विचार/लेख
-कृष्ण कांत
भारत में केएफसी की फ्रेंचाइजी देवयानी इंटरनेशनल लिमिटेड के पास है। देवयानी, सुनने में कितना धार्मिक टाइप लग रहा है। ऐसे कि मन पवित्र हो जाए। इसके बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में कुल दस लोग हैं-प्रदीप खुशहालचंद्र सरदाना, गिरीश कुमार आहूजा, नरेश त्रेहान, रश्मि धारीवाल, रवि गुप्ता, मनीष दावर, राजपाल गाँधी, विराग जोशी, वरूण जयपुरिया, रविकांत जयपुरिया
पंडित विराग जोशी इस कंपनी के होल टाइम डायरेक्टर, प्रेसिडेंट एवं सीईओ हैं। पंडित विराग जोशी समेत ये दसों हिंदू मिलकर पूरे देश को चिकन खिला रहे, वह भी ‘हलाल सर्टिफाइड।’ कहीं किसी ने विरोध प्रदर्शन किया? नहीं।
नवरात्रि चल रहा है, केएफसी बंद होने के बजाए खुला हुआ है। इसके अलावा दस प्रतिशत तक दाम बढ़ा दिए गए हैं। आनलाइन बेचने वालो का चिकन बिक रहा है। खाने वाले खा रहे हैं।
ये दाम क्यों बढ़े होंगे? क्योंकि नवरात्रि में ज्यादातर जगहों पर मीट या चिकन की खुदरा दुकानें बंद करा दी जाती हैं। मांग बढ़ गई होगी, इसलिए केएफसी ने दाम बढ़ा दिया। केएफसी का धंधा चमकेगा। लोकल बाजार के चिकवा का धंधा दस दिन ठप रहेगा। खाने वाले चिकन खाएंगे। केएफसी वाले पंडित जी अपना धंधा बढ़ाएंगे। ट्विटर वाले सच्चे हिंदू इस बात से खुश रहेंगे कि अब्दुल टाइट है। धर्म भी मजेदार चीज है। केएफसी वाले चिकन से धर्म भ्रष्ट नहीं होता, स्थानीय बाजार में गरीब मांस विक्रेता अपनी दुकान खोल दे तो पंडित जी का पूजाघर अपवित्र हो जाता है। विचित्र है!
यह सच है कि अब्दुल चिकवा की दुकान दस दिन बंद रही तो वह टाइट हुआ, लेकिन इन हरकतों से आपका बाजार तो ढीला हो गया। एक अमीर का धंधा बढ़ा और एक गरीब का नुकसान हुआ। आपको क्या मिला? काल्पनिक सुख। परपीड़ा सुख।
रही बात धर्म की, तो कोई खाने में मांसाहार न खाए, इससे आपका व्रत कैसे फलित होगा?चिकन की दुकान बंद हो जाए तो आपको इससे कैसे पुण्य मिलेगा? आप तो नहीं खाते हैं न? तो आपका मन अपना व्रत छोडक़र अब्दुल चिकवा के चिकन में क्यों अटका है? आप धार्मिक नहीं, पाखंडी हैं। बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो मांसाहारी हैं, लेकिन मंगलवार या नवरात्रि में नहीं खाते। वे लोग सही हैं, खुद खाते हैं इसलिए ज्यादा पवित्रता नहीं झाड़ते।
भारत सरकार के नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, हर 10 में 7 लोग मांसाहार लेते हैं। देश के लगभग 70 प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं। अब ये जो 10 में से तीन बच रहे हैं, ये क्यों समझ रहे हैं कि ईश्वर इन्हीं खोपड़ी पर विराजमान हैं? सिर्फ 30 प्रतिशत का धर्म ही असली धर्म कैसे हुआ? पूर्वांचल से लेकर साउथ तक जितने ब्राह्मण मांस खाते हैं, या जितने लोग काली जी को खुश करने के लिए मुर्गा बकरा बलि चढ़ाते हैं, वे कम हिंदू कैसे हुए? भूतपूर्व हिंदू हृदय सम्राट अटल बिहारी वाजपेयी मछली खाते थे। क्या वे कम हिंदू थे?
हिंदुओं को पाखंड से और भाजपा की नौटंकी से बचना चाहिए। ये उत्तर प्रदेश में गोहत्या को चुनावी मुद्दा बनाते हैं, लेकिन गोवा और पूर्वोत्तर राज्यों में खुद ही गोमांस सप्लाई करते हैं।
सीधी सी बात है, खाने-पीने की आदतों का धर्म से कोई लेना देना नहीं है। आपकी आस्था है कि आप पूरे साल निराजल व्रत रहें तो रहिए। लेकिन दूसरे की रसोई में आपका मन अटका है तो मानसिक इलाज कराइए। यह धर्म नहीं, परसंताप है। यह आपको विकृत करता है।
न खाने को वालों को चाहिए कि अपने पूजा व्रत में ध्यान केंद्रित करें। खाने वालों को चाहिए कि शाकाहारियों को चिढ़ाएं नहीं। अपना अपना रास्ता नापिए। यह सही तरीका है।
भारत में जितनी मीट निर्यात की कंपनियां हैं, सब अपर कास्ट हिंदू लोग चलाते हैं और भारत विश्व के सबसे बड़े मांस/बीफ निर्यातकों में से एक है। पाखंड बंद कीजिए। अपने हवन पूजन पर ध्यान केंद्रित कीजिए।
जय भवानी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गृहमंत्री अमित शाह ने कल वह बात कह दी, जो भारत के लिए महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे। शाह ने संसदीय राजभाषा समिति की बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि भारत के नागरिकों को परस्पर संवाद के लिए अंग्रेजी की जगह हिंदी का इस्तेमाल करना चाहिए। याने भारत की संपर्क भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी होनी चाहिए! इसमें उन्होंने गलत क्या कहा? भारत को आजाद हुए 75 साल हो रहे हैं और हम अभी भी अंग्रेजी की गुलामी कर रहे हैं। अंग्रेजी न केवल भारत के मु_ीभर लोगों की भाषा है बल्कि यह भारत की असली राजभाषा है। राजभाषा के नाम पर हिंदी तो शुद्ध ढोंग है। अब भी सरकार के सारे महत्वपूर्ण काम अंग्रेजी में होते हैं।
भारत का कानून, न्याय, राजकाज, उच्च शिक्षण, शोध, चिकित्सा— सब कुछ अंग्रेजी में होता है। हमारे अनपढ़ और अधपढ़ नेताओं में हिम्मत ही नहीं कि वे अंग्रेजी की इस गुलामी को चुनौती दें। अंग्रेजी महारानी बनी हुई है और समस्त भारतीय भाषाएं उसकी नौकरानियां बन चुकी हैं। इस स्थिति को बदलने का काम हिंदी लाओ नहीं, अंग्रेजी हटाओ के नारे से होगा। अमित शाह को मैं बधाई दूंगा कि वे भारत के ऐसे पहले गृहमंत्री हैं, जिन्होंने दो-टूक शब्दों में अंग्रेजी हटाओ का नारा दिया है। अंग्रेजी हटाओ का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी मिटाओ। जो स्वेच्छा से अंग्रेजी तो क्या, कोई भी विदेशी भाषा पढऩा चाहे, उसमें काम करना चाहे, जरुर करे लेकिन बस, वह थोपी नहीं जाए। अगर अंग्रेजी थोपी नहीं जाए तो हिंदी थोपना भी उतना ही गलत है। हिंदी के प्रचलन से यदि किसी अहिंदीभाषी को कोई नुकसान होता हो तो मैं उसका सख्त विरोध करुंगा। अमित शाह अपने भाषण में जरा यह कह देते कि अंग्रेजी हटाओ और उसकी जगह भारतीय भाषाएं लाओ तो इस वक्त जो तूफान उठ खड़ा हुआ है, वह नहीं होता। गुजरातीभाषी अमित शाह के भोलेपन पर कई दक्षिण भारतीय नेताओं को भडक़ने का मौका मिल गया। यदि अमित शाह यह कह दें और जो कहें, उसे करें भी कि हिंदीभाषी लोग अन्य भारतीय भाषाएं निष्ठापूर्वक सीखें तो इन अंग्रेजीप्रेमियों की बोलती बंद हो जाएगी। जितने अंग्रेजीप्रेमी दक्षिण भारत में हैं, उससे ज्यादा उत्तर भारत में हैं।
ये कितने हैं ? इनकी संख्या मुश्किल से 8-10 करोड़ होगी। ये लोग कौन हैं? इनमें से ज्यादातर शहरी, उच्च जातीय और मालदार लोग हैं। यही देश का शासक-वर्ग है। यदि अंग्रेजी हट गई तो देश के गरीब, ग्रामीण, पिछड़े, वंचित लोगों के लिए उच्च शिक्षा, उच्च सेवा, उच्च पदों, उच्च आय और उच्च जीवन के मार्ग खुल जाएंगे। अंग्रेजों के जमाने से बंद इन दरवाजों के खुलते ही देश में समतामूलक क्रांति का सूत्रपात अपने आप हो जाएगा। भारत में सच्चा लोकतंत्र कायम हो जाएगा। लोकभाषाओं को आपस में कौनसी भाषा जोड़ सकती है? वह हिंदी ही हो सकती है? जो संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी का विरोध करते हैं, वे अपनी भाषा बोलनेवाले के पक्के दुश्मन हैं। गैर-हिंदी प्रदेशों की आम जनता का अंग्रेजी से कुछ लेना-देना नहीं है। यह सिर्फ उनके तथाकथित भद्रलोक का रोना है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के करोड़ों ग्रामीण, किसान, मजदूर, महिलाएं, हिंदू-मुस्लिम तीर्थयात्री और पर्यटक जब एक-दूसरे के प्रदेशों में जाते हैं तो क्या वे अंग्रेजी में संवाद करते हैं? वे हिंदी में करते हैं। अंग्रेजी दादागीरी की भाषा है और हिंदी प्रेम की भाषा है। वह सहज है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्तराष्ट्र संघ की महासभा ने रूस को अपनी मानव अधिकार परिषद से निकाल बाहर किया है। उसके 193 सदस्यों में से 93 सदस्यों ने रूस के निष्कासन के पक्ष में वोट दिया और 24 ने विरोध में ! 58 सदस्य तटस्थ रहे, जिनमें भारत भी शामिल है। रूस के पहले सिर्फ लीब्या को इस परिषद से निकाला गया था लेकिन लीब्या रूस की तरह सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं था। रूस का निकाला जाना अपने आप में एतिहासिक घटना है। वैसे मानव अधिकारों के उल्लंघन में अमेरिका और चीन ने भी रिकार्ड कायम किए हैं लेकिन यूक्रेन में जिस तरह का नरसंहार चल रहा है, वैसा द्वितीय महायुद्ध के बाद कहीं देखा नहीं गया। दुनिया के कई देश, खास तौर से अमेरिका से जुड़े हुए उम्मीद कर रहे थे कि भारत कम से कम इस बार तटस्थ नहीं रहेगा। वह रूस के विरुद्ध वोट करेगा।
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक बड़े अधिकारी ने कल-परसों यह भी कह दिया था कि देखे कि मानव अधिकार परिषद में भारत का वोट किधर पड़ता है। उसे रूस का विरोध करना ही चाहिए। यदि अब वह तटस्थ रहता है तो उसका असर भारत-अमेरीकी संबंध पर जरुर पड़ेगा। भारत ने अन्य दर्जन भर मतदानों की तरह इस मतदान में भी तटस्थता बनाए रखी लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि यूक्रेन के नरसंहार पर उसने आंख मींच रखी है। अंतरराष्ट्रीय मंचों तथा भारतीय संसद में भी भारत सरकार कई बार कह चुकी है कि वह यूक्रेन में युद्ध बिल्कुल नहीं चाहती। वह हिंसा और दबाव के बजाय बातचीत से सारे मामले को शांतिपूर्वक हल करवाना चाहती है। वास्तव में बूचा में हुए नरसंहार की उसने जांच की मांग की है। ऐसी मांग करनेवाला भारत पहला राष्ट्र है। संयुक्तराष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने यूक्रेन में चल रहे रक्तपात पर गहरा दुख भी व्यक्त किया है। असलियत तो यह है कि अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्र यूक्रेन पर शुद्ध जबानी जमा-खर्च कर रहे हैं। उसकी वे खुलकर सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं कर रहे हैं। इसके कारण रूस का क्रोध प्रतिदिन उग्र होता जा रहा है।
यदि ये पश्चिमी राष्ट्र यूक्रेन को पानी पर नहीं चढ़ाते तो रूसी आक्रमण की ये नौबत ही क्यों आती? रूस के विरुद्ध इन प्रस्तावों और मतदानों का पूतिन पर क्या असर पड़ रहा है? कुछ नहीं! यूक्रेन के वोलोदोमीर झेलेंस्की ने ठीक ही कहा है कि संयुक्तराष्ट्र संघ अगर कुछ नहीं कर सकता तो उसे भंग क्यों नहीं कर दिया जाना चाहिए? उन्होंने नाटो और अमेरिका की अकर्मण्यता को भी जमकर रेखांकित किया है। इस समय भारत का रवैया अत्यंत व्यावहारिक और तर्कसंगत है लेकिन वह अत्यंत सीमित है। उसके अफसर यद्यपि जो कुछ बोल रहे हैं, ठीक बोल रहे हैं लेकिन उनसे ये आशा करना उचित नहीं है कि वे पूतिन और झेलेंस्की के बीच मध्यस्थता कर सकते हैं या उनके बयानों का इन दोनों नेताओं पर कोई असर पड़ सकता है। यह भारत के लिए पहल का एकदम सही मौका है। बाइडन और पूतिन, दोनों के साथ भारत का बराबरी का संबंध है। यदि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहल करें तो निश्चय ही बाइडन, पूतिन और झेलेंस्की उनकी बात सुनेंगे, क्योंकि इस मामले में भारत का अपना कोई स्वार्थ नहीं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-मनीष सिंह
जी हां। श्रीलंका के जैविक इतिहास में कभी भी शेर नहीं पाए गए। न जिंदा, न फॉसिल्स... शेर तो वहां होते ही नहीं।
एकमात्र शेर जो लंका में मिलता है, वह उसके झंडे पर है, वह भी उधार का। पहले पल्लव महेन्द्रवर्मन, और फिर जब चोल राजवंश, खासकर राजेन्द्र चोल ने अपनी नेवी के बूते सामुद्रिक अभियान शुरू कर, दक्षिण पूर्वी एशिया में अपनी सुप्रीमेसी स्थापित की, तब श्रीलंका पहला स्टॉप था।
यह तलवारधारी शेर चोलो के झंडे में था। वही झण्डा थोड़े बदलावों के साथ, तब से चला आ रहा है।
याने तमिल नस्ल श्रीलंका की बेस है। लेकिन जो सदियों पहले सिंहल गए, वो सिंहली हो गए। जो लेट से, याने 18 वी शताब्दी में गए। चाय बागानों में काम करने के लिए अंग्रेजों के बुलावे पर पहुचे। वो तमिल कहलाये।
तमिल जब तलक मजदूर थे, दिक्कत नहीं हुई। जब अगली पीढिय़ां मजबूत होने लगी, कमाने, बढऩे लगी तो मूल निवासी चिंतित होने लगे। डिवाइड रूल वाले नेताओं को अवसर दिखा। अब दोनों पार्टी हिन्दू थी, तो लड़ाने का आधार भाषा बनी।
सत्तर के दशक में सिंहली राजभाषा हुई और तमिलों के हक, स्पेस, सम्मान पर चोट करना शुरू हुआ। नतीजे में वही हुआ, जो होना था- गृहयुद्ध। तो गृहयुद्ध हुआ, श्रीलंका दो टुकड़ों में टूटते-टूटते बचा। श्रीलंका सरकार ने तमिलों से गृहयुद्ध जीत लिया।
लेकिन गृहयुद्ध जिताने वाला अब्राहम लिंकन नहीं था। जीत के बाद मेल-मिलाप होना चाहिए। मगर नेता की नीति रही कि अब तो सिंहल में सिंहलियों की चलेगी। यह बात सिंहलियों को बड़ी प्रिय लगी। सबको जीत का नशा था, नेता को भी, जनता को भी।
जनता नशे में हो, तो नेता महाबली हो जाता है।
महाबली नेता ने, उसके परिवार ने जैसे चाहा, देश को हांका। प्रेस, विपक्ष, संसद.. जो बहस, चर्चा और सवालों से कोर्स करेक्शन करवाते हैं, समवेत नीतियां बनवाने में मददगार होते हैं।
लेकिन दूसरी नजर से देखा जाए तो महाबली नेता की राह के रोड़े भी होते हैं। महाबली के खिलाफ खड़े दिखे, तो गद्दार भी करार दिए गए।
तो जब महाबली प्रेस, विपक्ष, संसद का बघीयाकरण कर रहे थे, जनता खुश थी। बम्पर बहुमत से नेता का मन बढ़ा रही थी।
असल में अपने हाथ पैर काट रही थी।
आज वही जनता सडक़ों पर है। भूखी, अंधेरे में, खिसियाती और चिल्लाती। महाबली गो बैक के नारे लगा रही है। लेकिन वह मजबूत नेता इमरजेंसी लगाकर ठीक वही बर्ताव कर रहा गई, जो तमिलों के साथ किए जाने पर जनता ताली बजा रही थी।
उसके पास न विपक्ष है, न प्रेस, न संसद। सबको तो जहर देकर उसी ने मारा है। अपनी लड़ाई उसे खुद लडऩी है। वो अब नेता से लड़ रही है।
और नेता उससे लड़ रहा है।
और वो झंडे वाला शेर...
ध्यान से देखिए। उसके हाथ में तलवार नहीं है कटोरा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली की दो नगर निगमों ने अभी एक ऐसी घोषणा की है, जो एकदम नई जरुर है लेकिन तर्कसम्मत बिल्कुल नहीं लगती। उन्होंने आदेश जारी किया है कि नवरात्रि के दिनों में मांस बेचना मना होगा। मांस की बिक्री पर प्रतिबंध इसलिए लगाया जा रहा है कि नवरात्रि के उपवास के दिनों में यह भक्तों के लिए कष्टदायक होता है। मोहल्लों में बनी मांस की दुकानों पर लटके हुए पशुओं के लोथड़ों को देखकर भक्तों के मन में जुगुप्सा पैदा होती है। इसी तरह की मांग मध्यप्रदेश, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश की सरकारों से भी की जा रही है।
मांस की दुकानें भारत में हो ही नहीं और कोई भी भारतीय मांस न खाए, यह तो मैं तहे-दिल से चाहता हूं लेकिन नवरात्रि के बहाने मांस की दुकानें बंद करवाने की बात बिल्कुल भी गले नहीं उतरती है। किसी हिंदू त्यौहार पर मांस की दुकानें बंद करवाने में सांप्रदायिक संकीर्णता की बदबू आती है। क्या मुसलमानों की यह मांग घोर सांप्रदायिक नहीं मानी जाएगी कि रमजान के महिने में सारे भारत के भोजनालय दिन के समय बंद रखे जाएं?
भारत के जितने मुसलमान मांसाहारी हैं, उनमें दुगुनी-तिगुनी संख्या के हिंदू लोग मांसाहारी हैं। जिन हिंदू और मुसलमानों की मांस की दुकानें हैं, यदि उनका काम-धंधा 8-10 दिन बंद रहेगा तो क्या नगर निगम या सरकारें उसका मुआवजा उन्हें देगी? यदि नहीं तो किसी नागरिक का रोजगार छीनने का हक सरकार को कैसे दिया जा सकता है? यह तो संविधान में प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है। यदि इस तरह के मनमाने आदेश का उल्लंघन करनेवालों को शासन दंडित करेगा तो वे अदालत के दरवाजे खटखटाएंगे और अदालतें ऐसे आदेशों को रद्द कर देंगी लेकिन इस तरह के आदेश जारी होने पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं।
एक तो यह कि डर के मारे मांस-विक्रेता अपनी दुकानें अपने आप बंद कर देते हैं और यदि वे बंद न करें तो अपने आप को हिंदूवादी कहनेवाले स्वयंसेवक उन दुकानदारों पर टूट पड़ते हैं। याने सारे मामले का सांप्रदायीकरण हो जाता है। यह बात छोटी-सी है लेकिन यह दूर तलक जा सकती है। यह सांप्रदायिक दंगों का रूप धारण कर सकती है। कोई नागरिक क्या खाता है, क्या पहनता है, क्या सोचता है, क्या यह भी सरकार तय करेगी?
इन कामों में किसी भी सरकार को अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए। मांस की खुले-आम बिक्री के दृश्य कितने भयानक और वीभत्स होते हैं, आपको यह देखना हो तो ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे देशों में जाकर देखिए। वहां घोड़ों, ऊटों और गायों की चमड़ी उतारकर पूरा का पूरा लटका दिया जाता है। मांस के बाजारों में इतनी बदबू होती है कि उनसे गुजरने में भी तकलीफ होती है।
मांस-भक्षण न स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है और न ही नैतिक दृष्टि से उचित है। उसे कानून से नहीं, समझाइश से रोका जाना चाहिए। मेरे हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख और यहूदी मित्रों से मैं हमेशा पूछता हूं कि बताइए आपके धर्मग्रंथ में कहां लिखा है कि आप यदि मांस नहीं खाएंगे तो आप घटिया धर्मप्रेमी कहलाएंगे? कई मुस्लिम देशों के और भारत के मेरे लाखों परिचितों में से किसी एक ने भी आज तक कानून के डर से मांस खाना नहीं छोड़ा है लेकिन ऐसे सभी धर्मों के हजारों लोगों को मैं जानता हूं, जिन्होंने प्रेमपूर्ण समझाइश के कारण मांसाहार से मुक्ति पा ली है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद में हमारे प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति ने कल यूक्रेन के बारे में जो बयान दिया है, वह विश्व राजनीति में भारत की छवि को तो बेहतर बनाएगा ही, वह रूस को भी अपनी पशुता से बाज आने के लिए शायद प्रेरित कर दे ।तिरुमूर्ति ने यूक्रेन के शहर बूचा में हुए नर-संहार की दो-टूक शब्दों में भर्त्सना की है। उन्होंने मांग की है कि इस नरसंहार की जांच की जानी चाहिए और इसे तुरंत रोका जाना चाहिए। उन्होंने नरसंहार करनेवाले रूस का नाम नहीं लिया। यह सावधानी उन्होंने जरुर बरती लेकिन यह स्पष्ट है कि उन्होंने रूसी फौज के अत्याचार की उतनी ही सख्त आलोचना की है, जितनी अमेरिका और यूरोपीय देश कर रहे हैं। भारत की इस आलोचना का शायद रूस पर कोई असर न पड़े लेकिन भारत की तटस्थता को अब दुनिया के राष्ट्र भारत का गूंगापन नहीं समझेंगे।
भारत ने हालांकि कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जब भी रूस का विरोध हुआ, भारत ने उसके समर्थन में मतदान नहीं किया लेकिन उसने हर बार यह कहा कि प्रत्येक राष्ट्र को संयुक्तराष्ट्र घोषणा पत्र का सम्मान करना चाहिए, हर देश की सुरक्षा और संप्रभुता की रक्षा करनी चाहिए और अपने विवादों को युद्ध से नहीं, बातचीत से हल करना चाहिए। तिरुमूर्ति ने यही बात बूचा के नरसंहार पर बोलते ही दोहराई है। मुझे लगता है कि भारत के इस ताजा तेवर से अमेरिका के घाव पर थोड़ा मरहम जरुर लगा होगा, क्योंकि अमेरिका के नेता और अफसर बार-बार भारत से आग्रह कर रहे हैं कि वह रूस-विरोधी तेवर अपनाए और रूस के विरुद्ध घोषित पश्चिमी प्रतिबंधों को भी लागू करे। पश्चिमी राष्ट्रों के ये दोनों आग्रह निरर्थक हैं। वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली और मालदार देश हैं। उनके द्वारा की गई भर्त्सना का क्या असर हो रहा है? इसी तरह का काम अमेरिका ने अफगानिस्तान, लीब्या, एराक, वियतनाम और कोरिया में किया था। यूक्रेनी राष्ट्रपति झेलेंस्की ने सुरक्षा परिषद को संबोधित करते हुए कहा है कि संयुक्तराष्ट्र यूक्रेन की सुरक्षा नहीं कर पाए तो उसको भंग क्यों नहीं कर दिया जाना चाहिए।
जहां तक प्रतिबंधों का सवाल है, यह भी शुद्ध ढोंग है, क्योंकि रूसी तेल और गैस अब भी यूरोपीय राष्ट्र धड़ल्ले से खरीद रहे हैं। लेकिन यूक्रेन के विभिन्न शहरों को पूतिन का रूस जिस तरह तबाह कर रहा है, वैसा तो मुसोलिनी की इटली और हिटलर के जर्मनी ने भी नहीं किया था। यूक्रेन के शहर बूचा में 300 शव पाए गए हैं। उन्हें टीवी चैनलों पर देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मकानों, दुकानों और दफ्तरों को भस्मीभूत कर दिया गया है। पूतिन के प्रवक्ता का कहना है कि ये सब किस्से मनगढ़ंत हैं। बूचा को रूसी फौजों ने खाली कर दिया, उसके एक हफ्ते बाद के ये फर्जी चित्र हैं। रूसी प्रवक्ता की इस मूर्खता पर किसे क्रोध नहीं आएगा? यदि रूसी नरसंहार इसी तरह जारी रहा तो पूतिन और रूस की छवि दुनिया में इतनी गिर जाएगी, जितनी मुसोलिनी और हिटलर की भी नहीं गिरी थी। भारत ने बूचा को बूचडख़ाना बनाने का जो विरोध किया, वह ठीक है लेकिन पूतिन को कोई समझाए कि यदि यही क्रूरता जारी रही तो कहीं चीन और भारत-जैसे देशों को भी उसके विरुद्ध अपना मुंह खेालना न पड़ जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के दो पड़ौसी देशों, पाकिस्तान और श्रीलंका में अस्थिरता के बादल छा गए हैं। पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय का फैसला जो भी हो और श्रीलंका की राजपक्ष भाइयों की सरकार रहे या चली जाए, हमारे इन दो पड़ौसी देशों की राजनीति गहरी अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर गई है। जहां तक श्रीलंका का प्रश्न है, वहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य तीन मंत्री एक ही राजपक्ष परिवार के सदस्य हैं। ऐसी पारिवारिक सरकार शायद दुनिया में अभी तक कभी नहीं बनी है। जब सर्वोच्च पदों पर इतने भाई और भतीजे बैठे हों तो वह सरकार किसी तानाशाह से कम नहीं हो सकत।
राजपक्ष-परिवार श्रीलंका का राज-परिवार बन गया। श्रीलंका में आर्थिक संकट इतना भीषण हो गया है कि कल पूरे मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया। सबसे बड़ी बात यह कि जिन चार मंत्रियों को फिर नियुक्त किया गया, उनमें वित्तमंत्री बसील राजपक्ष नहीं हैं। वित्तमंत्री के खिलाफ सारे देश में जबर्दस्त रोष फैला हुआ है, क्योंकि मंहगाई आसमान छूने लगी है। चावल 500 रु. किलो, चीनी 300 रु. किलो और दूध पाउडर 1600 रु. किलो बिक रहा है। बाजार सुनसान हो गए हैं। ग्राहकों के पास पैसे नहीं हैं। रोजमर्रा पेट भरने के लिए हर परिवार को ढाई-तीन हजार रु. चाहिए। लोग भूखे मर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दो-तीन दिन में सरे-आम लूट-पाट की खबरें भी श्रीलंका से आने लगें। पेट्रोल, डीजल और गैस का अकाल पड़ गया है, क्योंकि उन्हें खरीदने के लिए सरकार के पास डॉलर नहीं हैं। लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग-भागकर भारतीय आ रहे हैं ।श्रीलंका के रिजर्व बैंक के गवर्नर अजीत निवार्ड कबराल ने भी इस्तीफा दे दिया है। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के तीन बड़े आधार हैं। पर्यटन, विदेशों से आनेवाला श्रीलंकाइयों का पैसा और वस्त्र-निर्यात। महामारी के दौरान ये तीनों अधोगति को प्राप्त हो गए। 12 बिलियन डॉलर का विदेशी कर्ज चढ़ गया। उसकी किस्तें चुकाने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है।
चाय के निर्यात की आमदनी घट गई, क्योंकि रासायनिक खाद पर प्रतिबंध के कारण चाय समेत सारी खेती लंगड़ा गई। श्रीलंका को पहली बार चावल का आयात करना पड़ा। 2019 में बनी इस राजपक्ष सरकार ने अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लालच में तरह-तरह के टैक्स घटा दिए और मुफ्त अनाज बांटना शुरु कर दिया। सारा देश विदेशी कर्जे में डूब गया। गांव-गांव और शहर-शहर में लाखों लोग सडक़ों पर उतर आए। घबराई हुई सरकार ने विरोधी दलों से अनुरोध किया कि सब मिलकर संयुक्त सरकार बनाएं लेकिन वे तैयार नहीं हैं। राजपक्ष सरकार ने पहले आपात्काल घोषित किया, संचारतंत्र पर कई पाबंदियां लगाईं और अब उसे कर्फ्यू भी थोपना पड़ा है। भारत सरकार ने श्रीलंका की तरह-तरह से मदद करने की कोशिश की है लेकिन जब तक दुनिया के मालदार देश उसकी मदद के लिए आगे नहीं आएंगे, श्रीलंका अपूर्व अराजकता के दौर में प्रवेश कर जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने हाल ही में भारत का तीन दिन का दौरा किया था। इस दौरान उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात की और कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए। हालांकि, भारत के दौरे के दौरान प्रधानमंत्री देउबा की बीजेपी प्रमुख से शिष्टाचार मुलाक़ात और सीमा विवाद पर संयुक्त बयान न जारी करने को लेकर सवाल उठ रहे हैं। नेपाल और भारत में ये भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री देउबा ने ऐसा करके प्रोटोकॉल तोड़ा है।
इन मुद्दों को करीब से देखने वाले कुछ पूर्व राजनयिकों का कहना है कि इनका अर्थ सामान्य नहीं है। हालांकि कुछ लोगों ने कहा है कि कूटनीति में विशेष परिस्थितियों में शिष्टाचार के नियमों को तोडऩा स्वाभाविक है और नेताओं को संदेह करने का मौका नहीं देना चाहिए।
बीजेपी मुख्यालय जाने पर उठते सवाल
नेपाल की सरकार के प्रमुख के रूप में दिल्ली की अपनी आधिकारिक यात्रा के पहले दिन ही देउबा भारत की केंद्र सरकार में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय जा पहुंचे। इस दौरान देउबा ने बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाक़ात की।
देउबा ने बीजेपी मुख्यालय में पार्टी प्रमुख जेपी नड्डा से मुलाक़ात की थी। इस मुलाक़ात के बाद देउबा पर राजनयिक गरिमा को गिराने का आरोप लगने लगा जिसके बाद नेपाल के विदेश मंत्री उनके बचाव में आए। देउबा के बीजेपी कार्यालय के दौरे पर सफाई देते हुए विदेश मंत्री नारायण खडक़ा ने कहा कि देउबा बीजेपी कार्यालय प्रधानमंत्री नहीं बल्कि नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष की हैसियत से गए थे।
नेपाल के पूर्व राजदूत मोहन कृष्ण श्रेष्ठ कहते हैं कि देउबा की बीजेपी कार्यालय की यात्रा पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर ही हो सकती है क्योंकि वो देश के प्रधानमंत्री भी हैं। श्रेष्ठ ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि भारत के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेता से मुलाक़ात नहीं की। वो कहते हैं, ‘किसी देश की यात्रा के दौरान विपक्ष के नेता से मुलाक़ात करना एक नियमित प्रक्रिया है। अगर वो विपक्ष के नेता से मुलाक़ात करते तो यह बहुत संयमित होता।’ ‘लेकिन मुझे यह नहीं मालूम है कि प्रधानमंत्री बीजेपी के कार्यालय में अपने आधिकारिक दौरे की हैसियत से गए थे या नहीं। सरकार के प्रमुख का प्रोटोकॉल बहुत ऊंनेपाली कांग्रेस के नेता और भारत में नेपाल के राजदूत रहे दीप कुमार उपाध्याय कहते हैं कि यह दौरा भले ही प्रोटोकॉल से अलग रहा हो लेकिन नेपाल-भारत के संबंध में अगर इस मुलाक़ात से लोगों को कुछ राहत मिलती है तो फिर नतीजे पर भी गौर करना चाहिए।
बातचीत के नोट लेते वक्त कोई नहीं था
देउबा और मोदी के बीच द्विपक्षीय बातचीत के दौरान पीएम मोदी के पीछे एक महिला अधिकारी नोट बनाती नजऱ आ रही हैं जबकि देउबा के साथ कोई नहीं है और वो अकेले बैठे हैं। इस तस्वीर के सामने आने के बाद इस पर भी काफ़ी सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कई लोगों का कहना है कि द्विपक्षीय वार्ता के दौरान यह नेपाल के गंभीर न होने को दिखाता है।
भारत में नेपाल के राजदूत रह चुके नेपाली कांग्रेस नेता दीप कुमार उपाध्याय कहते हैं कि इस दौरान ‘देश की कमजोरी’ देखी गई। उनका कहना था कि हाल ही में ऐसा कई बार देखा गया है।
उनका मानना है कि द्विपक्षीय मुद्दों पर भारत के मुक़ाबले नेपाल का ध्यान अधिक केंद्रित रहा होगा। वो कहते हैं कि हर नई बातचीत के दौरान और सरकार के ‘संस्थागत ज्ञान’ के लिए बातचीत के नोट बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। उन्होंने कहा, ‘विदेश नीति, सुरक्षा नीति को परिभाषित करना और नियमों का पालन करना, विदेश मंत्रालय को महत्व देना नेपाल में नहीं देखा जाता है।’
उपाध्याय कहते हैं कि इस तरह की परिस्थिति द्विपक्षीय वार्ता में दूसरे पक्ष को गंभीरता से नहीं लेने की समस्या को दिखाता है।
संयुक्त बयान क्यों नहीं आया?
देउबा की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सीमा विवाद पर कोई संयुक्त बयान जारी नहीं किया। हालांकि यह माना जा रहा है कि देउबा ने सीमा विवाद का मुद्दा उठाया था, जिस पर नेपाल में कई लोगों ने दिलचस्पी दिखाई है, लेकिन संयुक्त संवाददाता सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बारे में कुछ नहीं कहा था।
विदेश मंत्री खडक़ा ने संवाददाताओं से कहा था कि सीमा मामलों पर उनका संबोधन एक ‘स्थापित तंत्र’ के जरिए होगा। कुछ राजनयिकों का कहना है कि सीमा विवाद पर संयुक्त बयान आपसी विश्वास को दर्शाता है।
पूर्व विदेश मंत्री भेष बहादुर थापा ने कहा कि संयुक्त बयान के न होने का मतलब यह नहीं था कि कुछ भी नहीं हुआ था या कुछ भी छिपा नहीं था। उनका कहना है, ‘क्या चर्चा हुई, क्या सहमति हुई, क्या विवादित हुआ या किस पर रोक लगा दी गई, यह सभी मुद्दे विदेश मंत्री के बयान तक ही सीमित हैं।’ हालांकि, उन्होंने कहा कि सार्वजनिक तौर पर यह सूचना जारी करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि बातचीत केवल सद्भाव के स्तर पर हुई थी।
(ये कहानी बीबीसी नेपाली से ली गई है) (bbc.com/hindi)
-अजीत साही
मैंने बचपन से देखा है कि नवरात्र में मेरे कई जानने वाले मांस नहीं खाते। धर्म ग्रंथों में इस परंपरा का मूल कोई बता सकता है? मुझे इसका तर्क समझ नहीं आया है। अगर मांस भगवान विरोधी खाना है, या धर्म भ्रष्ट करता है, तो फिर सिर्फ नौ दिन ही क्यों, उसे कभी भी नहीं खाना चाहिए।
कौन क्या खाता है ये व्यक्तिगत मामला है और इस पर बवाल काटना मुझे कभी समझ नहीं आया। मैं बचपन से शाकाहारी था। फिर मांसाहारी हुआ। फिर शाकाहारी हो गया। ये मेरा निजी मामला है। मेरी पत्नी और बेटा मांस खाते हैं। मैं उनके लिए पकाता भी हूँ। हम सब मस्त रहते हैं। लेकिन कई मांस खाने वालों को देखता हूँ कि शाकाहारियों का मजाक उड़ाते रहते हैं और कई शाकाहारी लोग मांस खाने वालों को नीचा दिखाते रहते हैं। मैं दोनों से परे रहता हूँ।
लेकिन मूल बात ये है कि साल भर अगर मांस का सेवन धर्म भ्रष्ट नहीं करता है तो फिर नौ दिन कैसे कर देता है? और अगर नौ दिन मांस का सेवन धर्म भ्रष्ट करता है तो फिर बाकी साल क्यों नहीं करता है? मैं बचपन में सोचता था कि मांस सिर्फ संडे खाए जाने वाली चीज है क्योंकि मेरे रिश्तेदारों के यहाँ मांस सिर्फ संडे को पकता था। ये भी दिमाग में बैठ गया था कि मांस सिर्फ मर्द लोग खाते हैं क्योंकि उनको ही खाते देखा था। और क्योंकि मांस रसोई से दूर अलग पकाया जाता था तो मैं कंफ्यूज भी रहता था कि ये कैसा खाना है जो खाना है मगर उसकी खाने जैसी इज्जत नहीं है।
एक बात और ये है कि ये हिंदूवादी लोग नवरात्र के चक्कर में मांस की दुकानें बंद कर देना चाहते हैं। लेकिन नवरात्र के साथ-साथ रमज़ान भी शुरू हुआ है। तो फिर मांस की दुकान क्या सिर्फ हिंदुओं के त्योहार के हिसाब से चलेंगी? क्या सिर्फ इसलिए कि भारत में हिंदुओं की संख्या ज़्यादा है तो हिंदू जो तय कर देंगे वही होगा?
वैसे भी ये बात तो अपने आपमें ही बहुत बेहूदी है कि खाने-पीने पर धार्मिक वजह से रोक लगाई जाती है। पश्चिम के देशों में धार्मिक कारणों से कोई रोक नहीं है। हाल के सालों में यहाँ अमेरिका में घोड़े, कुत्ते और बिल्ली के मांस के खाए जाने पर रोक लगा दी गई है। इसका भी कई लोग विरोध कर रहे हैं। बैन लगाने के पीछे कारण बताया गया है कि अमेरिका में घोड़ों को कई प्रकार की दवाइयाँ दी जाती हैं जो कि मांस के ज़रिए इंसान में घुस कर घातक हो सकती हैं। कुत्ते के मांस पर बैन इसलिए है कि उससे बीमारी फैल सकती है। बिल्ली का मांस क्यों प्रतिबंधित है ये पढऩे में नहीं आ रहा है। कुछ अन्य जानवरों के मांस पर इसलिए बैन लगा है क्योंकि उनकी संख्या बहुत कम हो गई है और वो लुप्त होने की कगार पर आ गई हैं। यूरोप के कई देशों में घोड़े का मांस धड़ल्ले से खाया जाता है। पूर्वी एशिया के कई देशों में कुत्ते और बिल्ली का मांस खाया जाता है। मैंने दुबई में एक दुकान में देखा था कि सुअर का मांस गैर-मुस्लिमों के लिए कानूनी तौर पर बिक रहा था।
बहरहाल, मुझे इस सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिला है कि क्या भगवान को हमारा सिर्फ नौ दिन मांस खाना नहीं पसंद है? बाकी टाइम ओके है?
-डॉ. परिवेश मिश्रा
सन् 1897 में अपने पिता बिहारीलाल की उंगली पकड़े पांच वर्षीय बालक पालूराम ने हरियाणा के धनाना गांव से निकल कर रायगढ़ में पैर रखे। पास के गांव लोहारी से उनकी बुआ के बेटे किरोड़ीमल कलकत्ता पहुंच गये। इसके लगभग तीस वर्षों के बाद इन मामा-बुआ के बेटों ने मिलकर रायगढ़ के पहले उद्योग की नींव रखी। तब तक सेठ पालूराम धनानिया रायगढ़ में अपने पिता के शुरू किये धान के कारोबार में जम चुके थे। उधर सेठ किरोड़ीमल कलकत्ता में अनुभव, नाम और पैसा कमा चुके थे।
(कलकत्ता के होने के बाद भी सेठ किरोड़ीमल के दान और नाम के निशान देश के कई स्थानों पर मिलते हैं। दिल्ली के पहाडग़ंज इलाके में एक निर्मला कॉलेज था। इसे अमेरिकन जेसुइस्ट नामक संस्था ने शुरू किया था लेकिन 1951 आते तक यह बंद होने की कगार पर पहुंच गया था। सेठ किरोड़ीमल स्वयं तो अपने नाम के अलावा कुछ लिखना नहीं जानते थे पर शिक्षा का महत्व समझते थे। उन्होंने इस बंद होते कॉलेज को खरीद लिया और तीन साल के बाद नॉर्थ कैम्पस में शिफ्ट कर दिया। अब यह किरोड़ीमल कॉलेज के नाम से जाना जाता है। अमिताभ बच्चन, गिरिजा प्रसाद कोईराला (नेपाल के पूर्व प्रधान मंत्री) मदनलाल खुराना (दिल्ली के पूर्व मुख्य मंत्री), कुलभूषण खरबंदा जैसे अनेक लोग यहां पढ़े और पढ़ा रहे हैं।)
देश में उनके धर्मार्थ कामों का सबसे बड़ा लाभार्थी स्थान रहा रायगढ़। यहां उन्होंने एक व्यावसायिक काम भी किया जो था सन् 1928 में जूटमिल की स्थापना। तेईस वर्षीय राजा चक्रधर सिंह ने अपने राज्य में लगभग चालीस एकड़ भूमि इस मिल के लिए उपलब्ध कराई थी।
सारंगढ़, रायगढ़ और उदयपुर (धर्मजयगढ़) राज्यों के इलाकों में पटसन की पैदावार काफी थी। हालांकि इतनी भी नहीं थी कि मिल की सतत् आवश्यकता पूरी कर सके। किन्तु एक फ़ैक्टर और था। पूरे मध्य तथा उत्तर-मध्य भारत में उन दिनों कोई जूट मिल नहीं थी। जबकि बारदाने की आवश्यकता सबको थी। इसलिए यदि कुछ अतिरिक्त पटसन बंगाल (तब बांग्लादेश का हिस्सा भी भारत में था) से आयात किया जाता तो भी सौदा मुनाफ़े का ही बैठता था। सोच में कोई खामी नहीं थी।
किन्तु मिल चल नहीं पाई। कहते हैं इतिहास से सबक न लेने पर इतिहास अपने आपको दोहराता है। इतिहास बना था असम में और दोहराया गया रायगढ़ में।
सन् 1820 के दशक में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी रॉबर्ट ब्रूस ने असम के ऊपरी ब्रह्मपुत्र घाटी में स्वाभाविक रूप से उपजे हुए चाय के पौधे देखे। यह तब की बात है जब चीन से अफ़ीम के बदले चाय लेकर इंग्लैंड और योरोप भेजते हुए कई दशक बीत चुके थे। उधर ब्रिटेनवासियों को चाय की लत लग गयी और इधर चीन ने अंग्रेजों से अफीम के स्थान पर नगद की मांग रख दी। चाय अंग्रेजों के लिए अचानक बहुत महंगी हो गयी। रॉबर्ट ब्रूस की खोज की खबर से उत्साहित ईस्ट इंडिया कम्पनी ने चाय के व्यवसायिक उत्पादन का फैसला कर लिया। चाय बागान शुरू कर दिया गया।
लेकिन प्रयोग असफल हो गया। श्रमिक आधारित इस प्रोजेक्ट की योजना बनाते समय कम्पनी मानकर चली थी कि स्थानीय श्रमिक आसानी से उपलब्ध हो जायेगा। और चूंकि स्थानीय होगा सो अपने रहने खाने की व्यवस्था भी स्वयं कर ही लेगा। हकीकत कुछ और साबित हुई। असमिया ग्रामीण सदियों से चली आ रही अपनी जीवनशैली में रातोंरात परिवर्तित लाने के लिए बिल्कुल उत्सुक नहीं थे। दूसरों के नियंत्रण में उन्होंने कभी काम नहीं किया था। कुछ लोगों ने काम शुरू भी किया तो हर दूसरे दिन उन्हें घर और खेत की याद सताती। चार दिन की छुट्टी लेकर जाते तो चौदह दिन में लौटते। अनेक लौटते ही नहीं।
अंत में आजिज़ आकर ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हाथ उठा दिये। इसके बाद दो बातें हुईं। 1839 में चाय उत्पादन का काम नये मालिक ‘असम कम्पनी’ के हाथों में सौंपा गया। पिछले मालिक के अनुभवों से सबक लेकर जो काम असम कम्पनी ने सबसे पहले किया वह था श्रमिकों को बाहर से लाकर बसाने का। श्रमिक सप्लाय करने के लिये ठेकेदारों को नियुक्त किया गया। यहीं से शुरुआत होती है छत्तीसगढ़, झारखण्ड, छोटा नागपुर, और आंध्र प्रदेश जैसे इलाकों से ले जाये गये श्रमिकों की कहानी। कालांतर में ये ‘टी-ट्राईब’ के नाम से जाने गये।
‘टी-ट्राईब’ के पहुंचने के बाद नित नये फैलते बागानों को स्थायी मजदूर मिले। अपनी जड़ों से उखडक़र गये लोग पूर्णकालिक श्रमिक बने और बागान मालिकों के लिए जरूरी हो गया कि इनके रहने-खाने आदि की व्यवस्था करें। और चाय बागान का कारोबार चल निकला।
अब वापस चलें रायगढ़ की जूटमिल पर। सेठ-द्वय किरोड़ीमल जी और पालूराम जी ने नई और महंगी मशीनें लगवाकर मिल खड़ी की, बाजार ढूंढ़ा और बढ़ाया, लेकिन श्रमिकों की उपलब्धता की जिस आश्वस्ति पर यह सब किया था वह गलत साबित हुई। किसी औद्योगिक इकाई में कार्य करने का पूर्वानुभव न होने के चलते स्थानीय श्रमिकों में कार्य-अनुशासन नहीं था। स्थानीय किसानों को पटसन की पैदावार बढ़ाने की ओर प्रेरित करने के प्रयास भी सफल नहीं हुए। लागत बढऩा और मुनाफे पर चोट पडऩा स्वाभाविक था। हो सकता है और भी कारण रहे हों।
1935 में रायगढ़ की जूट मिल बिक गई। खरीदने वाले थे कलकत्ता के सेठ सूरजमल जालान और सेठ नागरमल बजौरिया। आगे चलकर रायगढ़ जूट मिल एक बार और बिकी। इस बार भी खरीददार मारवाड़ी ही थे (श्री पवन कुमार अग्रवाल) और वे भी कलकत्ते के ही रहने वाले थे।
कलकत्ता और मारवाडिय़ों का जूट और जूट मिलों से पुराना संबंध रहा है। पूर्वी भारत, विशेषकर जो हिस्सा अब बांग्लादेश है, पारम्परिक रूप से पटसन पैदा करता रहा है। लेकिन भारत में इस पटसन से जूट बनाने की कोई मिल नहीं थी। सारा जूट ब्रिटेन से आयात होता था। ब्रिटेन की सारी जूट मिलों का कच्चा माल रूस से आता था। 1850 के आसपास एक युद्ध हुआ (क्रायमियन वॉर) जिसमें एक ओर रूस था और दूसरी ओर ब्रिटेन समेत दूसरे देश। स्वाभाविक था इस परिस्थिति में पटसन और अलसी के बीज का ब्रिटेन पहुंचना बंद हो गया।
अब भारतीय पटसन की पूछ बढ़ी। कलकत्ते के पास एक गांव था/है रिशरा। मुगलों के जमाने में यहां के हिन्दू बुनकरों के हाथों बना सूती कपड़ा और मुस्लिम बुनकरों का बुना रेशम मशहूर था। इसी स्थान पर वॉरेन हेस्टिंग्स ने बहुत बड़े बगीचे के साथ अपना निजी महल-नुमा घर बनाया था जो उनके जाने के बाद से वीरान पड़ा था। सन् 1855 में इसी जगह पर भारत की पहली जूट मिल शुरू हुई। इसे एक अंग्रेज ने स्थापित किया था।
उस समय तक मारवाड़ी कलकत्ता पहुंच चुके थे। 1860 से पहले उनमें से अनेक ने अफीम, जूट, कपास, अनाज और चांदी के सट्टा बाजार में अपार मुनाफा कमाया था। जूट और अफीम के सट्टा बाज़ार पर तो इनका एकाधिकार था। राजस्थान के शेखावती इलाके में बारिश होने की संभावना पर सट्टा लगाने की पुश्तैनी आदत साथ ले कर ये लोग बंगाल पहुंचे थे। फतेहपुर के रामदयाल नेवटिया और गजराज सिंघानिया, रामगढ़ के जोखीराम रुईया और नाथूराम पोद्दार, बीकानेर के पनयचंद सिंघी के साथ साथ रतनगढ़ (चुरू) के सूरजमल नागरमल ने भी इस दौरान बहुत धन कमाया था। रामप्रताप चामडिय़ा ने तो उस जमाने में करोड़ों रुपये अफीम के सट्टा में कमाये थे। अनेक फर्म और व्यक्ति अपना सब कुछ लुटा कर बर्बाद भी हो चुके थे। सट्टे को ये आपसी बातचीत में फटका कहते थे। मारवाडिय़ों में एक उक्ति प्रसिद्ध थी-
कर दे बेटा फटको, घर को रहेगो ना घाट को
कर दे बेटा फटको पीयो दूध खायो भात को
सट्टा खेलो। या तो आसमान पर पहुंचोगे या बिल्कुल नीचे जमीन पर, बर्बादी पर।
रायगढ़ जूट मिल के नये मालिक भी दानशीलता में अपना नाम दर्ज करा चुके थे। रतनगढ़ में रेल्वे स्टेशन, सडक़ें, अस्पताल, कॉलेज जैसी अनेक संस्थाओं के साथ इनका नाम दानदाताओं के रुप में जुड़ा रहा है।
सेठ किरोड़ीमल और सेठ सूरजमल नागरमल के कलकत्ता पहुंचने के काल में यह शहर भारत की आर्थिक राजधानी हुआ करता था। कारोबार में अधिकतर मालिक अंग्रेज़ थे पर काम संभालने वाले मारवाड़ी थे और ये कम्पनी में ‘बनिया’ के औपचारिक पदनाम से जाने जाते थे। जैसे ओंकार मल जटिया ‘ऐन्ड्रयू-यूल’ के बनिया थे, ताराचंद घनश्याम दास ‘शॉ-वॉलेस’ के, रामनारायण रुईया ‘ससून जे. डेविड’ के बनिया थे। इनमें से कई इन कम्पनियों के कमीशन एजेन्ट बने। इन सब से प्राप्त मोटे मुनार्फ से मारवाडिय़ों के पास अच्छी खासी पूंजी इक_ा होने लगी थी।
बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में मिलों, कम्पनियों और फर्मों के मालिकों के बीच खरीद बिक्री की उथल पुथल रही थी। इसका एक कारण था 1913 से प्रभाव में आया कम्पनी एक्ट। हालांकि तब तक ज़्यादातर फर्म ट्रेडिंग का काम ही करती थी। मैनुफैक्चरिंग में कम लोग थे। इन दशकों में मारवाडिय़ों ने अंग्रेजों के आधिपत्य में रहा बहुत सा कारोबार खरीदा और बढ़ाया। इनमें ट्रेडिंग फर्मों के साथ साथ अनेक जूट मिल, कोयला खदान, तेल मिल आदि भी शामिल थीं।
इस दौर में मारवाडिय़ों के हाथों नयी जूट मिलों की स्थापना भी खूब हुई। सेठ किरोड़ीमल का 1928 का उपक्रम भी इनमें शामिल था।
1938 में सेठ सूरजमल की मृत्यु हो गयी (सेठ नागरमल की पहले हो गयी थी)। उन्हीं दिनों दूसरा विश्वयुद्ध भी शुरू हो गया और रायगढ़ में काम ढंग से शुरू करना आगे टलता रहा। नयी व्यवस्था में सूरजमल के बड़े बेटे मोहनलाल जालान ने अपने भाईयों बंशीधर, बैजनाथ तथा सेठ नागरमल के बेटों के साथ काम संभाला था। रायगढ़ जूट मिल बाद में मोहन जूटमिल के नाम से जानी गयी।
उन्होंने स्थानीय प्रबंधन के लिए सेठ मांगीलाल भंडारी को एजेन्ट और सेठ सरावगी को मैनेजर नियुक्त किया। श्रमिक उपलब्धता का समाधान उनके पास पहले से था। कलकत्ता की इनकी मिलों में गोरखपुर के श्री रामसुभग सिंह इस काम के प्रभारी थे और ‘बड़े- सरदार’ कहलाते थे। उनके साथ कलकत्ता में काम कर रहे गोरखपुर और आजमगढ़ के अलावा बिहार के छपरा के मजदूर रायगढ़ लाये गये (और फिर वे यहीं रच-बस गये)।
आजादी के शुरुआती सालों में कांग्रेसी सरकार को मध्यप्रदेश की इस इकलौती जूटमिल की उपयोगिता का अहसास था। श्रम मंत्री रहे श्री गंगाराम तिवारी और श्री वी.वी. द्रविड़, दोनों को इंदौर की मिलों में श्रमिक नेता के रूप में काम करने का अनुभव था और स्थानीय मंत्री राजा नरेशचन्द्र सिंह के साथ इनका अच्छा तालमेल था। इन सबकी निगरानी में मजदूरों के लिए घर बने, सब घरों को बिजली, पानी, शौचालय की सुविधा मिली। अन्य हितों की व्यवस्था हुई।
1950 के दशक में मिल में काम करने की इच्छा से आये हुए अनुभवी मजदूर थे। देश और प्रदेश में संवेदनशील सरकारें थीं। सरकार में मजदूर और मिल मालिक के बीच बैलेंस बनाने में सक्षम मंत्री और विधायक थे। रायगढ़ के एकमात्र उद्योग की गाड़ी चल निकली।
(यही मिल आगे चलकर रायगढ़ में नये उद्योगों की स्थापना में कैसे रोड़ा बन गई, अगले हिस्से में)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने भरोसा दिलाया था कि वह संसद के भंग होने के सवाल पर तुरंत फैसला करेगा लेकिन दो दिन के बावजूद उसने इसे मंगलवार तक के लिए टाल दिया है। उसने इसे क्यों टाला होगा? उसने पीपीपी के रवैए की इस मांग को पहले रद्द किया कि इस मामले को अदालत की पूरी बेंच निपटाए। जजों ने पूछा कि पांच जजों की इस बेंच पर आपको भरोसा क्यों नहीं है? जज इतने गुस्से में आ गए कि उन्होंने कहा कि अगर आपको हमारी निष्पक्षता में विश्वास नहीं है तो हम सब इस्तीफा देने को तैयार हैं। अदालत का फैसला क्या होगा, कहना मुश्किल है। हो सकता है कि वह संसद के भंग करने को जायज ठहरा दे और चुनाव के द्वारा नई सरकार बनवाने का समर्थन कर दे। पाकिस्तान के लिए यही भला है। इमरान सरकार और फौज के संबंध काफी कठिन हो गए हैं। ऐसे में उस सरकार का इस्लामाबाद में चलते रहना बड़ा मुश्किल है।
इमरान सरकार की दूसरी बड़ी दिक्कत यह है कि उसके अपने सांसद उससे टूट गए हैं। उन्होंने विपक्षियों से हाथ मिला लिया है। अब वह अल्पमत की सरकार भर रह गई है। उसकी तीसरी मुसीबत यह है कि उसकी सरकार का गठबंधन तो टूटा ही, सारे विपक्षी दल एकजुट हो गए। सबसे बड़ी बात तो यह कि इमरान ने आशाएँ खूब जगाईं और सपने खूब दिखाए लेकिन महामारी से निपटने में और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उनके पासे उल्टे पड़ गए। उनकी रूस-यात्रा ने भी पाकिस्तान की फौज को परेशान कर दिया। इन सब कारणों के रहते उनकी सरकार का ढह जाना स्वाभाविक था लेकिन उनकी जगह अगर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के कारण यदि अभी विरोधी गठबंधन की सरकार बन गई तो यह सवाल बहुत तीखे रूप में उठ खड़ा होगा कि यह गठबंधन या यह सरकार कहां तक लोकमत के समर्थन की दावेदार है?
यह लोक-समर्थन नहीं बल्कि दल-बदल और पार्टियों के दल-दल से मिलकर बनेगी। इसमें कितना नैतिक बल होगा? परस्पर विरोधी दल कब तक एक साथ टिके रहेंगे? और यह सरकार टिक भी गई तो डेढ़ साल बाद तो इसे चुनाव करवाने ही होंगे। ऐसे में लगता है कि पाकिस्तान अधर में लटका रहेगा। उसकी डगमगाती अर्थ-व्यवस्था इस बीच चौपट भी हो सकती है। इस नए गठबंधन के सर्वोच्च नेताओं से फौज के अत्यंत कटु संबंध रहे हैं। फौज ने पीपीपी और मुस्लिम लीग (न) के नेताओं के तख्ता-पलट कई बार किए हैं। अब जन-समर्थन के बिना सत्तारुढ़ हुए इन दोनों दलों को क्या फौज बर्दाश्त कर लेगी? यदि पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायालय उक्त विश्लेषण को ध्यान में रखेगा तो वह संसद को भंग करने और चुनाव करवाने के फैसलों पर मुहर भी लगा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इमरान खान ने वही किया, जिसकी संभावना इस लेख में परसों व्यक्त की गई थी। उन्होंने विपक्षियों द्वारा लाया हुआ अविश्वास प्रस्ताव रद्द करवा दिया, राष्ट्रीय सभा (संसद) भंग करवा दी और चुनावों की घोषणा करवा दी। अब पाकिस्तान के चुनाव 90 दिन बाद होंगे, ऐसा मानकर चला जा सकता है। इमरान ठीक कहते थे कि उन्होंने बाजी हारी नहीं है। उनके पास एक तुरुप का पत्ता है। अब वह उन्होंने चल दिया है। उनके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिका दायर हो जाएंगी। लेकिन अदालत अब क्या कर सकती है? संसद के उपाध्यक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव को रद्द कर दिया और राष्ट्रपति ने संसद को भंग करके चुनाव की घोषणा कर दी है। ऐसे में यदि फौज उल्टा रास्ता पकड़ ले तो ही इमरान की गाड़ी उलट सकती है। पाकिस्तान की असली मालिक फौज ही है। फौज चाहे तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद, सरकार और न्यायपालिका सभी को भंग कर सकती है लेकिन फौज इतनी हिम्मत करेगी, इसमें मुझे संदेह है, क्योंकि सेनापति कमर बाजवा सर्वशक्तिशाली व्यक्ति होते हुए भी मर्यादित बर्ताव करते हैं। उन्होंने कल ही एक समारोह में कहा कि वे कश्मीर की समस्या का हल बातचीत से करना चाहते हैं।
यदि भारत तैयार हो तो वे देरी नहीं करेंगे। इमरान के सवाल पर वे जो चाहते हैं, वह तो हो ही रहा है। अब इमरान कार्यवाहक प्रधानमंत्री भर रह गए हैं। कई मुद्दों पर फैसले लेने के अधिकार से वे वंचित हो गए हैं। उन्होंने पाकिस्तान के नौजवानों के नाम संदेश जारी करके कहा था कि वे लाखों की संख्या में इक_े होकर संसद को घेर लें। विपक्षियों का आरोप है कि वे विरोधी दलों के सांसदों को संसद भवन में घुसने ही नहीं देना चाहते थे। लेकिन इमरान को अब संसद घेरने की जरुरत ही नहीं पड़ी है। उनके एक मंत्री का दावा है कि विपक्ष के लोग इमरान की हत्या करवाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि पाकिस्तान की जनता अगले चुनाव में दल-बदलुओं और विपक्ष के अनैतिक गठबंधन को हराकर ही दम लेगी। इस तर्क में कुछ दम जरुर है लेकिन पाकिस्तान की जनता मंहगाई और महामारी के कारण इतनी परेशान रही है कि वह इमरान से ऊबने लगी है।
इमरान की स्पष्टवादिता भी उन्हें मंहगी पड़ सकती है। एक बार मंहगाई के सवाल पर वे इतने चिढ़ गए थे कि उन्होंने कह दिया कि प्रधानमंत्री का काम टमाटर और गाजर के भाव तय करना नहीं है। उन्होंने भारतीय विदेश नीति की दो बार खुले-आम तारीफ करके मुसीबत मोल ले ली है। पाकिस्तान और भारत में नेतागीरी का जलवा चमकाने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ लगातार गोलंदाजी करना बहुत जरुरी होता है। इमरान ने पिछले दो-तीन दिनों में अपनी फौज की तटस्थता का भी जिक्र किया है लेकिन फौज उनके साथ होती तो चुनाव की नौबत ही क्यों आती? पाकिस्तान की यह बदकिस्मती है कि उसकी राजनीति में कभी स्थिरता दिखाई नहीं पड़ती। आज की विषम परिस्थिति में खड़ा हुआ यह राजनीतिक संकट ऐसा है, जिसे ‘गरीबी में आटा गीला’ होना कहा जाता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इमरान खान के इस दावे पर उनके विरोधी हंस रहे हैं कि अमेरिका उन्हें उनके प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिश कर रहा है लेकिन यह सच है कि अमेरिका दुनिया के सभी देशों पर दबाव डाल रहा है कि वे रूस-विरोधी रवैया अपनाएं। इसका सबसे पुख्ता प्रमाण तो अमेरिका के उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीपसिंह की भारत-यात्रा है। भारतीय मूल के इस अधिकारी को दिल्ली क्यों भेजा गया है? इसीलिए कि वह भारत सरकार पर दबाव डाले यूक्रेन के मामले में! उसने कोई कसर नहीं छोड़ी।
उसने हमारे विदेश मंत्री जयशंकर को कह दिया कि यदि आप अमेरिका का समर्थन नहीं करेंगे तो उसके दुष्परिणाम होंगे। उसने यह डर भी दिखाया कि अगर चीन ने भारत पर हमला कर दिया तो रूस बचाने वाला नहीं है। जयशंकर को चाहिए था कि वे दलीपसिंह से पूछते कि क्या अमेरिका यूक्रेन को बचा रहा है? उसे अमेरिका ने पानी पर चढ़ाकर अकेले मरने को छोड़ रखा है। अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना दुमछल्ला बनाकर कई दशकों तक अधर में लटकाए रखा। उसे सोवियत संघ और भारत के खिलाफ भडक़ाता रहा लेकिन क्या 1965, 1971 और कारगिल के युद्धों में उसने पाकिस्तान का साथ दिया? बिल्कुल नहीं।
इसी बात को ध्यान में रखकर इमरान ने बिल्कुल ठीक कहा कि भारत की विदेश नीति एकदम सही रास्ते पर चल रही है और वे भी उसे स्वतंत्र रास्ते पर चलाना चाहते हैं। वे पाकिस्तान को किसी महाशक्ति का पायदान नहीं बनने देना चाहते हैं। उनके रूस जाने पर अमेरिका का भडक़ना बिल्कुल अनुचित है। उनकी रूस-यात्रा यूक्रेन-विवाद के पहले ही तय हो चुकी थी। उन्होंने भी भारत की तरह न रूस का विरोध किया और न ही समर्थन ! इस रवैए से अमेरिका का नाराज़ होना स्वाभाविक है।
इसीलिए वाशिंगटन स्थित पाकिस्तानी राजदूत को एक अमेरिकी अफसर ने काफी जोर से हडक़ाया। इस्लामाबाद में अमेरिकी राजदूत ने भी इमरान को कोई चि_ी लिखी है। अब इमरान कह रहे हैं कि वे अमेरिकी साजिश की तहत हटाए जा रहे हैं। इस कथन में ज्यादा दम नहीं है। उन्हें अपने दल की बगावत के कारण यह मुसीबत झेलना पड़ रही है लेकिन पाकिस्तान के इतिहास की यह अविस्मरणीय घटना बन गई है कि उसके प्रधानमंत्री ने भारतीय विदेश नीति की खुले-आम तारीफ की है।
इमरान का भविष्य चाहे जो भी हो, क्या इस घटना से पाकिस्तान कोई सबक लेगा या नहीं? भारत ने जहां अमेरिका के दबाव को रद्द किया है, वहीं उसने रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव को भी कह दिया है कि वह किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय सुरक्षा को अक्षुण्ण मानता है। यदि पाकिस्तान भी शुरु से इसी नीति पर चलता तो दुनिया में उसकी इज्जत कहीं ज्यादा होती। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की यह अंतिम कड़ी है। छत्तीसगढ़ एक खोज सीरीज की यह सबसे लंबी कड़ी सिद्ध हुई है। इस कड़ी को मिलाकर अब तक इसकी 21 कड़ियां लिखी जा चुकी हैं।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव से संबंधित कुछ और भी पुष्ट जानकारियां और सामग्रियां मुझे मिलती जा रही हैं , जिसका उपयोग मैं बाद में एक किताब के रूप में करूंगा।
फिलहाल बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पर केंद्रित कड़ियों को मैं यहीं विराम देना चाहूंगा।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पर लिखने और कहने के लिए बहुत कुछ है। बहुत कुछ ऐसा भी है जो इस कड़ी में आने से रह गया है।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पर लिखते हुए मैने हर संभव यह प्रयास किया है कि अतिशय भावुकता से बचते हुए मैं उपलब्ध लिखित और प्रामाणिक तथ्यों के साथ इसे आप सभी के सामने ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर सकूं। इसमें कितना सफल या असफल हुआ इसे इसके पाठक ही तय करेंगे।
इसी संदर्भ में मैने दो बार बस्तर की यात्रा भी की। जिसमे कुछ नए तथ्य मेरे हाथ भी लगे जिनका मैने अपनी इस कड़ी में इस्तेमाल भी किया। इस यात्रा में कुछ ऐसे दुर्लभ व्यक्तियों से भी मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ जिन्होंने बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को निकट से देखा और जाना था।
इस बीच के.एल. पांडेय कमीशन की जांच रिपोर्ट भी मुझे देखने को मिली जो कि किसी भी सरकारी जांच रिपोर्ट की तरह केवल एक खाना पूर्ति भर है।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की अंतिम पोस्ट मार्टम रिपोर्ट भी मुझे देखने को मिली। जिसमें उनके शरीर में 17 गोलियों के निशान तथा चाकू के अनगिनत घाव पाए जाने का स्पष्ट रूप से उल्लेख है।
इतनी क्रूरतापूर्वक हत्या के विषय में क्या कहा जाए ? यह मेरी समझ से परे है । मेरी कलम इसे लिख पाने में असमर्थ है।
इतनी जघन्य हत्या तो किसी क्रूरतम अपराधी की भी नहीं की जाती है । जबकि प्रवीर चंद्र भंजदेव एक संवेदनशील और विद्वान व्यक्ति थे।
मैने अपनी बस्तर यात्रा के दरम्यान उनके संपर्क में रहे जिन कुछ लोगों से मुलाकात की थी उन्होंने मुझे बताया था कि वे अत्यंत आकर्षक और सुंदर व्यक्तित्व के धनी थे। आदिवासियों के प्रति बेहद संवेदनशील और अध्ययनशील प्रवृति के थे। राजमहल में उनकी एक विशाल लाइब्रेरी हुआ करती थी। जिसमें अंग्रेजी, हिंदी की किताबों का अद्भुत संग्रह था।
ऐसे महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव किसी का क्या बिगाड़ सकते थे ? केवल तीर धनुषधारी आदिवासियों के साथ सत्ता के खिलाफ कैसे विद्रोह कर सकते थे ? केवल आदिवासियों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाना किसी राजद्रोह की श्रेणी में भला कैसे आ सकता है ?
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की जिस समय हत्या हुई उस समय उनकी आयु मात्र 37 वर्ष की थी। एक तरह से अभी उनका पूरा जीवन शेष था।
वे देश के अन्य राजाओं की तरह अगर सत्ता पर आसीन राजनीतिज्ञों के आगे पीछे होते रहते , उनकी हर साजिश और षड्यंत्र में हिस्सेदार बने होते, बस्तर के आदिवासियों के दुख दर्द और शोषण को अनदेखा कर देते, राज सुख को ही सर्वोपरि मान लेते तो संभवतः वे भी सत्ता पर आसीन राजनीतिज्ञों के हमराज़ और हमराह होते।
कम से कम तब उनकी इस क्रूरता के साथ हत्या तो नहीं की जाती और वे भी अन्य राजा महाराजाओं की तरह विधायक ,सांसद या केंद्र में मंत्री पद को सुशोभित कर रहे होते।
पर इसी धरा पर कुछ लोग अपने जीवन में कुछ असाधारण कार्य करने के लिए भी जन्म लेते हैं और मनुष्यता की एक नई मिसाल पेश करते हैं।
सच कहूं तो वे सम्पूर्ण अर्थ में एक मसीहा होते हैं, एक देव पुरुष। बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव भी इसी तरह की एक अनमोल शख्सियत थे।
वे सही अर्थों में एक मसीहा थे। एक देव पुरुष थे। जिन्हें हम ठीक से नहीं समझ पाए थे। जिनका सटीक मूल्यांकन हम समय रहते नहीं कर पाए थे।
यह अकारण नहीं है कि बस्तर के आदिवासी आज भी अपने इस देव पुरुष की तस्वीर अपनी देवगुड़ी में अपने आराध्य देवों के साथ रख कर उनकी पूजा करते हैं । उन्हें दंतेश्वरी देवी का प्रथम या प्रमुख पुजारी भी कहा जाता है।
काकतीय राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के बिना बस्तर का इतिहास लिखा जाना कभी संभव नहीं होगा।
शायद आने वाले समय में उनका और बेहतर मूल्यांकन संभव हो सके। इसी प्रत्याशा के साथ बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की श्रृंखला यहीं समाप्त होती है।
इसी के साथ ही छत्तीसगढ़ एक खोज से भी कुछ दिनों के लिए मैं विश्राम लेना चाहता हूं। 62 वीं कड़ी लिखने के बाद आगे की तैयारी के लिए मुझे भी कुछ वक्त चाहिए।
छत्तीसगढ़ एक खोज एक तरह से मेरे लिए एक शोध कार्य की तरह है, जिसका ध्येय कुछ नए तथ्यों का अनुसंधान करना है। अब तक लिखे गए तथ्यों की प्रामाणिक जांच तथा के साथ ही नए नए तथ्यों का उद्घाटन करना है।
महात्मा गांधी के छत्तीसगढ़ प्रवास , सुंदर लाल शर्मा, नारायण सिंह, गुंडाधुर, हबीब तनवीर, पंडित सत्य दुबे तथा छत्तीसगढ़ की कुछ अन्य विभूतियों पर कुछ ठोस सामग्रियों और तथ्यों के साथ लिखने के लिए मुझे वक्त की जरूरत तो होगी ही।
तो फिलहाल कुछ दिनों के लिए अलविदा
-अपूर्व गर्ग
हर दूसरा आदमी किसी न किसी बीमारी से जूझ रहा। हर तीसरा-चौथा व्यक्ति की जीवनशैली रोगों की चपेट में है। आपातकालीन संकट तो पूछिए ही नहीं!
पांच करोड़ से ज्यादा लोग कोरोना के शिकार हुए और इन्हें बचाते हजारों डॉक्टर शहीद हुए। और सुनिए, प्रतिदिन 67,385 बच्चे पैदा होते हैं। इनके पैदा होने से पहले और इनके पैदा होने के बाद तक प्रतिदिन डॉ. अर्चना शर्मा की तरह महिला रोग विशेषज्ञ इनकी जिंदगियाँ बचाती हैं, जो कभी खबर नहीं बनती।
जान बचाना तो डॉक्टर का पेशा है न! क्यों ख़बर बने?
हाँ जान जाये तो लाइव ही लाइव। अच्छे पत्रकार तो सबका पक्ष रखते हैं पर उत्तेजना के घोड़े पर सवार लोगों को कहाँ होश रहता है या समझ होती है कि आखिर केस का मेडिकल पक्ष क्या है?
ईमानदारी से सोचिये आज कितने मीडिया संस्थान अपने उन पत्रकारों को जो मेडिकल बीट कवर करते हैं, मेडिकल ज्ञान प्रदान करवाने ट्रेनिंग देते हैं?
आज दवाइयों के दाम में कमरतोड़ वृद्धि हुई है, जरा पूछिए दवा नीति के बारे में इनसे?
पूछिए स्वास्थ्य नीति के बारे में इन मीडिया संस्थानों से?
पूछिए कि आईडीपीएल, एचएएल, बीआई जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों के बाद दवाई की दुनिया का क्या हश्र हुआ?
अब उस जनता की बात करें जो हर अवैज्ञानिक काम में सबसे आगे रहती है पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना ही नहीं चाहती।
इन्हे कैसे बताएँगे कि 66.4 प्रतिशत महिलाएं एनेमिक हैं और जब ये गर्भधारण करती हैं तब डॉक्टर के पास जाती हैं।
एनीमिया को यथासंभव ठीक कर उपचार और अच्छी डाइट की सलाह देकर डॉक्टर इनका उपचार करती हैं। डिलीवरी सफल तो कोई बात नहीं असफल तो उँगलियाँ उठाओ!
क्या कभी उस व्यवस्था पर ऊँगली उठाते हो भाई जो महिला के अंदर खून की कमी और प्रोटीन-विटामिन की कमी के लिए दोषी है?
उनसे सवाल करते हो जो कानूनी मातृत्व अवकाश 26 सप्ताह तो दूर दस दिन देने से कतराते हैं?
बड़ा तबका निजी क्षेत्र में कार्यरत है। इस देश में कितने निजी क्षेत्र ‘मैटरनिटी लीव’ कानून का पालन कर रहे?
सोचिये निजी क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएं जब गर्भ धारण करती हैं तो कितने खतरे उठती हैं?
इन्हें ‘मैटरनिटी लीव’ तो दूर मिनिमम वेज भी नहीं मिलता...पर इस समाज को गुस्सा नहीं आता!
सारे अवैज्ञानिक ढकोसले ये करेंगे पर बच्चे के जन्म से जुड़े ज्ञान-विज्ञान को ये समझना ही नहीं चाहते।
गर्भवती महिला का ब्लड प्रेशर जिसे पीआईएच या प्रीक्लैंप्सिया कहा जाता है बढ़ता है। जब बच्चे के आसपास के अमीनोटिक तरल बहुत कम होता है तो आलिगोहाइड्राम्निओस स्थिति बनती है।
ऐसी कई जटिलताएं हैं जिसे आज के डॉक्टरों ने लगातार शोध कर काफी नियंत्रित किया है और हमें एक सुंदर सी दुनिया उपहार में दी है।
क्या कभी हमने समझने की कोशिश की, कि बड़ी-बड़ी जटिलताओं के बावजूद सफल डिलीवरी हो रही, सफल सर्जरी हो रही।
चलिए, आप कहेंगे कि काफी बड़ी आबादी की समझ उतनी नहीं है...मान लिया!
जब समझ नहीं तो व्हाटस ऐप विश्विद्यालय की खबरों के आधार पर बवाल क्यों?
अच्छा, ये तो समझते हैं कि कम उम्र में विवाह न किया जाए?
ये तो समझते हैं कि महिला के स्वस्थ होने पर ही बच्चा पैदा करने का निर्णय लें?
ये तो समझते हैं कि ‘खुशहाल जच्चा, सुरक्षित बच्चा’?
तो ये बताइये कि जच्चा को खुशहाल रखने के लिए जो जरूरतें हैं उसके लिए कभी मुँह खोला?
बढ़ती भयानक महंगाई आपके लिए चौतरफा संकट बढ़ाएगी, ऐसे में जच्चा खुशहाल तो दूर सुरक्षित ही नहीं रह सकती। ऐसे में संतुलित पौष्टिक आहार की क्या चर्चा करूँ?
और इस पर भी आप अपनी अज्ञानता, अवैज्ञानिकता से अंधे होकर जो समाज बना रहे, ऐसे भविष्य पर कुछ भी लिखते मेरे हाथ कांपते हैं।
मेरा दिल काँप रहा है, रो रहा है उस डॉक्टर के लिए जिसने इस समाज के साथ जीना मंजूर नहीं किया।
सुनिए, डॉ. अर्चना शर्मा की घटना से इस देश के चिकित्सा जगत को गहरा सदमा पहुंचा है।
महसूस करिये, समझिये और इससे पहले देर हो, जागिये।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप
केंद्र सरकार ने असम, नगालैंड और मणिपुर के ज्यादातर क्षेत्रों से अफ्सपा याने ‘आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट’ को हटाकर सराहनीय कदम उठाया है। 1958 में यह कानून नेहरु सरकार को इसलिए बनाना पड़ा था कि भारत के इन पूर्वी सीमा के प्रांतों में काफी अराजकता फैली हुई थी। कई बागी संगठनों ने इन प्रांतों को भारत से तोडऩे का बीड़ा उठा रखा था। उन्हें ईसाइयत के प्रचार के नाम पर पश्चिमी मुल्क भरपूर सहायता दे रहे थे और चीन समेत कुछ पड़ौसी देश भी उनकी सक्रिय मदद कर रहे थे। इसीलिए इस कानून के तहत भारतीय फौज को असाधारण अधिकार प्रदान कर दिए गए थे। इन क्षेत्रों में नियुक्त फौजियों को अधिकार दिया गया था कि वे किसी भी व्यक्ति पर जऱा भी शक होने पर उसे गिरफ्तार कर सकते थे, उसकी जांच कर सकते थे और उसे कोई भी सजा दे सकते थे। उन्हें किसी वारंट या एफआईआर की जरुरत नहीं थी। इन फौजियों के खिलाफ न तो कोई रपट लिखवा सकते थे और न ही उन पर कोई मुकदमा चल सकता था। दूसरे शब्दों में इन क्षेत्रों की जनता ‘मार्शल लॉ’ के तहत जीवन गुजार रही थी।
कई निर्दोष और निरपराध लोग भी इस कानून की चपेट में आते रहे हैं। लगभग इन सभी राज्यों की सरकारें इस कानून को हटाने की मांग करती रही हैं। इस कानून को हटाने की मांग को लेकर मणिपुर से इरोम शर्मिला नामक महिला ने 16 वर्ष तक लगातार अनशन किया। यह विश्व का सबसे लंबा और अहिंसक अनशन था। हालांकि यह कानून अभी हर क्षेत्र से पूरी तरह नहीं हटाया गया है, फिर भी 60 प्रतिशत क्षेत्र इससे मुक्त कर दिए गए हैं। पिछले 7-8 सालों में उग्रवादी हिंसक घटनाओं में 74 प्रतिशत की कमी हुई है। सैनिकों की मौत में 60 प्रतिशत और नागरिकों की मौत में 84 प्रतिशत कमी हो गई है। पिछले साल 4 दिसंबर को नगालैंड के मोन जिले में फौज के अंधाधुंध गोलीबार से 14 लोगों की मौत हो गई थी। इस दुर्घटना ने उक्त कानून की वापसी की मांग को काफी तेज कर दिया था। सच्चाई तो यह है कि पूर्वी सीमांत के इन इलाकों में इस तरह का कानून और पुलिस का निरंकुश बर्ताव अंग्रेजों के जमाने से चल रहा था।
केंद्र की विभिन्न सरकारों ने समय-समय पर इस कानून में थोड़ी-बहुत ढील तो दी थी लेकिन अब केंद्र सरकार ने इसे पूरी तरह से हटाने का रास्ता खोल दिया है। पिछले कुछ वर्षों में इन इलाकों के लगभग 70,000 उग्रवादियों ने आत्म-समर्पण किया है। लगभग सभी राज्यों में भाजपा या उसकी समर्थक सरकारें हैं याने केंद्र और राज्यों के समीकरण उत्तम है। 2020 का बोदो समझौता और 2021 का कर्बी-आंगलोंग पेक्ट भी शांति की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं। गृहमंत्री अमित शाह खुद इन क्षेत्रों के नेताओं के बीच काफी सक्रिय हैं। यही प्रक्रिया चलती रही तो अगले कुछ ही वर्षों में ये सीमांत के क्षेत्र भी दिल्ली और मुंबई की तरह संपन्न हो सकेंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
बिसाहू दास महंत (1 अप्रैल 1924- 23 जुलाई 1978)
-गणेश कछवाहा
स्व. बिसाहू दास महंत का जन्म 01 अप्रैल 1924 को छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के ग्राम सारागांव में हुआ था। उनका जन्म छोटे किसान परिवार में हुआ था। जीवन संगिनी धर्मपत्नी जानकी देवी, दो पुत्र चरण दास महंत और राजेश महंत तथा चार बेटियों सहित संस्कारिक सुखी व समृद्ध परिवारिक विरासत थी। संत शिरोमणी कबीर साहेबजी के अनन्य अनुयायी रहे। जिसका गहरा प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। शिक्षा और संस्कार पर विशेष ध्यान और जोर देते थे। पढऩे और लिखने का काफी शौक था। 1942 और 1947 के बीच अपने कॉलेज जीवन में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और इस वजह से सरकार ने उनके खिलाफ कार्रवाई की और उनकी छात्रवृत्ति को भी खारिज कर दिया था।
सामाजिक सरोकार उनके स्वभाव व जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था-लोगों से मिलना-जुलना उनके दु:ख-सुख में शामिल होना अपने आसपास के लोगों की यथायोग्य मदद करना, अन्याय का सामूहिक ग्रामीण जन शक्ति के साथ विरोध करना, सामाजिक सरोकार को जीना उनके स्वभाव व जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी उनके आदर्श रहे। राष्ट्रीय स्वतंत्रता और समाजिक सरोकार से जुड़े विषयों पर लेखन, चिंतन, विमर्श और चर्चा दैनिक जीवनचर्या थी। गांव और आसपास के लोग उनके व्यवहार, सदाचरण, सोच, बुद्धिमत्ता और सेवाभाव से बहुत प्रभावित थे। यही आचरण और व्यवहार ने बिसाहू दास महंत को उनका (ग्रामीण जनों का) एक स्वाभाविक जन नेता बना दिया था।
‘ज्यों कीं त्यों धर दीन्हीं चदरिया’
बिसाहूदास महंत की राजनीति में कोई विशेष रुचि नहीं थी। लेकिन उनके व्यक्तित्व ने कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व को बहुत प्रभावित किया और देश की आजादी के बाद सन् 1952 में पहलीबार नया बाराद्वार क्षेत्र से विधायक चुने गए। तब से आजीवन 1978 तक विधायक और सम्माननीय मंत्री रहे। सन् 1967 से 1978 तक उनका चुनाव क्षेत्र चांपा रहा। 23 जुलाई 1978 को लगभग 54 वर्ष की उम्र में गृहनिवास सारागांव जिला जांजगीर चांपा में दीर्घ अस्वस्थता एवं हृदयाघात से निधन हो गया। सांसारिक जीवन को अलविदा कह गए। संत कबीर की वाणी को आत्म सात करते हुए बहुत ही शांत मुद्रा में अपनी करनी-रहनी को यहीं संसार में निर्लेप भाव से छोडक़र बिना किसी वाद-विवाद, दाग या बुराई के ‘ज्यों कीं त्यों धर दीन्हीं चदरिया।’
लेकिन आज भी उनका व्यक्तित्व और कृतित्व राजनीति व सामाजिक जगत के लिए पथ-प्रदर्शक है। गौरवशाली धरोहर और विरासत है।
विरासत-स्मृति शेष बिसाहूदास महंतजी की विरासत को उनके सुपुत्र डॉ. चरणदास महंतजी पूरी निष्ठा से आगे बढ़ा रहे हैं और उसे समृद्ध कर रहे हैं। शांत, सरल, और शालीन स्वभाव के चरणदास महंतजी पर अपने पूज्य पिताश्री के राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की जवाबदारी और जिम्मेदारी अचानक आ पड़ी। पिता के संस्कार, आदर्श, अनुशासन, आध्यात्मिक ज्ञान, गुरू संत शिरोमणी श्री कबीर साहेब जी के प्रति संपूर्ण समर्पण, सामाजिक सरोकार,लेखन, पठन, और छोटे-बड़े सभी के प्रति समान आदर भाव, ‘न काहू से दोस्ती न काहू से बैर’ (कोई विरोधी नहीं, कोई शत्रु नहीं) सभी के प्रति मित्रवत व्यवहार उन्हें अतिशीघ्र एक आदर्श और सफल राजनेता के रूप स्थापित कर दिया। इसी सदाचरण और व्यवहार से लोग उनमें उनके पूज्य पिताश्री स्व. बिसाहूदास महंत की छवि देख सुखद स्मृतियों का अहसास करते हैं। संप्रति डॉ. चरण दास महंत छत्तीसगढ़ विधान सभा के अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। कुलवधु श्रीमती ज्योत्सना महंत सांसद हैं।
स्व. बिसाहू दास महंत स्मृति पुरस्कार
छत्तीसगढ भूपेश सरकार ने हर साल राज्य के श्रेष्ठ बुनकरों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. बिसाहू दास महंत स्मृति पुरस्कार से सम्मानित करने का सराहनीय निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने स्व. महंत की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में यह घोषणा की थी।
अशेष स्मृतियां सदैव पथ प्रदर्शन करते रहेंगी
मैं उस दृश्य को विस्मृत नहीं कर पाता हूं। शायद सन 1997 में जब अविभाजित मध्यप्रदेश में डॉ. चरणदास महंत गृहमंत्री थे और उन्होंने रविंद्र भवन भोपाल में संत कबीर पर ‘ढाई आखर’ के नाम पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था। जिसका मंच संचालन मैने (गणेश कछवाहा) किया था। जगदीश मेहर, मनहरण सिंह ठाकुर और हमारी परिकल्पना से
रविन्द्र भवन भोपाल को कबीर कुटीर में तब्दील कर दिया गया था। जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय दिग्विजय सिंह सहित पूरा मंत्रिमंडल और प्रबुद्ध गणमान्य विद्वत जनों से पूरा हाल खचाखच भरा हुआ था। कई महत्वपूर्ण लोगों को बैठने की जगह भी नहीं मिली पाई थी। यह प्रभाव था संत कबीर के साथ उनके अनुयायी बिसाहूदास महंत के व्यक्तित्व का। यह आयोजन संत कबीर के ताने बाने को समझने और बुनने की एक कोशिश थी।
वर्तमान जटिल और विषम राजनैतिक परिदृश्य में स्मृति शेष बिसाहू दास महंत की अशेष स्मृतियां, शुचिता एवं सदभाव पूर्ण और जन हितैषी राजनैतिक विचारधारा सदैव पथ-प्रदर्शन करते रहेंगी
आज 1 अप्रैल 2022 को उनकी 96वीं पुण्य जयंती पर श्रद्धावनत सादर नमन् ।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब पाकिस्तान में इमरान सरकार का बचना मुश्किल है। कल पाकिस्तान के सेनापति कमर बाजवा और आईएसआई के मुखिया जनरल नदीम अंजुम से इमरान की काफी लंबी भेंट हुई। ये दोनों इमरान से नाराज हैं। यदि इमरान ने इन दोनों को पटा लिया हो तो हो सकता है कि इमरान हारी हुई बाजी जीत जाएं, क्योंकि पाकिस्तान की राजनीति की असली धुरी फौज ही है। पाकिस्तान के जो राजनीतिक दल इमरान की पार्टी पीटीआई को समर्थन दे रहे थे और उसकी अल्पमत की सरकार को जिंदा रखे हुए थे, वे भी फौज का बदला हुआ रवैया देखकर अब इमरान का साथ छोड़ रहे हैं।
इमरान के अपने लगभग दो दर्जन सांसदों ने बगावत का झंडा थाम रखा है। यदि इमरान उन्हें भी किसी तरह जोड़े रखें तो भी अब मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट के 7 सांसद विरोधी खेमे में शामिल हो गए हैं। इमरान की गठबंधन सरकार सिर्फ 5 सदस्यों के बहुमत से चलती जा रही थी। वह अब अल्पमत में चली गई है। इमरान अब भी इस्तीफा नहीं दे रहे हैं। वे कहते हैं कि अभी भी उनके पास ‘तुरुप का पत्ता’ है।
उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री पद से अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री का इस्तीफा करवाकर मुस्लिम लीग (क़ा) के परवेज इलाही को मुख्यमंत्री बनवा दिया है ताकि इस पार्टी के 7 सांसद टूटे नहीं। समझ में नहीं आता कि इमरान अब कौनसा तुरुप का पत्ता चलने वाले हैं? क्या वह अपनी जगह अपने बागियों में से किसी को प्रधानमंत्री बनाकर अपनी सरकार बचा लेंगे? सभी विरोधी दल मांग कर रहे हैं कि 3 अप्रैल को अविश्वास प्रस्ताव के पहले ही इमरान इस्तीफा दे दें लेकिन इमरान तो इतिहास बनाने पर तुले हुए हैं।
1957 में सिर्फ दो माह तक प्रधानमंत्री रहनेवाले इब्राहिम चुंदरीगर ही ऐसे एक मात्र प्रधानमंत्री हुए हैं, जिन्हें संसद में अविश्वास प्रस्ताव के कारण अपना पद छोडऩा पड़ा था। इमरान उन्हीं की राह पर हैं। आज तक पाकिस्तान में एक भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ है, जो पूरे पांच साल तक अपनी कुर्सी में टिका रहा हो। यह तथ्य ही बताता है कि पाकिस्तानी लोकतंत्र कितना दुर्दशाग्रस्त है। उसके प्रधानमंत्री को कभी फौज उलटती रही, कभी राष्ट्रपति पलटते रहे और कभी उनकी हत्या हो गई।
अब जो सरकार बनेगी, उसके प्रधानमंत्री बनने की संभावना शाहबाज शरीफ की है। वे तीन बार पंजाब के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और आजकल सबसे बड़े विरोधी दल के नेता हैं। उनके बड़े भाई मियां नवाज़ शरीफ और फौज के रिश्ते कितने कटु हैं, सबको पता है। अब पता नहीं कि शाहबाज को फौज कब तक और कैसे बर्दाश्त करेगी? यह हो सकता है कि प्रधानमंत्री शाहबाज शीघ्र ही आम चुनाव की घोषणा कर दें। अर्थात पाकिस्तान हमेशा की तरह अस्थिरता के एक नए दौर में प्रवेश कर जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश चौधरी
हिंदी में लेखक-प्रकाशक रॉयल्टी विवाद की अपार सफलता के बाद यह फुटकर विमर्श भी इसी मंच पर दिखाई पड़ रहा है कि दर्शकों को नाटक मुफ्त में नहीं दिखाना चाहिए। बिल्कुल नहीं दिखाना चाहिए और जरूरत पडऩे पर मुफ्तखोरों को रोकने के लिए बाउंसर्स तैनात कर देना चाहिए। लेकिन ऐसा करते हुए खुद के गिरहबान में झांककर यह देख लेना चाहिए कि अपने सहयोगी कलाकारों-लेखकों के प्रति अपना रवैया कितना व्यावसायिक है। व्यावसायिकता आधी-अधूरी नहीं होनी चाहिए।
एक पुराना प्रसंग दोहरा रहा हूँ, जो मुझे अजय भाई ने सुनाया था। रायगढ़ इप्टा के अजय भाई को पिछले दिनों कोरोना ने हमसे छीन लिया। किसी मराठी नाटक के उन्होंने कुछ शो किए। नाटक लोगों को खूब पसंद आया। अपने यहाँ नाटककार की कमाई यही होती है कि नाटक लोगों को पसंद आ जाए। लेखक यही सोचकर धन्य होता है कि उसका लिखा नाटक कोई खेल रहा है। पैसे-धेले का कोई जुगाड़ नहीं होता। अजय भाई ने नाटककार को खुशी-खुशी चिठ्ठी लिखी कि आपके इतने शो हमने किए। मस्त रहे। लौटती डाक से उन्होंने बिल भेज दिया। अजय भाई अवाक! कहा, ‘हमारे यहाँ कॉपीराइट का चलन नहीं है।’ उन्होंने कहा कि, ‘दरी-तम्बू वाले को देते हो, माइक-लाइट वाले को देते हो, हलवाई को देते हो...लेखक को क्यों छोड़ दिया?’
ऐसा नहीं है कि नाटक करने वाले लोग बेईमान हैं और लेखक की रॉयल्टी दबाना चाहते हैं। मसला सिर्फ लेखक का नहीं है। व्यावसायिकता की बात करें तो सहयोगी कलाकारों -अभिनेताओं के मेहनताने या फीस का सवाल भी आता है। संगीतकारों-गायकों का भी। नाट्य-दल को किसी चित्रकार की कृति भेंट कर रहे हों तो चित्रकार की फीस और आखिर में टिकिट बेचना हो तो मनोरंजन कर। हिंदी पट्टी में टिकिट बेचकर आप यह सब कर लेंगे? जब हफ्तों पहले आमंत्रण-पत्र देने के और आखिरी घण्टे तक व्हाट्सएप मैसेज भेजने के बाद भी थिएटर हॉल पथराई आँखों से दर्शकों की बाट जोहते हों।
ऐसा तो नहीं है कि लोगों को पहले कभी नाटक देखने की आदत नहीं रही। नाचा-नौटंकी लोग देखते ही थे और टिकिट लेकर देखते थे। ठीक है कि आगे चलकर सिनेमा, टीवी और मोबाइल का हमला हुआ तो इन हमलों से जूझने के लिए क्या कोई रणनीति बन सकी? यह सवाल मैं किसी पर आक्षेप के लिए नहीं बल्कि खुद से पूछ रहा हूँ। हिंदी में नाटकों का कमोबेश वही हश्र हुआ तो नई कविता का। कविता पाठकों से कटती चली गयी और नाटक दर्शकों से। कविता आलोचकों के लिए लिखी जाने लगी और नाटक समीक्षकों के लिए। नाटकों में प्रयोग अच्छी बात है। प्रयोग किसी घटना या प्रसंग को सरल करने के लिए या व्याख्यायित करने के लिए हो तो वह ग्राह्य हो जाता है। प्रयोग का प्रयोजन दर्शकों को आतंकित करने का रहा। निर्देशक खुद को साबित करने के फेर में लगे रहे। कला और संस्कृति की समझ के हल्ले में कोई नया दर्शक नाटक देखने आया तो दोबारा उस दिशा में फटका भी नहीं। इस पर भी तो आत्मचिंतन होना चाहिए कि आपने कविता से रस, कहानी से कहानीपन और नाटकों से नाटकीयता को बेदखल कर दिया। किसी ने आपकी आलोचना की तो उसे कला, बौद्धिकता और समझ की धमकी देकर चुप करा दिया। वह आपसे बहस नहीं कर सकता इसलिए उसने आपको बहिष्कृत कर दिया।
अपनी इप्टा इकाई की रजत जयंती के सिलसिले में हम लोक-कलाकारों को आमंत्रित करने छत्तीसगढ़ के छोटे से गाँव मे गए। दो हजार की भी आबादी नहीं रही होगी। बरगद के एक पेड़ में नाचा दल की तख्ती लगी थी। सम्पर्क नम्बर था और नीचे लिखा हुआ था -मैनेजर! यह च्मैनेजरज् बड़े -बड़े शहरों के नामी नाट्य-दलों में भी नहीं पाया जाता। यहाँ निर्देशक होते हैं, संगीत निर्देशक होते हैं, प्रॉपर्टी इंचार्ज होते हैं, मेकअप मेन होते हैं पर कोई च्मैनेजरज् नहीं होता। बहरहाल, नाचा दल के मैनेजर से हमने कलाकारों को सम्मानित करने की बात कही तो उसने पूछा कि सम्मान करने के कितने पैसे दोगे? यह जानकारी भी मिली कि वे कलाकारों से एग्रीमेंट साइन करवाते हैं और रिहर्सल या शो में अनुपस्थित होने पर अर्थ-दण्ड देते हैं। आय की राशि वरिष्ठता के क्रम में बांट दी जाती है। जाहिर है कि यह काम भी हिंदी पट्टी में ही हो रहा है, पर इसलिए हो पा रहा है कि मेले-मड़ई में उनकी भारी माँग होती है। यह घटना ज्यादा नहीं, कोई चार-पांच साल ही पुरानी है। अभी के हालात क्या हैं, कह नहीं सकता।
हिंदी पट्टी में लेखकों-कलाकारों की दुर्दशा पर पोथियाँ रची जा सकती है। हमारा समाज इन्हें किस निगाह से देखता है, यह बताने की जरूरत नहीं है। कला-संस्कृति तो बहुत दूर की बात है वह तो रोज का भोजन भी सेहत को ध्यान में रखते हुए नहीं करता। यह उसकी प्राथमिकता में नहीं आता। अगर ऑर्गेनिक टमाटर दस रूपये किलो मिले तो वह 5 रुपये वाले रासायनिक खाद वाले टमाटर को प्राथमिकता देता है भले ही मॉल में वह सौ रुपए का पॉपकॉर्न खरीद ले। कला-संस्कृति में उसकी सुरुचि-सम्पन्नता देखनी हो तो विवाह समारोह में चले जाएँ। वह भकोस कर प्लेट-भर खाता है और कानफोडू डीजे में संगीत का आनंद लेता है। उसके घर में किताब के नाम पर सिर्फ कोर्स-बुक या एक-दो धार्मिक किताबें होती हैं। ऐसे समाज से आप उम्मीद करते हैं कि वह टिकिट लेकर नाटक देखे तो आप बहुत मासूम है। इस समाज को नाटक की जरूरत नहीं है। यह आपकी अपनी जरूरत है। नाटक करना आपको अच्छा लगता है। करते रहें। कोई उम्मीद पालेंगे तो फ्रस्टेशन के शिकार होंगे। यथास्थिति बनाए रखें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ऐसा लगता है कि तुर्की में चल रहा रूस-यूक्रेन संवाद शीघ्र ही उनका युद्ध बंद करवा देगा लेकिन इस मौके पर भारतीय विदेश नीति की कमजोरी साफ़-साफ़ उभर कर सामने आ रही है। जो काम भारत को करना चाहिए था, वह तुर्की कर रहा है। यह ठीक है कि तुर्की के अमेरिका और रूस दोनों से अच्छे संबंध हैं और वह नाटो का सदस्य भी है लेकिन इस समय अमेरिका और रूस के भारत के साथ जितने घनिष्ट संबंध हैं, किसी देश के नहीं हैं।
इसका प्रमाण तो यह ही है कि दोनों के विदेश मंत्री भारत आ रहे हैं, दोनों देशों के राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री से बात कर रहे हैं और दोनों महाशक्तियां भरपूर कोशिश कर रही हैं कि वे भारत को अपनी तरफ झुका लें लेकिन भारत अपनी तटस्थता की टेक पर मजबूती से टिका हुआ है। संयुक्तराष्ट्र संघ में जब भी मतदान हुआ है, उसने न तो रूस के समर्थन में वोट डाला और न ही अमेरिका के समर्थन में। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी साहस का परिचय उसने युद्ध बंद करवाने में नहीं दिया। फिर भी इस समय विदेश नीति के क्षेत्र में भारत काफी सक्रिय है।
हर सप्ताह के दो-तीन दिन कोई न कोई विदेशी मेहमान भारत जरुर आ रहा है और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल भी विदेश यात्राएं कर रहे हैं। रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव यदि नई दिल्ली आ रहे हैं तो अमेरिका ने अपने उप-सुरक्षा सलाहकार दलीपसिंह को भारत भेज दिया है ताकि भारत सरकार लावरोव के भुलावे में न फंस जाए।
अमेरिका और नाटो राष्ट्रों की भरसक कोशिश है कि भारत किसी न किसी रुप में रूस की भर्त्सना करे और उस पर प्रतिबंधों को भी लागू करे लेकिन रूसी व्यापारिक प्रतिनिधि आजकल दिल्ली में बैठकर यह कोशिश कर रहे हैं कि भारत को बड़ी मात्रा में तेल कैसे बेचा जाए। इस्राइली प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट भी भारत आनेवाले थे लेकिन अस्वस्थता के कारण उनकी यात्रा अभी टल गई है।
इस बीच बिम्सटेक की बैठक के लिए जयशंकर श्रीलंका पहुंचे हुए हैं। बिम्सटेक के सात देशों की बैठक को हमारे प्रधानमंत्री भी संबोधित कर रहे हैं। ये सात देश अपना घोषणा पत्र तैयार कर रहे हैं और आपसी सहयोग का महत्वपूर्ण समझौता भी कर रहे हैं। दक्षेस के निष्क्रिय होने पर बिम्सटेक की सक्रियता विशेष स्वागत योग्य है।
इस समय जयशंकर की यह श्रीलंका-यात्रा बहुत सार्थक और सामयिक सिद्ध हो रही है, क्योंकि श्रीलंका के अपूर्व आर्थिक संकट में भारत ने सीधी मदद की घोषणा की है और जफना में चीनियों के प्रस्तावित तीन सौर-केंद्रों को अब भारत चलाएगा। श्रीलंका के साथ दो रक्षा-समझौते भी हुए हैं। इस मौके पर मिली भारतीय सहायता श्रीलंका को चीन का चंगुल ढीला करने का साहस भी प्रदान करेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक पांडे
अपने जीवन के आख़िरी सत्तर दिनों में विन्सेंट ने सत्तर पेंटिंग्स बनाईं. उन दिनों वह वह किस तरह की ऊर्जा और जिद से भरा हुआ होगा इसकी कल्पना करनी हो तो इनमें से कुछ पेंटिंग्स को गौर से देखना होगा. जैतून के पेड़ों के एक चित्र में एक कीड़े के रेंग चुकने के निशान स्पष्ट दीखते हैं. इसी सीरीज की एक और पेंटिंग में तो एक टिड्डे की समूची खोपड़ी और पिछली टांगें रंगों के साथ चिपक कर अमर हो चुकी चीजें बन गयी हैं. आउटडोर पेंटिंग करते समय गीले पेंट पर ऐसी चीजें हो जाना सामान्य है. उस्ताद कलाकार स्टूडियो में लौट कर इस खामियों को दुरुस्त करते हैं. वान गॉग के पास इतना समय न था. एक चित्र में तो उसकी उँगलियों की छापें तक लगी हुई हैं. पेंटिंग की दुनिया में इस बात को अक्षम्य माना जाता है.
विन्सेन्ट वान गॉग ने एक ख़त में दर्ज किया था - "दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है."
पूरी जिन्दगी निराशा, शराबखोरी, गुरबत, पागलपन, वेश्याओं की सोहबत और खराब स्वास्थ्य से जूझने को मजबूर बना दिए गए, एक ग्रामीण पादरी के नालायक समझ लिए गए इस विकट प्रतिभावान बेटे को जब आखिरकार जब उसका मेहनताना मिला, उसे मरे हुए कई बरस हो चुके थे.
सारी जिन्दगी जिसकी एक भी पेंटिंग नहीं बिक सकी, उसके बनाए एक डॉक्टर के पोर्ट्रेट को छः अरब रुपयों में खरीदा गया.
हताशा के चरम पर पहुँचने के बावजूद उसने इस बात को अपना फ़र्ज़ जाना कि उसके भीतर जो महानतम है उसे हर हाल में अगली पुश्तों के लिए सौंप कर जाना है. वह कुल सैंतीस साल तीन महीने उनतीस दिन जिया.
हर दिन थोड़ा-थोड़ा उजड़ते और अजनबी बनते जा रहे हमारे संसार में जब तक विन्सेन्ट के लिए जगह रहेगी, चंद्रमा का इंतज़ार कर रहे सूरजमुखी के फूल उसकी याद दिलाते रहेंगे. उम्मीद ख़त्म नहीं होगी!
1853 के साल वह आज, 30 मार्च ही के दिन जन्मा था.
(चित्र फिलहाल लिस्बन में रह रहे ईरानी कलाकार अली रज़ा करीमी का बनाया हुआ है जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों से विन्सेन्ट को अपनी डिजिटल पेंटिंग्स का नायक बनाया हुआ है और सैकड़ों चित्र रचे हैं.)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार अपराधियों की पहचान के लिए एक नया कानून बनाना चाहती है। उसने संसद में जो विधेयक पेश किया है, उसके तहत अब पुलिस उन सभी लोगों की पहचान के नए तरीके अपनाएगी, जो या तो गिरफ्तार हुए हैं या जिन्हें सजा हुई है या जो नजरबंद किए गए हैं। ऐसे लोगों की पहचान का पुराना सिलसिला 1920 में बने कानून के तहत अभी तक चल रहा है। 100 साल पुराने इस कानून के मुताबिक उक्त श्रेणियों के लोगों की उंगलियों, हथेलियों और पगथलियों के छापे ले लिये जाते हैं लेकिन अब इस नए कानून के मुताबिक उक्त तीनों के अलावा उनके फोटो, आंख की पुतलियों के चित्र, शारीरिक और जैविक तत्वों, उनके हस्ताक्षर आदि के पहचान-प्रमाण भी पुलिस अपने पास संभालकर रखेगी। ये प्रमाण 75 वर्ष तक रखे जाएंगे। इस विधेयक के संसद में पेश होते ही विपक्षी सांसदों ने इस पर हमला बोल दिया है।
उनका कहना है कि इस तरह के पहचान-प्रमाण इक_े करना मानव अधिकारों का हनन है। यह लोगों की गोपनीयता का सरासर उल्लंघन है। ऐसे लोगों की भी गोपनीयता इस कानून से भंग होती रहेगी, जिन्हें फर्जी आरोपों में गिरफ्तार और नजरबंद कर लिया गया होगा। पुलिस तो उन सरकार-विरोधी प्रदर्शनकारियों को पकडक़र उनके सारी निजी और गोपनीय जानकारियां भी इक_ी कर लेगी, जिनका अपराध से दूर-दूर का भी कोई संबंध नहीं है। विपक्षी सदस्यों का आरोप था कि यह विधेयक न केवल भारतीय संविधान बल्कि संयुक्तराष्ट्र संघ घोषणा-पत्र का भी उल्लंघन करता है। उन्हें यह इतना आपत्तिजनक लगा कि यह विधेयक पेश किया जाए या नहीं, इस मुद्दे पर भी मतदान करवाना पड़ गया। विधेयक पेश तो हो गया है, लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि हमारे नेता लोग अपनी गोपनीयता को इतना ज्यादा महत्व क्यों देते हैं?
उनका जीवन और नागरिकों का जीवन खुली किताब की तरह क्यों नहीं होना चाहिए? आप कोई बात या काम छिपाना चाहते हैं, इसका मतलब क्या यह नहीं हुआ कि आप कोई न कोई गलत काम कर रहे हैं? इसके अलावा अब अपराध करने के बहुत-से नए तरीके अपनाए जाने लगे हैं तो उनको पकडऩे के 100 साल पुराने तरीकों से आप क्यों चिपके रहना चाहते हैं? अब ऐसे तरीके पुलिस को क्यों नहीं अपनाना चाहिए, जिनसे अपराधियों की पहचान तुरंत हो सके और उनका जांच से बच निकलना भी मुश्किल हो। इस कानून में एक सराहनीय प्रावधान यह भी है कि यदि किसी ऐसे व्यक्ति के पहचान-प्रमाण पुलिस ने इक_े किए हैं, जिसने पहले कभी कोई अपराध नहीं किया हो और वर्तमान मुकदमे में अदालत ने जिसे निर्दोष पाया हो, उसके सारे पहचान-प्रमाण नष्ट कर दिए जाएंगे। अर्थात इस कानून का मूल उद्देश्य अपराधियों को तुरंत पकडऩा है न कि निर्दोष लोगों की निजता या गोपनीयता भंग करना। (नया इंडिया की अनुमति से)
पेट्रोल-डीजल के दाम इतने बढ़ जाएंगे कि घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक का सफर दौड़ते हुए ही पूरा करना पड़ेगा
-सोरित गुप्तो
बहुत दिन पहले वह शुक्रवार की आधी रात थी। गांव-देहात के अंधेरे-गरीबी और लाचारी से हजारों किलोमीटर दूर रौशनी से लबरेज मेट्रो सिटी के नागरिकों के लिए वीकेंड बस शुरू होने को ही था। वीकेंड शुरू होते ही शहर भर के लोग होटल और रेस्टोरेंट पर बावलों की तरह टूट पडऩे वाले थे।
अचानक लोगों ने एक युवक को तेजी से दौड़ता हुआ देखा। इस युवक ने एक निकर और टीशर्ट पहनी थी और कंधे पर एक बैग था। इस दौड़ते हुए युवक ने लोगों में सनसनी फैला दी। लोगों में अनुमान लगाने की होड़ सी मच गई कि आखिर वीकेंड के इस शुभ मुहूर्त में युवक क्यों दौड़ रहा है?
इसी भीड़ में एक प्रोफेसर साहब थे जिन्होंने ‘एंटायर-पॉलिटिकल-साइंस’ में एमए किया था। प्रोफेसर साहब बोले, ‘इस युवक के कपड़ों को देखकर मैं दावे के साथ बता सकता हूं कि यह युवक अस्सी फीसदी की कैटिगरी में आता है। अस्सी फीसदी कैटिगरी के लोग आज खतरे में हैं और इसी खतरे के डर से युवक भागा जा रहा है। मित्रों इसकी मदद कीजिए।’
भीड़ में एक टीवी एंकर मौजूद था। मौके की नजाकत को समझते हुए उसने कहा, ‘नेशन वांट्स तो नो कि आखिर यह युवक क्यों दौड़ रहा है और देश के बुद्धिजीवी इस पर खामोश क्यों हैं?’
उसी भीड़ में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के कुछ मेधावी छात्र उपस्थित थे जिन्होंने तुरंत एक दूसरे को मैसेज करना शुरू कर दिया जिसका लब्बोलुआब था, ‘वह युवक नेहरू की गलत नीतियों का शिकार है जिसके चलते वह भागा जा रहा है।’
भीड़ में खड़े एक व्यक्ति ने कहा, ‘मेरे पास पूरी जानकारी है। यह युवक यूक्रेन में डाक्टरी की पढ़ाई करने गया था और रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते फंस गया था। भारत आने की फ्लाइट न मिलने पर उसने तय किया कि कीव से दिल्ली तक की दूरी दौड़ कर तय करेगा।’
बात से बात बढ़ी और जल्द ही इस घटना का खबरिया चैनल पर सीधा प्रसारण होने लगा। आगे-आगे युवक दौड़ रहा था और उसके पीछे-पीछे ओवी वैन की भीड़ चल रही थी। पुराने जमाने में कभी किसी हेमलिन शहर में ऐसा ही कुछ हुआ था जब एक बांसुरी वाले की धुन पर पहले शहर भर के चूहे और बाद में बच्चे बांसुरी वाले पीछे-पीछे चल पड़े थे।
पर इस बात का अब भी किसी के पास कोई जवाब नहीं था कि आखिर यह युवक दौड़ क्यों रहा था? बात मुंबई फिल्म इंडस्ट्री तक जा पहुंची और एक निर्देशक आनन-फानन में अपने क्रू के साथ घटनास्थल आ पहुंचा और अपनी कार लेकर युवक के साथ-साथ चलने लगा। उसने युवक को कहा, ‘आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा।’
पर युवक उसकी बातों को अनसुना कर दौड़ता रहा। निर्देशक ने कहा, ‘कहो तो मैं तुम्हारी फाइल, मेरा मतलब है कि बायोपिक बना दूं। कसम कैमरे की, हमकू भी 100 करोड़ कमाने वाला निर्देशक बनना मांगता। साइनिंग अमाउंट नकद लोगे या पनामा से ट्रांसफर कर दूं?’
एक तरफ निर्देशक साहब युवक को ऑफर पर ऑफर दिए जा रहे थे वहीं दूसरी तरफ युवक पर उनकी किसी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। थोड़ी ही देर में युवक को पत्रकारों, ओवी वैन और वीकेंड मनाने के लिए निकली भीड़ ने घेर लिया। भीड़ ने पूछा, ‘भाई तू आखिर दौड़ क्यों रहा है?’
युवक ने हंसते हुए कहा, ‘विधानसभा चुनाव अभी हाल ही में खत्म हुए हैं। चुनावों के चलते सरकार पेट्रोल-डीजल के दाम नहीं बढ़ा रही थी। जल्द ही पेट्रोल और डीजल के दाम इतने बढ़ जाएंगे कि आप पेट्रोल खरीदने लायक नहीं रहोगे। ऐसे में घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक का सफर दौड़ते हुए ही पूरा करना पड़ेगा। इसीलिए मैं अभी से दौडऩे की प्रैक्टिस कर रहा हूं! मेरी मानो तो आप भी दौडऩे की प्रैक्टिस शुरू कर दो।’
इतना कहकर वह युवक दौड़ता हुआ आगे निकल गया। (downtoearth.org.in)
-डॉ. राजेश अवस्थी
आखिरकार आज छत्तीसगढ़ की सरकार ने विश्वविद्यालय की परीक्षाएं ऑनलाइन लिए जाने का आदेश जारी कर दिया। आदेश जारी होते ही सोशल मीडिया में शिक्षाविदों ने पोस्ट डालने शुरू कर दिए।
कहा जा रहा है कि ‘ऑनलाइन परीक्षा के बजाय सीधे जनरल प्रमोशन ही क्यों न दे दिया जाय।’ कुछ को दुख है कि ‘इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा।’
‘ऑनलाइन परीक्षा से सिर्फ डिग्री मिलेगी ज्ञान नहीं’
आदेश अभी शाम को जारी हुआ है। अभी बहुत से ज्ञानवान लोग ऐसे और सवाल पूछेंगे।
इस पर बात करने से पहले ये पूछना चाहूंगा कि छत्तीसगढ़ के निजी विश्वविद्यालयों में क्या हो रहा, क्या इस पर ज्ञानियों की नजर नहीं पड़ रही?
या जानबूझ कर आंख बंद किएबैठे हैं
निजी विश्वविद्यालयों में तो परीक्षा न ऑनलाइन न ऑफलाइन सीधे पैसे दो डिग्री लो। धन्नासेठों और खद्दर धारी लोगों की निकम्मी औलादों के लिए चल रहे इन निजी विश्वविद्यालयों में सिर्फ एडमिशन लेना है। न पढऩा है, न परीक्षा देना है।
धन्नासेठों और खद्दरधारी नेताओं के हर जाहिल संतान के पास निजी विश्वविद्यालय की भारी-भरकम परसेंट वाली मार्कशीट है। इनके बारे में अगर आप सवाल नहीं खड़े करते तो आपकी ईमानदारी, आपकी शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा होता है।
जाहिर है सवाल तो सिर्फ गरीबों के बच्चों की डिग्री पर उठेगा। रईसों के खिलाफ बोलने से पहले अपने नफा-नुकसान का भी ख्याल रखना होता है।
हमारे समाज की समझ पर बाबा नागार्जुन ने सटीक लिखा है-
‘...बड़ी मुसीबत हो जाती, गर कंगले होते पास’
पूरी कविता कुछ ऐसी है
‘खून पसीना किया आपने एक,
जुटाई फीस
आंखें, पढ़-पढ़ धस गई
नंबर आये तीस
शिक्षा मंत्री ने सीनेट से कहा
अजी शाबाश
बहुत मुसीबत हो जाती
गर कंगले होते पास
फेल पुत्र का बाप दुखी है
सिर धुनती है माता
जनगणमन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता’
गरीब बच्चों के सरकारी विश्विद्यालयों की ऑनलाइन परीक्षा होगी तो सरमायेदारों के ढिंढोरची, तबलची खूब राग भैरवी बजायेंगे।
निजी विश्वविद्यालय तो इनकी नजर में आइंस्टीन पैदा कर रहे।
अब ऑनलाइन परीक्षा पर छात्र क्या मांग रहे थे
1. यूजीसी मापदंडों के अनुरूप 180 दिनों के पूरे सत्र की पढ़ाई हो उसके बाद परीक्षाएं हों।
2. अगर पूरे सत्र की पढ़ाई नहीं हो सकती तो ‘जैसी पढ़ाई वैसी परीक्षा’ हो याने ऑनलाइन पढ़ाई तो ऑनलाइन परीक्षा।
3. परीक्षाएं लेने की हड़बड़ी क्यों है,180 दिन की पढ़ाई पूरी कराओ फिर जून में ऑफलाइन परीक्षा ले लो अप्रेल में ही परीक्षा लेने की जिद क्यों?
4. सीएसवीटीयू में अभी ऑनलाइन (्रञ्ज्यञ्ज) परीक्षाएं चल रही फिर सीएसवीटीयू और बाकी यूनिवर्सिटी के लिए अलग-अलग मापदंड क्यों?
5. रविशंकर विश्वविद्यालय की प्रायोगिक परीक्षाएं अभी कल या परसों ही शुरू हुई है। 19 तारीख से ही थ्योरी की परीक्षाएं कराने की जिद क्यों (आज तक सभी प्रायोगिक परीक्षाओं के बाह्य परीक्षकों के नाम तक तय नहीं कर पाई है यूनिवर्सिटी। लेकिन 19 से ही थ्योरी की परिक्षा की जिद क्यों)
दरअसल, सच्चाई ये है कि सभी (लगभग) निजी कॉलेजों ने कोरोना काल में अपने शिक्षकों को निकाल दिया है। ये निजी महाविद्यालय इस सत्र में पढ़ाई पूरी करा ही नहीं सकते।
ये चाहते हैं कि इस सत्र को किसी भी तरह पूरा कर जुलाई-अगस्त में नए सत्र की शुरुआत हो जाये ताकि पैसा आये।
निजी महाविद्यालय, विश्वविद्यालय प्रशासन पर जल्दी परीक्षा लेने दबाव बनाए हुए हैं और विश्वविद्यालय प्रशासन छात्रों के हित में सोचने के बजाय निजी कॉलेजों की दलाली में लगा है।
एमएचआरडी की गाइड लाइन थी कि कोरोना काल में सिलेबस में कटौती की जाय और 60 प्रतिशत सिलेबस की परीक्षा ली जाय।
विश्वविद्यालय सो रहा था सिलेबस कमेटी की मीटिंग तक नहीं की गई।
अभी कल ही कुछ कॉलेजों में प्रायोगिक परीक्षाएं हुईं एक ही दिन दो-दो विषयो की प्रायोगिक परीक्षाएं ली जा रहीं।
क्या ये ठीक हो रहा है?
सिलेबस के अनुसार फिजिक्स प्रैक्टिकल की परीक्षा 4 घंटे की और कंप्यूटर प्रेक्टिकल की परीक्षा भी 4 घंटे की होने चाहिए। 3 घंटे में ही दोनों विषयो की प्रैक्टिकल की परीक्षाएं लेकर क्या खूब ऑफ लाइन गुणवत्तापूर्ण परीक्षा हो रही थी।
सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि जब स्कूल के छात्र ऑफ लाइन परीक्षा दे सकते हंै तो कॉलेज के छात्र क्यों नही दे सकते?
सवाल फिर वही पढ़ाई नहीं हो पाई है, स्कूल के छात्रों की पढ़ाई में विराम नहीं लगा, लॉकडाउन के समय में भी नहीं।
राज्य शासन ने बुलठू के बोल, पढ़ाई तुंहर दुवार, मोहल्लाक्लास, लाउड स्पीकर कक्षाएं जैसी अनोखी योजनाएं बनाई, सिर जमीन पर उतारा, पढ़ाई बंद नहीं होने दी, योजनाओं का विश्लेषण और मूल्यांकन किया सकारात्मक नतीजे आये। तब जाकर ऑफ लाइन परीक्षाएं करवाई।
विश्वविद्यालयों ने क्या किया, पूरे समय सोते रहे, बस परीक्षा अपने समय पर लेना है, वो भी पूरे पाठ्यक्रम की।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर सर्वोच्च न्यायालय में एक बड़ी मजेदार याचिका पेश की गई है, अश्विनी उपाध्याय के द्वारा! उन्होंने अपनी याचिका में तर्क दिया है कि अल्पसंख्यकता के नाम पर कई राज्यों में बड़े पैमाने पर ठगी चल रही है। जिन राज्यों में जो लोग बहुसंख्यक हैं, वे यह कहते हैं कि हम लोग अखिल भारतीय स्तर पर अल्पसंख्यक हैं, इसलिए हमें अल्पसंख्यकों की सब सुविधाएं अपने राज्य में भी मिलनी चाहिए। जैसे जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं लेकिन उन्हें इसके बावजूद वहां अल्पसंख्यकों की सारी सुविधाएं मिलती हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं, यहूदियों और बहाईयों को, जो वास्तव में वहां अल्पसंख्यक हैं, उन्हें अल्पसंख्यकों की कोई सुविधा नहीं मिलती। यही हाल मिजोरम, नागालैंड, अरुणाचल, लक्षद्वीप, मणिपुर और पंजाब का है।
इन राज्यों में रहनेवाले धार्मिक बहुसंख्यकों को भी अल्पसंख्यक मानकर सारी विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। उपाध्याय ने अपनी याचिका में अदालत से मांग की है कि अल्पसंख्यकता का निर्णय राज्यों के स्तर पर भी होना चाहिए ताकि वहां के अल्पसंख्यकों को भी न्याय मिले। तर्क की दृष्टि से उपाध्याय बिल्कुल ठीक हैं लेकिन बेहतर तो यह हो कि देश में से मजहब, भाषा और जाति के आधार पर समूहों को बांटा न जाए। राष्ट्रीय एकता के लिए यह बेहद जरुरी है। दूसरे शब्दों में संख्या के आधार पर बना यह विशेष दर्जा राज्य स्तरों पर तो खत्म होना ही चाहिए, यह भी जरुरी है कि इसे अखिल भारतीय स्तर पर भी खत्म किया जाए।
1947 में भारत का बंटवारा इसी मजहबी संख्यावाद के कारण हुआ और अब देश के चुनाव और राजनीति का आधार यही जातीय संख्यावाद बन गया है। यही क्रम आगे चलता रहा तो 1947 में भारत के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे लेकिन 2047 में भारत के सौ टुकड़े भी हो सकते हैं। यह बेहद खतरनाक प्रक्रिया है। महाराष्ट्र और कर्नाटक ने संविधान के ढीले-ढाले प्रावधानों का सहारा लेकर मज़हबी और भाषाई आधार पर अपने नागरिकों को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वर्गों में बांट रखा है। हमारी केंद्र सरकार ने उक्त याचिका का समर्थन करते हुए संवैधानिक प्रावधान का हवाला भी दे दिया है। संविधान में ऐसा करने की छूट है। लेकिन किसी भी राष्ट्रवादी सरकार को हिम्मत करनी चाहिए कि वह इस राष्ट्रभंजक संवैधानिक प्रावधान को खत्म करवाए और देश के सभी नागरिकों को उनकी जरुरत के मुताबिक (जाति और धर्म के आधार पर नहीं) आवश्यक विशेष सुविधाएं अवश्य दी जाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)