विचार/लेख
1971-80 के दशक की पांच घटनाएं चुनकर युवा पत्रकार सुदीप ठाकुर ने करीब 200 पृष्ठों में एक वृत्तांत समेकित किया है। वह जानकारियों, सूचनाओं, सांख्यिकी, इंटरव्यू, रिपोर्ताज वगैरह से लकदक होकर कई अव्यक्त इशारे भी करता है जिनमें से उभरकर वस्तुपरक सच किसी भी तटस्थ लेकिन सक्रिय व्यक्ति को झिंझोड़ सकता है। पुस्तक जब सुदीप ने भेजी, तो अंदाज नहीं था कि वह तुरतफुरत पढ़ लेने के लिए आग्रह के बदले मजबूर कर देगी। उसमें लेखकीय विनम्रता, आत्ममुग्धविहीनता, भाषा की कसावट और समुद्र की लहरों की तरह तर्कों का उछाल सराबोर कर देगा। पूरा पढ़ लेने के बाद संतोष और अनुतोष हासिल होकर इस बात के लिए कुरेदेगा कि या तो इसमें से बहुत कुछ मालूम नहीं था क्योंकि हालिया इतिहास के ज्ञान को लेकर एक नैतिक अहम्मन्यता अंदर ही अंदर गर्वोन्मत्त हो रही थी। अथवा जो भूल गए को याद दिला दे और अपनी अनोखी नजर पाठक के हवाले कर दे। वह अहसास भी किताब की सफलता का एक पैमाना हो गया लगता है। किताब को पिछले पृष्ठों से पढ़ेे ंतो खुद सुदीप के अनुसार 1971-80 के दशक में हुई कुछ घटनाएं मसलन गर्भपात को वैधता (1971), बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (1971), चिपको आंदोलन (1973), पहला परमाणु परीक्षण (1974), सिक्किम का विलय (1965), आर्यभट्ट का प्रक्षेपण (1975), दूरदर्शन की स्थापना और असम आंदोलन (1979) पर विस्तार से नहीं लिखा गया है। यह लेखक की समझ है कि उसने गरीबी, प्रिवीपर्स समाप्ति, कोयला-कथा, परिवार-नियोजन और आपातकाल जैसे पांच विषयों को चुनकर उन्हें विस्तारित, व्याख्यायित और सिलसिलेवार तार्किक किया है। पांचों मुद्दे लेखक के अनुसार आज तक कमोबेष अपनी अनुगूंज में कहीं न कहीं और कभी न कभी कुलबुला रहे हैं। ये लोकतंत्र की बुनियाद में पैठ गए हैं कि चाल चरित्र और चेहरे के त्रिभुज में रहते इनकी धडक़न सुनी, देखी और महसूस की जा सकती है।
आज कॉरपोरेट की गिरफ्त में हिन्दुस्तान है। तब सीधे सीधे उनकी गिरफ्त में नहीं था, क्योंकि अंगरेज भारतीयों की छाती पर चढ़े बैठे थे। एक बड़ेे भौगोलिक हिन्दुस्तान की सरहदों के अंदर सैकड़ों छोटे बड़े राजे रजवाड़े हुकूमतगाह थे। वहां रियाया दोहरे अन्याय का शिकार थी। फेबियन समाजवाद से ज्यादा प्रभावित आजादी के बाद देष बचाने के सबसे बड़ेे सूरमा जवाहरलाल को राजे रजवाड़ेे देख, सूंघकर लगता रहा जैसे नाक पर मक्खी बैठ जाने के बोध से होता है। नेहरू ने अपने यूरोप प्रवास में रूस सहित कई देशोंं के हालात का रूबरू जायजा लिया। संकुल परिस्थतियों मेंं भी जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया। नेहरू के बाद उनकी बेटी के प्रधानमंत्री काल की सबसे बुनियादी समस्याओं को लेकर सुदीप ने अपनी सुगठित किताब लिखी है। इंदिरा गांधी नेहरू की तरह फेबियन या माक्र्सवादी अध्ययन के कारण समाजवादी नहीं थीं। उनकी राजनीतिक समझ ने नेहरू के वैचारिक गर्भगृह से जन्म नहीं लेकर महात्मा गांधी, फिरोज गांधी, कृष्ण मेनन, जयप्रकाश नारायण, लोहिया, मोहन कुमार मंगलम और कई नौकरशाहों, जिनमें से ज्यादातर कश्मीरी रहे हैं, समाजवाद को दार्शनिक उपपत्ति से कहीं ज्यादा राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के हथियार के रूप में इस्तेमाल की है। राजशाही और इजारेदारी के धाकड़ों ने मिलकर लोकतंत्र को दूध की हांडी और इंदिरा को मक्खी समझना शुरू किया। तब जवाहरलाल की बेटी ने पलटवार किया। संवैधानिक, कानूनी और राजनीतिक औपचारिकताओं को धता बताकर इंदिरा ने राजशाही का अंत किया और प्रिवी पर्स भी बंद कर दिए।
इस संदर्भ में सुदीप ने सुप्रीम कोर्ट के तीन चार बड़ेे फैसलों का हवाला दिया है। उनके अनुसार ज्यादातर चुनौतियां कांग्रेस के अंदरखाने से कुछ राजे रजवाड़ों ने ही उठाई थीं। उनमें माधवराव सिंधिया का नाम प्रमुख रहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को निष्प्रभ कर देना हो, तो नए और चतुर संशोधन किए जा सकते हैं, बशर्ते संसद में दो तिहाई बहुमत हो। इस हथियार का इस्तेमाल करते इंदिरा ने सियासी फतह हासिल कर ली, लेकिन उसका ताजा प्रतिफलन यह भी हुआ कि नरेन्द्र मोदी की हुकूमत के सामने सुप्रीम कोर्ट को मालूम है कि भलाई इसी में है कि सहयोजन और समायोजन के शब्दों के शब्दार्थ नहीं फलितार्थ ढूंढे जाएं। बड़ेे दिलचस्प बयान हैं सुदीप की किताब में राजाओं की राजमहली बेचैनी को लेकर। कई समाजवादी नेताओं का जिक्र है जिनमें इंदिरा के खिलाफ चुनाव याचिका दाखिल करने वाले राजनारायण का उल्लेख है। कई राजाओं, रानियों के नाम हैं। सरदार पटेल और व्ही. पी. मेनन की हिकमतों का बयान है। यह पढक़र मुझे अच्छा लगा कि राजशाही और प्रिवीपर्स के खात्मे को लेकर दमदार तकरीर कम्युनिस्ट सदस्य भूपेश गुप्त ने की। संसदीय राजनीति में कई धनुर्धर हुए हैं जो निर्दलीय या छोटी पार्टियों के सदस्य रहे हों लेकिन उनकी आवाज इतिहास में प्रतिध्वनि की तरह गूंज रही है।
काले रंग का कोयला खदानों में दबा दबा आखिर हीरा भी बन जाता है। इतिहास में भी कई घटनाएं मनुष्य की उत्पत्ति और हैसियत का अनिवार्य चरित्र बन जाती हैं। कोयला भारतीय राजनीति और आर्थिक जीवन में एक तरह की भूमध्य रेखा की तरह संतुलन की तुला पर डंडी भी मारता है। लेखक या शोधकर्ता बहुत गंभीर या धैर्यवान नहीं है तो कोयले को अपने सामाजिक चिंतन की भूमिका में बुनियादी महत्व का नहीं मानेगा। वही कोयला इंदिरा गांधी के कार्यकाल मे कई गफलतें कर रहा था। कोयला उत्पादक बिहार के क्षेत्र में राजनीतिक गुंडागर्दी, अपराध और हेकड़बाजी को लेकर उजले कपड़ों वाले सियासतदां अपनी नीयत और दिल में लगातार कोयला मल रहे थे। कोयले का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी के कारण एक बड़ी राष्ट्रीय घटना हुई। आपातकाल के अभिषापों में अब यह स्वीकृत है कि संजय गांधी के हस्तक्षेप के कारण अत्याचार जनता पर नसबंदी और परिवार नियोजन को लेकर हुए हैं। वह इंदिरा गांधी के राजनीतिक पतन का बड़ा कारण रहा है। किताब में बहुत विस्तार से उन सब घटनाओं, परिदृष्यों, राजनीतिक उठापटक और नेपथ्य की हरकतों का हवाला है, जो आमतौर पर उजागर नहीं हो पाते। आपातकाल के वक्त अभिव्यक्ति पर ही पहरा था। संजय गांधी को उनकी मां इंदिरा गांधी की विवशता के संदभ में अकेला खलनायक भी बना दिया गया था। पूरी इंदिरा मंत्रिपरिषद के सदस्य तक संजय गांधी की गैरसंवैधानिक मंत्रिपरिषद की टीम के सदस्य थे।
इसी बीच गुजरात के छात्रों की ओर से एक जलजला पैदा किया गया। असंतोष, आक्रोश और जोष के पूरे माहौल में वर्षो से शांत अलग थलग और उपेक्षित लगते बीते जमाने का एक पौरुषपूर्ण किरदार मैदान में आकर बागडोर संभालने अपनी भूमिका से बेरुख नहीं रह सका। यह किरदार था अतीत के राजनीतिक नायक जयप्रकाश नारायण का। कभी उन्हें गांधी ने लोहिया के साथ भारत की आत्मा कहा था। जवाहरलाल नेहरू ने इंदिरा गांधी को नहीं जयप्रकाश नारायण को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी कहा था। जेपी के नाम से मशहूर चर्चित किरदार ने लेकिन अज्ञात और अनसुलझे हालातों में जनसंघर्ष का मोर्चा छोडक़र विनोबा भावे के भूदान आंदोलन जैसे ‘बोनलेस चिकन चिली’ कहलाते प्रकल्प से खुद को जोड़ लिया। देश के नौजवानों की चुनौतियों से बेखबर या अनजान होकर जयप्रकाश ने डाकुओं को आत्मसमपज़्ण कराना अपने एजेंडा में रखा।
अब उत्तरप्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने भी आबादी नियोजन को लेकर कई फैसले किए हैं। उनमें क्या लक्ष्य हैं और क्या हासिल होगा-यह तो फिलहाल कोई नहीं बता सकता। एक त्रासदायक और अवांछित तल्खी बार बार इषारा करती है कि मानो मुसलमान इस देश में बहुविवाह की मजहबी प्रथा के चलते आबादी में बहुत इजाफा कर रहे हैं। इस मजहब के लोगों पर इसी कारण बहुसंख्यक लोग षाब्दिक, षारीरिक और सियासी हमले करते ही रहते हैं। भारत सरकार की ताजा विष्वसनीय रिपोटांज़्े के अनुसार हिन्दुओं की आबादी के बढऩे की दर मुस्लिमोंं की आबादी बढऩे की दर से किसी कदर कम नहीं है। 19-20 का फकज़् हो सकता है। यह भी लेकिन दुखद सच है कि सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद मर्द अपनी नसबंदी कराने से किसी न किसी जुगत के सहारे अगल बगल हो लेते हैं। स्त्रियों की सामाजिक, कौटुंबिक और आर्थिक लाचारी परिवार नियोजन को लेकर भी एक नया विमषज़् हर वक्त मांगती है। बड़ेे-बड़ेे स्त्री समर्थक तीसमार खां अपने निजी जीवन में लेकिन घाघ दकियानूस जैसा आचरण करते हैं।
इसी परिच्छेद में नागरिक आज़ादी को लेकर सरकार की तरफ से किए जा रहे हमलों को तथ्यपरक किया गया है। आज जो पाटीज़् देष में हुकूमत कर रही है। दरअसल उसका गर्भगृह आपातकाल की घोषणा में है। यह बात किताब में पूरी तौर पर नहीं आ सकती थी क्योंकि उसका इतिहास वृत्त बीसवीं सदी का सातवां दशक है। घटनाएं काल परीक्षित होती हैं। काल प्रतिबंधित नहीं होतीं। यह अलग बात है कि 1977 की जनता पार्टी की सफलता और इंदिरा की भयानक हार के बाद 1979, 80, 1984, 1991, 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी के बार बार सत्तामूलक जीत के कारण कब तक यह फतवा कायम रखा जाएगा कि जेपी के कारण आज भाजपा सरकार में हैं। भारतीय लोकतंत्र को उसके संविधान के प्रावधानोंं के कारण राजनीतिक विवेक की चुनौतियां मिलीं। उनका तरतीब के साथ किताब में बयान है। पूरी किताब सरसरी तौर पर पढऩे से भी एक तात्कालिक प्रतिक्रिया मांगती है। यादों की गुमशुदगी भी होती है। यह पुस्तक एक तरह से यादध्यानी या रिफ्रेंस की भी है। इसे गजेटियर की तरह भी पढ़ा जा सकता है। बीसवीं सदी के सातवें दषक का केवल भारतीय परिप्रेक्ष्य में नहीं, भारत पर असर डालने वाली दुनियावी परिस्थितियों और घटनाओं का लेखा जोखा करना किताब भूलती नहीं है। सुदीप ठाकुर ने इतनी ज्यादा किताबों, फाइलों और पत्रिकाओं को खंगाला है, जो परिशिष्ट में संदर्भित है। यह भी दिलचस्प है कि उन्होंंने नई तकनॉलॉजी का फायदा उठाते हुए कई नामचीन लोगों तक की खोजखबर जज्ब की। ई मेल भेजे। टेलीफोन किया। रूबरू भी मिले और इस तरह अपनी किताब की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता को लेकर लोगों से केवल विशेषणों की गिफ्ट नहीं मांगी। उनसे कई मुद्दों पर अहसमति भी व्यक्त की। कुछ पेचीदे सवाल भी पूछे और लेखन को औपचारिक नहीं बनाया। मुझे लगता है कि दस वर्ष का प्रामाणिक विवरण ब्यौरेवार प्रस्तुत करने में सुदीप ने कम से कम वर्षों का समय भी लगाया होगा।
यह किताब अकादेमिक नस्ल और तेवर की भी है। यह भी लिखने की शैली है कि यदि उद्धरण दिए जाएं तो उनका प्रमाण भी संलग्न किया जाए। सुदीप की किताब सुनी सुनाई या भूलती सी पढ़ी पढ़ाई बातों का खटराग नहीं बने। इसका ख्याल रखा गया है। उन्होंने तमाम उद्धरण प्रत्येक परिच्छेद के अंत में सूचीबद्ध किए हैं। कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों से उनकी बात हुई। ई मेल के माध्यम से संवाद हुआ है या टेलीफोन के माध्यम से। मसलन पुपुल जयकर, रामचंद्र गुहा, जयराम रमेश, पी. चिदंबरम्, कौशिक बसु, नीलांजन मुखोपाध्याय और ज्यां द्रेज पहले ही परिच्छेद में हैं। आगे बढ़ें तो दूसरे परिच्छेद में भी वी. पी. मेनन की किताब और दीवान जर्मनी दास की और राजमोहन गांधी तथा डॉ. कणज़्सिंह से बातचीत का हवाला दर्ज है। परिच्छेद दर परिच्छेद संदर्भ दिए गए हैं। डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर, विवेक देबराय वगैरह, दिलीप सिनीयन, महालेखाकार रहे विनोद रॉय, पूर्व केबिनेट सचिव बी. के. चतुर्वेदी, लोकसभा के वादविवाद भी साथ हैं। यह देखना दिलचस्प है कि इसी परिच्छेद में सुदीप ने इस्को के सहायक जनसंपर्क अधिकारी बनखंडी मिश्र को चासनाला कोयला खदान की भयानक त्रासदी के संदर्भ में एक मजबूत गवाह के रूप में उल्लिखित कर पत्रकारिता और लेखन की प्रामाणिकता का सम्मान किया है। अगले पड़ाव पर और कई स्त्रोतों के अतिरिक्त प्रसिद्ध पत्रिका ‘इंडिया टुडे‘ और डा. कणज़्सिंह का विषेष उल्लेख है, जो विश्वसनीयता पैदा करने के लिए अध्यवसायी लेखन का जागरूक लक्षण है। मैंने पन्ने पलटकर देखे तो आखिरी परिच्छेद में तो महत्वपूर्ण नामों की भरमार है। विनोद मेहता, कुलदीप नैयर, बिपनचंद्र, डॉ. सुब्रमण्यम, स्वामी, जियोफे्र ओस्टरगार्ड, लालू प्रसाद यादव, जयप्रकाश, राजनारायण, भोला चटजीज़्, प्रो आनंद कुमार, पी एन दर, मार्कटुली, अजय बोस, मधु लिमये और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस के हवाले से तमाम प्रासंगिक विवरण को ख्ंागाला जाना आष्वस्त करता है। यह किताब आकर्षक होने और 299 रुपये कीमत होने से पढऩे के लिए उद्वेलित करती है लेकिन उत्सुकता के लिहाज से पाठक को 99 के फेर में नहीं डालती।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की राजनीति अब एक तूफानी दौर में प्रवेश कर रही है। इमरान खान पर हुए जानलेवा हमले ने शाहबाज शरीफ की सरकार के खिलाफ उसी तरह का गुस्सा पैदा कर दिया है, जैसा कि 2007 में बेनजीर भुट्टो की हत्या के समय हुआ था। मुझे लगता है कि इस वक़्त का गुस्सा उस गुस्से से भी अधिक भयंकर है, क्योंकि उस समय पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ की फौजी सरकार थी लेकिन इस वक्त सरकार मुस्लिम लीग (नवाज़) के नेता शाहबाज शरीफ की है।
इमरान ने शाहबाज शरीफ, उनके गृहमंत्री राणा सनाउल्लाह और आईएसआई के उच्चाधिकारी फैजल नसीर पर इस षडय़ंत्र का इल्जाम लगाया है। शाहबाज के गृहमंत्री और उनके कई पार्टी नेताओं ने इमरान को बलूचिस्तान की मिर्ची जेल में डालने का इरादा जताया था और इमरान तथा उनकी पार्टी के नेताओं ने यह आशंका भी व्यक्त की थी कि इस रैली के दौरान इमरान की हत्या भी हो सकती है।
हत्या की इस नाकाम कोशिश का नतीजा यह हुआ है कि पाकिस्तान के शहरों और गांव-गांव में सरकार के विरुद्ध लोग सडक़ों पर उतर आए हैं और यह असंभव नहीं कि पाकिस्तान में लगभग गृह युद्ध की स्थिति बन जाए और मौत की कई खबरें और आने लगें। शाहबाज-सरकार की सिर्फ भर्त्सना ही नहीं हो रही है, लोग खुले-आम पाकिस्तान की फौज को भी कोस रहे हैं। यह पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार हो रहा है। यों भी इमरान के सवाल पर पाकिस्तान की फौज भी दो-फाड़ हो गई है। ऊँचे अफसर जनरल कमर बाजवा की हाँ में हाँ मिला रहे हैं और शेष अफसर व जवान इमरान का पक्ष ले रहे हैं।
यदि फौज इमरान और शाहबाज के बीच वैसा ही समझौता नहीं करवा सकी, जैसा कि 1993 में राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान और तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के बीच सेनापति जनरल वहीद कक्कड़ ने करवाया था और तुरंत चुनाव नहीं हुए तो हो सकता है कि पाकिस्तान की राजनीति से फौज का वर्चस्व सदा के लिए खत्म हो जाए। यदि ऐसा हो गया तो भारत और पाकिस्तान के संबंधों को मधुर होने में जरा भी देर नहीं लगेगी।
मुझे तो आश्चर्य है कि भारत सरकार अब तक गूंगी क्यों बनी हुई है? उसने इमरान पर हुए हमले की तत्काल भर्त्सना क्यों नहीं की? अमेरिका, चीन, तुर्की, सउदी अरब तथा अन्य दर्जनों देशों के शीर्ष नेताओं ने कल शाम को ही बयान जारी कर दिए थे। जाहिर है कि पाकिस्तान की फौज और विरोधी नेता अब इमरान को प्रधानमंत्री बनने से रोक नहीं सकते। अब चुनाव जब भी होंगे, मुझे विश्वास है कि इमरान अपूर्व और प्रचंड बहुमत से जीतेंगे।
पाकिस्तान में पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में इमरान और उनकी सहयोगी पार्टियों ने सत्तारुढ़ दलों का लगभग सफाया कर दिया था और खुद इमरान सात सीटों पर लड़े, उनमें से छह सीटों पर जीत गए। इस समय पाकिस्तान के सबसे बड़े प्रांत पंजाब में और पठानों के पख्तूनख्वाह में इमरानभक्तों की सरकारें बनी हुई हैं। सिंध में पीपीपी की भुट्टो-सरकार है लेकिन कुछ पता नहीं कि इस जानलेवा हमले के बाद बेनजीर के बेटे बिलावल भुट्टो और पति आसिफ जरदारी का रवैया शाहबाज शरीफ के साथ टिके रहने का बना रहेगा या बदलेगा? फौज ने दोनों को सता रखा था। जब वे दोनों कट्टर विरोधी मिल सकते थे तो बिलावल और इमरान क्यों नहीं मिल सकते? अगर वे मिल जाएँ तो पाकिस्तान में शायद भारत-जैसे लोकतंत्र की शुरुआत हो जाए। फौज पीछे हटे और जन-प्रतिनिधि सच्चे शासक बनें। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में शिक्षा की कितनी दुर्दशा है, इसका पता यूनेस्को की एक ताजा रपट से चल रहा है। 75 साल की आजादी के बावजूद एशिया के छोटे-मोटे देशों के मुकाबले भारत क्यों पिछड़ा हुआ है, इसका मूल कारण यह है कि हमारी सरकारों ने शिक्षा और चिकित्सा पर कभी समुचित ध्यान दिया ही नहीं। इसीलिए देश के मु_ीभर लोग अपने बच्चों को प्रायवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं और निजी अस्पतालों में अपना इलाज करवाते हैं। देश के 100 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के बच्चे उचित शिक्षा-दीक्षा से और वे लोग पर्याप्त चिकित्सा से वंचित रहते हैं। यूनेस्को ने भारत में खोज-पड़ताल करके बताया है कि देश के 73 प्रतिशत माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि वहां पढ़ाई का स्तर घटिया होता है। वहां से पढ़े हुए बच्चों को ऊँची नौकरियां नहीं मिलती हैं, क्योंकि उनका अंग्रेजी ज्ञान कमजोर होता है।
हमारी सरकारों के निकम्मेपन के कारण आज तक सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी अनिवार्य है। अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए बच्चे बड़े होकर या तो सरकारी नौकरियां हथियाने या फिर अमेरिका और कनाडा भागने के लिए आतुर रहते हैं। गैर-सरकारी स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की फीस 50-50 हजार रु. महिना तक है। आजकल अस्पताल और ये शिक्षा-संस्थाएं देश में ठगी के सबसे क्रूर ठिकाने बन गए हैं। देश के गरीब, ग्रामीण, पिछड़े और आदिवासी लोग समुचित शिक्षा और चिकित्सा के बिना ही अपना जीवन गुजारते रहते हैं। सरकारी स्कूल और अस्पताल भी उनकी सेवा सरल भाव से नहीं करते। देश के 90 प्रतिशत स्कूल फीस-वसूली के दम पर जिन्दा रहते हैं। देश में 29600 स्कूल ऐसे हैं, जिन्हें मान्यता प्राप्त नहीं है।
4 हजार से ज्यादा मदरसे भी इसी श्रेणी में आते हैं। इन स्कूलों से निकलनेवाले छात्र क्या नए भारत के निर्माण में कोई उल्लेखनीय योगदान कर सकते हैं? यदि हम शिक्षा के मामले में भारत की तुलना दक्षेस के हमारे पड़ौसी सातों देशों से करें तो उक्त पैमाने पर वह अफगानिस्तान के सबसे करीब है लेकिन वह श्रीलंका, भूटान और पाकिस्तान से भी बहुत पिछड़ा हुआ है। दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा राष्ट्र भारत है। प्राचीन भारत की शिक्षा-व्यवस्था जगत्प्रसिद्ध रही है। चीन, जापान और यूनान से सदियों पहले लोग भारत इसीलिए आया करते थे कि यहां की शिक्षा-प्रणाली उन्हें सर्वश्रेष्ठ लगा करती थी। आज अमेरिका दुनिया की सर्वोच्च महाशक्ति अपनी शिक्षा के दम पर बना है लेकिन भारत मैकाले की गुलामी में ही गुलछर्रे उड़ा रहा है। पता नहीं, आजादी के सौ साल तक भी इस सड़ी हुई शिक्षा-व्यवस्था को बदलनेवाला कोई नेतृत्व भारत में पैदा होगा या नहीं? (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
हंसा अकेला ही दूर किसी अनंत में उड़ गया है, केवल उनकी निर्मल और मोहक छवि तथा उनकी कलम से निकले हजारों लाखों शब्द आज हमारे बीच उपस्थित हैं।
रमेश नैयर हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में एक ऐसे हंसा की तरह थे जो अपने स्वविवेक से नीर और क्षीर में अंतर करना जानते थे और हमेशा क्षीर का चुनाव करना ही उन्हें पसंद था। उनकी भाषा असहज नहीं सहज थी, पर विचारों की लौ में हमेशा जगर-मगर। कहीं कोई भाषा में पैबंद नहीं, लाख ढूंढने पर भी भाषा में कहीं कोई लिथड़ापन नहीं, जो है अगर-मगर में नहीं, सीधे-सीधे है।
‘देशबंधु’ से अपनी हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले रमेश नैयर बाद में ‘नवभारत’, ‘क्रॉनिकल’, ‘ट्रिब्यून’, ‘संडे ऑब्जर्वर’, ‘दैनिक भास्कर’ में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता को एक साथ साधते रहे। छत्तीसगढ़ में ही नहीं चंडीगढ़ और देश की राजधानी दिल्ली में भी अपनी हिंदी पत्रकारिता का परचम शान से लहराते रहे। निराभिमान इस पत्रकार की लेखनी पर ऐसा कौन है, जो कुर्बान न हो जाए।
‘ट्रिब्यून’ और चंडीगढ़ उनकी आत्मा में बसे हुए थे। ‘ट्रिब्यून’ में प्रेम भाटिया का सत्संग और चंडीगढ़ की पंजाबी तहजीब रमेश नैयर को भा गए थे। अर्जुन सिंह उन दिनों चंडीगढ़ में ही राज्यपाल थे और सुदीप बनर्जी उनके सचिव। रमेश नैयर जैसे विचारवान पत्रकार की जरूरत उन्हें भी कम नहीं थी और ऊपर से वे उनकी प्रतिभा के भी कम कायल नहीं थे, सो भाभी को भी प्रतिनियुक्ति पर मध्यप्रदेश से सीधे चंडीगढ़ बुलवा लिया गया। राजीव गांधी और संत लोंगोवाल के ऐतिहासिक समझौते में रमेश नैयर और प्रेम भाटिया के अथक प्रयासों को भी जरूर याद किया जाना चाहिए।
‘दिनमान’ से लेकर देश की अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में रमेश नैयर ने खूब लिखा है। रघुवीर सहाय जो उन दिनों ‘दिनमान’ के संपादक थे रमेश नैयर से लिखवा ही लेते थे। सन 1966 में बस्तर गोली कांड की रिपोर्ट के लिए उन्होंने रमेश नैयर को बस्तर भेजा था। वे जैसे-तैसे किसी जीप में जगदलपुर पहुंचे थे। इस तरह प्रवीर चंद्र भंजदेव गोली कांड की रिपोर्ट ‘दिनमान’ में प्रकाशित हुई जिसे देश भर में खूब सराहना भी मिली। रमेश नैयर एक बेहद सतर्क और जागरूक पत्रकार थे।
मेरी धारावाहिक सीरीज ‘छत्तीसगढ़ एक खोज’ के वे नियमित पाठक थे। सांध्य दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ में वे पढक़र न केवल फोन करते थे वरन मेरा हौसला आफजाई भी किया करते थे।
उनके और राजेंद्र यादव के साथ बार नवापारा की यात्रा मुझे आज भी याद है। रात में राजेंद्र यादव और रमेश नैयर के साथ एक खुली जीप में बैठकर की गई जंगल की यात्रा भी। राजेंद्र यादव से जब भी फोन पर बातें होती रमेश नैयर के बारे में जरूर पूछ लेते थे।
रमेश नैयर अपनी पीढ़ी के अकेले ऐसे खबरनवीस थे जिनका हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और गुरुमुखी भाषा में असाधारण अधिकार था। उर्दू जैसे उनकी रूह में बसी हुई थी, पंजाबी उनके दिल में और हिंदी और अंग्रेजी जुबान उनके होठों और कलम में थिरकती रहती थी। उर्दू अदब उन्हें पसंद था, उर्दू की कई नज्म और शेर उनकी जुबान पर जुंबिश लेती हुई दिखाई देती थी।
रमेश नैयर का हिंदी और अंग्रेजी में अध्ययन भी खूब था। किताबों से उनकी आशनाई थी। पत्रकारिता से लेकर साहित्य तक की किताबें वे खूब पढ़ते थे।
छत्तीसगढ़ में नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी के वे संस्थापक संचालक थे। जनवरी सन 2006 से अक्टूबर 2016 तक वे इस पद को सुशोभित करते रहे। अपने कार्यकाल में उन्होंने हिंदी ग्रंथ अकादमी में चुन-चुनकर किताबें प्रकाशित की है।
रमेश नैयर के पत्रकार स्वरूप से हम सब भली-भांति परिचित है पर उनकी शख्सियत का एक और पहलू है जिससे हम कुछ गाफिल हैं।
छत्तीसगढ़ के कथाकारों की कहानियों को लेकर उन्होंने दो जिल्दों में ‘कथा यात्रा’ और ‘उत्तर कथा’ नामक ग्रंथों का संपादन किया है, जो प्रभात प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित है। छत्तीसगढ़ के प्रारंभिक कथाकारों से लेकर अब तक के कथाकारों की चुनी हुई कहानियों का सुंदर संपादन रमेश नैयर ने किया है।
वी.एस.नायपाल के एक अंग्रेजी किताब का हिंदी तर्जुमा उन्होंने प्रभात प्रकाशन दिल्ली के लिए किया था। इसी तरह अरेबियन नाईटस का भी उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया है।
रमेश नैयर ने अनेक विदेशी कविताओं का उन्होंने हिंदी तर्जुमा किया है जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित है। मैं उन्हें उन कविताओं को जब-तब ढूंढकर एक संग्रह के रूप में प्रकाशित करवाने की निरर्थक जिद में उसी तरह लगा रहता था जिस तरह पाकिस्तान की उनकी स्मृतियों को लेकर उनसे एक मुकम्मल किताब लिखवाने की अपनी पुरानी जिद में।
वे मुझसे वादा करते थे कि अगले पंद्रह दिनों में वे मुझे इस किताब का एक चैप्टर लिख कर जरूर दिखाएंगे। कई बार भाभी भी इस बात की गवाह बनी पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था।
रमेश नैयर अविभाजित भारत के गुजरात जिले के अपने पैतृक गांव कुंजह को कभी भूला नहीं पाए।
इसी तरह जिस मां ने उन्हें दूध पिलाया, पाला-पोसा उस मुस्लिम मां जैनब को भी, जो बचपन में उन्हें बुल्ला कहकर पुकारा करती थी। बुल्ला याने पाकिस्तान के संत और फकीर कवि बुल्ले शाह।
बुल्ले शाह का प्रतिरूप यह हंसा अब अकेले ही अपने डैने पसार कर सुदूर अंतरिक्ष की ओर अपनी उड़ान भर चुका है। हम सबको शोक विहल छोडक़र।
क्या कोई हंसा इस तरह से सबको छोडक़र अचानक अकेले ही उड़ जाता है।
पंडित कुमार गंधर्व के इस गीत को आज बार-बार सुनने का मन क्यों हो रहा है :
उड़ जायेगा हंसा अकेला
जीवन जग दर्शन का मेला
गांधी, स्त्री और सामूहिकता के समुच्चय का जाना
स्मृति शेष..1933-2022
-अनिल अश्विनी शर्मा
इला भट्ट नहीं रहीं। यह खबर सुनते ही दिमाग में बात आई सेवा वाली इला भट्ट। एक स्त्री की अस्थि-मज्जा जब गांधीमय हो जाती है तो उसका नाम इला भट्ट ही हो सकता है। महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी ने सामुदायिकता के सेनानी तैयार करने का जो वैचारिक स्कूल खड़ा किया था इला भट्ट को उसकी अव्वल विद्यार्थी माना जा सकता है। बा और बापू सामुदायिकता के जरिए भारतीय अर्थव्यवस्था को जो रूप देना चाहते थे इला भट्ट ने अपने स्तर पर उसे सेल्फ एंप्लायड वूमेन एसोसिएशन के रूप में खड़ा किया जिसे सेवा के रूप में पहचान मिली।
इला भट्ट से वो मुलाकात खासी जीवंत थी। आईआईटी मद्रास के परिसर में मैं उस नाम से अपनी पहचान बताने में हिचक रहा था। लग रहा था कि इतने बड़े कार्यक्रम में शिरकत कर रही मेहमान से अचानक से बातचीत कैसे शुरू कर दूं। उन्होंने मेरी तरफ देखा। वो इला भट्ट थीं। मैंने उन्हें अपने पत्रकार होने का परिचय देते हुए कहा कि क्या वो कार्यक्रम के बाद दो मिनट मुझसे बात करने के लिए वक्त निकाल लेंगी। उन्होंने कहा कि जरूर।
कार्यक्रम की आयोजक को मेरा उनसे साक्षात्कार लेना पसंद नहीं आया और वे बीच में हस्तपक्षेप करने लगीं। इससे नाराज होकर इला भट्ट ने आयोजक से कहा कि यह ठीक है कि आपने मुझे यहां बुलाया है, लेकिन आपके मेहमान होने के बाद मैं और मेरे विचार आपके बंधक नहीं हो गए हैं। आपके यहां कुल जमा बीस श्रोता थे और वे उच्च अकादमिक पृष्ठभूमि के हैं। मेरी बातें उनके लिए कितने महत्त्व की हैं ये तो नहीं पता, लेकिन इस क्षेत्रीय अखबार में, क्षेत्रीय भाषा में छपी मेरी बात को बहुत लोग पढ़ भी लेंगे और समझ भी लेंगे। इसके बाद उन्होंने मेरी ओर प्यार से देखते हुए और हल्की सी झिडक़ी देते हुए कहा कि जैसा मैं बोल रही हूं, वैसा ही लिखना, तोड़-मरोड़ मत देना। मैंने सफाई देते हुए कहा कि मैं आपकी बात को रिकार्ड कर रहा हूं ताकि गलती की कोई गुंजाइश नहीं रहे। इस पर वे जोर से हंसने लगीं।
मैंने इला भट्ट से पूछा कि क्या आपको अपने सेवा-कार्य को और विस्तार देने की जरूरत नहीं है? इस पर उन्होंने कहा-इसके लिए संसाधन भी चाहिए। अब तक तो हम देश के 18 राज्यों में काम कर ही रहे हैं। मेरा दूसरा सवाल था कि आप एक गांधीवादी हैं, देश में लाखों ऐसे लोग हैं जो गांधी को मानते हैं लेकिन उनका काम जमीन पर क्यों नहीं दिखता? महात्मा गांधी ने तो आजादी के आंदोलन में पूरी भारत की महिलाओं को जोड़ लिया था लेकिन आज सक्रिय गांधीवादी महिलाओं की संख्या बहुत कम क्यों है?
इला भट्ट ने कहा-हमारी बहनों को मुझसे अलग क्यों कर रहे हैं। इस देश में मेरी जैसी लगभग 21 लाख गांधीवादी महिलाएं कार्यशील हैं। एक महिला दूसरी महिला को अपना कौशल हस्तांतरित कर रही है। मैंने महात्मा गांधी से यही तो सीखा कि केवल अपने लिए काम मत करो। तुम्हारे काम का दायरा ऐसा हो जो कइयों का भला कर सके। हमारी गांधीवादी बहनें इसी ध्येय से काम कर रही हैं कि एक-दूसरे का भला करने की इस कड़ी का अपार विस्तार हो।
आप अपने गांधीवादी कार्यक्षेत्र की सबसे बड़ी ताकत क्या मानती हैं? मेरे इस सवाल पर इला भट्ट थोड़ा रुक कर सोचने लगीं। फिर कहा-मैं अपने काम का आकलन खुद कैसे कर सकती हूं। दक्षिण अफ्रीका के गांधीवादी राष्ट्रवादी नेल्सन मंडेला जिन्होंने गांधी के सत्याग्रह की ताकत को महसूसा था और उसे स्थापित करने की कोशिश की थी, उन्होंने मुझसे कहा था कि आपके संगठन सेवा की सबसे बड़ी ताकत इसकी स्वायत्ता और साहस है। यह समूह सच को साहसपूर्वक बोल सकता है।
अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने आपको अपनी आदर्श स्त्री यानी नायिका के रूप में देखा था...मेरा सवाल पूरा होते ही इला भट्ट ने कहा कि वास्तव में वे कह रही थीं कि सेवा के साथ काम कर रहीं 21 लाख महिलाएं उनकी नायिका हैं। इतना बोलने के बाद वो कुर्सी से उठीं तो मुझे लगा कि अब वे बातचीत बंद करना चाहती हैं तो मैंने अपना रिकार्डर भी बंद कर दिया। उन्होंने हंसते हुए कहा कि आपके सवाल खत्म हो गए? मेरे रिकार्डर फिर से शुरू करने की प्रक्रिया देखते हुए उन्होंने कहा कि जब आपको लिखने की मुसीबत नहीं है तो चलिए हम कैंपस में टहल कर बातचीत करते हैं। टहलते हुए मैंने उन्हें रेमन मैग्सेसे, राइट लाइवलीहुड, गांधी शांति पुरस्कार और पद्म पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के बाबत पूछा तो उन्होंने कहा-ये पुरस्कार मुझे अकेले नहीं मिले बल्कि सेवा से जुड़ी सभी गांधीवादी बहनों को मिले हैं। मैंने पूछा, सेवा की स्थापना आपने 1972 में की थी लेकिन आपका दिमाग कबसे इसके लिए तैयार होने लगा था। इस पर उन्होंने मुझसे प्रतिप्रश्न किया-गांधी को मानते हो? मैंने कहा, मैं गांधीवादी नहीं हूं लेकिन मैंने गांधी को खूब पढ़ा है। अपने पत्रकारीय जीवन की सबसे बड़ी रिपोर्ट सेवाग्राम जाकर ही लिखी थी।
मेरा जवाब सुनने के बाद इला भट्ट ने कहा-कुछ करने के पहले आपको अपने अंदर की क्षमता को पहचानना जरूरी होता है। मेरे पैदा होने से लेकर मेरे शादी होने तक मेरे आसपास का वातावरण मुझे ऐसा ही काम करने के लिए गढ़ रहा था। महात्मा गांधी की ही बात करूं तो यह सोचा कि मेरे काम से किस वर्ग को सबसे ज्यादा फायदा हो सकता है जो अभी सबसे कमतर है। फिर मुझे अपने सामने का पूरा महिला समाज दिखा। बस एक महिला, महिलाओं के साथ गांधीवादी समाज बनाने के लिए जुट गई। गांधी की सीख के साथ हम सब एक-दूसरे को गढ़ती गईं। बा और बापू की बनाई राह मेरे सामने थी।
अब मेरा उनसे आखिरी सवाल था। भारत जैसे देश में सामाजिक समानता के लिए सहकारी समितियां अचूक नुस्खा हैं। फिर भी अब ऐसी समितियां गिनती की बची रह गई हैं, और जो हैं भी उसका उतना व्यापक असर नहीं हो रहा है। इसकी क्या वजह है? इला भट्ट ने कहा कि सहकारी समित के बनाने के मूल में स्त्री ही है। स्त्री बचत करती है, स्त्री पुरुषों की तुलना में ज्याद सहिष्णु होती है। स्त्री सामूहिकता की बुनियाद है। देश की महिलाओं को सशक्त करने के लिए सहकारी आंदोलन को बढ़ाना ही होगा। स्त्री सशक्तिकरण के लिए सहकारी समिति से श्रेष्ठ ढांचा और कोई नहीं हो सकता।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने मुखपृष्ठ पर एक खबर छापी है कि अमेरिका में कई आदमी अब औरतों का वेश धारण करने लगे हैं और औरतें तो पहले से ही वहां आदमियों की वेशभूषा पहनते रही हैं। उनका कहना है कि कपड़ों में भी औरत-मर्द का भेद क्या करना? वह जमाना लद गया जब औरतों के लिए खास तरह की वेशभूषा, जेवर और जूते-चप्पल पहनना अनिवार्य हुआ करता था। उन्हें घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती थी। घूंघट और बुर्का लादना आवश्यक माना जाता था।
हमारे संस्कृत नाटकों को देखें तो कालिदास और भवभूति जैसे महान लेखकों की रचनाओं में उनकी महिला पात्राएं संस्कृत में नहीं, प्राकृत में संवाद करती थीं। महिलाओं को पुरुषों के समान न हवन करने का अधिकार था और न ही जनेऊ धारण करने का! वेदपाठ करना तो उनके लिए असंभव ही था। आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती की कृपा से भारतीय स्त्रियों को इन बंधनों से मुक्ति मिली लेकिन यूरोपीय इतिहास की लगभग एक हजार साल की अवधि को वहाँ अंधकार-युग कहा जाता है।
उस युग में पोप लीला के कारण औरतों पर अत्याचार की हद हो रखी थी लेकिन अब इसी ईसाई यूरोप और अमेरिका में आधुनिकता की ऐसी लहर चली है कि आदमी लोग औरतों की तरह लंबे-लंबे बाल रखने लगे हैं, स्कर्ट ब्लाउज पहनने लगे हैं और उनके पारंपरिक जेवर भी अपने शरीर पर सजाने लगे हैं। इसे वे लिंग-भेद का निराकरण कहते हैं लेकिन वास्तव में औरत-औरत होती है और आदमी-आदमी।
हमारे यहां तो भाषा और व्याकरण में भी वह भेद प्रतिबिंबित होता है। उसे सिर्फ वेशभूषा बदलने से नहीं मिटाया जा सकता है। कई देशों में उनके पुरुष भी अपना अधोवस्त्र स्त्रियों-जैसा ही सदियों से पहनते आ रहे हैं। जब पहली बार अपने राष्ट्रपति भवन में भूटान नरेश से लगभग 30 साल पहले मेरी भेंट हुई तो मैं उन्हें स्कर्ट-जैसा अधोवस्त्र पहने देखकर दंग रह गया।
पचास साल पहले जब मैं लंदन में पढ़ता था तो मुझे स्काटलैंड के छात्रों को देखकर भ्रम हो जाया करता था, क्योंकि उनमें से कुछ स्कर्ट पहने रहते थे। दुनिया के दर्जनों देश हैं, जिनमें लोगों की वेशभूषा अपने तरह की अनूठी होती है। इसीलिए यदि अब अमेरिका की कुछ नामी-गिरामी कंपनियां ऐसी वेशभूषा बनाने लगी हैं, जो अब तक स्त्रियों की मानी जाती थीं, लेकिन अब उन्हें पुरुष भी पहनने लगे हैं तो इसमें बुराई क्या है? यह नर-नारी समता का नया युग शुरु हो रहा है। इसे हम ऊपरी या बाहरी एकरुपता कहें तो बेहतर होगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
इस समाज के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग लोग, अलग-अलग संस्थाएं संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र के लिए उपचार की औषधि खोजने में जुटी हुई हैं। कई जगहों पर इसके बेहतरीन परिणाम भी आए हैं। इन्हीं में एक है सहज आहारम। यह किसी क्रांति से कम नहीं है।
-जयदीप हार्दिकर
किसानों की आय में गिरावट, उन पर लगातार बढ़ता कर्ज, गांवों से मौसमी पलायन और जलवायु परिवर्तन ने पिछले दो दशकों से भारत के कृषि क्षेत्र को संकट में डाल रखा है। जाहिर है, ऐसे देश में जहां बड़ी आबादी कृषि पर आधारित है, इस क्षेत्र के संकट में आने के सामाजिक-आर्थिक आयाम भी हैं। यह एक बड़ी चुनौती है और इसका सामना सरकार और समाज- दोनों को मिल-जुलकर, एक-दूसरे से सीखते हुए करना होगा।
इस सिलसिले में सबसे बड़ी भूमिका सरकार की है जो नीतियां तयकर समस्या से संस्थागत तरीके से जूझती है। जाहिर है, इसमें कहीं कुछ कमी है जिसकी वजह से नतीजा वैसा नहीं आया, जैसा आना चाहिए था। इसलिए समाज की ओर रुख करना चाहिए जिसमें विभिन्न इलाकों में विभिन्न लोग, संस्थाएं अपनी तरह से कृषि संकट से निकलने के उपाय कर रही हैं। अगर कागज पर नीतियां बनाने वाले जमीन पर धूल-मिट्टी से सने अनुभवों को भी ध्यान में रखें तो शायद बेहतर परिणाम मिल सके।
इस संदर्भ में बात ‘सहज आहारम’ की। ‘सहज आहारम’ कृषि पर जलवायु परिवर्तन के असर और आर्थिक-सामाजिक संकट से अपने तरीके से निपटने की कोशिश कर रहा है। ‘सहज आहारम’ ऐसा ब्रांड है जो आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सक्रिय है और इसका मूल मंत्र है स्थानीय स्तर पर प्राकृतिक आहार उपलब्ध कराना। इसका मानना है कि हमें ऐसी व्यवस्था की कल्पना करनी चाहिए जो स्थानीय हो, उपज और खपत की श्रृंखला छोटी हो और यह प्रकृति अनुकूल हो।
आइए चलते हैं 47 साल की महिला किसान वी. मल्लेश्वरम्मा के पास। हैदराबाद से करीब 450 किलोमीटर दूर कडपा जिले में उनका गांव है मुसलिरेड्डीगरीपल्ली। वह अपने गांव में महिला किसानों की सहकारिता- गायत्री महिला रायथुला मुचुअली एडेड कोऑपरेटिव सोसाइटी- की मुखिया हैं। उनकी सहकारी समिति में सभी जाति-धर्म और आयु-वर्ग की करीब 250 महिला किसान हैं। आधे एकड़ के फार्म को दिखाते हुए मल्लेश्वरम्मा कहती हैं, ‘हमारे यहां सबकुछ स्थानीय, यानी देसी है।’ इस फार्म में तरह-तरह के पेड़-पौधे हैं- अंजीर, अमरूद, आम, जंगली जामुन से लेकर फूल और सब्जियां। मल्लेश्वरम्मा इसे पोषण उद्यान कहती हैं। जाहिर है, उनके पास व्यावहारिक जानकारी है और वह शायद तमाम विशेषज्ञों की तुलना में वनस्पति विज्ञान और कृषि विज्ञान के बारे में ज्यादा जानती हैं।
एक ओर एक छोटा-सा मौसम स्टेशन और सौर खाद्य ड्रायर भी है। इस ड्रायर से नहीं बिकी या ज्यादा हो गई हरी सब्जियों को सुखाकर रख लिया जाता है और इस तरह उसकी शेल्फ लाइफ बढ़ जाती है। पास ही मल्लेश्वरम्मा का अपना खेत है जहां वह वैसे अनाजों की खेती करती हैं जो अब लोग कम ही उगाते हैं जैसे लाल चना, बाजरा वगैरह।
यह मानसून का समय है। इस गांव में ज्यादातर किसान 1-3 हेक्टेयर की छोटी जोत वाले हैं और खरीफ के मौसम में कृषि कार्यों में व्यस्त हैं। मल्लेश्वरम्मा की पहल से यहां के तमाम किसानों की जिंदगी बदल गई है। पेट पालने के लिए कभी एक दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने वाली मल्लेश्वरम्मा आज एक सफल जैविक किसान उद्यमी हैं और कर्ज के बोझ तले उस दौर से आज तक की अपनी यात्रा के बारे में बताते हुए वह बार-बार कुछ खास शब्दों का इस्तेमाल करती हैं- वेरायटी, डायवर्सिटी, केमिकल-फ्री और कलेक्टिव। इन चार शब्दों में मल्लेश्वरम्मा की पूरी सोच छिपी है। वह उन महिलाओं में से हैं जिन्होंने किसानों को एकजुट करके जैविक अन्न और साग-सब्जी का उत्पादन किया और सफलता की नई कहानी लिखी।
वह कहती हैं, ‘मुझे पिता की यह बात हमेशा याद रहती है कि अपने हित के बारे में सोचना तो ठीक है लेकिन गरीबों और वंचितों के हितों को नहीं देखना ठीक नहीं।’ वह कहती हैं कि सामूहिक ताकत एक साथ खड़े होने, एक साथ सीखने और एक साथ आगे बढ़ने में है। वह यह कहते हुए चुटकी लेती हैं कि बाजार में अकेले आपके लिए कोई जगह नहीं लेकिन अगर आप एक समूह में हैं तो बिल्कुल है। वह बताती हैं कि आज हम सब मिलकर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन बमुश्किल दो दशक पहले ऐसा नहीं था। हम सब कर्जदार थे, गरीब थे और ऐसे संघर्ष का सामना कर रहे थे जिसका कोई अंत नजर नहीं आता था। उनके घर में ही सहकारी समिति का ऑफिस भी है। वहां सुंदर ढंग से सजाए गए मिट्टी के बर्तनों में तमाम बीज रखे होते हैं जिन्हें समिति मुफ्त में गांवों में बांटती है। मल्लेश्वरम्मा कहती हैं, ‘यह हमारे स्थानीय भोजन का उत्सव है’। समूह के ज्यादातर सदस्य छोटे-सीमांत किसान हैं, गंगादेवी की तरह, जिसके पास तीन एकड़ जमीन है और उस पर वह कपास, बाजरा की खेती करती है। उसका नींबू का एक छोटा बाग भी है।
जैविक खेती में तमाम चीजों का ध्यान रखना होता है। मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखनी होती है और खाद भी जैविक ही इस्तेमाल की जाती है। निश्चित रूप से इसमें अधिक मेहनत होती है लेकिन यह सब करके उन्हें खुशी मिलती है और इसके दूसरे भी मायने हैं। मल्लेश्वरम्मा कहती हैं कि जैविक उपज का उत्पादन और उसकी बिक्री तो एक बात है लेकिन हम महिलाओं की जिंदगी में इसके जरिये और भी बहुत कुछ आ रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि महिलाएं अब आत्मनिर्भर हैं, उन्हें खुद पर भरोसा है और वे महिला किसानों के बारे में लोगों के नजरिये में बुनियादी बदलाव ला सकी हैं।
हैदराबाद के एक स्टोर में हमारी मुलाकात नियमित ग्राहकों के एक समूह से होती है। यह स्टोर करीब दर्जन भर सहकारी संघों और समूहों द्वारा चलाया जाता है जिसमें मल्लेश्वरम्मा की अगुवाई वाला सहज आहारम कंपनी लिमिटेड भी थी। इसकी अलमारियों पर हरे और पीले रंग में रंगे लगभग 150 अलग-अलग सामान रखे हुए थे जिनमें चावल से लेकर मूंगफली, बाजरा से लेकर गुड़ और डेयरी उत्पादों से लेकर स्नैक्स तक के पैकेट थे। साथ ही टोकरे में रखे ताजी कटी हुई साग भी थी।
आउटलेट से सटे एक छोटे से कमरे में दो महिलाएं बाजरे के स्नैक्स तलने में व्यस्त थीं जिसे स्टोर 50/100 ग्राम के पैकेट में बेचता है। स्टोर-कीपर संध्या कहती हैं, ‘यह सब ऑर्गेनिक है, जहर मुक्त।’ पास ही खड़े एक ग्राहक एन. किशोर ने कहा, ‘यह स्वास्थ्यवर्धक है, और किसी भी अन्य भोजन की तुलना में बेहतर है, और बड़ी आसानी से उपलब्ध है।’ सहज आहारम के सीईओ टी.पी. प्रसन्ना कुमार कहते हैं कि हमारे स्टोर में आने वाले लोग पूछते हैं कि उनके लिए ये सब उपजाता कौन है। प्रसन्ना ने कहा कि वे लोग ग्राहकों को बतातें हैं कि उनके लिए जो खाने का सामान तैयार होता है, उसका पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है और सहज आहारम कैसे उपज का उत्पादन करता है।
सहज आहारम की स्थापना 2014 में हुई थी और इसकी टैग लाइन है- ‘एड हेल्थ टु योर लाइफ’ और आठ साल में न केवल इस ब्रांड ने उपभोक्ताओं का भरोसा जीता है बल्कि जैविक उत्पादों के प्रतिस्पर्धी क्षेत्र में खुद को स्थापित भी किया है। यह एक जैविक ब्रांड की कहानी है जो छोटे और सीमांत किसानों के सामूहिक प्रयासों से साकार हुआ है।
हैदराबाद में गैरलाभकारी संस्था ‘सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर’ (सीएसए) के कार्यकारी निदेशक और सरकारी अनुसंधान में काम कर चुके वनस्पति वैज्ञानिक डॉ जीवी रामंजनेयुलु बताते हैं कि उनका संगठन खाद्य उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच सेतु का काम करता है। रामंजनेयुलु कहते हैं, ‘हम सर्विस प्रोवाइडर की तरह काम करते हैं।’ उनका संगठन उत्पादक समूहों के लिए क्षमता निर्माण करता है, जरूरी सेवाएं देता है और फिर उन्हें बाजार से जोड़ता है और इस तरह ये उत्पाद उन उपभोक्ताओं तक पहुंचते हैं जो रसायन मुक्त भोजन के लिए कुछ अधिक खर्च करने को तैयार हैं।
रामंजनेयुलु कहते हैं कि ‘प्रयास यह है कि उत्पादन और खपत के दोनों सिरों को वैसे जोड़ें कि यह पर्यावरण के अनुकूल हो। इसके लिए हम शहरी उपभोक्ताओं के लिए जागरूकता कार्यक्रम भी चलाते हैं। दूसरी ओर किसानों को जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करते हैं।’ कहावत सरल है: ‘आपूर्ति श्रृंखला जितनी छोटी होगी, पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही बेहतर होगा; इस श्रृंखला में किसान को भी बेहतर मूल्य मिलेगा।’
मल्लेश्वरम्मा की सहकारी समिति अपने सदस्यों के जैविक उत्पादों को एकत्र करती है, प्राथमिक प्रसंस्करण के बाद उनकी ग्रेडिंग करती है और फिर उन्हें हैदराबाद के सहज गोदाम में भेज देती है। यहां पर पैकेजिंग और लेबलिंग की भी सुविधा है जिससे अगर जरूरत हो तो यहां भी ये काम हो सकें।
रामंजनेयुलु कहते हैं कि सहज जल्दी खराब हो जाने वाली वस्तुओं को बेकार नहीं जाने देता। इसके लिए सौर ड्रायर लगाए गए हैं जिससे जल्दी खराब होने वाले उत्पादों को सुखाया जाता है और फिर उन्हें अलग तरीके से अलग किस्म के खरीददारों को बेच दिया जाता है। सहज सहकारी समिति की हर इकाई अपने आप में अनूठी है। इसकी संरचना और डिजाइन को हर परिस्थितियों के अनुकूल ढाला जा सकता है।
संघ के पास फिलहाल 16 सहकारी समितियां हैं जिनमें सदस्य के तौर पर लगभग 10,000 प्रमाणित जैविक उत्पादक हैं जो 150 से अधिक उत्पादों की आपूर्ति करते हैं। 3 करोड़ रुपये के औसत सालाना कारोबार के हिसाब से इन सहकारी समितियों और उनके संघ का कुल कारोबार लगभग 50 करोड़ रुपये का है। अगले पांच वर्षों में, सहज समूहों में लगभग 50-60 किसान-सहकारिताएं होंगी जिनमें 50,000 सदस्य कम-से-कम 150 विभिन्न जैविक उत्पादों को उगा रहे होंगे।
प्रकृति अनुकूल तरीके को अपनाते हुए लागत को किस तरह कम किया जाए, इस दिशा में सीएसए ने 2004 से ही काम करना शुरू कर दिया था। इसी वजह से गैर-कीटनाशक-प्रबंधन (एनपीएम) का जन्म हुआ। इस मामले में 54 किसान परिवारों का एक छोटा-सा गांव एनेबावी बड़ी चुनौती बनकर उभरा। किसानों को जैविक प्रथाओं के लाभ के बारे में समझाने में पांच साल लग गए। संक्रमण के समय में समय और तमाम तरह के संसाधन की जरूरत पड़ी। प्रशिक्षित कर्मचारियों को जोड़ा गया और खेती की लगातार निगरानी करते हुए किसानों को समझाते रहना पड़ा। गांव किसान सहकारी समिति के पूर्व प्रमुख 50 वर्षीय पोन्नम परमेश्वर कहते हैं, ‘तब से हम से रसायनों की ओर वापस नहीं गए।’
उत्पादकता में शुरुआती गिरावट के बाद, एनेबावी के किसानों ने देखा कि उनकी पैदावार बेहतर हो रही है, मिट्टी को पोषण मिलता है और उनकी उपज की मांग बढ़ जाती है। धान, कपास, हरी सब्जियां और लाल चने (दाल, या तूर) उगाने के अलावा, एनेबावी में एक सामुदायिक डेयरी भी है।
2009 तक एनेबावी पहला पूर्ण जैविक गांव बन गया। उसके बाद के पांच वर्षों के दौरान इस क्षेत्र को गति मिली क्योंकि राज्य सरकारों और दाता एजेंसियों ने धन और संसाधनों के माध्यम से इसका समर्थन शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में किसान जैविक खेती को अपनाने लगे। जब किसान सामूहिक रूप से जैविक खेती करने लगे तो सवाल उठा कि इसे कैसे और कहां बेचें।
सीएसए के मुख्य परिचालन अधिकारी जी. राजशेखर कहते हैं, ‘तब हमने महसूस किया कि केवल उत्पादन लागत कम करने से किसानों को ज्यादा फायदा नहीं होगा। सामूहिक उत्पादन की ओर जाना होगा और इसके साथ ही उत्पादन से लेकर खपत तक की एक पूरी श्रृंखला विकसित करनी होगी। यह एक दुस्साहसी काम जरूर था लेकिन असंभव नहीं।’
अब समस्या यह थी कि सीमित संसाधनों के साथ यह सब कैसे हो। इसका उपाय यह निकाला गया कि 10-15 किसानों के छोटे-छोटे परस्पर लाभकारी समूह बनाए गए ताकि इनका प्रबंधन बेहतर तरीके से हो सके। एक व्यापक आकार को साकार करने के लिए इस तरह के छोटे-छोटे समूहों को एक छतरी के नीचे लाया गया और फिर एक श्रृंखला बन गई। इस तरह गांवों में छोटे-छोटे समूहों का जाल बिछ गया। एकदम नीचे छोटे-छोटे समूह, उसके ऊपर सहकारी समिति जिसमें 300-500 जैविक उत्पादक हैं और फिर उन सभी समितियों के बीच सेवाओं और समन्वय का काम करता ‘सहज’। साझा करना ‘सहज’ के अस्तित्व का सार है। सदस्य एक दूसरे के साथ अपने बीज और अनुभव साझा करते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान ‘सहज’ से जुड़ी ज्यादातर सहकारी समितियों ने ताजी सब्जियां और अनाज मंगाकर उन्हें अपने गांवों और आसपास के जरूरतमंद लोगों में वितरित किया।
‘सहज’ आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 200 से अधिक गांवों में सक्रिय है और इसके तकरीबन चालीस हजार सदस्य हैं। रामंजनेयुलु कहते हैं, सीएसए इन गांवों में किसानों की आत्महत्या को कम करने में सक्षम हुआ है, और यह बहुत बड़ी बात है।
ऑस्ट्रेलिया की मोनाश यूनिवर्सिटी में नेशनल सेंटर फॉर साउथ एशिया स्टडीज की निदेशक प्रोफेसर एंटोनिया मारिका विजियानी कहते हैं, ‘सबसे बड़ी बात यह है कि मार्केटिंग में कोई अनुभव न होने के बाद भी छोटे किसानों ने जैविक उत्पादों के लिए एक बाजार बनाने में सफलता पाई।’ 2016-17 में, उन्होंने और उनके सहयोगी प्रोफेसर जगजीत प्लाहे ने समुदाय-प्रबंधित स्थानीय खाद्य प्रणालियों पर अपने अध्ययन के दौरान ‘सहज’ के मॉडल को देखा-समझा। वह कहती हैं, ‘जैविक उत्पादों का उत्पादन करना एक बात है और मार्केटिंग बिल्कुल अलग। लेकिन ‘सहज’ ने ऐसे समय में बाजार में अपने लिए जगह बनाई जब भारत सरकार भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुदरा खाद्य का क्षेत्र खोल रही है।’
‘सहज’ के चार खुदरा स्टोर हैं- तीन हैदराबाद (तेलंगाना) में, एक तटीय शहर विशाखापत्तनम में जहां से इसका लगभग 43 प्रतिशत राजस्व आता है। यह ऑर्गेनिक क्षेत्र से जुड़े अपने सहयोगियों को भी थोक में बिक्री करता है। इसके अलावा, इसके पास मोबाइल वैन भी हैं जो सप्ताह में दो बार जल्दी खराब होने वाले उत्पाद को लेकर आसपास के इलाकों में जाती हैं; ऑनलाइन डिलीवरी भी की जाती है; नियमित उपभोक्ताओं के व्हाट्सएप समूह बनाए गए हैं; और हाल फिलहाल में व्यवसाय करने वालों को भी उत्पाद बेचे जा रहे हैं।
स्टोर और सेल्स को संभालने वाले सहज के 27 वर्षीय मार्केटिंग एग्जिक्यूटिव परदेसी दास कहते हैं, ‘मैं इसे छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि मुझे लगता है कि इससे जुड़कर मैं किसी महत्वपूर्ण चीज का हिस्सा हूं।’ दास-जैसे 45 पेशेवरों की एक टीम स्टोर, बैक-एंड संचालन और बिक्री का प्रबंधन करती है।
आगे उनकी योजना क्या है, इसके जवाब में सहज आहारम के सीईओ प्रसन्ना कुमार कहते हैं: ‘हम निर्यात की संभावनाओं पर गौर कर रहे हैं। इसके लिए फ्रेंचाइजी मॉडल के बारे में विचार किया जा रहा है।’ सीएसए लगभग 40 नवगठित किसान उत्पादक कंपनियों को भी सेवाएं दे रहा है और उम्मीद की जाती है कि अगले 3-4 सालों में ये कंपनियां अपने जैविक उत्पादों के साथ बाजार में होंगी। इस कारण भी अभी से निर्यात बाजार में संभावनाओं को टटोला जा रहा है। यह गौर करने वाली बात है कि सीएसए जैविक प्रमाणीकरण के लिए एक मान्यता प्राप्त एजेंसी भी है जिसके पास इस काम के लिए अत्याधुनिक प्रयोगशालाएं हैं।
‘सहज’ से प्रेरित होकर छोटी-छोटी तमाम संस्थाएं भी खुल रही हैं। पिछले साल, हैदराबाद और उसके आसपास महिला किसानों के एक समूह ने 'बे-निशान' नामक अपना सामूहिक उद्यम बनाया, जिसका अर्थ बिना किसी प्रतीक के होता है। वे जैविक रूप से आम उगाते हैं।
सहज उद्यम ने इस मिथक को तोड़ दिया है कि छोटे किसान उद्यमी नहीं हो सकते। इस क्रांति का उद्देश्य कोई विशालकाय कंपनी बनाने का नहीं बल्कि आत्मनिर्भर, आर्थिक रूप से व्यवहार्य और स्थानीय सामाजिक उद्यम बनाने का है।
(जयदीप हार्दीकर नागपुर स्थित पत्रकार हैं और 'रामराव- द स्टोरी ऑफ इंडियाज फार्म क्राइसिस' के लेखक हैं)
(navjivanindia.com)
- अमिता नीरव
90 की शुरुआत में जब देश में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था, कुछ ऐसी चीजें हमारी जिंदगियों में, हमारी जीवनशैली में शामिल हुईं थी, जो पहले नहीं थी। दरअसल उनकी जरूरत भी नहीं थी। ऐसी बहुत सारी चीजें थीं, उन्हीं में एक था खाने से पहले सूप पीना।
जी हाँ, हमारे यहाँ पार्टियों में, होटलों के खाने में खाना खाने से पहले सूप एकाएक दाखिल हो गया था। जाहिर है पश्चिम में सूप उनके खाने का अहम हिस्सा है। उसके बाद हमने भी उसे बिना कारण जाने अपने खाने में शामिल कर लिया।
हमारे यहाँ सूप का चलन कभी था ही नहीं। पता नहीं आपको ऐसा महसूस हुआ हो या नहीं, यहाँ तो सूप पीने के बाद खाने की इच्छा मर जाती है। पहाड़ों पर जब भी गए तब पाया कि वहाँ भूख कम हो जाती है। तब समझा कि दरअसल ठंडी जगहों पर पाचनतंत्र ठीक तरह से काम नहीं करता है, इसलिए भूख कम लगती है। तो जाहिर है एपेटाइजर की जरूरत होगी ही।
लॉकडाउन के दौरान वेब सीरीज देखी जा रही थीं। उसी दौरान स्कैंडेनेविया की एक हिस्टोरिकल सीरीज वाइकिंग्स देखना शुरू की थी। मेरा तो दो-पाँच एपिसोड्स के बाद ही मन उचट गया था, इसलिए मेरा देखना तो छूट गया था। लेकिन क्रड्डद्भद्गह्यद्ध देखा करते थे तो उसके बारे में पता चलता रहता था।
वह स्कैंडेनेविया के एक योद्धा रैगनर लॉथब्रुक के जीवन की कहानी थी। जिसमें गर्मियों में रैगनर अपने साथियों के साथ अभियान पर निकलता था। यह अभियान दूसरे देशों में जाकर लूटपाट करने का हुआ करता था। एक दिन ऐसे ही राजेश बोले, ‘ये एक लुटेरे की दास्तान है, जिसे ग्लोरिफाय किया जा रहा है।’ लेकिन बाद में स्पष्ट हुआ कि उसकी और उसकी पत्नी लगार्था का सपना खेती लायक जमीन पाने और फिर खेती करने का था। मतलब उनके सारे संघर्षों, लड़ाइयों का लक्ष्य खेती करना था। क्योंकि उत्तरी ध्रुव पर खेती करने लायक मौसम नहीं था।
हमने यह जाना है कि ठंडी जगह रहने वालों की त्वचा का रंग सफेद होता है और गर्म जगह रहने वालों की त्वचा का रंग काला होता है। प्रजातिगत वर्गीकरण में आर्यों की शारीरिक बनावट, द्रविड़ों की शारीरिक बनावट से बिल्कुल अलग होती है और यह जलवायु और भूगोल से प्रभावित होती है।
थोड़ी पुरानी बात है। कल्चरल एक्सचेंज के तहत फफांस, जर्मनी और कोलंबिया से लैंग्वेज सिखाने के लिए तीन लडक़े आए थे। हमारा शहर खान-पान के लिए खासा मशहूर है और यहाँ हर तरह के स्वाद के शौकीनों का काम आसानी से चल जाता है। ऐसे में राजेश ने उनसे पूछा कि, यहाँ कैसा लग रहा है!
तो फ्रेंच और जर्मन लडक़े ने शिकायत की कि ‘खाने की बहुत दिक्कत आ रही है। यहाँ खाने में बहुत मिर्च होती है।’
यह जानकर हमेशा ही आश्चर्य हुआ है कि यूरोप में अधिकतर देशों में मसालों का उपयोग नहीं किया जाता है। हमने यह जाना है कि सर्दी के मौसम में हमें स्पाइसी और गरिष्ठ खाने की तलब लगती है, लेकिन पहाड़ों में स्थिति एकदम उलट होती है। हम जब पहली बार पहाड़ पर गए तो एकदम सादा खाना देखकर चौंक गए। दो-तीन बार जाने पर पता चला कि पहाड़ों पर भूख कम लगती है।
धीरे-धीरे समझ आया कि चूँकि पहाड़ों की जलवायु ठंडी होती है, और वहाँ खाना जल्दी नहीं पचता है, इसलिए वहाँ भूख कम लगती है शायद इसीलिए वहाँ चटपटा खाने की क्रेविंग नहीं होती है। बाद में गौर किया तो पाया कि गर्म जगहों पर बहुत चटपटा खाया जाता है, राजस्थान इसका उदाहरण है। इसी तरह दक्षिण भारत तो अपने गरम मसालों के लिए मशहूर है ही।
कुछ साल पहले हम गंगटोक गए थे। हम जिस गेस्ट हाउस में रुके थे उसे कलकत्ता की माँ-बेटी चलाती थीं। उन्होंने पूछा, ‘आप भेज हैं?’
‘भेज...!’ हम दोनों ने उनकी शक्ल देखी, फिर मेरे भेजे में आया कि बंगाली हैं तो वेज को भेज कहती होगीं।
‘जी हम वेजिटेरियन हैं।’
‘मछली तो चलती होगी?’
मन किया जोर से हँस दें, ‘वेजिटेरियन है तो मछली कैसे चलेगी भई?’
वे बोलीं, ‘हम भी भेज हैं, लेकिन मछली चलती है।’
हम चकित हुए... फिर धीरे-धीरे जाना कि पूर्व में मछली को वेज ही माना जाता है। बिहार से आईं हमारी एक साथी ने बताया कि वहाँ मछली को ‘जलफल’ कहा जाता है।
कहने का मतलब यह है कि भूगोल न सिर्फ हमारी शारीरिक संरचना को बल्कि हमारी सांस्कृतिक विशिष्टता और आर्थिक संरचना का भी निर्धारण करता है। यहाँ तक तो शायद ही किसी को संदेह हो, लेकिन इन कुछ दिनों में मुझे यह लगने लगा है कि दरअसल यही भूगोल हमारे इतिहास को भी प्रभावित करता है।
दुनिया के जिन हिस्सों में खेती के लायक जमीन, पानी औऱ जलवायु नहीं होती है, इतिहास में उन हिस्सों में संघर्ष ज्यादा हुए हैं। उन समाजों में योद्धा के लिए अतिरिक्त सम्मान होता है औऱ युद्ध में विजय सबसे बड़ा सांस्कृतिक मूल्य होता है। उन्हीं समाजों में दुनिया को जीतने की महत्वाकांक्षा जन्मती है और फलती-फूलती है।
इतिहास की प्राचीन सभ्यताओं के भूगोल को देखेंगे तो पता चलेगा कि सारी प्राचीन सभ्यताएँ जिन भूभागों में विकसित हुईं वहाँ खेती के लायक जमीन थी, पानी की प्रचुरता थी और खेती के लिए अनुकूल जलवायु भी थी।
संघर्षरत भू-भागों की संस्कृति युद्धों के इर्दगिर्द ही विकसित होती रही। जहाँ जीने की सहूलियतें अपेक्षाकृत ज्यादा रहीं उनकी संस्कृतियाँ अलग-अलग दिशा में समृद्ध रहीं।
यदि हम ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बात कर पाते हैं तो इसलिए नहीं कि हम शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को समझते हैं, बल्कि इसलिए कि प्रकृति ने हमें जीने के लिए जरूरी साधन खुले हाथों से दिए हैं। हमने जिंदा रहने के लिए दूसरों की तुलना में कम संघर्ष किए हैं।
‘भूगोल, इतिहास को समझने की कुंजी है।’
अक्सर, जब मैं एक बैठक से दूसरी बैठक , एक जगह से दूसरी जगह , लोगों से मिलने के लिये जाता था, तो अपने श्रोताओं को हमारे इस इंडिया, इस हिंदुस्तान, जिसका नाम भारत भी है के बारे में बताता था। भारत, यह नाम हमारे समाज के पौराणिक पूर्वज के नाम पर रखा गया है। मैं शहरों में ऐसा कदाचित ही करता होउंगा, कारण साधारण है क्योंकि शहरों के लोग कुछ ज़्यादा सयाने होते हैं और दुसरे ही किस्म की बातें सुनना पसंद करते हैं। पर हमारी ग्रामीण जनता का देखने का दायरा थोड़ा सीमित होता है। उन्हें मैं अपने इस महान देश के बारे में, जिसकी स्वतंत्रता के लिये हम लड़ रहे हैं, बताता हूँ। उन्हें बताता हूँ कि कैसे इसका हर हिस्सा अलग है , फिर भी यह सारा भारत है। पूर्व से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक, यहाँ के किसानों की समस्याएं एक जैसी हैं। उन्हें स्वराज की बात बताता हूँ, जो सबके लिये होगा, हर हिस्से के लिये होगा7 मैं उन्हें बताता हूँ कि खैबर दर्रे से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्राओं में हमारे किसान मुझसे एक जैसे सवाल पूछते हैं। उनकी परेशानियां एक जैसी हैं। गरीबी, कर्जे, निहित स्वार्थ, सूदखोर, भारी लगान और करों की दरें, पुलिस की ज्यादती, यह सब उस ढाँचे में समाया हुआ है जो विदेशी सत्ता द्वारा हमारे ऊपर थोपा हुआ है और जिससे सबको छुटकारा मिलना ही चाहिये7 मेरी कोशिश रहती है की वे भारत को संपूर्णता में समझें। कुछ अंशों में वे सारी दुनिया को भी समझें, जिसका हम हिस्सा हैं।
अरुण कान्त शुक्ला
देश एक ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं है। कोई भी इलाका, कितना भी, खूबसूरत और हराभरा हो अगर वह वीराना है तो देश कैसा? देश बनता है उसके नागरिकों से। पर नागरिकों की भीड़ से नहीं। एक सुगठित, सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सानन्द और सुखी समाज से। एक उन्नत, प्रगतिशील और सुखी समाज, एक उदात्त चिंतन परम्परा और समरस की भावना से ही गढ़ा जा सकता है । देश को अगर मातृ रूप में हम स्वीकार करते है, तो नि:संदेह, हम सब उस माँ की संताने हैं। स्वाधीनता संग्राम के ज्ञात अज्ञात नायकों ने न केवल एक ब्रिटिश मुक्त आज़ाद भारत की कल्पना की थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसे भारत का सपना भी देखा था, जिसमे हम ज्ञान विज्ञान के सभी अंगों में प्रगति करते हुये, एक स्वस्थ और सुखी समाज के रूप में विकसित हों। इन नायकों की कल्पना और आज की जमीनी हकीकत का आत्मावलोकन कर खुद ही हम देखें कि हम कहां पहुंच गए हैं और किस ओर जा रहे हैं। भारत माता की जय बोलने के पहले यह याद रखा जाना जरूरी है कि, दुनिया मे कोई माँ, अपने दीन हीन, विपन्न, और झगड़ते हुए संतानों को देखकर सुखी नही रह सकती है। इस मायने में नेहरु की दृष्टि में भारतमाता की छवि एकदम साफ़ थी। भारत की विविधता को, उसमें कितने वर्ग, धर्म, वंश, जातियां, कौमें हैं और कितनी सांस्कृतिक विकास की धारायें और चरण हैं, नेहरु ने इसे बहुत गहराई से समझा था। प्रस्तुत है उनके आलेखों की माला ‘भारत एक खोज’ से एक अंश कि ‘भारत माता’ से नेहरु क्या आशय रखते थे।
मैं चीन, स्पेन, अबीसीनिया, मध्य यूरोप, मिस्र और पश्चिम एशिया के मुल्कों में चल रहे संघर्षों की बात करता हूं. मैं उन्हें रूस और अमेरिका में हुए परिवर्तनों की बात बताता हूं. यह काम आसान नहीं है, पर इतना मुश्किल भी नहीं हैं जितना मुश्किल मैं समझ रहा था. हमारे प्राचीन महाकाव्यों, हमारी पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से वे भली भांति परिचित हैं और इसके माध्यम से वे अपने देश को जानते समझते हैं7 हर जगह मुझे ऐसे लोग भी मिले जो तीर्थयात्रा के लिये देश के चारो कोनों तक जा चुके थे। या उनमें पुराने सैनिक भी थे जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध या अन्य अभियानों में विदेशी भागों में सेवा की थी। यहां तक कि विदेशों के बारे में मेरे संदर्भों से भी उन्हें 'तीस के दशक' के महान मंदी के परिणामों की याद आई जिसने उन्हें घर वापस लाई थी।
कभी ऐसा भी होता कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत ‘भारत माता की जय’ नारे के साथ किया जाता। मैं लोगों से पूछ बैठता कि इस नारे से उनका क्या मतलब है? यह भारत माता कौन है जिसकी वे जय चाहते हैं। मेरे सवाल से उन्हें कुतूहल और ताज्जुब होता और कुछ जवाब न सूझने पर वे एक दूसरे की तरफ या मेरी तरफ देखने लग जाते। आखिर एक हट्टे कट्टे जाट किसान ने जवाब दिया कि भारत माता से मतलब धरती से है। कौन सी धरती? उनके गांव की, जिले की या सूबे की या सारे हिंदुस्तान की?
इस तरह सवाल जवाब पर वे उकताकर कहते कि मैं ही बताउं। मैं इसकी कोशिश करता कि हिंदुस्तान वह सब कुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है। लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिंदुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अजीज हैं। लेकिन आखिरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिंदुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं और भारत माता की जय से मतलब हुआ इन लोगों की जय। मैं उनसे कहता कि तुम इस भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम ही भारत माता हो और जैसे जैसे ये विचार उनके मन में बैठते, उनकी आंखों में चमक आ जाती, इस तरह मानो उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अपनी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने ‘भारत तोड़ो’ का नारा दे दिया है। उन्होंने कहा है कि भारत में जातीय जनगणना फिर से शुरु की जानी चाहिए। 2011 में कांग्रेस पार्टी ने जातीय जन-गणना करवाई थी लेकिन भाजपा सरकार ने उस पर पानी फेर दिया। उसे सार्वजनिक ही नहीं होने दिया और अब 2021 से जो जन-गणना शुरु होनी थी, उसमें भी जातीय जन-गणना का कोई स्थान नहीं है। राहुल गांधी इस वक्त जो कुछ कह रहे हैं, वह शुद्ध थोक वोट की राजनीति का परिणाम है।
वे चाहते हैं कि इसके बहाने वे पिछड़ी जातियों के वोट आसानी से पटा लेंगे। लेकिन यदि राहुल गांधी को कांग्रेस के इतिहास का थोड़ा-बहुत भी ज्ञान होता तो वह ऐसा कभी नहीं कहते। क्या मैं राहुल को बताऊँ कि अंग्रेज सरकार ने भारत में जातीय जन-गणना इसलिए चालू करवाई थी कि वे भारत के लोगों की एकता को तोडऩा चाहते थे। क्यों तोडऩा चाहते थे? क्योंकि 1857 के स्वातंत्र्य-संग्राम में भारत के हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेज सरकार की जड़ें हिला दी थीं।
पहले इन दो आबादियों को तोडऩा और फिर जातियों के नाम पर भारत के सैकड़ों-हजारों दिमागी टुकड़े कर देना ही इस जातीय जनगणना का उद्देश्य था। इसीलिए 1871 से अंग्रेज ने जातीय-जनगणना शुरु करवा दी थी। कांग्रेस ने इसका डटकर विरोध किया था। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरु ने जातीय जनगणना के विरोध में सारे भारत में जनसभाएं और प्रदर्शन आयोजित किए थे। इसी का परिणाम था कि 1931 में ‘सेंसस कमिश्नर’ जे.एच.हट्टन ने जातीय जनगणना पर प्रतिबंध लगा दिया।
इस तरह की गणना कितनी गलत, कितनी अशुद्ध और कितनी अप्रामाणिक होती है, यह उन्होंने सिद्ध किया लेकिन कांग्रेस की मनमोहन-सरकार ने थोक वोटों के लालच में 2011 में इसे फिर से करवाना शुरु कर दिया। किसी भी पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया, क्योंकि सभी पार्टियां थोक वोट पटाने की फिराक में रहती हैं। इसके विरोध का झंडा अकेले मैंने उठाया। मैंने ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी आंदोलन’ शुरु किया। उस आंदोलन का विरोध करने की हिम्मत किसी नेता की नहीं पड़ी। यहां तक कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुझे फोन कर के सहयोग देते रहे।
बाद में जो लोग देश के सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हुए, वे भी उस समय झंडा उठाकर मेरे साथ चलते रहे। मैं सोनिया गांधी को धन्यवाद दूंगा कि जैसे ही वे न्यूयार्क में अपनी माताजी के इलाज के बाद दिल्ली लौटीं, उन्होंने सारी जानकारी मुझसे मांगी और उन्होंने तत्काल जातीय जनगणना को बीच में ही रूकवा दिया। मोदी को इस बात का श्रेय है कि प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने जातीय जनगणना के जितने अधूरे आंकड़े इक_े किए गए थे, उन्हें भी सार्वजनिक नहीं होने दिया। काश, उक्त बयान देने के पहले राहुल गांधी अपनी माँ सोनियाजी से तो सलाह कर लेते! (नया इंडिया की अनुमति से)
-गोपा सान्याल
भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है गोपाष्टमी। माना जाता है आज के दिन ही नन्द नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने अपने गोचारण की लीला आरम्भ की थी जिससे उनका नाम "गोपाल" पड़ा। गोमाता विश्व की माता है जो माँ की तरह सबका पोषण करती है। गोमाता से प्राप्त पञ्चगव्य का शास्त्रों में ही नहीं बल्कि आयुर्वेद में भी बड़ा महत्व है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 80 किमी दूर खैरागढ़ में स्थित है कामधेनु मंदिर। गोमाता के संरक्षण के लिए यहाँ संचालित मनोहर गौशाला अच्छी पहल कर रहा है। यहाँ एक अनोखी गोमाता है जिसका नाम है सौम्या। सौम्या का नाम गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। प्रबंधन के सदस्यों ने बताया कि सौम्या की पूंछ सर्वाधिक लंबी करीब 54 इंच तक है जो कि धरती को स्पर्श करती है और इसकी लंबाई अन्य गायों की तुलना में भीअधिक है। जानकारों के मुताबिक इसके शरीर में शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे प्रतीक चिन्ह हैं जो कि कामधेनु गाय में होती है। इनके दर्शन के लिए लोग श्रद्धा से यहाँ आते हैं और मनौती मांगते हैं। मनोकामना पूरी होने पर चढ़ावा भी चढ़ाते है। सौम्या को मिले इन्ही चढ़ावे से यहाँ मौजूद करीब 300 अशक्त गायें पल रही हैं।यहाँ कई दृष्टिहीन बछड़े अशक्त गायें हैं जिन्हें सौम्या दूध भी पिलाती है। इस गोशाला में गोअर्क के साथ-साथ गोमूत्र से औषधि भी बनाई जाती है। गोरक्षा के लिए यह गोशाला एक मिसाल है।
-विष्णु नागर
कुछ गुण- अवगुण व्यक्ति में नैसर्गिक रूप से होते हैं। इसका बहुत तीव्र एहसास मुझे अपने बड़े पोते के कारण हुआ। यह बात तब की है, जब जनाब तीन-चार साल के रहे होंगे। एक दिन हमारा पूरा परिवार- बड़ा बेटा, उसकी पत्नी, बड़ा पोता (तब छोटे पोते का जन्म नहीं हुआ था), पत्नी, मैं और हमारा छोटा बेटा- सब समुद्र की तरफ जा रहे थे। तब बेटे का परिवार एक फ्लैट में रहा करता था। हम सब लिफ्ट से नीचे उतर रहे थे। अचानक मेरे पोते जी ने कहा- 'दादाजी, आपके पास यह जो चटाई है, इसे आप दादी को दे दो।' हमने दे दी। तब उन्होंने कहा, 'और ये जो थैला है आपके पास, यह चाचा जी को दे दो।' वह भी दे दिया। मैं बहुत खुश हुआ कि इतना छोटा सा मेरा पोता, मेरा इतना ज्यादा ख्याल रख रहा है!
जैसे ही मैंने यह सब दिया, नीचे खड़े उन पोते जी ने कहा -'अब आप मुझे गोद में उठा लीजिए।' तो जनाब की यह डिप्लोमेसी थी, कूटनीति थी, जिसे हममें से कोई पहले समझ नहीं पाया था।
उनकी डिप्लोमेसी का यह अकेला उदाहरण नहीं है। इस घटना का गवाह मैं नहीं हूं मगर यह किस्सा उसकी मां ने सुनाया था और यह भी लगभग उसी समय का है। इनका पूरा परिवार, हमारी बहू के एक सहयोगी के घर भोजन पर आमंत्रित थे। बात होने लगी।किसी प्रसंग में शायद इन्हीं जनाब ने कहा कि ये अंकल मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। उनकी एक विदेशी दोस्त उस समय आई हुई थीं। उससे ये सब पहले भी मिलते रहे थे। उन्होंने पूछा - 'और मैं, कैसी लगती हूं?' जाहिर है कि वह इसे उतनी पसंद नहीं थी, जितने कि वे अंकल या शायद पसंद नहीं थीं। अब यह बात कैसे कही जाए तो जनाब ने बड़ा कूटनीतिक जवाब दिया -'सारी दुनिया के लोग ही मुझे बहुत पसू हैं।' यह जवाब सुनकर सब बहुत देर तक आनंदित हुए -इनकी डिप्लोमेटिक सूझबूझ पर।
इनके ये कूटनीति दांवपेंच घर में भी खूब चलते रहते हैं। कभी-कभी इनका अपनी अम्मा से किसी बात पर झगड़ा हो जाता है। वह कोई चीज मांगता है या कुछ करने की इजाज़त अम्मा से चाहता है और मां किसी कारण से अनुमति देने से मना कर देती है।तो वह भी गरम जाता है और उसकी मां भी। दोनों में बोलचाल बंद हो जाती है। थोड़ी देर तक यह नाराज़गी चलती है। बातचीत बंद रहती है।कुछ ही देर में उसे समझ में आ जाता है कि यह ठीक नहीं हुआ। अम्मा ही तो घर में मेरी शक्ति का मुख्य स्रोत है।वह दो- चार दिन नाराज हो गई तो आगे के दिनों का खेल बिगड़ जाएगा।उसे जो भी चाहिए होगा, उसकी अनुमति तो मां ही देगी। वह तुरंत नाराज मां के गले में हाथ डालकर उनसे झूम जाता है। मां झिड़केगी तो भी बुरा नहीं मानता। बहुत मीठी-मीठी बातें करने लगता है। मां का गुस्सा भी नकली होता है तो थोड़ी देर में वह खुश हो जाती है।मामला हल हो जाता है।वह वायदा करवा लेता है कि उसकी यह मांग आज तो पूरी नहीं होगी मगर फला दिन होगी। इतना काफी है। वह सब भूल जाएगा मगर मां से जो वायदा उसने करवाया था, कभी नहीं भूलेगा।
हमारे छोटे पोते साहब वैसे तो अपने बड़े भाई के बड़े भारी मुरीद हैं मगर वह डिप्लोमेसी नहीं जानते। एकदम सीधी-सच्ची बात करते हैं। वह अपनी अदाओं से, अपनी हाजिरजवाबी से, शैतान हरकतों से, सबके दिल पर कब्जा जमाते हैं। जब भी उनकी दादी उनके पास होती है तो समझो, दादी का मोबाइल उनका अपना होता है। दादी कहीं भी छुपाकर रखें, वह ढूंढ लेते हैं। वापिस दिल्ली आने के कुछ दिन बाद उनकी दादी ने उनसे पूछा- 'क्या तुम्हें दादी की याद आती है? 'थोड़ी देर उसने सोचा,क्या वाकई आती है? फिर सीधा- सच्चा जवाब दिया- 'आपके मोबाइल की याद आती है दादी।'
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात के मोरबी में जो पुल टूटा है, उसमें लगभग पौने दौ सौ लोगों की जान चली गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए। मृतकों के परिजनों को केंद्र और गुजरात की सरकारें 6-6 लाख रु. का मुआवजा दे रही हैं और घायलों को 50-50 हजार का लेकिन यहां मूल प्रश्न यह है कि क्या सरकार की जिम्मेदारी सिर्फ इतनी ही है? जो लोग मरे हैं, उनके परिजन 6 लाख रु. के ब्याज से अपना घर कैसे चलाएंगे? कई परिवार बिल्कुल अनाथ हो गए हैं। सबसे ज्यादा महिलाएं और बच्चों की मौत हुई है। कोई आश्चर्य नहीं कि उस पुल के हादसे में मृतकों की संख्या अभी और बढ़ जाए।
लगभग 200 साल पुराने इस पुल की हालत काफी खस्ता थी। कई बार उस पर टूट-फूट हो चुकी है। गुजरात सरकार ने इस पुल के संचालन का ठेका एक गुजराती कंपनी को दिया था। पुल पर आने वाले हर यात्री को वह 17 रुपए का टिकट बेचती थी। लगभग 100 लोगों के एक साथ पुल पर जाने की सुविधा थी लेकिन उस दिन कंपनी ने लालच में फंसकर लगभग 500 टिकट बेच दिए। पिछले सात महिने से उसकी मरम्मत का काम जारी था। अब छठ पूजा के नाम पर 26 अक्तूबर को यह पुल यात्रियों के लिए खोल दिया गया।
पिछले चार-पांच दिनों में सैकड़ों लोग उस पुल पर जमा होते रहे लेकिन कल शाम वह अचानक बीच में से टूट गया। सैकड़ों लोग इसलिए मौत के घाट उतर गए और घायल हो गए कि ऐसी दुर्घटना की संभावना के विरुद्ध कोई सावधानी नहीं बरती गई। यह सावधानी किसे रखनी चाहिए थी? गुजरात सरकार को लेकिन गुजरात के अधिकारियों का कहना है कि उस पुल को खोलने की अनुमति उन्होंने नहीं दी थी। ठेकेदार ने अपनी मर्जी से ही पुल खोल दिया था।
यदि ठेकेदार ने पुल खोल दिया तो स्थानीय अधिकारी क्या ऊंघ रहे थे? उन्होंने क्यों नहीं जांच की? क्यों नहीं प्रमाण-पत्र मांगा? क्यों नहीं ठेकेदार के विरुद्ध कार्रवाई की? जाहिर है कि सरकार और ठेकेदार दोनों ही इस सामूहिक हत्याकांड के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। यह ठीक है कि कल शाम से गुजरात के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार ने भी यात्रियों को बचाने में जमीन-आसमान एक कर रखा है लेकिन इस दुर्घटना ने गुजरात सरकार के मस्तक पर काला टीका लगा दिया है।
इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के विभिन्न समारोहों में तरह-तरह के भाषण देते फिर रहे हैं लेकिन उनकी कौन सुन रहा है। टीवी दर्शक भी उनके भाषणों के बजाय मोरबी-दुर्घटना के बारे में ज्यादा देखना, सुनना और पढऩा चाह रहे हैं। उनके इन भाषणों से भी ज्यादा उनका वह भाषण इंटरनेट पर करोड़ों लोग सुन रहे हैं, जो उन्होंने पश्चिमी बंगाल में हुए चुनाव के पहले दिया था। उस समय बंगाल में भी एक पुल टूटा था। उस समय मोदी ने कहा था कि यह दुर्घटना ‘गाड’ की नहीं, ममता सरकार के ‘फ्राड’ की है। तुकबंदी के शौकीन मोदी पर यह जुमला काफी भारी पड़ रहा है।
यह असंभव नहीं कि उनके इस भाषण का उपयोग या दुरूपयोग अब ‘आप पार्टी’ गुजरात के आसन्न चुनाव में जमकर करेगी। पक्ष और विपक्ष के नेता मृतकों के प्रति जितनी औष्ठिक सहानुभूति बता रहे हैं, उससे ज्यादा वे एक-दूसरे पर प्रहार करने में जुटे हुए हैं। जो हुआ, सो हुआ लेकिन पुल की संचालक उस कंपनी को न केवल विसर्जित किया जाना चाहिए बल्कि उसके मालिक और दोषी प्रबंधकों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए और उसकी सारी संपत्ति छीनकर हताहतों के परिजनों में बांट दी जानी चाहिए। जो स्थानीय सरकारी अधिकारी उपेक्षा के लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें भी तत्काल नौकरी से मुक्त किया जाना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अमृता राय
छठ मेरे बचपन की यादों का एक ऐसा पर्व है जो माँ के तप के साथ साथ अपनी मुफलिसी की याद दिलाता है। तब नए कपड़े दिवाली पर नहीं छठ पर सिलाए जाते थे। माँ के लिए दो अर्घ्य की दो नयी साडिय़ाँ आती थीं तो पूरे परिवार में नएपन की चकाचौंध हो जाती थी। लगता था हमारे अंदर नई ऊर्जा का संचार हो रहा है। मां की कठोरता से डरते हम बच्चे इन दिनों में उनकी कोमलता के आभास से पिघल जाते थे।
मगर वो सादगी के दिन थे। साल में होली और छठ पर ही नए कपड़े बनते थे। जिसका नया होना ही बहुत था। मुझे अपने लिए माँ की सिली वो हरी फ्रॉक आज भी याद है जो छठ के दिन तक सिली जा रही थी। उस साल शायद माँ कहीं व्यस्त थीं सो मेरे लिए कपड़ा तैयार नहीं कर पायी थीं। पर लगन ऐसी कि तीन दिन से व्रत के बावजूद छठ वाले रोज़ मेरी नयी फ्रॉक तैयार की गयी ताकि मैं उसे ही पहनकर पूजा के लिए जाऊँ। आज माँ की वो लगन और परिवार के प्रति जतन याद आती है।
माँ छठ के लिए रोमांचित रहती थीं। उनके इस रोमांच में पूरा परिवार ही नहीं मोहल्ला शामिल हो जाता था। सभी का सानिध्य इसे बड़े से बड़ा बना देता था।
दिवाली की रौनक़ से इतर छठ में गज़़ब की सादगी और नयापन होता था। घर का कोना कोना चमका दिया जाता था। जर्रे-जर्रे में छठ की भीनी ख़ुश्बू तैरने लगती थी। फिर शुरू होता था गेहूं धोकर सुखाना, हम बच्चों का कौवे उड़ाना, उसे जांते (चक्की) में पीसना, उसका ठेकुआ बनाना। घर में नया चावल, नया गुड़, गन्ने का रस आना और वह बखीर-आह! उसका स्वाद तो आज भी नहीं भूला है। नए चावल और नए गुड से चूल्हे पर बना वह खाना अमृत से कम नहीं होता था।
फिर आता था अर्घ्य का दिन। माँ मंदिर जाते हुए गीत गाती थीं। कांच ही बांस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाएज्..पिता जी गन्ने और पूजा का सामान सँभालते थे और हम बच्चे पीछे पीछे दौड़ते से चलते थे। नए नए कपड़ों में त्योहार का रोमांच अलग ही होता था। माँ के जोश से हम उत्साहित रहते थे। बुआ हो या मोहल्ले की चाची जी, चाचा जी (तब हम सभी पड़ोसियों को ऐसे ही पुकारते थे) सब साथ हो लेते थे। लेकिन कोई शोर न था। सब तरफ़ सादगी थी। माँ मंदिर की पचास से ज़्यादा सीढिय़ाँ चढक़र डाला के पहाड़ी पर बने मंदिर में पूजा के लिए जाती थीं। अघ्र्य के लिए वहाँ बने एक तालाब के पानी में उतर जाती थीं। मेरे मन में चिंता होती थी कि माँ की नयी साड़ी गीली हो जाएगी तो पल्लू पकडक़र खड़ी हो जाती थी। पापा अर्घ्य दिलाते थे। फिर शाम घर आते हुए बस सुबह का इंतजार होता था।
अगले दिन भोर तीन बजे से ही सुनहरी सुबह का इंतज़ार करते हम बच्चे ठंड में किसी कंबल में सिकुड़ते बैठ जाते थे।
माँ गीत गाती रहती थीं- उगेले सुरूजमल कहवाँ’
गीत गाते गाते सूर्योदय हो ही जाता था। अघ्र्य के बाद पड़ोस की चाचीजी के लाए थर्मस की चाय माँ बड़े मन से पीती थीं। लगता था जैसे तृप्त हो रही हों। इस बीच हम बच्चे ठेकुआ पाने को बेचैन हो उठते थे। फिर अपने अपने प्रसाद की छँटाई होती थी। प्रसाद में इतने तरह की चीजें होती थीं कि सब अपनी पसंद से कुछ न कुछ अलग कर ही लेते थे।
इसके बाद सारा दिन सभी पड़ोसी चाची जी और आंटी जी के घर प्रसाद बाँटने का सिलसिला शुरू होता था। इस तरह छठ की पूजा संपन्न होती थी और हम नयी गर्मी के साथ सर्दी के स्वागत के लिए तैयार हो जाते थे। माँ बिना आराम किए नए दिन के चूल्हा चौका में लग जाती थीं।
बचपन के उन दिनों में हम छठ हर साल ऐसे ही मनाते रहे। वही छठ आज भी मन मस्तिष्क को भिगोता है। मुझे मेरी हरी फ्रॉक और माँ का गीत मन से बचपन में ले जाता है। मैं नए जमाने के छठ में भी वही पुराना रोमांच ढूँढती रहती हूं।
सोलर पार्क को पर्यावरण स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है, जाहिर है इससे पर्यावरण पर पडऩे वाले प्रभावों का कोई अध्ययन नहीं किया जाता।
-महेन्द्र पांडे
हमारे देश में बड़े विशालकाय सोलर पार्क का प्रचलन तेजी से बढ़ा है- दरअसल जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमारी सरकार को बस एक यही तरीका नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी स्वयं इसमें दिलचस्पी दिखाते हैं और अब गौतम अडानी के इस बाजार में तेजी से कदम बढ़ रहे हैं। जाहिर है, बड़े सोलर पार्क देश में बड़े पैमाने पर स्थापित किये जाने वाले हैं। सोलर पार्क को कुछ इस तरह से सरकार प्रस्तुत करती है, मानों इनका कोई बुरा प्रभाव समाज और पर्यावरण पर पड़ता ही ना हो। सोलर पार्क को पर्यावरण स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है, जाहिर है इससे पर्यावरण पर पडऩे वाले प्रभावों का कोई अध्ययन नहीं किया जाता। दूसरी तरफ अधिकतर विकसित देशों में परियोजनाओं से होने वाले सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन किया जाता है, पर हमारे देश में सामाजिक प्रभावों को नगण्य कर दिया जाता है और इसका मूल्यांकन नहीं किया जाता।
हाल में ही अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि सोलर पार्क को स्थापित करने और चलाने के समय यदि पर्यावरण और समाज को नजरअंदाज किया जाता है तब बहुत सारी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। कर्नाटक के तुमकुर जिले में स्थित पवागादा सोलर पार्क दुनिया के सबसे बड़े सोलर पार्क में एक है, जिसकी क्षमता 2 मेगावाट बिजली उत्पन्न करने की है और इसे वर्ष 2019 में चालू किया गया था। इस सोलर पार्क को केंद्र और राज्य सरकार एक आदर्श परियोजना बताती रही है, जिससे स्थानीय आबादी खुशहाल होगी, स्थानीय आबादी में बेरोजगारी ख़त्म हो जायेगी, सस्ती बिजली मिलेगी, आर्थिक सम्पन्नता आयेगी, और प्रतिवर्ष 7 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड का वायुमंडल में उत्सर्जन रोका जा सकेगा। अनेक गैर-सरकारी सामाजिक और पर्यावरणीय संस्थाओं ने इस सोलर पार्क का विस्तार से अध्ययन किया है और इसके सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन किया है।
पवागादा सोलर पार्क वाले क्षेत्र में प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 5.35 किलोवाट घंटा सौर ऊर्जा प्राप्त होती है, जाहिर है यह सौर उर्जा के लिए एक आदर्श स्थान है। इस परियोजना के लिए पांच गाँव के किसानों ने स्वेच्छा से 13000 एकड़ अपनी भूमि सौर ऊर्जा कंपनियों को पट्टे पर दिया है। यह पट्टा 21000 रुपये प्रति एकड़ की दर से दिया गया है और हरेक दो वर्षों में इस दर में 5 प्रतिशत की बृद्धि की जायेगी। यहां तक तो एक आदर्श स्थिति नजर आती है और सरकार इसे प्रचारित भी करती है, और पूरे क्षेत्र के आर्थिक विकास का दावा भी करती है। इन तथ्यों को आप बारीकी से देखें तो इतना तो स्पष्ट हो ही जाएगा कि लाभ में केवल वही किसान रहेंगें जो बड़ी जमीनों के मालिक हैं, क्योंकि वही अपनी जमीन पट्टे पर दे सकते हैं। पर, सामान्यतया गाँव में कुछ किसानों के पास ही अपनी जमीन होती है, जिसपर खेती की जाती है, और गाँव की शेष आबादी श्रमिकों की होती है जो खेत वाले किसानों की जमीन पर श्रम कर अपना पेट भरते हैं। जाहिर है, सोलर पार्क से बहुत छोटे किसानों और खेतिहर श्रमिकों को कोई फायदा नहीं है।
खेतिहर श्रमिकों पर बेरोजगारी का संकट खड़ा हो गया है क्योंकि जिन खेतों पर वे श्रमिक का काम करते थे, उनपर अब सोलर पैनल खड़े हैं। इनमें से कुछ श्रमिकों को सोलर पार्क में ही घास काटने, सोलर पैनल की सफाई करने और सुरक्षा गार्ड का रोजगार मिला है, पर उनकी संख्या बहुत कम है। सामाजिक विकास से जुड़े संस्थानों का कहना है कि इस तरह की परियोजनाओं को स्थापित करने से पहले पूरे क्षेत्र की आबादी का विस्तृत आर्थिक और सामाजिक आकलन किया जाता है और खेतिहर श्रमिकों और वंचित समुदाय को प्राथमिकता के आधार पर रोजगार के अवसर और सुविधाएं दी जाती हैं, पर हमारे देश में ऐसी परियोजनाओं का लाभ केवल बड़े जमीन मालिकों में ही सिमट कर रह जाता है। इस तरीके की परियोजनाएं सरकारी प्रचार तंत्र का हिस्सा तो बनती हैं, पर किसी भी स्थानीय समस्या का कोई समाधान नहीं होता। ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक तौर पर आर्थिक असमानता का पैमाना जमीन पर मालिकाना हक़ रहा है, और सोलर पार्क जैसी परियोजनाओं से आर्थिक असमानता और विकराल हो रही है।
बड़े किसानों को सोलर पार्क के लिए खेती की जमीन को पट्टे पर देने के कारण उनके पास अचानक बहुत सारी मुद्रा पहुंच गयी, और इस मुद्रा से कुछ बड़े किसान भारी व्याज पर कर्ज देने का धंधा करने लगे हैं। आर्थिक तौर पर कमजोर तबके की एक बड़ी आबादी धीरे-धीरे कर्ज में डूबती जा रही है। सोलर पार्क से पहले इस क्षेत्र की परती सार्वजनिक और सरकारी भूमि मवेशियों के लिए चारागाह का काम करती थी, पर अब सोलर पार्क के अन्दर मवेशियों को चराना मना है। मवेशियों को अब चराने के लिए दूर ले जाना पड़ता है। इन सब समस्याओं से ट्रस्ट होकर कुछ लोगों ने अपने पुश्तैनी गाँव को ही छोड़ दिया है।
विश्व बैंक ने कुछ वर्ष पहले अपनी एक रिपोर्ट में ऐसी सामाजिक समस्याओं के प्रति आगाह किया था, पर हमारे प्रधानमंत्री जी और सरकार की प्राथमिकता सौर ऊर्जा पर अंतर्राष्ट्रीय वाहवाही बटोरना है, जनता नहीं। हमारे प्रधानमंत्री तो वैसे भी हरेक परेशानी को कुछ दिनों की परेशानी ही बताते हैं और उसके बाद स्वार्गिक सुख का सब्जबाग दिखाते हैं। ऐसी परियोजनाएं समाज में सबसे अधिक महिलाओं को आर्थिक तौर पर कमजोर करती हैं। सोलर पार्क से पहले इस क्षेत्र की अधिकतर महिलायें खेतिहर श्रमिक का काम करती थीं, पर अब वे बेरोजगार हैं।
कर्नाटक के इस क्षेत्र में बारिश कितनी कम होती है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले 6 दशकों के दौरान 54 बार इसे सूखा-ग्रस्त क्षेत्र घोषित किया गया है। जाहिर है, इस क्षेत्र में पानी की भयानक किल्लत बनी रहती है। दूसरी तरफ सोलर पैनल की सफाई के लिए भारी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। एक मेगावाट बिजली उत्पन्न करने वाले पैनल को एक बार साफ़ करने के लिए 7 हजार से 20 हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। हमारे सरकारों की प्राथमिकता पानी के उपयोग के सम्बन्ध में अब पूरी तरह बदल चुकी है और अब पानी के उपयोग में प्राथमिकता उद्योग हो गए हैं। पानी की कमी होने पर अब इस क्षेत्र में कृषि और घरेलु आपूर्ति प्रभावित होगी।
सोलर पार्क स्थापित करने के बाद इलाके के वन्यजीव या तो मर जाते हैं या फिर कहीं और चले जाते हैं। कीट पतंगे और मधुमक्खियां भी कम हो जाते हैं। इनका खेतों में परागण में बहुत योगदान रहता है, और इनकी कमी से कृषि पैदावार कम हो जाती है। पवागादा सोलर पार्क के आसपास के किसान इस समस्या से जूझने लगे हैं। सोलर पार्क के लिए किसानों से पट्टे पर ली गयी जमीन के बारे में अनुबंध में कहा गया है कि उन्हें जमीन वापस पहले जैसी ही मिलेगी। पहले जैसी जमीन वापस करना असंभव है क्योंकि सोलर पैनल का आधार पक्का बनाया जाता है। खेती की जमीन को सीमेंट और ईंट से पक्का करने के बाद उसे वापस पहले की अवस्था में लाना असंभव है। सोलर पार्क स्थापित करने के बाद स्थानीय स्तर पर तापमान भी बढ़ता है, जिससे स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ सकती हैं। सोलर पैनल की आयु 25 से 30 वर्ष की होती है, और उपयोग के बाद इसका कोई उपयोग नहीं होता और इसका पुन:चक्रण भी नहीं किया जा सकता।
यदि, इसके कचरे का उचित प्रबंधन नहीं किया गया तो इससे अनेक विषाक्त पदार्थ भूमि में मिल सकते हैं। पर, सबसे बड़ा सवाल यह है कि सौर ऊर्जा से हरेक समस्या के समाधान का दावा करने वाली सरकार इन समस्याओं पर कभी विचार करेगी और स्थानीय समस्याओं पर कभी ध्यान देगी? (navjivanindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की सरकारों से मेरी शिकायत प्राय: यह रहती है कि वे शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम क्यों नहीं उठाती हैं? अभी तक आजाद भारत में एक भी सरकार ऐसी नहीं आई है, जिसने यह बुनियादी पहल की हो। कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने छोटे-मोटे कुछ कदम इस दिशा में जरूर उठाए थे लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले मेरा सोच यह था कि यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो वे जरूर यह क्रांतिकारी काम कर डालेंगे लेकिन यह तभी हो सकता है जबकि हमारे नेता नौकरशाहों की गिरफ्त से बाहर निकलें। फिर भी 2018 से सरकार ने जो आयुष्मान बीमा योजना चालू की है, उससे देश के करोड़ों गरीब लोगों को राहत मिल रही है। यह योजना सराहनीय है लेकिन यह मूलत: राहत की राजनीति है याने मतदाताओं को तुरंत तात्कालिक लाभ दो और बदले में उनसे वोट लो।
इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन इस देश का स्वास्थ्य मूल रूप से सुधरे, इसकी कोई तदबीर आज तक सामने नहीं आई है। फिर भी इस योजना से देश के लगभग 40-45 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा। वे अपना 5 लाख रू. तक का इलाज मुफ्त करवा सकेंगे। उनके इलाज का पैसा सरकार देगी। अभी तक देश में लगभग 3 करोड़ 60 लाख लोग इस योजना के तहत अपना मुफ्त इलाज करवा चुके हैं। उन पर सरकार ने अब तक 45 हजार करोड़ रु. से ज्यादा खर्च किया है। देश की कुछ राज्य सरकारों ने भी राहत की इस रणनीति को अपना लिया है लेकिन क्या भारत के 140 करोड़ लोगों की स्वास्थ्य-रक्षा और चिकित्सा की भी योजना कोई सरकार लाएगी?
इसी प्रकार भारत में जब तक प्रांरभिक से लेकर उच्चतम शिक्षा भारतीय भाषाओं के जरिए नहीं होती है, भारत की गिनती पिछड़े हुए देशों में ही होती रहेगी। जब तक यह मैकाले प्रणाली की गुलामी का ढर्रा भारत में चलता रहेगा, भारत से प्रतिभापलायन होता रहेगा। अंग्रेजीदाँ भारतीय युवजन भागकर विदेशों में नौकरियाँ ढूंढेंगे और अपनी सारी प्रतिभा उन देशों पर लुटा देंगे। भारतमाता टूंगती रह जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे बच्चे विदेशी भाषाएं न पढ़ें।
उन्हें सुविधा हो कि वे अंग्रेजी के साथ कई अन्य प्रमुख विदेशी भाषाएं भी जरूर पढ़ें लेकिन उनकी पढ़ाई का माध्यम कोई विदेशी भाषा न हो। सारे भारत में किसी भी विदेशी भाषा को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर कड़ा प्रतिबंध होना चाहिए। कौन करेगा, यह काम? यह काम वही संसद, वही सरकार और वही प्रधानमंत्री कर सकते हैं, जिनके पास राष्ट्रोन्नति का मौलिक सोच हो और नौकरशाहों की नौकरी न करते हों। जिस दिन यह सोच पैदा होगा, उसी दिन से भारत विश्व-शक्ति बनना शुरु हो जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-शंभुनाथ
मैं जब 8-9 साल का था तो छठ के दिन स्त्रियों के गीत गाने की आवाज मेरी नींद में सेंध मारते हुए घुसती थी। एकदम अंधेरे में बिस्तर से उठकर खिड़की से उन्हें गोल में गीत गाते हुए जाते देखता था। उस समय न डम-डमाडम-डम था और न इतने पटाखे छूटते थे। थोड़ी- थोड़ी देर पर स्त्रियों के गोल आते रहते थे। सड़क की कम रोशनी में स्त्रियां आगे-आगे रहती थीं। पुरुष सिर पर भरी परात और केले के धवद लिए अपूर्व आज्ञाकारी की तरह पीछे- पीछे चलते थे। यह मेरे लिए अनोखा दृश्य था।
बचपन में किसी छठ के दिन जिद करके मैं पहली बार गंगा घाट गया, मेरी एक भक्तिन दादी भोर होने पर ले गई थीं। घाट की गली में चहल- पहल थी, पर ठेलम-ठेल नहीं। देखा, दादी ने खोइचा बनाकर किसी अपरिचित से ठेकुआ मांगा और उसने बड़े सहज भाव से दे दिया। मुझे बुरा लगा और भक्तिन दादी को टोका कि मांग क्यों रही हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह मांगा जाता है। सब छठ मइया का है, प्रसाद है!
बाद में समझ में आया, छठ पूजा भक्तों के बीच फर्क मिटा देती है। न देने वाले को लगता है कि वह कुछ दे रहा है, न मांगने वाले को लगता है कि वह कुछ मांग रहा है। क्योंकि यहां सूरज और छठ के संसार में कोई 'दूसरा' नहीं है, कोई 'पर' नहीं है! सूरज किसी को भी 'पर' समझकर अपनी किरणें नहीं रोकता। यह अ-पर का बोध ही भारतीयता है!
भारत के सभी बड़े त्योहारों का संबंध नई फसल से है-- ओणम, पोंगल, बीहू हो या दिवाली- छठ। छठ पूजा में गेहूं और इसका ठेकुआ है, ईख है, चना है, केले के धवद हैं। छठ में सूप- दउरा का बड़ा महत्व है, ये दलितों के घर में बनते हैं। ये सूप अब घरों से ओझल हो गए। बहुत कुछ अब आंखों के सामने नहीं है, पर उसकी छाप है।
छठ पूजा पहले द्विजेतर जातियों में प्रचलित थी, धीरे- धीरे सार्वभौम हो गई। छठ पूजा सारे भेदभाव मिटा देने वाला पर्व है। यह स्वच्छता के साथ प्रेम, आत्मपरिष्कार और बृहत्तर सामाजिकता का संदेश देता है।
इस पूजा की खूबी है कि इसमें पुरोहितों की जरूरत नहीं है, भक्त और ईश्वर के बीच कोई मध्यस्थ नहीं होता। व्रतपारिणी ही सबकुछ है और वह श्रद्धा से देखी जाती है।
स्त्रियों के गान में है, केले के धवद पर सुग्गा मंडरा रहा है। तोता भूख के कारण गुच्छे को जूठा कर देता है और बाण से मारा जाता है। उसकी पत्नी सुगनी वियोग से रोने लगती है, कोई देव सहाय नहीं होता। कथा का संकेत है कि अवमानना की शिकार स्त्री की आवाज अनसुनी है। उसकी पीड़ा को सिर्फ सूर्यदेव समझ सकते हैं। वे भी नहीं सुनेंगे तो कौन सुनेगा। छठ पूजा इसलिए है कि धर्म को पुरोहित तंत्र से मुक्त किया जाए और स्त्रियों की आवाज सुनी जाए!
सदियों से लोग देवताओं से अपने दुख- कष्ट कह रहे हैं। जब तक ऐसा है, मानकर चलना चाहिए कि सरकारें नहीं सुन रही हैं!
छठ से जिस तरह पुरोहितों को अलग रखा गया, यदि पूरे हिंदू धर्म को पुरोहिततंत्र से स्वतंत्र कर देना संभव होता तो इस धर्म में इतना अंधविश्वास, धार्मिक शोषण और कट्टरता नहीं फैलती।
कर्ण नदी में कमर तक डूबकर बिना पुरोहित के सूर्य को अर्घ्य देता था। विश्वास है कि वह सूर्यपुत्र था। वह अनोखा दानी था, बिहार (अंग राज्य) का था। असल दानी वह है जो दाएं हाथ से देता है, पर उसके बाएं हाथ को इसका पता नहीं होता!
आज कोई समर्थ व्यक्ति लोगों के बीच साधारण चीज भी बांटता है, तो कैमरे या मोबाइल से फोटो खिंचा लेता है!
निरीश्वरवादी नागार्जुन की एक कविता है- 'पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने'। इसमें वे खुद अपना मखौल उड़ाने में संकोच नहीं करते। दूसरों पर हँसना आसान है। नागार्जुन अपने पर भी हँस सकते थे! वे एक पोस्टग्रेजुएट नौजवान के साथ निर्मल भाव से गंगा किनारे जाते हैं और सूर्य को नमस्कार करते हुए वैदिक श्लोक पढ़ते हैं। लड़का देखता है, बाबा यह क्या कर रहे हैं! मनुष्य में प्रकृति के प्रति थोड़ी कृतज्ञता होनी चाहिए, अन्यथा वह सिर्फ एक विध्वंसक में बदलता जाएगा।
मुझे छठ प्रिय है, क्योंकि इसमें आवेग और दृढ़ता दोनों चीजें हैं। ये भरोसा देती हैं कि इसी तरह देश के आम लोगों में प्रेम, मैत्री, अहिंसा, सह- अस्तित्व और करुणा को लेकर जो आवेग और दृढ़ता है, इन्हें थोड़ी देर के लिए धूमिल किया जा सकता है, पर मिटाया नहीं जा सकता!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति की कल दो उपलब्धियों ने मेरा ध्यान बरबस खींचा। एक तो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन द्वारा भारत की सराहना और दूसरी भारत और ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर हुई बातचीत! इन मुद्दों पर यह शक बना हुआ था कि भारत की नीति से इन दोनों राष्ट्रों को कुछ न कुछ एतराज जरुर है लेकिन वे संकोचवश खुलकर बोल नहीं रहे थे। अब यह स्पष्ट हो गया है कि रूस और ब्रिटेन, दोनों ही भारत की नीति से संतुष्ट हैं और उनके संबंध भारत से दिनोंदिन घनिष्ट होते चले जाएंगे।
पहले हम रूस को लें। भारत ने यूक्रेन पर रूसी हमले का कभी दबी जुबान से समर्थन नहीं किया लेकिन उसे अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों की तरह रूस के विरुद्ध आग भी नहीं बरसाई। उसने यूक्रेन से अपने हजारों नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकाला, उसे टनों अनाज भेंट किया और कुछ प्रस्तावों पर संयुक्तराष्ट्र संघ में उसका साथ भी दिया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में साफ-साफ कह दिया कि यह वक्त युद्ध का नहीं है। रूस-यूक्रेन युद्ध तुरंत बंद होना चाहिए।
शायद इसी का असर था कि पूतिन ने परमाणु-युद्ध की आशंका से त्रस्त सारे विश्व को आश्वस्त किया कि उनका इरादा परमाणु बम चलाने का बिल्कुल नहीं है। अब उन्होंने मास्को के एक ‘थिंक टैंक’ में भाषण देते हुए न केवल मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा की बल्कि कहा कि इस संकट के दौरान भारत के साथ रूस का कृषि व्यापार दुगुना हो गया, उर्वरक निर्यात 7-8 गुना बढ़ गया और आपसी व्यापार 13 अरब से कूदकर 18 अरब डॉलर का हो गया। रूसी तैल ने भारत की जरूरत पूरी कर दी। पूतिन ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की जमकर तारीफ की है। यह तब है जबकि भारत अमेरिका के साथ कई मोर्चों पर पूरी तरह सहयोग कर रहा है।
चीन को इससे काफी जलन हो रही है लेकिन भारत के बारे में रूस का मूल्यांकन सही है। इसी तरह ब्रिटेन-भारत मुक्त व्यापार समझौते के संपन्न होने के पूरे आसार दिखाई पडऩे लगे हैं। ऋषि सुनाक ने प्रधानमंत्री बनते ही अपने विदेश मंत्री को सबसे पहले भारत भेजा है। मोदी और सुनाक की बातचीत से मुक्त व्यापार का रास्ता काफी साफ हुआ है। लंदन में यह डर बताया जा रहा था कि उक्त समझौता यदि हो गया तो ब्रिटेन में भारतीयों की भरमार हो जाएगी और वे ब्रिटिश बाजारों पर कब्जा कर लेंगे।
इसके अलावा ब्रिटेन चाहता है कि उसकी मोटर साइकिलों, शराब, केमिकल्स और अन्य कई चीजों पर भारत ज्यादा टैक्स-ड्यूटी न लगाए। ऐसे ही भारत भी अपने कृषि-पदार्थों, कपड़ों और चमड़े आदि के समान पर ड्यूटी घटवाना चाहता है। उम्मीद है कि कुछ दिनों में यदि उक्त समझौता हो गया तो अन्य कई यूरोपीय देशों के दरवाज़े भी भारतीय माल के लिए खुल जाएंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने के बाद सोशल मीडिया में एक अजीब सा उन्माद देखा गया। कुछ बड़े ही रोचक शीर्षक भी नजरों से गुजरे - ब्रिटेन में ऋषि राज, ऋषि युग लौट आया, सनातनियों के लिए सुनहरा समय, कोहिनूर की वापसी का मार्ग प्रशस्त आदि आदि। अनेक सोशल मीडिया पोस्ट ऐसी भी थीं जिनमें कुछ चर्चित भविष्यवाणियों का जिक्र था जो भारत के विश्व गुरु बनने की ओर संकेत करती हैं और यह कहा गया था कि अब इन भविष्यवाणियों के सच होने की शुरुआत हो गई है। बहुत से व्हाट्सएप संदेश ऐसे भी देखने में आए जो यह पुरजोर तरीके से समझाने का प्रयास कर रहे थे कि ऋषि सुनक के चयन के पीछे मोदी जी का अप्रत्यक्ष योगदान है। इनमें कहा गया था कि दरअसल भारत के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जी के शानदार प्रदर्शन को देखकर दुनिया के अनेक देश अब यह मानने लगे हैं कि कोई भारतवंशी हिन्दू ही उनके देश का उद्धार कर सकता है, अब हर देश में मोदी जी को तो बुलाया नहीं जा सकता इसलिए स्थानीय भारतीय मूल के नेताओं पर विश्वास जताया जा रहा है।
हमारे देश में महंगाई और बेरोजगारी के उच्चतम स्तर, आर्थिक और लैंगिक असमानता की बढ़ती खाई, नागरिक स्वतंत्रता के ह्रास, मीडिया की आजादी में आई कमी, अल्पसंख्यक अधिकारों के हनन तथा बहुसंख्यक वर्चस्व की बढ़ती प्रवृत्ति आदि की निरन्तर चर्चा करने वाले मुझ जैसे बुद्धिजीवियों को यह संदेश विशेषकर भेजे गए, कुछ संदेशों में मेरे लिए पाद टिप्पणी भी जोड़ी गई थी- अब तो समझ जाओ अक्ल के अंधे! मोदी जी के नेतृत्व भारत विश्व गुरु बन रहा है!
इन संदेशों ने मुझ पर गहरा असर किया लेकिन उस रूप में नहीं जैसा इनके प्रेषकों को अपेक्षित था। कभी साम्राज्यवाद और रंगभेद के लिए चर्चित रहने वाले ब्रिटेन की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पसंख्यकों के बढ़ते प्रतिनिधित्व के विषय में जानने की तीव्र जिज्ञासा हुई। अंततः यूके पार्लियामेंट की हाउस ऑफ कॉमन्स लाइब्रेरी की वेबसाइट में "एथनिक डाइवर्सिटी इन पार्लियामेंट एंड पब्लिक लाइफ" शीर्षक रिपोर्ट ने बहुत कुछ बताया और चौंकाया भी। 1929 में भारतीय मूल के कम्युनिस्ट शाहपुरजी सकलतवाला की बैटरसी सीट से पराजय के उपरांत 1986 तक हाउस ऑफ कॉमन्स में दक्षिण एशियाई या अश्वेत प्रतिनिधित्व नहीं था। किंतु 1987 में अल्पसंख्यक जातीय पृष्ठभूमि रखने वाले डायने एबॉट, पॉल बोटेंग,कीथ वाज़ तथा बर्नी ग्रांट निर्वाचित हुए। यह संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई और 2010 के बाद से इसमें बड़ी तेजी से वृद्धि हुई। 1992 में 6,1997 में 9, 2001 में 12, 2005 में 15, 2010 में 27, 2015 में 41, 2017 में 52 जबकि 2019 में 65 सांसद अल्पसंख्यक समुदाय से निर्वाचित हुए। इस प्रकार 2019 में हाउस ऑफ कॉमन्स में अल्पसंख्यक जातीय पहचान रखने वाले सांसदों की संख्या दस प्रतिशत तक पहुंच गई है। जबकि सितंबर 2022 की स्थिति में हाउस ऑफ लॉर्ड्स में अल्पसंख्यक सदस्यों की संख्या 55 अर्थात 7.6 प्रतिशत थी। हाउस ऑफ कॉमन्स के 65 अल्पसंख्यक संसद सदस्यों में 41 लेबर पार्टी के जबकि 24 कंज़र्वेटिव पार्टी के हैं, 2 सांसद लिबरल डेमोक्रेट हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि 65 अल्पसंख्यक सांसदों में 37 महिलाएं हैं। अल्पसंख्यक महिलाओं को इतना प्रतिनिधित्व शायद उनके मूल देश में भी नहीं मिल पाता होगा।
पिछले कुछ दिनों में अनेक अल्पसंख्यकों को ब्रिटिश मंत्रिमंडल में बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी दी गई हैं। सुएला ब्रेवरमैन,जेम्स क्लेवरली, रानिल जयवर्धने, क्वासी क्वारटेंग, आलोक शर्मा और नदीम जहावी आदि देश के सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार संभाल चुके हैं। यह जानना रोचक होगा कि ऋषि सुनक के 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री समेत केवल 5 मंत्री अल्पसंख्यक पहचान रखते हैं जबकि लिज ट्रस के 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल में 7 मंत्री अल्पसंख्यक थे।
सितंबर 2022 की स्थिति में लंदन असेंबली में 32 प्रतिशत अर्थात 8 सदस्य अल्पसंख्यक जातीय पृष्ठभूमि से थे। लंदन के मेयर सादिक खान भी अल्पसंख्यक हैं। लंदन की जनसंख्या में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी 40.6 प्रतिशत है।
नेशनल हेल्थ सर्विस इंग्लैंड की अगर बात करें तो इसमें 25.2 प्रतिशत की महत्वपूर्ण भागीदारी अल्पसंख्यकों की है। एनएचएस इंग्लैंड में 49.5 प्रतिशत डॉक्टर्स और 41.9 प्रतिशत हॉस्पिटल कंसल्टेंट्स अल्पसंख्यक पहचान रखते हैं। सितंबर 2021 की स्थिति में इंग्लैंड के 23.4 प्रतिशत सामाजिक कार्यकर्ता अल्पसंख्यक थे।
इन आंकड़ों की चर्चा इसलिए कि अल्पसंख्यक वर्ग से ब्रिटिश प्रधानमंत्री का चुना जाना कोई आकस्मिक या असामान्य घटना नहीं है। यह पिछले साढ़े तीन दशक से ब्रिटिश जीवन में आ रहे सकारात्मक बदलावों की परिणति है और इन परिवर्तनों को ब्रिटेन के सामुदायिक जीवन में अल्पसंख्यकों की बढ़ती भागीदारी के रूप में देखा जा सकता है।
यदि हम अपने देश की बात करें तो 2006 में आई सच्चर कमेटी की सिफारिशों के16 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति चिंताजनक है, निराश करने वाली बात यह है कि पिछले एक दशक में मानव विकास और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक भागीदारी के विभिन्न मानकों के अनुसार मुसलमानों की स्थिति में सुधार के बजाए गिरावट देखी गई है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार कामकाजी उम्र वाले एक तिहाई मुसलमान ही नौकरियों में हैं, शेष या तो कुछ अपना ही काम कर रहे हैं, अथवा बेरोजगार हैं। मुसलमानों की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है किंतु लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.9 प्रतिशत है। सिविल सेवाओं के इस वर्ष घोषित नतीजों में 685 सफल उम्मीदवारों में पिछले एक दशक में सबसे कम केवल 25 अर्थात 3.64 प्रतिशत मुसलमान हैं। बिहार के अपवाद को छोड़कर जहाँ आमिर सुबहानी मुख्य सचिव हैं 28 राज्यों में कोई भी मुख्य सचिव मुसलमान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के जजों में एस अब्दुल नजीर के रूप में मुस्लिम समुदाय का केवल एक जज है। आईआईटी, आईआईएम तथा एम्स की प्रशासनिक समिति में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शून्य या नगण्य है। लगभग यही स्थिति निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की श्रेष्ठ कंपनियों और मीडिया हाउसों की है- सर्वोच्च स्तर पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व का नितांत अभाव है।
ऋषि सुनक को कंज़र्वेटिव पार्टी ने रिचमंड यॉर्कशायर सीट से चुनाव लड़ाया जो कंज़र्वेटिव पार्टी का गढ़ कही जाती है और 1910 से उसके पास है। क्या हमारे देश में हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि किसी अल्पसंख्यक को संसद में पहुंचाने के लिए कोई राष्ट्रीय पार्टी उसे अपनी सबसे सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ाएगी?
प्रधानमंत्री पद के लिए सुनक की दावेदारी के बाद स्वाभाविक था कि उनका विरोध हुआ। लेकिन यह विचारणीय है कि विरोध के मुद्दे क्या थे? उन पर श्रमिक विरोधी होने के आरोप लगे, उनकी अकूत संपत्ति पर सवाल उठे, उनकी पत्नी पर लगे कर अपवंचन के आरोप चर्चा में रहे किंतु उनके भारतीय मूल के होने, हिंदू धर्मावलंबी होने अथवा उनकी अल्पसंख्यक पहचान को लेकर न तो विरोधी दलों ने न ही कंज़र्वेटिव पार्टी के उनके प्रतिद्वंद्वियों ने कोई सवाल उठाया। उनका धर्म और उनकी अल्पसंख्यक पहचान राजनीतिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं थी।
ऋषि सुनक के पारंपरिक भगवा गमछा धारण कर मंदिर में सपत्नीक पूजा करते चित्र को देखकर हम गौरव अनुभव कर रहे हैं। लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि सुनक के किसी प्रतिद्वंद्वी ने यह नहीं कहा कि उन्हें उनके कपड़ों से ही पहचाना जा सकता है कि वे ब्रिटेन के प्रति वफादार नहीं हैं। ब्रिटेन में अपने प्रतिद्वंद्वी नेता पर ऐसी किसी टिप्पणी की भी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उसने भयवश ऐसे क्षेत्र का चयन किया है जहां बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक है।
क्या हम भारत में भविष्य में होने वाले किसी ऐसे चुनाव की कल्पना कर सकते हैं जिसमें सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा न उठे? क्या आने वाले दिनों में कोई ऐसा चुनाव होता दिखता है जो बुनियादी मुद्दों पर केंद्रित हो न कि मतदाता को धार्मिक रूप से ध्रुवीकृत करने की जहरीली कोशिशों पर आधारित हो? क्या आज कोई राजनीतिक पार्टी किसी अल्पसंख्यक को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप प्रोजेक्ट कर चुनावों में जाने का साहस कर सकती है? हिन्दू मतदाता को हिंसक बहुसंख्यक वर्चस्व का आदी बना देने के बाद यह दलील कितनी खोखली लगती है कि अब मुसलमान प्रत्याशी मतदाताओं की पसंद नहीं रह गए हैं और हारने वाले उम्मीदवार को कोई टिकट नहीं देता। देश में एपीजे अब्दुल कलाम और आरिफ मोहम्मद खान जैसे राष्ट्र भक्त मुसलमानों की कमी के शरारती तर्क का असली अर्थ यह है कि देश के लगभग 20 करोड़ मुसलमान राष्ट्रभक्त नहीं हैं।
भारत के साथ होने वाली ट्रेड डील का विरोध करने वाली, डील के बाद यूके में भारतीय आप्रवासियों की संख्या बढ़ने की आशंका व्यक्त करने वाली और भारतीय आप्रवासियों पर विपरीत टिप्पणी करने वाली लिज ट्रस सरकार की गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन को ही ऋषि सुनक ने अपना गृह मंत्री बनाया है। ऋषि और सुएला दोनों ही भारतीय मूल के हैं लेकिन उनकी निष्ठा अपनी पार्टी की विचारधारा के प्रति स्पष्ट दिखती है। बतौर देशभक्त ब्रिटिश नागरिक उनकी भारत के प्रति नीतियां भी ब्रिटेन के हितों की रक्षा करने वाली होंगी। लेकिन हमारे देश में बड़ी निर्ममता और निष्ठुरता से अपना व्यापार चलाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिन्दू सीईओज की सूची देखकर चरम आनंद प्राप्त करने वाले कट्टरपंथियों के लिए ऋषि सुनक का हिन्दू होना ही काफी है।
ऐसा बिलकुल नहीं है कि ब्रिटेन में रंगभेद समाप्त हो गया है अथवा नस्ली सोच मिट गई है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि ब्रिटेन ने पिछले कुछ दशकों में जिस तरह से अपनी सांस्कृतिक और प्रजातीय विविधता को अपनी शक्ति बनाया है उससे वहां उदारता का वातावरण बना है और देश मजबूत हुआ है। धीरे धीरे ऐसी स्थिति बन रही है कि अल्पसंख्यकों का अल्पसंख्यक होना चुनावी मुद्दा नहीं रह गया है। किसी भी आम ब्रिटिश उम्मीदवार की तरह अल्पसंख्यक प्रत्याशी भी अपने चुनावी क्षेत्र और देश की समस्याओं को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ रहे हैं और मतदाता भी उनकी योग्यता और विज़न को देखकर उन्हें चुन रहे हैं न कि उनके अल्पसंख्यक होने के कारण। इसके विपरीत हम हैं कि अपने देश के अल्पसंख्यकों के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार की ओर अग्रसर हैं। देश के लगभग 20 करोड़ मुसलमान हमारे लिए संदेह और घृणा के पात्र हैं। हम हिंसा और प्रतिहिंसा के अंतहीन सिलसिले को बस शुरू ही करने वाले हैं।
कहा जाता है कि ग्लोबलाइजेशन के अंत का प्रारंभ हो चुका है। विशेषकर कोविड-19 के बाद से दुनिया भर में संकीर्ण राष्ट्रवाद लोकप्रिय हुआ है और फ़ासिस्ट शक्तियां मजबूत हुई हैं। अनेक देश बाहरी लोगों के लिए अपनी सीमाएं बंद कर रहे हैं। ऐसे में ऋषि सुनक का ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनना एक सुखद आश्चर्य है। विडंबना यह है कि ब्रिटेन के जिस उदार वातावरण ने ऋषि सुनक को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है, उस उदारता को संकीर्णता में बदलने की अपेक्षा उनसे की जाएगी। यह देखना होगा कि वे इस अंतर्विरोध के का सामना करते हुए किस तरह सत्ता संचालन करते हैं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के रक्षामंत्री राजनाथसिंह ने पाकिस्तान के कब्जाए हुए कश्मीर और बल्तिस्तान को आजाद करने का नारा काफी जोर-शोर से लगाया है। उन्होंने 26 अक्टूबर को मनाए जा रहे शौर्य दिवस के अवसर पर कहा है कि तथाकथित ‘आजाद कश्मीर’ के लोगों पर थोपी जा रही गुलामी को देखकर तरस आता है। उन्हें सच्ची आजादी दिलाना बहुत जरुरी है। भारत इस मामले में चुप नहीं बैठेगा।
राजनाथसिंह के पहले हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उस कश्मीर को आजाद करने की बात काफी जोरदार ढंग से कही थी। उनके पहले तथाकथित पाकिस्तानी कश्मीर के बारे में हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री प्राय: कुछ बोलते ही नहीं थे लेकिन मेरी पाकिस्तान-यात्रा के दौरान जब-जब वहां मेरे भाषण और पत्रकार-परिषदें हुईं, मैंने ‘आजाद कश्मीर’ के सवाल को उठाया। पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से जब-जब मेरी मुलाकातें होती तो वे मुझे कहते कि सबसे पहले आप अपना कश्मीर हमारे हवाले कीजिए, तब ही हमारे आपसी संबंध सुधर सकते हैं।
मैं उनसे पूछता कि आपने संयुक्तराष्ट्र संघ का 1948 का वह प्रस्ताव पढ़ा है या नहीं, जिसमें जनमत-संग्रह के पहले पाकिस्तान को कहा गया था कि आप अपने कब्जे के कश्मीर से अपना एक-एक फौजी और अफसर हटाएँ? ज्यादातर पाकिस्तानी नेता, पत्रकार और फौज के उच्चपदस्थ जनरलों को भी इस शर्त का पता ही नहीं था। प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो को दिखाने लिए तो मैं वह स.रा. दस्तावेज़ जेब में रखकर ले गया था। पाकिस्तानी कश्मीर के तीन तथाकथित प्रधानमंत्रियों से कई बार मेरे लंबे संवाद हुए, इस्लामाबाद, लंदन और वाशिंगटन डी.सी. में। वे लोग दोनों कश्मीरों को मिलाकर आजादी की बात जरुर करते थे लेकिन बात करते-करते वे यह भी बताने लगते थे कि पाकिस्तान की फौज और सरकार उन पर कितने भयंकर अत्याचार करती है।
एक कश्मीरी लेखक की उन्हीं दिनों छपी पुस्तक में कहा गया था कि गर्मी के दिनों में ‘उनके कश्मीर’ को पाकिस्तान के पंजाबी अमीर लोग ‘विराट वेश्यालय’ बना डालते हैं। बेनजीर ने अपने फौजी गृहमंत्री से कहा था कि वे मुझे ‘आजाद कश्मीर’ के प्रधानमंत्री से मिलवा दें तो उन गृहमंत्रीजी ने मुझसे कहा कि वह आजाद कश्मीर का ‘प्रधानमंत्री’ नहीं है वह तो किसी शहर के मामूली महापौर की तरह है। सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तान ने 1948 में कश्मीर के जिस हिस्से पर कब्जा कर लिया था, उसे वह अपना गुलाम बनाकर तो रखना ही चाहता है, उसकी कोशिश है कि भारतीय कश्मीर भी उसका गुलाम बन जाए। दोनों कश्मीरियों को आजादी चाहिए। वैसी ही आजादी, जैसे मुझे दिल्ली में है और इमरान खान को लाहौर में है।
यह आजादी किसी मुख्यमंत्री को ‘प्रधानमंत्री’ कह देने से नहीं मिल जाती है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी क्या सचमुच आजाद हैं? वहां फौज जिसको चाहे प्रधानमंत्री की कुर्सी में बिठा देती है और हटा देती है। कश्मीर को सच्ची आजादी तभी मिलेगी, जब दोनों कश्मीर एक हो जाएंगे और दोनों कश्मीर आज भारत और पाकिस्तान के बीच जो खाई बने हुए हैं, वे एक सेतु की तरह काम करेंगे। दोनों कश्मीरों को मिलाकर हम उन्हें भारत के अन्य प्रांतों की तरह आजाद कर सकते हैं। यही कश्मीर की सच्ची आजादी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई दिल्ली से चीनी राजदूत सन वेइ दोंग की विदाई के समय हमारे विदेशमंत्री जयशंकर और राजदूत सन ने जो बातें कहीं हैं, उन पर दोनों देशों के नेता और लोग भी जऱा गंभीरतापूर्वक विचार करें तो इस 21 वीं सदी में दुनिया की शक्ल बदल सकती है। जयंशकर ने कहा है कि इन दोनों के बीच यदि आपसी संवेदनशीलता, आपसी सम्मान और आपसी हितों को ध्यान में रखकर काम किया जाए तो न केवल इन दोनों देशों का भला होगा बल्कि विश्व राजनीति भी उससे लाभान्वित होगी। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच तनाव खत्म करने के लिए यह जरुरी है कि सीमा क्षेत्रों में शांति बनी रहे।
जयंशकर के जवाब में बोलते हुए चीनी राजदूत सन ने कहा कि दोनों राष्ट्र पड़ौसी हैं। पड़ौसियों के बीच मतभेद और अनबन कोई अनहोनी बात नहीं है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। चीन और भारत एक-दूसरे के महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। उन्हें अपने मतभेदों को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करना चाहिए। दोनों की शासन-व्यवस्थाओं का चरित्र भिन्न है और दोनों की विकास-प्रक्रिया भी अलग-अलग है लेकिन यदि दोनों राष्ट्र एक-दूसरे का सम्मान करें और उनकी आंतरिक व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप न करें तो दोनों के संबंध सहज हो सकते हैं। दोनों राष्ट्रों के संबंधों में इधर जो उतार-चढ़ाव आए हैं, उन्हें दूर करना मुश्किल नहीं है।
नई दिल्ली से चीनी राजदूत सन वेइ दोंग की विदाई के समय हमारे विदेशमंत्री जयशंकर और राजदूत सन ने जो बातें कहीं हैं, उन पर दोनों देशों के नेता और लोग भी जऱा गंभीरतापूर्वक विचार करें तो इस 21 वीं सदी में दुनिया की शक्ल बदल सकती है। जयंशकर ने कहा है कि इन दोनों के बीच यदि आपसी संवेदनशीलता, आपसी सम्मान और आपसी हितों को ध्यान में रखकर काम किया जाए तो न केवल इन दोनों देशों का भला होगा बल्कि विश्व राजनीति भी उससे लाभान्वित होगी। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच तनाव खत्म करने के लिए यह जरुरी है कि सीमा क्षेत्रों में शांति बनी रहे।
जयंशकर के जवाब में बोलते हुए चीनी राजदूत सन ने कहा कि दोनों राष्ट्र पड़ौसी हैं। पड़ौसियों के बीच मतभेद और अनबन कोई अनहोनी बात नहीं है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। चीन और भारत एक-दूसरे के महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। उन्हें अपने मतभेदों को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करना चाहिए। दोनों की शासन-व्यवस्थाओं का चरित्र भिन्न है और दोनों की विकास-प्रक्रिया भी अलग-अलग है, लेकिन यदि दोनों राष्ट्र एक-दूसरे का सम्मान करें और उनकी आंतरिक व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप न करें तो दोनों के संबंध सहज हो सकते हैं। दोनों राष्ट्रों के संबंधों में इधर जो उतार-चढ़ाव आए हैं, उन्हें दूर करना मुश्किल नहीं है।
नई दिल्ली से चीनी राजदूत सन वेइ दोंग की विदाई के समय हमारे विदेशमंत्री जयशंकर और राजदूत सन ने जो बातें कहीं हैं, उन पर दोनों देशों के नेता और लोग भी जऱा गंभीरतापूर्वक विचार करें तो इस 21 वीं सदी में दुनिया की शक्ल बदल सकती है। जयंशकर ने कहा है कि इन दोनों के बीच यदि आपसी संवेदनशीलता, आपसी सम्मान और आपसी हितों को ध्यान में रखकर काम किया जाए तो न केवल इन दोनों देशों का भला होगा बल्कि विश्व राजनीति भी उससे लाभान्वित होगी। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच तनाव खत्म करने के लिए यह जरुरी है कि सीमा क्षेत्रों में शांति बनी रहे।
जयंशकर के जवाब में बोलते हुए चीनी राजदूत सन ने कहा कि दोनों राष्ट्र पड़ौसी हैं। पड़ौसियों के बीच मतभेद और अनबन कोई अनहोनी बात नहीं है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। चीन और भारत एक-दूसरे के महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। उन्हें अपने मतभेदों को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करना चाहिए। दोनों की शासन-व्यवस्थाओं का चरित्र भिन्न है और दोनों की विकास-प्रक्रिया भी अलग-अलग है लेकिन यदि दोनों राष्ट्र एक-दूसरे का सम्मान करें और उनकी आंतरिक व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप न करें तो दोनों के संबंध सहज हो सकते हैं। दोनों राष्ट्रों के संबंधों में इधर जो उतार-चढ़ाव आए हैं, उन्हें दूर करना मुश्किल नहीं है।
कुछ बौद्ध चीनियों ने मुझे कहा कि रोज सुबह वे अपनी प्रार्थना में कहते हैं कि हमारा अगला जन्म अगर हो तो वह बुद्ध के देश भारत में ही हो। हमारे विदेश मंत्री जयशंकर चीन में हमारे राजदूत भी रह चुके हैं। वे यदि थोड़ी पहल करें और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें वैसा करने दें तो कोई आश्चर्य नहीं कि भारत और चीन के संबंध सिर्फ सामान्य ही नहीं हो जाएंगे, ये दोनों महान राष्ट्र मिलकर 21 वीं सदी को एशिया की सदी भी बना सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित गर्ग
भारतीय मूल के ऋषि सुनक एक नया इतिहास रचते हुए ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री की शपथ ले चुके हैं। उन्होंने पेनी मोरडॉन्ट को मात देते हुए जीत हासिल की है। कंजरवेटिव पार्टी का नेतृत्व करने की रेस ऋषि सुनक जीत चुके हैं। पार्टी ने उन्हें अपना नया नेता चुन लिया है। यह पहली बार हुआ है जब कोई भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना है। हालांकि इससे ब्रिटेन पर छाए राजनीतिक और आर्थिक संकट के बादल कितने कम होंगे, यह भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन सुनक के बहाने यदि ब्रिटेन आर्थिक संकट से उबरने में सक्षम हो सका तो यह न केवल सुनक के लिये बल्कि भारत के लिये गर्व का विषय होगा। भले ही सुनक के सामने कई मुश्किल चुनौतियां और सवाल हैं, लेकिन उन्हें एक सूरज बनकर उन जटिल हालातों से ब्रिटेन को बाहर निकालना है।
भारत में सुनक की जीत पर काफी खुशी मनाई जा रही है, यह दीपावली का विलक्षण एवं सुखद तोहफा इसलिये है कि भारत पर दो सौ वर्षों तक राज करने वाले ब्रिटेन पर अब भारतवंशी का राज होगा। सुनक के रूप में उस ब्रिटेन को भारतीय मूल का पहला प्रधानमंत्री मिलने से निश्चित ही भारत का गौरव दुनिया में बढ़ा है। 42 साल के सुनक आधुनिक दौर में ब्रिटेन के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री हैं। किंग चार्ल्स तृतीय के ऑफिस ने उनके नाम पर मुहर लगा दी है। सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना इस मायने में भी बेहद अहम बात है कि ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग अल्पसंख्यक हैं। उनकी आबादी कम है। इसके बावजूद सुनक को ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल गया है। एक और खास बात यह है कि सुनक को ऐसी पार्टी ने अपना नेता चुना है, जो रूढि़वादी विचारों के लिए जानी जाती है। प्रवासी लोगों के लिए कंजर्वेटिव पार्टी का रुख उदार नहीं रहा है। दुनिया में बढ़ रही कट्टरता और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने की बढ़ती हरकतों के बीच ब्रिटेन और वहां की कंजर्वेटिव पार्टी ने जो फैसला किया है, वह दुनिया को एक नई राह दिखाएगा, यह उम्मीद की जानी चाहिए। यह दुनिया की बदलती सोच का भी परिचायक है, वही दुनिया में भारत की सर्व-स्वीकार्यता का भी द्योतक है।
ब्रिटेन गहरे आर्थिक संकट की ओर बढ़ता दिख रहा है। महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर है। बैंक ऑफ इंग्लैंड का अनुमान है कि इस साल इंफ्लेशन 11 प्रतिशत के ऊपर जा सकती है। ऋषि सुनक इससे पहले बोरिस जॉनसन सरकार में वित्त मंत्री रह चुके हैं। उनके मंत्री रहते ब्रिटेन में महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी। टैक्स भी बढ़ाए गए थे। जॉनसन मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते हुए सुनक ने लिखा था कि कम टैक्स रेट और ऊंची ग्रोथ रेट वाली इकॉनमी तभी बनाई जा सकती है, जब ‘हम कड़ी मेहनत करने, कुर्बानियां देने और कड़े फैसले करने को तैयार हों। मेरा मानना है कि जनता सच सुनने को तैयार है। आम-जनता को यह बताया जाना चाहिए कि बेहतरी का रास्ता है, लेकिन यह आसान नहीं है।‘ सुनक ने तब जिस कड़ी मेहनत की बात की थी, वह अब उन्हें खुद करके दिखानी होगी। उनके पास जीये गये राजनीतिक कड़वे अनुभव है। उन अनुभवों से यदि वे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को उबार सके तो यह समूची दुनिया के लिये एक रोशनी होगी।
निश्चित ही सुनक ने एक कांटों भरा ताज पहना है। ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण है। इन असाधारण चुनौतियों से पार पाना सुनक की सबसे बड़ी अग्नि-परीक्षा है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के आपूर्ति पक्ष में कमजोरी अब एक तत्काल चिंता का विषय है। जबकि उत्पादन इसकी पूर्व-कोविड प्रवृत्ति से 2.6 प्रतिशत से कम है। ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद को अतिरिक्त 1.4 प्रतिशत की दर से बढ़ाना होगा। अर्थव्यवस्था के सामने व्यापार की शर्तें भी बड़ी चुनौती है। आने वाले दिनों में इससे घरेलू और कॉर्पोरेट दोनों क्षेत्रों पर असर पड़ेगा। आर्थिक रूप से कमजोर लोग इससे और परेशान हो सकते हैं। प्रमुख नीतिगत सवाल यह है कि इस नुकसान को कैसे आवंटित किया जाए। मांग गिरने से निकट भविष्य में बेरोजगारी बढऩे की आशंका है। भविष्य में बढऩे वाली बेरोजगारी पर काबू पाना एवं बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करना भी आसान नहीं है। अध्ययन के मुताबिक, 2023 तक महंगाई उच्च स्तर पर पहुंच सकती है, जिससे निपटना चुनौतीपूर्ण होगा। एक तरफ खुदरा महंगाई दर दोहरे अंकों में होने से जीवनयापन का संकट है। दूसरी ओर रुकी हुई आर्थिक वृद्धि की समस्या है, जो बदले में कम राजस्व और उच्च ऋण की ओर ले जाती है। अब अगर सरकार मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए खर्च पर अंकुश लगाती है, तो यह आर्थिक विकास को और नीचे ले जाएगी। आईएफएस की रिपोर्ट कहती है कि यह किसी भी ब्रिटिश नीति निर्माता के लिए सबसे अधिक चिंताजनक है।
इन आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ ऋषि सुनक के सामने सबसे पहली राजनीतिक चुनौती तो यही है कि उन्हें साबित करना है कि वह पार्टी को नियंत्रित कर सकते हैं। कंजरवेटिव पार्टी के पास संसद में बहुमत है लेकिन वह ब्रेग्जिट समेत तमाम मुद्दों पर बंटी हुई है। ऐसे में पार्टी को एक करना भी एक चुनौती है। आने वाले दिनों में पार्टी के ही कुछ लोगों द्वारा हाई टैक्स का विरोध किया जा सकता है। लोग स्वास्थ्य और रक्षा जैसे क्षेत्रों के खर्च में कटौती का भी विरोध कर सकते हैं। सुनक को ऐसे स्वरों को भी संभालना होगा, संतुलित राजनीति का नया अध्याय लिखते हुए ब्रिटेन पर छाये निराशा के बादल का छांटना होगा। गहन समस्याओं एवं निराशाओं के बीच प्रधानमंत्री का ताज धारण करके सुनक ने साहस एवं हौसलों का परिचय दिया है। एक कर्मयोद्धा की भांति इन सब समस्याओं को सुलझाने के लिये अभिनव उपक्रम करने होंगे।
ऋषि सुनक स्वयं को भारतीय एवं हिंदू कहकर गर्व महसूस करते हैं और अपनी धार्मिक पहचान को लेकर वह काफी मुखर रहते हैं। वह नियमित रूप से मंदिर जाते हैं और उनके बेटियों, अनुष्का और कृष्णा की जड़ें भी भारतीय संस्कृति से जुड़ी हैं। सुनक जब सांसद बने थे तब उन्होंने भगवत गीता की शपथ ली थी। एक रैली में सुनक ने कहा था कि भले ही वह एक ब्रिटिश नागरिक हैं, उन्हें अपने ‘हिंदू होने पर गर्व’ है। कैलिफोर्निया की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में एमबीए की पढ़ाई के दौरान सुनक की मुलाकात उनकी फैशन डिजाइनर अक्षता मूर्ति से हुई थी। अगस्त 2009 में अक्षता और ऋषि शादी के बंधन में बंध गए। अक्षता इंफोसिस के को-फाउंडर और भारत के सबसे अमीर लोगों की सूची में शामिल नारायण मूर्ति की बेटी हैं। सुनक कई बार इसका जिक्र कर चुके हैं कि उन्हें अपने सास और ससुर पर बेहद गर्व है। ऋषि सुनक को हाउस ऑफ कॉमन्स में सबसे अमीर शख्स कहा जाता है जिनकी कुल संपत्ति 730 मिलियन पाउंड है। कुछ रिपोर्ट्स तो यहां तक दावा करती हैं उनकी पत्नी ब्रिटेन के सम्राट से भी ज्यादा अमीर हैं। माना जाता है कि दंपति की कुल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा इंफोसिस की हिस्सेदारी से आता है। हालांकि 2015 में राजनीति में कदम रखने से पहले फाइनेंस के क्षेत्र में सुनक िका एक सफल करियर रहा है। दंपति के पास लंदन, कैलिफोर्निया, सैंटा मोनिका और यॉर्कशायर में कई घर हैं। अक्सर सुनक और अक्षता मूर्ति अपनी संपत्ति को लेकर सुर्खियां बटोर चुके हैं।
साल 2015 में यॉर्कशायर की रिचमंड सीट जीतकर टोरी नेता ऋषि सुनक का राजनीतिक सफर शुरू हुआ। फरवरी 2020 में साजिद जाविद के इस्तीफे के बाद सुनक चांसलर ऑफ एक्सचेकर के पद पर पहुंच गए। सुनक के कम अनुभव को लेकर कुछ लोगों को उन पर संदेह था लेकिन कोविड महामारी के दौरान आर्थिक मोर्चे को सफलतापूर्वक संभालकर उन्होंने अपने आलोचकों को गलत साबित कर दिया। कुछ महीनों पहले तक सुनक बोरिस जॉनसन कैबिनेट में वित्तमंत्री थे लेकिन उनके इस्तीफे ने ब्रिटेन में एक राजनीतिक परिवर्तन की नींव रखी। आज टैक्स-कटौती के लुभावने वादों के बजाय महंगाई को कम करने और अर्थव्यवस्था को बेहतर स्थिति में लाने की अपनी रणनीतिक की बदौलत ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जा रहे हैं।
आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में परंपरावादी राजनीतिक दलों के अंतर्द्वंद्व कितने चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ब्रिटेन है। डेढ़ महीना पहले ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनीं लिज ट्रस ने आर्थिक अस्थिरता के दौर में देश की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने की आशंका जाहिर करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पिछले कुछ वर्षों में ब्रिटिश राजनीति आप्रवासन और महंगाई जैसे मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति में रही है, जिसके चलते देश की अर्थव्यवस्था कमजोर और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है। 2019 में तत्कालीन प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने ब्रेक्जिट को लेकर यूरोपीय संघ के साथ समझौते को संसद से पास न करा पाने की वजह से इस्तीफा दिया था। फिर बोरिस जानसन प्रधानमंत्री बने थे। उसके बाद कोरोना और रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजी समस्याओं का सामना ब्रिटेन की जनता को करना पड़ा। उनकी नीतियों को लेकर कंजर्वेटिव पार्टी में ही सवाल खड़े हुए और अंतत: उन्हें इस वर्ष जुलाई में पद से हटना पड़ा। उनके बाद कंजर्वेटिव पार्टी ने लिज ट्रस को अपना नेता चुना, जिनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना, आप्रवासन और महंगाई को लेकर देश में बनी ऊहापोह की स्थिति को दूर करना था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के अंतर्गत छियासठ लाख से ज्यादा लोग आते हैं, लेकिन उनका मुफ्त इलाज सुनिश्चित नहीं हो रहा है और इससे लोग नाराज हैं। देश में सरकारी कर बढ़ाने की आशंकाओं के बाद सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी का विरोध बढ़ा है। इसका एक प्रमुख कारण कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर आपसी विवाद भी रहे हैं, जो राजनीतिक अदूरदर्शिता के रूप में सामने आते हैं।
वैश्विक सहयोग और विविधता को स्वीकार न कर पाने के चलते उदारवादी लोकतंत्र, ब्रिटेन गहरे संकट में फंसता दिखाई दे रहा है। कंजर्वेटिव पार्टी की वैश्विक बदलावों के साथ सामंजस्य बिठा पाने में नाकामी देश में राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आयी और मंदी से परेशान ब्रिटिश जनता देश में मध्यावधि चुनाव भी नहीं चाहती, लेकिन सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी के अंतर्द्वंद्व से देश की समस्याओं में इजाफा ही हो रहा है। इन समस्याओं के बीच सुनक एक रोशनी के रूप में उभरे हैं, देखना है कि उनका शासन काल ब्रिटेन को नयी शक्ति, नया वातायन दे पाता है या नहीं? 200 साल तक भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों के मुल्क को अब एक भारतवंशी किस रूप में चला पायेगा?
-अरूण माहेश्वरी
कल इस सूचना ने मन को सचमुच गहरी ख़ुशी दी कि ‘द गुड डॉक्टर’ टेलीविजन शो के मुख्य अभिनेता फ्रेडी हाइमोर ( शॉन मर्फी) को गोल्डेन ग्लोब पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए चुना गया है। इस शो के अब तक 100 एपिसोड पूरे हो गए हैं। नेटफ्लिक्स पर चल रहे इस लंबे शो ने सचमुच हमें भी बुरी तरह से बांध रखा है। इसे मिल रही अंतरराष्ट्रीय मान्यता से हमारी पसंद की पुष्टि से हम सचमुच ख़ुश है।
एक अस्पताल की दुनिया में डाक्टरों और रोगियों के जीवन की अनगिनत कहानियों से तैयार किए गए इस शो का केंद्रीय चरित्र है डॉक्टर शॉन मर्फी। वह ऑटिज्म का रोगी है। खुद में बेहद सच्चा, पर अन्य से संवाद के मामले में उतना ही कच्चा। मनुष्य के शरीर के अंग-अंग से गहराई से परिचित, पर अन्य संपूर्ण मनुष्य से उतना ही अपरिचित। वह अंगों की पर्त दर पर्त को पहचानता है, उनकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का सटीक पूर्वानुमान कर पाता है, और इसीलिए रोग के इलाज तरीकों के बारे में दृढ़ मत भी रखता है, पर मनुष्य के व्यवहार की परतें उसे कभी समझ में नहीं आती, जबकि चिकित्साशास्त्र में रोगी के प्रति चिकित्सक का व्यवहार भी चिकित्सा के अन्य उपायों से कम महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है।
डॉ. मर्फी एक श्रेष्ठ सर्जन के रूप में अस्पताल की पूँजी हैं, तो अपने सरल और मुँहफट व्यवहार के कारण एक कमजोरी भी। डॉ. मर्फी को एक अच्छे डॉक्टर की नैतिकता का पूरा अहसास है और वह उसके प्रति निष्ठा से जरा भी समझौता नहीं कर सकता है। इसीलिए अंतत: वहीं सबकी आँखों का तारा बनता है। इस प्रकार, मर्फी का मनोरोग उसके मानवीय गुण को प्रभावित करने का विषय नहीं है, बल्कि सारी समस्या खुद को उपस्थापित करने से जुड़ी हुई है।
मर्फी बचपन से ही ऑटिज्म की बीमारी का शिकार है। उसके सभी साथी डॉक्टर इसे जानते हैं। डॉक्टर होने के नाते वे इस चरित्र की संरचनात्मक कमजोरी और विशिष्टता, दोनों को अच्छी तरह से जानते हैं। वे जानते हैं कि यह एक प्रमाता के रूप में इसके विकासक्रम में ऐसा व्यतिक्रम है कि जिसमें वह अपने को उस रूप में नहीं पेश कर पाता है, जैसे बाक़ी सामान्य लोग किया करते हैं। जॉक लकान ने ऐसे संदर्भ में विचार का एक बिल्कुल नया नज़रिया पेश किया था, रोगी में दोष के बजाय उसके उपस्थापन का संदर्भ। ऐसे रोगियों के लिए उपस्थापन के क्लिनिक की जरूरत होती है, न कि उनके दोष के क्लीनिक की। मनोरोगी के दोष को देखने वाला उसके व्यवहार के पीछे उस दोष को बता कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है, लेकिन जो उसमें है, उसके प्रति उसकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है। ‘द गुड डॉक्टर’ का अस्पताल, डॉ. मर्फी के संगी डॉक्टर संयुक्त रूप में एक आटिज्म के शिकार मनोरोगी के साथ सही व्यवहार का अनूठा उदाहरण पेश कर रहे हैं।
ऑटिस्ट व्यक्ति अमूमन चुप रहता है, क्योंकि ‘अन्य’ उसके लिए अनुपस्थित हो जाया करता है। वह वार्तालाप में सिर्फ मुद्दे की सटीक बात कह कर खामोश हो जाता है । उसके इस प्रकार ज़्यादा न बोलने को भी अन्य लोग उसके अस्वीकार के रूप में ले लिया करते हैं। जॉक लकान ने ऑटिस्ट की संरचना का जिक्र करते हुए कहा है कि वह ‘अन्य’ को विभाजित करके, उसे अपूर्ण रूप में देखता है, और इसीलिए अनायास ही अपने व्यवहार से अनेक प्रकार के अस्वाभाविक दृश्य उपस्थित कर देता है।
डॉ. मर्फी के चरित्र में ऑटिस्ट चरित्र के इस प्रकार के तमाम लक्षण जैसे प्रकट होते हैं, उनसे यह शो चिकित्सा संबंधी उत्तेजनाओं के अलावा और भी बहुत आकर्षक बन जाता है ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
साढ़े चार लाख लोगों को मुफ्त मकान बांटते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो भाषण दिया, वह कई बुनियादी सवाल खड़े कर रहा है। उन्होंने कहा कि (राज्य) सरकारें जनता को जो मुफ्त की रेवड़ियाँ बांटती है, उससे देश के करदाताओं को बहुत कष्ट होता है। मोदी ने बताया कि उनके पास लोगों की ढेरों चिट्ठियां आती हैं। उनमें लिखा होता है कि हम अपने खून-पसीने की कमाई करके उसमें से टैक्स भरते हैं और नेता लोग वोटों के लालच में उन्हें मतदाताओं को रेवड़ियों की तरह बांट देते हैं।
रेवड़ियाँ कौन-कौनसी हैं। ये हैं- कंप्यूटर, साइकिलें, गैस—सिलेंडर, जेवर, बिजली, पानी, नाइयों को उस्तरे, धोबियों को प्रेस मशीनें, स्कूली बच्चों को भोजन, प्रेशर कुकर, टेलिविजन सेट, वाशिंग मशीन आदि-आदि! ये सब चीजें मतदाताओं को मुफ्त में देने का वादा इसलिए किया जाता है कि चुनाव के वक्त नेताओं को थोक वोट कबाड़ने होते हैं। यह काम सबसे पहले तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने शुरु किया। उनकी देखादेखी लगभग सभी मुख्यमंत्रियों ने, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों, रेवड़ियाँ लुटाने में एक-दूसरे को मात कर दिया।
अब हालत यह है कि लगभग हर प्रांत इन रेवड़ियों के चलते कर्जदार और भिखमंगा बन रहा है। वह केंद्र और बैंकों के कर्जों में डूब रहा है लेकिन वह अपनी हरकत से बाज़ नहीं आ रहा है। उन राज्यों की विधानसभा में बैठे उनके विरोधी परेशान हैं लेकिन वे भी बगलें झांक रहे हैं। उनकी बोलती बंद है। उन्हें भी वोटों के लालच ने गूंगा बना रखा है लेकिन मुझे खुशी है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं लेकिन वे अपने आपको इससे ऊपर बता रहे हैं।
मोदी ने कल साढ़े चार लाख लोगों को मुफ्त मकान बाँटे। इसी तरह से करोड़ों लोगों को कोरोना-काल के नाम पर अब तक मुफ्त अनाज बांटा जा रहा है। इसे वह लोक-कल्याण का काम कहते हैं। इसे वे रेवड़ियाँ नहीं मानते। क्यों नहीं मानते? ये रेवड़ी ही नहीं हैं, मेरी राय में ये च्रेवड़ाज् हैं क्योंकि इन पर करदाताओं के करोड़ों नहीं, अरबों रु. खर्च किए गए हैं। मोदी का कहना है कि इस खर्च का मकसद वह नहीं है, जो राज्यों द्वारा बांटी गई रेवड़ियों का है? यदि नहीं है तो मोदी ज़रा यह बताएं कि इसका नाम च्प्रधानमंत्री आवास योजनाज् क्यों रखा गया है?
प्रधानमंत्री क्या अपनी जेब से यह पैसा लगा रहे हैं? अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह प्रधानमंत्री भी इस बंटरबाट का फायदा अपनी पार्टी के लिए पटा रहे हैं। जहां तक मुफ्त अनाज और मुफ्त मकान देने का सवाल है, क्या यह मतदाताओं को दी जानेवाली सबसे मोटी रिश्वत नहीं है? क्या यह करदाताओं पर कमरतोड़ हमला नहीं है? कोरोना-काल में मुफ्त अनाज की बात तो समझ में आती है लेकिन किसी आदमी को रोटी, कपड़ा और मकान के लिए सरकार या किसी अन्य पर निर्भर रहना पड़े तो उसमें और किसी पशु में क्या अंतर रह जाता है?
नेताओं को बस अपने वोटों की चिंता है, चाहे वोट देनेवाले मानव हों या पशु हों। नेताओं को यदि कुछ करना हो तो भारत की शिक्षा और चिकित्सा को मुफ्त करें। ये लोगों की ठगी के दो सबसे बड़े साधन बन गए हैं। आज तक देश में कोई सरकार ऐसी नहीं बनी है और ७५ साल में कोई ऐसा नेता भारत में पैदा नहीं हुआ है, जो इन दो बुनियादी सुविधाओं को सर्वसुलभ बना दे। अभी तो रेवड़ियों ने सभी नेताओं और पार्टियों को एक ही थाली के चट्टे-बट्टे बना दिया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित गर्ग
भारतीय मूल के ऋषि सुनक एक नया इतिहास रचते हुए ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री की शपथ ले चुके हैं। उन्होंने पेनी मोरडॉन्ट को मात देते हुए जीत हासिल की है। कंजरवेटिव पार्टी का नेतृत्व करने की रेस ऋषि सुनक जीत चुके हैं। पार्टी ने उन्हें अपना नया नेता चुन लिया है। यह पहली बार हुआ है जब कोई भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना है। हालांकि इससे ब्रिटेन पर छाए राजनीतिक और आर्थिक संकट के बादल कितने कम होंगे, यह भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन सुनक के बहाने यदि ब्रिटेन आर्थिक संकट से उबरने में सक्षम हो सका तो यह न केवल सुनक के लिये बल्कि भारत के लिये गर्व का विषय होगा। भले ही सुनक के सामने कई मुश्किल चुनौतियां और सवाल हैं, लेकिन उन्हें एक सूरज बनकर उन जटिल हालातों से ब्रिटेन को बाहर निकालना है।
भारत में सुनक की जीत पर काफी खुशी मनाई जा रही है, यह दीपावली का विलक्षण एवं सुखद तोहफा इसलिये है कि भारत पर दो सौ वर्षों तक राज करने वाले ब्रिटेन पर अब भारतवंशी का राज होगा। सुनक के रूप में उस ब्रिटेन को भारतीय मूल का पहला प्रधानमंत्री मिलने से निश्चित ही भारत का गौरव दुनिया में बढ़ा है। 42 साल के सुनक आधुनिक दौर में ब्रिटेन के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री हैं। किंग चार्ल्स तृतीय के ऑफिस ने उनके नाम पर मुहर लगा दी है। सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना इस मायने में भी बेहद अहम बात है कि ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग अल्पसंख्यक हैं। उनकी आबादी कम है। इसके बावजूद सुनक को ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल गया है। एक और खास बात यह है कि सुनक को ऐसी पार्टी ने अपना नेता चुना है, जो रूढ़िवादी विचारों के लिए जानी जाती है। प्रवासी लोगों के लिए कंजर्वेटिव पार्टी का रुख उदार नहीं रहा है। दुनिया में बढ़ रही कट्टरता और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने की बढ़ती हरकतों के बीच ब्रिटेन और वहां की कंजर्वेटिव पार्टी ने जो फैसला किया है, वह दुनिया को एक नई राह दिखाएगा, यह उम्मीद की जानी चाहिए। यह दुनिया की बदलती सोच का भी परिचायक है, वही दुनिया में भारत की सर्व-स्वीकार्यता का भी द्योतक है।
ब्रिटेन गहरे आर्थिक संकट की ओर बढ़ता दिख रहा है। महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर है। बैंक ऑफ इंग्लैंड का अनुमान है कि इस साल इंफ्लेशन 11 प्रतिशत के ऊपर जा सकती है। ऋषि सुनक इससे पहले बोरिस जॉनसन सरकार में वित्त मंत्री रह चुके हैं। उनके मंत्री रहते ब्रिटेन में महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी। टैक्स भी बढ़ाए गए थे। जॉनसन मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते हुए सुनक ने लिखा था कि कम टैक्स रेट और ऊंची ग्रोथ रेट वाली इकॉनमी तभी बनाई जा सकती है, जब ‘हम कड़ी मेहनत करने, कुर्बानियां देने और कड़े फैसले करने को तैयार हों। मेरा मानना है कि जनता सच सुनने को तैयार है। आम-जनता को यह बताया जाना चाहिए कि बेहतरी का रास्ता है, लेकिन यह आसान नहीं है।‘ सुनक ने तब जिस कड़ी मेहनत की बात की थी, वह अब उन्हें खुद करके दिखानी होगी। उनके पास जीये गये राजनीतिक कड़वे अनुभव है। उन अनुभवों से यदि वे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को उबार सके तो यह समूची दुनिया के लिये एक रोशनी होगी।
निश्चित ही सुनक ने एक कांटों भरा ताज पहना है। ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण है। इन असाधारण चुनौतियों से पार पाना सुनक की सबसे बड़ी अग्नि-परीक्षा है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के आपूर्ति पक्ष में कमजोरी अब एक तत्काल चिंता का विषय है। जबकि उत्पादन इसकी पूर्व-कोविड प्रवृत्ति से 2.6 प्रतिशत से कम है। ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद को अतिरिक्त 1.4 प्रतिशत की दर से बढ़ाना होगा। अर्थव्यवस्था के सामने व्यापार की शर्तें भी बड़ी चुनौती है। आने वाले दिनों में इससे घरेलू और कॉर्पाेरेट दोनों क्षेत्रों पर असर पड़ेगा। आर्थिक रूप से कमजोर लोग इससे और परेशान हो सकते हैं। प्रमुख नीतिगत सवाल यह है कि इस नुकसान को कैसे आवंटित किया जाए। मांग गिरने से निकट भविष्य में बेरोजगारी बढ़ने की आशंका है। भविष्य में बढ़ने वाली बेरोजगारी पर काबू पाना एवं बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करना भी आसान नहीं है। अध्ययन के मुताबिक, 2023 तक महंगाई उच्च स्तर पर पहुंच सकती है, जिससे निपटना चुनौतीपूर्ण होगा। एक तरफ खुदरा महंगाई दर दोहरे अंकों में होने से जीवनयापन का संकट है। दूसरी ओर रुकी हुई आर्थिक वृद्धि की समस्या है, जो बदले में कम राजस्व और उच्च ऋण की ओर ले जाती है। अब अगर सरकार मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए खर्च पर अंकुश लगाती है, तो यह आर्थिक विकास को और नीचे ले जाएगी। आईएफएस की रिपोर्ट कहती है कि यह किसी भी ब्रिटिश नीति निर्माता के लिए सबसे अधिक चिंताजनक है।
इन आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ ऋषि सुनक के सामने सबसे पहली राजनीतिक चुनौती तो यही है कि उन्हें साबित करना है कि वह पार्टी को नियंत्रित कर सकते हैं। कंजरवेटिव पार्टी के पास संसद में बहुमत है लेकिन वह ब्रेग्जिट समेत तमाम मुद्दों पर बंटी हुई है। ऐसे में पार्टी को एक करना भी एक चुनौती है। आने वाले दिनों में पार्टी के ही कुछ लोगों द्वारा हाई टैक्स का विरोध किया जा सकता है। लोग स्वास्थ्य और रक्षा जैसे क्षेत्रों के खर्च में कटौती का भी विरोध कर सकते हैं। सुनक को ऐसे स्वरों को भी संभालना होगा, संतुलित राजनीति का नया अध्याय लिखते हुए ब्रिटेन पर छाये निराशा के बादल का छांटना होगा। गहन समस्याओं एवं निराशाओं के बीच प्रधानमंत्री का ताज धारण करके सुनक ने साहस एवं हौसलों का परिचय दिया है। एक कर्मयोद्धा की भांति इन सब समस्याओं को सुलझाने के लिये अभिनव उपक्रम करने होंगे।
ऋषि सुनक स्वयं को भारतीय एवं हिंदू कहकर गर्व महसूस करते हैं और अपनी धार्मिक पहचान को लेकर वह काफी मुखर रहते हैं। वह नियमित रूप से मंदिर जाते हैं और उनके बेटियों, अनुष्का और कृष्णा की जड़ें भी भारतीय संस्कृति से जुड़ी हैं। सुनक जब सांसद बने थे तब उन्होंने भगवत गीता की शपथ ली थी। एक रैली में सुनक ने कहा था कि भले ही वह एक ब्रिटिश नागरिक हैं, उन्हें अपने ‘हिंदू होने पर गर्व’ है। कैलिफोर्निया की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में एमबीए की पढ़ाई के दौरान सुनक की मुलाकात उनकी फैशन डिजाइनर अक्षता मूर्ति से हुई थी। अगस्त 2009 में अक्षता और ऋषि शादी के बंधन में बंध गए। अक्षता इंफोसिस के को-फाउंडर और भारत के सबसे अमीर लोगों की सूची में शामिल नारायण मूर्ति की बेटी हैं। सुनक कई बार इसका जिक्र कर चुके हैं कि उन्हें अपने सास और ससुर पर बेहद गर्व है। ऋषि सुनक को हाउस ऑफ कॉमन्स में सबसे अमीर शख्स कहा जाता है जिनकी कुल संपत्ति 730 मिलियन पाउंड है। कुछ रिपोर्ट्स तो यहां तक दावा करती हैं उनकी पत्नी ब्रिटेन के सम्राट से भी ज्यादा अमीर हैं। माना जाता है कि दंपति की कुल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा इंफोसिस की हिस्सेदारी से आता है। हालांकि 2015 में राजनीति में कदम रखने से पहले फाइनेंस के क्षेत्र में सुनक िका एक सफल करियर रहा है। दंपति के पास लंदन, कैलिफोर्निया, सैंटा मोनिका और यॉर्कशायर में कई घर हैं। अक्सर सुनक और अक्षता मूर्ति अपनी संपत्ति को लेकर सुर्खियां बटोर चुके हैं।
साल 2015 में यॉर्कशायर की रिचमंड सीट जीतकर टोरी नेता ऋषि सुनक का राजनीतिक सफर शुरू हुआ। फरवरी 2020 में साजिद जाविद के इस्तीफे के बाद सुनक चांसलर ऑफ एक्सचेकर के पद पर पहुंच गए। सुनक के कम अनुभव को लेकर कुछ लोगों को उन पर संदेह था लेकिन कोविड महामारी के दौरान आर्थिक मोर्चे को सफलतापूर्वक संभालकर उन्होंने अपने आलोचकों को गलत साबित कर दिया। कुछ महीनों पहले तक सुनक बोरिस जॉनसन कैबिनेट में वित्तमंत्री थे लेकिन उनके इस्तीफे ने ब्रिटेन में एक राजनीतिक परिवर्तन की नींव रखी। आज टैक्स-कटौती के लुभावने वादों के बजाय महंगाई को कम करने और अर्थव्यवस्था को बेहतर स्थिति में लाने की अपनी रणनीतिक की बदौलत ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जा रहे हैं।
आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में परंपरावादी राजनीतिक दलों के अंतर्द्वंद्व कितने चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ब्रिटेन है। डेढ़ महीना पहले ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनीं लिज ट्रस ने आर्थिक अस्थिरता के दौर में देश की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने की आशंका जाहिर करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पिछले कुछ वर्षों में ब्रिटिश राजनीति आप्रवासन और महंगाई जैसे मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति में रही है, जिसके चलते देश की अर्थव्यवस्था कमजोर और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है। 2019 में तत्कालीन प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने ब्रेक्जिट को लेकर यूरोपीय संघ के साथ समझौते को संसद से पास न करा पाने की वजह से इस्तीफा दिया था। फिर बोरिस जानसन प्रधानमंत्री बने थे। उसके बाद कोरोना और रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजी समस्याओं का सामना ब्रिटेन की जनता को करना पड़ा। उनकी नीतियों को लेकर कंजर्वेटिव पार्टी में ही सवाल खड़े हुए और अंततः उन्हें इस वर्ष जुलाई में पद से हटना पड़ा। उनके बाद कंजर्वेटिव पार्टी ने लिज ट्रस को अपना नेता चुना, जिनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना, आप्रवासन और महंगाई को लेकर देश में बनी ऊहापोह की स्थिति को दूर करना था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के अंतर्गत छियासठ लाख से ज्यादा लोग आते हैं, लेकिन उनका मुफ्त इलाज सुनिश्चित नहीं हो रहा है और इससे लोग नाराज हैं। देश में सरकारी कर बढ़ाने की आशंकाओं के बाद सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी का विरोध बढ़ा है। इसका एक प्रमुख कारण कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर आपसी विवाद भी रहे हैं, जो राजनीतिक अदूरदर्शिता के रूप में सामने आते हैं।
वैश्विक सहयोग और विविधता को स्वीकार न कर पाने के चलते उदारवादी लोकतंत्र, ब्रिटेन गहरे संकट में फंसता दिखाई दे रहा है। कंजर्वेटिव पार्टी की वैश्विक बदलावों के साथ सामंजस्य बिठा पाने में नाकामी देश में राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आयी और मंदी से परेशान ब्रिटिश जनता देश में मध्यावधि चुनाव भी नहीं चाहती, लेकिन सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी के अंतर्द्वंद्व से देश की समस्याओं में इजाफा ही हो रहा है। इन समस्याओं के बीच सुनक एक रोशनी के रूप में उभरे हैं, देखना है कि उनका शासन काल ब्रिटेन को नयी शक्ति, नया वातायन दे पाता है या नहीं? 200 साल तक भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों के मुल्क को अब एक भारतवंशी किस रूप में चला पायेगा?