विचार/लेख
टोक्यो की एक निजी कंपनी आईस्पेस द्वारा हुकाटो-आर मिशन (एम-1) नामक पहला व्यावसायिक ल्यूनर मिशन 11 दिसंबर 2022 को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल से स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया था। 21 मार्च को इसने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। 25 अप्रैल को इसके लैंडर को चंद्रमा की सतह पर उतरना था, लेकिन कुछ तकनीकी समस्या के कारण यह मिशन विफल हो गया। चंद्रमा की सतह से लगभग 90 मीटर ऊपर लैंडर से पृथ्वी का संपर्क टूट गया और नियोजित लैंडिंग के बाद दोबारा संचार स्थापित नहीं हो पाया। संभावना है कि एम-1 लैंडर उतरते वक्त क्रैश हो गया। फिलहाल पूरे घटनाक्रम की जांच जारी है।
गौरतलब है कि 2.3 मीटर लंबा लैंडर सतह पर उतरने के अंतिम चरण में खड़ी स्थिति में था लेकिन इसमें ईंधन काफी कम बचा था। लैंडर से प्राप्त आखिरी सूचना से पता चलता है कि चंद्रमा की सतह की ओर बढ़ते हुए यान की रफ्तार बढ़ गई थी। किसी भी लैंडर के लिए यह एक सामान्य प्रक्रिया है जिसमें लंबवत रूप से उतरते समय इंजन चालू रखे जाते हैं ताकि वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सतह से तेज़ रफ्तार से न टकराए।
आईस्पेस टीम के प्रमुख टेक्नॉलॉजी अधिकारी रयो उजी बताते हैं कि सतह पर उतरने के अंतिम चरण में ऊंचाईमापी उपकरण ने शून्य ऊंचाई का संकेत दिया था यानी उसके हिसाब से लैंडर चांद की धरती पर पहुंच चुका था। जबकि यान सतह से काफी ऊपर था। ऐसी भी संभावना है कि लैंडर के नीचे उतरते हुए यान का ईंधन खत्म हो गया और गति में वृद्धि होती गई। टीम अभी भी यह जानने का प्रयास कर रही है कि अनुमानित और वास्तविक ऊंचाई के बीच अंतर के क्या कारण हो सकते हैं। इस तरह के यानों में विशेष सेंसर लगाए जाते हैं जो लैंडर और सतह के बीच की दूरी को मापते हैं और उसी हिसाब से लैंडर नीचे उतरता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इन सेंसरों में कोई गड़बड़ी हुई या सॉफ्टवेयर में कोई समस्या थी।
लैंडर के क्रैश होने के कारण उस पर भेजे गए कई उपकरण भी नष्ट हो गए हैं। जैसे संयुक्त अरब अमीरात का 50 सेंटीमीटर लंबा राशिद रोवर जिसका उद्देश्य चंद्रमा की मिट्टी के कणों का अध्ययन और सतह के भूगर्भीय गुणों की जांच करना था; जापानी अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा विकसित एक दो-पहिया रोबोट; और कनाडा की कनाडेन्सिस एयरोस्पेस द्वारा निर्मित एक मल्टी-कैमरा सिस्टम।
मिशन की विफलता के जो भी कारण रहे हों लेकिन यह साफ है कि चंद्रमा पर सफलतापूर्वक लैंडिंग काफी चुनौतीपूर्ण है। फिर भी इस लैंडिंग प्रक्रिया के दौरान प्राप्त डैटा से उम्मीद है कि आईस्पेस के भावी चंद्रमा मिशन के लिए टीम को बेहतर तैयारी का मौका मिलेगा।
(स्रोत फीचर्स)
वंदना
क्या आज की तारीख़ में सिनेमा समाज में प्रोपेगैंडा का एक हथियार बन गया है? हाल ही में आई फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के रिलीज़ होने के बाद ये बहस दोबारा छिड़ गई है, इससे पहले ऐसा कश्मीर फाइल्स के रिलीज के समय हुआ था।
हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी जब कर्नाटक में चुनाव प्रचार कर रहे थे तो उनका ये बयान खूब वायरल हुआ।
उन्होंने कहा, ‘कहते हैं कि केरला स्टोरी सिर्फ एक राज्य में हुई आतंकवादियों की छद्म नीति पर आधारित है। देश का एक राज्य जहाँ के लोग इतने परिश्रमी और प्रतिभाशाली होते हैं, उस केरल में चल रही आतंकी साजिश का खुलासा इस ‘द केरला स्टोरी’ फिल्म में किया गया है।’
विपक्ष के कई नेताओं का कहना था कि ‘इस्लाम-विरोधी प्रचार’ कुछ फिल्मों का मुख्य नैरेटिव बन गया है जिसका ‘राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश’ सत्ताधारी पार्टी कर रही है।
पश्चिम बंगाल ने फिल्म पर बैन लगा दिया है और ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। कुछ राज्यों ने इसे अपने यहां टैक्स फ्री करने का भी एलान किया है। कुछ जगहों पर फिल्म की स्क्रीनिंग राजनेताओं के लिए भी की गई है।
फिल्मों के प्रोपेगैंडा का हथियार बनने के आरोप पर प्रोफेसर इरा भास्कर कहती हैं, ‘अब कई फि़ल्में सिफऱ् बहुसंख्यकों की बात करती हैं। केरला स्टोरी मैंने देखी नहीं है लेकिन जितना उसके बारे में पढ़ा यही लगता है कि वो इस्लाम के खिलाफ खौफ पैदा करने के लिए बनी है।’
वे कहती हैं, ‘कश्मीर पर पहले भी फिल्में बनी हैं-‘मिशन कश्मीर’, लम्हा जिसमें भारत, पाकिस्तान सबकी आलोचना है।’
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सिनेमा के बारे में पढ़ाने वाली प्रोफेसर भास्कर कहती हैं, ‘ये वो फिल्में थीं जो सत्ता के खिलाफ आवाज उठाती थीं लेकिन वो फिल्में इस्लामोफोबिक फिल्में नहीं हैं।’
‘वो दिखाती थीं कि जो कुछ भी हो रहा है वो सही नहीं है, न हिंदुओं के साथ, न मुसलमानों के साथ, लेकिन आज के राजनीतिक हालात में सिनेमा को प्रोपेगैंडा का हथियार बना लिया गया है। इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश हो रही है, चाहे किताबें हों या फिल्में।’
वहीं ‘द केरला स्टोरी’ के निर्माता विपुल शाह प्रोपेगैंडा के आरोप पर फिल्म के आँकड़ों और प्रधानमंत्री मोदी को अपनी ढाल बनाते हुए कहते हैं, ‘जवाब लोगों ने दे दिया है । शुक्रवार के मुकाबले सोमवार को फिल्म ने और भी ज्यादा कमाई की है।’
निर्माता विपुल शाह कहते हैं, ‘हमारी फिल्म किसी भी समुदाय के खिलाफ नहीं है। हमारी फिल्म आतंकवाद के खिलाफ है।’
विपुल शाह सवाल उठाने वालों पर आरोप लगाते हैं, ‘ये सवाल बार-बार पूछकर आप भडक़ा रहे हैं। हम शुक्रगुजार हैं जेपी नड्डा ने हमारी फिल्म देखी और तारीफ की।’
‘ये कहना बेवकूफी वाली बात होगी, कि चूंकि उन्होंने फिल्म देखी है इससे साबित होता है कि हम बीजेपी के प्रोपेगैंडा वाली फि़ल्म बना रहे हैं।’
क्या कोई नई बात है?
प्रोपेगैंडा की बहस को समझने के लिए अतीत में झाँकना ज़रूरी है। किस्सा 1975 के आस-पास का है जब भारत में इमरजेंसी का दौर था। ये वो वक़्त भी था जब अभिनेता मनोज कुमार अपनी ख़ास तरह की फि़ल्मों की वजह से ‘भारत कुमार’ के तौर पर पहचान बना चुके थे।
मनोज कुमार इंदिरा गांधी के लिए ‘नया भारत’ नाम की फिल्म बना रहे थे लेकिन फिर इमरजेंसी को लेकर आलोचना बहुत बढ़ गई और मनोज कुमार ने फिल्म बनाने से इंकार कर दिया।
इसके बाद मनोज कुमार की आने वाली फिल्म ‘शोर’ रिलीज से पहले ही दूरदर्शन पर दिखा दी गई जिससे थिएटर में रिलीज होने पर फिल्म के कारोबार पर बुरा असर पड़ा। इतना ही नहीं, उनकी एक और फिल्म ‘दस नंबरी’ के रिलीज में भी दिक्कत हुई।
अगर इमरजेंसी के दौर में इंदिरा गांधी की पसंद की फिल्म बनी होती तो वो प्रोपगैंडा फिल्म होती या नहीं, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है।
सिनेमा बना राजनीति की ढाल?
अभी तो बहस इस बात पर छिड़ी है कि क्या राजनेता ‘द केरला स्टोरी’, ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों का इस्तेमाल प्रोपेगैंडा के लिए करते हैं या ये कि कई फिल्मकार जान-बूझकर प्रोपगैंडा वाली फिल्में बनाते हैं, प्रोपेगैंडा वाली बहस के बीच ‘द कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज के वक्त लेखक राहुल पंडिता ने बीबीसी से बात की थी।
उनका कहना था, ‘कश्मीर फाइल्स फिल्म को इतनी जोरदार सफलता मिली क्योंकि कश्मीरी पंडितों को लगता रहा है कि उनकी कहानी को हमेशा दबाया गया है।’ अगर मैं इस शब्द का इस्तेमाल कर सकूँ तो मैं कहना चाहूँगा कि फिल्म(द कश्मीर फाइल्स) के जरिए कश्मीरी पंडित भावनात्मक मंथन से गुजर रहे हैं।
राहुल ने कहा, ‘मेरी किताब को छपे 10 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी मेरे पास रोज लोगों के ईमेल आते हैं कि उन्हें इस त्रासदी के स्तर का अंदाजा ही नहीं था।’
कश्मीर पर दो चर्चित किताबें लिख चुके अशोक कुमार पांडेय का कहना है, ‘कश्मीरी पंडितों की तकलीफ़ से कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन कश्मीर फ़ाइल्स एक इकहरी फि़ल्म थी जिसमें यह बात पूरी तरह से गोल कर दी गई कि घाटी के मुसलमान भी आतंकवाद से प्रभावित हुए थे।’
‘दरअसल, आतंकवाद के दौर में घाटी में मारे गए कुल लोगों में अधिक तादाद मुसलमानों की थी लेकिन फिल्म का मक़सद कश्मीर के दर्द को दिखाना कम, और हिंदुओं के पीडि़त होने की भावना को उभारना अधिक था।’
‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म में सभी मुसलमानों को खलनायक की तरह पेश किया गया था जबकि सच्चाई यह है कि ढेरों पंडितों को उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने ही बचाया था।
बहरहाल, सत्ता पक्ष से जुड़े अनेक लोगों ने जिनमें प्रधानमंत्री भी शामिल थे, ‘कश्मीर फाइल्स’ को पूरी तरह सच्ची घटना पर आधारित बताया था।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी फिल्म के कलाकारों को बधाई दी थी।
यह भी दिलचस्प है कि जैसे इस वक्त ‘द केरला स्टोरी’ को कई भाजपा शासित राज्यों ने टैक्स-फ्री कर दिया है। उसी तरह कश्मीर फाइल्स को भी हरियाणा, गुजरात, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में टैक्स से मुक्त कर दिया गया था।
प्रोफ़ेसर इरा भास्कर कहती हैं कि नेहरू और दूसरी पार्टियों के शासनकाल में भी विचारधारा से जुड़ी फि़ल्में बनी हैं लेकिन वो क्रिटिकल फिल्में कही जा सकती हैं।
मसलन, कुछ साल पहले जब मनोज कुमार सेहतमंद थे तो उन्होंने बीबीसी से खास बातचीत की थी। उन्होंने बताया था कि ‘उपकार’ फिल्म की प्रेरणा उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से मिली थी।
लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री आवास पर निमंत्रित करके कहा था कि क्या वो ‘जय जवान-जय किसान’ की अवधारणा के इर्द-गिर्द फिल्म बना सकते हैं।
1950 और 60 का दौर नेहरू का था जब देश में उनका कद बहुत ऊँचा था और उनकी नीतियों और आदर्शों की छाप राज कपूर या दिलीप कुमार और दूसरों की फिल्मों पर देखी जा सकती थी।
वहीं जब फिल्म जागृति (1954) में स्कूल का टीचर बच्चों को ‘हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के’ सुनाता है तो बीच गाने में कैमरा नेहरू की फोटो पर ज़ूम होता है और बोल हैं, ‘देखो कहीं बर्बाद न होवे ये बगीचा।’
हम हिंदुस्तानी (1960) में सुनील दत्त पर फिल्माया गाना ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’। इस गाने में भी आप नेहरू को किसी सम्मेलन में देख सकते हैं जो कांग्रेस का अधिवेशन लगता है।
सॉफ्ट प्रोपेगैंडा बनाम उग्र प्रचार?
तो सवाल उठता है कि क्या ये आदर्शों से प्रभावित फि़ल्में थीं या ये भी एक तरह का सॉफ्ट प्रोपेगैंडा था और अब ‘द केरला स्टोरी’ में जो हो रहा है वो उसी का बड़ा और उग्र रूप है?
इरा भास्कर अपनी बात कुछ यूँ रखती हैं, ‘पहले की फि़ल्में किसी समुदाय के खिलाफ नहीं होती थीं, वो विकास से जुड़ी हुई या समुदायों को जोडऩे वाली फिल्में थीं। दिलीप कुमार की ‘नया दौर’ ऐसी ही फिल्म थी जिसमें विकास की बात थी।’
मेघनाद देसाई ने तो इस पर एक किताब भी लिखी है नेहरूज हीरो-दिलीप कुमार इन द लाइफ ऑफ इंडिया।
वो लिखते हैं, ‘दिलीप कुमार की ‘नया दौर’ नेहरूवियन फिल्म थी। फिल्म दिखाती है कि लोगों में देश को लेकर एक तरह का गौरव का भाव था, जब वो गाते हैं, ‘ये देश है वीर जवानों का’। इसमें जैसे तांगे और मोटर गाड़ी का टकराव है, वो नेहरू के दौर में आधुनिकीकरण और गांधी की सोच को दर्शाता है।’
आज के दौर की बात करें तो जब 2022 में विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ रिलीज हुई जिसने समाज को दो फाड़ कर दिया।
कश्मीर फाइल्स एक यूनिवर्सिटी छात्र की काल्पनिक कहानी है जिसे पता चलता है कि उसके कश्मीरी हिंदू माता-पिता की हत्या इस्लामिक चरमपंथियों ने की थी।
मोदी के भाषण में केरला स्टोरी का जिक्र क्यों?
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में फि़ल्म का जिक्र करते हुए कहा था, ‘कश्मीर फाइल्स में जो दिखाया गया है उस सत्य को सालों तक दबाने का प्रयास किया गया। कुछ लोग फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बात करते हैं। आपने देखा होगा, इमरजेंसी इतनी बड़ी घटना, कोई फिल्म नहीं बना पाया।’
‘कई सत्य को दबाने का लगातार प्रयास किया गया। जब हमने भारत विभाजन के दिन 14 अगस्त को हॉरर डे के रूप में याद करने का फैसला लिया तो कई लोगों को बड़ी मुसीबत हो गई। कैसे भूल सकता है देश। क्या भारत विभाजन पर कोई ऑथेंटिक फिल्म बनी?’
इससे पहले विवेक अग्निहोत्री द ‘ताशकंद फाइल्स’ की भी इस बात की आलोचना हुई थी कि उसमें अफवाहों को तथ्य के तौर पर दिखाया गया जिसके बाद शास्त्री के पोते ने कानूनी नोटिस भेजा।
सवाल ये भी उठ रहा है कि एक प्रधानमंत्री का बार-बार यूँ विवादित फिल्मों का उल्लेख करना कहाँ तक सही है।
‘द केरला स्टोरी’ के ट्रेलर को लेकर ही विवाद हो गया था जब ये दिखाया गया था, ‘केरल की 32 हजार महिलाएँ जिहाद में शामिल हो गई हैं।’
जब अदालत ने फिल्म के निर्माता से पूछा कि 32 हजार का आँकड़ा कहाँ से आया, तो वो जिसे अब तक ‘तथ्य’ बता रहे थे, उसका जिक्र ट्रेलर से हटाने को राज़ी हो गए।
फिल्म क्रिटिक अर्नब बनर्जी कहते हैं, ‘इन फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों का दावा है कि ये फिल्में सत्य घटनाओं पर आधारित हैं, लेकिन ये घटनाएँ ज़्यादा पहले की नहीं हैं इसलिए कई बातें लोगों की जानकारी में हैं जिसकी पुष्टि वो खुद कर सकते हैं।’
वे कहते हैं, ‘कोई भी ये समझ सकता है कि फिल्ममेकर्स का मकसद आम आदमी को उकसाकर, उसका राजनीतिक फायदा उठाना है। इसमें दिए गए तथ्य आधे-अधूरे हैं और विषय-वस्तु को जान-बूझकर भगवा रंग देने की कोशिश की गई है।’
‘मुसलमानों को खलनायक या समाज में बुराई की एकमात्र जड़ के रूप में दिखाया गया है।’
रौनक कोटेचा दुबई में फिल्म समीक्षक हैं जहाँ केरल समुदाय भी बसा हुआ है। वे कहते हैं, ‘यहाँ बसे भारतीयों का मकसद सिर्फ रोजी-रोटी कमाना और शांति से रहना है।’ ‘इसलिए। ज़्यादातर लोग यहाँ पर इन सब बातों पर चुप ही रहते हैं। यहाँ के मीडिया में भी आपको ‘द केरला स्टोरी’ पर ज़्यादा कुछ सुनाई नहीं देगा।’
सिनेमा और राजनीति का उलझा रिश्ता
वैसे सिनेमा और राजनीति का उलझा हुआ नाता रहा है। जहाँ कुछ फिल्मों को राजनीतिक प्रोपेगैंडा के हथियार बनाने का आरोप लगा तो कुछ फि़ल्मों ने सत्ता को चुनौती दी।
जब फि़ल्म 'किस्सा कुर्सी का' आई तो संजय गांधी पर आरोप था कि इमरजेंसी के दौरान 1975 में बनी फि़ल्म के प्रिंट उनके कहने पर जला दिए गए थे।
इमरजेंसी के बाद बने शाह कमीशन ने संजय गांधी को इस मामले में दोषी पाया था और कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया हालांकि बाद में फ़ैसला पलट दिया गया ।
फि़ल्म में संजय गांधी और उनके कई करीबियों का मज़ाक बनाया गया था। शबाना आज़मी गूँगी जनता का प्रतीक थी, उत्पल दत्त एक बाबा के रोल में थे और मनोहर सिंह एक राजनेता के रोल में थे जो एक जादुई दवा पीने के बाद अजब-गज़़ब फ़ैसले लेने लगते हैं।
इसी तरह 1978 में आईएस जौहर की फिल्म ‘नसबंदी’ भी संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का मज़ाक उड़ाती थी जिसमें उस दौर के बड़े सितारों के डुप्लिकेट ने काम किया था। फिल्म में दिखाया गया कि किस तरह से नसबंदी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पकड़ा गया।
फिल्म का एक गाना था ‘गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार’ जिसके बोल कुछ यूँ थे, ‘कितने ही निर्दोष यहाँ मीसा के अंदर बंद हुए/अपनी सत्ता रखने को जो छीने जनता के अधिकार/गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार’
इसे इत्तेफाक कहिए या सोचा-समझा क़दम कि ये गाना किशोर कुमार ने गाया था। दरअसल, इमरजेंसी के दौरान किशोर कुमार उस वकत बहुत नाराज हो गए थे जब उन्हें कांग्रेस की रैली में गाने के लिए कहा गया।
प्रीतिश नंदी के साथ छपे एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं किसी के आदेश पर नहीं गाता।’
जब इमरजेंसी के दौरान कलाकारों ने उठाई आवाज
किशोर कुमार और देव आनंद ने जिस तरह इमरजेंसी का विरोध किया इसके किस्से तो जगज़ाहिर हैं।
देव आनंद तो इतने नाराज थे कि उन्होंने नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया नाम की राजनीतिक पार्टी तक बनाई थी। शिवाजी पार्क में इसका बड़ा जलसा भी हुआ।
मैं समझ गया था कि मैं उन लोगों के निशाने पर हूँ, जो संजय गांधी के करीब हैं।
सिनेमा, कांग्रेस, भाजपा, लेफ्ट, प्रोपेगैंडा ।।ये तार उलझे हुए लगते हैं लेकिन इसमें कई अपवाद भी रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी अपने सिनेमा प्रेम के लिए जाने जाते रहे हैं। फिल्म ‘कोई मिल गया’ की खास स्क्रीनिंग राकेश रोशन ने वाजपेयी के लिए रखी थी लेकिन उस वक्त कोई विवाद नहीं हुआ था।
इतना ही नहीं, आमिर खान ने अपनी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ (2007) की ख़ास स्क्रीनिंग लालकृष्ण आडवाणी के लिए रखी थी जिसके बाद ये सुर्खी मशहूर हुई थी कि फिल्म ने फिल्म क्रिटिक रहे आडवाणी को रुला दिया था।
जबकि इससे पहले 2006 में नर्मदा बचाओ आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण आमिर संघ परिवार के निशाने पर थे और आमिर की फिल्म ‘फना’ गुजरात में बैन भी कर दी गई थी।
प्रोपैगैंडा बनाम मनोरंजन
पिछले कई सालों से भारत में ऐसी फि़ल्में बन रही हैं जो देश में लोकप्रिय मुद्दों और सरकार की नीतियों के अनुरूप कहानियाँ चुन रही हैं।
स्वच्छ भारत को देखते हुए ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’ और उद्यम को बढ़ावा देने की सरकार की नीति को ध्यान में रखकर बनी ‘सुई-धागा’ सरकारी योजनाओं के प्रचार पर आधारित लगती हैं।
देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दौर में ऐसी ऐतिहासिक फि़ल्मों की बाढ़ आ गई है जिनमें हिंदू सेनानियों की वीरता और ‘मुसलमान आक्रांताओं’ की क्रूरता को दिखाया जा रहा है, जैसा कि फिल्म क्रिटिक अर्नब बनर्जी ने भी कहा। तानाजी, पृथ्वीराज, पद्मावत, पानीपत और बाजीराव मस्तानी वगैरह ऐसी फिल्में हैं।
धर्म, समुदाय, दंगों और जातीय हिंसा को लेकर भी फिल्में बनती रही हैं। पंजाब के हालात को लेकर 90 के दशक में गुलजार ने ‘माचिस’ बनाई। राहुल ढोलकिया की ‘परज़ानिया’ आई।(बाकी पेज 5 पर)
पंजाब में दंगों पर ‘पंजाब 1984’ आई। बँटवारे से पहले हुई धार्मिक हिंसा पर ‘तमस’ जैसी टेलीफि़ल्म बनी। ‘गर्म हवा’ में बँटवारे के बाद का दर्द दिखाया गया। 1959 में जब यश चोपड़ा ने अपनी पहली फिल्म निर्देशित की तो एक ऐसे मुसलमान व्यक्ति पर बनाई जो एक नाजायज हिंदू बच्चे को गोद लेता है और दो साल बाद ही वो ‘धर्मपुत्र’ बनाते हैं जो बँटवारे के बाद एक हिंदू युवक, उसकी धार्मिक कट्टरता और बदलाव की कहानी है।
इन पर प्रोपेगैंडा के आरोप नहीं लगे, लेकिन आज के बँटे हुए समाज में ये अंतर धूमिल-सा होता दिखता है कि किस फिल्म में समाज की सच्चाईयों को दिखाने की कोशिश की गई है, कहाँ केवल कोरा प्रोपेगैंडा है।
जैसा कि कश्मीर फाइल्स से जुड़ी एक बातचीत में डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सिद्धार्थ काक ने कहा था, ‘कश्मीर फ़ाइल्स को लेकर कहा गया कि यही सच है। लेकिन कश्मीरी पंडितों की कहानी आप तब तक नहीं बता सकते जब तक आप पिछले 30 सालों के कश्मीर की कहानी न बताई जाए।’
‘शायद यही वजह है कि फिल्मों में इनकी कहानी पहले नहीं दिखाई गई क्योंकि इन जटिल मुद्दों को जिस तरह परत-दर-परत दिखाने की जरूरत है, उसे कहने का शायद स्पेस ही नहीं है।’
अंत में जिक्र मनोज कुमार का, उन्होंने राज्यसभा टीवी को दिए गए इंटरव्यू में कहा था, ‘मुझे राग दरबारी बहुत पसंद है लेकिन मैं इंसान दरबारी नहीं हूँ। मैं किसी नेता के ड्राइंग रूम में बैठने वाला नहीं हूँ। मेरी नेता मेरी पब्लिक है।’ (bbc.com/hindi)
अरूण डिके
अपने आसपास के समाज और उसके संसाधन, प्रकृति तथा उनको वापरने की भांति-भांति की तकनीक जानने वाले ढाई हजार साल पुराने अर्थशास्त्री आचार्य विष्णु गुप्त कौटिल्य यानि चाणक्य आज कितने मौजूं हैं? और क्या आज के अर्थशास्त्री कौटिल्य की तरह अपने ज्ञान को समझते और उपयोग करते हैं? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता अरुण डिके का यह लेख। -संपादक
हमारा पिछला इतिहास चाहे जितना उजला हो और हमारे ऐतिहासिक नायक और नायिकाऐं चाहे जितने वीर, साहसी और आदर्श रहे हों, लेकिन आज के संदर्भ में उनका कार्य नापना और तौलना जरूरी है, ताकि हमारी अगली पीढ़ी ने जो दुनिया हमें सौंप रखी है, हम उन्हें ईमानदारी से सुसज्जित लौटा सकें।
दक्षिण भारत के राधाकृष्णन पिल्ले की पुस्तक ‘कॉर्पोरेट चाणक्य’ भले ही व्यवसाय प्रबंधन से जुड़ी हो, लेकिन चाणक्य हर क्षेत्र में आज भी कितने प्रासंगिक है यह हर जिम्मेदार और संवेदनशील नागरिक को पढऩा चाहिए। आज से कोई ढ़ाई हजार साल पहले जन्मे विष्णु गुप्त कौटिल्य, आर्य चाणक्य ने किस प्रकार अत्याचारी नंदवंश को समाप्त कर चन्द्रगुप्त मौर्य को गद्दी पर बिठाया था। उनका दिशा-निर्देश एक निष्पक्ष शासन के लिए विकेंद्रित समाज को पूरा जिम्मा सौंपना है। दुर्भाग्य से उनका लिखा अर्थशास्त्र हमारे स्कूल और कॉलेज से नदारद हैं।
राजन राज्य के सैन्य-बल या धर्मसत्ता से नहीं, जनशक्ति से सफल होता है - यह निर्भीकता से कहने वाले आर्य चाणक्य सत्ता से कोसों दूर एक साधारण कुटीर में रहते थे। सेना पर निर्भर देशों की बिगड़ी हालत हम देख रहे हैं और धर्मांध देश आधुनिक युग में कैसे लचर साबित हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं।
यह सही है कि वह काल औद्योगिक बसाहटवाला नहीं था, लेकिन आज की ही तरह विदेशी प्रभाव उस समय भी था। विदेशी आक्रमण भी हुआ तो चाणक्य के कुशल मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त की सेना ने सिकंदर को परास्त कर दिया था। राज्य की सफलता के लिए शस्त्र, शास्त्र और भूमि का समुचित दोहन जरूरी है, यह चाणक्य विधान आज ज्यादा प्रासंगिक है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सही नारा दिया था - ‘जय जवान, जय किसान।’
वर्ष 1905 से 1931 तक भारत की खेती-किसानी का गहरा अध्ययन करने के बाद ब्रितानी कृषि वैज्ञानिक अलबर्ट हॉवर्ड ने भी कहा था कि जन-जन की प्राथमिक आवश्यकताऐं रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति यदि हो जाती है तो उस देश का बाल-बांका नहीं होगा और नहीं होती तो बड़ा-से-बड़ा पूंजी निवेश भी उस देश को बचा नहीं सकता। ‘कॉर्पोरेट कल्चर’ में बंधी हमारी शासन व्यवस्था पिछले दशकों में कितनी लचर रही है, यह किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं बता रही है।
भारत में पंचायत राज चाणक्य ने प्रारंभ किया था। इस देश को दिया हुआ यह उनका सर्वोत्तम उपहार है। खेत और वन भारत के मूलधन हैं और जब व्यापारी अपना मूलधन ही खाना शुरू कर दें तो उसका व्यापार चौपट होना स्वाभाविक है। इसी बात को लेकर चाणक्य ने खेती में सुधार के लिए काम किया।
वन और खेत पंचायतों की स्वायत्तता में कार्यरत रहेंगे, यह चाणक्य ने देखा। उनका कथन था कि खेत और गांव भी छोटे आकार के होना चाहिए। हर गांव में 100 से 500 मकान ही होना चाहिए। यही बात 1949 में अमेरिका द्वारा निर्देशित उद्योगों का केवल बीस साल में फेल होना देख ईएफ शुमाकर ने कही थी। जर्मनी में पैदा हुए और लंदन में पढ़े-लिखे शुमाकर अपनी पुस्तक ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ (लघु ही सर्वोत्तम है) के कारण दुनियाभर में जाने जाते हैं।
चाणक्य ने वनीकरण करवाया, वृक्षों से पशुओं के लिए चारा, इमारती लकड़ी और जलाऊ लकड़ी लगवाई। जो वन काटता था उसको कड़ी सजा मिलती थी। पशुओं के लिए गांव-गांव में चिकित्सक रखे जाते थे और उन्हें भरण-पोषण के लिए कुछ जमीनें दी जाती थीं जिसे वे बेच नहीं सकते थे। गांवों से लगान लिया जाता था और जो किसान नियमित रूप से लगान देता था उसे पुरस्कृत किया जाता था।
देवदासी, विधवा, विकलांग, त्याज्य और वेश्याओं के भरण-पोषण हेतु उन्हें स्थानीय रोजगार उपलब्ध कराया जाता था, जिसमें कपड़ा बुनाई और मंदिरों में दीपों के लिए कपास की बत्तियाँ बनाना शामिल था। हर गांव में तालाब और चरनोई हो, यह कौटिल्य ने देखा। चरनोई की व्यवस्था बड़ी वैज्ञानिक थी। ‘पड़त भूमि’ पर पशुओं को रखा जाता था और उनके लिए जल और चारे की व्यवस्था पंचायत करती थी। 12 साल तक वहाँ पशुओं के गोबर और गौमूत्र से जब वह भूमि उर्वर हो जाती तब चरनोई दूसरी ‘पड़त भूमि’ पर ले जायी जाती थी। हर गांव में चाणक्य ने संदेश वाहक भी रखे थे ताकि राजा तक वहाँ की समस्याऐं पहुँच सकें।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहीं भी मुद्रा-विनिमय और लेन-देन का उल्लेख नहीं है। उनका लिखा अर्थशास्त्र एक प्रकार से समाज-शास्त्र है जो यह बताता है कि राजा से लेकर सामान्य नागरिक के कर्तव्य क्या हैं। गावों के साथ-साथ चाणक्य ने नगर-विधान भी लिखा है। नगरों की जनसंख्या सीमित हो, यह चाणक्य निश्चित करते थे। यदि नगरों में भीड़ बढ़ी तो चाणक्य उन्हें वापस गांवों में भेज देते थे और शाम को नगरों के प्रवेश द्वार बंद कर दिये जाते थे।
जैव-विविधता भारत को प्रकृति से मिला सर्वोच्च उपहार है। चाणक्य के ही समकालीन वराह मिहिर,पाराशर, सूरपाल,सारंगधर, चरक और सुश्रुत जैसे सैकड़ों ऋषि-मुनियों ने गहन अध्ययन कर ऐसी वनस्पतियाँ खोज निकाली थीं जिनने हमें कम पानी में पकने वाले विभिन्न खाद्यान्न,औषधि,वनस्पति आदि उपलब्ध कराईं। ये आज भी कारगर हैं और यही सच्चा अर्थशास्त्र हैं। ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’ में अर्थशास्त्र के दो अर्थ मिलेंगे। पहले का अर्थ औद्योगिक और उसके कारण चलन में आई कागजी मुद्रा से है। आज वह 71 प्रतिशत तक बढ़ गई है। दूसरी परिभाषा प्राकृति संसाधन और उसके योग्य प्रबंधन से जुड़ी है और यही भारत की दुनिया को सबसे बड़ी देन है।
स्थानीय मौसम, स्थानीय देशी बीज, खेती, उन पर आधारित कुटीर उद्योग सुचारू रूप से कार्यरत हों इसके लिए स्वायत्तता प्राप्त पंचायतों का होना बहुत जरूरी है। प्रसन्नता की बात है कि भारत के विभिन्न राज्यों में कई स्थानीय पंचायतों ने क्रांतिकारी कदम उठाकर वहाँ के समाज को सशक्त किया है, फिर वह चर्मोद्योग हो, हस्तशिल्प हो, कच्ची घाणी का तेल हो, साबुन हो, सौंदर्यीकरण के नाम पर स्थानीय वस्तु को उखाडऩे का विरोध हो, वैधव्य की समाप्ति हो, मशीनीकरण का विरोध हो। इसे और सुचारू रूप देने के लिए आर्य चाणक्य, आज भी आपकी जरूरत है। (सप्रेस) ।
श्री अरूण डिके कृषि वैज्ञानिक हैं और शहर की सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के अलावा जैविक, स्थानीय तथा सस्ते संसाधनों के आधार पर कृषि की वकालात करने वाले इंदौर के एक सक्रिय समूह से जुड़े हैं।
शारदा उगरा
मुख्य बातें
दिल्ली के जंतर-मंतर पर देश के लिए पदक लाने वाले पहलवान धरने पर बैठे हैं।
विनेश फोगाट, बजरंग पुनिया और साक्षी मलिक की अगुवाई में चल रहा है धरना-प्रदर्शन।
बीजेपी सांसद और भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण का आरोप है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर दिल्ली पुलिस ने बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की है
पहलवानों का कहना है कि बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ शिकायत किए तीन महीने बीते फिर भी न्याय नहीं मिला, इसलिए उन्हें दोबारा धरने पर बैठना पड़ा है।
रविवार को दिल्ली के जंतर-मंतर का नजारा, विरोध करने वाले पहलवानों के समर्थन में पहुँचे हजारों किसान।
भारतीय खेल के इतिहास में ये एक असाधारण घटना है।
हमारी याद में इससे पहले कभी जाने-माने एथलीटों का एक ग्रुप अपने शीर्ष अधिकारियों के आचरण के विरोध में सडक़ों पर नहीं उतरा।
भारत के एथलीट, चाहे वो समाज के किसी भी हिस्से से ताल्लुक रखते हैं, आमतौर पर उनकी प्रवृत्ति सत्ता के आगे झुकने वाली होती है।
किसी भी तरह के विरोध या तो दफ़्तरों की बातचीत या फिर प्रेस कॉन्फ्रेंस या मीडिया में खबर लीक करने तक सीमित रहती है।
सिर्फ कुश्ती फेडरेशन के अध्यक्ष और छह बार के सांसद बृजभूषण सिंह को ही नहीं, बल्कि पूरी सरकार और बीजेपी को खुले तौर पर और लगातार चैलेंज देना, ये बहुत हिम्मत वाला काम है। खेलों के मामले में भारत में राजनीतिक ताक़त की एक ही दिशा है।
नेता खेल का इस्तेमाल अपने साम्राज्य और अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं और इसके बदले उन्हें एक फायदा मिलता है कि वो अपने पक्ष में एक इकोसिस्टम तैयार करते हैं, जो उनके प्रति वफ़ादार और उदार होते हैं।
परदे के पीछे की बातें सामने आने लगी हैं
पहलवानों का ये पहला विरोध है, जब एथलीटों ने सिस्टम को हिलाने की कोशिश की है।
वो अपने खेल में सबसे ताकतवर राजनेता पर आरोप लगाकर और देश के सबसे ताकतवर राजनेता से अपने वादों पर कायम रहने की अपील कर रहे हैं।
दूसरी कोशिश रविवार को दिखाई दी, जब पहलवानों के समर्थन में हजारों की संख्या में लोग खड़े हो गए हैं, जिन्हें किसान आंदोलन के सफल नेतृत्व का अनुभव है।
खेल में राजनीति को लेकर आमतौर पर परदे के पीछे होने वाली बातें अब खुलकर हो रही हैं।
हाई प्रोफाइल एथलीटों में ओलंपिक और वल्र्ड चैम्पियनशिप में मेडल जीतने वाले शामिल हैं।
उन्होंने हमें भारतीय कुश्ती के हर पहलू पर नजऱ डालने और बड़े स्तर पर खेलों के प्रशासन और उनकी कमियों को उजागर करने का मौक़ा दिया है।
पहलवानों ने जनवरी में ही विरोध-प्रदर्शन शुरू किया था क्योंकि उन्हें लग रहा था कि खेलों की संस्था के अंदर कोई तरीक़ा नहीं बचा था।
खेल संघों का क्या है हाल
अगस्त 2010, नेशनल स्पोर्ट्स डिवेलेपमेंट कोड के तहत स्पोर्ट्स फेडरेशन के कामकाज के तरीके का फ्रेमवर्क तैयार किया गया।
इसमें कहा गया कि हर खेल संगठन में खिलाडिय़ों का यौन शोषण रोकने के लिए कदम उठाने होंगे।
कोड में कहा गया कि खेल संघों में एक शिकायत समिति बनानी होगी और इसकी अध्यक्ष एक महिला होंगी।
इस कमिटी में कम से कम 50 प्रतिशत महिलाओं का होना जरूरी है।
साथ ही एक स्वतंत्र सदस्य को रखने का भी प्रावधान है, जो किसी एनजीओ या फिर ऐसी संस्था से हो, जो ‘यौन शोषण मामले को समझती हो।’
भारतीय कुश्ती संघ में यौन उत्पीडऩ से संबंधित मामलों को देखने वाली समिति में पाँच लोग हैं और इसकी अध्यक्षता एक पुरुष करते हैं और वो हैं सेक्रेटरी वीएन प्रसूद।
इस कमिटी में सिर्फ एक ही महिला हैं साक्षी मलिक। इसके अलावा समिति में तीन जॉइंट सेक्रेटरी और दो कार्यकारी सदस्य हैं।
फेडरेशन में एक ग्रिवांस रिड्रेसल कमिटी भी है, जिसका काम प्रशासनिक कुप्रबंधन से जुड़े मामलों को देखना है।
इसमें चार सदस्य हैं- कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह, इसके कोषाध्यक्ष, एक जॉइंट सेक्रेटरी और एक कार्यकारी सदस्य।
ऐसे सुनी जाएगी शिकायत?
ऐसी स्थिति में कोई पहलवान अध्यक्ष के ख़िलाफ़ या किसी कुप्रबंधन के मामले में इन समितियों में शिकायत कैसे दर्ज करा पाएगा या फिर निष्पक्ष कार्रवाई की उम्मीद करेगा।
दोनों में से किसी भी समिति में स्वतंत्र सदस्य नहीं है।
कुश्ती फ़ेडरेशन की शिकायत समिति इसी कारण कठघरे में है। ये इस बात का इशारा भी है कि ज्यादातर खेल संघों की हालत क्या होगी।
पिछले दिनों इंडियन एक्सप्रेस ने एक रिपोर्ट में बताया कि उन्होंने 30 खेल संघों की जाँच की और इनमें आधे से ज्यादा खेल संघों में शिकायत समिति नहीं है या नियमों के मुताबिक नहीं बनाई गई है।
इनमें कुश्ती के साथ-साथ तीरंदाज़ी, बैडमिंटन, बास्केटबॉल, बिलियर्ड्स और स्नूकर, जिम्नास्टिक, हैंडबॉल, जिम्नास्टिक, जूडो, कबड्डी, कयाकिंग-कैनोइंग, टेबल टेनिस, ट्रायथलॉन, वॉलीबॉल, नौकायन और भारोत्तोलन हैं।
जिन खेलों में कमिटी सही तरीके से बनाई गई है, उनमें एथलेटिक्स, मुक्केबाजी, साइकिलिंग, घुड़सवारी, तलवारबाजी, फुटबॉल, गोल्फ, हॉकी, रोइंग, निशानेबाजी, तैराकी, टेनिस और वुशु शामिल हैं।
कहाँ जाएँ खिलाड़ी?
अख़बार के मुताबिक़ 13 संघों में सही तरीक़े से कमिटियाँ बनी थीं और 16 में नहीं थीं। बोलिंग के संघ से जानकारी नहीं मिली।
शिकायत समिति का मौजूद होना किसी भी संघ के प्रभावी और पेशेवर प्रबंधन का संकेत नहीं देता है।
यह अपने एथलीटों को व्यक्तिगत सुरक्षा की न्यूनतम गारंटी देता है।
किसी भी शिकायत को सुनने के लिए एक स्वतंत्र सदस्य की मौजूदगी और उचित सुझाव की गारंटी मिलती है।
लेकिन ऐसी व्यवस्था का नहीं होना दिखाता है कि हमारे खिलाडिय़ों के पास उत्पीडऩ और भेदभाव की शिकायत के लिए कोई सुरक्षित जगह नहीं है।
पहलवानों का विरोध खेल मंत्रालय के लिए सबसे अच्छा समय है कि वह बिना उचित शिकायत पैनल वाले संघों को इसके लिए काम करने के लिए कहे।
लेकिन 2010 की तरह उनके सिफऱ् पूछा न जाए बल्कि इन संघों के सालाना रजिस्ट्रेशन के दौरान इनका फॉलोअप किया जाए और उचित कार्रवाई की जाए।
कुछ ऐसी टिप्पणियाँ भी की जा रही हैं कि अब जब बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई है, तो पहलवानों को अपना विरोध बंद कर देना चाहिए और ट्रेनिंग पर लौट जाना चाहिए।
लेकिन ये पहलवानों की मंशा की गलत व्याख्या है। विनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बजरंग पुनिया, किसी और से ज्यादा, ख़ुद जानते हैं कि यह उनके खेल के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण साल है।
वो जानते हैं कि प्रदर्शन में बिताया गया हर दिन उनके खेल के लिए नुक़सानदेह है।
वो वॉर्म अप तो कर लेते हैं, लेकिन फिटनेस को सही लेवल पर रखने और प्रदर्शन को सही रखने के लिए कम से कम हफ्ते में चार से पाँच दिन पूरी तरह से ट्रेनिंग को देने होंगे।
कुश्ती फेडरेशन के खिलाफ चल रही जाँच के कारण एशियन चैम्पियनशिप का ट्रायल दिल्ली के बजाय कज़ाख़स्तान में शिफ्ट किया गया और विनेश, साक्षी और बजरंग को ट्रायल छोडऩा पड़ा।
16 से 24 सितंबर तक सर्बिया के बेलग्रेड में वर्ल्ड रेसलिंग चैम्पियनशिप का आयोजन होना है।
2024 के पेरिस ओलंपिक में सर्बिया के पदक विजेताओं के लिए 90 कोटा स्पॉट हैं।
इसके बाद 23 सितंबर से 9 अक्तूबर तक चीन में एशियन गेम्स होंगे। वहाँ इन तीनों से मेडल की उम्मीदें हैं, उन्हें ये सब पता है।
आंदोलन चाहे सफल हो या असफल, आंदोलन जितने ज्यादा दिन चलेगा, इन पहलवानों की फिटनेस और फ़ॉर्म पर उतना ही बुरा असर पड़ेगा। लेकिन अब ऐसा लगता है कि पहलवानों ने ख़ुद को इस लड़ाई में झोंक दिया है। वो अपने सबसे कड़े प्रतिद्वंद्वी के सामने हैं और वो है सरकार की ताकत।
ये प्रशंसनीय भी है और डराने वाला भी।
इस आंदोलन में हर दिन नई रुकावटें आ रही हैं। आप उनके आँसू देख सकते हैं, थकान देख सकते हैं।
लेकिन एक चीज जो इनकी आँखों में नहीं दिख रही है, वो है- डर। (bbc.com/hindi/)
-ध्रुव गुप्त
अभी-अभी एक शोध के बारे में पढ़ा जिसमें दावा किया गया है कि बिना जिम, दवाओं और योग के भी मोटापा भगाना संभव है। आपको करना इतना है कि रोज़ कुछ देर रोने की आदत डाल लीजिए। रोने से शरीर में कार्टिसोन नाम का हार्मोन बनता है। देह में इस हार्मोन का स्तर जैसे-जैसे बढ़ता है, वज़न घटने लगता है। विचित्र यह है कि यह हार्मोन शाम के समय ज्यादा बनता है। अब पता चला कि हमारे कवियों और शायरों की देह पर कभी चर्बी क्यों नहीं चढ़ती। बेचारों के जीवन का ज्यादातर हिस्सा रोने में ही गुज़रता है।
खासकर शाम को विगत प्रेम की स्मृतियां जवान होते ही उनके आंसुओं के बांध टूट पड़ते हैं। आमतौर पर लोग किशोरावस्था और जवानी के शुरूआती सालों में मोटे नहीं होते। इसीलिए कि वे रोते बहुत है - परीक्षा में रिजल्ट के लिए, नौकरी के लिए, प्रेम सफल हुआ तो मिलन के लिए और नाक़ाम हुआ तो रिजेक्शन के दुख में। शादी और कामधंधे में लगने के बाद उनका रोना बंद हुआ कि देह पर मांस चढ़ने लगता है।
शादीशुदा औरतों की स्थिति भिन्न है। वे सबसे ज्यादा रोती हैं। कभी गहनों-कपड़ों के लिए, कभी पति के विवाहेत्तर संबंधों के संदेह पर, कभी सास-बहू के सीरियल देखकर। यहां तक कि गोलगप्पे के लिए भी। इतना रोने के बावजूद शादी के कुछ ही साल बाद मुटाने वाली औरतों की संख्या प्रचंड है। इस विरोधाभास का जवाब शोध के उस हिस्से में है जहां लिखा है कि रोना स्वाभाविक होना चाहिए। रोने की नौटंकी करने से न तो कोई हार्मोन-वॉर्मोन बनता बनता है और न वज़न में कमी आती है।
शोध का छुपा हुआ अर्थ कहीं यह तो नहीं कि कुछ मामलों को छोड़कर विवाहित औरतों का रोना-धोना ज्यादातर बनावटी ही होता है जिसका उद्देश्य है पति की इमोशनल ब्लैकमेलिंग।
जगदीश रत्नानी
जस्टिस मार्कंडेय काटजू और सुधा मिश्रा की सुप्रीम कोर्ट पीठ ने 13 मई, 2011 को अपने आदेश में जो कहा, उसे हर पुलिस पोस्ट में मढ़वाकर रखना चाहिए। दोनों न्यायाधीशों ने झूठी मुठभेड़ों को ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ अपराध तक कहा जो मौत का दंड देने लायक बिल्कुल सही है।
‘मुठभेड़ों में मार गिराने’ की घटनाएं आम बात होना और खाकी वर्दी वाले लोगों द्वारा न्यायेतर तरीके से मौत के घाट उतारने पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। ऐसी घटनाओं पर उत्तर प्रदेश में नए तरीके से शोरगुल हो रहा है। चिंता का तात्कालिक कारण यूपी में 2017 के बाद से 183 ‘मुठभेड़ों’ में मार गिराने की घटनाएं हैं, वृहत्तर समस्या देश भर में इस तरीके का बड़े पैमाने पर उपयोग और वह सार्वजनिक समर्थन है जो ऐसी घटनाओं को मिल रहा है।
न्यायेतर हत्याएं उस व्यवस्था को ही मारकर तुरंत न्याय देने का अजीबोगरीब तरीका है जिसे न्याय देने के लिए बनाया गया है। इस संबंध में अधिकारी जो बात कह रहे हैं और लोग जिसे मान रहे हैं, वह साधारण तो लगता ही है, विलक्षण भी है: हमें कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून तोडऩा ही होगा।
इसमें कई विषम सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक मुद्दे हैं जिन्हें हमें देखना होगा। ‘मुठभेड़ें’ उस पुलिस बल के सहयोग से फली-फूली हैं जो अक्षमता और औपनिवेशिक हैंगओवर से मुक्त होने को अनिच्छुक है, भ्रष्टाचार में डूबा, प्रोफेशनल काम के लिए नाकाबिल है और अंदरूनी तौर पर तथा बाहर से भी सत्ता की संरचनाओं का नौकर हो गया है और यह कुछ चुनींदा लोगों के लिए बन गया है।
न्यायेतर हत्याएं- चाहे वह राजनीतिक आकाओं के आदेश पर हों या सम्यक प्रक्रिया से गुजरने के कारण पुलिस बल के बहुत अधिक दबाव की वजह से हो, असाधारण ज्यादतियां हैं। इन्हें खत्म करने के लिए असाधारण उपायों की जरूरत है। 13 मई, 2011 को न्यायमूर्ति मारकंडेय काटजू और न्यायमूर्ति सुधा मिश्रा की सुप्रीम कोर्ट खंडपीठ ने झूठी मुठभेड़ों को ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ किस्म के अपराध तक कहा जो मौत का दंड देने लायक बिल्कुल सही है।
दूसरे शब्दों में उन्होंने कहा,‘हमारा विचार है कि ऐसे मामलों में जिसमें मुकदमे में पुलिस वालों के खिलाफ झूठी मुठभेड़ की बात सिद्ध हो जाती है, उन्हें दुर्लभ से दुर्लभतम मानते हुए मौत की सजा दी जानी चाहिए। झूठी मुठभेड़ कुछ नहीं बल्कि उन लोगों द्वारा सोच-समझकर, नृशंस हत्या है जिनसे कानून का पालन करने की अपेक्षा की जाती है। हमारी राय में, अगर अपराध आम आदमी द्वारा किया जाता है, तो आम दंड दिया जाना चाहिए लेकिन अगर अपराध पुलिस वालों द्वारा किया जाता है, तो उन्हें अपेक्षाकृत कड़ा दंड दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अपने उत्तरदायित्वों के बिल्कुल विपरीत काम करते हैं।’
न्यायाधीशों ने पुलिस अधिकारियों को चेतावनी भी दी कि उन्हें इस आधार पर छूट नहीं दी जाएगी कि वे ऊपर से मिले आदेशों का पालन कर रहे थे। ऐसी भाषा में जो जितना अधिक कड़ा हो सकता था, खंडपीठ ने कहा: (जर्मनी के नुरेमबर्ग में 20 नवंबर, 1945 से 1 अक्तूबर, 1946 तक चले) ‘नुरेमबर्ग मुकदमों में, नाजी युद्ध अपराधियों ने यह तर्क दिया कि ‘आदेश तो आदेश हैं’, फिर भी उन्हें मौत की सजा दी गई। झूठी ‘मुठभेड़’ करने के लिए अगर कोई ऊपर का अधिकारी किसी पुलिसकर्मी को अवैध आदेश देता है, तो इस तरह का अवैध आदेश मानने से मना करना उसका दायित्व है, अन्यथा उस पर हत्या का आरोप लगाया जाएगा और अगर वह दोषी पाया जाएगा, तो उसे मौत की सजा दी जाएगी। ‘मुठभेड़’ का दर्शन आपराधिक दर्शन है और हर पुलिसकर्मी को इसे अवश्य जानना चाहिए। ऐसे खुश होने वाले पुलिसकर्मी जो सोचते हैं कि ‘मुठभेड़’ के नाम पर वे लोगों की हत्या कर सकते हैं और छूट जा सकते हैं, को जानना चाहिए कि फांसी के फंदे का उन्हें इंतजार है।’
ये ऐसी बातें हैं जिन्हें मढ़वाकर हर पुलिस पोस्ट में हर व्यक्ति को याद रखने के लिए लगा देना चाहिए कि उन्हें ऐसे आदेश का पालन नहीं करना है जो प्रथम दृष्ट्या अवैध हैं और कानून का उल्लंघन करते हैं। वस्तुत:, यह उस पुलिस बल की सफाई का अच्छा रास्ता है जो विफल हो रहा है और भारतीय राज्य व्यवस्था को नीचे की ओर ले जा रहा है।
झूठी मुठभेड़ होती हैं और कानून-व्यवस्था बनाए रखने का यह तरीका है- यह स्वीकार कर भारत ने सामूहिक तौर पर स्वीकार कर लिया है कि देश अपने प्राथमिक कर्तव्यों में विफल हो गया है और व्यवस्था का आभास बनाए रखने के लिए उसे संविधानेतर तरीके अपनाने ही होंगे। इसका निहितार्थ किसी डरावनी स्थिति से कम नहीं है। एक ओर भारत अपने को उभरती वैश्विक शक्ति, आज जी20 के प्रमुख और ऐसी अर्थव्यवस्था के तौर पर देखता है जो जीडीपी के खयाल से दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा देश है। दूसरी ओर, भारत समृद्ध गैंगस्टरों की कहानी है जिन्हें बड़े हो जाने पर एकांत जगह पर ले जाकर गोली मारनी होगी।
इस लेखक समेत कई पत्रकार ऐसे मामलों के बारे में जानते हैं जब अपराधियों को मार डाला गया। मुंबई ऐसी जगह है जहां एक वक्त तथाकथित मुठभेड़ें चरम पर थीं। लेकिन मुंबई इसका उदाहरण भी है कि इस ‘समाधान’ में क्या गलत था। निर्जन इलाकों में खत्म कर दिए गए गिरोह वास्तव में फिर बनाए गए और पुलिस बल के अंदर तैयार कर दिए गए।
गिरोह ‘अ’ ने किसी पुलिस यूनिट की मदद से गिरोह ‘ब’ को मार दिया और इसमें पुलिस वालों ने मदद की थी; गिरोह ‘ब’ ने किसी अन्य पुलिस यूनिट के साथ यही काम किया। खेल में शामिल दोनों पुलिस यूनिटों ने पैसे बनाए, ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ होने की प्रसिद्धि पाई और दावा किया कि उनका आम लोगों ने स्वागत किया। पुलिस बल नए गैंगस्टरों की नई फसल की जगह बन गई।
यह साफ तथ्य है कि ऐसी हर झूठी मुठभेड़ में कई वैधानिक दस्तावेज तैयार किए जाते हैं और ऐसी घटनाओं की बातें की जाती हैं जो जांच का हिस्सा होती हैं। कुछ लोगों का पूरा दस्ता ऐसी कहानियां बनाता है जो बाद में जांच के दौरान निश्चित तौर पर झूठी निकलती हैं। यूपी में अभी जो घटनाएं हुई हैं, उनमें भी बच निकलना मुमकिन नहीं लगता। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी डाली गई है।
फिर भी, यह खतरा टल गया नहीं लगता; यह और बदतर ही होता जा रहा है। हम शासन-व्यवस्था में इस खतरनाक गिरावट को बढ़ावा देने के लिए इस दौर के राजनेताओं को दोषी ठहरा सकते हैं। लेकिन वर्तमान संविधानिक व्यवस्था को ऐसे समाधान करने होंगे जो इसे दूर कर सकें। मुठभेड़ में मार गिराने को रोकना इतना कठिन भी नहीं है। न्यायमूर्ति काटजू और न्यायमूर्ति मिश्रा ने जिस किस्म के कड़े आदेश दिए, वैसे एक या दो आदेश कड़ी चेतावनी दे सकते हैं। ऐसा न करना यह स्वीकार करना है कि कानून का शासन ढह गया है। ऐसा है, तो हम पूछ सकते हैं कि यह ‘जंगल राज’ में कब तक बदल जाएगा। (नवजीवनइंडिया)
(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर के फैकल्टी मेंबर हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं)
31 मार्च 2023 एक महत्वपूर्ण दिन था जब अमेरिका की एक ग्रैंड ज्यूरी ने पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के खिलाफ आरोप तय कर दिए। इसी दौरान एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें राष्ट्रपति जो बाइडन और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस व्हाइट हाउस में जश्न मनाते देखे गए।
वीडियो को गौर से देखने पर पता चलता है कि इसमें कमला हैरिस के हाथों में छह उंगलियां हैं और उनके हाथ का ऊपरी हिस्सा गायब है।
असल में उस दिन राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति दोनों ही व्हाइट हाउस में मौजूद नहीं थे। लेकिन उनकी ये फेक तस्वीरें लाखों लोगों को भेजी गईं।
ये वीडियो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी ‘एआई’ से बनाए गए वीडियो, फोटो और लेख जैसी प्रचार सामग्री है जो अगले राष्ट्रपति चुनाव में लाखों मतदाताओं तक पहुंचाई जाएगी, वो भी तेज गति से। यह सामग्री मतदाताओं के छोटे समूहों को उनकी प्रोफाइल के हिसाब से तैयार कर के भेजी जाएगी।
इसे बनाने वाला जनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चैट-जीपीटी पिछले साल नवंबर में लॉन्च किया गया था और अब आम लोगों के लिए उपलब्ध है।
चैट-जीपीटी इंटरनेट से तमाम जानकारी खंगाल कर लेख और ब्लॉग लिख सकता है, यहां तक कि गीत और कविताएं भी लिख सकता है।
ऐसे में मतदातओं के लिए यह पता लगाना मुश्किल होगा कि उनके पास जो प्रचार सामग्री आई है वो असली है या नकली।
इस हफ़्ते हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि क्या अमेरिका का अगला राष्ट्रपति आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से तय होगा?
डिजिटल राजनीति
चुनावी राजनीति में आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल को समझने के लिए हमने बात की बेट्सी हूवर जो हायर ग्राउंड्स लैब की सह-संस्थापक हैं।
यह कंपनी चुनावी अभियान में इस्तेमाल होने वाली टेक्नोलॉजी में निवेश करती है। बेट्सी हूवर ने 2007 में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के चुनाव प्रचार में ऑर्गेनाइजर के रूप में राजनीति में कदम रखा था।
बेट्सी हूवर बताती हैं, ‘उस समय ओबामा पहले उम्मीदवार थे जिन्होंने चुनाव प्रचार में जनता से संपर्क करने और जन संगठन के लिए डिजिटल टेक्नॉलोजी का भरपूर इस्तेमाल किया। उस समय हमारे पास लोगों की और धन की कमी थी। इस अड़चन को दूर करने का उपाय था डिजिटल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल। इसे हमने पहले राज्य स्तर पर और फिर राष्ट्रीय स्तर पर आजमाने की रणनीति बनाई।’
उनका कहना है कि इसकी वजह केवल पैसों की बचत ही नहीं बल्कि लोगों तक प्रभावी तरीके से पहुंचना भी था।
लोग घर पर हों, ऑफिस में या कहीं और, लेकिन उनके फोन हमेशा ऑन रहते हैं। इसलिए डिजिटल माध्यम लोगों से संपर्क करना अच्छा जरिया था। मगर क्या उन्हें यह डर नहीं था कि इसमें कहीं ना कहीं लोगों से सीधे संपर्क की कमी रह जाती है?
बेट्सी हूवर मानती हैं, ‘उस समय भी इस मुद्दे को काफी बहस हुई थी। हम लोगों तक मैसेज, ईमेल और फेसबुक के जरिये चुनावी संदेश पहुंचा रहे थे और हम खुद भी यह सोच रहे थे कि यह तरीका सीधे संपर्क से ज़्यादा प्रभावी है या नहीं। ये सच है कि इसके माध्यम से हम एक समय में कहीं ज्यादा लोगों से जुड़ पा रहे थे।’
2012 में ओबामा दोबारा राष्ट्रपति चुने गए। लेकिन पिछले दस सालों में चुनावी अभियान में टेक्नोलॉजी की भूमिका काफी बदल गई है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस टेक्नोलॉजी के जरिये अब मतदाताओं की प्रोफाइल और प्राथमिकताओं का पता लगाया जा सकता है और उसी के अनुसार उम्मीदवार अपने संदेश और प्रचार सामग्री को बदल सकते हैं।
माना जा रहा है कि जनरेटिव एआई का एक प्रभावी हिस्सा 2024 के राष्ट्रपति चुनावों में बड़ा असर डाल सकता है।
यह टेक्नोलॉजी मतदाताओं की प्रोफाइल और सोच के आधार पर चुनाव प्रचार के लिए बड़े पैमाने पर सामग्री बनाकर लोगों तक पहुंचा सकती है। इसके जरिये उम्मीदवार छोटे गुटों में लोगों तक अपना संदेश पहुंचा सकते हैं।
बेट्सी हूवर का कहना है,‘उम्मीदवार अपने चुनावी अभियान के लिए बड़ी संख्या में कंटेंट राइटर और रणनीतिकारों को रखते हैं जो चुनाव प्रचार के लिए लिखे गए ई-मेल या पोस्ट के वेरिएशन बनाकर उसे अलग-अलग मतदाताओं के भेजते हैं। मगर इतने सारे वेरिएशन बनाने में समय और पैसा लगता है। आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस से यह काम बहुत तेजी से और सस्ते में हो सकता है।’
लेकिन अगर टेक्नोलॉजी की मदद से आसानी से और सस्ते में कंटेंट बनाया जा सकता है तो इसमें एक जोख़िम भी है। वो ये कि गलत लोग इसका इस्तेमाल किसी उम्मीदवार को नुकसान पहंचाने के लिए या उसकी छवि बिगाडऩे के लिए भी कर सकते हैं।
आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस
आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस के संभावित दुरुपयोग के बारे में बीबीसी ने बात की हनी फऱीद से जो बर्कले, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में संचार विज्ञान के प्रोफेसर हैं और एआई के दुरुपयोग की एक चौंकाने वाली मिसाल देते हैं।
वो कहते हैं, ‘क्या आपने वो खबर देखी है जिसमें एक महिला को उनकी बेटी का फोन आया। उनकी बेटी कह रही थी कि कुछ लोगों ने उनका अपहरण कर लिया है। उस महिला ने फौरन अपने पति को फोन किया और बताया कि उनकी बेटी तो घर में खेल रही है। मामला ये था कि किसी ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से उनकी बेटी की आवाज की नकल कर उन्हें मैसेज भेजा था। यानी कोई उनसे पैसे वसूल करने की कोशिश कर रहा था।’
ये उदाहरण भले की अपवाद लगे लेकिन इससे यह पता चलता है कि एआई सॉफ्टवेयर अब इतने विकसित हो गए हैं और वो किसी की आवाज की इतनी अच्छी नकल कर सकते हैं कि उसे पहचानना मुश्किल हो जाए।
पिछले बीस सालों में कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर बनाने की हमारी क्षमता तेजी से बढ़ी है, जिस कारण एआई सॉफ्टवेयर अब काफी विकसित हो गए हैं। साथ ही लोग खुद अपनी ढेर सारी जानकारी इंटरनेट पर सौंपते रहे हैं, जिसके आधार पर उन्हें निशाना बनाना मुश्किल नहीं।
हनी फरीद कहते हैं, ‘पिछले बीस सालों में हम फोटो, वीडियो, आवाज जैसी जानकारी अपनी मर्जी से सोशल मीडिया पर डालते रहे हैं।’
‘जब भी आप किसी वेबसाइट पर जाते हैं आपकी काफी जानकारी उन्हें मिल जाती है। यह बेहद फायदेमंद व्यापार है। अब मशीन आपकी शक्ल और आवाज़ पहचानती है, आपके परिवार के लोगों की जानकारी भी उनके पास है। सोशल मीडिया और दूसरी वेबसाइट पर डेटा खंगालने वालों के पास अद्भुत मात्रा में लोगों की जानकारी मौजूद है जिसकी वजह से हमें निशाना बनाया जा सकता है और गुमराह भी जा सकता है।’
फेसबुक ने माना-फेशियल रिकोग्निशन अनुचित, बंद किया फीचर
सोशल मीडिया और दूसरी वेबसाइट मौजूद जानकारी और एआई की मदद से लोगों के प्रोफाइल बनाती हैं और उसके मुताबिक उन तक विज्ञापन पहुंचाती हैं। (बाकी पेज 8 पर)
मिसाल के तौर पर अगर आप किसी जगह जाने के लिए टिकट की जानकारी खोजें तो फौरन ही आपको सोशल मीडिया पर उस जगह से जुड़े विज्ञापन दिखना शुरू हो जाते हैं।
लेकिन अब जनरेटिव एआई की मदद से किसी के टेक्स्ट मैसेज, फोटो, वीडियो या ऑडियो का इस्तेमाल कर फर्जी कंटेंट बनाना भी आसान हो गया है।
हनी फरीद इस बारे में कहते हैं, ‘वॉइस क्लोनिंग भी होने लगी है, जैसे वीडियो में ईसाई धर्मगुरु का फर्जी बयान देते हुए दिखाना और वीडियो दुनिया भर में शेयर किया जाना। जनरेटिव एआई इस तरह का कंटेंट बना सकता है। कुछ लोग ऐसे सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर रहे हैं जिस पर कोई नियंत्रण नहीं है। यह काफी चिंताजनक है।’
प्रोफेसर हनी फऱीद कहते हैं कि ऐसे सॉफ्टवेयर अब आसानी से उपलब्ध हो रहे हैं जिनका दुरुपयोग हो सकता है। जनरेटिव एआई का एक सॉफ्टवेयर है चैट-जीपीटी जिसके बारे में कहा जा रहा है की यह एआई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल में नाटकीय बदलाव ला रहा है।
चैट-जीपीटी टेक्स्ट सामग्री बना सकता है, लेकिन इस तरह के और सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जो वीडियो और ऑडियो कंटेंट बना सकते हैं।
हनी फऱीद कहते हैं कि अगले साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार में इससे बनाई गई फर्जी सामग्री के इस्तेमाल की आशंका है।
चुनाव प्रचार में ऐसी फर्जी सामग्री के इस्तेमाल से मतदाता तो गुमराह होंगे ही, इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी क्षति पहुंचेगी। लेकिन जहां चुनाव में इसके दुरुपयोग का खतरा है वहीं इसके कुछ फायदे भी हैं।
चुनावी अभियान का खर्च
हम सभी जानते हैं चुनाव लडऩे के लिए चुनाव प्रचार का संगठन जितना आवश्यक है, उतना ही जरूरी है पैसा।
हमारे तीसरे एक्सपर्ट हैं मार्टिन कुरुज जो स्टर्लिंग डेटा कंपनी के सीईओ हैं। यह कंपनी अमेरिका में उम्मीदवारों को चुनावी अभियान के लिए चंदा जुटाने में मदद करती है।
मार्टिन कुरुज कहते हैं कि कई देशों में उम्मीदवारों के चुनाव का खर्च सार्वजनिक स्रोत से आता है लेकिन अमेरिका में वो अपने समर्थकों या कंपनियों से चुनाव के लिए चंदा जुटाते हैं।
वो कहते हैं, ‘मिसाल के तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार अपने अभियान के लिए पार्टी समर्थकों से चंदा जुटाते हैं। पार्टी के लगभग 17 करोड़ समर्थक हैं जो चंदा दे सकते हैं या डोनर हैं।’
वो कहते हैं, ‘इनका पता पता लगाने के लिए उम्मीदवार हमारी मदद लेते हैं। वो चाहते हैं कि हम कम से कम समय में संभावित चंदा देने वालों की लिस्ट बनाई जा सके। इसके लिए हम एआई का इस्तेमाल करते हैं। सॉफ्टवेयर तमाम समर्थकों की प्रोफाइल और उससे जुड़ी जानकारी को प्रोसेस कर के एक लिस्ट बना देता है।’
मार्टिन कुरुज कहते हैं कि पहले समर्थकों की लिस्ट बनाने के लिए कंप्यूटर इंजीनियरों को कई दिनों तक काम करना पड़ता था, लेकिन अब यह प्रक्रिया बहुत आसान हो गई है।
उनका कहना है, ‘हम लोगों का डेटा अपने सॉफ़्टवेयर में डालते हैं और एआई यह काम कुछ मिनटों में कर देता है। अब बहुत से प्लेटफॉर्म इंटरनेट पर डीप लर्निंग की सुविधा दे रहे हैं और लोग डेटा प्रोसेसिंग के लिए इसका इस्तेमाल कर सकते हैं।’
इससे एक तरफ उम्मीदवार के लिए चुनाव लडऩे का खर्च कम होता है, तो दूसरी तरफ उसे जिन लोगों की लिस्ट मिलती है वो उनके लिए फायदेमंद होती है।
मार्टिन कुरुज कहते हैं, ‘आने वाले समय में यह ख़र्च कम होता जाएगा और ज़्यादा लोग चुनावी मैदान में उतर सकेंगे। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में चुनावी प्रक्रिया में अधिक समानता लाने और उसे लोकतांत्रिक बनाने की क्षमता है।’
तो अब देखना यह है कि क्या अमेरिका के अगले राष्ट्रपति चुनावों पर इसका असर पड़ेगा?
2024- वॉटरशेड मूवमेंट
एक्सपर्ट नीना शिक जनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जूड़ी जानी-मानी किताब डीपफेक्स की लेखिका हैं। वो कहती हैं कि अगले चुनाव तक यह तकनीक काफी आगे बढ़ जाएगी और इसके इस्तेमाल के बिना चुनाव अभियान चलाना मुश्किल हो जाएगा।
वो कहती हैं, ‘मुझे लगता है प्रचार का तरीका ही नहीं बल्कि लोगों के लिए संदेश भी बदल जाएंगे। जनरेटिव एआई हर मतदाता के लिए व्यक्तिगत किस्म का मैसेज बनाकर भेज सकता है। इससे राजनेता जनता के साथ बेहतर तरीके से संपर्क कर पाएंगे। किसी विषय या मुद्दे पर सार्वजानिक मत बनाने के लिए इस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सबसे पहले चुनाव प्रचारों में ही होगा।’
मगर नीना शिक यह भी मानती हैं कि कई लोग इसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं, जो चैट-जीपीटी के आने से पहले भी दिखाई दिया था।
उनके मुताबिक, ‘पिछले चुनावों के समय में हमने काफी फेक सामग्री देखी थी। डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन के फर्जी वीडियो सोशल मीडिया पर दिखाई दिए। जरूरी नहीं कि ऐसी सामग्री प्रतिद्वंद्वी खेमे से आये बल्कि कई और लोग भी यह काम कर सकते हैं।’
‘जनता के लिए फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि क्या असली है और क्या नकली। अगर किसी उम्मीदवार को रिश्वत लेते कैमरे में कैद कर लिया जाए तो वो पलट कर कह सकता है कि यह वीडियो फेक है। इस तरह सामग्री की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ जाएगी।’
वहीं रूस के खिलाफ 2016 से ही अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों को गलत तरीके से प्रभावित करने के आरोप लगते रहे हैं। तो क्या अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण इन चुनावों में विदेशी हस्तक्षेप की संभावना अब पहले से अधिक बढ़ गई है?
इस बारे में नीना शिक कहती हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि फर्जी जानकारी फैलाने की क्षमता का इस्तेमाल विदेशी ताकतें कर सकती हैं। पिछले चुनावों के बाद से अधिकाधिक विदेशी ताकतें दुनिया भर में इस तरह की गतिविधियों में शामिल हो रही हैं।’
नीना शिक मानती हैं कि इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को चुनौती तो मिलेगी लेकिन वो कायम रहेगी।
लेकिन मूल प्रश्न है कि क्या एआई अमेरिका का अगला राष्ट्रपति तय कर सकता है?
एक्सपर्ट्स का कहना है कि एआई जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कुछ फायदे पहुंचा रहा है वहीं इसमें उसे नुकसान पहुंचाने की भी ताकत है।
लेकिन यह हमारी ही बोई हुई फसल है जिसे हमें काटना है। इसलिए जरूरी यह है कि हम तय करें कि किस तरह का समाज हम चाहते हैं। (bbc.com/hindi)
राम पुनियानी
चुनावों के मौजूदा दौर में विपक्षी पार्टियां अपने-अपने राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर एक और जरूरी मांग कर रही हैं। यह मांग है, जाति आधारित जनगणना की, जिसके नतीजे से अपेक्षा है कि ठीक-ठीक अनुपात में आरक्षण दिया जा सकेगा। क्या है, इसकी पृष्ठभूमि? देशभर के राजनीतिक दलों की इस पर क्या राय है? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता राम पुनियानी का यह लेख।-संपादक
बाबासाहेब आंबेडकर की 132 वीं जयंती पिछले वर्षों की तुलना में बहुत जोर-शोर से मनाई गई। बड़ी संख्या में विभिन्न संगठनों ने इसमें भागीदारी की। अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों, जिनके वे मसीहा हैं, के लिए यह एक बहुत बड़ा उत्सव था। आंबेडकर के योगदान को न केवल राष्ट्रीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकारा गया और 150 से अधिक देशों में कार्यक्रम आयोजित हुए।
जो व्यक्ति और समूह सामाजिक न्याय और समानता के प्रति प्रतिबद्ध हैं और जन्म-आधारित ऊंच-नीच और अन्याय के खिलाफ हैं उन्होंने अत्यंत श्रद्धा से आंबेडकर को याद किया और आशा व्यक्त की कि आने वाले समय में देश और दुनिया आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलेगी। इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने की बात है कि आंबेडकर जयंती मनाने के तरीके में धार्मिकता का रंग घुलता जा रहा है और उनके मूल्यों को याद करने की बजाय जोर औपचारिक समारोहों पर है। निश्चित रूप से बाबासाहेब के सपनों को पूरा करने के लिए अनवरत संघर्ष की ज़रुरत है।
ऐसे समूह व संगठन भी हैं जो उन सिद्धांतों व मूल्यों के एकदम खिलाफ हैं जिनके लिए आंबेडकर ने जीवन भर संघर्ष किया। जैसे - ‘हिन्दू राष्ट्रवादी' और उससे प्रेरित अन्य संगठन बाबासाहेब के एक मुख्य लक्ष्य ‘जाति के उन्मूलन' के पूर्णत: विरूद्ध हैं। वे ‘जातियों के समन्वय' की बात करते हैं। आंबेडकर समाज के वंचित वर्गों के हित में सकारात्मक कदम उठाए जाने के पक्ष में थे।
शुरू में केवल 10 वर्षों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था। संभवत: आंबेडकर को उम्मीद थी कि हिन्दू समाज में फैली द्वेष भावना को जड़ से समाप्त करने के लिए इतना समय पर्याप्त होगा। उन्होंने शायद इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि नीतियों पर अमल उच्च जातियों के अभिजात वर्ग के माध्यम से होगा। उच्च जातियों के अभिजात वर्ग ने ‘एससी/एसटी’ वर्ग के लिए आरक्षण की नीति के अमल में बाधाएं खड़ी कर दीं जिसके चलते आरक्षण आज भी जारी रखना पड़ रहा है।
संविधान, जिसका मसविदा उनकी अध्यक्षता में तैयार किया गया, में ‘एससी/एसटी’ वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था, किंतु ‘अन्य पिछड़े वर्गों’ (ओबीसी) को छोड़ दिया गया। ‘ओबीसी’ समाज का एक बड़ा हिस्सा हैं, जिसकी ओर लंबे समय तक समुचित ध्यान नहीं दिया गया। सन 1931 के बाद से किसी जनगणना में उनकी गिनती नहीं की गई। इस जनगणना के अनुसार उस समय आबादी में ‘ओबीसी’ का प्रतिशत 52 था। इसी आधार पर 1990 में इनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। सकारात्मक कदमों के कुछ प्रावधान किए गए थे, लेकिन उन पर ठीक से अमल ‘मंडल आयोग’ की रिपोर्ट लागू होने के बाद ही हो पाया।
आरक्षण समाज के कुछ वर्गों की आंख की किरकिरी है और उन्होंने ‘यूथ फॉर इक्वालिटी' जैसे समूहों का गठन किया है जो आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करने के पक्ष में हैं। यह कहा जाता रहा है कि आरक्षण का लाभ उठाकर 'अयोग्य लोग' नौकरी एवं शिक्षा के अवसर हासिल कर लेते हैं और जिनका इन पर हक होना चाहिए वे वंचित रह जाते हैं। इस सोच से दलितों और ‘ओबीसी’ के बारे में पूर्वाग्रह जन्म लेते हैं और इन्हीं के चलते रोहित वेम्युला और दर्शन सोलंकी जैसे छात्रों को आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ता है। यही पूर्वाग्रह 1980 के दशक में अहमदाबाद में भडक़ी दलित-विरोधी हिंसा और 1985 में गुजरात में ओबीसी-विरोधी हिंसक प्रदर्शनों की जड़ में थे।
हिन्दुत्ववादी नेतृत्व ने इन वर्गों में अपनी पैठ बनाने के लिए ‘सोशल इंजीनियरिंग’ शुरू की और ‘सामाजिक समरसता मंच’ जैसे संगठन स्थापित किए। इनसे चुनावों में भारी लाभ हुआ। यह इससे जाहिर है कि इन वर्गों के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों से बड़ी संख्या में भाजपा सांसद व विधायक निर्वाचित हुए हैं। आरएसएस के प्रचारकों और स्वयंसेवकों की एक बड़ी फौज लंबे समय से दलित और आदिवासी इलाकों में काम कर रही है। वे परोपकार के कामों के साथ-साथ, ‘सोशल इंजीनियरिंग’ भी करते हैं और आदिवासियों का हिन्दूकरण भी।
हिन्दू दक्षिणपंथी, जाति प्रथा की बुराईयों के लिए आक्रान्ता मुस्लिम शासकों को दोषी बताते हैं। वे कहते हैं कि मुस्लिम शासन के पहले सभी जातियां बराबर थीं। भाजपा और उसके संगी-साथी आंबेडकर जयंती तो बहुत जोर-शोर से मनाते हैं, परन्तु जाति जनगणना का विरोध करते हैं जबकि जाति जनगणना ही नीतियों में इस प्रकार के सुधारों की राह प्रशस्त कर सकती है जिनसे हाशियाकृत समुदायों को सच्चे अर्थों में लाभ हो।
इस पृष्ठभूमि में राहुल गाँधी का कर्नाटक के कोलार में दिया गया भाषण महत्वपूर्ण है। उन्होंने जाति जनगणना की मांग का समर्थन किया और कहा कि हाशियाकृत समुदायों के हितार्थ उठाए गए सकारात्मक क़दमों का प्रभाव सरकार के उच्च स्तर पर दिखलाई नहीं पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, भारत सरकार के सचिवों में से केवल सात प्रतिशत इन वर्गों से हैं। राहुल गाँधी ने यह मांग भी की कि ‘यूपीए’ सरकार द्वारा 2011 में करवाई गई जाति गणना की रपट सार्वजनिक की जाये। ‘आंकड़ों से ही हमें पता चलेगा कि ओबीसी, दलितों और आदिवासियों को आबादी में उनके हिस्से के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिल सका है या नहीं।’
भाजपा इस मुद्दे से बचने का प्रयास कर रही है। जिस पार्टी की सरकार ने असम में ‘एनआरसी’ (राष्ट्रीय नागरिकता पंजी) के निर्माण के लिए कठिन, जटिल और जनता के लिए त्रासद कवायद की, उसी पार्टी की सरकार ने 2021 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि जाति-वार जनगणना करवाना ‘प्रशासनिक दृष्टि से कठिन और जटिल’ होगा और इसलिए यह ‘सोचा-समझा नीतिगत निर्णय’ लिया गया है कि इस तरह की जानकारी को जनगणना में शामिल न किया जाए।
‘आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों’ (ईडब्लूएस) को आरक्षण देकर सरकार ने पहले ही आरक्षण के असली उद्देश्यों को पलीता लगा दिया है। अब आठ लाख रुपये प्रति वर्ष से कम आमदनी वाले परिवारों के सदस्य आरक्षण के लिए पात्र हो गए हैं। यह तब जबकि आर्थिक पिछड़ापन कभी भी आरक्षण की पात्रता का आधार नहीं रहा है। आरक्षण की संकल्पना ही जातिगत पिछड़ेपन से जुड़ी हुई है क्योंकि उनकी जाति के कारण कई वर्गों को सामान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते।
आज ज़रुरत इस बात की है कि विभिन्न हाशियाकृत समुदायों की आबादी का ठीक-ठीक अंदाज़ा लगाया जाए और सरकार की नीतियों में इस तरह के परिवर्तन किये जाएँ जिससे अवसरों की असमानता समाप्त हो और समाज में बराबरी आ सके। युवा विद्यार्थियों की आत्महत्या यह रेखांकित करती है कि हमें ‘एससी/एसटी’ व ‘ओबीसी’ के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रहों को समाप्त करना है और एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जिसका अंतिम लक्ष्य जाति का उन्मूलन हो। (सप्रेस) अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया
? लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और वर्ष 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं
-विष्णु नागर
संगीतकार ए आर रहमान ने दो दिन पहले किसी सोशल मीडिया फोरम पर एक पोस्ट साझा की,जिसने नफरती फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ को ध्वस्त सा कर दिया है।इस स्टोरी को साझा करते हुए उन्होंने मुश्किल से दो लाइनें लिखीं- ‘बहुत बढिय़ा। मानवता के प्रति प्रेम में बिना शर्त होना चाहिए।’
इस स्टोरी को देते हुए उन्होंने एक वीडियो शेयर किया,जो आज भी केरल में हिंदू -मुस्लिम रिश्तों की पुख्तगी को बताता है। यह वीडियो 19 जनवरी, 2020 को मस्जिद में हुए एक हिन्दू परिवार की शादी का है।यह दक्षिण केरल के कायमकुलम के चेरुवेली मुस्लिम जमात मस्जिद का किस्सा है।लडक़ी की मां बिन्दु इस मस्जिद में आई और उसने बताया कि 2018 में उसके पति अशोकन की मृत्यु के बाद उसके लिए अपने तीन बच्चों का पालन-पोषण करना मुश्किल हो गया है। ऐसे में रिश्ता तय होने के बावजूद वह अपनी बेटी की शादी नहीं कर पा रही है।
अगले शुक्रवार को मस्जिद समिति ने यह मामला उस दिन आए करीब दस हजार नमाजियों के सामने रखा। तत्काल लोगों ने मदद देना स्वीकार किया।तब समिति ने आगामी बुधवार को पंडित बुला कर हिन्दू रीति से अंजु और शरद की शादी करवाई। शाकाहारी भोजन साध्या की दावत का एक हजार लोगों के लिए प्रबंध किया। सोने के दस सिक्के विवाहित जोड़े को भेंट किए। इसके अलावा बीस लाख रुपए भी दिए।
यह है असली केरल स्टोरी। बेपर की स्टोरी नहीं।
द टेलीग्राफ में छपी यह स्टोरी तो इतना ही बताती है मगर शायद बेटी की मां बिन्दु मदद के लिए किसी और के पास भी गई होगी। वहां से सहायता नहीं मिली होगी, तब उसने यह कदम उठाया होगा और फिर कितने शानदार ढंग से शादी हुई।ऐसी उदारता न हिन्दुओं में खत्म हुई है,न मुसलमानों में।
हां, सब एक जैसे नहीं होते। सांप्रदायिकता है मगर उसमें वह ताकत कहां कि वह सैकड़ों सालों के रिश्तों को एक झटके में हमेशा के लिए खत्म कर दे।
मुबारकबाद इस विवाहित जोड़े को,बेटी की मां बिन्दु को और ए आर रहमान को, जिनकी वजह से यह रियल केरल स्टोरी हम तक पहुंची।
वैसे ‘द केरला स्टोरी’ के प्रचार-प्रसार में स्वयं प्रधानमंत्री जी कूद गए हैं। आज बेल्लारी में इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने कांग्रेस पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया।
इतना हताश मत होइए माननीय।
विनीत खरे
पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने एक खास बातचीत में बीबीसी से कहा कि ‘ये जिम्मेदारी भारत की है कि वो ऐसा माहौल पैदा करे जो बातचीत के लिए सहायक हो।’
बिलावल भुट्टो से बीबीसी ने शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) की बैठक से ठीक पहले बातचीत की, इस बातचीत में उन्होंने कहा कि ‘कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है।’
बिलावल के भारत आने का फैसला कई लोगों के लिए चौंकाने वाला था क्योंकि इससे पहले की बैठकों में पाकिस्तानी मंत्री वर्चुअली हिस्सा लेते रहे थे।
यह किसी पाकिस्तानी विदेश मंत्री की 12 साल बाद हो रही भारत यात्रा थी, उनके एक-एक कदम, एक-एक वाक्य, यहाँ तक कि हर हाव-भाव पर मीडिया की नजरें टिकी रहीं।
पहले ही मीडिया लगातार यह रिपोर्ट कर रहा था कि किस तरह भारतीय विदेश मंत्री ने पाकिस्तानी विदेश मंत्री से हाथ नहीं मिलाया, एससीओ की बैठक खत्म होने के बाद भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री को आतंकवाद का ‘पैरोकार और प्रवक्ता’ बताया।
‘न मदद माँग रहे हैं, न मदद की पेशकश है’
इस वक्त पाकिस्तान भारी राजनीतिक अस्थिरता और भयावह आर्थिक संकट से जूझ रहा है। ऐसी हालत में क्या पड़ोसी देश भारत, पाकिस्तान की कोई मदद कर सकता है?
यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि यह चर्चा चल रही है कि भारत ने पिछले कुछ समय में संकट में फँसे अफगानिस्तान और भूकंप की आपदा के दौरान तुर्की की मदद की है क्या वैसे ही पाकिस्तान की भी मदद की जा सकती है?
यह सवाल जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री के सामने रखा गया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए इतना ही कहा, ‘हम माँग नहीं रहे हैं और वो पेशकश भी नहीं कर रहे हैं।’
भारत का कहना रहा है कि ‘पाकिस्तान जब तक आतंकवाद को बढ़ावा देना बंद नहीं करेगा तब तक उससे बातचीत नहीं हो सकती,’ दूसरी ओर पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने बीबीसी से कहा, ‘जब तक भारत पाँच अगस्त 2019 के अपने फैसले को रिव्यू नहीं करता तब तक बातचीत कारगर नहीं हो सकती।’
पाँच अगस्त 2019 को भारत ने कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करके उसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया था, उसके बाद पाकिस्तान ने भारत के साथ कूटनीतिक रिश्तों का दर्जा घटा दिया था।
गोवा में बिलावल भुट्टो जरदारी ने कहा, ‘मौजूदा हालात में ये भारत पर जिम्मेदारी है कि वो एक ऐसा माहौल पैदा करे जो बातचीत के लिए सहायक हो इसलिए पाकिस्तान के नजरिए से 5 अगस्त 2019 में भारत की ओर से जो कार्रवाई की गई, वो काफी संगीन थी, और जब तक उन्हें रिव्यू नहीं किया जाता दोतरफा बातचीत का कोई मतलब निकलना मुश्किल होगा।’
बिलावल भुट्टो से पूछा गया कि जब वे भारत आए ही हैं तो क्या दोतरफा बातचीत भी करेंगे? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि वे एससीओ की बैठक के लिए ही आए हैं और उन्होंने ‘अपने मेजबान से किसी दोतरफा बातचीत की गुजारिश नहीं की है।’
भारत आने को लेकर पाकिस्तान में हो रही आलोचना के बारे में पूछे जाने पर बिलावल भुट्टो ने कहा, ‘कश्मीर के बारे में हमारे रुख में कोई बदलाव नहीं आया है।’
शुक्रवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि ‘धारा 370 अब इतिहास की बात है।’
आतंकवाद के सवाल पर
एससीओ बैठक के बाद हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत को आतंकवाद से पीडि़त बताया। उन्होंने कहा, ‘आतंकवाद से पीडि़त, आतंकवाद के मुजरिमों से आतंकवाद के बारे में बात नहीं करते।’
बीबीसी से बातचीत में बिलावल भुट्टो जऱदारी ने कहा, ‘पाकिस्तान आतंकवाद से पीडि़त रहा है, एससीओ के किसी भी सदस्य देश के उतने लोगों की जानें आतंकवादी हमलों में नहीं गई है जितनी पाकिस्तान की गई हैं।’
उन्होंने अपनी माँ बेनजीर भुट्टो की हत्या का जिक्र किए बगैर कहा, ‘मैं खुद आतंकवाद से पीडि़त रहा हूँ, मैं यह दर्द निजी तौर पर समझता हूँ।’
उन्होंने कहा, ‘अगर हम वाकई चाहते हैं कि आतंकवाद का हल निकाला जाए तो उसमें से हमें बयानबाजिय़ों और वाजिब चिंताओं को अलग-अलग करना पड़ेगा। भारत की आतंकवाद को लेकर जो वाजिब चिंताएँ हैं, हम भी चाहेंगे कि उनका हल निकले। और पाकिस्तान की भी अपनी चिंताएँ हैं।’
वर्चुअल क्यों नहीं, गोवा में क्यों?
पाकिस्तान में जहाँ कई हलकों में बिलावल भुट्टो की इस भारत यात्रा का स्वागत किया गया, इसकी आलोचना भी हुई।
एक सोच थी कि जब एससीओ बैठक में पाकिस्तानी मंत्री शेरी रहमान वर्चुअली शामिल हुईं, या फिर एससीओ रक्षा मंत्रियों की बैठक में पाकिस्तान वर्चुअली शामिल हुआ तो फिर बिलावल भुट्टो जरदारी को भारत आने की क्या ज़रूरत थी, और वो चाहते तो गोवा की बैठक में वे भी वर्चुअल शामिल हो सकते थे।
पाकिस्तान में बिलावल पर सवाल उठाने वाले लोगों का मानना है कि उन्होंने भारत जाकर पाकिस्तान के पारंपरिक स्टैंड को कमजोर किया है।
बीबीसी से बातचीत में बिलावल भुट्टो जरदारी ने कहा उनका इस बैठक में आना एक पैगाम था कि पाकिस्तान कितनी गंभीरता से संगठन में अपने रोल को देखता है।
उन्होंने कहा, ‘जहाँ तक दूसरों की वर्चुअल शिरकत और मेरी इन-परसन शिरकत की बात है, जो बाकी इवेंट्स हैं वो तकनीकी तौर पर एससीओ के हिस्सा हैं मगर इतने आधिकारिक नहीं हैं जितने ये काउंसिल ऑफ फॉरेन मिनिस्टर और हेड्स ऑफ स्टेट का सम्मेलन।’
‘तो उसे देखते हुए पाकिस्तान के विदेश मंत्री का पाकिस्तान के लिए प्रतिनिधित्व करना, एक अहम फोरम में पाकिस्तान की सोच को सामने रखना, हमारे ख्याल में जरूरी था।’
एससीओ की बैठक में हिस्सा लेने के लिए पाकिस्तान के विदेश मंत्री के गोवा आने के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा, ‘वो यहाँ आए क्योंकि वो एससीओ सदस्य हैं। आप इससे ज्यादा इसमें कुछ और न देखें। इसका मतलब भी इससे ज्यादा नहीं था।’ (bbc.com)
रोहन नामजोशी, मयूरेश कोण्णूर
एनसीपी की कोर कमेटी की शुक्रवार को हुई बैठक प्रस्ताव पारित कर शरद पवार से पार्टी चीफ के पद पर बने रहने की गुजारिश की गई है। हालांकि शरद पवार ने इस पर अभी अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी है।
एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने मंगलवार को कहा कि वो पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देंगे। इसके तुरंत बाद से एनसीपी कार्यकर्ता उनसे इस्तीफा वापस लेने की मांग करने लगे थे। इसके बाद पार्टी के नेता अजित पवार ने कार्यकर्ताओं से कहा था कि च्साहब इस्तीफा वापस नहीं लेंगे और जो फैसला वो लेंगे, सही होगा।ज्
शुक्रवार को एनसीपी की कोर कमेटी की अहम बैठक में शरद पवार के ही नेतृत्व में पार्टी को आगे चलाने पर आम सहमति बनी है।
बहरहाल, हमने कुछ विशेषज्ञों से बात कर समझने की कोशिश की कि अगर पवार अभी भी कोर कमेटी के प्रस्ताव को नहीं मानते हैं तो एनसीपी का अगला अध्यक्ष कौन हो सकता है।
१९९९ में शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया था। संगमा ने पवार के साथ मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की स्थापना की। तब से शरद पवार पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं।
इसलिए उनकी विरासत को कौन आगे बढ़ाएगा, इस सवाल का जवाब देते हुए वरिष्ठ पत्रकार विजय चोरमारे कहते हैं, च्अजित पवार ने बार-बार कहा है कि उन्हें राज्य की राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी है।
पार्टी अध्यक्ष पद में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। इसलिए सुप्रिया सुले पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकती हैं, क्योंकि एक सीमा के बाद उन्हें प्रदेश की राजनीति में भी खास दिलचस्पी नहीं है। वह अपने संसदीय और राष्ट्रीय कार्यों से ख़ुश हैं।ज्
अजित पवार, सुप्रिया सुले या फिर कोई और?
राजनीतिक विश्लेषक हेमंत देसाई भी चोरमारे की बात से सहमत हैं।
वो कहते हैं, च्अजित पवार के लिए अध्यक्ष बनना मुश्किल है, क्योंकि अगर ऐसा होता है तो उन्हें अपना सुर बदलना होगा।
पिछले कुछ समय से अजित पवार बीजेपी की आलोचना करते हुए बिल्कुल भी नजर नहीं आ रहे हैं। साथ ही अजित पवार का प्रभाव उतना नहीं है जितना शरद पवार का है। इसलिए, मुझे लगता है कि सुप्रिया सुले शरद पवार के विचारों की विरासत को आगे बढ़ाएंगी।ज्
बीबीसी मराठी के एक प्रोग्राम में वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले ने अलग राय व्यक्त की।
उनके मुताबिक, शरद पवार के बाद अजित पवार पार्टी में नंबर एक हैं। अजित पवार चाहते हैं कि उनके चाचा रिटायर हो जाएं। इसलिए अजित पवार ही पार्टी के अध्यक्ष बनेंगे।
इस्तीफे की घोषणा के बाद अजित पवार ने कार्यकर्ताओं को शांत करने और उन्हें आक्रामक तरीके से दूर रहने के लिए कहा।
हालांकि, चोरमारे के अनुसार, उन्होंने संरक्षक की भूमिका से कार्यकर्ताओं को समझाने की कोशिश की।
इस्तीफे की टाइमिंग को लेकर उठते सवाल
शरद पवार के राजनीतिक करियर को करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुरेश भटेवारा की राय अलग है।
उनके अनुसार, अदानी के बारे में सकारात्मक राय व्यक्त करने के लिए शरद पवार की आलोचना की गई थी। इसलिए उन्होंने पार्टी के रास्ते में न आने के लिए इस्तीफा दे दिया।
उनके मुताबिक, अजित पवार और सुप्रिया सुले दोनों ही अध्यक्ष नहीं बनेंगे।
भटेवारा के अनुसार, श्रीनिवास पाटिल अगले अध्यक्ष हो सकते हैं।
वो कहते हैं, च्उन्होंने कई संवैधानिक पदों पर कार्य किया है, राजनीति और प्रशासन में व्यापक अनुभव रखते हैं। इसलिए मुझे लगता है कि यह इस पद के लिए उपयुक्त हैं।ज्
एक अहम सवाल खड़ा हो गया है कि आखिर शरद पवार ने इस्तीफा अभी क्यों दिया।
हेमंत देसाई के मुताबिक, उनके स्वास्थ्य और उम्र को देखते हुए अभी इस्तीफा देना उचित ही है।
पुणे लोकमत के संपादक संजय अवटे कहते हैं, च्२०१४ के लोकसभा चुनावों ने पूरा संदर्भ ही बदल दिया। जन्म से ही सत्ता में रही एनसीपी सत्ता से बाहर हो गई।
देश में कांग्रेस का नुक़सान हुआ है। राज्य में भी हालात बिगड़े। फिर भी पवार नई राजनीति में च्प्रासंगिकज् बने रहने की कोशिश करते रहे।
उनके गुरु यशवंतराव चव्हाण के आखिरी दौर ने पवार को बहुत कुछ सिखाया।
इंदिरा गांधी, जिनका यशवंतराव ने विरोध किया, सत्ता में वापस आ गईं और यशवंतराव का राजनीतिक जीवन समाप्त हो गया।
सोनिया का विरोध करने वाले पवार के साथ ऐसा नहीं हुआ, वजह ये है कि सोनिया की राजनीतिक पूंजी कम थी।ज्
राजनीतिक करियर पर एक नजर
शरद पवार ने १९६० में राजनीति शुरू की और छह दशकों तक महाराष्ट्र की राजनीति की धुरी रहे हैं।
आपातकाल के बाद कांग्रेस में दो फाड़ हो गया और पवार च्रेड्डी कांग्रेसज् के साथ चले गए।
जुलाई १९७८ में उन्हें महाराष्ट्र का सबसे कम उम्र का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला।
साल १९८६ में कांग्रेस में वापसी और १९८८ में महाराष्ट्र के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने।
साल १९९३ में, पवार तीसरी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने।
पवार १९९६ से ही केंद्र की राजनीति में अहम किरदार बन गए।
१९९९ में पवार ने सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया और कांग्रेस से अलग होकर च्राष्ट्रवादी कांग्रेसज् बनाई।
महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन का श्रेय मुख्य रूप से पवार को ही दिया जाता है।
पवार बीसीसीआई और आईसीसी के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे।
पवार की प्रासंगिकता
लेकिन, शरद पवार भी सतर्क हैं। संदर्भ कितना भी बदल जाए, पवार जानते हैं कि उन्हें च्प्रासंगिकज् रहना है।
कांग्रेस जैसी ताक़तवर पार्टी को चुनौती देकर अपनी पार्टी बनाने के बाद कैंसर जैसी बीमारी का पता चलने के बावजूद वो लड़ते रहे हैं।
हालांकि, २०१९ के लोकसभा चुनावों ने तस्वीर बदल दी। शरद पवार के राजनीति के अंत की बात होने लगी। पवार से जुड़े लोग पार्टी छोडक़र बीजेपी में शामिल होने लगे।
लेकिन पवार विचलित नहीं हुए। वे इससे बाहर निकले। च्ईडीज् के सामने पेश हुए। बारिश में भीगते हुए प्रचार किया और फिर असंभव को संभव कर दिखाया।
सत्ता हाथ में लेने को तैयार हैं अजित पवार?
जैसे ही शरद पवार ने संन्यास की घोषणा की, हंगामा शुरू हो गया। अजित पवार के हाव-भाव से पता चल रहा था कि वे सभी मुद्दों को अपने हाथ में लेने को तैयार हैं।
सुप्रिया सुले को बोलने से रोका गया। अजित पवार कार्यकर्ताओं को शांत करने की पूरी तरह से कोशिश कर रहे थे।
वहीं, उनकी कुछ बातें उत्साहवर्धक भी थीं। अजित पवार ने कार्यकर्ताओं से तीखी भाषा में कहा, च्समय-समय पर कुछ निर्णय लेने होते हैं, और अगर साहेब की नजर में एक नया अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए, तो आप ऐसा क्यों नहीं चाहते?ज्
उन्होंने ये भी बताया कि ये फैसला पहले ही लिया जा चुका है।
उन्होंने कहा, च्यह काम कभी न कभी तो होना ही था। वे १ मई को ही इसकी घोषणा करने वाले थे, लेकिन कल एक बैठक थी। तो आज दूसरी तारीख है। उन्होंने अपने फैसले का एलान कर दिया। हम वही करेंगे जो उनके मन में है।ज्
इस पूरे मामले में सुप्रिया सुले ने लो प्रोफ़ाइल रखा। वे कार्यकर्ताओं के बीच ऐसी सीट लेकर बैठ गईं जो सीधे कैमरे के एंगल में न आए।
यहां तक कि जब उनसे बोलने का आग्रह किया गया तो वे इससे बचती नजऱ आईं। यहां तक कि उनकी मां भी नहीं चाहती थीं कि वे बोलें।
उन्होंने उन्हें न बोलने की चेतावनी दी। इसके अलावा, अजित पवार ने उन्हें सीधे तौर पर न बोलने के लिए कहा।
हालांकि अजित पवार का यह व्यवहार दिखाता है कि वो सत्ता संभालने के लिए तैयार हैं। लेकिन असल में सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि शरद पवार क्या फ़ैसला लेते हैं। क्योंकि उन्होंने हाल ही में कहा था कि यह रोटी पलटने का समय है। उन्होंने तो रोटी को घुमाने का सिलसिला भी शुरू कर दिया है।
सुरेश भटेवाड़ा का कहना है कि शरद पवार इस फैसले को वापस नहीं लेंगे, च्क्योंकि वह आज तक कभी भी अपने बयान से पलटे नहीं हैं। ऐसे में लगता नहीं है कि वह इस्तीफ़ा वापस ले लेंगे।ज्
लेकिन बालासाहेब ठाकरे ने इस्तीफा दे दिया और पार्टी पर अपनी शक्ति को और मजबूत करने के लिए वापस ले लिया। इसलिए कयास लगाए जा रहे हैं कि शरद पवार भी इस्तीफा वापस ले सकते हैं।
अब एनसीपी की कोर कमेटी ने उन्हें ही पार्टी का अध्यक्ष बनाए रखने का प्रस्ताव पारित किया है। ऐसे में देखना होगा कि शरद पवार अपने फैसले पर क़ायम रहते हैं या उसे बदल देते हैं। (bbc.com)
-नासिरुद्दीन
बात जब स्त्रियों या लड़कियों के बारे में होती है तो बहुत कुछ छिपाये नहीं छिपता. अक्सर हमारे दिल और दिमाग़ में गहरे बैठी असल बातें बाहर निकल ही आती हैं. कई बार वह ढकने की कोशिश से भी नहीं ढकतीं. कई बार हमें यह भी भ्रम होता है कि हम बहुत अच्छी बातें कर रहे हैं.
पिछले दिनों सलमान ख़ान के साथ भी ऐसा ही हुआ. उन्हें लगा कि वे लड़कियों के हितैषी और मुहाफ़िज़ हैं. सलमान 'भाई जान' हैं. उन्होंने लड़कियों के बारे में अपने ख़्यालात ज़ाहिर किये तो तालियाँ भी बटोर लीं.
मगर क्या वे वाक़ई स्त्री हितैषी हैं? या उन्होंने हितैषी बनने के लिए जो बातें कीं, क्या लड़कियों की ज़िंदगी उससे बेहतर हो जायेगी? यह बात कुछ दिनों पहले शुरू होती है.
सलमान के बारे में पलक ने क्या कहा था
पलक तिवारी बॉलीवुड की नवोदित अभिनेत्री हैं. बतौर अभिनेत्री उनकी पहली फ़िल्म सलमान खान के साथ 'किसी का भाई किसी की जान' है.
एक ख़बर के मुताबिक़, उन्होंने सेट पर सलमान ख़ान के एक नियम के बारे में बताया. नियम लड़कियों के लिए था. सलमान के सेट पर किसी भी लड़की को गले तक का कपड़ा पहन कर आना चाहिए. क्यों? क्योंकि कपड़ा गले से नीचे ढलकेगा तो मर्दों की नज़र जायेगी. यह सलमान को पसंद नहीं है. अच्छी लड़कियों की तरह सभी लड़कियों को पूरी तरह ढका होना चाहिए.
यही नहीं, सलमान ख़ान का विचार है कि लड़कियों की हमेशा हिफ़ाज़त करनी चाहिए. लड़कियों को हमेशा महफ़ूज़ रहना चाहिए. पलक भी सलमान की बातों से सहमत नज़र आती हैं. पलक तिवारी की ये बातें पिछले दिनों काफ़ी चर्चा में रहीं.
'अदालत' में बैठे सलमान ने क्या सफ़ाई दी
हाल ही में न्यूज़ चैनल 'इंडिया टीवी' के रजत शर्मा के कार्यक्रम 'आप की अदालत' में सलमान ख़ान मेहमान थे. उनसे पहला ही सवाल पलक तिवारी की उस बात से जुड़ा था.
रजत शर्मा का कहना था उनकी दोहरी नीति है. वे ख़ुद तो झट से शर्ट उतारते हैं और लड़कियों के लिए कपड़े पहनने के नियम बनाते हैं.
सलमान ने पलक की कही अपनी बातों को ही जायज़ ठहराने की भरपूर कोशिश की. वे जवाब देते हैं, 'मैं सोचता हूँ, ये जो औरतों की बॉडीज़ (बदन) हैं, वह कहीं ज़्यादा प्रीशियस (बेशक़ीमती) हैं. तो वह जितनी ढकी हुई होंगी, मुझे लगता है कि बेटर (अच्छी) होंगी.'
सलमान की इस बात पर हॉल में बैठे लोग तालियाँ बजाते हैं. इस बात पर रज़ामंदी में मुस्कुराने और तालियाँ बजाने वालों में महिलाएँ भी हैं.
जब बात आगे बढ़ती है तो सलमान कहते हैं, 'यह लड़कियों का चक्कर नहीं है, यह लड़कों का चक्कर है. जिस हिसाब से लड़के लड़कियों को देखते हैं, आपकी बहनें, आपकी बीवियाँ, आपकी मदर्स, वह मुझे अच्छा नहीं लगता है. मैं नहीं चाहता कि वे इन सब हालात से गुज़रें.'
जब उनसे पूछा जाता है कि लड़कों को क्या सिखा रहे हैं. सलमान का जवाब होता है, 'सब जानते हैं, लेकिन कभी-कभी इनकी नीयत ख़राब हो जाती है तो कोशिश है कि हम जब पिक्चर बनायें तो हम उनको ये मौक़ा न दें कि ये आके हमारी हीरोइन को, हमारी औरतों को उस प्रकार से देखें.' तालियाँ फ़िर बजती हैं.
इस कार्यक्रम की शुरुआत में सलमान कहते हैं कि समस्या यह नहीं है कि क्या पूछेंगे. समस्या है कि मैं जवाब क्या दूँगा?
वाक़ई समस्या सलमान के नज़रिये और जवाब में है.
अच्छी लड़की यानी कैसी लड़की
पलक ने सलमान के हवाले से अच्छी लड़की का ज़िक्र किया है. सवाल है, यह अच्छी लड़की कैसी होती है जिनकी बात ये दोनों कर रहे हैं.
इनकी यानी सलमान जैसे मर्दाना लोगों की अच्छी लड़की सिर्फ़ कपड़ों से नहीं बनती है. सिर्फ़ कपड़ों तक ही नहीं रुकी होती. वे कपड़े से शुरू होते हैं और बहुत आगे तक जाते हैं.
इन जैसों के मुताबिक़, अच्छी लड़की यानी जो सबकी बात माने. पिता, भाई, पति के कहने में रहे. पलट कर जवाब न देती हो. अपने मन की कहती हो न करती हो. ज़्यादा और ज़ोर से बोलती न हो. देर शाम बाहर न घूमती हो. पर-पुरुष से मेलजोल न रखती हो. उछलती-कूदती न हो. घर के मर्दों और सभी की ख़ुशी का ख़्याल रखती हो, रीति-रिवाज, परम्परा का पालन करती हो. घर-समाज की 'इज़्ज़त' का ख़्याल रखती हो और उसे बचा कर रखती हो. घर की ठीक-ठाक देखभाल करना आता हो. वग़ैरह… वगैरह…जोड़ते जाइये और एक लम्बी फ़ेहरिस्त अच्छी लड़कियों के गुणों वाली बनाते जाइये.
यह कैसी लड़की सलमान बनाना चाहते हैं? क्या आज की लड़कियाँ ऐसे ही 'अच्छा' बनना चाहती हैं?
हमारे अगल-बगल पलक जैसी लड़कियाँ हैं, जो अच्छी लड़की के सामाजिक खाँचे में ख़ुद को ढालना चाहती हैं. दूसरी ओर, इसके उलट सोचने वाली लड़कियों की तादाद भी कम नहीं है.
आज की लड़कियाँ जो बन रही हैं और जो बनना चाहती हैं, सलमान जैसों की नज़र में 'बुरी लड़की' होंगी. इसीलिए आज लड़कियों का एक बड़ा समूह यह भी कहने से परहेज़ नहीं करता, 'हाँ, हम बुरी लड़कियाँ हैं. हम इन बातों को मानने से इनकार करती हैं.'
पलक तिवारी (TWITTER/PALAKTIWARII)
बेशक़ीमती शरीर और चालाकी भरी बातें
पितृसत्ता बहुत चालाकी से काम करती है. सलमान की बातें पहली नज़र में किसी को अच्छी लग सकती हैं. इसमें स्त्रियों की चिंता की गयी है. उनकी हिफ़ाज़त की बात है. इसीलिए उनकी बातों पर लगातार तालियाँ बजती हैं. यानी उनकी बातों का समाज में आधार है. समाज में स्त्रियों के बारे में सोचने वाले वे अकेले नहीं हैं. यानी यह एक मज़बूत विचार है, जो हमारे अंदर तक पैठ बनाये हुए है.
सवाल है, क्या वाक़ई में सलमान को स्त्रियों की ही चिंता है?
क्या स्त्री का शरीर ही बेशक़ीमती है?
पुरुष का शरीर बेशक़ीमती क्यों नहीं है?
स्त्री की ज़िंदगी बेशक़ीमती है या शरीर?
जैसे ही किसी को हम बेशक़ीमती मानते हैं, उसे हिफ़ाज़त से छिपा कर रखने की बात करते हैं. इसीलिए कई लोग स्त्री के शरीर की तुलना बेशक़ीमती सामान भी से करते हैं. कुछ तो मिठाइयों से भी कर देते हैं. स्त्री का शरीर बेशक़ीमती है, इसीलिए स्त्री के शरीर का रिश्ता परिवार और समाज की इज़्ज़त से भी जोड़ दिया जाता है. यानी अगर इस बेशक़ीमती शरीर में कुछ हुआ तो समाज के मुताबिक़ धब्बा लग जाता है.
चूँकि उसका शरीर ही बेशक़ीमती है और उसी से इज़्ज़त भी जुड़ी है, तो उसकी हिफ़ाज़त ज़रूरी बन जाती है. हिफ़ाज़त का मतलब, स्त्री पर नियंत्रण. स्त्री पर क़ाबू. उसकी हर गति पर क़ाबू और नज़र.
इसलिए सलमान लड़कियों की हिफ़ाज़त और उन्हें महफ़ूज़ रखने की ज़िम्मेदारी ख़ुद पर यानी मर्दाना समाज पर लेते हैं. यह मासूम चिंता से भरी बातें असल में लड़की या स्त्री को ख़ुद के चंगुल में दबाये रखने के सिवा और कुछ नहीं है.
यह है कि हम हैं तो लड़कियाँ सुरक्षित हैं. आओ लड़कियों, हम तुम्हें सुरक्षित रखेंगे! यही नहीं, यह लड़की के आज़ाद हैसियत और व्यक्तित्व से इनकार भी है. यानी लड़की ख़ुद अपना भला-बुरा नहीं सोच सकती. सोचने के लिए उसे सलमान जैसा मर्दाना विचारवान पुरुष चाहिए. वह अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद नहीं कर सकती. उसकी हिफ़ाज़त कोई 'भाई' या कोई 'टाइगर' ही कर सकता है.
कपड़े से होती हिंसा
क्या हिंसा का कोई रिश्ता कपड़े से भी है. सलमान की बातों से तो ऐसा ही लगता है. इसीलिए वे उन कपड़ों के ख़िलाफ़ हैं जो लड़कियों के गले से नीचे आती हैं. क्योंकि इसी के साथ लड़कों की नज़र भी गिरती जाती है.
अगर सलमान की मानें तो महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के लिए ज़िम्मेदार उनके ही कपड़े हैं. यह तर्क, वैसा ही है जैसा लड़कियों के साथ होने वाली यौन हिंसा के बाद हमारा समाज अक्सर देता है. जैसे- लड़कियों के कपड़े चुस्त थे. भड़कीले और भड़काऊ थे. छोटे कपड़े पहन रखे थे.
शरीर दिखाई दे रहा था… मगर हम जानते हैं कि लड़कियों के साथ हिंसा के लिए कपड़े नहीं, मर्द ज़िम्मेदार हैं. लड़कियाँ चाहे जैसा भी कपड़ा क्यों न पहनें, हिंसक मर्द हिंसा के लिए कपड़ा नहीं देखता है.
घर के अंदर होने वाली यौन हिंसा हो या राह चलती लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा- वजह कपड़ा नहीं होता.
दूध पीती बच्ची के साथ यौन हिंसा हो या किसी बुजुर्ग के साथ, वजह कपड़ा नहीं होता.
हिंसक मर्द सिर से पैर तक कपड़े में लिपटी किसी भी लड़की या स्त्री को आर-पार देखने की ताक़त रखता है. इसलिए यह समझ ही ग़लत है कि लड़कियों के साथ हिंसा, उनके कपड़ों की वजह से होती है.
सवाल लड़कों का है तो बात लड़कों पर होनी चाहिए
सलमान बहुत ख़ूबसूरती से यह बात मानते हैं कि यह सब जो है, वह लड़कियों का नहीं लड़कों का चक्कर है. लड़कों की नीयत ख़राब हो जाती है. यानी लड़कों की ख़राब नीयत से बचाने के लिए लड़कियों पर क़ाबू रखना ज़रूरी है, ऐसा सलमान की बातें कहती हैं.
हालाँकि, मसला तो लड़कियों का है ही नहीं. मसला है मर्दाना नज़रिये का. लड़कों का. लड़कों की बेअंदाज़ हरकतों का. लड़कों की परवरिश का.
कोई यह क्यों नहीं पूछता कि सलमान, लड़कों की नीयत इतनी कमज़ोर क्यों है, जो बात-बात पर डिग जाती है? जो लड़की देखते ही डिगने लगती है? लड़की की चमड़ी दिखी नहीं कि वह नीयत, बदनीयत होने लगती है? तो दिक़्क़त कहाँ और किसमें है? लड़कियों में या लड़कियों के कपड़े में?
सलमान गंभीर मर्ज़ की ग़लत दवा बता रहे हैं. मर्ज़ की वजह दबंग मर्द या लड़के हैं तो दवा की ज़रूरत मर्दों या लड़कों को है. लड़कियों को नहीं. अगर मर्ज़ की वजह मर्दों की नज़र-नज़रिया है तो बदलने की ज़रूरत उस नज़र-नज़रिये को है, कपड़े को नहीं.
तो बात लड़कों-मर्दों की ही की जानी चाहिए. कितना बेहतर होता अगर सलमान अपने सुपर हीरो की छवि का इस्तेमाल लड़कों को हमदर्द मर्द बनाने में करते.
उन्हें अपनी नज़र और नज़रिया बेहतर करने की वकालत करते. लेकिन दिक़्क़त तो यह भी है कि बात-बात पर कपड़े उतारने वाले सलमान फ़िल्मों में जैसे मर्द की छवि बनाते हैं…वैसे मर्द स्त्री के साथी- दोस्त-हमदर्द नहीं बन सकते. इसलिए नये मर्द की छवि उन्हें भी गढ़नी होगी. (bbc.com/hindi)
विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में आज भी महिलाएं लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं. इस क्षेत्र में महिलाओं की बराबरी के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन चुनौतियां अब भी कम नहीं हुई हैं.
डॉयचे वैले पर कोमिका माथुर का लिखा-
भारत के मिशन मंगलयान से लेकर चंद्रयान-2 तक की सफलता के पीछे कई महिला वैज्ञानिकों का हाथ है. विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में महिलाओं की इस भागीदारी का खूब जश्न भी मनाया गया है. इसके बावजूद आज भी यह क्षेत्र पुरुष प्रधान है. महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों और योजनाओं के बावजूद विज्ञान की दुनिया में महिलाएं लगातार पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव से जूझ रही हैं.
पुरुष प्रधान हैं ज्यादातर प्रयोगशालाएं
दिल्ली यूनिवर्सिटी के मिरांडा हाउस कॉलेज के फिजिक्स डिपार्टमेंट में एसोसिएट प्रोफेसर आभा देव हबीब बताती हैं, "मेरी बहन को एक प्रोफेसर ने अपनी लैब में काम नहीं करने दिया. एक-डेढ़ साल तक उसका समय बर्बाद करने के बाद कहा कि वह अपनी लैब में पुरुष स्कॉलर को लेना पसंद करते हैं." हबीब का कहना है कि इस घटना ने उनकी बहन का मनोबल तोड़ कर रख दिया था. आखिरकार उन्हें विदेश जाकर आगे की पढ़ाई करनी पड़ी.
भारत में ना सिर्फ अधिकतर प्रयोगशालाएं, बल्कि फैकल्टी के सदस्य भी पुरुषों के वर्चस्व वाले हैं. माना जाता है कि पढ़ाई की मदद से लैंगिक भेदभाव को कम किया जा सकता है लेकिन साइंस और रिसर्च के क्षेत्र में इसका ठीक उल्टा हो रहा है. इतनी पढ़ाई-लिखाई के बावजूद यहां आज भी महिलाओं को लेकर वही रूढ़िवादी सोच कायम है. आईआईटी दिल्ली के फिजिक्स डिपार्टमेंट से पोस्ट डॉक्टरेट फेलोशिप कर रहीं नयनी बजाज बताती हैं, "इस क्षेत्र में में जितना ऊंचाई पर जाते हैं, लैंगिक असमानता की घटनाएं बढ़ती जाती हैं. ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन लेवल पर फिर भी सब ठीक रहता है, लेकिन असल दिक्कतें उसके बाद पेश आती हैं."
पुरुषों को दी जाती है प्राथमिकता
ग्रेजुएशन और मास्टर्स दिल्ली से करने के बाद फिजिक्स में पीएचडी के लिए नयनी ने जब मुंबई के भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) में दाखिला लिया तो जिस लैब में उनकी रिक्रूटमेंट हुई, वहां वह अकेली लड़की थीं. नयनी बताती हैं, ‘पीएचडी पूरी करने के बाद मैं पोस्ट डॉक्टरेट के लिए बाहर जाना चाहती थी. मैंने अपने प्रोफेसर से रिकमेंडेशन लेटर देने के लिए कहा तो उन्होंने मुझसे कहा, "तुम्हारी उम्र शायद 29 के आसपास होगी. जल्दी ही तुम्हारी शादी हो जाएगी. मेरे खयाल में शादी हो जाने के बाद तुम्हें इस बारे में अपने पति से सलाह-मशविरा करना चाहिए. फिर आगे का कोई फैसला लेना चाहिए"
बजाज कहती हैं, "यह सुनकर मैं हैरान थी. उन्होंने मुझे रिकमेंडेशन लेटर नहीं दिया. मेरी जगह एक पुरुष स्कॉलर को यह मौका दिया गया."
बेंगलुरु के जवाहरलाल नेहरु सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च से एक्सपेरिमेंटल फिजिक्स में पीएचडी कर रही सुधा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि एक्सपेरिमेंटल फिजिक्स में पूरी तरह पुरुषों का दबदबा है. यहां प्रयोगशालाओं में भारी-भरकम मशीनों और इंस्ट्रूमेंट्स पर काम करना होता है. महिलाओं को लेकर लंबे समय चली आ रही धारणाओं के आधार पर यह सोच लिया जााता है कि उनमें ऐसी प्रयोगशालाओं में काम करने का ना तो स्टैमिना है और ना ही वह अपने काम को उतना वक्त दे सकती हैं, जितना कि पुरुष. कॉन्फ्रेंसों में भी पुरुषों के विचारों को ज्यादा तरजीह दी जाती है.
बढ़ रही है विज्ञान विषयों में छात्राओं की दिलचस्पी
इस क्षेत्र में लैंगिक असमानता का यह आलम है कि कई महिलाएं कॉन्फ्रेंस में सवाल ही नहीं पूछतीं, ना ही खुल कर अपनी बात कह पाती हैं. सुधा बताती हैं कि ऐसा करने के पीछे सिर्फ एक कारण है और वह यह कि कहीं उनकी किसी बात से प्रोफेसरों या समकक्ष पुरुषों का मेल ईगो आहत हो गया तो उन्हें जो थोड़ा-बहुत मौका दिया जा रहा है, वह भी नहीं दिया जाएगा. आखिर में सुधा हंसते हुए कहती हैं, "मैं भी इसी वजह से नहीं चाहती कि मेरा असली नाम लिखा जाए."
"साइंस के लिए नहीं बनी हैं महिलाएं!"
अपना एक और अनुभव साझा करते हुए नयनी बजाज बताती हैं, "रिसर्च इंस्टीट्यूट में आने के बाद मुझे एहसास हुआ कि यहां फैकल्टी और पुरुष स्कॉलर्स के दिमाग में कहीं पीछे यह सोच हावी रहती है कि महिलाएं साइंस के लिए नहीं बनी हैं. कुछ वक्त पहले अपनी लैब में एक इंस्ट्रूमेंट ठीक करने आए इंजीनियर से मैंने उनकी कंपनी में वेकेंसी के लिए पूछताछ की, तो उन्होंने जवाब दिया कि आपके प्रोफाइल से मैच करती वेकेंसी है पर कंपनी उस पोस्ट के लिए पुरुष कैंडिडेट की तलाश कर रही है."
मिरांडा हाउस में फर्स्ट ईयर के छात्रों को फिजिक्स पढ़ा रहीं प्रोफेसर आभा का कहना है कि पुरुष आज भी यही सोचते हैं कि साइंस और मैथ्स में लड़कियों के नंबर आ जाते हैं बस. नंबर आने में और टेक्निकल चीजें समझने में बहुत फर्क है. पुरुषों को महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा बुद्धिमान माना जाता है.
‘पविनारी' तोड़ने की कोशिश कर रही है यह छवि
मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की इंडियन फिजिक्स एसोसिएशन का जेंडर इन फिजिक्स वर्किंग ग्रुप (जीआईपीडब्ल्यूजी) इस दिशा में काफी काम कर रहा है. इस ग्रुप का मुख्य उद्देश्य है फिजिक्स के क्षेत्र में लैंगिक समानता लाना, जिसके तहत जीआईपीडब्ल्यूजी ने पविनारी की शुरुआत की है. पविनारी यानी पदार्थ विज्ञान की नारियां. इसके तहत प्रमुख महिला भौतिक वैज्ञानिकों पर एक पब्लिक लेक्चर सीरीज पेश की जाती है. पविनारी का उद्देश्य है प्रमुख महिला वैज्ञानिकों के शानदार काम को संजोना और युवा पीढ़ी को प्रेरित करना.
यूट्यूब पर मौजूद इसी सीरीज के एक लेक्चर में स्कूल ऑफ फिजिक्स, यूनिवर्सिटी ऑफ हैदराबाद की रिटायर्ड प्रोफेसर बिंदू ए बांबा कहती हैं, "ज्यादातर साइंटिफिक रिसर्च जो मैंने देखी हैं, वे इस आधार से शुरू होती हैं कि महिलाएं पुरुषों जितनी अच्छी नहीं हैं. लेकिन असल में ऐसा है नहीं. महिलाएं इस क्षेत्र में ना सिर्फ पुरुषों के बराबर हैं, बल्कि कई परिस्थितियों में उनसे बेहतर भी हैं. पविनारी का उद्देश्य एक ऐसी दुनिया बनाना नहीं है, जहां महिलाओं को विशेषाधिकार दिए जाएं, बल्कि एक ऐसी दुनिया बनाना है, जहां महिलाएं और पुरुष समान हों."
बांबा के मुताबिक ऐसा देखा गया है कि महिलाएं एमएससी तक बहुत अच्छा स्कोर करती हैं. अपनी क्लास में टॉप करती हैं लेकिन उसके बाद यह ग्राफ नीचे गिरता जाता है. इसकी बड़ी वजह है ब्रेन ड्रेन. देश की आधी आबादी को वैज्ञानिक अवसरों से दूर करने की कोशिश कर जाती है. ऐसा करना एक तरह से देश को असाधारण रचनात्मकता से वंचित करना है.
भौतिक विज्ञान के क्षेत्र से जुड़ी अधिकतर महिलाओं का यह भी मानना है कि इस क्षेत्र में महिलाओं को बराबरी के मौके तभी मिलेंगे, जब फैकल्टी और लैब में लैंगिक संतुलन होगा. ये महिलाएं छात्रों की रोल मॉडल बन सकती हैं और ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को इस क्षेत्र में आने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं. (dw.com)
राज्यसभा सदस्य जॉन ब्रितास को अध्यक्ष जगदीप धनखड़ ने उनके एक लेख पर नोटिस भेजा है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या इस तरह अध्यक्ष द्वारा किसी सांसद को उसके लेख पर सफाई देने के लिए बुलाना लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुकूल है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
नोटिस सीपीएम द्वारा मनोनीत राज्यसभा सदस्य जॉन ब्रितास को 20 फरवरी को इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपे उनके एक लेख पर भेजा गया है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ब्रितास के लेख के खिलाफ केरल में बीजेपी के महासचिव पी सुधीर ने भारत के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा अध्यक्ष जगदीप धनखड़ से शिकायत की थी.
'पेरिल्स ऑफ प्रोपगैंडा' (प्रोपगैंडा के खतरे) शीर्षक से छपे इस लेख में ब्रितास ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा कर्नाटक में एक चुनावी सभा के दौरान दिए गए भाषण का जवाब दिया है.
क्या है मामला
फरवरी में कर्नाटक के मंगलुरु में दिए गए इस भाषण में शाह ने कहा था, "आपके पड़ोस में केरल है. मैं और कुछ कहना नहीं चाहता. सिर्फ मोदी के नेतृत्व में भाजपा ही कर्नाटक को बचा सकती है."
उस समय शाह की टिप्पणी की केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने भी आलोचना की थी और शाह से अपनी बात के मतलब को स्पष्ट करने के लिए कहा था. ब्रितास ने अपने लेख में लिखा था कि गृह मंत्री की टिप्पणी केरल के प्रति उनकी "घृणा की सूचक है" जहां "बीजेपी चुनावी लाभ हासिल करने में असफल रही है."
ब्रितास ने यह भी लिखा था, "शाह द्वारा समय समय पर केरल को निशाना बना कर इस तरह की बातें करना उनकी हताशा का सबूत है. साथ ही यह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने, इस देश को बीते हुए युग में ले जाने और मनुस्मृति को संविधान की जगह देने की कोशिश का भी सबूत है."
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सुधीर ने इस लेख के खिलाफ शिकायत करते हुए धनखड़ को लिखा था कि यह लेख "बहुत भड़काऊ, विभाजनकारी, राजद्रोही और साम्प्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण करने वाला" है.
सुधीर के मुताबिक ब्रितास ने "खुले आम धर्म के आधार पर देश के विभाजन के लिए प्रोत्साहन किया और सक्रिय रूप से केंद्र सरकार के खिलाफ नफरत भड़काई."
सांसदों ने की आलोचना
ब्रितास ने पत्रकारों को बताया कि उन्हें धनखड़ से मिलने के लिए बुलाया गया था और जहां अध्यक्ष ने उनसे उनके विचारों के बारे में पूछा. उन्होंने यह भी कहा कि उनके खिलाफ की गई शिकायत की निंदा की जानी चाहिए और उन्हें भरोसा है कि अध्यक्ष धनखड़ उनके अधिकारों की रक्षा करेंगे.
धनखड़ या उनके कार्यालय ने अभी तक इस विषय में कोई बयान नहीं दिया है. लेकिन दूसरे सांसदों ने इस पूरे प्रकरण की निंदा की है. तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने ट्विटर पर लिखा कि उन्होंने "ऐसी बेतुकी बात कभी नहीं सुनी."
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा है कि उन्हें ऐसा कोई आधार नजर नहीं आता जिसके बिनाह पर राज्यसभा अध्यक्ष एक सांसद को उन विचारों के लिए नोटिस भेज सकते हैं जो उसने सदन के बाहर व्यक्त किए हैं.
ब्रितास सांसद होने के अलावा सीपीएम के कई प्रकाशनों से जुड़े रहे हैं और अभी कैराली टीवी चैनल के प्रबंधक निदेशक हैं. वो 2016 से 2021 के बीच केरल के मुख्यमंत्री के सलाहकार भी रह चुके हैं. (dw.com)
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बढ़ती लोकप्रियता और इस्तेमाल के कारण दुनियाभर में सरकारें चिंतित हैं और नियम कायदे बनाने में जुटी हैं. यूरोपीय संघ का कानून इस साल आ सकता है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
इस साल यूरोपीय संघ में एक समझौता हो सकता है, जिसके तहत आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की सीमाएं तय करने के लिए कायदे-कानून बनाए जाएंगे. यूरोपीय संघ में तकनीक से जुड़े नियमों के लिए जिम्मेदार मार्गरेटे वेस्टागेर ने रविवार को कहा कि यह कानून आर्टिफिशियल से जुड़ा दुनिया का पहला कानून होगा.
पिछले हफ्ते ही यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के बीच आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक्ट के मसौदे पर शुरुआती सहमति बनी थी. इस मसौदे पर 11 मई को यूरोपीय संसद में वोटिंग होनी है. उसके बाद सदस्य देशों और यूरोपीय आयोग के साथ मिलकर बिल के मसौदे को अंतिम रूप दिया जाएगा.
वेस्टागेर रविवार को जापान के ताकाशाकी में थीं, जहां जी-7 देशों के डिजिटल मंत्रियों की बैठक हो रही थी. इस बैठक के बाद पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि यूरोपीय संघ का एआई एक्ट नई तकनीक के विकास का समर्थक है और इसका मकसद उभरती नई तकनीकों के सामाजिक खतरों को कम से कम करना है.
चिंतित हैं सरकारें
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के तेज उभार और जिंदगी के हर पहलू पर उसके व्यापक असर के कारण दुनियाभर की सरकारें इससे जुड़े नियम बनाने पर विचार कर रही हैं. वेस्टागेर कहती हैं कि एआई का गलत इस्तेमाल कहीं ज्यादा महंगा पड़ सकता है.
उन्होंने कहा, "हम ये नियम इसलिए बना रहे हैं क्योंकि अगर खतरनाक रूप से (एआई का) गलत इस्तेमाल होता है तो उसके खतरों से निपटना कहीं ज्यादा महंगा और नुकसानदायक होगा.”
यूरोपीय संघ का एआई एक्ट इस साल पारित हो जाने की संभावना है लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इन नियमों को लागू होने में कई साल तक लग सकते हैं. हालांकि वेस्टागेर ने कहा कि उद्योगों को नए नियमों के लिए तैयार हो जाना चाहिए.
एक इंटरव्यू में वेस्टागेर ने कहा, "किसी तरह की झिझक नहीं होनी चाहिए और जहां-जहां भी एआई का व्यापक प्रभाव है, वहां बदलाव के लिए विमर्श शुरू कर देना चाहिए और इस बात का इंतजार नहीं करना चाहिए कि कानून पारित होंगे और फिर लागू किए जाएंगे.”
फायदे और नुकसान की तुलना
यूं तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस दशकों से मौजूद है और इस क्षेत्र में गहन शोध हो रहा है, लेकिन पिछले साल ओपन एआई नामक कंपनी द्वारा जारी चैटजीपीटी और मिडजर्नी जैसे सॉफ्टवेयर आम जीवन में भी क्रांतिकारी रूप से लोकप्रिय हो रहे हैं.
इन तकनीकों की बढ़ती लोकप्रियता ने सरकारों को इनकी असीमित वृद्धि के प्रति चिंता में डाल दिया है और वे इन्हें काबू करने के नए रास्ते खोजने को मजबूर हुए हैं.
इलॉन मस्क के समर्थन वाली एक संस्था के अलावा यूरोपीय संघ के एआई एक्ट का मसौदा तैयार करने में शामिल नेताओं ने भी पूरी दुनिया के नेताओं से आग्रह किया है कि वे एआई को किसी तरह की अव्यवस्था फैलाए जाने से रोकने के लिए साथ मिलकर काम करें.
जी-7 देशों के डिजिटल मंत्री रविवार को जापान में एआई नियमों को लेकर नियम बनाने पर भी सहमत हुए. इस सहमति में यह स्पष्ट किया गया है कि ये नियम संभावित खतरों पर आधारित होंगे.
वेस्टागेर ने कहा, "अब जबकि एआई लोगों की उंगलियों पर पहुंच चुकी है, तो जरूरी है कि हम एक राजनीतिक नेतृत्व दिखाएं और सुनिश्चित करें कि हर कोई इसका इस्तेमाल सुरक्षित रूप से करे और इसकी अद्भुत संभावनाओं को उत्पादकता व सेवाओं की बेहतरी के लिए प्रयोग किया जाए.”
चैटजीपीटी की लोकप्रियता
चैटजीपीटी एक सॉफ्टवेयर है जो तमाम तरह के काम कर सकता है. उसके अपने शब्दों में, "चैटजीपीटी (ChatGPT) एक बड़ा भाषा मॉडल है जो ओपनएआई द्वारा तैनात किया गया है. यह जीपीटी-3.5 आर्किटेक्चर पर आधारित है जो भाषा विकास के क्षेत्र में नवीनतम प्रौद्योगिकी का उपयोग करता है. यह मॉडल टेक्स्ट संशोधन, समानार्थी शब्दों, अनुवाद और वाक्य संरचना जैसे बहुत सारे भाषा संबंधी कार्यों के लिए उपयोग किया जाता है. यह बहुत सारे क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है, जैसे शिक्षा, संगणक विज्ञान, वित्त, स्वास्थ्य और मीडिया.”
यह जवाब चैटजीपीटी ने हिंदी में ही दिया है. इस एप्लिकेशन के इस्तेमाल से लिखने और अनुवाद करने से लेकर सॉफ्टवेयर के लिए कोड लिखना तक बच्चों का खेल हो गया है. इलॉन मस्क आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल और उभार को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर करते रहे हैं.
उन्होंने कुछ संदर्भों में एआई को खतरनाक और भयानक बताया है जो मानव जाति के लिए खतरे का संकेत हो सकते हैं. वह यह भी कहते हैं कि यदि एआई को संवेदनशीलता के साथ विकसित नहीं किया जाता है, तो इससे मानव जाति को बड़ी आपदाएं भी हो सकती हैं.
उन्होंने एक बार अपने ट्वीट में एआई को "दिवालिया" कहा था. इसके अलावा, उन्होंने इसे "इंसान के जाने बिना दूसरे पहलुओं को देख सकने वाली विनाशक" शक्ति भी कहा है.
हालांकि, उन्होंने एक बार अपने ट्वीट में इसे "संजीवनी बूटी" भी कहा था. उन्होंने इसके संभावित फायदों पर भी बात की थी, जिनसे मानव जाति को लाभ हो सकता है जैसे कि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, ऑटोमेशन, जीवन की सुविधाओं में सुधार और अधिक संभावना आदि. (dw.com) (रॉयटर्स)
-सुदीप ठाकुर
महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की विचारधारा ने दुनियाभर के जनांदोलनों और संघर्षों को प्रेरित किया है। अपने शुरुआती सार्वजनिक जीवन के दो दशक गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में बिताए थे, जहां उनके संघर्ष की बुनियाद ही नस्लीय भेदभाव के खिलाफ थी, जिसका प्रभाव नेल्सन मंडेला के संघर्ष में भी बाद के वर्षों में नजर आया था। मंडेला की तरह ही अमेरिका में नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष करने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी गांधी से प्रभावित और प्रेरित थे। हालांकि ऐसा कम ही हुआ है, जब श्रमिक आंदोलनों में गांधी की भूमिका को रेखांकित किया गया। जबकि वास्तविकता यह है कि 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के कुछ वर्ष बाद ही गांधी ने एक श्रमिक आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसे भारत में श्रमिक आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है।
भारत लौटने के दो वर्षों बाद ही 1917 में चम्पारण में नील की खेती करने वाले किसानों के आंदोलन का गांधी ने नेतृत्व किया था। अंग्रेज शासकों के निर्देश पर जमींदार और साहूकार गरीब, भूमिहीन किसानों से जबर्दस्ती नील की खेती करवाते थे, ताकि इंग्लैंड और यूरोप में नील की आपूर्ति की जा सके। इससे खेती बर्बाद हो रही थी। अन्न उपजाना मुश्किल हो गया था। अपने देश में इस आंदोलन में गांधी ने सत्याग्रह और अहिंसा का पहला प्रयोग किया था। यह तकरीबन वही समय था, जब दुनिया प्लेग की महामारी से जूझ रही थी, जिससे भारत का बड़ा हिस्सा भी प्रभावित था।
प्लेग का एक बड़ा असर अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में नजर आया जहां आम तौर पर प्रवासी मजदूर काम करते थे। शहर से मजदूरों का पलायन शुरू हो गया। इससे परेशान होकर कपड़ा मिल मालिकों ने श्रमिकों को प्लेग बोनस की पेशकश कर दी। यह उनके वेतन का 75 फीसदी तक था। इसका असर भी हुआ। उस समय अहमदाबाद के मिल मालिकों को प्रवासी मजदूरों की कितनी जरूरत थी, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शहर की पूरी अर्थव्यवस्था इस पर निर्भर थी। आखिर पिछली सदी के शुरुआती दशकों में अहमदाबाद को अपनी कपड़ा मिलों के कारण मैनेचेस्टर ऑफ ईस्ट यूं ही नहीं कहा जाता था। जनवरी, 1918 के आसपास जब प्लेग का असर कम होने लगा तब मिल मालिकों ने श्रमिकों को दिया बोनस और अन्य सुविधाएं वापस ले लीं। मगर श्रमिकों ने बढ़ती कीमतों का हवाला देकर वेतन में बढ़ोतरी की मांग की, लेकिन मिल मालिक इसके लिए तैयार नहीं थे। श्रमिकों ने एक सामाजिक कार्यकर्ता अनुसूइयाबेन साराभाई से संपर्क किया, जो कि पहले से श्रमिकों के बच्चों के लिए काम कर रही थीं। वह उनकी आवाज उठाने के लिए तैयार हो गईं, जबकि वह खुद एक मिल मालिक अम्बालाल साराभाई की बहन थीं।
उन दिनों गांधी देशभर में घूम जरूर रहे थे, लेकिन अपना ठिकाना अहमदाबाद में बना रखा था। वह प्रशिक्षित वकील भी थे और दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष के कारण सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उनकी पहचान बन चुकी थी। श्रमिकों के आंदोलन के बीच में ही गांधी परिदृश्य में आते हैं और जैसा कि दस्तावेज बताते हैं, उन्हें जिले के ब्रिटिश कलेक्टर की पहल पर मिल मालिकों और श्रमिकों के बीच मध्यस्थता की जिम्मेदारी दी जाती है। श्रमिक पचास फीसदी वेतन वृद्धि की मांग करते हैं, लेकिन मिल मालिक 20 फीसदी से एक पैसा अधिक देने को तैयार नहीं होते। बात टूट जाती है और मिल मालिक तालाबंदी कर देते हैं। इसके साथ ही गांधी की भूमिका भी बदल जाती है और अब वह खुलकर श्रमिकों के पक्ष में आ जाते हैं और श्रमिकों की हड़ताल का एलान करते हैं।
अंततः मिल मालिक गांधी की पहल पर श्रमिकों के वेतन में 35 फीसदी की वृद्धि के लिए तैयार हो जाते हैं। यह पूरा आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से चला था, जबकि उसी दौरान कई जगहों पर श्रमिक आंदोलनों के हिंसक होने के कई वाकये हो चुके थे।
इसी आंदोलन की पृष्ठभूमि में गांधी की मदद से अनुसूइयाबेन साराभाई ने टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन (टीएलए) की स्थापना की थी, जो कि कई दशकों तक प्रभावशाली ट्रेड यूनियन बना रहा।
यह पूरा घटनाक्रम ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में उपलब्ध है और कई किताबों तथा जर्नल में इसका जिक्र है। मसलन रामचंद्र गुहा ने गांधी की जीवनी में इसका जिक्र किया है। इसी तरह से सुब्बैया कन्नपन ने 1962 के अपने एक आलेख द गांधियन मॉडल ऑफ यूनियनिज्म इन ए डेवलपिंग इकनॉमी (आईएलआर रिव्यू) में इस पर विस्तार से लिखा है।
ध्यान रहे, गांधी ने श्रमिकों की मांग को लेकर अनशन करने के साथ ही एलान किया था कि जब तक उनकी मांगें नहीं मानी जाएंगी वे मोटरकार में भी नहीं चलेंगे। कई हजार श्रमिकों को एकजुट करके शांतिपूर्ण सफल आंदोलन करने की यह अनूठी मिसाल थी।
आज जब गांधी और उनकी विचारधारा पर लगातार हमले हो रहे हैं और श्रमिक हाशिये पर धकेले जा रहे हैं, यह घटना याद आ गई। प्लेग फैलने के करीब सौ साल बाद जब 2020 में कोरोना महामारी फैली, तब भी श्रमिकों पर पहाड़ टूटा था। प्रधानमंत्री मोदी ने जब कुछ घंटे के नोटिस पर देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की थी, तब हम सबने देखा था कि किस तरह से करोड़ों प्रवासी मजदूर महानगरों से बेबसी और हताशा में अपने घरों को लौट रहे थे। गांधी होते तो निश्चय ही उनकी प्राथमिकता में ये श्रमिक होते। भारत आज दुनिया की तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था बन चुका है, लेकिन इसका एक बड़ा कामगार वर्ग आर्थिक मुश्किलों का सामना कर रहा है। आज भी असंगठित क्षेत्र में करोड़ों श्रमिकों के काम के घंटे और छुट्टियां तक ठीक से तय नहीं हैं। जबकि एक मई, 1889 को अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस यानी मई दिवस की शुरुआत ही श्रमिकों के इन्हीं बुनियादी अधिकारों को लेकर हुई थी।
अनुसूइयाबेन साराभाई और गांधी के अहमदाबाद के कपड़ा मिल श्रमिकों के आंदोलन को याद करें, तो सचमुच श्रमिकों के हक में नई राह खुल सकती हैं।
By Dinesh Akula
July 18, 2003, Friday, 10 PM - The warm water cascaded down my body, washing away the grime and fatigue from my long journey to Mahasamund. I was barely home when my brother knocked on the bathroom door, his voice urgent, informing me that someone was calling me to Ganj police station in Raipur.
Wrapped in a towel, water dripping from my hair, I returned the call. I learned that BJP leader Nand Kumar Sai was staging a dharna at the police station with a handful of supporters. Intrigued by the unusual situation and the absence of other media personnel, I hastily dressed and rushed to the scene.
The dimly lit police station appeared eerie that night, the tension palpable in the air. Mr Sai, usually an imposing figure, seemed unusually distressed. In hushed tones, he confided that his daughter, Priyam Sai, was missing, and he believed the then Chief Minister Ajit Jogi was responsible for her alleged kidnapping.
As a reporter for Star News (now ABP News), I knew the timing of this story was crucial. The national executive meet was underway in Raipur, and top leaders including Prime Minister Atal Bihari Vajpayee and Lal Kishen Advani were in attendance. I was competing for scoops with top media personalities such as Ravish Kumar, Nalin Mehta, Sanjeev Singh, Pankaj Jhan, Deepak Chaurasia, Arnab Goswami, and Pallavi Ghosh.
I phoned the Chief Minister's residence to get Mr Jogi's version of the story, but they said they would update me the following day. As I hung up, I implored Mr Sai not to speak to anyone else, hoping to secure the exclusive. He eventually left the police station, leaving me to ponder the gravity of his allegations.
The next morning, July 19th, at 6 AM, we broke the news on television. Headlines blared about the mysterious disappearance of Sai's daughter, and I anxiously awaited a response from the Chief Minister's residence. However, Deepak Chaurasia scooped me by securing an interview with Priyam Sai, which aired on Aaj Tak. My office was furious, leaving me to scramble for a way to recover the story.
In desperation, I contacted my sources in the CM camp and managed to speak with Amit Jogi, Ajit Jogi's son. He assured me that as a friend, I would not be disappointed. True to his word, I soon received a call instructing me to meet a mysterious contact outside the Congress office at Gandhi Chowk, near Rang Mandir.
There, I was handed a pre-recorded interview with Priyam Sai. In the video, she confessed that she had left her father and the BJP of her own accord, unhappy with their politics. She and her husband, Iswar Sai, had joined the Congress willingly. Amit Jogi called me afterwards, dismissing the allegations as baseless and offering to send a more elaborate interview if needed.
The ramifications of the incident were far-reaching. Nand Kumar Sai, once the tribal face and a potential Chief Minister candidate for the BJP, suffered a severe blow to his career prospects. The party had been counting on him, especially after the downfall of Dilip Singh Judeo. But the scandal, unfolding in the presence of then-Prime Minister Atal Bihari Vajpayee, forced the BJP to distance themselves from Sai.
As Nand Kumar Sai's political star dimmed, another rose to prominence: Raman Singh. He would go on to become the Chief Minister of Chhattisgarh, serving an impressive three consecutive terms. It seemed as though fate had intervened, altering the course of Chhattisgarh's political landscape.
Years have passed since that fateful night, and today, memories of the incident resurface as I learn that Nand Kumar Sai has joined the Congress, leaving the BJP behind. A sense of melancholy washes over me as I reflect on the impact of that night, the twists and turns of political fortunes, and the role I played in it all.
The Night of the Dharna, an event that altered the course of history in Chhattisgarh, will remain forever etched in my memory – a reminder of the unpredictability of politics and the power of the stories we choose to tell.
इमरान कुरैशी
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अब दो सप्ताह से भी कम समय रह गया है। इस चुनाव के दो प्रमुख दावेदारों-भाजपा और कांग्रेस के सामने जो चुनौतियाँ हैं, वो एकदम अलग हैं। दोनों पार्टियों में से किसी की भी कोई गलती उनके लिए सांप और सीढ़ी का खेल बन सकती है।
चुनाव के तीसरे दावेदार जनता दल (सेक्युलर) भाजपा और कांग्रेस में से किसी के लडख़ड़ाने का इंतजार कर रही है ताकि वह ‘किंग न सही, किंगमेकर’ तो बन सके। जेडीएस की इच्छा पूर्ति इस बात पर निर्भर करती है कि राज्य की राजनीति के प्रमुख दावेदारों यानी कांग्रेस और बीजेपी अपनी चुनौतियों का सामना कैसे करते हैं।
यदि भाजपा या उसके विधायक एंटी-इन्कंबेंसी (सत्ता विरोधी लहर) का सामना कर रहे हैं, तो कांग्रेस ऐसी ज़मीन पर चल रही है, जो पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है। कुछ हफ्ते पहले राज्य के सामने जितने विवादित मामले थे, अब उतने मुद्दे नहीं बचे हैं।
उदाहरण के तौर पर, संशोधित आरक्षण नीति को अब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नाराजग़ी जताई थी। हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कई जगहों पर मुसलमानों के लिए आरक्षण हटाने को सही ठहराया और विवाद में फँसाने के लिए कांग्रेस के सामने चारा फेंके हैं।
अमित शाह ने एक जनसभा में यह भी कहा कि अगर कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार चुनी जाती है, तो राज्य में सांप्रदायिक दंगे होंगे। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कर्नाटक में सांप्रदायिक मुद्दे अपने चरम पर पहुंच गए हैं।
शाह के अलावा बाक़ी नेताओं के नैरेटिव में अचानक बदलाव होना काफी महत्वपूर्ण है। इससे यह पता चलता है कि राज्य में तीनों दल बड़ी सावधानी से अपना काम कर रहे हैं।
ऐसे में इस स्टोरी में हम जानेंगे कि राज्य के 5.3 करोड़ वोटरों के दिल और दिमाग जीतने के लिए राजनीतिक दलों के सामने चुनौतियाँ क्या हैं?
10 मई को होने वाला मतदान ये तय करेगा कि अगले पांच साल तक कर्नाटक में कौन राज करेगा। यह याद रखना चाहिए कि 1985 के बाद यानी पिछले 38 सालों में कर्नाटक के मतदाताओं ने लगातार पांच साल से ज़्यादा किसी भी पार्टी को बर्दाश्त नहीं किया है।
‘ऑपरेशन कमल’ के जरिए जेडीएस-कांग्रेस सरकार गिराए जाने के एक साल बाद 2019 में बीजेपी सत्ता में आई थी। बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस बात की है कि सरकार का बचाव कैसे किया जाए।
भोपाल के जागरण लेकसाइड यूनिवर्सिटी के प्रो-वाइस चांसलर और राजनीतिक विश्लेषक प्रोसंदीप शास्त्री ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘शासन के अपने रिकॉर्ड का बचाव करने के लिए उन्हें जोर लगाना होगा। राज्य सरकार के प्रदर्शन पर बहुत कम ध्यान गया है।’
‘अब तक बीजेपी का चुनावी अभियान केंद्र सरकार की उपलब्धियों पर केंद्रित रहा है। आने वाले दो सप्ताह में पार्टी के कई केंद्रीय नेता प्रचार करने आएंगे। बीजेपी को उम्मीद है कि चुनाव के नतीजों को वह अपने पक्ष में कर सकती है। क्या वोटर राज्य के मुद्दों को तरजीह देंगे? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब ज़रूरी है।’
मैसूर विश्वविद्यालय के कला संकाय के डीन प्रो। मुजफ्फर असदी ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘तथ्य यह है कि कर्नाटक बीजेपी का नेतृत्व कमज़ोर है। यह पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर निर्भर है। सत्ता में बैठी बीजेपी की असल चुनौती यह है कि वह कैसे अपने खिलाफ सत्ता विरोधी लहर से राज्य के स्तर और निजी स्तर पर निपटते हैं।’
उनके अनुसार, ‘दूसरा पहलू यह है कि बीजेपी कैसे भ्रष्टाचार, लिंगायत विरोधी और लिंगायत नेताओं को दरकिनार करने की छवि से निपट पाती है।’
पिछले साल कर्नाटक के ठेकेदारों की एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर बताया था कि राज्य 40 फीसदी कमिशन आम है और इसके बिना किसी सरकारी प्रोजेक्ट का ठेका नहीं मिलता।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार और पूर्व उप-मुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी के पार्टी छोडऩे के बाद, बीजेपी के अहम लिंगायत नेताओं ने लिंगायत वोट बैंक को लेकर बैठक की। निजी तौर पर बीजेपी के नेता स्वीकार करते हैं कि यह वोट बैंक अब बिखर गया है, खासतौर से उप-जातियों में।
प्रो मुजफ्फर असदी कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि बीएस येदियुरप्पा से कुछ उम्मीदें जगी थीं, लेकिन अमित शाह ने यह कहकर इस उम्मीद को ख़त्म कर दिया कि चुनाव से पहले किसी को मुख्यमंत्री नॉमिनेट नहीं किया जाएगा।’
प्रो संदीप शास्त्री भी पार्टी के लिंगायत नेताओं के बीच की अनिश्चितताओं को लेकर प्रो असदी की राय से सहमत हैं। लेकिन वह एक नया आयाम जोड़ते हैं।
वो कहते हैं, ‘सवाल यह है कि क्या बीजेपी किसी लिंगायत को मुख्यमंत्री बनाने की मांग का जवाब देगी। पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी चेहरे का नाम नहीं बताया है, लेकिन पार्टी के भीतर के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। सबसे जरूरी बात ये है कि पार्टी साफ तौर पर बैकफुट पर है। बीजेपी का अपना कोई एजेंडा नहीं है, वो केवल कांग्रेस के एजेंडे का जवाब दे रही है।’
बेलगावी के रानी चेन्नम्मा विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग की प्रोफेसर कमलाक्षी तदासद के मुताबिक, कर्नाटक के उत्तरी जिलों में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दों को सबसे निराशाजनक मुद्दों के तौर पर उठाया जा रहा है।
प्रोफेसर कमलाक्षी एस तदासद ने कहा, ‘सेना में भर्ती की अग्रिवीर योजना से नाराज युवा वर्ग के बावजूद भाजपा हर जगह तीन से चार हजार नए मतदाताओं को टारगेट कर रही है। लिंगायत मठ के प्रमुखों पर गौर कीजिए, जिनसे अमित शाह ने कुछ दिन पहले मुलाकात की थी।’
कांग्रेस की चुनौतियाँ
प्रोफेसर असदी का मानना है कि कांग्रेस अभी सत्ता में वापसी को लेकर आश्वस्त दिख रही है और सबसे बड़ा कारक जो इसके खिलाफ जा सकता है, वो है- ‘आत्ममुग्धता’।
‘ओवर कॉन्फिडेंस कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती है। उनका विश्वास इस बात से भी बढ़ा हुआ है कि अन्य पार्टियों की तुलना में कांग्रेस में दावेदारों और बागियों की संख्या बहुत ज़्यादा है। पार्टी ओपिनियन पोल को ज़्यादा महत्व दे रही है। उनका नजरिया तब शायद संतुलित हो जाएगा, जब पीएम मोदी अपनी पार्टी के लिए प्रचार करना शुरू कर देंगे।’
प्रो.संदीप शास्त्री भाजपा की कार्यशैली के एक अहम पहलू की ओर इशारा करते हैं।
वो कहते हैं, ‘बीजेपी ने अतीत में कई बार हार के जबड़े से जीत हासिल की है। प्रचार के आखिरी हफ्ते में कांग्रेस के सामने यही चुनौती होगी। सवाल यह है कि क्या वह इस तरह के चुनावी हमले संभाल पाएगी, क्योंकि कांग्रेस में आत्ममुग्धता तेजी से बढ़ती है।’
कांग्रेस के लिए सकारात्मक पहलू ये है कि उसने कर्नाटक से जुड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित रखा है और राष्ट्रीय मुद्दों को वो चुनाव में नहीं ला रही है।
प्रो.संदीप शास्त्री कहते हैं, ‘कांग्रेस राज्य के मुद्दों पर कब तक फोकस करेगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पीएम और बाकी नेताओं की ओर से उठाए जाने वाले मुद्दों पर कांग्रेस विचलित कब होगी।’
‘राष्ट्रीय मुद्दों पर कर्नाटक कांग्रेस के रुख़ के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि वे कब क्या करेंगे। दूसरी चुनौती, सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की गुटबाजी है। उम्मीदवारों की आखऱिी सूची की घोषणा के समय बने नाजुक संतुलन से यह जाहिर होता है। अगले दो हफ्तों के दौरान यह एकता कब तक बनी रहती है, इसे देखना अभी बाक़ी है।’
प्रो असदी और प्रो शास्त्री एक और फैक्टर की ओर इशारा करते हैं। केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस को दो बार चुनावी जाल में फँसाने की कोशिश की। वे आरक्षण सूची से मुसलमानों को हटाने को जायज़ ठहराकर कांग्रेस को इस मुद्दे की तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रो.संदीप शास्त्री कहते हैं, ‘यह बहुत महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस इस पर कैसी प्रतिक्रिया देती है। अगर बीजेपी के उकसाने के बावजूद कांग्रेस कोई प्रतिक्रिया नहीं देती, तो यह बीजेपी पर उल्टी पड़ सकती है।’
प्रो कमलाक्षी भी प्रो असदी से सहमत हैं और कहती हैं कि कांग्रेस लिंगायत समुदाय के उप-जातियों के बीच से कुछ वोट हासिल करने का प्रयास कर रही है। इस प्रयास के लिए बीजेपी की प्रतिक्रिया पर ध्यान रखने की जरूरत है।’
जेडीएस के सामने चुनौतियाँ
जेडीएस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इतने सालों में वह कर्नाटक के उत्तरी जिलों तक अपनी पहुंच नहीं बना पाई है।
दक्षिणी कर्नाटक या पुराने मैसूर इलाके के वोक्कालिगा बहुल केवल आठ जिलों तक इसकी विकास सीमित रहा है। हालांकि बीजेपी और कांग्रेस से टिकट न पाने वाले असंतुष्ट उम्मीदवार जेडीएस से टिकट पाकर मैदान में उतरे हैं।
प्रो.असदी बताते हैं, ‘जेडीएस के प्रदर्शन पर पैनी नजर रहेगी। देखना है कि क्या जेडीएस अपनी जीती हुई सीटें बढ़ा सकती है। किसानों की पार्टी होने के दावे के वावजूद यह एक परिवार की पार्टी बनी हुई है। पार्टी के हालिया मतभेदों से उसे नुकसान हुआ है।’
हालांकि प्रो संदीप शास्त्री पारिवारिक झगड़े को अलग तरीके से रखते हैं।
वो कहते हैं, ‘इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी गिरा है। जब चुनाव की तैयारी शुरू हुई थी, तो माना जा रह था कि वो किसी तरह तीसरे स्थान पर रहेगी। लेकिन फिर कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों के शामिल होने से अब यह सवाल खड़ा हुआ है कि क्या वो उत्तरी जिलों में अपना आधार बढ़ा पाएगी। यदि वो तीसरे जगह पर रहते हुए भी अच्छा प्रदर्शन करती है, तो इसका मतलब विधानसभा त्रिशंकु हो सकती है। यदि ऐसा नहीं होता है, तो इसका मतलब स्पष्ट जनादेश होगा।’ (bbc.com/hindi)
विजय शंकर सिंह
पीटी ऊषा ने धरने पर बैठी हुई महिला पहलवानों के बारे में कहा है कि, उन्हे इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन से अपनी समस्याओं के लिए कहना चाहिए था न कि, धरना देने के लिए जंतर मंतर पर बैठना चाहिए। पीटी ऊषा खुद एक नामचीन खिलाड़ी रही हैं और फिलहाल भारतीय ओलंपिक संघ ढ्ढह्र्र की अध्यक्ष है। उन्होंने यह भी कहा है कि, इस तरह के धरने प्रदर्शन से देश की छवि धूमिल होती है। उनके इस बयान की आलोचना भी की जा रही है।
पर जिन समस्याओं को लेकर महिला पहलवान धरने पर बैठी हैं, वे समस्याएं, खेल या किसी प्रतियोगिता से जुड़ी नहीं हैं, बल्कि वे समस्याएं ढ्ढह्र्र से संबंध एक खेल संगठन कुश्ती महासंघ के प्रमुख पर यौन शोषण के आरोपों से जुड़ी हैं। ढ्ढह्र्र को, ऐसे आपराधिक मामले का निदान करने का अधिकार और शक्ति नहीं है। यह आरोप आपराधिक कृत्य के हैं और आईपीसी में गंभीर और दंडनीय अपराध हैं। इनके बारे में कोई भी कार्यवाही करने का अधिकार और शक्ति पुलिस और न्यायालय को है।
जंतर मंतर पर, पहलवानों का यह दूसरा धरना है, और पहलवानों ने, इस संबंध में पुलिस में मुकदमा दर्ज करने की मांग को लेकर, सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की है, जिसकी सुनवाई चल रही है। इसके पहले जो धरना हुआ था, वह सरकार के आश्वासन पर, कि, सरकार एक कमेटी का गठन कर, इन सब कदाचारों की जांच कराएगी, खत्म कर दिया था। कमेटी गठित भी हुई। पर जांच का निष्कर्ष क्या निकला यह पता नहीं। हो सकता है कमेटी की जांच रिपोर्ट से, महिला पहलवान संतुष्ट न हो पाई हों, और वे दुबारा धरने पर बैठ गई हों।
यदि महिला पहलवानों के आरोपों को देखें तो इनके आरोप बिल्कुल साफ हैं और उनका निराकरण या जांच केवल पुलिस की तफ्तीश से ही संभव है, जिसके लिए पुलिस को, उनकी शिकायत पर, एक एफआईआर दर्ज करनी पड़ेगी फिर इसकी विधिवत विवेचना होगी। जो भी सुबूत मिले, उसी के अनुसार कार्यवाही होगी। इस संदर्भ में ढ्ढह्र्र की कोई भूमिका नहीं है।
ढ्ढह्र्र की अध्यक्ष पीटी ऊषा को, महिला पहलवानों की इस व्यथा और आरोपों पर खुद ही संज्ञान लेकर धरना स्थल पर जाना चाहिए था और अपने अधिकार का प्रयोग कर, खेल मंत्रालय से, कानूनी कार्यवाही के लिए बात करना चाहिए था। यदि यह महिला पहलवान, अपनी शिकायतें लेकर ढ्ढह्र्र और पीटी ऊषा के पास गई भी होती तो पीटी ऊषा सिवाय एक आश्वासन, सहानुभूति और समझाने बुझाने के अलावा क्या कर सकती थीं? मामला खेल से जुड़ा तो नहीं है। मामला तो एक अपराध से है।
आज बड़े बड़े सेलेब्रिटी जो अपने अपने खेलों के भगवान कहे जाते हैं, इस गंभीर मामले पर चुप हैं, और उन्हे लगता है कि, उनकी इस चुप्पी से, देश की छवि दुनिया में अच्छी बनेगी। एक बात यह कही जा रही है यह धरना गुटबाजी का परिणाम और हरियाणा राज्य के अन्य राज्यों पर दबदबे का है।
ऐसी गुटबाजियां, खेल संघों में होती रहती है। पर जो आरोप लगाए जा रहे हैं, यदि वे उन्हें गुटबाजियों के कारण ही लगाए जा रहे हैं तो, क्या उन आरोपों की जांच नहीं की जानी चाहिए? गुटबाजी के कारण यदि यह धरना है तब ढ्ढह्र्र दखल दे, भारत सरकार का खेल मंत्रालय दखल दे, और गुटबाजी को खत्म करने के उपाय ढूंढे। पर यौन शोषण के जैसे गंभीर आरोप जो लगाए जा रहे है, जिनमे क्कह्रस्ष्टह्र भी है, तब इन अरोपो को, अनदेखा नही किया जाना चाहिए।
आज सुप्रीम कोर्ट में एफआईआर दर्ज करने की प्रार्थना वाली महिला पहलवानों की याचिका पर सुनवाई है, देखिए क्या निर्णय आता है। पर एक एफआईआर दर्ज कराने के लिए ओलंपिक में पदक विजेता महिला पहलवानों को सार्वजनिक रूप से जंतर मंतर पर धरने पर बैठना पड़े, यह दुखद तो है ही, साथ ही, पुलिस के खिलाफ सबसे आम शिकायत, जिससे हम पूरी नौकरी सुनते आए हैं, कि, थानों पर मुकदमा दर्ज नहीं होता है, की पुष्टि भी करता है। देश की छवि अपनी जायज मांगों के लिए शांतिपूर्ण तरीके से धरना प्रदर्शन करने से नहीं खराब होती है, बल्कि देश की छवि खराब होती है, ऐसे गंभीर आरोपों पर सरकार की चुप्पी और निष्क्रियता से। पीटी ऊषा के इस बयान से, उनकी और ढ्ढह्र्र की छवि पर जरूर असर पड़ा है।
शुभम किशोर
भारतीय ओलंपिक संघ की अध्यक्ष और राज्यसभा की मनोनीत सांसद पीटी उषा ने गुरुवार को भारतीय ओलंपिक संघ की कार्यकारी समिति की बैठक के बाद कहा कि ‘पहलवानों का सडक़ों पर प्रदर्शन करना अनुशासनहीनता है और इससे देश की छवि खराब’ हो रही है।
इसके अलावा, उन्होंने भारतीय कुश्ती संघ को चलाने के लिए तीन सदस्यों का एक पैनल बनाने का भी एलान किया है।
इसमें पूर्व निशानेबाज़ सुमा शिरूर, वुशु एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह बाजवा और हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज सदस्य होंगे। हालांकि जज का नाम अभी तय नहीं हुआ है।
पीटी उषा के ताजा बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए पहलवान बजरंग पुनिया ने कहा है कि ‘उनसे इतने कड़े बयान की उम्मीद नहीं थी।’
ओलंपिक मेडलिस्ट बजरंग पुनिया ने कहा, ‘वे खुद एक महिला हैं। ये सुनकर बड़ा दुख हुआ। हमने तीन महीने इंतजार किया है। हम उनके पास भी गए हैं। लेकिन हमारे साथ न्याय नहीं हुआ और हमें यहां आना पड़ा।’
धरने पर बैठी एक अन्य पहलवान साक्षी मलिक ने पीटी उषा के बयान पर कहा, ‘एक महिला खिलाड़ी हो कर वे ऐसी बात कर रही हैं। ये बात सुनकर बहुत दुख हुआ। हम उनसे प्रेरित होते रहे हैं। हमने कहां अनुशासनहीनता कर दी। हम तो शांति से बैठे हैं। हमें ये मजबूरन करना पड़ रहा है।’
महिला पहलवानों विनेश फोगाट और साक्षी मलिक के साथ बजरंग पुनिया इस आंदोलन के केंद्र में है। दिल्ली के जंतर मंतर पर चल रहे धरने का गुरुवार को पांचवां दिन है।
जंतर मंतर पर पहलवानों के प्रदर्शन में बुधवार की तुलना भीड़ और सुरक्षा बढ़ी हुई दिखी। पुलिस ने चारों ओर से बैरिकेडिंग कर रखी थी और अलग-अलग किसान और छात्र संगठनो से जुड़े लोगों का आना लगातार जारी था।
थोड़ी थोड़ी देर पर किसानों और पहलवानों के समर्थन में नारे सुनाई देने लगते थे। बैरिकेडिंग के अंदर बैठे लोग बारी-बारी भाषण दे रहे थे। इनमें से ज़्यादातर लोग किसान संगठनों और खाप पंचायत से जुड़े थे।
लोग मौजूदा सरकार और पीएम मोदी की आलोचना कर रहे थे और बीजेपी सांसद और कुश्ती फेडरेशन के अध्यक्ष बृजभूषण सिंह के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे थे।
गुरुवार को जंतर मंतर पर अधिक भीड़ नहीं दिखी। मीडिया के लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे, सभी इंतज़ार कर रहे थे कि कोई बड़ा नेता इस प्रदर्शन से जुडऩे आएगा।
जनवरी में पहलवान, नेताओं के साथ मंच साझा नहीं कर रहे थे। लेकिन इस बार मंच पर नेताओं को आने से नहीं रोका जा रहा। दोपहर कऱीब 12 बजे राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के अध्यक्ष जयंत चौधरी वहां पहुंचे।
उन्होंने वहां विरोध प्रदर्शन कर रहे पहलवान बजरंज पूनिया, विनेश फोगाट और साक्षी मलिक समेत दूसरे लोगों से मुलाकात की।
उन्होंने कहा, ‘डर का माहौल बनाया गया है। सरकार को तीन महीने पहले ही खिलाडिय़ों की बात माननी चाहिए थी। अब इस मामले में तुरंत केस दर्ज होना चाहिए। इसके साथ ही हरियाणा से कई खाप पंचायत के सदस्य भी जंतर मंतर पर धरना दे रहे खिलाडिय़ों का समर्थन करने पहुंचे हैं।’
इसके साथ ही भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैट भी वहां पहुंचे । उन्होंने कहा कि खिलाडिय़ों को तुरंत न्याय मिलना चाहिए।
भारतीय किसान यूनियन दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष बिरेंद्र डागर ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘पिछली बार किसानों ने जब आंदोलन किया था, तो सरकार को कानून वापस लेने पड़े थे। अगर इस बार भी न्याय नहीं हुआ तो हम यहीं बैठेंगे।’
उन्होंने दावा किया कि 11 से ज़्यादा किसान संगठन इस प्रदर्शन में हिस्सा लेंगे। दो दिनों पहले बजरंग पुनिया ने खाप पंचायतों से अपील की थी वो आंदोलन को अपना समर्थन दें। इसका असर गुरुवार को देखा जा सकता था।
दिल्ली के आसपास के कई गांवों से खाप पंचायत के लोग वहां मौजूद थे। इन्हीं में से एक खदान सिंह ने बीबीसी से कहा, ‘ये किसानों की बेटियां है, उन्हें खिला पिलाकर हमने इस लायक बनाया है, उनके साथ किसी तरह से गलत व्यवहार को हम स्वीकार नहीं करेंगे।’
कई छात्र संगठन भी विरोध-प्रदर्शन में मौजूद थे। वहां मौजूद श्रेया ने कहा, ‘2012 में जब आंदोलन हुआ था तो पूरे देश में फैल गया था। अभी ये शुरुआत है, ये चिंगारी है जिसकी आग पूरे देश में फैलेगी।’
आंदोलन का अगला कदम क्या होगा?
धरने पर बैठे पहलवानों का कहना है कि वो अपनी अगली रणनीति सुप्रीम कोर्ट के शक्रवार के फैसले के बाद करेंगे।
दिल्ली पुलिस ने पहलवानों की शिकायत पर एफ़आईआर दर्ज नहीं की है। पहलवानों की मांग है कि बृजभूषण सिंह से खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाए और मामले की जांच शुरू हो।
दिल्ली पुलिस ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ सात महिला पहलवानों द्वारा लगाए गए यौन उत्पीडऩ के आरोपों पर प्राथमिकी दर्ज करने से पहले किसी तरह की प्रारंभिक जांच की जरूरत है।
दिल्ली पुलिस की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ से कहा कि अगर शीर्ष अदालत को लगता है कि सीधे प्राथमिकी दर्ज की जानी है तो ऐसा किया जा सकता है।
उन्होंने कहा, ‘हालांकि, पुलिस को लगता है कि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनकी प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच की जरूरत है’। सुप्रीम कोर्ट अब शुक्रवार को सुनवाई करेगा।
बीबीसी से बात करते हुए साक्षी मलिक ने कहा उनकी मांग है कि फेडरेशन में नए सिरे से नियुक्तियां की जाएं। उन्होंने कहा, ‘वैसे लोग जो मेहनत कर आगे बढ़े हैं, कई अवार्ड जीते हैं, उन्हें फेडरेशन में नियुक्त करने की जरूरत है।’
कुश्ती फेडरेशन के चुनावों को खेल मंत्रालय ने रद्द कर दिया है। उन्होंने एक कमेटी से कहा है 45 दिनों के भीतर चुनाव कराए जाएं। इसपर मलिक कहती है, ‘चुनाव होगा तो फिर इन्हीं के लोग चुनकर आएंगे। इनके लोग राज्यों के फेडरेशन में हैं, उन्हीं में से कोई चुनकर सामने आएगा।’
वहीं बृज भूषण सिंह ने कहा कि वो बिना लड़े इस मुद्दे से पीछे नहीं हटेंगे। उन्होंने कहा, ‘जिस दिन मैं अपने जीवन की समीक्षा करूंगा कि क्या खोया क्या पाया, जिस दिन मैं महसूस करूंगा कि मेरे संघर्ष करने की क्षमता अब समाप्त हो गई है, जिस दिन मैं महसूस करूंगा मैं लाचार हूं, मैं बेचारा हूं, मैं ऐसी जिंदगी जीना पसंद नहीं करूंगा। मैं चाहूंगा कि ऐसी जिंदगी जीने के पहले मौत मेरे करीब आ जाए।’ इससे पहले मंगलवार को सिंह ने कहा था कि ‘मामला सुप्रीम कोर्ट में है और कोर्ट फैसला करेगा।’
क्या है मामला?
खिलाडिय़ों ने विश्व कुश्ती महासंघ को एक लिखित शिकायत दर्ज की और कहा था कि भारतीय संघ के अध्यक्ष ने महिला खिलाडिय़ों का यौन शोषण किया है। इस बात का संज्ञान लेते हुए यूनाइटेड वल्र्ड रेसलिंग (यूडब्ल्यूडब्ल्यू) ने दिल्ली से मेजबानी लेकर कजाखस्तान को दे दी है।
एशियाई चैंपियनशिप दिल्ली में अप्रैल के महीने में होनी थी। कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह की छवि एक बाहुबली नेता की है।
देश के नामी पहलवानों ने उनके तानाशाही रवैये के खिलाफ मोर्चा खड़ा किया और ये आरोप लगाया कि बृजभूषण शरण सिंह ने कई महिला पहलवानों का यौन शोषण किया है।
जनवरी में तीन दिनों तक पहलवान दिल्ली के जंतर मंतर पर धरने पर बैठे रहे और जब तक सरकार ने निष्पक्ष जाँच का आश्वासन नहीं दिया, वहाँ से वे नहीं हिले।
बृज भूषण शरण सिंह ने सभी आरोपों से इनकार किया था और उल्टे खिलाडिय़ों को ही घेरा था।
धरने के दौरान एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में विनेश फोगाट ने कहा था, ‘कोच महिलाओं को परेशान कर रहे हैं और फेडरेशन के चहेते कुछ कोच तो महिला कोचों के साथ भी अभद्रता करते हैं। वे लड़कियों को परेशान करते हैं। भारतीय कुश्ती महासंघ के प्रेसीडेंट ने कई लड़कियों का यौन उत्पीडऩ किया है।’
फोगाट ने ये भी दावा किया था, ‘वे हमारी निजी जिंदगी में दखल देते हैं और परेशान करते हैं। वे हमारा शोषण कर रहे हैं। जब हम ओलंपिक खेलने जाते हैं तो न तो हमारे पास फिजियो होता है न कोई कोच। जब हमने अपनी आवाज उठाई तो उन्होंने हमें धमकाना शुरू कर दिया।’
दूसरी ओर कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भारतीय जनता पार्टी के सांसद बृज भूषण शरण सिंह ने इन आरोपों के जवाब में कहा था, ‘कोई भी आदमी ऐसा है जो कह सके कि कुश्ती महासंघ में एथलीटों का उत्पीडऩ किया गया है।’
उन्होंने ये भी दावा किया कि ‘किसी भी एथलीट का यौन शोषण नहीं हुआ है। अगर यह सच साबित होता है तो वे फाँसी पर लटकने को तैयार हैं।’
खिलाडिय़ों के आरोपों के बाद खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने एमसी मेरी कॉम की अगुवाई में जाँच के लिए निगरानी समिति का गठन किया था।
इस समिति में बबीता फोगाट और योगेश्वर दत्त को शामिल किया गया था। इस दौरान समिति को मंत्रालय ने कुश्ती महासंघ के रोजमर्रा के काम को देखने की भी जि़म्मेदारी दी थी और बृजभूषण शरण सिंह को इससे अलग रखा गया था।
हालांकि अभी तक इस जांच समिती की रिपोर्ट भी सार्वजनिक नहीं की गई है। पहलवान रिपोर्ट की जानकारियां साझा करने की भी मांग कर रहे हैं। (bbc.com/hindi)
-अशोक पांडे
मई 2009 का वाकया है. भोपाल में 49वीं राष्ट्रीय ओपन एथलेटिक्स मीट हो रही थी. मीट में पीटी ऊषा भी पहुँची थीं. इस बार वे दौड़ने के लिए नहीं आई थीं. उनके साथ उनसे ट्रेनिंग हासिल की हुई कुछ युवा लड़कियां थीं जिन्हें मीट के लिए चुना गया था.
स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया ने ऊषा के रहने का जहाँ इंतजाम किया था वह बेहद घटिया और गंदी जगह थी. उड़न परी और देश का गौरव जैसे नामों से पुकारी जाने वाली इस विनम्र चैम्पियन खिलाड़ी के लिए ढंग के कमरे तक की व्यवस्था न करने सकने वाली देश की सर्वोच्च खेल संस्था की बहुत किरकिरी हुई थी जब ऐसे व्यवहार से आहत ऊषा ने प्रेस कांफ्रेंस कर देश को इस नाइन्तजामी के बारे में बताया. उस कांफ्रेंस में पीटी ऊषा के आंसू निकल पड़े थे.
पीटी ऊषा के आंसू देखकर सारे देश में क्षोभ फ़ैल गया था. तत्कालीन खेलमंत्री मनोहर सिंह गिल को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी थी.
चौदह साल में कितना कुछ बदल गया है.
स्कूली जीवन के दिनों से ही मैंने पीटी उषा को बहुत मोहब्बत और सम्मान की निगाह से देखा है. उसे “मेरे ग़रीब देश की बेटी” बताने वाले वीरेन डंगवाल ने उसकी आँखों की चमक में “भूख को पहचानने वाली विनम्रता” को सुरक्षित पाया था और उसे अपनी एक बेहद लोकप्रिय कविता की नायिका बनाया था.
मैंने जीवन भर उसे एक प्रतिबद्ध खिलाड़ी और बेहद अपना जाना-समझा है. आज हमारे गरीब देश की बेटियाँ अप्रैल की गर्मी में सड़क पर भूखी-प्यासी बैठीं अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं. वे अपराधियों द्वारा अपना सम्मान लूटे जाने जैसे विषय को सार्वजनिक मंच कर कह सकने की हिम्मत दिखा रही हैं. पीटी उषा उन्हें अनुशासन का पाठ सिखा रही हैं.
समय बहुत बदल गया है. आज इस बेटी को अपने लिए किसी ढंग के होटल में साफ़-सुथरे कमरे के लिए प्रेस के सामने रोने की ज़रूरत नहीं पड़ती होगी क्योंकि उसके एक दस्तखत से देश के सारे फाइव स्टार होटल बुक हो सकते हैं.
मेरे बहुत सारे नायक-नायिकाएं सत्ता की गोद में बैठते ही भूसे के ढेर में बदलने में एक पल नहीं लगाते. हो सकता है उन्हें अपराधी नेताओं से भय लगता हो पर भय किस भले इंसान को नहीं लगता. मामला रीढ़ की हड्डी के होने या न होने पर फंसता है.
जब पीटी उषा भोपाल में रोई थी मैं उसके साथ रोया था. आज वह एक शातिर प्रशासक की भाषा बोल रही है, मुझे उसने बेतरह खीझ और गुस्से से भर दिया है.
वीरेन डंगवाल से सीखा एक सबक मैं कभी नहीं भूलता – “सही बात पर प्यार, गलत बात पर लात!”
मल्टीप्लेक्स और ओ टी टी के इस दौर में यदि 80-90 के दशक की फिल्मों की बात करें तो पूरा नजारा एक कहानी की तरह आँखों के सामने से गुजर जाता है।
उस समय में फिल्में देखने जाना रोमांच जैसा था और अपने पसंदीदा कलाकार की फिल्म देखने जाना तो और भी मजेदार अहसास था।.
फिल्में देखने का शौक और जेब में सीमित पैसा
उस दौर में सिनेमा घरों में तीन ही क्लास हुआ करते थे।
लोवर क्लास 1 रुपये 35 पैसे
अपर क्लास 1 रूपये 60 पैसे
और बालकनी 3 रूपये 20 पैसे
अखबारों में एक पूरा पेज रायपुर बिलासपुर, रायगढ़, दुर्ग, भिलाई, राजनांदगाँव के सिनेमाघरों में लगे हुए फिल्मो के फोटो और उसके शो तथा उसमे आने वाली भीड़ के वर्णन से भरा रहता था।
मसलन ....
अपार भीड़ का दूसरा सप्ताह
राज एयर कूल्ड में शानदार 6 खेलों में देखिये
सम्पूर्ण परिवार के देखने योग्य
महिलाओं के विशेष मांग पर पुन:प्रदर्शित
एडवांस बुकिंग 1 घंटे पहले शुरू
अखबार मे सबसे पहले फिल्मों का पेज पढा जाना बहुत आम था, और ये सभी शब्द हमें बहुत रोमांचित करते थे।
कहीं-कहीं अपार गर्दी जैसे शब्दों का भी उपयोग होता था.. कहीँ कहीँ हीरो या खलनायक के सुपरहिट डायलॉग भी फिल्मों के फोटो के साथ लिखे होते थे।
जैसे...जली को आग कहते हैं बुझी को राख कहते है, जिस राख से बने बारूद उसे विश्वनाथ कहते हैं।
या
डॉन का इंतजार तो 11 मुल्कों की पुलिस कर रही है लेकिन डॉन को पकडऩा मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
या
पुष्पा आई हेट टीयर्स
यदि कहीं से 1 रुपये 35 पैसे का भी जुगाड़ हो जाए तो अपना काम बन जाता था, और 1 रुपये 60 पैसे हों तो फिर हम शहंशाह से कम नहीं।
दोस्त के साथ जाने पर भी अपना अपना पैसा देने की पारदर्शी प्रथा थी, किसी को बुरा भी नहीं लगता था, पैसे से अभाव वाला मित्र पहले ही अपने को किनारे कर लेता था।
हाँ, बालकनी में तभी जा पाते थे जब घर में कोई सम्पन्न रिश्तेदार आए और वो अपना रौब दिखाने सभी घरवालों को फिल्म दिखाने ले जाए, मसलन जीजाजी?
क्योंकि 3 रुपये 20 पैसे होने पर हमारे मन में दो फिल्में देखने का लड्डू फूटने लगता था। पहली देख के आने के बाद दूसरी की प्लानिंग शुरू
जेब में पैसे होने और फिल्म देखने की इच्छा होने के बावजूद घर वालों से अनुमति मिलना बहुत बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी।.
स्कूल से भाग के या घर में बिना बताए फिल्म देखने जाना अत्यन्त रोमांचित करने वाला कदम होता था, और किसी को पता नहीं चलना किसी उपलब्धि से कम नहीं होता था। यह उपलब्धि हमे और रोमांच और खतरे से खेलने की प्रेरणा और हौसला देती थी।
आज के दौर में ऑनलाइन टिकट बुक कर फिल्म शुरू होने के 5 मिनट पहले पहुँचने वाले युवा शायद उस समय साइकिल से घर से सिनेमा हॉल तक की दूरी और मन में चल रहा द्वन्द कि टिकट मिलेगा या नहीं की कल्पना भी न कर सकें।
मोहल्ले के कुछ ‘भाई लोगों को’ भारी भीड़ में सिनेमा में टिकट लेने में महारत हासिल हुआ करती थी। ऐसे लोगों के साथ सिनेमा देखने जाने में एक विश्वास रहता था कि चाहे जो भी हो सिनेमा तो देखकर आयेंगे ही।
टिकट बुकिंग क्लर्क से पहचान होना या गेट कीपर से पहचान होना ऐसा कान्फिडेंस देता था। जैसे साक्षात फिल्म का हीरो मदद करने आ गया हो।
कभी-कभी लाइन में टिकट खरीदने में शर्ट का फट जाना या हवाई चप्पल का टूट जाना तो आम बात थी।
मुद्दा तो ये हुआ करता था कि टिकट मिला या नहीं।
एक छोटी सी बुकिंग खिडक़ी में गिनती के पैसे मुठ्ठी में बंद करके जिसमें पहले ही एक हाथ के घुसने की जगह में तीन-चार हाथों का घुसा होना।
और जब टिकट क्लर्क मु_ी को खोलकर पैसे को निकालता था तब चिल्ला कर कहना भैया
तीन टिकट...
टिकट मिलने पर अपना हुलिया ठीक करते हुए अपने साथियों को खोजना।
और फिर सिनेमा हाल के भीतर पहुँचकर पंखे के आसपास अपने लिए सीट हासिल करना।
सोचता हूँ कि जिस काम को जितने तन्मयता से किया जाए उसके पूर्ण होने पर उतनी अधिक खुशी होती है।
तब की फिल्मों की कहानी महीनों याद रहती थी अब इसके बिलकुल विपरीत है।
अब आप 24 घंटे पहले टिकट बुक कर लेते हैं तो रोमांच तो खत्म हो गया।
टिकट कन्फर्म है तो फिल्म देखने जाने पर सिनेमा हाल में भीड़ होगी या नहीं सिनेमा देख पायेंगे या नहीं वाला द्वन्द समाप्त हो गया।
टिकट घर से बुक हो चुका है तो लाइन में लगकर टिकट लेने पर
शर्ट फटने या हवाई चप्पल के टूट जाने की संभावना या आशंका भी खत्म हो गई।
सिनेमा रिलीज होने की संख्या इतनी हो गई है कि अब गाने तो दूर कहानी भी याद नहीं रहती।
सिनेमा अब सार्वजनिक स्थानों पर चर्चा का विषय भी नहीं रहा जो कि पहले हुआ करता था।
विज्ञान के आविष्कार ने हमें बहुत कुछ खोने को मजबूर कर दिया।
कुछ बातों का अहसास फिर से करने के लिए पुराने दौर पर लौट जाने की इच्छा होती है। और शायद इसलिए हर किसी को अपने पुराने और गुजरे हुए वक्त करना उस दौर की बार बार बातें करना बहुत अच्छा लगता है, जहां ना कपट था ना दिखावा सब कुछ सरल और स्वाभाविक।
वाकई बहुत ही कम पैसों में हमने बेहद खूबसूरत और यादगार बचपन और किशोरावस्था को जिया है, जिसकी आज के दौर के बच्चे कल्पना भी नहीं कर सकते।
एक गीत की पंक्ति उन यादों के मौसम के लिए बिल्कुल सही लगती है।
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन...
(ह्वाट्सऐप से प्राप्त )
राघवेंद्र राव
क्या केंद्र सरकार के बनाए गए ‘फैक्ट चेक यूनिट’ को ये अधिकार देना सही है कि वो केंद्र सरकार के काम से जुड़ी किसी भी ख़बर या जानकारी को फर्जी या भ्रामक करार देकर सोशल मीडिया से हटवा सके?
इस मामले की सुनवाई गुरुवार 27 अप्रैल यानी गुरुवार को बॉम्बे हाई कोर्ट में होनी है। इसी मसले को बॉम्बे हाई कोर्ट के सामने उठाते हुए स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने आईटी रूल्स में हाल में किए गए उन संशोधनों को रद्द करने की मांग की है, जिनके मुताबिक केंद्र सरकार के फैक्ट चेक यूनिट को यह अधिकार दिया गया है।
अपनी याचिका में कामरा ने कहा है कि एक राजनीतिक व्यंग्यकार के रूप में वो केंद्र सरकार के कार्यों और उसके कर्मचारियों के बारे में टिप्पणी करते हैं और अपने काम को साझा करने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से इंटरनेट की व्यापक पहुंच पर निर्भर रहते हैं।
कामरा के मुताबिक, केंद्र सरकार द्वारा नामित कोई विशेष इकाई अगर उनके काम को मनमाने ढंग से फ़ैक्ट चेक के अधीन कर देती है, तो उनकी राजनीतिक व्यंग्य करने की क्षमता अनुचित तरीके से कम हो जाएगी।
इस याचिका में कामरा ने कहा है कि व्यंग्य का फैक्ट-चेक नहीं किया जा सकता और अगर केंद्र सरकार व्यंग्य की जांच करे और उसे फर्जी या भ्रामक बता कर सेंसर कर दे तो राजनीतिक व्यंग्य का उद्देश्य पूरी तरह से विफल हो जाएगा।
इस मामले की 24 अप्रैल को हुई सुनवाई में हाई कोर्ट ने कहा कि पहली नजर में ऐसा नहीं लगता कि इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी नियमों में किए संशोधन हास्य और व्यंग्य के जरिये सरकार की निष्पक्ष आलोचना को संरक्षण देते हैं। साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि नए संशोधनों को चुनौती देने वाली कामरा की याचिका विचार करने योग्य है। इस मामले की सुनवाई गुरुवार 27 अप्रैल को तय की गई है।
क्या है आईटी रूल्स में नया संशोधन?
6 अप्रैल को सरकार ने आईटी रूल्स, 2021 में संशोधन करते हुए सोशल मीडिया बिचौलियों के लिए ये अनिवार्य कर दिया था कि वे केंद्र सरकार के किसी भी काम के संबंध में फर्जी, झूठी या भ्रामक जानकारी को प्रकाशित, साझा या होस्ट न करें।
सरकार ने कहा था कि फर्जी, झूठी और भ्रामक जानकारी की पहचान केंद्र वो फैक्ट चेक यूनिट करेगा जिसकी अधिसूचना केंद्र सरकार करेगी।
साथ ही सरकार ने कहा कि मौजूदा आईटी नियमों में पहले से ही बिचौलियों को ऐसी किसी भी जानकारी को होस्ट, प्रकाशित या साझा नहीं करने के लिए उचित प्रयास करने की आवश्यकता है जो स्पष्ट रूप से गलत और असत्य या प्रकृति में भ्रामक हैं।
संशोधनों को अधिसूचित करते हुए सरकार का कहना था कि ये संशोधन खुले, सुरक्षित, विश्वसनीय और जवाबदेह इंटरनेट बनाने के लिए किए जा रहे हैं।
सरकार का क्या कहना है?
सरकार ने कुणाल कामरा की याचिका को दुर्भावनापूर्ण बताते हुए कहा है कि ये याचिका नए नियमों से जुड़े काल्पनिक परिणामों की बात करती है और ये नहीं बताती कि इन नियमों की वजह से याचिकाकर्ता को क्या नुकसान हुआ है।
सरकार ने इस बात का भी जिक्र किया है कि अतीत में कामरा पर सुप्रीम कोर्ट और उसके न्यायधीशों पर ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी की आड़ में’ तिरस्कारपूर्ण ट्वीट करने के मामले में आपराधिक अवमानना के आरोप भी लगे हैं।
सरकार का कहना है कि नया नियम व्यापक जनहित में बनाया गया है और ये नियम सबूत पर आधारित तथ्य-जांच की एक प्रणाली स्थापित करता है, जिससे ऐसी फर्जी या भ्रामक जानकारी से निपटने के लिए एक तंत्र तैयार किया जा सके जिनकी वजह से अतीत में दंगे, मॉब लिंचिंग और अन्य जघन्य अपराध हुए हों या जिनमें महिलाओं की गरिमा और बच्चों के यौन शोषण से संबंधित मुद्दे शामिल हैं।
सरकार ने अदालत में कहा है कि फैक्ट चेक यूनिट की भूमिका केंद्र सरकार की गतिविधियों तक सीमित रहेगी, जिसमें नीतियों, कार्यक्रमों, अधिसूचनाओं, नियमों, विनियमों और उनके कार्यान्वयन के बारे में जानकारी शामिल हो सकती है।
सरकार के मुताबिक फैक्ट चेक यूनिट केवल फज़ऱ्ी या झूठी या भ्रामक जानकारी की पहचान कर सकती है, न कि किसी राय, व्यंग्य या कलात्मक छाप की। साथ ही सरकार का कहना है कि इस प्रावधान को शुरू करने के पीछे उसका उद्देश्य स्पष्ट है और इसमें किसी किस्म की मनमानी शामिल नहीं है।
विवादित संशोधन का विरोध
संजय राजौरा
नए आईटी रूल्स में फर्जी खबरों और फैक्ट चेक यूनिट से संबंधित संशोधन के लागू होने के बाद मीडिया सेंसरशिप की आशंकाएं जताई गई हैं और इस संशोधन का विरोध भी हुआ है।
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने इस मामले को चिंताजनक बताते हुए कहा है कि इलेक्ट्रॉनिक्स और इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी मंत्रालय ने बिना किसी सार्थक परामर्श के इस संशोधन को अधिसूचित किया है।
इस संशोधन को सहज न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ बताते हुए गिल्ड ने कहा कि ये सेंसरशिप के समान है और इस तरह के कठोर नियमों की अधिसूचना खेदजनक है। साथ ही गिल्ड ने मंत्रालय से इस अधिसूचना को वापस लेने और मीडिया संगठनों और प्रेस निकायों के साथ परामर्श करने का आग्रह भी किया है।
अतीत में न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजि़टल एसोसिएशन (एनबीडीए) जैसी संस्थाएं इस प्रस्तावित संशोधन पर अपनी चिंता जता चुकी हैं। एनबीडीए ने यहाँ तक कहा है कि ये संशोधन लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का गला घोंटने का काम करेगा और इसे वापस लिया जाना चाहिए।
‘लोगों की आवाज दबाने की कोशिश’
मंजुल एक जाने-माने राजनैतिक कार्टूनिस्ट हैं जो कई नामचीन प्रकाशनों के साथ काम कर चुके हैं।
उनका कहना है कि खतरा नियमों और क़ानूनों से नहीं होता, खतरा उनसे होता है जो उन नियमों का पालन करवा रहे हों। वे कहते हैं कि अगर कानून का पालन करवाने वाला जिसकी लाठी उसकी भैंस के सिद्धांत पर काम कर रहा हो तो कानून बहुत खतरनाक साबित हो सकता है।
संशोधित आईटी रुल्स के बारे में मंजुल कहते हैं, ‘ये कानून, जो पहली नजर में ही, सरकार के पक्ष में और जनता के विपक्ष में खड़ा दिखाई दे रहा है, बेहद खतरनाक तरीके से जनता के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है, राजद्रोह या यूएपीए की तर्ज पर।’
मंजुल का मानना है कि सरकार वो सब कुछ नियंत्रित करना चाहती है जिसके माध्यम से उसकी आलोचना की जा सकती है। वे कहते है, ‘सरकारें हमेशा ये चाहती हैं कोई भी जगहें जहाँ से लोगों को आवाज मिलती है, उन पर पूरा नियंत्रण कर लिया जाए।’
मंजुल कहते हैं कि एक कार्टूनिस्ट के तौर पर वे चिंतित नहीं हैं ‘क्योंकि कार्टून की हत्या तो पहले ही की जा चुकी है।’ इस बात को समझाते हुए वह कहते हैं कि सरकार के शीर्ष लोगों पर कार्टून बनना लगभग खत्म हो चुका है।’
वह कहते हैं, ‘इस तरह के संशोधन किसी के भी खिलाफ इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इन संशोधनों की वजह से केवल स्टैंड-अप कॉमेडियनों को ही डर नहीं है। ये डर आम आदमी का है। ऐसा लगता है कि सरकार कहना चाह रही है कि सही सिर्फ वो है जो वो कह रही है, बाकी कुछ सही नहीं है। इसी बात को अब इंटरनेट के सन्दर्भ में लाया जा रहा है।’
‘ऐसे फैसलों से लडऩे की जरुरत’
संजय राजौरा एक स्टैंड-अप कॉमेडियन हैं। उनका कहना है कि ‘सरकार के इस तरह के फ़ैसलों से लडऩे की जरूरत है’ लेकिन साथ ही ‘व्यंग्य के स्तर को और ऊपर ले जाना होगा।’
वे कहते हैं, ‘व्यंग्य की सबसे बड़ी ताक़त ये होती है कि जब उस पर पाबंदी लगाई जाए तो वो और भी निखरता है। जब ज़ुल्म होता है, तभी कहना होता है कि ज़ुल्म हो रहा है। जुल्म बुद्धिमान नहीं होता, व्यंग्य बुद्धिमान होता है। इसलिए अब ये व्यंग्य करने वालों को ये देखना पड़ेगा कि वो अपने व्यंग्य को इतना परिष्कृत कर लें कि जुल्म करने वाले को पता भी चल जाए कि उसकी बेइज़्ज़ती हो रही है लेकिन वो उसके बारे में कुछ कर भी न सके।’ (बाकी पेज 8 पर)
सरकार के बढ़ते नियंत्रण से जुड़े आरोपों पर संजय राजौरा कहते हैं, ‘जब लोग अपने दोस्तों से बात करते हैं तो क्या सरकार वहां मौजूद होती है? लोगों के पास हमेशा बोलने का मौक़ा होता है। सरकार हर जगह नहीं है लेकिन लोगों के दिमाग़ में ये भरा जा रहा है कि सरकार हर जगह है। इसी वजह से लोगों ने बोलना बंद कर दिया है या सेल्फ-सेंसरशिप कर ली है, लिखना बंद कर दिया और लोग जेल जाने से डरने लगे हैं।’
‘फर्जी खबरों में लगातार बढ़ोतरी’
केंद्र सरकार का कहना है कि उसने दिसंबर 2019 में अपनी फ़ैक्ट चेक यूनिट शुरू की थी और इस साल 16 अप्रैल तक फ़ैक्ट चेक यूनिट ने जनता के 39,266 प्रश्नों का जवाब दिया है और सोशल मीडिया पर 1,223 फैक्ट चेक जारी किए हैं।
सरकार का कहना है कि पिछले तीन वर्षों में जनहित में तथ्यों की जांच की एक मज़बूत व्यवस्था स्थापित की गई है।
सरकार ने यह भी कहा है कि फ़ैक्ट चेक यूनिट द्वारा फर्जी या भ्रामक सूचनाओं का भंडाफोड़ करने के मामलों की संख्या समय के साथ बढ़ी है। सरकार के मुताबिक दिसंबर 2022 और जनवरी 2023 के महीनों में फैक्ट चेक यूनिट ने नौ यूट्यूब चैनलों द्वारा प्रकाशित सामग्री के लिए 150 से अधिक फैक्ट चेक जारी किए।
जानकारों की मानें तो सरकार का मक़सद अपनी नीतियों के बारे में ज्यादा जानकारी देना या प्रचार करना है, न कि फैक्ट चेक करना। ये बात भी समय-समय पर कही जाती रही है कि अगर सरकार फैक्ट-चेकिंग करवाना चाहती है तो किसी स्वतंत्र इंडस्ट्री बॉडी का गठन किया जाना चाहिए जिसमें पब्लिक और प्राइवेट सेक्टरों की भागीदारी हो और वो बॉडी ये फैसला करे कि क्या फर्जी है और क्या नहीं। (bbc.com)
-चंदन कुमार जजवाड़े
भारत की राष्ट्रीय राजनीति में बिहार को ‘प्रयोगशाला’ के नाम से भी जाना जाता है। साल 1917 का महात्मा गांधी ने चम्पारण सत्याग्रह की शुरुआत यहीं से की थी। इसी आंदोलन ने महात्मा गांधी को देश भर में नई पहचान दिलाई। उसके बाद साल 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हो या फिर जेपी के छात्र आंदोलन की कहानी हो या फिर मंडल आंदोलन - सभी प्रयोग आज इतिहास में दर्ज हैं, उनका एक सिरा बिहार से जुड़ा है।
साल 2015 में नीतीश कुमार ने ‘महागठबंधन’ बना का धुर विरोधियों को एक साथ लाने का प्रयोग भी यहीं किया था। बिहार की इसी ऐतिहासिक ‘भूमिका’ की याद, सोमवार को पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दिलाई। विपक्ष को एक जुट करने के प्रयास में सोमवार को दोनों नेता कोलकाता में मिले। इस मुलाक़ात के बाद ममता ने जय प्रकाश नारायण के आंदोनल की तरह बीजेपी को हटाने के लिए भी बिहार की धरती से इसकी शुरुआत करने का आग्रह किया है।
ममता बनर्जी ने कहा है, ‘हमें पहले यह संदेश देना है कि हम सब एक साथ हैं। हमारा कोई निजी स्वार्थ नहीं है। हम चाहते हैं कि बीजेपी जीरो बन जाए। बीजेपी बिना कुछ किए बहुत बड़ा हीरो बन गई। केवल झूठी बात और फेक वीडियो बनाकर।’ सोमवार को ही ममता बनर्जी से मिलने के बाद नीतीश ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव से भी मुलाक़ात की है।
अखिलेश यादव ने भी बीजेपी को हटाने की मुहिम में नीतीश का समर्थन करते हुए कहा, ‘बीजेपी की लगातार गलत आर्थिक नीतियों की वजह से किसान, मजदूर तकलीफ में हैं और परेशान हैं। महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। भारतीय जनता पार्टी हटे, देश बचे; उस अभियान में हम आपके साथ हैं।’ बीजेपी को हटाने का नारा और इसकी कोशिश करते नीतीश कुमार- विपक्ष के दूसरे नेताओं को पसंद तो खूब आ रहे हैं, लेकिन इस रास्ते में मुश्किलें भी कम नहीं हैं। इसमें सबसे बड़ी मुश्किल विपक्षी धड़े के नेता के नाम पर हो सकती है। दरअसल इस रोल में कांग्रेस भी खुद को बड़े भाई की भूमिका में देख रही है, और इस पद को छोडऩा नहीं चाह रही।
कांग्रेस हाल के समय में साल 2004 से 2014 तक सफलता से यूपीए सरकार चलाने का दावा कर रही है। इस दौरान उसे कई क्षेत्रीय दलों का समर्थन भी मिला और यूपीए सरकार ने लगातार दो कार्यकाल भी पूरे किए थे। हालांकि इस बीच दूसरे क्षेत्रीय दलों की अपनी बढ़ती महत्वाकांक्षा, बिखरे विपक्ष की एक दूसरी सच्चाई है। यह नीतीश की कोशिशों को सफलता पर सवाल भा खड़े करता है और इसी में नीतीश को एक उम्मीद भी दिख सकती है।
विपक्ष का नेता कौन
बिहार बीजेपी के प्रवक्ता निखिल आनंद ने दावा किया है कि सारे विपक्षी दलों को एक साथ लाने का मतलब है मेढक को तराजू पर तौलना। विपक्ष में सबकी ‘अपनी डफली अपना राग’ है।
यानि नीतीश एक को साधने की कोशिश करेंगे तो दूसरी पार्टी बाहर निकल सकती है। जब तक वह दूसरी पार्टी को संभालेंगे तब तक कहीं और विद्रोह दिख सकता है। बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने भी इस मुद्दे पर नीतीश कुमार पर निशाना साधा है। अमित मालवीय ने सवाल किया है कि विपक्ष में सब एक-दूसरे के साथ मीटिंग कर रहे हैं, पर उनका नेता कौन है?
दरअसल यह एक ऐसा मुद्दा है जो विपक्षी एकता के रास्ते में सबसे बड़ी मुश्किल है। भले ही नीतीश कुमार बार-बार कहते हों कि उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, लेकिन ममता बनर्जी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक को किसी एक नाम पर राजी कर पाना आसान नहीं होगा।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘कांग्रेस के खिलाफ जेपी आंदोलन में विपक्ष के पास सरकार आ गई लेकिन वह कितने दिन चल सकी यह सबने देखा? यही हाल अब भी हो सकता है। नीतीश जिस कोशिश में लगे हैं उसमें विपक्ष से किसी एक नेता का नाम सामने आ जाए तो सब बिखर जाएगा।’ इसके पीछे क्षेत्रीय दलों के नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षा के अलावा कांग्रेस पार्टी भी है। विपक्ष के किसी नेता को अपना नेता स्वीकार करना कांग्रेस के लिए भी आसान नहीं होगा।
कांग्रेस की भूमिका
ममता बनर्जी अहं को छोडऩे का दावा कर रही हैं। उनका यह बयान नीतीश कुमार को जितनी राहत दे सकता है उतनी ही कांग्रेस के नेताओं को भी। लेकिन क्या ममता अपने अहं को छोडक़र कांग्रेस से पश्चिम बंगाल में सीटों के बंटवारे को लेकर समझौता कर सकती है?
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है। साल 2019 के लोकसभा चुनावों में टीएमसी को 22 सीटें मिली थीं, जबकि बीजेपी के खाते में 18 सीटें आई थीं। वहीं उन चुनावों में कांग्रेस को महज 2 सीटें मिली थीं। ऐसे में ममता बनर्जी किसी भी समझौते में कांग्रेस को राज्य में उसकी ताकत से ज्यादा सीटें दे सकती है, इसकी उम्मीद कम है। कांग्रेस का यही रिश्ता आम आदमी पार्टी के साथ है।
आप ने दिल्ली से लेकर पंजाब और गुजरात तक कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है। लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस ज्यादा सीटों पर चुनाव लडऩा चाहेगी।
कांग्रेस के साथ ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टी के साथ किसी भी तरह के समझौते में यही परेशानी है। वह हर जगह क्षेत्रीय दलों के हाथों कमजोर हुई है और अब उन्हीं पार्टियों के साथ कम सीटों पर समझौता करना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। इसलिए नीतीश कुमार की पहल का कांग्रेस स्वागत भले ही करे लेकिन उसे लेकर कांग्रेस बहुत उत्साह दिखाती नजऱ नहीं आती है। मणिकांत ठाकुर इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं।
नीतीश की परेशानी
जीतन राम मांझी के एक छोटे से कार्यकाल को छोड़ दें तो नीतीश कुमार करीब 18 साल से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी जेडीयू का प्रदर्शन बिहार में काफ़ी कमजोर रहा था और वह तीसरे नंबर की पार्टी बन गई थी।
कमजोर होती राजनीतिक ताकत के बीच, नीतीश कुमार मौजूदा समय के बड़े नेताओं को अपने साथ जोडऩे की मुहिम में लगे हुए हैं। ऐसे में उनकी बात पर कौन की पार्टी कहां तक राज़ी होगी, यह भी एक बड़ी चुनौती है।
मणकांत ठाकुर कहते हैं, ‘ख़ुद से ज़्यादा ताक़तवर नेताओं को समझाने के लिए नीतीश कुमार की जरूरत होगी ऐसा मुझे नहीं लगता है। नीतीश की लालसा भले ही पीएम बनने की न हो, लेकिन वो चाहते हैं कि उनको नरेंद्र मोदी की सरकार को चुनौती देने वाला विपक्ष का नेता मान लिया जाए।’
मणिकांत ठाकुर मानते हैं कि हाल के समय में नीतीश अपनी विश्वसनीयता सबसे ज्यादा गंवाई है, नीतीश को फिर से अपनी विश्वसनीयता हासिल करने में समय लगेगा। मणिकांत ठाकुर के मुताबिक नीतीश कुमार ने जिस लालू-राबड़ी शासन का विरोध कर जनता का समर्थन हासिल किया और बिहार की सत्ता पर काबिज़ हुए, उन्हीं के साथ मिलकर दो-दो बार सरकार बना ली है।
नीतीश कुमार पिछले साल अगस्त में बीजेपी से अलग होने के बाद लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के साथ मिलकर बिहार में सरकार चला रहे हैं। लेकिन वो फिलहाल केंद्र की राजनीति को लेकर ज़्यादा सक्रिय दिखते हैं। नीतीश लगातार देशभर में बीजेपी विरोधी नेताओं ने मुलाकात कर रहे हैं।
जेडीयू के अध्यक्ष ललन सिंह ने दावा किया है कि नीतीश कुमार जिस काम में लगे हुए हैं, उसे पूरा कर लेंगे। लेकिन बीजेपी इसके पीछे कुछ और आरोप लगाती है।
बीजेपी प्रवक्ता निखिल आनंद का दावा है, ‘बिहार में समझौते के तहत नीतीश को अपनी सत्ता तेजस्वी यादव को देनी है और इसका दबाव लगतार नीतीश पर बना हुआ है, इसलिए वो बिहार से विदाई की योजना तैयार कर रहे हैं।’
उम्मीद
केंद्र से बीजेपी की सरकार को हटाने के लिए नीतीश कुमार जिन नेताओं से मिल रहे हैं उनमें तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव हैं, जो कांग्रेस के विरोधी भी हैं। वहीं केजरीवाल से लेकर ममता बनर्जी तक अकसर कांग्रेस और बीजेपी को समान चुनौती देती रही हैं। जबकि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और कांग्रेस के बीच रिश्तों में उतार-चढ़ाव रहा है।
लेकिन नीतीश कुमार इन दिनों जिस विपक्षी नेता से मिलते हैं, उनमें एक बात समान दिखती है कि सभी केंद्र की बीजेपी सरकार को हटाने के पक्ष में हैं। बस इसी बात में नीतीश को एक उम्मीद दिख सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, ‘ऐसी हर पार्टी को अपने अस्तित्व पर संकट दिख रहा है, सबको महसूस हो रहा है कि बीजेपी उसके लिए खतरा है। चाहे यह केंद्रीय एजेंसियों को लेकर हो, चाहे बीजेपी के पास मौजूद अथाह पूंजी की वजह से। इसलिए खुद को बचाने के लिए ऐसी पार्टियां कुछ न कुछ जरूर करेंगी।’
नचिकेता नारायण मानते हैं कि राहुल गांधी की सदस्यता ख़त्म होने के बाद कांग्रेस भी थोड़ी झुकती नजर आती है। ऐसे में विपक्षी पार्टियां माहौल बनाने के लिए एकसाथ आ सकती हैं।
नचिकेता नारायण विपक्षी एकता के लिए अल्पसंख्यकों के मुद्दे को भा काफ़ी अहम मानते हैं। ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव, केजरीवाल, अखिलेश यादव और खुद नीतीश कुमार के लिए सेक्यूलरिज़्म और संविधान बड़ा मुद्दा है। जाहिर यह एक ऐसा मुद्दा है जो कांग्रेस के लिए खास मायने रखता है। ऐसे में अगर साल 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए कोई विपक्षी एकता बनती है तो वह इन्हीं मुद्दों पर टिक सकती है। (bbc.com/hindi)
- ध्रुव गुप्त
माफिया अतीक और अशरफ़ की पुलिस हिरासत में हत्या और उत्तर प्रदेश में लगातार चल रहे पुलिस मुठभेड़ों को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में गज़ब का प्रायोजित शोर है। इसपर ध्यान न दें तब भी अपराधी कितना भी बड़ा हो, उसका हश्र देर-सबेर ऐसा ही होता है। या तो वे पुलिस की गोली से मरते हैं या अपने प्रतिद्वंद्वी गिरोहों के शिकार बनते हैं। मरना तो उन्हें कानून के हाथों फांसी चढक़र ही चाहिए, लेकिन ऐसा कम होता है कि वे कानून द्वारा अपने अंजाम तक पहुंचा दिए जाएं। इस अराजकता के लिए देश में कानून की शिथिलता ही ज्यादा जिम्मेदार है। अतीक को हो लीजिए। लगभग चार दशकों के आपराधिक जीवन और सैकड़ों मुकदमों के बावजूद उसे अबतक मात्र एक केस में सज़ा मिली है। वह भी अभी कुछ ही दिनों पहले। कानून के इस ढीलेपन का फ़ायदा उठाकर वह वर्षों तक जेल से ही अपने आपराधिक साम्राज्य का विस्तार करता रहा। अब उसके तीनों हत्यारें भी जेल जाकर वही सब करेंगे। न्यायसंगत यह होता कि इन तीनों को घटना के समय ही पुलिस द्वारा मार डाला जाता, लेकिन बड़े रहस्यमय तरीके से पुलिस अपनी अभिरक्षा में अतीक और अशरफ़ की हत्याओं की मूकदर्शक बनी रही।
यह तो एक उदाहरण मात्र है। देश में नृशंस अपराध के असंख्य मामले फैसले के इंतज़ार में दशकों से फाइलों की धूल फांक रहे हैं। उनके अपराधी जेल से ही या बेल पर बाहर निकलकर आतंक के जाल फैलाए हुए हैं। देश में कानून की सत्ता स्थापित करने के लिए कानून को घिसटना नहीं, दौडऩा सीखना होगा। कम से कम नृशंस और संगठित अपराधोंके ट्रायल में संबंधित न्यायालयों को तेजी लानी ही होगी। उनकी शिथिलता की सज़ा देश का आम नागरिक क्यों भोगे ? जबतक कानून के हाथ लंबे ही नहीं, मजबूत और तेजरफ्तार भी नहीं होंगे, तबतक पुलिस और अपराधियों द्वारा इसी तरह उसकी धज्जियां उड़ेंगी और बहुसंख्यक लोगों द्वारा तालियां बजाकर उसका समर्थन भी किया जाता रहेगा।
यह सोच कि कानून के राज्य की स्थापना कानून तोडक़र की जा सकती है, हमें जंगल राज की तरफ धकेल देगी। ज़रूरी यह है कि कानून में समय के अनुरूप सुधार कर उसे ज्यादा प्रभावी और गतिशील बनाया जाए।