विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर भारत सरकार ने मुसलमानों, ईसाइयों आदि को भी जातीय आधार पर आरक्षण देने के सवाल पर एक आयोग बना दिया है और उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक के मुखिया मोहन भागवत ने एक पुस्तक का विमोचन करते हुए भारत में ‘जात तोड़ो’ का नारा दिया है। उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा है कि हिंदू शास्त्रों में कहीं भी जातिवाद का समर्थन नहीं किया गया है। भारत में जातिवाद तो पिछली कुछ सदियों की ही देन है। भारत जन्मना जाति को नहीं मानता था। वह कर्मणा वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करता था।
कोई भी आदमी अपने कर्म और गुण से ब्राह्मण बनता है। मोहनजी स्वयं ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए हैं। उनकी हिम्मत की मैं दाद देता हूं कि उन्होंने जन्म के आधार को रद्द करके कर्म को आधार बताया है। भगवद्गीता में भी कहा गया है- ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।’ याने चारों वर्णों का निर्माण मैंने गुण और कर्म के आधार पर किया है।
यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी अपने महान ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ में जो तीन वर्ण बताए हैं, वे जन्म नहीं, कर्म के आधार पर बनाए हैं। मनुस्मृति में भी बिल्कुल ठीक कहा गया है कि ‘जन्मना जायते शूद्र:, संस्कारात द्विज उच्यते’ याने जन्म से सभी शूद्र पैदा होते हैं, संस्कार से लोग ब्राह्मण बनते हैं। यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में भी कहा गया है कि ईश्वर के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और पांव से शूद्र पैदा हुए हैं लेकिन शूद्र भी उसी तरह से वंदनीय हैं, जैसे कि अन्य वर्णों के लोग हैं।
इसीलिए भारतीय लोग ‘चरण-स्पर्श’ को सबसे अधिक सम्मानजनक मानते हैं। भारत की यह वैज्ञानिक वर्ण-व्यवस्था इतनी स्वाभाविक है कि दुनिया का कोई देश इससे वंचित नहीं रह सकता। यह सर्वत्र अपने आप खड़ी हो जाती है लेकिन हमारे पूर्वज कुछ सदियों पहले इसे आंख मींचकर लागू करने लगे। यह भ्रष्ट हो गई। इसीलिए निकृष्टतम जातीय व्यवस्था भारत में चल पड़ी है।
मोहन भागवत को चाहिए कि वे इसके खिलाफ सिर्फ बोलें ही नहीं, भारत की जनता को कुछ ठोस सुझाव भी दें। सबसे पहले तो जातीय उपनामों को खत्म किया जाए। जातीय आरक्षण बंद किया जाए। सुझाव तो कई हैं। मैंने 2010 में जब ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन चलाया था, तब कई ठोस सुझाव देश की जनता को दिए थे। उस आंदोलन के कारण ही प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और सोनिया गांधी ने जातीय जन-गणना को रूकवा दिया था।
उस आंदोलन में मेरे साथ आगे-आगे रहनेवालों में कई नेता आज राज्यपाल, मंत्री और सांसद हैं। उन दिनों नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। वे अक्सर मुझे फोन किया करते थे और डटकर समर्थन देते थे लेकिन वोट और नोट की मजबूरी ने हमारी राजनीति की बधिया बिठा दी है। अब यह राष्ट्रवादी सरकार मुसलमानों और ईसाइयों को जातीय आधार पर आरक्षण देने के लिए तैयार हो गई है। मुझे खुशी है कि संघ-प्रमुख राष्ट्रीय एकात्म के लिए खतरनाक बन रहे इस मुद्दे पर कम से कम उंगली तो उठा रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
गृहमंत्री अमित शाह ने बारामूला में हजारों कश्मीरियों को साक्षात संबोधित किया और अपने भाषण में आंकड़ों का अंबार लगाकर मोदी-शासन की सफलता का बखान किया लेकिन उन्होंने अब्दुल्ला, मुफ्ती और नेहरु-परिवार के शासन को काफी निकम्मा सिद्ध करने की कोशिश की। यह बात तीनों परिवारों को काफी चुभ रही है। नेशनल कांफ्रेंस के नेता डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने तो तुरंत उसका जवाब देने की कोशिश की। महबूबा मुफ्ती और कांग्रेस भी चुप नहीं बैठेगी। शायद गुलाम नबी आजाद भी कुछ बोल पड़ें तो आश्चर्य नहीं होगा।
अब्दुल्ला ने शाह की तरह न तो कोई आरोप लगाया है और न ही केंद्र की भाजपा सरकार पर कोई आक्रमण किया है। उन्होंने तो अपने बयान में सिर्फ यह बताया है कि उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस ने श्रीनगर में कुल 26 साल राज किया है और उन वर्षों में उसने कश्मीर का काया-पलट कर दिया है। उनकी सरकार ने न केवल नए-नए कल-कारखाने लगवाए, कई कॉलेज और विश्वविद्यालय बनवाए, अस्पताल खुलवाए, पंचायती राज स्थापित किया, बिजलीघरों और बांधों का निर्माण करवाया। लाखों लोगों को रोजगार दिया और लोक-कल्याण के लिए कई नए संगठन खड़े किए हैं।
फारूक अब्दुल्ला ने जो तथ्य और आंकड़े पेश किए हैं, उनकी प्रामाणिकता पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है लेकिन यह भी तथ्य है कि कश्मीर को केंद्र सरकारों ने जितनी मदद दी है, उसमें से कुछ हिस्सा नेताओं और अफसरों की जेब में जाता रहा है लेकिन यह किस सरकार में नहीं होता? कश्मीरी नेताओं पर भ्रष्टाचार के मुकदमे चल रहे हैं तो देश के कई मुख्यमंत्री और मंत्री जेल की हवा भी खाते रहे हैं लेकिन अमित शाह अपने विरोधियों पर जमकर नहीं बरसें तो वे किसी पार्टी के नेता कैसे माने जाएंगे लेकिन अमित शाह और देश के अन्य सभी नेतागण यह भी सोचें कि अपने विरोधियों की सिर्फ भर्त्सना करना और वह भी तीखी भाषा में, क्या यह ठीक है?
यदि अमित शाह उनकी भर्त्सना करते-करते यह भी, चाहे दबी जुबान से ही, कह देते कि कश्मीर-जैसी बीहड़ जगह में इन पार्टियों का कुछ न कुछ अच्छा योगदान रहा है तो अब जो दंगल शुरु हो रहा है, वह नहीं होता। इन तीनों परिवारों की सरकारों ने कश्मीर को कभी पाकिस्तान के हवाले करने की बात नहीं की। मैं तो यहां तक कहता हूं कि कश्मीर की सभी पार्टियों और अलगाववादियों से भी भारत सरकार सीधी बात क्यों नहीं चलाए? अमित शाह ने यों भी उन्हें आश्वस्त किया है कि वे जम्मू-कश्मीर में शीघ्र चुनाव करवाना चाहते हैं। वे यह भी न भूलें कि धारा 370 हटाते वक्त शाह ने संसद को आश्वस्त किया था कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा को फिर से शीघ्र ही चालू किया जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
मौजूदा हालात में लेखनी की भूमिका को लेकर देश बहुत उम्मीदजदा है। यह संकुल समय फिलवक्त आज़ाद भारत के निजाम के द्वारा अंधेरे में घनीभूत कर दिया गया है। वैसा तो गुलामी से छूटते आज़ादी के आंदोलन के वक्त भी नहीं रहा था। स्वतंत्रता संग्राम के सिपहसालारों में जनसमर्थन से उन सभी वर्जनाओं से लडऩे का माद्दा और ताब रहा है, जो भारत को उसकी बुनियादी समझ में कमजोर करना चाहती रही थीं। आज लेकिन निजाम की (भी) हरकतों से शह पाकर बुद्धिमयता के इलाके में व्हाट्सएप विश्वविद्यालय का चौकस पहरा सत्तानशीनों द्वारा ही बिठा दिया गया है। भविष्य को संभावित त्रासदी की आशंका में हिचकी आ रही है। उन दिनों कई अखबारों ने भी बौद्धिक उथलपुथल बल्कि क्रांति तक की थी। हम जैसे कुछ लोग गुलामी के दिनों में पैदा होकर नेहरू के प्रधानमंत्री काल में बालिग होते किताबों से साक्षात्कार करने लगे थे।
आज प्रिंट मीडिया को नागरिक लेखन के कॉलम या स्वतंत्र वैचारिक लेखन के योगदान की ज़रूरत नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो ढिंढोरची शब्द का पर्याय है। वह केवल तानाशाह का स्तुति-गायन करता है। वह भी चारण और भाट की मुद्रा, भाषा और शैली में। ऐसे वक्त ‘निरस्त पादपे देशे एरंडोपि द्रुमायते‘ की तरह छोटे छोटे कस्बों में लघु पत्र पत्रिकाएं, सोशल मीडिया के दोहन और यहां वहां हो रही सभाओं, गोष्ठियों में हिन्दुस्तान की धडक़नों को जिंदा रखने की श्लाघनीय कोशिशें हो तो रही हैं। मैं निजी तौर पर ज़्यादातर फेसबुक का ही इस्तेमाल कर पाता हूं क्योंकि औपचारिक मीडिया तो वस्तुपरक, स्वतंत्र विचारों को अब घास नहीं डालता। पहले सैकड़ों, हजारों बुद्धिमित्रों से गलबहियां करना उसको अलबत्ता अच्छा लगता था। बहुत से रचनाकार फिलवक्त अपनी कविताओं, कहानियों, आलोचनात्मक टिप्पणियों, कटाक्ष और पारस्परिक प्रशस्ति वाचन के कथनों वगैरह में ज़्यादा मशगूल हैं। बहुत कम लोग इस बात से पीडि़त नजर आते हैं कि व्यवस्था उनकी जबान पर ताला लगाने को पहले से ज्यादा और लगातार उद्यत हो रही है। ऐसे दोस्त जीवन की चुनौतियों की अनदेखी करते अपने वजूद को टाइम पास नहीं बनाते।
ये ही वे आवाजें हैं, जो वक्त के शोरगुल में सुनी जा रही हैं। शोरगुल और अहंकार के अट्टहास के बावजूद कई कलमकार अपने तेवर और स्टैंड को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। इतिहास को भी उनकी ज़रूरत है। ऐसे लोगों की ज़रूरत हर देश में इतिहास के हर दौर में रहती ही है। वे अलग अलग और एकजुट होकर, गैरसमझौताशील होकर (भी) अपने वस्तुपरक और तटस्थ लेकिन सक्रिय स्वायत्तता को समर्पण करते नहीं डालते। ऐसे मित्र बाकायदा परस्पर आह्वान की मुद्रा में आज भी हैं। जब टिटहरी उलटकर आकाश को अपने पैरों पर थामने का अहसास अपने में भर लेती है। तो हम सबको मिल जुलकर जिंदा रहने का संवैधानिक और सामाजिक जज़्बा भूलना नहीं है। इन दिनों कुछ ताकतों ने देश की छाती पर मूंग दलने का अभियान सघन कर रखा है। उनकी मुखालफत करने फासिस्ट और नाजीवादी विशेषणों के खिलाफ बुद्धिजीवी कहीं न कहीं, लेकिन साफ पाक मकसद से लामबंद हो भी रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति को फलसफाई अंदाज में कहना और उसे बूझना एक अच्छा शगल अपनी जगह ठीक है। देश को तो फासीवादी और नाजीवादी ताकतों के भारतीय नुमाइंदों से सीधा खतरा है। जांच, जिरह और जिज्ञासा उनके लिए ज़्यादा ज़रूरी है।
मैं छत्तीसगढ़ से हूं। यहां 32 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। प्रतिशत के लिहाज से शायद देश में सबसे ज्यादा आदिवासी यहां हैं। आरक्षण की विसंगतियों को लेकर कई मुकदमे एकजाई कर पिछले दस साल से छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में बिसूर रहे थे। लेटलतीफी और हड़बड़ाहट में जागना यह न्यायालयों के लिए नई परिघटना नहीं है। दस वर्षों अर्थात् वर्ष 2012 तक सरकार के जवाब अदालत की नस्ती में बंधे हुए रहे हैं। उन्हें दुबारा देखने की ज़रूरत 2018 से आ चुकी पार्टी की सरकार को नहीं पड़ी। लिहाजा कुछ तकनीकी खामियों और सरकारी दफ्तर की ढिलाई या लापरवाही के आरोप के लगने के साथ-साथ हाई कोर्ट ने 32 प्रतिशत की आबादी वाले आदिवासियों का नौकरी और शिक्षा में आरक्षण हटाकर पहले ठहराए गए 20 प्रतिशत के आधार पर फिर कायम कर दिया गया है। हाई कोर्ट ने सरकार की असमर्थता पर तीखी टिप्पणी भी की कि उसने अदालत को अपनी जिम्मेदारियों के मद्देनजऱ आश्वस्त नहीं किया। अब करोड़ों रुपए खर्च करके सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में सबसे महंगे वकीलों की टीम के जरिए मुकदमा लड़े जाने की बातें तैर रही हैं। सरकारों के विधि मंत्री, विधि सचिव, एडवोकेट जनरल, आदिवासी मंत्रणा परिषद जैसी संस्थाएं सफेद हाथी नहीं हैं। फिर भी उनकी जिम्मेदारी तय नहीं होती।
बताना ज़रूरी है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों से ज़्यादा अन्यायग्रस्त, व्यवस्था पीडि़त और कुपोषित तथा यंत्रणा भोगता आबादी का और कोई हिस्सा देश में शायद ही हो। कॉरपोरेट-सरकार गठजोड़ का घिनौना, वीभत्स चेहरा देखना हो। तो आइए छत्तीसगढ़! यहां कॉरपोरेट-सरकार गठजोड़ आपसे कहेगा ‘यह छत्तीसगढ़ है। आइए मुस्कराइए।‘ सबसे बड़े आदिवासी भौगोलिक क्षेत्र बस्तर में आदिवासियों की छाती पर लोहे की खदानें खोदी ही जाती रही हैं। उससे आदिवासी का कोई सीधा आर्थिक या मालिकी हक का संबंध नहीं हो पाया। बड़ी मुश्किल से टाटा जैसे भारी भरकम कॉरपोरेट को अपना कारखाना खोलने से बस्तर में रोका जा सका। बहुत पहले इंदिरा गांधी ने शाल वनो के द्वीप बस्तर में पाइन परियोजना को खारिज कर बायो डाइवर्सिटी के मानक प्रतिमानों का बचाव कर दिया था। बोधघाट परियोजना को लेकर प्रदेश की हर सरकार की एक के बाद एक लार टपकती रही हैै। इसमें करोड़ों, अरबों का निवेश जो हो सकता है। बस्तर के कुदरती जल स्त्रोतों की कीमत पर वहां से बाहर भी पानी का उपयोग सिंचाई या अन्य कामों के लिए किए जा सकने के सरकारी आश्वासन, प्रलोभन और ऐलान वाचाल रहे हैं।
यह बस्तर है जो भारत में सबसे बड़ा नक्सल लैंड है। कांग्रेस के शासनकाल में केन्द्रीय गृह मंत्री रहे पी. चिदंबरम ने माओवादी लाल क्रांति के मुकाबले सरकारी सेना के दम पर ‘ग्रीन हंट‘ नाम का हिंसक शब्द ईजाद किया था। ऐसा कहा जाता है। (शायद) 700 से ज्यादा गांव अब भी नक्सली खौफ में वर्षों से खाली हो चुके हैं। सलवा जुड़ूम नाम का कांग्रेस-भाजपा का औरस पुत्र सरकार, कॉरपोरेट और पुलिस की तिहरी ताकत के बल पर नक्सलियों की आड़ में आदिवासियों को नेस्तनाबूद करता रहा। भला हो समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर और अन्य जागरूक नागरिकों का जिनकी याचिका के कारण सुप्रीम कोर्ट के आलिम फाजि़ल और प्रबुद्ध जज सुदर्शन रेड्डी ने सलवा जुडूम के मनुष्य विरोधी आचरण का अपने फैसले के जरिए पर्दाफाश कर छत्तीसगढ़ को राहत तो दी। साथ ही 16 वर्ष से छोटे आदिवासी बच्चें को पुलिसिया नौकरी में गैर मानवीय आधारों पर भर्ती करते रहने की सरकारी मुहिम को चोट भी की। सूरते हाल यह रहा है कि कभी बस्तर में वहां के वनोत्पाद एक किलो चिरौंजी को एक किलो नमक के बदले व्यापारी खरीदते रहे हैं। अब तो वनोत्पाद सहित खनिज और जल और अन्य सभी उत्पादों पर सरकार का अधिकार और नियंत्रण है। यही हाल अन्य आदिवासी बहुल जिलों सरगुजा संभाग में और रायगढ़ जिले वगैरह में भी है। आदिवासी जिस हाल में हैं, वह कविता नहीं है। भयानक दौर का वीभत्स चेहरा है।
यह समझना है कि आदिवासियों को जितना पुश्तैनी संवैधानिक हक मिलना था, वह दरअसल नहीं ही मिला। आदिवासियों की लंबी जद्दोजहद के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में संविधान के 73 वें संशोधन के जरिए और फिर बाद में 1996 में पेसा (अधिनियम) बनवाकर आदिवासियों के हक की संवैधानिकता को अर्थमयता देने की शुरुआत की गई। तर्क यह है कि आदिवासी भारत के सबसे पुराने नागरिक हैं। वन क्षेत्र में उनका पुश्तैनी अधिकार केवल सीमित होकर सांस्कृतिक और कलागत होने में नहीं है। इन इलाकों में उनका मालिकी, कृषि संबंधी और वनोत्पाद पर भी शुरुआत से हक रहा है। पेसा (अधिनियम) में आर्थिक, सामाजिक अधिकारों पर कटौती कर उनके सांस्कृतिक और पारंपरिक लक्षणों भर को समझने की आधी अधूरी बात कही गई है। राज्य सरकार ने पेसा में थोड़ा बहुत आधे अधूरे अधिकार आदिवासी इलाकों की ग्राम सभाओं को बरायनाम दिए हैं। उन्हें भी अमल में लाने के नाम पर ढांचागत कटौती कर छीन लिए जाने जैसी स्थिति बना दी गई है। उससे आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को लेकर वही ढाक के तीन पात जैसी हालत है। अंगरजों के वक्त से हर दस वर्ष में होने वाली जनगणना में ‘जातीय/धर्म‘ के कॉलम में आदिवासी अपने नाम के आगे ‘आदिवासी‘ या ‘सरना धर्म‘ लिखते रहे हैं।
फिलवक्त वह कॉलम ही मिटा दिया गया है। आदिवासी को धर्म के कॉलम में हिन्दू धर्म लिखने की बाध्यता के प्रावधान का यह तिलिस्म है। यह एक राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक या सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी प्रक्षेपण का नमूना है।
एक अन्य छत्तीसगढ़ी आदिवासी क्षेत्र हसदेव कछार में अवांछित अतिथि कॉरपोरेटी गौतम अडानी की धमक के साथ योजना पर अमल शुरू हो गया है। कोरबा, सरगुजा इत्यादि इलाके के घने वन क्षेत्र में वन्य पशुओं के जीवन और रहवास की कीमत पर पहले से कार्यरत दक्षिण पूर्वी कोल फील्ड्स की खदानों को अडानी को भी कोयला आपूर्ति करने के लिए खोला जा रहा है। इस सिलसिले में हजारों लाखों तरह तरह के पेड़ काट डाले जाएंगे। आदिवासियों बल्कि पालतू और वन्य पशुओं का जीवनयापन भी खतरे के निशान तक पहुंच चुका है। सरकारी फरमान है कि कोयले से बिजली बनाई जाएगी जिसे करार के अनुसार राजस्थान विद्युत मंडल को अदानी कम्पनी के मार्फत देना है क्योंकि कथित तौर पर राजस्थान में बिजली की आपूर्ति में कमी है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों का केन्द्र की भाजपा सरकार के साथ अदानी के लिए पारस्परिक एका है। हजारों किसान और आदिवासी वर्षों से अहिंसक प्रदर्शन और सत्याग्रह कर रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी उनके पक्ष में अभिवचन दो टूक किया ही है। फिर भी पुलिसिया बल लगाकर हजारों पेड़ अभी तक काट दिए गए हैं। सरकार को कॉरपोरेटियों की सलाह और शह पर हजारों के बाद लाखों की संख्या गिनना भी आता है। देश का सबसे हरा भरा इलाका कॉरपोरेटी लिप्सा के कारण सरकार की ताकत के बल पर एक रेगिस्तान में बदल सकता है। मौसम और जलवायु परिवर्तन तो होगा ही। सूखा भी आएगा। सारा कोयला खुद जाएगा। तो भूकंप को भी न्योता दिया जा सकेगा। क्या ज़रूरत है इस तरह और इतना विनाश करने और उसे विकास का नाम देने की? आज़ाद भारत में सरकार तो वह है जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान के नागरिक अधिकारों को अंगरेजों से भी ज्यादा कू्ररता के साथ कुचल दे। आलोक शुक्ला जैसे कई एक्टिविस्ट हैं जो जी जान से छत्तीसगढ़ को बचाने के लिए लड़ रहे हैं, हजारों आदिवासियों के साथ।
बस्तर जैसी अति संवेदनशील इन्सानी बसाहट में लंबे अरसे से राष्ट्रीय जनजागरण के लिए अपना सब कुछ खतरे में डालते कुछ अभिव्यक्तिकारों के योगदान को लोग जानते रहें। वर्षों तक बस्तर में कलेक्टर और बाद में भारत सरकार के आदिम जाति आयोग के कमिश्नर रहे ब्रह्मदेव शर्मा ने आदिवासियों के उत्थान के लिए असाधारण योगदान किया है। कांग्रेस, भाजपा और उद्योगपति नेता-तिकड़ी ने इतनी असभ्यता की कि डॉ. शर्मा को निर्वस्त्र कर जगदलपुर की सडक़ों पर चलाया गया। आदिवासी विषयों के अध्येता के रूप में केन्द्र सरकार ने बार बार उनका सहयोग लिया। बस्तर की महिला नेत्री सोनी सोरी की त्रासदायक कथा से परिचित होना बुद्धिजीवियों के लिए ज़रूरी है। उन्हें किस तरह पुलिसिया दमन, अनाचार और अत्याचार का शिकार बनाया गया। वह छत्तीसगढ़ शासन के लिए कलंक है। बस्तर के आदिवासियों और खासतौर पर गर्भवती माताओं और शिशुओं के कुपोषण का सरकार घोषित इंडेक्स भारत में सबसे ऊंचा है। वहां कोई डॉक्टर इलाज के लिए नानुकुर करते नहीं जाता। बेला भाटिया और मनीष कुंजाम और पत्रकार आलोक पुतुल आदि जैसे कुछ जागरूक लोग लगातार आदिवासी हितों के लिए लांछन झेलते भी लड़ते रहते हैं। उनकी लेखकों और रचनाकारों की अभिव्यक्तियों में पूछ परख होना जागरूक नागरिक संवाद की जरूरत है। जुझारू बनावट के गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार वर्षों से जीवन को खतरे में डालकर बस्तर के आदिवासियों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। फिलवक्त सोशल मीडिया में सक्रिय होने के कारण उनकी संघर्षधर्मी इलाकों में पूछ परख हो रही है। यह एक अच्छा शकुन है। फिर भी यह गौरतलब है कि बस्तर के पीडि़त आदिवासियों के लिए उनकी ओर से दायर सुप्रीम कोर्ट की एक याचिका में शिकायतकुनिंदा को ही खलनायक मान लिया गया और हिमांशु कुमार सहित आदिवासी याचिकाकर्ताओं पर 5 लाख रुपए का हर्जाना लगा दिया गया। अन्यथा उन्हें जेल की सजा भुगतने का उसी आदेश में परंतुक भी पढ़ा जा सकता है।
ऐसे नाज़ुक वक्त में रचनात्मक लेखन भी इन बातों से गाफिल कैसे रह सकता है? या अपने को इन जिम्मेदारियों से फारिग हो गया समझ सकता है? छत्तीसगढ़ का व्यापक नागरिक जीवन जहरीला और श्वास अवरोधक हो जाएगा। तब रचनात्मक साहित्य लेखन के भी जरिए उसे अपने पुराने दौर में कैसे लौटाया जाएगा? फासिज्म का आ रहा खतरा यूरो-अमेरिकी इजारेदारों और वहां के हिंसक समाज से तो है। ‘नाटो‘ नहीं हो तो रूस को भी यूक्रेेन पर हमला करने की क्यों ज़रूरत हो? कब तक जर्मनी की याद करेंगे कि कोई वहां हिटलर था या इटली में कोई मुसोलिनी भी हुआ जिसके पास दीक्षा भाव से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सरसंघचालक हेडगेवार तथा विनायक दामोदर सावरकर के भी गुरु समझे जाते डा. बी.एस0 मुंजे मिलने गए थे। वह परिघटना संघ-भाजपा के सोच में केन्द्रीय वायरस की तरह अब तक महसूस की जाती है। देश के लाखों किसान साल भर तक कथित गांधी शैली में अहिंसा के आधार पर भारत की राजधानी में सत्याग्रह तो करते ही रहे हैं। यह हिटलर की जुबान थी (याने फासीवाद/नाजीवाद की) जिसने भारत के वाइसरॉय रहे लॉर्ड हेलिफैक्स की जर्मनी यात्रा के समय उनसे कहा था कि गांधी से बातचीत या जिरह करने के बदले उसे गोली मार दो। उसके पीछे यदि उसके सैकड़ों कांग्रेसी समर्थक आते हैं। तो उनको भी गोली से उड़ा दो। यह संदेश भी कहीं न कहीं ईथर में भारतीय निजाम के आचरण के लिए तैरता रहता है। फिलवक्त खतरा इटली, जर्मनी या अन्य इलाकों से आने वाले किसी हिंसक विदेशी वायरस का नहीं है। उसका भारतीयकरण सरकार और देसी कॉरपोरेटियों ने संभाल ही लिया है।
यक्ष प्रश्न है इनके खिलाफ और इनको लेकर देश के रचनात्मक हस्ताक्षर क्या कुछ कर पा रहे हैं या करना भी चाहते हैं। गैर भाजपाई सरकारों से आर्थिक या अन्य तरह का सहयोग और संरक्षण लेकर केन्द्रीय निजाम के खिलाफ आवाज़ें उठती भी हैं। उन गैर भाजपाई सरकारों की नैतिक और नीतिगत दशा भी परीक्षण के लिए उपलब्ध है ही। दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां अरबपति, खरबपति कॉरपोरेटियों के कल्याण के लिए अलग अलग रास्ते पर कहां हैं? कोई जानना क्यों नहीं चाहता कि संसद में किसी विधिक अधिनियम के पारित हुए बिना केवल सरकार याने प्रधानमंत्री की तुनक पर राष्ट्रीयकृत बैंकों में भारत की जनता के द्वारा जमा किया गया धन कॉरपोरेटियों को बिना जन इजाजत के पहले कर्ज में दे दिया जाए। फिर उसे बिना किसी जनअंकेक्षण के माफ कर दिया जाए। उसका खमियाजा प्रकारांतर से फिर जनता को भुगतना पड़ेे, जिसके लिए उसे मिलने वाले वायदा किए हुए ब्याज की दर में लगातार कटौती की जाती रहे। फिर उस आर्थिक गफलत या हेराफेरी पर परदा डालने के लिए नोटबंदी की जाए। काला धन को उगलत निगलत की शैली में कायम रखते विदेशों से कथित रूप से वापस लाने का शिगूफा छेड़ा जाए और फिर गृह मंत्री कह दें कि वह तो प्रधानमंत्री का जुमला था।
विज्ञापनखोर, (वह भी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की निजी सामन्ती नस्ल की सनक पर) सुविधाभोगी, सरकारपरस्त और लगातार भ्रष्ट और अय्याश होता गोदी मीडिया संसार के इतिहास में सबसे बड़ा बौद्धिक कहा जाता खलनायक हो चुका मुखौटा है। इस ओर भी सचेत रहना बुद्धिजीवियों का फर्ज दिखाई देता है। सरकार की आलोचना करती बड़ी से बड़ी कुछ राष्ट्रीय जन-परिघटना को किसी भी कीमत पर प्रकाशित नहीं करना गोदी मीडिया का सबसे विध्वंसक कारनामा है। जनअभिव्यक्तियों पर इस तरह लगाए जा रहे सेंसर के पीछे सरकार से गठजोड़ के कारण प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर मु_ी भर खरबपतियों का मालिकी कब्जा है। ‘लोहे से लोहा कटता है‘ की शैली में यदि स्वतंत्रचेता नागरिक अपनी अभिव्यक्तियों को प्रखर बनाएं तो इस दिशा में संभावनाएं दिखाई पडऩी शुरू हो सकती हैं। अन्यथा भी क्या होगा!
एक बहुत चिन्ताजनक दौर से हिन्दुस्तान घिसटता हुआ गुजऱ रहा है। करीब करीब सभी संवैधानिक संस्थाओं में लोक न्याय का कॉंसेप्ट लकवाग्रस्त हो गया है। उस रोग से मुक्त होने की संभावनाएं अभी तो इलाज की हलचल में नहीं हैं। जनप्रतिनिधियों के संसदीय चुनाव तो कॉमेडी के दुखान्त नाटक हैं। सत्ताशीन राजनीतिक पार्टी ने उसके द्वारा कबाडऩे वाला चंदा (इलेक्टोरल फंड) का हिसाब इस तरह अपनी मु_ी में कर लिया है कि वह वसूली कानून की जांच के परे हो गई है। कोरोना के राष्ट्रीय अभिशाप से भी फायदा उठाते पी.एम. केयर्स फंड बनाकर इतना और इतनी तरह से चंदा कबाड़ लिया है, जिसकी जानकारी संवैधानिक संस्थाओं को भी उनके द्वारा दिए जाने की आनाकानी और इन्कार की कानूनी जुगत बना ली गई है। सडक़ों पर हिंसा फिल्मी कथाओं की तरह निर्देशित और अभिनीत की जा रही है। संसार के सबसे ज़्यादा मजहबों को अपनी आगोश में आयातित/आयमित करने वाले देश में डरा दिया गया बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकारों सहित जीने तक में परहेज करता है। अब तो आलम यह है कि इस बात का शोध किया जा रहा है कि राष्ट्रीय जीवन के हर लक्षण में खासतौर पर मुसलमान शब्द को इस तरह रेखांकित और परिभाषित किया जाए कि देश के बहुसंख्यक लोग हिंसा नफरत और खूंरेजी से भरते रहें। फिर उनके मनोविकारों को वोट बैंक का आधार बना दिया जाए, जिससे सेक्युलर लोकतंत्र को ही उसकी जड़ों से बेदखल किया जा सके।
सवाल यही है कि ऐसी हालत में क्या और कितना भारत जीवित रहेगा? जनमत लोकतंत्र का प्राण है। अब तो आलम है कि लोकमत ही दूषित कर दिया गया है। बुद्धिजीवी लेखक, रचनाकार, एक्टिविस्ट बेहद अल्प संख्या में हैं। उनकी मुश्कें हर तरह से बांधी जा रही हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए ‘अर्बन नक्सल’ नाम का जहरीला शब्द ईजाद कर उन्हें गिरफ्तार कर जमानत देने तक से इन्कार किया जाने के जतन हैं। उसकी कोई अंतरराष्ट्रीय तथा मानवीय या कानूनी अधिमान्यता भी नहीं है। यूरो-अमेरिकी संवैधानिक और कानूनी अवधारणाओं से प्रेरित भारतीय न्यायिक समझ में मनुष्य की आज़ादी का कोई विकृत अर्थ निजाम के कारण व्यवस्था के हलक में ठूंसा जा रहा है। तमाम पुलिसिया संस्थाओं मसलन सीबीआई, ईडी, एन आई ए, इनकम टैक्स आदि को असहमति की आवाज का गला घोंटने के लिए सरेआम इस्तेमाल किया जा रहा है। अवाम है कि चुप है। डरा हुआ है। दहशत में है। बदलाव के लिए मानसिक रूप से तैयार भी नहीं दिखता।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गृहमंत्री अमित शाह ने बारामूला में 10 हजार से ज्यादा लोगों की सभा को संबोधित किया, यही अपने आप में बड़ी बात है। उनका यह भाषण एतिहासिक और अत्यंत प्रभावशाली था। हमारे नेता लोग तो डर के मारे कश्मीर जाना ही पसंद नहीं करते लेकिन इस साल कश्मीर में यात्रियों की संख्या 22 लाख रही जबकि पिछले कुछ वर्षों में 5-6 लाख से ज्यादा लोग वहां नहीं जाते थे।
बारामूला की जनसभा और यात्रियों की बढ़ी हुई संख्या ही इस बात के प्रमाण हैं कि कश्मीर के हालात अब बेहतर हुए हैं, खास तौर से 2019 में धारा 370 के हटने के बाद से! लगभग सभी कश्मीरी नेताओं ने धारा 370 हटाने का बहुत जमकर विरोध किया था लेकिन आजकल उनकी हवा निकली पड़ी है, क्योंकि कश्मीर के हालात में पहले से बहुत सुधार है। मनोज सिंहा के उप-राज्यपाल रहते हुए कश्मीर में अब भ्रष्टाचार करने की किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती।
कश्मीर में बगावत का झंडा उठाने वाले और राज करने वाले स्थानीय नेतागण केंद्र से मिलने वाली अरबों-खरबों की धनराशि का जितना इस्तेमाल लोक-कल्याण के लिए करते थे, उससे कई गुना ज्यादा अब होने लगा है। अमित शाह ने कहा है कि पिछले 70 साल में कश्मीर में केंद्र की ओर से सिर्फ 15000 करोड़ रू. लगाए गए थे जबकि अब पिछले तीन साल में 56000 करोड़ रुपयों का विनिवेश हुआ है। कई अस्पताल, विश्वविद्यालय, स्कूल, पंचायत भवन आदि खड़े कर दिए गए हैं।
पहले कश्मीर का लोकतंत्र सिर्फ 87 विधायकों, 6 सांसदों और दो-तीन परिवारों तक ही सीमित था लेकिन अब 30,000 पंचों और सरपंचों को भी स्थानीय विकास के अधिकार मिल चुके हैं। आतंकवादियों ने कुछ पंचों की हत्या भी कर दी थी लेकिन पंचायत के चुनावों में जन-उत्साह देखने लायक था। अमित शाह ने अपने भाषण में कश्मीर के पिछड़ेपन के लिए तीन परिवारों को जिम्मेदार ठहराया है। गांधी-नेहरु परिवार, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार!
इन तीनों परिवारों ने कश्मीर पर अपना लगभग एकाधिकार बना रखा था, यह तथ्य है लेकिन हम यह न भूलें कि इनमें से किसी ने भी कश्मीर को भारत से अलग करने का नारा नहीं दिया है। वरना, कांग्रेस और भाजपा इनके साथ मिलकर वहां सरकारें क्यों बनातीं? कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से भी मेरा गहन संपर्क रहा है, उनमें से एकाध अपवाद को छोडक़र कभी किसी ने कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की बात नहीं की है। अमित शाह ने सरकार की इस नीति को दो-टूक शब्दों में दोहराया है कि जब तक आतंकवाद जारी है, पाकिस्तान से भारत बात नहीं करेगा।
मेरी राय यह है कि जब पांडव और कौरव महाभारत युद्ध के दौरान बात करते थे और अब नरेंद्र मोदी यूक्रेन के सवाल पर पूतिन और झेलेंस्की से बात करने का आग्रह कर रहे हैं तो हम पाकिस्तान से बात बंद क्यों करें? मैं तो शाहबाज शरीफ और नरेंद्र मोदी दोनों से कहता हूं कि वे बात करें। वे खुद बात करने के पहले कुछ गैर-सरकारी माध्यमों के जरिए संपर्क करें। जैसे हमने संकटग्रस्त श्रीलंका और तालिबानी अफगानिस्तान की मदद की, वैसी ही मुसीबत में फंसे पाकिस्तानी लोगों की मदद के लिए भी हाथ आगे बढ़ाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अमिता नीरव
2011 में जब फ्रांस में इमैनुएल मैक्रां ने हिजाब को प्रतिबंधित किया था, तब रवीश ने एक प्रोग्राम किया था। उस प्रोग्राम में फ्रांस में रिसर्च कर रही एक मुस्लिम लडक़ी से बात की थी। याद नहीं है कि वो लडक़ी किस देश की थी, लेकिन यह याद है कि उसने बात करने के दौरान हिजाब डाल रखा था।
वह लडक़ी शायद हिजाब, बुरका या नकाब के इतिहास पर ही रिसर्च कर रही थी। उसने बताया कि यह पुरानी परंपरा है और अरब देशों से निकलकर इस्लाम के साथ चस्पां हो गई है। उसने कई सारे फोटो बताए जिसमें अरबी पुरुष भी खुद को पूरी तरह से ढँके हुए थे।
फ्रांस में हिजाब पर प्रतिबंध के सिलसिले में जिस तरह से मुस्लिम विरोध में उतरे थे उस पर उसका तर्क था कि हिजाब यहाँ इस्लाम की धार्मिक या सांस्कृतिक परंपरा से आगे आ गया है। अब ये यहाँ की मुस्लिम महिलाओं की आयडेंटिटी का हिस्सा हो गया है।
इस लिहाज से यह प्रतिबंध उनकी आयडेंटिटी पर हमला है। उस वक्त मुझे उस लडक़ी का यह तर्क समझ ही नहीं आया कि क्यों कोई लडक़ी बिना दबाव के भी हिजाब या नकाब लगाए रहने की जिद करती है। कुछ दिनों बाद आयडेंटिटी का मसला समझ आया।
ईरान में इन दिनों हिजाब के खिलाफ महिलाएँ प्रदर्शन कर रही हैं। सोशल मीडिया पर अपने बाल काटते हुए फोटो पोस्ट कर रही हैं। पिछले दिनों हिजाब ठीक से न पहनने पर कुर्द यजीदी लडक़ी महसा अमीनी की मौत ने ईरान की महिलाओं को सडक़ पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया है।
महसा अपने भाई के साथ तेहरान आई हुई थी तभी उसे मॉरल पुलिस ने हिजाब ठीक से न पहनने को लेकर गिरफ्तार किया, जब उसे अस्पताल लाया गया तब तक वह कोमा में चली गई थी। अस्पताल में बाद में उसकी मौत हो गई। उसकी मौत के बाद ईरान में हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे।
महसा जिस कम्यूनिटी का हिस्सा है, वहाँ हिजाब पहनना या न पहनना व्यक्तिगत चुनाव है। ईरान में हिजाब पहनने या न पहनने का चुनाव करने का कोई विकल्प नहीं है। वहाँ हर महिला को अनिवार्यत: हिजाब पहनना होता है। ये वहाँ के बहुसंख्यकों की सामाजिक-धार्मिक परंपरा भी है।
ईरान के प्रदर्शनों का हवाला देते हुए हमारे यहाँ कर्नाटक हिजाब विवाद में दलीलें दी जा रही हैं। कर्नाटक सरकार सुप्रीम कोर्ट में कह रही है कि ईरान जैसे देश में महिलाएँ हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन कर रही है औऱ भारत में महिलाएँ हिजाब के लिए लड़ रही है।
इसी संदर्भ में मुझे फ्रांस में पढ़ती उस मुस्लिम लडक़ी की याद आ गई जो हिजाब को आयडेंटिटी का हिस्सा बता रही थी। पिछले दिनों कई अलग-अलग तरह की चीजें पढ़ीं, सुनी, समझी। देर से सही मगर एक चीज समझ आई कि बिना सामाजिक मनोविज्ञान समझे हम चीजों की ठीक-ठाक समझ नहीं पा सकते हैं।
स्वतंत्रता का मसला चुनाव से जुड़ा हुआ है, थोपा हुआ कुछ भी स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं हो सकता है। ईरान में मुस्लिम महिलाएं हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं और इसके उलट भारत में हिजाब के समर्थन को लेकर कोर्ट में केस चल रहा है। ठीक बात है कि हिजाब, नकाब, बुरका या फिर किसी भी तरह का पर्दा पितृसत्ता के दमन का प्रतीक है।
एक दूसरी बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है कि स्वतंत्रता का संबंध भी चुनाव से है। इन दोनों ही घटनाओं में कई सारे एंगल है। सबसे पहला तो यही चुनाव की आजादी...। दूसरा एंगल है बहुसंख्यकवाद का। चाहे कोई कितनी ही लोकतांत्रिक व्यवस्था हो बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों को अपनी तरह से संचालित करने का प्रयास करेगा।
यही मसला ईरान का है, यही मसला भारत का भी है। ईरान में भी कुर्द यजीदियों को ईरान के इस्लामिक कानूनों (चाहे वो कानून हो या फिर सामाजिक व्यवहार) के अधीन रहना आवश्यक है और भारत में भी गैर हिंदुओं को हिंदू सामाजिक व्यवहार के अधीन रहना आवश्यक है।
भारत के मसले में एक तीसरी बात है, जिस पर इस सिलसिले में लिखी गई पोस्ट पर कई लोगों से लंबी बहसें हुई है, वह है हर हाल में लड़कियों के पढऩे की सहूलियत। यदि लड़कियों को हिजाब में भी पढऩे के लिए भेजा जा रहा है तो हमें उसे स्वीकारना होगा।
हिजाब या नकाब हटाने को अहम का प्रश्न नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि कानून बना देने से सामाजिक व्यवहार में बदलाव नहीं लाए जा सकते हैं। सामाजिक परंपराओं और व्यवहार में परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे होने वाली प्रक्रिया है। किसी वक्त में गर्ल्स स्कूल कॉलेज हुआ करते थे।
हमारे वक्त में सारी लड़कियाँ गर्ल्स स्कूल और कॉलेजों में पढ़ा करती थी। यदि कोई विषय गर्ल्स कॉलेज में नहीं होता था तो लड़कियाँ वह विषय ही नहीं लेती थी, किसी दूसरे विषय से पढ़ लिया करती थी। आज मैंने बहुत सारे लोगों को लड़कियों को जानबूझकर कोएड में पढ़ाते हुए देखा है।
एक सीधा-सा तर्क होता है उनका कि स्कूल-कॉलेज में हम उसे लड़कियों के साथ पढ़ा देंगे, दुनिया में तो उसे लडक़ों के साथ भी रहना होगा, काम करना होगा न? सोचिए ये परिवर्तन एकाएक नहीं आया है। कर्नाटक हिजाब मामले में अब जबकि यह अहम की लड़ाई हो गई है, लड़कियों की शिक्षा दाँव पर लगी हुई है।
ईरान की महिलाओं का संघर्ष तारीफ के काबिल है। यह एक तरह से पूरबी महिलाओं के अपने हक के लिए लडऩे का ऐलान है। यह भी कि आखिरकार पूरब में ही महिलाएँ जागरूक हो रही हैं, अपने अधिकारों के लिए, अपने इंसान समझे जाने के संघर्षों के लिए तैयार हो रही हैं।
उम्मीद है कि यही आग आसपास के देशों में भी फैलेगी। भारत में भी महिलाएँ हिजाब जलाएँगी, लेकिन पहले उन्हें इस सोच तक आने तो दीजिए। उनकी पढ़ाई-लिखाई और समझ को प्राथमिकता पर तो आने दीजिए। यदि हिजाब पहनने के एवज में उन्हें शिक्षा से ही वंचित किया गया तो वे क्या लड़ेंगी!
जिस तरह से चूजे को अंडे का खोल खुद ही तोडक़र बाहर आने के लिए ताकत हासिल करनी होती है, उसी तरह लड़कियों को लड़ाई लडऩे के लिए पहले ताकत तो हासिल करने दीजिए। देखिएगा कि तब वे खुद ही इन परंपराओं से निजात पाने के लिए उठ खड़ी होंगी।
चयन को ही स्वतंत्रता का मापदंड बने रहने दें, मजबूरी को स्वतंत्रता का नाम न दें।
-सतीश जायसवाल
कहीं बाहर नहीं गया था। अपने शहर में ही था। घर के पास एक होटल में शरण लिए हुआ था। आवाजों से आक्रान्त होकर घर से बाहर भागा था। डीजे फुल वॉल्यूम में बजते रहते। और उनकी आवाजें सुबह से रात डेढ़-दो बजे तक घर के बाहर-भीतर तक घुसकर हमले कर रही थी। दो दिनों से सो नहीं सका और नींद जरूरी थी।
किसी को कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि ये आवाजें साधारण आवाजें नहीं, देवी आराधना के गीतों की थीं और लोग धर्म-प्राण। ये कौन लोग थे? सब जानते हैं। लेकिन कोई कुछ नहीं कहता। मैंने भी कुछ नहीं कहा। बस, चुपचाप निकल गया। फिर भी एक डर था। कहीं विधर्मी न मान लिया जाऊँ। फतवा जारी हो जायेगा या उन लोगों के निशाने पर न आ जाऊँ। वो कौन लोग? सब जानते हैं, चंदा भी देते हैं। लेकिन उलझने से बचते हैं।
मैंने भी अपनी हैसियत से चंदा दिया। अष्टमी के दिन पंडाल में गया। देवी दर्शन किया। पंडितजी को शाल, श्रीफल भेंट किया और निकल आया।
आज, लौटा हूँ। देवी प्रतिमा के बिना पंडाल सूना है। एक विषाद है। घेर रहा है। लेकिन पंडाल से बाहर ढँका-मुँदा डीजे निस्तेज पड़ा है। कोई आवाज नहीं हो रही है। साँस तक नहीं ले रहा है। निष्प्राण डी.जे. ऐसा दिख रहा है जैसे सब कुछ तहस-नहस कर चुकने के बाद अब अगली तबाहियों के लिये विश्राम करता बुलडोजर।
हाँ, डीजे ऐसा ही शक्तिशाली है। जब जागता है तो घर थर्राने लगते हैं, दरवाजे-खिड़कियां काँपने लगती हैं। ऐसे में मनुष्य की क्या औकात? आक्रान्ता आवाजें दिल को दहला देती हैं। मालूम नहीं दिल के कितने मरीजों की जानें जा चुकी होंगी। लेकिन कोई रिपोर्ट नहीं इसलिए ऐसी कोई घटना नहीं मानी जायेगी।
हर त्यौहार और उत्सव के मौसम में इस घातक ध्वनि यंत्रों पर प्रतिबंध की बात उठती है। और इस जानलेवा यंत्र के व्यापारियों का प्रतिनिधि मंडल शासन-प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर रोजी-रोटी कमाने का अधिकार माँगता है। जानलेवा रोजगार से अपना जीवन चलाने का अधिकार माँगता है।अपने जीवन के लिये औरों का जीवन लेने का अधिकार ?
अधिकार मिल जाता है। लोकतंत्र में समूह शक्ति का सम्मान सुरक्षित होता है। बात ‘पापी वोट’ से जुड़ी हुई है।
तब हिन्दी में कहानी-कविता लिखकर पेट पालने वाले एक साहित्यकार की आवाज कहाँ सुनी जाएगी? तो बस, ऐसे ही चुपचाप एक लेखक ने अपना घर छोड़ा और एक होटल में शरण लिया। अब घर लौट आया।लेकिन यह कोई ऐसी घटना नहीं हुई जिसका कोई अर्थ हो...
-रवीश कुमार
अच्छी बात है कि चीन को ठीक से समझने की शुरुआत हो रही है। पिछले दो साल में चीन पर कई किताबें आई हैं। विजय गोखले की इस किताब से गुजरते हुए चीन के आर्थिक सुधारों के दौर को समझने का मौका मिला। इस सुधार के लिए चीन के गाँवों के लोगों ने बहुत बड़ी कीमत अदा की, जो भारत के गाँवों से विस्थापित लोग चुका रहे हैं। वहाँ उन्हें जबरन और मजबूरन विस्थापित होकर शहर आना पड़ा और कम मजदूरी में काम करना पड़ा। इससे पूँजी और मुनाफे का निर्माण हुआ। उनके सस्ते और बेगार श्रम के लालच में दुनिया भर से निवेशक चीन गए। यह समझ में आता है कि जब तक आबादी के एक बड़े हिस्से को न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर खटाया नहीं जाएगा तब तक शहर में विकास दिखाने के लिए इमारतें और कंपनियाँ खड़ी नहीं हो सकतीं। विजय गोखले की किताब का मुख्य तर्क नहीं है, मगर मुझे यह मुख्य रूप से दिखा।
यह किताब आर्थिक सुधारों की परतों में चीन की सामरिक और कूटनीतिक नीतियों की सफलता की कहानी कहती है। यह सफलता झूठ और झाँसे पर आधारित है। जिसके चंगुल में अमरीका और यूरोप दोनों आए। अपनी पूँजी और तकनीक दोनों चीन में ठेलते गए और चीन बीस वर्षों तक डबल डिजिट का आर्थिक विकास दर हासिल करता रहा। विजय गोखले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और सेना में आए पैसे और रिश्वत के खेल को रेखांकित करते हैं। जिस समय चीन आर्थिक रूप से तरक्की कर दुनिया को हैरान कर रहा था, उस समय उसकी सेना में पैसे लेकर पद बिक रहे थे और पार्टी के लोगों को ही विकास का ठेका मिल रहा था। सब मालामाल हो रहे थे।
मगर असली झूठ और झाँसा यह था कि चीन लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है। दुनिया से जुड़ रहा है। उसके नियम कायदों को अपना रहा है। लेखक ने दिखाया है कि इस मामले में वह हर किसी को चकमा देता है। जिस वक्त अमरीका बेगार की मजदूरी से पूँजी बनाने की लालच में चीन गया, जरूर उस माहौल का असर भारत पर पड़ा होगा और भारत की तरफ से सीमा विवाद को लेकर कई पहल की गई। चीन ने लंबे समय तक सकारात्मक संदेश देकर झाँसा दिया और चुप्पी साध ली। अब चीन एक बड़ी आर्थिक शक्ति है। इस दौरान उसने आर्थिक रूप से संपन्न कई शहर और केंद्र बना लिए हैं। विजय गोखले यह नहीं बताते कि चीन को हमेशा संदिग्ध निगाह से ही देखें मगर साफ़-साफ़ दिखा देते हैं कि चीन को तीन से पाँच दशक के स्केल पर देखा और समझा जाना चाहिए।
इस किताब में मोदी दौर की झूला-झुलाओ कूटनीति का जिक्र नहीं है। क्यों नहीं है? क्या इसलिए कि लेखक ने किताब के लिए अलग कालखंड चुना है? हो सकता है लेकिन उस चैप्टर में संक्षेप में हो सकता था, जिसमें राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह की चीन नीतियों की समीक्षा की गई है। इसके बाद भी विजय गोखले दिखा ही देते हैं कि हेडलाइन के लिए और तात्कालिक रूप से की गई पहल से आप चीन को प्रभावित नहीं कर सकते। बारीक तर्कों के बीच यह दिखता है कि वाजपेयी काल में परमाणु परीक्षण बाद दुनिया भर के नेताओं को लिखे पत्र में चीन को नाहक शत्रु की तरह पेश किया गया। यहाँ से चीन हमेशा के लिए चिढ़ जाता है। वह भारत के साथ एक ही व्यवहार करता है। चुप रहकर नजरअंदाज कर देता है।
मुझे यह किताब अच्छी लगी। हार्पर कॉलिन्स की है। कीमत 390 की। ऐसी किताबें हिन्दी में भी तुरंत आनी चाहिए ताकि हिन्दी के पाठक चीन को फुलझडिय़ों और मोबाइल एप के विरोध से आगे देख सकें। इसमें पाठकों का क़सूर नहीं है। हिन्दी के अखबार और चैनलों ने जो कूड़ा फैलाया है, अब लोगों में समझने का मानक ही वही कूड़ा बन गया है। तो उसे ही प्रस्थान बिंदु बनाकर नई जानकारियों के लिए रास्ते खोले जा सकते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रय होसबोले ने भारत की आर्थिक स्थिति के बारे में जो बयान दिया है, उससे विरोधी दलों के नेता चाहे कितने ही खुश होते रहें लेकिन उसे सरकार-विरोधी नहीं कहा जा सकता है। वह वास्तव में सरकार को जगाए रखने की घंटी की तरह है। वास्तव में सरकारें अपनी पीठ खुद ही ठोकती रहती हैं और ज्यादातर अखबार और टीवी चैनल खरी-खरी बात लिखने और बोलने का साहस नहीं जुटा पाते हैं।
ऐसे में अगर संघ का उच्चाधिकारी कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करता है तो वह कड़वी जरुर होती है लेकिन वह सच्ची दवा भी होती है। होसबोले ने यही तो कहा है कि देश में गरीबी और अमीरी के बीच खाई बढ़ती जा रही है। हमारी खबरपालिका यह तो प्रचारित करती रहती है कि देश के फलां सेठ दुनिया के अमीरों के कितने ऊँचे पायदान पर पहुँच गए हैं लेकिन वह यह नहीं बताती कि देश में अभी भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें भरपेट रोटी भी नहीं मिलती। वे बिना इलाज के ही दम तोड़ देते हैं।
लगभग डेढ़ सौ करोड़ के इस देश में कहा जाता है कि सिर्फ 20 करोड़ लोग ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। सच्चाई क्या है? मुश्किल से 40 करोड़ लोग ही गरीबी के रेखा के ऊपर है। लगभग 100 करोड़ लोगों को क्या भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा, चिकित्सा और मनोरंजन की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं? क्या वे हमारे विधायकों और सांसदों की तरह जीवन जीते हैं? जो हमारे प्रतिनिधि कहलाते हैं, वे किस बात में हमारे समान हैं?
वे हमारी तरह तो बिल्कुल नहीं रहते। सरकारी आकड़े बताते हैं कि देश में सिर्फ 4 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। क्या यही असलियत है? रोजगार तो आजकल बड़े-बड़े उद्योगपतियों की कंपनियां दे रही हैं, क्योंकि वे जमकर मुनाफा सूंत रही है, लेकिन छोटे उद्योगों और खेती की दशा क्या है? सरकार सर्वत्र डंका पीटती रहती है कि उसे इस साल जीएसटी और अन्य टैक्सों में इतने लाख करोड़ रु. की कमाई ज्यादा हो गई है लेकिन उससे आप पूछें कि टैक्स देने लायक लोग याने मोटी कमाई वाले लोगों की संख्या देश में कितनी है?
10 प्रतिशत भी नहीं है। शेष जनता तो अपना गुजारा किसी तरह करती रहती है। सरकारी अफसरों, मंत्रियों और नेताओं के एक तरफ ठाठ-बाट देखिए और दूसरी तरफ मंहगाई से अधमरी हुई जनता की बदहाली देखिए तो आपको पता चलेगा कि देश का असली हाल क्या है? जनता के गुस्से और बेचैनी को काबू करने के लिए सभी सरकारें जो चूसनियां लटकाती रहती हैं, उनका स्वाद तो मीठा होता है लेकिन उनसे पेट कैसे भरेगा? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोलकाता के दुर्गा-पूजा पंडाल में ‘असुर’ की जगह एक ऐसा चित्र लगा दिया गया, जो एकदम गांधीजी की तरह दिखाई पड़ता है। यह चित्र अ.भा. हिंदू महासभा की बंगाल शाखा ने लगाया है। हिंदू महासभा के नेताओं ने कहा कि वह असुर गांधी-जैसा दिखता है तो हम क्या करें? यह तो जो हुआ है, वह संयोगवश हो गया है? इन नेताओं की इस सफाई पर कौन विश्वास करेगा? लेकिन इस बात से यह सिद्ध हो रहा है कि ये लोग दब्बू और कायर हैं। झूठे भी हैं।
यदि वे अपने आप को हिंदू कहते हैं तो वे वास्तव में दुनिया के हिंदुओं को शर्मिंदा कर रहे हैं। वे क्या यह नहीं सिद्ध कर रहे हैं कि हिंदुत्व के नामलेवा लोग डरपोक और कायर होते हैं? वे अपने आप को नाथूराम गोड़से का प्रशंसक कहते हैं लेकिन अगर गोड़से जिंदा होता तो वह भी इन पर थूक देता। वह इनसे कहता कि मैं तुम्हारी तरह कायर होता तो गोली-चलाने के बाद भाग खड़ा होता या अदालत में झूठ बोलने लगता और दावा करता कि मैंने गांधी को नहीं मारा।
बंगाली हिंदू सभाइयों ने गांधीजी को असुर या राक्षस बताने की जो कोशिश की है, वह पहली और एक मात्र नहीं है। गांधीजी की प्रतिमा को कई लोगों ने भारत और विदेशों में भी भंग किया है और ग्वालियर में गोड़से की मूर्ति भी बनाई गई है। अदालत में दिए गए गोड़से के बयान को पुस्तक के रूप में छपाकर गुपचुप बांटा भी जाता है।
इसके मूल में दो तत्व काम कर रहे हैं। एक तो मुस्लिम-विरोधी भाव और दूसरा कांग्रेस से घृणा! जहाँ तक आज की कांग्रेस का सवाल है, उसका महात्मा गांधी से कुछ लेना-देना नहीं है। वह फिरोज-इंदिरा गंधी (गांधी नहीं) परिवार है। आपको उससे भिडऩा है तो जरूर भिड़ें लेकिन गांधीजी पर बरसने का कोई कारण नहीं है। जहां तक मुस्लिम-घृणा का सवाल है, पिछले 75 साल में भारत बहुत बदल गया है। उसमें न तो कोई मुस्लिम लीग है और न ही कोई जिन्ना है।
अब मुस्लिम लीग को टक्कर देने के लिए किसी हिंदू महासभा की जरुरत भी नहीं रह गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के इस एतिहासिक कथन पर ध्यान दीजिए कि हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। यदि हिंदुओं के नाम पर बना संगठन-हिंदू महासभा- ऐसा बर्ताव करे, जैसा कि इस्लाम के नाम पर अरब आक्रामक बादशाह और ईसा के नाम पर रोम के पोप किया करते थे तो अब आप वैसा ही करके क्या भारत या हिंदुत्व की प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं?
गांधीजी मनुष्य थे। गलतियां उनसे भी हुई हैं लेकिन गांधी जैसा मनुष्य इस पृथ्वी पर कोई दूसरा अभी तक तो पैदा नहीं हुआ है, उसे आप ‘राक्षस’ या ‘असुर’ बताकर दुनिया को क्या संदेश देना चाहते हैं? आपके कुछ भी कहने से गांधी का तो कुछ भी नहीं बिगडऩे वाला है लेकिन जो आक्षेप आप गांधी पर लगा रहे हैं, क्या वह आप ही चस्पां नहीं हो रहा है? (नया इंडिया की अनुमति से)
-शंभुनाथ
बंगाल दुर्गा पूजा के अवसर पर मानो सुरापान कर लेता है, इतना आनंदातिरेक शायद ही किसी अन्य राज्य में किसी त्योहार के अवसर पर हो। यहां की एक बड़ी खूबी धर्म और कलाओं का सम्मिलन है, जो धर्म के सौंदर्य को सार्वभौम बना देता है। पूरा मामला आस्था और अनास्था से ऊपर उठ जाता है। स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग और नौजवान नए परिधान, नए जोश और प्रेमोन्माद में होते हैं! हिंसा के एक पुराने बिंब का पूरी तरह आनंदोत्सव में बदल जाना, यह कलाओं का कमाल है! इससे कला की शक्ति का बोध होता है।
इस अवसर पर दो- चार बातें दिमाग में उभर रही हैं। पहली बात यह कि दुर्गा अब शाक्त परंपरा और बंगाल के हिंसक जमींदारों की शक्तिपूजा तक सीमित न होकर काफी रूपांतरित हो गई हैं। वह देवी से ज्यादा एक उत्सव हैं-- सामूहिकता का उत्सव।
ध्यान देना चाहिए कि दुर्गा अपने आपमें कुछ नहीं है। उसकी कल्पना एक ऐसी शक्ति के रूप में की गई है, जो विभिन्न देवताओं की शक्ति लेकर निर्मित होती है । भारत भी विभिन्न जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों से ऐसे ही बना है। हमारी हिंदी भी तमाम बोलियों, उपभाषाओं और स्थानीय भाषाओं से शक्ति लेकर ऐसे ही बनी है। दरअसल सामूहिक असहमति में ही शक्ति है, अन्यथा सब अरण्यरोदन है!
दुर्गा का दूसरी सदी से पहले कोई अस्तित्व नहीं है। दूसरी से चौथी सदी की मिली मूर्तियों में वह चार हाथ वाली देवी हैं। किसी में वह छह या आठ हाथ वाली हैं। काफी बाद में वह दस हाथ वाली देवी बनती हैं। छठी सदी की एलोरा की मूर्ति में दुर्गा ने एक पूर्ण महिष पर अपना दाहिना पैर रखा है। बोस्टन म्यूजियम में रखी 10वीं सदी की एक अष्टभुजा मूर्ति में दुर्गा महिष के दो सींगों सहित कटे सिर पर खड़ी हैं। पौराणिक कथा और मूर्तिकला के संबंध के अध्ययन से बहुत सी बातें साफ होती हैं!
दुर्गा की एक व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि यह स्त्री के 'ना' कहने के अधिकार की कथा है। पुरुष उत्पीड़न और वर्चस्व के प्राचीन युग में एक ऐसी स्त्री की भारतीय कल्पना सम्भव हुई है, जिसमें एक स्त्री अपनी यौनिकता पर अपना अधिकार रखना चाहती है। किसी ने अपनी ताकत प्रदर्शित करते हुए प्रेम निवेदन कर दिया तो स्त्री को उसके निवेदन के आगे झुकना होगा, इस नियति को दुर्गा चुनौती देती हैं। वह बलात्कार के विरुद्ध एक शक्ति है, जो हर स्त्री के भीतर है!
एक अनोखी बात वैष्णो देवी को लेकर है। दुर्गा का यहां वैष्णो देवी नाम इसलिए है कि वह शिव की जगह विष्णु से जुड़ी हैं! आज ही दल नहीं बदला जाता, पहले भी दल- बदल होता था!
इस कल्पना में देखा जाता है कि महिषासुर की जगह भैरव दुर्गा के पीछे पड़ता है और दुर्गा भागती है। यह भी स्पष्ट यौन उत्पीड़न का मामला है! जम्मू के वैष्णो देवी के मंदिर के पास ही भैरव का भी मंदिर है।
ऐसी ही बहुत सारी बातें हैं। नवमी सामने है। दुर्गा पूजा अब हर प्रान्त में होने लगी है। विदेशों में होने लगी है। इस जमाने में पूजा का मतलब है खाना- पीना और मनोरंजन! अब धर्म को ढूंढना हो तो वह सिर्फ राजनीति की गुफ़ाओं में मिलेगा।
दशहरा में भी रावण दहन का महान दायित्व उसे दिया जाता है, जिसने दशहरा उत्सव में सबसे ज्यादा चंदा दिया है! अब आज राम कहां मिलें!!
तो सभी को विजयादशमी की शुभकामनाएं! और निराला की ये यादगार पंक्तियां :
होगी जय होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन,
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन!
दुर्गा को कलाओं की शक्ति से नए- नए रूप में देखना होगा और खुद को नवीन करना होगा-- सिर्फ फैशन के नए कपड़े और नए जूते भर नहीं---- नई जीवन दृष्टि भी चाहिए!
-ध्रुव गुप्त
दशहरे में भगवान राम के विजयोत्सव के साथ रावण के पुतला दहन की परंपरा भी है।ऐसा क्यों है यह समझ नहीं आता। युद्ध में मारे गए किसी योद्धा को एक कर्मकांड की तरह बार-बार जलाकर मारना मनुष्यता के विपरीत कर्म है। इस परंपरा पर पुनर्विचार की आवश्यकता कभी किसी ने महसूस नहीं की। बेशक रावण का अपराध गंभीर था। उसके द्वारा देवी सीता के अपहरण को इसीलिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता कि उसने ऐसा अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से किया था। शूर्पणखा का अपमान सीता ने नहीं किया था। यह अपमान राम और लक्ष्मण ने किया था। बदला भी उन्हीं से लिया जाना चाहिए था। अपने पक्ष की किसी स्त्री के अपमान का प्रतिशोध शत्रुपक्ष की स्त्री का अपमान करके लेना स्त्री को पुरुष की वस्तु या संपत्ति समझने की पुरुषवादी मानसिकता की उपज है। निसंदेह रावण ने अक्षम्य अपराध किया था लेकिन इस अपराध के बीच रावण के चरित्र का एक उजला पक्ष भी सामने आया था। रावण ने अपनी बहन की नाक के एवज में सीता की नाक काटने का प्रयास नहीं किया। सीता के साथ उसका आचरण मर्यादित रहा था। उनकी इच्छा के विरुद्ध रावण ने उनसे निकटता बढ़ाने का प्रयास नहीं किया। स्वयं 'रामायण' के रचयिता महर्षि बाल्मीकि ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है - राम के वियोग में व्यथित सीता से रावण ने कहा कि यदि आप मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती हैं तो मैं आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता।
विजयादशमी का दिन राम के हाथों रावण की पराजय और मृत्यु का दिन है। हमारी संस्कृति में किसी युद्ध में एक योद्धा के लिए विजय और पराजय से ज्यादा बड़ी बात उसका पराक्रम माना जाता रहा है। रावण अपने जीवन के अंतिम युद्ध में एक योद्धा की तरह ही लड़ा था। राम ने उसे मारकर उसे उसके अपराध का दंड दिया। बात वहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी। उसके इस अपराध को छोड़ दें तो रावण में गुणों की कमी नहीं थी। वह वीर, तेजस्वी, प्रतापी और पराक्रमी होने के अलावा वास्तुकला और संगीत सहित कई विद्याओं का जानकार था। महर्षि बाल्मीकि कुछ दुर्गुणों के बावजूद रावण को चारों वेदों का ज्ञाता, महान विद्वान और धैर्यवान बताते हैं। वीणा बजाने में उसे विशेषज्ञता हासिल थी। उसने भगवान शिव के तांडव की धुन को वीणा पर बजाकर उन्हें सुनाया था। इससे प्रसन्न होकर शिव ने उसे एक शक्तिशाली खड्ग उपहार में दिया था। उसने एक वाद्य यंत्र का आविष्कार भी किया था जिसे रावण हत्था कहा जाता है। उसे मायावी भी कहा गया क्योंकि वह इंद्रजाल, तंत्र, सम्मोहन जैसी गुप्त विद्याओं का भी ज्ञाता था।
राम ज्ञानी थे। रावण के अहंकार और अपराध के बावजूद वे उसकी विद्वता और ज्ञान का सम्मान करते थे। उसकी मृत्यु पर दुखी भी हुए थे। उसके मरने से पहले उन्होंने ज्ञान की याचना के लिए अपने भ्राता लक्ष्मण को उसके पास भेजा था। इसका अर्थ यह है कि स्वयं राम ने मान लिया था कि रावण को उसके किए अपराध का दंड मिल चुका है। अब उससे शत्रुता का कोई अर्थ नहीं। फिर हम कौन हैं जो सहस्त्रों सालों से रावण को निरंतर जलाए जा रहे हैं ? हमारी संस्कृति में तो युद्ध में लड़कर जीतने वालों का ही नहीं, युद्ध में लड़कर मृत्यु को अंगीकार करने वाले योद्धाओं को भी सम्मान देने की परंपरा रही है। मरने के बाद भी एक योद्धा को बार-बार मारना और मारने के बाद उसकी मृत्यु का उत्सव मनाना हर युग और हर संस्कृति में अस्वीकार्य है।
अब रावण में कितनी अच्छाई थी और कितनी बुराई , इस पर बहस होती रहेगी।हां, एक बड़ी शिकायत इस देश के चित्रकारों और मूर्तिकारों से रहेगी। वे लोग रावण के ऐसे कुरूप और वीभत्स पुतले, चित्र, मूर्तियां क्यों बनाते हैं ? रावण कुरूप तो बिल्कुल नहीं था। उसके दस सिर भी नहीं थे। दस सिर की कल्पना यह दिखाने के लिए की गई थी कि उसमें दस लोगों के बराबर बुद्धि और बल था। जैसा कि हमारी रामलीला, फिल्मों या टीवी सीरियल्स में चित्रित किया जाता रहा है, वह सदा प्रचंड क्रोध से भी नहीं भरा रहता था और न मूर्खों की भांति बात-बेबात अट्टहास ही करता था। 'रामायण' में ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं जिनसे यह अनुमान होता है कि अहंकार के बावजूद रावण में गंभीरता थी और स्थितियों के अनुरूप आचरण का विवेक भी। देखने में भी वह राम से कम रूपवान नहीं था। उसके रूप, सौंदर्य और शारीरिक-सौष्ठव के उदाहरण दिए जाते थे। हनुमान स्वयं पहली बार रावण को देखकर मोहित हो गए थे। 'वाल्मीकि रामायण' का यह श्लोक देखें - अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:। अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥' अर्थात रावण को देखते ही हनुमान मुग्ध होकर कहते हैं कि रूप, सौंदर्य, धैर्य और कांति सहित सभी लक्षणों से युक्त रावण में यदि अधर्म बलवान न होता तो वह देवलोक का भी स्वामी बन सकता था।
वैसे भी देश-दुनिया के लंबे इतिहास में रावण अकेला अपराधी नहीं था। उससे भी बड़े- बड़े अभिमानी, दुराचारी और हत्यारे हमारे देश में हुए हैं। उनके पुतले कभी नहीं जलाए गए। एक अकेले रावण के प्रति हमारा ऐसा दुराग्रह क्यों ? कहीं ऐसा तो नहीं कि रावण को लंपट और वीभत्स दिखाकर, उसकी हत्या का वार्षिक समारोह मनाकर वस्तुतः हम अपने भीतर के काम, क्रोध, अहंकार और भीरुता से ही आंखें चुराने का प्रयास कर रहे होते हैं ? मरे हुए रावण के पुतलों को जलाने में कोई शौर्य नहीं है। उसे उसके किए का दंड हजारों सालों पहले मिल चुका है। जलाना है तो अपने ही भीतर छुपी लंपटता, कामुकता और बलात्कारी मानसिकता जैसे मनुष्यता के शत्रुओं को जलाकर राख कर डालिए ! एक सभ्य समाज की कल्पना को साकार करने की दिशा में यह एक सच्ची पहल होगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
वाराणसी विश्वविद्यालय के दलित अध्यापक डा. मिथिलेश कुमार गौतम को इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया है कि उसने एक आपत्तिजनक ट्वीट कर दिया था। क्या था, वह ट्वीट? उसमें गौतम ने लिख दिया था कि हिंदू स्त्रियां नवरात्रि के मौके पर नौ दिन उपवास रखने की बजाय संविधान और हिंदू आचार संहिता पढ़ें तो उनको गुलामी और भय से मुक्ति मिल जाएगी।
गौतम के इस कथन में अतिवाद है, इसमें जऱा भी शक नहीं है लेकिन उनका यह कथन अकेला होता कि हिंदू औरतें संविधान आदि पढ़ें तो उसमें कुछ भी गलत नहीं था लेकिन उन्होंने नवरात्र के उपवास का मजाक उड़ाया, यह तो आवश्यक नहीं था। इसके बिना भी वे अपनी बात कह सकते थे। ऐसा नहीं है कि उन्होंने ऊंची जातियों की स्त्रियों का ही मजाक उड़ाया है। इसमें दलित स्त्रियां भी शामिल हैं। लेकिन इस ट्वीट के कारण उन्हें नौकरी से निकाल देना तो उनकी गलती से भी बड़ी गलती है।
भारत स्वतंत्र राष्ट्र है। इसमें हर नागरिक को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है। यदि वह नवरात्रि या किसी भी प्रकार के उपवास को पाखंड मानता है तो मानता रहे। उसे मानने की भी स्वतंत्रता है और अपना विचार प्रकट करने की भी स्वतंत्रता है। यदि विश्वविद्यालय के अधिकारी उससे असहमत है तो उन्हें उसकी काट करने की भी पूरी स्वतंत्रता है। यदि वाराणसी विश्वविद्यालय के निर्णय को सही मान लिया जाए तो भारत में महर्षि दयानंद, आंबेडकर, रामास्वामी नायकर, चार्वाक आदि विचारकों की रचनाओं पर तो पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा।
इन विचारकों ने व्रत, उपवासों के ही नहीं, बड़े-बड़े देवताओं और भगवानों के भी धुर्रे बिखेर दिए हैं। मैं स्वयं हिंदूओं और जैनों के व्रत-उपवासों, मुसलमानों के रोज़ो, ईसाइयों के फास्टिंग, यहूदियों के योम किप्पूर के उपवास आदि को जीवन में बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं लेकिन यदि कोई उनसे सहमत नहीं है तो वह असहमत होने के लिए स्वतंत्र है। उसे नौकरी से निकालना या उसके खिलाफ मुकदमा चलाना या उसे दंडित करना अपने आप में अधर्म है।
डॉ. गौतम का कहना है कि सिर्फ उनके खिलाफ ही नहीं, जितने भी दलित अध्यापक हैं, उनके खिलाफ उस विश्वविद्यालय में तरह-तरह के अभियान चलते रहते हैं, खास तौर से हिंदुत्ववादी तत्वों द्वारा। ये हिंदुत्ववादी लोग वास्तव में हिंदुत्व क्या है, इसे ठीक से समझते ही नहीं हैं। ये लोग वास्तव में मध्यकालीन यूरोप और अरब देशों में प्रचलित धार्मिक अंधविश्वास और अतिवाद की नकल करते रहते हैं। लेकिन अपने आप को स्वतंत्र विचारक कहने वालों का क्या यह कर्तव्य नहीं है कि वे आलोचना तो करें लेकिन दूसरों की भावनाओं को ठोस पहुंचाने से बचें? (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. चन्दर सोनाने
देश में पिछले तीन माह से भी अधिक समय से गायों में लंपी वायरस की महामारी फैली हुई है। इससे करीब 70 हजार से ज्यादा गायों की मौत हो गई है। लाखों गायें मौत से जूझ रही है। हाल ही में एक ओर डरावनी खबर आई है। वह यह कि राजस्थान के सरहदी जिले बाड़मेर के कातरला गाँव में करीब 35 हिरणों में इस लंपी वायरस के लक्षण पाए गए हैं। इनमें से 25 हिरणों की मौत से चारों और खलबली मच गई है। ये सभी हिरण अमृता देवी वन्य जीव संरक्षण संस्थान से सम्बद्ध थे। गायों के बाद हिरणों में इस महामारी के फैलने की खबर ने सबको चिंता में डाल दिया है। आश्चर्य और दु:खद बात यह है कि देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने तीन माह में एक बार भी इस महामारी के संबंध में चिंता व्यक्त नहीं की है। उनकी इस संबंध में चुप्पी और चीतों के नामकरण के बारे में चिंता हैरत में डाल रही है !
दु:खद यह भी है कि अभी तक इस लंपी वायरस का टीका बना नहीं है। इसलिए वैकल्पिक टीके गोट पॉक्स से काम चलाया जा रहा है। यह टीका बकरी और भेड़ों को दिया जाता है। गायों को इसकी तीन गुना ज्यादा डोज देनी पड़ती है। वह भी पर्याप्त मात्रा में नहीं है। कई राज्यों में इस वैकल्पिक टीके गोट पॉक्स की कमी की खबर आ रही है। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश की हालत देखे तो पता चलता है कि मध्यप्रदेश के आधे जिलों में यह महामारी फैली हुई है। इस प्रदेश के 53 जिलों में से 26 जिलों में यह महामारी फैली हुई है। सवा सौ के लगभग गायों की मौत हो गई है और हजारों गाय इससे पीडि़त है।
इस प्रदेश में करीब 35 लाख से अधिक गौवंशी पशु है, किन्तु सितम्बर माह के अंत तक केन्द्र से केवल 14 लाख वैकल्पिक टीके ही प्रदेश को मिले है। इसे प्रदेश के चार केन्द्रों इन्दौर, भोपाल, ग्वालियर और उज्जैन को भेजे गए है। इन केन्द्रों से संभाग के अन्य जिलों में और जिलों से पशु चिकित्सा विभाग के अस्पतालों में भेजे जा रहे है। उन अस्पतालों में टीकाकरण शुरू कर दिया गया है। महामारी से मृत पशु को गाँव या शहर से बाहर स्थानीय प्रशासन की मदद से गड्ढा खोद कर चूना और नमक के साथ दफनाने के लिए समझाइश भी दी जा रही है। किन्तु इसके बावजूद प्रदेश के कई जिलों से वैकल्पिक टीके की कमी की खबर भी आ रही है। यह कहा जा सकता है कि मध्यप्रदेश में ही जितने टीकों की जरूरत है, उससे आधे ही अभी तक पहुँचे है। यह देश की हालत मध्यप्रदेश के उदाहरण से अच्छी तरह से समझी जा सकती है।
देश में यह महामारी 16 से अधिक राज्यों में फैल चुकी है। इन 16 राज्यों में सबसे अधिक प्रभावित 8 राज्यों में गुजरात,राजस्थान, पंजाब,हरियाणा,उत्तरप्रदेश,उत्तराखंड,मध्य प्रदेश और जम्मू-कश्मीर है। इन राज्यों में से सबसे खराब हालत राजस्थान की है। इस राज्य में रोजाना करीब 600-700 पशु महामारी से मर रहे हैं। इस राज्य के सबसे अधिक प्रभावित जिलों में से एक जिला है बाड़मेर । इस जिले में सबसे ज्यादा भयावह स्थिति है। यहाँ मृत पशुओं को दफनाने के लिए जगह कम पड़ गई है। सैकड़ों मृत पशु खुले में पड़े हैं। उन्हें कुत्ते और अन्य पशु-पक्षी नोंच रहे हैं। इससे यह बीमारी और अधिक फैलने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
यह महामारी जुलाई माह से फैलना आरम्भ हुई है। इस महामारी के प्रकोप से किसान और पशुपालक दु:खी और अचंभित है। किन्तु, अभी तक इस महामारी के प्रकोप के नियंत्रण में केन्द्र सरकार तेजी से और व्यापक स्तर पर प्रयास कर रही है, यह कहीं देखने में नहीं आ रहा है ! प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले जुलाई माह के बाद तीन माह के दौरान अपने मन की बात कही है। पिछले माह सितम्बर के अंतिम रविवार को भी प्रधानमंत्री ने अपनी मन की बात कही। किन्तु इस बार भी उन्होंने गायों में और हिरणों में फैल रही इस महामारी का जिक्र तक नहीं किया। उन्होंने जिक्र किया मध्यप्रदेश के कूनो अभ्यारण्य में उनके जन्मदिन पर उनके द्वारा छोड़े गए चीतों के नामकरण के बारे में । प्रधानमंत्री ने लोगों से चीतों के नामकरण के लिए सुझाव देने का भी आव्हान किया। किन्तु पिछले तीन महीनों के बाद सितम्बर माह में भी मन की बात में उन्होंने देश के 16 राज्यों में गौ माता और हिरणों में फैल रही इस महामारी का जिक्र तक नहीं किया। प्रधानमंत्री की इस चुप्पी और मौन के बारे में क्या कहा जाए ?
विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल के गौरक्षक भी गौमाता में फैल रही इस भयंकर बीमारी में सेवा करते हुए कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं ! ये वही गौरक्षक हैं, जो गौ परिवहन में लगे लोगों पर जरा सी बात पर मार-काट पर उतारू हो उठते है और लोगों की हत्या तक कर देते हैं। यदि ये सच्चे गौरक्षक हैं तो उन्हें गायों में फैल रही इस महामारी के नियंत्रण में आगे आकर पीडि़त गायों की सेवा करनी चाहिए!
देश में जिस तरह कोरोना महामारी के नियंत्रण के लिए देशव्यापी महाअभियान आरंभ किया गया था और देश में नए हजारों टीकाकरण केन्द्र स्थापित कर नागरिकों का टीकाकरण किया गया था। ठीक उसी प्रकार गौमाता और हिरणों को बचाने के लिए भी कोरोना नियंत्रण के महाअभियान की तरह ही गायों में और हिरणों में फैल रही इस लंपी वायरस के नियंत्रण के लिए टीकाकरण का महाअभियान आरंभ करने की आज सख्त आवश्यकता है, तभी इस पर नियंत्रण पाया जा सकेगा। अन्यथा यह महामारी देश के उन राज्यों में भी फैल सकती है, जहाँ अभी तक इसका प्रकोप नहीं पहुँचा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मल्लिकार्जुन खडग़े अब कांग्रेस के अध्यक्ष बनेंगे, यह तो तय ही है। यदि अशोक गहलोत बन जाते तो कुछ कहा नहीं जा सकता था कि कांग्रेस का क्या होता? गहलोत को राजस्थान के कांग्रेसी विधायकों के प्रचंड समर्थन ने महानायक का रूप दे दिया था लेकिन गहलोत भी गजब के चतुर नेता हैं, जिन्होंने दिल्ली आकर सोनिया गांधी का गुस्सा ठंडा कर दिया। उन्हें अध्यक्ष की खाई में कूदने से तो मुक्ति मिली ही, उनका मुख्यमंत्री पद अभी तक तो बरकरार ही लग रहा है।
अध्यक्ष बनने के बाद खडग़े की भी हिम्मत नहीं पड़ेगी कि वे गहलोत पर हाथ डालें। गहलोत और कांग्रेस के कई असंतुष्ट नेता भी उम्मीदवारी का फार्म भरने वाले खडग़े के साथ-साथ पहुंच गए। याने समस्त संतुष्ट और असंतुष्ट नेताओं ने अपनी स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने में कोई संकोच नहीं किया। यह ठीक है कि शशि थरुर और त्रिपाठी ने भी अध्यक्ष के चुनाव का फार्म भरा है लेकिन सबको पता है कि इनकी हालत वही होगी जो, 2000 में जितेंद्रप्रसाद की हुई थी।
उन्होंने सोनिया गांधी के विरुद्ध कांग्रेस-अध्यक्ष का चुनाव लड़ा था। उन जैसा शशि थरुर का भी हाल होने वाला है। हालांकि उन्होंने पहले दिग्विजयसिंह, अशोक गहलोत और अब खडग़े के बारे में बहुत ही गरिमामय ढंग से बात की है। 22 साल बाद होने वाले इस चुनाव से क्या कांग्रेस के हालात कुछ बदलेंगे? क्या यह डूबता हुआ सूरज फिर ऊपर उठ पाएगा? यह जाम हुआ चक्का क्या फिर चल पाएगा? कुछ भी कहना कठिन है, क्योंकि कांग्रेस पार्टी पर माँ-बेटा राज तो अब भी पहले की तरह जोर से चलता रहेगा।
हालांकि खडग़े अनुभवी और सुसंयत नेता हैं और उन्हें कर्नाटक की विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा में रहने के अनेक अवसर मिले हैं लेकिन कर्नाटक के बाहर उन्हें कौन जानता है? आम जनता की बात तो अलग है, कांग्रेसी कार्यकर्त्ता भी उन्हें ठीक से नहीं जानते। यह ठीक है कि जगजीवन राम के बाद वे ही पहले दलित हैं, जो कांग्रेस अध्यक्ष बनेंगे।
लेकिन नरेंद्र मोदी ने पहले रामनाथ कोविंद और अब द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर पहले ही नहले पर दहला मार रखा है। कांग्रेस का भाग्योदय अगर होता है तो वह नौकर-चाकरों के भरोसे नहीं हो सकता। उसके मालिकों को गर्व होना चाहिए कि उन्हें ऐसी बगावत नहीं देखनी पड़ रही है, जैसी इंदिरा गांधी ने देखी थी। मालिकों के इस दावे पर कौन भरोसा कर रहा है कि वे अध्यक्ष के इस चुनाव में निष्पक्ष हैं?
माँ-बेटे को खुशी होनी चाहिए कि जिन वरिष्ठ नेताओं ने बगावत की बांग लगाई थी, वे भी उनके आगे अब दुम हिला रहे हैं। इस अध्यक्षीय चुनाव से कांग्रेस के पुनरोदय की जो आशा बनी थी, वह धूमिल हो चुकी है। जब तक कांग्रेस के पास नरेंद्र मोदी का वैकल्पिक नेता और नीति नहीं होगी, वह इसी तरह लडख़ड़ाती रहेगी और भारतीय लोकतंत्र और कांग्रेस का यह दुर्भाग्य होगा कि वह लडख़ड़ाते-लडख़ड़ाते कहीं धराशायी ही न हो जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर के बीच होगा. सवाल उठ रहे हैं कि अध्यक्ष अगर गांधी परिवार का प्रतिनिधि ही रहेगा तो फिर आखिर बदलाव क्या हुआ.
पढ़ें डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष के पद के लिए चुनाव के लिए दो नामों की घोषणा हो गई है. राज्य सभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, लोक सभा सदस्य शशि थरूर और झारखंड सरकार में पूर्व मंत्री के एन त्रिपाठी ने अपना अपना नामांकन पत्र भर दिया है. करीब दो दशक बाद पहली बार गांधी परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति पार्टी का अध्यक्ष बनेगा.
मतदान 17 अक्टूबर को होगा और मतों की गिनती 19 अक्टूबर को होगी. गांधी परिवार के किसी सदस्य ने आधिकारिक रूप से खड़गे को समर्थन देने की घोषणा नहीं की है.
लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत के रेस से बाहर होने के बाद जिस तरह राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने खड़गे को चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया उसके बाद खड़गे की जीत तयमानी जा रही है.
अगर ऐसा होता है तो दशकों बाद कांग्रेस को एक दलित अध्यक्ष मिलेगा. मीडिया रिपोर्टों में बताया जा रहा है कि खड़गे के नामांकन पत्र के प्रस्तावकों में पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी, दिग्विजय सिंह, अजय माकन, भूपिंदर हुड्डा, पृथ्वीराज चव्हाण, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे पार्टी के कई बड़े नेता शामिल हैं. इसे भी उनकी जीत का एक संकेत माना जा रहा है.
80 साल के खड़गे पार्टी के पर्चे बांटने वाले कार्यकर्ता, छात्र नेता, विधायक, सांसद और केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं. उन्हें लंबे समय से गांधी परिवार बड़ी जिम्मेदारियों के लिए चुनता आया है. वो 2014 से 2019 तक लोक सभा में कांग्रेस के नेता थे और 2021 से राज्य सभा में विपक्ष के नेता हैं.
अगर वो कांग्रेस अध्यक्ष बनते हैं तो यह देखना होगा कि वो कांग्रेस के "एक व्यक्ति, एक पद" सिद्धांत के तहत विपक्ष के नेता बने रहते हैं या नहीं. पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम से संकेत यही मिल रहे थे कि भले ही गांधी परिवार का कोई सदस्य चुनाव ना लड़ रहा हो, गांधी परिवार किसी ना किसी उम्मीदवार के पीछे खड़ा जरूर होगा.
राजस्थान की कथित बगावत से पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इसी श्रेणी के उम्मीदवार थे, लेकिन 29 सितंबर को उन्होंने राजस्थान के घटनाक्रम पर अफसोस जताते हुए उसकी नैतिक जिम्मेदारी ली. उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से माफी मांगी और अध्यक्ष पद की दौड़ से खुद को बाहर कर लिया.
बल्कि अब उनके मुख्यमंत्री बने रहने पर भी संदेह है. उन्होंने खुद संकेत दिया कि उन्होंने सोनिया गांधी के सामने अपने इस्तीफे की पेशकश भी की. संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल के मुताबिक राजस्थान के मुख्यमंत्री के विषय पर सोनिया गांधी दो दिनों में फैसला देंगी. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने भारत की महिलाओं के अधिकारों के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। उसने अपने ताजातरीन फैसले में सभी महिलाओं को गर्भपात का अधिकार दे दिया है, वे चाहे विवाहित हों या अविवाहित हों। भारत में चले आ रहे पारंपरिक कानून में केवल विवाहित महिलाओं को ही गर्भपात का अधिकार था। वे गर्भ-धारण के 20 से 24 हफ्ते में अपना गर्भपात करवा सकती थीं लेकिन ऐसी महिलाएं, जो अविवाहित हों और जिनके साथ बलात्कार हुआ हो या जो जान-बूझकर या अनजाने ही गर्भवती हो गई हों, उन्हें गर्भपात का अधिकार अब तक नहीं था।
उसका नतीजा क्या होता रहा? ऐसी औरतें या तो आत्महत्या कर लेती हैं, या छिपा-छिपाकर घर में ही किसी तरह गर्भपात की कोशिश करती हैं या नीम-हकीमों और डॉक्टरों को पैसे खिलाकर गुपचुप गर्भमुक्त होने की कोशिश करती हैं। इन्हीं हरकतों के कारण भारत में 8 प्रतिशत गर्भवती औरतें रोज मर जाती हैं। लगभग 70 प्रतिशत गर्भपात इसी तरह के होते हैं। जो औरतें बच जाती हैं, वे इस तरह के गर्भपातों के कारण शर्म और बिमारियों की शिकार हो जाती हैं।
भारत में गर्भपात संबंधी जो कानून 1971 और संशोधित कानून 2021 में बना, उसमें अविवाहित महिलाअेां का गर्भपात गैर-कानूनी या आपराधिक माना गया था। अब सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसी ही महिला के मामले पर विचार करते हुए सभी महिलाओं को गर्भपात की छूट दे दी है। जाहिर है कि संसद अब इस आदेश को लागू करने के लिए कानून बनाएगी। इसके साथ-साथ अदालत ने यह भी माना है कि यदि कोई विवाहित स्त्री अपने पति के बलात्कार के कारण गर्भवती हुई है तो उससे भी गर्भपात की छूट देनी चाहिए।
यह जरुरी नहीं है कि जो भी अविवाहित महिला गर्भवती होती हैं, वह व्यभिचार के कारण ही होती है। इसके अलावा गर्भपात के लिए अन्य कई अनिवार्य कारण भी बन जाते हैं। उन सब पर विचार करते हुए अदालत का उक्त फैसला काफी सही लगता है लेकिन डर यही है कि इसके कारण देश में व्यभिचार और बलात्कार की घटनाएं बढ़ सकती हैं, जैसा कि यूरोप और अमेरिका में होता है।
दुनिया के 67 देशों में गर्भपात की अनुमति सभी महिलाओं को है। कुछ देशों में गर्भपात करवाने के पहले उसका कारण बताना जरुरी होता है। केथोलिक ईसाई और मुस्लिम राष्ट्रों में प्राय: गर्भपात के प्रति उनका रवैया कठोर होता है लेकिन सउदी अरब और ईरान जैसे देशों में इसकी सीमित अनुमति है। दुनिया के 24 देशों में अभी भी गर्भपात को अपराध ही माना जाता है।
भारत में गर्भपात की अनुमति को व्यापक करके सर्वोच्च न्यायालय ने स्त्री-स्वातंत्र्य को आगे बढ़ाया है लेकिन तलाक के पेचीदा कानून में भी तुरंत सुधार की जरूरत है। तलाक की लंबी मुकदमेबाजी और खर्च से भी लोगों का छुटकारा होना चाहिए। इस संबंध में संसद कुछ पहल करे तो वह बेहतर होगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
डॉ . अरविन्द नेरल
1 अक्टूबर अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर विशेष
बहुत दिन पहले एक कहानी सुनी थी एक वृद्ध के उस संदूक की , जिस पर लटकता मोटा ताला उसके बेटों और बहुओं को यह एहसास कराता रहता था कि बूढ़े के पास अब भी कोई मोटी रकम है और उसे चतुराई के साथ थोड़ी सी चाटुकारी और सेवा टहल करके हथिया लिया जा सकता है। लेकिन वृद्ध ने जब आखरी सांस तो उस मोटे ताले और खाली संदूक की पोल खुली। फिर तो उसकी आत्मा को जमकर कोसा गया।
जी भर जली कटी सुनाई गई , जो इतने लंबे समय तक हर किसी को धोखे में रखकर मुफ्त में इतनी सेवा टहल करवाता रहा । लेकिन किसी को इस घटना के मूल कारण बूढ़ापे के उस दर्द का एहसास नहीं हुआ बुढ़ापे की बेचारगी का वह दर्द , जिसका बोझ वह लाचार बूढ़ा स्वयं बरसों तक ढोता रहा । महज दो निवालों की भूख के चलते बुढ़ापे की यह दास्तान कोई हवाई कयास नहीं कोरी कल्पना अथवा गप नहीं , बल्कि 7 • यथार्थ को झेलते जीवन की दास्तान है , उस निराश्रित से असहाय वृद्ध के जीवन की , जिसके हाथ में टेक लेने के लिए सिर्फ लाठी ही तो है।
जीवन के चौथेपन की मजबूरियों और मोहताजी की गूंज आज हर घर या हर आलीशान कोठी के बंद झरोखों के भी बाहर तक सुनाई देती है । सफेद पत्थरों से बने बेटों के आलीशान भवन में एक ऐसी अंधेरी कोठरी भी होती है , जहां घर के फालतू सामान के साथ साथ पिता को भी रख दिया जाता है। भारी पर्दों वाले घरों की कैसी बेपर्दगी है यह जो इन घरों की नींव रखने वालों कोउफ तक नहीं करने देती ।
जिन चरणों की धूल कभी हर माथे की शोभा होती थी , उसी से आज घर की चौखट के मैली होने की सोच हमारे सामाजिक सांस्कृतिक गिरावट की पराकाष्ठा है। आज की अपसंस्कृति से विकृत जीवन शैली वास्तव में हर बात को उससे होने वाले लाभ और हानि के पैमाने पर परखती है । वृद्ध भी इसी परख का शिकार होकर रह गये हैं। दादा दादी, नाना नानी के साथ नाती पोतों का हाथ पकडक़र चलना , उनके साथ - - स्कूल जाना , खाना पीना , सोना अब किस्से कहानी के अंग बनकर रह गए हैं । उनके दोस्त ( नाती पोते ) भी कंप्यूटर फ्रेंडली हो चले हैं । उपेक्षित बुढ़ापा सुबह उठते ही ईश्वर से मौत की दुआ मांगता है इसलिए उनके दर्द को समझने के लिए शब्दों की नहीं , संवेदना की जरूरत है।
आजादी के वक्त सन् 47 में जहां जीने की औसत उम्र 35 वर्ष के आसपास हुआ करती थी , वहीं आज औसतन 6 4 वर्ष की उम्र तक मनुष्य जी रहा है । भारत में बुजुर्गों की संख्या कुल जनसंख्या का 9.6 प्रतिशत है। यह छोटी संख्या भी भारत की अत्यधिक जनसंख्या के संदर्भ में 138 मिलियन जैसा बड़ा आंकड़ा है।
एक अनुमानानुसार सन् 2025 तक यह संख्या 175 मिलियन ( लगभग 13 प्रतिशत ) होगी । जनसंख्या संबंधित कुछ और आंकड़े हैं जो बुजुर्गों की ओर अधिक ध्यान दिए जाने का आग्रह करते हैं । मसलन इसमें 90 प्रतिशत लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्राप्त नहीं है । 80 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं 55 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं विधवा है और 73 प्रतिशत अशिक्षित है ।
लगभग आधे बुजुर्गों को कोई न कोई लंबी बीमारी है और तकरीबन 4 मिलियन वृद्धजनों को मानसिक रोग है । सेवानिवृत्ति पर मिलने वाली आर्थिक सहायता महज 10 प्रतिशत नौकरीपेशा लोगों को ही नसीब है। असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले 90 प्रतिशत लोगों को यह लाभ नहीं मिलता। 1 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस के अवसर पर समाज के इस महत्वपूर्ण वर्ग के प्रति हमें अपने उत्तरदायित्वों पर चिंतन मनन करने की जरूरत है ।
वृद्धजनों की ब?ती संख्या और उसके फलस्वरूप उनकी सामाजिक , आर्थिक , शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की और लोगों में चेतना और समझ पैदा करने की जरूरत है । अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने पर 60 . वर्ष से अधिक उम्र के लोग भी अपनी तरह की अलग रचनात्मक जिंदगी गुजर बसर कर सकते हैं और समाज को सक्रिय योगदान दे सकते हैं । एक ऐसे माहौल के निर्माण की आवश्यकता है कि जहाँ वे रिटायर होने के बाद भी टायर्ड थका हुआ ) महसूस न करें बल्कि अपने आपको रिडिप्लायड ( पुर्नस्थापित करते हुए जिंदगी के अंतिम पड़ाव को भी सार्थकता प्रदान कर सकें ।
एक निवेदन बुजुर्गों से कि उन्हें भी अपनी सोच बदलनी होगी । उन्हें अपनी बची क्षमता प्रतिभा का लाभ समाज व राष्ट्रहित में सुनियोजित प्रक्रिया से देना होगा । इसके लिए उनका संगठित होना आवश्यक है । वृद्धजन समाज व राष्ट्र निर्माण में अपने अनुभव और कौशल से योगदान दें , तो उनकी छवि बदलेगी अपने वर्चस्व और आदर सम्मान की लड़ाई उन्हें स्वयं ढ्ढ स्न लडऩी होगी । ढलती आयु में भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करते हुए उन्हें परिवार व समाज में स्थान बनाना होगा । समाज के विभिन्न आयु वर्ग के लोगों के साथ सामंजस्य बनाए रखना भी वृद्धों के लिए आवश्यक है । समाज के इस बहुमूल्य और अनुभवी संसाधन का समाज की बेहतरी के लिए अधिकतम इस्तेमाल करना जरूरी है । पुराने लोग नया हौसला भी देंगे , बुजुर्गों से . मिलते रहिए दुआएं देंगे क . (चेयरमेन आश्रय लायन्स वृद्धाश्रम)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यूक्रेन के चार क्षेत्रों में रूस ने जनमत संग्रह करवा लिया और अब अगले सप्ताह उन चारों क्षेत्रों को वह रूस में मिला लेगा। उन्हें वह रूस का हिस्सा बना लेगा। ये चार क्षेत्र हैं- दोनेत्स्क, लुहांस्क, खेरसान और झपोरीझाझिया! इन चारों क्षेत्रों से लाखों यूक्रेनी भागकर अन्य यूरोपीय देशों में चले गए हैं। ये चारों क्षेत्र मिलकर यूक्रेन की 15 प्रतिशत भूमि में हैं। इन क्षेत्रों में ज्यादातर रूसी मूल के लोग रहते हैं।
यूक्रेन कई दशकों तक सोवियत रूस का एक प्रांत बनकर रहा है। इसके पहले भी दोनों देशों में सदियों से घनिष्टता रही है। यूक्रेनी लोग रूस में बसते रहे और रूसी लोग यूक्रेन में लेकिन सोवियत संघ के टूटने के बाद याने यूक्रेन के अलग होने के बाद रूसी और यूक्रेनी लोगों के मतभेद बढ़ते गए। उक्त चारों इलाकों के रूसी मूल के लोग रूस में मिलने के छोटे-मोटे आंदोलन भी चलाते रहे हैं लेकिन रूस ने उस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया।
अब क्योंकि नाटो देशों ने यूक्रेन पर भी डोरे डालने शुरु कर दिए थे, इसीलिए रूसी नेता व्लादीमीर पूतिन ने यूक्रेन के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। उन्होंने इन चारों क्षेत्रों में पांच दिनों तक जनमत संग्रह की नौटंकी रचकर इन्हें रूस में मिलाने की घोषणा कर दी है। इस जनमत संग्रह में 87 से 99 प्रतिशत लोगों ने रूस में विलय के पक्ष में वोट दिए हैं। यूक्रेनी नेताओं ने कहा है कि यह जनमत संग्रह शुद्ध पाखंड है।
रूसी फौजियों ने घर-घर जाकर पेटियों में लोगों से जबर्दस्ती वोट डलवाए हैं। यह पता नहीं कि वोटों की गिनती भी ठीक से हुई है या नहीं? या गिनती के पहले ही परिणामों की घोषणा हो गई है? यूक्रेन की इस आपत्ति को रूसी नेताओं ने निराधार कहकर निरस्त कर दिया है लेकिन असली सवाल यह है कि क्या इस तरह का जनमत-संग्रह उचित और व्यावहारिक है?
रूस ने सीधे कब्जा नहीं किया और उसकी जगह जनमत-संग्रह करवाया यह बेहतर बात है लेकिन यदि इसे सही मान लिया जाए तो आज की दुनिया के कई देशों के टुकड़े हो जाएंगे। पड़ौसी देशों के विधर्मी और विजातीय लोग लाखों-करोड़ों की संख्या में आकर किसी भी देश में बस जाएं तो क्या वे अपना अलग देश बनाने या अपने मूल देश में मिलने के अधिकारी हो सकते हैं?
यदि ऐसा होने लगे तो पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जैसे कई देशों के टुकड़े होने लगेंगे, क्योंकि इन देशों के कई जिलों और प्रांतों में पड़ौसी देशों के लोगों की बहुतायत है। दक्षिण एशिया ही नहीं, दुनिया के लगभग सभी देशों में यह उपक्रम संकट उपस्थित कर सकता है। वह जन-संग्राम और अंतरराष्ट्रीय युद्धों का कारण भी बन सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
परिवार समेत शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी कहीं भुला तो नहीं दिये जाएंगे ?
-अभिषेक उपाध्याय
40 साल से हर दिन बारी-बारी से नियमित सुंदरकांड पढ़ने, भगवान की भक्ति में लीन रहने वाली रायगढ़ की त्रिपाठी दंपति के लिए अब सब कुछ बदल गया। भगवान की जगह चिराग और अगरबत्ती उनके बेटे-बहू-नाती के फोटो के आगे जल रहे हैं। करीब 6 महीने लगे 73 वर्षीय माँ आशा त्रिपाठी को बेटे की शहादत को स्वीकार करने में, वह घर से बाहर नहीं निकल रहीं। अफसोस भरी हर आंखों का सामान कठिन होता है।
77 साल के सुभाष त्रिपाठी हर शाम को अपने पोते से मिलने जाते हैं। पोता उन्हें मिलता है ठीक चिल्ड्रेन पार्क के बगल में, चिल्ड्रेन पार्क में कई सारे बच्चे खेल रहे होते हैं इन्हीं में से एक आवाज 8 वर्षीय अबीर की होती है, शायद नहीं। वह बगल के श्मशान घाट में अपने दादा का इंतजार कर रहा होता है। उसकी आवाज सिर्फ दादा को ही सुनाई देती है। बड़े इत्मीनान से दादा वहां कुछ देर अकेले उसकी कब्र के ऊपर अपने हाथ फिराते और उससे अपनी बात कहते। ललाट के पसीने और आंसू में कोई फर्क नहीं कर सके इसलिए वह धीमे-धीमे 3 किलोमीटर दूर उसके पास जाते और फिर लौट आते अगले दिन की तैयारी के लिये। दादा को एक बात का सुकून है कि जब वो आखिरी बार अबीर से मिले थे वह उन्हें जल्दी आने को कह रहा था। जब वह इस कब्र में गया तो उसे किसी को दिखाया नहीं गया।
अबीर त्रिपाठी, सबसे कम उम्र का शहीद 7 वर्षीय बच्चा। उसकी एकमात्र ख्वाहिश थी कि वह अपने पापा की तरह आर्मी ऑफिसर बनेगा। कम उम्र में वह वॉर रूम प्लानिंग का खेल अपने पिता शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी के साथ खेलता। बाप-बेटे को साथ देख दादा सुभाष त्रिपाठी से ज्यादा कौन खुश होता। वक्त का तकाजा देखिये कि तीनों के शव को कांधा इन्होंने ही दिया। वह कहते हैं कि हम चाहते थे कि अबीर आर्मी ऑफिसर बने पर जीवन के आठवें दशक में प्रवेश करने के कारण जब वह ऑफिसर बनता तो शायद हम जिंदा रहते। वह दादा का दुलारा था तो उसने मेरे जीते जी शहीद होने का दर्जा पा लिया।
अबीर त्रिपाठी ने अपनी माता अनुजा और पिता कर्नल विप्लव त्रिपाठी के साथ बीते साल 13 नवंबर को मणिपुर के चूड़ाचांदपुर में शहादत पाई। भारतीय सैन्य इतिहास में शायद यह पहली मर्तबा होगा कि एक सैन्य अधिकारी की परिवार समेत उग्रवादियों ने घात लगाकर हत्या कर दी।
शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी, कमाडेंट, 46 वीं बटालियन, असम राइफल्स को गैलेंट्री अवार्ड (वीरता सम्मान) दिलाने के लिए सोशल मीडिया से लेकर ग्राउंड स्तर पर प्रयास शुरू हो चुके हैं। परिजन, आमजन राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्री और जनप्रतिनिधियों-अधिकारियों से पत्राचार कर रहे हैं। लोग सोशल मीडिया में खूब लिख रहे हैं। स्थानीय लोग छोटे-छोटे समूह बनाकर सेना से संपर्क साधने की कोशिश कर रहे हैं।
इनकी शहादत को 10 माह बीत चुके हैं सेना खामोश है। राज्य सरकार मौन धरे हुए है। सिंघट पोस्ट पर जवानों को खुद उत्साहवर्धित कर और पत्नी अनुजा त्रिपाठी आर्मी वेलफेयर वर्किंग कमेटी की मुखिया मेडिकल इंस्पेक्शन रूम का उद्याटन कर जवानों को संबल देकर 12 नवंबर की शाम को बेस लौटना चाह रहे थे। उनको अगले दिन के लिए रोका जाता है। अगला दिन यानी 13 नवंबर पूर्वोत्तर भारत में उग्रवादियों का नो मूवमेंट डे होता है। यह बात भारतीय सेना भली भांति जानती है। लेकिन उस दिन क्यों कर्नल विप्लव त्रिपाठी को जाने का आदेश दिया जाता है। जबकि खुफिया तंत्रों ने उग्रवादियों द्वारा किसी बड़े हमले के लिए आगाह किया था। हालांकि यह सब सेना स्तर पर जांच का विषय है और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) इस मामले को देख रही है। सेना के सूत्र बताते हैं कि सेना स्तर पर कोर्ट ऑफ इंक्वायरी हुई और नतीजा क्या हुआ अज्ञात है।
अब असल मसला आता है शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी को भारतीय सैन्य वीरता सम्मान देने का तो वह इसके किस वर्ग में नहीं समाते, यह भी बड़ा सवाल है। कायदे से उनकी यूनिट असम राइफल उनके नाम को वीरता सम्मान के लिए भेजती पर अभी तक उन्होंने नहीं भेजा, शायद इसके पीछे सैन्य प्रशासन से जुड़े तकनीकी कारण हो सकते हैं। क्यूआरटी के शहीद हुए 4 जवान को भी अभी तक पहचान नहीं मिली।
यह वही कर्नल विप्लव त्रिपाठी हैं जिन्होंने इससे पहले की अपनी पोस्टिंग मिजोरम में 46 असल राइफल्स के कमांडेंट रहते हुए म्यांमार बॉर्डर पर ड्रग्स माफियाओं और तस्करों पर ताबड़तोड़ कार्रवाई की थी। मणिपुर बार्डर में भी इनका यही तेवर कायम रहा। तो कहीं सिस्टम की भेंट तो नहीं चढ़ गए कर्नल विप्लव त्रिपाठी। क्योंकि जब इनके नाम को वीरता सम्मान पदक के लिए भेजा जाएगा तो परिस्थितियों का भी जिक्र होगा जिसका संस्था कभी वर्णन नहीं करना चाहती। लेकिन एक सैन्य अधिकारी अपने परिवार समेत शहीद हुआ है। उसने अपने अपने राइफल की पूरी कारबाइन खाली कर दी और सर्विस रिवाल्वर की सारी गोली दुश्मनों पर चलाई फिर भी वह नहीं बच सका और न ही अपने जवानों और परिवार को बचा सका। एक सोची समझी रणनीति का शिकार उसके साथ 4 जवान और 2 परिजन हुए जिसमें उसका 7 साल का बेटा और पत्नी भी शामिल थीं। शहादत की इससे बड़ी कोई और परिभाषा है तो कोई बताए।
शहीद की मां आशा त्रिपाठी रिटायर्ड शासकीय कर्मचारी हैं, 6 महीने तक बदहवास रहने वाली माता को संबल मिला तो उन 4 शहीदों को परिजनों से मिलकर जिनकी उन्होंने यथासंभव मदद की। अब देश के सैन्य अकादमियों में जाकर बेटे-बहू-नाती की स्मृति में कुछ करने की योजना बनाई है। क्योंकि पैसा उनके लिए मायने नहीं रखा मायने हैं तो बेटा-बहू और नाती की स्मृति को बनाए रखना।
छोटा भाई कर्नल अनय त्रिपाठी सेना के कायदे कानून के ऊपर कुछ नहीं सोचता बड़े भाई विप्लव की यही सीख उसने गांठ बांधी है। दोनों भाइयों की मिसाल पूरा रायगढ़ देता है जिनके लिए वे बुलु और बुबलु रहे कोई अधिकारी नहीं। रायगढ़ कभी जान ही नहीं पाया कि विप्लव कितने बड़े अधिकारी थे क्योंकि वह अपने शहर में बुलु रहते हर किसी से एकदम शालीनता से मिलते। पर जब वह गए तो शहर के घरों के चूल्हे बमुश्किल जलें हो। पूरा रायगढ़ उनके आखिरी दर्शन को आया था। बड़े भाई के परिवार की अनुपस्थिति ने छोटे भाई के परिवार को एकाएक वयस्क बना दिया। यहां तक कि 7 वर्षीय ताशी अपना बचपन भूल चुकी है।
समाजसेवक गोपाल अग्रवाल कहते हैं “ बीते कई दिनों से मुख्यमंत्री रायगढ़ जिले में घूम रहे हैं पर उनके पास 1 मिनट का समय शहीद के परिवार से मिलने का नहीं है। शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी की परिवार समेत शहादत पर क्या किसी को कोई शक है। 10 महीने बाद भी उनकी शहादत को किसी तरह की पहचान हीं मिली, आखिर क्यों? जो रायगढ़ की जनता चाहती उससे सरकार को क्या एतराज हो सकता है। जनभावना के साथ यह कैसा खिलवाड़। सिर्फ एक मैदान के आधे –अधूरे नामकरण से जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते वैसे भी यह नगर निगम का फैसला है।“
स्थानीय युवा लक्ष्मीकांत दुबे कहते हैं : "रायगढ़ पिछड़ा क्षेत्र है यहां आर्मी कल्चर है नहीं। पंडालों में शहीद की फोटो, कवि सम्मेलन और क्रिकेट टूर्नामेंट से लोग यदा-कदा याद कर रहे हैं। पर जनप्रतिनिधियों ने तो एक निर्जन मैदान को शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी का नाम देकर अपनी पीठ थपथपा ली है और सूबे के मुखिया भी खुश हैं। जिन्होंने सिर्फ एक ट्वीट कर अपनी संवेदना जताई। हां, लखीमपुर में सड़क हादसे में मरे लोगों को 50-50 लाख मुआवजा बांट देते हैं। पर जब उनके राज्य के शहीद की बात आती है तो चुप हो जाते हैं। मैंने शहीद विप्लव के घर पास कोतवाली परिसर में उनकी प्रतिमा स्थापित करने के लिए पत्र व्यवहार भी किया था लेकिन उसका जवाब अब तक नहीं आया। "
शहादत के समय कई नेता-अधिकारी आए। उन्हीं में से एक ने बताया कि मुख्यमंत्री शहीद परिवार को रायपुर में श्रद्धांजलि देना चाहते थे। घटना के तीसरे दिन 15 नवंबर को लेकर वायुसेना का विमान सीधे रायगढ़ आ गया। इससे शायद उन्हें आघात लगा हो और उन्होंने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया होगा। वरना मुख्यमंत्री का इनके पास आना तो बनता था। हादसा 13 नवंबर को हुआ, शव क्षत-विक्षत थे, 14 को सेना की मेडिकल टीम ने इन्हें जोड़कर दिया पर मणिपुर के मुख्यमंत्री के इंतजार में 14 की जगह 15 नवंबर को विमान रायगढ़ पहुंचा। इधर देर होने के कारण परिजन व्याकुल थे और समय पर अंतिम संस्कार करना जरूरी था। अगर विमान रायपुर होते आता तो अंतिम संस्कार में एक दिन और लग सकता था। सनद रहें बारूद का घाव का शरीर को तेजी से खराब करता है।
तीन महीने पहले स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव रायगढ़ आए तो शहीद को नमन करने गए। परिजनों से बात करने के बाद उन्होंने कहा कि सैन्य संस्थानों में दिये जाने वाले पुरस्कार के नाम को शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी के नाम करने के लिए वह प्रयास करेंगे। पर उनके प्रयास अभी तक नहीं दिख रहे। पर इस मसले पर मुख्यमंत्री का रवैया समझ के परे है।
करते हैं कुछ : सीएम भूपेश बघेल
सितंबर की शुरुआत में करीब 7 दिन मुख्यमंत्री लगातार रायगढ़ दौरे पर थे, कर्नल विप्लव की शहादत के बाद पहली आये थे। कई सभा की, पर कहीं उनका ज़िक्र नहीं किया। उनसे भेंट मुलाकात में पत्रकारों ने पूछ ही लिया तो जवाब गोलमोल देने लगे, बचते रहे। अगले दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस में शहीद को गैलेंट्री अवार्ड देने के लिए राज्य सरकार की ओर से क्या किया जा रहा है पर उन्होंने कहा स्टेडियम का नाम रख दिया है। आगे देखते हैं।
रक्षामंत्री और गृहमंत्री से बात करूंगी: सांसद गोमती साय
रायगढ़ की सांसद गोमती साय ने कहा :” शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी पर पूरे देश को गर्व है देश सेवा में उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। उन्हें सैन्य वीरता सम्मान दिलाने के लिए मैंने प्रधानमंत्री से पत्र व्यवहार किया है। दिल्ली के अगले दौरे में रक्षामंत्री और गृहमंत्री से मुलाकात कर शहीद को वीरता सम्मान के संदर्भ में जरूर बात करूंगी।“
खैर, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य पंडित किशोरी मोहन त्रिपाठी के पौत्र ने अपने खानदान की लेगेसी बनाए रखी। दादा के साथ वह मुग़ल गार्डन में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से मिला था, 5 साल के विप्लव में वहीं से फौज में जाने की प्रेरणा मिली।
यहां यह भी बताना होगा कि चाहे युद्ध काल हो या शांति का समय देश की सुरक्षा के लिए सैनिकों और सैन्य अधिकारियों को सम्मानित करने की सुदृढ़ परंपरा भारत सरकार की रही है। यही नहीं यह भारत सरकार का नैतिक दायित्व भी है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले कई वर्षों से मैं लिख रहा हूँ कि हमारी सरकारें जो दावे करती रही हैं कि देश की गरीबी घटती जा रही है, वे मुझे सही नहीं लगते। यह ठीक है कि देश में अमीरी भी बढ़ रही है और अमीरों की संख्या भी बढ़ रही है लेकिन यदि हम गरीबी की सही पहचान कर सकें तो हमें मालूम पड़ेगा कि देश में हमारे आम लोग गरीब से गरीबतर होते जा रहे हैं। मंहगाई बढ़ती जा रही है, आमदनी घट रही है और लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी दूभर हो रही है।
एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्था, ‘फाइनेंशियल सर्विसेज कंपनी’ के ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत के 80 प्रतिशत लोग 163 रु. रोज से भी कम खर्च कर पाते हैं। जऱा हम सोचें कि क्या डेढ़ सौ रु. रोज में कोई आदमी अपने भोजन, कपड़े, निवास, चिकित्सा और मनोरंजन की व्यवस्था कर सकता है? बच्चों की शिक्षा, यात्रा, ब्याह-शादी आदि के खर्चों को आप न भी जोड़ें तो भी आपको मानना पड़ेगा कि भारत के लगभग 100 करोड़ लोग गरीबी की जिंदगी गुजार रहे हैं।
हमारे लोगों के दैनंदिन जीवन की तुलना जरा हम यूरोप और अमेरिका के लोगों से करके देखें। शहरों और गांवों के उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों को छोड़ दें और देश के अन्य ग्रामीण, पिछड़े, मेहनतकश लोगों को जरा नजदीक से देखें तो हमें पता चलेगा कि वे मनुष्यों की तरह जी ही नहीं पाते हैं। भारत में शारीरिक और बौद्धिक श्रम के बीच इतनी गहरी खाई है कि मेहनतकश लोग पशुओं सरीखा जीवन जीने के लिए मजबूत होते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता है कि उत्तम भोजन, उत्तम वस्त्र और स्वच्छ निवास कैसा होता है?
गरीबी की रेखा को सरकारें ऊँचा-नीचा करती रहती हैं लेकिन करोड़ों लोग कुपोषण के शिकार होते हैं। इसका पता कौन रखता है? देश के लाखों लोगों के पास अपने इलाज के लिए पर्याप्त पैसे ही नहीं होते। वे इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं।
पैसेवालों के लिए ठाठदार निजी अस्पताल हैं, उनके बच्चों के लिए निजी स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय हैं, सरकारी कर्मचारियों और नेताओं के लिए तरह-तरह की सुविधाएं उपलब्ध हैं लेकिन जिन 100 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा के ऊपर बताया जा रहा है, उनकी हालत तो आज भी दयनीय है। देश के 116 करोड़ लोग खुद पर रोज़ 163 रु. से भी कम खर्च कर पाते हैं लेकिन 20 लाख ऐसे भी हैं, जिनका खर्च 4 हजार रु. रोज़ से भी ज्यादा है याने एक साधारण आदमी एक माह में जितना खर्च करता है, उतना खर्च अमीर लोग रोजाना कर डालते हैं।
अमीरी-गरीबी की इस खाई को पाटने के बारे में क्या हमारे नेता कभी कुछ सोचते हैं? हमारे देश के करोड़ों लोग सूखी रोटियों पर गुजारा करते हैं, फटे-टूटे कपड़े-जूते पहनते हैं और झुग्गी-झोंपडिय़ों में अपने दिन काटते हैं। भारत में दान-धर्म का चलन बहुत है लेकिन इससे क्या अमीरी-गरीबी खाई पट पाएगी? (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व गर्ग
अपराध पहाड़ों पर कभी न चढ़ सका था। पहाड़ों से आती अपराध की खबरें एक डंक सी चुभती हैं, खासकर तब जब अपराध की शिकार बेटियां हो रही हों।
जाहिर है जब पूरे देश में महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं तो अब पहाड़ कैसे बचते?
एनसीआरबी की रिपोर्ट से भी जाहिर है 2021 में ही महिलाओं पर हुए अपराधों में 15.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जबकि 2012 में निर्भया कांड के बाद बीजेपी महिलाओं की सुरक्षा के वायदे के साथ केंद्र की सत्ता में आई।
खतरनाक बात है शांत और अपराधमुक्त रहने वाले पहाड़ों से अमानवीय, बर्बर और दहला देने वाली खबरों का आना।
अंकिता पर हुई हैवानियत से उत्तराखंड की उखड़ी-उखड़ी अपराध ग्रस्त तस्वीर सामने है।
जरा गौर फरमाइए हिमाचल की तस्वीर और भी भयावह मिलेगी। अब हिमाचल के पहाड़ों से अपराध रिस-रिस कर हिमाचल को कैसे दागदार बना रहे कभी गौर करिये।
2017 में हिमाचल प्रदेश के शिमला स्थित कोटखाई में गुडिय़ा गैंगरेप-मर्डर के बाद सत्ता में आयी और महिला सुरक्षा च्ज् के तहत 8 घोषणाएं जोर-शोर से की गईं।
उत्तराखंड में जिस तरह महिलाओं पर हुए अपराधों में 36 प्रतिशत की बढ़ोतरी और बलात्कार में 30 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई ठीक वैसे ही पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में बलात्कार के मामले 2016 में जो 244 थे, वो 2018 में बढक़र 345, 2019 में 360 ,2020 में 333, 2021 में लगातार बढ़ते 359 हुए।
दोनों प्रदेशों में बीजेपी की सरकार जिसने घोषणा पत्र में महिला सुरक्षा के बड़े-बड़े वायदे किए।
उत्तराखंड में चुनाव हो चुके और अब हिमाचल की बारी है। गुडिय़ा काण्ड के बाद हिमाचल की जनता को 2017 के घोषणा पत्र जिसे स्वर्णिम हिमाचल दृष्टि पत्र कहा गया और अपराध मुक्त हिमाचल की बात की गई हुआ बिल्कुल उल्टा।
2004 में जहां महिलाओं पर हुए अपराधों के 910 मामले दर्ज किए गए थे वहीं 2021 में यह संख्या बढक़र 1700 तक जा पहुंची है।
ये है वो ‘वर्णिम’ सुरक्षा जो हिमाचल की महिलाओं को जयराम सरकार ने दी।
इनसे पूछिए उत्तराखंड हो या हिमाचल आखिर शांत अपराधमुक्त पहाड़ों का इन्होंने ये क्या हाल कर दिया?
इनके खुद के नेता के बेटे ने उत्तराखंड का सिर दुनिया में झुका दिया।
हिमाचल में महिलाओं पर अपराध बहुत बढ़े हैं। स्वर्णिम घोषणा पत्र के बाद अब कौन सा हीरक आश्वासन देंगे?
उत्तराखंड में ये चुनाव जरूर जीत चुके पर हिमाचल अभी बाकी है।
पहाड़ों की बेटी अंकिता के साथ जो बर्बरता हुई उससे जितना क्रोधित उत्तराखंड है उतना ही हिमाचल भी।
कभी पहाड़ों पर बेटियां तितली की तरह निर्भीक होकर उड़ा करतीं।
पर अब पहाड़ों में अपराध बढ़ रहे, पहाड़ इंसाफ मांग रहे। पहाड़ों में बैठी ये सरकारें न सुरक्षा दे पा रहीं न कर पा रहीं इंसाफ।
दो महीने बाद हिमाचल में चुनाव हैं। हिमाचल से एक बड़ा परिवर्तन शुरू होना चाहिए। एक ऐसा परिवर्तन जो पहाड़ों की ही नहीं मैदानों की बेटियों को भी महसूस हो।
हिमालय से ऐसी शीतल बयार का सबको इंतजार है।
-अरुण माहेश्वरी
यह कांग्रेस का जगत है । सचमुच, भारत की राजनीति के परम ऐश्वर्य का जगत । राजनेताओें के अच्छे-बुरे, सारे लक्षणों की लीला-भूमि का राजनीतिक जगत । आलाकमान की आत्म रति और क्षत्रपों की स्वतंत्र मति-गति । सब साथ-साथ । राजनीति के दुखांत और प्रहसन, अर्थात् उदात्तता और क्षुद्रता, सबके साथ-साथ प्रदर्शन का एक खुला रंगमंच । राजा, वज़ीर, घोड़ों, हाथियों, ऊँटों और प्यादों की अपनी-अपनी चालों और गतियों के शह और मात के अनोखे खेल वाला राजनीति की अनंत संभावनाओं का शतरंज ।
दक्षिण के एक छोर पर भारत के जन-मन को आलोड़ित करती ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और उत्तर के पश्चिमी किनारे पर राजनीति में महलों की काली साज़िशों वाला ‘राजस्थान’ । राजनीति के ‘जन’ और ‘तंत्र’ के दोनों ही रूप साथ-साथ । जिस गहलोत को कल तक पूरी कांग्रेस की बागडोर थमाया जाना तय था, वही अचानक एक अनुशासनहीन बाग़ी कहलाने लगे । और जो पायलट चंद रोज पहले ही घोषित बाग़ी की शत्रु की भूमिका में दिखाई दिया था, उसे ही कांग्रेस में अपनी धुरी की धुन में खोया हुआ आलाकमान अपनी आंख का तारा बन कर बिना नींव के महल का राजा बनाने पर आमादा है । परिणाम सामने हैं । एक ओर जहां भारत जोड़ो यात्रा जारी है और दूसरी ओर कांग्रेस के अध्यक्ष की तलाश भी जारी है । लेकिन इस समग्र जनतांत्रिक और राजनीतिक चर्वणा के बीच जो तय हो चुका है वह यह कि आलाकमान और क्षत्रप, कांग्रेस में दोनों अपनी-अपनी जगह बदस्तूर कायम है और रहेंगे । पार्टी का आलाकमान होने का अर्थ है उसका परम तत्त्व, उसका परमेश्वर और उसके क्षत्रप देश-काल की सीमाओं में उस परमेश्वर की स्वतंत्रता के नाना रूप । कांग्रेस हमेशा से कमोबेस इसी प्रकार केंद्रीयता और संघवाद, स्थानीयतावाद के बीच के संतुलन को साधती रही है । गांधी जी भी कभी अपने को कांग्रेस का अधिनायक कह चुके हैं ।
अभी के कांग्रेस के नए अध्यक्ष के चुनाव और राजस्थान संकट के संदर्भ में निश्चय के साथ सिर्फ यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस को जल्द ही अपना एक नया अध्यक्ष मिलेगा, और अगर यात्रा इसी प्रकार पांच महीनों के लंबे और कठिन रास्ते को तय करती हुई अपने गंतव्य तक पहुंचती है तो उसी के बीच से कांग्रेस ही नहीं, देश के लिए भी निश्चित तौर आगे के नए रास्ते खुलते दिखाई देंगे ।
और, जहां तक राजस्थान का सवाल है, देखने की बात होगी कि कांग्रेस के पुनरोदय के वर्तमान साफ संकेतों, उसके अंदर यात्रा के जरिए नए कार्यकर्ता-नेताओं के निर्माण की संघर्षशील धारा के बीच भी पार्टी के अंदर का संघवाद (क्षत्रपवाद) और अभी के विधायकों आदि का व्यक्तिवाद, उनके तथाकथित जातिवादी और स्थानीय समूहों के समीकरण आगे किस रूप और किस हद तक अपने को बनाए रख पायेंगे । यह सबक सिर्फ कांग्रेस नहीं, सभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक राजनीतिक पार्टियों के लिए काफी उपयोगी साबित होगा ।
कांग्रेस में आज ‘यात्रा’ और ‘क्षत्रपवाद‘ को लेकर जो चर्वणा चल रही है, वह हमें गांधीजी की उस बात की याद दिलाता है जो 12 मार्च 1930 के दिन साबरमती आश्रम से दांडी मार्च के लिए कूच करने के पूर्व कांग्रेस वर्किंग कमेटी के अपने साथियों से उन्होंने कही थी कि — “जब तक मैं शुरू न करूं, प्रतीक्षा कीजिए । मेरे प्रस्थान के साथ ही इसके पीछे का विचार सामने आ जायेगा ।” (D.G.Tendulkar, Mahatma, Life of Mohandas Karamchand Gandhi, Vol.3, page, 20)
तब से अब की यात्रा में एक बुनियादी फर्क यह है कि वस्तुतः कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व अभी यात्रा में, अर्थात् संघर्ष की जमीन पर है और उसके क्षत्रप जन-प्रतिनिधि अपनी सत्ताओं की चिंता में । लेकिन समानता यह है कि यात्रा के अंत तक आते-आते हर हाल में इन दोनों के बीच की दीवार यात्रा के राजनीतिक परिणामों से ही ढहेगी, जैसा सन् ’20 में खिलाफत के सवाल से शुरू हुए गांधी जी के असहयोग आंदोलन से लेकर डांडी मार्च के परिणाम के बीच से हुआ था । निस्संदेह, कांग्रेस भारत की राजनीति के जनतांत्रिक सवालों पर संघर्ष की एक सबसे पुरानी प्रमुख पार्टी की अपनी प्रतिष्ठा को फिर से हासिल करेगी ।
यात्रा अभी केरला से निकल कर कर्नाटक में प्रवेश करेगी, और फिर बीस दिनों बाद तेलंगाना, आंध्र होते हुए महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश में जायेगी । और कहना न होगा, यह यात्रा ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेगी, यात्रा का संदेश उतना ही अधिक, अपने अनेक आयामों के साथ प्रकट होता चला जायेगा, जैसा गांधीजी ने कहा था कि ‘मुझे प्रस्थान करने दीजिए, इस यात्रा के पीछे के विचार सामने आते जायेंगे’ ।
आजादी की लड़ाई के इतिहास से अवगत लोग जानते हैं कि सविनय अवज्ञा की दांडी यात्रा का बीज वास्तव में सन् ’20 के ‘असहयोग आंदोलन’ के समय पड़ गए थे । 1 अगस्त 1920 को गांधी जी ने वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र लिख कर अपने उन सब ख़िताबों को लौटा देने की घोषणा की थी जो उन्हें अंग्रेजों ने मानवता की सेवा में दक्षिण अफ्रीका में उनके कामों के लिए उन्हें दिए थे । अपने उस कदम को उन्होंने ‘ख़िलाफ़त’ के प्रति ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार के ‘विवेकहीन, अनैतिक और अन्यायी रवैये और इस अनैतिकता के पक्ष में उसके एक के बाद एक ग़लत कामों के विरोध में अपने असहयोग का प्रारंभ कहा था’ । उन दिनों कांग्रेस के अंदर मालवीय जी जैसे पुराने लोगों ने गांधीजी के फैसले का विरोध किया था । उनके जवाब में गांधीजी ने लिखा कि “एक उच्चतर कर्त्तव्य का मुझसे तकाजा है कि असहयोग समिति (जिसका गठन मेसोपोटामिया पर ब्रिटेन के कब्जे की योजना की खिलाफत के प्रश्न को केंद्र में रख कर गठित किया गया था — अ.मा.) ने जो कार्यक्रम निश्चित कर दिया है, उससे मैं पीछे न हटूँ । जीवन में कुछ ऐसे क्षण आते हैं जब आपके लिए कोई ऐसा काम करना भी जरूरी हो जाता है जिसमें आपके अच्छे से अच्छे मित्र भी आपका साथ न दे सकें । जब कभी कर्त्तव्य को लेकर आपके मन में द्वंद्व पैदा हो जाये उस समय आपको अपने अन्तर की शान्त और क्षीण आवाज पर ही निर्णय छोड़ देना चाहिए ।”
इसके अलावा इस लेख में उन्होंने दिलचस्प ढंग से व्यक्ति और संगठन के बीच के संबंध को व्याख्यायित करते हुए कांग्रेस और उसके सदस्यों के बीच संबंधों के बारे में लिखा था — “कांग्रेस तो आखिरकार राष्ट्र के विचारों को वाणी देने वाली संस्था है । और जब किसी के पास ऐसी कोई सुविचारित नीति या कार्यक्रम हो जिसे वह चाहे कि सब लोग स्वीकार करें या अपनाएं, लेकिन साथ ही वह उसके पक्ष में जनमत भी तैयार करना चाहता हो, तो स्वभावतः वह कांग्रेस से उस पर विचार करने और उसके सम्बन्ध में अपना मत स्थिर करने को कहेगा । लेकिन जब किसी को किसी नीति विशेष या कार्य विशेष में अडिग विश्वास हो तब उस पर कांग्रेस के मत की प्रतीक्षा करना भूल होगा, ऐसे व्यक्ति को तो उस नीति या कार्यक्रम के अनुसार काम करके उसकी कार्य-साधकता सिद्ध कर देनी चाहिए ताकि सम्पूर्ण राष्ट्र उससे स्वीकार ले ।”
गांधीजी अपने स्वतंत्र मत के विषय को आगे और व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि “किसी भी संस्था में सदा तीन श्रेणियों के लोग आते हैं : एक तो वे जिनके विचार अमुक नीति के पक्ष में हैं, दूसरे वे जिनकी राय उस नीति पर सुनिश्चित किन्तु विपक्ष में होती है और तीसरे वे जिनके इस सम्बन्ध में कोई निश्चित विचार ही नहीं है । कांग्रेस इसी तीसरी और बड़ी श्रेणी के लोगों के एवज में निर्णय लेती है । असहयोग के सम्बन्ध में मैं एक निश्चित विचार रखता हूँ ।”(सम्पूर्ण गांधी वांग्मय, खण्ड 18, ‘कांग्रेस और असहयोग’, पृष्ठ-122-123)
यह है कांग्रेस संगठनात्मक सिद्धांत का एक मूलभूत सच । आजादी के पहले और बाद में भी कांग्रेस के इतिहास में व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह और कांग्रेस नेतृत्व के बीच सीधी टकराहटों के अनेक उदाहरण मिलते हैं । इसमें आलाकमान भी होता है और क्षत्रप और व्यक्तिगत विचार रखने वाला सदस्य भी । बहुमत की अधीनता को मान कर चलने का ऐसा कोई अटल सिद्धांत नहीं है, जिसमें आलाकमान को चुनौती देने वाले का कोई स्थान नहीं होता है । संगठन में आलाकमान की हैसियत एक नैतिक शक्ति की तरह की ज्यादा होती है ।
यही कारण है कि कांग्रेस में बहुत कुछ ऐसा चलता है जो उस दल की आंतरिक संहति को संदेहास्पद बनाता है, पर शायद इसकी यही तरलता उसके सदस्यों के बीच और आमजन से कांग्रेस के संगठन के बीच अन्तर्क्रिया को ज्यादा आसान और व्यापक भी बनाता है । ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का पूरा स्वरूप, जिसे दांडी मार्च की तरह ही स्थानीय लोगों के तमाम हिस्सों के साथ संवाद की एक प्रक्रिया के रूप में स्थिर किया गया है और जिसके साथ ही साथ देश के और भी कई हिस्सों में ऐसी ही यात्राओं के आयोजन की घोषणा की गई है, उन सबसे देश भर में शुरू होने वाले राजनीतिक जन-संवाद के सामने राजस्थान की तरह की घटना और कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव भी शायद बहुत ज्यादा मायने नहीं रखेगा ।
आज के समय में सांप्रदायिक फासीवाद की कठिन चुनौती के मुकाबले में सक्षम एक नई कांग्रेस का उदय जरूरी है और वह ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह के जन-संवाद के प्रभावशाली कार्यक्रमों के बीच से ही संभव हो सकता है ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत लाख मना करें कि उन्होंने अपने कांग्रेस विधायकों को नहीं भड़काया है लेकिन उनकी इस बात पर कौन भरोसा करेगा? उनके 92 विधायकों ने विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफे सौंपकर वह काम कर दिखाया है, जो मेरी याददाश्त में कांग्रेस तो क्या, किसी भी पार्टी के राज्य में ऐसा कभी नहीं हुआ। पहले कई बार दल-बदल हुए हैं, सरकारें गिरी हैं लेकिन किसी पार्टी की इज्जत इस तरह से पहले कभी नहीं गिरी।
सोनिया-राहुल कंपनी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि उनके अपने कर्मचारी उन्हें शीर्षासन करा देंगे। यदि अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बनने के पहले ही यह करिश्मा दिखा सकते हैं तो अध्यक्ष के तौर पर तो वे माँ-बेटे की मिल्कियत को भी उलटवा सकते हैं। राजस्थान में हुए घटना-क्रम की यही व्याख्या दिल्ली से भेजे गए दूत अब लौटकर पार्टी मालिकों को देंगे। गहलोत अपने हाथ झाड़ना चाहेंगे लेकिन लगता यह है कि अब उनका अध्यक्ष पद ही झड़ जाएगा।
यदि सोनिया अब भी गहलोत को अध्यक्ष बनाने पर आमादा होंगी तो वह बहुत बड़ा खतरा मोल लेंगी। यदि गहलोत अब राजस्थान के मुख्यमंत्री ही बने रहे तो भी वे गले की फांस बन जाएंगे। उनका कद माँ-बेटे से भी ऊँचा हो गया है। गहलोत के लिए यह मारवाड़ी कहावत लागू हो रही है- गोड़गड़ी रे, गोड़गड़ी। सासू छोटी, बहू बड़ी।। कांग्रेस के अध्यक्ष पद के जो पिछले तीन-चार चुनाव हुए थे, उनमें भी रोचक नौटंकियां हुई थीं लेकिन इस चुनाव ने सिद्ध किया है कि देश की पार्टियों में अब आंतरिक लोकतंत्र की शुरुआत हो रही है।
राजस्थान के कांग्रेसी विधायकों ने जो सत्साहस किया है, वह सभी पार्टियों के शीर्ष नेताओं को संदेश दे रहा है कि आप अपने वाली चलाना बंद कीजिए। ऊपर से मनचाहे चहेतों को थोपना अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यदि माँ-बेटा नेतृत्व गहलोत के साथ दुर्व्यवहार करेगा तो राजस्थान से भी कांग्रेस का सफाया वैसा ही हो जाएगा, जैसा कि पंजाब से हुआ है। राजस्थान में चली यह नौटंकी सबसे ज्यादा खुश किसे कर रही होगी? शशि थरुर को! और सबसे ज्यादा दुखी, किसको? राहुल गांधी को!
क्योंकि राहुल ने ही केरल से मंत्र मारा था कि ‘एक आदमी, एक पद’। अब आदमी और पद, दोनों ही हवा में लटक गए हैं। गहलोत चाहे तो अपनी नई पार्टी खड़ी करके राजस्थान के मुख्यमंत्री बने रह सकते हैं। वे अन्य कई कांग्रेसी नेताओं की तरह अपने 92 विधायकों को लेकर भाजपा में भी शामिल हो सकते हैं। इस घटना ने गहलोत को महानायक की छवि प्रदान कर दी है। गहलोत ने राहुल गांधी को केरल में करेले का रस पिला दिया है। अब राहुल को तुरंत दिल्ली आकर भारत जोड़ो की बजाय कांग्रेस जोड़ो अभियान चालू करना पड़ेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
100 साल पहले इटली में फासीवाद का उदय हुआ था। इटली के बेनिटो मुसोलिनी के बाद जर्मनी में एडोल्फ हिटलर ने नाजीवाद को पनपाया। इन उग्र राष्ट्रवादी नेताओं के कारण द्वितीय महायुद्ध हुआ। पिछले 77 साल में यूरोप के किसी भी देश में ये उग्रवादी तब पनप नहीं सके लेकिन अब इटली, जर्मनी, फ्रांस और स्वीडन जैसे देशों में दक्षिणपंथी राजनीति तूल पकड़ती जा रही है।
इन पार्टियों के नेता मुसोलिनी और हिटलर की तरह हिंसक और आक्रामक तो नहीं हैं लेकिन इनका उग्रवाद इनके देशों के लिए चिंता का विषय तो बन ही रहा है। ये लोग तख्ता-पलट के जरिए सत्तारुढ़ नहीं हो रहे हैं। लोकप्रिय वोटों से चुने जाकर ये लोग सत्ता के निकट पहुंचते जा रहे हैं। इटली में ‘बदर्स ऑफ इटली’ की नेता श्रीमती जिर्योजिया मेलोनी के प्रधानमंत्री बनने की पूरी संभावना है।
उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी और मत्तेओ साल्विनी की पार्टियों के साथ मिलकर कल चुनाव लड़ा था। मेलानी (45) अभी युवा हैं, बर्लुस्कोनी (85) के मुकाबले और जब वे छात्रा थीं तो ‘इटालियन सोश्यल मूवमेंट’ में काफी सक्रिय रही हैं। यह संगठन मुसोलिनी के समर्थकों ने खड़ा किया था। बाद में मेलोनी सांसद और मंत्री भी बनीं। वे आजकल दावा करती हैं कि वे फांसीवादी बिल्कुल नहीं हैं लेकिन किसी जमाने में वे मुसोलिनी की काफी तारीफ किया करती थीं।
मारिया द्राघी की पिछले सरकार में कई पार्टियां गठबंधन में शामिल हुई थीं लेकिन मेलोनी की अकेली बड़ी पार्टी थी, जो विपक्ष में बैठी रही थी। इसीलिए अब ‘ब्रदर्स ऑफ इटली’ पार्टी को इटली की जनता काफी महत्व दे रही है। उम्मीद यही की जा रही है कि कल संपन्न हुए आम चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें इसी पार्टी को मिलेंगी। मेलोनी यदि प्रधानमंत्री बन गईं तो वे सिर्फ गरीबों का ही नहीं, सबका टैक्स घटाएंगी, इटली की जनसंख्या को प्रोत्साहित करेंगी, प्रवासियों को आने से रोकेंगी और इटली के मामलों में यूरोपीय संघ की दखलंदाजी को नियंत्रित करेंगी।
वे इस्लामी तत्वों के साथ सख्ती बरतने पर भी आमादा हैं। वे गर्भपात-विरोधी हैं। वे स्त्री-अधिकार और अन्य कई सामाजिक प्रश्नों पर कट्टर पोंगापंथी रवैया अपनाए हुए हैं। यूक्रेन के मामले में वे रूस का भी डटकर विरोधी कर रही हैं। पता नहीं, उनकी गठबंधन सरकार कितने दिन चलेगी, क्योंकि उनके सहयोगी नेताओं का रूख इन समस्याओं पर जऱा नरम है। वे यूक्रेन से ज्यादा रूस के प्रति सहानुभूतिपूर्ण हैं। मेलोनी ने इधर मुसोलिनी की आलोचना भी शुरु कर दी है। ऐसी आशंका कम ही है कि इटली समेत यूरोप के अन्य देशों में अब फासीवाद या नाजीवाद का उदय दुबारा हो सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
- ज़ारिया गॉर्वेट
संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 15 नवंबर, 2022 को दुनिया में इंसानों की आबादी आठ अरब हो जाएगी.
जनसंख्या वृद्धि ने लोगों के बीच बड़ा विभाजन पैदा कर दिया है. कुछ लोग इससे चिंतित हैं तो कई लोग इसे सफलता की अभूतपूर्व कहानी बता रहे हैं. वास्तव में दुनिया में तेज़ी से एक ऐसी विचारधारा पनप रही है जो मानती है कि हमें और लोगों की ज़रूरत है.
साल 2018 में अमेज़ॉन के संस्थापक जेफ़ बेज़ोस ने एक ऐसे भविष्य का अनुमान लगाया, जब हमारे सौर मंडल में एक अरब इंसान फैल जाएंगे. उन्होंने एलान किया कि वे इस लक्ष्य को पाने की योजना बना रहे हैं.
इस बीच, ब्रिटिश ब्रॉडकास्टर और प्रकृति के इतिहासकार सर डेविड एटनबरो सहित कई लोगों ने इंसानों की इतनी बड़ी आबादी को 'पृथ्वी पर प्लेग' का नाम दिया है.
इस नज़रिए के अनुसार, आज हम पर्यावरण से जुड़ी जिस समस्या से जूझ रहे हैं, चाहे वह जलवायु परिवर्तन हो, या जैव विविधता का नुकसान, जल संकट हो या भूमि संघर्ष, उन सबका संबंध पिछली कुछ सदियों के दौरान तेज़ी से बढ़ी हमारी आबादी से है.
1994 में दुनिया की आबादी जब केवल 5.5 अरब थी. तब कैलिफ़ोर्निया की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने गणना की थी कि इंसानी आबादी का आदर्श आकार 1.5 से 2 अरब होना चाहिए.
तो क्या वाक़ई दुनिया की आबादी बहुत ज़्यादा है? और इंसानों के वैश्विक प्रभाव का भविष्य क्या है?
एक बहुत पुरानी चिंता
प्लेटो के मशहूर ग्रंथ 'द रिपब्लिक' में 375 ईस्वी पूर्व के लगभग दो काल्पनिक राज्यों के बारे में चर्चा की गई है. एक जहां 'स्वस्थ' है, वहीं दूसरा 'विलासी' है पर 'अस्वस्थ'.
दूसरे राज्य की आबादी अपनी ज़रूरत से अधिक विलासी जीवन जीना पसंद करती है और इसमें बहुत धन ख़र्च करती है.
नैतिक रूप से जर्जर यह राज्य आखिरकार पड़ोसी भूमि पर कब्जा करने की कोशिश करता है और उसकी यह कोशिश अंततः युद्ध में बदल जाती है.
यह राज्य बिना अतिरिक्त संसाधनों के अपनी विशाल और लालची आबादी का बोझ नहीं संभाल सकता.
इस कहानी का सहारा लेकर प्लेटो ने एक सवाल उठाया था, जो आज भी प्रासंगिक है. समस्या क्या है, इंसानी आबादी या उसकी ओर से किए जाने वाला संसाधनों का उपभोग?
1798 में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध शोध, 'जनसंख्या के सिद्धांत पर एक निबंध' में थॉमस माल्थस ने इंसानों की दो मूल प्रवृतियों 'भोजन और सेक्स' का ज़िक्र किया.
अपने इस निष्कर्ष को उन्होंने जब तार्किक अंज़ाम तक पहुंचाया तो समझाया कि इस वजह से आपूर्ति से ज़्यादा मांग के हालात पैदा हो जाते हैं.
माल्थस ने लिखा, ''जनसंख्या को जब बेलगाम छोड़ दिया जाता है, तो यह ज्यामितीय अनुपात में बढ़ती है. वहीं जीवनयापन के साधन केवल अंकगणितीय अनुपात में ही बढ़ते हैं.''
सरल शब्दों में कहें, तो आबादी जितनी तेज़ी से बढ़ती है, उसकी तुलना में संसाधनों का उत्पादन और उसकी आपूर्ति बहुत धीमी गति से बढ़ती है.
माल्थस की इन बातों का तुरंत प्रभाव हुआ. इससे कइयों में भय और कइयों में ग़ुस्सा बढ़ा, जो दशकों तक समाज में दिखता रहा.
एक समूह ने सोचा कि आबादी को क़ाबू से बाहर जाने के लिए कुछ करना चाहिए. वहीं दूसरे समूह का मानना था कि आबादी को नियंत्रित करने का प्रयास बेतुका या अनैतिक है. इस समूह की राय थी कि आबादी नियंत्रित करने के बजाय उन्हें खाद्य आपूर्ति बढ़ाने की हरसंभव कोशिश करनी चाहिए.
माल्थस का निबंध जब प्रकाशित हुआ था, उस समय पृथ्वी पर केवल 80 करोड़ लोग थे.
हालांकि दुनिया की बेशुमार जनसंख्या के बारे में आधुनिक चिंताएं 1968 में जाकर सामने आ पाई, जब स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल एर्लिच और उनकी पत्नी ऐनी एर्लिच ने 'द पॉपुलेशन बम' नामक किताब लिखी.
यह किताब भारत की राजधानी नई दिल्ली के बारे में थी.
उन्होंने अपने अनुभवों को बयान किया था. एक रात जब वे दोनों टैक्सी से होटल लौट रहे थे, तब उनकी टैक्सी किसी गरीब इलाके से गुजरी. उस दौरान सड़कों पर इंसानों की हद से ज़्यादा भीड़ देखकर वे विचलित हो गए.
उन्होंने अपने अनुभव को जिस तरह से बयान किया था, उसकी बड़ी आलोचना हुई. यह आलोचना इसलिए भी हुई कि उस समय ब्रिटेन की राजधानी लंदन की आबादी नई दिल्ली से दोगुनी से भी ज़्यादा थी.
इस दंपति ने अपनी इस किताब में अकाल की चिंता पर विस्तार से लिखा था. इन दोनों का मानना था कि विकासशील देशों में जल्द ही अकाल आने वाला है. उन्होंने यह आशंका अमेरिका के बारे में भी जताई, जहां लोग पर्यावरण पर पड़ रहे असर को महसूस करने लगे थे.
अधिक जनसंख्या से सामने आ रही आज की अधिकांश चिंताओं को सामने लाने के लिए उनकी इस किताब को बहुत श्रेय दिया जाता है.
परस्पर विरोधी नज़रिया
दुनिया की आबादी कब अधिकतम सीमा को छुएगी, इसे लेकर अलग-अलग अनुमान हैं. लेकिन अनुमान है 2070 से 2080 के बीच पृथ्वी पर इंसानों की अधिकतम आबादी 9.4 से 10.4 अरब के बीच पहुंच सकती है.
संयुक्त राष्ट्र को उम्मीद है कि यदि हमारी आबादी 10.4 अरब के स्तर तक पहंचती है, तो उस स्तर पर लगभग दो दशकों तक स्थिर रहेगी. लेकिन उसके बाद आबादी घटना शुरू हो जाएगी.
इस अनुमान ने हमारे भविष्य को लेकर परस्पर विरोधी विचार पैदा किए हैं.
एक ओर वे लोग हैं, जो कुछ इलाकों में कम होती प्रजनन दर को संकट के रूप में देखते हैं.
जनसांख्यिकी के एक विद्वान ब्रिटेन की गिरती जन्मदर से इतने चिंतित हैं कि उन्होंने संतानहीन लोगों पर टैक्स लगाने का सुझाव दिया है.
ब्रिटेन में 2019 में प्रति महिला औसतन 1.65 बच्चे पैदा हुए. यह 2075 में जनसंख्या को घटने से रोकने के लिए ज़रूरी जन्म दर से कम है. हालांकि दूसरे देशों से आने वाले प्रवासियों के कारण जनसंख्या में वृद्धि होती रहेगी.
वहीं दूसरी तरफ वो लोग हैं, जिनका विचार है कि दुनिया की जनसंख्या वृद्धि को धीमा करना और रोकना बहुत ज़रूरी है. इनका यह भी मानना है कि लोगों पर बिना दबाव डाले स्वैच्छिक साधनों से ही जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाई जा सकती है.
ऐसे लोगों का मानना है कि इससे न केवल पृथ्वी का भला होगा, बल्कि दुनिया के सबसे गरीब लोगों के जीवन में भी सुधार हो सकता है.
वहीं कुछ लोगों का मानना है कि आबादी की वृद्धि दर कम करने या न करने की बहस बेकार है. इनका मानना है कि इंसानों के द्वारा उत्पादों की ख़पत पर लगाम लगाई जानी चाहिए.
इनका तर्क है कि कोई इंसान संसाधनों की जो ख़पत करता है, उसका हम पर अधिक असर पड़ता है. इसलिए अपनी निजी ज़रूरतें कम करके सबसे गरीब देशों में विकास प्रभावित किए बिना भी बढ़ती आबादी का असर कम किया जा सकता है.
दुनिया के पिछड़े हिस्सों की जनसंख्या वृद्धि कम करने में पश्चिमी देशों की रुचि के चलते आरोप लगाया जाता है कि वे नस्लवाद का भाव रखते है. ऐसा इसलिए भी कि यूरोप और उत्तरी अमेरिका कुल मिलाकर बहुत घनी आबादी वाले क्षेत्र हैं.
पर्यावरण पर असर
बहरहाल इस बहस से परे पृथ्वी पर इंसानी प्रभाव के आंकड़े चौंकाने वाले हैं.
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि एजेंसी (एफएओ) के अनुसार, पृथ्वी की सतह के 38 फ़ीसदी हिस्से का इस्तेमाल मनुष्य या उनके पशुओं के लिए भोजन और अन्य उत्पाद (जैसे ईंधन) पैदा करने में होता है. यह रकबा करीब पांच करोड़ वर्ग किलोमीटर है.
हमारे पूर्वज पृथ्वी पर एक समय कई विशाल जीवों के बीच रहा करते थे, लेकिन आज इंसान पृथ्वी की सबसे प्रभावी रीढ़ वाली प्रजाति है.
वज़न के हिसाब से आंके तो रीढ़ वाले जीवों में इंसानों का वज़न प्रतिशत सबसे अधिक 32 है. वहीं जंगली जानवरों का आंकड़ा केवल एक प्रतिशत है. बाक़ी हिस्से में मवेशी हैं.
विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के अनुसार, 1970 से 2020 के बीच दुनिया में जंगली जीवों की आबादी में दो तिहाई की कमी आई है. लेकिन इसी अवधि में दुनिया की आबादी दोगुने से अधिक हो गई है.
वास्तव में, इंसान का प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ा है, वैसे-वैसे पर्यावरण में कई बदलाव हुए हैं. इसे लेकर दुनिया के कई बड़े पर्यावरणविदों और प्रकृतिवादियों ने अपनी चिंता जाहिर की है.
2013 में, एटनबरो ने 'रेडियो टाइम्स' नाम की एक पत्रिका में लिखा, ''पर्यावरण की हमारी सभी समस्याओं का हल आबादी कम होने पर आसान रहता है और आबादी अधिक होने पर इसे हल करना असंभव हो जाता है.''
मानवता की भलाई की चिंता करते हुए कई लोगों ने कम बच्चे या एक भी बच्चा पैदा न करने का फ़ैसला किया है.
समय के साथ बच्चे न पैदा करने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ती जा रही है. इन महिलाओं ने एलान किया है कि जब तक 'क्लाइमेट इमरजेंसी' और जीवों के विलुप्त होने की समस्या दूर नहीं हो जाती, तब तक वे 'बर्थ स्ट्राइक' यानी 'बच्चे पैदा न करने की हड़ताल' करेंगी.
आज बड़े पैमाने पर माना जा रहा है कि लोग दुनिया के सीमित संसाधनों पर लगातार दबाव डाल रहे हैं. इसके लिए अब 'अर्थ ओवरशूट डे' मनाकर बताया जा रहा है.
हर साल इस दिन यह अनुमान लगाया जाता है कि मानवता ने सभी जैविक संसाधनों का उस स्तर तक दोहन कर लिया है, जिसकी पृथ्वी सतत रूप से भरपाई कर सकती है.
2010 में इसे आठ अगस्त को मनाया गया, जबकि 2022 में इसकी तारीख़ 28 जुलाई थी.
'8 बिलियन एंड काउंटिंगः हाउ द सेक्स एंड माइग्रेशन शेप ऑवर वर्ल्ड' नाम की किताब के लेखिका जेनिफर स्क्यूबा लिखती हैं, ''क्या यह समस्या बहुत अधिक इंसानों की है या हमारे द्वारा उपयोग किए जाने वाले संसाधनों की है, या दोनों है. मैं सोच भी नहीं सकती कि पर्यावरण के लिए और अधिक मनुष्य कैसे बेहतर साबित हो सकते हैं.''
हालांकि, स्क्यूबा बताती हैं कि जल्दी ही सामने आने वाले 'जनसंख्या बम', जिससे पृथ्वी का विनाश हो जाएगा, वाला विचार अब पुराना हो गया है.
उनके अनुसार, यह विचार जब दिया गया था, तब दुनिया के 127 देशों में महिलाओं की औसत प्रजनन दर पांच या अधिक थी.
उस दौर में, बढ़ती जनसंख्या के रुझान वाक़ई में बहुत ख़तरनाक मालूम पड़ते थे. उनका मानना है कि इसके चलते बढ़ती जनसंख्या ने कई पीढ़ियों के मन में एक दहशत बैठा दी, जो आज भी जीवित है.
वे कहती हैं, ''लेकिन आज औसतन पांच से अधिक बच्चे पैदा करने वाले देशों की संख्या केवल आठ है. ऐसे में मुझे लगता है कि ये महसूस करना अहम है कि अब वे रुझान बदल गए हैं.''
सुखद भविष्य की कल्पना
जनसांख्यिकी पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि यह बहुत बड़ी छिपी हुई शक्ति भी होती है, जो लोगों के जीवन की गुणवत्ता को संवारती भी है.
पेंसिल्वेनिया की ड्रेक्सेल यूनिवर्सिटी में ग्लोबल हेल्थ के प्रोफेसर एलेक्स एजेह के अनुसार, किसी देश में लोगों की संख्या सबसे अहम चीज़ नहीं है.
इसके बजाय, जनसंख्या वृद्धि या गिरावट की दर से उसके भविष्य का पता चलता है.
उनके अनुसार, अफ्रीका को ही ले लें, जहां विभिन्न देशों में जनसंख्या की वृद्धि दर अलग अलग है.
''कई देशों ख़ासकर दक्षिणी अफ्रीका में, प्रजनन दर कम हो गई है और वहां गर्भनिरोधक का उपयोग बढ़ गया है, जो एक अच्छी ख़बर है.''
वहीं, मध्य अफ्रीका के कई देशों में अभी भी उच्च प्रजनन दर और लंबी उम्र की संभावना की वजह से जनसंख्या वृद्धि की दर ज़्यादा है.
वे कहते हैं, ''कई जगहों पर यह दर 2.5 से अधिक है, जो बहुत ज़्यादा है. कई देशों में तो हर 20 सालों में जनसंख्या दोगुनी हो जाएगी.''
उनके अनुसार, ''मुझे लगता है कि आकार और संख्या को लेकर हो रही बातचीत भटक गई है.''
''जरा एक ऐसे शहर के बारे में सोचें जिसकी आबादी हर 10 साल में दोगुनी हो जा रही है. वहां की सेवाओं की कवरेज़ दुरुस्त रखने के लिए हर 10 साल में जो संसाधन चाहिए, क्या वो किसी सरकार के पास वाक़ई हैं?
''अर्थशास्त्री सोचते हैं कि बड़ी आबादी कई अलग-अलग नतीज़ों के लिए अच्छी है लेकिन बड़ा सवाल है कि आबादी कितने सालों में बढ़ रही है?''