विचार/लेख
-कृष्ण कांत
साल 1967 था। तब इंदिरा गांधी का वो जलवा नहीं था, जैसा बाद में कायम हुआ। तब कम बोलने की वजह से कुछ विपक्षी उन्हें ‘गूंगी गुडिय़ा’ कहकर चिढ़ाते थे। आम धारणा थी कि वे बहुत कोमल हैं और प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं हैं। वे रैली के लिए उड़ीसा गई थीं। उड़ीसा स्वतंत्र पार्टी का गढ़ हुआ करता था। इंदिरा गांधी ने एक चुनाव सभा में जैसे ही बोलना शुरू किया, वहां मौजूद भीड़ ने पत्थरबाजी शुरू कर दी।
स्थानीय कांग्रेसियों ने उनसे तुरंत भाषण बंद करने को कहा। उनके सुरक्षा अधिकारी उन्हें हटाना चाहते थे। इंदिरा गांधी ने किसी की नहीं सुनी और बोलना जारी रखा। उन्होंने क्रूद्ध भीड़ का सामना किया और कहा, ‘क्या आप इसी तरह देश को बनाएंगे? क्या आप इसी तरह के लोगों को वोट देंगे?’ तभी यकायक एक पत्थर आकर उनकी नाक पर लगा। नाक से खून बहने लगा। इंदिरा गांधी ने अपने हाथों से बहता हुआ खून पोंछा। रुमाल से नाक दबा ली और भाषण देती रहीं।
घटना के बाद उनके स्टॉफ और सुरक्षाकर्मियों ने कहा कि दिल्ली लौट चलिए। लेकिन उन्होने यह बात भी नहीं मानी और अगली जनसभा के लिए कोलकाता रवाना हो गईं. कोलकाता पर उन्होंने नाक पर पट्टी बांधे-बांधे भाषण दिया।
बाद में पता चला कि चोट ज्यादा है। उनकी नाक की हड्डी टूट गई थी। नाक पर प्लास्टर चढ़ाना पड़ा। नाक की सर्जरी भी हुई। कई दिनों तक इंदिरा गांधी ने चेहरे पर प्लास्टर बांधे पूरे देश में चुनाव प्रचार किया। एक बार उन्होंने साथ के लोगों से मजाक किया कि उनकी शक्ल बिल्कुल ‘बैटमैन’ जैसी हो गई है।
प्लास्टर उतरने के बाद वे मजाक में कहती थीं कि मुझे तो लग रहा था कि डॉक्टर प्लास्टिक सर्जरी करके मेरी नाक को सुंदर बना देंगे। आप तो जानते ही हैं कि मेरी नाक कितनी लंबी है लेकिन इसे खूबसूरत बनाने का एक मौका हाथ से निकल गया। कमबख्त डॉक्टरों ने कुछ नहीं किया। मैं वैसी की वैसी ही रह गई।
इस कथा का सबक ये है कि जनता सिर्फ भजन मंडली नहीं है। जनता नाराज भी हो सकती है, अगर आप अपने फैसलों से सैकड़ों लोगों की जान ले लें। नेता में जनता की नाराजगी का सामना करने की हिम्मत होनी चाहिए।
-गिरीश मालवीय
दुनिया का नंबर 1 टेनिस खिलाड़ी जो 20 ग्रैंडस्लैम खिताब जीत चुका है वह अपना 21वा ग्रैंडस्लैम खिताब जीतने के लिये ऑस्ट्रेलिया जाता है। अगर वह इस बार आस्ट्रेलियन ओपन जीत ले तो वह टेनिस जगत का सर्वकालिक महान खिलाड़ी बन जाएगा क्योंकि इतने खिताब किसी टेनिस खिलाड़ी नहीं जीते हैं। लेकिन जैसे ही वह ऑस्ट्रेलिया पहुंचता है उसे जेल में डाल दिया जाता है। कारण सिर्फ इतना है कि उसने अपने वैक्सीन स्टेटस की जानकारी नहीं दी वह कहता है कि 'MY Body My Choice'
यहाँ हम कोई फिल्म या वेबसीरिज की स्टोरी नहीं सुना रहे हैं यह बिल्कुल सच्ची घटना है जो टेनिस स्टार नोवाक जोकोविच के साथ इस वक्त ऑस्ट्रेलिया में घटी है आप जिस वक्त यह पोस्ट पढ़ रहे हैं उस वक्त नोवाक जोकोविच ऑस्ट्रेलिया के डिटेंशन सेंटर में एक अंधेरे बदबूदार कमरे में बैठे हुए हैं।
हिंदी मीडिया इतना घटिया हो गया है कि खेल जगत की इस सबसे बड़ी खबर पर कुंडली मारकर बैठ गया है, जबकि इस वजह से सर्बिया (नोवाक जोकोविच का देश) और ऑस्ट्रेलिया के बीच राजनयिक तनाव पैदा हो गया है सर्बियाई राष्ट्रपति अलेक्जेंडर वूसिक ने कहा, पूरा देश टेनिस स्टार के समर्थन में साथ है, हमारे अधिकारी सभी उपाय कर रहे हैं, जिससे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ टेनिस खिलाड़ी के साथ दुव्र्यवहार जल्द से जल्द खत्म हो सके।
दरअसल ऑस्ट्रेलियाई सरकार का यह फैसला पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है, यह कोरोना फासीवाद है। कोविड प्रोटोकॉल के नाम पर दुनिया भर में लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण किया जा रहा है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि नोवाक जोकोविच को ऑस्ट्रेलिया सरकार ने खुद वीजा दिया था टेनिस ऑस्ट्रेलिया ने भी इस बात की पुष्टि की कि दो अलग-अलग स्वतंत्र पैनलों की समीक्षा के बाद जोकोविच को टीकाकरण के मामले में मेडिकल छूट दी थी। कुल 26 एथलीट्स को छूट दी गई है। लेकिन जब नोवान मेलबर्न पहुंचे तो अधिकारियों ने पाया कि उनकी टीम ने वैक्सीन न लगाने को लेकर मेडिकल छूट देने वाले वीजा के लिए अनुरोध ही नहीं किया। उन्होंने अपनी कोविड-19 टीकाकरण स्थिति का खुलासा करने से इंकार कर दिया।
पिछले साल नोवाक जोकोविच ने एक फेसबुक चैट के दौरान कहा कि उन्हें यह बात पसंद नहीं कि टेनिस खेलने के लिए कोरोना वैक्सीन लगवाना पड़ेगा। यह उनका पर्सनल मामला है। इसका टेनिस से कुछ भी लेना नहीं। टीका लगवाना है या नहीं, यह लोगों की मर्जी होनी चाहिए। इसके लिए किसी को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
नोवाक जोकोविच बिल्कुल ठीक कह रहे हैं उनके देश सर्बिया में भी टीके लगवाने या न लगवाने की स्वतंत्रता नागरिकों को दी गई है और उनकी इस स्वतंत्रता का पूरा सम्मान किया गया है।
सर्बिया के लोग पूरी तरह से जोकोविच के साथ है उनका कहना है कि अगर जोकोविच को छूट नहीं दी जाती, तो वह कभी भी विमान में नहीं चढ़ता, लेकिन उसके ऑस्ट्रेलिया पहुंचने पर, उसे अलग-थलग कर दिया गया। वह एक डिटेंशन सेंटर में है। यह किसी के साथ व्यवहार करने का तरीका नहीं है, वो ऑस्ट्रेलिया में 9 बार ऑस्ट्रेलियन ओपन जीत चुका है आप चैंपियन के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकते।
जोकोविच के साथी सर्बियाई खिलाड़ी ने बयान दिया है कि अगली बार से कोई आपसे बोले कि खेल और राजनीति को अलग रखना चाहिए तो 6 जनवरी 2022 को याद रखना जब विशुद्ध राजनीतिक अहंकार की वजह से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को प्रवेश नहीं दिया।
सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड में, जोकोविच के पिता स्टर्जन ने देश की संसद के सामने सैकड़ों लोगों के साथ विरोध-प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा, ‘ये सिर्फ नोवाक की लड़ाई नहीं है ये पूरी दुनिया की लड़ाई है।’
-पुष्य मित्र
आज से ठीक 75 साल पहले की बात है। साल 1947 और जनवरी का पहला हफ्ता था। बंगाल के नोआखली के श्रीरामपुर गांव में अकेले 42 दिन गुजारने के बाद गांधी ने तय किया था कि वे अब नोआखली के दंगा ग्रस्त इलाके के गांव-गांव तक जायेंगे।
उसने अपनी यह यात्रा दो जनवरी, 1947 को श्रीरामपुर से शुरू की थी। लगभग तीन मील पैदल चलने के बाद उसका पहला पड़ाव आया। उस गांव का नाम चंडीपुर था। उस गांव पहुंच कर गांधी ने नोआखली के पुलिस सुप्रिंटेंडेंट अब्दुल्ला सबसे पहले याद किया, वह अब्दुल्ला जो गांधी से बहुत स्नेह करने लगा था और इस यात्रा के दौरान बीस पुलिसकर्मियों के साथ शामिल हुआ था, ताकि गांधी की सुरक्षा में कोई कमी न हो। गांधी ने उसे बुलाकर कहा, मैं यह पसंद नहीं करता कि पुलिस वाले मेरे साथ रहें। बंगाल की सरकार जिस जागरूकता के साथ मेरी सुरक्षा का प्रयत्न कर रही है, उसकी मैं कदर करता हूं। मगर मुझे ईश्वर के सिवा किसी और की सुरक्षा नहीं चाहिए। यह कह कर अब्दुल्ला और उनकी टीम को विदा कर दिया गया।
उस वक्त बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी। शहीद सुहरावर्दी बंगाल के मुख्यमंत्री थे। वही सुहरावर्दी जिनके शासन में पहले कलकत्ता और फिर नोआखली में भीषण दंगे हुए थे। नोआखली के जिन इलाकों में गांधी घूम रहे थे, वहां मुस्लिम लीग के कट्टर समर्थक भरे पड़े थे, जो गांधी से इतनी नफरत करते थे कि उनकी राह में शीशों के टुकड़े और मल फेंक देते थे। वह इसलिए कि गांधी ने तय किया था कि वे हिंसा से जख्मी हो चुकी इस भूमि पर पैदल यात्रा करेंगे।
वे पूरे जनवरी और फरवरी महीने इसी तरह पैदल, नंगे पांव और बिना सुरक्षा के यात्रा करते रहे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने अपने प्रेम से अपने विरोधियों को अपना मुरीद बना लिया। उनके मन में शायद बु्द्ध थे, जिनमें निहत्थे अंगुलीमाल डाकू का सामना करने का साहस था। इसे पढ़ते हुए मैंने सीखा कि सुरक्षा के लिए किसी एसपीजी फोर्स की जरूरत नहीं। जननेता अगर अपने लोगों से प्रेम करना सीख जाये तो यही उसकी सुरक्षा की गारंटी है।
हालांकि इसमें मारे जाने का खतरा भी है। जैसे गांधी मारे गये, इंदिरा मारी गईं। मगर दोनों ने यह साहस किया था कि वे खुद और अपने लोगों के बीच बेवजह की सुरक्षा की दीवार खड़ी नहीं करेंगे। यह हर नेता के लिए सीखने की बात है। सीखना चाहिए।
-ओशो
रामकृष्ण के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक शूद्र महिला ने, रानी रासमणि ने मंदिर बनवाया। चूंकि वह शूद्र थी, उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण पूजा करने को राजी न हुआ। हालांकि रासमणि खुद भी कभी मंदिर में अंदर नहीं गई थी, क्योंकि कहीं मंदिर अपवित्र न हो जाए!
रासमणि कभी मंदिर के पास भी नहीं गई, भीतर भी नहीं गई, बाहर-बाहर से घूम आती थी। दक्षिणेश्वर का विशाल मंदिर उसने बनाया था, लेकिन कोई पुजारी न मिलता था। और रासमणि शूद्र थी, इसलिए वह खुद पूजा न कर सकती थी। मंदिर क्या बिना पूजा के रह जाएगा? वह बड़ी दुखी थी, बड़ी पीडि़त थी। रोती थी, चिल्लाती थी-कि कोई पुजारी भेज दो!
फिर किसी ने खबर दी कि गदाधर नाम का एक ब्राह्मण लडक़ा है, उसका दिमाग थोड़ा गड़बड़ है, शायद वह राजी हो जाए। क्योंकि यह दुनिया इतनी समझदार है कि इसमें शायद गड़बड़ दिमाग के लोग ही कभी थोड़े से समझदार हों तो हों। यह गदाधर ही बाद में रामकृष्ण बना।
गदाधर को पूछा। उसने कहा कि ठीक है, आ जाएंगे। उसने एक बार भी न कहा कि ब्राह्मण होकर मैं शूद्र के मंदिर में कैसे जाऊं? गदाधर ने कहा, ठीक है। प्रार्थना यहां करते हैं, वहां करेंगे। घर के लोगों ने भी रोका, मित्रों ने भी कहा कि कहीं और नौकरी दिला देंगे। नौकरी के पीछे अपने धर्म को खो रहा है? पर गदाधर ने कहा, नौकरी का सवाल नहीं है; भगवान बिना पूजा के रह जाएं, यह बात जंचती नहीं; करेंगे।
मगर तब खबर रासमणि को मिली कि यह पूजा तो करेगा, लेकिन पूजा में यह दीक्षित नहीं है। इसने कभी पूजा की नहीं है। यह अपने घर ही करता रहा है। इसकी पूजा का कोई शास्त्रीय ढंग, विधि-विधान नहीं है। और इसकी पूजा भी जरा अनूठी है। कभी करता है, कभी नहीं भी करता। कभी दिन भर करता है, कभी महीनों भूल जाता है। और भी इसमें कुछ गड़बड़ हैं; कि यह भी खबर आई है कि यह पूजा करते वक्त पहले खुद भोग लगा लेता है अपने को, फिर भगवान को लगाता है। खुद चख लेता है मिठाई वगैरह हो तो। रासमणि ने कहा, अब आने दो। कम से कम कोई तो आता है।
वह आया, लेकिन ये गड़बड़ें शुरू हो गईं। कभी पूजा होती, कभी मंदिर के द्वार बंद रहते। कभी दिन बीत जाते, घंटा न बजता, दीया न जलता; और कभी ऐसा होता कि सुबह से प्रार्थना चलती तो बारह-बारह घंटे नाचते ही रहते रामकृष्ण।
आखिर रासमणि ने कहा कि यह कैसे होगा? ट्रस्टी हैं मंदिर के, उन्होंने बैठक बुलाई। उन्होंने कहा, यह किस तरह की पूजा है? किस शास्त्र में लिखी है?
रामकृष्ण ने कहा, शास्त्र से पूजा का क्या संबंध है? पूजा प्रेम की है। जब मन ही नहीं होता करने का, तो करना गलत होगा। और वह तो पहचान ही लेगा कि बिना मन के किया जा रहा है। तुम्हारे लिए थोड़े ही पूजा कर रहा हूं। उसको मैं धोखा न दे सकूंगा। जब मन ही करने का नहीं हो रहा, जब भाव ही नहीं उठता, तो झूठे आंसू बहाऊंगा, तो परमात्मा पहचान लेगा। वह तो पूजा न करने से भी बड़ा पाप हो जाएगा कि भगवान को धोखा दे रहा हूं। जब उठता है भाव तो इक_ी कर लेता हूं। दो तीन सप्ताह की एक दिन में निपटा देता हूं। लेकिन बिना भाव के मैं पूजा न करूंगा।
और उन्होंने कहा, तुम्हारा कुछ विधि-विधान नहीं मालूम पड़ता। कहां से शुरू करते, कहां अंत करते।
रामकृष्ण ने कहा, वह जैसा करवाता है, वैसा हम करते हैं। हम अपना विधि-विधान उस पर थोपते नहीं। यह कोई क्रियाकांड नहीं है, पूजा है। यह प्रेम है। रोज जैसी भाव-दशा होती है, वैसा होता है। कभी पहले फूल चढ़ाते हैं, कभी पहले आरती करते हैं। कभी नाचते हैं, कभी शांत बैठते हैं। कभी घंटा बजाते हैं, कभी नहीं भी बजाते। जैसा आविर्भाव होता है भीतर, जैसा वह करवाता है, वैसा करते हैं। हम कोई करने वाले नहीं।
उन्होंने कहा, यह भी जाने दो। लेकिन यह तो बात गुनाह की है कि तुम पहले खुद चख लेते हो, फिर भगवान को भोग लगाते हो! कहीं दुनिया में ऐसा सुना नहीं। पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर प्रसाद ग्रहण करो। तुम भोग खुद को लगाते हो, प्रसाद भगवान को देते हो।
रामकृष्ण ने कहा, यह तो मैं कभी न कर सकूंगा। जैसा मैं करता हूं, वैसा ही करूंगा। मेरी मां भी जब कुछ बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। पता नहीं, देने योग्य है भी या नहीं। कभी मिठाई में शक्कर ज्यादा होती है, मुझे ही नहीं जंचती, तो मैं उसे नहीं लगाता। कभी शक्कर होती ही नहीं, मुझे ही नहीं जंचती, तो भगवान को कैसे प्रीतिकर लगेगी? जो मेरी मां न कर सकी मेरे लिए, वह मैं परमात्मा के लिए नहीं कर सकता हूं।
ऐसे प्रेम से जो भक्ति उठती है, वह तो रोज-रोज नई होगी। उसका कोई क्रियाकांड नहीं हो सकता। उसका कोई बंधा हुआ ढांचा नहीं हो सकता। प्रेम भी कहीं ढांचे में हुआ है? पूजा का भी कहीं कोई शास्त्र है? प्रार्थना की भी कोई विधि है? वह तो भाव का सहज आवेदन है। भाव की तरंग है।
-रमेश अनुपम
आखिरकार 30 जुलाई सन् 1963 को महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गई।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की समस्या केवल कोर्ट ऑफ वार्ड्स से अपनी संपत्ति को मुक्त करवाकर अपने राजमहल के भीतर बैठकर सुख वैभव भोगना ही रहता तो कोई बात नहीं थी। लेकिन उनकी असल समस्या तो बस्तर के भोले-भाले और निरीह आदिवासी थे, जो आजादी के पन्द्रह वर्षों बाद भी राष्ट्र की मुख्यधारा से कटे हुए नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर थे।
बस्तर के आदिवासियों की समस्याओ को लेकर महाराजा ने न जाने कितने पत्र प्रधानमंत्री को लिखे होंगे। उनके लिखे हर पत्र में केवल आदिवासियों की समस्याएं और उनकी पीड़ा का उल्लेख है जिसमें वे देश के वजीरे आजम से आदिवासियों की रक्षा की गुहार लगाया करते थे।
जब इस से आलाकमान को कोई फर्क नहीं पड़ा तो उन्हें 12 जनवरी सन् 1965 को दिल्ली जाकर अनशन पर बैठने के लिए बाध्य होना पड़ा। इसका एक कारण यह भी था कि देश के गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया था।
आजादी के बाद सारे राजा-महाराजाओं को अच्छी खासी रकम प्रीविपर्स के रूप में मिला करती थी। देश के सारे राजा-महाराजा उसी में गद-गद थे। लेकिन बस्तर के महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव तो किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे।
धीरे-धीरे बस्तर में स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी।
शासन-प्रशासन इस सबसे बेखबर बना रहा। न उन्हें महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव से कोई मतलब था और न ही आदिवासियों के दुख दर्द से।
18 मार्च सन् 1966 राजमहल के सामने दंतेश्वरी मंदिर के पास सुरक्षा बल के जवान सैंकड़ों की संख्या में एकत्र हो रहे थे, उनके हाथों में बंदूक थी। इधर राजमहल के भीतर भी सैंकड़ों की संख्या में आदिवासी मौजूद थे। उस दिन राजमहल में स्थित महाविद्यालय में परीक्षा होने के कारण छात्र-छात्राओं का भी काफी जमावड़ा था।
स्थिति कॉफी विस्फोटक थी। राजमहल के भीतर और बाहर दोनों ओर तनाव साफ-साफ दिखाई दे रहा था। आदिवासी तीर कमान निकाल चुके थे और उधर पुलिस अपनी बंदूक ताने खड़े हो गए थे। उस दिन कुछ भी हो सकता था।
महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव को समझते देर नहीं लगी। वे पलक झपकते पुलिस बल के सामने पहुंच गए। पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को फटकार लगाते हुए कहा कि इतनी बड़ी संख्या में यहां पुलिस बल क्यों इक_ी है।
अधिकारियों ने कहा आदिवासी कभी भी बलवा कर सकते हैं। महाराजा के चेहरे की रंगत बदल गई थी उनके गोरे मुख मंडल पर रक्तिम आभा सी दिखाई देने लगी। स्वभाव के विपरीत वे रोष से बोले बलवा क्या होता है जानते हो?
महाराजा रुके नहीं पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को चुनौती देते हुए कहा अगर हिम्मत है तो चलाओ गोली।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की डांट-फटकार ने काम किया। अधिकारी राजमहल के भीतर गए और बातचीत की। उस दिन मामला जैसे-तैसे निपट गया।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की सूझ-बूझ से अप्रिय स्थिति टल गई थी। उस दिन जगदलपुर रक्त में डूबने से बच गया था। इंद्रावती में ढेर सारा रक्त बहने से रह गया था।
अगर उस दिन महाराजा हस्तक्षेप नहीं करते तो राजमहल में सैकड़ों की संख्या में उपस्थित आदिवासी और छात्र-छात्राओं का क्या होता ?
बस्तर के इतिहास में 18 मार्च सन् 1966 को भी नहीं भूलाया जा सकता है। यह वही तारीख है जिसने 25 मार्च सन् 1966 की आधारशिला रखी थी।
यह वही काली तारीख है जिसने 25 मार्च सन् 1966 की उससे भी काली और भयावह तारीख की इबारत बयां कर दी थी। आने वाले खतरे का संकेत इस तारीख में छिपा हुआ था।
क्या शासन और प्रशासन 25 मार्च का ब्लू प्रिंट पहले ही अपने लैब में तैयार कर चुके थे जिसे केवल अमली जामा पहनाना भर बाकी था ?
क्या 25 तारीख को बस्तर का खूनी इतिहास लिखे जाने की तारीख 18 मार्च के बहिखाते में पहले ही दर्ज किया जा चुका था?
ये सारे अनगिनत सवाल बस्तर की खामोश फिजाओं में तैर रहे थे।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत तो दुनिया का शायद एक मात्र देश है, जिसकी जनता साल में सबसे ज्यादा छुट्टियां मनाती है। मुंबई उच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में कहा है कि सार्वजनिक अवकाश कोई मौलिक अधिकार नहीं है। उसने उस याचिका को रद्द कर दिया है, जिसमें दादर-हवेली में 2 अगस्त की छुट्टी की मांग की गई थी। इसी दिन 1954 में पुर्तगाली शासन से वह मुक्त हुआ था। आजकल हमारे सरकारी दफ्तर शनिवार और रविवार को बंद होते हैं याने साल में 104 दिन की छुट्टी एकदम पक्की है। 24 छुट्टियां धार्मिक त्यौहारों की होती हैं। लगभग 30 छुट्टियों के कुछ और बहाने बन जाते हैं। इसके अलावा बाकायदा वैतनिक छुट्टियां 30 दिन और बीमारी की भी 15 दिन होती है। इनके साथ आकस्मिक छुट्टियां भी होती हैं।
याने कुल मिलाकार साल भर में हमारे सरकारी कर्मचारी लगभग 200 दिन की छुट्टी ले सकते हैं। अर्थात उन्हें तब भी वेतन मिलता है, जबकि वे कोई काम नहीं करते। हम जरा दुनिया के सब समृद्ध और विकसित राष्ट्रों की तुलना भारत से करें तो हमें मालूम पड़ेगा कि वे राष्ट्र वैतनिक छुट्टियां कम से कम देते हैं। अमेरिका में 11, ब्रिटेन में 8, चीन में 7, यूरोप में 8 या 10, जापान में 16, मलेशिया में 19 और ईरान में 27 और नार्वे में सिर्फ 2 छुट्टियां होती हैं।
जिन राष्ट्रों में कर्मचारियों की तनख़ा ज्यादा होती है, उनकी सरकारें और कंपनियां उन्हें छुट्टियां भी कम देती हैं लेकिन जिन राष्ट्रों में तनखा कम होती है, उनमें ज्यादा छुट्टियां होती हैं। हमारे देश में ज्यादातर कर्मचारी दफ्तरों में पूरे समय डटकर काम भी नहीं करते। 7-8 घंटों में से वे अगर 4-5 घंटे भी रोज डटकर काम करें तो हमारा भारत दूनी रफ्तार से आगे बढ़ सकता है। जो एक बार सरकारी नौकरी पा गया, उसे जीवन भर का बीमा मिल गया। यदि देश में छुट्टियां आध्ीा कर दी जाएं और हर नौकरी के चलते रहने की हर पांच साल में समीक्षा होती रहे तो यह रेंगता हुआ भारत दौडऩे लगेगा।
भारत अपने आप को धर्म-निरपेक्ष कहता है लेकिन नेता लोग थोक वोट के लालच में हर धर्म और संप्रदाय की खुशामद में छुट्टियां करने पर उतारु हो जाते हैं। होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस वगैरह के लिए आधे दिन की छुट्टी काफी क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या लोग को दिन भर घर में बैठकर घंटा-घडिय़ाल बजाना होता है? अपने कर्तव्य-कर्म से बड़ी पूजा कोई नहीं है। इसका रहस्य हम सीखना चाहें तो अपने दुकानदारों से सीखें, जो चौबीसों घंटे अपने ग्राहकों की सेवा के लिए तैयार रहते हैं।
अपने स्वतंत्रता-दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती जैसे दिनों पर हमें एक-एक घंटा अतिरिक्त कार्य क्यों नहीं करना चाहिए? अपनी कार्यनिष्ठा इतनी गहन होनी चाहिए कि अपने घर में हर्ष या शोक की बड़ी से बड़ी घटना होने पर भी हमारा रोजमर्रा का कर्तव्य-निर्वाह किसी न किसी रुप में होता रहे। अपने छुट्टीप्रेमी भारत के किसी नेता में इतना दम नहीं है कि वह छुट्टियों के इस सरकारी ढर्रे को ढहा सके। इन छुट्टियों की छुट्टी तभी हो सकती है, जबकि कोई जबर्दस्त जन-आंदोलन चले।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
वाराणसी के गंगा घाटों और धार्मिक स्थलों पर 'गैर हिंदुओं का प्रवेश प्रतिबंधित' वाले पोस्टर लगाए गए हैं. ये पोस्टर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की ओर से लगाए गए हैं. इन पर लिखा है जिन लोगों की आस्था सनातन धर्म में है, उनका स्वागत है, नहीं तो यह पिकनिक स्पॉट नहीं है.
पोस्टर चस्पा करने वाले विश्व हिंदू परिषद के काशी महानगर के मंत्री राजन गुप्ता ने कहा कि गैर-सनातन धर्म के लिए चस्पा किया जा रहा पोस्टर केवल पोस्टर नहीं, बल्कि एक चेतावनी वाला संदेश है. गंगा घाट मंदिर और धार्मिक स्थल सनातन धर्म की आस्था का प्रतीक है, हम चेतावनी देना चाहते हैं कि गैर सनातनी हमारे सनातन धर्म के धार्मिक स्थलों से दूर रहें, क्योंकि यह कोई पिकनिक स्पॉट नहीं है. जिन लोगों की आस्था सनातन धर्म में उनका तो हम स्वागत करेंगे, नहीं तो हम उनको खदेड़ने का भी काम करेंगे.
यह पोस्टर नहीं बल्कि उन लोगों के लिए चेतावनी है जो हमारी अविरल मां गंगा को एक पिकनिक स्पॉट की तरह मानते हैं. पोस्टर के माध्यम से यह चेतावनी दी गई है कि ऐसे लोग हमारे धार्मिक स्थलों से दूर रहें नहीं तो बजरंग दल उन्हें दूर कर देगा.
निखिल त्रिपाठी, संयोजक , बजरंग दल काशी महानगर
बनारस के साधू शांडिल्य चन्द्रभूषण ने कहा कि पर्यटक आने में हमें आपत्ति नहीं है, पर्यटक आकर दर्शन करें, हमारे किसी भी प्रकार की धार्मिक भावना आहत न हो क्योंकि गंगा हमारी माता हैं, हम उन्हें गंगा मइया कहते हैं.
'सामाजिक दूरी बढ़ाने जैसा काम'
हालांकि पोस्टर चस्पा किए जाने के बाद लोग अपनी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं. गंगा से जुड़े लोगों का मानना है कि गंगा मां हैं किसी एक का दावा गलत है. यह समाज को बांटने और सामाजिक दूरी बढ़ाने जैसा प्रतीत हो रहा है. कुछ लोग इसे चुनाव से पूर्व राजनीति चमकाने के स्टंट भी मान रहे हैं.(क्विंट)
सौहार्द बिगाड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई होगी: पुलिस उपायुक्त
इस संबंध में अपर पुलिस उपायुक्त काशी जोन राजेश पांडेय ने कहा कि मामला हमारे संज्ञान में है. पुलिस सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने में लगी है. पोस्टर चिपकाने वालों और सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वालों की पहचान की जा रही है. वह चाहे किसी भी दल से जुड़े हों उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई सुनिश्चित की जाएगी.
-दिनेश श्रीनेत
कभी तो लगता है कि कितना समय बीत गया... कभी लगता है कि कल की बात है।
जैसे-जैसे उम्र बीतती जाती है समय एक खेल, एक भूलभुलैया-सा लगने लगता है। बीते दिनों की स्मृतियों से मुझे बहुत लगाव है। चाहे वो दुःख के दिन हों या सुख के। कुछ था, जिसके खोने की कसक मन के किसी कोने में दबी है। बार-बार उन स्मृतियों की तरफ लौटता हूँ। मन के भीतर पुरानी तस्वीरों की तरह वो भी धुंधला रही हैं। कई बार बीता हुआ वक्त बहुत साफ, निथरा हुआ किसी सपने में दिखाई देता है। जीवन से ज्यादा उजला और स्पष्ट... नींद खुलती है तो मन को हकीकत की दुनिया में लौटने में वक्त लगता है।
कई बार सपनों में अतीत नहीं दिखता, मगर एक भावना जो सुप्त-सी पड़ गई है, वह महसूस होती है। न वो ठीक-ठीक भविष्य होता है, न वर्तमान और न ही अतीत। बेचैन मन उन सांसों को पकड़ने की कोशिश करता है। मगर देखते-देखते दिन अपनी गिरफ़्त में ले लेता है और सब कुछ भूल जाता है।
कभी देर रात पुराने गीतों को सुनता हूँ, वो गीत जिनके पीछे बहुत सी यादें जाने कहां से खिंचती हुई चली आती हैं। सोने से पहले सोचता हूँ कि शायद मैं उस खोए हुए भाव को महसूस कर सकूंगा, पकड़ सकूंगा, जिसके न होने से खुद को खाली महसूस करता हूँ।
बंद आँखों के भीतर एक खुले आसमान का फ्रेम बनता है, जिसके एक कोने पर छोटी सी पतंग धीरे-धीरे डोलती है। किसी के धीमे-धीमे कदमों की चाप सुनाई देती है। मैं एक बहुत बड़ी सी छत पर भागता हूँ। कोई पीछे से आकर मेरी आँखें बंद कर देता है। हाथों का गर्म स्पर्श और उसमें रची-बसी कई चीजों की गंध याद रह जाती है।
मुझे बारिश बहुत अच्छी लगती है। बारिश की हर रंगत से बीते दिनों की किताब का कोई न कोई पन्ना खुल जाता है। मुझे पता है कि लौटने से कुछ नहीं मिलता। फिर भी बार-बार उन जगहों पर जाने का मन होता है। मैं चाहता हूँ कि जिन-जिन शहरों में मेरा बचपन बीता था, एक बार फिर से उन शहरों में जाऊँ। उन दीवारों को एक बार फिर से छू सकूँ, जिन्हें कभी मैंने अपनी छोटी हथेलियों से छुआ था।
मुझे दुपहरें भी बहुत पसंद हैं। मई और जून की तपती दुपहरें। एक अजीब-सी तपिश और वासना होती उनमें। ऐसी दुपहरी में बिल्कुल अकेले और खाली होना आपको अपने करीब ले जाता है। ऐसी लंबी अंतहीन दुपहर में साइकिल से भटकना जीवन का सबसे बड़ा सुख लगता था।
मुझे शामें भी बहुत याद आती हैं। खास तौर पर वह वक्त जब सूरज डूब जाता है पेड़ों की पत्तियों पर एक कालिमा सी ठहर जाती है। जब घरों की बत्तियां एक-एक करके जलती हैं। हर घर किसी अपरिचित के स्वागत के लिए उत्सुक लगता है। जब बच्चों का शोर और चिड़ियों कलरव एक-दूसरे में घुलमिल जाता है। जब कदम खुद-ब-खुद घर से बाहर निकल पड़ते हैं। जब आप अपनी शाम में रंग भरने के लिए किसी का इंतज़ार करते हैं। जब बातें इतनी लंबी हो जाती हैं कि रात भी छोटी लगती है। जब लगता है कि न इसके पहले कुछ था न इसके बाद कुछ होगा। मैं वो शामें कहाँ से लाऊँ?
उन रातों का क्या करूँ, जिन रातों में हम यात्राओं में निकले थे, जिन रातों के बाद बहुत सारे दिन आने थे। कुछ आए और कुछ कभी नहीं आए... वो कौन था जो इन रातों में जागा करता था? वो कौन था जिसकी आँखों में शाम की रोशनी उतरती थी। कौन था जो गर्मी की किसी दोपहर अपनी साइकिल उठाकर शहर से बहुत दूर चला जाता था। अब वो कहाँ है? नींद की मुंडेर तक आकर उसे खोजता हूँ...
हर अगली सुबह वह मुझसे और दूर चला जाता है...
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात के उच्च न्यायालय में भाषा के सवाल पर फिर विवाद खड़ा हो गया है। एक पत्रकार विशाल व्यास ने गुजराती में ज्यों ही बोलना शुरु किया, जजों ने कहा कि आप अंग्रेजी में बोलिए। व्यास अड़े रहे। उन्होंने कहा कि मैं गुजराती में ही बोलूंगा। जजों ने कहा कि संविधान की धारा 348 के अनुसार इस अदालत की भाषा अंग्रेजी है। यदि व्यास चाहें तो उनकी बात का अंग्रेजी अनुवाद करने की सुविधा का इंतजाम अदालत कर देगी। अदालत की यह उदारता सराहनीय थी लेकिन यह कितने दुख की बात है कि भारत की अदालतों में आज भी अंग्रेजी का एकाधिकार है। इन जजों से कोई पूछे कि आपने धारा 348 को ठीक से पढ़ा भी है या नहीं? वह कहती है कि अदालत की भाषा अंग्रेजी होगी लेकिन इन जजों से कोई पूछे कि क्या अपराधी या याचिकाकर्ता को भी वे अदालत मानते हैं? आप उन्हें उनकी भाषा में क्यों नहीं बोलने देते? आप उन पर अंग्रेजी लादकर उनके मौलिक अधिकार का हनन कर रहे हैं।
इतना ही नहीं, अंग्रेजी में चलने वाली सारी अदालती कार्रवाई के कारण देश के साधारण लोगों की ठगी होती है। उन्हें पल्ले ही नहीं पड़ता कि उनके और विपक्ष के वकील क्या बहस कर रहे हैं? उनके तथ्य और तर्क सीधे हैं या उल्टे हैं, यह मुव्वकिल लोग तय ही नहीं कर पाते हैं और अंग्रेजी में जो फैसले होते हैं, उनको समझना तो हिमालय पर चढऩे जैसा है। धारा 348 यह भी कहती है कि संसद चाहे तो वह संविधान में संशोधन करके ऊंची अदालतों में भारतीय भाषाओं को चला सकती है। वह कानून को अंग्रेजी में बनाने की अनिवार्यता भी खत्म कर सकती है। इसके अलावा इसी धारा में यह प्रावधान भी है कि किसी भी प्रांत का राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति से अपने उच्च न्यायालय में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की इजाजत दे सकता है।
यहां सवाल यही है कि गुजरात-जैसे राज्य में भी इस प्रावधान को अभी तक लागू क्यों नहीं किया गया? यह वही गुजरात है, जिसमें भाजपा के नरेंद्र मोदी वर्षों मुख्यमंत्री रहे हैं और अब प्रधानमंत्री हैं। महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी, दोनों ही गुजराती थे और दोनों ने ही हिंदी का बीड़ा उठा रखा था। भारत के सभी राज्यों में गुजरात को तो सबसे आगे होकर विधानसभा और उच्च न्यायालय में गुजराती और हिंदी को अनिवार्य करना चाहिए था। संसद के प्रबुद्ध सांसदों को चाहिए कि वे संविधान की धारा 348 में संशोधन करवाकर अंग्रेजी के एकाधिकार को कानून-निर्माण और अदालतों से बाहर करें।
यदि संसद और विधानसभाएं दृढ़ संकल्प कर लें तो अंग्रेजी की गुलामी तत्काल खत्म हो सकती है, जैसे 1917 में सोवियत रुस में से फ्रांसीसी, 200 साल पहले फिनलैंड में से स्वीडी और 16 वीं सदी में ब्रिटेन में से फ्रांसीसी और तुर्की में से फ्रांसीसी भाषा और अरबी लिपि को खत्म किया गया। अंग्रेजी भाषा की गुलामी अंग्रेज लोगों की गुलामी से भी बदतर है। क्या देश में कोई ऐसा राजनीतिक दल या नेता है, जो इस गुलामी से भारत का छुटकारा करवा सके?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ.राजू पाण्डेय
निश्चित ही नफरत के पुजारियों ने इस बात का जश्न मनाया होगा कि वे बीस-इक्कीस वर्ष की आयु के तीन हिन्दू युवकों तथा अठारह वर्षीय हिन्दू युवती में इतनी गहरी घृणा भर सके कि इन्होंने मुस्लिम महिलाओं की ऑनलाइन नीलामी के लिए बुल्ली बाई जैसा निंदनीय और निर्मम एप बनाया। इसे चर्चित करने के लिए नववर्ष के प्रथम दिवस का चयन किया गया जब लाखों देशवासियों की भांति यह मुस्लिम महिलाएं भी जम्हूरियत को बचाने,औरतों के हक की लड़ाई को नए जोश से आगे बढ़ाने तथा मुल्क में अमन-चैन और भाईचारे का माहौल स्थापित करने के लिए संकल्पबद्ध हो रही थीं। इन मुस्लिम महिलाओं के मनोबल को तोडऩे के लिए बड़ी ही चतुर नृशंसता से नव वर्ष के उत्सव भरे दिनों का चयन किया गया।
बुल्ली बाई एप के निर्माता मुस्लिम महिलाओं के अपमान तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने झूठी सिख पहचान गढ़ी, एप की भाषा में पंजाबी को प्रधानता दी गई और पगड़ी को एप का लोगो बनाया गया। इसे खालिस्तान समर्थक भी दिखाने की कोशिश हुई। इस तरह न केवल सिख समुदाय की छवि को धूमिल किया जा सकता था अपितु सिख तथा मुस्लिम समुदाय के मध्य शत्रुता भी उत्पन्न की जा सकती थी। हो सकता है कि एप के निर्माण से जुड़े लोग कृषि कानूनों पर सरकार के बैकफुट पर जाने के लिए सिख किसानों को जिम्मेदार समझते हों और इस तरह उनसे प्रतिशोध ले रहे हों।
क्या यह महज एक संयोग है कि बुल्ली बाई एप तब आया है जब पंजाब, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में चुनाव निकट हैं और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें अपने चरम पर हैं। क्या यह महज एक संयोग था कि इसी तरह की कुत्सित मानसिकता को दर्शाने वाला पहला एप सुल्ली डील्स तब सामने आया था जब बंगाल के चुनाव निकट थे और उस समय भी साम्प्रदायिक दुष्प्रचार सारी सीमाएं लांघ रहा था।
पता नहीं हममें से कितने लोगों ने जुलाई 2021 में सुल्ली डील्स की शिकार बनी व्यावसायिक पायलट हाना मोहसिन खान का वह मार्मिक आलेख पढ़ा है जिसमें उन्होंने उस घनघोर मानसिक यंत्रणा का चित्रण किया है जो उन्हें झेलनी पड़ी थी। हाना बताती हैं कि सुल्ली डील्स की शिकार 83 महिलाओं में से बहुत ने स्वयं सोशल मीडिया छोड़ दिया। कई महिलाओं को परिजनों ने सोशल मीडिया छोडऩे को बाध्य कर दिया। बहुत सी पीडि़त महिलाएं इस अमानवीय घटनाक्रम का विरोध तो कर रही हैं लेकिन उनमें कानूनी कार्रवाई करने का साहस नहीं है, उनके मित्र और परिजन भी उन्हें परामर्श दे रहे हैं कि वे कानूनी कार्रवाई करने का ‘खतरा’ मोल न लें। हाना जैसी चंद पीडि़त महिलाओं ने कानून की शरण ली है और अब उन्हें पता है कि उनके हितैषी क्यों उन्हें शांत रहने को कह रहे थे। बहुत सारी जिंदादिल औरतों की जिंदा आवाजें खामोश कर दी गई हैं।
सब मौन हैं। केंद्र सरकार की सभी कद्दावर महिला मंत्री चुप हैं। अभी कुछ ही महीने पहले तीन तलाक प्रकरण में स्वयं को मुस्लिम महिलाओं के परम हितैषी के रूप में प्रस्तुत करने वाले बुद्धिजीवी मूकदर्शक बने हुए हैं। बार बार भावोद्रेक में अपने नेत्र सजल कर लेने वाले आदरणीय प्रधानमंत्री जी की सर्द खामोशी इन महिलाओं को चिंता में डाल रही है। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव का जवाब यह बताता है कि यह मामला उन्हें दूसरे साइबर अपराधों से ज्यादा गंभीर नहीं लगता। अनेक मामलों में स्वत: संज्ञान लेने वाला न्यायालय भी इस बार शांत है। मुस्लिम महिलाओं की ऑन लाइन नीलामी के अपराध से ज्यादा डराने वाली सरकार और सभ्य समाज की यह चुप्पी है। हाना ने सुल्ली डील्स के डरावने अनुभव को शब्दों में उतारने की जो कठिन कोशिश जुलाई 2021 में शुरू की थी, उसके पूरा होते होते बुल्ली बाई प्रकरण सामने आ गया।
ऐसा लगता है कि लंबे संघर्ष के बाद अर्जित स्वतंत्रता, सशक्त लोकतांत्रिक व्यवस्था और गौरवशाली नागरिक जीवन का हासिल हम चंद महीनों में ही खो देंगे, मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था की वापसी हो रही है जहां हिंसा है, प्रतिशोध है, जहां औरतों की आजादी के लिए कोई जगह नहीं है। अंतर केवल एक है-अब हमारे पास औरतों को अपमानित और प्रताडि़त करने के लिए उन्नत तकनीक है। दुर्भाग्य है कि तकनीक तो विकसित हो रही है किंतु वैज्ञानिक दृष्टि तथा मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है।
सुल्ली डील्स के अपराधी जुलाई 2021 से अब तक आजाद घूम रहे हैं यदि उन्हें गिरफ्तार कर उन पर कार्रवाई की गई होती तो शायद इसका दूसरा संस्करण बुल्ली बाई गढऩे की हिम्मत पकड़े गए आरोपी न कर पाते। किंतु जैसा आजकल का चलन है अल्पसंख्यक समुदाय को प्रताडि़त करना कोई गंभीर अपराध नहीं माना जाता, फिर यह तो मुस्लिम महिलाएं हैं। हो सकता है इन एप निर्माताओं को राष्ट्र भक्तों के रूप में सोशल मीडिया पर चित्रित किया जाए।
मुस्लिम समुदाय से आने वाली जागरूक, सक्रिय, मुखर एवं अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने को तत्पर महिला पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता इस एप के निशाने पर थीं। यह एप कितना जघन्य और भयानक है इसकी कल्पना केवल वही महिला कर सकती है जिसे किसी प्यारी सी सुबह में मालूम हो कि वह नीलामी के लिए लोगों के सामने पेश की गई है, उसकी तस्वीर को देखकर कुत्सित और भद्दे कमेंट किए जा रहे हैं। वह एक बहन, बेटी,पत्नी या माँ नहीं है बल्कि वह एक सामान है- केवल एक जिस्म! वासना के सौदागर अपने सामान की मुँहमाँगी कीमत देने को लालायित हैं और लोगों को बता रहे हैं कि वे दी गई कीमत कैसे वसूल करेंगे।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने भारत सरकार से आग्रह किया है कि इस तरह के एप्लीकेशन्स के निर्माताओं पर कठोरतम कार्रवाई की जाए। पता नहीं इस आग्रह पर सरकार की प्रतिक्रिया क्या होगी? कहीं इसे भारत की छवि खराब करने के अभियान का एक भाग तो नहीं कह दिया जाएगा।
हम निश्चिंत हैं, हमें भरोसा है कि ऐसी किसी नीलामी में हम हमेशा खरीददार ही रहेंगे। हमारी बहन-बेटी-पत्नी-माँ की इस नीलामी में कभी बोली नहीं लगेगी। यह हमारा भ्रम है। नफरत, हिंसा, प्रतिशोध -यह सारे संक्रामक रोग हैं। जब इनका आक्रमण होगा तो हमें पछतावा होगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले हफ्ते जब कुछ हिंदू साधुओं ने घोर आपत्तिजनक भाषण दिए थे, तब मैंने लिखा था कि वे सरकार और हिंदुत्व, दोनों को कलंकित करने का काम कर रहे हैं। हमारे शीर्ष नेताओं और हिंदुत्ववादी संगठनों को उनकी कड़ी भर्त्सना करनी चाहिए। मुझे प्रसन्नता है कि हमारे उप-राष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिम्मत दिखाई और देश के नाम सही संदेश दिया। वे केरल में एक ईसाई संत एलियास चावरा के 150 वीं पुण्य-तिथि समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि किसी धर्म या संप्रदाय के खिलाफ घृणा फैलाना भारतीय संस्कृति, परंपरा और संविधान के विरुद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने धर्म के पालन की पूरी छूट है। उन्होंने बहुत संयत भाषा में उन तथाकथित साधु-संतों की बात को रद्द किया है, जिन्होंने गांधी-हत्या को सही ठहराया था और मुसलमानों के कत्ले-आम की बातें कही थीं। उन्होंने गांधीजी के लिए अत्यंत गंदे शब्दों का प्रयोग भी किया था। अपने आप को हिंदुत्व का पुरोधा कहनेवाले कुछ सिरफिरे युवकों ने गिरजाघरों पर हमले भी किए थे और ईसा मसीह की मूर्तियों को भी डहा दिया था।
इस तरह के उत्पाती लोग भारत में बहुत कम है लेकिन उनके कुकर्मों से दुनिया में भारत की बहुत बदनामी होती है। भारत की तुलना पाकिस्तान और अफगानिस्तान- जैसे देशों से की जाने लगती है। यह ठीक है कि भारत के ज्यादातर लोग ऐसे कुकर्मों से सहमत नहीं होते हैं लेकिन यह भी जरुरी है कि वे इनकी भर्त्सना करें। ऐसे कुत्सित मामलों को भाजपा और कांग्रेस की क्यारियों में बांटना सर्वथा अनुचित है। देश के सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे ऐसे राष्ट्रविरोधी और विषैले बयानों के खिलाफ अपनी दो-टूक राय जाहिर करें। यह संतोष का विषय है कि उन कुछ तथाकथित संतों के विरुद्ध पुलिस ने प्रारंभिक कार्रवाई शुरु कर दी है लेकिन वह कोरा दिखावा नहीं रह जाना चाहिए। ऐसे जहरीले बयानों के फलस्वरुप ही खून की नदियां बहने लगती हैं।
यह राष्ट्रतोडक़ प्रवृत्ति सिर्फ कानून के जरिए समाप्त नहीं हो सकती। इसके लिए जरुरी है कि सभी मजहबी लोग अपने-अपने बच्चों में बचपन से ही उदारता और तर्कशीलता के संस्कार पनपाएं। यदि हमारे नागरिकों में तर्कशीलता विकसित हो जाए तो वे धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड और पशुता को छुएंगे भी नहीं। कार्ल मार्क्स ने कहा था कि मजहब जनता की अफीम है। यदि लोग तर्कशील होंगे तो वे इस अफीम के नशे से बचने की भी पूरी कोशिश करेंगे।
यदि लोग तर्कशील होने के साथ उदार भी होंगे तो वे अपने धर्म या धर्मग्रंथ या धर्मप्रधान की आलोचना से विचलित और क्रुद्ध भी नहीं होंगे। भारत में शास्त्रार्थों की अत्यंत प्राचीन और लंबी परंपरा रही है। गौतम बुद्ध, शंकराचार्य और महर्षि दयानंद की असहमतियों में कहीं भी किसी के प्रति भी दुर्भावना या हिंसा लेश-मात्र भी दिखाई नहीं पड़ती। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दुनिया की पांच परमाणु संपन्न महाशक्तियों ने अब एक सत्य को सार्वजनिक और औपचारिक रुप से स्वीकार कर लिया है। ये पांच राष्ट्र हैं— अमेरिका, रुस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस। इन पांचों राष्ट्रों के पास हजारों परमाणु बम और प्रक्षेप्रास्त्र हैं। इन्होंने पहली बार यह संयुक्त घोषणा की है कि यदि परमाणु युद्ध हुआ तो उसमें जीत किसी की नहीं होगी। सब हारेंगे। अत: परमाणु युद्ध होना ही नहीं चाहिए। ये पांचों राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं और दुनिया के सबसे संपन्न राष्ट्रों में हैं। उन्होंने यह संकल्प भी प्रकट किया है कि परमाणु-शस्त्र नियंत्रण के लिए वे द्विपक्षीय और सामूहिक प्रयत्न बराबर करते रहेंगे।
इस घोषणा का दुनिया में सर्वत्र स्वागत होगा लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या हिरोशिमा और नागासाकी के नर-संहार के 77 साल बाद अब इन राष्ट्रों को यह सत्य समझ में आया है? क्या अभी तक ये सत्ता के नशे में डूबे हुए थे? बल्कि मैं तो यह समझता हूं कि अब तक ये सत्ता में मदमस्त होने से भी ज्यादा भयग्रस्त थे। सभी महाशक्तियां एक-दूसरे से इतनी डरी हुई थीं कि सब ने परमाणु शस्त्रास्त्र बना लिये। अपने परम मित्र राष्ट्रों के पास परमाणु बम होने के बावजूद उन्होंने करोड़ों-अरबों रु. खर्च करके अपने बम बना लिये। लेकिन वे अब महसूस कर रहे हैं कि ये समूल नाश के साधन हैं।
एक-एक राष्ट्र के पास इतने परमाणु बम हैं कि जिनसे सारी पृथ्वी का कई बार नाश हो सकता है लेकिन इन राष्ट्रों ने सिर्फ उस खतरे की उपस्थिति को स्वीकारा है। उसका इलाज अब भी इन्होंने शुरु नहीं किया है। पिछले 6-7 दशकों में परमाणु अप्रसार और परमाणु-नियंत्रण के बारे में कई संधिया और समझौते होते रहे हैं लेकिन आज तक भी कोई ऐसा समझौता नहीं हुआ है, जिसके तहत सभी परमाणु-राष्ट्र अपने परमाणु हथियारों को खत्म करने या तेजी से घटाने की कोशिश करते। याने अब भी वे डरे हुए हैं। अब भी उन्हें लगता है कि यदि उन्हें संप्रभु और स्वतंत्र रहना है तो उनके पास परमाणु बम होना ही चाहिए।
इन राष्ट्रों के नेताओं से कोई पूछे कि क्या गांधीजी ने कोई परमाणु बम चलाया था? बिना हथियार चलाए भारत आजाद हुआ या नहीं? कोई भी परमाणु-राष्ट्र किसी भी अन्य राष्ट्र पर इसलिए कब्जा नहीं कर सकता कि उस राष्ट्र के पास परमाणु बम नहीं है। दुनिया के मुश्किल से दर्जन भर राष्ट्रों के पास परमाणु-शक्ति है लेकिन उनमें क्या इतना दम है कि वे अपने पड़ौसी राष्ट्रों पर कब्जा कर लें? मेरी राय में परमाणु-बम हाथी के दिखावटी दातों की तरह हैं।
इन्हें जितनी जल्दी नष्ट किया जाए, उतना ही अच्छा है। यह अंधविश्वास भी निराधार साबित हो गया है कि परमाणु बम के डर के मारे अब दुनिया में युद्ध नहीं होंगे। इस परमाणु-युग में लगभग हर महाद्वीप पर दर्जनों देश आपस में युद्धरत हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज दो खबरों ने मेरा ध्यान खींचा। एक तो काबुल में तालिबान सरकार ने तीन हजार लीटर शराब जब्त की और उसे प्रचारपूर्वक काबुल नदी में बहा दिया और दूसरी खबर है, जैन मुनि निर्णयसागर के संकल्प की! म.प्र. के अशोकनगर की गोशाला में भूखों मरती गायों के लिए समुचित भोजन जुटाना उनका लक्ष्य था। उन्होंने कहा कि जब तक इन लगभग 700 गायों के खाने की व्यवस्था नहीं होती, वे भी कुछ खाएंगे-पिएंगे नहीं। उनकी यह घोषणा होते ही 15 मिनिट के अंदर जैन भक्तों ने 23 लाख रु. जुटा दिए और कुछ जैन महिलाओं ने अपने जेवर उतारकर मुनिजी के चरणों में रख दिए। मुझे ये दोनों प्रसंग आपस में जुड़े हुए लगते हैं। एक है, नशाबंदी का और दूसरा है— जीवन दया का!
कुरान शरीफ में शराब पीने की इजाजत उस तरह से नहीं है, जैसी बाइबिल और हमारे कुछ भारतीय धर्मग्रंथों में है। कुछ मुसलमान मित्र कुरान की एक आयत का हवाला देते हुए कहते हैं कि कुरान सिर्फ इतना कहती है कि शराब पीने से जितना फायदा है, उससे ज्यादा नुकसान होता है। यदि नशा न हो तो आप थोड़ी-बहुत पी सकते हैं। कुरान की आयत की ऐसी मनपसंद व्याख्या करके कई मुसलमान शराब-पान की छूट ले लेते हैं। मैंने अपनी पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान-यात्राओं के दौरान देखा है कि बड़े-बड़े मुसलमान नेताओं, फौजी अफसरों और उद्योगपतियों के तलघरों में बाकायदा शराबखाने खुले हुए हैं जबकि मुस्लिम देशों में शराब-पान को कानूनी अपराध माना जाता है और कुछ देशों में शराबियों को पकडक़र उनको सरे-आम कोड़े लगाए जाते हैं। तालिबान का शराबबंदी-अभियान सराहनीय है।
कुरान, पुराण, बाइबिल आदि धर्मग्रंथ नशाबंदी का समर्थन करें या न करें लेकिन यह इसलिए त्याज्य है कि नशे में मनुष्य की चेतना नष्ट हो जाती है। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहता। जानवर और उसमें फर्क नहीं रह जाता। ऐसा ही मामला जीव-दया का है। कोई भी धर्मशास्त्र, यहां तक कि बाइबिल, पुराण, कुरान, गुरु ग्रंथ साहब आदि यह कहीं नहीं कहते कि जो मांस नहीं खाएगा, वह घटिया ईसाई या घटिया हिंदू या घटिया मुसलमान या घटिया सिख बन जाएगा। तो फिर मांस खाना जरुरी क्यों है? मांसाहार खर्चीला है, स्वास्थ्य-नाशक है और हिंसक है।
मांस किसी का भी हो, गाय का हो या सूअर का! दोनों ही अखाद्य हैं। दोनों तरह के प्राणी भूखे भी न मरें- यह सच्ची जीव-दया है। भारत का शाकाहार और जीव-दया के मामले में जो इतिहास है, वह बेमिसाल है। दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं है, जिसकी तुलना भारत से की जा सके। भारत में जितने लोग मांसमुक्त और नशामुक्त जीवन जीते हैं, उतने दुनिया के किसी देश में नहीं हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
10 दिनों में 4 गुना बढ़े कोविड के सक्रिय मामले
औसत पॉजिटिविटी भी 0.11 से बढ़कर 1.81 हुआ
-जेके कर
छत्तीसगढ़ में कोरोना के मरीज लगातार बढ़ रहें हैं दूसरी तरफ लोग बेपरवाह बिना मास्क के घूम रहें हैं. बाज़ारों तथा चौक-चौराहों पर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं किया जा रहा है. खुद राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 दिनों में ही औसत पॉजिटिविटी दर 0.11 से बढ़कर 1.81 फीसदी का हो गया है. वहीं, कुल सक्रिय मामलें 296 से बढ़कर 1272 हो गया है. छत्तीसगढ़ में कोरोना के सबसे ज्यादा सक्रिय मामलें राजधानी रायपुर में 301, रायगढ़ में 257, बिलासपुर में 235 तथा दुर्ग में 112 हैं. इसी तरह कोरबा में 97 तथा जांजगीर-चांपा में 69 है. अगर यही स्थिति बनी रही तो अगले 10-20 दिनों में स्थिति भयावह हो जायेगी. ध्यान रहें, ओमिक्रान वरियेंट सबसे संक्रामक वरियेंट है. कुछ विशेषज्ञों का तो मानना है कि मानव इतिहास का यह सबसे संक्रमणकारी वाइरस का रूप है. जाहिर है कि इससे बचने के लिये फौरी सक्रियता की जरूरत है.
उल्लेखीय है कि 2 जवरी को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मनसुख मांडविया ने कहा कि विश्व स्तर पर, देश अपने पहले के शीर्ष मामलों की तुलना में कोविड-19 मामलों में 3 से 4 गुना वृद्धि का अनुभव कर रहे हैं. ओमिक्रॉन वैरिएंट के अत्यधिक तेजी से फैलने के कारण, कोविड मामलों में तेज वृद्धि चिकित्सा प्रणाली को प्रभावित कर सकती है. इसलिये उन्होंने राज्यों को तेज वृद्धि को प्रबंधित करने के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार करने में कोई कसर नहीं छोड़ने की सलाह दी, जिससे कि भारत कोविड-19 के इस प्रकोप से सुरक्षित रह सके. डॉ. मांडविया ने कहा कि कोविड का चाहे कोई भी वैरिएंट हो, तैयारी और सुरक्षा के उपाय समान ही बने रहेंगे.
बेशक, राज्य सरकार कोरोना के मरीजों के लिये चिकित्सीय तौर पर तैय्यार है लेकिन कोरोना संक्रमण को रोकना उससे भी ज्यादा जरूरी है. गौरतलब है कि लॉकडाउन अंतिम विकल्प है तथा इससे अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. सबसे ज्यादा बुरी स्थिति रोज कमाने खाने वालों की हो जाती है. दूसरी तरफ, जनता कोविड फैटिग का भी शिकार है. अब मास्क पहनना उसे पसंद नहीं आ रहा है. ऐसे में राज्य सरकार को कड़ाई से मास्क तथा सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवाना चाहिये. यदि शाम 6 बजे से ही नाईट कर्फ्यू लगाया जाये तो संक्रमण को फैलने से बहुत हद तक कम किया जा सकता है. कुछ भी हो नाईट कर्फ्यू लगाना, लॉकडाउन लगाने से बेहतर विकल्प है. हां, कुछ राज्यों ने रात 11 बजे से सुबह 5 बजे तक का नाईट कर्फ्यू लगाया है लेकिन उससे ख़ास फायदा नहीं होता है.
बता दें कि 30 दिसंबर को ही राज्य सरकार ने कोविड-19 एवं नये वरियंट ओमिक्रान के संक्रमण के नियंत्रण के लिये धार्मिक, खेलकूद, सामाजिक तथा अन्य समस्त प्रकार के आयोजन हेतु कार्यक्रम स्थलों पर अब केवल एक तिहाई क्षमता तक ही व्यक्तियों को भाग लेने की अनुमति दी है. नव वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजन होने वाले कार्यक्रम स्थलों पर भी केवल एक तिहाई क्षमता तक ही व्यक्ति भाग ले सकने को कहा था. इसके पहले कार्यक्रम स्थलों पर क्षमता के 50 फीसदी तक ही व्यक्तियों को भाग लेने की अनुमति प्रदान की गई थी. जिसमें आंशिक संशोधन कर अब केवल एक तिहाई क्षमता तक ही व्यक्तियों को भाग लेने की अनुमति प्रदान की गई.
छत्तीसगढ़ की औसत पॉजिटिविटी दर एवं कुल सक्रिय मामले-
2 जनवरी- औसत पॉजिटिविटी दर 1.81 तथा कुल सक्रिय- 1272
1 जनवरी- औसत पॉजिटिविटी दर 1.18 तथा कुल सक्रिय- 1017
31 दिसंबर- औसत पॉजिटिविटी दर 0.75 तथा कुल सक्रिय- 769
30 दिसंबर- औसत पॉजिटिविटी दर 0.61 तथा कुल सक्रिय- 597
29 दिसंबर- औसत पॉजिटिविटी दर 0.45 तथा कुल सक्रिय- 463
28 दिसंबर- औसत पॉजिटिविटी दर 0.30 तथा कुल सक्रिय- 393
27 दिसंबर- औसत पॉजिटिविटी दर 0.23 तथा कुल सक्रिय- 345
26 दिसंबर- औसत पॉजिटिविटी दर 0.41 तथा कुल सक्रिय- 330
25 दिसंबर- औसत पॉजिटिविटी दर 0.28 तथा कुल सक्रिय- 313
24 दिसंबर- औसत पॉजिटिविटी दर 0.11 तथा कुल सक्रिय- 296
-प्रकाश दुबे
दूरदृष्टि-1
जो नए साल में घर में हैं? बधाई। उन्हें शुभकामना जिन्होंने कृष्ण जन्मस्थान में जागकर अपने कर्मों का लेखा जोखा लिया। अग्रिम कर भरकर स्वयं को सुरक्षित समझने वालों को बधाई देने में हिचक है। उनके साथ सहानुभूति है, जिन्हें बाद में सफाई देनी पड़ती है। इन्होंने अग्रिम कर भुगतान किया था। अमुक पर पहले से नजऱ थी, इत्यादि-इत्यादि। आयकर विभाग ने मार्च 2007 में चेन्नई के पोएस गार्डन की वेद निलयम कोठी को अटैच किया। मालकिन थीं-जयललिता। उनके भाई की बेटी दीपा और बेटे दीपक को अदालत ने अब असली वारिस माना। आयकर विभाग ने 36 करोड़ 80 लाख का बकाया कर चुकाने कहा। तमिलनाडु सरकार के भूमि अधिग्रहण अधिकारी ने मुआवजे के 68 करोड़ रुपए मांगे। दूरदर्शी पाठक जिनेंद्रियों पर संयम रखकर जयललिता की सहेली शशिकला का अनुकरण करें। तनाव मुक्त रहें। अगस्त 2020 में शशिकला की बेनामी संपत्ति आयकर विभाग ने अटैच कर ली। फिर क्या हुआ? ज्योतिषी जानें या ससिकला।
दूरदृष्टि-2
मकर संक्रांति और विक्रमादित्य के दिनांकदर्शी से आरंभ होने वाला नया साल अभी पखवाड़े भर की दूरी पर है। दूरदर्शी, भले वे राजनीति में हो, चाकरी में हों या चौकसी में, गंगा में डुबकी लगाने की होड़ में शामिल हैं। उनकी गिनती करते समय अति दूरदर्शी मायावती को गुमशुदा की सूची में शामिल मत करें। अटकलबाज विरोधी दबी जुबान से फुसफुसाते हैं-पिछले चुनाव से पहले किसके दरवज्जे पर मेहमान आय कर धमाका कर गए थे? दूरदर्शी गलती से सीख लेते हैं। बयानवीर चुप सही। रणनीतिकार दावा कर रहे हैं कि गंगा मैया किसी को बहुमत का आंकड़ा पार नहीं करने देंगी। उसके बाद बंधी मुट्ठी और मौन की माया की कीमत पता लगेगी। वकील बाबू सतीश चंद्र मिसर जनता की अदालत के बजाय सत्ता की अदालत में दलील पेश कर रहे हैं। सत्ता-संरक्षण, जांच-मुकदमों से बचाव, सत्ता में सहभागिता के लिए इन दिनों संजय गांधी का बात कम काम ज्यादा नाम का टानिक याद आ रहा है। दूरदर्शी राजनीति में सबका साथ, सबका विश्वास से अच्छे दिन आने का विश्वास बढ़ा है।
दूरदृष्टि-3
स्वतंत्रता दिवस पर ऐलानिया कहा था कि कुपोषण रोकने के लिए बेटियों का विवाह 21 बरस की आयु में करना जरूरी है। मंत्रिमंडल की मुहर लगने पर पक्ष-विपक्ष में चुटकियों और चुटकुलों की बाढ़ आई। मसलन-जाके पैर न फटी बिंवाई। सो का जानै पीर पराई। (ऐडिय़ों में बिंवाई फटने की वेदना घर के किसी बुजुर्ग से जानें।) विवाह संस्था पर राय देने में साधु, संत, योगी, बैरागी, नियोगी, वियोगी सबसे आगे हैं। सुपरिचित माक्र्सवादी वृंदा कारत ने सवाल किया कि 18 बरस की बेटी को जेल भेजने पर रोक नहीं है। विवाह पर रोक लगाने से पहले अवयस्क बालिकाओं से बलात्कार करने वालों को दुरुस्त करो। दिव्यांग बच्चों को 18 वर्ष की आयु के बाद आश्रम में रखने पर रोक से सवा सौ मूक-बधिर बच्चों के मां-बाप शंकर बाबा पापलकर चिंताग्रस्त हैं। जार्ज फर्नांडिस के समय समता पार्टी की अध्यक्ष रहीं जया जेटली ने साल 2020 में छह महीने के अंदर नीति आयोग को रपट दी। सिफारिश की कि महिला की पहली प्रसूति 20 वर्ष की आयु में होनी चाहिए। टास्क फोर्स की मुखिया जया को विवाह और शिशु जन्म में अंतर जानती हैं।
दूरदृष्टि-4
हमें आपको इस बात से क्या लेना कि बीमा नियामक प्राधिकरण का कर्ता धर्ता कौन है? कोई है भी या नहीं? जीवन बीमा ही जब अपने जीवन के अंतिम दिन गिन रहा हो। जीवन बीमा निगम का आने वाले समय में निजी लक्ष्मीपुत्र के घर पुनर्जन्म संभव है। गिनती के कम्युनिस्ट मई महीने की पांच तारीख को माक्र्सवादी कार्ल माक्र्स का जन्म दिन मना रहे थे। उसी दिन बीमा नियामक प्राधिकरण के सुभाष खुंटिया का कार्यकाल समाप्त हुआ। सरकार के पास आधा दर्जन से अधिक नामों की सूची मौजूद थी। आठ महीने बीत गए। नया कप्तान नहीं आया। अटकालबाजों की बात छोडि़ए। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी बेहद चिंतित हैं। केन्द्र सरकार को हर संभव मदद करने वाले जगन ने किसानों के लिए करोड़ों रुपए की फसल बीमा योजना का ऐलान कर दिया। योजना अधर में लटकी है। दूरदर्शी निर्मला सीतारामन मौन हैं। जगन के दुख में अपनी सहानुभूति नहीं मिलाई।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की हजारों संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी पैसे पर कड़ी निगरानी अब शुरु हो गई है। विदेशों की मोटी मदद के दम पर चलने वाली संस्थाओं की संख्या भारत में 22,762 है। ये संस्थाएं समाज-सेवा का दावा करती हैं। विदेशी पैसे से चलने वाली इन संस्थाओं में कई शिक्षा-संस्थाओं, अस्पतालों, अनाथालयों, विधवा आश्रमों आदि के अलावा ऐसे संगठन भी चलते हैं, जो या तो कुछ नहीं करते या सेवा के नाम पर धर्म-परिवर्तन और छद्म राजनीति करते हैं। पिछले कई वर्षों से यह आवाज उठ रही थी कि इन सब संस्थाओं की जांच की जाए।
इन संस्थाओं का सरकार के साथ पंजीकरण अनिवार्य बना दिया गया था और इन्हें विदेशी पैसा लेने के पहले सरकार से अनुमति लेना जरुरी था। गृहमंत्रालय से इन्हें लायसेंस लेना अनिवार्य है लेकिन इस साल लगभग 6 हजार संस्थाओं का पंजीकरण स्थगित कर दिया गया है। 18 हजार से ज्यादा संस्थाएं अभी पंजीकरण के लिए आवेदन करने वाली है। ऐसी 179 संस्थाओं का पंजीकरण रद्द हो गया है, जिनके हिसाब में गड़बड़ी पाई गई है या जो निष्क्रिय हैं या जिनकी गतिविधियां आपत्तिजनक मानी गई हैं।
मदर टेरेसा की संस्था भी इनमें है। कई संस्थाओं के बैंक खाते भी बंद कर दिए गए हैं। इस पर सरकार के विरुद्ध कई नेता और संगठन काफी शोर मचा रहे हैं। यह स्वाभाविक है। विपक्षी नेताओं को तो हर उस मुद्दे की तलाश रहती है, जिस पर वे कुछ शोर मचा सकें लेकिन समाजसेवी संगठनों की तो सचमुच मुसीबत हो गई है। उनके कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल रहा है। अस्पतालों में इलाज बंद हो गया है। अनाथ बच्चों को खाने-पीने की समस्या हो गई है।
जिन संस्थाओं के विदेशी पैसे पर रोक लगी है और जिनका पंजीकरण रोका गया है, वे सिर्फ गैर-सरकारी संस्थाएं ही नहीं हैं। उनमें नेहरु स्मृति संग्रहालय, इंदिरा गांधी कला केंद्र, लालबहादुर शास्त्री स्मृति प्रतिष्ठान और जामिया मिलिया जैसी संस्थाएं भी हैं, जो देश के बड़े-बड़े नामों से जुड़ी हुई हैं और जिन्हें सरकारी मदद भी मिलती रही है। इन संस्थाओं पर लगी रोक को शुद्ध राजनीतिक और सांप्रदायिक कदम भी बताया जा सकता है। मदर टेरेसा की संस्थाओं पर रोक को भी इसी श्रेणी में रखा जा रहा है लेकिन जब यह मामला संसद में उठेगा तो सरकार को यह बताना पड़ेगा कि इन संस्थाओं पर रोक लगाने के ठोस कारण क्या हैं? ये संस्थाएं सिर्फ इस कारण विदेशी पैसे का दुरुपयोग नहीं कर सकतीं कि इनके साथ देश के बड़े-बड़े लोगों के नाम जुड़े हुए हैं।
सरकार ने विदेशी पैसे से चलने वाली इन संस्थाओं के काम-काज पर कड़ी निगरानी शुरु कर दी है, यह तो ठीक है लेकिन यह देखना भी उसका कर्तव्य है कि मरीजों, अनाथों, छात्रों और गरीबों का जीना दूभर न हो जाए। उनकी वैकल्पिक व्यवस्था भी जरुरी है। इन संस्थाओं पर निगरानी इसलिए भी रखनी जरुरी है कि कोई राष्ट्र या उसके नागरिक किसी पराए देश के लिए अपनी तिजोरियां प्राय: तभी खोलते हैं, जब उन्हें अपना कोई स्थूल या सूक्ष्म स्वार्थ सिद्ध करना होता है। क्या वह दिन भी कभी आएगा, जब हमारी सरकार की तरह हमारी सामाजिक संस्थाएं विदेशी पैसा लेना बंद कर देंगी?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
अरविन्द केजरीवाल कमाल का भाषण देते हैं, ईमानदार हैं। चिंता हमें मीडिया को देखकर हो रही है, वह उनका भोंपू की तरह प्रचार कर रहा है। यह सच है कि केजरीवाल ने अपने साथ जिन विधायकों को विधानसभा के अंदर पहुँचा दिया है, वे अब आम आदमी नहीं रहे। वे विधायक हैं। यह उनकी नई पहचान है। कल तक जो गृहिणी थी, या पत्रकार था, वह अब विधायक हंै।
केजरीवाल आम आदमी नहीं है, मुख्यमंत्री हैं। केजरीवाल सरकार चला रहे हैं। चुनाव जीतते ही उनकी अस्मिता में अचानक बदलाव आ गया है। यह उनके जीवन, राजनीति और समूचे व्यक्तित्व में आया पैराडाइम शिफ्ट है।
सवाल यह है एक साधारण गृहिणी जब विधायक बन जाती है तो उसकी पहचान बदलती है या नहीं? कल तक मनीष सिसोदिया समाजसेवक थे, एनजीओ चलाते थे, अराजनीतिक थे। लेकिन आज विधायक हैं, राजनीति करते हैं, मंत्री हैं। यह पैराडाइम शिफ्ट है, और इससे उनकी अस्मिता का एक नया आयाम सामने आया है। यह शुभलक्षण है।
जो विधायक है, मंत्री है, मुख्यमंत्री है, वह अब आम आदमी नहीं रहा। वह कहां सोता है, कहां रहता है, क्या खाता है, यह गैर जरूरी तत्व है, जरूरी तत्व है उसका विधायक बनना। विधायक बनते ही उसकी पहचान का रूपांतरण हुआ है । और यह जनसमर्थन से बदली पहचान है। कल तक केजरीवाल सामान्य नागरिक थे, लेकिन आज मुख्यमंत्री है। मुख्यमंत्री, विधायक या मंत्री का अर्थ है कि वे सरकार चला रहे हैं और सरकार का काम है सत्ता का प्रबंध करना।
वे कल तक आम जनता का अंग थे, लेकिन विधायक बनते ही सत्ता का अंग बन गए हैं। वे भत्ते लें या न लें, गाड़ी-बंगला लें या नहीं, लेकिन वे तो विधायक हैं, मुख्यमंत्री हैं। यह सत्ता का क्षेत्र है। यह आप पार्टी के चुने हुए विधायकों की पहचान में आया नया पैराडाइम शिफ्ट है। इसे मीडिया में आम आदमी, आम आदमी कहकर छिपाया नहीं जा सकता।
अरविंद केजरीवाल ने 2 जनवरी 2014 में दिल्ली विधानसभा में आम आदमी की ‘अव्वल’ परिभाषा दी। उन्होंने कहा ‘आम आदमी वह है जो ईमानदार है।’ केजरीवाल, तुम पढ़े-लिखे, चमत्कार-प्रेमी, भगवान प्रेमी, आस्तिक आदमी हो! अर्थशास्त्र भी बढिय़ा जानते हो! अनेक नामी-गिरामी प्रोफेसरों की सलाहकार मंडली भी तुम्हारे पास है! और तुम भी बहुत सुलझे हुए अक्लमंद हो।
लेकिन यह क्या कह डाला तुमने कि जो ईमानदार है वह आम आदमी है। यानी घासीराम और घनश्यामदास बिड़ला में कोई अंतर नहीं!! रतन टाटा और रतनू खां में कोई अंतर नहीं! कमाल का राजनीति विज्ञान पढ़ा है तुमने केजरीवाल!!
केजरीवाल जान लो यह देश बेवकूफों का नहीं है। ईमानदारी को यदि आधार बनाओगे तो तुम्हारे लिए आम आदमी एक नैतिक पहचान मात्र होगा। आम आदमी नैतिकता नहीं है। यह ईमानदारी और बेईमानी का मामला नहीं। जरा बताओ तो पहचान का आधार क्या नैतिकता हो सकती है? आम आदमी एक सामाजिक-आर्थिक कैटेगरी है। यह नैतिक कैटेगरी नहीं है। आम आदमी को नैतिक कैटेगरी बनाकर तुम आम आदमी की अवधारणा को भ्रष्ट कर रहे हो। आम आदमी की पहचान का इस तरह अवमूल्यन मत करो।
केजरीवाल यह ठीक है तुम दिल्ली के मुख्यमंत्री हो। लेकिन याद करो, शब्दों के अवमूल्यन के लिए हमारे राजनेता लंबे समय से शब्द-अपराधी की सूची में हैं। आज तुमने भी शब्द-अपराधी की सूची में अपना नाम दर्ज करा लिया। मैं तुमको दिलो-जान से चाहता हूँ और तुम्हारी ईमानदारी का कायल हूँ, लेकिन तुमको भाषा में भ्रष्टाचार फैलाने का हक किसी ने नहीं दिया। तुमको सरकार बनाने का बहुमत मिला है, शब्दों को भ्रष्ट करने का बहुमत नहीं मिला।
राजनेता आए दिन हमारी राजनीतिक पदावलियों को भ्रष्ट-विद्रूप करते रहे हैं और मैं उम्मीद कर रहा था कि कम से कम तुम भाषा में भ्रष्टाचार नहीं फैलाओगे। केजरीवाल जान लो, शब्दों को अर्थहीन बनाना सबसे बड़ा सामाजिक अपराध है, कृपा करके यह अपराध आगे मत करना वरना आम आदमी तुमको कब्र में सुला देगा। जान लो समाजवादियों ने अपने कर्मों और भाषणों से समाजवाद को भ्रष्ट किया था और वे खंड-खंड हो गए। श्रीमती गांधी ने वोटों के स्वार्थ के लिए समाजवाद को भ्रष्ट किया और उसका हश्र आपातकाल तक ले गया। यह भी जान लो गांधीवादी समाजवाद का भाजपाई नारा गांधी और समाजवाद दोनों को रसातल में ले गया । ज्यादा पीछे मत जाओ, कांग्रेस ने कुछ साल पहले नारा दिया था ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ।’ यह आम आदमी के दुरुपयोग की आदर्श मिसाल थी। कांग्रेस 10 साल शासन में रहने के बावजूद देश में मुँह दिखाने लायक नहीं बची। मोदी ने विकास का नारा दिया और विकास को विध्वंस में बदल दिया। कहने का अर्थ है शब्दों को विकृत न करो। अवधारणाओं को विकृत न करो। शब्दों के विकृतिकरण का काम आए दिन मोहन भागवत और उनकी संघी मंडली कर रही है, तय मानो उनका विनाश तय है। शब्दों का अर्थ नष्ट करने वालों को आम जनता कब्र में सुलाना जानती है।
-डॉ. दिनेश मिश्र
नववर्ष पर बधाईयों के साथ कुछ मेसेज ऐसे भी मिले। अंग्रेजों के नए वर्ष की बधाई क्यों दें।
आज इंसान की दैनिक गतिविधियों में हर वह तरीका समाहित है, जो जीवन को सरल, सुविधाजनक बनाती हो। विदेश ही क्या हमारे देश में अलग-अलग गणनाओं के आधार पर नया वर्ष मनाया जाता है। हिंदी नववर्ष, असम, दक्षिण भारत, पंजाब, बंगाल महाराष्ट्र सहित अनेक प्रदेशों में स्थानीय निवासी नव वर्ष अलग अलग समय उत्साहपूर्वक मनाते हैं, यहां तक दीपावली के दूसरे दिन व्यापारियों द्वारा नया वर्ष नया बहीखाता शुरू करने, इनकम टैक्स के अनुसार 1 अप्रेल से नया साल प्रचलित है। और सभी नए वर्षों पर एक दूसरे को बधाई देते है, उन्हें शुभकामनाएं प्रदान करते हैं।
पिछले दो-तीन वर्षों सोशल मीडिया ने कुछ ऐसे मेसेज भी आने लगे हैं। 1 जनवरी से प्रारंभ वर्ष विदेशी नववर्ष है, इसमें बधाई क्यों दी जाए। पर मेरे विचार से सिर्फ जनवरी के नए वर्ष की बधाई देने में ही क्यों कंजूसी की जाए।
हर व्यक्ति को अपनी संस्कृति और सभ्यता का सम्मान करना चाहिए और उस पर उसे गर्व होना चाहिए।पर दूसरों की संस्कृति पर अकारण टिप्पणी क्यों करना चाहिए। किसी की तारीफ में, किसी की प्रशंसा में कसीदे भले ही न कढ़े, पर बेवजह किसी की आलोचना भी न करें।
हमारे ही महापुरुषों ने पूरे संसार को एक परिवार माना है वसुधैव कुटुम्बकम की बात कही है। हर सभ्यता में कुछ न कुछ खूबियाँ है जिनका सोच-समझकर अनुसरण करना ही सबके हित में है।
जरा याद करें आज सबकी दिनचर्या में ऐसा क्या क्या शामिल है, जिसे हमसे बहुत सारे लोग, देशी-विदेशी विचारे बगैर निसंकोच उपयोग करते हैं और वैसे भी सभी संस्कृतियों की अच्छी बातों को अपने में शामिल करने में कोई बुराई भी नहीं है ।
जैसे सुबह बिस्तर से उठकर विदेशियों की ईजाद की गई स्लीपर पहिनकर विदेशियों की तरह टूथब्रश व पेस्ट से दाँत साफ कर, अंग्रेजों के पेय चाय पीकर, अंग्रेजी टॉयलेट/कमोड में फारिग होकर, विदेशी यूट्यूब पर भजन व मनपसंद गाने लगाकर सुनने, अंग्रेजों की तरह साबुन, शैम्पू लगाकर, उन्हीं की तरह शावर लेकर नहाने, विदेशियों की तरह के कोट, पेंट, टाई, जूते आदि कपड़े पहनते हैं। बहुतों को ब्रांड भी इम्पोर्टेड ही चाहिए।
अंग्रेजों की तरह चम्मच से नाश्ता ग्रहण कर विदेशियों के आविष्कृत वाहन में काम पर जाते हैं, पुरानी बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, टमटम में बैठना रास नहीं आता।
विदेशियों के आविष्कार बिजली का बल्ब ट्यूब, लैंप जलाकर घर और ऑफिस में काम करने का आनंद उठाते है, यदि कुछ देर के लिए बिजली चली जाए तो तुरंत इन्वर्टर, जनरेटर की कमी महसूस कर तुरन्त डिमांड करने लगते है, यह नहीं कि दिया, चिमनी, लालटेन,में काम करने का कष्ट करें।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से मेडिकल कॉलेज में इलाज कराने, सोनोग्राफी, एक्स-रे, एम आर आई वैक्सीन का उपयोग भी विदेशियों के आविष्कार से संभव हुआ है।
एक व्यक्ति गर्मी में विदेशियों के आविष्कृत एसी को चलाकर फिर से विदेशियों के द्वारा आविष्कृत कम्प्यूटर या कागज पर काम कर रहा है।
शाम को घर आकर विदेशियों के आविष्कार टीवी पर मनोरंजक कार्यक्रम, न्यूज, देखकर समय बिताता है।
रात को फिर विदेशियों द्वारा आविष्कृत बिजली का उपयोग जारी रहता है।
यहाँ तक विदेशियों द्वारा बताई विधि से फोन चार्ज करता है (चार्ज करने को हिन्दी में क्या कहते हैं, ये भी नहीं पता है)
विदेशियों के आविष्कृत पंखे या एसी या कूलर को ‘ऑन’ करके नींद लेने की तैयारी करता है और फिर-विदेशी वस्तु स्मार्ट फोन पर विदेशियों के बनाए व्हाट्स एप और फेसबुक पर टाइप करते हैं ।
ये अंग्रेजों का नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं।
हालांकि अंग्रेजी नववर्ष का बहिष्कार की अपील करने वाले बहुत से लोगों को हिन्दी कलेंडर के सारे महीने भी याद नहीं और घर और कार्यालय में लगभग हर चीज विदेश की बनी हुई है। और छुट्टियां मनाने भी विदेश जाना पसंद करते हैं
ऐसे में कुछ लोगों के द्वारा किसी संस्कृति के नववर्ष के बहिष्कार की बात अच्छी नही लगती। पर बढिय़ा है, सोशल मीडिया के युग में जो भी चाहो, जैसा चाहो लिख डालो और पोस्ट कर दो, पर जो भी कदम उठाएं सोच विचारकर ही करें। ताकि भविष्य में कभी पछतावा न हो।
-प्रमोद भार्गव
माता वैष्णव देवी तीर्थ क्षेत्र में मची भगदड़ में 12 श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गई। 15 घायल भी हैं, जिनमें चार की हालत गंभीर है। यह घटना आदि रात के बाद गर्भगृह के द्वार नंबर-3 के पास घटी। नए साल का समय होने के कारण भीड़ तो ज्यादा थी ही, इंतजाम भी पुख्ता नहीं थे। कटरा स्थित आधार शिविर से भीड़ अधिक होने पर दर्शनार्थियों को रोक-रोककर छोड़ा जाता है, किंतु इस बार ऐसा कोई प्रबंध सुरक्षाकर्मियों द्वारा नहीं किया गया है। नतीजतन कुछ दशनार्थियों के बीच मुंहवाद हुआ और भगदड़ मच गई। जिसके चलते 12 लोग घटनास्थल पर ही दम घुटने और कुचलने से काल के गाल में समा गए। ऐसा भी कहा जा रहा है कि किसी व्हीआईपी को माता के दर्शन कराने के लिए रास्ता खाली करवाने के चलते यह हादसा हुआ। जांच से पता चलेगा कि वास्तविकता क्या थी? हालांकि ऐसे हादसों की अक्सर लीपा-पोती करके इतिश्री कर ली जाती है। मंदिरों में इस तरह की घटना कोई नई बात नहीं है, बावजूद बद्इंतजामियां और लापरवाहियां अपनी जगह कायम हैं। शासन-प्रशासन मौत का मुआवजा देकर अपने कत्र्तव्य की भरपाई कर लेते हैं।
भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही है। जिसके चलते दर्शन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला हर साल देखने में आ रहा है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती। लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ?
हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं। कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं। दरअसल भीड़ के अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े और अनुभव होते है। बावजूद लपरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण, लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।
प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रुढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोई महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। कुछ साल पहले आंध्रप्रदेश में गोदावरी तट पर घटी घटना एक साथ दो मुख्यमंत्रियों के स्नान के लिए रोक दी गई भीड़ का परिणाम थी। दरअसल दर्शन-लाभ और पूजापाठ जैसे अनुष्ठान अशक्त और अपंग मनुष्य की वैशाखी हैं। जब इंसान सत्य और ईश्वर की खोज करते-करते थक जाता है और किसी परिणाम पर भी नहीं पहुंचता है तो वह पूजापाठों के प्रतीक गढक़र उसी को सत्य या ईश्वर मानने लगता है। यह आदमी की स्वाभाविक कमजोरी है। यथार्थवाद से पलायन अंधविश्वास की जड़ता उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालिक रही है। जब चिंतन मनन की धारा सूख जाती है तो सत्य की खोज मूर्ति पूजा में बदल जाती है। जब अध्ययन के बाद मौलिक चिंतन का मन-मस्तिष्क में हृास हो गया तो आदमी भजन-कीर्तन में लग गया। यही हश्र हमारे पथ-प्रदर्शकों का हो गया है। नतीजतन पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मौतें भगदड़ की घटनाओं और सडक़ दुर्घटनाओं में उन श्रद्धालुओं की हो रही हैं, जो ईश्वर से खुशहाल जीवन की प्रार्थना करने धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं।
धार्मिक स्थलों पर भीड़ बढ़ाने का काम मीडिया भी कर रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया टीआरपी के लालच में इसमें अहम् भूमिका निभाता है। वह हरेक छोटे-बड़े मंदिर के दर्शन को चमात्कारिक लाभ से जोडक़र देश के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड और पाखण्ड का आंडबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। इसकी पृष्ठभूमि में बाजारवाद की भूमिका भी रहती है। निर्मल बाबा, कृपालू महाराज और आशाराम बापू, रामपाल जैसे संतों का महिमामंडन इसी मीडिया ने किया था। हालांकि यही मीडिया पाखण्ड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा हो जाता है। निर्मल बाबा और आशाराम के साथ यही किया गया। मीडिया का यही नाट्य रुपांतरण अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, लोगों को धर्मभीरू बना रहा है। राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर मंदिर हादसों में लगभग 3500 से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, आस्था, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ समृद्ध व वैभवशाली भी होगा। जाहिर है, धार्मिक हादसों से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इत्र से कितनी बदबू फैल सकती है, यह दुनिया को पहली बार पता चला। कन्नौज के इत्रवाले दो जैन परिवारों पर पड़े छापों ने इत्र के साथ उत्तरप्रदेश की राजनीति की बदबू को भी उजागर कर दिया है। सच्चाई तो यह है कि इन छापों ने भारत की सारी राजनीति में फैली बदबू को सबके सामने फैला दिया है। 22 दिसंबर को जब पीयूष जैन के यहां छापा पड़ा तो उसमें 197 करोड़ रु., 26 किलो सोना और 600 किलो चंदन पकड़ा गया और पीयूष को जेल में डाल दिया गया।
सारे खबरतंत्र से यह प्रचारित किया गया कि यह छापा समाजवादी पार्टी के कुबेर के संस्थानों पर पड़ा है। दूसरे शब्दों में यह पैसा अखिलेश यादव का है। कानपुर की एक सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने विरोधियों पर हमला करते हुए कहा कि यह भ्रष्टाचार का इत्र है। इसकी बदबू सर्वत्र फैल गई है। यह बदबू 2017 के पहले फैली थी। तब तक अखिलेश उप्र के मुख्यमंत्री थे लेकिन अखिलेश ने कहा कि यह छापा गलतफहमी में मार दिया गया है। दो जैनों में सरकार भ्रमित हो गई। पीयूष जैन का समाजवादी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार ने पुष्पराज जैन की जगह गलती से पीयूष जैन के यहां छापा मार दिया।
अब सरकार ने पुष्पराज जैन के यहां भी छापा मार दिया है। अखिलेश का मंतव्य है कि पीयूष के यहां से निकला धन भाजपा का है तो भाजपा नेताओं का कहना है कि पुष्पराज तो समाजवादी पार्टी के विधायक हैं। उनके यहां जो भी काला धन पकड़ाएगा, वह सपा का ही होगा। यदि अखिलेश पहले छापे का मजाक नहीं उड़ाते तो शायद उनके जैन पर दूसरा छापा नहीं पड़ता लेकिन अब भाजपा ने हिसाब बराबर कर दिया है। इन छापों से हमारे सभी नेताओं की छवि खराब होती है। जनता को लगता है कि ये सभी भ्रष्ट हैं। इनमें से कोई दूध का धुला नहीं है।
चुनावों के मौसम में की जा रही इस छापामारी से सत्तारुढ़ दल की छवि भी चौपट होती है। अपने विरोधियों को बदनाम और तंग करने के लिए ही ऐसे छापे इस समय मारे जाते हैं। पिछले कई साल से सरकार को लकवा क्यों हुआ पड़ा था? इसके अलावा ये छापे उसी राज्य में क्यों पड़ रहे हैं, जिसमें चुनाव सिर पर हैं? क्या भाजपा को हार का डर सता रहा है? यदि देश में अर्थ-शुद्धि करनी है तो ऐसे छापे सबसे पहले सरकारों को अपने ही पार्टी-नेताओं पर मारने चाहिए, क्योंकि उनके पास शुद्ध हरामखोरी का ही पैसा जमा होता है।
उद्योगपति और व्यापारी तो अपनी बुद्धि और मेहनत से पैसा कमाते हैं, ये बात अलग है कि उनमें से कई टैक्स-चोरी करते हैं। इन छापों ने यह भी सिद्ध किया है कि मोदी सरकार की नोटबंदी की नाक कट गई है। नोटबंदी के बावजूद यदि करोड़ों-अरबों रु. इत्रवालों के यहां से नकद पकड़े जा सकते हैं तो बड़े-बड़े उद्योगपतियों और व्यापारियों ने अपने यहां तो खरबों रु. नकद छिपा रखे होंगे। नेताओं और पैसेवालों की सांठ-गांठ ने ही भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय शिष्टाचार बना दिया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ईश्वर सिंह दोस्त
एक जनवरी, 2022. अप्रतिम रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल को जन्मदिन पर उनके रचनाकर्म के बरक्स आलोचना की चुनौतियों पर एक छोटी सी टिप्पणी-
विनोद कुमार शुक्ल बहुत ही सहज मगर अद्भुत वाक्यों के सर्जक हैं, जो पाठक को एक ही साथ आश्वस्ति और आश्चर्य की दुनिया में ले जाते हैं। इन वाक्यों की परस्परता से बनी एक ऐसी आत्मीय दुनिया, जहां से गुजरकर कोई भी ज्यादा नई अंतर्दृष्टियां हासिल कर सके और ज्यादा भाव-संपन्न हो जाए। ये वाक्य कथा, उपन्यास, कविता ही नहीं, बातचीत और संस्मरण का भेष भी धरे हो सकते हैं। कागज पर उभरे हुए हो सकते हैं और आवाज बन हवा में उभरते और विलीन होते हुए। एक वाक्य का कौतुक दूसरे की तरफ खींचता है। एक वाक्य का अर्थ दूसरे में घुल जाता है।
विनोद कुमार शुक्ल गद्य और पद्य के बने-बनाए साँचों की और तमाम दूसरे साँचों की भंगुरता के विधान के लेखक हैं। वे उन विरल रचनाकारों में हैं, जो आलोचना के प्रचलित प्रतिमानों के लिए चुनौती बन जाते हैं। आलोचना कभी ऐसी रचनाशीलता को खारिज करती है, कभी शर्तों के साथ स्वीकार करती है। मगर एक वक्त वह आता है, जब आलोचना अपनी ही प्रामाणिकता की खोज में खुद से सवाल करती है और अपने अधूरेपन की आत्म-चेतना के आलोक में नया रास्ता तलाशती है।
वैसे आलोचना का एक मुख्य काम प्रतिमान बनाना होता है। संस्कृति व साहित्य सिद्धांतों में बड़ी तबदीली से ये बनते हैं। मगर नई रचनाशीलता भी नए प्रतिमानों को गढऩे का दबाव बनाती रहती है। विनोद कुमार शुक्ल हमारे वक्त के ऐसे ही रचनाकार हैं, जिनसे मुखातिब होकर आलोचना प्रतिमानों में उलट-फेर कर सकती है।
रचना के बरक्स आलोचना की मजबूरी यह होती है कि वह अवधारणाओं का सहारा लेती है। अवधारणाएं ऐसी सवारी है जो जल्द ही सवार पर सवार हो जा सकती है। अवधारणाओं का हश्र अकसर द्विभाजनों में होता रहा है। यथार्थवाद बनाम रूपवाद एक ऐसा ही अखाड़ा था, जहां रूप और यथार्थ (जानबूझ कर मैं यहां कथ्य नहीं कह रहा हूं) की द्वंद्वात्मकता को पीट-पीटकर इकहरा बना दिया जाता था। मानो रचना में यथार्थ और रूप का निबाह एक-दूसरे से विलगाव से ही हो सकता हो।
पहले शमशेर, मुक्तिबोध और अब विनोद कुमार शुक्ल ने यह सोचने के लिए मजबूर किया है कि यथार्थ इतना बहुस्तरीय, बहुलार्थी और अंतर्विरोधी हो सकता है कि किसी एक लेखन शैली की पकड़ में नहीं आ सके। साहित्य यथार्थ को मु_ी में भरता है, मगर रेत और समय की तरह हाथ से फिसलने भी देता है।
यूरोप में 18वीं-19वीं सदी में उभरा व भारत में 20वीं सदी में फला-फूला यथार्थवाद एक शिल्प के रूप में थक गया है। जिन रचनाकारों ने यथार्थ को इस शिल्प के पुराने चौखटे से बाहर निकाला और यथार्थ की समझ को नया व विस्तृत किया, उनमें विनोद जी एक प्रमुख नाम हैं।
विनोद जी के शिल्प में कामनाएं, फंतासी, निराशा और उम्मीद यथार्थ के परिसर से बाहर नहीं की जाती। फिर भी उनके संदर्भ में लातीनी अमेरिका में उदित हुआ जादुई यथार्थवाद नामक पद काफी अधूरा और अपर्याप्त लगता है, जिसे अकसर उनके साथ जोड़ दिया जाता है। फंतासी, जादुई कल्पनाशीलता ये सब कुछ तो विनोद जी के यहाँ हैं ही। मगर जो बात उनकी ही खालिस देन लगती है, वह है कथन की निश्चयात्मकता में भी संभावना की संभावना को खुला रखना। हम जानते हैं कि नाम देना और निरूपित करना यथार्थ में बिखरी बहुत सी संभावनाओं को सीमित कर देता है। मगर विनोद जी अपनी कविताओं, कथाओं व उपन्यासों में यथार्थ के कथन को एक प्रस्तावना की तरह रखते हैं, मानो पाठक उसमें सहज ही कुछ घटा या जोड़ सकता हो।
कहना न होगा कि विनोद कुमार शुक्ल के वाक्य कविता या उपन्यास, बातचीत जिस भी रूप में हों, पाठक को सोचने की जगह देते जाते हैं। वैसे भी साहित्य का काम ज्ञान बांटना नहीं, बल्कि नए अहसासों व दृष्टियों के जरिए सोचने के लिए नए परिप्रेक्ष्य मुहैया कराना होता है। ज्ञान का काम दूसरे अनुशासन पहले से बखूबी कर रहे हैं।
विनोद कुमार शुक्ल पाठक को नए अनुभव संसार में ले जाते हैं। जहां वह पहले से देखे और बरते गए और किन्हीं छवियों या मान्यताओं के रूप में रूढ़ हो गए अपने संसार से अपरिचित हो सकता है। यह बगैर कल्पना और/या फंतासी के संभव नहीं, मगर विनोद जी उसे यथार्थ की तरह ही सामने लाते हैं। नतीजे में पाठक रोजमर्रे के जीवन की किसी बंधी हुई वास्तविकता से बाहर कदम रख एक वैकल्पिक खिडक़ी के जरिए अपने ही होनेपन या अस्तित्व की नई संभावनाशीलता में दाखिल हो जाता है। जो है और जो होना चाहिए (‘इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए’) एक दूसरे में घुलमिलकर एक संभावनाशील यथार्थ खड़ा कर देते हैं।
हमारे समय में विनोद कुमार शुक्ल का रचना संसार बहुत से द्विभाजनों या बाइनरीज की अपर्याप्तता का विश्वसनीय संकेतक है। इनमें से एक द्विभाजन सत्य और सौंदर्य का भी है। यथार्थ व रूप की तरह विनोद जी राजनीति, लोकतंत्र, प्रकृति जैसी वास्तविकताओं को भी नया अर्थ विस्तार देते हैं। (जिस पर चर्चा फिर कभी।)
- रमेश अनुपम
आदिवासियों का असंतोष बढ़ता ही जा रहा था पर शासन-प्रशासन को जैसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से रिलीज ही नहीं की जा रही थी। मध्यप्रदेश सरकार जैसे उन्हें सबक सिखाने पर उतारू थी।
मई में स्थिति पुन: विस्फोटक होने लगी। तीन सौ आदिवासी राजमहल में एकत्र हो गए। इसके पश्चात पूरे नगर में जुलूस निकाली गई। जुलूस कोर्ट ऑफ वार्ड्स के भवन के भीतर घुस गई। आदिवासियों ने कोर्ट ऑफ वार्ड्स भवन के दरवाजे और खिड़कियों को तोड़ दिया। यही नहीं कोर्ट ऑफ वार्ड्स तथा सिंहदेवड़ी में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का झंडा भी फहरा दिया। वहां तैनात संतरी चंदन सिंह पर पत्थर फेंका गया।
दूसरे दिन भी दूर-दराज से आदिवासियों की भीड़ राजमहल में एकत्र होने लगी। 8 मई को लगभग 500 आदिवासी राजमहल में एकत्र हो गए जिसमें 100 महिलाएं भी शामिल थीं।
उस समय आदिवासियों का नेतृत्व करने वाले आदिवासी नेताओं में मंगल मांझी, सोमारु गाड़ा, माटा माडिय़ा प्रमुख नेताओं में से थे।
जगदलपुर जल रहा था। आदिवासियों के दिलों में तूफान उठ रहे थे, साल और सागौन के पेड़ दहक रहे थे। इंद्रावती कुछ-कुछ बेकाबू होकर मचल रही थी। पर इन सबसे शासन-प्रशासन असंवेदनशील ही बना रहा।
इसके दस दिनों बाद ही बस्तर में मुरिया और माडिय़ा जाति के आदिवासी लाल मिर्च और आम की डाल गांव-गांव में घुमाने लगे थे। आदिवासियों के विद्रोह का यह अपना प्राचीन और प्रचलित तरीका है। सन् 1857 की क्रांति में भी इसका प्रयोग किया गया था।
बस्तर भीतर ही भीतर सुलग रहा था पर शासन-प्रशासन ने इसे गंभीरता से लेने की जगह इसका ठीक उल्टा ही किया। लोहंडीगुड़ा गोली कांड से भी कुछ सीखने की कोई जरूरत नहीं समझी गई।
मध्यप्रदेश सरकार के कुछ नहीं करने पर विवश होकर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने जुलाई में देश के राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन को एक मार्मिक स्मरण पत्र भेजा , जिसमें उन्होंने लिखा- ‘मेरे राज्य के विलीनीकरण के एक दो वर्ष उपरांत ही मेरी व्यक्तिगत संपत्ति राज्य सरकार द्वारा जब्त कर ली गई और मुझे पागल घोषित कर दिया गया।
मेरी संपत्ति को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत रखने के कारणों के उल्लेख में केवल इतना ही कहा गया कि मैं अपनी रियासत पुन: वापिस पाने की लालसा से ही अपनी संपत्ति लोगों के बीच बांट रहा हूं साथ ही समस्त प्रजा के बीच भय और आतंक की सृष्टि कर मुझसे मिलने से रोक लगा दिया गया। मेरी भी बाहर के लोगों से मिलने पर पाबंदी लगाई गई। एक खूनी अपराधी की भांति मुझ पर सीआईडी और पुलिस की कड़ी निगरानी रखी जाती है और मेरे नाम के आड़ में निर्दोष आदिवासियों को कैद कर जेल में डाला जाता है।
मैं राजमहल में नितांत अकेला रहता हूं। मेरे हमदर्द व्यक्तियों पर पुलिस अफसरों और कांग्रेस के लोगों द्वारा अत्याचार किया जाता है और मेरे बारे में यह प्रचारित किया जाता है कि मैं बस्तर में विद्रोह करना चाहता हूं।
स्मरण पत्र के अंत में प्रवीर चंद्र भंजदेव ने राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से यह सवाल पूछते हुए कहा कि ‘क्या ये सब अत्याचार उस समझौते के विरुद्ध नहीं है- जो विलीनीकरण के समय भारत सरकार और नरेशों के बीच हुआ था। यदि सरकार यह स्वीकार करती है कि मेरे प्रति अन्याय व अत्याचार किया गया है तो मेरा मान-सम्मान जैसा पहले था मुझे पुन: वापस दिलाया जाए।’
प्रवीर चंद्र भंजदेव द्वारा राष्ट्रपति को लिखे गए इस पत्र का असर हुआ।
24 जुलाई को मध्यप्रदेश के आदिमजाति कल्याण मंत्री राजा नरेशचंद्र सिंह ने सर्किट हाउस के सामने एकत्र सैकड़ों आदिवासियों की भीड़ के सामने यह घोषणा की कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति जल्द ही कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी जाएगी।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिंदी को लेकर तमिलनाडु में फिर बवाल मच सकता है। केरल तथा कुछ अन्य प्रांतों में उनके राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों में पहले से भिड़ंत हो रही है। उस भिड़ंत का मुद्दा है— विश्वविद्यालयों के उप-कुलपतियों की नियुक्ति लेकिन तमिलनाडु में मुद्दा यह बन गया है कि उसकी पाठशालाओं में केंद्र का त्रिभाषा-सूत्र लागू किया जाए या नहीं? राज्यपाल आर.एन. रवि ने तमिलनाडु की सभी शिक्षा-संस्थाओं को निर्देश दिया है कि वे अपने विद्यार्थियों को तमिल, हिंदी और अंग्रेजी अनिवार्य रुप से पढ़ाएं। लेकिन तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कडग़म सरकार का कहना है कि वह बच्चों की पढ़ाई में हिंदी को अनिवार्य नहीं करेगी। हिंदी का विकल्प खुला रहेगा। जो बच्चा पढऩा चाहेगा, वह पढ़ेगा।
किसी भाषा को किसी भी राज्य पर थोपना गलत है। द्रमुक के स्वर में स्वर मिलाते हुए तमिलनाडु की भाजपा ने भी हिंदी की अनिवार्य पढ़ाई का विरोध किया है। गत वर्ष जब एम.के. स्तालिन मुख्यमंत्री बने, तभी उन्होंने कह दिया था कि वे नई शिक्षा नीति के त्रिभाषा-सूत्र को लागू नहीं करेंगे। हमें सोचना चाहिए कि अकेले तमिलनाडु के नेता इस तरह की घोषणाएं क्यों कर रहे हैं? इसका एक मात्र कारण है, उस प्रांत की हिंदी-विरोधी राजनीति! हिंदी-विरोध के दम पर ही तमिलनाडु की राजनीति चलती रही है। अन्नादुरई, करुणानिधि, जयललिता और स्तालीन आदि हिंदी-विरोध के दम पर ही वहां मुख्यमंत्री बने हैं।
1965-66 में जब मेरे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के शोधग्रंथ को हिंदी में लिखने की बात उठी थी तो अन्नादुरई, के. मनोहरन और अंबझगान- जैसे सांसदों ने संसद को ठप्प कर दिया था और तमिलनाडु के हिंदी-विरोधी आंदोलन में स्वतंत्र राष्ट्र की मांग भी उठा दी गई थी। अब तमिलनाडु में पहले जैसा हिंदी विरोध नहीं है लेकिन उसमें किसी भी पार्टी की हिम्मत नहीं है कि वह हिंदी के पक्ष में अपना मुंह खोल सके।
हिंदी की उपयोगिता अब इतनी बढ़ गई है कि उसे तमिल बच्चे अपने आप सीखेंगे। उसे आपको उन पर थोपने की जरुरत नहीं है। वे खुद उसे खुद पर थोपना चाहेंगे। बस जरुरत यह है कि देश की सभी भर्ती परीक्षाओं में आप अंग्रेजी की थुपाई बंद कर दें। अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओं की एच्छिक पढ़ाई जरुर हो लेकिन भारतीय भाषाओं के जरिए देश के उच्चतम पदों तक पहुंचने की पूर्ण सुविधा होनी चाहिए। हिंदी अपने आप आ जाएगी। जो हिंदी नहीं सीखेंगे, वे अपने प्रांत के बाहर जाकर क्या लोगों की बगलें झांकेगें? वे अपना नुकसान खुद क्यों करेंगे? क्या स्वतंत्र भारत में कोई ऐसी सरकार भी कभी आएगी, जो सचमुच राष्ट्रवादी होगी और जो राष्ट्रभाषा के जरिए सारे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का बीड़ा उठाएगी? (नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. विज
25 अगस्त, 1988 को मसूरी प्रशासन अकादमी से प्रारंभ भारतीय पुलिस सेवा की यात्रा आज 31 दिसंबर, 2021 को समाप्त हो जायेगी। अनुभवों से लदी हुई इस लंबी यात्रा ने मेरे जीवन, निजी एवं प्रोफेशनल, दोनों को एक जीवंत अर्थ दिया है। निजी जीवन में मेरी क्षमताओं का विकास एवं लोगों (खासतौर पर पीडि़तों) की सहायता करने का जज्बा, पुलिस सेवा की ही देन है। प्रोफेशनली-इलेक्ट्रॉनिक सहित तकनीकी क्षेत्र, कानून, नक्सल समस्या, आपातकालीन सेवाएं, पुलिस अधोसंरचना की बेहतरी आदि ऐसे विषय है जिन पर बखूबी काम करने का मौका मुझे मिला। मैं ईश्वर को धन्यवाद देना चाहता हूं कि मुझे वर्दी में लोगों की सेवा करने का अवसर दिया।
तैंतीस वर्ष से लंबी इस सेवा के दौरान मैंने पुलिस और समाज में कई बदलाव देखे। इस दौरान न केवल आम जनता की अपेक्षाएं पुलिस के प्रति बढ़ीं बल्कि पुलिस को अधिक जिम्मेदार बनाने में भी जनता का काफी हाथ रहा। जब-जब पुलिस ने अपनी शक्तियों की सीमा लांघी, तब-तब न्यायालयों, विभिन्न आयोगों एवं जनता ने पुलिस पर अंकुश लगाये। हथकड़ी लगाने एवं गिरफ्तारी के मापदण्ड बदले गये, सूचना का अधिकार ने पुलिस को अधिक जवाबदेह बना दिया।
एफआईआर की प्रति प्राप्त करने के लिये अब थाने के चक्कर काटने नहीं पड़ते, पुलिस की वेबसाइट पर अब एक क्लिक करना ही पर्याप्त है। थाने के लॉकअप की सारी गतिविधियां अब कैमरे में कैद हो जाती है। पहले जैसी मनमानी पुलिस अब नहीं कर पाती। डंडे वाली पुलिस अब कम्प्यूटर चलाने लगी है, पूछताछ के पुराने हथकंडे छोडक़र अनुसंधान में डीएनए जांच एवं ब्रेन मैपिंग कराने लगी हैं। प्रजातंत्र के विकास का असर प्रजातांत्रिक संस्थाओं में दिखने लगा है ।
इसी दौरान कई नए कानूनों जैसे एससी-एसटी एक्ट, जे.जे.एक्ट, आई.टी.एक्ट, पॉक्सो एक्ट आदि ने जन्म लिया। संवैधानिक मर्यादाओं को पूरा करने के लिये ये कानून जरूरी भी थे। महिलाओं, बच्चों एवं कमजोर वर्ग के प्रति पुलिस की संवदेनशीलता बढ़ी है, हालांकि इस क्षेत्र में अभी और मेहनत करने की जरूरत है। निजी डेटा सुरक्षा कानून के प्रवर्तन की जिम्मेवारी भी पुलिस को आने वाले समय में अन्य प्राधिकारियों से साझी करनी होगी।
छत्तीसगढ़ में माओवाद से निपटने के लिये सरकारों ने कई कदम उठाये हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि माओवाद से प्रभावित क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहा है। बस्तर क्षेत्र में शांति बहाल करने के लिये छत्तीसगढ़ में हुए बलिदानों को कभी भूला नहीं जा सकता। पर अभी सुरक्षाबलों को और आगे बढऩा है एवं पूरे क्षेत्र को हिंसा एवं विनाश से मुक्त करना है। पुलिस को साइबर क्राईम से निपटने के लिये अपनी कमर कसनी होगी। राज्य शासन को इस क्षेत्र में पुलिस के संसाधन और बढ़ाने होंगे। मध्यप्रदेश सहित अधिकांश राज्यों में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू हो चुकी हैं। छत्तीसगढ़ को भी इसमें पहल करनी होगी। छत्तीसगढ़ में पुलिस बल में समुचित वृद्धि हुई है, परंतु पुलिस द्वारा रिपोर्ट न लिखने एवं दुर्व्यवहार की शिकायतों में अपेक्षित कमी नहीं हुई है। विगत वर्षों में लोगों में काफी जागरूकता आयी है, वे अपने अधिकारों को समझने लगे हैं। ऐसी स्थिति में यह और जरूरी हो जाता है कि पुलिस पूर्णत: कानून के मुताबिक काम करे। साथ ही, सडक़ सुरक्षा एक ऐसा विषय है जहां आमजन को अधिक जिम्मेदार होने की जरूरत है। सडक़ों पर वाहनों की आमद-रफ्त काफी बढ़ी है इसलिए यातायात नियमों का उल्लंघन करने से बाज आना होगा, जनहानि को नियंत्रित करना होगा।
पुलिस की छवि सुधारना एक संयुक्त जिम्मेवारी है। गांधी जी कहते थे कि यदि पुलिस कुछ गलत करे, तो आम जनता उन्हें अनुशासित करें, उन्हें उनकी गलती का एहसास कराये। गांधी जी किसी को भी सजा देने के खिलाफ थे। पुलिस ने कोविड -19 के दौरान कई बेहतरीन मानवीय कार्य किये हैं। मैं चाहता हूं कि प्रत्येक पुलिसकर्मी अपने वेतन का कुछ हिस्सा गरीब लोगों की सहायता करने में व्यय करे। मानव सेवा करने से आत्मिक संतोष मिलेगा एवं आत्मबल बढ़ेगा। ईशोपनिषद के पहले मंत्र में कहा गया है कि च्जगत में जो कुछ है, सब ईश्वर का है। जितना कर्म के लिये आवश्यक है, उतना ही तू भोग कर। किसी दूसरे के धन की लालसा मत कर।
मेरा हमेशा यह प्रयास रहा है कि मैं अपनी मर्यादाओं में रहकर शासकीय कर्तव्यों का निर्वहन करूं। मुझे अपने युवा अधिकारियों से भी यही अपेक्षा है कि वे पुलिस सेवा के माध्यम से लोगों की सेवा करें और अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वहन पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से करें।
छत्तीसगढ़ कर्म-भूमि को मेरा कोटि-कोटि नमन।
(लेखक छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इसमें शक नहीं कि भारत के मुकाबले कोरोना महामारी का प्रकोप अन्य संपन्न देश में ज्यादा फैला है लेकिन अब उसकी तीसरी लहर उन्हीं देशों में इतनी तेजी से फैल रही है कि भारत को फिर से भारी सावधानी का परिचय देना होगा। फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, ग्रीस, इटली और सायप्रस जैसे देशों में कोरोना, डेल्टा और ओमीक्रोन के रोज़ नए लाखों मरीज़ पैदा हो रहे हैं। यह ठीक है कि उनकी मृत्यु-दर पहले जैसी नहीं है लेकिन इन देशों के कई शहरों में मरीजों के लिए पलंग कम पड़ रहे हैं। अमेरिका जैसा संपन्न देश, जहां की स्वास्थ्य-सेवाएं विश्वप्रसिद्ध हैं, वहां भी हजारों लोग रोज़ अस्पताल की शरण ले रहे हैं।
फिलहाल भारत का हाल इन देशों के मुकाबले बेहतर है लेकिन खतरे की घंटियां यहां भी अब बजने लगी हैं। अकेले दिल्ली शहर में यह आंकड़ा एक हजार रोज को छू रहा है। देश के कई शहरों में मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। लेकिन हमारे लोग अब भी सतर्क नहीं हुए हैं। वे पिछले कई माह से घरों में कैद थे, उससे छूटकर अब सैर-सपाटे में लगे हुए हैं। कश्मीर में इतने सैलानी इस बार जमा हुए हैं, जितने पहले कभी नहीं हुए। इसी तरह की सूचनाएं और निमंत्रण मुझे देश के सुरम्य शहरों से कई मित्रगण भेज रहे हैं।
सबसे ज्यादा छूट तो हमारे नेतागण ले रहे हैं। उनकी सभाओं में लाख-लाख लोग इक_े हो रहे हैं। न तो वे मुखपट्टी रखते हैं और न ही शारीरिक दूरी। यदि यह महामारी फैलेगी तो यूरोप-अमेरिका को भी भारत इस बार पीछे छोड़ देगा। हमारे नेताओं की भी बड़ी मजबूरी है। कई प्रांतों के चुनाव सिर पर हैं। यदि वे बड़ी-बड़ी सभाएं नहीं करें तो क्या करेंगे? अखबारों और चैनलों पर अपने विज्ञापन लटकाने में वे करोड़ों रु. रोज बहा रहे हैं लेकिन वे ‘जूम’ या इंटरनेट के जरिए अपनी सभाएं कैसे करें? उनके ज्यादातर अनुयायी अर्धशिक्षित, ग्रामीण, गरीब और पिछड़े लोग होते हैं। वे इन आधुनिक टोटकों से वाकिफ नहीं हैं।
ऐसे में क्या बेहतर नहीं होगा कि हमारा चुनाव आयोग इन चुनावों को थोड़ा आगे खिसका दे? भारत में यदि यह नई महामारी फैल गई तो देश की अर्थ-व्यवस्था और राजनीति, दोनों ही अस्त-व्यस्त हो जाएंगी। यह खुशी की बात है कि कुछ प्रांतीय सरकारों ने अभी से कई सख्तियां लागू कर दी हैं। यह अच्छा है लेकिन इससे भी ज्यादा जरुरी यह है कि जनता खुद अपने पर सख्ती लागू करे।
वह आयुर्वेदिक औषधियों, काढ़ों और घरेलू मसालों से अपनी स्वास्थ्य-सुरक्षा में वृद्धि करें और भीड़-भाड़ से बचती रहे। हमारे डाक्टरों और नर्सों के लिए भी परीक्षा की घड़ी फिर से आ रही है। यह सुखद है कि हमारे दवा-विशेषज्ञों ने जो नए कोरोना-टीके और गोलियां बनाई हैं, उन्हें संयुक्तराष्ट्र संघ की मान्यता भी मिल गई है। अब इन नए साधनों से करोड़ों लोगों का इलाज सस्ता, सरल और शीघ्र हो जाएगा। याने अब डरने की जरुरत नहीं है लेकिन पूरी सावधानी रखने की है।
(नया इंडिया की अनुमति से)