राष्ट्रीय
सब जानते हैं कि नेपाल के पहाड़ों से आने वाली नदियां बिहार में तबाही मचाती हैं. तो क्या भारत और नेपाल, दोनों ही इसके समाधान के प्रति उदासीन हैं? शायद, हां.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट
तभी तो नेपाल के बराह क्षेत्र में बांध निर्माण के लिए सर्वे का काम आज भी दोनों ही देशों की सरकारों के उदासीन रवैये के कारण अटका पड़ा है. नेपाल के साथ साथ भारत की केन्द्र सरकार भी इसके निर्माण में दिलचस्पी नहीं दिखा रही. एक तरफ बाढ़ की परियोजनाएं अधूरी पड़ी हुईं हैं तो नदियों को जोड़ने की योजनाएं भी धरातल पर नहीं उतर सकीं हैं. कइयों को तो अभी केंद्र सरकार की मंजूरी का इंतजार है. आजादी के बाद से ही हर साल बिहार बाढ़ की विभीषिका से जूझता रहा है. इस बार भी एनडीआरएफ की सात और एसडीआरएफ की नौ टीमें 11 लाख लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा चुकी है. करीब 15 लाख की आबादी बाढ़ से प्रभावित है.
बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित राज्य है. देश की कुल बाढ़ प्रभावित आबादी में 22.1 प्रतिशत हिस्सा बिहार का ही है. बिहार के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 73.06 फीसदी इलाका बाढ़ की मार झेलने को विवश है. बिहार में देश के अन्य बाढ़ प्रभावित राज्यों की तुलना में नुकसान ज्यादा होता है. राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का 16.5 प्रतिशत बिहार में है लेकिन इससे नुकसान 22.8 प्रतिशत का है. वहीं यूपी में 25 फीसदी बाढ़ प्रभावित इलाके हैं लेकिन नुकसान सिर्फ 14.4 प्रतिशत का है. बिहार सरकार 1979 से बाढ़ के आंकड़े प्रकाशित करती आई है और तबसे अब तक बाढ़ से लगभग 10 हजार लोगों की मौत हो चुकी है. पिछले पांच साल से हर साल औसतन राज्य के 19 जिलों में बाढ़ आती है और इस दौरान करीब 130 करोड़ की निजी संपत्ति का नुकसान हुआ है.
उत्तर बिहार में मुख्य तौर से गंगा, कोसी, महानंदा, बागमती, गंडक, बूढ़ी गंडक, कमला, अधवारा समूह और कनकई नदियां कहर ढाती हैं, वहीं दक्षिण बिहार में सोन, पुनपुन और फल्गु नदियों से बाढ़ आती है. बिहार में जो नदियां बहती हैं, उसका उद्गम स्थल ज्यादातर नेपाल में ही है. नेपाल से नदियां बहती हुई बिहार में आती है. नेपाल में जब बारिश अधिक होती है तो नदियों का जलस्तर बढ़ने लगता है और फिर बिहार में भी नदियां रौद्र रूप दिखाना शुरु कर देती है. करीब 50 छोटी बड़ी नदियां नेपाल से आए पानी से बाढ़ लाती हैं.
पानी के बदलते रंग से मिलती है बाढ़ की आहट
नेपाल से सटे बिहार के सात जिलों में इसका ज्यादा प्रभाव देखने को मिलता है. कोसी नदी को तो बिहार का शोक ही कहा जाता है. कोसी नदी भारत और नेपाल के बड़े इलाके में फैली हुई है. इसका जलग्रहण क्षेत्र 95,656 वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ है. 2008 में कोसी नदी के कारण ही कुसहा के पास बांध टूटा था जिससे बहुत बड़ी आबादी प्रभावित हुई थी और करोड़ों का नुकसान हुआ था. जिसके निशान अब तक सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और अररिया जैसे जिलों में देखने को मिल रहे हैं.
कोसी इलाके में लोग नदी में पानी के बदलते रंग को देख कर बाढ़ का अनुमान लगा लेते हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि जब नदी के पानी का रंग लाल होने लगता है तब लोग यह समझ लेते हैं कि नदी में हिमालय से पानी आने लगा है और लोग बाढ़ से बचाव की तैयारी शुरु कर देते हैं. अकसर मई के आखिरी हफ्ते और जून के पहले हफ्ते के बीच पानी का रंग लाल होने लगता है. जल विशेषज्ञ भगवानजी पाठक के मुताबिक, "कोसी रंग से ही पहचानी जाती है कि उसका रूप कैसा होगा. प्रारंभिक दौर में ललपनिया, रौद्र रूप में मटमैला जो उसके गुस्सा को दर्शाता है और सौम्य रूप में शांत, निर्मल और स्वच्छ दिखती है कोसी."
नदी जोड़ परियोजनाओं की हकीकत
बिहार समेत देश में नदियों को जोड़ने की परियोजना का शोर बहुत रहा है लेकिन जमीनी सच्चाई इससे कोसों दूर है. धरातल पर काम होता दिख नहीं रहा है. नदी जोड़ परियोजना का मुख्य मकसद था कि जिस नदी में पानी ज्यादा है उसे वैसी नदी से जोड़ना जिसमें पानी कम हो. इससे दो फायदे थे, पहला बाढ़ से बचाव होता और दूसरा सिंचाई की सुविधा भी मिलती. बिहार सरकार ने पहले बाढ़ के लिए जिम्मेदार दो मुख्य नदियों, बागमती और बूढ़ी गंडक को जोड़ने की योजना बनाई थी लेकिन इस पर केंद्र की मंजूरी नहीं मिली. केंद्र सरकार ने इसे व्यावहारिक नहीं माना.
बिहार में ऐसी आठ नदी परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. कोसी मेची परियोजना को केंद्र सरकार की अनुमति मिल गयी है. बिहार सरकार की कोशिश है कि केंद्र इसे राष्ट्रीय योजना घोषित कर दे ताकि 4,900 करोड़ रुपये की इस परियोजना का 90 प्रतिशत खर्च केंद्र उठाए. इस योजना के तहत 76.20 किलोमीटर लंबी नहर बना कर कोसी के अतिरिक्त पानी को महानंदा बेसिन में ले जाया जाएगा. बिहार सरकार के अवकाश प्राप्त मुख्य अभियंता इंदुभूषण कुमार का कहना है कि "कोसी-मेची नदी जोड़ योजना बाढ़ की समस्या को कुछ हद तक कम करेगी. नदियों का अधिक पानी जब दूसरी कम पानी वाली नदी में जाएगा तो बाढ़ का कहर कम होगा." वहीं बिहार के जल संसाधन मंत्री संजय झा के अनुसार, "बिहार सरकार जल्द अपने दम पर छोटी नदियों को जोड़ने का काम शुरु करेगी." बिहार के प्रसिद्ध भूगर्भ शास्त्री प्रो आरबी सिंह भी कहते हैं, "इससे बरसाती नदियों का कहर कम हो सकता है जो कम समय में ज्यादा तबाही मचा कर निकल जाती है. वैसी नदियों को जोड़ने पर बाढ़ से काफी राहत मिल सकती है."
कई परियोजनाएं पड़ी हैं अधूरी
सरकार ने बाढ़ से बचाव और सिंचाई की व्यवस्था को देखते हुई कई नदी परियोजना की शुरुआत की लेकिन इसका भी फायदा मिलता दिख नहीं रहा है. जमीन की कमी, स्थानीय लोगों का विरोध, लालफीताशाही और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण योजनाएं मूर्त रुप नहीं ले पायी हैं. चाहे गंडक या महानंदा नदी परियोजना हो या फिर बागमती या कोसी नहर परियोजना हो, सभी अपने लक्ष्य से कोसों दूर है.
महानंदा नदी परियोजना से पूर्णिया, कटिहार,अररिया, किशनगंज की करीब पचास लाख की आबादी को बाढ़ से राहत मिलती, लेकिन यह योजना पूरी नहीं हो पायी है. बागमती परियोजना से सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, शिवहर जिले में बाढ़ से राहत मिलती. किंतु अधूरी परियोजना के कारण बाढ़ का पानी नए इलाके में फैल रहा है. मुजफ्फरपुर के औराई, कटरा और गायघाट ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं. सीतामढ़ी के पुपरी में पिछले दो साल से बांध टूट रहा है. स्थायी तौर पर मरम्मत नहीं होने से बाढ़ का खतरा बढ़ता ही जा रहा है. पूर्वी चंपारण में बूढ़ी गंडक को सिकरहना नदी के नाम से जाना जाता है. वहां पर 93 किलोमीटर लंबा बांध बनना है लेकिन काम शुरु नहीं हो पाया है. गंडक नहर परियोजना के तहत 1,200 किलोमीटर लंबा बांध बनना है, लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के कारण योजना अधर में लटक गयी है. कोसी नहर योजना के तहत पश्चिमी कोसी नहर प्रणाली जमीन के अभाव में हाल तक अटकी पड़ी थी.
कब पूरी होगी कोसी हाई डैम परियोजना
बिहार के जलसंसाधन मंत्री संजय झा का साफ मानना है, "जब तक नेपाल में कोसी नदी पर हाई डैम नहीं बनाया जाता तब तक बिहार में बाढ़ की समस्या से निजात नहीं मिल सकेगी." नेपाल और भारत के बीच कई दौर की बातचीत के बावजूद कोसी हाई डैम परियोजना की शुरुआत तक नहीं हो पायी है. नेपाल में कोसी नदी पर बांध बनाने से कोसी के प्रवाह को नियंत्रित करने में सहायता मिलेगी क्योंकि कोसी का उद्गम स्थल नेपाल में ही है. इस परियोजना के पूरा होने से दक्षिण पूर्व नेपाल और उत्तर बिहार को बाढ़ से राहत मिलती वहीं जल विद्युत का भी उत्पादन होता. साथ ही दोनों देशों को सिंचाई और नौ-परिवहन की भी सुविधा मिलती. लेकिन नेपाल में स्थानीय लोगों के विरोध के कारण आज तक सर्वे तक का काम नहीं हो पाया है.
बिहार सरकार के प्रयास से 2004 में नेपाल के काठमांडू, लहान व विराट नगर में सर्वे के लिए कार्यालय खोले गए, किंतु स्थानीय लोगों के भारी विरोध के कारण काम नहीं हो सका. नेपाल के लोगों का मानना है कि कोसी पर हाई डैम बनने से पर्यावरण पर बुरा असर पड़ेगा और बहुत बड़ा भू-भाग डूब जाएगा. भारत और नेपाल के बीच हाईडैम को लेकर पिछले बीस साल में कई बार बातचीत हो चुकी है लेकिन नतीजा अब तक शून्य ही है. नेपाल सरकार हर बार आश्वासन देती है कि काम जल्द शुरु हो जाएगा लेकिन आश्वासन हकीकत में परिणत होता नहीं दिख रहा है.
जल्द उफान मारने लगीं हैं नदियां
नदियों में जमा होता गाद भी बिहार में बाढ़ का एक अन्य कारण है. नदियों की तलहटी की सफाई नहीं होने के कारण गाद जमा होता जाता है. गंगा के साथ ही कोसी और गंडक नदी में गाद की समस्या बढ़ती जा रही है. सरकार का ध्यान सिर्फ गंगा में गाद की समस्या पर ही है. फिर भी गंगा में गाद की समस्या का निराकरण नहीं हो रहा है. विशेषज्ञों के मुताबिक गंगा में गाद होने का बड़ा कारण फरक्का बराज है. अन्य नदियों से भी गाद गंगा में बाढ़ के पानी से आता है लेकिन वह बंगाल की खाड़ी में नहीं जा पाता है. क्योंकि फरक्का में बांध बन जाने के कारण गाद बांध पर रुक जाता है.
केन्द्रीय जल आयोग के अनुसार फरक्का में गंगा में गाद जमा होने की दर 218 मिलियन टन प्रति वर्ष है. गाद के कारण नदी की गहराई कम हो जाती है नतीजतन बारिश के कारण जलस्तर बढ़ने से नदी का पानी आसपास फैलने लगता है और वह बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बन जाता है. गाद के कारण नदी की अविरलता प्रभावित होती है. बिहार के मुख्यमत्री नीतीश कुमार कई बार गंगा की अविरलता बनाए रखने की मांग उठाते रहे हैं. बाढ़ विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र भी मानते हैं कि "बिहार में बाढ़ की समस्या की मूल वजह पानी की निकासी न होना और उसके साथ आने वाला गाद है."
विशेषज्ञों के अनुसार बिहार की भौगोलिक स्थिति ही ऐसी है कि यहां बाढ़ को टाला नहीं जा सकता है लेकिन सही प्रयास किया जाए तो उसके दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है. तभी तो बाढ़ विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं "बिहार में बाढ़ के आने को रोका जाना संभव नहीं है, लेकिन बेहतर प्रबंधन से आम जनजीवन को होने वाले नुकसान को अवश्य ही कम किया जा सकता है." इसलिए जरूरी है कि भारत और नेपाल सरकार के बीच बिना समय गवाएं सकारात्मक बातचीत हो, ताकि नेपाल के बराह क्षेत्र में बहुद्देशीय बांध निर्माण की बहुप्रतीक्षित योजना मूर्त रूप ले सके. (dw.com)
विशेषज्ञ कहते हैं कि भारतीय सेना का ढांचा पिछड़ा हुआ है और वह भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार नहीं है. उसे बड़े पैमाने पर सुधारों की जरूरत है.
डॉयचे वैले पर धारवी वैद की रिपोर्ट
पिछले हफ्ते भारतीय सेनाओं के उच्च अधिकारियों की एक बैठक हुई. इस बैठक का एजेंडा था ऐसे बड़े बदलाव जिनके जरिए थल, जल और वायु सेना की क्षमताओं को मिलाकर बेहतर प्रयोग किया जा सके.
भारत सरकार की योजना है कि 17 अलग-अलग यूनिट पांच ‘थिएटर कमांड' के तहत लाई जाएं ताकि भविष्य में किसी भी तरह के विवादों से निपटने के लिए एक साझी रणनीति तैयार हो. हालांकि ऐसी खबरें हैं कि नई कमांड के स्वरूप और रूप-रेखाओं को लेकर विभिन्न सेनाओं के अधिकारी एकमत नहीं हैं.
पिछले महीने भी ऐसी खबरें आई थीं कि भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत और वायु सेना अध्यक्ष राकेश कुमार सिंह भदौरिया के बीच प्रस्तावित सुधारों को लेकर तनातनी हो गई थी. मीडिया में आ रही खबरें कहती हैं कि वायु सेना इन सुधारों से सहमत नहीं है.
‘थिएटर कमांड' बनाने का काम जनरल रावत को सौंपा गया है. 2 जुलाई को उन्होंने कहा था कि भारतीय वायु सेना सेनाओं की ‘सहायक शाखा' है.
जरूरी हैं सुधार
भारतीय सेनाओं के ढांचे में आमूल-चूल सुधारों की जरूरत बहुत लंबे समय से महसूस की जा रही है. पाकिस्तान और चीन से मौजूद खतरे के चलते अब इन सुधारों का महत्व और बढ़ गया है. स्टैन्फर्ड यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया पर शोध करने वाले अरजान तारापोर कहते हैं, "ये सुधार लंबे समय से बाकी है. भारतीय सेना पुराने ढांचे और पुरानी सोच पर ही चल रही है. अगर कोई नया विवाद होता है तो यह ढांचा काम प्रभावशाली नहीं होगा.”
अमित कौशिश रक्षा मंत्रालय में वित्तीय सलाहकार रह चुके हैं. वह कहते हैं कि भारत की सुरक्षा को खतरे लगातार अपना स्वरूप बदल रहे हैं. वह बताते हैं, "जैसे कि हमने लद्दाख में पिछले साल देखा, चीन के साथ सीमा विवाद नए आयाम में पहुंच गए हैं. चीन हिंद महासागर में भी अपनी पहुंच बढ़ा रहा है और भारत के पड़ोसियों में भी उसकी पैठ तेजी से बढ़ी है.”
आधुनिक होती तकनीक के खतरे
मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन और विश्लेषण संस्थान में शोधकर्ता और रिटार्यड कर्नल विवेक चड्ढा के मुताबिक भारतीय सेना के सामने एक बड़ी चुनौती लगातार आधुनिक होती तकनीक है. वह कहते हैं कि ड्रोन को तो अब सस्ता विकल्प समझा जा रहा है.
कर्नल चड्ढा ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा, "इसी तरह साइबर हमले करने के लिए जितना निवेश चाहिए, वह पारंपरिक हथियारों के मुकाबले तो बहुत मामूली है.”
और तारापोर कहते हैं कि ड्रोन तो बस शुरुआत भर हैं. वह बताते हैं, "आने वाले दशकों में जो खतरे आने वाले हैं वे सूचना प्रौद्योगिकी में बहुत आधुनिक विकास के साथ आएंगे, जो युद्ध से जुड़े होंगे. हर चीज जिसमें आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग से सुधार किया जा सकता है, वे सारी चीजें प्रभावित की जा सकती हैं.”
क्षेत्रीय सुरक्षा में भारत की भूमिका
आने वाले सालों में क्षेत्रीय सुरक्षा में भारत की भूमिका बढ़ेगी और उसकी सेना को भी अलग-अलग तरह की भूमिकाएं निभानी पड़ सकती हैं. तारापोर कहते हैं, "भारत इस क्षेत्र में एक सुरक्षा प्रदाता की भूमिका में है. मुख्यतया गैर-युद्धक भूमिका में जैसे कि मानवीय सहायता, आपदा प्रभंधन और इलाके में शांति बनाने रखने के लिए.”
तारापोर मानते हैं कि भारत की सेना अब भी ऐसी भूमिकाएं निभाती है लेकिन ऐसी जरूरतें और मांग बढ़ने वाली है, खासकर अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे सहयोगियों की तरफ से. दादागीरी रोकने के लिए भी भारत का इस्तेमाल किया जा सकता है.
तारापोर कहते हैं, "भारत ने अब तक अपने सेना को विभिन्न कारणों से अपनी जमीन की रक्षा के लिए तैयार किया है. अब उन कारणों की बारंबारता घटने वाली है. और जिन कारणों की बारंबारता बढ़ने वाली है, वो है भारत और क्षेत्र में मौजूद तीसरे पक्ष के खिलाफ दादागीरी.”
जैसे कि पड़ोसी अफगानिस्तान में एक संभावित गृह युद्ध की स्थिति में भारत की सुरक्षा पर, खासकर कश्मीर की सुरक्षा पर असर पड़ सकता है. कौशिश कहते हैं, "पाकिस्तान अपने हिसाब से तालिबान के साथ किसी तरह का समीकरण बिठा पाता है या नहीं, इससे भारत पर होने वाले प्रभाव पर फर्क नहीं पड़ता क्योंकि भारत की तालिबान के करीब आने की संभावना कम ही है.”
कौशिश कहते हैं कि किसी तरह का समझौता भले ही हो जाए पर तालिबान के विचारों से भारत का सहमत होना मुश्किल ही है, लिहाजा कभी ना कभी यह एक खतरा बन सकता है.
सैन्य हथियारों में सुधार
विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि भारत का पुराने ढर्रे का सैन्य ढांचा भविष्य के युद्धों के लिए कारगर नहीं होगा. चड्ढा कहते हैं, "भारत की सेना पारंपरिक युद्ध और आतंकवाद आदि के खिलाफ लड़ने के लिए तो पूरी तरह से तैयार है, जो कि वह 70 साल से करती रही है. लेकिन क्या वह क्षितिज पर उभर रहे नए खतरों के लिए भी तैयार है?”
कौशिश कहते हैं बेहतर हथियारों से लेकर सुरक्षा रणनीति तक, भारत की सेना को सुधारों की जरूरत है. वह बताते हैं, "भारत की सेना के ज्यादातर हथियार और प्लैटफॉर्म पुराने पड़ चुके हैं. सेनाओं के आधुनिकीकरण की जरूरत है. सबसे बड़ी चुनौती है वित्तीय रूप से साध्य एक साझी योजना की, जिसके जरिए सेना की क्षमताएं बढ़ाई जा सकें.”
इस मामले में चीन पहले ही भारत से खासा आगे निकल चुका है. चड्ढा कहते हैं, ”वे पहले ही मैरिटाइम डोमेन, सेनाओं का एकीकरण और साइबर सुरक्षा जैसे मुद्दों पर बात कर रहे हैं.”
चड्डा के मुताबिक चीन पहले ही ड्रोन तकनीक में महारत हासिल कर चुका है और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस या ब्लॉकचेन जैसी तकनीकों में भी अहम कदम उठा चुका है, जो आने वाले समय के विवादों में अहम साबित होंगे, जबकि भारत अभी काफी पीछे है. (dw.com)
मोहम्मद सरताज आलम
झारखंड से,
झारखंड के धनबाद में एक जज की मौत का मामला सुर्ख़ियाँ बटोर रहा है. धनबाद के अपर ज़िला सत्र न्यायाधीश उत्तम आनंद की बुधवार को एक ऑटो की टक्कर से मौत हो गई थी.
लेकिन इस घटना का सीसीटीवी फुटेज सामने आने के बाद परिजन इसे हत्या बता रहे हैं और राज्य के एडवोकेट जनरल ने भी कहा है कि लगता है उन्हें जान-बूझकर मारा गया है.
बुधवार की सुबह पाँच बजे धनबाद के रंधीर वर्मा चौक से एक ऑटो तेज़ रफ़्तार से गुज़रता हुआ मॉर्निंग वॉक पर निकले अपर ज़िला सत्र न्यायाधीश उत्तम आनंद को टक्कर मार कर निकल गया.
जिसके बाद ख़ून में लथपथ 49 वर्षीय न्यायाधीश को कुछ स्थानीय युवकों ने अस्पताल पहुँचाया. लेकिन चंद घंटे बाद उनकी मौत हो गई.
महत्वपूर्ण बात यह है कि धनबाद के एसपी का बंगला घटनास्थल से मात्र 150 मीटर की दूरी पर है. धनबाद सदर थाना उस स्थान से लगभग 200 मीटर की दूरी पर स्थित है. ख़ुद न्यायाधीश उत्तम आनंद का आवास भी घटना स्थल से कुछ ही क़दमों की दूरी पर है.
इस घटना का एक सीसीटीवी फुटेज भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. इस सीसीटीवी फ़ुटेज में साफ़ दिखाई दे रहा है कि न्यायाधीश हल्के-हल्के क़दमों से सड़क की बाईं तरफ़ बिल्कुल किनारे जॉगिंग कर रहे हैं. तभी एक ऑटो न्यायाधीश के पीछे से आता दिखाई देता है. ऑटो उनके क़रीब पहुँचते ही बाईं तरफ़ अचानक मुड़ जाता है और न्यायाधीश को टक्कर मारते हुआ आगे निकल जाता है.
सीसीटीवी फ़ुटेज को लेकर न्यायाधीश के बहनोई प्रभात कुमार सिन्हा ने बीबीसी से कहा, "ये साफ़-साफ़ कोल्ड ब्लडेड मर्डर है. आप वीडियो को स्लो मोशन में देखिए तो साफ़ पता चलता है कि ऑटो जज साहब से टकराया ही नहीं है. दरअसल ऑटो में बैठे युवक ने किसी चीज़ से जज साहब पर प्रहार किया है. जिसने भी प्रहार किया है, वह बहुत ही सधा हुआ आदमी था, उसे पता था कि किस इम्पैक्ट से ये करना है. साथ ही एक मोटर साइकिल सड़क के डिवाइडर के दाहिने तरफ़ से आती दिखाई देती है. बाइक चलाने वाला उस ओर देखता हुआ आगे बढ़ जाता है. जो कुछ मिनट के बाद घूम कर हादसे की ओर आता है. गाड़ी चलाने वाला ज़मीन पर गिरे हुए न्यायाधीश की तरफ़ देखते हुए आगे बढ़ जाता है. अगर वह इस मामले में शामिल नहीं होता, तो 100 नंबर डायल करके प्रशासन को ज़रूर ख़बर करता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया."
क़ानूनी प्रक्रिया को लेकर न्यायाधीश के बहनोई प्रभात कुमार सिन्हा ने कहा, "हमने इस मामले की एफ़आईआर तो करवा दी है. अब पुलिस और एडमिनिस्ट्रेशन (प्रशासन) का काम है कि कैसे मामले की सही जाँच हो, कैसे दोषी को सज़ा मिल सकती है. रही बात जज साहब द्वारा संगीन मामलों की सुनवाई की, तो घर के लोग उनके ऑफ़िशियल कामों में इन्वॉल्व (शामिल) नहीं होते थे. इसलिए उनके कामों के बारे में किसी को कुछ नहीं पता है. लेकिन जो ख़बर सामने आ रही है, इसे रूल आउट नहीं किया जा सकता है."
उन्होंने कहा, "मामले का हाईकोर्ट ने संज्ञान में लिया है इसलिए हाईकोर्ट को चाहिए कि अपनी निगरानी में इस पूरे मामले की जाँच करवाए. क्योंकि ये एक न्यायिक पदाधिकारी की हत्या का मामला है, इसकी जाँच नहीं होगी और दोषी को सज़ा नहीं मिलेगी तो भविष्य में न्यायिक अधिकारी कार्य करने में डरेंगे."
न्यायधीश कर रहे थे धनबाद के कई संगीन मामलों की सुनवाई
न्यायाधीश उत्तम आनंद कई संगीन मामलों की सुनवाई कर रहे थे. इनमें झरिया के रंजय सिंह की हत्या का मामला भी था.
अदालत में यह मामला अभियोजन पक्ष की गवाही के लिए चल रहा है. जबकि दो दिन पहले नीरज सिंह हत्याकांड के कथित शूटर की ज़मानत अर्ज़ी भी ख़ारिज हुई थी.
यही नहीं कांग्रेस के नगर अध्यक्ष वैभव सिन्हा के मामले का ट्रायल भी इसी कोर्ट में लंबित है. इन मामलों के अलावा जज उत्तम आनंद ने दो मामलों में तीन लोगों को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई थी.
हाईकोर्ट ने धनबाद के एसएसपी को न्यायाधीश की मौत के मामले में पूरी रिपोर्ट के साथ तलब किया है. जबकि एसएसपी संजीव कुमार ने बीबीसी से बातचीत में कहा, "हम जाँच कर रहे हैं इसलिए फ़िलहाल कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं."
जब बीबीसी ने एसएसपी से पूछा कि प्रथम दृष्टि में यह हत्या का मामला है या फिर हादसा?
इस सवाल पर भी वह जवाब देने से बचते नज़र आए और कहा कि 'शाम तक इंतज़ार कीजिए, जाँच पूरी होने के बाद ही आपके सवालों का जवाब देंगे.'
जबकि बोकारो रेंज के डीआईजी मयूर पटेल कन्हैया लाल ने कुछ भी कहने से इनकार करते हुए कहा कि एसएसपी धनबाद से बात कीजिए.
झारखंड के एडवोकेट जनरल राजीव रंजन ने बताया, "देखने से लगता है कि जानबूझकर मारा गया है. प्रशासन ने त्वरित कार्रवाई करते हुए ऑटो में सवार दोनों लोगों को गिरफ़्तार कर लिया है. उनसे पूछताछ हो रही है. इस मामले की जाँच के लिए पुलिस के एडीजी लेवल के अधिकारी की अध्यक्षता में 14 लोगों की एसआईटी का भी गठन कर लिया गया है."
राजीव रंजन ने कहा, "यह अदालत का विशेषाधिकार है कि वो सीबीआई से जाँच कराना चाहती है या नहीं लेकिन मुझे अपने पुलिस फ़ोर्स पर पूरा विश्वास है. एक जज का मारा जाना बहुत ही संवेदनशील मामला है. हमलोग सच जानने के लिए पूरी कोशिश करेंगे और जो भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं वो बचेंगे नहीं. त्वरित ट्रायल करके हमलोग अपराधियों को सज़ा दिलवाएँगे."
असमय मौत के कारण दुनिया को अलविदा कह देने वाले न्यायाधीश उत्तम आनंद के परिवार में उनकी पत्नी, बुज़ुर्ग माता-पिता, छोटे भाई के अलावा 16 और 13 वर्ष की दो बेटियाँ और 11 वर्षीय पुत्र हैं. (bbc.com/hindi)
नई दिल्ली, 29 जुलाई | ग्रामीण क्षेत्रों स्कूली शिक्षा को मजबूत बनाने के लिए शिक्षा मंत्रालय ने क्या उपाय किए हैं, इसका खुलासा शिक्षा मंत्रालय ने राज्यसभा को दिए गए एक लिखित जवाब में किया। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि भारत सरकार ने स्कूली शिक्षा के लिए समग्र शिक्षा-एक एकीकृत योजना शुरू की है। यह स्कूली शिक्षा क्षेत्र के लिए एक व्यापक कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों सहित देश भर में स्कूली शिक्षा के सभी स्तरों पर समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा सुनिश्चित करना है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री के मुताबिक यह योजना राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को स्कूलों में बुनियादी ढांचे को मजबूत करने, सार्वभौमिक पहुंच, लैंगिक समानता लाने, समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने, शिक्षा की गुणवत्ता, शिक्षकों के वेतन के लिए वित्तीय सहायता, डिजिटल पहल, मुफ्त और अनिवार्य बच्चों के अधिकार के तहत सहायता प्रदान करती है।
उन्होने कहा कि शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009 जिसमें वर्दी और पाठ्यपुस्तकें, पूर्व-विद्यालय शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, खेल और शारीरिक शिक्षा, कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों की स्थापना और संचालन और शिक्षक शिक्षा संस्थानों को मजबूत करना शामिल है। साथ ही प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए छात्रों को मिड-डे-मील प्रदान किया जाता है।
इसके अलावा, राष्ट्रीय साधन-सह-मेरिट छात्रवृत्ति योजना के तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के मेधावी छात्रों को आठवीं कक्षा में ड्रॉप आउट को रोकने और उन्हें माध्यमिक स्तर पर अध्ययन जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है। इससे भी ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा को बढ़ावा देने में मदद मिलती है। (आईएएनएस)
कुछ शब्दों में अपनी बात कहने का प्लैटफॉर्म ट्विटर भारत सरकार की नजरों से उतरता दिख रहा है और इसकी जगह भारत में बनाया गया ऐसा ही मंच कू लेता दिखाई दे रहा है.
भारत में ही बनाए गए सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म "कू" को सरकारी मान्यता का एक बड़ा संकेत देते हुए केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णन ने वहां अपना अकाउंट शुरू कर लिया है. इसी महीने पद संभालने वाले वैष्णव का ट्विटर पर भी अकाउंट है जहां उनके दो लाख 58 हजार से ज्यादा फॉलोअर्स हैं.
लेकिन कू पर अपने एक संदेश में वैष्णव ने अंतरराष्ट्रीय सोशल मीडिया कंपनियों पर सख्त रवैया अपनाने का संकेत दिया और कहा कि इस बात की समीक्षा की जाएगी कि सोशल मीडिया कंपनियां नए सख्त नियमों का पालन कर रही हैं या नहीं.
"कू" का मकसद
सरकार के मीडिया रिलेशन विभाग से जुड़े एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहा, "कोशिश ये है कि ट्विटर का एक विकल्प खड़ा किया जाए." बीजेपी के आईटी सेल से जुड़े एक व्यक्ति के मुताबिक ऐसे जज्बात मोदी सरकार के कई मंत्रियों के हैं जो ट्विटर की उनकी टिप्पणियों पर हालिया सख्तियों और कार्रवाइयों से चिढ़े हुए हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रवादी सरकार के अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर से संबंध अच्छे नहीं रहे हैं. बीते कुछ महीनों में एक के बाद एक ऐसी कई बातें हुई हैं जिनसे दोनों के रिश्तों में खटास आई है. फरवरी में भारत सरकार ने ट्विटर को किसान आंदोले के दौरान मोदी सरकार की तीखी आलोचना करने वाले कुछ अकाउंट्स और ट्वीट्स को हटाने को कहा था.
ट्विटर ने कहा कि भारत के कुछ आग्रह भारतीय कानून के ही खिलाफ हैं और मानने से इनकार कर दिया. सरकार को यह नागवार गुजरा. उसके बाद भारत ने सोशल मीडिया कंपनियों के खिलाफ और कड़े नियम लागू करने का आदेश दिया जिस पर ट्विटर पूरी तरह सहमत नहीं था.
अब स्थिति यह है कि ट्विटर के खिलाफ अलग-अलग राज्यों में पांच मामलों में पुलिस की जांच चल रही है. कई वीडियो पोस्ट किए जाने को लेकर दर्ज हुए मुकदमों में भी ट्वटिर को पक्ष बनाया गया है.
ट्विटर से सरकार के रिश्ते बिगड़ने का फायदा घेरलू कंपनी कू को हुआ, जो आठ भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है. सरकार और ट्विटर के विवाद के दौरान सिर्फ दो दिन में कू को डाउनलोड करने वालों की संख्या 10 गुना बढ़कर 30 लाख हो गई.
सिर्फ 16 महीने इस प्लैटफॉर्म पर अब उपयोग करने वालों की संख्या 70 लाख तक पहुंच गई है.
ट्विटर का रुख
ट्विटर के भारत में एक करोड़ 75 लाख से ज्यादा उपभोक्ता हैं. भारतीय मंत्रियों द्वारा कू के समर्थन पर ट्विटर ने कोई टिप्पणी नहीं की है लेकिन उसका कहना है कि वह कई मंत्रियों और अधिकारियों के साथ सीधे काम करता है और आपदा प्रबंधन में भी अहम भूमिका निभा रहा है.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ट्विटर पर दुनिया के कुछ सबसे ज्यादा फॉलो किए जाने वाले व्यक्तियों में से हैं. उनके लगभग सात करोड़ फॉलोअर्स हैं. हालांकि अभी तक उन्होंने कू पर अपना अकाउंट नहीं बनाया है.
सरकार के कई मंत्री और विभाग ट्विटर के साथ-साथ कू का भी इस्तेमाल कर रहे हैं. हालांकि, कू को लेकर पूछे गए सवालों के जवाब ना भारत सरकार ने दिए हैं और ना ही भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने.
कू का उभार
नई सोशल मीडिया साइट कू ने पिछले कुछ दिनों में ही कई लंबी छलांगें लगाई हैं. पिछले महीने नाईजीरिया की सरकार ने कू पर अपना अकाउंट बनाया था. भारत में व्यापार मंत्रालय ने भी कू पर अपना खाता खोल दिया है जिसके 12 लाख फॉलोअर्स हैं. ट्विटर पर इस मंत्रालय के 13 लाख फॉलोअर्स हैं.
कई राज्य सरकारें और अन्य विभाग भी इस वेबसाइट की ओर आकर्षित हो रहे हैं. उत्तर प्रदेश के आपदा प्रबंधन विभाग ने ट्विटर पर अपने 21 हजार फॉलोअर्स को कू पर आने को कहा है, जहां फिलहाल इसके 962 फॉलोअर्स हैं.
कू ने भरोसा जताया है कि जल्दी ही सभी उसके प्लैटफॉर्म का इस्तेमाल करेंगे. कंपनी के सह-संस्थापक मयंक बिड़वाटका ने कहा, "अब तो बस कुछ महीनों की बात है और आप देखेंगे कि लगभग सभी कू पर होंगे.”
वीके/एए (रॉयटर्स)
सीरो सर्वे में मध्य प्रदेश 79 प्रतिशत "सीरोप्रीवैलेंस" के साथ सूची में सबसे ऊपर है, जबकि केरल 44 प्रतिशत के साथ सबसे नीचे है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट
पिछले दो दिनों से केरल ने 22,000 से अधिक संक्रमणों की सूचना दी है, जो राष्ट्रीय स्तर पर 50 प्रतिशत से अधिक है. राज्य कई हफ्तों से देश में सबसे अधिक मामले दर्ज कर रहा है.
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने देश के 11 राज्यों में 14 जून से लेकर 6 जुलाई के बीच सीरो सर्वे किया था. इस सर्वे में मध्य प्रदेश 79 प्रतिशत "सीरोप्रीवैलेंस" के साथ सूची में सबसे ऊपर है, जबकि केरल 44.4 प्रतिशत के साथ सबसे नीचे है. असम में "सीरोप्रीवैलेंस" 50.3 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 58 प्रतिशत है.
आईसीएमआर द्वारा किए गए सीरो सर्वे के निष्कर्षों के मुताबिक 11 राज्यों में सर्वेक्षण की गई कम से कम दो-तिहाई आबादी में कोरोना वायरस एंटीबॉडीज विकसित पाई गईं.
सीरोप्रीवैलेंस सर्वेक्षण का चौथा दौर
आईसीएमआर ने हाल ही में भारत के 70 जिलों में राष्ट्रीय सीरो सर्वेक्षण किया. सर्वेक्षित जनसंख्या में राजस्थान में 76.2 प्रतिशत, बिहार में 75.9 प्रतिशत, गुजरात में 75.3 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 74.6 प्रतिशत, उत्तराखंड में 73.1 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 70.2 प्रतिशत सीरोप्रीवैलेंस पाया गया. वहीं आंध्र प्रदेश में 70.2, कर्नाटक में 69.8 फीसदी, तमिलनाडु में 69.2 फीसदी और ओडिशा में 68.1 फीसदी सर्वेक्षित आबादी में कोविड एंटीबॉडीज पाई गईं.
केंद्र सरकार ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सलाह दी है कि वे सीरोप्रीवैलेंस के बारे में जिला स्तर पर डेटा इकट्ठा करने के लिए आईसीएमआर के साथ विचार-विमर्श कर सीरोप्रीवैलेंस सर्वेक्षण करें, जो स्थानीय स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिहाज से जरूरी है. केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव ने सभी राज्यों को लिखे गए पत्र में यह बात कही है.
केरल में कोरोना
केरल में कोरोना का कहर थमता नहीं दिख रहा है. राज्य में दैनिक कोविड-19 मामलों की संख्या में कोई कमी नहीं दिख रही है. बुधवार को लगातार दूसरे दिन यह आंकड़ा 22,000 के पार चला गया. केरल में अब तक 33 लाख से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं. 16 हजार से अधिक लोगों की मौत कोरोना के कारण हुई है. केरल में एक्टिव केसों की संख्या भी 1,45,876 है.
इस बीच देश में पिछले 24 घंटे में 43,509 नए कोविड-19 केस दर्ज किए गए. इस दौरान 38,525 लोग ठीक हुए और 640 मरीजों की मौत हुई. भारत में ठीक होने की दर अब 97.38 फीसदी हो गई है. (dw.com)
इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बैटरी में इस्तेमाल होने वाले खनिजों के दामों में बढ़ोतरी से यह बैटरियां भारत में भी महंगी हुई हैं. लेकिन जानकार इससे भी बड़ी समस्या इनके निर्माण के लिए भारत की चीन पर निर्भरता को मानते हैं.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
दुनियाभर में इलेक्ट्रिक गाड़ियों में इस्तेमाल होने वाली लीथियम आयन बैटरी के दाम बढ़ रहे हैं. इसकी वजह इसमें इस्तेमाल होने वाले खनिजों के दाम बढ़ना है. लीथियम और कोबाल्ट जैसे इन खनिजों के दाम इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि कोरोना के बाद इनकी मांग तेजी से बढ़ी है लेकिन पर्याप्त आपूर्ति नहीं हो पा रही है. हालांकि इस परेशानी के लिए कोरोना कुछ हद तक ही जिम्मेदार है क्योंकि लीथियम की आपूर्ति में पिछले कई सालों से गड़बड़ी आ रही थी.
जानकार कहते हैं कि पिछले एक दशक से लीथियम आयन बैटरी के दामों में गिरावट आ रही थी. साल 2018 से 2020 के बीच लीथियम की आपूर्ति, मांग से ज्यादा रही, जिससे इस दौरान बैटरी के दाम तेजी से गिरे.
ऐसा होने से नए प्रोजेक्ट लगने की दर तेज हुई और सरकारों की ओर से इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देने का काम किया जाने लगा. इससे लीथियम की मांग और ज्यादा बढ़ी. इसने भी आपूर्ति में कमी को बढ़ाने में योगदान दिया. अब मीडिया रिपोर्ट्स में डर जताया जा रहा है कि एक दशक तक लीथियम आपूर्ति में दिक्कत बनी रह सकती है.
बैटरी के लिए चीन पर निर्भर भारत
इन खनिजों के दामों में बढ़ोतरी से भारत में भी बैटरी महंगी हुई है. लेकिन जानकार इससे बड़ी समस्या इस तथ्य को बताते हैं कि ईवी की बैटरी के मामले में भारत अब भी लगभग पूरी तरह चीन पर निर्भर है.
एक बड़ी बैटरी निर्माता कंपनी एक्सिकॉम में काम करने वाले सलाहुद्दीन अहमद बताते हैं, "अभी भारत इस सेक्टर में तीसरे खरीददार जैसा है. यानी चीन पहले ज्यादातर कच्चे खनिजों की खरीद कर उनकी प्रॉसेसिंग करता है और फिर इसे भारत जैसे देशों को बेचता है. जब तक भारत इस निर्भरता को कम करने पर काम नहीं करता, ईवी बैटरी के मामले में आत्मनिर्भरता सपना ही रहेगी."
निवेश और मैनेजमेंट कंपनी गोल्डमैन सैश के आंकड़े भी यही कहते हैं. इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन बैटरी में इस्तेमाल होने वाले खनिजों की प्रॉसेसिंग में दुनिया में सबसे आगे है, जबकि वह इसके लिए जरूरी ज्यादातर खनिजों को विदेशों से मंगाता है.
एनोड पदार्थों और इलेक्ट्रोलेट्स के 65% का और कैथोड पदार्थों के 42% का उत्पादन चीन अकेले करता है. भारत भी बैटरी के लिए यह चीजें चीन से ही मंगाता है. यही वजह है कि भारत में अभी इलेक्ट्रिक बैटरी के दाम अपेक्षाकृत ज्यादा हैं. इसके चलते इलेक्ट्रिक गाड़ियां ज्यादातर जनसंख्या के लिए अफोर्डेबल नहीं हैं.
भारत को तलाशना होगा अलग रास्ता
इलेक्ट्रिक गाड़ियों के दाम में बैटरी का दाम अहम होता है. इस मसले पर इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बैटरी के रिसर्च एंड डेवलपमेंट (आरएंडडी) से जुड़े सलाहुद्दीन अहमद कहते हैं, "भारत को सोडियम आयन बैटरियों के आरएंडडी के काम को तेज कर देना चाहिए.
वहीं कोबाल्ट की जगह एल्युमिनियम, मैंगनीज या निकल के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की कोशिश करनी चाहिए. ये सारे ही खनिज भारत में पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं. इनकी मदद से न सिर्फ बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रिक बैटरी का उत्पादन किया जा सकता है बल्कि उनके दाम भी कम किए जा सकते हैं."
वह कहते हैं, "एक लाख रुपये या उससे ज्यादा की दोपहिया गाड़ियां भारत में हर कोई नहीं खरीद सकता ऐसे में आरएंडडी के जरिए इनके दाम कम करना जरूरी है." दाम के बारे में जानकार यह भी कहते हैं कि भारत अगर ऐसे ही विदेशों से ईवी के लिए जरूरी खनिजों का आयात करता रहा, तो उसके लिए निकट भविष्य में बैटरी के दाम नियंत्रित करना संभव नहीं होगा.
उनके मुताबिक भारत ईवी के लिए बैटरियां बनाने की दौड़ में पहले ही चीन से 20-30 साल पीछे है, ऐसे में अगर भारत ऐसे खनिजों पर निर्भर रहा, जिनकी आपूर्ति भी उसके लिए आसान नहीं है तो वह इस दौड़ में और पिछड़ेगा. (dw.com)
अपने पहले दौरे पर भारत पहुंचे अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठाया और इशारों में भारत को नसीहतें दीं. हालांकि भारतीय विदेश मंत्री ने जवाब देने में देर नहीं लगाई.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट
एंटनी ब्लिंकेन ने भारत दौरे की शुरुआत मानवाधिकारों का मुद्दा उठाकर की. उन्होंने भारत में मानवाधिकारों के लिए काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं से मुलाकात की और उनकी चिंताएं सुनीं. उन्होंने कहा कि भारत और अमेरिका कानून के राज और और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे साझे मूल्यों से जुड़े हैं.
ब्लिंकेन ने कहा, "ये दोनों ही लोकतंत्र अभी सीख रहे हैं. जैसा कि मैंने पहले कहा, कई बार यह प्रक्रिया दर्दनाक होती है. कई बार यह भद्दी होती है. लेकिन लोकतंत्र की ताकत इसे समाहित करने में ही है.”
इशारों में ही ब्लिंकेन ने भारत सरकार को नसीहत भी दी. उन्होंने कहा कि भारतीय लोकतंत्र की ताकत उसके आजाद नागरिक हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं को संबोधन में उन्होंने कहा कि सामाजिक कार्यकर्ता किसी भी सफल लोकतंत्र का हिस्सा होते हैं.
ब्लिंकेन की नसीहतें
ब्लिंकेन ने कहा,"इसी तरह नागरिक अपने समुदायों की जिंदगियों में हिस्सेदार बनते हैं. इसी तरह आपदाएं आने पर हम एकजुट होते हैं और संसाधन उपलब्ध कराते हैं. जीवंत सामाजिक कार्यकर्ता ही लोकतंत्रों को ज्यादा खुला, ज्यादा समावेशी, ज्यादा निष्पक्ष और लचीला बनाते हैं.”
लोकतांत्रिक गिरावट का जिक्र करते हे उन्होंने कहा, "जब दुनियाभर में लोकतंत्र और अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्रता के खिलाफ खतरे बढ़ रहे हैं, ऐसे में यह जरूरी है कि भारत और अमेरिका, बतौर अगुआ इन आदर्शों के समर्थन में साथ खड़े रहें.”
ब्लिंकेन ने कहा कि लोकतंत्र होने का हा अर्थ "एक ज्यादा संपूर्ण लोकतंत्र” बनाना है. उन्होंने कहा, "दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र होन के नाते हम सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता और अवसर उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारियों के प्रति गंभीर हैं. और हम जानते हैं कि इन मोर्चों पर हमें लगातार और ज्यादा बेहतर प्रदर्शन करने की जरूरत है. और यह भी कि हम दोनों ने ही अब तक अपने लक्षित मूल्यों को हासिल नहीं किया है. लोकतंत्र होने का एक वादा यह है कि हमेशा एक बेहतर, और जैसा कि अमेरिका का संस्थापकों ने कहा था, ज्यादा संपूर्ण संघ के लिए प्रयासरत रहना.”
जयशंकर के जवाब
ब्लिंकेन की नसीहतों पर भारतीय विदेश मंत्री ने जवाब देने में देर नहीं लगाई. अमेरिकी विदेश मंत्री के बयानों के कुछ ही देर बाद डॉ. एस जयशंकर ने कहा कि मानवाधिकारों की बात सभी पर एकसमान रूप से लागू होती है.
डॉ. जयशंकर ने जवाब में कहा, "मैंने तीन मुख्य बातें कही हैं. पहली तो ये कि ज्यादा संपूर्ण संघ बनाने का जिम्मा भारत पर भी उतना ही लागू होता है जितना अमेरिका पर. बल्कि यह सभी लोकतंत्रों पर लागू होता है.”
बिना कश्मीर या नए नागरिक कानूनों का जिक्र किए डॉ. जयशंकर ने अपनी सरकार के विवाद में रहे हालिया कदमों का भी बचाव किया. उन्होंन कहा, "सभी राजनीतिक तंत्रों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि इतिहास में जो गलत हुआ है उसे सही करे. कई फैसले और नीतियां जो आपने पिछले कुछ सालों में देखे हैं वे उसी श्रेणी में आते हैं.”
भारतीय विदेश मंत्री ने कहा, "स्वतंत्रताएं जरूरी हैं, हम उनका सम्मान करते हैं लेकिन लेकिन आजादी की तुलना खराब प्रशासन से कम प्रशासन से नहीं की जानी चाहिए. ये दोनों पूरी तरह अलग अलग बातें हैं.”
प्रधानमंत्री से मुलाकात
भारत और अमेरिका के विदेश मंत्रियों ने विस्तृत मुद्दों पर विचार-विमर्श किया जिनमें अफगानिस्तान, प्रशांत क्षेत्र में भागीदारी और कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई जैसे मुद्दे शामिल थे. डॉ. जयशंकर से मिलने से पहले ब्लिंकेन भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से भी मिले थे. दोनों ने अफगानिस्तान में सुरक्षा स्थिति पर बातचीत की.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने ट्विटर पर लिखा, "मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर बहुत खुशी हुई. उनसे अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक सहयोग बढ़ाने के लिए अमेरिका और भारत के प्रयासों को बारे में और कोविड-19 के खिलाफ कोशिशों, क्षेत्रीय सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर सहयोग के बारे में बातचीत हुई.”
अपनी एक दिन की यात्रा के दौरान ब्लिंकेन ने भारत के कोविड-19 संबंधी कार्यक्रम के लिए संस्था यूएसएड के जरिए ढाई करोड़ डॉलर की अतिरिक्त वित्तीय सहायता का भी ऐलान किया. (dw.com)
किसान आंदोलन और पश्चिम बंगाल चुनावों के नतीजों के बाद अब पेगासस मामले ने विपक्ष को नई ऊर्जा दे दी है. लेकिन पुराना सवाल अभी भी बना हुआ है कि आखिर विपक्ष का नेता कौन होगा.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
जैसा कि संसद के मौजूदा सत्र में दिखाई दे रहा है, विपक्ष किसान आंदोलन और पेगासस मामलों को लेकर काफी आक्रामक हो चुका है. विशेष रूप से पेगासस मामले पर चर्चा कराने से सरकार के इंकार कर देने पर विपक्ष के सांसदों दोनों सदनों में और संसद के बाहर भी पुरजोर विरोध कर रहे हैं.
इस बीच विपक्षी पार्टियों को एकजुट करने की कई महीनों से चल रही कोशिशें भी संसद सत्र के मद्देनजर तेज हो गई हैं. विपक्ष के कई सांसदों ने कहा है कि इस सत्र में विपक्षी पार्टियों के बीच बेहतर तालमेल देखने को मिल रहा है. हालांकि इन कोशिशों के बावजूद विपक्ष अभी तक मूल मसले का हल नहीं निकाल पाया है.
कौन होगा नेता
बीते सात सालों में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाने की कई कोशिशें हो चुकी हैं, लेकिन हर बार नेतृत्व के सवाल पर विपक्ष की सुई अटक जाती है. कौन बनेगा विपक्ष का चेहरा और कौन देगा सीधे मोदी को टक्कर, इन्हीं सवालों पर एकजुटता की सारी कोशिशें बेकार हो जाती हैं.
इस बार भी विपक्ष की एकजुटता पर यही सवाल हावी नजर आ रहा है. विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस अभी भी अपने आप को इस नेतृत्व का स्वाभाविक दावेदार मानती है. अन्य विपक्षी पार्टियां भी यह तो मानती हैं कि कांग्रेस के बिना व्यापक विपक्ष बन नहीं पाएगा, लेकिन उस विपक्षी समूह का नेतृत्व कांग्रेस करेगी इस बात पर सहमति नहीं बन पा रही है.
अव्वल तो कांग्रेस खुद अपने संगठन के अंदर नेतृत्व के संकट से गुजर रही है. सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष जरूर हैं लेकिन वो कब तक इस पद पर रहेंगी यह स्पष्ट नहीं है. उनके दोनों बच्चों राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को इस पद का दावेदार माना जाता है.
कांग्रेस का अपना संकट
राहुल को तो पद मिला भी था लेकिन 2019 के लोक सभा चुनावों में हारने के बाद उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया और तब से सार्वजनिक तौर पर बस वो एक कांग्रेस सांसद के रूप में काम कर रहे हैं. हालांकि अब धीरे धीरे पार्टी से जुड़े सभी बड़े फैसलों के पीछे उनके हाथ नजर आ रहा है.
हाल ही में पंजाब कांग्रेस में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच चल रहे झगड़े का समाधान राहुल और प्रियंका के निर्णायक हस्तक्षेप के बाद ही हुआ. सिद्धू और सिंह दोनों दिल्ली गए, लेकिन राहुल और प्रियंका सिर्फ सिद्धू से मिले और उसके बाद सिंह के विरोध के बावजूद सिद्धू को पंजाब में कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया.
राहुल अब यही महत्वाकांक्षा वृहत विपक्ष को लेकर भी दिखा रहे हैं. 27 जुलाई को संसद में विपक्षी पार्टियों के फ्लोर नेताओं की बैठक पहली बार राहुल की अध्यक्षता में हुई. इसमें कांग्रेस के अलावा डीएमके, एनसीपी, शिव सेना, सीपीएम, आरजेडी, आप, केरल कांग्रेस, एनसी, आरएसपी और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियां शामिल थीं.
बैठक के बाद राहुल के साथ मिल कर इन सभी पार्टियों के नेताओं ने मीडिया को संबोधित भी किया. बैठक की तस्वीरें ट्वीट करते हुए राहुल ने वहां मौजूद सभी नेताओं के तजुर्बे और समझ को सलाम किया और उसे एक विनम्र करने वाला अनुभव बताया.
और भी हैं दावेदार
हालांकि विपक्ष का चेहरा बनने का दावेदार और भी नेताओं को माना जा रहा है. इनमें शरद पवार सबसे वरिष्ठ हैं लेकिन सबसे ज्यादा सक्रिय नजर आ रही हैं ममता बनर्जी. पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों में बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने की जंग जीतने के बाद बनर्जी का आत्मविश्वास देखते ही बन रहा है.
वो इस समय दिल्ली की पांच दिनों की यात्रा पर हैं. इस दौरान वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मिलीं और सोनिया गांधी से भी. इसके अलावा और भी कई पार्टियों के नेताओं से मिलने की उनकी योजना है. इस पूरी कवायद को उनकी विपक्ष का नेता बनने की चाह से जोड़ कर देखा जा रहा है.
लेकिन यहीं पर पेंच फंसा हुआ है. पिछले कई महीनों से शरद पवार और यशवंत सिन्हा जैसे नेता विपक्ष को एकजुट करने के लिए जिस फॉर्मूले पर काम कर रहे हैं, उसके तहत 200 ऐसी लोक सभा सीटें पहचानी गई हैं जिन पर सीधे बीजेपी और कांग्रेस के बीच में टक्कर है.
प्रस्ताव यह है कि इन सीटों पर कांग्रेस को अपने प्रत्याशी उतारने दिए जाएं, लेकिन इनके अलावा बाकी सीटों पर जहां जो विपक्षी पार्टी मजबूत है उसी को लड़ने दिया जाए. समस्या यह है कि फार्मूला तो अपनी जगह है, लेकिन मतभेद तो इस बात पर है कि विपक्ष का चेहरा कौन बनेगा. अब देखना यह है कि बनर्जी की दिल्ली यात्रा और कांग्रेस नेताओं के साथ बैठकों से क्या निकल कर आता है. (dw.com)
नई दिल्ली: जासूसी कांड को लेकर विपक्ष संसद के अंदर और दोनों जगह सरकार पर हमलावर है. आज पहले विपक्ष ने सरकार को सदन के अंदर घेरने की रणनीति बनायी. उसके बाद सभी विपक्षी दलों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सरकार पर निशाना साधा. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि संसद में गतिरोध के लिए विपक्ष दोषी नहीं है. उन्होंने कहा कि जासूस कांड के लिए जरिए भारत के लोकतंत्र पर हमला हुआ है. विपक्ष का हर दल जासूसी कांड की चर्चा चाहता है.
संसद में हमारी आवाज को दबाया जा रहा है- राहुल गांधी
संसद भवन के पास विजय चौक पर राहुल गांधी समेत पूरे विपक्ष ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की. राहुल गांधी ने कहा, ''.यहां पर आज हिंदुस्तान का पूरा विपक्ष खड़ा हुआ है, हर पार्टी के नेता हैं और हमें यहां आज क्यों आना पड़ा. क्योंकि हमारी जो आवाज है उसे संसद में दबाया जा रहा है. हमारा सिर्फ एक सवाल है क्या हिंदुस्तान की सरकार ने पेगासस को खरीदा ? हां या ना. क्या हिंदुस्तान की सरकार ने अपने लोगों पर पेगासस हथियार का इस्तेमाल किया ? हां या ना. हम सिर्फ यह जानना चाहते हैं?''
राहुल गांधी ने आगे कहा, ''हमें साफ तौर पर सरकार ने बताया कि सदन में पेगासस पर कोई चर्चा नहीं होगी. मैं हिंदुस्तान के युवाओं से पूछना चाहता हूं कि आप के फोन के अंदर नरेंद्र मोदी जी ने हथियार डाला है. मेरे खिलाफ उस हथियार का प्रयोग किया गया. सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ उस हथियार का प्रयोग किया गया. बाकी नेताओं के खिलाफ, प्रेस के लोगों के खिलाफ इस हथियार का इस्तेमाल हुआ. तो फिर क्या कारण है कि इस पर सदन के अंदर बात नहीं हो रही है ?
उन्होंने कहा, "हमारे लिए कहा जाता है कि हम लोग गतिरोध पैदा कर रहे हैं. हम लोग गतिरोध पैदा नहीं कर रहे, हम सिर्फ हमारी जो जिम्मेदारी है उसे पूरा करना चाहता हैं. यह बात सिर्फ मैं नहीं बोल रहा बल्कि हर एक पार्टी का नेता आपको यही बात बताएगा.''
''पेगासस हथियार को लोकतंत्र के खिलाफ इस्तेमाल किया गया''
उन्होंने कहा, ''पेगासस हथियार को हिंदुस्तान के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है. इस हथियार को आतंकवादियों के खिलाफ, देशद्रोहियों के खिलाफ करना चाहिए. हम नरेंद्र मोदी जी और अमित शाह जी से पूछ रहे हैं कि आपने इस हथियार का प्रयोग हिंदुस्तान की संवैधानिक संस्थाओं के खिलाफ क्यों किया ? हिंदुस्तान के लोकतंत्र ने ऐसा क्या किया है जो आपने इस हथियार को लोकतंत्र के खिलाफ इस्तेमाल किया. यही हमारे सवाल हैं.''
संसद में गतिरोध: राहुल बोले- यह विपक्ष को बदनाम करने की साजिश
संसद की कार्यवाही में गतिरोध को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सरकार पर पलटवार किया है. विपक्षी सांसदों की बैठक के दौरान राहुल गांधी ने कहा कि सरकार ये कहकर विपक्ष को बदनाम कर रही है कि विपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा . जबकि हम देश और देश की सुरक्षा से जुड़े मामले उठा रहे हैं. कल प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष पर सदन में हंगामा करने के आरोप लगाए हैं.
कोविड महामारी में बच्चे स्कूल नहीं जा पाए तो पढ़ाई का नुकसान कम करने की चुनौती से शिक्षक, सरकारें और माता पिता सभी जूझते नजर आए. इन चुनौतियों ने कई नई राहें भी खोलीं.
डॉयचे वैले पर विवेक शर्मा की रिपोर्ट
पिछले साल मार्च (2020) से बंद पड़े स्कूलों की वजह से जो सबसे बड़ी चिंता जताई जा रही है वो ये है कि पहली से आठवीं तक के छोटे बच्चे इस दौरान वो सब कुछ भूल सकते हैं जो उन्होंने लॉकडाऊन शुरू होने से पहले सीखा था.
खास तौर पर अंकों को जोड़ने-घटाने की क्षमता और भाषा पढ़ने की योग्यता जैसी आधारभूत बातें. इस नुकसान का असर मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे पहली से आठवीं तक के 50 लाख से अधिक विद्यार्थियों पर भी पड़ा है.
ऐसे में मध्य प्रदेश में कुछ अनूठी पहलें भी देखने को मिलीं. मसलन 'हमारा घर-हमारा विद्यालय' नाम से एक योजना को जुलाई 2020 से शुरू किया गया जिसमें शिक्षक पहली से आठवीं तक के छात्रों के मोहल्लों में पहुंचे, आस-पास के बच्चों को इकठ्ठा किया और पढ़ाई शुरू करवाई. इसे मोहल्ला क्लास और ओटला क्लास का नाम दिया गया.
कैसे चली ओटला क्लास
इंदौर के शासकीय मिडिल स्कूल नंबर 6 के प्राचार्य संजय महाजन बताते हैं कि कोविड काल के दौरान सबसे बड़ी चुनौती बच्चों से संपर्क बनाकर रखने की रही. चुनौती उन बच्चों को लेकर थी जिनके पास स्मार्ट फोन नहीं था. 96 विद्यार्थियों वाले इस स्कूल में 20 प्रतिशत ऐसे बच्चे थे जिनके पास एंड्रॉयड मोबाइल नहीं था. ऐसे बच्चों पर ज्यादा ध्यान दिया गया.
संजय बताते हैं कि जो बच्चे जुलाई 2020 में पहली कक्षा में भर्ती हुए, उन्होंने अभी तक स्कूल का मुंह नहीं देखा है. उनके घर जाकर ही दाखिला दिया गया और उनकी पढ़ाई भी घर पर हुई है. जिन बच्चों के पास मोबाइल फोन नहीं था, उनके घर जाकर शिक्षकों ने अपने मोबाइल के जरिए बच्चों को साप्ताहिक टेस्ट में शामिल किया.
जिन बच्चों के परिवार में स्मार्टफोन था उनके लिए हर क्लास का वॉट्सऐप ग्रुप बनाया गया और साथ में बच्चों के पैरेंट्स को भी उस ग्रुप में जोड़ा गया. साथ ही बच्चों को दूरदर्शन पर कार्यक्रम देखकर शिक्षकों को जानकारी देने का काम भी सौंपा गया. इस दौरान रेडियो के कार्यक्रमों में भाषा और गणित पर केन्द्रित कार्यक्रम भी प्रसारित किए गए. जिन बच्चों के पास मोबाइल फोन, टीवी या रेडियो नहीं था उनके घर पर वर्क बुक और टेक्स्ट बुक टीचर के माध्यम से पहुंचाई गई.
334 छात्राओं वाले शारदा कन्या माध्यमिक विद्यालय क्रमांक एक की प्रिंसिपल सरला नाईक बताती हैं कि छोटे बच्चों की समस्या ज्यादा रही. वह कहती हैं, "पहली, दूसरी और तीसरी के बच्चे भूल जाते हैं और ज्यादातर ये शिक्षकों पर ही निर्भर रहते हैं. उनका मन खेलने में ज्यादा रहता है. इसलिए इस दौरान बच्चों से ड्रॉइंग बनवाना, कहानी सुनाना और गेम्स खिलवाने जैसे रोचक चीजें करवाई गईं ताकि स्कूल बंद होने के बावजूद वे शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े रहें.”
मिड-डे मील और टेस्ट भी
लॉकडाउन के दौरान बच्चों के माता-पिताओं को दो-तीन महीने का राशन हर बच्चे के हिस्से के मुताबिक एक साथ दिया गया जिसमें गेहूं, दाल, चावल और तेल शामिल थे.
स्कूल बंद होने के बावजूद इस दौरान साप्ताहिक और मासिक टेस्ट भी बच्चों के घर पहुंचकर ही लिए गए. प्रश्नपत्र में भाषा और गणित के विषयों के बहुविकल्पीय सवाल थे. बच्चे टीचर के मोबाइल फोन पर ही किसी एक जवाब को चुनते और हाथों-हाथ नतीजा भी उन्हें बता दिया जाता. वार्षिक परीक्षा के लिए सभी विषयों की वर्कशीट बच्चों के घर जाकर वितरित की गई और पांच दिन के बाद बच्चों से वापस ली गई, जिसके बाद मूल्यांकन किया गया.
334 छात्राओं वाले शारदा कन्या माध्यमिक विद्यालय क्रमांक एक की प्रिंसिपल सरला नाईक बताती हैं कि छोटे बच्चों की समस्या ज्यादा रही. वह कहती हैं, "पहली, दूसरी और तीसरी के बच्चे भूल जाते हैं और ज्यादातर ये शिक्षकों पर ही निर्भर रहते हैं. उनका मन खेलने में ज्यादा रहता है. इसलिए इस दौरान बच्चों से ड्रॉइंग बनवाना, कहानी सुनाना और गेम्स खिलवाने जैसे रोचक चीजें करवाई गईं ताकि स्कूल बंद होने के बावजूद वे शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े रहें.”
मिड-डे मील और टेस्ट भी
लॉकडाउन के दौरान बच्चों के माता-पिताओं को दो-तीन महीने का राशन हर बच्चे के हिस्से के मुताबिक एक साथ दिया गया जिसमें गेहूं, दाल, चावल और तेल शामिल थे.
स्कूल बंद होने के बावजूद इस दौरान साप्ताहिक और मासिक टेस्ट भी बच्चों के घर पहुंचकर ही लिए गए. प्रश्नपत्र में भाषा और गणित के विषयों के बहुविकल्पीय सवाल थे. बच्चे टीचर के मोबाइल फोन पर ही किसी एक जवाब को चुनते और हाथों-हाथ नतीजा भी उन्हें बता दिया जाता. वार्षिक परीक्षा के लिए सभी विषयों की वर्कशीट बच्चों के घर जाकर वितरित की गई और पांच दिन के बाद बच्चों से वापस ली गई, जिसके बाद मूल्यांकन किया गया.
हालांकि 'हमारा घर-हमारा विद्यालय' योजना पर तब विराम लग गया जब अप्रैल 2021 में दूसरी लहर के बाद लॉकडाउन लगा. इस दौरान वायरस का प्रकोप गंभीर था इसलिए इन मोहल्ला और ओटला क्लासेस को स्थगित रखा गया.
मोबाइल फोन बना माता-पिता की चिंता
बच्चों के माता-पिता भी पढ़ाई को लेकर चिंतित हैं. कपड़े सिलने का काम करने वाले और तीन लड़कियों के पिता घनश्याम बताते हैं कि उनके स्मार्टफोन नहीं है इसलिए घर पर पढ़ाई के लिए पास ही रहने वाले बच्चों के मामा के स्मार्ट फोन की मदद लेते हैं.
मजदूरी करके अपनी आजीविका चलाने वाली शारदा का बेटा सचिन छठी क्लास में है. वह बताती हैं एक ही मोबाइल फोन पर तीन बच्चों की पढ़ाई होती है. वह कहती हैं, "स्कूल बंद होने के बाद बच्चों का पढ़ाई में कम ही मन लगता है. स्कूल में अच्छी पढ़ाई होती है जो घर में नहीं हो पाती. बच्चा छठी क्लास का लगता ही नहीं है.”
एनसीईआरटी की प्रोफेसर ऊषा बताती हैं कि डिजिटल डिवाइड का मसला गंभीर है. वह कहती हैं, "जिन बच्चों के पास कोई डिवाइस नहीं है, उनके लिए रेडियो के कार्यक्रम सहायक हो सकते हैं. एनसीईआरटी की ओर से टीवी पर ई-विद्या चैनल शुरु हुए हैं जो कक्षा एक से 12वीं क्लास के लिए है. पैरेंट्स और कम्युनिटी के सदस्यों को भी पढ़ाने का काम दिया जा सकता है. इस दौरान मूल्यांकन के लिए फोन पर मौखिक परीक्षण भी सहायक हो सकता है.”
नई रणनीति की जरूरत
इन 17 महीनों के दौरान बच्चों के नुकसान की भरपाई के लिए अब नई रणनीति बनाने की जरूरत महसूस की जा रही है. अगर अगले कुछ और महीनों में भी छोटे बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं तो इस समस्या से निपटने के लिए मेंटॉर बनाना शुरू किया गया है.
इंदौर के जिला परियोजना समन्वयक अक्षय राठौर बताते हैं, ”जिन बच्चों के पास स्मार्टफोन नहीं है उनके आस-पड़ोस के ऐसे 10वीं या 12वीं पास युवाओं को खोजा जाएगा जिनके पास स्मार्टफोन हों ताकि उन्हें मेंटॉर बनाया जा सके और वो पहली से आठवीं तक के बच्चों को पढ़ा सकें.”
इस चुनौती के बीच डिस्टेंस और आनलाइन शिक्षा ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है. नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग (एनईओएस) जैसे संस्थान की अहमियत और जरूरत बढ़ी है. संस्थान की चेयरपर्सन प्रोफेसर सरोज बताती हैं, ”सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि पेंटिंग-ड्रॉईंग जैसे कौशल की सीख भी शिक्षा का हिस्सा है और ये बातें एनआईओएस के पाठ्यक्रम में शामिल हैं.” (dw.com)
कोविड वैक्सीन के उत्पादन को पेटेंट की पाबंदियों से मुक्त करने के मुद्दे पर विश्व व्यापार संगठन में कोई सहमित नहीं बन पाई है. इसका अर्थ है कि विकासशील देशों का खुद ही वैक्सीन बनाने को कोशिश कामयाब नहीं हो पाएगी.
विश्व व्यापार संगठन की मंगलवार को हुई बैठक में भी कोविड-19 वैक्सीन के उत्पादन को पेटेंट मुक्त करने की भारत और उसके सहयोगी देशों की कोशिशें नाकाम रहीं. जेनेवा में संगठन के मुख्यालय में हुई बैठक में विभिन्न देशों के बीच कोई सहमति नहीं बन पाई.
विश्व व्यापार संगठन के प्रवक्ता कीथ रॉकवेल ने पत्रकारों को बताया कि इस ‘बेहद जज्बाती मुद्दे पर' नौ महीने के विचार-विमर्श का कोई नतीजा नहीं निकला है. अब सदस्य देश सितंबर की शुरुआत में एक अनौपचारिक बैठक करेंगे जिसके बाद 13-14 अक्टूबर को औपचारिक बैठक होगी.
मंगलवार को कई घंटे तक चली बातचीत के बाद रॉकवेल ने कहा, "हम इस बातचीत को किसी सूरत में नहीं रोकने वाले हैं. यह बहुत जरूरी मुद्दा है. यह बहुत जज्बाती मुद्दा है और इस पर बातचीत जारी रहेगी.” डब्ल्यूटीओ के 164 सदस्य हैं और वहां सारे निर्णय सहमति से ही लिए जाते हैं.
यूरोपीय देश साथ नहीं
भारत और दक्षिण अफ्रीका ने पिछले साल अक्टूबर में डबल्यूटीओ के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि कोविड वैक्सीन के उत्पादन को बौद्धिक संपदा अधिकार से मुक्त कर दिया जाए ताकि गरीब देश भी अपने यहां अपनी जरूरत की वैक्सीन का उत्पादन कर सकें.
इस प्रस्ताव के समर्थक देशों का कहना है कि पेटेंट मुक्त होने से विकासशील देशों में उत्पादन बढ़ेगा और ज्यादा से ज्यादा लोगों को जल्द से जल्द वैक्सीन लगाई जा सकेगी जो कोरोनोवायरस को रोकने के लिए जरूरी है.
दुनिया की बड़ी दवा कंपनियां और उनके देश इस प्रस्ताव का तीखा विरोध कर रहे हैं. उनका तर्क है कि उत्पादन बढ़ाने में पेटेंट अधिकार कोई बाधा नहीं हैं. इन कंपनियों का विचार है कि पेटेंट अधिकार से मुक्ति का नई खोजें करने की कोशिशों पर बुरा असर पड़ेगा.
भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव को अमेरिका और चीन समेत कई दर्जन देशों का समर्थन मिला है. लेकिन यूरोपीय देश और जापान व कोरिया इस प्रस्ताव के तगड़े विरोधी हैं. रॉकवेल ने कहा कि देशों का एक समूह ऐसा भी है जो इस समस्या का व्यवहारिक हल चाहता है.
कैसे बढ़ेगा उत्पादन?
रॉकवेल ने पत्रकारों को बताया कि सदस्य देश तेजी से उत्पादन बढ़ाने पर तो सहमत हुए हैं लेकिन यह लक्ष्य हासिल कैसे किया जाए, इसे लेकर कोई सहमति नहीं बन पाई है. उन्होंने कहा कि सेनेगल, बांग्लादेश, भारत, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, मोरक्को और मिस्र में जरूरत से ज्यादा उत्पादन की क्षमता तो है लेकिन उन्हें वैक्सीन के उत्पादन के लिए जरूरी तकनीक और व्यवहारिक ज्ञान की जरूरत है. रॉकवेल ने कहा, "उनमें क्षमता तो है. तो सवाल ये है कि उस क्षमता का इस्तेमाल किया कैसे जाए.”
जिन मुद्दों पर पेटेंट अधिकारों से मुक्ति का यह मामला अटका हुआ है, उनमें तकनीकी बातें ज्यादा हावी हैं. मसलन, मुक्ति कितने समय के लिए होगी और किन शर्तों पर होगी. इसके अलावा, बकौल रॉकवेल, यह भी बड़ा सवाल है कि पेटेंट अधिकारों की मुक्ति को लागू कैसे किया जाएगा और गोपनीय सूचनाओं को सुरक्षित कैसे रखा जाएगा.
समाचार एजेंसी एएफपी के मुताबिक दुनियाभर में कोविड वैक्सीन की 3.93 अरब खुराकें लग चुकी हैं. लेकिन उनमें से सिर्फ 0.3 प्रतिशत ही गरीब देशों में दी गई हैं, जहां दुनिया की 9 फीसदी आबादी रहती है.
रॉकवेल ने कहा, "विकासशील देशों में उत्पादन बढ़ाना यहां मौजूदा सभी के लिए अहम है ताकि अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया में ज्यादा से ज्यादा बाजुओं तक टीके पहुंच सकें.”
वीके/एए (रॉयटर्स, एएफपी)
उत्तराखंड के बाद अब कर्नाटक में बीजेपी को अपना मुख्यमंत्री बदलना पड़ा है. आखिर क्यों पार्टी एक के बाद एक मुख्यमंत्री बदल कर राज्य स्तर पर नेतृत्व में बदलाव ला रही है?
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
बी एस येदियुरप्पा के लिए यह प्रकरण इतिहास के दोहराए जाने जैसा है. 2011 में जब उन्हें भ्रष्टाचार का दोषी पाया गया था तब पार्टी के आदेश पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. इस बार अंतर यह है कि उन्होंने पार्टी आला कमान से मिल रहे संकेत को स्वीकार कर लिया और बिना आदेश मिले खुद इस्तीफा दे दिया.
अंतर जो भी हो, इस पूरे प्रकरण की वजह से पूरे दक्षिण भारत में बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री के रूप में जाने जाने वाले येदियुरप्पा चौथी बार मुख्यमंत्री का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. उन्हें पद से हटाए जाने के पार्टी के फैसले के पीछे कई कारण बताए जा रहे हैं.
अलिखित नियम
सबसे ज्यादा चर्चा उनकी उम्र को लेकर है. वह 78 वर्ष के हो गए हैं और बीजेपी के नेता पार्टी में पदों की जिम्मेदारी सौंपने के लिए 75 वर्ष की आयु सीमा को एक अलिखित नियम बताते रहे हैं. येदियुरप्पा ने खुद भी अपने एक संबोधन में इसकी चर्चा की.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का धन्यवाद करते हुए उन्होंने कहा, "पार्टी ने 75 वर्ष से ज्यादा आयु वाले किसी भी नेता को कोई पद नहीं दिया लेकिन मेरी इज्जत करते हुए उन्होंने मुझे दो साल तक मुख्यमंत्री रहने दिया."
हालांकि सवाल यह उठता है कि अगर येदियुरप्पा 2019 में 76 वर्ष की उम्र में मुख्यमंत्री पद सौंपे जाने के योग्य थे, तो फिर अचानक 78 वर्ष की आयु में अयोग्य कैसे हो गए. और वह भी कार्यकाल के बीच में. कर्नाटक की राजनीति पर नजर बनाए रखने वालों का मानना है कि असली कारण कुछ और है.
भ्रष्टाचार का बोझ
असली कारण को लेकर भी कई अटकलें हैं. मीडिया में आई कुछ खबरों में येदियुरप्पा के खिलाफ एक बार फिर भ्रष्टाचार के कई आरोप सामने आने की बात की गई है. कुछ ही सप्ताह पहले भ्रष्टाचार के एक पुराने मामले में कर्नाटक के लोकायुक्त द्वारा दायर समापन रिपोर्ट को एक विशेष अदालत ने खारिज कर दिया था.
इस विशेष अदालत में सिर्फ विधायकों और सांसदों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की सुनवाई होती है. इस मामले में येदियुरप्पा के खिलाफ मूल शिकायत 2013 में दर्ज की गई थी और कर्नाटक हाई कोर्ट ने दिसंबर 2020 में इस मामले में जांच के आदेश दिए थे.
विशेष अदालत ने अब लोकायुक्त के साथ जुड़े पुलिस विभाग को मामले में आगे जांच कर 21 अगस्त को रिपोर्ट पेश करने को कहा है. दिसंबर 2020 के बाद से येदियुरप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार के और भी पुराने मामलों ने तूल पकड़ ली है. इनमें से एक मामला 2011 का है, एक 2015 का और एक 2020 का.
पार्टी के लिए संकट
2011 वाला मामला तो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया था, लेकिन येदियुरप्पा सर्वोच्च अदालत से स्थगन आदेश लेने में सफल हुए थे. जानकारों का मानना है कि संभव है कि पार्टी ने भ्रष्टाचार के इतने सारे आरोपों का बोझ ढोने से बेहतर यही समझा कि मुख्यमंत्री से इस्तीफा ले लिया जाए.
हालांकि पार्टी के लिए कर्नाटक में येदियुरप्पा को हटा कर दूसरा मुख्यमंत्री नियुक्त करना आसान नहीं है. येदियुरप्पा राज्य की राजनीति पर बड़ा असर डालने वाले लिंगायत समाज से आते हैं. राज्य में करीब 17 प्रतिशत लोग लिंगायत समाज के माने जाते हैं और यह आबादी के हिसाब से राज्य में सबसे बड़ा समुदाय है.
इस समाज के राज्य में कई बड़े मठ हैं जिनका राजनीति पर बड़ा असर है. लगभग सभी मठ येदियुरप्पा का समर्थन करते हैं. कुछ ही दिन पहले इन सभी के मठाधीश येदियुरप्पा को समर्थन का प्रदर्शन करने के लिए उनके घर पर इकट्ठा भी हुए थे. (dw.com)
नई दिल्ली, 27 जुलाई | केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने मंगलवार को कहा कि उसने मध्य प्रदेश में भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) के लेखा अधिकारी सुबोध मेहरा को भ्रष्टाचार के एक मामले में गिरफ्तार किया है। सीबीआई के एक अधिकारी ने यहां बताया कि मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में एक शिकायत पर तैनात मेहरा के खिलाफ मामला दर्ज होने के बाद गिरफ्तारी की गई। अधिकारी ने कहा कि शिकायत में यह आरोप लगाया गया था कि मेहरा ने शिकायतकर्ता द्वारा इटारसी में बीएसएनएल कार्यालय को मुहैया किए गए वाहनों के एवज में भुगतान के लिए 5.50 लाख रुपये के अपने लंबित बिलों को संसाधित करने और अग्रेषित करने के लिए शिकायतकर्ता से 25,000 रुपये की रिश्वत की मांग की थी।
अधिकारी ने आगे कहा कि आरोप लगाया गया कि बातचीत के बाद आरोपी ने 20,000 रुपये की रिश्वत के लिए समझौता किया और शिकायतकर्ता को एक निजी व्यक्ति के बैंक खाते में रकम ट्रांसफर करने को कहा। वह निजी व्यक्ति पहले इटारसी में केनरा बैंक के पास वाले बीएसएनएल कार्यालय में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम कर रहा था।
उन्होंने कहा, शिकायतकर्ता द्वारा मंगलवार को कथित रूप से उक्त बैंक खाते में 20,000 रुपये की राशि हस्तांतरित की गई और इसकी सूचना आरोपी को दी गई।
उन्होंने कहा, "ट्रैप की कार्यवाही और आगे की जांच के दौरान मेहरा को गिरफ्तार कर लिया गया।"
अधिकारी की गिरफ्तारी के बाद सीबीआई ने मप्र के विदिशा जिले के इटारसी में मेहरा और सिरोंज के परिसरों की तलाशी ली।(आईएएनएस)
नई दिल्ली, 27 जुलाई | इंफार्मेशन एंड टेक्नोलॉजी की पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी की बैठक का भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के सांसदों ने मंगलवार को बहिष्कार कर दिया। संबंधित कमेटी में शामिल भाजपा सांसदों ने चेयरमैन शशि थरूर पर मनमानी करने का आरोप लगाया। भाजपा सदस्यों का आरोप है कि शशि थरूर बैठक में अपना एजेंडा चलाने की कोशिश करते हैं। समिति के सदस्यों की सहमति से एजेंडा तय किया जाना चाहिए, लेकिन वह खुद एजेंडा तय करते हैं। भाजपा सांसदों ने चेयरमैन शशि थरूर पर गोपनीयता भी भंग करने का आरोप लगाते हुए कहा कि सदस्यों की सूचना के बगैर वह एजेंडे को सार्वजनिक कर देते हैं। भाजपा के लोकसभा सांसद निशिकांत दुबे के नेतृत्व में पार्टी सांसदों ने मंगलवार को आईटी की संसदीय स्टैंडिंग कमेटी की बैठक का बहिष्कार किया। भाजपा सांसदों ने कमेटी के चेयरमैन शशि थरूर के खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से भी शिकायत करने की बात कही। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने मीडिया से कहा कि मीटिंग का एजेंडा सदस्यों को एडवांस में मिलना चाहिए, लेकिन नहीं दिया गया। बैठक ऐसे समय में रखी गई, जब दोनों सदन चल रहे हैं।
इंफार्मेशन एंड टेक्नोलॉजी की संसदीय स्टैंडिंग कमेटी में कुल 32 सदस्य हैं। इस कमेटी की अध्यक्षता कांग्रेस के लोकसभा सांसद शशि थरूर करते हैं। भाजपा के निशिकांत दुबे, राज्यवर्धन सिंह राठौर, सैय्यद जफर इस्लामम, तेजस्वी सूर्या, प्रवेश वर्मा, लॉकेट चटर्जी आदि ने बैठक का बहिष्कार किया।
बता दें कि आज चेयरमैन शशि थरूर ने आईटी पर संसदीय स्थाई समिति की बैठक बुलाई थी, जिसका एजेंडा सिनेमैटोग्राफी संशोधन विधेयक 2021 पर चर्चा करने से जुड़ा रहा। इस विधेयक को लोकसभा में पास करने की तैयारी है। (आईएएनएस)
बेंगलुरु, 27 जुलाई | कर्नाटक के निवर्तमान मुख्यमंत्री बी. एस. येदियुरप्पा बेंगलुरु के एक निजी होटल में विधायक दल की बैठक के आयोजन स्थल पर पहुंच चुके हैं। यहां येदियुरप्पा के उत्तराधिकारी के चयन को लेकर महत्वपूर्ण चर्चा होने वाली है। केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और किशन रेड्डी को बैठक के लिए पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया है और राष्ट्रीय महासचिव सी. टी. रवि भी उनके साथ कार्यक्रम स्थल पर मौजूद हैं।
दो पर्यवेक्षकों के साथ येदियुरप्पा ने जीत का निशान दिखाते हुए कार्यक्रम स्थल में प्रवेश किया। बैठक कुछ ही क्षणों में शुरू होने की उम्मीद है। (आईएएनएस)
मुंंबई, 27 जुलाई: महाराष्ट्र के महानगर मुंबई से एक चौंकाने वाली खबर आई है. 26 साल की एक डॉक्टर को 13 महीने में तीन बार कोरोना हुआ, दो बार तो यह वैक्सीन की दोनों डोज़ लेने के बाद संक्रमण का शिकार बनी. इस डॉक्टर की मां, पिता और भाई भी वैक्सीन की दोनों डोज़ के बाद जुलाई में पहली बार कोविड पॉज़िटिव हुए और पूरा परिवार अस्पताल में भर्ती हुआ. डॉक्टर और उनके भाई के स्वॉब की जीनोम एनालिसिस चल रही है.ये पता लगाया जा रहा है कि कहीं ये वायरस का कोई नया स्ट्रेन तो नहीं? 26 साल की डॉक्टर शृष्टि हलारी बीते 11 महीनों में एक या दो नहीं बल्कि तीन बार कोविड पॉज़िटिव हुई हैं. इसमें भी हैरानी की बात ये है कि वैक्सीन की दोनो डोज़ लेने के बाद शृष्टि दो बार कोविड पॉज़िटिव हुईं.
सिर्फ़ डॉ शृष्टि ही नहीं, इनका पूरा परिवार, माता-पिता और भाई भी अप्रैल में वैक्सीन की दोनों डोज़ लेने के बाद जुलाई में कोविड पॉज़िटिव हुए थे. मुलुंड के वीर सावरकर अस्पताल में कोविड ड्यूटी पर तैनात डॉ शृष्टि हलारी को 17 जून 2020 को पहली बार कोरोना हुआ लेकिन बेहद कम लक्षण थे. कोविशील्ड टीके की पहली डोज़ इन्होंने 8 मार्च को ली और दूसरी डोज़ 29 अप्रैल को. पूरा परिवार साथ में वैक्सीनेट हुआ. लेकिन क़रीब एक महीने बाद 29 मई को डॉ शृष्टिदूसरी बार कोविड पॉज़िटिव हुईं. उनमें लक्षण थे लेकिन घर पर ही ठीक हुईं. मामला यही नहीं खत्म नहीं होता. क़रीब सवा महीने बाद 11 जुलाई को फिर डॉक्टर शृष्टि (तीसरी बार) कोविड पॉज़िटिव हुईं. इस बार टेस्ट में पूरा परिवार— मां, पिता और भाई भी पॉज़िटिव निकले. सभी को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और रेमडेसिविर की भी ज़रूरत पड़ी. यह मामला इसलिए भी चौंकाता है क्योंकि डॉक्टर शृष्टि में वैक्सीन के बाद अच्छी एंटीबॉडी बनी थी. इनके पिता भी डॉक्टर हैं, पूरे परिवार को कोई न कोई बीमारी है लेकिन शृष्टि को नहीं. इसके बाद भी वे तीन बार कोरोना पॉज़िटिव हुईं.
डॉक्टर शृष्टि बताती है, 'तीसरी बार मुझे ज़्यादा तकलीफ़ हुई. मैं और मेरा पूरा परिवार अस्पताल में भर्ती हुए. रेमडेसिविर की ज़रूरत पड़ी. मेरे भाई और मां को डायबटीज़ है, मेरे पिता को हायपरटेंशन और कोलेस्ट्रॉल है. मुझे कोई कोमॉर्बिडिटी नहीं है. मेरे भाई को सांस लेने में तकलीफ़ हुई इसलिए दो दिन ऑक्सीजन पर रखा गया था. मैंने अपना एंटीबॉडी टेस्ट भी करवाया था, 600 एंटीबॉडी थी यानी वैक्सीन ने अच्छा काम दिखाया पर शायद ये कोई नया स्ट्रेन है.'मुंबई के कई अस्पताल और डॉक्टर बताते हैं कि टीके के दोनों डोज़ के बाद भी लगभग हर एज ग्रुप में संक्रमण तो दिखा है पर ऐसे मरीज़ जल्द रिकवर करते हैं.
वाकहार्ड्ट हॉस्पिटल के हेड (इंटरनल मेडिसिन) डॉ. बेहराम पारदीवाला कहते हैं, 'मैंने ऐसे मरीज़ काफ़ी देखे हैं जो वैक्सीन के दोनों डोज़ के बाद कोविड पॉज़िटिव हुए हैं. सभी उम्र के मरीज़ देखे हैं जिनमें वैक्सीन के बाद ब्रेकथ्रू इन्फ़ेक्शन है] लेकिन ये भी सच है fd मरीज़ पर टीके की वजह से बीमारी का असर कम होता है और ये जल्दी रिकवर करते हैं.'डॉक्टर शृष्टि की बात करें तो उन्होंने MBBS चीन से किया है. पहले संक्रमण के बाद ही इन्होंने कोविड ड्यूटी से ब्रेक लेकर PG की तैयारी शुरू की लेकिन बार-बार संक्रमित होने से पढ़ाई में ख़लल पड़ रहा है. 15 जुलाई को डॉ शृष्टि और इनके भाई का स्वॉब इकट्ठा कर जिनोम एनालिसिस किया जा रहा है ताकि इस मामले को अच्छी तरह समझा जा सके.
देश का पूर्वोत्तर इलाका आजादी के लंबे समय बाद भी अलग-थलग नजर आता है. यह इलाका अक्सर किसी बड़ी घटना या उग्रवाद की वजह से ही सुर्खियों में आता है. ताजा मामला भी इसका अपवाद नहीं है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
लंबे अरसे से असम और मिजोरम के बीच जारी सीमा विवाद रविवार को इतना भड़क गया कि न सिर्फ दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री आमने-सामने आ गए, दोनों राज्यों की पुलिस भी भिड़ गई और इसमें असम पुलिस के छह जवानों की मौत हो गई. इसके अलावा हिंसक झड़पों में पचास से ज्यादा लोग घायल हो गए. यूं तो असम का इलाके के कई राज्यों के साथ दशकों से सीमा विवाद रहा है. लेकिन इतने बड़े पैमाने पर हिंसा और मौतों का यह पहला मामला है.
दरअसल देश की आजादी के बाद असम ही इलाके का इकलौता राज्य था. उसके बाद धीरे-धीरे प्रशासनिक सहूलियत को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर अलग राज्यों का गठन किया जाता रहा. लेकिन उस समय दोनों पक्षों से विचार-विमर्श किए बिना सीमा का जिस तरह निर्धारण किया गया था, वही विवाद की मूल वजह है.
यही वजह है कि कभी मिजोरम के साथ विवाद भड़कता है, तो कभी मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड के साथ. अब तक सत्ता में रहने वाली राजनीतिक पार्टियों ने भी इस गंभीर समस्या की ओर से चुप्पी साधे रखी है.
दरअसल, आजादी के बाद से ही असम, नागालैंड, मणिपुर और त्रिपुरा जैसे राज्यों में उग्रवाद की समस्या ने जिस गंभीरता से सिर उठाया, उससे बाकी तमाम मुद्दे हाशिए पर चले गए. केंद्र और राज्यों का पूरा ध्यान उग्रवाद पर ही लगा रहा. हालांकि उग्रवाद पर अंकुश लगाने में कितनी कामयाबी मिली, इस पर सवाल हो सकते हैं.
इसकी वजह यह है कि तमाम दावों के बावजूद इलाके में उग्रवाद का खात्मा नहीं किया जा सका है. केंद्र की उपेक्षा और इन राज्यों में सत्ता संभालने वाली राजनीतिक पार्टियां सीमा विवाद जैसे गंभीर मुद्दों को सुलझाने की बजाय अपने हितों को साधने में ही जुटी रहीं.
इनर लाइन परमिट भी वजह
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पूर्वोत्तर में उग्रवाद अब तक तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक ऐसा कवच रहा है जिसके पीछे सीमा विवाद और आम लोगों से जुड़ी ऐसी तमाम समस्याएं छिपती रही हैं. सरकारों के ऐसे रवैए का नतीजा खासकर सीमावर्ती इलाकों में रहने वालों को भुगतना पड़ता है. विवादित इलाके में सरकार न तो कोई विकास योजना लागू करती है और न ही वहां रहने वालों को सरकारी योजनाओं का खास लाभ मिल पाता है.
असम-मिजोरम सीमा विवाद हो या असम-मेघालय सीमा विवाद, इन दोनों राज्यों और असम के बीच अक्सर झड़प होती रही है. खासकर बीते दो-तीन वर्षों के दौरान इनकी फ्रीक्वेंसी काफी बढ़ गई है. दरअसल, जब असम से काट कर मिजोरम या मेघालय का गठन किया गया, तो इलाके में आबादी बहुत कम थी और सीमावर्ती इलाका जंगल से घिरा था.
आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से अब लोगों की जरूरतों के हिसाब से जब जगह कम पड़ने लगी तो जमीन का मुद्दा उठने लगा. लेकिन शुरुआती दौर में ही इसे सुलझाने की बजाय राज्य सरकार और केंद्र सरकार इस ओर से आंखें मूंदे रही. मिजोरम पुलिस के हाथों असम पुलिस के छह जवानों की मौत इसी उदासीनता का नतीजा है. असम-मिजोरम सीमा विवाद को सुलझाने के लिए वर्ष 1995 से कई दौर की बातचीत हो चुकी है. लेकिन उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक इनर लाइन परमिट (आईएलपी) प्रणाली भी असम के साथ कम से कम चार राज्यों के सीमा विवाद की प्रमुख वजह है. इलाके के चार राज्यों - अरुणाचल, नागालैंड, मिजोरम और मणिपुर में इनर लाइन परमिट प्रणाली लागू है.
इसके बिना बाहर का कोई व्यक्ति इन राज्यों में नहीं पहुंच सकता. इसके अलावा वह परमिट में लिखी अवधि तक ही वहां रुक सकता है. लेकिन उन राज्यों के लोग बिना किसी रोक के असम में आवाजाही कर सकते हैं.
साठ के दशक से चल रहा है विवाद
वर्ष 1962 के बाद असम से काट कर कई नए राज्यों के गठन का सिलसिला शुरू हुआ था. लेकिन तब सीमाओं का सही तरीके से निर्धारण नहीं किया गया था. नागालैंड के साथ असम की करीब 512 किलोमीटर लंबी सीमा है और दोनों राज्यों के बीच वर्ष 1965 के बाद से सीमा विवाद को लेकर हिंसक झड़पें होती रही हैं. वर्ष 1979 और वर्ष 1985 में हुई दो बड़ी हिंसक घटनाओं में कम-से-कम 100 लोगों की मौत हुई थी. इस विवाद की सुनवाई अब सुप्रीम कोर्ट में चल रही है.
इसी तरह असम और अरुणाचल प्रदेश बीच सीमा पर सबसे पहले वर्ष 1992 में हिंसक झड़प हुई थी. उसी समय से दोनों पक्ष एक-दूसरे पर अवैध अतिक्रमण और हिंसा भड़काने के आरोप लगाते रहते हैं. असम और मेघालय सीमा पर भी अक्सर हिंसक झड़पों की खबरें आती रहती हैं.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि आजादी के बाद प्रशासनिक सहूलियत के लिए असम से काट कर बनाए गए अलग राज्यों की सीमाएं जनजातीय इलाकों और उनकी पहचान के साथ मेल नहीं खाती हैं. इस वजह से सीमावर्ती इलाकों में लगातार तनाव बना रहता है और अक्सर हिंसक झड़पें होती रहती हैं.
असम में सिलचर की कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष मोहन देव की पुत्री सुष्मिता देब कहती हैं, "यह हिंसा पहले से चल रही थी. चिंता की बात है कि बीजेपी ने इलाके के तमाम दलों के बीच बेहतर तालमेल के लिए नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) का गठन किया था. लेकिन वह भी इस समस्या का समाधान नहीं कर पा रहा है. सीमा विवाद सुलझाने की दिशा में अब तक कोई ठोस पहल नहीं की गई है."(dw.com)
नई दिल्ली : कर्नाटक का नया मुख्यमंत्री चुनने के लिए राज्य के BJP विधायकों की बैठक मंगलवार रात को आयोजित होगी. गौरतलब है कि राज्य के सीएम बीएस येदियुरप्पा ने सोमवार को पद से इस्तीफा दे दिया है. उम्मीद है कि विधायकों की बैठक के बाद येदियुरप्पा के उत्तराधिकारी का नाम तय हो जाएगा.सूत्रों के अनुसार, बीजेपी ने राज्य बीजेपी विधायक दल की शाम 7 बजे होने वाली बैठक के लिए दो केंद्रीय मंत्रियों धर्मेंद प्रधान और जी किशन रेड्डी को पर्यवेक्षक नियुक्त किया है. दोनों मंत्री बेंगलुरू के लिए रवाना हो चुके हैं और पार्टी के कर्नाटक के प्रभारी अरुण सिंह के साथ बैठक में हिस्सा लेंगे.यह पूछे जाने पर कि कर्नाटक के सीएम पद के लिए कौन चुना जा सकता है, पार्टी सांसद और निवर्तमान सीएम येदियुरप्पा के बेटे बीएस राघवेंद्र ने कहा, 'इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी.'
उन्होंने कहा था, 'बीजेपी के फैसलों को लेकर कोइ भविष्यवाणी नहीं की जा सकी. उदाहरण के तौर पर यूपी में योगी आदित्यनाथ और महाराष्ट्र में देवेंद्र फडवणीस...यहां तक कि कैबिनेट फेरबदल भी विभिन्न मापदंडों के आधार पर किया गया था, ऐसे में कुछ भी कहना मुश्किल है. 'राघवेंद्र ने कहा था कि सोमवार को ही इस्तीफा हुआ है. हाईकमान इस मसले पर चर्चा में जुटा है कि कर्नाटक का नेतृत्व कौन करेगा.
जानकारों के मुताबिक, सामान्य तौर पर केंद्रीय पर्यवेक्षक विधायकों को नए नेता के रूप में केंद्रीय नेतृत्व की पसंद से अवगत कराते है और उस पर आम सहमति बनाने का प्रयास करते हैं.पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महासचिव बी एल संतोष पहले से ही बेंगलुरू में डेरा डाले हुए हैं और पार्टी नेताओं के साथ बैठक कर उनकी राय ले रहे हैं. येदियुरप्पा कर्नाटक के प्रभावशाली लिंगायत समुदाय से आते हैं. ऐसी चर्चा है कि लिंगायत समुदाय के ही किसी प्रभावशाली नेता को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपने पर भाजपा में विचार चल रहा है.येदियुरप्पा के संभावित उत्तराधिकारी के रूप में जिन नामों की चर्चा चल रही है, उनमें केंद्रीय मंत्री प्रल्हाद जोशी, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव सी टी रवि, बी एल संतोष और राज्य विधानसभा के अध्यक्ष विश्वेश्वर हेगड़े कागेरी शामिल हैं.राज्य के गृह मंत्री बसवराज एस बोम्मई, राजस्व मंत्री आर. अशोक और उपमुख्यमंत्री सीएन अश्वत्थ नारायण के नाम भी चर्चा में हैं. गौरतलब है कि येदियुरप्पा ने सोमवार को मुख्यमंत्री के रूप में अपने दो साल का कार्यकाल पूरा किया. इस अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने अपने इस्तीफे की घोषणा की थी. इसके बाद उन्होंने राज्यपाल थावरचंद गहलोत से राजभवन में मुलाकात की और उन्हें अपना इस्तीफा सौंप दिया था. (भाषा)
पीले सोने के नाम से विख्यात बिहार की सोन नदी की रेत (बालू) ने राज्य के नेताओं-नौकरशाहों की नींद हराम कर रखी है. मालामाल होने की राह में जैसे ही सरकार की कार्रवाई आ गई, भ्रष्टाचार की परतें उघड़ती चली गईं.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट
बिहार में बालू के अवैध खनन में माफिया और अधिकारियों पर कार्रवाई हुी है. लेकिन, जैसा कि पहले भी होता रहा है, कार्रवाई की गाज अफसरों पर ही गिरी, सफेदपोश बच निकले. बालू के अवैध उत्खनन तथा माफिया से साठगांठ के आरोप में दो पुलिस अधीक्षकों (एसपी) समेत परिवहन, खान व भूतत्व, पुलिस तथा राजस्व व भूमि सुधार विभाग के 41 अधिकारियों को पदों से हटा दिया गया. इस संबंध में कार्रवाई अभी जारी है.
आर्थिक अपराध इकाई (ईओयू) द्वारा बालू लूट में संलिप्तता के आरोपी इन 41 अफसरों की संपत्ति की जांच की जाएगी और अवैध संपत्ति का साक्ष्य मिलने पर इनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाएगा. ईओयू ने इसके लिए तीन दर्जन अधिकारियों की टीम बनाकर कार्रवाई शुरू कर दी है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस नीति वाले बिहार में किसी एक मामले में पहली बार इतने अधिकारियों के खिलाफ संपत्ति जांच की कार्रवाई की जा रही है.
दरअसल, दो साल पहले तक बिहार के 24 जिलों में बालू का खनन हो रहा था. इन जिलों में बालू घाटों की बंदोबस्ती की गई थी यानी सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को खनन का पट्टा दिया गया था. किंतु, 2020-24 की बंदोबस्ती के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति नहीं मिली. तब राज्य सरकार ने एक व्यवस्था के तहत 2015-19 के बालू ठेकेदारों को बंदोबस्ती की राशि में 50 फीसद की वृद्धि के साथ खनन की इजाजत दे दी.
लेकिन 14 जिलों के ठेकेदार ही इस व्यवस्था से बालू घाटों के संचालन के लिए सहमत हुए. साल 2021 के लिए 30 मार्च के बाद बंदोबस्त की पुरानी राशि में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद सरकार ने फिर से खनन का पट्टा दिया, लेकिन महज आठ जिलों के बंदोबस्त धारी ही इसके लिए तैयार हुए.
सरकारी व्यवस्था के अनुसार अब केवल नवादा, किशनगंज, बांका, मधेपुरा, वैशाली, बक्सर, बेतिया व अरवल में बालू खनन हो रहा है. किंतु वास्तविक स्थिति इसके उलट है. शेष 16 जिलों में भी बालू के अवैध उत्खनन का कार्य बदस्तूर जारी है. इससे बालू माफिया की चांदी हो गई है. सरकार के पास आठ जिले हैं तो उनके पास 16 जिले हैं.
अवैध कमाई का गणित
जानकार बताते हैं कि बालू खनन का मौजूदा तौर-तरीका ही अवैध कमाई को प्रोत्साहित करने वाला है. पिछले तीन साल में सरकार ने ठेके की राशि में ढाई गुणा वृद्धि की, किंतु सरकार की आमदनी घट गई. साफ है, बालू माफिया और अवैध कारोबारियों की आमदनी बढ़ती गई.
ऐसा इसलिए संभव हुआ कि इन इलाकों में ये वैध बंदोबस्त धारियों की दर से ही अवैध उत्खनन कर बालू की बिक्री करने लगे. बालू के इस खेल में जनता ने तो महंगा बालू खरीदा, लेकिन सरकार का राजस्व नहीं बढ़ा.
लूट की गणित का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रेत माफिया के दो माह के कमाई के बराबर सरकार के पूरे साल की आमदनी है. जाहिर है, जनता का पैसा इन लुटेरों की जेब में ही गया. सबसे बेहतर रेत के रूप में विख्यात सोन नदी के पीले बालू का सबसे बड़ा स्त्रोत भोजपुर जिले का कोईलवर क्षेत्र है. सरकार की नजर में इस इलाके में बालू का खनन नहीं हो रहा है, किंतु हकीकत में यहां तीन हजार से अधिक नावें रोजाना 12 करोड़ से अधिक का बालू लूटतीं हैं.
एक बड़ी नाव से सरकारी दर के आधार पर कम से कम 40,000 रुपये के राजस्व की चोरी होती है. बाजार में यही बालू माफिया चार से पांच गुणा ऊंची दर पर बेचते हैं, अर्थात 48 से 60 हजार रुपये की राशि प्रतिदिन उनकी जेब में जाती है. 2020-21 में सरकार को पूरे राज्य से महज 678 करोड़ रुपये की आय हुई, जो केवल कोईलवर के अवैध कारोबारियों के दो महीने की आय है.
सरकार को एक पैसा दिए बिना ये अपनी जेब भरते रहे. वैसे फिलहाल वैध बालू खनन पर भी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने एक जून से रोक लगा रखी है. सरकारी दस्तावेजों में भले ही खनन बंद हो किंतु हकीकत में किसी जिले में बालू का खनन बंद नहीं है. रोज रेत ढोने वाली नावें, पोकलेन मशीनें अपने काम में लग जाती हैं.
आखिरकार यह सब नेताओं व पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत के बिना कैसे संभव है? प्रदेश के खान व भूतत्व मंत्री जनक राम भी मानते हैं कि अवैध खनन से सरकार को औसतन सात सौ करोड़ का सालाना नुकसान पहुंच रहा है जबकि राज्य सरकार के लिए बालू खनन ही राजस्व का सबसे बड़ा स्त्रोत है.
वह कहते हैं, ‘‘अवैध खनन पर रोक को लेकर लगातार जिला स्तर के अधिकारियों को लिखता रहा हूं. बालू माफिया और अधिकारियों के गठजोड़ के बारे में मुख्यमंत्री को भी बताया है. अंतत: अब ऐसे अधिकारियों पर कार्रवाई की जा रही है.''
थानावार बढ़ती है कीमत
रेत की कालाबाजारी से मोटी कमाई का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भोजपुर में तीन हजार प्रति सीएफटी (वर्ग फुट) मिलने वाला बालू पश्चिम चंपारण जिले में 15 हजार रुपये में बिकता है. इसी तरह अरवल में 6,500 रुपये में मिलने वाला बालू पटना आते-आते 13 हजार का हो जाता है. साफ है जितने थाने से रेत ले जा रहा वाहन गुजरता है, उसी के अनुसार उसकी कीमत भी बढ़ती जाती है. और, बढ़ा हुआ यह पैसा तो सरकारी खजाने में जाता नहीं है.
उत्तर बिहार की नदियों के बालू की गुणवत्ता अच्छी नहीं होती, इसलिए यहां बालू का खेल दक्षिण बिहार जैसा नहीं है. बालू की तस्करी के लिए औरंगाबाद जिला सबसे अधिक बदनाम है. यहां सोन, पुनपुन व बटाने नदी से बालू निकाला जाता है जो गाजीपुर, वाराणसी व फैजाबाद समेत अन्य जिलों में जाता है.
इसके बाद सबसे ज्यादा लूट भोजपुर में मची है. यहां बालू का उत्खनन करने वाली ब्राडसन कंपनी ने इस साल एक मई से काम बंद कर दिया. उसके अनुसार माफिया उसे यहां काम करने नहीं दे रहे थे. इसके बाद यहां बालू की लूट शुरू हो गई. इसे रोकने के लिए तीन सौ से अधिक छापेमारी की गईं, जिसके तहत करीब सवा सौ एफआइआर दर्ज किए गए, दो सौ से अधिक लोगों की गिरफ्तारी हुई, करीब ढाई करोड़ से ज्यादा जुर्माना वसूला गया और एक हजार वाहन जब्त किए गए, किंतु बालू लूट का सिलसिला नहीं रूका.
केवल भोजपुर जिले में एक साल के अंदर 12 पुलिसकर्मियों को जेल जाना पड़ा है. यहां का बालू राज्य के अन्य जिलों के अलावा उत्तर प्रदेश तक जाता है. यहां की खनन पट्टाधारी ब्राडसन कमोडिटीज प्राइवेट लिमिटेड नामक कंपनी थी जिसे एक अरब 48 करोड़ 41 लाख में बंदोबस्त का ठेका मिला था.
जानकार बताते हैं कि ब्राडसन कंपनी को पर्दे के पीछे से सुभाष यादव चलाते हैं जिनका लालू परिवार से नजदीकी रिश्ता रहा है. हालांकि सुभाष यादव इससे इंकार करते रहे हैं. राजद के टिकट पर वह झारखंड के चतरा से लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं.
आखिरकार बालू की लूट को रोकने में नाकाम रहने के आरोप में सरकार ने दो पुलिस अधीक्षकों (एसपी), दो जिला परिवहन अधिकारियों (डीटीओ), पांच खनन पदाधिकारियों (माइनिंग अफसर), एक अनुमंडल अधिकारी (एसडीओ), पांच अंचल अधिकारियों (सीओ) तथा तीन एमवीआई समेत डेढ़ दर्जन पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को एक बार में उनके पद से हटा दिया.
बताया जाता है कि ईओयू ने बालू माफिया से गठजोड़ के संबंध में करीब आधा दर्जन जिलों के पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका की जांच कर रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, जिसके आधार पर कार्रवाई की गई.
बालू लूट पर नक्सलियों की भी नजर
जांच के क्रम में यह भी पता चला है कि लाल बालू की काली कमाई के खेल में नक्सलियों ने भी जोर-आजमाइश शुरू कर दी है. खुफिया एजेंसियों को इसके प्रमाण भी मिले हैं. बालू की लूट में नक्सलियों की इंट्री को लेकर खुफिया एजेंसियों ने सरकार को सतर्क भी किया है.
औरंगाबाद, रोहतास, अरवल, भोजपुर और पटना से गुजरने वाली सोन नदी का अधिकांश इलाका नक्सल प्रभावित रहा है. कहा जाता है कि नक्सली पहले तो बालू माफिया से लेवी वसूलते थे, किंतु मोटी कमाई को देखकर वे भी इसके अवैध धंधे में उतर चुके हैं.
जानकार बताते हैं कि सबसे बड़ी चिंता यह है कि अगर बालू की तस्करी में नक्सलियों ने अपनी पकड़ बना ली तो उनके पास न तो पैसों की कमी रहेगी और न ही असलहों की. फिर उसी के बूते नक्सली संगठन एक बार फिर से राज्य में दबदबा कायम करने की कोशिश करेंगे, जो किसी भी स्थिति में उचित नहीं होगा.
इस संबंध में एडीजी (पुलिस मुख्यालय) जितेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘अवैध खनन में नक्सलियों को रोकना एक बड़ी चुनौती है, लेकिन हम इसके लिए तैयार हैं. हमारी स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) इसमें माहिर है. इसी के बदौलत सुदूर इलाके में हम नक्सलियों को खत्म करने में कामयाब रहे हैं.''
बालू की मनमाने तरीके से बेतहाशा बढ़ती कीमत तथा अवैध खनन पर रोक नहीं लगा पाने का कलंक झेल रही सरकार ने बिहार खनिज नियमावली, 2019 में भी बदलाव कर दिया है. इसके तहत अवैध रूप से खनन किए गए बालू के मूल्य का 25 गुणा जुर्माना वसूला जाएगा. इस काम में लगे वाहन जब्त होंगे और फिर उन्हें नीलाम कर दिया जाएगा. वहीं अवैध खनन के आरोप में पकड़े गए लोगों को दो साल की सजा दी जाएगी.
देखने वाली बात तो यह होगी कि इस नियमावली पर कितनी सख्ती से पुलिस-प्रशासन व संबंधित विभाग द्वारा अमल किया जाएगा, क्योंकि बालू की लूट रोकने के तमाम उपायों के बावजूद लूट तो होती ही रही है. (dw.com)
भारत के दो राज्यों असम और मिजोरम के बीच सीमाओं को लेकर हिंसक विवाद हो रहा है. इस विवाद के कारण सोमवार को भड़की हिंसा में असम पुलिस के पांच जवानों की जान जा चुकी है. इस विवाद की जड़ 146 साल गहरी है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट
असम-मिजोरम सीमा विवाद ने एक बार फिर हिंसक रूप ले लिया और असम पुलिस के पांच जवानों की मौत हो गई. लेकिन यह पहली बार नहीं है जब इन दो राज्यों के बीच सीमा विवाद भड़का है.
पिछले साल अक्टूबर में भी असम और मिजोरम के लोगों के बीच झड़पें हुई थीं. एक ही हफ्ते के अंदर दो बार झड़पों में तब कई लोग घायल हुए थे और झोपड़ियां व दुकानें जला दी गई थीं.
क्या है विवाद?
असम और मिजोरम की सीमाओं पर विवाद कुछ क्षेत्र को लेकर है जिसे दोनों तरफ के लोग अपना बताते हैं. असम और मिजोरम की सीमा लगभग 165 किलोमीटर लंबी है. लेकिन ब्रिटिश युग में मिजोरम का नाम लुशाई हिल्स हुआ करता था और यह असम का एक जिला था.
विवाद की जड़ में 146 साल पुराना एक नोटिफिकेशन है. 1873 के बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेग्युलेशन एक्ट के तहत 1875 में एक नोटिफिकेशन जारी हुआ. इस नोटिफिकेशन में लुशाई हिल्स को कछार के मैदान से अलग किया गया. फिर 1933 में एक और नोटिफिकेशन जारी कर लुशाई हिल्स और मणिपुर के बीच की सीमा भी अंकित की गई.
लेकिन दोनों नोटिस सीमा को अलग-अलग दिखाते हैं. मिजोरम के लोगों का मानना है कि सीमाओं को 1875 के नोटिफिकेशन के आधार पर तय किया जाना चाहिए. मिजो नेता यह तर्क देते रहे हैं कि 1933 का नोटिफिकेशन मान्य नहीं है क्योंकि उसके लिए मिजो समुदाय से विचार-विमर्श नहीं किया गया था.
उधर असम सरकार 1933 का नोटिफिकेशन मानती है. इस कारण विवाद है. और यह विवाद यदा-कदा उबलता रहता है. फरवरी 2018 में भी इस सीमा को लेकर हिंसा हो चुकी है. तब मिजोरम के प्रभावशाली छात्र संगठन मिजो जिरला पॉल (MZP) ने किसानों के लिए जंगल में एक विश्राम घर बना दिया था.
असम के अधिकारियों ने कहा कि विश्राम घर असम की जमीन पर बना था. इसलिए पुलिस और वन विभाग ने उसे तोड़ दिया. तब मिजो छात्र संगठन और असम के कर्मचारियों के बीच हिंसक झड़पें भी हुईं.
अब क्या हुआ?
मिजोरम के कोलासिब जिले के तत्कालीन उपायुक्त एच लालथंगलियाना ने 2020 में इंडियन एक्सप्रेस अखबार को बताया था कि कुछ साल पहले दोनों राज्यों के बीच एक समझौता हुआ था जिसमें साझा क्षेत्र यानी नो मैन्स लैंड पर यथास्थिति बनाए रखने पर सहमति बनी थी. लेकिन असम के अधिकारी दावा करते हैं कि जिस इलाके को लेकर विवाद है वह असम की सीमा में है न कि नो मैन्स लैंड में.
इस साल जून में कुछ लोगों ने सीमांत इलाके में दो खाली पड़े घर फूंक दिए. इसके बाद तनाव बढ़ गया. जुलाई की शुरुआत में दोनों राज्यों ने एक दूसरे पर कोलासिब जिले में सीमा लांघने का आरोप लगाया. असम ने कहा कि मिजोरम के लोग असम की सीमा के 10 किलोमीटर अंदर आकर हेलाकांडी में खेती कर रहे हैं. असम के कछार जिले की पुलिस ने वैरेंगटे गांव के आसपास अपने जवान तैनात कर दिए और 29 जून को वहां से मिजो लोगों को हटाकर इलाके पर कब्जा कर लिया.
मिजोरम के कोलासिब जिले के पुलिस अधीक्षक वनलालफाका राल्टे ने समाचार एजेंसी पीटीआई से बातचीत में कहा कि यह हमला है. उन्होंने कहा, "यह पड़ोसी राज्य द्वारा सीधा हमला है क्योंकि वह इलाका मिजोरम का है. स्थानीय किसानों को वहां से भगाया गया.”
राजनीतिक बयानबाजी
वैरेंगटे में अब भी असम पुलिस तैनात है. असम और मिजोरम के मुख्यमंत्रियों की ट्विटर पर बहस भी हो रही है जिसमें दोनों ने गृह मंत्री अमित शाह को टैग करते हुए अपने अपने दावे किए हैं. मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरामथांगा ने एक वीडियो पोस्ट करते हुए सोमवार को गृह मंत्री अमित शाह से इस मामले पर संज्ञान लेने का आग्रह किया.
उन्होंने लिखा, "कछार होते हुए मिजोरम आ रहे एक निर्दोष दंपती के साथ गुंडों ने मार-पिटाई की. आप इस व्यवहार को कैसे सही ठहराएंगे?”
उधर असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने जोरामथांगा को जवाब देते हुए लिखा, "कोलासिब एसपी हमसे कह रहे हैं कि जब तक हम अपनी पोस्ट से नहीं हटेंगे, उनके नागरिक बात नहीं सुनेंगे और हिंसा नहीं रुकेगी. ऐसे हालत में कैसे प्रशासन किया जा सकता है? अमित शाह, प्रधानमंत्री कार्यालय, उम्मीद है आप जल्दी ही दखलअंदाजी करेंगे.”
हालांकि बाद में सरमा ने कहा कि उन्होंने जोरामथांगा से बात की है. उन्होंने लिखा, "अभी मुख्यमंत्री जोरामथांगा से बात हुई है. मैंने दोहराया कि असम यथास्थिति और सीमा पर शांति बनाए रखेगा. मैंने जरूरत पड़ने पर आइजोल आकर बातचीत करने की इच्छा भी जताई है.”
पर इस ट्वीट के कुछ ही देर बाद जोरामथांगा ने जवाब दिया, "जैसा कि बात हुई है, मैं आग्रह करता हूं कि नागरिकों की सुरक्षा की खातिर असम पुलिस को वैरेंगटे से हटने का निर्देश दिया जाए.” (dw.com)
असम के ऐसे ही सीमा विवाद अरुणाचल और मेघालय के साथ भी हैं.
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पटना के महावीर मंदिर पर स्वामित्व का दावा पेश कर अयोध्या के हनुमानगढ़ी के साधुओं ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है. यह मंदिर उत्तर भारत के जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर के बाद सबसे अधिक आय वाला मंदिर बताया जाता है.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट
इस मंदिर की आमदनी से महावीर कैंसर अस्पताल, महावीर आरोग्य संस्थान, महावीर नेत्रालय जैसे सात बड़े अस्पताल चलाए जा रहे हैं. साथ ही पश्चिम चंपारण जिले के केसरिया में दुनिया के सबसे बड़े मंदिर का निर्माण किया जा रहा है. महावीर मंदिर ट्रस्ट के द्वारा ही अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में जुटे कारसेवकों के लिए राम रसोई तथा सीतामढ़ी में सीता रसोई चलाई जाती है.
इसके अलावा अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के लिए महावीर मंदिर की ओर से दो करोड़ की सहयोग राशि प्रतिवर्ष दी जा रही है. देश के किसी मंदिर में दलित को पुजारी बनाने वाला यह अकेला मंदिर है. मनोकामना मंदिर के रूप में प्रख्यात इस मंदिर के संबंध में कहा जाता है कि यहां आने वाले हरेक व्यक्ति की मनोकामना अवश्य ही पूरी होती है.
यही वजह है कि कोरोना महामारी के पहले यहां सप्ताह के अन्य दिनों में दस हजार, शनिवार को तीस हजार, मंगलवार को पचास हजार तथा रामनवमी जैसे विशेष अवसर पर दो लाख से ज्यादा श्रद्धालु दर्शन के लिए आते रहे हैं.
प्रतिदिन पांच लाख की आमदनी
राजधानी पटना के महावीर मंदिर की प्रतिदिन की आमदनी पांच लाख रुपये है. हालांकि कोरोना काल में इसमें काफी कमी आई है. कोविड महामारी के पहले दान-पुण्य, पूजन-अर्चन व प्रसाद के रूप में नैवेद्यम लड्डू की बिक्री से मंदिर की प्रतिवर्ष औसतन 35 करोड़ रुपये की आय थी.
एक रिपोर्ट के अनुसार महावीर मंदिर ट्रस्ट का वार्षिक बजट 150 करोड़ रुपये का है. अकेले नैवेद्यम की बिक्री बंद होने से दो करोड़ से ज्यादा की राशि का प्रतिमाह नुकसान हुआ है. इस लड्डू को तिरुपति के 55 कारीगरों की टीम बनाती है. कोरोना में लगाए गए लॉकडाउन के पहले यहां प्रसाद के रूप में 80,000 किलो नैवेद्यम प्रतिमाह बनाए जाते थे.
आज हालत यह है कि महावीर मंदिर ट्रस्ट को सभी संस्थानों व मंदिरों में काम करने वाले 800 लोगों को वेतन देने के लिए अपनी फिक्सड डिपॉजिट पर मिलने वाले ब्याज की राशि से एक प्रतिशत अधिक देकर पांच करोड़ रुपये का कर्ज लेना पड़ा है. जानकार बताते हैं कि स्वामित्व के इस विवाद की जड़ में कहीं न कहीं इस मंदिर का वैभव ही है.
हनुमानगढ़ी के साधुओं ने लिखा पत्र
अयोध्या के हनुमानगढ़ी के साधुओं ने पटना के महावीर मंदिर पर अपना दावा ठोका है. इस संबंध में इन साधुओं ने वहां एक माह तक हस्ताक्षर अभियान चलाया था. इसी को आधार बनाते हुए हनुमानगढ़ी अयोध्या के गद्दीनशीं महंत प्रेमदास ने कहा है कि हनुमानगढ़ी के रामानंद संप्रदाय के वैरागी बालानंद जी ने ही 300 साल पहले पटना के महावीर मंदिर की स्थापना की थी.
महावीर मंदिर में प्रारंभ से ही महंत की परंपरा रही. यहां शुरू से ही हनुमानगढ़ी अयोध्या के महंत भगवान दास जी बतौर महंत नियुक्त किए गए थे. इसलिए रामानंदी अखाड़ा हनुमानगढ़ी अयोध्या से ही महावीर मंदिर का संचालन होता था. महंत की परंपरा खत्म किए जाने के बाद भी वहां हनुमानगढ़ी अयोध्या के पुजारी सेवा में रहते आ रहे हैं.
बिहार राज्य धार्मिक न्यास पर्षद को पत्र लिखकर महावीर मंदिर के स्वामित्व का अधिकार मांगा गया है. कुछ साधुओं ने परिषद के कार्यालय में पहुंचकर भी अपनी मांग रखते हुए मामले की सुनवाई का अनुरोध किया है. वहीं इस संबंध में बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष एके जैन ने कहा है कि जल्द ही महावीर मंदिर न्यास समिति तथा हनुमानगढ़ी के साधुओं को नोटिस जारी किया जाएगा. दोनों को अपना-अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाएगा.
किशोर कुणाल ने दावे को बेबुनियाद बताया
महावीर मंदिर न्यास समिति के सचिव आचार्य किशोर कुणाल ने हनुमानगढ़ी के साधुओं के दावे को बेबुनियाद बताया है. उनकी मांग को खारिज करते हुए वे कहते हैं, "महावीर मंदिर द्वारा किए जा रहे जनकल्याणकारी कार्य तथा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में किया जा रहा सहयोग कुछ लोगों को रास नहीं आ रहा है. ऐसे तत्व हनुमानगढ़ी के साधुओं को आगे कर महावीर मंदिर पर फर्जी दावा पेश करने के लिए अभियान चला रहे हैं."
इस मंदिर में दलित पुजारी के रूप में सूर्यवंशी दास फलाहारी को अयोध्या स्थित संत रविदास मंदिर के गद्दीनशीं महंत घनश्यामपत दिवाकर महाराज ने वर्ष 1993 में नियुक्त कर भेजा था. आचार्य कुणाल द्वारा उन्हें राम मंदिर न्यास में ट्रस्टी बनाने का तथा हरिद्वार कुंभ में उन्हें महामंडलेश्वर बनाने के लिए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महंत हरि गिरि जी से भी अनुरोध किया गया.
हनुमानगढ़ी की चर्चा कहीं भी नहीं
महावीर मंदिर न्यास समिति का कहना है कि किसी भी अदालती आदेश या दस्तावेज में हनुमानगढ़ी का जिक्र नहीं है. आचार्य किशोर कुणाल ने महंत प्रेमदास के दावे को भी निराधार बताते हुए कहा है, "हनुमानगढ़ी की नियमावली में सात-आठ स्थानों पर उसके मंदिरों का जिक्र है, किंतु उसमें महावीर मंदिर का जिक्र कहीं भी नहीं है."
1985 में मंदिर को भगवान दास और उनके शिष्य रामगोपाल दास के हवाले किया गया. भगवान दास भी नेपाल से आए साधु थे जो बहुत ही कम समय तक अयोध्या में रहकर यहां आए थे. 1987 में महावीर मंदिर न्यास समिति गठन किया गया, जिसके खिलाफ रामगोपाल दास हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट गए. लेकिन दोनों ही जगह मुकदमा हार गए.
1993 में यहां हनुमानगढ़ी के दलित पुजारी को नियुक्त किया गया. इसके बाद यहां सात-आठ पुजारी ही रहे. हाईकोर्ट ने भी यहां पुजारी होने की ही बात कही है. पटना हाईकोर्ट ने 15 अप्रैल1948 को महावीर मंदिर को सार्वजनिक मंदिर घोषित करते हुए इसके इतिहास का संज्ञान लिया था. उसमें भी कहीं हनुमानगढ़ी का जिक्र नहीं है.
वहीं, कोरोना काल के पहले हरेक मंगलवार को मंदिर में अपनी सेवा देने वाले दिवाकांत कहते हैं, "धर्मस्थल कोई भी हो, वह आस्था का केंद्र है. इसके साथ विवाद खड़ा करना उचित नहीं है." (dw.com)
भुवनेश्वर, 27 जुलाई | गैंगस्टर एस.के. एक पुलिस मुठभेड़ में हैदर, ओडिशा मानवाधिकार आयोग (ओएचआरसी) ने सोमवार को राज्य सरकार और वरिष्ठ पुलिस को नोटिस जारी किया। आयोग ने अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह), ओडिशा पुलिस महानिदेशक, जेल महानिदेशक और भुवनेश्वर-कटक पुलिस आयुक्त को नोटिस जारी कर चार सप्ताह के भीतर रिपोर्ट मांगी है।
यह नोटिस ओएचआरसी के चेयरपर्सन जस्टिस बी.के. पटेल और सदस्य आसिम अमिताभ दास ने सोमवार को जारी किया। मामले की सुनवाई 6 सितंबर को होगी।
इससे पहले, हैदर की पत्नी हसीना बीबी ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने उनके पति की निर्मम हत्या कर दी।
हैदर 24 जुलाई को पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था, जब उसे चौद्वार सर्कल जेल से बारीपदा जेल में स्थानांतरित किया जा रहा था। सुरक्षा कारणों से उन्हें शिफ्ट किया जा रहा था। सिमुलिया में, उसने कथित तौर पर एस्कॉर्ट पार्टी के एक सदस्य से बंदूक छीनकर भागने का प्रयास किया और पुलिस पर गोली चलाने की धमकी दी। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए, पुलिस ने कहा कि उसे उस पर गोलियां चलानी थीं। घायल हैदर को बालासोर अस्पताल ले जाया गया, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया।(आईएएनएस)
लंदन, 27 जुलाई| ब्रिटेन की एक अदालत ने सोमवार को भगोड़े भारतीय कारोबारी विजय माल्या को 'दिवालिया' घोषित कर दिया। माल्या हो चुकी किंगफिशर एयरलाइंस के चेयरमैन हैं। ब्रिटेन की अदालत का आदेश भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के नेतृत्व वाले बैंकों के संघ के लिए भारत और विदेशों में माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस के स्वामित्व वाली संपत्तियों को अपने कर्ज को चुकाने के लिए फ्रीज करने की पहल के रूप में आया है।
माल्या 9,000 करोड़ रुपये के कर्ज के मामले में भारत में वांछित है।
दिवाला और कंपनी न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश माइकल ब्रिग्स ने लंदन उच्च न्यायालय के चांसरी डिवीजन की एक आभासी सुनवाई के दौरान कहा, "15.42 (यूके समय) के अनुसार, मैं डॉ. माल्या को दिवालिया घोषित करता हूं।"
एसबीआई के नेतृत्व वाले बैंकों के संघ ने दिवाला आदेश को उनके पक्ष में दिए जाने का तर्क दिया था।
भारतीय बैंकों का प्रतिनिधित्व लॉ फर्म टीएलटी एलएलपी और बैरिस्टर मार्सिया शेकरडेमियन ने किया।
माल्या इस समय ब्रिटेन में जमानत पर बाहर है। उसके प्रत्यर्पण की प्रक्रिया चल रही है। (आईएएनएस)
तृणमूल अध्यक्ष ममता बनर्जी ने तीसरी बार पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनने के बाद विपक्षी एकता की कोशिश शुरू की है. 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले वे बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों का मोर्चा बनाना चाहती हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट
ममता बनर्जी ने विपक्ष को साथ लाने की मुहिम तो शुरू कर दी है लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठने लगा है कि उनको इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी? इसकी वजह यह है कि वे पहले भी ऐसी कोशिश कर चुकी हैं. लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली. यह सही है कि ममता बनर्जी अब बंगाल में जीत की हैट्रिक बनाने और बीजेपी की आक्रामक रणनीति का ठोस जवाब देने की वजह से पहले के मुकाबले मजबूत स्थिति में हैं.
लेकिन फिर वही सवाल सामने है जिस पर पहले भी विपक्षी एकता में दरार पैदा होती रही है. वह है कि इस फ्रंट का मुखिया कौन होगा? लाख टके के इस सवाल के साथ ही वे अगले सप्ताह तीन-चार दिनों के दिल्ली दौरे पर जाएंगी. वहां तमाम विपक्षी नेताओं के साथ उनकी बात-मुलाकात होनी है.
विपक्ष की धुरी
वैसे राजनीतिक हलकों में तो यह पहले से ही माना जा रहा था कि बेहद प्रतिकूल हालात में होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत की स्थिति में ममता विपक्षी एकता की धुरी बन कर उभर सकती हैं. बीजेपी ने जिस तरह अबकी बार दो सौ पार के नारे के साथ चुनाव में अपने तमाम संसाधन झोंक दिए थे उससे ममता के सत्ता में लौटने की राह पथरीली नजर आ रही थी. लेकिन आखिर में ममता ने अकेले अपने बूते बीजेपी को न सिर्फ धूल चटाई बल्कि पहले के मुकाबले ज्यादा सीटें भी हासिल की. हालांकि नंदीग्राम सीट पर वे खुद चुनाव हार गईं. लेकिन फिलहाल वह मामला कलकत्ता हाईकोर्ट में है.
ममता बनर्जी ने 21 जुलाई को अपनी सालाना शहीद रैली में पहली बार विपक्षी राजनीतिक दलों से बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की अपील की थी. बंगाल से बाहर निकलने के कवायद के तहत तृणमूल कांग्रेस ने उनकी इस रैली का दिल्ली, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात तक प्रसारण किया. खास बात यह रही कि पहली बार ममता ने अपना ज्यादातर भाषण हिंदी और अंग्रेजी में दिया. बीच-बीच में वे बांग्ला भी बोलती रहीं. अमूमन पहले वे ज्यादातर भाषण बांग्ला में ही देती थीं.
ममता बनर्जी ने कहा, "मैं नहीं जानती 2024 में क्या होगा. लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियां करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के खिलाफ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा." उन्होंने शरद पवार और चिदंबरम से अपील की वे 27 से 29 जुलाई के बीच दिल्ली में इस मुद्दे पर बैठक बुलाएं.
खुद तृणमूल अध्यक्ष भी उस दौरान दिल्ली के दौरे पर रहेंगी. ममता का कहना था कि देश और इसके लोगों के साथ ही संघवाद के ढांचे को बचाने के लिए हमें एकजुट होना होगा. देश को बचाने के लिए विपक्ष को एकजुट होना होगा. ऐसा नहीं हुआ तो लोग हमें माफ नहीं करेंगे. ममता बनर्जी पेगासस जासूसी कांड और मीडिया घरानों पर आयकर विभाग के छापों के मामले पर भी केंद्र और बीजेपी पर लगातार हमलावर मुद्रा में हैं. रैली के अगले दिन भी उन्होंने इन दोनों मुद्दों का जिक्र करते हुए खासकर पेगासस जासूसी मामले की जांच की मांग उठाई.
दावों में कितना दम?
बीजेपी के खिलाफ एक साझा मोर्चा बनाने के ममता के दावों में कितना दम है और क्या वे ऐसा करने में सक्षम हैं? क्या क्षत्रपों की महात्वाकांक्षाएं पहले की तरह मोर्चे की राह में नहीं आएंगी? क्या नेतृत्व के सवाल पर मोर्चे में पहले की तरह मतभेद नहीं पैदा होंगे? वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब भविष्य के गर्भ में हैं. विपक्ष को लामबंद करने की कोशिशें ममता से चंद्रबाबू नायडू तक तमाम नेता पहले भी करते रहे हैं. लेकिन उनमें से किसी को कामयाबी नहीं मिल सकी. यह सही है कि ममता फिलहाल मजबूत स्थिति में हैं और उन्होंने नेतृत्व की दावेदारी नहीं की है." वह कहते हैं कि कांग्रेस से लेकर एनसीपी तक कई राजनीतिक दलों में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की कमी नहीं है. निजी महात्वाकांक्षाओं का त्याग किए बिना इस राह पर लंबी दूरी तक चलना मुश्किल है.
राजनीतिक विश्लेषक मोइनुल इस्लाम कहते हैं, "ममता ने कोशिश तो शुरू कर दी है और चुनाव में अभी करीब तीन साल का वक्त है. इस समय का इस्तेमाल निजी मतभेदों और खाइयों को पाटने में किया जा सकता है." वह कहते हैं कि दरअसल खुद को राष्ट्रीय पार्टी मानने वाली कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदार मानती है. तमाम किस्म के मतभेदों और चुनाव में खराब प्रदर्शन के बावजूद उसका भ्रम नहीं टूटा है. इसके अलावा एनसीपी के शरद पवार की महत्वाकांक्षा भी किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में इन दोनों को साधना ममता के लिए मुश्किल होगा. शायद इसीलिए ममता ने विपक्षी दलों की बैठक बुलाने की जिम्मेदारी पवार और कांग्रेस पर ही छोड़ दी है.
तापस मुखर्जी कहते हैं, "इस बार प्रशांत किशोर की भूमिका को भी ध्यान में रखना होगा. वे बीते दिनों शरद पवार और कांग्रेस नेताओं के साथ बैठकें कर चुके हैं. विपक्षी दलों को लामबंद करने की ममता की रणनीति के पीछे उनका दिमाग ही काम कर रहा है."
अगले सप्ताह ममता के दिल्ली दौरे से पहले ही प्रशांत किशोर के अलावा टीएमसी नेता मुकुल राय और ममता के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी दिल्ली पहुंच गए हैं. उनके दौरे का मकसद ममता की बैठकों के लिए जमीन तैयार करना है. फिलहाल टीएमसी की ओर से दूसरे दलों के साथ बातचीत करने की जिम्मेदारी हाल में पार्टी में शामिल होने वाले यशवंत सिन्हा को सौंपी गई है.
ममता की रणनीति आखिर क्या है? टीएमसी के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं, "प्रस्तावित तीसरे मोर्चे के तहत पहले खासकर ऐसे राजनीतिक दलों को साथ लाने की योजना है जो गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी मोर्चा के हिमायती रहे हैं. इसके तहत ओडिशा के नवीन पटनायक, तेलंगाना के चंद्रशेखर और फारुख अब्दुल्ला को एक मंच पर लाने के बाद कांग्रेस पर इसमें शामिल होने का दबाव बनाया जा सकता है. लेकिन बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में किसे साथ लेना है, किसे नहीं, इस सवाल पर फिलहाल अंतिम फैसला नहीं हुआ है. उनका कहना था कि वहां स्थानीय समीकरण काफी उलझे हैं. हालांकि जनता दल (यू) और सपा नेता अखिलेश यादव से लेकर उद्धव ठाकरे तक ममता को चुनाव के दौरान समर्थन और जीत पर बधाई दे चुके हैं. लेकिन एक साथ आने के मुद्दे पर इनका क्या रुख होगा, यह समझना आसान नहीं है.
राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "राजनीति संभावनाओं और अटकलों का खेल है. इसमें हमेशा दो और दो चार नहीं होते. ऐसे में एक-दूसरे से खुन्नस रखने वाले दल भी अगर एक साझा मकसद से साथ हो जाएं तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए. लेकिन फिलहाल तीसरे मोर्चा की कल्पना अभी हवाई ही है. विपक्षी दलों का रुख साफ होने के बाद ही इस बारे में ठोस तरीके से कुछ कहना संभव होगा." (dw.com)