विचार/लेख
सिंडीकेट तो इंदिरा गांधी को राष्ट्रपति बनवाकर निपटाना चाहता था..!
मोरारजी देसाई को बाहर कर बैंकों के राष्ट्रीयकरण का धमाका किया इंदिरा ने।
देश में पहली बार चीफ़ जस्टिस ऑफ इंडिया कार्यकारी राष्ट्रपति बने।
-डॉ. राकेश पाठक
देश के अगले राष्ट्रपति के लिए मतदान हो चुका है। तय है कि द्रौपदी मुर्मू भारत की प्रथम नागरिक होंगीं।
इस अवसर पर हम आपको इतिहास के सबसे रोचक राष्ट्रपति चुनाव के किस्से सुना रहे हैं।
अब तक दो किस्तों में आप पढ़ चुके हैं कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर कांग्रेस के घोषित उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को पटखनी दिलवा कर अपने उम्मीदवार वी वी गिरि को राष्ट्रपति बनवाया। इसके बाद इंदिरा को कांग्रेस से बर्खास्त कर दिया गया और पार्टी दो फाड़ हो गई।
सन् 1969 का यह चुनाव बहुतेरी सियासी कथाओं से भरा हुआ है।
आइए अब आपको कुछ और दिलचस्प वाकयात से रूबरू करवाते हैं।
कामराज ने इंदिरा को राष्ट्रपति बनाने का दांव फेंका
पूर्व में हम बता चुके हैं कि इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुडिय़ा’ कहने वाले कांग्रेस के खांटी दिग्गजों से उनका संघर्ष शुरू हो चुका था। कामराज,निजलिंगप्पा,अतुल्य घोष, एस के पाटिल, मोरारजी देसाई,नीलम संजीव रेड्डी आदि का खेमा ‘सिंडीकेट’कहलाने लगा था। सिंडीकेट कदम कदम पर इंदिरा गांधी की राह में कांटे बिछाता रहता था।
मजे की बात यह है कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में सिंडीकेट के दो दिग्गजों कामराज और निजलिंगप्पा का बहुत बड़ा हाथ था लेकिन जल्द ही उनके बीच तलवारें खिंच गईं थीं।
डॉ.जाकिर हुसैन के अचानक निधन से समय से पहले राष्ट्रपति चुनाव की नौबत आ गई। इस मौके पर सिंडीकेट ने इंदिरा गांधी को धूल चटाने के लिए जाजम बिछाना शुरू कर दिया।
चुनाव से पहले बेंगलुरु में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई। इस समय पार्टी अध्यक्ष सिंडीकेट के ही सूरमा एस निजलिंगप्पा थे। निजलिंगप्पा मैसूर के पहले मुख्यमंत्री रहे थे।
इसमें पार्टी की ओर से उम्मीदवार तय होना था। इंदिरा गांधी ने बाबू जगजीवन राम का नाम आगे बढ़ाया लेकिन सिंडीकेट अपनी मनमर्जी पर उतारू था। उसने नीलम संजीव रेड्डी का नाम रख दिया। कार्यसमिति में इंदिरा गांधी मात खा गईं। बहुमत से सिंडीकेट के प्रत्याशी रेड्डी का नाम राष्ट्रपति पद के लिए तय हो गया।
लेकिन सिंडीकेट का असल दांव अभी बाकी था। रेड्डी का नाम तय होने के बावजूद के.कामराज ने अपने भाषण में इंदिरा गांधी के कसीदे पढ़े और कहा कि हम चाहते हैं कि इंदिरा जी स्वयं राष्ट्रपति का चुनाव लड़ें।
इंदिरा गांधी के लिए यह समझना कठिन नहीं था कि सिंडीकेट उनके राजनीतिक जीवन की भ्रूण हत्या करने के लिए जाल बिछा रहा है।
इंदिरा गांधी ने कामराज के प्रस्ताव पर कान नहीं धरे लेकिन सिंडीकेट से निपटने की कसम खा कर बैंगलुरु से दिल्ली लौटीं।
मोरारजी को बाहर करके बैंकों का राष्ट्रीयकरण
बुजुर्ग नेताओं के सिंडीकेट से मुकाबला करने में इंदिरा गांधी को पार्टी के ‘युवा तुर्क’ नेताओं का साथ मिल रहा था। ओल्ड गार्ड वर्सेस यंग टर्क के इस मौसम में इंदिरा गांधी ने युवा तुर्कों की बहु प्रतीक्षित मांग को पूरा करने का फैसला किया।
ये मांग थी बैंकों के राष्ट्रीयकरण की। चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्ण कांत जैसे युवा तुर्क इसके लिए आवाज उठाते रहे थे जबकि सिंडीकेट के बुढ़ऊ इसके लिए तैयार नहीं थे।
खासतौर पर इंदिरा गांधी सरकार में वित्तमंत्री मोरारजी देसाई इसके लिए बिल्कुल राजी नहीं थे।
इंदिरा गांधी ने सबसे पहले मोराराजी को मंत्री पद से हटाया। चौबीस घंटे में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश तैयार करवाया और 19 जुलाई 1969 को बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी।
(यह संयोग ही है कि अभी-अभी 19 जुलाई गई है।)
राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी और इंदिरा गांधी के इस ऐतिहासिक फैसले ने सिंडीकेट को भौंचक कर दिया। देश में इस फैसले की अच्छी प्रतिक्रिया हुई थी।
दोनों पद खाली हो रहे थे इसलिए सीजेआई बने राष्ट्रपति
इस चुनाव में एक और रोचक घटना हुई थी।
जिस समय राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु हुई उस समय वी वी गिरि उपराष्ट्रपति थे। परंपरा अनुसार वे कार्यवाहक राष्ट्रपति बने।
लेकिन जब वे इंदिरा गांधी के इशारे पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन गए तब उन्हें कार्यवाहक राष्ट्रपति पद से भी इस्तीफा देना पड़ा।
इस बीच जब इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश तैयार करवा लिया तो वी वी गिरि ने इस पर बतौर राष्ट्रपति हस्ताक्षर किए और अगले दिन त्यागपत्र दे दिया।
अब एक और संकट सामने आ गया।
गिरि उपराष्ट्रपति पद पहले ही छोड़ चुके थे और अब चुनाव मैदान में आने पर राष्ट्रपति के कार्यवाहक दायित्व से भी मुक्त हो गए।
दोनों पद खाली नहीं रह सकते थे। तब तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एम हिदायतुल्ला को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया।
आजादी के बाद यह पहला मौका था जब देश के प्रधान न्यायाधीश को राष्ट्रपति का दायित्व सम्हालना पड़ा।
(डॉ राकेश पाठक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वर्तमान करमवीर न्यूज के प्रधान संपादक हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने नुपुर शर्मा और मोहम्मद जुबैर के साथ पूरा न्याय किया है। उसने दोनों के खिलाफ की गई दर्जनों पुलिसिया शिकायतों (एफआईआर) को रद्द करते हुए कहा है कि उनके खिलाफ जो भी मुकदमे चलें, वे किसी एक ही शहर में चलें। कई शहरों में अगर उन पर मुकदमे चलते रहे तो कई समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। सबसे पहली तो यही कि कई फैसले परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं। दूसरी समस्या यह कि आरोपी व्यक्ति कितने शहरों की अदालतों का चक्कर लगाता रहेगा? तीसरी समस्या उसकी अपनी सुरक्षा की है।
वैसे जुबैर को उनके विवादास्पद ट्वीट पर वैसी धमकियां नहीं मिल रही हैं जैसी कि नुपुर शर्मा को मिल रही है। कानून की जिन लोगों को थोड़ी भी समझ है, उन्हें पता है कि जुबैर और नुपुर दोनों को ही अदालत निर्दोष घोषित करने वाली हैं। नुपुर की गिरफ्तारी तो अभी तक नहीं हुई है लेकिन जुबैर को हफ्तों जेल में डाले रखा गया है। उन्हें जमानत भी नहीं मिली थी। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें तुरंत रिहा किया और उसने उ. प्र. की सरकार और पुलिस की भी कड़ी आलोचना की है।
सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने कहा है कि किसी भी पत्रकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कोई भी बाधक कैसे बन सकता है? यदि जुबैर ने 2018 में किसी फिल्म के संवाद को ट्वीट कर दिया तो क्या उसने इतना खतरनाक काम कर दिया है कि उसे जेल में बंद कर दिया जाए, उसे जमानत भी नहीं दी जाए और उसे दंगे भडक़ाने के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाए? जजों ने इस तथ्य पर भी एतराज जाहिर किया है कि जुबैर के खिलाफ कई एजेन्सियां जांच-पड़ताल में जुट गई हैं।
जुबैर पर उत्तर प्रदेश की पुलिस ने तरह-तरह के आरोप लगाए हैं। उसका तर्क था कि जुबैर पत्रकार नहीं है। वह ‘अल्टन्यूज’ नामक संस्था चलाता है और उसके जरिए वह दो करोड़ रु. सालाना कमाता है। 2018 में उसने एक फिल्म के एक चित्र को फिर से ट्वीट करके लिख दिया था- ‘2014 से पहले हनीमूल होटल, 2014 के बाद हनुमान होटल’। इसी तरह के अन्य कई आरोप जुबैर पर लगाए गए थे। इन सब आरोपों की जांच अब दिल्ली की अदालत करेगी।
इससे भी अधिक दयनीय मामला नुपुर शर्मा का है। एक टीवी संवाद में जब एक वक्ता ने शिवलिंगों का मजाक उड़ाया तो नुपुर ने जवाब में एक हदीस को उद्धृत कर दिया। इसे पैगंबर की शान में गुस्ताखी माना गया और उसके चलते दो लोगों की नृशंस हत्या कर दी गई, नुपुर की हत्या की धमकियां दी गईं और उस पर मुकदमे दायर हो गए। जुबैर के खिलाफ सरकारी रवैए और नुपुर के खिलाफ कुछ लोगों के रवैए से ऊपर उठकर सर्वोच्च न्यायालय ने जो निष्पक्ष रवैया अपनाया है, वही धर्म-निरपेक्ष भारत में उचित और शोभनीय है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
संविधान निर्माताओं समेत स्वाधीनता संग्राम से मंज-तपकर निकले सिद्धान्तनिष्ठ और खरे राजनेताओं की उस पुरानी पीढ़ी ने (जिसे यह पता था कि हमारा लोकतंत्र कितना बहुमूल्य है) यह कल्पना तक नहीं की होगी कि राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे पद बहुत स्थूल व निम्नस्तरीय राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि का माध्यम बन जाएंगे। यह कौन सोच सकता था कि इन गरिमामय पदों का उपयोग वयोवृद्ध नेताओं की सक्रिय राजनीति से स्वैच्छिक अथवा जबरन सेवानिवृत्ति के बाद पुनर्वास के लिए तो होगा ही; भारतीय राजनीति के प्रभावशाली राजनीतिक घरानों के प्रति चरम समर्पण, सेवाभाव एवं भक्ति दिखाने वाले राजनेताओं को पुरस्कृत करने के लिए भी यह पद प्रयुक्त होंगे।
राज्यपालों और राष्ट्रपतियों की भूमिकाओं पर भी राजनीतिक रंग चढ़ा। केंद्र द्वारा उन राज्यों के लिए चयनित राज्यपाल जिनमें केंद्र में सत्तारूढ़ दल की उन राज्यों में भी सरकार थी, बड़ी शांति से ऐश्वर्यशाली जीवन और राजसी सुख सुविधाओं का आनंद लेते नजर आए किंतु जैसे ही विधानसभा चुनावों में सत्ता परिवर्तन हुआ और विरोधी दल की सरकार बनी उन्हें राज्यपाल के अधिकारों, कर्त्तव्यों और शक्तियों का सहसा ही स्मरण हो आया और वे राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप करने लगे। कुछ राज्यपाल केंद्र द्वारा विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों में इसीलिए भेजे गए थे ताकि वे राज्य सरकार को परेशानी में डाल सकें और उन्होंने यह काम बखूबी अंजाम भी दिया।
राष्ट्रपतियों के साथ भी अनुकूलन की समस्या रही। किसी एक दल के कार्यकाल में नियुक्त राष्ट्रपति दूसरे दल का शासन आने पर असहज महसूस करते रहे और बमुश्किल उन्होंने बचा हुआ समय काटा। कुछेक अपवाद ऐसे रहे जब राष्ट्रपति ने नए सत्ताधारी दल के साथ न केवल अनुकूलन किया बल्कि उसके रंग में ऐसे रंगे कि उनका पैतृक राजनीतिक दल ही उनसे रूष्ट हो गया।
शायद संविधान निर्माता राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के रूप में ऐसे विद्वान और विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को देखना चाहते रहे होंगे जो राजनीति में आ भी नहीं सकते थे और राजनीति को जिनकी आवश्यकता भी थी। उनका ज्ञान, अनुभव और मौलिक चिंतन राजनीति को बंधी बंधाई लीक से अलग हटकर एक नया फलक देता। संविधान निर्माताओं के लिए यह कल्पना करना भी असंभव था कि इन पदों पर नियुक्त व्यक्तियों से यह अपेक्षा की जाएगी कि वे किसी राजनीतिक दल के स्पष्ट पक्षधर के रूप में दिखाई दें और सरकारें बनाने-गिराने के खेल के निर्णायक के बजाए खिलाड़ी ही बन जाएं एवं इतिहास में यह लिखा जाए कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी और राज्यपाल या राष्ट्रपति बनने के बाद भी अपने पैतृक दल के प्रति जमकर वफादारी दिखाई।
बहरहाल 'न्यू लो' की जो अभिव्यक्ति आजकल अधिक प्रयुक्त हो रही है उसकी लोकप्रियता अकारण ही नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव की इस पूरी प्रक्रिया में आरोप-प्रत्यारोप का जो दौर चला वह इस 'न्यू लो' को पाताल तल तक ले जाने को पर्याप्त है। आयकर विभाग, ईडी, सीबीआई आदि के बेजा उपयोग के आरोप, विधायकों को आलीशान होटलों में मतदान तक एकांतवास में रखने की शिकायतें, प्रलोभन और दबाव की चर्चाएं राष्ट्रपति चुनाव की गरिमा को खंडित करने वाली थीं। यदि इनमें जरा भी सच्चाई है तो यह मानना पड़ेगा कि देश में लोकतांत्रिक प्रदूषण अब घातक स्तर पर पहुंच रहा है।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के रूप में देश को प्रथम आदिवासी महिला राष्ट्रपति का मिलना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है किंतु इसकी सकारात्मकता और इससे जुड़ी संभावनाओं पर चर्चा कम ही हो रही है। कहीं आरोप-प्रत्यारोप के खेल में हम इतने न खो जाएं कि इस ऐतिहासिक पल का आनंद न ले सकें।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के पारिवारिक जीवन में अनेक दुःखमय घटनाएं घटीं हैं किंतु वे अविचलित रहती हुई अपने कर्त्तव्यपथ पर डटी रही हैं। उनकी राजनीतिक यात्रा यह दर्शाती है कि स्वयं को मिलने वाले उत्तरदायित्वों के निर्वाह में उन्होंने असाधारण दक्षता दिखाई है। विधायक के रूप में उनकी सक्रियता को देखते हुए उड़ीसा विधानसभा में उन्हें वर्ष 2007 में सर्वश्रेष्ठ विधायक को दिया जाने वाला नीलकंठ पुरस्कार दिया गया था। बतौर झारखंड के राज्यपाल उन्होंने जून 2017 में रघुवर दास के नेतृत्व वाली अपने ही पैतृक दल की सरकार द्वारा भेजे गए सीएनटी-एसपीटी संशोधन विधेयक को वापस कर दिया था। उस समय तब के नेता प्रतिपक्ष और आज झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्यपाल को धन्यवाद देते हुए कहा था कि राज्यपाल के इस कदम ने सिद्ध कर दिया है कि आदिवासियों के हित में चिंतन करने वाली आदिवासी राज्यपाल राजभवन में हैं। राज्यपाल के रूप में उनके द्वारा लिए गए इस निर्णय से तत्कालीन भाजपा सरकार की बहुत किरकिरी हुई थी और कोई आश्चर्य नहीं कि आगामी विधानसभा चुनावों में यह निर्णय भी एक चुनावी मुद्दा बना। बाद में जब 2019 के अंत में हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने तब उनकी सरकार ने ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल का गठन किया जिसके माध्यम से राज्यपाल की शक्तियों में कटौती करने का प्रयास किया गया। तब राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने इसका विरोध किया और विधिक परामर्श लेना प्रारंभ किया किंतु तभी उनका कार्यकाल समाप्त हो गया। फिर भी उन्होंने हेमंत सोरेन को संवैधानिक व्यवस्थाओं के पालन करने का परामर्श अवश्य दिया। राज्यपाल के रूप में दलित और आदिवासी शिक्षा के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास भी चर्चित और प्रशंसित हुए।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू एक बहुत कठिन समय में देश के राष्ट्रपति का पद संभाल रही हैं। वर्तमान सरकार आने वाले समय में कुछ ऐसे संवैधानिक परिवर्तन करने की चेष्टा कर सकती है जो देश के संविधान निर्माताओं की मूल भावना से सर्वथा असंगत होंगे। देश में अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक बहिष्कार की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है और कोई आश्चर्य नहीं कि यह आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार के रूप में विस्तार प्राप्त करे। दलित और आदिवासी समुदाय के लिए आने वाला समय बहुत कठिन होगा। जिस निजीकरण की ओर सरकार अंधाधुंध गति से अग्रसर हो रही है उसकी अवश्यम्भावी परिणति योग्यता और कार्यकुशलता के अभाव का बहाना बनाकर इन वर्गों को नौकरियों से बाहर रखने में होगी। श्रीमती मुर्मू को दृढ़ता और नैतिक साहस दिखाने की आवश्यकता होगी तभी वे इन कठिन परिस्थितियों का सामना कर पाएंगी।
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू यह अच्छी तरह जानती हैं कि विकास के पैमानों पर अगर देश में कोई सबसे पीछे है तो वह आदिवासी महिला ही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक सशक्तिकरण, राजनीतिक भागीदारी आदि सभी क्षेत्रों में आदिवासी महिलाएं अंतिम पायदान पर हैं। सरकारें अब तक आदिवासी महिलाओं के उत्थान के लिए जितनी अनिच्छापूर्वक योजनाओं का निर्माण करती रही हैं उतने ही बेमन से उनका क्रियान्वयन होता रहा है। बतौर राष्ट्रपति सभी राजनीतिक दलों को अपनी प्राथमिकता के एजेंडे में आदिवासी महिलाओं को आगे रखने के लिए प्रेरित करना श्रीमती मुर्मू के लिए एक कठिन चुनौती होगी।
लेकिन इससे भी बड़ी चुनौती आदिवासियों के अस्तित्व और उनकी अद्वितीयता को बचाए रखने की है। जिन सघन वनों में आदिवासियों का निवास है उनके नीचे छिपे कोयले और खनिजों पर उद्योगपति नजरें गड़ाए हुए हैं। यदि यह कहा जाए कि देश के औद्योगिक विकास की कीमत सबसे ज्यादा जिस समुदाय को चुकानी पड़ी है वह आदिवासी समुदाय ही है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हमारी प्रगति और उनका विनाश पर्यायवाची की भांति हैं। देश की सत्ता को नियंत्रित करने वाले कॉरपोरेट घरानों के मुकाबले निरीह आदिवासियों की क्या बिसात? अनियंत्रित औद्योगिक विकास का प्रतिरोध प्रतीकात्मक ही रहा है। पेसा कानून(1996) और वन अधिकार अधिनियम (2006) की मूल भावना से खिलवाड़ और इनके स्वरूप में उद्योगपतियों के पक्ष में परिवर्तन लाने की कोशिशें सरकारों के चरित्र को उजागर करती हैं। वर्तमान सरकार तो कुछ औद्योगिक घरानों से विशेष लगाव रखती है। पांचवी अनुसूची इन आदिवासी बहुल इलाकों के प्रशासन में राष्ट्रपति को विशेष महत्व देती है। श्रीमती मुर्मू का साहस न केवल आदिवासियों की रक्षा करेगा बल्कि देश के पर्यावरण और जैव विविधता को बचाने में भी सहायक होगा।
एक समस्या नक्सलवाद की भी है। नक्सलवाद के प्रसार के कारणों से जुड़े जटिल विमर्श से यदि न भी उलझें तब भी इतना तो स्पष्ट दिखता है कि नक्सलियों और पुलिस दोनों का कहर सबसे ज्यादा उस भोले भाले और शांतिप्रिय आदिवासी पर टूटा है जिसका न तो नक्सल हिंसा पर विश्वास है न ही उसका इससे कोई लेना देना है। क्या श्रीमती मुर्मू इस निरीह आदिवासी की रक्षा के लिए कोई पहल कर पाएंगी?
आदिवासियों पर धार्मिक- सांस्कृतिक आधिपत्य के लिए धर्म प्रचारक संघर्षरत रहे हैं। आदिवासियों की अद्वितीय और मौलिक प्रकृति केंद्रित धर्म परंपरा एवं संस्कृति पर वर्चस्व की लड़ाई में हिन्दू और ईसाई धर्मप्रचारक वर्षों से आमने सामने रहे हैं। क्या श्रीमती मुर्मू आदिवासियों को आदिवासी बनाए रखने की दिशा में कोई पहल कर सकेंगी?
अब जब श्रीमती मुर्मू राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हो चुकी हैं तो विपक्ष को आलोचना के स्थान पर आत्मावलोकन का आश्रय लेना चाहिए। विपक्ष द्वारा श्री यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार बनाना उसकी हताशा और उसमें व्याप्त वैचारिक शून्य को दर्शाता है। यह देखना दुःखद था कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस एक ऐसे व्यक्ति को देश के राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहती थी जिसने अपने जीवन का स्वर्णिम दौर भाजपा के साथ गुजारा है और जो केवल अपनी अतृप्त महत्वाकांक्षाओं के कारण कांग्रेस की भाषा बोल रहा है। यदि विपक्ष कोई ऐसा उम्मीदवार चुनता जिसका डीएनए और परवरिश वास्तविक रूप से गैर भाजपाई होती तो कम से कम जनता में यह संदेश तो जाता कि विपक्ष की अपनी पहचान बची हुई है।
बहरहाल कांग्रेस और विपक्षी दलों को आदिवासी विरोधी कहने का अवसर भाजपा को मिल गया है और वह उसे आगामी चुनावों में भुनाने से नहीं चूकेगी।
प्रधानमंत्री मोदी प्रतीकों की राजनीति में निष्णात हैं। यह बिल्कुल संभव है कि कि वे श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को भी आदिवासियों की सत्ता में भागीदारी के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करने की इच्छा रखते हों ताकि उनकी ओट में कॉरपोरेट परस्त आदिवासी विरोधी नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाया जा सके।
भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास यह दर्शाता है कि गोरे शासकों के शोषण और दमन के प्रखर विरोध का अप्रतिम साहस आदिवासियों ने प्रदर्शित किया था। शायद कॉरपोरेट लूट के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष की शुरुआत श्रीमती मुर्मू के कार्यकाल में हो सके।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
प्रसंगवश : राष्ट्रपति चुनाव -2
0 अपने ‘निर्दलीय’ को जितवाकर कांग्रेस से बर्खास्त हो गईं इंदिरा गांधी..!
0 ‘बेबी ऑफ हाउस’ तारकेश्वरी सिन्हा ने ऐलान कर दिया था- चुनाव बाद बदला जाएगा प्रधानमंत्री।
0 नीलम संजीव रेड्डी की प्रस्तावक बनीं फिर चुनाव में उन्हीं को पटखनी दी इंदिरा ने।
-डॉ. राकेश पाठक
देश में इन दिनों राष्ट्रपति पद के लिए सोलहवीं बार चुनाव प्रक्रिया चल रही है। ऐसे में इतिहास के सबसे हंगामाखेज और रोचक चुनाव पर बात करना भी समीचीन होगा।
पहली किस्त में आपने पढ़ा कि इंदिरा गांधी ने पार्टी के घोषित प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को अपने निर्दलीय प्रत्याशी वी वी गिरि को जिता कर इतिहास रच दिया था।
इसी चुनाव के कुछ और दिलचस्प किस्से जान लीजिए।
असल में लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा गांधी को कांग्रेस के तत्कालीन दिग्गज अपने इशारों पर नाचना चाहते थे। पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा, के कामराज, मोरारजी देसाई, अतुल्य घोष, एस के पाटील, तारकेश्वरी सिन्हा जैसे सूरमाओं का एक ग्रुप ‘सिंडीकेट’ कहलाने लगा था।
सिंडिकेट इंदिरा को गूंगी गुडिय़ा कह कर प्रचारित करता था। निजलिंगप्पा ने एक पत्राचार में यहां तक लिखा कि इंदिरा पीएम के योग्य ही नहीं हैं। असल में ये लोग शास्त्री के निधन के बाद मोरारजी देसाई को पीएम बनाना चाहते थे।
रेड्डी की प्रस्तावक बनी इंदिरा फिर हरवा दिया..!
डॉ जाकिर हुसैन के आकस्मिक निधन के कारण 1969 में राष्ट्रपति का चुनाव आ गया।
बस यही वह मौका था जब इंदिरा गांधी ने सिंडीकेट को धूल चटाने के लिए कमर कस ली।
सिंडीकेट अपनी मर्जी का राष्ट्रपति बनाने पर तुला था जबकि इंदिरा गांधी के मन में कुछ और चल रहा था।
सिंडेकेट की मर्जी पर कांग्रेस ने नीलम संजीव रेड्डी को प्रत्याशी घोषित कर दिया।
यह वह दौर था जब सिंडीकेट और इंदिरा गांधी की रार, तकरार खुलकर सामने आ चुकी थी। यहां तक कि पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा की बुलाई बैठकों तक में
इंदिरा गांधी ने जाना बंद कर दिया था।
लेकिन जब पार्टी ने रेड्डी को प्रत्याशी घोषित कर दिया तब उनके नामांकन पर इंदिरा गांधी ने प्रस्तावक क्रमांक एक के तौर पर दस्तखत किए। वे प्रधानमंत्री के साथ कांग्रेस संसदीय दल की नेता भी थीं अत: परंपरा के अनुसार उन्हें प्रस्तावक होना था।
तारकेश्वरी सिन्हा के ऐलान से सनसनी..!
इंदिरा गांधी ने भले ही रेड्डी के नामांकन फार्म पर प्रस्तावक के रूप में दस्तखत कर दिए थे लेकिन वे आर पार की लड़ाई में उतर चुकी थीं।
उनके इशारे पर तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी वी गिरि ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया।
साफ हो गया था कि अब सिंडीकेट या कांग्रेस के घोषित उम्मीदवार रेड्डी को इंदिरा गांधी के प्रत्याशी गिरि से दो दो हाथ करना है।
बढ़ते तनाव के बीच सिंडीकेट की मुखर सदस्य और इंदिरा की घोर आलोचक तारकेश्वरी सिन्हा ने बयान दे दिया कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद प्रधानमंत्री बदला जाएगा।
इस बयान ने आग में घी का काम किया। इंदिरा गांधी ने वाम दलों, अकाली दल, डीएमके आदि के समर्थन से अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी को हराने के लिए जान लड़ा दी।
इस दौर में कांग्रेस के ‘युवा तुर्क’ इंदिरा गांधी का साथ देने आगे आए। इनमें चंद्रशेखर,मोहन धारिया, कृष्णकांत आदि बेहद मुखर थे।
तारकेश्वरी के बयान के बाद इंदिरा गांधी ने रेडियो से देश भर के सांसद और विधायकों को वह ऐतिहासिक संदेश दिया जिसमें ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर वोट देने की अपील की।
प्रधानमंत्री रहते कांग्रेस से बर्खास्त हुईं इंदिरा..!
इंदिरा गांधी अंतत: अपने प्रत्याशी वी वी गिरि को राष्ट्रपति बनवाने में सफल रहीं। सिंडीकेट बुरी तरह मात खा गया और उसने इंदिरा गांधी को ही कांग्रेस पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
चुनाव के कुछ समय बाद 12 नवंबर 1969 को पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा ने इंदिरा गांधी को पार्टी की पार्टी की सदस्यता से निष्कासित कर दिया। पार्टी पूरी तरह विभाजित हो गई।
तब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) बनाई। सिंडीकेट ने अपनी पार्टी का नाम कांग्रेस (ओ) रखा।
बाद में 1971-72 आते आते सिंडीकेट खत्म हो गया। इसके कई दिग्गज चुनाव हार कर हाशिए पर चले गए।
कौन थीं ‘बेबी ऑफ हाउस’ तारकेश्वरी सिंह
सन् 1969 के दिलचस्प और हंगामाखेज राष्ट्रपति चुनाव में जिन तारकेश्वरी सिन्हा के बयान ने सनसनी फैलाई थी वे उस दौर में भारत की राजनीति की तारिका ही थीं।
बिहार के नालंदा में जन्मी तारकेश्वरी मात्र सोलह साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गईं थीं।
सन् 1947 में दंगों के दौरान महात्मा गांधी नालंदा आए तब उन्होंने गांधी जी की अगवानी की थी।
1952 के पहले आमचुनाव में पटना सीट से दिग्गज शीलभद्र याजी को हरा कर मात्र 26 वर्ष की आयु में वे संसद में पहुंचीं।
अपनी कम उम्र और अतीत सौंदर्य के कारण वे ‘बेबी ऑफ हाउस’, ‘ग्लैमर गर्ल ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स’ के नाम से मशहूर हो गईं। यहां तक कहा जाता है कि लोग सिर्फ उन्हें देखने संसद भवन आते थे।
वे शानदार वक्ता थीं और उन्हें हजारों शेर, कवितायें जुबानी याद रहते थे।
सन् 58 में वे नेहरू मंत्रिमंडल में उप वित्त मंत्री बनीं। वित्त मंत्री मोरारजी देसाई थे। वे 1957, 62, 67 में बाढ़ सीट से सांसद बनीं।
1971 में बेगूसराय सीट से हार गईं। बाद के दो और लोकसभा चुनाव में उन्हें जीत नसीब नहीं हुई।
आजीवन इंदिरा गांधी की आलोचक रहीं तारकेश्वरी सिन्हा आपातकाल में इंदिरा गांधी के साथ गईं लेकिन चुनावी जीत नहीं मिली।
अंतत: उन्होंने राजनीति से किनारा कर लिया। अगस्त 2007 में उनका निधन हो गया।
(डॉ राकेश पाठक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वर्तमान करमवीर न्यूज के प्रधान संपादक हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका के राष्ट्रपति-चुनाव में रनिल विक्रमसिंघ की विजय पर उनके दोनों प्रतिद्वंदी तो चुप हैं लेकिन उनके विरुद्ध राजधानी कोलंबो में प्रदर्शन होने शुरु हो गए हैं। आम तौर पर गणित यह था कि राजपक्ष-परिवार की सत्तारुढ़ पार्टी के नाराज सदस्य रनिल के विरुद्ध वोट देंगे और संसद किसी अन्य नेता को राष्ट्रपति के पद पर आसीन कर देगी लेकिन रनिल को स्पष्ट बहुमत मिल गया है।
इसका अर्थ यही है कि एक तो सत्तारुढ़ दल में दरार जरुर पड़ी है लेकिन वह इतनी चौड़ी नहीं हुई कि पार्टी-उम्मीदवार उसमें डूब जाए और दूसरा यह कि प्रधानमंत्री रहते हुए रनिल विक्रमसिंघ ने पिछले कुछ हफ्तों में ही भारत और अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठनों को इतना प्रेरित कर दिया था कि श्रीलंका को अरबों रु. की मदद आने लगी थी। वैसे भी रनिल छह बार श्रीलंका के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। इतने अनुभवी नेता अब राष्ट्रपति बनने पर शायद श्रीलंका को वर्तमान संकट से उबार ले जाएं।
इसी विश्वास ने उन्हें जिताया है लेकिन उनका आगे का रास्ता बहुत ही कंटकाकीर्ण है। एक तो श्रीलंका की सारी बागी जनता मानकर चल रही है कि वे राजपक्ष परिवार के भक्त हैं। वे उनके कहे मुताबिक ही काम करेंगे। इसीलिए अब जनता का गुस्सा पहले से भी अधिक तीव्र होगा। जो नेता उनसे हारे हैं, वे जनता को भडक़ाए बिना नहीं रहेंगे हालांकि उन्होंने अपनी हार को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लिया है। यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि राष्ट्रपति के चुनाव में श्रीलंका की जनता मतदाता होती तो रनिल विक्रमसिंघ की जमानत जब्त हो जाती।
अब देखना यही है कि विक्रमसिंघ श्रीलंका की वर्तमान समस्याओं का हल कैसे निकालते हैं और जनता के क्रोध को कैसे शांत करते हैं। पता नहीं कि वे अब प्रधानमंत्री किसे बनाएंगे? यदि इस वक्त वे किसी विपक्षी नेता, जैसे सजित प्रेमदास को प्रधानमंत्री बना दें तो शायद उन्हें राजनीतिक तूफानों का सामना कम ही करना पड़ेगा। सजित ने राष्ट्रपति के चुनाव से अपना नाम भी वापिस ले लिया था।
यदि ऐसा हो सके तो श्रीलंका में एक सर्वदलीय और सर्वसमावेशी मंत्रिमंडल बन सकता है, जो कि आम विरोध को भी शांत कर सकेगा और वर्तमान संकट का समाधान भी खोज सकता है। जहां तक भारत का सवाल है, राष्ट्रपति के इस चुनाव में भारत की भूमिका सर्वथा निष्पक्ष रही है। उसने अब तक लगभग चार बिलियन डॉलर की मदद श्रीलंका को दे दी है और वह अभी भी अपने इस निकट पड़ौसी राष्ट्र को संकट से उबारने के लिए कृतसंकल्प है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राकेश पाठक
तब इंदिरा गांधी ने ‘कांग्रेस’ के रेड्डी को हरवाकर अपने ‘निर्दलीय’ गिरि को जितवाया था।
इस घटना के बाद हुआ था कांग्रेस पार्टी में हुआ बड़ा विभाजन
देश के अगले राष्ट्रपति चुनाव के लिए हलचल तेज हो गई है। दोनों तरफ के उम्मीदवार राज्यों की राजधानियों में घूम घूमकर सांसदों, विधायकों से संपर्क कर रहे हैं। एनडीए की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू भोपाल आ रहीं हैं जबकि विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा आकर जा चुके हैं।
राष्ट्रपति चुनाव हो और ‘अन्तरात्मा की आवाज’ का जुमला याद न आये ऐसा प्राय: होता नहीं है। वैसे तो राजनीति में ‘अंतरात्मा’ नाम की चिडिय़ा विलुप्त ही मानी जाती है फिर भी...
सिर्फ राजनीति को कोसना ठीक नहीं बाकी भी कहीं नहीं मिलती अंतरात्मा ..!
खैर, बात निकली है तो आइए जानते हैं कि ये ‘अंतरात्मा की आवाज’ का चक्कर क्या है..? आखिर ये आवाज सबसे पहले कब, क्यों, किसने लगाई थी..?
इस चुनाव में ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला फिर भी ये जान लेना समीचीन होगा कि तब क्या क्या हुआ था।
बात सन् 1969 की है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन का अचानक इंतकाल हो गया।आज़ादी के बाद यह पहला अवसर था जब किसी राष्ट्रपति का पद पर रहते निधन हुआ था।
उपराष्ट्रपति वराह गिरि वेंकट गिरि कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाये गए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चाहतीं थीं कि गिरि ही राष्ट्रपति बनें।
उस दौर में कांग्रेस पार्टी में एक सिंडीकेट बन गया था जो इंदिरा को ‘गूंगी गुडिय़ा’ मानकर पटखनी देने की फिराक में था। सिंडीकेट में कामराज, एस के पाटिल, अतुल्य घोष सरीखे खांटी कांग्रेसी दिग्गज थे जो इंदिरा गांधी को अपने इशारों पर चलाना चाहते थे लेकिन इंदिरा अपनी स्वतन्त्र छवि बना रहीं थीं।
पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा, कामराज, मोरारजी देसाई सहित तमाम दिग्गज इस फेर में थे कि इस चुनाव में इंदिरा को धूल चटा दी जाए। पार्टी ने इंदिरा की मर्जी के खिलाफ नीलम संजीव रेड्डी को उम्मीदवार घोषित कर दिया।
इंदिरा ने लगायी ‘अंतरात्मा’ की आवाज
इंदिरा गांधी ने दुस्साहसिक कदम उठाया और वी वी गिरि को उप राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिलवा कर स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति पद की लड़ाई में उतार दिया।
स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों ने अपने संयुक्त उम्मीदवार के रूप में चिंतामणि द्वारिकानाथ देशमुख को उतार दिया।
देशमुख नेहरू मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री रहे थे।
इसी मौके पर इंदिरा गांधी ने वो ऐतिहासिक अपील की जो आजतक याद की जा रही है। इंदिरा ने अपील की-‘कांग्रेसजन अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर मतदान करें।’
इंदिरा गांधी ने तब सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों से (गैर कांग्रेसी भी) सीधे संपर्क किया।
16 अगस्त को राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान हुआ और 20 अगस्त 1969 को मतों की गिनती हुई ।
अंतत: इंदिरा गांधी के प्रत्याशी वी वी गिरि चुनाव जीत कर राष्ट्रपति बने और कांग्रेस के घोषित प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी हार गए। रेड्डी लोकसभा अध्यक्ष और कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष तक रह चुके थे और सिंडिकेट के दम लगाने पर भी खेत रहे।
गिरि राष्ट्रपति बनने से पहले केंद्रीय मंत्री, कई राज्यों के राज्यपाल रहे थे। श्रम मंत्री के रूप में उनका योगदान ऐतिहासिक रहा था। आज भी मजदूरों के हक की कई बातों का श्रेय गिरि को ही जाता है।
वे आयरलैंड में कानून की पढ़ाई करने गए थे और तब के महान क्रांतिकारियों से संपर्क में रहे थे। देश लौट कर गांधीजी के साथ स्वतंत्रतता आंदोलन में कूद गए थे।
कई निर्दलीय उम्मीदवार लड़े थे चुनाव
सन 1967 के इस चुनाव में बहुत से अन्य नेता भी निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में थे।
चुनाव जीत कर राष्ट्रपति बने वी.वी. गिरि तो निर्दलीय थे ही चिंतामणि देशमुख के अलावा प्रतापगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी चंद्रदत्त सेनानी, पंजाब की गुरुचरण कौर, बॉम्बे के नेता पीएन राजभोग, चौधरी हरिराम, खूबीराम, कृष्ण कुमार चटर्जी भी मैदान में थे। इनमें से कुछ को तो एक भी वोट नहीं मिला।
कांग्रेस का औपचारिक विभाजन
इस चुनाव का दूरगामी असर हुआ। पहला तो यह कि इंदिरा गांधी ‘गूंगी गुडिय़ा’ की छवि से न केवल मुक्त हो गईं बल्कि सिंडीकेट के दिग्गजों को धूल चटाकर निद्र्र्वंद नेता बन गईं।
दूसरा यह कि कांग्रेस पार्टी विभाजन के कगार पर पहुंच गई। राष्ट्रपति चुनाव के बाद नवंबर 1969 में पार्टी दो फाड़ हो गई।
अपने गठन के लगभग 84 साल बाद कांग्रेस पार्टी में यह बहुत बड़ा औपचारिक विभाजन था।
यद्यपि 1885 में अपनी स्थापना के बाद कांग्रेस में पहला विभाजन 1907 में सूरत अधिवेशन में हुआ था जहां पार्टी नरम दल और गरम दल में बंट गई थी।
जनता काल में राष्ट्रपति बने रेड्डी
1969 में हारने वाले नीलम संजीव रेड्डी के भाग्य में राष्ट्रपति बनना लिखा ही था। आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी और तब नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति बने। वे निर्विरोध चुने गए एकमात्र राष्ट्रपति थे।
(डॉ राकेश पाठक वरिष्ठ पत्रकार हैं। वर्तमान करमवीर न्यूज के प्रधान संपादक हैं।)
-चैतन्य नागर
पिछले करीब तीन दशकों से भाजपा एक दृढ़ लक्ष्य के साथ राजनीतिक अखाड़े में अपने आप को मजबूत बनाती चली जा रही है। सही है कि बाकी विपक्ष और कांग्रेस भाजपा की नीतियों के खिलाफ स्वयं को व्यक्त करते रहे हैं। उनके हिसाब से भाजपा का अस्तित्व आक्रामक हिंदुत्व पर आधारित है, उग्र है। पर हकीकत यही है कि देश के कई लोगों को इस ब्रांड में ज्यादा दोष नजर नहीं आ रहा, और हकीकत यह है कि भारतीय राजनीति की इस फिसलन भरी पिच पर विपक्ष और कांग्रेस लिए बैटिंग करना फिलहाल मुश्किल साबित हो रहा है।
अगले लोक सभा चुनाव अब बहुत दूर नहीं। देखते-देखते समय बीतेगा और इस दौरान राजनीति की दुनिया में बहुत कुछ बदल जाएगा, इसमें संदेह है। बीच-बीच में कुछ उप-चुनाव एवं तेलंगाना, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, कर्णाटक, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना में भी चुनाव होने हैं। भारतीय विपक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती है हिंदुत्व के आक्रामक भाजपा ब्रांड के विरुद्ध भिडऩे की और साथ ही एक संतुलित, मध्यम मार्गी, सर्वसमावेशी रास्ता अपनाने की। वैचारिक रूप से एक संतुलित फॉर्मूला बनाने की। वह कामचलाऊ भी हो सकता है, क्योंकि इस तरह के फॉर्मूलों का उपयोग चुनावों के दौरान ही किया जाता है। बाद में सभी दल एक रंग में रंग जाते हैं।जनता ऐसा ही सोचती है। और उसका सोचना अक्सर गलत नहीं रहता।
कांग्रेस के समक्ष यह चुनौती ज्यादा बड़ी है। पिछले करीब तीन दशकों से भाजपा एक दृढ़ लक्ष्य के साथ राजनीतिक अखाड़े में अपने आप को मजबूत बनाती चली जा रही है। सही है कि बाकी विपक्ष और कांग्रेस भाजपा की नीतियों के खिलाफ स्वयं को व्यक्त करते रहे हैं। उनके हिसाब से भाजपा का अस्तित्व आक्रामक हिंदुत्व पर आधारित है, उग्र है। पर हकीकत यही है कि देश के कई लोगों को इस ब्रांड में ज्यादा दोष नजर नहीं आ रहा, और हकीकत यह है कि भारतीय राजनीति की इस फिसलन भरी पिच पर विपक्ष और कांग्रेस लिए बैटिंग करना फिलहाल मुश्किल साबित हो रहा है। हाल के कई चुनावों में यह बात खुलकर सामने आई है।
ऐसा नहीं लगता है कि कांग्रेस पार्टी 1980 के दशक के मध्य से ही अपनी विचारधारा को लेकर भ्रमित रही है? शाह बानो वाले मामले में उसने मुस्लिम समुदाय को खुश करने की कोशिश की और अयोध्या में राम जन्म भूमि पर शिलान्यास की अनुमति देकर हिन्दुओं को खुश करने की कोशिश की। ये फैसले उसे काफी महंगे पड़े, वैचारिक और जमीनी दोनों स्तरों पर। एक तरफ कांग्रेस चुनावी जमीन खोती जा रही है, दूसरी तरफ उसके कुछ नेता किसी मध्यम मार्ग की वकालत करने और हिंदुत्व के खिलाफ लड़ाई की कोई विशेष, संतुलित संरचना बुनने की कोशिश में लगे हैं। ऐसी संरचना जिसमें अल्पसंख्यक, मुस्लिम और हिन्दू सभी प्रसन्न रहें। यह दुविधा बड़ी पुरानी है। बड़ी उलझी हुई भी है।
2004 में प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में मनमोहन सिंह ने कहा था, मैं सभी प्रकार के कट्टरवाद का विरोध करता हूं चाहे वह वामपंथ का कट्टरवाद हो या दक्षिणपंथ का कट्टरवाद। उनकी तटस्थता उस समय तो समझ में आती थी जब पार्टी में कई लोग भाजपा के हमले का मुकाबला करने के लिए मध्यममार्गी रणनीतियां बनाने में लगे हुए थे। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने बाद में वाम दलों के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के उन लोगों को भी नाराज कर दिया था जो चाहते थे कि वह अपने हिंदुत्व विरोधी ब्रांड को ज्यादा आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाए।
दस साल बाद 2014 में जब कांग्रेस ने बुरी तरह पराजित होकर सत्ता खो दी, तब पार्टी के वरिष्ठ नेता ए.के.एंटनी ने धर्मनिरपेक्षता के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते हुए कहा था, लोगों ने पार्टी की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा में विश्वास खो दिया है। उन्हें लगता है कि कांग्रेस कुछ समुदायों, खासकर अल्पसंख्यकों के लिए लड़ती है। एंटनी ने जोर देकर कहा कि वह केवल केरल का जिक्र कर रहे थे, लेकिन अधिकांश कांग्रेसियों ने इसका अर्थ यह निकाला कि वह देश की बात कर रहे थे।
इधर पिछले करीब आठ सालों से जब भाजपा खूब फलने-फूलने लगी है, तो कई कांग्रेसियों ने अपनी निष्ठा को भाजपा के खलीते में भी डाल दिया है। पिछले कुछ वर्षों में मुसलमानों और दलितों की लिंचिंग, गौरक्षा और अभियानों के साथ ही असहिष्णुता की बढ़ती घटनाओं के जवाब में हताश-सी, असहाय कांग्रेस को भाजपा/आर एस एस के खिलाफ दुर्बल हमले करते हुए या बस हल्का विरोध जताते हुए देखा गया है। उत्तरप्रदेश के विधान सभा चुनाव के दौरान प्रियंका गांधी का ‘जय माता दी’ का नारा लगाना, माथे पर भस्म लगाना यह सब उनकी पार्टी की भ्रमित, उलझी हुई स्थिति को अधिक, उनके आत्म विश्वास को कम दर्शा रहा था। माथे पर भस्म और नमाजी टोपी के बीच कांग्रेस और बाकी विपक्ष किसे चुने, यह फैसला ही नहीं हो पाया है। धर्मनिरपेक्षता पर कांग्रेस और बाकी विपक्ष अपने रुख को साफ नहीं कर पा रही। यह एक बड़ी राजनीतिक और सामाजिक सच्चाई है।
जब प्रणब मुखर्जी देश के राष्ट्रपति थे तब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय पर एक बयान दिया था, जिसे लेकर कांग्रेसी बड़े उद्वेलित हुए थे। उन्हें नागपुर के आर एस एस मुख्यालय में आमंत्रित किया गया था। अव्वल तो कुछ कांग्रेसियों ने उनसे कहा कि वे निमंत्रण स्वीकार ही न करें। पर प्रणब मुखर्जी गए भी और अपने भाषण में उन्होंने के.बी. हेडगेवार को ‘भारत माता का एक महान सपूत’ भी बताया। इस बयान के बाद कांग्रेस पार्टी में भ्रम की स्थिति और अधिक गझीन हो गई। पार्टी ने दो वर्ष के लंबे अंतराल के बार इफ्तार पार्टी का आयोजन करके अल्पसंख्यकों को और अधिक उहापोह में डाल दिया कि आखिरकार पार्टी का रुख उनके प्रति है क्या। इस बीच आर एस एस मुख्यालय पर दिए गए प्रणब मुखर्जी के बयान से उद्वेलित कांग्रेस नेताओं ने अपने आक्रोश को आवाज देने का काम पूर्व केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी पर छोड़ दिया। तिवारी ने प्रणब मुखर्जी को संबोधित करते हुए कहा- ‘आप तो 1975 में और फिर 1992 में उस सरकार का हिस्सा थे जिसने आर एस एस पर प्रतिबंध लगाया था। क्या आप सोचते हैं कि आपको स्पष्ट करना चाहिए कि कैसे आर एस एस पहले बुरी थी और अब सदाचारी हो गई है?
यह भी याद रहे कि राहुल गांधी ने, आरएसएस-भाजपा गठबंधन के खिलाफ अपनी लड़ाई को लगातार एक वैचारिक संघर्ष के रूप में प्रक्षेपित किया है। 1925 में आरएसएस के गठन के बाद से पार्टी की आधिकारिक लाइन के अनुरूप, अलग-अलग कांग्रेस सरकारों द्वारा संगठन पर तीन बार प्रतिबंध लगाया गया। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद, आपातकाल के दौरान और 1992 में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद। राहुल बार-बार यह स्पष्ट करने से नहीं चूकते कि कांग्रेस और भाजपा के बीच एक गहरी खाई है जिसे भरा नहीं जा सकता, क्योंकि दोनों की विचाधाराएँ बिल्कुल विपरीत हैं।
पर गौरतलब है कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख विरोधी दंगे, 1985 के शाह बानो कांड, 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले खोलने, 1989 में अयोध्या में राम मंदिर के लिए शिलान्यास की अनुमति और 1992 में बाबरी मस्जिद को विनाश से बचाने में विफलता ये सब कुछ कांग्रेस और बाकी विपक्ष की आँखों के सामने हुआ। इसके बाद भी पिछड़े वर्गों को समायोजित करने और हिंदुत्ववादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए कोई भी सुविचारित रणनीति तैयार करने में पार्टी अक्षम रही है, और इसी वजह से चुनावों में वह लगातार पीछे सरकते हुए दिखाई दे रही है।
हकीकत यह है कि कांग्रेस देश भर में आरएसएस और उसके कई संगठनों द्वारा बनाई जा रही पैठ को प्रारंभिक दौर में देखने में ही विफल रही है। खासकर 1998 और 2004 के बीच जब वाजपेयी सरकार सत्ता में थी। उदाहरण के लिए, 2003 में जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार थी, उस समय प्रणब मुखर्जी और शिवराज पाटिल ने एक संसदीय समिति के सदस्यों के रूप में संसद के सेंट्रल हॉल में वीर सावरकर का चित्र लगाने के फैसले पर आपत्ति नहीं की। कांग्रेस शर्मिन्दा थी और तत्कालीन लोकसभा उपाध्यक्ष पी.एम. सईद ने फरवरी 2003 में चित्र के अनावरण का बहिष्कार भी किया था। हालांकि, राज्यसभा की उपसभापति नजमा हेपतुल्ला ने इस कार्यक्रम में भाग लिया। 2010 में, कांग्रेस के पूर्व महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विवादास्पद फैसले का स्वागत किया और कहा-‘कांग्रेस ने माना है कि विवाद को या तो बातचीत से सुलझाया जाना चाहिए या अदालत के फैसले को स्वीकार किया जाना चाहिए। कोर्ट ने फैसला सुना दिया है। हम सभी को फैसले का स्वागत करना चाहिए। कुछ दिनों बाद कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) ने जोर देकर कहा कि अदालत के फैसले ने मस्जिद के विध्वंस की निंदा नहीं की, और कहा-भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद शीर्षक मुकदमे के संबंध में न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करती है। हालांकि, अब हमें सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार करना चाहिए जब और अपील दायर की जाएगी।
2017 के गुजरात विधान सभा चुनावों के दौरान, राहुल गांधी ने कई हिंदू मंदिरों का दौरा किया, यहां तक कि खुद को शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत किया, और पार्टी के एक प्रवक्ता को उन्होंने खुद को ‘जनेउधारी ब्राह्मण’ के रूप में दर्शाने करने की अनुमति भी दी। इस संकेत से भ्रम और बढ़ा। दलितों, ओबीसी और मुसलमानों के लिए। आज, कांग्रेस का मानना है कि वह 2024 में सोच समझ कर तैयार किए गए गठबंधन के माध्यम से भाजपा को हरा सकती है। लेकिन क्या यह भारत के सौहार्द्रपूर्ण सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने के लिए पर्याप्त होगा? क्योंकि अगर पार्टी में इच्छाशक्ति, दृढ़ आत्मविश्वास या, भाजपा से लडऩे के लिए बौद्धिक, वैचारिक ऊर्जा का अभाव रहता है, तो भारत का उदार, सर्वसमावेशी लोकतंत्र खतरे में बना रहेगा। दुविधाग्रस्त और अस्पष्ट विपक्ष न सिर्फ अनुपयोगी है, बल्कि लोकतंत्र के लिए घातक भी है, तानाशाही के विकास के लिए जमीन को लगातार खाद-पानी देने का काम करता है। उम्मीद है कि कम से कम कांग्रेस पार्टी यह तोहमत अपने सर नहीं लेगी, और अपने तौर-तरीकों में सुधार लाएगी। खासकर धर्मनिरपेक्षता के मामले में। उम्मीद है कि बचा-खुचा विपक्ष भी ऐसा ही करेगा। जितनी जल्दी वे ऐसा कर पायें, देश उनका उतना ही कृतज्ञ होगा। (सप्रेस)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय में आजकल एक अजीब-से मामले पर बहस चल रही है। मामला यह है कि क्या भारत के कुछ राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक माना जाए या नहीं? अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होने का फैसला राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए या राज्यों के स्तर पर? अभी तक सारे भारत में जिन लोगों की संख्या धर्म की दृष्टि से कम है, उन्हें ही अल्पसंख्यक माना जाता है। इस पैमाने पर केंद्र सरकार ने मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों, सिखों, बौद्धों और जैनियों को अल्पसंख्यक होने की मान्यता दे रखी है।
यह मान्यता इन लोगों पर सभी प्रांतों में भी लागू होती है। जिन प्रांतों में ये लोग बहुसंख्यक होते हैं, वहां भी इन्हें अल्पसंख्यकों की सारी सुविधाएं मिलती हैं। ऐसे समस्त अल्पसंख्यकों की संख्या सारे भारत में लगभग 20 प्रतिशत है। अब अदालत में ऐसी याचिका लगाई गई है कि जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, उन्हें वहां भी बहुसंख्यक क्यों माना जाता है?
जैसे लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, पंजाब, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में हिंदुओं की संख्या सिर्फ 1 प्रतिशत से लेकर ज्यादा से ज्यादा 41 प्रतिशत है। इन राज्यों में उन्हें अल्पसंख्यकों को मिलनेवाली सभी सुविधाएं क्यों नहीं दी जातीं? यही बात भाषा के आधार पर भी लागू होती है। यदि महाराष्ट्र में कन्नड़भाषी अल्पसंख्यक माने जाएंगे तो कर्नाटक में मराठीभाषी अल्पसंख्यक क्यों नहीं कहलाएंगे? यदि अल्पसंख्यकता का आधार भाषा को बना लिया जाए तो भारत के लगभग सभी भाषाभाषी किसी न किसी प्रांत में अल्पसंख्यक माने जा सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर जो बहस चलाएगा, वह बंधे-बंधाए घेरे में चलाएगा और उक्त कुछ राज्यों में हिंदुओं को शायद वह अल्पसंख्यकों का दर्जा भी दे दे। लेकिन यह अल्पसंख्यकवाद ही मेरी राय में त्याज्य है। देश के किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म और भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक का दर्जा देना अपने आप में गलत है। यदि यह राज्यों में भी सभी पर लागू कर दिया गया तो यह अनगिनत मुसीबतें खड़ी कर देगा।
हर वर्ग के लोग सुविधाओं के लालच में फंसकर अपने आप को अल्पसंख्यक घोषित करवाने पर उतारु हो जाएंगे। इसके अलावा राज्यों का नक्शा बदलता रहता है। जो लोग किसी राज्य में आज बहुसंख्यक हैं, वे ही वहां कल अल्पसंख्यक बन सकते हैं। जाति, धर्म और भाषा के आधार पर लोगों को दो श्रेणियों में बांटकर रखना राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी उचित नहीं है। अपने आप को ये लोग भारतीय कहने के पहले फलां-फलां जाति, धर्म या भाषा का व्यक्ति बताने पर आमादा होंगे। यह सांप्रदायिक और सामाजिक बंटवारा हमारे लोकतंत्र को भी अंदर से खोखला करता रहता है।
जब साधारण लोग मतदान करने जाते हैं तो अक्सर वे जाति, धर्म और भाषा को आधार बनाते हैं, जो कि भेडिय़ाधसान के अलावा कुछ नहीं है। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है, जब मतदाता लोग शुद्ध गुणावगुण के आधार पर वोट डालते हैं। यह तभी संभव है, जबकि हमारे सार्वजनिक और सामूहिक जीवन में जाति, धर्म और भाषा को अत्यंत सीमित महत्व दिया जाए। निजी जीवन की महत्वपूर्ण पहचानों को सार्वजनिक जीवन पर लादना किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मैं कोलकाता में सत्ताइस साल रहा हूँ और इस महानगर मे वेश्यावृत्ति बड़े पैमाने पर होती है। शहर में अनेक बड़े अड्डे हैं। कोलकाता वेश्यावृत्ति को इंडोर और आउटडोर दोनों ही स्थानों में सहज ही देख सकते हैं। वेश्याएं यह जानती हैं कि देह-व्यापार का धंधा देह शोषण है। औरत का इस धंधे में बहुस्तरीय शोषण होता है। यह धंधा छत के नीचे बंद कमरे में चले या खुले में धंधेवाली को पुलिस को पैसा देना पड़ता है।
आश्चर्य इस बात का है कि इस शहर में बड़े पैमाने पर लोकतांत्रिकचेतना है। वाम और गैर-वाम दोनों ही किस्म की विचारधाराओं का यह बड़ा केन्द्र है। इसके बावजूद वेश्यावृत्ति का इतना व्यापक कारोबार कैसे चल रहा है ? मैं इसे किसी भी तर्क से समझने में असमर्थ हूँ। अनेक इलाकों में तो शाम को गलियों और पार्क वगैरह में आना-जाना संभव नहीं होता। कभी-कभार पुलिस वाले डंडा फटकारते भी दिखते हैं लेकिन पुलिस के जाते ही सब कुछ पहले की तरह चलने लगता है। यह बात यहां के सारे बुद्धिजीवी, राजनीतिक लोग और प्रशासन के लोग जानते हैं। लेकिन कोई रास्ता नहीं दिखता कि इस धंधे को कैसे रोका जाए ?
मैं अचम्भित भी हूँ कि जो लोग रैनेसां से लेकर वाम तक,ममता से लेकर महाश्वेता देवी तक का आए दिन जय-जयकार करते रहते हैं उनमें से किसी ने भी इस धंधे के खिलाफ किसी भी किस्म की कार्रवाई करने,वेश्याओं के पुनर्वास, इलाज, उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई आदि के सवालों पर कभी सार्वजनिक बहस नहीं चलायी। बल्कि समय-समय पर वेश्याओं के संगठनों के द्वारा प्रदर्शन आदि जरूर निकलते हैं और उनमें इस धंधे को कानूनी जामा पहनाने की मांग एक-दो दिन जरूर उठती है। बाद में फिर सब कुछ धंधे में खो जाता है। कुछ लोग यह मानते हैं कि इन औरतों को कानूनन अधिकार दे दिया जाना चाहिए क्योंकि वे बंद घरों में ही तो धंधा कर रही हैं। यह किसी को दिखाई थोड़े ही दे रहा है। सार्वजनिक स्थानों पर धंधा करने से बेहतर है इन वेश्याओं को घर के अंदर धंधे का कानूनी अधिकार दे दिया जाय।
यह एक कॉमन तथ्य है कि इस धंधे में औरतें स्वेच्छा से नहीं आतीं बल्कि वे दलालों के द्वारा लाई जाती हैं। दलाल ही हैं जो गरीबी, अभाव, भुखमरी,दंगा प्रभावित, हिंसा प्रभावित इलाकों में गिद्ध की तरह मंडराते रहते हैं। इन इलाकों में उन्हें धंधे के लिए आसानी से लड़कियां कम से कम दाम में मिल जाती हैं।
वेश्यावृत्ति एक तरह से ‘भुगतान बलात्कार’ या ‘स्वैच्छिक गुलामी’ है। वेश्यागामी मर्द वेश्या को बलात्कार करने के लिए भुगतान करता है। प्रसिद्ध स्त्रीवादी आंद्रिया दोर्किन के अनुसार ‘‘वेश्यावृत्ति: क्या है? यह पुरुष द्वारा मैथुनक्रिया के लिए स्त्री शरीर का उपयोग है। वह रुपया खर्च करता है और जो चाहे करता है। जैसे ही आप इससे दूर होते है, वेश्यावृत्ति से अलग दूसरी दुनिया, विचारों की दुनिया में चले जाते है सचाई बदल जाती है। आप अच्छा महसूस करते हैं; आप अच्छे समय में होते हैं; आपको ज्यादा मज़ा आता है; यहाँ विवेचन करने के लिए बहुत कुछ है, किंतु आप वाद-विवाद विचारों पर करते हैं वेश्यावृत्ति पर नही। वेश्यावृत्ति विचार नहीं है। यह मुख है, जननांग है, मलाशय है जिसका एक पुरुष के नहीं बल्कि अनेकानेक पुरूषों के लिंग, कभी-कभी हाथों, कभी वस्तुओं द्वारा भेदन किया जाता है। यही इसका मूल वीभत्स स्वरूप है।’’
ऐसे भी नैतिकतावादी हैं जो कहेंगे कि विश्वविद्यालय प्रोफेसर होकर वेश्यावृत्ति के बारे में चर्चाएं कर रहा है। खासकर कोलकाता में तो कमाल के लोग हैं। वे ज्योंही इस विषय को देखेंगे तुरंत निंदा अभियान आरंभ कर देंगे। इसी तरह के संदर्भ को ध्यान में रखकर आंद्रिया ने लिखा ‘‘अकादमिक विभागों की आधारभूत धारणा ही वेश्यावृत्ति में फँसी महिलाओं के जीवन की सच्चाइयों से दूर छिटकी हुई है। अकादमिक जीवन की प्रस्तावना/तथ्य इस विचार पर ही आधारित है कि हमारा कल है, भविष्य है और आनेवाला कल है और यह आगामी अनवरत है, या कोई भी अध्ययन के समय निष्क्रिय बर्फीले निर्जीव के अंदर से निकल सकता है, या यहाँ विचारों का ऐसा विमर्श संभव है एवं ऐसा स्वाधीन वर्ष भी जहाँ आप बिना किसी भय के असहमत हो सकते हैं। प्रस्तुत तथ्य पढऩेवालों तथा पढ़ानेवालों पर हमेशा लागू होते हैं। ये वस्तुत: उन औरतों के जीवन के प्रतिकूल हैं जो या तो वेश्यावृत्ति में हैं या थीं।’’
‘‘यदि आप वेश्यावृत्ति में हैं तो आपके मस्तिष्क में कोई कल नही होता क्योंकि कल बहुत दूर होता है। आप नहीं मान सकते कि आप केवल एक क्षण से दूसरे क्षण ही जीएंगें। आप ऐसा नही मान सकते और आप ऐसा नहीं मानते। यदि मानते है तो आप मूर्ख हैं, और वेश्यावृत्ति के संसार में मूर्ख होना घायल होना है, मृत होना है।’’
सब जानते हैं कि वेश्यावृत्ति के धंधे में हिंसा चरम पर रहती है। इससे औरत को शारीरिक और मानसिक रूप से गंभीर क्षति पहुँचती है। वह संवेदना के धरातल पर पूरी तरह बर्बाद हो जाती है। इन औरतों की दलालों के द्वारा इस कदर दिमागी धुलाई की जाती है कि वे अपने धंधे के बारे में सार्वजनिक तौर पर पत्रकारों या समुदाय के नेताओं से बातें करने से परहेज करती हैं। यह एक सर्वस्वीकृत तथ्य है कि धंधेवाली घर में धंधा करे या अड्डे या सार्वजनिक स्थान पर उसे बार-बार शारीरिक हमलों और हिंसाचार का शिकार होना पड़ता है।
आंद्रिया ने लिखा है ‘‘यदि मैं आप से कहूँ कि आप अपने शरीर के बारे में सोचें-तो ऐसा करते हुए आपको पोर्नोग्राफरों द्वारा निर्मित नीरस, निष्क्रिय, मृत मुखों, जननांगों एवं गुदा के दर्शन होंगे। मैं चाहती हूँ कि आप अपने शरीर के इस उपयोग को लेकर ठोस और गंभीर चितंन करें। यह दृश्य कितना कामुक है? कितना आनंददायक है? जो व्यक्ति वेश्यावृत्ति और पोर्नोग्राफी की प्रतिरक्षा करते है वे वस्तुत: आप में उसी आलोडऩ, सनसनी, रोमांच को देखना चाहते है ताकि आप हमेशा स्त्री में कुछ घुसेड़ा हुआ या चिपका हुआ ही कल्पित करें। मैं चाहती हूँ कि आप उसके शरीर के कोमल तंतुओं को महसूस करें जिनका अब तक दुरुपयोग होता रहा है। मैं चाहती हूँ कि आप इस अहसास को महसूस करें कि कैसा लगता है जब यह बार-बार यह घटित होता है: क्योंकि यही वेश्यावृत्ति है।
इसलिए वेश्यावृत्ति में फँसी स्त्री या वेश्यावृत्ति में रह चुकी स्त्री के नजरिए से स्थान भिन्नता, फिर चाहे वह प्लाज़ा होटल हो या कोई घटिया स्थान, का कोई अर्थ नहीं होता। ये बेमेल तथ्यों पर आधारित असंगत धारणाएँ हैं। आपके अनुसार जाहिरा तौर पर परिस्थितियों का बड़ा महत्व होता हैं। जीन नहीं, कारण कि हम मुख, जननांग और मलाशय की बात कर रहे हैं। वेश्यावृत्ति को परिस्थितियाँ न तो बदल सकती हैं न ही न्यून कर सकती हैं। ’’
एक फिनोमिना यह भी देखा गया है कि इस धंधे में खाते-पीते घरों की लड़कियां भी तेजी से आ रही हैं। ये वे लड़कियां है जो धंधा करके जल्दी से मोटी रकम कमाना चाहती हैं। शानोशौकत की जिंदगी जीना चाहती हैं। गरीब घरों की लड़कियां अभाव और गरीबी के कारण आ रही हैं। लेकिन खाते-पीते मध्यवर्गीय परिवारों की लड़कियां ड्रग एडिक्शन, पॉकेटमनी की तलाश और बाल शोषण की शिकार होने के कारण इस धंधे में आ रही है।
आंद्रिया ने लिखा है वेश्यावृत्ति अपने आप में ही स्त्री देह का दुरुपयोग है। हममें से जो ऐसा कहते है, उन पर अति-साधारण सोच या सामान्य विचारों से युक्त होने के आरोप लगाए जाते हैं। लेकिन सचमुच वेश्यावृत्ति अपने आप में सरल, साधारण है। और यदि आपके पास सहज, सामान्य दिमाग नहीं है तो आप इसे कभी समझ नहीं सकते।
आप जितने जटिल, पेचीदा होते जाते है, उतना ही आप सत्य से दूर होते जाएँगे- आप अधिक सुरक्षित होते जाएँगे, ज्यादा खुश होंगे, वेश्यावृत्ति पर बात करते हुए आप बहुत आनंदित होंगे। वेश्यावृत्ति में कोई भी स्त्री सम्पूर्ण, स्वस्थ नही होती। स्त्री-देह का जिस प्रकार वेश्यावृत्ति में इस्तेमाल होता है उस प्रकार किसी भी मानव-शरीर का उपयोग करना असंभव है। इसके बावजूद वेश्यावृत्ति के अंत में, या मध्य में, या आरंभ के निकट ही पूरे मनुष्य शरीर को प्राप्त करना भी असंभव है। यह असंभव ही है। और बाद में स्त्री भी कभी पूर्ण नही हो पाती, खुद से ही वंचित हो जाती है। वेश्यावृत्ति में दुरुपयोग व दुव्र्यवहार झेलती औरत के पास कुछ विकल्प होते है।
आपने ऐसी साहसी महिलाओं को भी देखा होगा जो महत्वपूर्ण चुनाव करती हैं: वे जो जानती हैं उसका इस्तेमाल करती हैं, जो कुछ जानती हैं उसे आप तक संप्रेषित करने का प्रयास भी करती हैं। फिर भी हर कोई परिपूर्णता से वंचित रह जाता है, अधूरा, अपर्याप्त रह जाता है। क्योंकि जब हमला आपके भीतर हो रहा हो, क्रूरता आपकी त्वचा के अंदर हो रही हो, तो आपका बहुत कुछ छिन जाता है। हम अपने दर्द को एक-दूसरे तक संप्रेषित करने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं। इसकी वकालत करते हैं, इसके सटीक सम्प्रेषण के लिए सादृश्य निर्मित करते हैं। मेरे अनुसार वेश्यावृत्ति की तुलना सिर्फ सामूहिक बलात्कार से की जा सकती है।’’
-प्रकाश दुबे
बुजुर्गों की लड़ाई में बच्चे कभी हथियार बनते हैं, कभी ढाल। यशवंत सिन्हा को गृहराज्य में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा का समर्थन नहीं मिला। लोकसभा सदस्य बेटे जयंत ने वोट देने का झूठा वादा तक नहीं किया। बालठाकरे के बेटे उद्धव और पौत्र आदित्य कुर्सी छिनने के बावजूद साथ हैं। सत्ता छीनने वाले एकनाथ शिंदे और उनका कल्याण से लोकसभा सदस्य बेटा श्रीकांत साथ होंगे ही। दिवंगत करुणानिधि का बेटा स्टालिन तमिलनाडु में मुख्यमंत्री है, बेटी कनिमोड़ी सांसद। पोता उदयगिरि विधायक। बड़े बेटे अलगिरी से बरसों पहले करुणानिधि और द्रमुक पार्टी का नाता टूट चुका। तमिलनाडु की अण्णा द्रमुक सरकार जाने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री पलानीस्वामी ने अण्णा द्रमुक महासचिव के नाते पूर्व उपमुख्यमंत्री पनीरसेल्वम के बेटों को पार्टी से निष्कासित किया। पार्टी से निष्कासित रवीन्द्रनाथ लोकसभा में अण्णाद्रमुक का एकमात्र सदस्य है। मिनरल वाटर की बोतलें पार्टी बैठक में मिसाइल बनीं। इस माहौल में दोनों झगड़ालुओं की आराध्या जयललिता को भारत रत्न देने की मांग वाला प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। महाराष्ट्र और तमिलनाडु दोनों के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव और पलानीस्वामी दोनों की पार्टियों को संसद में विरोधी नेता-पुत्र कुतर रहे हैं।
नौटंकी नहीं, सचमुच!!!
सोलहवें राष्ट्रपति का चुनाव ऐसी नौटंकी बन गया जिसका नतीजा पहले से पता है। निर्वाचन आयोग अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है। आयोग की कवायद से विमान कंपनियों का घाटा कुछ कम जरूर हुआ होगा। ऐसे यात्री उड़ान में सीटों पर विराजमान थे जो न आपस में बात कर रहे थे और न किसी और से। लुटियन के टीले पर बने राष्ट्रपति भवन में महिला प्रवेश करने वाली है। अंगरेजी के मोह में निर्वाचन आयोग ने टिकट में लिंगभेद कर दिया। यात्री का नाम लिखा-मिस्टर बैलट बाक्स। आप मतपेटी नहीं कह सकते। मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार का सम्मान रखते हुए मतसंदूक चल सकता है। निर्वाचन आयोग ने सुरक्षा बल की निगरानी में मिस्टर बैलट बाक्स को ढाई दर्जन मतदान केन्द्रों तक विमान से भेजने का निर्देश दिया था। सभी जगह नियमित उड़ान नहीं है। सप्ताह भर पहले सदल बल संदूक साहब गंतव्य के लिए रवाना हुए। लोकतंत्र में प्रचार के दौरान ही नाटक नौटंकी का मजा नहीं होता। चुनाव मशीनरी की क्षमता की परीक्षा होती है। अनुमान है कि 16 वें राष्ट्रपति का चुनाव अब तक का सबसे एकतरफा होगा। यूं भी योग्यता और अनुभव की हमेशा जीत नहीं होती। भैरोंसिंह शेखावत जैसे लोकप्रिय नेता हार गए थे।
निकम्मा, भ्रष्ट?
कुछ लोग धुन के पक्के होते हैं। इतिहास से प्रभावित नहीं होते। उन्हें इतिहास बदलने के दौरे पड़ते हैं। सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा सरकार ने चुनाव घोषणापत्र में वादा किया था कि सत्ता संभालने के सौ दिन के अंदर किसानों के पांच लाख तक कर्ज माफ करें। मूल दस्तावेज वापस देंगे। जय किसान आंदोलन ने सिक्किम के कृषि मंत्री लोकनाथ शर्मा को पत्र लिखकर पूछा है कि दो साल बीत जाने के बाद अधिसूचना जारी करने की कार्रवाई की गई? पूरा करने की क्या योजना है? सौ दिन की अवधि 4 सितम्बर 2019 को पूरी हो चुकी है। जय किसान आंदोलन के सिक्किम राज्य से लेकर राष्ट्रीय नेता तक मुख्यमंत्री के उज्ज्वल इतिहास से परिचित हैं। प्रेम सिंह तमांग ने मई 2019 में सिक्किम के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। भ्रष्टाचार साबित होने पर 20 दिसम्बर 2016 को उनकी विधानसभा सदस्यता छिन गई थी। हर किसी में नई पार्टी बनाकर उम्मीदवार जुटाने का माद्दा नहीं होता। तमांग ने मुख्यमंत्री की पार्टी को सत्ता से हटाकर सत्ता पाई। एक हजार से अधिक दिन बीत जाने के बाद अब मुख्यमंत्री तमांग सौ दिन वाले वादे पर गौर करने के मूड में नहीं हैं। उस पर धमकी दी-वादा पूरा नहीं किया तो किसान आंदोलन करेंगे।
पाखंड मत कहना
छह महीने तक भारतीय प्रेस परिषद अध्यक्ष विहीन रहा। धीरज का फल मीठा होता है। पहली मर्तबा न्यायमूर्ति रंजना देसाई के रूप में महिला को प्रतिनिधित्व मिला। परिषद में पूर्वोत्तर की झलक दिखेगी। संपादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड के प्रतिनिधि के रूप में मणिपुर के खाइदेम अथौबा मैते को सदस्य बनाकर साबित किया कि पूर्वोत्तर का मतलब सिर्फ असम नहीं है। परिषद के नए सचिव नंगसंग्लेम्बा आओ नगालैंड में जन्मे। आओ न्यायायिक सेवा से भले नहीं हैं। वे सूचना प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत प्रेस सूचना कार्यालय में अतिरिक्त महानिदेशक के पद पर हैं। परिषद की सचिव अनुपमा भटनागर डीएवीपी की महानिदेशक बनी। मतलब एक और महत्वपूर्ण दायित्व वाला पद महिला के सिपुर्द। संवाद माध्यम चमचा, गद्दार, चापलूस, पाखंड और घडिय़ाली आंसू जैसे शब्दों का बारंबार कीर्तन करते हैं। संसद ने इन शब्दों पर काली स्याही पोत दी। संवादमाध्यमों के हितों की हिफाजत करने वाली संस्था इस पर कोई राय बनाती है या नहीं? जानना दिलचस्प होगा।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को विदेश जाने से केंद्र सरकार ने रोक रखा है। पिछले सवा महिने से उनकी अर्जी उप-राज्यपाल के दफ्तर में अटकी पड़ी है। पहले उन्हें उप-राज्यपाल की अनुमति लेनी पड़ेगी और फिर विदेश मंत्रालय की! किसी भी मुख्यमंत्री को यह अर्जी क्यों लगानी पड़ती है? क्या वह कोई अपराध करके देश से पलायन की फिराक में है? क्या वह विदेश में जाकर भारत की कोई बदनामी करने वाला है? क्या वह देश के दुश्मनों के साथ विदेश में कोई साजिश रचने वाला है? क्या वह अपने काले धन को छिपाने की वहां कोई कोशिश करेगा?
आज तक किसी मुख्यमंत्री पर इस तरह का कोई आरोप नहीं लगा। स्वयं नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए कई देशों में जाते रहे। कांग्रेस की केंद्रीय सरकार ने उनकी विदेश-यात्राओं में कभी कोई टांग नहीं अड़ाई। तो अब उनकी सरकार ने केजरीवाल की सिंगापुर-यात्रा पर चुप्पी क्यों साध रखी है? उन्हें अगस्त के पहले हफ्ते में सिंगापुर जाना है। क्यों जाना है? इसलिए नहीं कि उन्हें अपने परिवार को मौज करानी है। वे जा रहे हैं, दुनिया में दिल्ली का नाम चमकाने के लिए।
वे ‘विश्व शहर सम्मेलन’ में भारत की राजधानी दिल्ली का प्रतिनिधित्व करेंगे। दिल्ली का नाम होगा तो क्या भारत का यश नहीं बढ़ेगा? 2019 में भी हमारे विदेश मंत्रालय ने केजरीवाल को कोपेनहेगन के विश्व महापौर सम्मेलन में नहीं जाने दिया था। जबकि इसी सम्मेलन में पहले शीला दीक्षित ने शानदार ढंग से भाग लिया था। शीलाजी ने दुनिया भर के प्रमुख महापौरों को बताया था कि उन्होंने दिल्ली को कैसे नए रूप में संवार दिया है। उसी काम को अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने चार चांद लगा दिए हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति की पत्नी और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव इन कामों को देखकर प्रमुदित हो गए थे। दिल्ली के अस्पतालों, स्कूलों, सडक़ों, मोहल्ला क्लीनिकों, सस्ती बिजली-पानी वगैरह ने केजरीवाल की आप सरकार को इतनी प्रतिष्ठा दिला दी है कि पिछले चुनावों में कांग्रेस और भाजपा का सूंपड़ा साफ हो गया है। केंद्र सरकार इस तथ्य को क्यों नहीं समझ पा रही है कि वह उप-राज्यपाल के जरिए दिल्ली सरकार को जितना तंग करेगी, वह दिल्ली की जनता के बीच उतनी ही अलोकप्रिय होती चली जाएगी।
केंद्र सरकार की यह सावधानी उचित है कि देश का कोई भी पदाधिकारी विदेश जाकर कोई आपत्तिजनक काम या बात न करे। इसके लिए यह आवश्यक किया जा सकता है कि विदेश मंत्रालय उन्हें मार्ग-निर्देश कर दे। वैसे तो सारे नेता अपनी इस जिम्मेदारी को प्राय: भली-भांति समझते हैं और अपनी विदेश-यात्राओं के दौरान संयम बरतते हैं। मैंने अपनी विदेश-यात्राओं के दौरान दिए गए भाषणों में कभी किसी सरकार या विरोधी की कभी निंदा नहीं की, जबकि भारत में रहते हुए मैंने किसी को भी कभी नहीं बख्शा।
मोदी सरकार यह मानकर क्यों चले कि उसका कोई विरोधी नेता विदेश जाएगा तो उसकी बदनामी ही करेगा? यदि वह वैसा करता भी है तो भी सरकार के पास उसकी बधिया बिठाने के कई उपाय हैं। इसके अलावा यह बात मैं निजी अनुभव से जानता हूं कि विदेशों में हर किसी बड़े नेता के पीछे हमारे गुप्तचर डटाए जाते हैं? मुझे विश्वास है कि केंद्र सरकार और उप-राज्यपाल अरविंद केजरीवाल को सिंगापुर-यात्रा की अनुमति शीघ्रातिशीघ्र देंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अमिता नीरव
पाकिस्तानी ड्रामा ‘रकीब से’ में नायक मकसूद अहमद अपनी बेटी इंशा के दोस्त से शादी के सिलसिले में मिलते हैं। बातचीत के दौरान दोस्त अब्दुल अपने बारे में बताता है कि वह सेल्फ मेड इंसान है तो मकसूद कहते हैं कि ‘आय हेट सेल्फ मेड पीपल।’ इंशा बाद में पूछती है कि ‘आपने ऐसा क्यों कहा?’ तो वे जवाब देते हैं कि ‘क्योंकि मैं भी सेल्फ मेड हूँ और सेल्फ मेड लोग शॉर्ट कट्स का सहारा लेते हैं।’
हमारा देश जुगाड़ तकनीक के लिए खासा प्रसिद्ध है। डेनिम के थ्री-फोर्थ को हजार, बारह सौ, पंद्रह सौ में खरीदने की हैसियत न रखने वाले लोग अक्सर अपने पुराने हो चुके डेनिम को काटकर अपने उस शौक को पूरा करने का जुगाड़ लगा लेते हैं। जुगाड़ को इन्नोवेशन वो लोग कह पाते हैं, जिनके पास जीने की तमाम सहूलियतें हैं। जो जुगाड़ करता है, वह दुनिया के साथ कदमताल करने का अपना तरीका निकालता है।
दुनिया के जिस हिस्से में या तो संसाधन सीमित हैं या फिर हिस्सेदारियाँ ज्यादा हैं, उस हिस्से में संघर्ष और खींचतान ज्यादा होगी। हमारे यहाँ जिन राज्यों में जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक हैं, वहाँ की राजनीति और समाज का अलग से अध्ययन किया जाए तो नतीजे पाकर चौंक जाएँगे। यूपी, बिहार के समाजों में दूसरी जगह के समाजों की तुलना में विश्वास का संकट ज्यादा मिलेगा।
दुनिया में एशिया और अफ्रीका में जनसंख्या घनत्व के चलते तरह-तरह के संघर्ष हो रहे हैं। दुनिया का आर्थिक इतिहास यह बताता है कि जिस - जिस वक्त दुनिया को मंदी ने अपनी चपेट में लिया है, उस - उस वक्त कट्टरता और पारस्परिक संघर्ष की घटनाएं बढ़ी है। मंदी में ही संकीर्णता और घृणा के बीज पनपते हैं। जाहिर सी बात है, अभाव हमें कृपण बना देते हैं।
जब तक गाँवों से आपका राब्ता नहीं हो, तब तक आपको गाँवों की हकीकतें पता नहीं चलती है। कई साल गाँव में रहने के बाद जब सास-ससुर शहर आएं तो कई ऐसी चीजों को जाना जो अन्यथा नहीं जान पाती। बाहर यदि किसी भी किस्म का झगड़ा हो रहा हो, मम्मीजी का सबसे पहला सवाल यह होता था, बच्चे तो कोई बाहर नहीं हैं? शुरू-शुरू में मुझे समझने में दिक्कत हुई, मैं पूछ लिया करती थी आपको क्या डर है?
एक दिन उन्होंने बताया कि इतने साल गाँव में रही हूँ, गाँव की राजनीति को बहुत करीब से देखा है। वहाँ मारपीट से लेकर हत्याएँ तक हो जाती है। जो लोग सरल सहज होते हैं, गाँव उन लोगों के लिए बहुत क्रूर होते हैं। मैं चौंकी थी। अब तक गाँवों के किस्से फिल्मों और कहानियों तक ही सीमित थे। और दोनों ही माध्यमों में गाँवों को ओवररेट किया जाता रहा है। गांवों तक संसाधनों की पहुंच ने उसके कई हिस्सेदार पैदा किए हैं जो उन संसाधनों पर कब्जे के लिए लगातार संघर्षरत रहते हैं।
जो लोग गाँव से निकलकर आते हैं, वे गाँव की हकीकत आपको बताते हैं। जब अखबार में काम करती थी, तब कुछ संवाददाताओं से इस सिलसिले में बात की तो उन्होंने बहुत सकुचाते हुए बताया कि जब से पंचायतों के चुनाव होना शुरू हुए हैं, तब से गाँवों में राजनीति बहुत खतरनाक रूप ले चुकी है। लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के लिए किए गए संशोधनों के चलते होने वाले लोकल बॉडी इलेक्शंस की वजह से ग्रामीण समाज का ताना-बाना क्षत-विक्षत हो गया है।
समाजशास्त्रीय अध्ययन यह बताता है कि जिन जगहों में जीवन मुश्किल होता है, वहाँ के लोग सरल होते हैं। जिन जगहों पर जीवन सरल होता है, वहाँ के लोग जटिल होते हैं। पहाड़ों और मैदानों के जीवन में आपको यह स्थापना सही लगती है। लेकिन एक बहुत बारीक बात है जो अक्सर हम इस मोटा-मोटी स्थापना में देखते नहीं है वो ये कि जीवन मुश्किल होना और संसाधनों के लिए संघर्ष करना दो अलग-अलग बात है।
पहाड़ों पर मुश्किल जीवन सबके लिए एक-सा होता है, जबकि मैदानों पर संसाधनों की बंदरबांट होती है। जिसका जितना बड़ा रूतबा, जिसकी जितनी ज्यादा पहुँच उसके हिस्से उतने ज्यादा संसाधन... संक्षेप में संसाधनों का असमान बँटवारा संघर्षों और क्षुद्रताओं के लिए जमीन तैयार करता है। सत्ता में हिस्सेदारी के लिए होने वाले संघर्ष प्राकृतिक नहीं व्यवस्थागत होते हैं।
कई साल पहले एक बहुत चौंका देने वाली खबर पढ़ी थी कि दुनिया में सबसे ज्यादा जागरूक लोग एशिया में पाए जाते हैं। एशियन दुनिया भर के बारे में जानते हैं, जानना चाहते हैं। इस खबर ने न सिर्फ चौंकाया बल्कि यह सोचने पर मजबूर किया कि जबकि जागरूकता का संबंध शिक्षा से है और एशिया में यूरोप की तुलना में शिक्षा का औसत प्रतिशत कम है तो फिर एशियन सबसे ज्यादा जागरूक कैसे हुए!
धीरे-धीरे समझ आया कि जागरूकता का संबंध भी अभावों और संघर्षों से ही है। जिन लोगों के जीवन में कोई अभाव नहीं हैं, उन्हें कुछ भी जानने की न तो इच्छा होती है और न ही जरूरत। बहुत साल पहले एक चुटकुला पढ़ा था कि पूरी दुनिया में भूख पर एक सर्वे किया गया, जो बुरी तरह से असफल हुआ।
उस चुटकुले के अनुसार वह सर्वे यूएन ने करवाया था, जिसमें सवाल पूछा गया था कि, would you please give your honest opinion about solution to the food shortage in the rest of the world? इसमें दुनिया भर के देशों के बारे में बताया गया था, लेकिन भारत के बारे में बताया गया कि यहाँ के लोग नहीं जानते हैं कि ‘ऑनेस्ट’ का क्या मतलब है और आखिर में यह कि अमेरिका के लोग यह नहीं जानते हैं कि ‘रेस्ट ऑफ द वल्र्ड’ (शेष दुनिया) किसे कहते हैं?
यहाँ दोनों ही चीजें एक खास व्यवस्था औऱ उस व्यवस्थाओं की विशिष्टताओं पर जोर देती है। भारत, जहाँ अभाव है, संसाधनों के लिए संघर्ष हैं, मूलभूत चीजों को हासिल करने की जद्दोजहद है, इसलिए यहाँ ऑनेस्टी या ईमानदारी जैसी चीज का अभाव है। वजह एकदम साफ है जितनी ज्यादा असमानता होगी, जितनी बड़ी जनसंख्या अभावग्रस्त होंगी उतने ही ज्यादा संघर्ष होंगे और उतनी ही ज्यादा अनैतिकता, खींचतान और बेईमानी होगी।
इसके उलट अमेरिका का मामला है। वहाँ के लोगों के जीवन में मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष तुलनात्मक रूप से कम है। जीवन की जरूरतें यहाँ तक कि लग्जरी भी वहाँ आसानी से हासिल हो जाती है। ऐसे में उन्हें अपने से बाहर दुनिया को देखने और जानने की जरूरत महसूस नहीं होती। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जिन लोगों को जीवन में छोटी-छोटी सहूलियतें बड़ी मुश्किल और मशक्कतों से हासिल होती हैं, वे बहुत लंबे समय तक नैतिकता और मूल्यों को चाह कर भी नहीं साध सकते हैं।
निरंतर संघर्षरत इंसान के अनैतिक होने की जिम्मेदारी अकेले उसकी नहीं, पूरे समाज, पूरी व्यवस्था की है।
विषमता औऱ संसाधनों के लिए जद्दोजहद भी अनैतिकता के लिए उत्तरदायी हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा सरकार ने राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मु को उम्मीदवार बनाया और अब उप-राष्ट्रपति पद के लिए जगदीप धनकड़ का नाम घोषित हुआ है। दोनों उम्मीदवारों को मंत्री और राज्यपाल रहने का अनुभव है लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि इन दोनों को इन सर्वोच्च पदों के लिए चुनते हुए भाजपा नेताओं ने किस बात का ध्यान रखा है? वह बात है वंचितों के सम्मान और वोट बैंक की!
एक उम्मीदवार देश के समस्त आदिवासियों को भाजपा से जोड़ेगा और दूसरा समस्त पिछड़ों को! यह देश के आदिवासियों और पिछड़ी जातियों में यह भाव भी भरेगा कि वे लोग चाहे सदियों से दबे-पिसे रहे लेकिन यदि उनके दो व्यक्ति भारत के सर्वोच्च पदों पर पहुंच सकते हैं तो वे भी जीवन में आगे क्यों नहीं बढ़ सकते? किसान-पुत्र धनकड़ के उप-राष्ट्रपति बनने की घटना देश के किसानों में नई उमंग जगाए बिना नहीं रहेगी। इसके अलावा पं. बंगाल, झारखंड और उड़ीसा के आदिवासियों को भाजपा की तरफ खींचने में और ममता बनर्जी के वोट बैंक में सेंध लगाने में ये दोनों पद कोई न कोई भूमिका जरुर निभाएंगे।
जगदीप धनकड़ की उपस्थिति का लाभ भाजपा को राजस्थान, उत्तरप्रदेश और हरियाणा में भी मिलेगा। धनकड़ उपराष्ट्रपति के रूप में राज्यसभा के अध्यक्ष होंगे। यह शायद पहला संयोग होगा कि लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिड़ला और राज्यसभा के अध्यक्ष धनकड़ एक ही राज्य राजस्थान के होंगे। यह तथ्य राजस्थान की कांग्रेस सरकार के लिए चुनौती भी बन सकता है। धनकड़ को विधायक, सांसद और केंद्रीय मंत्री रहने का अनुभव भी है।
वे जनता पार्टी और कांग्रेस में भी रह चुके है। उन्हें उप-राष्ट्रपति पद पर भाजपा बिठा रही है, इससे यह सिद्ध होता है कि भाजपा अपने दरवाजे बड़े कर रही है। वे यदि अपनी विनम्रता के लिए जाने जाते हैं तो उनकी स्पष्टवादिता भी सर्वज्ञात है। उनके जितने दो-टूक राज्यपाल देश में कितने हुए हैं? पं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जितनी खुली खिंचाई धनकड़ ने की है, क्या कोई अन्य राज्यपाल किसी मुख्यमंत्री की कर पाया है? इसीलिए उन्हें ‘जनता का राज्यपाल’ कहा जाता है।
पिछले साल जब जगदीपजी ने मेरे खातिर अपने राजभवन में प्रीति-भोज आयोजित किया तो मैंने अपने कोलकाता के सभी खास मित्रों को आमंत्रित किया। उसमें भाजपाइयों और संघियों के अलावा कांग्रेसी, ममता के तृणमूली और कुछ पत्रकार भी थे। उन्हें देखकर राज्यपाल ने कुछ लोगों को कहा कि आप लोगों से मैं बहुत नाराज हूं लेकिन आप वैदिकजी के मित्र हैं, इसलिए आपका विशेष स्वागत है। कौन कहेगा, ऐसी दो-टूक बात?
धनकड़ राजस्थान के किसान परिवार के बेटे हैं लेकिन उन्होंने अपनी योग्यता के बल पर अपनी वकालत की धाक सर्वोच्च न्यायालय तक में जमा रखी थी। पं. बंगाल में इस बार भाजपा विधायकों की संख्या 3 से बढक़र 71 हो गई। इसक बड़ा श्रेय राज्यपाल जगदीप धनकड़ को भी है। मुझे विश्वास है कि अब राज्यसभा का सदन जऱा बेहतर और अनुशासित ढंग से काम करेगा। धनकड़ की जीत तो सुनिश्चित है ही, उनके सदव्यवहार का असर हमारे विपक्ष पर भी देखने को मिलेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
अग्निपथ योजना के देशव्यापी विरोध के बावजूद सरकार इसकी समीक्षा और इस पर पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं है। सरकार की यह हठधर्मिता देश को आगामी वर्षों में हिंसा और अराजकता के दुष्चक्र में धकेल सकती है।
रक्षा विशेषज्ञों और युद्ध तथा सैन्य प्रशासन का सुदीर्घ अनुभव रखने वाले सेवा निवृत्त अधिकारियों की प्रतिक्रियाएं यह दर्शाती हैं कि सरकार ने इस योजना के क्रियान्वयन से पहले उनसे चर्चा, विमर्श और सलाह मशविरा नहीं किया था। देश के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले यह पूर्व सैन्य अधिकारी आहत हैं, हतप्रभ हैं, हताश हैं।
रक्षा विशेषज्ञ सेवानिवृत्त मेजर जनरल यश मोर के अनुसार जिस दिन सैनिकों की भर्ती में आर्थिक बचत हमारी प्राथमिकता बन जाएगी वह दिन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा। रिटायर्ड मेजर जनरल बी एस धनोवा कहते हैं कि पेशेवर सेनाएं रोजगार कार्यक्रम नहीं चलाया करतीं। इन पूर्व सैन्य अधिकारियों ने अनेक गंभीर प्रश्न उठाए हैं जो अब तक अनुत्तरित हैं। यद्यपि सरकार के कहने पर सेवारत थ्री स्टार कमांडर्स को उनके संबंधित सर्विस मुख्यालयों द्वारा यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे असंतुष्ट सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों से संपर्क करें और उन्हें अग्निवीर योजना के लाभों के विषय में जानकारी दें ताकि इस योजना के प्रति उनकी राय बदल सके। किंतु अनेक बुनियादी सवालों का जवाब न तो सरकार के पास है और न ही उसमें यह विनम्रता दिखाई देती है कि वह अपने कदम पीछे खींचे एवं कोई नई अधिक तर्कपूर्ण और व्यावहारिक पहल करे।
रक्षा विशेषज्ञों और पूर्व सैन्य अधिकारियों की आपत्तियां अनेक हैं। इतनी अल्प अवधि में किन 25 प्रतिशत अग्निवीरों को आगे की सेवा के लिए रखना है और किन 75 प्रतिशत अग्निवीरों को बाहर का रास्ता दिखाना है यह तय करना असंभव है। उनकी योग्यता और क्षमता के आकलन के लिए यह अवधि बड़ी छोटी है।
क्या इन नए नवेले अग्निवीरों को गुप्त मिशनों पर भेजा जा सकता है? क्या इन्हें गोपनीय उत्तरदायित्व दिए जा सकते हैं? जिन 75 प्रतिशत अग्निवीरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा क्या उनसे यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे ऐसे गोपनीय अभियानों के रहस्यों और खुफिया जानकारियों को स्वयं तक सीमित रखेंगे और उनका दुरुपयोग नहीं करेंगे? ऐसे कम उम्र युवा वैसे भी जरा से अपमान और उपेक्षा से आहत हो जाते हैं और यहां तो उन्हें अयोग्य मान कर सेवा से बाहर निकाला गया है।
इन्फेंट्री, आर्टिलरी, कॉम्बैट इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा मेकैनिकल इंजीनियरिंग, सिग्नल एवं एयर डिफेंस ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें सात-आठ वर्षों के प्रशिक्षण और अनुभव के बाद ही कुछ विशेषज्ञता अर्जित हो पाती है। क्या मात्र 6 माह के प्रशिक्षण के बाद इन अग्निवीरों से उस तकनीकी कुशलता की अपेक्षा की जा सकती है? क्या किसी अनाड़ी अतिउत्साही राष्ट्रभक्त की आत्मघाती मूर्खताओं की तुलना में किसी प्रशिक्षित, अनुभवी, युद्ध की रणनीतियों को ठंडे दिमाग से अंजाम देने वाले वाले दक्ष तकनीशियन की सेवाएं देश की सुरक्षा में ज्यादा सहायक नहीं होंगी?
ब्रिगेडियर ए मदान के अनुसार कोई भी बुद्धिमान कमांडिंग ऑफिसर ऐसे वास्तविक सैन्य संघर्ष के लिए जिसमें जीवन दांव पर लगाना हो इन अग्निवीरों का चयन नहीं करेगा। कोई भी कार्यकुशल सेना 75 प्रतिशत की हाई वेस्टेज रेट को सहन नहीं कर सकती।
यह आशंका भी व्यक्त की गई है कि 4 साल की सेवा के बाद दुबारा न चुने जाने वाले अग्निवीरों पर नक्सलियों, उग्रवादियों और संगठित अपराधी गिरोहों की नजर रहेगी और वे उन्हें अपने खतरनाक इरादों को पूरा करने के लिए अपने गिरोह में शामिल करने का पूरा प्रयास करेंगे।
अनेक पूर्व सैन्य अधिकारी इस तर्क से असहमत हैं कि अग्निवीरों की भर्ती के बाद हमारे देश के पास एक युवा सेना होगी जो कि शारीरिक रूप से अधिक सक्षम एवं सशक्त होगी। इनके प्रश्न गंभीर और विचारणीय हैं। क्या 23-24 वर्ष का व्यक्ति 28-30 साल के व्यक्ति से अधिक चुस्त दुरुस्त होता है? किसी भी फिट युवा के लिए 21 से 35 वर्ष की आयु उसका स्वर्णिम काल होती है। मांस पेशियों की ताकत तो 25 वर्ष की आयु में अपने सर्वश्रेष्ठ स्तर पर पहुंच जाती है किंतु शरीर तो 35 वर्ष और उसके कुछ वर्ष बाद भी स्वस्थ और सशक्त बना रहता है। इसलिए फिट आर्मी का तर्क अर्थहीन है।
सैनिकों की भर्ती और उनके प्रशिक्षण से लंबे समय तक जुड़े रहे सैन्य प्रशासन के जानकार अग्निवीरों के अपर्याप्त कार्यकाल को लेकर असंतुष्ट हैं। इनके अनुसार चाहे 4 वर्ष के लिए मानव संसाधन का उपयोग किया जाए या 10,12 अथवा 15 वर्ष के लिए प्रतिवर्ष सेना में प्रवेश करने वाले और बाहर निकलने वाले लोगों की संख्या समान रहेगी। कोई भी मैनेजमेंट गुरु हमें यह सलाह देगा कि इस मानव संसाधन को लंबी अवधि तक उपयोग में लाना लाभकारी होगा।
लेफ्टिनेंट जनरल प्रकाश कटोच के अनुसार सरकार सेना के उस अद्वितीय रेजीमेंटल सिस्टम को मिटा देना चाहती है जो वास्तविक युद्ध में जमीनी लड़ाकों के आपसी तालमेल की आधारशिला है। सरकार 'सबका साथ सबका विकास' के घातक अनुप्रयोगों द्वारा 'नाम, नमक और निशान' की समय सिद्ध सैन्य परिपाटी को समाप्त कर देना चाहती है जिसके बलबूते पर हमने युद्ध लड़े और जीते हैं।
सिंगल क्लास(सिख रेजिमेंट, डोगरा रेजिमेंट, गढ़वाल राइफल्स, सिख लाइट इन्फेंट्री), फिक्स्ड क्लास(राजपूताना राइफल्स,कुमाऊँ रेजिमेंट की कुछ यूनिटें) और मिक्सड फिक्स्ड क्लास(पंजाब रेजिमेंट) रेजिमेंटों ने हमें युद्धों में गौरवशाली सफलताएं दिलाई हैं। त्याग, बलिदान, वीरता और राष्ट्र भक्ति के उच्चतम स्तर को स्पर्श करने वाले लगभग सभी पूर्व सैन्य अधिकारी यह मानते हैं कि वर्तमान रेजिमेंटल सिस्टम सैनिकों के पारस्परिक विश्वास, मनोबल और युद्धभूमि में साथ जीने साथ मरने की उनकी भावना का आधार रहा है। अग्निपथ योजना के बाद धीरे धीरे इनका स्थान ऑल इंडिया ऑल क्लास सिस्टम ले लेगा। जब 1984 में स्वर्ण मंदिर के भीतर छिपे आतंकवादियों पर हुई कार्रवाई के उपरांत सिख रेजिमेंट की बिहार और राजस्थान यूनिटों में अंसतोष की खबरें आईं तब प्रायोगिक तौर पर ऑल इंडिया ऑल क्लास सिस्टम लागू करने का प्रयास किया गया था। किंतु शीघ्र ही सेना को अपने कदम वापस खींचने पड़े क्योंकि ऑल इंडिया ऑल क्लास यूनिट्स में पारस्परिक बंधन, आपसी विश्वास और सामूहिक भावना की कमी दृष्टिगोचर होने लगी थी।
सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हरवंत सिंह (पूर्व डिप्टी आर्मी चीफ ऑफ स्टॉफ) की शंकाएं जायज हैं- क्या सीमित समय के लिए चुने गए इन अग्निवीरों में देश के लिए अपना जीवन होम देने की प्रेरणा और इच्छा होगी? क्या इनमें रेजीमेंटों में दिखाई देने वाली वह भावना उपस्थित होगी जिसके वशीभूत होकर कोई सैनिक अपने चारों और बरसती गोलियों और बमों के बीच, अपने दाएं-बाएं साथियों की गिरती रक्तरंजित देहों को देखकर भी अविचलित रहते हुए असंभव को संभव कर दिखाता है?
रिटायर्ड ब्रिगेडियर राहुल भोंसले जैसे अनेक विशेषज्ञ यूक्रेन में रूसी सेनाओं के खराब एवं निराशाजनक प्रदर्शन के लिए रूस के अनिवार्य सैनिक भर्ती संबंधी नियमों को उत्तरदायी मान रहे हैं जब आंशिक और अपूर्ण रूप से प्रशिक्षित रूसी सैनिक यूक्रेन की समर्पित सेना के सामने परेशानी में दिखाई दे रहे हैं। अग्निपथ योजना युवकों के लिए अनिवार्य सैन्य भर्ती की पूर्वपीठिका तैयार करती लगती है। यह भी संभव है कि सेना में जाने वाले युवाओं हेतु कुछ आकर्षक छूटों का एलान कर सरकार बिना कानून पास किए यह स्थिति उत्पन्न कर दे कि युवाओं के पास भविष्य के बेहतर रोजगार के लिए पहले सेना में जाना अप्रत्यक्ष रूप से अनिवार्य बन जाए।
सामान्य तौर पर सरकार का समर्थन करने वाले रिटायर्ड मेजर जनरल जी डी बख्शी ने लिखा,”मैं अग्निवीर योजना से हतप्रभ रह गया था। प्रारंभ में मुझे लगा कि यह प्रायोगिक आधार पर परीक्षण किया जा रहा था। यह भारतीय सशस्त्र बलों को चीनियों की तरह अल्पकालीन अर्ध-प्रतिनिधि बल में परिवर्तित करने के लिए एक बड़े कदम जैसा है। भगवान के लिए ऐसा मत कीजिए।”
अग्निवीरों को विभिन्न नौकरियों में प्राथमिकता देने के सरकारी आश्वासनों पर विश्वास करने से पहले हमें उस स्याह हकीकत से रूबरू होना होगा जो पूर्व सैनिकों को रोजगार देने में हमारी विफलता और उनके प्रति हमारी असंवेदनशीलता को दर्शाती है। हम सेना से रिटायर होने वाले नौजवानों को अतिरिक्त कौशलों में प्रशिक्षित करने तथा उन्हें दूसरा रोजगार देने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार नौकरी के लिए पंजीयन कराने वाले 5,69,404 पूर्व सैनिकों में से केवल 14155 को सरकारी, अर्द्ध सरकारी अथवा निजी क्षेत्र में किसी प्रकार का कोई रोजगार मिल पाया। आंकड़े यह भी बताते हैं कि केंद्र सरकार के 34 विभागों में कार्यरत 10,84,705 ग्रुप सी कर्मचारियों में केवल 13976 एक्स सर्विसमैन थे जबकि 3,25,265 ग्रुप डी कर्मचारियों में केवल 8642 एक्स सर्विसमैन थे। केंद्र के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में ग्रुप सी वर्ग में एक्स सर्विसमैन के लिए कोटा 14.5 प्रतिशत है किंतु डीजीआर के मुताबिक इनकी वास्तविक हिस्सेदारी केवल 1.15 प्रतिशत है जबकि ग्रुप डी के लिए निर्धारित 24.5 प्रतिशत कोटा के बावजूद इनकी संख्या .3 प्रतिशत है।
हमारे देश का कानून किसी व्यक्ति को तब वयस्क मानता है जब वह 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेता है। इससे पहले उसे अवयस्क माना जाता है, वह विवाह नहीं कर सकता और उससे मजदूरी या नौकरी कराना अपराध माना जाता है। क्या साढ़े सत्रह वर्ष के किशोरों को युद्ध के लिए सेना में भर्ती करना वैधानिक है? इससे भी अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या यह नैतिक रूप से उचित है? संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकारों के लिए कार्य करने वाले संगठन बच्चों के युद्ध में हो रहे इस्तेमाल पर निरंतर आपत्ति करते रहे हैं। क्या हम इसी गलत दिशा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं?
अग्निपथ योजना भारतीय सेना के स्वरूप एवं कार्यप्रणाली में इस प्रकार का क्रांतिकारी परिवर्तन ले आएगी कि हम विश्व की अग्रणी सैन्य शक्ति बन जाएंगे यह आशा कभी पूरी होगी ऐसा नहीं लगता। यह योजना न तो रणनीतिक तौर पर उचित है न ही नैतिक तौर पर। अल्प कार्यकाल वाले, प्रारंभिक प्रशिक्षण प्राप्त अनुभवहीन अग्निवीरों को निर्णायक युद्ध में सम्मिलित करने अथवा उन्हें कोई गोपनीय उत्तरदायित्व देने का दुस्साहस शायद ही कोई देशभक्त सेनानायक करेगा। सेना में इन अग्निवीरों द्वारा व्यतीत किया गया समय बहुत संभव है कि ऐसे तुच्छ एवं महत्वहीन कार्यों में बीते जो इनमें हताशा और कुंठा उत्पन्न करें। जो 75 प्रतिशत अग्निवीर सेना से बाहर आएंगे यदि उनमें से कोई भी गलत रास्ते पर चल निकला तो उसके पास युद्ध कला और हथियारों के संचालन की इतनी जानकारी तो अवश्य होगी कि वह एक शांतिप्रिय सभ्य समाज में हिंसक गतिविधियों को परवान चढ़ा सके। जिस प्रकार से हमारा समाज साम्प्रदायिक और जातीय वैमनस्य की अग्नि में झुलस रहा है, सम्मानजनक नौकरी की तलाश में भटकते सेना से बाहर आए इन अग्निवीरों के आक्रोश को गलत दिशा मिलना एक स्वाभाविक परिणति होगी।
यह तर्क कि अग्निपथ योजना से राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत होगी बहुत खोखला है। तकनीकी विकास ने युद्ध की रणनीतियों को इतना बदल दिया है कि अब पारंपरिक प्रत्यक्ष युद्ध का स्थान अप्रत्यक्ष युद्ध की ऐसी रणनीतियों ने ले लिया है जिनके द्वारा सीधे सैन्य संघर्ष के बिना ही शत्रु देश को राजनीतिक,आर्थिक और सामरिक तौर पर कमजोर किया जा सकता है। अग्निवीरों की यह फौज इतने कम समय में शायद देश की सीमाओं की रक्षा के लायक कौशल तो अर्जित नहीं कर पाएगी किंतु साम्प्रदायिक ताकतों और संगठित अपराधी गिरोहों द्वारा बरगलाए जाने पर यह देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरे में अवश्य डाल देगी।
सेना में प्रवेश लेना हमारे देश में गौरव का विषय माना जाता रहा है। सुरक्षित भविष्य, रोमांचपूर्ण सेवाकाल और देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देने की संभावना, वे विशेषताएं हैं जो सेना की सेवा को महज एक नौकरी नहीं रहने देतीं बल्कि इसे एक अलग आयाम प्रदान करती हैं। देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर एक सम्मानजनक जीवन जीने की आशा संजोए लाखों नवयुवकों को जब यह ज्ञात हुआ कि सेना की यह गरिमापूर्ण सेवा अब एक तदर्थ प्रकृति की अल्पकालिक, अस्थायी नौकरी में बदली जा रही है तो उनका आक्रोशित होना स्वाभाविक था। इन नवयुवकों पर यह आक्षेप लगाना कि इनमें देशभक्ति की कमी है या मोटी तनख्वाह और पेंशन के लालच में ये सेना में जाना चाहते हैं, सर्वथा अनुचित है। हमारे देश में कितने ही ऐसे परिवार मिल जाएंगे जिनमें पिता की शहादत के बाद दुगुने जोश से उनके बेटों ने सेना में प्रवेश लिया, अग्रज के वीरगति को प्राप्त होने के बाद उसके अनुज का सेना में जाने का संकल्प दृढ़तर ही हुआ। कितने ही ग्राम ऐसे हैं जहां हर घर का कोई सपूत सेना में है। भारतीय सेना निर्जीव युद्धक मशीन नहीं है, इसके साथ सेवा, समर्पण, मर्यादा, त्याग और बलिदान जैसे मूल्य सम्बद्ध हैं। भारतीय सेना हमारे जीवन का एक संस्कार है। जब भारत का देशभक्त युवा अपने सपनों की उस आदर्श भारतीय सेना के गौरव के साथ समझौता होता देखता है तो उसे क्षोभ तो होगा ही।
सरकार का यह तर्क कि वह हर युवा को सैन्य सेवा का अनुभव देना चाहती है उचित नहीं है। हमारी सेना केवल लड़ने मारने वाले युवाओं का संगठन नहीं है। हमारी सेना जोड़ने वाली है, हमारी सेना जान बचाने वाली है। सरकार चाहे तो देश के युवाओं को युद्ध के अतिरिक्त कितने ही सैन्य कौशलों में प्रशिक्षित कर सकती है जो नागरिक जीवन को बेहतर बना देंगे। युवाओं को आपात परिस्थितियों में अपनी और दूसरों की प्राण रक्षा का प्रशिक्षण दिया जा सकता है, उन्हें उस सैन्य अनुशासन एवं समर्पण का प्रशिक्षण दिया जा सकता है जिसके बल पर सैनिक रातों रात पुल खड़ा कर देते हैं, सड़कें बना देते हैं, असंभव अभियानों को अंजाम दे लेते हैं। सरकार देश के हर युवा में यह भाव भर सकती है कि वह चाहे किसी भी पेशे में हो वह देश का एक समर्पित सैनिक है- देश के सेकुलर चरित्र, संविधान तथा एकता और अखंडता को सुरक्षित रखने के लिए अहर्निश तत्पर सैनिक।
अनेक विशेषज्ञ सरकार की अग्निपथ योजना को उग्र हिंदुत्व की विचारधारा से जोड़ कर देखते हैं। उग्र और असमावेशी हिंदुत्व के समर्थकों में हिन्दू युवाओं को आक्रामक युद्धक समुदाय में बदलने की लालसा प्रारंभ से रही है। यह 1931 की घटना है जब उग्र हिंदुत्व के प्रारंभिक पुरोधा और हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष(1927-1937) बालकृष्ण मुंजे इटली की यात्रा करते हैं, वहां वे मुसोलिनी से मिलते हैं, वे इटली के प्रमुख सैन्य विद्यालयों का दौरा करते हैं और उनसे बहुत प्रभावित भी होते हैं। बाद में भारत लौटकर वे नाशिक में 12 जून 1937 को भोंसला मिलिट्री विद्यालय की स्थापना करते हैं। हिंदुओं का सैन्यकरण और ब्रिटिश सेना का भारतीयकरण वे उद्देश्य थे जिन्होंने श्री मुंजे को इस विद्यालय की स्थापना हेतु प्रेरित किया। जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब श्री मुंजे से हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद का कार्यभार ग्रहण करने वाले श्री सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से ब्रिटिश सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे। उन्होंने नारा दिया था, ”हिंदुओं का सैन्यकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो।" लगभग 3 वर्ष पहले यह खबरें आईं थीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिक्षण विंग विद्या भारती द्वारा उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर ज़िले के शिकारपुर में ‘रज्जू भैया सैनिक विद्या मंदिर’ वर्ष 2020 से प्रारंभ किया जा रहा है।
यह देश का दुर्भाग्य होगा यदि देश का भविष्य निर्माता युवा वर्ग युद्धकला में प्रशिक्षित और साम्प्रदायिक भावना से संचालित एक हिंसक समूह के रूप में निर्माण के स्थान विनाश करता नजर आए।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-अपूर्व गर्ग
लाहौर षड़यंत्र केस में भगत सिंह और साथियों पर मुख्य आरोप था राजा के खिलाफ युद्ध. उन्हें फांसी की सजा मिली. भगत सिंह सहित तीनों साथियों की मांग थी उन्हें युद्ध बंदी माना जाए और फांसी की बजाय गोली से मारा जाए.
भगत सिंह ने शहादत के रास्ते का सोच समझ कर चुनाव किया पर उनके जाने के बाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) को और इसके कमांडर आज़ाद को उनकी कमी बहुत महसूस होती रही क्योंकिभगत सिंह HSRA के सबसे प्रमुख क्रांतिकारी थे, विचारक थे.
HSRA ने भगत सिंह को छुड़ाने की योजना बनाई कोशिश की पर क्रांतिकारी भगवतीचरण की बम विस्फोट में शहादत और इसके बाद बहावलपुर के बंगले में हुए विस्फोट के बाद योजना पर पानी फिर गया.
भगत सिंह को छुड़ाने की योजना में शामिल क्रांतिकारी विश्वनाथ वैशम्पायन ने लिखा है कि भगत सिंह को छुड़ाने की योजना के असफल हो जाने से आज़ाद को गहरा धक्का लगा था.
ठीक इसके बाद आज़ाद की शहादत के बाद HSRA करीब-करीब निष्क्रिय होकर ख़त्म हो गया.
ये इसलिए बताया कि कई बार प्रमुख संगठन कर्ताओं के जेल जाने से संगठन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है.
वहीं कर्तार सिंह सराभा की शहादत के तरीके और अदालत से निपटने के अंदाज़ ने देश को भगत सिंह तक को बहुत-बहुत किया और सराभा सबके हीरो आज़ाद बने. कर्तार सिंह सराभा से जज ने पूछा था- 'क्या तुम्हारा इरादा अंग्रेजी सरकार पलटने का था ?'
सराभा ने कहा- 'हाँ, मैंने जो भी काम किया, देश की आज़ादी के लिए और अंग्रेज़ों को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने के लिए किया है.'
'जज ने फिर पूछा- 'जाने हो तुम्हारे इन बयानों का क्या परिणाम होगा ?'
जी हाँ जानता हूँ ,..आपका ख्याल है कि मुझे पता नहीं कि आप क्या सलूक करेंगे? मैं तैयार हूँ ...अब आपको जो करना हो, करो, मुझे पता है..''
क्रांतिकारियों का तरीका शांतिपूर्ण जेल जाने के बदले फरार रहकर, जेल फांदकर क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखने का रहा तो गांधीवादी तरीका शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से अदालत के फैसलों को ना मानने का रहा.
गांधीजी ने जुर्माना न देने का निर्णय लेकर जेल जाना पसंद किया था.
वहीं पूरे जीवन में नेहरूजी 9 बार जेल गए 3259 दिन जेल में गुज़ारे, 31 अक्टूबर 1940 को गिरफ्तार होने पर गोरखपुर मुक़दमे में सीधे मुक़दमे में न हिस्सा लेने का स्टैंड लिया था. कोर्ट से नेहरूजी ने कहा था ''मैं जोर देकर कहता हूँ कि डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स एक सबसे बड़ी तौहीन है.....'' .
उस दौर में गाँधी-नेहरू के बाद ढेर बड़े नेता थे, जो उनकी अनुपस्थिति में बागडोर सम्हाल लेते थे, पर क्या ये बात हर दौर में लागू हो सकती है, जबकि कोई ठोस सेकंड लाइन लीडरशिप न हो ?
इतिहास में दोनों तरह के उदाहरण सामने हैं. इसलिए इस लेख को सिर्फ ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखिए, आज के सन्दर्भ में नहीं.
आज़ादी के बाद जब यशपाल किसी पार्टी संगठन से नहीं जुड़े थे और जब 'विप्लव' का प्रकाशन कर रहे थे, तब रेल हड़ताल के दौरान उनकी भी गिरफ्तारी हुई. यशपालजी को तेज़ बुखार था. यशपालजी के लिए डॉक्टर्स का प्रबंध किया गया और डिप्टी कमिश्नर ने कहा एक रुपये की ज़मानत पर यशपालजी को तत्काल रिहा किया जा रहा है.
यशपालजी ने एक रुपये की ज़मानत पर भी रिहा होने से इंकार किया और एक महीने बाद ही जेल से आये.
ये वही यशपाल थे जो भगत सिंह को छुड़ाने की योजना में भी शामिल थे ...पर तब अलग परिस्थिति थी और जब एक रुपये की ज़मानत पर भी रिहा होने से इंकार किया तब अलग परिस्थिति थी.
बुद्धिजीवियों के भी जमानत न लेने के ढेर उदाहरण हैं ,जो उन्होंने अपने सिद्धांतों की ख़ातिर लिए पर वो किसी पार्टी, संगठन से जुड़े नहीं थे. उनके जेल जाने से संगठन के काम में कोई रूकावट न रही पर उन्होंने ऊंचे आदर्श स्थापित किये.
केरल के समाजवादी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पत्रकार मथाई मंजूरन ने 1959 में प्रेस की आज़ादी के सवाल पर अदालत की अवमानना के एक केस में केरल के हाई कोर्ट में माफी मांगने से इनकार कर दिया था.
दैनिक अखबार केरल प्रकाशम में एक ख़बर के छपने पर एडिटर मंजूरन पर 100 रुपये और प्रकाशक सुधाकरण पर 50 रुपये का जुर्माना लगा था पर दोनों ने प्रेस की आज़ादी के सावल पर जेल का रास्ता चुना था. दोनों को त्रिशूर की वियुर जेल भेजा गया था.
-कनुप्रिया
रेडियो पर एक पर्यावरण वादी की चर्चा हो रही है, कैसे उन्होंने उत्तराखंड में अपने निजी प्रयासों से इलाके का स्वरूप ही बदल दिया, इलाके की पानी की समस्या ख़त्म हो गईं, सुखी बंजर पहाडिय़ाँ हरी भरी हो गईं।
और मैं सोच रही थी साधुवाद है इनको मगर अगर इन्हें ही ये सब करना था तो सरकारे क्या कर रही थीं? उनका पर्यावरण मंत्रालय क्या मुफ़्त की तनख्वाह उठाता है।
बारिश का मौसम है, शहर नालियाँ, सडक़ें पॉलीथिन के कचरे से अटी पड़ी हैं, और कैलाश खेर गा रहे होते हैं स्वच्छ भारत का सपना, कागजों पर भारत स्वच्छ हो भी गया होगा, आखिर सब कुछ डेटा और रिपोर्ट ही तो है, सो देख कर भी न देखिये कुछ।
सरकारें आखिर करती क्या हैं, पूरी सुरक्षा, पूरी लक्जरी, हर सुविधा के बाद, इस सवाल का जबरदस्त काउंटर आजकल इस तरह होता है कि जनता और लोग क्या करते हैं। अगर जनता और लोगों को, अपने निजी प्रयासों से ही सब कुछ करने की जिम्मेदारी लेनी है तो सरकारें चुनी क्यों जाती हैं।
न करें कुछ, मगर फिर विकास के नाम पर पर्यावरण और प्रकृति को नष्ट करने की योजनाएँ क्यों बनाती है? इस सवाल का भी जवाब है, कि विकास न करें वो? तो फिर जंगल, जमीन, जल सब नष्ट करके ही सब विकास करना है तब पर्यावरण मंत्रालय, उसकी नीति नियम आखिर है किसलिये? आँखों मे धूल झोंकने के लिए?
आप दशरथ माँझी बन जाइये, आपका गुणगान होगा, आप पर फिल्म बनेगी, अपने तईं कुछ तीन का तेरह आपसे होता हो तो रेडियो पर आपके इंटरव्यू होंगे, मगर मुँह खोलने की सजा मिलेगी, बरोबर मिलेगी।
इसलिये मुँह बन्द रखिये, सरकारों पर सवाल मत उठाइये, देखकर भी आँख बंद करने, सुनकर भी न सुनने की क्षमता का, बल्कि कला का विकास कीजिये, न हो रहा हो तो अभ्यास कीजिये।
क्योंकि अंतत: सरकारें चाहे अमेजन के जंगल नष्ट करें, या उत्तराखंड की बाढ़ का सबब बनें, चाहे आदिवासी इलाकों के जंगल, जमीन पर निजी कारोबारियों का कब्जा करवाएँ, वो देश भक्त ही रहेंगी, मगर आपने मुँह खोला, सवाल किए, न्याय माँगा, मानवीयता, और प्रकृति सरक्षण की दुहाई दी तो आप जरूर नक्सली, आतंकवादी ठहराए जा सकते हैं। आपकी जगह जेलों में हो सकती है।
इसलिये निजी प्रयासों के लिये साधुसाधु कीजिये, दो चार पेड़ लगाइए, बाकी सब तरफ से अपनी इंद्रियों को सिकोड़ लीजिये, देखना, सुनना, बोलना व्यर्थ है। शास्त्रों में इसे ही तप कहा गया है।
-ध्रुव गुप्त
नौटंकी सदियों से उत्तर भारत की सबसे लोकप्रिय लोकनाट्य विधा रही है। यह प्राचीन भारत में खेले जाने वाले स्वांग का लोक द्वारा परिवर्तित रूप माना जाता है। आधुनिक नौटंकी का इतिहास चार सौ साल से ज्यादा पुराना नहीं है। इस विधा की शुरुआत पंजाब से हुई थी जहाँ लोगों की रुचि का ध्यान रखते हुए कथानक में अश्लील और द्विअर्थी संवाद खूब डाले जाते थे। समाज के अभिजात वर्ग द्वारा गंवई और सस्ता घोषित किए जाने के बावजूद अपनी जनप्रियता की वजह से नौटंकी पंजाब की सीमा से निकलकर धीरे-धीरे पूरे उत्तर भारत में फैल गई। स्थानीयता के दबाव में उत्तर भारत में इसमें बहुत सारे बदलाव भी हुए। यहां नौटंकी के प्रमुख विषय रहे हैं मिथकीय प्रेम कथाएं, वीरता के किस्से और सामाजिक विसंगतियां। लोगों को इन किस्सों से बांधे रखने के लिए फिलर के तौर पर उनमें हास्य और गीत-संगीत के प्रसंग जोड़े जाते हैं। लोकनाट्य की इस शैली के विकास में बहुत सारे ज्ञात और अज्ञात कलाकारों का योगदान रहा, लेकिन इनमें से अगर किसी एक शख्सियत का नाम निकाल लेने को कहा जाय तो बेशक वह नाम होगा नौटंकी की मलिका कही जाने वाली पद्मश्री गुलाब बाई का।
अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बनी गुलाब बाई का जन्म उत्तर प्रदेश के कन्नौज जनपद के बलपुरवा गांव के एक गरीब बेडिय़ा परिवार में हुआ था। रोजी-रोटी की तलाश में वह गांव की गलियों में नाच-गाकर लोगों का मन बहलाती थी। गुलाब पर एक दिन एक थिएटर मालिक की नजर पड़ गई। उसके नृत्य-गीत से प्रभावित होकर उसने अपनी एक नौटंकी में उसे बाल कलाकार की छोटी-सी भूमिका दे दी। वर्ष 1931 में जब बारह साल की गुलाब ने नौटंकी के मंच पर कदम रखा तो पुरूषों के प्रभुत्व वाले स्टेज पर किसी स्त्री का वह पहला प्रवेश था। तब सिनेमा की तरह नौटंकी में भी स्त्रियों की भूमिकाएं पुरुष ही निभाते थे। इस छोटी-सी शुरुआत के बाद जो हुआ वह इतिहास है।
गुलाब जवान हुई तो अपनी अभिनय-क्षमता, अदाओं और विलक्षण लोकगायिकी के बूते वह जल्द ही नौटंकी की बेताज मलिका बन बैठी। उसके पहले नौटंकी में कथ्य और शैली का ही महत्व हुआ करता था, किसी कलाकार की व्यक्तिगत छवि, रूपरंग या ख्याति का नहीं। गुलाब के साथ नौटंकी के उस दौर की शुरूआत हुई जब कलाकार के नाम पर लोग थिएटर की ओर खिंचे चले आते थे। यह नौटंकी में ग्लैमर की पहली धमक थी। गुलाब की लोकप्रियता 1940 तक शिखर पर पहुंच गई थी। उसकी तनख्वाह तब महीने के दो हजार रुपयों से ज्यादा हुआ करती थी। उस जमाने के हिसाब से यह बड़ी रकम थी जो तब के ज्यादातर फिल्म कलाकारों को भी नसीब नहीं थी।
फिर समय ऐसा भी आया जब बेहतर वेतन और सुविधाओं के बावजूद थिएटर मालिकों की कलाकारों के प्रति संवेदनहीन व्यवहार से गुलाब क्षुब्ध रहने लगी। अपनी कला के लिए उन्हें सम्मान और अभिव्यक्ति की थोड़ी आजादी की दरकार थी। पांचवे दशक में अपने कुछ साथियों के साथ उन्होंने ‘गुलाब थियेट्रिकल कम्पनी’ की स्थापना की। गुलाब की लोकप्रियता की वजह से थोड़े ही अरसे में उनकी कंपनी उत्तर भारत की सबसे बड़ी थिएट्रिकल कंपनी बन गई। यहां उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की पूरी आजादी थी। सभी प्रमुख स्त्री पात्रों की भूमिका निभाने के अलावा बहुमुखी प्रतिभा की धनी गुलाब नौटंकी के लिए खुद कहानी, पटकथा और गीत लिखती थीं। नौटंकी का नृत्य-संयोजन भी उन्हीं के जिम्मे था। नौटंकी को उत्तर भारत के गांव-गांव तक ले जाने का श्रेय गुलाब की इसी कंपनी को जाता है। नौटंकी के इतिहास में इस थिएट्रिकल कंपनी का वही योगदान है जो फिल्मों के इतिहास में प्रभात टाकीज और बॉम्बे टाकीज का रहा है।
‘सुल्ताना डाकू’ गुलाब बाई की सर्वाधिक लोकप्रिय नौटंकी थी जिसके द्वारा उन्होंने अपने सामाजिक सरोकारों के लिए प्रसिद्ध उत्तर प्रदेश के एक दुर्दांत डकैत सुलतान को लोकमानस का नायक बना दिया। गुलाब द्वारा तैयार और अभिनीत कुछ अन्य प्रसिद्ध नौटंकियां थीं - लैला मजनू, शीरी फरहाद, हरिश्चन्द्र तारामती, भक्त प्रह्लाद, सत्यवान सावित्री, इन्द्रहरण और श्रीमती मंजरी। वर्ष 1960 तक ढलती उम्र और कंपनी की व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं की वजह से नौटंकी में खुद गुलाब की भागीदारी कम होती चली गई। अपने अभिनय और गायन की उत्तराधिकारी के तौर पर उन्होंने अपनी बहन और बेटी को चुना, लेकिन वे गुलाब की लोकप्रियता को नहीं दुहरा सकीं। तब तक मनोरंजन के साधन के रूप में सिनेमा ने नौटंकी सहित सभी लोककलाओं को विस्थापित करना शुरू कर दिया था। विस्थापन की यह प्रक्रिया इतनी तेज थी कि छठे दशक के अंत तक नौटंकी अपना आकर्षण खो चुकी थी और गुलाब बाई की थियेटर कंपनी भी।
गुलाब अभिनेत्री के अलावा बेहतरीन गीतकार और गायिका भी थीं। उनके बनाए और गाए कुछ बेहद लोकप्रिय गीत हैं- पान खाए सैया हमार, नदी नारे न जाओ श्याम पैया परूं मोहे पीहर में मत छेड़, जलेबी बाई, भरतपुर लुट गयो हाय मेरी अम्मा, पटना शहरिया में आओ रानी, मोहे अकेली डर लागे, गोरखपुर की एक बंजारन और हमरा छोटका बलमुवा। छठे दशक में सुनील दत्त की फिल्म ‘मुझे जीने दो’ में उनके दो गीतों ‘नदी नारे न जाओ श्याम’ और ‘मोहे पीहर में मत छेड़’ और शैलेन्द्र की फिल्म ‘तीसरी कसम’ में कुछ परिवर्तन के साथ ‘पान खाए सैया हमारो’ का इस्तेमाल हुआ था। यह गुलाब के लिए गौरव की बात थी, लेकिन इसका दुखद पक्ष यह था कि उन गीतों के लिए पारिश्रमिक देना तो दूर, क्रेडिट में उनका नाम तक देना जरूरी नहीं समझा गया। गुलाब बॉलीवुड के इस सलूक से मर्माहत हुई थीं।
साल 1996 में सत्तर साल की उम्र में गुलाब बाई का देहावसान हुआ। मरते समय उनका सबसे बड़ा दुख यह था कि अपने जीवन-काल में ही उन्हें नौटंकी को मरते हुए देखना पड़ा था। व्यावसायिक दबाव में धीरे-धीरे उसमें अभद्रता और अश्लीलता का प्रवेश होने लगा था। उनके बाद उनके कुछ शागिर्द उनकी विरासत संभाल तो रहे हैं, लेकिन उत्तर भारत के मेलों-ठेलों में ‘द ग्रेट गुलाब बाई थिएट्रिकल कंपनी’ के नाम से जो दर्जन भर थियेटर कंपनियां सक्रिय हैं, उनके बीच अश्लीलता, अपसंस्कृति परोसने की जिस तरह प्रतियोगिता चल रही है वह किसी भी कलाप्रेमी के लिए शर्मिंदगी का सबब है। जिस मंच पर कभी देर रात गुलाब के दादरे ‘नदी नारे ना जाओ श्याम पैयां परूँ’ का जादू जागता था, वहां अश्लील गीतों पर स्त्रियों के नंगे-अधनंगे जिस्म थिरका करते हैं। नौटंकी के नाम पर अब जो हो रहा है उसे देखते हुए इस जनप्रिय विधा की मौत की घोषणा तो की ही जा सकती है।
14 जुलाई 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 के एक मामले में हिमांशु कुमार और बारह अन्य लोगों द्वारा दायर एक रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले (तत्कालीन दंतेवाड़ा) के गांवों में आदिवासियों की गैर-न्यायिक हत्याओं की स्वतंत्र जांच की मांग की गई थी। इस हादसे को गोम्पाड नरसंहार के रूप में जाना जाता है जिसमें सितंबर और अक्टूबर 2009 में हुई हिंसा की दो प्रमुख घटनाएं शामिल हैं, जो गोम्पाड और गच्चनपल्ली के गांवों में हुई थीं, जिनके साथ आसपास के गाँव की 2-3 छोटी घटनाओं भी शामिल हैं जिसमें कम से कम 17 आदिवासी मारे गए थे।
सुप्रीम कोर्ट ने इस रिट याचिका को खारिज करते हुए हिमांशु कुमार पर पाँच लाख रुपये का अनुकरणीय जुर्माना लगाया है। साथ ही फैसले में सुझाव दिया है कि छत्तीसगढ़ राज्य / सीबीआई द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की आपराधिक साजिश रचने की धारा और पुलिस और सुरक्षा बलों पर झूठा आरोप लगाने के लिए आगे की कार्रवाई की जा सकती है जिसमें अन्य धराएं भी शामिल करी जा सकती हैं। हमारे जैसे नागरिक समाज संगठन और छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार आंदोलन से जुड़े लोग इस बात से चिंतित हैं कि इस फैसले ने न्यायिक अदालत में न्याय की खोज को ही एक आपराधिक कृत्य बना दिया है। यह निर्णय छत्तीसगढ़, विशेष रूप से बस्तर में पुलिस और सुरक्षा बलों से जवाबदेही की व्यवस्था के अस्तित्व और मानवाधिकारों की वकालत के लिए खतरा है।
हिमांशु कुमार जो कि इस मामले के याचिकाकर्ता नं. 1 हैं, एक गांधीवादी हैं जो बस्तर में तीन दशकों से अधिक समय से काम कर रहे हैं और बस्तर के आदिवासी लोगों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन को उजागर करने में लगातार मदद की है। इस मामले में अन्य बारह याचिकाकर्ता गोम्पाड नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवार के सदस्य हैं। फैसले ने हिमांशु कुमार को निशाना बनाते हुए कहा है कि याचिकाकर्ता नं. 1, जो एक एनजीओ चलाते हैं, इन्होंने यह पूरी याचिका लगाई है जब कि गोम्पड में हुई हत्याओं की और जांच की जरूरत नहीं थी, एक स्वतंत्र एजेंसी की नियुक्ति की तो बात ही छोड़ दीजिए।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 17 सितंबर और 1 अक्टूबर 2009 की दो घटनाओं में गच्चनपल्ली, गोम्पाड, नुलकाटोंग और सिंगनमडगु के जंगल और आसपास के अन्य गांवों के कम से कम 17 आदिवासी लोगों मारे गए और कई अन्य लोगों पर इन हमलों के दौरान प्रताडऩा और बर्बरता हुई। कई मीडिया रिपोर्टों के साथ नागरिक समाज समूहों की तथ्य खोज रिपोर्टें उस क्षेत्र के विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) और कोबरा (सीआरपीएफ) सुरक्षा बलों द्वारा हिंसा की इन घटनाओं को अंजाम देने की पुष्टि करती हैं। पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ यह मामला जैसे सुप्रीम कोर्ट में आगे बढ़ा, तब भी इन हमलों के चश्मदीदों को डराने और प्रताडि़त करने की मीडिया रिपोर्टें सामने आईं थी।
स्वतंत्र जांच की याचिका को खारिज करते हुए यह फैसला नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत उलट कर रख देता है। यह याद किया जाना चाहिए कि लोगों की मांग का ही परिणाम था जब 2011 में सलवा जुडूम के दौरान ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुरम में हुई हिंसक घटनाओं की सीबीआई जांच हुई, और 2015-2016 में बीजापुर और सुकमा जिलों में सामूहिक यौन हिंसा के मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जांच की गई। इन दोनों जांचों ने सुरक्षा बलों द्वारा किए गए सामूहिक हिंसा के ग्रामीणों के आरोपों की पुष्टि की। इसलिए, गोम्पाड हत्याकांड की एक स्वतंत्र जांच की याचिका को खारिज करते हुए, और मुख्य याचिकाकर्ता को कठोर दंड देते हुए, यह निर्णय निष्पक्ष जांच की मांग करने के अधिकार को दरकिनार करता है, और राज्य हिंसा की वास्तविकता को स्वीकार करने से इनकार करता है।
तीन दशकों से अधिक समय से, बस्तर नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच चल रहे युद्ध की भूमि बना हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र के आदिवासी लोगों के लिए एक दुर्गम मानवाधिकार संकट पैदा हो गया है। अदालतों तक पहुचने में अर्चने, संसाधनों की कमी, भाषा की बाधा के साथ-साथ सरकार की संस्थागत इच्छाशक्ति की कमी जैसी संरचनात्मक बाधाओं के कारण बस्तर के आदिवासी लोगों का न्याय तक पहुंच पाना असंभव हो गया है। 2005 के बाद से बस्तर में संकट बढ़ता जा रहा है, जहां हिंसा की कोई भी घटना को रिपोर्ट करना, जांच करना और सत्यापित करना बहुत चुनौतीपूर्ण काम बन गया है। यहां तक कि घटना स्थलों का दौरा करना भी मुश्किल है क्योंकि दक्षिण बस्तर के अधिकांश गांवों में मोटरसाइकिल पे जाने योग्य सडक़ें भी नहीं हैं। पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा बनाया गया भय का वातावरण स्वतंत्र पत्रकारों, शोधकर्ताओं और कार्यकर्ताओं को प्रभावित गांवों में जाने से रोकता है। अक्सर पुलिस का संस्करण ही एकमात्र संस्करण उपलब्ध होता है क्योंकि किसी अन्य स्वतंत्र आवाज को किसी घटना की सच्चाई को स्थापित करने की अनुमति ही नहीं मिलती है। इन परिस्थितियों के कारण बस्तर में हुई हिंसा के बहुत कम मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच पाते हैं।
इस प्रकार बस्तर में न्याय और शांति के लिए आदिवासी लोगों के संघर्ष में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भूमिका और भी महत्वपूर्ण है। हिमांशु कुमार एक ऐसी आवाज हैं जिन्होंने आदिवासी समुदाय को जवाबदेही और न्याय दिलाने में मदद की है। न्याय तक पहुँचने में लोगों को जिन असंख्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और राज्य की संस्थाएं जिन माध्यमों से हिंसा झेलने वाले और उनके चसमदीदों को परेशान करती हैं, और दिल्ली तक पहुँचने वाले एक आद दुर्लभ मामलों में लोगों को कैसे धमकाया जाता है, इन सब को स्वीकार करने और संज्ञान में लेने के बजाय, सुप्रीम कोर्ट ने लोगों को उनकी न्याय की खोज में की गई सहायता का ही अपराधीकरण कर दिया है।
हिमांशु कुमार और अन्य के मामले में निर्णय में कहा गया है कि चूंकि याचिकाकर्ता पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ अपने आरोपों को साबित करने में असमर्थ थे, इसलिए पूरी याचिका में दुर्भावनापूर्ण इरादा है, और यहां तक कि एक आपराधिक साजिश भी हो सकती है। यह तर्क अपने आप में गलत है। यह सर्वविदित है कि साल दर साल अकेले दंतेवाड़ा जिले में नक्सली मामलों में दर्ज आदिवासी व्यक्तियों की बरी होने की दर 95 फीसदी से अधिक है। 2015 में बस्तर सत्र न्यायालय में दर्ज यू ए पी ए के 101 मामलों के एक अध्ययन से पता चला है कि 92 मामलों में लोग बरी हो गए, शेष 9 को अन्य अदालतों में स्थानांतरित कर दिया गया, और एक भी मामले में दोष सिद्ध नहीं हुआ। क्या इसका मतलब यह है कि आपराधिक साजिश के आरोप में बस्तर की पूरी पुलिस को जेल में डाल देना चाहिए?
हम यह जानकर व्यथित हैं कि बस्तर में राज्य पुलिस द्वारा आदिवासी व्यक्तियों को नक्सली होने का आरोप और उन पर दमन और बर्बरता, साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सल समर्थक के रूप में सताने का दुष्चक्र आज भी बदस्तूर जारी है। शांति, न्याय और सत्य के आदर्शों के लिए प्रतिबद्ध, हम निम्नलिखित की मांग करते हैं :
1. कांग्रेस सरकार ने बस्तर में शांति और न्याय को अपने चुनाव अभियान में केंद्रीय मुद्दा बनाया था, इसके तहत गोम्पाड नरसंहार की जांच फिर से शुरू करनी चाहिए। जांच को निष्पक्षता के साथ सुनिश्चित कर, इसका परिणाम सामने रख लोगों को न्याय मिलना चाहिए।
2. हिमांशु कुमार या किसी अन्य याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि इस तरह के गंभीर मामलों में संवैधानिक न्यायालय से निवारण की मांग नागरिक अधिकार के भीतर ही हैं।
3. हम माननीय सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि राज्य के ऐसे अधिकारी जो सद्भावी आशय से काम नहीं करते हैं, उनके संबंध में जवाबदेही न्यायशास्त्र (अकाउनबिलिटी जुरिस्प्रूडन्स) और कानून के तहत समान व्यवहार के सिद्धांत का विस्तार करें।
भवदीय
संयोजक मंडल सदस्य
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन
सुदेश टेकाम, मनीष कुंजाम, बेला भाटिया नंदकुमार कश्यप, विजय भाई , शालिनी गेरा, रमाकांत बंजारे, आलोक शुक्ला
जिला किसान संघ राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (मजदूर कार्यकर्त्ता समिति), आखिल भारतीय आदिवासी महासभा, जन स्वास्थ कर्मचारी यूनियन, भारत जन आन्दोलन, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति (कोरबा, सरगुजा), माटी (कांकेर), अखिल भारतीय किसान सभा (छत्तीसगढ़ राज्य समिति) छत्तीसगढ़ किसान सभा, किसान संघर्ष समिति (कुरूद) दलित आदिवासी मंच (सोनाखान), गाँव गणराज्य अभियान (सरगुजा) आदिवासी जन वन अधिकार मंच (कांकेर) सफाई कामगार यूनियन, मेहनतकश आवास अधिकार संघ (रायपुर) जशपुर जिला संघर्ष समिति, राष्ट्रीय आदिवासी विकास परिषद् (छत्तीसगढ़ इकाई, रायपुर) जशपुर विकास समिति, रिछारिया केम्पेन, भूमि बचाओ संघर्ष समिति (धरमजयगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जब भारतीय मूल के नागरिक विदेशों में राज-काज के हिस्सेदार होते हैं तो वे कैसा चमत्कार कर देते हैं। आजकल ऋषि सुनाक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने की बात तो चल ही रही है लेकिन अमेरिका के प्रतिनिधि सदन (लोकसभा) के एक भारतीय सदस्य ने वह काम कर दिखाया है, जो असंभव-सा लगता था। रो खन्ना नामक सदस्य ने अमेरिका के राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम को भारत पर लागू होने से रूकवा दिया। यह अधिनियम चीन, उत्तरी कोरिया, ईरान आदि देशों पर बड़ी कड़ाई के साथ लागू किया जा रहा है।
इस प्रतिबंध को ‘काट्सा’ कहा जाता है। इसके मुताबिक जो भी राष्ट्र रूस से हथियार आदि खरीदता है, उससे अमेरिका किसी भी प्रकार का लेन-देन नहीं करेगा। तुर्की पर भी काफी दबाव पड़ रहा है, क्योंकि वह रूसी प्रक्षेपास्त्र खरीदना चाहता है। जहां तक भारत का सवाल है, रूस तो भारत को सबसे बड़ा हथियार और सामरिक सामान का विक्रेता है। वह आज से नहीं, शीतयुद्ध के जमाने से है।
अमेरिका के कई विद्वान और नीति-निर्माता भारत को रूस का पि_ू कहते रहे हैं। आजकल भारत ने रूस के साथ एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की खरीद का सौदा किया हुआ है और यूक्रेन संकट के बाद से रूस भारत को तेल भी बड़े पैमाने पर सस्ते दामों पर मुहय्या करवा रहा है। इसके बावजूद रो खन्ना द्वारा लाया गया प्रस्ताव अमेरिकी निम्न सदन ने प्रचंड बहुमत से पारित कर दिया है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने दबी जुबान से इसका इशारा किया था, वरना अमेरिकी राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह स्वविवेक के आधार पर किसी देश को इस प्रतिबंध से मुक्त कर सकता है।
अमेरिका ने भारत के पक्ष में यह एतिहासिक कदम तो उठाया ही, इसके पहले यूक्रेन के सवाल पर उसकी तटस्थता का सम्मान भी किया। इसका मूल कारण यह है कि पश्चिम एशिया और सुदूर-पूर्व एशिया के दो चौगुटों में भारत और अमेरिका कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ काम कर रहे हैं। दोनों देशों में सामरिक सहकार तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। 2008 में भारत-अमेरिकी सामरिक सौदा सिर्फ 50 करोड़ डालर का था। वह अब बढक़र 2000 करोड़ डॉलर का हो गया है।
इस समय रूस और चीन मिलकर ऐसी नीति चला रहे हैं, जैसे वे किसी गठबंधन के सदस्य हों। ऐसे में अमेरिका के लिए भारत को साथ रखना बेहद जरुरी है। भारत और चीन के रिश्तों में इधर जो खटास पैदा हुई है, वह अमेरिका के लिए स्वादिष्ट चटनी की तरह है। दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों में मैत्री-भाव बढ़े, इससे अच्छा क्या हो सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
- रविन्द्र पतवाल
हिमांशु कुमारजी को कुछ वर्षों से जानता हूँ।
एक गांधीवादी होकर भी वे किसी भी जेन्युइन मार्क्सवादी से कम नहीं हैं। उल्टा धरातल पर वे उनसे कहीं बेहतर रूप में देश के सबसे दबे कुचले लोगों के साथ खड़े दिखे।
आज भारत की सर्वोच्च अदालत ने भी देश के आदिवासियों की हत्याओं पर खमोशी की चादर ओढऩी ही बेहतर नहीं समझी, बल्कि उसने आदिवासियों को कोई मदद करने आगे न आये, इसे ध्यान में रखते हुए उल्टा हिमांशु कुमार को ही अपराधी करार दे दिया है। और अदालत का समय खराब करने का आरोप लगाते हुए 5 लाख रूपये का जुर्माना लगा दिया है।
यदि 4 हफ्ते तक यह रुपया अदालत में जमा नहीं किया गया, तो हिमांशु जी को जेल होगी।
वे इसके लिए तैयार हैं।
कई वर्षों बाद एक आदमी भारत में ऐसा मिला जो जेल जाने से अब भी नहीं डरता।
80 के दशक के बाद से इस देश में संघर्ष करने वाले लोगों ने धीरे-धीरे जेल भेजे जाने पर अपने लिए जमानत की व्यवस्था करनी शुरू कर दी थी। इस विचारधारात्मक कमजोरी की शुरुआत ठीक-ठीक किसके द्वारा की गई, पता नहीं। पर आज यह सभी दलों, संगठनों की सबसे पहली जरूरत बन गई है।
व्यवस्था भी इस बात को अच्छी तरह से समझ गई है।
इसीलिए वह नूपुर शर्मा को गिरफ्तार करने के बजाय जुबैर को झूठे आरोपों में गिरफ्तार करवाकर सारा नैरेटिव ही बदलकर रख देती है। अभी तक जो देश नुपुर शर्मा की गिरफ्तारी की मांग कर रहा था, वह अगले ही पल अपनी मांग की तख्ती को फेंक जुबैर के खिलाफ सरकारी तानाशाही के पीछे दौडऩे लगता है।
आपकी बुद्धि का अचार डालकर नाश्ता किया जा रहा है।
हिमांशु कुमार ने कल प्रेस क्लब में आर्टिकल 19 को दिए अपने इन्टरव्यू में साफ-साफ कहा कि वे संविधान, अदालत को बचाने का काम कर रहे हैं, और दो जज इसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं। देश के पास अब सिर्फ अदालत पर ही भरोसा बचा था, उसे भी ये जज तहस नहस कर रहे हैं।
अगर यही हालात रहे तो जनता बिफर सकती है घोर निराशा में।
हिमांशु कुमार ने कहा कि मैं अदालत की अवमानना नहीं बल्कि गलत इरादे से देश को बर्बाद करने में अदालत का दुरूपयोग किये जाने के खिलाफ लड़ता रहूँगा, चाहे इसके लिए मुझे कितनी भी बड़ी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े।
-गिरीश मालवीय
ललित मोदी और सुष्मिता सेन के बीच क्या और कैसे रिश्ते है यह पोस्ट उस बारे में नहीं है। दो वयस्क व्यक्ति अपने निजी जीवन में एक-दूसरे के साथ किस तरह के ताल्लुकात रखते हैं यह उनका निजी मामला है। बात यहां पर ललित मोदी के सार्वजनिक जीवन की हो रही है कि कैसे उन्हें भाजपा से टॉप ऑर्डर नेताओं ने अब तक बचा के रखा है।
ललित मोदी पिछले 12 साल से देश से फरार चल रहे हैं। दरअसल, साल 2008 में ललित मोदी ने ही आईपीएल की शुरुआत की। बतौर चेयरमैन और कमिश्नर उन्हें आईपीएल के आयोजन की जिम्मेदारी दी गई थी।
मोदी के बुरे दिन अप्रैल 2010 की एक रात में उनके ट्वीट के कारण शुरू हुए। आधी रात को अपने किए ट्वीट में उन्होंने तत्कालीन विदेश मंत्री शशि थरूर पर आरोप लगाया कि कैबिनेट मिनिस्टर शशि थरूर कोच्चि टीम की खरीद-फरोख्त के लिए उन पर दबाव डाल रहे हैं। वजह है उनकी तत्कालीन प्रेमिका और मौजूदा पत्नी सुनंदा पुष्कर (मोदी ने इन्हें ही 50 करोड़ की गलफ्रेंड बोला था) जो कि कोच्चि टीम को खरीदना चाहती थीं। थरूर ने उन्हें आगे करके खुद टीम पर पैसा लगा रहे थे। यह खबर आग की तरह फैल गई जिसने बीसीसीआई के टेबल से लेकर दिल्ली की संसद को हिला कर दिया। थरूर कुर्सी से गये और मोदी बीसीसीआई से।
बीसीसीआई ने भी इसके बाद ललित मोदी पर 22 तरह के आरोप लगाए जिनमें अपने परिवार को कॉन्ट्रैक्ट देना, आईपीएल की ब्रॉडकास्टिंग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना, गोपनीयता, नीलामी में धांधली जैसे आरोप शामिल रहे। ईडी यानी एंडोर्समेंट डायरेक्टरेट की जांच के बाद कई और बड़े खुलासे हुए। इन आरोपों के बाद मोदी को 2010 में आईपीएल कमिश्नर के पद से हटा दिया गया था। उसी साल वह देश छोडक़र ब्रिटेन भाग गए। जांच में इन आरोपों को सही पाया गया और 2013 में बीसीसीआई ने उन पर आजीवन बैन लगा दिया। ललित मोदी आज भी फरार चल रहे हैं।
दरअसल ललित मोदी के टम्र्स सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे से बहुत ही अच्छे थे, सिर्फ अरुण जेटली से ही उनकी तनातनी थी।
राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की नेता के रूप में वसुंधरा राजे की ललित मोदी के पक्ष में ब्रिटिश सरकार को चि_ी लिखी थी। उन्होंने ललित मोदी के ब्रिटेन में बने रहने के हर प्रयास को अपना समर्थन दिया था। 2011 में उनकी पहली चि_ी लिखी गई थी। दूसरी चि_ी राजस्थान विधानसभा चुनाव के दौरान 2013 में लिखी थी। एक चि_ी में तो उन्होंने यह भी लिख दिया था उनकी चि_ी और ललित मोदी के समर्थन में कही गई उनकी बात के बारे में भारत सरकार को पता नहीं लगना चाहिए। बाद में वसुंधरा राजे का एक पत्र सामने आया जिसमें उन्होंने ललित मोदी को पद्म सम्मान दिये जाने की सिफारिश की थी।
इसके पहले जब वसुंधरा मुख्यमंत्री थी तब ललित मोदी राजस्थान में सुपर सीएम के रूप में मशहूर हो गए थे। वसुंधरा के बेटे के साथ उनकी कई कंपनियों में पार्टनरशिप भी सामने आई थीं
मुम्बई के पुलिस कमिश्नर रहे राकेश मारिया ने महाराष्ट्र सरकार के सामने यह स्वीकार कर लिया था कि 17 जुलाई 2014 को लंदन में नरेंद्र मोदी से मिले थे। इसी महीने के आसपास सुषमा ने ललित मोदी की मदद की थी। बाद में अरुण जेटली, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने ऐलान किया कि सुषमा स्वराज ने ललित मोदी की मानवीय आधार पर मदद करने के इरादे से उन पर भरोसा करके जो कुछ भी किया उसमें कोई गलत नहीं है। पूरी पार्टी और सरकार सुषमा स्वराज के साथ है। गौर करने की बात यह है कि किसी नेता ने इस बात का खंडन नहीं किया कि सुषमाजी ने ललित मोदी की नियम विरुद्ध मदद की।
ललित मोदी के बचाव में वकीलों की जो टीम उतारी गई थी उसके प्रवक्ता महमूद आब्दी ने दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान यह दावा किया कि भारत में मोदी सरकार ने ललित मोदी के खिलाफ इंटरपोल में कोई नोटिस नहीं निकाला है। जबकि तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि लाइट ब्लू कॉर्नर नोटिस जारी हुआ।
2015 के बाद से मीडिया पूरी तरह से सरकार की भाषा बोलने लगा इसलिए ललित मोदी आराम से अपना निर्वासित जीवन लंदन में जीने लगे, वहां भी वे घोटालों से बाज नहीं आए, कैंसर के इलाज के नाम पर उन्होंने वहां भी एक घोटाला किया।
ललित मोदी और सुष्मिता सेन के एक बार फिर चर्चा में आने के बाद में यह बातें हमारा बिका हुआ मीडिया तो बताने से रहा इसलिए यहां लिख दी है ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत पर सामने आए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद के भाषणों में कौन-से शब्दों का इस्तेमाल सांसद लोग कर सकते हैं और कौन-से का नहीं, यह बहस ही अपने आप में फिजूल है। आपत्तिजनक शब्द कौन-कौन से हो सकते हैं, उनकी सूची 1954 से अब तक कई बार लोकसभा सचिवालय प्रकाशित करता रहा है। इस बार जो सूची छपी है, उसे लेकर कांग्रेस के नेता आरोप लगा रहे हैं कि इस सूची में ऐसे शब्दों की भरमार है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए विपक्षी सांसदों द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं। जैसे जुमलाजीवी, अहंकारी, तानाशाही आदि।
दूसरे शब्दों में संसद तो पूरे भारत की है लेकिन अब उसे भाजपा और मोदी की निजी संस्था का रूप दिया जा रहा है। विरोधी नेताओं का यह आरोप मोटे तौर पर सही-सा लगता है लेकिन वह अतिरंजित है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने साफ़-साफ़ कहा है कि संसद में बोले जाने वाले किसी भी शब्द पर प्रतिबंध नहीं है। सभी शब्द बोले जा सकते हैं लेकिन अध्यक्ष जिन शब्दों और वाक्यों को आपत्तिजनक समझेंगे, उन्हें वे कार्रवाई से हटवा देंगे। यदि ऐसा है तो इन शब्दों की सूची जारी करने की कोई तुक नहीं है, क्योंकि हर शब्द का अर्थ उसके आगे-पीछे के संदर्भ के साथ ही स्पष्ट होता है।
इस मामले में अध्यक्ष का फैसला ही अंतिम होता है। कोई शब्द अपमानजनक या आपत्तिजनक है या नहीं, इसका फैसला न तो कोई कमेटी करती है और न ही यह मतदान से तय होता है। कई शब्दों के एक नहीं, अनेक अर्थ होते हैं। 17 वीं सदी के महाकवि भूषण की कविताओं में ऐसे अनेकार्थक शब्दों का प्रयोग देखने लायक है। भाषण देते समय वक्ता की मन्शा क्या है, इस पर निर्भर करता है कि उस शब्द का अर्थ क्या लगाया जाना चाहिए। इसी बात को अध्यक्ष ओम बिड़ला ने दोहराया है।
ऐसी स्थिति में रोज़ाना प्रयोग होनेवाले सैकड़ों शब्दों को आपत्तिजनक की श्रेणी में डाल देना कहां तक उचित है? जैसे जुमलाजीवी, बालबुद्धि, शकुनि, जयचंद, चांडाल चौकड़ी, पि_ू, उचक्का, गुल खिलाए, दलाल, सांड, अंट-संट, तलवे चाटना आदि! यदि संसदीय सचिवालय द्वारा प्रचारित इन तथाकथित ‘आपत्तिजनक’ शब्दों का प्रयोग न किया जाए तो संसद में कोई भी भाषण पूरा नहीं हो सकता।
इसीलिए इतने सारे शब्दों की सूची जारी करना निरर्थक है। हां, सारे सांसदों से यह कहा जा सकता है कि वे अपने भाषणों में मर्यादा और शिष्टता बनाए रखें। किसी के विरुद्ध गाली-गलौज, अपमानजनक और अश्लील शब्दों का प्रयोग न करें। जिन शब्दों को ‘असंसदीय’ घोषित किया गया है, उनका प्रयोग हमारे दैनंदिन कथनोपकथन, अखबारों और टीवी चैनलों तथा साहित्यिक लेखों में बराबर होता रहता है।
यदि ऐसा होता है तो क्या यह संसदीय मर्यादा का उल्लंघन नहीं माना जाएगा? इस तरह की सूची प्रकाशित करके क्या संसद अपनी प्रतिष्ठा को हास्यास्पद नहीं बना रही है? भारत को ब्रिटेन या अमेरिका की नकल करने की जरुरत नहीं है। ये राष्ट्र आपत्तिजनक शब्दों की कोई सूची जारी करते हैं तो क्या हम भी उनकी नकल करें, यह जरुरी है? इस मामले में हमारे सत्तारुढ़ और विपक्षी नेता एक फिजूल की बहस में तू-तू—मैं-मैं कर रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्ष ने घोषणा की थी कि वे 13 जुलाई को अपने पद से इस्तीफा देंगे लेकिन अभी तक वे श्रीलंका से भागकर कहां छिप रहे हैं, इसी का ठीक से पता नहीं चल रहा है। कभी कहा जा रहा है कि वे मालदीव पहुंच गए हैं और अब वहां से वे मलेशिया या सिंगापुर या दुबई में शरण लेंगे। इधर श्रीलंका में प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ अपने आप कार्यवाहक राष्ट्रपति बन गए हैं। उन्हें किसने कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया है, यह भी पता नहीं चला है।
वैसे माना जा रहा था कि उन्होंने भी प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। वे कहां से राज चला रहे हैं, यह भी नहीं बताया गया है। राष्ट्रपति भवन में जनता ने कब्जा कर रखा है और रनिल के घर को भी जला दिया गया है। रनिल विक्रमसिंघ को श्रीलंका में कौन कार्यवाहक राष्ट्रपति के तौर पर स्वीकार करेगा? अब तो श्रीलंकाई संसद ही राष्ट्रपति का चुनाव करेगी लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस संसद की कीमत ही क्या रह गई है? राजपक्ष की पार्टी की बहुमतवाली संसद को अब श्रीलंका की जनता कैसे बर्दाश्त करेगी?
विरोध पक्ष के नेता सजित प्रेमदास ने दावा किया है कि वे अगले राष्ट्रपति की जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं लेकिन 225 सदस्यों की संसद में राजपक्ष की सत्तारुढ़ पार्टी की 145 सीटें हैं और प्रेमदास की पार्टी की सिर्फ 54 सीटें हैं। यदि प्रेमदास को सभी विरोधी दल अपना समर्थन दे दें तब भी वे बहुमत से राष्ट्रपति नहीं बन सकते। सजित काफी मुंहफट नेता हैं। उनके पिता रणसिंह प्रेमदास भी श्रीलंका के प्रधानमंत्री रहे हैं। उनके साथ यात्रा करने और कटु संवाद करने का अवसर मुझे कोलंबो और अनुराधपुरा में मिला है।
वे भयंकर भारत-विरोधी थे। इस समय सबको पता है कि भारत की मदद के बिना श्रीलंका का उद्धार असंभव है। यदि सजित प्रेमदास संयत रहेंगे और सत्तारुढ़ दल के 42 बागी सांसद उनका साथ देने को तैयार हो जाएं तो वे राष्ट्रपति का पद संभाल सकते हैं लेकिन राष्ट्रपति बदलने पर श्रीलंका के हालत बदल जाएंगे, यह सोचना निराधार है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि इन बुरे दिनों में श्रीलंका की प्रचुर सहायता के लिए चीन आगे क्यों नहीं आ रहा है?
राजपक्ष परिवार तो पूरी तरह चीन की गोद में ही बैठ गया था। चीन के चलते ही श्रीलंका विदेशी कर्ज में डूबा है। चीन की वजह से अमेरिका ने चुप्पी साध रखी है। लेकिन भारत सरकार का रवैया बहुत ही रचनात्मक है। वह कोलंबो को ढेरों अनाज और डॉलर भिजवा रहा है। भारत जो कर रहा है, वह तो ठीक ही है लेकिन यह भी जरुरी है कि वह राजनीतिक तौर पर जरा सक्रियता दिखाए।
जैसे उसने सिंहल-तमिल द्वंद्व खत्म कराने में सक्रियता दिखाई थी, वैसे ही इस समय वह कोलंबो में सर्वसमावेशी सरकार बनवाने की कोशिश करे तो वह सचमुच उत्तम पड़ौसी की भूमिका निभाएगा। जऱा याद करें कि इंदिराजी ने 1971 में प्रधानमंत्री श्रीमावो बंदारनायक के निवेदन पर रातोंरात उनको तख्ता-पलट से बचाने के लिए केरल से अपनी फौजें कोलंबो भेज दी थीं और राजीव गांधी ने 1987 में भारतीय शांति सेना को कोलंबो भेजा था। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मु का समर्थन करेगी। यह अपने आप में एक खबर है, क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि जिस भाजपा के चलते ठाकरे की सरकार चलती बनी, उसी भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन उन्हें करना पड़ रहा है। वे कहते हैं कि यह समर्थन उन्होंने मजबूरी में नहीं किया है। पहले भी उन्होंने प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था, जबकि ये दोनों कांग्रेस के उम्मीदवार थे और शिवसेना भाजपा के साथ गठबंधन में थी। उद्धव ठाकरे का यह तर्क मजबूत दिखाई पड़ता है लेकिन इस बार दो कारण से जो पहले आजादी थी, वह अब शर्मनाक मजबूरी बन गई है। पहला तो यह है कि इस बार भाजपा ने आपको अपदस्थ कर दिया है।
फिर भी आप उसके उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं। दूसरा आपके सांसदों में से ज्यादातर ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि वे मुर्मु का समर्थन करेंगे। यदि ठाकरे अपने सांसदों की बात नहीं मानते तो उन्हें पता था कि वे सब दल-बदल करके भाजपा में शामिल हो जाते। अपनी बची-खुची पार्टी को बचाए रखने के लिए यही व्यावहारिक कदम था। अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि मुर्मु जीतेंगी और यशवंत सिंहा हारेंगे। सिर्फ ठाकरे की शिवसेना ही नहीं कई राज्यों की प्रांतीय पार्टियां भी अब खुलकर मुर्मु के समर्थन में आ गई हैं। बहुजन समाज पार्टी, देवेगौड़ा का जनता दल, अकाली दल और झारखंड की जेएमएम भी भाजपा के उम्मीदवार का समर्थन करेगी। तेलंगाना राष्ट्र समिति ने सिंहा के समर्थन की घोषणा की है लेकिन ओडिशा की पटनायक सरकार मुर्मु का समर्थन करेंगी। कोई आश्चर्य नहीं कि आप पार्टी के नेता भी मुर्मु का समर्थन कर दें, क्योंकि कांग्रेस के साथ उनकी पंजाब और दिल्ली में तगड़ी लड़ाई है।
जहां तक ममता बेनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का सवाल है, यशवंत सिंहा उसी के पदाधिकारी थे और ममता ने ही सिंहा को राष्ट्रपति पद के लिए आगे बढ़ाया था लेकिन उनकी टक्कर में एक आदिवासी और वह भी एक महिला को देखकर उनकी उलझन ज्यादा बढ़ गई है, क्योंकि एक तो वे खुद महिला है और दूसरा तृणमूल कांग्रेस के पांच सांसद आदिवासी हैं। प. बंगाल की लगभग 40 सीटें ऐसी हैं, जिनमें आदिवासी मतदाताओं के थोक वोट ही उम्मीदवारों को विजयी बनाते हैं। ऐसे में ममता बेनर्जी का ढीला पडऩा समझ में आता है। इसीलिए वे यशवंत सिंह से बंगाल-यात्रा का आग्रह भी नहीं कर रही हैं। ममता के इस बयान से भी उनकी दुविधा झलकती है कि यदि भाजपा चाहती तो द्रौपदी मुर्मु के नाम पर सर्वदलीय सहमति हो सकती थी। यशवंत सिंहा भी जानते हैं कि वे विपक्ष के उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति का चुनाव नहीं जीत पाएंगे लेकिन इतने सुयोग्य उम्मीदवार के बहाने विपक्ष जो अपनी एकता स्थापित करना चाहता है, अब वह भी दूर की कौड़ी मालूम पड़ रही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
रामलाल पटेल जी (परिवर्तित नाम) का गांव सारंगढ़ के पास ही है। वे गांव के सम्पन्न किसान हैं। पूर्वज गांव के गौंटिया रहे सो यह उपाधि रामलालजी की विरासत बनी।
गांव में इनी-गिनी मोटर साइकिलें थीं जिनमें से एक के मालिक रामलाल जी थे। उस मोटरसाईकिल पर दिन में एक बार सारंगढ़ का चक्कर लगाना उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था। गांव वाले इनकी समझदारी, जानकारी और सम्पर्कों का बड़ा सम्मान करते थे। बाहरी दुनिया के लिए बाकी ग्रामीण इन्हें अपने गांव का ब्रांड ऐम्बैसेडर मानते थे। भोले ग्रामीण बाहरी, विशेषकर सरकारी दुनिया से सरोकार रखने वाले किसी प्रपंच में फंसने पर सलाह मांगने इन्हीं के पास पहुंचते थे।
गांव के बहुतेरों के लिए रामलाल गौंटियाजी किसी ‘गुरू’ से कम नहीं थे। किन्तु स्वयं रामलाल जी से यह प्रश्न पूछा जाता तो वे बताते जीवन का कम से कम एक पाठ तो उन्हें पुलिस ने पढ़ाया है। हुआ यूं कि कुछ वर्ष पहले गौंटियाजी के गांव में एक महिला की हत्या हो गयी। मौके पर पुलिस पहुंची, जांच-पड़ताल की और मृतका के शरीर से कुछ स्वर्ण-आभूषण जब्त कर वापस आ गयी। अगले दिन आदत के अनुसार गौंटियाजी अपनी मोटर साइकिल पर थाने के सामने से गुजऱ रहे थे कि थानेदार ने आवाज देकर अंदर बुला लिया।
गौंटियाजी को एक मुस्कराहट के साथ बैठने के लिए कुर्सी ऑफऱ की। पास की दुकान के लडक़े को चिल्लाकर चाय का ऑर्डर दिया।
थानेदार ने बताया कि मृत महिला के शरीर से प्राप्त आभूषण कितने महत्वपूर्ण सबूत हैं। आभूषणों को लिफाफे में रखकर सीलबंद किया जा रहा था और थानेदार साहब चाहते थे कि इतने महत्वपूर्ण कार्य की तस्दीक भी किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के हाथों ही हो। तब तक चाय आ गई थी। थानेदार ने बात समेटते हुए कहा : गौंटियाजी आपसे अधिक प्रतिष्ठित और जिम्मेदार व्यक्ति तो कोई हो ही नहीं सकता सो आप स्वयं तसल्ली कर बतौर गवाह हस्ताक्षर कर दें।
अचानक मिले सम्मान और महत्व से कुछ क्षणों के लिए असहज हुए गौंटियाजी ने शर्ट का कॉलर ठीक किया, देखा सब कुछ ठीक ठाक है, हस्ताक्षर किए, चाय समाप्त की, और बाहर आ गये।
कुछ दिनों के बाद गौंटियाजी को रायगढ़ की जिला अदालत से समन प्राप्त हुआ। सुबह छह बजे घर से निकले। सारंगढ़ बस स्टैंड में नाश्ता किया, पान बंधवाये, मोटर साइकिल छोड़ी और बस में बैठकर रायगढ़ और वहां रिक्शे पर बैठकर ठीक ग्यारह बजे अदालत पहुंच गये। सुबह के नाश्ते और हाथ में पान के पैकेट ने समय व्यतीत करने में सहायता की। शाम पांच बजे पता चला पेशी टल गयी है। रात दस बजे गौंटियाजी वापस घर पहुंचे। और उसके बाद पेशियों और इस तरह की दिनचर्या का सिलसिला चल निकला। कभी वकील साहब नहीं पहुंचे तो कभी जज साहब छुट्टी पर रहे, तो कभी कोई और कारण।
सत्रह पेशियों के बाद एक दिन गौंटियाजी की बारी आयी। हस्ताक्षर दिखा कर पूछा गया ‘आपके हैं?’। इन्होंने कहा ‘हां’ और आ गये।
वो दिन और आज का दिन। मजाल है कि कोई पुलिस वाला चाय पिलाकर गौंटियाजी से कहीं हस्ताक्षर करवा ले। अब गौंटियाजी सयाने हो चुके हैं।
आज गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरुओं के प्रति आभार प्रदर्शन का सिलसिला चला हुआ है। मुझे विश्वास है गौंटियाजी ने एक धन्यवाद संदेश गुरू थानेदार साहब को भी भेजा होगा।
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)