विचार/लेख
-ध्रुव गुप्त
योग और अध्यात्म में रुचि रखने वाले मेरे एक फेसबुक मित्र ने कुछ दिनों पहले मेरी एक प्रेम कविता पर टिप्पणी की थी कि जीवन की इस चौथी अवस्था ने प्यार-मुहम्बत की बात मुझे शोभा नहीं देती। समय आ गया है कि अब मुझे धर्म, अध्यात्म, ध्यान और पारलौकिक चीजों के बारे में सोचना और लिखना चाहिए। मैंने तत्काल उनकी बात का जवाब नहीं दिया आज उन्हें और उनकी तरह सोचने वाले और मित्रों को भी कहना चाहता हूँ कि मेरी दृष्टि में प्रेम से बड़ा कोई धर्म या योग नहीं प्रेम ईश्वर की रचना है। धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्म हम मनुष्यों के बनाए हुए हैं। वे उनके लिए है जिनके जीवन में प्रेम नहीं है। मुझे ईश्वर की रचना पर भरोसा है। इसीलिए मैं प्रेम ही करता हूं.. प्रेम ही सोचता हूं और प्रेम ही लिखता हूँ। आप धार्मिक और आध्यात्मिक लोग वर्षों और कभी कभी जीवन भर के पूजा-पाठ और ध्यान के बाद जो एकाग्रता हासिल नहीं कर पाते, यह एकायता प्रेम में पडऩे वाला व्यक्ति पल भर में हासिल कर लेता है। प्रेम संध्या है तो यह एक तरह की समाधि ही है। आपका धर्म और योग आत्मकल्याण के लिए है। प्रेम हम अपने आसपास की दुनिया से जोड़ता है। आप एक से प्रेम में पड़े तो आप सबके प्रेम में पड़ जाते हैं। समूची मानवता के प्रेम में जीव-जंतुओं के प्रेम में प्रकृति के प्रेम में पारलौकिक जीवन की अवधारणा बैठे-ठाले लोगों की कल्पना की उड़ान भर है वरना मरने के बाद क्या होता है यह किसी ने नहीं देखा है। और जो मर गए हैं वे तो बताने आएंगे नहीं।
मुझे तो इस जीवन को ही खूबसूरत बनाता है और मैं वही कर रहा हूँ। इसे खूबसूरत बनाने का प्रेम से बेहतर और कोई हरिया नहीं।
तो आप भी प्रेम करिए और प्रेम फैलाइए वरना यहां से खाली हाथ तो जाएंगे ही, मरने के बाद भी शायद कुछ हासिल न हो।
- सुदीप ठाकुर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले नौ सालों में इस देश को जो चीजें दी हैं, उनमें दो बातें साफ देखी जा सकती हैं। पहला, अधिकांश कार्यक्रमों और योजनाओं, चाहे वह नई हों या पुरानी, के नाम के आगे पीएम (प्रधानमंत्री) जुड़ गया है और दूसरा है, इन नामों का संक्षिप्त जिसे अंग्रेजी में Acronym कहते हैं। मसलन पीएम-किसान ( PM-Kisan) को ही देखें तो यह पीएम-किसान सम्मान निधि (PM-Kisan Samman Nidhi) को संक्षिप्त कर बनाया गया है।
लगता है, विपक्ष ने उन्हें इस खेल में उन्हीं के तरीके से चुनौती देने की कोशिश की है। बंगलुरू में हुई विपक्षी दलों की बहुचर्चित बैठक में विपक्षी गठबंधन ने अंततः अपने लिए एक नाम तलाश लिया है और यह है बड़ा दिलचस्प है। विपक्षी गठबंधन के पूरे नाम का अंग्रेजी में संक्षिप्त है... India यानी इंडिया! वैसे पूरा नाम है, Indian National Development Inclusive Alliance. इसका हिंदी में तर्जुमा कुछ इस तरह का होगा, भारतीय राष्ट्रीय विकासोन्मुखी समावेशी गठबंधन। और इसका संक्षिप्त होगा, भाराविसग। जाहिर है, विपक्षी गठबंधन खुद को अंग्रेजी के संक्षिप्त नाम इंडिया से जोड़ना चाहेगा और लगता तो यही है कि इसे ही ध्यान में रखकर यह नाम गढ़ा गया है। मगर यह भाजपा और राजग को कितना रास आएगा?
क्या विपक्षी गठबंधन का नाम देश के नाम पर होने के आधार पर इसे चुनाव आयोग और अदालतों में चुनौती तो नहींं दी जाएगी? यह तो कुछ दिनों में पता चल जाएगा, लेकिन इस नाम ने 2024 के आम चुनाव से पहले सियासी टकराव को दिलचस्प मोड़ दे दिया है।
ऐसा पहली बार हो रहा है, जब किसी राजनीतिक समूह को देश के नाम से जाना जाएगा। यों भारत, इंडिया और हिंदुस्तान से जुड़ी अनेक सियासी पार्टियां बन चुकी हैं और अब भी हैं, लेकिन उनके आगे पीछे भी कुछ शब्द या भाव जुड़े रहे हैं। मसलन कांग्रेस और भाजपा को ही देखें, तो कांग्रेस का पूरा नाम, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है। भाजपा का पूरा नाम भारतीय जनता पार्टी है।
देश की दोनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियां चुनाव आयोग में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में दर्ज हैं। इन्हें माकपा और भाकपा या सीपीएम या सीपीआई के रूप में जाना जाता है। हाल ही में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने अपनी पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति से बदल कर भारत राष्ट्र समिति कर दिया है।
2019 के आम चुनाव के दौरान चुनाव आयोग में पंजीबद्ध सात राष्ट्रीय पार्टियों में से पांच के नामों में इंडिया या भारत किसी न किसी रूप में आता है। इनमें आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस भी शामिल थी। इसी तरह से पंजीबद्ध 43 राज्य स्तर पर मान्यता प्राप्त दलों में से आधा दर्जन के नामों में भारत या इंडिया है। इनमें आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम और ऑल इंडिया मजलिस-ए- इत्तेहादुल मुस्लमीन जैसी पार्टियां भी शामिल हैं।
मैं इस आलेख को राजनीतिक दलों तक ही सीमित रखना चाहता हूं। अन्यथा प्रेस या मीडिया का विश्लेषण करें तो बहुत से नाम मिल जाएंगे। दरअसल विपक्ष के नए गठबंधन को लेकर जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, दिलचस्पी इसलिए है, क्योंकि इसे आम बोलचाल और राजनीतिक मंचों, टीवी चैनल की चर्चाओं में इंडिया ही कहा जाने वाला है।
असल में इस विमर्श का एक अहम पहलू यह भी है कि हमारे संविधान में देश का नाम इंडिया के रूप में दर्ज है। संविधान का अनुच्छेद एक कहता हैः
"संघ का नाम और राज्यक्षेत्र- (1) भारत, अर्थात, इंडिया, राज्यों का संघ होगा।"
संभवतः इसलिए इस पर सांविधानिक बहस भी छिड़ सकती है। विपक्षी गठबंधन में पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे दिग्गज वकील शामिल हैं, इसलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि उन्होंने इस नाम के सारे पहलुओं पर विचार जरूर किया होगा।
सामान्य तौर पर दो बातें साफ दिख रही हैं, एक तो यह कि विपक्षी गठबंधन हिंदी पट्टी में, जहां उसे भाजपा से सबसे बड़ी चुनौती है, कैसे अपने गठबंधन के नाम को निचले स्तर तक पहुंचाएगा। दूसरा यदि किसी तरह से यह मसला संविधान पीठ तक पहुंच गया तो क्या होगा। मगर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस इंडिया ने भाजपा और एनडीए के लिए इस टीवी बहस वाले दौर में मुश्किल खड़ी कर दी है, जहां विपक्ष को वे भ्रष्टाचारी कहने से गुरेज नहीं करते। क्या वह ऐसा इंडिया नाम के साथ कह पाएंगे ?
इंडिया का जिक्र पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भी किया था। इसमें नेहरू ने लिखा था, अक्सर जब मैं एक जलसे से दूसरे जलसे में जाने लगा ,तो इन जलसों में अपने श्रोताओं से अपने इस इंडिया, हिंदुस्तान और भारत के बारे में चर्चा करता, जो कि एक संस्कृत शब्द है और इस नस्ल के परंपरागत संस्थापकों के नाम से निकला है।" इसी तरह नेहरू ने इस देश की जनता को 'भारत माता' कहा था।
वैसे विपक्ष की चुनौती अपने गठबंधन का नाम जनता के बीच पहुंचाने से अधिक यह है कि वह भाजपा-एनडीए के बरक्स कोई नया नरैटिव यानी आख्यान पेश कर सके।
डॉ. आर.के. पालीवाल
यह वैज्ञानिक सत्य है कि पुरुष और महिलाओं का जेनेटिक मेक अप और उसके अनुरूप उनका हार्मोन तंत्र काफी समान होते हुए भी काफ़ी कुछ अलग होता है।
भारतीय संस्कृति में भी कई आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के संदर्भ में महिलाओं को पुरुषों से कहीं बेहतर माना गया है।अलग जीन्स और हार्मोंस के प्रभाव से उनकी शारीरिक और मानसिक बनावट और बुनावट पुरुषों से अलग होती है। महिला और पुरुष भिन्नता के कुछ और भी कारण हो सकते हैं, मसलन महिलाओं में संकोच, शर्मो हया का नैसर्गिक गुण महिलाओं के लिए सदियों से चले आ रहे विशिष्ट सांस्कृतिक परिवेश की वजह से भी संभव है, लेकिन यह सच है कि महिलाएं पुरूषों की तुलना में अधिक सहनशील और मल्टी टास्कर होती हैं। इसी तरह से महिलाओं की छवि पुरुषों की तुलना में अधिक ईमानदार की होती है।
दुर्भाग्य से महिलाओं की ईमानदारी का भ्रम वर्तमान दौर में खंडित हो रहा है।हाल के केंद्रीय एजेंसियों, यथा सी बी आई और प्रवर्तन निदेशालय और विभिन्न राज्य सरकारों के लोकायुक्त और एंटी करप्शन ब्यूरो के छापों में महिलाओं के भ्रष्टाचार के कई बड़े मामले मिले हैं जिनसे लगता है कि भ्रष्टाचार में महिलाओं की सहभागिता भी तेजी से बढ़ रही है। भ्रष्ट महिला अधिकारियों की सूची में कनिष्ठ अधिकारियों से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा की उच्च पदस्थ महिला अधिकारियों तक हर संवर्ग के नाम सामने आ रहे हैं।मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड से लेकर पश्चिम बंगाल तक विभिन्न जांच एजेंसियों के छापों में महिलाओं के नाम प्रमुखता से आना प्रमाणित करता है कि यह बदलाव किसी राज्य या क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं है।
राजस्थान में एक महिला ए एस पी द्वारा स्थानीय व्यापारी को आर्थिक अपराध के मामले में गिरफ्तार नहीं करने की एवज में एक करोड़ रूपए की घूस मांगने का मामला सामने आया है।हाल ही में मध्य प्रदेश पुलिस हाउसिंग कॉरपोरेशन में संविदा पर नियुक्त महिला असिस्टेंट इंजीनियर के यहां लोकायुक्त की कार्यवाही में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।
मात्र तीस हजार रूपए प्रतिमाह वेतन पाने वाली इस कर्मचारी के पास सात करोड़ की संपत्ति मिली है जिसमें तीस लाख़ का एल ई डी सिस्टम, एक विशाल बंगला, तीस चालीस कमरों का विशाल फार्म हाउस और कई चल-अचल संपत्ति शामिल हैं।पुलिस हाउसिंग कार्पोरेशन का नाम भ्रष्टाचार वाले विभागों की लिस्ट में संभवत: काफ़ी नीचे आता है। उसमें भी जिस पद पर उक्त महिला कार्यरत थी वह भी बड़ा पद नहीं है। संभव है कि उनके भ्रष्टाचार में ऊपर के अधिकारी भी शामिल हों क्योंकि इतना बड़ा भ्रष्टाचार अकेले करना संभव नहीं दिखता। झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में भी महिला अधिकारियों द्वारा व्यापक भ्रष्टाचार के मामले दर्ज हुए हैं।
हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति अधिसंख्य परिवारों में कमजोर है इसीलिए उनकी सुरक्षा के लिए दहेज विरोधी और यौन दुराचरण संबंधी विशेष कानूनी प्रावधान हैं। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान भी इन्हीं प्रयासों का अहम हिस्सा है। यह मान्यता है कि एक लडक़ा पढऩे से एक व्यक्ति शिक्षित होता है लेकिन एक लडक़ी की पढ़ाई से पूरा परिवार शिक्षित होता है। इसी परिपेक्ष्य में यह भी कह सकते हैं कि यदि किसी समाज में महिलाएं भी भ्रष्टाचार में अपने पुरुष समकक्षों की बराबरी करने लगेंगी तो परिवारों और समाज का तेजी से पतन सुनिश्चित है।
कुछ साल पहले मध्य प्रदेश में आयकर विभाग के छापों में एक वरिष्ठ आई ए एस दंपति के भ्रष्टाचार का मामला राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बना था जिसके चलते इन दोनों अधिकारियों की बराबर संलिप्तता के कारण बर्खास्तगी हुई थी। इधर भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में कई राज्यों की महिलाओं की मुख्य आरोपी की भूमिका हमारे पूरे समाज के सडऩ की तरफ संकेत कर रही है। समय रहते भ्रष्टाचार के डायनासोर को नियंत्रित करने के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक जन जागरूकता अभियान की जरुरत है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
मैं सन् 2021 में जब कश्मीर में घूम रहा था, लोगों से मिल रहा था,बातें कर रहा था, तो एक बात साफ नजर आ रही थी कि कश्मीर तेजी से बदल रहा है। इस बदले हुए कश्मीर से कश्मीरी पृथकतावादी और हिन्दू फंडामेंटलिस्ट बेहद परेशान थे। मैं पुराने श्रीनगर इलाके में कई बार गया, वहां विभिन्न किस्म के लोगों से मिला, उनसे लंबी बातचीत की, खासकर युवाओं का बदलता हुआ रूप करीब से देखने के लिए कश्मीर विश्वविद्यालय में भी गया वहां युवाओं की आपसी बातचीत के मसले देखे, उनके चेहरे पर एक खास किस्म का चैन देखा, युवाओं में पैदा हुए लिबरल भावों और उनकी आपसी संगतों में उठने वाले सवालों और विचार-विमर्श के विषयों को सुनकर लगा कि कश्मीर के युवाओं में पृथकतावाद-आतंकवाद या धार्मिक फंडामेंटलिज्म को लेकर एक सिरे से घृणा का भाव है।
कश्मीर विश्वविद्यालय में एक जगह दीवार पर पृथकतावादी नारा भी लिखा देखा, जिसमें लिखा था भारत कश्मीर छोड़ो, मेरी आंखों के सामने एक घटना घटी जिसने मुझे यह समझने में मदद की कि आखिर युवाओं में क्या चल रहा है। हुआ यह कि मैं जब साढ़े तीन बजे करीब हजरतबल मस्जिद से घूमते हुए कश्मीर विश्वविद्यालय पहुंचा तो देखा दो लड़कियां एक बैनर लिए कैंपस में प्रचार कर रही हैं, वे विभिन्न छात्र-छात्राओं के बीच में जाकर बता रही थीं कि एक जगह बलात्कार की घटना घटी है और उसमें कौन लोग शामिल हैं, मैं उनका बैनर नहीं पढ़ पाया क्योंकि वह कश्मीरी में लिखा था। लेकिन बैनर लेकर प्रचार कर रही दोनों लड़कियों की बात को कैंपस में विभिन्न स्थानों पर बैठे नौजवान सुनने को राजी नहीं थे,वे बिना सुने ही मुँह फेर ले रहे थे। इस घटना से मुझे आश्चर्य लगा, मैंने एक छात्र से पूछा कि बैनर लेकर चल रही लड़कियां किस संगठन की हैं, तो वो बोला, मैं सही-सही नहीं कह सकता लेकिन ये पृथकतावादी संगठनों के लोग हैं और आए दिन इसी तरह बैनर ले कैम्पस में घूमते रहते हैं, कोई इन संगठनों की बातें नहीं सुनता,क्योंकि कश्मीरी छात्र अमन-चैन चाहते हैं।
दिलचस्प बात यह थी मेरी आँखों के सामने तकरीबन 30 मिनट तक वे बैनर लेकर घूम-घूमकर छात्रों को बताने की कोशिश करते रहे लेकिन हर बार उनको छात्रों के छोटे छोटे समूहों में निराशा हाथ लग रही थी कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं था,अंत में बैनर लिए युवाओं ने निराशा भरे शब्दों में अंग्रेजी में धिक्कारभरी भाषा में अपने गुस्से का इजहार किया। इस पर कुछ लड़कियों ने मुँह बनाकर उनको चिढ़ाने की कोशिश की, थोड़ी दूर चला तो देखा लडक़े-लड़कियां बड़े आनंद से एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए टहल रहे हैं, बाहर निकलकर मुख्य सडक़ से जब कार से घूमते हुए मैं पुराने शहर की ओर आया तो देखा कई युवा युगल मोटर साइकिल पर एक-दूसरे से चिपके हुए दौड़े चले जा रहे हैं,यह भी देखा कि बड़ी संख्या में मुसलिम लड़कियां और लडक़े आधुनिक सामान्य सुंदर ड्रेस पहने हुए घूम रहे हैं, बाजार में खरीददारी कर रहे हैं,मुख्य बाजार में अधिकतर मुसलिम औरतें बिना बुर्के के जमकर खरीददारी कर रही हैं। रात को 11बजे एक रेस्तरां में डिनर करने गया तो वहां पर पाया कि कश्मीरी प्रेमी युगल और युवाजन आराम से प्रेम भरी बातें कर रहे हैं, कहीं पर कोई आतंक का माहौल नहीं, किसी की भाषा में घृणा के शब्द नहीं, मैंने अपने टैक्सी ड्राइवर और होटल के मालिक से पूछा इस समय कश्मीर में लड़कियां किस तरह शादी कर रही हैं ? सभी ने एक स्वर में कहा इस समय कश्मीरी लड़कियां गैर-परंपरागत ढ़ंग से,प्रेम विवाह कर रही हैं,वे स्वयं तय कर रही हैं, यह 1990-91 के बाद पैदा हुआ एकदम नया फिनोमिना है।
कश्मीरी युवाओं में उदातावादी रूझानों को देखकर मन को भय भी लग रहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कश्मीर में फिर से अशांति लौट आए ?क्योंकि फंडामेंटलिस्ट ताकतें नहीं चाहतीं कि कश्मीर में उदारतावादी भावनाएं लौटें,मुझे यह भी लग रहा था कि जल्द ही टकराव हो सकता है। मैंने इस तनाव को बार बार वहां महसूस किया, मुझे लगा वहां आम जनता में उदारतावादी राजनीति और जीवन मूल्यों के प्रति जबर्दस्त आग्रह है और आतंकी-पृथकतावादी और हिन्दू फंडामेंटलिस्ट नहीं चाहते कि कश्मीर में उदारतावाद की बयार बहे, वे हर हालत में आम जनता के मन में से उदारतावाद के मनोभावों को मिटाने की कोशिश करेंगे।मैंने कश्मीर से लौटकर वहां के उदार माहौल पर फेसबुक में लिखा भी था, दुर्भाग्यजनक है कि मेरे लिखे जाने के कुछ दिन बाद ही बुरहान वानी की हत्या होती है और अचानक कश्मीर में उदारतावादी माहौल को एक ही झटके में आतंकी-पृथकतावादी माहौल में तब्दील कर दिया गया।
जिसने भी बुरहान वानी की हत्या का फैसला लिया, वह एकदम बहुत ही सुलझा दिमाग है उसके मन में बुरहान वानी नहीं बल्कि कश्मीर का यह उदार माहौल था जिसकी उसने हत्या की है।ये वे लाखों कश्मीरी युवा हैं जिनके उदार मूल्यों में जीने की आकांक्षाओं को एक ही झटके में रौंद दिया गया। मैं इस तरह की आशंकाओं को लेकर लगातार सोच रहा था कि मोदीजी-महबूबा के सरकार में रहते कश्मीर में शांति का बने रहना संभव नहीं है,मैं जब सोच रहा था तो उस समय सतह पर शांति थी, लेकिन मैं आने वाले संकट को महसूस कर रहा था, अफसोस की बात है कि मोदी-महबूबा की मिलीभगत ने कश्मीर की जनता के अमन-चैन में खलल डाला, शांति से जी रहे कश्मीर को फिर से अशांत कर दिया, नए सिरे से आतंकियों और सेना की गिरफ्त में कश्मीर के युवाओं को कैद कर दिया।
मनीष सिंह
दुनिया में फिलॉसफी का सबसे शानदार दौर ईसा के चार सौ साल पहले का है। तब वेस्टर्न फिलॉसफी में ग्रीस विश्व गुरु बनकर उभरा। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, थेल्स, डायोनिसिस, हेरोकलिट्स, पाइथागोरस.. इस दौर में हुए।
ये कुछ सौ साल, विचारकों के स्वर्ण युग थे। इनके विचार बहस मुबाहिसे का हिस्सा बने। काटे, जोड़े, इम्प्रूव किये गए। आज भी प्राचीन ग्रीस का दर्शन, पश्चिमी फिलॉसफी का बेडरॉक है।
ठीक इस समय, भारत में भी दर्शन आये। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व और उत्तर मीमांसा वैदिक दर्शन माने गए। इसके साथ जैन, बौद्ध और चार्वाक के भी दर्शन हुए। हम इन्हें आस्तिक और नास्तिक दर्शनों के रूप में विभाजित करते हैं।
इतने दर्शन भला इसी दौर में क्यों बने। इसके बाद क्यों नहीं आये। क्या मानव समाज की बुद्धि थम गई?
दरअसल इसका कारण, धर्म की सत्ता, ताकतवर होने से मिलता है।
जब पंथ छोटे थे, बहुतेरे थे, तो पुजारियों पण्डो का एकाधिकार नहीं था। आगे चलकर क्रिश्चिनिटी ताकतवर हो गयी। यानी चर्च की सत्ता सुप्रीम हो चली।
दर्शन का अर्थ है-देखना। आप किसी चीज को देखते कैसे हैं, आपका दृष्टिकोण क्या है, कैसे आप घटनाओं, रिश्तों, समाज और व्यक्ति के जीवन के अर्थ को समझते है। यह दर्शन हुआ।
फिलोसोफी का अर्थ तो और गहरा है। फीलो का मतलब है- प्रेम, सॉफी का अर्थ है-ज्ञान, या विज्डम !! यानी मोहब्बत को समझना फिलोसोफी है। और जो मोहब्बत को खोज रहा हो, फिलॉसफर है।
दृष्टिकोण, और मोहब्बत की खोज तब तक चली जब तक धर्म ने बन्दिशें न लगा दी। भारत में तो दर्शन को सीधे सीधे धर्म से जोड़ लिया गया। हिन्दू दर्शन, जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन.. ये सारे दर्शन, जो आजाद मनुष्य के विचार थे, एक एक पंथ के ‘कैप्टिव दर्शन’ हो गए।
दरअसल भारत में धर्म और दर्शन ऐसे लट्ट-पट्ट कर दिए गए हैं कि आधे से ज्यादा पाठकों को यह समझना कठिन है, कि धर्म और दर्शन अलहदा कैसे हो सकते हैं। यहाँ पर हिन्दू धर्म वैदिक दर्शन है, और बौद्ध धर्म ही बौद्ध दर्शन..
उधर पश्चिम में कुछ अलग हुआ।
वहाँ धर्म और दर्शन अलग अलग रहे।
चर्च का उदय हुआ। उसने अपनी एनसाइक्लोपीडिया लिखी- बाइबल। उसमे सारे सवालो के जवाब लिख दिए। अब इसके बाद सारे दर्शन खारिज। अब कोई सवाल नहीं, नजरिया नही। बाइबल के जवाबों पर शुब्हा न किया जाए। किया तो आप पापी, धर्मद्रोही, शैतान हो।
न मानने पर चर्च आपको मौत की सजा दे सकता था, जिंदा जलवा सकता था। तो पहली सदी के बाद ही सोच पर पहरे, बुद्धि पर ताला लगा दिया गया।
नए नजरिये से दर्शन पाप हुआ, तो दर्शन का विकास खत्म हो गया। इंसानी समाज मे प्यार की खोज, याने फिलॉसफी का स्पेस खत्म हो गया। विज्डम थमा तो डेढ़ हजार साल थमा रहा।
सोलहवीं सदी तक यूरोप में अंधकार का युग रहा। इसके बाद जो हुआ, उसे पुनर्जागरण कहते हैं।
मार्टिन लूथर ने शुरुआत की। बाइबिल की धारणाओं पर सवाल किए। कोपरनिकस और गैलीलियो ने किए। बताया धरती गोल है, चांद सितारे बेजान हैं। उन्होंने इसकी सज़ा भुगती। लेकिन धर्म के प्रति अंध श्रद्धा का दौर अब जा रहा था।
नवयुग आ रहा था। बाइबिल की जेनेसिस को ऑर्गेनिक इवोल्यूशन ने झुठलाया। धरती चांद सितारे, ईश्वर की मर्जी से नही, न्यूटन और आइंस्टीन के सिद्धातों पर चलने लगे। डार्विन ने बन्दर को मनुष्य का पूर्वज बना डाला।
हर चीज पर सवाल करना, डाउट करना, उसके कारण को खोजना- एक अभियान हो गया। विज्ञान हो गया।
जब यूरोप ने धर्म की जकडऩ को तोड़ा, तो विज्ञान का विकास हुआ। तब जाकर पिछले 300 सालों में नए अविष्कार हुए, जो 1500 साल में हो जाने चाहिए थे। विज्ञान दैनिक जीवन मे उपयोग शुरू किया। दवाइयां बनी, जिंदगियां बची, संचार आसान हुआ। कार बनी, विमान बने, टीवी रेडियो, बिजली... आधुनिक संसार का निर्माण हुआ।
और भारत- वह धर्म की जकडऩ से आज तक नही निकला।
क्या ही विडंबना है कि आजादी की पहली लड़ाई, पहला ग़दर, इस डर से हुआ कि कारतूसों की चर्बी हमारा धर्म भ्रस्ट कर देगी?
आज हम भले कहें, कि विमान से लेकर सर्जरी, एटॉमिक स्ट्रक्चर से लेकर परमाणु बम, सब हम वैदिक काल मे हासिल कर चुके थे, तो वह सिवाय आत्मप्रवंचना के कुछ नही।
आप वेद पढक़र लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर नही बना सकते। वेंटिलेटर, या एक्सरे मशीन नही बना सकते। आप सिर्फ, मानव के - अपने खुद के समाज के बौद्धिक विकास पर ताला लगा सकते हैं। आगे जाती दुनिया से अलहदा राह पर, जहां पत्ता ईश्वर की मर्जी से खडक़ता है। जहां ब्राह्मण मुख और शूद्र, ब्रह्मा के पैरों से पैदा होता है।
हमारी लीडरशिप, हमारा समाज औऱ राजनीति, जब पंथ की स्थापना का बीड़ा उठाती है, तो उसी अंधकार युग मे ले जाती है, जिससे मुश्किल से हाथ पांव मारकर हम निकलकर आये हैं।
2000 साल के बाद तो समाज ऐसा बने, जो नए दर्शन को स्पेस दे। वर्तमान की धारणाओं को चैलेंज करने दे, शुब्हा करने दे, और नए जवाब खोजने की आजादी दे।
हम जिस दोराहे पर हैं, वहां जरूरत यही है, कि जिस प्रेम के विज्डम को खोजकर इंसान फिलॉसफर कहलाता है, उस मार्ग के कांटे हटाये जायें।
पंथ को, मंदिर, मस्जिद, चर्च को भले ही प्रणाम किया जाये,पर यात्रा वहां जाकर खत्म न जाये। वहां से शुरू की जाये।
प्रकाश दुबे
हिंदी के नामी कवि धूमिल को प्रश्न का उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने लिख मारा-मेरे देश की संसद मौन है। धूमिल के अनुभव से सबक लेते हुए हमें मणिपुर के बारे में न सवाल पूछना है और न कविता लिखनी है। इतनी जानकारी पर्याप्त है कि म्यांमार से तस्करी होती है। समझें कि हिंसा के लिए म्यानमार दोषी है। सबूत हम जुटा देते हैं। अंडमान में चार तस्कर इंजन वाली नौका से हिरासत में लिए गए।
बाकी चार तस्कर तैरकर दलदली झाडिय़ों में भागे। पुलिस ने जान पर खेलकर उन्हें भी खोज लिया। नौका से भारी मात्रा में सी कुकुंबर (समुद्री खीरे) बरामद किए। हंसिए मत। इस सागरी प्राणी का दाम प्रति किलो तीन हजार डालर है। भारतीय पुलिस सेवा की महिला अधिकारी गीतांजली खंडेलवाल की टीम ने यह कारनामा दिखाया। गृहमंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सोच में पड़े होंगे। हमारे वीर बहादुर पुलिस और सैनिक कहां चूक गए। सीमावर्ती क्षेत्रों का अधिकार केंद्रीय दलों को देने के बावजूद तस्कर सैरसपाटे पर आते रहते हैं।
टमाटर पिलपिले हैं
रोबोट की फुर्ती से काम करने वाले प्रवर्तन निदेशालय के संजय कुमार मिश्र को उच्चतम न्यायालय ने तीन तीन बार सेवा विस्तार देने पर कड़ा रुख अपनाया। विक्रम ओर बैताल की तरह मिसर जी का ईडी कार्यकाल भी याद किया जाएगा। उनके नेतृत्व में काम करने वाले विभाग का एक और कारनामा सुप्रीम कोर्ट की नजऱ में आया। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन्मोहन रेड्?डी यूं तो संसद में सरकारी पक्ष का ध्यान रखते हैं, परंतु कुछ मुद्दों पर पारे की तरह फिसल जाते हैं। सबक सिखाने के लिए ईडी ने वाय एस भारती रेड्?डी नाम की महिला की अचल संपत्ति जब्त कर ली। भारती जगन्मोहन रेड्?डी के विरुद्ध मनी लांड्रिंग का मामला दर्ज है। भारती कितना नकद और कितना फिक्स्ड डिपाजिट से जमा करने तैयार थीं, यह जानकर क्या करेंगे? कभी मुंबई उच्च न्यायालय में कार्यरत रहे न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका और उनके सहयोगी संजय करोल के आसान सवाल पर ईडी निरुत्तर था। पिलपिले टमाटर सा। मुकदमे न लडऩे वाले वकील भी जानते हैं कि धन शोधन के लिए 2002 के अधिनियम में अचल संपत्ति जब्त करने का प्रावधान है?
टमाटर की निर्यात को मात
प्रधानमंत्री से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी कि परदेस गए थे, क्या लाए? ऐसी परमाणु पनडुब्बी मिलेगी जिसे राडार नहीं पकड़ सकते। रफाल नाम जाना पहचाना है। अमेरिका और फ्रांस के करारनामों के दरम्यान वाणिज्य मंत्रालय ने निर्यात आंकड़ों की छानबीन की। रपट के मुताबिक पिछले साल की तुलना में हाल की जून छमाही में निर्यात में भारी गिरावट आई। पहली तिमाही की तुलना में दूसरी तिमाही ज्यादा खराब रही। 11 महीनों में 20 खरब की कमी, वह भी डियर डालर की मुद्रा में? मंत्रालय के महान विशेषज्ञों ने कारण तलाश किया। इतना तो माना कि अमेरिका और यूरोप में भारतीय माल की मांग कम तो हुई है, कारण अलग बताए। नंबर-1, अमेरिका यूरोप की विकास गति मंद है। दूसरे मुद्रास्फीति रोकने के लिए ब्याज दर बढ़ा दी। भरोसमंद वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के रहते हुए गड़बड़ी की गुंजाइश नहीं है। आयात भी घटा है। इससे खर्च भी कम हुआ। टमाटर पहलवान महंगा है। दुनिया भर में सोना गिरा। विदेश में चारों खाने चित होने के बावजूद स्वर्ण आयात में 80 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई।
लाल टमाटर की चटनी
दक्षिण की पुरानी हिंदी फिल्मों ने सफलता का इतिहास रचा था। सफल फिल्मों के अंत में पुरा कुनबा परदे पर नजऱ आता था। सिनेमा शौकीन बेंगलूरु शहर के नामी होटल में प्रतिपक्ष के नेता ठहरेंगे। हम साथ साथ हैं, वाली मुद्रा में नेता होर्डिंग में नजऱ आते हैं-यूनाइटेड वी स्टेंड नारे के साथ साथ। क्षत- विक्षत मेहमानों में शरद पवार, उद्धव ठाकरे से लेकर घोसी का विधायक गंवाने के बाद अखिलेश यादव शामिल हैं।
पार्टियों की टूट-फूट और दलबदल कानून की धज्जियां उड़ाने में वैधानिक और संवैधानिक एजेंसियों की भूमिका का कार्यक्रम पत्रिका में उल्लेख हो न हो, चर्चा इसी बात पर होनी है। उपमुख्यमंत्री डी के शिवकुमार मुख्य इंतजाम अली हैं। मुख्यमंत्री का बंगला होटल से लगकर है। इसके बावजूद वे और उपमुख्यमंत्री होटल में रुकेंगे। सोनिया गांधी के लिए सबसे अच्छा सुइट आरक्षित है। मेहमानों को सुर्ख लाल टमाटर की चटनी समेत खास व्यंजन परोसे जाएंगे। कर्नाटक अन्य राज्यों को टमाटर निर्यात करता है। इसके बावजूद ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी के रात्रिभोज में शामिल होने की हामी नहीं भरी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
प्रकाश दुबे
हिंदी के नामी कवि धूमिल को प्रश्न का उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने लिख मारा-मेरे देश की संसद मौन है। धूमिल के अनुभव से सबक लेते हुए हमें मणिपुर के बारे में न सवाल पूछना है और न कविता लिखनी है। इतनी जानकारी पर्याप्त है कि म्यांमार से तस्करी होती है। समझें कि हिंसा के लिए म्यानमार दोषी है। सबूत हम जुटा देते हैं। अंडमान में चार तस्कर इंजन वाली नौका से हिरासत में लिए गए।
बाकी चार तस्कर तैरकर दलदली झाडिय़ों में भागे। पुलिस ने जान पर खेलकर उन्हें भी खोज लिया। नौका से भारी मात्रा में सी कुकुंबर (समुद्री खीरे) बरामद किए। हंसिए मत। इस सागरी प्राणी का दाम प्रति किलो तीन हजार डालर है। भारतीय पुलिस सेवा की महिला अधिकारी गीतांजली खंडेलवाल की टीम ने यह कारनामा दिखाया। गृहमंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सोच में पड़े होंगे। हमारे वीर बहादुर पुलिस और सैनिक कहां चूक गए। सीमावर्ती क्षेत्रों का अधिकार केंद्रीय दलों को देने के बावजूद तस्कर सैरसपाटे पर आते रहते हैं।
टमाटर पिलपिले हैं
रोबोट की फुर्ती से काम करने वाले प्रवर्तन निदेशालय के संजय कुमार मिश्र को उच्चतम न्यायालय ने तीन तीन बार सेवा विस्तार देने पर कड़ा रुख अपनाया। विक्रम ओर बैताल की तरह मिसर जी का ईडी कार्यकाल भी याद किया जाएगा। उनके नेतृत्व में काम करने वाले विभाग का एक और कारनामा सुप्रीम कोर्ट की नजऱ में आया। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन्मोहन रेड्?डी यूं तो संसद में सरकारी पक्ष का ध्यान रखते हैं, परंतु कुछ मुद्दों पर पारे की तरह फिसल जाते हैं। सबक सिखाने के लिए ईडी ने वाय एस भारती रेड्?डी नाम की महिला की अचल संपत्ति जब्त कर ली। भारती जगन्मोहन रेड्?डी के विरुद्ध मनी लांड्रिंग का मामला दर्ज है। भारती कितना नकद और कितना फिक्स्ड डिपाजिट से जमा करने तैयार थीं, यह जानकर क्या करेंगे? कभी मुंबई उच्च न्यायालय में कार्यरत रहे न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका और उनके सहयोगी संजय करोल के आसान सवाल पर ईडी निरुत्तर था। पिलपिले टमाटर सा। मुकदमे न लडऩे वाले वकील भी जानते हैं कि धन शोधन के लिए 2002 के अधिनियम में अचल संपत्ति जब्त करने का प्रावधान है?
टमाटर की निर्यात को मात
प्रधानमंत्री से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी कि परदेस गए थे, क्या लाए? ऐसी परमाणु पनडुब्बी मिलेगी जिसे राडार नहीं पकड़ सकते। रफाल नाम जाना पहचाना है। अमेरिका और फ्रांस के करारनामों के दरम्यान वाणिज्य मंत्रालय ने निर्यात आंकड़ों की छानबीन की। रपट के मुताबिक पिछले साल की तुलना में हाल की जून छमाही में निर्यात में भारी गिरावट आई। पहली तिमाही की तुलना में दूसरी तिमाही ज्यादा खराब रही। 11 महीनों में 20 खरब की कमी, वह भी डियर डालर की मुद्रा में? मंत्रालय के महान विशेषज्ञों ने कारण तलाश किया। इतना तो माना कि अमेरिका और यूरोप में भारतीय माल की मांग कम तो हुई है, कारण अलग बताए। नंबर-1, अमेरिका यूरोप की विकास गति मंद है। दूसरे मुद्रास्फीति रोकने के लिए ब्याज दर बढ़ा दी। भरोसमंद वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के रहते हुए गड़बड़ी की गुंजाइश नहीं है। आयात भी घटा है। इससे खर्च भी कम हुआ। टमाटर पहलवान महंगा है। दुनिया भर में सोना गिरा। विदेश में चारों खाने चित होने के बावजूद स्वर्ण आयात में 80 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई।
लाल टमाटर की चटनी
दक्षिण की पुरानी हिंदी फिल्मों ने सफलता का इतिहास रचा था। सफल फिल्मों के अंत में पुरा कुनबा परदे पर नजऱ आता था। सिनेमा शौकीन बेंगलूरु शहर के नामी होटल में प्रतिपक्ष के नेता ठहरेंगे। हम साथ साथ हैं, वाली मुद्रा में नेता होर्डिंग में नजऱ आते हैं-यूनाइटेड वी स्टेंड नारे के साथ साथ। क्षत- विक्षत मेहमानों में शरद पवार, उद्धव ठाकरे से लेकर घोसी का विधायक गंवाने के बाद अखिलेश यादव शामिल हैं।
पार्टियों की टूट-फूट और दलबदल कानून की धज्जियां उड़ाने में वैधानिक और संवैधानिक एजेंसियों की भूमिका का कार्यक्रम पत्रिका में उल्लेख हो न हो, चर्चा इसी बात पर होनी है। उपमुख्यमंत्री डी के शिवकुमार मुख्य इंतजाम अली हैं। मुख्यमंत्री का बंगला होटल से लगकर है। इसके बावजूद वे और उपमुख्यमंत्री होटल में रुकेंगे। सोनिया गांधी के लिए सबसे अच्छा सुइट आरक्षित है। मेहमानों को सुर्ख लाल टमाटर की चटनी समेत खास व्यंजन परोसे जाएंगे। कर्नाटक अन्य राज्यों को टमाटर निर्यात करता है। इसके बावजूद ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी के रात्रिभोज में शामिल होने की हामी नहीं भरी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
रेहान फजल
सन् 1977 के चुनाव में जब अटल बिहारी वाजपेयी के दोस्त अप्पा घटाटे ने उनसे पूछा, ‘क्या आप मोरारजी देसाई के नाम पर लोगों से वोट माँगेंगे?’
वाजपेयी ने बिना एक सेकेंड गंवाए जवाब दिया था, ‘क्यों, मैं तो अपने नाम पर वोट लूँगा।’
उन्हें इस बात का पूरा अंदाजा था कि जनता पार्टी में जेपी के बाद उनको सुनने के लिए सबसे ज़्यादा लोग आते थे।
सात फरवरी 1977 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्ष के नेताओं की सफ़ेद एबेंसडर कारें धीरे-धीरे आकर रुकीं। वो ज़्यादातर बूढ़े लोग थे। वो धीरे-धीरे सीढिय़ाँ चढक़र मंच पर पहुँचे।
एक के बाद एक हर नेता ने जेल में उनके साथ हुई ज़्यादतियों के बारे में वहाँ मौजूद लोगों को बताया। सभी नेताओं के एक जैसे भाषणों के बावजूद लोग वहाँ जमे रहे।
करीब साढ़े नौ बजे के आसपास अटल बिहारी वाजपेयी की बारी आई।
उनको देखते ही सारी भीड़ खड़े होकर ताली बजाने लगी। वाजपेयी ने धीमी मुस्कान के साथ अपने दोनों हाथ उठाकर चुप हो जाने का इशारा किया।
इसके बाद उन्होंने अपनी आँखें बंद की और बेखयाली के अंदाज़ में एक मिसरा पढ़ा, ‘बड़ी मुद्दत के बाद मिले हैं दीवाने।’ इसके बाद उन्होंने अपना चिरपरिचित पॉज़ लिया, भीड़ बेचैन हो गई।
फिर उन्होंने भीड़ को शांत होने का इशारा करते हुए मिसरा पूरा किया, ‘कहने सुनने को बहुत हैं अफसाने।’ इस बार तालियाँ और जोर से बजीं।
उन्होंने फिर आँखें बंद कीं और मिसरे की अंतिम लाइन पढ़ी, ‘खुली हवा में जरा साँस तो ले लें, कब तक रहेगी आजादी कौन जाने।’ भीड़ तब तक आपे से बाहर हो चुकी थी। वहाँ से आठ किलोमीटर दूर अपने 1 सफदरजंग रोड निवास में बैठी इंदिरा गाँधी को अंदाजा नहीं था कि वाजपेयी उनकी हार की बुनियाद रख चुके थे।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा
सन 1966 में जब इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला तो राममनोहर लोहिया ने ‘गूंगी गुडिय़ा’ कहकर उनका मज़ाक उड़ाया।
लेकिन एक साल के अंदर ही इंदिरा गाँधी ने इस छवि से छुटकारा पा लिया और वो विपक्ष के हमलों का जवाब उन्हीं के अंदाज में देने लगीं।
इंदिरा गाँधी की आर्थिक नीतियों ने जनसंघ के खेमे में मतभेद पैदा कर दिए।
भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक और जनसंघ के राज्यसभा सांसद दत्तोपंत थेंगड़ी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में प्रस्ताव पेश किया।
पार्टी के वरिष्ठ नेता बलराज मधोक ने उसका यह कहते हुए विरोध किया कि उनकी पार्टी के 1967 के चुनावी घोषणापत्र में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया गया है।
मधोक अपनी आत्मकथा ‘जिंदगी का सफर भाग -3’ में लिखते हैं, ‘लंच के दौरान वाजपेयी मुझे ये बताने आए कि बैंकों के बारे में थेंगड़ी के प्रस्ताव को आरएसएस का आशीर्वाद प्राप्त है।’
भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष
बलराज मधोक
हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘वाजपेयी द एस्सेंट ऑफ द हिंदू राइट 1924-1977’ के लेखक अभिषेक चौधरी लिखते हैं, ‘वाजपेयी ने संसद में पहले बैंक राष्ट्रीयकरण की जन-विरोधी कहकर आलोचना की थी लेकिन जल्द ही उन्हें इस कदम के लोकप्रिय होने का अंदाजा हो गया था।’
‘उत्तरी भारत में जनसंघ के समर्थक व्यापारी वर्ग को भी महसूस हुआ कि बैंकों की ऋण नीतियों में बदलाव से उनको भी फायदा होगा।’
जनसंघ के अखबार ऑर्गेनाइजर ने अपने 23 अगस्त, 1969 के अंक में लिखा, ‘वाजपेयी का मानना था कि इंदिरा गाँधी का बैंक राष्ट्रीयकरण का फैसला कतई आर्थिक न होकर पूरी तरह से राजनीतिक था।’
‘वो एक तरह से सत्ता में बने रहने का उनका हथियार था। वाजपेयी ने हवा के खिलाफ जाने को बुद्धिमानी नहीं समझा।’
प्रिवी पर्स के मुद्दे पर इंदिरा गांधी से टकराव
अटल बिहारी वाजपेयी और इंदिरा गाँधी के बीच पहला खुला टकराव पूर्व राजाओं को दिए जाने वाले प्रिवी पर्स (सरकारी भत्ता) के मुद्दे पर हुआ।
एक सितंबर, 1969 को लोकसभा ने दो-तिहाई बहुमत से राजाओं को प्रिवी पर्स न दिए जाने का बिल पास किया।
लेकिन तीन दिन बाद ये बिल राज्यसभा में मात्र एक वोट से गिर गया। इंदिरा गाँधी इस पर चुप नहीं बैठीं।
उन्होंने 5 सितंबर को एक अध्याधेश जारी करके राजाओं का प्रिवी पर्स समाप्त कर दिया।
अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे संसद और संविधान के अपमान की संज्ञा दी।
मैंने अभिषेक चौधरी से पूछा कि ये जानते हुए भी कि प्रिवी पर्स के मुद्दे पर इंदिरा गाँधी को जनसमर्थन हासिल है, वाजपेयी ने उसका विरोध क्यों किया?
इस पर चौधरी का जवाब था, ‘जनसंघ राजमाता सिंधिया और दूसरे राजाओं की वजह से प्रिवी पर्स हटाए जाने के विरोध में था। फरवरी, 1970 में ग्वालियर में हुए एक समारोह में जिसमें वाजपेयी भी उपस्थित थे, विजयराजे सिंधिया के बेटे माधवराव सिंधिया ने जनसंघ की सदस्यता ली थी।’
चौधरी बताते हैं कि इस फैसले का मध्य प्रदेश की राजनीति पर असर पडऩा लाजिमी था जहाँ ग्वालियर दरबार के राजनीतिक असर की अनदेखी नहीं की जा सकती थी।
प्रिवी पर्स पर राष्ट्रपति के अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिसंबर को सुनाए अपने फ़ैसले में अध्यादेश को असंवैधानिक और अवैध घोषित कर दिया।
अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे सरकार के मुँह पर एक तमाचे की संज्ञा दी।
इंदिरा गाँधी पर शब्दबाण
सन 1971 के चुनाव प्रचार में वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी पर जोरदार हमला बोलते हुए कहा, ‘प्रधानमंत्री भारतीय लोकतंत्र में जो कुछ भी पवित्र है, उसकी दुश्मन हैं।’
‘जब उनकी पार्टी ने राष्ट्रपति पद के लिए उनके उम्मीदवार को स्वीकार नहीं किया तो उन्होंने पार्टी ही तोड़ दी। जब संसद ने प्रिवी पर्स समाप्त करने के बिल को पास नहीं किया तो उन्होंने अध्यादेश का सहारा लिया।’
‘जब सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश को अवैध करार दिया तो उन्होंने लोकसभा भंग कर दी। अगर ‘लेडी डिक्टेटर’ का बस चले तो वो शायद सुप्रीम कोर्ट को भी भंग कर देंगी।’
वाजपेयी ने इस बात की भी शिकायत की कि प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार के लिए वायुसेना के विमान का सहारा ले रही हैं, जबकि वाजपेयी को इंडियन एयरलाइंस के मामूली विमान में सीट बुक कराने तक में दिक्कत आ रही है और वो विमान भी रहस्यमय ढंग से घंटों की देरी से उड़ रहे हैं।
चुनाव प्रचार के ही दौरान जब वाजपेयी दिल्ली के बोट क्लब में सरकारी कर्मचारियों को संबोधित कर रहे थे, एक पीले रंग के दो सीटों वाले विमान ने ऊपर से चुनावी पर्चे गिराने शुरू कर दिए।
अभिषेक चौधरी लिखते हैं, ‘ये प्रधानमंत्री के बड़े बेटे राजीव गाँधी की योजना थी। पहले तो वाजपेयी ने इसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा, ‘ये पर्चे हवा में उडऩे दीजिए। मैं तो आपके वोट जमा करने आया हूँ।’’ लेकिन जब विमान ने वहाँ से हटने का नाम नहीं लिया और उसने वहाँ के कुल 23 चक्कर लगाए तो वाजपेयी ने इसे प्रजातंत्र की तौहीन बताया।
उन्होंने पर्चे बरसाते जहाज की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘क्या ये प्रजातंत्र है?’
1971 की लड़ाई में इंदिरा गाँधी को समर्थन
सन् 1971 के चुनाव परिणाम के बारे में वाजपेयी का आकलन बिल्कुल ग़लत निकला।
उन्हें उम्मीद थी कि उनकी सम्मानजनक हार होगी लेकिन उन्हें इस बात से बहुत धक्का लगा कि महागठबंधन को मात्र 49 सीटें मिलीं और जनसंघ की सीटों की संख्या 35 से घटकर सिर्फ 22 रह गई और उनमें से भी अधिकतर मध्य प्रदेश और राजस्थान के उन इलाकों से मिली जहाँ पूर्व राजाओं की पूछ अब भी थी।
बाकी के हिंदी भाषी इलाकों में पार्टी को मात्र 7 सीटों से संतोष करना पड़ा।
नवंबर,1971 में इंदिरा गाँधी ने तय किया कि भारत 4 दिसंबर को पाकिस्तान पर हमला करेगा, लेकिन पाकिस्तान ने इससे एक दिन पहले भारतीय हवाई ठिकानों पर हमला शुरू कर दिया।
अगले दो हफ्तों तक वाजपेयी ने संसद की कार्रवाई में भाग लेने और दिल्ली में जनसभाओं को संबोधित करने में अपना समय बिताया।
इस बीच उनकी तरफ से एक दिलचस्प वक्तव्य ये भी आया कि ‘इंदिराजी अब जनसंघ की नीतियों पर चल रही हैं।’
लेकिन साथ ही साथ उन्होंने ये ऐलान भी किया कि युद्ध की मुहिम में उनकी पार्टी का सरकार को पूरा समर्थन हासिल है। जब सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद में युद्ध विराम के अमेरिकी प्रस्ताव को वीटो किया तो वाजपेयी ने यू-टर्न करते हुए सोवियत संघ को धन्यवाद दिया और कहा कि ‘जो भी देश हमारे संकट के दौरान हमारे साथ खड़ा है, हमारा दोस्त है। हम अपनी वैचारिक लड़ाई बाद में लड़ सकते हैं।’
वाजपेयी ने इंदिरा के समर्थन में बोलते हुए कहा, ‘मैं ख़ुश हूँ कि इंदिरा गाँधी याह्या खाँ को सबक सिखा रही हैं। हमारे पास एक ऐतिहासिक मौका है कि हम एक धर्मशासित देश को समाप्त कर दें या उसके जितना संभव हो उतने छोटे टुकड़े कर दें।’
इंदिरा को दुर्गा का अवतार कभी नहीं कहा
आम धारणा ये है कि जिस दिन ढाका में पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी को दुर्गा के अवतार की संज्ञा दी।
अभिषेक चौधरी इस धारणा को सिरे से नकारते हैं।
वो कहते हैं, ‘वास्तविकता ये है कि 16 दिसंबर के दिन वाजपेयी संसद में मौजूद नहीं थे। वो या तो कहीं की यात्रा कर रहे थे या बीमार थे। जब इंदिरा गाँधी ने युद्धविराम पर चर्चा करने के लिए विपक्ष की बैठक बुलाई थी तो वो उसमें मौजूद नहीं थे।’
‘अगले दिन जब इंदिरा गाँधी ने युद्ध विराम का समर्थन करने के लिए सभी दलों को धन्यवाद दिया तो वाजपेयी ने खड़े होकर कहा, ‘हम युद्धविराम नहीं चाहते हैं। हम हमेशा के लिए अपने प्रति शत्रुता को समाप्त करना चाहते हैं, इसके लिए जरूरी है कि पश्चिमी सेक्टर में लड़ाई जारी रखी जाए।’
तब के लोकसभा अध्यक्ष गुरदयाल सिंह ढिल्लों ने इस पर बहस की अनुमति नहीं दी और वाजपेयी को डाँटते हुए कहा, ‘इस शुभ मौके पर उन्हें इस तरह की असंवेदनशील बात नहीं करनी चाहिए।’
दो दिन बाद जब संसद के केंद्रीय हॉल में इंदिरा गाँधी को बधाई देने के लिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठक हुई तो वाजपेयी उसमें जानबूझकर शामिल नहीं हुए।
इंदिरा के लिए सौहार्द कड़वाहट में बदला
कुछ दिनों बाद वाजपेयी विजय रैली को संबोधित करने बंबई गए। वहाँ उन्होंने जनसभा में कहा, ‘देश ने कई शताब्दियों में इस तरह की जीत हासिल नहीं की है। इस जीत के असली जिम्मेदार भारतीय सैन्य बल हैं।’
उन्होंने इंदिरा गाँधी की भी ये कहकर तारीफ की कि उन्होंने दो सप्ताह की लड़ाई में ठंडे दिमाग से काम लिया और देश को आत्मविश्वास से भरा नेतृत्व प्रदान किया। लेकिन तीन महीने बाद राज्यों के विधानसभा चुनाव आते-आते इंदिरा गाँधी के प्रति उनका सौहार्द करीब-करीब समाप्त हो चुका था। उनकी शिकायत थी कि इंदिरा गाँधी ने 1967 से 1972 के बीच जनसंघ की ओर से दिल्ली में स्वच्छ प्रशासन देने के मामले में कभी जनसंघ के लिए अच्छे शब्द नहीं कहे।
वाजपेयी ने कहा कि वो हर जगह ये ही कहती रहीं कि जनसंघ ने सडक़ों और कॉलोनियों के नाम बदलने के अलावा कुछ भी नहीं किया है। ऑर्गनाइजर ने 4 मार्च, 1972 के अपने अंक में वाजपेयी को ये कहते बताया, ‘इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान से लड़ाई शुरू करने में देर कर दी और युद्धविराम भी समय से पहले कर दिया।’
‘उन्होंने सोवियत दबाव में युद्धविराम किया वो भी सेनाध्यक्षों से सलाह मशविरा किए बगैर। अगर पाकिस्तान के साथ लड़ाई कुछ दिनों तक और चलती तो पाकिस्तानी सेना की कमर टूट जाती।’
वाजपेयी को इंदिरा गाँधी का जवाब
जुलाई, 1972 में पाकिस्तान के साथ हुए शिमला समझौते को वाजपेयी ने पसंद नहीं किया। उनकी शिकायत थी कि भारत ने पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर लिए बग़ैर पंजाब और सिंध में पाकिस्तान से जीती जमीन उन्हें वापस कर दी। इस दौरान उन्होंने राजस्थान सीमा पर पाकिस्तान से जीते हुए शहर गादरा जाने का फैसला किया।
अभिषेक चौधरी लिखते हैं, ‘वो अपने साथ 64 सत्याग्रहियों को लेकर गए। वो सब नारे लगा रहे थे, ‘देश न हारा, फौज न हारी, हारी है सरकार हमारी।’
चिलचिलाती धूप और आँधी का सामना करते हुए चार किलोमीटर का रास्ता तय कर वो गादरा शहर में दाखिल हुए। जीते गए इलाके के 180 मीटर अंदर आने पर वाजपेयी को उनके सभी साथियों के साथ गिरफ़्तार कर ट्रकों पर बैठाकर भारतीय क्षेत्र में ले आया गया। वहाँ से लौटने पर वाजपेयी ने बोट क्लब पर भीड़ को संबोधित करते हुए इंदिरा गाँधी से सवाल पूछा, ‘क्या आखिरी दिन क्रेमलिन से संदेश आने के बाद शिमला में गतिरोध टूटा था?’
अब तक इंदिरा गाँधी वाजपेयी के आरोपों की अनदेखी करती आई थीं। लेकिन इस बार उन्होंने वाजपेयी के सवाल का जवाब देते हुए कहा, ‘सिर्फ हीनभावना से ग्रस्त व्यक्ति इस तरह के आरोप लगा सकता है। क्या हम अपने करोड़ों लोगों की आवाज़ सुनें या हर समय सियापा करने वाले चंद लोगों की? वाजपेयी ने पिछला पूरा साल मेरा मजाक उड़ाते हुए बिताया है। क्या वाजपेई इस बात का खंडन करेंगे कि बाँग्लादेश आज वास्तविकता है?’
मारुति और मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का मामला
दो सालों के अंदर ही वाजपेयी को इंदिरा गाँधी पर हमला करने का मौका मिला। जब उनके बेटे संजय गाँधी ने मारुति कार
फैक्ट्री लगाई तो वाजपेयी ने उस पर तंज कसते हुए कहा, ‘ये कंपनी मारुति लिमिटेड नहीं, करप्शन अनलिमिटेड है।’
जब इंदिरा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ जजों की अनदेखी करते हुए एएन राय को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया तो वाजपेयी को इंदिरा पर हमला करने का एक और मौका मिल गया।
वाजपेयी ने कटाक्ष करते हुए कहा, ‘कल ये कहा जा सकता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और संघ लोक सेवा आयोग के प्रमुख का सामाजिक दर्शन भी सरकार के अनुरूप होना चाहिए। क्या ये नियम सशस्त्र सेनाओं पर भी लागू होगा? कानून जी-हजूरी करने वाले लोगों की मदद से नहीं बन सकता। इसके लिए आजाद न्यायपालिका का होना जरूरी है।’
सन् 1974 में जब भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो वाजपेई ने भारतीय परमाणु वैज्ञानिकों की तारीफ तो की लेकिन प्रधानमंत्री को इसका श्रेय नहीं दिया।
जगजीवन राम को चाहते थे प्रधानमंत्री बनवाना
सन् 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की जीत में भारतीय जनसंघ को सबसे अधिक 90 सीटें मिलीं। भारतीय लोक दल को 55 और सोशलिस्ट पार्टी को 51 सीटें मिलीं। सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते वाजपेयी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश कर सकते थे।
अभिषेक चौधरी कहते हैं, ‘इसका कारण ये था कि वाजपेयी की उम्र उस समय सिर्फ 52 वर्ष थी। मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चरण सिंह के मुकाबले उन्हें तब तक प्रशासन का कोई अनुभव नहीं था।’
‘अगर नेतृत्व की दौड़ में वाजपेयी भी कूद पड़ते तो नई-नई बनी जनता पार्टी के लिए और मुसीबतें खड़ी हो जातीं। रणनीति का तकाजा था कि वाजपेयी इस बार पीछे रहें और अपनी बारी का इंतज़ार करते।’
वाजपेयी ने शुरू में प्रधानमंत्री पद के लिए जगजीवन राम को अपना समर्थन दिया था। संसद में विरोधी होते हुए भी जगजीवन राम से उनकी बनती थी।
मोरारजी देसाई जिद्दी थे और उनमें लचीलेपन की कमी थी। जगजीवन राम को समर्थन देने से दलितों के बीच संघ परिवार की छवि सुधरने वाली थी। लेकिन चरण सिंह ने सारे किए-कराए पर पानी फेर दिया।
उन्होंने अस्पताल की अपनी पलंग से लिखे पत्र में जगजीवन राम की उम्मीदवारी को इस तर्क के साथ ख़ारिज कर दिया कि उन्होंने संसद में आपातकाल का प्रस्ताव पेश किया था।
वाजपेयी के पास मोरारजी देसाई का समर्थन करने के अलावा कोई चारा नहीं रहा।
जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री बने
चरण सिंह के रहते वाजपेयी को जनता सरकार में गृह मंत्रालय मिलने का सवाल नहीं था। मोराजी देसाई ने उनके सामने रक्षा या विदेश मंत्रालय में से एक विभाग को चुनने के लिए कहा। वाजपेयी को विदेश मंत्रालय चुनने में एक सेकेंड का भी समय नहीं लगा।
चुनाव के बाद रामलीला मैदान में एक जनसभा को संबोधित करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी को निशाना बनाते हुए वो मशहूर वाक्य बोला, ‘जो लोग अपने को भारत का पर्यायवाची कहते थे, उन्हें जनता ने इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया।’
यह अलग बात है कि इंदिरा गाँधी ने वाजपेयी को गलत साबित किया और तीन साल बाद एक बार फिर सत्ता में वापसी की।
वाजपेयी की भी बारी आई और उन्होंने 1996 और फिर 1998 और 1999 में भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उनकी सरकार पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया था। (bbc.com/hindi)
- चंदन कुमार जजवाड़े
बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी एकता को लेकर जो उत्साह देखा गया था, वह अचानक गायब क्यों है? क्या आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल की शर्त ने इस एकता को बनने से पहले ही बिगाड़ दिया है? या विपक्षी दलों की अपनी समस्याओं ने इस एकता की संभावना को झटका दिया है?
साल 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी और नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई महीनों से कोशिश में लगे हुए हैं। पिछले महीने 23 जून को पटना में 15 विपक्षी दलों की मीटिंग इस लिहाज से एक बड़ी सफलता मानी जा रही थी।
पटना की मीटिंग के बाद यह तय हुआ था कि 10 से 12 जुलाई के बीच शिमला में विपक्षी दलों की दूसरी मीटिंग होगी जिसमें राज्यों में लोकसभा सीटों के बंटवारे पर चर्चा की जाएगी। इस मीटिंग की जि़म्मेवारी कांग्रेस पार्टी पर सौंपी गई थी। पहले से तय शिमला की यह मीटिंग रद्द हो चुकी है और अब यह मीटिंग 17 और 18 जुलाई को बेंगलुरु में होगी। इस बीच आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव ने भी दावा किया है कि बेंगलुरु में 17 दल एक साथ आ रहे हैं। लालू यादव ने कहा, ‘वो (बीजेपी को) जो कहना है, कहते रहें, वो नहीं चाहते हैं कि इस पर चर्चा हो क्योंकि वो जा रहे हैं।’
दरअसल विपक्षी एकता को लेकर चर्चा के बंद होने से ही विपक्षी एकता पर सवाल खड़े हुए हैं। हालांकि, इस सवाल की शुरुआत पटना की मीटिंग के बाद ही हो गई थी। उस वक्त आम आदमी पार्टी ने बयान जारी कर अपनी नाराजगी जाहिर की थी।
पहली दरार
पिछले महीने की 23 तारीख को पटना में हुई मीटिंग के बाद अरविंद केजरीवाल ने यह शर्त रख दी थी कि जब तक कांग्रेस दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर अपना रुख़ सार्वजनिक नहीं करेगी तब तक आप ऐसी किसी भी मीटिंग का हिस्सा नहीं बनेगी जिसमें कांग्रेस भी मौजूद होगी। हालांकि, कांग्रेस ने पटना की मीटिंग में दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की बात कही थी। लेकिन आप का कहना है कि कांग्रेस सार्वजनिक तौर पर इसकी घोषणा करे।अब बेंगलुरु की मीटिंग के पहले भी आम आदमी पार्टी ने इसी शर्त को दोहराया है।
आप की शर्त
आप के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने बीबीसी से कहा है, ‘हमारा रुख इस मामले में स्पष्ट है। कांग्रेस पहले दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर हमें समर्थन देने की बात सार्वजनिक तौर पर कहे। हम इंतज़ार कर रहे हैं कि कांग्रेस अपने समर्थन का घोषणा करे।’
संजय सिंह ने दावा किया है कि कांग्रेस ने पटना में सभी विपक्षी दलों के सामने कहा था कि वह संसद के मॉनसून सत्र के 15 दिन पहले ही दिल्ली सरकार को अपने समर्थन का एलान करेगी, लेकिन उसने अब तक ऐसा नहीं किया है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसमें कांग्रेस खुद असमंजस में नजर आती है। इसकी सबसे बड़ी वजह है यह है कि राज्य स्तर पर कांग्रेस के कई नेता आम आदमी पार्टी को लेकर सतर्क हैं।
कांग्रेस की दुविधा
आम आदमी पार्टी से दिल्ली, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में कांग्रेस को बड़ा नुकसान हुआ है इसलिए कांग्रेस इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रही है।
अगर केजरीवाल विपक्षी एकता के गुट से अलग होते हैं तो इसका नुकसान कांग्रेस को दिल्ली, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गोवा में हो सकता है, जहां आप कांग्रेस के वोट बैंक को झटका दे सकती है।
कांग्रेस अगर अरविंद केजरीवाल के साथ खड़ी होती है तो भी उसे कम से कम दिल्ली और पंजाब में कई सीटों पर आप से समझौता करना पड़ सकता है। जबकि साल 2019 लोकसभा चुनावों के लिहाज़ से इन दोनों राज्यों में कांग्रेस आप से बेहतर स्थिति में नजर आ रही है।
आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के अलावा भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिसने विपक्षी एकता की चर्चा अचानक गायब हो गई है।
इसमें सबसे बड़ी वजह महाराष्ट्र में एनसीपी में हुई टूट है। एनसीपी के विभाजन के बाद इसका विपक्षी दलों के एक बड़े नेता शरद पवार की ताक़त पर असर पड़ा है।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘अजित पवार ने एनसीपी से जो बगावत की है उससे असर पड़ा है और एक तरह का संशय पैदा हुआ है। एनसीपी में टूट से शरद पवार को बड़ा धक्का लगा है, इससे शरद पवार की आवाज भी कमजोर हुई है।’ हालांकि, विपक्षी गुट में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि एनसीपी में जैसी टूट हुई है वह पहली बार नहीं हुआ है।
पश्चिम बंगाल में मौजूद समस्याएं
इससे पहले मध्य प्रदेश में कांग्रेस को तोड़ा गया, यह सिलसिला पहले से चल रहा है। उमर अब्दुल्ला ने दावा किया है, ‘मैं नहीं मानता इससे शरद पवार कमजोर हुए हैं। वो इससे और मजबूत हुए हैं। इसका नतीजा तब सामने आएगा जब लोगों को वोट देने का मौका मिलेगा।’ वहीं ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी के सांसद सौगत राय ने तो स्पष्ट तौर पर बयान दिया है कि टीएमसी अकेले दम पर राज्य में लोकसभा चुनाव लड़ सकती है, और हमें किसी विपक्षी एकता की जरूरत नहीं है। इस तरह के बयानों से भी विपक्षी एकता को झटका लगा है।
बिहार में कैसी हैं चुनौतियां
बिहार में भी विपक्षी एकता को लेकर आशंका के बादल मंडरा चुके हैं। इसकी बड़ी वजह लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहते हुए कथित ‘लैंड फॉर जॉब’ घोटाले में सीबीआई की ओर से अपनी चार्जशीट में तेजस्वी यादव का नाम शामिल किया जाना है। अब बीजेपी इस मुद्दे पर तेजस्वी यादव का इस्तीफ़ा मांग रही है जो फि़लहाल बिहार में उप मुख्यमंत्री के पद पर बैठे हैं।
बिहार में ऐसी भी अफवाहों का बाजार गर्म रहा कि इस मुद्दे पर नीतीश कुमार और आरजेडी के बीच दूरियां बढ़ सकती हैं और इस मुद्दे पर जेडीयू टूट सकती है। हालांकि, सोमवार को नीतीश और तेजस्वी दोनों एक साथ बिहार विधानसभा के मॉनसून सत्र में भाग लेने पहुंचे।
जेडीयू नेताओं ने इस बात का खंडन किया है कि महागठबंधन में किसी तरह का मतभेद है।
वहीं आरजेडी सांसद मनोज झा ने भी बयान जारी कर कहा है कि बिहार में कभी भी रिसॉर्ट पॉलिटिक्स नहीं हो सकती है, इसलिए लोग इसकी चिंता न करें। बिहार पूरी तरह सुरक्षित है।
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं कि इस तरह की अटकलें या खबरें बीजेपी को भी रास आती हैं, लेकिन नीतीश कुमार अगर आरजेडी से रिश्ता तोड़ते हैं तो उनके पास एकमात्र विकल्प बीजेपी के साथ जाने का रह जाता है जिसकी संभावना अब नहीं के बराबर नजर आती है।
वहीं समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विपक्षी नेताओं के समर्थन में कहा है, ‘क्या बीजेपी में सब एकमत हैं, वहां इंजन एक-दूसरे को टक्कर मार रहे हैं। राजनीति में कई लोगों के सुझाव और विचार आते हैं। हमारी कोशिश होगी कि ज़्यादा से ज़्यादा दल एक साथ आएं।’
बीजेपी की तैयारी
एक तरफ जहां विपक्षी दल बेंगलुरु में मीटिंग की तैयारी कर रहे हैं, वही बीजेपी भी अपनी ताक़त और सहयोगी बढ़ाने के मुहिम में लगी हुई है। बीजेपी बिहार में भी जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तान आवाम मोर्चा को अपने साथ जोडऩे में कामयाब रही है।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी के मुताबिक़ संभावना यह भी है कि एलजेपी के चिराग पासवान भी जल्द ही एनडीए में शामिल हो सकते हैं और उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाए जाने की ख़बरें भी सामने आ रही हैं। प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘इस तरह से बीजेपी का भी उत्साह बढ़ा हुआ है और इससे महागठबंधन के मुकाबले वह भी तैयार हो रही है। दोनों पक्ष अपनी तैयारियों में लगे हुए हैं, इसलिए भी विपक्षी एकता की चर्चा थोड़ी कमजोर हुई है।’
प्रमोद जोशी के मुताबिक, ‘कोई भी बात अचानक ख़त्म नहीं होती है। अगर हमारे पास खबरें नहीं आ रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि विपक्षी एकता को लेकर कुछ नहीं हो रहा है।’ ‘मैं नहीं मानता कि नेताओं के स्तर पर कुछ नहीं हो रहा है। जहां तक खबरों की बात है तो मीडिया के सामने कभी प्रधानमंत्री का विदेश दौरा तो कभी बाढ़ जैसी खबरें होती हैं इसलिए विपक्षी एकता की खबर कम दिखाई दे रही है।’
संभावना
संसद का मॉनसून सत्र 20 जुलाई से शुरू होने जा रहा है, जो 11 अगस्त तक चलेगा। यह सत्र तय कर सकता है कि आम आदमी पार्टी विपक्षी एकता के साथ जुड़ेगी या नहीं।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच एक बेरुखी पैदा हो गई है। हालांकि अभी इसकी कोई औपचारिक घोषणा नहीं की गई है, हमें देखना होगा कि आप बेंगलुरु की मीटिंग में शामिल होती है या नहीं।’
आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के सामने जिस तरह की शर्त रख रही है उसमें कांग्रेस को दिल्ली से जुड़े अध्यादेश के मुद्दे पर दिल्ली सरकार को अपना समर्थन मॉनसून सत्र के पहले ही ज़ाहिर करना होगा। भले ही कांग्रेस ने बंगलुरु बैठक के लिए आम आदमी पार्टी को भी न्योता भेजा है। लेकिन कांग्रेस की तरफ से दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर अब किसी फैसले की सार्वजनिक घोषणा नही की गई है। ऐसे में थोड़े इंतजार के बाद ही कांग्रेस और फिर आम आदमी पार्टी का रुख साफ हो पाएगा। उसके बाद ही यह भी स्पष्ट होगा कि पटना में 15 विपक्षी दल मीटिंग में शामिल हुए थे, तो बेंगलुरु में यह संख्या 14 होगी या 17। (bbc.com/hindi)
दूसरी किस्त, कल के अंक से आगे
(5) नरेन्द्रनाथ की समझ में खानपान से धार्मिक अनुभूतियों का कोई रिश्ता नहीं था। यही उनकी तरुण समझ थी। श्रीरामकृष्णदेव के बाकी शिष्यों से अलग नरेन्द्र से उनका बेतकल्ल्लुुफ रिष्ता भी था। एक बार नरेन्द्र ने आकर कहा, ‘गुरुदेव मैंने आज वह सब खा लिया है जिसकी धार्मिक लोगों के लिए मनाही है। अद्भुत रहस्यमय, आध्यात्मिक गुरु ने ताड़ लिया कि शिष्य निष्कपट भाव से सांसारिकता के मकडज़ाल से ऊपर उठकर साफगोई बात कह रहा है। उन्होंने जवाब दिया कोई बात नहीं इससे तुमको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यदि कोई व्यक्ति ईश्वर में ध्यान केंद्रित रखकर गोमांस या सुअर का मांस भी खाता है, तो उसके लिए वह भोजन हविश्य अन्न की तरह पवित्र है। कोई अगर सांसारिकता की बुराइयों में डूबा रहे तो उसके लिए तो वही भोजन गोमांस या सुअर के मांस के बराबर है। यदि तुमको छोडक़र किसी अन्य षिष्य ने ऐसा किया होता, तो मैं बर्दाश्त नहीं करता कि वे मुझे छू भी लें। (दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द बाइ हिज ईस्टर्न एण्ड वेस्टर्न डिसाइपल्स खण्ड 1, पृष्ठ 93)।
(6) विवेकानन्द के दिनों में खासतौर पर बंगाल में कायस्थों को शूद्र की श्रेणी में गिना जाता था। वहां के ब्राम्हण इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि एक कायस्थ विवेकानन्द किस हैसियत में धार्मिक कृत्यों में संलग्न है। और उपदेश भी कर रहे हैं। मुसलमानों, इसाइयों सहित निम्नतर हिन्दुओं के लिए म्लेच्छ षब्द का संबोधन किए जाने की भी ब्राम्हण परंपरा रही है। खासतौर पर पुरोहितों और ब्राम्हणों को जब पता लगा कि विवेकानन्द एक धर्मोपदेशक की भूमिका में अमेरिका गए हैं। तब उन्होंने अन्य बातों के अलावा इस बात पर भी आपत्ति की कि वे वहां पर जाति पांति, धर्म, कर्म का षासकीय अनुशासन का उल्लंघन करते किसी के भी हाथ का बना खाना खा रहे हैं। जिसमें मांसाहार भी शामिल है। इससे तो खासतौर पर हिन्दू धर्म की हेठी हो रही है। तब विवेकानन्द ने अपने शिष्यों को लिखा था कि जो लोग मेरी आलोचना कर रहे हैं। उनसे कहिए खानपान की कथित आदत के नाम पर वे मेरे लिए अमेरिका में किसी भारतीय या समकक्ष रसोइए का प्रबंध कर दें। तब मैं उसके हाथ का बना हुआ ही खाना खाने में प्रसन्नता का अनुभव करूंगा। लेकिन ऐसा ना होना था और ना हुआ। विवेकानन्द ने कहीं यह भी लिखा है कि प्राचीन धर्म ग्रंथों में इस बात का उल्लेख है कि प्राचीन काल में एक ब्राहमण ब्राहमण नहीं कहलाता था। यदि वह गोमांस नहीं खाता था। यहां तक कि एक हिन्दू अच्छा हिन्दू नही माना जाता था यदि वह गोमांस नहीं खाता था। हालांकि अब वह एक अप्राकृतिक और अनैतिक काम भारत में माना जा रहा है। (वि. सा. 3/174.1 और 536.1)
विवेकानन्द ने यह भी कहा था:
13. जब तक मनुष्य को राजकीय अर्थात क्रियाशील जीवन जीना है जो मौजूदा हालातों में है तब कोई विकल्प नहीं सिवाय इसके कि उसे मांसाहार करना पड़े। (वि.सा. 4/86.3)
14.शिष्यों को ताकतवर बनाने के मकसद से उन्होंने कहा था खूब डटकर मांस और मछली खाओ मेरे बच्चों! (वि0सा0 5/402.3), (वि.सा. 5/4031)
15. रामायण और महाभारत के कथानक में ऐसी कई घटनाएं हैं। जब मदिरापान करना और मांस खाना राम और कृष्ण के लिए भी दिखाया गया है जिन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। (वि.सा. 5/482.2)
16. मांस खाना निश्चित तौर पर क्रूरूरतापूर्ण है। इससे कौन इंकार कर सकता है। लेकिन जिन्हें अपनी जिंदगी को चलाने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है। उन्हें मजबूर होकर तो मांस खाना ही पड़ता है। (वि.सा. 5/485.2)
17. पश्चिम में गरीबों का मुख्य भोजन और अमीरों के इलाके में भी गरीबों का मुख्य भोजन डबलरोटी और आलू है। मांस कभी कभी ही खाया जाता है। (वि. सा. 5/492.3)
18. जब तक मिलिटरी की ताकत हुकूमत करेगी। मांसाहार चालू रहेगा। लेकिन विज्ञान के विकास के कारण संघर्ष घटेंगे तब षाकाहार बढ़ेगा। (वि.सा. 7/29.1)
19. मांसाहारी पशु मसलन शेर एक झपट्टा मारता है और फिर खामोश हो जाता है। लेकिन धैर्यवान शाकाहारी बैल पूरे दिन काम करते चलता रहता है। खाता भी है और सोता भी है (वि.सा. 7/28.4)
(बाकी पेज 5 पर)
20. उन्होंंने कभी प्रश्नोत्तर में कहा था कि फल और दूध योगियों के लिए सबसे अच्छा भोजन हैै। (वि.सा. 5/319.4)
21. भोजन के लिए चावल, दाल, चपाती, मछली, सब्जी और दूध मिले तो वह पर्याप्त है। (वि. सा. 5/487.1)
22. उन्होंने वार्तालाप में कहा था कि जब तुम सत्व की स्थिति में आ जाओगे। तब मछली और मांसाहार हर तरह से छोड़ देना। (वि.सा. 5/403.3)
23. सारी पसंदगी मछली और मांस के लिए हवा में उड़ जाती है। जब मनुष्य में सत्व का उदय और विकास होता है। और यह आत्मा के विकास का परिचय है। (वि.सा. 5/ 403.3)
24. आजकल सारे संसार में यह खाना है या वह खाना है का विवाद ही प्रचलित हो गया है। (वि. सा.3/339.3)
25. कोई भी खाद्य मन की पवत्रिता को भ्रष्ट नहीं कर सकता यदि अपने आप को पहचान लेता है। (वि.सा. 4/39501)
26. पुराने जीवन में और आजकल भी यह विवाद जारी है कि पषु मांस आधारित भोजन अच्छा है या बुरा है या केवल शाकाहार पर ही निर्भर रहा जाए। (वि.सा. 5/481.2) (निबन्ध: दी ईस्ट एंड दी वेस्ट)
27. मैंने कई तरह के भोजन बनाने की विधाओं को देखा है। लेकिन उनमें से कोई भी हमारे बंगाल की षानदार भोजन की थालियों का मुकाबला नहीं कर सकती। (वि.सा. 5/490.3) (इसके लिए पुनर्जन्म लेना भी अतिशयोक्ति नहीं है)
28. जैन और बौद्ध किसी भी हालत में मांस और मछली नहीं खाते। (वि.सा. 5/496.2)
सन्यासी अमोघ लीला दास पर इस्कॉन द्वारा एक माह के एकांतवास का बैन लगाना समझ नहीं आया। अमोघ लीला दास को भी अभिव्यक्ति की नागरिक आजादी है। उनसे यह तो कहा जा सकता था कि वे विवेकानन्द के कथित मांसाहार की आदत के चलते तत्कालीन, पारंपरिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और विवेकानन्द की यायावरी से उत्पन्न कठिनाइयों और परिस्थितियों का सम्यक परीक्षण कर वस्तुपरक आकलन करें और फिर अपना स्पष्टीकरण किसी कारण बताओ नोटिस के उत्तर में दे दें। यह इस्कॉन जैसी महत्वपूर्ण संस्था के लिए एक बौद्धिक उपक्रम होता। जिससे उन्होंने जानबूझकर पिंड छुड़ा लिया। महंगे रेशमी वस्त्र पहनकर सात सितारा संस्कृति भोगते अमीरी का धार्मिक प्रचार करते इस्कॉन संस्कृति के प्रवक्ता विश्व के लोकधर्मी यष को समझ भी पाते हैं। इसका भी मुझे भरोसा नहीं है।
बहरहाल खानपान बल्कि धूम्रपान सहित अपनी कई निजी आदतों को सामाजिक संदर्भ में रचकर भी खुद विवेकानन्द ने अपने आप का इतनी बार प्रतिपरीक्षण कर लिया है कि किसी अन्य व्यक्ति को इस संबंध में ज्यादा जांच-परख किए बिना टिप्पणी करना मुनासिब नहीं होगा।
डॉ. सुरेश गर्ग
राज्य में कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी पुलिस की होती है, जिसके लिए उसका एवं उससे जुड़ी जाँच ऐजेंसियों का निरंतर सक्रिय एवं प्रभावशाली बने रहना जरूरी होता है। बिन भय होय न प्रीत! बिना इस व्यवस्था के राज्य का मुखिया सत्ता सिंहासन पर बैठे दूर-दूर तक राज नहीं कर सकता! इसे ही धर्मशास्त्र में ‘राजदण्ड’ व्यवस्था कहा गया है और राजा को ‘दण्ड’!
सामंती या प्रजातांत्रिक हर व्यवस्था में मुखिया का पहला ‘राजधर्म’ अपने राज्य की सीमा की सुरक्षा करते हुए आंतरिक स्तर पर कानून- व्यवस्था बनाये रखना होता है; और यह सब प्रारंभिक रूप से पुलिस और जाँच ऐजेंसियों का अपने अनुसार उपयोग किये बिना संभव नहीं है! एक समय दुनिया में स्कॉटलैंड पुलिस का नाम हुआ करता था और हिंदुस्तान में बंबई (अब वह मुंबई है)पुलिस का। उस राज्य की जनता के बीच पुलिस और अन्य ऐजेंसियों की साख और विश्वसनीयता पर ही राज्यमुखिया का सर्वशक्तिशाली दण्डाधिकारी का रुतबा कायम रहता है। मात्र उसके इशारे पर ये संस्थाएं अपनी संपूर्ण क्षमता से सक्रिय होकर उसकी आज्ञा का पालन करती हैं। वरना इसके विपरीत बिना जनसमर्थन की व्यवस्था एकाधिकारवाद की परिचायक होती है! प्रत्येक प्रशासनिक व्यवस्था का यह मूल एवं स्थायी तत्व है कि अपने से ऊपर के अधिकारी के आदेश का बिना प्रश्न किये पालन करना उसके मातहत का पहला कर्तव्य है! यदि उसे वह आदेश राज्य व्यवस्था नीति के हित में अनुचित लगता है तो वह अपना विरोध प्रकट कर सकता है , फिर भी वह उसको क्रियान्वय करने के लिए बाध्य है,जिसकी जिम्मेदारी संबधित आदेशकर्ता की होगी! यदि मातहत की अंतरात्मा वह कार्य करने में असमर्थ लगे तो वह विरोध करते हुए उस व्यवस्था से बाहर होकर अपने को अलग कर सकता है! जिसके लिए वह जिम्मेदार होगा! यदि इतना कठोर अनुशासन न हो तो प्रशासनिक व्यवस्था अराजक हो जाये! जंगलराज बन जाये! इस कठोर व्यवस्था के कारण ही राजा द्वारा मात्र आँखें तरेरने भर से संपूर्ण राज्य में उसका संदेश पहुँच जाता है, रुतबा कायम रहता है। यह व्यवस्था हिंदुस्तान में ही नहीं, दुनिया में सैंकड़ों बरसों से चली आ रही है। अंग्रेजों की सेना और पुलिस में अधिकांश हिंदुस्तानी हुआ करते थे, परन्तु उन्हें अपने बरिष्ठ का आदेश मानकर जानते हुए भी अपने भाई-बहिनों के विरुद्ध अमानवीय कार्यवाही करनी पड़ती थी। जलियांवाला कांड में बरिष्ठ अधिकारी भी हिंदुस्तानी थे और पुलिस कर्मी भी...! भारतीय शास्त्रों में इसे राजशास्त्र, नृपशास्त्र , दण्डनीति आदि नाम दिये गये हैं। इसके लिए शान्तिपर्व (59/79) में कहा गया है-‘यह विश्व- दण्ड के द्वारा अच्छे मार्ग पर लाया जाता है, या यह शास्त्र दण्ड देने की व्यवस्था करता है, इसी से इसे दण्डनीति की संज्ञा मिली है और यह तीनों लोकों में छाया हुआ है।’
वर्तमान राजनीति में कुशल सफल राजनेता को चाणक्य नाम के संबोधन से अलंकृत किया जाता है, उसी कौटिल्य के अनुसार-‘दण्ड वह साधन है जिसके द्वारा आन्वीक्षिकी, त्रयी (तीन वेद) एवं वार्ता का स्थायित्व, रक्षण अथवा योगक्षेम होता है, जिसमें दण्ड-नियमों की व्याख्या होती है, वह दण्डनीति है; जिसके द्वारा अलब्ध की प्राप्ति होती है,लब्ध का परिरक्षण होता है, रक्षित का विवर्धन होता है और विवर्धित का सुपात्रों में बँटवारा होता है।’
इस व्यवस्था के लिए तुलसीदास जी कह गये हैं-‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं!’ मतलब जिसकी लाठी उसकी भैंस! राजा के लिये कौन रक्षित है, कौन सुपात्र है और कौन विवर्धित (संपन्न को और अधिक संपन्न बनाना) है, यह राजा और राज्य की तात्कालीन जरूरत पर निर्भर करता है! इसीलिए राजनीति में साम दाम दण्ड भेद नीति अपनाने की वकालत की गई है। इसके बावजूद साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे सबसे उत्तम नीति मानी गई है। इस नीति पर खरा उतरने का उदाहरण महिला पहलवान प्रकरण में दिल्ली पुलिस ने बहुत होशियारी से दिया है। यही नहीं उसने दुनिया को दिखा दिया कि हिंदुस्तान पुलिस की ‘आत्मा’ अभी भी वही है! जब पूरा विपक्ष दिल्ली पुलिस पर उंगली उठा रहा था, ना ना प्रकार के लांछन लगा रहा था, तब वह अपना काम बिना किसी प्रतिक्रिया दिया अपनी तरह से कानूनी व्यवस्था के अंदर रह कर ही करती रही। यह बात अलग है कि उसने इस प्रकरण में जो तरीका अपनाया वह सामान्य पद्धति से अलग था! लेकिन उसने ऐसा करके मुखिया एवं राजतंत्र का धर्मसंकट टाल दिया।
मतलब सत्तातंत्र के इशारे का भी मान रख दिया और सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से अतिप्रभावशाली तथाकथित आरोपी पर सामान्य नागरिक की तरह कार्यवाही न करके उसके अहं को कोई नुकसान न पहँचाते हुए ऐसी चार्जशीट बनायी कि फरियादियों एवं जन भावनाओं का पूरा ख्याल रखा हो गया। उनके साथ भी अन्याय नहीं हुआ! वरना यह प्रकरण देश की राजनीति एवं सामाजिक व्यवस्था में भूचाल ला सकता था। अब गेंद माननीय न्यायालय के हाथ में है, जहाँ का निर्णय कोई माने या न माने, पर अकाट्य होता है। अंतिम होता है। भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि अंत में विजय सत्य की होती है। प्रजातंत्र में सत्य यह है कि जैसी प्रजा वैसा राज्य! यदि हम वोट रूपी बीज बबूल का डालेंगे तो आम कहाँ से पैदा होंगे? जैसी करनी वैसी भरनी!
कुमार प्रशांत
मिलान कुंडेरा नहीं रहे ! मैंने तुरंत देखा कि वे कहां थे जब उनकी मृत्यु हुई ? इसलिए नहीं कि मुझे यह पता नहीं था कि वे पिछले कई वर्षों से फ्रांस की राजधानी पेरिस में रह रहे थे बल्कि इसलिए कि वे जहां रह रहे होते थे, वहां होते नहीं थे। मुझे इसी मिलान कुंडेरा का अपार आकर्षण रहा है। वह साहित्यकार भी क्या साहित्य रचेगा जो धरती पर कहीं भी अपना संसार नहीं रच सके।
आप सोच कर देखिए कि मैं एक ऐसे लेखक की बात कर रहा हूं जिसे मैं जानता तो नहीं ही हूं, उसकी भाषा भी नहीं जानता। उसका देश भी मैंने कभी देखा नहीं। यह कहना भी जरूरी है कि उनकी हर रचना मैंने पढ़ी हो, ऐसा भी नहीं है। उनका अधिकांश साहित्य चेक भाषा में है; जब चेक में लिखना उन्होंने घोषणापूर्वक छोड़ दिया, तब के बाद से उनके साहित्य की भाषा फ्रेंच हो गई।
मुझे इन दोनों में से एक भाषा भी नहीं आती है। हममें से अधिकांश लोग मिलान कुंडेरा को अंग्रेजी माध्यम से जानते हैं - अंग्रेजी, जिस भाषा में उन्होंने कभी लिखा नहीं। तो फिर आप ही बताइए, ऐसे लेखक को मुझ जैसा कोई जानेगा भी तो कैसे व कितना! लेकिन मैं आपसे कह सकता हूं कि मैं मिलान कुंडेरा को लगातार अपने आसपास पाता रहा हूं- एक दोस्त लेखक की तरह नहीं, एक सहयात्री की तरह!
यह भी कहना जरूरी है कि यदि निर्मल वर्मा न होते तो मेरे पास मिलान कुंडेरा भी नहीं होते। निर्मल वर्मा ने ही मिलान कुंडेरा से, उनके लेखन से मेरा परिचय करवाया था। वह दुबचैक का चेकोस्लोवाकिया था जिसे रूसी टैंकों ने घेर कर मार डाला था- बहुत कुछ उसी तरह जिस तरह आज वे ही रूसी टैंक यूक्रेन को घेर कर मारते जा रहे हैं।
तब भी ऐसा ही था, आज भी ऐसा ही है कि सारी दुनिया तमाशबीन बनी हुई थी। निर्मल वर्मा तब चेकोस्लोवाकिया में थे और चुप नहीं थे; यहां भारत में जयप्रकाश नारायण थे और चुप नहीं थे। जब भारत में कोई सोवियत खेमे के खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं करता था, जयप्रकाश चेक लोगों की स्वतंत्रता के पक्ष में खुलकर सामने आए थे, एक दबाव खड़ा करने की कोशिश भी की थी।
मानवीय गरिमा के हनन पर जो साहित्य चुप रहे तो वह साहित्य नहीं है; जो गांधीवाला चुप रहे, वह गांधीवाला नहीं है, मेरी यह समझ उसी दौर में बनी। उसी दौर में मिलान कुंडेरा का साहित्य भी बना। विचार न हो तो आदमी होना शक्य नहीं है; प्रतिबद्धता न हो तो कलम उठाने से अर्थहीन काम दूसरा नहीं है।
प्रतिबद्धता और ढोलबाजी में जो फर्क है, उसका विवेक खोये नहीं, यह जरूरी है। मुझे कुंडेरा इसलिए ही पसंद थे, अपने-से लगते थे। वे बला की प्रतिबद्धता से लिखते रहे लेकिन उनके समस्त लेखन में कोई ढोलबाजी नहीं थी।
वे साम्यवादी देश चेकोस्लोवाकिया में पैदा हुए थे। तब का साम्यवाद वह नहीं था जो आज का है- पूंजीवादी घोड़े की दुम पकड़ कर, साम्यवादी नारेबाजी करने वाला विदूषक! वह दुबचैक का दौर था जब वे अपने चेकोस्लोवाकिया में, रूस की तनी भृकुटि के बावजूद साम्यवाद का ‘मानवीय चेहरा’ बनाने में लगे थे।
युवा कुंडेरा उन दुबचैक के साथ खड़े हुए। इसके बाद का पूरा इतिहास रूसी साम्यवादी शासन के पतन का इतिहास है जिसमें कितनी ही मूर्तियां टूटीं, कितनी आस्थाएं बिखरीं तथा कितने ही लोग मिटा दिए गए। दुबचैक खुद ही किसी गतालखाने में डाल दिए गए।
कुंडेरा ने स्वप्नों के बिखरने के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की। फिर वही हुआ जो सबसे सहज था- जिस साम्यवादी पार्टी के वे सदस्य ही नहीं थे बल्कि जिसकी पैरवी करने में वे कुछ भी उठा नहीं रखते थे, उसी पार्टी ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। जितनी आजादी हम दें, उसमें खुश रह कर दिखा वाले साम्यवाद के साथ कुंडेरा का बनना नहीं था; नहीं बना।
पार्टी छोड़ी, फिर देश छोड़ा! रूसी सोल्झेनित्सिन को भी सोवियत संघ छोडऩा पड़ा था और वे जा बसे थे अमरीका में। उनसे देश तो छूटा लेकिन वे कभी देश छोड़ नहीं सके। कुंडेरा ने अपना प्यारा देश छोड़ा, तो ऐसे छोड़ा कि छोड़ ही दिया। पेरिस में आ बसे तो वहीं के हो कर रह गए। भाषा भी छोड़ दी। फ्रेंच में लिखने लगे।
लेखक किसी देश का नहीं, मूल्यों का होता है। अगर मूल्यों की पहचान साफ है और उनके प्रति प्रतिबद्धता पूरी है तो कहीं भी रहो, लिखोगे वही जो लिखना है; और जो लिखना जरूरी है। कुंडेरा ऐसी मान्यता को जीते थे। इसलिए फ्रांस में रहते हुए उन्होंने आजादी, अभिव्यक्ति और अस्मिता तीनों पर लगातार काम किया।
आप कुंडेरा को बोलते कम ही सुनते थे क्योंकि वे मानते थे कि लेखक को नहीं, उसकी रचना को बोलना चाहिए। 1968 में उनकी पहली किताब आई ‘ जोक्स’ यानी हंसी-मजाक लेकिन सत्ता समझ गई कि यह हंसी-मजाक नहीं है, तेजाब है। हंसी-मजाक का आलम यह है मिलान कुंडेरा के यहां कि किताबों के नाम भी उसी की बात करते हैं- लाफेबल लव्स, द बुक ऑफ लाफ्टर; लेकिन आप हंसी-मजाक में इसे उठा लेंगे तो फंस जाएंगे। उनकी आखिरी किताब आई ‘द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग’ - अस्तित्व ऐसा कि हवा में तिरता पंख हो; प्रतिबद्धता ऐसी ही कि जैसे पहाड़ उठा रखा हो, इसका द्वंद्व है यह उपन्यास।
साम्यवादी दर्शन व संचालन में दमन व हिंसा का अतिरेक ही कुंडेरा को परेशान नहीं करता है, वे उसकी व्यर्थता को पहचानते भी हैं और हमें दिखाते भी हैं। हैरान भी होते हैं कि ऐसी व्यर्थ हिंसा से हासिल क्या होता है!
गांधीजी ने भी हिंसा की क्रूरता से अधिक, उसकी निरर्थकता को बार-बार उभारा है। कुंडेरा भी उसे पहचानते हैं। यह उपन्यास लिखने के बाद कुंडेरा ने लिखना करीब-करीब बंद ही कर दिया। फिर आई ‘ ए किडनैप्ड वेस्ट : द ट्रेजडी ऑफ सेंट्रल यूरोप।’ इसके साथ कुंडेरा का जीवन भी समाप्त हुआ।
कुंडेरा बार-बार लिखते रहे कि हम कितनी बड़ी संभावनाओं तक पहुंच सकते थे लेकिन हम कितनी बुरी तरह चूकते रहे हैं। साम्यवाद को वे इसी नजरिये से विश्लेषित करते हैं। हम भारत में पहचानें तो पाएंगे कि सांप्रदायिकता का जो तूफान आज खड़ा किया गया है और जो जहर इसकी नसों में उतारा जा रहा है, वह कितना अर्थहीन है।
हम जैसे खुद अपना ही कार्टून बना रहे हैं। दूसरों के लिए हम जो कब्र खोद रहे हैं, उसमें दफन हम ही होंगे। यह आत्महत्या नहीं, आत्म विद्रूपण है जिसमें से ग्लानि से सिवा दूसरा कुछ हाथ नहीं आएगा। मानव मात्र को यही ग्लानि मिली है हर उस सत्ता व सत्ताधीश से जो हिंसा व घृणा को उकसाता है। कुंडेरा बार-बार यही समझाते हैं।
94 वर्ष की उम्र में अब वे थक कर सो गए हैं। उन्होंने खुद को कभी विस्थापित या शरणार्थी नहीं माना। हमेशा लेखक की भूमिका में रहे और कहते रहे कि हम कभी जान ही नहीं सकते हैं कि हम क्या चाहते हैं; क्योंकि हमारे हाथ तो यही एक जिंदगी है जिसकी पहले वाली जिंदगी से तुलना करने का कोई उपाय हमारे पास नहीं है; न भावी जिंदगी संवारने की कोई नई तस्वीर हमारे पास है।
हां, मिलान कुंडेरा! हम नई-पुरानी तो नहीं जानते लेकिन सपनों की वह तस्वीर हमारे पास है, जो आपने उकेरी है। आपका आभार कि आप हमें उस दहलीज तक ले गए।
-अमिता नीरव
बहुत साल पहले एक कहानी पढ़ी थी। एज यूजवल न कहानी का शीर्षक याद है और न ही कहानी का लेखक, कहानी भी तफ्सील से याद नहीं है। बस उसका मर्म ठहर गया है यादों में। वह एक भारतीय लडक़ी और अमेरिकन सोल्जर के प्रेम और फिर अलगाव की कहानी थी।
शायद वो लडक़ा अश्वेत था, इसलिए लडक़ी उसे कृष यानी कृष्ण कहा करती थी। लडक़ा बहुत लविंग और केयरिंग रहता है। दोनों में प्रेम होता है और शादी कर लेते हैं। कुछ वक्त बाद लडक़े को युद्ध लडऩे के लिए इराक भेजा जाता है। दो साल बाद वह इराक से लौटता है। दोनों बहुत खुश होते हैं।
लव मेकिंग के दौरान लडक़ा बहुत हिंसक हो जाता है। इससे दोनों ही हतप्रभ रह जाते हैं। लडक़ा गहरे अपराध बोध में रहता है और अगली सुबह ही वह अपनी पत्नी से कहता है कि उसे उससे तलाक चाहिए। कहानी ने बहुत लंबे समय तक मुझे एंगेज रखा था।
हमारी दूसरी ऊटी यात्रा में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ कॉस्मिक सेंटर के साइंटिस्ट दोस्त ने एक बहुत बारीक बात कही। उन्होंने कहा कि कॉल सेंटर में काम करने वाले लोग या डोर-टू-डोर सेल्स का काम करने वाले लोग दिन भर बहुत ह्युमिलिएट होते हैं। वो अपने परिवार के प्रति कैसे सॉफ्ट और लविंग रह सकते हैं!
कुछ साल पहले एक दोपहर कश्मीर से एक अनजान नंबर से कॉल आया। अपना परिचय देते हुए उन्होंने बताया कि वे इंडियन आर्मी में कर्नल हैं और अनंतनाग में पोस्टेड हैं। मेरा नंबर उन्हें हिंदी समय से मिला। वहीं उन्होंने मेरी कहानियाँ पढ़ी औऱ उन्हें इतनी अच्छी लगी कि वे खुद को रोक नहीं पाए और कॉल किया।
बाय करने से पहले उन्होंने कहा कि ‘आप जैसे लोगों की वजह से हम अपने इंसान होने को बचा पाते हैं।’ मैंने कहा, ‘अरे ये क्या बात हुई!’ तो उन्होंने कहा कि ‘हम जिस तरह की परिस्थितियों में रहते हैं, उसमें हमारे इंसान बने रहने की गुंजाइश बहुत कम होती है। इस रिमोट एरिया में कला और साहित्य ही हमें खत्म होने से बचाता है।’
उस वक्त मैंने इस बात को अपने लिखे की तारीफ की तरह ही लिया। फिर धीरे-धीरे आसपास नजर दौड़ाना शुरू किया। पाया कि हर इंसान प्रोफेशनल फ्रंट पर कई तरह की तल्खियाँ, बेरूखी, राजनीति, प्रतिस्पर्धा, कड़वाहट, निराशा और हताशा सहता है।
फिर विचार आया कि जिस तरह से हम अपनी व्यावसायिक जिंदगी में अपने व्यक्तित्व से बदलाव लाते हैं तो क्या ऐसा नहीं होता होगा कि हमारी व्यावसायिक जिम्मेदारियाँ भी हमें बदल देती हो! हो सकता है इस सिलसिले में शोध हुए और होते रहें हों कि हमारे प्रोफेशन हमें बदलते हैं या नहीं या बदलते हैं तो कैसे बदलते हैं!
हर दिन उदास, निराश, बीमार और हारे हुए लोगों के चेहरों से घिरा डॉक्टर अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता को बरकरार रख पाता होगा, इस बात पर मुझे संदेह है। इसी तरह पुलिस में काम करते लोग अपने इर्दगिर्द अपराध, हिंसा, क्रूरता और चालाकी के बीच अपनी नर्मी बचाए रख पाते होंगे?
इसी तरह हर दिन तरह-तरह का हुमिलिएशन बर्दाश्त करते लोग क्या अपने परिवार और करीबियों के साथ प्यार और नर्मी का बर्ताव कर पाते होंगे? मनोविज्ञान तो इससे इत्तेफाक नहीं रखता है।
अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ऐसा होना संभव नहीं लगता है कि हमें जो मिलता है हम उससे उलट व्यवहार कर पाते हैं।
एक साथी है, जो लगातार प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करते हुए भी हमेशा कूल बना रहता है। जब इस सिलसिले में उससे बात हुई तो वो बताने लगा कि प्रतिकूलताओं के बीच संगीत ने मुझे संतुलित बनाए रखा है। मैं खुद को संगीत और साहित्य के माध्यम से संतुलन में रखने की कोशिश करती हूँ।
धीरे-धीरे महसूस हुआ कि गलाकाट प्रतिस्पर्धा और तमाम गणित, खींचतान और अस्तित्व के प्रश्नों से दो-चार करती व्यावसायिक जिंदगी हमें हमारी भौतिक जरूरत को पूरा करने में मदद तो करती है, लेकिन वह लगातार हमसे हमारा स्वाभाविक व्यक्तित्व छीन रही है।
कलाएँ हमारी भावनात्मक जरूरतों को, हमारे भावपक्ष को संभाले रखती हैं। वह हमारी स्वाभाविकता को बनाए रखने में मदद करती हैं। कलाओं को मैं सभ्यताओं का सेफ्टी वॉल्व समझती हूँ, लेकिन इसी तरह से कला वो टूल भी है जो आपको तल्खियों से, प्रतिकूलताओं से लडऩे और उबरने में मदद करती है।
व्यावसायिक जिंदगियाँ हमारी मजबूरी हैं और उससे हमें हर हाल में निभाना ही है, लेकिन बहुत कम लोग होंगे, जिन्हें इससे शिकायतें नहीं होंगी, कम से कम हमारे जैसे देशों में तो। मैं अपने संपर्क में आने वाले हर इंसान से कहती हूँ कि यदि खुद को बचाना है तो किसी न किसी कला से रिश्ता बनाएँ।
उसे सीखें, इसलिए नहीं कि उसमें आपको यश, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि या पैसा मिले, बल्कि इसलिए कि वह आपको अपनी परिस्थितियों से लडऩे में मदद करे, हमारी संवेदनाओं का विस्तार करे। हमारा मूल स्वभाव बचाने में हमारी मदद करें।
कला और प्रकृति इस दुनिया को रहने लायक बनाए रखती है।
- डॉ. आर.के. पालीवाल
संविधान में राज्यपाल के प्रतिष्ठित पद की अवधारणा बहु दलीय लोकतंत्र में केंद्र और राज्यों में अलग अलग विचारधाराओं के राजनीतिक दलों की सरकारों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने वाले निष्पक्ष सेतु के रुप में की गई थी। दुर्भाग्य से सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों के किसी भी हद तक गिरने की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा फजीहत राज्यपाल के प्रतिष्ठित पद की हुई है।
वर्तमान दौर में अधिकांश राज्यपाल ब्रिटिश दौर के ब्रिटिश रेजिडेंट बनकर रह गए हैं जिनका काम राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों को कमजोर कर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को मजबूत करना हो गया है। ताजा मामला तमिलनाडू के राज्यपाल आर एन रवि के खिलाफ मुख्यमंत्री एम के स्टालिन का राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को लिखा पत्र है। मुख्यमंत्री का आरोप है कि राज्यपाल बार-बार संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं। वे प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर रहे हैं। अपने आरोप के समर्थन में उन्होंने यह तर्क भी दिया है कि विगत में जब वे नागालैंड के राज्यपाल थे तब वहां के मुख्यमंत्री भी उनकी कार्यशैली से असंतुष्ट थे।
पिछले कुछ वर्षों में यह भी देखने में आया है कि जिन राज्यपालो ने संबंधित राज्य में विरोधी दल की राज्य सरकार को जितना ज्यादा परेशान किया है उन्हें निकट भविष्य में उतनी ही तरक्की मिली है और जिन राज्यपालों ने केन्द्र सरकार की कठपुतली बनने में आनाकानी की है उन्हें विविध रुप में सजा मिली है। राज्यपालों की तरक्की के लिए जो महत्वपूर्ण रास्ते बन गए हैं, उनमें एक बेहतर माने जाने वाले राज्य में राज्यपाल बनाया जाना और दूसरा उप राष्ट्रपति या राष्ट्रपति बनाना हैं। सजा के तौर पर राज्यपालों की सेवा को एक्सटेंशन नहीं दिया जाना और छोटे एवम सुदूर राज्यों में ट्रांसफर के रूप में सामने आया है। ऐसा लगता है कि नौकरशाही की तरह राज्यपालों पर भी केन्द्र सरकार की कैरट एंड स्टिक नीति लागू होती है।
यदि वर्तमान दौर के राज्यपालों के व्यक्तित्व और कार्यशैली की तुलना आज़ादी के तुरंत बाद के राज्यपालों से करें तो साफ पता चलता है कि विगत चार-पांच दशक से राज्यपालों के चुनाव में बहुत गिरावट आई है।अब अधिकांशत: या तो केन्द्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के ऐसे खांटी राजनीतिक लोगों को यह पद दिया जाता है जो दल बदल आदि में सहयोग कर डबल इंजन सरकार बनवाने में केन्द्रीय भूमिका निभा सकें या फिर जिन नेताओं को सक्रिय राजनीति से अलग किया जाता है उन्हें इस पद पर बैठाकर किनारे लगाया जाता है। दोनों ही स्थिति में राज्यपाल केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य सौहार्द्र और सामंजस्य सेतु नहीं बन पा रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए भी दुखद स्थिति है और संविधान निर्माताओं की परिकल्पना के अनुकूल भी नहीं है।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि लेफ्टिनेंट गवर्नर के बीच विवाद समय के साथ गहराता ही जा रहा है। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने शिवसेना की याचिका पर सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल की भूमिका पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़े किए हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल में भी तृणमूल सरकार के साथ पिछले राज्यपाल के संबध सौहार्द्रपूर्ण नहीं थे। बहु दलीय लोकतंत्र की हमारी व्यवस्था में अधिकांश राज्यों में एक ही दल की सरकार नहीं होने से केंद्र और राज्यों में मधुर संबंध स्थापित करने के लिए राज्यपाल ही एक मात्र सबसे प्रभावी कड़ी है। यदि वही कड़ी कमजोर होगी तो वह किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित में नहीं है। यह सभी दलों के लिए चिंता का विषय है इसलिए इस पर सभी को मिल बैठकर विमर्श करना चाहिए। यदि यही हालात रहे तो निकट भविष्य में मजबूरी में सर्वोच्च न्यायालय को ही इस दिशा में मापदंड निर्धारित करने पड़ेंगे।
दूसरी किस्त, कल के अंक में
इस्कॉन इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस ने बताया है कि उन्होंने अपने एक संन्यासी अमोघ लीला दास पर एक महीने के लिए बैन लगा दिया है। अमोघ लीला दास ने मछली खाने को लेकर स्वामी विवेकानन्द की आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि एक नेक आदमी कभी किसी जीव को नुकसान पहुंचाने के बारे में नहीं सोच सकता। इसके अलावा अमोघ लीला दास ने रामकृष्ण परमहंस पर भी कटाक्ष किया था।
अमोघ लीला दास ने अपने बयान के लिए माफी मांगी है और उन्हें एहसास हो रहा है कि उन्होंने कितना भारी नुकसान कर दिया। इस्कॉन ने बताया है कि अमोघ लीला दास ने प्रायश्चित करने का संकल्प लिया है। इसके लिए वो तत्काल प्रभाव से सार्वजनिक जीवन से अलग होकर गोवर्धन पर्वत पर एकांतवास में चले गए हैं।
सोशल मीडिया में स्वामी विवेकानन्द के कथित तौर पर मांस और मछली खाने के आहार को लेकर एक बावेला मचाने की कोशिश की गई है। विवेकानन्द को गए 121 वर्ष हो गए हैं। उन पर आरोप या यदि कोई तोहमत लगाता है तो उसे विवेकानन्द के जीवन पर शोध भी करना चाहिए। यह आमफहम है कि जन्मजात और सांस्कृतिक बंगाली रहे विवेकानन्द अपने बचपन से परिवार और परिवेष में मांस, मछली का उपभोग तो करते रहे होंगे। बंगाल में कई तीज त्यौहार और जष्न मछली के बिना पूरे होते नहीं समझे जाते हैं। विवेकानन्द का सर्वधर्म समभाव के सबसे बड़े प्रवक्ताओं में शुमार होकर वे लगभग सबसे ऊपर हैं। उनकी अंतरराष्ट्रीय समझ और छवि भारत के लिए गर्व का विषय है। लगभग साढ़े तीन वर्ष विवेकानन्द अमेरिका और यूरोप में रहे। उन्होंने वेदांत का भी सघन प्रचार किया। छत्तीसगढ़ के रायपुर को सौभाग्य है कि यहां विवेेकानन्द अपनी किशोर अवस्था में दो वर्षों से ज़्यादा रहे। उन्होंने छत्तीसगढ़ की मछलियां भी खाई होंगी।
(3) विवेकानन्द के निजी जीवन को लेकर कई महत्वपूर्ण किताबी कुंजियां हैं। विवेकानन्द का लेखन ही वह कम से कम दस खंडों में वर्षों से प्रकाशित है। वहां उनकी खाने पीने की आदतों का भी जिक्र है। इसके अतिरिक्त रेमेनीसेंसेस ऑफ स्वामी विवेकानन्द बाई हिज ईस्टर्न एण्ड वेस्टर्न एडमायरर्स; दी मास्टर ऐज आई सॉ हिम (सिस्टर निवेदिता) स्वामी विवेकानन्द इन दी वेस्ट: न्यू डिस्कवरीज-मेरी लुइस बर्क और उनके छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त द्वारा लिखी गई दुर्लभ किताब का सहारा लिया जा सकता है।
विवेकानन्द आधुनिक ऋषियों में सबसे वैज्ञानिक, तार्किक और भविष्यमूलक समझ के बड़े शोधकर्ता भी हैं। कट्टर हिन्दुत्व के कई लोग विवेकानन्द की कई शिक्षाओं से खुद को एक राय और हमकदम नहीं बना पाते हैं। उन्हें केवल उतना विवेकानन्द अपना लगता है जो हिन्दुत्व के प्रचारक के रूप में भगवा वस्त्र पहनकर ओजमयी भाषा में समाज का आह्वान करता है। ऐसे लोग चाहते हैं और लिखते बोलते भी हैं कि विवेकानन्द हिन्दुत्व के संकीर्ण बाड़े में कैद रहें। उन्हें अन्य धर्मों के विचार, आहार और प्रचार से वंचित रखा जाए।
(4) एक बंगाली नौजवान द्वारा साधु बनने के पहले और बाद में मछली, मांस खाना सार्वजनिक जीवन का विवाद बन ही नहीं सकता। विवाद पर वस्तुपरक ढंग से विचार करने की ज़रूरत है। अन्यथा कई पुरातनपंथी संकीर्ण तत्वों को इससे रोजी रोटी कमाने का मौका मिल सकता है। यह गलतफहमी है कि सन्यासी बनकर भी विवेकानन्द आदतन मांसाहार करने की परम्परा के पक्षधर रहे हैं। विवेकानन्द भोजनप्रेमी रहे हैं। उनके भाई भी बताते कि वे बचपन से रसोई में घुसकर मां की सहायता किया करते, बल्कि भोजन पकाने को लेकर कई तरह के प्रयोग भी करते थे। यह आदत सन्यास लेने के बाद बेलूर मठ में भी कायम रही। मांसाहारी भोजन को लेकर विवेकानन्द के लेखन और उद्बोधन में कई उल्लेख हैं। उन्हेंं एकजाई कर समझे बिना विवेकानन्द के लिए चलताऊ और सतही कटाक्ष करते एक महत्वपूर्ण मुद्दे को लेकर अपने हाथ अपनी पीठ ठोकने का जतन करना गैर मुनासिब होगा।
विवेकानन्द ने कहा समय समय पर कहा है:
1.जब तक मनुष्य प्रजाति के लिए पर्याप्त वैज्ञाानिक शोध सहित रसायनशास्त्र में भी इस तरह के प्रयोग नहीं किए जाएं कि इंसान को षाकाहारी भोजन ठीक से मिल सके। तब तक मांसाहार को रोक देने का विकल्प कैसे उपलब्ध हो सकता है। (24/04/1897) (वि0 सा./4/486.4)
2. आप चाहे गंगा में स्नान करें या केवल शाकाहारी भोजन करते रहें। लेकिन जब तक आप अपनी आत्मा का शुद्धिकरण नहीं करते। तब तक इसका कोई अर्थ नहीं हैं। (वार्तालाप 1901) (वि. सा./7/210.4)
3. गरीबों का तो सारे संसार में भोजन मसालायुक्त मक्का है। वनस्पतियां, सब्जियां और मांस मछली तो उनके लिए लग्जरी होने से चटनी की तरह होते हैं। (आलेख दी ईस्ट ऐंड दी वेस्ट) (वि.सा. 5/491.3)
4.वे देश जो मांसाहार करते हैं। व्यापक तौर पर बहादुर, साहसी और वैचारिक भी समझे जाते रहे हैं। (वि.सा. 5/484.2) (निबंध: दी ईस्ट एंड दी वेस्ट)
5.मांसाहारी देश लगातार यह प्रतिपादित करते हैं कि उन दिनों में जब यज्ञ वा धुंआ आकाश तक उठता था हिन्दू मांसाहार करते थे। तब उनमें महान धार्मिक और बौद्धिक लोग भी पैदा हुए हैं। (वि.सा. 5/484.2)
6.बातचीत मेंं उन्होंने कहा था कि पूर्वी बंगाल के रहवासी काफी मछली मांस और कछुआ खाते हैं और वे बाकी बंगाल के लोगों से ज्यादा स्वस्थ हैं। (वि.सा. 5/402.3)
7. मैं अपने आप से कई बार सवाल पूछता हूं कि क्या मैं मांसाहार छोड़ दूं? मेरे गुरु ने कहा तुम क्यों छोड़ते हो? वह वस्तु ही तुमको छोड़ देगी। कुदरत की किसी वस्तु को छोड़ देने की बात मत करो। उसे कुदरत के लिए इतना गर्म कर दो कि कुदरत ही उसे छोड़ दे। कभी तो वह वक्त आएगा जब तुम मांसाहार संभवत: नहीं कर पाओगे। उसे देखते ही तुम्हेें कोफ्त होगी। (वि.सा. 1/519.4)
8.व्यावहारिक वेदांत के व्याख्यान में उन्होंने कहा कि जब मैं मांसाहार करता हूं तब जानता हूं कि यह गलत है। मुझे परिस्थितिवश यदि खाना भी पड़ता है तब भी मैं जानता हूं कि यह कू्ररता है। (वि.सा. 2/298.1)
9.यह बेहतर होता जो मांस खाए, वह पशु को मार देता। लेकिन इसके बदले समाज ने पशुओं को मारने वालों का वर्ग बना दिया। और उनसे इस बाबत घृणा भी करता है। मांसाहार करना केवल उनके लिए अनुकूल है जो कड़ी मेहनत करते हैं और जो भक्त बनने वाले नहीं हैं। लेकिन यदि तुम भक्त बनने की राह पर हो तो तुम्हें मांस खाना टाल देना चाहिए। (वि.सा. 4/5.1)
10.शिकागो में 3 मार्च 1894 को उन्होंने कहा था कि हम प्रत्येक व्यक्ति को हक देते हैं कि जानने, चुनाव करने और किसी बात को लागू करने के लिए अपने आपमें आजाद है। मसलन मांस खाना किसी को अटपटा लग सकता है। तो किसी को फल खाना। लेकिन दूसरे की आलोचना करने का अधिकार नहीं है क्योंकि यह फिर छींटाकशी परस्पर होती जाएगी। (वि.सा. 4/357.3)
11.तुम क्षत्रियों के मांस खाने की बात करते हो। मांस खाना हो या नहीं हो हिन्दू धर्म के सभी आदर्षों और बेहतर तत्वों को लेकर क्षत्रिय ही पितातुल्य हैं। राम, कृष्ण और बुद्ध जैन तीर्थंकर कौन थे? (वि. सा. 4/359.3)
12.क्या ईश्वर तुम्हारी तरह कोई घबराया हुआ मूर्ख है? कि करुणा की सरिता एक टुकड़ा मांस से प्रदूषित हो जाएगी? यदि वह ऐसा है तो उसका मूल्य एक पाई के बराबर भी नहीं है। (वि.सा. 4/359.3)
उपेन्द्र शंकर
अपनी बेहतरीन फुटबॉल टीम के कारण दुनिया भर में पहचाना जाने वाला दक्षिण-अमेरिका का साढे चौंतीस लाख आबादी वाला छोटा सा देश उरुग्वे अब पानी के भीषण संकट से दो-चार है। पानी की यह बदहाली उस देश में हो रही है जहां अभी दो दशक पहले बाकायदा कानून बनाकर पानी के निजीकरण को रोका और उसे मौलिक मानवाधिकार बनाया गया था। कैसे हुआ यह उलटफेर? प्रस्तुत है, इसी विषय पर उपेन्द्र शंकर का यह लेख। -संपादक
दक्षिण अमेरिका के दक्षिणी-पूर्वी हिस्से में स्थित देश उरुग्वे के राष्ट्रपति लुइस लैकले पोउ ने पिछले तीन साल, खासकर सात महीने के भीषण सूखे के बाद अभी 19 जून को राजधानी मोंटेवीडियो और महानगरीय क्षेत्र में जल-आपातकाल की घोषणा की है। लंबे समय से सूखे के कारण पानी की आपूर्ति करने वाले विभाग को पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ रहा था। यह सब तब हुआ जबकि उरुग्वे दुनिया के सबसे स्वच्छ, सबसे प्रचुर जलस्रोतों वाले देशों में से एक है। वर्ष 2004 में उरुग्वे ने पानी को निजीकरण से बचाने के लिए संविधान में संशोधन किया था और देश में पानी एक मौलिक मानव अधिकार के रूप में चिन्हित किया गया था।
पत्रकारों से बातचीत में राष्ट्रपति लैकले पोउ ने बताया कि स्थिति को सुधारने और राजधानी के लिए पीने के पानी का एक नया स्रोत प्रदान करने के लिए सैन-जोस नदी पर एक जलाशय के निर्माण की घोषणा की गई है। उन्होंने आश्वासन दिया कि जलाशय और इसके पाइपलाइन नेटवर्क पर 20 जून से काम शुरू होगा और यह अधिकतम 30 दिनों में पूरा हो जाएगा।
राष्ट्रपति के मुताबिक ‘राज्य स्वच्छता वर्क्स’ (सरकारी जलापूर्ति विभाग) द्वारा मई में पानी की कमी दूर करने के लिए ला-प्लाटा नदी (जो अटलांटिक महासागर से जुड़ा एक मुहाना है) से खारा पानी मिलाकर सप्लाई शुरू की गई थी। इस पानी की विशेष आपूर्ति अस्पतालों, ‘बाल एवं किशोर संस्थान’ और ‘परिवार देखभाल केंद्रों’ में की गई थी। घरों में पानी की सामान्य आपूर्ति के बारे में राष्ट्रपति ने कहा कि यह पहले की तरह जारी रहेगा, लेकिन चेतावनी दी कि इसकी गुणवत्ता और भी खराब हो सकती है जिसके बारे में लोगों को प्रतिदिन सूचित किया जाएगा। इसके अलावा राष्ट्रपति ने आश्वासन दिया कि सरकार लगभग 21,000 कमजोर परिवारों को दो लीटर पानी की आपूर्ति मुफ्त करेगी।
इसके पहले, ‘स्वास्थ्य मंत्रालय’ ने ‘भोजन में नमक का उपयोग कम’ करने के लिए लोगों से कहा था। उच्च रक्तचाप वाले व्यक्तियों, गुर्दे के बीमारों, शिशुओं और गर्भवती महिलाओं को सलाह दी गई थी कि वे सावधानी बरतें और बोतलबंद पानी का सेवन करें। सरकार ने आयातित बोतलबंद पानी पर टैक्सों को निलंबित करके कमजोर लोगों को संकट में राहत के लिहाज से सब्सिडी प्रदान की थी, लेकिन कुछ दिनों बाद बोतलबंद पानी की बिक्री तीन गुना हो गई और इसकी कीमत पांच गुना बढ़ गई। राजधानी के निवासियों को बोतलबंद पानी पर हर दिन औसतन 300 पेसो या 8 अमरीकी डालर खर्च करने के लिए मजबूर होना पडा।
इस सबने आबादी में व्यापक असंतोष भडकाया। मई के मध्य में ‘पानी की रक्षा में’ के बैनर तले, सैकड़ों लोगों ने ट्रेड-यूनियन्स के साथ मिलकर राजधानी मोंटेवीडियो में सूखे के संकट का सामना करने के लिए अधिक आर्थिक, सामाजिक उपायों की मांग की। उन्होंने ‘यह सूखा नहीं, लूट है’ और ‘पानी नहीं बिकना चाहिये’ जैसे नारे लगाए।
इस आपातकाल से पहले भी फरवरी 2022 में जलापूर्ति विभाग ने पीने के पानी के बाहरी उपयोग, जैसे-बगीचे में पानी देना, वाहन धोना, स्विमिंग पूल आदि के लिए उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था और अक्टूबर 2022 में सरकार ने पशुधन, कृषि और मत्स्य-पालन मंत्रालय के माध्यम से पूरे देश में 90 दिनों की अवधि के लिए कृषि आपातकाल की घोषणा की थी। जनवरी 2023 में आपातकाल की स्थिति को अप्रैल तक बढ़ाकर पशुधन, डेयरी, फल और बागवानी, कृषि, मुर्गीपालन, मधुमक्खी पालन और वानिकी आदि को शामिल कर दिया।
उरुग्वे पिछले साढ़े तीन साल से सदी के सबसे बुरे सूखे से जूझ रहा है। उरुग्वे में बारिश आमतौर पर सर्दियों में ठंडी हवाओं और गर्मियों में बार-बार आने वाले तूफानों का परिणाम होती है, पर इस गर्मी (दिसंबर 2022 से फरवरी 2023) में बहुत कम बारिश हुई। ‘राष्ट्रीय मौसम विज्ञान संस्थान’ द्वारा जारी जानकारी के अनुसार गर्मी के दौरान औसत वर्षा 126.4 मिमी थी जो औसत वर्षा से 225.4 मिमी कम थी। पिछले 42 वर्षों में वर्तमान गर्मी रिकॉर्ड पर सबसे शुष्क रही है जो बताती है कि पूरा देश सूखे से प्रभावित क्यों है। करीब 36,23,300 हेक्टेयर इलाका अत्यधिक सूखे के अधीन क्यों है?
नेस्टर माज़ेओ और मारियाना मीरहॉफ़ जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि संकट सिर्फ कम बारिश का नहीं है, वह स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में दिए कारणों, ग्लोबल-वार्मिंग, जलवायु संकट की तुलना में अधिक जटिल है। उनका कहना है कि मेट्रोपॉलिटन मोंटेवीडियो (जहां देश की 60 प्रतिशत आबादी रहती है) अपना पीने का पानी विशेष रूप से सांता-लूसिया नदी पर बने बांध ‘पासो सेवेरिनो’ से प्राप्त करता है। यह बांध 6 करोड 70 लाख क्यूबिक-मीटर पानी का भंडारण करता है, लेकिन अप्रैल-मई 2023 में इसमें केवल 37 लाख क्यूबिक-मीटर पानी रह गया था।
‘सांता लूसिया’ बांध केवल व्यक्तिगत उपभोग के लिए पानी की आपूर्ति नहीं करता। देश के डेयरी और कृषि उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा मोंटेवीडियो के आसपास के इलाकों में बसा है। पहले अधिकांश कृषि स्वतंत्र रूप से घूमने वाले मवेशियों के इर्द-गिर्द होती थी, लेकिन पिछले 15-20 वर्षों में सोया की मोनोकल्चर और पेपर-पल्प के उत्पादन के लिए वानिकी सहित फसलों के भारी उत्पादन ने अधिक-से-अधिक पानी की मांग की। कुछ अनुमानों के अनुसार उरुग्वे में पीने योग्य पानी के 80 प्रतिशत तक का उपयोग निर्यात आधारित कृषि के लिए किया जा रहा है।
जानकार विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में परस्पर विरोधी हितों के चलते समन्वय की गंभीर कमी को भी एक कारण के रूप में देखते हैं। परेशान करने वाली यह बात भी बताई जाती है कि उरुग्वे में कुल पीने योग्य पानी का 50 प्रतिशत से अधिक पाइपों की लीकेज के माध्यम से बर्बाद हो जाता है, लेकिन सरकार ने काफी सालों से पानी के इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्चा कम कर रखा है।
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार मोंटेवीडियो और उसके महानगरीय क्षेत्र में भूजल निकासी का उचित प्रबंधन राजधानी के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति के संकट को दूर कर सकता है, पर यहां यह बात ध्यान देने लायक है कि अनियंत्रित भूजल निकासी से जलस्रोतों का अत्यधिक दोहन हो सकता है और वे प्रदूषित हो सकते हैं। कैनेलोन्स और माल्डोनाडो जैसे क्षेत्रों में अत्यधिक दोहन के कारण तटीय जलस्रोतों में समुद्री जल का प्रवेश हो गया है और मीठा जल प्रदूषित हो गया है।
याद रखना चाहिये कि उरुग्वे के 2004 के संवैधानिक सुधार ने पानी और स्वच्छता सेवाओं के निजीकरण को उलट दिया था। इस सुधार ने जल और स्वच्छता प्रशासन में सार्वजनिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का संकेत दिया था। 2010 में सरकार ने संवैधानिक सुधार को लागू करने के लिए ‘राष्ट्रीय जल योजना’ शुरू की। डिज़ाइन के अनुसार इस योजना में समाज के विभिन्न क्षेत्रों के दृष्टिकोण, चिंताओं और प्रस्तावों को शामिल किया गया था। 15 जून 2023 को प्रसिद्ध अख़बार ‘द गार्जियन’ ने टिम स्मेदलेव का एक लेख ‘सूखा अगली महामारी बनने की कगार पर’ शीर्षक से छापा था, यानि सूखा भविष्य में कई सालों तक बना रह सकता है और बार-बार पड़ सकता है। कई शोध भी बताते हैं कि भविष्य में दुनिया भर में सूखे वर्ष ज्यादा शुष्क होंगे। उरुग्वे में पानी का संकट दुनिया के अधिकांश लोगों, नीति-निर्धारकों, नेताओं के लिए एक चेतावनी है कि वे पानी से जुड़ी सुरक्षा, खपत और उत्पादन नीतियों में परवर्तन कर बदलते मौसम के साथ अनुकूलन का प्रयास करें। (सप्रेस)
श्री उपेन्द्र शंकर सामाजिक कार्यकर्ता हैं। व पानी के लिए कार्य करते हैं।
डॉ. आर.के. पालीवाल
केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच बहुत लंबा विवाद रहा है जिसके कारण दिल्ली में एक के बाद एक पदस्थापित किए गए केंद्रीय प्रतिनिधि लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय और दिल्ली सरकार के बीच छत्तीस का आंकड़ा लगातार बढ़ते बढते बार बार सर्वोच्च न्यायालय की देहरी पर पहुंच रहा है।दिल्ली में एक के बाद एक लेफ्टिनेंट गवर्नर तो बदलते रहे हैं लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री पिछ्ले लगभग एक दशक से अरविंद केजरीवाल ही हैं, और यही बात केंद्र सरकार को रास नहीं आ रही कि उसकी नाक के नीचे दो बार आप सरकार बहुत भारी बहुमत से बनती रही है। तमाम कोशिश के बाद भी दिल्ली में केंद्र की डबल इंजन सरकार नहीं बन पाई। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट फैसले के बावजूद केंद्र सरकार दिल्ली सरकार को अधिकारियों के ट्रांसफर पोस्टिंग के अधिकार देने में अड़ंगा लगा रही है।
दिल्ली में दो सरकारों के बीच यह रिकॉर्ड नौ साल से चल रहे लंबे टेस्ट मैच की तरह है, जिसमें केंद्र सरकार के फास्ट, मीडियम पेसर और गुगली फेंकने वाले कई स्पिनर्स लगे हैं लेकिन केजरीवाल सरकार आउट नहीं हो रही। पांच साल बाद नए चुनाव के रुप में नई बाल भी आई थी लेकिन अरविंद केजरीवाल राहुल द्रविड की तरह वाल बनकर डटे रहे। उनके डेप्युटी और साथी जेल की पवेलियन पहुंच गए लेकिन दिल्ली की टीम अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में अंगद के पैर की तरह जस की तस जमी है।
भारतीय जनता पार्टी और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी के लिए यह बहुत बडी चुनौती रही है कि उनकी ऐन नाक के नीचे देश की राजधानी दिल्ली में उनकी तमाम चाणक्य नीति, हिंदुत्व से लेकर बूथ मैनेजमेंट की रणनीति बार बार ध्वस्त होती गई हैं। जिन मोदी जी के लिए सब मुमकिन है कहा जाता है उनका विजयरथ दिल्ली में दो कदम आगे बढऩे की बजाय पीछे हटता जा रहा है।
केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के शीत युद्ध में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय ने युद्ध विराम की आदर्श स्थिति पैदा करने की कोशिश की थी। साथ ही इस निर्णय में हमारे संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों के लिए सह अस्तित्व की भावना को स्पष्ट किया गया था। विशेष रूप से केंद्र सरकार के लिए यह एक सबक था कि संविधान हमारे देश में संघीय ढांचे और लोकतंत्र को अहमियत देता है। भले ही देश की राजधानी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है जिसकी वजह से केंद्र दिल्ली सरकार को अहमियत नहीं देता था, फिर भी दिल्ली के मतदाताओं द्वारा चुनी हुई आम आदमी पार्टी की सरकार को सर्वोच्च न्यायालय ने काफ़ी अहमियत दी है। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह केंद्र सरकार को अन्य राज्यों में भी ज्यादा दखलंदाजी करने से रोकने वाला निर्णय है।
सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के फैसले के बाद आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार और अरविंद केजरीवाल निश्चित रूप से राहत की सांस ली थी और केंद्र और दिल्ली सरकार की लड़ाई बंद होने की उम्मीद जगी थी कि अब उनके बीच रिकॉर्ड लंबा चला टेस्ट मैच ड्रा हो जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। चंद दिनों में ही यह मामला फिर से सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को विफल कर दिया है और सर्वोच्च न्यायालय में रिव्यू पिटीशन लगाई है कि आम आदमी पार्टी की सरकार को अफसरों की ट्रांसफर पोस्टिंग का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। उधर आम आदमी पार्टी ने भी याचिका दायर की है कि केंद्र सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप काम नहीं कर रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय त्वरित सुनवाई सुनिश्चित कर केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के कार्यक्षेत्र के बारे में शीघ्र निर्णय करेगा।
तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोवान एक दिन में दो बार पश्चिम को चौंकाने में सफल रहे। पहले उन्होंने स्वीडन की नाटो में एंट्री के लिए एक और एक्स्ट्रा शर्त रख दी। और फिर आखिरी लम्हे में अपना रुख बदल दिया।
सोमवार को नाटो महासचिव येंस श्टोल्टेनबर्ग ने एलान किया कि तुर्की नाटो में स्वीडन की एंट्री पर सहमत हो गया है। लेकिन तब तक एर्दोवान ने ऐसा कोई एलान नहीं किया था। तुर्क राष्ट्रपति ने इस बयान के जबाव में तुर्की को यूरोपीय संघ में शामिल करने की मांग कर दी। लिथुएनिया की राजधानी विलिनुस के लिए रवाना होने से पहले इस्तांबुल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एर्दोवान कहा कि उनका देश 50 साल से भी ज्यादा समय से यूरोपीय संघ के दरवाजे पर इंतजार कर रहा है। ब्रसेल्स को संबोधित करते हुए तुर्क राष्ट्रपति ने कहा, ‘यूरोपीय संघ में तुर्की के लिए रास्ता बनाइए, और फिर हम स्वीडन के लिए रास्ता बनाएंगे, उसी तरह जैसे हमने फिनलैंड के लिए बनाया।’
तुर्की की इस मांग से ब्रसेल्स परेशान हो गया। उसने तुरंत एर्दोवान की मांग खारिज करते हुए कहा कि नाटो और यूरोपीय संघ दो अलग अलग प्रक्रियाएं हैं। हालांकि नाटो के एग्रीमेंट पर सहमति के बाद जारी एक साझा बयान में स्वीडन ने कहा कि वह तुर्की को यूरोपीय संघ में शामिल करने की प्रक्रिया का सक्रिय समर्थन करेगा।
पश्चिम की तरफ लौटता तुर्की?
तुर्की की राजधानी अंकारा में जर्मन मार्शल फंड के निदेशक उजगुर उनलुहिसारिक्ली कहते हैं, ‘चुनाव के बाद से एर्दोवान, अमेरिका और यूरोप के साथ ज्यादा सकारात्मक संबंध तलाश रहे हैं और वह स्वीकार्यता चाहते हैं।’
तुर्क राष्ट्रपति के बयान को विश्लेषण करते हुए उनलुहिसारिक्ली कहते हैं, ‘उदाहरण के लिए, उनकी ईयू में रास्ता बनाने की बात को लीजिए। वह जानते हैं कि इस मामले में कुछ नहीं होगा। लेकिन वह यह कहना चाह रहे हैं कि, 'मुझे अलग मत रखो।’
कुछ लोग मानते हैं कि बेतहाशा महंगाई और गोते खाती मुद्रा लीरा की वजह से तुर्की को रूस और पश्चिम के बीच संतुलन साधना पड़ रहा है। इसकी मुख्य वजह आर्थिक परिस्थितियां हैं। यूरोपीय संघ और तुर्की के रिश्तों को सुधारकर अंकारा को आर्थिक फायदा मिल सकता है। तुर्की के कृषि उत्पादों, सर्विस सेक्टर और सरकारी भंडारण सेवाओं का दायरा फैल सकता है।
यूरोपीय संघ और तुर्की के बीच खटपट के कारण
तुर्की को यूरोपीय संघ में शामिल करने पर बातचीत 2005 में ब्रसेल्स में शुरू हुई। लेकिन इसमें बहुत उत्साहजनक प्रगति कभी नहीं हुई। जुलाई 2016 में तुर्की में सैन्य तख्तापलट की कोशिश के बाद तो ये बातचीत पूरी तरह ठंडे बस्ते में चली गई। नाकाम तख्तापलट के बाद अंकारा ने आतंकवाद विरोधी कदम उठाए, जो मानवाधिकार उल्लंघन तक पहुंच गए।
यूरोपीय समीक्षकों का तर्क है कि तुर्की-ईयू संबंधों में जान फूंकने से पहले अंकारा को काउंसिल ऑफ यूरोप (सीओई) के साथ रिश्ते सामान्य करने होंगे। इस अंतरराष्ट्रीय संस्था की स्थापना यूरोप में मानवाधिकारों, लोकतंत्र और कानून के राज की हिफाजत के लिए की गई है। यह यूरोपीय संघ ,से अलग और आजाद है। लेकिन आज तक कोई भी देश काउंसिल ऑफ यूरोप से जुड़े बिना, सीधे यूरोपीय संघ का सदस्य नहीं बना है।
तुर्की सीओई का सदस्य जरूर है लेकिन हाल के बरसों में काउंसिल के साथ उसके रिश्ते बहुत तल्ख रहे हैं। सीओई की जानी मानी शाखा, यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स के फैसलों को अंकारा ने नजरअंदाज किया है। तुर्की में 2016 और 2017 से कुछ अहम कुर्द नेता और मानवाधिकार कार्यकर्ता जेल में हैं। यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स के तुरंत रिहाई के आदेश के बावजूद अंकारा ने उन्हें नहीं छोड़ा है।
2017 से जेल में बंद तुर्क कार्यकर्ता और दानदाता ओसमान कवाला के मामले में अगर कोई प्रगति नहीं हुई तो हो सकता है कि आने वाले कुछ महीनों में काउंसिल तुर्की पर प्रतिबंध लगाए। इस लिहाज से देखें तो अंकारा को यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए अभी एक लंबा रास्ता तय करना है।
मिलेंगे अमेरिकी जेट
स्वीडन की नाटो में एंट्री पर हामी भरने से तुर्की को अमेरिकी लड़ाकू विमान स्न-16 मिलने का रास्ता कुछ हद तक साफ हुआ है। अमेरिका और तुर्की लगातार कह रहे हैं कि लड़ाकू विमानों का नाटो डील से कोई लेना देना नहीं है।
तुर्की लंबे समय से हॉकहीड मार्टिन के 40 नए एफ-16 खरीदने की इच्छा जता रहा था। साथ ही उसे अपने बेड़े में मौजूद लड़ाकू विमानों के आधुनिकीकरण के लिए 80 किट्स भी चाहिए। अमेरिका में ऐसे रक्षा सौदों को संसद मंजूरी देती है।
राष्ट्रपति जो बाइडेन के समर्थन के बावजूद कांग्रेस के कुछ सदस्य तुर्की को यह सैन्य सामग्री देने का विरोध कर रहे हैं।
स्वीडन की नाटो में एंट्री के समझौते के बाद, अमेरिकी सीनेट की विदेशी नीति समिति के चैयरमैन बॉब मैनेनडेज ने तुर्की को राहत भरा मैसेज दिया। मैनेनडेज आने वाले दिनों में एफ-16 की डिलिवरी को लेकर जो बाइडेन से बातचीत करेंगे। (डॉयचे वैले)
रिपोर्ट-सिनेम ओजदेमीर, गुलशन सोलाकेर, कायहान काराका
-प्रकाश दुबे
राजनीति का नशा खराब होता है। बीती बातें याद नहीं रहतीं। राष्ट्र और महाराष्ट्र की राजनीतिक उठापटक में भटकने वालो, हम दो महान कलाकारों की बात कर रहे हैं। कामेडी सर्कस की डाल से चुनावी राजनीति में कूदने के बाद नवजोतसिंह सिद्धू के हिस्से जेल आई। लुढक़ते पुडक़ते आम आदमी की गोद में जा गिरे भगवंत मान मुख्यमंत्री बने। पुरानी यारी भूलकर आपस में चोंच लड़ाते हैं। मुख्यमंत्री ने कुर्सी के नशे में ऊंची उड़ान भरी- सरकारी खजाने को भर देंगे। बालू, दारू, जमीन, परिवहन आदि की बदौलत 50 हजार करोड़ रु मिल जाएंगे। सिद्धू इसे बहकावा मानते हैं। कहते हैं-मान न मान, मान के राज में आर्थिक आपात्काल नजदीक मान। दोनों की कामेडी के बीच तीसरे को कूदने की जरूरत नहीं थी। फिर भी पंजाब के वित्त मंत्री हरपाल चीमा को चैन नहीं पड़ी। कमाई के आंकड़े बतलाते हुए बोले-अकेले जून महीने में आबकारी से 660 करोड़ से ज्यादा कमाए। आबकारी का मतलब?
आया सावन झूम के
वक्त वक्त की बात है। राजीव गांधी पर निगरानी रखने के लिए हरियाणा पुलिस के हवलदारों की तैनाती की शिकायत पर चंद्रशेखर की सरकार चली गई। पता नहीं, हवलदारों को तब कैसे पहचाना गया। आज ऐसा होता तो कह देते कि उनकी तोंद निकली हुई थी। हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज ने इस तरह की बदनामी टालने के लिए मोटू पुलिस वालों की सूची मांगी। महीने भर में पुलिस रपट नहीं दे सकी। मुख्य सचिव से लेकर गृह मंत्री तक का फरमान काम नहीं आया। शाम तक जानकारी हासिल करने की मंत्री विज की पुलिसिया घुडक़ी बेकार गई। काम ज्यादा है। 73 हजार से अधिक कर्मियों वाले पुलिस बल में फुर्ती और फुर्सत की कमी है। महीने भर में छह हजार हवलदार और दो हजार एसपीओ-विशेष पुलिस अधिकारी की भर्ती कर बेरोजगारी खत्म करेंगे। लड़ते भिड़ते पुलिस वाले फिटफाट रहते हैं। ऐतिहासिक लड़ाइयों और अब पराठों वाले पानीपत में दो महिलाओं समेत 34 तोंदिल पुलिस वाले लाइन हाजिर किए गए। श्रावण में उपवास और वर्जिश करेंगे।
खजाने का दूध अभिषेक
50 लाख रुपए की धनराशि न तो पटियाला राजघराने के वारिस और मुख्यमंत्री रह चुके व्यक्ति के लिए बड़ी रकम है, और न पांच बार विधायक रहे मुख्तार अंसारी के लिए। अंसारी के खिलाफ उत्तर प्रदेश में ही दो दर्जन से अधिक मामले दर्ज हैं। आजादी की लड़ाई में शामिल और कांग्रेस के 1927 में अध्यक्ष रहे मुख्तार अहमद अंसारी के पोते की पंजाब में कानूनी लड़ाई का खर्च कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने किया था। कुर्सी छिनने से कुपित कैप्टन कांग्रेस छोडक़र भारतीय जनता पार्टी से जुड़ चुके हैं।
कांग्रेस ने कैप्टन को मुख्यमंत्री और पत्नी को सांसद बनाया। भाजपा से उपराष्ट्रपति, राज्यपाल जैसा ईनाम नहीं मिला। साथी सुनील जाखड़ को जरूर भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाया। अंसारी के मुकदमे का खर्च वसूल करने की आम आदमी पार्टी की धमकी पर अमरिंदर और अंसारी खेमा चुप्पी साधे हुए हैं। जबकि कांग्रेस ने फोक्की (फुकट) मशहूरियत वाली सरकार कहकर पोल खोल आंदोलन करने की चेतावनी दी है। श्रावण मास में शिव पर दूध चढ़ाने वाले भक्त दूध नहीं पीते। मिरच और दगाबाजी एक छोर से दूसरे छोर तक तड़पाती है।
चल कांवडिय़े
बड़े नाम वालों का यही अंजाम है। पड़दादी दो-दो पार्टियों की महारानी और लाखों की राजमाता रहीं। दादा केंद्रीय मंत्री रहे। एक बुआ मुख्यमंत्री थी, दूसरी मंत्री है। पिता दो-दो पार्टियों से केंद्रीय मंत्री और इस सबके बावजूद महा आर्यमन ज्योतिरादित्य सिंधिया सब्जी-भाजी के कारोबार से जुडक़र किसान बन रहे हैं। चुनाव यात्रा के कांवडिय़ों को सब करना पड़ता है। पिता ने दो रोज पहले ढाबे पर जाकर रसोइए से पाक कला के बारे में बात की। कुछ लोगों ने चुटकी ली। कहा-पुराने दोस्त राहुल ने वाशिंगटन से न्यूयार्क और दिल्ली से अंबाला तक ट्रक ड्राइवरों से गपशप का आनंद लिया। यह रोग सिर्फ राजनीतिक कार्यकर्ताओं तक नहीं है। भाजपा से लेकर ममता तक से न्यौता ठुकराकर सौरव गांगुली ने खानपान के धंधे को चमकाने पर ध्यान दिया। बंगाल के भद्र लोक में चर्चा है कि दादा जस्ट माइ रूट नाम की कंपनी के भागीदार हैं। सौरव की पसंदीदा मिठाइयां खास तौर पर परोसी जाएंगीं। सच्ची बात यह है कि सौरव कंपनी के ब्रांड एम्बेसडर बने हैं। आर्यमन ग्वालियर जिला क्रिकेट के उपाध्यक्ष हैं। दादा किकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
- डॉ. आर.के. पालीवाल
अगर किसी मुहावरे की संक्षिप्त भाषा में कहा जाए तो एनसीपी के आदि पुरुष शरद पवार की स्थिति घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने जैसी हो गई है।एनसीपी के संकट की जड़ में इसके प्रमुख नेताओं की महत्वाकांक्षा है। कभी राष्ट्रीय रहे लेकिन हाल ही में प्रादेशिक हुए इस दल के मुखिया शरद पवार तिरासी साल के हो गए , वे गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं लेकिन उनकी महाराष्ट्र के साथ साथ देश में किंग नहीं तो किंग मेकर बनने की महत्वाकांक्षा अभी भी बाकी है। उनके भतीजे अजित पवार भी पार्टी की कमान संभालने की महत्वाकांक्षा पालते हुए इंतजार करते करते तिरसठ साल के वरिष्ठ नागरिक हो गए।
अब जब उन्हें साफ दिखने लगा कि चाचा शरद पवार उन्हें अपने जीवन में कभी पार्टी की कमान नहीं सौंपेंगे तो उनके पास बगावत के अलावा कोई विकल्प नहीं था। शरद पवार ने अजित पवार को पूरी तरह नकारकर पुत्री सुप्रिया सुले और प्रहलाद पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर यह साफ कर दिया था कि एन सी पी में अजित पवार की वैसी ही हैसियत है जैसी अन्य क्षेत्रीय दलों में नाभिकीय परिवार से इतर रिश्तेदारों की होती है। महाराष्ट्र में ही बाला साहब ठाकरे काफी पहले राज ठाकरे के लिए यह कर चुके हैं और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में यही हुआ है।
एनसीपी में अजित पवार की बगावत के बाद इस वक्त सबसे ज्यादा किरकिरी शरद पवार की हो रही है। उन पर तिहरा संकट है। एक तरफ उम्र के इस पड़ाव पर दो फाड़ हुई पार्टी को तिनका तिनका बिखरने से बचाना मुश्किल काम है, दूसरी तरफ महाराष्ट्र की राजनीति में खुद की प्रासंगिकता बरकरार रखनी है और तीसरे राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र में भाजपा विरोधी गठबंधन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका बचाए रखनी है। जहां तक पहली चुनौती पार्टी की अपनी शाखा और शाख बचाने की बात है वह फिलवक्त सबसे कठिन है।
अजित पवार के सत्ताधारी गठबंधन की डबल इंजन सरकार में शामिल होने से पार्टी के अधिकांश विधायक और सांसद सत्ता की नजदीकी के लोभ में शरद पवार का साथ छोड़ रहे हैं। इसी तरह संगठन के महाराष्ट्र के पदाधिकारी भी अजित पवार के साथ रहकर ही स्वार्थ साध सकते हैं। हालांकि शरद पवार कह रहे हैं कि देश के अन्य प्रदेशों के पदाधिकारी उनके साथ हैं लेकिन उनका पार्टी में कोई महत्व नहीं है क्योंकि वर्तमान समय में महाराष्ट्र के अलावा किसी अन्य प्रदेश में पार्टी बेहद कमजोर है।
जब किसी व्यक्ति या संगठन की स्थिति अपने घर, गृह नगर और गृह प्रदेश में कमजोर होती है तब बाहर भी उनकी इज्जत और महत्व पर ग्रहण लग जाता है। शरद पवार में अब इतनी शक्ति नहीं है कि उम्र के इस पड़ाव पर कई कई मोर्चों पर एक साथ लड़ सकें। उन्होंने अजित पवार को एक तरफ करने के लिए और अपनी पुत्री सुप्रिया सुले को पार्टी की विरासत सौंपने के लिए अपने सबसे विश्वस्त प्रफुल्ल पटेल को बैसाखी और ढाल के रुप में इस्तेमाल किया था। प्रफुल्ल पटेल को सुप्रिया सुले के साथ पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया था कि वे पूरी कमान पुत्री को नहीं सौंप रहे। प्रफुल्ल पटेल उनके इस झांसे में नहीं आए। वे यह समझ गए कि एक दिन उन्हें भी अजित पवार की तरह बाहर निकलना पड़ेगा। शायद इसीलिए वे भी अजित पवार के साथ सत्ता सुख की लालसा में शरद पवार से अलग हो गए।
शरद पवार कभी भी किसी विचारधारा से संबद्ध नहीं रहे। उनके साथ अवसरवादिता और सत्ता की महत्वकांक्षा उनके कद से बडी रही है। चाहे बिना क्रिकेट खेले क्रिकेट बोर्ड ऑफ इंडिया की अध्यक्षता हो या बिना राष्ट्रीय लोकाप्रियता के प्रधानमंत्री पद की महत्वकांक्षा हो शरद पवार हमेशा ऊंचे अवसर की तलाश में रहे। उम्र के इस पड़ाव पर उनके भतीजे अजित पवार और पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल आदि ने भी उनसे सीखकर उनका दांव उन्हीं पर चला है।
-सुशीला सिंह
सोशल मीडिया पर इन दिनों उत्तर प्रदेश सरकार की अधिकारी एसडीएम ज्योति मौर्य और उनके पति आलोक मौर्य का मामला छाया हुआ है।
सोशल मीडिया पर आलोक मौर्य ने आरोप लगाया था कि एसडीएम बनने के बाद उनकी पत्नी ज्योति मौर्य ने उन्हें छोड़ दिया।
आलोक मौर्य ने सोशल मीडिया पर उन्होंने अपनी पत्नी से चैट का एक वीडियो भी पोस्ट किया था। वीडियो सामने आने के बाद इस मामले पर लोग सोशल मीडिया पर अलग-अलग विचार रख रहे हैं। सोशल मीडिया इस सारे विवाद पर दो हिस्सों में बंटा हुआ नजऱ आ रहा है।
एक पक्ष का कहना है कि ये ज्योति मौर्य और आलोक मौर्य का निजी मामला है और मीडिया या जनता को इस मामले में फ़ैसले लेने का कोई अधिकार नहीं है। दूसरा पक्ष ऐसे वीडियो डाल कर ये दावा कर रहा है इस घटना के बाद कई पतियों ने अपनी पत्नी की आगे की पढ़ाई पर रोक लगा दी है। इस साल जून महीने में आलोक मौर्य का कुछ पत्रकारों से बातचीत का वीडियो वायरल हुआ जिसमें उन्होंने रोते हुए ज्योति मौर्य पर धोखा देने और अपने बच्चों से मिलने न देने का आरोप लगाया।
अलोक मौर्य ने बताया था कि वे उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में पंचायतीराज विभाग में क्लास-4 के कर्मचारी हैं और उनकी शादी ज्योति से साल 2010 में हुई थी। आलोक का दावा है कि शादी के बाद ज्योति मौर्य की पढ़ाई के लिए कजऱ् भी लिया। साल 2015 में दंपति को जुड़वा बेटियां हुईं। इसके बाद ज्योति ने उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास कर ली। लेकिन इसके बाद मामले में नया मोड़ आया और आलोक मौर्य ने ज्योति मौर्य पर आरोप लगाए। और शुरू हो गया आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला।
ज्योति ने दावा किया कि आलोक ने कहा था कि वे ग्राम पंचायत में अधिकारी हैं। लेकिन शादी के बाद पता चला कि वे सफ़ाईकर्मी का काम करते थे।
इस मामले से महिलाओं पर असर
इस सारे विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के दो वकीलों सत्यम सिंह और दीक्षा दादू ने राष्ट्रीय महिला आयोग को एक खुली चिट्टी लिख कर कार्रवाई की मांग की है।
सत्यम सिंह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सुरक्षा परिषद में लीगल सेल के महासचिव हैं। सत्यम का दावा है कि इस मामले के सामने आने के बाद कई परिवारों से बहुओं की पढ़ाई बंद करवा दी है।
एक एनजीओ चलाने वाले सत्यम सिंह कहते हैं, ‘ये मामला केवल ज्योति मौर्य तक सीमित नहीं रह गया, इसका असर उन लड़कियों या शादीशुदा महिलाओं पड़ा है जो पढऩा चाह रही हैं। उन्हें अब रोका जा रहा है। इसने पितृसत्तात्मक सोच को और मज़बूत कर दिया है।’
सत्यम ने बताया कि महिलाओं की पढ़ाई के प्रति हाल में कुछ बदलाव आया था और कई परिवारों ने बहुओं को पढऩे के लिए प्रेरित भी किया था लेकिन ऐसे मामले सामने आने से इन प्रयासों को झटका लगेगा।
पब्लिक ट्रायल नहीं होनी चाहिए
पंजाब यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ़ विमेन स्टडीज़ में डॉक्टर अमीर सुल्ताना एक अन्य पहलू की बात करती हैं। वे कहती हैं, ‘भारतीय संविधान में सभी को समानता का अधिकार दिया गया है तो इससे किसी महिला को कैसे महरूम रखा जा सकता है।’
डॉ सुल्ताना ने बीबीसी को बताया, ‘भारत में कितने मामले मिल जाएंगे जहां महिलाएं घर में अकेले कमाने वाली होती हैं और पति, परिवार बैठकर खा रहे होते हैं। वो घरेलू हिंसा बर्दाशत कर रही होती हैं लेकिन ऐसे मामलों पर तो सोशल मीडिया पर चर्चा नहीं होती।’
‘इस मामले में सोशल मीडिया ट्रायल की कोई आलोचना नहीं करता जबकि ये निजता का मामला है और इस मामले में दोनों पक्ष क़ानूनी सहारा लेकर अपनी लड़ाई लड़ सकते हैं।’
भारत, बांग्लादेश और म्यांमार की वो घटनाएं जिनके कारण एकजुट हो रहे कुकी, चिन और मिज़ो समुदाय
दिल्ली स्थित आंबेडकर यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्री और जेंडर मुद्दों पर काम कर रहीं डॉ दीपा सिन्हा कहती हैं कि ये साफ़तौर पर ज्योति मौर्य और आलोक मौर्य का निजी मामला है जिसपर किसी को कुछ बोलने का मतलब नहीं है। ‘लेकिन सोशल मीडिया पर अक्सर ये देखा गया है कि जब भी कोई मामला सामने आता है तो लोग वहीं न्याय करने लग जाते हैं।।।लोग महिला की छवि और चरित्र पर सवाल उठने लगते हैं।’
उनके अनुसार, ‘एक महिला को घर में रहना चाहिए, बच्चे और परिवार को देखना चाहिए, इन सभी भेदभावों को और बढ़ावा दिया है। ये समाज की महिलाओं के प्रति सोच को दिखाता है।’
दीपा सिन्हा तेलंगाना में स्कूलों में किए गए एक शोध का उदाहरण देती हैं।
वे कहती हैं कि कोई लडक़ा अगर किसी स्कूल में लडक़ी का नाम दीवार लिख देता था तो अभिभावक एक के बाद एक अपनी लड़कियों का नाम कटवा लेते थे क्योंकि सारी चीज़ इज़्ज़त से जुड़ जाती हैं।
दीपा सिन्हा कहती हैं कि महिलाओं और सियासतदानों को ऐसी महिलाओं के हक़ में खड़ा होना चाहिए। वकील सत्यम सिंह कहते हैं कि सोशल मीडिया पर भी लगाम लगाई कसी जानी चाहिए। उनका कहना है कि नकारात्मक विचारों को रोकने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग या महिलाओं से जुड़ी संस्थाओं को ऐसे मामलों में संज्ञान लेना। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
आजादी के दौरान और आज़ादी के बाद सर्वोदय विचार के तीन सबसे बड़े स्तंभों महात्मा गांधी, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण का भारतीय समाज में हुए सकारात्मक परिर्वतन में अदभुत योगदान है। विगत कुछ वर्षों से सर्वोदय से जुड़ी महत्त्वपूर्ण संस्थाओं के प्रति शासन के एक वर्ग का रवैया उपेक्षा भाव का रहा है। इसका ताजा उदाहरण सर्व सेवा संघ वाराणसी परिसर पर रेलवे और स्थानीय प्रशासन द्वारा की जा रही तोड़ फोड़ की अप्रत्याशित कार्यवाही के रूप में सामने आया है।
सर्व सेवा संघ का दावा है कि इस परिसर की भूमि रेलवे विभाग से १९६० - ६१ और १९७० में खरीदी गई थी। सर्व सेवा संघ की स्थापना में लाल बहादुर शास्त्री, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण की विशिष्ट भूमिका रही है। पिछ्ले साठ साल से यहां गांधी और सर्वोदय विचार से जुडे विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहे हैं लेकिन विगत कुछ दिनों से अचानक रेलवे विभाग और स्थानीय प्रशासन ने इस परिसर के एक भाग को तोडऩे की त्वरित कार्रवाई का नोटिस दिया है। केंद्र सरकार के रेलवे विभाग और उत्तर प्रदेश प्रशासन की इस कार्यवाही के खिलाफ देश भर के गांधी और सर्वोदय विचारक आक्रोशित हैं।
जहां तक वर्तमान केन्द्र सरकार का प्रश्न है उसकी दृष्टि इस सर्वोदय त्रयी की तीनों विभूतियों के प्रति अलग अलग दिखाई देती है। गांधी को लेकर सत्ता प्रतिष्ठान सबसे ज्यादा पशोपेश में है। भारतीय जनता पार्टी, आर एस एस और इनसे जुड़े कुछ अन्य हिंदू संगठनों के कट्टरपंथी तत्व गांधी के बारे में तरह तरह की अफवाहें फैलाकर उनका चरित्र हनन कर गोडसे को देशभक्त बनाने का प्रयास करते रहते हैं। इन संगठनों के उदारवादी तत्व गांधी के बारे में अक्सर मौन रहते हैं लेकिन प्रधानमंत्री और कुछ मंत्री मौके की नजाकत के अनुसार गांधी के नाम पर साफ सफाई अभियान आदि की शुरुआत भी करते हैं और विदेश में गांधी का गुणगान भी करते हैं। कुछ साल पहले गांधी १५० एक ऐसा अवसर था जिसका उपयोग सरकार न केवल अपने देश में सांप्रदायिक सद्भाव और शांति के लिए कर सकती थी अपितु जिस तरह से योग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाई है वैसे ही गांधी के शांति और अहिंसा के विचारों को विश्व में प्रचारित प्रसारित कर वाहवाही बटोर सकती थी लेकिन वह अवसर गवां दिया।
विनोबा भावे के प्रति सरकार का उदासीनता का भाव रहता है। जयप्रकाश नारायण के प्रति आपात काल के विरोध के कारण सरकार का रुख कुछ नरम दिखता है जो हाथी दांत की तरह बाहरी दिखावा अधिक लगता है। यदि सरकार जयप्रकाश नारायण और सर्वोदय के प्रति संवेदनशील होती तब रेलवे विभाग और उत्तर प्रदेश सरकार जयप्रकाश नारायण द्वारा पोषित सर्व सेवा संघ के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं कर सकते थे। यदि रेलवे विभाग और उत्तर प्रदेश सरकार के सामने दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, वीर सावरकर या किसी अन्य दक्षिण पंथी विभूति की विरासत होती तो उस पर बुलडोजर चलाने की कोशिश असंभव थी। ऐसी परिस्थिति में डबल इंजन सरकार के प्रशासन इस तरह का व्यवहार नहीं कर सकते थे।
अब सर्व सेवा संघ का मामला सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के सामने आ गया है। उन्होंने इस मामले में सर्व सेवा संघ को प्रारंभिक राहत देते हुए मामले को तुरंत सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र और प्रदेश सरकार भी इस मामले के शांतिपूर्ण समाधान के लिए हर संभव प्रयास करेंगी। गांधी और सर्वोदय से जुड़े संस्थान हमारे देश की अनमोल विरासत हैं। हिंसा और अशांति के वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में पूरे विश्व में गांधी और उनके विचार की प्रासंगिकता बढ़ रही है।
ऐसे में अपने देश में उनके विचारों के प्रचार प्रसार में जुटे शीर्ष संस्थानों के साथ प्रशासन का संवेदनहीन व्यवहार सर्वथा अनुचित है। गांधी संस्थानों के पदाधिकारियों को भी इस मामले को राजनीतिक रंग देने से बचना चाहिए और सत्याग्रह के बल पर केंद्र और राज्य सरकारों को सही निर्णय के लिए बाध्य करना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या दिवस ११ जुलाई पर विशेष
डॉ. लखन चौधरी
हमारे देश की विशालतम जनसंख्या हमारी सबसे बड़ी समस्या एवं चिंता बनी हुई है, बल्कि इस समय हमारे देश की सबसे बड़ी चुनौती और सबसे बड़ा दायित्व भी है। अब तो हम चीन को भी पार कर चुके हैं। १४२ करोड़ से अधिक की विशालतम आबादी के लिए जीवनयापन की तमाम बुनियादि सुविधाएं उपलब्ध कराना, करवाना सरकारों के लिए भी आसान एवं सरल नहीं है। भोजन, पानी, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार-आजीविका आदि जीवन की आधारभूत और बुनियादि जरूरतों की उपलब्धता सुनिश्चित करना ही बहुत बड़ी चुनौती है। इसलिए भारत की विशालतम जनसंख्या को अक्सर दायित्व के रूप में देखा एवं परिभाषित किया जाता रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह अवधारणा बदलने लगी है, बदली है और लगातार बदल रही है।
अब हमारी विशालतम जनसंख्या दायित्व ही नहीं बल्कि हमारी आतंरिक एवं बाहरी दोनों स्तर पर बाजारों की ताकत बनकर उभरी और लगातार उभर रही है। देश की विशालतम आबादी हमारी संघीय राज्यों के अर्थव्यवस्थाओं की संभावनाएं बन रही है, बल्कि बन चुकी है। देश की विशालतम जनसंख्या हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अब दायित्व नहीं अपितु हमारी ताकत एवं हमारी एसेट्स बनकर अर्थव्यवस्था के विकास में महती भूमिका अदा कर रही है। देश की विशालतम जनसंख्या हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अब बाजार पैदा कर रही है।
आज जब दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं में सुस्ती और मंदी का वातावरण है। दुनिया की तमाम विकसित अर्थव्यवस्थाएं विकास दर में स्थिरता का रोना रो रहे हैं, ऐसे समय में भी हमारी अर्थव्यवस्था में पर्याप्त मांग एवं खपत बनी हुई है। यह इसलिए संभव हो पा रहा है, क्योंकि हमारी विशालतम जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार में उत्पादन भरपूर मात्रा में हो रहा है या किया जा रहा है। चूंकि बाजार में पर्याप्त मांग एवं खपत बनी हुई है, इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था में मांग एवं खपत की कमी नहीं है, जो निवेश को लगातार आकर्षित कर रहे हैं।
इस समय देश की विशालतम आबादी को संसाधन के रूप में तब्दील करने की जरूरत है, जिससे हमारी जनसंख्या समस्या एवं दायित्व न होकर संपत्ति एवं संसाधन बन जाए। चीन ने यही किया है, जिसके कारण आज चीन अमेरिका को आंखे दिखा रहा है। चीन ने अपनी विशालतम जनसंख्या को संसाधन के रूप में तब्दील करते हुए आर्थिक विकास का एक ऐसा आंतरिक ढ़ांचा खड़ा कर लिया है, जिसे आज दुनिया का कोई भी देश चुनौती नहीं दे सकता है। इस विशालतम आबादी का चीन को यह फायदा हुआ कि उसने दुनिया की सबसे सस्ती चीजें, वस्तुएं बनाने में विशेषज्ञता, दक्षता हासिल कर ली। घर-घर में कुटीर उद्योधंधों की तरह सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगधंधे एवं कारोबार का विकास एवं विस्तार कर लिया।
घरेलु एवं स्थानीय उद्यमिता, उद्यमशीलता के विकास का भरपूर विदोहन करते हुए चीन ने अपनी आर्थिक ताकत इतनी बढ़ा ली है कि आज यूरोप-अमेरिका का कोई भी देश उसका मुकाबला नहीं कर सकता है। इसी कारण आज पूरी दुनिया चीन की हरकतों से परेशान होते हुए भी उसका कुछ नहीं कर पा रहे हैं। आने वाले दशक में भी दुनिया का कोई मुल्क चीन का मुकाबला कर सकेगा ? फिलहाल असंभव ही लगता है, क्योंकि चीन की विशालतम जनसंख्या की उद्यमशीलता का मुकाबला करने के लिए भारत को छोडक़र दुनिया में किसी के पास उतनी बड़ी आबादी नहीं है। इस वक्त हमारा यही दुर्भाग्य है कि हम संभावनायुक्त होने के बावजूद बेबस, बेकार एवं लाचार पड़े हैं। हमारी विशालतम आबादी संभावनायुक्त होते हुए दायित्व मात्र बनकर समस्याओं की जड़ बनी हुई है। (बाकी पेज ५ पर)
सरकार ने योजना आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग कर दिया, लेकिन नीति आयोग की नीतियां, योजनाएं, कार्यक्रम एवं उपलब्धियां धरातल पर कहीं नजर नहीं आती हैं। वास्तविकता यह है आज क्रय शक्ति समता के आधार पर सुदृढ़ एवं सम्पन्न होने के बावजूद देश की जनता गुणात्मक शिक्षा, उत्तम स्वास्थ्य एवं रोजगार-आजीविका के मामले पर पिछड़ी हुई है। दुनिया की ५वीं सबसे बड़ी, शक्तिशाली अर्थव्यवस्था होने के बावजूद गरीबी, बेकारी, आय एवं धन के वितरण में असमानता जैसी सामाजिक-आर्थिक विषमताएं एवं समस्याएं गंभीर एवं विकराल बनी हुई हैं।
आज दुनिया का शायद कोई देश होगा जहां का आम जनमानस घोर संकटों, समस्याओं, कठिनाईयों से घिरा होने के बावजूद अपने राजनीतिक अधिकारों का इस्तेमाल अपनी चिंताओं, परेशानियों, चुनौतियों से निपटने के बजाय अपने अधिकारों का प्रयोग नितांत विवेकशून्यता से भावुकता के लिए करता होगा। यह सब इसलिए क्योंकि हमारी सरकारों ने हमारी बहुसंख्यक जनसंख्या को कभी भी संसाधन एवं सभावनाओं के तौर पर शिक्षित, प्रशिक्षित एवं विकसित करने का प्रयास ही नहीं किया। इसका नतीजा यह रहा है कि हमारी विशालतम आबादी देश के लिए हमेशा बोझ बनी रही। इसलिए प्रगति एवं विकास की अपार संभावनाओं के बावजूद हमारा देश आज तक विकसित देशों की श्रेणी में नहीं आ सका है।
वैसे किसी देश के लिए ७५ साल का वक्त तरक्की, प्रगति, उन्नति के हिसाब से बहुत अधिक नहीं माना जाता है या नहीं हेाता है, लेकिन जब वह देश अर्थव्यवस्थाओं के आकार, क्षमता एवं संभावनाओं की दृष्टि से दुनिया का ५वां बड़ा देश हो तो उम्मीदें तो अवश्य ही बढ़ ही जाती हैं, और बढऩी चाहिए। जब अर्थव्यवस्थाओं के आकार, क्षमता एवं संभावनाओं के अनुसार इतनी बड़ी दुनिया के केवल चार विकसित देश शीर्ष पर हों, तो उम्मीदें बढऩा स्वाभाविक है। सरकार से सवाल-जवाब क्यों नहीं हो कि इतने सालों में इतनी संभावनाओं के बावजूद आमजन की आकांक्षाएं पूरी क्यों नहीं हो रही हैं ? देश के साधनों, संसाधनों का इस्तेमाल कहां, कैसे हो रहा है? ये सवाल तो आमजन को पूछना चाहिए। यदि जनमानस से यह सवाल नहीं उठ रहा है तो भी उसके लिए क्या, कौन जिम्मेदार है? यह भी एक स्वाभाविक सवाल है।
बात देश की इतनी बड़ी जनसंख्या की जो लगातार बेहिसाब बढ़ती जा रही है, और देश के लिए बोझ बनते-बनते, दायित्व निभाते-निभाते अब समस्या बन चुकी है। ऐसी समस्या जिसके कारण देश को अन्य कई तरह की जैसे गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, अज्ञानता, असमानता, गंदगी, बीमारी, अस्वच्छता जैसी अनगिनत समस्याएं घेरे हुए हैं, और विकास का सारा प्रयास एवं उपक्रम इन्हीं निरर्थक प्रयासों में व्यर्थ चला जाता हो, चला जा रहा हो। तब स्वााभाविक तौर पर लगता है लेकिन अब भारत की यही जनसंख्या बोझ, चिंता, चुनौती एवं दायित्व नहीं अपितु संपत्ति, संसाधन, परिसंपत्तियां के रूप में विकास का, आर्थिक सुधारों का वाहक एवं सूत्रधार बन रही है। आज जब पूरी दुनिया आर्थिक सुस्ती एवं मंदी की मार से त्रस्त हैं, तब भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसकी आंच नगण्य है, इसलिए आज पूरी दुनिया की नजरें भारत की ओर टिकने लगीं हैं।
भारत अब केवल एक देश नहीं दुनिया के नजरों में एक बड़ा बाजार है। आज हर भारतवासी एक ग्राहक, एक खरीदार, एक उपभोक्ता है, जिससे सभी दोस्ती चाहते हैं। दुनिया का हर विकसित देश अब भारतीयों को अपना सामान बेचना चाहता है। अब भारतीय अर्थव्यवस्था में इतनी अपार संभावनाएं आ चुकीं हैं कि दुनिया का हर विकसित देश भारत को अपने व्यापार और कारोबार का साझेदार एवं भागीदार बनाना चाहता है, क्योंकि अब हमारी विशालतम जनसंख्या केवल दायित्व नहीं दुनियाभर के बाजारों के लिए बहुत बड़ी ताकत बन चुकी है, और लगातार बनती जा रही है।
देवेंदर शर्मा
कुछ साल पहले की बात है। हरियाणा के एक किसान ने अंडरग्राउंड पाइप डालने के लिए छह लाख रुपये का लोन लिया था जिसे वह चुका नहीं पा रहा था। मामला अदालत पहुंचा और उसे दो साल की कैद और ९.८३ लाख जुर्माने की सजा सुनाई गई।
सिर्फ हरियाणा में ही नहीं, हाल के सालों में देश भर में बैंकों की छोटी-मोटी बकाया राशि नहीं चुकाने की वजह से बड़ी संख्या में किसानों को जेल में डाल दिया गया है। अगर जेल नहीं भेजा गया तो बैंक पहले तो किसानों की ट्रैक्टर जैसी चल संपत्ति जब्त कर लेते हैं और उसके बाद भी बकाया नहीं मिला तो खेत जब्त कर लिए जाते हैं।
ऐसे में, इन छोटे-छोटे डिफॉल्टरों, जो ज्यादातर मामलों में फसलों के खराब हो जाने या फिर कीमतों के जमीन सूंघने की वजह से लोन वापस नहीं कर पाते, के बचाव में आने के बजाय भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अमीर बदमाशों, धोखेबाजों और जानबूझकर लोन न चुकाने वालों के लिए च्रक्षा कवचज् की सुविधा उपलब्ध कराने का फैसला किया। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को दरकिनार करते हुए, इसने राष्ट्रीयकृत बैंकों को जानबूझकर चूक करने वालों के तौर पर पहचाने गए खातों के लिए समझौता निपटान या फिर लोन राशि को बट्टे खाते में डालने की इजाजत दे दी है। १२ महीने की कूलिंग अवधि के बाद, ये डिफॉल्टर जिनके पास भुगतान करने की क्षमता है लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं, नए लोन तक ले सकते हैं।
अगर यह वैध समाधान तंत्र है, जैसा कि आरबीआई कहता है, तो सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि यही फॉर्मूला किसानों, एमएसएमई क्षेत्र और मध्यम वर्ग पर क्यों लागू नहीं किया गया है जो घर या कार लोन लेने के लिए नियमों का पालन करते हुए कर चुका कर अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे लगाते हैं? अन्यथा मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) और माइक्रो-फाइनेंस संस्थानों (एमएफआई) के किराये के गुंडे आए दिन डिफॉल्टरों की चल संपत्ति को जब्त करने के लिए जोर-जबरदस्ती की रणनीति क्यों अपनाएंगे?
हाल ही में एक टोल नाके पर रिकवरी एजेंटों (गुंडों) ने एक डिफॉल्टर की कार जब्त कर ली। वहीं, एक एनबीएफसी प्रमुख ने झारखंड में कर्ज न चुकाने वाले एक किसान की गर्भवती बेटी की मौत के लिए माफी मांगी थी। उसे तब कुचल दिया गया था जब रिकवरी एजेंट ट्रैक्टर के साथ भागने की कोशिश कर रहे थे जिसके लिए किसान ने लोन ले रखा था। लेकिन आरबीआई की नजरें तो दूसरी तरफ हैं।
मैं इस बात से स्तब्ध हूं कि आरबीआई ने बैंकों को जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वालों के साथ समझौता करने की इजाजत देने वाला पत्र भला कैसे जारी कर दिया? ऐसे लोगों को तो कायदे से अब तक जेल में होना चाहिए था। और फिर जब आरबीआई के इस पत्र पर हंगामा मचा तो मामले को ठंडा करने के लिए जो च्नरमज् स्पष्टीकरण दिए गए, उससे और भी सवाल खड़े हो गए। इससे केवल यही बात जाहिर होती है कि आरबीआई की सारी उदारता अमीर डिफॉल्टरों के लिए है। ऐसे डिफॉल्टर जो बैंकिंग नियामक के नियम-कायदों की कतई परवाह नहीं करते।
अन्यथा मुझे कोई और कारण नहीं दिखता कि जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जाती। पिछले दो वर्षों में इनकी संख्या में ४१ प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। इनकी संख्या बढक़र १६,०४४ हो गई है और इन पर बैंकों का कुल मिलाकर ३.४६ लाख करोड़ रुपये बकाया है। इसके अलावा, मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि पिछले सात वर्षों में बैंक धोखाधड़ी और घोटालों में हर दिन १०० करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। जो भी हो, कई जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों जिनमें विजय माल्या, मेहुल चोकसी और ललित मोदी जैसे लोग शामिल हैं, जो देश छोडक़र भाग गए हैं, को अब आरबीआई के इस रुख से राहत मिलेगी कि बैंक उनके साथ समझौता कर सकेंगे। इनमें से कई को बकाए की बड़ी राशि के बट्टे-खाते में जाने का फायदा होगा और उसके बाद भी वे आगे फिर से लोन लेने के पात्र होंगे।
क्या यह ऐसी व्यवस्था नहीं जो वास्तव में इस तरह की गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार है!
मुझे हैरानी है कि आरबीआई ने छोटी राशि के बकाएदारों जिनमें किसान भी शामिल हैं, के प्रति कभी इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई? छोटे किसानों को जेल की सजा क्यों भुगतनी पड़ती है जबकि व्यापार में अमीर बदमाशों को नियमित रूप से जमानत मिल जाती है और उनके लिए लोन की राशि में भी भारी कटौती कर दी जाती है और इसलिए उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं होता है। वे जन्मदिन मनाना, महंगी छुट्टियां मनाना और शानदार जीवनशैली जारी रखते हैं। आरबीआई के हालिया सर्कुलर से उन्हें बड़ी राहत का रास्ता साफ हो गया है और अब इस धंधे से जुड़े धोखेबाजों को डरने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें बस इतना अमीर होना है कि वे उस श्रेणी में आ सकें जिसके चारों ओर बैंक ने एक सुरक्षात्मक घेरा तैयार कर दिया है।
कभी-कभी मुझे लगता है कि बैंकिंग व्यवस्था ही बढ़ती असमानता का मूल कारण है। आखिरकार, अगर बैंक बैंकिंग प्रणाली को धोखा देने वाले उधारकर्ताओं के साथ इस तरह का व्यवहार जारी रखते हैं, तो यह केवल उस गेम प्लान को उजागर करता है जो अमीरों को धन इक_ा करने में मदद करता है। इसलिए नहीं कि वे प्रतिभाशाली हैं बल्कि इसलिए कि बैंक जनता के पैसे से उन्हें उबारते रहते हैं। पहले से ही, बैंकों ने पिछले १० वर्षों में १३ लाख करोड़ रुपये से अधिक की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) को बट्टे खाते में डाल दिया है और जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वालों के लिए समझौता फार्मूला तैयार करने का बैंकों को दिया गया विवेक उनके लिए सोने पर सुहागा जैसा काम करेगा।
जबकि अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ और अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ आरबीआई नीति के आलोचक रहे हैं, अधिकतर बिजनेस मीडिया इसके समर्थक रहे हैं। इससे भी अधिक दिलचस्प बात यह है कि जब भी कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचाने का कोई मुद्दा सामने आता है, तो कॉरपोरेट अर्थशास्त्रियों की एक टीम अचानक सामने आकर उसका बचाव करने की कोशिशों में जुट जाती है, भले ही वह निर्णय कितना भी गलत क्यों न हो।
यह तब हुआ, जब ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने विकराल होती असमानताओं को कम करने के लिए संपत्ति कर लगाने के लिए कहा। भारत में कुछ अर्थशास्त्रियों ने तब कहा था कि अमीरों के एक छोटे वर्ग के ऊपर संपत्ति कर बढ़ाना सही नहीं होगा। यह भी उतना ही हैरान करने वाला है कि कैसे कुछ अर्थशास्त्री, आरबीआई के निर्देश को सही ठहराने की कोशिश करते हुए, यहां तक कह देते हैं कि ऋण की वसूली करते समय बैंक को इस बात में कोई अंतर नहीं करना चाहिए कि डिफॉल्ट जानबूझकर किया गया, या अनजाने में या फिर किसी भी और इरादे से।
यदि ऐसा है, तो मुझे आश्चर्य है कि मध्यम वर्ग के निवेशकों और किसानों के लिए इस अपवाद की अनुमति क्यों नहीं है? यदि किसानों और मध्यम वर्ग के डिफॉल्टरों को समान विशेषाधिकार मिलते हैं तो आप उन्हीं अर्थशास्त्रियों को इस नीति पर सवाल उठाते हुए देखेंगे। उदाहरण के लिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि मीडिया में वे विशेषज्ञ और अन्य लोग जिन्होंने कर्नाटक में रोडवेज बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा पर सवाल उठाते हुए कहा था कि इससे राज्य सरकार को प्रति वर्ष ४,००० करोड़ रुपये का खर्च आएगा, जब सवाल पूछा जाता है तो वे स्पष्ट रूप से चुप हो जाते हैं। ३.४६ लाख करोड़ रुपये के बट्टे खाते में डाले जाने की उम्मीद है और वह भी जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले एक वर्ग के लिए। उन्हें इस उदारता से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन वे हमेशा गरीबों के लिए घोषित प्रोत्साहनों पर सवाल उठाते हैं।
मैंने सोचा कि आरबीआई कम से कम गरीब मजदूरों के खिलाफ इस अंतर्निहित पूर्वाग्रह से दूर रहेगा। इसके विपरीत, विवादास्पद परिपत्र जो बैंकिंग प्रणाली के बदमाशों और धोखेबाजों के लिए एक सुरक्षात्मक जीवनरेखा प्रदान करता है, स्पष्ट रूप से दिखाता है कि आरबीआई को बहुत कुछ सीखना है और शायद च्दोहरे मानकज् को रोकने के लिए एक ठोस प्रयास करना है जो हर स्थिति में अमीरों का पक्ष लेता है- तरह-तरह के आर्थिक लाभ, और राष्ट्रीय बैलेंस शीट को बिगाडऩे और नैतिक खतरा बनने के लिए गरीबों की निंदा करना। (navjivanindia.com)
(देविंदर शर्मा जाने-माने कृषि नीति विशेषज्ञ हैं)
-श्रवण गर्ग
ऐतिहासिक बन चुके 5 जुलाई 2023 के दिन अजीत दादा पवार या ‘दादा’ अजित पवार को मुंबई के बांद्रा स्थित मुंबई एजुकेशनट्रस्ट परिसर में बोलते हुए टीवी पर सुना या देखा था क्या ? ‘दादा’ जब अपने ‘काका’ शरद पवार को चैलेंज कर रहे थे तब देखकर कैसा महसूस हो रहा था? ‘दादा’ अपनी बात मराठी में ‘सांग’ रहे थे यानी बोल रहे थे। मराठी समझ नहीं आती हो तो भी जो चल रहा था सब साफ था।
अब अजीत दादा के उस दिन के चेहरे को याद कीजिये जब शरद पवार अत्यंत नाटकीय अन्दाज में पार्टी-अध्यक्ष पद से पूर्व में दिये अपने इस्तीफे को वापस लेने के बाद बेटी सुप्रिया सुले और ‘तब’ अत्यंत ‘विश्वस्त’ प्रफुल्ल पटेल को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की सारी जिम्मेदारी सौंप रहे थे! अजित पवार को कुछ नहीं मिला था। अजित पवार की बांद्रा बैठक की तैयारी उसी क्षण से प्रारंभ हो गई थी।
(कतिपय विश्लेषक अपनी इस बात पर कायम हैं कि पाँच जुलाई का सारा ‘ड्रामा’ शरद पवार के दिमाग की ही उपज थी। अगर यह सही है तो दाद दी जा सकती है कि तिरासी साल की उम्र में भी एक ‘काका’ इस तरह का नाटक कर सकता है जबकि किसी समय इतनी ही उम्र के एक दूसरे ‘काका’ को उसकी पार्टी ने घर बैठा दिया था और वह चुपचाप बैठ भी गए थे! वे आज भी बताई गई मुद्रा में ही बैठे हुए हैं! )
यह समझने से पहले कि ‘दादा’ अपने सगे काका को किस भाषा में क्या उपदेश दे रहे थे इस सवाल पर आते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे मंझे हुए गुजराती नेता अजित दादा जैसे तेज-तर्रार और अति महत्वाकांक्षी मराठी मानुस को महाराष्ट्र की राजनीति में किस सीमा तक आगे बढऩे देना चाहेंगे? ऊपरी तौर पर तो दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध शीघ्रातिशीघ्र बन जाने चाहिए क्योंकि आगे बढऩे के लिए जो राजनीति अजित दादा अपनी ही पार्टी के स्थापित शिखरों के साथ कर रहे हैं और जिन सीढिय़ों पर पैर रखकर मोदी गांधीनगर से नई दिल्ली पहुँचे हैं दोनों के बीच समानताओं के कई बिंदु तलाश किए जा सकते हैं।
अजित पवार ने शरद पवार को क्या-क्या नहीं सुनाया! उन्होंने अपने ‘काका’ को समझाया कि आईएएस अफ़सर साठ की उम्र में सेवा-निवृत हो जाता है। भाजपा में नेता पचहत्तर में रिटायर हो जाते हैं। आडवाणी और एमएम जोशी के नाम गिनाते हुए अजित पवार ने कहा कि हर आदमी के लिए समय निर्धारित होता है। पच्चीस से पचहत्तर के बीच का समय ही सबसे अधिक योगदान का है। ‘दादा’ ने फिर पूछा- आप 83 के हो गये हो ! आप क्या अब भी रुकने वाले नहीं हो? शरद पवार ने इसका दिल्ली पहुँचकर जवाब दिया कि वे अब भी प्रभावी हैं, चाहे 82 के हों या 92 के।
अजित पवार अभी तिरसठ साल के हैं। उनके पास रिटायर होने के लिए काफी वक्त है। उनसे यह सुनने के लिये तीन साल प्रतीक्षा करना पड़ेगी कि पचहत्तर की उम्र में रिटायरमेंट का जो उपदेश बांद्रा के कुरुक्षेत्र में काका को दिया था मोदी को भी कहते हुए देने वाले हैं कि अब उन्हें घर बैठकर नए लोगों को आगे बढऩे का मौका देना चाहिए! इसके लिए अजित पवार को तीन साल तक भाजपा के साथ बने रहना पड़ेगा जिसकी कि संभावना कम नजऱ आती है !
अजित पवार अगर अपने काका से कह सकते हैं कि वे अब मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं तो वे आगे चलकर किसी और बड़े पद की माँग मोदी से भी कर सकते हैं! यह भी कि अगर अजित पवार ने तय कर ही लिया है कि उन्हें मुख्यमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता तो फिर एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडनवीस क्या करने वाले हैं? अजित पवार की कार्यशैली से भाजपा के धुरंधरों को इसलिए डरना चाहिए कि उन्होंने 2019 के विद्रोह में हुई चूक की तरह की कोई गलती इस ऑपरेशन में नहीं की। बांद्रा सम्मेलन के दो दिन पहले ही पार्टी की गुप्त बैठक बुलाकर अपने आप को एनसीपी का प्रमुख भी चुनवा लिया और किसी को भी खबर तक नहीं होने दी। राजनीति के हर सफल तख्ता-पलट की पीठ के पीछे की कहानी ऐसी ही मिलेगी !
पूरे ‘पवार परिवार’ प्रसंग में जिस एक व्यक्ति की भूमिका पर चर्चा करना जरूरी है वह प्रफुल पटेल हैं। मेरे जैसे कई लोग होंगे जो यूपीए सरकार के दस साल के कार्यकाल पर तब पूरी नजर रखते थे और केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री के रूप में पटेल के कामकाज और उनके मंत्रालय को लेकर उठने वाले विवादों से परिचित रहे हैं। उस सबकी चर्चा फिर किसी समय। अभी बात सिर्फ बांद्रा की। अजित दादा के साथ-साथ शानदार मराठी में भाषण करते हुए पटेल के वीडियो के उस अंश को जब उनके राजनीतिक ‘मेंटर’ शरद पवार ने देखा होगा जिसमें वे पटना में हुई विपक्ष की बैठक का जिक्र कर रहे थे तब उनके दिल पर क्या गुजरी होगी कल्पना करना मुश्किल है। शरद पवार पटना की बैठक में अपने सबसे नज़दीकी सहयोगी के रूप में पटेल को साथ ले गये थे।
अजित पवार के साथ मंच की भागीदारी करते हुए पटेल ने वर्णन किया कि पटना-बैठक का नज़ारा देखकर उनका मन हँसने का कर रहा था। उन्होंने वहाँ देखा कि बैठक में उपस्थित सत्रह पार्टियों में सात का लोकसभा में सिफऱ् एक-एक ही सांसद है। एक पार्टी के पास तो एक भी सांसद नहीं है। ये (विपक्षी) दावा करते हैं कि सबकुछ बदल डालेंगे! पटेल ने पवार से पूछा कि जब एनसीपी महाराष्ट्र विकास अगाड़ी(एमवीए) में शामिल होकर शिव सेना की विचारधारा को स्वीकार कर सकती है तो उसके (अजित पवार गुट के) भाजपा के साथ जाने पर आपत्ति क्यों होना चाहिए ?
महाराष्ट्र के घटनाक्रम से भारतीय जनता पार्टी को राज्य में अखंड सौभाग्यवती रहने का वरदान प्राप्त हो गया है या जो कुछ चल रहा है वह अरब सागर से मुंबई के तटों पर उठने वाली किसी राजनीतिक सूनामी के संकेत हैं जानने के लिये शायद ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़े ! सत्ता प्राप्ति के लिये जिस राजनीति की शुरुआत भाजपा के नेतृत्व में हुई है उसका पटाक्षेप भी प्रधानमंत्री की आँखों के सामने ही होना चाहिए । आकलन सही भी साबित हो सकता है कि सूनामी के बाद सबसे ज़्यादा बचाव कार्यों की जरूरत भाजपा-शिविरों को ही पड़ेगी।
शरद पवार एक अनुभवी नेता हैं। उन्होंने भतीजे को आगाह किया था कि मोदी द्वारा एनसीपी को एक भ्रष्ट पार्टी बताए जाने के बावजूद वे गैर-भरोसे वाली भाजपा के साथ जा रहे हैं पर अजित पवार माने नहीं। महाराष्ट्र की जनता पहचानती है कि एनसीपी का चुनाव चिन्ह ‘घड़ी’ है। ‘घड़ी’ नामका एक चर्चित डिटर्जेंट पाउडर भी है। भाजपा एक बड़ी विशाल पेट वाली वाशिंग मशीन है जिसमें ठीक से धो दिए जाने के बाद सारे मेल दूर हो जाते हैं।
महाराष्ट्र ऑपरेशन के बाद भाजपा बिहार सहित अन्य राज्यों से राजनेताओं से उनके मेले कपड़े उतरवाने में जुट गई है। देखना यही बाक़ी रहेगा कि 2024 के चुनावों के बाद कितने कपड़े उजले होकर वाशिंग मशीन से बाहर निकलते हैं और कितने चिथड़े होकर !