विचार/लेख
मणिपुर जल रहा है। आजादी के बाद इससे भयंकर, वीभत्स और लगातार चल रहा संविधान विरोधी नरसंहार नहीं हुआ है। आजादी के पहले और बाद में भारत में विलय के संबंध में कश्मीर में पाकिस्तानी हमले के कारण बहुत हिंसक गतिविधि हुई है। छुटपुट घटनाएं हैदराबाद, नागालैंड तथा अन्य कई स्थानों सहित अन्य इलाकों में र्हुइंं। तब भारत सरकार के खिलाफ बाहरी तत्व संविधान की गैरमौजूदगी में हिंसा को लेकर अपनी हैसियत और हद तलाशने में लगे रहे थे।
मणिपुर का किस्सा बिल्कुल अलग है। आज़ादी और संविधान के करीब 75 वर्ष बाद संविधान स्वीकृत राज्य में केन्द्र और राज्य सरकारों की गफलत के कारण हिंसा परवान चढ़ी है। मणिपुर में मुख्य आदिवासी जातियां, कुकी और मैती सीधे आपसी संघर्ष में उलझ गई हैं बल्कि उन्हेंं उलझाया जा रहा है। संविधान के अनुच्छेद 1 और 4 के तहत पूर्वोत्तर क्षेत्र पूर्वोत्तर अधिनियम 1971 के तहत मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा है। संविधान बनने के बाद विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की जिम्मेदारियों का सीधा और सुस्पष्ट बंटवारा हुआ है। केन्द्र की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है और उनके नाम से लागू होती है।
केन्द्र सरकार की हुकूमत का अर्थ केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की हुकूमत से नहीं है। संविधान कहता है राष्ट्रपति इसका प्रयोग संविधान के अनुसार खुद या अपने मातहत अधिकारियों द्वारा करेगा। संविधान की भाषा बहुत साफ, चुस्त, प्रत्यक्ष और परिमाणात्मक है। राष्ट्रपति का संवैधानिक दायित्व और कर्तव्य हैै कि कार्यपालिका शक्ति का इस्तेमाल खुद या मातहत अधिकारियों के द्वारा करे लेकिन चुप नहीं बैठे और उदासीनता नहीं दिखाए। राष्ट्रपति को विवेक नहीं है कि जब चाहे कार्यपालिका षक्ति का अपनी समझ और हैसियत में इस्तेमाल कर सके। जब चाहे चुप बैठ जाए। देष, इतिहास और समय चुप नहीं बैठते। राष्ट्रपति को अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करना ही होगा। कर्तव्यों से उसे कोई छुट्टी, अनदेखी या गफलत नहीं मिल सकती।
संविधान में स्पष्ट है कि राष्ट्रपति के मातहत जो अधिकारी हैं उनमें केन्द्रीय मंत्रिपरिषद अनुच्छेद 74 के अनुसार बाध्य है कि राष्ट्रपति के निर्देषों के अनुसार संवैधानिक कृत्य करे। मंत्रिपरिषद को राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने का अधिकार है। राष्ट्रपति पर संवैधानिक बाध्यता है कि मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह के अनुसार कार्य करेगा। संविधान में नहीं लिखा है कि मंत्रिपरिषद चाहे तो सलाह दे, चाहे तो नहीं दे। अगर सलाह नहीं दी जाएगी तो राष्ट्रपति क्या करेगा? संविधान निर्माताओं ने ऐसा सोचा ही नहीं था कि जब चाहे राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों से छुट्टी ले लें और सरकार से जानकारी लेने से इंकार कर दें। यह भी नहीं लिखा है कि मंत्रिपरिषद चाहे तो सलाह दे या सलाह देने में अपनी मर्जी के अनुसार कोताही कर दे। राष्ट्रपति और मंत्री जनता के लोकसेवक हैं।
जनता अर्थात देश नींद, गफलत या उन्माद में नहीं जीते। इसीलिए संविधान के अनुच्छेद 77 में लिखा है कि भारत सरकार की सभी कार्यपालिका शक्ति कार्यवाही राष्ट्रपति के नाम से की हुई कही जाएगी। राष्ट्रपति भारत सरकार का कार्य अधिक सुविाधापूर्वक किए जाने के लिए और मंत्रियों में उक्त कार्य के आवंटन के लिए नियम बनाएगा।
मणिपुर की सरकारी नादिरशाही के खिलाफ के सबसे उल्लेखनीय प्रावधान अनुच्छेद 78 में साफ लिखा है यह प्रधानमंत्री का कर्तव्य होगा कि वह (क) संघ के कार्यकलाप के प्रषासन संबंधी और विधान सम्बन्धी प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रिपरिषद के सभी विनिश्चय राष्ट्रपति को संसूचित करे, (ख) संघ के कार्यकलाप के प्रशासन संबधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी जो जानकारी राष्ट्रपति मांगे, वह दे, और मणिपुर के संदर्भ में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के दो कर्तव्य हैं।
पहला तो यह कि प्रधानमंत्री का कर्तव्य है कि प्रषासन संबंधी और विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों और नियमों आदि की नियमित जानकारी राष्ट्रपति को दे। यदि ऐसा नहीं किया जाएगा तो प्रशासन का कोई आदेश और विधायिका की कोई अंतिम कार्यवाही राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना प्रमाणित और अधिसूचित नहीं की जा सकती।
यहां सवाल उठता है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री किसके प्रतिनिधि हैं। मणिपुर को लेकर जो हो रहा है, क्या वह संविधान के अनुच्छेद 78 के परे की कोई कार्यवाही है। मणिपुर में भीषण नरसंहार हो रहा है। सरकारी और निजी संपत्ति नष्ट हो रही है। सैकड़ों, हजारों लोग घर छोडक़र भागने मजबूर हैं। आगजनी हो रही है। हिंसा और तरह तरह के गुटों के संघर्ष को लेकर बल्कि पुलिस और सेना की भी हिंसात्मक गतिविधि के चलते मणिपुर में षांति स्थापित नहीं हो रही है। जीवन सामान्य नहीं है। लगता है, जो सही है, कि वहां कोई सरकार ही नहीं चल रही। संविधान की मषीनरी ठप्प है। जनता की निगाह में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री खुट्टी किए बैठे हैं। कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने कर्तव्य का पालन कर भी रहे हैं। यदि नहीं तो राष्ट्रपति मौन व्रत में क्यों हैं। अनुच्छेद 78 के तहत राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच संवाद या पत्र व्यवहार, षासकीय सूचनाओं का आदान प्रदान गोपनीय नस्ल का नहीं हो सकता। जनता की मौत या हत्याएं प्रषासन की गोपनीय गतिविधि में षामिल नहीं होतीं।
यह एक तरह का संवैधानिक संकट है। इसमें मौन व्रत धारण करने के कारण चुुनौती और चोट तो संविधान को ही दी जा रही है। राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद से जानकारियां हासिल की जाती हैं। उन्हें लेकर संविधान का अनुच्छेद 74 (2) बचाव करता है कि इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राष्ट्रपति को कोई सलाह दी और यदि दी तो क्या दी। यह एक सुरक्षा कवच है राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों के लिए। मणिपुर की बिगड़ चुकी हालत में यदि प्रधानमंत्री राज्य की जनता के संदर्भ में कोई जानकारी राष्ट्रपति को देते हैं। तो उसका संज्ञान कोई अदालत नहीं ले सकती कि क्या सलाह दी गई है। इतनी सुरक्षा और इतने सारे प्रावधानों के रहते भारत के संविधान निर्माताओं ने आज जैसे हालात की कल्पना भी नहीं की। संविधान सभा के तीन साल चले वाद विवाद में उक्त वाक्य नहीं बदला है। किसी सदस्य को शक नहीं हुआ हो कि कभी स्थिति आएगी कि राष्ट्रपति को मौन रहना अच्छा लगेगा और प्रधानमंत्री को तो राष्ट्रपति को कुछ बताना नागवार गुजरेगा।
अफवाह तो यहां तक है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू अपने शासकीय आवास में किससे मिलेंगी। इसकी सूची प्रधानमंत्री कार्यालय तय करता है। देश ने देखा है कि संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार संसद के अविभाज्य अंग होने के बावजूद संसद भवन के उद्घाटन समारोह का श्रेय प्रधानमंत्री कार्यालय ने नदारद कर दिया था। संविधान में तो यह भी है कि यदि संविधान के अतिक्रमण के लिए स्थिति है तो राष्ट्रपति पर महाभियोग भी चलाया जा सकता है। संविधान में तो यह भी है यदि राष्ट्रपति का किसी राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा प्रशासन संचालन की शक्तियां अपने हाथ में ले सकेंगे।
ये सब प्रावधान हमारे पुरखों ने बहुत सोच समझकर और दुनिया के बड़े और पुुराने संविधानों के प्रावधानों पर दिनों दिनों तक बहस के बाद निर्धारित किए। संविधान में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और राज्यपाल सबके लिए षपथ लेने के प्रारूप में भी है कि मैं संविधान द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रक्खूंगा। मैं भारत की प्रभुता और अखंडता, अक्षुण्ण रक्खूंगा। आज मणिपुर की जनता अर्थात संविधान पर हत्यारों का सीधा हमला हो रहा है। लगातार हो रहा है। भारत की अखंडता और सार्वभौमिकता भूगोल, धरती, कुदरत और पशु-पक्षियों में नहीं है।
भारत में कोई सार्वभौम नहीं है, न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री, न राज्यपाल, न मुख्यमंत्री और न ही खुद संविधान। सार्वभौम केवल भारत की जनता है अर्थात मणिपुर के लोग हैं। वे संविधान और सरकार के निर्माता हैं। उन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति और राज्यपाल को चुना है। राष्ट्रपति, राज्यपाल और मंत्रिपरिषद की जवाबदेही संविधान के इलाके, भाषा और जिम्मेदारियों के लिए सीधे तौर पर है। वे चुप हैं, मौन हैं और अपनी जिम्मेदारियों को जनता की समझ में ठीक से निर्वाह नहीं कर रहे हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मणिपुर के राज्यपाल और केंद्रीय और राज्य मंत्रिपरिषद की पहल पर निर्भर नहीं हैं।
अतीत में कई अवसर आए होंगे जब राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद और कभी राज्यपाल से किसी भी घटना को लेकर सीधी रिपोर्ट मांगी होगी और सभी मातहत संवैधानिक अधिकारी राष्ट्रपति को ऐसी जानकारी देने के लिए पूरी तौर पर बाध्य हैं। अगर संविधान के प्रावधानों पर अमल नहीं होगा तो सरकारी कार्य का संचालन हो ही नहीं सकता। यह इतिहास का काला परिच्छेद होगा यदि मणिपुर की जनता और भारत के संविधान को संवैधानिक अधिकारियों की चुप्पी का अभिशाप झेलना पड़़ेगा। संविधान को सरकारी तौर पर जिबह कैसे किया जा सकता है?
डॉ. सुरेश गर्ग
1 जुलाई देश भर में डॉक्टर्स डे के रूप में मनाया गया। यह हिंदुस्तान ही है जहाँ डॉक्टर्स को इतना प्यार एवं सम्मान दिया गया है। इसका कारण है कि भारतीय सनातन संस्कृति में चिकित्सा क्षेत्र एवं चिकित्सकों का विशेष महत्व रहा है- श्री धन्वंतरि जी को आयुर्वेद चिकित्सा का जनक ही नहीं ‘देव’ तुल्य माना जाता है। ‘अश्विनी कुमार’ देवलोक के सर्जन चिकित्सक माने जाते हैं। असुरों के संकटमोचक महर्षि शुक्राचार्य हुआ करते थे। वे मरे असुर को भी जिंदा कर देने का ज्ञान जानते थे। ‘ययाति’ को सैंकड़ों वर्ष (हजार वर्ष) तक अपने बेटे की जवानी लेकर ‘ग्रहस्थ जीवन’ का आनन्द लेने का मौका मिला। ऋषि च्यवन के नाम का च्यवनप्राश आज भी लोगों को जवानी देने के नाम पर बेचा जा रहा है। ‘सुश्रुत संहिता’ वैदिक-पौराणिक काल में होती रही सर्जरी का अद्वितीय दस्तावेज़ आज उपलब्ध है।
मतलब भारतीय संस्कृति में चिकित्सा विज्ञान और चिकित्सकों का महत्व आदिकाल से चला आ रहा है। चिकित्सक की जरूरत सुर-असुरों को ही नहीं भगवान राम को भी पड़ गई थी, जब लक्ष्मणजी को शक्ति लगी थी। इसीलिए हिंदुस्तान में एक समय तक डॉक्टर को दूसरा भगवान या भगवान के बाद का दर्जा समाज में दिया जाता रहा है। यह बात अलग है कि ‘बाजारवाद और भूमंडलीकरण’ के जमाने में आज चिकित्सा क्षेत्र एवं चिकित्सक इसके विपरीत नजरिये से देखे जाते हैं ! यह बात अलग है कि कभी-कभी कहीं-कहीं जब कोई मरीज गंभीर बीमारी से ठीक होने के बाद जाते समय भावुकता में शिष्टाचारवश कृतज्ञता प्रगट करते हुए उसे भगवान बता जाता है! प्रदर्शित करता है। वरना घर पहुँचने पर जब उसे यह पता चलता है कि उस पर कितना खर्च हुआ है और परिजनों को क्या-क्या सहना पड़ा है , तब उसकी मानसिकता बदल जाती है।इसलिए चिकित्सा क्षेत्र की सनातन गरिमा पुनर्स्थापित करने के लिए डॉक्टर्स डे पर इन कारणों पर विचार-विमर्श करना जरूरी है!
डॉक्टर्स डे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, शिक्षाविद एवं गांधीजी के निजी चिकित्सक और लम्बे समय तक पश्चिम बंगाल के सफलतम मुख्यमंत्री रहे डॉ. बिधान चन्द्र रॉय के जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है। आजादी की लड़ाई और आज़ादी के बाद ऐसे एक नहीं अनेक चिकित्सकों ने अपनी जान की परवाह न करके देश एवं समाज के लिए अनेक प्रेरणादायी कार्य किये हैं; उनमें से एक डॉ. मणिधर प्रसाद व्यास को डॉक्टर्स डे पर विशेष रूप से याद करना समसामयिक लगता है। क्योंकि इस वर्ष की ‘थीम’ कोराना काल में चिकित्सकों के योगदान के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना रही है।
डॉ. मणिधर का जन्म 3अगस्त 1886 को अहमदाबाद में हुआ था। उनके पिता भी डॉक्टर थे इसलिए उन्हें बचपन से ही चिकित्सा क्षेत्र में सेवाधर्म आत्मसात करने का मौका मिला। जैसे ही उन्होंने चिकित्सा शिक्षा पूरी की शासकीय नौकरी में आ गये। उस समय वहाँ प्लेग जोरों से फैल हुआ था। बीमार का इलाज और मृतकों की बॉडी का पोस्टमार्टम करना जरूरी होता था। यह काम आज भी स्थानीय शासकीय चिकित्सक को ही करना पड़ता है। नौकरी में आते ही डॉ.मणिधर एवं उनके दो साथियों को यह काम करना पड़ा। परिवार और समाज के लोगों ने उन्हें इसके खतरे बताते हुए उससे बचने की सलाह दी। परन्तु वे और उनके साथी राष्ट्रभक्ति और चिकित्सा क्षेत्र की श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए यह काम अपना प्रथम कर्तव्य मान कर करते रहे! दुर्भाग्य से उनके दोनों साथी उस बीमारी से पीडि़त होकर कम उम्र में ‘शहीद’ हो गये। ये भाग्य से बच गये और फिर पूरी जिंदगी निस्वार्थ भावना से चर्मरोगियों एवं कुष्ठरोग मरीजों के बीच मिशनरी भावना से कार्य करते रहे।यही नहीं , वे निरंतर गांधीजी के आंदोलन से जुड़े रहे। नतीजतन अंग्रेज सरकार के कोपभाजन के शिकार बने। एक तरफ आज भी डॉ. मणिधर एवं उनके साथियों जैसे डॉक्टर हैं जो कोरोना काल में अपना कर्तव्य पूरी इमानदारी से निबाहते रहे और दूसरी तरफ वे हैं जो छिप कर घर में बैठ गये! यही नहीं, इस विपदा में भी बिना कुछ किए से बटोरते रहे!
विडंबना यह है कि डॉक्टर्स डे पर उन विज्ञापनी व्यापारी चिकित्सकों के बड़े पैमाने पर अखबारी विज्ञापनों के साथ प्रायोजित सम्मान होते रहे, और वहीं जो डॉक्टर्स अपनी जान की बाजी लगाकर कोरोना काल में कार्य करते रहे, उन्हें शायद ही कहीं उस तरह से सम्मानित किया गया!
वर्तमान में चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त बाजारवाद, कट, कमीशन, दवा कंपनियों एवं विक्रेताओं से सांठगांठ को देख और भोग कर ऐसा लगता है कि जैसे मीडिया को तथाकथित ‘गोदी मीडिया’ कहा जाता है, कहीं वैसा ही ‘गोदी चिकित्सा’ क्षेत्र तो नहीं बनता जा रहा ?
तसलीम खान
सरसरी तौर पर यही लग रहा है कि शिवसेना के बाद बीजेपी ने एनसीपी को तोडक़र उसे भारी नुकसान पहुंचाया है लेकिन हकीकत यह नहीं। ये दोनों दल मजबूत हुए हैं और इनका यह साथ जनता की सहानुभूति भी ले जाएगा।
शरद पवार को बखूबी अंदाजा था कि क्या होने जा रहा है। उनके भतीजे अजित पवार लंबे अरसे से यही चाह रहे थे लेकिन अपने चाचा की उदासीनता से आजिज आ चुके थे। शरद पवार उन्हें या पार्टी के युवा लोगों के लिए जमीन छोडऩे को तैयार नहीं थे और अजित उन पर दबाव बना रहे थे और वह काफी हद तक इसमें कामयाब भी हो गए जब इस साल मई में सीनियर पवार ने संन्यास की घोषणा कर दी थी। लेकिन यह दौर बहुत छोटा रहा और अजित इसका जश्न मना पाते, इससे पहले ही अंकल समर्थकों की ‘इच्छा’ का सम्मान करते हुए वापस आ गए।
शरद पवार राजनीतिक दांव-पेंच के ऐसे माहिर खिलाड़ी हैं जिसकी काट मुश्किल है। महाराष्ट्र के राजनीतिक विश्लेषक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि शरद पवार ने अजित पवार से उनके अगले कदम के लिए तोलमोल नहीं किया होगा। अजित पवार अंकल के भरोसेमंदों को तोडऩे की कोशिशों में जुटे थे। एनसीपी (नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी) की टूट की औपचारिकताओं के पूरी होने के बाद प्रेस कांफ्रेंस में पवार सीनियर खुश नजर आ रहे थे और निश्चिंत भी।
शरद पवार की बायोग्राफी ‘ऑन माई टर्म्स’ के अदृश्य लेखक आनंद अगाशे कहते हैं, ‘(पार्टी की टूट की वजह से) वह हतोत्साहित तो बिल्कुल नहीं हैं।’ पवार ने खुद भी कहा कि उन्होंने 1980 में इससे भी बुरा वक्त देखा जब उस समय की कांग्रेस (सोशलिस्ट) पार्टी के 58 में से छह विधायकों को छोडक़र सभी ने कांग्रेस (आई) का हाथ थाम लिया था। वह कहते हैं, ‘तब मैंने पार्टी को फिर से खड़ा किया और अगले चुनाव में पार्टी छोडऩे वाले विधायकों में से 2-3 को छोडक़र सभी को हार का सामना करना पड़ा।’
मीडिया एनसीपी के विभाजन को शरद पवार खेमे के लिए एक ऐसे नुकसान के तौर पर देखता है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। सीनियर पवार के पास अजित गुट की तुलना में कम विधायकों का समर्थन है। लेकिन मीडिया शायद इस बात को नजरअंदाज कर रहा है कि यह विधानसभा अगले साल भंग हो जाएगी और उससे पहले ही लोकसभा के चुनाव होंगे और जब साल के अंत में विधानसभा के चुनाव का समय आएगा, काफी-कुछ बदल भी सकता है।
विधानसभा चुनाव के समय यही विधायक टिकट के लिए होड़ करेंगे और तब अपनी संभावनाओं का पुनर्मूल्यांकन करेंगे। जैसा कि एक अन्य राजनीतिक पर्यवेक्षक अभय देशपांडे कहते हैं, फिलहाल के लिए तो अजित और उनके समर्थकों ‘जिन्होंने कम-से-कम तीन पीढिय़ों के लिए खासी कमाई कर रखी है’, ने जेल से बाहर रहने के लिए सौदेबाजी कर ली है। लेकिन देशपांडे का कहना है कि अब मतदाताओं या यहां तक कि एनसीपी समर्थकों द्वारा उन्हें दोबारा स्वीकार किए जाने की संभावना नहीं है।
बेशक पवार सीनियर वास्तव में विभाजन से ‘बेखौफ’ हों, जैसा कि उनके जीवनी लेखक को लगता है, क्योंकि इतना तो वह जानते हैं कि जब वोट के लिए लोगों के पास जाने का समय आता है, तो उनके पास बेहतर कार्ड होते हैं। शरद पवार जानते हैं कि लोग उन्हें वोट देते हैं, न कि एनसीपी के किसी भी उम्मीदवार को।
उदाहरण के लिए, जब चार बार के एनसीपी सांसद उदयनराजे भोसले जो छत्रपति शिवाजी महाराज के 14वें वंशज थे, ने सतारा से लोकसभा चुनाव जीतने के कुछ सप्ताह बाद ही बीजेपी में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे दिया तो अक्तूबर, 2019 में उपचुनाव तय हुआ और भोसले को टक्कर देने के लिए उपयुक्त उम्मीदवार की तलाश में पवार को खासी माथापच्ची करनी पड़ी। आखिरकार उन्होंने एक सेवानिवृत्त नौकरशाह का नाम फाइनल किया जिसका कोई राजनीतिक आधार नहीं था। फिर भी उस नौकरशाह ने भारी बहुमत से जीत हासिल की। प्रजा ने अपने प्रिय योद्धा राजा के वंशज की जगह शरद पवार को चुना।
अब सवाल उठता है कि एनसीपी में आंतरिक कलह और उसके बाद उसे तोडऩे से बीजेपी को क्या हासिल कर लेने की उम्मीद है? जाने-माने मराठी पत्रकार प्रताप आसबे को लगता है कि अजित अपने लिए नहीं बल्कि बीजेपी के लिए बोल रहे हैं जो सीनियर पवार को महाराष्ट्र में अपने लिए सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखती है। देशपांडे कहते हैं, ‘उन्होंने राज्य में सांप्रदायिक माहौल को बिगाडऩे की पूरी-पूरी कोशिश की लेकिन वोटरों के ध्रुवीकरण की कोशिशें उनकी योजना के मुताबिक नहीं हो सकीं। शिवसेना के टूटने के बाद भी एमवीए (महा विकास अघाड़ी) गठबंधन तब भी मजबूत दिख रहा था और बीजेपी बीजेपी के कई आंतरिक सर्वेक्षणों में पाया गया था कि शिंदे के साथ गठबंधन करने की वजह से पार्टी अपनी जमीन खोती जा रही है।
जब उन्हें अंदाजा हो गया कि शिंदे उनके लिए बोझ बनते जा रहे हैं, तो उन्हें एमवीए को अस्थिर करने के लिए कुछ तो करना ही था। लेकिन भाजपाबीजेपी यह नहीं देख पाती है कि महाराष्ट्र के लोग एमवीए की ओर इसलिए नहीं झुक रहे हैं कि वह क्या कर रही है बल्कि इसलिए क्योंकि वे बीजेपी की चालों से तंग आ चुके हैं जिसने 2019 के बाद से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ हर तरह के हथकंडे अपनाए हैं।’
सूत्र बताते हैं कि बीजेपी के आंतरिक सर्वेक्षणों ने चार फोकस राज्यों के तौर पर बंगाल, बिहार, कर्नाटक और महाराष्ट्र की पहचान की है जहां से उनके पास लगभग 135-140 लोकसभा सीटें हैं। महाराष्ट्र अकेला ऐसा राज्य है जहां वे अपनी लोकसभा सीटें बरकरार रखने की उम्मीद कर सकते हैं। दक्षिण भारत में उनकी संभावनाएं सही मायने में कम हैं और मध्य और उत्तर भारत में मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों की जो स्थिति है, वे किसी भी दिशा में जा सकते हैं। आरामदायक बहुमत जुटाने के लिए, बीजेपी को इन राज्यों में बड़ी जीत हासिल करनी होगी, इसी वजह से यह हताशा भरा खेल है। 2019 में बीजेपी-शिवसेना ने 48 में से 42 सीटें जीती थीं जिनमें सेना की सीटों की संख्या 18 थी। अखबारी रिपोर्टों की छोडि़ए, ऐसा लगता है कि बीजेपी मानने लगी है कि शिंदे उन्हें पांच से ज्यादा सीटें नहीं जिता सकते।
देशपांडे कहते हैं, ‘इंतजार कीजिए और देखिए। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएगा, अजित पवार के भी बीजेपी के लिए बोझ बन जाने की संभावना है।’ वह कहते हैं कि एनसीपी का वोट बैंक सेकुलर है और पहले भी शिवसेना समेत भगवा खेमे से जब भी नजदीकियां बनीं, उसका नुकसान एनसीपी को हुआ।
इसके अलावा राज्य के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाडऩे की बीजेपी की कोशिशों का भी उलटा असर हुआ है। ध्रुवीकरण का असर यह हुआ कि मुस्लिम वोट आम तौर पर एमवीए के पक्ष में एकजुट होते दिख रहे हैं, खास तौर पर उद्धव की शिवसेना के पक्ष में। जाहिर तौर पर, अपनी पार्टी को एक सहिष्णु हिन्दुत्व की ओर ले जाने के बारे में उद्धव के सार्वजनिक बयानों ने मुसलमानों के संशयों को काफी हद तक दूर किया है। मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने विधानसभा में इस बात के लिए माफी मांगी कि उन्होंने धर्म को राजनीति से मिलाया और फिर रमजान के दौरान मुसलमानों को परेशान करने की बीजेपी की कोशिशों का पूरी ताकत से मुकाबला किया और इस तरह ‘हिन्दुत्व का गद्दार’ करार दिए जाने तक का भी जोखिम उठाया।
पिछली जनगणना के अनुसार, राज्य में मुस्लिमों की आबादी 12 फीसदी है और यह वोट निश्चित रूप से बीजेपी के खिलाफ जा रहा है। दलित 20 फीसदी हैं और उनकी आबादी ज्यादातर विदर्भ और मराठवाड़ा में केन्द्रित हैं। आम तौर पर कांग्रेस और एनसीपी के साथ रहने वाले मराठा लगभग 30-32 फीसदी हैं।
बीजेपी की राजनीतिक चालों का विश्लेषण करते हुए देशपांडे कहते हैं- ‘उन्हें इस वोट बैंक में सेंध मारनी होगी लेकिन इसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया होने की संभावना है।’ राजनीतिक विश्लेषक हेमंत देसाई का मानना है कि इन तमाम हथकंडों के बाद भी एमवीए वोट बरकरार रहेगा।
पहली नजर में, उद्धव की शिव सेना और शरद पवार की एनसीपी दोनों संकट में हैं और राजनीतिक इकाई के रूप में कमजोर दिख रही हैं लेकिन एमवीए गठबंधन के पक्ष में वोट स्विंग कराने की उनकी क्षमता को निश्चित ही नई बढ़त मिली है। उनके पास अब साथ रहने के बेहतर कारण हैं और यदि वे ऐसा करते हैं, तो संभवत: उन्हें मतदाताओं की सहानुभूति का भी लाभ मिलेगा। (navjivanindia.com)
-ध्रुव गुप्त
दो साल पहले आज ही के दिन दिलीप कुमार के जाने के साथ हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की आखिरी कड़ी भी टूट गई थी। उनके जाने से साथ उनके अभिनय के कई-कई आयाम देख चुके कई-कई पीढ़ियों के लोग भावनात्मक तौर पर दरिद्र हुए। पिछली सदी के चौथे दशक में उनका उदय भारतीय सिनेमा की ऐसी घटना थी जिसने सिनेमा की दिशा ही बदल दी थी। अति नाटकीयता के उस दौर में वे पहले अभिनेता थे जिन्होंने साबित किया कि बगैर शारीरिक हावभाव और संवादों के सिर्फ चेहरे की भंगिमाओं, आंखों और यहां तक कि ख़ामोशी से भी अभिनय किया जा सकता है।
अभिनय का वह अंदाज़ शोर में आहिस्ता,-आहिस्ता उठता एक मर्मभेदी मौन जैसा था जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को अपने साथ बहा ले गया।अपनी छह दशक लंबी अभिनय-यात्रा में उन्होंने अभिनय की जिन ऊंचाईयों और गहराईयों को छुआ वह समूचे भारतीय सिनेमा के लिए असाधारण बात थी। हिंदी सिनेमा के शुरुआती तीन महानायकों में जहां राज कपूर को प्रेम के भोलेपन के लिए और देव आनंद को प्रेम की शरारतों के लिए जाना जाता है, दिलीप कुमार के हिस्से में प्रेम की व्यथा आई थी। इस व्यथा की अभिव्यक्ति का उनका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि दर्शकों को उस व्यथा में भी एक ग्लैमर नज़र आने लगा था। इस अर्थ में दिलीप कुमार पहले अभिनेता थे जिन्होंने प्रेम की असफलता की पीड़ा को स्वीकार्यता दिलाई। 'देवदास' उस पीड़ा का शिखर था।
आज भी उदासी जैसे मर्ज़ की थेरेपी लेनी हो तो दिलीप साहब की फिल्मों से बेहतर कोई और नर्सिंग होम नहीं। खिराज़-ए-अक़ीदत।
- डॉ.आर.के. पालीवाल
मानव विकास के क्रम में धर्म की कल्पना तब की गई थी जब मनुष्य धरती के अन्य जानवरों से अलग एक बेहतर जीवन जीने की कोशिश में अपने अर्द्ध जंगली कबीलों को विकसित कर रहा था ताकि वह अपने जीवन को खाने, सोने और प्रजनन के अलावा थोड़ा सुखमय, शान्तिमय और सार्थक बना सके। इसी पृष्ठभूमि में धरती के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग धर्मों की शुरुआत हुई। यही कारण है कि बाहरी कर्मकांड अलग अलग होते हुए भी सभी धर्मों के आंतरिक तत्व एक जैसे ही हैं जिन्हें हम धर्मों के मूल तत्व, नैतिक मूल्य या आध्यात्मिक सिद्धांतों के नाम से जानते हैं।
मानव जीवन और मानव समाज की बेहतरी के लिए शुरू हुई धर्म की लम्बी यात्रा हमारे समय तक पहुंचते पहुंचते अजीब सी पाशविक बीहड़ता में प्रवेश कर गई है। कालांतर में धर्म के आवरण में छिपे कुछ स्वार्थी तत्वों और सत्ता के लालची राजनीतिज्ञों के नापाक गठबंधनों के कारण धर्म समय समय पर अपने मूल रूप से विकृत होता रहा है। विभिन्न धर्मों की विकृतियों के कारण ही कई विभूतियों ने विभिन्न धर्म की विकृतियों को दूर करने के लिए नए नए धर्मों की शुरुआत की है। भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू धर्म की जड़ों से निकले बौद्ध, जैन और सिख धर्म और इस्लामिक मूल से निकले पारसी और ईसाई आदि धर्म विकसित हुए थे। अमूमन हर धर्म में एक शाखा उदारवाद की प्रवर्तक रही है और दूसरी कट्टरता की। भारतीय उपमहाद्वीप की ही बात करें तो इस्लाम की सूफी परंपरा धर्मों और संस्कृतियों के संगम की वकालत करती है तो देवबंदी सुन्नी परंपरा से तालिबान अपना नाता जोड़ते हैं। हिंदू धर्म में भी एक वक्त शैव और वैष्णव संप्रदाय एक दूसरे के आमने सामने युद्धरत अवस्था में रहते थे जिन्हें आदि शंकराचार्य ने एक दूसरे के साथ सह अस्तित्व की सीख दी थी।
आजकल हमारे देश में फिर से धर्म के अम्ल में राजनीति घोली जा रही है। कर्नाटक चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए धर्म सबसे सशक्त नैया बन गया था। वहां राजनीति का घृणित चेहरा सामने आया है । भाजपा का तो धर्म पहला और आखिरी हथियार है ,उनकी रणनीति के बरक्स कांग्रेस भी इस खेल में शामिल हो गई जो कांग्रेस के दिवालियेपन का ही प्रमाण है । राजीव गांधी के शाहबानो मामले में हस्तक्षेप और राम जन्मभूमि पर पूजा शुरू कराने से कांग्रेस को कोई लाभ नहीं हुआ न भविष्य में होगा । बेहतर है वह राजनीति में धर्म से दूरी के सिद्धांत पर दृढ़ रहे। देश का बड़ा वर्ग धर्म को व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रखना चाहता है , उसका उसे समर्थन रहेगा । यह देश का दुर्भाग्य है कि भाजपा के धार्मिक उदघोषों का उत्तर उसी तरह देने का प्रयास दूसरे दल भी करते हैं ।कभी राहुल गांधी शिवभक्त और जनेऊधारी ब्राह्मण बन जाते हैं और कर्नाटक कांग्रेस अध्यक्ष डी के शिवकुमार प्रदेश में अनेक हनुमान मंदिर बनवाने का वायदा करते हैं । इसी तर्ज पर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार श्री राम वन गमन पथ के विकास की घोषणा करती है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी जय श्री राम की टक्कर में जय बजरंग बली कहकर बुज़ुर्गों को मुफ़्त तीर्थयात्रा कराती है। बंगाल में ममता बनर्जी दुर्गा सप्तशती पाठ का जप करने लगती हैं । उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव परशुराम को याद करते हैं। सब राजनीतिक दल एक दूसरे से दो कदम ज्यादा धार्मिक हो रहे हैं।
धार्मिक कट्टरता के सहारे भारत जैसा धार्मिक विविधता वाला देश नहीं विकास नहीं कर सकता, यह बात देश के तमाम दलों और सामान्य नागरिकों को समझनी होगी ।भाजपा यदि धर्म की आड़ में अन्य मुद्दों को दबाने की कोशिश करती है तो विपक्ष को उस चक्रव्यूह में उलझने की जगह बड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो सबको प्रभावित कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस ने भी तय कर लिया है कि भारतीय जनता पार्टी को अकेले अस्सी प्रतिशत हिंदुओं का प्रतिनिधि नहीं बनने देंगे। जैसे भाजपा ने कांग्रेस से सरदार पटेल छीन लिया, लगता है अब कांग्रेस भाजपा से हिंदुत्व छीनने की मुद्रा में है ।उसी का अनुसरण समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और आप कर रही हैं। यह माहौल विभिन्न दलों को कुछ सीट ज्यादा दिला सकता है लेकिन यह माहौल राष्ट्रहित के लिए उचित नहीं है।
कनाडा में खालिस्तान समर्थकों के विरोध प्रदर्शनों और राजनयिकों के खिलाफ हिंसा की धमकियों के बाद दोनों देशों के राजनयिक रिश्तों में तल्खी के संकेत मिलने लगे हैं।
भारत के खिलाफ प्रदर्शनों और राजनयिकों को हिंसा का शिकार बनाने की अपील करने वालों से जुड़े सवालों पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने कहा कि उनकी सरकार ने हमेशा से हिंसा और धमकियों को बेहद गंभीरता से लिया है।
उनका कहना था कि कनाडा ने हमेशा आतंकवाद के खिलाफ गंभीर कार्रवाई की है।
गुरुवार को ट्रुडो भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर के उस बयान पर टिप्पणी कर रहे थे, जिसमें उन्होंने कहा था कि कनाडा में खालिस्तानियों की हरकतें इसलिए बढ़ रही हैं, क्योंकि वो वोट बैंक की सियासत का हिस्सा हैं।
कनाडा में पिछले कुछ महीनों के दौरान खालिस्तान समर्थक तत्वों ने भारत विरोधी कई प्रदर्शन किए हैं। पिछले दिनों भारत ने अपने खिलाफ ऐसे तत्वों के पोस्टर, प्रॉपेगैंडा सामग्रियों और भारतीय राजनयिकों को धमकी के बाद नई दिल्ली में कनाडा के हाई कमिश्नर को समन किया था।
कनाडाई प्रधानमंत्री ने क्या कहा?
इस बीच, 8 जुलाई को खालिस्तान समर्थकों के संभावित प्रदर्शन से पहले भारत ने कहा है कि कनाडा में चरमपंथ और आतंकवाद को सही ठहराने के लिए अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग हो रहा है।
गुरुवार (6 जुलाई 2023) को भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कनाडा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भारतीय राजनयिकों को खालिस्तान समर्थकों की ओर से दी जा रही धमकी पर नाराजग़ी जताई और कनाडा सरकार से इन पर लगाम लगाने की अपील की है।
खालिस्तान समर्थकों ने एक पोस्टर जारी कर कनाडा में भारतीय राजनयिकों संजय कुमार वर्मा और अपूर्व श्रीवास्तव पर खालिस्तान टाइगर फोर्स के चीफ हरदीप सिंह निज्जर को मरवाने का आरोप लगाया था। खालिस्तान समर्थक, निज्जर की याद में 8 जुलाई को कनाडा में रैली कर रहे हैं।
कनाडा में इस रैली को लेकर खालिस्तान समर्थकों की सक्रियता को देखते हुए भारतीय विदेश मंंत्रालय ने अपने बयान में कहा, ‘’ये पोस्टर विदेश में हमारे राजनयिकों और दूतावासों पर हमला करने को उकसा रहे हैं। ये हमें किसी भी हाल में मंज़ूर नहीं है। ये मामला भारत और कनाडा दोनों जगह मौजूद कनाडाई अधिकारियों के सामने उठाया गया है। हमने कनाडा सरकार से भारत के राजनयिकों और राजनयिक मिशनों को सुरक्षा देने की अपील की है। ‘
हालांकि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने इस मामले में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर के बयानों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, ‘वे गलत हैं। हमारा देश काफी विविधता भरा है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हम काफी महत्व देते हैं। लेकिन हम हमेशा ये सुनिश्चित करेंगे कि हिंसा और हर तरह के अतिवाद के खिलाफ कार्रवाई हो।’
‘अभिव्यक्ति की आजादी’ को लेकर आमने-सामने
ट्रुडो ने खालिस्तान समर्थकों के प्रदर्शनों के संबंध में अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा जो बयान दिया है वो भारत को रास नहीं आया है।
अरिंदम बागची ने गुरुवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ‘ये अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल नहीं है। इसका इस्तेमाल हिंसा, अलगाववाद और आतंकवाद को सही ठहराने के लिए किया जा रहा है। उन्होंने इसके लिए अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में खालिस्तान समर्थक तत्वों को दिए जा रहे कथित समर्थन का मुद्दा भी उठाया।’
ब्रिटेन ने भारत को दिया सुरक्षा का भरोसा
हालांकि, गुरुवार को ही ब्रिटेन के विदेश मंत्री जेम्स क्लेवरली ने भारत के राजनयिक मिशनों पर हमलों के सिलसिले में सुरक्षा का आश्वासन दिया है।
शनिवार को यहाँ के प्रमुख शहरों में आयोजित होने वाली खालिस्तान समर्थकों के रैलियों के दौरान भी उन्होंने भारत को सुरक्षा का आश्वासन दिया।
उन्होंने कहा, ‘’लंदन में भारतीय हाई कमीशन पर कोई भी सीधा हमला बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हमने हाई कमिश्नर विक्रम दोरईस्वामी और भारत सरकार को साफ कहा है कि हाई कमीशन की सुरक्षा सर्वोपरि है।’’
लंदन में खालिस्तान समर्थकों ने 19 मार्च को भारतीय मिशन से जुड़ी एक बिल्डिंग में लहरा रहे तिरंगे को नीचे गिरा दिया था। उस दौरान मिशन के कांच के दरवाजे को भी तोड़ दिया गया था जो अभी तक टूटा ही हुआ है।
इस हमले के बाद भारत सरकार ने कहा था कि ब्रिटेन भारतीय मिशनों की सुरक्षा को लेकर उसकी चिंताओं पर ध्यान नहीं दे रहा है।
भारत ने इसके जवाब में नई दिल्ली में ब्रिटिश हाई कमिश्नर एलेक्स एलिस की सुरक्षा घटा दी थी।
भारत की चिंता क्यों बढ़ती जा रही है?
कनाडा में खालिस्तान समर्थकों के भारत विरोधी रुख को देखते हुए रॉयल कैनिडियन माउंटेड पुलिस ने भारतीय राजनयिकों और राजनयिक मिशनों को सुरक्षा मुहैया कराई है।
लेकिन कनाडा में अलगाववादी सिखों की गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। कनाडा में बड़ी तादाद में सिख मौजूदा ट्रुडो सरकार के समर्थक हैं। कहा जाता है कि इसिलिए सरकार अब तक सिख चरमपंथियों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने से बचती रही है। भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर भी इसी की ओर इशारा कर रहे हैं।
ट्रुडो के हालिया बयान से पहले तक कनाडा के विदेश और रक्षा मंत्री खालिस्तान समर्थकों को भारत विरोधी प्रदर्शन और हिंसा पर औपचारिक बयान ही जारी करते रहे हैं।
ट्रुडो और यहाँ तक कि कनाडा के कंजर्वेटिव विपक्षी दल के नेता ने भी भारतीय राजनयिकों को निशान बनाए जाने की खुली धमकी पर कुछ नहीं बोला है।
कनाडा में भारतीय मूल के 24 लाख लोग हैं। इनमें से सात लाख सिख हैं। ये लोग ज्यादातर ग्रेटर टोरंटो, ग्रेटर बैंकुवर, एडमोंटन और कैलगरी में बसे हुए हैं। इन्हें एक बड़े वोट बैंक के तौर पर देखा जा रहा है।
हाल के दिनों में कनाडा में भारत के ख़िलाफ प्रदर्शनों, इसके राजयनिकों को दी जा रही धमकी और मिशनों पर हमले ने भारत को चिंतित कर दिया है।
पिछले दिनों हुए कुछ प्रदर्शनों के बाद अब एक बार फिर सिख फोर जस्टिस के संयोजक जी एस पन्नु ने 19 जून को मारे गए चरमपंथी हरदीप सिंह निज्जर के समर्थन में टोरंटो और बैंकुवर में भारतीय मिशनों के खिलाफ प्रदर्शन की अपील की है।
सिख फोर जस्टिस 16 जुलाई ग्रेटर टोरंटो और सितंबर में ग्रेटर बैंकुवर में खालिस्तान समर्थक रेफरेंडम कराने की योजना बना रहा है।
हिन्दुस्तान टाइम्स के मुताबिक बैंकुवर में निज्जर और ब्रिटेन में अवतार सिंह खांडा की गैंग-वॉर में मौत के बाद पन्नु की सक्रियता बढ़ गई है।
कहा जा रहा है कि वो 8 जुलाई की रैली में दिख सकते हैं। पहले ये ख़बर आई थी कि पन्नु की बुधवार को अमेरिका के सडक़ हादसे में मौत हो गई है। हालांकि सोशल मीडिया पर वायरल इस खबर की पुष्टि नहीं हो पाई है।
कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका और जर्मनी में भारत विरोध प्रदर्शन करने वाले खालिस्तान समर्थक संगठनों ने आरोप लगाया है कि भारत सरकार उनके नेताओं को मरवा रही है। कहा जा रहा है कि इन संगठनों को पाकिस्तान का समर्थन मिल रहा है।
कनाडा में सिखों का बढ़ता राजनीतिक असर
कनाडा में सिखों की लगातार बढ़ती आबादी के बाद वे अब प्रमुख वोट बैंक के तौर पर उभरे हैं। स्थानीय परिषदों और कनाडाई संसद दोनों जगह अब कई सिख सांसद हैं।
लेकिन लंबे समय से यहां खालिस्तान समर्थक सिख अलगाववादियों की सक्रियता काफी बढ़ गई है। इसकी जड़ें यहां पहले से रही हैं। 1985 में खालिस्तान समर्थक चरमपंथियों ने ने एयर इंडिया के एक विमान को बम से उड़ा दिया था। विस्फोट में इसमें सवार 268 कनाडाई नागिरक समेत सभी 329 लोग मारे गए थे।
पिछले दिनों जिस तरह से यहां भारत विरोधी प्रदर्शन हुए उससे कनाडा और भारत के राजनयिक रिश्ते तल्ख होते जा रहे हैं।
कनाडा की आबादी धर्म और नस्ल के आधार पर काफ़ी विविध है। जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 2016 में कनाडा की कुल आबादी में अल्पसंख्यक 22.3 फीसदी हो गए थे।
वहीं 1981 में अल्पसंख्यक कनाडा की कुल आबादी में महज 4.7 फीसदी थे। इस रिपोर्ट के अनुसार 2036 तक कनाडा की कुल आबादी में अल्पसंख्यक 33 फ़ीसदी हो जाएंगे।
‘वॉशिगंटन पोस्ट’ से कॉफ्रेंस बोर्ड ऑफ कनाडा के सीनियर रिसर्च मैनेजर करीम ईल-असल ने कहा था, ‘किसी भी प्रवासी के लिए कनाडा सबसे बेहतर देश है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह मुल्क प्रवासियों को भी अवसर की सीढ़ी प्रदान करता है और लोग इससे कामयाबी की ऊंचाई हासिल करते हैं।’
कनाडा खालिस्तान समर्थक जनमत सर्वेक्षणों से यहाँ रहने वाले सिखों और हिंदुओं को बीच अलगाव भी बढ़ रहा है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इस वजह से यहां ब्रिटेन के लिसेस्टर में हिंदू और मुस्लिमों के बीच हिंसक संघर्ष की तरह हिंदू और चरमपंथी सिखोंं के बीच संघर्ष देखने को मिल सकता है।
छह जून को ऑपरेशन ब्लू स्टार की 39 वीं बरसी से कुछ दिनों पहले कनाडा के ब्रैंपटन शहर में पांच किलोमीटर लंबी एक यात्रा निकाली गई थी। इस यात्रा के दौरान एक चलती हुई गाड़ी पर इंदिरा गांधी की हत्या का दृश्य दिखाया गया।
गौरतलब है कि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 31 अक्तूबर 1984 को उनके दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।
भारत के विदेश मंत्री एस। जयशंकर ने कनाडा में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या का जश्न मनाए जाने पर कड़ी टिप्पणी की थी।
पहली बार सिख कनाडा कब और कैसे पहुंचे?
1897 में महारानी विक्टोरिया ने ब्रिटिश भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी को डायमंड जुबली सेलिब्रेशन में शामिल होने के लिए लंदन आमंत्रित किया था। तब घुड़सवार सैनिकों का एक दल भारत की महारानी के साथ ब्रिटिश कोलंबिया के रास्ते में था। इन्हीं सैनिकों में से एक थे रिसालेदार मेजर केसर सिंह। रिसालेदार कनाडा में शिफ्ट होने वाले पहले सिख थे।
सिंह के साथ कुछ और सैनिकों ने कनाडा में रहने का फैसला किया था। इन्होंने ब्रिटिश कोलंबिया को अपना घर बनाया। बाकी के सैनिक भारत लौटे तो उनके पास एक कहानी थी। उन्होंने भारत लौटने के बाद बताया कि ब्रिटिश सरकार उन्हें बसाना चाहती है। अब मामला पसंद का था। भारत से सिखों के कनाडा जाने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ था। तब कुछ ही सालों में ब्रिटिश कोलंबिया 5000 भारतीय पहुंच गए, जिनमें से 90 फीसदी सिख थे।
हालांकि सिखों का कनाडा में बसना और बढऩा इतना आसान नहीं रहा है। इनका आना और नौकरियों में जाना कनाडा के गोरों को रास नहीं आया। भारतीयों को लेकर विरोध शुरू हो गया था। (bbc.com/hindi)
डॉ.आर.के. पालीवाल
हम अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने और अपनी ही पीठ थपथपाने वाली जमात बनते जा रहे हैं। हमसे अपना देश संभल नहीं रहा और सपने विश्व गुरु बनने के पाल रहे हैं जो उन्हीं असंभव सी परिस्थितियों में संभव हो सकता है जब विश्व में अधिकतर मापदंडों में हमसे ज्यादा आगे चल रहे देश हमसे भी बुरी आदतों को आत्मसात कर लें। हमारे आजादी के आंदोलन के तमाम बड़े नायक, मसलन महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरु आदि पश्चिम के लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी, समानता और बंधुता के विचार से काफ़ी प्रभावित थे। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी विशेष रूप से फ्रांस की क्रांति के बड़े समर्थक थे और वैसी ही समानता और बंधुता की कामना आजाद भारत के लिए करते थे।
दुर्भाग्य से हमने जिन यूरोपीय देशों से संविधान में लोकतान्त्रिक व्यवस्था ली है, कालांतर में हम उन पश्चिमी देशों की प्रगतिशील परंपराओं को आत्मसात नहीं कर पाए। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जब घर से ऑफिस आते जाते हैं तो उनके लिए गाडिय़ों का काफिला नहीं चलता और रास्तों का ट्रैफिक नहीं रोका जाता। उनकी सरकारी कार खराब होने पर वे पास की मेट्रो पकडक़र अपने गंतव्य पर पहुंच जाते हैं। वहां प्रधानमंत्री के बेटे का चालान काटते हुए एक पुलिस कांस्टेबल के हाथ जरा भी नहीं थरथराते। इसके बरक्स जब हम अपने प्रधानमंत्री का काफिला देखते हैं तो शर्म आती है कि अस्सी करोड़ लोगों के गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले देश के प्रधानमंत्री किस तरह पुराने राजे महाराजों की शान से चलते हैं। हमारे देश में प्रधानमन्त्री तो दूर सत्ताधारी दल के सासंद के खिलाफ कार्रवाई करने में कैसे पुलिस बल हिम्मत नही जुटा पाता।
फ्रांस की ही बात करें तो वहां के राष्ट्रपति अपने देश में हिंसक वारदात होने पर महत्त्वपूर्ण विदेशी दौरा बीच में छोडक़र अपने देश आ जाते हैं और अपनी आगामी विदेश यात्रा स्थगित कर देते हैं। हमारे यहां मणिपुर प्रदेश हिंसा की आग में जल रहा है लेकिन प्रधानमंत्री न अमेरिका और मिस्र का दौरा स्थगित करते हैं और न मणिपुर के लोगों के घावों पर मरहम लगाने वहां जाते हैं। इस दौरान वे मध्य प्रदेश में पांच दिन में दो दौरे करते हैं। उनके लिए अपनी पार्टी के विधानसभा चुनाव की शुरुआत के लिए अपने बूथ कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में शामिल होना पहली प्राथमिकता है। मणिपुर में आंदोलन के केंद्र में आदिवासी हैं। वहां मैतेई समुदाय आदिवासी दर्जा मांग रहा है और आदिवासी दर्जा प्राप्त कुकी और नगा उन्हें आदिवासी दर्जा देने का विरोध कर रहे हैं। वहां जाकर आदिवासी समस्या को सुलझाने की बजाय प्रधानमंत्री मध्य प्रदेश के आदिवासियों के वोटों के लिए अपने दल को आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी बता रहे हैं। प्रधानमंत्री की कथनी और करनी में इतना अंतर नहीं होना चाहिए।
मणिपुर के हालात बहुत चिंताजनक हैं लेकिन प्रधानमन्त्री वहां जाने के बजाय मध्य प्रदेश के आदिवासियों को सब्जबाग दिखा रहे हैं। मध्य प्रदेश में जल्द चुनाव होने हैं। इन चुनावों का असर यहां की कई लोकसभा सीटों के चुनाव पर भी पड़ेगा। इसीलिए मणिपुर के आदिवासियों की तुलना में मध्य प्रदेश के आदिवासी ज्यादा महत्वपूर्ण बन गए हैं। जब हम संविधान के सर्व धर्म समभाव की भावना को ताक पर रखकर किसी धर्म विशेष की राजनीति करने लगते हैं तब आदिवासी समुदाय को देखने का पैमाना भी बदलने लगता है। मणिपुर और पूर्वोत्तर के काफ़ी आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपना लिया है। इस लिहाज से वे धार्मिक चश्में से गैर ईसाई आदिवासियों से अलग हो जाते हैं। राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, और केन्द्रीय मंत्रियों को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी खास धर्म,जाति, क्षेत्र, विचारधारा और वर्ग के बजाय पूरे देश का नेतृत्व करते हैं, तभी मध्य प्रदेश और मणिपुर एक समान दिखाई दे सकते हैं।
हिमांशु कुमार
शीबा नकवी फेसबुक पर मेरा भी लिखा हुआ पढ़ती हैं, शीबा मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को पढ़ाती हैं, शीबा बेहद मीठा बोलने वाली शांत सी महिला हैं, उन्होंने एक बहुत मजेदार किस्सा सुनाया, उन्होंने बताया कि एक बार उनकी कालोनी में लाऊडस्पीकर से आवाज आई।
एक बच्चा गुम हो गया था उसकी सूचना दी जा रही थी, रात का समय था, शीबा ने अपने बच्चों से कहा आओ हम सब दुआ करें कि मौला उस बच्चे को अपने माँ बाप से मिला दे, शीबा की बेटी ने कहा मम्मी आपने सुना नहीं वो बच्चा हिन्दू है मौला उसकी मदद कैसे करेंगे ?
शीबा ने अचरज से अपने बच्चों से पूछा कि क्यों मौला उसकी मदद क्यों नहीं करेंगे ?
शीबा की बेटी ने कहा उसकी मदद तो हनुमान जी करेंगे, शीबा ने कहा कोई बात नहीं मौला भी हिन्दू बच्चे की मदद कर सकते हैं,
शीबा की बेटी ने पूछा क्या हनुमान जी हमारी मदद करेंगे ?
शीबा ने कहा हाँ कर सकते हैं, सुनाते समय शीबा की आँखों में एक रोशनी थी, और मैं नास्तिक होते हुए भी नमी भरी आँखों से यह किस्सा सुन रहा था, शीबा चली गईं, लेकिन मेरे दिल में मुसलमानों की छवि और बेहतर कर गईं, मैं एक समाजसेवी बहन से मिला, उन्होंने एक मजेदार किस्सा बताया, दोस्तों का एक दल ऋषिकेश घूमने गया था, गंगा के किनारे नंगे पांव घूमते समय रवि नाम के युवक के पांव में गंगा के किनारे फेकी गयी बियर की बोतल का कांच का टुकड़ा घुस गया, पाँव में से खून बहने लगा, साथ में आये हुए दोस्तों ने मदद करने की कोशिश करी, लेकिन कोई साधन मौजूद नहीं था इसलिए खून का बहना नहीं रोक पा रहे थे, तभी लम्बे कुरते और ऊंचे पजामे और लम्बी दाढ़ी वाले एक मुस्लिम सज्जन वहाँ आ गए, वह मुस्लिम सज्जन अपने गले में पड़े हुए चारखाने वाले स्कार्फ को उतार कर गंगा जल में गीला कर के रवि के पांव में लपेट कर खून रोकने की कोशिश करने लगे, लेकिन खून बहता ही जा रहा था,वह मुस्लिम सज्जन लगातार कोशिश करते रहे, उस मुसलमान व्यक्ति ने रवि का खून रोकने की कोशिश करते हुए कहा कि आप हनुमान चालीसा पढ़ते रहिये आपको आराम आएगा।
रवि ने पूछा आप हनुमान चालीसा पढने के लिए क्यों कह रहे हैं ? अल्लाह का नाम ना लूं ?
उन मुस्लिम सज्जन ने रवि से कहा, आपका विश्वास ऊपर वाले के जिस नाम में है आपको वही नाम आराम पहुंचाएगा, हम पुकारने वाले बंदे अलग अलग हैं लेकिन सुनने वाला तो एक ही है, रवि भाजपा का कार्यकर्ता है।
ऋषिकेश से वापिस आते समय कार में रवि के दोस्त उससे मज़ाक कर रहे थे कि बेटा तू तो मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की बोलता था अब बता ?
अब रवि एक बदले हुए इंसान के रूप में ऋषिकेश से वापिस लौटा है, इसी के साथ मुझे बिहार की वो घटना याद आयी जिसमें हमारे दोस्त अतहरुद्दीन के परिवार को धमका कर बजरंग दल ने जय श्री राम के नारे लगवाए और हिन्दू धर्म को बदनाम किया।
आप अपने कामों से अपने धर्म को अच्छा नाम भी दिलवा सकते हैं और उसे बदनाम भी कर सकते हैं,
फैसला आप को करना है कि आप अपने धर्म को गुंडागर्दी के द्वारा नष्ट करेंगे,
या उदारता के व्यवहार द्वारा अपने धर्म के लिए इज्जत और प्यार कमायेंगे ?
प्रेरणा
बीते दो मई को शरद पवार ने अचानक एक कार्यक्रम में एनसीपी के अध्यक्ष पद से इस्तीफे की घोषणा कर दी थी। उनके इस्तीफे की घोषणा के बाद कई तरह के कयास लगाए जाने लगे। पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रफुल्ल पटेल से सवाल किया गया कि क्या शरद पवार ने ये फ़ैसला पार्टी में चल रही आतंरिक राजनीति के कारण लिया है?
जवाब में प्रफुल्ल ने कहा था, ‘पार्टी एकजुट है। हम सभी शरद पवार के नेतृत्व में साथ हैं।’ लेकिन अब न तो पार्टी एकजुट है और न ही शरद पवार का नेतृत्व बरकरार है। बदली परिस्थितियों में प्रफुल्ल पटेल ये भी कह चुके हैं कि शरद पवार के फ़ैसले अब पार्टी के फैसले नहीं हैं।
महाराष्ट्र की राजनीति को करीब से देखने और समझने वालों के लिए प्रफुल्ल पटेल का यह बदला रुख किसी धक्के से कम नहीं है।
अजित पवार, जिनके नेतृत्व में प्रफुल्ल पटेल ने शरद पवार की छत्रछाया छोडऩे का निर्णय लिया, उनकी एक महत्वकांक्षी नेता की छवि जरूर रही है। पर प्रफुल्ल पटेल शरद पवार का दामन छोड़ेंगे, इसका अंदेशा किसी को नहीं था। शायद, शरद पवार को भी नहीं।
हालांकि प्रफुल्ल पटेल ने अब भी शरद पवार को अपना गुरु बताया है। उन्होंने समाचार एजेंसी एएनआई से बात करते हुए कहा था, ‘शरद पवार मेरे गुरु हैं। वो हमारे मार्गदर्शक हैं।।।हम हमेशा उनका और उनके पद का आदर और सम्मान करेंगे, वह हम सभी के लिए एक पिता तुल्य हैं।’
लेकिन इतनी करीबी होते हुए भी प्रफुल्ल ने शरद पवार से अपने रास्ते अलग क्यों कर लिए?
वफादारी से बगावत तक
वरिष्ठ पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी इसके पीछे की वजह समझाते हैं।
वह कहते हैं, ‘प्रफुल्ल पर ईडी और दूसरी सरकारी एजेंसियों ने बीते दिनों कार्रवाई शुरू कर दी थी। पिछले दिनों ईडी ने वर्ली स्थित उनकी कुछ संपत्तियों को भी ज़ब्त किया था। आज की तारीख़ में प्रफुल्ल पटेल के पास मुंबई की सबसे रेंटेड जगह का मालिकाना हक है।’
‘वर्ली में उनकी कई संपत्तियां हैं और मुंबई के ये सबसे महंगे इलाकों में एक है। ऐसे में लग रहा था कि शरद पवार अपने रसूखों के बूते प्रफुल्ल पटेल को इस तक़लीफ़ से निकाल लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा था और प्रफुल्ल पटेल की दिक्कतें बढ़ती जा रही थीं।’
‘भोपाल में पिछले दिनों नरेंद्र मोदी ने जब अपने एक बयान में कहा कि वो एनसीपी के भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करेंगे, तब इनका डर और बढ़ गया और उन्होंने अजित पवार के साथ महाविकास अघाड़ी को छोडऩे का फैसला कर लिया।’
बीबीसी के सीनियर एडिटर आशीष दीक्षित भी ईडी के बढ़ते शिकंजे को इसकी एक बड़ी वजह मानते हैं।
आशीष कहते हैं, ‘भले ही शरद पवार ने कुछ दिनों पहले प्रफुल्ल पटेल को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया था, लेकिन जिन प्रदेशों की जिम्मेदारी उन्हें दी गई थी, जैसे- हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि...अगर उन पर आप गौर करें तो समझ आएगा कि उन राज्यों में तो पार्टी का कोई वजूद ही नहीं है। तो, प्रफुल्ल पटेल क्या करते? यहां इनको क्या मिलता?’
‘जवाब है- कुछ भी नहीं’।
अजित पवार के साथ जाने से क्या फायदा?
बगावत के बाद अजित पवार महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री बन गए हैं और प्रफुल्ल पटेल ने सुनील तटकरे को पार्टी का नया प्रदेश अध्यक्ष बनाया है।
लेकिन प्रफुल्ल पटेल को क्या मिला? उनकी क्या भूमिका होगी? इस सवाल के जवाब में बीबीसी के सीनियर एडिटर आशीष दीक्षित तीन संभावनाओं की ओर इशारा करते हैं।
संभव है कि प्रफुल्ल पटेल को केंद्रीय कैबिनेट में जगह मिल जाए। मोदी कैबिनेट में फेरबदल पहले से तय हैं, ऐसे में ये संभावना है कि उनकी इस कैबिनेट में एंट्री हो।
प्रफुल्ल पटेल पर ईडी के जो भी मामले चल रहे हैं, जो कार्रवाइयां हो रही हैं, वो रुक जाए और सरकारी एजेंसियों के शिकंजे से वो बच जाएं।
आशीष कहते हैं, ‘हमने पहले भी देखा है कि कोई भी विपक्ष का नेता अगर बीजेपी में शामिल होता है तो उसे ऐसे मामलों में राहत मिल जाती है।’
‘तीसरा फायदा जो प्रफुल्ल पटेल को दिखा होगा, वो यह कि वह एक बिजनेसमैन हैं। उन्हें अपना बिजनेस चलाना है और व्यापार की रफ्तार को बरकरार रखने के लिए जरूरी है कि वो सरकार में शामिल रहें। ताकि उनका कोई भी काम न रुके। एनसीपी के ज्यादातर नेता बिजनेस बैकग्राउंड से आते हैं, इसलिए टूट की एक वजह ये भी हो सकती है कि ये सभी सरकार का हिस्सा रहना चाहते हैं, विपक्ष का नहीं।’
शरद पवार को कितना नुकसान?
आशीष दीक्षित बताते हैं, ‘प्रफुल्ल पटेल एनसीपी के राष्ट्रीय चेहरा थे, उनकी महाराष्ट्र की राजनीति में कोई खास पकड़ नहीं है। इसे आप ऐसे समझें कि एनसीपी मराठाओं की पार्टी है और प्रफुल्ल पटेल तो महाराष्ट्र के हैं भी नहीं। साथ ही वो गोंदिया में रहते हैं, जो छत्तीसगढ़ से सटा इलाका है। इस इलाके में एनसीपी की राजनीतिक ज़मीन कुछ खास मजबूत भी नहीं है। इसलिए प्रदेश की राजनीति में प्रफुल्ल पटेल की भूमिका सीमित ही रही है।’
यही कारण है कि उनके जाने का पार्टी के वोट बैंक या वोटरों पर कोई सीधा असर होता नहीं दिखता, लेकिन हां, अगर आप इसे शरद पवार के संदर्भ में देखें, तो असल नुक़सान उनका है।
‘प्रफुल्ल पटेल को हमेशा शरद पवार का सबसे करीबी समझा गया। किसी भी पार्टी से, किसी भी मौके पर, एनसीपी की तरफ से जब भी बात करनी हो, प्रफुल्ल पटेल फ्रंट में होते थे। प्रफुल्ल पटेल जो कहते, उसे शरद पवार का कथन समझकर मान लिया जाता। वो पवार की परछाई की तरह थे।’
‘ऐसे कई मौक़े आए जब नेताओं ने पार्टी छोड़ी, एनसीपी कमज़ोर हुई पर हर बार प्रफुल्ल पटेल खड़े रहे। भले ही वो एनसीपी के मास लीडर नहीं थे, पर वो पार्टी को मैनेज कर रहे थे।’
आशीष कहते हैं, ‘अभी एक एनसीपी के नेता कह रहे थे कि जो विधायक एनसीपी छोडक़र गए हैं, उनके जैसे सैकड़ों विधायक शरद पवार पैदा कर सकते हैं। मैं उनकी इस बात से एक हद तक इत्तेफाक रखता हूं। शरद पवार एक रसूख वाले नेता हैं, वो बेशक ऐसे कई विधायक खड़े कर सकते हैं लेकिन एक दूसरा प्रफुल्ल पटेल खड़ा करना, जिसके दिल्ली में इतने कनेक्शन हों, सारी पार्टियों से अच्छे संबंध हों...बहुत मुश्किल है। उनके पास फि़लहाल प्रफुल्ल पटेल का कोई विकल्प नहीं है।
तभी जब पार्टी में दो फाड़ हुई तो शरद पवार ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में यही कहा कि मेरी नाराजग़ी केवल प्रफुल्ल पटेल और ताटकरे से है, और किसी से नहीं।
शरद पवार से करीबी की कहानी
प्रफुल्ल पटेल शरद पवार को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं और शरद पवार महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री रह चुके यशवंत राव चव्हाण को। यशवंत राव प्रफुल्ल पटेल के पिता मनोहर भाई के बेहद करीबी माने जाते थे।
राजनीतिक बैठकों में ये सभी एक साथ उठते-बैठते थे। ऐसे में शरद तक प्रफुल्ल की पहुंच आसान हो गई। पिता की मौत के बाद प्रफुल्ल ने न केवल पारिवारिक बिजनेस संभाला, उन्होंने राजनीति में भी कदम रखा और शरद उनके पॉलिटिकल गुरु बन गए।
वरिष्ठ पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी बताते हैं कि शरद पवार का हमेशा से रुझान बिजऩेस बैकग्राउंड से आने वाले नेताओं के प्रति रहा है।
एनसीपी में कई ऐसे नेता आपको मिल जाएंगे जिनके बड़े स्थापित बिजऩेस हैं, जैसे- छग्गन भुजबल। शरद पवार के इन शुभचिंतकों ने उन्हें आगे बढऩे में ख़ूब मदद की। प्रफुल्ल पटेल की परिवारिक पृष्ठभूमि ख़ुद व्यावसायिक रही है, इसलिए व्यावसायिक दृष्टिकोण के कारण प्रफुल्ल और शरद नज़दीक आए।
अजित पवार से रिश्ते
प्रफुल्ल हमेशा से शरद पवार के नजदीकी रहे हैं। अजित पवार से उनके न तो खराब और न ही बेहद अच्छे रिश्ते रहे। बदले घटनाक्रम में अब ये देखना होगा कि शरद के वफ़ादार अजित के कितने करीब बने रहते हैं।
राजनीतिक करियर
दिलचस्प है कि महाराष्ट्र और देश की राजनीति में एक सफल पारी खेलने वाले प्रफुल्ल पटेल का जन्म कोलकाता में हुआ, लेकिन उनका परिवार मूलत: गुजरात से है।
उन्होंने मुंबई के कैंपियन स्कूल से पढ़ाई की और फिर सिडेनहैम कॉलेज से कॉमर्स में ग्रेजुएट हुए।
आगे की पढ़ाई के लिए प्रफुल्ल हार्वर्ड जाना चाहते थे लेकिन मात्र 13 साल की उम्र में पिता के निधन के बाद और इकलौती संतान होने के कारण, उन्हें अपना पारिवारिक बिजनेस संभालना पड़ा। उनका बीड़ी और तंबाकू का बड़ा बिजऩेस है।
प्रफुल्ल पटेल के पिता मनोहरभाई पटेल एक बिजऩेसमैन होने के साथ ही साथ समाज सेवक और महाराष्ट्र कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से एक थे।
महाराष्ट्र का गोंदिया भंडारा जिला उनकी राजनीति का केंद्र रहा।
पिता के दिखाए रास्ते पर ही चलते हुए प्रफुल्ल ने भी राजनीति में कदम रखा और साल 1985 में महाराष्ट्र के गोंदिया म्यूनिसिपल काउंसिल के प्रेसिडेंट बने।
फिर साल 1991, मात्र 33 साल की उम्र में कांग्रेस की टिकट पर गोंदिया-भंडारा सीट से लोकसभा के सांसद चुने गए।
साल 1991-1996 तक देश के केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री रहे।
साल 1996 और साल 1998 में भी कांग्रेस की टिकट पर भंडारा से लोकसभा सांसद चुनकर आए।
एनसीपी के गठन के बाद साल 2000 में प्रफुल्ल पटेल राज्यसभा सांसद चुने गए।
साल 2004 में केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्रालय का स्वतंत्र कार्यभार संभाला और साल 2006 में पार्टी ने उन्हें दोबारा राज्यसभा भेजा।
2009 में एनसीपी के टिकट से लोकसभा चुनाव लड़े, जीते और फिर केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री का पद संभाला।
2011 में उद्योग और सार्वजनिक उद्यम मंत्री बने।
साल 2014 में बीजेपी के नाना पटोले ने लोकसभा चुनाव में उन्हें कड़ी शिकस्त दी। जिसके बाद पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेजा।
प्रफुल्ल पटेल 2022 में भी राज्यसभा के लिए चुने गए। इसके इतर साल 2009 में वो ऑल इंडिया पुटबॉल फेडरेशन (्रढ्ढस्नस्न) के अध्यक्ष भी चुने गए और साल 2022 में जब तक सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पद से हटा नहीं दिया तब तक वे अध्यक्ष बने रहे।
किन मामलों में जांच का सामना कर रहे हैं प्रफुल्ल?
पटेल अंडरवल्र्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के कऱीबी गैंगस्टर इकबाल मिर्ची से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में ईडी की जांच के दायरे में है। उन पर कार्रवाई भी हुई है। ईडी ने उनके सैकड़ों करोड़ रुपये से ज़्यादा की संपत्ति को जब्त भी किया है।
वहीं उनके खिलाफ एविएशन स्कैम मामले में भी जांच चल रही है। (bbc.com/hindi)
डॉ.आर.के. पालीवाल
दिल्ली पुलिस महिला पहलवानों के मामले में निश्चित रूप से भयंकर दबाव में रही है। इस दबाव का कितना प्रतिशत वह ख़ुद महसूस कर रही है और कितना प्रतिशत सरकार की तरफ़ से है यह तो कोई खोजी पत्रकार ही खोज सकता है या जांच दल के सदस्य और ईश्वर ही जानते हैं लेकिन आम आदमी के मन मस्तिष्क में दिल्ली पुलिस की जो उज्जवल छवि विज्ञापनों में प्रचारित की जाती है उसका आचरण उसके धुर विपरीत दिखाई देता है।इंडिया टी वी, जिसे सामान्यत: सरकार समर्थक चैनल्स में गिना जाता है, के चीफ रजत शर्मा ने भी रेशलिंग रेफरी जगवीर सिंह का इंटरव्यू दिखाया है जिसमें उन्होंने महिला पहलवानों के साथ 2013 और 2022 के दो शर्मनाक वाक्ये बयान किए हैं जो क्रमश: थाईलैंड के फुकेट और उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहरों में घटित हुए हैं।संगीता फोगाट को जांच के नाम पर बृजभूषण शरण सिंह के घर ले जाने पर भी खिलाडिय़ों द्वारा आपत्ति जताई जा रही है। एक तरफ बृजभूषण शरण सिंह को सत्ताधारी दल का सासंद होने के कारण वी वी आई पी ट्रीटमेंट मिल रहा है और दूसरी तरफ़ शिकायतकर्ताओं को दर दर भटकना पड़ रहा है। यदि अंतर्राष्ट्रीय पदक प्राप्त खिलाडिय़ों द्वारा यह शिकायत किसी रेफरी या कोच या आम आदमी और विपक्षी दल के सासंद के खिलाफ होती तो दिल्ली पुलिस का व्यवहार और कार्यशैली एकदम अलग तरह की होती।
जिस गति से यह मामला तूल पकड़ता जा रहा है और जिस तरह से इस मामले में नित नए खुलासे हो रहे हैं उससे यह तो निश्चित है कि बृजभूषण शरण सिंह का आजीवन कार्यवाही से बचना मुश्किल है। सामान्यत: शक्ति संपन्न लोगों के खिलाफ़ इसीलिए तत्काल कार्यवाही की मांग की जाती है क्योंकि वे अपने रसूख, पैसे और धमकियों आदि के बल पर शिकायत कर्ता और गवाहों पर तरह तरह के दबाव बनाकर संभावित सबूतों को नष्ट कर मामले को कमजोर कर सकते हैं। इस मामले में एक नाबालिग पहलवान के परिजनों के विरोधाभासी बयानों से यह लगता है कि वह परिवार भी काफ़ी दबाव में है।
जगबीर सिंह के खुलासे की यह बात चौंकाने वाली है कि बृजभूषण शरण सिंह 2013 से 2023 तक पिछ्ले दस साल से इस तरह की आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहा है।उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत करने में महिला पहलवानों को भी इतना समय लगा है। संभव है कि बहुत सी महिला पहलवान अपने करियर और प्रतिष्ठा दांव पर लगाने का साहस नहीं कर पाई होंगी। जब अंतर्राष्ट्रीय पदक विजेता प्रतिष्ठित और रसूखदार पहलवानों की शिकायत पर पुलिस कड़ी कार्यवाही करने में संकोच कर रही है तब आम अनाम खिलाड़ी कैसे इतने शक्तिशाली व्यक्ति के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं। वैसे भी महिलाओं के लिए इस तरह की शिकायत करना आसान नहीं है क्योंकि सबसे पहले उनके घरवाले ही उन्हें ऐसी परिस्थितियों में घर बैठने की सलाह दे देते हैं। पिछ्ले दो दशक में इस दौरान केन्द्र में उसी पार्टी की सरकार रही है जिसके ब्रजभूषण शरण सिंह सांसद हैं। इसलिए सरकार की भूमिका पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े होते हैं। वैसे भी हमारे देश में खेलों का स्तर कई एशियाई देशों से बदतर है और आबादी के हिसाब से तो बहुत ही निम्न स्तर का है। उसमें भी महिलाओं की भागीदारी और भी कम है।
निश्चित रूप से यह मामला भविष्य में बहुत सी महिला खिलाडिय़ों को खेलों में भाग लेने से रोकेगा और महिला खिलाडिय़ों के परिजनों की चिंताएं बढ़ाएगा। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि खराब करेगा। बेटी बचाओ के नारे को भी यह मामला खोखला करता है। यह चिंताजनक है कि कई दर्जन आपराधिक मामलों के आरोपी को लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय दल टिकट देते हैं और जनता उन्हें जिताती है और वे खेल संघों के लम्बे समय तक अध्यक्ष भी बने रहते हैं। एक तरह से हमारा पूरा समाज ही कटघरे में खडा दिखाई देता है।
समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जहाँ विपक्ष पार्टियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बेरोज़गारी, मंहगाई जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाने का आरोप लगा रही हैं, वहीं उत्तर-पूर्व में भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी राजनीतिक दल इसके विरोध में हैं.
मेघालय में बीजेपी के सहयोगी दल नेशनल पीपल्स पार्टी ने इसे भारत के विचार के ख़िलाफ़ बताया है, वहीं मणिपुर सरकार में शामिल पार्टनर नगा पीपल्स फ्रंट ने चेतावनी दी है कि इसे थोपने का परिणाम प्रतिकूल हो सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 जून को भोपाल में एक कार्यक्रम के दौरान यूसीसी अर्थात यूनिफॉर्म सिविल कोड पर कहा था कि एक घर में परिवार के दो सदस्यों के लिए अगर दो तरह का क़ानून होगा तो वो घर नहीं चल सकता है.
उन्होंने ये भी कहा था कि ये याद रखा जाना चाहिए कि क़ानून समानता की बात करता है.
नरेंद्र मोदी के बयान पर विपक्षी पार्टियों का कहना था कि प्रधानमंत्री मोदी ने बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए यूसीसी का मुद्दा उछाला है.
मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनरॉड संगमा का क्या है रुख?
कॉनरॉड संगमा
कॉनराड संगमा एनपीपी अध्यक्ष हैं. साल 2016 में बीजेपी असम की सत्ता में आने के बाद गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस नाम से जो राजनीतिक फ्रंट बनाया गया था, जिसमें सातों पूर्वोत्तर राज्यों की प्रमुख क्षेत्रीय दलों शामिल किए गए थे.
इनमें से ज़्यादातर क्षेत्रीय दलों की यहाँ के सूबों में सरकार में शामिल हैं.
मेघालय में इस समय नेशनल पीपल्स पार्टी (एनपीपी) की सरकार है, जिसमें बीजेपी भी शामिल है.
एनपीपी प्रमुख संगमा ने कहा कि पूर्वोत्तर को एक अनूठी संस्कृति और समाज मिला है और वह ऐसे ही रहना चाहेंगे.
अपने राज्य का उदाहरण देते हुए संगमा बताते है, "हमारा मातृसत्तात्मक समाज है और यही हमारी ताक़त है. यही हमारी संस्कृति रही है. अब इसे बदला नहीं जा सकता है."
हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि यूसीसी ड्राफ्ट को देखे बिना किसी विवरण में जाना मुश्किल काम है. लेकिन वो इस मामले पर बीजेपी के साथ नहीं हैं.
मणिपुर-नगालैंड में भी बीजेपी के सहयोगियों का विरोध
बीजेपी के सहयोगी दल एनपीएफ अर्थात नगा पीपुल्स फ्रंट ने चेतावनी दी है कि देश भर के विविध समुदायों पर प्रस्तावित समान नागरिक संहिता को थोपने का कोई भी प्रयास निरर्थक और प्रतिकूल होगा.
मणिपुर में बीजेपी दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में है. लेकिन पार्टी ने अपने कुछ पुराने क्षेत्रीय दलों को सरकार में पार्टनर बना रखा है.
यूसीसी पर अपनी पार्टी का रुख़ रखते हुए एनपीएफ़ नेता कुझोलुज़ो निएनु ने एक बयान जारी कर कहा, "यूसीसी लागू करने का मतलब हमारी संस्कृति को आदिम, असभ्य और अमानवीय कहकर ख़ारिज करना है."
नगा नेता ने कहा, "यूसीसी लागू करने का प्रयास अल्पसंख्यकों को विशेषकर आदिवासी समुदायों की आशा और विश्वास को धोखा दे रहा है.
असल में अनुच्छेद 371 (ए) या छठी अनुसूची जैसे संवैधानिक प्रावधान हमारे रीति-रिवाजों, मूल्यों और प्रथाओं की रक्षा और बढ़ावा देने के लिए प्रदान किए गए हैं."
नगालैंड में बीजेपी की अन्य सहयोगी सत्तारूढ़ नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) ने शनिवार को घोषणा की कि "यूसीसी को लागू करने से भारत के अल्पसंख्यक समुदायों और आदिवासी लोगों की स्वतंत्रता और अधिकारों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा".
नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो की पीर्टी एनडीपीपी ने गुरुवार को दो पन्ने को बयान जारी कर कहा कि भारत के संविधान में अनुच्छेद 371 ए द्वारा नगाओं की प्रथागत प्रथाओं और परंपराओं की सुरक्षा सुनिश्चित की गई है.
मिज़ोरम: यूसीसी के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित
मिज़ोरम विधानसभा ने इसी साल 14 फ़रवरी को सर्वसम्मति से यूसीसी को लागू करने के किसी भी क़दम का विरोध करते हुए एक आधिकारिक प्रस्ताव पारित किया था.
मिज़ोरम की सत्तारूढ पार्टी मिज़ो नेशनल फ्रंट बीजेपी के साथ एनडीए में शामिल है.
यूसीसी को लेकर छिड़ी बहस के बाद मिजोरम के गृह मंत्री लालचामलियाना ने शुक्रवार को पत्रकारों से कहा कि यूसीसी को भले ही संसद द्वारा क़ानून बना दिया जाए.
लेकिन मिज़ोरम में तब तक लागू नहीं किया जाएगा जब तक कि राज्य विधायिका एक प्रस्ताव द्वारा ऐसा कोई निर्णय नहीं ले लेती.
पूर्वोत्तर में मिज़ोरम एक ऐसा राज्य है जहां सबसे अधिक जनजातीय आबादी है. लिहाज़ा किसी भी सरकार के लिए यूसीसी को यहां लागू करना बहुत बड़ी चुनौती होगी.
असम-त्रिपुरा में बीजेपी के सहयोगी क्या सोच रहे हैं?
पूर्वोत्तर में मिज़ोरम एक ऐसा राज्य है जहां सबसे अधिक जनजातीय आबादी है. (सांकेतिक तस्वीर)
असम में बीजेपी की सहयोगी असम गण परिषद और त्रिपुरा में बीजेपी की पार्टनर इंडिजिनस पीपल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (आईपीएफटी) ने अभी यूसीसी को लेकर अपने रुख़ पर कोई चर्चा नहीं की है.
त्रिपुरा सरकार में जनजातीय कल्याण विभाग के मंत्री तथा आईपीएफटी के सचिव प्रेम कुमार रिआंग ने बीबीसी से कहा,"चूंकि यूसीसी को लेकर अभी तक कोई ड्राफ़्ट सामने नहीं आया है, इसलिए हमारी पार्टी के रूख़ पर अभी कोई बात नहीं हुई है."
हालांकि मंत्री रिआंग ने कहा, ''त्रिपुरा में 19 जनजातियां है जिनके समक्ष बहुत चुनौतियां है. हमारे पास ख़ुद की राजनीतिक ताक़त भी नहीं है. ''
''संविधान पर विश्वास करते हुए हमें अपनी जनजाति की पहचान और अधिकारों के लिए लड़ते रहना होगा.''
समान नागरिक संहिता यानी शादी, तलाक़, विरासत, गोद लेने समेत कई चीज़ों पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक ही क़ानून होगा.
लेकिन यूसीसी को लेकर कहा जा रहा है कि इससे क़रीब 220 आदिवासी समुदायों के अधिकार और आज़ादी कम होने का ख़तरा है.
'यूनिफॉर्म सिविल कोड को किसी पर थोप नहीं सकते'
प्रेम कुमार रियांग (बाएं से दूसरे)
भारत की क़रीब 12 फ़ीसदी आदिवासी आबादी पूर्वोत्तर के राज्यों में बसती है. 2011 की जनगणना के अनुसार, मिज़ोरम में 94.4 फ़ीसदी, नागालैंड में 86.5 फ़ीसदी और मेघालय में 86.1 प्रतिशत आदिवासी आबादी बसी है.
पूर्वोत्तर के जनजातीय इलाक़ों में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर 'द शिलांग टाइम्स' की संपादक पैट्रिशिया मुखिम कहती हैं,"भारत में विभिन्न जाति-प्रजाति के लोग रहते है. यहां तिब्बती-बर्मन लोग बसे है. यहां ऑस्ट्रो एशियाटिक जाति के लोग रहते है. इसलिए आप किसी पर यूसीसी थोप नहीं सकते."
वो कहती हैं, "इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों में छठी अनुसूची के अंतर्गत जिला स्वायत्तशासी परिषद है जो जनजातीय लोगों के रीति-रिवाज और परंपराओं को बचाए रखा है. ऐसे में अगर यूसीसी को लाया जाएगा तो छठी अनुसूची पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी.''
पैट्रिशिया मुखिम
'' यूसीसी को लेकर जारी बहस मात्र से ही यहां की जनजातियां नाराज़गी ज़ाहिर कर रही हैं. बीजेपी का जो मक़सद है कि एक धर्म, एक भाषा सबकुछ एक जैसा ऐसा भारत में नहीं हो कता है." (bbc.com/hindi)
-रुचिर गर्ग
आज एक वॉट्सएप ग्रुप में many times forwarded मैसेज पढ़ने को मिला।
बेकाबू महंगाई को सही ठहराने के संदेश के साथ शुरू हुई इस सामग्री में कहा गया था पिछले तीन वर्षों में एम्स में 231 अंग दान करने वालों में एक भी मुस्लिम नहीं है जबकि अंग प्राप्त करने वालों में 39 मुस्लिम हैं।
उसमें इस बात का खास जिक्र था
"मैं अंध मोदी प्रेमी नहीं हूं"
यहां उस many times forwarded मैसेज का विश्लेषण नहीं कर रहा हूं बस इतना बता रहा हूं कि अगर आप गूगल पर सर्च करेंगे तो एक ताजा खबर नजर आएगी कि कैसे हरियाणा के एक गरीब मजदूर मुस्लिम परिवार ने अपने बच्चे के अंग दान किए जिससे दो लोगों को नई जिंदगी मिली। इस बच्चे की एक दुर्घटना में बात मृत्यु हो गई थी।
जो आंकड़े इस forwarded मैसेज में दिए गए थे जाहिर है वो पूरी तरह से फर्जी ही थे क्योंकि अंगदान से जुड़े आंकड़े तो मिल जाएंगे लेकिन उसमें प्राप्तकर्ता हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध कौन है यह शायद नहीं मिलेगा।
हिंदू की आंखें मुसलमान को लगीं या मुसलमान की किडनी ईसाई को अगर इस नजरिए से देखना हो तो ज़िंदगी की क्या अहमियत है और मानवीय मूल्यों को तो कूड़ेदान में डाल देना चाहिए !
लेकिन सवाल अलग है।
सवाल यह है कि ऐसे मैसेज बनते कहां हैं?
इन्हें फैलाने वाला नेटवर्क किसके पास है?
कौन हैं जो इस देश में मानवीय मूल्यों को तबाह कर उन्मादी राष्ट्र बनाने में लगे हैं ?
किन्हें इस देश में इंसानियत की भाषा खटक रही है,सद्भाव खटक रहा है और वो कौन हैं जो देश को नफरत में डुबोने की साजिश रचते हुए कहते हैं, "मैं अंध मोदी भक्त नहीं हूं !"
संयोग यह है कि इसी रात मैंने फिल्म "अफवाह" देखी।
जरूर देखिए।
डायरेक्टर सुधीर मिश्रा और प्रोड्यूसर वही शानदार अनुभव सिन्हा!
इस फिल्म की कहानी सोशल मीडिया की अफवाहों पर ही नेंद्रित है।
फिल्म की चर्चा कम होनी थी क्योंकि यह अफवाहबाजों को आइना दिखाती है, क्योंकि यह बेनकाब करती है कि इस देश में कौन लोग हैं जो अफवाहबाजी को एक घातक राजनीतिक औजार बनाए हुए हैं, क्योंकि फिल्म यह समझाती है कि अफवाहबाजी का किसी खास राजनीतिक समूह से क्या नाता है!
इसलिए ऐसी फिल्म को हमारा समाज क्यों देखना पसंद करेगा ?
बात एक अफवाह भरे वॉट्सएप मैसेज से शुरू हो कर फिल्म अफवाह तक आती है।
क्या हम देश को अफवाहों की आग में जलने देना चाहते हैं?
क्या हम भी इस आग का हिस्सा बनना चाहते हैं?
अगर हां तो अपने बच्चों को जोर शोर से लगाइए इस काम में !
छुड़ाइए उनकी पढ़ाई,रोजगार और बनाइए उन्हें एक उन्मादी राष्ट्र का निर्माता!
क्योंकि उनके बच्चे तो विदेशों में या देश के बड़े शिक्षा संस्थानों में ऊंची तालीम पाने में व्यस्त हैं!
आपके बच्चे अफवाह फैलाएंगे तभी तो उन्हें सत्ता मिलेगी,उनकी औलादों की जिंदगी जन्नत बनेगी!
एक स्मार्ट फोन का खर्चा,थोड़ा पेट्रोल ..इतना ही तो चाहिए उन्मादी राष्ट्र बनाने के लिए!
नहीं तो बस इतना कीजिए कि आप जिस भी वाट्सएप ग्रुप में हों उसमें आने वाले ऐसे मैसेज की हकीकत की पड़ताल कर लीजिए और दो लाइन वहीं लिख दीजिए।
गूगल सर्च कर लीजिए,भेजने वाले से ऐसे आंकड़ों का स्त्रोत पूछ लीजिए,वो स्त्रोत गलत बताएंगे, आप उसे वेरिफाई कर लीजिए।
कुछ नहीं तो संबंधित विषय के जानकार या आधिकारिक लोगों से पूछ लेना चाहिए।
हमारे आपके हाथों में भी स्मार्ट फोन है।
अगर कोई इस देश को नफरत और उन्माद की आग में धकेलना चाहता है तो हमको आपको कम से कम एक छोटे से प्रयास से इस आग को फैलने से रोकना चाहिए।
आज इस देश को सीमा से ज्यादा भीतर ही ऐसे सिपाही चाहिए जो इंसानियत को बचाना चाहते हैं।
एक नागरिक के तौर पर हमको आपको इतना तो करना ही चाहिए।
(लेखक एक भूतपूर्व पत्रकार, और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के वर्तमान मीडिया सलाहकार हैं।)
-डॉ.आर.के. पालीवाल
आजकल हिंदू देवी देवताओं और महान विभूतियों के नाम का कई संगठन जमकर दुरुपयोग कर रहे हैं। एक तरफ इस तरह के दलों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है और दूसरी तरफ़ उन्हें राजनीतिक दलों का संरक्षण प्राप्त हो रहा है। श्रीराम सेना, करणी सेना और बजरंग दल आदि इसी तरह के संगठन हैं। इन सबमें आजकल बजरंग दल सबसे ज्यादा रंग दिखा रहा है। इसका ज्यादा श्रेय भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को जाता है।
हाल ही में कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस ने बजरंग दल को प्रतिबंधित करने की घोषणा कर इस संगठन को अनावश्यक सुर्खियां प्रदान की थी। इस घोषणा के विरोध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो कदम आगे बढ़ कर जरुरत से ज्यादा कड़ी प्रतिक्रिया कर बजरंग दल पर प्रतिबंध को बजरंग बली का अपमान बताकर इस संगठन को एक तरह से हनुमान जी का प्रतिनिधि मान लिया था। कांग्रेस और भाजपा द्वारा कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जरूरत से ज्यादा भाव दिए जाने से बजरंग दल के बाजार भाव सातवें आसमान पर पहुंच गए थे।
कर्नाटक चुनाव में बजरंग दल मुद्दे पर कोई राजनीतिक दल सांप्रदायिक आधार पर वोटो का लाभ नहीं ले पाया। इसीलिए इसके बाद मध्य प्रदेश में बजरंग दल को भारतीय जनता पार्टी की सरकार से ज्यादा भाव नहीं मिले तो इन्होने कांग्रेस के कमलनाथ की शरण ली।
अभी तक मध्य प्रदेश में बजरंग दल पर सरकार की नजर टेढ़ी नही थी लेकिन जब से वह खुलकर कांग्रेस के साथ आया है तब से मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार की भृकुटि टेढ़ी होना लाजमी था। कोई भी सरकार इतनी उदार नही होती कि खुलेआम चुनौती देने वाले व्यक्ति या संगठन को अपनी ताकत का प्रभाव न दिखाए। यही कारण रहा कि इंदौर में बजरंगियों के उद्दंड पर सरेआम पुलिस का डंडा चला। आजकल पुलिस अपनी मर्जी से कोई महत्वपूर्ण कार्य बहुत कम करती है लेकिन आकाओं की भृकुटि के इशारे को पलक झपकते समझ लेती है।
उत्तर प्रदेश में भी बजरंग दल के कार्यकर्ता बौखलाए हुए हैं। जालौन में कांग्रेस कार्यालय के पास उपद्रव करने आए बजरंग दल के कार्यकर्ताओं पर वहां भी पुलिस ने कार्यवाही की है।बजरंग दल जैसे संगठनों के कार्यकर्ताओं के नाम किसी प्रदेश में कोई महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्य दर्ज नहीं है। ये लोग चर्चा में रहने के लिए खुद को हिंदू धर्म और संस्कृति के रखवाले समझकर यहां वहां हिंदू समाज के आराध्य के नाम पर विध्वंसक गतिविधियों को अंजाम देते रहते हैं। इसी तरह करणी सेना के पदाधिकारी भी जब तब हिंदू धर्म और संस्कृति, और उसमें भी विशेष रूप से राजपूतों से जुड़ी विभूतियों के नाम पर धमकियां देते रहते हैं। उनकी ताजा धमकी आदि पुरुष फिल्म निर्माताओं के लिए है। उनके किसी पदाधिकारी ने फिल्म के निर्माता निर्देशक को खोजकर मारने की घोषणा की है।
महात्मा गांधी हर तरह की हिंसा की मुखालफत करते हुए अक्सर कहते थे कि हिंसा की लत बडी भयानक होती है जो अपने लिए नए नए दुश्मन खोजती रहती है। वे कहते थे कि जो लोग आज अंग्रेजों को दुश्मन मानकर उनके खिलाफ हिंसा कर रहे हैं कल देश आजाद होने पर वे अपने देश के उन लोगों से हिंसक व्यवहार करने लगेंगे जिन्हें वे अपना विरोधी मानते हैं। उनका इशारा सांप्रदायिक और अंतरजातीय हिंसा की तरफ था। वर्तमान परिदृश्य में गांधी की अहिंसा का सिद्धांत इसीलिए और ज्यादा प्रासंगिक लगता है। चाहे मणिपुर की भयावह हिंसा हो या बजरंग दल और करणी सेना की विध्वंसक गतिविधियां हों या पीएफआई, आई एस आई एस और सिमी जैसे आतंकी संगठन यह सब कहीं न कहीं अपने ही देश के नागरिकों के साथ हिंसा कर रहे हैं। जब इन हिंसक तत्वों को राजनीतिक दलों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन मिलता है तब यह संगठन और ज्यादा घातक हो जाते हैं।
दो जुलाई को महाराष्ट्र में एक नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम के तहत अजित पवार सहित एनसीपी के नौ विधायक बीजेपी-शिव सेना (शिंदे) गुट की सरकार में शामिल हुए। दिलचस्प यह है कि बीजेपी ने अजित पवार सहित इन विधायकों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। लेकिन अजित पवार अब राज्य के उपमुख्यमंत्री बने हैं, साथ ही उन्होंने अन्य विधायकों को भी मंत्री बनवाया है। हालांकि इनमें से कुछ नेताओं के पीछे जांच एजेंसियां लगी हुई थीं।
शरद पवार से पाला बदल कर सरकार में शामिल हुए इन नेताओं पर क्या-क्या आरोप लग रहे थे। देखिए पूरी सूची।
अजित पवार पर क्या-क्या थे मामले
अजित पवार अब एकनाथ शिंदे की सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं। उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाने वाले और अजित दादा चक्की पीसिंग जैसे बयान देने वाले देवेंद्र फडणवीस, उनके बराबर ही उपमुख्यमंत्री के तौर पर सरकार में शामिल हैं। हालांकि बीजेपी की ओर से उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए गए थे जबकि चीनी मिलों में भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच में ईडी का शिकंजा उन पर कसने लगा था। पिछले साल मार्च महीने में आयकर विभाग ने उपमुख्यमंत्री अजित पवार के रिश्तेदारों के घर पर छापा मारा था। इतना ही नहीं आयकर विभाग ने कुछ संपत्तियों पर ज़ब्ती भी की थी।
अजित पवार से संबंधित जरंदेश्वर चीनी मिल पर जब्ती की कार्रवाई की गई थी। इस मामले में अजित पवार पर बीजेपी नेता किरीट सोमैया ने आरोप लगाए थे। सोमैया ने कहा था कि अजित पवार का वित्तीय कारोबार अद्भुत है। किरीट सोमैया ने आरोप लगाया था कि बिल्डरों के पास उनके और उनके रिश्तेदारों के खातों में सौ करोड़ से अधिक की बेनामी संपत्ति है।
राज्य के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने सिंचाई घोटाला मामले में अजित पवार को क्लीन चिट दे दी थी। लेकिन, मई 2020 में प्रवर्तन निदेशालय ने विदर्भ सिंचाई घोटाला मामले की नए सिरे से जांच शुरू की थी।
अजित पवार के साथ बेटे भी थे घेरे में
इन सबके साथ अजित पवार के बेटे पार्थ पवार की कंपनी पर भी आयकर विभाग ने छापा मारा था। आयकर विभाग ने यह दावा किया था कि अजित पवार के रिश्तेदारों पर हुई इस छापेमारी में 184 करोड़ रुपये का बेनामी वित्तीय लेनदेन का पता चला है। अप्रैल, 2023 में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य सहकारी बैंक घोटाले के सिलसिले में ईडी ने अजित पवार और सुनेत्रा पवार से जुड़ी एक कंपनी के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया। लेकिन इसमें अजित पवार और सुनेत्रा पवार का नाम शामिल नहीं था। इसके बाद से ही एनसीपी में बगावत की चर्चा शुरू हो गई थी। इस खबर के सामने आने के बाद अजित पवार ने सार्वजनिक तौर पर अपनी सफाई भी दी थी।
छगन भुजबल को दो साल तक नहीं मिली थी जमानत
छगन भुजबल पर 2014 के बाद से ही जांच एजेंसियों का शिकंजा कस रहा था। मार्च, 2016 में उन्हें नई दिल्ली में महाराष्ट्र सदन निर्माण में कथित गबन और बेहिसाब संपत्ति जमा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तारी के बाद उन्हें मुंबई की आर्थर रोड जेल भेज दिया गया। काफी कोशिशों के बावजूद अगले दो साल तक उन्हें जमानत नहीं मिली। हालांकि, सितंबर 2021 में छगन भुजबल को महाराष्ट्र सदन के कथित गबन के मामले में बरी कर दिया गया था।
बॉम्बे सेशन कोर्ट ने छगन भुजबल समेत छह आरोपियों को बरी किया था। हालांकि एंटी करप्शन ब्यूरो ने कथित महाराष्ट्र सदन गबन मामले में भुजबल और उनके परिवार के खिलाफ सबूत होने का दावा किया है।
इस मामले के अलावा छगन भुजबल और उनसे जुड़े लोगों के खिलाफ अलग-अलग मामले दर्ज हैं और उनकी सुनवाई लंबित है।
इंडियन एक्सप्रेस अख़बार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ अलग मामला भी दर्ज किया था। इस साल जनवरी में, एक सामाजिक कार्यकर्ता ने 2021 के अदालती आदेश के खिलाफ बॉम्बे हाई कोर्ट में अपील दायर की, जिस पर सुनवाई लंबित है। भुजबल के खिलाफ मुंबई विश्वविद्यालय से जुड़े भ्रष्टाचार मामले में एंटी करप्शन ब्यूरो का एक मामला विशेष अदालत में लंबित है।
हसन मुश्रीफ
जनवरी 2023 में ईडी ने कोल्हापुर में एनसीपी नेता हसन मुश्रीफ के आवास और फैक्ट्री पर छापा मारा था। विधायक हसन मुश्रीफ पर कोल्हापुर के कागल में एक शुगर फैक्ट्री को अवैध रूप से चलाने का आरोप था।
बीजेपी नेता किरीट सोमैया ने आरोप लगाया था कि हसन मुश्रीफ के दामाद और खुद मुश्रीफ ने इस फैक्ट्री के जरिए 100 करोड़ रुपये का घोटाला किया है। मार्च 2023 में, हसन मुश्रीफ और उनके सीए को ईडी ने कार्यालय में बुला कर पूछताछ की।
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, मुश्रीफ की गिरफ्तारी पूर्व जमानत याचिका अप्रैल में एक विशेष अदालत ने खारिज कर दी थी। इसके बाद उन्होंने बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। कोर्ट ने उन्हें अंतरिम राहत दी थी, जिसकी समय सीमा पिछले हफ्ते बढ़ाकर 11 जुलाई कर दिया गया था। उनके तीनों बेटों की गिरफ़्तारी पूर्व ज़मानत की अपील विशेष अदालत में लंबित है।
अदिति तटकरे
अदिति तटकरे एनसीपी नेता सुनील तटकरे की बेटी हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक सिंचाई घोटाले में एंटी करप्शन ब्यूरो, अजित पवार के साथ सुनील तटकरे की भी जांच कर रही थी। 2017 में एसीबी द्वारा दायर आरोपपत्र में तटकरे के नाम का उल्लेख किया गया था। हालांकि उस समय उनका जिक्रअभियुक्त के तौर पर नहीं किया गया था। अधिकारियों ने कहा था कि इसके बाद अलग से आरोप पत्र दाखिल किया जाएगा।
इसी मामले में ईडी ने 2022 में तटकरे के खिलाफ प्रारंभिक जांच शुरू की थी।
धनंजय मुंडे
2021 में एक महिला ने धनंजय मुंडे के खिलाफ रेप का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी। लेकिन इसके बाद उन्होंने ये शिकायत वापस ले ली थी।
प्रफुल्ल पटेल
प्रफुल्ल पटेल ने दो जुलाई को शपथ नहीं ली, लेकिन वह शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद थे। यूपीए की केंद्र सरकार के दौरान प्रफुल्ल पटेल केंद्रीय उड्डयन मंत्री थे। उनके मंत्री रहने के दौरान ही 2008-09 में एविएशन लॉबिस्ट दीपक तलवार विदेशी एयरलाइंस की मदद कर रहे थे। उन्होंने तीन अंतरराष्ट्रीय एयरलाइनों के लिए कुछ ज्यादा कमाई वाले हवाई मार्ग सुरक्षित किए। उसके लिए दीपक तलवार को 272 करोड़ रुपये मिले थे। इससे एयर इंडिया को काफी नुकसान उठाना पड़ा था।
ईडी ने आरोप लगाया था कि ये सभी लेनदेन प्रफुल्ल पटेल के केंद्रीय मंत्री रहने के दौरान हुए थे। इसके साथ ही 70 हजार करोड़ रुपये के 111 विमानों की खरीद और एयर इंडिया एवं इंडियन एयरलाइंस के विलय के मामले की जांच ईडी कर रही थी। इस मामले में ईडी ने जून, 2019 में प्रफुल्ल पटेल को नोटिस जारी किया था। उन्हें पूछताछ के लिए भी बुलाया गया था।
शिंदे के साथ गए शिव सेना विधायकों पर भी था जांच एजेंसियों का शिकंजा
2022 में महाविकास अघाड़ी से बाहर होने के लिए एकनाथ शिंदे ने जब बगावत की थी तो उनके साथ भी ऐसे विधायक शामिल थे, जिन पर जांच एजेंसियों का शिकंजा कस रहा था। एक नजर उन नेताओं पर भी जो जांच एजेंसियों के शिंकजे से बचने के लिए शिंदे के साथ गए थे।
प्रताप सरनाईक
सरनाईक नेशनल स्पॉट एक्सचेंज लिमिटेड (एनएससीएल) के कथित घोटाले के सिलसिले में ईडी के रडार पर थे। उनकी संपत्ति ईडी ने जब्त कर ली थी। इस मामले में आस्था ग्रुप ने विहंग आस्था हाउसिंग को 21.74 करोड़ रुपये ट्रांसफर किए थे।
ईडी ने दावा किया कि विहंग एंटरप्राइजेज और विहंग इम्फ्रा को 11.35 करोड़ रुपये दिए गए। इन दोनों कंपनियों का नियंत्रण प्रताप सरनाईक के पास है। ईडी की कार्रवाई के बाद सरनाईक ने उद्धव ठाकरे को पत्र लिखा था। इसमें सरनाईक ने कहा था, ‘अगर कांग्रेस-राष्ट्रवादी सत्ता में साथ रहकर अपने ही कार्यकर्ताओं को तोड़ रहे हैं और अपनी पार्टी को कमजोर कर रहे हैं, तो यह मेरी निजी राय है कि हमें एक बार फिर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ जुड़ जाना चाहिए।’
यामिनी जाधव
शिवसेना विधायक यामिनी जाधव के पति यशवंत जाधव मुंबई नगर निगम की स्थायी समिति के अध्यक्ष थे। वित्तीय घोटाला मामले में यशवंत जाधव भी ईडी के रडार पर हैं। कुछ महीने पहले आयकर विभाग ने जाधव पर छापा मारा था। इसमें 40 संपत्तियां जब्त की गईं। इसके बाद ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग मामले में जांच के लिए जाधव को नोटिस जारी किया। हालांकि, इंडिया टुडे की एक ख़बर के मुताबिक शिकायत के बाद अभी तक यशवंत जाधव के खिलाफ एफ़आईआर दर्ज नहीं की गई है।
भावना गवली
शिव सेना सांसद भावना गवली ने शिंदे समूह का साथ दिया था। उन्होंने उद्धव ठाकरे को लिखे पत्र में कहा था, ‘पार्टी के कार्यकर्ता आपसे हिंदुत्व के मुद्दे पर फैसला लेने का अनुरोध कर रहे हैं।’ भावना गवली भी ईडी के रडार पर थीं, उन्हें ईडी ने पूछताछ के लिए बुलाया था। गवली के महिला उत्कर्ष प्रतिष्ठान ट्रस्ट में गड़बड़ी के मामले में ईडी ने नवंबर 2022 में चार्जशीट दाखिल की थी। इस कथित गबन के मामले में भावना गवली के कऱीबी रिश्तेदार सईद खान ईडी की हिरासत में थे। हालांकि बाद में उन्हें जमानत मिल गई थी। ईडी ने उनकी 3.5 करोड़ रुपये की संपत्ति को अस्थायी रूप से जब्त कर लिया था।
ईडी के दावे के मुताबिक ट्रस्ट से पैसा निकालने के लिए महिला उत्कर्ष प्रतिष्ठान ट्रस्ट को एक कंपनी में बदलने की साजिश रची गई थी। (बीबीसी)
-श्रवण गर्ग
दुनिया के सबसे बड़े सम्मान नोबेल शांति पुरस्कार से पुरस्कृत और अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा को बारह हज़ार किलोमीटर की दूरी पर बैठकर भारत के हिंदू-मुस्लिम मामले में पड़ने से बचना चाहिए। अमेरिका के किसी अन्य तत्कालीन अथवा पूर्व राष्ट्रपति ने इस संवेदनशील मुद्दे पर वैसा हस्तक्षेप नहीं किया जैसा ‘फ्रेंड ओबामा’ 2014 के बाद से कर रहे हैं। वे भारत की यात्रा पर आते हैं तब भी नहीं चूकते और अपने देश में बैठे-बैठे भी उन्हें चैन नहीं मिलता।
भारत का हिंदू-मुस्लिम मामला उतना गंभीर नहीं है जितना ओबामा बनाना चाहते हैं या अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प और उनकी रिपब्लिकन पार्टी ने वहाँ के गोर-सवर्णों और तमाम अश्वेतों ,जिनमें कि मुस्लिम भी शामिल हैं, के बीच बना रखा है। ट्रम्प समर्थक सवर्ण तो अब अपनी ही संसद पर हमले भी कर रहे हैं और ओबामा उन्हें रोक नहीं पा रहे हैं ! ओबामा जानते होंगे कि जितनी आबादी ( 24 करोड़) उनके देश में गोरे सवर्णों की है लगभग उतने भारत में मुसलमान हैं।
भारत की हिन्दू-मुस्लिम समस्या अमेरिका की तरह का कोई स्थायी विभाजन नहीं है। एक कट्टर हिंदूवादी पार्टी के पिछले नौ सालों से सत्ता में होने के बावजूद ऐसा संभव नहीं हो पाया है। मौजूदा सरकार की दिल्ली से बिदाई के साथ सारा हिंदू-मुस्लिम तूफ़ान शांत भी हो जाएगा। यह काम देश की जनता बिना ओबामा की मदद के संपन्न कर लेगी। उसे पता है कि 2014 के पहले यह समस्या इतनी चिंताजनक कभी नहीं रही। गुजरात के 2002 के दुर्भाग्यपूर्ण एपिसोड को छोड़ दें तो अटलजी जी के नेतृत्व वाली एनडीए की (1999 से 2004 ) हुकूमत के दौरान भारत के अल्पसंख्यक अपने आप को कांग्रेस के ज़माने से ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते थे।
ओबामा को समझाया जाना चाहिए कि मोदी-शाह-योगी भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा नहीं हैं। भारत की मूल आत्मा सर्वधर्म समभाव की है और यही राष्ट्र का स्थायी चरित्र है। ऐसा नहीं होता तो सवा दो सौ सालों (1526-1761) में मुग़ल शासक भारत को एक इस्लामी राष्ट्र, अंग्रेज लगभग सौ सालों (1858-1947) में ईसाई राष्ट्र और संघ पिछले सौ सालों (1925-2023) में हिंदू राष्ट्र बनाने में कामयाब हो जाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए हिंदू राष्ट्र की स्थापना की कल्पना हिंदू बहुसंख्यकवाद की ताक़त के बल पर अपने आप को सत्ता में बनाये रखने का एक साधन मात्र है।संघ का साध्य भिन्न है।
ओबामा अगर हिंदू राष्ट्रवाद के कारण भारत के टूटने के भय से परेशान हैं तो उन्हें सबसे पहले 2024 के अमेरिकी चुनावों में ट्रम्प की सत्ता में वापसी को रोककर दिखाना चाहिए। ओबामा जानते हैं कि 2017 में राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के तत्काल बाद किस तरह ट्रम्प ने कुछ मुस्लिम मुल्कों के नागरिकों के अमेरिका प्रवेश पर रोक लगाई थी। ट्रम्प फिर से सत्ता में आ गए तो मुस्लिमों ही नहीं सभी ग़ैर-सवर्णों का अमेरिका में जीना दूभर कर देंगे।
एक ऐसे समय जब मोदी अपनी पहली राजकीय यात्रा पर उनके देश में थे और उनकी ही पार्टी के नेता-राष्ट्रपति और किसी समय उनके ही उपराष्ट्रपति रह चुके बाइडन के साथ चर्चा में भारत की लोकतंत्र और धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर रहे थे, ओबामा की टेलीविज़न-साक्षात्कार टिप्पणी भारतीय प्रधानमंत्री के साथ एक अन्यायपूर्ण कृत्य था।
ओबामा ने बजाय ऐसा करने कि वे बाइडन के साथ हुई संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में लोकतंत्र और धार्मिक स्वतंत्रता के सवाल पर मोदी द्वारा दिए गए जवाब की तारीफ़ करते, उन्होंने जो कुछ कहा उसे अमेरिका में रहने वाले पचास लाख भारतीय मूल के नागरिकों ने सम्मान के साथ स्वीकार नहीं किया होगा।
अमेरिकी चैनल सीएनएन के साथ इंटरव्यू में ओबामा ने कहा :’अगर मैं प्रधानमंत्री मोदी से बातचीत करता, जिन्हें मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, तो उनसे कहता कि अगर वे भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं करेंगे तो ऐसी आशंका है कि किसी बिंदु पर आकर भारत टूट सकता है। बाइडन और मोदी की मुलाक़ात में भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर बात होना चाहिए। हमने देखा है कि जब आंतरिक संघर्ष बढ़ेगा तो वह न भारत के मुसलमानों के हित में होगा और न भारत के हिंदुओं के हित में।’
भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे पर ओबामा ने पहली बार कुछ कहा हो ऐसा नहीं है। पद पर रहते हुए जब वे 2015 में जब वे भारत यात्रा पर आये थे तब भी स्वदेश रवाना होने से ठीक पहले और राष्ट्रपति का पद छोड़ने के बाद 2017 में जब एक मीडिया प्रतिष्ठान के कॉनक्लेव में भाग लेने आये थे तब भी भारत में धार्मिक आज़ादी को लेकर उन्होंने चौकनेवाली टिप्पणियाँ कीं थीं।
ओबामा के कार्यकाल (2009-2017) के दौरान मोदी ने अमेरिका की तीन बार यात्राएँ कीं थीं। पहली सितंबर 2014 में और दो साल 2016 में। अमेरिकी प्रशासन ने उन्हें एक बार भी राजकीय अतिथि बनने का सम्मान नहीं प्रदान किया।इसके उलट ,2009 में सत्ता में आते ही उन्होंने डॉ मनमोहन सिंह को अपना पहला राजकीय अतिथि बनाया था। मैं डॉ सिंह के साथ तब अमेरिका यात्रा पर गए मीडिया दल का एक सदस्य था। व्हाइट हाउस में उपस्थिति के दौरान हमने देखा था कि किस उत्साह और आत्मीयता के साथ ओबामा दंपति ने डॉ सिंह के स्वागत में वार्ताओं और विशाल भोज का आयोजन किया था। अमेरिका और भारत की तमाम बड़ी हस्तियाँ व्हाइट हाउस में उपस्थित थीं।ओबामा ने तब भी और 2010 में की गई अपनी आधिकारिक भारत यात्रा के दौरान भी भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर कभी कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की।
मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान संयुक्त पत्रकार वार्ता में वॉल स्ट्रीट जर्नल की पत्रकार सबरीना सिद्दीक़ी ने तयशुदा तरीक़े से उनसे अप्रिय सवाल किया, ओबामा ने अपने टीवी साक्षात्कार में सर्वथा ग़ैर-ज़रूरी टिप्पणी की और इस सबकी प्रतिक्रिया में पहले असम के मुख्यमंत्री ने अत्यंत विवादास्पद ट्वीट किया और फिर केंद्रीय वित्त मंत्री ने अपनी संपूर्ण कटुता के साथ पूर्व राष्ट्रपति के कार्यकाल में मुस्लिम देशों पर गिराए गए बमों की गिनती सुना दी। सवाल किया जा सकता है कि इस सबसे भारत में रहने वाले करोड़ों अल्पसंख्यकों की मनःस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा होगा !
ओबामा को प्रतिष्ठित ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ उनके द्वारा ‘अंतर्राष्ट्रीय जगत में कूटनीति को सुदृढ़ करने और समुदायों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने’ के सम्मानस्वरूप प्रदान किया गया था।कहना कठिन है कि ओबामा उसी दिशा में कार्य कर रहे हैं। नोबेल शांति पुरस्कार महात्मा गांधी को प्राप्त नहीं हो पाया था जबकि हिंदू-मुस्लिम सद्भाव क़ायम करने के लिए उन्हें अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ा था। ओबामा को सिर्फ़ मुस्लिम-हितों के रक्षक की छवि से समझौता कर लेने के बजाय उस गांधी के नायकत्व की भूमिका निभाना चाहिए जिनके नाम का उल्लेख उन्होंने नोबेल पुरस्कार प्राप्त करते समय अत्यंत ही गर्व के साथ किया था।
प्रकाश दुबे
एकलव्य की निशानेबाजी से घबराकर आचार्य द्रोण ने अंगूठा मांग लिया था। गुरु पूर्णिमा से एक दिन पहले चेले-चपाटों ने शरद पवार का उद्धवीकरण कर दिया। अंतर इतना सा है कि उद्धव को राजनीतिक पार्टी विरासत में मिली। मातोश्री की बदौलत सत्ता और संपत्ति का वरदान पाने सैनिक उन्हें नया बता गए। युवा शरद ने अपनी हिकमत, होशियारी और पारे की तरह मु_ी से फिसलने और पानी की तरह दूध में घुल-मिल जाने की अदा से पार्टी तैयार की। चचा को छोडक़र फिर एक बार उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले अजीत पवार बरसों से मुख्यमंत्री बनने की हसरत पाले हैं। दस साल पहले उनसे पूछा- आपके शिवसेना में जाने की चर्चा है? सबेरे नौ बजे नहा-धोकर ताजा दम अजीत ने दादागीरी वाले लहजे में कहा - कल जाने तैयार हूं। वे मुख्यमंत्री बनाने का वादा तो करें। तब बाला साहेब ठाकरे जीवित थे।
फायदा : भाजपा के साथ पिछली मर्तबा गए तो सिंचाई घोटाले के कुछ मामले मंत्रिमंडल की पहली बैठक में अदालत से वापस लिए गए। बाकी के अब वापस लेने की वेला आ गई है।
2. सत्ता के सहयोग से एनसीपी के एकनाथ बनने की उम्मीद।
छगन भुजबल: बाल ठाकरे की दहशत के पंजे से छीनकर शरद पवार ने अपने साथ लिया। उपमुख्यमंत्री सहित कई जिम्मेदारियां दीं। बिहार समेत देश में पिछड़ों का चेहरा बनाकर पेश करना चाहा। अजीत दादा और पिछड़े समुदाय से संबंध के बावजूद महाराष्ट्र संगठन की कमान पहुंच से दूर रही।
फायदा: भ्रष्टाचार की जांच और कार्यवाही की तलवार से मुक्त होने की आस।
हसन मुश्रीफ: नवाब मलिक और अनिल देशमुख के बचाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की असफलता की घबराहट के कारण यही एकमात्र रास्ता बचा था।
फायदा: मुस्लिम होने के कारण कुछ कटृर धार्मिक संगठनों के हमले से राहत मिलेगी।
दिलीप वलसे पाटील: युवा कांग्रेस नेता के रूप में शरदराव के निजी सचिव से लेकर मंत्री, महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष तक कुशल प्रशासक और ईमानदारी की छाप छोड़ी। अजीत, जयंत, दिलीप तिकड़ी में साहेब का सबसे मजबूत मोहरा। कल जहां बस दुर्घटना में 25 प्राण गए, उसके पास ही सासुरवाड़ी।
फायदा: लालबत्ती? दिल के दु:ख के बाद आराम की जिंदगी? वे जानें?
प्रफुल्ल भाई: आपकी क्या राय है? सब कुछ सारू छे? बडो प्रधान का अपनापन या जांच एजेंसियों से हैरानी?
और अंत में -
कस्में, वादे, प्यार, वफा पर भारी चुनाव संग्राम।
सही कहे नरिंदर भाई, अभी अमित हैं काम।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
ध्रुव गुप्त
मुंबई के माहिम थाने के कडक़ थानेदार से फिल्मों में स्टारडम तक का अभिनेता राज कुमार का सफर एक सपने जैसा रहा था। एक बार उनके पुलिस स्टेशन में किसी काम के लिए पहुंच फिल्म निर्माता बलदेव दुबे ने उनकी बातचीत के अंदाज से प्रभावित होकर अपनी फिल्म ‘शाही बाजार’ में अभिनेता के रूप में काम करने की पेशकश की। उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर फिल्म स्वीकार कर ली। उनकी आरंभिक कई फिल्मों की असफलता ने उन्हें यह सोचने पर विवश किया था कि उनका चेहरा फिल्मों के लायक नहीं है।
1957 में महबूब खान की नरगिस पर केंद्रित फिल्म ‘मदर इंडिया’ की अपनी बहुत छोटी-सी भूमिका में वे पहली बार अपनी क्षमताओं का अहसास करा सके। उसके बाद जो कुछ हुआ वह इतिहास है। अपने व्यक्तिगत जीवन में बेहद आत्मकेंद्रित और रहस्यमय राज कुमार के अभिनय, मैनरिज्म, संवाद अदायगी की एक विलक्षण शैली थी जो उनके किसी पूर्ववर्ती या समकालीन अभिनेता से मेल नहीं खाती थी। अपनी ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने जिस अक्खड़, बेफिक्र और अहंकार की सीमाएं छूते आत्मविश्वासी व्यक्ति का चरित्र जिया, वह सिर्फ उन्हीं के बूते की बात थी। राज कुमार का अपना एक अलग दर्शक वर्ग रहा है जिसके लिए उनकी एक-एक अदा अपने समय का मिथक बनी। कहते हैं कि उनके समकालीन कई अभिनेता तुलना के डर से उनके साथ फिल्म करने से बचते थे। अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के साथ उनकी दो फिल्मों-पैग़ाम और सौदागर में दोनों की अभिनय क्षमताओं की लंबे वक्त तक तुलनाएं होती रही थीं।
यह सच है कि उनकी रूढ़ अभिनय शैली में विविधता का अभाव था, लेकिन उनका दुर्भाग्य यह रहा कि जब भी उन्होंने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की कोशिश की, दर्शकों ने उसे पसंद नहीं किया। गोदान जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। उनके बाद अभिनेता नाना पाटेकर ने उनकी इस अक्खड़ अभिनय शैली को पुनर्जीवित करने में बहुत हद तक सफलता पाई। आज इस विलक्षण अभिनेता की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि, मेरे एक शेर के साथ !
वो आग था किसी बारिश का बुझा लगता था
अजीब शख्स था खुद से भी जुदा लगता था !
नामदेव काटकर
नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) प्रमुख शरद पवार के भतीजे अजित पवार रविवार (02 जुलाई 2023) को अपने कई साथियों के साथ महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे सरकार में शामिल हो गए।
अजित पवार ने प्रदेश सरकार में उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली है।
प्रदेश में फिलहाल बीजेपी और शिव सेना (एकनाथ शिंदे गुट) के गठबंधन की सरकार है जिसमें देवेंद्र फडणवीस पहले ही उपमुख्यमंत्री पद पर हैं।
शपथ लेने के बाद अजित पवार ने कहा कि उन्होंने ‘एनसीपी पार्टी के तौर पर सरकार में शामिल होने का फ़ैसला लिया है और अगले चुनाव में वो पार्टी के चिन्ह और नाम के साथ ही मैदान में उतरेंगे।’
इधर उनके चाचा शरद पवार ने कहा है, ‘एनसीपी किसकी है इसका फ़ैसला लोग करेंगे।’
एनसीपी के मुख्य प्रवक्ता महेश भारत तपासे ने स्पष्ट किया है, ‘ये बगावत है जिसे एनसीपी का कोई समर्थन नहीं है।’
बदलता घटनाक्रम
बीते कुछ महीनों से महाराष्ट्र के अखबारों में ‘अजित पवार नॉट रिचेबल’ और ‘अजित पवार बगावत करेंगे’ जैसी सुर्खियां देखने को मिल रही थीं।
कुछ सप्ताह पहले शरद पवार के पार्टी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा देने की बात मीडिया में छाई हुई थी। उस वक्त अटकलें लगाई जा रही थीं कि पार्टी की कमान अजित पवार को मिलेगी। लेकिन शरद पवार ने इस्तीफा वापस ले लिया जिसके बाद इस तरह के कयास लगना बंद हुए।
अजित पवार को जल्दबाजी से काम करने वाले और खुलेआम नाराजगी जताकर पार्टी को एक्शन लेने पर मजबूर करने वाले नेता के तौर पर देखा जाता है।
उन्हें बेहद महत्वाकांक्षी नेता भी माना जाता है। वो पांच बार प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बने लेकिन मुख्यमंत्री बनते-बनते चूक गए।
लेकिन इसके बाद भी प्रदेश में कई लोगों की पसंद अजित पवार नहीं है। लेकिन क्या इन बातों का मूल अजित पवार के राजनीतिक सफर में खोजा जा सकता है।
अजित पवार बने महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री, बोले- पीएम मोदी को समर्थन, शरद पवार ने कहा- एनसीपी किसकी तय करेंगे लोग
अनंतराव पवार से अजित पवार तक
सतारा से बारामती आकर बसे पवार परिवार के पास किसान मजदूर पार्टी की विरासत थी।
शरद पवार की मां शारदाबाई पवार शेकाप से तीन बार लोकल बोर्ड की सदस्य रहीं थीं। उनके पिता गोविंदराव पवार स्थानीय किसान संघ का नेतृत्व करते थे।
हालांकि शरद पवार ने 1958 में कांग्रेस का हाथ थाम लिया। 27 साल की उम्र में 1967 में वो बारामती से विधानसभा चुनाव में उतरे। उस वक्त उनके बड़े भाई अनंतराव पवार ने उनकी जीत के लिए कड़ी मेहनत की। शरद पवार पहली बार चुनाव जीतकर महाराष्ट्र विधानसभा पहुंचे।
इसके बाद वो राज्य मंत्री बने, फिर कैबिनेट मंत्री और फिर 1978 में मुख्यमंत्री बने। 1969 में जब कांग्रेस दोफाड़ हुई तो शरद पवार और उनके राजनीतिक गुरु यशवंतराव चव्हाण इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले कांग्रेस गुट में शामिल हुए।
1977 में जब कांग्रेस में एक बार फिर बंटने की कगार पर पहुंची तो शरद पवार और चव्हाण ने कांग्रेस यूनाईटेड का दामन थामा जबकि इंदिरा गांधी कांग्रेस (इंदिरा) का नेतृत्व कर रही थीं। साल भर बाद वो कांग्रेस यूनाईटेड का साथ छोड़ जनता पार्टी के साथ गठबंधन में आए और महज 38 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बने।
शरद पवार की पीढ़ी से किसी और ने राजनीति में कदम नहीं रखा। अगर पवार के बाद इस परिवार से कोई राजनीति में आया, तो वो हैं अनंतराव के बेटे अजित पवार।
हालांकि विश्लेषक मानते हैं कि उनकी एंट्री के दशकों बाद शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले की एंट्री के बाद पार्टी में हालात बदलने लगे।
1982 में राजनीति में रखा कदम
1959 में देओलाली में जन्मे अजित पवार ने 1982 में राजनीति में कदम रखा। वो कोऑपरेटिव चीनी मिल के बोर्ड में चुने गए जिसके बाद वो पुणे जिला कोऑपरेटिव बैंक के चेयरमैन रहे।
1991 में बारामती लोकसभा सीट से वो चुनाव जीते लेकिन फिर उन्होंने इसे शरद पवार के लिए खाली कर दिया। इसके बाद उन्होंने बारामती से विधानसभा चुनाव जीता। 1991 से लेकर 2019 तक वो लगतार सात बार इस सीट से जीतते रहे हैं। (1967 से 1990 तक शरद पवार यहां से विधायक रहे)
संसदीय चुनाव जीत कर अजित पवार ने नए फलक पर दस्तक दी लेकिन वो इससे सालों पहले यहां की स्थानीय राजनीति का अहम चेहरा बन चुके थे।
1978 में कांग्रेस छोडऩे वाले शरद पवार 1987 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस में लौट आए।
1990 का दशक आते-आते देश की राजनीति में उथल-पुथल शुरू हो गई। वीपी सिंह और चन्द्रशेखर की सरकार एक के बाद एक गिर चुकी थी और राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। केंद्र में सत्ता का नेतृत्व पीवी नरसिम्हा राव के कंधों पर था। 1991 में उन्होंने शरद पवार को रक्षा मंत्री का पद देकर केंद्र में आमंत्रित किया। उस वक्त केंद्र में जाने के लिए शरद पवार का सांसद होना जरूरी था। शरद पवार के लिए सुरक्षित माने जाने वाले बारामती विधानसभा क्षेत्र से तीन-चार महीने पहले ही अजित पवार वहां से चुने गए थे। लेकिन अजित पवार ने अपने चाचा के लिए इस्तीफा दे दिया।
इसी साल अजित पवार ने बारामती सीट से महाराष्ट्र विधानसभा की सीढिय़ां चढ़ीं। वो 1991 से लेकर आज तक 32 साल से अधिक समय तक बारामती से विधायक हैं।
वरिष्ठ पत्रकार उद्धव भड़सालकर ने बारामती में अजित पवार के शुरुआती दौर को करीब से देखा है।
वो कहते हैं, ‘उस समय कांग्रेस के पुराने नेता-कार्यकर्ता यहां थे। अजित पवार ने पार्टी को युवा बनाने की शुरुआत की। उन्होंने पिंपरी-चिंचवड़ और बारामती इलाकों में युवा नेताओं का रैंक बनाना शुरू किया। वो वह छोटे से छोटे कार्यक्रम में भी शामिल होते थे।’
कब-कब बने उपमुख्यमंत्री
02 जुलाई 2023 में शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) और बीजेपी के साथ हाथ मिलाया।
दिसंबर 2019 से जून 2022 में शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के नेतृत्व वाली महाविकासअघाड़ी सरकार में शामिल रहे।
नवंबर 2019 में तीन दिन के लिए बीजेपी के देवेंन्द्र फडणवीस सरकार में शामिल रहे।
नवंबर 2012 से सितंबर 2012 तक और फिर अक्तूबर 2012 से सितंबर 2014 तक कांग्रेस के पृथ्वीराज चव्हाण सरकार में रहे।
शरद पवार का स्टाइल सीखा
शरद पवार के लिए सांसदी छोडऩे के बाद अजित पवार प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हुए।
1991 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सुधाकरराव नाइक की सरकार में वो कृषि राज्यमंत्री रहे।
इसके बाद के दौर में एक तरफ उत्तर प्रदेश में बाबरी विध्वंस हुआ तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र में सांप्रदायिक दंगे और एक के बाद एक बम धमाकों ने मुंबई-महाराष्ट्र को हिलाकर रख दिया।
तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अनुभवी शरद पवार को राज्य का मुख्यमंत्री बनाकर भेजा। उन्होंने शपथ लेते ही नई कैबिनेट की घोषणा की और इसमें अजित पवार को ऊर्जा राज्य मंत्री का प्रभार दिया।
1995 में महाराष्ट्र में कांग्रेस हार गई और शिवसेना-भाजपा गठबंधन सत्ता में आई। इसके बाद शरद पवार सांसद बने और वापस दिल्ली चले गये। लेकिन अजित पवार ने राज्य की राजनीति को चुना।
इंडिया टुडे में ‘क्यों नाराज अजित पवार ने पाला बदला’ लेख में वरिष्ठ पत्रकार किरण तारे कहते हैं कि ‘शरद पवार के दिल्ली चले जाने के बाद अजित पवार ने न सिर्फ बारामती पर कब्ज़ा किया, बल्कि यहां कांग्रेस का प्रभाव भी बढ़ाया। उन्होंने अपनी स्वतंत्र पहचान बनाते हुए परोक्ष रूप से यह भी दिखा दिया कि वे ही शरद पवार के उत्तराधिकारी होंगे।’
1999 में वरिष्ठ कांग्रेस नेता विलासराव देशमुख के प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद अजित पवार को सिंचाई विभाग की जि़म्मेदारी दी गई। इसे बाद में जल संसाधन मंत्रालय में मिला दिया गया। ये मंत्रालय 2010 तक उनके पास रहा।
2004 में कांग्रेस और एनसीपी ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा। कांग्रेस को 69 और एनसीपी को 71 सीटें मिलीं। ऐसे में जब एनसीपी को मुख्यमंत्री पद मिलने की उम्मीद थी तो कांग्रेस के विलासराव देशमुख मुख्यमंत्री बने।
अगर एनसीपी को उस समय मुख्यमंत्री पद मिला होता तो अजित पवार सीएम बन सकते थे। लेकिन कहा जाता है कि शरद पवार के कुछ राजनीतिक समझौतों और रणनीति के कारण, एनसीपी को मुख्यमंत्री का पद नहीं मिला। अजित पवार ने इन कथित ‘हथकंडों’ पर परोक्ष रूप से अपनी नाराजगी जाहिर की है।
लोकमत के विदर्भ संस्करण के कार्यकारी संपादक श्रीमंत माने कहते हैं, ‘अजित पवार 2004 में मुख्यमंत्री बन सकते थे। कांग्रेस और राष्ट्रवादी पार्टी के बीच के फॉर्मूले के मुताबिक़ मुख्यमंत्री का पद एनसीपी को जाना तय था। लेकिन उस समय के समीकरणों के कारण ऐसा नहीं हुआ।’
वरिष्ठ पत्रकार अभय देशपांडे कहते हैं, ‘एनसीपी के मुख्यमंत्री पद न लेने का एक कारण यह था कि पार्टी में दावेदार अधिक थे। अगर वह पद लेते तो पार्टी को नुकसान होता। जब एक पद के लिए चार दावेदार हों तो पार्टी में मतभेद सामने नहीं आने चाहिए।’
2004 में एनसीपी के पास कई युवा नेता थे जो लगभग एक ही उम्र के थे, इनमें आरआर पाटिल, सुनील तटकरे, जयंत पाटिल, दिलीप वलसेपाटिल, अजित पवार और राजेश टोपे शामिल हैं।
लोकमत अख़बार को दिए एक इंटरव्यू में अजित पवार ने इस पर टिप्पणी की थी।
उन्होंने कहा था ‘अभी ये बात कहने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन 2004 में एनसीपी को मुख्यमंत्री पद नहीं छोडऩा चाहिए था। कई लोग मुख्यमंत्री बन सकते थे। आरआर पाटिल, भुजबल साहेब या कोई और सीएम बन सकता था।’
सुप्रिया सुले की एंट्री
2006 में पवार परिवार की एक और शख्सियत सुप्रिया सुले ने राजनीति में कदम रखा। राज्यसभा के लिए चुने जाने के बाद सुप्रिया सुले ने राजनीति में प्रवेश किया।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अभय देशपांडे कहते हैं, ‘2004 में अजित पवार और सुप्रिया सुले के बीच ज्यादा कंपीटिशन नहीं था। हालांकि, बाद में सुप्रिया सुले ने युवा राष्ट्रवादी के तौर पर काम शुरू किया और उनका नेतृत्व और अधिक दिखाई देने लगा। वहीं, अजित पवार का पार्टी में वर्चस्व भी बढ़ा। इसलिए अब दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है।’
सुप्रिया सुले को 2009 में बारामती से लोकसभा टिकट मिला, इसी क्षेत्र से अजित पवार ने काम करना शुरू किया था। लेकिन इसके बाद मीडिया में इस तरह के सवालों का विश्लेषण शुरू हो गया कि क्या अजित पवार और सुप्रिया सुले के बीच प्रतिस्पर्धा है।
खुद अजित पवार और सुप्रिया सुले समय-समय पर ऐसी किसी प्रतिद्वंद्विता से इनकार करते रहे हैं। लेकिन शरद पवार का राजनीतिक उत्तराधिकारी कौन, इस सवाल के जवाब की तलाश राजनीतिक विश्लेषक इन दोनों में से किसी एक के नाम पर रुक जाते हैं।
इसलिए सुप्रिया सुले की राजनीति में एंट्री जितना एनसीपी के लिए नहीं, उससे कहीं अधिक अजित पवार के राजनीतिक सफर में एक अहम घटना मानी जाती है।
दो घोटाले जिनमें अजित पवार
का नाम आया
सिंचाई घोटाला-1999 और 2009 के बीच बांधों और सिंचाई परियोजनाओं के निर्माण में कथित भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया। इस दौरान अजित पवार जल संसाधन मंत्री थे, जाहिर है कि विपक्षी दलों ने इसके लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया।
कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सिंचाई परियोजनाओं के ठेकों के आवंटन और उन्हें पूरा करने में अनियमितताएं देखी गई हैं।
2012 में गठबंधन सरकार ने एक श्वेत पत्र जारी किया और अजित पवार को क्लीन चीट दे दी। लेकिन बीजेपी के सत्ता में आने के बाद भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने इसकी जांच का आदेश दिया।
राज्य सहकारी बैंक घोटाला
राज्य सहकारी बैंक ने 2005 से 2010 के बीच बड़ी मात्रा में सहकारी चीनी मिलों, सहकारी धागा मिलों, कारखानों और अन्य कंपनियों को लोन दिए थे। ये सभी लोन डिफॉल्ट हो गए थे।
2011 में रिजर्व बैंक ने राज्य सहकारी बैंक के निदेशक मंडल को बर्खास्त कर दिया था। साथ ही सितंबर 2019 में पूर्व उपमुख्यमंत्री अजित पवार समेत 70 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया।
इस मामले की जांच के दौरान पता चला कि बिना कोलैटरल या को-ऑपरेटिव गारंटी लिए 14 फैक्ट्रियों को लोन देने, दस्तावेजों की जांच न करने, रिश्तेदारों को लोन देने से बैंक को हजारों करोड़ का नुक़सान हुआ। (bbc.com/hindi/)
-मनीष सिंह
धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश की अदालतों पर धर्म आधारित रुख अपनाने के आरोप लग रहे हैं। फिल्म ‘आदिपुरुष’ पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि ‘कुरान’ पर फिल्म बना कर देखिये क्या होता है।
फिल्म ‘आदिपुरुष’ पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि ‘कुरान’ पर फिल्म बना कर देखिये क्या होता है।
मामला फिल्म ‘आदिपुरुष’ पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली दो याचिकाओं का है, जिन पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है। 28 जून को सुनवाई के दौरान अदालत ने सेंसर बोर्ड से फिल्म को प्रमाण पत्र देने पर अचरज जताया और कहा कि यह एक ‘भारी गलती’ थी।
अदालत के मुताबिक इस फिल्म ने व्यापक रूप से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाया है। अदालत ने सेंसर बोर्ड के साथ ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इन याचिकाओं पर जवाब देते हुए निजी हलफनामे दायर करने के लिए कहा।
धार्मिक समुदायों की तुलना
अदालत की कार्रवाई सिर्फ नोटिस भेजने तक ही सीमित नहीं है। वेबसाइट लाइव लॉ डॉट इन के मुताबिक न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान और श्रीप्रकाश सिंह की पीठ ने कहा, ‘मान लीजिये कुरान पर एक छोटी सी डॉक्यूमेंटरी बनी होती, गलत चीजें दिखाते हुए, तो आप देखते कि फिर क्या होता है।’
समाचार चैनल एनडीटीवी के मुताबिक पीठ ने इस मामले में आगे कहा, ‘फिल्म बनाने वालों की भारी गलती के बावजूद, हिंदुओं की सहिष्णुता की वजह से हालात खराब नहीं हुए।’ हालांकि पीठ ने आगे यह भी कहा कि अदालत का कोई धार्मिक झुकाव नहीं है और अगर उसके सामने कुरान या बाइबल पर ऐसा कोई मसला आया होता तो भी अदालत का रुख यही होता।
बार एंड बेंच डॉट कॉम के मुताबिक पीठ ने सेंसर बोर्ड के सदस्यों पर भी टिप्पणी की और कहा, ‘आप कह रहे हैं कि संस्कार वाले लोगों ने इस मूवी को सर्टिफाई किया है जहां रामायण के बारे में ऐसा दिखाया गया है तो वो लोग ‘धन्य’ हैं।’
इलाहाबाद हाईकोर्ट की इस टिप्पणी की कई जानकारों ने आलोचना की है। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति आर एस सोढ़ी का कहना है कि हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच इस तरह तुलना करना ठीक नहीं है और हाई कोर्ट का यह बयान सोच की अपरिपक्वता को दिखाता है।
डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने यह भी कहा, ‘दुनिया के बड़े धर्म इस अपरिपक्वता से ऊपर उठ चुके हैं कि वो इस बात की परवाह करें कि कोई उनके भगवानों के बारे में क्या कह रहा है।’
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने एक ट्वीट में अदालत की भाषा को लेकर आलोचना की है।
कुछ विश्लेषकों ने अदालत की टिप्पणी को धार्मिक मामलों में पक्षपात से भी जोड़ा है। बर्लिन की ‘फ्री यूनिवर्सिटी’ के फेलो अनुज भुवानिया ने एक ट्वीट में कहा, ‘ऐसा लग रहा है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की इस पीठ ने फैसला कर लिया है कि वो हिंदू राष्ट्र की संवैधानिक अदालत की तरह पेश आएगी।’
पहले भी हो चुका है ऐसा
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इससे पहले भी कई मामलों में ऐसे बयान दिये हैं जो भारत की धर्मनिरपेक्षता के ताने बाने में फिट नहीं बैठते। सितंबर 2021 में अदालत ने गोकशी के आरोप का सामना कर रहे एक व्यक्ति से जुड़े मामले पर सुनवाई के दौरान कहा था कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए और ‘गाय की सुरक्षा को हिंदू समाज का मूलभूत अधिकार बना देना चाहिए क्योंकि हम जानते हैं कि जब एक देश की संस्कृति और विश्वास को ठेस पहुंचती है तो देश कमजोर होता है।’
इसी तरह फरवरी 2021 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ही वेब सीरीज ‘तांडव’ के खिलाफ धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोपों से जुड़े मामले पर सुनवाई करते हुए एमेजॉन प्राइम के कार्यक्रमों की भारत में प्रमुख अपर्णा पुरोहित की अग्रिम जमानत की अर्जी खारिज कर दी थी।
ऐसा करते हुए अदालत ने पुरोहित को ‘देश के बहुसंख्यक नागरिकों के मौलिक अधिकारों के खिलाफ एक फिल्म को स्ट्रीम करने की अनुमति देने में सतर्कता नहीं बरतने’ का दोषी ठहराया था।
अदालत ने यह भी कहा था, ‘पश्चिमी देशों में फिल्में बनाने वाले तो ईशा मसीह और पैगंबर मोहम्मद का मजाक नहीं उड़ाते, लेकिन हिंदी फिल्मकार धड़ल्ले से बार बार हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाते हैं।’
अदालत का कहना था कि यह हिंदी फिल्म उद्योग की एक आदत बन चुकी है और इसे समय रहते रोकना होगा।
-पुष्य मित्र
1990 में फिल्म ‘आवारगी’ आयी थी, मगर बहुत चली नहीं। आज भी इस फिल्म की कहीं चर्चा नहीं होती। हालांकि समीक्षकों ने इस फिल्म की कहानी, उसकी प्रस्तुति, निर्देशक महेश भट्ट के निर्देशन और इसके कलाकारों के अभिनय की काफी तारीफ की। खास तौर पर यह भी कहा गया कि यह अनिल कपूर और मीनाक्षी शेषाद्री का अब तक का सबसे बेहतर अभिनय प्रदर्शन है। मुझे यह फिल्म बेहतरीन कहानी और बेहतरीन अभिनय के अलावा गुलाम अली के गाये गीत चमकते चांद को टूटा हुआ तारा बना डाला के लिए भी खास तौर पर हमेशा याद रहती है।
एक दो दिन से इस फिल्म की याद इसलिए भी है, क्योंकि इन दिनों सोशल मीडिया पर यूपी की एक महिला पीसीएस अधिकारी की खूब चर्चा है। बताया जा रहा है कि उसके चपरासी पति ने उसे पीसीएस बनाया, मगर पीसीएस बनने के बाद वह अपने पति से अलग होना चाहती है। वह किसी और के साथ प्रेम करने लगी है।
इस फिल्म में अनिल कपूर एक अपराधी की किरदार में हैं। वह अपराधी एक वेश्यालय से मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार को छुड़ाकर बाहर निकालता है और उसे एक सिंगर बनने में मदद करता है। वह मन ही मन मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार से प्रेम करता है। मीनाक्षी शेषाद्री का किरदार अनिल कपूर के किरदार के एहसान के तले तो दबा रहता है, मगर वह उसे प्रेम नहीं करता।
उसे प्रेम अपने सहगायक गोविंदा के किरदार से होता है। इस बीच अनिल कपूर भी अपना प्रेम जाहिर करता है। इसके बाद शुरू होता है उस जुनूनी कशमकश का दौर। पहले तो मीनाक्षी शेषाद्री को लगता है कि अनिल कपूर के उस पर इतने एहसान हैं कि उसका किसी और से प्रेम करना गलत है। वह गोविंदा से दूर होने की कोशिश करती है। मगर यह हो नहीं पाता।
अनिल कपूर किसी भी सूरत में मीनाक्षी शेषाद्री को पाना चाहता है। कभी उसके साथ हिंसा करता है, तो कभी उसे दुलारता पुचकारता है। मगर मीनाक्षी के मन में अनिल कपूर एक प्रेमी के तौर पर है ही नहीं और कभी नहीं आता है। वह उसके एहसान के तले जरूर दबी है। अपने जीवन में उसके किये का महत्व भी समझती है, मगर वह एहसान प्रेम में नहीं बदलता।
इस कहानी के जरिये निर्देशक महेश भट्ट बताना चाहते हैं कि एहसान, मदद और उपकार अलग बात है और प्रेम अलग। अगर किसी के मन में किसी के प्रति प्रेम नहीं है तो वह नहीं है। प्रेम मन की चीज है। वह मन में स्वाभाविक तौर पर उपजती है। उसे जोर जबरदस्ती पैदा नहीं किया जा सकता।
हम अक्सर प्रेम को समझने में गलती करते हैं। हमारा समाज हमेशा प्रेम को रेगुलेट करने की कोशिश करता है। मगर प्रेम एक वैयक्तिक चीज है।
अनिल कपूर ने इस तरह की दो फिल्में की हैं। एक वो सात दिन, जिसके आधार पर बाद में हम दिल दे चुके सनम बनी। दूसरी यह आवारगी। वो सात दिन जिस एंड पर कहानी को ले जाती है, वह समाज को पसंद आने वाला है। वह प्रेम के आगे शादी के रिश्ते को प्रधानता देता है। उसमें एक भावुक रिजल्ट दिया जाता है, जो सबको पसंद आ जाये। मगर आवारगी फिल्म हकीकत के करीब है और वह सच्चाई को बहुत नजदीक से छूती है। उसके नतीजे समाज को पसंद नहीं आ सकते। इसलिए वो सात दिन और हम दिल दे चुके सनम फिल्म सुपर हिट हो जाती है औऱ आवारगी फ्लॉप होकर कहीं गुम हो जाती है।
मगर प्रेम की हकीकत को आवारगी फिल्म ही बयां करती है। प्रेम आप उसी से कर सकते हैं, जिसके लिए आपके मन में प्रेम उमड़ता है। आप नैतिकता के नाम पर अपने प्रेम को दबा तो सकते हैं, मगर किसी ऐसे व्यक्ति के लिए आप अपने मन में प्रेम पैदा नहीं कर सकते, जिससे आपको प्रेम नहीं है। समाज समझौते करना सिखाता है, मगर प्रेम सिर्फ मन से होता है।
अभी हमारा समाज इतना मैच्योर नहीं हुआ है कि वह प्रेम को समझ सके, उसे स्वीकार कर सके। दो प्रेम करने वालों को एक दूसरे के साथ खुश रहने दे। और यह समझे कि अरे प्रेम तो प्रेम है, यह उसी से होता है, जिससे होता है। यह न शादी करने से होता है, न एहसान करने से, न किसी और बाहरी वजह से।
नोट-यूपी वाली कहानी में सच्चाई क्या है, यह मैं नहीं जानता। क्योंकि यह तीन किरदारों के बीच घटी घटना है। उसकी तफ्तीश मैंने नहीं की है। मगर उस मामले को लेकर सोशल मीडिया पर जिस तरह के बेवकूफाना चुटकुले शेयर हो रहे हैं। मीम बन रहे हैं और फालतू तर्क दिये जा रहे हैं। इसी वजह से मुझे यह लिखना जरूरी लगा। मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि कोई किसी को पीसीएस बनाये या सिंगर बनाये या
ओलिंपिक चैंपियन, मगर इस वजह से किसी को किसी से प्रेम नहीं हो सकता। न किसी को इस वजह से प्रेम का दावा करना चाहिए। प्रेम होने की अपनी ही अलग वजहें हैं।
-कात्या एडलर
फ्रांस में जब इमैनुएल मैक्रों ने कारें कम करने के लिए पेट्रोल के दाम बढ़ाने की कोशिश की तो उन्हें येलो वेस्ट प्रदर्शन का सामना करना पड़ा जिसमें कई दक्षिणपंथी समूह शामिल थे।वहीं जर्मनी में अर्थव्यवस्था को लेकर लोगों की चिंता और नाराजगी ने सरकार में बैठी ग्रीन पार्टी को पर्यावरण सुधार के अपने वायदे को पूरा करने से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
फ्रांस इस समय भीषण हिंसा की चपेट में है। इसी हफ्ते फ्रांसीसी अल्जीरियाई मूल के एक 17 साल के युवक को पुलिस ने पेरिस के पास ननात्रे में गोली मार दी। इसके बाद आम तौर पर शांत रहने वाले इस शहर के बाहरी इलाकों में हिंसा फूट पड़ी और ये पूरे आग तेजी से देश के दूसरे हिस्सों में फैल गई। हालांकि इस तरह के दंगे फ्रांस के लिए नए नहीं हैं। लेकिन 2005 के बाद से देश में इतने बड़े पैमाने पर हिंसा नहीं हुई थी। एक तरफ राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों हालात पर काबू पाने के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई दे रहे हैं, तो दूसरी तरफ उनके लिए संघर्ष मुश्किल दिख रहा है। उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी धुर-दक्षिणपंथी मरीन ले पेन को सुरक्षा पर कड़ा रुख अपनाने और अप्रवासी विरोधी संदेश देने से चुनावों में फायदा हो सकता है।
अगर आप यूरोप पर एक नजर घुमाकर देखें, चाहे वो उत्तर, दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम-आप अलग-अलग किस्म की धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां देख सकते हैं जो नव फासीवादी पृष्ठभूमि के साथ अतीतजीवी, लोकप्रियतावादी, धुर रुढि़वादी राष्ट्रवादी पार्टियां हैं जिनका हाल के सालों में अच्छा खासा उभार हुआ है।
20वीं सदी में नाजियों और फासीवादी इटली के खिलाफ यूरोप के विनाशकारी युद्ध के ज़माने से ही ये धारणा रही है कि धुर-दक्षिणपंथ को कभी वोट नहीं देना चाहिए और मुख्य धारा की पार्टियां भी धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों से गठबंधन करने से इनकार करती थीं लेकिन अब इस पीढ़ी की संख्या धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। साल 2000 में मैं वियना में रह रही थी, जब दक्षिणपंथ की ओर झुकाव वाली मध्यमार्गी पार्टी ने पहली बार धुर-दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी से गठबंधन किया। पूरी दुनिया में ये खबर सुर्खी बनी। यहां तक कि यूरोपीय संघ (ईयू) ने वियना पर राजनयिक प्रतिबंध लगा दिए। अब, यूरोपीय संघ की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था इटली की लीडर हैं जियार्जिया मेलोनी जिनका जुड़ाव नव फासीवादी से है। वहीं तीन महीने की वार्ता के बाद फिनलैंड में धुर-दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टी ‘द फिन्स’ हाल ही में गठबंधन सरकार में शामिल हुई है।
स्वीडन, ग्रीस, स्पेन... लंबी फेहरिश्त
स्वीडन में प्रवासियों और बहु संस्कृतिवाद की घोर विरोधी ‘स्वीडेन डेमोक्रेट’ पार्टी संसद में सबसे बड़ी पार्टी है जो वहां दक्षिणपंथी गठबंधन के साथ सरकार बनाने की कोशिश कर रही है। अभी पिछले रविवार ही ग्रीस की तीन धुर दक्षिणपंथी पार्टियों ने संसद में प्रवेश लायक सीटें हासिल कर लीं। जबकि स्पेन में विवादास्पद राष्ट्रवादी ‘वॉक्स पार्टी’ ने हाल ही में हुए स्थानीय चुनावों में उम्मीद से अच्छा प्रदर्शन किया।
फासीवादी तानाशाह फ्रांसिस्को फ्रैंको की 1975 में मौत के बाद वॉक्स पार्टी पहली सफल धुर-दक्षिणपंथी पार्टी है। अगले महीने स्पेन में आम चुनाव होने वाले हैं और ये पार्टी दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाने की संभावना पर चर्चा कर रही है।
पोलैंड और हंगरी में तो धुर-दक्षिणपंथी और एकाधिकारवादी झुकाव वाली सरकारें हैं ही। ये फेहरिश्त लंबी है। यहां तक कि जर्मनी को भी इस सूची में समझ सकते हैं हालांकि वो अपने फासीवादी अतीत को लेकर अभी भी संवदेनशील है। यहां हुई रायशुमारी बताती है कि धुर-दक्षिणपंथी पार्टी (एएफडी), चांसलर शोल्त्ज की सोशल डेमोक्रेट (एसपीडी) पार्टी से आगे या बराबरी पर है। पिछले सप्ताहांत एएफडी के एक उम्मीदवार ने पहली बार स्थानीय नेतृत्व का चुनाव जीता। एसपीडी ने इसे राजनीतिक रूप से ‘विनाशकारी’ बताया है।
यूरोप में क्या हो रहा है?
ऐसे में सवाल ये है कि क्या लाखों लाख यूरोपीय वोटर वाकई धुर-दक्षिणपंथ की ओर जा रहे हैं? या ये सिर्फ विरोध में पडऩे वाले वोट हैं? या ये शहरी उदारवादी वोटरों और बाकी रुढि़वादी वोटरों के बीच हो रहा ध्रुवीकरण है?
एक सवाल ये भी है कि जब हम पार्टियों को ‘धुर-दक्षिणपंथी’ कहते हैं तो इससे हमारा क्या आशय होता है?
चुनाव के समय प्रवासी मुद्दे पर मुख्यधारा के राजनेता जिस तरह कड़ा रुख़ अपनाते हैं उसकी बानगी हैं दक्षिणपंथी रुझान वाले मध्यमार्गी डच प्रधानमंत्री मार्क रूटे या स्वघोषित मध्यमार्गी इमैनुएल मैक्रों।
यूरोपियन काउंसिल में विदेशी मामलों के डायरेक्टर मार्क लियोनार्ड कहते हैं कि हम एक बड़े विरोधाभासी समय में हैं।
एक तरफ तो मुख्यधारा के कई राजनेताओं ने हाल के सालों में दक्षिणपंथ के कई नारे या मुद्दे हथिया लिए हैं ताकि दक्षिणपंथी समर्थकों को उनसे दूर किया जा सके। लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने धुर-दक्षिणपंथ को और मुख्यधारा में आने में मदद ही की है। जबकि दूसरी तरफ यूरोप में धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों की एक अच्छी खासी संख्या उदारवादी वोटरों को लुभाने के लिए जानबूझ कर मध्यमार्गी राजनीति की ओर जा रही है।
रूस के प्रति रवैये को ही लें। इटली में द लीग, फ्रांस में मरीन ले पेन और ऑस्ट्रेलिया की ‘फ्रीडम पार्टी फार’ जैसी कई धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों का रूस के साथ पारंपरिक रूप से करीबी रिश्ता रहा है। लेकिन व्लादिमीर पुतिन ने जब यूक्रेन पर चौतरफा हमला बोल दिया तो उनके संबंध असहज हो गए, जिससे इन पार्टियों के नेताओं को रूस के लिए अपनी भाषा बदलनी पड़ी।
मार्क लियोनार्ड, यूरोपीय संघ के साथ धुर-दक्षिणपंथ के रिश्ते को ‘उनके मध्यमार्गी’ होने का ही उदाहरण बताते हैं।
यूरोपीय संसद में भी धुर-दक्षिणपंथियों की संभावना
लोगों को शायद याद हो, 2016 में ब्रिटेन में ब्रेक्सिट वोट के बाद ब्रसेल्स ने आशंका जताई थी कि इसके बाद फ्रेक्जिट (फ्रांस के ईयू छोडऩे), डेक्जिट (डेनमार्क के बाहर जाने), इटैलेक्जिट (इटली के ईयू छोडऩे) जैसी मांग हो सकती है। अधिकांश यूरोपीय देशों में लोकप्रियतावादी पार्टियां थीं जिनका उस समय प्रदर्शन अच्छा था लेकिन बाद में इन पार्टियों ने यूरोपीय संघ से निकलने या यूरो मुद्रा से हटने का विरोध करना बंद कर दिया।
बहुत सारे यूरोपीय वोटरों को ये कुछ ज़्यादा ही उग्र सुधारवादी कदम लगा था। उन्होंने ब्रिटेन में हुए ब्रेक्जिट के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नतीजों को देखा, कइयों को लगा कि पहले से ही संकटग्रस्त दुनिया में ईयू से निकलना और खतरनाक साबित होगा। कोविड महामारी, रूस की आक्रामकता, चीन को लेकर चिंता, आसमान छूती महंगाई के अलावा 2008 के आर्थिक संकट के बाद के प्रभावों से जूझ रहे करोड़ों यूरोपीय परिवारों को देखते हुए ये थोड़ा मुश्किल ही लगता है।
ओपिनियन पोल्स दिखाते हैं कि यूरोपीय लोगों के बीच यूरोपीय संघ की लोकप्रियता सबसे अधिक है। अभी तक दक्षिणपंथी पार्टियां ईयू को छोडऩे की बजाय इसमें सुधार को लेकर बोल रही हैं। और अगले साल यूरोपीय संसद के चुनाव में उनके अच्छे प्रदर्शन का अनुमान लगाया जा रहा है।
पेरिस में इंस्टीट्यूट मोंटेगनेज यूरोप प्रोग्राम की डायरेक्टर जॉर्जिना राइट मानती हैं कि धुर-दक्षिणपंथ का यूरोप में पुनर्जागरण का मुख्य कारण मुख्यधारा की राजनीति से लोगों की नाराजग़ी है।
इस समय जर्मनी में पांच में से एक वोटर का कहना है कि वो गठबंधन सरकार से नाखुश है।
जॉर्जिना राइट का कहना है कि यूरोप में अधिकांश वोटर दक्षिणपंथी पार्टियों की बेबाकी से आकर्षित होते हैं और पारंपरिक राजनेताओं से इसलिए निराश हैं कि उनके पास इन तीन सावालों के जवाब नहीं हैं-
1- पहचान से जुड़े मुद्दे : खुली सीमा का डर और राष्ट्रीय पहचान और पारंपरिक मूल्यों में गिरावट।
2- आर्थिक: वैश्विकरण का विरोध और बेहतर भविष्य की गारंटी न होने का सवाल।
3- सामाजिक न्याय: एक ऐसा एहसास कि राष्ट्रीय सरकारों का नागरिकों की जिंदगी बेहतर करने वाले नियमों पर कोई नियंत्रण नहीं बचा है।
देखा जा सकता है कि यूरोप में ग्रीन एनर्जी को लेकर होने वाली बहसों में ये मुद्दे आते रहते हैं।
इस साल नीदरलैंड्स में प्रांतीय चुनावों के बाद उच्च सदन में सबसे अधिक सीटें दक्षिणपंथी लोकप्रियतावादी पार्टी ‘फार्मर सिटिजेन मूवमेंट’ ने हासिल की थीं, तब ये खबर सुर्खी बनी थी।
फ्रांस में जब इमैनुएल मैक्रों ने कारें कम करने के लिए पेट्रोल के दाम बढ़ाने की कोशिश की तो उन्हें येलो वेस्ट प्रदर्शन का सामना करना पड़ा जिसमें कई दक्षिणपंथी समूह शामिल थे।
वहीं जर्मनी में अर्थव्यवस्था को लेकर लोगों की चिंता और नाराजगी ने सरकार में बैठी ग्रीन पार्टी को पर्यावरण सुधार के अपने वायदे को पूरा करने से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
(bbc.com/hindi)
तमिल नाडु के राज्यपाल आरएन रवि का राज्य सरकार के एक मंत्री को बर्खास्त करना एक अभूतपूर्व कदम है. आखिर कई राज्यों में सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव की स्थिति और गंभीर क्यों होती जा रही है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
मंत्री वी सेंथिल बालाजी की मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में हुई गिरफ्तारी के करीब 15 दिन बाद राज्यपाल रवि ने उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। फिर पांच घंटों के अंदर उन्होंने उस बर्खास्तगी को रोक तो दिया लेकिन तब तक एक अभूतपूर्व विवाद जन्म ले चुका था।
राज्यों में किसी मंत्री को बर्खास्त करने का फैसला मुख्यमंत्री का होता है और मुख्यमंत्री बर्खास्तगी की अनुशंसा राजयपाल को भेजते हैं। इस मामले में राज्यपाल ने मुख्यमंत्री और मंत्री परिषद से सलाह लिए बिना मंत्री को बर्खास्त कर दिया।
क्या है मामला
बालाजी को प्रवर्तन निदेशालय ने 14 जून को मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों में गिरफ्तार किया था। आरोप 2014 के थे जब वो एआईएडीएमके पार्टी में और उस समय की सरकार में यातायात मंत्री थे। राज्यपाल चाह रहे थे कि मुख्यमंत्री स्टालिन बालाजी की गिरफ्तारी के बाद उन्हें मंत्री पद से हटा दें लेकिन स्टालिन ने अभी तक यह फैसला नहीं लिया था।
इसी बीच राज्यपाल ने गुरूवार 29 जून को स्टालिन पर बालाजी के प्रति पक्षपात का आरोपलगाते हुए बालाजी को बर्खास्त करने के आदेश दे दिए। मामले ने और ज्यादा नाटकीय मोड़ तब लिया जब राज्यपाल ने पांच घंटों के अंदर ही स्टालिन को पत्र लिख कर बालाजी की बर्खास्तगी रोक देने का आदेश दिया।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक उन्होंने स्टालिन को लिखा कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने उन्हें कहा है कि इस मामले में अटॉर्नी जनरल की सलाह भी ले लेनी चाहिए। उनकी सलाह मिलने तक बर्खास्तगी के आदेश को रोक दिया जाए।
मुख्यमंत्री स्टालिन राज्यपाल के कदम से नाराज थे और उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि वो बर्खास्तगी के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। राज्यपाल की ताजा चिट्ठी के बाद स्टालिन ने अभी तक अपने अगले कदम के बारे में घोषणा नहीं की है।
कई राज्यों में टकराव
संविधान की धारा 164 (1) के मुताबिक राज्यपाल मुख्यमंत्री को नियुक्त करते हैं और फिर मुख्यमंत्री की सलाह पर दूसरे मंत्रियों को नियुक्त करते हैं। सभी मंत्री तब तक अपने पदों पर बने रह सकते हैं जब तक राज्यपाल चाहें। हालांकि सुप्रीम कोर्ट कई फैसलों में यह स्पष्ट कर चुका है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को हमेशा मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही काम करना होता है।
यह पहली बार नहीं है जब मुख्यमंत्री स्टालिन और राज्यपाल रवि आपस में भिड़ गए हैं। इससे पहले रवि ने राज्य की विधान सभा द्वारा पारित कई बिलों पर अपनी सहमति देने से इंकार कर दिया था, जिसके बाद डीएमके ने उनके खिलाफ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को चिट्ठी लिखकर शिकायत की थी। इस बार विपक्षी पार्टियां रवि को बर्खास्त करने की मांग कर रही हैं।
विपक्षी पार्टियों के मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच टकराव पहले भी होता था, लेकिन बीते कुछ सालों में यह काफी बढ़ गया है। दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे राज्यों में अक्सर यह टकराव देखने को मिल रहा है। केरल में तो स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि राज्य सरकार राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है। (dw.com)
मोदी सरकार ने यूनिफॉर्म सिविल कोड पर अपना राजनीतिक अभियान तक तेज कर दिया है। लेकिन 21वे विधि आयोग ने साफ कहा था कि यूनिफॉर्म सिविल कोड ना जरूरी है और ना वांछनीय।
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
22वें विधि आयोग द्वारा यूनिफॉर्म सिविल कोड पर लोगों की राय इकठ्ठा करने की प्रक्रिया चल रही है। आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ऋतुराज अवस्थी का कहना है कि दो हफ्तों में 8.5 लाख व्यक्ति और संस्थान अपनी अपनी राय भेज चुके हैं।
इनमें से कई संस्थानों ने आयोग को चिट्ठी लिखकर यह याद दिलाया है कि 21वें विधि आयोग ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को ठुकरा दिया था। 21वें विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी एस चौहान थे और आयोग ने दो साल के शोध और चर्चा के बाद 2018 में रिफॉर्म ऑफ फैमिली विषय पर एक परामर्श पत्र जारी किया था।
ना जरूरी, ना वांछनीय
इस पेपर में आयोग ने लिखा था कि यह एक बहुत बड़ा विषय है और देश में इसके संभावित परिणाम अनपेक्षित हैं। आयोग के मुताबिक देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर सर्वसम्मति नहीं है और ऐसे में सबसे अच्छा तरीका यही होगा कि निजी कानूनों की विविधता का संरक्षण किया जाए लेकिन यह भी सुनिश्चित किया जाए कि निजी कानून संविधान द्वारा दिए गए मूलभूत अधिकारों का खंडन ना करें.
इसी आधार पर आयोग ने कहा कि यूनिफॉर्म सिविल कोड ना तो जरूरी है और ना वांछनीय। आयोग ने यह भी जोड़ा कि अधिकांश देश अब असमानताओं को सम्मान देने की तरफ बढ़ रहे हैं क्योंकि असमानताओं का मतलब भेद-भाव नहीं होता है, बल्कि वे तो एक मजबूत लोकतंत्र का सूचक होती हैं।
सीपीएम और मुसलमानों की संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिसे मुशावरत जैसे संगठनों ने 22वें आयोग से अपने संवाद में 21वें आयोग के इसी विमर्श पत्र का हवाला दिया है।
लेकिन 22वें आयोग की घोषणा में उसके पूर्ववर्ती आयोग के निष्कर्षों को छोड़ देने के संकेत मिल रहे हैं। 14 जून को जारी एक बयान में आयोग ने कहा था कथित विमर्श पत्र को जारी हुए तीन साल से भी ज्यादा समय चुका है, इसलिए इस विषय पर नए सिरे से विचार-विमर्श करने की जरूरत है।
बीजेपी का पुराना एजेंडा
यूनिफॉर्म सिविल कोड एक बेहद विवादास्पद विषय है और यह पिछले कई दशकों से बीजेपी के चुनावी घोषणापत्रों के तीन प्रमुख बिंदुओं में से एक रहा है। इन तीन बिंदुओं में राम मंदिर और धारा 370 भी शामिल हैं। 2019 में भी लोक सभा चुनावों में बीजेपी ने संहिता लागू करने का वादा किया था।
धर्म, रीति-रिवाज और प्रथाओं पर आधारित निजी कानूनों (पर्सनल लॉ) को हटाने और उनकी जगह सभी नागरिकों के लिए एक ही कानून को लाने की अवधारणा को यूनिफॉर्म सिविल कोड का नाम दिया गया है। इसके तहत शादी, तलाक, संपत्ति, गोद लेना आदि गतिविधियों से जुड़े कानून आते हैं।
उत्तराखंड, असम, गुजरात आदि जैसे बीजेपी की सरकार वाले राज्य इसे अपने अपने स्तर पर लागू करने की घोषणा कर चुके हैं, हालांकि इसे अभी तक कहीं लागू नहीं किया गया है। 27 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भाषण में यूनिफॉर्म सिविल कोड का समर्थन किया और कहा कि आज इसके नाम पर लोगों को भडक़ाया जा रहा है।
उन्होंने ने कहा, देश दो कानूनों पर कैसे चल सकता है? संविधान भी बराबर अधिकारों की बात करता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कहा है। (dw.com)
कुछ शब्द बहुत नामचीन बनने की कोशिश करते हैं, जबकि शब्दकोष में उनका महत्व नहीं होता। ये शब्द अपनी जिच और जिद नहीं छोड़ते। हिन्दी तर्जुमा किए बिना इन्हें अंगरेजी में ‘वाइस’ ‘डेपुटी’ ‘असिस्टेंट’ या ‘एडिशनल’ वगैरह कहना मुनासिब होगा। ये भूमिकाएं दो नंबरी होती हैं। जब तक मुख्य भूमिका वाला व्यक्ति या ओहदा इन्हें जगह नहीं दे, इन बेचारों को तब तक प्रतीक्षारत रहना होता है। बिहार में अनुग्रह नारायण सिंह दबंग नेता हुए। वे मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा के बाद दूसरे नंबर पर वित्त मंत्री थे। बहुत कोशिश करने पर भी उपमुख्यमंत्री नहीं बन पाए, भले ही राजनीतिक ठसक मुख्यमंत्री के बराबर रही। यही भूमिका सी.पी. और बरार में कलह विशेषज्ञ द्वारिका प्रसाद मिश्र की रही। तमाम वरिष्ठता के बावजूद दो प्रधानमंत्रियों की मृत्यु के बाद कार्यकारी प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा दो नंबर पर ही रहे। चरित्रवान नेता प्रधानमंत्री के ओहदे पर परवान नहीं चढ़ सका। दूसरे नंबर की कुर्सी दरअसल तलवार की धार की तरह होती है।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी कोलकाता से दिल्ली हवाई जहाज में आ रहे थे। दादा प्रणव मुखर्जी ने अस्फुट स्वरों में सुझाया कि दो नंबर में होने के कारण उन्हें ही एक्टिंग प्राइम मिनिस्टर बनना होगा। राजीव मंडली ने पर ऐसे कतरे कि प्रणव मुखर्जी वहीं रह गए। कांग्रेस में दो नंबर की कुर्सी लेकिन कोषाध्यक्ष की मानी जाती है। उस पर सीताराम केसरी और मोतीलाल वोरा भी विराजमान रहे। दिग्विजय सिंह को अर्जुन सिंह डेपुटी समझकर लाए। समधी अपने दामाद के पिता पर भारी पड़ गया।
दो नंबरी का सांस्कृतिक शोषित बेचारा तबला है। अधिकतर लोग डीलडौल के कारण डग्गा को ही तबला समझते हैं। माओ त्से तुंग का दो नंबरी लिन पिआओ दुश्मन उन्मूलन नीति का जनक था। तोहमत माओ के माथे पर लगती थी। अमेरिकी लोकप्रिय राष्ट्रपति केनेडी की हत्या के पीछे अफवाह वाइस प्रेसिडेन्ट जॉनसन के खिलाफ उड़ी थी। मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जगजीवन राम और लालकृष्ण आडवाणी ने मुस्कें ही कस ली थीं कि हर हाल में डेपुटी प्राइम मिनिस्टर बनाया जाए। भारत के एक बड़े ओहदेदार अपने पद वाइस प्रेसीडेन्ट को लेकर कहते वाइस का अंगरेजी अर्थ बुराई से होता है। मजाक में पूछते ‘क्या मैं प्रेसीडेन्ट की वाइस हूं?’ रूस वाले स्टालिन ने दो नंबर के नेता बेरिया को विश्वासघात के आरोप में दस हजार आदमियों के साथ कटवा दिया था।
हिन्दी में ‘कुलपति’ शब्द है। उसका अंगरेजी अनुवाद लेकिन ‘वाइस चांसलर’ हो जाता है। अंगरेजी में उन्हें चांसलर का वाइस क्यों बनाया जाता है? वाइस रहने के बाद बड़ी कुर्सी पर योग्यता के आधार पर धमक के साथ तो डॉ. राधाकृष्णन बैठे थे। उन पर प्रधानमंत्री नेहरू इतने फिदा थे कि राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को दूसरी पारी देने के पक्ष में नहीं थे। राजेन्द्र बाबू की जिद से ही दोबारा राष्ट्रपति बनना संभव हुआ। कद्दावर काठी और कांग्रेस कार्य समिति में बहुमत के बावजूद सरदार पटेल को डेपुटी प्रधानमंत्री बनना पड़ा। संविधान अद्भुत फलसफा है। राज्यपाल का पद लिखा है। फिर भी कई बेचारों को उप राज्यपाल शब्द से समझौता करना पड़ता है। वाइस प्रेसिडेन्ट के पद को कमतर महसूस करते उन्हें पदेन राज्यसभा का सभापति बना दिया ताकि वे कुछ काम तो करें। वैश्वीकरण के कारण व्यापारिक कंपनियों में वाइस प्रेसीडेन्ट का खूब चलन बढ़ा। यह ओहदेदार मालिक का नौकर होता है और अमूमन किसी सरकारी कंपनी के बड़े मुलाजिम रहते निजी उद्योगपति को सब तरह की मदद कर चुके होते हैं। असली वाइस चेयरमैन तो होता था योजना आयोग में। मोन्टेक सिंह अहलूवालिया की जितनी चलती उतनी तो किसी मंत्री की भी नहीं चलती थी। कांग्रेस संविधान में उपाध्यक्ष पद नहीं था। फिर भी अर्जुन सिंह के लिए भी एक बार ईजाद किया गया और उन्हें भावी प्रधानमंत्री तक प्रचारित किया जाता रहा।
दो नंबर के एक शिकार छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ अधिकारी बी.के.एस.रे बार-बार कहते रहे मैं मुख्य सचिव के ठीक बाद हूं। लेकिन दो बार सुपरसीड कर दिए गए। अच्छा हुआ नगर पालिक निगमोंं में डेपुटी मेयर पद समाप्त कर दिया गया। उसके बदले सभापति पद ईजाद हुआ है। वाइस या डेपुटी की जगह एक्जीक्यूटिव अध्यक्ष बनाकर दो नंबर के अधिकारी के चेहरे पर तेज लाने के लिए नए विषेषण का रंग रोगन मल दिया जाता है। जैसे बूढ़ी होती हुई फिल्म अभिनेत्रियां करती हैं। विधानसभा में उपाध्यक्ष का पद हॉस्टल के वॉर्डन जैसा होता है। वहां अध्यक्ष नामक प्रिंसिपल ही सब कुछ होता है। बद्रीधर दीवान ने मंत्री नहीं बन पाने से निष्क्रिय उपाध्यक्ष पद पर आराम फरमाना मुनासिब समझा। गंगा प्रसाद उपाध्याय कवर्धा के प्रभावशाली नेता और विधायक मेरे पिता के मित्र थे। बचपन में उन्हें चिढ़ाता चाचाजी आपके सरनेम का अंगरेजी अनुवाद डेपुटी चेप्टर कहा जाएगा। वे ठहाका लगाते। एक मित्र उपासने हैं और दूसरे उपरीत। जो लोग उपमन्यु गोत्र में पैदा हुए हैं, उन सबकी शुरुआत क्या प्रथम पंक्ति का नेता बनने के लिए नहीं हुई है?
एडिशनल शब्द की बड़ी महिमा है। जैसे एडिशनल सालिसिटर जनरल या एडिशनल एडवोकेट जनरल। ये संविधान की रक्षा के लिए हैं जबकि इनके पद नाम संविधान में हैं ही नहीं। मेरे मित्र दुर्ग के एडिशनल कलेक्टर विजय सिंह ने वरिष्ठ धाकड़ कलेक्टर वी.एन. कौल को लिखकर दिया था कि मैं आपात काल में किसी व्यक्ति को आंतरिक सुरक्षा के नाम पर गिरफ्तार नहीं करूंगा क्योंकि मैं तो खुद ही कलेक्टर का एडिशनल हूं। अच्छा हुआ संविधान ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश के बाद डेपुटी या एडिशनल शब्द का उल्लेख नहीं किया। वहां प्रशासनिक न्यायाधीश का नामकरण कर लिया गया है। ‘उप’ नाम का संबोधन दो जगह बड़ी मशक्कत वाला है। समाचार पत्रों में बेचारा डेपुटी एडिटर दिन रात मेहनत करता है और श्रेय संपादक लूट लेते हैं। जैसे रसोई देवरानी पकाए और जेठानी परोस दे। यही हाल बेचारे वाइस प्रिंसिपल का स्कूलों कॉलेजों में होता है। लेकिन दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव में मेघनाथ कनोजे ने उप-प्राचार्य पद को एक संस्था के रूप में विकसित किया। जैसे रणवीर सिंह शास्त्री ने दुर्गा महाविद्यालय में। सचिवालय में ऐसी झंझटों से निपटने ‘असिस्टेन्ट‘‘डेपुटी’ और ‘एडिशनल’ के साथ संयुक्त याने ‘ज्वाइंट’ नामक शब्द भी है। भ्रष्टाचार में बहुत से सचिव संयुक्त हो जाते हैं। भ्रष्टाचार तो मंत्रिपरिषद में भी हो रहा है। राज्य और डेपुटी शब्दों के साथ लेकिन ‘असिस्टेंट’ और ‘ज्वाइंट’ शब्दों में वह महिमा नहीं है, जो ‘वाइस‘ ‘डेपुटी‘ या ‘एडिशनल’ में है। दो नंबर की सम्भावित या डेपुटी चीफ मिनिस्टर बनने की असली लड़ाई मंत्रिपरिषदों में तो होती रहती है। यह भी है कि उप मुख्यमंत्री उसे भी बनाया गया जिसके पास विधायकों का बहुमत रहा और मुख्यमंत्री उसे जिसके पास विधायकों का अल्पमत। संदर्भ शिव भानु सोलंकी और अर्जुन सिंह। इसके लिए लेकिन समर्थन की डंडी खोजनी होती है। मध्यप्रदेश में अपने वोट अर्जुन सिंह को देकर वह डंडी कमलनाथ ने मारी थी। आगे भी हर मुख्यमंत्री को किसी उभरते उप मुख्यमंत्री से ज्यादा सरोकार डंडी मारने वाले को खोजने से ही होता रहेगा।
-सुदीप ठाकुर
भारतीय संविधान में न तो उपप्रधानमंत्री और न ही उपमुख्यमंत्री पद के बारे में कोई जिक्र है, लेकिन इन पदों का एक राजनीतिक संदेश होता है। छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव से महज कुछ महीने पहले भूपेश बघेल की अगुआई वाली सरकार में टीएस बाबा को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने के राजनीतिक संदेश भी स्पष्ट हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 और 75 मंत्रिपरिषद के गठन से संबंधित हैं। अंग्रेजी राज से मुक्ति के बाद देश में लोकतांत्रिक शासन की जिस वेस्टमिंस्टर प्रणाली को अपनाया गया उसमें प्रधानमंत्री पद को स्नद्बह्म्ह्यह्ल ्रद्वशठ्ठद्द श्वह्नह्वड्डद्य माना गया है। यानी सारे मंत्री बराबर हैं और प्रधानमंत्री उनमें सबसे आगे हैं। यही बात राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लेकर है। यह अलग बात है कि मजबूत बहुमत वाली सरकारों में, चाहे फिर वह केंद्र की हो या राज्यों की, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री शक्तिशाली होता है और सारे मंत्री राष्ट्रपति या राज्यपाल के नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के विश्वास कायम रहने तक पद पर बने रह सकते हैं।
अनुच्छेद 74 (1) के मुताबिक, ‘राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा...।'इसी तरह से अनुच्छेद 75 (1) के मुताबिक 'प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सलाह पर करेगा...।’
इन दोनों अनुच्छेदों में कहीं भी उपप्रधानमंत्री पद का जिक्र नहीं है। इसके बावजूद 15 अगस्त 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की अगुआई वाली देश की पहली सरकार के समय से उपप्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति होती रही है। सरदार वल्लभ भाई पटेल के रूप में देश को पहला उपप्रधानमंत्री मिला था। विभाजन के बाद एक नए बन रहे देश की विषम परिस्थितियों में यह सूझबूझ भरा फैसला था और अपने मतभेदों के बावजूद नेहरू और पटेल ने सत्ता संतुलन कायम करते हुए अपनी जिम्मेदारियां निभाई थीं।
पटेल के बाद 1967 में इंदिरा गांधी की सरकार में मोरारजी देसाई भी उपप्रधानमंत्री रहे। 1977 में मोरारजी देसाई की अगुआई वाली जनता पार्टी में चरण सिंह और जगजीवन राम के रूप में दो उपप्रधानमंत्री हुए। उनके बाद यशवंत राव चव्हाण, देवीलाल और लालकृष्ण आडवाणी भी उपप्रधानमंत्री रह चुके हैं।
यह सबको पता है कि प्रथम उपप्रधानमंत्री पटेल को छोडक़र बाकी के सारे उपप्रधानमंत्री राजनीतिक संतुलन के साथ ही निजी महत्वाकांक्षाओं के टकराव को साधने के लिए बनाए गए थे।
जहां तक राज्यों में उपमुख्यमंत्री पद की बात है, तो मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की नियुक्ति से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 163 और 164 में इसका कोई जिक्र नहीं है। लेकिन अब तक विभिन्न राज्यों में दर्जनों उपमुख्यमंत्री बनाए जा चुके हैं।
इसी समय आंध्रप्रदेश, अरुणाचल, बिहार, हरियाणा, हिमाचल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मेघालय, नगालैंड, उत्तर प्रदेश और अब छत्तीसगढ़ सहित 11 राज्यों में उपमुख्यमंत्री काम कर रहे हैं। सबसे दिलचस्प मामला आंध्र प्रदेश का है, जहां मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के लिए पांच उपमुख्यमंत्री बना रखे हैं!
गठबंधन की राजनीति में उपमुख्यमंत्री पद सत्ता संतुलन कायम करने में मददगार तो साबित हो ही रहा है, एक दलीय सरकार में भी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और जातीय अस्मिताओं के तुष्टीकरण के लिए भी इसका सहारा लिया जा रहा है। सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के दो उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक दो प्रभावशाली जातीय समूहों ओबीसी और ब्राह्मण का प्रतिनिधित्व करते हैं और कहने की जरूरत नहीं कि उनकी नियुक्तियां इसे ध्यान में रखकर ही की गई हैं।
महाराष्ट्र की शिंदे-भाजपा सरकार में देवेंद्र फडऩवीस भले ही उपमुख्यमंत्री हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से वह यह जतलाने में गुरेज नहीं करते कि सरकार की ड्राइविंग सीट पर भले ही एकनाथ शिंदे बैठे हैं, लेकिन स्टेयरिंग उनके हाथ में है!
बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई वाली सरकार में तेजस्वी यादव को उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल चीफ मिनिस्टर इन वेटिंग के रूप में देख रही है। संभव है कि विपक्षी दलों को एकजुट करने के मुहिम में जुटे नीतीश कुमार आने वाले समय में तेजस्वी के लिए पद छोड़ दें। अलबत्ता हरियाणा का मामला कुछ अलग है, जहां मनोहर लाल की अगुआई वाली भाजपा सरकार में उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला का पद पर बने रहना उनकी अपनी पार्टी के अस्तित्व के लिए भी जरूरी है।
नगालैंड जैसे छोटे राज्य में भाजपा-एनडीपीपी सरकार में दो-दो उपमुख्यमंत्री का होना प्रशासनिक सुगमता को नहीं, बल्कि राजनीतिक संतुलन को ही अधिक दिखाता है।
देश की दो प्रमुख पार्टियां भाजपा और कांग्रेस के लिए अब उपमुख्यमंत्री पद आजमाया हुआ फॉर्मूला है। कांग्रेस ने हाल ही में हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव जीते हैं, और इन दोनों ही जगहों पर उसने उपमुख्यमंत्री नियुक्त किए हैं। हालांकि कर्नाटक का मामला हिमाचल से एकदम अलग है। बल्कि कर्नाटक अपने क्षत्रपों को साधने के लिए कांग्रेस का नया टैम्पलेट बन गया है। इसका श्रेय कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े के साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को दिया जा सकता है। यही वजह है कि कर्नाटक में पूरे चुनाव के दौरान सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार के बीच आमतौर पर टकराव की स्थिति नहीं बनी। नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री पद पर दोनों की दावेदारी थी, लेकिन अंतत: शिवकुमार को उपमुख्यमंत्री पद से संतुष्ट किया गया।
लेकिन छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव से महज कुछ महीने पहले इस फॉर्मूले को आजमाने की क्या वजह हो सकती है? वास्तव में टीएस बाबा ने सचिन पायलट के उलट कांग्रेस आलाकमान से टकराने की कभी कोशिश भी नहीं की थी। बाबा को छत्तीसगढ़ की सियासत में एक सौम्य और मृदुभाषी नेता के तौर पर ही जाना जाता है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत का श्रेय भूपेश के साथ ही बाबा को भी जाता है।
संभव है कि पिछले विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद राहुल गांधी के समक्ष भूपेश और बाबा के बीच जिस ढाई-ढाई साल वाले कथित समझौते की बात की गई थी, उसकी यह भरपाई हो। इससे कांग्रेस को नुकसान कुछ नहीं है। छत्तीसगढ़ के बारे में लिए गए इस फैसले का एक बड़ा संदेश यही है कि कांग्रेस साहसिक फैसले लेने से गुरेज नहीं कर रही है।
वास्तव में टीएस बाबा को उपमुख्यमंत्री नियुक्त कर कांग्रेस ने भाजपा को ही नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ में प्रचलित ‘फूल छाप’ कांग्रेसियों को भी चौंका दिया है!