विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेसी नेता राहुल गांधी की काठमांडो-यात्रा पर दोनों तरफ से कितनी घटिया राजनीति हो रही है। राहुल गांधी का किसी नेपाली महिला पत्रकार की शादी में जाना क्या हुआ, जैसे भारत की राजनीति में तूफान आ गया। भाजपा के कई नेताओं ने बयानों के गोले दाग दिए। एक प्रवक्ता ने लिख मारा कि राहुल गांधी उस वक्त काठमांडो के किसी नाइट क्लब में मौज-मजे कर रहे हैं जबकि मुंबई में तूफान आ रहा है।
इस प्रवक्ता का इशारा ईद पर होने वाली मुठभेड़ की तरफ रहा होगा। प्रवक्ता ने यह भी लिख दिया कि कांग्रेस पार्टी बिखरने के कगार पर है और उसका नेता नाइट क्लब में अठखेलियां कर रहा है। ऐसा लगता है कि भाजपा को कांग्रेसियों से भी ज्यादा चिंता इस बात की है कि कांग्रेस बिखर रही है। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, जो राहुल के निर्वाचन क्षेत्र वायनाड में थीं, उन्होंने भी चुटकी लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनसे जब पत्रकारों ने पूछा कि केरल सरकार केंद्र सरकार की कई योजनाओं को जान-बूझकर क्यों लागू नहीं कर रही हैं तो उन्होंने कहा कि आप लोग राहुलजी को ढूंढ सको तो उनसे पूछो कि ऐसा क्यों हो रहा है?
दूसरे शब्दों में स्मृति ने भी जरा नरम शब्दों में राहुल की काठमांडो-यात्रा पर व्यंग्य कस दिया। यहां सवाल यही है कि क्या किसी विपक्षी नेता को विदेश-यात्रा करने का अधिकार नहीं है? यदि सिर्फ प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की विदेश यात्राओं से सारे विपक्षी नेताओं की यात्राओं की तुलना करें तो इन नेताओं की यात्राएं बहुत छोटी मालूम पड़ेगीं। यह ठीक है कि विपक्षी नेताओं की यात्रा प्राय: व्यक्तिगत होती हैं लेकिन उन यात्राओं के दौरान क्या वे राष्ट्रविरोधी हरकतें करते हैं? वे राष्ट्रहित की रक्षा में उतनी ही मुस्तैदी दिखाते हैं जितने सत्तारूढ़ नेता दिखाते हैं।
अटलजी के जमाने में संयुक्तराष्ट्र संघ में मेरे साथ गैर-भाजपाई नेता भी न्यूयार्क गए थे लेकिन मैंने देखा कि वे अपने भाषणों और व्यक्तिगत संवाद में सत्तारुढ़ नेताओं से भी अधिक सतर्क थे। यदि राहुल गांधी अपनी किसी नेपाली महिला मित्र की शादी में भाग लेने कांठमांडो गए तो इससे भारत-नेपाल संबंधों में प्रेमभाव बढ़ेगी ही। यदि राहुल की उम्र के नेता घर में ही कैद रहें तो क्या यह आदर्श स्थिति मानी जाएगी? उस महिला मित्र की मर्जी कि वह अपना विवाह समारोह किसी नाइट क्लब में मनाती है या किसी धर्मशाला में।
उस पार्टी में चीन की महिला राजदूत के दिखाई पडऩे पर भी एतराज किया गया। भाजपा के प्रवक्ता चीनी राष्ट्रपति और विदेश मंत्री के साथ मोदी और जयशंकर को देखकर आपत्ति क्यों नहीं करते? लेकिन अफसोस की बात है कि कांग्रेस के प्रवक्ताओं ने भाजपाइयों को भी इस घटियापन में मात कर दिया। उन्होंने प्रत्याक्रमण करते हुए कहा कि अरे, अपने नरेंद्र मोदी को देखो। वे नवाज शरीफ के यहां बिना बुलावे के ही शादी में केक काटने चले गए। यह बात कितनी बेसिर-पैर की है। मोदी को सस्म्मान बुलाया गया था, इस तथ्य की मुझे व्यक्तिगत जानकारी है।
उनके अलावा कुछ अन्य भारतीयों को भी बुलाया गया था। मोदी ने मियां नवाज के यहां जाकर बहुत अच्छी पहल की थी। दोनों देशों के संबंध पटरी पर आने लगे थे लेकिन पठानकोट में वायुसेना के अड्डे पर हुए हमले ने गाड़ी को पटरी से उतार दिया। यदि कांग्रेस के लोग भाजपाइयों की तर्कहीन टिप्पणी पर चुप रह जाते तो उनकी छवि बेहतर बनकर उभरती लेकिन दोनों पार्टियों ने ऐसी निरंकुश टिप्पणियां करके भारतीय राजनीति को घटिया पायदान पर उतार दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
विगत दिनों प्रधानमंत्री जी ने लाल किले से श्री गुरु तेग बहादुर जी के 400वें प्रकाश पर्व समारोह के मौके पर देश को संबोधित किया। उनके भाषण में 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस के रूप में मनाने के निर्णय, करतारपुर साहिब कॉरिडोर के निर्माण, गुरु गोविंद सिंह जी से जुड़े तीर्थ स्थानों पर रेल सुविधाओं के आधुनिकीकरण, ‘स्वदेश दर्शन योजना’ के जरिए पंजाब में सभी प्रमुख स्थानों को जोड़कर एक तीर्थ सर्किट के निर्माण की योजना, अफगान संकट के दौरान गुरु ग्रंथ साहिब के स्वरूपों को भारत लाने और वहां से आने वाले सिखों को नागरिकता संशोधन कानून के तहत नागरिकता मिलने का सविस्तार जिक्र था।
प्रतीकवाद की राजनीति में निपुण प्रधानमंत्री किसान आंदोलन के बाद पंजाब में अपनी और भाजपा की अलोकप्रियता से अवश्य चिंतित होंगे और एक शासक के रूप में अपने अनिवार्य कर्त्तव्यों को सिख समुदाय के प्रति अनुपम सौगातों के रूप में प्रस्तुत करना उनकी विवशता रही होगी।
बहरहाल उनके भाषण में कुछ अंश ऐसे हैं जिनका दूरगामी महत्व है और बतौर शासक देश के संचालन हेतु उनकी भावी कार्यप्रणाली एवं चिंतन प्रक्रिया के संकेत भी इनमें अंतर्निहित हैं।
उन्होंने कहा, "उस समय देश में मजहबी कट्टरता की आँधी आई थी। धर्म को दर्शन, विज्ञान और आत्मशोध का विषय मानने वाले हमारे हिंदुस्तान के सामने ऐसे लोग थे जिन्होंने धर्म के नाम पर हिंसा और अत्याचार की पराकाष्ठा कर दी थी। उस समय भारत को अपनी पहचान बचाने के लिए एक बड़ी उम्मीद गुरु तेगबहादुर जी के रूप में दिखी थी। औरंगजेब की आततायी सोच के सामने उस समय गुरु तेगबहादुर जी, ‘हिन्द दी चादर’ बनकर, एक चट्टान बनकर खड़े हो गए थे। इतिहास गवाह है, ये वर्तमान समय गवाह है और ये लाल किला भी गवाह है कि औरंगजेब और उसके जैसे अत्याचारियों ने भले ही अनेकों सिरों को धड़ से अलग कर दिया, लेकिन हमारी आस्था को वो हमसे अलग नहीं कर सका।"
मध्यकालीन भारत के इतिहास को इस्लाम और हिन्दू धर्म के संघर्ष के रूप में देखने का विचार श्री सावरकर के इतिहास विषयक लेखन में केंद्रीय स्थान रखता है और उनकी इतिहास दृष्टि बार बार हमें हिंसा,प्रतिशोध और घृणा को अपने दैनिक व्यवहार का सहज अंग बनाने की प्रेरणा देती है।
कट्टर हिंदुत्व की हिमायत करने वाली ताकतें सिख धर्म को हिन्दू धर्म का अंग सिद्ध करने का प्रयास करती रही हैं। सन 2000 में सरसंघचालक श्री के. सुदर्शन ने कहा था कि सिख धर्म हिन्दू धर्म का एक सम्प्रदाय है और खालसा की स्थापना हिंदुओं को मुग़लों के अत्याचार से बचाने के लिए हुई थी। वर्तमान संघ प्रमुख भी समय समय पर इसी मत का समर्थन करते रहे हैं।
कट्टर हिंदुत्व समर्थकों की बहुमुखी रणनीति की यह विशेषता है कि सरकार एवं संघ के वरिष्ठ नेता संयत भाषा में अल्पसंख्यक समुदाय को वही संदेश देते हैं जो सरकार,संघ या भाजपा से असम्बद्ध समूह बहुत उग्रता से धमकी के रूप में उन तक पहुंचाते हैं। इस प्रकरण में भी सिख धर्म को हिन्दू धर्म पर आश्रित बताने के लिए एक आक्रामक अभियान पिछले दो वर्षों से अनेक पोर्टल्स और सोशल मीडिया पर चलाया जा रहा है। किसान आंदोलन के बाद इस अभियान में तेजी आई है। इसमें इस कथित झूठ का पर्दाफाश किया गया है कि सिखों ने हिंदुओं की रक्षा के लिए अस्त्र उठाए थे और यह "खुलासा" किया गया है कि मुग़लों के अत्याचार से त्रस्त सिखों ने जब शस्त्र धारण करने का निर्णय किया तो उन्हें सैन्य प्रशिक्षण देकर पराक्रमी योद्धा बनाने वाले राजपूत राजा ही थे। इसी प्रकार यह भी बताया गया है कि सिख गुरुओं के निकट सहयोगी और संबंधी तो भीतरघात कर मुग़लों से मिल जाते थे किंतु हिन्दू उनके प्राणरक्षक बने रहे।
सिख समुदाय के सामने विकल्प स्पष्ट हैं जैसा प्रधानमंत्री और संघ प्रमुख के कथन बहुत सूक्ष्मता से इंगित करते हैं कि सिख मुसलमानों को अपना पारंपरिक शत्रु मान लें। वे अपनी धर्म परंपरा के एक आख्यान विशेष को - जिसके अनुसार गुरु तेगबहादुर को औरंगजेब के आदेश पर कश्मीरी पंडितों की धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन करने के लिए मृत्युदंड दिया गया था- अपने भावी आचरण के लिए मार्गदर्शक बना लें और उन सहस्रों घटनाओं की अनदेखी कर दें जब मुसलमान सिखों के सहायक और रक्षक बने थे। यदि सिख ऐसा करते हैं तो कट्टर हिंदुत्व समर्थक शक्तियां उन्हें हिंदुओं के रक्षक के रूप में महिमामण्डित करेंगी लेकिन सिख धर्म की स्वतंत्र पहचान उनसे छीन ली जाएगी।
किंतु यदि सिख हमारी समावेशी और उदार परम्परा का पालन करने की गलती करते हैं और गुरुग्राम की गुरुद्वारा परिषद की भांति गुरुद्वारा परिसर जुमे की नमाज के लिए उपलब्ध करा देते हैं या अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह की भांति कश्मीरी महिलाओं पर अशोभनीय टिप्पणी करने वाले कट्टर हिंदुत्व समर्थकों को चेतावनी देकर सिख समुदाय से कश्मीरी महिलाओं के सम्मान की रक्षा का आह्वान करते हैं तब कट्टर हिंदुत्व समर्थकों की दूसरी टोली सामने आती है। यह वही टोली है जिसने किसान आंदोलन को पाकिस्तान परस्त और खालिस्तान समर्थक कहने की शरारत की थी और जो सोशल मीडिया पर सिख मुस्लिम संबंधों के ऐतिहासिक उदाहरणों को इस तरह पेश करती है कि उनसे सिखों की राष्ट्र भक्ति पर संदेह हो।
सिख परंपरा के ही उद्धरण सिख गुरुओं और मुग़ल शासकों के बीच के संबंधों की जटिलता को दर्शाते हैं। गुरु नानक देव की अनेक जनम साखियों में यह उल्लेख मिलता है कि नानक (1469-1539) और बाबर (1483-1530) की मुलाकात हुई थी,शायद उन्हें बंदी भी बनाया गया था किंतु गुरु नानक की आध्यात्मिकता से प्रभावित बाबर ने उन्हें रिहा किया और गुरु नानक ने उसे कड़े शब्दों में आईना भी दिखाया। गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित गुरु नानक के चार सबद ऐसे हैं जिनमें बाबर की विनाशलीला चित्रित की गई है।
सिख परंपरा हमें यह भी बताती है कि हुमायूं ईरान की ओर पलायन करते समय खडूर में गुरु अंगद(1504-1552) की प्रतीक्षा करता है और उनसे आशीष प्राप्त कर ही आगे बढ़ता है। अकबर(1542-1605) को मोटे तौर पर सिख गुरुओं के प्रति सहिष्णु और उदार माना जा सकता है और उसके जीवन काल में गुरु अमर दास(1479-1574), गुरु रामदास (1534-1581) तथा गुरु अर्जुन (1563-1606) को सम्मान मिला।
किंतु जहाँगीर (1569-1627) अनुदार स्वभाव का था। जहाँगीर द्वारा गुरु अर्जुन को दिया गया मृत्युदंड सिख इतिहास के सर्वाधिक चर्चित एवं विवादित प्रसंगों में रहा है। मुग़ल कालीन भारत के विशेषज्ञ इतिहासकार रिचर्ड एच डेविस का मानना है कि सिख समुदाय के एक शक्तिशाली सामाजिक समूह में तबदील होने के बाद सिख गुरु राजनीतिक मामलों में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने लगे थे। गुरु अर्जुन को मुग़ल सत्ता संघर्ष में पराजित खेमे का साथ देने की सजा मिली। बेनी प्रसाद के अनुसार उदार और कोमल हृदय वाले गुरु अर्जुन ने जहाँगीर के ज्येष्ठ पुत्र विद्रोही खुसरो को आशीष देने की गलती की जिसका लाभ गुरु अर्जुन के शत्रुओं ने उठाया। उन्होंने इसे धार्मिक रंग भी दिया और राजद्रोह के रूप में भी चित्रित किया तथा जहाँगीर को अंततः बरगलाने में कामयाबी हासिल की यद्यपि वह प्रारम्भ में गुरु अर्जुन के साथ नरमी से पेश आने का मन बना रहा था।
किंतु जहाँगीरनामा की पर्ण संख्या 27बी-28ए में फ़ारसी भाषा में अंकित विवरण का व्हीलर एम थैकस्टन द्वारा किया गया अनुवाद एक अलग तस्वीर प्रस्तुत करता है- "ब्यास नदी के किनारों पर गोइंदवाल में अर्जुन नाम का एक हिन्दू हुआ करता था। आध्यात्मिक गुरु का स्वांग रचते हुए उसने अपने अनेक अनुयायी बना लिए थे। अनेक सीधे साधे हिन्दू और इनसे भी अधिक अज्ञानी और मूर्ख मुसलमान संत होने के उसके दावों से प्रभावित होकर उसके शिष्य बन गए थे। वे उसे गुरु का संबोधन दिया करते थे। अनेक मूर्ख लोग(दरवेश की वेशभूषा धारी उपासक) उसकी शरण में थे और उस पर असंदिग्ध आस्था रखते थे। पिछली तीन चार पीढ़ियों से इनका (गुरु अर्जुन एवं उनके पूर्वजों का) यह कार्यकलाप चल रहा था। एक लंबे अरसे से मैं यह सोच रहा था कि या तो यह गोरखधंधा बंद हो या इस व्यक्ति को इस्लाम की छत्रछाया में लाया जाए। अंततः जब खुसरो वहां से गुजर रहा था तब इस तुच्छ छोटे व्यक्ति ने उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करनी चाही। जब खुसरो उसके घर पर रुका तो यह व्यक्ति बाहर आया और उसने खुसरो से भेंट की। इसने खुसरो को इधर उधर से उठाए गए कुछ प्रारंभिक आध्यात्मिक उपदेश दिए और खुसरो के मस्तक पर चंदन से एक निशान बनाया जिसे हिन्दू भाग्यशाली मानते हैं। जब इस बात की जानकारी मुझे मिली तो मैं समझ गया कि वह कितना बड़ा धोखेबाज है और मैंने आदेश दिया कि उसे मेरे पास लाया जाए। मैंने उसके और उसके बच्चों के आवासों को मुर्तज़ा खान(लाहौर के गवर्नर) के अधिकार में दे दिया। और मैंने आदेश दिया कि उसकी संपत्ति एवं सामान को जब्त कर लिया जाए तथा उसे मृत्युदंड दिया जाए।"
जैसा इस उद्धरण से स्पष्ट है कि जहाँगीर एक लंबे समय से सिख धर्म के प्रति घृणा और विद्वेष की भावना रखता था और खुसरो की गुरु अर्जुनदेव से निकटता उसकी घृणा को चरम बिंदु तक ले गयी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जहाँगीर गुरु अर्जुन को हिन्दू का संबोधन देता है। वह सिख धर्म को अलग दर्जा देने को तैयार नहीं है - बिलकुल आज के आरएसएस विचारकों की भांति।
पशुरा सिंह ने अपने शोधपत्र "रीकॉन्सिडरिंग द सैक्रिफाइस ऑफ गुरु अर्जुन" में यह उल्लेख किया है कि जहाँगीर धर्म गुरुओं के प्रति बहुत आदर नहीं रखता था और उसका रवैया इनके प्रति अपमानजनक था। शेख निज़ाम थानेसरी नामक धर्म गुरु भी खुसरो से मिलते हैं और उसकी हौसलाअफजाई करते हैं किंतु जहाँगीर उन्हें राह खर्च देकर मक्का की यात्रा पर तीर्थाटन के लिए जाने का आदेश देता है। एक और अफगान धर्म गुरु शेख इब्राहिम के बढ़ते प्रभाव को देखकर जहाँगीर उन्हें चुनार के किले में तब तक बंधक रखने का आदेश देता है जब तक उनका असर खत्म न हो जाए। पशुरा सिंह यह रेखांकित करते हैं कि गुरु अर्जुन को मंगोल कानून यासा सियास्त के तहत यातनापूर्ण मौत की सजा देना और मुस्लिम धर्म गुरुओं को शरीया कानून के मुताबिक दंड देना जहाँगीर के अलग अलग धर्मावलंबियों के प्रति दोहरे रवैये को दर्शाता है।
बहरहाल गुरु अर्जुन के काल के अनेक ऐतिहासिक वृत्तांतों में इस बात का जिक्र मिलता है कि हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) की नींव गुरु अर्जुन देव के अनुरोध पर सूफी फ़क़ीर मियां मीर ने डाली थी।
गुरु अर्जुन की शहादत सिख समुदाय में बड़े बदलावों का सूत्रपात करती है और उनका स्थान लेने वाले गुरु हरगोबिंद सिखों के सैन्यकरण का प्रारंभ करते हैं। जहाँगीर गुरु हरगोबिंद को कैद कर लेता है और बाद में उन्हें रिहाई भी मिलती है। एक समय ऐसा आता है जब गुरु हरगोबिंद(1595-1644) और जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो जाते हैं और वे जहाँगीर के साथ कश्मीर और राजपूताना में सैन्य अभियानों में हिस्सा लेते हैं और नालागढ़ के ताराचंद को पराजित करते हैं जो लंबे समय से जहाँगीर के लिए सरदर्द बना हुआ था।
किंतु सिखों की बढ़ती सैन्य शक्ति मुग़लों को खटकती है, आपसी संबंधों में तनाव आता है और हम गुरु हरगोबिंद को रोहिल्ला की लड़ाई में गवर्नर अब्दुल खान की फौजों से लड़ते एवं जीतते देखते हैं। शाहजहाँ(1592-1666) का शासन 1627 से प्रारंभ होता है, कुछ उसकी असहिष्णुता और कुछ सिखों की बढ़ती सैन्य शक्ति की अपरिहार्य परिणति- गुरु हरगोबिंद शाहजहाँ की फौजों से अमृतसर और करतारपुर में संघर्ष करते हैं और अमृतसर की लड़ाई(1634) में विजयी भी होते हैं।
शाहजहाँ का बड़ा सुपुत्र दारा शिकोह अगले सिख गुरु हर राय(1630-1661) का प्रशंसक था। दारा शिकोह उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगजेब से पराजित हुआ और औरंगजेब के लंबे शासन काल (1658-1707) की शुरुआत हुई। गुरु हर राय पर दारा शिकोह को समर्थन देने का आरोप लगा। औरंगजेब द्वारा दिल्ली बुलाए जाने पर वे खुद नहीं गए बल्कि उन्होंने अपने पुत्र राम राय को भेजा। राम राय गुरु नानक की साखी की जानबूझकर गलत प्रस्तुति कर औरंगजेब को प्रसन्न करने में कामयाब हुए और इसके लिए उन्हें पिता की कड़ी फटकार का सामना करना पड़ा। गुरु हर राय के उत्तराधिकारी गुरु हरकिशन(1656-1664) पर भी औरंगजेब की नजर थी और उन्हें भी उसने दिल्ली बुलाया जहां चेचक से उनकी मृत्यु हो गई।
इसके बाद गुरु तेगबहादुर(1621-1675) का प्रकरण आता है। गुरु तेगबहादुर को दिए गए मृत्युदंड के कारण विशुद्ध रूप से धार्मिक नहीं थे बिलकुल उसी तरह जैसा हमने पहले देखा कि किस तरह गुरु अर्जुन को दी गई मौत की सजा के लिए सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक कारणों को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता।
सिखों की राजनीतिक और सैन्य शक्ति बढ़ रही थी। मुग़ल साम्राज्य की छोटी छोटी रियासतों के लिए सिख गुरु राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की भांति थे। बादशाह औरंगजेब तक भी यह खबरें पहुँच रही थीं।
गुरु तेगबहादुर की गुरु के रूप नियुक्ति से आहत गुरु पद के लिए स्वयं को योग्य समझने वाले राम राय द्वारा निरंतर उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचे गए। औरंगजेब को गुरु तेगबहादुर के विरुद्ध भड़काने में राम राय की साजिशों और दुष्प्रचार की अहम भूमिका थी।
गुरु तेगबहादुर की नेतृत्व क्षमता, साहस और सैन्य शक्ति के कारण वे सारे लोग जो किसी भी कारण से तत्कालीन शासन से असंतुष्ट थे उनसे जुड़ रहे थे। इस घटनाक्रम को गुरु तेगबहादुर के प्रतिद्वंद्वियों ने अतिरंजित रूप से गुरु तेगबहादुर के सुनियोजित षड्यंत्र के रूप में औरंगजेब के समक्ष चित्रित किया।
हमें यह भी भूलना नहीं चाहिए कि चांदनी चौक में गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद चांदनी चौक जेल कोतवाली के जेलर अब्दुल्ला ख्वाजा ने मुग़लों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था और वे गुरु तेगबहादुर को दिए गए मृत्युदंड का समाचार लेकर आनंदपुर साहिब पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे।
गुरु गोबिंद सिंह(1666-1708) और औरंगजेब के मध्य आजीवन संघर्ष चला। गुरु गोबिंद सिंह ने फ़ारसी भाषा में एक कवित्त औरंगजेब को भेजा जिसमें उसकी कठोर निंदा भी थी और उसे कड़ी चेतावनी भी दी गई थी। औरंगजेब ने उन्हें आपसी बातचीत के जरिए कोई हल निकालने के लिए अपने पास बुलाया किंतु दोनों की मुलाकात हो पाती इससे पहले ही औरंगजेब की मृत्यु हो गई। अगले बादशाह बहादुर शाह प्रथम का रवैया गुरु गोबिंद सिंह के प्रति नरम और दोस्ताना था और आपसी रिश्तों में सुधार की उम्मीद जगी भी थी किंतु गुरु गोबिंद सिंह की असामयिक मृत्यु हो गई और साथ ही गुरु परम्परा का अंत भी।
जसविंदर कौर बिंद्रा जैसे लेखकों के अनुसार बहादुर शाह ने गुरु गोबिंद सिंह के मित्र और फारसी भाषा के कवि नंदलाल के जरिए गुरु से मदद की याचना की थी। गुरु गोबिंद सिंह उसकी सहायता के लिए तैयार हो गए। बहादुर शाह ने उनसे यह वादा किया था कि सत्ता पर काबिज होते ही वह उनके साथ हुए जुल्मों का न्याय करेगा। गुरु गोबिंद सिंह ने भाई धर्म सिंह के अगुवाई में 200-250 योद्धा सिखों की एक टुकड़ी बहादुर शाह की सहायता के लिए भेजी। बहादुर शाह युद्ध में विजयी होकर सत्तासीन हुआ। इसके बाद उसके आमंत्रण पर गुरु गोविंद सिंह माता साहिब कौर के साथ आगरा भी गए एवं उन्होंने बहादुर शाह का आतिथ्य स्वीकार किया।
यह जानना आश्चर्यजनक है कि गुरु गोबिंद सिंह ने मुग़लों के साथ जितने युद्ध लड़े शायद उतने ही या उससे कुछ अधिक हिन्दू राजाओं से लड़े। जातिवाद के विरोध में खड़े गुरु गोबिंद सिंह के सिख धर्म के साथ नीची जातियों का बड़े पैमाने पर जुड़ना और सिख धर्म के माध्यम से ब्राह्मणवादी वर्चस्व से छुटकारा पाने की आशा रखना हिन्दू पहाड़ी राजाओं के लिए असहनीय था। कहलूर के राजा भीमचंद (शासनकाल-1665-1692) ने भंगाणी में गुरु गोबिंद सिंह से 1688 में युद्ध किया। भीम सिंह के उत्तराधिकारी अजमेर चंद ने अन्य हिन्दू राजाओं और औरंगजेब की सहायता लेकर गुरु गोबिंद सिंह पर तीन बार 1700,1703,1705 में आक्रमण किया।
यह जानना और भी रोचक है कि भंगाणी की इस लड़ाई में पीर बुद्धू शाह ने गुरु गोविंद सिंह की ओर से युद्ध किया था और उन्हें विजय दिलाई थी। इस लड़ाई में पीर बुद्धू शाह ने अपने दो पुत्रों अशरफ शाह और मोहम्मद शाह तथा भ्राता भूरे शाह सहित अपने 500 अनुयायियों को खोया था। बाद में 1704 में सढौरा के दरोगा उस्मान खां ने पीर बुद्धू शाह की सम्पूर्ण संपत्ति को आग के हवाले कर दिया तथा उन्हें छतबीड़ के जंगलों में ले जाकर उनके जिस्म के टुकड़े टुकड़े कर दिए।
यहां यह अनायास ही यह स्मरण हो आता है कि 1704 में वजीर खान की सेना से चमकौर में हुए युद्ध के बाद पलायन कर रहे गुरु गोबिंद सिंह को नबी खान और गनी खान नामक दो मुस्लिम भाइयों ने माछीवाड़ा में मुग़लों की घेरेबंदी से बचाने में अहम भूमिका निभाई थी।
यह विस्तृत विवेचन इसलिए किया गया है कि आम पाठक यह समझ सकें कि संदर्भों से कटा हुआ सरलीकृत इतिहास कितना भ्रामक और उत्तेजक हो सकता है, विशेषकर तब जब उसमें धार्मिक भावनाओं का तड़का लगा हुआ हो। जिस इतिहास को लेकर हम मरने मारने पर उतारू हैं वह या तो शासकों( मुग़ल, राजपूत, सिख आदि आदि) के दरबारी विद्वानों द्वारा लिखे गए चाटुकारिता प्रधान और अतिरंजनापूर्ण वृत्तांतों के रूप में है या धर्म परंपरा में वर्णित कथाओं एवं आख्यानों के रूप में है जिनमें आस्था और भावना को प्रधानता दी गई है और जिनमें कल्पना का अपरिहार्य मिश्रण है। कुछ यात्रा वृत्तांत भी हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों का वैसा ही चित्रण करते हैं जैसा कोई दूर देश से आया अनभिज्ञ पथिक कर सकता है।
बाद में औपनिवेशिक शासन प्रारंभ होता है और अंग्रेज एवं अन्य यूरोपीय इतिहासकार भारत की परिस्थितियों के विषय में लिखते हैं। इन्हें भी केवल इसलिए तटस्थ नहीं माना जा सकता कि ये इतिहास लेखन की कदरन वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित पद्धति का आश्रय लेते हैं। इनका मूल उद्देश्य यह रहा है कि वे अपने औपनिवेशिक शासन को न्यायोचित सिद्ध करें और ऐसा शासित देश को पिछड़ा और असभ्य सिद्ध कर ही संभव हो सकता है। फिर इन विद्वानों के सामने भाषा और संस्कृति संबंधी दिक्कतें तो थीं हीं।
यह इतिहास की विचित्रता है कि पक्षपात, भावना, अतिरंजना, कल्पना आदि जिन दोषों को इतिहास लेखन के लिए घातक माना जाता है बिना उनका आश्रय लिए इतिहास लिखा भी नहीं जा सकता।
मध्यकालीन भारत के इस इतिहास में हाड़ मांस के बने हुए बादशाह और राजे महाराजे हैं जिनकी अतिसामान्य कमजोरियों और अनेक बार गर्हित प्रवृत्तियों का शिकार बनने के लिए आम जन अभिशप्त हैं। क्रोध, घृणा, हिंसा, बैर, छल, कपट, वासना, व्यभिचार, प्रतिशोध, सत्ता लोलुपता आदि से संचालित यह राज पुरुष सौभाग्यशाली रहे हैं कि अब तक हम इन पर चर्चा कर रहे हैं।
यदि धर्म को मध्य काल की निर्णायक शक्ति नहीं भी मानें तब भी इसके प्रभाव को कम कर आंकना भूल होगी। किंतु धर्म बहुत कम बार शांति और प्रेम की स्थापना करता दिखता है। यह निकृष्ट कारणों(सत्ता विस्तार की भूख, उत्तराधिकार विषयक झगड़े आदि आदि) से हुए विवादों और युद्धों को उदात्तता का एक भ्रामक आवरण पहनाने में सहायक अवश्य रहा है। यह हिंसा रोकने का नहीं इसे महिमामण्डित करने का जरिया जरूर बना है।
सिख धर्म अपने पूर्ववर्ती अनेक धर्मों की भांति एक विद्रोही तेवर लिए ताज़ा हवा के झोंके की भांति आता है। स्थापित धर्म इस्लाम एवं हिन्दू धर्म- जिनकी जकड़न को यह तोड़ना चाहता है- अपने वर्चस्व पर इसके अतिक्रमण से नाखुश हैं। किंतु जैसा हर धर्म के साथ होता है(और यह दोष नहीं शायद धर्म की अनिवार्य परिणति है) कि सिख धर्म धीरे धीरे संस्थागत धर्म का रूप ले लेता है। हम देखते हैं कि गुरु पद के महत्व को देखकर अनेक निकट संबंधियों की महत्वाकांक्षा जाग्रत होती है और उत्तराधिकार को लेकर विवाद उत्पन्न होते हैं। यह असंतुष्ट परिजन षड्यंत्र रचते हैं और मुग़ल शासकों से जा मिलते हैं। इधर सिख समुदाय का सैन्यकरण होता है और एक विशाल वीर और जुझारू समाज तैयार होता है। मुग़ल और हिंदू शासकों से असंतुष्ट लोग इसके तले लामबंद होना चाहते हैं।कभी मुग़ल शासक इनकी वीरता से भयभीत होकर इनका दमन करने की कोशिश करते हैं तो कभी इनकी वीरता का उपयोग अपने शत्रुओं को कुचलने के लिए करने हेतु इनसे रणनीतिक मैत्री कर लेते हैं। यही रणनीति हिन्दू शासक भी अपनाते हैं। जब गुरु के पद में धार्मिक-आध्यात्मिक शक्तियों के अतिरिक्त राजनीतिक और सैन्य शक्तियां भी अंतर्निहित हो जाती हैं तब स्वाभाविक रूप से इन्हें सत्ता संघर्ष और युद्ध का हिस्सा बनना पड़ता है। सत्ता संघर्ष और युद्ध का अपना व्याकरण है और दुर्भाग्य से इसमें आध्यात्मिकता के लिए कोई स्थान नहीं है।
यूरोपीय मध्यकाल में सत्ता संघर्ष, उत्तराधिकार और धर्म युद्धों की कॉकटेल देखने को मिली थी। यहां भी मामला थोड़े बहुत हेरफेर के साथ वैसा ही है।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
श्रवण गर्ग
देश में चल रही धार्मिक हिंसा और नफरत की राजनीति के खिलाफ कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाहों और अन्य जानी-मानी हस्तियों के द्वारा प्रधानमंत्री के नाम खुली चि_ी लिखकर उनसे अपील की गई है कि वे अपनी चुप्पी तोडक़र तुरंत हस्तक्षेप करें पर मोदी इन पत्र-लेखकों को उपकृत नहीं कर रहे हैं। देश के कामकाज में किसी समय प्रतिष्ठित पदों पर कार्य करते हुए उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाले इन महत्वपूर्ण लोगों की चिंताओं का भी अगर प्रधानमंत्री संज्ञान नहीं लेना चाहते हैं तो समझ लिया जाना चाहिए कि उसके पीछे कोई बड़ा कारण या असमर्थता है और नागरिकों को उससे परिचित होने की तात्कालिक रूप से कोई आवश्यकता नहीं है।
कोई एक सौ आठ सेवानिवृत्त नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) ने जब भाजपा-शासित राज्यों में पनप रही ‘नफरत की राजनीति’ को खत्म करने के लिए खुली चिट्ठी के जरिए पीएम से अपनी गहरी चुप्पी को तोडऩे का निवेदन किया होगा तब उन्हें इस बात की आशंका नहीं रही होगी कि मोदी उनकी बात का कोई संज्ञान नहीं लेंगे। चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में कई या कुछ नौकरशाहों ने तो अपनी सेवानिवृत्ति के पहले वर्तमान सरकार के साथ भी काम किया है।
उल्लेख किया जा सकता है कि 108 नौकरशाहों द्वारा लिखी गई उक्त चिट्ठी पर पीएम ने तो अपनी खामोशी नहीं तोड़ी पर सरकार के समर्थन में उसका जवाब आठ पूर्व न्यायाधीशों, 97 पूर्व नौकरशाहों और सशस्त्र बलों के 92 पूर्व अधिकारियों की ओर से दे दिया गया। कुल 197 लोगों के इस समूह ने आरोप लगा दिया कि 108 लोगों की चि_ी राजनीति से प्रेरित और सरकार के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान का हिस्सा थी।
पिछले साल के आखिर में उत्तराखंड की धार्मिक नगरी हरिद्वार में आयोजित हुई विवादास्पद ‘धर्म संसद’ में कतिपय ‘साधु-संतों’ की ओर से मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं द्वारा हथियार उठाने की ज़रूरत के उत्तेजक आह्वान के तत्काल बाद भी इसी तरह से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को चि_ियाँ लिखी गईं थीं पर कोई नतीजा नहीं निकला। सुप्रीम कोर्ट के 76 वकीलों ने एन वी रमना को पत्र लिखकर हरिद्वार में दिए गए नफरती भाषणों का संज्ञान लेने का अनुरोध किया था। पत्र में कहा गया था कि पुलिस कार्रवाई न होने पर त्वरित न्यायिक हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है।
इसी दौरान सशस्त्र बलों के पाँच पूर्व प्रमुखों और सौ से अधिक अन्य प्रमुख लोगों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर माँग की थी कि सरकार ,संसद और सुप्रीम कोर्ट तत्काल प्रभाव से कार्रवाई करते हुए देश की एकता और अखंडता की रक्षा करे।
कहना होगा कि इन तमाम चि_ियों और चिंताओं के कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं निकले। हरिद्वार के बाद भी धर्म संसदों या धर्म परिषदों के आयोजन होते रहे और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरती हिंसा वाले उद्बोधन भी जारी रहे।
सेवानिवृत्त नौकरशाहों, राजनयिकों, विधिवेत्ताओं और सशस्त्र सेनाओं के पूर्व प्रमुखों की चिंताओं के विपरीत जो लोग सत्ता के नजदीक हैं उनका मानना है कि नफरत की राजनीति के आरोप अगर वास्तव में सही हैं तो प्रधानमंत्री को चि_ियाँ नागरिकों के द्वारा लिखी जानी चाहिए और वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। सत्ता-समर्थकों का तर्क है कि जो कुछ चल रहा है उसके प्रति बहुसंख्य नागरिकों में अगर प्रत्यक्ष तौर पर कोई नाराजगी नहीं है तो फिर उन मु_ी भर लोगों के विरोध की परवाह क्यों की जानी चाहिए जिन्हें न तो कोई चुनाव लडऩा है और न ही कभी जनता के बीच जाना है ? दांव पर तो उन लोगों का भविष्य लगा हुआ जिन्हें हर पाँच साल में वोट माँगने जनता के पास जाना पड़ता है। जो लोग नफरत की राजनीति को मुद्दा बनाकर विरोध कर रहे हैं जनता के बीच उनकी कोई पहचान नहीं है।जनता जिन चेहरों को पहचानती है वे बिल्कुल अलग हैं।
दूसरा यह भी कि ‘नफरत की राजनीति’ अगर सत्ता को मजबूत करने में मदद करती हो तो उन राजनेताओं को उसका इस्तेमाल करने से क्यों परहेज़ करना चाहिए जिनका कि साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों की शुद्धता के सिद्धांत में कोड़ी भर यकीन नहीं है ?
इस सच्चाई की तह तक जाना भी जरूरी है कि हरेक सत्ता परिवर्तन के साथ हुकूमतें नौकरशाहों और संवैधानिक संस्थानों के शीर्ष पदों पर पहले से तैनात योग्य और ईमानदार लोगों को सिर्फ इसलिए बदल देती हैं कि उनकी धार्मिक-वैचारिक निष्ठाओं को वे अपने एजेंडे के क्रियान्वयन के लिए संदेहास्पद मानती हैं। इसीलिए ऐसा होता है कि नफरत की राजनीति के खिलाफ चिट्ठी लिखने वाले नौकरशाह, ‘जो कुछ चल रहा है उसमें गलत कुछ भी नहीं है’ कहने वाले नौकरशाहों से अलग हो जाते हैं। इसे यूँ भी देख सकते हैं कि नफऱत की राजनीति ने नागरिकों को ऊपर से नीचे तक बाँट दिया है।
नफरत की राजनीति को सफल करने की जरूरी शर्त ही यही है कि सत्ता के एकाधिकारवाद की रक्षा में नागरिक ही एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाएँ या कर दिए जाएँ और सरकार चुप्पी साधे रहे, वह किसी के भी पक्ष में खड़ी नजर नहीं आए।यानी जो नौकरशाह नफरत की राजनीति को लेकर चिंता जता रहे हैं उन्हें भी वह चुनौती नहीं दे और जो उसके बचाव में वक्तव्य दे रहे हैं उनकी भी पीठ नहीं थपथपाए।
प्रधानमंत्री ने अपने इर्द-गिर्द जिस तिलिस्म को खड़ा कर लिया है उसकी ताकत ही यही है कि वे बड़ी से बड़ी घटना पर भी अपनी खामोशी को टूटने या भंग नहीं होने देते। खामोशी के टूटते ही तिलिस्म भी भरभराकर गिर पड़ेगा। मुमकिन है हरिद्वार की तरह की और भी कई धर्म संसदें देश में आयोजित हों जिनमें नफरत की राजनीति को किसी निर्णायक बिंदु पर पहुँचाने के प्रयास किए जाएँ और नौकरशाहों के समूह भी इसी तरह विरोध में चिट्ठीयाँ भी लिखते रहें। होगा यही कि हरेक बार प्रधानमंत्री या सत्ता की ओर से वे लोग ही सामने आकर जवाब देंगे जिनका कि सवालों या शिकायतों से कोई संबंध नहीं होगा। प्रधानमंत्री की खामोशी उस दिन निश्चित ही टूट जाएगी जिस दिन नफरत की राजनीति को लेकर नागरिक भी उन्हें चि_ियाँ लिखने की हिम्मत जुटा लेंगे। अत: प्रधानमंत्री की खामोशी तुड़वाने के लिए नौकरशाहों को पहले जनता के पास जाकर उसकी चुप्पी को तुड़वाना पड़ेगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
एक मुस्लिम महिला ने बड़ी हिम्मत का काम किया है। उसने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका लगाकर मांग की है कि किसी भी मुसलमान के लिए दूसरी शादी करने के पहले अपनी पहली बीवी की इजाजत लेना जरुरी हो। उसकी दूसरी मांग यह है कि दूसरी शादी के पहले उसके पास किसी न्यायाधीश का लिखित प्रमाण पत्र होना भी आवश्यक हों कि वह दोनों बीवियों को एक समान रख सकेगा। अदालत ने इस मुद्दे पर विधि मंत्रालय और अल्पसंख्यक आयोग की राय जानने का भी निर्देश जारी किया है।
इस मुस्लिम महिला के वकील ने पाकिस्तान में 1961 में पारित एक कानून का हवाला देते हुए कहा है कि वहां दूसरी शादी करने के लिए अपनी पहली बीवी की इजाजत लेना और दोनों या सभी बीवियों के साथ समान व्यवहार की गारंटी देना जरुरी है। भारत में सरकार समान नागरिकता कानून लाने का ढिढ़ौरा पीटती रहती है लेकिन औरतों की आजादी के मामले में वह पाकिस्तान से भी फिसड्डी है। भारत किसी इस्लामी देश से भी ज्यादा इस्लामी बना हुआ है।
इसका मूल कारण यह है कि भारत में इस्लाम की परंपरा को ठीक से समझा ही नहीं गया है। भारत के मुसलमानों को मुगल बादशाहों के आचरण ने जरुरत से ज्यादा प्रभावित किया है। वास्तव में कुरान शरीफ में एक पत्नीव्रत को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। उसमें चार पत्नियों की छूट इसलिए दी गई थी कि उहूद के युद्ध में बहुत-से मर्द मारे गए थे। उनकी पत्नियों और अनाथ बच्चों की रखवाली जरुरी थी। इसीलिए कुरान के अध्याय 4 और आयत 3 में कहा गया है कि अनाथ महिलाओं और बच्चों के खातिर तुम चार शादियां तक कर सकते हो लेकिन यह तुम तभी करना जब तुम सबके साथ न्याय कर सको।
जो मुसलमान अब एक से ज्यादा शादियां करते हैं, क्या उनका मकसद यही होता है? ज्यादातर बहुपत्नी विवाहों के पीछे कामुकता, यौन लिप्सा, लोभ और शक्ति पिपासा जैसे ही कारण ज्यादा होते हैं। बहुपत्नी विवाह करनेवाले मर्द कौन होते हैं? वे अक्सर मालदार और ताकतवर लोग होते हैं। पैगंबर मोहम्मद के पहले अरब देश में ऐसे लोगों के हरम में दर्जनों बीवियां रहा करती थीं। पैगंबर ने क्रांति की अधिक से अधिक चार बीवियों का समर्थन किया।
इस्लाम के कई नामी-गिरामी मौलानाओं ने एक पत्नीव्रत को आदर्श बताया है। मैं दर्जनों मुस्लिम देशों में रहा हूं। एकाध अपवाद के अलावा किसी भी मित्र की चार तो क्या, मैंने दो बीवियां भी नहीं देखीं। कई मुस्लिम देशों में बहुपत्नी प्रथा पर कड़ा प्रतिबंध है जैसे तुर्की और ट्यूनीसिया में! दर्जन भर से भी ज्यादा मुस्लिम देशों में एक से ज्यादा बीवी रखने पर तरह-तरह के अंकुश लगाए गए हैं। भारत में धर्म-निरपेक्षता के नाम पर बहुपत्नी प्रथा की छूट है लेकिन यह इतनी गई-गुजरी प्रथा है कि भारत में इसे माननेवाला मुसलमान आदमी हजारों में एक भी नहीं मिलता। अदालत को इसे शीघ्र ही ताक पर पहुंचाना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-शंभुनाथ
प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ करोड़ों लोगों ने पढ़ी होगी। यह एक बड़ी मार्मिक कहानी है। कहानी ऐसी चीज है कि वह सबकी होती है, धर्म- जाति से ऊपर उठकर सबको अपील करती है।
‘ईदगाह’ में बच्चे हामिद का मेले में चिमटा चुनना कई संकेतों से भरा है। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में जो कुछ चुनते हैं, उसके पीछे एक चेतना होती है। उनके समय बाजारवाद का वैसा प्रचंड रूप न था, जैसा आज है। ईद हो दिवाली हो, कोई त्यौहार हो बाजार ही खुशियों का स्रोत हो जाता है। इस कहानी का मार्मिक स्थल वह है, जब हामिद अमीना को चिमटा लाकर देता है और वह बच्चे को डांटती है, फिर रोने लगती है!
लेकिन ‘ईदगाह’ बड़े स्प्ष्ट ढंग से बताती है कि बाजार में दो तरह की चीजें होती हैं-‘प्रलुब्धकारी’ और ‘जरूरी’! हामिद तेज हवा में न बहकर प्रलुब्धकारी वस्तुओं की जगह जीवन में जो जरूरी है, वह चुनता है। इस तरह ‘ईदगाह’ मुख्यत: बाजारवाद या उपभोक्तावाद से विद्रोह की कहानी है।
आज हमारे जीवन में उपभोक्तावाद ने ‘प्रलुब्धकारी’ और ‘जरूरी’ का फर्क मिटा दिया है, जिस तरह राजनीति ने धर्म और सांप्रदायिकता का। फिलहाल इन विडंबनाओं से बाहर निकलने की राह सूझ नहीं रही है, फिर भी आपको ‘ईद मुबारक’ तो कह ही सकते हैं!
यह भी याद कर सकते हैं कि अक्षय तृतीया है आज। माना जाता है कि आज ही महाभारत युद्ध का अंत हुआ था! इसका एक और मतलब है, आज के दिन कोई नया काम करने के लिए पंचांग में शुभ मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती। पुरोहित हाशिए पर होते हैं। एक और कथा है, जो मुख्य है-आज के दिन पांडवों को सूर्य से अक्षय पात्र मिला था!
कोई पर्व हो, उसे आज अपना बटुआ खोलने का पर्व बना दिया जा रहा है या घर से लाठी- तलवार निकालने का, जबकि सारे पर्व होते हैं अपना दिल खोल देने के लिए!
आम मनुष्य को मनुष्यता के जन्म से जो अक्षय पात्र मिला है, वह है उसका हृदय, उसका विवेकी मन! इस पर कभी- कभी धर्मांधता और बाजार सभ्यता के आवरण चढ़ जाते हैं। पर क्या मनुष्य को अंतिम रूप से हृदयहीन और विवेकहीन किया जा सकता है? मानव विवेक अक्षय है!!
-सुसंस्कृति परिहार
एक तरफ समान नागरिक अधिकारों की बात सरकार द्वारा उठाई जा रही है जिसे लेकर हालांकि काफी विरोध के स्वर अभी से उठने लगे हैं जबकि अभी यह कानून बनकर सामने नहीं आया है। आज जब अलीराजपुर मध्यप्रदेश आदिवासी समाज से एक समाचार निमंत्रण पत्र के साथ सामने आया तो आंखें खुल गईं। सचमुच कितनी विविधताओं के मिले जुले स्वरुप से भारत बना हुआ है। जिसमें नागरिक अधिकार कितने अलग थलग हैं। संहिता बनाना सहज प्रक्रिया हो सकती है लेकिन लागू करना टेढ़ी खीर होगा।
नानपुर गांव मोरिफलिया अलीराजपुर के पूर्व सरपंच समरथ मौर्य के प्रेम प्रसंग का एक विचित्र मामला सामने आया है। समरथ नाम का 35 वर्षीय भिलाला युवक 15 साल तक अपनी तीन प्रेमिकाओं के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहा वे तीन क्रमश: 33,28 और 25वर्ष की हैं। इन तीनों से समरथ के छै बच्चे हैं। समरथ ने विगत 30 अप्रैल और 1 मई की दरमियानी रात्रि में परम्परागत तौर पर वैवाहिक पूरी रस्में करते हुए अपनी दुल्हन त्रयी के साथ फेरे लिए। विशेष बात ये उनके बच्चे बाराती बने हुए थे। इस शादी में बड़ी संख्या में समाज के स्त्री पुरुष शामिल रहे। हालांकि बड़ी यानि पहली पत्नी नानीबाई को विशेष रुप से सजा संवारा गया। शायद बड़ी होने के कारण।
सवाल इस बात का है कि भिलाला आदिवासी समाज में जब लिव इन रिलेशनशिप की छूट है दो तीन लड़कियों से संबंध रख बच्चे पैदा करने की भी छूट है तो फिर इतने वर्षों बाद शादी की जरूरत क्यों इन पड़ी? वस्तुत:भिलाला समाज ने एक परिपाटी बना रखी है जब तक वे शादी की रस्में पूरी नहीं करते तब तक उन्हें समाज के मांगलिक कार्यों से वंचित रखा जाता है जो अपमान जैसा है। इसीलिए इन शादियों की जरूरत पड़ी। उधर समरथ की माली हालत इतनी समर्थ नहीं थी कि वह तीन पत्नियों नानबाई, मेला और सकरी के साथ शादी का खर्चा वहन कर सके इसीलिए इतनी देर हो गई। अब जब वह समर्थ हुआ उसने बाकायदा शानदार निमंत्रण पत्र छपवाकर धूमधाम से शादी की। आदिवासी समाज में कम से कम प्रेम की महत्ता तो है और उसे निभाने का दुस्साहस भी।
आदिवासी समाज की ये शादी लोगों के बीच काफी चर्चित है लगता है लोग मुश्किल में ना पड़ जाएं। यकीनन समान नागरिक संहिता ना होने की वजह इस तरह की स्थितियां सामने आईं हैं। वस्तुस्थिति यह है कि शादी गैर संवैधानिक नहीं है भारतीय संविधान का अनुच्छेद 342 आदिवासी समाज के रीति-रिवाज एवं विशिष्ट सामाजिक परम्पराओं को संरक्षण देता है। इसलिए आदिवासी समाज में घटित इस घटना से विचलित ना हों।
जहां तक समान नागरिक संहिता की बात है वह एकाएक लागू नहीं की जा सकती है। इसके लिए बहुत गहरे अध्ययन और समझ के बाद ही बनाना चाहिए वरना स्थितियां बिगड़ते देर नहीं लगेगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह यूरोप-यात्रा बड़े नाजुक समय में हो रही है। वे सिर्फ तीन दिन यूरोप में रहेंगे और लगभग आधा दर्जन यूरोपीय देशों के नेताओं से मिलेंगे। वे जर्मनी और फ्रांस के अलावा डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे, आइसलैंड और फिनलैंड के नेताओं से भी भेंट करेंगे। उनके साथ हमारे विदेश मंत्री, वित्त मंत्री आदि भी रहेंगे। कोरोना महामारी के बाद यह उनकी पहली बहुराष्ट्रीय यात्रा होगी।
एक तो कोरोना महामारी और उससे भी बड़ा संकट यूक्रेन पर रूसी हमला है। इस मौके पर यूरोपीय राष्ट्रों से संवाद करना आसान नहीं है, क्योंकि यूक्रेन-विवाद पर भारत का रवैया तटस्थता का है लेकिन सारे यूरोपीय राष्ट्र चाहते हैं कि भारत दो-टूक शब्दों में रूस की भर्त्सना करे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सला वॉन देर लेयन ने भारत आकर बहुत कोशिश की वे भारत को अपनी तरफ झुका सकें। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री दोनों ने स्पष्ट कर दिया कि वे रूसी हमले का समर्थन नहीं करते हैं लेकिन उसका विरोध करना भी निरर्थक होगा।
अब मोदी की यूरोप-यात्रा के दौरान इस मुद्दे को उन राष्ट्रों के द्वारा बार-बार उठाया जाएगा लेकिन यह निश्चित है कि यूरोप के साथ बढ़ते हुए घनिष्ट आर्थिक और सामरिक संबंधों के बावजूद भारत अपनी यूक्रेन नीति पर टस से मस नहीं होगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत का यह सुदृढ़ रवैया इन यूरोपीय राष्ट्रों और भारत के बढ़ते हुए संबंधों के आड़े आएगा।
फ्रांस के साथ भारत का युद्धक विमानों का बड़ा समझौता हुआ ही है। जर्मनी और फ्रांस दोनों ही यूक्रेन के तेल और गैस पर निर्भर हैं। अभी तक वे उसकी वैकल्पिक आपूर्ति की व्यवस्था नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा जर्मनी के नए चान्सलर ओलफ शोल्ज़ से भी मोदी की मुलाकात होगी। नोर्डिक देशों के नेताओं से मिलकर भारत के व्यापार को बढ़ाने पर भी वे संवाद करेंगे। पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में लगभग सभी प्रमुख यूरोपीय राष्ट्रों ने सारे दक्षिण एशिया, खासकर भारत के कच्चे माल से अरबों-खरबों डालर बनाए हैं लेकिन आज इन सारे देशों का भारत के साथ सिर्फ 2 प्रतिशत का व्यापार है।
180 करोड़ लोगों के बीच इतने कम व्यापार के कई कारण हैं लेकिन उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे व्यापारी पूरी तरह अंग्रेजी पर निर्भर हैं। यदि इन देशों की भाषाएं वे जानते होते तो यह व्यापार 10-15 प्रतिशत आराम से फैल सकता है। यदि भारत और यूरोपीय देशों का राजनीतिक और सामरिक सहयोग बढ़ेगा तो उसका एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंदिता में भारत को किसी एक महाशक्ति या गुट के साथ नत्थी नहीं होना पड़ेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभी-अभी कुछ संकेत ऐसे मिले हैं, जिनसे लगता है कि पाकिस्तान की विदेश नीति में बड़े बुनियादी परिवर्तन हो सकते हैं। इन परिवर्तनों का लाभ उठाकर भारत और पाकिस्तान अपने आपसी संबंध काफी सुधार सकते हैं। जिस चीन से पाकिस्तान अपनी ‘इस्पाती दोस्ती’ का दावा करता रहा है, वह इस्पात अब पिघलता दिखाई पड़ रहा है। जो चीन 5 लाख करोड़ रु. खर्च करके पाकिस्तान में तरह-तरह के निर्माण-कार्य कर रहा था, उस प्रायोजना का भविष्य खटाई में पड़ गया है।
चीन अपने शिनच्यांग प्रांत से पाकिस्तान के ग्वादर नामक बंदरगाह तक 1153 किमी लंबी सडक़ बना रहा था ताकि अरब और अफ्रीकी देशों तक पहुंचने का उसे सस्ता और सुगम मार्ग मिल जाए लेकिन अब शाहबाज शरीफ की नई सरकार ने इस पाक-चीन गलियारे की योजना को क्रियान्वित करने वाले प्राधिकरण को भंग कर दिया है। इसे भंग करने के कई कारण बताए जा रहे हैं। एक तो बलूचिस्तान में से इस गलियारे की लंबाई 870 किमी है, जो कि सबसे ज्यादा है।
बलूच लोग इसके बिल्कुल खिलाफ हैं। उन्होंने दर्जनों चीनी कामगरों को मार डाला है। दूसरा, इसने बहुत वक्त खींच लिया है। इसके कई काम अधूरे पड़े हुए हैं। तीसरा कारण यह भी है कि पाकिस्तान अपने हिस्से का पैसा लगाने में बेहद हीले-हवाले कर रहा है। उसने 2000 मेगावाट के बिजलीघर में लगनेवाले 30 हजार करोड़ रु. का भुगतान चीनी कंपनी को नहीं किया है। इसी तरह शिनच्यांग से ग्वादर तक रेल्वे लाइन डालने का 55 हजार करोड़ रु. की प्रायोजना भी खटाई में पड़ गई है।
पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि वह कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और मालदार मुस्लिम राष्टों के आगे अपनी झोली फैलाने के लिए मजबूर है। ऐसी स्थिति में वह चीन से अगर विमुख होता है तो उसके पास अमेरिका की शरण में जाने के अलावा कोई चारा नहीं है। इस वक्त तो रूस और चीन दोनों की ही दाल पतली हो रही है। एक की यूक्रेन के कारण और दूसरे की कोरोना के कारण ! अमेरिका तो पाकिस्तान का सबसे बड़ा मददगार रहा है।
यदि शाहबाज शरीफ थोड़ी हिम्मत दिखाएं और नई पहल करें तो पाकिस्तान का उद्धार हो सकता है। यदि अमेरिका से उसके संबंध बेहतर होंगे तो भारत के साथ वे अपने आप सुधरेंगे। अमेरिका इस वक्त चीन से बेहद खफा है। उसके इस्पाती दोस्त पाकिस्तान को वह अपनी हथेली पर उठा लेगा। शाहबाज चाहें तो भारत के साथ बंद हुए सभी रास्तों को खोलने की भी कोशिश कर सकते हैं। अमेरिका अपने आप उसके लिए अपनी भुजाएं फैला देगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
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एक तरफ तो प्रधानमंत्री अपने निवास पर सिख-प्रतिनिधि मंडल का स्वागत कर रहे हैं और दूसरी तरफ पटियाला में सिखों और हिंदुओं के बीच धुआंधार मारपीट हो रही है। प्रधानमंत्री ने हाल ही में गुरु तेग बहादुर के 400 वें जन्म-समारोह के अवसर पर भारत की आजादी और समृद्धि में सिख समुदाय के अपूर्व योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और कल पटियाला में खालिस्तान की मांग को लेकर दंगल मचा हुआ था। हिंदू और सिख संगठन आपस में भिड़ गए, उनमें लाठियाँ, गोलियाँ चलीं और पटियाला में कर्फ्यू भी लगाना पड़ गया।
पटियाला में जो कुछ हुआ, उसकी जड़ में उग्रवाद, मंदबुद्धि और संकीर्णता के अलावा कुछ नहीं है। उसका गुरु नानक के सिख धर्म और हिंदू धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। वह अल्पमति लोगों का आपसी दंगल भर है। बिल्कुल ऐसा ही दृश्य अभी-अभी दिल्ली के द्वारका क्षेत्र में देखने को मिला। राजाराम नामक गोदुग्ध का धंधा करनेवाले एक गरीब आदमी की हत्या कुछ गोरक्षकों ने इसलिए कर दी कि उन्हें शक था कि उसने किसी गाय की हत्या कर दी थी। उसके घर से किसी गाय के अस्थि-पंजर देखकर उन्होंने यह क्रूरतापूर्ण कुकर्म कर दिया। क्या ऐसे लोगों को आप हिंदुत्व या गोमाता के रक्षक कह सकते हैं? ऐसे लोग आदमी को पशु से भी बदतर समझकर उसे मार डालते हैं।
पंजाब में जो उग्रवादी खालिस्तान की मांग कर रहे हैं, वे बताएं कि वे कितने खालिस हैं? क्या वे गुरु नानक के सच्चे भक्त हैं? क्या उन्होंने गुरुवाणी के सच्चे अर्थों को समझने की कोशिश की है? वे धार्मिक उतने नहीं हैं, जितने राजनीतिक हैं। सत्ता की भूख उन्हें दौड़ाती रहती है। वे सत्ता हथियाने के लिए देश के दुश्मनों से भी हाथ मिला लेते हैं। सिखों के साथ क्या भारत में कोई भेदभाव या अन्याय होता है? भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सिख समुदाय के रहे हैं। वे लोकसभा अध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश, राज्यपाल, मुख्यमंत्री आदि सभी पदों पर रहते आए हैं।
किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग को इतनी महत्ता भारत में नहीं मिली है, जितने सिखों को मिली है। क्या भारत में कोई ऐसा समुदाय भी है, जिसके सिरफिरे सदस्यों ने किसी प्रधानमंत्री की हत्या की हो? प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख लोगों पर जो अत्याचार हुआ है, उसकी निंदा किसने नहीं की है? सिख समुदाय अपनी भारत भक्ति और कठोर परिश्रम का पर्याय है। भारतीयों को उस पर गर्व है। जो बंधु खालिस्तान का नारा लगाते हैं, क्या उन्हें पता नहीं है कि 1947 में पाकिस्तान का नारा लगानेवालों ने बेचारे करोड़ों मुसलमानों की जिंदगी कैसे मुहाल कर रखी है। जो भारत में रह गए, उन करोड़ों मुसलमानों की जिंदगी भी उन खुदगर्ज नेताओं ने परेशानी में डलवा दी है। खालिस्तानियों को पाकिस्तान से मदद नहीं, सबक लेना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. जैन
वर्ष 1974 से ही इंदिरा जी की लोकप्रियता व उनके कुछ फैसलों, उनका समाजवादी नीतियों की तरफ झुकाव, अमेरिका की नाराजगी आदि को लेकर उन्हें अस्थिर करने की कुछ ताकतों द्वारा साजिशें रचनी शुरू कर दी गई थी।
ऐसा ही एक मामला रेलवे की हड़ताल का था। समाजवादी व ट्रेड यूनियन लीडर जॉर्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में पूरे देश के 17 लाख रेलवे कर्मचारी दिनांक 8 मई 1974 को रेलवे का चक्का जाम कर हड़ताल पर चले गये थे। रेलवे कर्मचारियों की सेवा शर्तों, व वेतनमान को लेकर यह हड़ताल हुई थी। रेलवे किसी भी देश की जीवन रेखा होती हैं तो समझा जा सकता है कि रेलवे का चक्का जाम होने से देश की क्या हालत हुई होगी। बिजलीघरों में कोयले की ढुलाई से लेकर, खाद्यान्न, औद्योगिक सामग्री आदि सब ठप्प हो गई थी। यातायात का सबसे सस्ता और सुगम साधन रेल सेवा ही थी तो यात्रियों को भी कितनी परेशानी हुई होगी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। तब तक हमारे देश के रोड ट्रांसपोर्ट की क्षमता भी बेहद सीमित थी तो हड़ताली नेताओं को लगा था कि उनकी मांगों के सामने सरकार एक दिन में ही घुटने टेक देगी और उनकी सारी मांगें मान लेगी।
यहां रेलवे यूनियन के नेता मार खा गये क्योंकि उन्होंने इंदिरा जी को आँकने में भारी भूल की थी। हड़ताल शुरू होते ही इंदिराजी ने सख्ती दिखाते हुए यूनियन के नेताओं को जेलों में डाल दिया और हड़ताली कर्मचारियों की सेवाएँ समाप्त करनी शुरू कर दी। उनसे रेलवे के क्वार्टर भी खाली कराने शुरू कर दिये। लगभग 30000 कर्मचारियों व यूनियन नेताओं को रेलवे की नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। आवश्यक वस्तुओं की माल ढुलाई के लिये सेना व रेलवे के रिटायर्ड कर्मचारियों तथा जो थोड़े कर्मचारी हड़ताल पर नहीं गये थे को लगाया गया ताकि आम जन जीवन प्रभावित न हो। प्रमुख रेल मार्गों की यात्री रेल सेवाएँ भी चालू रखवाई गई थी। कहने का मतलब यह है कि रेलवे हड़ताल से आम जनजीवन बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं होने दिया गया था।
सरकार ने हड़ताली कर्मचारियों व यूनियन नेताओं को यह स्पष्ट कर दिया था कि कर्मचारी बिना शर्त हड़ताल समाप्त कर काम पर लौटे तभी उनसे बात की जा सकती हैं। सरकार की सख्ती का नतीजा यह हुआ कि 20 दिनों तक हड़ताल करने के बाद भी उनकी कोई मांग नहीं मानी गई और सभी कर्मचारी काम पर लौट आये। जिन हड़ताली नेताओं व कर्मचारियों की सेवाएँ समाप्त की गई थी उनमें से कुछ को ही बहाल किया गया था। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी और उनके नेता जार्ज फर्नांडीज मंत्री बने तो बर्खास्त कर्मचारियों को उम्मीद थी कि उन्हें बहाल कर दिया जायेगा पर जनता पार्टी की सरकार भी उन्हें बहाल न कर सकी थी।
कर्मचारियों का अपनी माँगों को लेकर हड़ताल करने को मैं गलत नहीं मानता पर रेलवे जैसी आवश्यक सेवाओं, जिनसे पूरा देश प्रभावित हो सकता है, देश में अव्यवस्था फैल सकती हैं व देश की सुरक्षा तक खतरे में पड़ सकती है में हड़ताल करने को मैं गलत मानता हूँ। इंदिराजी यदि इस हड़ताल को सख्ती से नहीं कुचलती तो देश में भयानक अराजकता फैल सकती थी और स्वार्थी यूनियन नेताओं को अपनी मनमानी करने का रास्ता मिल जाता। इसी सख्ती के कारण रेलवे में फिर कभी दुबारा हड़ताल नहीं हुई भले ही उनकी सुविधाओं, सेवा शर्तों में कटौती ही क्यूँ न होती रही हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय राजनीति का यह अनिवार्य चरित्र बन गया है कि लोकहितकारी मुद्दों को भी सांप्रदायिक रंगों में रंग दिया जाता है। जैसे अवैध मकानों को गिराना और धर्मस्थलों की कानफोड़ू आवाज़ों को रोकना अपने आप में सर्वहितकारी कार्य हैं, लेकिन इन्हें ही लेकर आजकल देश में विभिन्न संप्रदायों के नेता और राजनीतिक दल आपस में दंगल पर उतारु हो गए है।
मुंबई में अब महाराष्ट्र नव-निर्माण सेना ने धमकी दे दी है कि 3 मई (ईद के दिन) तक यदि महाराष्ट्र सरकार ने मस्जिदों से लाउडस्पीकर नहीं हटाए तो वह मस्जिदों के सामने हनुमानचालीसा का पाठ करेंगे। यदि यह सेना सभी धर्मस्थलों- मस्जिदों, मंदिरों, गिरजों, गुरुद्वारों और साइनागोगों- के लिए इस तरह के प्रतिबंधों की मांग करती तो वह जायज होती लेकिन सिर्फ मस्जिदों को निशाना बनाना तो शुद्ध सांप्रदायिकता है या यों कहें कि थोक वोट की राजनीति है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इस कानफोड़ू आवाज के खिलाफ अभियान शुरु किया तो उसने किसी भी धर्मस्थल को नहीं बख्शा। उसने मंदिरों और मस्जिदों पर ही नहीं, जुलूसों पर भी तरह-तरह की मर्यादाएं लागू कर दी हैं। इसी तरह बुलडोजर मामा की तरह प्रसिद्ध हुए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने पिछले दिनों अवैध मकान ढहाने में कोई भेदभाव नहीं किया। उनके बुलडोजरों ने मुसलमानों के जितने मकान ढहाए, उससे कहीं ज्यादा हिंदुओं के ढहा दिए। अवैध मकानों को ढहाना तो ठीक है लेकिन सिर्फ दंगाइयों के ही क्यों, सभी अवैध मकानों को ढहाने का एकसार अभियान क्यों नहीं चलाया जाता? ढहाने के पहले उन्हें सूचित किया जाना भी जरुरी है।
इसके अलावा जो गलत ढंग से ढहाए गए हैं, उन मकानों को फिर तुरंत बना देना और उनका पर्याप्त हर्जाना भरना भी जरुरी है। अवैध मकानों को ढहाने का मामला हो या कानफोड़ू आवाज को काबू करना हो, कोई भी भेदभाव करना अनैतिक और अवैधानिक है। जहां तक मस्जिदों से उठनेवाली अजान की आवाजों या मंदिर की भजन-मंडलियों के बजनेवाले भौंपुओं का सवाल है, दुनिया के कई देशों में इन पर कड़े प्रतिबंध हैं। हमारे मुसलमान जऱा सउदी अरब और इंडोनेशिया की तरफ देखे।
इस्लाम की दृष्टि से एक सबसे महत्वपूर्ण और दूसरा, सबसे बड़ा देश है। सउदी अरब की मस्जिदों में लाउडस्पीकर हैं लेकिन वे उनकी 1/3 आवाज से ज्यादा नहीं चला सकते। इंडोनेशिया में इस तरह के प्रतिबंध और भी बारीकी से लगाए गए हैं। नाइजीरिया ने तो कानफोड़ू आवाज के चलते 70 गिरजों और 20 मस्जिदों को बंद कर दिया है। होटलों और दारुखानों को भी बंद किया गया है। कारों के भौंपुओं की आवाज भी सीमित की गई है।
अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस में भी मजहबियों को शोर मचाने की छूट नहीं दी गई है। यूरोप के लगभग दो दर्जन देशों ने मजहबी प्रतीक चिन्ह लगाकर बाहर घूमने पर भी प्रतिबंध लगा रखा है। लेकिन ये देश इन प्रतिबंधों को लगाते वक्त इस्लाम और ईसाइयत में फर्क नहीं करते। जब प्रतिबंध सबके लिए समान रूप से लगाए जाएं, तभी वे निरापद कहलाते हैं। धर्म के नाम पर चल रहे निरंकुश पाखंड और दिखावों को रोकने में भी इन प्रतिबंधों का उत्तम योगदान होगा । (नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
सलीम गौस के निधन की खबर पढ़ी और आँखों के आगे दूरदर्शन वाले पुराने दिन घूमने लगे। सन् 1987 की बात है। अपट्रान का ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था, जिसके दरवाजे स्लाइड करते हुए खुला करते थे। पिता को गुजरे सात साल हो गए थे। भाई दूसरे शहर जा चुके थे। पुराने घर में अतीत की भुतैली स्मृतियां ही डोला करती थीं, लिहाजा हम मां-बेटे सारा खाली वक्त उस टीवी के आगे ही बिताते थे।
उन्हीं दिनों 'सुबह' नाम का एक टीवी सीरियल शुरू हुआ था, जिसमें दो युवा दोस्तों की कहानी थी। उसके युवा अभिनेता ने अपनी बड़ी और भावप्रवण आँखों और गहरी आवाज़ से स्क्रीन पर आते ही खींच लिया। कॉलेज के युवाओं की यह कहानी धीरे-धीरे ड्रग्स की तरफ बढ़ गई। भरत रंगाचारी का निर्देशन था जो सिर्फ 42 साल की उम्र में गुजर गए। इस सीरियल में संवाद कम होते थे और दृश्य तब के चलन से अलग तरीके से शूट किए जाते थे।
सीरियल में एक मुकाम आता है जब नायक को ड्रग्स के लिए पैसे की जरूरत होती है और वह अपने बुजुर्ग अभिभावकों (शायद नाना-नानी) को ही मार देता है। तब के और आज के लिहाज से भी यह दृश्य विचलित करने वाला था। लिहाजा जब उस एपिसोड के बाद विरोध के स्वर उठे तो दूरदर्शन ने उसका प्रसारण रोक दिया।
बाद में सलीम गौस श्याम बेनेगल की 'भारत एक खोज' जब राम बने तो मुझे लगा कि राम ऐसे ही रहे होंगे। कैलेंडर वाले राम और अरुण गोविल से बिल्कुल अलग, सच्चे और वास्तविक। मैंने बस उसके बाद सलीम गौस को नहीं देखा। हालांकि बाद की कई फिल्मों में वे प्रभावशाली खलनायक बनकर आए।
वे पूना फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट से निकले अभिनेता थे। स्क्रीन पर महज अपनी उपस्थिति से बांध लेने की कला थी उनमें। ऐसा न होता तो इतने सालों में बाद जब जाने कितने लोग और बातें विस्मृत हो जाती हैं एक अभिनेता कैसा याद रह जाएगा भला?
यह 1992 से पहले की बात है और राम का अभिनय किसी सलीम ने किया था, उन दिनों इस बात पर कभी ध्यान नहीं गया था।
(फेसबुक से)
-सरोज सिंह
पश्चिम बंगाल के खडग़पुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी रैली को संबोधित कर रहे थे। भाषण के बीच में पास की मस्जिद से अजान की आवाज आती है। आवाज़ सुनते ही पीएम मोदी दो मिनट के लिए चुप हो जाते हैं।
उस चुप्पी के बाद अपना भाषण ये कहते हुए शुरू करते हैं, ‘हमारे कारण किसी की पूजा, प्रार्थना में कोई तकलीफ ना हो, इसलिए मंैने कुछ पल के लिए भाषण को विराम दिया।’
इसके बाद 2017 में गुजरात के नवसारी की एक सभा में भी पीएम मोदी अजान के समय भाषण देते हुए चुप हो गए थे।
साल 2018 में त्रिपुरा में भी ऐसा ही किया था। उस वक्त पीएम मोदी की इस ‘चुप्पी’ ने खूब तारीफ बटोरी थी।
उनके धुर विरोधी रहे समाजवादी पार्टी नेता आजम खान ने कहा, ‘इसे मुसलमानों का तुष्टीकरण नहीं कहना चाहिए, ये अल्लाह का खौफ है।’
दूसरी चुप्पी
बात साल 2022 की है।
देश के तकरीबन 100 पूर्व नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है। चिट्ठी में भारत में वर्तमान में चल रही मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के खिलाफ चल रही कथित नफरत की राजनीति पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठाया गया है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक चिट्ठी में लिखा गया है, ‘नफरत की राजनीति जो इस समय समाज झेल रहा है, उसमें आपकी चुप्पी (पीएम) कानों को बहरा करने वाली है।’
गौरतलब है कि पिछले कुछ दिनों से अजान और लाउडस्पीकर को लेकर देश के अलग अलग प्रदेशों में राजनीति गरमाई हुई है। महाराष्ट्र में जहाँ एक पार्टी ने सभी मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने के लिए तीन मई की समय सीमा निर्धारित की है। वहीं उत्तर प्रदेश में ध्वनि प्रदूषण का हवाला देते हुए मंदिर, मस्जिदों से तकरीबन 10 हजार लाउडस्पीकर हटाए गए हैं। इसके अलावा मीट बैन, हिजाब, शोभायात्रा पर देश के अलग अलग हिस्सों में जो हिंसा और राजनीति हुई, इसकी बातें किसी से छिपी नहीं हैं।
नौकरशाहों की चिट्ठी में पीएम मोदी की इन बातों पर ‘चुप्पी’ का ही जिक्र है।
चिट्ठी में लिखा गया है, ‘पूर्व नौकरशाह के रूप में हम आम तौर पर ख़ुद को इतने तीखे शब्दों में व्यक्त नहीं करना चाहते हैं, लेकिन जिस तेज गति से हमारे पूर्वजों द्वारा तैयार संवैधानिक इमारत को नष्ट किया जा रहा है, वह हमें बोलने और अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए मजबूर करता है।’
दोनों चुप्पी में अंतर
2016, 2017 और 2018 में पीएम मोदी अपने भाषण के दौरान अजान सुन कर जब ‘चुप’ हो जाते थे, तो उनके धुर विरोधी आजम खान तक तारीफ करते थे। लेकिन उनकी आज की चुप्पी सवालों के घेरे में है।
इस बार नौकरशाहों ने भी इस पर सवाल उठे, न्यायालय में भी मामला पहुँचा और राजनीतिक विरोधी तो सवाल पूछ ही रहे हैं।
बुधवार को नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला भी इन सब पर खूब बोले।
मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘सियासत के लिए एक गलत माहौल बनाया जा रहा है। कहा जा रहा है मस्जिदों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। क्यों भाई, जब मंदिरों में हो सकता है तो मस्जिदों में क्यों नहीं। दिन में पाँच बार नमाज होती है। इसमें गुनाह क्या है?
‘आप हमें कहते हैं कि हलाल मीट नहीं खाना चाहिए। आखिर क्यों? हमारे मजहब में कहा गया है। आप इस पर रोक क्यों लगा रहे हो। हम आपको मजबूर नहीं कर रहे हैं खाने को। मुझे बताइए किस मुसलमान ने किसी गैर मुसलमान को हलाल मीट खाने को मजबूर किया। आप अपने हिसाब से खाइए, हम अपने हिसाब से खाएंगे। हम आपसे नहीं कहते कि मंदिरों में माइक नहीं लगने चाहिए। मंदिरों में माइक नहीं लगते क्या?गुरुद्वारे में माइक नहीं लगता है क्या? लेकिन आपको केवल हमारा माइक दिखता है। हमारे कपड़े खटकते हैं, आपको सिर्फ हमारा नमाज पढऩे का तरीका पसंद नहीं है।’
पीएम से गुहार क्यों?
नौकरशाहों की तरफ से लिखी चिट्ठी पर 108 लोगों के हस्ताक्षर हैं। इनमें दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव सुजाता सिंह, पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई और पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव रहे टीकेए नायर शामिल हैं।
पीएम मोदी की चुप्पी के सवाल पर नजीब जंग ने कहा, ‘जिन ब्यूरोक्रेट्स ने ये चिट्ठी लिखी है, उसका नाम है ‘कॉन्स्टिट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप’। इसमें 200 नौकरशाह शामिल हैं। संविधान का जब कभी उल्लंघन होता है या दाग लगता हुआ हमें दिखता है, हम उस बारे में चिट्ठी लिखते रहते हैं।
पिछले आठ-दस महीनों में हमने महसूस किया है कि देश में सांप्रदायिकता का नया दौर चला है, जिसमें सरकार को जो कार्रवाई करनी चाहिए वो नहीं की गई है। राज्य के डीएम और एसपी को जो कार्रवाई करनी चाहिए वो बहुत चिंताजनक है। इससे अल्पसंख्यक समुदाय जैसे मुसलमान, सिख, ईसाई उनमें भय का माहौल बनता जा रहा है।’
हमारा मानना है कि हिंदुस्तान में एक शख्स है, जिसकी बात देश सुनता है, वो हैं प्रधानमंत्री मोदी। वो एक कद्दावर नेता हैं। वो एक इशारा कर देंगे तो ये वारदातें रूक जाएंगी। अगर रुकेंगी नहीं तो कम तो जरूर हो जाएंगी। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, उनको इशारा मिलेगा कि ऐसा नहीं चल सकता।’
पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई भी इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में से एक हैं।
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘भले ही सांप्रदायिक हिंसा के ये मामले राज्यों में हो रहे हों, हम राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी चिट्ठी लिख सकते थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी प्रभावशाली नेता हैं, उनकी एक लाइन बोलने से सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक संदेश पहुँच जाएगा।’
‘हमने इसका उदाहरण पहले भी देखा है। सीएए-एनआरसी विवाद के दौरान अमित शाह का एक बयान था कि जल्द ही एनआरसी लागू किया जाएगा, लेकिन दो दिन बाद जब प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि अभी इस पर फैसला नहीं लिया गया है, तो उसके बाद से अमित शाह की तरफ से एनआरसी पर कोई बयान नहीं आया। साफ है, उनके शब्दों का प्रभाव कितना है।’
चिट्ठी पर बीजेपी की प्रतिक्रिया
नौकरशाहों की चिट्ठी में कहा गया है कि पिछले कुछ सालों में कई राज्यों- असम, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में अल्पसंख्यक समुदायों, खासकर मुसलमानों के प्रति नफरत और हिंसा में बढ़ोतरी ने एक भयावह आयाम हासिल कर लिया है। पत्र में कहा गया है कि दिल्ली को छोडक़र इन राज्यों में भाजपा की सरकार है और दिल्ली में पुलिस पर केंद्र सरकार का नियंत्रण है।’
हालांकि बीजेपी ने इस चिट्ठी पर तीखी प्रतिक्रिया दी है।
बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा, ‘प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चलाई जा रही जनकल्याणकारी योजनाओं जैसे फ्री वैक्सीन, फ्री राशन, जनधन अकाउंट पर तो ये ग्रुप कभी कुछ नहीं कहता। पीएम मोदी के नेतृत्व में हमारी सरकार पॉजिटिव गवर्नेंस के एजेंडे पर काम कर रही है, जबकि इस तरह के ग्रुप नकारात्मकता फैलाने का काम कर रहे हैं।’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो चुप्पियों के अंतर पर बोलते हुए राम बहादुर राय कहते हैं,
‘पहली चुप्पी जो थी वो नरेंद्र मोदी के धर्मनिरपेक्षता में सर्वधर्म सम्भाव में आस्था की चुप्पी थी। आज की चुप्पी संवैधानिक संघ की जो मर्यादा है वो उसकी चुप्पी है।’
मतलब जो राज्यों में हो रहा है, उसकी जिम्मेदारी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की है। अगर प्रधानमंत्री कुछ बोलते हैं तो मुख्यमंत्री के कार्य में वो हस्तक्षेप होगा। कानून व्यवस्था राज्यों का विषय है। एक अनुभवी मुख्यमंत्री होने के नाते, पीएम मोदी को पता है कि कहाँ उनको बोलना है और कहाँ चुप रहना है।
‘जो लोग प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख रहे हैं वो कोई साम्प्रदायिक सहिष्णुता का उदाहरण नहीं दे रहे हैं। वो इस आग में अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं। जो कुछ अभी हो रहा है, वो आजादी के बाद 1967 के बाद पहली बार हुआ था। आज की परिस्थितियां अलग है। जो कुछ छिटपुट घटनाएं हो रही हैं, उसे राज्य सरकारें संभाल रही हैं। कोई नरसंहार नहीं हो रहा है। जैसे सुप्रीम कोर्ट ने कहा धर्म संसद रोको तो उत्तराखंड की सरकार ने रोक दिया। इसलिए हर बात में प्रधानमंत्री को घसीटना उचित नहीं है। बोलने से ज्यादा चुप रहने में धैर्य और बुद्धि की जरूरत होती है।’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो चुप्पियों के अंतर पर बोलते हुए सुधींद्र कुलकर्णी कहते हैं, ‘अजान के समय भाषणों में चुप रहने की परंपरा राजनीति में पुरानी है। मैं खुद उन कई मौकों का गवाह रहा हूँ, जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी किसी रैली में होते और अजान की आवाज सुन लेते तो वो चुप हो जाते थे। अगर प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ( 2016, 2017, 2018) में जारी रखा, ये बड़ी बात है। वो शायद अज़ान के समय चुप नहीं होना चाहते थे, लेकिन चूंकि परंपरा चली आ रही थी, तो उन्हें चुप रहना पड़ा।’
वो आगे कहते हैं, ‘इस साल नफरत के माहौल में पीएम मोदी का चुप रहना बड़ी बात है। प्रधानमंत्री होने के नाते जब सांप्रदायिक हिंसा इतनी फैल रही है, दिल्ली तक इससे अछूती नहीं रहती है, धर्म संसद के नाम पर नफरत वाले भाषण हो रहे हैं। लेकिन पीएम के मुँह से एक शब्द नहीं निकलता, ये चुप्पी बिना कुछ कहे, बहुत कुछ कह दे रही है। ये ज़्यादा निंदनीय है।’ (bbc.com/hindi)
आज के ज्ञानी-ध्यानी दिल्ली से देहरादून तक धर्मसंसदों में खड़े होकर तिलक, चंदन, भगवा धारण करने के बावजूद त्याग या अपरिग्रह या करुणा की बजाय अखंड सनातनी हिन्दू भारत की स्थापना और विधर्मियों तथा विपक्ष का समूल विनाश करने का संदेश मीडिया में फैला रहे हैं।
-मृणाल पाण्डे
पर्यटन शब्द पहाड़ में पिछले दशक में ही चलन में घुसा है। इससे पहले पहाड़ी लोग-बाग तो बाहर जाने को देशाटन कहा करते थे और मैदानी लोग हिमालय की तरफ आने को तीर्थाटन! चार धाम यात्रा का जगन्नाथी रथ तब बुलडोजरों से बने चार-छह लेन के राजमार्गों से हो कर नहीं जाता था। अधिकतर तीर्थयात्री तीर्थाटन को पवित्र शारीरिक श्रम से जोड़ कर देखते थे। थकान के हिसाब से लंबी डगरों पर चट्टियां बनी थीं जहां जरूरत का न्यूनतम सामान पाकर विश्राम किया जा सकता था। फिर पैदल हिमालयीन इलाके की सुंदरता निहारते हुए हम लोग आगे बढ़ते।
अभी पिछले हफ्ते अपने एक बीमार प्रियजन को देखने के लिए बरास्ते हरिद्वार, ऋषिकेश और फिर देहरादून जाना हुआ। इस दौरान यह पाया कि धार्मिक पर्यटन ने इलाके का नक्शा ही बदल डाला है। सरकार की असीम अनुकंपा से सारे इलाके का तीर्थाटन अब पैसे की वैतरणी का इलाके में अवतरण करवाने वाला पर्यटन का पैकेज बना कर बेचा जा रहा है। सैर-सपाटे के लिए दिल्ली के काफी पास पडऩे वाले इस कुदरती तौर से सुंदर इलाके में आकर मौज-मस्ती के साथ गंगा में डुबकी मार कर पाक-साफ हो जाने का ‘एक पंथ दो काज’ का न्योता देने वाले विज्ञापनों से देश भर का मीडिया पाट दिया गया है।
पर्यटक भारी तादाद में आने भी लगे हैं। ईस्टर से लेकर रमजान और हनुमान जयंती तक नाना उत्सवों की मेहरबानी से कामकाजियों के लिए यह एक लंबा सप्ताहांत था। कोविड के दौरान घरों में कैद पर्यटकों का एक इतना भारी हजूम इस इलाके में उमड़ पड़ा था जिसे लोकल लोग भी कहते थे, उनकी कल्पना से परे था। चिर गरीब पहाड़ों को पर्यटन उद्योग के विकास के जरिये धर्म और पर्यटकों का स्वर्ग बना देने पर अपनी पीठ थपथपाते दिल्ली और देहरादून उत्तराखंड के ऐसे टेढ़े-मेढ़े विकास पर चिंतित नहीं, कसीदे पढ़ते रहते हैं।
गौरतलब यह भी है कि टूर ऑपरेटर जो कि अधिकतर मैदानी लोग हैं, एयर कंडिशन्ड वाहनों से चारेक दिनों में आपको चार धाम की यात्रा करवाने का वादा करते हैं। इससे तेज रफ्तार वाहनों की आवाजाही और पानी, लोकल रिहायशी जगहों की गंदगी बेतरह बढ़ चुकी है। छोटे-छोटे बाजार सैलानियों के भीमाकार वाहनों के जाम से ठसाठस रहते हैं और सफाई होना नामुमकिन बन जाता है। कुल मिलाकर सारे बड़े पहाड़ी शहर आधारभूत ढांचा लाए बिना इस पर्यटन विस्फोट के शिकार बन गए हैं जो पहाड़ के नाजुक पर्यावरण या स्थानीय भावनाओं को ठेंगे पर धरने वाले पर्यटकों की बेतरतीब आवाजाही और पार्किंग से हर गर्मी में विशाल स्लम बन जाते हैं।
फिर भी सरकार को गर्व है कि बड़े बिल्डरों और हयात रीजेंसी जैसी पांच तारा होटल चेनों ने यहां योगा-भोगा के वास्ते विदेशियों और अनाप-शनाप कमा चुके हमारे दौलतियों के लिए स्वर्ग समान सुविधाएं उपलब्ध करा दी हैं। धर्म के नाम पर अपनी कमाई का एक अंश देकर पाप धोने और स्वर्गवासी होने का फार्मूला इन नगरियों में सरकारी अमले और उन पर्यटकों को जो डच बियर या स्कॉटलैंड की व्हिस्की पीते हुए बाल्कनी से गंगा की धारा निहारते हैं, कतई हास्यास्पद नहीं, विकास का सार्थक प्रमाण लगता है।
अंतिम बात से याद आया कि हरिद्वार से ऋषिकेश के रास्ते में मुनि की रेती इलाके में एक पुल के आर-पार भीषण जाम लगा था। बताया गया कि यह नियमित रूप से लगता है। वजह? बताया गया, अजी, यहां बस अड्डा तो है ही, साथ ही यहां पर धर्मस्थली देवभूमि उत्तराखंड की सबसे बड़ी शराब की दूकान है। सो पर्यटक और शराब के सारे इलाके के गाहक यहां रात गए तक जुटे रहते हैं। पर क्या देवभूमि को ड्राय एरिया नहीं घोषित किया गया है?
जिस अदा से कभी गोपियों ने कृष्ण से ‘नैन नचाय, कह्यो मुसुकाय, लला फिर आइयो खेलन होरी’ ... कहा होगा वैसे ही बातून उत्तरदाता बोला, ‘अजी यही तो मजे की बात है! यहां पर दो जनपदों की सीमा हुई, टिहरी गढ़वाल और ऋषिकेश। ऋषिकेश में शराब नहीं बिकेगी, पर यहां टिहरी गढ़वाल में शराबबंदी लागू नहीं होने वाली है। उनका अपना कानून है। इसीलिए टिहरी गढ़वाल में ये दूकान बनी है। देसी कहो तो देसी, बिदेसी कहो तो बिदेसी, सारा माल हुआ यहां पर! कमाई का क्या पूछते हो? हमने सुना इस साल पूरे नौ करोड़ पैंतीस लाख में इसका ठेका उठा है।
स्व. अनुपम मिश्र विनोबा भावे को कोट करते थे जो मस्ती से गाते थे, सारे जहां से अच्छा, ‘क्योंकि’ हिन्दुस्तां हमारा...। इस ‘क्योंकि’ को विहिप के संदर्भ में देखिए। किस सुथराई से जहांगीरपुरी दंगों की प्राथमिकी में दर्ज दंगा आयोजित करवाने वाले संगठन को शाम तक मेट कर कुछ अज्ञात दंगाइयों के खिलाफ बना दिया गया। ‘क्योंकि’ हिन्दुस्तां हमारा! क्या यह एक संयोग भर है कि एक भगवाधारी बाबा हरिद्वार और ऋषिकेश के बीच नाना उत्पाद बनाने वाला एक विशाल उपक्रम और औषधीय बाग लगवाते हैं। उनके उत्पादों की गुणवत्ता पर नाना सवालिया निशान लगते हैं, मिट जाते हैं। धंधा चुनाव दर चुनाव कुछ और चमक जाता है।
जब तक इस इलाके का रिश्ता ऋषि-मुनियों और धर्मवेत्ताओं और गांधी जी, काका कालेलकर या रवींद्रनाथ टैगोर सरीखे समाज सुधारकों और बौद्धिकों से रहा, तब तक यहां की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक ही नहीं, भौगोलिक सुंदरता भी बनी रही। जिस काल में हमारे बड़े-बड़े सम्राट और महारथी भी तमाम युद्ध जीतने के बाद पांडवों की तरह एक दिन वैभव के सारे बंधन तोडक़र अंतिम दिन बिताने यहां आते थे। उस काल की कुछ बची-खुची स्मृतियां आज भी चंद बूढ़ा केदार या काली कमलीवाले बाबा के स्थान की तरह लगभग उध्वस्त मंदिरों, चट्टियों, धर्मशालाओं में शेष हैं। काका कालेलकर ने बहुत सुंदर बात कही है कि पहाड़ों का संदेश रहा है ‘स्वावलंबन’ और ‘स्वराज’, बड़े-बड़े विशाल मैदानी महानगरों का संदेश है ‘साम्राज्य’।
वे लोग थे जो सीधे ध्यान चिंतन और अपरिग्रह की लंबी परंपरा से निकले थे। आज के ज्ञानी-ध्यानी दिल्ली से देहरादून तक धर्मसंसदों में खड़े होकर तिलक, चंदन, भगवा धारण करने के बावजूद त्याग या अपरिग्रह या करुणा की बजाय अखंड सनातनी हिन्दू भारत की स्थापना और विधर्मियों तथा विपक्ष का समूल विनाश करने का संदेश मीडिया में फैला रहे हैं। इस जहर के पसरने और निरंतर पहाड़ आकर भी नेट से राजनीति, फिल्म और कारपोरेट जगत की दुनिया के हालचाल पर जिंदा लोगों का अपने आस-पास के जिंदा लोगों और अपने गिर्द के पर्यावरण से मानवीय रिश्ता टूट रहा है। रास्ते भर सडक़ किनारे के होटलों में, शहरों की दूकानों, रेस्तराओं में तथाकथित धार्मिक पर्यटक मोबाइल कान में लगाए या उसका पर्दा स्क्रोल करते हुए दिखते हैं।
पहाड़ों से लौटते समय अपने क्षीणकाय रुग्ण परिजन के अलावा बहुत बातें मन में आती रहीं। आज भी कुछ जगहें हैं जहां यह बेकार के बेतार जड़ नहीं पकड़ पाते। उन जगहों पर गंगा की अविरल धारा के चारों ओर बने आस्था पथ पर घूमते हुए आप अपने दिवंगत पुरखों से संवाद करते हैं। पुरखे कहते हैं मौत से डरो मत। मा भै:। सूक्ष्म या स्थूल इन दोनों दुनियाओं का गणित तुमसे परे है। बोरिया-बिस्तर बांधना एक मुहावरा ही नहीं। वही खोजो जिसे हमारे मनीषियों ने कहा था, मम सत्य। मेरा सच। कविवर भवानी प्रसाद मिश्र कह गए, जीवन तुम्हारा धोबी नहीं। हमको खुद अपना धोबी बन कर जिंदगी की सफाई करनी पड़ेगी। (navjivanindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कराची विश्वविद्यालय में तीन प्रोफेसरों की हत्या हो गई। ये पाकिस्तानी नहीं थे। ये चीनी थे। ये कराची के कन्फ्यूशिस इंस्टीट्यूट में पढ़ाते थे। इन प्रोफेसरों ने बलूचों का क्या नुकसान किया था कि उन्होंने इनको मार दिया? सच्चाई तो यह है कि ये हत्याएं इसलिए की गई हैं कि बलूचिस्तान में चीन इतने अधिक निर्माण-कार्य कर रहा है कि उनसे बलूचिस्तान पर इस्लामाबाद का शिकंजा कसता चला जा रहा है। यह तथ्य ही बलूच बागियों के गुस्से का असली कारण है। बलूच लोग पाकिस्तान में नहीं रहना चाहते हैं। वे अपना अलग राष्ट्र बनाना चाहते हैं। कई बलूच नेताओं ने मुझे कराची, इस्लामाबाद और पेशावर में हुई भेंटों में बताया कि वे पाकिस्तान में कभी मिलना ही नहीं चाहते थे।
इसीलिए 1947 में कलात के खान ने कलात, लासबेला, खरान और मकरान को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था लेकिन 1948 में पाकिस्तानी फौज ने डंडे के जोर पर बलूचों को पाकिस्तान में मिला लिया। बलूच प्रांत आधे पाकिस्तान के बराबर बड़ा है और उसकी जनसंख्या मुश्किल से पाकिस्तान की जनसंख्या के 3.5 प्रतिशत के बराबर है। बलूच कहते हैं कि हम लोग सैकड़ों बरस से आजाद रहे हैं। अंग्रेज भी हमें गुलाम नहीं बना सके। हम अब पंजाबियों की गुलामी क्यों करे? बांग्लादेश की आजादी के बाद बलूच आजादी के आंदोलन ने काफी जोर पकड़ा लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो ने उसे निर्दयतापूर्वक कुचल डाला। मुशर्रफ के जमाने में प्रसिद्ध बलूच नेता नवाब अकबर खान बुगती को एक गुफा में बम से उड़ा दिया गया था। इसके बावजूद बलूच आंदोलन कभी ढीला नहीं पड़ा। कई बलूच नेता वाशिंगटन, लंदन, काबुल और तेहरान में बैठकर बागियों को हवा देते रहते हैं। बलूच आंदोलन पूर्णरूपेण हिंसक है।
उसके कार्यकर्त्ता पाकिस्तानी फौज और चीनी लोगों पर अब तक कई सीधे आक्रमण कर चुके हैं। उनमें अब तक दर्जनों पाकिस्तानी और चीनी लोग मारे गए हैं। कराची के चीनी वाणिज्य दूतावास पर और ग्वादर का बंदरगाह बनानेवाले चीनी कामगारों पर कई बार हमले हो चुके हैं। बलूच लोग इन्हें अपनी बंदूक की गोलियों का शिकार बनाते हैं। इस बार एक बलूच महिला ने आत्मघाती हमला करके नवीन परंपरा स्थापित की है। बलूच नहीं चाहते कि उनके ग्वादर के बंदरगाह का चीनी लोग इस्तेमाल करें। चीन चाहता है कि ग्वादर के जरिए वह अरब और अफ्रीकी देशों तक अपनी पहुंच बढ़ा ले। इसीलिए वह काराकोरम से ग्वादर तक पक्की सडक़ बना रहा है। पाकिस्तान का आरोप है कि भारत की सरकारें बलूच आंदोलन को भडक़ाती रहती हैं।
लेकिन मैं इतना कह सकता हूं कि आज तक जितने भी बलूच नेता मुझसे मिले हैं, मैं उनसे नम्रतापूर्वक कहता रहा हूं कि हिंसक आंदोलन न तो उचित है और न ही यह कभी सफल हो सकता है। आंदोलन हमेशा अहिंसक होना चाहिए। दूसरा, दक्षिण एशिया में अब नए-नए राज्य खड़े करने से उसके सिरदर्द बढ़ते चले जाएंगे। जरूरी यह है कि बलूचिस्तान और पख्तूनख्वाह जैसे प्रांतों को अधिकतम स्वायत्ता दी जाए, जो कि स्वाधीनता के बराबर ही हो। हर बलूच यह महसूस करे कि वह आजाद है। यदि हमें दक्षिण एशिया के देशों को सशक्त और संपन्न बनाना है तो उन्हें तोडऩे की बजाय जोडऩे की कोशिश करनी होगी। दक्षिण एशिया के लगभग हर राष्ट्र में अल्पसंख्यक लोग हैं। वे अलगाव की मृग-मरीचिका में फंसने की कोशिश करते हैं। लेकिन, देख लीजिए कि 1947 में भारत से अलग होकर पाकिस्तान को क्या मिला? (नया इंडिया की अनुमति से)
कांग्रेस प्रशांत किशोर (पीके) की समस्या से आज़ाद हो गई है। पार्टी ने तय किया है कि अपना घर ठीक करने के किए उसे किसी भी बाहरी विशेषज्ञ की ज़रूरत नहीं है। उसके पास अपने ही अनुभवी नेताओं की बड़ी फ़ौज है।प्रशांत एपिसोड के पटाक्षेप के बाद पार्टी के सेवेंटी-प्लस योद्धाओं में उत्साह की लहर है कि उनकी मेहनत आख़िरकार रंग ले लाई और वे चर्चित रणनीतिकार को ग्रैंड ओल्ड पार्टी से बाहर रखने में कामयाब हो गए।
इस बात की पहले से ही आशंका व्यक्त की जा रही थी कि एक सौ सैंतीस साल बूढ़ी पार्टी को पैंतालीस की उमर के प्रशांत किशोर की ज़रूरत हो ही नहीं सकती। मामला राहुल और प्रियंका के तैयार होने का नहीं बचा था जिन्हें कि सबसे ज़्यादा आपत्ति होनी चाहिए थी पर नहीं हुई। दिक़्क़त उन तमाम बुजुर्गों को थी जिनके हाथ अभी भी पार्टी और भविष्य में बन सकने वाली सरकारों का नेतृत्व करने के लिए कांप रहे हैं। इन नेताओं के तो बेटे-बेटियाँ भी अब प्रशांत किशोर की उमर के हो गए हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस का सफ़ाया हो गया और संसद में विपक्ष का नेता बनने के भी लाले पड़ गए तब राहुल गांधी ने पार्टी की हार की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए आरोप लगाया था कि कुछ बड़े नेता बजाय पार्टी की जीत के लिए काम करने के, अपने बेटे-बेटियों को जिताने में ही लगे रहे (‘दो मुख्यमंत्रियों और एक वरिष्ठ नेता ने अपने बेटों के हितों को पार्टी के हितों से ऊपर रखकर दबाव बनाया ,कांग्रेस से इस्तीफ़ा देने तक की धमकी दी थी।’)
हक़ीक़त यह है कि राहुल गांधी ने जिन नेताओं को लेकर उक्त टिप्पणी की थी वे चुनावों में पार्टी की हार के बाद संगठन में और ज़्यादा मज़बूत हो गए और वे (राहुल) कुछ नहीं कर पाए।प्रशांत किशोर मामले में सोनिया गांधी भी इन्हीं नेताओं के साथ चर्चाएँ करतीं रहीं। समूचे घटनाक्रम में अच्छी बात यह रही कि प्रशांत किशोर सीरियल के अंतिम एपिसोड के वक्त अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए राहुल गांधी नई दिल्ली में उपस्थित नहीं थे। उन्हें बातचीत के नतीजों की जानकारी पहले से हो चुकी थी।
कांग्रेस पार्टी को किसी भी क़ीमत पर बदलने नहीं दिया जाए इस षड्यंत्र में निहित स्वार्थों की एक बहुत बड़ी लॉबी की रुचि और भागीदारी हो सकती है। यह लॉबी किसी भी ऐसी होनी को अनहोनी में बदलने के लिए बड़ी से बड़ी सुपारी बाँटने के लिए भी तैयार बैठी हो सकती है। कांग्रेस के मज़बूत होने का मतलब राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता परिवर्तन की शुरुआत भी माना जा सकता है। इस लॉबी में बड़े औद्योगिक घरानों और कांग्रेस-विरोधी दलों के साथ-साथ पार्टी के अंदरूनी तत्वों को भी शामिल किया जा सकता है।दांव पर आख़िर दो सौ के क़रीब लोकसभा की वे सीटें हैं जिनकी कि कांग्रेस के खाते में प्रशांत किशोर ने पहले से गिनती कर रखी है। इन सीटों पर मुक़ाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही रहता है। प्रशांत किशोर के जुड़ जाने से उन ग्यारह राज्यों के विधान सभा परिणामों पर भी फ़र्क़ पड़ सकता था जहां लोक सभा के पहले चुनाव होने हैं।
अब जबकि तात्कालिक तौर पर साफ़ हो गया है कि प्रशांत किशोर नहीं जुड़ रहे हैं, बातचीत की असफलता के संबंध में सफ़ाई पेश करने के साथ-साथ चर्चाएँ कांग्रेस के भविष्य को लेकर भी प्रारम्भ हो गईं हैं। जैसी कि सम्भावना ज़ाहिर की जा रही थी, प्रशांत किशोर चाहे औपचारिक तौर पर कांग्रेस से नहीं जुड़ने वाले हों, पार्टी ने उनके दिए गए सुझावों पर काम प्रारम्भ कर दिया है। पी चिदम्बरम ने स्वीकार किया है कि प्रशांत किशोर द्वारा सुझाए गए कुछ प्रस्तावों पर पार्टी कार्रवाई करना चाहती है। उनके द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण और आँकड़े काफ़ी प्रभावशाली हैं।
कांग्रेस आलाकमान और प्रशांत किशोर के बीच बातचीत के असफल होने के असली कारणों का पता वार्ताकारों और भाजपा के शिखर क्षेत्रों के अलावा किसी को नहीं चल पाएगा। इनकार प्रशांत किशोर ने किया कि कांग्रेस ने इस पर किसी अगले दौर की बातचीत की खबरों तक पर्दा पड़ा रहेगा। बातचीत की असफलता को लेकर क़यास यह भी लगाया जा सकता है कि सास इंदिरा गांधी की तरह से सोनिया गांधी का असंतुष्ट नेताओं पर नियंत्रण नहीं है या फिर पार्टी में आंतरिक प्रजातंत्र ज़रूरत से ज़्यादा मौजूद है।इसीलिए कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं को अभी सूझ नहीं पड़ रही है कि वे प्रशांत किशोर के नहीं जुड़ने की खबर पर दुःख मनाएँ या एक दूसरे को बधाई देते हुए मिठाई बाँटें !
कई दौरों की बातचीत के बाद भी दोनों पक्षों के बीच किसी समझौते पर नहीं पहुँच पाने को लेकर इतना अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि प्रशांत किशोर अपनी शर्तों पर ही कांग्रेस को परिणाम देने की गारंटी चाहते थे। वे गांधी परिवार से संवाद के दौरान मध्यस्थों के हस्तक्षेप या विरोध के ख़िलाफ़ भी आश्वासन चाहते थे। परिवार और पार्टी नेताओं को इस तरह की कार्य-संस्कृति की निश्चित ही आदत नहीं है। ऐसी शर्तों का पालन केवल उन्हीं दलों में सम्भव है जहां केवल एक व्यक्ति की हुकूमत है। प्रशांत किशोर ने अतीत में ऐसी ही पार्टियों के साथ काम किया है। संक्षेप में कहना हो तो कांग्रेस के नेता समस्या के इलाज के लिए मिट्टी के लेप और टब बाथ से प्रारम्भ कर चरणबद्ध प्राकृतिक चिकित्सा चाहते थे और प्रशांत किशोर पहले ही दिन एनीमा देना चाहते थे।
वैसे यह मान लेना भी जल्दबाज़ी करना होगा कि कांग्रेस के लिए प्रशांत किशोर अध्याय अंतिम रूप से समाप्त हो गया है। किसी दिन फिर से यह खबर आ सकती है कि प्रशांत किशोर एक बार पुनः दस जनपथ के दरबार में परिवार के साथ बातचीत करने पहुँच गए हैं। प्रशांत किशोर और कांग्रेस के बीच बातचीत टूटी है पर रिश्ते क़ायम हैं। एक बात तो तय है कि इस समय कांग्रेस को ही प्रशांत किशोर की ज़्यादा ज़रूरत है।
-शुमायला खान
पाकिस्तान की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो जरदारी ने बुधवार को पाकिस्तान के विदेश मंत्री के रूप में शपथ ली।
पाकिस्तान के सभी राजनीतिक हलकों और राजनीति पर नजर रखने वालों का मानना है कि बिलावल भुट्टो के मंत्रिमंडल में शामिल होने से हाल ही में बनी पाकिस्तान मुस्लिम लीग के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की सरकार मजबूत होगी।
लेकिन अब सभी की निगाहें उनकी विदेश नीति पर होंगी, ख़ासकर भारत के साथ रिश्ते पर। पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की पूर्ववर्ती सरकारों के रिश्ते भारत से बहुत खराब नहीं रहे हैं। हालांकि पिछले सात सालों में हालात बहुत बदल गए हैं। पाकिस्तान के विश्लेषक इन खराब हुए रिश्तो के लिए भारत की नरेंद्र मोदी सरकार को जिम्मेदार मानते हैं।
अब सवाल यह है कि क्या बिलावल भुट्टो जरदारी भारत को लेकर पाकिस्तान की विदेश नीति में कोई बदलाव ला सकेंगे, खासकर कश्मीर के मुद्दे पर। भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त शाहिद मलिक कहते हैं, ‘पाकिस्तान के सभी पक्ष यह चाहते हैं कि भारत के साथ रिश्ते फिर से सामान्य हो और कश्मीर के मुद्दे पर चर्चा हो। पाकिस्तान में पिछले 5-7 सालों में जो भी सरकार सत्ता में आई है, उसने भारत के साथ रिश्तों को सामान्य करने की कोशिश की है। बातचीत शुरू होनी चाहिए लेकिन भारत ने इस दिशा में कोई प्रगति नहीं की है।’ यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि शाहिद मलिक पाकिस्तान में पीपल्स पार्टी की सरकार के दौरान भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त थे। यह वह दौर था जब पाकिस्तान की सबसे युवा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार ने भारत की कामयाब यात्रा की थी।
शाहिद मलिक कहते हैं, ‘जब भारत में मनमोहन सिंह सत्ता में थे तब दोनों देशों के बीच नियमित बात होती थी। दूसरे मुद्दों के साथ-साथ कश्मीर के मुद्दे पर भी वार्ता की प्रक्रिया चल रही थी। दोनों देशों के बीच व्यापार, कई मुद्दों पर बैठकर हो रही थी और एक दूसरे की खेल टीमें इधर-उधर जा रही थीं।’ वहीं कराची विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय मामलों की प्रोफेसर डॉक्टर हुमा बक़ाई मानती हैं कि अगले साल होने वाले चुनावों की वजह से बिलावल भुट्टो ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह भारत को लेकर पाकिस्तान की विदेश नीति में कोई निर्णायक बदलाव कर सकें।
‘पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय में इस बात को लेकर आम सहमति है कि जब तक भारत में नरेंद्र मोदी सत्ता में हैं भारत और पाकिस्तान के रिश्तो में कुछ नहीं हो सकता। इस मामले में विदेश नीति में बदलाव पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है क्योंकि उसकी सहयोगी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज इस मुद्दे पर अपने आपको विदेश मंत्री से अलग करके देखेगी।’
पाकिस्तान में सत्ताधारी गठबंधन की दोनों ही अहम पार्टियां पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ भारत के साथ अच्छे रिश्ते चाहती हैं। पीपीपी एक उदारवादी लोकतांत्रिक विचारों वाली पार्टी है जो सुरक्षा को लेकर तो समझौता नहीं करेगी लेकिन वह मानती है की बातचीत की प्रक्रिया और राजनीतिक स्तर पर वार्ता से ही समस्याओं का समाधान निकलना चाहिए। पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज व्यापारिक हितों का ध्यान रखने वाली पार्टी है और वह चाहती है किस संकट का समाधान हो ताकि कारोबारी हितों का ध्यान रखा जा सके। वहीं इस्लामाबाद की कायद-ए-आजम यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ डॉक्टर जफर नवाज सपाल मानते हैं कि दोनों ही पार्टियां लंबे समय तक कश्मीर को अपना फौरी एजेंडा नहीं बनाएंगी।
भारत के कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे को समाप्त करने के संदर्भ में डॉ जसपाल कहते हैं कि भारत पाकिस्तान को किसी भी तरह की राहत नहीं देना चाहेगा, ऐसे में गठबंधन सरकार इस मुद्दे को नजरअंदाज ही करना चाहेगी। वह इस मुद्दे पर अपनी सैद्धांतिक स्थिति को तो बरकरार रखेंगे लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की तरह आक्रामक नहीं होंगे। जिस तरह इमरान ख़ान ने इस मुद्दे को उछाला, बिलावल शायद ही ऐसा करें।
डॉक्टर जसपाल भारत पाकिस्तान की विदेश नीति में किसी सकारात्मक बदलाव की उम्मीद नहीं रख रहे हैं। वह कहते हैं कि पाकिस्तान में साल 2023 और भारत में साल 2024 में आम चुनाव होने हैं। मोदी साहब पाकिस्तान से बात नहीं करना चाहते क्योंकि इससे उनके वोट बैंक प्रभावित होते हैं। ऐसे में अगर बिलावल वार्ता की शुरुआत भी करना चाहे तो उन्हें भारत से बहुत उत्साहवर्धक जवाब नहीं मिलेगा।
पाकिस्तान की सेना और विदेश नीति
पाकिस्तान में इमरान खान की सरकार के पतन से पहले सेना ने स्पष्ट किया था कि वह गैर राजनीतिक है और अपने आप को राजनीतिक मामलों से अलग रखती है। लेकिन पाकिस्तान में आम राय यह है कि पाकिस्तान के विदेश नीति के मामलों से सेना अपने आपको अलग नहीं रख सकती। भारत को लेकर पाकिस्तान की विदेश नीति उनके लिए बेहद अहम है।
डॉ. हुमा इस मान्यता से इत्तेफाक रखती हैं। वह कहती हैं कि विदेश नीति में, खासकर भारत के मामले में कुछ नया करना बिलावल का आखिरी पत्ता होगा। अंत में सेना ही भारत को लेकर पाकिस्तान की विदेश नीति तय करेगी। पाकिस्तान के इस ताजा राजनीतिक संकट की वजह से जनरल वाजवा की स्थिति कमज़ोर हुई है, ऐसे में अगर बिलावल भारत समर्थक स्टैंड लेना चाहेंगे भी तो नहीं ले पाएंगे। यथास्थिति बनी रहेगी और वह भारत को लेकर बहुत सक्रियता से काम नहीं कर पाएंगे।
भारत को लेकर विदेश नीति में बदलाव को सेना संवेदनशील क्यों मानती है?
डॉक्टर हुमा इसे समझाते हुए कहती हैं, ‘पाकिस्तान के सुरक्षा बलों के लिए यह एक मुश्किल साल रहा है और कराची यूनिवर्सिटी पर बलूच लिबरेशन आर्मी के ताजा हमले के बाद मुझे नहीं लगता कि बिलावल पाकिस्तान की नीति में बड़ा बदलाव करने की स्थिति में है।’
डॉक्टर हुमा कहती हैं कि ‘सेना प्रमुख जनरल जावेद क़मर बाजवा इस समय पहले से हुए नुकसान की भरपाई में लगे होंगे। ऐसे में मैं यह देखती हूं कि अमेरिका और यूरोप के साथ पाकिस्तान के रिश्तो में सुधार संभव है लेकिन अफगानिस्तान या भारत को लेकर पाकिस्तान की विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता।’ (bbc.com/hindi)
-मुकेश नेमा
अरुण लाल को बधाई! छाछठ साल के ये जवान जब तक क्रिकेट मैदान में रहे बूढ़े बने रहे, ऐसा कोई तीर नहीं मार पाये जिससे लोगों का ध्यान जाता उनकी तरफ! बहरहाल अब वो फार्म में आ चुके और इस बार उन्होंने जो बल्ला घुमाया है, गेंद जिस तूफानी रफ्तार से मैदान के बाहर जाकर बहुतों के दिल की खिड़कियों के काँच तोड़ चुकी वो रश्क करने लायक है! छाछठ साल के अरुण लाल अड़तीस की खूबसूरत, मृदुभाषी बुलबुल के दूल्हा बने हैं, जाहिर है इस खबर से उन लाखों करोड़ों कुँवारों की छाती पर साँप लोट रहे है जो बिना घोड़ी का मुँह देखे एक्सपाईरी डेट बरसों पहले पार कर चुके! और जिनके जीवन में बस बाराती होने के अवसर ही आये हैं!
बहरहाल ऐसे सभी कुंवारे, शादीशुदा, के अलावा ऐसे जीव जो केवल पुरुष होकर पैदा हुए है, ऐसे नकारात्मक लोग, जिन्हें यह खबर जहर जैसी लग रही है मेरी राय को कान देकर सुने! पहली बात तो ये कि सुंदर, सुलक्षणा कन्या मात्र योग्य वर का ही वरण करती है! हम वीर भोग्या वसुंधरा वाले देश है! गधो को सेवन कोर्स लंच डिनर नहीं मिलता कभी! ऐसे में हमारे निडर ट्रकों के पीछे लिखी उस अमर सूक्ति का स्मरण रखें जो हमें स्वस्थ प्रतियोगिता के लिये प्रेरित करती है! हम सभी ने पढ़ा है उसे, जलों नहीं बराबरी करो! ऐसे में आप ये जो स्वस्थ, प्रसन्न, अमीर अरूण लाल का मजाक बना रहे हैं, वो बस ये बताती है कि आप अंदर ही अंदर कलप रहे है, मरे जा रहे हैं अरूणलाल होने के लिये, पर हो नहीं पा रहे!
सच तो यह है बुढ़ापे में शादी करने का मतलब बूढ़ा होने से इनकार कर देने जैसा है! नई दुल्हन लेकर आये किसी बुजुर्ग के चेहरे की चमक देखे! बंदा फेरे लेते ही बीस बरस कम हो जाता है! बुज़ुर्गवार दूल्हे खाँसने खखारने में, विश्वास नहीं रखते! बुढ़ापे में ब्याह च्यवनप्राश सा प्रभावी है, वे चुस्त दुरुस्त हो लेते हैं फौरन! दौड़ते भागते हैं और फिट बने रहना चाहते हैं! स्वस्थ इंडिया बनाने में सबसे ज़्यादा योगदान बूढ़े दूल्हे का होता है! उनकी खूबसूरत दुल्हन को देखकर पूरी कॉलोनी, पूरा गाँव, पूरा शहर फिट होने के प्रति आग्रही हो जाता है, तोंदों की शामत आ जाती है! स्पोर्ट्स शू की बिक्री बढ़ जाती है एकाएक! सारे नागरिक सुबह सुबह दौडऩा शुरू कर देते है, पूरी कोशिश करते हैं कि उनके रास्ते में इस नवविवाहित बुजुर्ग दूल्हे का घर जरूर पड़े! अमिताभ बच्चन ने भी बताया ही है कि देश की इकोनॉमी तभी स्वस्थ रह सकेगी जब देश में हर आदमी स्वस्थ हो! ऐसे में स्वस्थ, पुनर्विवाहित बूढ़े देश की इकोनॉमी में उत्प्रेरक का काम करते हैं!
और फिर आसपास के दस बीस किलोमीटर के इलाके में कानून और व्यवस्था सुधर जाती है! लोग नववधू के समक्ष, अनुशासित, सभ्य और शांतिप्रिय दिखने के लिये मरे जाते है! शादीशुदा जोड़े से नमस्ते करने के चक्कर में पूरे गाँव के कुत्ते बिल्ली तक को प्रणाम करने लगते हैं लडक़े! जाहिर है अमन चैन और भ्रातृत्व का वातावरण बनता है इससे! पुलिस और कोर्ट के पास ज़्यादा काम नहीं रह जाता! बतौर नागरिक, राज्य आपसे और क्या अपेक्षा कर सकता है!
आसपास रहते सारे अधेड़, बाल रंगवाने के लिये लाइन लगा लेते हैं हेयर कटिंग सेलून पर! बाल काटने वाला होशियार बंदा इन्हे फेशियल, मेनीक्यौर, पैडीक्यौर के बिना जाने जाने नहीं देता! नये चलन के कपड़े खरीदने बिना कैसे रह सकता है मोहल्ला ऐसे में शहर के खडख़ड़ाते बुजुर्गों के अलावा कपड़ों की दुकान में जान आ जाती है! देश की अर्थव्यवस्था को चार चाँद लगने की स्थितियाँ निर्मित होने लगती है! किसी भी बुजुर्ग के शादी करने के ये सकारात्मक प्रभाव है!
और फिर सबसे बड़ा लाभ! निकटवर्ती सारे लोग आशावादी और खुशमिजाज हो उठते हैं! ऐसा लगता है कि अब आनंद मंत्रालय की कोई जरूरत ही नहीं रही हमें! सारे रिश्तेदार, अड़ोसी पड़ोसी, मिलनसार होकर ऐसे प्रेम से भर जाते हैं कि उन पर भरोसा करने का मन होने लगता है! जि़ंदा रहने के लिये आप और क्या चाह सकते है!
ऐसे में मन बड़ा कीजिये ! बधाई दीजिये अरूणलाल को! प्रार्थना कीजिये भगवान से कि सुअवसर उपस्थित होने पर, कोई कमनीय बुलबुल चहके आपके आँगन में भी! वैसा ही सुंदर अरुणोदय हो आपके जीवन में, जैसा उनके साथ हुआ है!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के तौर पर सतपाल मलिक ने जो अद्भुत काम किया है, मेरी स्मृति में इतना साहसिक कार्य किसी अन्य राज्यपाल ने भारत में पहले कभी नहीं किया। उन्होंने 300 करोड़ रु. की रिश्वत को ठोकर मार दी। यदि वे उन दो फाइलों पर अपनी स्वीकृति के दस्तखत भर कर देते तो अनिल अंबानी की एक कंपनी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक नेता उन्हें 300 करोड़ रु. आसानी से दिलवा देते। जब मलिक ने छह-सात माह पहले इस प्रकरण को सार्वजनिक जिक्र किया तो मुझे एकाएक विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि आरएसएस के कार्यकर्त्ता इस तरह के अनुचित कार्यों से प्राय: दूर ही रहते हैं।
उनके और मेरे कुछ मित्रों ने कहा कि उन्हें पहले कश्मीर से गोवा और फिर वहां से मेघालय भेज दिया गया तो वे बस इस तबादले पर अपनी नाराजी निकाल रहे हैं लेकिन मैं सतपाल मलिक को उनके छात्र-काल से जैसा जानता हूं, मुझे लगता था कि उनके जैसा सत्यनिष्ठ और निर्भीक नेता ऐसे निराधार आरोप कैसे लगा सकता है। सतपाल मलिक की हिम्मत ने अब रंग दिखा दिया। जम्मू-कश्मीर के वर्तमान उप-राज्यपाल मनोज सिंह ने जो कि खुद मलिक की तरह लोकप्रिय छात्र-नेता रहे हैं, दोनों मामले सीबीआई को सौंप दिए हैं।
जम्मू-कश्मीर में भ्रष्टाचार के ऐसे मामलों की लंबी परंपरा है। जब शासन मुख्यमंत्रियों के हाथ में होता है तो वे बेलगाम होकर भ्रष्टाचार करते हैं। कश्मीर में भ्रष्टाचार का दूसरा नाम शिष्टाचार है। जिन दो मामलों की जांच चल रही है, उनमें एक जम्मू का कीरू हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट है और दूसरा प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों के स्वास्थ्य बीमे से संबंधित है। इन दोनों मामलों में जम्मू-कश्मीर के हजारों करोड़ रु. खपने थे।
पहले तो इनके टेंडर जारी करने में घपले हुए और फिर जब टेंडर जारी किए गए तो उनमें कई शर्तो का पालन नहीं किया गया। अंबानी की कंपनी को 61 करोड़ रू. का अग्रिम भुगतान भी हो गया। लगभग 4 हजार करोड़ के दूसरे प्रोजेक्ट में भी पता नहीं कितना घपला होता। सरकारी अफसरों ने सारी अनियमितताओं की अनदेखी कर दी और टेंडर भी पास कर दिए। यदि राज्यपाल आपत्ति नहीं करते तो हमेशा की तरह सारा खेल आराम से चलता रहता लेकिन विभागीय जांच से पता चला कि इन दोनों कंपनियों को हरी झंडी दिखाने के काले काम में सरकार के ऊँचे अफसरों की भी मिलीभगत है।
जाहिर है कि उन्होंने भी रिश्वत खाई होगी। उन अफसरों के खिलाफ पुलिस ने रपट लिख ली है और केंद्रीय जांच ब्यूरो ने जांच शुरु कर दी है। उप-राज्यपाल मनोज सिंहा ने पर्याप्त सख्ती और मुस्तैदी दिखाई, वरना जम्मू-कश्मीर को भारी नुकसान भुगतना पड़ता। भ्रष्टाचारी व्यवसायी और अफसरों की तो जेबें भरतीं लेकिन कश्मीरी नौजवानों को रोजगार के नाम पर कोरा अंगूठा मिलता। यदि अन्य प्रदेशों के राज्यपाल भी ऐसी ही सतर्कता का परिचय दें तो भ्रष्टाचार पर थोड़ा-बहुत अंकुश जरुर लग सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस में इमेनुएल मेक्रों फिर से राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए हैं। 20 वर्षों में यह दूसरा मौका है, जब कोई नेता लगातार दूसरी बार फ्रांस का राष्ट्रपति बना है। मेक्रों दूसरी बार भी जीत गए लेकिन दो तथ्य ध्यान देने लायक हैं। पहला, 2017 के पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में मेक्रों को वोट कम मिले। पिछले चुनाव में उन्हें अपने प्रतिद्वंदी मरीन ल पेन से लगभग दुगुने वोट मिले थे लेकिन इस बार यह फासला काफी कम हो गया।
मेक्रों को 58.5 प्रतिशत तो ल पेन को 41.5 प्रतिशत वोट मिले। चुनाव के दौरान अफवाहें तो यह भी थीं कि ल पेन मेक्रों को हरा सकती थीं। ल पेन एक ऐसी फ्रांसीसी महिला नेता हैं, जो धुर दक्षिणपंथी हैं। जबकि मेक्रों वामपंथी नहीं हैं। वे मध्यममार्गी हैं। फ्रांस के इस चुनाव ने लोगों का दम फुला रखा था। यदि ल पेन जीत जातीं तो लोगों को डर था कि वे यूक्रेन के मामले में रूस का समर्थन कर देतीं, क्योंकि व्लादिमीर पूतिन से उनके संबंध काफी अच्छे हैं। वे उग्र राष्ट्रवादी हैं। इसलिए शंका यह भी थी कि जैसे ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर निकल आया, ल पेन फ्रांस को भी यूरोपियन संघ और शायद नाटो से भी बाहर निकालने की कोशिश करें। मेक्रों के वोट इतने कम हो गए और ल पेन जीत नहीं पाई, इसका एक कारण यह भी रहा कि 28 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान में भाग ही नहीं लिया। इस बीच फ्रांस में बेरोजगारी और मंहगाई ने लोगों की कमर तोड़ रखी थी। मेक्रों ने पिछले चुनाव में बढ़-चढक़र जो दावे किए थे, उन्हें वे जमीन पर नहीं उतार सके। मेक्रों ने अपनी जीत के बाद जो बयान दिया, वह फ्रांस की राजनीति का प्रामाणिक आईना है। उन्होंने कहा है कि उनकी समस्त कमजोरियों के बावजूद फ्रांस की जनता ने उन्हें इसीलिए जिताया है कि वह फ्रांस को दक्षिणपंथी उग्रवादियों के हवाले नहीं करना चाहती।
जून में होनेवाले संसदीय चुनाव में भी मेक्रों की जीत की संभावना काफी अच्छी है। मेक्रों की उम्र इस समय सिर्फ 44 साल है। वे राजनीति में आने के पहले बेंकर थे। उम्मीद है कि वे अगले पांच साल में फ्रांस की आर्थिक स्थिति में कई सुधार ले आएंगे। उन्होंने इस्लामी उग्रवादियों को काबू करने के लिए कई प्रतिबंध लगाए हैं लेकिन वे ल पेन की तरह इस्लाम-द्रोह से ग्रस्त नहीं हैं। विदेश नीति के मामले में भी उन्होंने न तो अमेरिका-विरोधी मोर्चा खोला है और न ही वे रूस से दुश्मनी गांठने का दावा करते हैं। उन्होंने यूक्रेन-युद्ध के दौरान पूतिन और झेलेंस्की दोनों से संवाद कायम किया था। भारत से भी पिछले पांच वर्षों में फ्रांस के आर्थिक और सामरिक संबंध घनिष्ट हुए हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में यद्यपि फ्रांस चौगुटे का सदस्य नहीं है लेकिन भारत और उसकी नीतियों में काफी समानता है। यूरोपीय संघ के साथ भारत के जो ताजा आर्थिक और राजनीतिक समीकरण बने हैं, उनमें भी फ्रांस की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होगी क्योंकि फ्रांस यूरोपीय संघ का सबसे बड़ा और शक्तिशाली राष्ट्र है। भारतीय प्रधानमंत्री की अगले सप्ताह होनेवाली यूरोप-यात्रा के दौरान भारत-फ्रांस संबंधों की घनिष्टता पर अब फिर से मुहर लगेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
हुकूमत अगर बहुसंख्यक वर्ग के कट्टरपंथी दंगाइयों के साथ खड़ी नजर आती हो तो लोकतंत्र और अल्पसंख्यकों की रक्षा की जिम्मेदारी किसे निभानी चाहिए? असगर वजाहत एक जाने-माने उपन्यासकार, नाटककार और कहानीकार हैं। उनके प्रसिद्ध नाटक ‘जिन लाहौर नई वेख्या, ओ जन्मयाई नई’ (1990)का दुनिया के कई देशों में मंचन हो चुका है। हाल में घटी साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं के सिलसिले में असगर ने ‘’हिंदू-मुस्लिम सद्भावना और एकता के लिए कुछ विचारणीय बिंदु’ शीर्षक से बहस के लिए एक महत्वपूर्ण नोट अपने फेसबुक पेज पर शेयर किया है। नोट में उल्लेखित दस बिंदुओं में बहस के लिहाज से दो बिंदु ज्यादा महत्व के हैं: पहला और अंतिम।
अपने पहले बिंदु में असगर कहते हैं- ‘मुस्लिम समुदाय के लिए यह मानना और उसके अनुसार काम करना बहुत आवश्यक है कि देश में लोकतंत्र मुसलमानों के कारण नहीं बल्कि हिंदू बहुमत के कारण स्थापित है और हिंदू बहुमत ही उसे मजबूत बनाएगा। इसलिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों की कोई लोकतांत्रिक लड़ाई सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदुओं का साथ लिए बिना नहीं लड़ी जा सकती।’
असगर अपने दसवें या अंतिम बिंदु में कहते हैं कि संभ्रांत मुसलिम समुदाय और साधारण गरीब मुसलमानों के बीच एक बहुत बड़ी दीवार है जिसे तोडऩा और जरूरी है।
पिछले सात-आठ साल या उसके भी पीछे जाना हो तो गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों की घटनाओं ने इस भ्रम को तोड़ दिया या कमजोर कर दिया है कि देश में आजादी के जमाने जैसी सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदुओं की ऐसी कोई जमात बची हुई है जो हर तरह के अल्पसंख्यकों (जिनमें दलितों को भी शामिल किया जा सकता है) के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए किसी लोकतांत्रिक लड़ाई के लिए तैयार है! असगर जिन सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदुओं की बात कर रहे हैं उनमें अधिकांश मुसलमानों के नुमाइंदों के तौर पर संभ्रांत मुस्लिमों की ओर से और दलितों के प्रतिनिधियों के रूप में दलितों की तरफ से मंत्रिमंडलों में शामिल सुविधाभोगी पिछड़े नेताओं की तरह ही हो गए हैं।
दिल्ली में जहांगीरपुरी (लगभग एक लाख आबादी) के छोटे से इलाके में जब गरीब मुसलमानों की बस्तियाँ उजाड़ी जातीं हैं तो राजधानी के कोई बाईस लाख मुसलमानों को बुलडोजरों की आवाज ही सुनाई नहीं पड़ती। डेमोक्रेटिक हिंदुओं का वहाँ इसलिए पता नहीं पड़ता कि संभ्रांत मुसलिमों की तरह ही वे भी अपनी जान जोखिम में डालने से बचना चाहते हैं। इस तरह के प्रसंगों में यह सच्चाई बार-बार दोहराई जाती है कि दूसरे विश्वयुद्ध (1941-45) के दौरान जब हिटलर के नेतृत्व में कोई साठ लाख निर्दोष यहूदियों की जानें लीं जा रहीं थीं आठ करोड़ जर्मन नागरिक मौन दर्शक बने नरसंहार होता देख रहे थे। ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ अखबार ने हाल ही में एक समाचार में बताया है कि जर्मनी की अर्थव्यवस्था अंतरराष्ट्रीय ब्रांड वाली जिन बड़ी-बड़ी कार कम्पनियों पर टिकी हुई है उनकी बागडोर हिटलर के जमाने में हुए यहूदियों के नरसंहार के गुनहगार पूँजीपतियों की पीढ़ी के हाथों में ही है और वह किसी भी तरह के अपराध बोध से ग्रसित नहीं है।
सितम्बर 2015 में यूपी के दादरी में मोहम्मद अखलाक की मॉब लिंचिंग और उसके बेटे दानिश की पिटाई से मौत के दौरान जो सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदू-मुसलमान मूक दर्शक बने रहते हैं वे ही खरगोन और जहांगीरपुरी में भी आँखें चुराते हैं। जहाँगीरपुरी में काफी कुछ तबाह हो जाने के बाद भी जब कोई वामपंथी महिला नेत्री वृंदा करात बुलडोजर के सामने अकेली खड़े होने का साहस दिखाती है तो पीडि़तों को कुछ उम्मीद बंधने लगती है।
असगर जब कहते हैं कि संभ्रांत और साधारण गरीब मुसलमानों के बीच एक बहुत बड़ी दीवार है तो वे यह कहने में संकोच करते हैं कि हालत बहुसंख्यक समाज में भी लगभग ऐसी ही है। साधारण गरीब मुसलमान का नेतृत्व भी कट्टरपंथी कर रहे हैं और असगर जिसे ‘हिंदू बहुमत’ कहते हैं उसकी कमान भी कट्टरपंथियों की पकड़ में ही है। सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही अपनी-अपनी जमातों में अल्पसंख्यक हैं। गिनने जितने बचे मैदानी सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदुओं (और मुसलमानों) में समाजवादियों और वामपंथियों को माना जा सकता है। वामपंथियों के बारे में यह याद रखते हुए कि इंदिरा गांधी के लोकतंत्र-विरोधी आपातकाल का उन्होंने खुला समर्थन किया था।
यह अवधारणा कि देश में लोकतंत्र हिंदू बहुमत के कारण स्थापित है और वही (हिंदू बहुमत) उसे मजबूत बनाएगा उस सच्चाई के सर्वथा विपरीत है जिसके कि हम एक नागरिक के तौर पर प्रत्यक्षदर्शी और एक सेकुलर तथा डेमोक्रेटिक हिंदू के रूप में अपराधी हैं। हम चुपचाप खड़े देख रहे हैं कि हिंदू बहुमत का उपयोग देश में लोकतंत्र को मजबूत करने के बजाय भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित करने के लिए किया जा रहा है। भाजपा की समझ में आ गया है कि मुसलमान और दलित जिन ताकतों को सेकुलर और डेमोक्रेटिक मानकर अपना वोट बेकार करते रहे हैं वे हकीकत में कभी मौजूद ही नहीं थीं।बालों की सफेदी को ढाँकने की तरह ही पार्टियाँ सेकुलरिज्म की डाई का इस्तेमाल कर रहीं थीं। चुनाव-दर-चुनाव प्राप्त होने वाले नतीजों में इस नकली सेकुलरिज्म का कलर उतरता गया। इसीलिए जब केसरिया बुलडोजर चलते हैं तो केवल वर्दीधारी पुलिस ही नजर आती है सेकुलरिस्ट या गांधीवादी नहीं।
जो हुकूमत इस समय सत्ता में है वह न तो सेकुलर है और न ही उसका सेकुलर हिंदुओं की ताकत या उनकी राजनीतिक हैसियत में कोई यकीन है। यह हुकूमत परम्परागत मंदिरमार्गी हिंदुओं के दिलों में मुसलमानों या इस्लाम के खिलाफ खौफ की बुनियाद पर कायम हुई है और आगे भी उसी को अपनी सत्ता की स्थायी ताकत बनाना चाहती है। अटल जी सहित भाजपा के दूसरे नेताओं की कथित छद्म धर्मनिरपेक्षता इस तरह की जोखिम उठाने से डरती थी।मोदी ने करके दिखा दिया। इस विरोधाभास को संयोग भी माना जा सकता है कि सर्व धर्म समभाव को लेकर सत्य के प्रथम प्रयोग भी गुजरात में हुए थे और बाद में कट्टर हिंदुत्व की प्रयोगशाला भी गुजरात ही बना। एक के नायक मोहनदास करमचंद गांधी बने और दूसरे के नरेंद्र दामोदरदास मोदी।
लोकतंत्र की लड़ाई अब उतनी सहज नहीं रही है जितनी कि असगर अपने सुझावों के जरिए बताना या बनाना चाह रहे हैं (मसलन- ‘देश में एकता और शांति के महत्व और आवश्यकता पर एक बड़ा राष्ट्रीय सम्मेलन किया जाना चाहिए जिसमें अंतिम दिन दंगा-प्रभावित क्षेत्र में कैंडल मार्च निकाला जा सकता है।)। लड़ाई लम्बी चलने वाली है क्योंकि किन्ही विदेशी ताकतों के खिलाफ नहीं है। चूँकि हमारे बीच कोई महात्मा गांधी उपस्थित नहीं हैं लड़ाई के अहिंसक परिणामों को लेकर कोई गारंटी भी सुनिश्चित नहीं समझी जा सकती है।मैंने अपने पूर्व के एक आलेख में उद्धृत किया था कि जैसे-जैसे लोगों के पेट तंग होते जाते हैं, हुकूमत के पास उन्हें देने के लिए ‘हिंदुत्व’ और ‘राष्ट्रवाद’ के अलावा कुछ और नहीं बचता। अत: सभी तरह के साधारण और गरीब अल्पसंख्यकों को प्रतीक्षा करना होगी कि उनके अधिकारों की लड़ाई में सेकुलर हिंदू और संभ्रांत अल्पसंख्यक नहीं बल्कि वे धर्मप्राण हिंदू ही साथ देंगे जो मुफ्त के सरकारी अनाज के दम पर राष्ट्रवाद के नारे लगाते-लगाते एक दिन पूरी तरह से थक जाएँगे और अपने लिए ज्यादा आजादी की माँग करेंगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंचायती राज दिवस के उपलक्ष्य में कल प्रधानमंत्री ने जम्मू में ऐसी परियोजनाओं का शिलान्यास किया है, जिनसे जम्मू-कश्मीर की जनता को बड़ी राहत मिलेगी। 20 हजार करोड़ रु. सरकार लगाएगी और 38 हजार करोड़ रु. का निवेश पिछले दो साल में हो चुका है। प्रधानमंत्री के साथ दुबई और अबू धाबी के निवेशक भी उस समारोह में उपस्थित थे। इस निवेश से कश्मीर के लोगों की सुविधाएं बढ़ेंगी और लाखों नए रोजगार भी पैदा होंगे।
जम्मू के पत्ली गांव में 500 किलोवाट के सोलर प्लांट का शुभारंभ करके उन्होंने सारे देश को संदेश दिया है कि भारत चाहे तो अगले कुछ ही वर्षों में बिजली, ईंधन और तेल के प्रदूषण से मुक्त हो सकता है। बनीहाल से क़ाजीगुंड तक की सुरंग जैसे कई निर्माण-कार्य संपन्न होंगे, जिनके परिणामस्वरुप आवागमन और यातायात अधिक सुरक्षित और सुगम हो जाएगा। केंद्र सरकार आजकल जम्मू-कश्मीर के लिए पहले की तुलना में ज्यादा योगदान कर रही है। उसके कुल खर्च का 64 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार देती है।
देश के बहुत कम राज्यों को इतनी बड़ी मात्रा में केंद्र सरकार की मदद मिलती है। पंचायत राज दिवस के दिन जम्मू-कश्मीर के लिए की गई इन घोषणाओं का स्वागत है लेकिन यह बड़ा सवाल भी विचारणीय है कि देश में पंचायतों को हमने अधिकार कितने दिए हैं? पंचायतों को ताकतवर बनाने का अर्थ है— सत्ता का विकेंद्रीकरण! क्या केंद्र और राज्यों की सरकारें इसके लिए सहर्ष तैयार हैं। जम्मू-कश्मीर में लोगों की शिकायत यह भी है कि अगस्त 2019 में उसका जो विशेष दर्जा खत्म किया गया था, उसे केंद्र सरकार कब तक अधर में लटकाए रखेगी? प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ने आश्वासन दिया था कि उसे राज्य का दर्जा फिर से वापस किया जाएगा। गुपकर गठबंधन ने उस विशेष दर्जे की मांग जोरों से की है।
उसने 2020 के जिला विकास परिषद के चुनावों में स्पष्ट विजय भी हासिल की थी। उसे यह शिकायत भी है कि विधानसभा में जम्मू की 6 सीटें बढ़ाकर कश्मीर को हल्का किया जा रहा है। कश्मीरी नेताओं का वर्तमान प्रतिबंधों से दम घुट रहा है, इसमें शक नहीं है लेकिन कश्मीर में पहले के मुकाबले इस समय शांति और व्यवस्था बेहतर है, यह भी सत्य है। आतंकी घटनाएं भी कभी-कभी होती रहती हैं लेकिन बड़े पैमाने पर इधर कोई आतंकी घटना की खबर नहीं है।
इसका श्रेय मुस्तैद उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा और उनके योग्य अफसरों को है लेकिन जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थिति तभी बनेगी, जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया वहां बाक़ायदा शुरु हो जाएगी। अब जम्मू-कश्मीर बाहरी लोगों के लिए भी खुल गया है। वे वहां अन्य प्रांतों की तरह जाकर रह सकते हैं। गर्मियों में पर्यटकों की संख्या बढ़ जाने से लाखों लोगों की आर्थिक राहत भी बढ़ी है। इसके अलावा पाकिस्तान में शहबाज़ शरीफ की सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह सीमा-पार आतंकवाद पर सख्ती से काबू करेगी और कश्मीर के सवाल पर भारत सरकार के साथ सार्थक संवाद भी करेगी।
प्रधानमंत्री ने जम्मू-कश्मीरियों को जो यह संदेश दिया है कि आपके माता-पिता और उनके माता-पिता ने जैसी तकलीफें सही हैं, वैसी आपको अब नहीं सहनी पड़ेंगी, अपने आप में दिल को छूनेवाला है। उम्मीद है कि ऐसा माहौल कश्मीर में शीघ्र ही बन सकेगा। कश्मीर में लोक-कल्याण तो बढ़ गया है लेकिन लोकतंत्र की वापसी भी उतनी ही जरुरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन की अध्यक्षता में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे कई फैसले किए हैं, जिनसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सम्मान में वृद्धि हुई है। उन्होंने तमिलनाडु के उच्च न्यायालय भवन की नींव रखते समय जो भाषण दिया, उसमें उन्होंने अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। वह है— भारत की न्याय-व्यवस्था के भारतीयकरण का। यह मुद्दा उठाने के पहले उन्होंने कहा कि हमारी अदालतों का आचरण ऐसा होना चाहिए, जिससे आम जनता के बीच उनकी प्रामाणिकता बढ़े। उनके फैसलों में कानूनों को अंधाधुंध तरीके से थोपा नहीं जाना चाहिए। न्याय सिर्फ किताबी नहीं होता। उसका मानवीय स्वरूप ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।
इसी तरह न्याय द्रौपदी के चीर की तरह लंबा भी नहीं होना चाहिए। अब भी देश की अदालतों में लगभग 5 करोड़ मुकदमे लटके हुए हैं। कई मुकदमे 30-30, 40-40 साल तक चलते रहते हैं। उन्हें लडऩेवाले लोग और वकील भी कई मामलों में दिवंगत हो चुकते हैं। यह इंसाफ नहीं, इंसाफ का मजाक है। न्यायमूर्ति रमन ने बताया कि देश में 1104 जजों के पद हैं लेकिन उनमें से 388 अभी भी खाली पड़े हैं। उन्होंने विधानपालिका और कार्यपालिका द्वारा किए गए अतिक्रमणों का भी जिक्र किया। न्यायाधीशों को इन मामलों में नागरिकों का हित सर्वोपरि रखना चाहिए और सरकार, संसद व विधानसभाओं से कोई मुरव्वत नहीं करनी चाहिए। उन्होंने हमारी न्याय-व्यवस्था के भारतीयकरण का बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा भी अपने भाषण में उठा दिया। भारतीयकरण का अर्थ क्या है? यही है कि हमारा कानून आजादी के 75 साल बाद भी मूलत: औपनिवेशिक ढर्रे पर चल रहा है। अंग्रेज के बनाए हुए कुछ कानून हमारी सरकारों ने रद्द जरुर किए हैं लेकिन अभी भी वही पुराना ढर्रा चला आ रहा है।
देश के सभी लोगों के लिए एक-जैसा कानून कब बनेगा? पहली बात तो यह है कि हमारे उच्च न्यायालयों में बहस और फैसले प्रादेशिक भाषाओं में क्यों नहीं होते? उसके लिए हमारे कानून पहले प्रादेशिक भाषाओं में ही बनने चाहिए। न्यायमूर्ति रमन ने कहा है कि आज के यांत्रिक मेधा के युग में अनुवाद की प्रक्रिया इतनी सरल हो गई है कि यह सुविधा आसानी से प्रदान की जा सकती है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस संबंध में पिछले दिनों अच्छी पहल की थी। यदि हमारे कानून संसद में मूल रूप से हिंदी में बनने लगें तो सभी भारतीय भाषाओं में उनका अनुवाद काफी सरल हो जाएगा। यदि न्याय-व्यवस्था का हमें भारतीयकरण करना है तो सबसे पहले उसे अंग्रेजी के शिकंजे से मुक्त करना होगा। इस समय भारत की न्याय-व्यवस्था जादू-टोना बनी हुई है। इसीलिए वह ठगी, विलंब और अन्याय का शिकार भी होती है। क्या देश में कभी कोई ऐसी सरकार भी आएगी, जो सचमुच न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण कर सकेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ब्रिटेन के कई प्रधानमंत्री और महारानी एलिजाबेथ भी भारत आ चुकी हैं लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की यह यात्रा दोनों देशों के लिए जितनी सार्थक रही है, वह अपने आप में एतिहासिक उपलब्धि है। जॉनसन का साबरमती आश्रम जाना अपने आप में एक घटना है। जो आश्रम महात्मा गांधी ने बनाया था और जिस गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें हिला दी थीं, उस गांधी के आश्रम में कोई ब्रिटिश प्रधानमंत्री जाए और जमीन पर बैठकर चरखा चलाए, यह अपने आप में एक किस्सा है।
चार किलोमीटर के रास्ते में जॉनसन का हजारों लोगों ने जैसा भाव-भीना स्वागत किया, वैसा उन्होंने पहले कभी देखा नहीं होगा। इसीलिए उन्होंने कह दिया कि उन्हें अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर जैसा अनुभव हो रहा है। ये ऐसे पहले अंग्रेज प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने भारत आकर हिंदी में मोदी को कहा कि वे उनके ‘खास दोस्त’ हैं। अंग्रेजी भाषा के गुलाम भारत में आकर कोई अंग्रेज प्रधानमंत्री हिंदी में बोले, यह अपने आप में अजूबा है। इसका पहला कारण तो यह है कि विश्व राजनीति और व्यापार में भारत का प्रभाव बढ़ रहा है।
दूसरा, आजकल की ब्रिटिश राजनीति में भारतीय मूल के नागरिकों का बढ़ता हुआ वर्चस्व है। अब क्योंकि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर आ गया है, इसलिए भारत-जैसे बड़े राष्ट्रों के साथ उसे अपने राजनीतिक, व्यापारिक और सामरिक संबंध घनिष्ट भी बनाने हैं। यदि दिवाली तक दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता हो गया तो निश्चय ही कुछ वर्षों में भारत-ब्रिटेन व्यापार दुगुना हो सकता है। आस्ट्रेलिया और संयुक्त अरब अमीरात के साथ हुए भारत के मुक्त-व्यापार समझौते के सुपरिणाम अभी से दिखने लगे हैं।
भारत-ब्रिटेन समझौता तो नए हजारों रोजगार पैदा कर सकता है। जॉनसन ने यह भी कहा है कि उनकी सरकार योग्य भारतीयों को वीज़ा देने में उदारता बरतेगी। जॉनसन और मोदी ने भारत-प्रशांत क्षेत्र में भी सामरिक सहकार पर सहमति व्यक्त की है। जॉनसन ने ब्रिटेन द्वारा भारत को बेचे जानेवाले शस्त्रों, नई सामरिक तकनीकों और सामुद्रिक निगरानी की कई तकनीको को देने का भी वादा किया है। दोनों राष्ट्रों ने शस्त्र-निर्माण के संयुक्त कारखाने खोलने का भी संकल्प किया है। अफगान जनता को पहुंचाई जानेवाली भारतीय सहायता की जॉनसन ने प्रशंसा की और दोनों पक्षों ने अफगानिस्तान को आतंकवाद का अड्डा बनाने का विरोध किया। दोनों राष्ट्रों ने अफगानिस्तान में सर्वसमावेशी सरकार को जरुरी बताया।
ऐसा लग रहा था कि इस दिल्ली-यात्रा के दौरान जॉनसन की कोशिश यह होगी कि वे भारत को अपनी तरफ झुकाएंगे याने उसे रूस की आलोचना के लिए मजबूर करेंगे लेकिन इसका उल्टा ही हुआ। जॉनसन ने भारत की यूक्रेन-नीति की सराहना की और मोदी की तारीफ में कई कसीदे काढ़ दिए। उन्होंने ब्रिटेन में सक्रिय कई खालिस्तानी और आतंकवादी संगठनों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का भी वायदा किया।
उन्होंने भारत को खुश करने के लिए यह भी कह दिया कि वे सीमा-पार से आनेवाले आतंकवाद की कड़ी भर्त्सना करते हैं। ऐसा लगता है कि इस यात्रा के दौरान जो समझौते और संवाद हुए हैं, वे इन दोनों देशों को संबंधों के नए और ऊँचे धरातल पर पहुंचा देंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
भारतीय राजनीति में एक अंतर्धारा बह रही जैसे पौराणिक किंवदंतियों की सरस्वती नदी। है भी और नहीं भी दिखाई देती, लेकिन अस्तित्व में कही जाती है। हिन्दू मुस्लिम राजनीति लगातार वाचाल ककहरा है। उसकी आड़़ में हिन्दुओं की सवर्ण श्रेष्ठता ने क्षत्रिय और वणिक कुल पर रणनीति कायम करने भरोसा किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तमाम दिमागी संकीर्णताओं के आरोप के बावजूद सादगी, शुचिता, स्वदेशी और सामाजिक समरसता का मुखौटा लगाकर सत्तानशीन होने धीरे-धीरे तयशुदा इरादों के साथ बढ़ता रहा। अपने शताब्दी समारोह (2025) के पहले उसने काफी फतह हासिल कर ली है।
हालिया यह लगता है कि भाजपा के चाल और चरित्र में संघ को विकार दिख रहे होंगे। उसे डर होगा ये विकार भाजपा को सत्ता से बेदखल न कर दें। संघ ने धीरज रखते आठ नौ दशकों की प्रतीक्षा के बाद सत्ता हासिल की है। इसलिए नया शिगूफा छेडक़र एक समर्पित शख्सियत को ढूंढा। तेज तर्रार, चपल, वाचाल इंकम टैक्स ऑफिसर की नौकरी छुड़ाकर उसे दक्षिण पंथ के एक नए सत्ताभिमुख चरित्र के रूप में तराशना शुरू किया। अरविंद केजरीवाल संघ चिन्तन के उत्पाद हैं। नरेन्द्र मोदी के आत्ममुग्ध, प्रभावशाली, महत्वाकांक्षी लेकिन अनियंत्रित होते व्यक्तित्व के पूरे विपक्षी स्पेस को भी संघ अपने एकाधिकारवाद में हासिल कर रखना चाहता होगा। चाहता होगा सभी विपक्षी पार्टियां गुमनामी के हाशिए में धकेल दी जाएं। भाजपा के सत्ताच्युत होने की हालत में केजरीवाल की अगुआई में आम आदमी पार्टी को सामने किया जाए। संघ परिवार के विराट छाते के नीचे सत्ता और विपक्ष दोनों नंबरदारी करते रहें।
योजना के मुख्य किरदार केजरीवाल गौरव के साथ घोषणा करते हैं कि वे और उनका परिवार संघ के समर्पित कार्यकर्ता रहे हैं। शाहीन बाग, नागरिकता कानून, कशमीर अवमूल्यन, किसान आंदोलन, जहांगीरपुरी बुलडोजर कांड जैसी तमाम घटनाओं में केन्द्र सरकार का साथ देते हैं। दिल्ली में सरकार बनाकर पॉलिटिक्स को ही मैनेजमेंट में बदल देते हैं। समर्थ, सवर्ण और आलिम फाजिल मतदाताओं की धड़ेबंदी करके मुफलिसों को समझा देते हैं कि देश में नया हातिमताई आया है। वह पहली बार दिल्ली को स्कूल, अस्पताल, बिजली, पानी, सडक़ वगैरह मुहैया करा रहा है। नागरिकों को सरकार से इससे ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
केजरीवाल संविधान के मूल अधिकारों और नागरिक आजादी की बात जानबूझकर नहीं करते। संघ विचार में भारतीय संविधान ही अनावश्यक दस्तावेज है। उसे खत्म करते हिन्दू राष्ट्र बनाना है। केजरीवाल भारत की राजधानी में रहकर भी नागरिकों को शिक्षण नहीं देते। वे हर सरकारी अत्याचार के खिलाफ गांधी की तरह जनसंघर्ष करने की सीख मिटाते चलते हैं। उनकी पूरी ताकत दिल्ली सरकार की संवैधानिक और प्रशासनिक हैसियत बढ़ाने की रहती है। वे पंजाब के सरकारी अधिकारियों को गोपनीय दस्तावेजों सहित आम आदमी पार्टी के संयोजक की हैसियत में दिल्ली बुला लेते हैं और दखलंदाजी करते निर्देष जारी करते हैं। केन्द्र शासित सीमित अधिकारों वाली दिल्ली सरकार के मुखिया अपनी ही पार्टी के पूर्ण अधिकार प्राप्त पंजाब के मुख्यमंत्री को अपना मातहत दिखा देते हैं। विरुद्ध टिप्पणी करने पर पार्टी में रहे कवि कुमार विश्वास के खिलाफ पुलिसिया कार्यवाही कराते हैं। अपने से उम्र और अनुभव में वरिष्ठ ख्यातनाम वकील प्रशांत भूषण, समाजविद प्रा.े आनंद कुमार, एक्टिविस्ट योगेन्द्र यादव, पत्रकार आशुतोष, प्रशासक किरण बेदी वगैरह को पार्टी से बाहर कर एकला चलो गाते हैं।
उम्र, अनुभव तथा सामाजिकी ज्ञान में उनसे वरिष्ठ पार्टी में नहीं रह पाता। सुनिश्चित करते हैं एकक्षत्र हुकूमत चलती रहे। केजरीवाल छोटे मोदी या भविष्य के मोदी की तरह तराशे जा रहे हैं। मोदी ने अडानी और अंबानी की हैसियत के विश्व स्तर के खरबपतियों को हासिल कर रखा है। देश की दौलत गैरकानूनी तौर से उनको दहेज की तरह देते हैं। मझोले दर्जे के सत्ता सुलभ उद्योगपति भी हैं। उनमें से कई केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं के साथ संबद्ध होने से धन की कमी अब महसूस नहीं हो रही। जनता का केवल स्कूल, अस्पताल, पेयजल, बिजली, सडक़ जैसी अधोसंरचनाओं में कुछ इजाफा या बेहतरी देखकर जनता होने का संवैधानिक संतोष मिलने लगता है।
ऐसा नहीं कि केजरीवाल केवल मिट्टी के माधो हैं। इसलिए चुने गए हैं कि उनमें अपना भी कुछ माद्दा है। नरेन्द्र मोदी की मीडिया तकनीक का इस्तेमाल करते केजरीवाल ने अपनी स्टार वैल्यू पैदा कर ली है। वे हताष मतदाताओं को दिल्ली के बाहर भी राबिनहुड नजर आने लगे हैं। केजरीवाल बहुत सयानी समझदारी के तिलिस्म के साथ भाजपा पर दोस्ताना हमला करते हैं। उससे विपक्ष का सांप मर जाए और भाजपा की लाठी नहीं टूटे। विवेक अग्निहोत्री की ‘दी कश्मीर फाइल्स’ का मजाक उड़ाते उन्होंंने मोदी का भी सस्ती लोकप्रियता पाने के किरदारों में शुमार कर लिया। दिल्ली विधानसभा के भाषण में भाजपा सदस्यों पर कटाक्ष करते शातिराना अंदाज में कह दिया भाजपा छोड़ो। आम आदमी पार्टी में शामिल हो। जिस पार्टी से खुंदक है, उसी पार्टी के सदस्यों को बहलाने फुसलाने का मतलब? कभी नहीं कहा प्रगतिशील, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष ताकतें उनके साथ जुडें़। चतुर केजरीवाल ने दिल्ली का दुबारा मुख्यमंत्री बनने या पंजाब में पहली बार सरकार बनने पर किसी राज्य के मुख्यमंत्री को आमंत्रित नहीं किया। दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने पर अलबत्ता कहा वे केवल प्रधानमंत्री को बुला सकते हैं क्योंकि केन्द्र सरकार से काम रहता है।
केजरीवाल में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक एवं अन्य वंचित वर्गों के लिए प्राथमिकता भी नहीं है। दिल्ली और पंजाब से राज्यसभा में आम आदमी पार्टी ने सवर्ण और ज्यादातर धनाढ्य उम्मीदवार भेजे। राष्ट्रीय फलक पर आने यह महत्वाकांक्षा है। बहुजन की उपेक्षा अभी से उनके राजनीतिक अस्तित्व गर्भगृह में भ्रूण की तरह आ गई है। आनुपातिक आंकड़ेे बता सकते हैं छोटे प्रदेश दिल्ली ने जितना विज्ञापन मीडिया को परोसा है, कई राज्यों के मुकाबले ज्यादा होगा। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की सफलता इसलिए भी है कि कई सरकारों ने प्रदेशों में बुनियादी जरूरतों स्कूल, अस्पताल, सडक़ें, पानी, बिजली वगैरह को मुनासिब अनुपात मेंं नहीं जुटाया। उनकी पार्टी ने यह काम कर दिखाया तो है। इसी बीच दिल्ली के जहांगीरपुरी बुलडोजर कांड की आड़ में दिलचस्प किरदार मोहम्मद अंसार उभरा है। एक ही थैली के चट्टे-बट्टे की तरह वह एक साथ अलग-अलग मौकों पर भाजपा और आम आदमी पार्टी की टोपी लगाए हुए है। दोनों पार्टियां एक-दूसरे को उलाहना दे रही हैं कि अंसार हमारी नहीं तुम्हारी पार्टी में है। मिली जुली कुश्ती या डबल क्रॉस का यह एक अनोखा विरल राष्ट्रीय उदाहरण है।