अंतरराष्ट्रीय
ब्रासीलिया, 6 मार्च | ब्राजील में लगातार चौथे दिन भी कोविड-19 से संक्रमण के कारण 1,600 से अधिक मौतें दर्ज की गईं। बीते 24 घंटों में दैनिक आधार पर 1,800 लोगों की मौत की खबर है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक, नए आंकड़े के साथ, देश में कोविड से मरने वालों की कुल संख्या बढ़कर 262,770 हो गई है, जो दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा है।
साथ ही इसी अवधि में, देश में कोविड के 75,495 नए मामले सामने आए, जिससे कुल मामलों की संख्या बढ़कर 10,869,227 हो गई। कोविड मामलों के संदर्भ में ब्राजील अमेरिका और भारत के बाद तीसरे स्थान पर है। (आईएएनएस)
सैन फ्रांसिस्को, 6 मार्च | एलन मस्क द्वारा स्थापित स्टार्टअप ओपनएआई ने एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सिस्टम में मल्टीमॉडल न्यूरॉन्स की खोज की है, जो मानव मस्तिष्क में कुछ न्यूरॉन्स की तरह ही काम करते हैं। यह रहस्योद्घाटन इस खोज के 15 साल बाद हुआ है कि मानव मस्तिष्क में मल्टीमॉडल न्यूरॉन्स होते हैं, जो किसी विशिष्ट ²श्य सुविधा (विजुअल फीचर) के बजाय एक सामान्य उच्च-स्तरीय थीम के आसपास केंद्रित अमूर्त अवधारणाओं के समूहों का जवाब देते हैं।
इनमें से सबसे प्रसिद्ध हाले बेरी न्यूरॉन है, जो तस्वीरों, रेखाचित्रों (स्केच) और टेक्सट हाले बेरी का जवाब देता है - लेकिन इसमें अन्य नाम नहीं होते।
दो महीने पहले, ओपनएआई ने सीएलआईपी नामक एक तंत्रिका (न्यूरल) नेटवर्क की घोषणा की थी, जो प्राकृतिक भाषा पर्यवेक्षण (नेचुरल लैंग्वेज सुपरविजन) से ²श्य अवधारणाओं (विजुअल कंसेप्ट) को कुशलता से सीखता है।
सीएलआईपी को किसी भी विजुअल क्लासिफिकेशन बेंचमार्क पर लागू किया जा सकता है और इसके लिए बस ²श्य श्रेणियों के नामों को मान्यता प्रदान की जाती है।
इसे पहचानने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। एक नए पेपर में, ओपनएआई के शोधकर्ताओं ने अब सीएलआईपी में मल्टीमॉडल न्यूरॉन्स की उपस्थिति की खोज जारी की है।
ओपनएआई ने शुक्रवार को एक ब्लॉग पोस्ट में कहा, "सीएलआईपी में मल्टीमॉडल न्यूरॉन्स की हमारी खोज हमें एक संकेत देती है कि सिंथेटिक और प्राकृतिक दोनों प्रकार की अभिव्यक्ति प्रणालियों का एक सामान्य तंत्र क्या हो सकता है - ऐब्स्ट्रैक्शन।" (आईएएनएस)
इस्लामाबाद, 6 मार्च । पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में एक बारूदी सुरंग विस्फोट में कम से कम पांच लोगों की मौत हो गई और पांच अन्य घायल हो गए। समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने स्थानीय मीडिया के हवाले से बताया कि यह विस्फोट शुक्रवार रात सिबी जिले में हुआ था।
जिले के पुलिस उपायुक्त यासिर खान बाजई ने कहा कि मजदूरों को ले जा रहा एक वाहन बारूदी सुरंग विस्फोट की चपेट में आ गया।
अधिकारी ने कहा, "चार मजदूरों की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि एक अन्य ने अस्पताल में दम तोड़ दिया।"
रिपोर्ट के अनुसार, सुरक्षा बलों ने आसपास के क्षेत्रों में एक अभियान शुरू किया है।
किसी भी समूह या व्यक्ति ने अभी तक विस्फोट की जिम्मेदारी नहीं ली है। (भाषा)
वॉशिंगटन, 6 मार्च | अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का पर्सिविरेंस रोवर शुक्रवार को मंगल ग्रह की धरती पर पहली बार 6.5 मीटर तक चला। समाचार एजेंसी सिन्हुआके अनुसार, यह अभियान करीब 33 मिनट तक चला जिसने रोवर को चार मीटर आगे बढ़ाया। यहां यह फिर 150 डिग्री पर बाईं ओर मुड़ गया और 2.5 मीटर तक पीछे अपने नए अस्थायी पार्किं ग स्पेस में वापस आ गया।
नासा के अनुसार, पर्सिविरेंस रोवर को मंगल की सतह पर चलाकर वैज्ञानिक इसके हर पहलू - सबसिस्टम एवं गतिशीलता की जांच कर आश्वस्त होना चाहते थे।
नासा ने कहा कि एक बार जब रोवर अपना 'मिशन' शुरू कर देगा तो इसके नियमित रूप से 200 मीटर तक चलने की उम्मीद है।
नासा ने एक बयान में कहा, "मिशन शुरू होते ही लाल ग्रह पर अभी तक एजेंसी के सबसे बड़े, सबसे उन्नत रोवर का पहला ट्रेक एक प्रमुख मील का पत्थर साबित होगा।"
दक्षिणी कैलिफोर्निया में नासा के जेट प्रोपल्शन लैबोरेटरी में पर्सिविरेंस रोवर मोबिलिटी टेस्ट इंजीनियर अनैस जरीफियन ने कहा कि जब यह अन्य ग्रहों पर पहिएदार वाहनों की बात आती है तो कुछ पहली बार होने वाली घटनाएं होती हैं जो कि पहली ड्राइव के महत्व को मापती हैं।
उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए पहला मौका था कि हम पहियों को चलाने के साथ इसे कुछ दूरी तक ले जाएं। छह पहियों वाले रोवर की ड्राइव शानदार रही। हमें अब भरोसा है कि आगे हमारी ड्राइव बिल्कुल दुरुस्त रहेगी और अगले दो वर्षो तक यह मिशन से जुड़ी जानकारियां उपलब्ध कराने में सक्षम होगा।
रोवर को पिछले साल 30 जुलाई को अमेरिकी राज्य फ्लोरिडा के केप कैनावेरल एयर फोर्स स्टेशन में स्पेस लॉन्च कॉम्प्लेक्स 41 से लॉन्च किया गया था। यह 47.2 करोड़ किलोमीटर की 203-दिवसीय यात्रा के बाद 18 फरवरी को लाल ग्रह पर पहुंचा था।
मंगल ग्रह पर प्राचीन जीवन के संकेतों की खोज करना इसका प्राथमिक मिशन है। साथ ही यह मंगल ग्रह के भूविज्ञान और पिछले जलवायु की विशेषताओं का पता लगाएगा। लाल ग्रह पर मानव अन्वेषण का मार्ग प्रशस्त करेगा। (आईएएनएस)
'सैन फ्रांसिस्को, 6 मार्च | देश में आगे और कोई हिंसा की घटना न हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए यूट्यूब ने म्यांमार की सेना द्वारा संचालित पांच टेलीविजन चैनलों को अपने प्लेटफॉर्म से हटा लिया है। यूट्यूब ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया है कि उनकी कम्युनिटी के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने के लिए चैनलों को हटाया गया है। हालांकि अपने इस निर्णय के बारे में कंपनी ने आगे कुछ और नहीं बताया है।
एनगैजेट की रिपोर्ट के मुताबिक, हटाए गए चैनलों में म्यांमार रेडियो व टेलीविजन और म्यावाडी मीडिया शामिल है, जिसमें समाचार, खेल और म्यांमार की सेना के प्रचार का प्रसारण किया जाता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि म्यांमार में पिछले महीने हुए सैन्य तख्तापलट के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे दर्जनों प्रदर्शनकारियों की इस हफ्ते हत्या कर दी गई।
प्रदर्शनकारियों ने सेना और पुलिस द्वारा की गई इस हिंसा के कई फुटेज साझा किए हैं और ऑनलाइन रैलियों का भी आयोजन किया है।
इसके बाद सेना ने सोशल मीडिया को ब्लॉक कर और बार-बार इंटरनेट की सेवा को अवरुद्ध कर इस पर जवाबी कार्रवाई की।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ यूट्यूब ही नहीं बल्कि फेसबुक और इंस्टाग्राम ने भी पिछले हफ्ते अपने प्लेटफॉर्म से सेना को बैन कर दिया है, जिसमें सेना द्वारा संचालित व्यवसायों के विज्ञापन भी शामिल हैं। (आईएएनएस)
म्यांमार में सैन्य तख्तापलट दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन आसियान की गले की फांस बन गया है. उसे डर है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय का रोष उसके लिए भी नुकसानदेह न साबित हो.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट-
म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद आसियान के दस देशों की आपात बैठक बुलाई गई जिसका मकसद था म्यांमार में चल रही हिंसा पर कूटनीतिक तरीके से काबू पाना और म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ-साथ आसियान की धूमिल होती छवि को बचाना. दरअसल 1 फरवरी को सेना द्वारा अप्रत्याशित रूप से सत्ता पर कब्जा किए जाने के बाद से ही म्यांमार अंतरराष्ट्रीय समुदाय की आलोचना का केंद्र बन गया है. म्यांमार में आम जनता का सेना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन लगातार जारी है तो वहीं अमेरिका और पश्चिम के कुछ देश म्यांमार की सेना तात्मादाव और सैन्य सरकार के खिलाफ प्रतिबंध लगाने की कवायद में भी जुटे हैं. सैनिक शासन के खिलाफ जनता के शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में, जिसे असहयोग आंदोलन की संज्ञा दी जा रही है, तीन दर्जन से भी अधिक लोगों की पुलिस और सेना की गोलीबारी में जान जा चुकी है. निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर हुई हिंसा ने विश्व समुदाय को फिर से झकझोड़ कर रख दिया है.
ऐसा लगता है जैसे म्यांमार एक बार फिर 1990 के दशक में वापस पहुंच गया है, ऐसा म्यांमार जहां सेना ऐसी सर्वोच्च शक्ति है जिसके आगे लोकतांत्रिक व्यवस्था और आम जनता की भावनाएं कोई मायने नहीं रखतीं. म्यांमार की इस दुर्दशा के पीछे आंग सान सू ची की कमजोर राजनीतिक समझ और हद से ज्यादा शराफत ने तो नुकसान किया ही है, यह भी आश्चर्य की ही बात है कि तख्तापलट की घटना के एक महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी कोई संवैधानिक प्रावधान, कोई नेता और कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था देश के आम नागरिक की मदद नहीं कर पाई है. लोकतंत्र की लड़ाई म्यांमार की जनता को पहले भी खुद ही लड़नी पड़ी थी, और इस बार भी उसे ही यह लड़ाई लड़नी पड़ रही है.
अंदरूनी मामलों में दखल न देने की नीति
जहां तक आसियान का सवाल है, तो उसकी समस्या यह है कि बरसों से इस क्षेत्रीय संगठन की यह नीति रही है कि वह किसी भी सदस्य देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देता. आंग सान सू ची की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के तथाकथित लोकतांत्रिक राज में भी जब रोहिंग्या अल्पसंख्यक समुदाय और अराकान प्रदेश के तमाम लोगों पर सेना और प्रांतीय सरकार ने जम कर अत्याचार किए और लाखों लोगों को देश छोड़कर भागना पड़ा, तब भी आसियान "गैर हस्तक्षेप” की ही नीति के तहत चुप बैठा रहा. वैसे ये अलग बात है कि संगठन के तौर पर आसियान भले ही चुप रहा हो, उसके दसों देश चुप नहीं बैठे रहे. रोहिंग्या के मुद्दे पर मलेशिया और इंडोनेशिया ने जम कर आवाज उठाई. लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. उल्टे फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतैर्ते तो सू ची की पीठ थपथपाने के कगार तक तक पहुंच गए थे.
ऐसा नहीं है कि आसियान को यह लगाव सिर्फ म्यांमार के साथ ही है. लगभग छः साल पहले 22 मई 2014 को जब थाईलैंड में सेना ने सेना प्रमुख प्रयुथ चान ओ-चा के नेतृत्व में सत्ता पर कब्जा जमाया तब भी आसियान चुप था. इसी तरह के एक दर्जन मामले और गिनाए जा सकते हैं जब आसियान अपनी मौन रहने की प्रतिज्ञा पर टिका रहा. और यही कारण है कि दक्षिणपूर्व एशिया के किसी भी जानकार को इस बार भी आसियान की यह चुप्पी ना अप्रत्याशित लगी और न ही चौंकाने वाली. अपनी ताजा बैठक में भी आशा के अनुरूप आसियान ने म्यांमार के हालात पर चिंता जताई और देश में अमन और चैन कायम करने की गुहार लगाई और बैठक के बाद अपने-अपने देश में नेताओं ने म्यांमार को जम कर कोसा.
आसियान पर विश्व समुदाय का बढ़ता दबाव
इंडोनेशिया इस मामले में अभी भी बीच का और सबको मान्य रास्ता निकालने की कोशिश में लगा है. लेकिन अब आसियान पर भी अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है. दुनिया के तमाम देशों, खास तौर से अमेरिका और पश्चिम के देशों की उम्मीद है कि आसियान को कुछ कड़े कदम उठाने चाहिए. आसियान के अंदर भी म्यांमार में तख्तापलट के खिलाफ विरोध की आवाजें मुखर हो रही हैं. तो क्या आसियान के पास कोई रास्ता नहीं है? ऐसा नहीं है.
आसियान के पास रास्ते तो कई हैं. पहला तो यही है कि आसियान के देश म्यांमार की सेना और उससे जुड़ी कंपनियों के साथ व्यापार और निवेश सम्बंधी ताल्लुकात खतम कर लें. आसियान म्यांमार पर आर्थिक और कूटनीतिक प्रतिबंध भी लगा सकता है. लेकिन सच्चाई यह है कि इनमें से किसी भी कदम का म्यांमार पर बहुत बड़ा असर नहीं पड़ेगा. आसियान का म्यांमार पर प्रभाव बहुत ज्यादा नहीं है और दंडात्मक कार्यवाई करने के मामले में तो यह प्रभाव न के बराबर है. हां, संयुक्त राष्ट्र संघ, आसियान और ऐसी ही दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में आसियान के देश म्यांमार को कूटनीतिक तौर पर कमजोर करने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन यह म्यांमार की सैन्य सत्ता को डिगा पाएगा ऐसा नहीं है.
म्यांमार की सेना के समर्थक
इस संदर्भ में म्यांमार की सेना का यह कथन महत्वपूर्ण है कि वह किसी भी तरह के प्रतिबंध झेलने के लिए तैयार है. सेना ने यह भी कहा कि अतीत में भी म्यांमार ने इस तरह की परिस्थितियों को झेला है और उसे बहुत कम और भरोसेमंद दोस्तों के साथ काम चलाने की आदत है. साफ है, म्यांमार की सैन्य तानाशाही को बखूबी पता है कि चीन उसका साथ नहीं छोड़ेगा. पड़ोस के थाईलैंड में जमी प्रयुथ की सरकार भी तात्मादाव का साथ देती रहेगी. दोनों सेनाओं के बीच बहुत गहरे संबंध हैं. चाहे अनचाहे भारत भी म्यांमार के ही साथ खड़ा दिखेगा यह भी लगभग तय ही है.
जो भी हो, म्यांमार में बिन बुलाए इस तख्तापलट ने आसियान को मुश्किल में तो डाल ही दिया है. हस्तक्षेप करें या नहीं, यह उलझन आसियान और उसके सदस्य देशों को आने वाले समय में काफी उलझा कर रखने वाली है. ऐसे में आसियान देश अपने व्यापारिक हितों और क्षेत्रीय एकता को वरीयता देते हैं या मानवीय मूल्यों और लोकतंत्र को, यह देखना दिलचस्प होगा. (dw.com)
ब्रिटेन में लंबे अरसे से बसी भारतीय महिलाएं हों या कॉलेज से हाल ही में निकली भारतीय मूल की युवा लड़कियां, गेहुएं रंग और सांस्कृतिक पहचान के साथ अपना वजूद ढूंढने की उलझनें उनके अनुभव को एक डोर से बांधती है.
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्षी की रिपोर्ट-
कई दशक पहले भारत की सरहद पार कर एक नए देश और बिल्कुल अलग परिवेश में कदम रखने वाली भारतीय महिलाओं के सामने जहां अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान के साथ नए सिरे से जिंदगी तराशने का सवाल था, वहीं यहां पैदा हुई नई पीढ़ी के सामने भी पहचान का संकट कम नहीं हुआ है. ब्रिटिश-भारतीय युवतियों की जिंदगी में त्वचा का रंग और जेंडर अब भी नकारात्मक भूमिका निभाता है. यही नहीं, उलझनों को और बढ़ाता है भारतीय परवरिश और ब्रिटिश परिवेश के बीच खुद को तलाशने का सफर. पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के नजरिए में टकराव की आहट भी है और बदले वक्त के साथ बदलने की जरूरत का अहसास भी.
वजूद, नजरिया और जेंडर
पच्चीस बरस की मानसी कल्याण ब्रिटेन के लेस्टर शहर में रहती हैं. वो ब्रिटेन में पैदा हुईं लेकिन भारतीयता उन्हें विरासत में मिली है यानी शारीरिक तौर पर गेहुआं रंग और एक घर जहां भारतीय होने के सांस्कृतिक मायने कदम-कदम पर समझाए जाते हैं. मानसी ने बातचीत में बताया कि ब्रिटिश-भारतीय पहचान उनके लिए एक ऐसी उलझन है जिसे सुलझाना उन्हें अपने बस की बात नजर नहीं आती. मानसी कहती हैं, "मैं खुशनसीब हूं कि मेरे घरवाले उतने रूढ़िवादी नहीं हैं जितना मैंने अपने दोस्तों के परिवारों में देखा है. मुझे पढ़ने और करियर चुनने की आजादी मिली लेकिन कहीं ना कहीं से कुछ ऐसा निकलेगा जिससे ये अहसास हो ही जाएगा कि मैं लड़की हूं. जैसे अगर मैं शाम को घर से बाहर निकलना चाहूं तो मेरे पापा थोड़ा हिचकिचाएंगे, ना जाने को कहेंगे. लड़की होने का डर भीतर इस कदर बसा हुआ है कि एक शाम आठ बजे के आस-पास मैं सड़क पर अकेले टहलने निकली. अचानक मुझे लगा कि मेरे पीछे कोई चल रहा है. मेरा हाथ पॉकेट में रखे एक छोटे से की-चेन की तरफ बढ़ गया और जब मैंने पलट कर देखा तो वो मेरी परछाई थी. मुझे समझ नहीं आता कि क्या ये सिर्फ भारतीय घर में बड़ा होने का असर है. मैं भारतीय हूं या ब्रिटिश, ये एक ऐसी मानिसक उलझन है जिससे उबरना नामुमकिन लगता है."
युवा पीढ़ी ब्रिटिश और भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचों के बीच अपना वजूद तलाशने की जद्दोजहद में है लेकिन अब से दशकों पहले ब्रिटेन आने वाली भारतीय महिलाओं के लिए शायद ये उलझन उतनी बड़ी नहीं थी. राधिका हावर्थ ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा यानी नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) में काम करती हैं और इंस्टाग्राम पर ‘रैडिकल किचेन' नाम के पेज के जरिए पहचानी जाती हैं. ग्वालियर में पलने-बढ़ने वाली राधिका, 1986 में अकेले ब्रिटेन आईं. वो बताती है, "नए देश में कुछ करने और पहचान बनाने का जुनून था. मैंने ये सफर अकेले शुरू किया लेकिन अपनी भारतीय पहचान को लेकर कभी कोई शक नहीं था. राधिका हावर्थ बताती हैं, "मुझे हमेशा से पता था मैं कौन हूं, कहां से आई हूं. एक छोटे भारतीय शहर की परवरिश ने मुझे इसके लिए तैयार किया था. चुनौतियां पहचान की नहीं थी लेकिन अपनी जगह बनाने की जरूर थी. मुझे लगता है कि भारतीय परवरिश में सवाल करने की आजादी नहीं है जिससे अगर निपटा ना जाए तो आप खुद को हर मीटिंग में पीछे की कुर्सी पर चुप-चाप बैठा हुआ पाएंगे. मुझे आगे निकलना था और मैंने पूरी ताकत लगाकर ऐसा किया लेकिन उसके लिए अपनी पहचान से समझौता करने का सवाल नहीं था. मुझे ब्रिटेन में जहां भी सलवार-कमीज पहनकर जाने का मन होता था मैं पहनती थी."
राधिका से मिलती जुलती राय है लंदन में रहने वाली सैज वोरा की. सैज के माता-पिता पूर्वी अफ्रीका में रहने के बाद ब्रिटेन पहुंचे. सैज ने जब ब्रिटेन में कदम रखा तो वो सात बरस की थीं. उस वक्त को याद करते हुए सैज कहती हैं, "मेरे माता-पिता 1967 में यहां आए. वो वक्त बहुत अलग था. घर पर मेरे पिता लिबरल थे लेकिन मां को लगता था कि मुझे लड़की होने की ट्रेनिंग भी मिलनी चाहिए. हालांकि मुझे पढ़ने से रोका नहीं गया जो शायद दक्षिण एशियाई घरों में अब भी हो रहा है. जहां तक सांस्कृतिक पहचान का सवाल है तो मैंने अपनी मर्जी से अपनी भारतीयता को कायम रखा है. मैं सीधे अर्थों में भारतीय नहीं हूं लेकिन अपने माता-पिता से जो बातें विरासत में मिली हैं, वो मेरे जेहन में हैं. मुझे लगता है कि शायद एक मां के तौर पर मैं पूरी तरह भारतीय हूं."
रंग और भेदभाव
एक दिलचस्प बात ये उभर कर सामने आई कि नस्लीय भेद-भाव पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाओं के अनुभव का हिस्सा रहा है, भले ही वो बहुत महीन तरीके से सामने आया हो या फिर कुछ इस तरह कि अहसास ही ना हो कि ऐसा कुछ हो भी रहा है. रंगभेद ने ब्रिटेन में कई पड़ाव तय किए हैं और उस तंग नजरिए से भारतीय महिलाएं निपटती रही हैं. मानसी ने अपने अनुभव से बताया कि "लंबे समय तक मुझे ये बात समझ नहीं आई कि रंग और नस्लीय भेद कैसे काम करता है. अब जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो समझ आता है कि पांचवी में पढ़ते समय माथे पर चंदन की बिंदी लगाने पर, मुझसे अजीब बर्ताव क्यों होता था. तब इन बातों को स्कूल में बुलींग कह कर टाल दिया जाता लेकिन अब समझ आता है कि वो दरअसल भेदभाव का पहला पाठ था. अब लगता है जैसे वो सब नहीं होता लेकिन सच ये है कि भेदभाव सिस्टम का हिस्सा है. अब कोई आपके मुंह पर भले ही कुछ ना कहे लेकिन नौकरियों में गोरे रंग का गहरा असर है. एक दक्षिण एशियाई लड़की होने के चलते मेरा रास्ता अपने आप लंबा हो जाता है.”
रंग से उपजी गैर-बराबरी हर उम्र में महिलाओं के लिए चुनौती रही है और उस पर जीत हासिल करने का रास्ता इतना लंबा हो सकता है कि किसी को भी थका दे. सैज वोरा नामचीन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी में लंबे अरसे तक काम करती रहीं और ऊंचे पद तक पहुंची लेकिन वो कहती हैं, "एक हद के बाद आपको ये अहसास होता है कि एक शीशे की दीवार है जिसको तोड़ने में आपकी सारी शक्ति खर्च हो जाएगी. मुझे लगता है कि ब्रिटेन में वो दीवार जेंडर से ज्यादा रंगभेद से बनी है क्योंकि मैंने 1980 के दशक में काम करना शुरू किया जब न्यूजरूम में बहुत कम औरतें पहुंचती थीं. आपका करियर एक ऊंचाई पर भले ही पहुंच जाए लेकिन गोरा रंग ही उस दीवार के पार ले जा सकता है.” हालांकि राधिका कहती हैं कि उन्हें रंग-भेद का ज्यादा अनुभव नहीं हुआ लेकिन एक बार काम पर किसी ने उनसे ये जरूर पूछा कि सुना है भारत में सड़क पर चीते और गाय घूमते हैं. इसके जवाब में राधिका ने कहा कि "जी हां, गाय और चीते घूमते हैं और मेरा घर पेड़ पर था जिस पर मैं बंदर की तरह रहती थी.”
समुदाय और पुरातनपंथी सोच
भेदभाव का एक और पहलू ये भी है कि ये सिर्फ गोरे रंग का मोहताज नहीं है. भारतीय महिलाएं कहती हैं कि रंगभेद से शायद उतना बड़ा नुकसान ना भी पहुंचे लेकिन उनके अपने समुदाय के भीतर ऐसे लोग लगातार मिलते रहे हैं जो दकियानूसी सोच रखते हैं. औरतों की बराबरी, उनका स्वतंत्र अस्तित्व उन्हें बर्दाश्त नहीं होता. ये सवाल पूछे जाने पर कि आखिर ब्रिटेन ने उनको एक भारतीय के तौर पर क्या दिया है, राधिका जोर देकर कहती हैं कि "मेरी पहली शादी टूट गई. मैंने तलाक लिया और दूसरी शादी की. जो मन में आया वही काम किया, जैसी चाही, वैसी ही जिंदगी जी. आप सोचिए कि एक तलाकशुदा औरत होने पर भारत में मेरी जिंदगी क्या वही होती जो आज है. मुझे यहां पर अपने चुनाव करने का मौका मिला जो मुझे नहीं लगता कि उस वक्त भारत में मुमकिन होता. शायद अब हालात थोड़े बदल गए होंगे. ब्रिटेन में सामाजिक मूल्य थोड़े अलग जरूर हैं लेकिन औरतों के लिए आजाद जिंदगी जीने के मौके ज्यादा हैं.”
चुनाव और अपनी जिंदगी खुद चुनने की आजादी का सवाल बड़ा है और ऐसा लगता है कि ब्रिटेन में ये ज्यादा आसानी से सुलभ है, लेकिन सभी को ऐसे मौके मिल रहे हों ऐसा नहीं है. यहां तक कि इंटरनेट और सोशल मीडिया भी लड़कियों की आवाज दबाने का माध्यम बने हुए हैं. मानसी अपने बुरे अनुभव को बांटते हुए कहती हैं, "एक भारतीय लड़की की आवाज दबाने में ब्रिटेन में बसा भारतीय समुदाय पीछे नहीं रहता. भारत में चल रहे किसान आंदोलन पर मैंने सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रियाएं लिखीं तो हमारे ही दायरे के लोगों ने मुझे सलाह दी कि जाकर अपने पिता से पूछो कि वो इस पर क्या सोचते हैं, तुम्हें क्या पता. उन्हें लगता है कि एक लड़की की अपनी कोई राय नहीं होती, उसके लिए भी पिता की रजामंदी लेनी चाहिए.”
भारतीय महिलाओं के अनुभवों का पुलिंदा इस बात पर मोहर लगाता है कि सांस्कृतिक पहचान, सोच और नजरिया सरहदों के मोहताज नहीं हैं. सोशल मीडिया के बढ़ते कदमों ने औरतों को जहां अपनी आवाज उठाने का मौका दिया है वहीं उनके खिलाफ एक और मोर्चा भी पैदा किया है. औरतों ने परिवार के साथ सरहदें पार की हों या फिर ब्रिटेन में मिली भारतीय विरासत के साथ जीना सीखने की कोशिश कर रही हों, उनके रास्ते चुनौतियों से भरे रहे हैं और वो उनसे आगे निकलने में लगातार कामयाब भी होती रही हैं. (dw.com)
चार्ल्स डार्विन के मनुष्य उत्पत्ति के सिद्धांत की 150वीं जयंती के अवसर पर एक किताब आई जो डार्विन की सेक्स और नस्ल से जुड़ी गलत मान्यताओं की ओर इशारा करती है. किताब डार्विन के विचार और सिद्धांत को दिलचस्प समस्या बताती है.
डॉयचे वैले पर जुल्फिकार अबानी की रिपोर्ट-
हम में से बहुत से लोग डार्विन के 'प्राकृतिक चयन के सिद्धांत' और 1859 के विशाल निबंध 'ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज' से वाकिफ हैं. हम में से और भी बहुत से लोगों ने अपने जीवन में किसी न किसी मोड़ पर सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट यानी सर्वोत्तम की उत्तरजीविता शब्दावली का इस्तेमाल करते हुए इसका श्रेय डार्विन महोदय को दिया होगा. जबकि यह सूत्र वास्तव में उन्होंने एक जमाने के अपने प्रतिद्वंद्वी और दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर से उधार लिया था.
किताब की पड़ताल करती किताब
चलिए एक शर्त लगाते हैं. हम में से कितने लोग होंगे जो डार्विन के इस काम, 'द डिसेन्ट ऑफ मैन' यानी 'आदमी का उद्भव' के बारे में जानते होंगे. निश्चित रूप से ऐसे बहुत कम लोग होंगे. आज से 150 साल पहले 24 फरवरी के दिन यह किताब प्रकाशित हुई थी. किताब में बहुत सी चीजों के अलावा डार्विन के यौनिक चयन के सिद्धांत का भी उल्लेख मिलता है. वे मानते थे कि यह प्रक्रिया इवोल्युशनरी बदलाव की एक पूरक ताकत थी.
इस किताब के जरिए डार्विन के विचारों को खंगालती नई किताब आई हैः 'ए मोस्ट इंटरेस्टिंग प्रॉब्लम' यानी 'एक सबसे दिलचस्प समस्या.' इसमें वैज्ञानिक इतिहास लेखक जेनट ब्राउन ने डार्विन की शख्सियत की कुछ तहें पलटी हैं. नई किताब की प्रस्तावना में ब्राउन ने बताया कि डार्विन की अलक्षित किताब में मनुष्य के उद्भव यानी क्रमिक विकास के बारे में कौनसी बातें सही हैं और कौनसी गलत.
प्राकृतिक चयन से यौनिक चयन तक
मूल रूप से दो खंडो में प्रकाशित द डिसेन्ट ऑफ मैन, तुलनात्मक शरीर-रचना से लेकर मानसिक संकायो तक जानवरों और मनुष्यों के जीवन के विविध पहलुओं को कवर करती है. किताब में बताया गया है कि वे कैसे अपनी तर्क क्षमता, नैतिकता, स्मृति और कल्पनाशीलता का उपयोग करते हैं, यहां तक कि जानवर ये कैसे तय करते हैं कि किसके साथ यौन संसर्ग करना है, यह भी इस किताब में बताया गया है. ब्राउन लिखते हैं, "डार्विन का मानना था कि यौनिक चयन ने मनुष्य जाति और सांस्कृतिक प्रगति के मूल को समझाने में बड़ी भूमिका निभाई."
उन्होंने बताया कि यौनिक चयन से ही यह पता चला कि आखिर क्यों मनुष्य विभिन्न नस्ली समूहों में बंट गए. चमड़ी का रंग और बाल इस बारे में महत्त्वपूर्ण सूचक थे. ब्राउन लिखते हैं कि डार्विन के मुताबिक, "इंसानों के बीच यौनिक चयन से बुद्धिमानी और मातृ प्रेम जैसे मानसिक गुण भी प्रभावित होते हैं." नस्ली समूहों में भी यही होता है. डार्विन के मुताबिक "आदमी औरत के मुकाबले ज्यादा दिलेर, जुझारू और कर्मठ होता है और उसकी खोजी प्रवृत्ति प्रगाढ़ होती है."
डीडब्लू को ईमेल से भेजे जवाब में ब्राउन लिखते हैं, "मैं मानता हूं कि डार्विन सभ्यता के ऐतिहासिक विकास की जैविक जड़ों को समझाने की वाकई कोशिश कर रहे थे. वे सोचते थे कि यौनिक चयन मनुष्य मस्तिषक के विकास में भी एक अहम फैक्टर था." लेकिन ब्राउन यह स्वीकार करते हैं कि डार्विन के विचारों को समस्याग्रस्त बताने वाले बहुत से लोग हैं.
क्या डार्विन अपने दौर की पैदाइश थे?
ध्यान दिलाने लायक बात है कि इस छोटे से लेख में हमारे लिए डार्विन या उनकी किताब द डिसेन्ट ऑफ मैन की बहुत व्यापक पड़ताल कर पाना मुमकिन नहीं हैं. 900 शब्दों में सारी बात लिखने की मजबूरी है. लिहाजा यहां पेश सामग्री इस किताब की विरासत के बारे में ज्यादा है और कि मानवविज्ञानी और दूसरे वैज्ञानिक आज इस किताब को किस नजरिए से देखते हैं. बहुत सारी अच्छी बातों के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं है.
लेकिन आप सोच रहे होंगे कि डिसेन्ट ऑफ मैन के प्रकाशन की 150वी जयंती को याद करने की भला क्या तुक जबकि वह द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज से कम चर्चित किताब है? डार्टमाउथ कॉलेज में मानवविज्ञानी और अ मोस्ट इंटरेस्टिंग प्रॉब्लम किताब के संपादक जेरेमी डिसिल्वा कहते हैं कि, "द ऑरिजिन ऑप स्पीशीज कतई शानदार किताब है. लेकिन डिसेन्ट ऑफ मैन को पढ़ने के बाद मैं दुविधा में हूं."
डिसिल्वा ने डीडब्ल्यू को बताया कि मनुष्यों के दूसरे जीवों से जुड़ाव को समझने और समस्त मानव जाति का इस महान प्रक्रिया का हिस्सा होने के बारे में डार्विन के पास "असाधारण परख” थी — "हर जीव के क्रमिक विकास की एक कहानी है और हमारी भी. डार्विन कुछ कर गुजरना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने अगली शताब्दी के लिए और शोध कार्यों के लिए रास्ता तैयार कर दिया था."
एक ओर डिसिल्वा यह कहते हैं, तो दूसरी ओर यह भी कहते हैं, "मैं प्रजाति और यौन अंतरों के बारे में इन अध्यायों को पढ़ता हूं और सर झुका लेता हूं. वाह, क्या बात थी उस आदमी की! क्या वह बिल्कुल ही अलग था और वह इतना अलग क्यों था?! क्या वह महज अपने दौर की पैदाइश था? या एक विशेषाधिकार प्राप्त ब्रितानी पुरुष होने के नाते उसके भी गहरे पूर्वाग्रह थे (विक्टोरियाई उपनिवेशी दौर में)?"
यकीनन, एक बहुत दिलचस्प समस्या!
समस्या यह है कि डार्विन और भी कुछ बेहतर कर सकते थे. वे और भी कुछ बेहतर जान सकते थे. डिसिल्वा कहते हैं, "उनके पास ऐसा करने के लिए डाटा मौजूद था, ऐसा नहीं था कि वे धारा के विपरीत नहीं जा सकते थे. मेरे कहने का मतलब यह है कि आखिर उसी आदमी ने तो ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज लिखा था!" लेकिन कभी कभी डार्विन भी नहीं देख पाते थे कि ऐन उनकी आंखों के सामने क्या है.
डिसिल्वा कहते हैं, "उन्होंने प्राचीन मनुष्यों के जीवाश्म होने की परिकल्पना की थी. वे फॉसिल का कंसेप्ट ले तो आए थे लेकिन आगे चलकर वे किसी फॉसिल को देखकर भी उसे देख-समझ नहीं पाए. हम डार्विन का उत्सव मनाते हैं और मनाना भी चाहिए. उनके विचारों और उनके असाधारण दृष्टिसंपन्नता के लिए, उनके प्रयोगों और उनके उठाए सवालों के लिए और दुनिया के बारे में उनकी उत्सुकताओं के लिए. वे ऑब्जर्वेशन के उस्ताद थे. लेकिन जब उन्हें एक फॉसिल खोपड़ी दिखाई गई, तो वे उसके बारे में कुछ बता ही नहीं सके."
एक बार डार्विन ने अमेरिका में पहली महिला प्रोटेस्टेन्ट मंत्री अंतोनियोते ब्राउन ब्लैकवेल को चिट्ठी लिखी थी. घटना कुछ यूं थी कि डिसेन्ट ऑफ मैन के प्रकाशित होने के कुछ समय बाद ब्राउन ब्लैकवेल ने एक किताब लिखी थी- ‘प्रकृति में मौजूद स्त्री-पुरुष'- इसमें समानता के विचारों की छानबीन की गई थी. किताब की प्रतियां उन्होंने डार्विन को भेजी भी थीं. हैरानी जताते हुए डिसिल्वा कहते हैं, "डार्विन ने जवाब लिखा और उनका जवाब ‘प्रिय सर' संबोधन से शुरू हुआ. मुझे हैरानी होती हैः क्या उन्हें जरा भी ख्याल नहीं आया कि एक औरत ने किताब लिखी हो सकती है?"
रोड आईलैंड में एंथ्रोपोलोजिस्ट हॉली डन्सवर्थ ने भी ‘अ मोस्ट इंटेरेस्टिंग प्रॉब्लम' किताब पर काम किया है. वे डिसिल्वा के सवाल का बेलाग जवाब देती हैं- डार्विन के दौर में पुरुष और पितृसत्तात्मक परंपराओं के चलते ही महिला वैज्ञानिकों की राह में बाधाएं ही बाधाएं थीं.
पूर्वाग्रहों और अंतर्विरोधों से जूझते डार्विन
‘अ मोस्ट इंटेरेस्टिंग प्रॉब्लम' किताब को पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि डार्विन एक अंदरूनी संघर्ष से जूझ रहे हो सकते थे- अपने निरीक्षणों, अपने पूर्वाग्रहों और उस दौर के पूर्वाग्रहों से टकरा रहे हो सकते थे. और तब लगता है कि उन्होंने आखिरकार अपने विज्ञान को ही अनदेखा कर दिया. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलोजिस्ट अगस्तिन फ्युन्टेस के मुताबिक डार्विन ने यह बहस उठाई थी कि मनुष्यों की कथित प्रजातियां विभिन्न पूर्वजों (प्रजातियों का बहुवंशीय सिद्धांत) से निकली थीं या नहीं या उन सबका कोई एक दूरस्थ पूर्वज (प्रजातियों का एकवंशीय सिद्धांत) ही था.
फ्युन्टेस ने डीडब्लू को बताया, "उन्होंने लोगों के जैविक विभाजन को वंशावली के रूप में प्रस्तुत किया और फिर उन्होंने सांस्कृतिक किस्म के कुछ पूर्वाग्रह भरे दावे कर डाले.. कुछ इस तरह कि हम जानते हैं वे लोग इतने प्रगतिशील नहीं हैं, वे इतने स्मार्ट नहीं हैं और वे जीवित रहने लायक नहीं हैं. तो यह नजरिया दिखाता है कि वास्तव में नस्लवाद कैसे काम करता है. बात एक निजी नस्लवादी की नहीं है, धारणा के व्यवस्थागत ढांचे ही इन चीजों को बनाए रखते हैं." और यह व्यवस्थागत ढांचे, फ्युन्टेस के मुताबिक आज तक जारी हैं. ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका के मूल आदिवासियों के प्रति यही रवैया रहा है. और शायद ज्यादा विस्तार में हम उन असमानताओं में भी इसे देख सकते हैं जो वैश्विक महामारी के आज के समय में व्याप्त हैं.
फ्युंटेस कहते हैं, "अमेरिका और ब्रिटेन की मिसालें लीजिए, जहां हमें रंग, जाति और नस्ल के आधार पर बिल्कुल अलग अलग मृत्यु दरें, रोगों की संख्या और संक्रमण की दरें दिखाई देती हैं. अब ऐसा होने का कोई एक भी जैविक कारण नहीं है. ये एक व्यवस्थागत रंगभेद और नस्लवाद की उपज है जो असमान देह और असमान जिंदगियों की रचना करती है." वे कहते हैं, "डार्विन ठीक यही देख रहे थे और प्राकृतिक चयन के लिए इसे गलत ढंग से साक्ष्य के रूप में पेश कर रहे थे, जबकि हम देखते हैं कि स्थानीय, सामाजिक और पारिस्थितिकीय लैंडस्केप ही उन सांस्कृतिक विभाजनों को तैयार कर रहे है जिन्हें लोग खुद में समाहित कर चुके हैं.
क्या डार्विन की "उत्पत्ति” आज कुछ अलग होती?
‘अ मोस्ट इंटेरेस्टिंग प्रॉब्लम' में स्पष्टता और साफगोई दिखती है. लेकिन गुस्सा भी अभिव्यक्त हुआ है. किताब के संपादक जेरेमी डिसिल्वा कहते हैं, "आज हम जो जानते हैं, उसे जानते होते तो डार्विन कुछ अलग ढंग से लिखते.” फ्युंटेस का कहना है कि डार्विन आज जैविक प्रजातियों के अभाव का मुद्दा उठा रहे होते. लेकिन हॉली डन्सवर्थ का नजरिया ज्यादा तीखा है. डीडब्लू को भेजे ईमेल में वे कहती हैं, "डार्विन आज होते तो कुछ अच्छा ही निकालते क्योंकि बाकी जो हम सब लोग हैं, उनसे उन्हें फायदा मिलता क्योंकि हम इस समय उससे लाख बेहतर हैं जो कि वो तब थे!"
डन्सवर्थ कहती हैं, "हमारी किताब में एक सूत्र यह भी है कि डार्विन को वह सब जानने में कितना मजा आता जो हम आज जानते हैं. लेकिन ऐसी निजी चीजों की कल्पना करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है, मुझे अटपटा लगता है. और ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि मैं उनसे नाराज हूं और उन्हें अपने हिस्से का कुछ नहीं देना चाहती हूं."
डन्सवर्थ लिखती हैं, "डार्विन अमीर और साधन संपन्न थे. उनके विचार अगर आज प्रकाशित हों और उन्हें आप सुन लें तो तमाम मानवविज्ञानी और बहुत से अन्य लोग जगह जगह आग बुझाते नजर आएंगें." इस सिलसिले में डन्सवर्थ सोशल मीडिया तूफानों और कुछ नामों का जिक्र भी करती हैं. मिसाल के लिए स्टीवन पिंकर और रिचर्ड डॉकिन्स जैसे (कु)ख्यात बुद्धिजीवी और "वे नेतागण जो अपने काले और सांवले विपक्षियों की तुलना गैर मनुष्य नरवानरों से करते हैं और विभिन्न सत्ताओं से लैस विभिन्न किस्म के वे आदमी जो सोचते हैं कि पितृसत्ता से निर्धारित लैंगिक भूमिकाओं के जरिए नस्ल बढ़ाने के लिए ही औरत और आदमी अलग अलग विकसित हुए थे...आदि...आदि." पक्षपात, जैसा कि डिसिल्वा मानते हैं, एक शक्तिशाली चीज है. (dw.com)
आज भी दुनिया के कई देशों में महिलाओं को अपनी कौमार्यता साबित करनी पड़ती है या फिर उन्हें तिरस्कार और हिंसा का सामना करना पड़ता है. हालांकि, अब इसके खिलाफ आवाज मुखर हो रहे हैं.
डॉयचे वैले पर काथरीन शेयर की रिपोर्ट-
हमारा समाज आज भी कितना पिछड़ा हुआ और दकियानूसी सोच रखता है, इसकी बानगी एक नए प्रोडक्ट के व्यंग्यात्मक प्रमोशनल वीडियो में दिखती है. म्यूजिक के साथ वीडियो शुरू होता है, खिड़की से दिन की रोशनी अंदर झांकती हुई दिखती है और इसी बीच एक बिस्तर के ऊपर सफेद चादर हवा में लहराती नजर आती है. अब एक व्यक्ति रंगीन बॉक्स खोलता है, जिसे फूलों से सजाया गया है. इस बॉक्स के अंदर एक सफेद चादर है.
इसी दौरान स्क्रीन पर लिखा आता है ‘ट्रैडिशनल वर्जिनिटी टेस्ट'. आगे अब इस चादर की खासियतों का जिक्र आता है, जिसमें 250 थ्रेड काउंट कॉटन, फ्लोरल एंब्रॉयडरी आदि इसकी विशेषताएं बताई गई हैं. इसके बाद जो जानकारी स्क्रीन पर आती है वह हमारी पिछड़ी सोच को दर्शाती है. ‘ब्लडस्टेन मैनटेनेंस गारेंटीड', इसका मतलब यह है कि शादी की पहली रात जब महिला पहली बार शारीरिक संबंध बनाती है तो खून निकलता है. खून के वे धब्बे इस चादर पर स्पष्ट रूप से दिखेंगे.
इस वीडियो को मोरक्को के अल्टरनेटिव मूवमेंट फॉर द डिफेंस ऑफ इंडिविजुअल फ्रीडम (माली) के लिए बनाया गया है. इस संगठन ने यह कैंपेन इसी साल फरवरी में लॉन्च किया है, ताकि उस मिथक को तोड़ा जा सके, जिसके अनुसार यह निर्धारित करना संभव है कि महिला वर्जिन (कुंवारी) है. मोरक्को की महिला अधिकार कार्यकर्ता और माली की संस्थापक इटिसाम बेट्टी लचगर कहती हैं, "सुहागरात को खून आना सिर्फ खून की बात नहीं है. चादर और खून तो सिर्फ प्रतीकात्मक हैं. यह महिला के कौमार्य से संबंधित है और पितृसत्तात्मक समाज की एक काल्पनिक अवधारणा है.”
कौमार्य परीक्षण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं
मोरक्को और कई अन्य देशों में महिलाओं की शुद्धता को बेशकीमती माना जाता है और इसके लिए उन पर नजर भी रखी जाती है. महिलाओं को अपनी कौमार्यता साबित करनी पड़ती है या फिर उन्हें तिरस्कार और हिंसा का सामना करना पड़ता है. उदाहरण के लिए, सऊदी अरब में एक व्यक्ति ने सुहागरात से पहले पत्नी को अपने परिवार के साथ कौमार्य परीक्षण के लिए अस्पताल जाने को मजबूर किया. इसके लिए हिंसा का भी सहारा लिया. यह घटना मीडिया की सुर्खियों में रही.
इस बात को लेकर सटीक आंकड़े नहीं हैं कि दुनियाभर में कितने कौमार्य परीक्षण किए जाते हैं या उनके लिए अनुरोध किया जाता है. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए एक वैश्विक खतरा जरूर है. साल 2018 के इस बयान में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा, "कौमार्य परीक्षण का कोई वैज्ञानिक आधार और क्लिनिकल संकेत नहीं है. अभी तक कोई भी ऐसा परीक्षण नहीं है जो शत-प्रतिशत साबित कर सके कि महिला ने कभी सेक्स किया है या नहीं.”
चादर पर खून के धब्बों से कौमार्य निर्धारण सिर्फ एक तरीका है, जिसके खिलाफ निजी आजादी के लिए लड़ रहा संगठन माली उठ खड़ा हुआ है. महिला की पवित्रता की जांच के कई और तरीके भी हमारे दकियानूसी समाज ने बना रखे हैं. एक तरीका यह भी है कि शादी से पहले महिला को डॉक्टर के पास जाकर अपने कुंवारेपन का प्रमाण पत्र हासिल करना होता है.
दर्दनाक होता है परीक्षण
कुंवारेपन का प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए महिलाओं को अन्य प्रकार के कौमार्य परीक्षण से गुजरना पड़ सकता है. इस परीक्षण के लिए महिला की योनि में उंगली डालना भी शामिल है. कई रिसर्च में पता चला है कि पहली बार सेक्स करने पर कई महिलाओं को न तो दर्द का एहसास होता है और न ही खून आता है. यही नहीं, योनि के अंदर मौजूद हाइमन (झिल्ली) भी कई बार नहीं टूटती.
वाशिंगटन के जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय में फैमिली मेडिसिन की प्रोफेसर और फिजिशियंस टू ह्यूमन राइट की वरिष्ठ चिकित्सा सलाहकार रनित मिशोरी कहती हैं, "इस तरह के तथाकथित कौमार्य परीक्षण बहुत ही दर्दनाक और असुविधाजनक हो सकते हैं. इसमें आमतौर पर डॉक्टर, महिला की योनि में दो उंगलियां डालकर परीक्षण करता है. इसे टू-फिंगर टेस्ट कहा जाता है. यदि किसी महिला की इच्छा के विरूद्ध ऐसा किया जाता है तो इसे यौन हिंसा की श्रेणी में रखा जाता है.”
फ्रांस, अफगानिस्तान, मिस्र और भारत जैसे कुछ देशों ने कौमार्य परीक्षण के खिलाफ कानून और नियम बनाए हैं. हालांकि, साल 2011 में सरकार गिरने से पहले मिस्र के अधिकारी विरोध प्रदर्शनों में शामिल महिलाओं को गिरफ्तार करके उन्हें जबरन वर्जिनिटी टेस्ट के लिए मजबूर करते थे. मिशोरी कहती हैं, "इस तरह के परीक्षण मानवाधिकारों के हनन के अलावा कुछ नहीं हैं.”
पितृसत्ता का औजार है वर्जिनिटी टेस्ट
माली कैंपेन के लिए बनाए गए एक अन्य वीडियो में मोरक्को की एक महिला ने खुद को कुंवारी साबित करने की पीड़ा के बारे में बताया. 27 वर्षीय अमीरा ने बताया कि शादी से पहले की कई तैयारियों में से एक यह भी था कि मुझे क्लिनिक जाकर अपने कुंवारेपन का टेस्ट करवाना पड़ा. उनका चेहरा कैमरे पर नहीं दिखाया गया, लेकिन उनकी दर्द आवाज में साफ तौर पर झलकती है. उन्होंने आगे बताया, "डॉक्टर का टेस्ट एक बात है, लेकिन अभी असली टेस्ट (बेडशीट टेस्ट) मेरा इंतजार कर रहा था, जो सुहागरात को होना था.”
जिन लड़कियों की शादी होने वाली है उन्हें पहले कभी सेक्स नहीं करने के बावजूद, सुहागरात वाले टेस्ट (बेडशीट टेस्ट) में पास होने के लिए कई समाधान तलाशने होते हैं. इसमें नकली खून, टाइटनिंग जेल, पेल्विक फ्लोर एक्सरसाइज और यहां तक कि हाइमनोप्लास्टी नाम की सर्जरी शामिल है. लचगर और माली इन उत्पादों पर प्रतिबंध लगवाना चाहते हैं और उनके पीछे की भावना को खत्म करना चाहते हैं. हालांकि, एक तर्क यह भी है कि जब तक समाज में पवित्रता की अवधारणा मौजूद है तब तक यह उत्पाद तथाकथित कौमार्य को हुए नुकसान को दूर करने के साधन हैं.
महिलाओं के हित में फैसले की सलाह
उदाहरण के लिए, जर्मनी की एक कंपनी वर्जीनियाकेयर नाम से हाइमन ब्लड कैपसूल और नकली वर्जिनिटी सर्टिफिकेट जैसे उत्पाद बनाती है. इस कंपनी के निदेशक अक्सर मीडिया में कहते हैं कि उनकी कंपनी समाज की सेवा कर रही है. एक बयान में कंपनी इस बात पर सहमति जताती है कि यौन शिक्षा महत्वपूर्ण है, लेकिन कुछ ग्राहकों की कौमार्य को लेकर धारणा को बदलने में लंबा वक्त लग सकता है. उनके लिए महिला को खतरे से बाहर रखने के लिए ब्लड कैपसूल एक आपातकालीन उत्पाद के रूप में उपलब्ध है.
बीएमजे ग्लोबल हेल्थ इन 2020 में प्रकाशित एक पेपर में चिकित्सकों ने इन्हीं बिंदुओं पर बात की. इसमें स्वीकार किया गया कि वर्जिनिटी टेस्ट मानवाधिकारों का उल्लंघन है और इसे समाप्त होना चाहिए. इसके साथ ही इस पेपर में लिखा गया कि यदि महिलाओं को के प्रमाणपत्र नहीं दिए जाते हैं तो उन्हें सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और संभावित रूप से शारीरिक नुकसान हो सकता है.
उन्होंने उन चिकित्सकों को सलाह दी है, जिनके पास ऐसी चीजों के लिए महिलाएं आती हैं. चिकित्सकों को इस पर सावधानीपूर्वक विचार करके कम से कम नुकसान पहुंचाने वाले समाधान की सलाह देने को कहा गया है. भले ही वह चिकित्सक इस बारे में अच्छे से जानता हो कि वर्जिनिटी टेस्ट जैसी कोई चीज नहीं होती.
कौमार्य परीक्षण बंद होना चाहिए
लचगर नुकसान की भरपाई वाली बात से इत्तेफाक नहीं रखतीं. वह ऐसा तर्क देने वाले लोगों को भी अपराधी जैसा ही मानती हैं. वह कहती हैं, "ऐसे लोग अपराधियों के पक्ष में खड़े हैं. वे महिलाओं की रक्षा नहीं कर रहे. वे ऐसी संस्कृति का हिस्सा हैं, जो लड़कों और पुरुषों को सिखाती है कि लड़कियां और महिलाएं वस्तु हैं और उनकी छवि वेश्या या सिर्फ मां की होती है.”
मिशोरी भी इस बात से सहमत हैं. वह कहती हैं, ”इस तरह के कृत्य सिर्फ लैंगिक असमानता को मजबूत करने का काम करते हैं. साथ ही, महिला कामुकता, शारीरिक रचना व स्वायत्तता के पितृसत्तात्मक विचारों का समर्थन करते हैं.”
मिशोरी ने कहा, "सबसे महत्वपूर्ण उपाय तो यह होगा कि समाज को इस बात की जानकारी दी जानी चाहिए कि कौमार्य परीक्षण जैसा कोई टेस्ट होता ही नहीं है. सभी सरकारों और स्वास्थ्यकर्मियों की महिलाओं के प्रति जिम्मेदारी है कि वह हाइमन और कौमार्य परीक्षण में इसकी तथाकथित भूमिका के बारे में मिथकों को वैज्ञानिक आधार पर दूर करें.” (dw.com)
नेपाल की सरकार विदेशों में काम करने जाने वाली महिलाओं को शोषण और यौन शोषण से बचाने के लिए नया कानून लागू करने वाली है. हालांकि, महिला अधिकार कार्यकर्ता इसे लोगों को ‘गुमराह’ करने वाला बता रहे हैं.
डॉयचे वैले पर लेखनाथ पांडे की रिपोर्ट-
नेपाल की सरकार 40 साल से कम उम्र की महिलाओं के विदेश जाने को लेकर एक नया नियम लागू करने वाली है. इस नियम के तहत विदेश जाने वाली इन महिलाओं को अपने परिवार और स्थानीय वार्ड कार्यालय से सहमति लेनी होगी. अधिकारियों ने इस नियम का बचाव किया है. उनका कहना है कि कमजोर नेपाली महिलाओं को मानव तस्करी का शिकार होने से बचाने के लिए इस कानून की जरूरत है.
नेपाल के आव्रजन विभाग (डीओआई) के महानिदेशक, रमेश कुमार केसी ने डॉयचे वेले को बताया कि मानव तस्कर विदेशों में आकर्षक नौकरियों का वादा कर युवा, अशिक्षित, और गरीब तबके की महिलाओं को अपना शिकार बना रहे हैं. इन महिलाओं का यौन शोषण किया जाता है. साथ ही, कई अन्य तरीके से भी शोषण किया जाता है. इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए नए नियम का प्रस्ताव रखा गया है.
कुमार कहते हैं, "विदेश यात्रा के लिए 40 से कम उम्र की सभी महिलाओं को ऐसे दस्तावेजों की जरूरत नहीं होगी. यह नियम सिर्फ उन ‘कमजोर' महिलाओं पर लागू होगा जो पहली बार विदेश जा रही हैं. खासकर, अकेली और ‘खतरनाक' अफ्रीकी और खाड़ी देशों में, जहां नेपाली महिलाओं को काम करने का परमिट नहीं मिलता है.”
सोशल मीडिया से लेकर सड़क पर विरोध
हालांकि, महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्टों ने इस प्रस्ताव की तीखी आलोचना की है. आलोचकों ने सोशल मीडिया से लेकर सड़कों पर अपने गुस्से का इजहार किया. इस प्रस्ताव को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि यह महिलाओं की आवाजाही की स्वतंत्रता और जीवन जीने के अधिकार का हनन करने की कोशिश है. नए नियम की घोषणा के बाद काठमांडू के प्रसिद्ध माइतीघर मंडला में सैकड़ों युवा लड़कियों और महिलाओं ने विरोध प्रदर्शन किया. उन्होंने माइग्रेशन प्रस्ताव के साथ-साथ देश भर में लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव के अन्य तरीकों के खिलाफ प्रदर्शन किया.
महिला अधिकार कार्यकर्ता दुर्गा कार्की कहती हैं कि यह कदम दिखाता है कि नेपाल की नौकरशाही में "पितृसत्तात्मक मानसिकता की जड़ें कितनी गहरी हैं." उन्होंने डॉयचे वेले से कहा, "सरकार ने नेपाल की महिलाओं के साथ होने वाले शोषण और यौन शोषण का जवाब उनकी यात्रा पर रोक लगाकर और उनकी कमाई के अधिकार को सीमित करके दिया है. यह गुमराह करने वाला कानून है. हम 21वीं सदी में ऐसी भेदभावपूर्ण नीति की कल्पना नहीं कर सकते."
दुविधा में सरकार
हालांकि, डीओआई के महानिदेशक कुमार ने कहा कि माइग्रेशन नीति को लेकर सरकार दुविधा में है. वे कहते हैं, "अगर हम माइग्रेशन की प्रक्रियाओं को सख्त बनाने की कोशिश करते हैं, तो हमारी आलोचना की जाती है कि हम स्वतंत्रता और यात्रा के अधिकारों पर प्रतिबंध लगा रहे हैं. दूसरी ओर, अगर हम उदार रवैया अपनाते हैं तो हमें तस्करों की मदद करने के लिए दोषी ठहराया जाएगा."
महिला पत्रकार और अधिकार कार्यकर्ता सोना खटिक ने मानव तस्करी से निपटने के लिए प्रस्तावित कानून की सफलता पर संदेह जताया है. वे कहती हैं, "अगर मानव तस्कर युवा लड़कियों और महिलाओं को शिकार बना रहे हैं, तो सरकार को इनका नेटवर्क खत्म करने के लिए कानून लाना चाहिए. अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार की विफलता की वजह से सिर्फ गरीब महिलाओं का उत्पीड़न और शोषण नहीं होना चाहिए."
खटिक कहती हैं, "महिलाओं के यात्रा करने और उनकी कमाई पर रोक लगाने के बजाए, अधिकारियों को इस समस्या से निपटने के लिए कोई और रास्ता तलाशना चाहिए. वे रोजगार देने के लिए भर्ती करने वाली एजेंसियों के लिए बेहतर नियम बना सकते हैं और गंतव्य देशों की सरकारों के साथ महिलाओं के अनुकूल श्रम समझौते कर सकते हैं. साथ ही, शोषण और दुर्व्यवहार की सूचना मिलने पर सुरक्षा उपलब्ध करा सकते हैं और तुरंत कार्रवाई कर सकते हैं." खटिक ने यह भी पूछा कि सरकार ने महिलाओं की तरह ही पुरुषों को विदेश जाने के लिए अपने परिवारों और स्थानीय एजेंसियों से मंजूरी लेने के नियम का प्रस्ताव क्यों नहीं रखा.
यौन शोषण का शिकार हो रहीं नेपाली महिलाएं
हाल के वर्षों में, विदेशों में नेपाली महिलाओं के साथ शोषण और यौन शोषण के कई मामले सामने आए. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अनुमान है कि 2018 में 15,000 महिलाओं और 5,000 लड़कियों सहित लगभग 35,000 लोगों की तस्करी की गई थी. संयुक्त राष्ट्र के ड्रग और अपराध कार्यालय ने जानकारी दी कि यह तस्करी ज्यादातर यौन शोषण, बंधुआ मजदूरी और यहां तक कि अंग निकालने के लिए की जाती है. अप्रैल 2017 से, नेपाल ने घरेलू सहायक के तौर पर काम करने के लिए कुछ मध्य पूर्वी देशों में महिलाओं के जाने पर प्रतिबंध लगा दिया है.
यह रोक तब लगाई गई, जब कतर, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत में नेपाली महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर शोषण की खबरें सामने आई. नेपाल और इन देशों के बीच विभिन्न श्रम समझौतों का हवाला देते हुए इस प्रतिबंध को हटाने की मांग बढ़ रही है. नेपाल की अर्थव्यवस्था प्रवासी श्रमिकों के भेजे गए पैसे पर बहुत अधिक निर्भर करती है. वित्तीय वर्ष 2018-19 में, नेपाल को कुल 8.79 अरब डॉलर विदेशों से आए. यह रकम देश की कुल आय का एक चौथाई से अधिक है.
विदेश में महिलाओं के माइग्रेशन पर रोक लगाने वाली सरकार का कहना है कि वर्तमान में नेपाल के ज्यादातर प्रवासी श्रमिक पुरुष हैं. नेपाल लेबर माइग्रेशन रिपोर्ट 2020 के अनुसार, देश में 35 लाख से अधिक लोगों को विदेश में काम करने के लिए श्रम परमिट जारी किए. उनमें से केवल 5% महिला श्रमिकों के लिए थे. युवा महिला श्रमिकों को प्रभावित करने वाले नए प्रस्ताव को मंजूरी के लिए गृह मंत्रालय को भेजा गया है. संभावना जताई जा रही है कि आने वाले महीनों में यह कानून लागू हो जाएगा. डीओआई के अधिकारी कुमार ने कहा कि मंत्रालय विभिन्न समूहों की चिंताओं को देखते हुए प्रस्ताव की समीक्षा कर सकता है. (dw.com)
सैन फ्रांसिस्को, 6 मार्च | सोलरविंड्स के बाद हुए एक और बड़े साइबर हमले में चीनी हैकरों ने पूरे अमेरिका में कम से कम 30,000 संगठनों को निशाना बनाया है। इन संगठनों में सरकारी एवं कमर्शियल कंपनियां भी हैं। हैकरों ने इन कंपनियों के नेटवर्क में सेंधमारी करने के लिए माइक्रोसॉफ्ट एक्सचेंज सर्वर सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया। 'क्रेब्सऑनसिक्योरिटी' के अनुसार, चीन स्थित जासूसी समूह ने माइक्रोसॉफ्ट एक्सचेंज सर्वर ईमेल सॉफ्टवेयर में चार कमजोरियों का फायदा उठाया।
इन कमजोरियों के कारण हैकरों ने उन कंपनियों के ईमेल एकाउंट्स तक अपनी पहुंच बना ली और वे मैलवेयर स्थापित करने में सफल भी हो गए। माइक्रोसॉफ्ट ने हालांकि चीन स्थित हैकरों के बारे में बताया था, लेकिन उस पैमाने को प्रकट नहीं किया था जिस पर हजारों संगठनों को निशाना बनाया गया।
इस साइबर अटैक पर अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों को जानकारी देने वाले दो साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों ने क्रेब्सऑनसिक्योरिटी को बताया कि चीनी हैकिंग ग्रुप ने दुनिया भर में माइक्रोसॉफ्ट के हजारों एक्सचेंज सर्वर पर नियंत्रण कर लिया है।
एक्सचेंज सर्वर मुख्य रूप से व्यावसायिक ग्राहकों द्वारा उपयोग किया जाता है।
माइक्रासॉफ्ट ने कमजोरियों को ठीक करने के लिए कई सुरक्षा अपडेट जारी किए हैं। इसने अपने ग्राहकों को तुरंत इन्हें इंस्टाल करने की भी सलाह दी है।
गौरतलब है कि इस हफ्ते की शुरूआत में माइक्रोसॉफ्ट ने अपने ग्राहकों को चीनी मूल वाले नए साइबर अटैक की चेतावनी दी थी जो मुख्य रूप से माइक्रोसॉफ्ट के ऑन-प्रिमाइसेस 'एक्सचेंज सर्वर' सॉ़फ्टवेयर को निशाना बना रहा है।
इसे 'हाफनियम' नाम दिया गया है। यह चीन से संचालित होता है और यह गुप्त जानकारियां हासिल करने के मकसद से अमेरिका में संक्रामक रोग शोधूाकर्ताओं, कानून फर्मों, उच्च शिक्षा संस्थानों, रक्षा ठेकेदारों, नीति थिंक टैंक और एनजीओ पर अटैक कर रहा है।
माइक्रासॉफ्ट में कस्टमर सिक्योरिटी ऐंड ट्रस्ट के कारपोरेट वाइस प्रेसिडेंट टॉम बर्ट ने कहा कि हाफनियम चीन में स्थित है। यह मुख्य रूप से अमेरिका में लीज्ड वर्चुअल प्राइवेट सर्वर (वीपीएस) से अपनी गतिविधि का संचालन करता है।
पिछले 12 महीनों में यह आठवीं बार था जब माइक्रोसॉफ्ट ने सार्वजनिक रूप से नागरिक समाज के लिए महत्वपूर्ण संस्थानों को निशाना बनाने वाले राष्ट्र-राज्य समूहों का खुलासा किया है।
व्हाइट हाउस ने कहा था कि नौ संघीय एजेंसियों और लगभग 100 निजी क्षेत्र की कंपनियों को सोलरविंड्स हैकिंग के परिणामस्वरूप निशाना बनाया गया था। (आईएएनएस)
-कमलेश
नेपाल की मुस्कान ख़ातून 15 साल की छोटी-सी उम्र में ही एक बड़ी लड़ाई पर निकल चुकी हैं- एसिड अटैक के ख़िलाफ़.
मुस्कान ख़ुद एक एसिड अटैक पीड़िता हैं और इस जघन्य अपराध के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून के लिए आवाज़ उठा रही हैं.
वह कहती हैं, “जब मेरा इलाज चल रहा था तब मैं बार-बार यही सोच रही थी कि इलाज के लिए पैसे कहां से आएंगे. मेरे घरवाले क्या करेंगे. इसी तकलीफ़ के बीच मुझे ख्याल आया मेरी जैसी उन सभी लड़कियों का जो इसी दर्द से गुज़रती हैं.”
उनकी मेहनत कुछ हद तक रंग लाई है और नेपाल में इस अपराध के लिए अध्यादेश जारी कर नया क़ानून बनाया गया है.
एसिड अटैक के ख़िलाफ़ लड़ाई में अपने इसी योगदान और साहस के लिए मुस्कान ख़ातून को अमेरिका में इंटरनेशनल वुमन ऑफ़ करेज (आईडब्ल्यूओसी) अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है.
MUSKAN KHATUN
अमेरिका में आठ मार्च को इस अवॉर्ड को लेकर एक वर्चुअल कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा जिसमें अमेरिका की फ़र्स्ट लेडी जिल बाइडन और विदेश मंत्री टॉनी ब्लिंकन भी मौजूद होंगे.
ये आईडब्ल्यूओसी का 15वां साल है. इस अवॉर्ड के ज़रिए दुनिया भर की उन महिलाओं को सम्मानित किया जाता है जिन्होंने शांति, न्याय, मानवाधिकारों, लैंगिक समानता और महिलाओं के सशक्तीकरण की वकालत करते हुए असाधारण साहस और नेतृत्व का प्रदर्शन किया है और ऐसा करते हुए वो जोखिम उठाने और त्याग करने से भी पीछे नहीं हटी हैं.
इससे पहले मलाला यूसुफ़ज़ई को पाकिस्तान में महिलाओं और लड़कियों के लिए किए गए काम को लेकर ये अवॉर्ड दिया जा चुका है.
14 साल की उम्र में असहनीय पीड़ा
मुस्कान ख़ातून नेपाल के बीरगंज शहर में रहती थीं और वहीं स्कूल भी जाया करती थीं.
छह सिंतबर 2019 वो दिन था जब मुस्कान को एक लड़के को ना कहने की क़ीमत चुकानी पड़ी. तब मुस्कान नौवीं क्लास में पढ़ती थीं और वो लड़का उन्हें परेशान किया करता था. उन्होंने अपने घर में इस बारे में बताया.
मुस्कान बताती हैं, “तब मेरे अब्बू ने उस लड़के को डांटा और कहासुनी में थप्पड़ भी मार दिया. उस वक़्त तो लड़के ने कहा कि वो अब मुझे परेशान नहीं करेगा लेकिन वो चार महीने बाद फिर आया.”
MUSKAN KHATUN
“उसके साथ उसका एक दोस्त भी था. उनके हाथ में एसिड से भरा जग था. उन्होंने मुझे एसिड पिलाने की कोशिश की लेकिन जब मैंने ऐसा नहीं होने दिया तो उन्होंने मुझ पर एसिड फेंक दिया. वो तो मुझे मारना ही चाहते थे. उस वक़्त मैं दर्द से तड़प रही थी. आसपास के कुछ लोगों ने मुझे अस्पताल पहुँचाया.”
अस्पताल में मुस्कान का लंबा इलाज चला. इस हमले में उनका एक तरफ़ से चेहरा, दोनों हाथ, गला, सीना और एक कान झुलस गए. उनके कान को काफ़ी नुक़सान पहुँचा है.
इलाज के ख़र्च की चिंता
एसिड में झुलसीं मुस्कान उस असहनीय दर्द से गुज़रीं जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. ये तकलीफ़ जितनी शारीरिक थी उतनी मानसिक भी थी.
नौवीं क्लास की मुस्कान आगे पढ़ना चाहती थीं और डॉक्टर बनना चाहती थीं. एक झटके में जैसे उसके सारे सपने ही टूट गए. पहले तो ज़िंदा रहने की जंग और फिर एसिड अटैक के ज़ख्मों के साथ जीने का डर. उस वक़्त ऐसी कई बातें मुस्कान के दिमाग़ में चल रही थीं.
वह बताती हैं, “मेरा इलाज चल रहा था तो जलने से भी ज़्यादा तकलीफ़ मुझे ये हो रही थी कि मेरे अम्मी-अब्बू मेरा इलाज कैसे करा पाएंगे. मैंने जब अम्मी से ये बात कही तो उन्होंने बोला कि तुम चिंता मत करो, हम तुम्हारा इलाज कहीं से भी कराएंगे.”
इलाज का शुरुआती ख़र्चा मुस्कान के माता-पिता ने ही उठाया. लेकिन बाद में तब उनकी चिंताएं कुछ कम हुईं जब इलाज के लिए अलग-अलग जगहों से मदद मिलने लगी. बीरगंज में इलाज ना होने पाने के कारण मुस्कान को इलाज के लिए राजधानी काठमांडू लाया गया. अब उनका परिवार काठमांडू में ही रह रहा है.
इन्हीं तकलीफ़ों के बीच मुस्कान को एक मक़सद भी मिला. उन्होंने एसिड अटैक के ख़िलाफ़ कड़े क़ानून और इलाज में होने वाले ख़र्चे में पीड़िताओं को मदद देने की माँग की. उन्होंने इस संबंध में नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली को पत्र भी लिखा.
मुस्कान बताती हैं, “पहले नेपाल में एसिड अटैक के ख़िलाफ़ कड़ा क़ानून नहीं था. वहीं, पाड़िताओं को मदद भी नहीं मिल पाती थी. मुझे समझ में आया कि एसिड विक्टिम की ज़िंदगी कितनी कठिन हो जाती है. उसे न्याय भी नहीं मिल पाता है. इसलिए मैंने इसे लेकर आवाज़ उठाने की ठानी. मुझे लोगों से बहुत सहयोग मिला. घर से लेकर बाहर सभी ने मेरा हौसला बढ़ाया.”
एसिड अटैक के मामलों को लेकर वो भारत का ज़िक्र करते हुए कहती हैं, "हमने भारत में भी ऐसे मामलों के बारे में सुना है, वहां भी इसके ख़िलाफ़ नियमों में सख्ती की गई. नेपाल हो या भारत हर एसिड अटैक पीड़िता से कहूंगी कि वो हार ना मानें और आवाज़ उठाएं."
मुस्कान के सपने अब भी क़ायम हैं लेकिन उसमें कुछ और उद्देश्य भी जुड़ गए हैं. वह आगे भी एसिड अटैक पीड़िताओं के लिए काम करना चाहती हैं.
उनके ऊपर हमला करने वाले अभियुक्तों को गिरफ़्तार कर लिया गया था और मामले की सुनवाई कोर्ट में चल रही है.
नेपाल में नया क़ानून
मुस्कान ने नए क़ानून के लिए प्रधानमंत्री केपी ओली को पत्र लिखा और उनसे मुलाक़ात भी की थी.
बाद में केपी ओली ने एसिड हमलों के ख़िलाफ़ एक नए क़ानून का मसौदा तैयार करने के लिए कहा था. साथ ही अपराधियों को दंडित करने और कैमिकल्स की बिक्री को विनियमित करने के लिए अध्यादेश जारी किया.
नेपाल में पहले भी एसिड अटैक के ख़िलाफ़ क़ानून था लेकिन अब उसे और सख्त किया गया.
न्यूज़ एजेंसी एएनआई के मुताबिक़ सितंबर 2020 में ये अध्यादेश पास हुआ. इसके अनुसार अगर एसिड पीड़ित की मौत हो जाती है तो उम्र क़ैद की सज़ा दी जाएगी. अगर पीड़ित घायल होता है या उसके शारीरिक अंगों को नुक़सान पहुँचता है तो अपराधी को 20 साल की सज़ा होगी और 10 लाख रुपये जुर्माना लगाया जाएगा. हालांकि, उम्रक़ैद की सज़ा पहले से भी थी.
नए अध्यादेश में ख़ासतौर पर अपराधी की सज़ा के मानदंडों को और व्यापक किया गया है. इसमें पीड़ित को हुए घावों और प्रभावित अंगों के अनुसार सज़ा तय की गई है. इसके अलावा एसिड अटैक पीड़ितों का मुफ़्त में इलाज सुनिश्चित किया गया है.
मुस्कान कहती हैं कि वो नये क़ानून से ख़ुश हैं. उन्हें लगता है कि इससे एसिड हमले रुकने में मदद मिलेगी और पीड़ितों को न्याय व सहायता मिल पाएगी.
नेपाल में अमेरिकी दूतावास की ओर से कहा गया है, “बदलाव लाने में मुस्कान की भूमिका बहुत अहम रही है. दूतावास को उनका समर्थन करने और नेपाल में महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की उन्नति को बढ़ावा देने पर गर्व है.”
सपने पूरे करने को तैयार
मुस्कान ख़ातून अपनी इस उपलब्धि के लिए उन लोगों को शुक्रिया कहते नहीं थकतीं जिन्होंने इस सफ़र में उन्हें प्यार और समर्थन दिया. इसमें वो नेपाल, अमेरिका और भारत के लोगों का दिल से शुक्रिया करती हैं.
उन्होंने बताया कि भारत से अभिनेता अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ ख़ान, वरुण धवन और अभनेत्री कृति सेनन ने जब उनके ठीक होने के लिए मैसेज किए तब उन्हें बहुत ख़ुशी हुई थी.
उनकी मां शहनाज़ ख़ातून और पिता रसूल अंसारी भी ख़ुशी से फूले नहीं समा नहीं रहे हैं. आज उनके दुख ख़ुशियों में तब्दील हुए हैं. उन्होंने भी मुस्कान का सहयोग करने वालों को धन्यवाद दिया.
फ़िलहाल मुस्कान का इलाज चल रहा है और कुछ सर्जरी भी होनी बाक़ी हैं. साथ ही वो फिर से नौवीं की पढ़ाई पूरी कर रही हैं और काठूमांडू में ही स्कूल जाती हैं.
वह कहती हैं, “मैं नहीं रुकने वाली हूं और ये दाग़ मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं. रुकना उसे है जिसने अपराध किया है.”
मुस्कान की आवाज़ में आई मज़बूती और ख़ुशी की खनक से लगता है कि वो एक एसिड अटैक पीड़िता को पीछे छोड़ आई हैं और अपने सपने पूरे करने के लिए तैयार है. (bbc.com)
वाशिंगटन, 5 मार्च | अमेरिकी वाणिज्य विभाग ने म्यांमार के रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय और दो वाणिज्यिक संस्थाओं को व्यापारिक काली सूची (ट्रेड ब्लैक लिस्ट) में डाल दिया है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने गुरुवार को बताया कि वाणिज्य विभाग ने म्यांमार के खिलाफ और अधिक प्रतिबंधात्मक निर्यात नियंत्रण कदमों की भी घोषणा की।
अमेरिका ने पिछले महीने म्यांमार के कई सैन्य नेताओं को नामित किया था और म्यांमार की सैन्य या सुरक्षा बलों से संबंधित तीन संस्थाओं को ब्लैकलिस्ट कर दिया था।
राष्ट्रपति यू विन मिंत और स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची सहित नेशनल काउंसिल फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के अन्य अधिकारियों को 1 फरवरी को सेना द्वारा हिरासत में लिए जाने के बाद म्यांमार में आपात स्थिति घोषित कर दी गई थी।
सेना ने आरोप लगाया था कि देश में नवंबर 2020 में हुए आम चुनावों में बड़े पैमाने धांधली हुआ था, जिसमें संसद के दोनों सदनों में एनएलडी को अधिकांश सीटों पर जीत मिली थी।
म्यांमार के केंद्रीय चुनाव आयोग ने आरोप को खारिज कर दिया था। (आईएएनएस)
काबुल, 5 मार्च | अफगानिस्तान में पिछले 24 घंटों में झड़पों और आतंकवादी हमलों में कम से कम 90 लोग मारे गए। एक स्वतंत्र युद्ध निगरानी समूह ने शुक्रवार को यह जानकारी दी। 'रिडक्शन इन वॉयलेंस' (आरआईवी) ने अपने ट्विटर अकाउंट पर पुष्टि करते हुए कहा, "पिछले 24 घंटों में, हमारी टीम ने 90 मौतें दर्ज की है, जिसमें आठ नागरिक, पांच अफगान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बल (एएनडीएसएफ) के सदस्य और 77 तालिबान आतंकवादी शामिल हैं।"
समाचार एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार, समूह ने कहा कि 33 लोग -31 तालिबानी और दो नागरिक भी घायल हुए हैं।
पांच प्रांतों में आठ सुरक्षा संबंधी घटनाओं के बाद मौतें हुईं और लोग घायल हुए। (आईएएनएस)
लूना वात्फा सीरिया की खुफिया सर्विस की कैद में थीं. अब वह जर्मनी में है. जर्मन शहर कोबलेंस की अदालत में वे सीरियाई नागरिकों को यातना देने के जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ जारी मुकदमे को करीब से देखती रही हैं.
डॉयचे वैले पर मथियास फॉन हाइन की रिपोर्ट-
जर्मनी में आ बसे सीरियाई शरणार्थियों के लिए वो एक खास मौका था जब देश की एक अदालत ने उन पर जुल्म ढहाने वाले सीरिया के पूर्व खुफिया एजेंट को सजा सुनाई. दूसरे पूर्व एजेंट के खिलाफ सुनवाई जारी है. इन दो पूर्व अफसरों की यातनाओं का शिकार हुई एक सीरियाई शरणार्थी महिला भी अदालती कार्यवाही को बतौर नागरिक पत्रकार रिपोर्ट करने के लिए पहुंचती रही.
एक दिलेर महिला की दास्तान
लूना ने अपना असली नाम जाहिर करने से मना किया था. वे 60 दिन तक अदालत आती रहीं. इंसाफ की तलाश में और दर्द भरे अनुभवों को फिर से जीने के लिए. उनका कहना है, "मुझे याद है मेरे साथ क्या हुआ था. जब चश्मदीद अपनी दास्तान सुनाते हैं तो मेरे लिए वे सब बातें सुनना बेहद मुश्किल हो जाता है.'
कोबलेंस में राइन नदी के एक किनारे पर लूना का घर है. दूसरे किनारे पर कोर्ट है, जिसे वे बखूबी जानती हैं. लूना के दो बच्चे हैं. अप्रैल 2020 में सीरियाई खुफिया सेवा के दो पूर्व एजेंटो पर मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए मुकदमा शुरू हुआ था. सीरिया के दमन तंत्र को दुनिया के सामने फाश करने वाला यह अपनी तरह का पहला मुकदमा था. एक चश्मदीद ने यह तक बताया कि कैसे जेल के गार्ड ने उसका भयानक शोषण किया था. उसी गार्ड ने लूना को भी यातना दी थी. दस साल पहले क्रांति की चपेट में आए सीरिया में लूना अपनी बिताई जिंदगी के बारे में बताती हैं. वह जेल की दयनीय स्थितियों का जिक्र करती हैं कि बामुश्किल दस वर्ग मीटर की एक सेल में कैसे उन्हें 20 अन्य महिला कैदियों के साथ ठूंस कर रखा गया था.
बुधवार को लूना कोर्ट पहुंचीं. उसी दिन पहला फैसला भी आया. सुनवाई का एक दिन भी उन्होंने नहीं गंवाया. हर रोज गवाहों और एक्सपर्ट गवाहों को सुनने गईं. एक गवाह वह था जिसे लूना "कब्र खोदने वाला” कहती हैं. सीरिया में अपने परिवार की खैरियत के लिए वो अज्ञात रूप से मध्य सितंबर में अदालत में हाजिर हुआ था. इसीलिए मुकदमे में उसकी पहचान छिपाते हुए गवाह संख्या "जेड 30/07/19" के तौर पर दर्ज किया गया था.
सीरिया से भाग कर जर्मनी आ गए दमिश्क में कब्रिस्तान विभाग के पूर्व कर्मचारी ने बताया कि कई साल तक खुफिया सर्विस वालों ने उससे जबरन लाशें ढुलवाई जिनके लिए सामूहिक कब्रें खोदी गई थीं. हफ्ते में कई बार उसे यह काम करना पड़ता था. एक बार में सैकड़ों लाशें आती थीं और उनमें से कई लाशों पर यातना के भयानक निशान दिखते थे. एक और खौफनाक मंजर दिखता था "सीजर तस्वीरों” के जरिए. कस्टडी में मारे जाने वाले लोगों की तस्वीर खींचने का काम करने वाले सीरियाई सेना के एक फोटोग्राफर ने चुपचाप उनकी कॉपियां बना ली थीं. उसने वे तस्वीरें जर्मन संघीय अभियोजन दफ्तर को भेज दी.
कोलोन में रहने वाले फोरेन्सिक पैथॉलोजिस्ट मारकुस रॉथशाइल्ड ने लोगों की यातना और भूख से हुई मौतों की इन हजारों तस्वीरों का विश्लेषण किया. शुरुआती नवंबर में दो दिन तक अपने नतीजे उन्होंने कोबलेंस की अदालत में पेश किए. लूना ने कहा कि अदालत में पेश तस्वीरों को देखना और उनका ब्यौरा सुनना भयानक था. लूना ने सुनवाइयों के दौरान यातना के शिकार एक आदमी से बात की. लूना ने बताया, "उस आदमी ने अपनी तमाम चोटों के साथ मुझे अस्पताल का एक वीडियो दिखाया. सीजर तस्वीरों जैसी ही वे तस्वीर भी दिखती थी लेकिन वह आदमी अब भी जिंदा है.'
राजनीति और संघर्ष की समझ
मार्च 2011 में बशर अल-असद के खिलाफ शुरू हुए प्रदर्शनों से पहले लूना को राजनीति से कोई मतलब नहीं था. वे कहती हैं, "मुझे बिल्कुल नहीं पता था कि देश में हो क्या रहा था. मैं न सरकार के साथ थी न उसके खिलाफ.” लेकिन कानून की पढ़ाई कर चुकी लूना से न रहा गया. उन्होंने पढ़ना शुरू किया. सीरिया के इतिहास से जुड़ी किताबें, असद परिवार के अपराधों के ब्यौरों वाली किताबें और यह समझाने वाली किताबें कि लोग आखिर सड़कों पर क्यों उतरे हैं. करीब चार या पांच महीने मन लगाकर लूना ने किताबें पढ़ीं. उसके बाद वे भी प्रदर्शनों में शामिल हो गईं. वे देश के दूसरे हिस्सों से राजधानी दमिश्क आने वाले शरणार्थियों की मदद के काम में जुट गईं.
एक दोस्त के मशविरे पर लूना एक सिटीजन जर्नलिस्ट यानी नागरिक पत्रकार बनीं. सीरियाई वॉयस नामक संगठन की मदद से एक साल तक पत्रकारिता के सबक ऑनलाइन सीखे. वे सूचना पर हुकूमत के एकाधिकार के खिलाफ कुछ करना चाहती थीं. छद्म नाम लूना के साथ उन्होंने 2013 के मध्य में एक ऑनलाइन प्रोग्राम शुरू किया. वे याद करती हैं कि वह कार्यक्रम दमिश्क में मिले मृतकों के बारे में था, "कोई नहीं जानता था कि वे कौन थे. मैंने उन लोगों के बारे में सूचनाएं देना शुरू कर दिया. जब उनके रिश्तेदार सुन लेते, तो फोन करते और कहते - वो मेरे पिता थे या वो मेरा बेटा था.”
खुफिया एजेंटों के रडार में
दमिश्क के घाउटा इलाके में अगस्त 2013 में रासायनिक हथियारों का एक हमला, लूना को सुरक्षा अधिकारियों की नजरों में ले आया था. इलाके के कुछ लोगों की मदद से लूना ने उस हत्याकांड को डॉक्युमेंट करने का फैसला किया. उन्होंने बताया, "हमने बहुत सी तस्वीरें खींची, वीडियो उतारे. मैंने खुद 800 पीड़ितों के नाम दर्ज किए.' उन्होंने यह विस्फोटक सामग्री विदेश में सीरियाई विपक्ष को भेज दी. लूना के मुताबिक तमाम सूचना एक यूएसबी स्टिक में थी. खुफिया सेवा के रडार में आते ही उनकी तलाश शुरू हो गई.
करीब चार महीने बाद वह दिन भी आया. 2013 के आखिर का ही वह कोई दिन था जब दमिश्क की सड़कों पर लूना भी उतरी हुई थीं. वे युद्ध भड़कने के बाद दूसरे शहरों से भागकर दमिश्क आ गए लोगों की मदद कर रही थीं. तभी तीन कारें एक झटके के साथ आकर रुकीं, दर्जन भर सुरक्षा गार्ड बाहर निकले. एक ने उनका नाम पूछा और आईडी तलब की. वे याद करती हैं, "वे मुझे खींच कर एक कार तक ले गए. उन्होंने मेरा स्कार्फ मेरी आंखों पर बांध दिया. वो मुझे डिपार्टमेंट 40 में ले गए. यह वही डिपार्टमेंट था जहां एयाद ए ने लंबे समय तक काम किया था.'
कोबलेंसके मुकदमे में अपना बचाव करने वालों दो अभियुक्तों में से एयाद ए को साढ़े चार साल जेल की सजा सुनाई जा चुकी है. लेकिन लूना की गिरफ्तारी होने तक वह सबकुछ छोड़छाड़कर देश से भाग गया था. बाद में लूना को यातना शिविर अल-खतीब भेज दिया गया, जिसे "धरती पर नरक” का दर्जा हासिल था. दूसरा अभियुक्त अनवर आर वहां इंटरोगेटर था. लेकिन उस समय तक वह भी सीरिया छोड़ चुका था. इसीलिए लूना इस मुकदमे में बतौर गवाह शामिल नहीं है. वे पर्यवेक्षक की हैसियत से कोर्ट आती हैं और अरब मीडिया के लिए मुकदमे की रिपोर्टिंग करती हैं.
मनोवैज्ञानिक खौफ से झुकाने की कोशिश
एजेंटों की पूछताछ में लूना ने अपने ऊपर लगाए गए सभी आरोपों को खारिज कर दिया. खुफिया एजेंट उन्हें लेकर उनके अपार्टमेंट भी गए जहां उनके लैपटॉप से जाहिर हुआ है कि वही लूना थीं. एजेंटों ने उनसे अपने सहयोगियों के नाम बताने को कहा. उन्होंने कहा कि उनके अलावा कोई और था ही नहीं, कि वे अकेले ही काम करती थीं, "तब एक अधिकारी ने कहा, ठीक है तुम मदद नहीं करना चाहती हो? तो हम तुम्हारे बेटे और बेटी को गिरफ्तार करेंगे! वे मेरी आंखों के सामने मेरे बेटे को ले गये- और मेरे लिए ये एक बहुत भयानक अनुभव था.'
उसी समय उन्होंने रेडियो पर निर्देश सुने कि उनकी बेटी को भी स्कूल से उठवा लिया जाए, "उस पल से मैंने अपने बच्चों को नहीं देखा था. हर पूछताछ में वे मुझे धमकाते कि सब सच सच बता दो, वरना हम तुम्हारे बच्चों को तुम्हारी आंखों के सामने टॉर्चर करेंगे. खुद की यातना से ज्यादा मुझे अपने बच्चों की चिंता थी. मैं नहीं जानती थी कि वे कहां थे, हो सकता है कि यहीं कहीं उन्हें भी रखा गया होगा, ऐसा सोचती थी.'
दो महीने लूना तीन अलग अलग विभागों में सीक्रेट सर्विस की कैदी बनकर रहीं. फिर उन्हें बाकायदा जेल में डाल दिया गया. गिरफ्तारी के बाद पहली बार वहां उन्हें अपने परिवार से संपर्क की इजाजत दी गई. उन्होंने पाया कि सीक्रेट सर्विस ने मनोवैज्ञानिक आतंक का खेल रचाया था. यह दिखाने के लिए कि उनके बेटे को अलग ले जाया गया था और बेटी के स्कूल कोई नहीं गया था.
पुरानी यादों के साथ नया घर
जेल में 13 महीने बिताने के बाद लूना को जब रिहा किया गया, तो उनके वकील ने उन्हें भाग जाने की सलाह दी. वो अपने बच्चों के साथ रहना चाहती थीं. लेकिन दबाव इतना ज्यादा था कि लूना को भागकर तुर्की जाना पड़ा. वहां से वो दूसरे सीरियाई शरणार्थियों की तरह बाल्कन से होते हुए जर्मनी पहुंचीं. कुछ समय बाद उनके बच्चे भी भागकर तुर्की पहुंच गए. लूना को जब जर्मनी में शरणार्थी के रूप में मान्यता मिल गई, तो वे शरण के नियमों के तहत अपने बच्चों को जर्मनी ला सकती थीं. इसके बाद वे अपने बच्चों को लेकर कोबलेंस आ बसीं.
एक लाख की आबादी वाला कोबलेंस शहर एयाद एक और अनवर आर के खिलाफ मुकदमे का अकेला चश्मदीद बन गया. लूना के मुताबिक, "इस मुकदमे के जरिए हमें पहली बार अपने अनुभवों के बारे मे बोल पाने का मौका मिला है. इंसाफ का यह एक छोटा सा कदम है लेकिन निहायत ही अहम है.” बतौर पत्रकार, वे कहती हैं कि निजी रूप से उन पर भी दमन का असर पड़ा है लेकिन निरपेक्ष रहने की कोशिश करती हैं. उनका कहना है, "जाहिर है इन अभियुक्तों को हर बार देखना अजीब है. और बतौर पीड़ित या सरवाइवर हम लोग मजबूत स्थिति में हैं और वे दोनों अभियुक्त हैं.'
ब्लैक टी का एक घूंट भरते हुए लूना कहती हैं कि बचाव पक्ष के रूप में जैसी स्थिति इन लोगों की यहां हैं, वैसी सीरिया में कभी न होती. क्योंकि उन्हें याद है कि वहां वे भी अपने हकों से महरूम हो चुकी थीं. उन्हें पता है कि अभियुक्त होने के बावजूद अनवर आर और एयाद ए के पास जर्मनी में अपने अधिकार हैं. और वे उनका दावा करने की स्थिति में हैं. बहरहाल, इस सबके बीच लूना नहीं चाहतीं कि वे अभियुक्त भी वही सब भुगतें जैसा उन्होंने या कोर्ट में पेश होने वाले गवाह भुगत चुके हैं. वैसा किसी के साथ भी हरगिज न हो. (dw.com)
चीन ने साल 2021 के लिए 6 फीसदी आर्थिक विकास का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया है. प्रधानमंत्री लि केकियांग ने शुक्रवार को सालाना संसदीय सत्र की शुरुआत में इसकी जानकारी दी.
इसी सत्र में हांगकांग पर चीन का शिकंजा मजबूत करने के लिए भी एक प्रस्ताव आगे बढ़ाया गया है. सात दिन तक चलने वाले सत्र में चीन के लिए लंबे समय की आर्थिक योजना बनाने के साथ ही हांगकांग के चुनावी तंत्र में बड़े बदलाव किए जाने हैं. इन बदलावों के बाद हांगकांग की सरकार में आम लोगों की भूमिका सिमट जाएगी. चीन की शासन व्यवस्था में संसद की भूमिका बहुत हद तक औपचारिक ही है. संसदीय सत्र के लिए 3900 जन प्रतिनिधि सम्मेलन में पहुंचे हैं लेकिन एक पार्टी वाला तंत्र असहमतियों के लिए ज्यादा जगह नहीं देता.
हांगकांग पर शिकंजा
चीन की संसद हांगकांग के चुनावी तंत्र में बड़े बदलाव करने की रणनीति की समीक्षा कर रही है. नई नीति के मुताबिक चीन समर्थक राजनेता और कारोबारी वर्ग एक चुनाव कमेटी का गठन करेंगे. यही कमेटी हांगकांग की विधान परिषद के लिए उम्मीदवारों को नामांकित करेगी. चीन की संसद में नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की स्थाई समिति के वाइस चेयरमैने वांग चेन ने इसकी जानकारी दी. नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की प्रवक्ता झांग येसुई ने गुरुवार शाम प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि इस बदलाव से यह सुनिश्चित होगा कि केवल "देशभक्त ही हांगकांग का प्रशासन संभालें.
पिछले साल संसदीय सत्र के दौरान चीन ने हांगकांग के लिए एक नया राष्ट्रीय सुरक्षा कानून बनाया. यह कानून अनिवार्य रूप से विरोध को आपराधिक बना देता है. इस कानून के चलते हांगकांग में कई दर्जन लोगों को गिरफ्तार किया गया. वहां चीन के बढ़ते दखल और लोकतांत्रिक सुधारों की मांग को लेकर बीते दो साल से विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं.
आधिकारिक रूप से हांगकांग चीन का एक अर्धस्वायत्त क्षेत्र है जिसे ब्रिटेन ने चीन को सौंपते वक्त कुछ राजनीतिक अधिकारों का वादा लिया था. 1997 में किया गया वादा 2047 तक के लिए मान्य है. आलोचक कहते हैं कि चीन हांगकांग की आजादी का अतिक्रमण कर रहा है और अपने पिछले वादों को तोड़ रहा है.
हांगकांग के वोटरों ने नवंबर 2019 में लोकतंत्र समर्थक उम्मीदवारों को जिला परिषद के चुनावों में उतार दिया. हांगकांग के लोग चीन के प्रत्यर्पण बिल पर विरोध जताने के लिए सड़कों पर और चुनाव में उतरे. इस बिल में यह प्रावधान किया गया था कि हांगकांग में किए किसी अपराध के लिए चीन में मुकदमा चलाया जा सकता है. अब इस बिल को स्थगित कर दिया गया है लेकिन चीन चुनावी तंत्र में बदलाव कर यह सुनिश्चित कर लेना चाहता है कि ऐसी स्थिति दोबारा नहीं आए.
6 फीसदी का आर्थिक विकास
बहरहाल संसद के मौजूदा सत्र में एक नई पंचवर्षीय योजना की समीक्षा होगी. इस पंचवर्षीय योजना में चीन ने तकनीकी रूप से खुद को आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही घरेलू उपभोग को बढ़ाने और निचले दर्जे वाली चीजों के निर्यात पर निर्भरता घटाने की योजना बनाई है.
नए दिशा निर्देश अमेरिका के साथ करीब एक साल से ज्यादा लंबे समय से चली आ रही कारोबारी जंग के बाद आए हैं. इस जंग के नतीजे में अमेरिका ने चीन को तकनीक का निर्यात तो घटाया ही है. साथ ही दुनिया की फैक्ट्री कहे जा रहे चीन के दर्जे को भी चुनौती दी है. प्रधानमंत्री ली केकियांग ने कहा, "हम घरेलू प्रसार को बढ़ाएंगे और एक मजबूत घरेलू बाजार बनाने पर काम करेंगे और चीन को एक क्वालिटी प्रॉडक्ट बेचने वाला देश बनाएंगे." चीनी प्रधानमंत्री ने बाजार को और खोलने के साथ ही आयात निर्यात बढ़ाने का भी वादा किया.
नई योजना में सबसे ज्यादा ध्यान टेलिकम्युनिकेशन, स्वच्छ ऊर्जा और इलेक्ट्रिक गाड़ियों के क्षेत्र में नई खोजों को बढ़ाने की योजना पर दिया गया है. चीन की सत्ताधारी पार्टी चाहती है कि देश के विकास के लिए विज्ञान और तकनीक रणनीतिक सहयोग मुहैया कराएं.
बीते साल चीन ने कोरोना वायरस के कारण आर्थिक विकास का लक्ष्य तय करने की परंपरा तोड़ दी. चीन ने इस दौर में 2.3 फीसदी का विकास हासिल किया और दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में वह अकेला ऐसा देश है जिसने 2020 में विकास किया. चीन बीते साल में बजट घाटे को कम करके 3.6 फीसदी पर ले आया जिससे विकास में मदद मिली. 2021 के लिए चीन ने बजट घाटा 3.2 फीसदी हासिल करने का एलान किया है.
चीन ने साल 2021 के लिए रक्षा बजट में 6.8 फीसदी का इजाफा किया है. 2020 में चीन का रक्षा बजट 6.6 फीसदी बढ़ाया गया. सरकार का ध्यान अर्थव्यस्था को मजबूती देने पर ज्यादा है. हालांकि विशेषज्ञ कहते हैं कि चीन का वास्तविक रक्षा खर्च जितना बताया जाता है, उससे करीब 40 फीसदी ज्यादा है.
चीन दक्षिण चीन सागर के इलाके में अपना दबदबा बढ़ाने के लिए सैन्य द्वीप विकसित कर रहा है. इस क्रम में उसका भारत, अमेरिका और ताइवान के साथ टकराव बढ़ रहा है. चीनी प्रधानमंत्री का कहना है कि चीन सैन्य प्रशिक्षण और हर तरह की तैयारियों को बढ़ाएगा हालांकि देश शांति की स्वतंत्र विदेश नीति पर चलेगा.
एनआर/आईबी (डीपीए)
चीन ने अपनी संसद की सालाना बैठक में अंतरराष्ट्रीय जगत को चेतावनी दी है कि वो हांगकांग में दख़लंदाज़ी नहीं दें.
चीन के प्रधानमंत्री ली केचियांग ने नेशनल पीपल्स कांग्रेस (एनपीसी) से कहा कि चीन ऐसी किसी भी कोशिश का कड़ाई से बचाव करेगा.
चीन ने अपने देश की इस सबसे बड़ी राजनीतिक बैठक में घोषणा की कि हांगकांग की चुनाव व्यवस्था में व्यापक बदलाव किए जाएँगे ताकि हांगकांग का भार "देशभक्त" लोगों को दिया जा सके.
समझा जा रहा है कि ये एक संकेत है कि सरकार अब वहाँ किसी भी क़िस्म के असंतोष को बर्दाश्त नहीं करेगी.
इस बारे में लिए गए फ़ैसले के एक मसौदे पर संसद की बैठक में चर्चा होगी, जो एक सप्ताह तक चलनी है.
बीजिंग में इस बैठक के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के हज़ारों प्रतिनिधि जुटे हैं.
माना जा रहा है कि इस बैठक में हांगकांग के अलावा आर्थिक वृद्धि और पर्यावरण को लेकर सरकार की नीतियों पर भी चर्चा होगी.
हांगकांग के बारे में क्या बदलाव होने हैं?
एनपीसी के उपाध्यक्ष वांग चेन ने शुक्रवार को कहा कि हांगकांग का संविधान समझे जाने वाले हांगकांग के बेसिक लॉ दस्तावेज़ में कई बदलाव करने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा कि हांगकांग की चुनाव व्यवस्था में अभी कुछ ऐसी कमियाँ हैं, जिसकी वजह से विपक्षी कार्यकर्ता हांगकांग की आज़ादी की माँग उठा देते हैं.
उन्होंने कहा कि इन ख़तरों को दूर किए जाने की ज़रूरत है, ताकि "हांगकांग के चरित्र के हिसाब से एक लोकतांत्रिक चुनाव व्यवस्था तैयार की जा सके."
ये क़दम चीन में एक नए राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून को लागू किए जाने के बाद उठाया गया है, जिसके बारे में आलोचकों का कहना है कि इसके सहारे हांगकांग में असंतोष को दबाने की कोशिश की जा रही है.
इस क़ानून के तहत अब तक कई गिरफ़्तारियाँ हुई हैं. पिछले सप्ताह 47 लोकतंत्र-समर्थक कार्यकर्ताओं पर देशविरोधी काम करने का आरोप लगा दिया गया.
ब्रिटेन का उपनिवेश रहा हांगकांग अब चीन का एक हिस्सा है, जहाँ का शासन एक देश, दो व्यवस्थाओं की नीति के तहत चलता है, यानी उसकी अपनी क़ानून व्यवस्था है और अभिव्यक्ति और प्रेस से जुड़े अपने अलग क़ानून हैं.
लेकिन हांगकांग के कई अधिकार संगठनों ने चीन पर आरोप लगाया है कि वो हाल के वर्षों में वहाँ मिली स्वतंत्रता और स्वायत्तता को नुक़सान पहुँचा रहा है. 2019 में वहाँ बड़े पैमाने पर हिंसक संघर्ष भी हुए थे.
चीनी संसद की बैठक से पहले ही हांगकांग और चीन के कई अधिकारियों ने हांगकांग का शासन "देशभक्तों" के हाथ में देने की बात उठाई थी.
हांगकांग में पिछले साल सभी लोकतंत्र समर्थक विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया था, जिसके बाद से वहाँ विपक्ष लगभग ख़त्म हो गया है.
जबकि हाल तक हांगकांग में विपक्ष का एक तबक़ा था, जो स्थानीय चुनावों में कामयाबी हासिल करता रहा था.
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर में राजनीति शास्त्र के अध्यापक प्रोफ़ेसर इयन चॉन्ग ने कहा, "2019 में लोकतंत्र-समर्थकों ने अच्छा काम किया, जिससे कम्युनिस्ट पार्टी चिंता में पड़ गई कि उनकी बताई नकारात्मक बातों का असर नहीं हो रहा है."
उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कम्युनिस्ट पार्टी उन आवाज़ों को दूर करना चाहती है, जिसे वो नहीं सुनना चाहती."
एनपीसी क्या है?
नेशनल पीपल्स कांग्रेस चीन की सबसे शक्तिशाली संस्था है, जिसे चीन की संसद समझा जाता है.
लेकिन वास्तविकता में ये एक रबर स्टांप लगाने वाली संसद है, जिसका काम केवल केंद्र सरकार की पहले से तय नीतियों और योजनाओं पर मुहर लगाना होता है.
इसकी बैठक हर साल मार्च में होती है, जिसमें देश भर से लगभग 3,000 प्रतिनिधि जमा होते हैं.
ये चीन के अलग-अलग प्रांतों, स्वायत्त क्षेत्रों और हांगकांग तथा मकाउ के विशेष प्रशासनिक क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं.
एनपीसी की बैठक के साथ ही चीन में पीपल्स कंसल्टेटिव कॉन्फ्रेंस (सीपीसीसी) की भी बैठक होती है, जो देश की सबसे शक्तिशाली राजनीतिक सलाहकार संस्था है.
सीपीसीसी की बैठक गुरूवार को ही शुरू हो गई है.
कांग्रेस में आगे क्या हो सकता है?
चीनी कांग्रेस की बैठक में अगली पंचवर्षीय योजना को भी मंज़ूरी दी जाएगी, जिसकी घोषणा पिछले साल हुई थी.
ये चीन की 14वीं पंचवर्षीय योजना है. वहाँ 1953 से ऐसी योजनाओं का की घोषणाएं होती रही हैं.
चीन दुनिया की अकेली बड़ी अर्थव्यवस्था है, जो इस तरह की पंचवर्षीय योजनाओं का ऐलान करता है.
बैठक में चीन के "डुएल सर्कुलेशन मॉडल" की भी चर्चा हो सकती है, जिसके तहत चीन विदेशी बाज़ारों में निर्यात के साथ-साथ घरेलू उपभोग को भी बढ़ाने की कोशिश कर रहा है.
ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर बेन्जमिन हिलमैन ने बीबीसी को बताया कि ऐसे लक्ष्यों की ज़रूरत अमेरिका को लेकर जारी चिंताओं की वजह से हुई है, जिससे वो सेमीकंडक्टर जैसी एडवांस तकनीकों तक चीन की पहुँच को सीमित कर सकता है.
उन्होंने कहा, "ऐसे क़दमों से चीन की ख़्वावे जैसी कंपनियों को घुटने टेकने पड़ सकते हैं और आगे भी उसकी आर्थिक वृद्धि के रास्ते में बाधा आ सकती है."
चीन इसके साथ ही एनपीसी में कोरोना महामारी का भी ज़िक्र कर ये दर्शाने की कोशिश कर सकता है कि उसने सफलता से इसका सामना किया. (bbc.com)
ग्लीज 486 बी पर पृथ्वी के ही जैसे हालात हैं. जरूरी नहीं की वहां जीवन भी हो, लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे पृथ्वी के परे जीवन की तलाश में सहायक महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है.
खगोलशास्त्रियों ने पृथ्वी के सौर मंडल के पास ही इस नए ग्रह की खोज की है. इसे एक 'सुपर-अर्थ' एक्सोप्लानेट कहा जा रहा है जिसकी सतह का तापमान पृथ्वी के सबसे करीबी ग्रह शुक्र से थोड़ा ठंडा है. पृथ्वी से परे जीवन के सुराग की तलाश में लगे वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी के जैसे एक 'सुपर-अर्थ' के वातावरण का अध्ययन करने का यह अच्छा अवसर है.
एक्सोप्लानेट वो ग्रह होते हैं जो पृथ्वी के सौर मंडल के बाहर होते हैं. जर्मनी के मैक्स प्लैंक खगोलशास्त्र संस्थान के शोधकर्ताओं ने बताया है कि ग्लीज 486 बी अपने आप में जीवन की मौजूदगी के लिए एक आशाजनक उम्मीदवार नहीं है क्योंकि वो गर्म और सूखा है. उसकी सतह पर लावा की नदियों के बह रहे होने की भी संभावना है. लेकिन पृथ्वी से उसकी करीबी और उसके भौतिक लक्षण उसे वातावरण के अध्ययन के लिए एक आदर्श उम्मीदवार बनाते हैं.
पृथ्वी और अंतरिक्ष दोनों से काम करने वाली अगली पीढ़ी की दूरबीनों की मदद से यह अध्ययन किया जा सकता है. नासा इसी साल जेम्स वेब अंतरिक्ष टेलिस्कोप को शुरू करने वाली है. इसकी मदद से वैज्ञानिक ऐसी जानकारी निकाल सकेंगे जिससे दूसरे एक्सोप्लानेटों के वातावरणों को समझने में मदद मिलेगी.
इनमें ऐसे ग्रह भी शामिल हो सकते हैं जहां जीवन के मौजूद होने की संभावना हो. विज्ञान की पत्रिका साइंस में छपे इस शोध के मुख्य लेखक ग्रह वैज्ञानिक त्रिफोन त्रिफोनोव का कहना है कि इस एक्सोप्लानेट का "वातावरण संबंधी जांच करने के लिए सही भौतिक और परिक्रमा-पथ संबंधी विन्यास होना चाहिए."
क्या होती है 'सुपर-अर्थ'
सुपर-अर्थ एक ऐसा एक्सोप्लानेट होता है जिसका गहन यानी मॉस हमारी पृथ्वी से ज्यादा हो लेकिन हमारे सौर मंडल के बर्फीले जायंट वरुण ग्रह यानी नेप्चून और अरुण ग्रह यानी यूरेनस से काफी कम हो. ग्लीज 486 बी का घन पृथ्वी से 2.8 गुना ज्यादा है और यह हमसे सिर्फ 26.3 प्रकाश वर्ष दूर है.
इसका मतलब यह कि यह ग्रह ना सिर्फ पृथ्वी के पड़ोस में है, बल्कि यह हमारे सबसे करीबी एक्सोप्लानेटों में से है. हालांकि त्रिफोनोव ने यह भी कहा, "ग्लीज 486 बी रहने लायक नहीं हो सकता है, कम से कम उस तरह से तो बिल्कुल भी नहीं जैसे हम पृथ्वी पर रहते हैं. अगर वहां कोई वातावरण है भी तो वो छोटा सा ही है."
एक्सोप्लानेटों के अध्ययन का रोसेटा पत्थर
इसके बावजूद तारा-भौतिकविद और इस अध्ययन के सह-लेखक होसे काबालेरो ने उत्साह से कहा, "हमारा मानना है कि ग्लीज 486 बी तुरंत ही एक्सोप्लानेटों के अध्ययन का रोसेटा पत्थर बन जाएगा, कम से कम पृथ्वी जैसे ग्रहों के लिए तो बिल्कुल ही. रोसेटा पत्थर वो प्राचीन पत्थर है जिसकी मदद से विशेषज्ञों ने मिस्र की चित्रलिपियों को समझा था.
वैज्ञानिक अभी तक 4,300 से भी ज्यादा एक्सोप्लानेटों की खोज कर चुके हैं. कुछ वृहस्पति यानी जुपिटर जैसे बड़े गैस के ग्रह निकले तो कुछ और ग्रहों को पृथ्वी की तरह चट्टानों की सतह वाला पाया गया, जहां जीवन के होने की संभावना होती है.
सीके/एए (एएफपी, रॉयटर्स)
कोविड-19 की वैक्सीन ना केवल जानलेवा वायरस से सुरक्षा दे रही हैं बल्कि वैश्विक प्रभाव की लड़ाई में भी अहम भूमिका निभा रही हैं. खासतौर पर चीन और रूस के बीच.
अमेरिका अपनी वैक्सीन को देश की जनता के लिए बचा रहा है, तो यूरोप वैक्सीन की उपलब्धता से जूझ रहा है. लेकिन बीजिंग और मॉस्को के साथ ही भारत गरीब और कमजोर देशों के साथ वैक्सीन को साझा करके अपनी प्रतिष्ठा को और संवार रहा है. शोध संस्था सौफन केंद्र के मुताबिक, "इन टीकों को अरबों लोगों तक पहुंचाना अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. कहा जाए तो यह एक तरीके की 'हथियारों की नई दौड़' है."
चीन जो पहले से ही मास्क के वितरण के साथ महामारी की शुरुआत में ही खेल में आगे था, कई देशों को टीके की आपूर्ति करता रहा है, वह कभी-कभी मुफ्त में भी टीके दे रहा है. करीब दो लाख खुराकें अल्जीरिया, सेनेगल, सिएरा लियोन और जिंबाब्वे को भेजी जा चुकी हैं, पांच लाख खुराकें पाकिस्तान और साढ़े सात लाख डॉमिनिक गणराज्य को मिल चुकी हैं.
पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर बर्ट्रेंड बडी कहते हैं, "चीन एक समय में खुद को दक्षिणी देशों के चैंपियन के रूप में पेश करने में कामयाब रहा जब उत्तर के देश स्वार्थी बने रहे." इस बीच रूस गर्व से अपने स्पुतनिक वैक्सीन का वितरण कर रहा है, जिसका नाम सोवियत संघ द्वारा लॉन्च किए पहले उपग्रहों के नाम पर है.
यूरोप के तीन देश-हंगरी, स्लोवाकिया और चेक गणराज्य ने रूस की स्पुतनिक वैक्सीन को चुना, हालांकि इन देशों ने यूरोपियन मेडिसिंस एजेंसी (ईएमए) की मंजूरी का इंतजार नहीं किया. बडी कहते हैं, "रूस के लिए, दुनिया को यह दिखाने के लिए मौका था कि वह अमेरिका की तुलना में कोरोनो वायरस से कम पीड़ित है और यह कि रूस पश्चिमी यूरोपीय देशों की तुलना में कहीं अधिक कुशल (टीके) से लैस है, जो कि शक्ति को दोबारा हासिल करने का तरीका है." वे कहते हैं, "अंतरराष्ट्रीय संबंधों में आपके द्वारा पेश की गई छवि निर्णायक होती है."
साथ ही वे जोड़ते हैं कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की "जुनूनी इच्छा रूसी शक्ति को फिर से स्थापित करने और पश्चिमी दुनिया के साथ समानता और सम्मान पाने की है." हालांकि रूस को अपनी सीमित उत्पादन क्षमता के कारण हाथ थोड़ा पीछे करना पड़ा है.
भारत की भूमिका
भारत में बड़े पैमाने पर टीके का उत्पादन हो रहा है, उसने पड़ोसी देश श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश को टीके की सप्लाई की है. यही नहीं भारत गरीबों देशों की मदद के लिए अपने यहां बने टीके की आपूर्ति कर रहा है, वह भी मुफ्त में. कई विशेषज्ञ भारत के इस कदम को चीन के दबदबे को कम करने के तौर पर देख रहे हैं.
एए/सीके (एएफपी)
लंदन, 4 मार्च| क्यूएस वल्र्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग्स के ग्यारहवें संस्करण में विषय के आधार पर 12 प्रमुख भारतीय विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों ने अपने-अपने विषय में शीर्ष 100 स्थान हासिल किए। कुल मिलाकर शीर्ष 100 स्थानों में 35 भारतीय के कार्यक्रमों को शामिल किया गया। यह संख्या साल 2020 के संस्करण की तुलना में एक कम है। ये रैंकिंग्स चार मार्च को वैश्विक उच्च शिक्षा परामर्शदाता क्यूएस क्वाक्वेरीली साइमंड्स की ओर से जारी की गईं।
क्यूएस के वैश्विक विश्वविद्यालय के तुलनात्मक प्रदर्शन के 2021 के संस्करण में 51 शैक्षणिक विषयों में 52 भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में 253 कार्यक्रमों के प्रदर्शन के बारे में स्वतंत्र आंकड़े दिए गए हैं। क्यूएस ने यह भी निष्कर्ष निकाला है :
* इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस ने मिनरल एंड माइनिंग इंजीनियरिंग के शीर्ष 50 रैंक प्राप्त किए। आईआईटी-बम्बई (41वां स्थान, पिछले साल की तुलना में कोई परिवर्तन नहीं) और आईआईटी-खड़गपुर (44वां, पिछले साल की तुलना में दो स्थान का सुधार हुआ)। आईआईटी-मद्रास पेट्रोलियम इंजीनियरिंग के लिए 30वें स्थान पर हैं और यह इस वर्ष की विषयवार रैंकिंग्स में पब्लिक इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस द्वारा प्राप्त सर्वोच्च रैंकिंग हैं।
* आईआईएस बैंगलूर ने मेटेरियल साइंस में (78वां स्थान) और रसायन विज्ञान में (93वां) के लिए शीर्ष 100 रैंक को बरकरार रखा।
* आईआईटी-दिल्ली को 13 विषय तालिका में स्थान दिया गया है। इसने इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग में शीर्ष 100 रैंक प्राप्त किया (54 वां रैंक जो 2020 में 49वें रैंक से नीचे है), कंप्यूटर विज्ञान में (70वां) और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में (79वां) रैंक प्राप्त किया।
* दो भारतीय विश्वविद्यालयों ने व्यवसाय और प्रबंधन के लिए शीर्ष 100 रैंक प्राप्त किया।
* पब्लिक इंस्टीट्यूशंस ऑफ एमिनेंस ने निजी संस्थानों की तुलना में क्यूएस वल्र्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में काफी बेहतर प्रतिनिधित्व हासिल किया। इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस के रूप में चुने गए दस निजी विश्वविद्यालयों में से छह संस्थानों ने विषयवार रैंकिंग में स्थान बनाया है और कुछ सकारात्मक परिणाम दर्ज किए गए हैं।
* ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी ने कानून के लिए वैश्विक शीर्ष 100 में प्रवेश किया है। यह अब 76वें स्थान पर है। शीर्ष 100 में किसी प्राइवेट इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस द्वारा हासिल किया गया यह एकमात्र परिणाम है।
* बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस ने फार्मेसी और फार्माकोलॉजी के लिए 151-200 में जगह बनाई। इसने गणित में (451-500 बैंड) और व्यवसाय और प्रबंधन अध्ययन में (451-500 बैंड) के लिए रैंकिंग में भी जगह बनाई।
* जामिया हमदर्द ने फार्मेसी और फार्माकोलॉजी (101-150) के लिए शीर्ष 150 में प्रवेश किया है।
* मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन ने फार्मेसी एंड फार्माकोलॉजी (151-200) के लिए शीर्ष 200 में प्रवेश किया है।
* वेल्लोर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग (251-300 बैंड) के लिए शीर्ष 300 में स्थान प्राप्त किया।
क्यूएस ने यह भी दर्ज किया है कि भारत वैश्विक पर्यावरण विज्ञान अनुसंधान में सबसे आगे है। इल्सवियर में क्यूएस रिसर्च से प्राप्त डेटा से संकेत मिलता है कि भारत इस क्षेत्र में अपने रिसर्च फुटप्रिंट के संदर्भ में पांचवें रैंक पर है। वह केवल जर्मनी, चीन, युनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के पीछे है। एल्सवियर विषयवार क्यूएस वल्र्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग्स में योगदान देता है। इन योगदानों को दर्शाते हुए छह भारतीय विश्वविद्यालयों को क्यूएस की पर्यावरण विज्ञान रैंकिंग में दिखाया गया है, जिसमें आईआईटी-बंबई और आईआईटी-खड़गपुर (151-200) ने शीर्ष 200 स्थान प्राप्त किया है और आईआईटी गुवाहाटी ने इस वर्ष (401-250 बैंड) में पहली बार स्थान बनाया। इस विषय में आईआईटी-खड़गपुर प्रदर्शन में पिछले एक साल में 201-250 बैंड से बेहतर हुआ है।
क्यूएस में प्रोफेशनल सर्विसेस के वरिष्ठ उपाध्यक्ष बेन सॉटर ने कहा, "भारत के सामने जो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं, उनमें से एक चुनौती शैक्षिक है- तेजी से बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए उच्च गुणवत्तावाली उच्च शिक्षा प्रदान करना। पिछले साल एनईपी ने भी यह स्वीकार किया और इसके लिए 2035 तक 50 प्रतिशत का सकल नामांकन अनुपात के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करना होगा। इसलिए यह चिंता का एक कारण भी होना चाहिए कि पिछले वर्ष की तुलना में हमारी 51 विषय रैंकिंग में भारतीय कार्यक्रमों की संख्या वास्तव में कम हो गई है- 235 से घटकर 233 तक। हालांकि यह मामूली कमी है, लेकिन यह इस तथ्य का द्योतक है कि गुणवत्ता का त्याग नहीं करते हुए प्रावधान का विस्तार एक अत्यधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है। हालांकि, क्यूएस यह भी ध्यान देता है कि भारत के निजी तौर पर संचालित भावी संस्थानों के कई कार्यक्रमों ने इस साल प्रगति की है, जिसमें सकारात्मक भूमिका का प्रदर्शन किया गया है, जिसमें अच्छी तरह से विनियमित निजी प्रावधान भारत के उच्च शिक्षा क्षेत्र को बढ़ाने में हो सकते हैं।"
उन्होंने कहा, "ये रैंकिंग भारत की आकांक्षाओं और उन्हें पूरा करने की क्षमता को प्रदर्शित करती है। यह भारत के लिए अपने विश्वस्तरीय संस्थानों को स्वीकार करने, उनकी सराहना करने और प्रोत्साहित करने के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है, जिन्होंने इन रैंकिंग में उच्चतम स्तर पर छाप छोड़ी है। यह एक लंबे समय से पोषित आकांक्षा और इच्छा का प्रतीक है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने कई अवसरों पर व्यक्त किया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों के निर्माण की भारत की आकांक्षा को भी रेखांकित किया है।" (आईएएनएस)
नई दिल्ली, 4 मार्च। न्यूजीलैंड में भूकंप के झटके महसूस किए गए हैं. भूकंप के झटके इतने तेज थे कि लोग अपने घरों से भी बाहर निकल आए. वहीं भूकंप के बाद अब सुनामी की चेतावनी दी गई है. न्यूजीलैंड में आए भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 7.3 आंकी गई है. इसके बाद न्यूजीलैंड में सुनामी की चेतावनी जारी की गई है.
न्यूजीलैंड के उत्तरी-पूर्वी तट पर गुरुवार को एक शक्तिशाली भूकंप आया, जिसको लेकर अधिकारियों ने सुनामी के खतरे की चेतावनी दी. भूकंप से गंभीर क्षति या किसी के हताहत होने की तत्काल कोई खबर नहीं है. न्यूजीलैंड की राष्ट्रीय आपातकालीन प्रबंधन एजेंसी ने कहा कि वह अभी भी यह आकलन कर रही है कि क्या भूकंप की वजह से सुनामी आ सकती है. भूकंप की तीव्रता 7.3 मापी गई.
एजेंसी ने तट के पास रहने वाले लोगों को सलाह दी कि अगर वे तेज या लंबे समय तक झटकों को महसूस करते हैं तो वे तुरंत ऊंचे मैदानी क्षेत्रों में चले जाएं. पैसिफिक सुनामी चेतावनी केंद्र (PTWC) ने कहा कि शुक्रवार की सुबह न्यूजीलैंड के नॉर्थ आइलैंड में 7.3 तीव्रता के भूकंप के बाद सुनामी की चेतावनी जारी की गई है. पीटीडब्ल्यूसी ने कहा कि भूकंप के केंद्र के 300 किमी के भीतर सुनामी की लहरें संभव हैं.
दहशत का माहौल
अमेरिकी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने कहा कि प्रारंभिक तौर पर भूकंप की तीव्रता 6.9 मापी गई है और जिसका केंद्र जिस्बॉर्न शहर से लगभग 178 किलोमीटर (111 मील) दूर 10 किलोमीटर (छह मील) की गहराई में स्थित था. भूकंप के बाद लोगों में दहशत का माहौल बना हुआ है.
हालांकि इस भूकंप के कारण कितना नुकसान हुआ है, इसकी फिलहाल जानकारी सामने नहीं आई है. फिलहाल लोगों को सजग रहने की सलाह दी गई है. वहीं फरवरी के महीने में न्यूजीलैंड के दक्षिण में जोरदार भूकंप आया था. उस दौरान भूकंप की तीव्रता रिएक्टर स्केल पर 7.7 आंकी गई थी. इसका केंद्र लॉयल्टी द्वीप के दक्षिण-पूर्व में 10 किलोमीटर (छह मील) की गहराई में स्थित था. (एजेंसी)
काठमांडू, 4 मार्च| पूर्व विद्रोही माओवादी पार्टी का एक कद्दावर गुट, गुरुवार को मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने के लिए सहमत हो गया। यह गुट 2014 से 'सशस्त्र संघर्ष' के लिए भूमिगत था। नेत्र बिक्रम चंद उर्फ बिप्लव ने गुरुवार की सुबह नेपाल सरकार के साथ तीन सूत्रीय समझौते की शुरुआत की और मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने के लिए सहमत हुए।
चंद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) में एक दशक तक चले गृहयुद्ध के दौरान 1996 से 2006 तक नेपाल में डिप्टी कमांडर हुआ करता था और उन्हें पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड का भरोसेमंद नेता माना जाता था।
2006 में माओवादियों ने मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने का फैसला किया, चंद को पार्टी के अंदर दरकिनार कर दिया गया और 2012 में पार्टी के अन्य नेताओं के साथ पार्टी छोड़ दी।
चंद ने गंभीर वैचारिक मतभेद होने के बाद, 2014 में पार्टी छोड़ दी और अपनी खुद की पार्टी बनाई और लोगों की हत्या, बमबारी जैसी हिंसात्मक गतिविधियां में शामिल हो गया। बाद में 2019 में, वर्तमान के.पी. ओली सरकार ने काठमांडू में एक बम विस्फोट में एक व्यक्ति की मौत के बाद संगठन के खिलाफ प्रतिबंध लगाए थे।
दोनों पक्षों के बीच हुए समझौते के अनुसार, चंद के नेतृत्व वाली सीपीएन अपने राजनीतिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए हिंसक गतिविधियों को त्यागने और शांतिपूर्ण राजनीति करने के लिए सहमत हो गई है।
अनौपचारिक वार्ता के सफल दौर के बाद, दोनों पक्षों ने मंगलवार को चार सदस्यीय वार्ता दल का गठन किया था और एक समझ तक पहुंचने के लिए काठमांडू में वार्ता की एक श्रृंखला आयोजित की।
बैठक के बाद जारी एक संयुक्त बयान के अनुसार, गुरुवार दोपहर 2 बजे होने वाले एक विशेष समारोह के बीच समझौते के विवरण को सार्वजनिक करने के लिए दोनों पक्ष सहमत हुए। राजधानी में समारोह को प्रधानमंत्री के.पी. ओली और सीपीएन के महासचिव नेत्रा बिक्रम चंद ने संबोधित किया।
दोनों पक्षों द्वारा जारी संयुक्त प्रेस बयान के अनुसार, सीपीएन के खिलाफ लगाए गए प्रतिबंध को हटाया जाएगा, सभी कैदियों को रिहा किया जाएगा और सीपीएन नेताओं और कैडरों के खिलाफ दायर किए गए मामले समाप्त किए जाएंगे। (आईएएनएस)
म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के खिलाफ देश में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर सुरक्षाबलों की हिंसात्मक कार्रवाई जारी है. बुधवार को सुरक्षाबलों की फायरिंग में कम से कम 38 लोगों की मौत हो गई.
म्यांमार में 1 फरवरी से ही राजनीतिक उथल-पुथल जारी है और जब से लोग लोकतंत्र की बहाली की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे हैं, सेना और पुलिस उनकी आवाज दबाने के लिए बल का प्रयोग कर रही है. म्यांमार की सेना तख्तापलट की अंतरराष्ट्रीय निंदा के बावजूद विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए हिंसा का सहारा ले रही है.
म्यांमार पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव की विशेष दूत क्रिस्टीन एस बर्गनर ने बुधवार को कहा, "सिर्फ आज 38 लोग मारे गए." साथ ही उन्होंने बताया कि सेना के तख्तापलट के बाद से अब तक 50 लोगों की जान जा चुकी है और बड़ी संख्या में लोग घायल हुए हैं. म्यांमार में हर रोज सेना के तख्तापलट के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं और इसकी संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है.
इस बीच म्यांमार की सेना पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता जा रहा है. पश्चिमी देश म्यांमार के जनरलों पर प्रतिबंध लगा चुके हैं, ब्रिटेन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक शुक्रवार को बुलाई है. बुधवार को हुई मौतों के बाद अमेरिका ने कहा है कि वह आगे की कार्रवाई पर विचार कर रहा है. लेकिन जुंटा ने अब तक वैश्विक निंदा को नजरअंदाज कर दिया है. बर्गनर ने कहा, "तख्तापलट के बाद से आज सबसे खूनी भरा दिन था." उन्होंने संयुक्त राष्ट्र से जनरलों के खिलाफ "बहुत कठोर उपाय" अपनाने का आग्रह किया, उन्होंने बताया कि उनकी साथ बातचीत में जनरलों ने प्रतिबंधों के खतरे को खारिज कर दिया था.
अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा, "हम सभी देशों से बर्मा की सेना द्वारा अपने ही लोगों के खिलाफ क्रूर हिंसा की निंदा करने के लिए एक स्वर से आवाज उठाने का आग्रह करते हैं." म्यांमार में लोकतंत्र बहाली की मांग कर रहे लोगों, छात्रों और शिक्षकों को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार किया जा चुका है.
पत्रकारों की गिरफ्तारी
एसोसिएटेड प्रेस समाचार एजेंसी ने बुधवार को एक वीडियो जारी किया जिसमें म्यांमार के सुरक्षा बलों को एक एपी के पत्रकार को पकड़े और हथकड़ी पहने दिखाया गया. म्यांमार की सेना ने अंतरराष्ट्रीय मीडिया एजेंसी के एक पत्रकार समेत मीडिया से जुड़े पांच अन्य लोगों के खिलाफ कानून के उल्लंघन करने का आरोप लगाया है. आरोप साबित होने पर उन्हें तीन साल तक की जेल हो सकती है.
एपी के पत्रकार थाइन जॉ की रिहाई की मांग करते हुए है, एपी के अंतरराष्ट्रीय न्यूज उपाध्यक्ष इयान फिलिप्स ने कहा, "स्वतंत्र पत्रकारों को बदले की कार्रवाई के डर के बिना समाचार को स्वतंत्र और सुरक्षित रूप से रिपोर्ट करने की अनुमति दी जानी चाहिए." फुटेज में दिखाया गया जॉ म्यांमार के सबसे बड़े शहर यंगून में प्रदर्शनों को कवर कर रहे थे, उस दौरान सुरक्षाबल प्रदर्शनकारियों की तरफ दौड़ रहे थे. उसी दौरान जॉ को पकड़ लिया गया और हथकड़ी लगा दी गई और उसके बाद पुलिस उन्हें अपने साथ लेकर चली गई. एए/सीके (रॉयटर्स, एएफपी)
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान संसद में विश्वासमत हासिल करेंगे. पाकिस्तान की सत्ताधारी यानी इमरान ख़ान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) ने सीनेट की सबसे चर्चित इस्लामाबाद सीट हारने के बाद यह घोषणा की है.
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने बुधवार को प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर कहा कि संसद में यह स्पष्ट करने की ज़रूरत है कि कौन इमरान ख़ान के साथ है और किसे पाकिस्तान पीपल्स पार्टी या पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) पसंद है.
इस्लामाबाद सीट से पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने इमरान ख़ान की सरकार में वित्त मंत्री अब्दुल हाफ़ीज़ शेख को हरा दिया है. यूसुफ़ रज़ा गिलानी संयुक्त विपक्ष पीडीएम यानी पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट के उम्मीदवार थे. वैसे गिलानी बिलावल भुट्टो ज़रदारी की पार्टी पीपीपी से हैं.
इस्लामाबाद सीट से इमरान ख़ान के वित्त मंत्री की हार को बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है. इस चुनाव में इमरान ख़ान ने निजी तौर पर अपने कैबिनेट साथी के लिए कैंपेन किया था.
The PM had promised to dissolve the assembly if he lost the Islamabad Senate seat. He lost. We won. Now what’s stopping him? Is Kaptaaan scared of elections?
— BilawalBhuttoZardari (@BBhuttoZardari) March 3, 2021
पीटीआई का कहना था कि उसके पास कुल 182 वोट हैं जबकि जीत के लिए 172 वोटों की ही ज़रूरत थी. यूसुफ़ रज़ा गिलानी को 169 वोट मिले हैं और अब्दुल हाफ़ीज़ शेख को 164 वोट. कुल 340 वोट डाले गए थे. पीडीएम में कुल 11 विपक्षी पार्टियाँ हैं, जिनमें नवाज़ शरीफ़ की पीएमएल (एन) और बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी भी हैं.
बहुप्रतीक्षित सीनेट चुनाव संपन्न हो गया है और इमरान ख़ान की पार्टी को कुल 18 सीटों पर जीत मिली है. पीपीपी को आठ और पीएमएल (एन) के खाते में पाँच सीटें गई हैं.
इस्लामाबाद में अब्दुल हाफ़ीज़ शेख की हार और अपने उम्मीदवार की जीत पर बिलावल भुट्टो ने ट्वीट कर कहा है, ''प्रधानमंत्री ने कहा था कि इस्लामाबाद सीनेट सीट अगर हार जाएंगे तो असेंबली भंग कर देंगे. इस्लामाबाद हार गए हैं. अब उन्हें कौन रोक रहा है? क्या कप्तान को चुनाव से डर है?''
PAKPMO
विश्वासमत का सामना
शाह महमूद क़रैशी ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में पाकिस्तान के निर्वाचन आयोग पर भी सवाल खड़े किए. क़ुरैशी ने कहा कि मतदान में पारदर्शिता के लिए ही उनकी सरकार ने ओपन बैलेट से वोट कराने की बात कही थी लेकिन विपक्षी पार्टियों को यह रास नहीं आया.
इस हार के बाद विपक्ष ने प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से इस्तीफ़ा मांगा है. पीपीपी प्रमुख बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर कहा कि यह जीत पाकिस्तान की लोकतांत्रिक ताक़तों की है. बिलावल ने कहा कि प्रधानमंत्री को अब इस्तीफ़ा दे देना चाहिए क्योंकि यह माँग केवल विपक्ष की नहीं है बल्कि उसकी सरकार के सदस्यों की भी है.
दिलचस्प है कि अब्दुल हाफ़ीज़ शेख पूर्व प्रधानमंत्री गिलानी के 2008 से 2012 के कार्यकाल में भी मंत्री थे. पाकिस्तान की सरकार के प्रवक्ता शहबाज़ गिल ने कहा कि विपक्ष को पाँच वोटों के अंतर से जीत मिली है जबकि सात वोट रद्द किए गए. उन्होंने कहा इस नतीजे को चुनौती देंगे.
लेकिन कुछ इसी तरह के नतीजे में पीटीआई की उम्मीदवार फ़ौज़िया अरशद को जीत मिली है. फ़ौज़िया अरशद को 174 वोट मिले और पीडीएम समर्थित फ़रज़ाना कौसर को 161 वोट मिले. पाँच वोट यहाँ भी रद्द किए गए. इस्लामाबाद में सीनेट की दो सीटों के लिए मतदान हुए और फ़ौज़िया अरशद यहाँ की दूसरी सीट से जीती हैं.
भारत की राज्यसभा की तरह पाकिस्तान की सीनेट
पाकिस्तान में सीनेट भारत के ऊपरी सदन राज्यसभा की तरह है. यहाँ सदस्य छह सालों के लिए चुने जाते हैं. 104 सदस्यों वाली सीनेट से कुल 52 सीनेटर्स 11 मार्च को अपना छह साल का कार्यकाल पूरा कर रिटायर हो रहे हैं.
इनमें से चार सदस्य संघीय प्रशासित क़बाइली इलाक़े से हैं. इन्हें फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया यानी फाटा कहा जाता है. ख़ैबर पख़्तुनख़्वा प्रांत में फाटा के वियल के बाद से ये चार सदस्य फिर से नहीं चुने जा सकेंगे.
यानी सीनेट में सदस्यों की संख्या अभी 100 हो गई है. 23-23 सदस्य पाकिस्तान के चारों प्रांत से हैं जबकि चार सदस्य इस्लामाबाद से चुने जाते हैं. बाक़ी के चार सदस्य फाटा से हैं और ये 2024 में रिटायर होंगे. मतलब 2024 के बाद सीनेट में सदस्यों की कुल संख्या 96 रह जाएगी.
52 में से 37 सीटों पर मतदान हुए हैं और बाक़ी निर्विरोध चुन लिए गए हैं. पंजाब के सभी 11 सीनेटर्स निर्विरोध चुने गए हैं. पाकिस्तान में सीनेटर्स के चुनाव में भारत में राज्यसभा चुनाव की तरह राज्यों के विधानसभा के विधायक वोट करते है.
چیئرمین پاکستان پیپلز پارٹی بلاول بھٹو زرداری کی عوام کو جمہوریت کی فتح پر مبارک باد
— PPP (@MediaCellPPP) March 3, 2021
“آج ہم نے پوری دنیا کو دیکھا دیا ہے کہ کتنا بھی ظلم و جبر ہو جائے، پاکستان پیپلز پارٹی کا ایک ہی موقف ہے، “جمہوریت بہترین انتقام ہے۔”@BBhuttoZardari#UnitedForDemocracy
1/3 pic.twitter.com/lA4Rw1O3gD
बुधवार को पाकिस्तान में बलूचिस्तान, ख़ैबर पख़्तुनख़्वा और सिंध असेंबली के विधायाकों ने वोट किया. चूँकि पंजाब में सभी निर्विरोध चुन लिए गए थे इसलिए वहाँ वोटिंग नहीं हुई. इस्लामाबाद से दो सीनेटर्स के लिए वोट डाले गए. इस्लामाबाद पाकिस्तान की फेडरल राजधानी है और यहाँ सीनेटर्स के चुनाव में नेशवन असेंबली के सांसद वोट करते हैं.
ऐसी उम्मीद की जाती है कि पार्टी लाइन का पालन करते हुए वोटिंग होगी लेकिन सत्ता और विपक्ष दोनों एक दूसरे पर वोट ख़रीदने के आरोप लगा रहे हैं.
मंगलवार को एक वीडियो सामने आया था जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी के बेटे अली हैदर गिलानी दो सांसदों दो बता रहे हैं मतदान के दौरान अपने वोट को कैसे अमान्य करा सकते हैं.
آج سینیٹ میں شکست کے بعد کوئی اخلاقی جواز نہیں بنتا کہ عمران خان وزارت عظمیٰ کی کرسی پر براجمان رہیں
— Zubair awan (Mux) (@Zubair_Arif_) March 3, 2021
(میاں نواز شریف) pic.twitter.com/IuJzSwiht2
पीटीआई ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से ट्वीट किया, ''यूसुफ़ रज़ा गिलानी के बेटे सीनेटे के लिए वोट ख़रीदते पकड़े गए हैं. पीडीएम के उम्मीदवारों का यही आचरण है.''
वोट को लेकर सिंध की असेंबली में भी विधायक आपस में भिड़ गए. इमरान ख़ान चाहते थे कि चुनाव ओपन बैलेट के ज़रिए लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संविधान का हवाला देते हुए गोपनीय बैलेट के ज़रिए ही चुनाव कराने का आदेश दिया था. (bbc.com)
म्यांमार में सैन्य तख़्तापलट के एक महीने बाद भी बेतहाशा हिंसा जारी है. बुधवार को कम से कम 38 लोगों की मौत हुई है.
संयुक्त राष्ट्र ने इसे 'ख़ूनी बुधवार' कहा है. म्यांमार में संयुक्त राष्ट्र की राजदूत क्रिस्टिन श्रेनर ने कहा है कि देश भर से दिल दहलाने वाले फुटेज सामने आ रहे हैं. क्रिस्टिन ने ये भी कहा, ''ऐसा लगता है कि सुरक्षा बल गोलीबारी में लाइव बुलेट का इस्तेमाल कर रहे हैं.''
पूरे म्यांमार में एक फ़रवरी को हुए सैन्य तख़्तापलट के ख़िलाफ़ व्यापक विरोध-प्रदर्शन हो रहा है. प्रदर्शनकारियों की मांग कर रहे हैं कि आंग सान सू ची समेत चुने हुए सरकारी नेताओं को रिहा किया जाए.
इन नेताओं को सेना ने सत्ता से बेदखल कर जेल में बंद कर दिया है. प्रदर्शनकारी सैन्य तख्तापलट को भी ख़त्म करने की मांग कर रहे हैं. हालिया हिंसा तब सामने आई है जब पड़ोसी देश सेना से संयम बरतने का आग्रह कर रहे हैं.
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आकर सीधे गोली मारने लगे
क्रिस्टिन श्रेनर का कहना है कि तख्तापलट के बाद से अब तक 50 लोगों की जान जा चुकी है और बड़ी संख्या में लोग ज़ख़्मी भी हुए हैं. क्रिस्टिन ने कहा, ''एक वीडियो में दिख रहा है कि पुलिस मेडकल दल के निहत्थे लोगों को पीट रही है. एक फुटेज में दिख रहा है कि प्रदर्शनकारी को गोली मार दी गई और ऐसा लगता है कि यह सड़क पर हुआ है.''
क्रिस्टिन ने कहा, ''मैंने कुछ हथियार विशेषज्ञों से कहा है कि वे हथियारों की पहचान करें. स्पष्ट नहीं है लेकिन ऐसा लगा रहा है कि पुलिस के पास जो हथियार हैं वे 9एमएम सबमशीन गन्स हैं और ये लाइव बुलेट्स का इस्तेमाल कर रहे हैं.''
सेव द चिल्ड्रेन का कहना है कि जिन लोगों को बुधवार को मारा गया है उनमें 14 और 17 साल के दो लड़के हैं. इनमें एक 19 साल की लड़की भी है. समाचार एजेंसी रॉयटर्स के एक स्थानीय पत्रकार ने कहा कि मध्य म्यांमार के मोन्यवा में प्रदर्शन के दौरान छह लोगों के मारे जाने की ख़बर है और 30 लोग ज़ख़्मी हुए हैं.
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समाचार एजेंसी एएफ़पी से एक मेडिकल स्वयंसेवी ने कहा कि मयींग्यान में कम से कम 10 लोगो ज़ख़्मी हुए हैं. इनका कहना है कि सेना आँसू गैस के गोले, रबर बुलेट और लाइव बुलेट का इस्तेमाल कर रही है. इसी शहर के एक प्रदर्शनकारी ने रॉटयर्स से कहा, ''ये हमें पानी की बौछारों से तितर-बितर नहीं कर रहे और न ही चेतावनी दे रहे. ये सीधे गोली दाग रहे हैं.''
मंडालय में एक प्रदर्शनकारी छात्र ने बीबीसी से कहा कि उसके के पास प्रशर्नकारियों को मारा गया है. उन्होंने कहा, ''मुझे लगता है कि क़रीब 10 या 10.30 का वक़्त रहा होगा तभी सेना और पुलिस के जवान आए और हिंसक तरीक़े से लोगों पर गोलियाँ दागना शुरू कर दिया.'' इन मौत की रिपोर्ट पर सेना की तरफ़ से कोई बयान नहीं आया है.
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दबाव के बावजूद सेना का रुख़ स्पष्ट
क्रिस्टिन श्रेनर ने कहा है कि यूएन म्यांमार के सैन्य अधिकारियों के ख़िलाफ़ कोई कड़ा फ़ैसला ले. पोप फ्रांसीस ने उत्पीड़न के बदले संवाद करने की आग्रह किया है. म्यांमार को लेकर पड़ोसी दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों के विदेश मंत्रियों ने विशेष बैठक की है.
हालांकि सबने संयम बरतने की सलाह दी है. कुछ ही मंत्रियों ने सैन्य शासकों से कहा कि आंग सान सू ची को रिहा कर दो. 75 साल की सू ची नज़रबंदी के बाद से पहली बार इस हफ़्ते की शुरुआत में कोर्ट में वीडियो लिंक के ज़रिए हाज़िर हई थीं.
सेना का कहना है कि तख़्तापलट नवंबर के आम चुनाव में धोखाधड़ी हुई थी और सू ची की नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी यानी एनएलडी को भारी बहुमत मिला था. लेकिन सेना इसके समर्थन में कोई साक्ष्य नहीं दिया है. (bbc.com)