विचार/लेख
विष्णु नागर
मैंने पूछा -आप हिंदू हैं या मुसलमान?
आपने हंस कर जवाब दिया-‘न मैं हिंदू हूं, न मुसलमान।
मैंने कहा- नहीं यह बात नहीं है, आप हिंदू तो हई हैं।
आपने कहा-‘जिस धर्म में रहकर लोग दूसरे का छुआ पानी नहीं पी सकते, उस धर्म में मेरे लिए गुंजाइश कहां? मेरी समझ में नहीं आता कि हिंदू धर्म किस पर टिका हुआ है?
मैं उन पर व्यंग करते हुए बोली--‘स्त्रियों के हाथ में।
आप बोले-‘हिंदू धर्म सबसे ज्यादा स्त्रियों को ही चौपट कर रहा है। जरा सी गलती स्त्रियों से हुई कि उन्हें हिंदू समाज ने बहिष्कार किया। सबसे ज्यादा हिंदू स्त्रियां चकलाखाने में हैं। सबसे ज्यादा हिंदू स्त्रियां मुसलमान होती हैं।ये आठ करोड़ मुसलमान बाहर के नहीं हैं, घर के ही हैं। यह सब तुम्हारी ही बहनें हैं और मैं यह भी कहता हूं कि ऐसे तंग धर्म में रहना भी नहीं चाहिए। पहली बार जब हिंदुओं के मौजूदा धर्म की नींव पड़ी, तब पुरुष कर्ताधर्ता थे। उन्होंने अपने लिए सारी सुविधाएं रख लीं। हिंदू स्त्रियों को छोटे से दायरे के अंदर बंद कर दिया। फिर वह कैसे उदार विचार का होता ?वे स्त्रियां न देवियां थीं, न मिट्टी का लोंदा।जो- जो अच्छाइयां या खराबियां, पुरुषों में होती हैं वे ही सब उन स्त्रियों में भी पाई जाती हैं। तो जब तक कि दोनों बराबर बराबर न हों, तब तक कैसे कल्याण होगा? पुरुषों की वे सुविधाएं स्त्रियों को भी मिलनी चाहिए। थोड़ी-थोड़ी गलतियों में अपनी बेटी- बहनों को निकाल देते हैं। फिर वे कहीं न कहीं तो जरूर जाएंगी। हिंदुओं की कोशिश तो यह होती है कि उन स्त्रियों को दुनिया ही से विदा कर दिया जाए। सरकार के भय से जरा चुप रहते हैं ।
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मैं बोली-‘आप किस मजहब को अच्छा समझते हैं?
आप बोले-‘अवश्य मेरे लिए कोई मजहब नहीं। राम, रहीम बुद्ध, ईसा,सब बराबर हैं। इन महापुरुषों में जो कुछ किया सब ठीक किया। उनके अनुयायियों ने उसको उल्टा किया। कोई धर्म ऐसा नहीं है कि जिस में इंसान से हैवान होना पड़े।इसीसे मै कहता हूं मेरा कोई खास मजहब नहीं है। सबको मानता भी हूं ।इस तरह के जो नहीं हैं, उनसे मुझे कोई मोहब्बत नहीं। यही मेरा धर्म समझो।
(‘प्रेमचंद घर में ’ पुस्तक के संपादित अंश। प्रेमचंद और उनकी पत्नी शिवरानी देवी के बीच हुआ संवाद)।)।
एडटेक कंपनी अनएकेडमी ने उस टीचर को बर्खास्त कर दिया है, जिसने अपने स्टूडेंट्स को चुनाव में उन उम्मीदवारों को वोट देने कहा था जो पढ़े-लिखे हों।
करण सांगवान नाम के इस टीचर को बर्खास्त करने की सूचना देते हुए अनएकेडमी के को-फाउंडर रोमन सैनी ने ट्वीट कर लिखा कि सांगवान ने कंपनी की आचार संहिता को तोड़ा है इसलिए इसे उन्हें हटाना पड़ा।
अपने वीडियो में पढ़े-लिखे नेताओं को वोट देने की अपील के बाद करण सांगवान ‘एक्स’ (पहले ट्विटर) पर ट्रेंड करने लगे।
सांगवान के इस ट्वीट के वायरल होने के बाद ‘एक्स’ पर यूजर इस बात को लेकर भिड़ गए कि पढ़े-लिखे नेताओं को वोट देने की अपील करना कितना सही है।
सांगवान के इस वीडियो के बाद कुछ लोगों ने उनके पक्ष में ट्वीट किया।
यूट्यूबर और पत्रकार अजित अंजुम ने लिखा, ‘करण सांगवान को बॉयकॉट गैंग के दबाव में अनएकेडमी से निकाल दिया गया?’ पढ़े लिखे नेता को ही वोट देना ‘ये कहने की सजा मिली लॉ के टीचर करण सांगवान को?’
बायजूज के ‘आकाश’ तक पहुंचने और भंवर में फंसने की कहानी
कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा, ‘जो लोग दबाव में झुक जाते हैं और धमकाए जाते हैं, वे कभी भी वैसे नागरिक बनाने में मदद नहीं कर सकते जो दुनिया में सभी बाधाओं के सामने खड़े रहते हैं।’
‘ये देखना दुखद है कि ऐसे रीढ़विहीन और डरपोक लोग एजुकेशन प्लेटफॉर्म चला रहे हैं।’
प्रोफेसर दिलीप मंडल ने लिखा, ‘करण सांगवान बता रहे हैं कि जिसके पास सबसे ज़्यादा डिग्री हो उसे इलेक्शन में चुन लो। फिर चुनाव ही क्यों करना?’
‘ये लॉ के कैसे टीचर हैं, जिसे पता नहीं कि भारतीय संविधान में चुनने और चुने जाने के लिए शिक्षा, भूमि स्वामित्व और संपत्ति की कोई शर्त नहीं है? ये आज़ादी से पहले के चुनावों में होता था। संविधान ने इस गड़बड़ी को ठीक किया।’
मनिका नाम के यूजर ने लिखा, ‘इनके पढ़े लिखे होने का क्या फायदा? एक शिक्षक होने के नाते यह उनका कर्तव्य है कि वे अपने छात्रों के लिए अपडेट रहें। ये हमारे प्रधानमंत्री का अपमान है।’
विजय पटेल नाम के एक यूजर ने लिखा, ‘सब कुछ स्क्रिप्ट के मुताबिक़ चल रहा है। इस स्क्रिप्ट का अगला मूव ये होगा कि कोई राजनीतिक नेता करण सांगवान से अपने मीडिया और पीआर टीम के साथ दो-तीन दिन के अंदर मिलेगा।
अरविंद केजरीवाल भी विवाद में कूदे
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी इस विवाद में कूद पड़े। उन्होंने लिखा, ‘क्या पढ़े-लिखे लोगों को वोट देने की अपील करना अपराध है? यदि कोई अनपढ़ है, व्यक्तिगत तौर पर मैं उसका सम्मान करता हूं। लेकिन जनप्रतिनिधि अनपढ़ नहीं हो सकते।’
उन्होंने कहा, ‘ये साइंस और टेक्नोलॉजी का जमाना है। 21वीं सदी के आधुनिक भारत का निर्माण अनपढ़ जनप्रतिनिधि कभी नहीं कर सकते।’
पिछले दिनों अनएकेडमी प्लेटफॉर्म पर कानून पढ़ाने वाले लीगल पाठशाला के करण सांगवान का वीडियो सोशल मीडिया वायरल हुआ।
‘एक्स’ पर दिख रहे इस वायरल वीडियो में करण मोदी सरकार की ओर से हाल ही में पुराने आईपीसी, सीआरपीसी और भारतीय गवाही कानून में बदलाव करने के लिए लाए गए बिल पर बात कर रहे हैं।
इस वीडियो में वो कहते दिख रहे हैं कि क्रिमिनल लॉ के जो नोट्स उन्होंने बनाए थे वे बेकार हो गए हैं।
वो कह रहे हैं, ‘मुझे पता नहीं कि मैं हंसू या रोऊं क्योंकि मेरे पास कई बेयर एक्ट, केसलोड्स और ऐसे नोट्स हैं, जो मैंने तैयार किए थे। ये किसी के लिए बड़ा कठिन काम है। आपको नौकरी भी करनी है।’
इस वीडियो में वो आगे कहते दिख रहे हैं, ‘लेकिन एक बाद ध्यान में रखिए। अगली बार उसे वोट दें जो अच्छा पढ़ा-लिखा हो ताकि आपको दोबारा इस तरह की परेशानी से न गुजरना पड़े।’
वो कह रहे हैं, ‘ऐसे शख्स को चुनें जो पढ़ा-लिखा हो, जो चीजों को समझता हो। उस शख्स को न चुनें जो सिर्फ नाम बदलना जानता है। अपना फैसला ठीक तरह से लें।’
कितना बड़ा है अनएकेडमी का कारोबार?
अनएकेडमी की शुरुआत 2010 में हुई थी। इसे गौरव मुंजाल ने एक यूट्यूब चैनल के तौर पर शुरू किया था। इसके बाद दिसंबर 2015 में रोमन सैनी और हिमेश सिंह इसमें शामिल हुए।
तीनों ने मिलकर अनएकेडमी कंपनी बनाई। ये एक ऐसा प्लेटफार्म है जिस पर ऑनलाइन पढ़ाने वाले शिक्षक जुड़ सकते हैं। ये एक ऐप के जरिये काम करता है।
फिलहाल इसका रेवेन्यू बढ़ कर 130 करोड़ रुपये हो गया है।
अगस्त 2021 में इसे टेमासेक, जनरल अटलांटिक, टाइगर ग्लोबल और सॉफ्टबैंक विजन फंड ने 44 करोड़ डॉलर की फंडिंग की थी।
हालांकि अनएकेडमी के लिए 2023 अच्छा नहीं रहा है। फंडिंग की कमी की वजह से इस साल की शुरुआत से अब तक ये 3,500 कर्मचारियों की छंटनी कर चुकी है। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
भारत जैसे गरीब देश में, जहां तीन चौथाई आबादी को मुफ्त में राशन देना पड़ता है, जहां करोड़ों लोग उचित स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में सालोसाल असाध्य बीमारियों को सहते हों, वहां सरकारें अपनी छोटी छोटी योजनाओं के शिलान्यास के नाम पर आए दिन करोड़ों रुपए के विज्ञापन मीडिया में जारी कर जिस तरह से नागरिकों से तरह तरह के कमरतोड़ टैक्स के रुप में वसूली रकम को बेहयाई से खर्च करती हैं वह बेहद शर्मनाक है।
यह सब तब और भी ज्यादा शर्मनाक लगता है जब मणिपुर में कत्लेआम मचा हो, हरियाणा का बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक आग में झुलस रहा हो, और सरकारें अपनी अक्षमता पर पर्दा डालने के लिए बे सिर पैर के कुतर्क गढ़ रही हों, ऐसी दुखद परिस्थितियों में प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री का चमचमाते डिजाइनर कपड़ों में विज्ञापनों में मुस्कराता चेहरा कितना अशोभनीय लगता है उसे शालीन शब्दों में अभिव्यक्त करना मुश्किल है।
कुछ दिन पहले दैनिक भास्कर में एक ही समाचार के एक एक पेज के दो विज्ञापन प्रकाशित हुए थे। प्रधानमंत्री को मध्य प्रदेश के कुछ रेलवे स्टेशन के कायाकल्प की योजना का शिलान्यास करना था। इन दोनों विज्ञापनों के माध्यम से यही सूचना दी गई थी। इस आयोजन की सूचना पीटीआई, रेडियो और दूरदर्शन के प्रचार माध्यम से आसानी से जनता को दी जा सकती थी। लेकिन सरकार मीडिया को उपकृत कर अपने पक्ष में नियंत्रित करने के लिए दोनों हाथ से विज्ञापन जारी करती हैं।
इस कार्यक्रम का एक विज्ञापन भारत सरकार ने किया था और उसी समाचार का दूसरा विज्ञापन मध्य प्रदेश सरकार ने किया था। दोनों सरकार भी एक ही राजनीतिक दल की हैं। सरकार के एक अखबार को एक दिन में दिए विज्ञापन की बात दो पेज के विज्ञापन पर ही खत्म नहीं हुई। इसी दिन मध्य प्रदेश की सरकार ने इसी अखबार में अपनी अन्य योजनाओं की पीठ थपथपाते हुए दो पेज के अन्य विज्ञापन भी दिए थे। कुल मिलाकर सरकार के एक ही अखबार में एक ही दिन चार पेज के विज्ञापन थे, जिनमें प्रदेश सरकार के तीन पेज के विज्ञापन थे। मध्य प्रदेश वह प्रदेश है जिसकी गिनती गलत कामों में बहुत ऊपर होती है। उदाहरण के लिए सबसे ज्यादा महिलाएं लापता होने में यह प्रदेश अग्रणी है। घातक एक्सीडेंट्स के मामले में तमिलनाडु के बाद यह प्रदेश देश में दूसरे नंबर पर आता है। यहां शिक्षा, स्वास्थ, बिजली और सडक़ों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। ज्यादा दुर्घटनाओं के पीछे बहुत खराब सडक़ें भी मध्य प्रदेश को शर्मशार करने में बराबर की सहयोगी हैं। इसके बावजूद मुख्यमंत्री सार्वजानिक मंच से प्रदेश की सडक़ों को अमेरिका से बेहतर बताते हैं जबकि सोशल मीडिया के माध्यम से मध्यप्रदेश के निवासी आए दिन खराब सडक़ों की शिकायत करते रहते हैं।
जहां तक विज्ञापनों का संबंध है इसका कुछ ईलाज कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिबंध लगाकर किया था कि विज्ञापनों में केवल प्रधानमन्त्री या प्रदेश के मुख्यमंत्री की ही फोटो प्रकाशित हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से हर मंत्रालय से मंत्रियों की फोटो के साथ जारी होने वाले विज्ञापनों पर तो रोक लगी थी लेकिन वह इलाज आधा-अधूरा ही रहा। अब तमाम मंत्रालय प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के नाम से विज्ञापन जारी करने लगे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय को इन विज्ञापनों की भी कोई सीमा निश्चित करनी चाहिए ताकि एक ही कार्यक्रम के दो दो विज्ञापनों में जन धन की बरबादी रोकी जा सके। यह भी देखने में आता है कि चुनावी वर्ष में सरकारी विज्ञापनों की संख्या बेतहासा बढ़ जाती है। इस पर चुनाव आयोग को भी नजऱ रखनी चाहिए क्योंकि सरकार अंधाधुंध विज्ञापन जारी कर अपने राजनीतिक दल की छवि चमकाने के लिए जन धन की बरबादी करती है। सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश से चुनाव आयोग ही ऐसी धन बर्बादी को नियंत्रित कर सकता है।
बलराज साहनी
‘विमल राय’ अब इस संसार में नहीं हैं। मैं उनसे अपने कथन की पुष्टि नहीं कर सकता, लेकिन मुझे लगता है कि ‘दो बीघा जमीन’ में कंगाल बस्ती की मालकिन का पात्र उन्होंने शायद उसी भीड़ में से लिया था।
विमल राय और हृषिकेश मुखर्जी दिन-भर शर्टिंग करते और सारी रात नई ‘लोकेशनों के लिए भटकते। कलकत्ता में प्रात:काल के समय सडक़ें धोने का रिवाज है। उस वातावरण को फिल्माने के लिए उन्होंने मुझे रात के तीन बजे ही रिक्शा में जोत दिया। मुझे इतना ज़्यादा रिक्शा चलाना पड़ा कि भूख के मारे मेरा बुरा हाल हो गया। एक बस्ती के बाहर मैंने एक हलवाई को गर्म-गर्म दूध बेचते देखा। मैं उसके पास गया और आधा सेर दूध देने के लिए कहा।
हलवाई ने एक नजर मुझे देखा और कडक़कर कहा, ‘जानो, दूध नहीं’ कड़ाही में यह क्या उबल रहा है? मैं पैसे दे रहा हूं, मुफ्त तो नहीं मांगता!’
‘कह जो दिया, दूध नहीं है !’ उसके गुस्से का पारा और भी चढ़ गया था।
दोपहर का समय था। गर्मी बेहद थी। कैमरा एक ट्रक में छिपाकर लगाया गया था। सारी यूनिट उस ट्रक पर सवार थी। रुमाल का इशारा पाते ही मैं रिक्शा लेकर दौड़ पड़ता था। कभी सवारी उतारता, कभी नई सवारी लेता। कभी दो सवारियां, कभी तीन। प्यास के मारे मेरी बुरी हालत थी। लेकिन ट्रक वालों को रोकना संभव नहीं था। एक जगह सडक़ के किनारे मैंने एक पंजाबी सरदार का ढाबा देखा, तो कुछ क्षणों के लिए रिक्शा एक ओर खड़ा करके भागता हुआ गया, और बड़े अपनत्व से पंजाबी में बोला, ‘भाई जी, बहुत सख्त प्यास लगी है। एक गिलास पानी पिलाने की कृपा कीजिए।’
‘दफा हो जा, तेरी बहन की... उसने मुझे घुसा दिखाकर कहा। एक पंजाबी आदमी रिक्शा चलाने का घटिया काम करे, यह उसे शायद सहन नहीं हो पाया था। मेरे मन में आया कि में उसे अपनी असलियत बताऊं और दो-चार खरी-खरी सुनाऊं, पर इतना समय नहीं था।
एक पानवाले की दुकान पर मैंने ‘गोल्ड फ्लैक’ सिगरेट का पैकेट मांगा और साथ ही पांच रुपये का नोट उसकी ओर बहाया। पान वाले ने कुछ देर मेरा हुलिया देखा, फिर नोट लेकर उसे धूप की ओर उठाकर देखने लगा कि कहीं नकली न हो। आखिर कुछ देर सोचने के बाद उसने मुझे सिगरेट का पैकेट दे दिया। अगर वह मुझे पुलिस के हवाले भी कर देता, तो कोई हैरानी की बात न होती।
चौरंगी में शूटिंग करते समय भीड़ जमा होने लगी थी। विमल राय ने मुझे और निरूपा राय को कुछ देर के लिए किसी होटल में चले जाने के लिए कहा। हम फौरन एक रेस्तरां में दाखिल हुए, तो वेटरों ने हमें धक्के देकर बाहर निकाल दिया।
हम भारतीय सभ्यता और उसके मानवतावादी मूल्यों की डींगें मारते नहीं थकते; पर हमारे देश में सिर्फ पैसे की कद्र है, आदमी की कद्र नहीं है। यह बात मैंने उस शूटिंग के दौरान साफ तौर पर देख ली थी। हमारे देश में गरीब आदमी के पास पैसा हो, तो भी उसे चीज़ नहीं मिलती। यह हमारी सभ्यता की विशेषता है। (मेरी फिल्मी आत्मकथा)
फैसल मोहम्मद अली
देश के इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षा-भर्ती घोटाला
घोटाले में लेन-देन की अनुमानित राशि तीन अरब डॉलर
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर भी लगे थे आरोप
मामला 2013 में दस साल पहले सामने आया, अब तक ठोस नतीजा नहीं
घोटाले के 40 से ज़्यादा अभियुक्तों, गवाहों और जाँचकर्ताओं की संदिग्ध मौत
जहर पीने, फाँसी लगाने, डूबने और अज्ञात कारणों से हुई मौतें
साल 2012, 19 साल की एक लडक़ी की लाश उज्जैन में रेलवे ट्रैक पर मिली, पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में मौत की वजह दम घुटना बताया गया।
पुलिस ने इसे पहले हत्या माना, आदिवासी लडक़ी की लाश को लावारिस बताकर दफन कर दिया गया, बाद में एक बार फिर पोस्टमॉर्टम कराया गया और इसे आत्महत्या बता दिया गया।
झाबुआ जि़ले की नम्रता डामोर के पिता मेहताब सिंह ने पिछले दिनों मुझे बताया, ‘नम्रता को व्यापम से जुड़े मामलों की जानकारी हो गई थी इसीलिए उसे मार डाला गया।’
जब मेहताब सिंह मुझसे बात कर रहे थे तो मेरे शरीर में एक सिरहन-सी उठ रही थी क्योंकि मैं जिस सोफ़े पर बैठा था, उसी पर साल 2015 की एक दोपहर मेरे जैसा ही एक पत्रकार बैठा था, वह अचानक ही रहस्यमय ढंग से मौत की नींद सो गया था।
नम्रता डामोर की संदिग्ध मौत और व्यापम घोटाले से जुड़े तारों की तफ्तीश करते हुए आठ साल पहले ‘आजतक’ के रिपोर्टर अक्षय सिंह मेहताब सिंह के घर पहुँचे थे। मेहताब सिंह ने बताया, ‘चाय पीने के बाद अक्षय सिंह के मुँह से झाग निकला और उनकी साँसें सदा के लिए रूक गईं।’ व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापम) घोटाले से जुड़े तकऱीबन 40 लोगों की संदिग्ध हालत में मौतें हुईं हैं जिसने इस भर्ती घोटाले को भयावह और रहस्यमय बना दिया है।
इस मामले में लोग बात करने से कतराते हैं, यहाँ तक कि पत्रकार भी इस मामले की तह में जाने की कोशिश को खतरनाक बताते हैं जबकि राज्य सरकार का कहना है कि ये सभी स्वाभाविक मौतें हैं जिनका व्यापम से कोई ताल्लुक नहीं है।
इन संदेहास्पद मौतों के बाद जानी-मानी पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने परीक्षा घोटाले पर अपनी रिपोर्ट को ‘डायल एम फॉर मध्यप्रदेश’ शीर्षक दिया था। ‘इकोनॉमिस्ट’ ने अपनी रिपोर्ट में लेन-देन की कुल अनुमानित राशि को तीन अरब डॉलर (तकरीबन 240 अरब रुपए) बताया है।
व्यापम का व्यापक जाल और राजनीति
ताजा अपडेट ये है कि व्यापम घोटाले की जांच को लेकर इंदौर हाईकोर्ट में 10 अगस्त को एक याचिका दायर की गई है।
मामले को उजागर करने में अग्रणी रहे पारस सकलेचा ने अदालत से अनुरोध किया है कि उनकी जो शिकायत दिसंबर 2014 से लंबित है उसमें निश्चित अवधि के भीतर कार्रवाही करने का हुक्म जारी करे। अपनी शिकायत में रतलाम के पूर्व निर्दलीय विधायक पारस सकलेचा ने राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर, बड़े अधिकारियों और प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की जाँच की माँग की थी। सकलेचा 2017 से कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं।
पारस सकलेचा कहते हैं कि उन्होंने प्री-मेडिकल टेस्ट (पीएमटी) घोटाले की जानकारी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को साल 2009 में ही दे दी थी जिसके बाद फर्जीवाड़े की छानबीन के लिए दिसंबर माह में समिति का भी गठन किया गया था।
रतलाम के अपने घर पर बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, ‘समिति बनाए जाने और मुख्यमंत्री के कड़ी कार्रवाई के आश्वासन के बाद भी चार सालों तक घोटाला जारी रहा बल्कि इसका दायरा भी बढ़ता गया तो इससे लगता है कि मुख्यमंत्री घोटाला रोकने के प्रति गंभीर नहीं थे।’
‘आपके पास विभाग है, जाँच की बात भी आप कह रहे हैं, फिर भी घोटाला जारी रहता है, तो हम कह रहे हैं कि इसमें शिवराज सिंह चौहान की भागीदारी की भी जाँच होनी चाहिए।’
तमाम तरह के राजनीतिक हंगामों, दबावों और मुख्यमंत्री कार्यालय के एक अधिकारी की गिरफ्तारी के बावजूद शिवराज सिंह चौहान से मामले में कभी पूछताछ भी नहीं हुई। किसी तरह का केस ज़ाहिर है उनके विरूद्ध कभी दर्ज नहीं हुआ।
सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता गोविंद मालू इन आरोपों को सिरे से निराधार बताते हैं और कहते हैं कि मामले में जो भी पहल हुई वो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने खुद व्यवस्था को ठीक करने के लिए की।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी आरोपों को बार-बार निराधार बताया है, उनका दावा है कि व्यापम से जुड़े मामलों में उन्होंने ठोस कार्रवाई की है। कभी डॉक्टर बनने का सपना देखने वाले राजीव आज अपने पिता की आटा-चक्की के काम में मदद करते हैं।
बर्बाद हो गए कई परिवार
केवल पत्रकार अक्षय सिंह या छात्रा नम्रता डामोर की ही बात नहीं है, संदेह पैदा करने वाले हालात में हुई तकरीबन 40 मौतों की वजह से बड़ी संख्या में परिवार तबाह हुए हैं।
घोटाले के एक अभियुक्त राजीव कहते हैं, ‘इसके चक्कर में फँसकर कई परिवार तबाह हो गए। भारी मानसिक तनाव में लोगों ने सुसाइड कर लिया, शादियां टूट गईं, कई के मां-बाप इसी गम में चल बसे।’
ऐसा ही एक मामला ग्वालियर का है, घोटाले में नाम आने के बाद गजराज मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस कर चुके रामेंद्र सिंह ने फांसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली।
जवान बेटे की मौत के गम में चंद ही दिनों बाद मां ने तेजाब पी लिया और चल बसीं।
बेटे और बीवी की मौत के बाद 62 साल के नारायण सिंह भदौरिया कहते हैं, ‘चार दिनों के भीतर ही बेटे और बीवी को गंवाने के बाद अब मुझे मरने की जल्दी है, अब जीने की कोई तमन्ना नहीं है।’
व्यापम के फंदे में फंसे नौजवानों का हाल
इस घोटाले में बिचौलियों, राजनेताओं और अफसरों के नेटवर्क ने 20-22 साल के नौजवानों को पैसों के बदले पीएमटी (प्री-मेडिकल टेस्ट), इंजीनियरिंग वगैरह की प्रवेश परीक्षाएँ धोखाधड़ी से पास करवाकर दाखिले का सपना बेचा, अब मध्य प्रदेश के सैकड़ों युवा महीनों जेल की सलाखों के पीछे काटने के बाद आज भी अदालतों के चक्कर काट रहे हैं।
अपनी जि़ंदगी की कहानी शेखर ने एक वाक्य में सुना दी, ‘हमसे कहा गया कि हमारे आगे जो व्यक्ति बैठा है उससे जवाब नकल करना है, इस तरह हमने पीएमटी पास कर ली, कॉलेज में एडमिशन हो गया, फिर प्रदेश में व्यापम नाम का घोटाला उजागर हुआ, हमारे खिलाफ क्रिमनल केस रजिस्टर्ड हुआ, हमें कॉलेज से निकाल दिया गया, जेल हुई, सात-आठ माह जेल में काटने पड़े, फि़लहाल हाई कोर्ट से जमानत पर रिहा हैं।’
राजीव कहते हैं, ‘फंस गए हैं हम। कुल मिलाकर कहीं के नहीं रहे, हमारे दस साल निकल गए हैं, शायद हमें सज़ा हो जाएगी, इस तरह हमारे कुल सतरह साल निकल जाएंगे। सत्रह साल के बाद मुझे नहीं लगता हम किसी मतलब के रह जाएँगे।’
मध्य प्रदेश के एक छोटे से क़स्बे में पले-बढ़े राजीव का ख़्वाब था कि वो पीएमटी पास करें, मगर पीएमटी में जब लगातार दो बार नाकामी मिली तो उनके परिवार वालों ने एक बिचौलिए को पाँच लाख रूपये दिए। इन पैसों के एवज में बिचौलिये ने राजीव के लिए एक ऐसा व्यक्ति उपलब्ध करवाया जिसने उनके बदले इम्तिहान दिया।
लंबी खिंच रही जांच के दस सालों में राजीव और शेखर की जिंदगियों में भी बड़े बदलाव साफ देखने को मिलते हैं, कभी डॉक्टर बनने का सपना देखने वाले राजीव पिता की आटा चक्की में कभी-कभार मदद करते हैं, शेखर का गुजारा एक प्राइवेट कंपनी में छोटी-मोटी नौकरी करके होता है, दोनों की उम्र और तीस को पार कर गई है। शेखर अपने पैतृक शहर में नहीं रहते क्योंकि ‘लोगों से नजऱें नहीं मिला सकते। हालांकि मुझसे अधिक पीड़ा मेरे बूढ़े माता-पिता को झेलनी पड़ रही है।’
राजीव कहते हैं कि लोगों का गलत ख्याल है कि हम जैसे सभी लोग बड़े पैसे वाले थे, कुछ के पास शायद एक-दो बीघा जमीन थी जिसे बेचकर लोगों ने बिचौलियों के पैसे चुकाए। हमारे परिवार को सूद पर पैसे लेने पड़े थे उन लोगों को देने के लिए।
हाई कोर्ट के वकील उमेश बोहरे ने राजीव और शेखर जैसे पचास से ज़्यादा लोगों की जमानत करवाई है, वो कहते हैं कि व्यापम घोटाले में ‘जो अच्छे परिवार से हैं वो बच जाएंगे, गरीब मारे जाएँगे।’
न्याय व्यवस्था से जुड़े एक अन्य व्यक्ति का कहना है कि जिन्होंने मेडिकल-इंजीनियरिंग या दूसरे कोर्सेस में दाखिले के लिए रिश्वत और धोखाधड़ी का सहारा लिया उनके साथ क्यों किसी तरह की हमदर्दी की जाए?
‘इंजन-बोगी सिस्टम’ कैसे काम करता था?
सरकारी संस्था व्पापम सूबे के तकनीकी कॉलेजों में प्रवेश के लिए परीक्षा करवाने के लिए जि़म्मेदार है। उसके ऊपर सरकारी नौकरियों में भर्तियों के लिए भी इम्तहान कराने की जिम्मेदारी है।
बिहार के चारा घोटाला से भी बड़ा बताए जाने वाले इस परीक्षा स्कैम में पुलिस के मुताबिक मेडिकल-इंजीनियरिंग वगैरह की प्रवेश परिक्षाओं में कैंडिडेट की बजाए दूसरों से लिखवाए जाते थे। एग्जाम शीट्स इम्तिहान का वक्त खत्म होने के बाद भरे जाते थे।
‘इंजन-बॉगी सिस्टम’ नाम की व्यवस्था में बैठने का इंतजाम इस तरह किया जाता था ताकि आगे-पीछे बैठे परीक्षार्थी नकल कर सकें।
दूसरों के बदले परीक्षा देने वाले लोग या फिर जिनके जवाब की नकल दूसरों को करने को कहा जाता था, वो सभी ज़्यादातर मामलों में पहले से ही मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे होते थे और इन सभी को पैसे देकर दूसरे शहरों से लाया जाता था, इन्हें सॉल्वर कहा जाता है।
सीबीआई ने अपने एक बयान में कहा है कि इन सॉल्वर्स को उत्तरप्रदेश, बिहार, दिल्ली, राजस्थान, झारखंड, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों से लाया जाता था। ज्यादातर मामलों में ये साल्वर्स या तो मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे छात्र हुआ करते थे या ये कोचिंग में पीएमटी की तैयारी कर रहे तेज़ दिमाग़ लडक़े होते थे।
नौजवान कैसे फँसते थे चंगुल में?
राजीव और शेखर एक दूसरे से सैकड़ों किलोमीटर के फ़ासले पर रहते हैं, लेकिन दोनों की जि़ंदगियां लगभग एक-सी हैं। दोनों पीएमटी पास करने में नाकाम रहे थे और परिवार वालों का दबाव झेल रहे थे, जिसके बाद उन्होंने बिचौलिए का सुझाया रास्ता चुना।
शेखर के मुताबिक, उन जैसे लोग ही व्यापम घोटाला नेटवर्क का टार्गेट हुआ करते थे, ‘ये उनकी मार्केटिंग स्ट्रेटजी थी जिससे हम लोगों का संपर्क ऐसे लोगों से हुआ।’
राजीव के मामले में उनके भाई के एक रिश्तेदार ने उनसे कस्बे में संपर्क करके कहा कि परेशान होने से बेहतर है कि पाँच लाख रूपये खर्च करो, मेडिकल कॉलेज में सेलेक्शन पक्का, 20-25 हजार रूपए एडवांस देने के बाद उनके डॉक्यूमेंट्स ले लिए गए और उन्हें बताया गया उनकी जगह कोई और व्यक्ति पीएमटी में बैठेगा और उनका नाम एडमिशन लिस्ट में शामिल होगा। इसके बाद उन्हें एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला भी मिल गया।
राजीव कहते हैं, ‘हम एडमिशन लेने गए तो वहां पूरी कमेटी बैठी थी। उन्होंने हमारे डॉक्यूमेंट्स देखे फिर भी हमें एडमिशन दे दिया जबकि हमारे एडमिट कार्ड में जो तस्वीर लगी थी वो उस व्यक्ति की थी जिसने मेरे बदले में मेडिकल की प्रवेश परीक्षा दी थी।’
वे कहते हैं, ‘ये एजेंट, एग्जाम हॉल में होने वाली गड़बडिय़ां, दाखिले की जांच समिति में बैठे लोग, ये पूरा नेटवर्क दस-बारह लोगों का नहीं हो सकता, एक पूरा सिस्टम काम कर रहा था लेकिन आज दस सालों बाद हम लोगों को सज़ा हो रही है, लेकिन ये नहीं देखा जा रहा है कि हम इस जाल में कैसे फँसे, हमें आगे करके असली दोषियों को बचाने की कोशिश हो रही है।’
एसटीएफ और सीबीआई ने अपने मुकदमों में सैकड़ों परीक्षार्थियों और अभिवावकों को भी शामिल किया, जिसको लेकर नागरिक समूहों से लेकर, व्हिस्लब्लोअर, राजनेता और ख़ुद छात्र सवाल उठाते रहे हैं।
क्या घोटाले के जिम्मेदार लोग पकड़े गए?
ऐसे सवाल बहुत सारे दूसरे लोग भी उठाते हैं। खासतौर पर इसलिए भी कि पीएमटी में घोटाले को लेकर राज्य के विभिन्न थानों में 25 साल पहले से ही मामले दर्ज होते रहे हैं। इनकी संख्या कई रिपोर्टों में 55 तक बताई गई है।
बीबीसी से बातचीत में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जांच को गलत दिशा में ले जाने का आरोप लगाते हैं।
वे हरियाणा की मिसाल देते हैं जहाँ शिक्षक घोटाले में जिन लोगों ने बहाली के लिए पैसा दिया था उन्हें अभियुक्त नहीं गवाह बनाया गया और इस तरह जाँच करने वाले टॉप पर बैठे लोगों तक पहुँचे।
‘लेकिन यहां जिन्होंने पैसे दिए हैं, उन्हें ही अधिकतर जेल हो रही है। कुछ उन लोगों को भी जेल हुई जिन्होंने पैसे लिए लेकिन वो सब छूट रहे हैं। मेरा सवाल है सीबीआई से कि उन लोगों को क्यों नहीं गवाह बनाया गया जो बता रहे हैं कि कैसे हम इस जाल में फँस गए?’
व्यापम घोटाले को उजागर करने वालों में शामिल रहे डॉक्टर आनंद राय कहते हैं, ‘जेल हो रही है छोटे लोगों को। यह एक पिरामिड की तरह है, जिसमें नीचे परीक्षार्थी हैं, अभिवावक हैं, जेल इन लोगों को हो रही है जिन लोगों ने पैसा बनाया वे पिरामड में ऊपर हैं, उन्हें कुछ नहीं हो रहा, वो छूट गए सब बड़े लोग थे। अब आप 10-15 साल तक भी जांच जारी रखोगे तो क्या होगा?’
डॉक्टर आनंद राय का कहना है कि लंबी लड़ाई कभी-कभी हताश कर देती है, बड़ी अदालतों में तो फिर भी कई बड़े वकील मुफ्त मुकदमे लडऩे और दूसरी तरह की मदद कर देते हैं लेकिन छोटी अदालतों में ये बहुत मुश्किल है।
कुछ सप्ताह पहले ही मध्य प्रदेश में पटवारियों की भर्ती में घोटाले का मामला सामने आया है यानी भर्ती और शायद प्रवेश परीक्षा घोटाला सूबे में बदस्तूर जारी है।
विपक्षी दल कांग्रेस का कहना है कि आगामी विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा रहेगा और जाहिर है व्यापम घोटाला उसी से जुड़ा है।
सुप्रीम कोर्ट में भी व्पापम घोटाले की जांच को लेकर कई अर्जियां सुनवाई के लिए लंबित हैं। (bbc.com/hindi)
राजेन्द्र शर्मा
लीजिए, अब ये क्रिसिल वाले भी महंगाई का राग अलापने लगे। अरे ऋण रेटिंग एजेंसी हो, अपने काम से काम रखो ना भाई। किसी की ऋण रेटिंग बढ़ाओ, किसी की घटाओ, पब्लिक की बला से। उसे न ऋण मिलना है, न किसी रेटिंग की जरूरत पडऩी है। पर ये क्या कि महंगाई-महंगाई राग अलापने लगे। और वह भी पब्लिक की खाने-पीने की चीजों की महंगाई का राग। कह रहे हैं कि पिछले महीने शाकाहारी थाली की कीमत पूरे 34 फीसद बढ़ गई है। यानी पब्लिक महीने भर पहले खाने पर जितना खर्च कर रही थी, उससे 34 फीसद ज्यादा पैसा जुटाए या फिर अपना खाना ही एक-तिहाई घटाए। यानी पहले तीन रोटी खाती हो, तो अब दो रोटी में ही काम चलाए! और बाकी सब भी उसी हिसाब से घटाती जाए।
कमाल ये है कि उसी क्रिसिल के हिसाब से मांसाहारी थाली की कीमत भी बढ़ी जरूर है, लेकिन शाकाहारी थाली के मुकाबले काफी कम। शाकाहारी थाली की कीमत में 34 फीसद बढ़ोतरी के मुकाबले, मांसाहारी थाली की कीमत 13 फीसद ही बढ़ी है। हम पूछते हैं कि क्रिसिल वालों के यह बताने का क्या मतलब है? क्रिसिल वाले क्या यह कहना चाहते हैं कि मोदी जी की सरकार मांसाहारियों पर ज्यादा मेहरबान है? क्या वे मोदी सरकार पर मांसाहार को बढ़ावा देने की तोहमत लगाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? वर्ना अलग से इसका आंकड़ा देने का क्या मतलब है कि शाकाहारी थाली की कीमत, मांसाहारी थाली की कीमत से ज्यादा बढ़ी है!
इस तरह के थाली-भेद को बढ़ावा देने वाला आंकड़ा ही नहीं, हम तो कहते हैं कि कोई भी आंकड़ा देने का मतलब ही क्या है? अगर बहस के लिए यह भी मान लिया जाए कि खाने की थाली महंगी हो गयी है, तब भी उसका आंकड़ा बताने से क्या हासिल है? आंकड़ा बताने से क्या पब्लिक की तकलीफ कम हो जाएगी? उल्टे आंकड़ों से तो लोगों की तकलीफ ही बढ़ जाती है। जिन्हें पहले नहीं पता चला था, उन्हें भी पता चल जाता है कि उनकी थाली महंगी हो गयी है। और तो और, जिन्हें कभी थाली भर खाने नसीब नहीं होता है, वे भी थाली के महंगी हो जाने का शोर मचाने लगते हैं। ऊपर से शाकाहारी और मांसाहारी का झगड़ा और कि किसे बढ़ावा दे दिया, किस को हतोत्साहित कर दिया। इसीलिए तो मोदी जी की सरकार, आंकड़ों का चक्कर ही निपटाने में लगी है। न रहेंगे आंकड़े और न होगी इसकी कांय-कांय कि यह लुढक़ गया, वह गिर गया। और जो कोई बाहर वाला आंकड़े बताने की कोशिश करेगा, तो उसका हाथ के हाथ खंडन कर दिया जाएगा। फिर चाहे वह भूख में दुनिया के 121 देशों में अमृतकाल वाले भारत के 107वें नंबर पर होने का ही आंकड़ा क्यों न हो!
खैर, क्रिसिल वालों के ‘‘रोटी-राइस रेट’’ का मामला तो मोदी जी की सरकार को बदनाम करने के षडय़ंत्र का ही मामला लगता है। षडय़ंत्र भी लोकल नहीं, ग्लोबल। क्रिसिल के नाम में इंडिया होने से क्या हुआ, अमरीकी स्टेंडर्ड एंड पुअर से उसका कनेक्शन भी तो है। अगर यह षडय़ंत्र नहीं, तो और क्या है कि शाकाहारी थाली 34 फीसद महंगी होने की हैडलाइन बनवाई जा रही है, जबकि रिपोर्ट में अंदर यह माना जा रहा है कि इसमें से 25 फीसद बढ़ोतरी, सिर्फ टमाटर के दाम बढऩे से आई है। यानी टमाटर को निकाल दें, तो शाकाहारी थाली में सिर्फ 9 फीसद बढ़ोतरी हुई है यानी मांसाहारी थाली से भी 4 फीसद कम! क्या क्रिसिल वालों को पता नहीं है कि सरकार ने पहले ही टमाटर को फल घोषित कर दिया है! और फल के दाम को पब्लिक की खाने की थाली में कौन जोड़ता है जी! क्रिसिल वालों को अगर पहले टमाटर के फल घोषित किए जाने का पता नहीं भी था, तो रिपोर्ट जारी करते समय तो यह अस्वीकरण जोड़ सकते थे। टमाटर का विकास कर मोदी जी ने उसे फल बना दिया, पर भारतविरोधी षडय़ंत्र करने वाले अब भी उसे सब्जी-भाजी में ही जोडऩे पर तुले हैं। (व्यंग्य)
सनियारा खान
अभी कुछ दिनों पहले मुझे हिटलर के बारे में एक कहानी पढऩे का मौका मिला। एकबार हिटलर सदन में एक मुर्गी लेकर आया। फिर सभी सांसदों को हैरान करते हुए वह उस मुर्गी के सारे पंख एक एक करके नोंचने लगा। बेचारी मुर्गी पहले ही भूख के कारण परेशान हो रही थी । उसके बाद पंख नोच लिए जाने के कारण वह दर्द से बिलबिलाने लगी। वह मुर्गी छटफटाते हुए हिटलर को देखने लगी। अब हिटलर ने अपने जेब से थोड़े से अनाज के दाने निकाल कर अपने पैरों के चारों तरफ छिडक़ दिया। वह मुर्गी उसके पैरों के चारों तरफ घूम घूम कर अनाज खाने लगी। अनाज खा कर वह हिटलर के पैरों के पास आ कर फिर से खड़ी हो गई। हिटलर जानता था था कि लोगों से सब कुछ छीन कर भी अगर बाद में उन्हें थोड़ा सा खाना खिलाया जाए तो लोग सब कुछ भूल कर बेवकूफ की तरह उसी छीननेवाले का ही जय जय करने लगते हैं। अब मुर्गी को एक तरफ हटा कर हिटलर ने सदन के स्पीकर की तरफ देख कर गर्व से कहा कि गणतांत्रिक देशों की जनता और उस मुर्गी में कोई फर्क नहीं है। उनके नेता भी उनसे सब कुछ लूट कर उन्हें मजबूर कर देते हैं। ऐसी बदतर हालत में उन्हीं नेताओं से उन्हें जरा सा भी कुछ मिल जाए तो सारी जुल्म भूल कर उन नेताओं को ही अपना सब कुछ समझने लगते हैं। कितनी सच्ची बात है!
इलेक्शन के पहले पहले हर बार मुर्गियों के सामने दाना डालना शुरू हो जाता है, और मुर्गियां बिल्कुल भूल जाती है कि पंख नोंचने वाले भी यही लोग ही तो थे।
शिल्पा शर्मा
एक बार किसी एकांत में जाकर, आंखें बंद कर के ख़ुद से पूछिए आप जिस राह चल निकले हैं वह हीरो बनने की राह है या विलन या फिर विलन का पंटर बनने की? आपको सही जवाब मिल जाएगा, क्योंकि हमारा अंतर्मन हमें हमेशा सही राह दिखाता है। जो व्यक्ति अपने अपने काम को सही तरीक़े से करता है वही देश का सच्चा हीरो होता है, न कि उन्माद फैलाने वाला। आपके उस धर्म को, जो आपके जन्म के हज़ारों साल पहले से बचा हुआ है और आप रहें या न रहें यह आगे भी बचा रहेगा, उसके नाम पर आपको आपस में लड़ाने वालों का मोहरा बनकर विलन के पंटर न बनें।
जब हमारे देश को कम लोग पढ़े-लिखे हुआ करते थे, तब से भी किस्सागोई के जरिए हम सब तक कई तरह की कहानियां पहुंच ही जाती थीं। अब जबकि हमारे देश में शिक्षा का स्तर बढ़ा है, कहानियों की पहुंच और गहरी हुई है। फिर बात दादी-नानी की कहानियों की यानी बेड टाइम स्टोरीज की हो या किताबों की हो या फिर रील्स के जरिए। और टीवी सीरीयल्स, वेबसीरीज और फिल्में तो कहानियों की आमद का बड़ा जरिया हैं ही।
अच्छा, अधिकतर कहानियों का आप विश्लेषण करें तो पाएंगे कि कुछ उसमें एक हीरो होता है, कुछ उसके अपने लोग और समर्थक होते हैं। वहीं कहानी में एक विलन होता है और कुछ लोग उसके समर्थक होते हैं। अमूमन हीरो के समर्थक भले लोग और विलन के समर्थक बुरे लोग होते हैं। हम सभी जो लोग 70’ के दशक से लेकर वर्ष 2000 या उसके बाद की भी कुछ फिल्मों को देखकर बड़े हुए हैं या फिर वे युवा जिन्होंने ये फिल्में देखी हैं, वे हीरो और विलन के बेसिक, मेलो ड्रमेटिक कंसेप्ट से परिचित होंगे। वर्ष 2000 के बाद की फिल्मों की कहानियों की यदि चर्चा करें तो ज्यादातर हीरो और विलन के बीच का यह फर्क बड़ा हल्का या मामूली सा रह गया। कई, बल्कि अधिकतर फिल्मों में असल जिंदगी के विलन को हीरो बनाकर पेश करने और उसका महिमामंडन करने की भी परंपरा चल पड़ी, जो कई बार ग़लत भी नहीं होती, क्योंकि वह हमें कहानी को दूसरे नजरिए से देखना सिखाती है।
अपनी बात मैं तब की फिल्मों के हवाले से अपनी बात कहना चाहूंगी, जब कहानियों में हीरो और विलन का या यूं कहें कि अच्छाई और बुराई अंतर बड़ा साफ दिखाया जाता था। तब लोग (दर्शक/पाठक) विलन या उसके साथी होने की बजाय, हीरो और उसके साथी की ओर रहना पसंद करते थे। यदि आपने उन फिल्मों में विलन के खेमे के पंटरों को देखा हो, जो अपने आका के कहने पर, बिना अक्ल लगाए किसी से भी मार-पीट को तैयार हो जाते थे और ख़ुद भी चोटिल हो जाते थे। उनका कोई पूछने वाला नहीं होता था। अगर मान लो बच-बचा के वे अपने बॉस तक यह सूचना देने पहुंच भी जाते थे तो उनका बॉस उन्हें मार देता था या मरवा देता था।
यूं तो कहानियां सुनने के बाद हर कोई अपने आपको उस कहानी के हीरो की जगह रखकर देखता है, उसका हीरो समझता है या वैसा बनना चाहता है। लेकिन फिर भी भला क्यों कई लोग विलन के पंटर बनकर ही रह जाना चाहते हैं? नहीं समझे आप? मेरा इशारा उन छुटभैया मोहल्ला नेताओं से है, जो चंद पैसों और अपने इलाक़े में हल्की-सी धौंस जमाने का रुतबा पाने के लिए स्थानीय स्तर के छोटे-मोटे दंगा फैलाने, बलवा करने वाले ग्रुप्स का हिस्सा बन जाते हैं। उन्हें लगता है या फिर उनके मन में यह बिठा दिया जाता है कि ऐसा करके वे अपने धर्म को बचा रहे हैं और इसे वे हीरो होना समझ लेते हैं। लेकिन जब उपद्रव के वीडियोज़ में उनके फ़ुटेज सामने आते हैं तो उन्हें हवालात में जाना पड़ता है और उनका परिवार उन्हें छुड़ाने की क़वायद में परेशान होता रहता है। तब इन ग्रुप्स के बड़े नेता इन्हें बचाने तक के प्रयास नहीं करते। तो विलन के खेमे में क्षणिक हीरो बनने का क्या फ़ायदा होता है इन्हें?
कई लोग जो ग्रुप्स के बाहर से धर्म के नाम पर इनका ऊपरी समर्थन करते हैं, वक्त पडऩे पर वो आपके किसी काम आना तो दूर, उनसे बचना शुरू कर देते हैं। एक बार यदि ये लोग सहज रूप से सोचें कि जो धर्म (सनातन हो या मुस्लिम) हजारों या सैकड़ों साल से चला आ रहा है, जब आप नहीं थे तब भी था और आपके बाद भी रहेगा ही, उसे बचाने की आखिर क्या जरूरत है? वह तो बचा ही हुआ है, बचा ही रहेगा। बस, आप अमन-चैन से रहो।
हम सभी जानते हैं कि इन दिनों सोशल मीडिया ट्रोल आर्मी में युवाओं को महज़ कुछ पैसों के लिए भर्ती किया जा रहा है। इन युवाओं को रोजग़ार की ज़रूरत है और देश में रोजग़ार के अवसर आवश्यकता से बहुत कम हैं (और मौजूदा सरकार चाहती भी नहीं है कि वह रोजगार पैदा करे, क्योंकि वह सत्ता पाने के लिए, वोटों के लिए अपनी जनता का धार्मिक ध्रुवीकरण चाहती है) तो वे इन छोटे-मोटे ग्रुप्स या बड़ी पार्टियों के मीडिया सेल एजेंट के रूप में काम करने लगते हैं। पर क्या इस तरह का उन्माद फैलाना या उसका हिस्सा होना हीरो होना है? या फिर वह किसी विलन के पंटर की तरह गुमनाम, दुत्कारे जाने वाले जीवन की ओर ले जाता है? यह सोचकर देखिए।
और एक बात ये कि विलन या विलन के पंटर बनने से कहीं आसान है हीरो बनना। किसी सच्चे हीरो को किसी दूसरे व्यक्ति से इस बात की आस नहीं होती कि दूसरे लोग उसे हीरो मानें। दरअसल, जब हम ख़ुद को हीरो मानते हैं, तभी हम सच्चे हीरो होते हैं और तभी हम सबसे ज़्यादा सशक्त होते हैं। और ख़ुद को हीरो मानना आसान नहीं होता। आपका कॉन्शस आपको ख़ुद को तब तक हीरो मानने देता, जब तक कि उसे भरोसा न हो जाए कि आप जहां हैं, वहां अपना बेहतरीन योगदान इस तरह दे रहे हैं, जिससे दूसरे लोगों का सचमुच भला हो रहा है। आज की बेरोजगार युवा पीढ़ी, जो सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले ग्रुप्स से जुड़ रही है, उसके सदस्यों को मैं बताना चाहती हूं कि एक सामान्य नागरिक बनकर, जो अपना काम सही तरीक़े से करे आप अपने देश के सबसे बड़े हीरो बन सकते हैं।
जो व्यक्ति अपने देश को आगे ले जाने के लिए अपने काम को, भले ही वह काम कुछ भी हो, आपकी नौकरी, बिजनेस, दुकान, ठेला वगैरह, सही तरीक़े से करता है वही इस देश का सच्चा हीरो होता है, न कि उन्माद फैलाने वाला। एक बार किसी एकांत में जाकर, आंखें बंद कर के ख़ुद से पूछिए आप जिस राह चल निकले हैं वह हीरो बनने की राह है या विलन या फिर विलन का पंटर बनने की? आपको सही जवाब मिल जाएगा, क्योंकि हमारा अंतर्मन हमें हमेशा सही राह दिखाता है। और यदि आपका मन कहता है कि आप विलन या उसके पंटर वाली राह पर चल निकले हैं तो याद रखिए-आप जहां भी हैं, वहीं से एक नई हीरोइक शुरुआत की जा सकती है और आप चाहेंगे तो ऐसा करने का रास्ता आपको मिल ही जाएगा। (oyeafltoon)
अपूर्व गर्ग
आजादी के दिन 15 अगस्त 1947 को एक आवाज गूंजी ‘आज हम एक आज़ाद लोग हैं , एक आजाद मुल्क हैं। मैं आज जो आपसे बोल रहा हूँ एक हैसियत, एक सरकारी हैसियत मुझे मिली है , जिसका असली नाम ये होना चाहिए कि मैं हिन्दुस्तान की जनता का प्रथम सेवक हूँ। जिस हैसियत से मैं आपसे बोल रहा हूँ, ये हैसियत मुझे किसी बाहरी शख़्स ने नहीं दी, आपने दी है।’
ये विनम्र संबोधन था, देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरूजी का अपनी जनता से, जो आकाशवाणी से प्रसारित हुआ था। सनद रहे, जहाँ तक लाल किले से नेहरूजी के भाषण का सवाल है लालकिले का वो पहला संबोधन 15 अगस्त को नहीं 16 अगस्त 1947 को हुआ था।
14 अगस्त 1947 की आधी रात को नेहरूजी ने भारत की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर संसद भवन में भारतीय संविधान सभा में ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी ‘जो भाषण दिया था वो दुनिया के महानतम भाषणों में शुमार है। ये पूरा भाषण-
हमेशा पढ़ा जाना चाहिए ... दो पंक्तियाँ देखिये-
‘हम सभी, चाहे हम किसी भी धर्म के हों, समान अधिकारों, विशेषाधिकारों और दायित्वों के साथ समान रूप से भारत की संतान हैं। हम सांप्रदायिकता या संकीर्णता को प्रोत्साहित नहीं कर सकते, क्योंकि कोई भी राष्ट्र महान नहीं हो सकता जिसके लोग विचार या कार्य में संकीर्ण हों।’ ‘हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की महत्वाकांक्षा हर आंख से हर आंसू पोंछने की रही है। यह हमारे से परे हो सकता है, लेकिन जब तक आँसू और पीड़ा है, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।’
सुप्रसिद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह 14 अगस्त 1947 की उस रात संसद भवन में थे।
उन्होंने लिखा है -‘हम जैसे तैसे संसद भवन रात 11 बजे पहुँच गए। ठसाठस भीड़ थी पर अनुशासित और उत्साह से भरी हुई . बीच -बीच में जोर से नारे फूट पड़ते थे, ‘महात्मा गाँधी की जय, इंकलाब जिंदाबाद।’ रात के 12 बजने से एक मिनट पहले भीड़ पर पूरी तरह सन्नाटा छा गया। ‘वन्दे मातरम्’ के सुरो में गाती हुई लाउड स्पीकरों से सुचेता कृपलानी की आवाज सुनाई पड़ी। इसके ठीक बाद पंडित नेहरू ने अपना स्मरणीय भाषण दिया ‘बहुत साल पहले हमने नियति से मुलाकात की थी। अब उस धरोहर को वापस लेने का वक्त आ गया है।’
जैसे ही उनका भाषण समाप्त हुआ भीड़ ख़ुशी से पागल हो गयी और चिल्ला-चिल्लाकर नारे लगाने लगी।’
आजाद हिन्दुस्तान में तिरंगा फहरते हुए देखने और अपने प्रिय नेता नेहरूजी को तिरंगा फहराते देखने -सुनने के लिए मानों पूरा देश 15 अगस्त के दिन उमड़ पड़ा था।
इतिहास के पन्नों के साथ दर्ज ऐतिहासिक किस्सों को भी पढि़ए तो पता चलेगा कि सरकारी अनुमान था कि 15 अगस्त 1947 के दिन आजादी के उस समारोह में तीस हज़ार लोगों के शामिल होने का अनुमान था पर आये इस देश की तीस करोड़ आबादी में से पांच लाख से भी कहीं ज़्यादा लोग।
दिल्ली जन समुद्र में बदल चुकी थी .लोग लहरों के साथ अपने आप बढ़ते जा रहे थे।
‘15 अगस्त को गवर्नर जनरल इंडिया गेट के पास उस मंच तक नहीं पहुंच सके, जहां से तिरंगा फहराया जाना था। तभी माउंटबेटन ने नेहरू को तेज आवाज लगाकर कहा कि वो तिरंगा फहरा दें. माउंटबेटन ने अपनी बग्घी पर खड़े होकर ही तिरंगे को अपनी सलामी दी।’
वैसे एक दिलचस्प बात भी दर्ज है जैसे ही तिरंगा झंडा फहराया गया उस वक्त आकाश में इद्रधनुष चमकने लगा था।
ज़ाहिर है अगस्त का महीना था बारिश-धूप के बाद प्रकृतिक तौर पर बनता रहता है। पर उस दिन धार्मिक मान्यताओं को मानने वालों ने इसे दैवीय- चमत्कार माना था।
ख़ैर , 15 अगस्त 1947 को नेहरू जी ने अपने उद्बोधन जो आकशवाणी से प्रसारित हुआ था ये भी कहा कि -
‘आजादी महज एक सियासी चीज नहीं है . आजादी तभी एक ठीक पोशाक पहनती है जब उससे जनता को फायदा हो।’
डॉ. आर.के.पालीवाल
अखबारों में भले ही आए दिन लोकायुक्त, सी बी आई, ई डी, एंटी करप्सन ब्यूरो और आयकर विभाग के छापों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं और जूनियर इंजीनियर, स्टोर कीपर,पटवारी और पंचायत सचिव आदि के यहां भ्रष्टाचार से अर्जित करोड़ों की काली कमाई की सूचनाएं अखबारों की सुर्खियां बनती हैं , लेकिन अब आम नागरिक सरकार के साए में होने वाले भ्रष्टाचार के बारे में मुंह खोलने या सोशल मीडिया आदि पर लिखने से पहले हजार बार सोचेंगे। मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार पर बोलने से कांग्रेस के बड़े राष्ट्रीय नेताओं पर ताबड़तोड़ एफ आई आर दर्ज होने के बाद लोग सकते में हैं। कांग्रेस के बड़े नेता, यथा प्रियंका वाड्रा, कमलनाथ और अन्य बड़े नेता तो पार्टी के बड़े वकीलों के माध्यम से हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर आसानी से पुलिस प्रशासन के शिकंजे से बच जाएंगे लेकिन आम नागरिक के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचना चांद पर जाने जितना कठिन है इसलिए उनके लिए चुप्पी ही एकमात्र विकल्प बचता है।
कुछ दिन पहले प्रधान मंत्री ने भी एन सी पी पर भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा आरोप लगाया था जिसका जिक्र एन सी पी की नेता सुप्रिया सुले ने संसद में भी किया था। यदि महाराष्ट्र में कांग्रेस और एन सी पी गठबंधन की सरकार होती तो मध्य प्रदेश की घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप संभवत: प्रधान मंत्री के खिलाफ भी वैसी ही कार्यवाही हो सकती थी जैसी मध्य प्रदेश में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के खिलाफ हुई है। हाल ही में भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने पश्चिम बंगाल में अब तक की तमाम सरकारों पर सूबे को भ्रष्टाचार में डुबाने का आरोप लगाया है। संभव है वहां की सरकार उन पर भी भी उसी तरह एफ आई आर करवा दे जैसे मध्यप्रदेश में हुई हैं।
यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों और दिशा निर्देश के बावजूद अभी भी देश के अधिकांश थानों में आम आदमी को एफ आई आर के लिए कितना भटकना पड़ता है। इसकी पीड़ा वही जानते हैं जिन्होंने मजबूरी में थाने कचहरियों के चक्कर काटे हैं। दूसरी तरफ आम आदमी पर कोई खास व्यक्ति आसानी से एफ आई आर करवा देता है, फिर उसके लिए जमानत पाना जीवन मृत्यु का सबब बन जाता है। कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों के सम्मेलन में महामहिम राष्ट्रपति महोदया ने बहुत भारी मन से ऐसे गरीब लोगों को त्वरित न्याय की अपील की थी जो सजा पाए बगैर सालों से जमानत के इंतजाम नहीं होने के कारण जेलों में बंद हैं।
सरकार के अधीन काम करने वाली पुलिस के पास एफ आई आर एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है जो आम आदमी को अधमरा कर सकता है। यह लगभग हर प्रदेश की पुलिस का चरित्र बन गया है कि सत्ता धारी दल से जुडे लोगों की शिकायत पर आनन फानन में एफ आई आर की कार्यवाही सम्पन्न हो जाती है ताकि संबंधित पुलिस अधिकारी अपने राजनीतिक आकाओं की आंखों में ऊपर चढ़ सकें।
इसके विपरीत सत्ताधारी दल के लोगों के खिलाफ एफ आई आर दर्ज कराने में प्रतिष्ठित नागरिकों के भी पसीने छूट जाते हैं। कुछ दिन पहले दिल्ली पुलिस ने अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता महिला पहलवानों की शिकायत पर तभी एफ आई आर दर्ज की थी जब देश भर से महिला पहलवानों के समर्थन की आवाज उठने पर सर्वोच्च न्यायालय में मामला पहुंचा था।
इसके बरक्स आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के खिलाफ मामला दर्ज करने में दिल्ली पुलिस बहुत तेजी दिखाती है। पुलिस प्रशासन के इस व्यवहार की वजह से ही केन्द्र और दिल्ली सरकार प्रशासनिक अधिकारियों के नियंत्रण के लिए कई साल से लंबी कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेताओं के खिलाफ त्वरित कार्रवाई भी इसी परिपेक्ष्य में हुई है क्योंकि इस मामले में वहां के गृह मंत्री का बयान आया था कि हम मध्य प्रदेश में कांग्रेस द्वारा लगाए गए पचास प्रतिशत कमीशन के भ्रष्टाचार के आरोप पर कार्यवाही कर सकते हैं।
राहुल कुमार सिंह
‘मुर्गा मुर्गी प्यार से देखे नन्हा चूजा खेल करे‘ गीत आपने सुना है? स्वतंत्रता दिवस के साथ मुझे यह गीत एक बार याद आता ही है।
हमारे स्कूल में तब रिकॉर्ड प्लेयर पर 78 आरपीएम वाले तवा-रिकॉर्ड बजते थे। मुख्यत: प्रेरक, देश-प्रेम वाले और बच्चों वाले गीत होते थे। इसी में एक फिल्म ‘दो कलियां‘ का रिकॉर्ड था, जिसका गीत ‘बच्चे मन के सच्चे, सारी दुनिया के आंख के तारे‘ बजाया जाता था। रिकॉर्ड बजाने की जिम्मेदारी प्रयोगशाला सहायक शंभू साहू जी की होती थी। रिकॉर्ड बजते देखना भी रोमांचकारी होता था।
साहू जी का बुलावा आया, गीत ‘बच्चे मन के सच्चे‘ आधा बज चुका था, साहू जी ने हम रिकॉर्ड प्लेयर दर्शक साथियों से कहा कि गीत पूरा हो तो सुई उठा कर रख दें, ऐसी जिम्मेदारी पा कर हम मित्र मंडली में उत्साह की लहर फैल गई।
गाना पूरा हुआ, सुई उठा कर रख दी गई। शांति छा गई, यह ठीक नहीं लगा तो रिकॉर्ड दूसरी तरफ पलट कर रिकॉर्ड पर सुई टिका दी गई। किसी ने ध्यान नहीं दिया कि रिकॉर्ड के बीच वाले हिस्से पर कागज चिपका था- ‘बजाना मना है‘ और गीत बजने लगा ‘मुर्गा-मुर्गी प्यार से देखे‘। तब ‘प्यार‘ शब्द का सार्वजनिक खुलेआम उचार, वह भी स्कूल में कठोरता से निषिद्ध होता था, (संस्कार ऐसे कि प्यार शब्द, कान में खडख़ड़ाता था, जबान लडख़ड़ाती थी। )
साहू जी भागते हुए आए, गीत रोका, मगर तब तक यह प्रिंसिपल साहब चंदेल सर के कान में पड़ चुका था। पहले साहू जी, फिर हम सबकी पेशी हुई, मगर अनुशासन के पक्के प्रिसिपल साहब ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सजा तजवीज नहीं की, चेतावनी दे कर छोड़ दिया।
अब इस दिन, खास कर खबर पढ़ते कि अच्छे चाल-चलन के कारण कैदियों की सजा में राहत-रिहाई हुई, 1973 की अपनी पेशी याद आती है।
डॉ. संजय शुक्ला
बीते सोमवार को हिमाचल प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में 48 लोगों की मौत बादल फटने के बाद हुई तेज बारिश और भूस्खलन के बाद मलबे में दबने से हुई है। दरअसल यह पहली आपदा नहीं है जिसमें कुदरत ने कहर ढाया हो बल्कि इस बारिश के दौरान पहाड़ी राज्यों में भारी बारिश, बाढ तथा भूस्खलन के चलते चट्टानों में दबने से जान-माल का काफी नुकसान हुआ है। दरअसल इन हादसों के लिए सरकार और आम नागरिक ही जबाबदेह हैं तथा यह कुदरती नहीं बल्कि मानवीय कहर है। पहाड़ी राज्यों में बढ़ते हादसों के मद्देनजर अहम सवाल यह भी है कि सरकार और समाज प्रकृति के प्रति अपनी प्रवृत्ति कब बदलेगा? दरअसल सरकारों के आधुनिक विकास की भूख हमारी परंपरा, संस्कृति और प्रकृति को लगातार निगल रही है जिससे पहाड़ भी अछूता नहीं है। पहाड़ों और मनुष्य का सहजीवन सदियों से रहा है कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले अनेक पहाड़ों का अपना धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है जहां अनेक तीर्थस्थल स्थापित हैं। इसके अलावा पहाड़ों संबंध का पानी, जलवायु, जैवविविधता और प्राकृतिक संपदाओं से भी है।
इसी साल नववर्ष की छुट्टियों के दौरान हिमाचल प्रदेश से खबर आई थी कि वहां पहाड़ों पर बसे मनाली सहित अन्य पर्यटक शहरों में सैलानियों और चारपहिया वाहनों की भारी भीड़ उमड़ पड़ी जिससे घंटों यातायात अवरूद्ध रहा। वैश्विक महामारी कोरोना की पाबंदियां खत्म होने के बाद देश के विभिन्न तीर्थस्थलों और पर्यटक स्थलों में सैलानियों तथा श्रद्धालुओं की भीड़ काफी बढ़ी है। इन स्थलों में सैलानियों और वाहनों की भीड़ बढऩे के बाद वहां के प्रकृति में लगातार असंतुलन दिखाई दे रहा है यह असंतुलन पर्यावरणीय, जैवविविधता और भूगर्भीय है। पहाड़ों पर बसे तीर्थस्थलों और पर्यटन स्थलों पर क्षमता से ज्यादा वाहनों और यात्रियों का बोझ पहाड़ों को लगातार कमजोर कर रही है। सरकार इन स्थलों में तीर्थयात्रियों और सैलानियों के बढ़ते आकर्षण के कारण यहां व्यवसायिक गतिविधियों को बढ़ावा दे रही है। सरकार द्वारा पर्यटकों को लुभाने के लिए जमीन बेची जा रही है जहाँ पर्यावरणीय सिफारिश को ताक में रखकर पहाड़ों को काटकर सडक़ें बनाई जा रही है अथवा चौड़ी की जा रही है।
पर्वतीय क्षेत्रों में अंधाधुंध बहुमंजिला होटल और रिजार्ट, रोपवे बन रहे हैं फलस्वरुप पहाड़ों पर मानव बसाहट बढ़ रही है। यातायात और जनसंख्या के दबाव से भी पहाड़ का परिस्थिकीय तंत्र बिगड़ रहा है। दैत्याकार क्रेन और भारी निर्माण उपकरण पहाड़ों को खोद रहे हैं, पहाड़ों के चट्टानी सीने को बारुद के विस्फोटों से तोड़ा जा रहा है। नदियों मेंं बेतहाशा रेत खनन हो रहा है, नदियों के मुहाने पर क्रशर प्लांट लगा दिया गया है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है फलस्वरूप पहाड़ों की मिट्टी बांधकर रखने की क्षमता कमजोर हो रही है। सरकार का नजरिया केवल पर्यटन उद्योगों को ही बढ़ावा देने का नहीं है बल्कि वह औद्योगिक और शहरी विकास के लिए जरूरी बिजली उत्पादन के लिए पहाड़ों को बंजर कर रही है व नदियों के अविरलता को बांध रही है।
सरकार के इन फैसलों के खिलाफ पर्यावरण संरक्षण संगठन लगातार अदालतों का दरवाजा खटखटा रहीं हैं लेकिन अदालती आदेशों और पर्यावरणीय कानूनों को धता बताकर पहाड़ों और नदियों पर पनबिजली परियोजनाओं का लगातार निर्माण कर रही है। इसके अलावा सरकार, कार्पोरेट घरानों, ठेकेदारों और प्रशासनिक अमले की गिद्ध नजर पहाड़ों में समेटे बेशकीमती खनिज संपदाओं की ओर भी जिसके चलते यह नापाक गठजोड़ पहाड़ों की सीना छलनी कर रही है। सरकार और कारपोरेट के इस गठजोड़ के खिलाफ आदिवासियों और प्रशासन के बीच संघर्ष की खबरें भी यदाकदा प्रकाश में आती है। साल 2019 में बस्तर के दंतेवाड़ा में बैलाडीला के नंदीराज पर्वत जिसे आदिवासी अपना देवस्थान मानते हैं में अडानी समूह द्वारा किए जा रहे लौह अयस्क खनन के खिलाफ आदिवासियों ने जम कर आंदोलन किया था।इसके अलावा हसदेव अरण्य क्षेत्र में भी वहां के आदिवासी और सामाजिक कार्यकर्ता कोयला खनन के खिलाफ हैं।
बिलाशक आधुनिक विकास की सनक पहाड़ों को खोखला कर रही है, नदियों की अविरलता खत्म कर रही है वहीं पेड़ों के कटने के कारण जंगल बांझ दिखाई देने लगे हैं। यह कहना गैर मुनासिब नहीं होगा कि आधुनिक सभ्यता ने सबसे ज्यादा उस प्रकृति के प्रति दिखाई है जिसके गोद में वह विकसित हुआ है। विकास का सपना शुरू में बड़ा लुभावना लगता है लेकिन जब यह विनाश बनकर प्रकट होता है तो वह प्रलयंकारी और भयावह होता है।देश की सरकारें विकास के नाम पर जिस तरह से प्रकृति और संस्कृति को रौंद रही उसकी त्रासदी मनुष्य को ही भोगना पड़ रहा है। साल 2013 में केदारनाथ के जल तांडव और 2021 में चमोली के जलप्रलय से सरकार और समाज ने कोई सीख नहीं लिया है। इस सीख की अनदेखी का परिणाम है कि अब पहाड़ मनुष्य से बदला ले रहे हैं।
गौरतलब है कि पहाड़ों पर हो रहे अंधाधुंध और बेतरतीब निर्माण के चलते पहाड़ जहां कमजोर हो रहे हैं वहीं इसका दुष्प्रभाव जलवायु पर भी पड़ रहा है। पहाड़ों का संबंध पानी से है क्योंकि पानी चट्टानों के बीच होती है जो प्राकृतिक रूप से रिसती रहती है जो आगे चलकर नदियों और नालों का स्वरूप लेती है। पहाड़ों के ये जलस्रोत जहां भूजल स्तर को बढ़ाते हैं वहीं इससे निकलने वाली नदियां और नालों से लोगों की आजीविका और जरूरतें पूरी होती है। पहाड़ों पर चलने वाले क्रशर उद्योगों के कारण चट्टान खिसकने और टूटने लगे हैं फलस्वरूप पानी का प्राकृतिक स्त्रोत खत्म हो रहा है वहीं पहाड़ के मलबों को नदियों और जंगलों में डालने के कारण प्राकृतिक आपदाओं का खतरा लगातार बढ़ रहा है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में बताया है कि पहाड़ों की क्षमता की अनदेखी के कारण भूस्खलन का खतरा लगातार बढ़ा है।
पहाड़ों, जंगलों और नदियों पर बढ़ रहे अनुदारता का ही परिणाम है कि पहाड़ी इलाकों में बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं साल दर साल बढ़ रही है। पहाड़ों के साथ हो रहे निर्ममता के कारण देश और दुनिया में जलवायु परिवर्तन जैसी समस्या विकराल रूप ले रही है। ग्लेशियर का पिघलना, बाढ़, सूखा और तूफान जैसे आपदाओं का संबंध पहाड़ और पर्यावरण से है लिहाजा पहाड़ों के प्रति सरकार और समाज को गंभीर होना ही होगा। पहाड़ों पर औषधि महत्व के दुर्लभ जड़ी- बूटियों और जीव जंतुओं का अस्तित्व खतरे में है।
अलबत्ता पहाड़ों के प्रति अनुदारता के लिए आम नागरिक भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। पर्वतीय इलाकों में पर्यटकों के वाहनों के धुएं और हार्न उस इलाके में वायु और ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं फलस्वरूप पर्यावरण और ईकोसिस्टम पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
पहाड़ों पर पर्यटकों और पर्वतारोहियों द्वारा हर महीने हजारों टन प्लास्टिक कचरा जिसमें प्लास्टिक बोतल, पॉलिथीन बैग, शीतल पेय के केन, स्ट्रा, चिप्स एवं अन्य खाद्य पदार्थों के पैकेट और अन्य डिस्पोजेबल सामान पहाड़ों, जंगलों या नदियों में फेंक दिए जाते हैं। एक एनजीओ ‘हीलिंग हिमालय’ के प्रदीप सांगवान बताते हैं कि हिमालयन क्षेत्र के पर्यटन स्थलों से वे रोज 1.5 टन गैर बायोडिग्रेडेबल कचरा इक_ा करते हैं। गौरतलब है कि ये प्लास्टिक कचरे हिमालय के तापक्रम को बढ़ाते हैं जिससे ग्लेशियर पिघलता है फलस्वरूप झील बनते हैं जो जलप्रलय जैसे बाढ़ लाते हैं।
बहरहाल इसमें दो राय नहीं कि आर्थिक विकास के लिए सरकार को बिजली और पर्यटन उद्योग दोनों की जरूरत है आखिरकार इससे लाखों लोगों को रोजगार मिलता है लेकिन सरकार और समाज की जवाबदेही है कि विकास के साथ - साथ पहाड़ों, जंगल और नदियों की जैवविविधता और पर्यावरण संरक्षण को भी विमर्श में लाना होगा ही होगा। क्या हम ऐसे भारत की कल्पना कर सकते हैं जहां पहाड़ न हो, नदियां न हों, जंगल न हो? निश्चित तौर पर इसका उत्तर ‘नहीं’ ही होगा।
मनीष सिंह
भारत का संविधान किसी नागरिक को धर्मनिरपेक्ष होने का आदेश या उपदेश नही देता।
आम धारणा बनाई गई है कि धर्मनिरपेक्षता हिन्दुओ पर थोप दी गयी है। मुसलमानों को खुल्ली छूट मिल रखी है। जो लोग व्हाट्सऐप फार्वर्ड की मदद से, कॉन्स्टिट्यूशन में पीएचडी करते आये हैं, उनके लिए यह समझना जरूरी है।
संविधान मुख्यत:, गणराज्य के लिए निर्देशावली है। याने ‘सरकार’ उसके बिहाफ में क्या करे, क्या न करे। करे, तो किस तरह से, किन दायरों, प्रक्रियाओं के तहत करे।
तो धर्मनिरपेक्ष सरकार को होना है।
उसे किसी धर्म को फेवर नही करना है, डिस फेवर नही करना है। सरकार का काम व्यापार है, चाकरी है। याने टैक्स लेना है, सेवा देनी है।
सबसे टैक्स लेना है, सबको सेवा देनी है।
भारत गणराज्य, याने सरकार इसके कोष से मंदिर नहीं बनवा सकता। सरकार तीर्थाटन नहीं करा सकती। वो मस्जिद भी नहीं बनवा सकती, हज भी नहीं करा सकती। हां, वह श्मशान और कब्रिस्तान बनवा सकती है। यह एक सेवा है।
जनता मंदिर बनवाये, मस्जिद बनवाये, हज करे या गोआ जाए, संविधान आपको बाध्य नहीं रोकेगा, अनलेस किसी अन्य कानून (जैसे किसी की भूमि पर कब्जा करके बनाना) का उल्लंघन न हो।
सत्ता किसी साधना पद्धति को इंसेटिवाइज नहीं करेगी, विशेष महत्व नहीं देगी। यही वो धर्मनिरपेक्षता है, जो सम्विधान मे लिखित है।
किसी लोकतंत्र की गुणवत्ता, वहां के अल्पसंख्यकों की वेल बीइंग से नापी जाती है। उन्हें अपनी मान्यताओं, रवायतों के साथ जीने की कितनी छूट है, यह दुनिया देखती है।
अल्पसंख्यक आपके लोकतंत्र का थर्मामीटर है, शोकेस हैं। शोकेस अक्सर गोदाम से ज्यादा चमकाया और सजाया जाता है।
यूँ तो भारत मे शोकेस की हालत, गोदाम से ज्यादा खराब है। यह सच्चाई सरकारे जानती थी, इसलिए उनके हालात सुधारने को बड़ी-बड़ी बातें करती थी है। विघ्नसंतोषी, इसी से चिढ़ते हैं।
ईष्र्यावश, खतरे में आ जाते हैं।
तब, पहले से जर्जर शोकेस को दंगाई बन तोडऩे पर उतारू हो जाते हैं। और जब ऐसे दंगाइयों के हाथ मे सत्ता आ जाये, तो शोकेस पर बुलडोजर चलता है।
बहरहाल, संदेश यह, कि हमारे संविधान के अंतर्गत धर्मनिरपेक्षता पोलिटिकल टम्र्स में है, इंडिविजुअल नहीं। नागरिक के लिए नहीं।
तो किसी नागरिक को धर्मनिरपेक्ष होने की जरूरत नहीं है। यह जिम्मेदारी और बाध्यता, सरकार की है। आप तो आराम से, अपना धर्म मानें।
दूसरे धर्म वालो को डिस्टर्ब न करें। उनको ज्ञान न ठेलें। ज्ञान अपने बच्चों को दें। अपनी संस्कृति का, अपनी साधना पद्धति का, अपने धर्म का। और उन्हें बतायें, समझायें...
कि उनका सबसे बड़ा धर्म, इंसान होना है।
प्रबुद्ध होना है।
डॉ. आर.के.पालीवाल
हमारी राजनीति में पिछ्ले बीस साल में जो सबसे बड़ा परिर्वतन हुआ है वह बहुत तेजी के साथ कांग्रेस का बी जे पी करण और बी जे पी का कांग्रेसीकरण है। इसमें दुर्भाग्य यह रहा है कि दोनों दलों ने एक दूसरे की अच्छाइयों के बजाय एक दूसरे की विकृतियों और बुराइयों को अधिक आत्मसात किया है। उदाहरण के तौर पर कांग्रेस की सबसे बड़ी विशेषता देश की विविधता को साधने की रही है और भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी विशेषता सामूहिक नेतृत्व की थी, लेकिन इन दो बड़े गुणों को उन्होने एक दूसरे से नहीं सीखा।कांग्रेस की सबसे बडी बुराई व्यक्ति और परिवारवाद भारतीय जनता पार्टी में भी बहुत तेजी से आगे बढ़ी हैं। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की सबसे बडी अच्छाई उसका सामूहिक नेतृत्व थी ,जिसमें एक मजबूत पाया राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का था और दूसरा भाजपा के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले कई कद्दावर नेताओं, यथा अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, वैकेया नायडू, नितिन गडकरी,सुषमा स्वराज, कल्याण सिंह और येदियुरप्पा आदि का था। भाजपा के इस गुण को कांग्रेस आत्मसात नहीं कर सकी। हालांकि आज भाजपा में भी ऐसी स्थिति नहीं है। न राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भारतीय जनता पार्टी पर वैसा प्रभाव रहा है और न प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के अलावा भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष जे पी नड्डा सहित किसी अन्य नेता का पार्टी में खास दबदबा है। इसी तरह भाजपा ने कांग्रेस के सह अस्तित्व के सिद्धांत को आत्मसात नहीं किया।
कांग्रेस और भाजपा में हुए नकारात्मक परिवर्तनों का सबसे बड़ा कारण सत्ता प्राप्ति के लिए एक दूसरे के नाराज चल रहे जिताऊ नेताओं की सेंधमारी है। जब कोई नेता कई दशक एक दल में गुजारकर दूसरे दल में प्रवेश करता है तो उसके साथ पुराने दल की कार्य प्रणाली भी दूसरे दल में वैसे ही प्रवेश करती है जैसे किसी देश से दूसरे देश में खाद्यान्न लाने पर उस देश के खरपतवार भी साथ आकर नए देश में प्रवेश कर जाते हैं। जब एक दल से दूसरे दल में आवाजाही व्यापक पैमाने पर होती है, जैसे मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस से निकलकर दर्जनों विधायक और हजारों कार्यकर्ता भाजपा में घुसे थे तब पुराने दल की बडी विकृतियां भी दूसरे दल में उतनी ही ज्यादा मात्रा में घुसती हैं।
मध्य प्रदेश में एक दल द्वारा दूसरे दल में सेंधमारी का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं कि आजकल कांग्रेस भी भाजपा में असंतुष्ट नेताओं को खोज खोज कर उसी तरह सेंधमारी की कोशिश कर रही है जिस तरह की सेंधमारी ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने करके कांग्रेस की बहुमत की कमलनाथ सरकार को गिराकर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में अपनी वर्तमान सरकार बनाई थी। जब राजनीतिक दलों में विस्तारीकरण के लिए नए नेता विकसित करने के बजाय दूसरे दलों के असंतुष्ट नेताओं पर डोरे डालना प्रमुख अस्त्र बन जाता है तब उस दल के चाल, चरित्र और चेहरे में आमूल चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है। वैसे तो वर्तमान राजनीतिक दौर में दल बदल इतना सामान्य हो गया है कि दलों की विचारधारा पूरी तरह गौण हो गई है। बहुत से नेता इतनी बार दल बदल चुके हैं कि हर दल के घाट का पानी पी कर उनकी अपनी कोई विचारधारा ही नहीं बची है।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान तीन ऐसे राज्य हैं जिनमें विधान सभा और लोकसभा चुनावों के बीच एक साल से भी कम समय का अंतर रहता है। इन तीन राज्यों की दूसरी समान राजनीतिक विशेषता यह भी है कि इनमें भाजपा और कांग्रेस ही दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं। एक साल में दो चुनाव होने के कारण यहां बहुत लंबा चुनावी दौर चलता है क्योंकि इसका असर दो दो चुनावों पर पड़ता है। अगला एक साल इन तीनों राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन तीनों राज्यों की राजनीति का असर कांग्रेस और भाजपा के लिए इन प्रदेशों के साथ साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी दोनों दलों की रणनीति को प्रभावित करेगा।
विवेक बाझल
हरिशंकर परसाई के व्यंग्य की धार ऐसी है कि वक्त बीतने के साथ और तीखी हो रही है।
उनके अलग-अलग व्यंग्य लेखों से 20 लाइनें आपके समक्ष रखी हैं, मिर्ची से भी तीखी लगेंगी।
लडक़ों को, ईमानदार बाप निकम्मा लगता है।
दिवस कमजोर का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस। कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता।
व्यस्त आदमी को अपना काम करने में जितनी अक्ल की जरूरत पड़ती है, उससे ज्यादा अक्ल बेकार आदमी को समय काटने में लगती है।
जिनकी हैसियत है वे एक से भी ज्यादा बाप रखते हैं। एक घर में, एक दफ्तर में, एक-दो बाजार में, एक-एक हर राजनीतिक दल में।
आत्मविश्वास कई प्रकार का होता है, धन का, बल का, ज्ञान का। लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता है।
सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है। एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनीतिक पार्टी कभी-कभी खेल लेती है, जैसे कबड्डी का मैच।
रोज विधानसभा के बाहर एक बोर्ड पर ‘आज का बाजार भाव’ लिखा रहे। साथ ही उन विधायकों की सूची चिपकी रहे जो बिकने को तैयार हैं। इससे खरीददार को भी सुविधा होगी और माल को भी।
हमारे लोकतंत्र की यह ट्रेजेडी और कॉमेडी है कि कई लोग जिन्हें आजन्म जेलखाने में रहना चाहिए वे जिन्दगी भर संसद या विधानसभा में बैठते हैं।
विचार जब लुप्त हो जाता है, या विचार प्रकट करने में बाधा होती है, या किसी के विरोध से भय लगने लगता है। तब तर्क का स्थान हुल्लड़ या गुंडागर्दी ले लेती है।
धन उधार देकर समाज का शोषण करने वाले धनपति को जिस दिन महाजन कहा गया होगा, उस दिन ही मनुष्यता की हार हो गई ।
हम मानसिक रूप से दोगले नहीं तिगले हैं। संस्कारों से सामन्तवादी हैं, जीवन मूल्य अर्द्ध-पूंजीवादी हैं और बातें समाजवाद की करते हैं।
फासिस्ट संगठन की विशेषता होती है कि दिमाग सिर्फ नेता के पास होता है, बाकी सब कार्यकर्ताओं के पास सिर्फ शरीर होता है।
बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है।
दुनिया में भाषा, अभिव्यक्ति के काम आती है। इस देश में दंगे के काम आती है।
जब शर्म की बात गर्व की बात बन जाए, तब समझो कि जनतंत्र बढिय़ा चल रहा है।
जो पानी छानकर पीते हैं, वो आदमी का खून बिना छाने पी जाते हैं।
सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं।
नारी-मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा कि ‘एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता।’
एक बार कचहरी चढ़ जाने के बाद सबसे बड़ा काम है, अपने ही वकील से अपनी रक्षा करना।
दिनेश श्रीनेत
जीवन के सबसे खूबसूरत अध्याय वे होते हैं, जिनमें आप लंबे अंतराल बाद अपने पुराने साथियों से मिलते रहते हैं। वक्त उनकी शख्सियत पर अपने निशान छोड़ता जाता है। वे आपके लिए एक ही वक्त में नए भी होते हैं और पुराने भी। थोड़े अजनबी और थोड़े चिर-परिचित। आप दोनों के पास बार-बार याद करने के लिए कुछ साझा कहानियां होती हैं और बहुत कुछ एक-दूसरे को सुनने के लिए भी होता है।
ऐसे साथी, ऐसे दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। जब मिलते हैं तो मन में आश्वस्ति होती है। हमें जीवन उतना एब्सर्ड नहीं लगता, जितना कि वह सचमुच में है। क्योंकि इस निरर्थक से जीवन में भी एक कहानी है। बीज से पुष्प बनने की भी एक कहानी है। हमें कहानियां संतोष देती हैं।
सामने बैठा शख्स सिर्फ इसलिए अहम नहीं है क्योंकि उसमें कुछ खास है, वह इसलिए भी अहम है क्योंकि उसके भीतर आप भी थोड़ा सा रह गए हैं। हमें उनसे दोबारा मिलना हमेशा सुखद लगता है जिनके भीतर हम रह जाते हैं। हम यानी वो जो समय के प्रवाह में कहीं पीछे छूट गया। जैसे अपनी ही 10-12 साल पुरानी लिखावट देखकर मन में खयाल आता है कि क्या ये हम ही थे, जिसने रोशनाई से सादे कागज पर ये शब्द उकेरे थे।
स्मृतियों के रूप में सहेजी गई चीजें यही सुकून देती हैं। छूट गई चीजें आपस में जुडक़र हमारी ही कहानी तो बयां करती हैं। छूट गए लोग अपनी कहानी में हमारी कहानी भी तो शामिल कर लेते हैं। तभी तो वे कह उठते हैं, ‘तुम जब पहली बार कोट पहनकर आए थे तो लगा था कि कोट को हैंगर में टांग दिया गया है...’ और ठहाका लगाते हैं।
वो बताते हैं कि दरअसल उनके भीतर आपकी वो छवि है जो समय की नदी में बहती हुई कहीं बहुत पीछे छूट गई है, मगर उनके भीतर उस नदी का पानी अभी भी मौजूद है। और बरसों पहले नदी की सतह पर हिलता हुआ आपका प्रतिबिंब खत्म नहीं हुआ है, छूटा नहीं है, खो नहीं गया...जिंदा है, उनके भीतर। और आप ये बात समझ जाते हैं कि भले वक्त आपको मिटा देगा और आप राख बनकर हवा और मिट्टी में खो जाएंगे, मगर जाने कितने लोगों के भीतर उनकी कहानी बनकर जीवित रहेंगे।
स्मृति-विहीन जीवन एक दु:स्वप्न है, और स्मृतियों के बोझ से दबा हुआ जीवन एक पीड़ा है। अच्छा ही हो कि जो नया है और जो अतीत बन गया है, दोनों की आवाजाही होती रहे। बर्गमैन की फिल्म ‘वाइल्ड स्ट्रॉबेरीज’ की तरह आप किसी खिडक़ी से झांकें और खुद को खाने की मेज पर देखें। अपने वर्तमान में अतीत की प्रतिध्वनियां सुन सकें।
अगली बार जब बहुत अरसा बीत जाने पर किसी दोस्त से मिलें तो गौर करें कि उसके व्यक्तित्व की कौन सी चीज आज भी समय की स्लेट से मिटी नहीं है। उसकी आँखें, उसके हँसने का तरीका या कोई बहुत छोटी सी बात। जैसे उसके चम्मच उठाने का अंदाज़। आप पाएंगे कि आज वह जो है उसकी शुरुआत तो बहुत पहले ही हो चुकी थी। कुदरत ने उसकी कहानी लिख रखी थी।
ठीक वैसे ही जैसे आपकी कहानी लिखी जा चुकी है। ठीक वैसे जैसे हम एक-दूसरे की कहानियों में शामिल हैं। और किसी अध्याय की तरह हमारी उनकी कहानियों की टकराहट होती है। पुराने प्रिय साथियों से मिलते रहें, उनसे मिलना खुद से मिलने जैसा है, नहीं तो ऐसे ही खो जाएंगे।
अपूर्व गर्ग
बंगाली दुर्गा पूजा में जब भोग बँटता है तो कतार लग जाती है। प्रसाद के तौर के अलावा लोग इसके स्वाद के भी दीवाने होते हैं।
ये भोग खिचड़ी का होता है। मेरे एक मित्र जो वेज खाने के शौकीन नहीं हैं वो सिर्फ प्रसाद के तौर पर लाइन में लगते हैं तो कई ऐसे हैं जो इसके स्वाद के भी दीवाने हैं।
शायद हजारों लोगों के लिए जिस ढंग से बनती है वो स्वाद घर की खिचड़ी के स्वाद से कहीं अलग होता है।
पूजा का माहौल ही अलग होता है। भोग खिचड़ी खाते -मिलते लोग जिस तरह ‘घी-खिचड़ी’ होते हैं, उसकी बात ही क्या।
हमारी एक ऑन्टी ऐसी शानदार खिचड़ी बनाती थीं कि मसाले और घी की महक के बाद लोग सीधे खाने को उतावले हो जाते।
देर होती तो सब चीखते क्या बीरबल की खिचड़ी पक रही और बनते ही जब लोग टूटते तो वो उस कहावत की याद
दिलातीं ‘खीरां आई खिचड़ी अर टिल्लो आयो टच्च यानि जब खिचड़ी पक गई तो टिल्ला खाने के लिए झट से आ गया’
खैर, खिचड़ी को लेकर बहुत बातें हैं , कहावतें हैं, विप्लव है। बल्कि ‘खिचड़ी विप्लव’ का इतिहास ही है!
वैसे बाबा नागार्जुन जब हमारे घर आये थे उससे पहले उनका ‘खिचड़ी विप्लव देखा मैंने’ आ चुका था, उन्हें जो पसंद था, वो खिलाया वो खिचड़ी नहीं थी।
कुछ खिचड़ी नापसंद भी होते हैं । खिचड़ी नाम सुनते ही उनका मुँह करेले सा हो जाता है और गला अंदर तक नीम।
सुनिए, राहुल सांकृत्यायन को खिचड़ी बचपन से ही पसंद न थी। बाल्यावस्था के बाद जब भी राहुल जी घर छोडक़र भागे तो शायद नापसंदगी के बावजूद खिचड़ी भी उनके साथ-साथ चलती रही।
जब वे हरिद्वार से सीधे बद्रीनाथ के रास्ते पर थे तो थक जाने पर उनके बचपन केसाठी यागेश कहते-‘भैया बना न लें।’ राहुल जी कहते सुनते ही मेरे तन -बदन में आग लग जाती। बालपन के शत्रुभोजनों में खिचड़ी का स्थान अभी ज्यों का त्यों था और वे यागेश को डाँट देते। कहते ‘यागेश मुझे चिढ़ाने के लिए वैसा नहीं कहते हैं। खिचड़ी बनने में कम मेहनत और जल्दी होती है-इसी ख्याल से उनका यह प्रस्ताव होता।’
ऐसे ही राहुल जी जब दक्षिण में तिरुमीशी के मठ में थे उनसे रात को कहा गया ‘चलो, गोष्ठी में, पुंगल प्रसाद ग्रहण करने।
राहुल जी लिखते हैं-‘गोष्ठी से तो मैंने अंदाज़ लगा लिया- कई आदमियों का एक जगह एकत्रित होना। किन्तु पुंगल सुनकर मुझे ख़्याल आया कोई महार्घ पकवान होगा।
खिडक़ी झरोखा न रहने के कारण दिन में भी अँधेरा रहता था।...मधुर स्वर में कोई मुरली बजा रहा था। पुजारी पीतल के बर्तनों से निकाल-निकालकर हाथ में चार-पांच आंवले के बराबर कोई चीज डालता जा रहा था।...मेरे हाथ में भी ‘पुंगल’ पड़ा । बड़े उत्साह के साथ मुँह में डाला, देखा तो खिचड़ी -हाँ वही खिचड़ी जिस खिचड़ी के खाने की बात कहने पर यागेश को कितनी ही बार बात सुननी पड़ती थी ।
मैंने धीरे से हरिनारायणचारी की ओर घूमकर कहा-‘खिचड़ी! यही पुंगल!!! वहां से लौटते वक्त हरिनारायण जी ने एक घटना सुनाई-
‘बलिया जिले के नए बने दो अचारी बाप-बेटे तीरथ करने दक्षिणापथ आये।
इसी तरह गोष्ठी में वो भी बड़े उत्साह के साथ पुंगलप्रसाद के लिए बैठे। आपकी तरह हाथ के पुंगल को मुँह में डाला, तो लडक़ा चिल्ला उठा -‘अरे खिचड़ी है, हे बाबूजी , ससुर ने पुंगल कह के जाति ले ली।’
-अपूर्व गर्ग
बंगाली दुर्गा पूजा में जब भोग बँटता है तो कतार लग जाती है. प्रसाद के तौर के अलावा लोग इसके स्वाद के भी दीवाने होते हैं .
ये भोग खिचड़ी का होता है . मेरे एक मित्र जो वेज खाने के शौक़ीन नहीं हैं वो सिर्फ़ प्रसाद के तौर पर लाइन में लगते हैं तो कई ऐसे हैं जो इसके स्वाद के भी दीवाने हैं .
शायद हज़ारों लोगों के लिए जिस ढंग से बनती है वो स्वाद घर की खिचड़ी के स्वाद से कहीं अलग होता है .
पूजा का माहौल ही अलग होता है . भोग खिचड़ी खाते -मिलते लोग जिस तरह 'घी -खिचड़ी' होते हैं , उसकी बात ही क्या .
हमारी एक ऑन्टी ऐसी शानदार खिचड़ी बनाती थीं कि मसाले और घी की महक़ के बाद लोग सीधे खाने को उतावले हो जाते .
देर होती तो सब चीखते क्या बीरबल की खिचड़ी पक रही और बनते ही जब लोग टूटते तो वो उस कहावत की याद
दिलातीं 'खीरां आई खिचड़ी अर टिल्लो आयो टच्च यानि जब खिचड़ी पक गयी तो टिल्ला खाने के लिए झट से आ गया '
ख़ैर , खिचड़ी को लेकर बहुत बातें हैं , कहावतें हैं , विप्लव है ..बल्कि 'खिचड़ी विप्लव ' का इतिहास ही है !
वैसे बाबा नागार्जुन जब हमारे घर आये थे उससे पहले उनका 'खिचड़ी विप्लव देखा मैंने ' आ चुका था , उन्हें जो पसंद था , वो खिलाया वो खिचड़ी नहीं थी ..
कुछ खिचड़ी नापसंद भी होते हैं . खिचड़ी नाम सुनते ही उनका मुँह करेले सा हो जाता है और गला अंदर तक नीम .
सुनिए , राहुल सांकृत्यायन को खिचड़ी बचपन से ही पसंद न थी . बाल्यावस्था के बाद जब भी राहुल जी घर छोड़ कर
भागे तो शायद नापसंदगी के बावजूद खिचड़ी भी उनके साथ -साथ चलती रही .
जब वे हरिद्वार से सीधे बद्रीनाथ के रास्ते पर थे तो थक जाने पर उनके बचपन केसाठी यागेश कहते -'' भैया बना न लें .'' राहुल जी कहते सुनते ही मेरे तन -बदन में आग लग जाती .बालपन के शत्रुभोजनों में खिचड़ी का स्थान अभी ज्यों का त्यों था और वे यागेश को डाँट देते .कहते ' यागेश मुझे चिढ़ाने के लिए वैसा नहीं कहते हैं .खिचड़ी बनने में कम मेहनत और जल्दी होती है -इसी ख्याल से उनका यह प्रस्ताव होता ..'
ऐसे ही राहुल जी जब दक्षिण में तिरुमीशी के मठ में थे उनसे रात को कहा गया 'चलो ,गोष्ठी में , पुंगल प्रसाद ग्रहण करने .
राहुल जी लिखते हैं -'' गोष्ठी से तो मैंने अंदाज़ लगा लिया - कई आदमियों का एक जगह एकत्रित होना . किन्तु पुंगल सुनकर मुझे ख़्याल आया कोई महार्घ पकवान होगा ...
खिड़की झरोखा न रहने के कारण दिन में भी अँधेरा रहता था ...मधुर स्वर में कोई मुरली बजा रहा था . पुजारी पीतल के बर्तनों से निकाल -निकाल कर हाथ में चार -पांच आंवले के बराबर कोई चीज डालता जा रहा था .....मेरे हाथ में भी 'पुंगल' पड़ा . बड़े उत्साह के साथ मुँह में डाला , देखा तो खिचड़ी -हाँ वही खिचड़ी जिस खिचड़ी के खाने की बात कहने पर यागेश को कितनी ही बार बात सुननी पड़ती थी.
मैंने धीरे से हरिनारायणचारी की ओर घूम कर कहा -'खिचड़ी ! यही पुंगल !!!वहां से लौटते वक़्त हरिनारायण जी ने एक घटना सुनाई -
'बलिया जिले के नए बने दो अचारी बाप-बेटे तीरथ करने दक्षिणापथ आये .
इसी तरह गोष्ठी में वो भी बड़े उत्साह के साथ पुंगलप्रसाद के लिए बैठे . आपकी तरह हाथ के पुंगल को मुँह में डाला , तो लड़का चिल्ला उठा -'अरे खिचड़ी है ,हे बाबूजी , ससुर ने पुंगल कह के जाति ले ली .''
डॉ. आर.के.पालीवाल
महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में पिछ्ले सत्तर साल से हर साल नौ अगस्त को आज़ादी के आंदोलन के महत्त्वपूर्ण उदघोष ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की स्मृति में शांति मार्च का आयोजन किया जाता है। इस शांति मार्च की शुरुआत 1952 में स्वाधीनता सेनानी डॉ जी जी पारेख और मधु दंडवते की अगुवाई में हुई थी जिसमें मुंबई और महाराष्ट्र के शांति और सौहार्द पसंद करने वाले सर्वोदय और समाजवाद में आस्थावान नागरिक शिरकत करते रहे हैं। इस वर्ष महाराष्ट्र सरकार ने कानून और व्यवस्था को खतरा बताकर शांति मार्च की अनुमति नहीं दी। सरकार और प्रशासन के इस अलोकतांत्रिक रवैए के विरोध में देश भर में प्रमुख मीडिया सहित गांधी की सत्य, अहिंसा और शांति आधारित सह अस्तित्व की विचार धारा में आस्था रखने वाले प्रबुद्ध समाज में आक्रोश है । इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की सोसल मीडिया सहित चौतरफा निंदा हो रही है। अपने समाजसेवी जीवन के सौवें वर्ष की दहलीज पर खड़े डॉ जी जी पारेख, महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी और सर्वोदय विचारधारा को मानने वाली विशिष्ट विभूतियों को पुलिस ने उनके घरों पर डिटेन कर इस आयोजन में शिरकत करने से रोक दिया था। शांति मार्च रोकने के पीछे यह कारण भी बताया जा रहा है कि जहां यह शांति मार्च समाप्त होना था वहां मुख्यमंत्री का कोई आयोजन होना था इसलिए शांति मार्च की अनुमति नहीं दी गई।
इस घटना से यह प्रश्न उठता है कि क्या सरकार और प्रशासन को शांति खतरनाक लगती है! क्या सरकार को गांधी की शांति, अहिंसा, सर्व धर्म समभाव और सांप्रदायिक सौहार्द की विचार धारा खतरनाक लगती है ! या प्रशासन को ऐसी विशिष्ट विभूतियों से खतरा लगता है जो इस देश में शांति के विश्व दूत महात्मा गांधी की विचारधारा को भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं!ऐसा लगता है कि सरकार और सरकार की कठपुतली बन चुका प्रशासन उपरोक्त तीनों से डरते हैं। शांति मार्च को अनुमति नहीं मिलना इस संदर्भ में और भी पीड़ादायक हो जाता है कि नूंह जैसे संवेदनशील इलाके में विश्व हिंदू परिषद द्वारा आहूत उस धार्मिक यात्रा की अनुमति बहुत आसानी से मिल जाती है जिसके लिए विवादित गौ रक्षक मोनू मानेसर सार्वजनिक अपील करता है, जिसकी वजह से पूरे इलाके में सांप्रदायिक तनाव फैलता है और जिसकी अंतिम परिणति कई इंसानों की जान जाने और न जाने कितने निर्दोष लोगों की कितनी ही संपत्ति नष्ट होने में हुई है और जिसकी वजह से दो समुदायों के बीच मौजूद दरार बहुत बडी खाई के रुप में परिवर्तित हो गई है।
नौ अगस्त भारत की आज़ादी के उस इतिहास का अत्यन्त महत्वपूर्ण दिन है जिस आज़ादी का अमृत महोत्सव वर्ष इन दिनों मनाया जा रहा है। हर वर्ष आयोजित होने वाले अमृत महोत्सव वर्ष में तो इसे और ज़ोर शोर से वैसे ही मनाया जाना चाहिए था जैसे योग महोत्सव मनाने में सरकार दिल खोलकर जुड़ती है।जिस आयोजन में शतायु के आसपास पहुंच रहे स्वाधीनता सेनानी और इस उम्र में भी पूरी सक्रियता से विविध रचनात्मक कार्यों में जुटे समाजसेवी श्रद्धेय डॉ जी जी पारेख शिरकत कर रहे थे, जिस शांति यात्रा में उस महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी शामिल हो रहे थे जिनकी स्मृतियों को ताजा रखने के लिए इस शांति यात्रा का आयोजन किया जा रहा था, उस शांति मार्च को रोकने का कोई औचित्य समझ के बाहर है।सरकार और सरकार की कठपुतली बन चुके पुलिस प्रशासन यह अच्छी तरह से जानते हैं कि आम नागारिक और उनकी संस्थाएं उनके गैर कानूनी निर्णयों के खिलाफ उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय जाने में सक्षम नहीं हैं इसलिए वे सरकार को खुश करने के लिए मनमाने अलोकतांत्रिक निर्णय करते हैं। आजाद देश में शांति मार्च से परहेज निश्चित रूप से बहुत निंदनीय है। यह तब और भी निंदनीय हो जाता है जब सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि सरकार नफरत फ़ैलाने वाले भाषणों और क्रियाकलापों को रोकने में विफल रही है।
पांचवीं तक स्लेट की बत्ती को जीभ से चाटकर कैल्शियम की कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था, कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें...
पढ़ाई का तनाव हमने पेंसिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था। पुस्तक के बीच पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास था।
कपड़े के थैले में किताब कॉपियां जमाने का विन्यास हमारा रचनात्मक कौशल था..
हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बांधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव था..
माता-पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फि़क्र नहीं थी.. न हमारी पढ़ाई उनकी जेब पर बोझा थी.. सालों साल बीत जाते पर माता-पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे ।
एक दोस्त को साइकिल के डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा हमने कितने रास्ते नापे हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं।
स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते हमारा ईगो हमें कभी परेशान नहीं करता था , दरअसल हम जानते ही नहीं थे कि ईगो होता क्या है ?
पिटाई हमारे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी ,‘पीटने वाला और पिटने वाला दोनो खुश थे,’ पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे , पीटने वाला इसलिए खुश कि हाथ साफ़ हुआ..
हम अपने माता-पिता को कभी नहीं बता पाए कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं,क्योंकि हमें ‘आई लव यू’ कहना नहीं आता था..
आज हम गिरते-सम्भलते , संघर्ष करते दुनिया का हिस्सा बन चुके हैं , कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं..
हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है , हमे हकीकतों ने पाला है , हम सच की दुनिया में थे..
कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे..
अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है, वरना जो जीवन हम जी कर आये हैं उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं..
हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम एक साथ थे, काश वो समय फिर लौट आए..
‘एक बार फिर अपने बचपन के पन्नो को पलटिये, सच में फिर से जी उठेंगे।’
क्या आप भी इन पुरानी यादों के साथ गुजरे हैं ?
(अज्ञात, फेसबुक से)
पुष्य मित्र
राकेश कुमार सिन्हा। यही इनका नाम है। एक अवकाश प्राप्त लाइब्रेरियन। जब मैं नवोदय विद्यालय पूर्णिया में पढ़ता था तो आप मेरे स्कूल में लाइब्रेरियन हुआ करते थे। मैं छठी कक्षा में था तो आपने मेरा परिचय प्रेमचंद से कराया। मैंने प्रेमचंद के सारे उपन्यास और मानसरोवर के सारे खंड पढ़ डाले। अपनी लाइब्रेरी के एक कोने में नेहरू की किताबें भारत एक खोज और डिस्कवरी ऑफ इंडिया दिखाई। मैने उन्हे पढ़ लिया। आपने कहा संस्कृति के चार अध्याय भी पढ़ लो।
मैं अक्सर क्लास के बाद लाइब्रेरी चला जाता। आप मेरे लिए किताबें छांटकर रखते। मैं उन्हें पढ़ लेता। किताबें पढऩे का मुझे शौक पहले भी था। मगर घर में एक स्टूडेंट के लिए कथा कहानी, उपन्यास वगैरह पढऩा ठीक नहीं माना जाता था। हम चोरी-छिपे पढ़ते थे। आपने पहली दफा यह बताया कि ऐसी किताबें पढऩा अपराध नहीं है, अच्छा काम है। फिर तो लत लग गई। बारहवीं के बाद नवोदय से निकला और इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए दिल्ली भेजा गया था वहां की एक लाइब्रेरी में मेरे मामा ने नाम लिखा दिया। उन्होंने कहा, किताबें क्यों खरीदोगे, यहीं से ले आया करना।
मगर दिल्ली के इंदरपुरी के बोहरिया वाला थल्ला पुस्तकालय से मैंने फिजिक्स, केमेस्ट्री और मैथ की किताबें कम, मंटो और जोगिंदर पाल और कृशन चंदर की किताबें अधिक इश्यू कराया। इंजीनियर बन नहीं पाया, पत्रकारिता विवि में जरूर पहुंच गया। खैर यह अलग कहानी है।
आज सर से मिलने इनके घर गया था। पटना के अनीसाबाद में इनका अपना घर है। हालांकि पटना में कम रहते हैं। ज्यादातर बेटों के पास रहते हैं। खबर मिली थी कि इन दिनों पटना में हैं, और आज अखबार में पढ़ा कि नेशनल लाइब्रेरियन डे भी है। तो सहज ही सर की याद आ गई।
वैसे, मैं इनका जो भी परिचय लिख रहा हूं, वह काफी कम है। इनके शिष्यों में आज कई जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक हैं। सबा करीम जैसे क्रिकेटर हैं। ये सभी लोग अक्सर इन्हें याद करते हैं और इनसे मिलने आते हैं।
मगर यह भी इनका असली परिचय नहीं है। इनका असली परिचय वे छात्र हैं जो आज सिर्फ इनकी वजह से अपने जीवन में कुछ कर पाए हैं। अगर सिन्हा सर नहीं होते तो उनमें से ज्यादातर कहीं मजदूरी या छोटी मोटी नौकरी कर रहे होते। नाम लेना उचित नहीं है, मगर इनकी एक छात्रा सिर्फ इनकी वजह से दसवीं से आगे पढ़ पाई और आज इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में बड़ी अफसर है। उस छात्रा के पिता दसवीं से पहले ही उसकी शादी कराने पर तुले थे।
एक छात्र जो आज एक कॉलेज में प्रोफेसर है, कभी एक घरेलू नौकर हुआ करता था। इन्होंने उसे सहारा दिया और रास्ता दिखाया। ऐसे दर्जनों लोग हैं जिनका कैरियर आज सिर्फ सिन्हा सर की वजह से है। सर के बेटे गौरव के साथ एक दफा मेरी बात भी हुई थी कि ऐसे तमाम लोगों के अनुभव को जुटाया जाए। और सबको बताया जाए कि एक शिक्षक कैसे अपने छात्रों का जीवन बदल देता है। वह काम अभी अटका हुआ है, मगर किया जाएगा।
बहरहाल, नेशनल लाइब्रेरियन डे पर इनके बारे में जानकर आपको जरूर अच्छा लगा होगा। यह उम्मीद मुझे है।
रितिका गरुड़, उत्तराखंड
21वीं सदी साइंस और टेक्नोलॉजी का दौर कहलाता है। लेकिन इसके बावजूद कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो आज भी मानव सभ्यता के लिए किसी कलंक से कम नहीं है। इसमें सबसे बड़ा मुद्दा रंगभेद का है। त्वचा और रंग के आधार पर इंसान का इंसान के साथ भेदभाव करने की संकीर्ण सोच से अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देश भी मुक्त नहीं हो पाए हैं। भारत में भी यह सोच और भेदभाव देखने को मिल जाता है। विशेषकर देश के अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में जाति, समुदाय, रंग और त्वचा के आधार पर भेदभाव किया जाता है। हालांकि भारत के संविधान में इसके विरुद्ध सख्त नियम और कानून बनाये गए हैं, लेकिन इसके बावजूद रंग के आधार पर भेदभाव की प्रथा का अंत नहीं हुआ है। इसका सबसे नकारात्मक प्रभाव किशोरियों के जीवन पर पड़ता है, जिनके साथ पुरुषों की तुलना में दैनिक जीवन में कहीं अधिक भेदभाव किया जाता है।
इसका एक उदाहरण उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक का चोरसौ गांव है। जहां किशोरियां और महिलाएं रंगभेद के अत्याचार से परेशान हैं। इस गांव की कुल आबादी 3403 है। यहां सबसे अधिक अनुसूचित जाति समुदाय की संख्या है। रंगभेद से परेशान गांव की एक 15 वर्षीय किशोरी कुमारी विनीता आर्य, जो कक्षा 10 की छात्रा है, का कहना है कि सांवले रंग के लोगों को हमेशा घृणा की भावना से देखा जाता है। मुझे खुद ऐसा लगता है कि मेरा रंग सांवला होने के कारण लोगों ने जैसे मुझे इंसान मानना ही छोड़ दिया है। जबकि मैं भी एक इंसान हूं। मेरे अंदर भी दिल है, भावनाएं हैं। मुझे भी दुख होता है जब लोग मेरी प्रतिभा नहीं बल्कि मेरे रंग से मुझे पहचानते हैं। मुझे उस समय बहुत दुख होता है जब गोरे रंग की लड़कियों के साथ मेरी तुलना की जाती है। 9वीं कक्षा में पढऩे वाली एक अन्य किशोरी गुन्नू कहती है कि सांवला रंग हमारे जीवन में एक अभिशाप जैसा बन गया है क्योंकि मेरा रंग दूसरी लड़कियों के जैसा नहीं है और यहां पर सांवले रंग के लोगो को सुंदर नहीं माना जाता है। यदि वह अपनी पसंद का कोई कपड़ा भी पहनना चाहती है, तो सब उसे सांवले रंग के कारण टोकने और मज़ाक उड़ाने लगते हैं। इससे हम हीन भावना का शिकार होते हैं। हम मानसिक रूप से इतना परेशान हो जाते हैं कि हम अपनी योग्यता को पूर्ण रूप से जाहिर भी नहीं कर पाते हैं।
गांव की एक महिला 55 वर्षीय रोशनी देवी कहती हैं कि बचपन से मेरा रंग बहुत ही सांवला था। जिसकी वजह से मैं सबके बीच मज़ाक की पात्र बन चुकी थी। स्कूल से लेकर परिवारजनों के बीच तक मेरा मजाक उड़ाया जाता था। जिसकी वजह से मैं हमेशा मानसिक तनाव में रहती थी। 65 वर्षीय एक सेवानिवृत्त महिला विमला देवी कहती हैं कि मैंने अपने जीवन में ऐसे बहुत से बदलाव देखे हैं और बहुत करीब से महसूस भी किया है, जहां लड़कियों और विशेषकर बहुओं को रंगभेद के कारण कष्टों का सामना करना पड़ता है। अपनी नौकरी के दौरान मैंने कई ऐसे केस देखे हैं जहां माता पिता अपनी लडक़ी को शादी में बहुत दहेज केवल इसलिए देते हैं क्योंकि उनकी बेटी का रंग सांवला होता है। जबकि यदि एक लडक़ा का रंग इतना ही सांवला हो तो समाज को इससे कोई परेशानी नहीं होती है।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर रंग के आधार पर लड़कियों को ही परेशान क्यों किया जाता है? भावना देवी कहती हैं कि आज भी ग्रामीण समाज में सांवले की अपेक्षा गोर रंग वालों को अधिक महत्व दिया जाता है। लोगों की यह मानसिकता बनी हुई है कि सांवलों की अपेक्षा गोरे रंग वाले न केवल सुंदर दिखते हैं बल्कि उनमें प्रतिभा भी अधिक होगी। जबकि यह पूरी तरह से निराधार है। वह बताती है कि सांवले रंग के कारण मेरी शादी में बहुत अड़चनें आई थी। शादी के बाद मुझे रंग के कारण ससुराल में काफी ताने सुनने को मिले हैं। आज मुझे यह डर सताता है कि मेरी बेटी के सांवली रंगत के कारण भविष्य में उसके साथ भी समाज में भेदभाव न हो।
इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रेंडी कहती हैं कि भारत के ग्रामीण समाज में रंगभेद आज भी एक बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है। यदि रंगभेद और लिंग भेद को जोडक़र देखा जाए तो दोनों ही समान हैं। इन दोनों का शिकार लड़कियों को ही होना पड़ता है। यदि लडक़े का रंग अत्यधिक सांवला भी हो तो घर और समाज किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन यही बातें एक लडक़ी के लिए सबसे बड़ी रुकावट बन जाती है। लोगों के बीच उसे मजाक का पात्र बनाया जाता है। यह समाज की संकीर्ण सोच को दर्शाता है, जिससे बाहर निकलने की जरूरत है। रंगभेद की यह नीति मानव संसाधनों को नुकसान पहुंचा कर एक समाज के रूप में हमें कमजोर करती हैं। आज आवश्यकता है कि हम इस सोच का त्याग करें ताकि भविष्य में एक ऐसे सभ्य और विकसित समाज का निर्माण कर सकें जहां रंग और लिंग भेद से परे केवल प्रतिभा को सम्मान दिया जाता हो। भारत की राष्ट्रपति महामहिम द्रौपदी मुर्मू और अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस इसकी सबसे बड़ी उदाहरण है। (चरखा फीचर)
डॉ. आर.के.पालीवाल
पुरानी कहावत है कि एक भैंस पूरे तालाब को गंदा कर सकती है। यदि ऐसी भैंसों की संख्या बढ़ती चली जाए तो तालाब के साथ झील नदी और समुद्र भी गंदे हो सकते हैं। सांप्रदायिक नफरत की दीवारों और आतंकवाद के साथ भी कुछ इसी तरह की स्थिति बनती जा रही है। कुछ लोग अपने धर्म के विस्तार के लिए जिस तरह से कहीं चूहों की तरह छिप छिप कर और कहीं सरेआम अपने धर्म की तारीफ में और दूसरे धर्मों के प्रति नफऱत की अतिश्योक्ति पूर्ण तकरीर का प्रचार प्रसार कर रहे हैं उससे उनके उस धर्म को ही ज्यादा नुक्सान हो रहा जिसके वे खुद को बहुत बड़ा शुभचिंतक समझते हैं।
कश्मीर फाइल्स और द केरल स्टोरी जैसी फिल्में संभवत: यथार्थ के नाम पर फिल्म में दर्शाई गई स्थितियों को काफ़ी बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करती हैं लेकिन इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि जिन असामाजिक तत्वों द्वारा पैदा की जा रही समाज को तोडऩे वाली समस्याओं को इन फिल्मों में दर्शाया गया है वे हकीकत में हमारे बीच सीमित मात्रा में मौजूद हैं।
भोपाल, छिंदवाड़ा और हैदराबाद के जिन दर्जन से ज्यादा हिज्ब उत तहरीर के लोगों को हाल में मध्य प्रदेश पुलिस की आतंक रोधी सेल ने पकड़ा है , ऐसे लोग शिक्षित होकर भी गलत राह पर निकले नकारात्मक मानसिकता के नागरिक हैं जो कभी लालच और कभी धार्मिक भावनाओं के ज्वार में बहकर नफऱत के प्रचारक बन जाते हैं। हिज्ब उत तहरीक की शुरुआत 1952 में येरुशलम में हुई बताई जा रही है जिसका लंदन में हेड क्वार्टर है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में सक्रियता के बाद यह भारत में भी अपनी जड़ें जमा रहा है। हाल में पकड़ाए गैंग की मध्य प्रदेश और तेलंगाना में प्रसार की योजनाएं थी। पढ़े लिखे लोगों द्वारा चलाए गए ये गैंग बहुत खुफिया तरीके से उग्र स्वभाव के भावना प्रधान युवाओं को अपने नेटवर्क में सम्मोहित करते हैं जो अपनी जान की भी ज्यादा परवाह नहीं करते। पता नहीं यह धर्म की कैसा विध्वंशक आकर्षण है जो न अपनी जान की चिंता करता है और न दूसरों की जान की परवाह। पकड़े गए समूह में 25 से 40 साल के पढ़े लिखे इंजीनियर, डॉक्टर, कोचिंग क्लास चलाने वाले और प्रोफेसर आदि शामिल हैं। यह उम्र का वह दौर है जिसमें मेहनत और राष्ट्र भक्ति से कोई युवा भगत सिंह, अब्दुल कलाम, अब्दुल हमीद और सुभाष चंद्र बोस और विवेकानंद या महात्मा गांधी भी बन सकता है।
भोपाल के आसपास रायसेन, सीहोर और होशंगाबाद के जंगलों में अक्सर भोपाल वासी पिकनिक के लिए जाते हैं। इन लोगों ने अपने संगठन के ट्रैनिंग कैंप रायसेन के जंगल में लगाए थे।यह दो तीन कारणों से संभव हुआ है। विगत कुछ वर्षों में इको टूरिज्म के नाम पर वन्यजीव अभयारण्य के आसपास के बफर जोन के जंगलों में शहर के लोगों की आवाजाही बढ़ी है। शहरी समाज को प्रकृति से जोडऩे वाले इस तरह के अभियान के निश्चित रूप से कुछ लाभ भी हैं लेकिन खतरे भी कम नहीं हैं। भोपाल के पास कठोतिया में ऐसे ही जंगल कैंप शुरु हुए हैं जो बेतवा उदगम स्थल के पास है। वहां भी अक्सर देर शाम को असामाजिक तत्वों का जमावड़ा रहता है। इसी तरह होशंगाबाद रोड पर भीम बैठका से लगे वन क्षेत्र में बारिश के दिनों में छोटे छोटे झरनों और बरसाती नदियों के किनारे पर्यटन के नाम पर प्लास्टिक और पॉलिथीन का कचरा फैलाने वाली भीड़ जुटती में। यही हाल भोजपुर के आसपास की पहाडिय़ों और समरधा के भोपाल से सटे वन क्षेत्र का है। हिज्ब उत तहरीक जैसे संगठनों के अपराधी अक्सर इको टूरिस्ट बनकर यहां आ सकते हैं और गरीब स्थानीय लोगों को झांसे और लालच से अपने साथ मिलाकर वन्यजीवों के शिकार भी कर सकते हैं और आतंक के ट्रेनिंग कैंप भी चला सकते हैं।
यही कारण है कि वन विभाग को इन आतंकियों की भनक नहीं लगी। मध्य प्रदेश के वन विभाग और पुलिस को मिलकर इस तरह की गतिविधियां रोकने के सामूहिक प्रयास करने होंगे तभी इस तरह की गतिविधियों पर अंकुश लग सकता है। जिस तरह से मणिपुर से लेकर नूंह तक धार्मिक और अंतरसांप्रदायिक नफरत के बाजार गर्म हो रहे हैं आतंक और हिंसा को रोकना दिन ब दिन बडी चुनौती बनता जा रहा है।
प्रेमचंद अपने दौर की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को हमेशा अपने लेखन का हिस्सा बनाते रहे। उन्होंने उन सभी विषयों पर अपनी कलम चलाई जिसे राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर रहे थे या आज भी कर रहे हैं।
भारत खेती का देश है और यहां गाय को जितना महत्व दिया जाए, उतना थोड़ा है। लेकिन आज कौल-कसम लिया जाए तो बहुत कम राजे-महराजे या विदेश में शिक्षा प्राप्त करनेवाले हिन्दू निकलेंगे जो गोमांस न खा चुके हों। और उनमें से कितने ही आज हमारे नेता हैं और हम उनके जयघोष करते हैं। अछूत जातियां भी गौमांस खाती हैं और आज हम उनके उत्थान के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। हमने उनके मंदिरों में प्रवेश के निमित्त कोई शर्त नहीं लगाई और न लगानी चाहिए।
हमें अख्तियार है, हम गऊ की पूजा करें लेकिन हमें यह अख्तियार नहीं है कि हम दूसरों को गऊ-पूजा के लिए बाध्य कर सकें। हम ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं कि गौमांस-भक्षियों की न्यायबुद्धि को स्पर्श करें। फिर मुसलमानों में अधिकतर गौमांस वही लोग खाते हैं, जो गरीब हैं और गरीब वही लोग हैं जो किसी जमाने में हिन्दुओं से तंग आकर मुसलमान हो गए थे।
वे हिन्दू-समाज से जले हुए थे और उसे जलाना और चिढ़ाना चाहते थे। वही प्रवृत्ति उनमें अब तक चली आती है। जो मुसलमान हिन्दुओं के पड़ोस में देहातों में रहते हैं, वे गौमांस से उतनी ही घृणा करते हैं जितनी साधारण हिन्दू। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि मुसलमान भी गौभक्त हों, तो उसका उपाय यही है कि हमारे और उनके बीच में घनिष्ठता हो, परस्पर ऐक्य हो। तभी वे हमारे धार्मिक मनोभावों का आदर करेंगे।
(हिन्दू-मुस्लिम एकता - नवम्बर 1931 का अंश)
क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?
यह तो हम पहले भी जानते थे और अब भी जानते हैं कि साधारण भारतवासी राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं समझता और यह भावना जिस जागृति और मानसिक उदारता से उत्पन्न होती है, वह अभी हममें से बहुत थोड़े आदमियों में आई है। लेकिन इतना जरूर समझते थे कि जो पत्रों के संपादक हैं, राष्ट्रीयता पर लंबे-लंबे लेख लिखते हैं और राष्ट्रीयता की वेदी पर बलिदान होनेवालों की तारीफों के पुल बांधते हैं, उनमें जरूर यह जागृति आ गई है और वह जात-पांत की बेडिय़ों से मुक्त हो चुके हैं। लेकिन अभी हाल में ‘भारत’ में एक लेख देखकर हमारी आंखें खुल गईं और यह अप्रिय अनुभव हुआ कि हम अभी तक केवल मुंह से राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति-भेद का अंधकार छाया हुआ है।
‘शिकायत है कि हमने अपनी तीन-चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी (बाकी पेज 5 पर)
संकीर्णता का परिचय दिया है जो हमारी रचनाओं पर अमिट कलंक है। हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिन्दू-जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते। हिन्दू जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल है जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है।
राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य-भाव का दृढ़ होना। इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जब तक यहां एक दल, समाज की भक्ति, श्रद्धा, अज्ञान और अंधविश्वास से अपना उल्लू सीधा करने के लिए बना रहेगा, तब तक हिन्दू समाज कभी सचेत न होगा। और यह दल दस-पांच लाख व्यक्तियों का नहीं है, असंख्य है। उसका उद्यम यही है कि वह हिन्दू जाति को अज्ञान की बेडिय़ों में जकड़े रखे जिसमें वह जरा भी चूं न कर सकें।
मानो आसुरी शक्तियों ने अंधकार और अज्ञान का प्रचार करने के लिए स्वयंसेवकों की यह अनगिनत सेना नियत कर रखी है। अगर हिन्दू समाज को पृथ्वी से मिट नहीं जाना है, तो उसे इस अंधकार-शासन को मिटाना होगा। हम नहीं समझते, आज कोई भी विचारवान हिन्दू ऐसा है जो इस टकेपंथी दल को चिरायु देखना चाहता हो, सिवाय उन लोगों के जो स्वयं उस दल में हैं और चखौतियां कर रहे हैं। (क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? (navjivanindia.com/)
शीर्षक से प्रेमचंद के विचार- भाग 1 में संकलित)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब देते हुए इंदिरा गांधी के दौर में हुई मिज़ोरम पर भारतीय वायु सेना की बमबारी का जिक्र किया। विपक्ष ने मणिपुर की हिंसा का हवाला देते हुए मोदी सरकार पर पूर्वोत्तर भारत को नजऱअंदाज़ करने का आरोप लगाया था जिसके जवाब में प्रधानमंत्री ने मिज़ोरम का नाम लिया।
पूर्वोत्तर भारत में कांग्रेस की नीतियों का ज़िक्र करते हुए पीएम मोदी ने मिज़ोरम में इंडियन एयर फोर्स की बमबारी, साल 1962 में चीनी हमले के समय पूर्वोत्तर के लोगों को बिना मदद के छोडऩे वाले जवाहर लाल नेहरू के रेडियो संदेश जैसी घटनाओं का जिक्र किया। उन्होंने कहा, पांच मार्च, 1966 को कांग्रेस ने मिज़ोरम के असहाय लोगों पर एयर फोर्स के जरिए हमला किया। मिज़ोरम के लोग आज भी उस भयानक दिन का दुख मनाते हैं। उन्होंने (कांग्रेस ने) कभी वहां के लोगों को सांत्वना देने की कोशिश नहीं की। कांग्रेस ने इस बात को देशवासियों से छुपाया। श्रीमति इंदिरा गांधी उस वक़्त देश की प्रधानमंत्री थीं। उन्होंने कहा, कांग्रेस और उसकी राजनीति पूर्वोत्तर भारत की सभी समस्याओं का मूल कारण है।
पीएम मोदी ने मिज़ोरम में कांग्रेस के शासन के दिनों का जिक्र करते हुए कहा कि एक वक़्त में वहां सभी संस्थान चरमपंथी संगठनों के आगे नतमस्तक रहा करते थे और सरकारी दफ़्तरों में महात्मा गांधी की तस्वीर लगाने पर पाबंदी थी। उन्होंने ये भी कहा कि मणिपुर के मोइरांग में स्थित ‘म्यूजियम ऑफ़ आज़ाद हिंद फौज’ में मौजूद नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा पर भी बमबारी की गई थी।
पांच मार्च, 1966 को क्या हुआ था
ऐसा माना जाता है कि मिजोरम में भारतीय वायु सेना की कार्रवाई देश के भीतर किसी नागरिक इलाके में एयर फोर्स का पहला हवाई हमला था।
दरअसल ये कार्रवाई मिज़ोरम के पृथकतावादी संगठन मिज़ो नेशनल फ्रंट के विरुद्ध थी।
गवर्नमेंट आइज़ोल नॉर्थ कॉलेज की प्रोफ़ेसर डॉक्टर लालज़ारमावी ने एक लेख में बताया है कि पांच मार्च, 1966 को भारतीय वायु सेना के कई लड़ाकू विमानों ने राज्य में अलग-अलग जगहों पर मिज़ो नेशनल फ्रंट के ठिकानों पर बम बरसाए थे। ये हवाई हमले अगले दिन यानी छह मार्च को भी जारी रहे। आइज़ोल शहर के बड़ा बाज़ार की लगभग सभी दुकानें जल कर ख़ाक हो गई थीं। हालात इतने बिगड़ गए थे कि पूरे आइज़ोल में लंबे समय तक इसका असर महसूस किया जाता रहा।
इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रोफ़ेसर जेवी हलुना ने फिल्म्स डिविजन की डॉक्युमेंट्री ‘एमएनएफ द मिज़ो अपराइजिंग’ के लिए अपने इंटरव्यू में बताया था, पांच और छह मार्च 1966 को आइज़ोल पर हवाई हमले हुए। दो तरह के लड़ाकू विमानों का इस्तेमाल किया गया। एक थे - तूफ़ानी और दूसरे हंटर। आइज़ोल के द्वारपूई, रिपब्लिक, खातला और तुईखुआलतलांग जैसे मोहल्ले जल रहे थे।
एमएनएफ के मिलिट्री विंग कहे जाने वाली मिज़ो नेशनल आर्मी से जुड़े रहे कर्नल लालरॉनियाना ने इसी डॉक्युमेंट्री में बताया था, हमारे खिलाफ़ जेट फ़ाइटरों का प्रयोग किया गया। भारतीय सैनिकों का व्यवहार भी ठीक नहीं था।
साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘पद्म श्री’ सम्मान से सम्मानित हो चुकीं मिज़ो लेखिका खॉल कुंगी ने बताया था, जैसे ही हमने प्रार्थना ख़त्म की, हवाई हमले शुरू हो गए। मैं तो बिल्कुल चौंक गई। ये सब बड़ी तेज़ी से हुआ। हम सब उस स्थान के पास नहीं थे जहाँ बम गिरे इसलिए नुकसान के बारे में नहीं बता सकती। हम सब तो बस इधर-उधर भागने लगे।
हमसे कहा गया सब लोग ज़मीन पर लेट जाओ, ऐसा करने से आसमान से पायलट हमें देख नहीं पाएंगे। तो जैसे ही बम गिरने लगते हम लेट जाते। तब बिल्कुल पता नहीं चला कि बम कहाँ-कहाँ गिरे। हम सब डरे हुए थे। हम और कुछ नहीं सोच पा रहे थे।
खॉल कुंगी अब इस दुनिया में नहीं हैं। साल 2015 में उनका निधन हो गया था।
असम राइफल्स के सूबेदार हेमलाल जायशी तब मिज़ोरम में ही थे। उन्होंने इसी डॉक्युमेंट्री के लिए अपने इंटरव्यू में कहा था, एयर फोर्स के फायटरों ने आकर बमबारी कर दी। ज़मीन पर मिज़ो नेशनल आर्मी के 8 या 9 लाइट मशीन गन के पॉज़ीशन थे। बम गिरते ही वो सब भाग गए।
भारत सरकार ने उस वक्त इन हमलों से इनकार किया था।
फिल्म्स डिविजन की डॉक्युमेंट्री के अनुसार, 9 मार्च 1966 को छपी ख़बर में एक विदेशी पत्रकार के सवाल के जवाब में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था, एयर फोर्स के विमानों ने सैनिकों और साज़ो-सामान को पैरा ड्रॉप किया है।
मिजोरम के उस वक्त के हालात की टाइम लाइन
डॉक्टर लालज़ारमावी ने अपने लेख में उस वक्त के घटनाक्रम का ब्योरा विस्तार से लिखा है-
मिज़ो हिल्स के इलाके में बड़े पैमाने पर गड़बडिय़ां 28 फरवरी, 1966 को शुरू हुईं। मिज़ो नेशनल फ्रंट के सशस्त्र बलों ने आइज़ोल, लुंगलेई, वैरेंग्टे, चॉन्ग्टे, छिमुलांग और अन्य जगहों पर सरकारी प्रतिष्ठानों पर एक साथ धावा बोला। लुंगलेई के तहसील कार्यालय में पहला हमला हुआ।
एमएनएफ के लगभग एक हज़ार सशस्त्र लड़ाकों ने लुंगलेई में असम राइफल्स की चौकी पर हमला किया। 28 फरवरी और 1 मार्च, 1966 की दरमियानी रात को आइज़ोल के ट्रेजऱी ऑफिस पर हमला किया गया। एमएनएफ के लड़ाकों ने वहां मौजूद नकदी, हथियार, गोला-बारूद ज़ब्त कर लिए।
आइज़ोल जाने वाली सडक़ पर वैरेंग्टे के पास नाकाबंदी कर दी गई। वैरेंग्टे असम की तरफ़ से मिज़ो हिल्स का पहला गांव है। छोटे पुलों को उड़ा दिया गया और सडक़ों पर बड़े पेड़ काट कर गिरा दिए गए थे। पहली मार्च को एमएनएफ ने मिज़ोरम की आज़ादी का एलान कर दिया गया था। इस घोषणा पर लालडेंगा और साठ अन्य लोगों ने दस्तखत किए थे। एमएनएफ ने दुनिया भर के देशों से मिज़ोरम की आज़ादी को मान्यता देने की अपील की थी। मिज़ोरम के कई इलाकों पर विद्रोहियों का नियंत्रण स्थापित हो गया था लेकिन आइज़ोल में असम राइफल्स का हेडक्वॉर्टर विद्रोहियों के बार-बार हमले के बावजूद डटा हुआ था।
मार्च की दूसरी तारीख़ को असम सरकार ने मिज़ो हिल्स जिले को डिस्टर्ब एरिया (अशांत क्षेत्र) घोषित कर दिया। हालात संभालने के लिए सेना बुला ली गई। उसी दिन सिलचर से 61, माउंटेन ब्रिगेड की एक टुकड़ी आइज़ोल के लिए रवाना कर दी गई। 3 मार्च से भारतीय सैनिक आइज़ोल में हेलिकॉप्टरों की मदद से उतारे जाने लगे।
चार मार्च को आइज़ोल के लोगों ने शहर खाली करना शुरू कर दिया था। असम राइफल्स के मुख्यालय के अलावा पूरे शहर पर मिज़ो नेशनल फ्रंट का नियंत्रण था।
बीस साल बाद हो पाई शांति
इस बमबारी ने मिजो विद्रोह को उस समय भले ही कुचल दिया हो लेकिन मिजोरम में अगले दो दशकों तक अशांति छाई रही।
साल 1986 में नए प्रदेश के गठन के साथ ही मिजोरम में अशांति का अंत हुआ।
राजीव गांधी के साथ समझौते के बाद एमएनएफ के प्रमुख रहे लालडेंगा ने प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। उन्होंने उसी स्थान पर भारतीय झंडा फहराया जहां 20 साल पहले एमएनएफ का झंडा फहराया गया था। (bbc.com/hindi)