विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज की भारतीय राजनीति का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व यदि कोई कर सकता है तो वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार ही हैं। आज की राजनीति क्या है? वह क्या किसी विचारधारा या सिद्धांत या नीति पर चल रही है? डाॅ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के बाद भारत में जो राजनीति चल रही है, उसमें सिर्फ सत्ता और पत्ता का खेल ही सबसे बड़ा निर्णायक तत्व है। क्या आज देश में एक भी नेता या पार्टी ऐसी है, जो यह दावा कर सके कि उसने अपने विरोधियों से हाथ नहीं मिलाया है? सत्ता का सुख भोगने के लिए सभी पार्टियों ने अपने सिद्धांत, विचारधारा और नीति को दरी के नीचे सरका दिया है।
नीतीशकुमार पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि वे जिन नेताओं और पार्टियों की भद्द पीटा करते थे, उन्हीं के साथ वे अब गलबहियां डाले हुए हैं। ऐसा वे पहली बार नहीं, कई बार कर चुके हैं। इसीलिए उन्हें कोई पल्टूराम और कोई बहुरूपिया भी कह रहे हैं। लेकिन इन लोगों को मैं संस्कृत की एक पंक्ति बताता हूं। ‘क्षणे-क्षणे यन्नावतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः’ याने जो रूप हर क्षण बदलता रहता है, वही रमणीय होता है। इसीलिए नीतीशकुमार हमारे सारे नेताओं में सबसे विलक्षण और सर्वप्रिय हैं।
यदि ऐसा नहीं होता तो क्या वे आठवीं बार मुख्यमंत्री बन सकते थे? क्या आप देश में नीतीश के अलावा किसी ऐसा नेता को जानते हैं, जो आठ बार मुख्यमंत्री बना हो? लालू और नीतीश 4-5 दशक से बिहार की राजनीति के सिरमौर हैं लेकिन आज भी वह देश का सबसे पिछड़ा हुआ प्रांत है। फिर भी भाजपा से कोई पूछे कि नीतीश से डेढ़-दो गुना सीटें जीतने के बाद भी उसने उन्हें मुख्यमंत्री का पद क्यों लेने दिया? गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पटना में दरकिनार करनेवाले नीतीश को आपने मुख्यमंत्री क्यों मान लिया?
नीतीश के अप्रिय आर सी पी सिंह को केंद्रीय मंत्री बनाना और उसको नीतीश से तोड़ना क्या ठीक था? इसके पहले कि भाजपा नीतीश को गिरा देती, नीतीश ने भाजपा के नेहले पर दहला मार दिया। नीतीश और भाजपा की यह टूट हर दृष्टि से बेहतर है। नीतीश जातीय जनगणना कराने पर उतारु हैं और भाजपा उसकी विरोधी है। इस समय नीतीश की सरकार के साथ पहले से भी ज्यादा विधायक हैं। भाजपा के अलावा बिहार की लगभग सभी पार्टियों का समर्थन उसको प्राप्त है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अगले विधानसभा चुनाव में इस नए गठबंधन को बहुमत मिल ही जाएगा।
नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बन पाएंगे, यह तो निश्चित नहीं है लेकिन 2024 के आम चुनाव में समस्त विरोधी दलों को जोड़ने में सक्रिय भूमिका निभा सकते है। उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए विरोधी दल तैयार हो या न हों लेकिन उनका लचीला व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा है कि वे राम और रावण दोनों के हमजोली हो सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रदीप कुमार
नीतीश कुमार एक बार फिर सुर्खय़िों में हैं। आखिर उन्होंने वह कर दिखाया, जिसकी चर्चा पिछले कई महीनों से राजनीतिक गलियारे में चल रही थी।
चर्चा यही थी कि नीतीश कुमार फिर से पाला बदलने जा रहे हैं और इसकी तस्दीक तो उसी दिन हो गई थी कि जब जनता दल यूनाइटेड के अंदर आरसीपी के कथित भ्रष्टाचार की खबर आने के बाद आरसीपी सिंह ने जनता दल यूनाइटेड और नीतीश कुमार पर हमला किया।
आरसीपी सिंह ने नीतीश कुमार पर हमला करते हुए दो ऐसी बातें कहीं जो खुल्लम खुल्ला नीतीश के विरोधी भी नहीं करते हैं। उन्होंने कहा, ‘नीतीश कुमार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, सात जन्म तक नहीं बन सकते।’
इसके अलावा आरसीपी सिंह ने कहा, ‘जनता दल यूनाइटेड डूबता जहाज है। आप लोग तैयार रहिए, एकजुट रहिए।चला जाएगा।’
ये दो बातें हैं जिसको लेकर नीतीश कुमार हमेशा से कहीं ज़्यादा सतर्कता बरतते रहे हैं। राजनीतिक तौर पर उनकी महत्वाकांक्षा देश के शीर्ष पद पर रही है। यही वजह है कि जनता दल यूनाइटेड पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने बीजेपी से गठबंधन से अलग होने से पहले प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने के तमाम गुण हैं।
नीतीश कुमार की राजनीति को नजदीक से जानने वाले कई नेताओं ने तस्दीक की है प्रधानमंत्री पद की चर्चा होने परे नीतीश कुमार प्रफुल्लित होते रहे हैं। आरसीपी सिंह भी नीतीश कुमार के बरसों तक सबसे करीब रहे हैं, जाहिर होता है कि उनके मनोभावों को समझते हुए ही आरसीपी सिंह ने ये निशाना साधा था।
जैसा कि उम्मीद थी कि उनके इन बयानों का जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने जवाब दिया। ललन सिंह के प्रेस कांफ्रेंस में भी दो ऐसी बातें हुईं जिससे यह तय हुआ कि बीजेपी और जनता दल यूनाइटेड की राह जुदा होने वाली है।
ललन सिंह ने पहली बात यही कही कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान चिराग पासवान को हमारे नुकसान के लिए खड़ा किया गया था और अब हमारी पार्टी को तोडऩे की कोशिश की गई है। इसकी चर्चा जनता दल यूनाइटेड के पटना में हुई विधायकों और सांसदों की बैठक में भी हुई। नीतीश कुमार ने खुद अपने नेताओं को संबोधित करते हुए कहा कि हमारा लगातार अपमान किया गया, हमारी पार्टी को लगातार कमज़ोर करने की कोशिश की गई।
जनता दल यूनाइटेड से जुड़े सूत्रों के मुताबिक च्बीजेपी के एक नेता का आरसीपी सिंह के साथ एक ऑडियो बातचीत ने इस अलगाव को बढ़ावा दिया। इस बातचीत में कथित तौर पर आरसीपी सिंह को जनता दल यूनाइटेड में कुछ करने को कहा जा रहा है।’
हालांकि इस तमाम घटनाक्रम को लेकर बीजेपी के किसी बड़े नेता का कोई बयान सामने नहीं आया है। नई दिल्ली एयरपोर्ट से पटना लौटते हुए उड़े हुए चेहरे के साथ शाहनवाज़ हुसैन ने कहा, ‘हमारी पार्टी किसी को नहीं तोड़ती है, हमलोग केवल अपनी पार्टी को मजबूत करते हैं।’
इससे पहले बिहार में महीने की शुरुआत में बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा के एक बयान को अहम माना रहा था जिसमें उन्होंने कहा था कि आने वाले दिनों में सभी क्षेत्रीय दल खत्म हो जाएंगे। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से महाराष्ट्र में शिवसेना को दो गुटों में विभक्त किया था, उसको लेकर भी जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार सशंकित हो गए थे। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ये सब अचानक से हुआ है। बिहार की राजनीति पर लंबे समय से नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘आरसीपी सिंह पर ठीकरा फोड़ा जा रहा है, लेकिन नीतीश कुमार इस गठबंधन से बाहर निकलने की पोजिशनिंग लंबे समय से कर रहे थे।’
दरअसल 2020 विधानसभा चुनाव के बाद से ही नीतीश कुमार के लिए लगातार असहज स्थिति बनी हुई थी। पार्टी के अंदर भी और उस सरकार के अंदर भी, जिसके वे मुखिया थे।
असहज थे नीतीश कुमार
सरकार का मुखिया होने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के मंत्रियों, विधानसभा अध्यक्ष और नेताओं का उन पर लगातार दबाव दिखा। यूनिफॉर्म सिविल कोड और तीन तलाक़ जैसे मुद्दों की चर्चा नीतीश कुमार की राजनीति को असहज करने जैसी ही स्थिति थी। यही वजह है कि गठबंधन से अलग होने से पहले अपने नेताओं के सामने नीतीश कुमार ने कहा भी कि बीजेपी ने अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा था।
इसकी शुरुआत इस सरकार के बनने के तुरंत बाद शुरू हो गई थी, जब बीजेपी ने नीतीश कुमार के बेहद करीबी सुशील कुमार मोदी को बिहार की सरकार से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। दरअसल नीतीश कुमार और सुशील कुमार की आपसी अंडरस्टैंडिंग ऐसी थी कि वे एक दूसरे की जरूरत को अच्छी तरह समझते थे।
बिहार बीजेपी के कई नेताओं ने 2020 के चुनाव के दौरान भी माना था कि सरकार आएगी लेकिन ये जोड़ी आगे नहीं रहेगी। सुशील कुमार मोदी को बाद में बीजेपी ने राज्य सभा भेज तो दिया लेकिन उनकी कमी बिहार बीजेपी को सोमवार को खली होगी।
सोमवार को बीजेपी नीतीश कुमार से संपर्क करने की कोशिश कर रही थी और वे फोन लाइन पर नहीं आ रहे थे, अगर सुशील कुमार मोदी बिहार की राजनीति में सक्रिय होते तो संपर्क करना आसान होता। सरकार बनने के बाद विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा के साथ नीतीश कुमार की नोंकझोंक को दुनिया भर में लाइव देखा गया था।
जातीय जनगणना को लेकर भी नीतीश कुमार ने अलग रास्ता लिया, लेकिन तब बिहार की बीजेपी ने राष्ट्रीय नेतृत्व से अलग रास्ता लेकर गठबंधन को बनाए रखने की कोशिश की।
इसके बाद ही नीतीश कुमार ने इफ़्तार पार्टी में तेजस्वी यादव के घर पहुंचे और वहां कुछ दूर पैदल चलकर उन्होंने बीजेपी को एक संकेत दे दिया था। इसके बाद लालू प्रसाद यादव के बीमार होने पर नीतीश कुमार ना केवल उन्हें देखने गए बल्कि मीडिया में घोषणा की थी राज्य सरकार लालू जी के इलाज का सारा ख़र्च उठाएगी।
नीतीश कुमार के बीजेपी से अलग होने की इस कहानी में एम्स अस्पताल की भी अहम भूमिका रही है। जहां लालू प्रसाद यादव अपना इलाज करा रहे थे और वहीं जनता दल यूनाइटेड के वरिष्ठ नेता वशिष्ठ नारायण सिंह भी इलाज कराने पहुंचे थे। इन दो समाजवादी धड़े के नेताओं की आपसी मुलाकातों ने महागठबंधन को एकजुट करने में अहम भूमिका निभायी। वशिष्ठ नारायण सिंह उन वरिष्ठ नेताओं में हैं जो राजनीतिक मुद्दों पर नीतीश कुमार से सलाह मशविरा करते रहे हैं।
यूपीए में बढ़ेगी भूमिका?
वहीं दूसरी तरफ़ पार्टी के अंदर, आरसीपी सिंह की वजह से पार्टी का संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा था। पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह के साथ उनके रिश्तों में तल्खी आती जा रही थी। कभी नीतीश सरकार में आरसीपी टैक्स का जिक्र तेजस्वी यादव ने भी किया था। उन्हीं आरसीपी सिंह पर पार्टी की ओर से आर्थिक अनियमितता का आरोप भी है, जिसके जवाब में उन्होंने पार्टी से ही इस्तीफ़ा दे दिया है।
नीतीश कुमार बार-बार जातिगत जनगणना की हिमायत क्यों कर रहे हैं
इन सबके बाद ही नीतीश कुमार ने मंगलवार, नौ अगस्त को एनडीए का साथ छोड़ते हुए फिर से महागठबंधन का दामन थाम लिया है। नौ अगस्त को राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंपने के बाद नीतीश कुमार सीधे लालू-तेजस्वी यादव के घर पहुंचे और कहा कि हमने एनडीए को छोडऩे का फ़ैसला कर लिया था। उन्होंने यह भी कहा कि 2017 में महागठबंधन से अलग होने का उन्हें अफ़सोस है और वे उसे भूल करके आगे बढऩे को तैयार हैं।
कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है। नीतीश कुमार के इसी बयान के साथ बिहार में राजनीति का एक चक्र पूरा हुआ। 2015 में महागठबंधन की सरकार के वे मुखिया बने थे। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने आपस में मिलकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के विजय रथ को रोक दिया था।
लेकिन 20 महीने के बाद तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते उन्होंने जुलाई, 2017 में आनन फ़ानन में राजद का हाथ छोड़ते हुए बीजेपी से हाथ मिला लिया था। इसके बाद लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव ने कई मौकों पर उन्हें ‘पलटू राम’ या ‘पलटू चाचा’ कहा था।
लेकिन अब एक बार फिर से दोनों एक साथ हैं। इस महाठबंधन में कांग्रेस की भूमिका भी बेहद अहम है। बीजेपी से अलग होने से पहले नीतीश कुमार ने सोनिया गांधी से कम से कम तीन बार लंबी बातचीत की है। राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा है कि आने वाले दिनों में यूपीए में नीतीश कुमार की अहम भूमिका होने वाली है।
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार जयशंकर गुप्ता कहते हैं, ‘महागठबंधन के पिछले समय में भी यह चर्चा चली थी कि यूपीए का पुनर्गठन किया जाए। हालांकि तब उन्होंने अपने लिए कोई भूमिका नहीं मांगी थी। लेकिन इस बार संभव है कि उन्हें कनवेनर जैसा पद दिया जाए।’
राजनीतिक चर्चाओं के मुताबिक यूपीए कनवेनर के तौर पर नीतीश कुमार 2024 में विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का चेहरा भी हो सकते हैं और इसके लिए वे बिहार की कमान तेजस्वी यादव को थमा सकते हैं। नीतीश कुमार एक बार कह भी चुके हैं कि वे सब कुछ रह चुके हैं, बस एक पद है बाक़ी है। उपेंद्र कुशवाहा के बयान से साफ़ है कि ये पद प्रधानमंत्री का ही है।
अब तक का राजनीतिक सफऱ
नीतीश कुमार की अपनी राजनीति लालू प्रसाद यादव के सहयोगी के तौर पर भी विकसित हुई थी और इसकी शुरुआत 1974 के छात्र आंदोलन से हुई थी। 1990 में लालू प्रसाद यादव जब बिहार के मुख्यमंत्री बने तब नीतीश कुमार उनके अहम सहयोगी थी। लेकिन जार्ज फर्नांडीस के साथ उन्होंने 1994 में समता पार्टी बना ली।
पहली बार 1995 में नीतीश कुमार की समता पार्टी ने लालू प्रसाद यादव के राज के जंगलराज को मुद्दा बनाया था, तब पटना हाईकोर्ट ने राज्य में बढ़ते अपहरण और फिरौती के मामलों पर टिप्पणी करते हुए राज्य की व्यवस्था को जंगलराज बताया था। इसी मुद्दे पर विपक्ष ने 2000 और 2005 का चुनाव लड़ा, 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी।
नीतीश कुमार की राजनीतिक ताक़त
2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद नीतीश कुमार बीजेपी से अलग हो गए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें महज दो सीटें मिली थीं, इसके बाद 2015 में वे राष्ट्रीय जनता दल के साथ एकजुट हुए। 20 महीने बाद वे फिर से बीजेपी के साथ गए और अब एक बार फिर से आरजेडी के साथ हो गए हैं।
दरअसल, व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार और सुशासन बाबू की छवि वाले नीतीश कुमार ने 2005 से पहले बिहार के अत्यंत पिछड़े समुदाय और दलितों का एक बड़ा वोट बैंक एकजुट करने में कामयाबी हासिल की और वह लगातार उनके साथ है।
नीतीश कुमार अपने इस वोट बैंक को लेकर कितने सजग हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे जब भी अपनी पार्टी के पदाधिकारियों से मिलते हैं या फिर भरोसेमंद अफसरों को दिशा निर्देश दे रहे होते हैं, तो हमेशा याद दिलाते हैं कि बिहार के अत्यंत पिछड़े समुदाय का ख्याल रखिए।
नीतीश कई बार ये भी कहते हैं कि आप लोगों को मालूम भी है कि इनकी आबादी बिहार की कुल आबादी की एक तिहाई है, हालांकि यह अभी तक रहस्य ही है कि इस वर्ग की आबादी का हिस्सा कितना है।
लेकिन एक मोटा आंकलन यह बताता है कि बिहार की आबादी में करीब एक चौथाई आबादी इसी वर्ग की है, इसमें करीब सौ जातियों का समूह है, जिसे नीतीश कुमार ने साधकर ना केवल एकजुट किया बल्कि बीते 17 सालों से बिहार की सत्ता पर इनकी मदद से काबिज रहे और इसके चलते ही वे ऐसे राजनीतिक जादूगर साबित हुए हैं जिनकी पालकी बीजेपी और आरजेडी- दोनों उठाने के लिए तैयार हैं।
और इसी वजह से यह सवाल भी बेमानी है कि पिछली बार महागठबंधन का साथ छोडऩे की वजहें क्या थीं और इस बार बीजेपी का साथ छोडऩे की वजहें क्या हो सकती हैं। (https://www.bbc.com/hindi)
पुस्तक समीक्षा
लक्ष्मण सिंह देव
Gita press and the making of hindu india. अक्षय मुकुल द्वारा गहन शोध के बाद लिखी गयी किताब है। पुस्तक का मूल विषय है कि कैसे गोरखपुर की गीता प्रेस ने वर्तमान भारतीय हिन्दू धर्म को प्रभावित किया? नोट-किताब में मारवाड़ी शब्द का प्रयोग राजस्थान मूल के या राजस्थानी बनियों के लिए इस्तेमाल किया गया है। मारवाड़ी वस्तुत: एक भाषायी एवम भौगोलिक पहचान है। अतैव ध्यान दें।
1926 में हुई मारवाड़ी अग्रवाल महासभा के अधिवेशन में घनश्याम दास बिरला ने आत्माराम खेमका के भाषण का विरोध किय। आत्माराम खेमका का कहना था कि हिन्दू धर्म शाश्वत है एवं भारत की मुक्ति केवल हिन्दू धर्म के सिद्धांतों पर चल कर हो सकती है। जबकि इसी अधिवेशन में घनश्याम दास बिरला ने बनियों को समय के साथ बदल जाने के लिए कहा। घनश्याम ने अंतरजातीय विवाह का समर्थन किया, खर्चीली शादियों की आलोचना की।
बाद में पता चला कि खेमका का भाषण हनुमानदास पोद्दार ने लिखा था। हनुमान दास पोद्दार, कोलकाता के एक मारवाड़ी जयदयाल गोयन्दका द्वारा स्थापित धार्मिक प्रकाशन का हेड था। 19 वीं शताब्दी में मारवाडिय़ों को व्यापार में खूब सफलता मिली, दूसरों से ना घुलन- मिलने के कारण मारवाडिय़ों पर खूब चुटकुले बने और उनकी छवि कुछ-कुछ यूरोपीय यहूदियों जैसी हो गई। निसंदेह इसके पीछे ईष्र्या की भावना भी रही होगी।1927 राम रख सहगल द्वारा प्रकाशित पत्रिका चांद के मारवाड़ी अंक में मारवाडिय़ों की बहुत आलोचना की गई। उन्हें और उनकी स्त्रियों को सेक्स का भूखा बताया गया। साथ ही गीता प्रेस को चलाने वाली संस्था गोविंद भवन में होने वाले एक सेक्स स्कैंडल का भी जिक्र किया गया।
बनिये वर्णाक्रम में तीसरे स्थान पर हैं।जब मारवाडियो ने खूब पैसा कमा लिया। कहीं-कहीं बनियों के पास बड़ी जमींदारियां आयी उन्हें राजा की उपाधि भी मिली तो उन्हेंअपना सामाजिक स्तर ऊंचा उठाने की चिंता हुई। इसलिए जयदयाल गोयन्दका नामक मारवाड़ी ने 1925 में गीता प्रेस की स्थापना गोरखपुर में की। गीता प्रेस का मकसद हिन्दू धर्म से सम्बंधित साहित्य का प्रकाशन करना था। इसके अतिरिक्त वहां से एक कल्याण नामक पत्रिका भी निकलती है। गीता प्रेस का अधिकतर साहित्य पुराणों पर आधारित हिन्दू धर्म के बारे में है। वैदिक सनातन धर्म की उसने अवहेलना की।गीता प्रेस ने समय समय पर प्रगतिशील बातें भी प्रकाशित की। जैसे गांधी जी के कई आध्यात्मिक आलेख प्रकाशित किये। और उनकी आलोचना करते हुए लेख भी छापे।रूसी रहस्यवादी निकोलस रोरिख के लेख भी गीता प्रेस ने प्रकाशित किये।
1939 में गोरखपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगे में गीता प्रेस के स्टाफ ने हिस्सा लिया। रामचरित मानस , गीता एवम अन्य गर्न्थो के अलावा अन्य विचार कल्याण नामक पत्रिका में प्रकाशित होते है। गीता प्रेस की नजर में हिन्दू कोड बिल, सेकुलरिज्म, बहुत बड़ी बुराइयां थी। गीता प्रेस ने दलितों के मंदिर प्रवेश का भी विरोध किया। गीता प्रेस ने हिन्दू समाज को नैतिक निर्देशन देने का काम भी किया। स्त्रियों की आचार संहिता छपवाई। और महिलाओं के लिए कहा कि उन्हें घर संभालना चाहिए एवं आधुनिक शिक्षा न लेकर केवल संस्कृत विद्यापीठों में पढऩा चाहिए। किशोरी दास वाजपेयी ने लिखा कि गणित जैसे विषय मे मास्टर डिग्री ली हुई लड़कियां उदास रहती हैं और घर गृहस्थी के काम की नही रहती, विवाह के लिए अनफिट होती हैं।
1928 में मॉस्को में हुए एंटी गॉड सम्मेलन का गीता प्रेस ने पुरजोर विरोध किया। गीता प्रेस ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त कि कम्युनिज्म जैसा राक्षसी विचार भारत मे भी बढ़ रहा है।गीता प्रेस ने कहा कि हिन्दू धर्म वस्तुत: कम्युनिज्म , समाजवादी ही है।1959 में कल्याण में कम्युनिज्म केपक्ष में एक आर्टिकल रूसी विद्वान नेस्तरेन्को का भी छप। कल्याण के कुछ अंक काफी प्रगतिशील भी होते थे। उसमें मुस्लिम और ईसाई आध्यात्मिक विभूतियों के भी परिचय होते थे, जिस कारण कल्याण को कट्टर हिंदुओं का विरोध भी झेलना पड़ा। पचास के दशक में गीता प्रेस के मुखिया हनुमान प्रसाद पोदार ने हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर डॉक्टर अंबेडकर के खिलाफ काफी कुछ लिखा और साफ साफ कहा कि कैसे एक अछूत तय कर सकता है कि हिन्दू धर्म कैसे चले?
गीता प्रेस दलितों के मंदिर प्रवेश के पक्ष में नही रही। उन्होंने कहा कि दलितों के अलग मंदिर होने चाहिए।बीच बीच में गीता प्रेस आरएसएस का भी समर्थन करती थी। गीता प्रेस के कर्ता धृताओ ने अपनी सदस्यता केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिए सुरक्षित रखी थी। और राजस्थान में गुरुकुल भी खोले जो केवल ऊपरी 3 वर्णों के बालको के लिए थे।गीता प्रेस की आज के हिन्दू धर्म को आकार देने में बड़ी भूमिका रही है।
गीता प्रेस वस्तुत: कुछ राजस्थानी बनियों का ऐसा प्रोजेक्ट रहा है जिसका मकसद है बनियों को धर्म रक्षक साबित करना और वर्णाक्रम में बेहतर स्थिति में ले आना। जो पैसा तो ग्लोबल और सभी समुदायों से बिजनेस करके कमा रहे थे लेकिन दूसरों को संकुचित बनाना चाह रहे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका और पाकिस्तान की विकट आर्थिक स्थिति पिछले कुछ माह से चल ही रही है और अब बांग्लादेश भी उसी राह पर चलने को मजबूर हो रहा है। जिस बांग्लादेश की आर्थिक प्रगति दक्षिण एशिया में सबसे तेज मानी जा रही थी, वह अब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश के सामने पाकिस्तान की तरह झोली फैलाने को मजबूर हो रहा है। चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने भी ढाका का खाली चक्कर लगा लिया लेकिन इस समय बांग्लादेश इतने बड़े कर्ज में डूब गया है कि 13 हजार करोड़ रु. का कर्ज चुकाने के लिए उसके पास कोई इंतजाम नहीं है।
प्रधानमंत्री शेख हसीना ने ताइवान के मसले पर चीन को मक्खन लगाने के लिए कह दिया कि वह ‘एक चीन नीति’ का समर्थन करता है लेकिन वांग यी ने अपनी जेब जरा भी ढीली नहीं की। अंतरराष्ट्रीय कर्ज चुकाने और विदेशी माल खरीदने के लिए हसीना सरकार ने तेल पर 50 प्रतिशत टेक्स बढ़ा दिया है। रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज़ों के दाम कम से कम 10 प्रतिशत बढ़ गए हैं।
लोगों की आमदनी काफी घट गई है। कोरोना की महामारी ने बांग्लादेश के विदेश व्यापार को भी धक्का पहुंचाया है। बांग्ला टका याने रुपए का दाम 20 प्रतिशत गिर गया है। इस देश में 16-17 करोड़ लोग रहते हैं लेकिन टैक्स भरनेवाले की संख्या सिर्फ 23 लाख है। इस साल तो वह और भी घटेगी। अभी तक ऐसा लग रहा था कि पूरे दक्षिण एशिया में भारत के अलावा बांग्लादेश ही आर्थिक संकट से बचा है, लेकिन अब वहां भी श्रीलंका की तरह जनता ने बगावत का झंडा थाम लिया है।
ढाका के अलावा कई शहरों में हजारों लोग सडक़ों पर उतर आए हैं। इसमें शक नहीं कि विरेाधी नेता इन प्रदर्शनों को खूब हवा दे रहे हैं लेकिन असलियत यह है कि श्रीलंका और पाकिस्तान की तरह बांग्ला जनता भी अपने ही दम पर अपना गुस्सा प्रकट कर रही है। बांग्लादेश की मदद के लिए उससे गाढ़ी मित्रता गांठनेवाला चीन भी दुबका हुआ है लेकिन शेख हसीना की सही सहायता इस समय भारत ही कर सकता है।
पिछले 30 साल में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से पाकिस्तान ने 12 बार, श्रीलंका ने 6 बार और बांग्लादेश ने सिर्फ 3 बार कर्ज लिया है। भारत ने इन तीन दशकों में उससे कभी भी कर्ज नहीं मांगा है। भारत के पास विदेशी मुद्रा कोश पर्याप्त मात्रा में है।
वह चाहे तो पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश को अराजकता से बचा सकता है। इस समय इन देशों को धार्मिक आधार पर अपने परिवार का बतानेवाले कई मुस्लिम और बौद्ध राष्ट्र भी कन्नी काट रहे हैं। ऐसी विकट स्थिति में भारत इनका त्राता सिद्ध हो जाए तो पूरे दक्षिण और मध्य एशिया के 16 राष्ट्रों को एक बृहद् परिवार में गूंथने का काम भारत कर सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
विश्व आदिवासी दिवस विशेष
-डॉ राजू पाण्डेय
जब विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर अनेक आयोजन हो रहे हैं तब पता नहीं क्यों उस घटना की ओर ध्यान जा रहा है जिसे भारतीय मीडिया में अपवाद स्वरूप ही चर्चा के योग्य माना गया। कुछ समय पूर्व पोप फ्रांसिस ने 19वीं शताब्दी से 1970 के दशक तक संचालित सरकारी-वित्त पोषित ईसाई स्कूलों में कनाडा के 150000 से भी अधिक मूल निवासियों को जबरन उनके घरों और सांस्कृतिक परिवेश से दूर रखे जाने के लिए क्षमा याचना की थी। कनाडा सरकार ने यह स्वीकारा था कि इन स्कूलों में इन मूल निवासियों का जमकर शारीरिक और यौन शोषण हुआ था, बड़ी संख्या में इनकी मौतें भी हुईं जिन्हें छिपाकर रखा गया था। बहुत सारे मूल निवासी अब तक इस मानसिक आघात से उबर नहीं पाए हैं। ईसाई धर्म को श्रेष्ठ समझने वाले धर्म प्रचारक और सरकार इन्हें ईसाईयत के रंग में ढालकर सभ्य बनाने के लिए अमानवीय अत्याचार करते रहे।
ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमरीका की सरकारें क्रमशः फरवरी 2008, जून 2008 और दिसंबर 2009 में आदिवासियों पर किए गए अत्याचार के लिए माफी मांग चुकी हैं यद्यपि इन देशों में मूल निवासियों की संख्या बहुत कम है और चुनावों में इनके मुद्दे जीत हार का निर्धारण नहीं करते। 2016 में सत्तासीन होने के बाद ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन ने ताइवान के मूल निवासियों से क्षमा याचना करते हुए कहा कि "पिछले 400 वर्षों में ताइवान में जिसका भी शासन रहा है उसने मूल निवासियों के अधिकारों का खूब हनन किया है। इन पर सशस्त्र आक्रमण किए गए हैं और इनकी जमीन छीनी गई है। मैं सरकार की ओर से इन मूल निवासियों से क्षमा याचना करती हूँ।"
भारत के आदिवासी इतने सौभाग्यशाली नहीं हैं कि हमारे धर्म प्रचारक और सरकार इनसे क्षमा याचना करें। अभी तो हमारे देश में इनकी मूल पहचान मिटाकर इन्हें हिन्दू सिद्ध करने का अभियान जोरों पर है। सरकार की मौन सहमति और संरक्षण इस अभियान के साथ हैं।
हर धर्म प्रचारक को यह लगता है कि उसका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और यह उसका धार्मिक कर्त्तव्य है कि वह अधिकाधिक लोगों को अपने धर्म का अनुयायी बनाए। भोले भाले आदिवासी इन धर्म प्रचारकों के निशाने पर पहले आते हैं।
धर्म प्रचार की आधुनिक रणनीतियां सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण और प्रयोगों का अवलंबन लेती हैं। कभी धर्म प्रचारक सेवक,शिक्षक अथवा चिकित्सक का बहुरूप धर कर आता है और इन आदिवासियों को सशर्त सुविधाएं और राहत प्रदान कर उनका विश्वास अर्जित करने की कोशिश करता है। वह उन्हें उनके पारंपरिक अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाते दिलाते अपने धर्म के अंधविश्वासों के भंवर में फंसा देता है। कभी वह दानदाता का स्वांग भरता है और रोटी,कपड़ा,मकान जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति कर उन्हें आभारी और कृतज्ञ बना देता है, फिर धीरे से जब वह अपने धर्म को अपनाने का प्रस्ताव रखता है तो मिलने वाला उत्तर सकारात्मक ही होता है।
धर्म प्रचार की दूसरी रणनीति बल प्रयोग, सामाजिक दबाव तथा छल कपट पर आधारित होती है। विश्व के अनेक देशों में तलवार के जोर पर धर्म परिवर्तन के लंबे इतिहास की भयानकता से हम सभी अवगत हैं। अपना धर्म न स्वीकारने अथवा इसे त्याग कर दूसरा धर्म अपनाने पर सामाजिक बहिष्कार की धमकी और भयादोहन भी धर्म प्रचारकों के तरकश के अचूक तीर हैं।
बहरहाल हर धर्म प्रचारक प्रकृतिपूजक आदिवासियों के पारंपरिक धर्म और विश्वासों को खारिज करता है,उन्हें हीन और त्याज्य बताता है और अपने धर्म को उन पर इस तरह थोपता है कि वह उन्हें थोपा हुआ न लगे। इसके लिए वह प्रायः उनकी लोकभाषा, लोक संगीत और लोक साहित्य में विद्यमान मिथकों एवं प्रतीकों को बहुत धूर्ततापूर्वक अपने धर्म के अनुकूल बनाता है।
सत्ता का संरक्षण मिलने पर धर्म प्रचारक बेखौफ और निडर हो जाते हैं एवं आदिवासियों की अद्वितीयता के अपहरण की उनकी घृणित कोशिशें परवान चढ़ती हैं।
अंग्रेजों के शासनकाल में ईसाई मिशनरियों ने इन आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बनाई थी और अब कट्टर हिंदुत्ववादी शक्तियां सत्ता का संरक्षण पाकर नई ऊर्जा के साथ आदिवासियों के हिंदूकरण के अभियान में जुट गई हैं। ईसाई मिशनरियों की तुलना में कट्टर हिंदुत्व के यह हिमायती अधिक आक्रामक,हिंसक और प्रतिशोधी हैं। मोहरा बना सरल हृदय आदिवासी समुदाय धर्म प्रचारकों के आपसी संघर्ष में पिसने के लिए अभिशप्त है।
हमारा संविधान आदिवासियों की अलग पहचान को स्वीकारता है।जनगणना में भी इन्हें उपजातिवार अंकित किया जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम आदिवासियों पर लागू नहीं होते। इन मूल निवासियों के रहवास के भौगोलिक क्षेत्रों को चिह्नांकित कर इन्हें जनजातीय क्षेत्रों की संज्ञा दी गई है और इनके लिए पांचवीं और छठी अनुसूची के माध्यम से अलग प्रशासनिक व्यवस्था भी की गई है जिससे आदिवासियों की पारंपरिक विरासत एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो सके। संविधान की इसी भावना के आधार पर पेसा एक्ट जैसे कानून भी कालांतर में बनाए गए हैं।
किंतु कट्टर हिंदुत्व के हिमायतियों को यह संवैधानिक व्यवस्था मंजूर नहीं है। वे आदिवासी शब्द को बड़ी चतुराई से वनवासी शब्द द्वारा प्रतिस्थापित कर देते हैं। आदिवासियों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले अनेक संगठन वनवासी शब्द पर ही गहरी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं। इन संगठनों के अनुसार भारत के आदिवासी अनार्य हैं और आर्यों के पहले से ही भारत में निवास करते रहे हैं। आदिवासी आर्यन नहीं बल्कि द्रविड़ या ऑस्ट्रिक भाषा समूह से संबंधित हैं। आदिवासियों की अपनी भाषा, संस्कृति और धार्मिक परंपराएं हैं जो हिन्दू धर्म से भिन्न हैं। आदिवासी प्रकृति पूजक हैं और इनकी धार्मिक परंपराएं, पूजन विधि,धार्मिक उत्सव आदि सभी अविभाज्य रूप से प्रकृति से संबंधित हैं। आदिवासियों के विविध संस्कारों यथा जन्मोत्सव, अंतिम क्रिया, श्राद्ध तथा विवाह आदि की भिन्नता और विशिष्टता सहज स्पष्ट है। आदिवासी हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था एवं दहेज आदि अनेक कुरीतियों से सर्वथा मुक्त हैं। आदिवासी स्वर्ग एवं नरक की अवधारणा पर विश्वास नहीं करते। अपितु वे अपने मृत पूर्वजों की आत्माओं को अपने सन्निकट अनुभव करते हैं। इनकी अपनी न्याय प्रणाली एवं विधि व्यवस्था है।
यदि कट्टर हिंदुत्ववादी शक्तियां आदिवासी शब्द को स्वीकार कर लेंगी तो उनका यह दावा अपने आप खंडित हो जाएगा कि वैदिक सभ्यता की स्थापना करने वाले आर्य भारत के मूल निवासी हैं।
आदिवासियों को हिन्दू धर्म के अधीन लाने के लिए एक संगठित अभियान चल रहा है जो वनवासी कल्याण आश्रम, एकल विद्यालय,सेवा भारती, विवेकानंद केंद्र, भारत कल्याण प्रतिष्ठान तथा फ्रेंड्स ऑफ ट्राइबल सोसाइटी आदि अनेक संगठनों द्वारा संचालित है। ये संगठन यह प्रचार करते हैं कि आदिवासियों का हिंदूकरण राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है। इनके मतानुसार ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे कथित धर्मांतरण पर रोक लगाना और धर्मांतरित आदिवासियों को वापस हिन्दू धर्म के अधीन लाना देश की अखंडता के लिए बहुत जरूरी है।
यह विचारधारा न केवल ईसाइयों की राष्ट्र भक्ति पर संदेह करती है बल्कि अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने के इच्छुक आदिवासियों को भी संदिग्ध मानती है। जैसा विहिप के वरिष्ठ पदाधिकारी रह चुके मोहन जोशी ने एक अवसर पर कहा था- "हिन्दू धर्म के प्रति अनादर,राष्ट्र के प्रति अनादर की भावना उत्पन्न करता है। धर्म परिवर्तन का अर्थ है राज्य के प्रति अपनी निष्ठा में भी परिवर्तन।" यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मोहन जोशी का राष्ट्र, संकीर्ण हिन्दू राष्ट्र है, संविधान द्वारा संचालित उदार और सर्वसमावेशी भारत नहीं।
कट्टर हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा अपनाई गई हिन्दू धर्म के प्रचार की विधियां ईसाई मिशनरियों से उधार ली गई हैं। ईसाई मिशनरी जिस प्रकार धर्म प्रचार के लिए आदिवासी युवाओं को प्रशिक्षित करती है उसी प्रकार सेवा भारती रामकथा के प्रसार के लिए आदिवासी युवक युवतियों हेतु अयोध्या में 8 माह का प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती है। इसी तरह एकल विद्यालय का प्रयोग भी सेवा-शिक्षा-सहयोग के बहाने हिन्दू धर्म के प्रचार की वैसी ही विधि है जैसी ईसाई धर्म प्रचारक पहले ही अपना चुके हैं।
इन संगठनों द्वारा संचालित विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा न केवल ईसाई अल्पसंख्यकों बल्कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति भी आदिवासियों के मन में संदेह और घृणा उत्पन्न करने में योगदान देती है। जैसे जैसे यह प्रचार अपनी जड़ें जमाने लगता है वैसे वैसे आदिवासी बहुल इलाकों में धार्मिक और साम्प्रदायिक टकराव की स्थितियां उत्पन्न होने लगती हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण चुनावों में बीजेपी की कामयाबी में योगदान देता है। आने वाले वर्षों में जब संकीर्ण राष्ट्रवाद और हिंसक हिंदुत्व के पैरोकार इन मासूम आदिवासियों के मन में ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत का जहर भरने में कामयाब हो जाएंगे तब हम साम्प्रदायिकता और हिंसा के नए ठिकानों को रूपाकार लेते देखेंगे। हिन्दू-ईसाई और हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के इन नए केंद्रों में आदिवासियों को हिंसा एवं नकारात्मकता की अग्नि में झोंका जाएगा।
आदिवासियों के धार्मिक ध्रुवीकरण ने व्यापक आदिवासी एकता की संभावना को समाप्त प्राय कर दिया है। धर्म के आधार पर मतदान करने वाला आदिवासी समुदाय राजनीतिक दलों को भी पसंद है क्योंकि इस तरह वे भावनात्मक मुद्दों को हवा देकर आदिवासियों की बुनियादी समस्याओं से किनारा कर सकते हैं। आदिवासियों को धर्म की अफीम के नशे का शिकार बना कॉरपोरेट लूट भी निर्बाध रूप से की जा सकती है।
आदिवासियों का आवास वे वन क्षेत्र हैं जिनके नीचे कोयले, माइका और बॉक्साइट आदि के भंडार हैं जिनके दोहन पर पूंजीपतियों की नजर है। विस्थापन आदिवासियों की नियति है। विस्थापन का दंश भुक्तभोगी ही जानते हैं। विस्थापन किसी स्थान विशेष से दूर हटा दिया जाना ही नहीं है। यह एक जीवन शैली का अंत भी है। यह अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत से जबरन बेदखल कर दिया जाना भी है। संविधान तब कितना असहाय बन जाता है जब संवैधानिक प्रावधानों को बेमानी बनाकर सत्ता अपने कॉरपोरेट मित्रों के उद्योगों के मार्ग में बाधक बन रहे आदिवासियों को रास्ते से हटा देती है। आदिवासियों के हितों की रक्षा करने वाले कानूनों को मजबूत बनाने और फिर उनमें सेंध लगाने की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं। आदिवासी हितों से जुड़े कानूनों को मजबूत बनाना वोट बटोरने की राजनीति का एक हिस्सा है और इन कानूनों को व्यावहारिक रूप से अप्रभावी बना देना सत्ता के असली कॉरपोरेट परस्त चरित्र का मूल गुण है। नए उद्योगों की स्थापना के लिए पर्यावरणीय प्रभाव, सामाजिक प्रभाव, पुनर्वास, मुआवजे और रोजगार तथा ग्राम सभा की शक्तियों से संबंधित जटिल नियमों की पोथियों को अर्थहीन होते देखने के लिए किसी कॉरपोरेट मालिक के एक और नए प्रोजेक्ट का अवलोकन भर आवश्यक है। न्यायपालिका की अपनी सीमाएं हैं, यह सीमाएं सशक्त कानूनी प्रावधानों के अभाव से अधिक नीयत, इच्छाशक्ति और प्राथमिकता के अभाव की सीमाएं हैं।
आदिवासियों के हितों के लिए कार्य करने वाले संगठन यह ध्यानाकर्षण करते हैं कि पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले एक बड़े क्षेत्र को हिंसाग्रस्त बताकर यहां आदिवासियों के अधिकारों को स्थगित रखा गया है। क्या यह महज संयोग है कि इन्हीं क्षेत्रों में बड़े कॉरपोरेट घरानों की महत्वाकांक्षी परियोजनाएं संचालित होनी हैं? नक्सल समस्या के आर्थिक-सामाजिक पहलुओं से इतर एक प्रश्न जो बार बार हमारे सम्मुख उपस्थित होता है वह यह कि क्या नक्सल समस्या राजनीतिक दलों को रास आ गई है और क्या यह उनके राजनीतिक-आर्थिक हितों की सिद्धि में कोई योगदान देती है? क्या नक्सल समस्या का समाधान न हो पाने का एक मुख्य कारण राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है? नक्सल समस्या के कारण जो भी हों परिणाम तो एक ही होता है- आदिवासियों का दमन। चाहे वह पुलिस की हो या नक्सलियों की हो, गोली खाकर मरने वाला कोई मासूम आदिवासी ही होता है।
वन्यजीव संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2006, आदिवासियों के संरक्षण और उनकी आजीविका को उतना ही महत्त्व देता है जितना कि वन्य पशुओं के संरक्षण को। किंतु पर्यावरण और वन्य जीव संरक्षण के नाम पर आदिवासियों के विस्थापन का एक षड्यंत्र भी चल रहा है और बिना किसी स्पष्ट कारण एवं सुपरिभाषित नीति के उन्हें विस्थापित करने की कोशिश जारी है। वास्तव में कॉरपोरेट समर्थक पर्यावरणविद और संरक्षणवादी वन अधिकार कानून 2006 को भारतीय वन अधिनियम, वाइल्ड लाइफ एक्ट तथा पर्यावरण संबंधी अन्य अनेक कानूनों का उल्लंघन करने वाला और असंवैधानिक बताकर खारिज कराना चाहते हैं।
हमने आदिवासियों के विकास के मापदंड तय कर दिए हैं। यदि वे अपनी मौलिकता, अद्वितीयता और अस्मिता खोकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पोषक धर्म परंपरा को स्वीकार कर लें तो हम उन्हें देश की धार्मिक-सांस्कृतिक मुख्य धारा का अंग मान लेंगे। यदि वे सहर्ष अपना जल-जंगल-जमीन त्यागकर स्वामी से सेवक बन जाएं तो हम अपनी कल्याणकारी योजनाओं द्वारा उनका उद्धार करेंगे।
आदिवासियों को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी- वह भी पूरी तरह अहिंसक रूप से। उनका बचना धरती पर मासूमियत को जिंदा रखने के लिए जरूरी है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जगदीप धनखड़ उप-राष्ट्रपति तो बन गए हैं लेकिन उनके चुनाव ने देश की भावी राजनीति के अस्पष्ट पहलुओं को भी स्पष्ट कर दिया है। सबसे पहली बात तो यह कि उन्हें प्रचंड बहुमत मिला है। उन्हें कुल 528 वोट मिले और मार्गेट अल्वा को सिर्फ 182 वोट याने उन्हें लगभग ढाई-तीन गुने ज्यादा वोट! भाजपा के पास इतने सांसद तो दोनों सदनों में नहीं हैं। फिर कैसे मिले इतने वोट? जो वोट तृणमूल कांग्रेस के धनखड़ के खिलाफ पडऩे थे, वे नहीं पड़े। वे वोट तटस्थ रहे।
इसका कोई कारण आज तक बताया नहीं गया। धनखड़ ने राज्यपाल के तौर पर मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी की जैसी खाट खड़ी की, वैसी किसी मुख्यमंत्री की क्या किसी राज्यपाल ने आज तक की है? इसी कारण भाजपा के विधायकों की संख्या बंगाल में 3 से 73 हो गई। इसके बावजूद ममता के सांसदों ने धनखड़ को हराने की कोशिश बिल्कुल नहीं की। इसका मुख्य कारण मुझे यह लगता है कि ममता कांग्रेस के उम्मीदवार के समर्थक के तौर पर बंगाल में दिखाई नहीं पडऩा चाहती थीं।
इसका गहरा और दूरगामी अर्थ यह हुआ कि विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस को ममता नेता की भूमिका नहीं देना चाहती हैं याने विपक्ष का भाजपा-विरोधी गठबंधन अब धराशायी हो गया है। कई विपक्षी पार्टियों के सांसदों ने भी धनखड़ का समर्थन किया है। हालांकि राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति का पद पार्टीमुक्त होता है, लेकिन धनखड़ का व्यक्तित्व ऐसा है कि उसे भाजपा के बाहर के सांसदों ने भी पसंद किया है, क्योंकि वी. पी. सिंह की सरकार में वे मंत्री रहे हैं, कांग्रेस में रहे हैं और भाजपा में भी रहे हैं। उनके मित्रों का फैलाव कम्युनिस्ट पार्टियों और प्रांतीय पार्टियों में भी रहा है।
वे एक साधारण किसान परिवार में पैदा होकर अपनी गुणवत्ता के बल पर देश के उच्चतम पदों तक पहुंचे हैं। ममता बनर्जी के साथ उनकी खींच-तान काफी चर्चा का विषय बनी रही लेकिन वे स्वभाव से विनम्र और सर्वसमावेशी हैं। हमारी राज्यसभा को ऐसा ही सभापति आजकल चाहिए, क्योंकि उसमें विपक्ष का बहुमत है और उसके कारण इतना हंगामा होता रहता है कि या तो किसी भी विधेयक पर सांगोपांग बहस हो ही नहीं पाती है या फिर सदन की कार्रवाई स्थगित हो जाती है।
उप-राष्ट्रपति की शपथ लेने के बाद इस सत्र के अंतिम दो दिन की अध्यक्षता वे ही करेंगे। वे काफी अनुशासनप्रिय व्यक्ति हैं लेकिन अब वे अपने पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए पक्ष और विपक्ष में सदन के अंदर और बाहर तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश करेंगे ताकि भारत की राज्यसभा, जो कि उच्च सदन कहलाती है, वह अपने कर्तव्य और मर्यादा का पालन कर सके। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला और राज्यसभा के अध्यक्ष जगदीप धनखड़ को अब शायद विपक्षी सांसदों को मुअत्तिल करने की जरुरत नहीं पड़ेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष अभी भी उसे 1.2 बिलियन डालर के कर्ज देने में काफी हीले-हवाले कर रहा है। उसकी दर्जनों शर्तें पूरी करते-करते पाकिस्तान कई बार चूक चुका है। इस बार भी उसको कर्ज मिल पाएगा या नहीं, यह पक्का नहीं है। शाहबाज शरीफ प्रधानमंत्री बनते ही सउदी अरब दौड़े थे। यों तो सभी पाकिस्तानी शपथ लेते से ही मक्का-मदीना की शरण में जाते हैं लेकिन इस बार शाहबाज का मुख्य लक्ष्य था कि सउदी सरकार से 4-5 बिलियन डालर झाड़ लिये जाएं। उन्होंने झोली फैलाई लेकिन बदकिस्मती कि उन्हें वहां से भी खाली हाथ लौटना पड़ा।
वे अब पाकिस्तान में ऐसे हालात का सामना कर रहे हैं, जैसे अब तक किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किए। लोगों को रोजमर्रा की खुराक जुटाने में मुश्किल हो रही है। आम इस्तेमाल की चीजों के भाव दुगुने-तिगुने हो गए हैं। बेरोजगारी और बेकारी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इमरान खान के जलसों और जुलूसों में लोगों की तादाद इतनी तेजी से बढ़ रही है कि सरकार को कंपकंपी छूटने लगी है। पंजाब में इमरान-समर्थक सरकार भी आ गई है। इससे बड़ा धक्का सत्तारुढ़ मुस्लिम लीग (न) के लिए क्या हो सकता है।
इमरान का जलवा सिर्फ पख्तूनख्वाह में ही नहीं, अब पाकिस्तान के चारों प्रांतों में चमकने लगा है। हो सकता है कि अगले कुछ माह में ही आम चुनाव का बिगुल बज उठे। ऐसे में अब प्रधानमंत्री की जगह पाकिस्तान के सेनापति कमर जावेद बाजवा खुद पहल करने लगे हैं। उन्होंने सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के शासकों से अनुरोध किया है कि वे पाकिस्तान को कम से कम 4 बिलियन डालर की मदद तुरंत भेजें। लेकिन दोनों मुस्लिम राष्ट्रों के शासकों ने बाजवा को टरका दिया है।
वे पाकिस्तान को दान या कर्ज देने के बजाय अपनी संपत्तियाँ रखकर उनके बदले में शेयर खरीदने के लिए कह रहे हैं। पाकिस्तानी अर्थ-व्यवस्था की हालत इतनी खस्ता होती जा रही है कि उसे बचाने के लिए उसे ऐसे कदम भी उठाने पड़ रहे हैं, जो शीर्षासन करने के समान हैं। माना तो यह जा रहा है कि काबुल में अल-जवाहिरी का खात्मा करवाने के लिए पाकिस्तान ने अमेरिका की मदद इसीलिए की है कि अमेरिका इस वक्त उसे कोई वित्तीय टेका लगा दे।
शाहबाज शरीफ अगर थोड़ी हिम्मत करें तो वे भारत से भी मदद मांग सकते हैं। भारत यदि मालदीव, श्रीलंका और नेपाल को कई बिलियन डालर दे सकता है तो पाकिस्तान को क्यों नहीं दे सकता? पाकिस्तान आखिर क्या है? वह अखिरकार कभी भारत ही था। यह मौका है, जो दोनों देशों के बीच दुश्मनी की दीवारों को ढहा सकता है और सारे झगड़े बातचीत से सुझलवा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सोनिया गांधी और राहुल गांधी आजकल ‘नेशनल हेराल्ड’ घोटाले में बुरी तरह से फंस गए हैं। मोदी सरकार उन्हें फंसाने में कोई कसर छोड़ नहीं रही है। वे दावा कर रहे हैं कि वे साफ-सुथरे हैं। यदि यह दावा ठीक है तो वे डरे हुए किस बात से हैं? जांच चलने दें। दूध का दूध और पानी का पानी अपने आप हो जाएगा। वे खरे तो उतरेंगे ही। सरकार की इज्जत पैदें में बैठ जाएगी लेकिन ऐसा लगता है कि दाल में कुछ काला है। इसीलिए आए दिन धुआंधार प्रदर्शन हो रहे हैं।
दर्जनों कांग्रेसी सांसद और सैकड़ों कार्यकर्ता हिरासत में जाने को तैयार बैठे रहते हैं। अब उन्होंने अपने नेताओं को बचाने के लिए नया शोशा छोड़ दिया है। मंहगाई, बेरोजगारी और जीएसटी का। इनके कारण जनता परेशान तो है लेकिन फिर भी वह कांग्रेस का साथ क्यों नहीं दे रही है? देश के लोग हजारों-लाखों की संख्या में इन प्रदर्शनों में शामिल क्यों नहीं हो रहे हैं? इन प्रदर्शनों के दौरान राहुल गांधी के बयानों में थोड़ी-बहुत सत्यता होते हुए भी उन्हें कहने का तरीका ऐसा है कि वे हास्यास्पद लगने लगते हैं।
जैसे राहुल का यह कहना कि भारत में लोकतंत्र की हत्या हो गई है। वह भूतकाल का विषय बन गया है। राहुल को आपातकाल की शायद कोई भी याद नहीं है। राहुल को मोदी-शासन शुद्ध तानाशाही लग रहा है। क्यों नहीं लगेगा? कांग्रेस को मोदी ने मां-बेटा पार्टी में सीमित कर दिया है। इस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की साख निरंतर घटती चली जा रही है। यदि कांग्रेसी नेता अब कोई सही बात भी बोलें तो भी लोग उस पर भरोसा कम ही करते हैं। जहां तक लोकतंत्र का सवाल है, जब कांग्रेस पार्टी जैसी महान पार्टी ही प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है तो भाजपा की क्या बिसात है कि वह लोकतांत्रिक पार्टी होने का आदर्श उपस्थित करे?
हमारे देश की लगभग सभी प्रांतीय पार्टियां उनके नेताओं की जेबी पुडिय़ा बन गई हैं। भाजपा के राज में लगभग सभी पार्टियों का आंतरिक लोकतंत्र तो हवा हो ही गया है, अब पत्रकारिता याने खबरपालिका भी लंगड़ी होती जा रही है। लोकतंत्र के इस चौथे खंभे में अब दीमक बढ़ती जा रही है। प्रधानमंत्री की पत्रकार-परिषद का रिवाज खत्म हो गया है। सरकार का मुंह खुला है और कान बंद है। संसद के सेंट्रल हाल में अब पत्रकारों का प्रवेश वर्जित है। वहां बैठकर देश के बड़े-बड़े नेता पत्रकारों से खुलकर व्यक्तिगत संवाद करते थे। पत्रकारों को अब प्रधानमंत्री की विदेश-यात्राओं में साथ ले जाने का रिवाज भी खत्म हो गया है।
‘महिला पत्रकार क्लब’ से अब सरकारी बंगला भी खाली करवाया जा रहा है। कई अखबारों को सरकारी विज्ञापन मिलने भी बंद हो गए हैं। हमारे सभी टीवी चैनल, एक-दो अपवादों को छोडक़र, बातूनी अखाड़े बन गए हैं, जिनमें पार्टी-प्रवक्ता खम ठोकने और दंड पेलने के अलावा क्या करते है? कई अखबार और चैनल-मालिकों के यहां छापे मारकर उन्हें भी ठंडा करने की कोशिश जारी है।
हमारे विरोधी दलों ने संसद की जो दुगर्ति कर रखी है, वह भी देखने लायक है। दूसरे शब्दों में जिस देश की खबरपालिका और विधानपालिका लडख़ड़ाने लगे, उसकी कार्यपालिका और न्यायपालिका से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसले नकारात्मक कारणों से चर्चा में रहे। इनमें कुछ फैसले जरा पुराने थे और कुछ एकदम हाल के।
इन फैसलों के चर्चा में आने का कारण सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस खानविलकर की सेवानिवृत्ति थी। इन सभी फैसलों से उनका संबंध रहा था और इन फैसलों को आपस में जोड़ने वाली चिंतन प्रक्रिया और वैचारिक अंतर्धारा को इनमें सहज ही पढ़ा जा सकता था।
जाहिर है कि न्यायालय का हर फैसला हर किसी को पसंद नहीं आ सकता, हर किसी को संतुष्ट करना न्यायालय का काम भी नहीं है। क्या इन फैसलों की आलोचना भी केवल इसी सामान्य कारण से हो रही थी कि सुप्रीम कोर्ट से राहत की उम्मीद कर रहे पक्ष को निराशा हाथ लगी थी और वह अपने असंतोष की अभिव्यक्ति कर रहा था? दरअसल ऐसा नहीं था।
अनेक न्यायविदों की राय में इन फैसलों के दूरगामी परिणाम होंगे जो राज्य की निरंकुश शक्ति की अभिवृद्धि तथा आम आदमी के दमन और उत्पीड़न में सहायक होंगे। इन न्यायविदों के अनुसार वटाली मामले और पीएमएलए मामले में दिए गए निर्णय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को सीमित और समाप्त करने में राज्य की मदद कर सकते हैं। एफसीआरए पर दिया गया निर्णय अभिव्यक्ति और संघ निर्माण की स्वतंत्रता में कटौती करने वाला है। जबकि जाकिया जाफरी और हिमांशु कुमार के मामले में आए फैसले न्यायालय के हस्तक्षेप द्वारा अपने मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने तथा राज्य के अनुचित आचरण के विरुद्ध न्यायिक समाधान पाने के नागरिक अधिकारों को कमजोर बनाने वाले हैं।
जाकिया जाफरी मामले और हिमांशु कुमार प्रकरण के विषय में न्यायालय का निर्णय संविधान के उस अनुच्छेद 32 पर ही प्रहार करता है जो आंबेडकर को सर्वाधिक प्रिय था और जिसे उन्होंने संविधान के हृदय एवं आत्मा की संज्ञा दी थी जिसके बिना संविधान का महत्व ही समाप्त हो जाएगा।
यह देखना दुःखद है कि तीस्ता सीतलवाड़ और हिमांशु कुमार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय उस राज्य द्वारा याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई का आधार बन रहा है जिसकी कार्यप्रणाली से असंतुष्ट होकर वे न्याय मांगने सर्वोच्च न्यायालय गए थे।
गौतम भाटिया जैसे कानून के अनेक जानकार यह मानते हैं कि स्वतंत्र भारत के न्याय शास्त्र के इतिहास में पहले भी इस प्रकार के अधिसंख्य उदाहरण मिलते हैं जब राज्य विजयी हुआ है और व्यक्ति को पराजय झेलनी पड़ी है। राज्य पर व्यक्ति की विजय अपवादस्वरूप ही रही है। किंतु ऊपर उल्लिखित फैसलों में जो चिंताजनक बात है वह राज्य के जीतने के तरीके में आया बदलाव है। अब न्यायालय राज्य के हितों, उसके दावों और उसके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को तत्काल बिना विचारे यथावत अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करने लगा है किंतु जब आम आदमी की बारी आती है तो उसे प्रथम दृष्टया ही संदिग्ध, मिथ्याभाषी और अनावश्यक विवाद उत्पन्न करने वाला मान लिया जाता है। जब न्यायपालिका आम नागरिक को महत्वहीन और उपेक्षणीय समझने लगेगी तो स्वाभाविक है कि उसके अधिकार भी गैरजरूरी मान लिए जाएंगे।
टेरर फंडिंग के आरोपी जहूर अहमद शाह वटाली के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर अनेक न्यायविद असहमत थे। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय महज उच्च न्यायालय द्वारा दी गई जमानत को रद्द करने तक सीमित नहीं था। वटाली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि वटाली को जमानत देने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा अपनाया गया कानूनी मापदंड ही गलत था। यूएपीए के सेक्शन 43(डी)(5) के मामलों में जमानत की याचिका पर विचार करते समय साक्ष्यों की विस्तृत पड़ताल अथवा छानबीन की कोई आवश्यकता नहीं है। राज्य के अस्वीकार्य कथनों को खारिज करना मामले के गुण दोषों पर विचार करने जैसा है। न्यायालय को पुलिस द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर व्यापक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए जमानत याचिका पर निर्णय लेना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद यूएपीए के मामलों में जमानत मिलना असंभव प्राय हो गया है। जब बचाव पक्ष जमानत पर सुनवाई के दौरान अपने तर्क नहीं रख सकता है, अपने गवाह प्रस्तुत नहीं कर सकता है, न ही अभियोजन पक्ष के पक्ष के गवाहों का प्रति परीक्षण कर सकता है तब उसकी असहायता की कल्पना ही की जा सकती है। यूएपीए का सेक्शन 43(डी)(5) आरोपी को तब जमानत देने से मना करता है जब यह विश्वास करने का पर्याप्त आधार हो कि लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया सत्य हैं। यदि न्यायालय, राज्य द्वारा आरोपी के विरुद्ध लगाए गए आरोपों की गहराई से जांच नहीं करेगा तो उसे यह कैसे ज्ञात होगा कि इनमें सत्यता कितनी है। दशकों चलने वाले यूएपीए के मामलों में जमानत को असंभव बना देने की भयानकता की कल्पना करना कठिन नहीं है।
विधि विशेषज्ञों का मानना है कि पीएमएलए पर सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला भी राज्य को अनुचित रूप से असीमित अधिकार देने वाला है। दंड प्रक्रिया संहिता पुलिस की कार्यप्रणाली पर जो अंकुश लगाती है उससे ईडी को सर्वथा मुक्त कर दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस की एफआईआर के समतुल्य मानी जाने वाली ईसीआईआर की प्रति आरोपी के साथ साझा करने से ईडी को छूट दी है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार ईडी के समन्स का अर्थ गिरफ्तारी नहीं है। आत्म दोषारोपण के विरुद्ध प्राप्त संवैधानिक अधिकार ईडी की पूछताछ पर लागू नहीं होगा क्योंकि ईडी, पुलिस नहीं है। ईडी के सामने की गई स्वीकारोक्तियां साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होंगी यद्यपि पुलिस के मामले में ऐसा नहीं है। शायद न्यायालय यह मानता है कि पुलिस किसी व्यक्ति को झूठी स्वीकारोक्तियाँ करने के लिए मजबूर कर सकती है किंतु ईडी के अधिकारी कोई अनुचित आचरण कर ही नहीं सकते। सर्वोच्च न्यायालय के मतानुसार ईडी मैन्युअल के तहत ईडी जिन प्रक्रियाओं को अपनाता है उन्हें सार्वजनिक करने की कोई बाध्यता नहीं है और यह ईडी के आंतरिक दस्तावेजों के रूप में दर्ज होकर हमेशा गुप्त बनी रहेंगी। सर्वोच्च न्यायालय यह भी कहता है कि पीएमएलए के मामलों में यह व्यक्ति का उत्तरदायित्व रहेगा कि वह स्वयं को निर्दोष सिद्ध करे न कि यह राज्य की जिम्मेदारी रहेगी कि वह व्यक्ति को दोषी सिद्ध करे। पीएमएलए को इतना व्यापक बना दिया गया है कि अनजाने में पीएमएलए के दायरे में आने वाले किसी लेनदेन में अप्रत्यक्ष भागीदारी होने पर भी किसी व्यक्ति को इसके अंतर्गत आरोपी बनाया जा सकता है।
जब हम यह जानते हैं कि पिछले आठ वर्षों में पीएमएलए के तहत ईडी द्वारा दर्ज किए गए मामलों में 8 गुना वृद्धि हुई है और दोष सिद्ध होने की दर एक प्रतिशत से भी कम है तो सर्वोच्च न्यायालय की यह सख्ती और आश्चर्यजनक लगती है।
अंतरराष्ट्रीय संधियों की बाध्यता को आधार बनाकर अपनी सुविधानुसार सत्ता नागरिक अधिकारों में कटौती कर रही है जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के उन उदार अंशों को जो शरणार्थियों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित हैं, रद्दी की टोकरी में डाला जा रहा है। ऐसे समय मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद लगाए आम आदमी की हताशा स्वाभाविक ही है।
जब सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से जुड़े जस्टिस खानविलकर सेवानिवृत्त हुए तब स्वाभाविक था कि उनके इन फैसलों की चर्चा-समीक्षा होती। प्रिंट और सोशल मीडिया में इन पर खूब लिखा गया, अधिकांश आलोचनात्मक टिप्पणियों में इन फैसलों के विवादास्पद अंशों के लिए श्री खानविलकर को व्यक्ति के रूप में अधिक और न्यायाधीश के रूप में कम दोषी ठहराया गया। अनेक आलेखों का यह भाव था कि यदि जस्टिस खानविलकर के स्थान पर कोई और न्यायाधीश होता तो निर्णय कुछ और होता।
इस तरह अनेक गंभीर प्रश्न अचर्चित रह गए। क्या जस्टिस खानविलकर की चिंतन प्रक्रिया और न्यायपालिका की भूमिका के विषय में उनके दृष्टिकोण को व्यक्तिगत कह कर हम सुप्रीम कोर्ट की साझा सोच और कार्यप्रणाली में आए महत्वपूर्ण वैचारिक परिवर्तनों को गौण नहीं बना रहे हैं? यह महत्वपूर्ण मामले अलग अलग मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में श्री खानविलकर को सौंपे गए, क्या इससे यह संकेत नहीं जाता कि राज्य को सशक्त और आम आदमी को कमजोर करने के उनके न्यायिक दर्शन से मोटे तौर पर सर्वोच्च न्यायालय भी सहमत था? सुप्रीम कोर्ट में पिछले कुछ वर्षों में मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार संभालने वाले जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रंजन गोगोई एवं जस्टिस एस ए बोबडे के फैसले, उनकी प्राथमिकताएं एवं कार्यप्रणाली तथा उनसे जुड़े विवाद जिस तरह जनचर्चा का विषय बने क्या वह इस बात का द्योतक नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अब कमिटेड जुडिशरी से भी कुछ आगे बढ़कर राज्य के हितों की रक्षा के लिए प्रोएक्टिव रोल निभाना चाह रहा है? यह तो असंभव है कि न्यायाधीश मानवीय कमजोरियों से सर्वथा मुक्त हों किंतु उनसे यह तो अपेक्षा होती है कि बतौर न्यायाधीश वे अपनी इन कमजोरियों को कर्त्तव्य पालन के मार्ग में बाधक न बनने दें। क्या हमारे न्यायाधीश इस अपेक्षा पर खरे उतर पाए हैं?
क्या अब ऐसे न्यायाधीशों का युग समाप्त होता जा रहा है जो निर्णय लेते समय अपनी विचारधारा और सोच को इसलिए दरकिनार कर देते थे क्योंकि वह संविधान और कानून से संगत नहीं होती थी? क्या यह ऐसे न्यायाधीशों का जमाना है जो निर्णय पहले ले लेते हैं और बाद में उसे न्यायोचित सिद्ध करने के लिए संवैधानिक और कानूनी विधियां तलाशते हैं? दूसरे शब्दों में क्या संविधान के अनुकूल निर्णय देने के स्थान पर अपने निर्णय को संविधान सम्मत सिद्ध करने का चलन बढ़ा है? क्या नए भारत में राज्य की इच्छा ही न्याय है और न्यायाधीशों की भूमिका राज्य की इच्छा को कानूनी जामा पहनाने तक सीमित होती जा रही है?
वर्तमान सरकार और आदरणीय प्रधानमंत्री जी बार बार यह कहते रहे हैं कि अधिकारों की बात बहुत हुई, कर्त्तव्य पालन आज के समय की मांग है। किंतु क्या सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों और इच्छा का पालन करना ही - भले ही वह कितनी ही अनुचित और प्रतिगामी क्यों न हों - क्या सर्वोच्च नागरिक कर्त्तव्य है? क्या सर्वोच्च न्यायालय सरकार की इस मान्यता से सहमत है कि नागरिक अधिकारों की मांग करना सरकार की कार्यप्रणाली में रोड़े अटकाना है और नागरिक अधिकारों के दमन से ही विकास प्रक्रिया को अपेक्षित त्वरा प्रदान की जा सकती है?
कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष ने पीएमलए के प्रावधानों को संविधान सम्मत ठहराने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को खतरनाक बताया है। लेकिन यह भी सच है कि हर राजनीतिक दल इस तरह के नागरिक अधिकार विरोधी दमनकारी कानूनों के निर्माण में योगदान देता रहा है और अपने शासन काल में इनके दुरुपयोग द्वारा विरोधियों का दमन करता रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही विधि विशेषज्ञ भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे हैं, यह परिपाटी स्वतंत्र भारत में भी जारी रही है। किंतु अपने दल की सत्ता होने पर इन दमनकारी कानूनों पर यह विधि विशेषज्ञ एक वफादार पार्टी कार्यकर्ता की भांति मौन साध लेते हैं या इनका बचाव करने की चेष्टा करते हैं। यही कारण है कि अब इनके द्वारा की जा रही सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना के पीछे नैतिक बल नहीं दिखाई देता।
वर्तमान सरकार जिस प्रकार लोकतांत्रिक परंपराओं और संविधान की अनदेखी कर रही है उस परिस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। हमारी सर्वोच्च अदालत के इतिहास में अनेक गौरवपूर्ण क्षण आए हैं और बहुत बार सर्वोच्च न्यायालय संविधान और लोकतंत्र की गरिमा की रक्षा का माध्यम बना है। आशा की जानी चाहिए कि इस बार भी न्यायपालिका के भीतर से ही कोई सकारात्मक पहल सामने आएगी भले ही वह मौजूदा दौर से असहमति और विरोध के रूप में ही क्यों न हो।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश के कुल मुसलमानों में पसमांदा मुसलमानों की संख्या लगभग 90 प्रतिशत है। पसमांदा का मतलब है- पिछड़े हुए! इन पिछड़े हुए मुसलमानों में वे सब शामिल हैं, जो कभी हिंदू थे लेकिन उनमें भी पिछड़े, अछूत, अनुसूचित और निम्न समझी जाने वाली जातियों के थे। इस्लाम तो जातिवाद और ऊँच-नीच के भेद को नहीं मानता है लेकिन हमारे मुसलमानों में ही नहीं, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुसलमानों में भी जातिवाद जस-का-तस कायम है, जैसा कि वह हिंदुस्तान में फैला हुआ है।
पाकिस्तान के जाट, गूजर, अहीर, कायस्थ, खत्री, पठान और यहां तक कि अपने आप को ब्राह्मण कहने वाले मुसलमानों से भी मेरा मिलना हुआ है। अफगानिस्तान में पठान, ताजिक, उजबेक, किरगीज, खत्री और मू-ए-सुर्ख मुसलमानों से भी मेरा कई बार साबका पड़ा है। इन मुस्लिम देशों में हिंदू-जातिवाद मौजूद है लेकिन वह वहां दबा-छिपा रहता है। भारत में तो जातिवाद का इतना जबर्दस्त बोलबाला है कि भारत के ‘अशराफ’ और ‘अजलाफ’ मुसलमान ‘अरजाल’ मुसलमानों से हमेशा कोई न कोई फासला बनाए रखते हैं।
पहले दो वर्गों में आने वाले लोग अपने आप को तुर्कों, मुगलों और पठानों का वंशज समझते हैं और अजलाफ लोग वे हैं, जो ब्राह्मण और राजपूतों से मुसलमान बन गए हैं। भारत के मालदार, उच्च पदस्थ और शिक्षित मुसलमानों में अरजाल मुसलमानों की संख्या लगभग नगण्य है। उनमें ज्यादातर खेती, मजदूरी, साफ-सफाई और छोटी-मोटी नौकरियां करने वाले गरीब लोग ही होते हैं। इन्हीं मुसलमानों को न्याय दिलाने के लिए तीन-चार पसमांदा नेताओं ने इधर कुछ पहल की है।
उनमें से एक नेता अली अनवर अंसारी ने एक बड़ा सुंदर नारा दिया है, जो मेरे विचारों से बहुत मेल खाता है। वे कहते हैं: दलित-पिछड़ा एक समान। हिंदू हों या मुसलमान! मैं तो इसमें सभी भारतवासियों को जोड़ता हूँ, वे चाहे किसी भी धर्म या जाति के हों। जाति और धर्म किसी का न देखा जाए, सिर्फ उसका हाल कैसा है, यह जाना जाए। हर बदहाल का उद्धार करना भारत सरकार का धर्म होना चाहिए। इसीलिए मैं जातीय और मजहबी आरक्षण को अनुचित मानता हूं।
आरक्षण जन्म से नहीं, जरूरत से होना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पसमांदा मुसलमानों के साथ न्याय की आवाज उठाई है। मेरे ही सुझाव पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिवंगत प्रमुख श्री कुप्प सी. सुदर्शन ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की स्थापना की थी।
यदि हम जाति और मजहब को सामाजिक और आर्थिक न्याय का आधार बनाएंगे तो देश में हम जातिवाद और सांप्रदायिकता का जहर फैला देंगे। ऐसा करके हम अगली सदी में भारत के कई टुकड़े करने का आधार तैयार कर देंगे। हमें ऐसा भारत बनाना है, जिसके महासंघ में भारत के पड़ौसी हिंदू, सुन्नी, मुस्लिम, बौद्ध और शिया देश में शामिल होने की आकांक्षा रखें। (नया इंडिया की अनुमति से)
Sainik Chaubey
1. The guy is important if the camera pans to his black leather shoe before the face is revealed.
2. Movie ghosts have amazing powers but they tend to play defensively at the start of the innings by using harmless strokes like ‘खिड़की/दरवाज़ा बंद करना’, छोटी मोटी क्रॉकरी तोड़ना, ‘आईने में दिखना फिर छुप के troll करना’ इत्यादि. They move on to the really dangerous powers like murdering and आत्मा transplants at the end of the innings, which is usually too late.
3. When a person is declared dead but his dead body isn’t shown, मैं मानता ही नहीं। खाई से गिर के, समुद्र में डूबने से, भयानक आग में फँसने भर से थोड़ी मरते हैं।
4. If a sport is being shown in the movie, it has to go on till the last ball, last minute, 100%. It is never like the 2003 World Cup Final (I still have PTSD).
5. Clearly, villains do not recruit their गुर्गेs on the basis of shooting skills. It doesn’t matter if they use burst fire or sniper, they will miss the protagonist all the time.
6. सारे Mr. Singhanias और Mr. Oberois अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलते हैं.
7. Blood banks in movies are useless, they are always out of stock. After all, जो मज़ा तेज बारिश में खून ढूँढने जाने में है वो normally लेने में कहाँ है।
8. Movie courts don’t work according to CPC, CrPC or any other law. Decisions are purely based on circumstantial evidences followed by emotional speeches.
9. Have you ever seen a movie जिसमें realistic शादी दिखाई है? I mean, we see are shown one big dance, followed by फेरा, वरमाला or both. मुझे देखनी है वो stage में चढ़ने वाली लम्बी लाइन, वो awkward फ़ोटोग्राफ़, एक लिफ़ाफ़ा पद्यति और गुलाबजामुन और पनीर का mixed random taste.
10. Who was that fake foreigner guy who came to sell guns and grenades to every villain? He could never get ease in doing business.
11. Wonder who came up with that ठोकियोकी sound for the revolver?
12. In Airport climax scenes, CISF people are shown in very bad light. To address this, an amendment needs to be made in the law. Like a provisio (परंतुक) - not withstanding the above, acts which endanger the security of the airport and (or) delay flights deliberately, shall still be ignored if done for the purpose of stopping your romantic interest or for any other purpose as may be prescribed by Directors from time to time.
13. Has anyone ever encashed these so called blank cheques the heroine’s father hands out. By the way, हर चेक भी एक लिमिट तो लिखी ही होती है so I guess its just a troll.
14. I really don’t think the police says क़ानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं or you are under arrest to every person they nab.
15. Whats up with rich people waking up to ‘Orange Juice’?
-अरुण कान्त शुक्ला
हिरोशिमा दिवस 2022 हत्याओं की 77वीं वर्षगांठ है। पूरे विश्व में हर साल 6 अगस्त को परमाणु बम के भयावह प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने और शांति की राजनीति को बढ़ावा देने के लिए हिरोशिमा दिवस मनाया जाता है। इस दिन 1945 में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक जापानी शहर हिरोशिमा पर एक परमाणु बम गिराया था। परमाणु विस्फोट बड़े पैमाने पर हुआ और शहर के 90 प्रतिशत हिस्से को नष्ट कर दिया और हजारों लोग मारे गए। इसने लगभग 20,000 सैनिकों और 90,000 से 125,000 नागरिकों को मार डाला। तीन दिन बाद, 9 अगस्त 1945 को जापान के एक और शहर, नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराया गया, जिसमें 80,000 से अधिक लोग लोग मारे गए। हिरोशिमा दिवस को हम उन हत्याओं की वर्षगांठ भी कह सकते हैं, जो विश्व युद्ध के लगभग समाप्त होने की कगार पर परमाणु बमों के द्वारा की गईं। आज परमाणु बमों का इतना जखीरा दुनिया के बड़े और शक्तिशाली से लेकर विकासशील देशों के पास जमा है कि विश्व के प्रत्येक शांतिकामी नागरिक को ये व्याकुलता स्वाभाविक रूप से होती है कि कहीं किसी भी देश का सत्तानशीं चाहे वह लोकतांत्रिक देश का हो अथवा अधिनायकवादी देश का सनक में आकर मानवता पर फिर वही वहशी अत्याचार को न कर बैठे, जो द्वितीय विश्वयुद्ध की लगभग समाप्ति पर अमेरिका के 33वें राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमेन ने किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के देशों के बीच अनगिनत युद्ध हो चुके हैं और शांतिकामी लोगों के मध्य परमाणु बम के इस्तेमाल को लेकर होने वाली व्याकुलता कभी कम नहीं रही।
अभी शायद हम बड़े देशों के बीच बढ़ती हुई अदावत और तनाव के मामले में सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि रूस और युक्रेन के मध्य चल रहे युद्ध में युक्रेन एक छद्म है और वास्तविक संघर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के बीच है। सबसे ज्यादा त्रासदायी बात यह है कि पांच महीने से अधिक के अत्यधिक विनाशकारी युद्ध के बाद भी कोई दिलासा देने वाली शांति प्रक्रिया किसी भी देश के द्वारा शुरू नहीं की गयी है और यह हो भी कैसे जब दो विश्व महा शक्ति युद्ध पर ही आमादा हों तो शान्ति की पहल होगी ही कैसे? रही सही कसर हाल के घटना विकास ने पूरा कर दिया है। ऐसा लग रहा है मानो संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच अब ताइवान मोहरा बन रहा है। अभी की परिस्थिति में शामिल तीनों देश परमाणु संपन्न हैं| आज परमाणु संपन्न देशों के पास 13000 से अधिक न्यूक्लियर हथियार हैं और इनमें से अधिकांश की मारक क्षमता हिरोशिमा या नागासाकी पर गिराए गए बमों से कई गुना अधिक है।
जापान हमारे सामने परमाणु बम के विनाश के उदाहरण के रूप में मौजूद है, जहाँ न केवल दो लाख से अधिक लोग फौरी तौर पर मारे गए बल्कि उसके बाद वर्षों तक जलने-झुलसने और विकिरण के फलस्वरूप हजारों की संख्या में लोगों की मौत हुई।यहाँ तक कि उसके बाद के लगभग चार दशकों तक पैदा हुए बच्चे भी परमाणु विकिरण के शिकार रहे।आज जब फ़ैटमैन और लिटिल ब्वॉय, उन परमाणु बमों के नाम जो नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए थे, से ज्यादा शक्तिशाली न्यूक्लियर हथियार परमाणु संपन्न देशों के पास हैं, हम कल्पना कर सकते हैं कि लाखों लोगों को तुरंत मारने के अलावा, परमाणु हथियारों के युद्ध से अभूतपूर्व पर्यावरणीय तबाही भी हो सकती है जो जापान में मारे गए लोगों से भी बड़ी संख्या में लोगों को मार सकती है। इतना ही नहीं इसका विनाशकारी परिणाम जीव जगत के अन्य जीवन-रूपों को भी भोगना पड़ेगा और प्रकृति का विनाश होगा। आज परमाणु हथियारों का प्रयोग अकेले दो देशों के बीच का मामला हो ही नहीं सकता है, इसके दुष्परिणाम बिना किसी विवाद में शामिल हुए पड़ोसी देशों के लोगों को भी भुगतने होंगे।
यह कोरा मुगालता ही है कि सामरिक परमाणु हथियारों के रूप में परमाणु हथियारों की कम विनाशकारी भूमिका हो सकती है। यह किसी युद्धोन्मादी का ही दृष्टिकोण हो सकता है। यदि युद्धरत देशों के पास परमाणु हथियार हैं तो सामरिक हथियारों से शुरू हुआ परमाणु युद्ध आसानी से कभी भी एक पूर्ण परमाणु युद्ध में बदल सकता है। फिर, परमाणु हथियार सामरिक हों तो भी उनका उपयोग बहुत विनाशकारी हो सकता है, यहां तक कि उपयोग करने वाले देश के लिए भी उनका उपयोग विनाशकारी ही होगा!
इसके अलावा, जैसा कि न्यूक्लियर हथियारों के बारे में आम धारणा है कि इनके इस्तेमाल का अधिकार केवल राष्ट्र प्रमुखों के पास ही होता है| पर, यही बात छोटे स्तर के सामरिक न्यूक्लियर हथियारों के बारे में नहीं कही जा सकती| क्योंकि, जब सामरिक परमाणु हथियारों को उपयोग के लिए तैयार करना होता है तो उनके नियंत्रण के अधिकार का अनेक लोगों के पास पहुंचना साधारण सी बात ही होगी। इससे यह संभावना बढ़ जाती है कि कट्टर या कट्टरपंथी झुकाव या आतंकवाद फैलाने वाले व्यक्ति या समूह भी इसके नियंत्रण तक पहुँच हासिल कर सकते हैं या उन हथियारों को ही हासिल कर सकते हैं।
इसलिए इस भ्रम में रहना एकदम गलत है कि छोटे स्तर के सामरिक न्यूक्लियर हथियार परमाणु हथियारों का कोई सुरक्षित विकल्प प्रदान करते हैं। क्योंकि, ऐसा भ्रम लाखों-करोड़ों लोगों के लिए अत्यंत विनाशकारी हो सकता है।
हमारी प्यारी धरती, उस पर बसे जीवन और उस पर्यावरण तथा प्रकृति के लिए सबसे अच्छी बात यही है कि परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कभी नहीं होना चाहिए। वास्तव में, परमाणु हथियारों का उपयोग तो विनाशकारी है ही, परमाणु हथियारों से संबंधित दुर्घटनाएं भी बहुत विनाशकारी हो सकती हैं। इसलिए यदि हम पृथ्वी पर जीवन की परवाह करते हैं तो अंततः एकमात्र सुरक्षित विकल्प यही है कि हम सभी परमाणु हथियारों और सामूहिक विनाश के सभी हथियारों को हमेशा के लिए छोड़ दें।
दुर्भाग्यवश, एक समय शुरू हुआ निशस्त्रीकरण अभियान अपने उद्देश्य में सफल तो नहीं ही हो पाया, अब उस तरफ प्रयास भी बंद हो गए हैं। बड़े देश जो शस्त्रों के निर्माता हैं, वे न केवल अपने देशों के हथियार निर्माताओं के माफियाओं के चंगुल में फंसे हैं, उनकी अर्थव्यवस्था बहुत कुछ अपने से छोटे देशों को हथियारों को बेचने और उनके बीच के युद्ध पर ही टिकी है। हिरोशिमा दिवस हमें प्रेरित करता है कि हम इस विषय पर ईमानदारी से विचार करें, हम किसी भी पक्ष के हों, हमारा एकमात्र ईमानदार निष्कर्ष यही होना चाहिए कि यदि पृथ्वी पर जीवन को बचाना है तो हमें परमाणु हथियारों से दूर रहना ही होगा, उन्हें नष्ट करना ही होगा और इसके लिए विश्व की शांतिकामी जमात को एक स्वर में आवाज उठानी ही होगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका के प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ और मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह ने भारत के प्रति जिन शब्दों में आभार व्यक्त किया है, वैसे कर्णप्रिय शब्द किसी पड़ौसी देश के नेता शायद ही कभी बोलते हैं। क्या ही अच्छा हो कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नेपाल के शीर्ष नेता भी भारत के लिए वैसे ही शब्दों का प्रयोग करें। यह बात मैंने एक भाषण में कही तो कुछ श्रोताओं ने मुझसे पूछा कि क्या पाकिस्तान भी कभी भारत के लिए इतने आदरपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है?
श्रीलंका और मालदीव, ये दोनों हमारे पड़ौसी देश भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। ऐसे में भारत ने इन दोनों देशों को अनाजों, दवाइयों और डॉलरों से पाट दिया है। ये दोनों देश भारत की मदद के बिना अराजकता के दौर में प्रवेश करने वाले ही थे। श्रीलंका के राष्ट्रपति ने अपनी संसद को दिए पहले संबोधन में भारत का नाम लेकर कहा कि भारत ने श्रीलंका को जीवन-दान किया है। भारत ने श्रीलंका को 4 बिलियन डालर तथा अन्य कही सहूलियतें इधर दी हैं जबकि चीन ने भारत के मुकाबले आधी मदद भी नहीं की है और वह श्रीलंका को अपना सामरिक अड्डा बनाने पर तुला हुआ है।
इसी तरह पिछले कुछ वर्षों में मालदीव के कुछ नेताओं को अपना बगलबच्चा बनाकर चीन ने उसके सामने कई चूसनियां लटका दी थीं लेकिन इसी हफ्ते मालदीव के राष्ट्रपति सोलेह की भारत-यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच छह समझौतों पर दस्तखत हुए। सोलिह ने कोरोना-काल में भारत द्वारा भेजी गई दवाइयों के लिए भारत के प्रति आभार व्यक्त किया। उन्होंने हिंद महासागर क्षेत्र में आतंकवाद और राष्ट्रों के उस पार से होने वाले अपराधों के विरुद्ध भारत के साथ खुला सहयोग करने की बात कही है। बिना बोले ही उन्होंने सब कुछ कह दिया है।
भारत की मदद से सैकड़ों करोड़ रु. के कई निर्माण-कार्यों की योजना भी बनी है। भारत ने मालदीव को अनेक सामरिक संसाधन भी भेंट किए हैं। अब प्रश्न यही है कि क्या भारत ऐसे ही लाभदायक काम पाकिस्तान के लिए भी कर सकता है? किसी से भी आप यह प्रश्न पूछें तो उसका प्रश्न यही होगा कि आपका दिमाग तो ठीक है? पाकिस्तान का बस चले तो वह भारत का ही समूल नाश कर दे।
यह बात मोटे तौर पर ठीक लगती है लेकिन अभी-अभी अल-कायदा के सरगना जवाहिरी के खात्मे में पाकिस्तान का जो सक्रिय सहयोग रहा और उसामा बिन लादेन के बारे में भी उसकी नीति यही रही, इससे क्या सिद्ध होता है? यही कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी! जब आसिफ जरदारी राष्ट्रपति थे तो मैंने फोन करके पूछा कि आपके भयंकर आर्थिक संकट में क्या हम आपको कुछ मदद दें तो आप स्वीकार कर लेंगे? उससे आपकी सीट को खतरा तो नहीं हो जाएगा?
उनकी तरफ से हर्ष और आश्चर्य दोनों व्यक्त किए गए लेकिन हमारे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंहजी की हिम्मत नहीं पड़ी। यदि नरेंद्र मोदी इस समय शाहबाज शरीफ को वैसा ही इशारा करके देखें तो शायद कोई चमत्कार हो जाए। भारत-पाक संबंधों में अपूर्व सुधार के द्वार खुल सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-Ninad Vengurlekar
Aamir’s boycott is laughable.
PK was made by a Hindu called Raju Hirani, written by a Hindu called Abhijat Joshi and produced by a Hindu called Vinod Chopra. The other star cast included Anushka Sharma who is a Hindu, Sanjay Dutt, a Hindu, and Sushant Singh Rajput, also a Hindu. All these people jointly heard the script and decided to participate in the making of PK. Yet, the target of Hindu nationalists and their supporters is Aamir Khan. Why? Because he is a Muslim.
If the metrics of Hindu nationalists have to be applied, then Canadian national Akshay Kumar and Paresh Rawal had acted in an even more “regressive” film called O My God, which was based on Hindu religious malpractices. But they are not Muslims, so it is okay.
Aamir has quoted his wife, a Hindu, saying that she feels insecure in India. He later added that he convinced her that India is not intolerant. Yet, the Hindu nationalists did not target Kiran Rao. They abused Aamir Khan because he is a Muslim.
There is a section of Hindu in this country who will use his majority status to demean a national icon just because he belongs to a minority religion. It doesn’t matter that Aamir played Bhuvan, a Hindu, in Lagaan, which was nominated at the Oscars. It doesn’t matter that Aamir produced and acted in Dangal, a story that celebrated the life of a Hindu wrestler called Mahavir Singh Phogat. In Sarfarosh, he was Ajay Rathod, in Ghulam he was Siddharth Marathe, in Dil Hai Ke Manta Nahi he was Raghu Jetley, in Dil Chahta Hai he was Akash Malhotra, in Taare Zameen Par he was Ram Shankar Nikumbh, in QSQT he was Raj and in Jo Jeeta Wohi Sikandar he was Sanjay Sharma.
In his entire life, Aamir has played Hindu characters embedded in Hindu culture and got glory to Bollywood across the world, including Oscars. When he played a rare Muslim character called Rehan Qadri in Fanaa, he played an Islamic terrorist who is killed by his Muslim wife.
But the Hindu nationalists want to focus on PK because it is convenient to abuse him as a Muslim. This is the smallness of this community that bugs me to no end. I refuse to identify with such losers. It is a shame that they belong to the same religious community I was born in.
I will watch Lal Singh Chaddha.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी कांग्रेस (निम्न सदन) की अध्यक्षा नैन्सी पेलोसी की ताइवान-यात्रा पर सारी दुनिया का ध्यान केंद्रित हो गया था। न तो ताइवान कोई महाशक्ति है और न ही पेलोसी अमेरिका की राष्ट्रपति है। फिर भी उनकी यात्रा को लेकर इतना शोर-शराबा क्यों मच गया? इसीलिए कि दुनिया को यह डर लग रहा था कि ताइवान कहीं दूसरा यूक्रेन न बन जाए। वहां तो झगड़ा रूस और यूक्रेन के बीच हुआ है लेकिन यहाँ तो एक तरफ चीन है और दूसरी तरफ अमेरिका!
यदि ताइवान को लेकर ये दोनों महाशक्तियाँ भिड़ जातीं तो तीसरे विश्व-युद्ध का खतरा पैदा हो सकता था लेकिन संतोष का विषय है कि पेलोसी ने शांतिपूर्वक अपनी ताइवान-यात्रा संपन्न कर ली है। चीन मानता है कि ताइवान कोई अलग राष्ट्र नहीं है बल्कि वह चीन का अभिन्न अंग है। यदि अमेरिका चीन की अनुमति के बिना ताइवान में अपने किसी बड़े नेता को भेजता है तो यह चीनी संप्रभुता का उल्लंघन है। अमेरिकी नेता नैन्सी पेलोसी की हैसियत राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के बाद तीसरे स्थान पर मानी जाती है।
यों तो कई अमेरिकी सीनेटर और कांग्रेसमेन ताइवान जाते रहे हैं लेकिन पेलोसी के वहां जाने का अर्थ कुछ दूसरा ही है। चीन मानता है कि यह चीन को अमेरिकी की खुली चुनौती है। चीनियों ने दो-टूक शब्दों में धमकी दी थी कि यदि नैन्सी की ताइवान यात्रा हुई तो चीन उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई किए बिना नहीं रहेगा। चीन ने ताइवान के चारों तरफ कई लड़ाकू जहाज और जलपोत डटा दिए थे और अमेरिका ने भी अपने हमलावर जहाज, प्रक्षेपास्त्र और जलपोत आदि भी तैनात कर दिए थे।
डर यह लग रहा था कि यदि गल्ती से एक भी हथियार का इस्तेमाल किसी तरफ से हो गया तो भयंकर विनाश-लीला छिड़ सकती है। चीन इस यात्रा के कारण इतना क्रोधित हो गया था कि उसने ताइवान जानेवाली हर चीज़ पर प्रतिबंध लगा दिया था। ताइवान भी इतना डर गया था कि उसने अपने सवा दो करोड़ लोगों को बमबारी से बचाने के लिए सुरक्षा का इंतजाम कर लिया था। पेलोसी 24 घंटे ताइवान में बिताकर अब दक्षिण कोरिया रवाना हो गई हैं।
वे ताइवानी नेताओं से खुलकर मिली हैं और अमेरिका चीन के खिलाफ बराबर खम ठोक रहा है। जो बाइडन की सरकार के लिए पेलोसी की ताइवान-यात्रा और अल-क़ायदा के सरगना अल-जवाहिरी का उन्मूलन विशेष उपलब्धि बन गई है। चीन ने जवाहिरी की हत्या पर भी अमेरिका की आलोचना की है। चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते हुए तनाव के कारण चीन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बने चार देशों के चौगुटे की भी खुलकर निंदा की थी।
पेलोसी की इस ताइवान-यात्रा ने सिद्ध कर दिया है कि चीन कोरी गीदड़ भभकियाँ देने का उस्ताद है। इस मामले के कारण चीन का बड़बोलापन बदनाम हुए बिना नहीं रहेगा। पेलोसी की इस यात्रा ने अमेरिका की छवि चमका दी है और चीन की छवि को धूमिल कर दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ध्रुव गुप्त
अपने सार्वजनिक जीवन में बेहद चंचल, खिलंदड़े , शरारती और निजी जीवन में बहुत उदास और खंडित किशोर कुमार रूपहले परदे के सबसे अलबेले, रहस्यमय और विवादास्पद व्यक्तित्वों में एक रहे हैं। बात अगर अभिनय की हो तो अपने समकालीन दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, अशोक कुमार, बलराज साहनी जैसे अभिनेताओं की तुलना में वे कहीं नहीं ठहरते, लेकिन वे ऐसे अदाकार ज़रूर थे जिनके पास अपने समकालीन अभिनेताओं के बरक्स मानवीय भावनाओं और विडंबनाओं को अभिव्यक्त करने का एक अलग अंदाज़ था। एक ऐसा नायक जिसने नायकत्व की स्थापित परिभाषाओं को बार-बार तोडा। ऐसा विदूषक जो जीवन की त्रासद से त्रासद परिस्थितियों को एक मासूम बच्चे की निगाह से देख सकता था। हाफ टिकट, चलती का नाम गाड़ी, रंगोली,मनमौजी, दूर गगन की छांव में, झुमरू, दूर का राही, पड़ोसन जैसी फिल्मों में उन्होंने अभिनय के नए अंदाज़, नए मुहाबरों से हमें परिचित कराया।
अभिनय से भी ज्यादा स्वीकार्यता उन्हें उनके गायन से मिली। उनकी आवाज़ में शरारत भी थी, शोख़ी भी, चुलबुलापन भी, संज़ीदगी भी, उदासीनता भी और बेपनाह दर्द भी। मोहम्मद रफ़ी के बाद वे अकेले गायक थे जिनकी विविधता सुनने वालों को हैरत में डाल देती है। 'मैं हूं झूम-झूम-झूम-झूम झुमरू' का उल्लास, 'ओ मेरी प्यारी बिंदु' की शोख़ी, ये दिल न होता बेचारा' की शरारत, 'ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना' की मस्ती, 'ये रातें ये मौसम नदी का किनारा' का रूमान ,'चिंगारी कोई भड़के' का वीतराग, 'सवेरा का सूरज तुम्हारे लिए है' की संजीदगी, 'घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं' की निराशा, 'छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं' की उम्मीद, 'कोई हमदम न रहा' की पीड़ा, 'मेरे महबूब क़यामत होगी' की हताशा, 'दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना' का वैराग्य - भावनाओं की तमाम मनःस्थितियां एक ही गले में समाहित ! यह सचमुच अद्भुत था। उनके गाए सैकड़ों गीत हमारी फिल्म संगीत विरासत का अनमोल हिस्सा हैं और बने रहेंगे।
जन्मदिन (4 अगस्त) पर किशोर दा को श्रद्धांजलि !
-डेविड ब्राउन
चीन और अमेरिका के बीच अमेरिकी कांग्रेस की स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा को लेकर तनाव पैदा हो गया है।
पिछले 25 सालों में ये अमेरिका के किसी उच्चस्तरीय राजनेता की ये पहली ताइवान यात्रा है।
चीन ने पेलोसी की ताइवान यात्रा को ‘बहुत खतरनाक’ बताया है।
चीन के उप-विदेश मंत्री शी फ़ेंग ने इसे विद्वेषपूर्ण बताते हुए गंभीर परिणाम की चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि चीन हाथ-पर-हाथ धरे नहीं बैठा रहेगा।
वहीं अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा विभाग के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा है नैंसी पेलोसी की यात्रा चीन की वन-चाइना पॉलिसी के अनुरूप है और इसे एक संकट में बदलने की कोई जरूरत नहीं है।
ताइवान को लेकर विवाद क्यों?
चीन ताइवान को अपने से अलग हुआ एक प्रांत मानता है और उसे लगता है कि अंतत: वो चीन के नियंत्रण में आ जाएगा।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग कह चुके हैं कि ताइवान का ‘एकीकरण’ पूरा होकर रहेगा। उन्होंने इसे हासिल करने के लिए ताकत के इस्तेमाल को भी खारिज नहीं किया है।
मगर ताइवान खुद को एक स्वतंत्र देश मानता है जिसका अपना संविधान और अपने चुने हुए नेताओं की सरकार है।
ताइवान क्यों अहम है?
ताइवान एक द्वीप है जो चीन के दक्षिण-पूर्वी तट से लगभग 100 मील दूर है।
चीन मानता है कि ताइवान उसका एक प्रांत है, जो अंतत: एक दिन फिर से चीन का हिस्सा बन जाएगा।
दूसरी ओर, ताइवान खुद को एक आजाद मुल्क मानता है। उसका अपना संविधान है और वहां लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार का शासन है।
ये ‘फस्र्ट आइलैंड चेन’ या ‘पहली द्वीप शृंखला’ नाम से कहे जाने वाले उन टापुओं में गिना जाता है जिसमें अमेरिका के करीबी ऐसे क्षेत्र शामिल हैं जो अमेरिकी विदेश नीति के लिए अहम माने जाते हैं।
अमेरिका की विदेश नीति के लिहाज से ये सभी द्वीप काफी अहम हैं।
चीन यदि ताइवान पर कब्जा कर लेता है तो पश्चिम के कई जानकारों की राय में, वो पश्चिमी प्रशांत महासागर में अपना दबदबा दिखाने को आजाद हो जाएगा। उसके बाद गुआम और हवाई द्वीपों पर मौजूद अमेरिकी सैन्य ठिकाने को भी खतरा हो सकता है। हालांकि चीन का दावा है कि उसके इरादे पूरी तरह से शांतिपूर्ण हैं।
चीन से अलग क्यों हुआ ताइवान?
दोनों के बीच अलगाव करीब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुआ। उस समय चीन की मुख्य भूमि में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का वहां की सत्ताधारी नेशनलिस्ट पार्टी (कुओमिंतांग) के साथ लड़ाई चल रही थी।
1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी जीत गई और राजधानी बीजिंग पर कब्जा कर लिया। उसके बाद, कुओमिंतांग के लोग मुख्य भूमि से भागकर दक्षिणी-पश्चिमी द्वीप ताइवान चले गए। उसके बाद से अब तक कुओमिंतांग ताइवान की सबसे अहम पार्टी बनी हुई है। ताइवान के इतिहास में ज़्यादातर समय तक कुओमिंतांग पार्टी का ही शासन रहा है। फिलहाल दुनिया के केवल 13 देश ताइवान को एक अलग और संप्रभु देश मानते हैं।
चीन का दूसरे देशों पर ताइवान को मान्यता न देने के लिए काफी कूटनीतिक दबाव रहता है।
चीन की ये भी कोशिश होती है कि दूसरे देश कुछ ऐसा न करे जिससे ताइवान को पहचान मिलती दिखे। ताइवान के रक्षामंत्री ने कहा है कि चीन के साथ उसके संबंध पिछले 40 सालों में सबसे खऱाब दौर से गुजर रहे हैं।
ताइवान क्या अपनी रक्षा खुद कर सकता है?
चीन सैन्य तरीकों से इतर कदम उठाकर भी ताइवान का फिर से एकीकरण कर सकता है। ऐसा दोनों देशों के आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाकर हो सकता है। लेकिन दोनों देशों में यदि लड़ाई हुई तो ताइवान की सैन्य ताकत चीन के सामने बौनी साबित होगी।
चीन का अपनी सेना पर सालाना खर्च दुनिया में अमेरिका को छोडक़र सबसे ज़्यादा है। उसकी सैन्य ताकत काफी विविध और विशाल है। चाहे मिसाइल टेक्नोलॉजी को देखें या नौसेना या वायुसेना को। साइबर हमले करने में भी चीन का मुकाबला करना कुछ ही देश के बूते की बात है।
सैन्य ताकत में चीन का कोई मुकाबला नहीं
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रेटेजिक स्टडीज (आईआईएसएस) के मुताबिक, चीन के पास हर तरह के सैनिकों को मिला लें तो वहां 20.35 लाख सक्रिय सैनिक हैं।
वहीं, ताइवान में केवल 1.63 लाख सक्रिय सैनिक हैं। इस तरह चीन की ताकत इस मामले में ताइवान से करीब 12 गुना ज्यादा हुई। बात यदि थल सेना की करें तो चीन में 9.65 लाख थल सैनिक हैं, जबकि ताइवान में 11 गुना कम केवल 88 हजार। वहीं नौसेना में चीन के पास 2.60 लाख कार्मिक हैं और ताइवान में केवल 40 हजार।
चीन की वायुसेना में करीब चार लाख लोग हैं, लेकिन ताइवान में केवल 35 हजार कार्मिक हैं। इन सबके अलावा, चीन के पास और 4.15 लाख दूसरे सैनिक हैं। वहीं ताइवान के साथ ऐसा नहीं है।
पश्चिम के कई जानकारों का अनुमान है कि दोनों देशो के बीच यदि आमने सामने की भिड़ंत हुई तो ताइवान बहुत कोशिश करके चीन के हमले को थोड़ा धीमा कर सकता है। उसे अमेरिका से मदद मिल सकती है, जो ताइवान को हथियार बेचता है। हालांकि अमेरिका की औपचारिक नीति ‘कूटनीतिक अस्पष्टता’ की रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिका जानबूझकर अपनी नीति को साफ नहीं करता कि हमले की सूरत में क्या और कैसे वो ताइवान की मदद करेगा। कूटनीतिक तौर पर चीन फिलहाल ‘एक चीन की नीति’ का समर्थन करता है। इसका मतलब ये हुआ कि अमेरिका की आधिकारिक लाइन है कि बीजिंग सरकार ही असली चीन की प्रतिनिधि है। उसका औपचारिक संबंध ताइवान की बजाय चीन के साथ है।
क्या हालात खऱाब होते जा रहे हैं?
2021 में, चीन ने ताइवान के वायु रक्षा क्षेत्र में अपने लड़ाकू विमान भेजकर उस पर दबाव बनाता हुआ दिखा। किसी देश का वायु रक्षा क्षेत्र, वो इलाका होता है, जहां देश की रक्षा के लिए विदेशी विमानों को पहचानकर, उन पर निगरानी और नियंत्रण रखा जाता है। ताइवान ने 2020 में विमानों की घुसपैठ के आंकड़े सार्वजनिक किए। वैसे इस तरह की घुसपैठ में तेजी पिछले साल के अक्टूबर में आई। अक्टूबर 2021 में एक ही दिन में चीन के 56 विमानों को ताइवानी इलाके में दाखिल होने की सूचना मिली।
दुनिया के लिए ताइवान अहम क्यों?
ताइवान की अर्थव्यवस्था दुनिया के लिए काफी मायने रखती है। दुनिया के रोजाना इस्तेमाल के इलेक्ट्रॉनिक गैजेटों जैसे फोन, लैपटॉप, घडिय़ों और गेमिंग उपकरणों में जो चिप लगते हैं, वे ज्यादातर ताइवान में बनते हैं।
चिप के मामले में ताइवान फिलहाल दुनिया की बहुत बड़ी जरूरत है। उदाहरण के लिए ‘वन मेजर’ नाम की कंपनी को लें। अकेले यह कंपनी दुनिया के आधे से अधिक चिप का उत्पादन करती है।
2021 में दुनिया का चिप उद्योग करीब 100 अरब डॉलर का था और इस पर ताइवान का दबदबा है। यदि ताइवान पर चीन का कब्जा हो गया तो दुनिया के इतने अहम उद्योग पर चीन का नियंत्रण हो जाएगा।
क्या ताइवान के लोग चिंतित हैं?
चीन और ताइवान के बीच के तनाव के बढ़ जाने के बावजूद हाल के रिसर्च बताते हैं कि इसका ज्यादा असर वहां के लोगों पर नहीं पड़ा है। अक्टूबर में ताइवान पब्लिक ओपिनियन फाउंडेशन ने लोगों से पूछा कि क्या वे सोचते हैं कि चीन के साथ युद्ध होकर ही रहेगा। ताइवान के करीब 64 फीसदी लोगों ने इसका जवाब ‘न’ में दिया। वहीं एक दूसरे रिसर्च से पता चला कि ताइवान के ज़्यादातर लोग खुद को चीनी लोगों से अलग मानते हैं।
नेशनल चेंग्ची यूनिवर्सिटी के एक सर्वे में पता चला कि 1990 की तुलना में आज ताइवान में लोगों के बीच ताइवानी पहचान बढ़ती गई है। लोगों में खुद को चीनी या ताइवानी और चीनी दोनों मानने की प्रवृत्ति पहले से काफी कम हो गई है। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में मजहब के नाम पर किस कदर पोंगापंथी लोग कोहराम मचाकर खुश होते हैं? अब ताजा कि़स्सा सामने आया है, मुजफ्फरनगर की युवा गायिका फरमानी नाज़ का! यह एक घरेलू मुस्लिम महिला है। इस तीस वर्षीय मुस्लिम महिला के खिलाफ कुछ मुस्लिम मौलानाओं ने अपने तोप और तमंचे दागने शुरु कर दिए हैं, क्योंकि उसका गाया हुआ एक भजन ‘हर हर शंभू’ बहुत लोकप्रिय हो रहा है। उस भजन को इंटरनेट पर अभी तक लगभग 10 लाख लोग सुन चुके हैं। देवबंद के उलेमाओं के वाग्बाणों के बाद कोई आश्चर्य नहीं कि अब नाज़ के भजनों, गजलों और गीतों को सुननेवालों की संख्या करोड़ों तक पहुंच जाए।
हमारे पोंगापंथी मौलानाओं की फरमानी नाज़ पर यह बड़ी कृपा बरसेगी। मैंने भी फरमानी नाज़ को सुनने की कोशिश की। उसके शिव भजन में तो मुझे कोई खास रस नहीं आया लेकिन उसकी गजलें सुनकर मैं दंग रह गया। अपने चूल्हे पर गोबर लीपती हुई नाज़ जो गजल गा रही है, बिना तबला और बांसुरी के, वह भी सीधे दिल में उतर रही थी। देवबंद के एक मौलाना और मुफ्ती ने फरमानी नाज़ के शिव भजन गाने पर घोर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि यदि आप मुसलमान हैं तो आपको किसी अन्य मजहब के देवी-देवताओं के भजन बिल्कुल नहीं गाने चाहिए। इस्लाम इसकी इज़ाजत कतई नहीं देता।
उनके इस एतराज़ का फरमानी और उसकी माँ, दोनों ने साफ़-साफ़ लफ्जों में जवाब दिया है। उनका कहना है कि फरमानी नाज़ पक्की मुसलमान है और वह नियमित नमाज़ भी अदा करती है। लेकिन उसकी शादी के दो साल बाद ही उसका तलाक हो गया। उसे मुंबई के ‘इंडियन आइडोल’ में गोल्डन टिकिट भी मिल गया था लेकिन उसे छोडक़र उसे फिर मुजफ्फरनगर आना पड़ा, क्योंकि उसके दो साल के बेटे के गले का गंभीर आपरेशन जरुरी था। उसके लिए वह पैसा कहां से लाती? सो, उसने गाना शुरु कर दिया। उसके पास कोई कमी नहीं रही। उसकी माँ फातिमा बेगम ने कहा कि उसके गायन ने ही बच्चे के जान बचाई!
उन दोनों का कहना है कि संगीत का कोई मजहब नहीं होता। उनकी यह बात गलत होती तो मोहम्मद रफी, ए़.आर, रहमान, जावेद अख्तर, लता मंगेशकर, शकील बदायूंनी जैसे दर्जनों बड़े नाम मैं गिना सकता हूं कि जिन्होंने एक-दूसरे के धार्मिक भजनों और गीतों को गाया और लिखा है। मुसलमान और ईसाई अभिनेताओं ने हिंदू देवी-देवताओं के रोल किए हैं और हिंदू अभिनेताओं ने मुस्लिम बादशाहों के रोल अदा किए हैं। क्या देवबंद के मौलानाओं को पता नहीं है कि रसखान ने कृष्णभक्ति में जो अदभुत काव्य लिखा है, क्या वैसा किसी हिंदू कवि ने भी लिखा है?
अगर फरमानी नाज़ के खिलाफ आप फतवा जारी करेंगे तो आपको रहीम, रसखान, कबीर, मलिक मुहम्मद जायसी जैसे भारतीय महाकवियों के खिलाफ भी फतवा जारी करना पड़ेगा। मुझे तो कई बार पाकिस्तान के कई प्रसिद्ध गायकों के घर पर हिंदू भजन सुनकर चकित हो जाना पड़ा है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के अनेक शास्त्रीय संगीत महारथियों को मैंने काबुल, कराची, लाहौर और दिल्ली में पक्के शास्त्रीय गायन में हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख करते हुए सुना ।
मीर, गालिब, इकबाल जैसे महान शायरों की कविताओं में मजहबी पोंगापंथियों की जो मज़ाक उड़ाई गई है, उसे मैं यहां दोहराना नहीं चाहता हूं। देवबंद के मुल्ला-मौलवियों से मेरा अनुरोध है कि वे थोड़ी उदारता अपनाएं ताकि भारतीय इस्लाम दुनिया भर के इस्लाम से बेहतर बनकर उभरे और जिनकी नकल आप करना चाह रहे हैं, वे आपकी नकल करने लगें। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अप्पू झा अपूर्वा
आपको फेसबुक पर मुख्यत: तीन प्रकार के लपहला- जो आपकी एक गलती के इंतजार में बैठे रहेंगे जैसे आपसे कोई गलती हुई। ये चिल्ला उठेंगे। सार्वजनिक रूप से कमेंट करेंगे। बहस करने लगेंगे। जो नहीं भी जानते है उनको टैग कर के बताएँगे। ऐसे लोगों से उचित दूरी बना कर रखना चाहिए।
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आप कहेंगे कि मैं सुबह-सुबह क्यों ज्ञान देने के लिए बैठ गया। हुआ यूं कि मैंने किसी पोस्ट में कटिहार को कतिहार लिख दिया तो क्चड्डड्ढद्बह्लड्ड मैडम ने मुझे इनबॉक्स में गलती की सूचना दी। मैंने इसे ठीक कर दिया। तब तक इस पोस्ट पर चार सौ से ज्यादा लाइक आ चुके थे। ये बात बहुतों के नजरों से गुजरी होगी। आप कह सकते है कि ये तो बहुत छोटी और सामान्य बात है। लेकिन दोस्तों जो लोग बड़े होते है वो छोटी-छोटी बातों का भी ख्याल रखते है। ये चीज ही उनको बड़ा बनाती है। एक बात और मैडम से ना तो मेरी कभी कोई औपचारिक मुलाकात है ना कभी कोई बात हुई है।
हाँ, एक बार भले अनौपचारिक रूप से साल या दो साल पहले कटिहार से पटना जाते समय एक बार कटिहार पटना इंटरसिटी ट्रेन में इनसे मुलाकात हुई थी। हुआ यूं कि इनका दो एसी चेयर कार इनके और हसबैंड के नाम पर रिजर्व था। और वो शायद नहीं आ सके तो ये अपने बच्चे के साथ यात्रा कर रही थी। टीटी ने आकर इन्हें टोक दिया और गलत टिकट का हवाला दिया। मैडम को लगा होगा कि मैंने तो रेलवे को दो सीट के पैसे दिए ही हैं। अब हसबैंड किसी कारणवश नहीं आ सके तो मैं अपने बच्चे के साथ यात्रा कर रही हूं। इसमें क्या दिक्कत है। जो कि किसी भी सामन्य समझ वाले व्यक्ति के नजर में सही है, लेकिन रेलवे के नजर में ये गलती मानी जाती है। इसी को लेकर बहस होने लगा। दोनों लोग अड़ गए। बहस विवाद का रूप लेने लगा। मैं इनसे दस बारह सीट आगे बैठा हुआ सबकुछ सुन रहा था। मुझे लगा कि अब अगर इस विवाद को नहीं रोका गया तो दिक्कत आ सकती है। मेरे अंदर का फेसबुक मित्र जाग गया। मैं अपनी सीट से उठा और टीटी जो कि एक रेलकर्मी होने के कारण मेरे पूर्व परिचित ही थे। उन्हें शांत करवाया और इन्हें भी शांत होने को कहा। मेरे हस्तक्षेप के बाद दोनों जन शांत हुए। बस वही जो पाँच दस मिनट की हमारी मुलाकात थी।
उसके बाद मैं वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गया। हाँ, एक बात और इनकी सोशल मीडिया की लोकप्रियता देखकर मैंने इनसे एक बार अपने कानूनी सलाह पेज की प्रमोशन करने की गुजारिश की थी। जो इन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। जिससे मेरी पेज की पहुंच में कुछ इजाफा हो गया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह शुभ-संकेत है कि भारत की न्याय-व्यवस्था की दुर्दशा पर हमारे प्रधानमंत्री और प्रमुख न्यायाधीशों ने आजकल खुलकर बोलना शुरु किया है। हम आजादी का 75 वाँ साल मना रहे हैं लेकिन कौनसी आजादी है, यह! यह तो सिर्फ राजनीतिक आजादी है याने अब भारत में ब्रिटिश महारानी की जगह राष्ट्रपति और ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर की जगह प्रधानमंत्री को दे दी गई है। हमारे चुने हुए सांसद और विधायक कानून भी बनाते हैं। लेकिन यह तो औपचारिक राजनीतिक आजादी है लेकिन क्या देश को सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक आजादी मिली है?
क्या हम भारत में समतामूलक समाज का निर्माण कर पाए हैं? ये काम भी कुछ हद तक हुए हैं लेकिन ये हुए हैं, हाशिए के तौर पर! मूल पन्ने पर आज भी अंग्रेज की गुलामी छाई हुई है। सिर्फ तीन क्षेत्रों को ही ले लें। शिक्षा, चिकित्सा और न्याय! इन तीनों क्षेत्रों में जो गुलामी पिछले दो सौ साल से चली आ रही है, वह ज्यों की त्यों है। हमारे प्रधानमंत्री लोग और न्यायाधीशगण इस गुलामी के खिलाफ आजकल खुलकर बोल रहे हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि इस गुलामी से भारत को छुटकारा कैसे दिलाया जाए। शिक्षा और चिकित्सा पर तो मैं पहले लिख चुका हूं। इस बार न्याय की बात करें।
हमारी अदालतों में इस समय 4 करोड़ 70 लाख मुकदमे लटके पड़े हुए हैं। इनमें से 76 प्रतिशत ऐसे कैदी हैं, जिनके मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। उनका जुर्म सिद्ध नहीं हुआ है लेकिन वे 10-10 साल से जेल काट रहे हैं। 10-15 साल जेल काटने के बाद अब अदालतें उन्हें निर्दोष सिद्ध करती हैं तो क्या उन्हें कोई हर्जाना मिलता है? क्या उन पुलिसवालों और एफआईआर लिखानेवालों को कोई सजा मिलती है? इसके अलावा अदालती कार्रवाई इतनी लंबी और मंहगी है कि भारत के ज्यादातर लोग उसका फायदा ही नहीं उठा पाते। 76 प्रतिशत उक्त कैदियों में से 73 प्रतिशत दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक लोग होते हैं। अंग्रेजी में चलनेवाली अदालत बहस और फैसले किसी जादू-टोने से कम नहीं होते। वादी और प्रतिवादी को पल्ले ही नहीं पड़ता कि उनके मामलों में बहस क्या हुई है और फैसले का आधार क्या है?
हमारे जज और वकील बड़े योग्य होते है लेकिन उनकी सारी शक्ति को अंग्रेजी ही चाट लेती है। यदि हमारी सरकारें, न्यायाधीश और वकील लोग उक्त कमजोरियों का समाधान खोजने लगें तो देश में सच्ची न्यायिक आजादी कायम हो सकती है। मुकदमे जल्दी-जल्दी निपटें, इसके लिए जरुरी है कि हमारे जज लोग साल के 365 दिनों में कम से कम 8 घंटे रोज काम करें और साल में कम से कम 250-275 दिन काम करें। अभी तो वे साल में सिर्फ 168 दिन काम करते हैं, वह भी सिर्फ 5-6 घंटे रोज! कानून की पढ़ाई भी स्वभाषा में शुरु की जाए और सारी प्रांतीय अदालतों में बहस और फैसले भी उन्हीं की भाषा में हो। सर्वोच्च न्यायालय में सिर्फ अगले पांच वर्ष तक अंग्रेजी का विकल्प रहे लेकिन सारा काम-काज हिंदी में हो। जजों की नियुक्ति में सरकारी दखलंदाजी कम से कम हो ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहे। दुनिया के वे कई देश, जो पहले भारत की तरह गुलाम रहे, उनमें भी आजादी के बाद अदालतें स्वभाषाओं में ही काम करती हैं। जिन देशों की अदालतें आज भी विदेशी भाषाओं के माध्यम से चलती हैं, वे फिसड्डी ही बने हुए हैं। भारत की आजादी के 75 वें वर्ष में हमारे नेता और न्यायाधीश यदि खोखले भाषण ही झाड़ते रहे तो इससे बड़ा मजाक इस उत्सव का क्या होगा? (नया इंडिया की अनुमति से)
-गजानन माधव मुक्तिबोध
एक छाया-चित्र है। प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं। प्रसाद गम्भीर सस्मित। प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य। विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नजर ठहरने का एक और कारण भी है। प्रेमचन्द का जूता कैनवैस का है, और वह अँगुलियों की ओर से फटा हुआ है। जूते की कैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मजे से मैदान की हवा खा रही हैं। फोटो खिंचवाते वक्त प्रेमचन्द अपने विन्यास से बेखबर हैं। उन्हें तो इस बात की खुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं।
इस फोटो का मेरे जीवन में काफी महत्व रहा है। मैने उसे अपनी माँ को दिखाया था। प्रेमचन्द की सूरत देख मेरी माँ बहुत प्रसन्न मालूम हुई। वह प्रेमचन्द को एक कहानीकार के रूप में बहुत-बहुत चाहती थी। उसकी दृष्टि से, यानी उसके जीवन में महत्व रखने वाले, सिर्फ दो ही कादम्बरीकार (उपन्यास लेखक) हुए हैं - एक हरिनारायण आप्टे, दूसरे प्रेमचन्द। आप्टे की सर्वोच्च मराठी कृति, उनके लेखे, 'पण लक्षात कोण घेतो' है, जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करुण कथा कही गयी है। वह क्रान्तिकारी करुणा है। उस करुणा ने महाराष्ट्रीय परिवारों को समाज-सुधार की ओर अग्रसर कर दिया। मेरी माँ जब प्रेमचन्द की कृति पढ़ती, तो उसकी आँखों में बार-बार आँसू छलछलाते से मालूम होते। और तब—उन दिनों मैं साहित्य का एक जड़मति विद्यार्थी मात्र, मैट्रिक का एक छोकरा था—प्रेमचन्द की कहानियों का दर्द भरा मर्म माँ मुझे बताने बैठती। प्रेमचन्द के पात्रों को देख, तदनुसारी-तदनरूप चरित्र माँ हमारे पहचानवालों में से खोज-खोजकर निकालती। इतना मुझे मालूम है कि माँ ने प्रेमचन्द का "नमक का दारोगा" आलमारी में से खोजकर निकाला था। प्रेमचन्द पढ़ते वक्त माँ को खूब हँसी भी आती, और तब वह मेरे मूड की परवाह किये बगैर मुझे प्रेमचन्द कथा प्रसूत उसके हास्य का मर्म बताने की सफल-असफल चेष्टा करती।
प्रेमचन्द के प्रति मेरी श्रद्धा व ममता को अमर करने का श्रेय मेरी माँ को ही है। मैं अपनी भावना में प्रेमचन्द को माँ से अलग नहीं कर सकता। मेरी माँ सामाजिक उत्पीड़नों के विरूद्ध क्षोभ और विद्रोह से भरी हुई थी। यद्यपि वह आचरण में परम्परावादी थी, किन्तु धन और वैभवजन्य संस्कृति के आधार पर ऊँच-नीच के भेद का तिरस्कार करती थी। वह स्वयं उत्पीड़ित थी। और भावना द्वारा, स्वयं की जीवन-अनुभूति के द्वारा, माँ स्वयं प्रेमचन्द के पात्रों में अपनी गणना कर लिया करती थी। मेरी ताई (माँ) अब बूढ़ी हो गयी है। उसने वस्तुत: भावना और सम्भावना के आधार पर मुझे प्रेमचन्द पढ़ाया। इस बात को वह नहीं जानती है कि प्रेमचन्द के पात्रों के मर्म का वर्णन-विवेचन करके वह अपने पुत्र के ह्रदय में किस बात का बीज बो रही है। पिताजी देवता हैं, माँ मेरी गुरू है। सामाजिक दम्भ, स्वाँग, ऊँच-नीच की भावना, अन्याय और उत्पीड़नों से कभी भी समझौता न करते हुए घृणा करना उसी ने मुझे सिखाया।
लेकिन मेरी प्यारी श्रद्धास्पदा माँ यह कभी न जान सकी कि वह किशोर-हृदय में किस भीषण क्रान्ति का बीज बो रही है, कि वह भावात्मक क्रान्ति अपने पुत्र को किस उचित-अनुचित मार्ग पर ले जायेगी, कि वह किस प्रकार अवसरवादी दुनिया के गणित से पुत्र को वंचित रखकर, उसके परिस्थिति-सामंजस्य को असम्भव बना देगी।
आज जब मैं इन बातों पर सोचता हूँ तो लगता है कि यदि मैं, माँ और प्रेमचन्द की केवल वेदना ही ग्रहण न कर, उनके चारित्रिक गुण भी सीखता, उनकी दृढ़ता, आत्म-संयम और अटलता को प्राप्त करता, आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति नष्ट कर देता, और उन्हीं के मनोजगत की विशेषताओं को आत्मसात करता, तो शायद, शायद मैं अधिक योग्य पात्र होता। माँ मेरी गुरू थी अवश्य, किन्तु, मैं उनका शायद योग्य शिष्य ना था। अगर होता तो कदाचित् अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक होता, केवल प्रयोगवादी कवि बनकर न रह जाता।
मतलब यह कि जब कभी भी प्रेमचन्द के बारे में सोचता हूँ, मुझे अपने जीवन का ख्याल आ जाता है। मुझे महान चरित्रों से साक्षात्कार होता है, और मैं आत्म-विश्लेषण में डूब जाता हूँ। आत्म-विश्लेषण की मन:स्थिति बहुत बुरी चीज है।
जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तो मेरे कुछ लेखक-मित्रों के पास प्रेमचन्दजी के पत्र आये। मैं उन मित्रों के प्रति ईर्ष्यालु हो उठा। उन दिनों मैं उन लोगों को जीनियस समझता था, और प्रेमचन्द को देवर्षि। अब सोचता हूँ कि दोनों बातें गलत है। मेरे लेखक-मित्र जीनियस थे ही नहीं, बहुत प्रसिद्ध अवश्य थे और अभी भी है। किन्तु वे प्रेमचन्द के लायक न तब थे, न अब हैं। और यहाँ हम हिन्दी साहित्य के इतिहास के एक मनोरंजक और महत्वपूर्ण मोड़ तक पहुँच जाते है। प्रेमचन्द जी भारतीय सामाजिक क्रान्ति के एक पक्ष का चित्रण करते थे। वे उस क्रान्ति के एक अंग थे। किन्तु अन्य साहित्यिक उस क्रान्ति का एक अंग होते हुए भी उसके सामाजिक पक्ष की संवेदना के प्रति उन्मुख नहीं थे। वह क्रान्ति हिन्दी साहित्य में छायावादी व्यक्तिवाद के रूप में विकसित हो चुकी थी। जिस फोटो का मैंने शुरू में जिक्र किया, उसमें के प्रसादजी इस व्यक्तिवादी भाव-धारा के प्रमुख प्रवर्तक थे।
यह व्यक्तिवाद एक वेदना के रूप में सामाजिक गर्भितार्थों को लिये हुए भी, प्रत्यक्षत: किसी प्रत्यक्ष सामाजिक लक्ष्य से प्रेरित नहीं था। जैनेन्द्र में तो फिर भी मुक्तिकामी सामाजिक ध्वन्यर्थ थे, किन्तु आगे चलकर अज्ञेय में वे भी लुप्त हो गये। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द उत्थानशील भारतीय सामाजिक क्रान्ति के प्रथम और अन्तिम महान कलाकार थे। प्रेमचन्द की भाव-धारा वस्तुत: अग्रसर होती रही, किन्तु उसके शक्तिशाली आविर्भाव के रूप में कोई लेखक सामने नहीं आया। यह सम्भव भी नहीं था, क्योंकि इस क्रान्ति का नेतृत्व पढ़े-लिखे मध्यम-वर्ग के हाथ में था, और वह शहरों में रहता था। बाद में वह वर्ग अधिक आत्म-केन्द्रित और अधिक बुद्धि-छन्दी हो गया तथा उसने काव्य में प्रयोगवाद को जन्म दिया।
किन्तु, क्या यह वर्ग कम उत्पीड़ित है? आज तो सामाजिक विषमताएँ और भी बढ़ गयी हैं। प्रेमचन्द का महत्व पहले से भी अधिक बढ़ गया है। उनकी लोकप्रियता अब हिन्दी तक ही सीमित नहीं रह गयी है। अन्य भाषाओं में उनके अनुवादकर्ताओं के बीच होड़ लगी रहती है। प्रेमचन्द द्वारा सूचित सामाजिक सन्देश अभी भी अपूर्ण है। किन्तु हम जो हिन्दी के साहित्यिक है, उसकी तरफ विशेष ध्यान नहीं दे पाते। एक तरह से यह यथार्थ से भागना हुआ। उदाहरणत: आज का कथा-साहित्य पढ़कर पात्रों की प्रतिच्छाया देखने के लिए हमारी आँखे आस-पास के लोगों की तरफ नहीं खिंचतीं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है, जैसे पात्रों की छाया ही नहीं गिरती, कि वे लगभग देहहीन है। लगता है कि हमारे यहाँ प्रेमचन्द के बाद एक भी ऐसे चरित्र का चित्रण नहीं हुआ, जिसे हम भारतीय विवेक-चेतना का प्रतीक कह सकें। शायद, अज्ञान के कारण मेरी ऐसी धारणा होगी। कोई मुझे प्रकाश-दान दें।
किन्तु, कुल मिलाकर मुझे ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द की जरूरत आज पहले से भी ज्यादा बढ़ी हुई है। प्रेमचन्द के पात्र आज भी हमारे समाज में जीवित हैं। किन्तु वे अब भिन्न स्थिति में रह रहे हैं। किसी के चरित्र का कदाचित् अध:पतन हो गया है। किसी का शायद पुनर्जन्म हो गया है। बहुतेरे पात्र अपने सृजनकर्त्ता लेखक की खोज में भटक रहे है। उन्हें अवश्य ऐसा कोई-न-कोई लेखक शीघ्र ही प्राप्त होगा।
प्रेमचन्द की विशाल छाया में बैठकर आत्म-विश्लेषण की मन:स्थिति मुझे अजीब ख्यालों में डुबो देती है। माना कि आज व्यक्ति पहले जैसा ही जीवन-संघर्ष में तत्पर है, किन्तु अब वह अधिक आत्म-केन्द्रित और आत्म-ग्रस्त हो गया है, माना कि इन दिनों वह समाज-परिवर्तन की, समाजवाद की, वैज्ञानिक विकास की, योजनाबद्ध कार्य की, अधिक बात करता है। किन्तु एक चरित्र के रूप में, एक पात्र के रूप में, वह सघन और निबिड़ आत्म-केन्द्रित होता जा रहा है। माना कि आज वह अधिक सुशिक्षित-प्रशिक्षित है, और अनेक पुराणपंथी विचारों को त्याग चुका है, तथा जीवन जगत से अधिक सचेत और सचेष्ट है किन्तु मानो ये सब बातें, ये सारी योग्यताएँ, ये सारी स्पृहणीय विशेषताएँ, उसे अधिकाधिक स्वयं-ग्रस्त बनाती गयी हैं। कदाचित् मेरा यह मन्तव्य अतिशयोक्तिपूर्ण है, किन्तु यह भी सही है कि वह एक तथ्य की ही अतिशयोक्ति है।
आश्चर्य मुझे इस बात का होता है कि आखिर आदमी को हो क्या गया है। उसकी अन्तरात्मा, एक जमाने में समाजोन्मुख सेवाभावी थी, आज आदर्शवाद की बात करते हुए भी इतनी अजीब क्यों हो गयी ? एक बार बातचीत के सिलसिले में, एक सम्मानीय पुरुष ने मुझे कहा कि व्यक्ति जितना सुशिक्षित-प्रशिक्षित होता जायेगा, उतना ही बौद्धिक होता जायेगा, और उसी अनुपात में उसकी आत्म-केन्द्रिता बढ़ती जायेगी, उतने ही उसके मानवोचित गुण कम होते जायेंगे, जैसे करुणा, क्षमा, दया, शील, उदारता आदि। मेरे ख्याल से उसने जो कहा है, गलत है। किन्तु यह मैं निश्चय नहीं कर पाता कि उसका मन्तव्य निराधार है। शायद, मैं ग़लती कर रहा हूँगा। जीवन के सिर्फ एक पक्ष को (अधूरे ढंग से और अपर्याप्त निरीक्षण द्वारा) आकलित कर मैं इस निराशात्मक मन्तव्य की ओर आकर्षित हूँ।
किन्तु, कभी-कभी निराशा भी आवश्यक होती है। विशेषकर प्रेमचन्द की छाया में बैठे, आज के अपने आस-पास के जीवन के दृश्य देख, वह कुछ तो स्वाभाविक ही है। सारांश यह, कि प्रेमचन्दजी का कथा-साहित्य पढ़कर आज हम एक उदार और उदात्त नैतिकता की तलाश करने लगते है, चाहने लगते हैं कि प्रेमचन्दजी के पात्रों के मानवीय गुण हममें समा जायें, हम उतने ही मानवीय हो जायें जितना कि प्रेमचन्द चाहते हैं। प्रेमचन्दजी का कथा-साहित्य हम पर एक बहुत बड़ा नैतिक प्रभाव डालता है। उनका कथा-साहित्य पढ़ते हुए उनके विशिष्ट ऊँचे पात्रों द्वारा हमारे अन्त:करण में विकसित की गयी भावधाराएँ हमें न केवल समाजोन्मुख करती हैं, वरन् वे आत्मोन्मुख भी कर देती हैं। और जब प्रेमचन्द हमें आत्मोन्मुख कर देते हैं, तब वे हमारी आत्म-केन्द्रिता के दुर्ग को तोड़कर हमें एक अच्छा मानव बनाने में लग जाते हैं। प्रेमचन्द समाज के चित्रणकर्त्ता ही नहीं, वरन् वे हमारी आत्मा के शिल्पी भी हैं।
माना कि हमारे साहित्य का टेकनीक बढ़ता चला जायेगा, माना कि हम अधिकाधिक सचेत और अधिकाधिक सूक्ष्म-बुद्धि होते जायेंगे, माना कि हमारा बुद्धिगत ज्ञान संवेदनाओं और भावनाओं को न केवल एक विशेष दिशा में मोड़ देगा, वरन् उनका अनुशासन-प्रशासन भी करेगा। किन्तु क्या यह सच नहीं है कि मानवीय सत्यों और तथ्यों को देखने की सहज भोली और निर्मल दृष्टि, हृदय का सहज सुकुमार आदर्शवाद, दिल को भीतर से हिला देने वाली कर्त्तव्योन्मुख प्रेरणा भी हमारे लिए उतनी ही कठिन और दुष्प्राप्त होती जायेगी ?
ओह! काश, हम भी भोली कली से खिल सकते! पराये दु:ख में रोकर उसे दूर करने की भोली सक्रियता पा सकते! शायद मैं विशेष मन:स्थिति में ही यह सब कह रहा हूँ। फिर भी मेरी यह कहने की इच्छा होती है कि समाज का विकास अनिवार्यत: मानवोचित नैतिक-हार्दिक विकास के साथ चलता जाए, यह आवश्यक नहीं है। सभ्यता का विकास नैतिक विकास भी करता है, यह ज़रूरी नहीं है।
यह समस्या प्रस्तुत लेख के विषय से सम्बन्धित होते हुए भी उसके बाहर है। मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि प्रेमचन्द का कथा-साहित्य पढ़कर हमारे मन पर जो प्रभाव होते हैं, वे धीरे-धीरे हमारी चिन्तना को इस सभ्यता-समस्या तक ले आते हैं। क्या यह हमें प्रेमचन्द की ही देन नहीं है ?
राष्ट्रभारती (1953-57 के बीच) में प्रकाशित
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी के एक बयान को लेकर महाराष्ट्र के नेता लोग कैसा धमाल मचा रहे हैं ? कोश्यारी ने मारवाडिय़ों की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि यदि मारवाड़ी और गुजराती व्यापारियों को हटा दिया जाए तो मुंबई देश की आर्थिक राजधानी नहीं रह पाएगी। कोश्यारी के इस बयान में गलत क्या है? उन्होंने जो सर्वमान्य तथ्य है, उसे बस कहा भर है। उन्होंने महाराष्ट्र के मराठों और दक्षिण भारतीयों के बारे में कोई ऐसी बात नहीं कही, जो अपमानजनक या आपत्तिजनक है।
उन्होंने मुंबई के मारवाड़ी और गुजराती सेठों की पीठ ठोककर महाराष्ट्र का भला ही किया है। सेठों को यह नहीं लगेगा कि वे महाराष्ट्र पर कोई बोझा हैं। कोश्यारी के बयान से वे थोड़े और उत्साहित हो जाएंगे। जहां तक मराठीभाषी लोगों का सवाल है, उन्होंने ऐसा एक शब्द भी नहीं बोला, जिससे उनका अपमान हो या अवमूल्यन हो। जब पक्ष और विपक्ष के सभी नेताओं ने उनके बयान की आलोचना की तो उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उनके अभिप्राय को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। वे मराठी लोगों के योगदान के प्रशंसक हैं लेकिन जरा हम देखें कि महाराष्ट्र के सभी नेता कैसी भेड़चाल चल रहे हैं। भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस आदि सभी दलों के नेताओं ने राज्यपाल के बयान को या तो गलत बताया है या उसकी कड़ी भर्त्तसना की है। हर नेता मराठीभाषी मतदाताओं को खुश करने के लालच में फिसलता गया है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने भी अपना मौन तोड़ दिया। किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि अधमरी शिवसेना के पति उद्धव ठाकरे को कोई मुंहतोड़ जवाब देता। ठाकरे ने शिष्टता की सारी मर्यादाओं का उल्लंघन कर दिया है।
उन्होंने कहा है कि राज्यपाल को इस वक्त ‘कोल्हापुरी चप्पल’ दिखाने का वक्त है। इतना फूहड़ बयान तो किसी नेता का आज तक हमने कभी सुना नहीं। जो व्यक्ति महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री रह चुका हो, वह एक बुजुर्ग राज्यपाल के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करेगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने राज्यपाल कोश्यारी पर ‘नमकहरामी’ होने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पिछले तीन साल से कोश्यारी महाराष्ट्रियनों का नमक खा रहे हैं और फिर भी उनकी निंदा कर रहे हैं। वे मराठी और गैर-मराठी लोगों में दुश्मनी पैदा कर रहे हैं। उन्हें बर्खास्त किया जाए या जेल भेजा जाए। ये सारे विषाक्त वाक्य क्या बता रहे हैं? यही कि उद्धव ठाकरे की हताशा चरम सीमा पर है। वे अपने खाली झुनझुने को पूरी ताकत से हिला रहे हैं। उनका बयान सुनकर मराठी-मानुस उन पर हंसने के अलावा क्या कर सकते हैं? वे अब चाहें तो मारवाडिय़ों और गुजरातियों को महाराष्ट्र से भगाने का अभियान भी चला सकते हैं, लेकिन कांग्रेस और शरद पवार कांग्रेस की गोद में बैठकर सत्ता-सुख भोगनेवाले ठाकरे परिवार की बौखलाहट पर अब मराठी लोग कान क्यों देंगे? महाराष्ट्र के लोगों को पता है कि ठाकरे परिवार ऐसा अभियान चला देगा तो महाराष्ट्र के कई शहरों में लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
भारत में सिनेमा एक ऐसी कला है जिसके बारे में हर कोई साधिकार बोल सकता है। बोलना भी चाहिए। लोकप्रिय सिनेमा का निर्माण एक बड़े समूह को ध्यान में रखकर होता है। लेकिन जब हम उसे आलोचना के दायरे में लाते हैं तो उसकी अपनी एक सैद्धांतिकी और दायरा होता है। इसके माध्यम से हमारी सोसाइटी बहुत कुछ फिल्टर करती है और विमर्श की एक दिशा तय होती है। दुर्भाग्य से सिनेमा के मामले में ऐसा नहीं हुआ।
हिंदी में आरंभ से ही सिनेमा पर गिने-चुने लिखने वाले रहे हैं। एक रूढ़ि बनी रही कि सिनेमा दोयम दर्जे की कला है। मुख्यधारा के अखबारों, पत्रिकाओं और ऑनलाइन मीडिया का हाल तो और भी बुरा रहा है। बीते करीब एक दशक से हिंदी मुख्यधारा का सिनेमा पीआर के चंगुल में था। जैसा ब्रीफ किया जाता था, जैसा वे चाहते थे, वैसा ही लिखा जाता था।
हर फिल्म को पांच में तीन से चार स्टार मिलते थे, हर फिल्म की टुकड़ों में समीक्षा की जाती थी, जैसे कहानी कमजोर-पटकथा अच्छी, लोकेशन भव्य-फोटोग्रॉफी साधारण, संगीत सामान्य-गीत अच्छे। फिल्म स्टार्स के इंटरव्यू तक पीआर ही मैनेज करते थे। एक ही बात सभी जगह छपती थी। एक्सक्लूसिव इंटरव्यू भी शायद इसी शर्त पर मिलते थे कि कोई निगेटिव बात न तो पूछी जाए और न लिखी जाए।
हिंदी के अखबारों में इतनी खराब समीक्षाएं छपती थीं कि फिल्म सचमुच कैसी है इसे जानने का दो ही तरीका था, या तो सोशल मीडिया पर फिल्म प्रेमी मित्रों से मशवरा किया जाए या आईएमडीबी के रिव्यू पढ़े जाएं। मुझे निर्विवाद रूप से आईएमडीबी में लिखे जाने वाले रिव्यू सबसे ईमानदार लगते हैं। कुछ ऑफबीट फिल्में बनाने वाले चालाक निर्माताओं ने अपनी मार्केटिंग के लिए आईएमडीबी पर भी पेड रिव्यू लिखवाने शुरू कर दिए। मगर दो हफ्ते-महीने में कोई न कोई पोल खोलने वाला आ ही जाता था।
इतनी सब कहानी सुनाने के पीछे वजह ये थी कि अब मामला बिल्कुल उलट है। इन दिनों हर फिल्म की जमकर आलोचना हो रही है। जाने-माने समीक्षकों से लेकर यूट्यूबर तक बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। कुल मिलाकर फिल्म पर, उसके कलात्मक पक्ष पर, उसके कंटेंट पर, उसके सामाजिक सरोकारों पर अब भी बात नहीं हो रही है।
अब मुद्दा है नेपोटिज़्म और हिंदूवाद। मुद्दा है दक्षिण का सिनेमा बनाम उत्तर भारत का सिनेमा। बॉलीवुड बनाम साउथ। किसी फिल्म की आलोचना इस आधार पर कैसे हो सकती है कि उसमें किस फिल्म स्टार के बेटे या बेटी ने काम किया है।
सभी जानते हैं कि धर्म के बाद जनमानस के दिल-दिमाग को प्रभावित करने का सबसे सशक्त माध्यम है सिनेमा। एक खास किस्म का लोकहितवाद हमारे लोकप्रिय सिनेमा की पहचान और ताकत रही है। संदेश की दृष्टि से वी शांताराम की 'पड़ोसी', मनमोहन देसाई की 'अमर अकबर एंथोनी' और गोविंद निहलानी की 'तमस' एक जैसे हैं।
असल मकसद है इसमें फांक पैदा करना।
यह सीधे-सीधे तो किया नहीं जा सकता लिहाजा जिम्मा सौंपा गया कुछ औसत प्रतिभा वाले कलाकारों और फिल्मकारों को। समाचार माध्यमों के जरिए एक बहस चली बॉलीवु़ड में नेपोटिज्म की, दूसरा प्रॉपेगैंडा सोशल मीडिया के जरिए चलाया गया और बॉलीवुड बनाम हिंदुत्व का फंडा फैलाया गया। तीसरी तरफ दक्षिण की कुछ गुणवत्ता में औसत दर्जे की मगर सफल फिल्मों के जरिए यह बहस छेड़ी गई कि दक्षिण का सिनेमा बेहतर है।
कुल मकसद यह है कि सिनेमा जैसी सशक्त विधा को एक पॉलिटिकल प्रॉपेगैंडा का हथियार बनाया जाए। मनोरंजन की ताकत का इस्तेमाल परोक्ष रूप से खास राजनीतिक विचारधारा के प्रसार में किया जाए। देखा-देखी कई समझदार लोग भी इसी बहस में शामिल हो गए। कुछ ठीक-ठाक लिखने वाले समीक्षकों को भी नेपोटिज्म में टीआरपी दिख रही है।
दिलीप मंडल ने यही फॉर्मूला अपनाते हुए तय किया कि वे सिनेमा के जातिवादी एंगल की पड़ताल करेंगे। यानी सिनेमा को अब उसकी कला के जरिए नहीं बल्कि इस आधार पर परखा जाएगा कि उसे किसने बनाया है? उसमें जो विषय उठाए गए हैं उनके संवेदनशील निर्वहन पर बात नहीं होगी बल्कि जो लोग उसके रचयिता हैं वो किस जाति-धर्म से आते हैं इस आधार पर मूल्यांकन होगा।
यानी सिनेमा पर अब तक जो अधकचरा लिखा-पढ़ा जा रहा था, आने वाले समय में उसमें और गिरावट ही देखने को मिलेगी। सिनेमा की घरानेदारी की बहस बहुत बेबुनियाद है और गहराई में जाकर चीजों को नहीं देखा जा रहा है। लोकप्रिय सिनेमा एक बिजनेस है और कारोबार पर हमेशा घरानों का ही वर्चस्व रहा है। यकीन न हो तो देश के सबसे बड़े कारोबारियों के परिवार का इतिहास उठाकर देख लें। अमेरिका या हॉलीवुड का सिनेमा भी इसी तरह से विकसित हुआ है। डेविड सोल्जेनिक और वार्नर ब्रदर्स जैसे कई परिवारों का लंबे समय तक इंडस्ट्री पर वर्चस्व रहा है।
भारत में सिनेमा की शुरुआत स्टूडियो सिस्टम से हुई। निर्देशक, लेखक, अभिनेता, संगीतकार और गीतकार तक बाकायदा वेतन पर नौकरी करते थे। एक फिल्म खत्म होती तो उसी टीम के साथ अगली फिल्म शुरू की जाती थी। बांबे टॉकीज और प्रभात कंपनी ने इसी पैटर्न पर यादगार फिल्में दी हैं। लेकिन जैसे-जैसे अभिनेताओं, गीतकारों और संगीतकारों को लोकप्रियता मिलती गई वे इस सिस्टम से छुटकारा पाने के लिए कसमसाने लगे। इसके बाद शुरू हुआ इंडिपेंडेंट निर्माता-निर्देशकों का दौर।
जहां तक मेरी जानकारी है प्रीतिश नंदी ने फिल्म इंडस्ट्री को कॉरपोरेट का जामा पहनाने में पहल की थी और उसी दौरान प्रीतीश नंदी कम्यूनिकेशंस और एबीसीएल सामने आए। समय से पहले के प्रयास थे सो सफल नहीं हुए। लेकिन घरानों से हटकर ये कलाकार ही थे जिन्होंने सिनेमा को बेहतर बनाने में अपना योगदान दिया। सरोकार वाले निर्माता-निर्देशकों को भूल जाएं, सीधे-सीधे बिजनेस की बात करें।
राज कपूर ने "आवारा हूँ" गीत को तत्कालीन सोवियत रूस के लोगों को गुनगुनाने पर मजबूर कर दिया। यश चोपड़ा की रोमांटिक फिल्मों ने एक समय में एनआरआई के बीच भारतीय सिनेमा की पैठ बनाई। केतन मेहता की प्रोडक्शन कंपनी ने तकनीकी पर फोकस बढ़ाया। विधु विनोद चोपड़ा ने बतौर निर्माता कारोबार को जबरदस्त ऊंचाइयां दीं। जिन आमिर खान को लोग कोस रहे हैं उन्होंने 'थ्री ईडियट्स' और 'दंगल' जैसी फिल्में दी हैं जिन्होंने पश्चिम और ईस्ट एशिया में एक साथ कारोबार की संभावनाओं को विस्तार दिया।
अब, जबकि सही समय आ रहा था और भारतीय सिनेमा इंडस्ट्री को हॉलीवुड, कोरिया और हांगकांग के सिनेमा की तरह अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर उड़ान भरनी थी, हम उत्तर और दक्षिण के विवाद में उलझते जा रहे हैं। (फ़ेसबुक से)
-श्रवण गर्ग
मुंशी प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर कवि-पत्रकार मित्र ध्रुव शुक्ल ने कथा सम्राट के विशाल रचना संसार से ढूँढकर कुछ सवाल ‘अपने आप से पूछने के लिए’ सार्वजनिक किए हैं।पूछे गए सवालों में एक यह भी है कि ‘गोदान के होरी का क्या हुआ ?’ उन्होंने यह भी जानना चाहा है कि हम प्रेमचंद को क्या जवाब देंगे ?
पिछले साल आज के ही दिन लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार विजय बहादुर सिंह के आमंत्रण पर विदिशा में पंडित ‘गंगाप्रसाद पाठक ललित कला न्यास’ द्वारा प्रेमचंद जयंती पर आयोजित एक संगोष्ठी में ‘पत्रकारिता और लोक समाज’ विषय पर बोलने का अवसर मिला था।अपनी बात प्रेमचंद के अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ से प्रारम्भ की थी।प्रेमचंद ने यह अद्भुत उपन्यास अपने निधन से दो वर्ष पूर्व 1936 में लिखा था।उन्हें तब तक शायद आभास हो गया था कि आने आने वाले भारत में उनके होरी का क्या हश्र होने वाला है ! विदिशा संगोष्ठी में जो कहा था उसे संक्षिप्त रूप में पहली बार बाँट रहा हूँ :
हम चाहें तो शर्म महसूस कर सकते हैं कि साल 1936 से 2021 के बीच गुजरे 85 सालों के बीच मुंशी प्रेमचंद द्वारा ‘गोदान’ में उकेरे गए पात्रों और उनके ज़रिए उठाए गए सवालों में कुछ नहीं बदला है। सिर्फ़ पात्रों के नाम ,उनके चेहरे और स्थान बदल गए हैं। शेष वैसा ही है। देश के जीवन में ग्रामीण भारत या तो ‘गोदान’ के समय जैसा ही है या और ख़राब हो गया है।पत्रकारिता और साहित्य के केंद्र में ग्रामीण के बजाय शहरी भारत हो गया है।
‘गोदान’ उपन्यास में प्रेमचंद का मुख्य पात्र होरी बीमार होकर मरता है, आज का होरी आत्महत्या कर रहा है। उसे सिंघु बॉर्डर पर बैठकर आंदोलन करना पड़ रहा है। वह पुलिस-प्रशासन की लाठियाँ और गोलियाँ झेल रहा है। क़र्ज़ में डूबकर जान देने वाले हज़ारों किसानों के चेहरों में होरी की शक्ल तलाश की जा सकती है। ‘गोदान’ में वर्णित ज़मींदार की भूमिका सरकारों ने ले ली है और तहसीलदार-पटवारी उसके वसूली एजेंट हो गए हैं।
अखबारी दुनिया में भी कुछ नहीं बदला है। ’गोदान’ में उल्लेखित ‘बिजली’ पत्र के राय साहब जैसे मालिक-सम्पादक व्यवस्था में आज भी न सिर्फ़ उसी तरह उपस्थित हैं बल्कि ज़्यादा ताकतवर हो गए हैं। वे अब होरी की ही तक़दीर नहीं सरकारें बनाने-गिराने की हैसियत में पहुँच गए हैं। ‘गोदान’ की ही तरह सौ या हज़ार ग्राहकों का चंदा भरकर या विज्ञापनों के दम पर आज भी खबरें ‘गोदान’ की तरह रुकवाई-छपवाई जा सकतीं हैं। धर्म और सत्ता की राजनीति के बीच हुई साँठगाँठ ने पत्रकारिता को विज्ञापन और चंदा वसूल करने की मशीन में तब्दील कर दिया है। होरी की मौत मीडिया की नज़रों से ग़ायब है। किसानों को बाँटे जाने वाले नक़ली बीजों और उर्वरकों की तरह ही नक़ली खबरें भी राजनीति के ज़मींदारों के द्वारा राय साहबों के अख़बारों की मदद से जनता को बेची जा रहीं हैं।
मुंशी प्रेमचंद के ‘गोदान’ में जिस गाय की अतृप्त आस में होरी को अंतिम साँस लेना पड़ती है वह गाय इस समय सत्ता की साँस बन गई है। चिंता होरी के मरने की नहीं है, गाय अगर छूट गई तो सत्ता की साँस उखड़ जाएगी। समूची राजनीति को होरी के जन-जल-जंगल-ज़मीन-जानवर से विमुख कर गाय-गोबर-गोमूत्र के चमत्कार में केंद्रित कर दिया गया है।
मुंशी प्रेमचंद को हम कुछ भी जवाब देने की स्थिति में नहीं बचे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के गृहमंत्री अमित शाह जिस मर्दानगी से शिक्षा में भारतीय भाषाओं के माध्यम का समर्थन कर रहे हैं, आज तक वैसी मर्दानगी मैंने भारत के किसी प्रधानमंत्री या शिक्षा मंत्री में भी नहीं देखी। यह ठीक है कि मैकाले की गुलामी से भारतीय शिक्षा को मुक्त करवाने का प्रयत्न मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, त्रिगुण सेन, डा. जोशी, भागवत झा आजाद और प्रो. शेरसिंह—जैसे शिक्षा मंत्रियों ने जरुर किया है लेकिन अमित शाह ने अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया है।
वे अंग्रेजी की अनिवार्यता के खिलाफ महर्षि दयानंद, गांधी, लोहिया या मेरी तरह नहीं बोल रहे हैं लेकिन वे जो कुछ बोल रहे हैं, उसका अर्थ यही है कि देश की शिक्षा पद्धति में क्रांतिकारी परिवर्तन होना चाहिए। इसका पहला कदम यह है कि देश में डाक्टरी, वकीली, इंजीनियरी, विज्ञान, गणित आदि की पढ़ाई का माध्यम मातृभाषाएं या भारतीय भाषाएं ही होना चाहिए।
क्यों होना चाहिए? क्योंकि अमित शाह कहते हैं कि देश के 95 प्रतिशत बच्चे अपनी प्रारंभिक पढ़ाई स्वभाषा के माध्यम से करते हैं। सिर्फ पांच प्रतिशत बच्चे, निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं? ये किनके बच्चे होते हैं? मालदार लोगों, नेताओं, बड़े अफसरों और ऊँची जातिवालों के बच्चे ही मोटी-मोटी फीस भरकर इन स्कूलों में जा पाते हैं। अमित शाह की चिंता उन 95 प्रतिशत बच्चों के लिए हैं, जो गरीब हैं, ग्रामीण हैं, पिछड़े हैं और अल्पसंख्यक हैं।
ये बच्चे आगे जाकर सबसे ज्यादा फेल होते हैं। ये ही पढ़ाई अधबीच में छोडक़र भाग खड़े होते हैं। बेरोजगारी के शिकार भी ये ही सबसे ज्यादा होते हैं। यदि केंद्र की भाजपा सरकार राज्यों को प्रेरित कर सके तो वे अपनी शिक्षा उनकी अपनी भाषाओं में शुरु कर सकती हैं। 10 राज्यों ने केंद्र से सहमति व्यक्त की है। अब ‘जी’ और ‘नीट’ की परीक्षाएं भी 12 भाषाओं में होंगी। केंद्र अपनी भाषा-नीति राज्यों के लिए अनिवार्य नहीं कर सकता है लेकिन भाजपा के करोड़ों कार्यकर्ता क्या कर रहे हैं?
वे अपने राज्यों की सभी पार्टियों के नेताओं से शिक्षा में क्रांति लाने का आग्रह क्यों नहीं करते? गैर-भाजपाई राज्यों से अमित शाह बात कर रहे हैं। यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं और शिक्षा मंत्री भी उनसे बात करें तो यह क्रांतिकारी कदम शीघ्र ही अमल में लाया जा सकता है। मध्यप्रदेश की सरकार तो सितंबर से डाक्टरी की पढ़ाई हिंदी में शुरु कर ही रही है।
सिर्फ नई शिक्षा नीति की घोषणा कर देना काफी नहीं है। पिछले 8 साल में बातें बहुत हुई हैं, शिक्षा और चिकित्सा में सुधार की लेकिन अभी तक ठोस उपलब्धि निर्गुण और निराकार ही है। यदि देश की शिक्षा और चिकित्सा को मोदी सरकार औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त कर सकी तो उसे दशकों तक याद किया जाएगा। भारत को महासंपन्न और महाशक्ति बनने से कोई रोक नहीं पाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)