विचार/लेख
-नितिन त्रिपाठी
जब आप अपनी दसवीं के मित्रों के साथ बैठते है और विश्लेषण करते हैं कि कौन क्या बना-तो केवल और केवल एक अंतर समझ आता है-शिक्षा। जिसने अंतर बनाया।
वह जो इतने गरीब थे कि कालेज के दिनों में नौ रुपए फीस नहीं भर पाते थे-आज अफसर हैं, बड़ा बंगला है, प्रतिष्ठित हैं। केवल शिक्षा की वजह से।
वह जिनके पिता वरिष्ठ पुलिस अधिकारी थे और स्कूल के समय जिनकी दादागिरी चलती थी, कैंटीन में जिनके नाम से उधार चलता था, उनकी लास्ट खबर यह थी कि वह जेल में थे।
वह लड़कियाँ जो आउट ऑफ लीग थीं, जिनके कुत्ते भी पैरों में मोजे पहनते थे, जिनसे बात करने के लिए रैपिडेक्स से वाक्य याद कर जाना पड़ता था। उनका ध्यान शिक्षा पर न रहा रोमांस पर रहा। और जाहिर सी बात है उनके बॉयफ्रेंड भी वैसे ही निकले-आज वह आंटियाँ शिक्षा के महत्व को समझ अपनी बेटियों को स्कूल खुद छोडऩे लेने जाती हैं।
इंजीनियरिंग कालेज में ऐसे ऐसे छात्र थे जिन्होंने बारहवीं तक कोई फिल्म सिनेमा हाल में न देखी थी, पिता लेबर थे। आज वह चीफ इंजीनियर बन मुख्यमंत्री के साथ फोटो डालते हैं।
ऐसे भी मित्र थे जिनकी घरेलू परिस्थितियाँ इतनी विकट थीं कि पढऩा मुश्किल था। किसी तरह से दसवीं पास की पर लगे रहे। पढ़ाई की, सरकारी नौकरी में गए और पढ़ाई की, आज समाज के संभ्रांत व्यक्ति हैं। बच्चों को वह शिक्षा दे रहे हैं जो खुद नहीं पाए थे।
इक्का-दुक्का नेताजी के साथ टहलने वाले लोग छोड़ दिए जाएँ तो केवल और केवल शिक्षा ने सबके जीवन में अंतर पैदा किया। खुले दिमाग से अपने अगल-बगल देख डालिए, पचीस साल की कैरियर ग्रोथ, नब्बे प्रतिशत आप पाएँगे शिक्षा ने बनाई।
और अंतर केवल पैसे का ही नहीं लाइफ स्टाइल का होता है। शिक्षित व्यक्ति की कम्पनी में सबको मजा आता है। मै स्वयं यदि किसी नेता से मिलता हूँ तो यदि वह शिक्षित है तो बात करने का अलग लेवल होता है, लगता है कुछ अच्छा किया। वहीं अशिक्षित नेता से कार्य तो बन जाता है पर उसका समाज में इज्जत पाना मुश्किल होता है।
मेरी सब मित्रों को यही सलाह रहती है कि आप हैसियत से बढक़र शिक्षा ग्रहण करो और बच्चों को भी दो। इस काल में शिक्षा से बेहतर निवेश कुछ नहीं।
शेष अभी दसवीं फि़ल्म देख रहा हूँ। फिल्म का संदेश भी यही है कि शिक्षा कैसे सकारात्मक परिवर्तन लाती है। नया डायरेक्टर है, डायलाग कुमार विश्वास के हैं तो थोड़ी फ्रेशनेस है। पिक्चर एक बार देखने लायक है। मुख्य है फिल्म का संदेश जिससे मैं सौ प्रतिशत सहमत हूँ।
-चिन्मय मिश्र
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुख के प्रतीक राम के जन्मदिन पर मध्यप्रदेश के खरगोन में हुए विवाद व हिंसा की परिणति में ढेर सारे मकानों को बुलडोजरों से ध्वस्त कर दिया गया..बजाय शांति के संदेश देने के, देश में अनेक स्थानों पर अशांति का बोलबाला के रूप में एक नया ट्रेंड सामने आया है.. न्यायालय के स्थान पर बुलडोजर अब एक चलित न्यायालय की तरह, वादी-प्रतिवादी के घर - दुकान पर पहुंचकर मनचाहा न्याय करता दिख रहा है।
भारत पर बीते करीब 15 दिन बेहद खौफनायक साबित हुए हैं। कर्नाटक से शुरु हुआ सांप्रदायिक बवंडर रामनवमी को देश के तमाम राज्यों मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गोवा, बंगाल, आंधप्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र से होता हुआ हनुमान जयंती को राष्ट्र की राजधानी दिल्ली तक पहुंच गया। कहां क्या हुआ? कैसे हुआ? क्यों हुआ? इन सब सवालों को लगातार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का माध्यम बनाया जा रहा है।
बुलडोजर क्या कानून का स्थानापन्न बन जाएगा यह नवीनतम प्रश्न है, भारतीय लोकतंत्र के सामने। सांप्रदायिकता को आधार बनाने वाले समुदाय को इस ऐतिहासिक तथ्य पर जरुर गौर करना चाहिए कि ‘भारत के विभाजन में मुस्लिम लीग की सफलता सांप्रदायिकता को सही ठहराती है और पाकिस्तान को एक रखने में उसकी विफलता इसे गलत सिद्ध करती है।’ अतएव सांप्रदायिकता को आदर्श मानने वालों को पाकिस्तान की वर्तमान परिस्थिति का आकलन कर अपने व देश के भविष्य का ठीक-ठीक आकलन कर लेना चाहिए। न करें तो उनकी इच्छा। परंतु परिणाम निश्चित तौर पर सुखद तो नहीं ही निकलेगा। पाकिस्तान की दशा दुर्दशा के समानांतर एक और घटना पर गौर करिए।
सावरकर सन् 1857 के विद्रोह पर अपनी पुस्तक की प्रस्तावना (सन् 1909) में लिखते हैं, ‘राष्ट्र को अपने इतिहास का स्वामी होना चाहिए उसका दास नहीं। मुसलमानों के प्रति घृणा की भावना शिवाजी के काल में उचित और आवश्यक थी किंतु आज केवल इसलिए इस भावना को पाले रखना गलत और मूर्खतापूर्ण होगा कि यह उस समय हिंदुओं की प्रबल भावना थी।’’ गौरतलब है सावरकर सन् 1910 से 1921 तक अंडमान जेल में थे।
आज हर सांप्रदायिक मामले में औरंगजेब का प्रेत लगातार सामने लाया जा रहा है। बहरहाल रामनवमी पर घटी घटनाओं को आधार बनाकर कुछ बात करते हैं। मानस के बालकांड में तुलसीदास जी रामचन्द्र के नामकरण को लेकर लिखते हैं,
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी। सो सुखधाम राम अस नासा। अखिल लोक दायक विश्रामा।
अर्थात, ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम ‘राम’ है, जो सुख का भवन और संपूर्ण लोकों को शांति देने वाला है।’ परंतु यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि रामनवमी के दिन सुख के भवन के प्रतीक राम के जन्मदिन पर मध्यप्रदेश के खरगोन में हुए विवाद व हिंसा की परिणति ढेर सारे मकानों के बुलडोजरों से ध्वंस और बजाय शांति फैलने के पूरे देश में अनेक स्थानों पर अशांति का बोलबाला के रूप में सामने आई है। सरकार कहती है कि दंगों की सजा के तौर पर घर तोड़े गए। प्रशासन कहता है कि अतिक्रमण था, इसलिए तोड़े गए। बहरहाल इस ध्वंस का समय स्वयं ही यह सिद्ध कर रहा है कि तोड़-फोड़ का मुख्य कारण रामनवमी पर हुआ उपद्रव ही था। मध्यप्रदेश के ही बड़वानी जिले के सेंधवा कस्बे में ऐसे तीन लोगों पर आगजनी की एफआईआर कर दी गई जो पिछले करीब एक माह से जेल में बंद थे। उनका भी मकान तोड़ दिया गया। क्या न्यायालय के स्थान पर बुलडोजर अब एक चलित न्यायालय की तरह, वादी-प्रतिवादी के घर-दुकान पर पहुंचेगा और मनचाहा न्याय कर देगा ?
अरुंधती राय की नवीनतम पुस्तक है ‘आजादी’। इसके पहले अध्याय का शीर्षक है, ‘सताये हुए शहरों पर किस भाषा में बारिश होती है।’ अब भारत में जिस नई भाषा का प्रयोग हो रहा है, वह सांप्रदायिकता से ओतप्रोत है। क्या कभी यह सोचा गया था कि भारत में रामनवमी, जिसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्मदिन के रूप में माना जाता है, उस दिन जुलूस में भागीदारी करने वाले कई लोग सार्वजनिक तौर पर ‘माँ-बहन’ की गालियां देते नजर आएंगे। सैकड़ों लोग तलवार नचाते हुए सार्वजनिक स्थानों पर ऊघम करते नजर आएंगे। कान का पर्दा फाड़ देने जैसी तेज आवाज में डीजे पर अश्लील व सांप्रदायिक गानों की दहाड़ सुनाई देगी।
याद रखिए कि देवताओं में भी सिर्फ रामचंद्रजी के ही आगे ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ जुड़ा है। परंतु उस दिन बहुत से भारतीयों ने सभी तरह की मर्यादाओं और वर्जनाओं को छिन्न भिन्न कर डाला। गुजरात दंगे हमारे घरों में हो रही हिंसा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति का विस्तार थे। हम अपने को, अपने परिवार को लगातार हिंसक बना रहे हैं। इधर पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफार्म पर जिस तरह से हिंसा और अश्लील भाषा, यहां तक कि गंदी गालियों तक का खुलेआम प्रयोग हो रहा है, उसने भी भाषाई अश्लीलता और गालियों को सार्वजनिक स्वीकृति दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। तो समझ रहे हैं न भारतीय शहरों में कौन सी भाषा बरस रही है 7
आजकल हम अपने आसपास तीन शब्दों को लगातार सुन रहे हैं, ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’। ये तीनों ही शब्द फारसी-अरबी से लिए गए हैं। भारत में पिछले दिनों हिन्दी को राजकाज की भाषा बनाने को लेकर शुरु हुई चर्चा से जो कुछ सामने आ रहा है, वह बेहद जोखिम भरा है। यूँ तो भारत की करीब 45 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिन्दी भाषी है, लेकिन इसमें भी कई उपभाषाएं या बोलियां शामिल हैं। इनमें से कई आठवीं अनुसूची में अपना स्थान चाहतीं हैं। अभी इसमें 22 भाषाएं हैं। जम्मू से डोगरी और कश्मीर से कश्मीरी इसमें शामिल हैं। भोजपुरी बोलने वाला समुदाय चाहता है कि उसे इस सूची में स्थान मिले। उनकी संख्या करीब 5 करोड़ है। बहरहाल एक के बाद एक विवाद खड़े होते जाने से देश की मुख्य समस्याएं तो हल नहीं होंगी बल्कि नई समस्याएं जरूर अपनी जगह बनाती जाएंगी।
भाषा विवाद आजादी के बाद सबसे संवेदनशील विषयों में रहा है। भारत में भाषायी आधार पर ही तो राज्यों का पुनर्गठन भी हुआ है। यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तान के टूटने और बांग्लादेश के बनने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक भाषा ही थी। बांग्ला पर उर्दू की प्रभुता पाकिस्तान के टूटने का एक बड़ा कारण बनी थी। इसी तरह श्रीलंका में सिंहलियों ने तमिलों पर सिंहला भाषा थोपने का परिणाम वहां पर भयानक व क्रूर गृहयुद्ध के रूप में देखने का आया था।
मीर तकी मीर का शेर हैं,
जिस सर को गुरुर आज है यहां ताज वारी का। कल उस पें यहीं शोर है फिर नौहागारी (मातम) का।
इन पंक्तियों को भारतीय राजनीतिज्ञों से ज्यादा बेहतर और कौन समझ सकता है। इसके बावजूद सब कबूतरों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। सांप्रदायिकता नाम की बिल्ली तो बस मौके के इंतजार में है। समय के साथ सांप्रदायिकता स्वयं को विस्तारित करते हुए अपने में बहुसंख्यवाद को भी समाहित कर लेती है। इसी बजह से पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यामांर का पतन हमारे देखते-देखते ही हो गया। आज से करीब 15 वर्ष पहले श्रीलंका सभी पैमानों, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला अधिकार, प्रति व्यक्ति आय में हमसे आगे था। राजपक्षे, परिवार की सरकार ने सांप्रदायिकता व बहुसंख्यक होने के मुहावरों को थोपा और वहां की स्थिति हमारे सामने है। म्यांमार में बौद्ध सांप्रदायिकता और पाकिस्तान का इस्लामी अतिवाद उन देशों को किधर ले गया है, हमारे सामने है। बांग्लादेश जब तक इसे बचाता रहा, जबरदस्त तरक्की करता गया। वहां भी सांप्रदायिक ताकतें अब सिर उठाने को मचल रहीं है। सार्क देशों की स्थिति अब हम सबके सामने है। एक राष्ट्र, एक धर्म और एक भाषा का विचार मूलत: समतावादी समाज की स्थापना में सबसे बड़ा रोड़ा होता है।
भारत में फैल रही सांप्रदायिक नफरत हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। मुख्य समस्याओं से ध्यान बंटाने में इसकी भूमिका तलाशने वालों को यह समझना होगा कि आगामी कुछ वर्षों में यह भारत की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभर सकती है और तब तक बहुत देर हो जाएगी। इतिहासकार बिपिन चंद्र ने आजादी के पूर्व की सांप्रदायिकता पर बेहद महत्वपूर्ण बात कही है, ‘हमें सांप्रदायिक तनाव और सांप्रदायिक राजनीति के अंतर को भली प्रकार समझ लेना चाहिए। इनमें से पहला अर्थात सांप्रदायिक तनाव आकस्मिक होता था और इसमें आमतौर पर केवल निचला वर्ग ही प्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित होता रहा। सांप्रदायिक तनाव के समय जिस क्षेत्र में यह तनाव होता वहां भिन्न धर्मावलंबियों के बीच पारस्परिक संबंध बिल्कुल समाप्त हो जाते थे।’ वहीं तत्कालीन सांप्रदायिक राजनीति पर वे कहते हैं, ‘दूसरी ओर सांप्रदायिक राजनीति का इतिहास अधिक लंबा है और उसमें निरंतरता दिखाई देती है। इसमें मुख्य रूप से मध्य वर्ग, जमींदार व नौकरशाह संबद्ध रहे हैं। वे सांप्रदायिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। इसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक क्षेत्र में होती थी, अन्य समुदाय के सदस्यों के विरुद्ध प्रत्यक्ष कार्यकलापों में नहीं।’’ परंतु वर्तमान में परिस्थितियों ने नया मोड़ ले लिया है और सांप्रदायिक राजनीति हमसे देश के सामाजिक व सांस्कृतिक आधार में हस्तक्षेप कर रही हैं और इसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं।
भाषा को लेकर टूटन का इतिहास दक्षिण एशिया में रहा है तो सांप्रदायिकता से होने वाले भयानक दुष्परिणाम भी किसी से छुपे हुए नहीं है। भारत के विभाजन की विभीषिका आज भी हमें दहला देती है। परंतु हालिया समय में पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यामांर कमोवेश बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं। भारत में पिछले कुछ महीनों से बढ़ते सांप्रदायिक तनाव और हिंसा को लेकर देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की चुप्पी वास्तव में चकित कर रही है। वहीं इसी विषय पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के बयान एकदम अलग मानसिकता की ओर इशारा कर रहे हैं। बुलडोजर संस्कृति को दिया जा रहा प्रोत्साहन कानून व्यवस्था व न्यायालयों की गरिमा को खतरे में डाल रहा है। उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय की चुप्पी भी डरावनी है।
सवाल यह है कि भारतीय राजनीति को किस दिशा में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है ? देश अभी भाषायी और सांप्रदायिक विवादों से अभी जूझ ही रहा था कि एकाएक अगले 15 वर्षों में अखंड भारत स्थापित होने की बात उछाल दी गई। इस विषय पर चलते - चलते यही कहा जा सकता है कि यह कोई समझदारी भरा वक्तव्य नहीं है और जो असंभव है उसे संभव बनाने का प्रयास ही आत्मघाती होता है। अभी अखंड भारत में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान व बर्मा (म्यांमार) ही आते हैं या पूरा जंबूद्वीप आएगा। यानी
इंडोनेशिया वगैरह ? तब क्या भारत एक हिन्दू राष्ट्र बना रह पाएगा ? खैर इस पर भी अलग से बात होना चाहिए। यह प्रस्ताव भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि को धूमिल करेगा। यह प्रस्ताव भारत हमें वर्तमान रूस की मानसिकता के नजदीक पहुंचा देता है। वास्तविकता को झुठलाना स्वयं को (धोखा) देना है। संकटकाल में गांधी को याद करते हैं। अपना अंतिम उपवास प्रारंभ करते हुए उन्होंने 13 जनवरी 1948 को कहा था, ‘‘हम गुनहगार बन गए हैं, लेकिन कोई एक आदमी गुनहगार थोड़े है। हिन्दू, सिख, मुसलमान तीनों गुनहगार थे। अब तीनों गुनहगारों को दोस्त बनना है। हम तो धर्म के नाम पर अधर्मी बन गए। अगर हम तीनों धर्म पथ पर चलें तो किसी एक को डरने की आवश्यकता नहीं है।’’ जरुरी तो यह है कि सांप्रदायिक तनाव को सांप्रदायिक राजनीति में परिवर्तित होने से तुरंत रोका जाए। (हमसमवेत)
(उपरोक्त आर्टिकल में लेखक ने अपने स्वतंत्र विचार को संप्रेषित किया है)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अगर दुनिया में मिलावटखोर देशों की खोज-बीन होने लगे तो शायद हमारे भारत का नाम पहली पंक्ति में होगा। ऐसा नहीं है कि अन्य देशों में मिलावट के अपराध नहीं होते लेकिन कई देशों में मिलावटखोरों के लिए उसी सजा का प्रावधान है, जो किसी हत्यारे के लिए होती है। वास्तव में मिलावटखोर किसी भी हत्यारे से बड़ा हत्यारा होता है। मिलावटी खाद्य पदार्थों का सेवन करनेवाले सैकड़ों और हजारों लोग धीरे-धीरे मारे जाते हैं। यह ऐसी प्रक्रिया है कि न मरनेवाले का पता चलता है और न ही मारनेवाले का! सब काम चुपचाप होता रहता है। हत्यारा तो दो-चार आदमियों को मार देता है लेकिन मिलावटखोर तो दर्जनों हत्यारों का कुकर्म अकेला ही कर देता है।
ऐसे ही एक हत्यारे को हरियाणा के पलवल में पुलिस ने रंगे हाथ गिरफ्तार किया है। वह देसी घी के नाम पर तरह-तरह के रासायनिक पदार्थों को मिलाकर नकली घी बेचता था। वह कई बड़ी-बड़ी कंपनियों का खराब हुआ घी खरीदकर उन्हें सुंदर-सी शीशियों में भरकर भी बेचता था। यह घी छोटे-मोटे दुकानदारों को काफी कम कीमत पर दिया जाता था। वे नकली घी को मंहगे दाम पर बेचकर उससे मुनाफा जमकर कमाते थे।
यह घी कई बीमारियां पैदा कर सकता है। हृदय रोग, रक्तचाप और मधुमेह तो यह घी पैदा करता ही है, इससे कैंसर का खतरा भी बढ़ जाता है। किडनी और यकृत को निढाल करने में यह घी विशेष सक्रिय रहता है। गर्भवती महिलाओं के लिए भी यह घी खतरे की घंटी है। घी में मिलावट से उतने लोग प्रभावित नहीं होते, जितने आटे और नमक में मिलावट से होते हैं। आटा और नमक तो गरीब से गरीब आदमी को भी रोज चाहिए। अभी सूरत में ऐसे आटे और नमक के कई प्रसिद्ध ब्रांडो के नमूने पकड़े गए हैं, जिन्हें खाने से तरह-तरह की बीमारियां हो सकती हैं।
खाने-पीने की ऐसी सैकड़ों चीजें हैं, जिसमें हर दिन मिलावट होती रहती है। मिलावटी चीजें प्रतिदिन खानेवाले ऐसे करोड़ों लोग हैं, जो अपनी तबियत खराब होने पर ठीक से इलाज भी नहीं करवा सकते। ऐसा नहीं है कि सरकार इन मिलावटखोरों के खिलाफ सक्रिय नहीं है या कोई कार्रवाई नहीं करती। सरकार ने ‘खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006’ में मिलावटखोरों पर 10 लाख रु. जुर्माने और 6 माह से लेकर उम्र कैद तक का प्रावधान कर रखा है लेकिन क्या आज तक किसी को उम्रकैद हुई है?
10 लाख जुर्माने की बात अच्छी है लेकिन कितने मिलावटखोरों पर यह जुर्माना अभी तक हुआ है? वास्तव में यह कानून बेहद सख्त होना चाहिए। मिलावट की गंभीरता के आधार पर सजा भी होनी चाहिए। मिलावटखोरों में से दो-चार को भी फांसी की सजा दी जाए और उसका जमकर प्रचार किया जाए तो भावी मिलावटखोरों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ सकती है।
मिलावटी चीजों के कारखानों में काम करनेवालों और उन चीजों को बेचनेवाले दुकानदारों के लिए भी छोटी-मोटी सजा का प्रावधान हो तो उसका भी काफी असर पड़ेगा। वास्तव में मिलावट तो नर-संहार के बराबर अपराध है। सजा-ए-मौत ही इसका इसका सही जवाब है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
धर्म की रक्षा के नाम पर हिंसक भीड़ों के जो समूह सड़कों पर लगातार बढ़ते जा रहे हैं उन पर नियंत्रण क़ायम करने का क्षण आ पहुँचा है। इस काम में जितना ज़्यादा विलम्ब होगा स्थिति उतनी ही विस्फोटक होती जाएगी। जो चल रहा है उसे देखते हुए आगे आने वाले समय(मान लीजिए पंद्रह साल) के किसी ऐसे परिदृश्य की कल्पना प्रारम्भ कर देना चाहिए जिसमें किसी विचारधारा या धर्म विशेष की अगुआई करने वाले अराजक तत्वों की संगठित ताक़त संवैधानिक संस्थानों की सीढ़ियों पर जमा होकर उन पर अपना नियंत्रण क़ायम कर लेंगी !
मतलब यह कि जिन नागरिकों का वर्तमान में चयन विधर्मियों के आराधना स्थलों पर अतिक्रमण कर अपनी धर्म ध्वजाएँ फहराकर धार्मिक आतंक क़ायम करने के लिए किया जा रहा है वे ही किसी आने वाले समय में अनियंत्रित होकर संसद भवनों, विधान सभाओं और न्यायपालिका, आदि के परिसरों में भी अनाधिकृत प्रवेश कर अराजकता मचा सकते हैं ! उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में इन अनियंत्रित समूहों को वे सत्ताएँ भी क़ाबू में नहीं कर पाएँगी जो तात्कालिक राजनीतिक अथवा धार्मिक हितों के लिए उनका अभी अस्थायी अनुयायियों के तौर पर उपयोग कर रहीं हैं।
जिस परिदृश्य की यहाँ बात की जा रही है वह चौंकाने वाला ज़रूर नज़र आ सकता है पर उसके घट जाने को इसलिए असम्भव नहीं समझा जाना चाहिए कि दुनिया के देखते ही देखते सिर्फ़ सवा साल पहले अमेरिका जैसी पुख़्ता प्रजातांत्रिक व्यवस्था भी उसका निशाना बन चुकी है। अमेरिका के तैंतीस करोड़ नागरिक पंद्रह महीनों के बाद भी उस त्रासदी के आतंक से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं जो पिछले साल छह जनवरी को राजधानी वाशिंगटन में घटित हुई थी।
राष्ट्रपति पद के चुनावों में हार से बौखलाए डॉनल्ड ट्रम्प के कोई ढाई हज़ार समर्थकों की हिंसक भीड़ ने संसद भवन (कैपिटल हिल) पर उस समय क़ब्ज़ा कर लिया था जब उपराष्ट्रपति माइक पेंस की उपस्थिति में कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन में चुनाव परिणामों की पुष्टि के लिए मतों की गिनती का काम चल रहा था। व्हाइट हाउस में परिवार सहित बैठे ट्रम्प घटना के टेलिविज़न प्रसारणों के ज़रिए अपने हिंसक समर्थकों के सामर्थ्य पर गर्व कर रहे थे। ये समर्थक चुनाव परिणामों को हिंसा के बल पर ट्रम्प के पक्ष में उलटवाना चाहते थे। ट्रम्प आज तक स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि चुनावों में उनकी पराजय हुई है। ट्रम्प का आरोप है कि बाइडन ने उनकी जीत पर डाका डाला है।
जॉर्ज वाशिंगटन द्वारा 30 अप्रैल 1789 को पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद हुई अमेरिका के संसदीय इतिहास की इस पहली बड़ी शर्मनाक घटना ने समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया था। ग्यारह सितम्बर 2001 को जो हुआ वह अगर अमेरिका पर बाहरी आतंकी हमला था तो यह अंदर से हुआ आक्रमण था।छह जनवरी 2021 की घटना और उसमें ट्रम्प की भूमिका की चाहे जैसी भी जाँच वर्तमान में चल रही हो, हक़ीक़त यह है कि पूरे अमेरिका में ट्रम्प के समर्थकों की संख्या इस बीच कई गुना बढ़ गई है। हो सकता है ट्रम्प एक बार फिर राष्ट्रपति बन जाएँ। 2024 में वहाँ भी चुनाव है और हमारे यहाँ भी हैं।
ट्रम्प समर्थक कौन हैं ? ये वे गोरे सवर्ण हैं जो अपने ही देश में रहने वाले अश्वेत अफ़्रीकियों, एशियाइयों, मुसलिमों और अपने से अलग चमड़ी के रंग वाले लोगों से नफ़रत करते हैं, अपनी समृद्धि में इन वर्गों की भागीदारी का विरोध करते हैं और अमेरिका की सड़कों पर आए दिन नस्ली हमले करते हैं। ट्रम्प के नेतृत्व में ही इन्हीं अराजकतावादियों ने कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई में मास्क पहनने सहित समस्त प्रतिबंधों का विरोध किया था और टीके लगवाने से इनकार कर दिया था। सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए लोग जब प्रजातांत्रिक तरीक़ों से अपने आप को बचाए रखने में नाकामयाब होने लगते हैं तो फिर अपने हिंसक धार्मिक समर्थकों को सड़कों की लड़ाई में झोंक देते हैं।
सत्ता और संगठनों के मौन समर्थन और धार्मिक नेताओं की मदद से भीड़ की जिस राजनीति को संरक्षण प्राप्त हो रहा है वह न सिर्फ़ लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है एक ऐसी स्थिति की ओर देश को धकेलने का संकेत भी है जिसमें सड़कों की अराजकता सभी प्रकार के संवैधानिक बंधनों से बाहर हो जाएगी। ख़तरा यह भी है कि जो सत्ताएँ आज जिस भीड़ को संरक्षण दे रहीं हैं वे ही आगे चलकर उसके द्वारा बंधक बना ली जाएँगी।
हम इस सच्चाई से जान-बूझकर मुँह मोड़ रहे हैं कि पिछले कुछ महीनों या सालों के दौरान हमारे आसपास बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान, कारख़ाने अथवा रोज़गार उपलब्ध करवाने वाले संसाधन निर्मित होने के बजाय बड़े-बड़े धार्मिक स्थलों, ऊँची-ऊँची मूर्तियों और आराधना स्थलों का निर्माण ही ज़ोर-शोर से चल रहा है। धार्मिक समागमों और धर्म संसदों की बाढ़ आ गई है। संवैधानिक संस्थानों के समानांतर धर्मगुरुओं की सत्ताएँ स्थापित हो रही हैं।
नागरिकों को इस फ़र्क़ के भीतर झांकने नहीं दिया जा रहा है कि जो सच्चा आध्यात्मिक भक्त अपनी भूख-प्यास की चिंता किए बग़ैर सैंकड़ों कोस पैदल चलकर ईश्वर के दर्शन के लिए दुर्गम स्थलों पर पहुँचता है या किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर के कोने में चुपचाप बैठा हुआ ध्यान और तपस्या में लीन रहता है. वह सड़क की भीड़ में शामिल उस ‘भक्त’ से भिन्न है जिसके पास अपना कोई चेहरा या पता नहीं है; जो हमेशा ‘अज्ञात’ बना रहता है। इस अज्ञात नागरिक के पास सुनने के लिए कान नहीं होते, सिर्फ़ दो आँखें होतीं हैं जो किसी ईश्वर को नहीं बल्कि अपने धार्मिक शिकार को ही तलाशती रहती हैं। इस भीड़ के नायक भी अंत तक अज्ञात बने रहते हैं। वे अपने अनुयायियों का चयन उनकी आध्यात्मिक चेतना के बजाय उनके शारीरिक सामर्थ्य के आधार पर करते हैं।
हमें भयभीत होना चाहिए कि अराजक भीड़ों के समूह अगर इसी तरह सड़कों पर प्रकट होकर आतंक मचाते रहे तो न सिर्फ़ क़ानून-व्यवस्था के लिए राष्ट्र्व्यापी संकट उत्पन्न हो जाएगा, उसमें शामिल होने वाले लोग धर्म और राष्ट्रवाद को ही अपनी जीविका का साधन बनाकर नागरिक समाज में हिंसा का साम्राज्य स्थापित कर देंगे। ये ही लोग फिर सत्ता में भागीदारी की माँग भी करने लगेंगे। जो भीड़ अभी नागरिकों के लिए पहनने और खाने के क़ानून बना रही है वही फिर देश को चलाने के दिशा-निर्देश भी जारी करने लगेगी! संसद और विधान सभाओं में आपराधिक रिकार्ड वाले सदस्यों की वर्तमान संख्या को अभी शायद पर्याप्त नहीं माना जा रहा है !
धर्म की रक्षा और राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह की हिंसा का प्रदर्शन हो रहा है उसे लेकर प्रधानमंत्री की खामोशी पर भी अब सवाल उठने लगे हैं। आरोप लगाए जा रहे हैं कि जो कुछ चल रहा है उसके पीछे मंशा या तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को और मज़बूत करने की है या फिर महंगाई और बेरोज़गारी सहित अन्य बड़ी समस्याओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए विघटनकारी उपक्रमों को प्रोत्साहित किया जाना है। इस काम में मुख्य धारा का मीडिया भी सत्ता प्रतिष्ठानों की मदद कर रहा है। सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री अपनी खामोशी तोड़कर कोई जवाब देंगे ? उनका जवाब सुनने के लिए पूरा देश प्रतीक्षा करता हुआ क़तार में है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रामनवमी और हनुमान जयंति के अवसरों पर देश के कई प्रदेशों में हिंसा और तोड़-फोड़ के दृश्य देखे गए। उत्तर भारत के प्रांतों के अलावा ऐसी घटनाएं दक्षिण और पूर्व के प्रांतों में भी हुईं। हालांकि इनमें सांप्रदायिक दंगों की तरह बहुत खून नहीं बहा लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि आज़ाद भारत में ऐसी हिंसात्मक घटनाएं कभी कई प्रदेशों में एक साथ हुई हों। ऐसा होना काफी चिंता का विषय है।
यह बताता है कि पूरे भारत में सांप्रदायिक विद्वेष की कोई ऐसी अदृश्य धारा बह रही है, जो किसी न किसी बहाने भडक़ उठती है। विरोधी दलों ने संयुक्त बयान देकर पूछा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे पर चुप क्यों हैं? वे कुछ बोलते क्यों नहीं हैं? इस प्रश्न का भावार्थ यह है कि इन हिंसात्मक कार्रवाइयों को भाजपा सरकार का आशीर्वाद प्राप्त है। विरोधी दलों के नेता इन कार्रवाइयों के लिए सत्ताधारी भाजपा को जिम्मेदार ठहराना चाहते हैं।
यहां यह सवाल भी विचारणीय है कि क्या इस तरह के सांप्रदायिक दंगे और हिंसात्मक घटना-क्रम सिर्फ भाजपा शासन-काल में ही होते हैं? कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों के शासनकाल में ऐसी घटनाएं क्या बिलकुल नहीं हुई हैं? यह हमारे भारतीय समाज का स्थायी चरित्र बन गया है कि हम अपने राष्ट्र से भी कहीं ज्यादा महत्व अपनी जात और अपने मज़हब को देते हैं। 1947 के बाद जिस नए शक्तिशाली और एकात्म राष्ट्र का हमें निर्माण करना था, उस सपने का थोक वोट की राजनीति ने चूरा-चूरा कर दिया।
थोक वोट के लालच में सभी राजनीतिक दल जातिवाद और सांप्रदायिकता का सहारा लेने में जऱा भी संकोच नहीं करते। भारत में ऐसे लोग सबसे ज्यादा हैं, जिनका नाम सुनते ही उनमें से उनकी जात और मजहब का नगाड़ा बजने लगता है। जो कोई अपनी जात और मजहब को बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें उसकी पूरी आजादी होनी चाहिए लेकिन उनके नाम पर घृणा फैलाना, ऊँच-नीच को बढ़ाना, दंगे और तोड़-फोड़ करना कहां तक उचित है?
यही प्रवृत्ति देश में पनपती रही तो भौगोलिक दृष्टि से तो भारत एक ही रहेगा लेकिन मानसिक दृष्टि से उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। यह खंड-खंड में बंटा भारत क्या कभी महाशक्ति बन सकेगा? क्या वह अपनी गरीबी दूर कर सकेगा? मुझे तो डर यह लगता है कि 22 वीं सदी पूरी होते-होते कहीं ऐसा न हो जाए कि भारत के हर प्रांत और हर जिले को सांप्रदायिक और जातिवादी आधार पर बांटने की मांग पनपने लगे। आज भारत की राजनीति में अनेक सक्रिय दल ऐसे हैं, जिनका आधार शुद्ध संप्रदायवाद या शुद्ध जातिवाद है।
यह राष्ट्रीय समस्या है। इसका समाधान अकेले प्रधानमंत्री या उनका अकेला राजनीतिक दल कैसे कर सकता है? इस पर तो सभी दलों की एक राय होनी चाहिए। अकेले प्रधानमंत्री ही नहीं, सभी दलों के नेताओं को मिलकर बोलना चाहिए। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उनकी आवाज़ सबसे बुलंद होनी चाहिए। किसी भी नेता को वोट बैंक की हानि से डरना नहीं चाहिए। वे अपने वोट बैंक के चक्कर में भारत की एकता बैंक का दिवाला न पीट दें, यह सोच जरुरी है।
भारत-जैसा विविधतामय देश दुनिया में कोई और नहीं है। जितने धर्म, जितनी जातियां, जितनी भाषाएं, जितने खान-पान, जितनी वेश-भूषाएं और जितने रंगों के लोग भारत में प्रेम से रहते हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं रहते। क्या ऐसे करोड़ों भारतवासी मु_ीभर उग्रवादियों के हाथ के खिलौने बनना पसंद करेंगे? (नया इंडिया की अनुमति से)
-रवीश कुमार
धार्मिक जुलूस में आपको उलछते-कूदते देख अच्छा लग रहा है। जिस हिन्दी भाषी समाज ने आप हिन्दी मीडियम वालों को किनारे सरका दिया था, उस समाज की मुख्यधारा में आप लौट आए हैं। क्या शानदार वापसी की है। एक रंग की पोशाक पहन ली है, हाथों में तलवारें हैं, जुबान पर गालियां हैं। जुलूस का नाम रामनवमी की शोभायात्रा है। अशोभनीय हरकतों को आप लोगों ने आज के दौर में सुशोभित कर दिया। आपकी इस कामयाबी को मैंने कई वीडियो में देखे तब जाकर सारी शंकाएं दूर हो गईं कि ये वही हैं, हमेशा फेल माने जाने वाले हिन्दी मीडियम के युवा,जिन्हें समाज ने तिरस्कार दिया, आज धर्म रक्षक बनकर लौट आए हैं। इनके समर्थन में पूरा समाज खड़ा है। सरकार भी है।
मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि उन वीडियो में कोई डीपीएस या श्रीराम स्कूल जैसे महंगे पब्लिक स्कूलों के बच्चे भी रहे होंगे लेकिन देखने से तो यही लगा कि ज़्यादातर वही होंगे जो गणित और अंग्रेजी से परेशान रहते हैं। जिन्हीं हिन्दी भी ठीक से लिखनी नहीं आती मगर गाली देने आती है। मैंने कई वीडियो में गालियों के उच्चारण सुने। एकदम ब्रॉडकास्ट क्वालिटी का उच्चारण था और ब्रॉडकास्ट हो भी रहा था। जिस समाज में उदारता कूट-कूटकर भरी होती है उस समाज में उच्चारण भी कूट-कुटाकर साफ हो जाता है।
हिन्दी मीडिया के तिरस्कृत छात्रों ने यह उपलब्धि भाषा के आधार पर हासिल नहीं की है। धर्म के आधार पर की है मगर धर्म के शास्त्रों और दर्शनों का ज्ञान हासिल कर नहीं की है। दूसरे धर्म की मां-बहनों को गाली देकर हासिल की है। यहां भी आप हिन्दी मीडियम वालों ने कुंजी पढक़र पास होने की मानसिकता का प्रमाण दे ही दिया। पूरी किताब की जगह गालियों की कुंजी से धर्मरक्षक बन गए। कोई बात नहीं। अभी आपकी हाथों में तलवारें हैं तो चुप रहना बेहतर है। इसलिए मैं आपकी प्रशंसाओं में श्रेष्ठ प्रशंसा भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा हूं।
हिन्दी प्रदेशों की आर्थिकी के कारण आपकी शारीरिक कमजोरी इन जुलूसों में भी झलक रही थी। कुपोषकता इतनी आसानी से नहीं जाती है लेकिन समूह में आप जिस तरह से उछल-उछलकर गालियां दे रहे थे, विद्याकसम, पता नहीं चल रहा था कि आपमें किसी प्रकार की शारीरिक कमजोरी है। आपने हिन्दी प्रदेशों की दीवारों पर लिखीं मर्दाना कमजोरी की दवाओं के विज्ञापनों को भी परास्त कर दिया है। जिनमें हिन्दी में वीर्यहीनता को कोसा जाता है। जब आप तलवार उठाए दूसरे धर्म के लोगों को गालियां दे रहे थे तभी मैंने विश्व गुरु भारत के क्षितिज पर एक नई वीरता के उदय की उषा किरणों का साक्षात दर्शन कर लिया। प्रणाम वीरवर।
हमने हिन्दी साहित्य की किताब में राधा कृष्ण की एक कहानी पढ़ी थी। भामिनी भूषण भट्टाचार्य शारीरिक कमजोरी के शिकार थे। जीवन में बहुत कुछ बनना चाहा, वकील भी बने, वकालत नहीं चली तो व्यायाम करने लगे। एक दिन उनके मित्र ने देखा कि कमरे के भीतर व्यायाम कर रहे हैं। उठा-पठक चल रही है। पूछने पर भामिनी भूषण भट्टाचार्य ने कहा कि मुझे कोई भला क्या पटकेगा, बल्कि मैं ही अभी पचास काल्पनिक पहलवानों को कुश्ती में पछाड़ कर आया हूं। मेरे प्यारे हिन्दी मीडियम वालों तलवार लिए आपको देखा तो राधाकृष्ण की कहानी की ये पंक्तियां बरबस याद हो गईं। इसमें भट्टाचार्य जी ताकत के जोश में बताने लगते हैं कि जल्दी ही मोटरें रोकने लगेंगे। लेकिन जब उनके मित्र ने गाौर से देखा तो शरीर में कोई तब्दीली नहीं आई थी। बिल्कुल वही के वही थे। लेकिन भट्टाचार्य मानने को तैयार नहीं थे कि व्यायाम के बाद भी वे दुबले ही हैं। लगे चारों तरफ से शरीर को दिखाने कि कैसे तगड़े हो गए हैं। अंत में मित्र ने कह दिया कि तुम गामा पहलवान से भी आगे निकल जाओगे। तब भामिनी भूषण भट्टाचार्य की एक पंक्ति है। अभी गामा की क्या बात, थोड़े दिनों में देखना, मैं बंगाल के सुप्रसिद्ध पहलवान गोबर से भी हेल्थ में आगे बढ़ जाऊंगा।
इस पर लेखक लिखते हैं कि विचित्र विश्वास था। वह उल्टा मित्र को ही गरियाने लगे कि तुम्हारी तरह किरानी बनकर झक नहीं मारना है। मैं बड़ा आदमी होना चाहता हूं। आज मेरा नाम है भीम भंटा राव कुलकर्णी, व्यायाम विशारद, मुगदराविभूषि, डंबलद्वयी, त्रिदंडकारक। इस विस्तृत परिचय पत्र में मैं अपनी तरफ से तलवारधारी, डीजे नर्तक, गाली वाचक जोड़ देता हूं ताकि हिन्दी माध्यम के युवाओं का सीना एक इंच और फूल जाए।
जैसा कि हर कामयाबी में होता है, आपकी इस नवीन कामयाबी में भी एक कमी रह गई। समाज के सारे युवा आपके साथ नहीं आए जबकि धर्म की रक्षा और बदला लेने का काम उनका भी था। खासकर मिडिल क्लास के मां-बाप ने अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में डालकर उन्हें धर्म विमुख कर दिया है। ऐसा नहीं है कि वे पूजा अर्चना नहीं करते हैं, खूब करते हैं मगर तलवार लेकर दूसरे धर्म की मां-बहनों को गालियां देने सडक़ों पर नहीं उतरते हैं। अपने बीच मौजूद ऐसे स्वार्थी तत्वों की पहचान कर लीजिए। धर्म की लड़ाई में असली ट्रॉफी यही लोग ले जाते हैं जब सडक़ पर उतरने की जगह सोशल मीडिया पर लिख कर पोपुलर हो जाते हैं और इंजीनियर तो हो ही जाते हैं। कुछ डॉक्टर भी होते हैं और कुछ अफसर भी। आप देखिएगा जल्दी ही ये सारे इंग्लिश मीडियम वाले अपने मोहल्ले से गायब होने लगेंगे। फेसबुक पर पूजा के पंडाल को मिस करेंगे लेकिन पंडाल लगाने की जिम्मेदारी आपके महान कंधों पर छोड़ जाएंगे।
जब अमरीका लंदन से लौटेंगे तो मोहल्ले में सस्ती परफ्य़ूम से लेकर घड़ी बांट कर पोपुलर हो जाएंगे। अपनी कहानी सुनाएंगे और लोग चाव से सुनेंगे। कब तक आप उन्हें दोस्ती के नाम पर स्टेशन से घर लाने का काम करेंगे। ये काम आपने अच्छा चुना है। अब मैसेज कर दीजिएगा कि आप धर्म की रक्षा में एक शोभा यात्रा में निकले हैं। तलवारें लेकर दूसरे धर्म की मां-बहनों को गालियां दे रहे हैं। आप ही धर्म की रक्षा के अवैतनिक प्रभारी हैं। स्कूल के दिनों में संस्कृत की कक्षा में मुश्किल मंत्रों और श्लोकों के कारण आप धर्म विमुख हो गए थे। लेकिन मंत्रों की जगह गालियों के इस्तेमाल ने आपको फिर से धर्मोन्मुख कर दिया है।
अब रक्षा का भार आप पर है। आप नहीं होंगे तो धर्म नहीं बचेगा। तलवारें नहीं बचेंगी। गालियां नहीं बचेंगी। आपने बहुत सह लिया। गणित और अंग्रेजी की कमज़ोरी का हिसाब अब धर्म की रक्षा के काम से निकालना है। आपका टाइम आ गया है। आप की शोभा बढ़ रही है। आपके चलते हिन्दी मीडियम वालों की पूछ बढ़ रही है। इंग्लिश मीडियम में पढऩे वाले हिन्दी समाज के लडक़े बाद में पछताएंगे कि जब धर्म की रक्षा में गालियां देने का वक्त था तो वे कोचिंग कर रहे थे। धर्म को अगर खतरा है तो इन प्राइवेट स्कूलों में पढऩे वाले युवाओं से हैं जो व्हाट्सऐप में नफरती मीम तो फॉरवर्ड करते हैं लेकिन कभी सडक़ पर उतर कर गालियाँ नहीं देते। इंग्लिश मीडियम वाले मोर्चे और मुल्क से भागे हुए लोग हैं। निर्लज्ज इंग्लिश मीडियम वाले।
आपका
वही जिसे आप हमेशा से पराया मानते रहे हैं
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जो जवाबी खत लिखा है, उसे देखकर मुझे लगता है कि दोनों देशों के बीच पिछले तीन साल में जो संवादहीनता पनप गई थी, अब शायद वह टूट जाए। मोदी ने शाहबाज को बधाई का जो पत्र लिखा था, उसमें यही इच्छा व्यक्त की थी कि दोनों देशों के बीच ऐसे संबंध रहने चाहिए, जिनसे दक्षिण एशिया के क्षेत्र में शांति और स्थायित्व का वातावरण बने। शाहबाज ने एक कदम आगे बढ़कर कहा है कि दोनों देशों को मिलकर गरीबी और बेकारी के खिलाफ युद्ध लड़ना चाहिए।
दोनों प्रधानमंत्रियों ने एक-दूसरे को बहुत ही सराहनीय बातें कही हैं लेकिन दोनों की मजबूरियां हैं। उन्हें वे व्यक्त न करें तो दोनों देशों में उनके विरोधी उनकी जान खा जाएंगे। इसीलिए शाहबाज अपने खत में कश्मीर का मुद्दा उठाए बिना नहीं रहे और नरेंद्र मोदी आतंकवाद का! इन मुद्दों ने ही भारत-पाक संबंधों में खटास पैदा कर रखी है। इमरान खान जब सत्तारुढ़ हुए थे तो उन्होंने कहा था कि भारत-पाक संबंध सुधारने के लिए यदि भारत एक कदम आगे बढ़ाएगा तो हम दो कदम आगे बढ़ाएंगे लेकिन 2019 में पुलवामा में पाकिस्तान के हवाई हमले और भारत के बालाकोट में जवाबी हमले ने जो तनाव पैदा किया था, उसे खतरे के निशान तक पहुंचाने में कश्मीर से धारा 370 की बिदाई ने सख्त भूमिका अदा की। दोनों देशों का आपसी व्यापार ठप्प हो गया और दोनों के राजदूतावासों में आजकल उच्चायुक्त भी नहीं हैं। ऐसा लगता है कि इमरान सरकार ने 2019 में कूटनीति का मार्ग छोड़कर अपनी सेना को खुश रखने का मार्ग ज्यादा पसंद किया लेकिन शाहबाज शरीफ के नेतृत्व में बनी यह नई सरकार चाहे तो वह काम कर सकती है, जो आज तक पाकिस्तान की कोई भी सरकार नहीं कर सकी है। इस नई सरकार को सेना का भी पूरा समर्थन प्रतीत होता है।
यह तो मैं पहले ही लिख चुका हूं कि जब-जब शरीफ बंधुओं से मेरी मुलाकात हुई, शाहबाज को हमेशा मैंने ज्यादा नरम और विनम्र पाया। इसके अलावा इनके पूज्य पिता मोहम्मद शरीफ मुझे बताया करते थे कि विभाजन के बाद वे कई वर्षों तक रोज सुबह अपने गांव जाति उमरा, जो कि अमृतसर में है, जाते थे और बस में भरकर उसके मजदूरों को ले आते थे। जैसा कि आसिफ जरदारी ने कहा था, हर पाकिस्तानी की तरह, उनके दिल में भी एक हिंदुस्तान धड़कता था। जब नरेंद्र मोदी पहली बार शपथ ले रहे थे तो प्रधानमंत्री मियां नवाज़ ने दो-तीन दिन कोई जवाब नहीं दिया तब मैंने उनके वरिष्ठ साथी सरताज अजीज को बताया कि सभी पड़ौसी देशों के प्रधानमंत्रियों को बुलाने की पेशकश मेरी ही है। उन्हें आना ही चाहिए। वे दोनों आए भी। 2014 में इस्लामाबाद में जब मियां नवाज़ से मेरी लंबी भेंट हुई तो वे यही जानना चाहते थे कि हमारे नए प्रधानमंत्री के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए क्या-क्या पहल की जाए। लेकिन अब मौका पहले से भी बढ़िया है, जबकि दोनों देशों के संबंधों में नई शुरुआत हो सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
(डाॅ. वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
-राहुल कुमार सिंह
18 अप्रैल को प्रतिवर्ष विश्व विरासत दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2022 के लिए थीम है ‘विरासत और जलवायु‘। सामान्यतः विरासत का आशय मानवकृत उदाहरणों से जोड़ लिया जाता है, किंतु इसके साथ प्राकृतिक विरासत, जल और वायु के महत्व को रेखांकित करने के लिए ही संभवतः यह इस वर्ष के थीम में ‘जलवायु‘ विशेष रूप से है।
विरासत के अंतर्गत प्राकृतिक, मानवकृत-सांस्कृतिक तथा मिश्रित विरासत शामिल है। यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थलों के चयन के लिए मुख्यतः मानव रचनात्मक प्रतिभा, वास्तुकला आदि, मानव-इतिहास के महत्वपूर्ण चरण की उत्कृष्ट कृति/ घटनाओं या परंपराओं, विचारों या विश्वासों के साथ, उत्कृष्ट सार्वभौमिक महत्व के कलात्मक और साहित्यिक कार्यों का प्रत्यक्ष या मूर्त रूप/ पर्यावरण और मानव संपर्क के विशिष्ट उदाहरण/ पारिस्थितिक जैव समुदायों की जैविक प्रक्रिया और विकास का प्रतिनिधित्व करने वाले उत्कृष्ट उदाहरण, प्राकृतिक स्थितियां/ उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य की संकटग्रस्त प्रजातियां को शामिल किया जाता है।
इस प्रकार जंगल, नदी, पहाड़, जल-प्रपात आदि नैसर्गिक सौंदर्य स्थल मूर्त विरासत है। साथ ही पुरातात्विक और ऐतिहासिक मंदिर, भवन, संरचनाएं भी मूर्त विरासत हैं। संस्कृति और परंपरा, जिसमें नृत्य, संगीत, खान-पान, जीवन-शैली, लोकाचार, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार आदि सभी शामिल है, अमूर्त विरासत है। दूसरे शब्दों में नदी-पहाड़, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, उनका परिवेश, स्मारक, कला, गीत-संगीत, परंपरा, जीवन-शैली, जिनमें मानव सभ्यता के सुदीर्घ इतिहास और उद्यम की सौंदर्यमूलक अभिव्यक्ति हो, वह सभी हमारी विरासत है।
विरासत किसी एक व्यक्ति की नहीं, अपितु पूरी सभ्यता और समाज की थाती होती है। यह मात्र पर्यटन और मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि मानवता के उच्चतर मूल्यों और प्रतिमानों की पहचान है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी, बरसों से चली आ रही विरासत को आने वाली पीढ़ी के हाथों सौंपना हर पीढ़ी का दायित्व है। ऐसे स्थलों और विरासत के इन उदाहरणों के प्रति जागरूकता और संतुलन आवश्यक है। कई ऐसे विरासत स्थल है, जो महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी उपेक्षित रह जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ लोकप्रिय स्थलों में पर्यटकों की भारी संख्या पहुंचती है, साथ ही अनियंत्रित विकास के कारण उस विरासत को क्षति पहुंचने की आशंका बनी रहती है। इनका ध्यान रखा जाना आवश्यक हो जाता है।
अपनी विरासत की स्थिति, उसके संरक्षण के पक्षों और संभावनाओं पर विचार करते हुए उल्लेखनीय है कि नई दिल्ली में आयोजित भारतीय पुरातत्तव सर्वेक्षण की 150वीं वर्षगांठ समारोह में प्रधानमंत्री जी ने कहा था- ‘शहरीकरण और जनसंख्या के विस्तार के दबावों से देश भर में हमारे ऐतिहासिक स्मारकों के लिए खतरा पैदा हो गया है।‘ ... इसके लिए दूर दृष्टि, उद्देश्य के प्रति निष्ठा और विभिन्न सम्बद्ध पक्षों के सम्मिलित प्रयासों की आवश्यकता होगी। मुझे उम्मीद है कि आप इस महत्वपूर्ण प्रयास के दायित्व को संभालेंगे।‘ निसंदेह यह समूचे विरासत पर लागू होता है।
इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों समाचार आया कि नीति आयोग के ‘ट्रांसफार्मेशन ऑफ एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट प्रोग्राम‘ के अंतर्गत शामिल छत्तीसगढ़ के 10 आकांक्षी जिले हैं, इसके संबंध में मुख्यमंत्री जी ने प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखा कर विश्वास व्यक्त किया है कि हमारे वनांचल तथा गांव के जीवन में संस्कृति और परंपराओं का विशेष योगदान होता है, जिससे वहां के लोगों के जीवन में समरसता, उत्साह एवं स्वावलंबन का भाव रहे, इसलिए आकांक्षी जिलों की अवधारणा में सांस्कृतिक उत्थान के बिन्दु को भी यथोचित महत्व एवं ध्यान दिया जाना चाहिए। उपरोक्त इंडीकेटरों को भी जोड़े जाने पर आकांक्षी जिलों के बहुमुखी विकास में किये जा रहे सभी प्रयासों पर भी ध्यान रहेगा और जिस आशा के साथ यह आकांक्षी जिलों की पृथक मॉनीटरिंग व्यवस्था शुरू की गई है वह भी सफल होगी।
दूरद्रष्टा राजनेताओं और नीतियों के कियान्वयन की दृष्टि से उल्लेखनीय है कि 73वें संविधान संशोधन, पंचायती राज अधिनियम के साथ 11वीं अनुसूची को सम्मिलित किया गया, इस अनुसूची में पंचायतों के 29 कार्यकारी विषय-वस्तुओं में से ‘बाजार एवं मेले, सांस्कृतिक गतिविधियां और सार्वजनिक संपत्ति का रखरखाव‘ को सीधे विरासत संरक्षण से जोड़ कर देखा जा सकता है। अधिनियम की विषय-वस्तु से स्पष्ट है कि महान विरासत के साथ, गांव-बस्ती, नगर के पारा-मुहल्ला में आसपास फैली विरासत और उसके संरक्षण का भी अपना महत्व है।
इस दृष्टि से विशिष्ट प्राकृतिक संरचना, जीव-जंतु, पेड़-पौधे, नदी-नाले का उद्गम, संगम और अन्य जल-स्रोत नदी-नालों के घाट, गुड़ी आदि स्थानीय आस्था-उपासना स्थल महत्वपूर्ण होते हैं। पुराने तालाब, डीह-टीला आदि की जानकारी के साथ विरासत स्थलों का संकेत मिलता है। कम प्रचलित मार्ग, पैडगरी रास्तों के साथ इतिहास और परंपरा के प्रमाण सुरक्षित रहते हैं। हरेक गांव में घटना, पर्व, परंपरा, संस्था आदि की अपनी विरासत, मान्यताओं और विश्वास से जुड़ी गौरव-गाथा होती ही है, यही विरासत के विशिष्ट उपादान हैं। स्थानीय निकाय स्तर पर अपनी अस्मिता, गौरव की पहचान और दस्तावेजीकरण कर उनके संरक्षण में स्थानीय सहभागिता और उत्तरदायित्व आवश्यक है।
ध्यान रहे कि सरकारों की प्राथमिकता रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क और कानून-व्यवस्था है। इसलिए धरोहर की रक्षा के लिए प्रत्येक नागरिक को इसे पुनीत कर्तव्य मानते हुए स्वयं जिम्मेदारी लेनी होगी। जिस प्रकार हम अपनी खुशियों और अपनी सुखद स्मृतियों को बचा कर रखना चाहते हैं, उसी प्रकार का लगाव रखते हमें अपने धरोहर के प्रति सजगता आवश्यक है। इसके संरक्षण में स्वयंसेवी संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों, उद्योगों, जन-प्रतिनिधियों तथा आवश्यक होने पर दबावपूर्वक शासन/एजेंसियों का सहयोग आवश्यक है, तभी अपनी विरासत पर गौरव और उनका सम्मान करते हुए, बेहतर संरक्षित किया जा सकेगा।
( लेखक पुरातत्व एवं संस्कृति अध्येता हैं)
-अरुण माहेश्वरी
बांग्ला नववर्ष पोयला बैशाख की सभी मित्रों को बधाई।
हम अपने जीवन में ही पोयला बैशाख से जुड़ी बंगवासियों की अस्मिता के पहलू के नाना आयामों और उनके क्रमिक क्षरण के साक्षी रहे हैं। हर साल बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं में हम इस पर एक प्रकार के विलाप के स्वरों को भी सुना करते हैं।
किसी जमाने में पूरब और पश्चिम, दोनों बंगाल में यह अंग्रेजी नव वर्ष की तुलना में कम उत्साह और उद्दीपन के साथ घर-घर में नहीं मनाया जाता था। बांग्ला अखबारों के पन्ने तो आज भी इस अवसर के आयोजनों के विज्ञापनों से भरे होते हैं। अर्थात सार्वजनिक आयोजनों और उत्सवों में शायद बहुत ज़्यादा कमी नहीं आई है। बल्कि इनका शोर शायद पहले से कुछ बढ़ा ही है।
किसी वक्त यह बंगाल के हर दुकानदार के लिए नए बही-खाते का उत्सव का दिन होता था। दुकान पर आने वाले हर ग्राहक का मिठाई और बांग्ला कैलेंडर के उपहार से स्वागत किया जाता था। अतिथियों को आमंत्रित भी किया जाता था।
कैलेंडर के व्यवसाय में बांग्ला कैलेंडर यहाँ एक बड़ी बिक्री का सीजन माना जाता था। यह अंग्रेजी कैलेंडर से कम नहीं होता था। इस दिन आम दुकानों पर भी लाखों की संख्या में बांग्ला पंजिका बिका करती थी।
अब नया खाता सरकार के आयकर के असेसमेंट ईयर से बंध गया है। नया खाता का कोई मायने नहीं बचा है। बांग्ला कैलेंडर का प्रकाशन भी सीमित होकर बस एक रस्म अदायगी बन कर रह गया है।
यह सच है कि हम जैसे कोलकाता निवासी ने तो बांग्ला महीनों के नाम के जरिए ही विक्रम संवत् के महीनों के नाम जाने। आज तो बंगाब्द और विक्रम संवत् के मास तो दूर की बात, नई पीढ़ी के लिए दिनों के हिंदी नाम तक याद रखना भी दुश्वार हो रहा है। महीनों के अंग्रेज़ी नाम तो हिंदी में रोमन अंकों की तरह ही अपना लिए गए हैं।
बहरहाल, रवीन्द्रनाथ के वक्त तक के बांग्ला साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें अंग्रेजी वर्ष का उल्लेख ही नहीं होता था। खुद रवीन्द्रनाथ की कविताओं पर सिर्फ बंगाब्द के अनुसार तिथियाँ मिलती हैं, जिनके आधार पर उन्हें अंग्रेजी वर्ष के अनुसार समझने में खासी मशक़्क़त करनी पड़ती है । एक अंग्रेजी वर्ष में दो बांग्ला वर्ष शामिल रहते हैं। हम सबकी दिक्कत यह है कि हमारी इतिहास के कालखंडों की अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार पहचान करने की ऐसी आदत बन गई है कि इसके लिए जैसे और कोई अतिरिक्त परिश्रम का औचित्य नहीं लगता। यह समाज की सामूहिक चेतना की ही हमारे विचार और व्यवहार में भी काल और स्थान के स्तर पर सर्वकालिक नियमों की ऐसी ही अभिव्यक्ति हैं जिनसे हमारा अवचेतन क्रियाशील हुआ करता है। किसी दूसरी काल पंजिका के आधार पर विवेचन करने के लिए हमें उस काल की पहचान के चिन्हों का अनुवाद असहज करता है।
आज हम जिसे जातियों की अस्मिताओं का संकट कहते हैं, उनमें काल बोध के संकेतीकरण का यह पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। और शायद इसी के प्रति संवेदनशीलता के कारण सारी दुनिया में स्थानीय कैलेंडरों के अनुसार भारी धूमधाम से वहाँ के नव वर्ष के उत्सव मनाए जाते हैं। पर, व्यावहारिक जीवन में हर जगह अंग्रेजी वर्ष की गणनाओं का ही धड़ल्ले से उपयोग किया जाता है। सार्वभौमिकता के गहरे सांस्कृतिक आग्रहों के बावजूद अंग्रेजी वर्ष के अनुसार चलने की बाध्यता से किसी की मुक्ति जैसे संभव नहीं लगती है!
इस प्रकार, कहना न होगा, हर बीतते दिन के साथ, काल के भाषाई अथवा स्थानीय गणितीय चिन्हों से भी जुड़ा हुआ हमारा जातीय बोध जितना हमसे छूट रहा है, उतना ही हमारे जातीय अहम् का विलय अंकगणित के कुछ वैश्विक चिन्हों में पूरी तरह सिमटता चला जा रहा है। अस्मिता का गणितीय संकेतों में सिमटना मनुष्य के दर्शन की भाषा के विकास की शायद वह पराकाष्ठा है जिसमें उसका अंतर मानो अपने को पूरी तरह से उलीचकर बाह्य संकेतकों में सिमट जाने को प्रेरित रहता हैं। इसीलिए गणित को ईश्वर की भाषा कह जाता है क्योंकि इसमें सत्य और उसके प्रकट रूप के बीच कोई फर्क नहीं होता है। माना जाता है कि हर अस्मिता का सत्य इसमें अपने को पूरी तरह से उलीच देता है। उसका अव्यक्त कुछ भी शेष नहीं रहता है।
मनुष्य के नाते, प्रकृति पर अपनी खास पहचान के हस्ताक्षर वाले अहम् के पुंज के नाते, अपने क्रमिक विरेचन के इन स्वरूपों से हम भले कितने ही विचलित क्यों न हो, पर जीवन में जिसे परमार्थ की सर्वकालिकता कहते हैं, वह वास्तव में यही तो है। परम की प्राप्ति का कोई भी स्वरूप आत्म को तिरोहित किए बिना संभव नहीं हो सकता है। तब फिर काल बोध के निजी प्रतीक चिन्हों के विलोपन पर कोई विलाप क्यों?
जैसे मिथकीय कथाओं का तभी तक अस्तित्व या कोई अर्थ होता है, जब तक उन पर सामूहिक रूप में विश्वास किया जाता है। अन्यथा उन्हें कितना भी सहेज कर क्यों न रखा जाए, उनसे कुछ नीति-नैतिकताओं के संकेतों के अलावा मनुष्य के जीवन के यथार्थ का बहुत कुछ जाहिर नहीं होता है । सनातन धर्म की असल शिक्षा तो यही है । इसमें कथा का हर तत्व किसी बाहरी क्षेपक तरह ही होता है जिन्हें रोज बनाया और रोज बिगाड़ा भी जा सकता है।
सात करोड़ की आबादी वाले शांतिप्रिय मध्य प्रदेश में भी क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तर्ज़ पर किसी कैराना की तलाश की जा रही है और मीडिया इस काम में विघटनकारी ताक़तों की मदद कर रहा है ? साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील इंदौर के कुछ हिंदी अख़बारों ने अपने पहले पन्ने पर फ़ोटो के साथ एक समाचार प्रमुखता से प्रकाशित किया कि दंगा-प्रभावित खरगोन (इंदौर से 140 किलो मीटर) के बहुसंख्यक वर्ग के रहवासी इतनी दहशत में हैं कि वे प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए गए अपने आवासों को बेचना चाहते हैं। अख़बारों ने खरगोन से कई परिवारों के पलायन का समाचार भी प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
अख़बारों ने खबर के साथ जो चित्र प्रकाशित किया उसमें सरकारी योजना के तहत बने मकान की दीवार पर ‘’यह मकान बिकाऊ है’’ की सूचना के साथ सम्पर्क के लिए एक मोबाइल नम्बर भी मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है।दो प्रतिस्पर्धी अख़बारों ने एक ही मकान पर अंकित सूचना को सम्पर्क के लिए एक ही मोबाइल नम्बर के हवाले से दो अलग-अलग मालिकों के नामों और पतों की जानकारी से प्रकाशित किया है।मोबाइल नम्बर के प्रकाशन ने निश्चित ही देश भर के ख़रीददारों को बिकने के लिए उपलब्ध मकानों की सूचना और मध्य प्रदेश की ताज़ा साम्प्रदायिक स्थिति से अवगत करा दिया होगा।विवरण उसी खरगोन शहर के हालात का है जिसके ज़िले में देवी अहिल्याबाई होल्कर के जमाने की राजधानी महेश्वर नर्मदा नदी के तट पर स्थित है।
वे तमाम लोग जो खरगोन से उठ रहे धुएँ के अलग-अलग रंगों का दूर से अध्ययन कर रहे हैं उन्हें एक नया मध्य प्रदेश आकार लेता नज़र आ रहा है।एक ऐसा मध्य प्रदेश जिसकी अब तक की जानी-पहचानी भाषा और संस्कृति में ‘नेस्तनाबूत’ और ‘बुलडोज़र’ जैसे नए-नए शब्द जुड़ रहे हैं।क़ानून और अदालतों का राज जैसे समाप्त करने की तैयारी चल रही हो।सत्ता में बैठे लोगों के मुँह से निकलने वाले शब्द ही जैसे क़ानून की शक्ल लेने वाले हों ! राजनेताओं और नौकरशाहों की बोलियाँ जनता को अपरिचित जान पड़ रहीं हैं।उन्हें लग रहा है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच की भौगोलिक सीमाएँ जैसे समाप्त हो गईं हैं और दोनों राज्य एक दूसरे में समाहित हो गए हैं !
प्रदेश में तेज़ी से बदलते हुए साम्प्रदायिक घटनाक्रम को लेकर लोग चिंतित हैं और उन्हें डर लग रहा है कि विधान सभा चुनावों (2023) के पहले कहीं कोई कैराना मध्य प्रदेश में भी तो नहीं ढूँढा जा रहा है ! साल 2017 के विधान सभा चुनावों के ठीक पहले यूपी के कैराना से बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के पलायन की खबरें जारी हुईं थीं।हाल के यूपी विधान सभा चुनावों के पहले भी कैराना के साम्प्रदायिक भूत को जगा कर साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण करने की कोशिशें कीं गईं थीं।
तेरह अप्रैल (बुधवार) को खरगोन के दहशतज़दा बहुसंख्यक रहवासियों द्वारा अपने मकान बेचने के खबरें अख़बारों में प्रकाशित हुईं ।उसके एक दिन पहले (मंगलवार को ) समाचारपत्रों ने प्रकाशित किया कि सौ परिवारों ने खरगोन छोड़ दिया है और उन्होंने दूसरे शहरों में रिश्तेदारों के यहाँ शरण ले ली है।( पाठकों द्वारा इन अख़बारों से माँग की जानी चाहिए है कि वे खरगोन छोड़ने वाले परिवारों की प्रामाणिक जानकारी प्रकाशित करें।)
जून 2016 में कैराना से भाजपा सांसद (स्व.) हुकुमसिंह ने एक सूची जारी करके देशव्यापी सनसनी फैला दी थी कि 346 हिंदू परिवारों ने अल्पसंख्यकों की दहशत के कारण कैराना से पलायन कर दिया है।जारी की गई सूची को लेकर जब देश भर में हल्ला मचा तो पलायन करने वाले परिवारों की संख्या को 63 और स्थान कंधाला बताया गया ।जो सूची जारी की गई उसमें भी कथित तौर पर चार नाम मृतकों के थे और तेरह परिवार कैराना में ही रह रहे थे। पर तब तक खबर को लेकर यूपी के चुनावों पर जो असर होना था वह हो चुका था।2019 के लोकसभा चुनावों के पहले मैंने जब कैराना की यात्रा की और लोगों से मिला तब पता चला कि साम्प्रदायिक विद्वेष को लेकर जितना प्रचारित किया गया था उसमें काफ़ी कुछ अतिरंजित और चुनावी राजनीति से प्रेरित था। कैराना यात्रा के दौरान मैंने स्व हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह से भी मुलाक़ात की थी। मृगांका सिंह ने भाजपा की ओर से इस बार चुनाव भी लड़ा था।
यूपी का कैराना तो मुसलिम बहुल क्षेत्र है पर खरगोन में तो बहुसंख्य आबादी हिंदुओं की है ।इसके बावजूद वहाँ से परिवारों के पलायन की एक जैसी ही खबरें अलग-अलग अख़बारों में क्यों और कैसे आ रहीं हैं ? पूछा जाना चाहिए कि शहर जब कर्फ़्यू की क़ैद में हो, इतनी बड़ी संख्या में परिवारों का पलायन कैसे हो सकता है ? इन परिवारों ने खरगोन छोड़कर किन जगहों पर शरण ली है ? क्या सरकार और ज़िला प्रशासन पलायन करने और मकान बेचने वाले परिवारों को सुरक्षा नहीं प्रदान कर पा रहा है ? क्या प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत निर्मित मकानों को भी बेचा जा सकता है ?
खरगोन का इतिहास जानने वाले बताते हैं कि साम्प्रदायिक दृष्टि से शहर और ज़िले के कुछ स्थान हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। इन स्थानों पर छिटपुट घटनाएँ भी होतीं रहीं हैं। पर इस तरह का तनाव (सम्भवतः) तीन दशकों में पहली बार खरगोन शहर में उत्पन्न हुआ है।’राम नवमी’ सहित सारे पर्व और त्योहार अभी तक शांतिपूर्ण तरीक़े से मनाए जाते रहे हैं।पूछा जा रहा है कि इस बार ऐसा क्या हो गया कि हिंसा और आगज़नी की घटनाएँ इतने व्यापक स्तर पर हो गईं और शासन-प्रशासन को विघ्न-संतोषी तत्वों की गतिविधियों को लेकर कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई ! प्रशासनिक दृष्टि से ताकतवर माने जाने वाले प्रदेश में उपद्रवी तत्व अशांति फैलाने में कैसे सफल हो गए ? क्या इसे जनता के स्तर पर हुई चूक मान लिया जाए ?
कोई सवा लाख की आबादी वाला खरगोन शहर रातों-रात देश भर में सांप्रदायिक सुर्ख़ियों में आ गया।अब सरकार ने अपनी पूरी ताक़त गुंडों और दंगाइयों के ख़िलाफ़ दंडात्मक कार्रवाई करने में झोंक रखी है।एक छोटे से शहर में जितनी बड़ी संख्या में गुंडों की पहचान की गई है उससे कल्पना की जा सकती है कि सात करोड़ से ज़्यादा की जनसंख्या वाले प्रदेश में उनकी गिनती क्या होगी और आगे चलकर कितने और मकानों-दुकानों पर सरकार के बुलडोज़र चलने वाले हैं। बताया गया है कि निजी और सरकारी सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने वालों से तीन महीनों में नुक़सान की वसूली की जाएगी।दावों की सुनवाई के लिए एक ‘क्लेम ट्रिब्यूनल’ भी गठित किया जाने वाला है।
एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार द्वारा अवैध निर्माणों, अतिक्रमणों, गुंडों और दबंगों के ख़िलाफ़ की जा रही ‘बुलडोज़री’ कार्रवाई का हाल-फ़िलहाल यह मानते हुए समर्थन किया जाना चाहिए कि उसके पीछे किसी धर्म विशेष के प्रति साम्प्रदायिक-राजनीतिक विद्वेष की भावना नहीं बरती जा रही है, सभी वर्गों के दोषियों के साथ एक जैसा व्यवहार हो रहा है और सभी आवश्यक क़ानूनी प्रक्रियाओं का पूरी तरह से पालन किया जा रहा है ।खरगोन में शांति की स्थापना के बाद सरकार को निश्चित ही इन सब सवालों के जवाब विधान सभा में भी देने होंगे और जनता की अदालत में भी। सरकार से यह सवाल भी किया जाने वाला है कि क्या अब मध्य प्रदेश में (भी?) शासन बुलडोज़रों का भय दिखाकर ही चलने वाला है ? क़ानून और अदालतों की ज़रूरत में सरकार का यक़ीन कम या समाप्त हो रहा है ?
- शरण्या ऋषिकेश
क्या भारत में हेट स्पीच देकर बच निकलना आसान है? हाल ही में 10 अप्रैल को रामनवमी के ठीक पहले घटित हुए वाकयों से तो कम से कम ऐसा ही लगता है।
रामनवमी के त्योहार के दौरान ना सिर्फ कई राज्यों में इस तरह की बयानबाजी हुई बल्कि इस दौरान कुछ हिंसक घटनाएं भी दर्ज की गईं।
हैदराबाद में बीजेपी के एक विधायक ने बिना किसी परवाह के एक बार फिर भडक़ाऊ बयान दे डाला जिन्हें 2020 में हेट-स्पीच के लिए ही फेसबुक ने बैन किया था। अपने संबोधन के दौरान बीजेपी के इस नेता ने एक गीत गाया जिसके बोल कुछ इस तरह थे- ‘अगर किसी ने हिंदू देवता राम का नाम नहीं लिया तो उसे बहुत जल्दी ही भारत छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया जाएगा।’
महिलाओं के अपहरण और बलात्कार की धमकी
इस घटना से कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश में एक हिंदू पुजारी बजरंग मुनि का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें खुले तौर पर मुस्लिम औरतों के अपहरण और बलात्कार की धमकी दी जा रही थी। इस वीडियो पर काफी हंगामा हुआ और आखिर 11 दिन बाद पुलिस ने इस मामले में केस दर्ज किया और बीते बुधवार इस शख्स को गिरफ्तार किया गया।
लगभग इसी समय, हेट स्पीच मामले में जमानत पर रिहा एक अन्य हिंदू पुजारी यति नरसिंहानंद सरस्वती ने दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान हिंदुओं से अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए हथियार उठाने की मांग की है। इस मामले में दिल्ली पुलिस का कहना है कि कार्यक्रम के आयोजन की इजाजत नहीं दी गई थी और यति नरसिंहानंद को जिन शर्तों पर जमानत दी गई थी, उनमें से एक शर्त का उल्लंघन किया गया है। लेकिन उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं की गयी है।
पुरानी समस्या है हेट स्पीच
भारत में हेट स्पीच एक पुरानी समस्या रही है। साल 1990 में कश्मीर की कुछ मस्जिदों से हिंदुओं के खिलाफ भावनाएं भडक़ाने के लिए नफरत भरे भाषण दिए गए जिससे कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोडक़र भागना पड़ा।
इसी साल बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के लिए रथ यात्रा शुरू की। इसकी वजह से भीड़ ने सदियों पुरानी बाबरी मस्जिद को ढहा दिया जिसके बाद भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए।
लेकिन हाल के दिनों में ये समस्या काफी व्यापक हो गयी है और लोगों तक नफऱत भरे भाषण और बांटने वाली सामग्री भारी मात्रा में पहुंच रही है।
राजनीतिक विश्लेषक नीलांजन सरकार मानते हैं कि सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर छोटे नेताओं के भी बयानों और ट्वीट्स को भी ज़्यादा अहमियत मिलने से उन्हें लगता है कि इससे आसानी से सुर्खियां बटोरी जा सकती हैं। इसकी वजह से नफरत भरी बयानबाजी रुकने का नाम लेती नहीं दिख रही है।
वे कहते हैं, ‘पहले हेट स्पीच सामान्यत: चुनावों के दौरान सुनाई पड़ती थी। लेकिन अब बदले हुए मीडिया जगत में राजनेताओं को ये अहसास हो गया है कि किसी एक राज्य में की गई आपत्तिजनक टिप्पणी को राजनीतिक फायदे के लिए किसी अन्य राज्य में तत्काल फैलाया जा सकता है।’
न्यूज चैनल एनडीटीवी ने साल 2009 में सांसदों और मंत्रियों द्वारा दिए जाने वाले भडक़ाऊ बयानों को ट्रैक करना शुरू किया था। और साल 2019 में एनडीटीवी में अपनी रिपोर्ट में बताया है कि पीएम नरेंद्र मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के साल 2014 में सत्ता में आने के बाद से इस तरह की बयानबाजी में भारी बढ़ोतरी हुई है।
कई बीजेपी नेताओं समेत एक केंद्रीय मंत्री पर भी नफरत भरी बयानबाजी करके बच निकलने का आरोप है। कुछ विपक्षी सांसद जैसे असदुद्दीन ओवैसी और उनके भाई अकबरुद्दीन ओवैसी के खिलाफ नफरत भरे भाषण देने का आरोप है। दोनों नेता इन आरोपों का खंडन करते हैं। बीते बुधवार अकबरुद्दीन ओवैसी को साल 2012 के हेट स्पीच से जुड़े दो मामलों में रिहाई मिल गई है।
हेट स्पीच के लिए पर्याप्त कानून?
विशेषज्ञों के मुताबिक, भारत में हेट स्पीच पर लगाम लगाने के लिए पर्याप्त कानून हैं। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता अंजना प्रकाश ने बीते साल दिसंबर में उत्तराखंड में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का आह्वान करने वाले हिंदू धार्मिक नेताओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है।
अंजना प्रकाश कहती हैं, ‘कार्यपालिका द्वारा इन कानूनों को लागू किए जाने की जरूरत है। और अक्सर वे कार्रवाई नहीं करना चाहते।’ भारत में हेट स्पीच को परिभाषित करने के लिए कोई कानूनी परिभाषा नहीं है। लेकिन कई कानूनी प्रावधानों के तहत कुछ खास तरह के भाषणों, लेखों और गतिविधियों को अभिव्यक्ति की आजादी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इनके तहत ऐसी गतिविधियां जो ‘धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता’ को बढ़ा सकती हैं, अपराध की श्रेणी में आती हैं। और ऐसे ‘जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण किए गए काम जिनका उद्देश्य किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करना है’ भी अपराध की श्रेणी में आते हैं।
भारत की अदालतों के समक्ष हेट स्पीच के मामले आते रहे हैं। लेकिन भारतीय न्यायपालिका अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबंदी लगाने से हिचकती रही है।
सुप्रीम कोर्ट का दिशा-निर्देश
साल 2014 में एक याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की ओर से दी जाने वाली हेट स्पीच पर लगाम लगाने के लिए दिशानिर्देश जारी किए थे।
अदालत ने ये माना था कि इन नफरत भरे भाषणों का आम लोगों पर बुरा असर पड़ता है लेकिन कोर्ट ने मौजूदा कानूनों से आगे जाकर कोई कदम उठाने से इनकार कर दिया था।
अदालत ने कहा था कि गैर-वाजिब हरकतों पर उचित प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए लेकिन इससे ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है जहां प्रतिबंधों पर पूरी तरह अमल करना कभी-कभी मुश्किल हो सकता है। इसकी जगह कोर्ट ने सरकार को कानूनी मामलों में सलाह देने वाली विधि विशेषज्ञों की स्वतंत्र संस्था विधि आयोग से इस मामले की पड़ताल करने को कहा था। विधि आयोग ने 2017 में सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में सलाह दी थी कि हेट स्पीच को अपराध की श्रेणी में रखने के लिए भारतीय दंड संहिता में नये प्रावधान जोड़े जाने चाहिए।
नए कानूनों से फायदा होगा?
लेकिन कई कानून विशेषज्ञों ने प्रस्तावित संशोधनों पर चिंता जताई है। सुप्रीम कोर्ट के वकील आदित्य वर्मा कहते हैं, ‘जब हेट स्पीच को परिभाषित करने वाली हरकतें पहले से अपराध की श्रेणी में हैं तो हेट स्पीच की परिभाषा को व्यापकता देने और उसे चिह्नित करने वाले कानून का बहुत फायदा नहीं होगा।’ वह कहते हैं कि बड़ी चिंता संस्थागत स्वायत्तता से जुड़ी है। वर्मा ब्रिटेन का उदाहरण देते हैं जहां पुलिस ने उच्च सरकारी अधिकारियों, जिनमें प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन शामिल हैं, पर कोविड नियमों का उल्लंघन करके पार्टी में शामिल होने की वजह से जुर्माना लगाया है। हालांकि, भारत में पुलिस द्वारा राजनीतिक दबाव की वजह से कार्रवाई करने से हिचकना सामान्य माना जाता है।
वर्मा कहते हैं, ‘कानून को लेकर कुछ पेचीदगियां हो सकती हैं लेकिन अहम ये है कि कानून की स्पष्ट धाराओं का पालन नहीं हो रहा है।’ अंजना प्रकाश कहती हैं कि जिम्मेदारियों का निर्वाहन नहीं किया जाना काफी गंभीर है।
वह सवाल उठाती हैं, ‘जब तक आप नफरत भरे भाषण देने वाले व्यक्ति को दंड नहीं देते हैं तब तक एक कानून इस तरह की हरकत को रोकने में कामयाब कैसे हो सकता है।’ इसके साथ ही जब नफरत भरे भाषणों को सामान्य मान लिया जाता है तो उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
सरकार कहते हैं, ‘जब आबोहवा इतनी असहज हो जाती है और लोग इतना भयभीत हो जाते हैं कि वे सामान्य सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने में दो बार सोचते हैं।’
‘ये इसकी असली कीमत है।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप
यूक्रेन के बारे में भारत पर अमेरिका का दबाव बढ़ता ही चला जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि हमारे रक्षा और विदेश मंत्रियों की इस वाशिंगटन-यात्रा के दौरान कुछ न कुछ अप्रिय प्रसंग उठ खड़े होंगे लेकिन हमारे दोनों मंत्रियों ने अमेरिकी सरकार को भारत के पक्ष में झुका लिया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वह संयुक्त विज्ञप्ति है, जिसमें यूक्रेन की दुर्दशा पर खुलकर बोला गया लेकिन रूस का नाम तक नहीं लिया गया। उस विज्ञप्ति को आप ध्यान से पढ़ें तो आपको नहीं लगेगा कि यह भारत और अमेरिका की संयुक्त विज्ञप्ति है बल्कि यह भारत का एकल बयान है।
भारत ने अमेरिका का अनुकरण करने की बजाय अमेरिका से भारत की हां में हां मिलवा ली। अमेरिका ने भी वे ही शब्द दोहराए, जो यूक्रेन के बारे में भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कहता रहा है। दोनों राष्ट्रों ने न तो रूस की भर्त्सना की और न ही रूस पर प्रतिबंधों की मांग की। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने यह मांग जरुर की कि दुनिया के सारे लोकतांत्रिक देशों को यूक्रेन के हमले की भर्त्सना करनी चाहिए। भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने यूक्रेन की जनता की दी जा रही भारतीय सहायता का भी जिक्र किया और रूस के साथ अपने पारंपरिक संबंधों का भी! ब्लिंकन ने भारत-रूस संबंधों की गहराई को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी किया।
भारत प्रशांत-क्षेत्र में अमेरिकी चौगुटे के साथ अपने संबंध घनिष्ट बना रहा है। इस यात्रा के दौरान दोनों मंत्रियों ने अंतरिक्ष में सहयोग के नए आयाम खोले, अब अमेरिकी जहाजों की मरम्मत का ठेका भी भारत को मिल गया है और अब भारत बहरीन में स्थित अमेरिकी सामुद्रिक कमांड का सदस्य भी बन गया है। इस यात्रा के दौरान अमेरिकी पक्ष ने भारत में मानव अधिकारों के हनन का सवाल भी उठाया। जयशंकर ने उसका भी करारा जवाब दिया। उन्होंने पूछा कि पहले बताइए कि आपके देश में ही मानव अधिकारों का क्या हाल है?
अमेरिका के काले और अल्पसंख्यक लोग जिस दरिद्रता और असमानता को बर्दाश्त करते रहते हैं, उसे जयशंकर ने बेहिचक रेखांकित कर दिया। जयशंकर का अभिप्राय था कि अमेरिका की नीति ‘पर उपदेशकुशल बहुतेरे’ की नीति है। जहां तक रूसी एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की खरीद का सवाल है, उस विवादास्पद मुद्दे पर भी जयशंकर ने दो-टूक जवाब दिया। उन्होंने कहा कि यह पाबंदी का अमेरिकी कानून है।
इसकी चिंता अमेरिका करे कि वह किसी खरीददार पर पाबंदिया लगाएगा या नहीं? यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। जयशंकर पहले अमेरिका में भारत के राजदूत रह चुके हैं। उन्हें उसकी विदेश नीति की बारीकियों का पता है। इसीलिए उन्होंने भारत का पक्ष प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने में कोई कोताही नहीं बरती। (नया इंडिया की अनुमति से)
ट्विटर का सबसे बड़ा शेयर होल्डर, जिसे कंपनी निदेशक मंडल में शामिल करने का ऐलान कर चुकी थी, वही उसकी खिल्ली उड़ा रहा है। मस्क अपने 81.4 मिलियन फॉलोअर के ट्विटर हैंडल के साथ ट्विटर को उसी के मंच पर ट्रोल कर रहे हैं।
डॉयचे वैले पर स्वाति मिश्रा का लिखा-
दुनिया के सबसे अमीर इंसान इलॉन मस्क ने 11 अप्रैल को अमेरिकी सरकार के पास एक कागज भेजा। अमेरिका के ‘सिक्योरिटीज ऐंड एक्सचेंज कमीशन’ (एसईसी) को भेजे गए इस डॉक्यूमेंट में इलॉन मस्क ने एसईसी के साथ ट्विटर के अपने शेयरों से जुड़ी अहम जानकारियां साझा की थीं। मस्क के पास सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर के 9।2 प्रतिशत शेयर हैं। वह ट्विटर के सबसे बड़े शेयर धारक हैं। इस डॉक्यूमेंट में मस्क ने एसईसी को बताया-
4 अप्रैल को उन्हें ट्विटर के निदेशक मंडल में शामिल होने का आमंत्रण दिया गया था।
9 अप्रैल को उन्होंने ट्विटर को बताया कि वह बोर्ड में नहीं शामिल होंगे।
वह समय-समय पर ट्विटर के और शेयर खरीद सकते हैं।
खरीदे गए शेयर अपने पास रख सकते हैं या चाहें, तो उन सभी शेयरों या उनमें से कुछ को बेच सकते हैं।
मस्क चाहें तो गाहे-बगाहे ट्विटर के बोर्ड या मैनेजमेंट टीम के साथ कंपनी के प्रबंधन, कामकाज और रणनीति जैसे मसलों पर बातचीत भी कर सकते हैं।
ट्विटर के कामकाज को लेकर अपनी राय कंपनी के निदेशक मंडल या मैनेजमेंट टीम से भी बता सकते हैं।
वह चाहें तो इसके बारे में सोशल मीडिया पर अपनी राय सार्वजनिक भी कर सकते हैं।
मस्क के इस दस्तावेज में एक खास बात यह भी थी कि उनके पास अधिकार है कि वह ट्विटर से जुड़ी अपनी योजनाओं या निवेश को मकसद को जब चाहें, बदल सकते हैं। मस्क का यह ऐलान, उनकी रणनीति का अप्रत्याशित स्वभाव, या यूं कहें कि उनका अपने विकल्प खुले रखना ट्विटर के लिए अच्छी स्थिति नहीं है।
ट्विटर सीईओ ने ट्वीट किया-वेलकम इलॉन
4 अप्रैल को ट्विटर ने अपनी कंपनी में मस्क के सबसे बड़े शेयर धारक होने की बात का खुलासा किया था। अगले दिन ट्विटर ने मस्क को अपने 11 सदस्यों वाले निदेशक मंडल में शामिल होने का आमंत्रण दिया। बताया गया कि इसके बदले मस्क राजी हो गए हैं कि वह ट्विटर के 14।9 प्रतिशत से ज्यादा स्टॉक नहीं खरीदेंगे और कंपनी को अपने नियंत्रण में भी नहीं लेंगे।
5 अप्रैल को ही ट्विटर के मौजूदा सीईओ पराग अग्रवाल ने एक ट्वीट में लिखा, ‘मैं यह बताते हुए बहुत उत्साहित हूं कि हम इलॉन मस्क को अपने बोर्ड में नियुक्त कर रहे हैं। इलॉन के साथ हालिया हफ्तों में हुई बातचीत से स्पष्ट हो गया है कि हमारे बोर्ड में उनके आने की बहुत अहमियत होगी। उनके आने से आने वाले समय में हम और मजबूत होंगे। आपका स्वागत है इलॉन!’ ट्विटर ने अपने बोर्ड सदस्यों की जानकारी देने वाले पन्ने पर मस्क का परिचय भी डाल दिया।
मामले में नया मोड़
मस्क के ट्वीटर पर 81.4 मिलियन फॉलोअर हैं, वह ट्विटर को उसके ही मंच से ट्रोल कर रहे थे। कंपनी और उसके कामकाज का मजाक उड़ा रहे थे। उन्होंने ट्वीट किया कि ट्विटर के नाम से डब्ल्यू हटा दिया जाना चाहिए, ताकि यह और ज्यादा अश्लील सुनाई दे। उन्होंने यह भी लिखा कि ट्विटर के सैन फ्रैंसिस्को मुख्यालय में वैसे भी कोई नहीं आता, तो बेघरों को लाकर वहां बसा देना चाहिए।
ट्विटर का सबसे बड़ा शेयर होल्डर, जिसे कंपनी अपने निदेशक मंडल में शामिल करने का ऐलान कर चुकी थी, वही ट्विटर की खिल्ली उठा रहा था। इसी बीच 10 अप्रैल को सीईओ पराग अग्रवाल ने एक पोस्ट में बताया कि मस्क ने बोर्ड में शामिल होने से मना कर दिया है। पराग के मुताबिक, ‘बोर्ड में मस्क की आधिकारिक नियुक्ति 9 अप्रैल से प्रभावी होनी थी। लेकिन इसी दिन सुबह मस्क ने बताया कि वह बोर्ड में नहीं आएंगे।’
यानी अब मस्क ट्विटर के और भी शेयर खरीद सकते हैं
पब्लिक ट्रेडेड कंपनियों में शेयर धारकों के पास कुछ अधिकार होते हैं। इनमें कंपनी से जुड़े कुछ कॉर्पोरेट मामलों में वोटिंग का भी अधिकार होता है। ज्यादातर मामलों में एक शेयर का मतलब है, एक वोट का अधिकार। ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर मस्क ने ट्विटर में नियंत्रण स्थापित करने लायक हिस्सेदारी खरीद ली, तो वह कंपनी से जुड़े फैसलों के मामले में बेहद प्रभावी स्थिति में आ जाएंगे। कई जानकार यह भी कयास लगा रहे हैं कि मस्क कंपनी को अपने नियंत्रण में भी ले सकते हैं।
एक बड़े शेयर धारक के साथ ट्विटर का अतीत में भी एक चर्चित मामला रहा है। 2020 में अमेरिकी निवेश प्रबंधन फर्म ‘ऐलियट मैनेजमेंट’ ने ट्विटर में चार प्रतिशत हिस्सेदारी खरीद ली। फिर उसने कंपनी में बदलाव लागू करने पर जोर देना शुरू किया। इनमें तत्कालीन सीईओ जैक डोर्सी को पद से हटाना भी शामिल था। इस तरह के निवेशक ‘एक्टिविस्ट इन्वेस्टर’ कहलाते हैं। इनकी कार्यशैली यूं होती है कि ये पहले किसी कंपनी में शेयर का बड़ा हिस्सा खरीदते हैं। फिर वहां प्रबंधन, कामकाज, कॉर्पोरेट ढांचा और रणनीति जैसे मामलों में बदलाव लाने के लिए कंपनी पर जोर डालते हैं, ताकि शेयर की कीमतें बढ़ा सकें।
एलियट मैनेजमेंट का कहना था कि ट्विटर अपने शेयरों की कीमतें बढ़वाने और नए उत्पाद लाने में अपनी प्रतिद्वंद्वी सोशल मीडिया कंपनियों से पिछड़ गया है। एलियट को इसकी एक वजह यह लग रही थी कि जैक डोर्सी दो कंपनियां चला रहे हैं। ऐसे में उनका पूरा ध्यान ट्विटर पर नहीं है। ट्विटर का कामकाज संभालने के अलावा डोर्सी की अपनी एक वित्तीय कंपनी ‘स्च्ैयर’ भी थी। बाद में ट्विटर और एलियट मैनेजमेंट के बीच डील हो गई थी और जैक डोर्सी की सीईओ की कुर्सी बच गई। समझौते के तहत एलियट के एक्जिक्यूटिव को ट्विटर बोर्ड में जगह भी मिली। डोर्सी को सीईओ का पद छोडऩा तो पड़ा, मगर इस प्रकरण के करीब डेढ़ साल बाद नवंबर 2021 में। उनकी जगह कंपनी के मुख्य तकनीकी अधिकारी पराग अग्रवाल को सीईओ बनाया गया।
क्या चाहते हैं मस्क?
सवाल पूछा जा रहा है कि क्या मस्क भी एक्टिविस्ट इन्वेस्टर हैं।क्या वह अपने शेयरों की ताकत के बदले ट्विटर में सुधार लाकर इसके शेयरों की कीमतें बढ़वाना चाहते हैं। कई जानकारों की राय है कि मस्क की मंशा शायद अलग है। 25 मार्च को मस्क ने ट्विटर पर एक पोल किया था। सवाल था कि क्या ट्विटर अभिव्यक्ति की आजादी का पालन सही तरह से कर रहा है। मस्क ने लोगों से अपील की थी कि वे सावधानी से वोट करें क्योंकि इस पोल के नतीजे बेहद अहम होने वाले हैं। इसमें 70 पर्सेंट लोगों ने ना में जवाब दिया। अगले दिन मस्क ने ट्वीट किया कि ट्विटर फ्री स्पीच के सिद्धांतों का पालन करने में नाकाम रहा है, जो कि बुनियादी तौर पर लोकतंत्र को कमजोर बनाता है। ऐसे में क्या किया जाना चाहिए?
मस्क ने लोगों से यह भी पूछा कि क्या किसी नए सोशल मीडिया मंच को लाए जाने की जरूरत है?इस वक्त तक उनके ट्विटर में हिस्सेदारी की खबर नहीं आई थी। तो क्या मस्क सबसे बड़े निवेशक होने के नाते ट्विटर को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाना चाहते हैं? क्या वह कोई नया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लाना चाहते हैं? अभी ये चीजें स्पष्ट नहीं हैं। लेकिन यह साफ दिख रहा है कि मस्क ट्विटर को एक असहज स्थिति में डाल रहे हैं।
9 अप्रैल को उन्होंने ‘वल्र्ड ऑफ स्टैटिक्स’ का एक ट्वीट रीट्वीट किया। इसमें सबसे ज्यादा फॉलोअर वाले 10 टॉप ट्विटर हैंडलों के नाम थे।मस्क ने लिखा कि इस लिस्ट में ज्यादातर लोग कभी-कभार ही पोस्ट करते हैं और बहुत कम ही कोई ‘कॉन्टेंट’ डालते हैं। उन्होंने सवाल किया, क्या ट्विटर मर रहा है?’ 11 अप्रैल को मस्क ने एक ट्वीट लाइक किया, जिसमें किसी टैंक नाम के यूजर ने इलॉन और ट्विटर के बीच हुए हालिया घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘अभिव्यक्ति की आजादी के लिए इलॉन सबसे बड़े शेयर धारक बने। इलॉन ने कहा गया कि शांत रहो और खुलकर मत बोलो।’ अभी शायद इतना ही स्पष्ट है कि मस्क अभी ट्विटर को उसी के मंच से ट्रोल करते रहने के मूड में हैं। (dw.com)
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा पंजाब के अधिकारियों के साथ बैठक करने पर सवाल उठ रहे हैं। विपक्ष के नेताओं ने इसे केजरीवाल द्वारा पंजाब के सुपर सीएम बनने की कोशिश बताया है।
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 11 अप्रैल को पंजाब सरकार के अधिकारियों के साथ दिल्ली में एक बैठक ली थी। बैठक में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान मौजूद नहीं थे, जिससे इस बैठक को केजरीवाल द्वारा पंजाब के अधिकारियों को निर्देश देने की कोशिश के रूप में देखा गया।
बैठक में पंजाब के मुख्य सचिव, ऊर्जा सचिव और राज्य की ऊर्जा कंपनी पीएसपीसीएल के शीर्ष अधिकारी मौजूद थे। मुख्य सचिव राज्य सरकार का सर्वोच्च अधिकारी होता है और वो मुख्यमंत्री को रिपोर्ट करता है। संवैधानिक रूप से एक राज्य के मुख्यमंत्री की किसी दूसरे राज्य के मुख्य सचिव को कोई निर्देश देने की जरूरत नहीं है।
प्रशासनिक सेवाएं
केजरीवाल आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक भी हैं, इसलिए उनकी पार्टी के प्रवक्ताओं ने कहा है कि पार्टी का उनसे मार्गदर्शन लेना वाजिब है। लेकिन बात पार्टी के या किसी नेता के या खुद मुख्यमंत्री के मार्गदर्शन की नहीं है।
सवाल अधिकारियों का है जो पार्टी के सदस्य नहीं बल्कि प्रशासनिक सेवाओं के सदस्य होते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री को सलाह देने और उसके निर्देशों का पालन करने के लिए वो संवैधानिक रूप से बाध्य हैं, लेकिन सिर्फ अपने राज्य के अंदर।
दिल्ली में जो हुआ भारत में हाल के इतिहास में पहली बार हुआ है। कांग्रेस, भाजपा और सीपीएम (लेफ्ट फ्रंट के घटक दल के रूप में) के अलावा कभी किसी पार्टी की सरकार एक साथ दो राज्यों में नहीं रही। तीनों राष्ट्रीय पार्टियां हैं और एक व्यवस्थित राष्ट्रीय नेतृत्व के तहत चलती हैं।
‘रिमोट कंट्रोल सरकार’
लेकिन इन पार्टियों के भी राष्ट्रीय अध्यक्ष के राज्यों के मुख्य सचिवों के साथ अलग से बैठक करने का कोई उदाहरण नहीं है। यही वजह है कि पंजाब में विपक्ष के नेता इस बैठक की आलोचना कर रहे हैं और ‘आप’ द्वारा पंजाब को ‘रिमोट कंट्रोल’ से चलाने का आरोप लगा रहे हैं।
इस मामले में संवैधानिक सवालों के साथ साथ राजनीतिक शुचिता के सवाल भी उठ रहे हैं। क्षेत्रीय पार्टियों पर बस एक नेता के इर्द गिर्द घूमने के आरोप लगते रहे हैं। एक ही पार्टी के दो अलग अलग राज्यों में मुख्यमंत्री होना क्षेत्रीय पार्टियों की आंतरिक व्यवस्था के लिए भी एक चुनौती है।
जनता द्वारा चुने हुए मुख्यमंत्री को स्वतंत्र रहने देने और पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के आगे विवश न दिखाने में अगर आम आदमी पार्टी सफल हो सके तो यह क्षेत्रीय पार्टियों के लिए एक मील का पत्थर होगा। (dw.com)
-डॉ. राजू पाण्डेय
रामनवमी पर आयोजित भव्य शोभा यात्राओं ने आनंदित कम चिंतित अधिक किया। इनके विषय में लिखने से पहले गहन आत्मचिंतन करना पड़ा। स्वयं पर नकारात्मक, निन्दाप्रिय और छिद्रान्वेषी होने का आरोप लगाया। मित्रों, शुभचिंतकों और बुद्धिजीवियों के अनेक कथनों पर गंभीरता से विचार भी किया। दरअसल अहिंसा, सहिष्णुता और उदारता जैसे मूल्यों पर विश्वास करने वाले मुझ जैसे लोग इतने अल्पसंख्यक हो गए हैं कि अनेक बार स्वयं पर और शायद इन मूल्यों की शक्ति पर भी संदेह सा होता है।
रामनवमी के इस आयोजन पर जिन प्रतिक्रियाओं की चर्चा आवश्यक लगती है वे इस प्रकार हैं- 'रामनवमी की यह शोभा यात्रा हिन्दू नवजागरण का उद्घोष है। हिंदुओं ने पहली बार अपनी असली ताकत दिखाई है। इस रामनवमी की यात्रा ने यह संकेत दे दिया है कि जो राम के साथ नहीं है उसके लिए भारत में कोई स्थान नहीं है। इस रामनवमी पर अपने शौर्य का प्रदर्शन कर हमने हिंदुओं पर लगे कायरता के कलंक को धोने की शुरुआत कर दी है।'
प्रकारांतर से कुछ ऐसे ही विचार सोशल मीडिया पर भी पढ़ने को मिले। एक बुद्धिजीवी मित्र की फेसबुक वॉल पर रामनवमी के संदर्भ में पोस्ट किए गए एक कथन ने चौंकाया- "यदि भविष्य में हिंदुत्व का अस्तित्व बचाना चाहते हैं तो साधारण हिन्दू नहीं, कट्टर हिन्दू बनें। यही वर्तमान समय की मांग है।" मैंने उनसे पूछा कि 2014 के बाद से ऐसा क्या बदला है कि हमारी प्राचीन संस्कृति संकट में आ गई है। उनसे हिंदुत्व शब्द के उद्गम और अर्थ पर भी सवाल किया। वे कोई उत्तर नहीं दे पाए पर अपने मत पर दृढ़ रहे। उनकी नाराजगी का खतरा उठाकर मैंने उनसे कहा-हमारी गौरवशाली संस्कृति निश्चित ही खतरे में है और उसे संकट में डालने वाले हिंदुत्व शब्द को गढ़ने और उसके लिए उन्माद पैदा करने वाले लोग ही हैं।
इन भव्य शोभायात्राओं में बहुत कुछ ऐसा था जो खटकने वाला था लेकिन हिंसा को स्वीकार्य बनाने के लिए कट्टरपंथी शक्तियों द्वारा संचालित मानसिक प्रशिक्षण कार्यक्रम शायद पूर्ण हो चुका है और हममें से अधिकांश संभवतः इसमें ए प्लस ग्रेड भी अर्जित कर चुके हैं इसलिए इन शोभा यात्राओं का हिंसक, अराजक, आक्रामक और प्रदर्शनप्रिय स्वरूप भी हमें आनंददायी लगा।
यह शोभा यात्राएं पूरे देश में निकलीं। इनका पैटर्न इतना मिलता जुलता था कि इसे हिन्दू समाज के स्वतः स्फूर्त उत्साह और अपने प्रभु राम के प्रति उसकी श्रद्धा की सहज अभिव्यक्ति के रूप में देखना अतिशय भोलापन ही कहा जाएगा। इनके आयोजन की तैयारी किसी चुनावी रैली की भांति की गई थी, हम जानते हैं कि चुनावी रैलियों के "प्रबंधन" की शुरुआत धर्म और नीति को कूड़ेदान में डालने से होती है। स्थानीय राजनेता इन शोभा यात्राओं के "प्रबंधन" में बढ़चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। समाज के संपन्न और अग्रणी लोगों के पास अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन करने के लिए अवकाश भी होता है एवं संसाधन भी इसलिए ऐसे हर आयोजन में उनकी सक्रियता दिखती ही है। हर चुनाव और हर सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रम की सफलता में किशोर और युवा वर्ग की भागीदारी भी होती ही है।
बिना पेट्रोल खर्च की चिंता किए तेज मोटरसाइकिल दौड़ाने का अवसर, नई पोशाकों में सजना, विशाल ध्वजों के साथ संतुलन बनाना, जेब खर्च मिलने का आश्वासन और उस नेता की हौसलाअफजाई करती धौल जिससे बात करना भी सपने जैसा लगता है- किसी भी निम्न मध्यमवर्गीय युवा को पागल बना सकते हैं। इसके साथ अब तो युवा जोश और आक्रोश को एक आसान एवं निरीह शिकार भी दे दिया गया है। उसे अल्पसंख्यक वर्ग को उसकी औकात बताने के राष्ट्रीय कर्त्तव्य में लगा दिया गया है।
लगभग हर प्रदेश में - और आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों द्वारा शासित प्रदेशों में भी- इन शोभा यात्राओं का स्वरूप एक जैसा था- उकसाने, भड़काने और डराने वाला। इन शोभा यात्राओं को मुस्लिम बहुल इलाकों तथा मुस्लिम धर्म स्थलों के निकट से गुजरने की इजाजत निरपवाद रूप से लगभग हर जिले में दी गई। जहाँ कट्टरता का जहर अभी फैल नहीं पाया है वहां मुस्लिम समुदाय ने इन शोभा यात्राओं का भरपूर स्वागत-सत्कार किया और कौमी एकता की मिसाल कायम की। अनेक स्थानों पर शोभा यात्रा का स्वागत करते मुस्लिम बंधुओं के चेहरे पर भय, सतर्कता और चिंता को स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता था।
जिन प्रदेशों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां उनके पास यह अवसर था कि वह अपने प्रदेश में राम के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर उनके आदर्शों की स्थापना करते गरिमामय आयोजनों को बढ़ावा देते किंतु जिस तरह वे कट्टर हिंदुत्व के समर्थकों के साथ खड़े नजर आए वह चौंकाने वाला और निराशाजनक था। यदि रामनवमी का यह घटनाक्रम कट्टर हिंदुत्व की बढ़ती जनस्वीकृति के आगे हताश कांग्रेस के शरणागत होने का परिचायक है तब तो कांग्रेस के उत्साहवर्धन के लिए कुछ शब्द कहे जा सकते हैं किंतु अगर कांग्रेस साम्प्रदायिकता के रंग में रंगे जाने के लिए लालायित है और रामनवमी के इन आयोजनों में उसे कट्टरता को अपनाने का स्वर्ण अवसर नजर आया है तो यह अक्षम्य है।
देश में अनेक स्थान ऐसे हैं जहां साम्प्रदायिक वैमनस्य और हिंसा का इतिहास रहा है, कट्टरपंथी शक्तियों के अथक प्रयासों से इन ज्ञात और चिह्नित साम्प्रदायिक स्थानों के अतिरिक्त बहुत सारे ऐसे शहर अस्तित्व में आए हैं जहां सतह के नीचे पनप रहे साम्प्रदायिक वैमनस्य को अपना सर उठाने के लिए ऐसे ही किसी भड़काऊ अवसर की तलाश थी। इन स्थानों पर दोनों समुदायों के लोगों में तनाव उत्पन्न हुआ और कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी।
राम शब्द का उच्चारण होते ही जिस शांति, स्थिरता, धैर्य, आश्वासन और अनुशासन का अनुभव होता है उसकी तलाश इन शोभा यात्राओं में व्यर्थ थी। राम संकीर्तन की सुदीर्घ परंपरा में अनेक ऐसी पारंपरिक और आधुनिक संगीत रचनाएं हैं जो अपनी कोमलता और मृदुलता के लिए विख्यात हैं और जिनका श्रवण आत्मा के ताप हर लेता है। किंतु इन शोभा यात्राओं में किसी देशव्यापी अलिखित अज्ञात सहमति से कुछ निहायत ही ओछे और भड़काऊ नारे लगाए जा रहे थे। यह तय कर पाना कठिन था कि डीजे का शोर अधिक कर्ण कटु और भयानक था या इन नारों के बोल- बहरहाल दोनों का सामंजस्य उस भय को पैदा करने में अवश्य सफल हो रहा था जिसकी उत्पत्ति इन शोभा यात्राओं का अभीष्ट थी। यह ध्वनि प्रहार इतना भीषण था कि तुलसी मानस के मर्मज्ञ उन सैकड़ों चौपाइयों और दोहों को क्षतविक्षत पा रहे थे जिन्होंने -"सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।" - के मंत्र को हमारे सामाजिक जीवन का मूल राग बनाने में अहम भूमिका निभाई है।
इन शोभा यात्राओं के आक्रामक तेवर के साथ भगवा रंग को संयोजित किया गया था। त्याग, बलिदान, शांति, सेवा एवं ज्ञान जैसी उदात्त अभिव्यक्तियों को स्वयं में समाहित करने वाले भगवा रंग को - "राजतिलक की करो तैयारी, आ रहे हैं भगवाधारी" - जैसे चुनावी नारे में रिड्यूस होते देखकर आश्चर्यचकित होने वाले लोगों को इस पवित्र भगवा रंग के साथ भविष्य में होने वाले हादसों के लिए तैयार रहना चाहिए।
राम की व्यापकता, लोकप्रियता और स्वीकार्यता ने हमेशा इस प्रश्न को गौण बनाया है कि वे इतिहास पुरुष थे या नहीं। राम यदि मॉरिशस, वेस्टइंडीज, अमेरिका, यूरोप, रूस, चीन, जापान, ईरान, ईराक, सीरिया, इंडोनेशिया, नेपाल, लाओस, थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया, मलेशिया और श्रीलंका जैसे देशों में सम्मान एवं श्रद्धा अर्जित करते हैं तो इसका एकमात्र कारण यही है कि राम ने हर देश को अवसर दिया है कि वह उन्हें अपने रंग में रंग ले, अपनी लोक संस्कृति में- अपनी धर्म परंपरा में समाहित कर ले। मंचित और मुद्रित रामकथाओं का वैविध्य असाधारण एवं चमत्कृत करने वाला है और ऐसा केवल इस कारण है कि राम ने स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संकीर्णता में कभी नहीं बांधा। वे जिस देश में पहुंचते हैं वहीं के होकर रह जाते हैं। बल्कि यह कहना उचित होगा कि हर देश प्रेरणा और आश्वासन के लिए अपना राम गढ़ लेता है। कितनी ही भाषाओं के कवि राम से प्रेरित हुए हैं, कितनी ही भाषाओं में रामकथा रची और गाई गई है, हर कवि ने राम को अपने ढंग से गढ़ा-समझा है। ऐसे व्यापक और उदार राम पर कोई संगठन, दल, विचारधारा या संप्रदाय अपना ठप्पा लगाने की चेष्टा करेगा तो यह निश्चित जानिए कि वह राम का रामत्व छीन रहा है। वह उन्हें किसी जन्म भूमि, किसी मंदिर, किसी रंग में बांधना चाहता है।
बंधुत्व एवं मैत्री के पोषक शांतिप्रिय राम का उपयोग हिंसा के लिए करना शर्मनाक, अशोभनीय और निंदनीय है। पता नहीं हिंसक नारे लगा रहे नवयुवकों ने रामचरित मानस को हाथ भी लगाया है या नहीं लेकिन इतना तो तय है कि उन्होंने हिंसा के लिए अनिच्छुक राम को जरा भी नहीं समझा है। हमेशा संवाद और शांति के हर प्रयत्न के विफल होने के बाद ही राम विवश होकर शस्त्र उठाते हैं। वे युद्ध प्रिय नहीं हैं, युद्ध उन पर थोपा गया है। जो राम को शत्रु समझ रहा है उसके प्रति भी राम के मन में करुणा है।
हमारे देश में राम की आलोचना-समालोचना कम नहीं हुई है। अनीश्वरवादियों और तर्कवादियों ने उन्हें सामंतवाद के प्रतिनिधि और वर्ण व्यवस्था के पोषक के रूप में चित्रित किया है। दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श से जुड़े अनेक अध्येता राम के चरित्र को कभी अपना आदर्श स्वीकार नहीं कर पाए। किंतु राम के इन आलोचकों ने भी राम को तलवार के जोर पर अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने वाले युद्धोन्मादी के रूप में चित्रित नहीं किया क्योंकि राम का चरित्र ऐसा है ही नहीं। लेकिन यह कार्य उनके कथित भक्तों ने बहुत निर्लज्जतापूर्वक कर दिखाया है।
पूरे देश में निकली राम शोभा यात्राओं में एक दृश्य समान था- प्रत्येक समाज की टोली का नेतृत्व तलवारें लहराती महिलाएं और किशोर-किशोरियां कर रहे थे। वीर और वीरांगनाओं की मुद्रा में तलवार के साथ सेल्फी लेना निश्चित ही रोमांचक रहा होगा। लेकिन हम सब यह भूल रहे हैं कि तलवार जब चलती है तो एक जीवन समाप्त हो जाता है, कोई माँ अपना बच्चा खो देती है, कोई स्त्री विधवा हो जाती है, कोई बच्चा अनाथ हो जाता है, कोई परिवार उजड़ जाता है। विनम्रता राम के व्यक्तित्व का आभूषण था। तलवार लहराते हुए अल्पसंख्यक समुदाय को धमकी देने वाली भीड़ को देखकर राम निश्चित ही आहत हुए होंगे।
आपसे बहुत कुछ छीना जा चुका है। गांधी, सुभाष, आंबेडकर, पटेल, भगत सिंह सबके सब भव्य मूर्तियों और स्मारकों में कैद किए जा चुके हैं। इनके विचारों की हत्या की जा रही है। इन पर अब विचारधारा विशेष के अनुयायियों का पेटेंट और कॉपीराइट है।
अब बारी मर्यादा पुरुषोत्तम राम की है। अमर्यादित हिंसा के समर्थक और नफरत के सौदागर आपसे आपके राम को छीनना चाहते हैं। अभी देर नहीं हुई है। अपने पूजाघरों में करुणामय नेत्रों और आश्वासनदायी सस्मित मुस्कान वाली राम की छवि को तलाशिये। विशाल धार्मिक साम्राज्य के संचालक धर्म गुरुओं की बातों पर भरोसा मत कीजिए। उनके आर्थिक हित और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उन्हें मजबूर कर रही हैं कि वे सत्ता के राम को ही असली राम के रूप में प्रस्तुत करें। राम से मिलने के लिए किसी बिचौलिए या मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है। वह आपके निकट ही हैं; जब भी आप अराजक, उच्छृंखल, हिंसक और युद्धोन्मादी होने की ओर बढ़ते हैं तब आपके अंदर बैठे राम शील, शालीनता, विनम्रता, प्रेम, दया, करुणा और क्षमा का संदेश देते हैं। उनके स्वर को अनसुना मत करिए।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
न्यूयॉर्क के बू्रकलिन नामक इलाके में हुए गोलीबारी ने पूरे अमेरिका को थर्रा दिया है। लगभग तीन दर्जन लोग घायल हुए हैं लेकिन गनीमत है कि अभी तक किसी के मरने की खबर नहीं है। इस इलाके में हमारे दक्षिण एशियाई लोग काफी संख्या में रहते हैं। यह हमला बू्रकलिन के रेल्वे स्टेशन पर सुबह-सुबह हुआ है। अभी तक यह पता नहीं चला है कि यह हमला आतंकवादियों ने किया है या यह किसी सिरफिरे अपराधी की करतूत है। हमलावर ने पहले गैस के गोले छोड़े ताकि सारे वातावरण में धुंधलका फैल जाए और फिर उसने गोलियां चला दीं। जब बहुत शोर मचा तो वह हमलावर भाग निकला लेकिन उसका सामान और वाहन पुलिस के हाथ लग चुका है। उसके क्रेडिट कार्ड से उसका नाम भी मालूम पड़ गया है। उसका फोटो भी पुलिस ने जारी कर दिया है। उसकी गिरफ्तारी पर 50 हजार डॉलर का इनाम भी घोषित हो गया है। अंदाज है कि वह जल्दी ही पकड़ा जाएगा।
अगर वह पकड़ा भी गया और उसने अपना जुर्म भी कुबूल कर लिया तो भी क्या होगा? उसे फांसी पर लटका दिया गया तो भी क्या होगा? क्या इस तरह के जानलेवा अपराधों की संख्या अमेरिका में कभी घटेगी? कभी नहीं। अमेरिका में जितनी हत्याएं हर साल होती हैं, भारत में उससे आधी भी नहीं होतीं। दुनिया का वह सबसे मालदार और सुशिक्षित नागरिकों का राष्ट्र है लेकिन वहां हत्या समेत अन्य अपराधों की संख्या एशिया और अफ्रीका के कई गरीब राष्ट्रों से ज्यादा है। जब तक अमेरिका के शासक और विश्लेषक इस प्रपंच के मूल कारणों को नहीं खोजेंगे, अमेरिका की दशा बिगड़ती ही चली जाएगी। ब्रूकलिन हमले के बाद न्यूयार्क टाइम्स को दर्जनों लोगों ने कहा कि न्यूयॉर्क शहर हमारे रहने लायक नहीं है। अब से 50-55 साल पहले जब मैं न्यूयार्क में रहा करता था, मेरी अमेरिकी मामी मुझे घर से निकलते वक्त हमेशा मुजरिमों से सावधान रहने के लिए कहती थीं। अमेरिका के बड़े शहरों में आज भी वही स्थिति है। 200 साल पहले अमेरिका में जो नागरिक असुरक्षा की हालत थी, वह आज भी बनी हुई है। यूरोप के गोरे लोग अमेरिकी धरती पर हथियारबंद हुए बिना पांव ही नहीं रखते थे। आज भी अमेरिका के हर घर में बंदूक और तमंचे रखे होते हैं। अब मांग की जा रही है कि जैसे हवाई जहाज में यात्री लोग बंदूक वगैरह नहीं ले जा सकते हैं, वैसे ही प्रतिबंध रेल और बसों में भी लगा दिए जाएं और स्टेशनों पर सुरक्षा बढ़ा दी जाए। ये सब सुझाव अच्छे हैं लेकिन इनसे हिंसाप्रेमी अमेरिकी समाज का स्वभाव नहीं बदला जा सकता। अमेरिका के उपभोक्तावादी समाज में जब तक गहरी आर्थिक विषमता और रंगभेद का वर्चस्व बना रहेगा, इस तरह की हिंसक घटनाएं होती ही रहेंगी। इस तरह की घटनाओं के लिए मानसिक बीमारियां भी जिम्मेदार होती है, जो पूंजीवादी और उपभोक्तावादी समाजों में आसानी से पैदा हो जाती हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
14 अप्रैल को संविधान के शिल्पकार भारत रत्न डॉ.बीआर अंबेडकर की 131 वी जयंती है। उनके अनुयायी इस दिन को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। डॉ अंबेडकर सामाजिक क्रांति के प्रणेता समतामूलक समाज के निर्माणकर्ता और आधुनिक राष्ट्र के शिल्पकार थे। डॉ. अंबेडकर का पूरा नाम भीमराव रामजी आंबेडकर है उनका जन्म 14 अप्रैल सन 1891 को मध्य प्रदेश के मऊ शहर में हिंदू धर्म के अछूत समझी जाने वाली महार जाति में हुआ। महारो को अच्छे काम सरकारी नौकरी इज्जत वाले काम धंधे की मनाही थी। उन्हें रास्ते की सफाई शौचालय साफ करना, जूते बनाना, मवेशियों की खाल उतारना आदि कार्य करने हेतु मजबूर होना पड़ता था। खान-पान वेशभूषा पर भी कई प्रतिबंध थे वे पशुओं से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर थे
भीमराव की रुचि शुरू से पढ़ाई में थी स्कूल मे बालक भीम राव को जात पात छुआ छूत के कई कड़वे अनुभव हुए स्कूल मे बालक भीम पानी पीने को तरस जाया करते थे।
आज की पीढ़ी इस बात से अनभिज्ञ है कि बाबा साहब अपने समकालीन लोगों से सर्वाधिक शिक्षित व्यक्ति थे। अध्ययन एवं ज्ञान प्राप्ति करने की उनकी जबरदस्त भूख थी। वे रोज 18-20 घंटे पढ़ाई करते थे।
डॉ. अंबेडकर ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एम.ए. , पीएचडी,लंदन से एम.एस.सी. , डी.एस.सी और ग्रेस-इन से बार एट लॉ की डिग्री हासिल की। वे सोशियोलॉजी, इकोनॉमिक्स, सोशल साइंस, एंथ्रोपोलॉजी, लॉ, रिलीजन आदि अनेक विषयों के ज्ञाता थे। डॉक्टर अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर थे वे कहते हैं राजनीतिक गुलामी की अपेक्षा सामाजिक गुलामी ज्यादा अमानवीय व कष्टकारी होती है। डॉ. अंबेडकर ने अछूतों में स्वाभिमान की भावना भरी उन्हें अपने पैरों पर खड़े होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया उन्होंने महाड़ के चावदार तालाब से पानी पी कर सत्याग्रह की शुरुआत की एवं अछूतों में संगठन व संघर्ष का बिगुल फूंका उनका मानना था धर्म मनुष्य के लिए है मनुष्य धर्म के लिए नहीं वे कहते हैं हमारा संघर्ष इंसान का दर्जा प्राप्त करने के लिए है छुआछूत एक तरह की गुलामी हैं गुलामी और धर्म एक साथ नहीं रह सकते। उनके ऊपर हिंदू धर्म को तोडऩे के आरोप लगे। साइमन कमीशन को सहयोग देने के लिए राष्ट्रीय नेता अंबेडकर से काफी नाराज हुए एवं उन्हें देशद्रोही व ब्रिटिशों का पि_ू कहां गया साइमन रिपोर्ट तैयार होने के बाद जब इन नेताओं ने रिपोर्ट पढ़ा तो उनकी आंखें खुली रह गई और अंबेडकर की राष्ट्रभक्ति पर शक करने का एहसास करने लगे तिलक अखबार केसरी ने लिखा था डॉक्टर अंबेडकर के विचार किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता के है
डॉ अंबेडकर एक सच्चे राष्ट्र भक्त थे
वे निडर साहसी व स्पष्टवादी थे दलितों के उचित प्रतिनिधित्व तथा उनके हकों के संरक्षण के लिए उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की जिसका गांधी जी ने विरोध किया व आमरण अनशन पर बैठ गए गांधीजी की जान बचाने के लिए उन्होंने कम्युनल अवार्ड की मांग छोड़ पूना पैक्ट समझौता पर हस्ताक्षर किए। ब्रिटिश हुकूमत में श्रम सदस्य रहते उन्होंने श्रमिक स्त्री पुरुष के हितों को ध्यान रखते हुए कई कानूनों के निर्माण पर जोर दिया। आजाद भारत के संविधान निर्माण में उन्होंने समाज के हर तबके को उनके अधिकार सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया अपनी बुद्धि प्रतिभा और योग्यता के दम पर देश को नया संविधान दिया समता समानता न्याय सभी को आगे बढऩे के अवसर की उनकी सोच संविधान में परिलक्षित होती है।
डॉ. अंबेडकर भारत में महिलाओं की स्थिति से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने उनके उत्थान के लिए हिंदू कोड बिल लेकर आए ताकि समाज में महिलाओ को उचित प्रतिनिधित्व व अधिकार मिल सके किंतु बिल पास ना हो सका और उन्होंने कानून मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया। समाज को जोडऩे के लिए एवं वंचित वर्ग को समाज में उसकी प्रतिष्ठा दिलवाने के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया वे कहते थे मैं प्रथम और अंत में भारतीय हूं।
एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण में डॉ भीमराव अंबेडकर का अहम योगदान है जिसके लिए आने वाली सदियां उनको बतौर आधुनिक भारत के शिल्पकार के रूप में हमेशा याद रखेगी।
-शशांक ढाबरे
अधीक्षण अभियंता (सीएसपीजीसीएल)
मुकदमों का जल्दी निपटाने के लिए कई देश आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करने की ओर बढ़ रहे हैं. मलेशिया ने दो राज्यों में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर इसे शुरू किया है, लेकिन वकील इसे लेकर आशंकाओं में घिरें हैं.
दो दशकों के वकालत के करियर में कुछ ही मामले थे, जिन्होंने हामिद इस्माइल को परेशान किया था. हाल ही में जिस शख्स का वह बचाव कर रहे थे, उसे अदालत ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से सजा सुनाई, तो वह दंग रह गए. यह मामला मलेशिया के सबा राज्य का है.
मलेशिया की केंद्र सरकार के निर्देश पर कई राज्यों ने अदालतों की मदद के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई के इस्तेमाल का पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है. सबा और पड़ोसी राज्य सारावाक में इसका परीक्षण किया जा रहा है. दिक्कत इसलिए हो रही है कि वकील, जज और आम लोग इसे समझें, उसके पहले ही इस तकनीक का इस्तेमाल शुरू हो गया है.
हामिद इस्माइल का कहना है कि तकनीक के इस्तेमाल पर ना तो सलाह-मशविरा हुआ और ना ही देश के दंडात्मक विधान में इसपर विचार किया गया है. उनका कहना है, "हमारा आपराधिक प्रक्रिया विधान अदालतों में एआई के इस्तेमाल के लिए नहीं बना है...मेरे ख्याल में यह गैरसंवैधानिक है." इस्माइल ने यह भी कहा कि एआई के निर्देश पर उनके मुवक्किल को मामूली मात्रा में ड्रग्स रखने के लिए ज्यादा कठोर सजा दी गई है.
अदालत में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
सबा और सारावाक की आदालतों ने सरकारी कंपनी सारावाक इन्फॉर्मेशन सिस्टम के तैयार किए सॉफ्टवेयर का पहली बार इस्तेमाल शुरू किया है. सरकारी कंपनी का कहना है कि उसने प्रक्रिया के दौरान सलाह-मशविरा किया और इस दौरान जो चिंताएं जाहिर की गईं, उनका समाधान भी हुआ. दुनिया भर के अपराध न्याय तंत्र में इसका इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है. इनमें डूनॉटपे लॉयर मोबाइल ऐप से लेकर एस्तोनिया में छोटे मुकदमों को निपटाते रोबोट जज, कनाडा में रोबोट मध्यस्थ और चीन की अदालतों में एआई जज तक शामिल हैं.
अधिकारियों का कहना है कि एआई आधारित तंत्र सजा की प्रक्रिया को एकरूप बना रहे हैं और लंबित मुकदमों को जल्दी से और सस्ते में निपटा रहे हैं. इस तरह से दोनों पक्षों को लंबे और खर्चीले मुकदमों से निजात मिल रही है. दुनिया भर की एक तिहाई से ज्यादा सरकारों ने पिछले साल रिसर्च एजेंसी गार्टनर के सर्वे में बताया कि वे एआई वाले सिस्टम में निवेश बढ़ाने की योजना बना रहे हैं. इनमें चैटबोट, फेशियल रिकग्निशन और सभी क्षेत्रों में डाटा माइनिंग शामिल हैं.
मलेशिया की संघीय सरकार इसी महीने एआई के जरिए सजा सुनाने वाले तंत्र का पूरे देश में ट्रायल पूरा कर लेगी. हालांकि इनका इस्तेमाल अदालतों में कब शुरू होगा, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है. मलेशिया के मुख्य न्यायाधीश के प्रवक्ता ने सिर्फ यही कहा कि अदालतों में एआई का इस्तेमाल "अभी भी परीक्षण के दौर में है."
पूर्वाग्रह के बढ़ने का डर
आलोचक चेतावनी दे रहे हैं कि एआई अल्पसंख्यकों और हाशिये पर मौजूद गुटों के साथ पूर्वाग्रह को और बढ़ा देंगे. उनका कहना है कि इस तकनीक में किसी खास परिस्थिति या फिर बदलते रीति-रिवाजों का ध्यान रखने की क्षमता नहीं है जो जजों में होती है. इस्माइल ने कहा, "सजा देने में जज सिर्फ मुकदमे के तथ्यों पर ही ध्यान नहीं देते हैं, बल्कि गंभीरता को कम करने वाले कारकों पर भी ध्यान देते हैं और अपने विवेक का भी इस्तेमाल करते हैं. एआई विवेक का इस्तेमाल नहीं कर सकता."
मलेशिया के मानवाधिकार कार्यकर्ता वकील चार्ल्स हेक्टर फर्नांडिज का कहना है कि गंभीरता को बढ़ाने या घटाने वाले कारकों पर विचार करने के लिए "एक मानवीय दिमाग की जरूरत" होती है. फर्नांडिज के मुताबिक, "बदलते समय या लोगों की राय के हिसाब से सजाओं में फर्क भी आता है. बढ़ते मुकदमों के बोझ से निपटने के लिए हमें ज्यादा जजों और अभियोजकों की जरूरत है, एआई मानव जज की जगह नहीं ले सकता."
सारावाक इन्फॉर्मेशन सिस्टम ने एआई सॉफ्टवेयर के कारण पूर्वाग्रह बढ़ने की चिंताओं को मिटाने की कोशिश के तहत कहा कि उसने एल्गोरिद्म से "नस्ल" को हटा दिया है. इस तरह की कोशिशें अहम हैं, लेकिन फिर भी विशेषज्ञों का कहना है कि इससे यह तंत्र पूरी तरह अचूक नहीं बन जाता. 2020 में पॉलिसी थिंक टैंक खजानाह रिसर्च इंस्टीट्यूट ने इस बारे में एक रिपोर्ट छापी थी. इंस्टीट्यूट ने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि कंपनी ने एल्गोरिद्म को ट्रेन करने के लिए केवल 2014-2019 के बीच के आंकड़ों का ही इस्तेमाल किया. दुनिया की बाकी जगहों से तुलना की जाए, तो वहां बहुत भारी डाटा का इस्तेमाल हो रहा है.
डाटाबेस बढ़ाने के बारे में प्रतिक्रिया के लिए सारावाक इन्फॉर्मेशन सिस्टम से बात नहीं हो सकी है. खजानाह इंस्टीट्यूट के सबा और सारावाक में मुकदमों के विश्लेषण से पता चलता है कि जजों ने एक तिहाई मामलों में एआई के निर्देशों को माना. इसमें बलात्कार से लेकर नशीली दवाएं रखने तक के अपराध शामिल थे.
कुछ जजों ने एआई से मिली सजा को गंभीरता कम करने वाले कारकों के आधार पर घटा दिया. दूसरों ने यह मानकर कि प्रस्तावित सजा अपराधियों को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं होगी, सजा बढ़ा दी.
जजों का विवेक
सिंगापुर की नेशनल यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर सायमन चेस्टरमान का कहना है कि तकनीक में यह क्षमता नहीं है कि वह अपराध न्याय तंत्र की दक्षता को बेहतर कर सके. हालांकि इसके साथ ही वह यह भी कहते हैं कि इसकी वैधता ना सिर्फ फैसलों के सही होने बल्कि उस तक पहुंचने के तरीकों पर भी निर्भर करती है.
चेस्टरमान ने कहा, "मुमकिन है कि बहुत से फैसले सही तरीके से मशीन को सौंपे जायें, लेकिन एक जज को अपना विवेक किसी अस्पष्ट अल्गोरिद्म के हवाले नहीं करना चाहिए." मलेशिया की बार काउंसिल ने भी एआई के पायलट प्रोजेक्ट पर चिंता जताई है. 2021 में जब राजधानी कुआलालंपुर की अदालतों ने 20 तरह के अपराधों के लिए सजा सुनाने में एआई का इस्तेमाल शुरू किया, तो काउंसिल ने कहा, "हमें कोई दिशानिर्देश नहीं मिला है और हमें अपराध कानून के वकीलों से इस बारे में कोई फीडबैक लेने का मौका नहीं दिया गया."
सबा में इस्माइल ने अपने मुवक्किल को एआई के सहारे मिली सजा के खिलाफ अपील की है, जिसे जज ने स्वीकार कर लिया. हालांकि उनका कहना है कि बहुत से वकील उसे चुनौती नहीं देंगे. इस्माइल ने कहा, "एआई किसी वरिष्ठ जज की तरह काम करता है. युवा मैजिस्ट्रेट उसके फैसले को बिल्कुल सही मानकर बिना कोई सवाल उठाए स्वीकार कर लेंगे."
एनआर/एसएम(रॉयटर्स)
-आर.के. जैन
न्याय की अवधारणा का आधार ही निष्पक्षता है। अगर निष्पक्षता कसौटी पर है तो प्रेमचंद की पंच परमेश्वर को पढ़ा जाये या फिर मोहम्मद करीम छागला की जीवनी को । जस्टिस छागला कोर्ट व कानून को कितनी अहमियत देते थे उसके दो किस्से आज भी याद किये जाते है। महाराष्ट्र के नये गवर्नर महोदय का स्वागत समारोह में वह प्रोटोकॉल की परवाह किये बगैर गवर्नर महोदय के आने के बाद पहुँचे थे। वजह कोर्ट का काम बीच में नहीं छोड़ा जा सकता था। दूसरा वाकय़ा लॉर्ड माउंटबेटन के बॉम्बे दौरे का है। उनके स्वागत के लिये भी वह सिर्फ इसलिए नहीं गये थे कि उनका कोर्ट चल रहा था।
1958 में उन्होंने न्याय को पारदर्शी बनाने का एक अनूठा प्रयोग किया।एलआईसी मामले की सुनवाई खुले में कराई और लाउडस्पीकर लगाये ताकि लोग अदालत की कार्यवाही सुन सके। नेहरूजी इस पर बहुत खफा हुए थे क्योंकि सुनवाई तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी के विरूद्ध हो रही थी जिसमें जस्टिस छागला ने उन्हें दोषी पाया था। नेहरूजी को न चाहते हुए भी उन्हें मंत्री पद से हटाना पड़ा था।
इस कड़वाहट के बावजूद भी नेहरूजी जानते थे कि जस्टिस छागला जैसे लोग देश की पूँजी है और इसलिये उनके रिटायरमेंट के बाद वर्ष 1958 में उन्हें अमेरिका में भारत का राजदूत नियुक्त किया था। यही नहीं वर्ष 1962 में इंग्लैंड में भारत का उच्चायुक्त भी नियुक्त किया था तथा वर्ष 1963 के नवंबर में देश के चौथे शिक्षा मंत्री के रूप में भी उनकी सेवाएं ली गई थी। नेहरूजी ने यह कहा था कि अपने जीवन में वह बहुत कम ऐसे लोगों से मिले है जो जस्टिस छागला जैसे धर्मनिरपेक्ष और कानून का सम्मान करने वाले है।
जस्टिस छागला की योग्यता व गुणों का सम्मान नेहरूजी के उपरांत श्री लाल बहादुर शास्त्री व इंदिरा गांधी ने भी किया था। इंदिरा जी के पहले मंत्रिमंडल में उन्हें देश का विदेश मंत्री बनाया गया था।
मेरा ख्याल है कि जो व्यक्ति उसूलों का पाबंद हो, सत्य व न्याय पर अडिग हो और अपने कर्तव्यों को ही अपना धर्म समझता हो , उसका सम्मान उसके विरोधी भी करते है। नेहरूजी ने इन्हीं गुणों के कारण जस्टिस छागला को पूरा सम्मान दिया और उनके प्रति कोई कड़वाहट नहीं रखी ।
जीवन तो नवरस का सम्मेलन है। हर वक्त गम्भीरता ओढऩे से आदमी मनहूस होता चलता है। आज हल्की फुल्की पोस्ट है। मेरे मन में किसी के लिए कलुष ठहरता नहीं है। नौ नगद, न तेरह उधार करता चलता हूं। सिर्फ मनोरंजन इस पोस्ट का मकसद है।
कवि, लेखक, प्राध्यापक और वरिष्ठ मित्र रहे डॉ. प्रमोद वर्मा की याद आ रही है। जो मेरे जेहन में छितरा गए, उनमें प्रमोद जी हैं ही। मैं साइंस कॉलेज रायपुर में उनका जूनियर सहकर्मी था। अध्यापकों में कई ठूंठ, ठर्र और कूपमंडूक किस्म के साथी रहते ही हैं। कुछ बागी किस्म, मुहफट, वाचाल और खुद को मौलिकता का तमगा पहनाते साथी भी हुये। हम जी भरकर लोगों की खुल्लमखुल्ला बुराई करते, ठहाके लगाते, चाय या कॉफी पीते, कुछ साथी सिगरेट के छल्ले उड़ाते। एक दिन प्रमोद जी के घर के सामने देर शाम हम लोग खड़ेे होकर प्राचार्य और प्राध्यापकों की बुराई कर रहे थे। मानो उससे हमारी पाचन शक्ति को जुलाब जैसा फायदा मिल जाएगा और अंदर की गंदगी निकल पड़ेगी। अचानक प्रमोद जी ने गंभीर चेहरा बनाते कहा ‘‘आओ यार अंदर बैठते हैं। पकौड़ेे बनवाता हूं और चाय। जी भरकर पकौड़ेे खाएंगे। चाय पिएंगे और पेट भर बुराई करेंगे।’’
अभी अचानक माधवराव सिंधिया का चेहरा उभर रहा है। साफ है मैं राजनीतिक, सामाजिक समझ की जिस शुरुआती पाठशाला में 1957 में स्कूल में पढ़ा, उसके मेरे प्रेरक तो राममनोहर लोहिया थे। 1959 में नेहरू उसमें आए। 1969 में गांधी मशहूर समाजवादी कृष्णनाथ के कारण जुड़ गए। ये सब मुझे छोड़ते ही नहीं हैं। फक्कड़ लोहिया ने राजशाही के खिलाफ मन में ऐसी बातें भर दी थीं कि मुझे सामंतों की देह से एक तरह की गैस निकलती महसूस होती रहती है। सुनील दत्त और नूतन के अभिनय वाली फिल्म सुजाता का एक किरदार भी यही तो कहता है कि अछूतों के शरीर से एक गैस निकलती है। हीरो खंडन करते हुए पूछता है आपने कभी देखी है। घाघ किरदार जवाबी सवाल करता है। टमाटर में विटामिन होता है तुमने कभी देखा है।
1989 में कांग्रेस की केन्द्र में हार के बाद पहली बार राजीव गांधी से मिला था। उन्हें मेरे बात करने का सलीका इतना पसंद आया और मुझे उनका व्यक्तित्व कि मैं लगातार चार दिन तक उनसे मिलता रहा। दूसरे ही दिन उनके घर एक ऑडियो टेप रिकार्डर लेकर राजीव गांधी को सुनाया। उसमें अपने नाम का उल्लेख और जोशीले नारे सुनकर राजीव ने वह कैसेट ले लिया और कहा इसे इत्मीनान से सुनूंगा।
अगले बरस राजीव ने मुझे खुद होकर मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी का महामंत्री नियुक्त किया। मैंने उनसे मुलाकातों में मध्यप्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष अर्जुन सिंह केे काफी बीमार हो जाने के कारण मित्र, आदिवासी लोकसभा सदस्य अरविंद नेताम को कार्यवाहक अध्यक्ष बनाने की प्रार्थना भी की थी। नेताम कार्यवाहक अध्यक्ष बने और मैं उनके साथ महामंत्री। पदभार के बाद मैं राजीव जी के पास गया। वे चाहते थे मैं दिल्ली में पार्टी संगठन में आ जाऊं। मैंने उनसे कहा था मैं जिला न्यायालय दुर्ग का ठीक ठाक वकील हूं। वकालत करते हुए मैं मध्यप्रदेश में तो काम कर पाऊंगा लेकिन दिल्ली आ गया तो मुझे खर्च की किल्लत होगी। राजीव जी ने सोचा। फिर कहा तुम्हारे ठहरने खाने का पहले इंतजाम करते हैं। बाकी फिर देखते हैं।
राजीव ने माधवराव सिंधिया से बात की और मुझे भेजा। मैंने सिंधिया को अपनी बातचीत का ब्यौरा दिया। अपने कर्मचारी के साथ सिंधिया ने सरकारी कोठी के आउटहाउस में मुझे भेजा और उसने कहा कि यहां आप रह सकते हैं। आसपास कुछ और स्टाफ भी रहता है। उन्हीं की तरह खाने पीने का इंतजाम सोचा जा सकता है। मैंने कहा यहां तो लोग मुझसे मिलने आएंगे। कभी घर के लोग भी आ सकते हैं। इसी एक कमरे में मुनासिब ग़ुजारा कैसे होगा। लौटकर सिंधिया से मिला। उन्होंने कहा इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकता। उनकी आवाज में तल्खी थी। उनकी निगाह में ग्वालियर का महाराजा था और मैं एक अकिंचन ब्राह्मण जो रसोइया और ड्राइवर की सामाजिक कैटेगरी का था। मैं तब भी बर्दाश्त कर लेता अगर यथा नाम तथा गुण होने से उनमें द्वापर के माधव की दृष्टि होती। मैं अपनी गरीबी के कारण खुद को सुदामा मान लेता। लेकिन वह नहीं हुआ।
मैंने राजीव जी को जाकर मनाही कर दी। वे मेरी ओर देखते रहे। फिर बोले मुझे भी लगता था कि शायद ऐसा ही होगा, लेकिन फिर भी मैंने सोचा कि शायद कुछ हो जाए। अब आप मध्यप्रदेश में जी लगाकर काम करिए। अगले लोकसभा के चुनाव के बाद फिर सोचेंगे। मैंने राजीव से कहा था कि मैं अब बुराई नहीं करना चाहता लेकिन सामंतवाद में यदि थोड़ी सी धरती की गंध हो जाए तो वे अब भी कुछ सार्थक कर सकते हैं, क्योंकि भारत की जनता अभी भी खुद को उनका रियाया ही समझती है। राजीव मुस्कराए थे। बेहद कड़वा स्वभाव होने के बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया की सियासत इसीलिए फलफूल जाती है क्योंकि जनता का एक बड़ा वर्ग उन्हें अपना खैरख्वाह समझता है। भले ही वे उसकी ही छाती पर मूंग दलते रहें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जब से रूस और यूक्रेन का युद्ध चला है, मैं बराबर लिखता रहा हूं कि इस मामले में भारत सर्वश्रेष्ठ मध्यस्थ हो सकता है, क्योंकि अमेरिका, रूस और यूक्रेन, तीनों से उसके संबंध उत्तम हैं। मुझे खुशी है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन से बात करके उन्हें प्रेरित किया कि वे व्लादिमीर पूतिन से सीधे बात करें और इस युद्ध को शांत करें। बेहतर होता कि मोदी सीधे ही खुद मध्यस्थ की भूमिका निभाते। वह यह काम अभी भी कर सकते हैं।
ऐसा प्रयत्न फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री कर चुके हैं लेकिन उनकी एक सीमा है। वह है, उनका अमेरिका और नाटोवाला संबंध! उनका तो अपना स्वार्थ भी अटका हुआ है। वे रूस के तेल और गैस पर निर्भर हैं। भारत की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। भारत रूस से शस्त्र जरुर खरीदता है लेकिन रूस को पता है कि भारत चाहे तो वह उन्हें किसी भी अन्य देश से खरीद सकता है। जब रूस भारत को सस्ता तेल भेजने लगा तो अमेरिका चिढऩे लगा। उसके एक अफसर ने भारत आकर धमकी भी दे डाली कि इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे। भारत की तटस्थता पर टिप्पणी करते हुए बाइडन भी बोल पड़े कि चौगुटे के देशों में भारत ही ऐसा है, जो रूस का विरोध करने में जऱा ढीला है।
लेकिन अमेरिका को पता है कि भारत के प्रतिनिधि ने संयुक्तराष्ट्र संघ में दर्जनों बार साफ़-साफ़ कहा है कि यह युद्ध तुरंत रूकना चाहिए और किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर आंच नहीं आनी चाहिए। भारत ने यूक्रेन के बूचा नामक शहर में हुए नर-संहार की जांच की मांग भी की है। बाइडन और मोदी के संवाद में यह मामला भी उठा। मोदी ने पूतिन से भी कहा था कि वे झेलेंस्की से सीधे बात क्यों नहीं करते? भारत ने यूक्रेन को पहले भी अनाज और दवाइयां भिजवाई थीं और अब भी भेजने की घोषणा की है।
भारत के रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री इस समय अमेरिका में अपने समकक्षों से संवाद कर रहे है तो भारत रूस से पिछले एक माह में इतना तेल आयात कर चुका है, जितना कि वह पिछले एक साल में भी नहीं कर सका था। यह तेल उसे सस्ते दामों पर मिल रहा है। अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्र भारत की इस नीति की आलोचना कैसे कर सकते हैं, क्योंकि यूरोपीय राष्ट्रों ने अपना रूसी तेल का आयात अभी तक ज्यों का त्यों रखा हुआ है।
मोदी और बाइडन के सीधे संवाद में भारत-अमेरिका सहयोग के कई अन्य आयामों पर भी सार्थक चर्चा हुई। चीन की चुनौती का सामना करने में अमेरिका हमेशा भारत का साथ देगा, यह अमेरिका रक्षा मंत्री लॉयड आस्टिन ने हमारे रक्षा मंत्री राजनाथ को आश्वस्त किया है। भारत की विदेश नीति में यदि थोड़ी सक्रियता और पहल की क्षमता अधिक होती तो विश्व राजनीति में आज उसका स्थान अनुपम बन सकता था। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अरुण माहेश्वरी
केरल के कन्नूर शहर में सीपीआई (एम) की 23वीं कांग्रेस (6-10 अप्रैल 2022) संपन्न हो गई। फिर से सीताराम येचुरी का महासचिव पद पर चुनाव और कुछ पुराने, जमे-जमाए नेताओं की विदाई और पोलिट ब्यूरो में पहली बार एक दलित नेता को शामिल किया जाना इतने सरल और सीधे ढंग से हुआ कि सीताराम येचुरी ने इस कांग्रेस को पार्टी के ‘एकजुट संकल्प’ की कांग्रेस की संज्ञा दी। इस कांग्रेस से कुछ पुरानी दुविधाओं, बल्कि राजनीतिक कार्यनीति की ‘इसे हराओ, उसे अलग-थलग करो और वाम को जिताओ’ की द्वंद्वों की त्रिकोणीय निष्पत्ति की अजीबो-गरीब दुविधाओं से भी शायद मुक्ति पाई गई।
अब इस कांग्रेस के जरिए यह साफ कहा दिया गया है कि सभी धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक शक्तियों को एक साथ इक_ा करके फासिस्ट आरएसएस-भाजपा की पराजय को सुनिश्चित करने और भारत के जनतंत्र और संघीय ढांचे की रक्षा करने के लिए ही आगे सभी जरूरी राजनीतिक कदम उठाने होंगे।
बहरहाल, सबसे पहले हम केरल में संपन्न हुई इस कांग्रेस के भव्य आयोजन पर ही आते हैं। राजनीति के जगत का यह एक मूलभूत सत्य है कि इसका एक प्रमुख लक्ष्य अनिवार्य रूप से राजसत्ता को प्राप्त करना होता है । भारत एक बहुजातीय राष्ट्र है । राजसत्ता संबंधी बारीक सैद्धांतिक तर्क के आधार पर हम भले कहें कि किसी भी राज्य सरकार में होने का अर्थ राजसत्ता पाना नहीं होता है । पर जब हम देश के संविधान और राज्य के संघीय ढांचे के प्रति आस्था रखते हैं और उनकी रक्षा को अपना कर्तव्य मानते हैं, तो इससे यह भी जाहिर होता है कि प्रकारांतर से हम यह भी मानते हैं कि किसी भी राज्य सरकार में होने का अर्थ एक हद तक राजसत्ता की शक्ति को हासिल करना भी होता है। अपनी राजनीतिक सुविधा-असुविधा की वजह से भले हम इस सच को न पूरी तरह से मानते हो, और न ही इसे पूरी तरह से अस्वीकारते हो, पर राजनीति के दैनंदिन अनुभवों में इसके प्रयोग से बखूबी परिचित होते हैं। राज्य सरकारों के जरिये भी राजनीतिक दल सामाजिक परिवर्तनों, और जनजीवन में सुधार के अपने कई अभीप्सित कामों को क्रमिक रूप में किया करते हैं।
यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भले पार्टी कांग्रेस की तरह के अनुष्ठानों का अपने आप में कोई मायने न होता हो, पर पार्टी कार्यकर्ता के लिए ऐसे अनुष्ठानादि पार्टी की राजनीतिक लाइन से अपने को उन्नत करने के साधन हुआ करते हैं। ये एक प्रकार से ऐसे वैदिक कर्मकांड की तरह हैं जो निष्काम भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों को उपनिषदों के अध्ययन का सुपात्र बनाते हैं। इनके लिए ही इन आयोजनों की प्रभावशाली भव्यता भारी महत्व रखती है। और कहना न होगा, इसमें राजसत्ता का योगदान, वह कितनी ही सीमित क्यों न हो, बहुत मायने रखता है ।
हमारी दृष्टि में केरल की यह कांग्रेस इस अर्थ में भी भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए अभी की कठिन घड़ी में बहुत उपयोगी साबित हो सकती है । इसने आज के समय में कम्युनिस्ट आंदोलन की शक्ति का परिचय दे कर देश भर के वामपंथियों को जरूर उत्साहित किया है ।
पार्टी कांग्रेस के सुचारु और भव्य संचालन, तथा इस कांग्रेस के जरिए कुछ खास प्रकार की ‘ऐतिहासिक उलझनों’ से उबरने के लक्षणों की पहचान के साथ ही जरूरी है कि इस मौके पर ही हम अधिक ठोस रूप में इस बात को समझे कि वास्तव में आज के राजनीतिक जगत में सीपीआई(एम) खड़ी कहां है ? क्या वह आज भी ऐसी जगह पर बनी हुई है कि इस जगत के उस सत्य से स्पंदित हो सके जो उसे तेज या धीमी गति से ही आगे की ओर बढ़ा सकता है, या दुनिया के दूसरे कई वामपंथी समूहों की तरह ही वह किसी ऐसी जगह पहुंच चुकी है जहां से अब वर्तमान राजनीतिक जगत की संरचना का सच उसे स्पर्श ही नहीं कर सकता है ! अर्थात् अब उसमें उर्ध्वगामी गति की संभावनाएँ ही नहीं बची है !
सीपीआई (एम) की तरह की भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन की एक सबसे प्रमुख पार्टी के संदर्भ में भी हम ऐसी चिंता इसलिए जाहिर कर रहे हैं, क्योंकि अतीत में इस पार्टी के इतिहास में कुछ ऐसी भयंकर अघटन की तरह की घटनाएं घट चुकी है, जिनसे स्वाभाविक रूप में ही एक झटके में इसके राजनीति के जगत के सत्य से बहुत दूर चले जाने का खतरा पैदा हो सकता था ।
सीपीआई (एम) में ऐसे खतरे का पहला संकेत सन् 1996 में देखने को मिला था जब 13 दिन की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के पतन के बाद ज्योति बसु को विपक्ष के संयुक्त मोर्चा का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था और उसे सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में मामूली बहुमत के प्रयोग से ठुकरा दिया गया ।
वह एक ऐसा अवसर था जब सीपीआई(एम) को एक झटके में पूरे भारत की राजनीति के केंद्र में आ जाने का अवसर मिला था । कोई भी साधारण राजनीतिक विश्लेषक ही उससे पैदा होने वाली उन ‘असंभव संभावनाओं’ का अनुमान लगा सकता है, जिन्हें साधना ही वास्तव में राजनीति मात्र की सबसे प्रमुख विशेषता हुआ करती है । उस अवसर को गंवा कर सीपीआई(एम) ने अपने को उस भारतीय राजनीति के उस सत्य से काफी दूर कर दिया था जो उसके लिए एकबारगी, तेजी के साथ अखिल भारतीय स्तर पर फैल जाने के नए अवसर खोल सकती थी । सीपीआई(एम) के अंदर के बहुमत ने उस निर्णय के पीछे शुद्ध गैर-राजनीतिक, नौकरशाही किस्म का तर्क दिया था कि ‘पार्टी की अपनी ताकत से इस इतनी बड़ी जिम्मेदारी की कोई संगति नहीं बैठती है’ । तब ज्योति बसु ने अपने नपे-तुले अंदाज में पार्टी के उस अराजनीतिक फैसले को ‘ऐतिहासिक भूल’ कहा और साथ ही यह भी कहा कि ‘अब बस छूट गई है’ । ‘बस छूटने’ का मतलब होता है, उस गति से अपने को काट लेना जो आपके लिए तेजी से आगे बढ़ने का अवसर बनाती है । जाहिर था कि आगे ऐसे मौके जब आएंगे, तब तक के समय के फासले को पाटना कहीं ज्यादा कठिन और जटिल काम हो जाएगा ।
इसके साथ ही, पार्टी अपने परंपरागत प्रभाव के तीन राज्यों, पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में, शुद्ध रूप से अपनी सांगठनिक शक्ति के बूते सीमित हो गई । गतानुगतिक सांगठनिक कामों के अलावा उसके विस्तार में राजनीतिक छलांग की भूमिका सीमित हो गई । शुद्ध सांगठनिक दैनंदिन क्रियाकलापों से पार्टी में कैसे-कैसे, मठाधीशों वाले व्यक्तिवादी वर्चस्व के रोग पैदा हो सकते हैं, इसे जानने के लिए भी बहुत गहरी विश्लेषण क्षमता की जरूरत नहीं है । सीपीआई(एम) के सर्वोच्च नेतृत्व में यहीं से बहुमतवादी तिकड़मी राजनीति का जो बीज पड़ा, उसके हाल तक के परिणामों से हम सभी परिचित है । उसे सीपीआई(एम) का ‘प्रकाश करातवादी दौर’ कहना गलत नहीं होगा, और उसकी छाया से आज भी सीपीआई(एम) कहां तक मुक्त हो पाई है, कहना मुश्किल है !
बहरहाल, उसके बाद, सन् 2004 में, जब लोकसभा में वामपंथियों को उनके इतिहास में सबसे अधिक सीटें मिली थी, सीपीआई(एम) के समर्थन से मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-1 की सरकार बनी । पार्टी भारत की राजनीति के केंद्र में फिर से एक बार आई । वह सरकार भी बमुश्किल चार साल ही चल पाई कि 2008 में, अमेरिका के साथ पारमाणविक संधि के सवाल पर सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में प्रकाश करात के नेतृत्व को हमारी राजनीति के ठोस जगत से दूर, अमेरिकी साम्राज्यवाद के विश्व-वर्चस्व की सैद्धांतिक समझ का भूत बुरी तरह से सताने लगा । दलीलें दी जाने लगी कि यदि यह समझौता हो जाता है, तो भारत सीधे अमेरिका का पिछलग्गू एक ऐसा देश बन जायेगा जहां वामपंथ की कभी कोई संभावना शेष नहीं रहेगी । इस संधि को मानना वामपंथ के लिए आत्म-हत्या के समान होगा ।
गौर करने की बात है कि तब भी ऐतराज परमाणु संधि मात्र से नहीं था, इस बात से था कि यह संधि अमेरिका के साथ नहीं होनी चाहिए । मनमोहन सिंह ने वाम के इस दबाव को एक बेजा दबाव माना, उसे मानने से इंकार कर दिया और इसके प्रत्युत्तर में प्रकाश करात ने भी चाणक्य की तरह चुटिया बांध कर मनमोहन सरकार का सर्वनाश करने का घोषित फैसला कर लिया । वाम ने मनमोहन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और प्रकाश करात तो उसके खिलाफ सभी ताकतों को एकजुट करने की भद्दी कवायद में भी जुट गए । लेकिन उनका दुर्भाग्य कि अपनी नाक कटा कर भी वे अपने मंसूबों में सफल नहीं हुए । उल्टे, स्पीकर सोमनाथ चटर्जी पर ज्योति बसु वाला फार्मूला भी नहीं चल पाया ।
आज इस दूसरे प्रकरण का सबसे मजेदार पहलू यह लगता है कि मनमोहन सिंह ने अमेरिका सहित और भी कई देशों से परमाणु संधियां कर लीं और तब से अब तक लगभग एक युग बीत गया है, लेकिन उस संधि का कोई राजनीतिक परिणाम आज तक किसी के सामने नहीं आया है । अभी तो वह संधि लगभग बेकार सी, इतिहास के कूड़े के ढेर पर पड़ी दिखाई देती है ।
पर सीपीआई (एम) के साथ इस पूरे प्रकरण का अघटन यह हुआ कि उस संधि के भूत ने सीपीआई(एम) को काट कर भारत के राजनीतिक जगत के केंद्र से निकाल कर इतनी दूर फेंक दिया कि तब से भारत के राजनीतिक जगत में सीपीआई(एम) और वामपंथ की लगातार अवनति की कहानियां ही लिखी जा रही है । पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे अपने शक्तिशाली राज्यों में वह अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है । केरल में उसे जरूर इस बार दुबारा जीत मिली है, पर इसका कारण कांग्रेस की दुर्दशा है, जिसके सामने सीपीआई(एम) अपने संगठन के बल पर ही भारी साबित हुई है । संगठन मात्र की जीत को राजनीति की जीत कहना हमेशा सही नहीं होता है ।
इस प्रकरण के बाद, कुल मिला कर ऐसा लगने लगा था कि जैसे भारत की राजनीति का सत्य सीपीआई(एम) से कोसों दूर चला गया है । प्रकाश करात की भाजपा-आरएसएस के फासीवादी चरित्र के प्रति दुविधा से उपजी ‘इसे हराओ, उसे अलग-थलग करो और हमें जिताओ’ वाली गड़बड़झाले वाली बहुमुखी राजनीति हवा में दफ्ती की तलवार भांजने की हास्यास्पद हरकतों से अधिक कुछ भी प्रेषित नहीं करती थी ।
बहरहाल, सीपीआई(एम) की इस सफल 23वीं कांग्रेस के सिलसिले में इसके अब तक के इतिहास के कुछ ऐसे दुखांतकारी क्षणों का स्मरण करना हमें इसलिए जरूरी लगा क्योंकि परिस्थितियां बदलने पर भी आदतें अक्सर आसानी से नहीं बदला करती हैं । पार्टी कांग्रेस की तरह के गहन विश्लेषण के अनुष्ठानों का मतलब तो यही होता है कि इनसे अब तक के तमाम विषयों को खंगाल कर पार्टी के पुराने रोगों का निदान किया जाता है ।
पार्टी की इस 23वीं कांग्रेस में फिर से सीताराम येचुरी का चुना जाना और देश को बचाने के लिए निर्द्वंद्व भाव से भाजपा-आरएसएस के खिलाफ ही अपनी पूरी शक्ति को नियोजित करने का एकजुट होकर संकल्प लेना इस बात के संकेत देता है कि कहीं न कहीं कुछ तो ऐसा बदलाव आया है जिससे पार्टी के रोग के निदान की ओर बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है । आज भी सीपीआई(एम) के पास केरल की सरकार है और पश्चिम बंगाल तथा त्रिपुरा में वह निःसंदेह दूसरे स्थान की बड़ी पार्टी है । इन तीन राज्यों के बल पर ही वह कांग्रेस सहित देश की सभी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों की पाँत में एक सम्मानजनक स्थान की हकदार हो सकती है । पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में कांग्रेस के साथ उसका खुले मन से मजबूत गठबंधन उसकी पूरे देश की भाजपा-विरोधी राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका का आधार तैयार कर सकता है । केरल में ऐसे गठबंधन की जरूरत नहीं है क्योंकि भाजपा वहां के दृश्य से गायब है ।
हमें आशा है कि इस कांग्रेस के बाद अब आगे क्रमशः एक ऐसी नई पार्टी के उभार का संकेत मिलेगा जो पार्टी को हमारे राजनीतिक जगत के केन्द्र में लाकर धर्म-निरपेक्ष और समतापूर्ण भारत के सत्य से स्पंदित होते हुए वामपंथी सोच के क्षितिज के विस्तार का कारक बनायेगी ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस बार भारत में हमने रामनवमी कैसे मनाई ? हमने रामनवमी को रावणनवमी में बदल दिया। देश के कई शहरों और गांवों में एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय से भिड़ गए। यहां तक की जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र, जिन्हें देश में अत्यंत प्रबुद्ध माना जाता है, वे भी आपस में भिड़ गए। कई शहरों में लाठियां, ईंट और गोलियां भी चलीं। कुछ प्रदर्शनकारी पुलिस की ज्यादती के भी शिकार हुए। यह सब हुआ है, उसके जन्म दिन पर, जिसे अल्लामा इक़बाल ने ‘इमामे हिंद’ कहा है।
इकबाल का शेर है- है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज़। अहले-नजऱ समझते हैं इसको इमामे हिंद!! राम को भगवान भी कहा जाता है और मर्यादा पुरुषोत्तम भी। लेकिन राम के नाम पर कौनसी मर्यादा रखी गई? राम को सांप्रदायिकता के कीचड़ में घसीट लिया गया। इसके लिए हमारे देश के वामपंथी और दक्षिणपंथी तथा हिंदू और मुसलमान, दोनों जिम्मेदार हैं।
यदि रामनवमी का उत्सव मना रहे पूजा-पाठी छात्र कह रहे हैं कि पूजा-स्थल के तंबू के पास ही छात्रावास में मांस पकाया और खिलाया जा रहा है तो उससे हमें दुर्गंध आती है तो उनका दिल रखते हुए मांसाहार कहीं और भी उस समय करवाया जा सकता था और यदि मांसाहारी छात्र चाहते तो पूजा के घंटे भर पहले या बाद में भी भोजन कर सकते थे लेकिन यह झगड़ा तो न राम से संबंधित था और न ही मांसाहार से! इसके मूल में संकीर्ण राजनीति थी। वामपंथ और दक्षिणपंथ की!
मांसाहार का समर्थन करने वालों में हिंदू छात्र भी थे। हिंदू मांसाहारी तो अपना औचित्य ठहराने के लिए भवभूति के ग्रंथ ‘उत्तरराम चरित्रम’, प्रसिद्ध तांत्रिक मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ और चार्वाक के मद्यं, मांसं, मीनश्च, मुद्रा, मैथुनमेव च श्लोक तथा उपनिषदों के कई प्रकरणों को भी उद्धृत कर डालते हैं। वे वेदमंत्रों के भी मनमाने अर्थ लगा डालते हैं लेकिन वे वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों के उन तथ्यों और तर्कों को मानने के लिए कभी भी तैयार नहीं होते कि मांसाहार स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के लिए घाटे का सौदा है।
इसी तरह कुछ शहरों में मंदिरों और मस्जिदों के आगे भी बम फोड़े गए, पत्थर मारे गए और गोलियां तक चलीं। आप क्या समझते हैं कि यह काम किसी सच्चे ईश्वरभक्त या अल्लाह के बंदे का हो सकता है? बिल्कुल नहीं! यदि कोई सच्चा ईश्वरभक्त या अल्लाह का बंदा है तो उसके लिए ईश्वर और अल्लाह अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? वह तो एक ही है।
बस, उसकी भक्ति के रुप अलग-अलग हैं। ये रूप देश-काल और परिस्थितियों से तय होते हैं। यदि सारे विश्व में देश-काल और परिस्थितियां एक-जैसी होतीं तो इतने सारे धर्म, मजहब, रिलीजन होते ही नहीं। इस विविधता को धर्मांध लोग नहीं समझ पाते हैं। इसीलिए वे रामनवमी को रावणनवमी बना डालते हैं। किसी शायर ने क्या खूब लिखा है:
आए दिन होते हैं, मंदिरों-मस्जिद के झगड़े,
दिल में ईंट भरी हैं, लबों पर खुदा होता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमेशा की तरह पाकिस्तान की इमरान सरकार पांच साल के पहले ही उलट गई। इस बार उसे पाकिस्तान की फौज ने नहीं, अदालत ने उलटाया है। यदि फौज उसे उलटा देती तो भी अदालत उसे सही ठहरा देती, जैसे कि उसने पिछले तख्ता-पलट के वक्त ‘परिस्थिति की अनिवार्यता’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। लेकिन इमरान खान ने इस बार अपनी नासमझी के चलते अदालत को खुद ही मौका दे दिया कि उसके फैसले पर कोई उंगली नहीं उठा सके। खुद इमरान ने भी अदालत के इस फैसले को गलत नहीं कहा है कि भंग संसद को वापिस लाया जाए और अविश्वास प्रस्ताव को दुबारा पेश किया जाए। यही हुआ। लेकिन हम ध्यान दें कि अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में सिर्फ 174 वोट ही पड़े याने कुल दो वोटों के बहुमत से अब यह नई सरकार चलेगी। असली सवाल यह है कि शेष सभी सांसद कहां थे?
दल-बदलू सांसद भी गैर-हाजिर क्यों रहे? वे तो सदन में आ सकते थे। वे यदि विरोध में वोट नहीं देना चाहते तो वे तटस्थ रह सकते थे। लेकिन इमरान के अनुयायिओं की तरह उनके दल-बदलू भी विरोधियों के साथ खुलकर नहीं चले, यह तथ्य नई शाहबाज शरीफ सरकार के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है। यदि इमरान का जन-आंदोलन तूल पकड़ गया तो ये दल-बदलू ही नहीं, नई सरकार के कुछ सांसद भी टूटकर इमरान की पीटीआई से मिलने की कोशिश कर सकते हैं। इमरान के इस आरोप के ठोस प्रमाण अभी तक सामने नहीं आए हैं कि उनकी सरकार अमेरिका के इशारे पर गिराई गई है। लेकिन इमरान के व्यक्तित्व और भाषण-कला की टक्कर में इस समय कोई अन्य नेता दिखाई नहीं पड़ता। वे ‘अमेरिकी हस्तक्षेप से बनी इस सरकार’ के खिलाफ यदि कोई जन-आंदोलन खड़ा कर सके तो इस नई सरकार को अगला डेढ़ साल काटना मुश्किल हो जाएगा। भावी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने संसद में और उसके बाहर भी बहुत ही संतुलित और मर्यादित विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने प्रतिशोध, अतिवाद, शक्ति के दुरुपयोग आदि से मुक्त रहने का वादा किया है।
मुख्यमंत्री के तौर पर और उसके पहले व बाद में शाहबाज से मेरी कई बार भेंट हुई है। वे अहंकारी और निरंकुश स्वभाव के व्यक्ति नहीं हैं लेकिन पीपीपी के बिलावल भुट्टो और मौलाना फजलुर्रहमान से वे कैसे पार आएंगे? ये नेता एक-दूसरे को चोर, डकैत, उठाईगीरा, अपराधी, रिश्वतखोर, दुराचारी और पता नहीं क्या-क्या कहते रहे हैं। उनकी पार्टी के लोग एक-दूसरे पर खुले-आम हमले बोलते रहे हैं। और फिर चुनाव हुए तो सीटों के बंटवारे को लेकर ये आपस में भिड़ सकते हैं। यदि मियां नवाज़ शरीफ लंदन से लौट आए तो फौज के साथ उनका रिश्ता कैसा रहेगा? इन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इमरान शासन के अधूरे कामों और नई समस्याओं को यह गठबंधन सरकार कैसे हल कर पाएगी। क्या श्रेय लूटने की कामना इनमें दंगल नहीं करवा देगी? यह भी हो सकता है कि इमरान और उनके साथियों को यह नई सरकार जेल भिजवाने की कोशिश कर डाले। ऐसे में शाहबाज से मैं कहूंगा कि वे हमारे चौधरी चरणसिंह से सबक ले लें, जिन्होंने इंदिरा गांधी को जेल भिजवाया था तो जनता ने उनको घर बिठा दिया था। (नया इंडिया की अनुमति से)
-विष्णु नागर
महंगाई-महंगाई की चें -चें, पें-पें से मेरा तो अब सिर घूमने लगा है। इधर पेट्रोल-डीजल-गैस की महंगाई का रोना चल ही रहा था कि उधर दवाइयों, सब्जियों, फलों और यहाँ तक कि नींबू की महंगाई का रोना भी शुरू हो गया है। कहने लगे हैं लोग कि दवाई तो दवाई, साहब मोदी राज में तो नींबू तक तीन-चार सौ रुपये किलो हो गया है। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था। एक मित्र ने कहा कि पहले मैं चाय में एक नींबू निचोड़ता था, आज आधा ही निचोड़ा। एक ने कहा, मैंने गुस्से में दो नींबू निचोड़़ डाले। अब अफसोस हो रहा है कि हाय ये मैंने क्या कर दिया!
पहली बात समझने कि यह है कि इस वैश्विक संकट के समय नींबू खाना ही क्यों? सच तो यह है कि रोटी भी खाना क्यों? उधर यूक्रेन में निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं और तुमको हाय नींबू, हाय नींबू सूझ रहा है! शरम करो कुछ। मोदीजी से सीखो, जो आजकल उपवास कर रहे हैं। उनकी जान तो नींबू में अटकी हुई नहीं है और तुम बेशर्मी से नींबू-नींबू कर रहे हो! अरे ये वैश्विक संकट गुजर जाने दो, मोदीजी घर-घर नींबू पहुँचाने खुद आएँगे। रोटी मत खाना, फिर नींबू ही खाते रहना! ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर सब उसीका करना! अब तो खुश?
मेरा नींबूप्रेमियों से सीधा सवाल है कि तुमसे
किसने कहा था कि नींबू की चाय पिया करो? मोदी जी ने कहा था? तुमने नींबू की आदत डालने से पहले मोदी जी से एक बार भी पूछा था? पूछते कुछ हो नहीं, अपने मन की करते रहते हो और फिर शिकायत करने बैठ जाते हो! मोदी जी सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि मैं सिर्फ एक टेलीफोन की दूरी पर हूँ। उनको टेलीफोन करोगे नहीं, देश को बदनाम करना शुरू कर दोगे कि बताइए नींबू तो आयात नहीं हो रहा, फिर भी देश की जनता नींबू के लिए तरस रही है। बताओ, यह देशद्रोह नहीं है तो और क्या है?
वैसे मैं तो चाय में नींबू निचोड़ता ही नहीं। मैंने पहले ही मोदी जी को फोन करके पूछ लिया था कि बताइए रूस-यूक्रेन संकट के समय मुझे क्या -क्या त्याग करना चाहिए? गाड़ी में पेट्रोल भरवाऊँ या नहीं? उन्होंने मुझे कसकर डाँटा। कहा तुम्हारी और मेरी उम्र लगभग बराबर है मगर अकल तुम्हें आज तक नहीं आई! तुम्हें खुद ही समझ लेना चाहिए था कि नहीं भरवाना है। दवाइयां महंगी हो जाएँगी, ये भी अभी नहीं खाना है। बाद में सारी एकसाथ खा लेना। और सुनो, आज से बता रहा हूँ तुम्हें मगर सबको बताना मत कि नींबू भी बहुत महंगा होने वाला है। जितने खरीद सकते हो अभी खरीद लो। दिन में जितने नींबू जिसमें भी निचोड़़ लो। मजे कर लो। ये खत्म हो जाएँ तो नींबू को भूल जाना। नींबू की चाय पीते हो तो समय रहते छोड़ देना। बाद में कष्ट नहीं होगा। हाँ याद आया, तुम तो किसान आंदोलन के बड़े समर्थक बनते थे न, तो नींबू खरीदते रहो। नींबू की कीमत बढ़ेगी तो किसान का ही फायदा होगा। करवाओ, उनका फायदा। अब दो, किसानों के असली हितचिंतक होने की परीक्षा! दोगे? और सुन लो, मुझे ये रोज -रोज की शिकवा शिकायत पसंद नहीं। उनका अगला वाक्य अंग्रेजी में था। आई एम अगेंस्ट इट। यू अंडरस्टैंड?आखिरी वाक्य से मैं समझ गया कि बात जेनुइन है और मैंने अपने प्राण के अलावा सब छोड़ दिया। भाड़ में जाएँ किसान। मैंने क्या उनका ठेका ले रखा है? मैंने तो दवाई लेना तक छोड़ दिया है। सोचा एक न एक दिन तो मरना ही है। कुछ जल्दी मर जाऊँगा तो देश का घाटा नहीं हो जाएगा। देश प्रथम है, व्यक्ति नहीं।
और मोदी जी के बारे में आपके जो भी विचार हों मगर एक बात पक्की है कि वह बहुत उदार हृदय हैं। मैं उन्हें वोट नहीं देता, न दूँगा, ये बात वो जानते भी थे और मैंने उन्हें साफ बता भी दी। उन्होंने कहा, तुम भारतीय तो हो न इतना काफी है। यह बताने के बाद भी मुझे वह सही सलाह दे सकते हैं तो आपको क्यों नहीं देंगे? वह तो पुतिन और जेलेंस्की को भी सही सलाह देते हैं। करो टेलीफोन अभी। उनके नंबर पर फोन लगाने का पैसा नहीं लगता। क रो फोन, करो न!