विचार/लेख
-अपूर्व गर्ग
फेसबुक में कुछ लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं .सोशल मीडिया के अलावा इनका कोई लेखन का इतिहास नहीं है . कई लोगों ने सोशल मीडिया में लिख -लिख कर अपनी जगह बनाई , इसमें कोई शक नहीं .
ये भी एक तथ्य है कि बड़े -बड़े स्तम्भकार, इतिहासकार, गद्य लेखक जिनकी किताबें देश भर में सर्वाधिक पढ़ी जाती रहीं, जिनके स्तम्भ सबसे चर्चित होते रहे सोशल मीडिया में ख़ास फेसबुक में उनके पाठक खांटी फेसबुक लेखकों के मुकाबले नगण्य हैं .
क्या सोशल मीडिया का लेखन ज़्यादा प्रभावी, प्रामाणिक, विश्वसनीय और स्वीकार्य है ?
डिजिटल युग के नौजवानों से पूछिए वो इसी के पक्ष में हाथ उठाएंगे पर अखबारों, किताबों , पत्रिकाओं और साहित्य के गंभीर पाठकों से बात करिये वो बताएँगे सोशल मीडिया का लेखन क्षणिक है, यहाँ शब्दों का कोई भविष्य नहीं .
उनकी निगाह में सोशल मीडिया सबसे बड़ा कूड़ा दान है ,जहाँ लेखन के नाम पर सबसे ज़्यादा कूड़ा -करकट है .
दरअसल , सोशल मीडिया के बढ़ते पाठक आज के इस डिजिटल युग की बड़ी सच्चाई है .व्हाट्स ऍप यूनिवर्सिटी कहें या फेसबुक की पाठशाला इसका गहरा प्रभाव देश और दुनिया की राजनीति पर है . इसमें सत्ता हिलाने -बदलने की असीम क्षमता है , इसलिए राजनीतिक दलों ने अपने बजट के बड़े हिस्से को साइबर सेल में झोंका हुआ है .
सवाल यहीं से शुरू होता है कि जब सोशल मीडिया आज आज इतना ज़्यादा महत्वपूर्ण है तो इसमें गंभीर विमर्श ,चिंतन और सार्थक लेखन क्यों गायब है ?
उत्तेजना पर सवार लेखक कल की बात और बीते इतिहास को दफनाकर कोई तात्कालिक मुद्दे को पकड़ते हैं और दूसरी ब्रेकिंग न्यूज़ मिलते ही उस मुद्दे को भी दफ़न कर देते हैं .
ये एक बड़ी ज़िम्मेदारी वरिष्ठ लेखकों की बनती है कि वो सोशल मीडिया लेखन के विरोध ,उपेक्षा और तिरस्कार के बदले इन लेखकों के साथ सीधा संवाद करें .
इस सच्चाई को स्वीकार करें कि सोशल मीडिया आम जनता तक खासकर आज के युवा वर्ग तक पहुँचने की सीढ़ी है .
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि पिछले कुछ साल सोशल मीडिया फेसबुक हो या ट्विटर या व्हाट्स ऍप या इंस्टाग्राम से सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं .
इसलिए बीच बीच में जब बुद्धिजीवी अपने सोशल मीडिया का अकाउंट 'डीएक्टिवेट ' करते हैं या लिखना बंद कर देते हैं या दूर रहने कि घोषणा करते हैं तो सोशल मीडिया को 'अनाथ ' करने जैसी बात होती है. और ज़्यादा दिशाहीन होने का खतरा बढ़ता है .
ये तथ्य है किसी साहित्यकार ,लेखक ,कवि के पास सोशल मीडिया में भले ही अपेक्षाकृत काम फॉलोवर हों पर सोशल मीडिया के बड़े फॉलोवर रखनेवाले भी उनसे दिशा लेते हैं .
अपने अनुभव, अध्ययन और आज की पूरी तस्वीर को देखकर दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमारे प्रगतिशील लेखक अगर सोशल मीडिया में न रहें, न लिखें तो यक़ीनन सोशल मीडिया के नौजवान अराजक लश्कर में दिखेंगे !
- आर.के.विज
हाल ही में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बुद्धदेव कर्मस्कार बनाम् पश्चिम बंगाल राज्य’ में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कुछ अंतरिम निर्देश जारी करते हुए कहा कि यौनकर्मियों और उनके बच्चों को गरिमा और मानवीय शालीनता के साथ जीने के लिए उनके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि पेशे के बावजूद इस देश में हर व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है। न्यायालय द्वारा जारी निर्देश और कुछ नहीं बल्कि पैनल द्वारा की गई सिफारिशें हैं, जो जुलाई 2011 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक वरिष्ठ अधिवक्ता प्रदीप घोष की अध्यक्षता में गठित किया गया था। ये सिफारिशें सेक्स वर्कर्स के लिए अनुकूल परिस्थितियों के संबंध में है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के प्रावधानों के अनुसार सेक्स वर्कर्स गरिमा के साथ सेक्स वर्कर्स के रूप में रहना चाहती हैं।
मान्य निर्देशों को लागू करना
चूंकि भारत सरकार को (कुल दस में से) चार सिफारिशों पर कुछ आपत्तियां थीं, अदालत ने बाकी छह सिफारिशों को लागू करने और अनैतिक तस्करी (रोकथाम) अधिनियम (आईटीपीए) 1956 के प्रावधानों को सख्ती से लागू करने का निर्देश दिये हैं। इन निर्देशों में यौन उत्पीडऩ की शिकार यौनकर्मियों को तत्काल चिकित्सा सहायता प्रदान करना, आईटीपीए सुरक्षात्मक घरों में हिरासत में लिए गए वयस्क यौनकर्मियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध रिहा करना, यौनकर्मियों के सम्मान के साथ जीने के अधिकारों के बारे में पुलिस और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों को संवेदनशील बनाना, गिरफ्तारी, छापे और बचाव कार्यों के दौरान यौनकर्मियों की पहचान का खुलासा न करने मीडिया को दिशा-निर्देश जारी करना (भारतीय प्रेस परिषद द्वारा) और स्वास्थ्य उपायों (जैसे कंडोम) को सबूत के रूप में नहीं मानने और केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा अपने कानूनी सेवा प्राधिकरणों के माध्यम से यौनकर्मियों को उनके अधिकारों एवं यौन कार्य आदि की वैधता के बारे में शिक्षित करना सम्मिलित है।
यौनकर्मियों (यौन उत्पीडऩ की शिकार) को चिकित्सा सहायता प्रदान करने पर सीआरपीसी में पहले से ही एक प्रावधान उपलब्ध है। परंतु, कानून वेश्याओं की पहचान का खुलासा नहीं करने के बारे में मौन है। इसी तरह, हालांकि एक मजिस्ट्रेट द्वारा यौनकर्मी को उसकी देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता के बारे में उचित जांच के बाद उसे एक सुरक्षात्मक घर में भेजने का आदेश पारित किया जाता है, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को सही ढंग से लागू करने के लिए आईटीपीए और सीआरपीसी में वांछनीय संशोधन किया जा सकता है। अन्य निर्देश सरकारों द्वारा कार्यकारी आदेशों के माध्यम से लागू किए जा सकते हैं।
व्यापक प्रभाव वाली सिफारिशें
उन सिफारिशों में से एक जिस पर केंद्र सरकार ने अपने मत के लिये आरक्षित किया है, पुलिस को एक यौनकर्मी के खिलाफ कोई आपराधिक कार्रवाई करने से रोकने के बारे में है जो एक वयस्क है और ‘उम्र’ और ‘सहमति’ के आधार पर यौन कार्य में भाग ले रही है। यद्यपि ‘सेक्स वर्कर’ आईटीपीए या किसी अन्य कानून में परिभाषित नहीं है, आईटीपीए (जनवरी 1987 में संशोधित) के अनुसार, ‘वेश्यावृत्ति’ का अर्थ व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए व्यक्तियों का यौन शोषण या दुव्र्यवहार है। इसलिए, अभिव्यक्ति ‘वेश्यावृत्ति’ केवल भाड़े पर यौन संभोग के लिए एक व्यक्ति को शरीर की पेशकश करने तक ही सीमित नहीं है (पूर्व-1987 परिभाषा के अनुसार)। अपने फायदे या संभोग के लिए फंसी महिलाओं का अन्यायपूर्ण और गैरकानूनी फायदा उठाना इसके दायरे में लाया गया है। ‘दुव्र्यवहार’ शब्द का भी बहुत व्यापक अर्थ है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वेच्छा से देह व्यापार करने वाली एक वयस्क यौनकर्मी अपराधी नहीं है जब तक कि उसके द्वारा शोषण या दुव्र्यवहार की सूचना नहीं दी जाती है या जांच के दौरान खुलासा नहीं होता। इसलिए अब यह उपयुक्त होगा कि ‘यौन शोषण’ और ‘व्यक्तियों के दुरुपयोग’ को परिभाषित करने के साथ-साथ एक संशोधन किया जाये, ताकि प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा कई व्याख्याओं और संभावित दुरुपयोग को समाप्त किया जा सके, खासकर अगर सहमति के साथ शरीर की पेषकष को आपराधिक ढांचे से बाहर रखा जाता है।
एक अन्य (आरक्षित) सिफारिश कहती है कि चूंकि स्वैच्छिक यौन कार्य अवैध नहीं है और केवल वेश्यालय चलाना गैरकानूनी है, इसलिए वेश्यालय पर किसी भी छापे के दौरान यौनकर्मियों को गिरफ्तार या पीडि़त नहीं किया जाना चाहिए। आईटीपीए के अनुसार, ‘वेश्यालय’ ऐसा स्थान है, जिसका उपयोग यौन शोषण या किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिए या दो या दो से अधिक वेश्याओं के पारस्परिक लाभ के लिए किया जाता है। क्या होगा यदि इच्छुक यौनकर्मियों को वेश्यालय के मालिक या प्रबंधक के खिलाफ कोई शिकायत नहीं है? इसलिए, सरकार को एक नीति के रूप में यह तय करने की आवश्यकता होगी कि क्या दो या दो से अधिक यौनकर्मियों के पारस्परिक लाभ के लिए एक साथ रहने और स्वयं या किसी और के द्वारा प्रबंधित किए जाने के कार्य को अपराधिक बनाया जाना है या नहीं। इसके लिए व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता हो सकती है।
तीसरी सिफारिश में कहा गया है कि सेक्स वर्कर के किसी भी बच्चे को केवल इस आधार पर मां से अलग नहीं किया जाना चाहिए कि वह देह व्यापार में है। अगर कोई नाबालिग वेश्यालय में या सेक्स वर्कर के साथ रह रही है, तो यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसकी तस्करी की गई है। हालांकि कानून बच्चे को मां (सेक्स वर्कर) से अलग करने का आदेश नहीं देता है, लेकिन यह माना जाता है कि अगर कोई बच्चा वेश्यालय में किसी व्यक्ति के साथ पाया जाता है तो तस्करी की गई है। इसके अलावा, अगर किसी बच्चे या नाबालिग को वेश्यालय से छुड़ाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट उसे किशोर न्याय अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त किसी भी बाल देखभाल संस्थान में रखने का आदेश दे सकता है। इससे पहले, ‘गौरव जैन बनाम भारत संघ’ (1997) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया गया कि वेश्याओं के बच्चों को वेश्यालय के अवांछनीय परिवेश में रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और सुधार गृहों को उनके लिए सुलभ बनाया जाना चाहिए। इसलिए, बच्चे के कल्याण को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय के निर्देश को समायोजित करने के लिए एक उपयुक्त संशोधन किया जा सकता है।
चौथी सिफारिश में सरकार को सेक्स वर्क से संबंधित कानूनों में सुधारों या निर्णय लेने की प्रक्रिया में सेक्स वर्कर्स या उनके प्रतिनिधियों को शामिल करने के लिये निर्देष दिये हैं। चूंकि इस पूरे अभ्यास का उद्देश्य यौनकर्मियों का पुनर्वास करना और उनके रहने की स्थिति में सुधार करना है, निर्णय लेने में उनकी भागीदारी निश्चित रूप से उन्हें बेहतर तालमेल के साथ लागू करने योग्य बनाएगी।
कहीं भी यौन शोषण या दुव्र्यवहार की अनुमति क्यों दें?
उल्लेखनीय है कि अधिसूचित क्षेत्रों के बाहर या सार्वजनिक धार्मिक पूजा, शैक्षणिक संस्थान, अस्पताल आदि के किसी भी स्थान से दो सौ मीटर की दूरी के बाहर वेश्यावृत्ति करना आईटीपीए के तहत दंडनीय नहीं है। विडंबना यह है कि जब वेश्यावृत्ति का आवश्यक घटक व्यावसायिक उद्देश्य के लिए ‘यौन शोषण’ या ‘व्यक्तियों का शोषण’ है, इसे कहीं भी कैसे अनुमति दी जा सकती है? इसलिए, अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के साथ, सरकार के लिए जनहित को ध्यान में रखते हुए वेश्यावृत्ति और यौनकर्मियों के काम के बीच अंतर करना और वेश्यावृत्ति पर प्रतिबंध लगाने और कुछ शर्तों के साथ स्वैच्छिक यौन कार्य की अनुमति देना उचित होगा।
यह विवादित नहीं है कि देह व्यापार में पाई जाने वाली महिलाओं को अपराधियों के बजाय प्रतिकूल सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की शिकार के रूप में अधिक देखा जाना चाहिए। हालाँकि, सभी कानूनों और नीतियों के साथ, हम एक समाज के रूप में वेश्यावृत्ति को रोकने में भी विफल रहे हैं। इसलिए, सरकार अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उपयोग यौनकर्मियों और आसपास के वातावरण की स्थिति में सुधार, पुनर्वास की सुविधा और लागू कानूनों के साथ विभिन्न अस्पष्टताओं और विसंगतियों को दूर करने और स्पष्टता लाने के लिये अवसर के रूप में कर सकती है।
(नोट- लेखक छत्तीसगढ़ के पूर्व विषेष पुलिस महानिदेशक हैं और व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
-टेसा वोंग
ताइवान से जुड़ी खास बातें
चीन मानता है कि ताइवान उसका एक प्रांत है, जो अंतत: एक दिन फिर से चीन का हिस्सा बन जाएगा
ताइवान खुद को एक आजाद मुल्क मानता है। उसका अपना संविधान है और वहां लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार का शासन है
ताइवान दक्षिण पूर्वी चीन के तट से करीब 100 मील दूर स्थित एक द्वीप है
चीन और ताइवान के बीच अलगाव करीब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुआ
उस समय चीन की मुख्य भूमि में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का वहाँ की सत्ताधारी नेशनलिस्ट पार्टी (कुओमिंतांग) के साथ लड़ाई चल रही थी।
1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी जीत गई और राजधानी बीजिंग पर कब्जा कर लिया।
उसके बाद, कुओमिंतांग के लोग मुख्य भूमि से भागकर दक्षिणी-पश्चिमी द्वीप ताइवान चले गए।
फिलहाल दुनिया के केवल 13 देश ताइवान को एक अलग और संप्रभु देश मानते हैं।
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ताइवान के सवाल पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की चेतावनी का चीन ने कड़ा जवाब दिया है। चीन ने कहा है कि वह ताइवान की आजादी की किसी भी कोशिश को पूरी ताकत से कुचल देगा।
रविवार को चीन के रक्षा मंत्री जनरल वी फेंग ने अमेरिका पर आरोप लगाया कि वह ताइवान की आजादी का समर्थन कर रहा है।
उन्होंने कहा कि अमेरिका ताइवान पर किए गए अपने वादे को तोड़ रहा है और चीन के मामलों में दखल दे रहा है।
एशियाई सुरक्षा से जुड़े सांगरी-ला डायलॉग में चीनी रक्षा मंत्री ने कहा, ‘एक बात साफ कर दूं। किसी ने भी ताइवान को चीन से अलग करने की कोशिश की तो हम उससे जंग लडऩे से हिचकेंगे नहीं। हम किसी भी क़ीमत पर लड़ेंगे और आखऱि तक लड़ेंगे। चीन के मामले में यह हमारा एक मात्र विकल्प है।’
चीनी रक्षा मंत्री ने ये टिप्पणी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की ओर से चीन को दिए उस संदेश के बाद आई है, जिसमें उन्होंने कहा था वह ताइवान के नजदीक लड़ाकू जहाजों को उड़ाकर ‘खतरों से खेल रहा है’। अमेरिका ने कहा है कि अगर ताइवान पर हमला हुआ तो वह उसकी रक्षा के लिए अपनी सेना भेजेगा।
ताइवान खुद को संप्रभु देश मानता है जबकि चीन इसे अपना हिस्सा मानता है। लेकिन ताइवान अमेरिका को अपना सबसे बड़ा सहयोगी मानता है। अमेरिका में ये कानून है कि अगर ताइवान आत्मरक्षा के लिए खड़ा हुआ तो उसे उसकी मदद करनी होगी।
ताइवान के सवाल पर चीन और अमेरिका के बीच तनातनी लगातार बढ़ रही है। चीन ताइवान के डिफेंस जोन में लगातार लड़ाकू विमान भेजता रहा है। पिछले महीने इसने वहाँ अपना सबसे बड़ा हेलिकॉप्टर उड़ाया था, जबकि अमेरिका ने ताइवान के समुद्री इलाकों से होकर अपने कई जलपोत भेजे हैं।
क्या अमेरिका और चीन सैन्य संघर्ष की ओर बढ़ रहे हैं?
एक बड़ा डर इस बात का है कि अगर चीन ताइवान पर हमला करता है तो युद्ध छिड़ सकता है। चीन पहले ही कह चुका है जरूरत पड़ी तो वह अपने द्वीप पर दोबारा दावा कायम करेगा। चाहे इसके लिए ताकत का ही इस्तेमाल क्यों न करना पड़े।
लेकिन ज़्यादातर विश्लेषकों का मानना है कि फिलहाल युद्ध की आशंका नहीं दिखती।
इस बात पर बहस गर्म है कि क्या चीन के पास इतनी सैन्य ताकत है कि वह सफलतापूर्वक हमला कर सके। उधर, ताइवान लगातार अपनी वायु और नौसेना की ताकत बढ़ा रहा है। लेकिन कई विश्लेषक मानते हैं कि टकराव अगर जंग की ओर से बढ़ता है तो ये न सिर्फ चीन बल्कि पूरी दुनिया के लिए घातक और महंगा साबित होगा।
इंस्टिट्यूट ऑफ साउथ ईस्ट एशियन स्टडीज के सीनियर फेलो विलियम चुंग कहते हैं हैं, ‘चीन की ओर से काफी बयान आ रहे हैं। लेकिन ताइवान पर हमले के बारे में सोचते हुए चीन को खतरों का ध्यान रखना होगा। ख़ास कर ऐसे वक्त में जब यूक्रेन संकट जारी है। रूस की तुलना में चीन की अर्थव्यवस्था के ग्लोबल लिंकेज कहीं ज़्यादा हैं।’
चीन ये लगातार कहता रहा है कि वह शांतिपूर्ण तरीके से ताइवान के साथ एकीकरण करना चाहता है। पिछले रविवार को चीन के रक्षा मंत्री ने यही बात दोहराई। चीन शांति चाहता है लेकिन उसे भडक़ाया गया तो वो कार्रवाई करेगा।
चीन को एक चीज़ भडक़ा सकती है और वो ये ताइवान औपचारिक तौर पर खुद को आजाद घोषित कर दे। लेकिन ताइवान की राष्ट्रपति बड़ी कड़ाई से इससे बचती रही हैं। हालांकि वह इस बात पर जोर देती हैं कि ताइवान पहले से ही एक संप्रभु राष्ट्र है।
ज़्यादातर ताइवानी इस रुख का समर्थन करते हैं, जिसे ‘यथास्थिति बरकरार’ रखना कहा जा रहा है। हालांकि उन लोगों की भी थोड़ी तादाद है कहते हैं के अब आजादी की ओर बढ़ा जाए।
जंग के सवाल पर अमेरिका का रुख
अमेरिका एशिया में महंगा सैन्य संघर्ष छेडऩे से हिचकेगा। उसने बार-बार ये संकेत दिया है कि वह युद्ध नहीं चाहता है।
अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन भी सांगरी-ला डायलॉग में मौजूद थे। उन्होंने अपनी स्पीच में कहा कि अमेरिका ताइवान की स्वतंत्रता का समर्थन नहीं करता और न ही वो कोई ‘नया शीत युद्ध’ चाहता है।
एस राजारत्नम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में रिसर्च फेलो कोलिन को का कहना है, ‘ताइवान के सवाल पर दोनों अपने रुख़ पर कायम हैं। दोनों को सख़्त दिखना है। वे अपने रुख़ से पीछे हटते हुए नहीं दिखना चाहते।’
‘लेकिन इसके साथ ही वो इस मामले में सीधे संघर्ष में उतरने के प्रति भी काफी सतर्क हैं। हालांकि अमेरिका और चीन दोनों एक दूसरे को आंखें दिख रहे हैं और जोखिम बढ़ा रहे हैं।’
‘हकीकत ये है कि चीनी रक्षा मंत्री और अमेरिका के रक्षा मंत्री सांगरी-ला डायलॉग से अलग अपनी मुलाक़ातों में काफी सकारात्मक थे। इसका मतलब ये कि दोनों पक्ष ये दिखाना चाहते थे कि वे अभी भी बैठकर बात कर सकते हैं। सहमति-असहमति दूसरी बात है।’
कोलिन ने कहा कि दोनों सेनाओं की ओर से और भी ऑपरेशनल बातचीत हो सकती है। इससे जमीन पर होने वाली किसी ऐसी ग़लती से बचने की बात होगी जिससे युद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है। कहने का मतलब ये है कि बातचीत होती रहेगी। डोनाल्ड ट्रंप के जमाने में ये बात नदारद थी।
आगे क्या होगा?
बहरहाल, चीन और अमेरिका के बीच आगे भी जुबानी जंग जारी रहने के आसार हैं।
सिंगापुर नेशनल यूनिवर्सिटी के चीन मामलों के विशेषज्ञ डॉ इयान चोंग का कहना है, ‘चीन अपने च्ग्रे जोन वॉरफेयरज् को आगे बढ़ा सकता है। इस रणनीति के तहत ताइवानी सेना के धैर्य की परीक्षा ली जाएगी और उसे थकाने की कोशिश होगी। बार-बार लड़ाकू जहाज भेज कर और दुष्प्रचार अभियान को बढ़ावा देकर वो इस काम को अंजाम दे सकता है।’
ताइवान के चुनाव में चीन पर दुष्प्रचार अभियान चलाने के आरोप लगते रहे हैं। ताइवान में इस साल के अंत में अहम स्थानीय चुनाव होने हैं।
डॉ. चोंग ने कहा, ‘फिलहाल अमेरिका और चीन में अपने रुख़ पर तब्दीली की राजनीतिक इच्छा नहीं दिखती। ख़ास कर ऐसे वक्त में जब अमेरिका में नवंबर में मध्यावधि चुनाव होने हैं। वहीं दूसरी छमाही में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का 20वां सम्मेलन होने जा रहा है। इसमें चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी पकड़ और मजबूत करेंगे।
डॉ. चोंग कहते हैं, ‘अच्छी बात ये है कि कोई भी पक्ष तनाव बढ़ाना नहीं चाहता। हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि आगे कोई अच्छी तस्वीर सामने आएगी। फिलहाल मौजूदा स्थिति तो तनातनी की ही है।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस आजकल राजनीतिक पार्टी की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनती जा रही है, इसका ताजा प्रमाण फिर सामने आ रहा है। ‘नेशनल हेराल्ड’ के मामले में सोनिया गांधी और राहुल को प्रवर्तन निदेशालय के सामने जांच के लिए पेश होना पड़ रहा है। हो सकता है कि जांच में दोनों बिल्कुल खरे उतरें। वैसे देश में मुझे तो एक भी नेता ऐसा दिखाई नहीं पड़ता जो कि दूध का धुला हो। कोई न कोई धांधली, ठगी, रिश्वत या दादागीरी का दांव मारे बिना कोई भी नेता अपनी दुकान कैसे चला सकता है?
फिर भी हम मानकर चल सकते हैं कि राहुल और सोनिया बिल्कुल बेदाग निकलेंगे तो भी असली सवाल यह है कि किसी जांच एजेंसी के सामने पेश होने में उन्हें एतराज क्यों होना चाहिए? यदि कानून सबके लिए एक-जैसा है तो वह उन पर भी लागू क्यों न हो? वे अपने आप को कानून से ऊपर समझते हैं, क्या? यदि वे निर्दोष हैं तो कोई जांच एजेंसी सत्तारुढ़ नेताओं की कितनी ही गुलाम हो, उन्हें किसी से डरने की क्या जरुरत है? भारत की न्यायपालिका आज भी निर्भीक और स्वतंत्र है। वह उनके सम्मान की रक्षा अवश्य करेगी लेकिन इस जांच को लेकर पूरी कांग्रेस जिस तरह से सडक़ पर उतर आई है, वह अपना मजाक बनवा रही है।
इससे कई बातें सिद्ध हो रही हैं। पहली तो यह कि कांग्रेस अपने सिर्फ दो नेताओं, माँ और बेटे को बचाने के लिए जिस तरह जन-आंदोलन पर उतर आई है, उससे लगता है कि उसके पास जनहित का कोई और मुद्दा है ही नहीं। अपने नेताओं को बचाना ही उसके लिए सबसे बड़ा जनहित है। दूसरा, उसने जन-आंदोलन की राह अपनाकर भाजपा सरकार के प्रति जनता को जो शिकायत हो सकती थी, उस पर ढक्कन लगा दिया है। जऱा याद करें कि चरणसिंह सरकार ने जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया था तो उस सरकार की इज्जत कैसे पैंदे में बैठ गई थी।
यही अब भी होता लेकिन मां-बेटे ने यह प्रदर्शन करवाकर भाजपा सरकार के हाथ मजबूत कर दिए हैं। तीसरा, लोगों को आश्चर्य है कि कांग्रेस की हालत मायावती की बसपा की तरह क्यों होती जा रही है? उसके पास न तो योग्य नेता हैं और न ही प्रभावशाली नीति है। इसी का नतीजा है कि राष्ट्रपति के चुनाव में उम्मीदवार के लिए किसी कांग्रेसी नेता का नाम सामने नहीं आ रहा है। सारे विपक्षी दलों को इस मुद्दे पर एक करने में भी कांग्रेस को सफलता नहीं मिल रही है।
यद्यपि कांग्रेस के कुछ मुख्यमंत्री काफी सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें भी जब मां-बेटे की सेवा में जोत दिया जा रहा हो तो आम लोग सोच में पड़ जाते हैं कि ये अनुभवी नेता लोग भी नेता हैं या किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के कर्मचारी हैं? देश के करोड़ों कांग्रेसी कार्यकर्त्ता हतप्रभ हैं। उन्हें आश्चर्य होता है कि उनके नेता राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई आंदोलन क्यों नहीं करते? क्या आंदोलन के लिए उनके नेताओं को बस यही मुद्दा मिला है? (नया इंडिया की अनुमति से)
-समरेन्द्र शर्मा
छत्तीसगढ़ में पिछले साढ़े तीन सालों में वायु सेवाओं को नए पंख लगे हैं। रायपुर के अलावा बिलासपुर और जगदलपुर से भी नियमित विमान सेवाओं का संचालन शुरू हो यहा है। एयरपोर्टों के विकास और अधोसंरचना विकास के कार्यों को भी गति मिली है। छत्तीसगढ़ के उत्तरी और दक्षिण इलाके में हवाई सेवाओं के विस्तार से विकास का नया मार्ग प्रशस्त भी हुआ है। छत्तीसगढ़ में वायु सेवाओं के विस्तार से निश्चित तौर पर राज्य के विकास की रफ्तार में भी तेजी आएगी। पृथक राज्य बनने के बाद प्रदेश के बड़े शहरों बिलासपुर, जगदलपुर से वायु सेवा शुरू करने की मांग उठती रही है, लेकिन इसके लिए लंबा इंतजार करना पड़ा।
वायु सेवाओं की शुरूआत के साथ सुविधाओं के विस्तार पर भी जोर दिया जा रहा है। बिलासपुर और जगदलपुर एयरपोर्ट में नाइट लैडिंग सुविधा के लिए पीबीएन प्रणाली स्थापित की जा रही है। इसके साथ साथ कोरबा में व्यावसायिक एयरपोर्ट के साथ कोरिया में नई हवाई पट्टी के विकास की योजना पर काम हो रहा है। अम्बिकापुर में 43 करोड़ रूपए की लागत से एयरपोर्ट रनवे भी बनाया जा रहा है। जगदलपुर, बिलासपुर और अम्बिकापुर एयरपोर्ट में ऑटोमेटेड एटीसी उपकरण स्थापित किए गए हैं।
मॉ दन्तेश्वरी एयरपोर्ट-राज्य शासन के प्रयासों से डायरेक्टर जनरल ऑफ सिविल एविएशन (डीजीसीए) द्वारा 2 सी व्हीएफआर श्रेणी के जगदलपुर एयरपोर्ट से 72 सीटर विमान द्वारा हवाई सेवा की स्वीकृति दी गयी एवं 21 सितम्बर 2020 से बस्तर अंचल के विकास का एक नया अध्याय शुरू हुआ, जब जगदलपुर से रायपुर- हैदराबाद-बैंगलोर सेक्टर में नियमित घरेलू विमान सेवा का संचालन प्रारंभ हुआ। जगदलपुर एयरपोर्ट से प्रतिमाह लगभग तीन हजार यात्रियों द्वारा विमान सेवा का लाभ लिया जा रहा है। इंण्डिगो विमानन कम्पनी द्वारा सप्ताह में बुधवार, शनिवार एवं रविवार को दिल्ली-रायपुर-जगदलपुर-रायपुर-दिल्ली सेक्टर के लिये पैरामिलीटरी फोर्स हेतु विमानन सेवा शुरू की गयी है। उम्मीद है कि शीघ्र ही इस वायुमार्ग पर सामान्य सिविल उड़ान सेवा भी प्रारम्भ हो जायेगी।
बिलासा देवी केंवट एयरपोर्ट-राज्य शासन द्वारा 41.00 करोड रुपए की लागत से बिलासपुर एयरपोर्ट का विकास, 3 सी व्हीएफआर श्रेणी में किया गया है, साथ ही डीजीसीए से लायसेंस प्राप्त किया गया है। यहां 01 मार्च 2021 से छत्तीसगढ़ की न्यायधानी बिलासपुर हवाई सेवा से जुड़ गई। इस दिन 72 सीटर विमान द्वारा यहॉ से दिल्ली-जबलपुर-बिलासपुर-प्रयागराज वायु मार्ग में नियमित घरेलू विमान सेवा का संचालन प्रारंभ हुआ। इस एयरपोर्ट से प्रतिमाह लगभग तीन हजार यात्रियों द्वारा विमान सेवा का लाभ लिया जा रहा है। यहां से 5 जून 2022 से बिलासपुर-भोपाल के लिये नियमित घरेलू विमान सेवा भी प्रारम्भ हो चुकी है। इस एयरपोर्ट का विकास 4 सी व्हीएफआर श्रेणी में करने की योजना पर काम किया जा रहा है।
माँ महामाया एयरपोर्ट-प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र को विमान सेवाओं से जोडऩे के लिए संभागीय मुख्यालय अम्बिकापुर के दरिमा एयरपोर्ट का विकास 3 सी व्हीएफआर श्रेणी में किया जा रहा है। इसके पूरा होने पर यहां 72 सीटर विमान से हवाई सेवा संचालन हो सकेगा। इसके साथ ही यहां रवने विस्तार व विकास कार्य के लिए 43 करोड़ रुपए की प्रशासकीय स्वीकृति की गई है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पैगबंर-विवाद को लेकर भारत में अभी प्रदर्शन, जुलूस और पत्थरबाजी का दौर चल रहा है और दोषियों को दंडित करने के नाम पर उनकी अवैध संपत्तियों को भी ढहाया जा रहा है लेकिन क्या हमारे लोग कुछ मुस्लिम देशों के आचरण से कुछ सीखने की कोशिश करेंगे? हमारे पड़ौसी बांग्लादेश ने अन्य कुछ मुस्लिम देशों की तरह भारत की आलोचना में एक शब्द भी नहीं कहा। उसके सूचना मंत्री डॉ. हसन महमूद ने ढाका में भारतीय पत्रकारों से कहा कि पैगंबर-विवाद भारत का आंतरिक मामला है। उसमें बांग्लादेश को टांग अड़ाने की जरुरत क्या है? जहां तक पैगंबर की प्रतिष्ठा का सवाल है, उस पर उंगली उठानेवाली हर कथन की हम निंदा करते हैं लेकिन हम खुश हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने दो प्रवक्ताओं के विरुद्ध सख्त कार्रवाई कर दी है।
उन्होंने यह भी कहा कि इसके लिए भारत सरकार बधाई की पात्र है। महमूद ने कहा कि बांग्लादेश के लोगों को इस मुद्दे पर भडक़ाना हमारा काम नहीं है (जैसा कि कुछ अन्य मुस्लिम देश कर रहे हैं)! उन्होंने यह एलान भी किया कि बांग्लादेश में इस मुद्दे को लेकर जो भी शांति और व्यवस्था भंग करेंगे, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। शेख हसीना की अवामी लीग सरकार के कई विरोधी नेता बांग्ला जनता को भडक़ाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं।
इस मुद्दे के बहाने वे हसीना सरकार पर अपनी भड़ास निकालना चाहते हैं लेकिन सरकार उनके साथ बड़ी सख्ती से पेश आ रही है। यही काम अब कुवैत की सरकार ने भी शुरु कर दिया है। पैगंबर मसले पर कुवैत में रहने वाले भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मुसलमान ज्यादा चूं चपड़ कर रहे हैं। ऐसे में कुवैत की सरकार ने घोषणा कर दी है कि जो भी प्रवासी नागरिक इस तरह की गतिविधियों में लिप्त पाया गया, उसे हमेशा के लिए देश-निकाला दे दिया जाएगा।
मुझे विश्वास है कि लगभग सभी इस्लामी राष्ट्र इस दृढ़ता का परिचय देंगे। हां, पाकिस्तान इसका अपवाद हो सकता है, क्योंकि वहां के सत्तारुढ़ और विपक्षी दल इस मुद्दे को लेकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में जुट सकते हैं। उन्होंने संसद में भारत-विरोधी प्रस्ताव भी पारित करवा लिया है। लेकिन बांग्लादेश ने तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हर दबाव के आगे सीना तान रखा है। इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) ने लाख कोशिश की कि यह मामला संयुक्तराष्ट्र महासभा में घसीटा जाए लेकिन आजकल उसके अध्यक्ष मालदीव के अब्दुल्ला शाहिद हैं।
शाहिद ने इस्लामी संगठन की इस मांग को गौर करने काबिल भी नहीं समझा। संयुक्तराष्ट्र के महासचिव ने अपने आधिकारिक बयान में इस मामले में वही दृष्टिकोण अपनाया है, जो बांग्लादेश ने प्रतिपादित किया है। बांग्लादेश ने इस मुद्दे पर अत्यंत संतुलित रूख अपनाकर सारे इस्लामी देशों के लिए एक मिसाल पेश की है। ईरानी विदेश मंत्री की तरह अब बांग्लादेश के विदेश मंत्री अब्दुल मोमिन भी भारत आ रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्तराष्ट्र संघ में अभी भी दुनिया की सिर्फ छह भाषाएं आधिकारिक रूप से मान्य हैं। अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, रूसी, हिस्पानी और अरबी! इन सभी छह भाषाओं में से एक भी भाषा ऐसी नहीं है, जो बोलने वालों की संख्या, लिपि, व्याकरण, उच्चारण और शब्द-संख्या की दृष्टि से हिंदी का मुकाबला कर सकती हो। इस विषय की विस्तृत व्याख्या मेरी पुस्तक ‘हिंदी कैसे बने विश्वभाषा?’ में मैंने की है। यहां तो मैं इतना ही बताना चाहता हूं कि हिंदी के साथ भारत में ही नहीं, विश्व मंचों पर भी घनघोर अन्याय हो रहा है लेकिन हल्की-सी खुशखबर अभी-अभी आई है।
संयुक्तराष्ट्र संघ की महासभा ने अपने सभी ‘जरुरी कामकाज’ में अब उक्त छह आधिकारिक भाषाओं के साथ हिंदी, उर्दू और बांग्ला के प्रयोग को भी स्वीकार कर लिया है। ये तीन भाषाएं भारतीय भाषाएं हैं, हालांकि पाकिस्तान और बांग्लादेश को विशेष प्रसन्नता होनी चाहिए, क्योंकि बांग्ला और उर्दू उनकी राष्ट्रभाषाएं हैं। यह खबर अच्छी है लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला है कि संयुक्तराष्ट्र के किन-किन कामों को ‘जरुरी’ मानकर उनमें इन तीनों भाषाओं का प्रयोग होगा।
क्या उसके सभी मंचों पर होनेवा ले भाषणों, उसकी रपटों, सभी प्रस्तावों, सभी दस्तावेजों, सभी कार्रवाइयों आदि का अनुवाद इन तीनों भाषाओं में होगा? क्या इन तीनों भाषाओं में भाषण देने और दस्तावेज पेश करने की अनुमति होगी? ऐसा होना मुझे मुश्किल लग रहा है लेकिन धीरे-धीरे वह दिन आ ही जाएगा जबकि हिंदी संयुक्तराष्ट्र की सातवीं आधिकारिक भाषा बन जाएगी। हिंदी के साथ मुश्किल यह है कि वह अपने घर में ही नौकरानी बनी हुई है तो उसे न्यूयार्क में महारानी कौन बनाएगा?
हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और हिंदी देश में अधमरी (अर्धमृत) पड़ी हुई है। कानून-निर्माण, उच्च शोध, विज्ञान विषयक अध्यापन और शासन-प्रशासन में अभी तक उसे उसका उचित स्थान नहीं मिला है। जब 1975 में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर में हुआ था, तब भी मैंने यह मुद्दा उठाया था और 2003 में सूरिनाम के विश्व हिंदी सम्मेलन में मैंने हिंदी को सं.रा. की आधिकारिक भाषा बनाने का प्रस्ताव पारित करवाया था।
1999 में भारतीय प्रतिनिधि के नाते संयुक्तराष्ट्र में मैंने अपने भाषण हिंदी में देने की कोशिश की लेकिन मुझे अनुमति नहीं मिली। केवल अटलजी और नरेंद्र मोदी को अनुमति मिली, क्योंकि हमारी सरकार को उसके लिए कई पापड़ बेलने पड़े थे। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भरसक कोशिश की कि हिंदी को संयुक्तराष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिले लेकिन कोई मुझे यह बताए कि हमारे कितने भारतीय नेता और अफसर वहां जाकर हिंदी में अपना काम-काज करते हैं?
जब देश में सरकार का सारा महत्वपूर्ण काम-काज (वोट मांगने के अलावा) अंग्रेजी में होता है तो संसार में वह अपना काम-काज हिंदी में कैसे करेगी? अंग्रेजी की इस गुलामी के कारण भारत दुनिया की अन्य समृद्ध भाषाओं का भी लाभ लेने से खुद को वंचित रखता है। देखें, शायद संयुक्त राष्ट्र की यह पहल भारत को अपनी भाषायी गुलामी से मुक्त करवाने में कुछ मददगार साबित हो जाए! (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पैगंबर मोहम्मद के बारे में दिए गए बयानों के बारे में जो गलतफहमियां फैल गईं हैं, उन्हें अभी तक शांत हो जाना चाहिए था, क्योंकि भारत सरकार ने साफ कर दिया है कि उन बयानों से उसका कुछ लेना-देना नहीं है और भाजपा ने अपने बयानबाजों के खिलाफ सख्त कार्रवाई भी कर दी है। लेकिन देश के दर्जनों शहरों में जिस तरह के हिंसक प्रदर्शन हुए हैं, तोड़-फोड़ और मार-पीट की गई है, वह किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं है।
जिन मुसलमान भाइयों ने गुस्से में आकर ये सब कारनामे किए हैं, उनसे अगर आप पूछें कि किस बयान की किस बात पर आप नाराज़ हैं तो उन्हें उसका कुछ पता ही नहीं है। शुक्रवार की नमाज़ के बाद किसी ने उन्हें उकसा दिया और वे अपनी जान हथेली पर रखकर सडक़ों पर उतर आए, मानो इस्लाम खतरे में है। पैगंबर मोहम्मद की भूमिका अब से डेढ़ हजार साल पुरानी अरब दुनिया में इतनी क्रांतिकारी रही है कि उसे कोई किसी टीवी विवाद में क्या एक वाक्य के द्वारा मिटा सकता है?
टीवी चैनलों पर चल रही बहसों में आजकल ऐसे लोगों को बुलाया जाता है, जो तथ्यशील और तर्कशील होने की बजाय एक-दूसरे पर गोले बरसाने में माहिर होते हैं। ऐसी बहसें लोगों का बरबस ध्यान खींचती हैं। उससे चैनलों की टी.आर.पी. गरमाती है। ज्ञानवापी की उस बहस में भी यही हुआ। एक वक्ता ने शिवलिंगों की मजाक उड़ाई तो दूसरे वक्ता ने पैगंबर के बारे में वह कहकर अपना जवाब दे दिया, जो कुछ अरबी हदीसों में भी लिखा है। दोनों कथन टाले जा सकते थे लेकिन उन्हें कुछ लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया।
हालांकि उन टिप्पणियों से न तो शिवजी का बाल बांका होता है और न ही पैगंबर साहब की शान में कोई गुस्ताखी होती है लेकिन यह भी सत्य है कि जो इनके भक्त लोग हैं, उन्हें बहुत बुरा लगता है। इस बुरा लगने को भी टाला जाए तो जरुर टाला जाना चाहिए। जो लोग भी ऐसे आपत्तिजनक और दर्दनाक बयान देते हैं, उन्हें तथ्यों और तर्कों के आधार पर गलत सिद्ध किया जाना चाहिए, जैसा कि महर्षि दयानंद ने अपने युग प्रवर्तक ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में किया है।
उन्होंने अंतिम 4 अध्याय अन्य धर्मों की समीक्षा में लिखे हैं तो पिछले 10 अध्यायों में उन्होंने अपने पिताजी के पौराणिक हिंदू धर्म के परखचे उड़ा दिए हैं। यही काम यूरोप और अरब देशों के कुछ साहसी विद्वानों ने अपने-अपने धर्मों और उनके मूल धर्मग्रंथों के बारे में भी किया है। अभी डेढ़-दो सौ साल पहले तक भारत में सभी धर्मों के विद्वान खुले-आम ‘शास्त्रार्थ’ किया करते थे। उनमें मैंने मार-पीट, पत्थरबाजी या गाली-गलौज की बात कभी नहीं सुनी।
इसी का नतीजा है कि दुनिया में आज भारत अपने ढंग का अकेला देश है, जहां दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों का सह-अस्तित्व बना हुआ है। क्या ही अच्छा हो कि हिंदुओं और मुसलमानों के कुछ प्रमुख धर्मध्वजी मिलकर पहल करें और दोनों पक्षों से मर्यादा-पालन का आग्रह करें। (नया इंडिया की अनुमति से)
मनीष सिंह
पन्द्रह बीस साल पहले इसकी कोई अहमियत नहीं थी। इसके बाद अचानक से वह धूमकेतु की तरह उभरा। दुनिया उसकी सुनने लगी, पूछ परख बढ़ गई। क्या उसने एटम बम बनाये? या आर्थिक ताकत बन गया? नहीं, ऐसा कुछ नहीं।
कतर, आज दुनिया का मीडिया हाउस है। एक चैनल है, जिसकी दुनिया भर में पहुँच है, जो विश्वसनीय है। जो चाहे दुनिया मे आपकी थू-थू करवा सकता है, बस उसे कुछ सच्चाइयां दिखाने भर की देर है।
इस देश ने भारत सरकार से नूपुर/नवीन मामले में अनकंडीशनल, सार्वजनिक माफी मांगने को कहा है। और भारत की सरकार ना-ना करते हुए भी मजबूरन यही कर रही है।
1996 में अल जजीरा बना था, महज एक अरबी चैनल के रूप में बना। मिडिल ईस्ट के देशों में तब कोई स्वतंत्र चैनल नहीं था। स्टेट चैनल होते थे, जिनका काम देश के नेता का गुणगान करना, अच्छे दिनों का बखान करना और खबरों को दिखाने की बजाय दबाना होता था।
तो अल जजीरा मिडिल ईस्ट के रेगिस्तान में एक नई हवा बना। सन्तुलित, निष्पक्ष कंटेंट, जमीनी रिपोर्टिंग, वो सुनाता कम, दिखाता ज्यादा.. जो जहां जैसा है, देखिये। बोलने का मौका सभी पक्षों को मिलता।
अरबी चैनल होने के बावजूद अंग्रेजी को भरपूर तरजीह दी। दुनिया के बड़े और नामचीन पत्रकारों को जोड़ा। जर्नलिज्म के एथिक्स तय किये।
दुनिया मे बीबीसी की जो वक्त है, जो आदर्श हैं, जो शांत विचारण है, वही या उससे बेहतर बनना अल जजीरा के लिए तय किया गया लक्ष्य था।
उस दौर में जब अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, 9-11, अरब स्प्रिंग जैसी घटनाएं हो रही थी, अल जजीरा ने कमाल किया। हैरतअंगेज जमीनी रिपोर्ट, लाइव वार जोन, जान हथेली पर लेकर चलते पत्रकार।
तब से आजतक दर्जन से ऊपर पत्रकार मारे जा चुके। कुछ कैप्चर हुए, बहुतेरे घायल। लेकिन न अल जजीरा डरा, न उसके निडर पत्रकार।
उसने तस्वीर का दूसरा रुख भी सामने रखा। अरब, इजराइल, अलकायदा जैसे विलेन को भी अल जजीरा का माइक मिला। कोई पक्ष कुछ भी बोले, तय तो व्यूवर को करना था, की विश्वास किसका करे।
तो व्यूवर ने चाहे जिसके पक्ष का यकीन किया हो, भरोसा हमेशा अल जजीरा का बढ़ता गया।
आज अल जजीरा दुनिया के हर देश के ऑपरेट कर रहा है। उसके कवरेज, उसकी खबरें, उसके एंकर, उसके कंटेंट को बियॉन्ड डाऊट एक्सेप्ट किया जाता है। लेकिन मैं आपसे अल जजीरा की बात नहीं कर रहा।
मेरी बात तो कतर की है।
मिडिल ईस्ट के इस अनजान देश के शाह ने, इस चैनल को शुरू कराया। काम करने की पूरी स्वतंत्रता दी। अब 25 साल में अल जजीरा ने कतर को वह हैसियत दे दी, की वो मिडिल ईस्ट की एक प्रमुख राजनीतिक ताकत बन गया है।
दोहा, अब एशिया का नॉर्वे बन गया है।
वह तालिबान अमेरिका के बीच शांति वार्ता करवा रहा है। यमन के विद्रोही गुटों में शांति करवा रहा है। अरब इजराइल विवाद और गाजा पट्टी के मामलों में मध्यस्थता कर रहा है।
जिस देश की अदरवाइज कोई औकात ही नहीं, महज एक न्यूज नेटवर्क के दम पर वैश्विक ताकत बन चुका है।
मध्य-पूर्व की जियोपोलिटिक्स में, अब कोई फैसला कतर को नकार कर नही हो सकता। कोशिश की गई थी, चार साल पहले जब पड़ोसी अरब देशों ने कतर पर ब्लोकेड किया गया।
उन सबने देशों ने ब्लोकेड हटाने के लिए इस चैनल को बंद करने की शर्त रखी। कतर ने नही माना, विरोधियों को ही झुकना पड़ा, लेकिन कतर की बढ़ती हैसियत में अल जजीरा का महत्व दुनिया ने समझ लिया। इस बरस अल जजीरा अपनी 25 वी वर्षगाँठ, याने रजत जयंती मना रहा है।
25 साल पहले भारत में भी सेटेलाइट क्रांति हुई, चैनल आये, न्यूज स्वतंत्र हुई। अब सरकारी टेलीविजन पर हम निर्भर नहीं थे।
न्यूज निष्पक्ष, खोजपरक होने लगी। लगता था, दस बीस सालों में हिंदुस्तान भी, कोई बीबीसी, कोई अल जजीरा पैदा कर लेगा।
लेकिन ऐसा, हो नहीं सका। हमारे चैनल रद्दी का टोकरा और सरकारी माउथपीस बन गए। सरकारी विज्ञापन, नफरत की खेती, रद्दी बहसें, बेकार मुद्दे, खराब रिसर्च और एकपक्षीय कवरेज ने भारत के चैनलों को वैश्विक स्तर पर मजाक बना दिया है।
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हम अफ्रीकी तानाशाहियों के बीच बैठे है। विदेशी चैनल हंसते है, हमारी न्यूज फुटेज दिखाकर, जहां युद्ध के वीडियो गेम को अफगानिस्तान की फुटेज बता दी जाती है। जिन बहसों को हम गम्भीरता से लेकर भुजाएं फडक़ाते हैं, विदेशी उसे मीम की तरह मजे लेते हैं।
फेक न्यूज अब भारतीय चैनलों की यूएसपी है। ड्रग दो, ड्रग दो के तमाशे है। हिन्दू मुस्लिम शोर, बैठ जा मौलाना की धमकियां हैं।
पैसे किस एंकर ने कितने कमाए, कौन जाने। पर यह हम जानते हैं, कि भारत किसी अल जजीरा जैसे चैनल के बूते, कतर की तरह वैश्विक सीढियां चढऩे से महरूम रह गया।
भारतीय मीडिया ये कर सकता था। इन्वेस्टमेंट, टैलेन्ट, आजादी सब कुछ मिलने के बावजूद, उसने यह रास्ता अख्तियार नहीं किया। तो क्या यह अपने आप में देशद्रोह नहीं। चंद पैसों के निजी लाभ के लिए देश को पीछे धकेल देना, आखिर
और क्या कहलाता है?
इस देशद्रोही प्रसारण के दर्शक, टीआरपी दाता, अगर आप भी थे, तो आप क्यो देशद्रोही नहीं गिने जाएं, सोचकर बताइएगा।
और यह भी सोचिये, की ऐसे कितने क्षेत्र है, जिसमे अगुआ बनने का अवसर हमने इस जहालत के दौर में खोया है।
कितने टैलेंट जात-धर्म की लड़ाई में बर्बाद किए हंै। कितना विमर्श, समय, बहसें हमने उन चीजों पर खर्च किये, जिसका कोई हासिल नहीं।
पलटकर हमारी अगली पीढ़ीयां जब देखेंगी...
तब पाएंगी कि हमने भारत को वहां तक ले जाकर नही छोड़ा, जिसका हममें पोटेंशियल था। जिसका अवसर खुला था..
बल्कि हमने सब कुछ पीछे धकेल दिया। एक अंतहीन खड्डे में। तब क्या वे हमें एक देशद्रोही पीढ़ी के रूप में याद नही करेंगे।
विष्णु नागर
अगर मैं गलत हूँँ तो मुझे ठीक करें कि हिंदी साहित्य की परंपरा कुछ ऐसी रही है कि विभिन्न विधाओं में लिखने वाले लेखकों की भी कोई एक साहित्यिक पहचान ही स्वीकार की जाती है, चाहे वह निराला हों या जयशंकर प्रसाद, नागार्जुन हों या मुक्तिबोध जैसे बड़े लेखक। ये सब कवि के रूप में हिन्दी में सर्वमान्य हैं मगर इनका योगदान कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि में भी न्यूनाधिक रहा है। बल्कि इनमें से अधिकतर का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मुक्तिबोध को एक उदाहरण के रूप में लें तो उनकी कहानियाँ किसी भी बड़े (प्रेमचंद को छोड़ दें) कहानीकार से कम नहीं हैं। उनका आलोचना के क्षेत्र में योगदान किसी भी बड़े आलोचक से बड़ा है मगर उनकी चर्चा अक्सर कवि के रूप में शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है। शायद ही कोई आलोचक जब हिंदी कहानी की चर्चा करता है तो उसे जयशंकर प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि की कहानियाँ याद आती हैं, जबकि बाद के भी बहुत से कवियों का कहानियों की ओर रुझान रहा है बल्कि उनका योगदान मानना चाहें तो शायद है।
कवियों ने उपन्यास अपेक्षया कम लिखे हैं मगर फिर कुछ बड़े कवियों के नामों को याद करें तो अज्ञेय समेत कुछ का बड़ा योगदान रहा है। इधर विनोद कुमार शुक्ल जरूर अज्ञेय की तरह अपवाद रहे हैं,जिनके उपन्यासों की चर्चा हुई है मगर समस्या केवल किसी एक विधा तक सीमित नहीं है, दूसरी विधाओं के लेखकों का भी उनकी मुख्य समझी जाने वाली विधा से अलग जो योगदान रहा है, उसे विस्मृत सा किया गया है या जब उस लेखक- विशेष पर चर्चा हुई है तो उसके अन्य विधाओं में योगदान को भी संयोगवश याद किया गया है।
एक ऐसी दृष्टि आलोचना में विकसित क्यों नहीं हुई कि अगर किसी कथाकार का किसी अन्य विधा में महत्वपूर्ण योगदान है तो उस विधा पर चर्चा के समय उसे भुला न दिया जाए। कुछ मामले अपवाद रहे हैं, जैसे मोहन राकेश हैं। उन्हें कथाकार तथा नाटककार दोनों रूपों में समान रूप से मान्य किया गया है।लेकिन नाटक की क्षेत्र में उनके योगदान को उस दुनिया में स्वीकृति खूब मिली,इसीलिए शायद उनका यह रूप साहित्य में भी स्वीकृत हुआ।
मेरा कतई यह मत नहीं है कि एक विधा में लिखने वाले ने अगर दूसरी विधा में भी लिखा है तो वह उल्लेखनीय ही होगा मगर है तो उसकी चर्चा उस विधा की चर्चा के समय उपेक्षित क्यों होनी चाहिए? पाठकों तक समग्र दृष्टि क्यों न पहुंचे?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पैगंबर-विवाद को लेकर भारत में और इस्लामी देशों में कैसा बात का बतंगड़ बन रहा है। भाजपा के जिन दो लोगों के बयान पर कुछ इस्लामी राष्ट्रों ने आपत्ति की थी, उसे मानकर दोनों ने माफी मांग ली और भारत सरकार ने दोनों का पक्ष भी नहीं लिया। ऐसे में सारा विवाद शांत हो जाना चाहिए था लेकिन यह विवाद द्रौपदी के चीर की तरह खिंचता ही चला जा रहा है। जहां दिल्ली में पुलिस ने 31 व्यक्तियों के खिलाफ रपट दर्ज कर ली है, वहां कुछ इस्लामप्रेमियों ने प्रवक्ताओं के मुंडी या जुबान काटकर लानेवाले के लिए लाखों-करोड़ों का इनाम घोषित कर दिया है। अभी तक लोगों को यही पता नहीं है कि पैगंबर मोहम्मद पर जो टिप्पणी की गई थी, वह क्यों की गई थी और उस टिप्पणी में क्या कहा गया था।
टिप्पणी के समर्थकों और विरोधियों की संख्या बढ़ती ही चली जा रही है। यही हाल इस्लामी देशों का भी है। पाकिस्तान जैसे देश को, जो खुद भयंकर मुसीबत में फंसा हुआ है, अब एक नई बटेर हाथ लग गई है। प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ और इमरान के बीच दौड़ लगी हुई है कि भारत की भर्त्सना करने में कौन आगे निकल जाए। कराची के एक मंदिर में भी तोड़-फोड़ कर दी गई है। शाहबाज सरकार इस अंदेशे से सतर्क हो गई है कि कहीं पाकिस्तान के हिंदुओं पर जबर्दस्त हमले ने हो जाएं। इधर मालदीव की सरकार और उसके विपक्षियों के बीच तलवारें खिंच गई हैं। जैसे पाकिस्तान की संसद ने भारत की भर्त्सना का प्रस्ताव पारित कर दिया है, बिल्कुल वैसा ही प्रस्ताव मालदीव के विपक्षी नेता अपनी संसद में भी पास करना चाहते हैं। इस्लामी सहयोग संगठन की भरसक कोशिश है कि यह मामला संयुक्तराष्ट्र संघ के मंचों पर भी तूल पकड़े। आजकल मालदीव के अब्दुल्ला शाहिद संयुक्तराष्ट्र महासभा के अध्यक्ष हैं।
पाकिस्तान को हराकर वे अध्यक्ष बने थे लेकिन वे इस मुद्दे पर काफी संयत रूख अपनाए हुए हैं। ईरान की हमें तारीफ करनी होगी कि इस विवाद के दौरान ही उसने अपने विदेश मंत्री को भारत भेजा और आपसी सहयोग के नए आयाम खोले। इस्लामी सहयोग संगठन के 57 सदस्य हैं लेकिन उनमें मुश्किल से डेढ़ दर्जन सदस्यों ने भारत से अपनी नाराजगी जाहिर की है। शेष सदस्यों को यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि इस पैगंबर-विवाद का असली मुद्दा क्या है। भारत के विरोधी दल, खासतौर से कांग्रेस के नेता इस मुद्दे पर उटपटांग बयान जारी करके अपनी भद्द पिटवा रहे हैं। सबसे अधिक संतोष की बात यह है कि भारत के औसत मुसलमान ने अपना संयम बनाए रखा है। कुछ प्रमुख मुस्लिम संगठनों ने भाजपा प्रवक्ताओं के विरुद्ध की गई कार्रवाई पर संतोष भी व्यक्त किया है। लेकिन दोनों पक्षों के कट्टरपंथी अपनी टेक पर डटे हुए हैं। वे एक-दूसरे पर प्रहार करने में नहीं चूक रहे हैं। वे एक-दूसरे के महापुरूषों पर कीचड़ उछाल रहे हैं। भारत और इस्लामी राष्ट्र इस समय कई गंभीर चुनौतियों से जूझ रहे हैं। आपस में मिलकर उनसे लडऩा तो दूर रहा, वे बात के इस बतंगड़ में फंसकर न तो अपना कुछ भला कर रहे हैं और न ही अपने धार्मिक महापुरुषों के सम्मान की रक्षा कर रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राज्यसभा के चुनावों में राज्यों के विधायक ही मतदाता होते हैं। आम चुनावों में मतदाताओं को अपनी तरफ फिसलाने के लिए सभी दल तरह-तरह की फिसलपट्टियां लगाते हैं लेकिन विधायकों के साथ उल्टा होता है। उनका अपना राजनीतिक दल उनको फिसलने से रोकने के लिए एक-से-एक अजीब तरीके अपनाता है। इस समय कांग्रेस, शिवसेना, भाजपा और पंवार-कांग्रेस ने अपने-अपने विधायकों का अपहरण कर लिया है और उन्हें दुल्हनों की तरह छिपाकर रख दिया है।
सभी पार्टियां अपने विधायकों से डरी रहती हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि अगर उनके थोड़े-से विधायक भी विपक्ष के उम्मीदवार की तरफ खिसक गए तो उनका उम्मीदवार हार जाएगा। कई उम्मीदवार तो सिर्फ दो-चार वोटों के अंतर से ही हारते और जीतते हैं। विधायकों को फिसलाने के लिए नोटों के बंडल, मंत्रिपद का लालच, प्रतिद्वंदी पार्टी में ऊंचा पद आदि की चूसनियां लटका दी जाती हैं।
यदि राज्यसभा की सदस्यता का यह मतदान पूरी तरह दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत हो जाए तो ऐसे सांसदों के होश-हवास गुम कर देगा। पराए दल के उम्मीदवार को वोट देनेवाले सांसद की सदस्यता तो छिनेगी ही, उसकी बदनामी भी होगी। ऐसा कोई प्रावधान अभी तक नहीं बना है, इसीलिए सभी दल अपने विधायकों को अपने राज्यों के बाहर किसी होटल या रिसोर्ट में एकांतवास करवाते हैं। उन विधायकों के चारों तरफ कड़ी सुरक्षा रहती है।
उनका इधर-उधर आना-जाना और बाहरी लोगों से मिलना-जुलना मना होता है। उनके मोबाइल फोन भी रखवा लिये जाते हैं। उनके खाने-पीने, खेलने-कूदने और मौज-मजे का पूरा इंतजाम रहता हैं। उन पर लाखों रु. रोज़ खर्च होता है। कोई इन पार्टियों से पूछे कि जितने दिन ये विधायक आपकी कैद में रहते हैं, ये विधायक होने के कौनसे कर्तव्य का निर्वाह करते हैं? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि लगभग सभी पार्टियां, आजकल यही ‘सावधानी’ क्यों बरतती हैं? इसका मूल अभिप्राय क्या है?
इसका एक ही अभिप्राय है। वह यह कि आज की राजनीति सेवा के लिए नहीं है। वह मेवा के लिए है। जिधर मेवा मिले, हमारे नेता उधर ही फिसलने को तैयार बैठे रहते हैं। वर्तमान राजनीति में न किसी सिद्धांत का महत्व है, न नीति का, न विचारधारा का! राजनीति में झूठ-सच, निंदा-स्तुति, अपार आमदनी-बेहिसाब खर्च, चापलूसी और कटु निंदा यह सब इस प्रकार चलता है, जैसे कि वह कोई वेश्या हो।
लगभग डेढ़ हजार साल पहले राजा भतृहरि ने ‘नीतिशतक’ में यह जो श्लोक लिखा था, वह आज भी सच मालूम पड़ता है। राजनीति में सक्रिय कई लोग आज भी इसके अपवाद हैं लेकिन जऱा मालूम कीजिए कि क्या वे कभी शीर्ष तक पहुंच सके हैं? जो लोग अपनी तिकड़मों में सफल हो जाते हैं, वे दावा करते हैं कि सेवा ही उनका धर्म है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हम बैठकर नहाते हैं या खड़े होकर नहाते हैं? भाजपा में रहें या कांग्रेस में जाएं, एक ही बात है। हमें तो जनता की सेवा करनी है। ऐसे लोग मेवा को चबाए बिना ही निगल लेते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के सदस्य 57 देश हैं। आश्चर्य है कि अभी तक सिर्फ 16 देशों ने ही अपनी प्रतिक्रिया दी है। दिल्ली में हुए पैगंबर-कांड पर शेष मुस्लिम राष्ट्र अभी तक क्या विचार कर रहे हैं, कुछ पता नहीं। शायद वे यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर भाजपा प्रवक्ता ने पैगंबर मोहम्मद के बारे में वास्तव में कहा क्या है? जो कुछ टीवी चैनल पर कहा गया है और बाद में टवीट किया गया है, उसे पूरी तरह से हटा लिया गया है।
इसीलिए अब उसके विरुद्ध जो कुछ भी कहा जाएगा, वह किसी अन्य स्त्रोत से जानकर कहा जाएगा। यह भारत-विरोधी अभियान अब वैसे ही चलेगा, जैसे कि अफवाहों के दम पर कई अभियान चला करते है। भारत सरकार के प्रवक्ता और हमारे राजदूतों ने सभी देशों को आगाह कर दिया है कि भारत सरकार का इस तरह के निरंकुश बयानों से कुछ लेना-देना नहीं है लेकिन दुनिया के सभी इस्लामी देशों में भारत को बदनाम करने का अभियान अभी जोरों से चलता रहेगा। भारत सरकार इसकी काट करती रहेगी लेकिन उसको इससे डरने की कोई जरुरत नहीं है।
यदि कोई देश भारत से संबंध तोड़ता है तो उससे भारत का नुकसान जरुर होगा लेकिन उस देश का नुकसान भारत से कहीं ज्यादा होगा। अंतरराष्ट्रीय संबंध कभी भी एकतरफा नहीं होते। जहां तक मोदी सरकार का सवाल है, उसने इस्लामी राष्ट्रों के साथ अपने संबंध काफी घनिष्ट बनाए हैं। यदि मोदी खुद भी एक बयान जारी करके इस्लामी राष्ट्रों की समझ को ठीक कर दें तो इसमें कोई बुराई नहीं है। जैसे उन राष्ट्रों ने भारत का विरोध करके एक औपचारिकता निभाई है, वैसे ही मोदी भी कूटनीतिक औपचारिकता निभा सकते हैं।
इस मामले को लेकर कानपुर में जरुर तोड़-फोड़ हुई है लेकिन देश के हिंदुओं और मुसलमानों ने काफी संयम का परिचय दिया है। शिवलिंग और पैगंबर के बारे में कही गई आपत्तिजनक बातों को उन्होंने अपने जी से नहीं लगाया और वे सारा तमाशा भौंचक होकर देख रहे हैं। कुछ विपक्षी नेताओं के भडक़ाने का कोई खास असर दिखाई नहीं पड़ रहा है। एक सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि देश के 89 प्रतिशत हिंदु और 85 प्रतिशत मुसलमान किसी भी अन्य धर्म के लोगों को ठेस पहुंचाने के विरुद्ध हैं। जो 10-15 प्रतिशत लोग ऐसा नहीं मानते, उनका कहना है कि किसी को भी अच्छा लगे या बुरा, सच तो सच है।
उसे बोलने और लिखने की आजादी सबको मिलनी चाहिए। मैं भी इस बात को मानता हूं लेकिन जो बुरा लगे, वह बोलकर आप किसका भला करते हैं? आपकी अच्छी बात का भी असर तो अच्छा नहीं होगा। इसीलिए जो कुछ भी बोला जाए, वह सच तो हो लेकिन प्रिय भी हो। इसे ही सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् कहा गया है। झूठ मत बोलो। हमेशा सच बोलो लेकिन वह कटु न हो, यह भी जरुरी है।
भारत के ज्यादातर लोग इसी बात में विश्वास करते हैं। इसीलिए यहां दर्जनों देशी और विदेशी धर्म और संप्रदाय सैकड़ों वर्षों से फल-फूल रहे हैं। क्या दुनिया का कोई अन्य देश ऐसा है, जिसमें इतनी विविधता हो और उसके साथ-साथ इतनी सहिष्णुता भी हो? इस अनन्य भारतीय संस्कार का ही परिणाम है कि भारत के मुसलमान, ईसाई, यहूदी, अहमदिया और बहाई लोग अपने विदेशी स्वधर्मियों के मुकाबले अधिक उदार, अधिक भक्तिमय और अधिक मानवीय हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पैगंबर मुहम्मद और इस्लाम के बारे में भाजपा के कुछ पदाधिकारियों की अप्रिय टिप्पणियों को लेकर भारत के अंदर और इस्लामी देशों में कोहराम मचा हुआ है। भाजपा ने अपने प्रवक्ताओं के खिलाफ कार्रवाई कर दी है लेकिन उससे न तो हमारे कुछ मुस्लिम संगठन संतुष्ट हैं और न ही कई इस्लामी राष्ट्र! उनकी टिप्पणियों से कुछ लोग इतने भडक़े हुए हैं कि उन्हें वे मौत के घाट उतारना चाहते हैं। लेकिन क्या भडक़े हुए लोगों और इस्लामी राष्ट्रों ने यह जानने की भी कोशिश की है कि वे टिप्पणियां क्या थीं और वे कब, कैसे और कहां, कही गई थीं?
शायद नहीं। यदि उन्हें तथ्यों का पता होता तो शायद उनका गुस्सा काफी कम हो जाता। वह टिप्पणी तब की गई थी, जब किसी टीवी चैनल पर ज्ञानव्यापी मस्जिद के बारे में अनाप-शनाप बहस चल रही थी। आजकल हमारे चैनलों पर हर बहस में पार्टी-प्रवक्ताओं को बिठा दिया जाता है। वे मूल विषय पर तर्क-वितर्क करने की बजाय एक-दूसरे पर बेलगाम प्रहार करते हैं। उनके मुंह में जो भी आ जाता है, उसे वे बेझिझक उगल देते हैं। एक वक्ता ने शिवलिंग की मजाक उड़ाई तो दूसरे वक्ता ने पैगंबर मुहम्मद के बारे में ऐसी टिप्पणी कर दी, जो निराधार थी।
इस तरह के वाकए रोज ही होते हैं। इसीलिए ज्यादातर समझदार दर्शक टीवी पर चलने वाली बहसों को देखने में अपना वक्त खराब नहीं करते। मेरी कोशिश यही होती है कि उन बहसों में जाना ही नहीं, जिनमें पार्टी-प्रवक्ताओं को बिठा दिया जाता है। ऐसी बहस पर भारत के मुसलमानों और इस्लामी देशों का नाराज होना स्वाभाविक है लेकिन भारत और दुनिया के सभी हिंदू शिवलिंग की मजाक पर भी इसी तरह नाराज हो सकते हैं। लेकिन मेरी राय में इस तरह की नाराजी का अर्थ क्या यह नहीं है कि आप कुछ गैर-जिम्मेदार लोगों को जरुरत से ज्यादा महत्व दे रहे हैं?
जहां तक मुस्लिम राष्ट्रों के खफा होने का सवाल है, सबसे पहले उन्हें खुद से सवाल करना चाहिए कि वे अपने देशों के अन्य धर्मों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं? उनके देशों में रहने वाले ईसाइयों, यहूदियों, हिंदुओं, शियाओं, बहाइयों और अहमदियों के साथ उनका बर्ताव कैसा है? उनके महापुरुषों— मूसा, ईसा, बुद्ध, महावीर, शिव, कृष्ण, महर्षि दयानंद के बारे में वे क्या सोचते हैं? असलियत तो यह है कि ऐसे धार्मिक लोग सच्चे अर्थों में धार्मिक होने के बजाय राजनीतिक ज्यादा होते हैं। वे भगवान के भक्त कम, सत्ता के भक्त ज्यादा होते हैं। इसीलिए वे अन्य धर्मों पर आक्रमण करते हैं। वे अपने महापुरुषों की सीखों का भी उल्लंघन करते हैं।
कुरान शरीफ में साफ़-साफ़ लिखा है, ‘मजहब के मामले में जोर-जबर्दस्ती ठीक नहीं’ (2/256)। क्या गिरजाघरों और मंदिरों को गिराने वाले आक्रांत सच्चे मुसलमान थे? पैगंबर मुहम्मद कितने उदार थे, यह तो इसी से पता चल जाता है कि उन पर रोज कूड़ा फेंकने वाली एक यहूदी बुढिय़ा जब बीमार पड़ गई तो वे चिंतित हुए और उनका हाल पूछने उसके घर में गए और उसकी तीमारदारी करी।
जिन तालिबान ने बामियान में बुद्ध की मूर्तियां तोड़ीं, क्या वे मुहम्मद के सच्चे अनुयायी सिद्ध हुए? कितने इस्लामी राष्ट्रों ने उनकी भर्त्सना की? जिस ब्राह्मण रसोइए ने महर्षि दयानंद को जहर देकर मार डाला, क्या वह सच्चा हिंदू था? ऐसे लोग धार्मिक नहीं, धर्मांध होते हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि कोई अकेला इंसान तो धर्मांध हो सकता है लेकिन विभिन्न देशों की सरकारें धर्मांधता के कुएं में क्यों गिर पड़ती हैं? (नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. जैन
आज 7 जून है और 129 साल पहले आज ही के दिन एक भारतीय बैरिस्टर मोहन दास कर्मचंद गाँधी को दक्षिण अफ्रीका में उनके साथ घटी एक घटना ने उनकी जिंदगी की दिशा व दशा बदल दी थी और दुनिया उनकी तुलना बुद्ध और ईशा से करनी लगी थी ।
सत्य, अहिंसा, शांति, सद्भाव व प्रेम को यदि कोई एक शाब्दिक नाम है तो वह गांधीजी का नाम है जिनकी आज जयंती है। पूरी दुनिया इस महामानव को भगवान बुद्ध, ईसा की श्रेणी में रखती हैं क्योंकि गांधीजी ने पूरी दुनिया को वह रास्ता दिखाया है जिस पर चलकर हम विश्व शांति की कल्पना कर सकते हैं। साम्राज्यवादी ताकतों के अन्याय, शोषण, दमन के विरुद्ध लड़ाई बिना हथियारों के लडक़र कैसे जीती जा सकती है यह गांधीजी ने करके दिखाया है। कहते है कि हर इंसान की जिंदगी में कभी न कभी वह क्षण जरूर आता है जो उसके जीवन की दशा और दिशा बदलकर उसे महामानव की श्रेणी में ला सकता है और उसे इतिहास में अमर कर देता है। मैं गांधीजी के जीवन के उसी क्षण को याद कर रहा हूँ।
दिनांक 7 जून 1893 की रात एक भारतीय को दक्षिण अफ्ऱीका में ट्रेन से धक्के मारकर एक स्टेशन ‘पीटर मॉरिट्जबर्ग’पर फेंक दिया गया था। उस व्यक्ति का कसूर यह था कि वह एक अश्वेत था जो रेलवे के प्रथम श्रेणी कोच में बैठा हुआ था। उस यात्री के पास प्रथम श्रेणी का टिकट भी था। बुरी तरह अपमानित होने के बाद सारी रात वह व्यक्ति प्लेटफॉर्म पर बैठा रहा और सोचता रहा कि आखिर उसका कसूर क्या था। क्या अश्वेत पैदा होना एक गुनाह है। चमड़ी के रंग के कारण क्या वह अपमान, अन्याय व दोयम दर्जे के नागरिक बने रहने के लिए अभिशप्त है। सारी रात वह सोचता रहा और अब उसे अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया था। उसने ठान लिया कि वह इस अन्याय के खिलाफ लड़ेगा व आवाज उठायेगा भले ही उसकी जान क्यों न चली जाये। वह जानता था कि पारम्परिक हथियारों के बल पर यह लड़ाई कभी कामयाब नहीं हो सकती, पर सत्याग्रह, अहिंसा और आत्म बलिदान के बल पर यह लड़ाई जरूर जीती जा सकती है। वह व्यक्ति अगले 21 वर्षों तक दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद, अन्याय और शोषण के खिलाफ लोगों को एकजुट कर एक ताकतवर व निरंकुश सरकार से तमाम तरह की यातनाएँ सहता हुआ लड़ता रहा और अपनी लड़ाई में काफी हद तक विजयी रहा। भारत लौटने से पहले वह वहां के लोगों को जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य भी समझा आया था ।
दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर गांधीजी ने हमें सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह के मार्ग पर चलकर कैसे आजादी दिलाई यह पूरी दुनिया ने देखा है ।
वह व्यक्ति जिसे पूरी दुनिया आज बापू या महात्मा गांधी के नाम से जानती है के साथ अगर ट्रेन वाली घटना नहीं घटती तो शायद बापू भी गुमनाम रह जाते । अन्याय व शोषण के खिलाफ लडऩे व आवाज उठाना वाला ही इतिहास बनाता है और हमेशा के लिए अमर हो जाता है ।
-ध्रुव गुप्त
बिहार और उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक लोकप्रिय जनकवियों में घाघ भी हैं। मुगल सम्राट अकबर के समकालीन घाघ अनुभवी किसान थे जिन्होंने प्रकृति-चक्र का सूक्ष्म निरीक्षण किया और कालांतर में एक व्यावहारिक कृषि वैज्ञानिक बने। उन्होंने अपने अनुभवों को दोहों और कहावतों में ढालकर उन्हें जन-जन तक पहुंचा दिया। सदियों पहले जब टीवी या रेडियो नहीं हुआ करते थे और न सरकार का मौसम विभाग, तब किसान-कवि घाघ की कहावतें ही खेतिहर समाज का पथ-प्रदर्शन किया करती थी। खेती को उत्तम पेशा मानने वाले घाघ की यह कहावत देखिए- उत्तम खेती मध्यम बान/नीच चाकरी, भीख निदान। घाघ के गहन कृषि-ज्ञान का परिचय उनकी कहावतों से मिलता है। माना जाता है कि खेती और मौसम के बारे में कृषि वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियां झूठी साबित हो सकती है, लेकिन घाघ की कहावतें नहीं।
कन्नौज के निवासी घाघ के कृषि-ज्ञान से प्रसन्न होकर सम्राट अकबर ने उन्हें चौधरी की उपाधि और सरायघाघ बसाने की आज्ञा दी थी। यह जगह आज भी कन्नौज से एक मील दक्षिण मौजूद है। यह भी कहा जाता है कि वे बिहार के छपरा के निवासी थे जो बाद में किसी कारण से कन्नौज में जाकर बस गए। घाघ की लिखी कोई पुस्तक तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन उनकी वाणी कहावतों के रूप में लोक में हर तरफ बिखरी हुई है। उनकी कहावतों को अनेक लोगों ने संग्रहित करने की कोशिशें है। डॉ जार्ज ग्रियर्सन ने भी उनकी अनेक कहावतों का भोजपुरी पाठ प्रस्तुत किया है। हिंदुस्तानी एकेडमी द्वारा वर्ष 1931 में प्रकाशित रामनरेश त्रिपाठी का ‘घाघ और भड्डरी’ घाघ की कहावतों का सबसे महत्वपूर्ण संकलन माना जाता है। भड्डरी संभवत: घाघ की पत्नी थी। त्रिपाठी जी ने अपनी खोजों के आधार पर जनकवि घाघ का मूल नाम देवकली दुबे बताया है। घाघ की कुछ कहावतों का जायजा आप भी लीजिए !
0 दिन में गरमी रात में ओस
कहे घाघ बरखा सौ कोस !
0 खेती करै बनिज को धावै
ऐसा डूबै थाह न पावै।
0 खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।
0 गोबर राखी पाती सड़ै
फिर खेती में दाना पड़ै।
0 सन के डंठल खेत छिटावै
तिनते लाभ चौगुनो पावै।
0 गोबर, मैला, नीम की खली
या से खेती दुनी फली।
0 वही किसानों में है पूरा
जो छोड़ै हड्डी का चूरा।
0 छोड़ै खाद जोत गहराई
फिर खेती का मजा दिखाई।
0 सौ की जोत पचासै जोतै, ऊँच के बाँधै बारी
जो पचास का सौ न तुलै, देव घाघ को गारी।
0 सावन मास बहे पुरवइया
बछवा बेच लेहु धेनु गइया।
0 रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय
कहै घाघ सुन घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।
0 पुरुवा रोपे पूर किसान
आधा खखड़ी आधा धान।
0 पूस मास दसमी अंधियारी
बदली घोर होय अधिकारी।
0 सावन बदि दसमी के दिवसे
भरे मेघ चारो दिसि बरसे।
0 पूस उजेली सप्तमी, अष्टमी नौमी जाज
मेघ होय तो जान लो, अब सुभ होइहै काज।
0सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात
बरसै तो झुरा परै, नाहीं समौ सुकाल।
0 रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय
कहै घाघ सुने घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।
0 भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।
0 अंडा लै चीटी चढ़ै, चिडिय़ा नहावै धूर
कहै घाघ सुन भड्डरी वर्षा हो भरपूर ।
0 शुक्रवार की बादरी रहे शनिचर छाय
कहा घाघ सुन घाघिनी बिन बरसे ना जाय
0 काला बादल जी डरवाये
भूरा बादल पानी लावे
0 तीन सिंचाई तेरह गोड़
तब देखो गन्ने का पोर
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा ने अपने प्रवक्ता और मीडिया सेल के प्रमुख के विरुद्ध सख्त कार्रवाई तो की ही, अपने आधिकारिक बयान में उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह भारत में प्रचलित सभी धर्मों के प्रति सम्मान की भावना रखती है। उस बयान में यह भी बताया गया कि उसके प्रवक्ता और मीडिया प्रमुख ने पैगंबर मुहम्मद और इस्लाम के बारे में जो कुछ भी कहा है, उससे वह सहमत नहीं है।
भारत सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि भाजपा के इन कार्यकर्ताओं की टिप्पणी सनकीपने के अलावा कुछ नहीं है। भारत सरकार किसी धर्म, संप्रदाय या उसके महापुरुष के बारे में कोई भी निषेधात्मक विचार नहीं रखती है। भारत का संविधान सभी धर्मों को एक समान दृष्टि से देखता है। जरा खुद से आप पूछिए कि भाजपा और भारत सरकार को इतनी सफाइयां क्यों देनी पड़ गई हैं? इसका पहला कारण तो यह है कि इस्लामी देशों के सरकारें भाजपा के कार्यकर्ताओं की उन टिप्पणियों से बहुत नाराज हो गई हैं।
सउदी अरब, ईरान, पाकिस्तान, कुवैत, बहरीन, कतर, ओमान आदि देशों की सरकारों ने न सिर्फ उक्त टिप्पणियों के भर्त्सना की है बल्कि इन देशों में भारतीय माल का बहिष्कार भी शुरु हो गया है। कोई आश्चर्य नहीं कि इन देशों में रहने वाले भारतीयों का वहां जीना भी दूभर हो जाए। इस्लामी सहयोग संगठन ने संयुक्तराष्ट्र संघ से अपील की है कि वह भारत के विरूद्ध कार्रवाई करे। भारत में भी, खासतौर से कानपुर में भी इस मामले को लेकर भारी उत्पात मचा है।
भाजपा के जिन दो पदाधिकारियों ने ये टिप्पणियां की हैं, उनका कहना है कि टीवी वाद-विवाद में जब शिवलिंग के बारे में भद्दी बातें कही गईं तो उसके जवाब में उन्होंने भी जो ठीक लगा, वह पैगंबर मुहम्मद और इस्लाम के बारे में कह डाला। लेकिन वे क्षमा-याचनापूर्वक खेद व्यक्त करते हैं। वे किसी का दिल नहीं दुखाना चाहते। लेकिन मेरा असली सवाल यह है और यह सवाल हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य धर्मावलंबियों से भी है कि क्या वे सच्चे धार्मिक हैं? क्या वे सच्चे ईश्वरभक्त हैं? यदि हैं तो फिर किसी भी संप्रदाय की निंदा क्यों करना?
सभी कहते हैं कि उनका धर्म, मजहब या संप्रदाय ईश्वर का बनाया हुआ है। क्या ईश्वर, अल्लाह, यहोवा, गॉड, अहुरमज्द अलग-अलग हैं? यदि आप उनको अलग-अलग मानते हैं तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि ये सब प्रकार के ईश्वर और अल्लाह मनुष्यों के बनाए हुए है। मनुष्य ही ईश्वरों और अल्लाहों को लड़ा देते हैं। क्या इसीलिए एक-दूसरों के धर्मों और महापुरुषों की निंदा की जाती है?
दुनिया का कोई धर्मग्रंथ ऐसा नहीं है, जिसकी सब बातें आज भी मानने लायक हैं। सभी धर्मग्रंथों और सभी धार्मिक महापुरुषों में आप अत्यंत आपत्तिजनक दोष भी ढूंढ सकते हैं लेकिन उससे किसको क्या फायदा होनेवाला है? यदि हम सभी धर्मप्रेमियों और सारी मनुष्य जाति का हित चाहते हैं तो हमें सभी धर्मग्रंथों और धार्मिक महापुरुषों की सिर्फ सर्वहितकारी बातों पर ही ध्यान देना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व भारद्वाज
पोस्ट का शीर्षक देखकर चौकिये मत...मैं नफरती नूपुर का बिल्कुल भी बचाव करने नहीं आया हूँ। मैं आपको यहां असली अपराधी बताने आया हूँ। आज भारत पूरे विश्व में जो शर्म झेल रहा है उसका असली अपराधी है 2013 के बाद से बीजेपी के संगठन में आया बकलोल, नॉन सीरियस और उत्पाती कलचर।
2013 के पहले की डिबेट या प्रेस कांफ्रेंस उठाकर देख लीजिए आपको बीजेपी की ओर से सुषमा स्वराज, रविशंकर प्रसाद, अरुण जेटली, शाहनवाज और निर्मला सीतारमण जैसे प्रवक्ता प्राइम टाइम न्यूज शोज में डिबेट करते हुए मिलेंगे। कभी-कभी उन बहस का स्तर संसद के स्तर से भी ऊंचा होता था। वे इतनी तर्क और तथ्यों से बात करते थे कि आप उनसे असहमत होते हुए भी उनका सम्मान करते थे लेकिन 2013 के मध्य से सब कुछ बदल गया।
2013 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बीजेपी में साहब को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित करती है फिर मोटा भाई को यूपी में संगठन का प्रभार दिया जाता है, इसी के साथ शुरू होता है। संबित पात्रा, नूपुर शर्मा, गौरव भाटिया और नवीन कुमार जिंदल जैसे लंपट बकरबाजों का बीजेपी के मीडिया सेल में प्रवेश और गोदी मीडिया में अंजना, अमिश और अमन चोपड़ा जैसे नान सिरियस एंकर्स का प्रमोशन।
यह सब पूरी प्लानिंग से हो रहा था। आईटी सेल और गोदी मीडिया का डेडली कॉम्बिनेशन विपक्ष के हर तर्क और तथ्य को नेस्तनाबूद कर रहा था। हर तर्क को जुमले से हराना, हर तथ्य की इतिहास से तुलना कर देना, एक सोची-समझी स्ट्रेटजी का हिस्सा था। जब वो किसी बहस को हारते हुए दिखते तो वो किसी भी गंभीर बहस को गली-चौराहों पे होने वाली ठिठोली में बदल देते थे। लोग मूल मुद्दे को भूलकर हँसी में लग जाते थे।
इसे मैं टैबलायड स्ट्रेटजी बोलता हूं। लंदन के शाम के अखबार हर गंभीर मुद्दे की ऐसे ही हवा निकाल देते हंै। दुनिया की सारी कट्टरपंथी राष्ट्रवादी पार्टियां यही रणनीति फालो करती हैं। वो धर्म से लेकर सारे मुद्दों को इतने नीचे स्तर पर ले जाती हंै कि उस समाज का पूरा स्तर ही नीचे चला जाता है। ट्रम्प, एर्डोगन और पुतिन ने अपने अपने देश में यही किया और अपने संगठन और मीडिया में ऐसे लंपट लोगों की जमकर नियुक्तियां की।
एक बार हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि अगर आप अपने आंगन में पड़ोसी के लिए सांप पालते हैं तो इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वो आपको नहीं डसेंगे। आज इन जहरीले प्रवक्ताओं ने अपनी पार्टी के साथ-साथ पूरे देश को डस लिया है, पर इसके जिम्मेदार वो नहीं, इनको पालने वाले सपेरे हैं जिनके इशारों पर यह दिन-रात नाचते हंै और पूरे देश में जहर फैलाते हैं।
-प्रकाश दुबे
सेना सहित सरकारी प्रतिष्ठानों के कर्णधार सेवानिवृत्ति से पहले और बड़ी निजी कंपनियों के खेवनहार नई नाव की सवारी करने से पहले विदाई दौरा करते हैं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के बेड़े के साथ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कानपुर देहात के अपने गांव पहुंचे। राष्ट्रपति जमैका की विदेश यात्रा से लौटे हैं। उत्तर अमेरिका के 234 किलोमीटर लंबे और फकत 80 किमी चौड़े देश जमैका में पहली मर्तबा किसी भारतीय राष्ट्रपति ने कदम रखा। उपराष्ट्रपति 15 लाख की जनसंख्या वाले गबोन के दौरे पर हैं। जमैका देश की जनसंख्या नागपुर से और गबोन की जबलपुर से कुछ कम है। उपराष्ट्रपति नायडू तीन अफ्रीकी देशों की यात्रा पर गए। उनके दौरे में कतर भारत के लिए महत्वपूर्ण देश है। इन दौरों से भारत-हित जरूर सधा होगा। निवर्तमान राष्ट्रपति ने जमैका में डा आंबेडकर की मूर्ति का अनावरण किया। उपराष्ट्रपति ने कतर में रहने वाले साढ़े सात लाख भारतवंशियों से मुलाकात का कार्यक्रम बनाया। कार्यकाल समाप्ति- कोविंद 25 जुलाई। नायडू-11 अगस्त।
सबै भूमि गोपाल की
जग जाहिर भारतीय संस्थानों में अहमदाबाद के भारतीय प्रबंधन संस्थान का नाम बहुत ऊपर है। अवतारी व्यक्तियों की तरह संस्थान समय से आगे की सोच रखता है। किसी और के दिमाग की बत्ती जलने से पहले संस्थान ने कृषि भूमि मूल्य सूचकांक बनाने का दो जून को ऐलान कर दिया। देश भर में भूखंड यानी जमीन की कीमत का सही आकलन करने के लिए इसका गठन किया गया है। प्रबंधन संस्थान की अपनी साख का इसे फायदा मिलेगा। कई कारणों से जमीन के दाम में और उसके आकलन में बहुत अंतर होता है। ग्रामीण और कस्बाई इलाकों की मानक दर यानी बेंचमार्किंग का अपने तरह का पहला प्रयोग होगा। कृषि भूमि को रियल एस्टेट में बदलने में भरोसेमंद स्रोत मिला। शुरुआती दौर में महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु जैसे राज्यों की जमीन पर नजऱ है। भारत की 20 करोड़ हेक्टर भूमि का मात्र दो प्रतिशत फसल के लिए काम आता है। संस्थान में रियल एस्टेट विभाग है जिसके कर्ताधर्ता मानते हैं कि इससे निवेश करने से पहले खतरों आगाह किया जा सकेगा। कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर और किसान से अधिक उत्सुक निवेशक होंगे।
चूक गया चौहान
खेल संगठन पर कब्जा जमाए रखना बच्चों का खेल नहीं है। फुटबाल संगठन के चुनाव का मसला अदालत में लटका था। तभी सरकार ने प्रशासक बिठा दिया। हाकी संघ में दावों की हाकी टकराईं। चुनाव में पदाधिकारी बदल दिए गए। राष्ट्रीय खेल नियमों के अनुसार दो तिहाई मत पाने के बाद ही किसी पद पर दावेदारी मानी जाती है। शतरंज में ऊंट टेढ़ो टेढ़ो जाए। घोड़ा ढाई घर छलांग लगाता है। वर्ष 2021 के चुनाव में भरत सिंह चौहान सचिव निर्वाचित हुए। मामला अदालत में पहुंचा। खेल मंत्रालय के वकील ने चौहान के चुनाव पर दो तिहाई बहुमत की शर्त लागू नहीं होती। हाकी संघ के चुनाव में सरकार की तरफ से पेश किए गए शपथपत्र में दो तिहाई बहुमत वाली शर्त का उल्लेख था। दिल्ली उच्च न्यायालय की पूछताछ में अतिरिक्त सालिसिटर जनरल पहले अड़े। खेल मंत्रालय की चेतावनी के बाद चाल बदलकर नया हलफनामा देंगे। चौहान ने गुपचुप खिलाडिय़ों के आंकड़े बेचे। प्रधानमंत्री कार्यालय में शिकायत पहुंची। उठापटक का कारण? शतरंज का ओलंपिक रूस में नहीं हो सकता। दो महीने बाद भारत में होना है।
अफीम का नशा
राजनीति और युद्ध में सब जायज माना जाता है। केरल में दूसरी बार सरकार बनाने का कीर्तिमान बनाने वाले विजयन ने इस बात पर विश्वास कर लिया। पी सी थामस के निधन के कारण थ्रिक्काकारा विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने उनकी पत्नी उमा को उम्मीदवार बनाया। वाम मोर्चे के नेताओं ने हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. जोसफ को मैदान में उतारा। मरीजों के वोट पक्के करने के साथ ही ईसाइयों के वोट पर नजऱ गई। अस्पताल में पत्रकार परिषद के दौरान गिरजाघर के पादरी हाजिर थे। धर्म को अफीम बताने वाले दल के साथ गंठजोड़ की चर्चा हुई। ईसा मसीह पहले ही कह चुके हैं-हे प्रभु इन्हें माफ करना। ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं? प्रभु माफ करने के मूड में नहीं थे। उमा ने सरकार के उम्मीदवार को 25 हजार मतों के बड़े अंतर से हराया। पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा होगा-भगवान से डरो। इस मुद्दे पर सारे भगवान एक हो गए। हिंदुत्व के मुखर पैरोकार राधाकृष्णन को भाजपा ने कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों के विरुद्ध खड़ा किया। हम नहीं बताएंगे कि राधाकृष्णन की जमानत बची या नहीं। (लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका में इस समय लगभग 45 लाख भारतीय रह रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले कुछ ही वर्षों में भारतीय मूल का कोई व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति बन जाए। कमला हैरिस अभी उप-राष्ट्रपति तो हैं ही। इस समय अमेरिका में सबसे संपन्न कोई विदेशी मूल के लोग हैं तो वे भारतीय ही हैं। वैसे गोरे लोग भी कोई मूल अमेरिकी थोड़े ही हैं।
वे भी भारतीयों की तरह यूरोप से आकर अमेरिका में बस गए हैं लेकिन उनका आगमन तीन-चार सौ साल पहले से शुरु हुआ है तो वे यह मानने लगे हैं कि वे गोरे लोग तो मूल अमेरिकी ही हैं। बाकी सब भारतीय, अफ्रीकी, चीनी, जापानी, मेक्सिकन आदि लोग विदेशी हैं। जो एशियाई लोग पिछले सौ-डेढ़ सौ साल से अमेरिका में पैदा हुए और वहीं रह रहे हैं, उन्हें भी गोरे लोग अपनी तरह अमेरिकी नहीं मानते।
इसी का नतीजा है कि कई दशकों तक भारतीयों का अमेरिका के विभिन्न व्यवसायों में सर्वोच्च पदों तक पहुंचना असंभव लगता था लेकिन अब अमेरिका की बड़ी से बड़ी कंपनियों, प्रयोगशालाओं, शिक्षा और शोध संस्थाओं तथा यहां तक कि उसकी फौज में भी आप भारतीयों को उच्च पदों पर देख सकते हैं। भारतीयों की योग्यता, कार्यकुशलता और परिश्रम अमेरिकियों को मजबूर कर देते हैं कि उनकी नियुक्ति उन्हें उच्च पदों पर करनी होती है।
भारतीयों की जीवन-पद्धति देखकर भी औसत अमेरिकी चकित रह जाता है। लेकिन भारतीयों की ये सब विशेषताएं अमेरिकी गोरों के दिल में जलन भी पैदा करती हैं। संपन्नता के लिहाज से अमेरिका में भारतीय मूल के लोग सबसे अधिक संपन्न वर्ग में आते हैं। उनके पास एक से एक बढिय़ा मकान, कीमती कारें और एश्वर्य का अन्य सामान आम अमेरिकियों के मुकाबले ज्यादा ही होता है। इसी का नतीजा है कि आजकल भारतीयों के विरुद्ध अमेरिका में अपराधों की भरमार हो गई है। इन्हें अमेरिका में घृणाजन्य अपराध (हेट क्राइम) कहा जाता है।
2020 के मुकाबले 2021 में भारतीयों के विरुद्ध ऐसे अपराध 300 प्रतिशत याने तीन गुना बढ़ गए हैं। कुछ गोरे लोग भारतीयों को देखते ही उन पर गोली चला देते हैं। सडक़ों और दुकानों पर उन्हें देखते ही गालियां बकने लगते हैं। भारतीयों के विरुद्ध बिना किसी कारण, बिना किसी उत्तेजना के इस तरह के अपराध इसीलिए होते हैं कि लोगों के दिल पहले से ही घृणा से लबालब भरे होते हैं। जब से डोनाल्ड ट्रंप राजनीति में आए हैं, उन्होंने एशियाई, अफ्रीकी और लातीनी लोगों के खिलाफ इस घृणा को अधिक प्रबल बनाया है।
ट्रंप के इस उग्र वंशवाद का दुष्परिणाम यह भी हुआ है कि अमेरिका के कुछ प्रभावशाली टीवी चैनल इस घृणाजन्य अपराध को बढ़ावा देते रहते हैं। ज्यों ही बाइडन-प्रशासन वीजा वगैरह में जऱा-सी ढील देता है, त्यों ही रिपब्लिकन पार्टी के कई नेता शोर मचाना शुरु कर देते हैं कि अमेरिका में गोरे लोग शीघ्र ही अल्पसंख्यक बन जाएंगे और उनका जीना हराम हो जाएगा।
अमेरिका में कोरोना को फैलाने के लिए भी एशियाई लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। जो लोग भारतीयों के विरुद्ध घृणा फैला रहे हैं, क्या उन्हें पता है कि यदि आज सारे भारतीय मूल के लोग अमेरिका से बाहर निकल आएं तो अमेरिका की हवा खिसक जाएगी? ये भारतीय लोग न सिर्फ अमेरिका की संपन्नता बढ़ा रहे हैं बल्कि उसे श्रेष्ठ जीवन-पद्धति से भी उपकृत कर रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
जब मोदी सरकार की आठ साल की उपलब्धियों के गौरव गान में सरकार के मंत्री और मीडिया व्यस्त हैं तब कश्मीर घाटी आतंकवादी हिंसा की आग में झुलस रही है और हम मोदी सरकार के धारा 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाने के उस फैसले के दुष्परिणामों का सामना कर रहे हैं जिसे ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम बताया गया था।
सरकार और सरकार के समर्थक इन हिंसक घटनाओं की -जिनमें चुन चुन कर कश्मीरी पंडितों, अन्य राज्यों से आए श्रमिकों, स्थानीय पुलिस कर्मियों एवं सरकारी कर्मचारियों को निशाना बनाया जा रहा है- बड़ी असंभव सी लगने वाली व्याख्याएं कर रहे हैं जिनमें उनकी असंवेदनशीलता स्पष्ट झलकती है।
इन व्याख्याओं के अनुसार कश्मीर की जनता अब निर्भीक हो चुकी है, वह आतंकवादियों के हुक्म को नजरअंदाज कर रही है, इसलिए उसमें डर फैलाने के लिए यह हत्याएं की गई हैं। कश्मीर घाटी में पाकिस्तान से होने वाली घुसपैठ पर पूरी तरह रोक लग गई है इसलिए आतंकी घबराए हुए हैं और हताशा में इन कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। कश्मीर में शासकीय नौकरियों में भर्ती के लिए जो सिंडिकेट काम करता था उसे नेस्तनाबूद कर दिया गया है, इससे जुड़े लोग सरकारी कर्मचारियों में डर और भ्रम फैला रहे हैं। कश्मीर में देश के अन्य भागों से निवेश आ रहा है, यहां की बसाहट बदल रही है इसलिए पृथकतावादी तत्व भयभीत होकर हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं।
कश्मीर पर सरकार की इस सफाई में मूल प्रश्नों के उत्तर नदारद हैं। आतंकवादी हिंसा पर अंकुश लगाने में सरकार क्यों नाकामयाब हुई है?कैसे खुलेआम हथियार लहराते आतंकी बेखौफ होकर अपनी नापाक हरकतों को अंजाम दे रहे हैं? सरकार का कहना है कि उसने निर्दोष लोगों की हत्या के जिम्मेदार आतंकवादियों को चुन चुन कर उनके अंजाम तक पहुंचाया है। यदि सरकार और उसका सुरक्षा तंत्र इतना ही कार्यकुशल है तो फिर वारदात करने से पहले ही इन आतंकवादियों क्यों नहीं धर दबोचा गया? क्यों आम लोगों और सरकारी कर्मचारियों तथा अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के चाक चौबंद इंतजाम नहीं किए गए?
आतंकवादी घटनाओं की इन सरकारी व्याख्याओं में नया कुछ भी नहीं है। हमारे देश के जिन प्रान्तों में आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद ने अपनी जड़ें जमाई हैं उन प्रान्तों की सरकारें भी अनेक वर्षों से भयानक और नृशंस आतंकी हिंसा के बाद ऐसे कल्पनाशील स्पष्टीकरण बड़ी निर्लज्जता से देती रही हैं जिनका सार संक्षेप यही होता है कि सरकार की सख्ती से आतंकवादी घबराए हुए हैं और हिंसक कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। आतंकी हिंसा के बाद सरकारों की घिसीपिटी सफाई के हम सभी अभ्यस्त हैं।
किंतु कश्मीर का घटनाक्रम इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस मुद्दे का उपयोग कर भाजपा ने केंद्र और राज्यों के चुनावों में आशातीत सफलता हासिल की है और वह कश्मीर विषयक अपने फैसलों को नए भारत के नए तेवर को दर्शाने वाले कदमों के रूप में प्रचारित करती रही है- ऐसे कदम जो कठोर निर्णय लेने वाली मजबूत सरकार ही उठा सकती थी।
कश्मीर की यह परिस्थितियां इसलिए भी ध्यान खींचती हैं कि अभी चंद दिनों पहले कश्मीरी पंडितों के साथ हुई त्रासदी पर केंद्रित एक फ़िल्म के प्रचार-प्रसार में (जिसका उद्देश्य अर्द्धसत्यों और कल्पना का एक ऐसा कॉकटेल तैयार करना था जिससे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफ़रत फैले) हमने पूरी सरकार को उतरते देखा। स्थिति ऐसी बन गई कि अनेक भाजपा शासित राज्यों में इसे कर मुक्त किया गया और इसे देखना मानो एक अनिवार्य राष्ट्रीय कर्त्तव्य बना दिया गया।
धारा 370 के दो उपखंडों को हटाने के निर्णय के बाद केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर घाटी के राजनीतिक नेताओं की नजरबंदी, इंटरनेट सहित अन्य संचार सेवाओं पर संभवतः विश्व में सर्वाधिक अवधि की रोक, प्रेस पर अघोषित सेंसरशिप एवं पूरे राज्य में धारा 144 लागू करने जैसे कदम उठाए गए। सुरक्षा बलों की भारी तैनाती घाटी में की गई। सामान्य जनजीवन लंबे समय तक ठप रखा गया। सुरक्षा बलों के पहरे के बीच कश्मीर के डरावने सन्नाटे को केंद्र सरकार ने आतंकी गतिविधियों पर नियंत्रण की उपलब्धि के रूप में चित्रित किया। किंतु जैसे ही जनजीवन सामान्य होता गया, आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक गतिविधियां प्रारंभ होने लगीं, आतंकी हिंसा पुनः प्रारंभ हो गई।
कश्मीर में 19 जून 2018 से राज्यपाल का शासन है। सत्ता समर्थक मीडिया द्वारा प्रायः नए भारत के सरदार पटेल के रूप में चित्रित किए जाने वाले श्री अमित शाह गृह मंत्री के तौर पर कश्मीर के हालात की रोज निगरानी कर रहे हैं। श्री अजीत डोभाल जिन्हें भारतीय मीडिया अनेक दंत कथाओं के यथार्थ नायक के रूप में चित्रित करता रहा है, स्वयं कश्मीर की सुरक्षा व्यवस्था पर नजर रख रहे हैं। सरकार के अनुसार केंद्र की उन विकास योजनाओं का लाभ अब जम्मू कश्मीर के लोगों को मिल रहा है, धारा 370 के कारण जिनसे वे वंचित थे।
फिर भी कश्मीर के हालात बिगड़ते क्यों जा रहे हैं?
कहीं सरकार अपने कर्त्तव्य पथ से विचलित तो नहीं हो रही है? कहीं कश्मीर समस्या को न केवल जीवित रखना बल्कि उसे उलझाना सरकार की चुनावी मजबूरी तो नहीं है? आखिर जनता से वोट बटोरने का यह एक प्रमुख भावनात्मक मुद्दा रहा है।
रोते-बिलखते-आक्रोशित-दुःखित कश्मीरी पंडित की छवि कट्टर हिंदुत्व समर्थकों के उस झूठे नैरेटिव के साथ बड़ी आसानी से सजाई जा सकती है जिसके अनुसार बहुसंख्यक बनने के बाद मुसलमान हिंदुओं से कैसा बर्ताव करेंगे यह देखने के लिए हमें कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा पर नजर डालनी चाहिए। क्या यही कारण है कि कश्मीरी पंडितों की समस्याओं के समाधान लिए कोई गंभीर प्रयास होता नहीं दिखता? क्या उनके साथ हुई भयानक त्रासदी और उनके दारुण दुःख को भावनाओं के बाजार में सजाकर उससे अपना राजनीतिक हित नहीं साधा जा रहा है? क्यों सोशल मीडिया में सक्रिय कट्टर हिंदुत्व के पैरोकार बार बार यह भड़काने वाला संदेश दे रहे हैं कि कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार करने वाले सिरफिरे आतंकवादियों का बदला हिन्दू समाज देश की निर्दोष मुस्लिम आबादी से ले?
धारा 370 के दो उपखंडों को हटाने के बाद केंद्र सरकार को इंटरनेट बंदी, मीडिया पर नियंत्रण, स्थानीय राजनीतिक नेताओं की नजरबंदी जैसे कदम क्यों उठाने पड़े? अघोषित कर्फ्यू जैसी स्थिति में लंबे समय तक कश्मीर वासियों को क्यों रखा गया? क्या सरकार जानती थी कि उसका यह फैसला एक अलोकप्रिय निर्णय है? क्या इन कदमों से यह संदेश नहीं जाता कि सरकार कश्मीर के आम लोगों की देशभक्ति के प्रति भी संदिग्ध है? क्या सरकार के कश्मीर में लोकतंत्र बहाली, राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत और समावेशी विकास के दावों के बीच कश्मीरियत को खत्म किया जा रहा है? क्या कश्मीरियत और देशभक्ति का सह अस्तित्व नहीं हो सकता? कश्मीर के कितने ही मूल निवासी -हिन्दू और मुसलमान- पुलिस कर्मी, शासकीय कर्मचारी, पत्रकार, नेता, व्यापारी जैसी भूमिकाएं निभाते हुए आतंकवादी हिंसा का शिकार हुए हैं। क्या इनकी देशभक्ति पर संदेह करना दुःखद और निंदनीय नहीं है?
क्या सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि विश्वास और अस्मिता के प्रश्न उस विकास से हल नहीं हो सकते जो स्थानीय लोगों को भरोसे में लिए बिना किया जाए और जिसके परिणामस्वरूप उनकी पहचान ही गुम जाए? क्या सरकार यह मानती है कि आतंकवाद की समाप्ति केवल सुरक्षा बलों की सक्रियता द्वारा ही संभव है? क्या विश्व इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण उपलब्ध है जिसमें केवल सैन्य कार्रवाई द्वारा आतंकवाद को जड़मूल से समाप्त करने में कामयाबी हासिल की गई हो? क्या यह सच नहीं है कि पूरी दुनिया में और हमारे देश में भी पारस्परिक चर्चा,विमर्श और समझौता वार्ताओं के माध्यम से उग्रवाद और आतंकवाद का अधिक कारगर एवं टिकाऊ समाधान निकाला गया है और असाध्य रोग सी लगती आतंकवाद की समस्या का सुखद पटाक्षेप हुआ है?
संभव है कि सरकार कश्मीर को उस रूप में ढालने में कामयाब हो जाए जो उसकी विचारधारा के अनुरूप है- वहां की बसाहट और आबादी के वितरण में बदलाव ले आया जाए, चुनावी सफलता भी किसी तरह अर्जित कर ली जाए लेकिन कश्मीरियत का सम्मान न करने वाली कोई भी सरकार वहां के निवासियों की वास्तविक प्रतिनिधि नहीं होगी।
कश्मीरियत को राष्ट्र विरोधी भावना समझकर तथा आम कश्मीरी के राष्ट्रप्रेम पर संदेह करके कश्मीर की समस्या का हल कभी नहीं निकाला जा सकता। सरकार को अपनी कश्मीर नीति की समीक्षा करनी चाहिए और तमाम अमनपसंद, जम्हूरियत पर भरोसा करने वाली तथा हिंसा का खात्मा चाहने वाली ताकतों से संवाद प्रारम्भ करना चाहिए।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मुझे खुशी है कि ज्ञानवापी मस्जिद और देश के अन्य हजारों पूजा-स्थलों के बारे में पिछले कुछ दिनों से मैं जो लिख रहा हूं, उसका समर्थन कई महत्वपूर्ण लोग करने लगे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने साफ़-साफ़ कहा है कि मंदिर-मस्जिद विवादों को अब तोड़-फोड़ और आंदोलनों के जरिए हल नहीं किया जा सकता है। सबसे अच्छा तरीका यह है कि 1991 में संसद द्वारा पारित कानून का पालन किया जाए याने 15 अगस्त 1947 को जो धर्मस्थल जिस रूप में थे, उन्हें उसी रूप में रहने दिया जाए।
सिर्फ राम मंदिर उसका अपवाद रहे। इसका अर्थ यह नहीं कि विदेशी हमलावरों की करतूतों को हम भूल जाएं। उन जाहिल बादशाहों ने अपना रूतबा कायम करने के लिए मजहब को अपना हथियार बनाया और उसके जरिए भारत के गरीब, अनपढ़, अछूत और सत्ताकामी सवर्णों को मुसलमान बना लिया। लेकिन ये लोग कौन है? क्या ये विदेशी हैं? नहीं। ये लोग अपने ही भाई-बहन हैं।
इन विदेशी हमलावरों ने अपनी सत्ता की भूख मिटाने के लिए कई मंदिरों को निगला तो उन्होंने अपने प्रतिद्वंदियों की मस्जिदों को भी नहीं बख्शा। हमारे हिंदुओं की तरह अगर हमारे मुसलमान भाई भी इस एतिहासिक तथ्य को स्वीकार करें तो उनकी इस्लाम-भक्ति में कोई कमी नहीं आएगी। इसमें शक नहीं कि कुछ मुस्लिम आबादी ऐसी भी है, जो विदेशी डंडे के जोर से नहीं, अपने ही लोगों के जुल्म से बचने के लिए इस्लाम की शरण में चली गई।
मोहन भागवत का कहना है कि ये सब हमारे लोग हैं, भारतीय हैं, अपने हैं। विदेशी नहीं हैं। इनका मजहब चाहे विदेश से आया है लेकिन भारत के ये करोड़ों मुसलमान तो विदेश से नहीं आए हैं। इन्हें हम उन विदेशी हमलावरों के कुकर्मों के लिए जिम्मेवार क्यों ठहराएं? इन्होंने तो ये मंदिर नहीं गिराए हैं। तो अब मंदिर-मस्जिद विवाद का हल क्या है? भागवत का कहना है कि या तो इस मुद्दे पर दोनों पक्ष आपसी संवाद करें और वे सफल न हों तो अदालत का फैसला मानें। यह सुझाव बहुत व्यावहारिक है लेकिन कई हिंदू संगठन न आपसी संवाद से सहमत हैं और न ही अदालत के फैसले को मानने को तैयार हैं।
क्या कोई अदालत ऐसा फैसला दे सकती है कि सारी मस्जिदों को तोडक़र उनकी जगह फिर से मंदिर बना दिए जाएं? बाबरी मस्जिद तो टूट चुकी थी। इसलिए राम मंदिर बनाने का फैसला आ गया। लेकिन यदि अब ऐसा फैसला आ गया तो मस्जिदें टूटें या न टूटें, लोगों के दिलों के टुकड़े जरुर हो जाएंगे। भारत की शांति और एकता भंग हो जाएगी।
तो फिर क्या करें? गड़े मुर्दे न उखाड़ें। जहां भी मंदिर-मस्जिद साथ-साथ हैं, वे वहां ही रहें। दोनों सबके लिए खुले रहें। यदि वहां कुछ जगह खाली हो तो वहां गुरुद्वारा, गिरजाघर, साइनेगाग आदि भी बन जाएं। यदि ऐसा हो तो सोने में सुहागा हो जाएगा। सारे धर्म-स्थल साथ-साथ हों तो विभिन्न धर्मावलंबियों में आपस में प्रेम भी बढ़ेगा। अयोध्या में राम-मंदिर के पास 63 एकड़ जमीन इसीलिए नरसिंहराव सरकार ने अधिग्रहीत की थी। यदि ये सब धर्मस्थल हैं याने ईश्वर के घर हैं तो ये सब साथ-साथ क्यों नहीं रह सकते? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के सत्तारुढ़ और विपक्षी नेताओं में इस बात को लेकर वाग्युद्ध चल पड़ा है कि क्या पाकिस्तान के तीन टुकड़े हो जाएंगे? इमरान खान ने एक साक्षात्कार में कह दिया कि अगर फौज ने सावधानी नहीं बरती तो पाकिस्तान के तीन टुकड़े हो सकते हैं। उनका अभिप्राय यह था कि शाहबाज़ शरीफ प्रधानमंत्री के तौर पर कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। देश में महंगाई, भुखमरी और गरीबी तेजी से बढ़ रही है। पाकिस्तान की फौज इतने बुरे हालात पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं?
जिस फौज ने इमरान खान को सत्ता से धकियाया, उसी फौज से वे पाकिस्तान को बचाने का अनुरोध कर रहे हैं। इमरान के बयान पर पूर्व राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने कहा कि वे नरेंद्र मोदी की भाषा बोल रहे हैं। शाहबाज शरीफ आजकल तुर्की में हैं। वे कह रहे हैं कि मैं देश के बिगड़े हुए हालात को काबू करने के लिए बाहर दौड़ रहा हूं और इमरान गलतबयानी करके कह रहे हैं कि पाकिस्तान का हाल सीरिया और अफगानिस्तान की तरह हो रहा है।
इमरान ने यह भी कहा है कि पाकिस्तान का खजाना खाली हो गया है। फौज अगर कमजोर पड़ गई तो परमाणु अस्त्र का ब्रह्मास्त्र निरर्थक हो जाएगा। ऐसी हालत में अमेरिका और भारत मिलकर कब पाकिस्तान के टुकड़े कर देंगे, कुछ पता नहीं। इमरान को अगला चुनाव जीतना है। इस लक्ष्य को पाने के लिए यह जरुरी है कि वह अमेरिका और भारत को कोसें। लेकिन जहां तक पाकिस्तान के तीन टुकड़े होने का सवाल है, सच्चाई तो यह है कि उसके तीन नहीं, चार टुकड़े करने की मांग बरसों से हो रही है।
जब केंद्र की सरकार थोड़ी कमजोर दिखाई पड़ती हैं तो पाकिस्तान के टुकड़ों की मांग जोर पकडऩे लगती है। ये चार टुकड़े हैं— पख्तूनिस्तान, बलूचिस्तान, सिंध और पंजाब! पंजाब सबसे अधिक शक्तिशाली, संपन्न, बहुसंख्यक और शासन में आगे है। इन प्रांतों के अलगाववादी नेताओं से पाकिस्तान में मेरी कई बार मुलाकातें हुई हैं। उनमें अफगानिस्तान, ईरान, अमेरिका और ब्रिटेन में भी खुलकर बातें हुई है।
कई पठान, बलूच और सिंधी नेता इस तरह की बाते करते रहते है। पर पाकिस्तान के तीन या चार टुकड़े होना न उनके लिए फायदेमंद है, न भारत के लिए। अभी तो भारत को सिर्फ एक पाकिस्तान से व्यवहार करना पड़ता है। फिर चार-चार पाकिस्तानों से करना पड़ेगा और यह भी देखना पड़ेगा कि आपसी दंगलों की आग कहीं भारत को न झेलनी पड़ जाए।
भारत को मध्य एशिया और यूरोप के रास्तों की भी किल्लत बढ़ जाएगी। इसके अलावा इन सब छोटे-मोटे देशों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली जाएगी, जिसका बोझ भी आखिरकार भारत को ही सम्हालना पड़ेगा। इसके अलावा स्वयं पाकिस्तान एक कमजोर और भूवेष्टित देश बन जाएगा। भारत तो चाहता है कि उसके सारे पड़ौसी देश संपन्न और सुरक्षित रहें। वे टूटे नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ जुड़ते चले जाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सिन्धूवासिनी त्रिपाठी
क्या आपको उस शख्स की याद आ सकती है जिससे आप कभी मिले ही नहीं? किसी से प्रेम करने और उसके जीवित रहने तक उस प्रेम को जाहिर न कर पाने की पीड़ा कैसी होती है? क्या कुछ वैसी ही जैसे केके के चले जाने के बाद मुझे महसूस हो रही है? खुदा जानता था कि मैं उस पर फिदा थी और बहुत कुछ कहने को था और अब ये लिखने से पहले केके की गाई वही लाइनें याद आती हैं-‘कितना कुछ कहना है फिर भी है दिल में सवाल वही, सपनों में जो रोज कहा है वो फिर से कहूं या नहीं?’ मैं प्रेम और नापसंदगी दोनों बराबर रूप से व्यक्त करने वालों में से हूं लेकिन कृष्णकुमार कुम्मत की तारीफ में एक मर्तबा भी कुछ नहीं लिखा। खुदा जानता है कि पिछले दो दिनों से उसके गाए गानों के सिवा कोई और गाना एक पल के लिए भी नहीं सुना है।
उसके जाने का खालीपन और ज्यादा महसूस करने के लिए शोकगीत पढ़े और सुने। निदा फाजली की ‘मैं तुम्हारी कब्र पर फातिहा पढऩे नहीं आया’ से लेकर उसके गाए ‘फिरता हूं मैं दरबदर, मिलता नहीं तेरा निशां’ तक। मगर उसके जाने के बाद का खालीपन ये शोकगीत भी नहीं भर पा रहे हैं। केके के चाहने वालों की कतार बहुत लंबी है और मुझ जैसी लडक़ी उस कतार में शायद बहुत पीछे खड़ी होगी। मैंने तो उसके जाने से पहले उसका पूरा नाम जानने की जहमत तक नहीं उठाई थी।
वो मुझे इस कदर पसंद था और उसका जाना मुझे इस कदर खलेगा, इसका अंदाजा भी मुझे नहीं था। उसकी मखमली आवाज जिंदा रहने तक सुनी जाएगी लेकिन इसका मलाल हमेशा रहेगा कि उस आवाज में अब कुछ नया सुनने को नहीं मिलेगा। केके के गुजरने ने एक नए अहसास से वाकिफ कराया- उस शख्स को याद करने का अहसास जिससे आप कभी मिले नहीं और किसी के जीवित रहने तक उसके प्रति अपना प्रेम जाहिर न करने का अहसास।
अब जब भी अलेक्जेंडर 23 का गाया ‘How can you miss someone you have never met’ और ‘you cry over boys you haven’t even met in real life’ सुनूंगी, केके की याद आती रहेगी और फिर मैं खुद को समझाने के लिए कहूंगी- खुदा जाने कि मैं फिदा हूं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केंद्र सरकार के प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पेशी का नोटिस भेजा है। ये दोनों कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व अध्यक्ष हैं। इनके अलावा आप पार्टी के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को ईडी ने हिरासत में डाल रखा है। लालू प्रसाद यादव और ओमप्रकाश चौटाला पहले से जेल भुगत रहे हैं। झारखंड के कुछ अफसर भी जेल भुगत रहे हैं। ये लोग सब कौन हैं? ये सब गैर-भाजपाई नेता हैं।
ये सब विरोधी दलों के अध्यक्ष या मुख्यमंत्री या अफसर रहे हैं? इनमें से किसका कितना दोष या अपराध है, यह तो अदालतें तय करती हैं लेकिन कितने गर्व और गौरव की बात है कि इनमें से एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो भाजपा का हो या सत्तारुढ़ दल का हो। यदि भाजपा के सभी नेता और कार्यकर्त्ता सचमुच ऐसे हों तो इससे बढ़कर आनंद की बात राष्ट्र के लिए क्या हो सकती है? लेकिन क्या ऐसा है? यह कैसे पता चले?
या तो वे शपथ लेकर कहें कि वे दूध के धुले हुए हैं या वे यह दावा करें कि उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली है, या उन्होंने कभी टैक्स-चोरी नहीं की है या पैसे की अफरा-तफरी नहीं की है। ऐसा दावा करते हुए तो हमने किसी भी पार्टी के एक भी नेता को नहीं सुना है। हाँ, सिर्फ विरोधी नेताओं को सरकारें अपने दांव में फंसा लेती हैं। आज भाजपा अपने विरोधियों- कांग्रेसियों, आपियों, बसपाइयों और समाजवादियों- को अपने जाल में फंसा रही है तो कल जब सत्ता बदलेगी तो ये सब मिलकर क्या भाजपाइयों के लिए लंबा-चैड़ा जाल नहीं बिछा देंगे?
क्या इससे भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी? नहीं, बिल्कुल नहीं। अपने विरोधियों पर छापे मारने के पहले यदि कोई प्रधानमंत्री अपने समर्थकों पर छापे डलवा दे तो वह असली सफाई कहलाएगी। दूसरों का घर साफ़ करने के पहले यदि अपना घर साफ़ न करें तो लोग आपकी मजाक उड़ाए बिना नहीं रहेंगे। आपकी उस सफाई को लोग राजनीतिक प्रतिशोध की कार्रवाई समझेंगे। जनता में उसकी एकदम उल्टी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। जनता उनके अपराध को अनदेखा कर देगी और उनके लिए सहानुभूति के बादल बरस पड़ेगे जैसे कि चरणसिंह द्वारा इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी पर बरसे थे।
क्या भारत में किसी पार्टी की कोई ऐसी सरकार कभी बनेगी, जो अपने नेताओं पर सबसे पहले छापे मारे और उन्हें गिरफ्तार करे। पंजाब में आप पार्टी ने यह कर दिखाया है लेकिन अपने दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री को वह पद्मविभूषण के लायक बता रही है और कांग्रेस भी अपने दोनों मालिकों के प्रति पूर्ण भक्तिभाव दिखा रही है। यह हो सकता है कि गहन जांच के बाद ये लोग दोषी साबित हो जाएं लेकिन फिर भी यह सवाल बना ही रहेगा कि सिर्फ ये ही क्यों? (नया इंडिया की अनुमति से)