरक्षा एक ऐसा विषय है जहां आमजन को अधिक जिम्मेदार होने की जरूरत है। सडक़ों पर वाहनों की आमद-रफ्त काफी बढ़ी है इसलिए यातायात नियमों का उल्लंघन करने से बाज आना होगा, जनहानि को नियंत्रित करना होगा।
पुलिस की छवि सुधारना एक संयुक्त जिम्मेवारी है। गांधी जी कहते थे कि यदि पुलिस कुछ गलत करे, तो आम जनता उन्हें अनुशासित करें, उन्हें उनकी गलती का एहसास कराये। गांधी जी किसी को भी सजा देने के खिलाफ थे। पुलिस ने कोविड -19 के दौरान कई बेहतरीन मानवीय कार्य किये हैं। मैं चाहता हूं कि प्रत्येक पुलिसकर्मी अपने वेतन का कुछ हिस्सा गरीब लोगों की सहायता करने में व्यय करे। मानव सेवा करने से आत्मिक संतोष मिलेगा एवं आत्मबल बढ़ेगा। ईशोपनिषद के पहले मंत्र में कहा गया है कि च्जगत में जो कुछ है, सब ईश्वर का है। जितना कर्म के लिये आवश्यक है, उतना ही तू भोग कर। किसी दूसरे के धन की लालसा मत कर।
मेरा हमेशा यह प्रयास रहा है कि मैं अपनी मर्यादाओं में रहकर शासकीय कर्तव्यों का निर्वहन करूं। मुझे अपने युवा अधिकारियों से भी यही अपेक्षा है कि वे पुलिस सेवा के माध्यम से लोगों की सेवा करें और अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वहन पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से करें।
छत्तीसगढ़ कर्म-भूमि को मेरा कोटि-कोटि नमन।
(लेखक छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इसमें शक नहीं कि भारत के मुकाबले कोरोना महामारी का प्रकोप अन्य संपन्न देश में ज्यादा फैला है लेकिन अब उसकी तीसरी लहर उन्हीं देशों में इतनी तेजी से फैल रही है कि भारत को फिर से भारी सावधानी का परिचय देना होगा। फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, ग्रीस, इटली और सायप्रस जैसे देशों में कोरोना, डेल्टा और ओमीक्रोन के रोज़ नए लाखों मरीज़ पैदा हो रहे हैं। यह ठीक है कि उनकी मृत्यु-दर पहले जैसी नहीं है लेकिन इन देशों के कई शहरों में मरीजों के लिए पलंग कम पड़ रहे हैं। अमेरिका जैसा संपन्न देश, जहां की स्वास्थ्य-सेवाएं विश्वप्रसिद्ध हैं, वहां भी हजारों लोग रोज़ अस्पताल की शरण ले रहे हैं।
फिलहाल भारत का हाल इन देशों के मुकाबले बेहतर है लेकिन खतरे की घंटियां यहां भी अब बजने लगी हैं। अकेले दिल्ली शहर में यह आंकड़ा एक हजार रोज को छू रहा है। देश के कई शहरों में मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। लेकिन हमारे लोग अब भी सतर्क नहीं हुए हैं। वे पिछले कई माह से घरों में कैद थे, उससे छूटकर अब सैर-सपाटे में लगे हुए हैं। कश्मीर में इतने सैलानी इस बार जमा हुए हैं, जितने पहले कभी नहीं हुए। इसी तरह की सूचनाएं और निमंत्रण मुझे देश के सुरम्य शहरों से कई मित्रगण भेज रहे हैं।
सबसे ज्यादा छूट तो हमारे नेतागण ले रहे हैं। उनकी सभाओं में लाख-लाख लोग इक_े हो रहे हैं। न तो वे मुखपट्टी रखते हैं और न ही शारीरिक दूरी। यदि यह महामारी फैलेगी तो यूरोप-अमेरिका को भी भारत इस बार पीछे छोड़ देगा। हमारे नेताओं की भी बड़ी मजबूरी है। कई प्रांतों के चुनाव सिर पर हैं। यदि वे बड़ी-बड़ी सभाएं नहीं करें तो क्या करेंगे? अखबारों और चैनलों पर अपने विज्ञापन लटकाने में वे करोड़ों रु. रोज बहा रहे हैं लेकिन वे ‘जूम’ या इंटरनेट के जरिए अपनी सभाएं कैसे करें? उनके ज्यादातर अनुयायी अर्धशिक्षित, ग्रामीण, गरीब और पिछड़े लोग होते हैं। वे इन आधुनिक टोटकों से वाकिफ नहीं हैं।
ऐसे में क्या बेहतर नहीं होगा कि हमारा चुनाव आयोग इन चुनावों को थोड़ा आगे खिसका दे? भारत में यदि यह नई महामारी फैल गई तो देश की अर्थ-व्यवस्था और राजनीति, दोनों ही अस्त-व्यस्त हो जाएंगी। यह खुशी की बात है कि कुछ प्रांतीय सरकारों ने अभी से कई सख्तियां लागू कर दी हैं। यह अच्छा है लेकिन इससे भी ज्यादा जरुरी यह है कि जनता खुद अपने पर सख्ती लागू करे।
वह आयुर्वेदिक औषधियों, काढ़ों और घरेलू मसालों से अपनी स्वास्थ्य-सुरक्षा में वृद्धि करें और भीड़-भाड़ से बचती रहे। हमारे डाक्टरों और नर्सों के लिए भी परीक्षा की घड़ी फिर से आ रही है। यह सुखद है कि हमारे दवा-विशेषज्ञों ने जो नए कोरोना-टीके और गोलियां बनाई हैं, उन्हें संयुक्तराष्ट्र संघ की मान्यता भी मिल गई है। अब इन नए साधनों से करोड़ों लोगों का इलाज सस्ता, सरल और शीघ्र हो जाएगा। याने अब डरने की जरुरत नहीं है लेकिन पूरी सावधानी रखने की है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. लखन चौधरी
केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के साथ हुए राज्यों के वित्त मंत्रियों की बैठक में छत्तीसगढ़ के वित्त मंत्री एवं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बहुत महत्वपूर्णं आर्थिक मुद्दे उठाए हैं, जो बेहद जरूरी और बहुत जायज हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री के सामने श्री बघेल ने नक्सली समस्या के उन्मूलन के लिए राज्य में तैनात केन्द्रीय सुरक्षा बलों पर हुए 15 हजार करोड़ रुपए के व्यय की प्रतिपूर्ति के लिए आगामी केंद्रीय बजट में विशिष्ट प्रावधान किये जाने की मांग की है। मुख्यमंत्री की दूसरी अहम मांग जीएसटी क्षतिपूर्ति अनुदान को जून 2022 के बाद भी अगले 5 वर्षों तक जारी रखने की है। यह एक जरूरी एवं आवश्यक मांग है, क्योंकि जीएसटी की वजह से राज्यों की वित्तीय स्थितियों पर प्रभाव पड़ा है। उपर से कोरोना कालखण्ड की मार से राज्यों के आर्थिक हालात और कमजोर हुए हैं, इसलिए इसकी अवधि निश्चित तौर पर बढ़नी चाहिए।
तीसरी बड़ी मांग कोयला उत्खनन कंपनियों से ली गई 4 हजार 140 करोड़ रुपयों की राशि छत्तीसगढ़ को अविलंब हस्तांतरित करने की है। केंद्रीय करों में राज्यों के हिस्से की लंबित राशि शीघ्र देने का अनुरोध किया है। पेट्रोल-डीजल पर केंद्रीय उत्पाद कर में कटौती के स्थान पर केंद्र द्वारा अधिरोपित उपकरों में कमी की जाए जिससे राज्यों को राजस्व का नुकसान न हो, या कम से कम हो। यह सभी मांगें इसलिए जायज एवं जरूरी हैं क्योंकि यदि केन्द्र सरकार राज्य को उसकी हिस्सेदारी समय पर नहीं देगी तो राज्य सरकार विकास कार्यों एवं योजनाओं के लिए फंड की व्यवस्था कहां से एवं कैसे करेगी ?
वर्ष 2022-23 के बजट में अनुसूचित वर्गों के कल्याण के लिए वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए ठोस स्थायी व्यवस्था करने संबंधी मांग, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में आबंटन से संधारण व्यय करने की अनुमति का प्रावधान करने का आग्रह मुख्यमंत्री द्वारा किया गया है। रायपुर में इंटरनेशनल कार्गाे टर्मिनल प्रारंभ करने के लिए आगामी बजट में प्रावधान करने की मांग करते हुए अन्तर्देशीय परिवहन अनुदान देने की मांग उठाई गई है, जो इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि राज्य से बहुत सारे कृषि, वनोपज, औषधीय एवं औद्योगिक उत्पाद विदेशों को निर्यात किये जाते हैं। यदि राज्य में इस तरह की सुविधा आरंभ हुई तो उत्पादकों, निर्यातकों को इसका लाभ मिल सकेगा एवं इससे राज्य में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।
केंद्रीय वित्त मंत्री की यह बैठक 2022-23 के केंद्रीय बजट की पूर्व कवायद का हिस्सा था, जिसके जरिए राज्य सरकारें अपनी मांगें रख रही हैं। बैठक में मुख्यमंत्री ने धान का मुद्दा उठाया। उन्होंने वर्ष 2021-22 में कम से कम 23 लाख मीट्रिक टन उसना चावल केंद्रीय पुल में लेने का आग्रह करते हुए कहा है कि एफसीआई को इसका लक्ष्य दिया जाना चाहिए। इसी तरह राज्य में उपलब्ध अतिशेष धान से एथेनॉल बनाने की अनुमति शीघ्र देने की मांग की। एथेनॉल बनाने की अनुमति बहुत समसामयिक मांग है कि राज्य में बड़ी मात्रा में और जरूरत से बहुत अधिक धान की पैदावार होती है, इसे एथेनॉल बनाकर न केवल पेट्रोलियम पदार्थों की ऊंची कीमत से राहत मिल सकती है, बल्कि भारी मात्रा में खराब होती धान की बर्बादी को भी रोका जा सकता है।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने विभिन्न योजनाओं में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी बढ़ाने का भी आग्रह किया है। प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना में केन्द्र का हिस्सा 90 प्रतिशत और राज्य का हिस्सा 10 प्रतिशत किया जाए। ऐसा करने से राज्यों पर इसका अत्यधिक वित्तीय भार नहीं पड़ेगा। जल-जीवन मिशन में केन्द्रांश एवं राज्यांश का अनुपात 50-50 के स्थान पर 75-25 करने का भी आग्रह किया गया है।
मुख्यमंत्री ने केन्द्र सरकार की ’वोकल फॉर लोकल’ योजना के तहत स्थानीय उत्पादों की बिक्री के लिए छत्तीसगढ़ में खोले जा रहे सी-मार्ट की स्थापना के लिए आगामी बजट में प्रावधान करने की मांग की है। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी) का मुख्यालय छत्तीसगढ़ में स्थानांतरित करने की मांग उठाई। यह सही बात है कि राज्य में भारी मात्रा में खनिज संसाधनों का उत्पादन होता है इसलिए इसका मुख्यालय राज्य में होना चाहिए, जो पहले राज्य में था।
मुख्यमंत्री ने राज्य की शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए के लिए सुविधाएं बढ़ाने की मांग की है। समग्र शिक्षा अभियान के तहत राज्य को आवंटित की जाने वाली राशि में वृद्धि की मांग उठाई गई है। अमरकंटक में संचालित केन्द्रीय आदिवासी विश्वविद्यालय का एक कैंपस बस्तर की जनजातियों के विशेष अध्ययन हेतु छत्तीसगढ़ में खोलने की मांग की एक अरसे से लंबित मांग है, जिसके लिए छत्तीसगढ़ प्रयास कर रहा है। उल्लेखनीय है कि यह मांग भाजपा कार्यकाल में डॉ. रमन सिंह के समय से चली आ रही है, जो आज तक पूरी नहीं हुई है। उच्चशिक्षा के विकास एवं गुणात्मक सुधार के लिए राज्य में ’नैक’ और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का क्षेत्रीय कार्यालय रायुपर में खोलने की मांग सराहनीय है। इससे राज्य के उच्चशिक्षण संस्थानों की गुणात्मकता में सुधार की संभावनाएं बहुत हद तक बढ़ सकती हैं।
जहां तक बात विपक्ष द्वारा यह उठाये जाने का कि केंद्र का हिस्सा राज्यों को 30 फीसदी मिलता था, मोदी सरकार आने के बाद राज्यों का हिस्सा 42 फीसदी किया गया है ? सही नहीं है, क्योंकि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशोंं के तहत यह हिस्सा 42 फीसदी किया गया है। 15वें वित्त आयोग ने इसमें मामूली एक फीसदी की कमी करते हुए इसे 41 फीसदी बरकरार रखा है। इसलिए यह मोदी सरकार की खैरात नहीं है। यह एक संवैधानिक प्रावधान एवं संस्तुति है। कुल मिलाकर आज मुख्यमंत्री बघेल द्वारा केन्द्रीय वित्त मंत्री के समक्ष रखी गई लगभग दर्जनभर मांगे एवं सुझाव स्वागतेय हैं। इससे राज्य के बहुआयामी विकास, बदलाव एवं परिवर्तन की दिशा एवं दशा बदलेगी। अंततः राज्य के सर्वांगीण, संतुलित, समावेशी एवं समग्र विकास के लिए मांगें एवं सुझाव मील का पत्थर साबित हो सकते हैं।
-डॉ. राजू पांडेय
बहुत प्रयास करने के बाद भी किसान आंदोलन की सफलता के जश्न में शामिल न हो पाया। सिर्फ इतना ही नहीं जश्न मना रहे किसान नेताओं और बुद्धिजीवियों को कौतूहल, आश्चर्य एवं करुणा मिश्रित दृष्टि से देखता भी रहा। अपने हृदय में झांका तो वहाँ क्षोभ एवं संशय की उपस्थिति देख खुद पर क्रोध आया। आखिर इसका कारण क्या था?
भारत की अर्थनीति, विकास प्रक्रिया और आधुनिक राजनीति का कोई अति सामान्य छात्र भी यह अनुमान लगा सकता है कि तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला सरकार ने उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब समेत कुछ राज्यों में निकट भविष्य में होने वाले चुनावों के मद्देनजर लिया है। सरकार किसानों की नाराजगी से डरी हुई है और इसी कारण चुनावों तक वह इस मुद्दे को शांत रखना चाहती है।
लेकिन सरकार इस बात पर अडिग है कि उसका फैसला देश और विशेषकर किसानों के हित में है और इन सुधारों के अतिरिक्त कृषि और कृषकों की दशा सुधारने का कोई अन्य रास्ता नहीं है। जब प्रधानमंत्री ने इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा की तब उन्होंने देश से इस बात के लिए क्षमा मांगी कि इन लाभकारी कृषि कानूनों की प्रकट और स्पष्ट महत्ता को किसानों के एक वर्ग को समझा पाने में सरकार असफल रही और इस कारण उसे कानून वापसी का निर्णय लेना पड़ा है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह कहीं नहीं कहा कि कानून किसान विरोधी हैं बल्कि उन्होंने कहा कि इन किसान हितैषी कानूनों की उपयोगिता को लोगों तक कम्यूनिकेट करने में वे नाकाम रहे हैं। उन्होंने कहा-‘साथियों, मैं देशवासियों से क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी जिसके कारण दिए के प्रकाश जैसा सत्य, कुछ किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाए।’
प्रधानमंत्री के इन शब्दों में सरकार की भावी रणनीति के संकेत छिपे हैं। आने वाले समय में सरकारी प्रचार तंत्र और सरकार समर्थक मुख्यधारा के मीडिया का उपयोग यह प्रदर्शित करने हेतु किया जाएगा कि यह कानून लाभकारी हैं और इनकी उपयोगिता को देश के नागरिक तथा अधिसंख्य किसान समझ भी रहे हैं। इस प्रकार पुन: आंदोलनरत किसानों को मु_ी भर नासमझ किसानों के रूप में प्रस्तुत करने का अभियान नए तेवर और कलेवर में प्रारंभ करने की सरकार की तैयारी है।
आंदोलनरत किसानों का जश्न अभी खत्म भी नहीं हुआ है और वे अभी ठीक से अपने घरों तक पहुंच भी नहीं पाए हैं ऐसे समय में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी सरकार की भावी रणनीति के विषय में वही कहा है जिसका संकेत कृषि कानूनों की वापसी का एलान करते समय प्रधानमंत्री ने दिया था, तोमर ने कहा-‘कृषि कानून 70 साल की आजादी के बाद लाया गया सबसे बड़ा रिफॉर्म था। लेकिन कुछ लोगों के विरोध के बाद उसे वापस लेना पड़ा।’ उन्होंने आगे कहा कि ‘हम एक कदम पीछे जरूर हटे हैं। लेकिन दोबारा आगे बढ़ेंगे। सरकार आगे के बारे में सोच रही है, हम निराश नहीं हैं। किसान भारत की रीढ़ हैं।’
विश्व की अर्थव्यवस्था तथा कृषि एवं व्यापार को नियंत्रित करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं विकसित देशों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं और वे सरकार पर वर्षों से दबाव डालती रही हैं कि कृषि को बाजार के हवाले कर दिया जाए। उनकी दृष्टि में यह कृषि कानून भारतीय कृषि को विश्व बाजार और मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए खोलने का पहला सकारात्मक प्रयास हैं। यह सरकार इतनी दृढ़ और स्वाभिमानी तो कतई नहीं है कि वह इस अंतरराष्ट्रीय दबाव का सामना कर सके।
सत्तारूढ़ दल को वित्तपोषित करने वाले मित्र कॉरपोरेट घरानों ने कृषि कानूनों के लागू होने की प्रत्याशा में बहुत सी अग्रिम तैयारियां कर ली थीं कि इन कृषि कानूनों के प्रभावी होने के बाद भारत की कृषि को वे किस प्रकार अपने कब्जे में लेंगे। इन कानूनों को वापस लेने के सरकार के निर्णय से उन्हें अवश्य झटका लगा होगा। उनकी नाराजगी दूर करना सरकार की पहली प्राथमिकता होगी।
इन सारी परिस्थितियों के मद्देनजर यह लगभग स्पष्ट था कि सरकार इन कानूनों को किसी अन्य विधि से प्रच्छन्न रूप से अवश्य लाने का प्रयास करेगी। कानून वापसी का सरकार का निर्णय समय निकालने की, चुनावों में नुकसान कम करने की, स्वयं को लोकतांत्रिक सिद्ध करने की और चुनावों में सफलता मिलने पर किसान आंदोलन पर नए सिरे से आक्रमण करने की सुविचारित रणनीति का एक हिस्सा है।
किसान अपनी दूसरी प्रमुख मांग एमएसपी को कानूनी गारंटी देने के विषय में भी सरकार से कोई स्पष्ट घोषणा कराने में सफल नहीं रहे। प्रधानमंत्री ने शून्य बजट आधारित कृषि को बढ़ावा देने, देश की बदलती आवश्यकताओं के अनुसार खेती के तौर-तरीकों में परिवर्तन लाने तथा एमएसपी को अधिक प्रभावी व पारदर्शी बनाने के लिए एक समिति के गठन की घोषणा की है। जिस समिति का निर्माण होना है उसमें होने वाली चर्चा उस दशकों पुरानी स्थापना के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रहेगी जिसके अनुसार किसानों को एमएसपी देना देश की अर्थव्यवस्था और आम उपभोक्ता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा फिर भी दयालु सरकार अन्नदाता की आय बढ़ाने के लिए लगातार प्रयत्नशील है और जो कुछ भी निर्णय लिया जाए वह देशहित और सरकार की आर्थिक मजबूरियों को ध्यान में रखकर लिया जाए। फिर यह समिति केवल एमएसपी के मामले को ही नहीं देखेगी अपितु यह कृषि की बेहतरी से संबंधित अन्य मुद्दों पर भी विचार करेगी। कुल मिलाकर विमर्श और विवाद तथा आरोप-प्रत्यारोप का एक अंतहीन सिलसिला चल निकलेगा। होना तो यह था कि सरकार एमएसपी को कानूनी गारंटी देने की घोषणा करती और समिति इस बात के लिए बनती कि इसका क्रियान्वयन कैसे हो?
इसके बावजूद किसानों ने आंदोलन स्थगित करने का निर्णय लिया। देश में पहली बार ऐसी स्थिति बन रही थी कि चुनाव किसान के मुद्दे पर, उसकी समस्याओं और मांगों पर केंद्रित होने जा रहे थे। आंदोलन के स्थगित होने ने राजनीतिक दलों को यह अवसर दिया है कि वे किसानों को यह स्मरण दिलाएं कि वे पहले जाति-धर्म और क्षेत्र के आधार पर मतदान करते रहे हैं और इस बार भी उन्हें ऐसा ही करना है।
खेती को हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्था के केंद्र में लाने का प्रयास आसान नहीं है- यह वर्तमान विकास प्रक्रिया को रोकने और उलटी दिशा में चलाने की कठिन कवायद है। जैसे मुद्दों को किसान आंदोलन स्पर्श करता है वैसे मुद्दों पर आधारित आंदोलन लंबे चलते हैं। ये आंदोलन थकते भी हैं, रुकते भी हैं, विश्राम भी करते हैं और नई ऊर्जा के साथ फिर प्रारंभ हो जाते हैं। क्या किसान आंदोलन का स्थगन शक्ति अर्जित करने के लिए लिया गया रणनीतिक युद्ध विराम है। आंदोलन के स्थगन के बाद चल रहा घटनाक्रम इस बात की पुष्टि नहीं करता।
अनेक किसान संगठन चुनावी राजनीति में खुलकर (नव गठित दल के रूप में, किसी राजनीतिक दल के सहयोगी के रूप में या उस राजनीतिक दल में सम्मिलित होकर अथवा किसी मोर्चे का भाग बनकर) हिस्सा लेना चाहते हैं। काश हमारा जीवन उन फिल्मों की भांति सरल होता जिनमें आंदोलनकारी थोड़ी जद्दोजहद के बाद व्यवस्था और सत्ता परिवर्तन में कामयाब हो जाते हैं, जनता उनका वैसा ही स्वागत करती है जैसा उन जैसे नायकों का होना चाहिए। वे सत्तारूढ़ होते हैं। इसके बाद उनके राज्य में सदैव सुख शांति बनी रहती है।
आंदोलन की प्रकृति में सत्ता से दूरी बनाकर रखना और सत्ता विरोध जैसी विशेषताएं अंतर्निहित होती हैं। आंदोलन सत्ता को निरंकुश होने से रोकते हैं और न केवल सत्ताधारी दल को बल्कि जनता से कट चुके विरोधी दलों को भी जनाकांक्षाओं से अवगत कराते हैं, उन्हें जनाक्रोश की शक्ति का बोध कराते हैं। जब आंदोलन सत्ता प्राप्ति को अपना लक्ष्य बना लेते हैं तब विजय सत्ता की ही होती है। भले ही आंदोलनकारी ही सत्ता में क्यों न आ जाएं, सत्ता प्राप्त करने की उठापटक ही उन्हें आंदोलन के मूल उद्देश्य से भटका देती है और फिर सत्ता में आने के बाद वे पूरी तरह इसके रंग में रंग जाते हैं।
इतिहास गवाह है कि जनता अनेक बार आंदोलनकारियों को चुनावों में नकार देती है क्योंकि जनता ने उन्हें संघर्ष के लिए चुना होता है, शासन के लिए नहीं। आंदोलनकारियों की चुनावी असफलता के कुछ स्थूल कारण भी होते हैं-बिना तैयारी के चुनावों में उतरना, जमीनी संगठन का अभाव, धनाभाव आदि। कारण जो भी हो आंदोलनकारियों की चुनावी पराजय की व्याख्या एक ही होती है- आंदोलन के मुद्दों को जनता ने नकार दिया है इसलिए यथास्थिति बनी रहनी चाहिए।
यदि आंदोलनकारी चुनकर सत्ता में आ भी जाते हैं- जैसे क्षेत्रीय मुद्दों की राजनीति करने वाली असम गण परिषद या झारखंड मुक्ति मोर्चा अथवा जनलोकपाल आंदोलन का अयाचित-अनपेक्षित उत्पाद आम आदमी पार्टी- तब भी धीरे धीरे वे किसी पारंपरिक राजनीतिक दल की भांति ही अवसरवादी और समझौतापरस्त बन जाते हैं।
पहले यह समझा जा रहा था कि आंदोलित किसानों से समझौता सरकार की मजबूरी है लेकिन हालिया घटनाक्रम तो यह संकेत करता है कि समझौते के लिए किसान नेता भी उतने ही इच्छुक थे जितनी कि सरकार। कहीं ऐसा तो नहीं है कि संयुक्त किसान मोर्चा के शीर्ष नेतृत्व ने अपने घटक किसान संगठनों में से कुछ की चुनावी राजनीति में प्रवेश की इच्छा को जानने के बाद उन्हें यह समझाने की कोशिश की हो कि चुनावी राजनीति में प्रवेश का निर्णय आंदोलन के व्यापक लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधक सिद्ध हो सकता है इसलिए उन्हें अपना निर्णय बदलना चाहिए। किंतु उन्हें अपनी जिद पर अडिग पाकर शीर्ष नेतृत्व को यह चिंता सताने लगी हो कि चलते आंदोलन के बीच इस प्रकार के मतभेद गलत संदेश देंगे इसलिए आंदोलन स्थगित करने की पहल की गई।
किसान आंदोलन में कृषि के अलग अलग पक्षों को प्रधानता देने वाले संगठन एवं किसान नेता जुड़े हुए हैं। वाम विचारधारा से प्रभावित किसान नेताओं का वास्तविक संघर्ष भूमिहीन कृषि मजदूरों को जमीन का मालिकाना हक तथा छोटे और सीमांत किसानों को आर्थिक शक्ति दिलाने के लिए है। समाजवाद से प्रभावित किसान नेता ग्राम और कृषि को सत्ता संचालन में मुख्य स्थान दिलाना चाहते हैं। एक वर्ग सम्पन्न और बड़े पारंपरिक किसानों का है जो कृषि उपज के लाभकारी मूल्य एवं किसानों की आर्थिक मजबूती के लिए संघर्षरत है। कुछ पर्यावरणवादी भी आंदोलन से जुड़े हैं जो पर्यावरण सम्मत कृषि को केंद्र में रखने और इसे लाभकारी बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं। यह सारी विचारधाराएं कहीं न कहीं आपस में टकराती हैं और कानून वापसी के मुख्य मुद्दे के समाप्त हो जाने के बाद इनके पारस्परिक मतभेदों के सतह पर आने का खतरा बना रहेगा।
किसान आंदोलन की एकजुटता और धैर्य ने सभी को प्रभावित किया था। लगता था कि यह आंदोलन धीरे-धीरे न केवल समूचे देश में फैलेगा अपितु इससे मजदूर, छोटे व्यापारी और नौकरीपेशा मध्यम वर्गीय लोग भी जुड़ जाएंगे। निजीकरण, वैश्वीकरण और नगरीकरण जैसी अवधारणाओं को अब चुनौती दी जा सकेगी। कॉरपोरेट के स्थान पर कोऑपरेटिव की चर्चा होगी। अब गांव, खेती और किसान को केंद्र में रखकर देश का संचालन हो सकेगा। गांधी, लोहिया और ज्योति बसु के विचारों का पुनर्पाठ होगा। लगता था कि धर्म और जाति की राजनीति की समाप्ति तथा देश के सेकुलर चरित्र एवं संघात्मक ढांचे की रक्षा का कार्य भी किसान आंदोलन के माध्यम से ही संपन्न होगा।
किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि हम कुछ ज्यादा ही आशावादी हो गए हैं। अधिक समय नहीं हुआ है जब हमने अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले जनलोकपाल आंदोलन को सिविल सोसाइटी के भ्रष्टाचार मुक्त उत्तरदायी शासन व्यवस्था की स्थापना के संघर्ष के रूप में व्याख्यायित करने की भूल की थी। जबकि वह भाजपा को सत्ता में लाने की एक प्रायोजित रणनीति थी। रूमानियत से बाहर निकलकर किसान आंदोलन का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन एवं सम्यक हस्तक्षेप समय की मांग है।
(रायगढ़ छत्तीसगढ़)
-प्रमोद भार्गव
कानपुर के इत्र कारोबारी पियूष जैन के ठिकानों से अरबों की काली कमाई मिली है। सादगी पसंद इस व्यापारी के पास से 280 करोड़ रुपए नकद, 250 किलो चांदी, 23 किलो सोने की ईंटें। 6 करोड़ का 600 किलो चंदन और 400 करोड़ की अचल संपत्ति के दस्तावेज मिले हैं। विभिन्न बैंकों के 18 लॉकर, 500 चाबियां और 109 ताले भी मिले हैं। 40 कंपनियां हैं, जिनके मुख्यालय मुंबई में हैं। दो कंपनियां मिडिल ईस्ट में भी हैं। जाहिर है अभी स्याह तिलिस्म के कई ताले खुलने बांकी हैं। पियूष के की इत्र की महक देश से लेकर विदेश तक तो फैली ही हुई है, साथ ही वह तंबाकू व गुटखा बनाने का काम भी करता है। काले धन का कुबेर बनने और इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा करने का यही उसका प्रमुख आधार है। अहमदाबाद में चार ट्रक तंबाकू और पान-मसाला पकड़े जाने के बाद ही उसके तिलिस्म का रहस्य उजागर हुआ है। इस पर्दाफाश को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादी पार्टी पर कुछ इस लिहाज से कटाक्ष कसा है कि पियूष जैन के अखिलेश यादव सरंक्षक रहे हैं। अलबत्ता सवाल उठता है कि नोटबंदी, जीएसटी और काली कमाई सृजित ही न हो, इस पर नियंत्रण के अनेक कानून वजूद में लाए जाने के बावजूद इसका सृजन हो कैसे रहा है? मसलन कानूनों में झोल हैं और सरकारी अमला भ्रष्टाचार में लिप्त है। नतीजतन बक्शों में भरा कालाधन निकल रहा है।
कालेधन की महिमा अपरंपार है। इसे देश में ही रोकने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने कई नए कानून बनाए लेकिन नतीजा शून्य रहा। उल्लू पर सवार लक्ष्मी के विदेश में ठिकाने आखिरकार बने हुए हैं। पियूष जैन की कंपनियां मिडिल ईस्ट में भी हैं, जाहिर है उसका कालाधन सेल कंपनियों के माध्यम से जमा हो सकता है ? मुंबई में जिन 40 कंपनियों और एक आलीशान बंगला पियूष के होने का पता चला है, वह कंपनियां काला-सफेद करने के ही काम में लगी हों। यह देश की कानून और अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का सबब है। स्विट्जरलैंड के केंद्रीय बैंक द्वारा जारी सालाना रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक भारतीयों का निजी एवं कंपनियों का धन स्विस बैंकों में साल 2020 में बढक़र करीब 20,700 करोड़ रुपए हो गया है। यह धन स्विस बैंकों की भारतीय शाखाओं और अन्य वित्तीय संस्थानों के जरिए पहुंचाया गया। स्विस नेशनल बैंक के अनुसार यह धन 2019 की तुलना में 3.12 गुना ज्यादा है। जब देश कोरोना की महामारी से जूझ रहा था, तब भारतीय अवैध धन के जमाखोर बेशर्मी से स्विस बैंकों में धन जमा करने में लगे थे। भारतीय ग्राहकों का सकल कोष 2019 में 6,625 करोड़ रुपए था, जो एक वर्ष में बढक़र 14,075 करोड़ रुपए हो गया। 13 वर्ष में यह सर्वाधिक बढ़ोत्तरी है। साफ है, नए कानूनों का कोई असर नहीं पड़ा।
राजग सरकार सत्ता में आई है तब से लगातार यह दावा करती रही है कि विदेशों में जमा काला धन देश में वापस लाने और देश के भीतर कालाधन पैदा न हो इस मकसद पूर्ति के लिए ठोस व कारगर कोशिशें की गई हैं। बावजूद न तो कालाधन वापस आया और न ही नया कालाधन बनने से रुक पाया। स्विस नेशनल बैंक की ताजा रिपोर्ट ने यह खुलासा कर दिया है। हालांकि राजग सरकार ने कालाधन पर अंकुश लगे, इस दृष्टि से ऐसे कानूनी उपाय जरूर किए हैं, जो कालेधन के उत्सर्जन पर अंकुश लगाने वाले हैं। लेकिन स्विस बैंक द्वारा जारी आंकड़ों और पियूष जैन के ठिकानों से मिले कालाधन ने साफ कर दिया है कि ये उपाय महज हाथी के दांत हैं। यही नहीं रतलाम-झाबुआ से भाजपा सांसद गुमान सिंह डामोर भी 600 करोड़ रुपए के घोटाले में फंसे हुए हैं। इस मामले में अलीराजपुर के न्यायायिक मजिस्ट्रेड अमित जैन के निर्देश पर एफआईआर दर्ज की गई है। ये कथित घोटाला उस समय का है, जब डामोर राजनीति में नहीं थे और पीएचई द्वारा संचालित फ्लोरोसिस नियंत्रण परियोजना में कार्यपालन यंत्री थे। सेवानिवृत्त होने के बाद वे भाजपा में शामिल हुए और सांसद भी बन गए।
हालांकि मोदी सरकार ने कालेधन पर अंकुश के लिए ‘कालाधन अघोषित विदेशी आय एवं जायदाद और आस्ति विधेयक-2015’ और कालाधन उत्सर्जित ही न हो, इस हेतु ‘बेनामी लेनदेन (निषेधद्ध विधेयक अस्तित्व में ला दिए हैं। ये दोनों विधेयक इसलिए एक दूसरे के पूरक माने जा रहे थे, क्योंकि एक तो आय से अधिक काली कमाई देश में पैदा करने के स्रोत उपलब्ध हैं, दूसरे इस कमाई को सुरक्षित रखने की सुविधा विदेशी बैंकों में हासिल है। लिहाजा कालाधन फल फूल रहा है। दोनों कानून एक साथ वजूद में आने से यह उम्मीद जगी थी कि कालेधन पर कालांतर में लगाम लगेगी, लेकिन नतीजा ढांक के तीन पात रहा। सरकार ने कालाधन अघोषित विदेशी आय एवं जायदाद और कर आरोपण-2015 कानून बनाकर कालाधन रखने के प्रति उदारता दिखाई थी। इसमें विदेशों में जमा अघोषित संपत्ति को सार्वजानिक करने और उसे देश में वापस लाने के कानूनी प्रावधान हैं। दरअसल कालेधन के जो कुबेर राष्ट्र की संपत्ति राष्ट्र में लाकर बेदाग बचे रहना चाहते हैं, उनके लिए अघोषित संपत्ति देश में लाने के दो उपाय सुझाए गए हैं। वे संपत्ति की घोषणा करें और फिर 30 फीसदी कर व 30 फीसदी जुर्माना भर कर शेष राशि का वैध धन के रूप में इस्तेमाल करें। इस कानून में प्रावधान है कि विदेशी आय में कर चोरी प्रमाणित हाती है तो 3 से 10 साल की सजा के साथ जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इसी प्रकृति का अपराध दोबारा करने पर तीन से 10 साल की कैद के साथ 25 लाख से लेकर एक करोड़ रुपए तक का अर्थ-दण्ड लगाया जा सकता है। जाहिर है,कालाधन घोषित करने की यह कोई सरकारी योजना नहीं थी। अलबत्ता अज्ञात विदेशी धन पर कर व जुर्माना लगाने की ऐसी सुविधा थी, जिसे चुका कर व्यक्ति सफेदपोश बना रह सकता है। ऐसा ही उपाय प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने देशी कालेधन पर 30 प्रतिशत जुर्माना लगाकर सफेद करने की सुविधा दी थी। इस कारण सरकार को करोड़ों रुपए बतौर जुर्माना मिल गए थे अरबों रुपए सफेद धन के रूप में तब्दील होकर देश की अर्थव्यस्था मजबूत करने के काम आए थे। पियूष जैन के मामले में भी उनके आवास से मिली 177.45 करोड़ रुपए की नकदी को डीजीजीआई अहमदाबाद ने टर्नओवर की रकम माना हैं। अर्थात यह कथन जाहिर करता है कि यह मामला 31.50 करोड़ रुपए की कर चोरी का है। साफ है, कर और जुर्माना चुकाकर पियूष जैन बच सकता है। इस प्रक्रिया के पूरे होने पर आयकर विभाग भी काली कमाई के मामले में हाथ मलता रह जाएगा और पियूष का यह कालाधन सफेद धन में बदल जाएगा। कालाधन उत्सर्जित न हो, इस हेतु दूसरा कानून बेनामी लेनदेन पर लगाम लगाने के लिए लाया गया था। इस संशोधित विधेयक में बेनामी संपत्ति की जब्ती और जुर्माने से लेकर जेल की हवा खाने तक का प्रावधान है। साफ है,यह कानून देश में हो रहे कालेधन के सृजन और संग्रह पर अंकुश लगाने के लिए हैं, लेकिन ठीक से अमल नहीं हो पा रहा है।
अभी तक देश में यह साफ नहीं है, कि आखिरकार कालाधन बनता कैसे है ? अर्थशास्त्र में भी इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा निर्धारित नहीं है। कुछ अर्थशास्त्री इसे समानांतर अर्थव्यवस्था के नाम से जानते हैं, तो कुछ इसे काली या अवैध कमाई का हिस्सा मानते है। वैसे कालाधन वह राशि होती है, जो लेखे-जोखे और आयकर से बाहर रख ली जाती है। सरकारी अधिकारी, कर्मचारी इसे भ्रष्टाचार के जरिए सृजित करते हैं। इस राशि को स्विस बैंकों में तो जमा किया ही जाता है, अलबत्ता देश में इसे मनोरंजन, भोग-विलास, सट्टेबाजी, चल-अचल संपत्ति की खरीद-फरोक्त, सोने-चांदी की खरीद, चुनावों में वित्त-पोषण और पेड न्यूज में भी खर्च किया जाता है। देशी-विदेशी पर्यटन, महंगी और विदेशी शिक्षा व इलाज में भी इस राशि का खूब इस्तेमाल हो रहा है। गोया, भ्रष्टाचार और अपराध इसी के सह-उत्पादों के रूप में सामने आ रहे हैं। गुलाबी अर्थव्यवस्था के पैरोकार इसे ही समानांतर अर्थव्यवस्था मानते हुए, इसे बने रहने की दलीलें देते रहते हैं, जबकि यह धनराशि कल्याणकारी योजनाओं को पलीता लगाने के साथ नागरिकों के बीच आर्थिक विसंगति बढ़ाने का काम कर रही है। अतएव कालेधन के उत्सर्जन पर प्रतिबंध तो लगना ही चाहिए ?
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत को आजाद हुए 75 साल होने को हैं लेकिन जरा हम सोचें कि हमारे जीवन के कौन-कौनसे ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें हम पूरी तरह से आजाद हो गए हैं? हमारे न्याय शासन, प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा, भाषा आदि सभी क्षेत्रों में हमने कुछ प्रगति जरुर की है लेकिन इन सभी क्षेत्रों में अंग्रेजों की गुलामी ज्यों की त्यों बरकरार है। विदेशों से कोई भी उत्तम और आधुनिक साधन और ज्ञान को स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं करना चाहिए लेकिन उसकी चकाचौंध में फंसकर अपने पूर्वजों की महान उपलब्धियों को ताक पर रख देना कहां तक ठीक है?
न्याय के क्षेत्र में अंग्रेजी कानून-पद्धति को आज तक किसी भी सरकार ने चुनौती नहीं दी है। भारत में ऐसी सरकारें भी बनी हैं, जिनके नेता भारतीय गौरव और वैभव को लौटा लाने के सपने दिखाते रहे लेकिन सत्तारुढ़ होते ही वे उन नौकरशाहों की नौकरी करने लगे, जो अंग्रेजी टकसाल में ढले सिक्के हैं। यह थोड़ी प्रसन्नता की बात है कि आजकल हमारे सर्वोच्च न्यायालय के कुछ प्रमुख न्यायाधीश भारतीय न्याय-व्यवस्था को अंग्रेजों की टेढ़ी-मेढ़ी न्यायप्रणाली से मुक्त करने की आवाज उठाने लगे हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना तो इस बारे में अपने दो-टूक विचार पेश कर ही चुके हैं लेकिन पिछले हफ्ते इसी अदालत के जज एस. अब्दुल नजीर ने जोरदार तर्क और तथ्य पेश करते हुए कहा है कि भारत की न्याय-व्यवस्था से उपनिवेशवादी मानसिकता को यथाशीघ्र विदा किया जाना चाहिए। उसका भारतीयकरण नितांत आवश्यक है। यह ठीक है कि वर्तमान सरकार ने अंग्रेजों के बनाए हुए कई छोटे- मोटे कानूनों को रद्द करने का अभियान चलाया है लेकिन भारत की मूल कानूनी व्यवस्था आज भी जितना न्याय करती है, उससे ज्यादा अन्याय करती है।
करोड़ों मुकदमे बरसों से अदालतों में लटके रहते हैं। वकीलों की फीस बेहिसाब होती है। अंग्रेजी की बहस और फैसले मुवक्किलों के सिर पर से निकल जाते हैं। भारत में इंसाफ तो जादू-टोना बन गया है। हमारे जज और वकील अपने तर्कों को सिद्ध करने के लिए ब्रिटिश और अमेरिकी नजीरों को पेश करते हैं। हमारे वकीलों और जजों को यह पता नहीं कि दुनिया की सबसे प्राचीन और विशद न्याय-व्यवस्था भारत की ही थी। भारत के न्यायशास्त्रियों- मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, पाराशर, याज्ञवल्क्य आदि को हमारे कानून की कक्षाओं में क्यों नहीं पढ़ाया जाता? यह जरुरी नहीं है कि उनके हर कथन को मान ही लिया जाए। देश और काल के अनुसार उनका ताल-मेल भी जरुरी है लेकिन इसमें क्या शक हो सकता है कि उनके द्वारा प्रतिपादित न्याय-पद्धति भारतीय मानस, संस्कृति और परंपरा के ज्यादा अनुकूल होगी। हमारी न्याय-व्यवस्था के भारतीयकरण के लिए यह जरुरी है कि कानून की पढ़ाई में अंग्रेजी पर प्रतिबंध लगे, कानून भारतीय भाषाओं में बनें और अदालत की बहस और फैसले भी स्वभाषा में हों। हमारा कानून खुद कैद में है। उसे मुक्ति कब मिलेगी?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. पलीवाल
हाल ही में जीएसटी विभाग के छापों में समाजवादी इत्र के नाम से व्यापार करने वाले पीयूष जैन के समाचार ने अखबारों, चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक पर सनसनी फैला रखी है। कुछ उसे बेवकूफ कहकर मजाक उड़ा रहे हैं कि दो सौ करोड़ रुपए नकद के बावजूद स्कूटर चलाता है, कोई कह रहा है वो इस काले धन को सफेद नहीं कर पाया आदि-आदि।
इस मामले की जिस गहराई से पड़ताल होनी चाहिए वह कहीं दिखाई नहीं दे रही.... जांच के मुख्य बिंदु यह होने चाहिए.....
1. नोटबंदी के बाद एक व्यक्ति यदि कुछ वर्ष में इतना काला धन इकट्ठा कर सकता है तो इसका मतलब यह हुआ कि हमारे काला धन नियंत्रित करने का पूरा तंत्र विफल है। क्या हमें नोटबंदी के बाद अपने कानूनों में कुछ ऐसी सजा के प्रावधान नहीं करने चाहिए जिससे भविष्य में कोई काला धन इकट्ठा करने का ख्याल ही मन में नही लाए अन्यथा नोटबंदी के बाद दो साल तक आम जनता ने जो कष्ट भोगे हैं वे सब गड्ढे में गए दिखेंगे।
2. कोई व्यापारी इतने दिन तक कैसे अपने व्यापार को इतना कम दिखाता रहा। जीएसटी लाने का भी बड़ा तर्क यही था कि इससे कर चोरी रुक जाएगी।
3. क्या इस धन में किसी भ्रष्ट राजनेता या बड़े अफसर आदि का हिस्सा है जिसे नकदी के रुप में चुनाव आदि के लिए रखा गया था अन्यथा व्यापारी इसका जमीन जायदाद में इन्वेस्टमेंट कर देता।
कुल मिलाकर यह मामला भ्रष्टाचार कम हुआ है, काला धन कम हुआ है, कर चोरी कम हुई है आदि तमाम दावों के मुंह पर बड़ा तमाचा मारता है। कोई यह कहकर भी नहीं बच सकता कि यह अपनी तरह का अकेला अपवाद है। इधर आयकर विभाग के बहुत से छापों में भी सैकड़ों करोड़ों की हेरा-फेरी सामने आई है।
असली मुद्दा तो यह है कि हमारे समाज में जब तक काले धन के प्रति नफरत का भाव और ऐसे मामलों में कड़ी सजा का प्रावधान पैदा नहीं होता तब तक कोई खास परिर्वतन बहुत मुश्किल है।
आप अपने शहर में ही थोडा झांककर देखिए, आपके सांसद, विधायक, पार्षद, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा समिति के पदाधिकारी और अधिकांश अधिकारी, पत्रकार आदि ऐसे ही जैनों और इत्रों के व्यापारियों आदि के इर्द गिर्द चक्कर लगाते मिल जाएंगे।
(जैन हवाला मामला भी आपको याद ही होगा।)
-गिरीश मालवीय
मुझे समझ नहीं आता कि ऐसे घटिया प्रोग्राम को मीडिया द्वारा धर्म संसद की संज्ञा क्यों दी जा रही है। ऐसी हेट स्पीच को ‘धर्म संसद’ के नाम से क्यों जोड़ा जा रहा है?
कोई आदमी किसी प्रोग्राम को कोई नाम दे देता है आप वही नाम दोहरा रहे हैं?
कल को किसी प्रोग्राम का नाम संविधान सभा रख दिया जाए और उसमे वक्ता आकर संविधान को भला-बुरा कहे तो मीडिया क्या यह रिपोर्ट करेगा कि संविधान सभा में भारत के संविधान की धज्जियां उड़ाई गई?
ये कौन सा ‘धर्म’ है, यह कौन सी ‘संसद’ है दोनों पवित्र शब्दों को मिलाकर एक नया शब्द बना दिया गया है और उसके जरिए नफरत फैलाई जा रही है।
बहुत से मित्र कह रहे हैं कि आपने इस विषय पर कुछ नहीं लिखा? दरअसल इस विषय पर कुछ भी लिखकर, कुछ भी कहकर, आप उन्हीं के पक्ष को मजबूत कर रहे हो, कुछ मूर्खों का समूह पागल प्रलाप कर रहा है और हम उसे मुद्दा बना रहे हैं। अरे भाई! दरअसल यही तो वो चाहते हैं, इसी चीज को तो वह डिस्कशन में लाना चाहते हैं। मनोविज्ञान में इसे रिपीट मेथड या रीइनफोर्समेंट मेथड कहते हैं। किसी बात को बार-बार दोहराना वो बार-बार एक ही बात दोहराएंगे ताकि जवान होती पीढ़ी जिसे सही- गलत का पता नहीं है उनके इस नफरती विचारधारा के पीछे चल पड़े।
हिन्दू-मुस्लिम पोलराइजेशन उनका अचूक और सबसे कारगर हथियार है।
ध्यान दीजिए! वे इसे हर साल दोहराते हंै, हर तीन महीने दोहराते हंै। हर चुनाव के पहले दोहराते हैं, क्योंकि उनके पास अपने काम बताने के लिए कुछ है ही नहीं, कैसे न कैसे करके वह मुसलमान को हर चीज में घसीट लेते हैं। अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए बार-बार नाथूराम गोडसे को हीरो बताने लगते हैं, वो नाथूराम को मजबूत कर रहे हैं तो हमें गाँधी को मजबूती देनी होगी।
याद कीजिए कि दो साल भी नहीं हुए हैं उन्होंने कोरोना जैसी एक बीमारी को मुस्लिम हेट का हथियार बना लिया, आप क्या सोचते हैं आपके हल्ला मचाने से ऐसे लोग चुप हो जाएंगे। वे जानते हैं कि उनका बाल भी बांका नहीं होगा, क्योंकि सरकार का उन्हें प्रश्रय प्राप्त है। उनके पीछे एक पूरा तंत्र खड़ा है, पूरा ऑर्गेनाजेशन खड़ा है, यदि आपको उन्हें रोकना है तो पहले आपको भी ऑर्गेनाइज होना पड़ेगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चंडीगढ़ के नगर-निगम के चुनावों में आप पार्टी को मिली सीटों ने देश के बड़े राजनीतिक दलों को एक धक्का-सा लगा दिया है। नगर निगम के चुनावों में कांग्रेसी आशा कर रहे थे कि उन्हें सबसे ज्यादा सीटें मिलेंगी और महापौर उनका ही बनेगा। ऐसा वे इसलिए सोच रहे थे कि किसान आंदोलन की वजह से भाजपा के वोट तो कटेंगे ही, चरणजीतसिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बन जाने के कारण अनुसूचित सीटें तो पकी-पकाई मिल ही जाएंगी। कांग्रेस की सीटें 2016 में चार थीं। वे आठ जरुर हो गईं लेकिन उनका वोट 38 प्रतिशत से घटकर 29 प्रतिशत रह गया।
इसी प्रकार भाजपा सोच रही थी कि किसान आंदोलन वापस ले लेने का फायदा उसे मिलेगा और हिंदू वोट उसे थोक में मिलेगा ही। इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम को भी वह खूब भुनाएगी। मोदी ने भी सिख वोटरों को प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्थानीय चुनाव में पार्टी का रंग जमाने में केंद्रीय नेताओं ने भी पूरा जोर लगाया लेकिन हुआ क्या? 2016 में भाजपा की 20 सीटें थीं। उसकी बस 12 रह गईं। वर्तमान महापौर और कई महापौर हार गए। कुछ उम्मीदवार एकदम मामूली वोटों से जीते। प्रदेशाध्यक्ष का वार्ड हाथ से खिसक गया और सबसे बड़ा धक्का यह लगा कि 2016 में प्राप्त 46 प्रतिशत वोट घटकर 29 प्रतिशत रह गए।
भाजपा के दिग्गजों की मात ने यह संकेत भी दे दिया कि पता नहीं भाजपा और अमरिंदर सिंह की मिलीभगत भी कामयाब होगी या नहीं? जहां तक आप पार्टी का सवाल है, पंजाब विधानसभा में उसके 14 विधायक हैं लेकिन चंडीगढ़ नगर निगम में तो उसके पार्षदों की संख्या शून्य थी लेकिन 0 से 14 पर पहुंचना तो आसमानी छलांग के बराबर है। यह ठीक है कि आप पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल दिल्ली में लोक-सेवा के जैसे अभियान चला रहे हैं और उनका जैसा धुआंधार प्रचार टीवी चैनलों और अखबारों में हो रहा है, उसका असर इस चंडीगढ़-चुनाव पर तो पड़ा ही है, खुद केजरीवाल और उनके विधायकों ने भी चंडीगढ़ को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था।
उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। उसमें 5 सीटें कम रह गईं लेकिन उन्होंने सभी पार्टियों के होश फाख्ता कर दिए हैं। उन्हें कुल 27 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो कि कांग्रेस और भाजपा से थोड़े से ही कम हैं। दूसरे शब्दों में तीनों प्रमुख पार्टियां वोटों के हिसाब से लगभग बराबरी के स्तर पर हैं। अकाली पार्टी तो एकदम पिछड़ गई है। हो सकता है कि आप और कांग्रेस मिलकर अपना महापौर बिठा लें लेकिन आप की असाधारण बढ़त के बावजूद यह कहना आसान नहीं है कि पंजाब में अगली सरकार किस पार्टी की बनेगी। लेकिन चंडीगढ़ ने आप पार्टी का जलवा जमा दिया है, इसमें कोई शक नहीं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-संजीव गुप्ता
क्या आपने कालीचरण महाराज के नए वीडियो को देखा है। इस वीडियो में उन्होंने अपने बयान के पक्षों में जो दलील दी है उन दलीलों को फेसबुक और वाट्सअप यूनिवर्सिटी के माध्यम से हम हजारों बार देख, पढ़ और सुन चुके होंगे। यह वही दलील है जो कुछ दिनों में रह-रहकर हमारे सामने आ जाते हैं कि ज्यादा वोट मिलने के बावजूद सरदार पटेल की जगह नेहरू को प्रधानमंत्री बना दिया गया। बंटवारे के लिए गांधी दोषी हैं (जिन्ना को तो जैसे क्लीनचिट दे दी गई है)। भगत सिंह की फांसी के लिए गांधी दोषी हैं। गांधी हिंदुओं के साथ सौतेला व्यवहार करते थे। और न जाने क्या-क्या।
क्या आपने कभी वाट्सअप यूनिवर्सिटी के इन दलीलों की जांच करने की कोशिश की है। क्या आपने कभी उस समय की मौजूदा परिस्थितियों के बारे में सोचने के लिए कुछ पल भी लिया है। हममें से कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने ऐसे मैसेज को बिना सोचे फारवर्ड कर दिया होगा।
यह करोड़ों का वर्ष का भारत है और उतना ही पुराना सनातन धर्म है। इस देश पर कई आक्रांताओं ने हमला किया। सैकड़ों आए और चले गए। क्या हमारा धर्म नष्ट हुआ। क्या प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर निरंतर चलता हुआ सनातन धर्म इतनी आसानी से नष्ट हो सकता है।
यदि गांधी हिंदू धर्म के विरोधी थे तब क्यों लंदन में एक चिकित्सक के कहने पर भी उन्होंने बीफ-टी (गौमांस मिश्रित चाय) पीने से मना कर दिया। चिकित्सक ने कहा था कि ‘तुम बीफ टी पियो या मर जाओ।’ तब गांधी का जवाब था ‘अगर यह ईश्वर की इच्छा है कि मंै मर जाऊँ तब मुझे मरना ही पड़ेगा, लेकिन मंै इस बात के प्रति निश्चित हूं कि ये कतई ईश्वर की इच्छा नहीं होगी कि जो वादे मैंने मां के सामने भारत छोडऩे से पहले किए थे, उन्हें तोड़ दूं।’
यदि गांधी हिंदू विरोधी थे तब क्यों वह अपने अंग्रेज मित्रों को गीता की व्यख्या कर समझाते थे।
क्यों इतनी कटुता से भर रहे हैं हम लोग। क्यों जो कुछ भी कोई लिख देता है या कह देता है, हम उसके पीछे भागने लगते हैं। क्यों हम उस विवेक का इस्तेमाल नहीं करते, जो ईश्वर ने सिर्फ मनुष्यों को दिया है।
सभी को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है और अपने धर्म की रक्षा करने का भी अधिकार है। लेकिन इससे पहले धर्म क्या है वह तो समझ जाएं।
और हां, सबसे पहले अपने धर्म ग्रंथ में क्या लिखा है वह अच्छे से पढ़ लें और समझ लें।
इससे आप कोई कम पढ़े-लिखे लोगों के चक्कर में फंसकर अपना समय नष्ट नहीं करेंगे।
-कनुप्रिया
स्त्रियों का दुख
स्त्रियों का सुख
स्त्रियों का प्रेम
स्त्रियों की इच्छा, कामना
स्त्री की पीड़ा
इस सबको जिस तरह स्त्री के नाम पर categorised किया जाता है वो भी एक समस्या है, स्त्रियों के गिर्द एक रहस्यमयी आवरण बुनने का काम स्त्री विरोधियों ने ही नही स्त्री का मन लिखने वालों ने भी किया है। दुनिया की तमाम स्त्रियों को सिर्फ स्त्री की श्रेणी में biologically categorise करना तो ठीक है मगर उससे इतर जो भी कहा जाता है वहाँ उसे खोलकर देखने की जरूरत महसूस होती है। इसलिये स्त्री के नाम पर अति भावुक, चाशनी में पगे, आह उह करते संबोधनों और विश्लेषणों से विरक्ति होती है, क्यों उन्हें किसी भी मोल्ड में, किसी खाँचे में घुसाने की जबरन कोशिश की जाती है। अगर कोई उस तरह की स्त्री की होने से इनकार कर दें तो क्या स्त्री नहीं रहेगी?
Biological hormonal difference के अलावा स्त्री के दुख, पीड़ा, सुख, प्रेम, कामना, इच्छा, महत्वाकांक्षा, किसी में भी कुछ भी रहस्य नहीं है, सब वैसा ही है जैसा एक इंसान का होता है, बात ये है कि क्या समाज उसे स्वीकारने को तैयार है? और उधर उसके इंसान होने को खारिज महज समाज ही नहीं करता वो भी करते हैं जो उसके प्रति अति भावुक, रहस्यवादी किस्म की व्यंजनाएँ रचते हैं, यह समाज के नजरिये को कहीं न कहीं पुनर्स्थापित करने जैसा लगता है कि आप स्त्री को उन सीमाओं से बाहर आने ही नहीं देना चाहते, वो जहाँ है वहीं बनी रहे उसी में उदासी है, उसी में खूबसरती, धत्त।
जिस तरह Men will be men के नाम पर पुरुषों का खाँचाकरण हुआ, उसी स्त्री के नाम पर कही गई अधिकांश रचनाओं में उनका श्रेणीकरण होता है, उन्हे ‘स्त्री’ की विशेष किस्म विशेषताओं से लैसकर उनमें फिट करने की जबरन कोशिश होती है।
होममेकिंग, कला, लेखन के अलावा स्पोर्ट्स, एडवेंचर, लीडरशिप, टेक्नोलॉजी, पत्रकारिता, बिजनेस हर क्षेत्र में स्त्रियाँ हैं, उनके अपने अनुभव हैं, अपना स्ट्रगल है, paitrichal society से भिड़ंत है तो ख़ुद को बतौर इंसान e&plore करना भी है जिसके अवसर समाज उन्हें कम देता है। मगर इस सबमे कुछ भी ऐसा नहीं है जो उन्हें इंसान होने से अलग करता हो। अगर कुछ है जो अलग करता है तो वो समाज है, स्त्री नहीं। ‘स्त्री’ को जिस समाज में जितना ‘स्त्री’ कह कहकर खाँचाबद्ध किया जाए समझिये वो समाज उतना ही स्त्रियों के लिये अनुदार है, बन्द है, वो उसे इंसान बनने नहीं देना चाहता। क्योंकि एक खुले समाज में स्त्रियों की उतनी ही वैरायटी संभव है जितनी इंसानों की संभव हो सकती है।
-आलोक बाजपेयी
करीब 15 साल पहले एक बार प्रोफेसर बिपिन चन्द्र के साथ विवेकानंद पर हुई अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने रामकृष्ण परमहंस के बारे में बहुत प्रशंसात्मक बातें की और कहा कि वो कमाल शख्स थे। उन्हें जरूर पढ़ो। बिपिन खुद नास्तिक थे और एक आध्यात्मिक संत को पढऩे की सलाह दे रहे थे। मैंने रामकृष्ण परमहंस को लगभग पूरा पढ़ा। उनको पढऩा मेरे जीवन का कुछ सबसे अच्छा पढऩा साबित हुआ। अगर किसी को भारत की हिन्दू आध्यत्मिक परंपरा की गहराई और ऊंचाइयों को महसूस करना है तो रामकृष्ण परमहंस से बड़ा कोई शिक्षक नहीं है। उनमें सरलता से और एक ईश्वरीय आहट के साथ अपनी बात को निडरता से कहने की जो प्राकृतिक कला है वह अद्भुत है। मैं उन्हें एक महान मनोवैज्ञानिक भी मानता हूं। उनमें एक बूंद भी साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह नहीं है और न ही कोई ‘सर्वश्रेष्ठता बोध’ ही है। उनका हास्य बोध कमाल का है और ढोंग, पाखंड को पलक झपकते पकड़ लेने की क्षमता है।
रामकृष्ण को पढऩे के बाद मेरे मन मे एक ऐतिहासिक जिज्ञासा पैदा हुई कि हिन्दू धर्म बल्कि तत्कालीन भारत की समग्र आध्यात्मिक परंपरा आखिर है क्या और क्या इसमे कोई धार्मिक पूर्वाग्रह व अपने धर्म को ही श्रेष्ठ समझने का किंचित भाव भी है या नही? इस क्रम में मैं उस समय से लगाकर लगभग 1960 तक तक के लगभग सभी आध्यात्मिक संतों के बारे में जो भी उपलब्ध हुआ, पढ़ता गया। आपको एक संत ऐसा नही मिलेगा जो ये कहता हो कि हिन्दू धर्म ही दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। सब यही कहते हैं कि सब धर्म अपनी जगह सही और सच्चे हैं। हर धर्म और संप्रदाय में अलग अलग रास्ते बताए गए हैं लेकिन सबकी मंजिल और मूल शिक्षाएं एक ही हैं।
एक बात जो मैंने नोट की कि आध्यात्मिक परंपरा में गुरु शिष्य परंपरा चलती है। यानि गुरु अपने शिष्य को बहुत तरीके से अपने शिष्य की बौद्धिक व आध्यात्मिक क्षमता व रुझान अनुसार अध्यात्म में प्रशिक्षित करते थे। गुरु स्वयं हर विधा में पारंगत नहीं होता। तो गुरु अपने शिष्य को अलग अलग आध्यात्मिक क्षेत्र के विशेषज्ञों के पास रहने और उनसे सीखने के लिए भेजते थे।
अब आते हैं पोस्ट के शीर्षक पर।
उस समय आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को महात्मा गांधी के पास भी भेजते थे कि वह कर्म क्षेत्र के सबसे बड़े महात्मा हैं, उनके पास जाओ और उन्हें देखो-समझो। कहने का मतलब यह है कि महात्मा गांधी के समकालीन आध्यात्मिक संत उन्हें बहुत ऊंचा सम्मान देते थे और उनमें आध्यात्मिक शक्ति देखते थे।
ऐसे ही एक संत अपने गुरु के निर्देशानुसार गांधी जी के आश्रम में गए और करीब सात दिन वहां रहे। उन्होंने एक बड़ा दिलचस्प ऑब्जरवेशन गांधी जी पर दिया है। उन्होंने लिखा है कि ‘मैंने गांधीजी को देखकर यह महसूस किया कि यह व्यक्ति तो साक्षात आत्मा है, उनको देखकर शरीर का आभास नहीं होता, बस आत्मा का पुंज ही दिखता है, शरीर तो जैसे बस उस आत्मा के निर्देश से पीछे पीछे चलता भर है।’
बिपिन ने गांधीजी को देखा था। उन्होंने मुझसे कहा था कि गांधीजी के चेहरे के चारों ओर एक आभा सी थी। जैसे कोई रोशनी उनके चेहरे से फूटती थी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज देश के कुछ शहरों से ऐसे बयानों और घटनाओं की खबरें देखकर चिंता हुई कि यदि इन्हें सख्ती से नहीं रोका गया तो भारत में सामाजिक कोहराम मच सकता हैं। सच पूछा जाए तो वे भारत और हिंदुत्व, दोनों की बदनामी का कारण बनेगी। पहले हम यह देखें कि वे क्या हैं? हरिद्वार में निरंजनी अखाड़े की महामंडलेश्वर अन्नपूर्णा और हिंदू महासभा के नेता धर्मदास ने इतने आपत्तिजनक बयान दिए हैं कि अब पुलिस उनके खिलाफ बाकायदा जांच कर रही है।
उनमें से एक ने कहा है कि हिंदू लोग किताबों को कोने में रखें और मुसलमानों के खिलाफ हथियार उठाएं। दूसरे ने कहा कि भारत में बसे पाकिस्तानियों की वजह से हिंदू पूजा-पाठ में बाधा होती है और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह— जैसे लोगों का वध कर दिया जाना चाहिए। यह कितने शर्म की बात है। एक और ‘हिंदू संत’ ने कहा है कि इस समय भारत में श्रीलंका के तमिल आतंकवादी प्रभाकरन और भिंडरावाले जैसे लोगों की जरुरत है। इसी तरह के लोगों ने अंबाला के एक प्रसिद्ध और पुराने गिरजाघर में घुसकर ईसा मसीह की मूर्ति को तोड़ दिया।
गुडग़ांव में भी गिरजे में घुसकर तथाकथित हिंदूवादियों ने क्रिसमस के उत्सव को भंग कर दिया। ऐसा ही पिछले साल असम में कुछ लोगों ने किया था। रायपुर में आयोजित धर्म-संसद में अधर्म की कितनी घृणित बात हुई है। इस संसद में 20 संप्रदायों के मुखिया और कांग्रेस व भाजपाई नेताओं ने भी भाग लिया था। उनमें से ज्यादातर लोगों के भाषण तो संतुलित, मर्यादित और धर्मसंगत थे लेकिन अपने आपको हिंदू संत बताने वाले दो वक्ताओं ने ऐसे भाषण दिए, जिन्हें सुनकर सारी संताई चूर-चूर हो जाती है।
एक ‘संत’ ने गांधीजी की हत्या को ठीक बताया और नाथूराम गोड़से की तारीफ की। उन्होंने मुसलमानों पर इल्जाम लगाया कि वे भारत की राजनीति को काबू करने में लगे हुए हैं। किसी अन्य ‘संत’ ने हिंदुओं के शस्त्रीकरण की भी वकालत की। उन्होंने सारे धर्म-निरपेक्ष लोगों को ‘हिंदू विरोधी’ बताया। पता नहीं, ये संत लोग कितने पढ़े-लिखे हैं? क्या उन्हें पता नहीं है कि हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री और सभी सांसद उस संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं, जो धर्म-निरपेक्ष है? ये लोग अपने आपको संत कहते हैं तो क्या इनका बर्ताव संतों की तरह है? ये तो अपने आपको उग्रवादी नेताओं से भी ज्यादा नीचे गिरा रहे हैं।
ये समझते हैं कि ऐसी उग्रवादी और हिंसक बातें कहकर वे हिंदुत्व की सेवा कर रहे हैं लेकिन भारत के मु_ीभर हिंदू भी उनसे सहमत नहीं हैं। उनके ऐसे निरंकुश बयानों से हमारे देश के मुसलमानों और ईसाइयों में भय और कट्टरता का संचार होता है। अपने तथ्यों और तर्कों के आधार पर किसी भी मजहब या संप्रदाय की समालोचना करने में कोई बुराई नहीं है, जैसे कि महापंडित महर्षि दयानंद किया करते थे लेकिन घृणा और हिंसा फैलाने से बड़ा अधर्म क्या है? (नया इंडिया की अनुमति से)
-चिन्मय मिश्र
निम्न पंक्तियों को गौर से पढ़िये और बूझिये कि आखिरकार ये क्या हैं और क्या संप्रेषित करना चाहतीं हैं ! इनका शीर्षक है ‘‘ मेरे खुदा, मेरे खुदा’’।
बख्शा मुझे तूने वजूद मेरे खुदा मेरे खुदा
हर दर्द की तू है दवा, मेरे खुदा मेरे खुदा,
रहमत की बारिश भी है तू, खुशियां भी तेरे नाम से
तू रोशनी है, तू जिन्दगी, दानिशकदा मेरे खुदा
है तेरे आब-ओ-ताब से बख़्शिश गुनाहों के मेरे खुदा,
रस्ता दिखा और इल्म दे मेरे खुदा मेरे खुदा ।।
हमें लगेगा कि यह किसी उर्दू शायर द्वारा खुदा की इबादत में लिखा पद्यांश है। शायद ऐसा हो भी ! परंतु संस्कृत की इन पंक्तियो पर गौर करिए,
‘‘ऊँ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरण्यं।
भर्गो देवस्थ धीमहि योनः प्रचोदयात’’
शायद बहुत से लोगों को याद आ गया होगा कि यह ‘गायत्री मंत्र’’ है। भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय मंत्र और संभवतः सबसे सारगर्भित मंत्रो में से एक। उपरोक्त मंत्र का भावानुवाद खुर्शीद अनवर ने किया है। सवर्ण हिंदुओं खासकर ब्राहमणों में बटुक के यज्ञोपवीत संस्कार के समय इस मंत्र को दीक्षित होने वाले युवा, के कान में सुनाया जाता है, जिससे कि यह जीवनभर उसके मस्तिष्क में स्वयं को दोहराता रहे गूंजता रहे किसी देव, देवता या देवी का कोई नाम नहीं है, गायत्री मंत्र में | वेदों की जननी गायत्री हैं। प्राणों की रक्षा करने वाली गायत्री हैं। प्राण यानी चैतन्यता एवं सजीवता। तभी तो ऐतरेय ब्राहमण गायत्री शब्द का अर्थ, ‘‘गयान् प्राणान त्रायते सा गायत्री’’। यानी जो गय (प्राणों की) रक्षा करती है, वह गायत्री है।’’ करता है | गौरतलब है पिछले दिनों हरिद्वार में इकट्ठे हुए तमाम भगवा वस्त्रधारियों ने जिस तरह की भाषा व भाव भंगिमाओं का प्रदर्शन किया वह वास्तव में दिल दहला देने वाला है। ऐसा इसलिए क्योंकि इक्कीसवीं शताब्दी में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और दुनिया के सबसे सशक्त संविधान को अंगीकार करने वाले राष्ट्र में इस तरह के आयोजन संभव हो पाया और इसमें भागीदारी करने वाले अभी भी कानून के शिकंजे में नहीं आए हैं।
गायत्री मंत्र किसी विशिष्ट धर्म, व्यक्ति, समाज, समुदाय या प्राणी के प्राण की रक्षा की बात नहीं करता वह प्राण की रक्षा को समर्पित है | जो हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, यहूदी, जैन सभी में एक ही जैसे हैं। उसी से हमारा वजूद बनता है, बिगड़ता है। प्राण ही सबकुछ है और वह हमें वह सबकुछ देता है जिसकी की हम कभी कल्पना करते हैं। वह खुदा वह ईश्वर ही हमें अपने गुनाहों से निजात भी दिलाता है। तो सोचिए गायत्री पाठ करने वाले समुदाय में वे कौन लोग हैं जो भारत के मुसलमानों को खत्म करने की बात कह रहे हैं ? अगर ये वास्तविक साधु, साध्वी, या संत हैं, तो इनमें आक्रोश, घृणा और विषाद के तत्व अभी तक कैसे विद्यमान हैं ? पाकिस्तान जा बसे शायर जान एलिया लिखते हैं,
मत पूछो कितना ग़मगी हूँ, गंगा जी और जमना जी
मैं जो था अब मैं वह नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी
मैं जो बगुला बनके बिखरा, वक्त की पागल आंधी में
क्या मैं तुम्हारी लहर नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी।।
अजीब वहिशयानापन लगातार हमारे ऊपर हावी होते जा रहा है। आगरा में सांता क्लॉज या क्रिसमस फादर का पुतला जलाया गया। क्यों ? क्या हम अपने बच्चों के बेहतरीन सपने भी अब उनसे छीन लेना चाहते हैं ? क्रिसमस फादर के पुतले को जलते हुए देख गुस्सा नहीं आया। खुद पर शर्म आई और याद आए अपने स्वर्गीय पितामह और उनके जैसे सैकड़ों - हजारों - लाखों पितामह ! उन्हें बाजार से लौटते हुए दूर से देखकर हम सब उनकी और दौड़ पड़ते थे। कंधे पर लटके उनके झोले में संतरे की गोलियां होतीं थीं। तब शायद एक पैसे की पांच आती होंगी। वे अपने झोले से जादू की तरह एक एक गोली निकालते अपने आसपास लगी बच्चों की भीड़ में से प्रत्येक को एक गोली देते और, उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते जाते। वे देखते नहीं थे कि इनमें से कौन उनका अपना पोता है और कौन नहीं। सबके हाथ में वह मीठी गोली होती और सर पर आर्शीवाद की थाप। सब संतुष्ट हो जाते। फिर खेलने लगते। बाबा सबको देखते। शायद हर रोज उनकी आँखे थोड़ी भींगती थीं। फिर वे चले जाते। वे क्या सांता क्लाज नहीं थे ? क्या वे रोज - रोज अपने साथ खुशहाली की क्रिसमस लाने वाले फादर नहीं थे। अब क्या हम पुरखों के पुतले भी जलाने लगेंगे ? दुनियाभर के बच्चे 26 दिसंबर से ही अगले क्रिसमस की राह देखना शुरु कर देते हैं। जो इस बार क्रिसमस फादर उन्हें नहीं दे पाए वह उन्हें अगली बार दे देंगे। इस तरह से क्या बच्चे माता, पिता या अभिभावकों की तरक्की व अधिक समृद्धि की कामना नही कर रहे होते? क्या वे उन्हें अधिक सक्षम बनने को प्रोत्साहित नहीं कर रहे कि वे और आगे बढ़े ? तो, अपने बच्चों के सपनों में आग लगाकर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं ?
शासन व्यवस्था की असफलता और उस असफलता को स्वीकार न करने की जिद वस्तुतः तंत्र को तानाशाही व अराजकता की ओर धकेलती है। भारत में यही हो रहा है ? मीडिया में हरिद्वार सम्मेलन को लेकर बहुत समय बाद थोड़ी बहुत खलबली भी दिखाई दी। इसकी वजह यह भी है अब तमाम चरणवंदन करने वालों को भारत में अपनी हैसियत भी मालूम पड़ रही है। वह यह भूलते जा रहे थे कि उनका वजूद किससे है। वे जिनसे अपना वजूद बनाए रखने की उम्मीद कर रहे थे, वे तो उनका वजूद मिटा देना चाहते है। तो अब उन्हें समझ में आ जाना चाहिए कि मनुष्य का वजूद वास्तव में सत्य से है। इसीलिए गांधी कहते हैं ‘‘सत्य ही ईश्वर है’’। तो हम सबको तय करना होगा कि हमारा वास्तविक ईश्वर कौन है ? हरिद्वार व आगरा में जो हुआ वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण यह है कि एक सभ्य समाज (यदि वह सभ्य है तो) ने इस तरह के विषवमन की तीखी निंदा नहीं की। वे सारे राजनीतिक दल जो तमाशबीन या कबूतर बने रहना चाहते हैं, को समझ लेना चाहिए कि वे भी नहीं बचेंगे। चुनावी हार-जीत राजनीति का सबसे छोटा और गैरजरूरी आयाम है। अगर हम वास्तविक जन आधारित राजनीति के झंडाबरदार हैं तो सत्ता को झक मारकर हमारे पास आना ही होगा क्योंकि सत्य और लोक आधारित राजनीति का विकल्प कुछ और हो ही नहीं सकता। कुछ समय के लिए अंधेरा छाता है और छट भी जाता है। खुर्शीद अनवर लिखते भी हैं,
शाम है ग़म के समन्दर में उतरने दो इसे,
कल ये सूरज फिर नया हो जाएगा धीरज धरो।
इसलिए राजनीति में अब वह सब करना जरुरी है, जिसे आधुनिक नीति निर्माताओं ने गैरजरुरी मान लिया था। हरिद्वार सम्मेलन हमें समझा गया है कि चुप्पी कितनी खतरनाक होती है और कुछ लोगों को इतना दुस्साहसी बना देती है कि वे समाज को नष्ट करने के फेर में आत्मघाती तक हो जाते हैं चुनाव जीतने की फिक्र छोड़कर ही चुनाव जीता जा सकता है, क्योंकि तब हार और जीत बेमतलब हो जाती है। परंतु यह करने के लिए जिस तरह की तैयारी और वैचारिक परिपक्वता की अनिवार्यता है उसके लिए थोड़ा ठहराव होगा, आत्मावलोकन करना होगा और परिस्थितियों से जूझने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा।
हरिद्वार सम्मेलन में चीखने वाले/वालियां हमारे - आपके बच्चों को उकसा रहे हैं। वे तो धर्म का लबादा ओड़े तमाशा या मजमा लगाकर उसे देखना चाहते हैं। वे गायत्री मंत्र का अर्थ नहीं जानते। वे नहीं जानते कि दुनिया में प्राण - प्राण में फर्क नहीं किया जा सकता। गांधी इस बात को जानते थे और उस तरह के जीवन को जीते भी थे। इतना ही नहीं उन्होंने यह अलख या विश्वास अपने अनेक अनुयायियों को संप्रेषित किया और उनमें स्थापित भी किया। तभी तो हमारी संविधान सभा ने भावुक होकर एक भी प्रावधान ऐसा नहीं किया जो भारत की आत्मा, संस्कृति व सभ्यता के रिंच मात्र भी प्रतिकूल हो। वे जानते थे कि उनमें और अंबेडकर में, उनमें और नेहरु में एक ही जैसे प्राण हैं और यही उन्हें और बाकी सबको जोड़ते भी हैं। इसीलिए तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद भारत में केशरिया या किसी और रंग का संविधान नहीं बना। जो संविधान बना वह सफेद कागज पर काली स्याही से लिखा एक अनमोल दस्तावेज है और वह सिर्फ भारत ही नहीं इस ब्रहमांड में रहने वाले प्रत्येक प्राण की बात करता है, उनकी चिंता करता है।
परंतु स्वार्थी और अपने अतीत, अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता से नितांत अपरिचित लोग यह समझ ही नहीं पाएंगे कि खुर्शीद अनवर को गायत्री मंत्र के उर्दू अनुवाद की जरुरत क्यों महसूस हुई। वे नहीं समझ पाएंगे क्योंकि ये सारे लोग अपनी माँ की लोरी की मिठास भुला बैठे हैं। ये लोग मंत्रों का उच्चारण नहीं करते उन्हें किसी हथियार की तरह प्रयोग में लाना चाहते हैं और यह असंभव है। गायत्री मंत्र की महक को उर्दूभाषी समाज ठीक उसी तरह से समझेगा जिस तरह से संस्कृत समझने वाला समाज समझता है। इसे महज रहने वाला समाज इसकी भावना को नहीं समझ पाएगा। हरिद्वार सम्मेलन हम सबके लिए आँख खोलने का काम कर सकता है। सरकार या सरकारें क्या करतीं हैं या नहीं यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है समाज के भीतर से इस तरह की गतिविधियों के खिलाफ आवाज का उठना।
क्या यह हो पाएगा ? इस सवाल का जवाब यही है कि ऐसा करना ही होगा अन्यथा हममें से किसी का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बचेगा। हमारा अस्तित्व अपनी संस्कृति से, अपनी जमीन से बराबरी से जुड़ा होता है। समंदर कभी भी हमारे पास से बहती नदी की जगह नहीं ले सकता। जान एलिया छोटी सी बान नदी तट पर बसे उत्तरप्रदेश के अमरोहा कस्बे से पाकिस्तान में समंदर किनारे स्थित शहर कराची में जाकर बस गए थे। परंतु वे कहते रहे,
यूं तो समंदर है दो कदम पर जा डूबूं, पर मैं तो यहा
एक कदम बे-सतहे जमी हूँ, गंगा जी और जमना जी
बान नदी के पास अमरोहे जो लड़का रहता था
अब वो कहा है ? मैं तो वहीं हूँ गंगा जी और जमना जी।।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और चीन के बीच पहले फौजी मुठभेड़ हुई और फिर सीमा पर इतना तनाव हो गया, जितना 1962 के युद्ध के बाद कभी नहीं हुआ। दोनों तरफ के सीमांतों पर दोनों देशों के फौजी अड़े हुए हैं लेकिन दोनों देशों के फौजी दर्जन भर से ज्यादा बार आपसी संवाद कर चुके हैं। इस परिदृश्य में आश्चर्यचकित कर देने वाली खबर यह है कि दोनों राष्ट्रों के आपसी व्यापार में अपूर्व वृद्धि हुई है। यह वृद्धि तब भी हुई है, जबकि भारत के कई संगठनों ने जनता से अपील की थी कि वह चीनी माल का बहिष्कार करे। सरकार ने कई चीनी व्यापारिक और तकनीकी संगठनों पर प्रतिबंध भी लगा दिया था लेकिन हुआ क्या?
प्रतिबंध और बहिष्कार अपनी-अपनी जगह पड़े रहे और भारत-चीन व्यापार ने पिछले साल भर में इतनी ऊँची छलांग मार दी कि उसने रेकार्ड कायम कर दिया। सिर्फ 11 माह में दोनों देशों के बीच 8.57 लाख करोड़ रु. का व्यापार हुआ। यह पिछले साल के मुकाबले 46.4 प्रतिशत ज्यादा था याने तनाव के बावजूद आपसी व्यापार लगभग डेढ़ गुना बढ़ गया। इस व्यापार में गौर करने लायक बात यह है कि भारत ने चीन को जितना माल बेचा, उससे तीन गुने से भी ज्यादा खरीदा।
भारत ने 6.59 लाख करोड़ का माल खरीदा और चीन ने सिर्फ 1.98 लाख करोड़ रु. का। इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि भारत की जनता ने सरकार और सत्तारुढ़ संगठनों की अपीलों को एक कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया। दूसरे शब्दों में गलवान घाटी में हुई फौजी मुठभेड़ का और सरकारी अपीलों का आम लोगों पर कोई असर नहीं हुआ। इसका कारण क्या हो सकता है? इसका पहला कारण तो शायद यही है कि लोगों को यही समझ में नहीं आया कि भारत-चीन सीमांत पर मुठभेड़ क्यों हुई और उसमें गलती किसकी थी? भारत की या चीन की?
नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कह दिया था कि चीन ने भारत की एक इंच भी जमीन पर कब्जा नहीं किया है तो लोग सोचने लगे कि फिर, झगड़ा किस बात का है? यदि भारत की जनता को लगता कि चीन का ही पूरा दोष है तो वह अपने आप वह चीनी चीजों का बहिष्कार कर देती, जैसा कि उसने 1962 में किया था। जनता आगे होती और सरकार पीछे! लेकिन ऊपर दिए व्यापारिक आकड़े भी यह सिद्ध करते हैं कि इस मुद्दे पर सरकार का रवैया भी स्पष्ट नहीं था। यदि सरकार का रवैया दो-टूक होता तो दोनों देशों के आपसी व्यापार में क्या इतना अपूर्व उछाल आ सकता था ?
सरकारों की इजाजत के बिना क्या देश में कोई आयात या निर्यात हो सकता है? दोनों देशों की सरकारें चाहे एक-दूसरे पर आक्रमण का अरोप लगाती रहीं लेकिन दोनों को ही अपना व्यापार बढ़ाने में कोई झिझक नहीं रही। यह भी अच्छा है कि दोनों तरफ के फौजी लगातार बात जारी किए हुए हैं। यही प्रक्रिया भारत और पाकिस्तान के बीच भी क्यों नहीं चल सकती? पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से जब भी मेरी भेंट हुई हैं, मैं उन्हें 1962 के बाद चले भारत-चीन संवाद का उदाहरण देता रहा हूं। मतभेद और विवाद अपनी जगह रहें लेकिन संवाद बंद क्यों हों? अब किसी भी समस्या का समाधान युद्ध से नहीं, संवाद से ही निकल सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई महामारी ओमिक्रान भारत में अभी तक वैसी नहीं फैली है, जैसी कि कोरोना की महामारी फैल गई थी। फिर भी दुनिया के विकसित देशों में उसने काफी जोर पकड़ लिया है। भारत के 17 राज्यों में अभी तक 360 मामले सामने आए हैं। अभी महामारी चाहे न फैली हो लेकिन उसका डर फैलता जा रहा है। कई राज्य सरकारों ने रात का कर्फ्यू लागू कर दिया है और कुछ ने दिन में भीड़-भाड़ पर भी तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तो यहां तक कह दिया है कि उत्तरप्रदेश के चुनावों को अभी टाल दिया जाए तो बेहतर होगा। दिल्ली के उच्च न्यायालय ने भी सरोजनी नगर के बाजारों की भीड़ पर चिंता व्यक्त की है। असलियत तो यह है कि पिछले कई माह से घरों में कैद लोग अब दुगुने उत्साह से बाहर निकल रहे हैं। डर यही है कि चुनावों के दौरान होनेवा ली विशाल जनसभाओं में कहीं लाखों लोग इस नई महामारी के शिकार न हो जाएं। हमारे नेता भी गजब कर रहे हैं। वे बाजारों, शादियों और अन्य समारोहों में तो 200 लोगों की पाबंदियां लगा रहे हैं लेकिन वोटों के लालच में वे दो-दो लाख की सभाओं को खुद आयोजित करेंगे।
प. बंगाल और बिहार में हुए चुनावों के दौरान यही हुआ। लाखों लोग कोरोना की चपेट में आ गए। अब उप्र, पंजाब, उत्तराखंड, गोआ और मणिपुर के चुनाव सिर पर हैं। इन राज्यों में चुनाव का पूरा इंतजाम करने में चुनाव आयोग जुटा हुआ है। मुख्य चुनाव आयुक्त आजकल इन राज्यों के दौरे भी कर रहे हैं। इसमें शक नहीं कि निष्पक्ष और प्रामाणिक चुनाव-प्रक्रिया की तैयारी काफी अच्छी है लेकिन पांच राज्यों में इस चुनाव के कारण यदि महामारी फैल गई तो आम जनता को भयंकर परेशानी का सामना करना पड़ेगा।
यह ठीक है कि देश के ज्यादातर लोगों को टीका लग चुका है लेकिन उन लोगों में से भी कई नई महामारी के शिकार हो चुके हैं। सभी पार्टियां चाहेंगी कि चुनाव निश्चित समय पर जरुर हों, क्योंकि एक तो चुनाव के दौरान उन पर नोटों की झड़ी लगी रहती है, उनकी नेतागीरी का चस्का भी पूरा होता है और उन्हें जीतकर सरकार बनाने की ललक भी चढ़ी रहती है। उक्त पांच राज्यों में से चार में भाजपा की सरकारें हैं। उनकी खास जिम्मेदारी है।
यदि वे सब मिलकर चुनाव आयोग से आग्रह करें तो वह इन चुनावों को 4-6 माह के लिए स्थगित कर सकता है। इस बीच राज्यों में राष्ट्रपति शासन या कार्यकारी मुख्यमंत्री की नियुक्ति भी हो सकती है। यों भी चुनाव आयेाग को अधिकार है कि वह आत्मनिर्णय के आधार पर चुनावी तारीखों को आगे खिसका सकता है। यदि महामारी लंबी खिंच जाती है तो उसका भी हल खोजा जा सकता है। भारत में लगभग 90 करोड़ लोगों के पास मोबाइल फोन और इंटरनेट की सुविधा है। आजकल डिजिटल तकनीक इतनी विकसित हो गई है कि लोग घर बैठे मतदान कर सकते हैं। फिलहाल, बेहतर तो यही होगा कि इन प्रांतीय चुनाव को अभी टाल दिया जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व गर्ग
इन पंक्तियों को जब लिख रहा हूँ तो तीसरी लहर सामने है।
5,400,992 मृत्यु पूरी दुनिया में कोरोना की वजह से दम तोड़ चुके।
4.7 मिलियन लोगों की सिर्फ हिन्दुस्तान में मृत्यु हुई।
दुनिया की अर्थव्यवस्था को $$4 ट्रिलियन का नुकसान हो चुका।
हिन्दुस्तान की जीडीपी गोते लगाते नीचे पहुँच चुकी।
हमारे देश में ही 10 मिलियन से ज्यादा लोगों का रोजगार छिन चुका।
बाजार कराह रहा है। भुखमरी भयानक रूप में है...लोग दाने-दाने को तरस रहे हैं।
लाखों परिवारों के आंसू अपनों को खोने के बाद अब तक सूखे नहीं हैं, सिर्फ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, अहमद पटेल, तरुण गोगोई, चेतन चौहान और सैकड़ों जाने माने लोग ही नहीं गए हम सबके न जाने कितने अपने इस दौरान बिछड़ गए।
याद आ रहा है कोरोना की दूसरी लहर में एक ऐसा दिन भी आया था जब लोग ऑक्सीजन, रेमिडीस्वीर, एंटी फ्लू टेबलेट या अस्पतालों के लिए सिफारिश नहीं कर रहे थे बल्कि अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में थोड़ी जगह मिल जाये बस दोनों हाथ जोड़े यही गुजारिश कर रहे थे। पर इतना भीषण तांडव मचा हुआ था कि हर कोशिश के बावजूद अंतिम संस्कार तक कर पाने में लोग विफल रहे नतीजा नदियों में शव बहते रहे।
महामारी का प्रकोप इतना भयानक था कि न पैसा न पावर न दुआ कुछ भी काम न आया।
अब तीसरी लहर सामने है। वायरस अपना रूप रंग तेवर बदल कर सामने है। नया वेरिएंट ओमिक्रॉन सामने है।
चुनाव भी सामने है और हर तरह के सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रम सामने है ।
वायरस बदलता जा रहा है पर इंसान कभी नहीं बदलेगा। हमेशा अपने लिए सुविधजनक पंक्तियाँ ढूंढता रहेगा मसलन-ये साजिश है, डराने का प्रयास है, वायरल बुखार है और जितनी भी अतार्किक-अवैज्ञानिक गल्प गढ़ सकते हैं सब गढ़ा गया और अब भी गढ़ रहे हैं। पुराने जमाने में भी यह कहा जाता था कि प्लेग सिंधु नदी नहीं पार कर सकता पर प्लेग ने लगातार हमला कर हिन्दुस्तान को बर्बाद कर दिया था, ये इतिहास में दर्ज है ।
दरअसल, इंसान महामारी को स्वीकार करने को तैयार नहीं। महामारी को स्वीकार करने का मतलब बहुत लम्बे समय तक संयमित, सुरक्षित, अनुशासित और एकांत जिंदगी का चयन है। इसलिए पेंडेमिक की ये कड़वी गोली इंसान गटकने को अब भी तैयार नहीं जबकि दुनिया उजड़ कर बदरंग हो चुकी।
दुनिया भले ही बदरंग हो पर लोगों का निखरा हुआ रूप -रंग दिखना चाहिए। इसलिए जरूरी है मास्क न लगाएं, इसलिए जरूरी है खूब मेल-मिलाप करें ‘फिजिकल-सोशल डिस्टेंसिंग’ करना तो मूर्खों का काम है!!
अब लोगों ने अपनी सुविधा के लिए ये तय ही कर लिया कि ओमिक्रॉन की औकात कुछ भी नहीं ..कहाँ हो रही है मौत? आएगा ..चला जायेगा.. शो मस्ट गो ऑन...जश्न चलने दो..
‘उन की खुशी में हम खुश होते थे लेकिन
अब वो जश्न मनाएँगे हम रोएँग’
मितरों,
ओमिक्रॉन से मृत्यु की खबरें शुरू हो गई...ये और बात है पर जरा ये पता करिये डेल्टा से ठीक हो चुके लोग भी कैसे पोस्ट कोविड ट्रीटमेंट के बाद भी अधमरे हैं, या कई प्रकार के गंभीर रोगों से गुजर रहे हैं या दुनिया से गुजरते जा रहे हैं ये बिल्कुल हकीकत है कोई फसाना नहीं ।
वैक्सीन नए वेरिएंट पर बेअसर हो रही इस तरह की खबरें लगातार सामने हैं।
खुद सोचिये, नया वेरिएंट और भी म्युटेशन के बाद क्या रूप ले सकता है, कोई जानता है ?
जरा सोचिये भले ही इस वक्त नए वेरिएंट से मृत्यु दर की खबरें न हों पर शरीर में क्या प्रभाव छोडक़र जायेगा कोई जानता है? अभी तक तो वैज्ञानिक अध्यययन भी, पूरे तथ्य भी सामने नहीं हैं फिर भी अपना निष्कर्ष निकालकर मस्ती में हैं जबकि बस्तियों में आग लगने की खबरें सामने हैं!
5,400,992 लोगों की मौत से पहले कुछ ज्यादा पढ़े लिखे बुद्धिजीवी पहले की दोनों लहर में साजिश ढूंढ रहे थे वो आज भी मदमस्त हैं और उन्हें साजिश की बू ही आ रही है।
दो ही रास्ते हैं या तो कथा कहानियां और गल्प सुनते हुए साजिश की चुगली कर दूसरी लहर की तरह फिर से भुगतें या फिर विज्ञान को स्वीकार करें और विज्ञान की वाणी कितनी ही कठोर क्यों न हो, उसकी गोली कितनी ही कड़वी क्यों न हो उसे ग्रहण करें और अपने-अपने परिवार और समाज को बचाएँ।
ध्यान रखें, विज्ञान को चुनौती वैज्ञानिक आधार, रिसर्च, डाटा के आधार पर ही दी जा सकती है मतलब विज्ञान ही विज्ञान को जवाब दे सकता है किस्से कहानी, फेसबुक व्हाट्सएप के दुष्प्रचार नहीं।
विज्ञान को ही मानिये। आज विज्ञान सिर्फ 2 सलाह दे रहा;
एक -वैक्सीन
दूसरा- मास्क -डिस्टेंसिंग
डॉक्टरों-वैज्ञानिकों की सुनिए समझिये...वाकई, आगे अच्छे दिन नहीं हैं ...कई बातें कह नहीं पा रहा उन भावी खतरों, अनकही बातों को समझिये भाई...
‘खतरे के निशानात अभी दूर हैं लेकिन
सैलाब किनारों पे मचलने तो लगे हैं’
-रमेश अनुपम
लोहंडीगुड़ा गोली कांड स्थानीय प्रशासन और मध्यप्रदेश सरकार के लिए एक ऐसा सबक था, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता था। लोहंडीगुड़ा गोली कांड के बाद बस्तर के आदिवासियों की न्यायोचित मांगों और प्रवीर चंद्र भंजदेव के प्रति संवेदनशील दृष्टि से विचार किए जाने की जरूरत थी। पर दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ नहीं हुआ।
लोहंडीगुड़ा गोली कांड के बाद आदिवासियों की मांग पर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को जेल से रिहा तो कर दिया गया पर कोर्ट ऑफ वार्ड्स से उनकी संपत्ति को मुक्त नहीं किया गया ।
गैर आदिवासी व्यापारियों का बाजारों में आदिवासियों को लूटना भी बंद नहीं हुआ और न ही उनके विकास की किन्हीं ठोस योजनाओं को मूर्त रूप देने की कहीं कोई कोशिश ही की गई।
परिणामस्वरूप आदिवासियों में असंतोष बढ़ता चला गया। स्थानीय प्रशासन और सरकार इस सबसे आंखें मूंदे बेखबर बनी रही।
लोहंडीगुड़ा गोली कांड 31 मार्च सन 1961 को हुआ था। दो वर्ष बीतने को आ रहे थे लेकिन अब तक बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति को सरकार ने कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त करना जरूरी नहीं समझा था।
पिछले दो वर्षों से आदिवासियों के भीतर फिर से गुस्से की आग सुलगने लगी थी। स्थानीय प्रशासन और सरकार पर उनका भरोसा उठता जा रहा था।
9 अप्रैल सन 1963, लगभग सौ आदिवासी नेताओं ने बस्तर कलेक्टर मोहम्मद अकबर से मुलाकात की और उनसे निवेदन किया कि महाराजा की संपत्ति को कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त किया जाए।
10 अप्रैल सन 1963 की शाम को आदिवासी नेता मंगल मांझी ने भोपाल ट्रंक कॉल कर प्रदेश के राज्यपाल हरि विनायक पाटस्कर को आदिवासियों के असंतोष की जानकारी और इस पर तत्काल कार्रवाई किए जाने का निवेदन किया साथ ही राज्यपाल को बस्तर आकर वस्तुस्थिति को स्वयं देखने का आग्रह भी।
प्रदेश के सर्वोच्च मुखिया ने शायद आदिवासी नेता मंगल मांझी की बात को गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं समझी।
11 अप्रैल 1963 को आदिवासी एक-एक कर जगदलपुर में एकत्र होने लगे। हेड पोस्ट ऑफिस जगदलपुर के सामने आदिवासियों की भीड़ लगनी शुरू हो गई।
मध्यप्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को टेलीग्राम भेजा गया कि उनकी मांगों को सरकार 13 अप्रैल तक पूर्ण करें।
स्थानीय प्रशासन ने 13 अप्रैल की सुबह से ही जगदलपुर में धारा 144 लगा दिया। बस्तर के तत्कालीन कलेक्टर मोहम्मद अकबर ने प्रेस को बताया कि जगदलपुर में आदिवासियों की बढ़ती हुई भीड़ को देखकर प्रशासन को यह निर्णय लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
जगदलपुर में स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही थी, पर शासन-प्रशासन को जैसे इसकी कोई चिंता ही नहीं थी।
कमिश्नर, कलेक्टर चाहते तो आने वाली अप्रिय स्थिति को रोक सकते थे। आदिवासियों को समझा-बुझा कर शांत कर सकते थे। उनकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर सकते थे, पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।
मध्यप्रदेश के राज्यपाल हरि विनायक पाटस्कर और मुख्यमंत्री डॉ . कैलाश नाथ काटजू महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति को चाहते तो कोर्ट ऑफ वार्ड्स से रिलीज करवा सकते थे।
किंतु शासन ने शायद पहले से ही मन बना लिया था कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और आदिवासियों को मज़ा चखाना है।
भोपाल को बस्तर से न कोई सहानुभूति थी और न ही किसी तरह का कोई लेना देना। इसे निष्ठुरता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है।
कुल मिलाकर बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और बस्तर के आदिवासियों की पीड़ा को समझने की कोशिश न स्थानीय प्रशासन को थी और न ही राज्य सरकार या केंद्र सरकार को।
सरकार के लिए न प्रवीर चंद्र भंजदेव उपयोगी थे और न ही उनसे अथाह प्रेम करने वाले बस्तर के भोले-भाले आदिवासी ।
बस्तर के नृशंस गोली कांड की पूरी भूमिका लगभग तैयार हो चुकी थी। दावानल की चिंगारी भडक़ चुकी थी, पत्तियां जल उठी थीं पूरे जंगल का सुलगना अभी बाकी था। मध्यप्रदेश सरकार के दिग्गज नेता और स्थानीय प्रशासन तो शायद यही चाहते भी थे।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह खुशी की बात है कि भारत सरकार अब म्यांमार (बर्मा) के बारे में सही और स्पष्ट रवैया अपना रही है। जिस दिन म्यांमार की नेता आंग सान सू ची को चार साल की सजा घोषित हुई थी, उसी समय मैंने लिखा था कि भारत सरकार की चुप्पी ठीक नहीं है। जब भी पड़ौसी देशों में लोकतंत्र का हनन हुआ है, भारत कभी चुप नहीं रहा है। चाहे वह पूर्वी पाकिस्तान हो, नेपाल हो, भूटान हो या मालदीव हो। लेकिन अब हमारे विदेश सचिव हर्षवर्द्धन श्रृंगला ने स्वयं म्यांमार जाकर उसके फौजी शासकों, सू ची के पार्टी नेताओं और कई देशों के राजदूतों से खुला संवाद किया है।
श्रृंगला ने साहसिक पहल की और फौजी शासकों से कहा कि वे जेल जाकर सू ची से मिलना चाहते हैं। फौजियों ने उसकी अनुमति उन्हें नहीं दी लेकिन इससे यह तो प्रकट हो ही गया कि भारत म्यांमार की घटनाओं के प्रति तटस्थ या उदासीन नहीं है। श्रृंगला ने फौजी शासकों को स्पष्ट कर दिया है कि भारत अपने इस पड़ौसी देश के लोकतंत्र के बारे में पूरी तरह से चिंतित है। ‘एसियान’ संगठन का म्यांमार सदस्य है लेकिन उसने आजकल म्यांमार का बहिष्कार कर रखा है लेकिन भारत उसके प्रति इतना सख्त रवैया नहीं अपना सकता। उसके दो कारण हैं।
पहला तो यह कि भारत के नगा और मणिपुर के बागियों को नियंत्रित करने में बर्मी फौज भारत की सक्रिय मदद करती है और दूसरा चीन वहां हर कीमत पर अपना वर्चस्व बढ़ाने पर आमादा है। संयुक्तराष्ट्र संघ में म्यांमार के फौजियों की काफी लानत-मलामत हो रही है लेकिन भारत ने म्यांमार पर मध्यम मार्ग अपना रखा है। वह फौज के खिलाफ खुलकर नहीं बोल रहा है, लेकिन उस पर अपना कूटनीतिक दबाव बराबर बना रहा है ताकि बर्मा में लोकतंत्र की वापसी हो सके। भारत ने पहले भी सू ची और फौज के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी। म्यांमार में स्थित महाशक्तियों के राजदूतों ने भी श्रृंगला को सचेत करना उचित समझा। यह सच है कि ‘एसियान’ और संयुक्तराष्ट्र संघ में म्यांमार के खिलाफ सिर्फ प्रस्ताव पारित कर देने से खास कुछ होनेवाला नहीं है। भारत का मध्यम मार्ग ही इस समय व्यावहारिक और उचित है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
एक सामान्य और असहाय नागरिक को अपनी प्रतिक्रिया किस तरह से देना चाहिए ? पंजाब कांग्रेस के मुखिया और मुख्यमंत्री पद के दावेदार नवजोत सिंह सिद्धू के इस उत्तेजक बयान पर राहुल गांधी समेत सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की ज़ुबानों पर ताले पड़ गए हैं कि (धार्मिक) बेअदबी के गुनहगारों को खुले आम फाँसी दे देना चाहिए। अमृतसर और कपूरथला के दो धर्मस्थलों पर पवित्र गुरु ग्रंथ साहब के अपमान की अलग-अलग घटनाओं के सिलसिले में दो लोगों को "धर्मप्राण" भी़ड़ ने पीट-पीट मार डाला।जिन लोगों की जानें गईं हैं उनकी पहचान को लेकर किसी भी तरह की जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है। जिन लोगों ने मारपीट की घटना को अंजाम दिया उनके भी नाम-पते भी अज्ञात हैं। घटना की जांच रिपोर्ट भविष्य में जब भी सामने आएगी तब तक के लिए सब कुछ रहस्य की परतों में क़ैद रहने वाला है।
विधानसभा चुनावों के ऐन पहले इन घटनाओं का होना (इसी तरह की एक घटना 2017 के चुनावों के पहले 2015 में हुई थी ) और उन पर एक ज़िम्मेदार नेता की उग्र प्रतिक्रिया लोकतंत्र और न्याय-व्यवस्था की मौजूदगी और प्रभाव के प्रति डर पैदा करती है।सिद्धू की माँग न सिर्फ़ भविष्य को लेकर चिंताएँ उत्पन्न करती है, अतीत की उन तमाम दुर्भाग्यपूर्ण मॉब लिंचिंग घटनाओं को भी वैधता प्रदान करती है जिनमें धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के आरोपों में एक समुदाय विशेष के लोगों को अपनी जानें गँवाना पड़ीं थीं।दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उस तरह की घटनाएँ अब बंद हो चुकी हैं।(हरिद्वार में हाल ही में हुई हिंदू संसद में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ दिए गए उत्तेजक भाषण उसका संकेत है ।)सत्ता की राजनीति ने सबको ख़ामोश कर रखा है। ऐसा लगता है सब कुछ किसी पूर्व-निर्धारित स्क्रिप्ट के मुताबिक़ ही चल रहा है।
किसी समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँचाने अथवा बेअदबी करने के आरोप में बिना किसी साक्ष्य, मुक़दमे और गवाही के धार्मिक स्थलों अथवा सड़कों पर भीड़ द्वारा ही अगर सजा तय की जानी है तो हमें अपने देश की भौगोलिक सीमाएँ उन मुल्कों के साथ समाप्त कर देना चाहिए जहां धर्म के नाम पर इस तरह की क़बीलाई संस्कृति आज के आधुनिक युग में भी क़ायम है। हम जिस सिख समाज को अपनी आँखों का नूर मानते आए हैं वह इस तरह के भीड़-न्याय को निश्चित ही स्वीकृति नहीं प्रदान कर सकता।
कहना मुश्किल है कि वे तमाम राजनीतिक दल और धर्मगुरु, जो नागरिकों की बेअदबी और जीवन जीने के ईश्वर-प्रदत्त अधिकारों के सरेआम अपहरण के प्रति अपमानजनक तरीक़े से मौन हैं, जलियाँवाला बाग जैसी कुरबानियों में झुलसकर निकले राष्ट्र को 1947 के दौर में वापस ले जाना चाहते हैं या अक्टूबर 1984 में प्रकट हुए देश के तेज़ाबी चेहरे की ओर।
अहिल्याबाई होलकर के जिस ऐतिहासिक इंदौर शहर में मैं रहता हूँ उसमें 31 अक्टूबर 1984 के दिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की आँखों देखी याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सिख रिहाइशी इलाक़ों में चुन-चुनकर घर जलाए जा रहे थे, धार्मिक स्थल सूने और असुरक्षित हो गए थे। लोग मदद के लिए गुहार लगा रहे थे। आग बुझाने वाली गाड़ियाँ एक कोने से दूसरे कोने की ओर भाग रहीं थीं। पुलिस चौकियों पर जलते मकानों से सुरक्षित बचाए गए सामानों के ढेर लगे हुए थे। कोई ढाई सौ साल पहले मराठा साम्राज्य के दौरान होलकरों द्वारा निर्मित ऐतिहासिक राजवाड़ा के एक हिस्से में आग लगा दी गई थी।
इंदिरा गांधी के अस्थि कलश का जुलूस जब उसी राजवाड़ा की दीवार के नज़दीक से गुज़र रहा था उसके जलाए जाने की क़ालिख इस ऐतिहासिक इमारत और शहर के चेहरे पर मौजूद थी। वे तमाम सिख जो उस दौर की यंत्रणाओं और अपमान से गुज़रे थे उनके परिवार आज उसी शहर में शान और इज्जत से रहते हैं। उन दुर्दिनों के बाद भी किसी ने यह माँग नहीं की कि घटना के दोषियों को सड़कों पर फाँसी की सजा दी जानी चाहिए।
बेअदबी की घटनाओं के बाद राहुल गांधी की किसी भी संदर्भ में की गई इस टिप्पणी में कि लिंचिंग शब्द भारत में 2014 के बाद आया है, कांग्रेस की असहाय स्थिति और सिद्धू की फाँसी की माँग पर भाजपा (और उसके अनुषांगिक संगठनों )की चुप्पी में कट्टरपंथी पार्टी के अपराध बोध की तलाश जा सकती है। सिद्धू के इस आरोप के क्या मायने निकाले जाने चाहिए कि :’एक समुदाय के ख़िलाफ़ साज़िश और कट्टरपंथी ताक़तें पंजाब में शांति भंग करने की कोशिश कर रही हैं’? सिद्धू अपनी बात को साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहना चाहते ?
कोई साल भर तक राजधानी दिल्ली के बार्डरों (सिंघु ,टिकरी और ग़ाज़ीपुर) पर चले अत्यंत अहिंसक आंदोलन और उसके दौरान कोई सात सौ निरपराध किसानों के मौन बलिदानों से उपजी सहानुभूति के आईने में पंजाब के मौजूदा घटनाक्रम को देखकर डर महसूस होता है। पंजाब के किसानों के सामने चुनौती अब अपनी कृषि उपज को उचित दामों पर बेचने की नहीं बल्कि यह बन गई है कि राज्य की हुकूमत को किन लोगों के हाथों में सौंपना ज़्यादा सुरक्षित रहेगा !
किसी भी धर्म या आस्था को लेकर की गई बेअदबी हो अथवा नागरिक जीवन का हिंसा के ज़रिए असम्मान किया गया हो ,क्या दोनों स्थितियाँ अलग-अलग हैं या एक ही चीज़ है? अगर अलग-अलग हैं तो दोनों के बीच के फ़र्क़ को अदालतें तय करेंगी या यह काम भीड़ के ज़िम्मे कर दिया जाएगा? दूसरे यह कि क्या ऐसा मानना पूरी तरह से सही होगा कि लिंचिंग की घटनाओं को क़ानूनों के ज़रिए रोका जा सकता है ? कहा जा रहा है कि पंजाब द्वारा केंद्र की स्वीकृति के लिए भेजे गए क़ानूनी प्रस्तावों को अगर मंज़ूरी मिल जाती तो बेअदबी की घटनाएँ नहीं होतीं। लिंचिंग एक मानसिकता है जो धर्मांधता से उत्पन्न होती है ।सिर्फ़ क़ानूनी समस्या नहीं है। दुनिया का कोई भी धर्म या क़ानून भीड़ की हिंसा को मान्यता नहीं देता। दिक्कत यह है कि लिंचिंग को धर्म के बजाय सत्ता की ज़रूरत में तब्दील किया जा रहा है।मुमकिन है सिद्धू का बयान भी सत्ता की तात्कालिक ज़रूरत की ही उपज हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कर्नाटक की विधानसभा ने धर्म-परिवर्तन विरोधी कानून पारित कर दिया है। भाजपा ने उसका समर्थन किया है और कांग्रेस ने उसका विरोध! इस तरह के कानून भाजपा-शासित कई अन्य राज्यों ने भी बना दिए हैं और कुछ अन्य बनाने जा रहे हैं। कर्नाटक के इस कानून के विरोध में कई ईसाई संगठनों ने बेंगलूरु में प्रदर्शन भी कर दिए हैं। कई मुस्लिम नेता भी इस कानून के विरोध में अपने बयान जारी कर चुके हैं। इस तरह के जितने भी कानून बने हैं, उनके कुछ प्रावधानों से किसी-किसी पर मतभेद तो जायज हो सकता है लेकिन भारत-जैसे देश में धर्म-परिवर्तन पर कुछ जरुरी प्रतिबंध अवश्य होने चाहिए।
वास्तव में धर्म-परिवर्तन है क्या? यह वास्तव में धर्म-परिवर्तन के नाम पर ताकत का खेल है। इसका एक मात्र उद्देश्य अपने-अपने समुदाय का संख्या-बल बढ़ाना है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में संख्या-बल के आधार पर ही सत्ता पर कब्जा होता है। सिर्फ सत्ता पर औपचारिक कब्जा ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी अपना वर्चस्व कायम करने में मजहबी-संख्या की जबर्दस्त भूमिका होती है। जो लोग अन्य लोगों का धर्म-परिवर्तन करवाते हैं, उनसे कोई पूछे कि वे जिस धर्म के हैं, क्या वे उस धर्म का पालन अपने खुद के जीवन में ईमानदारी से करते रहे हैं ?
यूरोप का इतिहास बताता है कि वहां एक हजार साल की अवधि को अंधकार युग माना जाता है, क्योंकि उस काल में पोप की सत्ता ही सर्वोपरि रहती थी। कर्नल इंगरसोल ने अपनी रचनाओं में पोपों और पादरियों के भ्रष्टाचार, दुराचार, व्यभिचार आदि की पोल खोलकर रख दी है। पादरियों के दुराचार की खबरें आज भी अमेरिका और यूरोप से आए दिन संसार को चमकाती रहती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि सभी पादरी या धर्मध्वजी भ्रष्ट होते हैं लेकिन यह कहने का अर्थ यही है कि धर्म की आड़ में पादरियों, मौलवियों, पंडितों, पुरोहितों, साधुओं और संन्यासियों ने सदियों से अपना ठगी का धंधा चला रखा है।
सारे संगठित धर्म राजनीति से भी अधिक खतरनाक होते हैं, क्योंकि वे अंधश्रद्धा पर आधारित होते हैं। कोई भी व्यक्ति जब अपना धर्म-परिवर्तन करता है तो क्या वह वेद, त्रिपिटक, बाइबिल, जिंदावस्ता, कुरान या गुरु ग्रंथसाहिब पढक़र और समझकर करता है? हम लोग जिस भी धर्म को मानते हैं, वह इसलिए मानते हैं कि हमारे माँ-बाप ने उसे हमें घुट्टी में पिला दिया था।
यदि कोई व्यक्ति किसी भी धर्म, संप्रदाय, पंथ या विचारधारा को सोच-समझकर उसमें दीक्षित होना चाहता है तो उसे परमात्मा भी नहीं रोक सकता लेकिन जो व्यक्ति लालच, भय, प्रतिरोध, अज्ञान और ठगी के कारण धर्म-परिवर्तन करता है, उसे वैसा करने से जरुर रोका जाना चाहिए। इसीलिए ये धर्म-परिवर्तन विरोधी कानून बन रहे हैं लेकिन इन कानूनों को शुद्ध प्रेम पर आधारित अंतरजातीय विवाहों और तर्क पर आधारित धर्म-परिवर्तन के मार्ग की बाधा नहीं बनना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)