विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने दक्षिण-पूर्व एशिया के 12 देशों को अपने साथ जोडक़र एक नया आर्थिक संगठन खड़ा किया है, जिसका नाम है, ‘‘भारत-प्रशांत आर्थिक मंच (आईपीईएफ)’’। तोक्यो में बना यह 13 देशों का संगठन बाइडन ने जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ घोषित किया है। वास्तव में यह उस विशाल क्षेत्रीय आर्थिक भागीदारी संगठन (आरसीईपी) का जवाब है, जिसका नेता चीन है। उस 16 राष्ट्रों के संगठन से भारत ने नाता तोड़ा हुआ है। इसके सदस्य और इस नए संगठन के कई सदस्य एक-जैसे हैं।
जाहिर है कि अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा इतनी तगड़ी है कि अब चीन द्वारा संचालित संगठन अपने आप कमजोर पढ़ जाएगा। बाइडन ने यह पहल भी इसीलिए की है। इस क्षेत्र के राष्ट्रों को जोडऩे वाले ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप संगठन (टीपीपी) से पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपना हाथ खींच लिया था, क्योंकि अमेरिका की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति में इन सदस्य राष्ट्रों के साथ मुक्त-व्यापार उसके लिए लाभकर नहीं था।
अब इस नए संगठन के राष्ट्रों के बीच फिलहाल कोई मुक्त-व्यापार का समझौता नहीं हो रहा है लेकिन ये 13 ही राष्ट्र आपस में मिलकर डिजिटल अर्थ-व्यवस्था, विश्वसनीय सप्लाय श्रृंखला, स्वच्छ आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार मुक्त उद्योग आदि पर विशेष ध्यान देंगे। ये लक्ष्य अपने आप में काफी ऊँचे हैं। इन्हें प्राप्त करना आसान नहीं है लेकिन इनके पीछे असली इरादा यही है कि इस क्षेत्र के राष्ट्रों की अर्थ-व्यवस्थाओं को चीन ने जो जकड़ रखा है, उससे छुटकारा दिलाया जाए। बाइडन प्रशासन को अपने इस लक्ष्य में कहां तक सफलता मिलेगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि वह इन सदस्य-राष्ट्रों को कितनी छूट देगा।
बाइडन-प्रशासन पहले से ही काफी दिक्कत में है। अमेरिका में मंहगाई और बेरोजगारी ने उसकी अर्थव्यवस्था की गति को धीमा कर दिया है और बाइडन प्रशासन की लोकप्रियता पर भी इसका असर पड़ा है। ऐसी हालत में वह इन दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के साथ कितनी रियायत कर पाएगा, इसका अंदाज लगाया जा सकता है। अमेरिका को यह बात तो अच्छी तरह समझ में आ गई है कि शीतयुद्ध काल का वह जमाना अब लद गया है, जब सीटो और सेंटो जैसे सैन्य-संगठन बनाए जाते थे।
उसने चीन से सीखा है कि अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए आर्थिक अस्त्र ही सबसे ज्यादा कारगर है लेकिन अमेरिका की समस्या यह है कि वह लोकतांत्रिक देश है, जहां विपक्ष और लोकतंत्र दोनों ही सबल और मुखर हैं जबकि चीन में पार्टी की तानाशाही है और लोकमत नामक कोई चीज़ वहां नहीं है। जो भी हो, इन दोनों महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता में भारत को तो अपना राष्ट्रहित साधना है।
इसीलिए उसने बार-बार ऐसे बयान दिए हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि भारत किसी (चीन) के विरुद्ध नहीं है। वह तो केवल आर्थिक सहकार में अमेरिका का साथी है। चीन से विवाद के बावजूद उसका आपसी व्यापार बढ़ता ही जा रहा है। इस नए संगठन के जरिए उसका व्यापार बढ़े, न बढ़े लेकिन इसके सदस्य-राष्ट्रों के साथ भारत का आपसी व्यापार और आर्थिक सहयोग निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मंदिर-मस्जिद विवाद पर छपे मेरे लेखों पर बहुत-सी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। लोग तरह-तरह के सुझाव दे रहे हैं ताकि ईश्वर-अल्लाह के घरों को लेकर भक्तों का खून न बहे। पहला सुझाव तो यही है कि 1991 में संसद में जो कानून पारित किया था, उस पर पूरी निष्ठा से अमल किया जाए याने 15 अगस्त 1947 को जो धर्म-स्थान जिस रूप में था, उसे उसी रूप में रहने दिया जाए। उसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाए।
जिस कांग्रेस पार्टी की सरकार ने यह कानून संसद में बनवाया था, वह भी इस बात को जोरदार ढंग से नहीं दोहरा रही है। उसे डर लग रहा है कि यदि वह ऐसा करेगी तो उसका हिंदू वोट बैंक, जितना भी बचा है, वह भी लुट जाएगा। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कांग्रेस की कब्रगाह बन सकता है। तो अब क्या करें? इस समस्या के हल का दूसरा विकल्प यह है कि 1991 के इस कानून को भाजपा सरकार रद्द करवा दे।
यह मुश्किल नहीं है। भाजपा का स्पष्ट बहुमत तो है ही, वोटों के लालच में छोटी-मोटी पार्टियां भी हां में हां मिला देंगी। तो क्या होगा? तब भाजपा सरकार के पास अगले दो-तीन साल तक एक ही प्रमुख काम रह जाएगा कि वह ऐसी हजारों मस्जिदों को तलाशे, जो मंदिरों को तोडक़र बनवाई गई हैं। यह काम ज्यादा कठिन नहीं है। अरबी और फारसी के कई ग्रंथ और दस्तावेज पहले से उपलब्ध हैं, जो तुर्क, मुगल और पठान बादशाहों के उक्त ‘‘पवित्र कर्म’ का बखान करते हैं।
वे धर्मस्थल स्वयं इसके साक्षात प्रमाण हैं। तो क्या इन मस्जिदों को तोडऩे का जिम्मा यह सरकार लेगी? ऐसे अभियान की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं क्या सरकार बर्दाश्त कर सकेगी? इस समस्या का तीसरा विकल्प यह हो सकता है, जैसा कि कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने बयान दिया है कि भारत के सारे मुसलमान उन सभी मस्जिदों का बहिष्कार कर दें और हिंदुओं को सौंप दें ताकि वे उन्हें फिर से मंदिर का रूप दे दें। यह सुझाव तो बहुत अच्छा है।
भारत के मुसलमान ऐसा कर सकें तो वे दुनिया के बेहतरीन मुसलमान मान जाएंगे और वे इस्लाम की इज्जत में चार चांद लगा देंगे लेकिन क्या यह संभव है? शायद नहीं। तो फिर क्या किया जाए? एक विकल्प जो मुझे सबसे व्यावहारिक और सर्वसंतोषजनक लगता है, वह यह है कि यदि मुसलमान मस्जिद को अल्लाह का घर मानते हैं और हिंदू लोग मंदिर को ईश्वर का घर मानते हैं तो अब दोनों घर एक-दूसरे के पास-पास क्यों नहीं हो सकते? क्या ईश्वर और अल्लाह अलग-अलग हैं? दोनों एक ही हैं।
1992 में अयोध्या में बाबरी ढांचे के ढह जाने के बाद जो 63 एकड़ जमीन उसके आस-पास नरसिंहराव सरकार ने अधिग्रहीत की थी, वह मेरा ही सुझाव था। उस स्थान पर अपूर्व एवं भव्य राम मंदिर तो बनना ही था, उसके साथ-साथ वहां पर दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों का संयुक्त धर्म-स्थल भी बनना था। इसी काम को अब देश के कई स्थानों पर बड़े पैमाने पर जन-सहयोग से प्रेमपूर्वक संपन्न किया जा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
भारत के 83 फीसदी पुरुष मांसाहारी हैं। इस देश में 47 फीसदी हिंदू ऐसे हैं जो मांसाहार का सेवन करते हैं। देश की 55 फीसदी शहरी आबादी और 49 फीसदी प्रतिशत ग्रामीण आबादी मांसाहारी है। जैन और हिंदू धर्म के लोगों के बीच पिछले 6 साल में मांस खाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। यहां तक कि देश में हर आयु वर्ग के लोगों में मांसाहार करने वालों की संख्या बढ़ रही है।
नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट कह रही है कि देश में 15 से 49 साल के 84.4 फीसदी पुरुष और 70.6 फीसदी महिलाएं नॉन-वेज खाती हैं। 2015-16 से तुलना की जाए तो नॉन-वेज खाने वाले पुरुषों की संख्या में 5 फीसदी और महिलाओं की संख्या में 0.6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
बंगाल, गोवा और केरल ये तीन राज्य ऐसे हैं जहां मांसाहार करने वालों की संख्या 90 फीसदी या उससे ज्यादा है। पूर्वोत्तर राज्यों में ये आंकड़ा 60 से लेकर 80 के बीच है।
यह कोई नई बात नहीं है। पहले से पता है कि जो राज्य समुद्र के किनारे हैं, जहां हर साल बाढ़ आती है, जहां अनाज की तुलना में मांसाहार आसानी से और सस्ते में उपलब्ध है, वहां के 80 से 90 फीसदी लोग मांसाहारी हैं। जैसे इस वक्त पूर्वोत्तर में बाढ़ के चलते सात से आठ लाख लोग प्रभावित हुए हैं। सब बह गया तो वे मांसाहार के लिए गदर काटने वाले किसी सियासी गधे का मांस तो खाएंगे नहीं। उनके पास अनाज नहीं है तो बाढ़ के पानी से मछली और केकड़ा पकड़ेंगे और खा लेंगे।
अब ऐसे देश में कोई पार्टी, कोई व्यक्ति, कोई नेता अगर शाकाहार और मांसाहार को मुद्दा बनाता हो, खानपान के आधार पर भीड़तंत्र को उकसाता हो, भीड़ को ‘न्याय करने’ की छूट देता हो, मांसाहार का बहाना लेकर उन्माद फैलाता हो तो सोचिए कि वह कितना बड़ा बलंडर आदमी है। या तो वह धूर्त है या फिर ऐसा महाशातिर है जिसके शातिरपन की कोई सीमा नहीं है। सोचिए ये कितने खतरनाक लोग हैं जो लोगों को उनके खानपान की परंपराओं के लिए उन्हें आपस में लड़ाते हैं!
भारत जैसे देश में मध्य मार्ग ही सर्वोत्तम है। जिसको जो खाना हो खाए, जिसको जो पूजना हो पूजे। हम अपना देखें, आप अपना देंखें। जहां आस्था का मसला फंसे वहां सरकार हस्तक्षेप करे और बीच का रास्ता निकाले। लेकिन इस समय भारत में एक चौपट राजाओं ने अंधेर नगरी बसा रखी है। 84 फीसदी मांसाहारियों के देश में 13 फीसदी लोग खाने पीने की आदतों को लेकर उपद्रव करें, यह विशुद्ध गुंडई नहीं तो और क्या है?
-ध्रुव गुप्त
इन दिनों औरंगज़ेब जबरदस्त चर्चा में है। नफऱतों की आग को भडक़ाने में माचिस की तरह अभी उसका इस्तेमाल हो रहा है। औरंगजेब ने क्या किया, यह तो औरंगजेब जाने या उसका इतिहास लिखने-पढऩे वाले। हम मुहब्बत वाले लोग हैं। सो हम चर्चा करेंगे औरंगजेब की एक बेटी और मुहब्बत की अप्रतिम शायरा जेबुन्निसा उर्फ मख्फी की जिसे मुहब्बत के इल्जाम में औरंगजेब ने बीस साल कैद की सजा दी थी। कैद के कठिन दिनों में जेबुन्निसा ने पांच हजार से ज्यादा गजलें और रुबाइयां लिखी और कैद में ही मुहब्बत के संदेश देते-देते मर गई। मैंने ‘दीवान-ए-मख्फी’ की उसकी कुछ कविताओं का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया है। उनमें से एक कविता आप भी पढि़ए और नफरतों के इस दौर में मुहब्बत की कोमल संवेदनाओं में डूब जाईए !
अरे ओ मख्फी, लंबे हैं अभी
तेरे निर्वासन के दिन
और शायद उतनी ही लंबी है
तेरी अधूरी ख्वाहिशों की फेहरिस्त
अभी कुछ और लंबा होने वाला है
तुम्हारा इंतजार
शायद तुम राह देख रही हो
कि उम्र के किसी मोड़ पर
किसी दिन लौट सकोगी अपने घर
लेकिन, बदनसीब
घर कहां बचा है तुम्हारे पास
बीते हुए इतने सालों में
ढह चुकी होगी उसकी दीवारें
धूल उड़ रही होगी
उसके दरवाजों, खिड़कियों पर
अगर इंसाफ के दिन खुदा कहे
कि मैं तुम्हें हर्जाना दूंगा
उन तमाम व्यथाओं का
जो जीवन भर तुमने सहे
तो क्या हर्जाना दे सकेगा वह मुझे ?
जन्नत ?
लेकिन जन्नत के तमाम सुखों
और नेमतों के बावजूद
वह एक तो उधार ही रह जाएगा न
खुदा पर मेरा !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राहुल गांधी ने लंदन जाकर भारत की राजनीति, सरकार, संघवाद, विदेश मंत्रालय आदि के बारे में जो बातें कहीं, वे नई नहीं हैं लेकिन सवाल यह है कि उन्हें विदेशों में जाकर क्या यह सब बोलना चाहिए? भारत में रहते हुए वे सरकार की निंदा करें, यह बात तो समझ में आती है, क्योंकि वे ऐसा न करें तो विपक्ष का धंधा ही बंद हो जाएगा। भारत का विपक्ष इतना टटपूंजिया हो गया है कि उसके पास निंदा के अलावा कोई धंधा ही नहीं बचा है। उसके पास न कोई विचारधारा है, न सिद्धांत है, न नीति है, न कार्यक्रम है, न जन-आंदोलन के कोई मुद्दे हैं। उसके पास कोई दिखावटी नेता भी नहीं हैं।
जो नेता हैं, वे कालिदास और भवभूति के विदूषकों को भी मात करते हैं। उनकी बातें सुनकर लोग हंसने के अलावा क्या कर सकते हैं? जैसे राहुल गांधी का यह कहना कि भारत-चीन सीमा का विवाद रूस-यूक्रेन युद्ध का रूप भी ले सकता है। ऐसा मजाकिया बयान जो दे दे, उसे कुछ खुशामदी लोग फिर से कांग्रेस-जैसी महान पार्टी का अध्यक्ष बनवा देना चाहते हैं। जो व्यक्ति भारत की तुलना यूक्रेन से कर सकता है, आप अंदाज लगा सकते हैं कि उसके माता-पिता ने उसकी पढ़ाई-लिखाई पर कितना ध्यान दिया होगा?
कोई जरुरी नहीं है कि हर नेता अंतरराष्ट्रीय राजनीति का विशेषज्ञ हो लेकिन वह यदि अखबार भी ध्यान से पढ़ ले और उन्हें न पढ़ सके तो कम से कम टीवी देख लिया करे तो वह ऐसी बेसिर-पैर की बात कहने से बच सकता है। भारतीय राजनीति परिवारवाद और सत्ता के केंद्रीयकरण से ग्रस्त है, इसमें शक नहीं है लेकिन उसका विरोध करने की बजाय राहुल ने भारत को विभिन्न राज्यों का संघ बता दिया। इसका अर्थ क्या हुआ? याने भारत एकात्म राष्ट्र नहीं है। ऐसा कहकर क्या अलगाववाद को प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है?
इसी तरह पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति की तुलना भारत से करने की तुक क्या है? भारत में कोई सरकार कभी अपनी फौज के इशारों पर नाची है? यह कहना बिल्कुल गलत है कि भारत के अखबारों और टीवी चैनलों पर भारत सरकार का 100 प्रतिशत कब्जा है। क्या आज भारत में आपात्काल (1975-77) जैसी स्थिति है? जो पत्रकार और अखबार मालिक खुशामदी हैं, वे अपने स्वार्थों की वजह से हैं। जो निष्पक्ष और निर्भीक हैं, उन्हें छूने की हिम्मत किसी की भी नहीं है।
भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री पर घमंडी होने का आरोप भी लगाया जाता रहा है लेकिन यही आरोप तो आज कांग्रेस के नेतृत्व को तबाही की तरफ ले जा रहा है। हमारे विदेश मंत्रालय के अफसरों पर आक्षेप करना भी उचित नहीं है। वे अत्यंत शिष्ट और उचित व्यवहार के लिए सारी दुनिया में जाने जाते हैं। कुछ भाजपा नेताओं ने राहुल के आरोपों का मुंहतोड़ जवाब देने की कोशिश भी की है।
वह तो जरुरी था लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी यह है कि भाजपा अपने भाग्य को सराहे कि उसे राहुल-जैसा विरोधी नेता मिल गया है, जिससे उसको कभी कोई खतरा हो ही नहीं सकता। भाजपा को अगर कभी कोई खतरा हुआ तो वह खुद से ही होगा। भाजपा को चाहिए कि वह राहुल को धन्यवाद दे और उसकी पीठ थपथपाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
जिस कांग्रेस के साथ देश और दुनिया का सबसे महान गुजराती अपनी कोमल छाती पर एक हिंदू राष्ट्रवादी हत्यारे की गोलियाँ झेलने के बाद भी अपनी अंतिम साँस तक जुड़ा रहा उसे धता बताते हुए 28 साल के पाटीदार नेता हार्दिक पटेल ने आरोप लगाया है कि यह पार्टी गुजरात और गुजरातियों से नफरत करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात की अपनी जन-सभाओं में कांग्रेस को लेकर ऐसे ही आरोप लगाते हैं। हार्दिक पटेल ने औपचारिक तौर पर भाजपा के साथ जुडक़र मोदी के नेतृत्व में काम करने का या तो अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है या फिर उसे सार्वजनिक नहीं किया है। यह भी हो सकता है कि हार्दिक की राजनीतिक उपयोगिता के मुकाबले 2015 के पाटीदार आरक्षण आंदोलन के दौरान देशद्रोह सहित अन्य आरोपों को लेकर कायम हुए मुकदमों को वापस लेने के संबंध में बातचीत अभी पूरी नहीं हुई हो।
राजनीति इस समय सत्ता की सुनामी की चपेट में है और हार्दिक पटेल जैसे युवा नेता भाग्य-परिवर्तन के लिए किसी शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते हुए अपनी महत्वाकांक्षाओं को तबाह होता नहीं देखना चाहते।इस समय समझदार उद्योगपति बीमार उद्योगों को खरीदकर उनसे मुनाफा बटोरने में लगे हुए हैं और चतुर राजनीतिज्ञ कमजोर विपक्षी पार्टियों में सत्ता के लिए बीमार पड़ते नेताओं और कार्यकर्ताओं की तलाश में हैं।
उद्योगपतियों को दुनिया का सबसे धनाढ्य व्यक्ति बनना है और राजनेता को विश्वगुरु। मणिकांचन संयोग है कि राजनीतिज्ञ और उद्योगपति एक ही प्रदेश से हैं। कोई पंद्रह-सत्रह साल पहले के ‘वायब्रंट गुजरात’ के भव्य आयोजन का स्मरण होता है। मोदी तब मुख्यमंत्री थे। मंच पर देश के तमाम उद्योगपतियों का जमावड़ा था। जो उद्योगपति आज शीर्ष पर हैं वे तब एक ही स्वर में स्तुति कर रहे थे कि नरेंद्र भाई, ‘हम आपको प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहते हैं।’(हार्दिक पटेल को हाल ही में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि-‘कोई उद्योगपति अगर मेहनत करता है तो हम उस पर ये लांछन नहीं लगा सकते कि सरकार उसको मदद कर रही है। हर मुद्दे पर आप अडानी, अंबानी को गाली नहीं दे सकते। अगर प्रधानमंत्री गुजरात से हैं तो उसका गुस्सा अडानी, अम्बानी पर क्यों डाल रहे हैं !’)
जिस तरह से पहुंचे हुए ‘सिद्ध पुरुष’ हजारों श्रोताओं की भीड़ में भी पारिवारिक रूप से असंतुष्ट धनाढ्य भक्तों की पहचान कर लेते हैं, तीसरा नेत्र रखने वाले चतुर राजनेता चुनावों के सिर पर आते ही जान जाते हैं कि किस विपक्षी दल में किस नाराज नेता को इस समय नींद नहीं आ रही होगी। हार्दिक पटेल की नींद राहुल गांधी की गुजरात यात्रा के बाद से ही उड़ी हुई थी। आरोप है कि राहुल गांधी, हार्दिक का दुख-दर्द सुनने-समझने के बजाय चिकन सैंडविच खाने और मोबाइल खंगालने में ही व्यस्त रहे। कांग्रेस को अब डराया जा रहा है कि हार्दिक के चले जाने से राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी को खासा खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
सवाल यह है कि क्या किसी लोकप्रिय नेता के एक दल छोडक़र दूसरे में शामिल हो जाने से उसे समर्थन देने वाली समूची जनता का भी ऑटोमेटिक तरीके से दल बदल हो जाता है या सिर्फ दल बदलने वाले नेता को ही ऐसा मुगालता रहता है? कांग्रेस से इस्तीफे के बाद अगर भाजपा से शर्तें भी जम जातीं हैं तो क्या मान लिया जाएगा कि गुजरात की लगभग सात करोड़ आबादी के कोई एक-डेढ़ करोड़ पाटीदार मतदाता हार्दिक के साथ भाजपा का वोट बैंक बन जाएँगे? कहा जाता है कि राज्य की 182 सीटों में सत्तर को पटेल (पाटीदार) मतदाता प्रभावित कर सकते हैं।
पश्चिम बंगाल के प्रतिष्ठापूर्ण विधान सभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के दर्जनों नेताओं ने रातों-रात भगवा धारण कर ममता को राम-राम कह दिया था।इन दल बदलुओं में सांसदों, विधायकों सहित कई बड़े नेता शामिल थे। गोदी मीडिया द्वारा देश में हवा बना दी गई थी कि दीदी की दुर्गति होने वाली है और भाजपा को दो सौ से ज़्यादा सीटें मिलेंगी। तृणमूल विधायकों द्वारा दल बदलते ही मान लिया गया था कि उनके चुनाव क्षेत्रों के सभी ममता-समर्थक वोटरों के दिल भी बदल गए हैं। ऐसा नहीं हुआ। चुनाव परिणामों में जो प्रकट हुआ उससे भाजपा इतने महीनों के बाद भी उबर नहीं पाई है। बाद के उपचुनावों में तो भाजपा की हालत और भी खराब हो गई। तृणमूल छोडक़र जितने भी नेता भाजपा में शामिल हुए थे सभी ब्याज सहित ममता की शरण में वापस आ गए।
पश्चिम बंगाल के पहले मध्यप्रदेश में क्या हुआ था! साल 2018 में भाजपा को हराकर कमलनाथ के नेतृत्व में काबिज हुई सरकार को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने मंत्री-विधायक समर्थकों की मदद से भरे कोविड काल में कोई डेढ़ साल बाद ही गिरा दिया। बाद में सिंधिया के नेतृत्व में सभी छह पूर्व मंत्रियों सहित बाईस विधायक भाजपा में शामिल हो गए और प्रदेश में शिवराज सिंह की सरकार बन गई। ऐसा मानकर चला जा रहा था कि पूरे ग्वालियर-चम्बल इलाके में सिंधिया का प्रभाव है इसलिए कांग्रेस छोडक़र भाजपा में शामिल होने वाले उनके सभी समर्थक उपचुनाव भी भारी मतों से जीत जाएँगे। ऐसा नहीं हुआ। केवल तेरह लोग ही जीत पाए। सिंधिया स्वयं भी 2019 के लोकसभा चुनाव में गुना की सीट से चुनाव हार चुके थे।
नेताओं और जनता के बीच एक मोटा फर्क है। वह यह कि नेताओं को तो सत्ता के एक्सचेंज में अपनी राजनीतिक वफादारी और वैचारिक प्रतिबद्धता बेचने के लिए तैयार किया जा सकता है पर जनता बन्दूक की नोक पर भी ऐसा करने को राजी नहीं होती। नागरिक अपनी मर्जी से ही विचार बदलने के लिए तैयार होते हैं। अत: कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों से इस्तीफे देकर भाजपा में शामिल होने वालों को जनता के प्रति अपने नजरिए में सुधार करना पड़ेगा।
कांग्रेस के लिए चिंता का एक बड़ा कारण यह अवश्य हो सकता है कि पार्टी के सारे बुजुर्ग असंतुष्ट तो पूर्ववत कायम हैं पर जिन युवा नेताओं का वह अपनी ताकत के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती है वे एक-एक करके सत्ता के रोजगार के लिए भाजपा में अर्जियाँ लगा रहे हैं। गुजरात के बाद राजस्थान से जो समाचार प्राप्त हो रहे हैं वे भी कोई कम निराशाजनक नहीं हैं। कांग्रेस के लिए क्या यह हार्दिक दुख की बात नहीं कि पार्टी तो अंदर से टूट रही है और राहुल गांधी भारत को जोडऩे की यात्रा पर निकलना चाहते हैं?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की कार्यकारिणी को संबोधित करते हुए कई मुद्दे उठाए, जिसमें भाषा का मुद्दा प्रमुख था। राजभाषा हिंदी को लेकर पिछले दिनों दक्षिण में काफी विवाद छिड़ा था। मोदी ने यह तो बिल्कुल ठीक कहा कि सभी भारतीय भाषाओं को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए लेकिन मोदी ने यह नहीं बताया कि पिछले 75 साल में बनी सभी सरकारें क्या देश की एक भी भाषा को उसका उचित सम्मान और स्थान दिला सकी हैं।
मोदी सहित सभी प्रधानमंत्रियों ने अंग्रेजी के आगे अपने घुटने टेक रखे हैं। सभी भाषाओं को अपनी नौकरानी बनाकर अंग्रेजी खुद महारानी बनी बैठी है। सरकारें चाहे कांग्रेस की हों, भाजपा की हों, जनता पार्टी की हों, समाजवादी पार्टी की हों, कम्युनिस्ट पार्टी की हों या प्रांतीय पार्टियों की हों, सभी आज तक अंग्रेजी की गुलामी करती रही हैं। उन समस्त लोकसभाओं और विधानसभाओं में कानून सदा अंग्रेजी में बनते रहे हैं, उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों के फैसले अंग्रेजी में होते रहे हैं, मंत्रिमंडल के सभी फैसले अंग्रेजी में होते रहे हैं और हमारी उच्च नौकरशाही अंग्रेजी की गुलामी में सबसे आगे बनी रहती है।
क्या अंग्रेजी के बिना कोई ऊँची सरकारी नौकरी किसी को मिल सकती है? जब मेरे मास्को, लंदन और न्यूयार्क के सहपाठी पहली बार भारत आते हैं, वे हमारे बाजारों के अंग्रेजी नामपटों को देखकर और दिल्ली में अंग्रेजी के इतने अखबारों को देखकर दंग रह जाते हैं। वे कहते हैं कि किसी भी आजाद देश में हमने ऐसी सांस्कृतिक गुलामी नहीं देखी। भारत की शिक्षा और चिकित्सा में भी अंग्रेजी छाई हुई है। जब अब से लगभग 55-56 साल पहले मैंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति
का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने की मांग की थी तो भारत की संसद ठप्प हो गई थी। आखिरकार मेरी विजय हुई। जवाहरलाल नेहरु विवि में सबसे पहली पीएच.डी. लेनेवालों में मेरा नाम था लेकिन आज तक भारत के कितने विश्वविद्यालयों में कितनी पीएच.डी. हिंदी माध्यम से हुई हैं? इसी प्रकार कई स्वास्थ्य मंत्रियों ने मुझसे वादा किया कि वे मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में शुरु करवाएंगे लेकिन क्या आज तक वह शुरु हुई? अदालत की कार्रवाई, वकालत और डॉक्टरी देश में ठगी के सबसे बड़े धंधे इसीलिए बने हुए है कि उन्होंने जादू-टोने का रूप ले लिया है।
महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. राममनोहर लोहिया ने अंग्रेजी की इस गुलामी के दुष्परिणामों को बहुत अच्छी तरह रेखांकित किया था। गुरु गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय और अटलजी तथा मुलायमसिंह, राजनारायण और मधु लिमये ने इस अभियान को जमकर चलाया था लेकिन आजकल के सभी नेता और सभी दल वोट और नोट के खेल में मदमस्त हो रहे हैं या भाषाई मुद्दे पर उनकी समझ इतनी सतही है कि इस मजऱ् का असली इलाज उनकी अक्ल के परे है। उनके लिए मेरा एक ही मंत्र है- अंग्रेजी को मिटाओ मत लेकिन अंग्रेजी को हटाओ। अगर आप उसे हटा सके तो हिंदी एवं समस्त भारतीय भाषाएं तो अपने आप सम्मान पा जाएंगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ज्ञानवापी की मस्जिद की हर गुंबद के नीचे कुछ न कुछ ऐसे प्रमाण मिल रहे हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि वह अच्छा-खासा मंदिर था। यही बात मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर लागू हो रही है। छोटी और बड़ी अदालतों में मुकदमों पर मुकदमे ठोक दिए गए हैं। अदालतें क्या करेंगी? वे क्या फैसला देंगी? क्या वे यह कहेंगी कि इन मस्जिदों को तोडक़र इनकी जगह फिर से मंदिर खड़े कर दो?
फिलहाल तो वे ऐसा नहीं कह सकतीं, क्योंकि 1991 में नरसिंहराव सरकार के दौरान बना कानून साफ-साफ कहता है कि धर्म-स्थलों की जो स्थिति 15 अगस्त 1947 को थी, वह अब भी जस की तस बनी रहेगी। जब तक यह कानून बदला नहीं जाता, अदालत कोई फैसला कैसे करेगी? अब सवाल यह है कि क्या नरेंद्र मोदी सरकार इस कानून को बदलेगी? वह चाहे तो इसे बदल सकती है। उसके पास संसद में स्पष्ट बहुमत है।
देश के कई अन्य दल भी उसका साथ देने को तैयार हो जाएंगे। इसीलिए तैयार हो जाएंगे कि सभी दल बहुसंख्यक हिंदुओं के वोटों पर लार टपकाए रहते हैं। संप्रदायवाद की पकड़ भारत में इतनी जबर्दस्त है कि वह जातिवाद और वर्ग चेतना को भी परास्त कर देती है। यदि ऐसा हो जाता है और धर्म-स्थलों के बारे में नया कानून आ जाता है तो फिर क्या होगा?
फिर अयोध्या, काशी और मथुरा ही नहीं, देश के हजारों पूजा स्थल आधुनिक युद्ध-स्थलों में बदल जाएंगे। कुछ लोगों का दावा है कि भारत में लगभग 40,000 मंदिरों को तोडक़र मस्जिदें बनाई गई हैं। देश के कोने-कोने में कोहराम मच जाएगा। हर वैसी मस्जिद को बचाने में मुसलमान जुट पड़ेंगे और उसे ढहाने में हिंदू डट पड़ेंगे। तब क्या होगा? तब शायद 1947 से भी बुरी स्थिति पैदा हो सकती है। सारे देश में खून की नदियां बह सकती हैं। तब देश की जमीन के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब देश के दिल के सौ टुकड़े हो जाएंगे।
उस हालत में अल्लाह और ईश्वर दोनों बड़े निकम्मे साबित हो जाएंगे, क्योंकि जिस मस्जिद और मंदिर को उनका घर कहा जाता है, वे उन्हें ढहते हुए देखते रह जाएंगे। उनका सर्वशक्तिमान होना झूठा साबित होगा। अगर वे मंदिर और मस्जिद में सीमित हैं तो वे सर्वव्यापक कैसे हुए? उनके भक्त उनके घरों के लिए आपस में तलवारें भांजें और उन्हें पता ही न चले तो वे सर्वज्ञ कैसे हुए?
मंदिर और मस्जिद के इन विवादों को ईश्वर या अल्लाह और धर्म या भक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। ये शुद्ध रूप से सत्ता के खेल हैं। सत्ता जब अपना खेल खेलती है तो वह किस-किस को अपना गधा नहीं बनाती है? वह धर्म, जाति, वर्ण, भाषा, देश— जो भी उसके चंगुल में फंस जाए, वह उसी की सवारी करने लगती है। इसीलिए शंकराचार्य के कथन ‘ब्रह्मसत्यम् जगन्मिथ्या’ को मैं पलटकर कहता हूं, ‘सत्तासत्यम् ईश्वरमिथ्या’। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजीव गांधी के हत्यारे ए.जी. पेरारिवालन को सर्वोच्च न्यायालय ने रिहा कर दिया। इस पर तमिलनाडु में खुशियां मनाई जा रही हैं। उस हत्यारे और उसकी मां के साथ मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन गले मिल रहे हैं। हत्यारे की कलम से लिखा गया एक लेख दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार ने छापा है, जिसमें उसने उन लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया है, जिन्होंने उसकी कैद के दौरान उसके साथ सहानुभूतियां दिखाई थीं। तमिलनाडु के अन्य प्रमुख दल भी उसकी रिहाई का स्वागत कर रहे हैं। तमिलनाडु की कांग्रेस ने बड़ी दबी जुबान से इस रिहाई का विरोध किया है।
कहने का तात्पर्य यह कि इस मामले में तमिलनाडु की सरकार और जनता प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी की हत्या पर जरा भी दुखी मालूम नहीं पड़ रही है। यह अपने आप में कितने दुख की बात है? यदि श्रीलंका के तमिलों के साथ हमारे तमिल लोगों की प्रगाढ़ता है तो इसमें कुछ बुराई नहीं है लेकिन इसके कारण उनके द्वारा किए गए इस हत्याकांड की उपेक्षा की जाए, यह बात समझ के बाहर है।
तमिलनाडु सरकार इस बात पर तो खुशी प्रकट कर सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में राज्यपाल को नीचे खिसका दिया और तमिलनाडु सरकार को ऊपर चढ़ा दिया। राज्यपाल ने प्रादेशिक सरकार के इस प्रस्ताव पर अमल नहीं किया कि राजीव गांधी के सातों हत्यारों को, जो 31 साल से जेल में बंद हैं, रिहा कर दिया जाए। राज्यपाल ने सरकार का यह सुझाव राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने पेरारिवालन की याचिका पर फैसला देते हुए संविधान की धाराओं का उल्लेख करते हुए कहा कि राज्यपाल के लिए अनिवार्य है कि वह अपने मंत्रिमंडल की सलाह को माने।
इसीलिए दो-ढाई साल से राष्ट्रपति के यहां झूलते हुए इस मामले को अदालत ने तमिलनाडु सरकार के पक्ष में निपटा दिया। इस फैसले ने तो यह स्पष्ट कर दिया कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए अपने मंत्रिमंडलों की सलाह को मानना अनिवार्य है लेकिन प्रांतीय सरकार की इस विजय का यह डमरू जिस तरह से बज रहा है, उसकी आवाज का यही अर्थ निकाला जा रहा है कि राजीव गांधी के हत्यारे की रिहाई बधाई के लायक है। अब जो छह अन्य लोग, जो राजीव की हत्या के दोषी जेल में बंद हैं, वे भी शीघ्र रिहा हो जाएंगे।
उनकी रिहाई का फैसला भी तमिलनाडु सरकार कर चुकी है। लगभग 31 साल तक जेल काटनेवाले इन दोषियों को फांसी पर नहीं लटकाया गया, यह अपने आप में काफी उदारता है और अब उन्हें रिहा कर दिया जाएगा, यह भी इंसानियत ही है लेकिन हत्यारों की रिहाई को अभिनंदनीय घटना का रूप देना किसी भी समाज के लिए अशोभनीय और निंदनीय है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. जैन
मैं वर्ष 2014 में लगभग 36 साल नौकरी करने के बाद सेवानिवृत्त हुआ था। उस समय मेरे पास पीएफ, ग्रेच्युटी तथा पूर्व में जमा धनराशि को मिलाकर इतना था कि बाकी जिंदगी मैं आराम से व पूरी शान से गुजार सकता था। उस समय बैंकों द्वारा फिक्स्ड डिपॉजिट पर 9.50 फीसदी ब्याज दिया जाता था।
आज मैं देखता हूँ कि बैंकों द्वारा उन्हीं एफडी पर मात्र 5.5 फीसदी की दर से ब्याज दिया जा रहा है यानि मेरी आय लगभग आधी हो गई है जबकि 2014 की तुलना में महंगाई दोगुने से भी ज्यादा हो गई है। यह भी बताना चाहूंगा कि मुझे पेंशन नहीं मिलती है। वरिष्ठ नागरिकों को जो पहले थोड़ी बहुत अतिरिक्त सुविधा मिला करती थी वह सब भी अब बंद हो चुकी है। मेडिक्लेम पॉलिसी की दरें भी उम्र बढऩे के साथ-साथ बढ़ती जा रही हैं जबकि उम्र बढऩे के साथ-साथ चिकित्सा आदि का व्यय भी बढ़ता जाता है।
अब मुझे अपनी जमा पूंजी से प्राप्त ब्याज के अलावा प्रतिमाह अपने मूल धन से भी कुछ धनराशि निकालनी पड़ती है और मेरी जमा पूंजी धीरे धीरे कम होती जा रही हैं। मूल धन कम होने का मतलब है कि आगे ब्याज भी कम मिलेगा। यदि स्थिति ऐसी ही बनी रहती हैं तो आगामी कुछ वर्षों में मेरी जमा पूँजी बिल्कुल खत्म हो जायेगी।
मैं समझता हूँ कि मेरी जैसी स्थिति उन सबकी होगी जिन्हें सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन नहीं मिलती है। मैं तो फिर भी अच्छे पद व उच्च वेतनमान से रिटायर हुआ हूँ और मैं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से सेवानिवृत्त होने से पहले ही मुक्त हो चुका था पर उनकी हालत सोचकर चिंता होती हैं जिन पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ भी है और पास में ख़ास जमा पूंजी भी नहीं है।
मैं समझता हूँ कि आज की तारीख में वरिष्ठ नागरिकों के सामने बड़ी चिंताजनक स्थिति उत्पन्न होती जा रही हैं। आज के जमाने में बेटे बेटियों के पास जाकर रहना व वहाँ की परिस्थितियों में अपने को एडजस्ट करना भी आसान नहीं है। समझ में नहीं आता कि वरिष्ठ नागरिकों के आने वाले दिन कैसे कटेंगे। कभी कभी तो लगता है कि सरकार की प्राथमिकता में वरिष्ठ नागरिकों की कोई जगह नहीं है और वह इनको बोझ समझती है। सरकार को चाहिए कि वरिष्ठ नागरिकों के लिए कुछ ऐसी स्कीम लाये कि वरिष्ठ नागरिक भी पूरे आत्म सम्मान व चिंता मुक्त होकर अपनी बाकी जिंदगी पूरी कर सके और उन्हें जीवन यापन के लिये किसी पर आश्रित न होना पड़े। वरिष्ठ नागरिकों ने पूरी जिंदगी सरकारों को अपनी आय से अच्छा खासा टैक्स भी दिया है और अब भी दे रहे हैं तो उन्हें जिंदगी के इस पड़ाव पर इतना परेशान क्यों होना पड़ रहा है? जिन वरिष्ठ नागरिकों को सरकारी पेंशन मिल रही हैं वह तो मजे कर रहे हैं क्योंकि उनकी पेंशन राशि तो नियमित रूप से सरकार बढ़ा रही हैं पर हमारे जैसे किसके आगे अपनी पीड़ा व्यक्त करे।
-राकेश कायस्थ
हिंदी के सुपरिचित लेखक राजकिशोर ने एक बार लिखा था-‘मुस्लिम पक्ष अगर राज जन्म भूमि अगर हिंदुओं को सौंप दे तो यह एक बेहतर निर्णय होगा। 1990 के बाद से राम जन्मभूमि का सवाल हिंदू मानस के भीतर एक तरह की हठ की तरह बैठ चुका है और उसका निकलना बहुत कठिन है। अगर मुस्लिम समाज उस ज़मीन पर अपना दावा छोड़ देता है, तो इससे समाज में दीर्घकालिक शांति आ सकती है।’
मैं उन लोगों में था, जो राजकिशोर के विचार का समर्थन करते थे। मुझे लगता था कि इतनी जिद क्यों? समाज को और देश को बहुत आगे बढऩा है। झगड़ा खत्म हो तो आदमी रोजगार और इलाज जैसे मुद्दों पर बात करे। राजकिशोर अब इस दुनिया में नहीं हैं। अगर होते तो मैं पूछता कि अब उनकी राय क्या है, क्योंकि मेरी राय पूरी तरह से बदल चुकी है।
मामला मुँह में खून लगने जैसा हो चुका है। 1989 से लेकर 1992 तक की लगभग फोटोग्राफिक मेमोरी मेरे जेहन में है। जब आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली थी और देशभर में हजारों लोग मारे गये थे। लेकिन समाज तब भी उतना जहरीला नहीं था, जितना आज है।
अयोध्या मामले में एक तरह का नॉवेल्टी फैक्टर था। रामलला के कैद होने की कहानी हिंदू समाज नहीं बल्कि बीजेपी के स्थानीय स्तर के नेताओं ने भी पहली बार सुनी थी। जोश हिलोरे मार रहा था और अयोध्या की तुलना मक्का से की जा रही थी। बहुत सारे तर्क जनता को जायज लग रहे थे। सबसे बड़ा तर्क यह था कि बाबरी मस्जिद सिर्फ एक ढांचा है।
काशी की स्थिति अयोध्या से एकदम अलग है। वहाँ एक मस्जिद है जो सदियों से इबादतगाह है और उसके ठीक बगल में मंदिर है, जो हिंदू आस्था का केंद्र है।
मैं वहाँ जब भी गया हूँ, विश्वनाथ जी को पंडे पुजारियों ने वहीं दिखाया है, जहाँ पर वो हैं। हिंदू आस्था वहीं है, मस्जिद के पिछले हिस्से का वो टूटा हिस्सा नहीं, जहाँ फव्वारे में शिवलिंग मिलने का दावा किया जा रहा है।
लोक श्रुतियों में मंदिर के तोड़े जाने की कहानियां ज़रूर हैं। ज्ञानवापी मस्जिद पर खड़े होकर चारो तरफ देखने पर यह महसूस करना कठिन नहीं है कि वहाँ कभी कोई मंदिर रहा होगा। लेकिन प्राचीन भारत में वो कौन सा हिस्सा होगा, जहाँ हिंदू मंदिर या कोई दूसरे प्रतीक ना रहे होंगे?
भारत के चप्पे-चप्पे पर हिंदू धार्मिक प्रतीक चिन्हों का मिलना उतना ही स्वभाविक है, जितना शहरों में आदिम संस्कृति और जन-जातीय चिन्हों का मिलना। जितने भी शहर और कस्बे बनाये गये हैं वो किसी ना किसी को उजाड़ कर बनाए गए हैं। क्या सारे मामलों में च्ऐतिहासिक भूलों का सुधारज् संभव है।
क्या 'ऐतिहासिक भूलों' के सुधार की माँग उन लोगों से करना तर्कसंगत, न्यायसंगत और नैतिक है, जो इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। हिंदू समाज जिस रास्ते पर चल पड़ा है, उसमें किसी तार्किकता और नैतिकता की जगह नहीं बची है। मैं जिस समाज का हिस्सा रहा हूँ, उसका इतना डरावना रूप मैं अपने जीवन में देखूंगा यह बात मेरे लिए अकल्पनीय थी।
सोशल मीडिया पर जो शोर दिखाई दे रहा है, उसमें अपेक्षाकृत शांत दिखने वाले बहुत से लोग अत्यंत हिंसक नज़ऱ आ रहे हैं और परपीडऩ के अनूठे आनंद में डूबे हैं। बहुत से स्वयंभू गाँधीवादी और सर्वोदयी तक भी इसी भीड़ में नजऱ आ रहे है।
मान लीजिये मस्जिद के अंदर भी धार्मिक प्रतीक चिन्ह ढूंढ लिए जाते हैं और अयोध्या जैसा कोई डिजाइन अपनाते हुए वह जगह भी खाली करवा ली जाती है तो क्या होगा? हिंदू समाज मौजूदा मंदिर वाले विश्वनाथ जी को छोडक़र मस्जिद वाले विश्वनाथ जी को पूजना शुरू कर देगा?
व्यवहारिक तौर पर हिंदू समाज को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि ज्ञानवापी मस्जिद के पिछले हिस्से और पूरी मस्जिद के अंदर क्या है। काशी के सौंदर्यीकरण के नाम पर ना जाने कितने पुराने मंदिर तोड़ दिये गये और शिवलिंग कूड़े के ढेर में नजऱ आये। हिंदू आस्था आहत नहीं हुई।
दरअसल हिंदू आस्था का केंद्र अब बदल चुका है और उसके केंद्र में सिर्फ मुसलमानों के प्रति नफरत है। दुनिया का प्राचीनतम धर्म अपने जन्म स्थल पर अपने आपको इस तरह पुनर्परिभाषित करने की जिद पर अड़ा है, जिसके केंद्र में सिर्फ नफरत हो, उसकी अपनी बुनियादी अच्छाइयां नहीं। यह धर्म के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है और इस आधार पर मैं यह मानने को तैयार हूँ कि हिंदू धर्म सचमुच खतरे में है।
ज्ञानवापी मस्जिद के भीतर पिछले कुछ समय में जो कुछ हुआ, उसे लेकर हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा आहलादित है। मन में इस बात संतोष है कि लाइन में लगवा दिया, तलाशी ले ली। अब जामा मस्जिद से लेकर कुतुब मीनार तक यही होगा। परपीडऩ का मास हिस्टीरिया बन जाना पूरी मानव जाति के लिए घातक है क्योंकि विश्व आबादी में एक बड़ी तादाद हिंदुओं की है।
आरएसएस राजनीतिक मेधा संपन्न लेकिन नैतिकता शून्य संगठन है। जिसकी भारत में रहने वाले सभी लोगों की सुख-शांति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। एक प्रक्रिया के तहत हिंदू समाज आज इतना नफरती बनाया जा चुका है, असर अपने समाज और परिवार पर दिखने लगा है, मुसलमानों पर होना तो एक अलग बात है।
मान लीजिये ‘ऐतिहासिक भूलो को सुधारने’ की माँग पर दलित भी अड़ जाये तो क्या होगा? केरल में ब्रेस्ट टैक्स की कहानी गजनवी के भारत पर हमले के मुकाबले काफी नई है और हाल-हाल तक चलती रही है। अगर वहाँ तक दलित समाज जिद पकड़ ले कि इस कुव्यवस्था का बदला लिया जाएगा तो आरएसएस की क्या प्रतिक्रिया होगी? पूछना बेकार है क्योंकि आरएसएस के काम करने के पीछे कोई तर्क पद्धति नहीं बल्कि संख्या बल काम करता है।
संख्या बल इस देश में मुसलमानों के पास भी है। वे अल्पसंख्यक नहीं बल्कि हिंदुओं के बाद इस देश का दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक समुदाय हैं। नये तमाशे खड़े करके उन्हें रोजाना उकसाने का सीधा उद्देश्य यह है कि अस्सी बनाम बीस एक स्थायी समीकरण हो जाये और तमाम उत्तरदायित्वों से परे आरएसएस अनंत काल तक इस देश पर राज कर सके। लेकिन तमाम उकसावों के बावजूद मुसलमान अब तक अभूतपूर्व संयम का परिचय दे रहे हैं।
स्थायी ध्रुवीकरण के लिए बीजेपी-आरएसएस ने हिंदुओं के भीतर इतनी कुंठा भर दी है कि वह एक पराजित समूह की तरह व्यवहार करने लगा है। वह भारतीय इस्लाम की उन बुराइयों की नकल करने पर आमादा है, जिसका घोषित तौर पर विरोधी रहा है। ये प्रवृतियां हिंदू समाज को कहां ले जाएंगी, धर्मगुरूओं की ओर से इस बात पर कोई चिंता नहीं दिखाई देती।
बीजेपी-आरएसएस के पास वो ताकत है कि अगर वो चाहें तो साल के 365 दिन धार्मिक ध्रुवीकरण के मुद्दों को जिंदा रख सकते हैं। इसका समाज और देश को कितना लाभ हो रहा है, यह सोचने की बात है। जिन चीज़ों को हिंदुओं की जीत बताई है, वो असल में नैतिक रूप से उनकी हार है।
मेरा हमेशा से मानना था कि मोदी सरकार नैतिक साहस दिखाये और ये कहे हमारे हिंदू वोटर अयोध्या में मंदिर चाहते हैं और हम संसद में विधेयक लाकर मंदिर बनाये। लेकिन जज साहब ने फैसला सुनाया और बिना किसी शर्म-हया के बीजेपी की तरफ से राज्यसभा के मेंबर बन गये। यह मामला कुछ ऐसा ही था, जैसे 1949 में गर्भगृह में मूर्तियां रखवाने वाले फैजाबाद के डीएम जनसंघ के सांसद बने थे।
सत्य और नैतिकता हिंदू दर्शन के दो बड़े तत्व रहे हैं। क्या आरएसएस की हिंदू आइडियोलॉजी में इन दोनों बातों की कोई जगह है? दुनिया अब भारत को स्वामी विवेकानंद नहीं बल्कि नरसिंहानंद के देश के रूप में देख रही है। एक हिंदू होने के नाते मेरे लिए यह एक बेहद दुखद स्थिति है।
मानव गतिविधियों की वजह से हो रहे ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हो या अन्यथा, फिलहाल मुद्दा यह है कि उत्तरी भारत औसतन 45 डिग्री सेल्सियस के दैनिक तापमान के साथ भीषण गर्मी की चपेट में है।
ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम के वैश्विक पैटर्न में परिवर्तन आएगा और भारत को और अधिक भीषण गर्मी का सामना करना पड़ सकता है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार ग्रीष्म लहर (लू) उस स्थिति को कहते हैं जब किसी दिन का तापमान लंबे समय के औसत तापमान से 4.5 से 6.4 डिग्री अधिक होता है (या मैदानी क्षेत्रों में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक और तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो)।
उदाहरण के लिए, दिल्ली में 1981 से 2010 के दौरान मई का औसत उच्च तापमान 39.5 डिग्री सेल्सियस रहा करता था लेकिन वर्तमान में 28 अप्रैल से प्रतिदिन का तापमान 44 डिग्री सेल्सियस है (औसत अधिकतम तापमान से 4.5 डिग्री सेल्सियस अधिक)। ये महज आंकड़े नहीं हैं बल्कि इनका सम्बंध मानव शरीर, जन स्वास्थ्य और जलवायु संकट के इस दौर में शासन व्यवस्था से जुड़ा है।
इस संदर्भ में वेट-बल्ब तापमान महत्वपूर्ण है। वेट-बल्ब तापमान वह न्यूनतम तापमान है जो कोई वस्तु गर्म वातावरण में हासिल कर सकती है जब साथ-साथ उसे पानी के वाष्पन से ठंडा किया जा रहा हो। जब आसपास का वातावरण गर्म हो और वस्तु की सतह से पानी वाष्पित हो रहा हो तो उनके बीच एक साम्य स्थापित होता है और वस्तु के तापमान में कमी आती है। अपनी त्वचा का उदाहरण लीजिए। किसी गर्म दिन में जब आपकी त्वचा की सतह से पसीना वाष्पीकृत होता है तब आपकी त्वचा कम-से-कम जितने तापमान तक ठंडी हो सकती है उसे वेट-बल्ब तापमान कहा जाता है। यह तापमान सिर्फ साधारण तापमापी से नापा गया तापमान नहीं बल्कि वाष्पन की वजह से आई या आ सकने वाली गिरावट को दर्शाता है।
यहां एक बात ध्यान देने योग्य है। किसी सतह से पानी का वाष्पन सिर्फ तापमान पर निर्भर नहीं करता बल्कि आसपास की हवा में मौजूद नमी की मात्रा पर भी निर्भर करता है। यदि आसपास की हवा बहुत अधिक नम है, तो सतह से पानी का वाष्पन कम होगा और उस वस्तु के तापमान में उतनी कमी नहीं आ पाएगी जितनी शुष्क हवा में आती।
मौसम का अध्ययन करने वाले एक संस्थान मेटियोलॉजिक्स के अनुसार 26 अप्रैल 2022 को सुबह साढ़े आठ बजे दक्षिण दिल्ली का वेट-बल्ब तापमान लगभग 19.5 डिग्री सेल्सियस था जो 29 अप्रैल को बढक़र 22 डिग्री सेल्सियस हो गया। ये दोनों ही तापमान फिलहाल सुरक्षित सीमा में हैं। लेकिन 32 डिग्री सेल्सियस के वेट-बल्ब तापमान में थोड़ी देर भी बाहर रहना हानिकारक हो सकता है। वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो, तो पर्याप्त पानी पीने और कोई शारीरिक कार्य किए बगैर भी कुछ घंटे बाहर छाया में गुजारना तक जानलेवा हो सकता है।
एशिया के मौसम मानचित्र में दिखेगा कि वेट-बल्ब तापमान भूमध्य रेखा की ओर जाने पर काफी तेजी से बढ़ता है और साथ ही भारत के पश्चिमी तट की तुलना में पूर्वी तट पर अधिक होता है। यह मुख्य रूप से नमी के कारण होता है। वातावरण में जितनी अधिक नमी होगी, उतना ही कम पसीना वाष्पित हो पाएगा और शरीर भी उतना ही कम ठंडा हो पाएगा। इसलिए किसी क्षेत्र में मात्र हवा का तापमान जानना पर्याप्त नहीं होता बल्कि आर्द्रता और वेट-बल्ब की रीडिंग भी महत्वपूर्ण है।
2020 में कोलंबिया युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि पृथ्वी की सतह के कई हिस्सों में गर्मी और आर्द्रता के कारण स्थिति जानलेवा बन चुकी है जबकि पहले ऐसा माना जा रहा था कि यह स्थिति सदी के अंत में आएगी। शोधकर्ताओं द्वारा 1979 से 2017 तक एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार पूर्वी तटवर्ती और उत्तर-पश्चिमी भारत पर सबसे अधिक वेट-बल्ब तापमान होने की संभावना है।
ज़्यादा व्यापक स्तर पर देखें तो मध्य अमेरिका, उत्तरी अफ्रीका, मध्य-पूर्व, उत्तर-पश्चिमी और दक्षिण-पूर्वी भारत तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के कुछ हिस्सों में अधिकतम वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस की सीमा तक 2010 में ही पहुंच चुका है।
ग्लोबल वार्मिंग से न सिर्फ तापमान में बढ़ोतरी हो रही है बल्कि समुद्र स्तर में भी वृद्धि हो रही है। इन दोनों समस्याओं के चलते भारत के कई क्षेत्र रहने योग्य नही रह जाएंगे। कब और कौन-से क्षेत्र निर्जन होंगे यह कई कारकों पर निर्भर करता है।
गौरतलब है कि भारत के प्रभावित क्षेत्र में कई ऐसे राज्य शामिल हैं जहां जन स्वास्थ्य व्यवस्था कमज़ोर और अपर्याप्त है, तथा चिकित्सा कर्मियों की कमी है। इन राज्यों की आय भी बहुत कम है और अधिकांश निवासी बाहरी काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर हैं और बहुत कम सुविधाओं के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। इन गर्म हवाओं के दौरान बाहर काम करना उनके लिए काफी जोखिम भरा होगा। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जलवायु परिवर्तन में जिस समूह का समसे कम योगदान हैं उसे इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
इस समस्या के समाधान के लिए ‘हीट एक्शन प्लान’ तैयार किया गया है जिसको सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद में अपनाया गया था। तब से लेकर अब तक 30-40 शहर इस योजना को अपना चुके हैं जिसमें जागरूकता अभियान, चेतावनी प्रणाली और शीतलन व्यवस्था की स्थापना तथा कमज़ोर वर्गों में गर्मी के जोखिम को कम करने के प्रयास किए गए हैं। देखा जाए तो गर्मी के शहरी टापू जैसे प्रभाव के कारण शहरी क्षेत्रों की गर्म हवाएं और भी घातक हो गई हैं। ये प्रयास सराहनीय हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। गर्म हवाओं की बात करते हुए आर्द्रता को शामिल करना अनिवार्य है क्योंकि वह वेट-बल्ब तापमान में वृद्धि करती है।
फिलहाल, आईपीसीसी के अनुसार भारत में वेट-बल्ब तापमान शायद ही 30 डिग्री सेल्सियस को पार कर रहा है लेकिन इसमें जल्द ही परिवर्तन की संभावना है।(स्रोत फीचर्स)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महंगाई यदि इसी तरह बढ़ती रही तो देश में अराजकता भी फैल सकती है। ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय थोक चीजों के दाम में 15.08 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई है। इतनी महंगाई 31 साल बाद बढ़ी है। इन तीन दशकों में महंगाई जब थोड़ी-सी भी बढ़ती दिखाई देती थी तो देश में शोर मचना शुरु हो जाता था। संसद में शोर मचने लगता था, सडक़ों पर प्रदर्शन होने लगते थे और सरकारों की खाट खड़ी होने लगती थी लेकिन इस वर्ष बढ़ी महंगाई को लोग दो कारणों से अभी तक बर्दाश्त किए हुए हैं। एक तो कोरोना महामारी की वजह से और दूसरे यूक्रेन-युद्ध के कारण!
कोरोना महामारी ने देश के करोड़ों लोगों को लंबे समय तक बेरोजगार कर दिया और यूक्रेन-युद्ध ने तेल की कीमतों में वृद्धि करवा दी। तेल की कीमतें बढ़ीं तो उसके कारण देश में एक जगह से दूसरी जगह जानेवाली हर चीज की कीमत बढ़ गई। भयंकर गर्मी के कारण साग-सब्जी, फलों और दूध की कीमतों ने भी उछाल ले लिया। पेट्रोल, डीजल और गैस की कीमतें इतनी उचका दी गईं कि मध्यम-वर्ग के लोग भी हैरान और परेशान हैं।
गांव के लोग तो फिर भी चूल्हे-अंगीठी से गुजारा कर सकते हैं और कार व फटफटी की बजाय साइकिल से अपने काम निकाल सकते हैं लेकिन शहरी लोग क्या करें? बसों और मेट्रो के किराए लगभग दुगुने हो गए हैं। आम आदमी की मुसीबतें ज्यादा बढ़ गई हैं। अनाज, दाल, मसालों जैसी रोजमर्रा की चीजें खरीदते वक्त उसके पसीने छूटने लगते हैं। मध्यम वर्ग, कर्मचारी वर्ग और मेहनतकश लोगों की आमदनी तो जस की तस है लेकिन उनका खर्च सवाया-डेढ़ा बढ़ गया है।
कुछ लोगों को तो अपना रोजमर्रा का जीवन चलाने के लिए बैंकों से अपनी स्थायी जमा राशियों को तुड़ाना पड़ गया है। लेकिन हमारी तेल बेचनेवाली कंपनियों ने इस दौर में अरबों रु. का मुनाफा कमाया है। जीएसटी की जरिए सरकारों को भी अभूतपूर्व आमदनी हो रही है लेकिन सरकार ने आम जनता को इधर कौनसी विशेष राहत दी है? सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज बांट रही है, यह तो बहुत अच्छा है लेकिन उसने अपने खर्चें में कौनसी कटौती की है? मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्षदों के वेतन, भत्ते, और तरह-तरह के खर्चों में बचत की क्या जरुरत नहीं है?
इसके अलावा यदि थोक चीजों के दाम 15 प्रतिशत बढ़े हैं तो जऱा बाजारों में जाकर मालूम कीजिए की उनके खुदरा दाम कितने बढ़े हैं? कई चीजों के दाम दुगुने-तिगुने हो गए हैं। उन्हें रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है? इस मंहगाई ने मालदार लोगों को पहले से कहीं ज्यादा मालदार बना दिया है। वे बेलगाम खर्चीली जिंदगी बिता रहे हैं।
अच्छा होता कि हमारे नेता लोग अपने खर्चे भी घटाते और मालदार लोगों को कम खर्च में जिंदगी चलाने की प्रेरणा भी देते। मुनाफाखोरों और मिलावटखोरों के विरुद्ध आवश्यक सख्ती भी कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है। महंगाई यदि बर्दाश्त के बाहर हो गई तो प्रचंड बहुमतवाली इस लोकप्रिय सरकार की नाक में दम हो सकता है।
-स्वराज करुण
अच्छा, आप लोग जरा ये बताइए! राजा-महाराजाओं के इतिहास में और उनसे जुड़े उत्खनन में सिर्फ मंदिर, मस्जिद, ही क्यों मिलते हैं? स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला जैसे परोपकारी निर्माण के अवशेष क्यों नहीं मिलते? क्या राजा-महाराजा अपनी प्रजा के बच्चों की शिक्षा और नागरिकों की सेहत का ध्यान नहीं रखते थे?
मनुष्य उस ईश्वर, अल्लाह या गॉड पर क्यों इतना भरोसा करता है, जिसे उसने कभी देखा ही नहीं? वह क्यों उसे बहुत दयालु भी मानता है? क्यों उसके काल्पनिक चित्र बनवाकर या काल्पनिक मूर्तियाँ गढक़र उसकी पूजा करता है? क्यों इतनी मिन्नतें करता है और मन्नतें मांगता है? जबकि सच तो यह है कि मिन्नतों और मन्नतों से होता जाता कुछ नहीं!
अगर कहीं ईश्वर, अल्लाह, गॉड नामक कोई देवी-देवता है भी और अगर उसने ही इस संसार का और मनुष्यों के साथ-साथ संसार के सारे प्राणियों का निर्माण किया है, तो वह अपने ही बनाए हुए प्राणियों के प्रति इतना निर्मम क्यों है? संसार का सारा इतिहास इंसान नामक प्राणियों के बीच खून-खराबे की घटनाओं से भरा हुआ क्यों है?आज के युग में भी कई लोग ईश्वर के नाम पर लिंग के लिए तो कहीं उसके काल्पनिक मंदिर के लिए क्यों लड़ते झगड़ते हैं?अगर ये कथित ईश्वर, अल्लाह या गॉड सचमुच बहुत शक्तिशाली है तो वह इंसानों के बीच के ऐसे झगड़ों को रोकता क्यों नहीं ?
राजा-महाराजा अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए एक-दूसरे से लड़ते हुए अपने राज्य के हजारों, लाखों गरीब सैनिकों की बलि चढ़ा देते थे, जिनके बच्चे अनाथ और पत्नियां विधवा हो जाती थी। उन सैनिकों के माता-पिता बेसहारा हो जाते थे! तब ये ईश्वर, अल्लाह, गॉड कहाँ छिप जाते थे? हम मनुष्य भी ऐसे खूनी राजा-महाराजाओं को कथित रूप से महान देशभक्त कहकर क्यों महिमा मंडित करते हैं? अगर मनुष्य द्वारा पूजित ईश्वर इतना दयावान है तो ज्यादा नहीं, सिर्फ एक शताब्दी के इतिहास को देखें, जिसमें दो-दो विश्व युद्धों के रक्त रंजित पन्ने चीख-चीखकर ईश्वर की निर्ममता की कहानी बयान कर रहे हैं। इन विश्व युद्धों में करोड़ों लोग बेमौत मारे गए।
अगर मनुष्य स्वयं को ईश्वर की संतान मानता है तो वह उससे इन मौतों का हिसाब क्यों नहीं मांगता?वह ईश्वर से क्यों नहीं पूछता कि अपनी ही संतानों को युद्ध की आग में झोंककर उसे क्या मिला?ताजा उदाहरण यूक्रेन पर रूसी हमले का है, जिसमें दोनों ही पक्षों के हजारों लोग काल के गाल में समा गए हैं। विगत लगभग पौने तीन महीनों से रूसी राष्ट्रपति पुतिन की सेनाएं यूक्रेन में भयानक तबाही मचा रही हैं। क्या उस सर्वशक्तिमान कहलाने वाले ईश्वर को यह सब नहीं दिख रहा है?अगर वह सर्वशक्तिमान मान है तो अपनी शक्ति से इस तरह की खूनी लड़ाइयों को शुरू होने ही क्यों देता है ?
इसके अलावा अगर ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है तो मनुष्य और मनुष्य के बीच धन-दौलत के मामले में इतना भेदभाव क्यों है? एक तरफ अमीरी का लगातार ऊँचा होता जा रहा पहाड़ है तो दूसरी तरफ गरीबी की दिनों दिन बढ़ती खाई क्यों है? दुनिया की 90 प्रतिशत दौलत सिर्फ 10 प्रतिशत अमीरों के हाथ में और बची हुई मात्र 10 प्रतिशत दौलत 90 प्रतिशत गरीबों के हिस्से में क्यों है? अगर ईश्वर इतना दयालु है तो उसके बनाए हुए संसार में यह भयानक आर्थिक विषमता क्यों? ऐसे सवालों का कभी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता! इसी से साबित होता है ईश्वर, अल्लाह, गॉड ये सब मनुष्यों द्वारा अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए गढ़े गए काल्पनिक प्रतीक हैं। इससे ज्यादा और कुछ नहीं!
यदि विशेष परिस्थितियों में किसी अतिक्रमण को हटाना बहुत जरूरी हो जाता है तो इस स्थिति में पहले उचित व न्यायसंगत पुनर्वास की व्यवस्था सभी प्रभावित व्यक्तियों या परिवारों के लिए होनी चाहिए व उसके बाद ही अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही होनी चाहिए।
-भारत डोगरा
शहरों की स्लम नीति पर जब भी तथ्य व विवेक आधारित अध्ययन हुए हैं, उन्होंने प्राय: यही संस्तुति की है कि स्लम बस्तियों व झोंपड़ी बस्तियों को उजाड़ा न जाए अपितु यथासंभव उसी स्थान पर विकास कार्य कर यहां रहने की व पर्यावरण की स्थितियों को सुधारा जाए। जल व स्वच्छता जैसी बुनियादी जरूरतें पूरा करने के साथ यहां व आसपास के नजदीकी क्षेत्र में हरियाली को भी बढ़ाना चाहिए।
इसी तरह अनौपचारिक व लघु स्तर के रोजगारों पर हुए अध्ययनों ने बताया है कि छोटी दुकानों, ठेलियों, खोकों, रेहडिय़ों, टी स्टाल व ढाबों से चलने वाले रोजगारों की रक्षा होनी चाहिए व इस रक्षा के अनुकूल ही नीतियां अपनानी चाहिए। वैसे तो ऐसी नीतियां सामान्यत: सभी समय के लिए होनी चाहिए पर हाल के समय में ऐसी निर्धन वर्ग का साथ देने वाली नीतियों की जरूरत तीन कारणों से और बढ़ गई है। पहली वजह तो यह है कि कोविड व उससे जुड़े लॉकडाउन के दौर में वैसे ही लोगों की कठिनाईयां बहुत बढ़ गई है। बहुत से लोग बेरोजगार हो गए हैं। दूसरी बड़ी बात यह है कि विमुद्रीकरण जैसी अनेक प्रतिकूल नीतियों के कारण भी बहुत से कमजोर आर्थिक स्थिति के लोगों की कठिनाईयां बढ़ी हैं। तिस पर महंगाई ने व यूक्रेन युद्ध की बाद की स्थितियों ने आम निर्धन मजदूरों व छोटे उद्यमियों की कठिनाईयों को और बढ़ा दिया है।
अत: इस दौर में तो शहरों व कस्बों में आवास या आजीविका के साधनों की तोड़-फोड़ की कार्यवाही नहीं होनी चाहिए। तिस पर भीषण गर्मी के दौर में तो यह और भी अनुचित है। इसके बावजूद ऐसे दौर में ही कुछ समय पहले चंडीगढ़ में एक ही दिन में लगभग 5000 लोगों को बस्ती तोड़ कर बेघर कर दिया गया, जबकि वे लगभग 40 वर्ष पहले बसी बस्ती में रह रहे थे।
इसी समय दिल्ली में भी कई स्थानों पर तोड़-फोड़ की कार्यवाही आरंभ हो गई है। पिछले वर्ष भी गर्मी के दिनों में बहुत बड़ी तोडफ़ोड़ की कार्यवाही फरीदाबाद में हुई थी। यह समय निर्धन वर्ग व शहरी जरूरतमंदों की मदद का है उनकी कठिनाईयां बढ़ाने का नहीं। कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच में अपनी मेहनत व हुनर के बल पर लोगों ने अपने रोजगार बनाए हुए हैं व अपने सिर पर छत की कोई व्यवस्था की हुई। जो सरकार इससे बेहतर जीवन की व्यवस्था इन मेहनतकशों के लिए नहीं कर सकती है, उसे कोई हक नहीं है कि इतनी कठिनाई से लोगों ने अपने लिए जो व्यवस्था स्वयं बनाई है उसे वह तहस-नहस करे।
अत: जगह-जगह बढ़ रही, अनेक शहरों को त्रस्त कर रही तोड़-फोड़ की कार्यवाहियों पर रोक लगनी चाहिए। हां यदि विशेष परिस्थितिश्सें में किसी अतिक्रमण को हटाना बहुत जरूरी हो जाता है तो इस स्थिति में पहले उचित व न्यायसंगत पुनर्वास की व्यवस्था सभी प्रभावित व्यक्तियों या परिवारों के लिए होनी चाहिए व उसके बाद ही अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही होनी चाहिए।
विभिन्न अध्ययनों में यह सामने आ रहा है कि शहरी बेरोजगारों की समस्या गंभीर हो रही है व विभिन्न शहरों में बेघर लोगों की संख्या बढ़ रही है। अत: जब यह समस्याएं पहले ही गंभीर हो रही हैं तो उनकी गंभीरता को बढ़ाने वाली कार्यवाहियों से सरकार को बचना चाहिए। प्राय: अनेक स्थानों पर देखा गया है कि जिन लोगों की आजीविका को नष्ट करके बेरोजगारी में धकेला जाता है वे कई बार धीरे-धीरे बेघरी की हालत में आ जाते हैं। दूसरी ओर आवास टूटने से लोग बेघर बनते हैं। जलवायु बदलाव और प्रतिकूल मौसम के इस दौर में दुनिया भर में यह कहा जा रहा है कि बेघर लोगों की समस्याएं विशेष तौर पर अधिक होंगी। इस स्थिति में यदि सरकार लोगों को बेघर बनाने की कार्यवाही करती है तो यह बहुत अनुचित है व इस नीति को बदलना चाहिए। (navjivanindia.com)
इन कानूनों को देखने के बाद सामने आता है कि इनमें से किसी को भी औपनिवेशक कानून नहीं कहा जाता है। इन कानूनों को हमने खुद बनाया है। हर सरकार इनका अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है और न्यायपालिका को भी इससे कोई दिक्कत नहीं है।
-आकार पटेल
सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह या देशद्रोह कानून पर रोक लगा दी है, और केंद्र सरकार ने यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि औपनिवेशिक युग के इस कानून को चरणबद्ध तरीके से हटाया जाए। यह एक अच्छा लम्हा है। यह कानून कहता है- ‘जो कोई भी, बोलकर या लिखकर, या संकेतों द्वारा, या जाहिर हो जाने वाल दृश्यों के प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, घृणा या अवमानना द्वारा देश के खिलाफ कुछ करने का प्रयास करता है, या सरकार के प्रति असंतोष को भडक़ाता है या भडक़ाने की कोशिश करता है, उसे भारत में प्रतिष्ठित कानून द्वारा, ‘आजीवन कारावास’ की सजा दी जाएगी।
आर्टिकल14 डॉट कॉम नाम की वेबसाइट ने इस कानून के सरकार द्वारा दुरुपयोग किए जाने के कई उदाहरणों का लेखा-जोखा तैयार किया है और इस मुद्दे को आम लोगों के बीच लाने का अच्छा काम किया है। विशेषज्ञों ने चेताया है कि एक तो इस कानून का सरकार द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है यानी सरकारें इस कानून के तहत मुकदमे दर्ज कर सकती हैं और दूसरा यह कि और भी बहुत से ऐसे कानून हैं जिनका गलत इस्तेमाल हो सकता है। ये दोनों बातें ही दुरुस्त हैं।
न्यायपालिका को एक बार यह समझ आ जाए कि कुछ कानून 21वीं सदी के लोकतंत्र में आवश्यकताविहीन हैं तभी इन जैसे कानूनों को खत्म किया जा सकता है। जब ऐसी सच्चाइयों का एहसास देश करते हैं तभी उन्हें दुरुस्त करने का काम किया जाता है।
भारत में बहुत से ऐसे कानून हैं जिनकी संविधान सम्मत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रकाश में समीक्षा की जरूरत है। और राजद्रोह अकेला ऐसा औपनिवेशक कानून नहीं है जिसे भारतीय भोगते हैं। गांधी जी ने जिस राउलेट एक्ट का विरोध किया था और जिसकी परिणति जलियांवाला बाग की त्रासदी के रूप में हुई थी उसे कानून के बुनियादी सिद्धांतों के आधार पर खत्म किया गया था। इस कानून के तहत लोगों को बिना किसी आरोप या मुकदमे के गिरफ्तार किया जा सकता था और बिना किसी अदालती सुनवाई के ही बंद कमरों मे हुए जजों के फैसले के आधार पर किसी को भी सजा दी जा सकती थी। इसे प्रशासनिक हिरासत का नाम दिया गया था, यानी बिना किसी अपराध या कोई अपराध हुए बिना ही लोगों को सिर्फ इस आधार पर जेल में डाल देना क्योंकि प्रशासन या सरकार को लगता था कि आने वाले समय में अमुक व्यक्ति कोई अपराध कर सकता है।
लेकिन आज भारत में इस किस्म के कई कानून हैं। 2015 में 3,200 से ज्यादा लोगों को इसी प्रशासनिक हिरासत में लिया गया था। गुजरात में प्रीवेंशन ऑफ एंटी सोशल एक्टिविटीज एक्ट 1984 (1984 का समाजविरोधी गतिविधि निरोधक अधिनियम) है। इसके तहत बिना किसी आरोप या मुकदमे के ही किसी को भी एक साल तक जेल में रखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून है जिसके तहत किसी को भी बिना किसी आरोप या मुकदमे के एक वर्ष के लिए हिरासत में रखा जा सकता है। इसके तहत, ‘किसी व्यक्ति को भारत की रक्षा, विदेशी शक्तियों के साथ भारत के संबंधों, या भारत की सुरक्षा के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से रोकने’ या ‘से किसी भी तरीके से राज्य की सुरक्षा के लिए हानिकारक या सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से, या समुदाय के लिए आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के रखरखाव के लिए प्रतिकूल तरीके से कार्य करने से कार्य करने के अपराध में हिरासत में लिया जा सकता है।
इस कानून का इस्तेमाल मध्य प्रदेश में पशु तस्करी और पशु वध के आरोपी मुसलमानों को जेल में डालने के लिए किया गया है। तमिलनाडु में मादक पदार्थों का काम करने वाले, ड्रग्स बेचने वाले, जंगलों के अवैध रूप से काटने वाले, गुंडों, मानव तस्करी करने वाले, अवैध रेत खनन करने वाले, यौन अपराधियों, झुग्गी-झोपडिय़ों के नाम पर जमीन कबजाने वाले आदि पर वीडियो पाइरेट्स एक्ट 1982 का इस्तेमाल किया जाता है। इस कानून में सरकार को बिना किसी मुकदमे के किसी को भी जेल में डालने का अधिकार है।
कर्नाटक में भी ऐसा ही कानून है जिसका इस्तेमाल तेजाब फेंकने वाले, अवैध शराब का धंधा करने वाले, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले, ड्रग्स का धंधा करने वाले. जुआरियों, गुंडों और मानव तस्करी के साथ ही जमीन कब्जाने वाले और सेक्सुअल अपराध करने वालों पर किया जाता है। इसे भी वीडियो पाइरेट्स एक्ट 1985 का नाम दिया गया है। इस कानून के तहत बिना किसी आरोप या मुकदमे के किसी को भी 12 महीने तक जेल में रखा जा सकता है।
असम में भी 1980 का प्रीवेंटिव डिटेंशन एक्ट यानी एहतियाती हिरासत कानून है। इसके तहत किसी व्यक्ति को बिना किसी आरोप या मुकदमे के दो साल तक जेल में रखा जा सकता है।
बिहार में विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी रोकथाम अधिनियम, 1984 है। यह ‘किसी व्यक्ति को i) तस्करी से रोकने के लिए, या (ii) माल की तस्करी को बढ़ावा देने पर, या (iii) तस्करी के सामान के परिवहन या छुपाने या रखने में संलग्न होने पर, या (vi) तस्करी के सामान को परिवहन या छुपाने या रखने के अलावा तस्करी के सामान में शामिल होने पर, या (1) तस्करी के सामानों में लगे व्यक्तियों को शरण देने या तस्करी को बढ़ावा देने पर लागू होता है।
जम्मू और कश्मीर में तीन कानून हैं, एक बिना आरोप या मुकदमे के छह महीने के लिए हिरासत में रखने की अनुमति देता है, दूसरा एक साल के लिए और तीसरा दो साल के लिए। पश्चिम बंगाल में हिंसक गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम 1970 है। छत्तीसगढ़ में पत्रकारों को नियमित रूप से एनएसए के तहत जेल में डाल दिया जाता है और उनकी रिपोर्टिंग के लिए एक साल के लिए जेल में रखा जाता है।
इन कानूनों को देखने के बाद सामने आता है कि इनमें से किसी को भी औपनिवेशक कानून नहीं कहा जाता है। इन कानूनों को हमने खुद बनाया है। हर सरकार इनका अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है और न्यायपालिका को भी इससे कोई दिक्कत नहीं है। इन दिनों हम भारतीय नागरिकों को एंटी-नेशनल बोलकर राजद्रोही घोषित करते रहते हैं।
अब हम जलियांवाला बाग जैसा सामूहिक प्रदर्शन तो नहीं करते और अगर करेंगे भी तो इन जैसे कानूनों के जरिये (जिनका जिक्र ऊपर किया गया है) हमें एंटी नेशनल घोषित कर दिया जाएगा। लेकिन इससे इस तथ्य पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये कानून पुराने हो चुके हैं और इनकी आज के समय में कोई जरूरत नहीं है और इन्हें उसी तरह खत्म करने की जरूरत है जिस तरह राउलेट एक्ट को खत्म किया गया था।
एक बार ऐसी समझ एक राष्ट्र के तौर पर हमारे बीच पैदा हो गई, खासतौर से हमारी उच्च न्यायपालिका में तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि वैसे ही न्यायिक सुधार हो सकते हैं जिसकी उम्मीद देशद्रोह कानून के मामले में बंधी है। (navjivanindia.com)
स्पेन शायद यूरोप का पहला देश होगा, जो महिलाओं को माहवारी की कठिनाइयों से निबटने के लिए छुट्टियां देगा. कई जगहों पर ये छुट्टियां पहले से ही हैं और महिलाओं को इनसे मदद मिलती है, लेकिन इसकी आलोचना भी बहुत होती है.
"मुझे याद है कि मैं क्लासरुम में पढ़ा रही थी और मुझे इतना दर्द था कि मेरी आंखों से आंसू निकल रहे थे. मुझे कुछ पता नहीं था कि क्या करना है और जाहिर है कि मुझे काम छोड़ना पड़ा."
जूडी बिर्ष ने माहवारी के गंभीर लक्षण दिखने पर अपनी अनुभूतियों को कुछ इस तरह से बयान किया. ब्रिटेन में पेल्विक पेन सपोर्ट नेटवर्क चलाने वाली बिर्ष उन अरबों महिलाओं में हैं, जो माहवारी के गंभीर लक्षणों का सामना करती हैं. इसे डिस्मोनेरिया कहा जाता है. इसमें भारी रक्तस्राव के साथ ही मरोड़ें उठती हैं, थकावट के साथ ही मितली आती है और दस्त भी हो सकता है. एक बड़ी रिसर्च के मुताबिक प्रजनन की उम्र में 91 फीसदी महिलाओं में डिसमेनोरिया की शिकायत होती है. इनमें से करीब 29 फीसदी महिलाओं को भयानक दर्द भी झेलना पड़ता है.
कैसे काम करती हैं औरतें?
अमेरिकन एकेडमी ऑफ फैमिली फिजिसियंस का कहना है कि डिसमेनोरिया इतना गंभीर है कि यह कम से कम 20 फीसदी महिलाओं के रोजमर्रा के कामकाज पर असर डालता है.
बिर्ष कहती हैं, "मैं इससे जूझती रहती हूं, ध्यान नहीं लगा पाती, अपने को केंद्रित नहीं कर पाती हूं...और मैं सिर्फ यह चाहती हूं कि अच्छे से काम करूं."
दुनिया के कुछ देशों में महिलाओं को कानूनी रूप से पीरियड्स के दौरान छुट्टी मिलती है. इस तरह की "मेंस्ट्रुअल लीव" की नीति अकसर विवादित होती है. इन नीतियों पर अक्सर इनसे भेदभाव बढ़ाने के आरोप लगते हैं और अक्सर इन्हें लेकर तीखी बहस होती है और लोगों को इस बारे में समझाना मुश्किल होता है. हालांकि फिर भी स्पेन यूरोप का पहला देश बनने जा रहा है, जहां इस तरह की छुट्टी का प्रावधान होगा.
हर महीने तीन दिन की अतिरिक्त छुट्टी
स्पेन की मंत्रिपरिषद में मंगलवार को जो प्रस्ताव आ रहा है, उसकी लीक हुई जानकारी से पता चला है कि महिलाओं को हर महीने तीन दिन की अतिरिक्त छुट्टी माहवारी अवकाश के रूप में मिलेगी. हालांकि अभी पूरा ब्यौरा सामने नहीं आया है. कहा जा रहा है कि इसके लिए महिलाओं में माहवारी के गंभीर लक्षणों का होना जरूरी होगा और मुमकिन है कि इस छुट्टी के लिए उन्हें मेडिकल सर्टिफिकेट पेश करना पड़े.
स्पेन के इंस्टीट्यूट ऑफ वीमेन के निदेशक टोनी मोरिलस ने न्यूज पोर्टल पब्लिको से कहा, " हमारे देश में...हमारे पास माहवारी को एक फिजियोलॉजिकल प्रक्रिया के रूप में देखने की दिक्कत है, जो निश्चित रूप से कुछ अधिकारों को जन्म देता है." मोरिलस ने आंकड़ों का हवाला देकर यह भी कहा कि हर दो में से एक महिला के लिए माहवारी दर्दनाक होती है.
डीडब्ल्यू ने इंस्टीट्यूट और स्पेन के समानता मंत्रालय से बात करने की कोशिश की, लेकिन दोनों ने इस वक्त इस मामले में कुछ करने के इनकार कर दिया.
नई नीति का प्रस्ताव जो अभी बदला भी जा सकता है, वह एक नए प्रजनन स्वास्थ्य कानून का हिस्सा है जो गर्भपात कराने वाली महिलाओं को छुट्टी देने के साथ ही 16 से 17 साल की औरतों के गर्भपात के लिए मां बाप की अनुमति की जरूरत को खत्म करने के लिए बनाया गया है. इसी कानून के जरिए टैंपोन और पैड जैसे माहवारी से जुड़े सामान पर से सेल्स टैक्स भी हटाया जा रहा है.
माहवारी की छुट्टी देने में पूर्वी एशियाई देश आगे
इटली की संसद ने 2017 में इसी तरह का एक प्रस्ताव रखा था. इसके बाद वहां इस बात पर लंबी बहस शुरू हो गई कि क्या यह दफ्तरों में भेदभाव को बढ़ावा देगा. आखिरकार यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सका.
जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, इंडोनेशिया और जांबिया जैसे मुठ्ठी भर देशों में ही फिलहाल माहवारी की वेतन के साथ छुट्टी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा है.
इंडोनेशिया में किरोयान पार्टनर्स की सीईओ वीव हितिपियू माहवारी की छुट्टी लेने वाली कर्मचारी भी रही हैं और छुट्टी देने वाली मालिक भी. उनका कहना है कि उन्होंने समय-समय पर इस छुट्टी का इस्तेमाल किया है क्योंकि उन्हें माहवारी के दौरान पेट में बहुत दर्द होता था. हितिपियू ने बताया, "ठीक से बैठ पाना बहुत मुश्किल था. अगर मुझे मरे डेस्क पर या लैपटॉप के सामने हर दिन आठ या नौ घंटे बैठना हो, तो मैं यह नहीं कर पाती थी. वह सचमुच बहुत खराब स्थिति थी."
हितिपियू ने बताया कि छुट्टी की नीति से उन्हें काफी मदद मिली. उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें छुट्टी लेने या देने में कभी दिक्कत नहीं हुई. हालांकि उनका यह भी कहना है, "इस छुट्टी के साथ आज भी भेदभाव या एक बुराई जुड़ी हुई है क्योंकि लोग समझते हैंः महिलाएं आलसी होती हैं और वो काम नहीं करना चाहतीं." इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं की उत्पादकता सीधे उनकी मौजूदगी से जुड़ी है. ऐसे में यह फ्रेमवर्क सिर्फ सिद्धांतों में ही नजर आता है.
माहवरी की छुट्टी से समस्या
जापान ने1947 में ही युद्ध के बाद हुए सुधारों के तहत माहवारी की छुट्टी शुरू कर दी थी. जापान को देखकर इससे जुड़ी समस्याओं का पता चलता है. हाल ही में निक्केई के सर्वे में पता चला कि केवल 10 फीसदी महिलाएं ही माहवारी की छुट्टियां ले रही हैं. हालांकि सर्वे में शामिल 48 फीसदी महिलाओं ने कहा कि कई बार वे यह छुट्टी लेना चाहती हैं, लेकिन उन्होंने कभी नहीं ली. इन महिलाओं ने बताया कि कई बार तो वो अपने पुरुष बॉस के सामने आवेदन नहीं करना चाहतीं या फिर कुछ महिलाओं को लगता है कि इस बात का दूसरी महिलायें फायदा उठा लेंगी.
यूरोपीय देशों में छुट्टी की नीतियां उदार हैं, लेकिन फिर भी इसके लिए माहवारी को कारण बताना आम बात नहीं है. नीदरलैंड्स की 30,000 डच औरतों पर 2019 में किये एक सर्वे में पता चला कि भले ही 14 फीसदी औरतों ने पीरियड्स के दौरान छुट्टी ली, लेकिन इनमें से महज 20 फीसदी ने ही सही कारण बताया.
2020 में माहवारी के अध्ययन पर हैंडबुक के रूप में प्रकाशित एक एकेडमिक पेपर में कामकाज में माहवारी की छुट्टियों के फायदे और कमियों पर जानकारी दी गई है. पेपर में इस तरह की नीतियों की कमियों में, "लैंगिक सोच और व्यवहार को बनाये रखना, माहवारी को कलंक की तरह दिखाने में योगदान और लिंग से जुड़ी छवियों को कायम रखना, लिंग आधारित वेतन में अंतर पर नकारात्मक असर और माहवारी के साथ बीमारी जैसे बर्ताव को बढ़ावा मिलता है."
इस तरह की नाकारात्मक छवियों में महिलाओं का नाजुक होना, गैरउत्पादकता और भरोसेमंद ना होना शामिल है. जबकि माहवारी के साथ बीमारी जैसा बर्ताव करने का नतीजे में इसे दवा से दुरूस्त करने की सोच उभरती है.
बिर्ष ने ब्रिटेन में नेटवर्क के साथ अपने अनुभव को साझा किया, "बहुत सी महिलायें अगर नियमित रूप से हर महीने ये छुट्टियां लें, तो उन्हें सजा मिलती है." उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है या उन्हें नौकरी से निकाला जा सकता है. माहवारी की छुट्टियों की नीति के मायने अलग अलग देशों में अलग है. बिर्ष ने ध्यान दिलाया कि अमेरिका जैसे देशों में तो यह बहुत कठिन है क्योंकि वहां वेतन के साथ आमतौर पर बहुत कम छुट्टी मिलती है. उनका यह भी कहना है कि स्पेन का प्रस्ताव पर्याप्त नहीं है, "जब उस तरह का दर्द आपको हर महीने हो, तो तीन दिन कुछ भी नहीं हैं. मेरे विचार में यह दुखद है."
उनका मानना है कि कुल मिला कर कामकाजी माहौल को ऐसा लचीला बनाने की जरूरत है, जिससे कि गंभीर माहवारी के लक्षणों वाली महिलाओं को उसमें शामिल किया जा सके. कुछ कंपनियां इस मुद्दे को समझ रही हैं और उन्होंने इसे लेकर नीतियां भी बनाई हैं.
दफ्तर में महिलाओं को सहयोग
भारत में खाना डिलीवरी करने वाले प्लेटफॉर्म जोमैटो ने अगस्त 2020 से माहवारी की छुट्टी के लिए अपनी कंपनी में नीति बनाई. कंपनी की कम्युनिकेशन हेड वेदिका पराशर ने बताया कि इसके लिए महिलाओं को दूसरी छुट्टियों के अतिरिक्त हर साल 10 और छु्ट्टी देने की नीति लागू हुई है.
उन्होंने बताया कि इसके लिए एक सम्मानजनक सिस्टम बनाया गया है, जिसमें कैलेंडर पर बस लाल रंग के निशान वाला एक इमोटिकॉन टीम को इन छुट्टियों की जानकारी दे देता है और इसके बारे में कोई सवाल नहीं पूछे जाते. वो खुद भी इन छुट्टियों का इस्तेमाल करती हैं. पराशर का कहना है, "उन दिनों में मैं सचमुच इमोटिकॉन लगा देती हूं, और इसका मतलब है कि मैं उपलब्ध नहीं हूं. मैंने देखा है कि बहुत से लोग इसका सम्मान करते हैं. यहां जोमैटो में इसे बहुत गंभीरता से लिया जाता है."
कंपनी ने ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कई कोशिशें की हैं, जिससे कि माहवारी की छुट्टियों के साथ कोई बुराई ना जुड़े. कंपनी की नीति सभी योग्य लिंगों पर लागू होती है. इसमें ट्रांसजेंडर भी शामिल हैं. वो कहती हैं, "आपको इसे लेकर असहज नहीं होना चाहिए. यह एक जैविक प्रक्रिया है."
इस नीति को लागू करने के बाद वास्तव में कंपनी की उत्पादकता बढ़ गई है. पराशर जोर देकर कहती हैं. नीदरलैंड के सर्वे में शामिल महिलाओं का कहना था कि उनकी उत्पादकता घट जाती है क्योंकि 81 फीसदी महिलाओं को माहवारी के गंभीर लक्षणों वाली हालत में भी दफ्तर आना पड़ा जो हर साल में लगभग 9 दिन थे.
पराशर कहती हैं कि जोमैटो में माहवारी की छुट्टियों ने पारदर्शिता बढ़ाने में मदद की है और काम का माहौल ऐसा है जहां लोगों का खुद पर भरोसा रहता है, इससे कर्मचारियों को कंपनी में बनाये रखने में मदद मिली है और यह महिलाओं को काम पर रखने में कारगर है. 2020 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल कामकाजी लोगों में महज 16 फीसदी ही महिलायें हैं.
पराशर का मानना है कि शायद कुछ महिलायें बहुत खराब स्थिति ना होने पर भी माहवारी की छुट्टी लेती होंगी. हालांकि वो यह भी कहती हैं, "अब तक इसके किसी भी दुरुपयोग की हमें औपचारिक जानकारी नहीं मिली है."
हितिपियू का तो कहना है कि माहवारी की छुट्टियां देना, "बुनियादी रूप से उसे स्वीकार करने और महिलाओं को सहयोग देने का संकेत है. कामकाजी जगहों या कंपनियों को महिलाओं को इस लायक बनाना होगा कि वो अपना काम करने के साथ-साथ समाज में अपनी भूमिका निभा सकें, एक इंसान के रूप में और एक मां के रूप में."
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में अदालतें क्या फैसला करेंगी, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना समझ लीजिए कि यह मामला अयोध्या की बाबरी मस्जिद-जैसा नहीं है। कोई भी वकील या याचिकाकर्ता या हिंदू संगठन यह मांग नहीं कर रहा है कि ज्ञानवापी मस्जिद को ढहा दिया जाए और उसकी जगह जो मंदिर पहले था, उसे फिर से खड़ा कर दिया जाए। इस तरह की मांगों पर 1991 से ही प्रतिबंध लग चुका है, क्योंकि संसद में यह कानून पास हो चुका है कि 15 अगस्त 1947 को जो भी धार्मिक स्थान जैसा था, वह अब वैसा ही रहेगा।
इसीलिए यह डर पैदा करना कि ज्ञानवापी की मस्जिद को ढहाने की साजिश शुरु हो गई है, गलत है। यहां कुछ महिलाओं ने स्थानीय अदालत में जो याचिका लगाई हैं, उसका मंतव्य बहुत सीमित है। उनकी प्रार्थना है कि उन्हें मस्जिद के बाहरी हिस्से में बने गौरी श्रृंगार मंदिर में पूजा और परिक्रमा का अधिकार दिया जाए। कई वर्षों से मस्जिद की प्रबंध समिति ने इस पुरानी सुविधा को कुछ वर्षों से रोक दिया था। स्थानीय अदालत ने इस मस्जिद परिसर की जांच करने के आदेश दे दिए। जांच के परिणाम जगजाहिर हो गए।
उनके कारण सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया। कुछ हिंदू प्रवक्ता कह रहे हैं कि मस्जिद में तो मंदिर के अवशेष भरे पड़े है। मुगल आक्रांताओं ने मंदिर को तोडक़र मस्जिद बनाई है। इस पर मुस्लिम संगठन कह रहे हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद को गिराने की साजिश शुरु हो गई है। सच्चाई तो यह है कि सिर्फ काशी, मथुरा और अयोध्या के मंदिर ही नहीं, देश के सैकड़ों मंदिरों को तोडक़र विदेशी हमलावरों ने वहां मस्जिदें खड़ी की थीं। यह उन्होंने भारत में ही नहीं किया, स्पेन, तुर्की, इंडोनेशिया आदि कई देशों में किया है।
सत्ता के भूखे उन ज़ालिम और जाहिल बादशाहों ने पैगंबर मोहम्मद के आदर्शों को ताक पर रखते हुए दुनिया के कई मंदिरों और गिरजों को गिराकर अपने अहंकार को तुष्ट किया। उन्हें सर्वव्यापी अल्लाह से नहीं, अपनी सत्ता से सरोकार था। मैंने ईरान में वे मस्जिदें भी देखी हैं, जो पड़ौसी मुस्लिम शासकों ने गिराई हैं। दक्षिण भारत में गोलकुण्डा की जामा मस्जिद भी औरंगजेब ने गिराई थी, क्योंकि बादशाहत का रौब कायम करने के तीन बड़े साधन हुआ करते थे। पराजितों की औरतों पर कब्जा, संपत्ति की लूट-खसोट और उनके पूजा-स्थलों को भ्रष्ट करना।
यदि इन कारणों से कोई मंदिर, मस्जिद या गिरजा बनता है तो क्या उस पर कोई गर्व कर सकता है? किसी भी धर्म को मानने वाला सच्चा भक्त ऐसे पूजा-स्थलों को सम्मान की नजर से नहीं देख सकता। लेकिन उन्हें अब ढहाने के बात करना भी बर्र के छत्ते में हाथ डालने-जैसी बात है। जो जैसा है, उसे वैसा ही पड़ा रहने दें। वे शासकीय अत्याचारों के स्मारक बनकर खड़े रहेंगे लेकिन जो सच्चे ईश्वर या अल्लाहप्रेमी हैं, उनको क्या फर्क पड़ता है कि वे मस्जिद में जाएं या मंदिर में जाएं? या दोनों में एक साथ चले जाएं। मंदिर में जो ईश्वर है, मस्जिद में वही अल्लाह है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन और उत्तरोत्तर गिरती स्थिति पर चर्चा और विमर्श जारी है। हाल के दिनों में पत्रकारों के दमन और उत्पीड़न के समाचारों की आवृत्ति भी चिंताजनक रूप से बढ़ी है। पत्रकारों को निर्वस्त्र करने की दुःखद, शर्मनाक और निंदनीय घटनाओं पर कुछ मित्रों से चर्चा हो रही थी। किराना व्यवसाय से जुड़े एक मित्र की प्रतिक्रिया ने चौंकाया भी और डराया भी। यह मित्र सोशल मीडिया पर निरंतर सक्रिय रहते हैं और व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के नवप्रवेशी उत्साही छात्रों में उन्हें शुमार किया जा सकता है। उन्होंने कहा- आजकल जो भी हो रहा है वह बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था, इन पत्रकारों को भी एक बार जमकर सबक सिखाना जरूरी है। मैंने उनसे पूछा कि पत्रकारों के प्रति उनकी इस नफरत का आधार क्या है? क्या वे पत्रकारिता की ओट लेकर भयादोहन करने वाले किसी अपराधी तत्व द्वारा प्रताड़ित किए गए हैं? उनके उत्तर से ज्ञात हुआ कि कोई अप्रिय व्यक्तिगत अनुभव पत्रकारों के प्रति उनकी घृणा के लिए उत्तरदायी नहीं है अपितु वे उस नैरेटिव के शिकार हैं जिसके अनुसार सत्ता की नजदीकी से वंचित कर दिए गए वामपंथी पत्रकार षड्यंत्र पूर्वक नए भारत के नए तेवरों पर सवाल उठा रहे हैं। मेरे मित्र ने यह भी कहा कि सरकार की त्वरित बुलडोजर मार्का न्याय प्रणाली आज की जरूरत है, अदालतें उपद्रवियों और दंगाइयों को संरक्षण देने के लिए बनी हैं, इसलिए सरकार इनकी उपेक्षा कर ऑन द स्पॉट जस्टिस देने का कार्य कर रही है। पत्रकार बौद्धिक उपद्रवी हैं, वे विध्वंसकारी प्रवृत्ति के शिकार हैं और नकारात्मकता फैलाने के स्रोत भी हैं इसलिए यह भी इंस्टैंट पुलिसिया न्याय के लायक हैं। मध्यम वर्गीय व्यवसायी मित्रों की बहुलता वाली मंडली ने इन तर्कों का पुरजोर समर्थन किया।
मैंने उन्हें बताया कि किस प्रकार हमारे स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास और हमारी पत्रकारिता की यात्रा अविभाज्य रूप से अन्तर्ग्रथित हैं। किस प्रकार वैश्विक स्तर पर और हमारे देश में भी 'सत्ता' -चाहे वह जिस दल या विचारधारा की हो पत्रकारों से भयभीत रही है और उन्हें दमन का सामना करना पड़ा है। मैंने उन्हें यह भी समझाने का प्रयास किया कि सत्ता के सुर में सुर मिलाना न तो पत्रकार से अपेक्षित होता है न ही यह स्वस्थ पत्रकारिता का कोई लक्षण है। सत्ता से नजदीकी और सत्ता की प्रशंसा अर्जित करना किसी भी अच्छे पत्रकार का लक्ष्य नहीं होता बल्कि यह तो उसके विचलन और पतन का सूचक है।
असहमति की बेबाक अभिव्यक्ति, आलोचना करने का साहस, समीक्षात्मक दृष्टिकोण, तथ्यपरक-तार्किक विवेचना और अप्रिय प्रश्न पूछने में संकोच न करना- यह सभी अच्छे पत्रकार के मूल गुण हैं। सत्ता से सहमत होने के लिए बहुत से लोग हैं यदि पत्रकार भी ऐसा करने लगें तो जनता की समस्याओं और पीड़ा को स्वर कौन देगा? पत्रकार निष्पक्ष से कहीं अधिक जनपक्षधर होता है और किसी घटना के ट्रीटमेंट में जनता, समाज एवं देश का हित उसके लिए सर्वोपरि होता है।
मैंने उन्हें यह भी समझाने की कोशिश की कि सत्ता का विरोध करने वाले हर व्यक्ति को वामपंथी समझ लेना कितना गलत है। और यह भी कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में वामपंथी होना कोई अवगुण नहीं है एकदम उसी तरह जैसे दक्षिणपंथी होना कोई अपराध नहीं है। अलग अलग वैचारिक प्रतिबद्धताओं के मध्य स्वस्थ वैचारिक संघर्ष और उनके सह अस्तित्व से ही हमारा लोकतंत्र समृद्ध, पुष्ट और स्थिर होता है।
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हमारे निराशाजनक प्रदर्शन से अधिक चिंताजनक यह है कि इस पर लज्जित और चिंतित होने के स्थान पर हम आनंदित हो रहे हैं। समाज में ऐसे आत्मघाती चिंतन वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है जो सत्ता द्वारा सर्वाधिक प्रताड़ित किए जाने के बावजूद स्वयं को सत्ता का एक अंग समझ रहे हैं और अपने ही हितों की बात करने वाले पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों के दमन से प्रसन्न हो रहे हैं।
प्रेस की स्वतंत्रता पर गहराते संकट की चर्चा तो हो रही है किंतु प्रेस के अस्तित्व पर जो संकट है उसे हम अनदेखा कर रहे हैं। अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के मुद्रण आधारित या इलेक्ट्रॉनिक साधनों का उपयोग करने वाले हर व्यक्ति या संस्थान को प्रेस की आदर्श परिभाषा में समाहित करना घोर अनुचित है विशेषकर तब जब वह पत्रकारिता की ओट में अपने व्यावसायिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहा हो।
आज राजनीतिक दलों तथा उद्योगपतियों से मीडिया के अवैध संबंधों को वैधानिकता प्रदान करने के लिए अब इनके मीडिया सेल सक्रिय दिखाई देते हैं और हम 'मीडिया प्रबंधन' जैसी अभिव्यक्ति को लोकप्रिय होते देखते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ ही यह दर्शाता है कि मीडिया को मैनेज किया जा सकता है।
धनकुबेरों का अखबार और टीवी चैनल पालने का शौक बहुत पुराना रहा है और कदाचित किसी समय यह उनके सम्मान, प्रतिष्ठा एवं परिष्कृत अभिरुचि का सूचक समझा जाता रहा होगा। किंतु बहुत जल्द उन्होंने अपनी व्यावसायिक बुद्धि से यह अनुमान लगा लिया कि प्रेस में निवेश महज विलासिता नहीं है अपितु इससे सत्ता से नजदीकी बढ़ाई जा सकती है। हमने वह युग भी देखा है जब किसी समाचार समूह पर सरकार समर्थक होने के आक्षेप लगा करते थे लेकिन सरकार समर्थक मीडिया जैसी अभिव्यक्ति में जो द्वैत बोध था वह इतनी जल्दी तिरोहित हो जाएगा और मीडिया सरकार के साथ तद्रूप हो जाएगा इसकी कल्पना हमें नहीं थी।
उच्चतम और नवीनतम तकनीकी सुविधाओं की उपलब्धता, भव्य स्टूडियो तथा सेलिब्रिटी एडिटरों-एंकरों-रिपोर्टरों के जमावड़े से बनने वाले टीवी चैनलों में पत्रकारिता का कलेवर तो है लेकिन तेवर नदारद है। ऐसा बहुत कुछ जिसे हम पत्रकारिता समझ कर देख-पढ़ रहे हैं और जिसके आधार पर अपने अभिमत का निर्माण कर रहे हैं वह दरअसल पत्रकारिता की तकनीकों का उपयोग करने वाले चतुर उद्योगपतियों और सत्ताधीशों की भरमाने वाली प्रस्तुतियां हैं जिनसे जनपक्षधरता, जनशिक्षण और जन अभिरुचि के परिष्कार की आशा करना व्यर्थ है।
वैकल्पिक मीडिया का उदय आशा तो जगाता है किंतु 'वैकल्पिक' शब्द के साथ उसकी सीमाओं का बोध जुड़ा हुआ है और ऐसा बहुत कम होता है कि विकल्प मूल को प्रतिस्थापित कर दे। वैकल्पिक मीडिया संवेदनशील पत्रकारों और पाठकों की शरण स्थली है। यह मुख्य धारा के मीडिया के प्रति उनकी निराशा और आक्रोश की अभिव्यक्ति है। मुख्य धारा के मीडिया के नाम पर चल रहे पाखंड के प्रति प्रतिक्रिया स्वरूप जन्म लेने वाला वैकल्पिक मीडिया स्वाभाविक रूप इस पाखंड,छद्म और भ्रम जाल को तोड़ने में अपनी सारी ऊर्जा लगा रहा है, यही कारण है कि अनेक बार इसमें सृजनशीलता और रचनात्मकता का अभाव दिखाई देता है। किसी बुरी प्रवृत्ति का प्रतिकार जब उसकी आलोचना के माध्यम से किया जाता है तब भी हम उसे चर्चा में तो बनाए ही रखते हैं। हमारी अपनी मूल्य मीमांसा और सकारात्मक चिंतन को जनता तक पहुंचाने का करणीय कृत्य तब हमारी दूसरी प्राथमिकता बन जाता है।
वैकल्पिक मीडिया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का आश्रय लेता है जिस पर भी धनकुबेरों का नियंत्रण है जिनके व्यावसायिक हितों की सिद्धि के लिए सत्ता से मैत्री आवश्यक है। सोशल मीडिया की स्वतंत्रता कुछ कुछ खुली जेल की आजादी की तरह है, जहाँ आजादी का दायरा बड़ा तो है किंतु अंततः है तो यह जेल ही। कानून व्यवस्था का अवलंबन लेकर इंटरनेट बाधित करना हमारी शासन व्यवस्था का नव सामान्य व्यवहार है। तकनीकी के विकास ने सोशल मीडिया पोस्टों की निगरानी को इतना परिष्कृत कर दिया है कि स्वयं को स्वतंत्र और अचिह्नित समझना बहुत बड़ी नादानी होगी। जब तक हमारे विद्रोही तेवरों को सत्ता बाल सुलभ कौतुक समझ कर गंभीरता से नहीं लेती तब तक सोशल मीडिया पर हमारी यात्रा निर्बाध गति से चलती रहती है किंतु जैसे ही सत्ता हमें संभावित खतरे के रूप चिह्नित करती है वैसे ही पहले इन प्लेटफॉर्म्स के अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्यायित किए जाने वाले कम्युनिटी स्टैंडर्ड्स प्रकट होते हैं और जब प्रतिबंध पर्याप्त नहीं लगता तो हमारा कमजोर साइबर कानून अचानक सशक्त हो जाता है और सुस्त कही जाने वाली जांच एजेंसियां असाधारण तत्परता से हमारे पीछे लग जाती हैं। स्थिति यह है कि सोशल मीडिया पर झूठ और नफरत फैलाकर एक पूरी पीढ़ी को तबाह करने वाली शक्तियां उत्तरोत्तर ताकतवर हो रही हैं और सत्ता से हल्की सी असहमति प्रतिबंधों और कानूनी कार्रवाई के दायरे में लाई जा रही है।
टेक फॉग का सच तो शायद कभी सामने नहीं आ पाएगा किंतु इसके दुरुपयोग को लेकर जो आरोप लगे हैं वे बहुत गंभीर हैं। क्या सोशल मीडिया के माध्यम से सत्ताधारी दल से संबंध रखने वाले राजनीतिक कार्यकर्त्ता कृत्रिम रूप से पार्टी की लोकप्रियता बढ़ाने में लगे हुए हैं? क्या सत्ता के आलोचकों एवं असहमत स्वरों को प्रताड़ित करने के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया जा रहा है? क्या सभी प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर व्यापक रूप से पब्लिक ओपिनियन को इच्छित दिशा में मोड़ने के लिए टेक फॉग का उपयोग किया गया? क्या यह सवाल इसलिए अनुत्तरित ही रह जाएंगे क्योंकि इनके जवाबों के जरिए आधुनिक राजनीति का छिपा हुआ स्याह आपराधिक चेहरा उजागर हो जाएगा?
ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया जमीनी सच्चाइयों को सामने लाने का जरिया नहीं बना है किंतु इसके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की पुष्टि के वैकल्पिक साधन के अभाव में यह खबरें 'माय वर्ड अगेंस्ट योर्स' बनकर रह जाती हैं। सोशल मीडिया पर झूठी और भ्रामक पोस्ट्स की भरमार ने इसकी विश्वसनीयता को घटाया है। अभिव्यक्ति के संयम का अभाव भी यहां इतना अधिक है कि कहा जाने लगा है कि जो कुछ घर-परिवार और समाज में प्रत्यक्ष रूप से नहीं कहा जा सकता वह सोशल मीडिया पर कहा भी जा सकता है और उसके लिए सराहना भी प्राप्त की जा सकती है। सोशल मीडिया ने फेक न्यूज़ के कारोबार को बढ़ावा दिया है और मनोरंजक स्थिति यह है कि जनता को फेक इश्यूज पर दिन रात फंसाए रखने वाले पारंपरिक टीवी चैनल और अखबार इनकी पड़ताल करते देखे जाते हैं।
उस संपादक के लिए -जो किसी घटना से खबर को तराश कर बाहर निकालता था - सोशल मीडिया में कोई स्थान नहीं है। प्रिंट मीडिया में संपादकों का स्थान न्यूज़ अरेंजर जैसी किसी नई प्रजाति के लोग पहले ही ले चुके हैं। टीवी चैनलों और अखबारों से जुड़े पत्रकारिता के बहुत सारे बड़े नाम शायद यह भ्रम पैदा करने के लिए ही हैं कि जो कुछ उनकी छत्र छाया में हो रहा है उसे पत्रकारिता मान लिया जाए। अशोभनीय जल्दबाजी से मूर्द्धन्य का दर्जा हासिल करने वाले असमय विगत शौर्य हो चुके अनेक पत्रकारों के विषय में तो अब यह शंका भी होती है कि उनका पराक्रम कहीं अपना बाजार भाव बढ़ाने की किसी रणनीति का हिस्सा तो नहीं था। जेनेटिक कारणों से होने वाला रोग प्रोजेरिया बचपन में वृद्धावस्था ला देता है किंतु इन युवा पत्रकारों के वैचारिक प्रोजेरिया का कारण तो सत्ता और संपन्नता की उनकी भूख ही है।
ऐसा बहुत कुछ जो आज पत्रकारिता के नाम पर परोसा जा रहा है दरअसल हमें कुछ खास विषयों पर खास दिशा में सोचकर अपनी राय बनाने के लिए बाध्य करने की रणनीति का एक हिस्सा है। सरकार अब सेंसरशिप जैसी आदिम अभिव्यक्तियों पर विश्वास नहीं करती। आज का मीडिया ऐसे बहुविकल्पीय प्रश्न की भांति है जिसके सारे उत्तर सत्ता के पक्ष में हैं और सत्ता बड़े गौरव से यह कह सकती है कि जनता को चुनने की आजादी है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-विष्णु नागर
मंगलेश डबराल अब नहीं हैंं। नहीं हैं मतलब अब हम उन्हें अपने बीच कुछ नया रचते-बनाते हुए नहीं पा सकते। बहुत से कवि मरने से बहुत पहले मर चुके होते हैं। जब उनकी मृत्यु की खबर आती है, तब हम चौंंकते हैं, अरे ये अब तक हमारे बीच थे?ऐसा शायद इसलिए कि तब तक वे अपने को भुलाये जाने की पर्याप्त योग्यता अर्जित कर चुके होते हैं। इसके विपरीत मंगलेश या उनकी तरह के दूसरे कुछ कवियों की मौत हमें सदमा देती है क्योंकि कुछ नया, कुछ भी नया करने की संभावना उनमें शेष थी। इसके प्रमाण हमें मिल रहे थे।
मुक्तिबोध की मृत्यु के समय मैं एक किशोर था, जानता भी नहीं था कि ऐसा कोई कवि था, जो अब नहीं है और उसका होना बहुत मायने रखता था। इसलिए जिस सदमे को उनकी कविता को निकट से जानने वालों ने तब महसूस किया था, उसे बाद में ही मैं महसूस कर पाया। 1990 के अंत में जब रघुवीर सहाय नहीं रहे तो उनके अभाव को मंगलेश सहित हम सबने बहुत देर तक महसूस किया था और आज वह खला हमारे भीतर हैं कि हमने उन्हें बहुत जल्दी खो दिया। मंगलेश का अभाव भी कुछ ऐसा है। वह थे तो उस आदमी को चैन नहीं था। तमाम बेचैनियाँ उसकी कविताओं और उसके बाहर दर्ज होती रहती थीं। अब वह शायद चैन होंं मगर हम उनके समवयस्क और बाद के कवि उनके न रहने से बेचैन हैं। जब कोई रहता है तो हम वह शायद उसके रहने को उस तरह महसूस नहीं कर पाते, जिस प्रकार उसके न रहने पर। और मंगलेश एकदम चले जाएँगे, इसका अहसास किसी को नहीं था। तब भी नहीं, जब वह कोविड के कारण अस्पताल में भर्ती किए गए, जबकि उनका ऑक्सीजन स्तर खतरनाक रूप से नीचे जा चुका था। उस बीच उनके ठीक होते जाने की रोशनी की धीमी चमक दिखती रहती थी तो आश्वस्ति होती थी।
मंगलेश और हम एक-दूसरे के कितने दोस्त थे, कितने नहीं, मैं ठीक ठीक कह नहीं सकता। उनकी अंतरंग मंडली का कुछ दूसरों की तरह मैं सदस्य नहीं था, हालांकि उनकी बहुत सी अंतरंगताओं का एक गवाह मैं भी रहा हूँ। मैं उन्हें 1971-72 से जानता रहा हूँ। हम दोनों के तब संघर्ष के दिन थे।मंगलेश मुझसे कुछ पहले यहाँ आ चुके थे। साहित्य का संसार कुछ-कुछ उन्हें जानता था,जबकि मेरा कुछ सामने आया नहीं था। विचारधारागत तैयारी भी तब तक मंगलेश की काफी हो चुकी थी। मैं शून्य या शून्य से थोड़ा ऊपर था। मोहनसिंह प्लेस के काफी हाउस में इनकी बहसें सुना करता था।
खैर वह दौर गुजरा। बाद में हमारी मित्रता हुई। और भी बाद में कविता के कई मंचों पर हम साथ रहे।कविता के बाहर की दुनिया में भी।रसरंजन की कई शामों में भी। ‘जनसत्ता’ के दफ्तर में भी कई दोपहरें बीतींं। बहादुर शाह जफर मार्ग पर उनका छोटा सा कैबिन मित्रों का अड्डा और कई नवागत लेखकों-पत्रकारों का स्वागत कक्ष था। इतनी भीड़ होती थी अक्सर वहाँ कि अगर वह कभी अकेले काम करते हुए मिल जाए तो आश्चर्य होता था मगर कभी मंगलेश ने किसी से नहीं कहा कि यारों अब मुझे काम करने दो, जाओ।ज्यादा काम होता तो वह सब कुछ सुनते भी रहते और काम भी मुस्तैदी से निबटातेभी जाते। तब ‘जनसत्ता’ के चार रविवारी पृष्ठों की जो धमक थी, वह फिर कभी किसी की नहीं रही। बहुत सी बातें उनसे अलग से भी हुईं। सहमतियाँ-असहमतियाँँ सभी। असहमतियाँ हुईं तो एक दूसरे से कुछ उदासीन रहे मगर संबंधों का धागा कभी नहीं टूटा। जब मैं रघुवीर सहाय की जीवनी पर काम कर रहा था, तो मुझे लगता था कि इस काम को करने के सच्चे अधिकारी वह हैं। फिर भी यह अच्छा हुआ, यह काम मैंने किया। शायद उनसे पूरा नहीं हो पाता, जैसा शमशेर बहादुर सिंह की जीवनी लिखने की परियोजना में हुआ। यह काम पूरा न हो पाने का एक कारण कोरोना के बाद अस्त व्यस्त हुआ सबका जीवन भी था। शमशेरजी वाला काम शायद आरंभिक नोट्स लेने से आगे नहीं बढ़ पाया। बहुत तरह की उलझनों के बीच ऐसा काम-जो रचनात्मक भी हो और निरंतर शोध भी माँगता हो, उनकी तमाम योग्यताओं के बावजूद कठिन तो था मगर मेरे काम में उन्होंने किसी और से ज्यादा तत्परता से सहयोग दिया। इसका कारण रघुवीर सहाय से उनका लगाव था और मुझसे मित्रवत संबंध भी इसका कारण था।
बहरहाल वह अब नहीं है और उनका न होना इतना अप्रत्याशित है। फिर भी इस प्रकार वह हमारे बीच भी हैंं-
अपने ही भीतर मरते जा रहे हैं
जीवित लोग
मैं उम्मीद से देखता हूँ मृतकों की ओर
वे ही हैं जो दिखते हैं जीवित।
यह मंगलेश डबराल के ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ कविता संग्रह की तीन छोटी कविताओं में से एक है। छोटी और अर्थपूर्ण। मंगलेश को क्या पता रहा होगा कि वह भी जल्दी ही उनमें से एक हो जाने वाले हैंं, जो उन मृतकों में एक होंगे, जो दीखते रहेंंगे, हमें जीवित। हम जो जीवित अपने भीतर मरते जा रहे है, उम्मीद से उनकी ओर देखा करेंगे।वैसे उनमें जीवन जीने की अदम्य इच्छा थी। जीवन से। कभी वह हारे नहीं। उन्हें निजी अस्पताल से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती किया जाए, यह उन्हीं का आग्रह था।
हारना तो जैसे आरंभ से उस शख्स को आता नहीं था। हाँ लडऩा-भिडऩा आता था। अपनी बात के लिए कविता के लिए जगह बनाना आता था। अपनी कविताओं से ज्यादा दूसरों की कविताओं के लिए यह काम उन्होंने अपने सुदीर्घ पत्रकारिता के जीवन मेें किया और जहाँ भी रहे,वहाँ किया।’
जनसत्ता ‘जिन वर्षों मेंं सचमुच एक अखबार हुआ करता था, तब उसने हिन्दी और भारतीय भाषाओं की कविता और कवियों के लिए उसमें बहुत जगह बनाई बल्कि कविता के लिए ही क्यों, साहित्य और संस्कृति के लिए भी। जब दूसरे हिंदी अखबार साहित्य और संस्कृति से विमुख होने के लिए तत्पर हो चुके थे, तब ‘जनसत्ता’ ने मंगलेश डबराल के रहते लगभग दो दशकों तक यह काम जम कर किया। इसमें किसी तरह का समझौता स्वीकार नहीं किया। उस समय की कोई बड़ी सांस्कृतिक-साहित्यिक हस्ती ऐसी नहीं थी, जिसकी ‘जनसत्ता’ के साप्ताहिक संस्करण में चर्चा न हुई हो, जिसे महत्व को रेखांकित न किया गया हो, हिंदी के पाठक उससे अपरिचित रखा गया हो। यही बात युवा प्रतिभाओं के बारे में थी। यह काम मंगलेश ने अन्यत्र भी किया था मगर ‘जनसत्ता’ ने उसे दीर्घकालिक स्मृति का हिस्सा बना दिया। रघुवीर सहाय कभी जो काम ‘दिनमान’ के जरिए कर रहे थे, वह काम अपनी तरह से उनके वहाँ रहते भी और बाद में भी मंगलेश ने किया। जब रघुवीर जी ‘दिनमान’ से बाहर कर दिए गए तो उनके लेखन का उपयोग अपने यहाँ मंगलेश ने उनसे स्तंभ लिखवाकर किया। अक्सर कवि की कविताओं की आभा में उसके इस तरह के योगदान को विस्मृत कर दिया जाता है।
जीवन के बहत्तर वर्ष पूरे कर चुका और पचास से भी अधिक वर्षों से लिख रहा यह कवि अभी भी बहुत कुछ कर रहा था और बहुत कुछ करने की इच्छा से प्रेरित था। मंगलेश जब अपने गाँव काफलपानी में रहते थे अभावों के बीच, जहाँ व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएँ भी मुश्किल से पहुँचती थीं, तब 1967-68 में ही छोटी पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपने लगी थीं। 1970 में जब अशोक वाजपेयी की आलोचना की पहली और उल्लेखनीय किताब ‘फिलहाल’ आई , उसमें भी मंगलेश की कविता का जिक्र है, हालांकि कविता से विचारों की विदाई के संदर्भ में।
मंगलेश के जानने वालों को लगता था कि वह कोरोना से भी नहीं हारेंंगे। अभी एक दिसंबर को ही निजी अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए अर्धचेतनावस्था में उन्होंने फेसबुक पर कुछ लिखने-कहने की कोशिश की थी-,द्ग ड्ढ4 ह्यद्गद्ग श्च.। पता नहीं यह कुछ कहने का प्रयत्न जैसा था या कुछ कह न पाने मेंं असमर्थता का संकेत। इसके बाद आल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में भर्ती होने के बाद मृत्यु से चारेक दिन पहले तक मित्र रवींद्र त्रिपाठी से संक्षिप्त बात की थी। इससे लगता था कि एम्स के कुशल डाक्टर और वह स्वयं आत्मबल से कोरोना संकट से बाहर निकल आएँगे,बस समय लगेगा। मंगलेश की हालत से इतने लोग चिंतित थे और इतनों की शुभेच्छाएँ उनके साथ थीं और हर तरह से सहयोग करने की इच्छाएँ भी कि जिसकी कल्पना इस समय करना कठिन है।
वह हमारे समय के सबसे चर्चित और सबसे सक्रिय -सफल कवियों-लेखकों में थे। उनकी चौतरफा तैयारी और सक्रियता नौजवान कवियों-लेखकों के लिए भी प्रेरक शायद रही हो। फेसबुक पर उनकी सक्रियता भी गजब थी। शायद ही कोई दिन जाता हो, जब किसी न किसी रूप में वह अपनी उपस्थिति दर्ज न कराते रहे होंं। कई बार वह एक योद्धा की तरह कूद पड़ते थे, चाहे हमला उनके किसी कथन या कविता पर हो या कोई और व्यापक मुद्दा हो। मंगलेश की निगाहें साहित्य ही नहीं,हमारे समय के राजनीतिक विद्रूप पर भी खूब थी। वह इस समय जितना बेचैन, व्यथित और बदलाव की इच्छा से प्रेरित कवि थे, ऐसे हिंदी कवि इस समय कम मिलेंगे। इस हत्यारे समय की जैसी पहचान मंगलेश के अंतिम कविता संग्रह ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ में है, वैसी कम मिलेगी। हिटलर, तानाशाह, हत्यारों का घोषणापत्र, हत्यारा चाकू आदि आदि। उनकी अनेक कविताएँ हैं। बाकी कविताओं में भी यह उपस्थिति नजर आएगी।
मंगलेश उन हारे-थके हुए कवियों में नहीं थे, जिनका वक्त ने साथ छोड़ दिया मगर जो वक्त का हाथ जबर्दस्ती पकड़े हुए घिसट रहे हैं। वह अपार ऊर्जा से भरा हुए थे। अभी अक्टूबर के अंत में मुझे साथ लेकर मंगलेश ने बहुत बड़ी लेखक-कलाकार बिरादरी को बिहार चुनाव में धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के पक्ष में खड़ा किया था। यह कवि इस समय हिंदी कवियों में अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर था। हमारी पीढ़ी के वह ऐसे अकेले कवि थे, जिनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान भी इस बीच बनी थी। उनके कवि-मित्रों की बिरादरी भाषाओं और देशों के पार थी। जीवन में उनके कइयों के कई मतभेद रहे मगर कवि-लेखक के रूप में उनकी प्रतिभा से शायद ही कभी कोई इंकार कर पाया हो,जबकि किसी को भी सिरे से नकार देने का रिवाज हमारी भाषा में बहुत है।
शमशेर बहादुर सिंह के अलावा उनके एक और आदर्श कवि रघुवीर सहाय थे, जिनसे उनकी व्यक्तिगत निकटता बहुत रही। 9 दिसंबर को रघुवीरजी का जन्मदिन था लेकिन अब यह दिन मंगलेश के हमसे बिछुडऩे के दिन की तरह शायद अधिक याद किया जाए। इसी दिन हिंदी के एक और फक्कड़ और बड़े कवि त्रिलोचन शास्त्री भी नहीं रहे थे और अब मंगलेश भी नहीं हैं।
1981 में प्रकाशित पहले कविता संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ से पहले ही हिंदी कविता की दुनिया में मंगलेश को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था। उनके दूसरे कविता संग्रह का नाम था-‘घर का रास्ता’। वह रास्ता अपनी कविताओं में तो वह बार-बार तलाशते रहे मगर वास्तविक जीवन में उसे पाना इतना आसान कहाँ था! जब कोई अपना गाँव घर छोडक़र दिल्ली-बंबई जैसे महानगर में आने को मजबूर हो जाता है तो फिर घर का रास्ता पता होने पर भी घर लौटना कहाँ आसान रह जाता है! मंगलेश की एक कविता का अंश है-
मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया
यहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया।
वह शुरू से विश्वासों से वामपंथी रहे और इसमें कभी विचलन नहीं आया। 2015 में जब साहित्य अकादमी ने अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक एम ए कलबुर्गी की हत्या पर मौजूदा सत्ता के भय से अकादमी ने शोकसभा तक करने से इंकार कर दिया था तो भारतीय भाषाओं के जिन करीब पचास लेखकों ने अपना विरोध व्यक्त करने के लिए अकादमी पुरस्कार लौटाया था, उनमें मंगलेश डबराल अग्रणी थे, जिसे हुक्मरानों ने और उस समय के अकादमी अध्यक्ष ने इसे कुछ लेखकों का षडय़ंत्र तक बताया था और इन लेखकों को अवार्ड वापसी गैंग कहा था। यह पुरस्कार मंगलेश को आज से 19 वर्ष पहले मिला था। उम्र के अस्सीवें वर्ष के बाद मिलनेवाले कुछ पुरस्कारों को छोड़ दें तो मंगलेश को सभी महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले मगर पुरस्कारों से अधिक महत्वपूर्ण होता है कविता की दुनिया में कवि का अकुंठ सम्मान।
इतने सम्मानों से नवाजा गया यह कवि सत्ता के विरोध के हर मंच पर उपस्थित रहता था, भले कवि के रूप में किसी समारोह में बुलाए जाने और उसके निमंत्रण को स्वीकार करने के बाद भी वह किसी कारण जाना टाल जाए,जो वह कई बार करते थे। वह उन कवियों-व्यक्तित्वों में रहेंंगे, जिन्हें मृत्यु के बाद श्रद्धांजलि देकर फिर हमेशा के लिए भुला नहीं दिया जा सकता।
-चिन्मय मिश्र
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाए,
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।
कबीर
और
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,
सीस दिए से गुरु मिले, वो भी सस्ता जान।
कबीर
दुनिया बदलती है, यह तो दस्तूर है, लेकिन क्या उसके साथ शाश्वत मान्यताएं और शाश्वत मूल्य भी बदल जाते हैं ? आश्चर्य तब होता है जब कि इन सनातन मूल्यों को वे तोड़ते हैं, जो कि स्वयं को सनातन धर्म का प्रवक्ता और ठेकेदार मानते हैं। कबीर का जीवनकाल सन् 1398 ईस्वी से सन् 1518 (करीब 120 वर्षों का) तक माना जाता है। वे निरक्षर थे लेकिन गुरु का महत्व समझते थे। वह समझा गए थे कि अक्षरज्ञान ही सब कुछ नहीं है। वे बता गए थे कि गुरु और गोविंद में से पहले कौन वंदनीय है। उन्होंने यह बात भी कान में डाल दी थी कि सिर कटाने से भी बड़ी बात एक गुरु से साक्षात्कार है। परंतु उनकी मृत्यु के करीब 504 वर्षों बाद भारत में सभ्यता और संस्कृति की नई (बयार) लू चल पड़ी है। खबर आई है भारत के आदर्श राज्य और जहां से देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री आते हैं, उसी गुजरात से, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की अहमदाबाद इकाई के एक नेता ने विगत शुक्रवार को शहर के साइंस सिटी रोड स्थित ‘साल टेक्निकल इंस्टिट्यूट’ जिसे साल कालेज भी कहा जाता है, की महिला प्रिंसिपल को एक छात्रा के पैर छूने को मजबूर कर दिया।
इक्कीसवीं सदी की इस ‘महान’ प्ररेणादायी और अब तक चली आ रही सड़ी-गली परंपरा जिसमें कि छात्र गुरुजनों के पैर छूते थे, उनके चरणों की वंदना करते थे, जैसी परंपरा को बदल कर यह ऐतिहासिक कार्य किया गया। इस प्रगतिशील कदम के अन्तर्गत महाविद्यालय की प्राचार्या ने अपने विद्यार्थी के प्रति जो घृणित अपराध किया था, उसके पश्चाताप स्वरूप उनसे अपनी ही विद्यार्थी के पैर छुआए गए। प्राचार्य ने जो अपराध किया उसे भी जान लेना जरुरी है। उनका घनघोर अपराध यह था कि उन्होंने 75 प्रतिशत से कम उपस्थिति के चलते कालेज में डिप्लोमा इंजीनिरिंग कर रहे पहले, दूसरे और चौथे वर्ष के 12 विद्यार्थियों के अभिभावकों को महाविद्यालय बुलाया था। कुछ के अभिभावक आ भी गए थे
सोचिए वे यानी प्रिसिंपल जिनका नाम डा. मोनिका गोस्वामी है, कितना बड़ा अपराध कर रहीं थीं। ऐसे विद्यार्थी जिन्होंने महाविद्यालय न आकर महाविद्यालय और पूरे शिक्षा जगत पर अहसान किया था, के माता-पिता को कालेज में बुला लिया ! जाहिर है कुछ अति मेधावी और महान विद्यार्थी जो कि कक्षाओं में न आकर अहसान कर रहे थे, को यह नागवार गुजरा। एबीवीपी यानी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, जो कि गुजरात व भारत में सत्तासीन राजनीतिक दल का समर्थक संगठन है, के पदाधिकारियों को भी यह कृत्य नागवार गुजरा। उन्हें लगा होगा कि उनके समर्थकों के साथ ऐसा कैसे हो सकता है? बहरहाल ये निरीह और असहाय छात्र अपने परम आदरणीय नेता अक्षत जयसवाल के पास पहुंचे। जाहिर है अक्षत जी को प्रधानाचार्यं की इस कारगुजारी से गहरी चोट पहुंची होगी। उनका हृदय करुणा जो अपने साथियों के प्रति थी और गुस्सा जो प्राचार्या के प्रति था, एकसाथ उबल पड़ा। वे बेहद भावुक व क्रोधित एकसाथ हो उठे होंगे। उन्होंने करीब 100 विद्यार्थियों को साथ लिया और प्राचार्य डा. मोनिका गोस्वामी को दंड देने उनके दफ्तर में जा पहुंचे। गोस्वामी से याद आया कि महाकवि तुलसीदास को भी तो गोसांई या गोस्वामी तुलसीदास कहा जाता था। वे भी गुरु के लिए रामचरित मानस के बालकांड में लिखते हैं,
श्रीगुर पद नख मनि गन जोति, सुमिरत दिव्य दृष्टि हिंय होती।।
दलन मोह तमसो स प्रकासू, बड़े भाग उर आवई जासू।।
उपरोक्त चौपाईयों का अर्थ है, ‘‘श्री गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही ह्दय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाला है। वह जिसके ह्दय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।
अब आप ही सोचिए इस इक्कीसवीं सदी में क्या कबीर और क्या तुलसीदास! कबीर तो पूरे पैर की बात करते हैं लेकिन तुलसीदास तो सिर्फ पैरों के नाखून को ज्योति मणि बता रहे हैं। हम तो इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं। विज्ञान के युग में रह रहे हैं और इस बात पर विश्वास कर लेंगे कि गुरु के नाखून ज्योति मणि के समान हैं ? कतई नहीं। तो आधुनिक संत शिरोमणी श्री श्री अक्षत जी अपने 100 दिव्य शिष्यों के साथ अधम या उधम करने वाली प्राचार्या के कक्ष में पहुंचते हैं और उन्हें उनकी ही एक छात्रा के पैर छूने को मजबूर कर देते हैं। इस तरह से वह भारत में अनादि काल से चली आ रही एक रूढ़ परंपरा को ध्वस्त कर देते हैं। जाहिर है वे एक ऐतिहासिक कार्य कर रहे हैं। एक ऐसा कार्य जिसकी कल्पना भी नेहरू के शासनकाल में नहीं की जा सकती थी। आप ही सोचिए आजादी के 75 वर्षों में क्या कभी ऐसा हुआ? यह महान कार्य आजादी के अमृत वर्ष में और अमृत काल के चलते एबीवीपी द्वारा ही संभव हो पाया है। कांग्रेस को शर्म से डूब मरना चाहिए कि गांधी व नेहरू ने उन्हें शिक्षकों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह भी नहीं सिखाया था।
घटना का वीडियो जारी हो जाने के बाद, एबीवीपी की महानगर मंत्री प्रार्थना अमीन ने अक्षत जयसवाल को निलंबित कर दिया। देखिए, कितनी कठोर कार्यवाही की है? नहीं? सोचिए हम किस तरह का दोहरा आचरण अपने आसपास देख रहे हैं। कायदे से होना तो यह था कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व अन्य सभी छात्र संगठन इस घटना की भत्र्सना करते। महाविद्यालय की प्राचार्या से सार्वजनिक माफी मांगते और अक्षत जायसवाल के खिलाफ पुलिस थाने में रिपोर्ट करते। वैसे यह कोई बिरली घटना नहीं है जो शिक्षकों के खिलाफ हुई हो । अभी कुछ दिन पहले ही बड़ौदा स्थित एमएस विश्वविद्यालय में विवाद हुआ और उत्तरप्रदेश के लखनऊ में विवाद हुआ। असहमति की गुंजाइश हमेशा से रही है और होना भी चाहिए। परंतु किसी विद्यार्थी की कलाकृति या किसी प्राध्यापक की टिप्पणी पर विद्यार्थियों द्वारा इतनी कटुता भरी और कमोवेश अपमानजनक ढंग से दी गई प्रतिक्रियाएं वास्तव में आश्चर्यचकित करतीं हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से अपने शिक्षकों का मूल्यांकन छात्रों द्वारा किया जाना वास्तव में बेहद अरुचिपूर्ण व अभद्र है।
चूंकि नवीनतम मसला अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ा है, ऐसे में उनके मूल संगठन से अपेक्षा है कि वह गुजरात के अपने संगठन के सभी पदाधिकारियों व सदस्यों को नए दिशा-निर्देश जारी करें कि गुरुजनों से किस प्रकार से व्यवहार किया जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि मूल संगठन को इस तरह की अपमानजनक व अमानवीय घटना के मद्देनजर गुजरात के अपने संगठन में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहिए और खोज करना चाहिए कि इस तरह की खतरनाक विकृति कैसे पनप गई। यह घटना हमारे देश के शिक्षकों के लिए भी बड़ा सबक है। उन्हें सोचना समझना होगा कि वे किस तरह की भस्मासुरी पीढ़ी को विकसित कर रहे हैं। इस घटना की जिम्मेदारी से शिक्षक वर्ग भी बच नहीं सकता। अहमदाबाद में जिन छात्रों ने इस तरह की घृणित हरकत की है, वे उन्हीं के द्वारा पढ़ाए (?) गये हैं। महाविद्यालयों में उपस्थिति में छूट को तमाम छात्रों द्वारा अपना मौलिक व वैधानिक अधिकार मान लेना कोई एक दिन में नहीं हो गया है। पिछले कई वर्षों से यह परंपरा बनती जा रही है कि विद्यार्थी महाविद्यालय जाते ही नहीं और जाते भी हैं तो कक्षाओं में नहीं बैठते। वैसे उनका कहना कि बैठकर करेंगे भी क्या, शिक्षक तो हैं ही नहीं। तो ये छात्र कहां पढ़ रहे हैं, कैसे पढ़ रहे हैं, किससे पढ़ रहे हैं और कैसे हमेशा पहली श्रेणी यानी फस्र्ट क्लास में उत्तीर्ण हो जाते हैं ? अब यह बीमारी विद्यालयों में भी फैल गई है। नौंवी से तमाम छात्र कमोवेश विद्यालय जाना बंद कर देते है या ‘डमी स्कूलों’ में प्रवेश ले लेते हैं। वे सिर्फ कोचिंग क्लासेस में ही जाते हैं। अतएव छात्रों और शिक्षकों में शिक्षा संबंधी संबंध विकसित ही नहीं हो पाते। उनके संबंध उपभोक्ता और आपूर्तिकर्ता के रह जाते हैं।
छात्र और उनके अभिभावक शिक्षा शुल्क देने के बाद मान लेते हैं कि उनकी जिम्मेदारी खत्म हो गई है। शिक्षा अब एक उत्पाद है, और उन्होंने उनकी कीमत चुका दी है। चूंकि इस उत्पाद का प्रमाणीकरण डिग्री से होता है और उसका नकद भुगतान पहले कर ही चुके हैं। अहमदाबाद की घटना एकाध अखबार में पिछले पन्ने या अंदर के पन्ने पर छपी है। जबकि यह प्रथम पृष्ठ का सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य समाचार है जो समझा रहा है हम पतन के गर्त से भी नीचे कोई जगह होती होगी, तो उस रसातल पर पहुंच चुके हैं। एक शिक्षक को इस तरह अपमानित करना राष्ट्रीय रोष नहीं शोक का विषय है। इस पतन का अगला चरण तो यही हो सकता है कि यदि हम अपने माता-पिता के कार्य से संतुष्ट नहीं हैं या विरोध में हैं तो समझौते की स्थिति में आने के लिए उन्हें हमारे यानी बच्चों के पांव छूने पड़ेंगे।
यह घटना को अंजाम एक ऐसे संगठन के सदस्य ने दिया है जो भारतीय संस्कृति, सभ्यता और संस्कार की कसमें खाता है। पिछले कुछ समय से उन्होंने कसमें खिलवाना भी आरंभ कर दिया है। अहमदाबाद में प्राचार्या/शिक्षक को छात्रा के पांव छूने को मजबूर करना हमारे समाज में बढ़ती वीभत्सता का स्पष्ट संकेत है। शिक्षक या गुरु बनना महज नौकरी नहीं है। शिक्षकों को भी समझना होगा कि वे ज्ञान की परंपरा के संवाहक हैं। यदि वे इसे महज एक नौकरी की तरह लेंगे और अधिकांशत: ऐसा कर भी रहे हैं, तो फिर प्रतिष्ठा प्राप्त कर पाना भी संभव नहीं है। प्रथम सिख इतिहासकार भाई गुरदास गुरु अंगद को गुरु गद्दी मिलने पर कहते हैं, ऐसा माना जाता है कि गुरुगद्दी पर नामजद किए जाने पर प्रत्येक गुरु में गुरु की ज्योति प्रवेश कर जाती थी। अत: वे भी नानक ही कहलाए और उनमें से कुछ ने अपना उपनाम भी नानक रखा। याद रखिए (गुरु) ग्रंथ साहेब भक्ति काव्य के महानतम संकलनों में से एक है। इसकी शुरुआत या आरंभ में मूलमंत्र हैं,
एक ओंकार/सतनाम/करता पुरख/निरभौ/निरवैर/अकाल सूरत/अजूनी/सैभं/गुरु प्रसाद।।
अर्थात, ईश्वर एक है, वही सृष्टि का रचनाकार है। वह निर्भय है और किसी से बैर नहीं रखता। वह शाश्वत है, वह जन्म-मृत्यु से परे है। वह स्वयं-भू है, उसे गुरुकृपा से प्राप्त किया जा सकता है।
जबकि अहमदाबाद की घटना तो बता रही है कि अब गुरु ही शिष्य की कृपा पर निर्भर हैं। इस संक्रमण को जितनी जल्दी रोका जाएगा बेहतर रहेगा। अन्यथा कोरोना से तो दुनिया बच भी सकती है, लेकिन गुरु के अपमान के बाद...
दिलनवाज़ पाशा
उदयपुर में चला कांग्रेस पार्टी का तीन दिवसीय चिंतन शिविर रविवार को ख़त्म हो गया. इसे 'नव संकल्प शिविर' का नाम दिया गया और इस दौरान पार्टी को फिर से मज़बूत करने की रणनीति बनाई गई.
चिंतन शिविर का फ़ोकस पार्टी नेतृत्व में युवाओं को जगह देने और देश को फिर से पार्टी के साथ जोड़ने पर रहा.
आज़ादी के बाद से भारत में सबसे लंबे समय तक सत्ता संभालने वाली और देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस मौजूदा राजनीतिक हालात में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है.
पिछले दो लोकसभा चुनावों में बुरी तरह पराजित हुई और अब सिर्फ़ दो राज्यों की सत्ता तक सिमटी कांग्रेस पार्टी में अब ये समझ बन रही है कि ये 'करो या मरो' की स्थिति है.
इस नव संकल्प शिविर में पार्टी ने देशव्यापी पद-यात्रा निकालने, कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने, 'एक व्यक्ति, एक पद' नियम लागू करने, मंडल कांग्रेस समितियों का गठन करने और संगठन में रिक्त पदों को समय पर भरने का निर्णय लिया गया है. इसके अलावा पार्टी में युवाओं को 50 फ़ीसदी आरक्षण देना भी तय किया गया है.
2024 के लोगसभा चुनाव या आगामी राज्य चुनावों को लेकर पार्टी की कोई रणनीति इस चिंतन शिविर से निकलकर सामने नहीं आई है.
इस चिंतिन शिविर के बाद जहां पार्टी कार्यकर्ता ये कह रहे हैं कि उनमें जोश भरा है, वहीं विश्लेषकों का मानना है कि कोई ऐसा ठोस निर्णय नहीं लिया गया है जिससे पार्टी का कायापलट हो जाए या चुनावों में उसकी संभावना मज़बूत हो जाए.
कांग्रेस की राजनीति पर बारीक नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, "नव संकल्प शिविर से कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नरेंद्र मोदी सरकार से त्रस्त लोगों को कुछ उम्मीद थी. उन्हें लग रहा था कि नई ऊर्जा का संचार होगा. विपक्ष की सक्रिय भूमिका में कांग्रेस सामने आएगी. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को लेकर असमंजस की जो स्थिति है वो दूर होगी. इन बुनियादी मुद्दों पर कोई साफ़ बात नज़र नहीं आई है."
क्या जनता तक संदेश पहुंचा पाएगी कांग्रेस?
जानकार कहते हैं कि हाल के चुनावों में कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती ये रही है कि वो अपना संदेश आम जनता या अपने संभावित वोटरों तक पहुंचाने में कामयाब नहीं रही है. बीजेपी के मुक़ाबले पार्टी सोशल मीडिया पर कमज़ोर है और मीडिया की बहसों में भी पार्टी के मुद्दों को जगह नहीं दी जाती है.
हाल के सालों में बीजेपी ने मीडिया और सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने सियासी नैरेटिव को सेट करने और अपना संदेश लोगों तक पहुंचाने में कामयाबी से किया है. लेकिन कांग्रेस इस मोर्चे पर कमज़ोर नज़र आती रही है. पार्टी ने अब तय किया है कि देशव्यापी पदयात्रा निकालकर लोगों को जागरूक किया जाएगा.
क्या पदयात्रा से पार्टी ज़मीनी स्तर पर मज़बूत हो सकेगी इस सवाल पर रशीद किदवई कहते हैं, "यात्रा निकालना एक पुराना मॉडल है. महात्मा गांधी से लेकर चंद्रशेखर तक कई नेताओं ने ये किया और इससे उन्हें फ़ायदा भी हुआ. लेकिन आज सोशल मीडिया के ज़माने में राजनीतिक फ़िज़ा बदल चुकी है. आज धर्म और आस्था का राजनीति में मिश्रण किया जा रहा है. पुराने गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं. इस तरह के मुद्दों से सत्ता मिल रही है.
सवाल ये है कि क्या भारत में बहुसंख्यकवाद रहेगा? बहुसंख्यकों की जो धारणाएं हैं, या जो धारणाएं बनाई जा रही हैं उन पर ही राजनीति चलेगी. या जो कहा जा रहा है सबका साथ-सबका विकास, उसका अनुसरण भी होगा. इन तमाम चीज़ों पर यात्राएं निकालने से कोई बहुत ज्यादा लाभ नहीं होने वाला है."
इसी सवाल पर कांग्रेस के अल्पसंख्यक विभाग के राष्ट्रीय अध्यक्ष इमरान प्रतापगढ़ी कहते हैं, "पार्टी सिर्फ़ पदयात्रा की बात नहीं कर रही है, पार्टी ने और भी बहुत से संकल्प लिए हैं. पदयात्रा उन संकल्पों का एक हिस्सा है. पदयात्रा का मतलब ये नहीं है कि राहुल कश्मीर से चलकर कन्याकुमारी तक पैदल जाएंगे. पदयात्रा मतलब ग़रीब जनता तक, आम जनता तक पहुंचना है.
हमें ये लगता है कि तकनीक के दौर में भी, भागदौड़ के दौर में भी पदयात्रा को पुरातन कहकर नकारा नहीं जा सकता है. जब गांधी जी ने पदयात्राएं कीं तब तो संसाधन और भी कम थे. गांधीजी ने पदयात्राएं कीं और देश को जोड़ा, हम भी यही करने जा रहे हैं."
लेकिन क्या मीडिया और सोशल मीडिया के इस दौर में पदयात्रा जैसा संकल्प प्रभावी हो पाएगा, इस पर इमरान प्रतापगढ़ी कहते हैं, "जहां तक नई तकनीक और मीडिया का सवाल है, भाजपा इसी का इस्तेमाल देश को तोड़ने में, लोगों को बांटने में कर रही है. हम तकनीक और पदयात्रा का इस्तेमाल लोगों को जोड़ने के लिए, एक-दूसरे के क़रीब लाने के लिए करने जा रहे हैं. कांग्रेस पार्टी जनता के बीच में जाने के लिए हर माध्यम का इस्तेमाल करेगी और पदयात्रा भी एक माध्यम होगी."
ये सवाल भी उठता रहा है कि कांग्रेस पार्टी के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं और पार्टी का संगठन भी कमज़ोर है. इस सवाल पर इमरान प्रतापगढ़ी कहते हैं, "कांग्रेस के पास संसाधन मौजूद हैं. देश के कोने-कोने में आज भी कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं. देश के हर हिस्से में पार्टी के कार्यकर्ता मौजूद हैं. हां ये सच बात है कि पिछले कुछ चुनावों में, देश के कुछ हिस्सों में पार्टी कमज़ोर हुई है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि हमारे कार्यकर्ता ख़त्म हो गए हैं या उनका हौसला समाप्त हो गया है. हमारे पास संसाधन मौजूद हैं."
कांग्रेस के चिंतन शिविर में 'भारत जोड़ो' का नारा भी दिया गया. कांग्रेस सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी पर देश में विभाजन की राजनीति करने और धार्मिक और जातीय समूहों के बीच भेदभाव करने का आरोप लगाती रही है.
इमरान प्रतापगढ़ी कहते हैं, "पार्टी ने देश में यात्रा करने और भारत को जोड़ने की बात की है क्योंकि भाजपा लगातार देश को तोड़ने की कोशिश कर रही है, धर्मों को बांट रही है, जातियों को अलग-अलग कर रही है. ऐसे में राहुल गांधी ने जो बात रखी है और पार्टी की तरफ़ से जो संकल्प लिया गया है उसमें साफ़ कहा गया है कि हम भारत को जोड़ेंगे और पार्टी फिर से उठ खड़ी होगी."
चिंतन शिविर में क्या-क्या हुआ?
इस चिंतन शिविर में पार्टी के 430 नेताओं ने हिस्सा लिया. तीन दिन के शिविर में पार्टी नेताओं को समूहों में बांटा गया था और उन्होंने 'पार्टी को कैसे मज़बूत करें, क्या नया किया जाए' ऐसे विषयों पर चर्चा की.
इमरान कहते हैं, "चिंतन शिविर में मैं जिस ग्रुप का हिस्सा था उसमें बीजेपी से आए हुए लोग भी थे. यशपाल आर्य पांच साल बीजेपी में रहकर फिर से कांग्रेस में आए हैं. वो चिंतन शिविर में तीन दिन हमारे ग्रुप का हिस्सा थे. वो स्वयं कह रहे थे कि 'भाजपा और आरएसएस हमें दलितों के मुद्दों पर बोलने का मौका ही नहीं देती'. लेकिन कांग्रेस में हम खुलकर बात रख सकते हैं. मैंने ये बताया कि किस तरह मुसलमानों और ईसाइयों पर हमले हो रहे हैं और पार्टी को इस दिशा में क्या किया जाना चाहिए."
"हमने चिंतन शिविर में एक दिन ये बात रखी और अगले ही दिन सामाजिक न्याय सलाहकार परिषद का गठन किया गया जो सामाजिक न्याय के मुद्दों पर पार्टी को सलाह देगी. इन तीन दिनों के चिंतन शिविर में हमने सभ्यता सीखी, हमने सीखा कि देश को बचाने के लिए कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है."
आगामी गठबंधन का कोई संदेश नहीं
कांग्रेस के चिंतन शिविर पर नज़र रख रहे विश्लेषकों का मानना है कि इससे भविष्य में कांग्रेस के संभावित गठबंधनों को लेकर किसी रणनीति का कोई संकेत नहीं मिला है.
रशीद किदवई कहते हैं कि पार्टी को सत्ता के क़रीब आने के लिए प्रभावशाली गठबंधनों की ज़रूरत है, लेकिन ऐसा लगता है चिंतिन शिविर में इस पर कोई चर्चा नहीं हुई.
किदवई कहते हैं, "बात दो टूक और साफ़ है कि चुनावों में, ख़ासकर 2024 आम चुनाव में कांग्रेस और विपक्ष (जो बिखरा हुआ है) क्या लामंबद हो पाएंगे. क्या वो नरेंद्र मोदी और भाजपा को कम से कम तीन सौ-साढ़े तीन सौ सीटों पर चुनौती दे पाएंगे? उसके लिए कांग्रेस को करना ये होगा कि 2014 में जो 44 सीटें आई थीं या 2019 में जो 52 सीटें आई थीं उसे बढ़ाकर कम से कम सौ सीटें करना होगा. वहीं क्षेत्रीय पार्टियों को डेढ़ सौ सीटों पर अपने आप को प्रभावशाली बनाना होगा और इन सीटों को जीतना होगा. ये अगर हुआ तब ही नरेंद्र मोदी या भाजपा को चुनौती दी जा सकेगी."
किदवई कहते हैं, "लेकिन अगर इस संदर्भ में देखें तो नव संकल्प शिविर या चिंतन शिविर से कोई उम्मीद पैदा होती नहीं दिख रही है. ना ही कांग्रेस ने ये स्पष्ट किया है कि वो विपक्ष के गठबंधन का नेतृत्व करेगी और ना ही ये बताया है कि वो विपक्षी दलों से बातचीत करके एक नया फ़्रंट बनाने का प्रयास करेगी और नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिश करेगी."
रशीद किदवई मानते हैं कि इस नव संकल्प शिविर से कोई नया विचार नहीं निकला है. वो कहते हैं, "कांग्रेस की सोच अभी भी 80 या 90 के दशक से आगे नहीं बढ़ी है. उसे ये लगता है कि हमारे बाप-दादा ने घी खाया है, हमारी हथेली सूंघ लो. लेकिन आज राजनीति बहुत बदल चुकी है."
विश्लेषक ये मान रहे हैं कि कांग्रेस अभी भी वर्तमान की राजनीतिक परिस्थितियों और उनमें अपनी जगह को नहीं समझ पा रही है.
किदवई कहते हैं, "आज कांग्रेस को तृणमूल या आम आदमी पार्टी जैसे गैर-भाजपा राजनीतिक दल चुनौती दे रहे हैं. अब कांग्रेस के पास अपनी सिर्फ़ दो राज्य सरकारें हैं, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में. उसी तरह आम आदमी पार्टी की भी दो सरकारें आ चुकी हैं दिल्ली और पंजाब में. कांग्रेस को अपने यथार्थ के धरातल पर अपनी ताक़त और कमज़ोरियों को आंकना होगा और उसी के हिसाब से अपनी योजना बनानी होगी."
नेतृत्व को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं
कांग्रेस नेता राहुल गांधी पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ चुके हैं और अंतरिम ज़िम्मेदारी उनकी मां सोनिया गांधी निभा रही हैं.
चिंतन शिविर में ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हैं. नेतृत्व को लेकर असमंजस पार्टी कार्यकर्ताओं को असहज कर सकती है.
किदवई कहते हैं, "कांग्रेस में काफ़ी समय से अंतरिम अध्यक्ष हैं. सोनिया गांधी ये ज़िम्मेदारी निभा रही हैं. राहुल गांधी 'कभी हां कभी ना' की भूमिका में हैं. चिंतन शिविर में उन्होंने कहा है कि पार्टी जो ज़िम्मेदारी देगी, मैं उसे निभाऊंगा लेकिन उन्होंने ये नहीं कहा कि सितंबर में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के जो चुनाव हो रहे हैं उसमें वो लड़ेंगे. उन्होंने किसी भी क़िस्म की दावेदारी पेश नहीं की है.
अगर कांग्रेस में इस तरह की संस्कृति रहेगी तो उससे जनता मायूस ही होगी क्योंकि जनता और कांग्रेस के समर्थक ये चाहते हैं कि वो ज़िम्मेदारी संभाले और क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर सभी लोकसभा सीटों पर भाजपा को घेरे, इस दिशा में कोई प्रयास नज़र नहीं आता है."
वहीं इमरान प्रतापगढ़ी का कहना है कि चिंतन शिविर में पार्टी ने ठोस निर्णय और संकल्प लिए हैं और अगर उन्हें लागू किया गया तो पार्टी फिर से उठ खड़ी होगी.
प्रतापगढ़ी कहते हैं, "हमने जो नव संकल्प लिए हैं यदि हम उन्हें अमली जामा पहना पाए और मुझे भरोसा है कि हम ऐसा कर पाएंगे, तो फिर हमें यक़ीन है कि पार्टी फिर उठ खड़ी होगी." (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभी महिना भर पहले तक सरकार दावे कर रही थी कि इस बार देश में गेहूं का उत्पादन गज़ब का होगा। उम्मीद थी कि वह 11 करोड़ टन से ज्यादा ही होगा और भारत इस साल सबसे ज्यादा गेहूं निर्यात करेगा और जमकर पैसे कमाएगा। इसकी संभावना इसलिए भी बढ़ गई थी कि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण दुनिया में गेहूं की कमी पडऩे लगी है लेकिन ऐसा क्या हुआ कि सरकार ने रातों-रात फैसला कर लिया कि भारत अब गेहूं निर्यात नहीं करेगा?
इसका पहला कारण तो यह है कि गेहूं का उत्पादन अचानक घट गया है। इसका मुख्य कारण मार्च, अप्रैल और मई में पडऩे वाली भयंकर गर्मी है। सरकार ने पिछले साल अपने गोदामों में सवा चार करोड़ टन गेहूं खरीदकर भर लिया था लेकिन इस बार वह सिर्फ दो करोड़ टन गेहूं ही खरीद पाई है। पिछले 15 साल में इतना कम सरकारी भंडारण पहली बार हुआ है। सरकार को उम्मीद थी कि इस बार 11 करोड़ टन से भी ज्यादा गेहूं पैदा होगा और वह लगभग एक-डेढ़ करोड़ टन निर्यात करेगी।
सरकारी अनुमान है कि इस साल गेहूं का उत्पादन 10 करोड़ टन से भी कम होगा। लगभग 4-5 करोड़ टन के निर्यात के समझौते हो चुके हैं और लगभग डेढ़ करोड़ टन निर्यात भी हो चुका है। हजारों टन गेहूं हम अफगानिस्तान और श्रीलंका भी भेज चुके हैं। अब इस निर्यात पर जो प्रतिबंध लगाया गया है, उसके पीछे तर्क यही है कि एक तो लगभग 80 करोड़ लोगों को निशुल्क अनाज बांटना है और दूसरा यह कि अनाज के दाम अचानक बहुत बढ़ गए हैं।
20-22 रू. किलो का गेहूं आजकल बाजार में 30 रु. किलो तक बिक रहा है। यह ठीक है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस समय गेहूं के दामों में काफी उछाल आ गया है और भारत उससे काफी पैसा कमा सकता है लेकिन सरकार का यह डर बहुत स्वाभाविक है कि यदि निर्यात बढ़ गया तो गेहूं इतना कम न पड़ जाए कि भारत में संकट खड़ा हो जाए। सरकार का यह सोच तो व्यावहारिक है लेकिन यदि गेहूं का निर्यात रूक गया तो हमारे किसानों की आमदनी काफी घट जाएगी। उन्हें मजबूर होकर अपने गेहूं को सस्ते से सस्ते दाम पर बेचना होगा।
इस समय सबसे बड़ी चांदी उन व्यापारियों की है, जिन्होंने ज्यादा कीमतों पर गेहूं खरीदकर अपने गोदामों में दबा लिया है लेकिन गेहूं का निर्यात रूक जाने से उसके दाम गिरेंगे और इससे किसानों से भी ज्यादा व्यापारी घाटे में उतर जाएंगे। सरकार चाहती तो निर्यात किए जानेवाले गेहूं के दाम बढ़ा सकती थी। उससे निर्यात की मात्रा घटती लेकिन सरकार की आमदनी बढ़ जाती। वह किसानों से भी थोड़ी ज्यादा कीमत पर गेहूं खरीदती तो उसका भंडारण दुगुना हो सकता था। गेहूं के निर्यात पर रोक लगाने के पीछे श्रीलंका से टपक रहा सबक भी है। इस समय देश में खाद्य-पदार्थों की मंहगाई से लोगों का पारा चढऩा स्वाभाविक हो गया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
यादों का पन्ना
-आर.के. जैन
आजादी से पहले ही तीन रियासतों के अलावा सभी देशी रियासतों के राजाओं ने भारतीय गणराज्य में विलय के पत्रों पर हस्ताक्षर कर दिये थे। छोटी बड़ी सब मिलाकर 625 रियासतें थीं। कुछ राजाओं के पास अपनी सेना और अपने कानून थे पर सभी रियासतें अंग्रेजों के अधीन थी। ये रियासतें जनता से लगान/टैक्स वसूलती और एक निश्चित रक़म अंग्रेजी खजाने में जमा करती थी और शेष रकम से अपना गुजारा करते थे।
भारत में विलय की शर्तों में इन राजाओं को रियासत के आकार के हिसाब से प्रिवी पर्स देने का प्रावधान था। प्रिवी पर्स के अलावा उनके महलों और साज संपत्ति पर भी उनका ही अधिकार था। देश की 662 रियासतों को प्रिवी पर्स के रूप में एक निश्चित राशि मिलती थी। छह रियासतों को तो 26.00 लाख से 15.00 लाख रुपये सालाना मिलते थे। दस लाख रुपये से ज़्यादा रक़म पाने वाली रियासतों की संख्या कुल पंद्रह थी जबकि लगभग 102 रियासतों को लगभग 1.00 लाख रुपये ही मिलते थे। कुछ रियासतों को तो 5000/- रुपये से भी कम मिलते थे। मैसूर, हैदराबाद, त्रावणकोर, जयपुर, पटियाला और बड़ौदा रियासतों को सबसे ज़्यादा रक़म मिलती थी। प्रिवी पर्स राजाओं और उनके उत्तराधिकारियों को आजीवन मिलना तय हुआ था जिसमें 1947 को आधार वर्ष मान कर हर साल बढ़ोतरी होती थी। उस समय सोने के भाव लगभग पचास रुपये प्रति तोला था जबकि इस समय सोना पचास हजार रुपये प्रति दस ग्राम है।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजाओं को दिये जाने वाले प्रिवी पर्स पर वर्ष 1969 में एक अध्यादेश के जरिये रोक लगा दी थी जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिया गया था। संसद में उस समय कांग्रेस के पास पूर्ण बहुमत नहीं था तो इंदिरा जी ने समय पूर्व 1971 में लोकसभा के चुनाव कराकर दो तिहाई से ज़्यादा बहुमत लेकर 26 वाँ संविधान संशोधन पारित कर प्रिवी पर्स को स्थायी रूप से बंद कर दिया था। दरअसल उस समय के राजे महाराजों ने भारतीय गणतंत्र में विलय तो मजबूरीवश कर दिया था पर उनका जनता के प्रति रवैया नहीं बदला था। आम जनता के प्रति सामंती व्यवहार और उन्हें हीन भावना से देखना उनकी आदत में शुमार था। प्रिवी पर्स बंद होने के साथ साथ उन्हें जो भी विशेषाधिकार थे सब बंद हो गये थे और वह भी आम नागरिक बन गये थे।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स का बंद किया जाना ये दोनों इंदिरा जी के सबसे बड़े क्रान्तिकारी कदम आज भी माने जाते है जिन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जान डाली थी और देश को सच्चे अर्थों में गणतंत्र बनाया था जिसने सब नागरिकों को बराबरी का अधिकार दिया था।
-ध्रुव गुप्त
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देश की सभी जागरूक और स्त्रीवादी महिलाओं से एक सवाल- क्या आपको ऐसे विज्ञापन देखकर गुस्सा नहीं आता? आता है तो महिला आयोग तक अपनी शिकायत पहुंचाएं। न्यायालय के दरवाजें खटखटाएं। यह भी नहीं तो कम से कम यहां सोशल मीडिया पर ऐसे विज्ञापनों के विरुद्ध जनचेतना जगाने के लिए एक आंदोलन तो खड़ा किया ही जा सकता है!