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जनहित याचिका पर सुनवाई
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
बिलासपुर, 11 मई। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने आज एक ओर हसदेव अरण्य के परसा कोल ब्लॉक के उत्खनन की मंजूरी को हरी झंडी दी वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने इसी मुद्दे पर केंद्र राज्य, राजस्थान विद्युत उत्पादन लिमिटेड और खनन कंपनी को नोटिस जारी कर 4 सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने के लिए कहा है।
हसदेव अरण्य में कोयला खदानों को दी गई मंजूरी पर रोक लगाने की मांग पर अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव ने वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है, जिस पर बुधवार को सुनवाई हुई। याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया हसदेव अरण्य को नो गो जोन घोषित किया जा चुका है। परसा ईस्ट केते बासन खदान को पूर्व में दी गई मंजूरी को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में सन 2014 में ही रद्द कर दिया था। ट्रिब्यूनल ने भारतीय वन्य जीव संस्थान एवं इंडियन काउंसिल आफ फॉरेस्ट्री रिसर्च के अध्ययन के आधार पर यह निर्णय दिया था। इसके बावजूद केंद्र ने अन्य खदानों को मंजूरी देना जारी रखा।
वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट की अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि हसदेव अरण्य के जितने हिस्से में उत्खनन हो चुका है उसके अलावा अन्य इलाकों में खदानों की अनुमति नहीं दी जाए। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ सरकार ने परसा ईस्ट केते बासन खदान के दूसरे चरण और परसा खदान को मंजूरी दे दी है। इससे करीब चार लाख 50 हजार पेड़ काटे जाएंगे। इस वजह से हाथियों और इंसानों के बीच इलाके में संघर्ष बढ़ेगा।
राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी और खनन कंपनी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी व अभिषेक मनु सिंघवी ने कोयले की जरूरत की दलील दी। इस पर याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि नो गो एरिया के बाहर बहुत से कोल ब्लॉक हैं, जहां पर्याप्त कोयला उपलब्ध है। ऐसे में जैव विविधता युक्त जंगल में खनन की मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए। याचिकाकर्ता ने परसा कोल ब्लॉक को दी गई मंजूरी पर स्थगन देने की मांग की।
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि केंद्र सरकार इस मामले में जवाब दाखिल करना चाहती है, इसलिए तुरंत स्थगन नहीं दिया जाए।
ज्ञात हो कि परसा कोयला खदान के खिलाफ हसदेव अरण्य के ग्रामीणों ने भी एक याचिका हाईकोर्ट में लगाई थी, जिस पर सुनवाई के बाद चीफ जस्टिस की डबल बेंच ने याचिका आज खारिज कर दी और कोल ब्लॉक के आवंटन को सही बताया है।
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
रायपुर, 11 मई। राज्य में आज रात 09.00 बजे तक 6 कोरोना पॉजिटिव मिले हैं। राज्य के स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक आज रात तक 25 जिलों में कोरोना पॉजिटिव नहीं मिले हैं।
आज कोई मौत नहीं हुई है।
राज्य शासन के स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक दुर्ग 0, राजनांदगांव 0, बालोद 0, बेमेतरा 0, कबीरधाम 0, रायपुर 4, धमतरी 0, बलौदाबाजार 0, महासमुंद 0, गरियाबंद 0, बिलासपुर 1, रायगढ़ 0, कोरबा 0, जांजगीर-चांपा 0, मुंगेली 1, जीपीएम 0, सरगुजा 0, कोरिया 0, सूरजपुर 0, बलरामपुर 0, जशपुर 0, बस्तर 0, कोंडागांव 0, दंतेवाड़ा 0, सुकमा 0, कांकेर 0, नारायणपुर 0, बीजापुर 0, अन्य राज्य 0 कोरोना पॉजिटिव मिले हैं।
राजधानी दिल्ली में डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (डीआरआई) को बड़ी कामयाबी मिली है. डीआरआई ने दिल्ली से 434 करोड़ रुपए की हेरोइन बरामद की है. बताया गया है कि करीब 62 किलोग्राम हेरोइन बरामद की गई है. इस पूरी खेप को एक एयर कार्गो से पकड़ा गया. इस एयरकार्गो मॉड्यूल से ये अब तक की सबसे बड़ी ड्रग्स की बरामदगी है.
दुबई के रास्ते दिल्ली तक लाया गया ड्रग्स
दरअसल डीआरआई को इस ड्रग्स की खेप को लेकर एक खुफिया इनपुट मिला था. जिसके बाद 10 मई को एक ऑपरेशन चलाया गया, जिसका नाम ब्लैक एंड व्हाइट था. जब टीम मौके पर पहुंची तो यहां एक कार्गो से ये 55 किलो हेरोइन बरामद हुई. ड्रग्स की ये बड़ी खेप युगांडा से दुबई के रास्ते दिल्ली तक पहुंचाई गई थी.
पूछताछ के बाद कई और जगह छापेमारी
डीआरआई की टीम ने एयरकार्गो से 55 किलो हेरोइन की ये खेप पकड़ने के बाद एक आरोपी को हिरासत में लेकर पूछताछ शुरू की. इसके बाद इस शख्स से हुई पूछताछ के आधार पर हरियाणा और लुधियाना में भी छापेमारी को अंजाम दिया गया. इस छापेमारी में 7 किलो हेरोइन और 50 लाख रुपये कैश की बरामदगी हुई. इसके बाद एक बड़े इंटरनेशनल ड्रग रैकेट का पर्दाफाश हो सकता है. जिन लोगों को हिरासत में लिया गया है, उनसे पूछताछ की जा रही है.
इस मामले में अब तक 3 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं. जिनमें से एक दिल्ली से और दो लुधियाना से गिरफ्तार हुए हैं. दिल्ली से गिरफ्तार हुए प्रवीण को साकेत कोर्ट के सामने पेश किया जा रहा है. जबकि अन्य दो को लुधियाना कोर्ट में पेश किया जाएगा.
-रेहान फ़ज़ल
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मंटो ने एक बार अपने बारे में लिखा था, 'वो इस लिहाज से ज़्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है कि उसने कभी मार्क्स को पढ़ा नहीं है, न ही उसकी नज़र फ़्रायड के किसी काम पर गई है. हीगल का उसने नाम भर सुना है, लेकिन सबसे दिलचस्प चीज़ ये है कि लोग, ख़ास तौर से उसके आलोचक ये एलान करते हुए नहीं थकते कि वो इन सब विचारकों से प्रभावित दिखाई देता है. जहाँ तक मैं जानता हूँ उस पर किसी विचारक का असर नहीं हो सकता.'
मंटो का जीवन अंतर्विरोधों से भरा पड़ा था. ताउम्र ख़ुदा के अस्तित्व पर सवाल उठाने वाले मंटो हर पन्ने की शुरुआत में हमेशा '786' यानी 'बिस्मिल्लाह' लिखा करते थे. वो इसे ख़ुदा का फ़ोन नंबर कहते थे.
पैदाइश से कश्मीरी सआदत हसन मंटो का शुरुआती जीवन अमृतसर में बीता था. उन पर छह अलग-अलग मौक़ों पर अश्लीलता का मुक़दमा चलाया गया, लेकिन उन पर उसका कोई असर नहीं पड़ा.
वो कहा करते थे, 'अगर आपको मेरी कहानियाँ असहज लगती हैं तो इसका कारण ये है कि हम असहज समय में जी रहे हैं.'
लिखने के प्रति बेचैनी
मशहूर कहानीकार कृष्ण चंदर ने एक बार मंटो की शख़्सियत का ख़ाका खींचते हुए लिखा था, 'मंटो लंबे क़द के थे. गोरे-चिट्टे मंटो थोड़ा-सा झुक कर चलते थे और उनके हाथ के पंजे की नसें बहुत उभरी हुई थीं. उनकी आवाज़ में एक अजीब-सी व्यग्रता और लिखने के प्रति बेचैनी थी. वो तेज़-तेज़ क़दमों से चलते थे. उनका माथा आयताकार था, सिनेमा की स्क्रीन की तरह. उनके बाल लंबे, सीधे और घने थे.'
मंटो हमेशा साफ़-सुथरा कुर्ता पाजामा पहनते थे. जाड़ों में वो सूट भी पहना करते थे. मंटो को पोस्टकार्ड पर ख़त लिखना पसंद था क्योंकि वो लिफ़ाफ़ों से कम पैसे में आते थे.
मशहूर लेखक और इतिहासकार बारी अलीग ने लिखा था, ''मुझे याद है एक बार मैंने उनको कई ख़त लिखे, लेकिन एक भी ख़त का जवाब नहीं आया. आख़िर में तंग आकर मैंने पाँच पैसे के दो डाक टिकट ख़त में रख कर उन्हें भेज कर उनसे कहा कि भाई ख़त का जवाब तो दे दो. कुछ दिनों में मुझे उनका एक पोस्टकार्ड मिला जिसमें लिखा हुआ था, मैंने तुम्हारे भेजे हुए डाक टिकट बेच दिए और उन्हीं पैसों से ये पोस्टकार्ड ख़रीदा.'
कुर्सी पर घुटने मोड़ कर बैठने की आदत
मंटो हमेशा अपने घुटनों को मोड़कर उकड़ू कुर्सी पर बैठा करते थे. इससे उनकी काठी छोटी दिखाई देती थी.
कृष्ण चंदर लिखते हैं, 'इस अंदाज़ में उन्हें बैठे देख मुझे अक्सर हँसी आ जाती थी. एक बार मैंने उन्हें एक सस्ती क़िस्म की सिगरेट पीने के लिए दी. देखते ही देखते उन्होंने कहा 'ला हौल वला क़ुवत' तुम इस तरह की सिगरेट पीकर भी इतनी अच्छी कहानियाँ कैसे लिख लेते हो? एक बार उन्होंने मुझसे पूछा तुम कौन सी शराब पीते हो? उस समय तक मैंने शराब की एक बूँद भी नहीं चखी थी. मैंने ऐसे ही जवाब दे दिया, 'कोई भी इंग्लिश व्हिस्की.' उन्होंने कहा, अंग्रेज़ क्या जानें व्हिस्की बनाना. पता नहीं भारत पर राज करने का सपना भी उन्होंने कैसे देखा था?''
मंटो का उर्दू टाइपराइटर
सआदत हसन मंटो और कृष्ण चंदर ने दो साल साथ-साथ ऑल इंडिया रेडियो के दिल्ली स्टेशन में काम किया. बाद में उपेंद्रनाथ अश्क भी उनके साथ काम करने लगे.
कृष्ण चंदर लिखते हैं, 'वो बहुत अच्छे दिन हुआ करते थे. हम लोगों के बीच अक्सर साहित्यिक बहस हुआ करती थी. मंटो के पास एक उर्दू टाइपराइटर था, जिस पर ही वो अपने सारे नाटक टाइप किया करते थे. वो हमारा मज़ाक उड़ाते हुए कहते थे, किसी भी लेखक के लिए टाइपराइटर उतना ही ज़रूरी है, जितना पति के लिए पत्नी. लेकिन यहाँ उपेंद्रनाथ अश्क और कृष्ण चंदर काग़ज़ पर ही अपने कलम घिसे चले जा रहे हैं. क्या तुम समझते हो कि आठ आने की कलम से महान साहित्य रचा जा सकता है? तुम सब लोग असली गधे हो! बेवकूफ़!'
मंटो के लिए हर दिन एक या दो नाटक या फ़ीचर लिखना बाएं हाथ का खेल हुआ करता था. उन दिनों फ़ीचर लिखना बहुत मुश्किल माना जाता था, लेकिन मंटों के लिए वो एक तरह का वॉकओवर होता था.
सआदत हसन मंटो और उपेंद्रनाथ अश्क के बीच हमेशा बहस, लड़ाई या कुछ न कुछ विवाद छिड़ा रहता था. जब भी वो अश्क को देखते पंजाबी अंदाज़ में उन्हें पुकारते, 'अश्के! ओए अश्के!'
अश्क अपनी किताब, 'मंटो मेरा दुश्मन' में लिखते हैं, 'हम दोनों एक दूसरे का दिल दुखाने का कोई मौक़ा नहीं चूकते थे. वो बहुत शराब पीते थे जबकि मैंने शराब पीना तो दूर 1942 में ज़िंदगी में पहली बार सिगरेट का कश लिया था, जब मेरी उम्र 32 साल थी. मंटो को मेरे शराब न पीने, मेरे व्यवस्थित होने और संभल कर पैसा ख़र्च करने से सख़्त शिक़ायत थी.'
उन्होंने लिखा, 'ये सही था कि जब तक हम दिल्ली में रहे हमेशा लड़ते रहे, लेकिन ये भी सही है कि उन्होंने ही मुझे फ़िल्मिस्तान में डायलॉग लेखक के तौर पर बंबई बुलाया था और जब मैं बंबई गया तो उनके घर पर ही आठ दस दिन रहा था. मंटो अपनी कहानियों का तानाबाना बहुत सावधानी से बुनते थे. उनकी कहानियों में न तो कोई शिकन दिखाई देती थी और न ही कोई आडंबर. उनकी भाषा परिष्कृत होती थी, लेकिन लोगों की समझ में आती थी. जब मैंने मंटो की मौत की ख़बर सुनी तो मेरी आँखें भर आईं. वो मेरे न तो रिश्तेदार थे, न ही भाई या दोस्त. वो मेरे दुश्मन थे... लेकिन फिर भी.'
सफ़ाई और नफ़ासत पसंद मंटो
हर विषय पर मंटो के विचार लीक से हट कर होते थे. अगर आप उनके सामने दोस्त्यवस्की की तारीफ़ करें तो वो सोमेरसट मॉम के क़सीदे पढ़ने लगते थे. अगर आप बंबई के बारे में कुछ कहें तो वो अमृतसर की तारीफ़ के पुल बाँध देते थे.
अगर आप नेहरू या जिन्ना के गुण गाएं तो वो सड़क के मोची की शख़्सियत का बखान करने लगते थे. अगर आप गोश्त और पालक खाने की इच्छा प्रकट करें तो वो आपको दाल खाने की सलाह देते थे. अगर आप शादी करने वाले हों तो वो अविवाहित जीवन के गुण गाने लगते थे. कपड़ों से उन्हें कोई ख़ास लगाव नहीं था, लेकिन वो अच्छे घर, अच्छे खाने और अच्छी शराब के शौक़ीन थे.
उपेंद्रनाथ अश्क लिखते हैं, 'उनका घर हमेशा साफ़, व्यवस्थित और सजा हुआ होता था. उनकी साफ़ और धूल रहित वातावरण में काम करने की आदत थी. लेखकों के घर में आमतौर से जो अस्त-व्यस्तता दिखाई देती है, मंटो के यहाँ बिल्कुल भी नहीं थी. उनका मानना था कि हर चीज़ सही अनुपात में होनी चाहिए.'
देवेंद्र सत्यार्थीं ने अपनी एक कहानी 'नए देवता' में उनका नाम 'नफ़ासत हसन' रखा था. वो लिखते हैं, 'एक बार मैं उनके घर 9, हसन बिल्डिंग, निकल्सन रोड पर गया था. जब मैं वहाँ पहुंचा तो मैंने उन्हें हाथ में झाड़ू लिए अपना कमरा साफ़ करते हुए देखा. उनका खादी कुर्ता पाजामा धूल से अटा पड़ा था.'
10-12 नुकीली पेंसिलें
मंटो जैसी सफ़ाई और व्यवस्था बहुत से अमीर घरों में भी नहीं दिखाई देती क्योंकि उनमें सौंदर्यबोध का अभाव होता है. मंटो के एक और दोस्त अहमद नदीम क़ासिमी अपने लेख 'द मिनिस्टर ऑफ़ लिटरेचर' में लिखते हैं, 'मंटो की स्टडी में हमेशा एक साफ़ सफ़ेद चादर फ़र्श पर बिछी रहती थी. एक डेढ़ फ़ीट ऊँची डेस्क पर उनकी सभी पाँडुलिपियाँ करीने से रखी होती थीं. उसी ऊँचाई पर उनका टाइपराइटर रखा होता था. शेल्फ़ में किताबें क़ायदे से सजी होती थीं.'
'उसी डेस्क में उनकी व्हिस्की की बोतल भी छिपी रहती थी. उनकी मेज़ पर हमेशा 10-12 नुकीली छिली हुई पेंसिलें रहती थीं. एक बार मैंने उनसे पूछा इतनी सारी पेंसिलें क्यों? उनका जवाब था, पेंसिलों की नोक लिखते-लिखते मोटी हो जाती है और उनको फिर से नुकीला बनाने में थोड़ा समय लगता है. इस बीच विचारों की शृंखला टूट जाती है. इसलिए जैसे ही पेंसिल की नोक मोटी होती है, मैं उसे उठाकर अलग रख देता हूँ और दूसरी नुकीली पेंसिल उठा लेता हूँ.'
कलम नहीं धारदार चाकू से लेखन
मंटो ने लैंगिकता के मुद्दे पर कई बार अपनी कलम चलाई है. वो जब भी किसी महिला का सम्मान तार-तार होते देखते हैं, बहुत बेचैन हो जाते हैं. वो अनुरोध या याचना करने में यक़ीन नहीं करते. उनकी कलम थप्पड़ मारने में यक़ीन करती है. उनकी क़रीब-क़रीब हर कहानी थप्पड़ से ख़त्म होती है. पाठकों के गाल पर उनका थप्पड़ इतना करारा होता है कि वो उन्हें अस्थिर कर देता है.
मशहूर नाटककार बलवंत गार्गी ने एक बार उनके बारे में कहा था, 'मंटो कलम से नहीं धारदार चाकू से लिखते हैं. इससे वो समाज की नसें काटकर उसका बीमार और गंदा ख़ून बहा देते हैं.'
मंटो की कहानियाँ जितने विवाद और शोर खड़ा करती थीं उतनी ही लोकप्रिय होती थीं. वर्ष 1945 में उन्होंने एक कहानी के बारे में अली सरदार जाफ़री से कहा था, ये कहानी लिखने में मुझे मज़ा नहीं आया. न ही किसी ने मुझे गाली दी और न ही किसी ने मेरे ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर किया.
आम ज़िंदगी में मंटो की गिनती सबसे बदज़ुबान लोगों में होती थी.
अली सरदार जाफ़री लिखते हैं, 'हमेशा करीने की ज़ुबान बोलने वाले लोगों को मंटो की ज़ुबान चुभ सकती थी. लेकिन मंटो ही जानते थे कि ज़ुबान के काँटों को फूल किस तरह बनाया जाता है. उन्होंने अपशब्दों को इस ऊँचाई तक पहुंचा दिया था कि वो उनके मुंह से साहित्य और कला का सबसे बड़ा नमूना लगते थे. जब भी कोई पत्रिका प्रकाशित होती थी, हम उसमें सबसे पहले मंटो का लिखा पढ़ते थे. हमारी दिलचस्पी ये जानने में होती थी कि मंटो ने किसको गाली दी है या किसको अपना निशाना बनाया है और समाज के किस छिपे हुए पहलू को उन्होंने उजागर किया है.'
मंटो का पसंदीदा तकिया कलाम होता था 'फ़्रॉड'. एक बार मौलाना अहमद शाह बुख़ारी ने कृपालु होने के अंदाज़ में उनसे कहा, 'मैं तुम्हें अपने बेटे की तरह समझता हूँ.' मंटो ने तमक कर जवाब दिया, 'लेकिन मैं आपको अपना पिता नहीं मानता.'
रफ़ीक़ ग़ज़नवी से दोस्ती
मंटो के एक नज़दीकी दोस्त होते थे रफ़ीक़ ग़ज़नवी. जब भी वो उनका नाम लेते थे, उनके मुँह से हमेशा उनके लिए या तो 'लफ़ंगा' शब्द निकलता था या 'बदमाश'.
मंटो को नज़दीक से जानने वाली इस्मत चुग़ताई लिखती हैं, 'मंटो अक्सर बताया करते थे कि किस तरह रफ़ीक़ ग़ज़नवी ने एक के बाद एक चार बहनों से शादी की और किस तरह लाहौर की कोई तवाएफ़ नहीं बची है जिसने उनके क़दम न चूमे हों.'
'एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि वो रफ़ीक़ को मुझसे मिलवाना चाहते हैं. मैंने कहा मैं उनसे क्यों मिलूँ, आप ही उन्हें लफ़ंगा कहते रहे हैं? उन्होंने कहा, इसीलिए तो मैं उसे तुमसे मिलवाना चाहता हूँ. तुम्हारी इस ग़लतफ़हमी के लिए कौन ज़िम्मेदार है कि 'लफ़ंगे' और 'बदमाश' लोग ख़राब लोग होते हैं? रफ़ीक सही मानों में शरीफ़ आदमी हैं. वो बहुत दिलचस्प शख़्स हैं. कोई भी महिला उनसे मिलकर उनके प्यार में पड़े बिना नहीं रह सकती. वाक़ई जब मैं रफ़ीक़ से मिली तो मुझे इसका अंदाज़ा हुआ कि मंटो की नज़र कितनी बारीक है.'
सेठ से बहस
मंटो की न सिर्फ़ नज़र बारीक थी, बल्कि वो दूर की भी सोचते थे. एक बार मंटो, कृष्ण चंदर और अहमद नसीम कासिमी ने मिलकर एक फ़िल्म 'बंजारा' की कहानी, डॉयलॉग और गीत लिखे. इन सबको मनोरंजन पिक्चर्स की तरफ़ से इन सब कामों के लिए 2,000 रुपए का एकमुश्त भुगतान होना था.
नदीम कासिमी लिखते हैं, 'जब हम पैसे लेने गए तो मंटो ने मुझे सलाह दी कि अगर सेठ किसी शब्द को बदलने के लिए कहे तो उस पर तुरंत राज़ी हो जाना. तुम शायर लोगों का अहम बहुत बड़ा होता है. उससे किसी बात पर बहस मत करना, नहीं तो हमारा भुगतान रुक जाएगा. सेठ ने मेरे एक गीत में नुख़्स निकालते हुए कहा, आप 'तमन्ना' शब्द को बदल कर 'आशा' कर दीजिए. मैं ऐसा करने ही वाला था कि मंटो बीच में बोले, सेठ साहब, 'तमन्ना' यहाँ सबसे उपयुक्त शब्द है. हम कोई शब्द नहीं बदलेंगे. अगर आप इससे असहमत हों तो हमें जाने की इजाज़त दीजिए. सेठ नर्वस हो गया. उसने कहा ठीक है 'तमन्ना' शब्द को न बदला जाए.'
दूरदर्शी मंटो
ये तीनों शख़्स सेठ के बंगले से 2,000 रुपए का चेक लेकर बाहर निकले. मंटो ने कहा हमें ये चेक फ़ौरन भुना लेना चाहिए. कृष्ण ने कहा इतनी जल्दी क्या है? हम इसे कल भी भुना सकते हैं. लेकिन मंटो ने कहा तुम इन फ़िल्म वाले सेठों के बारे में नहीं जानते. पता नहीं कब इनका दिमाग़ फिर जाए. बहरहाल चाँदनी चौक के एक बैंक में उस चेक को भुनाया गया.
नदीम क़ासमी आगे लिखते हैं, 'जब हम मंटो के घर पहुंचे तो देखते क्या हैं कि सेठ का मुंशी वहाँ हमारा इंतज़ार कर रहा था. उसने कहा कि सेठ ने फ़िल्म बनाने का अपना इरादा बदल दिया है. आप वो चेक वापस कर दीजिए. मंटो ने हमारी तरफ़ जीत के अंदाज़ में देखा और मुंशी की तरफ़ मुड़कर बोले, अपने सेठ से जाकर कह दो कि चेक को भुना लिया गया है और अब वो रक़म वापस नहीं की जा सकती. मैं और कृष्ण चंदर मंटो की दूरदृष्टि की दाद दिए बग़ैर नहीं रह सके.'
सिर्फ़ 43 की उम्र में दुखदाई मौत
मंटो सिर्फ़ 43 साल जिए. मरने से एक दिन पहले वो काफ़ी देर से अपने घर लौटे और ख़ून की उल्टी करने लगे. जब उनके छह साल के नाती ने उस तरफ़ उनका ध्यान दिलाया तो उन्होंने उसे पान की पीक कहकर टालने की कोशिश की.
उन्होंने उस बच्चे से ये भी वादा ले लिया कि वो इसका ज़िक्र किसी से नहीं करेगा. रात के आख़िरी पहर में उन्होंने अपनी पत्नी सफ़िया को जगाकर कहा, मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है. लगता है मेरा लिवर फट गया है.
मंटो के भाँजे और पाकिस्तान के मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर रहे हामिद जलाल अपने लेख 'मंटो मामूज़ डेथ' में लिखते हैं, 'जैसे ही मंटो मामू ने सुना कि उन्हें अस्पताल ले जाने की बात हो रही है, उन्होंने कहा, अब बहुत देर हो चुकी है. मुझे अस्पताल मत ले जाओ. यहीं शांति से रहने दो. जब उनकी पत्नी और बच्चे रोने लगे तो उन्होंने चिल्लाकर कहा, कोई नहीं रोएगा.'
'इसके बाद उन्होंने कंबल से अपना मुंह ढक लिया. फिर अचानक कंबल से मुँह निकाल कर उन्होंने कहा, मेरी जेब में साढ़े तीन रुपए पड़े हैं. उसमें कुछ पैसे मिला कर मेरे लिए व्हिस्की की एक बोतल ले आओ. जब उनके लिए व्हिस्की की एक क्वार्टर बोतल लाई गई तो उन्होंने कहा, इसमें से मेरे लिए दो पेग बनाओ.'
'जैसे ही एंबुलेंस उनके दरवाज़े आकर रुकी मंटो मामू ने फिर शराब माँगी. उनके मुंह में एक चम्मच शराब डाली गई. लेकिन तब तक वो बेहोश हो चुके थे. जब एंबुलेंस अस्पताल पहुंची तो डाक्टरों ने उन्हें देखते ही मृत घोषित कर दिया. रास्ते में ही उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था.'
जोश मलीहाबादी जिन्होंने ग़लत उर्दू के लिए बड़े-बड़ों को नहीं बख्शा
सआदत हसन मंटो की कब्र पर लगे 'समाधि लेख' का कंटेंट उन्होंने ख़ुद ही मरने से पहले तैयार कर लिया था.
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सआदत हसन मंटो की कब्र पर लगे 'समाधि लेख' का कंटेंट उन्होंने ख़ुद ही मरने से पहले तैयार कर लिया था.
मरने से पहले उन्होंने अपने लिए एक समाधि लेख लिखा था जो उनकी क़ब्र पर अब तक लिखा हुआ है-
'यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़्न हैं,
उसके सीने में फ़न-ए-अफ़साना निगारी के सारे असरार-ओ-रमूज़ दफ़्न हैं,
वो अब भी मानो मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वो बड़ा अफ़साना निगार है या ख़ुदा?'
-अनंत झणाणें
सोमवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में एक याचिका दायर हुई है, जिसमें मांग की गई है कि ताजमहल के ऊपरी और निचले हिस्से में बंद क़रीब 22 कमरे खुलवाए जाएं. याचिका में यह माँग भी की गई है कि पुरातत्व विभाग को उन बंद कमरों में मूर्तियों और शिलालेखों की खोज करने का भी आदेश दिया जाए.
उसमें ये भी दावा किया गया है कि 1631 से 1653 के बीच के 22 साल में ताजमहल बनाए जाने की बात सच्चाई के परे है और मूर्खतापूर्ण भी.
यह याचिका डॉ. रजनीश सिंह ने दायर की है. वो अयोध्या के बहरामऊ के रहने वाले हैं. उन्होंने डेंटल साइंस की पढ़ाई की है और भाजपा की अयोध्या ज़िला समिति के सदस्य हैं और मीडिया कोऑर्डिनेटर भी.
हालाँकि वो दावा करते हैं कि उन्होंने यह याचिका ख़ुद दाख़िल की है और पार्टी का इससे कोई लेना देना नहीं है.
क्या कहना है याचिकाकर्ता का?
डॉ. रजनीश सिंह कहते हैं कि उन्होंने 2019 में पुरातत्व विभाग से जानकारी मांगी थी कि क्या इन कमरों को राष्ट्रीय सुरक्षा के चलते बंद किया गया. विभाग ने उन्हें जवाब दिया कि इन कमरों को बंद रखने का कारण सिर्फ़ सुरक्षा का मसला है. उनका कहना है कि बाद में पुरातत्व विभाग ने उनकी चिट्ठियों का जवाब देना बंद कर दिया, तो वो ऐसी याचिका दाख़िल करने पर मजबूर हो गए.
डॉ. रजनीश सिंह ने बीबीसी को बताया, "मैंने कोर्ट की शरण ली और कहा कि आप उन लगभग 20 कमरों को खोल दीजिए. आपने भी देखा होगा कि उन्हीं कमरों की आड़ में हिन्दू कभी वहां जाकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगते हैं, तो मुस्लिम भी अलग दावे करते हैं."
वो कहते हैं, "ऐसे में जब वहां ऐसी घटनाएं होती हैं तो भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि धूमिल होती है. वहां कोई भी घटना होती है तो वो इंटरनेशनल न्यूज़ बनती है. इसलिए मैंने ख़ुद की हैसियत से यह याचिका दाख़िल की कि इन सभी कमरों को एक बार खोल दीजिए."
उनके अनुसार, "मैंने मांग की कि इसके लिए एक बार पुरातत्व विभाग की समिति गठित की जाए और उनकी इंस्पेक्शन रिपोर्ट पब्लिक में आने दिया जाए. मुझे लगता है कि ऐसा करने पर यह विवाद हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा. सबरीमाला में हमने देखा कि वहां जो न्यायालय का हस्तक्षेप हुआ तो विवाद ख़त्म हो गया. ऐसे तमाम विवाद हैं. उसमें न्यायालय ने ही हस्तक्षेप करके उन मामलों को ख़त्म किया."
याचिका में मुख्य मांग ये की गई है कि भारतीय पुरातत्व विभाग यानी एएसआई ताजमहल के ऊपरी और निचले हिस्सों में मौजूद 22 कमरों को खोले और उसकी जांच करे. याचिकाकर्ता चाहते हैं कि सरकार एक 'फ़ैक्ट फाइंडिंग कमेटी' बनाकर जांच करवाए ताकि 'ताजमहल का सच' सामने आ सके.
बीबीसी ने इस बारे में याचिकाकर्ता के वकील रुद्र विक्रम सिंह से भी बात की.
बीबीसी को उन्होंने बताया, "मामले की सुनवाई 10 मई को होनी थी, लेकिन वकीलों की हड़ताल के चलते नहीं हो सकी. अभी इस मामले में नोटिस जारी कर सरकार से जवाब तलब नहीं किया गया है."
इस याचिका में कथित 'तेजो महालय' का अस्तित्व अतीत में होने का भी दावा किया गया है. याचिका के मुताबिक़ तेजो महालय को 1212 ई में राजा परमर्दिदेव ने बनाया था. बाद में वह मंदिर जयपुर के राजा मानसिंह के नियंत्रण में चला गया और फिर विरासत के रूप में राजा जय सिंह को मिला.
याचिका में यह भी दावा किया गया है कि तेजो महालय की ज़मीन 1632 में शाहजहां ने हड़प ली. इसमें यह भी कहा गया है कि इतिहासकार पी एन ओक की किताब 'ताजमहल: अ ट्रू स्टोरी' तथ्यों के आधार पर ताजमहल को 'तेजो महालय' होने का दावा करती है.
याचिका में दावा किया गया है कि ताजमहल और 'तेजो महालय' को लेकर हिंदू और मुसलमानों के बीच संघर्ष लगातार चलता रहा है और उसके चलते ही उत्तर प्रदेश सरकार ने ताजमहल को प्रदेश के पर्यटन की आधिकारिक बुकलेट में शामिल नहीं किया.
इस याचिका में हाल की उस घटना का ज़िक्र भी किया गया है, जब अयोध्या के जगद्गुरु परमहंस आचार्य को उनके भगवे कपड़ों के चलते ताजमहल में शिव पूजा करने से रोक दिया गया. परमहंस आचार्य का दावा है कि ताजमहल के बंद दरवाज़ों के पीछे एक शिव मंदिर है और उन्हें जनता के दर्शन के लिए खोल देना चाहिए.
ताजमहल के बाहर बंटे लड्डू
इस याचिका के हाईकोर्ट में दायर होने के बाद आगरा में हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं ने ताजमहल के गेट के बाहर लड्डू बांटे और तब प्रशासन ने उन्हें ऐसा करने से रोका.
हिंदू महासभा के प्रवक्ता और आगरा निवासी संजय जाट ने कहा, "तेजो महालय के लिए जो हमारी पहली किरण जगी है, उस पर रोक लगाना प्रशासन की दोहरी मानसिकता दिखाती है. कई बार हमने यहाँ आरती की है. ये हमारी लड़ाई है इस लड़ाई में हमें पहली किरण दिखाई दी है."
समय समय पर हिंदू महासभा के कार्यकर्ता ताजमहल में घुसकर वहां हिंदू धार्मिक कार्यक्रम करने की कोशिश करते रहे हैं और प्रशासन ने हमेशा उन्हें ऐसा करने से रोका है.
ताजमहल परिसर में कार्यक्रम संचालित करने वाली ताजमहल मस्जिद इंतेज़ामिया समिति के अध्यक्ष इब्राहिम ज़ैदी कहते हैं कि वो पिछले 40 साल से जुम्मे की नमाज़, रमज़ान में तरबियाँ, ईद की नमाज़, शाहजहां का उर्स और अन्य कार्यक्रमों के आयोजन में प्रशासन की मदद करते हैं.
इस याचिका के बारे में इब्राहिम ज़ैदी कहते हैं, "इसमें कहीं कोई दम नहीं है. ये तो बेफिजूल का मुद्दा उठाना है. इसमें कहीं कोई दम नहीं है. कुछ लोग किसी न किसी बहाने शांत माहौल को बिगाड़ने के प्रयास कर रहे हैं."
ताजमहल के साथ क्या-क्या छोड़ेंगे संगीत सोम?
1859 में ऐसा दिखता था ताजमहल
नरसिम्हा राव सरकार के समय 1991 में बना पूजा स्थल अधिनियम कहता है कि 15 अगस्त, 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता.
हमने जब यह सवाल याचिकाकर्ता के वकील रुद्र विक्रम सिंह से किया तो उन्होंने कहा कि इसमें उस अधिनियम का ज़िक्र इसलिए नहीं किया गया, क्योंकि उनकी याचिका की मांग सिर्फ़ कमरे खुलवा कर उनकी जांच तक ही सीमित है.
शाहजहां ने कब और क्यों बनवाया ताजमहल?
शाहजहाँ ने 17वीं सदी में अपनी बेगम मुमताज की याद में ताजमहल बनवाया था. 1560 के आसपास दिल्ली में बने हुमायूँ के मक़बरे की तर्ज़ पर ताजमहल बनवाया गया था.
इसके लिए 42 एकड़ ज़मीन चुनी गई. उसकी चारों मीनारें 139 फ़ीट ऊँची हैं और सबके ऊपर एक छतरी लगाई गई. ताजमहल के निर्माण का काम जनवरी 1632 में शुरू हुआ था और यह 1655 में बनकर तैयार हुआ.
शाहजहाँ के समय के इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने ताजमहल के बनने की क़ीमत तब के वक़्त में 50 लाख रुपए बताई थी.
हालांकि दूसरे इतिहासकारों का मानना है कि ये क़ीमत सिर्फ़ मज़दूरों को दिए गए वेतन की है और इसमें भवन में लगने वाले सामानों की क़ीमत को शामिल नहीं किया गया. बाद में मिले दस्तावेज़ों के आधार पर कुछ इतिहासकारों ने ताजमहल के बनने की क़ीमत 4 करोड़ रुपए आँकी थी. (bbc.com)
रायगढ़, 11 मई । आज सुबह जंगल से निकल कर सडक़ पार कर रहे चीतल को एक अज्ञात वाहन ने ठोकर मार दी, जिससे नर चीतल की मौत हो गई। घटना के बाद मामले की सूचना मिलने पर वन अमला मौके पर पहुंचा और आगे की कार्रवाई शुरू कर दी।
इस संबंध में मिली जानकारी के मुताबिक बुधवार की सुबह करीब छह बजे पूंजीपथरा और बंजारी के बीच एक जंगल से निकलकर शीतल रोड क्रॉस कर रहा था, तभी अज्ञात वाहन के चालक ने लापरवाही पूर्वक वाहन चलाते हुए उसे जबरदस्त ठोकर मार दिया। इससे चीतल की मौके पर मौत हो गई। घटना के बाद मामले की जानकारी वन अमला को लगी तो मौके पर पहुंच कर आगे की कार्रवाई शुरू कर दी गई।
इस संबंध में तमनार रेंजर सीआर राठिया ने बताया कि नर चीतल की उम्र करीब 10 साल होगी और पीएम के बाद चीतल के शव को पीएम के बाद अभ्यारण भेज कर आगे की कार्रवाई की जा रही है।
गाड़ी नदी में, कोई हताहत नहीं
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
उदयपुर, 11 मई। आज सुबह सीमेंट लोड हाईवा ने अटेम नदी पुल पर गैस सिलेंडर लोड खड़ी ट्रक को पीछे से जबरदस्त टक्कर मारी दी, जिससे गैस सिलेंडर भरी गाड़ी नदी में जा गिरी। हादसे में कोई घायल नहीं हुए। दुर्घटना के बाद हाइवा वाहन के चालक और परिचालक मौके पर से फरार हो गए।
अम्बिकापुर-बिलासपुर एनएच 130 पर ग्राम शिवनगर के समीप अटेम नदी पुल पर बुधवार की सुबह करीब 7.30 बजे बिलासपुर की ओर से आ रहे सीमेंट लोड हाईवा ने पुल पर पहले से खड़े एचपी सिलेंडर गैस लोड वाहन को पीछे से जबरदस्त टक्कर मार दी, जिससे सिलेंडर लोड वाहन नदी में जा गिरी, वहीं टक्कर के बाद हाइवा पुल के रेलिंग पर जा घुसी। दुर्घटना के बाद हाइवा वाहन के चालक और परिचालक मौके पर से फरार हो गए।
घटना के संबंध में एचपी गैस सिलेंडर लोड वाहन के ड्राइवर ने बताया कि पुल के ऊपर एक पिकअप पहले से पलटी हुई थी, जिसे देखने के लिए यह लोग रुके हुए थे। इसी दौरान बुधवार को पीछे से तेज रफ्तार आ रही वाहन ने इनकी सिलेंडर लोड गाड़ी को जबरदस्त टक्कर मार दी और यह हादसा हो गया ।
हादसे के वक्त सिलेंडर लोड वाहन में गाड़ी में चालक परिचालक नहीं थे, गाड़ी खड़ी थी। दुर्घटना के बाद हाईवा के चालक और परिचालक मौका देख कर घटनास्थल से फरार हो गए हैं।
एचपी सिलेंडर में लोड सभी सिलेंडर सुरक्षित हैं। दोपहर 3 बजे समाचार लिखे जाने तक वाहन को अटेम नदी से बाहर नहीं निकाला जा सका था।
नक्सल प्रभावित बस्तर में यूएपीए और सीएसपीएसए के मामले खत्म करने की उठी मांग
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
बिलासपुर, 12 मई। राजद्रोह कानून की समीक्षा को लेकर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद छत्तीसगढ़ में इस कानून का क्या असर होगा, इस पर कई तरह के सवाल उपजे हैं। राज्य में सर्वाधिक चर्चित मामलों में एक पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई के तत्कालीन महासचिव विनायक सेन का रहा है, जिसमें उनको आजीवन कारावास की सजा दी गई। दूसरी ओर आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाली सोनी सोरी भी हैं, जो 11 साल लड़ाई लड़ने के बाद इस केस से बेदाग निकल पाईं। इधर बस्तर के आदिवासियों की पैरवी करने वाली अधिवक्ता बेला भाटिया का मानना है कि यहां यूएपीए, सीएसपीएसए, आर्म्स एक्ट आदि में गिरफ्तार मामले ज्यादा गंभीर हैं, जिन पर भी विचार किया जाना चाहिए।
रायपुर की अदालत ने सेन सहित नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यवसायी पीयूष गुहा को सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। केस दर्ज होने के बाद सेन को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल पाई थी। इस समय सजा के खिलाफ उनकी याचिका हाईकोर्ट में लंबित है।
ज्यादातर लोगों की यह धारणा बनी हुई है कि सरकार अपने विरोधियों को चुप कराने और वोट बैंक मजबूत करने के लिए राजद्रोह का इस्तेमाल करती है। पर कई बार बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के भी पुलिस किसी केस को मजबूत बनाने के लिए यह धारा जोड़नी पड़ती है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के अधिवक्ता किशोर नारायण का कहना है कि अक्सर सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में अथवा ग्रामीणों पर हमले में शामिल नक्सलियों के खिलाफ राजद्रोह जोड़ जाता है। इसका उद्देश्य होता है कि यदि बाकी साक्ष्य पर्याप्त ना मिल पाए तब भी राजद्रोह की धारा की वजह से अभियुक्त को जल्दी जमानत नहीं मिल पाए।
अधिवक्ता किशोर नारायण कांकेर के पत्रकार कमल शुक्ला का केस भी देख रहे हैं। शुक्ला ने अप्रैल 2018 में सोशल मीडिया पर एक पोस्ट फॉरवर्ड की थी जिसमें आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को न्याय की देवी की तस्वीर के साथ आपत्तिजनक बर्ताव करते हुए दिखाया गया था। इस पोस्ट के बारे में शिकायत होने पर पुलिस ने शुक्ला के खिलाफ राजद्रोह का अपराध दर्ज कर लिया। केस को दर्ज हुए आज 4 साल से अधिक हो गए हैं और पुलिस अब तक शुक्ला के खिलाफ न तो चार्जशीट पेश कर पाई है और न ही प्रकरण के खात्मे के लिए कोई कदम उठाया है। पत्रकार कमल शुक्ला तत्कालीन भाजपा सरकार के खिलाफ लगातार लिखते रहे हैं। हालांकि मौजूदा सरकार के विरुद्ध भी मुखर हैं। कानूनन यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकरण में जेल में बंद है तब ऐसे मामलों में चार्जशीट 90 या 180 दिन के भीतर पेश करना पुलिस के लिए जरूरी है, पर जिन मामलों में गिरफ्तारी नहीं हुई है उसके लिए ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं है। राजद्रोह का मुकदमा अधर में लटका कर रखने से भी सत्ता की मंशा एक हद तक पूरी हो जाती है।
आदिवासी अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली सोनी सोरी भी लंबे समय तक राजद्रोह के मुकदमे का सामना किया। सोनी सोरी तथा उनके सहयोगी लिंगराम कोड़ोपी, ठेकेदार बीके लाला और एस्सार के अधिकारी सी एस वर्मा 11 साल की लंबी लड़ाई के बाद राजद्रोह के आरोप से मुक्त हो पाए। उन पर पुलिस ने नक्सलियों को रुपये पहुंचाने के आरोप में केस दर्ज किया था। सोनी सोरी का मामला राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियों में रहा। सोरी ने पुलिस पर हिरासत के दौरान अत्याचार के गंभीर आरोप लगाए थे।
कई मुकदमों में कोई राजनीतिक दखल नहीं होती न ही पुलिस पक्षपात बरतने की जरूरत पड़ती है। ठीक 2 साल पहले मई महीने में कांकेर पुलिस ने बिलासपुर के कारोबारी निशांत जैन को गिरफ्तार किया था। उसके सहयोगियों सहित उस पर राजद्रोह का केस दर्ज किया गया। पुलिस के पास पुख्ता सबूत थे कि वे माओवादियों को जूते, रुपये, वर्दी के कपड़े, वायरलेस सेट, बिजली के तार, लेथ मशीन आदि सामग्री पहुंचाने का काम सड़क निर्माण की ठेकेदारी की आड़ में करते थे।
इन दिनों छत्तीसगढ़ में निलंबित एडीजी जी सिंह और कालीचरण के विरुद्ध दर्ज राजद्रोह के मामले की चर्चा जरूर अधिक हुई है लेकिन छत्तीसगढ़ में ज्यादातर मामले बस्तर से और नक्सलियों से जुड़े हैं। ऐसे मामलों में राजद्रोह भी सीधे-सीधे दर्ज नहीं है, पर उससे कम कठोर नहीं हैं। अधिवक्ता बेला भाटिया कहती हैं कि बस्तर में हजारों विचाराधीन कैदियों को राहत मिलने के लिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट से ऐसे आदेश यूएपीए, सीएसपीएसए के लिए भी आने चाहिएं। लोकतांत्रिक स्थिति तो यही होगी कि ये कानून खत्म कर दिए जाएं। अनेक विचाराधीन कैदी वर्षों से आर्म्स एक्ट, एक्सप्लोसिव एक्ट में भी वर्षों से कैद हैं।
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
रायपुर, 11 मई। आईपीएस अफसर रामगोपाल गर्ग समय से पहले छत्तीसगढ़ लौट रहे हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इसकी अनुमति दे दी है। 2007 बैच के अफसर गर्ग प्रतिनियुक्ति पर सीबीआई में एस पी के पद पर नियुक्त किए गए थे।
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
बिलासपुर, 11 मई। हसदेव अरण्य में आबंटित परसा कोल ब्लॉक के अधिग्रहण के खिलाफ लगाई गई पांचों याचिकाएं हाईकोर्ट ने खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि इस समय देश में कोयले का संकट है, ऐसे में इस परियोजना पर हस्तेक्षप करना सही नहीं है। पेसा कानून को लेकर भी कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार नई अधिसूचना जारी कर कार्य को आगे बढ़ा सकती है।
याचिकाकर्ताओं ने पिछली सुनवाई में परसा अधिग्रहण के तुरंत बाद शुरू हुई पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने की मांग भी की थी, जिसे हाईकोर्ट ने स्वीकार नहीं किया था। इस बीच सभी पक्षों की दलील सुनने के बाद कोर्ट ने 4 मई को फैसला सुरक्षित रखा था।
चीफ जस्टिस अरुप कुमार गोस्वामी व जस्टिस आरसीएस सामंत की डबल बेंच के समक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव श्रीवास्तव, अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव, रजनी सोरेन और अन्य ने सरगुजा जिले में हसदेव अरण्य पर परसा में कोल ब्लॉक के आवंटन के निर्णय को अवैधानिक बताते हुए दलील दी थी कि एक निजी कंपनी (अडानी) को फायदा पहुंचाने के लिए भूमि अधिग्रहण किया गया है। कोयला खदान राजस्थान राज्य विद्युत निगम को आवंटित की गई है, पर उसका संचालन निजी कंपनी करेगी।
कोर्ट ने अपने फैसले में कोल ब्लॉक आवंटन और भूमि अधिग्रहण पर केंद्र सरकार के निर्णय को सही माना है और कहा कि सभी अनुमतियां विधिवत दी गई हैं।
राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम की ओर से पैरवी करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. निर्मल शुक्ला ने कहा कि केंद्र सरकार ने राजस्थान सरकार को कोल ब्लॉक दिया है अब वह उस पर निर्भर करता है कि वह स्वयं खनन करे या किसी निजी कंपनी से कराए।
पेसा कानून के उल्लंघन को लेकर कोर्ट ने कहा कि केंद्र की ओर से स्पष्ट किया गया है कि जहां व्यापक जनहित और देशहित की बात हो वहां नई अधिसूचना जारी कर जमीन का अधिग्रहण किया जा सकता है।
सरोज सिंह
हनुमान चालीसा का पाठ, भारत-पाकिस्तान मैच में पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा, सोशल मीडिया पर पोस्ट या फिर कोई कार्टून- ये कुछ ऐसे काम है जिन्हें हाल के दिनों में अलग-अलग राज्य सरकारों ने राजद्रोह क़ानून में मुक़दमा दायर करने का आधार बनाया.
इस वजह से इस क़ानून के दुरुपयोग को लेकर भारत में बहस छिड़ गई और अब बात क़ानून की समीक्षा की हो रही है. तमाम विरोधों के बाद केंद्र सरकार अब इस क़ानून की समीक्षा के लिए तैयार हो गई है.
हालांकि इसकी समीक्षा की कोई टाइमलाइन तय नहीं की गई है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सुनवाई के दौरान इस पूरे मामले में तीन अहम बातें कहीं
पहला - जब तक केंद्र सरकार क़ानून की समीक्षा नहीं कर लेती तब तक राजद्रोह क़ानून की धारा के तहत कोई नया एफ़आईआर दर्ज़ ना हो.
दूसरा - राजद्रोह क़ानून के तहत लंबित सभी मामलों में आगे कोई कार्रवाई ना हो.
तीसरा - इस धारा के तहत दर्ज़ मामले में जेल में बंद लोग ज़मानत के लिए कोर्ट जा सकते हैं.
इस मामले की अगली सुनवाई जुलाई के तीसरे हफ़्ते में होगी.
केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने इस आदेश पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अदालत को विधायिका और सरकार का सम्मान करना चाहिए और सरकार को अदालतों का. दोनों के कार्यक्षेत्र निर्धारित है. किसी को भी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए.
सरकार की कभी हां, कभी ना
हालांकि केंद्र सरकार इस क़ानून की समीक्षा के लिए तुंरत ही तैयार हो गई हो, ऐसा भी नहीं है.
देश की सर्वोच्च अदालत में इस क़ानून की समीक्षा पर केंद्र सरकार से जब सवाल पूछा गया तो केंद्र सरकार का रुख़ दो अलग-अलग मौक़ों पर अलग नज़र आया.
सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह क़ानून की संवैधानिक मान्यता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई चल रही थी.
केंद्र सरकार ने जवाब में सुप्रीम कोर्ट में अपना हलफ़नामा दायर किया.
इस हलफ़नामे में केंद्र सरकार ने कहा, "केदारनाथ बनाम बिहार राज्य मामले में दिया गया फ़ैसला एक अच्छा क़ानून है और इस पर पुनर्विचार करने की कोई ज़रूरत नहीं है. यह फ़ैसला एक नज़ीर बन गया है और अब इसमें आगे किसी संदर्भ की कोई ज़रूरत नहीं है. राजद्रोह क़ानून के दुरुपयोग के किसी एक उदाहरण को केदारनाथ मामले पर दोबारा विचार करने का आधार नहीं बनाया जा सकता."
लेकिन दो दिन बाद, सरकार ने अपने ही हलफ़नामे पर यू-टर्न ले लिया.
केंद्र सरकार ने दोबारा से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की.
बदले हुए हलफ़नामे में केंद्र सरकार ने कहा कि राजद्रोह क़ानून की समीक्षा की जाएगी. प्रधानमंत्री मोदी ऐसा चाहते हैं. इस वजह से केंद्र ने कोर्ट से गुज़ारिश की कि वह राजद्रोह क़ानून के ख़िलाफ़ दायर याचिकाओं पर सुनवाई ना करे और केंद्र की ओर से पुनर्विचार की कवायद शुरू होने तक इंतज़ार करे.
ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर केंद्र सरकार ने दो दिन के अंदर ही राजद्रोह क़ानून पर यू-टर्न क्यों लिया?
क्या 7 मई के हलफ़नामे के बारे में प्रधानमंत्री को जानकारी नहीं थी?
'राजद्रोह क़ानून की समीक्षा प्रधानमंत्री के कहने पर की जा रही है' - क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ऐसा कह कर क़ानून की समीक्षा का पूरा क्रेडिट पीएम मोदी को देना चाह रहे हैं?
क्या है राजद्रोह क़ानून?
इस पूरे संदर्भ को समझने के पहले राजद्रोह क़ानून को संक्षेप में समझने की ज़रूरत है.
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह का अभियुक्त है.
राजद्रोह एक ग़ैर-ज़मानती अपराध है और इसमें सज़ा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना है.
जिस केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले की बिनाह पर केंद्र सरकार ने 7 मई को कहा था कि इस क़ानून के दोबारा दुरुपयोग की ज़रूरत नहीं है, वो साल 1962 का मामला है.
उस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124ए के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल "अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों" तक सीमित होना चाहिए.
लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस क़ानून का इस्तेमाल सही संदर्भ में नहीं हो रहा, इस बारे में रह रह कर कई क़ानून के जानकारों ने सवाल उठाए हैं और इशारों-इशारों में अपनी बात रखी है.
प्रधानमंत्री मोदी और जस्टिस रमन्ना की एक जैसी सोच
सबसे ताज़ा उदाहरण भारत के मुख्य न्यायधीश जस्टिस एन वी रमन्ना का ही है.
20 जून 2021 को जाने-माने क़ानूनविद 'न्यायमूर्ति पीडी देसाई स्मृति ट्रस्ट' द्वारा आयोजित - 'क़ानून का शासन' विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा था-
"जो रोज़मर्रा के राजनीतिक संवाद होते हैं या जो चुनावी प्रक्रिया होती है और जिनके दौरान विरोध और आलोचना भी होती है, वो मूलतः लोकतांत्रिक ढाँचे का ही महतवपूर्ण और अभिन्न अंग है. सिर्फ़ इतना ही मान लेना कि आख़िरकार जनता ही संप्रभु है, ये काफ़ी नहीं है. इस बात को 'मानवीय गरिमा और स्वायत्तता के विचार' में भी परिलक्षित होना चाहिए. तार्किक और सही सार्वजनिक संवाद को भी 'मानवीय गरिमा के एक महत्वपूर्ण पहलू' की तरह ही देखा जाना चाहिए क्योंकि यह 'ठीक से काम करने वाले लोकतंत्र' के लिए बेहद ज़रूरी है."
उनके इस बयान को राजद्रोह क़ानून के जोड़ कर देखा गया.
इतना ही नहीं एक सुनवाई के दौरान उन्होंने सार्वजनिक तौर पर सवाल पूछा था कि क्या आज़ादी के 75 साल बाद भी भारत को राजद्रोह क़ानून की ज़रूरत है.
अब जब भारत के क़ानून मंत्री 'पीएम मोदी' का हवाला देकर 'आज़ादी के अमृत महोत्सव' में पुराने औपनिवेशिक क़ानूनों को ख़त्म करने की बात कह रहे हैं, तो माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश एक ही तरह की सोच रखते हैं.
समीक्षा से क्या हासिल होगा?
अब जब प्रधानमंत्री मोदी और चीफ़ जस्टिस रमन्ना एक जैसी सोच रखते हैं और केंद्र सरकार ने हलफ़नामा बदल कर राजद्रोह क़ानून की समीक्षा की बात की है तो क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि मोदी सरकार राजद्रोह क़ानून में बदलाव की तैयारी में है.
वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने बीबीसी से बातचीत में कहा, " मेरे ख़्याल से केंद्र सरकार द्वारा हलफ़नामा बदलने को बहुत अहमियत दिए जाने की ज़रूरत नहीं है. सरकार समीक्षा की बात तो कर रही है, लेकिन समीक्षा किस बात की करेगी, ये अभी किसी को पता नहीं है. मैं नहीं समझता की राजद्रोह क़ानून वापस लेने की तरफ़ केंद्र सरकार विचार कर रही है या ये क़ानून वापस लिया जाएगा.
हो सकता है ये पूरी कवायद इस बात की कोशिश हो कि किसी तरह से सुप्रीम कोर्ट से कुछ समय और माँग लिया जाए. या फिर केंद्र सरकार को लगता हो कि इस बीच कोर्ट का रुख़ थोड़ा और नरम हो जाएगा. लेकिन मैं नहीं मानता की इस पूरी कवायद से कोई ठोस बात निकल कर सामने आने वाली है."
उन्होंने सरकार पर इस क़ानून के दुरुपयोग का आरोप भी लगाया.
अक्सर इस क़ानून के दुरुपयोग का आरोप लगाने वाले इस धारा में हुई गिरफ़्तारियों और उसमें कम लोगों को हुई सज़ा को इसका आधार बताते हैं.
एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक़ 2014 से 2019 के बीच कुल 559 मामले में राजद्रोह के तहत गिरफ़्तारियां हुईं, लेकिन दोषी केवल 10 मामले में पाए गए.
इसी आधार पर दुष्यंत दवे आगे कहते हैं, " ये सरकार वो नहीं जो अपनी इमेज की परवाह करती हो. सरकार जो मनमानी करना चाहती है वो करती है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी भारत की सरकार पर कोई दबाव नहीं बना पा रहा है. किसी अंतरराष्ट्रीय समुदाय या संस्था ने भारत के ख़िलाफ़ कभी कुछ नहीं कहा है. ये सरकार इन सभी चीज़ों से ऊपर है."
मोदी सरकार की छवि
हाल ही में प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों की लिस्ट में भारत 142वें स्थान से लुढ़ककर 150वें स्थान पर पहुँच गया. साल 2016 में भारत इस इंडेक्स में 133वें स्थान पर था.
इस साल अप्रैल के महीने में अमेरिकी कांग्रेस के एक निकाय ने धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर भारत को 'विशेष चिंता वाले देश' की श्रेणी में रखा था.
हालांकि इन सूचकांकों का राजद्रोह क़ानून से सीधा संबंध नहीं है, लेकिन ये सूचकांक नागरिक स्वतंत्रता से ज़रूर जुड़े हैं.
इन तमाम तथ्यों के बारे में उल्लेख करते हुए इतिहासकार मृदुला मुखर्जी कहती हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी रिपोर्ट और सूचकांक की वजह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि ख़राब ज़रूर होती है.
बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं, "राजद्रोह क़ानून की समीक्षा करके सरकार क्या हासिल कर पाएगी, इसके बारे में कोई सीधा जवाब देना तब तक मुश्किल है जब तक समीक्षा का परिणाम सामने नहीं आ जाता. सरकार का इरादा क्या है, इस बारे में भी कुछ सटीक नहीं कहा जा सकता. लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि इस बारे में उच्च स्तर पर 'दोबारा विचार' ज़रूर किया गया है.
इस 'री-थिंकिंग' के पीछे असल वजह क्या है ये समझने की ज़रूरत है. क्या ये इसलिए हुआ कि पूरे मामले को और कुछ दिनों के लिए टाला जा सके या इस वजह से कि भारत के पास इन मामलों से डील करने के लिए दूसरे क़ानून हैं जो काफ़ी हैं या फिर इस वजह से कि क़ानून रद्द कर देने से राजनीतिक फ़ायदा हो सकता है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो भारत की किरकिरी हो रही है उससे बचा जा सकता है. सरकार चाहे तो क़ानून रद्द कर, इस तथ्य को अपने पक्ष में और विरोधियों को शांत करने में इस्तेमाल कर सकती है. इस कारण समीक्षा के पीछे भारत सरकार की सोच के बारे में अभी से कुछ कह पाना थोड़ा मुश्किल है."
मृदुला मुखर्जी का मानना है कि भारत को राजद्रोह क़ानून की ज़रूरत नहीं है.
क़ानून की समीक्षा से ज़्यादा ज़रूरी, पुलिस सुधार
हालांकि विधि सेंटर फ़ॉर लीगल पॉलिसी के सीनियर रेज़िडेंट फ़ेलो आलोक प्रसन्ना इस क़ानून की समीक्षा पर मृदुला मुखर्जी और दुष्यंत दवे दोनों से इतर राय रखते हैं.
उनके मुताबिक़, क़ानून की समीक्षा के बाद भी कोई बड़ा बदलाव नहीं होने वाला और ना ही कोई फ़र्क़ पड़ने वाला है.
उनका तर्क है कि ''भारत की पुलिस स्वतंत्र नहीं है, क़ानून के मुताबिक़ वो काम नहीं करती. पुलिस वही करती है जो उनके राजनीतिक आका कहते हैं. इस वजह से क़ानून में कोई बदलाव करने का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक सिस्टम में बदलाव नहीं होता.
इस क़ानून की समीक्षा के साथ पुलिस को ज़्यादा जवाबदेह बनाना चाहिए. साथ ही न्यायपालिका को और ज़्यादा संजीदगी से उनके सामने आने वाले मामलों को सुनने की ज़रूरत है, ख़ास तौर पर निचली अदालतों को. इन दोनों बदलाव के साथ ही राजद्रोह क़ानून की समीक्षा का कोई मतलब है वरना नहीं." (bbc.com)
रोजगार के कम अवसरों पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की बजाय मणिपुर के युवा आपदा में अवसर की तर्ज पर खेलों के जरिए ही आजीविका कमाने की राह पर बढ़ रहे हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर का नाम आजादी के बाद से ही उग्रवाद या सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) के कथित दुरुपयोग के लिए सुर्खियों में रहा है. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद राज्य में कोई बड़ा उद्योग नहीं होने के कारण रोजगार के संसाधन नहीं के बराबर हैं. ऐसे में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले राज्य के कई पूर्व चैंपियन अपनी अकादमी के जरिए युवाओं की प्रतिभा निखारने का काम कर रहे हैं.
खेलों की संस्कृति राज्य में गहरे रची-बसी है. शायद यही वजह है कि फुटबाल से लेकर भारोत्तोलन और कुश्ती से लेकर बॉक्सिंग तक राष्ट्रीय टीम में शामिल हो कर पदक बटोरने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है. राज्य में खेलों की इस परंपरा को ध्यान में रखते हुए नई प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए ही राज्य में देश का पहला राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय स्थापित गया है.
डिग्को सिंह, मैरी कॉम, सरिता देवी, विजेंदर, देवेंद्र सिंह और सरजूबाला जैसे चैंपियन खिलाड़ियों की सूची भी लगातार लंबी हो रही है. यह ऐसे नाम हैं जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में देश के लिए पदक बटोर कर देश का नाम तो रोशन किया ही है, रोजगार की नई राह भी खोली है. इनमें से कई खिलाड़ी अब दूसरी उभरती प्रतिभाओं को तराशने में लगे हैं.
राजधानी इंफाल स्थिति भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) भी इसमें अहम भूमिका निभा रही है. हालांकि निजी प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले ज्यादातर पूर्व खिलाड़ियों को सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिल पाने की शिकायत भी है. बावजूद इसके इन प्रशिक्षण केंद्रों में दाखिला लेने वालों की लगातार लंबी होती सूची अपनी कहानी खुद कहती है. खेल कोटे में इन युवाओं को पुलिस से लेकर सेना, केंद्रीय बलों और दूसरे सार्वजनिक उपक्रमों में आसानी से नौकरियां मिल जाती हैं. इन युवाओं खासकर पुरुषों में ज्यादातर का सपना भारतीय सेना में शामिल होना है.
सामाजिक ताने-बाने में बुनी संस्कृति
मणिपुर के सामाजिक ताने-बाने में खेलों की संस्कृति गहरे रची-बसी है और इसकी परंपरा सदियों पुरानी है. भारत की आबादी में इस राज्य की हिस्सेदारी महज 0.24 प्रतिशत है. बावजूद इसके वर्ष 1984 से अब तक यहां से 19 खिलाड़ी ओलंपिक की विभिन्न स्पर्धाओं में देश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. अकेले टोक्यो ओलंपिक में ही राज्य के छह खिलाड़ी चुने गए थे.
मणिपुर में मूल रूप से मैतेयी समुदाय के लोग रहते हैं और लगभग 29 कबायली समुदाय हैं. राजा कांगबा और राजा खागेम्बा के समय में खेल को काफ़ी तरजीह दी गई. राजा कांगबा के समय मणिपुर के कुछ पांरपरिक खेलों की शुरुआत हुई थी.
ब्रिटिश सेना में अफसर रहे सर जेम्स जॉनस्टोन ने मणिपुर पर अपनी पुस्तक 'मणिपुर एंड नगा हिल्स' में राज्य के पारंपरिक खेलों का जिक्र करते हुए स्थानीय लोगों की खेलों में कुशलता की प्रशंसा की थी. राज्य में उत्सवों और त्योहारों के मौकों पर भी खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन की परंपरा रही है. मिसाल के तौर पर होली के मौके पर पांच दिनों तक विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है. इस त्योहार को राज्य में याओसांग कहा जाता है. इसमें हर उम्र के लोग सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं.
साई के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, "मणिपुर में राष्ट्रीय खेलों का आयोजन साल 1999 में हुआ था. लेकिन उससे पहले ही राज्य के कई खिलाड़ी ओलंपिक में हिस्सा ले चुके थे.” आधारभूत सुविधाओं की कमी के बावजूद राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय स्तर पर करीब एक हजार खेल क्लबों का संचालन होता है जहां स्थानीय प्रतिभाओं को निखारा जाता है. यह सामुदायिक क्लब बिना किसी सरकारी सहायता के ही चलते हैं.
रोजगार का जरिया
राज्य में रोजगार के साधन नहीं के बराबर हैं. ऐसे में खेल ही युवाओं के लिए रोजगार की राह खोलते हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदक जीतते ही खेल कोटे के तहत नौकरियां मिल जाती हैं. सेना यहां के युवकों की पहली पसंद है. राजधानी इंफाल के बाहरी इलाके में स्थित बॉक्सिंग की विश्व चैंपियन रहीं सरिता देवी की अकादमी में प्रशिक्षण लेने वाले आठ साल के लोहेम्बा कहते हैं, "मैं सेना में जाना चाहता हूं. इसलिए मुक्केबाजी सीख रहा हूं.” वहीं प्रशिक्षण लेने वाली थोंग कुंजरानी देवी कहती है, "मैरी कॉम और सरिता देवी की तरह वह भी बॉक्सर बन कर देश और राज्य का नाम रोशन करना चाहती है.”
बैडमिंटन के राज्य चैंपियन विद्यासागर सलाम कहते हैं, "हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है. खेल से हमारे लिए रोजगार की राह खुलती है और भविष्य सुरक्षित होता है.” एक महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बेलिंदा कहती है, "मेरा सपना ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करना है.”
बॉक्सिंग की पूर्व राष्ट्रीय व विश्व चैंपियन सरिता देवी कहती हैं, "छोटा और सुदूर राज्य होने के बावजूद लोगों में खेलो के प्रति काफी दिलचस्पी है. हम नई प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देकर तैयार करते हैं. राज्य में प्रशिक्षण औऱ आधारभूत ढांचे की भारी कमी है.”
सरिता देवी अपने सहयोगियों के साथ दुर्गम पहाड़ी इलाकों में बसे गांवों में जाकर लोगों को समझाती हैं कि खेलों से करियर बन सकता है. उसके बाद छोटी उम्र में ही प्रतिभाओं को चुन कर अकादमी में प्रशिक्षण दिया जाता है. सरिता देवी कहती हैं कि "सरकार से सहायता मिले तो और बेहतर काम हो सकता है. मैंने बीस साल देश का प्रतिनिधित्व किया. अब इन बच्चों को प्रशिक्षण दे रही हूं ताकि यह आगे चल कर राज्य व देश का नाम रोशन कर सकें." उनका कहना है कि युवाओं में खेलों के प्रति दिलचस्पी बढ़ा कर उनको नशीली वस्तुओं के सेवन और अपराधों से भी बचाया जा सकता है.
वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार शर्मा कहते हैं, "मणिपुर में खेलों की परंपरा बहुत पुरानी है. इसलिए इसे देश में खेलों का पावरहाउस कहा जाता है. राज्य में विभिन्न त्योहारों के मौकों पर घरेलू प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं. उनमें हर उम्र के लोग हिस्सा लेते हैं. यही वजह है कि तमाम दिक्कतों के बावजूद राज्य से दर्जनों चैंपियन निकलते रहे हैं.”
रेसलिंग फेडरेशन आफ इंडिया के उपाध्यक्ष और राज्य इकाई के सचिव एन फोनी कहते हैं, "राज्य में शुरू से ही खेलों की संस्कृति गहरे रची-बसी है. स्पोर्ट्स अथारिटी आफ इंडिया और राज्य सरकार भी प्रशिक्षण के जरिए खेलों को बढ़ावा देने का काम कर रही है. इससे नौकरियां भी मिल जाती हैं.” उनके मुताबिक, एक चैंपियन को तैयार करने में 15 से 20 साल का समय लगता है. लेकिन पदक जीतने के बाद वह नौकरी पा कर दूसरे राज्य में चला जाता है. उसके बाद फिर वही कवायद दोहरानी पड़ती है. (dw.com)
मोहाली स्थित पंजाब पुलिस इंटेलिजेंस के मुख्यालय पर हुए रॉकेट हमले की जिम्मेदारी सिख फॉर जस्टिस (एसएफजे) नामक एक संगठन ने ली है, जिस पर भारत ने प्रतिबंध लगाया हुआ है. क्या है सिख फॉर जस्टिस?
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
पंजाब पुलिस का कहना है कि मोहाली में सेक्टर 77 में स्थित एक भवन पर रॉकेट लॉन्चर से किए गए हमले की जिम्मेदारी सिख फॉर जस्टिस नामक संगठन ने ली है. पुलिस ने इस मामले में 18-20 संदिग्धों को हिरासत में लिया है और इस घटना की जांच एक संदिग्ध आतंकवादी हमले के तौर पर की जा रही है.
सोमवार को मोहाली स्थित इस भवन पर आरपीजी हमला हुआ था. इस भवन में पंजाब पुलिस की इंटेलिजेंस शाखा का मुख्यालय है. हमले के बाद राज्य में हाई अलर्ट जारी कर दिया गया. मोहाली के एसएसपी विवेक शील सोनी ने कहा, "हम इस मामले को हल करने के बेहद करीब हैं.”
क्या यह आतंकवादी हमला था?
एसपी विवेक शील सोनी ने बताया कि 6000 से मोबाइल डेटा को खंगाला जा रहा है जो हमले के वक्त इलाके में सक्रिय थे. सीसीटीवी फुटेज की जांच के बाद पुलिस ने संदेह जताया है कि हमले के लिए एक संभवतया एक मारूति कार का इस्तेमाल किया गया था. पुलिस के मुताबिक यह घटना चूंकि शाम के वक्त हुई, और कोई भी उस वक्त भवन में नहीं
घटना के बाद राज्य के पुलिस महानिदेशक वीके भवरा ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक की. मीडिया से बातचीत में भवरा ने कहा कि जल्दी ही मामले को सुलझा लिया जाएगा. भवरा ने कहा, "हमारे पास कई जानकारियां हैं और गुत्थी जल्दी सुलझा ली जाएगी. अभी जांच चल रही है और जल्दी ही सूचनाएं साझा की जाएंगी.”
डीजीपी भवरा ने बताया कि रॉकेट के लिए जिस लॉन्चर का प्रयोग किया गया था, उसे बरामद कर लिया गया है और कुछ लोगों को हिरासत में लेकर पूछताछ की जा रही है. भवरा ने इस सवाल का सीधा उत्तर नहीं दिया कि पुलिस इस घटना को आतंकवादी हमला मान रही है या नहीं लेकिन मोहाली के पुलिस अधीक्षक (मुख्यालय) रवींदर पाल सिंह ने कहा कि यह स्पष्ट है कि "आतंकवादियों ने पंजाब पुलिस के जासूसी सिस्टम के केंद्र पर हमला करने की साजिश की थी.”
इस बीच पुलिस ने कहा है कि खालिस्तान समर्थक आतंकवादी संगठन सिख फॉर जस्टिस ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है. भारतीय मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को भेजे गए एक ऑडियो संदेश में संगठन के जनरल काउंसल गुरपतवंत सिंह पन्नू ने इस घटना के साथ-साथ धर्मशाला में विधानसभा भवन पर खालिस्तानी झंडा फहराने की घटना की भी जिम्मेदारी ली.
टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार ने लिखा है कि पन्नू ने मुख्यमंत्री को धमकी दी कि 6 जून 2022 को खालिस्तान का जनमत संग्रह दिवस मनाएं या नतीजे भुगतने को तैयार रहें. टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक पन्नू ने कहा कि हिमाचल को मोहाली में हुए हमले से सबक लेना चाहिए क्योंकि यह शिमला स्थित मुख्यालय भी हो सकता था.
क्या है सिख फॉर जस्टिस?
पिछले कई दिनों से सिख फॉर जस्टिस संगठन ने पंजाब के कई हिस्सों में छिटपुट घटनाओं को अंजाम दिया है. मसलन, पिछले महीने पटियाला में खालिस्तान-विरोधी मार्च के दौरान दो गुटों का झगड़ा हुआ था जब खुद को ‘शिव सेना (बाल ठाकरे)' बताने वाले एक संगठन के कार्यकर्ताओं ने ‘खालिस्तान मुर्दाबाद' के नारे लगाए.
सिख फॉर जस्टिस नामक यह संगठन सिखों के लिए अलग खालिस्तान की मांग करता है. इसे 2007 में अमेरिका में स्थापित किया गया था. इसके संस्थापक गुरपतवंत सिंह पन्नू हैं, जिन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई की है और फिलहाल अमेरिका में वकालत कर रहे हैं. वह एसएफजे के कानूनी सलाहकार भी हैं
एसएफजे ने ‘रेफरेंडम 2020' नाम से एक अभियान चलाया है, जिसका मकसद "पंजाब को भारत से आजाद कराना” बताया जाता है. संगठन ने 2018 में पाकिस्तान के लाहौर में भी एक दफ्तर खोला था ताकि पाकिस्तान में रहने वाले सिखों को रेफरेंडम के बारे में जागरूक किया जा सके और वे वोट डाल सकें. भारत सरकार ने 2019 में इस संगठन पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत प्रतिबंध लगा दिया था. जुलाई 2020 में सरकार ने इस संगठन से जुड़े 40 से ज्यादा वेबपेज और यूट्यूब चैनल आदि भी प्रतिबंधित कर दिए थे. (dw.com)
उद्योगपति इलॉन मस्क ने ट्विटर को खरीदने की पेशकश करने के बाद एक बयान में कहा कि वह पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से ट्विटर बैन हटाएंगे. मस्क ने बैन करने के कदम को "मूर्खता" बताया है.
अरबपति मस्क ने मंगलवार को कहा कि जब वह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर खरीद लेंगे, तो वह पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप पर ट्विटर के प्रतिबंध को पलट देंगे. मस्क खुद को "फ्री स्पीच का समर्थक" बताते हैं. हाल ही में उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का अधिग्रहण करने के लिए 44 अरब डॉलर की पेशकश की थी.
मस्क ने ट्रंप के ट्विटर बैन को "बेहद मूर्ख" बताया
फाइनेंशियल टाइम्स द्वारा आयोजित फ्यूचर ऑफ द कार शिखर सम्मेलन के दौरान मस्क ने प्रतिबंध को "नैतिक रूप से बुरा फैसला" और "बेवकूफाना" बताया है. मस्क ने कहा, "मुझे लगता है कि यह एक गलती थी क्योंकि इसने देश के एक बड़े हिस्से को अलग-थलग कर दिया और आखिरकार ऐसा करने में नाकामी मिली कि ट्रंप के पास बोलने के लिए मंच ना हो."
उन्होंने कहा, "तो मुझे लगता है कि यह एक एकल मंच होने से स्पष्ट रूप से बदतर हो सकता है जहां हर कोई बहस कर सकता है. मुझे लगता है कि इसका जवाब यह है कि मैं स्थायी प्रतिबंध को उलट दूंगा."
हालांकि ट्विटर ने मस्क के इस बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की है और ना ही ट्रंप के प्रवक्ता ने कोई प्रतिक्रिया दी है.
मस्क ने साथ ही कहा कि प्रतिबंध जैसे कदम दुलर्भ परिस्थितियों में होना चाहिए और ऐसे कदम उन अकाउंट के लिए उठाए जाने चाहिए जो "गैरकानूनी" सामग्री पोस्ट करते हैं और जो "दुनिया के लिए विनाशकारी हैं."
मस्क ने संकेत दिया है कि अगर वह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नियंत्रण हासिल कर लेते हैं तो वह कंटेंट मॉडरेशन नीतियों को ढीला करेंगे. मस्क ट्विटर पर फ्री स्पीच की वकालत करते आए हैं.
ट्विटर ने ट्रंप पर प्रतिबंध क्यों लगाया?
ट्विटर ने 6 जनवरी 2021 को अमेरिका के कैपिटल हिल में हुई हिंसा के बाद ट्रंप को मंच से प्रतिबंधित कर दिया था. चुनावों में राष्ट्रपति ट्रंप की हार को अस्वीकार करने वाले उनके समर्थकों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए कैपिटल बिल्डिंग पर ही धावा बोल दिया था.
ट्रंप ने ट्विटर पर अक्सर चुनाव परिणाम के खिलाफ पोस्ट डाले थे और उन्होंने चुनाव को लेकर झूठे दावे किए थे कि बाइडेन के पक्ष में व्यापक मतदाता धोखाधड़ी हुई थी. आरोप है कि ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट के साथ कैपिटल में हिंसा को उकसाया था जिसके कारण अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने राष्ट्रपति पर दूसरी बार ऐतिहासिक महाभियोग चलाया.
ट्विटर ने कहा था कि उसने दंगा के बाद "हिंसा भड़काने" के लिए ट्रंप पर प्रतिबंध लगाया. उसके बाद से ट्रंप मुख्य रूप से अपने समर्थकों से संवाद करने के लिए रैलियों और बयानों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं.
ट्रंप ने फॉक्स न्यूज को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर उन्हें अनुमति मिलती है तो वे ट्विटर पर वापस नहीं लौटेंगे. उनका अपना सोशल मीडिया ऐप ‘ट्रूथ सोशल' फरवरी के अंत में ऐप्पल ऐप स्टोर पर लॉन्च किया गया था.
लेफ्ट की तरफ झुकाव रखने वाले मीडिया मैटर्स के प्रमुख एंजेलो कारुसोन ने कहा कि ट्रंप को ट्विटर पर बहाल करने की मस्क की योजना मंच पर "नफरत और दुष्प्रचार की बाढ़" खोलने का पहला कदम होगा.
दूसरी ओर अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन के निदेशक एंथोनी रोमेरो ने कहा, "ट्रंप को फिर ट्विटर पर लाने का फैसला सही न्योता है."
ट्रंप का जब ट्विटर अकाउंट बैन हुआ था तब उनके 8.8 करोड़ से अधिक फॉलोअर्स थे.
एए/वीके (रॉयटर्स, एपी, एएफपी)
उत्तर प्रदेश में एक गांव के पूर्व मुखिया ने दलितों के खिलाफ जुर्माना और जूतों से पिटाई की मुनादी करवाई थी. पूर्व मुखिया को गिरफ्तार कर लिया गया है लेकिन इस घटना ने एक बार फिर दलित विरोधी मानसिकता को रेखांकित कर दिया है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
घटना मुजफ्फरनगर जिले के चरथावल थाना क्षेत्र के पावती खुर्द गांव की है. गांव के पूर्व मुखिया राजबीर त्यागी ने गांव में रहने वाले दलितों के घर के आगे मुनादी करवाई और कहलवाया कि दलितों का उनके खेत में और उनके ट्यूबवेल पर प्रवेश वर्जित है.
इतना ही नहीं, मुनादी में उसने यह भी कहलवाया कि आदेश का उल्लंघन करने वाले दलित को पांच हजार रुपये जुर्माना और 50 जूतों की सजा मिलेगी. सोशल मीडिया पर मौजूद इस मुनादी के वीडियो में कुंवरपाल नाम के एक व्यक्ति को ढोल बजा कर यह घोषणा करते हुए सुना जा सकता है.
दलित विरोधी मुनादी
वीडियो वायरल हो जाने के बाद स्थानीय पुलिस ने त्यागी और कुंवरपाल दोनों को गिरफ्तार कर लिया. दोनों पर आईपीसी की कई धाराओं और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत आरोप दर्ज किए गए हैं.
गांव के लोगों ने पत्रकारों को बताया कि गांव के दलितों ने त्यागी के खेतों में काम करने से मना कर दिया था, जिसके बाद गुस्से में आकर उसने यह मुनादी करवाई. राजबीर त्यागी गैंगस्टर विक्की त्यागी का पिता है. विक्की को एक विरोधी गिरोह के सदस्य ने 2015 में गोली मार दी थी.
उत्तर प्रदेश में दलितों का हाल
मंगलवार 10 मई को इस मुनादी का वीडियो भीम आर्मी के संस्थापक चंद्र शेखर आजाद ने भी ट्विट्टर पर साझा किया था कि "हिंदू बनने का जिनको शौक चढ़ा था, उन्हें अब समझ आ गया होगा...ये है मोदी और योगी के रामराज्य की एक झलक."
उत्तर प्रदेश में कुछ ही महीनों पहले हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी को दलितों का वोट भी मिलने की बात कही गई थी और माना जा रहा है कि आजाद का तंज उन दलितों को एक इशारा था जिन्होंने बीजेपी को वोट दिया.
केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश में दलितों के खिलाफ अत्याचार के सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में ही दर्ज होते हैं. 2018 से 2020 के बीच, पूरे देश में दलितों पर अत्याचार के 1.3 लाख से भी ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें से 36,467 मामले उत्तर प्रदेश के थे. (dw.com)
‘छत्तीसगढ़’ न्यूज डेस्क
रायपुर, 11 मई। राजद्रोह के मामलों पर कार्रवाई स्थगित करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से क्या बस्तर में नक्सल आरोपों में जेलों में कैद आदिवासियों पर कोई फर्क पड़ेगा?
यह पूछने पर बस्तर में आदिवासी अधिकारों के लिए अदालत में मामले लड़ रही एक सामाजिक कार्यकर्ता और वकील बेला भाटिया का कहना है कि शायद ही कोई फर्क पड़ेगा। उन्होंने इस अखबार के सवाल पर कहा-अधिकतर विचाराधीन कैदी एनआईए के ‘नक्सल’-मामलों में वे हैं जिन्हें यूएपीए, सीएसपीएसए, और आम्र्स एक्ट, एक्सप्लोजिव एक्ट जैसी धाराओं में गिरफ्तार किया गया है। एनआईए से परे के मामलों में भी ‘नक्सल’ विचाराधीन कैदी इसी तरह की धाराओं में कैद हैं।
उन्होंने कहा कि बस्तर में ऐसे हजारों विचाराधीन कैदियों को कोई भी राहत मिलने के लिए यह जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट के ऐसे आदेश यूएपीए, सीएसपीएसए के लिए भी आएं। लोकतांत्रिक स्थिति तो यह होगी कि ये दोनों कानून भी खत्म होने चाहिए।
दूसरी तरफ लोकसभा में मांगी गई एक जानकारी के जवाब में केंद्र सरकार ने मार्च 2021 में बताया कि पिछले दस बरस में देश भर में राजद्रोह के कितने मामले किस राज्य में दर्ज हुए हैं।
इस जानकारी के मुताबिक 2014 में छत्तीसगढ़ में राजद्रोह का एक मामला दर्ज हुआ जिसकी चार्जशीट भी पेश हो गई। 2015, 2016, 2017, में इस राज्य में राजद्रोह का कोई मामला दर्ज नहीं हुआ। 2018 में 3 मामले दर्ज हुए, और तीनों में चार्जशीट पेश हो चुकी है। 2019 में राजद्रोह का एक मामला दर्ज हुआ।
सुशीला सिंह और शादाब नज़्मी
''मैंने सिर्फ़ एक बच्चा रखने का फै़सला इसलिए किया क्योंकि हमारे आर्थिक हालात ऐसे नहीं हैं कि मैं दूसरा बच्चा पैदा कर पाती.''
उत्तर प्रदेश के कानपुर की रहने वाली सलमा (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि उन पर ससुराल से ही नहीं बल्कि मायके पक्ष से भी दूसरे बच्चे का दबाव था.
वह कहती हैं, ''मेरी एक बेटी है और मैं 40 साल की हो चुकी हूँ लेकिन अब भी मुझ पर दूसरे बच्चे का दबाव है. मैं उन्हें यही कहती हूँ कि क्या आप मेरे दूसरे बच्चे का ख़र्च उठा लेंगे. मैं और मेरे पति ये तय कर चुके हैं कि हमें अपनी बेटी को अच्छी तालीम देनी है बस.''
सलमा से ही मिलती-जुलती कहानी जयपुर में रहने वाली राखी की है, जिन्होंने एक बेटे पर ही परिवार को सीमित करने का फ़ैसला लिया.
एक या दो बच्चे तक परिवार को सीमित रखने का फ़ैसला पति के साथ मिलकर सलमा और राखी ने लिया, वहीं NFHS-5 के आंकड़ों पर नज़र डालें तो कमोबेश ऐसी ही तस्वीर भारत में दिखती है, जहाँ कुल प्रजनन दर या टोटल फर्टिलिटी रेट में पिछले कुछ सालों में गिरावट आई है.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे या NFHS-5 के ताज़ा आंकड़ों की बात करें तो भारत में सभी धर्मों और जातीय समूहों में कुल प्रजनन दर या फर्टिलिटी रेट में कमी आई है.
फैमिली हेल्थ सर्वे
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इस सर्वे के अनुसार, NFHS-4 (2015-2016) में जहाँ फर्टिलिटी रेट 2.2 थी, वहीं NFHS-5 (2019-2021) में ये घटकर 2.0 पहुंच गई.
विश्लेषकों के अनुसार, टोटल फर्टिलिटी रेट में कमी का ये मतलब हुआ कि दंपती औसतन दो बच्चे पैदा कर रहे हैं. परिवारों का आकार छोटा हुआ है, हालांकि इस परिवार को छोटा रखने के उनके अपने सामाजिक और आर्थिक कारण हैं.
जहाँ आमतौर पर अब संयुक्त परिवार की सरंचना ख़त्म हो रही है और आर्थिक दबाव के साथ-साथ कामकाजी दंपतियों के लिए बच्चों की देखरेख भी छोटा परिवार रखने के मुख्य कारणों में से एक है. हालांकि विश्लेषकों का ये भी कहना है कि समाज में एक ऐसा तबक़ा भी है, जो लड़के की चाह में दो बच्चों तक ख़ुद को सीमित नहीं कर रहा है.
कंडोम का इस्तेमाल बढ़ने से परिवार नियोजन में महिलाओं की ज़िम्मेदारी घटी?
महाराष्ट्र में आशा सेविकाओं को पुरुष जननांग के मॉडल देने पर विवाद क्यों
सभी धार्मिक समूहों में प्रजनन दर में गिरावट . पिछले सर्वेक्षण से प्रजनन दर में % परिवर्तन. .
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर पॉपुलेशन साइंसेज़ में प्रोफ़ेसर एस के सिंह और रिपोर्ट के लेखकों में से एक इस दर में आई कमी के कई कारण गिनाते हैं.
उनके अनुसार, ''लड़कियों की शादी की उम्र में बढ़ोतरी और उनके स्कूल जाने के वर्षों में बढ़ोतरी हुई है, वहीं गर्भ निरोध का इस्तेमाल बढ़ा है और शिशु मृत्यु दर में भी कमी आई है.''
साथ ही उनका कहना है कि जिन धर्मों या सामाजिक समूहों में ग़रीबी ज़्यादा है और शिक्षा का स्तर ख़राब हैं, वहाँ कुल प्रजनन दर अधिक पाई गई है.
ग्रामीण और शहरी में फ़र्क
वहीं शहरों में फर्टिलिटी रेट 1.6 है तो ग्रामीण इलाकों में ये 2.1 पाई गई है. इस सर्वे को लेकर इस बात पर भी चर्चा तेज़ है कि मुसलमानों में फर्टिलिटी रेट में काफ़ी कमी आई है.
भारतीय राज्यों में प्रजनन दर. . .
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया की एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर पूनम मुटरेजा का कहना है कि 50 के दशक (1951) में भारत की टोटल फर्टिलिटी रेट या टीएफ़आर लगभग 6 थी, ऐसे में मौजूदा आँकड़ा एक उपलब्धि है. आंकड़े साफ़ बताते हैं कि जहां महिलाएं शिक्षित हैं, वहाँ उनके बच्चे कम हैं. साथ ही इसमें सरकार की मिशन परिवार योजना ने भी अहम भूमिका निभाई है.
साथ ही वे फर्टिलिटी रेट को किसी विशेष धर्म को जोड़ने पर एतराज़ जताते हुए कहती हैं, ''भारत के सबसे ज़्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में जहाँ हिंदू परिवारों में टीएफ़आर 2.29 है, वहीं तमिलनाडु में मुसलमान महिलाओं में ये 1.93 है. ऐसे में इसे धर्म के बजाए शिक्षा और आर्थिक कारणों से जोड़ा जाना चाहिए. क्योंकि जहां महिलाएं शिक्षित हैं, वे कम बच्चे पैदा कर रही हैं.''
भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने साल 2016 में 'मिशन परिवार विकास' की शुरुआत की थी. ये योजना उन सात राज्यों के 145 ज़िलों में शुरू की गई थी, जहाँ फर्टिलिटी रेट ज़्यादा है, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और असम. इस मिशन का लक्ष्य फर्टिलिटी रेट को साल 2025 तक 2.1 से कम करना है.
टीएफआर जब 2.1 तक पहुंचती है, तो उसे 'रिप्लेसमेंट लेवल फर्टिलिटी' कहा जाता है. इस आंकड़े तक पहुंचने का मतलब होता है कि अगले तीन से चार दशक में देश की आबादी स्थिर हो जाएगी.
अगर महिलाओं और पुरुषों में गर्भनिरोध की बात की जाए तो ये एक बड़ा फ़ासला दिखाई देता है. जहां 15-49 उम्र की महिलाओं में नसबंदी की दर 37.9 फ़ीसदी है, वहीं पुरुष नसबंदी की दर काफ़ी कम यानी 0.3 फ़ीसदी है. लेकिन पुरुषों में कंडोम का इस्तेमाल बढ़ा है जो 9.5 फ़ीसदी है, जो पिछले NFHS-4 में 5.6 था.
वहीं इसी सर्वे में ये बात भी सामने आई कि 35 या उससे अधिक उम्र की महिलाओं में 27 फ़ीसदी महिलाएं एक से अधिक बच्चे चाहती हैं और केवल 7 फ़ीसदी महिलाएं दो से अधिक बच्चे चाहती हैं.
मुंबई में आईआईपीएस में सीनियर रिसर्च फ़ेलो नंदलाल बीबीसी से बातचीत में कहते हैं कि परिवार नियोजन में पुरुषों की बराबर भागीदारी न होना चिंता का विषय है.
वे कहते हैं, ''साल 1994 में जनसंख्या और विकास को लेकर अंतरराष्ट्रीय कान्फ्रेंस हुई थी, जिसमें परिवार नियोजन को मूलभूत मानवधिकार बनाने पर ज़ोर दिया गया था, लेकिन 25 साल बीत जाने के बाद भी स्थिति में ज़्यादा बदलाव नहीं है और जहां महिलाएं परिवार नियोजन को लेकर फ़ैसला लेने में सक्षम नहीं है, वहां स्थिति ख़राब है.''
प्राची गर्ग को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में काम करने का 18 साल का अनुभव है और वे आर्गनॉन इंडिया में दक्षिण एशिया की प्रमुख भी हैं. आर्गनॉन इंडिया दुनिया भर में महिलाओं के स्वास्थ्य पर काम करती है.
इसका क्या होगा असर?
वे मानती हैं कि भारत में गर्भनिरोध का भार ज़्यादा महिलाओं पर होता है, ऐसे में उनके स्वास्थ्य पर ज़ोर देने की बात वे कहती हैं.
प्राची गर्ग के अनुसार, भारत की क़रीब 65 आबादी युवा है, जिसका लाभ भी देश को मिल रहा है. लेकिन भविष्य में इन युवाओं की संख्या कम हो जाएगी और बुज़ुर्गों की आबादी बढ़ जाएगी, ऐसे में सामाजिक संतुलन पर भी असर पड़ेगा. अगर एशिया के देशों जैसे जापान, चीन और ताइवान से तुलना की जाए तो वे आर्थिक तौर ज़्यादा सक्रिय हुए और इसका विपरीत असर परिवार के आकार पर भी पड़ा, जहां अब उनके लिए एक संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है.
चीन की बात की जाए तो वहां की 'एक बच्चा नीति' दुनिया के सबसे बड़े परिवार नियोजन कार्यक्रमों में से एक है. इस नीति की शुरुआत साल 1979 में हुई थी और ये क़रीब 30 साल तक चली. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक़, चीन की फर्टिलिटी रेट 2.81 से घटकर 2000 में 1.51 हो गई और इससे चीन के लेबर मार्किट पर बड़ा प्रभाव पड़ा.
लेकिन प्राची गर्ग इस बात को लेकर आशावादी हैं कि फर्टिलिटी रेट गिरने से महिलाओं को स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में लाभ मिलेगा और लेबर मार्किट में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ेगी, जिससे देश के आर्थिक विकास में भी बढ़ोतरी होगी.
प्रोफ़ेसर एस के सिंह कहते हैं कि फ़िलहाल भारत के लिए जनसंख्या स्थिरता काफ़ी अहम है. हालांकि अभी फर्टिलिटी रेट में कमी आई है, लेकिन जनसंख्या को स्थिर करने में लगभग 40 साल यानी 2060 के लगभग तक हो पाएगा. भारत फ़िलहाल अपनी युवा आबादी का लाभ उठा रहा है और इसके बाद हर उम्र में ये ग्रोथ रेट स्थिर होगी और संतुलन भी बना रहेगा, ऐसे में एशिया के अन्य देशों से तुलना ग़लत होगी.
हालांकि फर्टिलिटी रेट को लेकर विश्लेषक आशावादी हैं, वहीं ये सवाल भी उठा रहे हैं कि भारत जैसे समाजिक परिवेश में एक संतुलन बनाए रखने की भी ज़रूरत है, जहां छोटे होते परिवार कहीं चाचा, मौसी, मामा जैसे रिश्ते को ही ख़त्म न कर दें. (bbc.com)
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य स्तर पर हिंदुओं समेत अन्य अल्पसंख्यकों की पहचान करने से जुड़े मामले पर केंद्र के अलग-अलग रुख को लेकर नाराज़गी जताई और उसे साढ़े तीन महीने में राज्यों के साथ इस मामले में विचार-विमर्श करने का निर्देश दिया.
इससे पहले, केंद्र ने सोमवार को न्यायालय से कहा था कि अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है और इस संबंध में कोई भी फैसला राज्यों और अन्य संबंधितों के साथ चर्चा के बाद लिया जाएगा.
अंग्रेज़ी अख़बर टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खबर के अनुसार, जस्टिस संजय किशन कौल और एमएम सुंदरेश की पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार इसपर जल्द कार्रवाई करे और राज्यों पर इस मसले को न छोड़े. शीर्ष न्यायायलय ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि अगर सरकार इसे करने में असफल रहती है तो अदालत इसको लेकर फैसला करेगी.
केंद्र ने मार्च महीने में कहा था कि जिन हिंदू समुदायों और अन्य समुदायों की संख्या कम है, उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देने या नहीं देने का फैसला राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को करना है.
पीठ ने कहा कि इस तरह के मामले में एक हलफ़नामा दाखिल किया गया है कि केंद्र और राज्य, दोनों के पास शक्तियां हैं.
पीठ ने कहा, "बाद में आप कहते हैं कि केंद्र के पास शक्ति है. हमारे जैसे देश में, जहां इतनी विविधता है, हमें अधिक सावधानी बरतनी चाहिए. ये हलफ़नामे दाखिल होने से पहले, सब कुछ सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध होता है, जिसके अपने अलग परिणाम निकलते है. इसलिए आप जो कहते हैं, आपको उसे लेकर सावधानी बरतनी चाहिए."
शीर्ष अदालत ने कहा कि ये ऐसे मामले हैं, जिनके समाधान की जरूरत है और हर चीज पर फैसला नहीं सुनाया जा सकता.
अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका के जवाब में दाखिल हलफ़नामे में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने कहा कि केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक समुदायों के लिए राष्ट्रीय आयोग अधिनियम-1992 की धारा-2 सी के तहत छह समुदायों को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया है.
हलफ़नामे में कहा गया है, "रिट याचिका में शामिल प्रश्न के पूरे देश में दूरगामी प्रभाव हैं और इसलिए हितधारकों के साथ विस्तृत विचार-विमर्श के बिना लिया गया कोई भी फैसला देश के लिए एक अनापेक्षित जटिलता पैदा कर सकता है." (bbc.com)
पंजाब के मोहाली में पुलिस के इंटेलिजेंस हेडक्वॉर्टर पर हुए हमले की ज़िम्मेदारी प्रतिबंधित संगठन सिख फ़ोर जस्टिस (एसएफ़जे) ने ली है.
अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार पंजाब पुलिस ने अब तक इस मामले में 18 से 20 संदिग्धों की गिरफ़्तारी की है. आज प्रेस रिव्यू में सबसे पहले यही ख़बर पढ़िए.
सोमवार को पुलिस कार्यालय पर रॉकेट प्रोपेल्ड ग्रेनेड यानी आरपीजी अटैक किया गया था, जिससे इमारत को नुक़सान पहुँचा था. इसके बाद से मोहाली में हाई अलर्ट है.
अख़बार ने पुलिस के हवाले से लिखा है कि एसएफ़जे के गुरपतवंत सिंह पन्नू की आवाज़ में एक कथित वॉयस मेसेज का सत्यापन कर लिया गया है. इस वॉयस मेसेज के ज़रिए ही एसएफ़जे ने हमले की ज़िम्मेदारी ली है.
मोहाली एसएसपी विवेकशील सोनी ने कहा, "हम जांच पूरी करने के बेहद क़रीब हैं."
फ़िलहाल, जांचकर्ता अधिक सबूत जुटाने के लिए मुख्यालय के क्षेत्र में मौजूद तीन मोबाइल टॉवर से '6 से 7 हज़ार मोबाइल डेटा डंप' की जांच कर रहे हैं.
सीसीटीवी फुटेज के आधार पर पुलिस को शक है कि आरपीजी हमले के लिए शायद मारुति सुज़ुकी की स्विफ्ट कार का इस्तेमाल किया गया था.
जांच में तेज़ी लाने के लिए एनआईए, एनएसजी और सेना के अधिकारियों ने इंटिलेजेंस यूनिट की बिल्डिंग का मुआयना किया. मंगलवार को डीजीपी वीके भवरा ने राज्य के खु़फ़िया अधिकारियों, एसएसपी सोनी और अन्य अफसरों के साथ बैठक की.
डीजीपी भवरा ने मीडिया से कहा, "हमारे पास लीड्स हैं और इस केस को जल्द सुलझा लेंगे. जांच जारी है और सही समय पर इससे जुड़ी जानकारी साझा की जाएगी."
ये पूछे जाने पर कि क्या पुलिस इसकी जांच एक आतंकी हमले के तौर पर कर रही है, डीजीपी ने कहा, "ग्रेनेड इमारत से टकराया और इसमें संभवतः टीएनटी विस्फोटक इस्तेमाल किया गया था. चूंकि हमला शाम के वक़्त हुआ, इसलिए कमरे में कोई भी नहीं था और दीवारें ही क्षतिग्रस्त हुईं."
मोहाली एसपी (हेडक्वॉर्टर) रविंद्र पाल सिंह ने कहा, "ये स्पष्ट हो चुका है कि इस हमले में शामिल आतंकवादियों ने पंजाब पुलिस के इंटेलिजेंस सिस्टम को निशाना बनाने के लिए साज़िश रची."
मोहाली पुलिस ने आईपीसी की धारा 307, यूएपीए एक्ट के सेक्शन 16 के तहत एफ़आईआर दर्ज की है. ये एफ़आईआर इंटेलिजेंस हेडक्वॉर्टर के सिक्योरिटी इन्चार्ज एसआई बालकर सिंह के बयान के आधार पर दर्ज की गई है. (bbc.com)
-गीता पांडेय
दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर करके 28 साल की एक मुसलमान महिला ने मांग की है कि बिना उनकी लिखित सहमति के उनके पति को एक दूसरी महिला से निकाह करने से रोका जाए.
यह मामला सामने आने के बाद भारत के मुसलमानों में कई विवाह करने के रिवाज (बहुविवाह) पर एक बार फिर ध्यान खींचा है.
रेशमा नाम की इस महिला ने हाई कोर्ट से यह भी मांग की है कि वो सरकार को आदेश दे कि बहुविवाह के इस दकियानूसी रिवाज को नियंत्रित करने वाला एक क़ानून बनाए.
कोर्ट के दस्तावज़ों के अनुसार, रेशमा की शादी जनवरी 2019 में मोहम्मद शोएब ख़ान से हुई थी और अगले साल नवंबर में इस दंपती को एक बच्चा भी हुआ. रेशमा ने अपने पति पर घरेलू हिंसा, क्रूर व्यवहार और उत्पीड़न करने के साथ दहेज मांगने के भी आरोप लगाए हैं.
उनके पति ने भी रेशमा पर ऐसे ही आरोप लगाए हैं. उन्होंने आरोप लगाया है कि उनके पति ने उन्हें और उनके बच्चे को छोड़ दिया और अब दूसरा निकाह करने की योजना बना रहे हैं.
अपने पति के क़दमों को 'असंवैधानिक, शरिया विरोधी, ग़ैर क़ानूनी, मनमाना, कठोर, अमानवीय और बर्बर' क़रार दिया है. उन्होंने कहा कि मुस्लिम महिलाओं के भले के लिए बहुविवाह की रवायतों पर लगाम लगानी चाहिए.
दिल्ली हाई कोर्ट के सामने आए इस मामले ने बहुविवाह की उस प्रथा पर बहस को छेड़ दिया है, जो मुसलमानों और कुछ आदिवासी समूहों को छोड़कर भारत में ग़ैर क़ानूनी है.
प्यू रिसर्च सेंटर ने 2019 की रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया की क़रीब दो फ़ीसदी आबादी बहुविवाह वाले परिवारों में रहती है. तुर्की और ट्यूनीशिया जैसे मुस्लिम बहुल देशों सहित दुनिया के अधिकांश देशों में इस प्रथा पर अब प्रतिबंध लग चुका है.
साथ ही जहाँ इसकी इजाज़त है, भी वहाँ भी बड़े स्तर पर इसे रेगुलेट किया जाता है. संयुक्त राष्ट्र ने कई विवाह करने के रिवाज को 'महिलाओं के ख़िलाफ़ स्वीकार न किया जाने वाला भेदभाव' बताता है. उसकी अपील है कि इस प्रथा को 'निश्चित तौर पर ख़त्म' कर दिया जाए.
हालांकि भारत में यह मुद्दा राजनीति के गलियारों में काफ़ी गर्म हो चुका है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार ने पूरे देश में समान नागरिक संहिता (यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड) लागू करने का वादा किया है.
भारत में इस क़ानून का प्रस्ताव पिछले सात दशकों से काफ़ी विवादास्पद रहा है. वो इसलिए कि इसके बन जाने के बाद विवाह, तलाक़ और संपत्ति के उत्तराधिकार के नियम अलग अलग धर्मों के क़ानूनों द्वारा तय होने के बजाय एक ही क़ानून से तय होंगे.
इस देश का सांप्रदायिक माहौल फ़िलहाल काफ़ी बँटा हुआ है. ऐसे में इस मसले पर केंद्र सरकार के किसी भी बदलाव को भारत के ज़्यादातर मुसलमान उनके धर्म पर हमला मानेंगे, ये तय है.
देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त और इस्लाम के जानकार डॉ. एसवाई क़ुरैशी कहते हैं, 'लोगों के बीच एक आम धारणा है कि क़रीब आधे मुसलमानों की चार बीवियां और कई बच्चे होते हैं, जिससे एक दिन मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से ज़्यादा हो जाएगी. लेकिन ये सच नहीं है.
वैसे भारत के क़रीब 140 करोड़ लोगों की कुल आबादी में मुसलमान केवल 14 फ़ीसदी हैं जबकि हिंदू क़रीब 80 फ़ीसदी हैं.
मुसलमान मर्दों को चार महिलाओं से शादी करने की इजाज़त है. बहुविवाह की इजाज़त मुसलमानों को क़ुरान ने दी है, लेकिन उसके लिए 'कड़ी शर्तें और प्रतिबंध' लगाए गए हैं. अच्छे से समझें तो पाएंगे कि उन शर्तों को पूरा करना लगभग असंभव है.
क़ुरैशी कहते हैं, "क़ुरान कहता है कि कोई मर्द दूसरी, तीसरी या चौथी बार निकाह कर सकता है, पर तीनों बार ये निकाह केवल अनाथ और विधवा महिलाओं से ही किया जा सकता है. मर्द को अपनी सभी बीवियों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए. इससे अलग कुछ भी करना इजाज़त का उल्लंघन करना है.''
वे कहते हैं, ''सभी बीवियों से एक जैसा व्यवहार करना असल में लगभग असंभव है. यह सबके लिए एक ही कपड़े ख़रीदने का मामला नहीं है, बल्कि यह उससे कहीं बड़ी बात है."
एसवाई क़ुरैशी बताते हैं कि कई विवाह करने के निर्देश क़ुरान में 7वीं सदी में तब शामिल किए गए, जब अरब में क़बीलों की लड़ाई में बहुत से मर्द जवानी में ही मारे गए. वैसे हालात में विधवाओं और उनके बच्चों की बेहतरी के लिए बहुविवाह की इजाज़त दी गई.
बहुविवाह की आलोचक और महिलाओं के हक़ के लिए काम करने वाली ज़ाकिया सोमन का मानना है कि आज भारत में कोई लड़ाई नहीं चल रही, लिहाजा इस 'महिला विरोधी और पितृवादी' रिवाज पर रोक लगा देनी चाहिए.
मुंबई स्थित भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) की संस्थापक जाकिया सोमन कहती हैं कि बहुविवाह 'नैतिक, सामाजिक और क़ानूनी रूप से घिनौना' है. लेकिन सबसे बड़ी दिक़्क़त ये है कि इसे क़ानूनी तौर पर मान्य है.
वो पूछती हैं, 'आप कैसे कह सकते हैं कि किसी मर्द के एक से अधिक बीवी हो सकती है? मुसलमान समुदाय को समय के साथ चलना चाहिए. आज के समय में यह प्रथा किसी भी महिला की शान और उनके मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन है.'
बीएमएमए ने 2017 में बहुविवाह वाले रिश्तों में रह रहीं 289 महिलाओं से बातचीत की और उनसे कई तरह के सवाल पूछे. इन महिलाओं में से 50 को चुनते हुए उनकी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और वित्तीय दशा पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की.
सोमन बताती हैं, 'हमने पाया कि वे ऐसे हालातों में फंसी हैं जो उनके लिए बहुत बड़ा अन्याय है. उन हालात में उन्हें गहरा सदमा पहुँचा जिसके चलते कइयों को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं पैदा हो गईं.'
इस्लाम में एक झटके में तीन तलाक़ दे देने की विवादास्पद प्रथा के ख़िलाफ़ व्यापक मुहिम चला चुकी बीएमएमए ने 2019 में ही सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करके बहुविवाह की प्रथा पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी.
पेशे से वकील और भाजपा नेता अश्विनी कुमार दुबे इस मामले में मौजूद कई क़ानूनी चुनौतियों में से एक का ज़िक्र करते हैं. उनके अनुसार, भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों का आरोप है कि इस पर रोक लगाना उनके धर्म में हस्तक्षेप है.
कोर्ट में दुबे की याचिका का ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड विरोध कर रहा है. उसके महिला विंग की प्रमुख डॉ अस्मा ज़ोहरा कहती हैं, 'इस्लाम में क़ानून अल्लाह के बनाए होते हैं. हम क़ुरान और हदीस से निर्देश लेते हैं. किसी भी व्यक्ति को अल्लाह द्वारा बनाई गई वैधता को बदलने का हक़ नहीं है.'
वो कहती हैं कि मुसलमानों में कई विवाह करना दुर्लभ है और ये कोई मुद्दा ही नहीं है. वो भाजपा पर 'मुसलमानों पर हुक़्म चलाने के लिए बहुसंख्यकवादी एजेंडा' अपनाने का आरोप लगाती हैं.
वो कहती हैं, 'क्या आप कभी किसी ऐसे मुस्लिम शख़्स से मिले हैं, जिनकी चार बीवियां हों? 2022 में अधिकांश मर्दों का कहना है कि एक पत्नी का ख़र्च उठाना तो मुश्किल है, चार का ख़र्च कैसे उठाएंगे. मुसलमानों में बहुविवाह की दर सबसे कम है."
उनका दावा सभी धर्मों में प्रचलित बहुविवाह के आंकड़ों पर आधारित है. भारत की 1961 की जनगणना में एक लाख विवाहों के सैंपल लेकर किए गए एक सर्वेक्षण में बताया गया था कि मुसलमानों में बहुविवाह का प्रतिशत महज़ 5.7 फ़ीसदी था, जो दूसरे धर्म के समुदायों में सबसे कम था.
हालांकि उसके बाद हुई जनगणना में इस मुद्दे पर आंकड़े नहीं जुटाए गए. बहुविवाह पर सबसे हाल में 2005-06 में किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3) के आंकड़े सामने आए. उसमें बताया गया कि सभी धर्मों में बहुविवाह की दर में काफ़ी कमी हुई.
एसवाई क़ुरैशी कहते हैं, 'चूंकि ये आँकड़े काफ़ी पुराने हैं, इसलिए हमें ट्रेंड को देखना चाहिए. अगर हम 1930 से 1960 तक की जनगणना के आँकड़ों को देखें, तो सभी समुदायों में बहुविवाह के मामलों में लगातार कमी आई. और हर दशक में ये आँकड़ा सबसे कम मुसलमानों में ही था. एनएफएचएस के आँकड़े इसका अकेला अपवाद है.'
क़ुरैशी की 2021 में आई किताब 'द पॉपुलेशन मिथ: इस्लाम, फैमिली प्लानिंग एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया' में उन्होंने मुसलमानों से बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी. वो पूछते हैं, 'यदि यह प्रथा व्यापक तौर पर प्रचलित नहीं है, तो इस पर प्रतिबंध लगाने से आपको क्या नुक़सान होगा?'
डॉ ज़ोहरा इसका जवाब देते हुए बताती हैं कि इसकी वजह धार्मिक और राजनीतिक है.
वो कहती हैं, 'लोग कहते हैं कि मुसलमान बहुत कठोर हैं, पर इसके प्रावधान तो क़ुरान में है, इसलिए कोई भी इसे बदल नहीं सकता. पूर्वोत्तर के कई आदिवासी समूहों में लोगों की कई बीवियां हैं, लेकिन उन पर किसी की नज़र नहीं जाती. ऐसे में आप हमें ही क्यों निशाना बनाते हैं? असल में यह इस्लामोफ़ोबिया का उदाहरण है.'
वो कहती हैं कि बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने की बात इस्लाम पर हमला और 'उनके निजी धार्मिक क़ानूनों में दख़ल' है.
ज़ाकिया सोमन मानती हैं कि जब देश धार्मिक आधार पर बँटा हुआ है, तो उस दौर में भाजपा सरकार की मंशा पर मुसलमानों को संदेह है.
लेकिन वो कहती हैं, 'यदि हम अपना घर ठीक नहीं रखते, तो दूसरे आकर इसे ठीक करेंगे और हो सकता है कि ऐसा करना उनका एजेंडा हो. हालांकि बहुविवाह एक ऐसी प्रथा है, जो आख़िरकार महिलाओं के हक़ों का उल्लंघन करती है. इसलिए इसे ज़रूर ख़त्म होना चाहिए.' (bbc.com)
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता केवी थॉमस ने कहा है कि वे विधानसभा उप चुनाव में सीपीआई (एम) की अगुआई वाले एलडीएफ़ के उम्मीदवार के लिए प्रचार करेंगे. त्रिक्काकारा विधानसभा के लिए उपचुनाव 31 मई को होगा. केवी थॉमस ने कहा- मैं मुख्यमंत्री पिनराई विजयन की अगुआई वाले एलडीएफ़ के चुनाव सम्मेलन में हिस्सा लूँगा. मैं कांग्रेस नहीं छोड़ूँगा. उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस पार्टी उन्हें निकालती है, तो उन्हें करने दीजिए.
केवी थॉमस वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हैं और केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं. लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि वे कांग्रेस पार्टी नहीं छोड़ेंगे. केवी थॉमस ने कहा कि कांग्रेस में काफ़ी बदलाव आ गया है. कांग्रेस अब वो पार्टी नहीं रही, जिसे उन्होंने देखा था. उन्होंने ये भी आरोप लगाया कि कांग्रेस ने उन्हें पार्टी की गतिविधियों से दूर रखा है. केवी थॉमस ने पिछले दिनों मुख्यमंत्री विजयन के काम की तारीफ़ की थी. उन्होंने फिर कहा कि वे अपने बयान पर क़ायम हैं. (bbc.com)
-सुचित्र मोहंती
राजद्रोह क़ानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस पर विचार करने को कहा है. अदालत ने कहा है कि फिर से समीक्षा करने की प्रक्रिया जब तक पूरी नहीं हो जाती, इस क़ानून के तहत कोई भी मामला दर्ज नहीं होगा.
साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि इस क़ानून के तहत किसी भी तरह की जाँच भी नहीं शुरू हो सकती.
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने अपने आदेश में कहा है कि जो भी लोग इस क़ानून के तहत मुक़दमा झेल रहे हैं या वे जेल में हैं, वे राहत और ज़मानत के लिए अदालत जा सकते हैं. पिछले दिनों केंद्र सरकार ने इस मामले में दाख़िल हलफ़नामे में कहा था कि वो इस क़ानून की समीक्षा के लिए तैयार है. हालाँकि पहले सरकार ने ये कहा था कि ये क़ानून बहुत ज़रूरी है. जबकि अदालत ने इस क़ानून के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी.
अदालत में बहस के दौरान जब बेंच ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा कि सरकार को समीक्षा के लिए कितना समय लगेगा तो उन्होंने जवाब दिया- “इसका ठीक-ठीक जवाब हम नहीं दे सकते लेकिन ये प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.”
बेंच ने कहा कि वह केंद्र सरकार के फ़ैसला लेने तक सुनवाई टालने के आग्रह को मंज़ूरी तो दे सकती है लेकिन अदालत ने इस कठोर क़ानून के दुरुपयोग को लेकर चिंता ज़ाहिर की.
जिस पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि एफ़आईआर दर्ज करना राज्य की पुलिस का काम होता है ना कि केंद्र ये करता है, इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कई तरह के उपाय हैं.
जवाब में चीफ़ जस्टिस रमन्ना ने कहा, ‘’हम सभी को अदालतों में जाने और महीनों तक जेल में रहने के लिए नहीं कह सकते. केंद्र सरकार ने खुद ही दुरुपयोग के बारे में चिंता जताई हो तो आप बताइए कि उनकी रक्षा कैसे करेंगे? हमें संतुलन बनाना होगा, कई लोग हैं जो इस कानून के तहत जेल में बंद हैं और कई ऐसे होंगे जिन पर इस कानून के तहत मामला दर्ज होने जा रहा है. कई मामले अब तक लंबित हैं. कृपया इस पर अपना रुख स्पष्ट करें.” (bbc.com)
पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पंडित सुखराम का 95 साल का उम्र में निधन हो गया.
उन्होंने सोमवार को दिल्ली के एम्स अस्पताल में अंतिम साँस ली. शुक्रवार को उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ जिसके बाद उन्हें इलाज के लिए हिमाचल प्रदेश से दिल्ली लाया गया था.
उनके बेटे और मंडी से बीजेपी के विधायक अनिल शर्मा ने अपने पिता के निधन की ख़बर दी.
परिवार की ओर से दी गई जानकारी के अनुसार, उनके शव को सड़क मार्ग से मंडी लाया जाएगा. गुरुवार को शव को आम लोगों के आखिरी दर्शन के लिए रखा जाएगा. इसके बाद अंतिम संस्कार किया जाएगा.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पार्टी के वरिष्ठ नेता की मौत पर शोक जताते हुए लिखा- "कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री, पंडित सुखराम जी के निधन की ख़बर बेहद दुखद है. मैं उनके परिवार के प्रति अपनी गहरी संवेदनाएँ प्रकट करता हूँ."
सुखराम 1993 से 1996 केंद्रीय संचार राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) रहे. वे मंडी लोकसभा सीट से सांसद थे. (bbc.com)
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
सीतापुर/रायपुर, 11 मई। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बुधवार को सीतापुर के मंगलैरगढ़ भेंट-मुलाकात से अपना दौरा शुरू किया। जहां बैठी एक चौपाल में सीएम बघेल ने किसानों से पूछा किस-किस का ऋण माफ हुआ है, तो किसानों ने एक स्वर में बताया कि हम सभी का ऋण माफ हुआ है। एक किसान ने बताया कि उसका एक लाख 40 हजार का कर्ज था, जो माफ हो गया। सीएम ने कहा कि बधाई-बधाई इनके लिए सब ताली बजाएं।
इससे पहले सीएम ने मंगरेलगढ़ी देवी मंदिर में पूजा अर्चना कर लगाया बेल का पौधा। ऐतिहासिक नगरी है मंगरैलगढ़ वनवास में श्री राम ने किया था मंगरैलगढ़ का भ्रमण। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल मंगरैलगढ़ में स्थित मातृछाया आवासीय संस्कृत विद्यालय पहुंचे, यहां अध्ययनरत बच्चों से मुलाकात की।
बच्चों ने गुलमोहर फूल का गुलदस्ता देकर किया मुख्यमंत्री का स्वागत किया। मुख्यमंत्री ने स्कूल का निरीक्षण किया। सीतापुर विधानसभा के मंगलैरगढ़ में भेंट मुलाकात के दौरान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राजीव युवा मितान क्लब के सदस्यों से कहा कि आप सभी को शासकीय योजनाओं की जानकारी होनी चाहिए, ताकि स्थानीय लोगों को योजनाओं का लाभ मिल सके।
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
रायपुर, 11 मई। राजद्रोह के मामले में सुप्रीम कोर्ट में अब से कुछ देर पहले दिए गए फैसले के बाद देशभर में इस धारा के तहत बंदी अपनी जमानत के लिए कोशिश कर सकते हैं।
छत्तीसगढ़ में निलंबित पूर्व एडीजी जीपी सिंह भी आवेदन कर सकते हैं, जिन पर राजद्रोह का मुकदमा चल रहा है। जीपी सिंह रायपुर कोतवाली पुलिस द्वारा राजद्रोह के मामले में दाखिल चार्जशीट की वजह से पिछले 6 माह से अधिक समय से बिना जमानत जेल में निरूद्ध है।
वैसे जीपी सिंह की एक जमानत याचिका पर कल गुरुवार को सुनवाई है।