विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रूस से संबंधित अभी-अभी दो घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिन्होंने सारी दुनिया का ध्यान खींचा है। पहली घटना है- दारिया दुगिना की हत्या। यह लडक़ी रूसी नेता व्लादिमीर पूतिन के मुख्य रणनीतिकार अलेक्जेंडर दुगिना की बेटी थी। दूसरी घटना भारतीयों के लिए और भी ज्यादा गंभीर है। वह है आजमोव की गिरफ्तारी की ! आजमोव को रूसी पुलिस ने गिरफ्तार किया है, क्योंकि उससे कई ठोस प्रमाण मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि उज़बेकिस्तान का यह नागरिक किसी बड़े भारतीय नेता की हत्या के लिए तैयार किया गया था।
यह ‘इस्लामिक स्टेट आफ खुरासान प्राविंस’ का कारिंदा है। यह मुसलमान युवक किसी पूर्व-सोवियत राज्य से आकर तुर्किए में प्रशिक्षित हुआ है। इसे जिम्मेदारी दी गई थी कि वह भारत जाकर किसी नेता पर आत्मघाती हमला करे। यह हमला नुपूर शर्मा के बयान के विरोध में होना था। अब से तीन माह पहले ‘इस्लामिक स्टेट’ ने 50 पृष्ठ का एक दस्तावेज इसी मुद्दे पर जारी किया था, जिस पर गाय के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चित्र भी था।
तुर्किए में प्रशिक्षित यह 30 वर्षीय उजबेक आजमोव रूस पहुंच कर भारत आने की फिराक में था। इसके पीछे काम कर रही ‘इस्लामिक स्टेट’ चाहती थी कि वह ‘अल-क़ायदा’ के उग्रवाद से भी आगे निकल जाए। जब रूसी गुप्तचर एजेंसी ने आज़मोव को गिरफ्तार करके कड़ी पूछताछ की तो उसने बहुत-से रहस्यों को उगल दिया। मध्य एशिया के इन पूर्व-सोवियत देशों में इस्लामिक कट्टरवाद को रूसी कम्युनिस्टों ने कभी पनपने नहीं दिया था।
इन पांच राष्ट्रों के सात करोड़ लोग ठीक से नमाज़ पढऩा भी नहीं जानते थे। वे रोज़े भी ठीक से नहीं रखते थे। उन्होंने अपने तुर्की और फारसी नामों का भी रूसीकरण कर लिया था। जैसे आजम का आजमोव और रहमान का रहमानोव। लेकिन पड़ौसी मुस्लिम राष्ट्रों की मेहरबानी से वहां उग्रवाद और आतंकवाद की भट्टियां धधकने लगी हैं। इन स्वतंत्र हुए सभी प्राचीन आर्य राष्ट्रों में मुझे पहले और अब भी रहने का अवसर मिला है। मैं उनकी भाषा भी बोल लेता हूं। वे यदि उग्रवाद और आतंकवाद को नियंत्रित नहीं कर पाएंगे तो इन देशों को बर्बाद होने से कोई रोक नहीं पाएगा।
रूस को इन देशों के खिलाफ भी कार्रवाई करनी पड़ सकती है। जहां तक दारिया दुगिना की हत्या का सवाल है, रूसी अधिकारियों का कहना है कि एक यूक्रेनी औरत, जिसका नाम नतालिया वोक है, उसने दारिया की हत्या की है। वह भेजी तो गई थी अलेक्जेंडर दुगिना की हत्या के लिए लेकिन दारिया ही उसके हाथ लग गई। दारिया को श्रद्धांजलि देते हुए राष्ट्रपति पूतिन ने उसे गहन राष्ट्रवादी और निर्भीक युवती बताया है।
हालांकि यूक्रेन के राष्ट्रपति तथा अन्य अधिकारियों ने इस हत्याकांड से अपना कोई भी वास्ता नहीं बताया है लेकिन यह घटना रूस-यूक्रेन युद्ध को और भी गंभीर रूप प्रदान कर सकती है। रूसी जांच एजेंसी को शक है कि हत्या करने के बाद नतालिया तुरंत भागकर एस्टोनिया में छिप गई है। एस्टोनिया एक पूर्व-सोवियत राष्ट्र है और आजकल रूस से उसके संबंध सामान्य नहीं हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अब यह रूसी युद्ध यूक्रेन के बाहर भी फैल जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-पुर्णेन्दु शुक्ला
बिलकिस बानो ने कहा ‘इतना अन्यायपूर्ण फैसला लेने के पहले किसी ने भी मेरी सुरक्षा के बारे में नहीं सोचा...’
14 लोगों की हत्या और गर्भवती महिला से गैंगरेप के 11 दोषियों की रिहाई को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई..!
गुजरात दंगों से जुड़ा बिलकिस बानो मामला अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। 11 दोषियों की रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर जल्द सुनवाई की मांग की गई है। ष्टछ्वढ्ढ ने कहा कि वो इस मामले को देखेंगे। वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और वकील अपर्णा भट ने जल्द सुनवाई की मांग की गई है। सिब्बल ने कहा कि मामले की बुधवार को ही सुनवाई हो। उन्होंने कहा कि 14 लोगों की हत्या और गर्भवती महिला से गैंगरेप के 11 दोषियों को गुजरात सरकार ने रिहा कर दिया है।
बिलकिस ने इसे लेकर कहा था कि इस कदम ने न्याय के प्रति उनके विश्वास को हिलाकर रख दिया है। उन्होंने कहा, ‘दो दिन पहले, 15 अगस्त 2022 को पिछले 20 साल का दर्द फिर से उभर आया। जब मैंने सुना कि जिन 11 दोषियों ने मेरे परिवार और मेरी जिंदगी को तबाह किया था और मेरी 3 साल की बेटी को मुझसे छीना था, आजाद हो गए हैं।’ बिलकिस ने कहा, ‘मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं। मैं स्तब्ध हूं। मैं केवल यही कह सकती हूं-किसी महिला के लिए न्याय आखिर इस तरह कैसे खत्म हो सकता है? मैंने अपने देश के सर्वोच्च कोर्ट पर भरोसा किया, मैंने सिस्टम पर भरोसा किया और मैं धीरे-धीरे इस बड़े ‘आघात’ के साथ जीने की आदत डाल रही थी।’
उन्होंने कहा, ‘इन दोषियों की रिहाई ने मेरे जीवन की शांति छीन ली है और न्याय के प्रति मेरे विश्?वास को हिला डाला है। मेरा गम और डगमगाता भरोसा केवल मेरे लिए नहीं है, बल्कि हर उस महिला के लिए है जो अदालतों में न्याय के लिए संघर्ष कर रही है।’ इस महिला ने कहा, ‘इतना बड़ा और अन्यायपूर्ण फैसला लेने के पहले किसी ने भी मेरी सुरक्षा और भले के बारे में नहीं सोचा। मैं गुजरात सरकार से अपील करती हूं कि फैसले को वापस ले। बिना किसी भय और शांति से मेरे जीने का अधिकार वापस दें।’
उन्होंने कहा कि सरकार के इस फैसले को सुनकर उन्हें लकवा सा मार गया है। उन्होंने कहा, ‘‘मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं अभी भी होश में नहीं हूं।’’ दोषियों की रिहाई से मेरी शांति भंग हो गई है और न्याय पर से मेरा भरोसा उठ गया है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की प्रसिद्ध गायिका नय्यारा नूर (71) का रविवार को निधन हो गया। सारे पाकिस्तान के अखबार और चैनल उनके शोक-समाचार से भरे हुए हैं। नय्यारा नूर से मेरी पहली मुलाकात 1981 में हुई थी। जनवरी 1981 में जब मैं काबुल में प्रधानमंत्री बबरक कारमल से मिलने जा रहा था तो राजमहल के ड्राइवर ने कार में एक हिंदी गजल चला दी। मैंने उससे फारसी में पूछा कि यह पठान या ताजिक गायिका इतनी अच्छी हिंदी-उर्दू गजल कैसे गा रही है?
उसने बताया कि यह महिला अफगान नहीं, पाकिस्तानी है और इसका नाम नय्यारा नूर है। उसी साल मेरा पाकिस्तान भी जाना हुआ, ‘इंस्टीट्यूट आफ स्ट्रेटिजिक स्टडीज’ के निमंत्रण पर। उस समय पाकिस्तान के लगभग सभी सत्तारुढ़ और विरोधी नेताओं से मेरा मिलना हुआ लेकिन मेरी बड़ी इच्छा थी कि कुछ वक्त मिले तो मैं नय्यारा नूर से जरुर मिलूं। उन दिनों नूरजहां और मलिका पुखराज जैसी वरिष्ठ गायिकाओं का सिक्का बहुत जमा हुआ था।
उनसे भेंट के बाद नय्यारा से संपर्क करके मैं लाहौर में उनके घर पहुंचा तो मुझे ढूंढते-ढूंढते मेहदी हसन भी वहां आ पहुंचे। वे जयपुर के थे। मैंने बताया कि मेरे दादा-परदादा खाटू के थे तो वे मुझसे मारवाड़ी में बात करने लगे। नय्यारा के पति शहरयार जैदी लखनऊ के थे। हम चारों भारतीय मूल के लोग आपस में इतने रम गए कि जैसे बरसों से दोस्त रहे हों। नय्यारा नूर गुवाहाटी में 1950 में पैदा हुई थीं। 8 साल बाद उनके पिता पाकिस्तान चले आए।
जब नय्यारा लाहौर के कालेज में पढ़ रही थीं तो अचानक उनकी गायन-प्रतिभा प्रस्फुटित हो गई। वे पहले रेडियो पर गाने लगीं। फिर क्या था? उनकी बड़ी-बड़ी महफिलें सजने लगीं। टीवी चैनलों और फिल्मों में भी उनकी गजलें सुनी जाने लगीं। छोटी उम्र में ही वे बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय होने लगीं। उन्होंने मीर, गालिब, फैज़ और कई शायरों की गजलें गाईं। उन्हें कई सम्मान और पुरस्कार मिले। लेकिन मैंने जो सज्जनता और सरलता उनमें और उनके पति जैदी साहब में पाई, वह बहुत कम भारतीय और पाकिस्तानी कलाकारों में पाई।
पहली मुलाकात में ही पति-पत्नी ने मेरा दिल जीत लिया। उन्होंने मुझे अपने कई कैसेट भेंट दिए, जो आजतक मेरे पास हैं और जिन्हें मैं बहुत प्रेम से सुनता हूं। पिछले 40 साल में पाकिस्तान की मेरी हर यात्रा के दौरान मेरी इच्छा रहती थी कि बहन नय्यारा से मिलूं और उनके पास बैठकर उनकी गजलें सुनूं लेकिन वे अब कराची में रहने लगी थीं। कराची जब भी जाना हुआ, वह भी सिर्फ कुछ घंटों के लिए और कुछ खास मुलाकातों के लिए! इसीलिए नय्यारा समेत कई मित्रों से सिर्फ फोन पर बात करके ही संतुष्ट होना पड़ता रहा।
नय्याराजी से अभी दो-तीन महिने पहले भी फोन पर बात हुई थी। उनकी तबियत ठीक नहीं थी। उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने पिछले कुछ वर्षों से गाना छोड़ दिया है। उनका गायन और आत्म-प्रचार के प्रति यह अनासक्त भाव मुझे आश्चर्यचकित करता रहा।
नय्यारा नूर, मलिका पुखराज, नूरजहां और मेहदी हसन जैसे लोगों ने पाकिस्तान की इज्जत बढ़ाई और अपनी प्रतिभा से पाकिस्तानियों को आनंदित किया लेकिन जैसा कि राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने कहा था कि ‘हर पाकिस्तान के दिल में एक हिंदुस्तान धडक़ता है’, उनकी यह कहानी नय्यारा नूर जैसे कई महान कलाकारों के लिए एकदम सही बैठती है। नय्याराजी को हार्दिक श्रद्धांजलि ! (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अपने दल के मंत्रियों के लिए एक नई आचार-संहिता जारी की है, जो मेरे हिसाब से अधूरी है लेकिन बेहद सराहनीय है। सराहनीय इसलिए कि हमारे नेता ही देश में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े स्त्रोत हैं। यदि उनमें आचरण की थोड़ी-बहुत शुद्धता शुरु होने लगे तो धीरे-धीरे भारतीय राजनीति का शुद्धिकरण काफी हद तक हो सकता है। फिलहाल तेजस्वी ने अपने मंत्रियों से कहा है कि वे बुजुर्गों से अपने पांव छुआना बंद करें। उन्हें खुद नमस्कार करें।
हमारे देश में अपने से बड़ों के पांव छूने की जो परंपरा है, दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। जापान में कमर तक झुकने, अफगानिस्तान में गाल पर चुम्मा जमाने और अरब देशों में एक-दूसरे के गालों को छुआने की परंपरा मैंने देखी है लेकिन अपने भारत की इस महान परंपरा को सत्ता, पैसा, हैसियत और स्वार्थ के कारण लोगों ने शीर्षासन करवा रखा है। देश के कई वर्गो के लोगों को मैंने देखा है कि वे अपने से उम्र में काफी बड़े लोगों से अपना पांव छुआने में जरा भी संकोच नहीं करते बल्कि वे इस ताक में रहते हैं कि बुजुर्ग उनके पांव छुएं तो उनके बड़प्पन का सिक्का जमे।
बिहार और उत्तरप्रदेश में तो मंत्रियों, सांसदों और साधुओं के यहां ऐसे दृश्य अक्सर देखने को मिल जाते हैं। तेजस्वी यादव इस कुप्रथा को रूकवा सकें तो उन्हें यह बड़ा नेता बनवा देगी। तेजस्वी ने दूसरी सलाह अपने मंत्रियों को यह दी है कि वे आगंतुकों से उपहार लेना बंद करें। उनकी जगह कलम और किताबें लें। कितनी अच्छी बात है, यह? लेकिन नेता उन किताबों का क्या करेंगे? किताबों से अपने छात्र-काल में दुश्मनी रखने वाले ज्यादातर लोग ही नेता बनते हैं।
तेजस्वी की पहल पर अब वे कुछ पढऩे-लिखने लगें तो चमत्कार हो जाए। वरना होगा यह कि वे किताबें भी अखबारों की रद्दी के साथ बेच दी जाएंगी। डर यह भी है कि अब मिठाई के डिब्बों की बजाय किताबों के डब्बे मंत्रियों के पास आने लगेंगे और उन डिब्बों में नोट भरे रहेंगे। तेजस्वी ने तीसरी पहल यह की है कि मंत्रियों से कहा है कि वे अपने लिए नई कारें न खरीदवाएं। यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन यह काफी नहीं है। तेजस्वी चाहें तो नेताओं के आचरण को आदरणीय और आदर्श भी बनवाने की प्रेरणा दे सकते हैं।
पहला काम तो वे यह करें कि सांसदों और विधायकों की पेंशन खत्म करवाएं। दूसरा, उन्हें सरकारी मकानों में न रहने दें। अब से 50-55 साल पहले वाशिंगटन में मैं 45 डालर महिने के जिस कमरे में रहता था, उसी के पास तीन कमरों में अमेरिका के कांग्रेसमेन और सीनेटर भी किराये पर रहते थे। तेजस्वी खुद बंगला छोड़ें तो बाकी मंत्री भी शर्म के मारे भाग खड़े होंगे।
हमारी राजनीति को यदि भ्रष्टाचार से मुक्त करना है तो हमारे नेताओं को अचार्य कौटिल्य और यूनानी विद्वान प्लेटो के ‘दार्शनिक राजाओं’ के आचरण से सबक लेना चाहिए। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की शपथ ली, तब कहा था कि वे देश के ‘प्रधान सेवक’ हैं। तेजस्वी इस कथन को ठोस रूप देकर क्यों न दिखाएं? यदि वे ऐसा कर सकें तो पिछड़ा हुआ बिहार भारत-गुरु बन जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-निधीश त्यागी
21वीं सदी में पनप चुकी मार्केट इकोनॉमी की बदौलत बने एक हाइवे पर एक चमकीली कार तेजी से दौड़ रही है। उसके स्टीरियो के चार या शायद ज्यादा स्पीकर्स से जो आवाज आ रही है, वह नैय्यरा नूर तुम्हारी है। उस वीरान शाम के लंबे से सफर में अगर तुम फैज को न गा रही होती तो मुझे तुमसे शायद मुहब्बत न हुई होती। वैसे तो यह भी कह सकता हूं, मेरी जिंदगी में भी वह सब न चल रहा होता, तो भी शायद ऐसा न होता।
पता नहीं कब फैज ने लिखा उन्हें पता नहीं कहां, और पता नहीं किस स्टूडियो में तुमने जाकर उन्हें रिकॉर्ड किया। कौन सा वक्त कौन सी जगह। पर जैसे उस धूप किनारे सब पिघलता, घुलता मेरी आत्मा में तुम्हारे बोल ऐसे दस्तक दे रहे थे कि तय करना मुश्किल था कि दस्तक बाहर से आ रही है या भीतर से। हम वक्त के एक तिलिस्मी पड़ाव पर हैं इकट्ठे और नजरों से ओझल। तुम्हारी आवाज एक पल या डोरे की तरह जोड़ती है दिल के कहे को दिल के सुने से। फैज को पढ़ना फैज के बारे में पढ़ना नहीं है। फैज की तस्वीर देखना (एक प्रापर्टी डीलर वाला सफेद सफारी सूट जिसमें बस मोबाइल फोन नहीं झांक रहे) इन दोनों से अलग है।
नैय्यरा नूर, तुम्हारी आवाज से उस बगावत की बू नहीं आती, जिसके लिए हम फैज को जानते हैं। तुम्हारी आवाज फैज के गुस्से को नहीं, उसकी पेचीगियों को भी नहीं, बल्कि उसके भीतर के नर्मदिल और मजबूर, और प्यार करने वाले इंसान का हलफिया बयान बनती है। जो न काटती है, न चीरती है, बस एक फाहे की तरह नम उस जख्म को छूती है, जो पता नहीं कब से हरे थे और तुम्हारी आवाज के इंतजार में।
पहले तुम्हारी आवाज और फिर तुम्हारे बोल जहन में घुलते हैं। संगीत और कविता दोनों ही आत्मा का द्रव्य है। शब्द फिर भी कई बार फंस जाते हैं, संगीत नहीं। मैं बार-बार तुम्हारी आवाज से भरता हूँ, अपनी आत्मा के खाली मर्तबान को। तुम्हारे उन गीतों को गाने और मेरे सुनने में करीब पच्चीसेक सालों का फासला है और फैज को उनके लिखे का और भी ज्यादा। परिदों की तरह संगीत भी आसमानी होता है, जमीन पर खिंची लकीरें उसे रोक नहीं सकतीं।
तुम्हारी आवाज से मुझे इतना प्यार हो गया कि मैंने तुम्हारी शक्ल लंबे समय नहीं देखी। एक अरसे तक तुम्हें गूगल नहीं किया। बस तुम्हारी आवाज और लोगों से उसकी तारीफ। फिर एक दिन किसी ने एक यू-ट्यूब का लिंक भेजा जिसमें कोई और गा रहा है, तुम उस में बैठी हुई हो। और तुम उस भीड़ में भी अलग हो...। सादगी और गरिमा से जगमग...। मेरे बचपन के कस्बों की भली पड़ोसन लड़कियों की तरह, दोस्तों की बड़ी बहनों की तरह, जिनमें हमेशा एक तरह की पवित्रता रहती है।
बहुत मन था कि इस चिट्ठी को उर्दू में लिखवाकर तम्हें भेज दंू। पर जिस तारीख की आवाज से मुझे मुहब्बत है, वह तारीख दीवार पर टंगे कलैंडरों से फडफ़ड़ाकर कब की उड़ चुकी है। तुम्हारी अपनी जिंदगी होगी, अपना संसार। और जितना यकीं तुम्हारी आवाज पर है, उतना बाकी सब पर नहीं। न मैं तुम्हारे गाए के लिए गलत समझा जाना चाहता हूं न अपने सुने के लिए।
कार को जहां पहुंचना था, पहुंच गई है। मैं अपनी जगह नहीं पहुंचा हूं। फिलवक्त तुम्हारा गीत फिर से बज रहा है। और जल्दी नहीं है...
('तमन्ना तुम अब कहां हो' किताब से)
-राहुल कुमार सिंह
यहां प्रस्तुत जानकारी, मुख्यत: इंटरनेट पर उपलब्ध अधिकृत या विश्वसनीय स्रोतों से ली गई है। साथ ही अल्पज्ञात प्रकाशित सामग्री तथा स्वयं द्वारा एकत्र जानकारियों का समन्वय किया गया है। यथासंभव तथ्यों का परीक्षण स्वयं किया गया है। भारत शासन द्वारा सन 2000 में पुनर्मुद्रित कराई गई भारतीय संविधान की प्रति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के पं. सुन्दरलाल शर्मा ग्रंथागार में उपलब्ध है, सदस्यों के हस्ताक्षर के लिए स्वयं अवलोकन कर इसे आधार बनाया गया है। अन्य जानकारी किसी अधिकृत स्रोत से उपलब्ध होने पर, यहां प्रस्तुत जानकारी में संशोधन/परिवर्धन कर दिया जावेगा।
इंटरनेट पर उपलब्ध कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया - वाल्युम 1 में सोमवार, 9 दिसंबर 1946 की पहली बैठक में रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए नामों में मद्रास 43, बाम्बे से 19, बंगाल से 26, युनाइटेड प्राविंस से 42, पंजाब से 12, बिहार से 30, सी.पी. एंड बरार के 14, असम के 7, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्राविंस से 2, उ?ीसा से 9, सिंध से 1, दिल्ली से 1, अजमेर-मेरवारा से 1, कुर्ग से 1, इस प्रकार कुल 208 नामों का उल्लेख है, जिसमें सी.पी. एंड बरार के 14 नामों में सरल क्रमांक 1 पर पं. रवि शंकर शुक्ल, 6 पर ठाकुर छेदीलाल, एम.एल.ए., 10 पर गुरु अगमदास अगरमनदास, एम.एल.ए. का नाम छत्तीसगढ़ के सदस्यों का आया है। कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया-वाल्युम 4 में सोमवार, 14 जुलाई 1947 की बैठक में रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए नामों में इस्टर्न स्टेट्स से राय साहब रघुराज सिंह का नाम आया है।
विकिपीडिया के ‘भारतीय संविधान सभा‘ पेज पर मध्यप्रांत और बरार [संपादित करें] के अंतर्गत दर्ज सदस्य नामों में से छत्तीसगढ़ के नाम, गुरु अगमदास, बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, पं किशोरी मोहन त्रिपाठी, घनश्याम सिंह गुप्ता, रविशंकर शुक्ल, रामप्रसाद पोटाई, इस प्रकार कुल छह नाम हैं।
विकिपीडिया के कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया पेज पर सेंट्रल प्राविंसेस एंड बरार के 19 नाम हैं, जिनमें ठाकुर छेदीलाल, घनश्याम सिंह गुप्ता, रविशंकर शुक्ल के अतिरिक्त अंबिका चरण शुक्ल (क्रम 1 पर) तथा गनपतराव दानी (क्रम 19 पर) नाम मिलता है, जो छत्तीसग? से संबंधित हैं, उक्त दोनों नामों की पुष्टि अन्य स्रोतों से नहीं हुई है।
जानकारी मिलती है कि पुनर्गठित संविधान सभा के 299 सदस्यों की बैठक 31 दिसंबर 1947 को हुई, जिन सदस्यों की 2 वर्ष 11 माह, 18 दिन में कुल 114 दिन बैठक के बाद 24 जनवरी 1950 को हस्ताक्षर कर संविधान को मान्यता दी गई। संविधान सभा के सदस्यों के हस्ताक्षर संविधान की प्रति में पेज 222 पर आठवीं अनुसूची के बाद पेज 231 तक दस पृष्ठों पर हैं। पेज 222 पर 17, 223 पर 30, 224 पर 34, 225 पर 34, 226 पर 34, 227 पर 32, 228 पर 30, 229 पर 34, 230 पर 34, 231 पर 5, इस प्रकार कुल 284 हस्ताक्षर हैं। हस्ताक्षरों के संबंध में ध्यान देने योग्य-
0 कुछ सदस्यों ने दो लिपियों में हस्ताक्षर किए हैं।
0 हस्ताक्षर के साथ कोष्ठक में नाम भी लिखा है।
0 मैसूर के एच.आर. गुरुवरेड्डी का हस्ताक्षर पेज 226 पर तथा पेज 229 पर, इस प्रकार एक ही व्यक्ति का एक जैसा ही दो हस्ताक्षर, कोष्ठक में नाम सहित आया है।
0 पेज 229 पर दो हस्ताक्षर के नीचे दिनांक 24.1.1950 भी अंकित है।
0 राजेन्द्र प्रसाद का हस्ताक्षर जिस स्थान पर है, उसे देख कर लगता है कि अंतिम प्रारूप हस्ताक्षर के लिए सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू को प्रस्तुत किया गया और जैसा कायदा है, लेख और हस्ताक्षर के बीच खाली स्थान न छोड़ते हुए, उन्होंने अपने हस्ताक्षर किए हैं। अतएव राजेन्द्र प्रसाद द्वारा जगह बनाते जवाहरलाल नेहरू के उपर तिरछे हस्ताक्षर किया गया।
0 संविधान सभा की बैठकों के प्रतिवेदन से जानकारी मिलती है कि 24 जनवरी 1950 को संविधान की प्रति पर हस्ताक्षर के लिए अध्यक्ष द्वारा सदस्यों से आग्रह किया जाता है कि वे एक-एक कर आएं और प्रतियों पर हस्ताक्षर करें। सदस्यगण जिस क्रम में बैठे हैं, उसी क्रम में उन्हें पुकारा जाएगा प्रधानमंत्री को पब्लिक ड्यूटी में जाना है इसलिए हस्ताक्षर के लिए उनसे पहले आग्रह किया गया।
0 ग्रंथागार वाली जिस प्रति का मैंने अवलोकन किया है उसमें कुल 231 पेज में, पेज 228 तथा पेज 229 दो-दो बार हैं, इससे संभव है कि इस संस्करण में मुद्रित किसी प्रति में उक्त दो पेज कम हों।
छत्तीसगढ़ के सदस्यों में, पेज 227 पर रविशंकर शुक्ल और ठाकुर छेदीलाल के हस्ताक्षर 228 पर घनश्याम सिंह गुप्त के हस्ताक्षर (नागरी में), 229 पर रामप्रसाद पोटाई और 230 पर के.एम. त्रिपाठी के हस्ताक्षर (रोमन में) हैं, इस प्रकार कुल पांच व्यक्तियों के हस्ताक्षर हैं। लोक सभा की साइट पर नवंबर 1949 की स्थिति में संविधान सभा के सदस्यों की प्रदेशवार सूची में सेंट्रल प्राविंसेस एंड बरार के 17 नामों में छत्तीसग? के ठाकुर छेदीलाल (क्रम 5 पर), घनश्याम सिंह गुप्त (क्रम 10 पर), रवि शंकर शुक्ल (क्रम 13 पर) तथा सेंट्रल प्राविंसेस स्टेट्स के तीन नामों में छत्तीसगढ़ के किशोरीमोहन त्रिपाठी (क्रम 2 पर) तथा रामप्रसाद पोटई (क्रम 3 पर) हैं। इस प्रकार पुष्टि होती है कि उक्त पांच संविधान सभा के नियमित तथा हस्ताक्षर की तिथि तक सदस्य रहे।
उक्त संविधान पुरुषों के यों अन्य फोटो भी उपलब्ध होते हैं, किंतु यहां उनकी फोटो आगे आए समूह चित्र से निकाली गई है। उक्त समूह चित्र में घनश्याम सिंह गुप्त की पहचान मेरे द्वारा निश्चित नहीं कर पाने के कारण उनकी अन्य तस्वीर ली गई है। फोटो के नीचे हस्ताक्षर संविधान की प्रति में किए गए हस्ताक्षर से लिए गए हैं।
यहां आए छत्तीसगढ़ के नामों में मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल, अकलतरा के बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, दुर्ग के घनश्याम सिंह गुप्त, कांकेर के रामप्रसाद पोटई, रायगढ़ के के.एम. त्रिपाठी यानि किशोरी मोहन त्रिपाठी और सतनामी गुरु अगमदास अगरमनदास, उनका परिवार सामान्यत: जाना जाता है। रघुराज सिंह (क्रड्डद्दद्धश क्रड्डद्भ स्द्बठ्ठद्दद्ध), सरगुजा स्टेट के दीवान रहे तथा बाद में राजकुमार कॉलेज, रायपुर में प्रिंसिपल रहे, उनका परिवार अब रायपुर निवासी है।
सामने से पहली की पंक्ति-59 सदस्य, दूसरी पंक्ति-59, तीसरी पंक्ति-58, चौथी पंक्ति-54 तथा सबसे पीछे पांचवीं पंक्ति में 48, इस प्रकार कुल 278 व्यक्ति हैं। चित्र में पं. रविशंकर शुक्ल पहली पंक्ति में बायें से दाएं गणना में क्रम 39 पर, इसी तरह ठाकुर छेदीलाल दूसरी पंक्ति में क्रम 40 पर, किशोरी मोहन त्रिपाठी तीसरी पंक्ति में क्रम 7 पर और रामप्रसाद पोटई इसी तीसरी पंक्ति में क्रम 34 पर हैं। जैसा कि उपर उल्लेख है इस तस्वीर में घनश्याम सिंह गुप्त की पहचान निश्चित नहीं हो सकी है।
संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत का संविधान पारित किए जाने के अवसर पर अपने भाषण में अनुवादकों का उल्लेख करते हुए कहा था माननीय श्री जी.एस. गुप्त की अध्यक्षता वाली अनुवाद समिति के द्वारा संविधान में प्रयुक्त अंग्रेजी के समानार्थी हिंदी शब्द तलाशने का कठिन कार्य किया गया है। (सिंहावलोकन)
(akaltara.blogspot.com)
-कृष्ण कांत
महात्मा गांधी को महात्मा किसने कहा? गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने। महात्मा गांधी को फादर ऑफ नेशन किसने कहा? नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने। विनायक दामोदर सावरकर को वीर किसने कहा? खुद सावरकर ने।
तो हुआ यूं कि जब सात माफीनामे के बाद सावरकर जेल से छूटे तो उसके 2 साल बाद उनकी एक जीवनी छपी- ‘बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर का जीवन’। इस किताब में ही पहली बार उनको ‘स्वातंत्र्य वीर’ कहा गया।
इसके बाद सावरकर वीर बने रहे। किसी ने सवाल नहीं उठाया। यहां तक कि जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस इंडियन नेशनल आर्मी बनाकर अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध छेडऩे की घोषणा कर रहे थे, जब पूरी कांग्रेस और पूरे आंदोलन के नेता लोग जेल में थे, तब सावरकर अंग्रेजों से पेंशन ले रहे थे और अंग्रेजी सेना के लिए भारतीय युवाओं की भर्ती के लिए कैंप लगवा रहे थे। फिर भी वे वीर बने रहे।
1986 में इस किताब को फिर से प्रकाशित करवाया गया और तब इस किताब की प्रस्तावना लिखने वाले डॉक्टर रवींद्र वामन रामदास ने किताब के कुछ हिस्से के हवाले से यह रहस्योद्घाटन किया चित्रगुप्त और कोई नहीं खुद सावरकर थे। इस दावे का खंडन आज तक नहीं हुआ है कि कोई चित्रगुप्त नाम का लेखक, उसका कोई चेला या उसका कोई परिवार इस दावे का खंडन करे कि नहीं चित्रगुप्त सावरकर खुद नहीं थे। चित्रगुप्त नाम का कोई व्यक्ति इस दुनिया में मौजूद था जिसने वीर सावरकर को ‘वीर’ और ‘जन्मजात नायक’ घोषित किया था।
अब आरएसएस वाले चाहते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के फादर ऑफ नेशन और गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर के महात्मा को उनकी पदवियों से बेदखल कर दिया जाए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के 30 साल के नेतृत्व को नकार दिया जाए और माफी मांग कर जेल से छूटकर अंग्रेजों से पेंशन लेने वाले, अंग्रेजों का साथ देने वाले और भारतीय क्रांतिकारियों से गद्दारी करने वाले सावरकर को इस देश का सबसे महान क्रांतिकारी घोषित कर दिया जाए। यही नहीं, वे ये भी चाहते हैं कि गांधी के हत्यारे की भी पूजा की जाए। आप ही बताइए क्या यह संभव है?
जीएस राममोहन
आजाद भारत के 75 साल पूरे होने पर जो भी विश्लेषण देखने को मिल रहा है उनमें से अधिकांश में पिछले तीन दशकों की बात हो रही है। ज़ोर इस बात पर है कि कैसे इस अवधि के दौरान भारत एक बेमिसाल देश बन गया है।
कई लोग याद दिला रहे हैं कि कैसे लैंडलाइन फोन कनेक्शन के लिए अपने इलाके के सांसद के चक्कर लगाने होते थे, गैस कनेक्शन के लिए महीनों लंबा इंतज़ार करना होता था और अपने परिजनों से बात करने के लिए सार्वजनिक फोन बूथ के बाहर लंबी कतार में घंटों इंतज़ार करना पड़ता था।
1990 के दशक में और उसके बाद पैदा हुए लोग उपरोक्त बातों से परिचित न होंगे लेकिन पुरानी पीढय़िों के लिए ये जीता जागता सच रहा है।
स्कूटर खरीदने के लिए भी सालों इंतजार करना होता था। वहां से स्थितियां काफी बदल गई हैं। प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, उत्पादों की निरंतर आपूर्ति और लाइसेंस के तौर तरीकों में संशोधन से यह बदलाव आया है।
सर्विस सेक्टर और रोजमर्रा के कामों में एक हद तक व्यक्तिगत आग्रहों या फैसलों को खत्म किया गया था। इससे मध्य वर्ग की रोजमर्रा की जिंदगी काफी आसान हो गई है।
1990 के दशक में आर्थिक सुधार जोर-शोर से लागू कर दिए गए और तब से जो रास्ता बना है उसमें कई बदलाव आ चुके हैं जो आज भी स्पष्ट तौर पर नजऱ आ रहे हैं।
आर्थिक सुधारों से निकले महत्वपूर्ण बदलाव ये थे: प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में बढ़ोतरी, आपूर्ति व्यवस्था की स्थिति में सुधार और लाइसेंस राज की समाप्ति।
लेकिन इन बदलावों के अलावा और भी ऐसे बुनियादी मुद्दे थे जिन पर चर्चा किए जाने की ज़रूरत है और जो ज़्यादा प्रखर तौर पर सर्विस सेक्टर में नजऱ आने लगे थे। इसे समझने के लिए दो मुख्य प्रक्रियाओं को देखना होगा। एक तरफ़ गऱीबी कम हो रही है तो दूसरी तरफ़ असमानता बढ़ रही है। इस लिहाज से देखें तो 75 साल में दो अहम बदलाव हुए- गरीबी में कमी और असमानता बढ़ गई।
गरीबी में कमी
1994 और 2011 के बीच भारत में कहीं ज़्यादा तेज गति से गरीबी कम हुई। इस अवधि के दौरान गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या 45 फीसद से गिरकर 21.9 फीसद पर आ गई।
करीब 13 करोड़ लोगों को घोर गरीबी से बाहर निकाल लिया गया था। 2011 के बाद के आंकड़े आधिकारिक तौर पर जारी नहीं हुए हैं। हालांकि सर्वे हुए हैं लेकिन उसके आंकड़े जारी नहीं किए गए हैं।
विश्व बैंक के मुताबिक 2019 के अंत तक गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले आबादी 10।2 फीसदी पर आ गई थी। शहरी भारत के मुकाबले ग्रामीण भारत की स्थिति ज़्यादा बेहतर थी।
ये ध्यान देने वाली बात है कि अत्यंत गरीबी में जीवन यापन करने वालों की संख्या कम करने में 75 साल लगे थे और आर्थिक सुधारों के 30 सालों की इसमें एक अहम भूमिका थी। करीब आधी से ज़्यादा आबादी-करीब 45 फीसदी-तीन दशक पहले गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रही थी। आज वो संख्या 10 फीसद है। ये एक असाधारण बदलाव है। ये साफ़ है कि इन तीन दशकों में गरीबी हटाओं के नारे को जीवंत बनाने के लिए जबर्दस्त तेजी दिखाई गई है।
इसी दौरान, इन तीन दशकों में लागू आर्थिक सुधारों से असमानताएं भी बढ़ी है। अरबपतियों की संपत्ति आसमान छूने लगी है। राष्ट्रीय संपदा में सबसे निचले पायदान के लोगों का हिस्सा कम होता जा रहा है।
90 के दशक में भारत से दुनिया के अरबपतियों की फोर्ब्स की सूची में कोई शामिल नहीं था। 2000 में उस सूची में 9 भारतीय थे। 2017 में उनकी संख्या 119 हो गई। और 2022 में फोब्र्स की अरबपतियों की सूची में 166 भारतीयों के नाम हैं।
रूस के बाद सबसे ज्यादा अरबपति भारत में हैं। 2017 की ऑक्सफैम रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय संपदा का 77 फीसद हिस्सा शीर्ष पर मौजूद 10 फीसद लोगों तक सीमित है। सबसे अमीर शीर्ष के एक फीसदी लोग 58 फीसदी राष्ट्रीय संपत्ति पर स्वामित्व रखते हैं।
भारत में अरबपतियों की संख्या
1990 में अगर आय को देखें तो शीर्ष 10 फीसदी के पास राष्ट्रीय आय का 34.4 फीसद हिस्सा था और 50 फीसद निम्न तबके की हिस्सेदारी राष्ट्रीय आय में महज 20.3 फीसद थी। 2018 में सबसे अमीर लोगों के लिए यह हिस्सेदारी बढक़र 57.1 फीसद हो गई जबकि गरीबों के लिए ये घटकर 13.1 फीसदी रह गई।
उसके बाद भी, ऑक्सफेम रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड महामारी के दौरान भी अमीर लोगों की संपत्ति बढ़ती गई।
20 महीने में 23 लाख करोड़
2017 में सबसे अमीर 10 फीसद लोगों के पास 77 फीसद राष्ट्रीय संपत्ति थी। सबसे अमीर एक फीसद लोगों के बाद राष्ट्रीय संपत्ति का 58 प्रतिशत हिस्सा मौजूद था।
ऑक्सफैम के आंकड़ों के मुताबिक शीर्ष 100 अरबपतियों के पास 2021 में 57.3 लाख करोड़ की संपत्ति आंकी गई थी। जबकि कोविड महामारी के दौरान (मार्च 2020 से नवंबर 2021 तक) भारत में अरबपतियों बढक़र 23.14 लाख करोड़ हो गई थी।
भारत की कामयाबी या आर्थिक समृद्धि की कहानी को, गरीबी में कमी और असमानता में बढ़ोतरी के दो विपरीत तथ्यों के बीच देखना चाहिए।
बात सरहद पार
दो देश, दो शख्सियतें और ढेर सारी बातें। आजादी और बँटवारे के 75 साल। सीमा पार संवाद।
भारत उन देशों में से है जहां असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या ज़्यादा है। संगठित क्षेत्र में भी, वेतन का अंतर अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में अपर्याप्त वेतन, वेतन का अंतर, काम करने की परिस्थितियां और गैरसमावेशी बढ़ोत्तरी को भारत के लिए बड़ी चुनौती माना है। आईएलओ के अलावा, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन ने भी अपने एक शोध पत्र में इन मुद्दों की ओर रेखांकित किया है।
कुछ संगठनों में, सीईओ की पगार करोड़ों मे है, वहीं कर्मचारी 15 हजार रुपये प्रति महीने का वेतन पा रहे हैं। कुछ निजी कंपनियों में वेतन का अंतराल 1000 फीसदी से ज्यादा का है।
अगर बड़े देशों को देखें तो उनमें वेतन में अंतर के मामलों में भारत सूची में सबसे ऊपर है। इससे भी असमानता और बढ़ रही है।
इतिहास बताता है कि पूंजीवाद जितनी तरक्की करता है, विशेषज्ञता बढ़ती है। प्रौद्यगिकी के इस्तेमाल से कुशल और अकुशल श्रम में अंतर भी बढ़ जाता है। कुशल कर्मचारियों के लिए प्रीमियम भुगतान, वेतन के अंतर को बढ़ा देता है। ये याद रखना होगा कि उपरोक्त कारकों को पैमाना मानें भी तो भी वेतन का अंतर, विकसित और विकासशील देशों के मुकाबले, भारत में असामान्य ढंग से ज्यादा है।
इसी तरह, संपत्ति वितरण के मापदंड के रूप में ज्ञात गिनी गुणांक को रखें तो 2011 में 35.7 था। 2018 में ये बढक़र 47.9 हो गया। पूरी दुनिया में, खासतौर पर बड़े बाजारों के बीच, जब अत्यधिक असमानता की बात आती है तो भारत का नाम सूची में सबसे ऊपर आता है।
आय की असमानता
वल्र्ड इनइक्वेलिटी डाटाबेस (डब्लूआईडी) के मुताबिक 1995 से 2021 के दौरान सबसे अमीर एक फीसद लोग और निम्न तबके के 50 फीसद लोगों के बीच आमदनी का अंतर बढ़ा है।
नीचे दिए गए ग्रॉफिक्स में 1995 से 2021 के दरम्यान अमीर 1 फीसदी और निचले तबके के 50 फीसदी के बीच आय के बढ़ते अंतर को दर्शाया गया है। लाल रेखा अमीर 1 फीसदी और नीली रेखा निम्न तबके के 50 फीसदी को दर्शाती है। ये ग्राफ बीते 20 वर्षों के दौरान इन दोनों वर्गों के बीच बढ़ती आय की असमानता को दर्शाता है।
अमीर और निम्न वर्गों की आय में बीच बढ़ता फासला
जाने माने अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने भी भारत में बढ़ती असमानता की चर्चा की है। जब सबसे अमीर 10 फीसद की आय को लेते हैं, तो भारत में असमानता 2015 के रूस और अमेरिका के मुकाबले ज़्यादा दिखती है। गरीबी की तरह, असमानता भी एक सामाजिक बुराई है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत में संपत्ति बढऩे के साथ साथ असमानताएं भी बढ़ी थीं और दोनों के बीच एक अकाट्य या अपरिहार्य रिश्ता है।
भारत में कई विश्लेषक अपनी सुविधा से आंकड़े चुनते हैं, अपना नज़रिया आगे बढ़ाकर पेश करते हैं और दूसरे मुद्दों को पीछे कर देते हैं। हालांकि कुछ ऐसे भी हैं जो ये सुनिश्चित करना नहीं भूलते कि वे मुद्दे बिल्कुल भी सुनाई न दें।
सरकार इस पर बात कर रही है लेकिन, तब भी पूरी तस्वीर उभर कर नहीं आती है। वास्तव में भारत सरकार चौथी पंचवर्षीय योजना से लेकर 2020-21 के आर्थिक सर्वे तक हर संभव स्थिति में बढ़ती असमानता की चर्चा करती आई है।
1969-74 की चौथी पंचवर्षीय योजना ने ऐलान किया था, ‘विकास का मुख्य मापदंड निजी स्तर पर लोगों को फ़ायदा पहुंचाना नहीं है। विकास की यात्रा समानता की ओर होनी चाहिए।’
2020-21 की आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट, अरस्तू के इस कथन से शुरू होती है कि ‘गरीबी, क्रांति और अपराध की जननी है।’ इस रिपोर्ट में, विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के असमानता पर किए काम पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है।
हालांकि रिपोर्ट का नतीजा ये था कि संपत्ति में वृद्धि के साथ गरीबी में कमी आती है और इस अवस्था में बढ़ती हुई संपत्ति, असमानता से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इससे ये दिखता है कि भारत किस दिशा की ओर बढ़ रहा है।
प्रथम पंचवर्षीय योजना का मानना था कि तात्कालिक तौर पर पर्याप्त संपदा उपलब्ध नहीं है, और उसे फिर से बांटने का मतलब, फिर से गरीबी बांटना ही होगा, लिहाजा, फोकस संपत्ति बढ़ाने पर होना चाहिए। 75 साल बाद, जब भारत का संपन्न वर्ग दुनिया के टॉप-10 अरबपतियों के बीच अपनी राह बना चुका है तो भी भारत वही पुरानी लकीर पीट रहा है।
अगर हम 1936 से, जब मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने औद्योगिक नीति का प्रस्ताव रखा था, तबसे लेकर 2020-21 के आर्थिक सर्वे तक, भारत की औद्योगिक यात्रा पर निगाह डालें तो हम देखते हैं कि ये तमाम चीजें संपत्ति के असमान वितरण की ओर संकेत करती हैं।
इस यात्रा का दूसरा हिस्सा गरीबी को कम करने पर रहा लेकिन इससे गांव से शहरों की ओर जबरन पलायन देखने को मिला और ये लोग शहर में आकर महज उपभोक्ता के तौर पर बदल गए।
आर्थिक सुधारों की वकालत करने वाले कुछ लोगों का मानना है कि प्रतिस्पर्धा में कमी की वजह से भारत ने अतीत में तकलीफें भुगतीं। 1990 के दशक से पहल हर चीज़ राज्य के नियंत्रण में थी। वे इस बात की आलोचना भी करते हैं कि भारत समाजवादी मॉडल की वजह से एक हाशिये की ताकत ही बना रहा।
उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि नेहरू और इंदिरा गांधी की नीतियों ने देश की वृद्धि को बाधित किया। और पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की नीतियों की बदौलत भारत उन जंजीरो को तोड़ पाया और आज जो संपदा हम देख रहे हैं वे इन दोनों के उठाए कदमों की बदौलत हैं।
ये सच है कि पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की जोड़ी सुधारों को गति देने वाले इंजिन की तरह रहीं। लेकिन हमें इससे आगे जाकर प्रक्रिया को देखना चाहिए। सुधारों की ओर उनके उन्मुख होने के पीछे भी एक ऐतिहासिक रूप से क्रमिक विकास था, वो एक प्रक्रिया थी, महज कोई छलांग नहीं थी।
वो उस दौर के उद्योगपति थे जो कहते थे कि प्रतिस्पर्धा की जरूरत नहीं है। भारत के उद्योगपतियों ने ही पहली बार प्रतिस्पर्धा का विरोध किया था और सरकार से घरेलू उद्योगों को बचाने की गुहार लगाई थी। शुरुआती चरण में उद्योगपतियों ने गुजारिश की थी कि सरकार का नियमन, नियंत्रण होना चाहिए, और विदेशी उद्योगों से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होनी चाहिए।
ये सिर्फ नेहरू का ख्याली पुलाव नहीं था। जब हम आज़ादी के मुहाने पर थे, तब जेआरडी टाटा की अगुवाई में उद्योगपतियों की 9 सदस्यों की टीम ने 1944-45 के दौरान बॉम्बे प्लान तैयार किया था। ये प्लान हमें बताता है कि उस दौर के उद्योगपतियों की सोच क्या थी।
प्रतिस्पर्धा के मामले में उद्योगपतियों ने इस बात पर जोर दिया था कि विदेशी प्रतिस्पर्धा में टिके रह पाने की भारत की क्षमता नहीं और नियमन और नियंत्रण बने रहने चाहिए। वे न सिर्फ विदेशी निवेशों के खिलाफ थे, बल्कि सरकार से मदद मांग रहे थे। बॉम्बे समूह ने यहां तक कह दिया था कि घरेलू देसी उद्योग में जान फूंकने के लिए राज्य को पैसा लगाना चाहिए।
लेकिन लायसेंसिंग और नियंत्रण से जुड़ी नीतियां एकाधिकार की ओर ले गईं। एकाधिकार जांच समिति ने खुद इस बात की तस्दीक की थी।
एकाधिकार की वजह से ही क्षमता का विकास नहीं हो सकता था और लोगों को रोजमर्रा के उपभोक्ता सामान के लिए कतारों में खड़ा रहना पड़ता था। चाहे वो संसाधन हों, या ज़रूरत के सामान हों, लैंडलाइन फोन हों या स्कूटर या कुछ भी, हर चीज किसी न किसी चीज़ के एकाधिकार की शिकार थी।
सरकार सबसे बड़ी पूंजीपति है और पूंजीवादियों की पोषक है।
सरकारी पैसों से भारतीय पूंजीपतियों की मदद, आजाद भारत के इतिहास में होता आया है। 1955-56 में संसद में नेहरू का भाषण इसी औद्योगिक नीति के इर्द-गिर्द केंद्रित था।
रूस और चीन की तरह, यहां भी, इस्पात के उत्पादन पर ध्यान दिया गया था। पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं में इस बात पर जोर दिया गया था कि अगर देश को विकास करना है तो सार्वजनिक और निजी सेक्टरों को काम करना होगा और सरकार को इसमें मुख्य भूमिका निभानी होगी।
शुरुआत में ये ही महसूस कर लिया गया था कि पूंजी के विस्तार में राज्य की भूमिका बहुत अहम है और राज्य ही सबसे बड़ा पूंजीपति और पूंजीपतियों की पोषक है।
दूसरी पंचवर्षीय योजना में लिखा गया कि अगर निजी सेक्टर बड़े उद्योग स्थापित करने की लागत वहन नहीं कर सकता है तो राज्य को ये ज़िम्मेदारी संभालनी पड़ेगी।
पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि को अहमियत दी गई थी, लेकिन दूसरी पंचवर्षीय योजना में उस जगह पर उद्योग ने कब्जा कर लिया।
पहली पंचवर्षीय योजना ने खाद्यान्न के आयात की ज़रूरत से निपटने और सरप्लस की हद तक वृद्धि करने के लक्ष्य का ऐलान किया था। विश्व भर के अनुभव हमें बताते हैं कि सरप्लस की स्थिति नयी पूंजी और पूंजीपतियों का निर्माण करते हैं। भारत में भी यही हुआ।
सामाजिक और क्षेत्रीय असमानताएं
भारत ने 80 के दशक में खाद्यान्न की कमी से निजात पा ली थी। आज वो खाद्यान्न का निर्यातक है। इस परिवर्तन में हरित क्रांति का अहम रोल था। उसके साथ, विभिन्न कृषि जातियों से पूंजीपतियों के नये वर्ग का उदय हुआ था।
आंध्र प्रदेश से कम्मा और रेड्डी जातियों का उदय इसकी एक मिसाल है। हरियाण और पंजाब के जाट और सिख व्यापारी बन गए। लिहाजा इस विकास ने कुछ जातियों में और ज़्यादा संपत्ति को फिर से वितरित कर दिया। सामाजिक असमानता यहीं पर उभरीं। शहर केंद्रित विकास मॉडल के चलते, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य औद्योगिकीकरण में पीछे रह गए। उसी दौरान तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्य आगे बढ़ निकले।
आजादी के समय, बिहार और पश्चिम बंगाल, बम्बई की तरह समान रूप से औद्योगिक थे। लेकिन आज वो पीछे रह गए हैं। ये वो बदलाव है कि जो आज आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी दिखता है।
दलील दी जाती है कि पश्चिम बंगाल के पास भले ही कोलकाता जैसा महानगर है, लेकिन भूमि सुधारों पर सख्ती से अमल करने और कृषि सरप्लस के निजी पूंजी के रूप में जमा नहीं होने से वो आज औद्योगिक रूप से पिछड़ा हुआ है।
इसी दौरान, दूसरे पक्ष का कहना है कि पश्चिम बंगाल जैसी जगह में पूंजीवादियों को अपने क़दम पीछे करने पड़े जहां काम की अच्छी स्थितियां और बेहतर पगार जैसी मांगों के लिए जगह बन चुकी थी, और इसकी वजह थी अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता। पश्चिम बंगाल आज भी कई लोगों के लिए एक केस स्टडी है।
अभाव से प्रचुरता तक
1960 के दशक में, भारत में भोजन की कमी थी और अमेरिका के आयात पर निर्भर रहना पड़ता था। आज, स्थिति ये है कि खाद्यान्न इतना ज़्यादा है कि उसका क्या करें ये स्पष्ट नहीं है। हरित क्रांति और उसके बाद की प्रक्रियाओं की वजह से ये हालात बने थे।
मालूम था कि पूंजी, कृषि उपज की अधिकता से मिली है, फिर भी राज्य एक जरूरी शुरुआती चरण में उसके हित के लिए जरूरी पर्यावरण देने में नाकाम रहा।
कृषि में पैदावार के पिछड़े तरीक़ों की वजह से अधिक उत्पादन एक बड़ा अवरोध बन गया था। आज, पैदावार योग्य भूमि घट रही है लेकिन उत्पादन बढ़ रहा है। ये एक अहम बदलाव है।
लाल बहादुर शास्त्री ने हरित क्रांति की शुरुआत की थी और इंदिरा गांधी ने उसे जारी रखा। वो हरित क्रांति और उससे प्रेरित कृषि प्रौद्योगिक बदलावों ने उन बहुत सारे बदलावों की नींव रखी थी जिन्हें हम आज देख रहे हैं।
उस दौरान, नेहरू की दूरदर्शिता की बदौलत बनाए गए बांध, बड़े काम आए थे। आर्थिक प्रणाली वित्तीय अभाव से प्रचुरता की ओर उन्मुख हुई। नये पूंजीपति परिदृश्य में उभर आए। ख़ासकर उन इलाकों और जातियों में जिन्हें हरित क्रांति से लाभ हुआ था।
ये संयोग नहीं है कि आंध्रप्रदेश में चाहे कोई भी सेक्टर हो- दवा, सिनेमा, मीडिया आदि-अधिकांश सेक्टरों पर उन लोगों का स्वामित्व है जो हरित क्रांति से लाभ हासिल करने वाले इलाकों से आते थे।
दुनिया भर में उदाहरण हैं जहां औद्योगिक पूंजी और उद्योगपति कृषि क्षेत्र से उभर कर आए हैं। लेकिन भारत को पूंजी के विस्तार में मददगार कृषि सरप्लस में वृद्धि के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा था। उसी दौरान, बैंकिंग की आम लोगों तक पहुंच होने से लोगों की जमा पूंजी बढऩे लगी थी।
पूंजीपतियों को उदारतापूर्वक कर्ज़ देने के लिए सरकार को टैक्स के ज़रिए भी मदद मिल रही थी। इस प्रक्रिया के दौरान, भारी कर्ज लेने और उसे न चुकाने की प्रवृत्ति भी शुरू हो गई थी।
चीन के मुकाबले 12 साल की देरी
चीन में 1978 मे सुधार शुरू हो गए थे। उसी दौरान भारत में उन पर विचार होना ही शुरू हुआ था। इंदिरा गांधी दूसरी बार सत्ता में आई तो उसका आगाज हुआ। उनकी अचानक मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने उसे आगे बढ़ाने की कोशिश की थी।
लेकिन उस दौरान के राजनीतिक बवंडरों की बदौलत उनकी कोशिशों उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं रही थी। एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में आर्थिक सुधार 12 साल की देरी से शुरू हुए थे।
1991 में भुगतान संकट के दौरान सोने को गिरवी रखने के घटनाक्रम ने सुधारों को अवश्यंभावी बना दिया। तत्पश्चात पीवी नरसिम्हाराव, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की शर्तों पर सहमत हो गए और उन्होंने सुधारों की शुरुआत कर दी। मनमोहन सिंह जैसे काबिल अर्थशास्त्री की अगुवाई में सुधारों ने रफ्तार पकड़ ली।
औद्योगिकीकरण के तीन चरण
पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह की भूमिका को समझते हुए भी ये ध्यान रखना चाहिए कि इन सुधारों के पीछे एक ऐतिहासिक प्रक्रिया था।
शुरुआत में औद्योगिक सेक्टर सरकार के नियंत्रण में था। अगले चरण में, ये पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी थी। आखिरी चरण में, यानी की मौजूदा अवस्था में, निजी सेक्टर प्रमुख भूमिका निभा रहा है।
ये तीनों चरण भारतीय औद्योगिक सेक्टर और आर्थिक वृद्धि की यात्रा में साफ तौर पर देखे जा सकते हैं। ये भी स्पष्ट होता है कि ये तीनों चरण क्रमवार रहे हैं और निजी पूंजीपतियों को तैयार कर, राज्य धीरे-धीरे कई सेक्टरों से दूर हटा है।
कुल मिलाकर, सुधारों से जो तरक्की हासिल हुई है और जो संपत्ति इस तरक्की से पैदा हुई है, उसे रेखांकित करते हुए गऱीबी को कम करने में भी उनकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन उसी दौरान ये भी नहीं भूलना चाहिए कि असमानताएं बहुत ख़तरनाक तेजी के साथ बढ़ती जा रही हैं।
सरकार की रिपोर्ट ने खुद ये संकेत दिया है कि ‘गरीबी क्रांति और अपराध की जननी है’ तो जाहिर तौर पर सरकार को ही, बढ़ती असमानताओं पर लगाम लगाने की हर मुमकिन कोशिश करनी होगी। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने कमाल की बहादुरी दिखाई है। इमरान ने सलमान रश्दी पर हमले की निंदा जिन शब्दों में की है, क्या भारत और पाकिस्तान के किसी नेता में इतना दम है कि वह भी उस हमले की वैसा निंदा करे? इमरान के इस बयान ने उनको दक्षिण एशिया ही नहीं, सारे पश्चिम एशिया का भी बड़ा नेता बना दिया है।
इमरान खान ने लंदन के अखबार ‘गार्जियन’ को दी गई भेंटवार्ता में दो-टूक शब्दों में कह दिया कि रश्दी पर जो हमला हुआ वह ‘अत्यंत भयंकर और दुखद’ था। उन्होंने यह भी कहा कि सलमान रश्दी की किताब ‘सेटेनिक वर्सेस’ पर मुस्लिम जगत का गुस्सा बिल्कुल जायज है लेकिन भारत में पैदा हुए इस मुस्लिम लेखक पर जानलेवा हमला करना अनुचित है। पैगंबर मोहम्मद के लिए हर मुसलमान के दिल में कितनी श्रद्धा है, यह बात रश्दी को पता है। इसके बावजूद उसने ऐसी किताब लिख मारी।
इमरान ने अपने इसी नजरिए के कारण 10 साल पहले भारत में हुए एक लेखक सम्मेलन में भाग लेने से मना कर दिया था, जिसमें रश्दी भाग लेने वाला था। लेकिन इस बार अमेरिका में चल रहे एक सम्मेलन में जब लेबनान में पैदा हुए एक मुस्लिम नौजवान ने रश्दी पर जानलेवा हमला कर दिया तो दक्षिण, मध्य और पश्चिम एशिया के नामी-गिरानी नेताओं को सांप सूंघ गया। वे डर गए कि उनकी हालत भी कहीं सलमान रश्दी जैसी न हो जाए। भारत के बड़े-बड़े सीनों वाले नेताओं की भी छातियां सिकुड़ गईं।
उन्हें भी डर लगा कि उनके साथ भी कहीं वैसा ही न हो जाए, जो नुपुर शर्मा के नाम पर हुआ है। लेकिन इमरान ने सिद्ध किया कि वह मुसलमान तो पक्का है लेकिन वह पूरा पठान भी है। वह सच बोले बिना रह नहीं सकता। जिस ईरान ने सलमान रश्दी की हत्या का फतवा 1989 में जारी किया था, उसका रवैया पहले के मुकाबले इस बार थोड़ा नरम था लेकिन उसमें भी हिम्मत नहीं थी कि वह इमरान की तरह दूध का दूध और पानी का पानी कर दे।
इमरान खान ऐसे अकेले पाकिस्तान के बड़े नेता हैं, जो तालिबान से खुले-आम कह रहे हैं कि वे अफगान औरतों का सम्मान करें। लेकिन इमरान ने पिछले साल यह भी कहा था कि पश्चिमी राष्ट्र तालिबान को अपनी जीवन-पद्धति का अनुकरण करने के लिए मजबूर न करें। तालिबान ने गुलामी का जुआ उतार फेंका है याने अमेरिकियों को अफगानिस्तान से मार भगाया है। इमरान के रश्दी और तालिबान पर दिए गए बयानों से क्या पता चलता है?
क्या यह नहीं कि इमरान मध्यम मार्ग अपना रहे हैं? एक ऐसा मार्ग, जिससे सत्य की रक्षा भी हो और कोई उससे आहत भी न हो। यही मार्ग असली भारतीय मार्ग है, जिसे गौतम बुद्ध ने भी प्रतिपादित किया था। संकीर्ण और सांप्रदायिक लोगों को यह बयान इमरान के लिए घाटे का सौदा लगेगा लेकिन इस बयान ने इस्लाम और पाकिस्तान की छवि को चमकाने का काम किया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ध्रुव गुप्त
भारतीय संगीत के युगपुरूष, शहनाई के जादूगर, भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां देश के कुछ सबसे सम्मानित संगीत व्यक्तित्वों में एक हैं। यह दिलचस्प है कि उस्ताद ख़ुद अपने दौर की तीन गायिकाओं के मुरीद रहे थे। उनमें से पहली थी बनारस की रसूलन बाई। किशोरावस्था में वे बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ करने जाया करते थे। रास्ते में रसूलन बाई का कोठा पड़ता था। कोठे के साथ एक बदनामी जुड़ी होती है, फिर भी वे बड़े भाई से छुपकर कभी-कभी कोठे पर पहुंच जाते थे। जब रसूलन गाती थीं तो वे एक कोने में खड़े मुग्ध होकर उन्हें सुनते रहते थे। रसूलन की खनकदार आवाज़ में ठुमरी, टप्पे, दादरा सुनकर उन्होंने भाव, खटका और मुर्की की बारीकियां सीखी थीं। एक दिन जब भाई ने उनकी चोरी पकड़ ली और कहा कि ऐसी नापाक जगहों पर आने से अल्लाह नाराज़ होता है तो उस्ताद का जवाब था - 'दिल से निकली आवाज़ में क्या नापाक होता होगा भला ?' उस्ताद जीवन भर रसूलन बाई को बहुत संम्मान के साथ याद करते रहे थे।
लता मंगेशकर उनकी दूसरी प्रिय गायिका थी। उन्हें तो वे देवी सरस्वती का साक्षात रूप ही कहते थे और मानते थे कि अगर देवी सरस्वती होंगी तो वे लता जैसी ही सुरीली होंगी। उन्होंने लता के गायन में त्रुटियां निकालने की उन्होंने बहुत कोशिशें की, लेकिन सफल नहीं हुए। वैसे तो लता जी के बहुत सारे गीत उन्हें पसंद थे, लेकिन उनका एक गीत 'हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना, दुनिया बड़ी बेईमान' वे अकेलेपन में अक्सर गुनगुनाया करते थे।
बेगम अख्तर उनकी तीसरी पसंदीदा गायिका थीं। बेग़म की गायिकी को वे उनके एक ख़ास ऐब के लिए पसंद करते थे। एक रात लाउडस्पीकर से आ रही एक आवाज़ ने उन्हें चौंकाया था। ग़ज़ल थी- 'दीवाना बनाना है तो, दीवाना बना दे' और आवाज़ थी बेगम अख्तर की। वह आवाज़ उनके दिल में उतर गई। कमी यह थी कि ऊंचे स्वर पर जाकर बेगम की आवाज़ अक्सर टूट जाया करती थी। संगीत की दुनिया में इसे एक ऐब समझा जाता है,लेकिन उस्ताद को बेगम का यही ऐब भा गया था। बेगम को सुनते वक़्त उन्हें उसी ऐब वाले लम्हे का इंतज़ार होता था। वह लम्हा आते ही उनके मुंह से बरबस निकल जाता था - माशाअल्लाह !
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर को लेकर अब एक और नया विवाद छिड़ गया है। चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि जम्मू-कश्मीर में रहनेवाले अन्य प्रांतों के नागरिकों को अब वोट डालने का अधिकार मिलनेवाला है। जम्मू-कश्मीर की लगभग सभी पार्टियां इस नई पहल पर परेशान दिखाई पड़ रही हैं। पहले तो वे धारा 370 और 35 ए को ही हटाने का विरोध कर रही थीं। अब उन्हें लग रहा है कि उनके सिर पर एक नया पहाड़ टूट पड़ा है।
उनका मानना है कि केंद्र सरकार के इशारे पर किया जा रहा यह कार्य अगला चुनाव जीतने का भाजपाई पैतरा भर है लेकिन इससे जम्मू-कश्मीर का असली चरित्र नष्ट हो जाएगा। सारे भारत की जनता कश्मीर पर टूट पड़ेगी और कश्मीरी मुसलमान अपने ही प्रांत में अल्पसंख्यक बन जाएंगे। इस वक्त वहां की स्थानीय मतदाताओं की संख्या लगभग 76 लाख है। यदि उसमें 25 लाख नए मतदाता जुड़ गए तो उन बाहरी लोगों का थोक वोट भाजपा को मिलेगा।
जम्मू के भी ज्यादातर वोटर भाजपा का ही साथ देंगे। ऐसे में कश्मीर की परंपरागत प्रभावशाली पार्टियां हमेशा के लिए हाशिए में चली जाएंगी। पहले ही निर्वाचन-क्षेत्रों के फेर-बदल के कारण घाटी की सीटें कम हो गई हैं। इसी का विरोध करने के लिए नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष डाॅ. फारुक अब्दुल्ला ने भाजपा को छोड़कर सभी दलों की एक बैठक भी बुलाई है। पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती भी काफी गुस्से में नजर आ रही हैं।
इन कश्मीरी नेताओं का गुस्सा बिल्कुल स्वाभाविक है, क्योंकि नेता लोग राजनीति में आते ही इसीलिए हैं कि उन्हें येन-केन-प्रकरेण सत्ता-सुख भोगना होता है। केंद्र सरकार इधर जो भी सुधार वहां कर रही है, वह उन नेताओं को बिगाड़ के अलावा कुछ नहीं लगता। ऐसे में इन कश्मीरी नेताओं से मेरा निवेदन है कि वे अपनी दृष्टि ज़रा व्यापक क्यों नहीं करते हैं?
यदि कश्मीरी नेता देश के गृहमंत्री, राज्यपाल, सांसद, राजदूत और केंद्र सरकार के पूर्ण सचिव बन सकते हैं तथा कश्मीरी नागरिक देश में कहीं भी चुनाव लड़ सकते हैं और वोट डाल सकते हैं तो यही अधिकार गैर-कश्मीरी नागरिकों को कश्मीर में दिए जाने का विरोध क्यों होना चाहिए? देश के जैसे अन्य प्रांत, वैसा ही कश्मीर भी। वह कुछ कम और कुछ ज्यादा क्यों रहे?
यदि कश्मीरी लोग देश के किसी भी हिस्से में जमीन खरीद सकते हैं तो देश के कोई भी नागरिक कश्मीर में जमीन क्यों नहीं खरीद सकते? हमारे कश्मीरी नेता कश्मीर जैसे सुंदर और शानदार प्रांत को अन्य भारतीयों के लिए अछूत बनाकर क्यों रखना चाहते हैं? मैं तो वह दिन देखने को तरस रहा हूं कि जबकि कोई पक्का कश्मीरी मुसलमान भारत का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन जाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा ने पहले राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति नियुक्त किए। और अब उसने अपने संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति का पुनर्गठन कर दिया। इन दोनों निर्णयों में नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जगतप्रकाश नड्डा ने बहुत ही व्यावहारिक और दूरदर्शितापूर्ण कदम उठाया है। इन चारों मामलों में सत्तारुढ़ नेताओं का एक ही लक्ष्य रहा है- 2024 का अगला चुनाव कैसे जीतना? इस लक्ष्य की विरोधी दल आलोचना क्या, निंदा तक करेंगे। वे ऐसा क्यों नहीं करें?
उनके लिए तो यह जीवन-मरण की चुनौती हैं? उनका लक्ष्य भी यही होता है लेकिन इस मामले में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा की चतुराई देखने लायक है। उसने एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाकर देश के आदिवासियों को भाजपा से सीधा जोड़ लेने की कोशिश की है और भारत की महिला मतदाताओं को भी आकर्षित किया है। उप-राष्ट्रपति के तौर पर श्री जगदीप धनखड़ को चुनकर उसने देश के किसान और प्रभावशाली जाट समुदाय को अपने पक्ष में प्रभावित किया है।
अब संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति के चुनाव में भी उसकी यही रणनीति रही है। इन संस्थाओं में से केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान के नाम हटाने पर काफी उहा-पोह मची हुई है। सडक़ मंत्री के तौर पर गडकरी की उपलब्धियां बेजोड़ हैं। माना जा रहा है कि इन दोनों सज्जनों में भावी प्रधानमंत्री बनने की योग्यता देखी जा रही है।
यह कुछ हद तक सच भी है लेकिन महाराष्ट्र से देवेंद्र फडऩवीस और मप्र से डॉ. सत्यनारायण जटिया को ले लिया गया है। ये दोनों ही बड़े योग्य नेता हैं। डॉ. जटिया तो अनुभवी और विद्वान भी हैं। वे अनुसूचितों का प्रतिनिधित्व करेंगे। शिवराज चौहान भी काफी सफल मुख्यमंत्री रहे हैं। लेकिन इन समितियों में किसी भी मुख्यमंत्री को नहीं रखा गया है।
जिन नए नामों को इन समितियों में जोड़ा गया है, जैसे भूपेंद्र यादव, ओम माथुर, सुधा यादव, बनथी श्रीनिवास, येदुयुरप्पा, सरकार इकबालसिंह, सर्वानंद सोनोवाल, के. लक्ष्मण, बी.एल. संतोष आदि- ये लोग विभिन्न प्रांतों और जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सब भाजपा की चुनावी-शक्ति को सुद्दढ़ करने में मददगार साबित होंगे।
इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं माना जाना चाहिए कि ये नेता जिन वर्गों या जातियों से आते हैं, उनका कोई विशेष लाभ होनेवाला है। लाभ हो जाए तो उसे शुभ संयोग माना जा सकता है। जिन नेताओं के नाम हटे हैं, उन्हें मार्गदर्शक मंडल के हवाले किया जा सकता है, जैसे 2014 में अटलजी, आडवाणीजी और जोशीजी को किया गया था। वे नेता तो 8 साल से मार्ग का दर्शन भर कर रहे हैं। नए मार्गदर्शक नेता शायद मार्गदर्शन कराने की कोशिश करेंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
आदरणीय प्रधानमंत्री जी का स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन कुछ ऐसा था कि जो कुछ उन्होंने कहा वह चर्चा के उतना योग्य नहीं है जितना कि वे मुद्दे हैं जिन पर उनका भाषण केंद्रित होना चाहिए था।
वर्ष 2017 में प्रधानमंत्री जी ने न्यू इंडिया प्लेज शीर्षक एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने देश के नागरिकों का आह्वान किया था कि वे सन 2022 तक निर्धनता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद से सर्वथा मुक्त एवं स्वच्छ नया भारत बनाने हेतु शपथ लें।
इसी तारतम्य में दिसंबर 2018 में नीति आयोग ने कुछ ऐसे लक्ष्य निर्धारित किए थे जिन्हें 2022 तक प्राप्त किया जाना था। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के संबंध में इंडिया स्पेंड के विशेषज्ञों द्वारा किया गया फ़ैक्टचेकर में प्रकाशित अन्वेषण बहुत निराशाजनक तस्वीर हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है।
नीति आयोग ने देश के प्रत्येक परिवार को 2022 तक अबाधित बिजली और पानी की आपूर्ति तथा शौचालय युक्त सहज पहुंच वाला घर उपलब्ध कराने का लक्ष्य निर्धारित किया था। स्वतंत्रता बाद से ही चली आ रही गृह निर्माण योजनाओं का नया नामकरण 2016 में प्रधानमंत्री आवास योजना किया गया और इसे एक नई योजना के रूप में प्रस्तुत किया गया। चूंकि योजना अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने नाकाम रही इसलिए इसे दिसंबर 2021 में कैबिनेट द्वारा 2024 तक बढ़ा दिया गया। दिसंबर 2021 की स्थिति में 2.95 करोड़ ग्रामीण आवासों के निर्धारित लक्ष्य में से केवल 1.66 करोड़ ग्रामीण आवासों का निर्माण हो सका था। प्रधानमंत्री आवास योजना शहरी के अंतर्गत दिसंबर 2021 की स्थिति में निर्धारित लक्ष्य 1.2 करोड़ में से केवल 52.88 लाख शहरी आवास बनाए जा सके थे।
खुले में मल त्याग की समाप्ति के लक्ष्य के संबंध में भी सरकारी दावों और जमीनी हकीकत में बहुत बड़ा अंतर दिखाई देता है। सरकार ने यह दावा किया था कि अक्टूबर 2019 में ग्रामीण भारत खुले में शौच की प्रथा से सर्वथा मुक्त हो गया है किंतु एनएफएचएस-5 के अनुसार बिहार, झारखंड, उड़ीसा आदि राज्यों और लद्दाख जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में केवल 42-60 प्रतिशत आबादी इन सैनिटेशन सुविधाओं का उपयोग कर रही है। जुलाई 2021 की डब्लूएचओ और यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फण्ड की एक साझा रपट यह बताती है कि भारत की 15 प्रतिशत आबादी अब भी खुले में शौच करती है। एनएफएचएस 4 के 37 प्रतिशत की तुलना में एनएफएचएस 5 में रूरल सैनिटेशन 65 प्रतिशत पर पहुंचा है जबकि अर्बन सैनिटेशन के लिए यही आंकड़े क्रमशः 70 फीसदी और 82 फीसदी हैं।
मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के विषय में सरकारी दावों और वास्तविकता में बहुत अंतर दिखता है। सफाई कर्मचारियों के विषय में सरकार के 2019-20 के आंकड़े केवल 18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में किए गए आधे अधूरे सर्वेक्षण पर आधारित हैं। जुलाई 2021 में सम्बंधित विभाग के मंत्री रामदास अठावले ने यह दावा किया था कि पिछले पांच वर्षों में किसी मैला ढोने वाले की मृत्यु नहीं हुई है। दरअसल सरकार के अनुसार सीवर की सफाई करने वाले कर्मचारी मैला ढोने वाले कर्मचारियों की श्रेणी में नहीं आते। यह धूर्ततापूर्ण व्याख्या पिछले पांच वर्षों में सीवर सफाई के दौरान हुई 340 सफाई कर्मचारियों की मौत को नकारने के लिए सरकार द्वारा की गई है। वर्ष 2021 में ही सीवर सफाई के दौरान 22 मौतें हुईं।
स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में भी हम निर्धारित लक्ष्य से बहुत पीछे हैं। एनएफएचएस 4 के 38.4 प्रतिशत की तुलना में स्टंटेड शिशुओं की संख्या एनएफएचएस 5 में घटकर 35.5 प्रतिशत रह गई है जबकि कम भार वाले शिशुओं की संख्या 35.8 से घटकर 32.1 प्रतिशत रह गई है किंतु यह उपलब्धि सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य से बहुत पीछे है जो 2022 तक स्टंटेड और कम भार वाले शिशुओं की संख्या को घटाकर 25 प्रतिशत पर लाना चाहती थी।
बच्चों और महिलाओं में एनीमिया की स्थिति बिगड़ी है। 2014-15 में 58.6 प्रतिशत बच्चे एनीमिया ग्रस्त थे जो 2019-20 में बढ़कर 67.1 प्रतिशत हो गए जबकि महिलाओं के संदर्भ में यह आंकड़ा 2014-15 के 53.1 प्रतिशत से बढ़कर 2019-20 में 57 प्रतिशत हो गया।
नीति आयोग द्वारा 2022 तक पीएम 2.5 के स्तर को 50 प्रतिशत से नीचे लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट 2020 भारत को वायु में पीएम 2.5 की सर्वाधिक मात्रा वाले देश के रूप में चिह्नित करती है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में दो तिहाई भारत में हैं।
केंद्र सरकार ने फीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेट को 2022-23 तक 30 प्रतिशत के स्तर पर ले जाने का लक्ष्य रखा था किंतु यह 2019 में 20.3 और 2020 की दूसरी तिमाही में 16.1 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई।
प्रधानमंत्री जी को यह बताना था कि पिछले पांच वर्षों में अपनी सैकड़ों जन सभाओं में बहुत जोशोखरोश के साथ दुहराए गए इन लक्ष्यों की प्राप्ति में उनकी सरकार क्यों असफल रही?
प्रधानमंत्री जी अगस्त 2022 से पहले किसानों की आय दोगुनी करने के अपने बहुचर्चित वादे पर भी मौन रहे। सरकार ने इस संबंध में अब तो बात करना ही छोड़ दिया है। जब अप्रैल 2016 में इस विषय पर अंतर मंत्रालयीन समिति का निर्माण हुआ था तब किसानों की आय 8931 रुपए परिकलित की गई थी। राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय के अनुसार वर्ष 2018 में किसानों की आय 10218 रुपए थी, यह वृद्धि 2016 की तुलना में केवल 14.4 प्रतिशत की है। इसके बाद सरकार की ओर से कोई अधिकृत आंकड़े नहीं आए हैं। बहरहाल एनएसओ स्वयं स्वीकारता है कि यह आय औसत रूप से परिकलित की गई है। स्थिति यह है कि छोटी जोत वाले किसानों की आय बड़े भू स्वामियों की तुलना में कहीं कम है। यदि उर्वरकों, बीजों, कीट नाशकों, डीज़ल, बिजली और कृषि उपकरणों की महंगाई को ध्यान में रखें तो किसानों की आय बढ़ने के स्थान पर घटती दिखाई देगी।
प्रधानमंत्री अपने भाषण में देश की आम जनता को त्रस्त करने वाली महंगाई और बेरोजगारी की समस्याओं पर भी मौन रहे। खाद्य पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाने के विवादास्पद निर्णय पर भी उनके भाषण में कोई टिप्पणी नहीं थी।
अब जरा चर्चा उन विषयों की जिन पर प्रधानमंत्री का भाषण केंद्रित था। अपने स्वयं के अधूरे संकल्पों और वर्तमान की समस्याओं को हल करने में अपनी असफलता की चर्चा से मुंह चुराते प्रधानमंत्री जी आगामी 25 वर्षों के लिए 5 नए प्रण और एक महासंकल्प की बात करते नजर आए।
पहला प्रण यह है कि देश अब बड़े संकल्प लेकर ही चलेगा। यह प्रण महत्वपूर्ण तो है लेकिन यदि देशवासी प्रधानमंत्री जी की भांति ऐसे संकल्प लेना प्रारंभ कर दें जिन्हें पूर्ण करने की न तो कोई योजना हो, न कार्यनीति हो और सबसे बढ़कर कोई इरादा भी न हो तो देश का क्या होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि देशवासी कैशलेस अर्थव्यवस्था के लिए नोटबन्दी और अपने कॉरपोरेट मित्रों की सुविधा के लिए जीएसटी जैसी किसी कर प्रणाली को क्रियान्वित करने का आत्मघाती संकल्प ले लें। प्रधानमंत्री जी ने अपने आचरण से प्रण-संकल्प-शपथ जैसे शब्दों की गरिमा को कम करने का काम ही किया है।
दूसरा प्रण गुलामी से सम्पूर्ण मुक्ति का प्रण है। वर्तमान सरकार की अर्थनीतियों और विकास की उसकी समझ को गांधीवाद का विलोम ही कहा जा सकता है। गांधी जी की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना, विकेंद्रीकरण का उनका आग्रह और आधुनिक सभ्यता का उनका नकार - वे विचार हैं जो गुलामी से वास्तविक मुक्ति दिला सकते हैं। किंतु इन्हीं की सर्वाधिक उपेक्षा आज हो रही है। अपने भाषण में आदरणीय प्रधानमंत्री जी एस्पिरेशनल सोसाइटी और डेवलप्ड नेशन जैसे शब्दों का प्रयोग करते नजर आए, यह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और विकसित देशों द्वारा गढ़े गए वही शब्द हैं जिनकी ओट में नवउपनिवेशवाद अपनी चालें चलता है।
तीसरा प्रण है- हमें अपनी विरासत पर गर्व होना चाहिए। प्रधानमंत्री जी को स्पष्ट करना चाहिए था कि क्या हमारी विरासत को परिभाषित करने का अधिकार संकीर्ण, असमावेशी और हिंसक हिंदुत्व के पैरोकारों को दे दिया गया है? क्या हमारी इतिहास दृष्टि श्री सावरकर द्वारा लिखित "भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने" में वर्णित भयावह सिद्धांतों द्वारा निर्मित हो रही है? पिछले कुछ वर्षों से हमारी गंगा जमनी तहजीब और सामासिक संस्कृति को नष्ट करने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है। क्या आदरणीय प्रधानमंत्री जी इसकी निंदा करने का साहस दिखाएंगे?
एकता और एकजुटता प्रधानमंत्री जी का चौथा प्रण है। धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बल पर सत्ता हासिल कर पूरे देश को एक रंग में रंगने को आमादा राजनीतिक दल के अगुआ द्वारा जब एकता और एकजुटता जैसे शब्द प्रयोग किए जाते हैं तब हमें जरा सतर्क हो जाना चाहिए। यह उदार और व्यापक अर्थ वाले शब्दों को संकीर्ण अर्थ देने का युग है। एकता किसकी? क्या हिन्दू धर्मावलंबियों की या फिर सारे भारतवासियों की? एकजुटता किस कीमत पर? क्या अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान गँवा कर बहुसंख्यक वर्ग के धर्म की अधीनता स्वीकार करने की कीमत पर? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशे जाने चाहिए।
पाँचवां प्रण जिसका आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने उल्लेख किया वह है नागरिकों के कर्त्तव्य। यदि विश्व इतिहास पर नजर डालें तो हर तानाशाह- चाहे वह सैनिक तानाशाह हो, कोई निरंकुश राजा हो या फिर कोई ऐसा निर्वाचित जननेता हो जिसके मन के किसी अंधेरे कोने में कोई तानाशाह छिपा हो- एक आज्ञापालक-अनुशासित प्रजा चाहता है। वह अपनी इच्छा को- भले ही वह कितनी ही अनुचित क्यों न हो- सर्वोच्च नागरिक कर्त्तव्य के रूप में प्रस्तुत करता है। सार्वभौम नागरिक कर्त्तव्य शासक की हर गलत बात का समर्थन करना नहीं है अपितु सच्चा नागरिक वही है जो देश,समाज, संविधान और मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील होता है भले ही इसके लिए उसे शासक का विरोध ही क्यों न करना पड़े।
भारत को डेवलप्ड कंट्री बनाना प्रधानमंत्री जी का महासंकल्प है। उन्होंने मानव केंद्रित व्यवस्था विकसित करने का आह्वान किया। लेकिन यह विकसित देश कैसा होगा? वर्तमान सरकार की विकास प्रक्रिया के कारण निर्धन और निर्धन हो रहे हैं, चंद लोगों के हाथों में राष्ट्रीय संपत्ति का अधिकांश भाग केंद्रित हो गया है। जातिगत और धार्मिक गैरबराबरी से जूझ रहे, लैंगिक असमानता से ग्रस्त भारतीय समाज के लिए यह आर्थिक विषमता विस्फोटक और विनाशक सिद्ध हो सकती है। स्वतंत्र संस्थाओं द्वारा किए जा रहे आकलन धार्मिक स्वतंत्रता, प्रेस की आजादी, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, मानवाधिकारों की रक्षा, हाशिये पर रहने वाले समुदायों के हित संवर्धन, प्रजातांत्रिक मूल्यों का पालन, लैंगिक समानता की प्राप्ति आदि अनेक क्षेत्रों में हमारे गिरते प्रदर्शन को रेखांकित करते रहे हैं। हमारी सरकार इन पर लज्जित होने के बजाए इन्हें झूठा करार देती रही है। क्या डेवलप्ड इंडिया- अलोकतांत्रिक, असमावेशी, असहिष्णु और आर्थिक-सामाजिक असमानता से ग्रस्त होगा?
प्रधानमंत्री जी ने संविधान निर्माताओं का धन्यवाद दिया कि उन्होंने हमें फ़ेडरल स्ट्रक्चर दिया। क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को समाप्त करने पर आमादा भाजपा की केंद्र सरकार विभिन्न राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों को अस्थिर करने के लिए केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग और असंवैधानिक तरीकों के प्रयोग से गुरेज नहीं करती। मजबूत केंद्र, मजबूत नेतृत्व, डबल इंजन की सरकार जैसी अभिव्यक्तियां और "भाजपा का शासन देश की एकता- अखंडता हेतु परम आवश्यक" जैसे नारे कोऑपरेटिव फ़ेडरलिज्म को किस तरह मजबूत करते हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है।
जब आदरणीय प्रधानमंत्री जी संविधान का जिक्र कर रहे थे तब उन्हें स्वतंत्रता दिवस से ठीक पहले धर्म संसद द्वारा तैयार हिन्दू राष्ट्र के संविधान के मसौदे पर भी अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों को मताधिकार से वंचित करने का प्रस्ताव है। मानो प्रधानमंत्री जी के हर तरह की गुलामी से मुक्ति के प्रण का पूर्वाभास धर्म संसद को हो गया था तभी उसने हमारी वर्तमान सशक्त एवं निष्पक्ष न्याय व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए इसे वर्ण व्यवस्था के आधार पर संचालित करने और त्रेता तथा द्वापर युगीन न्याय व्यवस्था की स्थापना का प्रस्ताव दिया है। प्रधानमंत्री जी के जय अनुसंधान के नारे को साकार करने के लिए ही जैसे धर्म संसद द्वारा संविधान के मसौदे में ग्रह नक्षत्रों और ज्योतिष आदि की शिक्षा का प्रावधान किया गया है। यह हम किस ओर ले जाए जा रहे हैं? क्या समय का पहिया पीछे घुमाया जा सकता है? हम एक उदार सेकुलर लोकतंत्र से एक कट्टर धार्मिक राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हैं। क्या यही प्रधानमंत्री जी का भी सपना है? क्या आदरणीय प्रधानमंत्री जी भी श्री सावरकर की भांति मनु स्मृति को हिन्दू विधि मानते हैं? क्या वे श्री गोलवलकर के इस कथन से सहमत हैं कि हमारा संविधान पूरे विश्व के अनेक संविधानों के विभिन्न आर्टिकल्स की एक बोझिल और बेमेल जमावट है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सके?
आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में श्री सावरकर एवं श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी का प्रशंसात्मक उल्लेख किया। श्री सावरकर स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसक और सर्वसमावेशी स्वरूप से असहमत थे। गांधी जी की अपार लोकप्रियता और जन स्वीकार्यता उन्हें आहत करती थी। उन्होंने गांधी जी के प्रति अपनी घृणा और असम्मान की भावना को कभी छिपाने की चेष्टा नहीं की। सेलुलर जेल से रिहाई के बाद स्वाधीनता आंदोलन से उन्होंने दूरी बना ली थी। स्वाधीनता आंदोलन के स्वरूप से असहमत और गांधी विरोध की अग्नि में जलते सावरकर उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के प्रसार में लग गए जो उन्हें प्रारम्भ से ही प्रिय थी। उन्होंने अंग्रेजों से मैत्री की, मुस्लिम लीग से भी एक अवसर पर गठबंधन किया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध भी किया। श्री सावरकर की भांति श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिन्दू महासभा के शीर्ष नेता थे और उनकी पहली प्राथमिकता हिंदुत्व के अपने संस्करण का प्रसार करना था। मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार का हिस्सा रहे श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत छोड़ो आन्दोलन का न केवल विरोध किया था, अपितु उसके दमन हेतु अंग्रेजी सरकार को सुझाव भी दिए थे। संकीर्ण और असमावेशी हिंदुत्व की विचारधारा के प्रतिपादकों के रूप में प्रधानमंत्री जी अवश्य इन महानुभावों के प्रशंसक होंगे किंतु इन्हें गांधी-सुभाष-भगत सिंह-नेहरू की पंक्ति में स्थान देना घोर अनुचित है।
प्रधानमंत्री जी का भाषण बहुत प्रभावशाली लगता यदि वे उन आदर्शों और सिद्धांतों पर अमल भी कर रहे होते जिनका उल्लेख वे बारंबार कर रहे थे। किंतु उनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान के अंतर ने वितृष्णा ही उत्पन्न की।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस 15 अगस्त को नारी-सम्मान में जैसे अदभुत शब्द कहे, वैसे किसी अन्य प्रधानमंत्री ने कभी कहे हों, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता लेकिन देखिए कि उसके दूसरे दिन ही क्या हुआ और वह भी कहां हुआ गुजरात में। 2002 के दंगों में सैकड़ों निरपराध लोग मारे गए, लेकिन जो एक मुस्लिम महिला बिल्किस बानो के साथ हुआ, उसके कारण सारा भारत शर्मिंदा हुआ था। न सिर्फ बिल्किस बानो के साथ लगभग दर्जन भर लोगों ने बलात्कार किया, बल्कि उसकी तीन साल की बेटी की हत्या कर दी गई।
उसके साथ-साथ उसी गांव के अन्य 13 मुसलमानों की भी हत्या कर दी गई। इस जघन्य अपराध के लिए 11 लोगों को सीबीआई अदालत ने 2008 में आजीवन कारावास की सजा सुनवाई थी। इस मुकदमे में सैकड़ों लोग गवाह थे। जजों ने पूरी सावधानी बरती और फैसला सुनाया था लेकिन इन हत्यारों की ओर से बराबर दया की याचिकाएं लगाई जा रही थीं। किसी एक याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस याचिका पर विचार करने का अधिकार गुजरात सरकार को है।
बस, फिर क्या था? गुजरात में भाजपा की सरकार है और उसने सारे हत्यारों को रिहा कर दिया। गुजरात सरकार ने अपने ही नेता नरेंद्र मोदी के कथन को शीर्षासन करवा दिया। क्या यही नारी का सम्मान है? क्या यही ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता:’ श्लोक को चरितार्थ करना है। क्या यही नारी की पूजा है? किसी परस्त्री के साथ बलात्कार करके हम क्या हिंदुत्व का झंडा ऊँचा कर रहे हैं? इन हत्यारों को आजन्म कारावास भी मेरी राय में बहुत कम था।
ऐसे बलात्कारी हत्यारे किसी भी संप्रदाय, जाति या कुल के हों, उन्हें मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, उनको सरे-आम फांसी लगाई जानी चाहिए और उनकी लाशों को कुत्तों से घसिटवा कर नदियों में फिंकवाना चाहिए ताकि भावी बलात्कारियों को सांप सूंघ जाए। गुजरात सरकार ने यह कौटलीय न्याय करने की बजाय एक घिसे-पिटे और रद्द हुए कानूनी नियम का सहारा लेकर सारे हत्यारों को मुक्त करवा दिया।
हत्यारे और उनके समर्थक उन्हें निर्दोष घोषित कर रहे हैं और उनका सार्वजनिक अभिनंदन भी कर रहे हैं। गुजरात सरकार ने 1992 के एक नियम के आधार पर उन्हें रिहा कर दिया लेकिन उसने ही 2014 में जो नियम जारी किया था, उसका यह सरासर उल्लंघन है। इस ताजा नियम के मुताबिक ऐसे कैदियों की दया-याचिका पर सरकार विचार नहीं करेगी, ‘जो हत्या और सामूहिक बलात्कार के अपराधी हों।’
सर्वोच्च न्यायालय ने 2019 में बिल्किस बानो को 50 लाख रु. हर्जाने के तौर पर दिलवाए थे। अब गुजरात सरकार ने इस मामले में केंद्र सरकार की राय भी नहीं ली। उसने क्या यह काम आसन्न चुनाव जीतने और थोक वोटों को दृष्टि में रखकर किया है? यदि ऐसा है तो यह बहुत गर्हित कार्य है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लाल किले से हर पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री लोग जो भाषण देते हैं, उनसे देश में कोई विवाद पैदा नहीं होता। वे प्राय: विगत वर्ष में अपनी सरकार द्वारा किए गए लोक-कल्याणकारी कामों का विवरण पेश करते हैं और अपनी भावी योजनाओं का नक्शा पेश करते हैं लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के लगभग एक घंटे के हिस्से पर किसी विरोधी ने कोई अच्छी या बुरी टिप्पणी नहीं की लेकिन सिर्फ दो बातें को लेकर विपक्ष ने उन पर गोले बरसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कांग्रेसी नेताओं को बड़ा एतराज इस बात पर हुआ कि मोदी ने महात्मा गांधी, नेहरु और पटेल के साथ-साथ इस मौके पर वीर सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम क्यों ले लिया? चंद्रशेखर, भगतसिंह, बिस्मिल आदि के नाम भी मोदी ने लिये और स्वातंत्र्य-संग्राम में उनके योगदान को प्रणाम किया। क्या इससे नेहरुजी की अवमानना हुई है? कतई नहीं। फिर भी सोनिया गांधी ने एक गोल-मोल बयान जारी करके मोदी की निंदा की है।
कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं ने सावरकर को पाकिस्तान का जनक बताया है। उन्हें द्विराष्ट्रवाद का पिता कहा है। इन पढ़े-लिखे नेताओं से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे सावरकर के लिखे ग्रंथों को एक बार फिर ध्यान से पढ़ें। पहली बात तो यह है कि सावरकर और उनके भाई ने जो कुर्बानियां की हैं और अंग्रेजी राज के विरुद्ध जो साहस दिखाया है, वह कितना अनुपम है।
इसके अलावा अब से लगभग 40 साल पहले राष्ट्रीय अभिलेखागार से अंग्रेजों के गोपनीय दस्तावेजों को खंगाल कर सावरकर पर लेखमाला लिखते समय मुझे पता चला कि अब के कांग्रेसियों ने उन पर अंग्रेजों से समझौते करने के निराधार आरोप लगा रखे हैं। यदि सावरकर इतने ही अछूत हैं तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुंबई में बने उनके स्मारक के लिए अपनी निजी राशि से दान क्यों दिया था?
हमारे स्वातंत्र्य-संग्राम में हमें क्रांतिकारियों, गांधीवादियों, मुसलमान नेताओं यहां तक कि मोहम्मद अली जिन्ना के योगदान का भी स्मरण क्यों नहीं करना चाहिए? विभाजन के समय उनसे मतभेद हो गए, यह अलग बात है। कर्नाटक के भाजपाइयों ने नेहरु को भारत-विभाजन का जिम्मेदार बताया, यह बिल्कुल गलत है। मोदी की दूसरी बात परिवारवाद को लेकर थी। उस पर कांग्रेसी नेता फिजूल भन्नाए हुए हैं। वे अब कुछ भाजपाई मंत्रियों और सांसदों के बेटों के नाम उछालकर मोदी के परिवारवाद के आरोप का जवाब दे रहे हैं। वे बड़ी बुराई का जवाब छोटी बुराई से दे रहे हैं।
बेहतर तो यह हो कि भारतीय राजनीति से ‘बापकमाई’ की प्रवृत्ति को निर्मूल करने का प्रयत्न किया जाए। विपक्ष को मोदी की आलोचना का पूरा अधिकार है लेकिन वह सिर्फ आलोचना करे और मोदी द्वारा कही गई रचनात्मक बातों की उपेक्षा करे तो जनता में उसकी छवि कैसी बनेगी? ऐसी बनेगी कि जैसे खिसियानी बिल्ली खंभा नोचती है।
विपक्ष में बुद्धि और हिम्मत होती तो भाजपा के इस कदम की वह कड़ी भर्त्सना करता कि उसने 14 अगस्त (पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस) को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाया। अब तो जरुरी यह है कि भारत और पाक ही नहीं, दक्षिण और मध्य एशिया के 16-17 देश मिलकर ‘आर्यावर्त्त’ के महान गौरव को फिर लौटाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अमिता नीरव
शादी के बाद के शुरुआती सालों में हमारे यहाँ दूधवाला आता था, वो बहुत मीठा बोलता था और बहुत विनम्र था। एक दिन मेरे देवर ने मुझसे कहा, ‘ये आदमी शातिर है!’ मैं समझ नहीं पाई। इतने अच्छे से तो बोलता है, कितना विनम्र भी है। मैंने पूछा, ‘ऐसा क्यों कह रहे हो?’
देवर ने कहा, ‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलता है। अतिरिक्त रूप से विनम्र है!’, मुझे थोड़ा अटपटा लगा। मैंने कहा, ‘ये तो उसकी खूबी है, यह कब से बुराई हो गई है?’ उसने जवाब दिया, ‘कोई अतिरिक्त रूप से सज्जन होता है तो वह उसे छुपाने की कोशिश करता है, जो वह असल में होता है।’
हालाँकि मुझे बात समझ नहीं आई थी, लेकिन मैंने बात को भविष्य के लिए सहेज ली थी। अखबार में काम की शुरुआत रीजनल डेस्क से हुई थी। ट्रेनिंग खत्म करके नई-नई डेस्क पर आई थी। हमारे इंचार्ज बहुत सरल, शांत और स्नेहिल इंसान थे। बहुत धैर्य से सिखाते थे। कई बार बहुत बारीक बात भी कह जाते थे।
एक दिन मैं अपनी न्यूज कॉपी उनसे चेक करवा रही थी, कॉपी उनके हाथ में थी, तभी सुदूर जिले के एक संवाददाता उनसे मिलने आ गए। संवाददाता ने झुककर उनके पैर छुए, तो इंचार्ज ने उसे सख्ती से कहा, ‘पैर-वैर मत छुआ कीजिए!’ जिस तरह से उन्होंने कहा वो उनके स्वभाव के बिल्कुल विपरीत था। मुझे अजीब लगा था।
शायद वे मेरी मन को समझ गए थे, इसलिए संवाददाता के जाने के बाद वे बोले, ‘मुझे इससे बहुत डर लगता है।’ मेरे लिए ये थोड़ी नई बात थी। मैंने पूछा, ‘इनसे डर! क्यों?’ वे अपनी चिर-परिचित सौम्य मुस्कुराहट बिखेर कर बोले, ‘बहुत ज्यादा झुकने वाले लोग खतरनाक होते हैं!’ यह बात उसी खाने में सहेज ली गई थी।
महावीर के अपरिग्रह का सिद्धांत मेरे लिए बड़ी अटपटी बात है। महावीर के सिद्धांतों के बिल्कुल उलट जैन समुदाय अति परिग्रही है, लेकिन सवाल यह उठा था कि महावीर ने अपने समय में अपरिग्रह को अपना संदेश क्यों बनाया था? और यह भी कि अपरिग्रह के सिद्धांत के बावजूद जैन इतने परिग्रही कैसे हैं?
सदी के पहले दशक में जैन संत मुनि तरुण सागर के कर्कश आवाज में प्रवचन बहुत प्रचलित थे। अक्सर उनके प्रवचन में सास-बहू की कहानियाँ हुआ करती थी। अलग-अलग जगहों पर उनके प्रवचन सुनाई दिया करते थे। अक्सर सोचती थी कि सास-बहु की कहानियाँ टीवी सीरियल से निकल कर धार्मिक प्रवचनों का हिस्सा कैसे और क्यों हो गई। जल्द ही समझ आया कि जैन समुदाय में शायद ये ज्वलंत समस्या होगी।
कई बार कुछ बड़े अटपटे सवाल भी उठते हैं जैसे महावीर ने अपरिग्रह, बुद्ध ने अहिंसा और करुणा, कृष्ण ने युद्ध, ईसा मसीह ने क्षमा को अपने संदेश के लिए क्यों चुना? मतलब ऐसा भी हो सकता था कि बुद्ध युद्ध को, कृष्ण अहिंसा या अपरिग्रह को और ईसा मसीह युद्ध को चुन लें।
फिर समझ आया कि महावीर का अपरिग्रह असल में तत्कालीन समाज के परिग्रह का निषेध है, हिंसा और क्रूरता के निषेध के तौर पर बुद्ध की अहिंसा और करूणा ने जन्म लिया होगा। युद्ध से पलायन के अर्जुन के संकल्प से कृष्ण की युद्ध की प्रेरणा जन्मी होगी। प्रतिशोध के दौर में यीशू ने क्षमा को प्रतिष्ठा दी होगी।
हर सिद्धांत तत्कालीन सामाजिक व्यवहार का निषेध होता है यह तो ठीक है, लेकिन इससे आगे की बात यह है कि प्रचलित और स्थापित सिद्धांत वास्तविक सामाजिक व्यवहार की ढाल बनते जाते हैं। जैसे प्राय: विनम्रता की आड़ में धूर्तता और मीठा बोलने की आड़ में चापलूसी होती है।
जैसा कि अज्ञेय ने अपने किसी उपन्यास में कहा कि, ‘जो व्यक्ति जैसा है उससे उलट वह अपने सिद्धांत गढ़ लेता है और उनका प्रचार करता फिरता है, इससे एक तो वह ठीक-ठीक समझ में नहीं आ पाता औऱ दूसरी ओर वह अपने अंतस के प्रकटन को बचा ले जाता है। इसे क्षतिपूर्ति का सिद्धांत कहा जाता है।’
कल ही सोशल मीडिया पर परसाई जी के नाम पर एक पोस्टर घूम रहा था, जिसमें लिखा था कि, ‘कभी-कभी राष्ट्र की रक्षा का नारा सबसे ऊँचा चोर ही लगाते हैं। राष्ट्र की रक्षा से कभी-कभी चोरों की रक्षा का मतलब भी निकलता है।’ जैसे नाथूराम गोड़से ने गाँधीजी को गोली मारने से पहले उनके पैर छुए थे।
कहना सिर्फ इतना है कि हर घर तिरंगा अभियान का शिगूफा कहीं सामाजिक और राजनीतिक जीवन में गहरे पैठे भ्रष्ट, अमानवीय, परपीडक़, अन्यायी और शोषक समाज की क्षतिपूर्ति का प्रयास तो नहीं है! आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर कहीं हम अपने हिपोक्रेट स्वभाव को तिरंगे की आड़ में छुपा तो नहीं रहे हैं?
अक्सर सिद्धांत प्रचलित व्यवहार की क्षतिपूर्ति है।
पुस्तक सार
-लक्ष्मण सिंह देव
1975 तक नंदा देवी भारतीय कब्जे वाले क्षेत्र की सबसे ऊंची पर्वत चोटी थी। 1975 में सिक्किम के भारत में विलय के बाद कंचनजंगा हो गयी।नंदा देवी एक ऐसा पर्वत है जिस पर आरोहण करने से भी ज्यादा मुश्किल साबित हुआ उसकी घाटी में पहुंचना। पहली बार नन्दा देवी नेशनल पार्क में एरिक शिप्टन एवम तिलमैन पहुंचे। नन्दा देवी गवाल इलाके में है और नंदा देवी की पवित्र पर्वत एवम देवी के रूप में भी मान्यता भी है।
नंदा देवी नेशनल पार्क में सिर्फ प्रवेश करने में 50 साल तक प्रयास चलते रहे। दर्जन भर अभियानों के बाद 1934 में ब्रिटिश नागरिक शिप्टन एवं टिलमैन 3 नेपालियों की सहायता से वहां पहुंच पाए।नन्दा देवी पार्क की लोकेशन ऐसी है कि उस पर किसी इंसान का प्रवेश करना बहुत मुश्किल है। यह इलाका चारों ओर से 6 हजार मीटर ऊंचे पहाड़ों से घिरा है जिन्हें पार करना बहुत मुश्किल था, सिर्फ एक छोटा रास्ता ऋषि गंगा खोह के पास है। उसे ढूंढने में 50 साल से भी ज्यादा समय लग गया।
कहा जाता है कि नंदा देवी पार्क में प्रवेश अभियान, उत्तरी ध्रुव पर जाने वाले अभियान से भी दुष्कर एवम कठिन था। एवरेस्ट पर चढऩे वाले पहले इंसान एडमंड हिलेरी ने भी कहा कि नन्दा देवी पर चढऩा एवरेस्ट से ज्यादा मुश्किल है। 1935 में टिलमैन ने इस पर सफलतापूर्वक आरोहण किया।
किताब में जिक्र है कि एक बार बद्रीनाथ धाम के महारावल (मुख्य पुजारी) ने शिप्टन को बताया कि पहले जमाने मे एक ऐसा पुरोहित होता था जो एक ही दिन में बदरीनाथ एवम केदारनाथ दोनों जगह पूजा करवा देता था। दोनों धामों के बीच 35 किलोमीटर की दूरी है, लेकिन ग्लेशियर एवम ऊंचे पहा? हैं। शिप्टन एवम टिलमैन ने बद्रीनाथ से केदारनाथ तक यात्रा उसी कल्पित मार्ग से करने की सोची कि क्या यह संभव है कि कोई व्यक्ति पैदल एक ही दिन बदरीनाथ से केदारनाथ पहुंच जाए। वे पहुंच तो गए लेकिन बहुत ज्यादा मुश्किल हुई क्योंकि ग्लेशियर एवं ऊंचे पहाड़ थे।
शिप्टन ने किताब में लिखा है कि दोनों धाम पहले बौद्ध धर्मस्थल थे जिन पर शंकराचार्य ने हिन्दुओं का कब्जा करवा दिया। शिप्टन ने बद्रीनाथ के मार्ग में तीर्थ यात्रियों के द्वारा गंदगी करने पर हैजा फैलने का जिक्र किया है और यह भी लिखा है कि सरकार ने उस समय कुछ गांवों में पाइप से साफ पानी भिजवाने का इंतेजाम किया जिससे लोग बीमार न हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने लाल किले के भाषण में देशवासियों को प्रेरित करने के लिए कई मुद्दे उठाए लेकिन दिन भर टीवी चैनलों पर पार्टी वक्ता लोग सिर्फ दो मुद्दों को लेकर एक-दूसरे पर जमकर प्रहार करते रहे। उनमें पहला मुद्दा परिवारवाद और दूसरा मुद्दा भ्रष्टाचार का रहा। यद्यपि मोदी ने किसी परिवारवादी पार्टी का नाम नहीं लिया और न ही किसी नेता का नाम लिया लेकिन उनका इशारा दो-टूक था। वह था कांग्रेस की तरफ। यदि कांग्रेस मां-बेटा या भाई-बहन पार्टी बन गई है तो, जो दुर्गुण उसके इस स्वरुप से पैदा हुआ है, वह किस पार्टी में पैदा नहीं हुआ है? यह ठीक है कि कोई भी अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस की तरह किसी खास परिवार की जेब में नहीं पड़ी है लेकिन क्या आप देश में किसी ऐसी पार्टी को जानते हैं, जो आज प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह काम नहीं कर रही है? सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र लकवाग्रस्त हो चुका है।
एक नेता या मु_ीभर नेताओं ने लाखों-करोड़ों पार्टी- कार्यकर्त्ताओं के मुंह पर ताले जड़ दिए हैं। भारत की प्रांतीय पार्टियां तो प्राइवेट लिमिटेड कंपनी का मुखौटा भी नहीं लगाती हैं। वे बाप-बेटा, भाई-भाई, बुआ-भतीजा, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, चाचा-भतीजा, ससुर-दामाद पार्टी की तरह काम कर रही हैं। ये सब पार्टियां परिवारवादी ही हैं। इन परिवारवादी पार्टियों का मूलाधार जातिवाद है, जो परिवारवाद का ही बड़ा रूप है। ये पार्टियां थोक वोट के दम पर जिंदा हैं। थोक वोट आप चाहे जाति के आधार पर हथियाएं, चाहे हिंदू-मुसलमान के नाम पर कब्जाएँ या भाषावाद के नाम पर गटकाएँ, ऐसी राजनीति लोकतंत्र का दीमक है। हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र जरुर है लेकिन बड़ा हुआ तो क्या हुआ? जैसे पेड़ खजूर! पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर !! यदि 75 साल में भी इस खजूर के पेड़ को हम आम का पेड़ नहीं बना सके तो हम अपना सीना कैसे फुला सकते हैं?
इस कमजोरी के लिए हमारे सारे नेता और जनता भी जिम्मेदार है। इस साल यदि इस बीमारी का संसद कोई इलाज निकाल सके तो 2047 में भारत दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बन सकता है। जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, यह दृष्टव्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आज तक उसका एक छींटा भी नहीं लगा है लेकिन यह भी तथ्य है कि प्रशासन और जन-जीवन में आज भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सिर्फ विरोधी नेताओं को जेल में डालने से आपको प्रचार तो अच्छा मिल जाता है लेकिन उससे भ्रष्टाचार-निरोध रत्ती भर भी नहीं होता। सारे भ्रष्टाचारी भरसक प्रयत्न करते हैं कि वे सरकार के शरणागत होकर बच जाएं और जो पहले से सरकार के साथ हैं, उन्हें भ्रष्टाचार करते समय जऱा भी भय नहीं लगता। यदि भ्रष्टाचार जड़मूल से नष्ट करना है तो इसमें अपने-पराए का भेद एकदम खत्म होना चाहिए और सजाएं इतनी कठोर होनी चाहिए कि भावी भ्रष्टाचारियों के रोम-रोम को कंपा डालें। (नया इंडिया की अनुमति से)
-विष्णु नागर
कल मैं रायपुर में था। विनोद कुमार शुक्ल जी से उनके निवास पर भेंट हुई। साथ में लीलाधर मंडलोई भी थे। जीवन के ८६ वें वर्ष में चल रहे विनोद जी पर उम्र की सघन छाया पड़ रही है। कल उन्हें देखकर मन विकल हुआ। उन्हें कैथेटर लगा हुआ है, जिसकी थैली एक डिब्बे में रखे हुए वह हम लोगों के स्वागत के लिए अपने घर के दरवाजे तक आए और अंदर घर में ले आए।बाद में बहुत मना करने पर भी नहीं माने, छोड़ने भी आए।
विनोद जी का रहन-सहन हमेशा से बेहद सादगीपूर्ण रहा है। शायद किसी भी अन्य मध्यवर्गीय लेखक की तुलना में। वह उनके व्यक्तित्व तथा उनके निवास में भी झलकता है। कुछ बातें हुईं। अभी उनका मन बच्चों के लिए लिखने में रमा हुआ है। वह लिख रहे हैं। उनके दो कविता संग्रह भी तैयार हैं मगर अपने प्रकाशकों से वह संतुष्ट नहीं हैं रायल्टी को लेकर। राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी तो उन किताबों के प्रकाशनाधिकार लौटाते जा रहे हैं मगर दूसरे बड़े प्रकाशक उनके अनुसार अड़े हुए हैं।किताबों की धीमी बिक्री की बात कहकर प्रकाशनाधिकार वापिस करने में बहानेबाजी कर रहे हैं।
पिछले दिनों उनके समवयस्क कवि मित्र नरेश सक्सेना उन पर फिल्म बनाने रायपुर गए थे। रायपुर में तो शूटिंग का काम पूरा हो चुका है मगर उनके अपने बचपन के शहर राजनांदगांव का अभी शेष है। अभी तक का काम तो नरेश जी ने अपने संसाधनों से किया मगर यह महंगा काम है। राज्य सरकार के एक शीर्ष अधिकारी ने उत्सुकता तो दिखाई मगर कहा कि इसके लिए प्रार्थनापत्र लिख कर दीजिए। जब राज्य सरकार खुद आगे बढ़कर मदद करने की बजाय प्रार्थनापत्र मांगे तो नौकरशाही आगे क्या- क्या पेंच पैदा करेगी, इसकी कल्पना डराने वाली है। फिलहाल काम स्थगित है।
एक समवयस्क महत्वपूर्ण कवि द्वारा दूसरे समवयस्क महत्वपूर्ण कवि पर इस तरह का काम शायद ही पहले कभी हुआ हो मगर वह अधूरा ही रह जाने का भय है। अस्सी पार कर चुके इन कवियों का यह मिशन अधूरा न रहे, इसका कोई सम्मानजनक उपाय निकल सके तो अच्छा है। कोई संस्था आगे आए तो सबसे बेहतर है लेकिन कुछ भी ऐसा न हो, जिसके कारण इन दोनों कवियों के सम्मान को ठेस न पहुंचे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल भारत और चीन के बीच काफी नरम-गरम नोंक-झोंक चलती नजर आती है। गलवान घाटी विवाद ने तो तूल पकड़ा ही था लेकिन उसके बावजूद पिछले दो साल में भारत-चीन व्यापार में अपूर्व वृद्धि हुई है। भारत-चीन वायुसेवा आजकल बंद है लेकिन इसी हफ्ते भारतीय व्यापारियों का विशेष जहाज चीन पहुंचा है। गलवान घाटी विवाद से जन्मी कटुता के बावजूद दोनों देशों के सैन्य अधिकारी बार-बार बैठकर आपसी संवाद कर रहे हैं। कुछ अंतरराष्ट्रीय बैठकों में भारतीय और चीनी विदेश मंत्री भी आपस में मिले हैं। इसी का नतीजा है कि विदेशी मामलों पर काफी खुलकर बोलनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के विरुद्ध लगभग मौन दिखाई पड़ते रहे। यही बात हमने तब देखी, जब अमेरिकी संसद की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की ताइवान-यात्रा पर जबर्दस्त हंगामा हुआ। पेलोसी की ताइवान-यात्रा के समर्थन या विरोध में हमारे प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की चुप्पी आश्चर्यजनक थी लेकिन यह चुप्पी अब टूटी है। क्यों टूटी है?
क्योंकि चीन ने इधर दो बड़े गलत काम किए हैं। एक तो उसने सुरक्षा परिषद में पाकिस्तानी नागरिक अब्दुल रउफ अज़हर को आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव का विरोध कर दिया है और दूसरा उसने श्रीलंका के हंबनतोता बंदरगाह पर अपना जासूसी जहाज ठहराने की घोषणा कर दी थी। ये दोनों चीनी कदम शुद्ध भारतविरोधी हैं। अजहर को अमेरिका और भारत, दोनों ने आतंकवादी घोषित किया हुआ है। चीन ने पाकिस्तानी आतंकवादियों को बचाने का यह दुष्कर्म पहली बार नहीं किया है। लगभग दो माह पहले उसने लश्करे-तय्यबा के अब्दुल रहमान मक्की के नाम पर भी रोक लगवा दी थी। इसी प्रकार जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद को आतंकवादी घोषित करने के मार्ग में भी चीन ने चार बार अडंगा लगाया था।
अब्दुल रउफ अजहर पर आरोप है कि उसने 1998 में भारतीय जहाज के अपहरण, 2001 में भारतीय संसद पर हमले, 2014 में कठुआ के सैन्य-शिविर पर आक्रमण और 2016 में पठानकोट के वायुसेना पर हमले आयोजित किए थे। चीन इन पाकिस्तानी आतंकवादियों को संरक्षण दे रहा है लेकिन उसने अपने लाखों उइगर मुसलमानों को यातना-शिविरों में झोंक रहा है। ये पाकिस्तानी आतंकवादी उन्हें भी उकसाने में लगे रहते हैं। यह मैंने स्वयं चीन के शिन-च्यांग प्रांत में जाकर देखा है। इसीलिए इस चीनी कदम की भारतीय आलोचना सटीक है। जहां तक ताइवान का प्रश्न है, भारत की ओर से की गई नरम आलोचना भी समयानुकूल है। वह चीन-अमेरिका विवाद में खुद को किसी भी तरफ क्यों फिसलने दे? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिंदी की एक कहावत है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपने को देय।’ अपने नेताओं ने अपने आचरण से इस कहावत को यों बदल दिया है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, सिर्फ खुद को ही देय।’ सिर्फ खुद को फायदा करने के लिए ही आजकल हमारे सत्तारुढ़ दल सरकारी रेवडिय़ां बांटते रहते हैं। आजकल देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां थोक वोट बटोरने के लालच में मतदाताओं को तरह-तरह की चीजें उपहार में बांटती रहती हैं। ये ऐसी चीजें हैं, जिनके बिना भी करोड़ों लोग आराम से गुजर-बसर कर सकते हैं।
कई राज्य सरकारों ने अपनी महिला वोटरों को मुफ्त साडिय़ां, सोने की चेन, बर्तन, मिक्स-ग्राइंडर और बच्चों को कंप्यूटर, पोषाख, भोजन आदि मुफ्त भेंट किए हैं। कई प्रदेश सरकारों ने मुफ्त साइकिलें भी भेंट में दी हैं। क्या ये सब चीजें जिंदा रहने के लिए बेहद जरुरी हैं? नहीं हैं, फिर भी इन्हें मुफ्त में इसीलिए बांटा जाता है कि सरकारों और नेताओं की छवि बनती है। इसका नतीजा क्या होता है? यह होता है कि हमारी प्रांतीय सरकारें गले-गले तक कर्ज में डूब जाती हैं।
वे डूब जाएं तो डूब जाएं, मुफ्त रेवडिय़ां बांटने वाले नेता तो तिर जाते हैं। आजकल हमारी प्रांतीय सरकारें लगभग 15 लाख करोड़ रु. के कर्ज में डूबी हुई हैं। वे रेवडिय़ां बांटने में एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए उतावली हो रही हैं। कुछ सरकारों ने तो अपने नागरिकों को बिजली और पानी मुफ्त में देने की घोषणा कर रखी है। महिलाओं के लिए बस-यात्रा मुफ्त कर दी गई है। इसका नतीजा यह है कि हमारी सरकारें देश के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने में बहुत पिछड़ गई हैं।
देश में गरीबी, बेरोजगारी, रोग और भुखमरी का बोलबाला है। इसी को लेकर आजकल भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जमकर बहस चल रही है। एक याचिका में मांग की गई है कि उन राजनीतिक दलों को अवैध घोषित कर दिया जाना चाहिए, जिनकी सरकारें मुफ्त की रेवडिय़ां बांटती हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की राय है कि यह तय करना न्यायालय नहीं, संसद का काम है।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक कमेटी बना दी है, जिसमें केंद्र सरकार के अलावा कई महत्वपूर्ण संस्थाओं के प्रतिनिधि अपने सुझाव देंगे। चुनाव आयोग ने इसका सदस्य बनने से इंकार कर दिया है, क्योंकि वह एक संवैधानिक संगठन है। सच्चाई तो यह है कि यह बहुत ही पेचीदा मामला है। सरकारें यदि राहत की राजनीति नहीं करेंगी तो उनका कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा।
यदि बाढग़्रस्त इलाकों में सरकारें खाद्य-सामग्री नहीं बांटेंगी तो उनका रहना और न रहना एक बराबर ही हो जाएगा। इसी तरह महामारी के दौरान 80 करोड़ लोगों को दिए गए मुफ्त अनाज को क्या कोई रिश्वत कह सकता है? वास्तव में भारत-जैसे विकासमान राष्ट्र में शिक्षा और चिकित्सा को सर्वसुलभ बनाने के लिए जनता को जो भी राहत दी जाए, वह सराहनीय मानी जानी चाहिए लेकिन शेष सभी रेवडिय़ों को परोसे जाने के पहले न्याय के तराजू पर तोला जाना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रविश कुमार
सलमान रुश्दी पर जानलेवा हमला शर्मनाक है। इस हमले के समर्थन में खड़े होने वाले लोग दूसरों के लिए भी कट्टरता बो रहे हैं। ऐसे लोगों की मौजूदगी दूसरी तरफ भी कट्टरता को फल-फूलने का मौक़ा देती रहती है।जिसके कारण करोड़ों लोग दहशत की ज़िंदगी जी रहे हैं। कितने बेकसूर लोग मार दिए जाते हैं। कट्टरता कभी एक नहीं होती है। वह कई ख़ेमों में बंटी होती है। हर ख़ेमा दूसरे ख़ेमे की कट्टरता से सीना फुलाता है, मुस्कुराता है और आंखें दिखाता है।ऐसे वक्त में हिंसा का विरोध करने वाले मज़ाक का पात्र बना दिए जाते हैं, मगर दूसरा रास्ता क्या है, क्या आप नहीं जानते कि हिंसा का समर्थन करने का मतलब किसी की हत्या और किसी को हत्यारा बनाना है?
सलमान रुश्दी पर हमला संगठित कट्टरता का परिणाम है। संगठित का मतलब ज़रूरी नहीं कि कोई संगठन बनाकर ही कट्टरता फैला रहा हो। अगर 24 साल का हादी उतार एक लेखक की हत्या का इरादा रखता हो, योजना बनाकर घात लगाने बैठा हो तो उसके भीतर की कट्टरता संगठित कट्टरता है। यह पैदा होती है, उन लोगों के बीच जो लगातार ऐसी हिंसा के लिए एलान करते रहते हैं। खुलकर या दबी ज़ुबान में समर्थन करते रहते हैं। किसी लेखक को कई साल से मार देने की योजना बनती रही हो, ख़तरे पैदा किए जाते रहे हों तो यह संगठित कट्टरता है। धर्मांधता आसमान से नहीं टपकती है। जहां भी समूह की संभावना है, समूह का निर्माण है, वहाँ धर्मांधता और कट्टरता की भी संभावनाएँ है। जो भी इस हत्या के पक्ष में खड़ा है, वह जानबूझकर कर अपने समुदाय के भीतर किसी और के हत्यारा बनने की संभावनाएँ पैदा कर रहा है। किसी और इंसान की हत्या के हालात रचता है।
सलमान रुश्दी लंबे समय तक हत्या की आशंका के साये में जीते रहे हैं। दुनिया उनके लेखन की कायल रही है। बताया तो यही जाएगा कि यह हमला उनकी हार है जो धर्मांधता और हिंसा के ख़िलाफ आवाज़ उठाते हैं। दूसरे के नाम पर अपनी कट्टरता को सही ठहराने वाले मुस्कुराते ही रहेंगे। इसमें कोई नई बात नहीं है। मूर्ख को अगर पता चल जाए कि दूसरी तरफ़ भी मूर्ख है, तो वह ख़ुश ही होता है। अपनी विद्वता समझ हंसता है।
धर्मांधता से लड़ने वाले हारते ही रहेंगे।जो भी कट्टरता के खिलाफ लड़ता है, वह केवल अपने धार्मिक समाज के भीतर संग्राम नहीं झेलता बल्कि दूसरे धार्मिक समाजों में भी निशाना बनाया जाता है। हर तरह की कट्टरता उनका इस्तेमाल करती है, उन पर हमले करती है। यह लड़ाई अपने भीतर के बल से लड़ी जाती है। कभी चुप रह कर, कभी बोल कर, कभी सिसक कर।
दुआ कीजिए कि सलमान रुश्दी ठीक हो जाएं।
-डॉ. संजय शुक्ला
आगामी 15 अगस्त को भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव यानि 75 वीं सालगिरह मनाने जा रहा है। इस साल पूरे देश में तिरंगा की धूम मची हुई है सरकारी अमला और प्रचार माध्यम तिरंगे के जोश से अटा पड़ा है। बेशक लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री जी बड़े जोशो-खरोश से देश को संबोधित करेंगे और जनता को सुनहरे सपने भी दिखाएंगे। इस बीच जब देश की आजादी और तिरंगा का ज्वार शांत हो जाएगा तब एक बार फिर सवाल खड़ा होगा कि आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी क्या हम आजादी के लक्ष्य को हासिल करने में सफल हो पाए हैं?
क्या देश का लोकतंत्र ‘जनता द्वारा, जनता के लिए,जनता का शासन’ के उद्देश्य को साकार कर पाई है? कहने को तो हम आजाद देश में रहते हैं जहाँ का संविधान सभी नागरिकों को सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय का समान अवसर उपलब्ध कराता है। हकीकत पर गौर करें तो नजारा कुछ और ही है आज भी देश गांधी के सपनों के भारत से बहुत दूर है। देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की बात करें तो आज का भारत उनके सपनों का भारत से कोसों दूर है।
गौरतलब है कि आजादी के सात दशकों बाद भी एक बड़ी आबादी गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, महंगाई,धार्मिक और जातिवादी कट्टरता व भेदभाव, अपराध, हिंसा और छुआछूत जैसे समस्याओं का गुलाम है। महिला सशक्तिकरण के नारे और दावे के बावजूद देश की आधी आबादी अभी भी हिंसा, प्रताडऩा, लैंगिक भेदभाव,अशिक्षा और सामाजिक रूढि़वादी अन्याय का शिकार है। देश की आजादी का संघर्ष उपरोक्त विसंगतियों को दूर करने के लिए किया गया था लेकिन नतीजा सिफर है। भले ही हम अपने आपको दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का हिस्सा होने का ढोल पीट लें लेकिन आम जनता अभी भी भूख,भय और भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो पाया है। इन समस्याओं के पृष्ठभूमि में कुछ के लिये जनता द्वारा चुनी गई सरकार जिम्मेदार है तो कुछ के लिए हमारी सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता जवाबदेह है।
किसी राष्ट्र का विकास उसकी बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर निर्भर होता है लेकिन हमारे देश में यह व्यवस्था अत्यंत दयनीय है। देश के नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और साफ पेयजल मुहैया कराना उस देश के सरकार की संवैधानिक जवाबदेही है लेकिन भारत में यह संविधान के किताब में ही मौजूद है। इन बुनियादी जरूरतों की उपलब्धता में व्यापक असमानता है तथा यह अमीरी-गरीबी, शहरी-ग्रामीण और सरकारी व निजी क्षेत्रों के बीच बँटी हुई है।
एक बड़ी आबादी को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं उसकी आर्थिक हैसियत के बल पर मिल रही है। सरकारी और पांच सितारा निजी स्कूल-कॉलेजों के संसाधनों और गुणवत्ता में जमीन-आसमान का अंतर है। आर्थिक सामर्थ्य के आधार पर शिक्षा की उपलब्धता के कारण जहाँ गरीब मेधावी छात्रों के मेधा का क्षरण हो रहा है वहीं सामाजिक असमानता की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवा खुद बीमार है अस्पतालों में संसाधनों का काफी अभाव है।
खस्ताहाल सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण गरीबों और ग्रामीणों को मजबूरन निजी अस्पतालों के शरण में जाना पड़ रहा है। एक बड़ी आबादी को अपने बच्चों के भविष्य और अपनी सेहत बचाने के लिए निजी क्षेत्रों की सेवा लेने की मजबूरी के चलते अपनी संपत्ति बेचने या गिरवी रखने के लिए विवश होना पड़ रहा है फलस्वरूप हर साल करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। देश की 14 फीसदी आबादी भयंकर कुपोषण का शिकार है तो दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से एक तिहाई बच्चे भारत में रहते हैं। कुपोषण का प्रमुख कारण भुखमरी और पोषक आहार में कमी है।वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत 116 देशों के बीच ‘गंभीर’ श्रेणी के साथ 101 वें पायदान पर है। यह स्थिति उस कृषिप्रधान देश भारत की है जहाँ अनाज का बंफर उत्पादन होता है लेकिन उचित भंडारण और वितरण के अभाव में लाखों टन साबूत अनाज सड़ जाते हैं या पकाया हुआ भोजन नालियों में चला जाता है।विडंबना है कि आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी करोड़ों लोगों को साफ पेयजल मयस्सर नहीं हो पाया है। लाखों लोग भूखे पेट फुटपाथ पर रात गुजारने के लिए मजबूर हैं, लाखों बच्चों ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। आखिरकार यह कैसी आजादी?
पूरी दुनिया में युवाओं की सर्वाधिक आबादी हमारे देश में है लेकिन युवा भारत में नौजवान भटकाव की राह पर हैं। युवा बेरोजगारों की फौज लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन हमारी सरकारें कुछ हजार बेरोजगारी भत्ता देकर और रोजगार के लिए कागजी योजना बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री माने बैठी है। बेरोजगारी और आर्थिक तकलीफों के कारण युवाओं में कुंठा और हताशा पनप रही है। फलस्वरूप वे नशाखोरी या मनोरोगों का शिकार हो रहे हैं या अपराध जगत की राह पर हैं। किसी राष्ट्र का समावेशी विकास उसके युवाओं पर निर्भर होता है क्योंकि उनमें ऊर्जा और नये विचारों की अपार शक्ति होती है लेकिन हमारे युवा राष्ट्र निर्माण की भूमिका में हाशिये पर हैं। दुनिया का इतिहास गवाह है कि किसी व्यवस्था में बदलाव युवाओं ने ही लाया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में साकारात्मक बदलाव के लिए युवाओं को सियासत का हिस्सा बनना ही होगा लेकिन देश की राजनीति में जारी वंशवाद, धनबल और बाहुबल के बढ़ते दखल के कारण अधिकांश युवाओं के लिए राजनीति नापसंदगी का क्षेत्र बना हुआ है।
दरअसल देश का आम युवा धार्मिक, जातिगत भेदभाव से परे भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त भारत की अवधारणा में भरोसा रखता है लेकिन राजनीति इसके ठीक उलट है। भारतीय प्रतिभाओं का परदेस पलायन भी देश के विकास में बाधक हैं। दलितों और आदिवासियों का उत्पीडऩ और आर्थिक शोषण बदस्तूर जारी है तो आदिवासियों की सदियों से थाती रही जल,जंगल और जमीन को सरकार कार्पोरेट घरानों को कौडिय़ों के मोल बेच रही है। दलितों और आदिवासियों को सामाजिक न्याय और समानता दिलाने के लिए लागू आरक्षण व्यवस्था राजनीतिक तुष्टिकरण और वोट हथियाने का जरिया बनते जा रहा है। जिन वर्गों के समता और सर्वांगीण विकास के लिए यह व्यवस्था लागू किया गया है उनकी बड़ी आबादी आज भी इस कानून के लाभ से वंचित हैं। देश में नक्सलवाद और अलगाववाद आज भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विकास में बाधक बनी हुई है तो कालाधन और भ्रष्टाचार अभी भी लाइलाज मर्ज बना हुआ है।
देश की आजादी के संघर्ष में कई पीढिय़ों ने कुर्बानी अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए दी थी लेकिन हालिया राजनीतिक परिदृश्य निराशा पैदा कर रही है। विडंबना है कि पचहत्तर साल का बूढ़ा लोकतंत्र अभी तक परिपच् नहीं हो पाया है जिसकी झलक संसद और सदन से लेकर चुनावी राजनीति में दृष्टिगोचर हो रहा है। हमारे जनप्रतिनिधियों का लोकतंत्र के मंदिर में आचरण बेहद निराशाजनक है फलस्वरूप देश शर्मसार हो रहा है। जनता के खून-पसीने की कमाई से हर मिनट लाखों रुपए खर्च कर चलने वाले संसद और सदन बिना किसी कामकाज के हंगामे और जूतमपैजार की भेंट चढ़ रहे हैं।
विश्वगुरू बनने का दंभ भरने वाले देश की चुनावी राजनीति इक्कीसवीं सदी में भी धर्म और जाति पर निर्भर है जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, बेरोजगारी, पर्यावरण प्रदूषण और महंगाई जैसे करोड़ों भारतीयों से जुड़े बुनियादी मुद्दे पूरी तरह से हाशिये पर हैं। इस सियासत का दुष्परिणाम है कि देश में धार्मिक और जातिवादी कट्टरता की जड़ें और गहरी होती जा रही है। वर्तमान हालात के लिए देश का आम नागरिक भी जवाबदेह है। हमें यह याद रखना चाहिए कि संविधान प्रदत अधिकार के साथ साथ नागरिक कर्तव्य भी जरूरी है लेकिन इसमें न्यूनता दृष्टिगोचर हो रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ही देश की दशा और दिशा तय करती है लेकिन मतदाताओं का एक वर्ग मतदान की जगह ‘वोटिंग हॉलिडे’ मनाता है या फिर पैसे, कंबल और शराब में अपना वोट बेच देता है।आमजनता का भी कर्तव्य है कि वे देश की एकता और अखंडता के खिलाफ काम करने वाले ताकतों के प्रति सचेत रहें।
बहरहाल तमाम बाधाओं और विसंगतियों के बावजूद हमारे देश ने बीते दशकों के सफर में विकास के नये आयाम भी गढ़े हैं। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाली भारत ने वैश्विक लिहाज से विकास के सभी क्षेत्रों में शानदार कीर्तिमान स्थापित किया है। देश ने आर्थिक, सामाजिक, सामरिक, विज्ञान और तकनीक, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कृषि, अधोसंरचना विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की है। इन उपलब्धियों का लोहा समूची दुनिया मान रही है। बहरहाल आजादी के लिए किए गए संघर्ष तथा शहादत का सम्मान और स्वतंत्रता दिवस के आयोजन की सार्थकता तब है जब देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के फैसलों में युवाओं, महिलाओं और सर्वहारा वर्ग की अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित हो।
-सनियारा खान
आजादी के ऐसे बहुत से क्रांतिकारी वीर-वीरांगनाएं हैं, जिन्हें हम लोग जानते भी नहीं हैं। हमारी सर जमीन पर ना जाने कितने आजादी के दीवानें हुआ करते थे, जिनमे से कइयों को हम जानते ही नहीं और अगर जानते भी थे तो जल्द भूल भी गए। ऐसा ही एक नाम है बंगाल की देशभक्त और क्रांतिकारी महिला बीना दास का। उनके पिता बेनी माधव दास एक जाने माने शिक्षक थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी उनके छात्र रह चुके है। माता सरला देवी एक समाजसेवी थी।
छोटी उम्र से ही बीना दास और उनकी बहन कल्याणी दास दोनों ही स्वतंत्रता की दीवानी रही। स्कूल के दिनों से ही दोनों अंग्रेजों के खिलाफ रैलियों और मोर्चों में शामिल होने लगी थी। बेथुन कॉलेज में पढ़ते समय 1928 में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने के लिए बीना ने अन्य छात्राओं के साथ कॉलेज के फाटक पर धरना दे कर सब का ध्यान आकर्षित किया था। कांग्रेस अधिवेशन में वह स्वयंसेवी बन कर भी काम करती रही। इसके बाद उसने जो काम किया वह कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह में उसने बंगाल के गवर्नर स्टेनले जैकसन को अपनी गोली का निशाना बनाया। यह अलग बात है कि उसका निशाना चुक गया और वह गिरफ्तार कर ली गई। लेकिन अब वह अखबारों के फ्रंट पेज पर छा गई थी। जेल में उन पर बार बार साथी क्रांतिकारियों के नाम बताने के लिए दबाव डाला जा रहा था और अत्याचार भी किया जा रहा था। लेकिन वह मुंह नहीं खोली। बल्कि बहादुरी से कहा कि 30 करोड़ हिन्दुस्तानियों को गुलामी से मुक्त करना और अंग्रेज सरकार के पूरे सिस्टम को हिला देना ही उसका मकसद है। उसे नौ साल के लिए कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।
इसके बाद 1937 में उस प्रांत में कांग्रेस सरकार बनते ही सभी बंदियों के साथ बीना दास भी रिहा हो गई। लेकिन ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के समय उन्हे फिर से तीन साल के लिए नजरबंद कर रखा गया था। 1946 से 1951 तक वह बंगाल विधान सभा की सदस्य भी रही। गांधीजी के साथ नौआखाली यात्रा में शामिल हो कर लोगों का पुनर्वास करने में बढ़-चढक़र भाग लिया। बाद में एक स्वतंत्रता सेनानी के साथ ही उनकी शादी हुई। कहा जाता था कि पति के मृत्यु के बाद वह ऋषिकेश में किसी आश्रम में रहने लगी और सरकार से स्वतंत्रता पैंशन लेने से इन्कार कर दिया। और एक शिक्षिका बन कर जीवन व्यतीत करने लगी।
देश के लिए सब कुछ त्याग देने वाली बीना दास के दुखद अंत को लेकर एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी प्रोफेसर सत्यब्रत घोष ने अपने लेख ‘फ्लैशबैक: बीना दास, रीबॉर्न’ में लिखा कि किस प्रकार सडक़ के किनारे उनका जीवन समाप्त हो गया था। छिन्न-भिन्न अवस्था में लोगों को उनका शव मिला था। पुलिस ने खोज बीन कर पता किया कि वह शव क्रांतिकारी बीना दास का था। सही में ये बेहद अफसोस की बात है कि एक क्रांतिकारी को गुमनामी के अंधेरे में इस तरह मौत को गले लगाना पड़ा। हम सब का सर शर्म से झुक जाना चाहिए।
-डॉ राजू पाण्डेय
मैच के दौरान कई बार ऐसा होता है कि मैदान पर खेल रहे खिलाड़ियों से ज्यादा मैच देख रहे दर्शक उत्साहित-उत्तेजित हो जाते हैं; खिलाड़ी तो सौहार्द-संतुलन बनाए रखते हैं किंतु दर्शक आपस में उलझ पड़ते हैं, कभी कभी तो तनाव, आनंद या दुःख के अतिरेक के कारण उनकी धड़कनें हमेशा के लिए रुक जाती हैं।
राजनीति की दृष्टि से यह कोई असाधारण घटना नहीं थी कि नीतीश और तेजस्वी 2015 की भांति ही एक बार फिर एक साथ आए। यह वैसा ही गठजोड़ है जिसे 2015 की तरह मजबूत एवं परिवर्तन का संवाहक माना जा सकता है लेकिन जो 2017 में हुए अलगाव की भांति कमजोर और अल्पजीवी सिद्ध हो सकता है। बीजेपी की अपराजेयता और उससे भी अधिक देश के संवैधानिक ढांचे और सेकुलर चरित्र को तहस नहस करने के उसके खतरनाक इरादों से चिंतित मुझ जैसे अनेक बुद्धिजीवी इतने भर से खुशी के मारे सचमुच दीवाने हो गए और कल्पनालोक में विचरण करते करते कुछ असंभव दृश्यों की कल्पना करने लगे। उनकी इस हिस्टिरियाई प्रतिक्रिया को देखकर उन पर दया ही आई।
नीतीश के व्यक्तिगत गुणों की खूब चर्चा-प्रशंसा होने लगी और उन्हें परिवारवाद और भ्रष्टाचार जैसे अवगुणों से मुक्त, जातिवादी और साम्प्रदायिक राजनीति के धुर विरोधी, सबको साथ लेकर चलने में सक्षम सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। उन्हें देश के भावी प्रधानमंत्री और तेजस्वी को बिहार के भावी मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रस्तुत किया गया।
नीतीश की राजनीतिक यात्रा को देखते हुए कोई सामान्य व्यक्ति भी यह बड़ी आसानी से कह सकता है कि वे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को सर्वोपरि रखने वाले राजनेता हैं और इसकी पूर्ति के लिए वे बड़ी आसानी से विचारधारा और नैतिकता के साथ समझौते कर सकते हैं।
यदि सबको साथ लेकर चलने का अर्थ किसी को भी साथ लेकर चलने जैसा लचीला बना दिया जाए तो हम अवसरवादियों को बड़ी आसानी से सर्वसमावेशी कह सकते हैं। नीतीश सबको साथ लेकर चलते रहे हैं लेकिन किसी व्यापक लक्ष्य अथवा परिवर्तन के लिए नहीं बल्कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए।
भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में दो प्रकार के नेता देखने में आते हैं। एक वे जो राजनीति के पारंपरिक ढांचे और प्रचलित मुहावरे को आत्मसात कर उसमें कुशलता अर्जित करते हैं। दूसरे वे जो राजनीति का नया मुहावरा गढ़ते हैं और एक नई राजनीति का प्रारंभ करते हैं। नीतीश पहली श्रेणी में जबकि लालू दूसरी श्रेणी में आते हैं। लालू जैसा करिश्मा न रखते हुए भी नीतीश ने अपने राजनीतिक चातुर्य के बल पर उनसे कहीं लंबी पारी खेली है। राजनीति में चातुर्य और धूर्तता अथवा कुटिलता समानार्थी हो सकते हैं, यह हम सभी जानते हैं।
बिहार का हालिया घटनाक्रम भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव का सूत्रपात कर सकता था यदि नीतीश तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपते और स्वयं राष्ट्रीय राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हो जाते। तेजस्वी की आरजेडी संख्याबल में नीतीश की जेडीयू से काफी आगे है तो है ही लेकिन जिस तरह से पिछले विधानसभा चुनावों में कुटिल राजनीति के जरिए तेजस्वी से जीत छीनी गई और लोगों में उनके प्रति सहानुभूति का भाव उत्पन्न हुआ वह उन्हें मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बनाता था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इतने वर्षों तक बिहार का शासन संभालने वाले नीतीश मुख्यमंत्री पद का मोह नहीं छोड़ पाए।
यह कहना कि नीतीश सभी दलों को स्वीकार्य और लोकप्रिय हैं परिस्थितियों को कुछ अधिक सरलीकृत करना है। दरअसल भाजपा को सत्ता से बाहर रखने और इससे भी अधिक उसे यह अहसास दिलाने की इच्छा ने कि जो कुछ वह विरोधी दलों के राज्यों में करती रही है वह कितना अनुचित और तकलीफदेह है, कांग्रेस, वाम दलों और आरजेडी को नीतीश का समर्थन करने के लिए विवश कर दिया। शायद ये पार्टियां विपक्षी एकता का संदेश भी देना चाहती थीं। नीतीश भाग्यशाली हैं कि उन्हें बिना मांगे अनेक विपक्षी दलों का समर्थन परिस्थितिवश मिल रहा है।
नीतीश किसी ऐसे विपक्षी गठबंधन का चेहरा बन चुके हैं या बन सकते हैं जिसमें कांग्रेस शामिल है, यह आशा बहुत आसानी से यथार्थ रूप में परिणत होती नहीं लगती। कांग्रेस भाजपा के बाद एकमात्र ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है जिसकी उपस्थिति पूरे देश में है और स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री पद पर उसका नैसर्गिक अधिकार बनता है।
किंतु बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस सचमुच राष्ट्रीय पार्टी की भांति चुनाव लड़ेगी और इतनी सीटों पर विजय प्राप्त करेगी कि वह उसे ऐसे किसी गठबंधन के सबसे बड़े दल का दर्जा दिला सकें? ऐसा तभी संभव है जब किसी एक चेहरे को सामने रखकर कांग्रेस चुनाव लड़े और वह भी कांग्रेसवाद को आधार बनाकर। नेतृत्वविहीन और भाजपा के नक्शेकदम पर चलने को लालायित कांग्रेस को चुनावी सफलता मिलना कठिन है। और यदि ऐसा हो गया तब भी इसके टूटने बिखरने की संभावना अधिक रहेगी। बीजेपी की मानसिकता वाले कांग्रेसी नेताओं को बीजेपी का चुम्बक अवश्य अपनी ओर खींचेगा।
कांग्रेस का अनिर्णय खत्म होता नहीं दिखता। यदि उत्तरप्रदेश में राहुल और अखिलेश का एक साथ आना एक भूल थी जिसे प्रियंका ने सुधारा तो फिर बिहार में कांग्रेस की भावी रणनीति क्या होनी चाहिए? क्या चुनावों में भी वह इसी गठबंधन के साथ जाएगी और पार्टी कार्यकर्ताओं के व्यापक असंतोष को आमंत्रित करती हुई एक जूनियर पार्टनर के रूप में चंद सीटों पर चुनाव लड़कर संतोष कर लेगी? क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन का कांग्रेस को कोई फायदा मिला हो ऐसा कोई उदाहरण देखने में नहीं आता बल्कि गठबंधन के बाद उसका सिकुड़ता जनाधार और सीमित हुआ है। यह देखा गया है कि चुनावी गठजोड़ के बाद वोट ट्रांसफर अंकगणित के सवालों की तरह नहीं होता, राजनीति का गणित ठीक उल्टा होता है।
क्षेत्रीय दलों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वे "केंद्र में कांग्रेस और राज्य में क्षेत्रीय दल" फॉर्मूले को कभी स्वीकारेंगे, हर क्षेत्रीय पार्टी संसद में मजबूत प्रतिनिधित्व चाहती है ताकि वह केंद्र पर दबाव बना सके। और फिर आजकल तो हर क्षत्रप प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले है-चाहे वह शरद पवार हों या ममता बनर्जी हों या के. चंद्रशेखर राव हों या फिर आजकल चर्चित नीतीश कुमार हों। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव ने यह सिद्ध किया है कि अनेक विपक्षी दल कांग्रेस के साथ सहयोग करना नहीं चाहते। ऐसी परिस्थिति में विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस की अतिशय उदारता कहीं उसके लिए नुकसानदेह न हो जाए।
क्षेत्रीय राजनीति में सफलता अर्जित करने वाले क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं तीसरा मोर्चा बनने के मार्ग में बाधक हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे समय में जब भाजपा देश का मूल चरित्र बदलने की ओर अग्रसर है तब विपक्षी दल तुच्छ निजी स्वार्थों और महत्वाकांक्षाओं में उलझे हुए हैं। लगता ही नहीं कि कभी कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम अथवा मुद्दों के आधार पर विपक्षी एकता की बात करेगा।
जुलाई 2017 से जुलाई 2022 वह कालखंड रहा है जब भाजपा सरकार ने अनेक ऐसे निर्णय लिए जो किसान और मजदूर विरोधी थे। भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। सबसे बढ़कर इन पांच सालों में देश के संवैधानिक ढांचे और साम्प्रदायिक सौहार्द को कमजोर करने वाले कितने ही सफल-असफल प्रयास हुए हैं। नीतीश की इनमें मौन सहभागिता रही है। इन 5 सालों में भाजपा ने प्रतिपक्षी दलों के अवसरवादी, भीरू,पदलोलुप, भ्रष्ट और महत्वाकांक्षी राजनेताओं को प्रलोभन अथवा दबाव के बल पर अपने वश में लेकर अनेक राज्य सरकारों को अस्थिर किया है और जनादेश का निरादर करते हुए अपनी पसंदीदा सरकारों का गठन किया है, कोई आश्चर्य नहीं है कि भाजपा के हाथों की कठपुतली बने ये नेता नीतीश को अपना आदर्श मानते रहे हों।
पूर्व के अनेक उदाहरणों की भांति नीतीश फिर अपनी कुर्सी बचाने के लिए एक नए गठबंधन में हैं,यह कोई असाधारण घटना नहीं है। असाधारण है परिवर्तनकामी बुद्धिजीवियों का उल्लास जो उन्माद की सीमा को स्पर्श कर रहा है। फासिस्ट विचारधारा के प्रसार को रोकना हम सबकी की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, किंतु इसके लिए पहली शर्त यह है कि हमारे पैर यथार्थ की जमीन पर टिके हों।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)