विचार/लेख
डॉ. आर.के. पालीवाल
राजनीति और धर्म से जुडे लोगों के लिए लिए तो दुर्भाग्य से हमारे देश में कोई आचरण नियमावली है ही नहीं। चुनावों के समय जरूर चुनाव आयोग और उससे संबद्ध मशीनरी को मिले विशेष अधिकारों के कारण नेताओं पर कुछ दिन के लिए थोडी बहुत लगाम कसी जाती है अन्यथा उनके लिए कोई लिखित या परंपरा के रुप में आचरण नियमावली नहीं बनाई गई।
इस मामले में सभी दल बराबर के दोषी हैं क्योंकि किसी भी राजनैतिक दल ने ऐसी पहल नहीं की। इसके बरक्स नौकरशाहों और न्यायालय के न्यायमूर्तियों के लिए न केवल विस्तृत आचरण नियमावली है बल्कि समय समय पर न्यायालयों द्वारा दिए गए दिशा निर्देश और सरकार द्वारा ज़ारी नियम भी उन पर लागू होते हैं। इसके बावजूद कभी कभी नौकरशाह और न्यायमूर्ति भी इस तरह का व्यवहार करते हैं जिससे बडी विचित्र स्थितियां पैदा हो जाती हैं। कुछ दिन पहले कुछ ऐसा ही कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायधीश अभिजीत गंगोपाध्याय के आचरण और आदेशों के बारे में हुआ है।
न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय ने पश्चिम बंगाल के शिक्षक भर्ती घोटाले में सी बी आई जांच के आदेश दिए थे। इस जांच के बाद ही इस घोटाले की परतें खुलती चली गई थी जिनमें सैकड़ों करोड़ रुपए के काले धन की जब्ती हुई थी और तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेता और तत्कालीन शिक्षा मंत्री की गिरफ्तारी हुई थी। निश्चित रुप से यहां तक यह अत्यंत सराहनीय निर्णय था जिससे भ्रष्टाचार का इतना बड़ा मामला जनता के सामने आया था।
न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय यहीं नहीं रुके। उन्होंने इस मामले पर मीडिया में बेबाक इंटरव्यू भी दे दिया। न्यायालय की यह परंपरा रही है कि न्यायमूर्ति उन मामलों पर मीडिया में इंटरव्यू नहीं देते जिनकी सुनवाई उनकी अदालत में चल रही है। यहीं से सर्वोच्च न्यायालय से उनके टकराव की शुरुआत हुई। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल के सत्ताधारी दल तृणमूल कांग्रेस ने न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। शिक्षक भर्ती घोटाले से तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं का नाम जुडऩे से पार्टी वैसे ही इन न्यायमूर्ति महोदय से खुन्नस खाई हुई थी, उनके इंटरव्यू ने आग में घी डाल दिया जिससे पार्टी को उनके खिलाफ मोर्चा खोलने का मौका मिल गया।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी उनके आचरण को उचित नहीं माना और उनके इंटरव्यू की ट्रांसक्रिप्ट जांच के लिए मांग ली। इसके पहले कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में किसी निर्णय पर पहुंचता न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारी को आधी रात तक उनके इंटरव्यू की ट्रांसक्रिप्ट भेजने का निर्देश जारी कर दिया। इस निर्देश ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी अभूतपूर्व स्थिति पैदा कर दी। इस स्थिती से निबटने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ को भी देर शाम अदालत लगानी पड़ी और न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय के निर्देष को रद्द करना पड़ा।
प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व में सर्वोच्च न्यायालय इन दिनों न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए कई प्रगतिशील और सकारात्मक परिवर्तनों की शुरुआत कर रहा है ताकि नागरिकों को सहज और त्वरित न्याय सुलभ हो और न्यायपालिका में पारदर्शिता बढ़े। ऐसे में न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय के प्रकरण से न्यायिक व्यवस्था के बारे में जनता में गलत संदेश जाता है। इसी तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक न्यायमूर्ति द्वारा ट्रेन यात्रा के दौरान हुई असुविधा के लिए रेल अधिकारियों का स्पष्टीकरण तलब कर लिया था। इसे भी सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने उचित नहीं माना और देश के सभी न्यायिक अधिकारियों से प्रोटोकॉल को लेकर उदारता का परिचय देने का अनुरोध किया है। उपरोक्त वर्णित न्यायमूर्तियों की तरह देश के विभिन्न हिस्सों से प्रशासनिक अधिकारियों के मातहतों और आम जनता से दुर्व्यवहार के किस्से भी समाचारों की सुर्खियां बनते रहते हैं। ऐसे अधिकारियों के कारण नौकरशाही के बारे में भी जनता में बहुत गलत संदेश जाता है। संबंधित सरकारों को ऐसे अधिकारियों से भी सख्ती से निबटना चाहिए।
सलमान रावी
मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव ने दस्तक दे दी है, अगले कुछ दिनों के अंदर ही राज्य के दो प्रमुख दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी अपने उम्मीदवारों का चयन कर लेंगे।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 230 सीटों के लिए इस बार होने वाले ये चुनाव बेहद रोचक होंगे क्योंकि उन्हें कांटे की टक्कर नजऱ आ रही है।
इस प्रदेश में दो ही दलों का प्रभाव है इसलिए चुनावी लड़ाई आमने-सामने की ही है लेकिन प्रदेश के समाज का एक तबका ऐसा भी है जिसके अंदर चुनावों को लेकर ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है।
ये तबका है प्रदेश की आबादी के सात प्रतिशत मुसलमान।
चुनाव में नहीं दिख रही दिलचस्पी
मोहम्मद फिऱोज़, दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक, भोपाल की ‘ताजुल मस्जिद’ के प्रांगण में छोटी सी ‘कैंटीन’ चलाते हैं।
उनकी इस ‘कैंटीन’ में अक्सर नमाज़ पढऩे के बाद लोग चाय पीने के लिए जुटते हैं। चाय पर चर्चा भी होती है जो सियासत से लेकर समाज के दूसरे मुद्दों तक चली जाती है लेकिन आज यहाँ जमा लोग चुनावी मौसम की जगह देश के अलग-अलग हिस्सों में हो रही बारिश और उससे हो रही तबाही की चर्चा कर रहे हैं।
बात करने पर फिऱोज़ पूछते हैं, ‘आपको कहीं से लग रहा है कि मध्य प्रदेश तीन महीनों के अंदर चुनाव होने वाले हैं?’
फिऱोज़ इसकी वजह बताते हैं, ‘मुसलमानों में चुनावों को लेकर अब उतना जोश नहीं रह गया है। पूरी विधानसभा में सिफऱ् दो मुसलमान विधायक हैं, एक आरिफ़ अक़ील और एक आरिफ़ मसूद। अक़ील साहब बेहद बीमार चल रहे हैं। दूसरे विधायक आरिफ़ मसूद साहब हैं। कितने ही मुद्दे उठाएँगे वो मुसलमानों के? सवाल तो ये है कि मुसलमानों को कितने टिकट मिलेंगे। कांग्रेस की मुसलमानों में कोई दिलचस्पी नहीं है और भारतीय जनता पार्टी का तो एजेंडा जगज़ाहिर है।’
फिऱोज़ अकेले नहीं हैं जो ऐसा सोचते हैं। भोपाल में रहने वाले मुसलमान युवा और पढ़े-लिखे तबके की यही चिंता है।
‘बरकतुल्लाह यूथ फ़ोरम’ के अनस अली मानते हैं कि मध्य प्रदेश में कम आबादी की वजह से मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर पार्टियाँ कभी गंभीर नहीं रही हैं। वो मानते हैं कि उनके समाज के ‘आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का ये सबसे बड़ा कारण है।’
नई बात नहीं
वर्ष 1993 में एक ऐसा समय भी आया था, जब कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह पहली बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। उस समय छत्तीसगढ़ नहीं बना था, अविभाजित मध्य प्रदेश की विधानसभा में 320 सीटें हुआ करती थीं।
उस साल को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था जब उस समय भारत के ‘सबसे बड़े राज्य’ की विधानसभा में एक भी मुस्लिम विधायक निर्वाचित नहीं हुआ था।
तब दिग्विजय सिंह ने अपने मंत्रिमंडल में एक मुस्लिम चेहरे को जगह दी थी। उनका नाम था इब्राहिम कुरैशी लेकिन कुरैशी विधायक नहीं थे और छह महीनों के अंदर वो कोई चुनाव भी नहीं जीत सके थे इसलिए उन्हें पद से हटना पड़ा।
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक गिरिजाशंकर के अनुसार, ‘दिग्विजय सिंह ने अपने पहले मंत्रिमंडल में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने की दृष्टि से इब्राहिम कुरैशी को मंत्री बनाया, जो विधायक नहीं थे। मंत्री बनने के बाद छह माह के भीतर निर्वाचित नहीं हो पाने के कारण उनका इस्तीफ़ा ले लिया गया।’
इब्राहिम कुरैशी के पास वक्फ़, विज्ञान टेक्नोलॉजी और सार्वजनिक उपक्रम जैसे विभाग थे।
1993 के विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के छह मुसलमान उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था जबकि भारतीय जनता पार्टी ने भी अब्दुल गनी अंसारी को उम्मीदवार बनाया था। मगर इनमें से कोई भी चुनाव नहीं जीत सका था।
क्यों चले गए मुसलमान हाशिये पर?
दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में राजनीति शास्त्र के स्कॉलर मोहम्मद ओसामा ने मध्य प्रदेश में मुसलमानों के ‘राजनीतिक हाशिये पर जाने’ को लेकर शोध किया है। उनका शोध अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित भी हुआ है।
उन्होंने चुनाव आयोग के आंकड़ों के आधार पर मुसलमान प्रत्याशियों के तुलनात्मक प्रतिनिधित्व का आकलन किया है। अपने शोध में वो बताते हैं कि वर्ष 1980 के विधानसभा चुनावों में मुसलमान उम्मीदवार सबसे ज़्यादा थे और उनकी तादाद 35 थी।
इसके बाद के विधानसभा के चुनावों में ये तादाद घटती चली गई। पिछले विधानसभा के चुनावों में सिफऱ् 14 मुसलमान उम्मीदवार ही मैदान में थे। अब तक सबसे ज़्यादा मुसलमान विधायक 1962 के विधानसभा चुनावों में जीतकर आये थे और उनकी तादाद सात थी।
साढ़े सात करोड़ की आबादी वाले मध्य प्रदेश में मुसलमान सात प्रतिशत के आसपास हैं लेकिन कुछ ऐसी सीटें हैं जहाँ पर मुसलमानों के वोट निर्णायक हैं। इसके बावजूद प्रदेश की विधानसभा में समाज के इस तबक़े का प्रतिनिधित्व घटता ही चला जा रहा है और उनके मुद्दे दरकिनार होते जा रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि 230 विधानसभा की सीटों में से 15 से 20 प्रतिशत ऐसी सीटें हैं जिन पर मुसलमान मतदाताओं का प्रभाव है।
वो सीटें जहाँ मुसलमान असर रखते हैं
ऐसा नहीं है कि राज्य में हर जगह मुसलमान हाशिये पर हैं, मध्य प्रदेश में कई ऐसी सीटें हैं जहाँ मुसलमानों का वोट ख़ासा अहमियत रखता है।
भोपाल का इतिहास भी काफ़ी रोचक रहा है, आजादी के समय भोपाल, सीहोर जि़ले की एक तहसील हुआ करता था। भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल के ठीक पहले भोपाल को नवाबों और बेगमों की रियासत कहा जाता था।
भोपाल, इंदौर और बुरहानपुर में मुसलमानों की बड़ी आबादी रहती है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि 230 विधानसभा की सीटों में से 15 से 20 प्रतिशत ऐसी सीटें हैं जिन पर मुसलमान मतदाताओं का प्रभाव है।
भोपाल के पास नरेला विधानसभा की सीट के अलावा देवास की सीट, शाजापुर, ग्वालियर (दक्षिण), उज्जैन (उत्तर) रतलाम (सिटी), जबलपुर (पूर्व), सागऱ, रीवा, सतना, मंदसौर, देपालपुर, खरगोन और खंडवा की विधानसभा की सीटों पर मुसलमान वोटरों का ख़ासा प्रभाव है।
राजनीतिक दलों पर आरोप है कि भोपाल की दो या तीन सीटों के अलावा वो मुसलमान प्रत्याशियों को टिकट देने में आना-कानी करते हैं।
मध्य प्रदेश की विधानसभा में पिछले चार दशकों से मुसलमान विधायकों का प्रतिनिधित्व घटता ही चला जा रहा है। प्रदेश से आखिरी मुसलमान सांसद, हॉकी ओलंपियन असलम शेर खान ही रहे हैं और वो भी 80 के दशक में। उनके बाद फिर कभी कोई मुसलमान प्रत्याशी लोकसभा में मध्य प्रदेश से निर्वाचित नहीं हो पाया।
ग़ुम होती जा रही है आवाज़
समाज के लोगों का कहना है कि विधानसभा से लेकर संसद तक प्रदेश के मुसलमानों के मुद्दों को उठाने वाली आवाजें ख़त्म होती जा रही हैं।
यास्मीन अलीम, ‘बेगम्स ऑफ़ भोपाल’ नाम की संस्था की सचिव हैं जो सामजिक कार्यों और मुसलमान बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र काम करती है। यास्मीन कहतीं हैं कि कम प्रतिनिधित्व के बावजूद कुछ वर्षों पहले तक भी सरकार मुसलमानों के मुद्दों पर ध्यान देती थी। वो कहती हैं, ‘लेकिन अब सरकार का रवैया भी बदला-बदला-सा है।’
उनका कहना था कि गऱीब मुसलमान अपने बच्चों को सरकार से मिलने वाली छात्रवृति के सहारे पढ़ाते थे लेकिन पिछले साल से ही इसे बंद कर दिया गया है। वो कहती हैं कि उनका समाज का एक बड़ी आर्थिक तंगी से जूझ रहा है जो न तो अपने बच्चों के लिए फ़ीस का इंतज़ाम कर पा रहा है और ना ही किताबें।
यास्मीन कहती हैं, ‘सबसे ज़्यादा परेशानी मुसलमान महिलाएँ झेल रही हैं। घरेलू हिंसा से लेकर आर्थिक तंगी तक सारा बोझ मुसलमान महिलाओं के सिर पर है। हमारे लिए आवाज़ कौन उठाएगा? मुसलमान महिलाओं के लिए आवाज़ कौन उठाएगा? बड़ा दु:ख होता है। हम क्या कर रहे हैं। हम कुछ भी नहीं कर पा रहे क्योंकि हमारी आवाज़ तो हर तरह से दबाई जा रही है।’
मुसलमानों की अनदेखी का आरोप
मध्य प्रदेश राज्य के रूप में 1956 में अस्तित्व में आया। गठन के बाद से सबसे अधिक शासनकाल कांग्रेस का रहा इसलिए मुसलमानों के घटते राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर कांग्रेस पर ही सभी ज़्यादा उंगलियाँ उठ रही हैं।
अब संगठन के वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर बोलना भी शुरू कर दिया है और कांग्रेस पार्टी के आला कमान पर ‘मुसलमानों की अनदेखी’ का आरोप लगाना शुरू कर दिया है। इन वरिष्ठ नेताओं ने प्रदेश के कई क्षेत्रों में समाज के लोगों से साथ बैठकें भी की हैं और पार्टी को इस बारे में चेताया भी है।
अज़ीज़ कुरैशी राज्यपाल भी रह चुके हैं और केन्द्रीय मंत्री भी। वर्ष 1972 से वो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी रहे हैं लेकिन इस बार उनका नाम केंद्रीय कमेटी की सूची में नहीं है।
कांग्रेस पार्टी से नाराज़ चल रहे वरिष्ठ नेताओं की अगुवाई वो ही कर रहे हैं।
बीबीसी से बात करते हुए कुरैशी कहते हैं, ‘आज मेरी ही पार्टी में मेरी कोई औकात नहीं रह गई है। सन 1972 से मैं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य रहा हूँ। इस बार मेरा नाम ग़ायब कर दिया गया है। कांग्रेस पार्टी सोचने लग गई है कि मध्य प्रदेश में मुसलमानों की औकात ही क्या है। झक मारकर हमारे पास आएँगे, और ये उनकी बहुत बड़ी ग़लतफहमी है। इनको ये एहसास दिलाना ज़रूरी है कि हम इनके ग़ुलाम नहीं हैं।’
कुरैशी का आरोप है कि पहले जो आवाजें मुसलमानों के अधिकारों के लिए उठा करतीं थीं, चाहे वो कांग्रेस पार्टी के अंदर से हों या समाजवादी सोच वाले नेताओं की हों, वो आवाजें अब धीमी पड़ गई हैं।
कुरैशी का कहना था, ‘कांग्रेस भी अब हिंदुत्व के रास्ते पर निकल पड़ी है ये सोचते हुए कि वो भारतीय जनता पार्टी का इसके ज़रिए मुक़ाबला कर सकती है। जो धर्मनिरपेक्षता के चैंपियन होने का दम भरते थे वो या तो डर गए हैं या फिर वोटों की ख़ातिर खामोश रहना पसंद कर रहे हैं।’
बग़ावत करने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का ये भी आरोप है कि उनकी पार्टी भी अब मुसलमान नेताओं को मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों से टिकट देने में हिचकिचा रही है।
कांग्रेस भी नहीं चाहती मुसलमानों के वोट?
कांग्रेस के पूर्व सांसद और हॉकी ओलंपियन असलम शेर खान कहते हैं कि पहले भी कांग्रेस के नेतृत्व के लिए मुसलमानों को लेकर मध्य प्रदेश में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रही है। उनका आरोप है कि अब तो नौबत यहाँ तक आ पहुंची है कि मुसलमानों के सात प्रतिशत वोटों में भी कांग्रेस की दिलचस्पी नहीं रही।
कांग्रेस के बारे में बात करते हुए वे कहते हैं, ‘अब तो मुसलमानों के वोट मांगने भी नहीं जा रहे बड़े नेता। कांग्रेस के कई हिन्दू नेता भी मुस्लिम बहुल सीटों का टिकट चाहते हैं क्योंकि उनको वहाँ से जीतना बहुत आसान हो जाता है। अगर मुस्लिम बहुल सीटें हैं जहाँ 50, 60, 70 या 80 हज़ार मुसलमान मतदाता हैं तो वहाँ अगर कोई कांग्रेसी हिंदू टिकट ले ले तो उसका जीतना आसान हो जाता है।’
बीबीसी के साथ चर्चा के दौरान असलम शेर खान ने कांग्रेस के शासनकाल में शुरू किए गए परिसीमन पर भी सवाल उठाए।
उन्होंने कहा, ‘जो हमारी सीटें थीं उनका इस तरह से परिसीमन किया जाता है कि जिससे मुसलमानों को बाँट दिया जाए क्योकि अगर परिसीमन नहीं करते तो मुसलमान उम्मीदवार निर्दलीय ही जीत जाएँगे। तो जैसे सीहोर है, भोपाल है, ये विधानसभा क्षेत्र को इधर से उधर ले जाते हैं। इसका मक़सद होता है कि मुसलमान एक जगह ज्यादा न हो जाएँ। अब ये किसकी पॉलिसी है। कांग्रेस की सरकारें भी रही हैं, भाजपा की भी रही हैं।’
वरिष्ठ नेताओं की बग़ावत और उनके आरोपों से कांग्रेस पार्टी में बेचैनी तो है मगर प्रदेश कमेटी के लिए ये ज़्यादा चिंता का विषय नहीं है। वैसे कांग्रेस पर आरोप लग रहे हैं कि वो भारतीय जनता पार्टी से टक्कर लेने के लिए खुलकर हिंदुत्व की पिच पर खेलकर ये विधानसभा के चुनाव लडऩा चाहते हैं।
कांग्रेस में मुसलमान दो गुटों में बँटे
मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता अब्बास हफ़ीज़ से बीबीसी ने इस बाबत जब पूछा तो उन्होंने इन बागी नेताओं पर सवाल उठाए।
अब्बास हफ़ीज़ कहते हैं, ‘ये जो लोग हैं इन्होंने अपने वक़्त में क्या किया? इनको वरिष्ठ नेता कहते हैं हम लोग। पुराने कांग्रेस वाले थे। मुस्लिम लीडर्स। इनके पास मंत्रालय रहे। ये सांसद भी बने। विधायक बने। ये बड़े मंत्रालयों के मंत्री बने। राज्यपाल भी बने। इन्होंने क्या किया उस वक़्त? उस वक़्त अगर उन्होंने कुछ किया होता तो शायद ये हालात नहीं बनते।’
हफ़ीज़ मानते हैं कि मध्य प्रदेश में मुसलमान ‘राजनीतिक हाशिये’ पर जा रहे हैं। मगर वो इसके लिए बग़ावत करने वाले वरिष्ठ नेताओं को ही जि़म्मेदार ठहराते हैं।
चर्चा के दौरान उन्होंने बागी नेताओं की आलोचना करते हुए कहा, ‘तमाम मध्य प्रदेश के अन्दर माइनॉरिटी के नाम पर बैठकें करेंगे। कांग्रेस को कमज़ोर करने की कोशिश करेंगे। आज भी इनकी जितनी मांगें होंगी, वो टिकट बंटवारे तक होती हैं कि हमें टिकट दे दीजिए। टिकट किसको मिलेंगे? मतलब उनको ख़ुद को टिकट मिले या फिर उनके परिवार में जाए टिकट।’
मध्य प्रदेश में मुसलमानों के ‘राजनीतिक अस्तिव’ को लेकर हमेशा से ही बहस चलती रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि कांग्रेस की सरकारों में भी जीत कर आए गिने-चुने मुसलमान विधायकों की उपेक्षा होती रही थी।
बाक़ी देश के हालात बहुत अलग नहीं
कांग्रेस पर नजऱ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई मानते हैं कि मुसलमानों का राजनीतिक हाशिये पर होना ‘केवल भाजपा या भाजपा शासित राज्यों तक सीमित’ नहीं है।
वो कहते हैं, ‘कांग्रेस या कांग्रेस शासित राज्यों में भी उनको पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है। मुसलमान नेता को केवल वो वक्फ़ बोर्ड या हज कमिटी में रख लिया जाता है। और अगर मुसलमान विधायक मंत्री भी बन जाता है तो उसके पास वक्फ़ बोर्ड या अल्पसंख्यक मामलों जैसे विभाग आते हैं। कोई उसे भारी भरकम विभाग जैसे गृह, वित्त या सामान्य प्रशासन या लोक निर्माण विभाग, इस तरह के विभागों से दूर ही रखा जाता है।’
इस चुनावी माहौल में भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस में चल रही बग़ावत का एक तरह से ‘मज़ा’ ले रही है। संगठन ने कांग्रेस के ‘मुसलमान वोट बैंक’ में सेंधमारी की पूरी रणनीति भी तैयार कर ली है।
हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘पिछड़े मुसलमानों’ या पसमांदा मुसलमानों के ‘उत्थान’ के लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं से कहा था।
हाल ही में उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को ‘मुसलमान महिलाओं से राखी बंधवाने’ की बात भी कही थी।
पसमांदा मुसलमानों पर बीजेपी की नजऱ
मध्य प्रदेश में ‘पिछड़े मुसलमानों’ के बीच काम करने की शुरुआत भी भाजपा ने नगर निकाय चुनावों से कर दी है। भाजपा ने नगर निकाय के चुनावों में मुसलमानों के बीच खुलकर टिकट बाँटे थे। इन चुनावों में कई मुसलमान उम्मीदवार भाजपा के टिकट पर जीत कर भी आए।
पिछले विधानसभा के चुनावों में भाजपा ने मुस्लिम महिला, फातिमा सिद्दीक़ी को टिकट दिया था।
भारतीय जनता पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई के प्रवक्ता हितेश वाजपेयी कहते हैं कि कांग्रेस ने हमेशा से ‘मुसलमानों का चुनावी शोषण’ किया है।
वाजपेयी के अनुसार, ‘कांग्रेस ने हमेशा मुसलमानों के बीच भारतीय जनता पार्टी को लेकर भ्रम फैलाया। हमें मुसलमानों का दुश्मन बताया। इसको प्रचारित करके मुसलमानों का चुनावी शोषण किया। ये मैं इसलिए कहूँगा कि कांग्रेस ने कभी अपनी अगड़ी पंक्ति के नेतृत्व में मुसलमानों को कोई जगह दी ही नहीं। मध्य प्रदेश को यदि आप उठाकर देखेंगे तो बड़ी संख्या में मध्य प्रदेश में ठाकुरों के और सवर्ण वर्गों का क़ब्ज़ा जैसा कांग्रेस पर रहा।’
वाजपेयी कहते हैं कि इस बार नगर निकाय चुनावों में उनकी पार्टी ने 400 के आसपास मुसलमान प्रत्याशियों को टिकट दिए जिनमें से 100 ऐसे हैं जिन्होंने हिन्दू उम्मीदवारों को हराया है।
बीबीसी से बात करते हुए वाजपेयी कहते हैं, ‘आप मानकर चलिए, हमारे लिए उत्साहजनक है कि हम बिना तुष्टीकरण के संतुष्टीकरण कैसे कर सकते हैं।’
बीजेपी मौके का फ़ायदा उठा रही है?
भोपाल (मध्य) की सीट से मौजूदा कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद ने भारतीय जनता पार्टी के दावों पर पलटवार करते हुए कहा कि भाजपा ने मुसलमान उम्मीदवारों को वहीं टिकट दिए जहाँ मुसलमानों की आबादी अच्छी-ख़ासी थी।
वो ये भी मानते हैं कि इन सीटों पर कांग्रेस ने मुसलमानों की जगह हिंदुओं को टिकट दिए थे जिसका भाजपा ने भरपूर फ़ायदा उठाया।
उनका कहना था, ‘ज़ाहिर है, मुसलमानों को अपनी नुमाइंदगी जाती हुई दिखी तो उन्होंने अपना वोट ‘शिफ्ट’ कर दिया। इसे मैं भाजपा की जीत नहीं मानूँगा। भाजपा को सिफऱ् परिस्थितियों का फ़ायदा मिला है। भाजपा को अगर मुसलमानों को प्रतिनिधित्व देना होता तो अभी दे न। नगर निगम छोड़ें। अभी विधानसभा के चुनाव आने वाले हैं। भाजपा बताये कि किन सीटों पर टिकट दे रहे हैं मुसलमानों को और कितने टिकट दे रहे हैं?’
घटते प्रतिनिधित्व और मुसलमानों के हाशिये पर सिमट जाने की बहस के बीच देश के जाने-माने शायर मंजऱ भोपाली से जब बीबीसी ने मुलाक़ात की तो उन्होंने समाज को ही पिछड़ेपन का जि़म्मेदार ठहराया।
उनका कहना है कि शिक्षा को लेकर अब भी समाज काफ़ी पीछे इसलिए है क्योंकि लोग पढऩा ही नहीं चाहते।
उन्होंने मध्य प्रदेश और ख़ास तौर पर भोपाल के मुसलमानों की जीवनशैली में बड़े सुधार की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
वो कहते हैं, ‘अपनी नाकामी का इल्ज़ाम दूसरे किसी पर लगा देना सबसे आसान काम है जबकि हकीकत ये है कि मुसलमान शिक्षा की तरफ़ ध्यान नहीं देता है। समाज के युवाओं में महत्वकांक्षा ही नहीं दिखती कुछ बनने की।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के.पालीवाल
मनोज तिवारी भारतीय जनता पार्टी के सासंद हैं, दिल्ली प्रदेश में भाजपा के अध्यक्ष की कुर्सी को भी सुशोभित कर चुके हैं। माननीय सासंद किसी दिन माननीय मंत्री बनकर देश का कोई मंत्रालय भी संभाल सकते हैं। विगत में जिन भोजपुरी फिल्मों के वे नायक रहे हैं वे फूहड़ता, अश्लीलता और द्विअर्थी गीत और आइटम सांग के मामले में संभवत: भारतीय सिनेमा में नंबर एक पर आती हैं। फिल्मों में शब्दों की गरिमा पर अश्लीलता बहुत भारी रहती है और उसे मनोरंजन के नाम पर दबी ढकी स्वीकार्यता भी मिल गई है। लेकिन राजनीति में जब अपने समकक्षों के लिए शब्दों की गरिमा तार तार होने लगती है तब हम यह कह सकते हैं कि हम भारत के नागरिक बहुत बड़े दोषी हैं जिन्होंने शब्दों की गरिमा तार तार करने वाले लोगों को अपना प्रतिनिधि चुना है।
एक वीडियो में मनोज तिवारी विपक्ष के सांसदों को बेशर्म और नामर्द कह रहे हैं। जिन विपक्षी सांसदों को मनोज तिवारी इन अपशब्दों से संबोधित कर रहे हैं उनमें कई उम्र और अनुभव में उनसे बहुत बड़े होंगे जिन्होंने राजनीति की गंगा में बहुत पानी प्रवाहित हुए देखा है। जिस राजनीतिक दल में स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेई जैसे शब्दों के अप्रतिम चितेरे रहे हैं, मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवानी जैसे धुर विरोधियों के प्रति भी शालीन शब्दों का उपयोग करने वाले वरिष्ठ मार्गदर्शक अभी भी मौजूद हैं, उस दल में फिल्मों की प्रसिद्धि के कारण सासंद बने मनोज तिवारी जैसे सांसदों द्वारा विपक्षी सांसदों के प्रति अगर इतनी निकृष्ट भाषा का उपयोग किया जाता है तब इसकी सहज कल्पना कर सकते हैं कि उनका व्यवहार उस आम भारतीय नागरिक के प्रति क्या होगा जो उनकी विचारधारा और दल का विरोधी है।
जैसी भाषा किसी दल के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ करते हैं, उस दल के छुटभैये नेता और कार्यकर्ता भी उनका अनुसरण कर उनसे दो हाथ आगे बढ़ कर गाली गलौज की भाषा और मारपीट करने लगते हैं। कुछ दिन पहले देश के गृह मंत्री भोपाल आए थे। उन्होंने सार्वजनिक कार्यक्रम में मध्य प्रदेश के दो कांग्रेस नेताओं को मिस्टर बंटाधार और करप्सन नाथ कहकर संबोधित किया था। गृह मंत्री यदि यह मानते हैं कि कांग्रेस का कोई बड़ा नेता करप्शन नाथ है तो केन्द्र और प्रदेश में उनके दल की सरकार होते हुए उस नेता को सजा क्यों नहीं मिली। केंद्र के पास करप्शन रोकने के लिए सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग हैं और प्रदेश सरकार के पास लोकायुक्त का भारी-भरकम अमला है, सीआईडी है और पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा है। यदि करप्शन रोकने की आपकी आधा दर्जन एजेंसी एक व्यक्ति का करप्शन रोकने में असमर्थ हैं तो यह आपकी सरकारों की अक्षमता है या आप गैर जिम्मेदार बयान देकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। दुखद यह है कि मुख्यधारा का मीडिया गृह मंत्री को इस बयान पर घेरने के बजाय इस खबर को नमक मिर्च मिलाकर चटखारे ले रहा है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मानहानि मामले में गुजरात की अदालत द्वारा राहुल गांधी को दी गई सजा पर अंतरिम रोक लगाते हुए उन्हें सार्वजनिक भाषणों में शालीनता बरतने को कहा है। इसके पहले गुजरात हाई कोर्ट ने उनकी सजा को बरकरार रखते हुए उन्हें सार्वजनिक भाषणों में शालीनता बरतने के लिए नसीहत दी थी। यह नसीहत गुजरात उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही राहुल गांधी को दी है लेकिन इसका व्यापक अर्थ है जो सभी नेताओं और नागरिकों पर लागू होता है। न्यायालय केवल उन मामलों में ही सुनवाई करते हैं जो उनके सामने पीडि़त पक्ष द्वारा लाए जाते हैं। आधिकांश लोग महंगी और बेहद लम्बी हो चुकी न्याय व्यवस्था का लाभ उठाने से कतराते हैं क्योंकि यह समय और संसाधन जाया करने जैसा है। इसी लचर व्यवस्था का लाभ बड़बोले नेता उठाते हैं।
दिनेश चौधरी
कमलेश्वर की कथा
सभी को मालूम है कि शेर बहुत सफाई पसंद होता है। एक बार हुआ यह कि किसी बात पर शेर और जंगली सुअर में झगड़ा हो गया। जंगल के लगभग सभी जानवर शेर से भयभीत रहते थे। उन्हें मौका मिल गया। उन्होंने सोचा, जंगली सुअर भी शेर से कम ताकतवर नहीं है। उसमें बस साहस की कमी है। वह अगर हिम्मत करके शेर से भिड़ जाए तो शेर को पछाड़ा जा सकता है। एक बार शेर हार गया तो उसकी बादशाहत हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। सबने मिलकर जंगली सुअर को चढ़ा दिया।
दोनों की तू-तू-मैं-मैं इस कदर बढ़ गई कि जंगली सुअर ने शेर को मुकाबले की चुनौती दे दी। सारे भयभीत जानवरों ने तालियाँ बजाकर जंगली सुअर की हौसला-अफजाई की। शेर को ताज्जुब तो हुआ पर वह मुकाबले की चुनौती से इनकार भी नहीं कर सकता था। उसने चुनौती मंजूर कर ली।
शेर के चुनौती मंजूर करते ही सुअर मन-ही-मन घबराने और पछताने लगा, पर वह अपने सपोर्टर्स के सामने अपनी घबराहट जाहिर भी नहीं कर सकता था। तभी शेर दहाड़ा-तो फिर आ जा मैदान में!
जंगली सुअर की पसलियाँ काँप उठीं। उस ने मौत को टालने के लिए फौरन एक तरकीब सोची। वह शेर से बोला- मुकाबला हो तो शानदार तरीके से हो। जंगल के जो जानवर मौजूद नहीं हैं, उन्हें हमारे मुकाबले की खबर होनी चाहिए।
लोमड़ी ने आगे बढक़र जंगली सुअर की हाँ में हाँ मिलाई। सुअर को थोड़ी राहत मिली। आखिर आम राय से मुकाबले की तारीख और वक्त एक हफ्ते बाद तय कर दिया गया। शेर चला गया।
जंगली सुअर ने शेर को जाते हुए देखा पर उसकी अपनी हालत पतली थी। तैश में आकर जो गलती वह कर बैठा था वह उसे भीतर ही भीतर साल रही थी। हफ्ते भर बाद उसे अपनी मौत सामने खड़ी दिखाई दे रही थी। वह सोच रहा था कि अब कदम पीछे हटाया और मुकाबले से मना किया तो सपोर्टर्स जिंदा नहीं छोड़ेंगे! पछताते हुए वह जाके एक गंदे नाले में लेट गया। वहाँ लेटे-लेटे उसे एक जुगत सूझी। सफाईपसन्दी तो शेर की आदत थी, जुगत यह थी कि सुअर अगर काफी मैला और गंदगी अपने बदन में लपेट ले तो सामने आते ही उसकी बदबू से शेर की हालत खराब हो जाएगी। उसकी आधी ताकत बरबाद हो जाएगी। तब शायद कोई दाँव लगा कर वह शेर को पछाडऩे में कामयाब भी हो सकता है।
इसी जुगत पर जंगली सुअर ने सातों दिन अमल किया। वह मैले और गंदगी में लेट-लेट कर उसे अपने बदन पर सुखाता रहा। गन्दगी और मैले की परतें उसके बदन पर चढ़ती रहीं।
आखिर मुकाबले का दिन और वक्त भी आया। जंगल के तय- शुदा मैदान में सारे जानवर इक_ा हो गए। लोमड़ी और कुछ गीदड़ मिलकर जंगली सुअर का हौसला बढ़ाते हुए उसे मैदान में लाए।
शेर अकेला आया। सामने आकर उसने जंगली सुअर को पहला हमला करने के लिए ललकारा। डरते-डरते सुअर ने दौडक़र हमले की कोशिश की। उसकी गंदगी की बदबू से बेहाल होते हुए शेर परेशान हुआ, उसने कुछ सोचा और ऐलान किया-हाजरीन! मैं जंगली सुअर की ताकत से तो लड़ सकता हूँ, इसकी गंदगी और बदबू से नहीं...
राघवेन्द्र राव
मणिपुर में पिछले तीन महीने से ज़्यादा समय से चल रही जातीय हिंसा के बीच राज्य में तैनात सुरक्षा बलों के बीच जमीनी स्तर पर हो रहे टकराव अब खुलकर सामने आ गए हैं।
ताजा घटनाक्रम में मणिपुर पुलिस ने असम राइफल्स के सैनिकों के खिलाफ काम में बाधा डालने, चोट पहुँचाने की धमकी देने और गलत तरीके से रोकने की धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की है।
असम राइफल्स की 9वीं बटालियन के सुरक्षाकर्मियों के खिलाफ ये एफआईआर विष्णुपुर जिले के फोउगाकचाओ इखाई पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई है।
एफआईआर में कहा गया है कि नौ असम राइफल्स के सैनिकों ने मणिपुर पुलिस के कर्मियों को अपना काम करने से रोका और कथित कुकी उग्रवादियों को सुरक्षित क्षेत्र में भागने का मौका दिया।
असम राइफल्स एक केंद्रीय अर्धसैनिक बल है, जो मुख्य रूप से भारत-म्यांमार सीमा पर तैनात है। असम राइफल्स भारतीय सेना के ऑपरेशनल नियंत्रण के तहत काम करता है।
असम राइफल्स की भूमिका पर उठते सवालों का भारतीय सेना ने खंडन किया है। भारतीय सेना का कहना है कि ‘ज़मीनी हालात की जटिल प्रकृति की वजह से विभिन्न सुरक्षा बलों के बीच सामरिक स्तर पर कभी-कभी मतभेद हो जाते हैं’ जिनका निपटारा सयुंक्त तंत्र के जरिये तुरंत कर लिया जाता है।
इस मामले को लेकर सेना का कहना है कि असम राइफल्स हिंसा रोकने के लिए कुकी और मैतेई क्षेत्रों के बीच बनाये गए बफर जोन को सुनिश्चित करने के लिए कमांड मुख्यालय द्वारा दिए गए कार्य को अंजाम दे रही थी।
क्या है मामला?
असम राइफ़ल्स के खिलाफ दर्ज एफआईआर में मणिपुर पुलिस ने कहा है कि पाँच अगस्त को सुबह साढ़े छह बजे राज्य पुलिस की टीमें क्वाक्ता वॉर्ड नंबर आठ के पास फोल्जांग रोड के इलाके में अभियुक्त कुकी विद्रोहियों का पता लगाने पहुँची।
कुछ ही घंटे पहले दिन में कऱीब साढ़े तीन बजे क्वाक्ता में हथियारबंद अपराधियों ने सो रहे तीन मैतेई लोगों की हत्या कर दी थी। मरने वालों में दो लोग पिता-पुत्र थे। मणिपुर पुलिस को ये शक था कि इस हत्याकांड में कुकी विद्रोहियों का हाथ है और शायद वो अब भी उसी इलाके में शरण लिए हुए हैं।
मणिपुर पुलिस के मुताबिक जब उनकी टीमें इलाके में कुतुब वाली मस्जिद पहुंचीं तो असम राइफल की 9वीं बटालियन के कर्मियों ने क्वाक्ता फोल्जांग रोड के बीच अपनी बख्तरबंद कैस्पर गाडिय़ां लगाकर उन्हें आगे जाने से रोका और इसी वजह से कुकी आतंकियों को किसी सुरक्षित जगह भाग जाने का मौका मिला।
इस घटना से जुड़ा एक वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। इस वीडियो में मणिपुर पुलिस और असम राइफ़ल्स के जवानों के बीच तीखी बहस होते देखी जा सकती है। साथ ही मणिपुर पुलिस के एक जवान को असम राइफल्स पर हथियारबंद अपराधियों के साथ मिलीभगत का आरोप लगाते हुए देखा जा सकता है।
यह पहला टकराव नहीं
ये हालिया घटना पहला ऐसा मामला नहीं है, जब मणिपुर पुलिस और असम राइफ़ल्स के बीच होती तकरार साफ़ तौर पर देखी गई।
दो जून को एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें देखा जा सकता था कि असम राइफल्स की 37वीं बटालियन के कर्मियों ने सुगनु पुलिस स्टेशन के मेन गेट पर एक बख्तरबंद कैस्पर गाड़ी लगा कर उसका रास्ता रोक दिया था। साथ ही वीडियो में ये भी दिखा कि सुगनु पुलिस स्टेशन के सामने की सडक़ पर दोनों तरफ कैस्पर गाडिय़ां लगाकर पुलिस स्टेशन तक पहुँचने के रास्ता रोक दिया गया था।
इस घटना के वीडियो में भी मणिपुर पुलिस के जवानों को असम राइफल्स के सुरक्षाकर्मियों से तीखी बहस करते देखा जा सकता है।
जुलाई के महीने में जब बीबीसी सुगनु पुलिस स्टेशन पहुँचा तो वहाँ तैनात मणिपुर पुलिस के कर्मियों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उन्होनें असम राइफल्स की 37वीं बटालियन के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है।
एफ़आईआर दिखाते हुए एक अधिकारी ने बताया कि असम पुलिस पर कर्तव्य में बाधा डालने, चोट पहुँचाने की धमकी देने और ग़लत तरीक़े से रोकने की धाराओं के तहत एफ़आईआर दर्ज की गई है।
एफ़आईआर में ये साफ तौर पर लिखा गया था कि असम राइफल्स का इरादा पुलिस स्टेशन पर हमला करने का था।
हमने सुगनु पुलिस स्टेशन पर तैनात जवानों से जानना चाहा कि ये घटना क्यों हुई? उनमें से एक ने कहा, ‘हम नहीं जानते कि उनकी असली मंशा क्या थी। पर ये बहुत चौंकाने वाला था।’
भारतीय सेना असम राइफल्स के बचाव में
असम राइफल्स पर लग रहे आरोपों का भारतीय सेना ने खंडन किया है। ट्विटर पर जारी किए गए एक बयान में भारतीय सेना ने कहा कि कुछ विरोधी तत्वों ने तीन मई से मणिपुर में लोगों की जान बचाने और शांति बहाल करने की दिशा में लगातार काम कर रहे केंद्रीय सुरक्षा बलों विशेष रूप से असम राइफ़ल्स की भूमिका, इरादे और अखंडता पर सवाल उठाने के हताश और असफल प्रयास बार-बार किए हैं।
भारतीय सेना ने कहा, ‘यह समझने की जरूरत है कि मणिपुर में जमीनी हालात की जटिल प्रकृति के कारण विभिन्न सुरक्षा बलों के बीच सामरिक स्तर पर कभी-कभी मतभेद हो जाते हैं। हालाँकि कार्यात्मक स्तर पर ऐसी सभी गलतफहमियों को मणिपुर में शांति और सामान्य स्थिति की बहाली के प्रयासों में तालमेल बिठाने के लिए संयुक्त तंत्र के माध्यम से तुरंत संबोधित किया जाता है।’
भारतीय सेना ने कहा कि ‘असम राइफल्स को बदनाम करने के उद्देश्य से पिछले 24 घंटों में दो मामले सामने आए हैं।’
‘पहले मामले में असम राइफल्स बटालियन ने दो समुदायों के बीच हिंसा को रोकने के उद्देश्य से बफर जोन दिशानिर्देशों को सख्ती से लागू करने के एकीकृत मुख्यालय के आदेश के अनुसार सख़्ती से काम किया है। दूसरा मामला असम राइफ़ल्स को एक ऐसे क्षेत्र से बाहर ले जाने का है, जिससे उनका कोई संबंध भी नहीं है।’
जिस दूसरे मामले की बात यहाँ की गई है, वो भी एक वीडियो से जुड़ा हुआ है, जिसमें महिलाएं एक फौजी वर्दी पहने अधिकारी के पैरों पर गिरकर रोती-बिलखती नजर आ रही हैं।
इस वीडियो के जरिये ये दावा किया गया था कि ये महिलाएं कुकी-जो समुदायों से हैं जो अपने इलाके से असम राइफल्स को हटाकर किसी अन्य सुरक्षाबल को तैनात करने की योजना का विरोध कर रही हैं और रो-रोकर असम राइफल्स से वहाँ रुकने की गुहार लगा रही है।
भारतीय सेना ने अब कहा है कि मई में मणिपुर में संकट पैदा होने के बाद से सेना की एक इन्फैंट्री बटालियन उस क्षेत्र में तैनात है, जहाँ से असम राइफल्स को हटाने की कहानी बनाई गई है।
भारतीय सेना ने ये भी कहा है कि वो और असम राइफल्स मणिपुर के लोगों को आश्वस्त करते हैं कि वो पहले से ही अस्थिर माहौल में हिंसा को बढ़ावा देने वाले किसी भी प्रयास को रोकने के लिए अपने कार्यों में दृढ़ बने रहेंगे।
असम राइफल्स के खिलाफ बढ़ती नाराजगी
मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच चल रही जातीय हिंसा में अब तक 152 लोगों की मौत हो चुकी है। करीब 60,000 लोग अपने घरों से विस्थापित हो गए हैं। इनमें से कुछ राज्य छोडकर चले गए हैं और हजारों लोग राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं।
हज़ारों की संख्या में भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों को मणिपुर में तैनात किया गया है। लेकिन असम राइफल्स एक ऐसा बल है जो पिछले कई वर्षों से मणिपुर के कई इलाकों, खासकर पहाड़ी और म्यांमार से लगती सीमा के इलाकों पर तैनात है। पहाड़ी और सीमा से लगते इलाक़े कुकी बाहुल्य वाले हैं और इसी बात को आधार बना कर बार-बार ये इल्जाम लगाया जाता रहा है कि असम राइफल्स और कुकी समुदाय में घनिष्ठता है।
11 जुलाई को मणिपुर के 31 विधायकों ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को एक पत्र लिखकर कहा कि असम राइफल्स की 9वीं, 22वीं और 37वीं को राज्य से हटा दिया जाए और ऐसे दूसरे केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती की जाए जो राज्य की एकता को बढ़ावा देने की ओर ज़्यादा इच्छुक हैं।
इन विधायकों का ये भी कहना था कि असम राइफल्स की कुछ इकाइयों द्वारा निभाई गई भूमिकाओं को लेकर चिंताएं हैं जो वर्तमान में राज्य के भीतर एकता के लिए खतरा पैदा करती हैं।
सात अगस्त को मणिपुर की भारतीय जनता पार्टी इकाई ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजे एक ज्ञापन में कहा कि राज्य में शांति बनाए रखने में असम राइफल्स की भूमिका की काफी आलोचना हो रही है और सार्वजनिक आक्रोश देखने को मिल रहा है।
इस ज्ञापन में कहा गया कि असम राइफल्स निष्पक्षता बनाये रखने में असफल रही और जनता ये आरोप लगा रही है कि उनकी भूमिका पक्षपातपूर्ण है जिसमें वो एक समुदाय का समर्थन कर रहे हैं।
मणिपुर भाजपा ने प्रधानमंत्री से गुहार लगाई है कि जनहित में असम राइफल्स को हटाकर किसी अन्य अर्धसैनिक बल को स्थाई रूप से मणिपुर में तैनात किया जाए। (bbc.com/hindi/)
-अपूर्व गर्ग
राहुल गाँधी अपनी ज़िंदगी जिस स्वाभाविक ढंग से प्यार से मोहब्बत से जीते हैं वही उनकी बॉडी लैंग्वेज है. उनकी ओर देखकर लोग हँसे और उन्होंने अपनी प्यारी मुस्कान के साथ स्वाभाविक सी प्रतिक्रिया दी और राजस्थान रवाना हो गए.
जाने से पहले उन्होंने मणिपुर पर बेहद आक्रामक वक्तव्य रखा. वो सोलह मिनट बोले पर उन्हें चार मिनट कमरे पर दिखाया गया . क्या ये मुद्दा बना ? उन्होंने मणिपुर पर जो कहा वो बात क्या सुर्खियां बनी . ज़रा गूगल करके देखिये, सुर्खियां क्या हैं ?
INDIA ने जो लाइन अविश्वास प्रस्ताव पर रखी, वो कहाँ खो गयी, सोचिये ?
क्या राहुल गाँधी या गाँधी परिवार के किसी सदस्य ने बीजेपी के फैलाए जा रहे फ्लाइंग किस अजेंडे को गंभीरता से लिया? नहीं ...क्योंकि वे जानते हैं बीजेपी इसे उछाल-उछाल कर मूल मुद्दे से ध्यान बंटाना चाहती है.
फ्लाइंग किस छोड़िये ...जो लोग उनकी टी-शर्ट, जूतों को मुद्दा बनाते हैं, कल फ्लाइंग किस नहीं भी होता तो उनकी शर्मीली मुस्कान मुद्दा बन जाती !
समझिये, राहुल गाँधी का कल का वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण था.
मणिपुर पर अब तक सबसे मारक बात उन्होंने संसद में रखी.
बीजेपी को इसे हेड लाइन बनने से रोकना ही था.
किसी न किसी बहाने वो कोई न कोई हेड लाइन गढ़ते ही जैसा अब तक हमने देखा. बहरहाल, राहुल के मणिपुर पर आक्रामक भाषण को अपने जी हुज़ूर मीडिया के साथ उन्होंने भटकाने का बंदोबस्त कर लिया.
बीजेपी के आईटी सेल का फोकस भी इस पर रहा.
राहुल की सिर्फ मणिपुर पर बात नहीं बल्कि राजस्थान में विश्व आदिवासी दिवस पर उन्होंने आदिवासियों के बीच कॉर्पोरेट लूट पर जो कहा वो सब गायब हो गया.
सवाल बीजेपी से नहीं ..
सवाल इनके आईटी सेल से नहीं ..
सवाल उन लोगों से है जो INDIA के लिए लिख -बोल और सोच रहे हैं , उनकी क़लम क्यों बहक रही है ?
खंडित हो चुका, लुट चुका मरा मरा सा मणिपुर इस देश पर आस लगाए बैठा है और लोग अपना कीमती समय और स्पेस फ्लाइंग किस को दे रहे.
आप अगर राहुल गाँधी के समर्थन में खड़े हैं तो देखिये जब आप फ्लाइंग किस मुद्दे में उलझे हैं उस वक़्त वो राजस्थान के मानगढ़ धाम में जनसभा में आदिवासियों से कह रहे थे - :
"वो (भाजपा) क्या कहते हैं? वो कहते हैं आप आदिवासी नहीं हो, आप हिंदुस्तान के पहले निवासी नहीं थे, वो कहते हैं कि आप आदिवासी नहीं, वनवासी हो। मतलब आप इस देश के ओरिजनल मालिक नहीं हो, आप तो जंगल में रहते हो। ये आपका अपमान है, ये भारत माता का अपमान है, सिर्फ आदिवासियों का नहीं, पूरे देश का अपमान है।....वे (भाजपा) आपको वनवासी कहते हैं फिर आप के जंगल आप से ही छीनकर अडानीजी को पकड़ा देते हैं। ..''
मणिपुर, आदिवासियों पर हमले, रोजगार का सवाल, भयानक महंगाई, भ्रष्टाचार ..जैसे मुद्दों से देश जल रहा है उसे बीजेपी चुटकुलों की बारिश से बुझाना चाहती है.
आप लड़ाई की इस आग को अपने दिल में जलते रहने दीजिये.
चुटकुलों की दुनिया से बाहर आकर गंभीरता से INDIA इस सरकार पर जिस तरह से अविश्वास रख रही ,जिन मुद्दों को उठा रही उसे आप भी उठाइये.
प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी के हवाले से यह मार्मिक किस्सा सुनिए-
एक पुरानी घटना और मुझे याद आती है। प्रेस खुल गया था और आप स्वयं वहां काम करते थे। जाड़े के दिन थे। मुझे उनके सूती पुराने कपड़े भद्दे जंचे, और गर्म कपड़े बनाने के लिए अनुरोधपूर्वक दो बार 40 -40 रुपए दिए परंतु उन्होंने दोनों बार वे रुपए मजदूरों को दे दिए।घर पर जब मैंने पूछा- ‘कपड़े कहां हैं?’ तब आप हंसकर बोले-‘कैसे कपड़े? वे रुपए तो मैंने मजदूरों को दे दिए। शायद उन लोगों ने कपड़ा खरीद दिया होगा।’
इस पर मैं नाराज हो गई पर वह अपने सहज स्वर में बोले-‘रानी, जो दिन भर तुम्हारे प्रेस में मेहनत करें, वे भूखों मरें और मैं गर्म सूट पहनूं, यह तो शोभा नहीं देता।’ उनकी इस दलील पर मैं खीझ उठी और बोली, ‘मैंने कोई तुम्हारे प्रेस का ठेका नहीं लिया है !’ तब आप खिलखिला कर हंस पड़े और बोले-‘जब तुमने मेरा ठेका ले लिया है, तब मेरा रहा क्या, सब तुम्हारा ही तो है। फिर हम -तुम दोनों एक नाव के यात्री हैं। हमारा- तुम्हारा कर्तव्य जुदा नहीं हो सकता, जो मेरा है वह तुम्हारा भी है क्योंकि मैंने अपने आपको तुम्हारे हाथों में सौंप दिया है। ‘मैं निरुत्तर हो गई और बोली-
‘मैं तो ऐसा सोचना नहीं चाहती’ तब उन्होंने असीम प्यार के साथ कहा- ‘तुम पगली हो’।
जब मैंने देखा कि इस तरह वे जाड़े के कपड़े नहीं बनवाते हैं तब मैंने उनके भाई साहब को रुपए दिए और कहा कि उनके लिए आप कपड़े बनवा दें, तब बड़ी मुश्किल से अपने कपड़ा खरीदा। जब सूट बनकर आया, तब आप पहन कर मेरे पास आए और बोले: ‘मैं सलाम करता हूं। मैं तुम्हारा हुक्म बजा लाया हूं।’ मैंने भी हंसकर आशीर्वाद दिया और बोली-‘ईश्वर तुम्हें सुखी रखें और हर साल नए-नए कपड़े पहनो।’ कुछ रुक कर फिर मैंने कहा- ‘सलाम तो बड़ों को किया जाता है। मैं न तो उम्र में बड़ी हूं ,न रिश्ते में, न पदवी में। फिर आप मुझे सलाम क्यों करते हैं?’ तब उन्होंने उत्तर दिया-‘उम्र या रिश्ता या पदवी कोई चीज नहीं है। मैं तो हृदय देखता हूं और तुम्हारा हृदय मां का हृदय है। जिस प्रकार माता, अपने बच्चों को खिला-खिला कर खुश होती है, उसी प्रकार तुम भी मुझे देखकर प्रसन्न होती हो और इसीलिए अब मैं हमेशा तुम्हें सलाम किया करूंगा।’
हाय, मई, 1936 में उन्होंने स्नान करके नई बनियान पहनी थी और मुझे सलाम किया था- यही उनका अंतिम सलाम था।
(‘प्रेमचंद घर में’ का एक अंश )
डॉ. आर.के. पालीवाल
लोकतंत्र में किसी भी सरकार की प्राथमिकता जन कल्याण आधारित योजनाएं होनी चाहिए। लेकिन जब सरकार के अधिकांश मंत्रालय किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के शक्तिशाली समूह की चाटुकारिता करने लगते हैं तब स्थितियां बहुत विचित्र और हास्यास्पद होने लगती हैं। थोडी बहुत चाटुकारिता मानव जीवन में स्वाभाविक है, लेकिन जब यह मर्यादा की सीमा तोडऩे लगती है तब जन कल्याण का लक्ष्य कहीं पीछे छूट जाता है और सरकार का लगभग हर मंत्रालय और हर मंत्रालय का लगभग हर विभाग चाटुकारिता की दौड़ में एक दूसरे को पीछे छोड़ देने के लिए विवेक को खूंटी पर टांग देता है और यह कोशिश करता है कि चाटुकारिता की मैराथन में स्वर्ण पदक उसे ही मिलना चाहिए।
रेलवे इस मामले में इस समय सबसे आगे है। जितनी भी नई वंदे भारत ट्रेन शुरु की जा रही हैं उन्हें हरी झंडी दिखाने के लिए प्रधान मंत्री के कार्यक्रम का इन्तजार करना पड़ता है। ऐसा लगता है कि पूरा रेल अमला वंदे भारत पर ध्यान केंद्रित कर रहा है भले ही जनता और मीडिया कई रूट पर महंगे किराए वाली वंदे भारत चलाने पर रेलवे की आलोचना कर रहा है और ट्रेन दो तिहाई खाली जा रही हो। वंदे भारत प्रधान मंत्री का प्रिय प्रोजेक्ट है इसलिए रेल मंत्री उसे इतनी अहमियत दे रहे हैं।हाल ही में संस्कृति मंत्रालय ने गुजरात के उस स्कूल का कायाकल्प कर प्रेरणा स्थली के रुप में विकसित करने की योजना बनाई है जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्राथमिक शिक्षा ली थी। इसके निमार्ण के बाद यहां अन्य स्कूलों के बच्चों के टूर लाकर स्कूली बच्चों को प्रेरणा दिए जाने की योजना है।निकट भविष्य में यह भी संभव है कि जिस स्टेशन पर प्रधानमंत्री चाय बेचते थे वहां भी चाय की मार्केटिंग के लिए कोई राष्ट्रीय चाय केंद्र बन सकता है जहां देश के विभिन्न क्षेत्रों के चाय विक्रेताओं को मार्केटिंग के लिए प्रेरणा मिल सके।
इस मामले में केवल वर्तमान केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा नहीं कर सकते।कांग्रेस का इतिहास भी काफी कलंकित रहा है। आपात काल और उससे दो साल पहले कांग्रेस में संजय गांधी की ऐसी असंवैधानिक चौकड़ी थी जिसके इशारों पर तमाम मंत्रालय कठपुतली की तरह नाचते थे।क्षेत्रीय दलों की प्रदेश सरकार भी इस मामले में राष्ट्रीय दलों से कतई पीछे नहीं रही हैं। उदाहरण स्वरूप उत्तर प्रदेश में यह काम काफ़ी पहले मुलायम सिंह यादव और मायावती भी कर चुके हैं जिन्होंने अपने अपने जन्मस्थलों को फाइव स्टार गांव बनाने के लिए जन संसाधन पानी की तरह बहाए थे। मायावती का अपने दल के चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तियों का आकर्षण तो इतना ज्यादा था कि लखनऊ से लेकर नोएडा तक कई करोड़ की हाथी की मूर्तियां लगवा दी गई थी। बाद में चुनाव के समय चुनाव आयोग के निर्देश पर चुनाव पूरे होने तक इन मूर्तियों को ढकवाना पड़ा था।
वर्तमान केन्द्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी शासित प्रदेश सरकारों के लिए नागरिकों की मूलभूत सुविधाओं यथा शिक्षा, स्वास्थ, सडक़, बिजली और कानून व्यवस्था से ज्यादा देश के मंदिरों के आसपास देवताओं के नाम पर लोक बनाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है। अकेले मध्य प्रदेश की बात करें तो उज्जैन में महाकाल लोक के बाद अब प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में आधा दर्जन धार्मिक लोक निर्माण की योजनाएं घोषित हुई हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि हाल में किए गए महाकाल लोक जिसका उदघाटन बहुत जोर शोर से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के कर कमलों से हुआ था, उसकी विशालकाय मूर्तियां थोडी सी आंधी में धरासाई हो गई। धार्मिक स्थलों के निर्माण में भी भ्रष्टाचार का प्रवेश हमारे सरकारी और गैर सरकारी समाज के सडऩे का जीवंत प्रतीक है। धार्मिक लोक के निर्माण में यह आक्षेप भी लग सकता है कि धर्म विशेष के पूजा स्थलों को प्राथमिकता देना संविधान सम्मत नहीं है लेकिन सत्ता केंद्रित राजनीति में कोई भी राजनीतिक दल बहुसंख्यक समाज के वोट बैंक के कारण यह प्रश्न उठाने का साहस नहीं कर सकता।
प्रकाश दुबे
फिरोज गांधी ने मूंदड़ा कांड का भांडा फोड़ा। उनके ससुर प्रधानमंत्री समेत अनेक महानुभाव अप्रसन्न थे। उन दिनों अपनी बात जनता तक बेरोकटोक जस की जस पहुंचाने का एकमात्र माध्यम समाचार पत्र थे। अखबारों पर खतरे की तलवार लटक रही थी। जिन कारोबारियों का घोटाला उजागर किया गया था, वे खबर छापने वाले समाचार पत्रों के विरुद्ध मानहानि का मुकदमा दायर कर सकते थे। संसद ने 4 मई 1956 में कानून पारित किया, जिसे फिरोज गांधी अधिनियम कहा जाता है। संसद के अंदर कही गई बातों को छापने पर न्यायालय में मानहानि का खतरा टला। आपात्काल में इस कानून को निरस्त कर दिया गया था। संसद के बाहर फब्ती कसने पर राहुल गांधी की सदस्यता गई। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को पलट दिया। न्यायपालिका की दखलंदाजी मानने वाले आलोचकों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के पिता और बाबा की जन्म कुंडली खंगाली। यही सोचते कि न्यायपालिका अपने घर की सफाई में जुटी है।
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात करने पर वकील प्रशांत भूषण पर एक रुपया जुर्माना ठोंका गया। क्यों कि उन्होंने माफी मांगने से इन्कार किया। देश के पूर्व केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री शांति भूषण ने बंद लिफाफा भेजा था। लिफाफा खुलने पर भ्रष्टाचार के छींटों की रंगत का पता लगता। भ्रष्टाचार मुक्त भारत संवारने में सहज ही आसानी होती। वकीलों के राष्ट्रीय संगठन की कमान संभाल चुके दुष्यंत दवे ने खुले आम पारदर्शिता की मांग करते हुए न्यायपालिका की सफाई की तत्काल जरूरत पर जोर दिया। अपनी कलम से अजब गजब फैसले लिखकर इतिहास रचने वालों की लंबी सूची है। दूसरी तरफ ऐसे न्यायाधीश हैं जिन्होंने पद छोडऩा बेहतर समझा। न्यायमूर्ति रोहित देव ने बांबे हाईकोर्ट के न्यायाधीश पद से मुक्ति पाने की भरी अदालत में घोषणा की। जवाहरलाल नेहरू विवि के प्रो साईंबाबा को जमानत मंजूरी और गौण खनिज शुल्क माफी के सरकारी आदेश को न्यायविरुद्ध ठहराने वाले उनके फैसलों पर हलचल मची थी। कारण छुपा नहीं है।
देश की सबसे बड़ी अदालत की कमान संभाल चुके राजन गोगोई, दीपक मिश्रा, शरद बोबड़े सहित अनेक न्याय प्रक्रिया के अनुभवी बेहतर बता सकते हैं कि एक सांसद को दो साल की सजा देने के पक्ष में फैसले में कारण जताने के बजाय आरोपकर्ता की दलीलें देकर न्यायपालिका का कितना हित किया? राजनीति घसीटने की जरूरत नहीं है। फर्जी जाति प्रमाणपत्र देने, महिला पहलवानों से अभद्रता के आरोप के बावजूद सरेआम ताल ठोंकते घूमने, दंगों और हत्याओं के आरोपी व्यक्तियों के बारे में कार्रवाई में कमी पर सरकार और संसद की तरफ अंगुली उठाने के बजाय न्यायपालिका अपने घर की सफाई करने में जुट गई। लोकतंत्र के बाकी अंग भी पहल से प्रभावित होकर मैले कुचैले दाग धोने के लिए चुल्लू भर पानी की तलाश करेंगे। भारत रूस नहीं है जहां प्रतिपक्ष के नेता अलेक्सेई नवनलनी साढ़े 11 वर्ष की जेल काट रहें हैं। दो दिन पहले एक अदालत ने 19 वर्ष की अतिरिक्त सजा भुगतने का फरमान सुनाया। न्यायपालिका मर्यादा पार करे तब हर नागरिक को सवाल पूछने का हक है। लोकतंत्र के खम्भे की मजबूती के लिए, न कि किसी आरोपित के बचाव के लिए। आपात्काल में उन दिनों के दो नौसिखिया वकील स्वराज कौशल और सुषमा स्वराज ने बड़ौदा बारूद कांड में कैदी जार्ज फर्नांडिस का मुकदमा लेने का साहस किया। मधुर नाम वाली उनकी बेटी बांसुरी ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी-अदालत मणिपुर की तरफ ही देखेगी? इस तरह के मामले अन्यत्र भी हो रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश ने प्रश्न किया-आप कहना चाहती हैं कि जब तक बाकी किसी जगह कार्रवाई न हो, इतने गंभीर हादसे पर गौर नहीं किया जाए? राज्यपाल रह चुके पिता और कई जिम्मेदारियों और संघर्षों से जूझती मां की बेटी को समझ में आया कि कानून में भी पक्षपात और पारदर्शिता परस्पर विरोधी शब्द हैं।
न्यायपालिका के मंदिर में कहां फाइलों पर धूल चढ़ी है, किस कोने में विराजमान मठाधीश के कान किसी के फूंके मंत्र को सुनने में जुटे हैं? अपने परिसर की सफाई की पहल करने पर सब समझ में आता है। न्यायपालिका ने शुरुआत की। असर हुआ। सांसद रामशंकर कठेरिया को दो साल की सजा हुई।बलवा करने और मारपीट का मुकदमा 11 बरस से चल रहा था। पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने नूंह में बुलडोजर न्याय रुकवा दिया। यदि यह पहल अन्य राज्यों में पहले होती तब कानून के शासन पर भरोसा जारी रहता। कई बार एक साथ थानेदार और न्यायाधीश बनने का शौक पूरे समाज के लिए परेशानी पैदा करता है।राजनीतिक शक्तियों और न्यायायिक प्रक्रिया की होड़ ऐसे मुद्दों पर है जिनसे जनहित का कोई वासता नहीं है। राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के विवाद चौराहे पर हैं। दिल्ली के उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री महीनों से बिजली नियामक आयोग के अध्यक्ष पद को लेकर एकराय नहीं बना सके। उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने चार अगस्त को न्यायमूर्ति जयंत नाथ की इस शर्त पर नियुक्ति की आम सहमति बनने तक वे काम देखें।
दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश नाथ की नियुक्ति का सबसे बड़ा सबक यह है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका में अबोलेपन की खाई गहरी हो चुकी है। सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता लाने के लिए शासन और न्यायपालिका के बीच सकारात्मक होड़ लाभदायी साबित होगी। संसद को आखिर किस बात की झिझक है? सरकार को डर किस बात का है?चुनावी चंदे को गुप्त रखने की मंशा को अदालत ने मान लिया। उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया सार्वजनिक करने की मांग पर अदालत ने टिप्पणी की-राजनीतिक दलों का निर्णय करने का अपना तरीका है। पारदर्शिता के नाम पर उनसे हर बात सार्वजनिक करने के लिए नहीं कहा जा सकता। आपसी विश्वास के अभाव से अमृतकाल में टकराव का जहर फैलेगा। दो कदम तुम भी चलो वाली भावना से दोनों का भला होगा।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
आदर्श राठौर
‘परिवार का ऐसा कोई सदस्य नहीं है, जिससे उसने मारपीट न की हो। एक बार उसने अपनी मां को इतनी बुरी तरह पीटा कि उसकी बांह की हड्डी फ्रैक्चर हो गई। मैं रोकने लगा तो मेरे सिर पर डंडे से वार कर दिया।’
शिमला के पास एक गांव में रहने वाले धर्मवीर (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि उनका छोटा बेटा शराब पीकर अक्सर हिंसक हो उठता है।
धर्मवीर कहते हैं, ‘पहले वह ठीक था लेकिन कॉलेज जाने के बाद उसमें बदलाव आने लगा। अक्सर शराब पीकर घर लौटता और हम टोकते तो हंगामा करता। एक बार उसने अपनी मां से पैसे मांगे, उसने देने से इनकार किया तो धक्का देकर गिरा दिया। मुझे पता चला तो मैंने उसे घर से निकल जाने को कहा।’
मगर धर्मवीर ने दो दिन बाद ही एक रिश्तेदार के यहां ठहरे बेटे को वापस बुला लिया था।
वह बताते हैं, ‘मैंने सोचा था कि बेचारा कहां भटकेगा। कुछ महीनों तक सब ठीक चला मगर फिर हालात खऱाब हो गए। नशा करके वह हमें पीटने लगा। हम शर्म के मारे चुप रहे। न तो उसने पढ़ाई पूरी की और न ही कोई काम पकड़ा।’
‘बदनाम इतना हुआ कि उसकी शादी भी नहीं हुई। अब वह 45 साल का हो चुका है और मेरी पेंशन पर आश्रित है। उसके व्यवहार से तंग आकर बड़ा बेटा औह बहू अलग होकर रहने लगे थे।’
‘अब हमारी उम्र भी हो चली है। पता नहीं हमारे बाद उसका क्या होगा।’
धर्मवीर जैसे कई माता-पिता हैं जो अपने बच्चों से लगातार मिल रहे तनाव, प्रताडऩा और शोषण से मुक्ति चाहते हैं।
वे जानते हैं कि खतरनाक बन चुके इस रिश्ते को तोडऩा जरूरी है मगर चाहकर भी ऐसा नहीं कर पा रहे।
‘अटूट’ बंधन
माता-पिता और बच्चों के रिश्ते को प्यार का ऐसा अटूट बंधन माना जाता है जो हर सुख-दुख में बना रहता है। मगर कुछ माता-पिता को इस रिश्ते को बनाए रखने में मुश्किलें आ सकती हैं।
कुछ के जीवन में ऐसा दौर भी आता है, जब वे भारी मन से इस नाते को तोडऩे का फ़ैसला कर लेते हैं।
बच्चों द्वारा अपने माता-पिता से बोलचाल बंद करने के मामलों की चर्चा आजकल आम होने लगी है। माता-पिता भी बच्चों से बोलचाल बंद करते हैं मगर कुछ शोध बताते हैं कि ऐसे मामले कम सामने आते हैं।
ब्रितानी सामाजिक संस्था ‘स्टैंड अलोन’ द्वारा 2015 में किए गए अध्ययन के मुताबिक़, बच्चों से अलग हो चुके माता-पिताओं में पांच फ़ीसदी ही ऐसे थे, जिन्होंने ख़ुद से अलग होने का फ़ैसला किया था।
और इन लोगों का कहना था कि इस तरह का फैसला लेना उनके लिए बहुत ही मुश्किल और कष्टदायक था। इस फैसले ने उन्हें अकेलेपन और शर्मिंदगी की तरफ भी धकेल दिया था।
लूसी ब्लेक यूनिवर्स्टी ऑफ दि वेस्ट इंग्लैंड, ब्रिस्टल में मनोविज्ञान की वरिष्ठ प्रवक्ता हैं और एस्ट्रेन्जमेंट यानी संबंध विच्छेदन की विशेषज्ञ हैं।
वह कहती हैं, ‘शोध और संस्कृतिक मुख्यधारा, दोनों में ही बच्चों से संबंध तोडऩे वाले माता-पिता कम देखने को मिलते हैं क्योंकि यह एक वर्जित विषय (टैबू) है और लोग आलोचनाओं के डर से इस तरह के अनुभव को साझा करने से बचते हैं।’
‘जिम्मेदारी’ का बोझ
माता-पिता द्वारा अपने बच्चों से रिश्ते तोडऩे के कारण अमूमन वही होते हैं, जिन कारणों से बच्चे अपने माता-पिता से संबंध तोड़ते हैं। जैसे कि पारिवारिक विवाद, नशे की लत, विचारधारा में फर्क और खराब व्यवहार वगैरह। लेकिन बच्चों के मुकाबले माता-पिता के लिए इस रिश्ते को तोडऩा आसान नहीं होता।
लखनऊ में कऱीब दो दशक से काउंसलिंग कर रहे मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे इसकी वजह बताते हैं कि सामाजिक तौर पर माता-पिता से उम्मीद की जाती है कि वे बच्चों को बिना शर्त प्यार करें और उनकी देखभाल करते रहें।
वह कहते हैं, ‘माता-पिता बच्चों को जन्म देते हैं, उनकी परवरिश करते हैं। मनोवैज्ञानिक तौर पर उन्हें लगता है कि बच्चे को आगे ले जाना पूरी तरह हमारी जि़म्मेदारी है। जबकि बच्चे के नजरिये से देखें तो उसे माता-पिता से हमेशा कुछ न कुछ मिला ही होता है, उसने दिया नहीं होता। ऐसे में वह उतना करीब नहीं हो पाता, जितना माता-पिता होते हैं।’
‘माता-पिता अपना भविष्य अपने बच्चे के अंदर देखते हैं। जबकि बच्चे जब अपना भविष्य देखते हैं तो उनकी प्राथमिकताएं अलग होती हैं, जैसे कि करियर, पैसा, कामयाबी। माता-पिता भी उनकी प्राथमिकताओं में होते हैं लेकिन वे पहले नंबर पर नहीं होते। लेकिन माता-पिता अक्सर बच्चे को ही सबसे ऊपर रखते हैं।’
संभवत: यही कारण है कि जब बच्चे परेशान कर रहे होते हैं, चोट पहुंचा रहे होते हैं, तब भी माता-पिता उन्हें नहीं छोड़ पाते।
धर्मवीर और उनकी पत्नी, बेटे के हिंसक व्यवहार के बावजूद उसके साथ रहते हैं। वह कहते हैं कि कई बार अलग होकर बड़े बेटे के पास जाने की योजना बनाई मगर यह सोचकर नहीं गए कि छोटे बेटे का क्या होगा।
ब्रिटेन की केंट यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रवक्ता जेनिफऱ स्टोरी ने अन्य व्यक्तियों से की जाने वाली हिंसा के विषय का अध्ययन किया है।
वह कहती हैं, ‘मुझे एक भी मामला ऐसा याद नहीं आ रहा जहां कोई मां या पिता अपने बच्चे से रिश्ता तोडऩा चाहते हों। लगभग सभी चाहते हैं कि प्रताडऩा और शोषण बंद हो जाए मगर रिश्ता बना रहे।’ इस तरह के हालात में माता-पिता, बच्चों और उनके आसपास के लोगों के लिए भी हकीकत को स्वीकार करना आसान नहीं होता।
लूसी ब्लेक कहती हैं, ‘हम माता-पिता से बहुत ज़्यादा अपेक्षाएं रखते हैं। ठीक भगवान जैसी। हम चाहते हैं कि वे बिना शर्त प्यार करते रहें। लेकिन इससे कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। आप यह उम्मीद करने लगते हैं कि उन्हें हर तरह का व्यवहार स्वीकार करना चाहिए। मानसिक और आर्थिक शोषण भी।’
सामाजिक ढांचा
अमैंडा हॉल्ट ने किशोरों द्वारा माता-पिता को प्रताडि़त किए जाने पर ‘अडॉलसेंट टु पैरेंट अब्यूज़: करंट अंडरस्टैंडिंग इन रीसर्च, पॉलिसी एंड प्रैक्टिस’ नाम की कि़ताब लिखी है।
वह बताती हैं, ‘आमतौर पर यह माना जाता है कि माता-पिता ही शक्तिशाली होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, स्थिति बदलने लगती है। लोगों को इस बात का एहसास नहीं हो पाता कि बच्चे भी माता-पिता को प्रताडि़त कर सकते हैं या इस हद तक कर सकते हैं कि रिश्ता ही तोडऩा पड़े। यह भी एक कारण है कि माता-पिता नाता तोडऩे का फ़ैसला लेने से हिचकते हैं।’
अमैंडा हॉल्ट के मुताबिक़, बच्चों के साथ माता-पिता के जैविक, क़ानूनी और सामाजिक बंधन होते हैं। अगर आप बोलचाल बंद कर दें, तब भी ये बंधन बने रहते हैं। इन्हें तोडऩा बहुत मुश्किल होता है।
मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे कहते हैं, ‘भारत में शायद एक लाख में एक-दो पैरेंट्स ही ऐसे होंगे जो बच्चे से अलग हो पाए होंगे क्योंकि हमारी संस्कृति और समाज में इसे पाप की तरह देखा जाता है। हमारा सामाजिक ढांचा इसे स्वीकार नहीं करता।’
सकारात्मक माहौल ज़रूरी
अक्सर बच्चों की कामयाबी और नाकामयाबी को उनके माता-पिता से जोड़ा जाता है। ऐसे में अगर ऐसे बच्चे से रिश्ता तोडऩे की नौबत आ जाए, तब वे शर्म महसूस करते हैं और ख़ुद को क़ुसूरवार मानने लगते हैं। इससे वे अकेलेपन का शिकार हो सकते हैं और अपने मित्रों, यहां तक सगे संबंधियों से भी दूरी बना सकते हैं।
लूसी ब्लेक कहती हैं, ‘बच्चों से अलगाव उनके जीवन के कई पहलुओं को प्रभावित कर सकता है। नाता तोडऩे की पहल करने वाले माता-पिता के पास ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो उनके प्रति समझ और सहानुभूति दिखा सकें। यह एक अलग तरह का कष्ट है क्योंकि उन्हें लग सकता है कि उनका जीवन ख़ाली और निरर्थक हो गया है। नतीजतन वह परिवार के अन्य सदस्यों और दोस्तों से भी नाता तोड़ सकते हैं।’
विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे रिश्तों से बाहर निकलने वाले माता-पिताओं के लिए समाज में ऐसा वातावरण तैयार करना जरूरी है, जहां वे अकेला महसूस न करें। खासकर त्योहारों या जन्मदिन जैसे खास मौकों पर। ‘स्टैंड अलोन’ का शोध भी कहता है कि अलग रह रहे लोग इन दिनों ज़्यादा भावुक महसूस करते हैं। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के.पालीवाल
अंग्रेजी की बहु प्रचलित कहावत है कैरट एंड स्टिक पॉलिसी, जिसका मोटा मोटा सहज हिंदी अनुवाद गाजर और लाठी नीति बनता है। सरकार अपने अफसरों और अफसर अपने मातहद कर्मचारियों को नियंत्रण में रखने के लिए आदि काल से इस नीति का प्रयोग करते आए हैं। अंग्रेजी राज में इसका उपयोग देशी राजाओं, व्यापारियों और नौकरशाही पर शिकंजा कसने के लिए होता था। सरकार के पास प्रभावशाली लोगों को नियंत्रित करने के लिए तरह तरह की गाजर और लाठियां होती हैं। गाजर लालच देकर इंसान को पालतू पशु जैसा वफादार बनाने के लिए प्रयोग में आती हैं और लाठियां नियम कानून से चलने वालों को लाईन पर लाने के लिए दंड देने का काम करती हैं।
गाजर मलाईदार पद पर पोस्टिंग, कोई बड़ा पुरस्कार या सेवानिवृति के बाद एक्सटेंशन या कोई घोटाला होने के बाद भी जांच से बचाना आदि के रुप में मिलती हैं और लाठी किसी दूर स्थान पर लूप लाइन में डालना, सस्पेंड करने, सेवा से बर्खास्तगी और किसी तकनीकी गलती को अपराध बताकर जेल भेजना भी हो सकती है।
अंग्रेज यह सब खेल बहुत अच्छी तरह से खेलते थे। आज़ादी के आंदोलन में जब 1942 में निर्णायक घड़ी पास आ रही थी तब उन्होंने महात्मा गांधी से लेकर आज़ादी के आंदोलन के तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया था लेकिन मुहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान बनाने के लिए हिंसक गतिविधियों की खुली छूट दे रखी थी और डॉ भीमराव अम्बेडकर को सरकार में मंत्री पद दे दिया था ताकि अंग्रेज सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय एकता का माहौल न बन सके। इसी तरह वे हर क्षेत्र के अग्रणी लोगों को अपना वफादार बनाने के लिए राय बहादुर आदि की उपाधियां बांटते थे ताकि अपने अपने इलाकों के ये असरदार लोग ब्रिटिश शासन को मजबूत बनाने के लिए तन मन धन से योगदान करें। आज़ादी के बाद नेताओं की जिस पीढ़ी ने सत्ता की बागडोर संभाली उनमें आधिकांश राजनीति को सेवा का सर्वोत्तम अवसर समझते थे इसलिए उन्होंने नौकरशाही से भी ऐसे लोगों को चुन चुन कर आगे बढ़ाया जिनकी योग्यता, क्षमता और कर्मठता उच्च स्तरीय थी और भावना लोक कल्याण से ओतप्रोत थी।
लाल बहादुर शास्त्री जी के कार्यकाल को देश की सत्ता में सेवाभाव के स्वर्ण काल का अंतिम अध्याय कहा जा सकता है। इंदिरा गांधी के शासन में नौकरशाहों पर गाजर और लाठी नीति की जबरदस्त शुरुआत हुई थी।आपात काल में अंग्रेजों की इस नीति को भारतीय लोकतंत्र ने नए आयाम दिए थे।उसके बाद उत्तर प्रदेश में समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी की सरकारों ने इसे और ऊंचाई देते हुए ऐसे लोगों को भी प्रदेश की नौकरशाही का मुखिया बनाया जिन्हें आई ए एस एसोसिएशन ने महाभ्रष्ट अफसरों के रूप में चिन्हित किया था। गुजरात में भी नौकरशाही पर इस नीति को आजमाने के काफ़ी समाचार सामने आए हैं।वर्तमान दौर में केंद्र सरकार में भी नौकरशाही को लेकर कमोबेश ऐसी ही स्थितियां बनती जा रही हैं।नौकरशाही के सर्वोच्च पदों पर सरकार के इशारे समझने वाले और भ्रष्टतम अधिकारियों का चुना जाना न केवल ईमानदार और कर्मठ अधिकारियों का मनोबल तोड़ता है बल्कि ईमानदारी और भ्रष्टाचार के असमंजस में फंसे बहुत से अधिकारियों को भ्रष्टाचार की तरफ झुकने के लिए प्रेरित करता है।
सबसे पहले प्रमुख पदों के लिए जी श्रीमान कहने वालों का चुनाव कर गलती की जाती है फिर उन्हें बार बार एक्सटेंशन देकर गलती दोहराई जाती है। ऐसी परिस्थितियों में ही सर्वोच्च न्यायालय को इस तरह की कड़ी टिप्पणी करनी पड़ती है कि क्या सरकार अपने अन्य सभी अधिकारियों को नाकारा मानती है। चुनाव आयोग में ऐसे अधिकारियों की नियुक्ति करना जिसने व्यक्तिगत कारण बताकर कुछ दिन पहले सरकारी सेवा से ऐच्छिक निवृति ली हो सीधे सीधे सरकार और ऐसे अफसरों से मिलीभगत का प्रमाण है।वरिष्ठ आई ए एस और आई पी एस अधिकारियों को वी आर एस दिलाकर लोकसभा या विधानसभा चुनाव का टिकट देना भी इसी नीति के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
प्रभु झरवाल
मेवात के मेव समाज के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है। मेवात में 9वीं-10वी शताब्दी के आसपास, राजपूतों के उदय से पहले। मेवाल गोत्र के राजाओं का शासन था। इसलिए इस क्षेत्र का नाम मेवात पड़ा। यहां के लोगों को मेव कहा जाता था। ये मेव शब्द उनको अपने अतीत से जोड़े रखता है। इसलिए मेव अपने आपको मुसलमान कहलाना पसंद नहीं करते, वे अपने आपको मेव कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं। मुसलमान तो उनको हिंदुओं ने बनाया है, हिंदुओं ने मेवों को मुसलमानों की तरफ धकेला है।
मेव भारत का एक ऐसा समाज है जो हिंदू-मुस्लिम धर्म, संस्कृति दोनों को एक साथ जिया है, निभाया है। मेव समाज हिन्दू-मुस्लिम एकता, भाईचारे की कड़ी है। ये लगभग 1992 तक ईद के साथ साथ होली भी खेलते थे, दिवाली भी मनाते थे, हिंदुओं के लगभग सभी त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाते थे। शादी में निकाह भी पढ़ते थे, और फेरे भी लेते थे।
इनके पुरानी पीढ़ी के नाम भी मंगल खां, शेरू खां, कालू खां हिंदू मुस्लिम मिक्स नाम होते थे। दाढ़ी मूंछ हिंदुओं जैसे रखते थे। धोती-कुर्ता पहनते थे। 1992 के हिंदू मुस्लिम दंगों में इन्होंने महसूस किया की ना तो हिंदू अपना समझ रहे है और ना मुस्लिम अपना, दोनो की नफरत का शिकार कब तक होते रहेंगे। उनको लगा कि अब कहीं एक साइड हो जाना चाहिए।
हिंदू उनको अपना नहीं रहे थे, मुसलमानों में वे जाना नही चाह रहे थे। हिंदुओं ने इनके घर वापसी का कोई प्रयास किया नहीं, मुस्लिम संस्थाओं ने इनके लिए दरवाजे खोल दिए। 1992 के बाद से इनके पहनावे, नामकरण, रीति रिवाजों में तेजी से बदलाव आया। मेवात का मेव समाज मीना, जाट, गुर्जर, राजपूत और अन्य समाजों से बना हु़वा है। मेव समाज अभी भी अपने बच्चों की शादी मुसलमानों में नही करते, ये मेवों में ही करते है, चाचा, ताऊ के बच्चों के साथ शादी नहीं करते। ये तीन गोत्र टालते है। इन्होंने निश्चित कर रखा है की किन गोत्र में शादी करनी है, किनमें नहीं करनी।
मेवों का इतिहास बहुत ही शानदार और गौरवपूर्ण रहा है। मेवों को एक देशभक्त कौम के रूप में जाना जाता है। लेकिन विडंबना है कुटिल मानसिकता वाले लोग मेवों को भारत की प्राचीन संस्कृति और भाईचारे से पहले भी दूर धकेला है और अब भी धकेलते जा रहे है। मुस्लिम हो, अंग्रेज हो या कोई ओर, किसी भी बाहरी आक्रांता और आततायियों का मेवों ने मुंहतोड़ जवाब दिया है। आक्रांताओं से संघर्ष में इस समाज ने अपना बहुत कुछ खोया है।
दिल्ली से महज 90 किलोमीटर की दूरी पर होते हुए भी विकास यहां से कोसो दूर है। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, असुरक्षा की भावना चरम पर है। बेरोजगारी और अशिक्षा की वजह यहां के युवा अपराध की तरफ बढ़ गए। ना सरकार ने मेवात की तरफ ध्यान दिया, ना हिंदू मुसलमानों ने अपना समझकर इनका विकास करने में मदद की। निरंतर खतरा और असुरक्षा की भावना, गरीबी, बेरोजगारी निरंतर इनको अपराध की तरफ धकेल रही है। हिंदुस्तान के लोगों से निवेदन है कि मेवों को मेव ही रहने दो और मेवात को मेवात ही रहने दो, मिनी पाकिस्तान का ठप्पा लगाकर, अपने हिस्से को उपहार स्वरूप पाकिस्तान को भेंट ना करो।
दीपक मंडल
भारत सरकार ने लैपटॉप, पर्सनल कंप्यूटर और टैबलेट के आयात को प्रतिबंधित करने वाले फ़ैसले पर अमल पर फिलहाल रोक दिया है।
गुरुवार को एक अधिसूचना जारी कर इन आइटमों के आयात को तुरंत प्रभाव से प्रतिबंधित कर दिया गया था।
नई अधिसूचना में इन आइटमों के आयात के लिए लाइसेंस के लिए 31 अक्टूबर 2023 तक मोहलत दी गई है। विदेश व्यापार महानिदेशालय ने कहा है कि ये आदेश 1 नवंबर 2023 से लागू हो जाएगा।
दरअसल लैपटॉप,पर्सनल कंप्यूटर और टैबलेट समेत सात आइटमों के आयात को अचानक प्रतिबंधित कर देने के बाद उद्योग जगत में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है।
आईटी हार्डवेयर से जुड़े सभी स्टेकहोल्डर्स का कहना है कि सरकार ने अचानक अधिसूचना जारी कर दी जबकि दिवाली के दौरान इन आइटमों की भारी मांग देखी जाती है। ऐसे में कंपनियों का बिजनेस बुरी तरह प्रभावित होगा।
मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन फॉर इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी ने विदेश व्यापार महानिदेशालय को ई-मेल भेज कर लाइसेंसिंग के लिए मोहलत देने की मांग की थी।
सरकार की अधिसूचना से घबरा कर कई ऑरिजिनल इक्विपमेंट मैन्युफैक्चरर्स ऐपल, सैमसंग और एचपी ने तुरंत प्रभाव से लैपटॉप और टैबलेट का आयात रोक दिया था।
इंडस्ट्री के सूत्रों को कहना है कि शायद इस फैसले की चौतरफा आलोचना की वजह से सरकार ने फिलहाल आदेश पर अमल रोक दिया है।
विदेशी व्यापार महानिदेशालय की पहली अधिसूचना में क्या कहा गया?
विदेश व्यापार महानिदेशालय ने गुरुवार को एक अधिसूचना जारी कर इनके आयात पर प्रतिबंध लगाने का ऐलान किया था। इसमें कहा गया था कि कंपनियों को अब इसके लिए लाइसेंस की ज़रूरत पड़ेगी।
इस फैसले पर अमल फिलहाल भले ही रुक गया है। लेकिन इससे ऐपल, डेल, लेनोवो, हेवलेट पैकर्ड और सैमसंग जैसी कंपनियों के कारोबार पर भारी असर पड़ सकता है।
उन्हें अब लोकल मैन्युफैक्चरिंग को रफ़्तार देनी होगी ताकि भारत में अपने उत्पादों की मांग पूरी कर सकें।
सरकार के इस कदम से घरेलू बाजार में इन आइटमों के दाम में भारी इजाफे की आशंका जताई जा रही है।
देश में पिछले तीन साल के दौरान (खास कर कोविड महामारी के दौरान) लैपटॉप, पर्सनल कंप्यूटर और टैबलेट जैसे आइटमों की मांग काफी बढ़ी है। लेकिन मांग बढऩे के साथ ही इनके दाम भी बढ़े हैं।
विदेश व्यापार महानिदेशालय की ओर से जारी नोटिफिकेशन में इन आइटमों के आयात पर प्रतिबंधों की कोई वजह तो नहीं बताई गई थी। लेकिन कहा जा रहा है कि सरकार फिलहाल सुरक्षा कारणों का हवाला देकर इन आइटमों के आयात को रोकना चाहती है।
लैपटॉप, पर्सनल कंप्यूटर और टैबलेट समेत जिन सात आइटमों के आयात रोके गए हैं, उनका 58 फीसदी चीन से आता है।
वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान भारत में इनका आयात 8।8 अरब डॉलर का था। इनमें से अकेले चीन की हिस्सेदारी 5।1 अरब डॉलर की थी।
चीन का ख़तरा कितना बड़ा
मीडिया ख़बरों के मुताबिक सरकार के अंदरूनी सूत्रों ने इन आइटमों के आयात पर प्रतिबंधों के लिए सुरक्षा कारणों का हवाला दिया है क्योंकि ज्यादातार चीजें चीन से आयात हो रही थीं। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है सरकार ने सिर्फ सुरक्षा कारणों से इन आइटमों के आयात पर प्रतिबंध नहीं लगाया है।
भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स और सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने वाले प्रमुख संगठन वीएलएसआई के अध्यक्ष सत्या गुप्ता ने बीबीसी से कहा, ‘सुरक्षा का मामला बहस का विषय है। इसलिए सरकार ने अपने नोटिफिकेशन में इसका जिक्र नहीं है। ये साबित करना बहुत मुश्किल है कि चीनी प्रोडक्ट सुरक्षित नहीं हैं।’’
उन्होंने कहा, ‘दरअसल लैपटॉप, टैबलेट या पर्सनल कंप्यूटर की सुरक्षा का पहलू प्रोसेसर से जुड़ा होता है। इन सारे आइटमों में सबसे ज्यादा इन्टेल, एएमडी और माइक्रोटेक के प्रोसेसर लगे होते हैं। ये चीनी प्रोसेसर नहीं हैं।’
‘हालांकि चीनी प्रोसेसर यूनिसर्फ वाले लैपटॉप बनने शुरू हो गए हैं। लेकिन अभी ये काफी शुरुआती दौर में हैं। लिहाज़ा ये कहना गलत है कि सरकार ने चीन के खतरे को देखते हुए पर्सनल कंप्यूटर और टैबलेट का आयात प्रतिबंधित किया है। ’’
सरकार का मक़सद क्या है?
मोदी सरकार भारत को इलैक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चरिंग का बड़ा हब बनाना चाहती है। अपने इस मक़सद को हासिल करने के लिए इसने आईटी हार्डवेयर के लिए पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव) स्कीम लागू की है।
सरकार ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के तहत घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देकर बड़े पैमाने पर रोजग़ार पैदा करना चाहती है इसलिए पीएलआई स्कीम पर इतना ज़ोर दिया जा रहा है।
इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्सटाइल और फूड प्रोसेसिंग समेत दस से अधिक सेक्टरों के लिए पीएलआई स्कीम चलाई जा रही है।
देश में पेट्रोल और गोल्ड के बाद सबसे ज़्यादा आयात इलेक्ट्रॉनिक्स का होता है। फरवरी 2021 से अप्रैल 2022 के बीच इसके 550 अरब डॉलर के आयात बिल में अकेले इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम की हिस्सेदारी 62।7 अरब डॉलर की थी।
लिहाज़ा भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने का मक़सद बहुमूल्य विदेशी मुद्रा भी बचाना है।
2020 में शुरू की गई इस योजना के तहत विदेशी और घरेलू कंपनियों को देश में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाने, उनका विस्तार करने और तैयार माल की बिक्री पर इन्सेंटिव दिया जाता है।
पीएलआई स्कीम के तहत अकेले आईटी हार्डवेयर सेक्टर के लिए ही 17 हज़ार करोड़ रुपये का इन्सेंटिव निर्धारित किया जा चुका है।
सरकार को उम्मीद है इसका फायदा उठाने के लिए ऐपल, डेल, एचपी और सैमसंग जैसी कंपनियां भारत में मैन्युफैक्चरिंग करेगी।
इन ग्राहकों को नए नियमों से छूट
अगर आप विदेश से एक लैपटॉप, पर्सनल कंप्यूटर, अल्ट्रा स्मॉल फॉर्म फैक्टर कंप्यूटर खरीदते हैं तो ये प्रतिबंध आप पर लागू नहीं होगा। ई-कॉमर्स पोर्टल से खरीदे गए या पोस्ट के कुरियर से ऐसे कंप्यूटर मंगाने पर भी ये प्रतिबंध लागू नहीं होगा। हालांकि इस पर ड्यूटी देनी होगी
आरएंडडी, बेंचमार्किंग,इवेल्यूशन, रिपेयरिंग या री-एक्सपोर्ट के लिए 20 आइटमों के आयात के लिए भी लाइसेंस नहीं लेना होगा।अगर लैपटॉप, टैबलेट, अल्ट्रा स्मॉल फॉर्म फैक्टर कंप्यूटर और सर्वर कैपिटल गुड्स के हिस्सा बन कर आयात किए गए तो ये भी इस प्रतिबंध के दायरे में नहीं आएंगे।
पीसी, लैपटॉप कंपनियों पर कितना असर
पर्सनल कंप्यूटर बेचने वाली कंपनियों का कहना है कि सरकार के इस कदम से फिलहाल इनका आयात रुक जाएगा। जबकि हकीकत ये है देश में बिकने वाले 90 फीसदी पर्सनल कंप्यूटर (डेस्क टॉप, लैप टॉप और टैबलेट) आयातित होते हैं।
इससे मार्केट में इन आइटमों की ज़बरदस्त किल्लत हो सकती है। नतीजतन इनके दाम बेतहाशा बढ़ सकते हैं।
सरकार ने 2020 में टेलीविजन सेट्स की घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए ऐसा ही कदम उठाया था। उस वक्त उसने टेलीविजन सेट्स के आयात पर रोक लगा दी थी। इससे टीएसएल, वीयू के अलावा सैमसंग, एलजी श्याओमी जैसी कंपनियों के हाई-एंड कलर टीवी की बिक्री पर काफी असर पड़ा था। जबकि सैमसंग, एलजी जैसी कंपनियां तो भारत में मैन्युफैक्चरिंग भी करती हैं।
सरकार के इस कदम से टीवी आयात के 7000 से 8000 करोड़ रुपये का बाजार प्रभावित हुआ था। लेकिन भारत में कुल टीवी सेल्स का ये एक छोटा हिस्सा था।
लेकिन पर्सनल कंप्यूटर के आयात पर प्रतिबंध का मामला इससे बिल्कुल है। इस कदम का काफी बड़ा असर होगा क्योंकि देश में ज्यादातर पर्सनल कंप्यूटर बाहर से मंगाए जाते हैं।
पर्सनल कंप्यूटर कंपनियों ने कहा है कि इस फैसले को लागू करने से पहले तीन महीने का ग्रेस पीरियड देना चाहिए था ताकि उपभोक्ताओं को अचानक बढऩे वाली कीमतों से बचाया जा सके।
रिलायंस जियोबुक की लॉन्चिंग और आयात प्रतिबंध का कनेक्शन
इसी सप्ताह मुकेश अंबानी की कंपनी जियो ने सिर्फ 16,499 रुपये में रिलायंस जियोबुक उतारा है। ये टैबलेट और लैपटॉप का मिलाजुला वर्जन है।
इसे बाज़ार का सबसे सस्ता ‘लैपटॉप’ बताया जा रहा है। इससे पहले तक एचपी और दूसरी कंपनियों के क्रोमबुक 20 हजार रुपये में बिक रहा है।
सोशल मीडिया पर जियोबुक की लॉन्चिंग और सरकार के नए नियमों की टाइमिंग पर सवाल उठाए जा रहे हैं। लोगों का कहना है कि रिलायंस को फायदा देने के लिए सरकार ने ये कदम उठाया है। लेकिन विशेषज्ञों ने ऐसे आरोपों को ख़ारिज किया है।
सत्या गुप्ता कहते हैं,‘’ रिलायंस का जियोबुक मार्केट में मौजूद दूसरे उत्पादों को टक्कर नहीं दे सकता। ये लैपटॉप नहीं बल्कि हाई-एंड टैबलेट है। रिलायंस का प्रोडक्ट अभी काफी शुरुआती दौर में है। इस प्रतिबंध से रिलायंस के प्रोडक्ट भारत में छा जाएंगे, इसकी संभावना अभी दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखती।’’
नई नीति से कंपनियों का क्या फायदा
विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार की इस नीति से विदेशी और घरेलू कंपनियों दोनों को फायदा होगा। लैपटॉप, टैबलेट बनाने के लिए असेंबलिंग लाइन लगाना या यूनिट शुरू करना आसान काम है।
कई कंपनियों की असेबलिंग लाइन चल रही है। सरकार का मकसद है कि विदेशी कंपनियां यहां अपनी यूनिट लगाएं और इसकी पीएलआई स्कीम का फायदा लें।
सत्या गुप्ता कहते हैं, ‘सरकार नई पीएलआई स्कीम के तहत 17 हजार करोड़ रुपये का इन्सेंंटिव दे रही है। इसके तहत चार से छह फीसदी का इन्सेंटिव मिल रहा है जो बहुत ज्यादा है। ’
लैपटॉप, टैबलेट या इस तरह के दूसरे उत्पादों पर दो-तीन से तीन फीसदी मार्जिन भी अच्छा माना जाता है। ऐसे में अगर छह फीसदी का मार्जिन कंपनियों के काफी फायदे का सौदा है।’’
इससे भारत में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलेगा और यहां की छोटी और मझोली कंपनियां भी प्रोडक्ट डिजाइन, डेवलप और मैन्युक्चरिंग का काम कर सकेंगीं।
सत्या गुप्ता कहते हैं, ‘’वीवीडीएन, ऑप्टिमस जैसी कई छोटी कंपनियां हैं जो लैपटॉप, टैबलेट जैसे प्रोडक्ट बना रही हैं। सरकार की इस नीति से इन कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा। छोटी-छोटी कंपनियों के इको-सिस्टम से भी भारत में आईटी हार्डवेयर की बड़ी कंपनियां खड़ी हो सकेंगी।’’ (bbc.com/hindi)
कनुप्रिया
सरकार अनाज दे देती है, सिलेंडर भी दे देती है, झोपड़पट्टी डाल लेते हैं, खर्चा ही क्या है गरीब लोगों का। देश की जीडीपी देखिये, टमाटर ही तो थोड़ा महँगा हुआ है, बाकी कहाँ है महँगाई।
अक्सर ये तर्क मोदी समर्थकों से सुन लेती हूँ, वो लोग ये तर्क देते हैं जो खुद बढिय़ा सरकारी नौकरी में हैं, या पुश्तैनी बिजनेस है या अच्छी कॉरपोरेट जॉब है, बच्चे लाखों की फीस देकर बढिय़ा स्कूल-कॉलेज में हैं, अच्छे मकान और 2-4 प्रॉपर्टीज हैं, महँगी कारें खरीद सकते हैं और विदेश जाना not a big deal ।
गरीब और निम्न वर्गीय लोग शायद उनके लिये भेड़-बकरी हैं जिन्हें बस खाने को आटा और चावल चाहिये, हगने की सुविधा भी न हो तो चलेगा। कोई सरकार बिजली-पानी मुफ्त दे दे तो बड़े लोगों के पेट में ऐंठन होने लगती है कि देखो रेवडिय़ाँ बंट रही हैं। महिलाओं को फ्री मेट्रो टिकट देने पर अच्छे-अच्छे प्रगतिशील लोगों के माथे पर बल पड़ गए थे।
अच्छी शिक्षा की उन्हें जरूरत नहीं, सरकारी स्कूल खस्ताहाल हों तो हों। न अच्छी चिकित्सा की जरूरत है, राजस्थान सरकार right to health bill लाई तब भी उन्हीं लोगों ने सबसे अधिक विरोध किया जो महँगे अस्पताल अफोर्ड कर सकते हैं।
जो अपने घर गाँवों में रहते हैं उनके पास शायद पुश्तैनी छत हो वरना बड़े शहरों की खूबसूरती नष्ट करने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं कि कमाने तो वहीं जाना पड़ेगा, वरना महंगा किराया दो। कपड़े लत्ते तो फुटपाथ मार्केट से मिल जाते हैं मगर एक सुख जिव्हा का ही रह जाता है वो भी न रहे महँगाई के चलते तो बच्चे पैदा करने के सिवा क्या उपाय है।
कभी-कभी लगता है कि धीरे-धीरे दुनिया की आधी आबादी से right to live भी छीन लिया जाएगा, जो आज बोलते हैं कि ये लोग किसी लायक नहीं महज देश की जनसंख्या बढ़ाते हैं, वहीं कल इन पर बम गिरा देने के भी हिमायती होंगे।
जितना देश घूमा है, कह सकती हूँ कि इस देश को गरीब देश यूँ ही नही कहा जाता, वाकई बहुत गरीबी है। और जो लोग कहते हैं कि चुनावी मुद्दा महंगाई नहीं राम होना चाहिये, वो INDIA पर ऐतराज भले कर लें मगर रहते वहीं हैं, वो नहीं जानते कि असल भारत क्या है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्तर के एक साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रम में राष्ट्रपति भोपाल आई थी। उनके कार्यक्रम में शामिल होने के कारण सुबह 10.30 से शाम 5 बजे तक कुछ रास्ते दिन भर बंद रखने और कुछ अलग अलग समय पर बंद रहने के समाचार प्रकाशित हुए थे। इस मुद्दे पर भोपाल की एक संवेदनशील पत्रकार ने लिखा था कि जब आयोजन स्थल के रास्ते बंद रहेंगे तो इस आयोजन में दर्शक या साहित्यिक चर्चा सुनने का इच्छुक व्यक्ति आयोजन स्थल पर कैसे पहुँचेगा?एक अखबार में लिखा था आयोजन से लोगों को जोडऩे निकली यात्रा, तो जो इससे जुडऩा चाहे देखना चाहे वो तो पहुंच ही नहीं सकता। आयोजन का पास तो सबके पास नहीं होता। ऐसा लगता है कि इस तरह के आयोजन अब चंद पास धारकों के लिए रह गए हैं और आम नागरिकों के लिए ऐसे आयोजन ट्रेफिक डायवर्सन के कारण होने वाली परेशानी ही पैदा करते हैं। राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का किसी शहर में किसी भी कार्यक्रम में आना शहरवासियों के लिए बड़ी मुसीबत बन जाता है। जनता को परेशानी से निजात दिलाने के लिए यदि यह लोग ऐसे आयोजनों को राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री आवास से वेबिनार के माध्यम से संबोधित कर दिया करें तो जनता पर बड़ा उपकार होगा।
अभी कुछ दिन पहले प्रधान मंत्री के भोपाल आगमन पर भी शहर के कई इलाकों में ट्रैफिक जाम से शहर वासियों का बुरा हाल हुआ था। भोपाल की प्रमुख सडक़ होशंगाबाद रोड पर वैसे ही कार्यालय के समय सुबह दस बजे के आसपास और शाम को छह बजे के आसपास ट्रैफिक जाम की स्थिति रहती है। ऐसे में सडक़ बंद होने से कई कई घंटों के जाम में मरीज और स्कूल जाने वाले बच्चे भी फंस जाते हैं। वह तो इंद्रदेव की कृपा से उस दिन बारिश होने से प्रधानमन्त्री का प्रस्तावित रोड शो नही हो पाया था अन्यथा ट्रैफिक जाम से और बदतर हालात बन जाते।वेबिनार के जमाने में प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति को दिल्ली रहकर काम निबटाने चाहिएं या आम साधारण नागरिक की तरह आना चाहिए।
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की सुरक्षा के लिए राजसी सुरक्षा तामझामो का कुछ लोग यह कहकर समर्थन कर सकते हैं कि देश के इन विशिष्ट लोगों के लिए इतनी कड़ी सुरक्षा जरूरी है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अधिकांशत: ब्रिटिश परंपरा से आई है। उसके साथ हमारे संविधान में सभी विकसित देशों के संविधान से अच्छी परंपराएं लेने की कोशिश की गई है। दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद हमने ब्रिटिश लोकतंत्र की अभिव्यक्ति की आज़ादी और जन प्रतिनिधियों की सादगी आदि को आत्मसात नहीं किया। वहां प्रधानमंत्री के लिए सुरक्षा के डरावने तामझाम नहीं होते। ऐसे में हम गरीब देश के लोगों पर विशिष्ट लोगों की भारी सुरक्षा के बंदोबस्त का बोझ किसी भी दृष्टि से तर्क संगत नहीं लगता। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के अवसर पर आयोजित समारोह में महात्मा गांधी ने तत्कालीन वायसराय की इसी तरह की कड़ी सुरक्षा को लेकर बहुत तीखा विरोध किया था। उनका आशय यही था कि वायसराय को अपनी जनता से इतना अधिक नहीं डरना चाहिए कि भारी सुरक्षा बंदोबस्त करना पड़े। गांधी ने कहा था कि वायसराय को खुद की सुरक्षा की इतनी चिंता है लेकिन देश के लोगों की सुरक्षा की चिंता नहीं है।
महात्मा गांधी की 1916 में तत्कालीन वायसराय के लिए कही गई बातें आज और भी ज्यादा प्रासंगिक हो रही हैं। वर्तमान परिदृश्य में आज के वायसराय और मंत्रियों के लिए तो सुरक्षा के इतने जबरदस्त तामझाम हैं और आम जनता की सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं है। मणिपुर में जिस तरह से हिंसक भीड़ ने दो निर्दोष आदिवासी महिलाओं की नग्न परेड कराई है और ट्रेन में यात्रियों की सुरक्षा के नाम पर घूमते आर पी एफ के जवान ने जिस तरह से बोगियों से खोज खोज कर धर्म विशेष के लोगों का नर संहार किया है ऐसे में गांधी के उदगार और ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं।
प्रकाश दुबे
आरोप गंभीर है-देशद्रोह और भारत के विरुद्ध युद्ध छेडऩे का। मणिपुर में जारी हिंसा के बीच उसने राज्य में कदम रखने की जुर्रत की। वह भी तफरीह के लिए सैलानी की तरह नहीं। तथ्यान्वेषण समिति में शामिल होकर। आरोपपत्र के हिसाब से उम्रकैद हो सकती है। करेला और नीम चढ़ा। उसके पास वकालत की सनद है। मणिपुर की पुलिस के हाल पर आम पाठक हंसे या रोए, अदालत ने फुर्ती दिखाते हुए आनन फानन में गिरफ्तारी का फरमान जारी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने वकील दीक्षा द्विवेदी की गिरफ्तारी पर अंतरिम रोक लगाई।
अगली राहत के लिए मणिपुर उच्च न्यायालय की देहरी खटखटाने के लिए कहा। वकील के अंदेशे को भांपते हुए वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से चार सप्ताह के अंदर अपना पक्ष रखने कहा। आजादी का यह अमृतकाल वकील दीक्षा द्विवेदी के लिए 15 अगस्त तक जारी रहेगा या नहीं? हम आप काहे फिक्र करें? भारत के मुख्य न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ की विचारशीलता से हैरान लोगों को इतनी दिलासा मिलेगी कि तलवार लटकी है।
दल बदल की फसल लहलहाई
ज्योतिषियों के कामकाज में हस्तक्षेप किए बगैर दावा कर सकता हूं कि केंद्रीय पर्यटन मंत्री जी किशन रेड्डी की भाग्य रेखा अभिनेत्री की भाग्य रेखा से हजार गुने अधिक मजबूत है।मात्र इसलिए नहीं, कि मंत्री रहते हुए तेलंगाना प्रदेश पार्टी के अध्यक्ष बना दिए गए। ऊपर वालों की मेहरबानी के बाद राज्य का दौरा किया। इतिहास में दर्ज है कि बादशाह के कंधे पर बाज बैठाकरते थे। मंत्री सह प्रदेशाध्यक्ष का सेहरा लगाए राज्य में पहुंचे तो सत्कार के साथ कुछ दलबदलू कतार में खड़े मिले। इनमें जनजाति बहुल जिले के दो पूर्व विधायक शामिल हैं। किशन रेड्डी पूर्वोत्तर विकास मंत्री भी हैं।
मणिपुर जाकर क्या करते? बड़े बोल बोलने वाले चुप हैं। मणिपुर की राज्यपाल आदिवासी हैं। वे मुंह खोलें। बहरहाल आदिवासी हितैषी मंत्री ने एक आश्वासन अवश्य दे डाला। उनका कहना है कि जनसंख्या के अनुपात में तेलंगाना में जनजाति समुदाय का आरक्षण बढऩा चाहिए। क्रिकेट की तरह राजनीति में गुगली फेंकने में माहिर किशन रेड्डी के बयान से मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव के माथे पर शिकन होनी चाहिए। इसे कहते हैं-हर्र लगे न फिटकरी-
कर्नाटक का नाटक गांव गांव में
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरामैया को इतना कहने का हक है कि विरोधी अफवाहें फैलाकर सरकार को बदनाम करते हैं। विधायक असंतुष्ट हैं। मंत्री बनने की लालसा में कर्नाटक के पसंदीदा दलबदल नाटक में शामिल हो सकते हैं, आदि आदि। कामकाज ठीक से नहीं हो रहा है। मुख्यमंत्री कार्यालय में फाइलों का अंबार लगा है। अफवाह को हवा देने वालों में भाजपा, कुमारस्वामी और मंत्री पद लालची अपने विधायकों में से किस की तरफ निशाना है? यह साफ साफ नहीं बताया। ध्रुव सत्य मुख्यमंत्री जानते हैं और उनके उपमुख्यमंत्री डी के शिवकुमार भी। कई पार्टी विधायक दो टूक कह चुके हैं कि मंत्री फंत्री का फैसला बाद में करते रहना। सबसे पहले हमारे विधानसभा क्षेत्र के तहसीलदार से लेकर थानेदार को बदलो। कारण? ये सब-सब पिछली सरकार में हमारी नाक में दम कर चुके हैं। दिल्ली बैठक में राष्ट्रीय नेताओं से विधायकों ने अनेक विभागों की जानकारी देते हुए मांग दोहराई। तबादलों के साथ दान-दक्षिणा का आरोप हवा में तैरने लगेगा। विपक्ष ताक में है। आपके सहानुभूति जताने से सिद्धरामैया की समस्या हल होने वाली नहीं है।
गड्डी ठीक से फेंटना जादूगर पुत्र
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को 90 बरस की वृद्धा ने आशीष दिया-फिर से मुख्यमंत्री बनो। मुख्यमंत्री का जवाब अप्रत्याशित था। मैं तो नहीं चाहता, लेकिन यह कुर्सी मुझे नहीं छोड़ रही है। अब आप यह मत सोचो कि सचिन पायलट को सुनकर कैसा लगा होगा? मिठबोले मुख्यमंत्री चुनावी जादू जानते हैं। एक दिन का किस्सा सुनकर ही सब समझ जाएंगे। तारीख 31 जुलाई 2023 और समय दिया बत्ती लग जाने के बाद का। 53 पुलिस अधिकारियों के स्थानांतरण की सूची से महकमे के कई चेहरों पर मुस्कान खिल गई। दिल थाम कर बैठिए।
सचिवालय में बहुत काम होता है। जिलों का का राजकाज संभालने वाले भी कान लगाए बैठे थे। उनका अनुमान सही था। एक और सूची जारी हुई। राजस्थान प्रशासनिक सेवा के 336 तबादला आदेश शामिल थे। ईडी फीडी अपना काम करता रहे। अशोक का जादू कितना काम करेगा? यह तो गहलोत भी नहीं जानते। हम यह अवश्य बता सकते हैं कि मुख्यमंत्री के पिता जोधपुर के जाने माने जादूगर थे।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-अरुण कान्त शुक्ला
हिरोशिमा दिवस 2023, और नागासाकी में हुईं परमाणु हत्याओं की 78वीं वर्षगांठ है। पुरे विश्व में हर साल 6 अगस्त को परमाणु बम के भयावह प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने और शांति की राजनीति को बढ़ावा देने के लिए हिरोशिमा दिवस मनाया जाता है। इस दिन 1945 में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक जापानी शहर हिरोशिमा पर एक परमाणु बम गिराया था। परमाणु विस्फोट बड़े पैमाने पर हुआ और शहर के 90 प्रतिशत हिस्से को नष्ट कर दिया और हजारों लोग मारे गए। इसने लगभग 20,000 सैनिकों और 90,000 से 125,000 नागरिकों को मार डाला। तीन दिन बाद, 9 अगस्त 1945 को जापान के एक और शहर, नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराया गया, जिसमें 80,000 से अधिक लोग लोग मारे गए। हिरोशिमा दिवस को हम उन हत्याओं की वर्षगांठ भी कह सकते हैं, जो विश्व युद्ध के लगभग समाप्त होने की कगार पर परमाणु बमों के द्वारा की गईं। आज परमाणु बमों का इतना जखीरा दुनिया के बड़े और शक्तिशाली से लेकर विकासशील देशों के पास जमा है कि विश्व के प्रत्येक शांतिकामी नागरिक को ये व्याकुलता स्वाभाविक रूप से होती है कि कहीं किसी भी देश का सत्तानशीं चाहे वह लोकतांत्रिक देश का हो अथवा अधिनायकवादी देश का सनक में आकर मानवता पर फिर वही वहशी अत्याचार को न कर बैठे, जो द्वितीय विश्वयुद्ध की लगभग समाप्ति पर अमेरिका के 33वें राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमेन ने किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के देशों के बीच अनगिनत युद्ध हो चुके हैं और शांतिकामी लोगों के मध्य परमाणु बम के इस्तेमाल को लेकर होने वाली व्याकुलता कभी कम नहीं रही।
अभी शायद हम बड़े देशों के बीच बढ़ती हुई अदावत और तनाव के मामले में सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि रूस और युक्रेन के मध्य चल रहे युद्ध में युक्रेन एक छद्म है और वास्तविक संघर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के बीच है। सबसे ज्यादा त्रासदायी बात यह है कि डेढ़ वर्ष से अधिक के अत्यधिक विनाशकारी युद्ध के बाद भी कोई दिलासा देने वाली शांति प्रक्रिया किसी भी देश के द्वारा शुरू नहीं की गई है और यह हो भी कैसे जब दो विश्व महा शक्ति युद्ध पर ही आमादा हों तो शान्ति की पहल होगी ही कैसे?रही-सही कसर हाल के घटना विकास ने पूरा कर दिया है। ऐसा लग रहा है मानो संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच अब ताइवान मोहरा बन रहा है। अभी की परिस्थिति में शामिल तीनों देश परमाणु संपन्न हैं। आज परमाणु संपन्न देशों के पास 13000 से अधिक न्यूक्लियर हथियार हैं और इनमें से अधिकाँश की मारक क्षमता हिरोशिमा या नागासाकी पर गिराए गए बमों से कई गुना अधिक है।
जापान हमारे सामने परमाणु बम के विनाश के उदाहरण के रूप में मौजूद है, जहाँ न केवल दो लाख से अधिक लोग फौरी तौर पर मारे गए बल्कि उसके बाद वर्षों तक जलने-झुलसने और विकिरण के फलस्वरूप हजारों की संख्या में लोगों की मौत हुई। यहाँ तक कि उसके बाद के लगभग चार दशकों तक पैदा हुए बच्चे भी परमाणु विकिरण के शिकार रहे। आज जब फेट मेन और लिटिल ब्वाय, उन परमाणु बमों के नाम जो नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए थे, से ज्यादा शक्तिशाली न्यूक्लियर हथियार परमाणु संपन्न देशों के पास हैं, हम कल्पना कर सकते हैं कि लाखों लोगों को तुरंत मारने के अलावा, परमाणु हथियारों के युद्ध से अभूतपूर्व पर्यावरणीय तबाही भी हो सकती है जो जापान में मारे गए लोगों से भी बड़ी संख्या में लोगों को मार सकती है। इतना ही नहीं इसका विनाशकारी परिणाम जीव जगत के अन्य जीवन-रूपों को भी भोगना पडेगा और प्रकृति का विनाश होगा। आज परमाणु हथियारों का प्रयोग अकेले दो देशों के बीच का मामला हो ही नहीं सकता है, इसके दुष्परिणाम बिना किसी विवाद में शामिल हुए पड़ोसी देशों के लोगों को भी भुगतने होंगे।
यह कोरा मुगालता ही है कि सामरिक परमाणु हथियारों के रूप में परमाणु हथियारों की कम विनाशकारी भूमिका हो सकती है। यह किसी युद्धोन्मादी का ही दृष्टिकोण हो सकता है। यदि युद्धरत देशों के पास परमाणु हथियार हैं तो सामरिक हथियारों से शुरू हुआ परमाणु युद्ध आसानी से कभी भी एक पूर्ण परमाणु युद्ध में बदल सकता है। फिर, परमाणु हथियार सामरिक हों तो भी उनका उपयोग बहुत विनाशकारी हो सकता है, यहां तक कि उपयोग करने वाले देश के लिए भी उनका उपयोग विनाशकारी ही होगा!
इसके अलावा, जैसा कि न्यूक्लियर हथियारों के बारे में आम धारणा है कि इनके इस्तेमाल का अधिकार केवल राष्ट्र प्रमुखों के पास ही होता है7 पर, यही बात छोटे स्तर के सामरिक न्युक्लियर हथियारों के बारे में नहीं कही जा सकती7 क्योंकि, जब सामरिक परमाणु हथियारों को उपयोग के लिए तैयार करना होता है तो उनके नियंत्रण के अधिकार का अनेक लोगों के पास पहुंचना साधारण सी बात ही होगी। इससे यह संभावना बढ़ जाती है कि कट्टर या कट्टरपंथी झुकाव या आतंकवाद फैलाने वाले व्यक्ति या समूह भी इसके नियंत्रण तक पहुँच हासिल कर सकते हैं या उन हथियारों को ही हासिल कर सकते हैं।
इसलिए इस भ्रम में रहना एकदम गलत है कि छोटे स्तर के सामरिक न्युक्लियर हथियार परमाणु हथियारों का कोई सुरक्षित विकल्प प्रदान करते हैं। क्योंकि, ऐसा भ्रम लाखों-करोड़ों लोगों के लिए अत्यंत विनाशकारी हो सकता है।
हमारी प्यारी धरती, उस पर बसे जीवन और उस पर्यावरण तथा प्रकृति के लिए सबसे अच्छी बात यही है कि परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कभी नहीं होना चाहिए। वास्तव में, परमाणु हथियारों का उपयोग तो विनाशकारी है ही, परमाणु हथियारों से संबंधित दुर्घटनाएं भी बहुत विनाशकारी हो सकती हैं। इसलिए यदि हम पृथ्वी पर जीवन की परवाह करते हैं तो अंतत: एकमात्र सुरक्षित विकल्प यही है कि हम सभी परमाणु हथियारों और सामूहिक विनाश के सभी हथियारों को हमेशा के लिए छोड़ दें।
दुर्भाग्यवश, एक समय शुरू हुआ निशस्त्रीकरण अभियान अपने उद्देश्य में सफल तो नहीं ही हो पाया, अब उस तरफ प्रयास भी बंद हो गए हैं। बड़े देश जो शस्त्रों के निर्माता हैं, वे न केवल अपने देशों के हथियार निर्माताओं के माफियाओं के चंगुल में फंसे हैं, उनकी अर्थव्यवस्था बहुत कुछ अपने से छोटे देशों को हथियारों को बेचने और उनके बीच के युद्ध पर ही टिकी है। हिरोशिमा दिवस हमें प्रेरित करता है कि हम इस विषय पर ईमानदारी से विचार करें, हम किसी भी पक्ष के हों, हमारा एकमात्र ईमानदार निष्कर्ष यही होना चाहिए कि यदि पृथ्वी पर जीवन को बचाना है तो हमें परमाणु हथियारों से दूर रहना ही होगा, उन्हें नष्ट करना ही होगा और इसके लिए विश्व की शांतिकामी जमात को एकस्वर में आवाज उठानी ही होगी।
-श्रवण गर्ग
मणिपुर के पहले संसद में बहस शायद जयपुर-मुंबई सुपर फास्ट एक्सप्रेस में घटी त्रासदी पर होना चाहिए और प्रधानमंत्री से जवाब भी माँगा जाना चाहिए ! चलती ट्रेन में हुई त्रासदी और उसके मुख्य पात्र द्वारा उसकी ही गोली के शिकार हुए चार लोगों में से एक के शव पास खड़े होकर दी गई नफरती स्पीच पर अगर बहस हो जाए तो फिर मणिपुर, मोनू मानेसर और हरिद्वार पर भी अपने आप हो जाएगी !
चेतन सिंह अब किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं रहा। हो सकता है इस नाम का उस शख्सियत से कोई ताल्लुक़ ही स्थापित नहीं हो पाए जो उस दुर्भाग्यपूर्ण रात सूरत स्टेशन पर अपने बॉस और अन्य सहयोगियों के साथ एस्कॉर्ट ड्यूटी के लिए ट्रेन पर सवार हुआ था। एस्कॉर्ट ड्यूटी बोलें तो यात्रियों की सुरक्षा के लिए ट्रेन में चलने वाला रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स (आरपीएफ) का अमला।
कांस्टेबल चेतन सिंह या तो ख़ुद ही भूल गया होगा कि उसने क्या अपराध किया है या उसके परिवार सहित जो ताक़तें उसे मानसिक रूप से विचलित, विक्षिप्त अथवा अवसाद-पीडि़त साबित करने में जुटी हैं वे उसकी याददाश्त का गुम हो जाना सिद्ध कर देंगी ! ‘गजनी’ फि़ल्म के नायक संजय सिंहानिया को ऐसी बीमारी होती है जिसमें वह पंद्रह मिनिट से ज़्यादा पुरानी बात भूल जाता है। व्यक्ति ही नहीं, हुकूमतें भी जब सत्ता की असुरक्षा या किन्हीं अन्य कारणों से अवसाद अथवा विक्षिप्तता की शिकार हो जाती हैं तो बड़े-बड़े हत्याकांडों, आगज़नियों और मानवीय चीत्कारों को पलक झपकते ही भूल जातीं हैं।
मीडिया की खबरों में बताया गया है कि कांस्टेबल को घटना के बाद जब मुंबई की एक अदालत में पेश किया गया तो घटना का प्रस्तुत विवरण उस जानकारी से कुछ भिन्न था जो जनता के बीच और मीडिया में प्रचारित है। मसलन, बताया गया है कि सांप्रदायिक नफरत से भरे उसके भाषण और उससे संबद्ध धाराओं का आरोपों के विवरण में कथित तौर पर उल्लेख नहीं किया गया। खबरों के मुताबिक, सुनवाई के दौरान मीडिया की उपस्थिति भी प्रतिबंधित थी।
चेतन सिंह अब किसी का भी नाम हो सकता है! जैसे हरिद्वार, हाशिमपुरा ,हाथरस, कश्मीर घाटी या मणिपुर। उसे किसी हुकूमत का नाम या प्रतीक भी माना जा सकता है। उसके द्वारा दी गई जिस ‘हेट स्पीच’ का उल्लेख बहुप्रचारित वीडियो में है उसमें नया कुछ भी नहीं है। हरिद्वार की ‘धर्म संसद’ में दो साल पहले दिये गये नफऱती भाषणों से उसके कहे का मिलान किया जा सकता है। प्रकाशित विवरणों के मुताबिक, आरपीएफ के कांस्टेबल द्वारा हत्याकांड के बाद कुछ इस प्रकार की स्पीच दी गई थी-’ अगर वोट देना है ,तो मैं कहता हूँ, मोदी और योगी ये दोनों हैं और आपके ठाकरे !’
हरिद्वार की ‘धर्म संसद’ में उपस्थित सैंकड़ों साधु-संतों के द्वारा हिंदू समुदाय का आह्वान किया गया था कि अल्पसंख्यकों की समाप्ति के लिए शस्त्र उठाना होगा। एक ऐसे समय जब हरियाणा के कुछ शहर सांप्रदायिक हिंसा से झुलस रहे थे, एक राष्ट्रीय चैनल का एंकर जर्मनी में हिटलर द्वारा किए गये यहूदियों के नरसंहार की तजऱ् पर ही ‘समस्या’ के ‘फाइनल सोल्यूशन’ की वकालत कर रहा था ! समस्या यानी ? देश के करोड़ों अल्पसंख्यक?
हरिद्वार की ‘धर्म संसद’ के तत्काल बाद एक बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों ,न्यायविदों, सेवानिवृत्त अफसरों, पूर्व सैन्य अधिकारियों ,आदि ने ऐसी चिंता व्यक्त करते हुए कि देश को गृह युद्ध की आग में धकेला जा रहा है अपील की थी कि पीएम को चुप्पी तोडऩा चाहिए । न तो पीएम ने चुप्पी तोड़ी और न ही संघ या भाजपा के किसी नेता ने देश में फैलाए जाने वाले सांप्रदायिक उन्माद की निंदा की। मणिपुर, हरियाणा और चलती ट्रेन में चुन-चुनकर यात्रियों की हत्या उसी मौन के नतीजे माने जा सकते हैं।
ट्रेन में हुए हत्याकांड को लेकर ‘द वायर’ द्वारा जारी एक खबर के अनुसार, सुपरफास्ट एक्सप्रेस के मुंबई पहुँचते ही एक भाजपा विधायक ने मीडिया से कहा कि घटना के कारणों की सघन तरीक़े से जाँच कर पता लगाया जाना चाहिए कि क्या आरपीएफ कांस्टेबल किसी तरह के अवसाद से पीडि़त या मानसिक रूप से विचलित था? घटना की पुलिस द्वारा जाँच किए जाने के पहले ही विधायक ने कांस्टेबल की मानसिक अस्थिरता को हत्याकांड के संभावित कारण के तौर पर प्रस्तुत कर दिया। खबरों के मुताबिक, कांस्टेबल के परिवार-जन दावा कर रहे हैं कि वह मानसिक बीमारी से पीडि़त है तथा पिछले छह महीनों से उसका उपचार चल रहा है।
सवाल पूछे जा सकते हैं कि अगर कोई व्यक्ति मानसिक तौर पर अस्वस्थ है तो (1) उसे यात्रियों की सुरक्षा से संबंधित एक महत्वपूर्ण सेवा में क्यों तैनात किया गया? (2) क्या कांस्टेबल के उच्चाधिकारियों को उसकी मानसिक बीमारी की जानकारी नहीं थी?,(3) क्या मानसिक तौर पर विचलित/विक्षिप्त/बीमार व्यक्ति इस स्थिति में हो सकता है कि जिन यात्रियों को गोलियों का निशाना बनाना है उनका चयन वह चलती हुई ट्रेन की आठ बोगियों और पैंट्री कार में घूम कर कर सके ? क्या उसके हाथों मारे गये अल्पसंख्यक समुदाय के यात्री और तथा अंतिम व्यक्ति के शव के पास खड़े होकर दी गई ‘हेट स्पीच’ किसी संयोग अथवा मानसिक असंतुलन का परिणाम हो सकती है ?
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में होने वाले सामूहिक हत्याकांडों/नरसंहारों के निष्कर्ष यही बताते हैं कि घटनाओं को अंजाम देने वाले हत्यारे निरपराध लोगों की भीड़ पर बेरहमी से गोलियाँ चलते हैं। हत्यारे न तो गोलियों का शिकार बनने वालों का उनके कपड़ों और शारीरिक प्रतीकों के आधार पर चुनाव करते हैं और न ही अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता दर्शाने वाली कोई ‘हेट स्पीच’ देते हैं !
किसी व्यक्ति अगर को उसके द्वारा किए गए जघन्य अपराध में इस शंका का लाभ मिल सकता है कि वह ग़ुस्सेल प्रकृति का है, मानसिक रूप से अस्वस्थ है तो फिर लगातार तनावों और असुरक्षा में जीने वाली हुकूमतों को भी नागरिक उत्पीडऩों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। मणिपुर की घटना को भी उसी तरह के अपराध में शामिल किया जा सकता है !
सवाल सिर्फ तत्कालीन हुकूमतों का ही नहीं है ! नागरिकों की एक बड़ी आबादी भी कुछ तो व्यवस्था-जनित कारणों और कुछ निजी तनावों के चलते गहरे अवसाद और मानसिक बीमारियों की शिकार होती जा रही है। समाज में अपराध और आत्महत्याएँ बढ़ रही हैं। क्या सामान्य नागरिक भी किसी एक मुकाम या अंग्रेजी में जिसे ‘ट्रिगर’ या ‘टिपिंग पॉइंट’ कहते हैं, पर पहुँचकर दूसरों की जानें लेना प्रारंभ कर देंगे या फिर उन इंतजामों पर यकीन करना बंद कर देंगे जिन्हें एक व्यवस्था के तहत सत्ताओं द्वारा सुरक्षा के लिए तैनात किया जाता है? यह भी हो सकता है कि नागरिक घरों से बाहर निकालना ही बंद कर दें ! दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि अपनी ही राजनीतिक सुरक्षा में मशगूल सरकार को नागरिकों की बढ़ती असुरक्षा की थोड़ी सी भी जानकारी नहीं है !
राहुल गांधी के खिलाफ एक फौजदारी मामला फिलवक्त बतंगड़ के लायक नहीं है। लेकिन उसका बतंगड़ कुछ लोग अब भी मनाते रहेंगे। मेरे इस लेख का आशय वह सब नहीं है, जिसकी जानकारी लोगों को मीडिया या सोशल मीडिया के कारण हो चुकी है। मैं कुछ उलझे हुए नये सवाल उठाना चाहता हूं। उनका प्रकाशन मेरी पसंद के अखबार ‘छत्तीसगढ़’ और संपादक सुनील कुमार के जरिए बेहतर हो सकता है।
लब्बोलुआब यह है कि 13 अप्रेल 2019 को कर्नाटक के कोलार की एक सभा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हल्के-फुल्के मूड में राजनीतिक घटनाओं के जिक्र में देश के धनकबाडू भगोड़े ललित मोदी और नीरव मोदी के नामों का उल्लेख करते पूछ लिया कि क्या सभी मोदी चोर होते हैं? उस कटाक्ष को कुछ लोगों और खासकर भाजपा नेताओं ने प्रधानमंत्री को केन्द्र में रखकर समझा। बात आई-गई हो गई। लेकिन कुछ अरसा बाद गुजरात के भाजपा विधायक पूर्णेश मोदी ने सूरत में ही मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में मानहानि का फौजदारी मामला राहुल के खिलाफ दायर किया। पूर्णेश ने आरोप लगाया कि राहुल ने देष के सभी मोदियों को मानो चोर कहा है और उसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल किए गए। बहरहाल इस मामले में 23 मार्च 2023 में राहुल को भारतीय दंड संहिता की धारा 499 के तहत दोषी ठहराते अधिकतम प्रावधानित दो वर्ष की सजा सुनाई गई। सत्र न्यायाधीश और हाईकोर्ट में सजा को स्थगित करने की राहुल की कोशिश असफल रही। आखिर सुप्रीम कोर्ट ने सजा ही नहीं दोषसिद्धि (कन्विक्षन) को भी स्थगित कर दिया। राहुल गांधी को मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई सजा को सेशन्स कोर्ट में लंबित अपील के निराकरण होने तक स्थगित कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई की अध्यक्षता की तीन सदस्यीय बेंच ने जो कहा, वह राहुल के इस मामले की भविष्यमूलक संभावना भी है। गवई आगे चलकर चीफ जस्टिस भी बन सकते हैं। कोर्ट ने मजिस्ट्रेट और हाई कोर्ट दोनों का उल्लेख करते कहा कि फैसले में सैकड़ों पेज रंग दिए गए, लेकिन यह नहीं बताया जा सका कि राहुल को अधिकतम सजा किन न्यायिक सिद्धांतों पर दी गई। न्यायिक सिद्धांतों की तो एक पुष्ट और अनुभवजन्य परंपरा है। हाई कोर्ट जज ने तो स्थगन आवेदन का निपटारा करने में ही 66 दिन का समय बर्बाद किया। जजों को माननीय प्रधानमंत्री क्यों लिखना चाहिए। संविधान पहले माननीय और आखिर में जी जोडऩे का समर्थन नहीं देता। मजिस्ट्रेट की अदालत में इतनी कानूनी खामियां हुईं जिनका ब्यौरा देना फिलवक्त जरूरी नहीं। राहुल गांधी को सजा मिलने के बाद लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (3) के तहत लोकसभा सचिवालय के आदेश पर सांसदी खत्म कर दी गई। आनन फानन में उनका सरकारी मकान मोदी सरकार ने पूरी तरह से खाली करा लिया। ऐसा प्रायोजित प्रचार भी हुआ कि राहुल गांधी का संसदीय राजनीतिक जीवन संकट में है और आगे उसके खात्मे की शुरुआत की जाने की कोशिश भी हो रही है। अलबत्ता जस्टिस गवई ने यह भी कहा कि राहुल गांधी ने जो कहा वह ‘गुड टेस्ट‘ (भोलेपन) में नहीं था।
अंगरेजों के वक्त 1860 में ही भारतीय दंड संहिता बदनाम लेकिन जहीन कानूनज्ञ लॉर्ड मैकाले के हाथों लिखी गई। उसमें संशोधन होते रहे। उसकी धारा 499 एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की मानहानि की सजा और परिभाषा के बाबत है। कोई व्यक्ति जानबूझकर नीयतन गलत बात कहता है जिससे दूसरे व्यक्ति की सार्वजनिक रूप से तौहीन होती हैऔर वह भी झूठे आधार पर। तब मानहानि का अपराध होता है। जहीन मैकॉले ने लेकिन उन दस अपवादात्मक परिस्थितियों को भी शामिल किया जिनके रहते अपराध करना लगने पर भी अपराध होना नहीं माना जाएगा। मसलन किसी सार्वजनिक प्रश्न के बाबत किसी व्यक्ति के आचरण और चरित्र के बारे में अगर कुछ कहा जाता है। तो लोकप्रश्न शामिल होने से ऐसा कहा जाना मानहानि नहीं करता। राहुल राजनीतिक व्यक्ति हैं। उन्होंने असहमत राजनीति के कुछ किरदारोंं द्वारा पोषित और पल्लवित ललित मोदी और नीरव मोदी जैसे विश्व प्रसिद्ध भारतीय धन कबाड़ू भगोड़ों के बारे में कुछ बात कही। तो सार्वजनिक मसलों पर देष की दौलत के लुटेरोंं के मोदी उपनाम का उल्लेख करते किसकी तौहीन हो गई? राहुल के वकीलों और खासतौर पर सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने पूर्णेश मोदी के आरोप पत्र को कई तरह से तार तार किया। उसकी नियामक समझ मजिस्ट्रेट हरीष हंसमुख भाई वर्मा मेंं होनी चाहिए थी लेकिन सिंघवी की बौद्धिकता या तो मजिस्ट्रेट के सिर के ऊपर से निकल गई या मजिस्ट्रेट ने अभियोगी पक्ष से प्रभावित होकर राहुल के खिलाफ कोई गांठ बांध ली होगी। खुद शिकायत कुनिदंा पूर्णेश ने कहा ही था कि देश में करोड़ों मोदी हैं। उनकी जनभावनाएं आहत हुई हैं। इसलिए मैं उनकी ओर से भी यह परिवाद पेश कर रहा हूं। राजनीति का फितूर यहां तक कह गया कि मोदी पिछड़ी जातियों का एक उपनाम है। वह नरेन्द्र मोदी का भी है। इसलिए राहुल का कथन पिछड़ी जातियों का खुला अपमान है। राजनीतिक मुद्दे इस तरह भी न्यायालय के लिए पैदा किए जाते हैं।
सचाई यह है कि मोदी उपनाम की कोई कानूनी मान्यता की पहचान नहीं है। खुद पूर्णेश ने अपना मोदी उपनाम इस्तेमाल करना पहले ही छोड़ रखा है। नरेन्द्र मोदी, ललित मोदी, नीरव मोदी, सैयद मोदी, पीलू मोदी वगैरह नाम एक ही धर्म, जाति या कुनबे के मोदी नहीं हैं। फिर भी मुकदमा तो किया ही जाना था और हो गया। चुनावी या अन्यथा जनसभाओं के माहौल में हल्की फुल्की बातें तमाम नेताओं द्वारा कहे जाने की रवायत रही है। राहुल के कटाक्ष के बाद सभा में या बाहर भृकुटियां नहीं तनीं। लोग हंसे होंगे मुस्कराए भी। तालियां भी बजीं और उस दिन मामला हवा में उड़ गया। ऐसे किस्से होते रहते हैं। उन्हेंं धारा 499 की बेडिय़ों में नहीं जकड़ा जाता रहा है। फ्रांसीसी विमान राफेल खरीदी विवाद में कई दिनों तक राहुल कहते रहे ‘चौकीदार ही चोर है।’ चौकीदारों के संगठनों ने मुकदमा दायर नहीं किया। उस चौकीदार ने भी नहीं, जिसकी ओर इषारा किया गया समझा गया होगा। चोरों के संगठन ने भी नहीं किया कि हमें चौकीदार क्यों कहा जा रहा है। राहुल के मुकदमे में मजिस्ट्रेटी फैसला आने के बाद गुजरात में ही मोदी समाज के नाम पर एक बड़ी सभा केन्द्र और गुुजरात सरकार के अप्रत्यक्ष इशारे या मदद के साथ की गई। पहले ऐसे कथित मोदी समाज का कोई सार्वजनिक सम्मेलन किया गया हो, ऐसा सुनाई नहीं पड़ता। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सम्मेलन में पूर्णेष मोदी का उल्लेख करते उनका अभिनंदन किया। इस तरह मजिस्ट्रेट के फैसले को भाजपा ने खुलेआम जुडक़र अपना राजनीतिक हथियार बना लिया। नरेन्द्र मोदी चुप रहे। उन्हें ‘आग लगाए जमालो दूर खड़ी‘ वाला मुहावरा मालूम रहा होगा।
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने गुजरात हाई कोर्ट के आचरण पर भी चुप्पी नहीं बरती। जो कहना था सो कह दिया। गुजरात के ही निवासी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को कोर्ट से अनुरोध करना पड़ा कि गुजरात हाई कोर्ट के जज को लेकर और टिप्पणी नहीं की जाए। वरना उसका परिणाम कुछ और हो सकता है। तब भी बेंच ने कहा कि गुजरात से तरह तरह के फैसले आते हुए दिखाई तो पड़ रहे हैं। इससे ज़्यादा कोई क्या कहेगा? कोई चार पांच महीने तक राहुल गांधी को जिल्लत झेलनी पड़ी। सांसदी गई। राजनीतिक हैसियत का षासकीय मकान छीना गया। उनके खिलाफ तरह तरह के लांछन लगाए गए, जिनकी ज़रूरत नहीं थी। फिर भी राहुल गांधी ने हर स्तर पर कहा वे अपने कहे को लेकर माफी नहीं मांगेंगे। यह सिद्ध हुआ कि इस प्रकरण में माफी मांगने से अपने आत्मसम्मान का गुड़ गोबर कर देना होता। राहुल और उनकी कानूनी सलाहकार टीम को इत्मीनान रहा होगा कि नीचे चाहे जो हो। सुप्रीम कोर्ट में तो उनके साथ कानूनी नस्ल का न्याय होगा और वह हुआ।
मुख्य सवाल राहुल गांधी के मुकदमे के सफल होने का नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों की रोषनी में सत्र न्यायालय में लम्बित अपील शिकायत कुनिंदा के लिए टांय टांय फिस्स होने वाली है। भाजपा नेताओं ने होम करने का सोचा था लेकिन उनकी प्रतिष्ठा के हाथ जल गए। अचरज है उनके बड़े विधिक सलाहकारों ने भी टीवी चैनलों पर आकर ऐसी थोकबन्द बुड़बक बयानी की जिससे उनके कानूनी ज्ञान पर ही संदेह होता है। उन्होंने स्तुति वाचक के रूप में अपना कायांतर कर लिया होगा। सवाल है कि एक मजिस्ट्रेट को एक सांसद या विधायक के मामले में इतने कानूनी अधिकार क्यों मिल गए हैं कि वह यदि मामले में आरोपी सांसद या विधायक को दो वर्ष की सजा दे तो उस राजनेता का भविष्य एक तरह से खात्मे की ओर धकेल दे। वह कम से कम छ: साल चुनाव नहीं लड़ पाएगा।
आजादी के बाद 26 जनवरी 1950 से संविधान ही देश का बुनियादी कानूनी दस्तावेज है। संविधान के अनुच्छेद 19 में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी मुख्य अधिकार है। लेकिन उस पर कुछ प्रतिबंध भी हैं। मानहानि भी एक प्रतिबंध है। व्यक्ति का मानहानि करना प्रतिबंधित संवैधानिक अधिकार होगा। भारतीय दंड संहिता की धारा 499 के तहत मानहानि अंगरेजी हुकूमतशाही की उपज है। तब संविधान नहीं था। मानहानि का अपराध दंड संहिता में सबसे लचर, कमजोर और सरकार के हस्तक्षेप के अयोग्य अपराध है। यह तत्काल जमानत योग्य है। सरकार और पुलिस इसका संज्ञान नहीं ले सकते। आरोपी तथा षिकायतकुनिंदा किसी बाहरी हस्तक्षेप के बिना भी समझौता कर सकते हैं। इतना लाचार, मासूम, उपेक्षित और दो व्यक्तियों के बीच कोर्ट कचहरी करने के निजी इरादों में शामिल बेचारा अपराध एक मजिस्ट्रेट के हाथ पडक़र संविधान के सबसे दंडनीय हथियार के रूप में इस्तेमाल हो गया। भारत में हजारों मजिस्ट्रेट हैं। लाखों क्या करोड़ों राजनीतिक महत्वाकांक्षी उम्मीदवार हो सकते हैं। ऐसे किसी अपराध में कोई भी प्रभावशाली व्यक्ति एक मजिस्ट्रेट को पटाकर (जो कठिन नहीं है)। अपने किसी विरोधी को दो बरस की सजा दिला दे। फिर तो षडय़ंत्र करने वाले व्यक्ति की पौ बारह है।
राहुल प्रकरण से एक चिंताजनक संवैधानिक स्थिति पैदा हुई है। सब जानते हैं देश में मजिस्ट्रेटों की बौद्धिक और नैतिक क्या हालत होती है। अदालतों से कैसे भी आदेश किसी के खिलाफ भी हो जाते हैं या ले लिए जाते हैं। फिर तो फैसले के कारण बवंडर मचेगा ही। राजनीतिक उथल पुथल होगी। किसी प्रतिनिधि का भाग्य या उसका भविष्य खराब हो सकता है। अब सजा को लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम से जोड़ दिया गया। तब कई फैसले जानबूझकर कराए जा सकते हैं। देश के नेताओं और बड़े अन्य निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय उर्फ ईडी, इन्कम टैक्स, सीबीआई सब का हंगामा है। अब किसी को भी 2 वर्ष की सजा दिलाना कठिन नहीं होगा। कई मुकदमों में हो चुका है। लालू यादव का मुकदमा सबको याद रखना चाहिए।
ऐसी हालत में लोक प्रतिनिधित्व कानून को समझना बहुत ज़रूरी है। सांसदों, विधायकों के भविष्य को मजिस्ट्रेटों के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता। मसलन अश्लीलता को लेकर दंड संहिता में धारा 292, 294 आदि हैं। वहां किसी भी लेखक की कृति, पुस्तक, कविता, उपन्यास, चित्रकला, नाटक की कब्जेदारी या प्रदर्षन को लेकर कोई भी रिपोर्ट कर सकता है कि यह रचना अश्लील है। उसमें पुलिस हस्तक्षेप कर सकती है। थानेदार कविता में अश्लीलता कैसे ढूंढ सकता है? लेकिन ढूंढ लेता है। सजा हो गई तो उस निर्वाचित प्रतिनिधि का भविष्य थानेदार के विवेक की सलीब पर हो सकता है। यह अनुमति संविधान क्यों देता है? भारतीय अपराध व्यवस्था में बहुत झोल है। अब तो राजनेता इस तरह के हो गए हैं कि दूसरे की गर्दन मरोडऩे, गड्ढे में डालने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। उनके अंदर ईमान और परस्पर सहानुभूति का तो दौर खत्म हो गया है। आगे और बुरा दौर आने वाला है। गुजरात के ही एक मजिस्ट्रेट ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ जमानती वारंट षायद निकाल दिया था न?
आजादी के बाद संसद में लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 बनाया गया। उसकी धारा 8 (3) में लिखा है यदि किसी व्यक्ति को दो वर्ष के लिए सजा दे दी जाए। तो अगले 6 वर्ष तक चुनाव लडऩे के काबिल नहीं रहेगा। लेकिन धारा 8 (4) के मुताबिक ऐसा ही होने पर सांसदों विधायकों के लिए सुरक्षा है कि सजा के खिलाफ अपील या रिवीजन कर दें। जब तक उसका निपटारा नहीं होता, तब तक वे सांसद या विधायक बने रह सकते हैं और अगला चुनाव भी लड़ सकते हैं। यह संशोधन राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में 15/03/1989 को किया गया। यह बात कुछ समाज सेवकों को गैर मुनासिब लगी। 1999 में स्वैच्छिक संस्था असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीएफआर) ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दी कि उम्मीदवारों की पूरी कुंडली उनकी योग्यता, अपराध, आर्थिक स्थिति वगैरह के बारे में जनता को दिया जाना सुनिश्चित हो। अचरज है कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने याचिका का विरोध किया कि संविधान में इस बात का प्रावधान नहीं है। हाईकोर्ट ने शासन को सीधा निर्देष तो नहीं दिया लेकिन चुनाव आयोग से कहा कि मुनासिब कार्यवाही करें। इसके समानान्तर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीज (पीयूसीएल) ने सीधे सुप्रीम कोर्ट मे याचिका लगाई कि जनता के मूल अधिकारों को कानूनी जामा पहनाया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने यह बात मानते 2 मई 2002 को अनुकूल फैसला किया। सरकार नेे अधिनियम की धारा 33 (क) के तहत सूचनाएं देना तो मंजूर किया लेकिन धारा 33 (ख) के तहत कई प्रतिबंध लगा दिए। पीयूसीएल ने फिर याचिका लगाई कि धारा 33 (ख) को निरस्त किया जाए। मामले की सुनवाई के बाद कोर्ट ने फैसले में कटाक्ष भी किया कि पहले कभी जमाना था। जब 60 बरस की उम्र का कोई डाकू किसी नवयुवती से जबरिया शादी कर लेता था। अब ऐसी सामाजिक हालत नहीं है क्योंकि ये डाकू वृत्ति राजनीतिक उम्मीदवारों के लिए कायम रहने दी गई। जनता के संवैधानिक अधिकार उम्मीदवारों के अधिनियमित अधिकारों से कहीं श्रेष्ठ हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त कथित धारा 33 (ख) 13 मार्च 2003 को रद्द कर दी। उसे अटल बिहारी की भाजपाई सरकार ने षामिल किया था कि देश की किसी भी अदालत या चुनाव आयोग को राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के चरित्र के संबंध में सवाल करने का अधिकार नहीं है। ऐसा अधिकार केवल संसद को है। कांग्रेस और भाजपा एक दूसरे को कोसती भर हैं कि मेरी कमीज तेरी कमीज से ज़्यादा उजली है। बाकी कई पार्टियां स्वार्थ में सहायक भूूमिका में तालियां बताती हैं। लोकतंत्र में जनता गफलत, सांसत और हैरानी में रखी जाती है। अब युवजन अपनी मर्जी से भी जीवन साथी चुन सकते हैं। क्या ऐसी ही स्थिति उम्मीदवारों और मतदाताओं के संबंधों को लेकर नहीं होनी चाहिए? क्या एक गतिषील लोकतंत्र में मतदाता को यह जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि जो प्रतिनिधि उसके शासक, विधायक बल्कि भाग्यनिर्माता बनेंगे उनका जीवन परिचय क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने 56 पिछले फैसलों की सिलसिलेवार व्याख्या की और पूर्वज न्यायिक वचनों में व्यक्त चिंताओं का दोबारा इज़हार किया। सुप्रीम कोर्ट ने विदेशी लोकतंत्रों की पुष्ट परंपराओं पर भी प्रकाश डाला। न्यायमूर्ति एम.बी.शाह, पी. वेंकटरामा रेड्डी और देवदत्त माधव धर्माधिकारी की तीन सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मत फैसला किया कि पिछले फैसले में चुनाव आयोग को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के सभी निर्देष अन्तिम रूप से लागू रहेंगे। असंवैधानिक आधारों की कोख से निकली धारा 33 (ख) को सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल प्रभाव से खारिज कर दिया।
कांग्रेस मतदाताओं को यह कैसे समझा पाएगी कि लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 (4) में सांसदों और विधायकों को संविधानेतर महामानव बनाने का कुचक्र कांग्रेस के ही शासन काल में क्यों रचा गया। इस प्रावधान के कारण देश में कितने दागी सांसदों और विधायकों को संवैधानिक लाभ मिल गया। जनता के अधिकारों का कितना मखौल उड़ाया गया। इस असंवैधानिक कृत्य की भरपाई कौन करेगा? कांग्रेस की बगलगीर दिखती भारतीय जनता पार्टी के नरेन्द्र मोदी भी क्या देश की जनता को बताएंगे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उपहास करने की मुद्रा में उनकी पार्टी ने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में धारा 33 (ख) क्यों जोड़ी? उसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 2003 में नोचकर फेंक दिया। इस संशोधित धारा के अनुसार यह भाजपाई सरकार का विचार था कि देश की किसी भी अदालत या चुनाव आयोग को राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के चरित्र के संबंध में सवाल करने का अधिकार नहीं है। क्यों नहीं कांग्रेस और भाजपा मिलकर देश के सामने एक माफीनामा जारी करें कि चुनावी भ्रष्टाचार को लेकर दोनों की पार्टनरषिप रही है और अब भी है। सांसदों के वेतन भत्ते और सुविधाओं को बढ़ाने के नाम पर संसद की कार्यवाही कभी ठप्प नहीं होती। लेकिन जनता की समस्याओं को लेकर सभी पार्टियां मुखौटे लगाती हैं जिससे पीछे का घिनौना चेहरा जनता को दिखाई नहीं दे। उपरोक्त निर्णय के निर्देषों का आधा अधूरा पालन करने की आड़ में एन.डी.ए. सरकार ने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में धारा 33 (क) और धारा 33 (ख) जोड़ते हुए पहले अध्यादेश और बाद में अधिनियम पारित किया। धारा 33 (क) के तहत उम्मीदवार को बताना होगा कि उसके खिलाफ गंभीर अपराधिक वृत्ति के मुकदमों का निर्णय हुआ या कायमी है जिनके तहत दो वर्ष से अधिक की सजा हुई है या हो सकती है। इसके अलावा यदि उम्मीदवारों को धारा 8 में वर्णित अन्य अपराधों की सजा मिली हो तो उनकी जानकारी भी शपथ पत्र पर दी जाए। लेकिन इस धारा में उम्मीदवारों की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के बारे में जान-बूझकर ओढ़ी हुई खामोशी बोलती रही। धारा 33 (ख) की भाषा तो फैसले का सीधा मज़ाक उड़ाती दिखी। उसमें कहा गया कि किसी भी अदालती निर्णय या चुनाव आयोग के निर्देष के रहते हुए भी उम्मीदवार उपरोक्त सूचनाएं चुनाव आयोग को तब तक नहीं देंगे, जब तक ऐसा संबंधित अधिनियमों अथवा नियमों में प्रावधानित नहीं किया गया हो। ज़ाहिर है यह उपधारा सुप्रीम कोर्ट तक को ठेंगा या आंखें दिखाने की वर्जिश थी।
लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (1) तथा (2) में कई नामजद अपराध हैं जिनमें दो वर्ष से भी कम सजा होने पर तत्काल प्रभाव से सदन की अयोग्यता प्रभावशीलहो जाती है। इनमें भारतीय दंड संहिता से अलग हटकर समुदायों के बीच सामाजिक विद्वेष, चुनाव संबंधी अपराध, बलात्कार, स्त्री के प्रति क्रूरता आदि सहित नागरिक अधिकार अधिनियम, कस्टम अधिनियम, गैर कानूनी गतिविधि प्रतिरोध अधिनियम, फेरा, मादक द्रव्य संबंधी अपराध, आतंककारी गतिविधियां, पूजा स्थल संबंधित अधिनियम के अपराध, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों का अपमान, सती प्रतिषेध अधिनियम, भ्रष्टाचार अधिनियम, मुनाफाखोरी तथा जमाखोरी तथा मिलावटखोरी के अपराध और दहेज संबंधी अपराध षामिल हैं।
संसद ने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 (4) के अनुसार 1989 से दो वर्ष या अधिक के लिए दोषसिद्ध होकर सजा प्राप्त सांसदों और विधायकों को तब तक के लिए अपनी कुर्सी पर बैठे रहने का अभयदान दे दिया कि जब तक उनके अपराधिक प्रकरणों से संबंधित अपीलों का अंतत: निपटारा नहीं हो जाता। इस संषोधित प्रावधान को सोलह वर्ष बाद ‘लोक प्रहरी’ नामक संस्था की ओर से एस. एन. शुक्ला तथा अधिवक्ता लिली थॉमस ने जनहित याचिकाओं के रूप में चुनौती दी। आठ वर्षों तक सुप्रीम कोर्ट में लंबित इन याचिकाओं को 10 जुलाई 2013 को न्यायमूर्तिद्वय ए. के. पटनायक और एस. जे. मुखोपाध्याय की बेंच ने निराकृत करते हुए सांसदों, विधायकों को कन्सेषन देती धारा 8 (4) को असंवैधानिक करार दिया। सांसद और विधायक संविधान को अजीबोगरीब बीजक, रहस्य-पुस्तिका या बौद्धिक तंत्रशास्त्र भी बनाते रहे हैं। यह पोथी ईमानदार, देशभक्त लेकिन ज्यादातर पारंपरिक ब्रिटिश-बुद्धि का समर्थन करने वाले हस्ताक्षरों ने लिखी थी। उन्हें अन्दाज नहीं था कि अंगरेजी सल्तनत से लोहा लेने वाली पीढ़ी के वंशज लोकतंत्र और आईन के सामने इतनी पेचीदगियां पेष करेंगे कि संविधान को ही पसीना आ जाएगा।
बुद्धिजीवी वर्ग उम्मीद कर रहा था कि अब मनमोहन सरकार के पास दो ही विकल्प हैं। एक तो यह कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही पुनर्विचार याचिका दायर करे कि उसके फैसले से लोकतंत्र के संचालन में अनपेक्षित दिक्कतें आएंगी। स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने वाली सरकारों के दौर में संसद या विधानमंडलों को चलाना वैसे ही मुश्किल होता है। दूसरा विकल्प था संसद उपरोक्त धारा 8 (4) को ही संशोधित कर दे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रभाव का सांप मर जाए और जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा की लाठी भी नहीं टूटे। भाजपा सरकार ने एक के बाद एक दोनों काम किए। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की पुनर्विचार याचिका यह कहते ठुकरा दी कि उसके फैसले में कानून के नज़रिए से कोई तात्विक गलती नहीं है। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया कि वह उस हिस्से पर पुनर्विचार करेगा जिसमें कहा गया है कि जनप्रतिनिधि जेल में रहते हुए चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। पुनर्विचार याचिका खारिज होने के बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने संसद को फिर विश्वास में लेकर उपरोक्त धारा 8 (4) को बदलकर अध्यादेष के अनुसार संशोधित कर दिया। सरकार ने तमाम राजनैतिक दलों को विष्वास में लेकर प्रस्तावित किया कि दो वर्ष या अधिक की सजा पाने के तत्काल बाद अपील या रिवीजऩ दायर करने भर की स्थिति में अपील न्यायालय से स्थगन पाने के बाद सजा का फैसला प्रभावशील नहीं होगा। जब तक अपील या रिवीजन का अंतिम फैसला नहीं आता। तब तक संबंधित सांसद या विधायक वेतन तथा भत्ते नहीं ले सकेंगे। तथा विधायिका की कार्यवाही में वोट भी नहीं दे सकेंगे।
उपरोक्त कानूनी और संवैधानिक स्थिति में राहुल गांधी ने अपनी ही मनमोहन सरकार के द्वारा प्रस्तावित वह अध्यादेश फाडक़र फेंक दिया था जिसमें सांसदों, विधायकों को वह सुरक्षा मिलनी थी कि वे पुन: सजायाफ्ता होने पर भी अपील और रिवीजन के न्यायालय में लंबित रहने तक अपने पद का पूरा फायदा उठा सकते हैं। राहुल सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से हम राय थे जिसमें कहा गया था कि लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (3) जो जनता के लिए लागू होती है उसके मुकाबले धारा 8 (4) जो सांसदों, विधायकों को अपराध सिद्ध होने के फैसले के बावजूद पद पर बने रहने की बल्कि अगला चुनाव लडऩे की भी रियायत देती है। वह बिल्कुल मंजूर करने लायक नहीं है। जब राहुल को सजा मिली तो कई लोगों ने मज़ाक उड़ाया कि अगर राहुल ने भरी प्रेस कांफ्रेंस में अपनी ही सरकार का प्रस्तावित अध्यादेष फाडक़र फूहड़ ढंग से नहीं फेंका होता। तो गुजरात के मजिस्ट्रेट द्वारा 2 वर्ष की सजा दिए जाने के बाद भी राहुल सांसद भले बने रह सकते थे लेकिन अगला चुनाव भी लड़ सकते थे। जब तक कि अपील या रिवीजन न्यायालय का अंतिम फैसला नहीं आ जाए। लोगों ने राहुल के नैतिक चरित्र को उनके राजनीतिक चरित्र के अंगूठे के नीचे दबा देखना चाहा। पूरी संसद में केवल राहुल हैं जिन्होंने ऐलानिया कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का अपने आचरण के जरिए इस्तकबाल करते हैं। जो कहता है देश के किसी भी नागरिक को चुनाव लडऩे संबंधी जितनेअधिकार और प्रतिबंध हैं। उनसे कहीं आगे बढक़र सांसदों, विधायकों को अधिकार नहीं मिलने चाहिए।
वर्ष 2024 खतरे की घंटी बजाता आ रहा है। मौजूदा केन्द्र सरकार के रहमोकरम पर देश की पूरी राजनीति और विपक्षी पार्टियों का नेतृत्व है। प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, इन्कम टैक्स तथा कई और पुलिसिया एजेंसियों पर केन्द्र सरकार का दबदबा है, यहां तक कि चुनाव आयोग तक पर। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में ऐसे कई विशिष्ट अधिनियमों के अपराध हैं उनमें दो वर्ष की सजा तो क्या केवल जुर्माना लग जाए या छह महीने से कम की भी सजा हो जाए। तो भी उनका सजा की तारीख से अगले छह वर्ष तक चुनाव लडऩा मूमानियत पैदा करता है। सुप्रीम कोर्ट के जज खानविलकर की बेंच की कृपा से ई.डी. को अतिरिक्त और अकूत अधिकार मिल गए हैं। इसलिए वह हर नेता की प्रतिष्ठा और राजनीति में घुसे रहना चाहती। कितने मामलों में कोई सुप्रीम कोर्ट जाएगा और कब और कैसे? देश के हाई कोर्ट के जज जान-पहचान, रिश्तेदारी, मद और तिकड़म के आधार पर भी बनते हैं। आधे से ज्यादा मजिस्ट्रेट को तो अपना कानूनी ज्ञान फिर से चुस्तदुरुस्त करना हो सकता है। राहुल गांधी का प्रकरण तो चावल के पतीले मेंं एक पका हुआ दाना है। जिनके हाथ में सत्ता है, उन्हें आगे की कोई चिंता नहीं है। क्या मजिस्ट्रेट और बाकी एजेेसियां विधायकों और सांसदों के भविष्य को अपनी कलम से तय करेंगी कि कितना लोकतंत्र बचेगा? चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर याचिका कोई लगाता है तो सीधे हाई कोर्ट में ट्रायल होता है। वहां मामले को सिद्ध करना टेढ़ी खीर होती है। मजिस्ट्रेट की अदालत से तो देश में जाने कितने फैसले हो सकते हैं। इस ओर राजनेताओं का ध्यान क्यों नहीं जाता? जब सबसे लचर और कमजोर निजी परिवाद पत्र पर जबरिया सजा दे दी जाती है और सुप्रीम कोर्ट अगर आड़े नहीं आए तो राहुल गांधी जैसे कद्दावर नेता का राजनीतिक भविष्य संदिग्ध हो ही सकता था। अब देश में कितने तिकड़मी होंगे जो शासन विरोधियों को मजिस्ट्रेट के इजलास में फांसकर सजा दिला दें। आजाद भारत में कई परिवार हैं जहां एक सदस्य मजिस्ट्रेट, दूसरा राजनीतिक नेता, तीसरा व्यापारी और चौथा समाजसेवक या अन्य अधिकारी हो सकता है। मजिस्ट्रेट से कोई सजा दिलाए और किसी का राजनीतिक कैरियर चौपट कर दे। यह तो कई राजनीतिक किरदारों की कहानी बन सकती है। लोकतंत्र में मूल अधिकारों का इतना भयावह शोषण समझ से परे है।
-अपूर्व गर्ग
दोस्ती में प्यार, पवत्रिता, सत्यता तो ठीक दोस्ती में उमंग, जोश और मजे भी ज़रूरी हैं. जिस दोस्ती में ज़िंदा दिली हो, कटाक्ष हों, दोस्तों के बीच व्यंग्य हो वो दोस्ती दोस्तों के जाने के बाद भी यादगार बन जाती है, गुदगुदाती है और दोस्तों ही नहीं सबके जीवन में रंग -तरंग पैदा करती है.
इस लिहाज़ से मुझे साहित्यकारों की दोस्ती ने सबसे ज़्यादा रोमांचित किया और आकर्षित किया. आज फ्रेंडशिप डे पर रटे-रटाये मुहावरे, उद्धरण, कविताओं की जगह मुझे याद आते हैं साहित्यकार दोस्तों के आपसी संवाद जो हर बार गुदगुदा जाते हैं मुस्कान छोड़ जाते हैं.
आज मित्रता दिवस पर इन साहित्यकार दोस्तों से सीखिए सेंस ऑफ़ ह्यूमर क्या है ? दोस्ती में तीखे कटाक्ष-व्यंग्य से कैसे दोस्तों के गाल गुलाबी होते रहे.
दोस्तों अति गंभीरता, रूखापन ,अवसादी और बीमार चेहरे के साथ क्या दोस्ती करेंगे. दोस्ती में हंसी मज़ाक, खींचतान होनी चाहिए ये अच्छे विटामिन साबित होंगे ... दोस्ती में बुरा मानना छोड़िये ..
ज़रा इधर नज़रें तो इनायत करिये ..
रवींद्र कालिया लिखते हैं, काशीनाथ जी के मन में देशी वस्तुओं के प्रति इतना लगाव है कि वे आज तक दातौन का त्याग नहीं कर पाए .आज जब समधी समेत उनकी पीढ़ी के तमाम रचनाकार टूथ ब्रुश का इस्तेमाल करने लगे हैं, काशीजी की चाल है, वे मंद -मंद दातौन करते रहते हैं, जब वो चिंतन करते हैं तो दातौन थाम लेते हैं. रात जब तक सो नहीं जाते दातौन करते रहते हैं ....जिस तरह लोग बगल में चश्मा उतारकर सो जाते हैं, काशीनाथजी दातौन रख कर सो जाते हैं ...काशीनाथजी जब परेशान होते हैं दातौन करते हैं, खुश होते हैं तो दातौन करते हैं ...
काशीनाथ जी ने लिखा है ' किस्सा-कहानी में नामी- गिरामी ! शराफत की लत के मारे बेचारे, इसके बावजूद परम हरामी !इन हरामियों में सिरमौर रवींद्र कालिया. मेरा ख़्याल है वह यदि हरामीपन में उतर आये तो राजेंद्र यादव तो मान लीजिये वह शरीफ आदमी हो चले हैं, लेकिन कमलेश्वर जैसे 'चूड़ामणि ' भी उसके आगे पानी भरें ...'
कमलेश्वर राजेंद्र यादव के लिए लिखते हैं : " जब भी साथ बैठते तो राजेंद्र ही हमारी मज़ाकों का निशाना बन जाता. ये मात्र स्थिति जन्य घटनाएं होतीं. इनके पीछे कोई इतिहास नहीं होता था ..मात्र आदतों या सहज कुंठाओं के कोण होते. अब जैसे यही कि मन्नू से ही, मज़ाक मज़ाक में हमें ये मालूम हुआ था कि राजेंद्र अपनी हर चीज़ ताले में बंद रखने की आदत से ग्रस्त था .........पूस रोड वाले उस घर में राजेंद्र उसी तालाबंदी वाले दौर में आया था. सुबह उठा तो उसने अपने कुछ एक ताले खोलकर ब्रुश और पेस्ट निकाला. मैंने गायत्री को आवाज़ लगाई और एक छोटा ताला मंगवाकर राजेंद्र के ब्रुश वाले छेद में लगा दिया. राजेंद्र पहले तो किलकारी मारकर हंसा, फिर बोला - स्साला ....
राकेश भी खड़ा हंस रहा था. तू हर छेद में ताला डालने के लिए उतावला रहता है, तो यह छेद ही क्यों खाली रह जाए.. ''
राजेंद्र यादव 'मेरा हमदम, मेरा दोस्त कमलेश्वर' यानी अपने इस मिस्चीवियस यार के लिए लिखते हैं : "लेकिन कमलेश्वर शक्ल से बदमाश नहीं शैतान और इंटेलीजेंट लगता है. हो सकता है दुष्यंत ने कमलेश्वर को 'कैदियों' वाली उस पोशाक में देखकर ऐसा कहा हो जिसे वह गर्व से 'नाईट ड्रेस' कहता है या इलाहाबाद में अश्कजी के यहाँ उमेश की शादी पर उसे बाक़ायदा साबुन और ब्रश लेकर मेरी और राकेश की हज़ामत बनाते देख लिया हो. लेकिन मूलतः कमलेश्वर बदमाश नहीं, दुष्ट -यानी मिस्चीवियस अधिक है.
शीन काफ़ से दुरुस्त तलफ़्फ़ुज़, साफ़ और तराशी हुई संतुलित आवाज़, बात को निहायत प्रभावकारी तरीके से कहने की कला, पतले-पतले होंठ, तीखे और फोटोजनिक नक्श, सांवला रंग और शातिर आँखें ...लगता है जैसे आप सचमुच किसी समझदार आदमी से बात कर रहे हैं. एक हाथ की उँगलियाँ खोल -खोल कर मेज़ पर हाथ पटक-पटककर वह आपको घंटों किसी ऐसी किताब, फ़िल्म, घटना , कहानी या चीज़ के बारे में सविस्तार, पूर्ण-आत्मविश्वास से बताता रहेगा, जिसे न उसने पढ़ा है, न देखा है ....और न उसके बारे में उसे जानकारी है ....मुँह से जब झूठ बोलता है तो एक अच्छी कंपनी होता है और क़लम से बोलता है तो एक सफल कहानीकार.''
मोहन राकेश लिखते हैं : " एक एक्सक्लेमेशन मार्क उर्फ़ ...
राजेंद्र यादव !
न जाने क्यों जब भी ये नाम मेरे ज़हन में उभरता है , तो इसके आगे एक एक्सक्लेमेशन मार्क लगा होता है - जैसे कि बिना इस मार्क के इस नाम के हिज्जे ही पूरे न होते हों ........
मगर आदमी निहायत अन्प्रिडिक्टबल है . कब क्या कहेगा ,क्या कर बैठेगा , इसका कोई ठिकाना नहीं घर की सुख सुविधा हो ,तो आज आपको लिखने के लिए अज्ञातवास चाहिए ....और अज्ञातवास में आपको आपको कनॉटप्लेस ,चौरंगी सब कुछ चाहिए. आदमी इससे कुछ कहे उसके लिए ज़रूरी है उसके पुट्ठे काफ़ी मज़बूत हों. क्योंकि बातों से बस नहीं चलेगा, तो यह कमर में एक घूँसा जमा देगा. उसे आप झेल जाएँ, तो गर्दन पर सवार हो लेगा .आप इसे नीचे पटक दें, तो हाथ पर हाथ मारकर हँसेगा और पाजामे से धूल झाड़ता हुआ उठकर कहेगा, ''मार दिया ''! मार दिया साले को ! साहित्य में भी तेरी यही दुर्गति करने वाला हूँ. अभी से अपना और अपने साहित्य का बीमा करवा ले. नहीं तो साले दोनों को कोई रोने वाला नहीं मिलेगा ..''
मोहन राकेश ने लिखा है :-- " साहित्यिक जीवन में दोस्ती अक्सर दो -चार साल से ज़्यादा नहीं चलती .इस बीच एक दूसरे के काफ़ी ..... 'घटियापन ' के सबूत जमा हो जाते हैं .....हमारी दोस्ती -दुश्मनी जो भी है , लड़ते -झगड़ते हुई थी , उसी तरह चल रही है, और चलती रहेगी ....''
कृष्ण बलदेव वैद अपने सपने पर लिखते हैं 'निर्मल किसी की पीठ पीछे छिपा बैठा है. चंपा मुझे और दूसरे लोगों को कुछ दे रही है खाने के लिए . मैं उससे कहता हूँ , निर्मल को भी एक बिस्कुट दे दो , एक डॉग बिस्कुट . निर्मल लोटपोट होने लगता है तो मेरी नींद खुल जाती है .''
कथाकार बलवंत सिंह लिखते हैं वो अपने मित्र सुप्रसिद्ध लेखक राजेंद्र सिंह बेदी के घर रुके हुए हैं. बेदी का छोटा भाई अखबार पढ़ रहा है .श्रीमती बेदी रसोई में हैं .-''ठीक इसी अवसर पर बेदी कच्छा पहने दूसरे कमरे से निकलता है और ........हमारी नज़रें मिलती हैं तो दिल के तार बज उठते हैं .वो भेड़ की नक़ल करते हुए बड़ी लय के साथ 'बे ' की आवाज़ निकालता है और मैं तुरंत उत्तर में ' दे ' की ध्वनि उच्चारित करता हूँ. दोनों ओर से ये आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगता है ...... इसके बाद बेदी ढेंचू - ढेंचू की ध्वनि निकलने लगता हैं ओर प्रत्युत्तर में मैं मुँह से बिल्लियां लड़ाने लगता हूँ ...इस पर एक कोलाहल मच जाता है ओर बच्चे, गृहणी हँसी से लोट -पोट ..
मंटो -इस्मत के संवाद भी सुनिए ;
“मुझे अपने पैरों से घिन आती है.” मंटो ने कहा.
“क्यों? इतने खूबसूरत हैं.” इस्मत चुगताई ने बहस की.
“मंटो-मेरे पैर बिल्कुल जनाने हैं.”
“इस्मत चुगताई -मगर जनानियों से तो इतनी दिलचस्पी है आपकी.”
“मंटो--आप तो उल्टी बहस करती हैं, मैं औरत को मर्द की हैसियत से प्यार करता हूँ.
इसका मतलब ये तो नहीं कि खुद औरत बन जाऊँ.”
यादों की बारात का ही एक रोचक प्रसंग याद आया ...
एक बार ऐसा हुआ जोश मलीहाबादी शिमला गए हुए थे .जोश मलीहाबादी को पता चला नेहरूजी भी शिमला में हैं. उन्होंने फ़ोन किया सेक्रेटरी मुलाकात न करवा सकी। जोश मलीहाबादी ने अपने जोश के मुताबिक नेहरूजी को कड़ा पत्र लिखा. दूसरे दिन इंदिरा गाँधी का फ़ोन आया आप आइये मेरे साथ चाय पीजिये . जोश ने कहा ,-''बेटी वहां तुम्हारे बाप मौजूद होंगे, मैं उनसे मिलना नहीं चाहता .'' इंदिरा ने कहा -''मैं पिताजी को अपने कमरे में बुलाऊंगी ही नहीं''
जोश जब पहुंचे तो पंडित नेहरू पीछे से जोश पकड़कर सीधे अपने कमरे में ले गए और इसके बाद पंडित नेहरू जोश से जिस दोस्ती से मिले जोश नेहरूजी के गले लग कर रोने लगे.
मनीष सिंह
अवध में बगावत की चिंगारियां फूट रही थी।
मंगल पांडे बैरकपुर छावनी में अपने साथियों के साथ धर्म बचाने की कोशिश में लगे थे। लार्ड कैनिंग ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल बनकर भारत आ चुके थे। उन्हें आने वाले तूफान का कोई अंदाजा नहीं था। इस वक्त न्यूयार्क में सेंट्रल पार्क की सीमायें बांधी जा रही थी।
मैनहटन एक दलदली आइलैंड पर बसा है। चारो तरफ मनुष्य की बढ़ती आबादी के बीच, जंगल कटते जा रहे थे, न्यूयॉर्क सिटी काउंसिल ने 1857 में एक पार्क बनाना तय किया।
पार्क क्या कहें जंगल कह लें।
कोई 800 एकड़ का रकबा, जिसमे झीलें भी है। ढाई, तीन सौ साल पुराने पेड़ हैं। अगर आप नए है, तो इस जंगलनुमा पार्क में रास्ता भूल सकते है।
तो जब बगावत के झंझावात से निकलकर, हिंदुस्तान में ब्रिटिश ने अपनी डोलती सत्ता को दोबारा स्थिर किया। कम्पनी को हटाकर क्राउन ने सत्ता अपने हाथ मे ली, उस वर्ष, यानी 1858 में न्यूयार्क सेंट्रल पार्क, आम जनता के लिए खोल दिया गया।
ये पार्क आयत के आकार का है। एक पार से दूसरे पार जाना हो, तो पार्क से होकर पैदल जाइये। या फिर आयत की बाहरी सडक़ों से पूरा गोल घूमकर जाइये। कोई फ्लाईओवर नही है।
भीतर कोई चर्च भी नही है। कन्वेंशन सेंटर है, सामुदायिक भवन कह लें, जिसमे कुछ आयोजन समय समय पर किये जाते हैं।
और ये बहुत विशाल पार्क नहीं है। न्यूयार्क में साइज के लिहाज से पांचवें नंबर का पार्क है। याने चार पार्क इससे बड़े हैं, छोटो की गिनती कठिन है।
आपके आसपास कौन सा पार्क है, सोचिये। किस आकार का है। सबसे पुराना पेड़ कितना पुराना है। जब बना था, तब से आज तक कितनी जमीन घटी है। कब्जेदार कौन लोग है??
पुराने बाग, अमूमन कम्पनी गार्डन कहलाते हैं।
अब उनके नाम महात्मा गांधी, कमला नेहरू या दीनदयाल पार्क हो गए होंगे। नए कितने बने? पुराने कितने नष्ट हुए? जरा सोचें।
दरअसल अर्बन प्लानिंग के नाम पर, हमने पिछले 200 साल कुछ किया नही है। सौ साल पुराने पेड़ काटकर सेंट्रल विस्टा बनाने वाली कौम जब अपनी राजधानी को नहीं छोड़ती, छोटे शहरों की कौन कहे।
सांस रोकते फ्लाइओवरों तले, रेंगते हुए हमारे अर्बन क्लास को, फिलहाल 2000 किलोमीटर दूर बने किसी मंदिर और सैंकड़ों करोड़ के धार्मिक कॉरिडोर का नशा है।
पर उसके घर के बच्चे एक अदद पार्क और थोड़ी हरियाली के बीच बेसाख्ता दौडऩे के लिए, छुट्टियों में किसी टूरिस्ट प्लेस पर जाने की बाट जोहते है।
फिर जवान होने पर वीजा की लाइन लगाते हैं। ताकि उनके बच्चे..
किसी सेंट्रल पार्क में टहल सकें।
डॉ. आर.के. पालीवाल
राहुल गांधी की सजा पर रोक लगाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो टिप्पणियां की हैं वे न केवल देश के सभी न्यायालयों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं बल्कि लोकतंत्र के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस मामले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि मानहानि के मुकदमे में अधिकतम सजा सुनाते हुए न्यायालय को यह बताना चाहिए था कि वे इस मामले में अधिकतम सजा क्यों दे रहे हैं? निचली अदालत ने इस मामले में यह नहीं बताया है इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे उचित नहीं माना है। सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी का यह भी अर्थ निकलता है कि यदि किसी भी मामले में कोई न्यायालय किसी अभियुक्त को अधिकतम सजा देता है तो उसकी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उन कारणों का भी खुलासा करे जिनकी वजह से अमुक मामले में अधिकतम सजा देना उचित है।
अक्सर यह देखने में आता है कि जब किसी संगीन अपराध में कोई न्यायालय अधिकतम सजा फांसी सुनाता है तो वह उन कारणों पर भी प्रकाश डालता है जिनकी वजह से अधिकतम सजा दी जाती है। इसी तरह टैक्स चोरी आदि के मामलो मे भी संबंधित अधिकारी जब अधिकतम जुर्माना लगाते हैं तब अपने आदेश में उन कारणों को इंगित करते हैं जिनकी वजह से उन्हें अधिकतम जुर्माना लगाने के लिए उपयुक्त समझा जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह भी बताया है कि राहुल गांधी लोकसभा के सासंद हैं, इस नाते उनकी सजा व्यक्तिगत होने के साथ साथ उस लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं से भी जुड़ी है जिनका वह संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसा संभवत: सर्वोच्च न्यायालय ने इसलिए भी कहा है क्योंकि किसी सांसद की अयोग्यता घोषित होने का परिणाम उनके क्षेत्र के मतदाताओं पर भी पड़ता है इसलिए निचली अदालत को अधिकतम सजा सुनाते समय इस बात पर भी गौर करना चाहिए था। इस बात से कुछ लोग असहमत भी हो सकते हैं क्योंकि भविष्य में यह तर्क आपराधिक पृष्ठभूमि के सासंद अपने खिलाफ चल रहे हर अपराध के मामले में ले सकते हैं कि उन्हें अधिकतम सजा मिलने से उनके मतदाताओं को दिक्कत होगी।
सर्वोच्च न्यायालय के इस इस निर्णय पर राहुल गांधी के विरोधी अवश्य दुखी होंगे लेकिन कांग्रेस के नेताओं के लिए यह निर्णय जश्न की तरह है। प्रियंका वाड्रा से लेकर अशोक गहलोत और सचिन पायलट के उत्साह से भरे ट्वीट सोसल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं।अधिकांश निष्पक्ष लोगों की भी इस निर्णय पर सकारात्मक प्रतिक्रिया आ रही हैं क्योंकि जनता को देश के तमाम बड़े नेताओं की एक से एक हल्की बयानबाजी आए दिन सुनने को मिलती है फिर भी अव्वल तो भारतीय न्यायालयों के निर्णय में लम्बे विलंब के कारण कोई कोई ही मानहानि का मुकदमा दायर करता है, उसमें भी निर्णय आने में लम्बा समय लगता है। दूसरी तरफ राहुल गांधी पर जिस व्यक्ति ने मुकदमा दायर किया उसके खिलाफ राहुल गांधी ने कुछ आपत्तिजनक नहीं कहा था। ऐसे में निचली अदालत द्वारा बहुत जल्दी अधिकतम सजा सुनाए जाने पर लोगों को आश्चर्य हुआ था।
सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने राहुल गांधी की सजा पर रोक लगाते हुए उन्हें यह नसीहत भी दी है कि सार्वजनिक प्लेटफार्म पर बोलते हुए उन्हें भी अपने भाषण में संयम रखना चाहिए। एक तरह से सर्वोच्च न्यायालय की यह सलाह राहुल गांधी के साथ साथ सरकार, सत्ताधारी दल और विपक्षी दलों के तमाम नेताओं पर भी लागू होती है जिनकी जुबान कैंची की तरह बेलगाम दौड़ती है।
अभी यह कहना मुश्किल है कि ज्यादातर नेता सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी से अपनी भाषा और शब्दावली पर नियंत्रण रखेंगे या नहीं। जिस तरह से आगामी लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी दल और विपक्षी दल दो बड़े गठबंधनों के माध्यम से आरपार की लड़ाई लडऩे पर आमादा हैं उसमें भाषाई संयम के बांध टूटने की काफी संभावना है। बहरहाल इंडिया गठबंधन और उससे अधिक कांग्रेस के लिए यह निर्णय काफी राहत लेकर आया है।
ध्रुव गुप्त
‘यह फैसला एक चींटी को मारने के लिए हथोड़े का इस्तेमाल करने की तरह था
‘-कुलदीप नैयर
राहुल गाँधी का केस सामने है ।।कितना गंभीर है? अब ख़ुद सोचिये।
क्या ये सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे और सुप्रीम कोर्ट इस पर फैसला दे इतना गंभीर मामला था?
‘फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि वह जानना चाहता है कि इस मामले में अधिकतम सजा क्यों दी गई...’
‘जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस पीवी संजय कुमार की पीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने अपराध के तहत अधिकतम सजा देने के लिए विशेष कारण नहीं बताए हैं।’
जिस तरह आज राहुल गाँधी को अधिकतम सज़ा दी गयी याद आता है इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला ।
जज जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को फैसला देते हुए इंदिरा गाँधी के लोकसभा के चुनाव को रद्द किया
और उन्हें छह वर्ष के लिए किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित किया था ।
ये फैसला जज साहब ने 1971 के चुनाव में राजनारायण की याचिका पर फैसला सुनाया था।
इंदिरा गाँधी पर आरोप ये था कि उनके ‘ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी’ यशपाल कपूर ने चुनाव की रैली में माइक और
पंडाल इत्यादि लगवाने में भूमिका निभाई थी। यह बात कही गई थी कि 29 दिसंबर 1970 को इंदिरा गाँधी ने अपने आप को एक उम्मीदवार घोषित कर दिया था जबकि 7 जनवरी 1971 को उनके ‘ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी’ यशपाल कपूर कि प्रचार में भूमिका सामने आयी ।
क्या ये उस दौर में भी अधिकतम सजा नहीं थी ?
इंदिरा गाँधी के कटु आलोचक और देश के सुप्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर जो इमरजेंसी के चपेट में भी आये थे, उन्होंने लिखा था-‘चुनाव से जुड़ा कानून कितना ही सख्त क्यों न हो, मेरा अपना खयाल था कि यह फैसला एक चींटी को मारने के लिए हथोड़े का इस्तेमाल करने की तरह था ।’
इस फैसले के बाद इमरजेंसी आयी जो कभी नहीं आनी चाहिए थी । कांग्रेस खुद इसे भूल मानती है ।
आज राहुल गाँधी पर जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कह रहा इस मामले में अधिकतम सजा क्यों दी गई...
इसी तरह ये भी याद करिये कि इंदिरा गाँधी के ‘ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी’ माइक-पंडाल में भागीदारी के कारण।
क्या उन्हें भी राहुल की तरह अधिकतम सजा नहीं दी गई थी ?
नई पीढ़ी को इस फैसले को पढऩा चाहिए कि इंदिरा गाँधी को किस कारण, क्यों और कैसे अधिकतम सजा दी गई। सिर्फ पोता ही नहीं इतिहास में दादी भी अधिकतम सजा से गुजरी हैं।
पुष्य मित्र
कच्छ से पहला रिश्ता 2001 में बना जब वहां भूकंप आया था और भोपाल से कुछ युवाओं का समूह बस अपना शरीर लेकर लोगों की मदद करने चला गया। उस समूह में हम भी थे। संयोग ऐसा बना कि अहमदाबाद में एक ऐसी संस्था मिल गई जिसके पास बांटने के लिए बहुत सारा सामान था मगर लोग नहीं थे। फिर हम लोग एक दूसरे के पूरक बन गए।
वहां 15 दिन रहा। रोज शाम राहत सामग्रियों से लदे कई ट्रक खुलते थे और हर ट्रक पर दो स्वयंसेवक सवार होते थे। भीषण सर्द रात में ट्रक के ऊपर खुले में हम लोग पूरी रात सफर करते, जगह जगह ठहर कर ऊंटनी के दूध की चाय पीते हुए और पूरे दिन अलग अलग इलाकों में राहत बांटते और बाजरे की रोटी, छाछ, गुड़ और घी खाते। उन्हीं लोगों के घर जो भीषण भूकंप की वजह से बेघर हो गए थे।
वह सब एक बार फिर से याद आ गया अभिषेक श्रीवास्तव जी की किताब कच्छ कथा पढ़ते हुए। कच्छ की हमारी यात्रा 15 दिनों की थी आपदा के तत्काल बाद की। हम 29 या 30 जनवरी को वहां पहुंच गए थे, भूकंप 26 की सुबह आया था। हम जब भचाऊ शहर से होकर गुजरे थे तो पूरा शहर सपाट हो गया था और जगह जगह केरोसिन से लाशें जलाई जा रही थीं। और जब लौटे तो आपदा को लेकर लोगों में उमड़ी सहज सहृदयता राजनीति में और छल में बदल रही थी।
मगर अभिषेक भाई की यात्रा अलग दौर और अलग तरह की है। वे 2010 के बाद गए और कई दफा जाते रहे। मगर उनकी यात्रा किसी टाइम मशीन की तरह कच्छ के 5000 साल के इतिहास से होकर गुजरती रही। हमने कच्छ का मालवा देखा था और देखे थे वहां के जिंदा लोग जो अक्सर जरूरी न होने पर राहत लेने से भी इंकार कर देते थे। मगर उन्होंने कच्छ की खुदाई की, उसका एक्स रे किया। और यह समझ पैदा की कि अरब सागर से सटा यह रेतीला इलाका आज भले गुजरात राज्य का हिस्सा है, मगर इसकी बनावट गुजरात से बिल्कुल अलग है। इस पर अगर कोई असर है तो वो है सिंध का।
हड़प्पा काल के शहर धौलवीरा से लेकर नई बसी बस्ती गांधी धाम तक वे गुजरात के इस सबसे बड़े इलाके को अलग अलग जगह से टटोलते हैं और पाते हैं कि इस धरती की बुनियाद में एक मजहब का रिश्ता दूसरे से कितना गुंथा हुआ है। वह धरती जो बहुत पहले एक भूकंप की वजह से बनी, जिसका रिश्ता देश के भीतरी इलाकों से कम, बाहरी दुनिया से अधिक रहा। जहां नमक भी है और वीराना भी। जहां गोरखधाम के कनफटे साधुओं का एक पुराना मठ भी है। जहां शीशे की कलाकारी के शिल्पकार भी हैं। जो धरती पीर फकीरों की है और उसूल वाले राजाओं की भी।
यह किताब एक तरह से कच्छ नामक इलाके की बुनियाद को समझने की कोशिश करती है, जिसे अभिषेक भाई ने अपने फक्कड़ अंदाज में लिखा है। ऐसा नहीं है कि आप पढऩा शुरू करेंगे और लिखे हुए शब्द आपको पकड़ लेंगे, आप पर जादू करने लगेंगे। आपको इस किताब में खुद डूबना पड़ेगा। धैर्य के साथ शुरुआती पन्ने पढऩे होंगे। फिर धीरे धीरे किताब आपको जमने लगेगी।
इस किताब में कोई सिलसिला नहीं है, न ही कोई बना बनाया फॉर्मेट। यह बस एक मनमौजी किताब है। हां, अगर आप इतिहास, भूगोल और वृतांत के शौकीन हैं और बातचीत और रेफरेंस के जरिए कच्छ की आत्मा का पता ढूंढना चाहते हैं तो उतर सकते हैं इस किताब में। इसमें जितनी यात्राएं हैं, उतना ही शोध भी है।
रमेश अनुपम
मणिपुर, नूंह, गुरुग्राम और मुंबई जयपुर सुपर फ़ास्ट ट्रेन तक में भी नफरत की हवा बह रही हो, लाशें बिछ रही हों, तब भी क्या हमारे होंठ सिले रहेंगे और हमारे होंठों पर खामोशी की एक पट्टी बंधी रहेगी?
जैसे हमें अपने इस देश से कोई मतलब ही नहीं?
क्या हम ऐसा ही भारत बनाना चाहते हैं जहां केवल नफरत और हिंसा के लिए जगह हो?
क्या हम ऐसे कठिन और भयावह दौर में भी फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर अपने बासी गाने, कविता और बासी विचार ही परोसते रहेंगे और अपनी ही पीठ थपथपा कर गदगदायमान होते रहेंगे?
क्या देश के युवाओं के लिए किसी बजरंग दल के मोनू मनेसर को या किसी आर.पी.एफ. के कांस्टेबल चेतन सिंह को जो सिर से पांव तक सांप्रदायिकता और नफरत से भरा हुआ हो को कब तक नायक बनाते रहेंगे ? जैसे विनायक दामोदर सावरकर और नाथूराम गोडसे को हम बनाने में लगे हैं?
हरियाणा के नूंह में बीते सोमवार 31 जुलाई को ब्रज मंडल यात्रा के नाम पर बजरंग दल के लोगों ने जो यात्रा निकाली और इससे पहले मोनू मनेसर ने अपना एक वीडियो वायरल कर यह घोषणा की कि वे इस यात्रा में दल बल सहित शामिल हो रहे हैं।
ये मेवात बजरंग दल के वही मोनू मनेसर हैं जिन पर फरवरी 2023 में भरतपुर के दो मुस्लिम नवयुवकों नासिर और जुनैद को जिंदा जला दिए जाने का दोषी माना गया था और पुलिस को जिसकी तब से तलाश थी।
ऐसे अपराधी द्वारा वीडियो वायरल किए जाने के बाद भी प्रशासन नूंह में निकलने वाली ब्रज मंडल यात्रा को लेकर कतई गंभीर नहीं था, अगर ऐसा होता तो दो पुलिस कर्मियों सहित चार और लोगों की जाने नहीं जाती। पर मामला यहीं खत्म नहीं हुआ इस आग की लपटें 1 अगस्त को गुरुग्राम तक पहुंच गई। दंगाइयों ने रात में गुरुग्राम के मस्जिद पर धावा बोल दिया और 22 वर्षीय युवा मौलाना हाफिज साद की हत्या कर दी।
मौलाना हाफिज साद का एक वीडियो मैंने देखा है जिसमें वे हिंदू मुस्लिम एकता का स्वप्न देखते हुए बेहद सुरीली आवाज में एक गीत गा रहे हैं-
‘हिंदू मुस्लिम बैठ के खाए थाली में
ऐसा हिंदुस्तान बना दे या अल्लाह’
मौलाना हाफिज साद के इस हिंदुस्तान के स्थान पर जो हिंदुस्तान हम बनाने में लगे हैं वह हिंदुस्तान खून, चीखों और आंसुओं से भरा हुआ हिंदुस्तान होगा।
इस देश के सर्वोच्च न्यायालय और माननीय सीजेआई. डी.वाई.चंद्रचूडज़ी का आभारी होना चाहिए जिसके चलते इस देश की 140 करोड़ जनता के मन में न्याय की आस जगी है। मणिपुर, नूंह और अब कश्मीर में हटाए गए 370 मुद्दे को भी सर्वोच्च न्यायालय ने गंभीरता से लिया है, जिसके चलते 2 अगस्त से इसकी सुनवाई भी शुरू हो गई है।
आजादी के 75 वर्षों की यात्रा करने वाले इस महादेश में जहां अभी हाल ही में धूमधाम से अमृत महोत्सव मनाया गया है। उस देश में हिंसा और नफरत की रोटी सेंकने वालों की राजनीति पर चुप्पी साध लेना क्या रेत में शुतुरमुर्ग की तरह अपना मुंह छुपा लेना नहीं है
लेकिन यह सब लिखकर मैं किसी भी कीमत में देश के गैर भाजपाई दलों को बख्शना नहीं चाहता।
छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड और पश्चिम बंगाल में गैर भाजपाई सरकारों के पास क्या सांप्रदायिकता से लडऩे का कोई दीर्घकालीन एजेंडा है?
क्या स्कूल, कॉलेज के किशोरों और नौजवानों के लिए कि वे सांप्रदायिक शक्तियों के मंसूबों को समझ सकें, अपने देश की महान विरासत को जान सकें, 1857 की क्रांति को, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहब पेशवा के बलिदान और देश के स्वाधीनता आंदोलन के बारे में भी उन्हें ज्ञान हो, भगत सिंह, महात्मा गांधी, पं.जवाहर लाल नेहरू के अवदान को वे जान सकें, इसके लिए उनके पास क्या कोई ठोस कार्यक्रम भी है? या बेरोजगारों के खाते में पैसा डालना ही उनका एकमात्र अभीष्ट है ?
हम लोगों ने स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी सबको साम्प्रदायिक ताकतों के हवाले कर दिया है, जबकि गैर भाजपाई राजनैतिक दलों को जहां-जहां उनकी सरकार है, इन शिक्षा संस्थानों को गंभीरता से लेना चाहिए था। एक सांस्कृतिक मुहिम को बढ़ावा देना चाहिए था।
रामधारी सिंह दिनकर की इन पंक्तियों को बार-बार याद रखे जाने की भी जरूरत है-
‘जो तटस्थ है समय लिखेगा उनके भी अपराध’
जो चुप हैं, जो इस कठिन दौर में भी अपने घोंसलों में दुबके हुए हैं उनके लिए क्या कहा जाए पर अब समय आ गया है देश के सचेत बुद्धिजीवियों को, गैर भाजपाई राजनैतिक दलों को अब नए सिरे से सोचने और देश हित में नए कार्यक्रमों की योजना पर ध्यान देने की जरूरत है, खासकर नौजवानों के विषय में विचार किए जाने की जिन्हें न देश और दुनिया के इतिहास का ज्ञान है और न ही अपने स्वाधीनता आंदोलन का।
क्या छत्तीसगढ़ में आसीन कांग्रेस सरकार इस दिशा में भी कोई सार्थक कदम उठाएगी ?