विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
पांच राज्यों के चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक में वही हुआ, जो पहले भी हुआ करता था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि यदि पार्टी कहे तो हम तीनों (माँ, बेटा और बेटी) इस्तीफा देने को तैयार हैं। पांच घंटे तक चली इस बैठक में एक भी कांग्रेसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह नेतृत्व-परिवर्तन की बात खुलकर कहता। जो जी-23 समूह कहलाता है, जिस समूह ने कांग्रेस के पुनरोद्धार के लिए आवाज बुलंद की थी, उसके कई मुखर सदस्य भी इस बैठक में मौजूद थे लेकिन जी-23 अब जी-हुजूर-23 ही सिद्ध हुए।
उनमें से एक आदमी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह कांग्रेस के नए नेतृत्व की बात छेड़ता। सोनिया गांधी का रवैया तो प्रशंसनीय है ही और उनके बेटे राहुल गांधी को मैं दाद देता हूं कि उन्होंने कांग्रेस-अध्यक्ष पद छोड़ दिया लेकिन मुझे कांग्रेसियों पर तरस आता है कि उनमें से एक भी नेता ऐसा नहीं निकला, जो खम ठोककर मैदान में कूद जाता। वह कैसे कूदे? पिछले 50-55 साल में कांग्रेस कोई राजनीतिक पार्टी नहीं रह गई है। वह पोलिटिकल पार्टी की जगह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है।
उसमें कई अत्यंत सुयोग्य, प्रभावशाली और लोकप्रिय नेता अब भी हैं लेकिन वे नेशनल कांग्रेस (एनसी) याने ‘नौकर-चाकर कांग्रेस’ बन गए हैं। मालिक कुर्सी खाली करने को तैयार हैं लेकिन नौकरों की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वे उस पर बैठ जाएं। उन्हें दरी पर बैठे रहने की लत पड़ गई है। यदि कांग्रेस का नेतृत्व लंगड़ा हो चुका है तो उसके कार्यकर्ता लकवाग्रस्त हो चुके हैं। कांग्रेस की यह बीमारी हमारे लोकतंत्र की महामारी बन गई है। देश की लगभग सभी पार्टियां इस महामारी की शिकार हो चुकी हैं।
भारतीय मतदाताओं के 50 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट प्रांतीय पार्टियों को जाते हैं। ये सब पार्टियां पारिवारिक बन गई हैं। कांग्रेस चाहे तो आज भी देश के लोकतंत्र में जान फूंक सकती है। देश का एक भी जिला ऐसा नहीं है, जिसमें कांग्रेस विद्यमान न हो। देश की विधानसभाओं में आज भाजपा के यदि 1373 सदस्य हैं तो कांग्रेस के 692 सदस्य हैं। लेकिन पिछले साढ़े छह साल में कांग्रेस 49 चुनावों में से 39 चुनाव हार चुकी है। उसके पास नेता और नीति, दोनों का अभाव है।
मोदी सरकार की नीतियों की उल्टी-सीधी आलोचना ही उसका एक मात्र धंधा रह गया है। उसके पास भारत को महासंपन्न और महाशक्तिशाली बनाने का कोई वैकल्पिक नक्शा भी नहीं है। कांग्रेस अब पचमढ़ी की तरह नया ‘चिंतन-शिविर’ करनेवाली है। उसे अब चिंतन शिविर नहीं, चिंता शिविर करने की जरुरत है। यदि कांग्रेस का ब्रेक फेल हो गया तो भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी कहां जाकर टकराएगी, कुछ नहीं कहा जा सकता।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
मोहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान का राष्ट्रपिता कहा जाता है, जैसे गांधी को भारत का राष्ट्रपिता माना जाता है लेकिन भारत के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नजर में जिन्ना से अधिक घृणित व्यक्ति कौन रहा है? जून 2005 में जब भाजपा के अध्यक्ष और पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी कराची स्थित जिन्ना की मजार पर गए तो भारत में इतना जबर्दस्त हंगामा हुआ कि उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन अब देखिए कि सरसंघचालक मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ का रवैया कितना उदारवादी हो गया है। अहमदाबाद में आजकल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा का अधिवेशन चल रहा है। उस अधिवेशन की प्रदर्शनी में गुजरात के 200 विशिष्ट व्यक्तियों के चित्र लगाए गए हैं।
उसमें महात्मा गांधी के साथ मोहम्मद अली जिन्ना का चित्र भी लगा हुआ है। उसके नीचे लिखा है, जिन्ना पक्के राष्ट्रभक्त थे लेकिन बाद में धर्म के आधार पर उन्होंने भारत का विभाजन करवाया। सच्चाई तो यह है कि जिन्ना अगर नहीं होते तो भारत के टुकड़े ही नहीं होते। भारत के लोगों को यह पता ही नहीं है कि जिन्ना कांग्रेस के सबसे कट्टर धर्म-निरपेक्ष नेताओं में से एक रहे थे। वे सच्चे अर्थों में मुसलमान भी नहीं थे। वे गाय और सूअर के गोश्त में फर्क नहीं करते थे। न उन्हें उर्दू आती थी और न ही नमाज़ पढऩा। वे कहते थे, ‘मैं भारतीय पहले हूं, मुसलमान बाद में।’ उन्होंने तुर्की के खलीफा के समर्थन में चल रहे ‘खिलाफत आंदोलन’ का विरोध किया था जबकि इस घोर सांप्रदायिक आंदोलन का गांधी समर्थन कर रहे थे। 1920 में नागपुर के कांग्रेस के अधिवेशन में इस मुद्दे पर जिन्ना को इतना अपमानित किया गया कि वे बागी हो गए! गांधी और जिन्ना की यह टक्कर ही आगे जाकर पाकिस्तान के जन्म का कारण बनी।
गांधी और जिन्ना, दोनों गुजराती, दोनों वकील, दोनों बनिए और दोनों की एक ही प्रारंभिक भक्तिन सरोजिनी नायडू! कट्टरपंथी मुल्ला जिन्ना को ‘काफिरे-आजम’ कहते थे और सरोजनी नायडू उन्हें ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता का राजदूत’ कहती थीं। जब ये तथ्य मैंने सप्रमाण 1983 में कराची की जिन्ना एकेडमी में रखे थे तो बड़े—बड़े श्रोतागण हैरत में पड़ गए। वे भारत में फैले गांधीजी के वर्चस्व से इतना खफा हो गए थे कि राजनीति से संन्यास लेकर वे लंदन में जा बसे थे लेकिन लियाकत अली खान और उनकी बीवी शीला पंत उन्हें 1933 में लंदन से भारत खींच लाए। उन्होंने मुस्लिम लीगी नेता के तौर पर सारे भारत को भट्टी पर चढ़ा दिया, खून की नदियां बह गईं और भारत के टुकड़े हो गए लेकिन जिन्ना ने खुद स्वीकार किया कि ‘यह उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।’ पाकिस्तान की संविधान सभा में उन्होंने अपने पहले एतिहासिक भाषण में धर्म-निरपेक्षता की गुहार लगाई, हिंदू-मुस्लिम भेदभाव को धिक्कारा और पाकिस्तान को प्रगतिशाली राष्ट्र बनाने का आह्वान किया। क्या आज का पाकिस्तान वही है, जिसका सपना जिन्ना ने देखा था? पहले उसने अपने दो टुकड़े कर लिये और जब से वह पैदा हुआ है, उसका जीवन कभी अमेरिका और कभी चीन की चाकरी में ही बीत रहा है। (विस्तार से देखिए, लेखक की पुस्तक ‘भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमान)
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के इस दावे का यूक्रेन ने खंडन कर दिया है कि रूस-यूक्रेन वार्ता में कुछ प्रगति हुई है। इधर तुर्की में रूस और यूक्रेन के विदेश मंत्रियों के बीच पिछले तीन दिनों से बराबर संवाद चल रहा है। जब यूक्रेन पर रूस का हमला शुरु हुआ था तो ऐसा लग रहा था कि दो-तीन दिन में ही झेलेंस्की-सरकार धराशायी हो जाएगी और यूक्रेन पर रूस का कब्जा हो जाएगा लेकिन दो हफ्तों के बावजूद यूक्रेन ने अभी तक घुटने नहीं टेके हैं। उसके सैनिक और सामान्य नागरिक रूसी फौजियों का मुकाबला कर रहे हैं। इस बीच सैकड़ों रूसी सैनिक मारे गए हैं और उसके दर्जनों वायुयान तथा अस्त्र-शस्त्र मार गिराए गए हैं। यूक्रेनी लोग भी मर रहे हैं और कई भवन भी धराशायी हो गए हैं।
यूक्रेन का इतना विध्वंस हुआ है कि उससे पार पाने में उसे कई वर्ष लगेंगे। अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्र उसकी क्षति-पूर्ति के लिए करोड़ों-अरबों डॉलर दे रहे हैं। रूसी जनता को भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस हमले को पूतिन इतना लंबा क्यों खींच रहे हैं? जब झेलेंस्की ने नाटो से अपने मोहभंग की घोषणा कर दी है और यह भी कह दिया है कि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं होगा तो फिर अब बचा क्या है? पूतिन अब भी क्यों अड़े हुए हैं? शायद वे चाहते हैं कि नाटो के महासचिव खुद यह घोषणा करें कि यूक्रेन को वे नाटो में शामिल नहीं करेंगे। इस झगड़े की जड़ नाटो ही है। नाटो के सदस्य यूक्रेन की मदद कर रहे हैं, यह तो अच्छी बात है लेकिन वे अपनी नाक नीची नहीं होना देना चाहते हैं। उन्हें डर है कि यदि नाटो ने अपने कूटनीतिक हथियार डाल दिए तो उसका असर उन राष्ट्रों पर काफी गहरा पड़ेगा, जो पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के हिस्सा थे। लेकिन अमेरिका और नाटो अब भी संकोच करेंगे तो यह हमला और इसका प्रतिशोध लंबा खिंच जाएगा, जिसका बुरा असर सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। यूरोपीय राष्ट्रों को अभी तक रूसी गैस और तेल मिलता जा रहा है।
उसके बंद होते ही उनकी अर्थव्यवस्था लंगड़ाने लगेगी। एशियाई और अफ्रीकी राष्ट्र भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। जहां तक रूस का सवाल है, उसकी भी दाल पतली हो जाएगी। पूतिन के खिलाफ रूस के शहरों में प्रदर्शन होने शुरु हो गए हैं। प्रचारतंत्र पर तरह-तरह के प्रतिबंध लग गए हैं। पूतिन ने यूक्रेन में युद्धरत आठ कमांडरों को बर्खास्त कर दिया है। पूतिन को यह समझ में आ गया है कि यूक्रेन पर रूसी कब्जा बहुत मंहगा पड़ेगा। कीव में थोपी गई कठपुतली सरकार ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। खुद पूतिन की लोकप्रियता को रूस में धक्का लगेगा। यूक्रेन में होनेवाली फजीहत का असर मध्य एशिया के गणतंत्रों के साथ रूस के संबंधों पर भी पड़ेगा। यूक्रेनी संकट के समारोप का यह बिल्कुल सही समय है। रूसी और अमेरिकी खेमों, दोनों को अब यह सबक सीखना होगा कि एक फर्जी मुद्दे को लेकर इतना खतरनाक खेल खेलना उचित नहीं है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
15 मार्च- विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस विशेष
-डॉ राजू पाण्डेय
15 मार्च को मनाया जाने वाला विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस उपभोक्ताओं के अधिकारों एवं उनकी आवश्यकताओं के विषय में वैश्विक स्तर पर जागरूकता उत्पन्न करने का एक अवसर है। यही वह तिथि थी जब 1962 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने अमेरिकी कांग्रेस को उपभोक्ता अधिकारों के महत्व से अवगत कराते हुए इनकी रक्षा पर बल दिया था। उपभोक्ता आंदोलन ने पहली बार इस तिथि को 1983 में चिह्नित किया।
इस वर्ष कंज़्यूमर इंटरनेशनल के 100 देशों में फैले हुए 200 कंज़्यूमर समूहों ने "फेयर डिजिटल फाइनेंस" को विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस की थीम के रूप में चुना है। कंज़्यूमर इंटरनेशनल यह महसूस करता है कि तेजी से बढ़ती डिजिटल बैंकिंग जहां उपभोक्ताओं और व्यवसायों के लिए नए अवसर उत्पन्न कर रही है वहीं इसके तीव्र प्रसार के कारण सर्वाधिक संवेदनशील समूहों के पीछे छूट जाने का खतरा भी बना हुआ है। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए साइबर फ्रॉड तब घातक सिद्ध होते हैं जब उनकी जिंदगी भर की जमा पूंजी पल भर में गायब हो जाती है।
फेयर डिजिटल फाइनेंस उपलब्ध कराना सरकारों और सेवा प्रदाताओं के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती रहा है। वित्तीय सेवाओं का स्वरूप तेजी से डिजिटल हुआ है। 2007 से 2009 के मध्य आए वित्तीय संकट के बाद नए स्टार्ट अप्स और वित्तीय कंपनियों ने आम जनता एवं विभिन्न व्यवसायों को सीधे वित्तीय उत्पाद एवं सेवाएं देना प्रारंभ कर दिया।
धीरे धीरे फिनटेक की अवधारणा सामने आई। फिनटेक वह बिंदु है जहाँ पर वित्तीय सेवाओं और तकनीक का मिलन होता है। मोबाइल आधारित इंटरनेट सेवा और ई कॉमर्स ने फिनटेक के प्रसार में बहुत बड़ा योगदान दिया है। फिनटेक सेवाओं का स्वरूप बहुत व्यापक है। इनमें बचत, निजी वित्तीय प्रबंधन सुविधा, निवेश और संपदा प्रबंधन, उधार एवं अनसिक्योर्ड क्रेडिट,मोर्टगेज, भुगतान, धन का प्रेषण, ई कॉमर्स हेतु डिजिटल वॉलेट उपलब्ध कराना, बीमा, क्रिप्टो करेंसी एवं ब्लॉक चेन्स आदि विविध प्रकार की सेवाएं शामिल हैं।
मैकिंसी का आकलन है कि वैश्विक स्तर पर कम से कम 2000 फिनटेक स्टार्टअप्स परंपरागत एवं नई वित्तीय सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं जबकि लगभग 12000 फिनटेक फर्म्स अस्तित्व में हैं।
एक्सेंचर का 2020 का सर्वेक्षण दर्शाता है कि अब 50 प्रतिशत उपभोक्ता हफ्ते में कम से कम एक बार मोबाइल एप या वेबसाइट के जरिए अपने बैंक से लेनदेन करते हैं जबकि दो वर्ष पहले ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या 32 प्रतिशत थी।
दरअसल कोविड-19 के कारण डिजिटल लेनदेन लगभग अनिवार्य बन गया। हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में जहां डिजिटल साक्षरता बहुत कम है और डिजिटल संसाधनों का अभाव है वहां भी लोग डिजिटल लेनदेन के लिए बाध्य हो गए। इस कारण डिजिटल बैंकिंग और डिजिटल लेनदेन में तो बड़ी वृद्धि हुई किंतु साथ ही साइबर फ्रॉड, फिशिंग और डाटा चोरी एवं एक विशेष उद्देश्य से एकत्रित डाटा का अन्य उद्देश्य के लिए प्रयोग किए जाने की घटनाएं बढ़ीं।
आरबीआई के नवीनतम आंकडों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2020-21 में डिजिटल भुगतान में 30.19 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। नवगठित डिजिटल भुगतान सूचकांक (आरबीआई-डीपीआई) मार्च 2020 के अंत में 207.84 था जो मार्च 2021 के आखिर में बढ़कर 270.59 हो गया।
इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने नवम्बर 2021 में लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि वित्त वर्ष 2019 में डिजिटल लेनदेन की संख्या 3134 करोड़ थी जो वित्त वर्ष 2020 में बढ़कर 4572 करोड़ हो गई। वित्त वर्ष 2021 में इसमें और बढ़ोतरी हुई और यह 5554 करोड़ हो गई। जबकि वित्त वर्ष 22 में नवंबर के मध्य तक 4683 करोड़ डिजिटल लेनदेन हो चुके थे।
अप्रशिक्षित भारतीय उपभोक्ताओं ने कोविड-19 के कारण डिजिटल बैंकिंग की दुनिया में झिझकते- सहमते प्रवेश तो ले लिया किंतु उनका पहला अनुभव अनेक बार अच्छा नहीं रहा। उन्हें ऑनलाइन धोखाधड़ी का सामना करना पड़ा।
ऑनलाइन फ्रॉड पर लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने बताया कि 2019 में केवल 3 महीनों(अक्टूबर से दिसंबर) में ऑनलाइन बैंक फ्रॉड की 21041 घटनाएं हुईं जिनमें 129 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी यह दर्शाते हैं कि कोविड-19 ने लोगों को डिजिटल लेनदेन के लिए बाध्य किया और इस कारण साइबर अपराधियों की बन आई। वर्ष 2019 में ऑनलाइन फ्रॉड के लगभग 2000 मामले दर्ज हुए थे जो 2020 में बढ़कर चार हजार की संख्या को पार कर गए।
फरवरी 2021 में तत्कालीन इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आई टी राज्य मंत्री संजय धोत्रे ने राज्य सभा को बताया था कि सन 2020 में डिजिटल बैंकिंग क्षेत्र में साइबर सुरक्षा से संबंधित 290445 घटनाएं दर्ज की गईं थीं।
मेडिसी ग्लोबल की जून 2020 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 40,000 हज़ार साइबर हमलों ने बैंकिंग क्षेत्र के आईटी बुनियादी ढाँचे को निशाना बनाया।
इस तरह के ऑनलाइन बैंक फ्रॉड न केवल ग्राहक या कंपनी को वित्तीय क्षति पहुंचाते हैं बल्कि इनके कारण ग्राहक का भरोसा ऑनलाइन लेनदेन और संबंधित कंपनी के प्रति कम होता है। कंपनी का व्यवसाय प्रभावित होता है और उसकी साख पर बुरा असर पड़ता है।
कंज्यूमर यूनिटी एंड ट्रस्ट सोसाइटी इंटरनेशनल के कंज़्यूमर सर्वे ऑन डाटा प्राइवेसी एटीट्यूड इन इंडिया के अनुसार भारत में डाटा प्राइवेसी बहुत निचले स्तर पर है और उपभोक्ताओं में डाटा सुरक्षा की अवधारणा के विषय में समझ कम है, उनमें इस बारे में जागरूकता का अभाव है। वे इस विषय में उतनी सक्षमता भी नहीं रखते। कट्स इंटरनेशनल द्वारा किए गए सर्वे से ज्ञात हुआ कि उपभोक्ता सामान्य तौर पर अपना निजी डाटा साझा करने में असुविधा का अनुभव करते हैं। उपभोक्ता अपनी फाइनेंसियल डिटेल्स,ब्राउजिंग एवं कम्युनिकेशन हिस्ट्री और लोकेशन को साझा करने के लिए सर्वाधिक अनिच्छुक होते हैं किंतु सेवा प्रदाताओं को वे यह निजी डाटा अवश्य उपलब्ध कराते हैं। इन उपभोक्ताओं का यह भी मानना है कि किसी खास उद्देश्य से लिए गए डाटा का उपयोग किसी अन्य असंगत उद्देश्य के लिए नहीं किया जाना चाहिए। भारत सरकार द्वारा पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल का ड्राफ्ट तैयार करने हेतु गठित एक्सपर्ट कमेटी को भी कट्स इंटरनेशनल के सर्वेक्षण के निष्कर्षों से अवगत कराया गया है।
यह उम्मीद कि कोविड-19 पर हमारी निर्णायक विजय के बाद हम पारंपरिक फाइनेंस और बैंकिंग की ओर लौट जाएंगे पूरी होती नहीं दिखती। वित्तीय सेवाओं का डिजिटलीकरण एक वैश्विक प्राथमिकता है और हमारा देश कोई अपवाद नहीं है। भारत सरकार ने डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस बार के बजट में अधिसूचित व्यावसायिक बैंकों के माध्यम से देश भर के 75 जिलों में डिजिटल बैंकिंग यूनिट्स की स्थापना का प्रस्ताव दिया है।
प्रश्न केवल यह है कि इस परिवर्तन की गति क्या हो? वित्तीय सेवा प्रदाताओं और आम उपभोक्ता को इसके लिए कैसे तैयार किया जाए? आम उपभोक्ता की सीमाओं और कमजोरियों को ध्यान में रखकर सरल, सुरक्षित और सुविधाजनक डिजिटल फाइनेंस सेवाओं को किस प्रकार डिज़ाइन किया जाए? आम उपभोक्ता को किस प्रकार साइबर हमलों से सुरक्षित रखा जाए? धोखाधड़ी का शिकार होने पर उपभोक्ता को रकम की वापसी और दोषी को दंड सुनिश्चित कैसे किया जाए?
यही कारण है कि इस वर्ष के विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस की थीम -फेयर डिजिटल फाइनेंस- भारत के संदर्भ में विशेष रूप से महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है।
वित्तीय अपराधों से निपटने में हमारा तंत्र अभी सक्षम नहीं हो पाया है। एक समाचार समूह द्वारा आरटीआई के तहत बैंक फ्रॉड के विषय में मांगी गई जानकारी प्रदान करते हुए आरबीआई ने बताया कि वित्त वर्ष 2021 में प्रतिदिन 229 बैंकिंग फ्रॉड हुए जिनमें 1.38 लाख करोड़ रुपए की राशि की हेराफेरी हुई, इसमें से केवल 1031.31 करोड़ रुपए की रिकवरी की जा सकी।
साइबर फ्रॉड में अपराधियों से राशि वापस हासिल करना और उन्हें सजा देना बहुत कठिन है। कानून के जानकार बताते हैं कि दुनिया के अन्य देशों में साइबर क्राइम की शिकायत फ्रॉड का शिकार हुए उपभोक्ता के बैंक या उसके मोबाइल सेवा प्रदाता द्वारा दर्ज कराई जाती है, जबकि हमारे देश में यह काम पीड़ित उपभोक्ता को ही करना पड़ता है। पीड़ित का बैंक और मोबाइल सेवा प्रदाता उसे कोई भी सहयोग देने से इनकार कर देते हैं। न्यायिक क्षेत्राधिकार का अलग अलग होना पुलिस के लिए बाधा बनता है। प्रायः साइबर फ्रॉड के जरिए निकाली गई रकम देश के दूसरे भागों में खोले गए खातों में स्थानांतरित कर दी जाती है। इन खातों के एकाउंट होल्डर ही फेक होते हैं। असली दोषी तक पहुंचना बहुत कठिन होता है।
भारत में अब तक कोई विशेष साइबर सुरक्षा कानून नहीं बनाया गया है। आईटी एक्ट 2000 के तहत ही मामले दर्ज किए जाते हैं। एनसीआरबी की 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि पुलिस के स्तर पर साइबर क्राइम के मामलों में चार्जशीट फ़ाइल करने की दर महज 47.5 प्रतिशत है जबकि पेंडेंसी रेट 71 प्रतिशत है। न्यायिक स्तर पर कन्विक्शन रेट 68 प्रतिशत और पेंडेंसी रेट 89 प्रतिशत है।
प्रशिक्षित पुलिस कर्मियों की कम संख्या, प्रशिक्षित पुलिस कर्मियों के बार बार तबादले, मामलों की अधिकता और संसाधनों की कमी के कारण साइबर क्राइम की जांच प्रभावित होती है। छले गए उपभोक्ता के लिए यह स्थिति बहुत पीड़ादायक होती है।
उपभोक्ता शिक्षा के बारे में आरबीआई ने कुछ महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। आरबीआई का प्रोजेक्ट फाइनेंसियल लिटरेसी विभिन्न लक्षित समूहों, यथा स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी, महिलाएँ, ग्रामीण तथा शहरी निर्धन जन,रक्षा कर्मी व वरिष्ठ नागरिक गण आदि को केंद्रीय बैंक एवं सामान्य बैंकिंग अवधारणाओं के बारे में जानकारी देने से संबंधित है।
इसी प्रकार का एक कार्यक्रम सेबी और एनआईएसएम द्वारा चलाया जा रहा है। पॉकेट मनी नामक यह कार्यक्रम स्कूली विद्यार्थियों के बीच वित्तीय साक्षरता बढ़ाने पर केंद्रित है।
नीति आयोग और मास्टरकार्ड की 2021 की ‘कनेक्टेड कॉमर्स: क्रिएटिंग ए रोडमैप फॉर ए डिजिटल इन्क्लूसिव भारत’रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है कि डिजिटल लेनदेन में वृद्धि से उपभोक्ताओं एवं कंपनियों दोनों हेतु संभावित सुरक्षा उल्लंघनों का खतरा बढ़ गया है। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि फ्रॉड रिपॉज़िटरी’ समेत सूचना साझाकरण प्रणाली निर्मित की जाए और इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि ऑनलाइन डिजिटल कॉमर्स प्लेटफॉर्म उपभोक्ताओं को धोखाधड़ी के खतरे के प्रति सतर्क करने के लिये चेतावनी जारी करें।
फेयर डिजिटल फाइनेंस का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है जब सरकार की नियामक संस्थाओं से उपभोक्ता संगठन संवाद करें और उपभोक्ताओं के दृष्टिकोण को उन तक पहुंचाएं। यह भी आवश्यक है कि विधि निर्माण हेतु गठित निकायों और समितियों की बैठकों में उपभोक्ता संगठनों को निमंत्रित किया जाए और उनसे सूचनाएं एवं आंकड़े प्राप्त किए जाएं।
उपभोक्ता शिकायतों की प्रकृति का अध्ययन किया जाए जिससे यह ज्ञात हो सके कि किस प्रकार की शिकायतें सर्वाधिक हैं और तदनुसार नई नीतियां निर्मित की जा सकें।
भविष्य ग्रीन फाइनेंस का है। उपभोक्ता संगठन वर्तमान पारंपरिक वित्तीय सेवाओं के ग्रीन फाइनेंस में बदलाव के संवाहक बन सकते हैं और सेवा प्रदाताओं, सरकारों तथा नियामकों को उपभोक्ता केंद्रित नीति बनाने को प्रेरित कर सकते हैं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-रमेश अनुपम
9. यह कि इस समय तक पुलिस पर्याप्त शक्तिशाली हो गई थी, क्योंकि अत्यधिक संख्यां में सशस्त्र पुलिस वाले जिनके पास बंदूकें लाठियां और ढाल थे वहां पहुंच चुके थे और तत्पश्चात वे सशस्त्र पुलिस वाले अत्यधिक फायर करते हुए और बहुत अश्रु गैस छोड़ते हुए महल के मुख्य द्वार से प्रसाद क्षेत्र में प्रविष्ट हुए।
10. यह कि तत्पश्चात यह सुना गया कि एक सशस्त्र पुलिस का हवलदार घायल हो गया और लॉकअप रक्षक हेड कांस्टेबल भी घायल हुआ है। फिर सशस्त्र पुलिस वाले मुख्य प्रसाद स्थल के भीतर गए और रुक-रुक कर अंधाधुंध गोली चालन निरंतर दिनांक 26.3.1966 के प्रात: 4:00 बजे तक करते रहे।
11. यह कि 25 .3.1966 को रात्रि के लगभग 11.30 बजे तक निरंतर अंधाधुंध गोली चालन की ध्वनि राजप्रसाद के भीतर सुनी जाती रही।
12. यह कि सशस्त्र पुलिस बल द्वारा दिनांक 25.3. 1966 के 11.30 बजे मध्यान्ह से दिनांक 26 .3.1966 की सुबह लगभग 4.00 बजे तक जो प्रभूत, निरंतर तथा रुक-रुक कर राजप्रसाद के भीतर गोली चालन किया गया। वहां जिस प्रकार और जितना गोली चालन हुआ उसको कदापि न्याय संगत नहीं कहा जा सकता है।
13. यह कि पुलिस द्वारा इस स्थिति पर काबू पाने के लिए जितनी शक्ति का उपयोग किया गया वह आवश्यकता और सीमा से अधिक थी।
14. यह कि रात्रि में इस घटना से संबंधित अधिकारियों और पुलिस वालों ने राजप्रसाद के चारों मुख्य द्वारों पर एक-एक सर्च लाइट लगा दी थी, जिसका प्रकाश राजप्रसाद की ओर जाता था उक्त रात्रि में राज प्रसाद के भीतर अंधकार था।
15. यह कि मैं अपने उपरोक्त वक्तव्य की पुष्टि हेतु लगभग 50 साक्षियों का साक्ष्य दूंगा और इन साक्षियों को जांच के समय प्रस्तुत करूंगा। में पुलिस के अवैधानिक कार्यकलापों के कारण उन साक्षियों की नामावली अपने इस वक्तव्य के साथ नहीं प्रकट करना चाहता।
पूर्व में दिए गए एक शिक्षा शास्त्री और एक चिकित्सक के बयान को गंभीरतापूर्वक पढ़े जाने की आवश्यकता है। इन दोनों बयानों के अतिरिक्त एडवोकेट गोरेलाल झा द्वारा शासकीय अधिकारियों से किए गए जिरह पर भी गौर किए जाने की जरूरत है।
इन बयानों से यह है स्पष्ट हो जाता है कि 25 मार्च सन 1966 को बस्तर राजमहल में जो दुर्भाग्यपूर्ण गोलीकांड हुआ है वह अनावश्यक था। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को आसानी के साथ टाला भी जा सकता था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और अनेक बेकसूर आदिवासियों की मौत केवल शासन प्रशासन के अविवेकपूर्ण निर्णय का ही एक घातक परिणाम था।
क्या बस्तर गोलीकांड शासन-प्रशासन का एक पूर्व नियोजित षड्यंत्र नहीं था? आदिवासियों के देवतुल्य महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को सदा-सदा के लिए चुप करवा दिए जाने की क्या यह कोई गहरी साजिश नहीं थी?
बस्तर के आदिवासियों की पीड़ा और शोषण को लेकर सरकार से सवाल जवाब करना क्या कोई जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है ?
स्वतंत्रता के पश्चात भी बस्तर के आदिवासियों को न्याय नहीं मिल पाना, उनके जल, जंगल और जमीन को गैर आदिवासियों द्वारा लूटा जाना न्यायोचित है ?
मालिक मकबूजा के नाम पर उनके बेशकीमती पेड़ों को औने-पौने दामों में बिचौलियों द्वारा खरीदना, अपने पीने के लिए बनाए गए महुवा से बने शराब को जब्त कर उन्हें पुलिस द्वारा प्रताडि़त किया जाना, क्या एक लोकतांत्रिक सरकार को शोभा देता है?
अगर आजादी के बाद हमारे द्वारा चुनी गई सरकारें आदिवासियों के हितों का ध्यान रखती। उन्हें हर तरह की लूट और शोषण से बचाए रखने की कोशिश करती, तो बस्तर जैसा वीभत्स गोली कांड की कभी नौबत ही नहीं आती।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के विषय में अक्सर यह प्रचारित किया जाता रहा है कि उनका मानसिक संतुलन ठीक नहीं था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के विक्षिप्त होने के संबंध में अनेक प्रकार के झूठे किस्से भी गढ़े गए हैं। बस्तर के आदिवासियों को शासन-प्रशासन की खिलाफ उकसाने के अनेक अफसाने भी उनके विरुद्ध लिखे गए हैं।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की शिक्षा-दीक्षा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई थी। वे काफी पढ़े-लिखे थे।उनकी अपनी एक समृद्ध लाइब्रेरी भी राजमहल में थी।
21, 22 तथा 23 अक्टूबर सन् 1950 में तीन दिवसीय मध्य प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन का चतुर्दश वार्षिक अधिवेशन जो बस्तर महाराजा के राजमहल में संपन्न हुआ उसके वे स्वागत समिति के अध्यक्ष भी थे। इस अधिवेशन की सारी जिम्मेदारी महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के द्वारा उठाई गई थी।
डॉ . सुनीति कुमार चैटर्जी, आचार्य क्षिति मोहन सेन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, भदंत आनंद कौशल्यायन , डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ . बलदेव प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र जैसी महान विभूतियां उस अधिवेशन में सम्मिलित थे।
ऐसी महान विभूति को मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित किया जाना किस तरह की मानसिकता का परिचायक है? इसे आसानी से समझा जा सकता है।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव साहित्यिक एवं अध्यात्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। उन्होंने ‘योग के आधार’
(सिंघई प्रेस जबलपुर), ‘योग तत्व’ तथा ‘भगवत तत्व’
(राजेंद्र प्रेस चारामा) ‘लोहंडीगुड़ा तरंगिनी’ तथा ‘आई प्रवीर द आदिवासी गॉड’ (लक्ष्मी प्रिंटिंग प्रेस रायपुर) जैसी महत्वपूर्ण कृतियों की रचना की थी।
ऐसे संवेदनशील प्रवीर चंद्र भंजदेव की छवि को धूमिल करने वाले कभी क्षमा के पात्र नहीं हो सकते हैं।
शेष अगले सप्ताह बस्तर से एक ग्राउंड रिपोर्ट..
The Gandhis, as these assembly polls show, are a gift to the BJP
-Ramachandra Guha
Every electoral contest is a story of winners and losers. While much of the commentary on the results of the recent assembly elections will inevitably highlight their major winners, this column shall instead focus on the principal loser. For, beyond the comfortable re-election of Yogi Adityanath and the Bharatiya Janata Party in Uttar Pradesh and the impressive victory of the Aam Aadmi Party in Punjab, this latest series of assembly elections confirms — yet again — the steady and possibly irreversible decline of the Congress Party.
Consider, to begin with, India’s largest state, Uttar Pradesh, which sends as many as 80 MPs to the Lok Sabha. In colonial times, this state was an epicentre of the Congress-led freedom movement. After Independence, it provided India with its first three prime ministers. However, in the late 1960s, the Congress’s hold on the politics of Uttar Pradesh began to visibly weaken, and for at least thirty years now it has been a marginal player in the state.
This time, the latest Nehru-Gandhi to enter politics, Priyanka Gandhi, took it upon herself to seek to revive the party’s fortunes in Uttar Pradesh. Although she declined to shift her home base from Delhi to Lucknow and refused to fight an assembly seat herself, Priyanka made regular trips to the state. These were met with breathless excitement by those sections of the media (and social media) that still haven’t stopped seeing the Nehru-Gandhis as an Indian version of the House of Windsor. Every visit, every press conference, every announcement was reported by these dynasty-worshippers as presaging an electoral resurgence of the party in Uttar Pradesh. In the event, the Congress under Priyanka Gandhi obtained a vote share of just over 2 per cent and won even fewer seats than it had in the last assembly elections.
In Uttar Pradesh, Priyanka Gandhi at least got some marks for effort, if none for impact. In Punjab, where the Congress was in power, her brother, Rahul, threw away his party’s chances of re-election through the capricious replacement of the incumbent chief minister less than a year before the polls. Although he was not popular with a section of the MLAs, Amarinder Singh had wide experience in politics, and, more importantly, had taken a strong stand in favour of the farmers’ movement. A year ago, the Congress and the AAP both had equal chances of winning Punjab. But then Amarinder’s replacement by the relatively unknown Charanjit Singh Channi, and Channi’s undermining by Rahul Gandhi’s indulgence of the destructive Navjot Singh Sidhu, threw the entire state unit in disarray. In the event, the Congress was comprehensively defeated by the AAP in Punjab.
Turn next to Goa and Uttarakhand. In both states, the BJP was in power but its governments were deeply unpopular, seen as corrupt and unfeeling. In Uttarakhand, the BJP changed two chief ministers in a bid to stem discontent. In both states, the Congress was the principal Opposition party; yet in each case, it was not able to mount a strong enough challenge to regain power. Nor, finally, could the Congress make a significant impact in Manipur, once a state where it was the natural party of governance, and where (as I send this column to press) it appears to have won twenty fewer seats than last time.
The latest round of elections confirms, yet again, what some of us have known for a long time — that at least under its current leadership, the Congress is incapable of ever again becoming a major player in national politics. After leading the party to a humiliating loss in the 2019 general election, Rahul Gandhi resigned as Congress president. His mother, Sonia Gandhi, then became ‘acting’ president of the party; two-and-a-half-years on, the party still hasn’t taken any steps to choose a successor. The Congress has remained under the de facto control of the Family; with the results that we are now seeing.
Back in 2019, the Congress had a chance to reinvent itself; it threw it away. What might it do now? I believe that for the good of the party, as well as for the good of Indian democracy, the Gandhis must not just exit from the party’s leadership but retire from politics altogether. For it is not merely that Rahul and Priyanka Gandhi have shown themselves markedly incapable of making the party a competitive force in state and national elections. It is also that their very presence in the Congress makes it easy for Narendra Modi and the BJP to deflect attention from the government’s failures in the present by resorting to debates about the past. Thus, charges of corruption in defence deals are answered with reference to Rajiv Gandhi and Bofors; charges of suppressing the media and incarcerating activists are met with references to Indira Gandhi and the Emergency; charges of losing Indian land and soldiers to the Chinese army with reference to Jawaharlal Nehru and the war of 1962 and so on.
In its eight years in power, the Modi government has made many boasts and offered many promises. Yet, when reckoned by objective criteria, its record in office has been underwhelming. It has overseen a decline in growth rates (visible even before the pandemic set in) and a surge in unemployment; it has savagely set Hindus against Muslims; it has allowed our status to decline in the neighbourhood and in the world; it has corrupted and corroded our most important institutions; it has ravaged the natural environment. In sum, the actions of the Modi government have damaged India economically, socially, institutionally, internationally, ecologically, and morally.
Despite all these failures, if Narendra Modi and the BJP remain in pole position to win re-election in 2024, a key reason is that it still has as its principal ‘national’ Opposition the Congress under the Nehru-Gandhis. Parties such as the TMC, the BJD, the YSRC, the TRS, the DMK, the CPI(M) and the AAP can mount an effective electoral challenge to the BJP in areas where they are the main Opposition to it. This the Congress cannot really do — as the latest results from Goa, Manipur, and Uttarakhand once again show. The weaknesses of a Congress led by the Nehru-Gandhis are particularly visible during general elections. For instance, in the 191 seats in the 2019 elections when they were in a head-to-head fight with the BJP, the Congress won just sixteen. With Rahul Gandhi posited as its prime ministerial alternative to Narendra Modi, the Congress’s strike rate was a mere 8 per cent.
So far as the BJP is concerned, the Gandhis are a gift that keeps on giving. On the one hand, they do not remotely represent an effective electoral challenge to it. On the other hand, the Gandhis allow and encourage the BJP to dictate the terms of the national political debate — by locating it in the past rather than in the present.
In an India that is becoming less feudalistic by the day, having fifth-generation dynasts at the head of India’s most storied party is a problem. What is a serious disadvantage becomes a crippling one once we juxtapose with unearned privilege a lack of political intelligence. Living as they do in the closed circle of their sycophants, the Gandhis have little understanding of how Indians in the twenty-first century actually think. In the harsh but depressingly accurate characterization by Aatish Taseer, Rahul Gandhi is an “unteachable mediocrity”, his utter unsuitability to the politics of the present manifest in his repeated references to his father, grandmother, and great-grandfather.
Whether they know it or not, whether they sense it or not, the Gandhi family has become active facilitators of Hindutva authoritarianism. If they depart, even if the Congress disintegrates, someone or something else with more political credibility shall take their place. Then those of us who oppose Hindutva will be better placed to think of, and struggle for, a future for India beyond the awful present.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच राज्यों के इन चुनाव-परिणामों का असली अर्थ क्या है और राष्ट्रीय राजनीति पर उनका क्या असर पड़ेगा? पंजाब को छोड़ दें तो चार राज्यों— उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भाजपा को अपने प्रमुख विरोधी दलों से दुगुनी सीटें मिली हैं। पंजाब में उसका पिछड़ जाना और आप पार्टी का प्रचंड बहुमत पहले से अपेक्षित ही था। भाजपा की इस विजय का दूरगामी संदेश यह है कि 2024 के अगले आम चुनाव में भाजपा की विजय सुनिश्चित है।
इस समय कोई भी अखिल भारतीय पार्टी ऐसी नहीं है कि जो भाजपा या मोदी के नेतृत्व को चुनौती दे सके। लगभग सभी प्रांतों में कांग्रेस की पराजय असाधारण रही है। जिन प्रांतों में आज भी कांग्रेस की सरकारें हैं, वे भी योग्य नेताओं के हाथ में होते हुए भी अब खिसक सकती हैं। इन राज्यों के राज्यपालों और गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के बीच चल रही मुठभेड़ कभी भी खतरनाक रूप धारण कर सकती है। अखिल भारतीय विपक्ष का इतना कमजोर होना भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रसन्नता का विषय नहीं हो सकता है।
यह असंभव नहीं कि भाजपा की यह प्रचंड विजय सारे विरोधी दलों को इतना डरा दे कि वे 2024 में एक संयुक्त मोर्चा खड़ा कर लें। उ.प्र. में सपा ने छोटी-मोटी पार्टियों से गठबंधन करके अपनी शक्ति ढाई-तीन गुना बढ़ा ली है। इस विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने का साहस, हो सकता है कि, आप पार्टी करने की कोशिश करे। उसने कांग्रेस को पंजाब में पटकनी मारकर चमत्कारी विजय हासिल की है। पंजाब और उत्तराखंड में कांग्रेस के नेताओं का हारना देश भर के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को अपने राष्ट्रीय नेताओं पर तरस खाने के लिए मजबूर करेगा। इस चुनाव ने यह भी सिद्ध किया है कि जातिवाद इस बार मात खा गया है।
सपा ने पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों को जोड़ने की जबर्दस्त कोशिश की थी। उसे थोड़ी-बहुत सफलता भी मिली लेकिन उ.प्र. में भाजपा सरकार के लोकहितकारी काम उक्त कोशिश पर भारी पड़ गए। किसान आंदोलन भी इस चुनाव पर ज्यादा प्रभाव नहीं डाल पाया। उ.प्र. में अब तीन-चार दशक बाद ऐसा हुआ है कि भाजपा सरकार ने अपना पांच साल का कार्यकाल पहली बार पूरा किया है और यह ऐसी पहली सरकार है, जो लगातार दूसरी बार भी राज करेगी।
भाजपा की यह प्रांतीय विजय उसके राष्ट्रीय मनोबल में चार चांद लगा देगी लेकिन यह मनोबल उसके ऊँट को किसी भी करवट बिठा सकता है। चुनाव-अभियान के दौरान मोदी और योगी की मुख-मुद्रा चिंतास्पद दिखाई पड़ती थी लेकिन यह प्रचंड विजय उनके अहंकार को ऐसा उछाला दे सकती है, जैसा कि 1971 के चुनाव के बाद इंदिरा गांधी को दिया था।
भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के मार्गदर्शक मंडल को इस खतरे से सावधान रहने की जरुरत है। भाजपा सरकार चाहे तो अपनी इस शेष अवधि में शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार और विदेश नीति के क्षेत्र में ऐसे क्रांतिकारी काम कर सकती है, जो उसे 21 वीं सदी की संसार की सबसे बड़ी ही नहीं, दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पार्टी बना सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अमिता नीरव
जिन दिनों मैं पढ़ रही थी दुर्भाग्य से उन दिनों फेमिनिज्म यूनिवर्सिटी के सिलेबस में नहीं पढ़ाया जाता था। कई सालों तक यह लगता रहा कि फेमिनिज्म का पॉलिटिकल साइंस से कोई लेना देना नहीं है। हालाँकि पोलिटिकल साइंस की थ्योरी यह कहती है कि पोलिटिकल सिस्टम, सोशल सिस्टम का ही सब-सिस्टम है। स्त्रियाँ इसी सोशल सिस्टम का हिस्सा है तो जाहिर-सी बात है कि उनसे जुड़ी विचारधारा को सिलेबस में होना चाहिए था, लेकिन यह विचार कभी आया ही नहीं कि फेमिनिज्म को पोलिटिकल साइंस में पढ़ाया जाना चाहिए। क्योंकि हम सब्जेक्ट्स को डिसिप्लिन के खाँचे में रखकर पढ़ते हैं।
अखबार में काम करने के शुरूआती सालों में महिला दिवस बस अखबार के कंटेंट तक ही सीमित था। इसमें विज्ञापन विभाग महिला दिवस पर मैसेजेस का एक सप्लीमेंट निकालकर पैसा कूटता था। अलग-अलग जगह से महिला दिवस की खबरें आती थी। उस दिन अखबारों में कुछ अलग करने का जोश-जुनून हुआ करता था। नए-नए स्टोरी आयडियाज, गेस्ट रायटर... महिलाओं से जुड़े लेख औऱ फीचर... मगर बस इतना ही। इस पूरे हड़बड़ में अखबार की महिला कर्मचारियों के लिए कुछ नहीं हुआ करता था।
फिर कॉर्पोरेट कल्चर की शुरुआत में महिला दिवस पर अखबार की कर्मचारियों के लिए भी कुछ-कुछ आयोजन किए जाने लगे। पहले-पहले एक दो साल तो बड़ा अच्छा लगता था। जब हम दफ्तर पहुँचते तो एचआर के लोग आकर बुके और चॉकलेट देते, फिर फोटो सेशन होता। दिन भर दफ्तर के लोग फोन करके महिला दिवस विश करते। शाम को महिलाओं के लिए पार्टी हुआ करती थी, जिसमें गेम्स, नाचना-गाना, खाना-पीना आदि-आदि हुआ करता था। कुल मिलाकर उस दिन कुछ खास होने का अहसास करवाया जाता था।
अब ये अलग बात है कि उस दिन भी सहकर्मी पुरुषों का स्त्री-द्वेष, पीठ पीछे साथ काम करती महिलाओँ पर भद्दे टिप्पणियाँ, उनके काम का क्रेडिट लेना, उनकी योग्यता और कार्यक्षमता पर प्रश्न उठाना, उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि का मजाक उड़ाना आदि-आदि चलता रहता था। इस बीच अपने भीतर की मनहूसियत का कीड़ा कुलबुलाने लगा और सवाल उठने लगा कि जिन माँगों के लिए दो सदी से आंदोलन किए जा रहे हों उसके प्रतीक स्वरूप मनाए जाने वाले दिन को बस इस तरह का आयोजन कर मना लिया जाना काफी है?
क्या दो सदी पहले से शुरू हुए संघर्षों का क्या बस यही हासिल है? एक दिन... ! जिसमें सजी-सँवरी स्त्रियों के लिए गिफ्ट्स और मजे का सामान मुहैया करवा दिया जाए और महिला दिवस का अनुष्ठान पूरा हो जाए! तभी इस तरह से आयोजनों से वितृष्णा होने लगीं। आयोजन चलता रहता औऱ हमारी टीम अपनी डेस्क पर बैठकर अपना काम करती रहती। बाद में उस आयोजन की खबरें मिलती थीं, जिसमें गेम्स में चीटिंग... गिफ्ट्स को लेकर खींचतान जैसी चीजें और भी ज्यादा वितृष्णा जगाने लगीं।
धीरे-धीरे यह महसूस होने लगा कि महिला दिवस को आंदोलन के प्रतीक दिवस के तौर पर नहीं, बल्कि खाना पूर्ति के तौर पर मनाया जाने लगा है। बाजार इस में ज्यादा बड़ी भूमिका का निर्वहन करने लगा था। दफ्तरों और संस्थानों में इसे मनाया जाना बाजारवाद का ही एक हिस्सा है और उस सबमें इसकी मूल भावना कहीं होती ही नहीं है। उस पर और बुरी बात यह है कि खुद स्त्रियाँ भी इसी अनुष्ठान का हिस्सा होकर खुश रहती है, गौरवान्वित होती रहती है।
अब चूँकि महिला दिवस को बाजार ने एक अनुष्ठान बना दिया है तो वे लोग भी इसे मना रहे हैं, जिन्हें न तो इसका इतिहास पता है, न इसके सिद्धांत और न ही इसका विकास...। बल्कि तो वे भी इसे मनाने की खानापूर्ति करते हैं जिनकी फेमिनिज्म के मूल विचार, सिद्धांतों, माँगों और तरीकों से ही असहमति है। जब दक्षिणपंथी महिलाओं को खुद को फेमिनिस्ट कहलाते हुए गर्व करते देखती हूँ तो विचार आता है कि आखिर इनके तईं फेमिनिज्म क्या हैं और ये उसके लिए किस स्तर पर, किनसे और कैसे संघर्ष करने को तत्पर होंगी।
पिछले साल भर में मुझे फेमिनिज्म पर बोलने के मौके मिले तो उसे समझने के लिए मुझे बहुत सारी चीजें पढऩा, सोचना और विश्लेषित करने की जरूरत हुई। जब मैं लेक्चर की तैयारी कर रही थी तो यह उत्सुकता हुई कि दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग और उन संस्थाओं में महिला दिवस पर वक्ता क्या बोलते होंगे? क्योंकि फेमिनिस्ट मूवमेंट की शुरुआत ही सोशलिस्टों ने की है। बाद के वक्त में इस विचार को विकसित करने वाली स्त्रियाँ लेफ्टिस्ट एप्रोच की रहीं तो जो राइटिस्ट हैं वे फेमिनिज्म को कैसे डिफाइन करती होंगी।
फेमिनिज्म तो असल में समाज के पारंपरिक ढाँचे से ही संघर्ष कर रहा है। राइट विंग उसी ढाँचे को प्रिजर्व करने के लिए सारे हथकंडे अपना रहा है तो फिर राइटविंगर्स महिला दिवस को क्या और कैसे मनाते होंगे? वे कैसे महिलाओं की समानता के लक्ष्य को पूरा करने का रोडमैप देते होंगे और कैसे सदियों से चले आ रहे भेदभाव के कारणों को चिह्नित करते होंगे? मुझे यह जानने की बहुत उत्सुकता है कि दक्षिणपंथी विचारों के साथ यदि कोई खुद को फेमिनिस्ट कहता है तो उसके पास समानता के क्या सिद्धांत हैं?
मैंने जितना फेमिनिज्म को समझा वह यह है कि लक्ष्य स्त्री-पुरुष समानता जरूर है, लेकिन इस तरह की समानता को स्थापित करने के लिए पहले बाकी सब जगह के खाँचों को खत्म करने की जरूरत होगी। क्योंकि समाज के हर स्तर पर पाए जाने वाले भेदभाव से यदि किसी वर्ग का पुरुष पीडि़त है तो उस वर्ग की स्त्री की पीड़ा दोहरी होगी। ऐसे में सिर्फ महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव से कैसे निबटा जा सकेगा? तो लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने से पहले सामाजिक समानता और न्याय को हासिल करना जरूरी है।
दक्षिणपंथ तो इसी के खिलाफ है। दक्षिणपंथ असल में पितृसत्ता के ही संरक्षण का हिमायती है तो पितृसत्ता द्वारा विकसित संस्थाओं में महिला दिवस मनाए जाना सिर्फ एक अनुष्ठान है। तो जो संस्थाएँ पितृसत्ता द्वारा स्थापित, पोषित और विकसित हैं वे किसी भी स्तर पर समानता को कैसे स्वीकार करेगी?
आंदोलन को अनुष्ठान में बदलना उस आंदोलन को खत्म करने का षडयंत्र है और दक्षिणपंथ इस तरह के षडयंत्रों में खासी महारत रखता है।
-ध्रुव गुप्त
(मेरे पुलिस जीवन के कुछ बेहतरीन अनुभवों में से एक जिसने मुझे सिखाया कि पुलिस के हाथों न्याय तबतक संभव नहीं जब तक उसके पास संवेदनशील ह्रदय, आमजन से सीधा संवाद और संचिकाओं तथा गवाहों के पार देखने की आंतरिक शक्ति न हो!)
शिक्षक सिर्फ वे नहीं होते जो शिक्षा और अनुशासन के माध्यम से हमें जीवन-संघर्षों के लिए तैयार करते हैं। शिक्षक वे लोग भी हैं जो जीवन-यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर जाने-अनजाने ही हमें जीने के सबक और सलीके सिखा जाते हैं। हर शिक्षक दिवस पर मुझे अपने जीवन में मिला एक युवक बहुत याद आता है। था तो वह अनपढ़, लेकिन मेरे प्रोफेशनल जीवन का सबसे बड़ा सबक मुझे उसी से सीखने को मिला था। वे पुलिस में मेरे कैरियर के शुरुआती दिन थे। मैं मिनी चंबल के नाम से कुख्यात बिहार के एक अपराधग्रस्त जिले पश्चिमी चंपारण में पदस्थापित था। एक बरसाती रात में मैं गंडक नदी के दियारे में अपराधियों के एक बड़े गिरोह के विरुद्ध छापेमारी के बाद पुलिस के कुछ जवानों के साथ लौट रहा था। रास्ते में गंडक नदी की रेत में फँसकर एक छोटे-से गांव के पास गाड़ी बिगड़ गई जिसके बनने की कोई संभावना अगली सुबह तक नहीं थी। गाँव से कई घरों से कुछ खाट मंगाकर हम एक किसान के बड़े-से बरामदे में आराम करने लगे। बरसाती मौसम में हमारे लिए लिट्टी-चोखा का इंतजाम गांववालों ने कर दिया।
मैं बेतरह थका हुआ था। सोने की तैयारी ही कर रहा था कि एक ग्रामीण ने आकर बताया कि गांव का एक लडक़ा आपके हाथ-पैर दबाने की अनुमति मांग रहा है। मेरे हां कहते ही बीस-बाईस साल का एक युवक आकर मेरे हाथ-पैर दबाने लगा। दीये की रौशनी में उसका चेहरा मुझे साफ नहीं दिख रहा था। पूछने पर अपना नाम उसने उद्धव यादव बताया। थोड़ा आराम आने के बाद मैंने उससे पूछा-‘उद्धव, तुम यही काम करते हो?’ उसने कहा-‘नहीं, सर। मुझे आपसे कुछ कहना था।’ मेरी सहमति पाकर उसने कहा-मैं एक लोकगायक हूं और बहुत अच्छा बिरहा गाता लेता हूं। आप सुनेंगे?’ मेरे पैर दबाते हुए ही उसने कुछ देर तक मुझे बिरहा गाकर सुनाया। आवाज में बुलंदी के साथ कशिश और दर्द ऐसी कि मेरी आंखें नम हो गईं। मुझे ऐसे गुनी कलाकार से पांव बवाते हुए शर्मिंदगी महसूस हुई और मैं उठ बैठा। पूछा-‘तुमने बहुत दिनों बाद मुझे भावुक किया है। बोलो तुम्हें क्या इनाम दूं उद्धव?’
कुछ देर सोचने के बाद उद्धव ने कहा-‘बगल के गांव के एक बाबू साहेब हैं, सर। मेरे बाबूजी ने उनसे कुछ कर्ज लिया था। बदले में वे दस सालों तक उनके यहां बेगारी खटते रहे। कर्ज फिर भी खत्म नहीं हुआ। दो साल पहले बाबूजी मरे तो वे चाहते थे कि अपने पिता की जगह मैं उनके यहां मुफ्त काम करूं। मैं गांवों में घूम-घूमकर बिरहा गाता हूं जिससे थोड़ी सी आमदनी हो जाती है। मैंने बाबू साहेब को साफ इंकार कर दिया। अगले दो-तीन महीनों में थाने में मेरे खिलाफ लूट और डकैती के तीन केस दर्ज हो गए। मैं तबसे बाबू साहेब के लठैतों और थाने की पुलिस से भागा-भागा फिर रहा हूं। एक मास्टर साहेब ने आपके बारे में बताया तो मैं हिम्मत जुटाकर आपके पास चला आया। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। आप बस मेरा इन्साफ कर दीजिये, सर!’
सुबह थाने पर पहुंचकर मैंने उद्धव के तीनों केसों के रिकॉर्ड देखे। सरसरी तौर पर पढऩे भर से लग गया कि तीनों ही मामले बनावटी हैं। तीनों के घटना-स्थल एक दूसरे से बहुत दूर-दूर थे, लेकिन तीनों के गवाह लगभग एक। गवाह भी उसी बाबू साहेब के परिवार के लोग, दूर के रिश्तेदार और नौकर-चाकर। उद्धव का कोई आपराधिक इतिहास नहीं था और न उससे लूट का कोई सामान ही बरामद हुआ था। मैंने तत्काल तीनों केस खत्म करने के आदेश दिए। उद्धव की आंखों में खुशी के आंसू थे। कुछ देर तक वह रोता ही रहा। उसके संभलते ही मैंने पूछा-‘अब इसके बाद क्या करोगे, उद्धव?’ उसने कहा-‘इस इलाके में रहूंगा तो जिन्दा नहीं बचूंगा। मैं कमाई करने पंजाब चला जाना चाहता हूं।’ मेरी जेब में हजार रूपये थे जो मैंने उसे दे दिए। मेरी गाड़ी खड़ी देख वहां पर आसपास के गांवों के कुछ लोग भी जमा हो गए थे। उन्होंने आपस में चंदा कर उसे दो हजार रुपए और दिए।
थाने से खबर मिली कि अगले ही दिन वह पंजाब चला गया। फिर कभी दुबारा उससे भेंट नहीं हुई और न उसके बारे में कुछ सुनने को मिला। मैं उस घटना को भूल भी चुका था। करीब बीस साल बाद एक दिन उसका फोन आया तो मैं उसकी आवाज पहचान नहीं सका। अपना परिचय देते हुए उसने बताया कि उसकी आपबीती सुनकर अमृतसर के एक लेखक ने उसे मेरा नंबर दिया है। अरसे बाद मेरी आवाज सुनकर वह खुशी के मारे रो रहा था। मेरे बहुत समझाने के बाद वह शांत हुआ। उसने कहा कि दस साल तक पंजाब के खेतों में मजदूरी करने के बाद किसी हाईवे पर उसने चाय-नाश्ते का एक छोटा-सा स्टॉल खोल लिया है। स्टॉल अच्छा चल रहा है और वह एक व्यवस्थित जीवन जी रहा है। घर में बीवी है और दो प्यारी-प्यारी बेटियां भी। उसने बताया कि वह और उसका परिवार मुझे बहुत याद करता है।
उद्धव की आवाज ने मुझे भावुक कर दिया। वह मेरे सेवाकाल का पहला महत्वपूर्ण शिक्षक था। उसके साथ बीते कुछ घंटों ने मुझे सिखाया कि पुलिस के हाथों न्याय तब तक संभव नहीं जबतक उसके पास एक संवेदनशील ह्रदय, आमजन से सीधे संवाद की इच्छा और संचिकाओं तथा गवाहों के पार देखने और महसूस करने की आंतरिक शक्ति न हो ! उसके बाद मैंने किसी भी मामले की विवेचना में उस सबक को याद रखा। हर मामले में इंसाफ का दावा तो कोई भी पुलिस अथवा न्यायिक व्यवस्था नहीं कर सकती, लेकिन आज यह सोचकर मुझे संतोष ज़रूर होता है कि अपने सेवाकाल में मुझसे बहुत कम गलतियां हुईं।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मथुरा की होली सचमुच विलक्षण हुआ करती है। इधर कई सालों से देख नहीं पाया हूँ। लेकिन मानकर चल रहा हूँ कि होली की मस्त बयार मथुरा में आज भी बह रही होगी। होली का मजा वहां एक माह (पूरे फाल्गुन महीने) चलता था होली के बाद भी शहर में होली 8 दिनों तक चलती थी। अब इतना लंबा उल्लास मनाने की क्षमता नहीं रह गयी है लोगों में।
मथुरा की होली का सबसे अविस्मरणीय क्षण है गले मिलना। लोग होली पर पहल करके एक-दूसरे से गले मिलते हैं। घर जाकर गले मिलते हैं। जैसे आज धुलेंड़ी है तो सारे दिन रंग पड़ेगा,रंग में गले मिलेंगे। शाम को डेम्पियर पार्क में शहर के सभी लोग एकत्रित होते हैं और एक-दूसरे से गले मिलते हैं। यह काम बड़े शालीन भाव से होता है। दुश्मन के भी लोग गले मिलते हैं, जिनसे पुश्तैनी रंजिशें चल रही हैं, वह भी एक-दूसरे से गले मिलते हैं। भांग और ठंडाई में शहर के अधिकांश मस्त मर्द डूबे रहते हैं। भांग पीना होली संस्कार है। कोई भी अकेले नहीं पीता, बुलाकर पीते हैं, पिलाकर पीते हैं।
मथुरा की होली का दूसरा शानदार पहलू है महामूर्ख सम्मेलन। धुलेंड़ी के पहले वाली शाम को महामूर्ख सम्मेलन और महामूर्खों का विशाल प्रदर्शन निकलता था। इसमें शहर के सभी शानदार, सभ्य, नामी, शिक्षित,प्रोफेशनलों को शिरकत के लिए बुलाया जाता था। साथ ही महामूर्ख सम्मेलन के जुलूस का मुखिया हमेशा शहर के सबसे प्रतिष्ठित आदमी को बनाया जाता था। अनेक बार उसे गधे पर बिठाकर निकालते थे और सारा शहर उस जुलूस का आनंद लेता था। इस जुलूस के बारे में एक बड़ा पोस्टर छपवाकर सारे शहर में लगाया जाता था जिसमें लिखा रहता था कि इस साल का महामूर्ख कौन है।
इसके अलावा एक बड़ा पोस्टर और प्रकाशित किया जाता था जिसमें शहर के सभी नामी लोगों को गंदी और चुभती भाषा में उपाधियां और गुणों से विभूषित किया जाता था। इसके अलावा एक अश्लील पर्चा होता था जिसमें एक सुंदर अश्लील लंबी तुकबंदी वाली कविता होती थी और तकरीबन 10 हजार की संख्या में यह पर्चा छापकर बांटा जाता था। यह मथुरा का लोकल होली काव्य था। इसमें सामयिक मसले अश्लील भाषिक काव्य सौंदर्य के साथ उठाए जाते थे। सारा शहर उसे रस लेकर पढ़ता था। हमारे एक दोस्त और पड़ोसी थे मोहनलाल प्रेमी वे कविता में निपुण थे और वे यह होली काव्य बड़े ही लोकलुभावन भाव से लिखते थे। हम लोगों ने अपने तरीके से इस होली की विलक्षण परंपरा का निर्माण किया था। इस आयोजन के सारे फैसले सडक़ किनारे खड़े होकर लिए जाते थे, कोई औपचारिक मीटिंग नहीं होती थी, किसी खाली बंद पड़ी दुकान के तख्ते पर बैठकर गप्पें करते हुए महामूर्ख सम्मेलन और पोस्टर-पर्चे आदि के बारे में फैसले लेते थे और पैसे की जरूरत नहीं पड़ती थी सारे काम मुफ्त में लोगों की मदद से होते थे। काश? यह परंपरा जिंदा रहती !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन से हजारों भारतीय सुरक्षित लौट आए, यह खुशखबर है। रूस और यूक्रेन ने उन्हें बाहर निकलने के लिए सुरक्षित बरामदा दे दिया है। बदले में भारत इस वक्त यूक्रेन और रूस दोनों की मदद करे, यह जरुरी है। यह काम न अमेरिका कर सकता है, न चीन और न ही अन्य यूरोपीय राष्ट्र, क्योंकि वे इस या उस पक्ष से जुड़े हुए हैं। रूसी हमले को अब दो सप्ताह होने को आए हैं। अब दोनों देशों का दम फूलने लगा है। रूस में भी हजारों लोग पूतिन के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और उधर यूक्रेन के राष्ट्रपति झेलेंस्की ने अब ऐसा बयान दे दिया है कि उसे वह महिने-दो महिने पहले दे देते तो रूसी हमले की नौबत ही नहीं आती। उन्होंने न सिर्फ नाटो के जबानी-जमा-खर्च की पोल खोल दी बल्कि अपनी गलती भी स्वीकार की। उन्होंने नाटो के फुसलावे में आकर रूस से झगड़ा मोल ले लिया।
अब उन्होंने एबीसी टीवी को दिए गए एक इंटरव्यू में साफ-साफ कह दिया है कि यूक्रेन के नाटो में शामिल होने का सवाल ही नहीं उठता। नाटो किस काम का है? उसने यूक्रेन का इतना-सा निवेदन भी नहीं माना कि वह यूक्रेन के हवाई-क्षेत्र पर प्रतिबंध लगा दे ताकि रूसी विमान यूक्रेन पर बम न बरसा सकें। वे ऐसे देश के राष्ट्रपति नहीं बने रहना चाहते हैं, जो घुटने टेक कर अपनी सुरक्षा की भीख मांगे। झेलेंस्की ने दोनबास क्षेत्र के दो जिलों को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की रूसी घोषणा की दो-टूक भर्त्सना नहीं की। उन्होंने कहा कि दोनेत्स्क और लुहांस को रूस के अलावा किसी ने भी मान्यता नहीं दी है। इन दोनों क्षेत्रों के भविष्य के बारे में भी हम बातचीत कर सकते हैं। लेकिन वहां के निवासियों में जो लोग यूक्रेन के साथ रहना चाहते हैं, उनके बारे में भी सोचना होगा।
झेलेंस्की के इस बयान के बावजूद यदि पूतिन अपनी जिद पर डटे रहते हैं तो अनेक तटस्थतावादी देशों और बुद्धिजीवियों के बीच उनकी छवि विकृत होती चली जाएगी। इस समय जो चीन बराबर रूसी रवैए के प्रति सहानुभूति दिखाता रहा है, उसने भी रूस से अपील की है कि वह संयम का परिचय दे। तुर्की और चीन भी अब मध्यस्थता की कोशिश में लगे हैं। आशंका यही है कि कहीं पाकिस्तान के इमरान खान इस मामले में हमारे नरेंद्र मोदी से आगे न निकल जाएं। वे हमले के वक्त मास्को में पूतिन के मेहमान भी थे और भारत की तरह वे तटस्थ भी रहे हैं। जहां तक झेलेंस्की का सवाल है, उनकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। वे अफगानिस्तान के अशरफ गनी की तरह देश छोड़कर भागे नहीं हैं। न ही वे कहीं जाकर छिप गए हैं। इस वक्त वे जहां रह रहे हैं, उस स्थान का पता उन्होंने खुद ही सार्वजनिक कर दिया है। ऐसे झेलेंस्की से अब बात करने में पूतिन को कोई एतराज़ क्यों होना चाहिए? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
पांच राज्यों में संपन्न हुए चुनाव परिणामों के पहले अभी चर्चा 'एक्जिट पोल' पर गर्मा गई है। कई संगठनों ने अपने-अपने ढंग से यह जानने की कोशिश की है कि किस पार्टी को किस राज्य में कितनी सीटें मिलेंगी। लगभग सभी संगठन अपने-अपने ढंग से अपने अंदाजी घोड़े दौड़ाते है। वोट डाल कर बाहर आने वाले हर मतदाता से यह पूछना तो असंभव होता है कि उसने वोट किसको दिया है। इसीलिए करोड़ों मतदाताओं के वोटों का अंदाजा कुछ हजार लोगों से पूछकर लगाया जाता है। यहां इस अंदाजे में एक पेंच और भी है। वह यह कि सभी वोटर सच-सच क्यों बताएंगे कि उन्होंने अपना वोट किसको दिया है।
इसीलिए इन सब 'एक्जिट पोल' को मैं अंदाजी घोड़े ही मानकर चलता हूं। इस बार पांच राज्यों में से चार में भाजपा के आने की संभावनाएं बताई जा रही हैं। उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में! पंजाब में आप पार्टी की जलवा दिखाई देगा, ऐसा ये एक्जिट पोल कह रहे हैं। इस तरह की परिणाम-पूर्व घोषणाएं या अनुमान कई बार गलत साबित हो चुके हैं और कई बार वे सही भी निकल आते हैं। अफवाह यह भी है कि पार्टियां ऐसी घोषणाएं योजनाबद्ध ढंग से भी करवाती हैं। जो भी हो, यदि उक्त अंदाज ठीक निकला तो भाजपा को बड़ी राहत मिलेगी, क्योंकि इस पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा नेता काफी घबराए हुए से लग रहे थे।
उत्तरप्रदेश की जनसभाओं में सपा के नेता अखिलेश यादव के आगे भाजपा और कांग्रेस के नेता फीके-फीके दिखाई पड़ते रहे। मायावती की तो इस बार सारे प्रचारतंत्र ने लगभग उपेक्षा ही कर डाली। उ.प्र. के चुनाव का महत्व शेष राज्यों के सम्मिलित चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह अगले आम चुनाव का पूर्व-राग उपस्थित करेगा। पंजाब में यदि आप पार्टी की सरकार बन जाती है तो यह भारतीय राजनीति का अजूबा होगा। वह न केवल भाजपा को 2024 के चुनावों में टक्कर देने के लिए कई राज्यों में खम ठोकेगी बल्कि उसके विरुद्ध विपक्षियों का एक अखिल भारतीय गठबंधन भी खड़ा कर सकती है।
यह तो संतोष का विषय है कि इन पांच राज्यों के चुनाव में हिंसा और धांधली की गंभीर घटनाएं नहीं हुईं लेकिन मतदान का प्रतिशत भी ज्यादा बढ़ा नहीं। भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय यह भी है कि इन चुनावों में जातिवाद और सांप्रदायिकता का बोलबाला रहा। लोकहित के असली मुद्दे हाशिए में चले गए। सभी पार्टियों ने वोट कबाडऩे के लिए मतदाताओं को चूसनियां बांटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सभी दलों के वक्ताओं ने राजनीतिक शील और मर्यादा का उल्लंघन करने में कोई संकोच नहीं किया। लगभग हर पार्टी में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या भी काफी रही, जिन पर मुकदमे चल रहे हैं। अगले आम चुनावों की दिशा तय करने में इन पांच राज्यों के चुनाव परिणामों की भूमिका विशेष रहेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सरोज सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सोमवार को आखिरी चरण की वोटिंग खत्म हो गई है। इसके साथ ही यूपी, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर में अगली विधानसभा की तस्वीर साफ होने में बस कुछ घंटों का समय बचा है।
जीत और हार जिस भी पार्टी की हो, आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति में कई घटनाक्रम इन चुनावों के नतीजों से प्रभावित होने वाले हैं। इसके साथ ही इन चुनावों के नतीजों पर क्षेत्रीय पार्टियों के साथ-साथ बीजेपी, कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों का बहुत कुछ दांव पर लगा है।
इस वजह से ये जानना अहम हो जाता है कि इन राज्यों में हुए चुनाव का असर किन पर कैसे पड़ेगा।
राज्यसभा में सीटों का समीकरण
सबसे पहले बात राज्यसभा की।
वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन कहते हैं, राज्यसभा की 245 सीटों में फि़लहाल आठ सीटें खाली हैं। बीजेपी के पास इस समय 97 सीटें हैं और उनके सहयोगियों को मिला कर ये आँकडा 114 पहुँच जाता है। इस साल अप्रैल से लेकर अगस्त तक राज्यसभा की 70 सीटों के लिए चुनाव होना है, जिसमें असम, हिमाचल प्रदेश, केरल के साथ साथ यूपी, उत्तराखंड और पंजाब भी शामिल हैं।
यूपी की 11 सीटें, उत्तराखंड की एक सीट और पंजाब की दो सीटों के लिए चुनाव इसी साल जुलाई में होना है। इससे साफ हो जाता है कि इन तीनों राज्यों में चुनाव के नतीजे सीधे राज्यसभा के समीकरण को प्रभावित करेंगे।
अनिल जैन कहते हैं, ‘यूं तो बहुमत के आँकड़े से राज्यसभा में बीजेपी पहले भी दूर थी। लेकिन पाँच राज्यों के नतीजे अगर बीजेपी के लिए पहले से अच्छे नहीं रहे, तो आने वाले दिनों में वो बहुमत से और दूर हो जाएंगे। और इसका सीधा असर राष्ट्रपति चुनाव पर भी पड़ेगा।’
राष्ट्रपति चुनाव पर असर
भारत में अगला राष्ट्रपति चुनाव इस साल जुलाई में होना है।
निर्वाचन अप्रत्यक्ष मतदान से होता है। जनता की जगह जनता के चुने हुए प्रतिनिधि राष्ट्रपति को चुनते हैं।
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचन मंडल या इलेक्टोरल कॉलेज करता है। इसमें संसद के दोनों सदनों और राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं।
राष्ट्रपति चुनाव में अपनाई जाने वाली आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की विधि के हिसाब से प्रत्येक वोट का अपना वेटेज होता है।
सांसदों के वोट का वेटेज निश्चित है मगर विधायकों के वोट का अलग-अलग राज्यों की जनसंख्या पर निर्भर करता है।
जैसे देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट का वेटेज 208 है तो सबसे कम जनसंख्या वाले प्रदेश सिक्किम के वोट का वेटेज मात्र सात।
प्रत्येक सांसद के वोट का वेटेज 708 है। इस लिहाज से भी पाँच राज्यों के नतीजों पर हर पार्टी की नजर है।
कुल सांसद और उनके वोट
भारत में कुल 776 सांसद हैं। 776 सांसदों के वोट का वेटेज है- 5,49,408 (लगभग साढ़े पाँच लाख)
भारत में विधायकों की संख्या 4120 है। इन सभी विधायकों का सामूहिक वोट है, 5,49,474 (लगभग साढ़े पाँच लाख)
इस प्रकार राष्ट्रपति चुनाव में कुल वोट हैं - 10,98,882 (लगभग 11 लाख)
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि इन पाँच राज्यों के चुनाव के नतीजे ये तय करेंगे की बीजेपी आसानी से अपने उम्मीदवार को जीता पाती है या नहीं। अगर बीजेपी उत्तर प्रदेश में तुलनात्मक रूप से 2017 से अच्छा नहीं कर पाती है तो राष्ट्रपति चुनाव का गणित बिगड़ जाएगा।
वहीं अनिल जैन कहते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार को वोट कम जरूर मिल सकते हैं, लेकिन उनके उम्मीदवार को जीतने में दिक्कत नहीं होगी।
उनके मुताबिक बीजेपी के पास अभी 398 सांसद हैं और सभी राज्यों में विधायकों की संख्या मिला दें तो तकरीबन 1500 के आसपास है। इनमें से ज्यादातर उन राज्यों में हैं, जिनके वोट का मूल्य राष्ट्रपति चुनाव में ज्यादा है।
राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए साढ़े पाँच लाख से कुछ ज्यादा वोट की जरूरत पड़ती है। बीजेपी के पास अपने साढ़े चार लाख वोट हैं और बाकी उनके सहयोगी पार्टियों की मदद से हासिल होंगे। कुछ उन राज्यों और सांसदों से भी मिल सकते हैं, जो मुद्दों के आधार पर बीजेपी का समर्थन करते हैं। इस वजह से बीजेपी के लिए मुश्किल ज्यादा नहीं होगी।
ब्रैंड मोदी-योगी पर असर
पाँच राज्यों में सबसे ज़्यादा चर्चा यूपी चुनाव की है और वहाँ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की साख दांव पर है।
नीरजा चौधरी कहती हैं, यूपी के नतीजे ये तय करेंगे कि योगी आदित्यनाथ भविष्य में प्रधानमंत्री पद के दावेदार होते हैं या नहीं। अगर योगी अच्छे मार्जिन से जीतते हैं तो भविष्य में प्रधानमंत्री पद की उनकी दावेदारी मजबूत होगी। अगर वो हार जाते हैं या बहुत कम मार्जिन से जीतते हैं तो वो यूपी के मुख्यमंत्री बन पाएंगे या नहीं या उनकी जगह कोई और आएगा, ये देखने वाली बात होगी।
पीएम मोदी के लिए नीरजा कहती हैं, अगर बीजेपी यूपी जीत गई तो ये साबित होगा कि मोदी की लोकप्रियता अब भी बरकरार है, उनकी अलग-अलग योजनाओं के लाभार्थी उनके साथ खड़े हैं। और अगर ऐसा नहीं होता है तो ब्रैंड मोदी पर असर पड़ेगा।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडनीस कहती हैं, नतीजे जैसे भी आएं, दोनों सूरत में असर ब्रैंड योगी पर पड़ेगा और ब्रैंड मोदी पर भी। ‘बहुत कयास लगाए जा रहे हैं कि बीजेपी नेताओं की वरीयता सूची योगी में आदित्यनाथ फिलहाल पांचवें पायदान पर हैं। अगर वो जीत जाते हैं तो वो नंबर दो बन सकते हैं। लेकिन अगर वो हार जाते हैं तो शीर्ष नेतृत्व से सवाल पूछे जाएंगे कि बाहर के चेहरे को उठा कर बीजेपी का मुख्यमंत्री कैसे बना दिया। पाँच साल के बाद ये नतीजा है, तो हम क्या बुरे थे? यानी यूपी जीते तो ब्रैंड मोदी-योगी और मजबूत होगा और सीटें घटी तो नीचे जा सकते हैं।’
अदिति आगे ये भी कहती हैं कि इसका सीधा असर बीजेपी के केंद्र के फैसलों पर भी पड़ेगा। अगर बीजेपी का प्रदर्शन पहले के मुकाबले अच्छा ना रहे तो आगे केंद्र सरकार को फूंक-फूंककर कदम रखना होगा। कृषि कानून को तो केंद्र सरकार ने संसद में तो पास करा लिया, लेकिन किसान और जनता के सामने वो हार गए। इससे पर्सेप्शन की लड़ाई पर असर तो पड़ेगा और विपक्ष और मजबूत होगा।
पंजाब का गणित और आम आदमी पार्टी का भविष्य
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी, यूपी के बाद पंजाब के नतीजों को काफ़ी अहम मानती हैं। वो कहती हैं, ‘अगर आम आदमी पार्टी पंजाब में सरकार बना लेती है तो रातोरात उनकी भारतीय राजनीति में साख बदल सकती है। उनकी पार्टी ज्वाइन करने वाले इच्छुक लोगों की कतार भी बढ़ सकती है।
अभी तक तीसरे मोर्चे में आम आदमी पार्टी को वो ट्रीटमेंट नहीं मिलती थी, लेकिन पंजाब चुनाव में जीत उनके लिए बहुत बड़ी छलांग होगी। विपक्ष के तौर पर अलग-अलग राज्यों में अरविंद केजरीवाल को अलग तरह से आंका जाएगा। और केजरीवाल को ये बढ़त, कांग्रेस के बूते मिलेगी। अगर केजरीवाल पंजाब में सरकार नहीं बना पाते तो उनके पास खोने के लिए कुछ खास नहीं है।’
कांग्रेस पर असर
इन पाँच राज्यों के नतीजे राहुल, प्रियंका के लिए काफी अहमियत रखते हैं। वरिष्ठ कांग्रेस पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस के लिए उत्तराखंड और पंजाब दो राज्य सबसे महत्वपूर्ण होने वाले हैं। पंजाब में दलित मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ कांग्रेस मैदान में उतरी थी। अगर उस राज्य में कांग्रेस हारती है तो पार्टी और खासतौर पर राहुल गांधी की बहुत किरकिरी होगी। ये ऐसा कांग्रेस शासित राज्य था, जहाँ भाजपा के साथ उनका सीधा मुकाबला नहीं था। इसका सीधा असर आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की विपक्ष वाली छवि पर पड़ेगा।’
तीसरे मोर्चे में कांग्रेस की बारगेनिंग पावर
अपनी बात को आगे विस्तार से समझाते हुए रशीद किदवई कहते हैं, ‘किसी मोर्चे में किसी भी राजनीतिक दल की अहमियत, उसकी मजबूती के आधार पर तय होती है, ना कि कमजोरी के आधार पर। कांग्रेस अगर कुछ राज्यों में अपनी सरकार बनाने में या फिर सरकार बचाने में कामयाब होगी, तो इसी आधार पर कांग्रेस की आगे की भूमिका तय होगी। भारत की 200 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जिस पर कांग्रेस की सीधे बीजेपी के साथ टक्कर है।
पाँच राज्यों में कांग्रेस के सामने चुनौती पंजाब में अपना किला बचाने की है। उत्तराखंड में जहाँ बीजेपी ने चुनाव से पहले अपना सीएम बदला, वहाँ कांग्रेस फेरबदल नहीं कर पाई, तो कांग्रेस पर आरोप लगेगा की अवसर को भुनाने में वो चूक जाती है।’
राहुल प्रियंका के नेतृत्व पर असर
रशीद आगे कहते हैं कि इस चुनाव के नतीजे कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर भी व्यापक असर डालेंगे। पंजाब और उत्तराखंड जीतने में अगर कांग्रेस सफल हुई तो राहुल और प्रियंका की जोड़ी को चुनौती देने वाला पार्टी में कोई नहीं होगा। उनका दबदबा पार्टी में बढ़ जाएगा। हो सकता है कुछ बड़े नेता पार्टी छोड़ कर चले जाएं। लेकिन अगर कांग्रेस पाँच राज्यों में कहीं भी सरकार बनाने में कामयाब नहीं होती है तो कांग्रेस में कई फाड़ हो सकते हैं और उससे कई क्षेत्रीय दल बन सकते हैं। (bbc.com/hindi)
यूपी के नतीजे किस करवट बैठने वाले हैं? अपनी विश्वसनीयता को लेकर हर चुनाव के दौरान विवादों में घिरे रहने वाले एग्जिट पोल ही अगर दस मार्च की शाम तक अंतिम रूप से भी सही साबित होने वाले हैं तो फिर नरेंद्र मोदी को 2024 में भी 2014 और 2019 जैसी ही जीत दोहराने के लिए अग्रिम बधाई अभी से दे देनी चाहिए। मान लिया जाना चाहिए कि जो तमाम सदृश्य और अदृश्य ताक़तें यूपी में संघ और भाजपा के बुलडोज़री-हिंदुत्व को फिर फिर सत्ता में ला रही हैं वे ही लोकसभा के लिए भी अपनी दोगुना शक्ति और संसाधनों के साथ दिल्ली-मिशन में जुटने वाली हैं।
कोई तो अज्ञात कारण अवश्य होना चाहिए कि इतनी ज़बरदस्त एंटी-इंकम्बेंसी के बावजूद अमित शाह , जे पी नड्डा और योगी आदित्यनाथ सभी का सार्वजनिक रूप से यही दावा क़ायम है कि सरकार तो भाजपा की ही बनेगी। बलिया ज़िले के एक थाना प्रभारी ने तो एक बड़े भाजपा नेता को कथित रूप से कैबिनेट मंत्री बनने की अग्रिम शुभकामनाएँ भी दे दीं। लखनऊ में अफ़सरों के बंगलों के रंग फिर से भगवा होना शुरू हो गए होंगे। अखिलेश के सत्ता में आने के यूपी के देसी पत्रकारों के दावों को चुनौती देते हुए अंग्रेज़ी के नामी-गिरामी जर्नलिस्ट राजदीप सरदेसाई ने तो एग्जिट पोल के पहले ही लिख दिया था कि भाजपा की जीत साफ़ दिखाई पड़ रही है। उन्होंने उसके कारण भी गिनाए हैं। बड़े पत्रकार अपनी बात पुख़्ता सूत्रों के आधार पर ही करते हैं इसलिए राजदीप के दावे में कुछ सच्चाई ज़रूर होगी ऐसा दस मार्च तक के लिए माना जा सकता है।
एग्जिट पोल्स के दावों के विपरीत जो लोग अखिलेश यादव की जीत का सट्टा लगा रहे हैं उनके पास भी अपने कुछ तर्क हैं। मसलन, प.बंगाल के बाद से भाजपा ज़्यादातर चुनाव हार ही रही है। उसके जीतने का सिलसिला काफ़ी पहले से बंद हो चुका है। एग्जिट पोल्स के अनुमानों के ख़िलाफ़, पश्चिम बंगाल में हुई करारी हार के बाद पिछले साल के अंत में हिमाचल सहित दस राज्यों के उपचुनावों में भाजपा को अपनी पहले जीती हुई कुछ सीटें भी उस कांग्रेस के हवाले करना पड़ीं थीं जिसे वह ख़त्म करने का दावा आये दिन करती रहती है। एनडीए के बचे-खुचे घटक दल भी एक-एक करके भाजपा का साथ छोड़ रहे हैं। मुमकिन है बिहार वाले ‘सुशासन बाबू’ भी दस मार्च की प्रतीक्षा कर रहे हों।
सपा के पक्ष में सटोरियों के उत्साह का दूसरा बड़ा कारण अखिलेश-प्रियंका की रैलियों में भीड़ और मोदी-शाह-योगी की सभाओं में कुर्सियों का ख़ाली नज़र आना बताया गया है। कहा जा रहा है कि पश्चिमी यूपी में मुसलिमों और जाटों के बीच खून ख़राबे का सफलतापूर्वक आज़माया जा चुका प्रयोग इस बार काठ की हांडी साबित हो गया। महंगाई, बेरोज़गारी और कोरोना से मौतों को लेकर लोगों की नाराज़गी चरम सीमा पर है। पूछा जा रहा है कि अपने कामों को लेकर भाजपा अगर इतनी ही आश्वस्त थी तो यूक्रेन सहित सारे ज़रूरी काम ताक पर रखकर पीएम को बनारस में तीन दिन क्यों गुज़ारना पड़ गए? क्या उन्हें डर पैदा हो गया था कि अपने संसदीय क्षेत्र की कुछ सीटों पर हार का सामना करना पड़ा या उन पर जीत का मार्जिन कम हो गया तो उसे उनकी लोकप्रियता के ग्राफ़ से जोड़ लिया जाएगा?
कोई छुपी हुई बात नहीं है कि यूपी में चुनाव के सातों चरणों के दौरान भाजपा को जिस तरह के जन-विरोध की लहर का सामना करना पड़ा पार्टी उसके लिए वह क़तई तैयार नहीं थी। पार्टी अपने इस भय को भी ख़ारिज नहीं कर सकती कि एग्जिट पोल्स के दावों के विपरीत अगर सरकार नहीं बनी तो जिस तरह के दल-बदल का ( स्वामीप्रसाद मौर्य, ओम् प्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान,आदि) उसे चुनाव के पहले सामना करना पड़ा था उससे कहीं और बड़ा पश्चिम बंगाल की तर्ज़ पर यूपी में झेलना पड़ जाएगा। प.बंगाल की भगदड़ का असर चाहे कहीं और नहीं हुआ हो, यूपी का असर उन सब हिंदी-भाषी राज्यों पर पड़ेगा, जहां 2024 के पहले चुनाव होने हैं। लोक सभा के पहले ग्यारह राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा में एक ‘साइलेंट मायनोरिटी’ ऐसी भी है जो ‘पार्टी’ को 2024 में जिताने के लिए ‘व्यक्तियों’ के कमजोर होने को ज़रूरी मानती है। इस माइनॉरिटी के अनुसार, यूपी में पार्टी की हार लोकसभा के लिए अहंकार-मुक्त नेतृत्व प्रदान करने का काम भी कर सकती है। यूपी में एग्जिट पोल्स के अनुमान सही साबित होने की स्थिति में विपक्ष तो निराश- हताश होगा ही, भाजपा के कई दिग्गजो को मार्गदर्शक मंडल में जाना पड़ सकता है।
वोटिंग मशीनों में अंतिम समय पर (मूर्तियों के दूध पीने वाले चमत्कार की तरह) कोई आसमानी-सुलतानी नहीं हो जाए तो ज़मीनी नतीजों का रुझान तो इस समय भाजपा के ख़िलाफ़ जाने का ही है। इसके बावजूद, ज़्यादा अंदरूनी जानकारी उन अनुभवी पत्रकारों, चुनावी-विश्लेषकों और टी वी एंकरों को ही हो सकती है जो डंके की चोट मुनादी कर रहे हैं कि जीत तो भाजपा की ही होने जा रही है।
यूपी में सत्तारूढ़ भाजपा के ख़िलाफ़ बेहद प्रतिकूल मौजूदा परिस्थितियों के बावजूद अगर सपा गठबंधन स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने से चूक जाता है तो फिर आगे आने वाले समय में यूपी और देश में विपक्ष की राजनीति का चेहरा कैसा बनेगा उसकी भी कल्पना की जा सकती है। उसमें यह भी शामिल रहेगा कि मोदी को फिर 2024 में दुनिया की कोई भी ताक़त नहीं रोक पाएगी यूपी की जनता अगर ऐसा ही चाहती तो उसके फैसले पर पूरे देश की प्रतिक्रिया जानने के लिए थोड़ी प्रतीक्षा की जानी चाहिए।
MINIMUM 80, 2/3RD MAJORITY… MAY TOUCH 100
-Adv. Sudiep Shrivastava
THE RESULT WILL SHIFT FOCUS FROM BSP(Bijli Sadak Pani) to HEEF (Health Education Employment and Farmer)
Punjab is a State where a multi corner contest has happened in which at least three players of different combinations appears to be contesting closely. However at the end it’s the Aam Aadmi Party emerging as clear winner. The Congress despite being in the Government, the Akali Dal – BSP combine could not have impressed upon the majority voters who have referred AAP. Naturally the Amrindar-BJP fails to cut much ice in this contest.
DEMOGRAPHY :
The demography of the State has 32% Dalit Voters most of them are within Sikh Fold who are still struggling to be recognised as powerful voting block as the politics of the State is still under the grip of the Jatt Sikh who are roughly 21% of the total population. The Hindu Upper caste consists of around 12 % whereas other minorities are only about 4%. The Rajput Sikhs are treated as OBC and they are also around 10%. While the other OBCs are 21% of the total population. On religious line Sikhism is the dominant religion with 58% population is following the same whereas 38% follow Hindu Dharm. Another 1.9% Muslim and 1.3% Christian while rest 0.8 % are Jains and Bouddhs.
Following are the main castes of different religions.
Sikhism : Jatt Sikh, Rajput Sikh, Mazahabi Sikh, Ramdasia Sikh
Hinduism-Brahmin, Rajput, Bania, Khatri-Arora-Sood, Sunar, Kamboj, Labana, Tarkhan/Ramgarhia, Kumhar/Prajapati, Arain, Gurjar Teli, Banjara, Lohar, Bhat, Chamar Ad-Dharmi - Balmiki Bhanghi Bazigar
Traditionally the Congress vote bank is in to Jatt Sikh and Dalit voters apart from some Hindu voters post Khalistan movement whereas the BJP-Akali combine counted on the Jatt Sikh and Hindutva preferring Hindus combination. It was only in 2017 the Aam Aadmi Party has made inroads in to the State specially in the Malwa region by winning 18 seats mostly in this region while securing almost 24% of the polled votes. Congress despite loss in vote share by 1.4% and securing just 38.5% of the polled votes won 77 of 117 seats in this triangular fight and Akali-BJP combine could manage just 18 seats with 30.6% votes. BSP despite 32% Dalit population could not win a single seat and ended up with just 2.8% votes.
REGIONS OF THE STATE :
The Punjab is divided into three major geographical regions, Majha, Doaba and Malwa. The Distribution of the districts in to these areas are as follows;
The Amrinder Rule and his ouster :
Captain Amrinder Singh remained the top Congress leader in 2017 and despite High Command’s reluctance, became the Chief Minister. He has promised the voters to deal with, the Drug Menace, Accused of “Be-Adabi of Guru Granth Sahib, Misrule of Badal led Akali Government, with Iron Hands, however he failed to perform on all these counts. The failure to generate employment which is forcing Sikh Youths to migrate abroad only added fuel to this. He was ultimately removed but too later. It did not give enough time to the new incumbent Charanjeet Singh Channi, a Dalit Sikh to mobilise his community en-block for which he was preferred over the challenger Navjot Singh Sidhu. The choice of a Dalit Sikh as CM over traditional Jatt Sikh has not gone down fully well in this short time and it was further fuelled by the periodic outburst of the flamboyant Sidhu.
Akali – BSP combine became irrelevant :
For decades the Punjab politics was hovering between two Political forces i.e. Akali, and Congress. BJP always played second fiddle with Akali while BSP fails to make much impact despite the state having 30% Dalit population. In the Congress Rule of last five years, the Amrinder Government was seen soft towards Badals, and that has led to a belief amongst general voters that both Congress and Akalis are having a tacit understanding between them. This has resulted in continuance of the Anti Incumbency towards Akalis for their 10 year rule between 2007 to 2017. Voters now want to get rid of both the traditional parties and that is why the AAP is getting a decisive mandate.
WHY AAP IS WINNING WITH SUCH A BIG MAJORITY :
There are three main reasons for AAP sweeping the Punjab almost the way it did in Delhi. First reason is AAP was very much a contender in 2017 as well, but because of Amrinder led Congress also being in opposition and very vocal against the Akali Government, voters chose a tried a tested Leader and Party instead of AAP which had shied away from declaring the CM Face, leaving the speculation that Kejriwal himself wants to be CM of the State. The Second reason is that the Congress Government did not acted on the major promises it made with the voters and was seen as saving the Badals, leaving with no other choice for voters but to chose AAP as no one was willing to have Akali’s at the helm again. Third reason is the major infighting in the Congress after appointment of the Charanjeet Singh Channi as CM of the State. The Jatt Sikh dominated State Congress, could not digest the elevation of a Dalit Sikh and Channi got too little time to manage, and win over the dissidents in the party. It is common perception that Amrinder should have been removed at least a year before if he was to be. The Sidhu and Sunil Jakhar’s utterances make the life tough for Channi and made the easy way for AAP which is still enjoying sizeable Dalit support. The BJP and Congress both tried to link AAP with Khalistani but on ground no body was willing to listen such an argument considering the anger they have against Congress and Akalis both.
BSP to HEEF
Big Punjab Win for AAP will prove and establish one thing that except Such States which have more than 30% BPL families, the expectations of voters have changed from BSP (Bijli Sadak Pani) to HEEF (Health Education Employment Farmer). It will also prove that showcasing your good work in another State like the AAP did on Education and Health in Delhi and showcased the same in Punjab can bring voters and supporters.
(Writer is a practicing lawyer in Chhattisgarh High Court, and a familiar face on national television election analysis.)
-पुष्य मित्र
आज भी इस दुनिया के ज्यादातर पुरुष अपनी सबसे करीबी स्त्रियों के कन्धों पर किसी बेताल की तरह लटके हैं।
हम पुरुषों का अपना जीवन सरल और सुविधाजनक हो, इस कोशिश में हम स्त्रियों को अपने साथ बांधे रहते हैं। जबर्दस्ती, ताकत की जोर पर, परम्पराओं और सामाजिक नियमों के नाम पर या प्रेम, भावुकताओं के सहारे।
हर पुरुष को एक स्त्री चाहिए, जो उसकी गैरहाजिरी-हाजिरी दोनों में उसके घर को सुव्यवस्थित और चलायमान बनाये रखे। जहां काम और मौज-मस्ती के बाद पुरुष लौटे तो उसे खाना, आराम और शांति मिल सके। ताकि फिर से वह तरोताजा होकर बाहर निकल सके। उसे एक ऐसी स्त्री चाहिये जो उसके बच्चों, उसे और यहां तक कि उसके माता-पिता को भी संभाल सके। ताकि वह अपनी इन तमाम जिम्मेदारियां से थोड़ा आजाद हो सके।
आज भी हर पुरुष अपनी सबसे करीबी स्त्री से कमोबेश यही चाहता है। और जाने-अनजाने हर स्त्री अपनी पीठ पर किसी न किसी बेताल पुरुष को लटका महसूस करती है। उसे ढोती रहती है। उसकी पीठ दुखती है, मगर वह सौ में निन्यानवे मर्तबा चुप रह जाती है।
अगर हम पुरुष आज के दिन सचमुच अपनी प्रिय स्त्रियों के लिये कुछ करना चाहते हैं तो बस इतना करें कि उनकी पीठ से उतर जायें। वे खुद तनकर खड़ी हो जायेंगी। फिर किसी महिला दिवस की न जरूरत होगी, न प्रासंगिकता।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
इस समय सारी दुनिया का ध्यान यूक्रेन पर लगा हुआ है लेकिन इस संकट के दौरान चीन की चतुराई पर कितने लोगों ने ध्यान दिया है? इस समय पिछले कुछ वर्षों से चीन और अमेरिका के बीच भयंकर अनबन चल रही है। चीन पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका ने चार देशों— भारत, आस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका का चौगुटा (क्वाड) खड़ा कर लिया है। 'आकुसÓ का सैन्य संगठन पहले से बना ही हुआ है। चीनी-अमेरिकी व्यापार, ताइवान और दक्षिण चीनी समुद्र के सवाल पर इन दोनों देशों में तनातनी चल रही है।
चीन में हुए ओलंपिक खेलों का भी अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों ने बहिष्कार किया है लेकिन इन सब चीन-विरोधी हरकतों के बावजूद यूक्रेन के सवाल पर जब-जब वोट देने का सवाल आया, चीन ने कभी भी अमेरिकी प्रस्ताव के विरुद्ध वोट नहीं दिया। उसने भारत की तरह तटस्थता दिखाई। परिवर्जन (एब्सटेन) किया। क्यों किया? क्या वह अमेरिका से डरता है? नहीं! उसे अमेरिका से कोई डर नहीं है। वे आर्थिक और सामरिक दृष्टि से भी अमेरिका के मुकाबले सीना तानकर खड़ा हो सकता है।
वह अमेरिका के लिए रूस से कई गुना बड़ा खतरा बन सकता है। आजकल चीन और रूस का संबंध वैसा कटु नहीं है, जैसे माओ और ख्रुश्चौफ के जमाने में था। आजकल ये दोनों राष्ट्र गलबहियां डाले हुए हैं। चीन की फौज और अर्थव्यवस्था इस समय इतनी बड़ी है कि चीन जब चाहे रूस की सहायता कर सकता है। चीन और रूस शांघाई सहयोग संगठन के सदस्य भी हैं।
इसके बावजूद यूक्रेन के सवाल पर चीन ने कभी रूस के समर्थन में वोट नहीं दिया। जब भी सुरक्षा परिषद, महासभा या मानव अधिकार परिषद में यूक्रेन का मामला उठा तो उसने खुलकर रूस के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला। इस सावधानी का रहस्य क्या है? वह भारत की तरह तटस्थ क्यों हो गया है? भारत की तो मजबूरी है, क्योंकि रूस और अमेरिका, दोनों के ही भारत से अच्छे संबंध हैं। यों भी भारत अपनी गुट-निरपेक्षता या तटस्थता के लिए जाना जाता रहा है।
चीन की तटस्थता का जो रहस्य मुझे समझ में आता है, वह यह है कि वह रूस के इस अतिवादी कदम का समर्थन करके दुनिया में अपनी छवि खराब नहीं करवाना चाहता है। वह अपने आप को विश्व की महाशक्ति मनवाना चाहता है। इतना काफी है कि वह रूस का विरोध नहीं कर रहा है। दूसरी बात यह है कि अमेरिका के साथ वह अपने दरवाजे खुले रखना चाहता है।
यदि वह रूस का अंध-समर्थन करने पर उतारु हो जाता तो चौगुटे के चारों देशों और यूरोपीय राष्ट्रों के साथ चल रहा उसका अरबों-खरबों डॉलर का व्यापार भी चौपट हो सकता था। चीन इस समय दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारी देश है। इसीलिए वह महाजनी बुद्धि से काम कर रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
जस्टिस के. एल. पांडेय के समक्ष दिए गए बयान में एक शिक्षा शास्त्री का बयान अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षा शास्त्री के इस बयान को मैं ज्यों का त्यों यहां उद्धृत कर रहा हूं :
1. दिनांक 25. 3.1966 को लगभग 10:45 बजे दिन को जब मैं अपने निवास स्थान की बैठक में लिखा-पढ़ी का कार्य कर रहा था, मैंने सर्वप्रथम माइक्रोफोन से 144 धारा नगर में लागू होने की उद्घोषणा सुनी। फिर थोड़ी देर बाद धमाकों की आवाजें हुई और राजवाड़ा के दक्षिणी दरवाजे के पास हवा में टियर गैस शेल्स फूटते देखा। मैं दौड़ा-दौड़ा घर के पास के पेट्रोल पंप में फोन करने गया क्योंकि मुझे पुराने राजमहल के विद्यालयों के बच्चों और शिक्षकों के विषय में घोर चिंता हुई। पुराने राजमहल के फोन पर थोड़ी-थोड़ी देर में संपर्क स्थापित किया। फिर चिंता, भय, आकुलतावश राजबाड़े के पूर्वी दीवार के पास एक अर्धनिर्मित झोपड़ी पर चढ़कर अंदर का हाल जानने हेतु देखने लगा। उस वक्त राजमहल के सामने के बगीचे में आदिवासियों और पुलिस में संघर्ष छिड़ा हुआ था। धमाकों की आवाजें हो रही थी और आदिवासी वृक्षों व झाड़ियों की आड़ लेकर उत्तर की ओर पीछे हट रहे थे। कुछ भाग रहे थे। एक दो लोग तीर भी चला रहे थे। थोड़ी देर के बाद वहां से उतर कर मैं पुनः अपने घर, सामने की सड़क, पड़ोस की छत आदि से यथासंभव राजवाड़े के भीतर-बाहर की घटना का अवलोकन करने लगा। इस बीच राजमहल के पूर्वी और उत्तरी भू-भाग पर काफी पुलिस वालों का फैलाव हो रहा था। आदिवासी अब बाहर नहीं दिख रहे थे। फिर राजमहल के पिछले भू-भाग बगीचे की ओर टियर गैस शेल्स के फूटने की ध्वनियां हुई, धुवां दिखाई दिया।
राजवाड़ा के उत्तरी दरवाजे पर तीर से घायल सिपाही को बेदम होते, आदिवासी को पुलिस तथा एक ऑफिसर द्वारा बुरी तरह पिटते, भीतरी हिस्से में एक आदिवासी को दौड़ते और उसके पीछे गोली की आवाज भी मैने अधखुले दरवाजे से देखी सुनी। पुनः लगभग चार बजे के बाद राजमहल के ऊपरी छत पर कई पुलिस वाले दृष्टिगोचर हुए। फिर थोड़ी देर बाद काफी हल्ला-गुल्ला सुनाई दिया।
माइक से यह भी उद्घोषणा हुई कि महल के भीतर के आदिवासी आत्मसमर्पण कर दें। मुझे समीप की छत पर से यह दृष्टिगोचर हो रहा था कि कुछ आदिवासी नए राजमहल के सामने के एक दरवाजे से निकल कर बाहर आंगन में आ रहे थे और उन्हें बैठा कर, घेर कर काफी पुलिस वाले उन्हें लाठियों से अंधाधुंध मार रहे थे। कोई भी मार से बच कर भागने की कोशिश करता उसके पीछे कई-कई पुलिसवाले दौड़ते और मनमानी पीटते। एक दो भागते हुए आदिवासियों पर गोलियां भी चलाई गई। दृश्य बहुत ही कारुणिक था।
2. संध्या तक यह क्रम चलता रहा। रात्रि में भी रुक-रुक कर कई बार गोलियां चलने की आवाजें आती रहीं। एक गोली की बड़े जोरों की आवाज तड़के सुबह भी आई।
3. प्रातःकाल 26 . 3 . 1966 को माइक से उद्घोषणा के बाद शांतिपूर्ण ढंग से आदिवासियों का आत्मसमर्पण, उनकी गिरफ्तारियां, शाम को श्री प्रवीर चंद्र भंजदेव की शव यात्रा आदि मैंने देखी। शमशान घाट में स्वर्गीय प्रवीर चंद्र भंजदेव के चेहरे को काफी समीप से मैंने देखा। चेहरा विकृत हो गया था। उसमें खून के दाग़ थे।
अब जगदलपुर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर का बयान भी मैं यहां उद्धृत करना चाहूंगा, जो उन्होंने उस समय पांडेय कमीशन के समक्ष दिया था।
डॉक्टर द्वारा दिया गया यह बयान बेहद महत्वपूर्ण है और बस्तर गोलीकांड की सच्चाइयों से पर्दा उठाता है। यह बयान यहां उद्धृत किया जा रहा है ताकि पाठक सच और झूठ का विवेक सम्मत निर्णय स्वयं ले सकें :
1. यह कि मैं दिनांक 25.3. 1966 को लगभग 10.30 बजे व्यवहार न्यायालय आया था।
2. यह कि राजमहल का मुख्यद्वार जो घटनास्थल था, वह सत्र न्यायालय और व्यवहार न्यायालय से लगभग 100 गज की दूरी पर है।
3. यह कि ज्यों ही मैं व्यवहार न्यायालय की ओर जाता हुआ नगर पालिका कार्यालय के समक्ष से गुजरा त्योंहि मैंने एक आरक्षी जीप और मोटर को राजमहल के मुख्य द्वार के समक्ष खड़े होते देखा तथा उनमें से श्री मोहन सिंह इंस्पेक्टर, श्री सिंह ए.डी.एम. जगदलपुर तथा दो या तीन पुलिस इंस्पेक्टर और सशस्त्र सेना के कुछ बंदूकधारी व लाठीधारी जवानों को उतरते हुए मैंने देखा।
4. यह कि उतरने के पश्चात सशस्त्र पुलिस ने स्वयं को दो भागों में बांट कर मुख्य द्वार के दोनों ओर अपनी स्थिति बनाई।
5. यह कि उस समय 20 या 25 आदिवासी महिलाएं दंतेश्वरी मंदिर के समीपस्थ उद्यान के घेरे के पास खड़ी थी जो स्थान राजमहल क्षेत्र के अंतर्गत है। इसके उपरांत मैंने एक जीप को प्रसाद के मुख्य द्वार की ओर नगरपालिका न्यायालय के सामने वाले राजमार्ग से आते देखा। इस जीप द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की 144 धारा का उद्घोष किया जा रहा था। सशस्त्र पुलिस जिसने अपनी स्थिति मुख्य द्वार के दोनों ओर बना ली थी उसने अब मुख्य द्वार के भीतर प्रवेश किया और दंतेश्वरी मंदिर के समक्ष खड़ी हो गई।
6. यह कि उसी समय पुलिस के कुछ सिपाही उद्यान के घेरे के समीप स्थित आदिवासी महिलाओं के समीप गए। इससे आदिवासी महिलाएं राजप्रसाद की ओर भाग गईं।
7. यह कि कुछ क्षण पश्चात पुलिस के अधिकारी तथा सिपाही तीर-तीर चिल्लाते हुए मुख्य द्वार से बाहर
निकले। तत्पश्चात पुलिस ने राजप्रसाद के भीतर मुख्य द्वार से अपनी बंदूकों के द्वारा दो या तीन फायर किए तथा अश्रु गैस छोड़ना प्रारंभ कर दिया।
8. यह कि उसके उपरांत पुलिस के आदमियों ने मुख्य द्वार के भीतर पुनः प्रवेश किया और तुरंत तीर-तीर चिल्लाते हुए बाहर निकल आए। उस समय तक कोई व्यक्ति घायल नहीं हुआ था।
शेष अगले सप्ताह ...
-डॉ राजू पाण्डेय
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर पिछले कुछ वर्षों में बाजार की पैनी नजर रही है और इसे बहुत चतुराई से एक बाजार संचालित उत्सव में बदल दिया गया है। इस दिवस के आयोजन के पीछे निहित मूल भावना से एकदम विपरीत दृष्टिकोण रखने वाली सरकारों और कॉरपोरेट्स द्वारा इस अवसर पर किए जाने वाले भव्य आयोजन अनेक बार वितृष्णा उत्पन्न करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1975 में मान्यता दिए जाने के बाद वैश्विक स्तर पर नियमित रूप से आयोजित होने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की 2022 की थीम 'जेंडर इक्वालिटी टुडे फॉर ए सस्टेनेबल टुमारो' चुनी गई है। किंतु भारत में लैंगिक समानता एक असंभव स्वप्न की भांति लगती है।
आर्थिक अवसरों, राजनीति, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी को आधार बनाने वाली वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 भारत में स्त्रियों की उत्तरोत्तर दयनीय होती स्थिति की ओर संकेत करती है। हम विगत वर्ष की तुलना में 28 पायदानों की गिरावट के साथ 156 देशों में 140 वें स्थान पर पहुंच गए हैं। इस गिरावट के लिए कोविड जन्य परिस्थितियों को उत्तरदायी माना गया है।
यह जांचा परखा सिद्धांत भी है कि महामारी और युद्ध की मार उन वर्गों पर सबसे ज्यादा पड़ती है जो सर्वाधिक कमजोर हैं जैसे महिलाएं। लिंकेडीन अपॉर्चुनिटी इंडेक्स दर्शाता है कि कोविड-19 का नकारात्मक प्रभाव भारत की महिलाओं पर शेष विश्व की महिलाओं की तुलना में अधिक पड़ा। उन्हें एशिया प्रशांत देशों में सर्वाधिक लैंगिक भेदभाव झेलना पड़ा और वे समान वेतन तथा समान अवसरों के लिए संघर्ष करती नजर आईं।
वर्ल्ड जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 कहती है कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो दुनिया को लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने में 135.6 वर्ष लग जाएंगे। भारत के संबंध यह अवधि कितनी होगी इसकी कल्पना करते भी भय लगता है।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का प्रारंभिक इतिहास सीधे सीधे कामकाजी महिलाओं और श्रमिकों से जुड़ता है जब 8 मार्च 1908 को न्यूयॉर्क की सड़कें 15000 महिलाओं के विरोध प्रदर्शन की गवाह बनी थीं। इनकी मांगें काम के घण्टों में कमी और वेतन वृद्धि से जुड़ी थीं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की लंबी यात्रा के बावजूद नारी श्रम को स्वीकृति और सम्मान नहीं मिल पाया है।
नारी श्रम को तुच्छ, महत्वहीन और नगण्य समझना पुरुषवादी अर्थ व्यवस्था की सहज प्रवृत्ति है। एनएफएचएस 5 के अनुसार पिछले 12 महीनों में 15-49 आयु वर्ग की काम करने वाली महिलाओं में से केवल 25.4 प्रतिशत को नकद भुगतान मिला। ऑक्सफेम की 2019 की "माइंड द गैप :स्टेट ऑफ एम्प्लायमेंट इन इंडिया" रिपोर्ट के अनुसार भारतीय महिलाएं समेकित रूप से प्रतिदिन 1640 करोड़ घंटो का ऐसा कार्य करती हैं जिसके बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता। ओईसीडी के आंकड़े कहते हैं कि भारतीय पुरुष प्रतिदिन केवल 56 मिनट घरेलू कार्य को देते हैं जबकि महिलाओं के लिए यह अवधि 353 मिनट प्रतिदिन है। भारत सरकार का टाइम यूज़ सर्वे 2019 बताता है कि कामकाजी आयु की 92 प्रतिशत महिलाएं औसतन प्रतिदिन पांच घण्टे पन्द्रह मिनट घरेलू कार्यों में व्यतीत करती हैं। विशेषज्ञों द्वारा किए गए अध्ययन हमारी 35 करोड़ घरेलू महिलाओं के श्रम के मूल्य को 613 अरब डॉलर तक आंकते हैं। इन सारे आंकड़ों की विचित्रता यह है कि पुरुष चाहे अनपढ़ हो या उच्च शिक्षित घरेलू कार्य से दूरी बनाकर रखता है और उच्च शिक्षित महिला पर भी अनपढ़ महिला जितना ही घरेलू कार्य का बोझ रहता है।
हाल ही में हुए कुछ सर्वेक्षण दर्शाते हैं कि अनेक मानकों पर हमारी महिलाओं की स्थिति जरा बेहतर हुई है। एनएसएस (75 वां दौर, जुलाई 2017 – जून 2018) के अनुसार अब भारत की महिलाओं में साक्षरता दर 70 प्रतिशत है। भारत सरकार का आल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन 2019-20 कहता है कि उच्च शिक्षा में भी महिलाओं का नामांकन पुरुषों के समान स्तर पर पहुंच रहा है और उच्च शिक्षा में नामांकित विद्यार्थियों में महिलाओं की संख्या अब 39 प्रतिशत है। लेकिन यह भी गौरतलब है कि मेडिकल और इंजीनियरिंग की शिक्षा में महिलाओं की उपस्थिति नगण्य सी ही है।
एनएफएचएस 5 के आंकड़े भी कुछ क्षेत्रों में महिलाओं की बेहतर स्थिति का संकेत देते हैं। एनएफएचएस-4 के अनुसार 84 प्रतिशत विवाहित भारतीय महिलाएं परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में हिस्सेदारी करती थीं जबकि अब यह 88.7 प्रतिशत हैं। एनएफएचएस-4 के अनुसार 45.9 प्रतिशत महिलाओं के पास मोबाइल फोन था जो अब बढ़कर 54 प्रतिशत हो गया है। जबकि वे महिलाएं जिनके बैंक खाते हैं उनकी संख्या एनएफएचएस-4 के 53 प्रतिशत से बढ़कर 78.6 प्रतिशत हो गई है।
किंतु इन तमाम मानकों में आए मामूली सुधार का असर महिलाओं की बढ़ती आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक शक्ति के रूप में क्यों नहीं दिखता, इसका अन्वेषण आवश्यक है।
यदि विगत कुछ वर्षों के एनएसएसओ और पीरियाडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे को आधार बनाया जाए तो पिछले तीन दशकों के दौरान लेबर फ़ोर्स में महिलाओं की उपस्थिति में भारी कमी आई है। कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी 1999-2000 में 41 प्रतिशत थी जो 2011-12 में घटकर 32 प्रतिशत रह गई और 2019 के आंकड़ों के अनुसार यह 20.3 प्रतिशत है। बांग्लादेश और श्रीलंका के लिए यह आंकड़े क्रमशः 30.5 और 33.7 प्रतिशत हैं। मैकिंसी की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार कार्यबल में महिलाओं की संख्या में दस प्रतिशत की वृद्धि हमारी जीडीपी में 770 बिलियन डॉलर का इजाफा कर सकती है।
इस गिरावट की अनेक व्याख्याएं हैं। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के पैरोकार यह मानते हैं कि यह आर्थिक समृद्धि का द्योतक है। परिवार में कमाने वाले पुरुषों की आय बढ़ी है, इस कारण महिलाओं को काम पर जाने की जरूरत नहीं है। इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली एवं कुछ अन्य संस्थाओं के सर्वेक्षण बताते हैं कि यदि परिवार में पुरुष की कमाई ठीक ठाक है तो लगभग 40 प्रतिशत पुरुष और महिलाएं दोनों यह चाहते हैं कि महिलाएं घर पर रहें। गरीबी और भुखमरी के तांडव तथा बढ़ती बेरोजगारी एवं घटती पगार के बीच यह व्याख्या पूर्णतः अस्वीकार्य है।
दरअसल लेबर पार्टिसिपेशन रेट में गिरावट को सरल शब्दों में समझाएं तो यह कहा जा सकता है कि भारत में कार्य करने योग्य आयु की 80 प्रतिशत महिलाएं जीविकोपार्जन न करते हुए घरेलू तथा अन्य अवैतनिक कार्यों में लगी हुई हैं। कृषि महिलाओं को रोजगार देने का सबसे बड़ा जरिया था किंतु कृषि के निजीकरण ने यंत्रीकरण को बढ़ावा दिया है और मानव श्रम की आवश्यकता कम हुई है। कृषि में महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए रोजगार के अवसर कम हुए हैं। पुरुष तो छोटे-मझोले शहरों एवं महानगरों को पलायन कर प्रवासी मजदूर बन गए हैं, महिलाएं गांवों में छूट गई हैं। बड़ी संख्या में सस्ते पुरुष श्रमिक, महिलाओं के सम्मुख चुनौती प्रस्तुत कर रहे हैं और महिलाओं के लिए आरक्षित समझे जाने वाले कार्यों को छोड़कर अन्य कार्यों में उन्हें महिलाओं पर वरीयता भी मिल रही है। कृषि के बाद टेक्सटाइल और रेडीमेड गारमेंट्स इंडस्ट्री महिलाओं को रोजगार देने के मामले में दूसरे क्रम पर हैं, जहाँ कार्यरत साढ़े चार करोड़ श्रमिकों में 75 प्रतिशत महिलाएं हैं किंतु वहां भी बड़े खिलाड़ियों के प्रवेश ने रोजगार घटाए हैं। अनेक कार्य कानूनन और अन्य अनेक कार्य परंपरा द्वारा पुरुषों के लिए आरक्षित हैं और इनमें महिलाओं को अवसर देने पर विचार तक नहीं किया जाता।
नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमी रिसर्च का आकलन है कि भारत में 97 प्रतिशत महिला श्रमिक असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं। आईएलओ के विशेषज्ञों के अनुसार असंगठित क्षेत्र हेतु निर्मित की वाली नीतियों की सबसे बड़ा दोष यह है कि इनके निर्माण के पूर्व विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं की संख्या से संबधित डाटा एकत्र नहीं किया जाता है। महिला श्रमिकों की घटती संख्या के सरकारी आंकड़ों पर चर्चा करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह क्षेत्र जिनमें महिला श्रमिकों की संख्या सर्वाधिक है इन आंकड़ों का हिस्सा नहीं है। यदि घरेलू कार्य विषयक आंकड़ों का ही समावेश इनमें कर दिया जाए तो महिलाओं का लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन 81 प्रतिशत हो जाएगा।
समान मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व अवकाश एवं मातृत्व से जुड़ी अन्य सुविधाएं तथा यौन शोषण से सुरक्षा तो असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाली महिलाओं के लिए एक सपना भर हैं।वैसे भी हमारी न्याय व्यवस्था एवं कानूनों में पितृसत्ता की गहरी छाप है किंतु कुछ कानून जो महिलाओं के पक्ष में बनाए भी गए हैं उनके क्रियान्वयन को भी व्यवस्था में व्याप्त पुरुष वर्चस्व बाधित करता है और इन्हें अप्रभावी बना देता है।
अध्ययनों के अनुसार हमारा श्रम बाजार पुरुषों की तुलना में महिलाओं को उनके श्रम की आधी कीमत ही देता है। यहां तक कि निजी क्षेत्र में सुपरवाइजर स्तर पर भी महिलाओं को भी उनके पुरुष समकक्षों से 20 प्रतिशत कम वेतन मिलता है।
मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 में 26 हफ्ते के सवैतनिक प्रसूति अवकाश के साथ-साथ अनिवार्य क्रैच सुविधा का प्रावधान किया गया है। इसका परिणाम यह देखने में आया कि निजी क्षेत्र के नियोक्ता महिलाओं को काम पर रखने से परहेज करने लगे और गर्भवती महिलाओं के लिए ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने लगे कि वे नौकरी छोड़ दें। सरकार ने नवंबर 2018 में घोषणा भी की कि अब वह महिलाओं को मिलने वाले मातृत्व अवकाश के 7 हफ्ते का वेतन कंपनियों को लौटाएगी। किंतु वस्तु स्थिति यह है कि हर वर्ष लगभग तीन करोड़ महिलाएं गर्भवती होती हैं लेकिन इस कानून का लाभ केवल एक लाख महिलाओं को मिलता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच(अक्टूबर 2020) का एक सर्वेक्षण यौन उत्पीड़न कानून लागू करने के सीमित सरकारी प्रयासों की चर्चा करता है और यह विशेष उल्लेख करता है कि अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र की महिलाओं एवं सरकारी के कल्याणकारी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में लगे महिला कार्यबल की तो इस संबंध में लगभग अनसुनी ही की जाती है। लगभग यही नतीजे इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन द्वारा कराए गए सर्वेक्षण(2017) के हैं। इसके अनुसार रोजगार के विभिन्न क्षेत्रों में यौन उत्पीड़न की मौजूदगी है। अधिकांश महिलाएं लांछन, प्रतिशोध के भय, लज्जा, रिपोर्ट दर्ज कराने विषयक नीतियों के बारे में जागरूकता के अभाव अथवा निराकरण तंत्र के प्रति अविश्वास के कारण उत्पीड़न की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करातीं।
यौन उत्पीड़न के विषय में न तो कोई प्रामाणिक अध्ययन किया गया है, न ही कोई अधिकृत आंकड़े इसके विषय में हैं। परिवार में इसका जिक्र डर के कारण नहीं किया जाता, डर इस बात का कि अधिकांश मामलों में परिवार नौकरी ही छुड़वा देता है। यह बताना भी कठिन है कि यौन उत्पीड़न कितने प्रतिशत महिलाओं के नौकरी छोड़ने हेतु उत्तरदायी है।
इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज(नोडल एजेंसी,एनएफएच 4) और आईसीएफ,यूएसए के अनुसार, भारत में कामकाजी महिलाओं के शारीरिक हिंसा का सामना करने की आशंका अधिक है। शारीरिक हिंसा झेलने वाली ग़ैर–कामकाजी महिलाओं की संख्या 26 प्रतिशत है जबकि 40 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं को शारीरिक हिंसा झेलनी पड़ी है।
एक भ्रम यह भी फैलाया जाता है कि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था महिलाओं की आर्थिक मुक्ति का कारण बनेगी। जबकि सच्चाई यह है कि इसके कारण संगठित क्षेत्र सिकुड़ा है और असंगठित क्षेत्र की शोषणमूलक प्रवृत्तियां खुलकर अपनाई जा रही हैं। ठेका पद्धति और संविदा नियुक्ति की परिपाटी बढ़ी है और महिलाएं इनका आसान शिकार बनीं हैं क्योंकि निरीह, असंगठित महिलाओं से कम वेतन पर मनमाना काम लिया जा सकता है और जब चाहे इन्हें नौकरी से हटाया जा सकता है। रैंडस्टड का जेंडर परसेप्शन सर्वे 2019 दर्शाता है कि 63 प्रतिशत महिलाओं ने निजी क्षेत्र में नौकरी पर रखते समय लैंगिक भेदभाव का या तो सामना किया है या वे ऐसी किसी महिला को जानती हैं जो नियुक्ति के दौरान लैंगिक भेदभाव का शिकार हुई है। यह भेदभाव वेतनवृद्धि और पदोन्नति में भी देखा गया है।
हमारे देश में मात्र 20% उद्यमों पर महिलाओं का स्वामित्व है। केवल 6% महिलाएंँ भारतीय स्टार्टअप्स की संस्थापक हैं। महिला संस्थापकों वाले स्टार्टअप्स सकल इन्वेस्टर फंडिंग का सिर्फ 1.43% भाग ही प्राप्त कर सके। 69 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि सांस्कृतिक एवं निजी अवरोध एक उद्यमी के रूप में उनकी यात्रा को कठिन बनाते हैं। एक विश्लेषण के अनुसार उद्योगों में महिला नेतृत्वकर्ताओं की संख्या पुरुषों की तुलना में आधे से भी कम है।
भारत में लैंगिक समानता की राह इस कारण भी कठिन है कि एक तो स्त्रियों का प्रतिनिधित्व राजनीति में कम है दूसरे जो महिलाएं राजनीति के शीर्षस्थ पदों पर मौजूद हैं वे भी सत्ता संचालन में पुरुषवादी दृष्टिकोण का आश्रय लेती हैं। वर्तमान संसद में केवल 14 प्रतिशत महिलाएं हैं। इनमें से कुछ केंद्र सरकार में वरिष्ठ पदों पर भी हैं। किंतु यह भी उस विचारधारा का समर्थन करती दिखती हैं जो हमारे संविधान को मनुस्मृति से प्रतिस्थापित करने का स्वप्न रखती है, वही मनुस्मृति जिसके अनुसार महिलाओं को बाल्यावस्था में पिता, वयस्क होने पर पति और वृद्धावस्था में बेटों के नियंत्रण में रखना आवश्यक है।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति में भारत के पक्ष और विपक्ष के नेता भारत की यूक्रेन-नीति के बारे में एक-दूसरे से सहमत दिखाई पड़े। ये बात दूसरी है कि भारतीय छात्रों को यूक्रेन से बाहर निकाल लाने के सवाल पर कुछ विरोधी नेता अब भी सरकार की खिंचाई कर रहे हैं। असलियत तो यह है कि चाहे शुरु में भारत सरकार ने थोड़ी लापरवाही दिखाई लेकिन अब हमारे चार-चार केंद्रीय मंत्री और दूतावासों के सारे कर्मचारी अपने छात्रों को सुरक्षित लौटाने में जुटे हुए हैं। यह संतोष का विषय है कि हमारे बहुत ज्यादा नौजवान हताहत नहीं हुए हैं। एक नौजवान की जो मृत्यु हुई, वह भी बहुत दुखद रही लेकिन हमारे कई नौजवान कुछ यूक्रेनी शहरों में अभी भी फंसे हुए हैं। कुछ परिचितों ने मुझे यह भी बताया कि यूक्रेन के पड़ौसी देशों में हमारे दूतावास के फोन तक नहीं उठते। लेकिन बहुत-से नौजवानों और उनके माता-पिता ने उनके सुरक्षित लौट आने पर बेहद प्रसन्नता प्रकट की है। भारत सरकार ने अपने छात्रों की वापसी पर तो काफी ध्यान दिया है।
यदि वह ध्यान नहीं देती तो भारत में उसे काफी बदनामी मोल लेनी पड़ती। उसने अपने प्रयत्नों का प्रचार भी जमकर किया है ताकि चुनाव के मौसम में उसका फायदा भी मिल सके। लेकिन जहां तक विदेश नीति का सवाल है, दुनिया के कई छोटे-मोटे देशों के मुकाबले भारत पिछड़ गया है। जब से यूक्रेन पर रूस का हमला हुआ है, फ्रांस और जर्मनी दोनों पक्षों से लगातार बात कर रहे हैं। तुर्की और इस्राइल जैसे छोटे-मोटे देश भी मध्यस्थता की कोशिश कर रहे हैं। इस्राइल के प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट तो खुद मास्को पहुंच गए हैं। उन्होंने रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता की कोशिश भी की है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदीमीर झेलेंस्की यहूदी हैं।
लेकिन सारा संसार जानता है कि इस्राइल तो अमेरिका का घनिष्टतम मित्र है और तुर्की नाटो का सदस्य है जबकि भारत न तो रूस से बंधा हुआ है और न ही अमेरिका से। दोनों से उसके रिश्ते बराबरी के हैं। वह दोनों से हथियार खरीदता है तो उसका मूल्य भी चुकाता है। वह किसी के भी दबाव में नहीं है। उसने अभी तक किसी का भी पक्ष नहीं लिया है। मान लिया कि हमारे प्रधानमंत्री अभी तक उत्तर प्रदेश आदि के चुनाव में व्यस्त और चिंतित थे लेकिन अब भी मौका है, जबकि वे सक्रियता दिखाएं तो यूक्रेन-संकट पर विराम लग सकता है। वरना इसका सबसे ज्यादा फायदा चीन उठाकर दुनिया की अत्यंत प्रभावशाली महाशक्ति बनकर उभरेगा, जो कि भारत का बड़ा सिरदर्द बन सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. लखन चौधरी
इस सत्र की महाविद्यालयीन परीक्षाओं को भी ऑनलाईन करने की मांग पर सरकार की चुप्पी समझ से परे है। सरकार के इस कदम से जहां एक ओर होनहार विद्यार्थियों का हौसला पस्त हो रहा है, वहीं दूसरी ओर 'सब कुछ मुफ्त पाने वाले वोटरों' की तरह बिना परीक्षा दिये यानि बगैर मेहनत किये डिग्री पाने वाले विद्यार्थियों की एक फौज खड़ी हो रही है, जो शैक्षणिक संस्थानों के इर्दगिर्द रहकर माहौल खराब करने के काम में लगे रहते हैं।
छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालयों में ऑनलाईन परीक्षाओं के लिए छात्र संगठनों की लामबंदी एक बार फिर आरंभ हो गई है। इस बार ऑफलाईन परीक्षाएं समय पर आरंभ करने के लिए सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं, लेकिन ऐन वक्त छात्र संगठनों के इस तरह के विरोध के चलते सारा मामला पेशोपेश में पड़ गया है। सरकार अनिर्णय की स्थिति में है, जिसके चलते इस सत्र की परीक्षाओं में अनावश्यक विलंब होता जा रहा है। जबकि अब कोरोना के मामले पूरी तरह खात्मे की ओर हैं।
जब 10वीं एवं 12वीं की स्कूली परीक्षाएं पूरी तरह ऑफलाईन मोड में अच्छी तरह चल रही हैं, ऐसे में महाविद्यालयों के लिए ऑनलाईन परीक्षाओं की मांग करना एवं इस पर सरकार की चुप्पी समझ से परे है। सरकार के इस तरह के निर्णयों से जहां एक ओर होनहार विद्यार्थियों का हौसला पस्त होता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर 'सब कुछ मुफ्त पाने वाले वोटरों' की तरह बिना परीक्षा दिये यानि बगैर मेहनत किये डिग्री पाने वाले विद्यार्थियों की एक फौज खड़ी होती जा रही है, जो शैक्षणिक संस्थानों के इर्दगिर्द रहकर माहौल खराब करने के काम में लगे रहते हैं।
कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर को बड़ी वजह मानकर छत्तीसगढ़ सहित तमाम सरकारें फरवरी महिने तक ऑनलाईन परीक्षाओं को बढ़ावा देती रहीं हैं। कभी चुनींदा विद्यार्थियों की मांग को लेकर, तो कभी कुछेक पालकों की मांग को लेकर सरकारें इसे गंभीर मसला न मानते हुए टालती रही हैं। कभी छात्र संगठनों की मांग को लेकर सरकारों ने परीक्षाओं को टालने में देरी नहीं की, जिसका नतीजा यह हो रहा है कि अब विद्यार्थियों का एक समूह तैयार हो गया है जो अभी भी ऑफलाईन परीक्षा देने के लिए तैयार नहीं हो रहा है।
अब जब तीसरी लहर भी खत्म हो चुकी है उसके बावजूद छात्र संगठनों का एक समूह ऑनलाईन परीक्षाओं के लिए अड़ा हुआ है, और जगह-जगह प्रदर्शन कर रहा है। ऑनलाईन परीक्षाओं की वजह से पिछले दो सालों में उच्चशिक्षित बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो चुकी है। उच्चशिक्षित बेरोजगारों की यह फौज भविष्य में सरकार के लिए ही मुसीबत बनने वाली है। इस वक्त सरकारें कोई जोखिम ना लेते हुए सबको डिग्री बांटने का जो उपक्रम कर रहीं हैं, यह ना तो सरकारों के लिए सही है, और ना ही स्वयं विद्यार्थियों या युवाओं के लिए उचित है। इसके बावजूद कोरोना की आड़ में धड़ल्ले से डिग्री बांटने का काम चल रहा है।
उच्चशिक्षा में ऑनलाईन परीक्षाएं उन विद्यार्थियों के लिए वरदान साबित हो रहीं हैं, जिन्हें ज्ञान, अनुभव नहीं चाहिए; या कहा जाये कि इनकी तुलना में जिनके लिए डिग्रियां अधिक महत्व रखती हैं। सरकार के ऑनलाईन परीक्षाओं के इस निर्णय से बहुत से विद्यार्थी खुश एवं संतुष्ट हैं, लेकिन विद्यार्थियों का ही एक वर्ग है जो इस निर्णय से इत्तफाक नहीं रखता है। जो पढऩे-लिखने वाला समूह है, वह सरकार के इस निर्णय से बिल्कुल सहमत नहीं है। इसकी वजह यह है कि इस पद्धति से हासिल उपाधि या प्राप्त डिग्री कॅरियर अथवा जीवन के लिए कतई सहायक नहीं है, और ना ही रोजगार, स्वरोजगार के लिए मददगार है।
गलाकाट प्रतियोगिता के युग में ऑनलाईन पद्धति से हासिल डिग्री का क्या मोल या मतलब है ? एक-एक पदों की नौकरियों के लिए हजारों-हजार की तादाद में बेरोजगारों की फौज खड़ी है, ऐसे में डिग्रियों की कितनी कीमत है ? जहां सारी भर्तियां प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के माध्यम से होने लगीं हैं, वहां प्राप्तांकों की क्या कीमत है ?
इस पद्धति से जहां एक ओर समाज में बेतहाशा शिक्षित बेरोजगारी बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर उच्चशिक्षा की लगातार गिरती गुणवत्ता एवं गुणात्मकता दूसरा मसला है, जो इससे अधिक महत्वपूर्णं है। दरअसल में उच्चशिक्षा की महत्ता कॅरियर या रोजगार या स्वरोजगार के लिए जितनी महत्वपूर्णं होती है; उससे कहीं अधिक उपयोगी जीवन की समस्याओं एवं चुनौतियों के निपटने के लिए होती है। सरकारों को यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिरकार ऑनलाईन पद्धति से थोक में डिग्रियां बांटकर उच्चशिक्षित बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी करने के अतिरिक्त सरकारें कर क्या रहीं है ? इस तरह की फौज खड़ी करके सरकारें किसका भला कर रही हैं ?
तात्पर्य यह है कि ऑनलाईन परीक्षाओं के लिए छात्र संगठनों की एक बार फिर लामबंदी जहां एक ओर गैर जरूरी है, वहीं दूसरी तरफ यह निरर्थक और अनुपयोगी भी है। सरकार को इस पर तत्काल निर्णय लेते हुए सारी परीक्षाओं को ऑफलाईन करने के लिए आदेश जारी करना चाहिए, जिससे समय पर परीक्षाएं पूरी हो सकें एवं अगला शिक्षण सत्र समय पर आरंभ हो सके।
आशुतोष भारद्वाज
मेरी अभी विनोद कुमार शुक्ल जी से लम्बी बात हुई। उन्होंने रॉयल्टी स्टेटमेंट और प्रकाशक के साथ हुए पत्र मुझे भेजे हैं। उनकी इच्छानुसार कुछ तथ्य सार्वजनिक रहा हूँ।
वाणी से उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं- दीवार में एक खिडक़ी रहती थी, अतिरिक्त नहीं, कविता चयन। दो किताबों के शायद ईबुक संस्करण भी हैं। मई 1996 से लेकर अगस्त 2021, यानी पच्चीस वर्षों में उन्हें वाणी से कुल 1 लाख पैंतीस हजार, अर्थात सालाना करीब पाँच हजार मिले। इसमें से एक किताब को साहित्य अकादमी सम्मान मिला है, बेहिसाब हिंदी लेखकों-पाठकों के घर यह किताब मिल जायेगी।
राजकमल से उनकी छह किताबें हैं- हरिदास की छप्पर वाली झोंपड़ी, नौकर की कमीज, सब कुछ होना बचा रहेगा, कविता से लम्बी कविता, प्रतिनिधि कवितायेँ, कभी के बाद अभी। (सातवीं हाल ही प्रकाशित हुई है।)
उनके अनुसार राजकमल ने उन्हें अप्रैल 2016 से मार्च 2020 तक, चार वर्षों में छह किताबों के करीब 67000 दिए हैं, यानी प्रतिवर्ष सत्रह हजार। पिछले कई वर्षों से रॉयल्टी स्टेटमेंट में कविता संग्रह ‘कभी के बाद अभी’ का जिक्र नहीं है।
(मुझे लगता था कि ‘नौकर की कमीज’ बहुत अधिक बिकी होगी, हर जगह दिखाई दे जाती है।)
लेकिन सबसे त्रासद यह कि वे छह वर्षों से प्रकाशक को लगातार लिख रहे हैं कि ‘मेरी किताब न छापें’, ‘मेरी अनुमति के बगैर नया संस्करण न छापें क्योंकि प्रूफ की कई गलतियाँ हैं’, ‘मेरा अनुबंध समाप्त कर दें।’ लेकिन कोई सुनवाई नहीं।
इन अति-सम्मानित बुजुर्ग लेखक की पीड़ा को समझने के लिए सितम्बर 2019 के इस खत को पढ़ें- ‘मैंने आपको स्पीड-पोस्ट तथा ईमेल भेजा था कि बिना मेरी अनुमति के नया संस्करण नहीं निकालें। इस संबंध में मैंने जब तब फोन से भी अनुरोध किया था, लेकिन आपने फिर नया संस्करण निकाल दिया। इसके पूर्व भी जितने संस्करण निकले हैं, उसकी पूर्व-सूचना मुझे कभी नहीं दी गयी। मैं इससे दुखी हूँ।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन की राजधानी कीव के गिरने में अब ज्यादा देर नहीं लगेगी। बस, एक-दो दिन की बात है। कीव पर कब्जा होते ही यूक्रेन के राष्ट्रपति झेलेंस्की भी अर्न्तध्यान हो जाएंगे। नाटो और अमेरिका अपना जबानी जमा-खर्च करते रह जाएंगे। नाटो के महासचिव ने तो साफ-साफ कह दिया है कि वे रूस के साथ युद्ध नहीं लडऩा चाहते हैं। फ्रांस और जर्मनी की भी बोलती बंद है। झेलेंस्की ने नाटो की नपुंसकता पर पहली बार मुंह खोला है। यह उनकी अपरिपक्वता ही है कि उन्होंने नाटो पर अंधविश्वास किया और उसके उकसावे में आकर रूसी हमला अपने पर करवा लिया।
अमेरिका ने रूस पर चार-पांच नए प्रतिबंध भी घोषित कर दिए हैं। अमेरिका और यूरोपीय देशों में चल रहे रूसी सेठों के करोड़ों डॉलरों के खातों को जब्त कर लिया गया है। जो बाइडन से कोई पूछे कि क्या इसके डर के मारे पूतिन अपना हमला रोक देंगे? क्या रूसी फौजें कीव के दरवाजे से वापस लौट जाएंगी? यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए भेजी गई झेलेंस्की की औपचारिक अर्जी को आए हुए तीन-चार दिन हो गए। अभी तक उस पर यूरोपीय संघ खर्राटे क्यों खींचे हुआ है?
यूरोपीय राष्ट्रों ने यूक्रेन के परमाणु संयंत्र पर रूसी हमले की खबर को बढ़ा-चढ़ाकर इतना फैलाया कि सारी दुनिया में सनसनी फैल गई लेकिन अभी तक कोई परमाणु प्रदूषण नहीं फैला। 1986 में चेर्नोबिल की तरह मौत की कोई लहर नहीं उठी। मास्को ने स्पष्ट किया कि नाटो ने यह झूठी खबर इसलिए फैला दी थी कि रूस को फिजूल बदनाम किया जाए। रूस ने झापोरीझजिया के परमाणु संयंत्र पर कब्जा जरुर कर लिया है।
यह असंभव नहीं कि वह यूक्रेन में बिजली की सप्लाय पर रोक लगाकर सारे देश में अंधेरा फैला दे। अफवाहें ये भी हैं कि झेलेंस्की अमेरिका राजदूतावास में जाकर छिप गए हैं। अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार परिषद में फिर से रूस की भर्त्सना का प्रस्ताव पारित हो गया है। भारत ने फिर परिवर्जन (एब्सटेन) किया है लेकिन सिर्फ तटस्थ रहना काफी नहीं है।
तटस्थ तो तुर्की भी है लेकिन वह मध्यस्थता की कोशिश भी कर रहा है। मध्यस्थता तो बहुत अच्छा बहाना भी है, अपनी तटस्थता को सही सिद्ध करने के लिए। यदि हम सिर्फ तटस्थ रहते हैं और साथ में निष्क्रिय भी रहते हैं तो यह तो घोर स्वार्थी और डरपोक राष्ट्र होने का प्रमाण-पत्र भी अपने आप बन जाएगा। भारत की कूटनीति में भव्यता और गरिमा का समावेश होना बहुत जरुरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
प्रवीर चंद्र भंजदेव : एक अभिशप्त नायक या आदिवासियों के देवपुरुष
-रमेश अनुपम
जस्टिस के. एल. पांडेय के समक्ष दिए गए बयान में एक शिक्षा शास्त्री का बयान अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षा शास्त्री के इस बयान को मैं ज्यों का त्यों यहां उद्धृत कर रहा हूं :
दिनांक 25. 3.1966 को लगभग 10.45 बजे दिन को जब मैं अपने निवास स्थान की बैठक में लिखा-पढ़ी का कार्य कर रहा था, मैंने सर्वप्रथम माइक्रोफोन से 144 धारा नगर में लागू होने की उद्घोषणा सुनी। फिर थोड़ी देर बाद धमाकों की आवाजें हुई और राजवाड़ा के दक्षिणी दरवाजे के पास हवा में टियर गैस शेल्स फूटते देखा। मैं दौड़ा-दौड़ा घर के पास के पेट्रोल पंप में फोन करने गया क्योंकि मुझे पुराने राजमहल के विद्यालयों के बच्चों और शिक्षकों के विषय में घोर चिंता हुई। पुराने राजमहल के फोन पर थोड़ी-थोड़ी देर में संपर्क स्थापित किया। फिर चिंता, भय, आकुलतावश राजबाड़े के पूर्वी दीवार के पास एक अर्धनिर्मित झोपड़ी पर चढक़र अंदर का हाल जानने हेतु देखने लगा। उस वक्त राजमहल के सामने के बगीचे में आदिवासियों और पुलिस में संघर्ष छिड़ा हुआ था। धमाकों की आवाजें हो रही थी और आदिवासी वृक्षों व झाडिय़ों की आड़ लेकर उत्तर की ओर पीछे हट रहे थे। कुछ भाग रहे थे। एक दो लोग तीर भी चला रहे थे। थोड़ी देर के बाद वहां से उतर कर मैं पुन: अपने घर, सामने की सडक़, पड़ोस की छत आदि से यथासंभव राजवाड़े के भीतर-बाहर की घटना का अवलोकन करने लगा। इस बीच राजमहल के पूर्वी और उत्तरी भू-भाग पर काफी पुलिस वालों का फैलाव हो रहा था। आदिवासी अब बाहर नहीं दिख रहे थे। फिर राजमहल के पिछले भू-भाग बगीचे की ओर टियर गैस शेल्स के फूटने की ध्वनियां हुई, धुवां दिखाई दिया।
राजवाड़ा के उत्तरी दरवाजे पर तीर से घायल सिपाही को बेदम होते, आदिवासी को पुलिस तथा एक ऑफिसर द्वारा बुरी तरह पिटते, भीतरी हिस्से में एक आदिवासी को दौड़ते और उसके पीछे गोली की आवाज भी मैने अधखुले दरवाजे से देखी सुनी। पुन: लगभग चार बजे के बाद राजमहल के ऊपरी छत पर कई पुलिस वाले दृष्टिगोचर हुए। फिर थोड़ी देर बाद काफी हल्ला-गुल्ला सुनाई दिया।
माइक से यह भी उद्घोषणा हुई कि महल के भीतर के आदिवासी आत्मसमर्पण कर दें। मुझे समीप की छत पर से यह दृष्टिगोचर हो रहा था कि कुछ आदिवासी नए राजमहल के सामने के एक दरवाजे से निकल कर बाहर आंगन में आ रहे थे और उन्हें बैठाकर, घेर कर काफी पुलिस वाले उन्हें लाठियों से अंधाधुंध मार रहे थे। कोई भी मार से बच कर भागने की कोशिश करता उसके पीछे कई-कई पुलिसवाले दौड़ते और मनमानी पीटते। एक दो भागते हुए आदिवासियों पर गोलियां भी चलाई गई। दृश्य बहुत ही कारुणिक था।
संध्या तक यह क्रम चलता रहा। रात्रि में भी रुक-रुक कर कई बार गोलियां चलने की आवाजें आती रहीं। एक गोली की बड़े जोरों की आवाज तडक़े सुबह भी आई।
प्रात:काल 26 . 3 . 1966 को माइक से उद्घोषणा के बाद शांतिपूर्ण ढंग से आदिवासियों का आत्मसमर्पण, उनकी गिरफ्तारियां, शाम को श्री प्रवीर चंद्र भंजदेव की शव यात्रा आदि मैंने देखी। शमशान घाट में स्वर्गीय प्रवीर चंद्र भंजदेव के चेहरे को काफी समीप से मैंने देखा। चेहरा विकृत हो गया था। उसमें खून के दाग थे।
अब जगदलपुर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर का बयान भी मैं यहां उद्धृत करना चाहूंगा, जो उन्होंने उस समय पांडेय कमीशन के समक्ष दिया था।
डॉक्टर द्वारा दिया गया यह बयान बेहद महत्वपूर्ण है और बस्तर गोलीकांड की सच्चाइयों से पर्दा उठाता है। यह बयान यहां उद्धृत किया जा रहा है ताकि पाठक सच और झूठ का विवेक सम्मत निर्णय स्वयं ले सकें-
यह कि मैं दिनांक 25.3. 1966 को लगभग 10.30 बजे व्यवहार न्यायालय आया था।
यह कि राजमहल का मुख्यद्वार जो घटनास्थल था, वह सत्र न्यायालय और व्यवहार न्यायालय से लगभग 100 गज की दूरी पर है।
यह कि ज्यों ही मैं व्यवहार न्यायालय की ओर जाता हुआ नगर पालिका कार्यालय के समक्ष से गुजरा त्योंहि मैंने एक आरक्षी जीप और मोटर को राजमहल के मुख्य द्वार के समक्ष खड़े होते देखा तथा उनमें से श्री मोहन सिंह इंस्पेक्टर, श्री सिंह ए.डी.एम. जगदलपुर तथा दो या तीन पुलिस इंस्पेक्टर और सशस्त्र सेना के कुछ बंदूकधारी व लाठीधारी जवानों को उतरते हुए मैंने देखा।
यह कि उतरने के पश्चात सशस्त्र पुलिस ने स्वयं को दो भागों में बांट कर मुख्य द्वार के दोनों ओर अपनी स्थिति बनाई।
यह कि उस समय 20 या 25 आदिवासी महिलाएं दंतेश्वरी मंदिर के समीपस्थ उद्यान के घेरे के पास खड़ी थी जो स्थान राजमहल क्षेत्र के अंतर्गत है। इसके उपरांत मैंने एक जीप को प्रसाद के मुख्य द्वार की ओर नगरपालिका न्यायालय के सामने वाले राजमार्ग से आते देखा। इस जीप द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की 144 धारा का उद्घोष किया जा रहा था। सशस्त्र पुलिस जिसने अपनी स्थिति मुख्य द्वार के दोनों ओर बना ली थी उसने अब मुख्य द्वार के भीतर प्रवेश किया और दंतेश्वरी मंदिर के समक्ष खड़ी हो गई।
यह कि उसी समय पुलिस के कुछ सिपाही उद्यान के घेरे के समीप स्थित आदिवासी महिलाओं के समीप गए। इससे आदिवासी महिलाएं राजप्रसाद की ओर भाग गईं।
यह कि कुछ क्षण पश्चात पुलिस के अधिकारी तथा सिपाही तीर-तीर चिल्लाते हुए मुख्य द्वार से बाहर निकले। तत्पश्चात पुलिस ने राजप्रसाद के भीतर मुख्य द्वार से अपनी बंदूकों के द्वारा दो या तीन फायर किए तथा अश्रु गैस छोडऩा प्रारंभ कर दिया।
यह कि उसके उपरांत पुलिस के आदमियों ने मुख्य द्वार के भीतर पुन: प्रवेश किया और तुरंत तीर-तीर चिल्लाते हुए बाहर निकल आए। उस समय तक कोई व्यक्ति घायल नहीं हुआ था।
(बाकी अगले हफ्ते)
-श्रवण गर्ग
‘विश्वगुरु’ भारत को अगर यह गलतफहमी हो गई थी कि ह्यूस्टन (टेक्सास, अमेरिका) की रैली में ‘भक्तों’ से ‘अब की बार ट्रम्प सरकार’ का नारा लगवा देने भर से रिपब्लिकन मित्र डॉनल्ड ट्रंप की अमेरिका में फिर से सरकार बन जाएगी; रूस और यूक्रेन दोनों से शांति की अपील कर देने भर से ही तानाशाह मित्र पुतिन अपनी सेनाएँ वापस बुला लेंगे; और उसके एक इशारे पर पोलैंड, रोमानिया, स्लोवाकिया और मोल्डोवा की सरकारें और वहाँ के नागरिक कीव आदि युद्धग्रस्त क्षेत्रों से अपनी जानें बचाकर पहुँचे हमारे हजारों छात्रों को आँखों में काजल की तरह रचा लेंगे तो वह अब पूरी तरह से समाप्त हो जाना चाहिए।
यूक्रेन के रेल्वे स्टेशनों, सडक़ों और पोलैंड की सीमाओं पर हमारे छात्रों को जिस तरह का व्यवहार झेलना पड़ रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि सरकार में बैठे जिम्मेदार लोगों ने अपने स्व-आरोपित आत्मविश्वास के चलते हजारों बच्चों को कितनी गंभीर त्रासदी में धकेल दिया है । इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यूक्रेन में अध्ययनरत दो छात्रों (एक कर्नाटक से और दूसरा पंजाब से) द्वारा रूसी सैन्य कार्रवाई में जानें गंवा देने के समाचार हैं।
सरकारी दावों के विपरीत यूक्रेन से बाहर निकलने के लिए संघर्षरत सभी सैकड़ों या हजारों बच्चों की कुशल-क्षेम के ईमानदार समाचार प्राप्त होना अभी भी बाक़ी हैं। हजारों बच्चे अभी भी वहाँ फँसे हुए बताए जाते हैं और उन्हें ज्ञान दिया जा रहा है कि युद्ध क्षेत्र के बंकरों में संकट का सामूहिक रूप से सामना कैसे करना चाहिए ! भारतीय छात्र-छात्राओं द्वारा युद्धग्रस्त यूक्रेन और उसकी पश्चिमी सीमाओं से लगे पड़ोसी देशों में भुगती गईं/जा रहीं यातनाओं को ठीक से समझने के लिए इस घटनाक्रम को भी जानना जरूरी है।
काबुल से अपने सभी नागरिकों और समर्थकों को वक्त रहते सुरक्षित निकाल पाने की कोशिशों में दूध से जले राष्ट्रपति बाइडन ने दस फरवरी (तारीख़ ध्यान में रखें)को ही यूक्रेन में रह रहे सभी अमरीकियों के लिए चेतावनी जारी कर दी थी कि वे रूसी आक्रमण की आशंका वाले देश को तुरंत ही छोड़ दें। उन्होंने चेतावनी में यह भी कहा कि रूसी हमले की स्थिति में उनका प्रशासन नागरिकों को बाहर नहीं निकाल पाएगा।अमेरिका ही नहीं, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, इटली, इजऱाइल, जापान सहित कोई दर्जन भर देशों ने भी अपने नागरिकों, राजनयिक स्टाफ और उनके परिवारजनों को यूक्रेन तुरंत ही खाली करने को कह दिया था। सिर्फ हमारी ही दिल्ली स्थित सरकार और कीव स्थित भारतीय दूतावास बैठे रहे।
भारतीय नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए जवाबदेह हमारे दूतावास ने क्या किया? उसने पंद्रह फऱवरी (तारीख पर ध्यान दें) यानी बाइडन की अपने नागरिकों को दी गई चेतावनी के पाँच दिन बाद भारतीय छात्रों को ‘सलाह’ दी कि-’ मौजूदा अनिश्चित स्थिति को देखते हुए, भारतीय नागरिक, विशेषकर छात्र जिनका कि वहाँ रहना जरूरी नहीं है, यूक्रेन को अस्थाई तौर पर छोडऩे पर विचार कर सकते हैं।’ वहाँ निवास कर रहे भारतीय मूल के नागरिकों को यह सलाह भी दी गई कि यूक्रेन के भीतर भी उन्हें गैर-जरूरी यात्राएँ नहीं करना चाहिए। उक्त सलाहें भी इन आशंकाओं के बीच जारी कीं गईं कि रूसी हमला किसी भी समय हो सकता है।
भारतीय दूतावास द्वारा ‘सलाहपत्र’ जारी किए जाने के वक्त तक लगभग सभी देशों की विमान सेवाओं ने यूक्रेन से अपनी उड़ानें बंद कर दीं थीं। जो एक-दो बचीं भी थीं उनमें भी सीटें नहीं मिल रहीं थीं और किराए दो गुना से ज़्यादा हो गए थे। एक छात्र ने तब टिप्पणी की थी कि दूतावास ने सूचना इतने विलम्ब से जारी की है कि वे यूक्रेन छोड़ ही नहीं सकते। रूसी सेनाओं की बमबारी के बीच छात्रों से जो कहा जा रहा था उसका अर्थ यह था कि वे हजार-पंद्रह सौ किलो मीटर की यात्रा किसी भी साधन से पूरी करके पड़ोसी देशों में पहुँचें।
यूक्रेन के घटनाक्रम पर विचार करते समय स्मरण किया जा सकता है कि जिन तारीखों में छात्र अपनी जानें बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन तारीखों (मतदान के चरणों) में सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता यूपी में सरकार बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। यूक्रेन पर जब 24 फऱवरी को तीन तरफ़ से आक्रमण हो ही गया तब केंद्र सरकार पूरी तरह से हरकत में आई पर तब तक देश की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और नागरिकों के आत्म-विश्वास को जो चोट पहुँचना थी, पहुँच चुकी थी। भारतीय छात्रों के दर्द को सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर शेयर की जा रही व्यथाओं में पढ़ा जा सकता है।
यूक्रेन से अपने नागरिकों को समस्त संसाधनों का उपयोग करके सुरक्षित तरीके से समय रहते निकाल लेने में उसी तरह की लापरवाही बरती गई जैसी कि तालिबानी हमले के समय काबुल से या उसके भी पहले कोरोना के पहले विस्फोट के तुरंत बाद वुहान (चीन) से भारतीयों को निकालने के दौरान देखी गई थी।वुहान में रहने वाले भारतीयों द्वारा अपने अपार्टमेंट्स से मदद के लिए जारी की गई वीडियो अपीलों और यूक्रेन के छात्रों के वीडियो सम्बोधनों में एक जैसी पीड़ाएँ तलाशी जा सकती हैं। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि 1990 में वी पी सिंह की राजनीतिक रूप से कमजोर और आर्थिक तौर पर लगभग दीवालिया सरकार ने भी किस तरह से युद्धरत देशों कुवैत और इराक़ से एक लाख सत्तर हज़ार भारतीयों को सफलतापूर्वक बाहर निकाल लिया था।
जिस समय हमारे हज़ारों बच्चे यूक्रेन की कठिन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए घरों को लौटने की जद्दोजहद में लगे हैं , हमारी आँखों के सामने उन लाखों प्रवासी मजदूरों ,नागरिकों और बच्चों के चेहरे तैर रहे हैं जिन्होंने बिना किसी तैयारी और पूर्व सूचना के थोपे गए लॉकडाउन में सडक़ों पर भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्राएँ कीं थीं ।
पंचवटी’, ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ जैसी अद्वितीय रचनाओं के शिल्पकार और ‘भारत भारती’ जैसी प्रसिद्ध काव्यकृति के रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त ने वर्ष 1912-13 में जो सवाल किया था वह आज भी जस का तस कायम है-’ हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी!’ अंग्रेजी अखबार ‘द टेलिग्राफ’ ने यूक्रेन के कारण भारत पर आई मुसीबत से सम्बंधित एक खबर का शीर्षक यूँ दिया है;’ आपदा में अवसर उलटा पड़ गया।’