विचार/लेख
-अपूर्व गर्ग
साढ़े छह फीट लम्बे सत्यजीत रे चल रहे थे और कालीबाड़ी, रायपुर द्वार से लेकर मैदान तक उनके साथ रहने के लिए हमें दौड़ लगानी पड़ी।
दरअसल, तब मैं छोटा बच्चा था, शरारतें तो करता था पर शरारतों से ज़्यादा उत्सुकता को शांत करने की फिराक में रहता। मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि इन्होंने पथेर पांचाली, अपराजितों, अपुर संसार, चारुलता, तीन कन्या जैसी महान फिल्में बनाईं हैं।
मुझे नहीं पता था कि इन्हें पदमश्री, पदम् विभूषण, डी लिट्, रमन मैगसेसे पुरस्कार, दादा साहेब फाल्के पुरस्कार सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे सबसे बड़े अवार्ड मिले। हालाँकि बाद में ऑस्कर और भारत रत्न से इन्हें अलंकृत किया गया।
मुझे ये जरूर पता था कि मेरा नाम अपूर्व ‘अपुर संसार’ से ही प्रेरित होकर रखा गया है।
आज तो बहुत से नन्हे-मुन्ने अपूर्व हैं पर उस दौर में जब अजय-विजय-संजय-अनिल-सुनील-नरेश-दिनेश थे...तब क्लास ही नहीं स्कूल में मैं अकेला अपूर्व था। ये और बात है बंगाल में कई ‘ओपोरबो’
‘ओपू।’ थे ...खैर...
घर में बड़ी चर्चा थी। ‘अपुर संसार’ वाली बात मुझे बताई गई थी, इसलिए मैं ज़्यादा उत्सुक था।
सत्यजीत रे कालीबाड़ी स्कूल आने वाले थे, रविंद्र सभागृह के शिलान्यास के लिए। हम लोग कालीबाड़ी स्कूल में पढ़ते ही नहीं थे बल्कि बगल में घर भी था।
दरअसल, रायपुर में सत्यजीत रे ‘सदगति’ की शूटिंग के सिलसिले में आए हुए थे। ‘सदगति’ प्रेमचंद की कहानी पर आधारित फिल्म थी, जिसमें ओमपुरी, स्मिता पाटिल ने अभिनय किया था और इसे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला था। इस फिल्म में ‘धनिआ’ बच्ची की भूमिका हमारी माँ की स्कूल की छात्रा ऋचा मिश्रा ने निभाई थी।
सत्यजीत रे रायपुर के सर्किट हाउस में रुके थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उन्हें राजकीय अतिथि का दर्जा दिया था।
बंगाली कालीबाड़ी समाज उन्हें सर्किट हाउस से कालीबाड़ी लाया और हम शिलान्यास स्थल तक उनके साथ दौड़ लगा रहे थे।
वाकई मुझे अंदाज नहीं था मैं किन महान हस्ती के पीछे चल रहा हूँ। उस वक्त तो उनकी महानता से ज़्यादा उनके लम्बे कद को देख चकित था।
मेरे साथ मेरा प्रिय मित्र रंजन भी दौड़ लगा रहा था। रे साहब रुके, उन्होंने लोगों को ऑटोग्राफ दिए।
मेरे भाई को सत्यजीत रे के व्यक्तित्व का अंदाज था। उसके पास ऑटोग्राफ बुक थी और वो ऑटोग्राफ लेने में कामयाब भी रहा और मैं लगातार इस अपूर्व शख्सियत के ‘अपुर संसार’ से कैसे अपूर्व शब्द मेरे लिए निकला इस पर सोचता रहा और शिलान्यास करके उनके विदा होते तक उनके साथ बना रहा।
वो जितने लम्बे थे, महान थे उतने ही सरल और प्यार से सबसे मिल रहे थे। उनके साथ और पास रहते ये लग ही नहीं रहा था हम दुनिया के बड़े सेलिब्रिटी के निकट हैं।
बाद के दिनों में बॉलीवुड के बड़े-बड़े दिग्गज कलाकारों से मिलना हुआ फोटो लेना हुआ पर आज भी सत्यजीत रे को देखना, उनके तेज कदमों के साथ दौड़ लगाना, भाई को ऑटोग्राफ देना, रंजन की शरारतों को देखकर हम लोगों की तरफ देखकर मुस्कुराना जिस तरह दिल में बसा है वो जगह कोई कलाकार नहीं बना पाया।
बहुत से सेलिब्रिटी से मिलना होता रहा पर
अपूर्व का ‘अपुर संसार’ तो बस वही था...
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दक्षिण वियतनाम के विश्व प्रसिद्ध संत थिक नात हान का कल निधन हो गया। वे 95 वर्ष के थे। उन्होंने दुनिया के कई देशों के लाखों लोगों को ‘मानसिक सतर्कता’ की ध्यान-पद्धति सिखाई, जैसी कि भारत के महान गुरुवर सत्यनारायण गोयंका ने विपश्यना की शुद्ध बौद्ध ध्यान पद्धति को संसार के कई देशों में फैलाया। ये दोनों गुरुजन शतायु होने के आस-पास पहुंचते हुए भी बराबर सक्रिय रहे। आचार्य हान प्लम नामक वियतनामी गांव में और आचार्य गोयंका मुंबई में! दोनों ही आचार्य बौद्ध थे।
हान तो 16 वर्ष की आयु में बौद्ध भिक्षु बन गए लेकिन गोयंकाजी 31 वर्ष की आयु में अचानक बौद्ध बने। वे बचपन से आर्यसमाज और महर्षि दयानंद के भक्त रहे लेकिन उनके सिर में इतना भयंकर दर्द लगातार होता रहा कि वे दुनिया के कई अस्पतालों में इलाज के लिए मारे-मारे फिरते रहे। उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ। वे बर्मा के धनाढ्य व्यापारी परिवार के सदस्य थे। एक दिन वे अचानक रंगून के यू बा खिन नामक बौद्ध भिक्षु के शिविर में चले गए।
पहले दिन ही विपासना (विपश्यना) करने से उनका सिरदर्द गायब होने लगा। वे अपने व्यापार आदि छोडक़र भारत आ गए और उन्होंने विपासना-साधना सारे भारत और विदेशों में फैला दी। इसी प्रकार भिक्षु हान को महायान झेन पद्धति का संत माना जाता है, वे अमेरिका में पढ़े और उन्होंने वहीं कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया भी। वे कई भाषाओं के जानकर थे और उन्होंने वियतनाम में रहते हुए कई जन-आंदोलन भी चलाए। वियतनाम में अमेरिकी वर्चस्व और ईसाइयत के प्रचार का विरोध करने के कारण 1966 में उन्हें देश निकाला दे दिया गया। 39 साल के बाद स्वदेश लौटने पर अपनी मानसिक सतर्कता की ध्यान पद्धति और अहिंसा के प्रचार के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया।
आचार्य हान से भेंट करने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला लेकिन गोयंकाजी के बड़े भाई बालकिशनजी मेरे घर आए और उन्होंने कहा कि ‘सतनारायण गुरुजी’ आपसे मिलना चाहते हैं। सत्यनारायणजी अपने साथ मुझे काठमांडो ले गए और दस दिन तक उन्होंने वहां विपासना-साधना करवाई। वह अनुभव अनुपम रहा। मैं ध्यान की दर्जनों अन्य विधियों से पहले से परिचित था लेकिन विपासना ने मेरे स्वभाव में ही जमीन-आसमान का अंतर कर दिया। योग दर्शन में चित्तवृत्ति निरोध को ही योग कहा गया है लेकिन विपासना ऐसी सरल ध्यान पद्धति है, जो चित्त को निर्मल और विकारशून्य बना देती है।
इसमें सिर्फ आपको इतना ही करना होता है कि अपनी नाक से आने और जानेवाली सांस को आप देखने भर का अभ्यास करें। इस ध्यान पद्धति के आड़े न कोई मजहब, न जात, न राष्ट्र, न भाषा, न वर्ण— कुछ नहीं आता। आजकल यूरोप, अमेरिका और आग्नेय एशिया के देशों में इसकी लोकप्रियता बढ़ती चली जा रही है। यह जीते जी याने सदेह मोक्ष की अनुभूति का सबसे सरल तरीका है। मानव मन की शांति में वियतनामी भिक्षु हान और भारतीय आचार्य गोयंका की इन पद्धतियों का योगदान दुनिया के किसी बादशाह, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से कहीं ज्यादा है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सभी देशवासियों के लिए यह खुशखबर है कि अब इंडिया गेट पर सुभाषचंद्र बोस की भव्य प्रतिमा सुसज्जित की जाएगी। इसे मैं हमारे नेताओं की भूल-सुधार कहूंगा, क्योंकि उस स्थान से जार्ज पंचम की प्रतिमा को हटे 52 साल हो गए लेकिन किसी सरकार के दिमाग में यह बात नहीं आई कि वहां चंद्रशेखर आजाद या भगतसिंह या सुभाष बाबू की प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया जाए। अब सुभाष बाबू की प्रतिमा तो वहां लगेगी ही, अब सरकार ने एक काम और कर दिया है, जिसकी फिजूल ही आलोचना हो रही है। वह है, अमर जवान ज्योति और राष्ट्रीय युद्ध स्मारक को मिलाकर एक कर दिया गया है।
यह ज्योति बांग्लादेश में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की याद में 1972 में स्थापित हुई थी और उसके पहले और बाद के युद्धों में शहीद हुए जवानों के लिए पास में ही 2019 में एक स्मारक बना दिया गया था। अब सरकार ने इन दोनों को मिलाकर जो एक पूर्ण स्मारक बनाया है तो उसकी आलोचना यह कहकर हो रही है कि इंदिरा गांधी के बनाए हुए स्मारक को नष्ट करके मोदी अपना नाम चमकवाना चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने अपने बनवाए हुए स्मारक में उसे विलीन करवा दिया है।
कल भारतीय टेलिविजन चैनलों पर इसी मुद्दे को लेकर दिन भर उठापटक चलती रही। जो आरोप लगाया जा रहा है, वह तभी सही होता जबकि अमर जवान ज्योति को जार्ज पंचम की मूर्ति की तरह हटा या बुझा दिया जाता। अब ज्योति और स्मारक को मिला देने से संयुक्त ज्योति और भी तेजस्वी हो जाएगी। इस महाज्योति में अब उन 3843 जवानों के नाम भी शिलालेख पर लिखे जाएंगे, जिनका बांग्लादेश में बलिदान हुआ था। पहले ये नाम नहीं लिखे गए थे। अब संयुक्त स्मारक में कुल 24,466 जवानों के नाम अंकित होंगे, जो 1947 से अब तक के सभी युद्धों या मुठभेड़ों या आतंकी मुकाबलों में शहीद हुए हैं। ये नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होंगे।
इंडिया गेट का निर्माण अंग्रेज शासकों ने 1931 में करवाया था ताकि प्रथम महायुद्ध और अफगान-ब्रिटिश युद्धों में शहीद हुए भारतीय नौजवानों को याद रखा जा सके। उनकी संख्या 84,000 मानी जाती है। अब यदि अपने सभी भारतीय जवानों का स्मारक एक ही जगह हो तो यह ज्यादा अच्छा है। सभी के लिए एक ही भव्य श्रद्धांजलि समारोह होगा।
भारत में किसी भी पार्टी का प्रधानमंत्री हो, सभी शहीद उसके लिए तो एक समान ही होने चाहिए। कांग्रेसी-काल और भाजपा-काल के शहीदों में फर्क करना और उनके लिए अलग-अलग स्मारक खड़े करना कहाँ तक ठीक है? नरेंद्र मोदी यदि अमर जवान ज्योति के लिए यह नहीं कहते कि किसी खास परिवार के नाम पर ही स्मारक खड़े किए जाते हैं तो शायद यह फिजूल का वितंडावाद खड़ा नहीं होता। कांग्रेसियों की हालत पहले ही खस्ता है। यदि आप जले पर नमक छिडक़ेंगे तो मरीज शोर तो मचाएगा ही।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
पिछला पखवाड़ा सोशल मीडिया और टेक्नोलॉजी से जुड़ी डरावनी खबरों को सामने लेकर आया। भारत का संवेदनशील नागरिक समाज सुल्ली डील्स, क्लब हाउस और बुल्ली बाई एप की विक्षिप्त मानसिकता और ठंडी नृशंसता के सदमे से अभी बाहर भी नहीं आ पाया था कि स्वयं को ट्रैड्स (ट्रेडिशनलिस्टस) कहने वाले हजारों युवक-युवतियों की मानसिक विकृतियों का खुलासा हुआ जो एक विशाल और लगभग अदृश्य ऑनलाइन हिंसक समुदाय का निर्माण करते हैं।
आलीशान जाफरी, नाओमी बर्टन, मोहम्मद जुबैर, नील माधव, प्रतीक गोयल तथा ज़फ़र आफ़ाक जैसे पत्रकार लंबे समय से ट्रैड्स की गतिविधियों पर नजर रख रहे हैं और उनके आलेखों एवं साक्षात्कारों के आधार पर इनकी कुछ लाक्षणिक विशेषताओं को रेखांकित किया जा सकता है।
२०१० के दशक के प्रारंभिक वर्षों में अमेरिका में अल्टरनेटिव राइट मूवमेंट चर्चा में आया था। यह उदार प्रजातांत्रिक मूल्यों को नकारता था। अमेरिका की प्रजातांत्रिक प्रणाली और इस पर विश्वास करने वाले राजनीतिक दलों की यह आंदोलन कटु आलोचना करता था। यह आंदोलन ऑन लाइन प्लेटफार्म का उपयोग करता था। इसके सदस्य नस्ली सर्वोच्चता, नफरत और मारकाट की खुली वकालत करते थे। श्वेतों की सर्वोच्चता पर विश्वास करने वाला यह आंदोलन नव नाज़ीवाद से निकटता रखता था। भारत के ट्रेडिशनलिस्ट्स इससे प्रेरणा लेते हैं।
ट्रैड्स सवर्ण हिंदुओं के वर्चस्व की हिमायत करते हैं। इनके अनुसार सवर्ण हिन्दू शुद्ध रक्त वाली श्रेष्ठतम नस्ल हैं। यह अल्पसंख्यकों एवं दलितों को गंदे कॉकरोच एवं दीमक के रूप में कार्टूनों के माध्यम से चित्रित करते हैं।
सवर्ण वर्चस्व को त्यागकर जाति भेद मिटाते हुए हिन्दू धर्मावलंबियों की एकता का विचार इन्हें पूर्णतः अस्वीकार्य है। यह आरक्षण के घोर विरोधी हैं और स्वयं को ब्राह्मणवादी कहलाने में इन्हें गर्व होता है।
ट्रैड्स अपनी प्रोफाइल पिक्चर के लिए कुछ खास छवियों का उपयोग करते हैं। भगवान राम की भयोत्पादक भाव भंगिमाओं वाले चित्र अथवा हनुमान की क्रुद्ध छवियां प्रोफ़ाइल पिक्चर के रूप में इनकी पसंदीदा हैं। यह प्रायः चड गाय मीम का उपयोग भी प्रोफाइल पिक्चर के रूप में करते हैं इंटरनेट में उपयोग होने वाली बोलचाल की अपरिष्कृत भाषा में चड गाय जेनेटिक रूप से सर्वश्रेष्ठ अल्फा मेल के लिए प्रयुक्त होता है। यह बहुत सशक्त गठीली शारीरिक रचना और विशाल यौनांग के साथ दर्शाया जाता है।
ट्रैड विंग आंदोलन एक दृश्य भाषा का अविष्कार करता है जिसमें घृणा की अकल्पनीय और भयोत्पादक अभिव्यक्तियों को मीम अथवा कार्टून चरित्रों के माध्यम से दर्शाया जाता है। ट्रैड विंग के सदस्य मुसलमानों और दलितों के लिए अपनी नफरत को हास्य के रूप में व्यक्त करते हैं। जो लोग इन समुदायों के साथ हिंसा, बलात्कार और अपमानजनक विकृत हरकतों में हास्य नहीं तलाश कर पाते हैं ट्रैड्स उन्हें असंतुलित एवं कमजोर मानते हैं। ट्रैड्स का हास्य विकृत और डरावना तो है ही इसका लक्ष्य अल्पसंख्यकों एवं दलितों को भयभीत करना अथवा उत्तेजित कर हिंसा के लिए प्रेरित करना भी है।
विशुद्ध मनोरंजन और आनंद के लिए गढ़े गए कार्टून चरित्रों को हिंसा के रंग में रंगे जाते देखना एक सिहरा देने वाला अनुभव है। ऐसा हमने अमेरिकी ऑल्ट राइट मूवमेंट के दौरान भी देखा था जब २००५ में मैट फ्यूरी द्वारा गढ़े गए मासूम और निर्दोष कार्टून चरित्र "पेपे द फ्रॉग" को कॉमिक्स की दुनिया से बाहर निकालकर श्वेत वर्चस्व और नस्ली सर्वोच्चता की भावना से उपजी घृणा की अभिव्यक्ति का जरिया बना दिया गया था। भारत के ट्रैड्स ने अमेरिका के घृणा प्रतीकों का भारतीयकरण किया है। पेपे द फ्रॉग को हरे रंग की स्कल कैप पहनाकर मुसलमानों का मजाक बनाया जाता है जबकि इसे नीला रंग देकर दलितों का उपहास उड़ाया जाता है। इसके अतिरिक्त डोज(कुत्ता) इंटरनेट मीम और वोजक फेस इंटरनेट मीम भारतीय ट्रैड्स द्वारा प्रयुक्त किए जाते हैं।
नाजीवाद का इन ट्रैड्स पर गहरा प्रभाव है। बुल्ली बाई मामले में आरोपी बनाई गई युवती श्वेता सिंह को हम अधिक बच्चे पैदा कर हिंदुत्व की रक्षा करने संबंधी एक ऐसा पोस्टर पोस्ट करते देखते हैं जो कि नाज़ियों द्वारा आर्यन्स को ज्यादा संतानें उत्पन्न करने का आह्वान करने वाले एक पुराने पोस्टर की हूबहू नकल है।
अमेरिकी ऑल्ट राइट मूवमेंट की भांति भारतीय ट्रेडिशनलिस्ट्स भी खुली हिंसा की वकालत करते हैं और हथियारों की खरीदी के लिए व्हाट्सएप और टेलीग्राम समूहों का निर्माण करते हैं।
यदि ट्रैड्स की शाब्दिक अभिव्यक्तियों पर एक नजर डालें तो यह पता चलता है कि घृणा के अतिरेक को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा का किस सीमा तक अवमूल्यन किया जा सकता है और उसे कितना सस्ता, ओछा और बाजारू बनाया जा सकता है। एक अल्पसंख्यक समुदाय विशेष के लिए पोटैशियम ऑक्साइड नामक एक रासायनिक यौगिक को लिखने के लिए प्रयुक्त संकेत केटू ओ (्य२ह्र) का प्रयोग होता है जबकि इसी समुदाय के एक धार्मिक स्लोगन हेतु ओला उबर जैसी अभिव्यक्ति प्रयुक्त होती है। मुसलमानों को म्लेच्छ कहा जाता है और इनके सामूहिक नरसंहार हेतु गोभी उपजाने वाले किसान का कोड के रूप में उपयोग किया जाता है। ट्रेडिशनलिस्ट्स के शब्द भंडार में यह कोड १९८९ के भागलपुर दंगों के दौरान हुए मुसलमानों के जघन्य नरसंहार से आया है जहाँ नरसंहार के शिकार लोगों के शवों को छिपाने के लिए उस स्थान पर गोभी की खेती की गई थी जहां पर इन्हें दफनाया गया था। भीमटी अथवा भीमता बाबा साहेब अंबेडकर के समर्थकों के लिए प्रयुक्त होने वाला अपमानजनक शब्द है। ट्रैड्स इसका प्रायः उपयोग करते हैं। यह शब्द हिंसक हिंदुत्व का समर्थन करने वाली रागिनी तिवारी उर्फ जानकी बहन के एक वायरल वीडियो में भी सुनने में आया था और दिल्ली दंगों के दौरान चर्चा में रहा था। ट्रैड्स की नफ़रत को अभिव्यक्त करने में पारंपरिक भाषा नाकाम रही है इसलिए उन्हें एक नई भाषा गढ़नी पड़ी है। यह भाषा संकेतात्मक इसलिए भी है कि कानूनी अड़चनों से बचा जा सके और हिंसक गिरोह के सदस्य इस कूट भाषा में अपने हिंसक इरादों और घृणा को खुलकर अभिव्यक्त कर सकें।
अल्पसंख्यकों एवं दलितों के विरुद्ध जघन्यतम अपराध और बर्बरता करने वाले खलपुरुष तथा इनके विरुद्ध खुली हिंसा की वकालत करने वाले धर्मोन्मादी ट्रैड्स के आदर्श हैं जिनसे वे प्रेरणा प्राप्त करते हैं। ट्रैड्स के नायकों की सूची बहुत लंबी है और इसमें नाथूराम गोडसे, शंभू लाल रैगर, बाबू बजरंगी, दारा सिंह, जामिया में गोलीबारी करने वाले अवयस्क अपराधी तथा यति नरसिंहानन्द जैसे नाम शामिल हैं। ट्रैड्स भाजपा की इस बात के लिए आलोचना भी करते हैं कि उसने इन "नायकों" से दूरी बनाई हुई है और इस कायरता के लिए भाजपा की आलोचना करते हैं।
ट्रैड्स के विषय में अनुसंधान करने वाले पत्रकार इस बात को रेखांकित करते हैं कि मुख्यधारा के दक्षिणपंथियों को ट्रैड्स नापसंद करते हैं और इन्हें नरम, अवसरवादी तथा समझौतापरस्त मानते हैं और इन्हें "रायता" का संबोधन देते हैं। ट्रैड्स सती प्रथा के समर्थक हैं एवं खुले में मल त्याग को पर्यावरण हितकारी समझते हैं। जाति भेद को दास प्रथा के रूप में विकसित करना इनका सपना है। दलितों को लेकर मुख्यधारा के दक्षिणपंथी और ट्रैड्स अलग अलग राय रखते हैं। ट्रैड्स का कहना है कि दलितों के प्रति उनकी घृणा दरअसल सवर्णों के प्रति दलितों की नफरत और अत्याचारों का प्रतिकार है। जबकि मुख्यधारा के दक्षिणपंथियों का शीर्ष नेतृत्व जो कि सामान्यतया ट्रैड्स के संबंध में कुछ भी कहने से परहेज करता है यदा कदा शायद दुर्घटनावश ही यह कहता पाया गया है कि ट्रैड्स जातिवाद को बढ़ावा देते हैं और विरोधियों के उस षड्यंत्र का हिस्सा हैं जो हिन्दू एकता में बाधा डालने के लिए रचा गया है। हां इतना अवश्य है कि सोशल मीडिया पर ट्रैड्स और मुख्यधारा के दक्षिणपंथियों के बीच मुठभेड़ चलती रहती है किंतु इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर यह प्यादों की लड़ाई ही रहती है और दोनों पक्षों के बड़े नाम इसमें शामिल नहीं होते।
लेकिन कई बार दोनों में आपसी संवाद और तालमेल देखने में आता है जब ऑपइंडिया के पूर्व संपादक अजीत भारती सुल्ली डील्स की जमकर तारीफ करते हैं और कहते हैं कि उनका उद्देश्य मुसलमानों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करना है तब लिबरल डोज उत्तर देता है कि हम आपके साथ हैं।
ट्रैड्स और मुख्यधारा के दक्षिणपंथियों के एजेंडे में समानताएं भी हैं- दोनों संविधान को मनुस्मृति द्वारा प्रतिस्थापित करना चाहते हैं, अंतर केवल क्रियान्वयन की पद्धति में है। "रायता" संविधान की हत्या चरणबद्ध रूप से एक सुनियोजित एवं धीमी प्रक्रिया के माध्यम से करना चाहते हैं जबकि ट्रैड्स के पास इतना धैर्य नहीं है।
ट्रैड्स पर शोध करने वाले पत्रकारों का मानना है कि यह नफरत और हिंसा फैलाने के लिए सुनियोजित रूप से कार्य करने वाली आई टी सेल अथवा ट्रोल समूहों से संबद्ध नहीं हैं। यह किसी संगठन का हिस्सा नहीं हैं किंतु ऐसा नहीं है कि ये असंगठित हैं- अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति घृणा एवं हिंसा इन्हें आपस में एक मजबूत बंधन में बांधती है। स्पष्ट राजनीतिक प्रतिबद्धता के अभाव और किसी दल या संगठन से संबद्ध न होने के कारण इन्हें पहचानना कठिन है और इसी कारण यह अधिक खतरनाक हैं। इनकी तुलना हम सभ्य समाज में आम नागरिक की तरह विचरण कर रहे मानव बमों से कर सकते हैं। संभव है कि हमारे आसपास का कोई सामान्य सा लगने वाला व्यक्ति सोशल मीडिया का नफरती ट्रेडिशनलिस्ट हो और वह अचानक फेसबुक लाइव करते हुए किसी हिंसात्मक कार्रवाई को अंजाम दे बैठे। हमने देखा है कि अमेरिका की कैपिटल बिल्डिंग पर हमले में ऑल्ट राइट मूवमेंट से जुड़े लोगों का हाथ था। १५ मार्च २०२१ को क्राइस्टचर्च में दो मस्जिदों में नरसंहार करने वाले अपराधी ने स्वयं को फेसबुक लाइव किया था। इससे पहले उसने ट्विटर पर द ग्रेट रिप्लेसमेंट नामक एक मैनिफेस्टो भी पोस्ट किया था जिसमें नफरत, हिंसा और श्वेत वर्चस्व का जहर कूट कूट कर भरा था। एलपासो, टेक्सास में ३ अगस्त २०१९ को हुए हत्याकांड के बाद भी ऐसा ही नस्ली घृणा से लबरेज मैनिफेस्टो ८चान मैसेजिंग फोरम में देखा गया था। दिल्ली दंगों के दौरान चर्चा में आए अंकित तिवारी की फेसबुक प्रोफाइल भी अल्पसंख्यकों के साथ हिंसा का बड़े गौरव से जिक्र करने वाली पोस्टों से भरपूर थी। जनवरी २०२० में जामिया मिल्लिया के सम्मुख प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलीबारी करने वाले अवयस्क अपराधी के लाइव वीडियो भी एक फेसबुक एकाउंट में देखे गए थे।
हाल ही में टेकफॉग के विषय में जो खुलासे हो रहे हैं उनका सार संक्षेप यह है कि लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स में आपराधिक ढंग से सेंध लगाई जा सकती है और इनका उपयोग लोगों की सोच को हिंसा और घृणा फैलाने वाले मुद्दों पर केंद्रित रखने के लिए किया जा सकता है। इस तरह की आपराधिक गतिविधियों के सबूत मिटाए जा सकते हैं और अपराधी कम से कम साइबर क्राइम के किसी सामान्य अन्वेषणकर्ता से अपनी पहचान छिपा सकते हैं।
घृणा, हिंसा और अविवेक को जब आपराधिक तकनीकी कुशलता और शासकीय संरक्षण मिल जाता है तब इनका प्रसार अकल्पनीय गति से होने लगता है। सोशल मीडिया हमारे अवचेतन पर निरंतर प्रहार कर हमें हिंसा और घृणा का अभ्यस्त बना रहा है। हिंसा के विचार को आचरण में लाने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
चाहे वह सुल्ली डील्स या बुल्ली बाई और क्लब हाउस जैसे एप हों अथवा टेकफॉग के आपराधिक षड्यंत्र हों या ट्रैड्स की गतिविधियां हों- सरकारी एजेंसियां इनकी पहचान करने एवं इनके विरुद्ध कार्रवाई करने में अपेक्षित तत्परता दिखाने में नाकाम रही हैं। भाजपा हिंसक हिंदुत्व की डरावनी दुनिया का आकर्षक प्रवेश द्वार है जहाँ आगंतुकों को भ्रम में डालने वाले नारे लिखे हुए हैं- सबका साथ,सबका विकास,सबका विश्वास आदि आदि। किंतु इस प्रवेश द्वार के अंदर के जगत का सच एकदम उल्टा है। पता नहीं यह सामान्य सा सच किसी की समझ में क्यों नहीं आ रहा कि हिंसा और नफरत की आग सब कुछ जला डालेगी, वह आग लगाने और भड़काने वालों के साथ कोई रियायत नहीं करेगी।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-रमेश अनुपम
27 मार्च 1966 संडे के अंग्रेजी दंडकारण्य समाचार पत्र का बैनर न्यूज है..
Pravir Killed
पूरा न्यूज इस तरह है :
The Maharaja of Bastar Shri Pravir Chandra Bhanjdeo is dead. He dead Police bullets at the palace last night. News of his death was known officially only this noon . His body was found in his drawing room amongst some adivasis who also were lying dead. The commissioner who is here, with D. I.G The Collecter and other officers entered the palace when the fact that Pravir was dead was confirmed Post mortem over his dead body was done in the afternoon today in the Palace.
उसी दिन अंग्रेजी दंडकारण्य समाचार पत्र में एक और समाचार भी प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया गया। वह समाचार था कमिश्नर वीरभद्र सिंह का इस गोलीकांड के संबंध में दिया गया आधिकारिक बयान।
इसे भी मैं यहां दे रहा हूं ताकि सनद रहे और महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की हत्या को बेहद बारीकी के साथ समझा जा सके।
कमिश्नर के इस बयान के साथ ही एक छोटा सा समाचार और भी प्रकाशित है, जिसका शीर्षक तथा समाचार दिलचस्प और थोड़ा चौंकाने वाला है :
'दंडकारण्य समाचार' बस्तर से प्रकाशित एकमात्र समाचार पत्र था जो अंग्रेजी और हिंदी में एक साथ प्रकाशित हो रहा था। च्दंडकारण्य समाचार’ एक निष्पक्ष समाचार पत्र माना जाता था।
'दंडकारण्य समाचार’ पत्र में प्रकाशित इन समाचारों के अध्ययन से बहुत सारे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
राजमहल में हुए 25 मार्च के गोलीकांड के विषय में भी इससे बहुत सारी सच्चाई निकल कर सामने आती है। तत्कालीन सरकार और पुलिस, प्रशासन की हकीकत भी इससे बयां हो जाती है।
राजमहल में हुए गोलीकांड और महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की नृशंस हत्या के बारे में भी कुछ गोपन-अगोपन तथ्यों का भी खुलासा होता है।
अंग्रेजी में प्रकाशित समाचार से यह अवगत होता है कि राजमहल में हुए गोलीकांड में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव मारे गए थे।
अखबार का शीर्षक ही है..
Pravir Killed
उपर्युक्त समाचार के अनुसार उनकी डेड बॉडी ड्राइंग रूम में पाई गई थी।
साधारण बुद्धि से भी यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि गोलीकांड के समय महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव अपने ड्रॉइंग रूम में बैठे रहे होंगे।
बाहर आदिवासियों के लावा लश्कर के साथ तीर धनुष या बंदूक लेकर वे नहीं खड़े हुए थे। तब क्या पुलिसवालों ने उनके ड्रॉइंग रूम के भीतर घुसकर उन्हें गोली मारी थी ?
एक निहत्थे महाराजा को जिनके पास उस समय कोई हथियार भी नहीं रहा होगा पुलिस चाहती तो गिरफ्तार भी कर सकती थी।
कहां तीर धनुष और कहां बंदूक ?
तो मामला कुछ और था।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव जो शासन-प्रशासन की आंख की किरकिरी बन चुके थे। बस्तर के आदिवासियों के मसीहा बन चुके थे।
उन्हें सदा-सदा के लिए शांत करा दिया जाना ही इस वीभत्स गोलीकांड का एकमात्र प्रयोजन था ?
शेष अगले सप्ताह..
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस समय यूक्रेन पर सारी दुनिया की नजर लगी हुई हैं, क्योंकि अमेरिका और रूस एक-दूसरे को युद्ध के धमकी दे रहे हैं। जैसे किसी जमाने में बर्लिन को लेकर शीतयुद्ध के उष्णयुद्ध में बदलने की आशंका पैदा होती रहती थी, वैसा ही आजकल यूक्रेन को लेकर हो रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और विदेश मंत्री खुले-आम रूस को धमकी दे रहे हैं कि यदि रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो उसके नतीजे बहुत बुरे होंगे।
सचमुच यदि यूरोप में युद्ध छिड़ गया तो इस बार वहां प्रथम और द्वितीय महायुद्ध से भी ज्यादा लोग मारे जा सकते हैं, क्योंकि इन युद्धरत राष्ट्रों के पास अब परमाणु शस्त्रास्त्रों और प्रक्षेपास्त्रों का अंबार लगा हुआ है। रूस ने यूक्रेन की सीमा पर लगभग एक लाख फौजियों को अड़ा रखा है। यूक्रेन के दोनबास क्षेत्र पर पहले से रुस-समर्थक बागियों का कब्जा है। यूक्रेन पर लंबे समय तक रूस का राज रहा है। वह अभी लगभग दो-दशक पहले तक रुस का ही एक प्रांत भर था।
सोवियत रुस के विश्व-प्रसिद्ध नेता निकिता ख्रुश्चौफ यूक्रेन में ही पैदा हुए थे। इस समय यूरोप में यूक्रेन ही रूस के बाद सबसे बड़ा देश है। लगभग सवा चार करोड़ की आबादीवाला यह पूर्वी यूरोपीय देश पश्चिमी यूरोप के अमेरिका-समर्थक देशों के साथ घनिष्ट संबंध बनाने की कोशिश करता रहा है। वह रूस के शिकंजे से उसी तरह बाहर निकलना चाहता है, जिस तरह से सोवियत खेमे के अन्य 10 देश निकल चुके हैं। उसने यूरोपीय संघ के कई संगठनों के साथ सहयोग के कई समझौते भी कर लिये हैं।
रूस के नेता व्लादिमीर पुतिन को डर है कि कहीं यूक्रेन भी अमेरिका के सैन्य संगठन ‘नाटो’ का सदस्य न बन जाए। यदि ऐसा हो गया तो नाटो रूस की सीमाओं के बहुत नजदीक पहुंच जाएगा। यों भी एस्तोनिया, लेटविया और लिथुवानिया नाटो के सदस्य बन चुके हैं, जो रूस के सीमांत पर स्थित हैं। यूक्रेन और जार्जिया जैसे देशों को रूस अपने प्रभाव-क्षेत्र से बाहर नहीं खिसकने देना चाहता है। लेनिन के बाद सबसे अधिक विख्यात नेता जोजफ़ स्तालिन का जन्म जार्जिया में ही हुआ था।
इन दोनों देशों के साथ-साथ अभी भी मध्य एशिया के पूर्व-सोवियत देशों में रूस का वर्चस्व बना हुआ है। अफगानिस्तान से अमेरिकी पलायन के कारण रूस की हिम्मत बढ़ी है। यों भी यूक्रेन पर बाइडन और पुतिन के बीच सीधा संवाद भी हो चुका है और दोनों देशों के विदेश मंत्री भी आपस में बातचीत कर रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि यूक्रेन को लेकर दोनों महाशक्तियों के बीच युद्ध छिड़ेगा, क्योंकि वैसा होगा तो यूरोप के नाटो देशों को मिलनेवाली रूसी गैस बंद हो जाएगी।
उनका सारा कारोबार ठप्प हो जाएगा और उधर रूस की लडख़ड़ाती हुई अर्थ-व्यवस्था पैंदे में बैठ जाएगी। खुद यूक्रेन भी युद्ध नहीं चाहेगा, क्योंकि लगभग एक करोड़ रूसी लोग वहां रहते हैं। इस संकट में भारत की दुविधा बढ़ गई है। इस समय भारत तो अमेरिका के चीन-विरोधी मोर्चे का सदस्य है और वह रूस का भी पुराना मित्र है। उसे बहुत फूंक-फूंककर कदम रखना होगा। यदि भारत में आज कोई बड़ा नेता होता तो वह दोनों महाशक्तियों के बीच मध्यस्थता कर सकता था।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-संजय श्रमण
कोलकाता के एक मित्र ने भयानक किस्सा सुनाया।
उन्होंने बताया कि वे अक्सर सब्जियां खरीदने जाते हैं अपने छोटे बच्चों को भी साथ लिए जाते हैं, सैर भी हो जाती है और बच्चों को दीन दुनिया की कुछ समझ भी मिल जाती है।
सब्जी बाजार में रोजाना एक ही आदमी से सब्जी खरीदने के कारण उससे मित्रता हो गई थी। एक दिन चटख हरी भिन्डी खरीदते हुए उन्हें सब्जीवाले ने सलाह दी कि बाबूजी आज ये भिन्डी मत खरीदो आपके छोटे-छोटे बच्चे हैं। मित्र ने कारण पूछा तो सब्जीवाले भाई ने कहा कि आज इसमें जहरीला हरा रंग कुछ ज्यादा ही मिलाया गया है जो बच्चों को बीमार कर सकता है, आप आज न खरीदो ये भिन्डियाँ।
तब मित्र ने पूछा कि तुम लोग मिलाते ही क्यों हो ये जहर इन सब्जियों में?
इसपर उत्तर मिला कि बाबूजी हम जिन मंडियों से ये सब खरीदकर लाते हैं वहां हरी दिखने वाली सब्जियों के अच्छे दाम मिलते हैं, खरीददार भी ये ही सब खरीदते हैं। अब हम गरीब अनपढ़ किसानों को क्या पता ये रंग पेट में पहुंचकर क्या करेंगे? इसलिए सभी गरीब अनपढ़ किसान ज्यादा फायदे के लिए तरह तरह के रंग, जहरीली दवाइयां और न जाने क्या क्या मिलाते रहते हैं।
मित्र ने उस सब्जीवाले भाई को कहा कि मुझसे दस पचास रुपये ज्यादा ले लिया करो लेकिन मेरे बच्चों को इस जहर से बचा लो, मुझे सिर्फ अच्छी और बिना जहर वाली सब्जियां ही दिया करो।
इसके बाद मित्र ने बताया कि अक्सर मेरा सब्जीवाला कहता है कि बाबूजी आज पूरे बाजार में आपके लिए कोई सब्जी-तरकारी नहीं है आज कुछ मत खरीदो, दाल चावल ही खा लो।
ये हकीकत है इस समाज की। अब इसका मतलब ध्यान से समझिये।
अगर आपका समाज एक बड़े श्रमशील वर्ग को अछूत और नीच बनाकर उसे तिरस्कार देगा तो वो वर्ग एक दुसरे ढंग से आपसे बदला लेगा। ये श्रमजीवी जातियां जो कि अपमानित हैं, जिन्हें शिक्षा से और ज्ञान से वंचित रखा गया है इन्हें जब कीटनाशकों का उपयोग करना नहीं आयेगा, इन्हें जब फसलों का सही दाम नहीं मिलेगा तब ये मिलावट करेंगे, तब ये जाने अनजाने आपकी थालियों में जहर घोलेंगे।
इस सब की जिम्मेदारी किसकी है?
निश्चित ही वे गरीब और अनपढ़ शूद्र या दलित खुद इसके लिए कम जिम्मेदार हैं। उन्हें शिक्षा से किसने वंचित किया? उनके कामों को अपमानित किसने किया? जिस धर्म और संस्कृति ने श्रम को अपमानित करके श्रमशील जातियों को शूद्र और दलित बनाया और उन्हें विपन्न और अनपढ़ बनाये रखा उसी धर्म पर इस प्रदुषण की जिम्मेदारी है।
इस देश के धर्म ने और संस्कृति ने कभी भी यह नहीं समझा कि ये जीवन एक परस्पर निर्भरता है। यहाँ किसी एक समुदाय के लिए आप कोई जहर बोयेंगे तो वो जहर छिपे हुए रास्तों से आपके किचन में आपकी थालियों तक आ ही पहुंचेगा। आप गरीब और फटेहाल किसानों की समस्या के लिए आवाज नहीं उठाएंगे, उन्हें सब्जियों फसलों का सही दाम नहीं देंगे तो वे ऐसे शॉर्टकट अपनाकर आपके बच्चों से बदला लेंगे।
आपको उनके बच्चों की फिक्र नहीं तो वे भी आपके बच्चों की फिक्र क्यों करेंगे भला? वे गरीब और अशिक्षित लोग अक्सर यह जानते भी नहीं कि वे जो कर रहे हैं उसका असर क्या होने वाला है।
प्रदूषण और मिलावट असल में धर्म, संस्कृति और नैतिकता का मुद्दा है, अगर आपका धर्म और संस्कृति असभ्य और अनैतिक हैं तो ये मिलावट और प्रदूषण जारी रहेगा।
भारत को एक सभ्य और नैतिक धर्म की जरूरत है।
-दिनेश श्रीनेत
‘पुष्पा’ फिल्म की काफी तारीफ हो रही है। कुछ वेबसाइट्स पर और जगह-जगह फेसबुक पर भी। किंचित जागरूक और बौद्धिक माने जाने वाले लोगों की पोस्ट भी पढ़ी। तारीफ की कोई वजह स्पष्ट नहीं है। फिल्म मनोरंजक है, यह बात बार-बार अलग-अलग तरीके से कही गई है। मगर मनोरंजन कैसा? मेरी पुष्पा फिल्म से कई तरह की असमहतियां हैं।
पहली असहमति, यह फिल्म लाल चंदन की तस्करी को ग्लोरीफाई करती है। मैंने यह फिल्म ओटीटी पर देखी मगर नि:संदेह 300 करोड़ कमाने वाली इस फिल्म में जब पुष्पा पुलिस की आँख में धूल झोंककर लकडिय़ों के ल_े नदी में बहाता है तो जरूर सिनेमाहाल में तालियां बजी होंगी। इस वक्त, जब पर्यावरण की चिंताएँ किताबों से निकलकर हमारी आती-जाती सांस पर टिक गई हैं, जब पारिस्थितिकी एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है, ऐसी फिल्म को, ऐसी अवधारणा को कैसे माफ किया जा सकता है?
दूसरी समस्या है कि फिल्म लोकप्रिय सिनेमा की धारा में स्त्री विमर्श के एक बेहतरीन उभार को अवरुद्ध करती है। ‘पुष्पा’ पितृसत्तात्मकता को पुनसर््थापित करने वाली फिल्म है। पुष्पा का सारा कांप्लेक्स इस बात का है कि उसकी पहचान उसके पिता के नाम से नहीं हैं। फिल्म उसकी परवरिश के लिए संघर्ष करती उसकी मां को कहीं भी रेखांकित नहीं करती। पुष्पा इस बात से कुंठित है कि पिता के खानदान में उसकी स्वीकृति नहीं है।
फिल्म बार-बार इस बात को रेखांकित करती है कि पुष्पा के पास कोई फैमिली नेम नहीं है। इससे अच्छी तो सलीम-जावेद की वो पुरानी फिल्में थीं, जिसमें मां के संघर्ष दिखाया जाता था। सत्तर के दशक के अमिताभ का पूरा किरदार पिता से विद्रोह पर टिका था। ‘अग्निपथ’ और ‘दीवार’ के अमिताभ का सारा आंतरिक संघर्ष इस बात पर टिका है कि वह अपनी उस मां से अपने सारे कामों की मान्यता पा जाए, जिनसे वह बड़ा आदमी बना है। वो मां उसे मान्यता दे जो उसकी आदर्श थी।
मगर इस पुष्पा का कोई आदर्श नहीं है। यह तीसरा बड़ा कारण है, जिसकी वजह से इस फिल्म की आलोचना होनी चाहिए। पुष्पा जिस समाज के बीच उठता-बैठता है, उससे उसकी कोई आत्मीयता नहीं है। वह अपने समाज का नेता नहीं है। उसके पास सिर्फ अहंकार है।
‘पुष्पा नाम सुनकर फ्लावर समझा क्या?... फॉयर है मैं।’ यह डायलॉग इन दिनों बहुत हिट हुआ है, मगर यह कौन सा नायक है? इस नायक का कोई आदर्श नहीं है। ‘पुष्पा-द राइज़’ में उसकी लड़ाई चंदन के तस्करों से इसलिए है क्योंकि वह उनकी दुनिया में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। यह न तो किसी वर्ग संघर्ष की कहानी है, न ही उसके अपने निजी संघर्ष की कहानी है।
पुष्पा सत्तर के दशक के अमिताभ की तरह अपने पिता से नफरत नहीं करता है, फिल्म के क्लाइमेक्स में वह अपने रक्त पर गर्व करता है। यह फिल्म दोबारा पितृसत्ता को मजबूती देती है। इस फिल्म की क्यों तारीफ होनी चाहिए यह मेरी समझ से परे है। (फेसबुक से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने उन प्रदेश-सरकारों को कड़ी झाड़ लगाई है, जिन्होंने कोरोना महामारी के शिकार लोगों के परिवारों को अभी तक मुआवजा नहीं दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का आदेश था कि प्रत्येक मृतक के परिवार को 50 हजार रु. का मुआवजा दिया जाए। सभी राज्यों ने कार्रवाई शुरु कर दी लेकिन उसमें दो परेशानियां दिखाई पड़ीं। एक तो यह कि मृतकों की संख्या कम थी लेकिन मुआवजों की मांग बहुत ज्यादा हो गई। दूसरी परेशानी यह कि मृतकों की जितनी संख्या सरकारों ने घोषित की थी, उनकी तुलना में मुआवजे की अर्जियां बहुत कम आईं।
जैसे हरियाणा में मृतकों का सरकारी आंकड़ा था- 10,077 लेकिन अर्जियां आईं सिर्फ 3003 और पंजाब में 16,557 के लिए अर्जियां सिर्फ 8786 अर्जियां। जबकि कुछ राज्यों में इसका उल्टा हुआ। जैसे महाराष्ट्र में मृत्यु-संख्या 1,41,737 थी लेकिन अर्जियां आ गई 2 लाख 13 हजार ! ऐसा ज्यादातर राज्यों में हुआ है। ऐसी स्थिति में कुछ राज्यों में मुआवजे का भुगतान आधे लोगों को भी अभी तक नहीं हुआ है।
इसी बात पर अदालत ने अपनी गंभीर नाराजी जताई। उसने बिहार और आंध्रप्रदेश के मुख्य सचिवों को तगड़ी फटकार लगाई और उन्हें कहा कि वे अपनी जिम्मेदारी शीघ्र नहीं पूरी करेंगे तो अदालत अगला सख्त कदम उठाने पर मजबूर हो जाएगी। जजों ने यह भी कहा कि आपकी सरकार ने महामारी के शिकार मृतकों के जो आंकड़े जारी किए हैं, उनकी प्रामाणिकता संदेहास्पद है। उन्होंने पूछा बिहार जैसे प्रांत में मृतक-संख्या सिर्फ 12 हजार कैसे हो सकती है? अदालत ने गुजरात सरकार से पूछा है कि उसने 4 हजार अर्जियों को किस आधार पर रद्द किया है।
अदालत ने कहा है कि किसी भी अर्जी को रद्द किया जाए तो उसका कारण बताया जाए और अर्जी भेजने वालों को समझाया जाए कि उस कमी को वे कैसे दूर करें? अदालत ने सबसे ज्यादा चिंता उन बच्चों की की है, जिनके माता और पिता, दोनों ही महामारी के शिकार हो गए हैं। ऐसे अनाथ बच्चों के जीवन-यापन, शिक्षा और रख-रखाव की व्यवस्था का सवाल भी अदालत ने उठाया है।
उसने सरकारों से यह भी कहा है कि वे गांव और शहरों में रहनेवाले गरीब और अशिक्षित परिवारों को मुआवजे की बात से परिचित करवाने का विशेष प्रयत्न करें। मान लें कि अदालत ने उन कुछ अर्जियों का जिक्र नहीं किया, जो फर्जी भी हो सकती हैं तो भी क्या? ऐसी गैर-कोरोना मौतों के नाम पर मुआवजा शायद ही कोई लेना चाहेगा और चाहेगा तो भी वही चाहेगा, जो बेहद गरीब होगा। ऐसे में भी राज्य उदारता दिखा दे तो कुछ अनुचित नहीं होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले नए राजनीतिक समीकरण भी सामने आ रहे हैं. एक दूसरे के समर्थन में सेंध लगाने के लिए राजनीतिक दल तमाम उपाय कर रहे हैं. आखिर जनता के फैसले का आधार क्या होगा?
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र की रिपोर्ट-
बुधवार को भारतीय जनता पार्टी ने समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव की बहू अपर्णा बिष्ट यादव को पार्टी में शामिल करके अपने चौदह विधायकों और मंत्रियों के पार्टी छोड़ने के गम को भुलाने और अखिलेश यादव के परिवार में सेंध लगाने की खुशी भले ही मनाई हो लेकिन इतनी बड़ी संख्या में विधायकों और नेताओं के जाने की अभी और कीमत चुकानी पड़ रही है.
यूपी बीजेपी में मची इस भगदड़ का फायदा बीजेपी के सहयोगी दल भी उठाने में लगे हैं. यही वजह है कि टिकट बंटवारे पर दिल्ली से लेकर लखनऊ तक लगातार चल रही बैठकों के बावजूद ना तो अभी सहयोगी दलों के साथ सीटों की साझेदारी तय हो सकी है और ना ही उम्मीदवारों के नाम.
बीजेपी बैकफुट पर
यूपी बीजेपी के एक बड़े नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि अन्य पिछड़ा वर्ग के एक दर्जन से ज्यादा विधायकों के पार्टी छोड़ने के बाद बीजेपी बैकफुट पर है और नहीं चाहती कि अब कोई और मौजूदा विधायक पार्टी छोड़े या फिर कोई सहयोगी दल उनसे अलग हो. इन नेता के मुताबिक, "पिछले सात-आठ साल में बीजेपी ने जिस तरह से अन्य पिछड़ी जातियों को पार्टी से जोड़ा है, उस अभियान को पहली बार गहरा धक्का लगा है. इन विधायकों के पार्टी छोड़कर जाने से ना सिर्फ विधानसभा चुनाव में पार्टी को नुकसान होगा बल्कि पार्टी के सामाजिक आधार को भी नुकसान पहुंचेगा जिसे बड़ी मुश्किल से तैयार किया गया था.”
यूपी में बीजेपी की मुख्य रूप से अब दो सहयोगी पार्टियां रह गई हैं- अपना दल (सोनेलाल) और निषाद पार्टी. अपना दल तो बीजेपी के साथ 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त से ही गठबंधन में है लेकिन निषाद पार्टी के साथ गठबंधन नया है. निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर संजय निषाद कहते हैं कि बीजेपी ने उन्हें 15 सीटें देने का आश्वासन दिया है लेकिन बीजेपी की ओर से इस बात की अभी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है.
बीजेपी निषाद पार्टी को अधिकतम दस सीटें देने पर विचार कर रही है लेकिन इससे पहले पार्टी पांच से ज्यादा सीटें देने को राजी नहीं थी. वहीं अपना दल भी करीब तीस सीटों की मांग कर रही लेकिन बीजेपी उसे पंद्रह से ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं है. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बीजेपी की तरह अपना दल के भी दो विधायक पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं.
टिकट बंटवारे में समस्या
बीजेपी के नेता लगातार कह रहे हैं कि पार्टी के भीतर टिकट बंटवारे और सहयोगी दलों के साथ सीट बंटवारे को लेकर किसी तरह की कोई समस्या नहीं है लेकिन समस्या साफ दिख रही है क्योंकि एक हफ्ते से ज्यादा लंबे समय तक हुए मंथन के बावजूद कोई सहमति नहीं बन पा रही है.
जहां तक अपना दल का सवाल है तो बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे 11 सीटें दी थीं जिनमें से 9 सीटों पर अपना दल के उम्मीदवार जीते थे. अपना दल के एक विधायक को योगी सरकार में राज्य मंत्री भी बनाया गया है लेकिन पार्टी की लगातार शिकायत रही है कि उसे एक सहयोगी की तरह सम्मान नहीं दिया गया और तमाम नियुक्तियों और दूसरी चीजों में नजरअंदाज किया गया. यहां तक कि पार्टी की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल को 2019 में मोदी मंत्रिमंडल में भी नहीं शामिल नहीं किया गया था. काफी दबाव बनाने के बाद कैबिनेट विस्तार में उन्हें मंत्री बनाया गया लेकिन सिर्फ राज्यमंत्री ही.
बीजेपी इस बार विधानसभा चुनाव में अपना दल को 11 से ज्यादा सीटें देने को कतई तैयार नहीं थी लेकिन राज्य की राजनीति में बदले नए समीकरणों ने उसे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया है. वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "स्वामी प्रसाद मौर्य और उनके साथियों के समाजवादी पार्टी में शामिल होने के बाद जिस तरह से नब्बे के दशक वाली मंडल-कमंडल की राजनीति एक बार फिर चर्चा में है, उसे देखते हुए दोनों ही पार्टियां अब बीजेपी पर दबाव बना रही हैं और इस स्थिति में बीजेपी इन्हें नजरअंदाज नहीं कर पाएगी. दोनों के ही पास समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में जाने के विकल्प अभी भी खुले हुए हैं, ये बीजेपी को भी पता है. इसलिए बीजेपी पूरी कोशिश करेगी कि इन्हें अपने साथ ही रखा जाए.”
मंडल और कमंडल
कुछ दिन पहले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यूपी में लड़ाई 80 बनाम 20 की है. उन्होंने इस अनुपात को बहुत स्पष्ट तो नहीं किया लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि उनका इशारा ‘हिन्दू बनाम मुसलमान' की ओर था. योगी सरकार के कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य जब बीजेपी छोड़कर समाजवादी पार्टी में गए तो उन्होंने पार्टी दफ्तर में अपने भाषण में इसी तर्ज पर कहा, "लड़ाई 85 बनाम 15 की है.”
स्वामी प्रसाद मौर्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा, "सरकार बनवाएं दलित-पिछड़े और मलाई खाएं अगड़े 5 फीसदी लोग. आपने 80 बनाम 20 फीसदी का नारा दिया है, लेकिन मैं कह रहा हूं यह 15 बनाम 85 की लड़ाई है. 85 फीसदी हमारा है और 15 फीसदी में भी बंटवारा है.”
स्वामी प्रसाद मौर्य के इस बयान को नब्बे के दशक की उस राजनीति की ओर लौटने के संकेत के रूप में देखा जा रहा है जब राममंदिर आंदोलन के चरमोत्कर्ष के दौरान भी दलितों और पिछड़ों की एकजुटता यानी सपा और बसपा के गठबंधन ने बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दिया. ये दोनों ही पार्टियां मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद राजनीतिक पटल पर तेजी से उभरीं और उसके बाद यूपी की राजनीति में सरकारें बनाती रहीं.
सोशल इंजीनियरिंग
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, यूपी में अनुसूचित जाति की जनसंख्या 21.1 फीसदी और अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.1 फीसदी है जबकि पिछड़ी जातियों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है. बहुजन समाज की चर्चा जब होती है तब इसी तबके में मुस्लिम समुदाय की आबादी को भी जोड़ दिया जाता है और इस आधार पर दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को 85 फीसदी से ज्यादा बताया जाता है. 85 बनाम 15 की राजनीति का यही आधार है और राजनीति के जानकारों का कहना है कि इस आधार पर यदि वोटों का ध्रुवीकरण होता है तो निश्चित तौर पर धर्म के आधार पर होने वाले ध्रुवीकरण पर वो भारी पड़ेगा.
हालांकि यह भी माना जा रहा है कि तमाम पिछड़ी और अनुसूचित जातियों को अपनी ओर करने की बीजेपी की कोशिशों के बाद अब नब्बे के दशक वाले जातीय ध्रुवीकरण की उम्मीद नहीं है और इस ध्रुवीकरण में दलित समुदाय का एक बड़ा हिस्सा सपा गठबंधन से अलग है और वह या तो बीएसपी के साथ है या फिर बीजेपी के. इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि करीब तीन दशक की इस राजनीतिक उठापटक में सिर्फ जातियों के आधार पर ही राजनीतिक रुझान तय नहीं हो रहे हैं बल्कि हर राजनीतिक पार्टी में हर वर्ग के लोग हैं.
इस स्थिति में जाति के आधार पर कोई राजनीतिक पार्टी शायद वैसी आक्रामक राजनीति ना कर सके जैसी कि नब्बे के दशक में हो रही थी. सभी को साथ लेकर चलना उसके बाद से ही राजनीतिक दलों की जरूरत बन चुकी है और उसी आधार पर हर पार्टी अपने-अपने तरह से सोशल इंजीनियरिंग में लगी हुई हैं. (dw.com)
-पुरनेन्दु शुक्ला
सरकार को तदर्थ रवैया छोड़ गंभीरता से विचार करना होगा...
जिन कारणों से बीएमएचआरसी (Govt. Bhopal Memorial Hospital & Research Center) में चिकित्सा विशेषज्ञों का टोटा पड़ गया कमोवेश वहीं स्थितियां भोपाल के अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान में भी बन रहीं है। कल की खबर के मुताबिक दिल का दौरा पडऩे के बाद जब उसे एम्स ले जाया गया तो उसे इसलिए वहां से लौटा दिया गया चूंकि वहां कोई कॉर्डियोलॉजिस्ट नहीं था।
सच में यह बड़े शर्म की बात है कि सरकार ढाई-तीन हजार करोड़ का अस्पताल पर खर्च करने के बाद भी आम लोगों को ऐसी जरूरी चिकित्सा सेवा तक उपलब्ध नहीं करवा पा रहीं है और मरीजों को प्रायवेट अस्पताल की ओर धकेल रहीं है। ऐसे में उन मरीजों के लिए जीवन मरण का बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है जो महंगे प्रायवेट अस्पतालों में उपचार कराने में समर्थ नहीं है।
सरकार और जिम्मेदार चिकित्सा अधिकारियों को सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के अस्पताल छोड़ कर जाने से पैदा हुई स्थिति पर गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। अभी तो एक कार्डियोलॉजिस्ट और एक न्यूरोलॉजिस्ट ने इस्तीफा दिया है और जल्दी ही कुछ और विशेषज्ञों के भी जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है। ऐसी स्थितियां न बने इसके लिए अस्पताल प्रबंधन को अपने यहाँ कार्य का माहौल सुधारने की दिशा में कार्य करना चाहिए।
यह समझ में नहीं आता कि सरकार पूर्णकालिक डायरेक्टर की नियुक्ति में इतनी देर क्यों लगाती है? उसके अलावा सुपरस्पेशलिटी की डीएम,एमसीएच आदि डिग्रीधारी चिकित्सकों को रिटेन करने के लिए विशेष इन्सेंटिव देना ही पड़ेगा अन्यथा शहर के ही कई बड़े अस्पताल ज्यादा सेलरी और लुभावने पैकेज के साथ इनका स्वागत करने के लिए तैयार ही बैठे हैं। यदि क्चरू॥क्रष्ट और एम्स से चिकित्सकों का पलायन होगा तो सबसे ज्यादा खामियाजा आम मरीजों को ही भुगतना पड़ता है।
जिम्मेदार अधिकारी तो पल्ला झाड़ लेते हैं उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
- डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
जब भी आम चुनाव नजदीक आते हैं या उत्तर प्रदेश अथवा हिन्दी पट्टी के चुनाव की घोषणा होती है, तब तमाम चुनाव पर्यवेक्षक और कथित विशेषज्ञ मतदाताओं की जाति पर जरूर कोई न कोई टिप्पणी करते हैं। अखबारों की रिपोर्टिंग और टेलीविजन चैनलों की बहस में भी यह बात साफ दिखाई देती है। क्या सचमुच में भारत में चुनाव जाति के आधार पर होते हैं? क्या लोग जाति के आधार पर ही अपना प्रतिनिधि चुनते हैं? चुनाव के बाद भी जिस तरह की समीक्षाएं आती हैं उसमें यही बात कही जाती है कि इस इलाके में फलां जाति के लोगों का बहुमत है और इस जाति के लोगों ने इस उम्मीदवार को वोट दिया होगा, इसलिए इस जाति के उम्मीदवार उम्मीदवार विजयी हुए हैं। यह बात कितनी सच है और कितनी गलत, यह तो कहा नहीं जा सकता।
पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और चुनाव को लेकर इस बार भी इसी तरह की समीक्षाएं आ रही हैं। इस इलाके में फलां जाति के मतदाताओं का वर्चस्व है तो इस इलाके में इस जाति के मतदाता ज्यादा सक्रिय हैं। हाल ही में जब कुछ नेताओं ने दलबदल किया, तब उनकी जाति को लेकर भी ऐसी ही तरह-तरह की चर्चाएं चल पड़ी। ऐसा लगता है मानो टेलीविजन चैनलों के पैनलिस्ट्स और राजनीतिक पर्यवेक्षकों को अपनी बातें बनाने के लिए कोई मुद्दा मिल गया है। भारत में लोग जाति को देखकर वोट देते हैं, इस बारे में लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन इस बारे में प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. दीपांकर गुप्ता की बात बहुत सही लगती है जिन्होंने एक बहुत दिलचस्प किताब लिखी है- ‘इंटैरोगेटिंग कास्ट’। दीपांकर गुप्ता का यह अनुभव रहा कि चुनावी सर्वेक्षणों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसा लगता है कि चुनावी सर्वेक्षण और टेलीविजन चैनलों पर पैनलिस्ट्स की बातें आमतौर पर वक्त काटने का ज़रिया होती हैं।
प्रो. गुप्ता का यह कहना है कि यह बात सही है कि भारत में जाति व्यवस्था का अपना महत्व है। ज़्यादातर लोग शादी-ब्याह में जातियां देख कर ही वर-वधू चुनते हैं, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज बड़ा ही अलग और अनूठा समाज है। यहां लोग शादियां करते हैं भारतीय या हिन्दू तिथि के अनुसार; लेकिन शादी की सालगिरह मनाते हैं हमेशा अंग्रेजी तिथि के अनुसार। हिन्दू पंचांग को लेकर लोगों के मन में इस तरह का कोई बहुत गंभीर या पूर्वाग्रह नहीं है। उनका कहना है कि भारत में लोग न तो जाति देखकर दोस्ती करते हैं और ना ही जाति देखकर वोट देते हैं। हां, यह बात सही है कि तमाम राजनीतिक दल जब अपने उम्मीदवार का चुनाव करते हैं तब इस बात पर बहुत ध्यान देते हैं कि उनकी पार्टी का प्रत्याशी किस जाति का हो। पार्टियां यह भी समीक्षा करती हैं कि किस क्षेत्र में किस जाति के कितने मतदाता हैं। अनुमान लगाने की कोशिश होती है कि वह उम्मीदवार अपनी जाति या समाज के कितने लोगों से वह वोट खींच पायेगा। आम तौर पर ऐसे अनुमान सही नहीं होते और इसके बहुत सारे उदाहरण हैं कि लोग जाति के आधार पर वोट नहीं देते।
दीपांकर गुप्ता का कहना है कि महाराष्ट्र में लगभग एक तिहाई मतदाता मराठा है। जब पार्टियां वहां टिकट का वितरण करती है तब यह बात ज़रूर देखती है कि उस क्षेत्र में मराठा उम्मीदवार को ही अवसर दिया जाए। जब चुनाव की नौबत आती है तब एकाधिक पार्टियां मराठा व्यक्ति को ही अपने पार्टी की तरफ से चुनाव में खड़ा कर देती है। एक ही जगह एकाधिक उम्मीदवारों के होने से मराठा मतदाताओं के वोट भी बंट जाते हैं और चुनाव के नतीजों पर उम्मीदवार के जाति कोई बहुत असर नहीं दिखा पाती।
प्रो. गुप्ता का कहना है कि लोग जाति के आधार पर वोट देते हैं, यह मतदान का विश्लेषण करने का सरलीकरण है। व्यवस्था उस तरह से काम नहीं करती। लोगों का मानना है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों का बहुमत है, लेकिन यह ग़लत है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की संख्या दस प्रतिशत के आसपास है। लेकिन यह अवधारणा बनी है कि इस इलाके में जाट बहुत ज्यादा हैं इसलिए यहां से किसी जाट को ही उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए। मधेपुरा में करीब बीस प्रतिशत ही यादव हैं। चुनाव में एक से अधिक पार्टियां यादव को टिकट दे देती है और यादवों के वोट कट जाते हैं।जिस व्यक्ति को दूसरी जातियों के वोट ज्यादा मिलते हैं, वह चुनाव में जीत जाता है।
जाति की भूमिका टिकट देने में तो है ही, पार्टियों के पदाधिकारी चुनने में भी होती है। यह राजनीतिक दलों का सरलीकरण है कि अगर किसी राज्य में मुख्यमंत्री एक जाति का है तो दूसरी जाति का व्यक्ति पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाए। जब चुनाव होता है और राजनीतिक दलों को अपने चुनाव एजेंट चुनने होते हैं, तब भी वे दल यह देखते हैं कि उनका पोलिंग एजेंट किस जाति का है। वास्तव में वहां वोट देने वाले को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी जो पोलिंग एजेंट वहां बैठा है, वह किस जाति का है। ग्राम पंचायत के चुनाव में अवश्य जाति के आधार पर वोट पड़ते हैं, क्योंकि वहां मतदान की यूनिट छोटी होती है।
‘इंटैरोगेटिंग कास्ट’ पुस्तक के एक अध्याय में दीपांकर गुप्ता ने लिखा है, 2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी बहुत शानदार तरीके से जीती थी। बहुजन समाज पार्टी को 36. 27 प्रतिशत वोट मिले थे। 403 सीटों में से उसे 206 सीटों का पूर्ण बहुमत मिला था। जिन-जिन सीटों पर मायावती की बहुजन समाज पार्टी जीती, उन सभी में अनुसूचित जाति का बहुमत नहीं था। 2012 में बहुजन समाज पार्टी को 80 सीटें ही मिलीं। गत चुनाव में मिली सीटों का 40 प्रतिशत से भी कम। 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती और उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली, जबकि 2009 में उसे 21 सीटें मिली थीं।
प्रो. गुप्ता ने 1990 के दशक में हुए लोकसभा के तीन चुनाव और बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के चुनाव का गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि चुनाव के नतीजों का मतदाताओं की जाति से कोई ताल्लुक नहीं है। अनेक चुनाव क्षेत्रों में कुछ जातियों का बड़ा बोलबाला होता है, लेकिन उनके मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। हमारे जाति समाज में अजा और अजजा में भी उप जातियों का बोलबाला है। वहां भी अनेक जगह पर एक जाति के लोग दूसरी उप जाति के लोगों से बेटी-रोटी के रिश्ते नहीं रखते।
पूरे देश में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग जातियों के लोगों का बोलबाला है। किसी एक इलाके में ठाकुरों का वर्चस्व है तो किसी दूसरे इलाके में ब्राह्मणों का प्रभाव बहुत ज्यादा है। कई इलाकों में अनेक प्रभावशाली पदों पर एक ही जाति के लोग होते हैं। जिस जाति का कलेक्टर, उसी जाति का एसपी, उसी जाति के विधायक वगैरह, वगैरह। ऐसे में यह मानना कि वे दूसरी जातियों के लोगों से नफरत करते हैं और उनको कभी वोट नहीं देंगे, सही नहीं है। हां, वे अपने समाज और जाति के व्यक्ति की सलाह लेने ज़रूर जाते हैं। जैसे कि हम अपने बच्चों को किस तरह की पढ़ाई की तरफ आगे बढ़ाएं?अपने कारोबार का किस तरह से विस्तार करें, आदि। यह सब बातें समाज के प्रभावशाली लोग अपने जाति के लोगों को बताते हैं लेकिन अगर वे यह कहने लगे कि इस चुनाव में इस विशेष उम्मीदवार को ही वोट दीजिए तो वे उसे वोट देंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। जाहिर है कि इस तरह की बातें उनके लिए बचकानी है।
याद कीजिए, जब अकाली दल पंजाब में जीतकर सरकार बना रहा था तब किसी को इस बात का अंदाजा नहीं था। जब उत्तर प्रदेश में कहा गया था कि गठबंधन की सरकार बनेगी, लेकिन गठबंधन की सरकार नहीं बनी। आमतौर पर टेलीविजन चैनलों में पैनलिस्ट के रूप में बैठने वाले लोग और अखबारों में समीक्षा लिखने वाले लोग जाति के आधार पर उम्मीदवारों की हार-जीत की घोषणा कर डालते हैं और जब नतीजे आते हैं तो वह एकदम अलग ही निकलते हैं। टीवी चैनलों पर बहस करने वाले बुद्धिजीवी भूल जाते हैं कि जिस तरीके से वे जाति के आधार पर विवेचना करते हैं उसका समाज पर कोई असर नहीं। हां, यह बहस लोगों का मनोरंजन करने और समय काटने के लिए बहुत अच्छा जरिया होती है।
-संजय श्रमण
हम यह मानकर चलते हैं कि धर्म का नाश जरूरी है। कई लोग इसे संभव मानते भी हैं। लेकिन भारतीय लोगों के मनोविज्ञान का अध्ययन करें तो भारत के लिये कम से कम यह संभव नहीं है।
धर्म का नाश न तो संभव है और ना ही जरूरी है। हाँ ईश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म जैसे तीन महत्वपूर्ण अंधविश्वासों का नाश हो सकता है, होना भी चाहिए लेकिन धर्म किसी न किसी रूप मे बना रहेगा, बना रहना भी चाहिए। ईश्वर के या अदृश्य के नाम पर जो गलत होता आया है उससे धर्म को अनिवार्य रूप से जोडऩा गलत है।
भारत में बौद्ध, आजीवक, जैन और अन्य प्राचीन धर्म ईश्वर के बिना ही नहीं बल्कि ईश्वर के नकार पर खड़े थे। बौद्ध धर्म तो ईश्वर ही नहीं बल्कि आत्मा को भी नहीं मानता।
ईश्वर को हटा दिया जाए तब भी एक धर्म होता है जिसमे नैतिकता सर्वोपरि हो सकती है। धर्म का नाश और ईश्वर का नाश दो भिन्न बातें हैं। ईश्वर के साथ और ईश्वर के बाद भी धर्म होता है क्योंकि धर्म असल में समाज के जीवन की व्यवस्था का नाम है। उसे धर्म का नाम न भी दिया जाए तब भी समाज कोई न कोई व्यवस्था खोजेगा ही। इस तरह समाज को किसी न किसी महा-कथा या महा-सिद्धांत की जरूरत हमेशा बनी रहेगी।
भारत ही नहीं दुनिया में सभी समाजों और समुदायों को किसी न किसी महाकथा या महा-सिद्धांत या ग्रैंड नेरेटिव की जरूरत होती है, वह ग्रैंड नेरेटिव धर्म के रूप में सबसे आकर्षक ढंग से हमारे सामने आता है।
कम से कम भारत के बहुजन इस ग्रैंड नेरेटिव की शक्ति का उपयोग करने से स्वयं को दूर नहीं रख सकते। धर्म को नकारने की सभी रणनीतियाँ ब्राह्मणवाद को ही मजबूत करती हैं। धर्म के विरुद्ध लड़ाई कम से कम बहुजनों के लिए एक अन्य ही विशेष अर्थ रखती है।
ग्लोबल नास्तिकता के प्रोजेक्ट मे जो पोजीशन ग्लोबल एलिट या ग्लोबल वंचित या यूरोपीय वंचित ले सकते हैं वह उनकी अपनी जगह ठीक हो सकती है लेकिन ग्लोबल एलीट/वंचित और भारतीय बहुजनों के बीच कोई अनिवार्य साम्य नहीं है।
इसीलिए नास्तिकता का ग्लोबल प्रोजेक्ट और बहुजनों की मुक्ति का भारतीय प्रोजेक्ट दो भिन्न बाते हैं।
इन दो प्रोजेक्ट्स को एक या साझे प्रोजेक्ट की तरह देखना गलत है। इससे बड़ा कन्फ्यूजन पैदा हुआ है। इस कन्फ्यूजन में भारतीय बहुजनों का काफी नुकसान हो चुका है।
अब भारत के बहुजनों को अपनी विशिष्ठ समस्या के अनुरूप अपनी विशिष्ट भारतीय संदर्भ की वैचारिकी और रणनीति को पृथक करते हुए उसकी घोषणा करनी होगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
क्या आपको यह जानकर आनंद नहीं होगा कि दुनिया के सबसे ज्यादा शुद्ध शाकाहारी लोग भारत में ही रहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या 40 करोड़ से ज्यादा है। ये लोग मांस, मछली और अंडा वगैरह बिल्कुल नहीं खाते। यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान और मुस्लिम देशों में मुझे कई बार यह वाक्य सुनने को मिला कि ‘हमने ऐसा आदमी जीवन में पहली बार देखा, जिसने कभी मांस खाया ही नहीं।’ दुनिया के सभी देशों में लोग प्राय: मांसाहार और शाकाहार दोनों ही करते हैं। लेकिन एक ताजा खबर के अनुसार ब्रिटेन में इस साल 80 लाख लोग शुद्ध शाकाहारी बनने वाले हैं।
वे अपने आप को ‘वीगन’ कहते हैं। अर्थात वे मांस, मछली, अंडे के अलावा दूध, दही, मक्खन, घी आदि का भी सेवन नहीं करते। वे सिर्फ अनाज, सब्जी और फल खाते हैं। इसका कारण यह नहीं है कि वे पशु-पक्षी की हिंसा में विश्वास नहीं करते। वे भारत के जैन, अग्रवाल, वैष्णव और कुछ ब्राह्मणों की तरह इसे अपना धार्मिक कर्तव्य मानकर नहीं अपनाए हुए हैं। इसे वे अपने स्वास्थ्य के खातिर मानने लगे हैं। न तो उनका परिवार और न ही उनका मजहब उन्हें मांसाहार से रोकता है लेकिन वे इसलिए शाकाहारी हो रहे हैं कि वे स्वस्थ और चुस्त-दुरुस्त दिखना चाहते हैं।
मुंबई के कई ऐसे फिल्म अभिनेता मेरे परिचित हैं, जिन्होंने ‘वीगन’ बनकर अपना वजन 40-40 किलो तक कम किया है। वे अधिक स्वस्थ और अधिक युवा दिखाई पड़ते हैं। सच्चाई तो यह है कि शुद्ध शाकाहारी भोजन आपको मोटापे से ही नहीं, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और हृदय रोगों से भी बचाता है। इसे किसी धर्म-विशेष के आधार पर विधि-निषेध की श्रेणी में रखना भी जरा कठिन है, क्योंकि सब धर्मों के कई महानायक आपको मांसाहारी मिल सकते हैं।
वैसे किसी भी मजहबी ग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि जो मांस नहीं खाएगा, वह घटिया हिंदू या घटिया मुसलमान या घटिया ईसाई माना जाएगा। वास्तव में दुनिया में मांसाहार बंद हो जाए तो प्राकृतिक संसाधनों की भारी बचत हो जाएगी और प्रदूषण भी बहुत हद तक घट जाएगा। इन विषयों पर पश्चिमी देशों में कई नए शोध-कार्य हो रहे हैं और भारत में भी शाकाहार के विविध लाभों पर कई ग्रंथ लिखे गए हैं। दूध, दही, मक्खन और घी आदि के त्याग पर कई लोगों का मतभेद हो सकता है। यदि वे ‘वीगन’ न होना चाहें तो भी खुद शाकाहारी होकर और लाखों-करोड़ों लोगों को प्रेरित करके एक उच्चतर मानवीय जीवन-पद्धति का शुभारंभ कर सकते हैं। अब शाकाहार अकेले भारत की बपौती नहीं है। यह विश्वव्यापी हो रहा है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जसिंता केरकेट्टा
आदिवासी समाज के भीतर कोई पुरुष भ्रष्टाचारी निकल जाय, बलात्कारी निकल जाय, हिंसक निकल आए, हत्यारा निकल आए तो भी मैंने ऐसे लोगों के खिलाफ़ इतनी ताकत से उनका विरोध करते किसी आदिवासी समुदाय को नहीं देखा, जितनी ताकत वे एक स्त्री के खिलाफ़ लगाते हैं. अगर मुखर स्त्री किसी नौकरी में हो तो सबसे पहले उसे आर्थिक रूप से तोड़ना इनका मूल मकसद हो जाता है. और क्या हो जो कोई नौकरी न करती हो? तो उसकी हत्या या मोब लिंचिंग करने से भी यह समाज पीछे नहीं हटेगा.
मेरा पूरा बचपन संताल समाज के बीच बीता है. गांव-गांव, गली-गली कूचा-कूचा. इस समाज के भीतर स्त्रियों की स्थिति क्या है? समाज की अपनी ताक़त और कमियां क्या है? यह उदाहरण और प्रमाण के साथ दिए जा सकते हैं. और यह भी कि आदिवासी समाज के भीतर पितृसत्ता किस तरह काम करती है. परंपराओं को समाज के लोग ही बनाते हैं और यह कोई न बदलने वाली चीज़ नहीं है. परंपराएं कितनी मानवीय रह गईं हैं? उसमें कौन सी बातें घुस गईं हैं? इसपर अपनी बात रखने का अधिकार उस समाज के स्त्री/ पुरुष सभी को है. विचार/ मंथन करने का काम भी समाज का है.
सहायक प्रो. रजनी मुर्मू अपने समाज की कमियों को लेकर हमेशा मुखर रहीं हैं. हाल के दिनों में उन्होंने सोहराय पर्व को लेकर फेसबुक पर कोई छोटी टिप्पणी लिखी. अगर यह टिप्पणी कोई पुरुष लिखता तो सम्भवतः कोई इतना ध्यान भी नहीं देता. लेकिन उनकी टिप्पणी पितृसत्तात्मक समाज को चुभ गई है. संताल समाज के युवा छात्र नेता चाहते हैं कि रजनी मुर्मू जैसी कोई स्त्री फिर कभी आलोचना करने की हिम्मत न कर सके इसलिए वे उन्हें नौकरी से हटाए जाने की पुरजोर मांग कर रहे हैं. यह हर उस स्त्री की बात है जिसके पास अपना एक नजरिया है और जो अपनी बात कहना चाहती है.
आदिवासी समाज कहने को तो सामूहिकता और संवाद पर यकीन रखता है. लेकिन इसके भीतर जाकर देखें तो यह सामूहिकता दरअसल एक ऐसी भीड़ है जहां व्यक्ति को बोलने, आगे बढ़ने की आजादी नहीं है. सामूहिकता के नाम पर लोग मिलकर एक दूसरे की टांग खींचकर उन्हें बर्बाद करने की जुगत में रहते हैं. जहां तक संवाद की बात है. संवाद तभी संभव है जब कोई दूसरे को सुन रहा हो.
आदिवासी समाज के भीतर ऐसे संगठन तैयार हुए हैं जो किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकते. सुन नहीं सकते. आलोचनाएं और शिकायत को ठीक से सुनने वाले लोग और समाज किसी के बोलने/ आलोचना करने/ शिकायत करने के मकसद को देखते हैं. आलोचनाओं के पीछे बहुतों का मकसद बुरा नहीं होता. कुछ भड़ास निकालने के लिए शिकायत करते हैं तो कुछ के शिकायतों के पीछे सुधार की प्रबल इच्छा काम करती है. शिकायतों को उन मकसदों के आधार पर देखना चाहिए.
आदिवासी समाज शिकायतों को सुनना नहीं सीख पाया है. संताल समाज के ऐसे छात्र नेताओं के दबाव में अगर सहायक प्रो.रजनी मुर्मू को नौकरी से निकालने की अनुमति दी जाती है तो इससे बुरा उदाहरण और कुछ नहीं होगा. मैं समाज के प्रबुद्ध लोगों से अपील करती हूं कि जिस तरह भी बन पड़े आप उनकी मदद करें.
-सरोज सिंह
पंजाब चुनाव को लेकर सियासी हलचल एक बार फिर तेज है। आम आदमी पार्टी ने मंगलवार को अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर भगवंत मान के नाम की घोषणा कर दी है। वहीं कांग्रेस के ट्विटर हैंडल से एक दिन पहले एक वीडियो ट्वीट किया गया।
वीडियो में अभिनेता सोनू सूद पंजाब का सीएम कैसा हो, ये कहते दिखाई दे रहे हैं और आखऱि में सोनू सूद की आवाज के ऊपर मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी का वीडियो रोल करने लगता है। इस वीडियो को पंजाब कांग्रेस ने भी री-ट्वीट किया है। इसके बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि पंजाब में कांग्रेस का सीएम चेहरा चन्नी ही होंगे। हालांकि आधिकारिक तौर पर कांग्रेस की तरफ से इसकी कोई पुष्टि नहीं हुई है।
लेकिन जिस हिसाब से कांग्रेस ने पिछले साल कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम की कुर्सी पर बिठाया था और उनके दलित होने को एक बड़ा ‘यूएसपी’ करार दिया था, उससे इस कयास को सिरे से ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता है।
पंजाब चुनाव क्या ‘चन्नी
बनाम मान’ होगा?
ऐसे में पंजाब चुनाव अगर ‘चन्नी बनाम मान’ हुआ तो क्या बातें होंगी जो मायने रखेंगी?
इस सवाल का जवाब जानने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि इस बार पंजाब चुनाव में कौन से बड़े प्लेयर हैं जो मैदान में हैं?
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के अलावा, बीजेपी से नाता तोड़ कर अकाली दल और बीएसपी गठबंधन मैदान में है। वही पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया है। इतना ही नहीं किसान आंदोलन में शामिल रहे 22 संगठनों ने भी संयुक्त समाज मोर्चा (एसएसएम) के बैनर तले चुनाव लडऩे का फैसला किया है।
इस आधार पर पंजाब के इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट एंड कम्यूनिकेशन के निदेशक डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं कि इस बार विधानसभा चुनाव में पाँच पार्टियों की लड़ाई है। अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तो पिछला चुनाव भी लड़े थे, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह और किसानों की पार्टी ने मुक़ाबले को और पेचीदा बना दिया है।
डॉक्टर प्रमोद कुमार ये भी कहते हैं कि हाल के दिनों में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता कम हुई है क्योंकि भगवंत मान को मुख्यमंत्री बनाने के लिए महज़ 21 लाख लोगों ने वोट डाले जबकि पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी के लिए 36 लाख लोगों ने वोट किया था। अगर उनकी लोकप्रियता बढ़ी होती तो 36 लाख से ज़्यादा लोगों को मुख्यमंत्री के नाम पर मुहर लगाने के लिए हुए वोट में हिस्सा लेना चाहिए था।
वहीं पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉक्टर आशुतोष कुमार मानते हैं कि पंजाब में मुक़ाबला दो पार्टियों, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच है। बीजेपी और कैप्टन अमरिंदर सिंह के गठबंधन या फिर अकाली दल को वह रेस में नहीं मानते।
अकाली दल के बारे में वह कहते हैं कि पंजाब की जनता के बीच अब एक भाव है कि अकाली दल एक ही परिवार की पार्टी बन कर रह गई है। वहाँ नेतृत्व की दिक़्क़त है। लेकिन साथ में इतना ज़रूर जोड़ते हैं कि कुछ सीटों पर संयुक्त समाज मोर्चा (एसएसएम) आम आदमी पार्टी का खेल बिगाड़ सकता है। पिछली विधानसभा में कई ऐसी सीटें थीं जहाँ जीत का अंतर 500-1000 वोट का था। इसलिए वह इस चुनाव को ‘चन्नी बनाम मान’ मान रहे हैं।
कांग्रेस के दलित कार्ड का विपक्षी पार्टियों के पास क्या है जवाब?
पंजाब में वैसे तो दलित वोट 32-34 फीसद के आसपास है। जबकि जाट सिखों की आबादी 25 फीसद के आसपास की ही है। चरणजीत सिंह चन्नी की पहचान दलित सिख की है और भगवंत मान की जाट सिख की। इन आँकड़ों के लिहाज से एक नजऱ में लगता है कि चन्नी, मान पर भारी पड़ सकते हैं। लेकिन पंजाब की राजनीति इतनी आसान नहीं है।
डॉक्टर प्रमोद कुमार और प्रोफेसर आशुतोष दोनों का मानना है कि धर्म और जाति के आधार पर पंजाब वोट नहीं करता। यहां की राजनीति उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति से अलग है।
पंजाब की दलित पॉलिटिक्स पर बात करते हुए डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘पंजाब में दलित, एक एक्सक्लूसिव वोट बैंक नहीं हैं। इसके दो बड़े कारण हैं। पहली वजह ये कि सिख धर्म जिसने दलित को जाति के तौर पर कमज़ोर किया, और दूसरी वजह है आर्य समाज जिसने पंजाब के हिंदुओं में भी कास्ट सिस्टम को कमज़ोर किया। इस वजह से पंजाब में दलित वोट बैंक के तौर पर एकजुट नहीं हो पाए। हर विधानसभा चुनाव में दलितों का वोट लगभग हर पार्टी को मिलता है।’
वह आगे कहते हैं, ‘यही वजह है कि बहुजन समाज पार्टी जो पंजाब में दलित वोट बैंक अपने साथ करने आई थी वो कभी कामयाब नहीं हो पाई। पंजाब से जो पार्टी बनी उसे उत्तर प्रदेश में जाकर शरण लेनी पड़ी।’
पंजाब में बीएसपी का सबसे अच्छा प्रदर्शन 1992 में रहा था जब उन्हें 9 प्रतिशत वोट मिले थे। उसके बाद से उनका ग्राफ पंजाब में नीचे जाता रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें दो फीसद से भी कम वोट मिले थे। पिछले चार विधानसभा चुनाव से बीएसपी, पंजाब में एक भी सीट नहीं जीत पाई है।
इस वजह से प्रमोद कुमार कहते हैं कि कांग्रेस अगर मुख्यमंत्री का चेहरा चरणजीत सिंह चन्नी को बनाती है, तो ‘साइकोलॉजिकल स्पिन’ हो सकता है, लेकिन ‘दलित वोट बैंक’ एजेंडा नहीं बन सकता।
प्रोफेसर आशुतोष का कहना है, ‘पंजाब में सिख भी बंटे हुए हैं। सिख हिंदू भी हैं, सिख दलित भी हैं, सिख ईसाई भी हैं। इसके अलावा डेरा और जत्थे भी होते हैं। उनके बाबा और गुरुओं के अपने अनुयायी होते हैं। दलितों ने कभी एकजुट होकर दलित वोट बैंक के तौर पर वोट नहीं किया है।’
प्रोफेसर आशुतोष मशहूर समाजशास्त्री पॉल ब्रास की बात को याद करते हैं जिन्होंने कहा था- ‘पंजाब की राजनीति प्याज़ की तरह है, जिसमें कई परतें हैं।’
प्रोफेसर आशुतोष ‘लोक-नीति-सीएसडीएस’ के सर्वे भी पंजाब में कराते आए हैं।
उस सर्वे के आधार पर वह कहते हैं कि पंजाब के दलित सिख आमतौर पर अकाली दल के साथ नजऱ आते हैं और हिंदू दलित कांग्रेस के साथ नजऱ आते हैं। 2017 में भी इसी पैटर्न पर वोट हुआ था। हालांकि 2012 में हिंदू दलितों ने अकालियों का साथ दिया था। इस वजह से माना जा रहा है कि चरणजीत सिंह चन्नी को अगर कांग्रेस आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करती है, तो उनको थोड़ा फायदा मिल सकता है।
पंजाब वोट किस आधार
पर करता है?
लेकिन किसी पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा दलित नहीं होगा तो क्या कोई खास फर्क पड़ेगा?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए ये समझना ज़रूरी है कि आखिर पंजाब की जनता वोट कैसे करती है?
प्रोफेसर आशुतोष कहते हैं, पंजाब में वोटिंग के मुख्यत: दो आधार हैं।
‘पहला है, ‘दिल माँगे मोर’ का फंडा। यानी हर पार्टी अपनी अपनी तरफ से मुफ्त योजनाओं और वादों की झड़ी लगा देती है। जैसे इस बार आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये देने का वादा किया है तो कांग्रेस ने 2000 रुपये देने का वादा कर दिया। दूसरा है, ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’। पंजाब में जाटों का जितना दबदबा है, उतना कहीं नहीं है। यहां हिंदू या दलित होना अहम नहीं है, लेकिन जाट होना अहम है।’
इस खांचे में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार फिट बैठते हैं। चूंकि बाकी दलों ने अपने मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा नहीं की है, इसलिए उनके बारे में नहीं कहा जा सकता।
पंजाब के वोटिंग पैटर्न पर बात करते हुए डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘पंजाब में ना तो दलित, दलित की तरह वोट करता है और ना हिंदू, हिंदुत्व पर वोट करता है। अगर ऐसा होता तो अरुण जेटली कभी पंजाब से चुनाव नहीं हारते। बीजेपी अकेले भी जब पंजाब में लड़ती थी, तब भी वोट बैंक छह फ़ीसद से ज़्यादा नहीं ला पाई। पंजाब, भारत की सबसे सेक्युलर सोसाइटी में से एक है। यहां मुद्दों पर चुनाव लड़े जाते हैं, जहाँ बेरोजगारी से लेकर खेती, किसानी और बेअदबी का मुद्दा भी बनता है, लेकिन जाति और धर्म मुख्य मुद्दे नहीं होते।’
हालांकि वह मानते हैं राजनीतिक दलों द्वारा जाति और धर्म को मुद्दा बनाने की कोशिश होती रहती है पर जनता में हिंदू बनाम सिख जैसा ध्रुवीकरण नहीं होता है।
(bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना की महामारी ने सारी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था पर बुरा असर डाला है, लेकिन जो देश सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, उनमें भारत अग्रणी है। यों तो भारत सरकार और हमारे अर्थशास्त्री जो आंकड़े बघारते रहते हैं, उनसे लगता है कि हमारी अर्थव्यवस्था की सेहत बड़ी तेजी से सुधर रही है और हमें निराश होने की जरुरत नहीं है लेकिन स्विटजरलैंड में चल रहे वर्ल्ड इकानॉमिक फोरम में आक्सफोम की जो रपट जारी की गई, वह भारतीयों के लिए काफी चिंता का विषय है।
भारत में मार्च 2020 से नवंबर 2021 तक लगभग साढ़े चार करोड़ लोग गरीबी की सीढ़ी से भी नीचे याने घोर दरिद्रता के पायदान पर जा बैठे हैं। अर्थात ये वे लोग हैं, जिनके पास खाने, पहनने और रहने के लिए न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं हैं। इसका सरल शब्दों में अर्थ यह है कि भारत के करोड़ों लोग भूखे हैं, नंगे हैं और सडक़ों पर सोते हैं। उनकी चिकित्सा का भी कुछ ठिकाना नहीं है। जो अत्यंत दरिद्र नहीं हैं, ऐसे लोगों की संख्या उनसे कई गुना ज्यादा है।
वे भी किसी तरह जिंदा है। उनका गुजारा भी रो-पीटकर होता रहता है। 40 प्रतिशत लोग मध्यम वर्ग के माने जाते हैं। ये भी बेरोजगारी और मंहगाई के शिकार हो रहे हैं। ये राष्ट्रीय आय के सिर्फ 30 प्रतिशत पर गुजारा कर रहे हैं। निम्न मध्यम वर्ग के 50 प्रतिशत लोग सिर्फ 13 प्रतिशत राष्ट्रीय आय पर किसी तरह अपनी गाड़ी खींच रहे हैं। देश के सिर्फ 10 प्रतिशत अमीर लोग कुल राष्ट्रीय आय के 57 प्रतिशत पैसे पर मजे लूट रहे हैं। उनमें भी मु_ीभर अति अमीर लोग उस 57 में से 22 प्रतिशत पर हाथ साफ कर रहे हैं।
देश में अरबपतियों की संख्या में 40 नए अरबपति जुड़ गए हैं। इतने अरबपति तो यूरोप में भी नहीं हैं। उनकी कुल संपत्ति 53 लाख करोड़ रु. है। देश के सिर्फ 10 अमीरों की संपत्ति इतनी बढ़ी है कि उस पैसे से देश के सारे स्कूल-कालेज बिना फीस के 25 साल तक मुफ्त चलाए जा सकते हैं। देश के हर जिले और बड़े शहर में बढिय़ा अस्पताल और दवाखाने खोले जा सकते हैं।
इसमें शक नहीं है कि हमारे पूंजीपति अपने अथक परिश्रम और व्यावसायिक मेधा का इस्तेमाल करके भारत की संपदा बढ़ा रहे हैं लेकिन हमारी सरकारों का दायित्व है कि इस बढ़ती हुई संपदा का लाभ आम जनता तक पहुंचे। यदि सरकार इस सर्वोच्च सत्य पर ध्यान नहीं देगी तो यह अमीरी और गरीबी की खाई इतनी गहरी होती चली जाएगी कि देश किसी भी दिन अराजकता में डूब सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. लखन चौधरी
पिछले दिनों जयपुर कांग्रेस रैली में राहुल गांधी जिस अडाणी को कोस रहे थे, राजस्थान की गहलोत सरकार ने उन्हें 1600 हेक्टेयर जमीन देने का निर्णय केबिनेट में ले लिया है। अडाणी ग्रुप और राजस्थान सरकार ने सोलर पार्क के लिए जॉइंट वेंचर कंपनी बनाई है। उसी कंपनी को जमीन आवंटन की मंजूरी दी गई है।
उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी ने अडाणी-अंबानी को फायदा पहुंचाने के मुद्दे पर केंद्र सरकार को निशाने पर लेते हुए रैली में कहा था कि ‘पीएम सुबह उठते ही कहते हैं, अडाणी-अंबानी को क्या दें ? एयरपोर्ट, कोल मांइस, सुपर मार्केट ? जहां देखो वहां दो ही लोग दिखेंगे। चलो आज एयरपोर्ट दे देते हैं। आज किसानों के खेत दे देते हैं, खान दे देते हैं।’
कुछ दिनों पहले अडानी कोलकाता में ममता बेनर्जी के साथ चर्चाओं में थे। उस ममता बेनर्जी के साथ, जिन्होनें कुछ सालों पहले टाटा समूह को नैनो ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए जमीन देने से इंकार करते हुए देशभर में पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ अपनी मजबूत विचारधारा की छवि बनाते हुए सुर्खियां बटोरी थीं। बाद में टाटा समूह को गुजरात की यही मोदी सरकार ने न केवल जमीन दिया बल्कि तमाम तरह की रियायतें एवं छूट देकर वाहवाही लूटी थी। यह अलग मामला है कि भारतीयों के सपनों के लिए लाई गई नैनो ड्रीम प्रोजेक्ट बुरी तरह असफल हो गई, और टाटा समूह को नैनो कार बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। कुछ दिनों या कुछ महिनों पहले इसी तरह की सुर्खियां छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिली थी। बस्तर से लेकर कोरबा-सरगुजा तक के कई महत्वपूर्णं खदानों एवं परियोजनाओं के संबंध एवं संदर्भ में भूपेश बघेल एवं अडानी के अंर्तसंबंधों की बातें सामने आईं थीं। जिनकों लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के भीतर ही मतभेद की खबरों की चर्चाएं थीं।
बहरहाल मुद्दे की बात यह है कि क्यों ऐसा होता है कि जिन बातों एवं विचारधाराओं की बातें राजनीतिक दलों के मुखिया करते हैं, उन्हीं की सरकारें उसे नहीं मानती हैं? राजनीतिक दलों के नेताओं के रैलियों एवं भाषणों में जिस तरह की सोच एवं नैतिकता दिखलाई देती है, या दिखलाई जाती है; हकीकत उस तरह की होती क्यों नहीं है? योजनाओं, घोषणाओं, कार्यक्रमों में नीतियों को जिस तरह से दिखाया, बताया जाता है, इसके परिणाम उसी तरह क्यों नहीं होते हैं ? सवाल यह भी उठता है, या उठना या उठाना लाजिमी है कि क्या बड़े कार्पोरेट घरानों की सहायता के बगैर सरकार चलाना असंभव या नामुमकिन है ?
गुजरात की मोदी सरकार या केन्द्र की मोदी सरकार के बारे में तो बातें साफ एवं स्पष्ट रहीं हैं या रहती हैं। भाजपा की विचारधारा के बारे में भी स्थितियां लगभग साफ होती हैं, लेकिन ममता बेनर्जी, गहलोत या भूपेश सरकार के बारे में इस तरह की चर्चाएं क्यों होती हैं? महत्वपूर्णं सवाल कि क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह की दोमुंही विचारधारा से भाजपा का मुकाबला करेगें ? क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह मोदी सरकार या भाजपा को 2024 या उससे आगे चुनौती देगें?क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह दोहरी नीतियों को लेकर जनता के पास वोट मांगने जायेंगे?
महत्वपूर्णं सवाल कि आखिर राहुल गांधी की बातों, निर्णयों को उन्हीं की कांग्रेस सरकारें मानती क्यों नहीं हैं? एक तरह कांग्रेस का ही एक वर्ग राहुल गांधी को नेतृत्व देना चाहता है, तो दूसरा धड़ा इससे सहमत नहीं होता, दिखता है। कई बार स्वयं राहुल गांधी नेतृत्व करने से भागते दिखते हैं। अनेक मामलों में कांग्रेस नेतृत्व को लेकर कांग्रेस ही राहुल गांधी की सोच एवं विचारधारा की विरोधी दिखती एवं बयानबाजी करती है। जब कांग्रेस नेतृत्व को लेकर राहुल गांधी ने ही गांधी परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को नेतृत्व देने की बात की थी, तो कांग्रेस के ही एक धड़े ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था। अब ऐसी खबरें दिखाई जाती हैं कि गांधी परिवार के बाहर कांग्रेस का अस्तित्व नहीं है। पूंजीवादी सोच एवं ताकतों के खिलाफ कांग्रेस कितनी तैयार है ?
क्या इस तरह की विरोधाभासों एवं दोहरी सोच से कांग्रेस 2024 में मोदी-भाजपा की बहुमत वाली मजबूत सरकार का मुकाबला कर पायेगी? क्या इस तरह की नीतियों एवं निर्णयों से कांग्रेस या राहुल गांधी को देष की जनता अपना जनमत देगी? क्या इस तरह की दोहरी मानसिकताओं से कांग्रेस मोदी सरकार को सत्ता से उखाड़ बाहर कर सकती है? बहुत जरूरी सवाल बनता है कि क्या कांग्रेस 2024 के चुनाव में इसी तरह की विरोधाभासी नीतियों से चुनाव के लिए तैयार हो रही है?
इस बात में कोई दो मत या दो राय नहीं है कि कोरोना कालखण्ड में मोदी सरकार की गैर जरूरी नीतियों एवं निर्णयों से देष को जनजीवन से लेकर अर्थव्यवस्था तक अनेक समस्याओं एवं परेषानियों का सामना करना पड़ा। रोजगार, विकासदर, मौतें सभी मसलों में सरकार की अव्यवस्थाएं उजागर हुईं हैं। असंगठित क्षेत्र के करोड़ो लोगों की नौकरियां चली गईं। सडक़ों, अस्पतालों में हजारों लोगों की जानें गई हैं। महामारी से निपटने में सरकार असफल रही है। कोरोना कालखण्ड की तमाम अव्यवस्थाओं, नाकामियों एवं असफलताओं के बावजूद सरकार के विरूद्ध जनमत तैयार करने में कांग्रेस एवं विपक्ष असफल रहे हैं। यह भी एक सच्चाई है, जिसको कांग्रेस को ध्यान में रखकर आगे की नीतियां बनाने की जरूरत है।
बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, सार्वजनिक क्षेत्रों के निजीकरण जैसे अनेकों ज्वलंत मुद्दे हैं, जिनकों लेकर आमजनता के बीच मोदी सरकार के प्रति नाराजगी है। मोदी-भाजपा के समर्थकों का एक बड़ा वर्ग है जो मोदी सरकार की इन नीतियों से इत्तफाक नहीं रखता है, नाखुश है। इसके बावजूद इन अहम मसलों को लेकर कांग्रेस एवं विपक्ष मोदी सरकार के विरोध में बड़ा जन आंदोलन खड़ा करने में आखिर असफल क्यों हो रही है ? या बेबस क्यों दिखती, लगती है ? सडक़ों पर कभी-कभार उतरने, लडऩे, आवाज उठाने के बावजूद कांग्रेस को लोगों का जन समर्थन क्यों नहीं मिल रहा है ? कांग्रेस के पक्ष में जनमत दिखता क्यों नहीं है ?
कांग्रेस, जब तक इस तरह के सवालों पर चिंतन-मंथन नहीं करेगी, तब तक केन्द्र की सत्ता में आने की सोचना भी कठिन है। पूंजीवादी सोच और ताकतों के विरूद्ध केवल रैलियों एवं भाषणों में बयानबाजी करने से जनसमर्थन मिलेगा, ऐसा सोचना बेवकूफी होगी। कांग्रेस को यदि 2024 या उससे आगे सत्ता चाहिए तो अब विरोधाभासी नीतियों एवं निर्णयों से उपर उठना होगा। आज भी देश में कांग्रेस का एक बड़ा समर्थक वर्ग है जो चाहता है कि केन्द्र में इस बार सत्ता परिवर्तन होना चाहिए। सवाल है कि क्या कांग्रेस स्वयं इसके लिए तैयार है ?
-अरविंद छाबड़ा
पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए मतदान अब 14 फरवरी की जगह 20 फरवरी को होगा। एक ओर जहां मतदान की नई तारीख़ का एलान हो चुका है वहीं राजनीतिक दल भी अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं छोडऩा चाहते। पंजाब में सियासत की लड़ाई यूं भी कांटे की होती है, लेकिन इस बार हो रहा ये चुनाव कई मायनों में खास बन गया है। जहां एक ओर सत्तारूढ़ कांग्रेस सत्ता में लौटने के लिए हर कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी अपने गठबंधन के साथ सत्ता हासिल करने के प्रयास में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते।
पिछले विधानसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी आम आदमी पार्टी इस बार पहले से अधिक आक्रामक नजर आ रही है।
वहीं कांग्रेस छोडक़र जाने वाले पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई राजनीतिक पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस पर भी सबकी निगाहें हैं, जो भारतीय जनता पार्टी और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखदेव सिंह ढींढसा की शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के साथ मिल कर चुनावी मैदान में उतर रही है।
इसके अलावा एक नई पार्टी जिसे किसान आंदोलन में शामिल 22 किसान संगठनों ने मिलकर बनाया है, वो भी मैदान में है।
लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए यह चुनाव ख़ुद को साबित करने वाली लड़ाई है। पहली वजह तो यही है कि एक समय में कांग्रेस आलाकमान के विश्वसनीय रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह इस बार विरोधी खेमे में हैं और दूसरी कि पार्टी ने कुछ ही महीने पहले एक नया मुख्यमंत्री बनाया है, जो बहुत चर्चित चेहरा नहीं था। ऐसे में सत्ता में वापसी करना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है।
पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू से बीबीसी संवाददाता अरविंद छाबड़ा ने आगामी चुनाव, सीएम कैंडिडेट, मुख्यमंत्री चन्नी और विपक्षी दलों से जुड़े कई अहम सवाल पूछे।
पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के जवाब-
सवाल-अकाली दल अपने सीएम पद के चेहरे की घोषणा कर चुकी है। आने वाले दिनों में आम आदमी पार्टी भी अपने सीएम फ़ेस की घोषणा कर देगी, लेकिन आने वाले विधानसभा चुनावों से पहले क्या कांग्रेस अपने सीएम पद के उम्मीदवार की घोषणा करेगी?
जवाब- देखिए, 70 साल जिन्होंने पार्टी चलाई, जिन्होंने देश को आज़ादी दिलाई, जिन्होंने इस देश के संविधान निर्माताओं को जन्म दिया, वो पार्टी कोई कच्चा फल नहीं है। वह पका हुआ फल है। उसमें बीज भी है और रस भी है। उसमें फ्यूचरिस्टिक इन्वेस्टमेंट भी है। इसलिए वे सयाने हैं। वो बेहतर जानते हैं कि कब क्या करना है। बतौर पार्टी हमें अनुशासित सैनिकों की तरह काम करना होता है। जो अनुशासन पालेगा, वही शासन पा लेगा।
सवाल- लेकिन क्या कांग्रेस पार्टी सीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने में देर नहीं कर रही, बाकी पार्टियाँ कर चुकी हैं, अकाली दल भी घोषणा कर चुकी है।
जवाब- धरती पर डायनासोर दोबारा जन्म ले सकते हैं, लेकिन अकाली दल दोबारा नहीं आ सकती है। उसका क्या महत्व है। चौदह सीटें मिली थीं पिछले चुनाव में। गुरु की बेअदबी कराने वाले लोग, खुले सांडों की तरह घूम रहे हैं। यह एक सिस्टम को चेंज करने की लड़ाई है। हाँ, ये ठीक है कि आम आदमी पार्टी पहले भी रेस में थी। लेकिन वो पिछली बार भी कहा करते थे कि 110 सीटें आएंगी लेकिन कितनी सीटें आईं। ये जो सर्वे हैं, पचास-पचास लाख रुपये देकर, सोशल मीडिया पर पैसे देकर, बूस्टिंग करवाकर, ये सब बकवास चीजें हैं। लोग बहुत सयाने हैं।
सवाल- क्या आप कांग्रेस पार्टी के सीएम कैंडिडेट होंगे?
जवाब- मेरी सिर्फ एक ही तमन्ना है कि मैं पंजाब में सिस्टम को बदलने का एक जरिया बनूँ। एक नए सिस्टम के निर्माण का जरिया बनूं। जो सिस्टम पंजाब के रिसोर्सेज़ की चोरी करके उसे निजी जेबों में डाल रहा है, उसे उन जेबों से निकालकर पंजाब के खजाने में डालूं। वो तीस हज़ार करोड़ रुपये सरकारी खजाने में आएं। टैक्सेस की कम्प्लाएंसेंस को बढ़ाकर सेंटर की स्कीम में डालिए, जैसे बड़े बड़े राज्य आत्मनिर्भर होने के लिए करते हैं, तो पंजाब खड़ा हो सकता है। लेकिन अगर कर्ज लेकर कर्ज वापिस करोगे और स्टेट के रिसोर्सेज़ को खाते रहोगे तो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी भी मर जाएगी।
क्या आपने कोई ऐसा घर देखा है जो दस करोड़ का हो और सौ करोड़ का उस पर कर्ज हो क्या बर्तन बेचकर आप घर चलाएँगे। उचित को जानकर उस पर अमल नहीं करना, ये कायरता का आभास है। सयाना आदमी वो है जो बादलों को देखकर जामा पहनता है। प्रीवेंटिव मैकेनिज्म चाहिए। सूबा कैसे चलेगा, जब तक आप चोरी नहीं बंद करेंगे। तब तक आप एक नए सिस्टम का निर्माण नहीं कर पाएंगे।
सवाल- कैप्टन अमरिंदर सिंह के कांग्रेस छोडऩे के पीछे आपकी भूमिका की बात कही जाती है...
जवाब- (सवाल को बीच में ही काटते हुए) मैंने नहीं हटवाया उन्हें। कांग्रेस की सीएलपी की मीटिंग हुई थी और उसमें 78 विधायकों ने उनके खिलाफ वोट किया और हटाया।
सवाल- कैप्टन अमरिंदर सिंह के हटने के बाद चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया गया। जिस तरह से चन्नी काम कर रहे हैं क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
जवाब- संतुष्टि मेरी नहीं, पंजाब के लोगों की चाहिए। अगर पंजाब के लोग संतुष्ट होंगे तो सरकार दोबारा बन सकती है और अगर लोग संतुष्ट ना हुए और वो विश्वसनीयता, वो भरोसा, वो टूटा हुआ भरोसा हम वापस हासिल नहीं कर सके तो मैं यह मानता हूँ कि फिर बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा।
सवाल- जिस तरह से आप चीज़ें चाहते थे क्या अब मौजूदा सरकार में उस तरह से चीज़ें हो रही हैं?
जवाब- देखिए, कोई मुकम्मल नहीं है। हाँ ये है कि हम बेहतर करने का प्रयास करें। कहीं ना कहीं लोगों में एक आस और उम्मीद जगी है और आस-विश्वास की राजनीति से बड़ी दुनिया में कोई ताकत नहीं। लोगों के बीच अच्छा किरदार लेकर जाएं और वो विश्वसनीयता पाएं। अमरिंदर सिंह के राज में कांग्रेस वो विश्वसनीयता खो चुकी थी। 10 प्रतिशत सेवा थी और 90 फीसदी मेवा था। पहले पहुँच नहीं थी, आज वो सब कुछ है।
सवाल- पहले आप कैप्टन अमरिंदर सिंह की आलोचना करते थे और अब आप मुख्यमंत्री चन्नी की योजनाओं पर बोलते हैं।
जवाब- (सवाल को बीच में ही काटते हुए) मैं बिल्कुल भी ऐसा नहीं करता हूँ। बिल्कुल भी ऐसी बात नहीं है। मैं ये कहता हूँ कि धरती पर उतरना चाहिए और वो बजट आवंटन से आएगा, घोषणाएँ कर देने से नहीं आएगा। मैं ये कहता हूँ कि पॉलीसीज से लोगों का उत्थान होना चाहिए। गंभीरता से की गई रिसर्च से लोगों का उत्थान होना चाहिए। सिर्फ घोषणाओं से कुछ नहीं होगा।
सवाल- फिर वो आपकी बात सुनते क्यों नहीं हैं?
जवाब- वो मुख्यमंत्री हैं। वो प्रशासनिक प्रमुख हैं। जिसे एडमिनिस्ट्रेशन की ताकत मिल जाती है, मुख्यमंत्री के पास पूरी ताकत है, तो वो अपने तरीके से काम करेगा। लेकिन मैं कोई नहीं जज करने या परखने वाला। ये लोगों के ऊपर है कि वो देखें। आदमी जब मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसे हर निर्णय लेने की छूट होती है और जज करने की ताकत पंजाब के लोगों के पास है। इसमें मैं कहीं नहीं आता हूँ।
सवाल- अमरिंदर सिंह सरकार के दौर के कुछ मंत्री, अभी भी मंत्री हैं और वे चुनाव भी लडऩे वाले हैं। उनके बारे में आप क्या सोचते हैं?
जवाब- अगर आप सिस्टम में एक ईमानदार शख्स को ऊपर बिठा देंगे तो पापी तो नहीं मरेंगे, लेकिन पाप जरूर मर जाएगा। एक नए सिस्टम के साथ काम करना पड़ेगा। ये सिस्टम करप्ट है। ये सिस्टम लोगों से पाप करवाता है। मैंने तो कहा है कि पंजाब के लॉ एंड ऑर्डर को छोडक़र पंजाब की हर समस्या का हल इनकम है। इस इनकम को सुलझा लो, हर गुत्थी सुलझ जाएगी।
सवाल- आने वाले चुनावों में कांग्रेस को कहां खड़ा देखते हैं?
जवाब- मैं चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस को एक बहुत प्रॉमिस लेकर आने वाली पार्टी के रूप में देखता हूँ। कांग्रेस पॉलिसी में बदलाव लेकर आएगी। एक हजार वादे नहीं 10-12 वादे और अगर वो भरोसे योग्य हुए, अगर वो साधारण लेकिन लोगों के मन को छूने वाले हुए तो कांग्रेस दोबारा ताकत में आ सकती है और आज उस कगार पर खड़ी है।
सवाल- आम आदमी पार्टी ने कुछ दिनों पहले घोषणा की है कि उनका सीएम कैंडिडेट लोग तय करेंगे। आप की क्या टिप्पणी है?
जवाब- तो क्या जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के सीएम बने थे तो लोगों ने तय किया था पहले? लोगों ने वोट किया वो सही है, लेकिन वो तो खुद ही घोड़ी पर चढ़ गए थे। ये ड्रामा क्यों? पिछली बार लोगों से क्यों नहीं तय करवायाज्इस बार क्यों कहा जा रहा है कि हम नहीं अनाउंस करेंगे। वो ख़ुद मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। आप देखेंगे कि पिछली बार आम आदमी पार्टी हारी ही इस वजह से थी। तब क्यों नहीं लोगों की सूझी। तब क्यों रिमोट कंट्रोल से दिल्ली से चलाना था।
सवाल- लेकिन वो तो कह चुके हैं कि वो रेस में नहीं हैंज्
जवाब- वो तो पिछली बार भी यही कहते थे लेकिन सब लोग कहते थे कि वही रेस में हैं। कुमार विश्वास ने उनका भंडा फोड़ा कि नहीं फोड़ा। ये आदमी इतना असुरक्षित है कि वो किसी अच्छे लीडर को ऊपर आने ही नहीं देना चाहता है।
सवाल- प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक पर आप क्या सोचते हैं?
जवाब- वो सुरक्षा में चूक नहीं थी। पीएम की रैली में लोग नहीं इक_ा हुए थे। वो बीजेपी की विफलता थी। वो बीजेपी की सहयोगी पार्टी की विफलता थी। तो उसको ढकने के लिए ये स्वाँग रचा गया। वरना पीएम के पास एसपीजी सुरक्षा होती है और दसियों हज़ार लोग ऐसे हैं जो पंजाब पुलिस पर निर्भर नहीं हैं। उनका हेलिकॉप्टर अगर वहाँ उड़ता तो इतिहास हो जाता कि 70,000 कुर्सियों पर सात सौ लोगों को पीएम कैसे संबोधित करते। दिल्ली की सीमा पर किसान डेढ़ साल तक रहे किसी ने उफ्फ तक नहीं की। उन्हें खालिस्तानी कहा गया, मवाली कहा गया, लेकिन किसी ने उफ तक नहीं की। विरोध तो हो सकता है लेकिन जान को खतरा, वाली बात को मैं बिल्कुल भी मानने को तैयार नहीं हूँ। वो हमारे पीएम हैं, इज्जतदार हैं, उनका सम्मान होना चाहिए। हर जगह होना चाहिए। लेकिन क्योंकि पतली गली से निकलना था तो कोई बहाना चाहिए था इसलिए ये सुरक्षा में चूक का स्वाँग रचा गया। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका में एक ऐसी आतंकी घटना हुई है, जिसके कारण पाकिस्तान फिर से सारी दुनिया में बदनाम हो रहा है। सारी दुनिया के अखबारों और टीवी चैनलों पर इस खबर को प्रमुख स्थान मिला है। खबर यह है कि मलिक फैज़ल अकरम नामक एक आदमी ने टेक्सास के एक यहूदी मंदिर (साइनोगॉग) में घुसकर चार लोगों को बंदूक के दम पर बंधक बनाए रखा। यह आतंकी दृश्य इंटरनेट के जरिए सारा अमेरिका देख रहा था। अमेरिकी पुलिस ने आखिरकार इस आतंकी को मार गिराया।
यह आतंकी यों तो ब्रिटिश नागरिक था लेकिन वह पाकिस्तानी मूल का था। उसने साइनेगॉग पर इसलिए हमला बोला कि वह अमेरिकी जेल में बंद आफिया सिद्दिकी नामक महिला की रिहाई की मांग कर रहा था। आफिया मूलत: पाकिस्तानी है और वह अमेरिकी जेल में 86 साल की सजा काट रही है। उसे ‘लेडी अलकायदा’ भी कहा जाता है। आफिया को इसलिए 2010 में गिरफ्तार करके उस पर न्यूयार्क में मुदकमा चलाया गया था कि उसे अफगानिस्तान में कुछ अमेरिकी फौजी अफसरों की हत्या के लिए जिम्मेदार माना गया था।
आफिया सिद्दीकी पाकिस्तानी तो थी ही, वह पाकिस्तानी नेताओं की नजऱ में महानायिका भी थी। उसकी रिहाई के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने खुली अपीलें भी की थीं। उसे ‘राष्ट्रपुत्री’ का खिताब भी दिया गया था। उसके पक्ष में दर्जनों प्रदर्शन भी हुए थे। आतंकी मलिक अकरम ने टेक्सास के साइनेगॉग में बंदूक और विस्फोटकों के धमाकों के बीच दावा किया था कि वह आफिया का भाई है। लेकिन यह गलत था। अभी तक कोई ऐसा प्रमाण सामने नहीं आया है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि इस आतंकी घटना में पाकिस्तान की सरकार या फौज का कोई हाथ है लेकिन अब पाकिस्तान में मलिक फैजल अकरम को कुछ लोग ‘शहीद’ की उपाधि देकर महानायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने इस आतंकी घटना की घोर भर्त्सना की है और अमेरिकी जनता में, खासकर यहूदियों में इसकी सख्त प्रतिक्रिया हुई है। इस्राइली प्रधानमंत्री और अन्य यहूदी नेताओं ने पाकिस्तान को काफी आड़े हाथों लिया है। पाकिस्तान को पहले से ही अमेरिका ने लगभग अछूत बना रखा है, अब इस घटना ने उसकी मुसीबतें और भी ज्यादा बढ़ा दी हैं। पाकिस्तान के नेताओं, फौजियों और आम जनता के लिए इस दुखद घटना का सबक क्या है? क्या यह नहीं कि आतंकी तौर-तरीकों से किसी समस्या का हल नहीं हो सकता? उसके कारण खून-खराबा तो होता ही है, पाकिस्तान की बदनामी भी होती है। इस घटना के कारण पाकिस्तान के खिलाफ पहले से चल रहे अंतरराष्ट्रीय आर्थिक दबाव अब और भी ज्यादा बढ़ जाएंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. संजय शुक्ला
उत्तरप्रदेश, पंजाब सहित पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को रिझाने और साधने के लिए राजनीतिक दलों ने हर चुनाव की भांति मुफ्त वादों और सुविधाओं का पिटारा फिर से खोल दिया है। पार्टियों ने इन राज्यों के मतदाताओं को लुभाने करने के लिए मुफ्त बिजली और पानी सहित लैपटॉप, स्मार्टफोन बांटने का पांसा फेंका है। इसके अलावा महिलाओं को प्रभावित करने के लिए इस चुनाव में 40 फीसदी टिकट सहित नौकरी व रोजगार में आरक्षण, स्कूटी, मुफ्त शिक्षा, फ्री बस सेवा सहित मुफ्त गैस सिलेंडर बांटने जैसे वादे भी किए जा रहे हैं विचारणीय है कि राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं के बीच मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर सत्ता हासिल करने की प्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।
पार्टियों की ओर से चुनाव लोकसभा या विधानसभा का हों अथवा नगरीय निकायों का हर चुनाव में वोटरों को लुभाने के लिए खैरात बांटी जा रही है। ऐनकेन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्तखोरी की राजनीति में पक्ष और विपक्ष दोनों एक हैं। दरअसल चुनावों में मुफ्तखोरी के राजनीति की शुरुआत 1967 में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव से हुई। इस चुनाव में वहाँ की क्षेत्रीय पार्टी द्रमुक ने जनता को एक रुपये में डेढ़ किलो चांवल देने का वादा किया, यह वादा तब किया गया जब देश आकाल की विभीषिका के कारण खाद्यान्न संकट और भुखमरी से जूझ रहा था। द्रमुक के इस वादे को वोटर्स ने हाथों-हाथ लिया और कांग्रेस को सत्ता से रूखसत कर दिया।
सत्ता हासिल करने के लिए तमिलनाडु से शुरू हुआ सिलसिला अब हर चुनाव में गेम चेंजर साबित होने लगा है लेकिन इसका खामियाजा देश की बड़ी आबादी को चुकाना पड़ रहा है। वर्तमान चुनावी रणनीति अमूमन सभी दलों में खैरात बांटने की प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ती जा रही है। राजनीतिक दल चुनाव अभियानों में सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्त बिजली और पानी, किसानों के ऋण माफी, फसल बोनस, नगद पैसा, मुफ्त या रियायती अनाज, गैस सिलेंडर, महिलाओं और बेरोजगारों को पेंशन, घर, टीवी, पंखा, सायकिल, स्कूटी, मोबाइल फोन, लैपटॉप, टैबलेट, फ्री इंटरनेट डेटा, मुफ्त शिक्षा व उपचार सहित कोरोना वैक्सीन भी खैरात में बांटने का वादा कर रहे हैं। गौरतलब है कि सियासी दल मुफ्त के वादे तो बकायदा अपने चुनाव घोषणा पत्र में कर रहे हैं। घोषणा पत्र के अलावा पार्टियों से जुड़े उम्मीदवार मतदान के पहले गुपचुप तरीके से वोटरों को शराब, पैसा, कंबल, कुकर सहित अन्य चीजें बांटकर उनका वोट हथियाने की जुगत में लगे रहते हैं।
चुनावों में वोटरों के वोट हथियाने के लिए किए जा रहे मुफ्तखोरी के वादे और हथकंडे देश के सामने अनेक सवाल पैदा कर रहे हैं। यह सवाल हमारे राजनेताओं और सियासी दलों से भी है और मुफ्तखोरी के लोभ में फंसकर अपने वोट देने वाले वोटर्स से भी है।सवाल राजनेताओं और सियासी दलों से कि क्या सत्ता हासिल करने के लिये वोटरों से किया जा रहा मुफ्त वादा लोकतंत्र और स्वतंत्र चुनाव के लिहाज से आदर्श आचरण है? क्या पार्टियों के पास खैराती योजनाओं के घोषणा के पहले योजनाओं के क्रियान्वयन पर सरकारी कोष पर पडऩे वाले वित्तीय भार और फंड की व्यवस्था का खाखा उपलब्ध रहता है? क्या सरकारी कोष में इन खैराती योजनाओं के लिए पर्याप्त फंड रहता है? वह भी तब जब सरकारों के बजट घाटे के कारण टैक्स बढ़ाया जा रहा है। शायद ही किसी दल के पास ऐसी ठोस योजना होती है कि अगर वे सत्ता में आए तो विकास कार्यों के इतर इस तरह के वायदों को कैसे पूरा किया जाएगा और इन पर कितना पैसा खर्च होगा? परंतु सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्त सुविधाओं के वादे बदस्तूर जारी है।
असल में सत्तारूढ़ दल बाद में इन खैराती योजनाओं को लागू करने के लिए या तो विकास योजनाओं पर ताला लगा देतीं हैं या फिर टैक्स बढ़ाती हैं। सरकारों द्वारा टैक्स बढ़ाने और इसमें कोई रियायत नहीं देने के कारण महंगाई बढ़ती है जिसका भार आम उपभोक्ताओं पर पड़ता है। मुफ्त योजनाओं पर खर्च के कारण सरकार की प्राथमिकता से विकास और रोजगार जैसी योजनाएं हाशिये पर धकेल दी जाती हैं।
विचारणीय है कि मुफ्तखोरी की राजनीति का परिणाम यह हो रहा है कि आम लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से समझौता करना पड़ रहा है। टैक्स में बढ़ोतरी के बाद बढ़ती महंगाई के बीच मध्यम आयवर्गीय परिवारों को अपनी थाली में कटौती कर अपने जेब से खर्च कर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करना पड़ता है।
दूसरी ओर सरकारों द्वारा मुफ्तखोरी की योजनाओं पर धन लुटाने का परिणाम यह होता है कि सरकार को अपने स्थापना खर्च, वेतन-भत्तों के लिए रिजर्व बैंक से लोन लेना पड़ता है जिसका असर भी राजकोष पर पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में अपने एक फैसले में चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा अपने-अपने घोषणा पत्र में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त रेवडिय़ां बांटने की प्रवृत्ति को उचित नहीं माना था। शीर्ष अदालत ने फैसले में कहा था मुफ्त बांटने की घोषणाओं से चुनाव की स्वतंत्रता और निष्पक्षता प्रभावित होती है, कोर्ट ने चुनाव आयोग से इस संबंध में आवश्यक आचार संहिता बनाने का सुझाव दिया था। इस फैसले के बाद चुनाव आयोग ने 2014 में आदर्श आचार संहिता में नया प्रावधान जोड़ते हुए मुफ्त योजनाओं को मतदाताओं को प्रलोभन देने वाला बताते हुए कुछ दलों को नोटिस दिया था। अलबत्ता सात सालों बाद भी मुफ्त योजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के दखल का नतीजा सिफर है। बहरहाल चुनाव के दौरान वोट हासिल करने के लिए किए जाने वाले लोकलुभावन घोषणाएं किसी भी लिहाज से जनहित में नहीं है, इस पर सख्त कानून की दरकार है।
चुनावों के दौरान बेलगाम होते खैराती घोषणाओं के बीच अहम सवाल मतदाताओं से भी यह क्या उन्होंने अपने मताधिकार के कर्तव्यों के प्रति चिंतन किया है? आम जनता महंगाई, बेरोजगारी और बुनियादी सुविधाओं की समस्याओं से जूझ रहा है लेकिन मतदाता मुफ्तखोरी जैसे तात्कालिक लाभ के लिए इन समस्याओं के प्रति आंखें मूंद कर वोट दे रहा है। चुनाव लोकतंत्र का महापर्व होता है जिसमें हम लोकतंत्र के मंदिर के लिए अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। क्या यह उचित है कि हम नेताओं और सियासी दलों के चिकनी-चुपड़ी बातों और चंद खैरात के लोभ में आकर अपना वोट रुपी ईमान बेच दें? कई बार सरकारें राजस्व या पैसों की कमी के कारण अपने चुनावी वादे को पूरा नहीं करती यानि जनता छली जाती है।
बहरहाल मुफ्त और कर्ज माफी की राजनीति से जहाँ बेरोजगारी बढ़ती है वहीं ऐसी योजनाएं लोगों को निकम्मा भी बनाती हैं। मुफ्त योजनाओं का नकारात्मक प्रभाव समाज में बढ़ती शराबखोरी और नशाखोरी के रूप में सामने है जिसका दुष्प्रभाव महिलाओं और बच्चों पर घरेलू हिंसा के रूप में हो रहा है। राजनीतिक दलों को सोचना चाहिए कि सरकार किसी की भी हो उसे सामाजिक-आर्थिक उन्नति, आम जनता के जीवन की गुणवत्ता सुधारने, सामाजिक समरसता और सतत विकास के बारे में सोचना चाहिए ताकि लोग अपनी बुनियादी जरूरतों का खर्च खुद वहन कर सकें। मतदाताओं का भी यह कर्तव्य है कि वह चुनावों के दौरान फ्री बांटने के हथकंडों का त्याग करें और सियासी दलों व प्रत्याशियों से शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, महंगाई , पर्यावरण और आंतरिक शांति पर सवाल खड़ा करें। ऐसे सवालों से ही मुफ्तखोरी की राजनीति चमकाने वाले सियासी दलों और राजनेताओं पर अंकुश लगेगा और चुनाव की स्वतंत्रता , पवित्रता और निष्पक्षता बरकरार रहेगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे गणतंत्र दिवस पर यों तो सरकारें तीन दिन का उत्सव मनाती रही हैं लेकिन इस बार 23 जनवरी को भी जोडक़र इस उत्सव को चार-दिवसीय बना दिया गया है। 23 जनवरी इसलिए कि यह सुभाषचंद्र बोस का जन्म दिवस होता है। सुभाष-जयंति पर इससे बढिय़ा श्रद्धांजलि उनको क्या हो सकती है? भारत के स्वातंत्र्य-संग्राम में जिन दो महापुरुषों के नाम सबसे अग्रणी हैं, वे हैं— महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस। 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में गांधी और नेहरु के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारम्मय्या को सुभाष बाबू ने हराकर इतिहास कायम किया था।
वे मानते थे कि भारत से अंग्रेजों को बेदखल करने के लिए फौजी कार्रवाई भी जरुरी है। उन्होंने जापान जाकर आजाद हिंद फौज का निर्माण किया, जिसमें भारत के हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख और सभी जातियों के लोग शामिल थे। उस फौज के कई अफसरों और सिपाहियों से पिछले 65-70 साल में मेरा कई बार संपर्क हुआ हैं। उनका राष्ट्रप्रेम और त्याग अद्भुत रहा है। कई मामलों में गांधीजी के अहिंसक सत्याग्रहियों से भी ज्यादा! मैं सोचता हूं कि यदि सुभाष बाबू 1945 की हवाई दुर्घटना में बच जाते और आजादी के बाद भारत आ जाते तो जवाहरलाल नेहरु का प्रधानमंत्री बने रहना काफी मुश्किल में पड़ जाता। लेकिन नेहरु का बड़प्पन देखिए कि अब से 65 साल पहले वे सुभाष बाबू की बेटी अनिता शेंकल को लगातार 6000 रु. प्रतिवर्ष भिजवाते रहे, जो कि आज के हिसाब से लाखों रु. होता है।
इंदिरा गांधी ने सुभाष बाबू के सम्मान में डाक-टिकिट जारी किया, फिल्म बनवाई, राष्ट्रीय छुट्टी रखी, कई सडक़ों और भवनों के नाम उन पर रखे। 1969 में जब इंदिराजी काबुल गईं तो मेरे अनुरोध पर उन्होंने ‘हिंदू गूजर’ नामक मोहल्ले के उस कमरे में जाना स्वीकार किया, जिसमें सुभाष बाबू छद्म वेष में रहा करते थे लेकिन अफगान विदेश मंत्री डॉ. खान फरहादी ने मुझसे कहा कि इंदिराजी को वहां नहीं जाने की सलाह हमने भेजी है, क्योंकि वह जगह सुरक्षित और स्वच्छ नहीं है। जो भी हो, मैंने काबुल के उस कमरे में एक छोटा-सा उत्सव-जैसा करके सुभाष बाबू का चित्र प्रतिष्ठित कर दिया था।
मैं अब भाई नरेंद्र मोदी को बधाई देता हूं कि उन्होंने सुभाष बाबू के जन्म-दिवस को मनाने का इतना सुंदर प्रबंध कर दिया है। मैं तो उनसे अनुरोध करता हूं कि सुभाष बाबू वियना (आस्ट्रिया) और जापान में जहां भी रहते थे, उन स्थानों को वे स्मारक का रुप देने का कष्ट करें और वह पत्र भी पढ़ें, जो 24 जनवरी 1938 को महान स्वातंत्र्य-सेनानी रासबिहारी बोस ने सुभाष बाबू को लिखा था, ‘‘अगली महत्वपूर्ण बात है, हिंदुओं को संगठित करना! भारत के मुसलमान वास्तव में हिंदू ही हैं।ज् उनकी धार्मिक प्रवृत्तियां और रीति-रिवाज तुर्की, ईरान और अफगानिस्तान के मुसलमानों से अलग हैं। हिंदुत्व में बड़ा लचीलापन है।’’
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राजकुमार मेहरा
यह फिल्म फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘मारे गये गुल्फाम’ पर आधारित है । राज कपूर ने अपने जीवन का सबसे अधिक संवेदनशील रोल इसी फिल्म में किया है।
यह देखा गया है कि अक्सर फिल्म बनाने वाले बेहतर कहानी के साथ न्याय नहीं कर पाते। पर तीसरी कसम के साथ ऐसा नहीं हुआ। स्वयं रेणु लिखते हैं—फिल्म कहानी से ज्यादा अच्छी बनी।
तीसरी कसम शैलेन्द्र का शाहकार है इसमें उन्होंने अपना सब कुछ लगा दिया। फिल्म नहीं चली। शैलेन्द्र टूट गए। अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। वे कुल 43 बरस के थे।
भारत के स्वाधीनता संग्राम में शैलेन्द्रजी और रेणु जी दोनों जेल गये थे। प्रसिद्ध नारा ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ शैलेन्द्रजी ने ही दिया था। जावेद अख्तर कहते हैं: शैलेन्द्र कबीर, मीरा और खुसरो की परंपरा से आते हैं। शैलेन्द्र को तीसरी कसम के लिये सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड प्राप्त हुआ था।
तीसरी कसम के निर्देशक बासु भट्टाचार्य हैं। सिनेमेटोग्राफी सुब्रत मित्रा की है जो सत्यजित रे के भी सिनेमेटोग्राफर थे। स्क्रीनप्ले नबेन्दु घोष का है जो बिमल राय के लिए लिखते थे। फिल्म की स्क्रिप्ट और संवाद स्वयं रेणु के हैं। फिल्म को बेस्ट फीचर फिल्म के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
फिल्म की कहानी में नौटंकी की पृष्ठभूमि है इसलिये नृत्य तो होने ही हैं। नृत्य संरचना लच्छू महाराज की है और कुशल भरतनाट्यम नर्तकी वहीदा रहमान जी ने सभी नृत्य प्रस्तुति दी हैं।
तीसरी कसम में 9 गीत हैं, सभी एक से बढक़र एक! मधुर हिट संगीत शंकर जयकिशन का है।
मुकेश ने 3 गीत गाये हैं-
1. सजनवा बैरी हो गये हमार
2. सजन रे झूठ मत बोलो
3. दुनिया बनाने वाले
सजनवा बैरी... बिहार की लोक विधा ‘छोकरा नाच’ पर आधारित है। चलत मुसाफिर मोह लियो रे... में ‘चैती’ के स्वर हैं। हारमोनियम, ढोलक और झांझ का इससे अच्छा प्रयोग मैंने नहीं सुना।
हसरत जयपुरी साहब के गीत ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी’ में समस्त उपनिषदों के दर्शन का सार देखने को मिलता है।
‘सजनवा बैरी हो गये हमार’ सुनते समय भिखारी ठाकुर के ‘बिदेसिया’ की विरहनि की याद आ जाती है और आँखें बरबस ही भर आती हैं।
-सुदीप ठाकुर
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का अभियान तेज हो गया है। इसका पता इससे भी चलता है कि मुख्यमंत्री, मंत्री और सांसद वगैरह दलितों या अनुसूचित जाति के लोगों के घरों में जाकर जमीन पर बैठकर उनके साथ भोजन कर रहे हैं।
हालांकि यह सब बेहद प्रतीकात्मक और ढोंग के अलावा कुछ नहीं है, यह सबको पता है। हैरत इस पर होनी चाहिए कि जो देश आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है, उसके आबादी के लिहाज से सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री को ऐन चुनाव के समय सामाजिक संरचना के उत्पीडि़त लोगों के घर पर जाकर भोजन करते हुए अपनी तस्वीर क्यों प्रचारित करनी पड़ रही है! आखिर एक योगी को यह दिखावा क्यों करना पड़ रहा है, उसे तो ऐसे दिखावे से दूर रहना चाहिए?
यह सब हमारी सामाजिक संरचना की अंतर्निहित बुराइयों को ही उजागर कर रहे हैं। कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की ऐसी ही तस्वीरें सामने आ रही थीं। राजनीतिक रूप से पश्चिम बंगाल में प्रभावशाली मतुआ समाज को लुभाने के लिए वह इस समुदाय के घरों में जाकर भोजन कर रहे थे। हालांकि चुनाव के नतीजे बताते हैं कि उनकी यह सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा कारगर साबित नहीं हुई।
भारतीय समाज की संरचना में इतनी गहराई से जातियों की ऊंच-नीच समाई हुई है कि एक दिन किसी वंचित तबके के घर में भोजन करने से कोई चमत्कार नहीं हो जाने वाला है। फिर यह बात भी सामने आ चुकी है कि अतीत में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले लोगों के घरों में भोजन के ऐसे ही कार्यक्रम से पहले अधिकारियों ने उन्हें साबुन वगैरह दिए थे, ताकि वे नहा-धोकर साफ-सुथरे नजर आएं। यह भी सामने आया कि ऐसे अभियान में भोजन बाहर से लाया गया था।
मुझे मेरे गृह नगर राजनांदगांव के मेरे मोहल्ले में होने वाले एक कार्यक्रम की याद आ रही है। वहां एक श्री रामायण प्रचारक समिति है। 78 वर्ष पूर्व इसकी स्थापना हुई थी और तबसे वहां रोजाना दिन में कम से कम एक बार रामायण का पाठ होता है। श्री रामायण प्रचारक समिति तुलसी जयंती के मौके पर कई दिनों तक कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करती है, जिनमें प्रबुद्ध लोगों के व्याख्यान भी शामिल होते हैं। मेरे अग्रज और रामायण प्रचारक समिति के सचिव विनोद कुमार शुक्ला ने बताया कि समिति अब भी तुलसी जयंती मनाती है और वहां अब भी कई तरह के कार्यक्रम होते हैं।
कई दशक पूर्व श्री रामायण प्रचारक समिति ने तुलसी जयंती के मौके पर होने वाले अपने व्याख्यान का विषय रखा था, ‘रामायण की महिला पात्र’! विभिन्न वक्ताओं को सीता, उर्मिला, कौशल्या, कैकेयी और शबरी इत्यादि महिला पात्रों के बारे में बोलना था। वक्ताओं में राजनांदगांव के पूर्व विधायक जॉर्ज पीटर लियो फ्रांसिस यानी हम सबके जेपीएल फ्रांसिस या फ्रांसिस साहब भी थे।
थोड़ा फ्रांसिस साहब के बारे में पहले जान लीजिए। जेपीएल फ्रांसिस 1940-50 के दशक में राजनांदगांव स्थित बंगाल नागपुर कॉटन मिल्स में श्रमिक थे और समाजवादी रुझान के श्रमिक नेता। श्रमिक नेता रहते ही 1957 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से राजनांदगांव विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीता था।
फ्रांसिस साहब ने श्री रामायण प्रचारक समिति के व्याख्यान के लिए रामायण की जिस महिला पात्र को चुना वह थीं, शबरी। वही शबरी जो बेर चखकर श्रीराम को खिलाती हैं। फ्रांसिस साहब ने अयोध्या के युवराज राम और एक वंचित महिला शबरी के रिश्ते की बहुत खूबसूरती से सांस्कृतिक ही नहीं, समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी व्याख्या कर डाली।
प्रसंगवश यह भी जान लीजिए कि श्री रामायण प्रचारक समिति सिर्फ हिंदुओं तक सीमित नहीं है, जैसा कि फ्रांसिस साहब के व्याख्यान से अंदाजा लगाया जा सकता है। विनोद कुमार शुक्ला जी बताते हैं कि समिति विभिन्न धर्मों के विद्वानों को व्याख्यान के लिए आमंत्रित करती है, इसमें कोई बंधन नहीं है, ताकि सामाजिक सौहार्द मजबूत हो।
वस्तुत: जरूरत सामाजिक और जातिगत पदानुक्रम को तोडऩे की है। सिर्फ चुनावी मौसम में अनुसूचित जाति या जनजाति से जुड़े परिवारों के घरों में भोजन करने से यह पदानुक्रम नहीं टूटेगा।
मुझे कुछ दशक पूर्व की राजनांदगांव जिले के आदिवासी अंचलों मानपुर, मोहला और आंधी की यात्राओं की भी याद आ रही है। समाजवादी नेता, पूर्व विधायक मेरे चाचा (दिवंगत) विद्याभूषण ठाकुर को अक्सर वहां जाना पड़ता था। कई मौकों पर मैं और उनके बड़े पुत्र और मेरे मित्र जैसे भाई (दिवंगत) अक्षय भी साथ होते थे। कई ऐसे मौके भी होते थे, जब चाचा का सारथी बनकर मैं उन्हें मोटरसाइकिल से मानपुर-मोहला या छुरिया में होने वाली बैठकों के लिए ले जाया करता था। यह बैठकेंकई बार बड़ी और कई बार बहुत छोटी होती थीं। बिना किसी औपचारिकता के सुंदर सिंह मंडावी, नोहर, लाल मोहम्मद जैसे चाचा के सहयोगियों और कार्यकर्ताओं के घरों में भोजन होता था। जमीन पर बोरा बिछा दिया जाता था और अक्सर भात और मुर्गा परोसा जाता था या कभी-कभी लौकी जैसी हरी सब्जी। कहीं कोई दिखावा नहीं होता था। यह भोजन साहचर्य का हिस्सा था।
सचमुच राजनीति कितनी बदलती जा रही है। एक मुख्यमंत्री को अपने ही सूबे के एक नागरिक के घर भोजन करने के बाद तस्वीर प्रचारित करनी पड़ती है!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन के विदेश मंत्री वांग यी पिछले दिनों कुछ अफ्रीकी देशों के साथ-साथ श्रीलंका भी गए। वहां उन्होंने भारत का नाम तो नहीं लिया लेकिन जो बयान दिया, उसमें उन्होंने साफ-साफ कहा कि चीन-श्रीलंका संबंधों में किसी तीसरे देश को टांग नहीं अड़ानी चाहिए। यही बात उनके राजदूतावास ने उनके कोलंबो पहुंचने के पहले अपने एक बयान में कही थी। श्रीलंका किसी भी राष्ट्र के साथ अपने संबंध अच्छे बनाए, इसमें भारत को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन चीन की नीति यह रही है कि वह भारत के आस-पड़ौस में जितने भी राष्ट्र हैं, उनमें भारत-विरोध भडक़ाए।
उसकी हरचंद कोशिश होती है कि वह भारत का कूटनीतिक घेराव कर ले। उसने पाकिस्तान के साथ इसीलिए ‘इस्पाती दोस्ती’ की घोषणा कर दी है। भारत के अन्य पड़ौसी राष्ट्र पाकिस्तान के रास्ते पर तो नहीं चल रहे हैं लेकिन उनकी भी कोशिश रहती है कि भारत-चीन प्रतिस्पर्धा को वे अपने लिए जितना दुह सकते हैं, दुहें। श्रीलंका इसका सबसे ठोस उदाहरण है। श्रीलंका के अनुरोध पर उसके आतंकवादियों से लडऩे के लिए भारत ने अपनी सेना वहां भेजी थी। हमारे लगभग 200 सिपाही भी कुरबान हुए थे। लेकिन श्रीलंका के वर्तमान राष्ट्रपति गोटाबया राजपक्ष और उनके भाई और पूर्व राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष ने सत्तारुढ़ होते ही चीन के साथ इतनी पींगे बढ़ा लीं कि अब श्रीलंका चीन का उपनिवेश बनता जा रहा है।
चीन की रेशम महापथ की महत्वाकांक्षी योजना का श्रीलंका अभिन्न अंग बन गया है। उसने अपने सुदूर दक्षिण के हंबनटोटा नामक बंदरगाह को अब चीन के हवाले ही कर दिया है, क्योंकि उसके लिए उधार लिये गए चीनी पैसे को वह चुका नहीं पा रहा था। चीनी विदेश मंत्री ने अपनी इस यात्रा के दौरान समुद्री तटों पर बसे देशों के एक क्षेत्रीय संगठन का आह्वान किया है। इसका उद्देश्य भारत द्वारा शुरु किए गए ‘सागर’ नामक क्षेत्रीय संगठन को टक्कर देना है।
कोई आश्चर्य नहीं कि इस खेल में श्रीलंका को चीन अपना मोहरा बना लेगा। इस समय श्रीलंका की आर्थिक स्थिति दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा खराब है। चीनी संसद में विपक्ष के नेता डि सिल्वा ने कहा है कि श्रीलंका बिल्कुल दिवालिया हो गया है। अकेले अमेरिका का उसे 7 अरब डालर का कर्ज चुकाना है। चीन के सवा तीन बिलियन डॉलर के कर्जे में दबे श्रीलंका ने अपनी कई लंबी-चौड़ी जमीनें चीन के हवाले कर दी हैं। वह उसे ब्याज भी ठीक से नहीं दे पा रहा है।
भारत से कई गुना ज्यादा पैसा चीन वहां खपा रहा है। वांग यी से राष्ट्रपति गोटबाया ने खुले-आम रियायतें मांगी हैं। चीन की सैन्य मदद भी कई रुपों में श्रीलंका को मिल रही है। हथियार, पनडुब्बियां, प्रशिक्षण आदि क्या-क्या है, जो चीन नहीं दे रहा है। 20-20 लाख चीनी नागरिक हर साल श्रीलंका-यात्रा करते हैं। प्राचीन बौद्ध-संपर्क का फायदा दोनों देश उठाना चाहते हैं।
भारतीय विदेश मंत्रालय इन सब प्रवृत्तियों से सतर्क है लेकिन उसे यह भी पता है कि चीन की तरह वह भारत का पैसा अंधाधुंध तरीके से लुटा नहीं सकता। श्रीलंका को भारत का आभारी होना चाहिए कि भारत के डर के मारे ही उसे चीन की इतनी मदद मिल रही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)