विचार/लेख
सोशल मीडिया और टेलीविजन पर अलग अलग तरह की खबरों का अंबार है। फिलहाल उन सब पर पूरा भरोसा करना मुनासिब और मुमकिन नहीं हैै। टेलीविजन चैनल तो किराया लेकर ठहराने वाली धर्मशाला या सराय हैं। उनका चरित्र पैसा वसूलने की होटलों जैसा है। कई वर्षों से अधिकांश खबरों में निजाम और कॉरपोरेटी खरबपतियों के अहंकार का अट्टहास ही गूंज रहा है। सोशल मीडिया को लगातार दूषित मनोविकारों को ढोता नाबदान बनाया जा रहा है। उन लोगों का कब्जा साफ-साफ दिखता है जिन्हें व्हाट्सएप विश्वविद्यालय, इंस्टाग्राम इंस्टीट्यूशन और फेसबुक संस्थान के व्यावसायिक जानकार डिग्रियां बांट रहे हैं। कई ऐसे लोग भी हैं जो इस वैचारिक आंधी, तूफान या बाढ़ में बह जाने के डर से भूल जाते हैं कि उन्हें अपने विचारों की ईमानदारी के साथ धरती पर पेड़ की तरह खड़ा रहना चाहिए। वे समाज चिंतक तो हैं लेकिन भावुकता से लबरेज होते रहते हैं। भारत में सदियों की गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद, मजहबी उन्माद जैसी तमाम कमजोरियों से एक माहौल बना गया है। इलेक्ट्रॉनिक यंत्र जोर-जोर से बजते हैं तो जनता वीरता और पौरुष के प्रतिमान तथा कभी कायरता से लकदक महसूस करने लगती है। लोग नहीं समझ पाते कि समाज का अंतिम सच किसके साथ है। दो माह से ज्यादा चले भारत बल्कि संसार के सबसे बड़े किसान आंदोलन में गणतंत्र दिवस के दिन जाहिर तौर पर कुछ अनावश्यक, अवांछित और आकस्मिक हिंसात्मक झड़पें किसानों और पुलिस के बीच हुई हैं। गैरगंभीर स्वयंभू, समाज विचारक उसे किसान आंदोलन के मनोविज्ञान का ही वायरस बनाकर ऐसा झूठा सच परोस रहे हैं, जो सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों में समानान्तर रूप से पसरा ब्यौरा भी होता है।
हिंसा और तशद्दुद की कोई ताईद नहीं करेगा। करना भी नहीं चाहिए। मोटे-मोटे अक्षरों में मीडिया में किसानों द्वारा की गई कथित हिंसा का ब्यौरा छपा और वाचाल भी है। सरकारी विज्ञापन, कॉरपोरेटी मालिकाना नियंत्रण और बरसाती नदी के बहाव की तरह बनाई जा रही अफवाहग्रस्त जनभावना में बहते हुए समाचार अभी तो नहीं लेकिन कभी न कभी वक्त की बांबियों से निकलकर अपनी सही खुली जगह तलाशेंगे। तटस्थ, वस्तुपरक, निरपेक्ष देश में टूट रहा, परेशान दिमाग, अल्पमत वैचारिक बुनियाद पर खड़ा होकर इतिहा सवाल जरूर पूछेगा कि आखिर कहां हिंसा हुई? कितनी हिंसा हुई? हिंसा की परिभाषा क्या है? भारतीय दंड विधान में हिंसा शब्द की परिभाषा नहीं है, लेकिन कई अपराधों की व्याख्या में हिंसा के विवरण के आधार पर मुकदमे होते हैं। दिल्ली की घटनाओं को लेकर पुलिस ने तमाम मुकदमे दर्ज भी अवैध किए हैं।
भारत का यह किसान आंदोलन राष्ट्रीय पर्व की तरह याद रखा जाएगा। वह अवाम के एक प्रतिनिधि अंश का आजादी के बाद सबसे बड़ा जनघोष हुआ है। उसमें डेढ़ सौ से ज्यादा किसानों की मौतें हो चुकी हैं। वह लाखों करोड़ों दिलों का स्पंदन गायन तो बना है। वह ईंट दर ईंट चढ़ते इरादों की मजबूत दीवार की तरह लगा है। पुलिस-किसान भिड़ंत की कुछ हिंसक होती घटनाओं के कारण आंदोलन स्थगित या रद्द हो भी जाए तो अहिंसा की सैद्धांतिकी से भी क्या उसे कोई नया मुकाम मिलेगा? चौरीचौरा की घटनाओं के कारण गांधी ने आंदोलन वापस लिया था। उनकी बहुत किरकिरी की गई थी। 1942 में तो इससे कहीं ज्यादा हिंसा हुई। फिर भी भारत छोड़ो आंदोलन हिंसा की सामाजिकी का इतिहास विवरण अंग्रेज द्वारा भी नहीं कहा जाता। उसमें केन्द्रीय भाव के रूप में अहिंसा ही अहिंसा गूंजती हैै। फिर आज उसके अनुपात में सरकार और मीडिया कैसे कह सकते हैं कि किसान आंदोलन का चरित्र हिंसक हुआ है। रामचरित मानस में क्षेपक कविता का मूल हिस्सा नहीं है।
क्या विवरण है कि किसानों की लाठियों या अन्य हथियारों से पुलिस या नागरिकों की कितनी मौतें हुई हैं? जाहिर है कई पुलिस वालों को काफी चोटें लगी हैं। कई किसानों को भी पुलिसिया दमनात्मक कार्रवाई का शिकार होना पड़ा है। बदनाम पक्ष तो यह है कि जिस व्यक्ति ने कथित रूप से लालकिले की प्राचीर पर चढक़र झंडा फहराया, उसके कई चित्र सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। उनमें वह प्रधानमंत्री, देश के गृहमंत्री तथा अन्य भाजपा नेताओं के साथ खड़ा होकर या बैठकर मुस्करा रहा है। क्या बैठकर कुछ योजनाएं बना रहा होगा और खड़ा होकर उनके मुकम्मिल हो जाने के पूर्वानुमान में मुस्करा भी रहा होगा? कौन जाने!
इस घटना की आड़ में केन्द्रीय निजाम बहुत कड़े और सरकारी प्रतिहिंसा के नए मानक बन रहे सोपानों पर चढक़र किसान आंदोलन को कुचलने की हरचंद कोशिश करेगा। उसने शुरू कर दिया है। उसे किसानों की भूल, महत्वाकांक्षा और उन्माद तथा अपनी भी कोशिशों से यह सुनहरा मौका मिला है। इसी दिन की तो उसे उम्मीद रही होगी। किसानों द्वारा ट्रैक्टर रैली करने के ऐलान को निजाम ने आपदा में अवसर की तरह भुना तो लिया है। इस निजाम ने तो कोरोना महामारी को भी भुनाकर देश की तमाम प्राकृतिक दौलत, जंगल, खनिज अपने मुंहलगे दो तीन खरबपति कॉरपोरेटियों को दहेज की तरह दे दिया है। पुलवामा को भी तो अवसर में बदला जा चुका है। अर्णब गोस्वामी के चैट्स को भी आपदा में अवसर समझकर सरकार विरोधियों को कुछ नहीं करने देगा। इस देश की न्याय व्यवस्था पर पूरी तौर पर भले कब्जा नहीं हो, जुगाड़ कर निजाम ने संजीव भट्ट, लालू यादव, भीमा कोरेगांव के मानव कार्यकर्ताओं और केरल से लेकर के दिल्ली तक के ईमानदार पत्रकारों और छात्रों को जेल से नहीं छूटने देगा या उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट पर टेसुए बहाकर भी उन छात्रों को ढूंढा तो नहीं है। वह दिल्ली दंगों के विदूषकों से खलनायक बनाए गए व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का हुक्म देने वाला हाईकोर्ट के जज का आधी रात को तबादला करा ही चुका है। वह सुप्रीम कोर्ट के भावी चीफ जस्टिस पर अपने साथी दल के आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री के जरिए अवमाननायुक्त खुलकर आरोप लगवा कर चुप्पी साधे बैठा है। मौजूदा चीफ जस्टिस के इजलास से भी अब तक कोई सार्थक और न्याययुक्त कदम उठाया जा सके इसकी संभावना पर भी उसकी नजर रहेगी।
इस सिलसिले में गांधी का नाम बहुत तेजी से उभरा है। कुछ को मलाल है किसान आंदोलन पूरी तौर पर गांधीजी की अहिंसा की बैसाखी पर चढक़र क्यों नहीं किया गया? कुछ का कहना है आंदोलन का भविष्य गांधी की अहिंसा के लिटमस टेस्ट के जरिए ही आंका जा सकता है। कुछ का पूछना है इस पूरे आंदोलन की बुनियादी पृष्ठभूमि और सरकार के भी आचरण में गांधी रहे भी हैं क्या? असल में दुनिया के सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन के जन्मदाता और प्रतीक गांधी मौजूदा निजाम की वैचारिकता द्वारा खारिज और अपमानित कर दिए जाने के बाद भी भले लोगों के लिए टीस या कभी कभी उभरते अहसास और सरकारों के लिए असुविधाजनक परेशान दिमागी बनकर वक्त के बियाबान को भी इतिहास बनाने के लिए अपनी दस्तक देते रहते हैं। मौजूदा निजाम-विचार ने तो उन्हें अपमानित करने की गरज से सफाई और स्वच्छता का रोल मॉडल बनाकर शौचालय के दरवाजे पर चस्पा कर दिया है। गांधी की पार्टी और राजनीतिक वंशज उनका नाम भूल गए। भले ही उनके उपनाम से आज तक अपनी दूकान चला रहे हैं। कभी नहीं कहा था महात्मा ने कि लिजलिजे, पस्तहिम्मत, कायर और हताश लोगों के जरिए अहिंसा का पाठ पढ़ाया जा सकता है। यह भी नहीं कहा था अपने से कमजोर के लिए मन में खूंरेजी, नफरत और हथियारी ताकत लेकर अट्टहास करने वालों के जरिए की जा रही प्रति हिंसा को अहिंसा कह दिया जाए। कुछ किताबी बुद्धिजीवी, समझदार नागरिक और गांधी की तात्विकता को समझने वाले भले लोग नैतिक रूप से सही कह रहे हैं कि किसान आंदोलन की सद्गति गांधी की आत्मा की रोशनी के बिना अपने वांछित मुकाम या हर पड़ाव तक पहुंचने में दिक्कत का अनुभव करेगी। इस सैद्धांतिक सीख की आड़ और समझ के गुणनफल के हासिल के रूप में यह सहानुभूतिपूर्ण समझाईश गूंजी है कि किसानों को संसद के बाहर धरना या प्रदर्शन करने का इरादा स्थगित कर देना चाहिए। (किसानों ने उसे स्थगित कर भी दिया है।) यह भी कि किसान संगठनों को प्रायश्चित और मलाल में लाल किले की प्राचीर पर तिरंगे झंडे के बावजूद अन्य झंडा फहराने के आरोप के कारण उपवास या अनशन करना चाहिए। ईमानदार, उत्साही और अतिरिक्त सुझाव यह भी आया कि फिलहाल आंदोलन को ही स्थगित कर देना चाहिए।
ऊहापोह की ऐसी स्थितियों के संदर्भ और गर्भ में इतिहास की कुलबुलाहट है कि इन सबमें गांधी कहां हैं? ‘जयश्रीराम’ के बदले ‘रामनाम सत्य है’ या ‘हे राम’ का उच्चारण वाले अहिंसाभक्त गांधी की याद करने की क्या मजबूरी है? गांधी के जीवित रहते संविधान सभा और बाद में भी न केवल उनकी अनदेखी बल्कि उन पर अपमानजनक टिप्पणियां की गईं। गांवों पर आधारित गांधी का हिंदुस्तान जाने कब से भरभरा कर गिर पड़ा है। गांवों पर दैत्याकार महानगर उगाए जा रहे हैं और उन्हें अंगरेजी की चाशनी में ‘स्मार्ट सिटी’ का खिताब देकर देश केे किसानों से उनकी तीन फसली जमीनों को भी लूटकर विषेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के नाम पर अंबानी, अडानी, वेदांता, जिंदल, मित्तल और न जाने कितने कॉरपोरेटियों को दहेज या नजराने की तरह तश्तरी पर रखकर हिंदुस्तान को ही दिया जा रहा है। मौजूदा निजाम चतुर वैचारिकता का विश्वविद्यालय है। उसकी विचारधारा के प्रतिनिधि ने गांधी की हत्या करने के बावजूद अपनी कूटनीतिक सयानी बुद्धि में समझ रखा है कि फिलहाल इस अहिंसा दूत को उसके ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ के मुकाबले ‘झूठ के साथ मेरे प्रयोग’ जैसी नई थ्योरी बनाकर धीरे धीरे अपमानित किया जाए। उसे देश और दुनिया की यादों के तहखाने से ही खुरचा जा सके। फिर धीरे-धीरे जनता के स्वायत्त जमीर को दीमकों की तरह चाट लिया जाए। फिर हिंसा के खुले खेल में ‘जयश्रीराम’ को बदहवास नारा बनाते विपरीत विचारधाराओं को रावण के वंश का नस्ली बताया जाए। दल बदल का विष्व कीर्तिमान बनाकर सभी दलों से नर पशुओं को खरीदा जाए। ईवीएम की भी मदद से संदिग्ध चुनावों को लोकतंत्र की महाभारत कहा जाए। सदियों से पीडि़त, जुल्म सहती, अशिक्षित, गरीब, पस्तहिम्मत जनता को कई कूढ़मगज बुद्धिजीवियों, मुस्टंडे लेकिन साधु लगते व्यक्तियों से अनैतिक कर्मों में लिप्त कथित धार्मिकों के प्रभामंडल के जरिए वैचारिक इतिहास की मुख्य सडक़ से धकेलकर अफवाहों के जंगलों या समझ के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए। भारत के अतीत से चले आ रहे राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महावीर, चैतन्य, दादू, कबीर, विवेकानन्द, गांधी, दयानन्द सरस्वती, पेरियार, फुले दंपत्ति, रैदास जैसे असंख्य विचारकों के जनपथ को खोदकर लुटियन की नगरी बताकर अपनी हुकूमत के राजपथ में तब्दील कर दिया जाए। मुगलसराय को दीनदयाल उपाध्याय नगर और औरंगजेब रोड नाम हटाकर या इलाहाबाद को प्रयागराज कहकर सांप्रदायिक नफरत को भारत का नया और पांचवां वेद बना दिया जाए। फिर भी कुछ लोग हैं जो आज गांधी की मरी मरी याद कर रहे हैं।
कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को बिना उत्तेजना के याद रखना जरूरी होता है। गांधी ने भारत की आजादी के लिए जन आंदोलनों की अगुवाई अंग्रेजों के खिलाफ की थी। वह विदेशियों से लड़ता रहा लेकिन प्रतिकूल हमवतनों से भी नहीं। आज आजादी के सत्तर बरस बाद भारत के लाखों करोड़ों किसान अवाम का सैद्धांतिक हरावलदस्ता बनकर निजाम से अपने जायज अधिकारों की पहली बार पुरअसर मांग कर रहे हैं। हमवतन सरकार से अपने संवैधानिक अधिकार लेने का यह एक जानदार मर्दाना उदाहरण तो है। लोहिया कहते थे ‘इतर सभ्यता के लोगों से लडऩा रामायणकालीन उदाहरण है। अपनों से लडऩा महाभारत में कृष्ण की गीता को जन्म देता है।’ आत्मिक हथियारों की वीरता की यह लड़ाई लाखों किसानों के षरीर नहीं लड़ते रहे। वे सरकार से अपनी नैतिक ताकत पर भरोसा करते अधिकारों की भीख नहीं मांग रहे। वे मुकम्मिल सत्याग्रह के रास्ते पर चलकर अधिकार हासिल करना चाहते रहे हैं, जो आखिरकार उनसे संसद के मुखौटे की आड़ में छीने जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकारें कानून बनाकर उन्हें वापस नहीं लेती रही हैं। ऐसा भी नहीं है कि किसानों के पक्ष में देश के बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, सियासती ताकतें और ईमानदार नागरिक नहीं खड़े हैं। बीसियों बार बहस का रिहर्सल करने के बाद भी सरकार अपनी बात समझा पाने में असमर्थ क्यों है? कृषि कानूनों में आश्वस्त प्रामाणिकता होती तो इन दिनों अवाम की उम्मीदों को निराश करता लगने वाला सुप्रीम कोर्ट भी कह देता कि षाहीन बाग की घटनाओं की तरह हटाओ अपने आंदोलन का टंटा। कोर्ट ने भी तो आनन-फानन में सरकारी समर्थकों की ऐसी कमेटी बनाई जो एक सदस्य के इस्तीफा दे देने से चतुर्भुज से त्रिभुज, नहीं नहीं त्रिशंकु की तरह हो गई। वैश्विक समझ में भारतीय सरकार और सुप्रीम कोर्ट के विवेक की संयुक्त पेशबंदी का नायाब उदाहरण किसानों के कारण ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पात:’ हो गया। राजसी मुद्रा में खुश होकर चापलूसों को अंगूठी देने वाली हुकूमतों की पारस्परिक मुद्रा में निजाम ने कहा वह इन कानूनों को डेढ़ साल तक स्थगित रखने को तैयार है। निजाम ने यह नहीं बताया कि अडानी जैसे कॉरपोरेट ने न जाने क्यों सैकड़ों बड़े-बड़े पक्के गोदाम बनवा रखे हैं। वहां किसानों को कृषि कानूनों के चक्रव्यूह में फंसाकर पूरी उपज को लील लेने का षडय़ंत्र किसी बांबी के सांपों की फुफकार की तरह गर्वोन्मत्त होता होगा। कोई जवाब नहीं है सरकार के पास ऐसी नायाब सच्चाइयों के खिलाफ । कैसा देश है जहां सबसे बड़ी अदालत में किसी भी सरकार विरोधी को अहंकार की भाषा में सरकारी वकीलों द्वारा जुमला खखारती भाषा में आतंकी, अर्बन नक्सल, पाकिस्तानी एजेंट, खालिस्तानी, हिंसक देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग का खिताब दिया जाए और शब्दों की बाल की खाल निकालने वाली बल्कि उसके भी रेशे-रेशे छील लेने की कूबत वाले सुप्रीम कोर्ट को ऐसे विशेषणों का कर्णसुख दिया जाए।
लोकतंत्र में क्या प्रधानमंत्री अंतरिक्ष से आता है जो संविधान की एक एक इबारत को सरकार की स्तुति के सियासी पाठ में तब्दील करने को भी आपदा में अवसर बनाना समझता होगा! सरकारों ने महान संविधान में किए गए भविष्य वायदों के परखचे तो लगातार उखाड़े हैं। भोले संविधान ने हवा, पानी, धरती सब पर सरकार को मालिक नहीं ट्रस्टी ही बनाया है। कोरोना महामारी में लाखों लोग संसार के इतिहास की सबसे बड़ी बैगैरत भीड़ बनकर मरते खपते सडक़ों पर चलते टेलीविजन में देखे गए। हां, जनता की कायर अहिंसा अंदर ही अंदर निष्चेष्ट होकर सोचती भर रही कि इसके बावजूद देश के सबसे अमीर आदमी को दुनिया का सबसे अमर आदमी वक्त का फायदा उठाते कैसे बना दिया जा रहा है। एक अपने निहायत अजीज उद्योगपति को इतनी तेज गति से विकसित किया जा रहा है जो गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में अव्वल नंबर पर दर्ज हो जाए। इंग्लैंड में मोम के पुतलों की नुमाईश में संविधान पुरुष का आदम कद दुनिया को दिखे। साथ साथ सडक़ पर रेंगते मरे हुए कुत्ते का मांस खाकर अपनी जिंदगी बचाने की कोशिश करते, नालियों, मोरियों की दुर्गंध अैर सड़ांध में जीते, लाखों गरीब बच्चे, औरतें, यतीम और जिंदगी से परेशान बूढ़े बुजुर्ग मौत मांगते भी निजाम के लिए ‘जय हो, जय हो का नारा लगाना नहीं भूलें। देश में इसलिए भी गांधी एक दुखद अहसास की तरह उभर जा रहे हैं।
किसान आंदोलन में तात्विक या अव्यक्त वैधानिक परिभाषा के अनुकूल कितनी हिंसा हुई है? कितने पुलिसकर्मियों की किसानों या उनके बीच में छुपाए गए सरकारपरस्त व्यक्तियों ने हत्या की गई है? लाखों की भीड़ में अंग्रेजी बुद्धि की मानसिकता की भारतीय पुलिस से झड़प में अगर चोटें नहीं लगतीं तो आंदोलन की प्रकृति को मिलीजुली कुश्ती भी तो तमाशबीन, कायर और गालबजाऊ भाषा में कहा जा सकता था। गांधी तक ने 1942 के जनआंदोलन को जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद और न जाने कितने अहिंसा वीरों के बावजूद हिंसा से बचा पाना अनुभव नहीं किया। किसान आंदोलन की खसूसियत यही है कि उसका कोई एक निर्वाचित या मनोनीत नेता नहीं है। उसने राजनीतिक पार्टियों के बैनर, पोस्टर, झंडों और खुद नेताओं के शामिल होने तक से नीयतन और सावधानीपूर्वक परहेज किया। आंदोलनकर्ताओं को मालूम था कि अन्ना हजारे के आंदोलन में कौन सी ताकतें वेष बदलकर अधनंगे शरीर के जरिए कवायदें सिखाती, दवाएं बेचती भी, सलवार पहनकर भागती भी घुस गई थीं। उनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें कथित नागरिक सेवा के लिए मैगासेसे अवार्ड मिला था। बाद में दिल्ली की मुख्यमंत्री बनाने की मौजूदा निजाम की कोशिश के साथ ही मैगासेसे अवार्ड प्राप्त दूसरे व्यक्ति से चुनाव में पराजित होने पर पुडुचेरी की राज्यपाल बना दिया गया। वह मानसिकता वहां राज्यपाल पद को पुलिस कमिश्नर पद में तब्दील करने की कुलबुलाहट को राष्ट्रवाद समझती रहती है। दो माह तक चले आंदोलन में किसान अपने साथियों की आत्मबलि देते रहे, लेकिन एक चूहा तक नहीं मारा। अचानक उन किसानों में से पंचमांगी निकल आए जिन्होंने उसे सरकार का एक महासंग्राम बनाकर अपनी असली औकात में पुलिसिया राग गाते अहिंसक आंदोलन की रीढ़ को तोडऩे की कोशिश की। भला हो सोषल मीडिया का जिसने प्रधानमंत्री और देश के गृहमंत्री सहित कई महान हस्तियों के साथ उस झंडावीर की तस्वीरें जारी कर दीं जो किसान आंदोलन के चेहरे को बदलने के लिए कान फुंकवा कर आया होगा। अगर पशासनिक व्यवस्था में पूरी तौर पर साहस, निरपेक्षता, न्यायप्रियता और वस्तुपरकता हो तो लाल किले की झंडा घटना को लेकर किसानों के खिलाफ मुकदमा बनाने पर झंडावीर की सारी तस्वीरों में दिख रहे सियासत के मानववीरों को गवाह की सूची में दर्ज भी करना होगा। ऐसा लेकिन कभी नहीं होगा।
जो सरकार अर्णब गोस्वामी को प्रधानमंत्री कार्यालय सहित अन्य सरकारी फाइलों तक पहुंचने से नहीं रोक पाने की असमर्थता के कारण मौन व्रत में है। वही राष्ट्रऋषि तो दो माह से ज्यादा महान किसान आंदोलन चलते रहने पर भी किसानों से खुट्टी किए बैठे रहे। उसके विपरीत उद्योगपतियों, क्रिकेट खिलाडिय़ों, फिल्मी तारिकाओं और न जाने किनसे किनसे दुख-सुख में मिलने या हलो हॉय करने की मानवीय स्थितियों की मुद्रा के प्रचारक हुए। भारतीय किसान आंदोलन का चरित्र पूरी तौर पर अहिंसक रहा है। यह दुनिया के किसी भी जनआंदोलन के मुकाबिल इतिहास की पोथियों में दर्ज किया जााएगा। रूस, वियताम, क्यूबा, मांटगोमरी और सैकड़ों जगहों पर जनआंदोलन हुए हैं। उन सबसे तुलना की जाए। नेताविहीन यह सामूहिक किसान आंदेालन भारत की ओर से विश्व इतिहास का श्रेय बनेगा। हो ची मिन्ह, लेनिन, मार्टिन लूथर किंग, फिदेल कास्त्रो और गांधी जैसा उनका कोई नेता नहीं रहा है। दुनिया के पके हुए आंदोलनों से साहस, सीख और प्रेरणा लेकर भारत के किसानोंं ने इतिहास पर एक नई फसल बोई है। वह अमिट स्याही से लिखी है। वह पानी पर पत्थर की लकीर की तरह लिखी है। वह पीढिय़ों की यादों की आंखोंं में फडक़ती रहेगी। उसे बदनाम करने की हर कोशिश में एक मनुष्य इकाई को दो किलो या मुफ्त में चावल मिल जाने वाले लोगों के वोट को निजाम की ताबेदारी करने का चुनावी आचरण बनाया जाता है। लोग इतिहास पढऩे से डरते हैं। जिनके पूर्वजों ने इतिहास की उजली इबारतों पर काली स्याही फेर दी है। जो गोडसे के मंदिर में पूजास्तवन करते हैं। उनमें दिमागी वायरस होता है। वह पसीना बहाने वाले किसानों के अहिंसा आंदोलन को कॉरपोरेटियों की तिजोरियों, पुलिस की लाठियों, और मंत्रियों की लफ्फाजी में ढूंढना चाहता है।
शेर के शिकार का बचा हुआ हाड़-मांस गीदड़ों द्वारा लजीज भोज्य पदार्थ समझकर जूठन को चाटने की जनकथाएं बहुत सुनी गई हैं। मीडिया का बहुलांष भी क्या ऐसा ही नहीं है? वह कॉरपोरेटी और सरकारी जूठन को छप्पन भोग समझता है। उसके पैरों के नीचे से उसके ही अस्तित्व की धरती खिसक गई है। उसका जमीर बिक गया है। उसकी कलम झूठी तस्वीरें खींचने के हुक्मनामे ढोते कैमरे और जीहुजूरी में तब्दील हो गई है। उसे पांच और सात सितारा होटलों में अय्याषी की आदत हो गई है। वह भारत के इतिहास का नया गुलाम वंष है। उसकी संततियां को आगे चलकर कभी अपने पूर्वजों के कलंकित इतिहास के कारण आईने के सामने खड़े होने में शर्म आएगी। उनमें से किसी को एकाध लाठी पड़ गई। एकाध का कैमरा टूट गया। तो ये कारपोरेटी खिदमतगार महाभारत के युद्ध का संजय बनकर पूरी खीझ के साथ चिल्लाकर दिखा रहे हैं कि देखो किसानों ने हमको कैसे मारा है। ये वही मुंहबोले हैं जो डेढ़ सौ किसानों की मौत पर दरबारियों की तरह चुप थे। मानो उनकी जबान पर फालिज गिर गई थी। वे मुहावरे के नयनसुख बने रहे थे। मानो चलने की कोशिश करते तो उनके मालिकों ने उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी होती। जो जाबांज किसानों की मौत पर एक अक्षर नहीं लिख सकता वह अपने पृष्ठभाग पर किसी किसान द्वारा उत्तेजना के बावजूद सावधानीपूर्वक मध्यम शक्ति की लाठी पडऩे पर ऐसे चिल्ला पड़ा मानो महाभारत के प्रसंग में चीरहरण होने पर आर्तनाद हो रहा हो। इन्हीं दिनों एक बड़ी वाचाल भक्तमंडली का राष्ट्रीय जीवन में आविर्भाव हुआ है। उसे टेस्टट्यूब बेबी भी कहा जा सकता है। उसे इस बात से कोफ्त है कि किसान अमीर क्यों हैं। उनके पास टै्रक्टर क्यों है। वे छह महीने की लड़ाई की घोषणा करके पूरी तैयारी के साथ कैसे आ गए। उनके घरों की महिलाएं, बच्चे, बूढ़े सभी उनके साथ क्यों हैं। वे सभी तरह की तकनीकी जानकारियों और तकनीकी व्यवस्था से लैस क्यों हैं। इन महान बुद्धिशत्रुओं को समझ नहीं है कि किसान तो वे भी हैं जो हर संकट झेलते लाखों की संख्या में लगातार आत्महत्या करने मजबूर रहे हैं। जिन्हें स्वामीनाथन रपट को मानने के आष्वासन के बावजूद सरकारों द्वारा फसल की कीमत देने को लेकर धोखा दिया जा रहा है। जिन्हें लफ्फाज राजनीतिक नेताओं द्वारा नियंत्रित सरकारी बैंकों में अपनी जमीन, महिलाओं के जेवर और पिता की बुढ़़ापे की पेंशन तक गिरवी रखनी पड़ रही है और छुड़ा पाने में असमर्थ हैं। बेटी का ब्याह नहीं कर पा रहे हैं। मां, बाप की दवा नहीं ला पा रहे हैं। अपनी पत्नी की अस्मत और अस्मिता को बुरी नजरों से बचाने मुनासिब वस्त्र तक नहीं खरीद पा रहे हैं। बच्चे हालात की मजबूरी के कारण पढ़ाई छोडक़र या तो मां बाप के खेतों पर काम कर रहे हैं या उन्हें बहला फुसलाकर शोहदे बनाकर लफंगों द्वारा ऐसे अपराध करवाए जा रहे हैं जिनकी पीडि़तों में भारत की निर्भया जैसी बेटियां भी षामिल हैं। लफ्फाज नेता उनसे केवल वोट कबाड़ते हैं।
आर्थिक और नैतिक अधोपतन के कारण वे एक बोतल शराब या कुछ रुपयों में अपना जमीर पांच साल के लिए इन्हीं नेताओं की बेईमानी में बंधक बना देते हैं। ये वही नेता हैं जो रेत की नीलामी में प्रति टन की दर से दलाली खा रहे हैं। देश का कोयला, लोहा, खनिज और धरती बेचकर एक ही मुंह से अडानी, अंबानी, जयश्रीराम, जयहिन्द, मेरा भारत महान और इंकलाब जिंदाबाद कर लेते हैं। शराबखोरी के कैंसर फैलाकर अपनी रातें रंगीन करते दलालों को नगरपिता बना रहे हैं। उनके दोमुंहे सांपों के आचरण को किसान समझता है क्योंकि सांप धरती पर ही तो रेंगते होते हैं। किसान धरती पुत्र ही तो हैं। अजीब लोकतंत्र है! यहां किसानों के बेटे पुलिस की नौकरी में हैं। उनका जमीर लाठी की अनुशासन संहिता से संचालित है। सगे भाई की लाठी सगे किसान भाई की पीठ पर मारी जा रही है। पीठ पर लाठी मारने वाले भाई को किसान भाई का पेट नहीं दिखाया जाता। लोकतंत्र के लिए मुख्यत: नेहरू और अंबेडकर द्वारा लाया गया पुख्ता संविधान नहीं होता तो आज कोई निजाम टर्राता कि पुलिस और सेना के दम पर हर किसान आंदोलन को लाठियों और गोलियों से नेस्तनाबूद कर देगा। जिन इलाकों के किसान आगे बढक़र आंदोलन कर रहे हैं, उनके ही बेटे सबसे ज्यादा संख्या में सेना के नौजवान और शहीद हैं। इतिहास यह भी लिख ले कि इतिहास में मुसलमानों की संख्या आबादी के अनुपात में ज़्यादा है। मुल्क में औसत मनुष्य को तमाशबीन बनाकर सितम ढाया जा रहा है। कई बार अनधिकृत वसूली कर लेने के बाद भी किसानों की तकलीफों और मौतों से जानबूझकर बेखबर बनते राम मंदिर बनाने के नाम पर जबरिया चंदा उगाही की जा रही है। उस आचरण से तो भारतीय दंड संहिता की धारा 384 का आरोप भी बन सकता है। धरती के इतिहास में कभी नहीं हुआ कि लोकख्याति के आधार पर हुए चुनाव का सबसे बड़ा जनप्रतिनिधि अवाम से बात नहीं करने की कॉरपोरेटी गलबहियोंं की जुगाली करता रहे। कहते हैं जहांगीर के दरबार में नामालूम बैल द्वारा घंटा बजा दिए जाने पर भी उसे न्याय मिला था। पिछड़े वर्ग के व्यक्ति ने अपने घर में अपनी बीवी के आचरण को कोसते हुए राजरानी सीता पर कटाक्ष कर दिया गया था। इस बात पर राम ने अपनी गर्भवती पत्नी तक का त्याग कर दिया था। उसी राम का मंदिर बनाने की चंदाखोरी में मशगूल लोग राम के चित्र को महानायक बना दिए गए प्रधानमंत्री की विराट देह की उंगली पकडक़र बच्चा बनकर जाते हुए देखने पर भी ‘जयश्रीराम‘ का नारा महान विपर्यय के रूप में लगाते रहते हैं।
नहीं गए थे किसान भारत की सुप्रीम कोर्ट में कि न्याय करो। किसानों के बेटे मूर्ख नहीं हैं। आलिम फाजिल भी हैं। कइयों के पास अर्थशास्त्र, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी और मानव विज्ञानों की डिग्रियां हैं। वे नोटबंदी, जीएसटी, नागरिकता अधिनियम, कश्मीर, कोरोना पीडि़तों वगैरह के कई मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट का न्याय देख चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा पचास हजार रुपए की हार्ले डेविडसन मोटरबाइक पर बैठ कर फोटो खिंचाने पर कटाक्ष करने वाले जनहित याचिकाकारों के पैरोकार वकील प्रशांत भूषण पर अवमानना का मुकदमा देख चुके हैैं। सुप्रीम कोर्ट के कुछ जज ऐसे मनोरंजक सुभाषित और सूक्तियों का प्रवचन करते रहते हैं कि उन्हें आने वाला न्यायिक इतिहास पढ़ पढक़र सिर धुनते हुए पुलकित होना चाहेगा। कई जज जरूर हैं जिनकी कलम और वाणी से सूझबूझ, निष्कपटता, साहस और न्यायप्रियता से मुनासिब आदेश झरते हैं। कई हाई कोर्ट में भी ऐसे जज हैं। नहीं होते तो न्याय महल भरभरा कर गिर भी जाता। इसलिए गांधी ने अंग्रेजी गर्भ की अदालतों पर भरोसा नहीं किया था। उन्होंने संसद और प्रधानमंत्री पर भी तीक्ष्ण कटाक्ष किए थे। कहा था संसद एक वेश्या है, नर्तकी है। प्रधानमंत्री के इशारे पर नाचती है। गांधी का यह वाक्य कोई संसद अपनी दीवारों पर नहीं लिखवा सकती। वह तो जनता की आत्मा में पत्थर की लकीर की तरह लिख गया है, इसलिए जनता के सबसे बड़े हिस्से किसानों की आत्मा में। किसान ही वह लोहारखाना हैं जहां मनुष्य की नैतिकता के उत्थान के लिए कालजयी हथियार बनते हैं। ये हथियार शोषक नहीं, रक्षक होते हैं। भारतीय किसानों का छिटपुट हिंसक हो चुकी घटनाओं के कारण अपमान करना और उनके किसान होने की अहमियत को मिटाने का कोई कुचक्र बनाए तो कुदरत के कानून पीठ नहीं दिखा सकते।
कहां है देश की संसद? कहां हैं विधानसभाएं? केवल भाजपा नहीं कांग्रेस में भी वही सियासी आचरण है। कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को भाजपाई प्रधानमंत्री की शैली की नकल करने में अच्छा लगता है। एक एक राज्य का भाग्य एक एक खंूटे से बांध दिया गया है। उस खूंटे को मुख्यमंत्री कहते हैं। जनता तो गाय, बैल, भेड़, बकरी वगैरह का रेवड़ है। उनके संगठित पशु समाज को नहीं हैं उन्हें राजनीतिक दलाली के विश्वविद्यालय में दाखिला मिलता है। परिपक्व अक्ल और पूरी ईमानदारी के साथ गैरभाजपाई राज्यों में किसान आंदोलन को उसकी भवितव्यता के रास्ते पर चलाया जा सकता था। गैर भाजपाइयों ने भी बेईमानी की है। केन्द्र सरकार कहती रही चित मैं जीती पट तू हारी। राज्य सरकारें कहती रहीं बार-बार टॉस करो। हम भी जनता से कहेंगे। चित मैं जीती पट तू हारी। भारतीय किसानों के असाधारण आंदोलन को गांधी का नाम जपने वाले सभी लोगों ने भी धोखा दिया है। देष को गांधी की अहिंसा के दार्शनिक, बहुआयामी और समकालीन पाठों के महत्व से कभी रूबरू नहीं कराया गया। अब कांग्रेस की सरकारों में भी किराए के वक्तव्यवीर बुलाकर मुस्कराते हुए भी 30 जनवरी का शहीद दिवस मना लिया जाता है। अब छाती कूटने का क्या मतलब है कि किसानों को गांधी के अहिंसक रास्ते पर चलना चाहिए। 1942 के आंदोलन की सायास और सहसा हिंसा देखकर गांधी ने माना था कि वे पूरी तौर पर अहिंसा को रोक नहीं सके। हालांकि यह भी कहा कि दुनिया के विश्व आंदोलनों में सबसे बड़ी संख्या और परिमाण में भारत ने ही अहिंसा पर अमल किया है। यही तो किसान बंधु आज कर रहे हैं।
कोई समझे, दो माह तक शत-प्रतिशत अहिंसक आंदोलन कोई इसलिए करेगा कि वह गणतंत्र दिवस की परेड में शरीक होकर देश के राजपथ पर मार्च करने पर नैतिक दृष्टि से मजबूर या उदात्त आचरण करे? तब भी तो सत्ताषीन ताकतें जन आंदोलनों में दलालों, एजेंन्टों, अपराधियों का प्रवेश कराने का मुहूर्त किसी पुरोहित, पंडित या गंडाताबीज बांधने वाले से निकलवा लेती हैं। कांग्रेसी केन्द्र सरकार जाहिर कारणों से गांधी की हत्या करने वाले को पहले से पहचान या रोक, पकड़ नहीं सकी थी।
अब तो विपरीत मानसिकता की सरकार व्यापक, नेेताविहीन आंदोलन की भीड़ में (संभवत:) पुलिसिया मदद से (भी) किसी अजूबे झंडावीर को घुसेडक़र मीडिया से अपनी महानता की दुन्दुभी बजाने का मौका कैसे छोड़ती। मीडिया ढिंढोरची भी दो माह से मौन व्रत में थे। महान नेता की शैली अब वाचालता सप्तम स्वर में भैरवी का राग अलापेगी। यह अलग बात है कि दुनिया सिमट गई है। दुनिया के आधे मुल्कों ने दो माह से ज्यादा घटनाओं पर नजऱ रखी है। पहली बार हुआ कि गणतंत्र दिवस की परेड में कोई विदेशी राजनयिक आने को तैयार नहीं मिला। कोरोना का तो बहाना है। भारत में कोरोना के लाए जाने के बाद भी ट्रंप सहित कई विदेशी राजनयिक आए हैं। आगे भी आएंगे। महंगाई के सूचकांक के अनुपात और मुकाबिले में चंदाखोरी और निजाम का प्रशस्तिगायन बढता रहेगा। हर देश में अंधकार का युग आता है। भारत में मिथकों के काल से बार-बार आता रहा है। तभी तो दशावतार की परिकल्पना की गई। हर सत्ता सम्राट को हमारे महान विचारकों ने ही राक्षस कहा है। जिनकी छाती से जनसेवा के लिए देवत्व फूटा, वही समाज उद्धारक बना। यह भारतीय किसानों की छाती है जिससे भविष्य का जनसमर्थक इतिहास कभी न कभी फूटने वाला है। मिथकों के युग के बाद भी पस्त भारतीय जनता ने विदेशी हमले झेले हैं। कुषाण, हूण, पठान, तुर्क, मुसलमान, मुगल, अंग्रेज, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और बाद में चीनी हमले देष ने झेले हैं। सल्तनतों की गुलामी की है। तब जाकर गांधी की अहिंसा और सत्य, अभय, भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद की षहादत और सुभाष बोस के पराक्रम तथा भारत के तमाम संतों और बुद्धिजीवियों द्वारा ‘उठो जागो और मकसद हासिल करो’, ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, ‘जय जवान जय किसान’, ‘दिल्ली चलो’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’, ‘आजादी की घास गुलामी के घी से बेहतर,’ ‘किसानों, मजदूरों, विद्यार्थियों एक हो’, ‘आराम हराम है’ जैसे नारों ने भारत की मर्दानगी का इतिहास लिखा। ये सभी नारे जिन जिस्मों और आत्माओं से फूटे और उनके खून में जो रवानी थी, उसके लिए अनाज किसानों ने अपने खून-पसीने से धरती सींचकर पैदा किया था। किसान आंदोलन दीवाली या अन्य किसी त्यौहार पर फूटने वाला पटाखा या फुलझड़ी नहीं रहा है। यह भारतीय आत्मा की निरंतरता और प्रवाहमयता का पड़ाव रहा है। यह अनथक काल यात्रा तो चलती रहेगी, जब तक किसान जीवित हैं। उनमें जिजीविषा, जिद और जिरह है। मौजूदा किसान आन्दोलन न तो पहली धडक़न है और न ही अंतिम। इसमें हार जीत नहीं है। सरकारों, प्रतिहिंसकों, पुलिस सेना, अंधभक्तों, दलालों, कॉरपोरेटियों और हर तरह की अहंकारी शक्तियों के जमावड़ेे को जनता की आवाज का यह एक प्रतिनिधि ऐलान है। इस आवाज को कुचल दिए जाने के बाद भी इसका फिर आगाज इतिहास में आगे चलकर दर्ज होता रहेगा। नौजवान छात्रों, महिलाओं, दलितों, वंचितों और किसानों द्वारा आजादी का नारा लगाते आंदोलन करना देश की धडक़न को जिलाए रखने का एक प्रोत्साहन है।
गांधी की अहिंसा पर बार बार लौटते कुछ बुनियादी बातों को समझना होगा। गांधी ने कभी नहीं कहा कि अहिंसा उनका अकेला हथियार है। उन्होंने अपनी किताब का नाम अहिंसा के साथ मेरे प्रयोग नहीं लिखा। उसे ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ कहा था। कभी नहीं कहा कि कायरता और अहिंसा जुड़वा बहनें हैं। कहा था सत्य और अहिंसा में अगर छोडऩा पड़े तो सत्य को नहीं छोडंूगा। अहिंसा को छोड़ दूंगा। कहा था अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है। वह आत्मा के बहादुरों का हथियार है। कहा था मैं अंग्रेजी सरकार की जनता विरोधी उन रपटों पर भरोसा नहीं करता जो कहती हैं कि जनता ने हिंसात्मक कारगुजारी की है। कहा था गांधी ने कि जनता खुद जांचेगी कि जनता ने या उसके बीच घुसे हुए सत्ता के एजेंटों ने कितनी और कौन सी हिंसा की है। कहा था कि अगर हर मजबूरी के चलते अहिंसा साथ नहीं दे रही है, तो जनता के हक में जनकल्याणकारी फैसलों के लिए हिंसा का आनुपातिक, यथार्थपरक और वांछितता के साथ सहारा लिया जा सकता है। इसी विचार को भारतीय प्राचीन मनीषा में धर्म के साथ आपद् धर्म कहा गया है। यही विचार है जिसे लेकर विवेकानन्द ने अंग्रेजी सल्तनत के खिलाफ बगावत करने के लिए क्रांतिकारी टुकड़ी का गठन किया था और अमेरिकी षस्त्र निर्माता हेराम मैक्सिम से हथियारों की खरीदी की सहायता की मांग की थी। यही वह शोला है जो भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद में दहका था। भगतसिंह ने कहा था मैं हिंसक नहीं हूं। मैं जनता में अहिंसा लेकिन साहसी इंकलाब का बीज बोना चाहता हूं। यह इतिहास को दुख है कि भगतसिंह की बौद्धिक तीक्ष्णता गांधी संयोगवश पढ़ नहीं पाए। यही वह अग्नि है जो लाखों नाामालूम किसानों और करोड़ों देशवासियों में कहीं न कहीं सुलग तो रही है। भले ही उस पर सफेद राख उसके बुझ जाने का छद्म रच रही हो। जो लोग पंचमांगी, सांप्रदायिक, पूंजीपरस्त, देष के दुश्मन और गरीब के रक्तशोषक हैं, वे नहीं जानते पंजाब की पांचों नदियों में केवल हिमालय का ठंडा पानी नहीं गुरुनानक से लेकर भगतसिंह, ऊधमसिंह, करतार सिंह सराभा और बाद की पीढ़ी का भी गरमागरम लहू बहता रहा है। यह देश गुलामों, पस्तहिम्मतों, बुद्धि-शत्रुओं, नादानों, बहके हुए लोगों और आवारा बनाई जा रही पीढिय़ों का मोहताज नहीं है। बहादुर तो कम ही होते हैं। बुद्धिजीवी भी कम होते हैं। विचारक तो और कम होते हैं। सच्चे साधु-संत और भी कम लेकिन वे ही तो मनुष्यता के विकास के अणु और परमाणु होते हैं। भारत अभी मरा नहीं है। कभी नहीं मरेगा। अमर है। भारत की सदियों में महान संतों और ऋषिमुनियों ने अपनी कुर्बानियों के जरिए मजबूत कालजयी संदेश दिया है। यह अलग बात है कि सत्तामूलक मानसिक बीमारों द्वारा प्रिंट, इलेक्ट्रॅानिक और सोशल मीडिया पर चीन के युवान शहर की तरह की उपजी कोई दूसरी वैचारिक महामारी कोविड 19 की जगह कोविड 21 की तरह कॉरपोरेट और निजाम की ताकत के बल पर फैलाई जा रही है। माहौल और इतिहास को प्रदूषित किया जा रहा है। अतीत को पढऩे की नजर पर भी रंगीन चश्मा चढ़ाया जा रहा है। लोग बहक रहे हैं। डरपोक हो गए लोग सरकारों से डरते हैं। ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह भारत में यूरो अमेरिकी गुलामी का वेस्ट इंडिया बनाने की सरकारी कोशिश है। इसलिए भारतीय नामों के बदले हमें ‘मेक इन इंडिया‘, ‘स्मार्ट इंडिया‘, ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बुलेट टेऊन’, ‘स्टार्ट अप’, ‘अर्बन नक्सल’, ‘टुकड़े टुकड़ै गैंग’ जैसे विस्फोटक ककहरे पढ़ाए जा रहे हैं। कोरोना से लडऩे की अपनी दुर्बुद्धि और नाकामी छिपाने के लिए लोगों से तालियां, थालियां बजवाई जा रही हैं। दिए, मोमबत्ती और टॉर्च जलवाए जा रहे हैं। आसमान से हवाई जहाजों पर बैठकर उन पर भी फूल बरसाए जा रहे हैं जिनके परिवार हुक्मरानों के अत्याचार के कारण तरह तरह से पीडि़त हैं। विज्ञान के दम पर संवैधानिक यात्रा करने वाले देष को बताया जा रहा है कि बादलों में राडार छिप जाते हैं और तब उस पर सर्जिकल स्ट्राइक करने से पडोसी देष को पता तक नहीं चलता। जनता को सच नहीं बताया जाता। नक्षे जारी नहीं होते। गुलाम मीडिया का कैमरा नहीं पहुंचता कि चीन हमारे देश में घुसकर धरती नाप रहा है। गांव बसा चुका है। जनता को बताया जाता है कि चीनी वस्तुओं का इस्तेमाल नहीं करें, लेकिन खुद सरकार इसके बावजूद चीन से करार करती जा रही है। सरकार के कॉरपोरेटी नयनतारे का सरकार के कॉरपोरेटी नयनतारे कॉरपोरेटी चीन के साथ समझौते में हैं। पाकिस्तान के साथ भी हैं जबकि हर देशभक्त भारतीय पर पाकिस्तानी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है। दोहरे आचरण में जिलाया जा रहा भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे अभिशप्त उदाहरण बनाया जा रहा है।
फिर गांधी की याद आती है। कहा था गांधी ने पष्चिमी सभ्यता चूहे की तरह फूंककर काटती है। यह भी कहा था कि पशिचमी सभ्यता तपेदिक की लाली की तरह है जिसके विश्वास में बीमार बहता चला जाता है। आज भी तो यही हो रहा है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के लिए खरीदा गया कोई पांच हजार करोड़ रुपयों के हवाई जहाज क्या भारतीय किसानों के आंदोलन का जवाब हैं? क्या नए संसद भवन को बनाए जाने की जरूरत भी है, उस गांधी के अनुसार जिसकी मुद्रा में बैठकर चरखा पकडक़र फोटो खिंचवाने वाले सदरे रियासत को यह मालूूम नहीं है कि गांधी ने कहा था कि अंगरेज वॉयसराय या प्रधानसेनापति या तमाम अफसरों की कोठियों को अस्पतालों और जनोपयोगी संस्थाओं में बदल दिया जाए? प्रधानमंत्री से लेकर सभी सरकारी सेवक छोटे मकानों में रहें। साठ वर्ष से ऊपर के नेताओं को चुनाव लडऩे की पात्रता नहीं होनी चाहिए। कोई भक्त बताएगा मौजूदा राष्ट्रपति के भवन में कितने कमरे हैं? यह गलती तो 1947 के बाद लगातार सभी सरकारों ने की है। किसी को बख्षा नहीं जा सकता। लेकिन तब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अपने कपड़ों के लिए चरखे पर बैठकर खादी का सूत बुनते थे। वे दस लाख का सूट नहीं पहनते थे। काजू के आटे की रोटी नहीं खाते थे। महंगे मशरूम की सब्जी नहीं खाते थे। वे जनता के खर्च पर विष्व यात्राएं कर सकते थे लेकिन उन्होंने यह सब कुछ मौजूदा प्रधानमंत्री के लिए छोड़ दिया? सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाने का दम्भ करने वाले नहीं बताते अपने समर्थकों को कि गांधी तक की हिम्मत असमंजस में थी।
तब बारदोली के किसान सत्याग्रह के नायक बनकर सरदार पटेल ने भारत को रोमांचित किया था। क्यों नहीं जानते कि राजकुमार शुक्ला जैसा चम्पारन मोतिहारी का नामालूम किसान नहीं होता, तो गांधी तो चम्पारन के नायक के रूप में इतिहास की गुमनामी में जाने कब तक पड़े रहते। उसी बिहार में उत्तर भारत से चलकर आने वाले हजारों लाखों गरीबों, मजलूमों को मरते देखकर भी छाती में करुणा नहीं पिघलती। अपनी जीत का अंदाज होने पर शिव गुफा में बैठकर फोटो खिंचाते दुनिया के सामने नाटक प्रपंच करने पड़ते हैं। किसान अपनी मेहनत के दम पर कपड़े पहनता है। बीवियों के लिए गहने बनवाता है। बच्चों की तालीम, मां बाप के इलाज के लिए विदेश भी भेज सकता है। वह धरती की छाती फोडक़र एक साथ मुल्क में इंसानियत, भाईचारा, अमन चैन और आर्थिक रिश्तों को भी उगाता है। वह दलाली नहीं खाता। वह प्रधानमंत्री कार्यालय में घुसकर पहले से पुलवामा रचने की साजिशों से वाफिक नहीं होता। उसे ही ‘जय जवान जय किसान’ और ‘जय इंसान’ का नारा सार्थक करना है। वह सियासी चौपड़ में साजिषी षतरंज खेलने की ट्रेनिंग अपनी परांपराओं, मान्यताओं और चरित्र से नहीं ले पाया है। कहा था चर्चिल ने पीछे हटने पर कि हम लड़ाई हारे हैं, लेकिन युद्ध नहीं हारे हैं। कहा था गौतम बुद्ध ने बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर यह मेरी सात्विक जिद है कि जब तक परम ज्ञान को प्राप्त नहीं कर लूंगा, यहां से नहीं हटूंगा। कहा था गांधी ने अफ्रीका में पीटर मेरिट्सबर्ग के स्टेशन पर अंग्रेज सार्जेेट द्वारा सामान की तरह फेक दिया जाने पर अपनी आंखों के मौन में कि याद रखना मैं एक दिन दक्षिण अफ्रीका को आजाद करने के वास्ते अहिंसक अणुबम बनाकर दिखाऊंगा और हिंदुस्तान को उसके भविष्य के कैलेण्डर में 15 अगस्त 1947 का दिन टांक कर तोहफा दूंगा। जो लोग हिंदुस्तान के किसान आंदोलन में सेंधमारी कर रहे हैं, वैसा काम तो चूहे और दीमक ज़्यादा अच्छी तरह करते हैं। धरती पर सबसे ज़्यादा आर्थिक नुकसान चूहे करते हैं और वह भी किसान का सबसे ज़्यादा। धरती पर जीवित दीमकों का कुल वजन धरती पर जीवित इंसानों के कुल वजन से ज़्यादा है। कोई विज्ञान वह भी नहीं, (जो कोरोना वैक्सीन बनाने का ऐलान कर रहा, जो कैंसर को हराने की कोशिश कर रहा, वह भी नहीं जिसने गॉड पार्टिकल देखने का दावा किया है) कि वह संसार के सभी दीमकों को मारने की कोई वैक्सीन या जुगत खोज पाया है। हर जन आंदोलन को कुचलने के लिए चूहे और दीमक तो जिंदा रहेंगे। उन्हें चुनौतियों की तरह लेगा होगा। वे मरेंगे नहीं लेकिन बार-बार मारे जाएंगे। पराजित किए जाएंगे। मिथक है कि परशुराम ने कई बार धरती से क्षत्रियों का समूल नाश किया लेकिन क्या हुआ? इसलिए इतिहास और भविष्य गाल बजाने वालों के नहीं होते। वीर मर जाएंगे तो गीत गाने वाले कवि भी मर जाएंगे। ये समाजचेता कवि भी हैं, जो इतिहास में चरित्र और इंसान बनाते हैं। वाल्मीकि नहीं होते, वेदव्यास नहीं होते, कबीरदास नहीं होते तो चरित नायकों के गुण और इंसानियत की फसल के रिश्ते को कौन ठीकठाक बिठाता। किसान आंदोलन का जो भी हश्र हो, वह हौसला कभी नहीं मरेगा। गांधी कभी नहीं मरेगा। इंसानियत कभी नहीं मरेगी। सरकारें रहेंगी। हुक्काम रहेंगे लेकिन उनकी जिंदगी तो समय की किश्तों में चलती है। वे पांच पांच साल तक अपनी अगली जिंदगी मांगने के लिए जिन दहलीजों पर आएंगे। उनमें सबसे ज्यादा संख्या तो किसानों की है। भारत के निजाम देष की सारी नदियां जोडऩा चाहते रहे हैं। रेल की पटरी को कहीं से भी छू लें तो लगता है पूरे भारत से जुड़ गए। यदि पूरे देश के किसान किसी तरह से जुड़े होते। एकजुट होते तो यह आंदोलन इतने दिन चलने की जरूरत नहीं होती। इसलिए किसान को सभी सरकारों द्वारा जानबूझकर बदहाल रखा गया है। किसान को कॉरपोरेट की गुलामी कराने पूंजीवादी षडय़ंत्र रचा गया है। वह साजिश, अट्टहास, बदगुमानी और अहंकार के कानून की इबारत में भी गूंज रहे हैं। किसान ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों के जरिए उसे देख, सुन और सूंघ लिया है। कॉरपोरेट और निजाम के नापाक गठजोड़ को तार तार कर दिया गया है। यही वह दुरभिसंधि है जिसे सुप्रीम कोर्ट को बाबा साहेब अंबेडकर की अगुवाई वाले संविधान द्वारा दी गई असाधारण संविधान षक्तियों की समझ में विस्तारित, व्याख्यायित और व्यक्त करना चाहिए था। कर्तव्यबोध के प्रति उदासीनता भी न्यायपालिका को सालती रहेगी।
-कमलेश
इस दौरे में इमरान ख़ान की श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के साथ बैठक होनी है. इसके अलावा वो निवेशकों के एक सम्मेलन में भी शरीक होंगे.
इमरान ख़ान की ये यात्रा तभी चर्चा में आ गई थी जब श्रीलंका ने इमरान ख़ान के संसद में संबोधन को रद्द कर दिया था.
संबोधन रद्द करने की वजह भारत को भी बताया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इमरान ख़ान श्रीलंका की संसद में कश्मीर का मुद्दा उठा सकते थे और यह दिल्ली को नाराज़ करने के लिए काफ़ी होता. हालांकि, श्रीलंका का कहना है कि ऐसा कोविड-19 के कारण किया गया है.
इमरान ख़ान का भाषण रद्द होने की एक वजह यह भी बताई जा रही है कि वो श्रीलंका की संसद में वहां के मुसलमानों के अधिकारों को लेकर कुछ बोल सकते थे.
किसी दूसरे देश की संसद में संबोधन को सम्मान की बात समझा जाता है. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2015 में श्रीलंका की संसद को संबोधित किया था.
श्रीलंका सरकार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को भी यही सम्मान देने वाली थी जो दोनों देशों के संबंधों की एक झलक दिखाता है.
मौजूदा दौरा इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि भारत और चीन के लिए श्रीलंका रणनीतिक रूप से काफी अहम है. वहीं, चीन और पाकिस्तान की दोस्ती भारत के लिए चुनौती बनी हुई है.
लेकिन, विदेशी यात्राओं से बनने वाले समीकरणों को जानने से पहले देखते हैं कि श्रीलंका-पाकिस्तान के रिश्ते कैसे हैं.
बहुत पुराने और गहरे रिश्ते
सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) क्षेत्र में पाकिस्तान श्रीलंका का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. श्रीलंका पहला ऐसा देश है जिसने पाकिस्तान के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है.
ये समझौता साल 2005 हुआ था जिसके बाद से दोनों देशों के बीच व्यापारिक में और वृद्धि हुई है.
पाकिस्तान में श्रीलंका के वाणिज्य दूतावास के मुताबिक दोनों देशों के बीच साल 2005 में 15 करोड़ 80 लाख डॉलर का व्यापार होता था जो 2018 में बढ़कर 50 करोड़ 80 लाख डॉलर तक पहुंच गया. हालांकि, व्यापार संतुलन की बात करें तो वो हमेशा पाकिस्तान के पक्ष में रहा है. श्रीलंका के मुकाबले पाकिस्तान का निर्यात ज़्यादा रहा है.
श्रीलंका से पाकिस्तान को निर्यात होने वाले सामानों में सूखा नारियल, एमडीएफ बोर्ड, सुपारी, थोक में चाय, कपड़ा, औद्योगिक और सर्जिकल दस्ताने, क्रेप और शीट रबर, डिब्बे, बक्से, बैग, नारियल तेल, बुने हुए कपड़े और पशु चारा शामिल हैं.
इसमें खासतौर पर सुपारी हाल ही में चर्चा में रही है. भारत के साथ टकराव के चलते पाकिस्तान में भारत से सुपारी का निर्यात बाधित हो गया है. पाकिस्तान में सुपारी की आपूर्ति अब श्रीलंका से होती है.
श्रीलंका पाकिस्तान में चाय का निर्यात भी बढ़ाना चाहता है लेकिन पाकिस्तान के चाय बाज़ार में ज़्यादातर केन्या का कब्ज़ा है.
श्रीलंका के वाणिज्य दूतावास की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1984 तक श्रीलंका पाकिस्तान में चाय का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता रहा था लेकिन ये धीरे-धीरे कम हो गया. पाकिस्तान में जिस तरह की चाय इस्तेमाल होती है चीन उस तरह की सिर्फ़ 10 प्रतिशत चाय का ही उत्पादन करता है.
पाकिस्तान से श्रीलंका को निर्यात होने वाले सामानों में पोर्टलैंड सीमेंट, मेडीसिमेंट, आलू, बुने हुए कपड़े, पाइप और ट्यूब, बेड टेबल किचन टॉयलेट लिनन, चावल, डेनिम फैब्रिक, मछली आदि सामान शामिल हैं.
दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय निवेश बहुत मध्यम स्तर पर है. वर्तमान में श्रीलंका में पाकिस्तान के निवेशक केमिकल, रबड़, प्लास्टिक, वस्त्र निर्माण, चमड़ा उत्पाद, खाद्य और पेय पदार्थ आदि क्षेत्रों में कुछ परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं.
सैन्य संबंधों में नज़दीकी
पाकिस्तान और श्रीलंका के सैन्य संबंधों की बात करें तो ये लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (एलटीटीई) से युद्ध के दौरान और मज़बूत हो गए थे. तब एलटीटीई से मुक़ाबले के लिए पाकिस्तान ने श्रीलंका को हथियार उपलब्ध कराए थे.
1971 के दौर में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान में संघर्ष के बीच भारत ने अपने हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था. जब श्रीलंका ने पश्चिमी पाकिस्तान को हवाई क्षेत्र उपलब्ध कराया था.
पाकिस्तान श्रीलंका को छोटे हथियारों का मुख्य आपूर्तिकर्ता भी रहा है. साथ ही दोनों देशों की सेनाएं संयुक्त अभ्यास भी करती रही हैं.
हालांकि, मार्च 2009 में लाहौर में एक टेस्ट मैच के दौरान श्रीलंका की बस पर हुए चरमपंथी हमले के बाद कुछ खिलाड़ियों ने पाकिस्तान में खेलने से मना कर दिया था. क्रिकेट बोर्ड ने पाकिस्तान जाने का फैसला खिलाड़ियों पर ही छोड़ दिया था.
भारत-पाकिस्तान के बीच भूमिका
मुंबई में अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस की राष्ट्रीय संपादक और अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार निरुपमा सुब्रमण्यम बताती हैं कि पाकिस्तान और श्रीलंका के काफी गहरे रिश्ते रहे हैं.
वह कहती हैं, “पाकिस्तान और श्रीलंका के रिश्ते तब से हैं जब से श्रीलंका स्वतंत्र हुआ है. व्यापार, सैन्य, रक्षा और सांस्कृतिक हर स्तर पर अच्छे रिश्ते हैं. सैन्य रिश्ते तो और भी ज़्यादा मजबूत हैं. जैसे भारत और श्रीलंका के बीच रिश्ते हैं वैसे ही श्रीलंका और पाकिस्तान के कह सकते हैं.”
“एलटीटीई के ख़िलाफ़ भी पाकिस्तान ने श्रीलंका की हथियारों से लेकर मदद की थी. भारत की तरह ही पाकिस्तान में श्रीलंका की सेना का प्रशिक्षण होता है.”
हालांकि, निरुपमा सुब्रमण्यम कहती हैं कि भारत के मुक़ाबले ये बात अलग है कि श्रीलंका में आधारभूत ढांचे के विकास में पाकिस्तान की उतनी भूमिका नहीं रहती जितनी भारत की कोशिश रहती है. इस मामले में चीन और भारत आमने-सामने रहते हैं.
अगर पाकिस्तान और श्रीलंका के लोगों के बीच संबंधों की बात करें तो निरुपमा सुब्रमण्यम बताती हैं पाकिस्तान में श्रीलंका के लोगों का खुलकर स्वागत किया जाता है. श्रीलंकाई लोग कहते हैं कि उन्हें बहुत प्यार और सम्मान मिलता है.
भारत के लिए मायने
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का श्रीलंका दौरा सिर्फ़ भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में ही नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान-चीन के संदर्भ में भी देखा जा रहा है.
श्रीलंका के साथ संबंधों को लेकर भारत और चीन में उतार-चढ़ाव की स्थिति बनी रही है. कभी भारत तो कभी चीन के दखल की बातें सामने आती हैं.
इसी बीच चीन से पाकिस्तान की नज़दीकी भी किसी से छुपी नहीं है. ऐसे में इमरान ख़ान का दौरा भारत के लिए क्या नई चुनौती बन सकता है.
जेएनयू में दक्षिण एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर संजय भारद्वाज कहते हैं, “पूरे एशिया में संबंधों का पुनर्निधारण हो रहा है चाहे इस्लामिक दुनिया हो या दक्षिण पूर्वी देश. चीन आर्थिक और रणनीतिक कारणों से दूसरे देशों के साथ अपना समर्थन आधार तैयार कर रहा है. श्रीलंका और पाकिस्तान को भारत के संदर्भ में देखेंगे तो वो छोटे देश हैं और श्रीलंका में पाकिस्तान ऐसी कोई चुनौती भी नहीं है.”
“लेकिन, श्रीलंका में राजपक्षे भाइयों को चीन का करीबी माना जाता है. श्रीलंका के चुनावों से पहले भारत का समर्थन कहीं ना कहीं पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना को था. हाल ही में राजपक्षे सरकार ने ट्रेड यूनियनों के विरोध के बाद भारत के साथ ईस्ट कंटेनर टर्मिनल का करार रद्द कर दिया था.”
प्रोफेसर भारद्वाज बताते हैं कि श्रीलंका में जो भारत विरोधी घटक हैं उसे पाकिस्तान अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है. इसमें चीन भी एक फैक्टर है. चीन उन सब देशों को नज़दीक लेकर आ रहा है जो अमेरिका के करीब रहे हैं. साथ ही भारत की भी चिंताएं बढ़ाने की कोशिश की है ताकि वो पड़ोसी देशों के साथ समस्याएं सुलझाने में ही उलझा रहे और चीन पर आक्रामक ना हो पाए.
हालांकि, श्रीलंका सरकार को भी भारत की ज़रूरत है और इसे लेकर सकारात्मक संकेत भी मिले हैं. महिंदा राजपक्षे भारत यात्रा पर आ चुके हैं और भारतीय विदेश मंत्री राजपक्षे सरकार बनने के अगले ही दिन वहां बधाई देने पहुंच गए थे.
वह कहते हैं कि व्यापारिक और सैन्य संबंधों की बात करें तो वो सामान्य स्तर पर हैं. व्यापार में पाकिस्तान का निर्यात ज़्यादा है. ऐसे में इस यात्रा में व्यापार कोई बड़ा मुद्दा नहीं दिख रहा है.
कुछ मामलों पर चुप्पी
संजय भारद्वाज कहते हैं कि श्रीलंका में चर्च में हुए बम विस्फोट के बाद मुस्लिम समुदाय निशाने पर रहा है और देश में दंगे भी हुए हैं. राजपक्षे सिन्हला बौद्ध राष्ट्रवादी संगठन बोदू बाल सेना का समर्थन करते आए हैं जबकि अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय इसके निशाने पर रहा है. इसलिए मुस्लिम सहित दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय राजपक्षे सरकार में सहज अनुभव नहीं करते हैं.
ऐसे में इस्लाम और मुसलमानों का मुद्दा बार-बार उठकर आता है. इस मसले पर पाकिस्तान और श्रीलंका खुलकर समर्थन या विरोध में सामने नहीं आते. पाकिस्तानी पीएम कभी श्रीलंका में मुस्लिमों की स्थिति पर बयान नहीं देते. लेकिन, पाकिस्तान इसे पूरी तरह नज़रअंदाज भी नहीं कर सकता क्योंकि वो मुस्लिम जगत का नेता दिखना चाहता है और श्रीलंका से चीन जैसा कोई कर्ज़ भी नहीं है. ऐसे में इसे दौरे से कोई ठोस नतीजे आने मुश्किल हैं.
वहीं, निरुपमान सुब्रमण्यम मानती हैं कि इमरान खान का ये दौरा विदेशी संबंधों को बेहतर करने की कोशिश है. जब से वो प्रधानमंत्री बने हैं उन्होंने दूसरे देशों के बहुत कम दौरे किए हैं. बीच में कोविड भी एक बड़ी रुकावट बन गया.
उनके मुताबिक श्रीलंका भारत और पाकिस्तान से संबंधों को संतुलित करना जानता है. वहीं, भारत पाकिस्तान को श्रीलंका में कोई प्रतिस्पर्धी भी नहीं मानता. इसलिए भारत पर इस बात से खास फर्क नहीं पड़ता कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री श्रीलंका की यात्रा पर जा रहे हैं क्योंकि प्रधानमंत्री दूसरे देशों का दौरा करते रहते हैं. (bbc.com)
-महेन्द्र पांडे
यह खबर हमारे देश के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे देश के नेता महिलाओं पर लगातार भद्दे, अश्लील और ओछे वक्तव्य देते रहते हैं, कई तो रेप की धमकी भी देते हैं, पर हमारा समाज किसी भी नेता से इस्तीफा नहीं मांगता और ना ही सरकार कोई कदम उठाती है।
जापान में आयोजित किये जाने वाले टोक्यो ओलंपिक्स को एक के बाद एक झटके लग रहे हैं। सबसे पहले इसे कोविड 19 के कारण एक वर्ष आगे बढ़ाना पड़ा और अभी भी यह पूरी तरीके से निश्चित नहीं है कि यह आयोजन इस वर्ष भी होगा या नहीं। लगभग 80 प्रतिशत जापानी नागरिक कोरोना महामारी के संदर्भ में इसे सुपर-स्प्रेडर इवेंट मानते हैं और इसके आयोजन के पक्ष में नहीं हैं। हाल में रायटर्स द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार जापान की लगभग दो-तिहाई कंपनियां इस वर्ष ओलंपिक खेलों के आयोजन के पक्ष में नहीं हैं और लगभग 88 प्रतिशत कंपनियां मानती हैं कि इन खेलों के आयोजन से जापान की अर्थव्यवस्था को कोई प्रभावी फायदा नहीं होगा।
टोक्यो ओलंपिक्स का आयोजन 2020 में किया जाना था, पर कोविड-19 के कारण यह आयोजन नहीं किया जा सका। ओलंपिक खेलों के 124 वर्षों के इतिहास में पहली बार ओलंपिक खेलों का आयोजन एक साल आगे बढ़ाना पड़ा और अब इस साल भी जापान के लोग इसका आयोजन नहीं कराना चाहते हैं।
पिछले सप्ताह के अंत मे इसकी आयोजन समिति के अध्यक्ष और जापान के भूतपूर्व राष्ट्रपति योशिरो मोरी को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा है। मोरी ने कुछ दिनों पहले ही एक मीटिंग के दौरान वक्तव्य दिया था, ‘महिलायें वाचाल होती हैं और मीटिंग में एक दूसरे से प्रतिद्वंदिता करती हैं। मीटिंग में यदि एक महिला कुछ कहने के लिए खड़ी होती है, तो निश्चय ही सभी महिलाओं को कुछ ना कुछ कहना होता है, इससे मीटिंग का समय बर्बाद होता है।’
मोरी के इस वक्तव्य के बाद उनका चौतरफा विरोध किया जाने लगा था,जिसके चलते पहले तो उन्होंने माफी मांगी पर इस्तीफे की मांग को ठुकरा दिया। बाद में इन्टरनेशनल ओलंपिक कमिटी और जापान सरकार के दबाव के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। योशिरो के वक्तव्य के बाद से विरोध स्वरुप ओलंपिक खेलों के लिए पंजीकृत लगभग 500 वालंटियर्स ने भी अपने नाम वापस ले लिए हैं।
यह खबर हमारे देश के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे देश के नेता महिलाओं पर लगातार भद्दे, अश्लील और ओछे वक्तव्य देते रहते हैं, कई तो रेप की धमकी भी देते हैं, पर हमारा समाज किसी भी नेता से इस्तीफा नहीं मांगता और ना ही सरकार कोई कदम उठाती है। इन भद्दी और हिंसक टिप्पणियों को समाज स्वीकार कर चुका है और महिलाएं अपनी नियति मान बैठी हैं। देश की वर्तमान सरकार के समर्थक तो महिलाओं पर हिंसा और रेप की बात राष्ट्रभाषा जैसा करने लगे हैं। पिछले वर्ष के जेंडर गैप इंडेक्स में कुल 153 देशों में भारत 112वें स्थान पर था। जापान इससे भी नीचे यानी 121वें स्थान पर है। इसके बाद भी जापान में एक अध्यक्ष को केवल इसलिए इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि उसने महिलाओं पर कोई अश्लील टिप्पणी नहीं की थी, बल्कि वाचाल कह दिया था। क्या हमारे देश की जनता और सरकार महिलाओं की इतनी इज्जत कर पाएगी?
जापान में योशिरो मोरी, टोक्यो ओलंपिक के लिए स्थापित ओलंपिक आयोजन समिति के आरंभ से अब तक अध्यक्ष रह थे और अब तक यही माना जा रहा था कि यदि उन्होंने अपना पद छोड़ा तो नए अध्यक्ष के लिए यह आयोजन सुचारू तरीके से करना कठिन होगा, फिर भी उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। जापान सरकार मोरी के बयान के बाद वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता के क्षेत्र में बदनामी से बचने के लिए किसी महिला को अगला अध्यक्ष पद देना चाहती थी।
इसी कड़ी में जापान की ओलंपिक मंत्री और भूतपूर्व ओलंपियन सिको हाशिमोतो को टोक्यो ओलंपिक आयोजन समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। हाशिमोतो स्पीड स्केटर के तौर पर चार शीत ओलंपिक खेलों में हिस्सा ले चुकी हैं और एक कांस्य पदक भी जीता है। उन्होंने ट्रैक साइक्लिस्ट की हैसियत से तीन ग्रीष्म ओलंपिक में भी हिस्सा लिया है। वे प्रधानमंत्री योशिहिदा सुगा के मंत्रिमंडल की मात्र दो महिला मंत्रियों में से एक हैं।
टेनिस के ग्रैंड स्लैम, ऑस्ट्रेलियन ओपन में सेरेना विलियम्स को सेमीफाइनल में हराने के बाद जापानी टेनिस स्टार नाओमी ओसाका ने सिको हाशिमोतो को ओलंपिक कमेटी का अध्यक्ष बनाने पर कहा की यह सही में बहुत खुशी की बात है और लैंगिक समानता का उदाहरण भी। ओसाका ने आगे कहा की महिलाओं को लगभग हरेक क्षेत्र में बहुत युद्ध केवल मर्दों से बराबरी के लिए लडऩे पड़ते हैं, यह एक जीत है पर बहुत सारे क्षेत्रों में अभी भी समानता बहुत दूर है। सिको हाशिमोतो को अध्यक्ष नियुक्त करने के बाद कमेटी ने कहा की उन्हें उम्मीद है की लैंगिक समानता और विविधता के आदर्शों को इन खेलों में पूरी तरह से अपनाया जाएगा। इन्टरनेशनल ओलंपिक कमेटी के चेयरमैन थॉमस बाश ने भी इस खबर पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि लैंगिक समानता का यह एक आदर्श उदाहरण है।
योशिरो मोरी ने यह कारनामा ऐसे समय किया, जब टोक्यो ओलंपिक में लैंगिक समानता और विकलांग खिलाडिय़ों के प्रोत्साहन की बात की जा रही थी और इससे जुड़ी हरेक कमेटी में महिलाओं की संख्या बढाने पर जोर दिया जा रहा था। इस समय टोक्यो ओलंपिक्स आयोजन समिति के कुल 25 सदस्यों में से मात्र 7 सदस्य महिलाएं हैं। जापान के विपक्षी सांसद रेन्हो ने मोरी के वक्तव्य पर कहा कि उनका वक्तव्य ओलंपिक की विचारधारा के ठीक उल्टा है, क्योंकि इन खेलों में लगातार बराबरी और एकता की बात की जाती है। आयोजन समिति की एक सदस्य, कोरी यामागुची ने भी अपने अध्यक्ष के वक्तव्य की भत्र्सना करते हुए कहा था कि अध्यक्ष का यह वक्तव्य दुर्भाग्यपूर्ण है।
मोरी के वक्तव्य के बाद से जापान में ट्विटर पर ‘मोरी प्लीज रिजाइन’ ट्रेंड करने लगा था। जुडो की चैम्पियन नोरिको मिज़ोगुची ने कहा कि ओलंपिक खेलों में महिलाओं के विरोध के किसी भी वक्तव्य का कोई स्थान नहीं है और इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए। युरिको कोइके, टोक्यो की गवर्नर हैं और वह पहली महिला गवर्नर भी हैं। इस वक्तव्य के बाद से और मोरी के इस्तीफा देने के बीच उन्होंने ओलंपिक खेलों के आयोजन से संबंधित सभी बैठकों का बहिष्कार किया था और कहा था कि मोरी का वक्तव्य जापान की सभी महिलाओं का अपमान है। इस वक्तव्य के बाद जापान के क्योदो न्यूज़ एजेंसी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में 60 प्रतिशत लोगों ने मोरी को अध्यक्ष पद के लिए अयोग्य करार दिया था। टेनिस खिलाड़ी नाओमी ओसाका ने मोरी के वक्तव्य पर कहा था कि यह उनकी अज्ञानता को दर्शाता है।
मोरी के वक्तव्य के बाद से जापान सरकार अपने देश में लैंगिक समानता का जोर-शोर से दिखावा करने लगी है, जो फूहड़ और हास्यास्पद भी है। वर्ष 1955 से अब तक लगभग लगातार सत्ता में रही लिबरल डेमोक्रेटिक फ्रंट के जनरल सेक्रेटरी तोशिहिरो निकाई ने हाल में ही एक अजीबो-गरीब फरमान जारी किया है- पार्टी से संबंधित सभी बैठकों में कम से कम 5 महिलाओं को अवश्य शामिल किया जाए, ये महिलाएं फोटो-सेशन में जरूर शामिल की जाएं, पर इन महिलाओं को बैठक में बोलने का अधिकार नहीं होगा।
हास्यास्पद यह है कि प्रधानमंत्री योशिहिदा सुगा ने भी इस वक्तव्य का बचाव करते हुए कहा है की महिलाएं बैठक में नहीं बोलेंगीं, पर अपनी बात बैठक के आयोजकों को लिखित तौर पर दे सकती हैं। जापान की आधी आबादी महिलाओं की है और सत्ताधारी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के प्राथमिक सदस्यों में लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं हैं,
पर संसद में महिला सदस्यों की संख्या महज 9.9 प्रतिशत है। विश्व में संसद में महिला सदस्यों की औसत संख्या 25.1 प्रतिशत है। जापान की सरकार में महज दो मंत्री महिलाएं थीं, पर सिको हाशिमोतो के ओलंपिक कमेटी का अध्यक्ष बनने पर उन्हें मंत्री पद छोडऩा पड़ा और अब पूरे मंत्रिमंडल में केवल एक महिला मंत्री हैं।
मोरी को महिलाओं पर दिए गए एक वक्तव्य पर इस्तीफा देना पड़ा, पर क्या भारत में जहां महिलाओं को देवी भी माना जाता है, किसी नेता को महिलाओं पर भद्दी टिप्पणी के कारण कभी इस्तीफा देने की नौबत आएगी? (navjivanindia.com)
-मनोज खरे
हिंदू धर्म और हिंदुओं को लंबे समय से खतरे में बताया जा रहा है। तो जरूरी है कि हम पहले इस बात की पड़ताल करें कि हिंदुओं को असली नुकसान पहुंचाने वाले ऐसे आंतरिक कारक कौन से जिन्होंने हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज को लगातार नुकसान पहुंचाया है और कमजोर किया है। ऐसे तमाम कारक हमारे अंदर मौजूद हैं जिनमें से चार सबसे प्रमुख हैं।
पहला कारक जो सभी अच्छी तरह से जानते हैं जाति प्रथा है। जाति प्रथा समाज की एकता और समरसता में स्मरणातीत काल से बड़ी बाधा बनी हुई है। समाज के बड़े हिस्से पर यह कैसे अमानवीय और अत्याचार का कारण रही है, यह बताने की जरूरत नहीं है। इसके कारण अधिकाधिक लोग हिन्दू धर्म छोड़ कर दूसरे धर्म अपनाने के लिए प्रेरित हुए। प्रारम्भ में अपनी आर्थिक संपन्नता के बावजूद सामाजिक स्थिति से असंतुष्ट वणिक समुदाय बौद्ध और जैन धर्म अपनाने को आकृष्ट हुआ। इस्लाम आने के बाद हिंदुओं के मिस्त्री, कारीगर और बुनकर वर्ग की जातियों ने बड़ी संख्या ने इस्लाम धर्म में धर्मांतरण किया। इसी तरह ईसाई धर्म को अपनाने वालों में भी हिन्दू धर्म की दबाई-कुचली जातियों, दलित और आदिवासी की बड़ी संख्या रही। जाति प्रथा के कारण राज्य की रक्षा का भार क्षत्रिय जाति के कंधे पर रहा जिसके कारण विदेशी हमलों का सामना समाज एकजुट होकर नहीं कर पाया। लोकतंत्र में वोटों की राजनीति में भी जाति प्रथा आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के रूप एक अलोकतांत्रिक उपकरण बन गई है।
दूसरा कारक, जिसने हिंदुओं को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया, पुनर्जन्म का सिद्धांत है। पुनर्जन्म में विश्वास ने समाज को असाधारण रूप से संघर्षहीन, समझौतापरस्त, भाग्यवादी और सहनशील बनाकर रखा है। लोग हर तरह के अन्याय, अत्याचार और दुश्वारियों को पिछले जन्म के कर्मों का फल मानकर भुगतते रहे। एक समाज के रूप में अन्याय से लडऩे की प्रवृत्ति बहुत कमजोर रही। 'कोऊ नृप होय, हमें का हानि' जैसी भावना का उदय भी समाज में इसी का प्रतिफल था। आज इसी का परिणाम है कि दुनिया में जैसा भाग्यवाद भारत में विद्यमान है शायद ही दुनिया में कहीं और हो।
तीसरा कारक है अवतारवाद। जब दुनिया में अनर्थ-अत्याचार बढ़ता जाएगा तो एकदिन कोई अवतारी पुरुष आएगा सब अत्याचार-अन्याय खत्म कर देगा। इस विश्वास में लोग अकर्मण्य हो अवतार, त्राता या तारणहार की प्रतीक्षा में ही बैठे रहते हैं। इसी चक्कर में बहुतेरे बाबा और नेता मसीहा का रूप धर जनता को उल्लू बना कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने का मौका पाते हैं। राजनीति में व्यक्तिपूजा के पीछे भी कहीं न कहीं यही धारणा काम करती है।
चौथा कारक सत्यनारायण व्रत कथा जैसी कहानियां हैं जिन्होंने हिंदू धर्म में ईश्वर की एक ऐसी अवधारणा विकसित की जो छोटी-छोटी बातों में नाराज हो जाता है और अपने भक्तों को दंड देने लगता है। क्षणे रुष्ट: क्षणे तुष्ट:। सत्यनारायण को प्रतिशोधनारायण बना दिया। भक्ति काल में हिन्दू ईश्वर प्रेम का स्वरूप था। भक्त और ईश्वर का सम्बंध प्रेमी-प्रेमिका जैसा था। पर आधुनिक युग तक आते-आते हमारे धार्मिक साहित्य ने ईश्वर का एक ऐसा रूप गढ़ दिया जो हमेशा अपने भक्त पर आंख गड़ाए यह देखता रहता है कि उसकी समुचित पूजा हो रही है या नहीं, लोग अपने बोल-बदना पूरे कर रहे हैं या नहीं। अगर नहीं तो ईश्वर परदेस से कमा कर लाए धन को 'लत्रं-पत्रं' में बदलने, शारीरिक व्याधि या काम-धंधा नष्ट करने जैसे दंड देने को तत्पर बैठा है। ईश्वर की ऐसी 'दंडाधिकारी' या दारोगा वाली अवधारणा ने हिंदुओं को अत्यंत धर्मभीरु समाज में बदल डाला जो दिनरात भगवान से डरा रहता है। हर काम करते वक्त वह सशंकित रहता है कहीं उसका काम ईश्वर को नाराज न कर दे।
ऐसे और भी कारक हो सकते हैं। पर ये चार मुख्य नजर आते हैं जो हिन्दू समाज की प्रगति में बाधक हैं। आधुनिक समाज में हिन्दू धर्म को इन्हीं आंतरिक तत्वों से ज्यादा खतरा है। तो लडऩा है तो हिन्दू धर्म के अंदर बैठे इन शत्रुओं से लडिय़े। इनमें जरूरी सुधार-परिष्कार करिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला अभी-अभी मास्को होकर आए हैं। कोविड के इस भयंकर माहौल में हमारे रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और विदेश सचिव को बार-बार रूस जाने की जरूरत क्यों पड़ रही है? ऐसा नहीं है कि किसी खास मसले को लेकर भारत और रूस के बीच कोई तनाव पैदा हो गया है या भारत-रूस व्यापार में कोई गंभीर उतार आ गया है। लेकिन ऐसे कई मुद्दे हैं, जिनकी वजह से दोनों मित्र-राष्ट्रों के बीच सतत संवाद जरूरी हो गया है। सबसे पहला मुद्दा तो यह है कि रूस से भारत जो एस—400 मिसाइल 5 बिलियन डॉलर में खरीद रहा है, उसे लेकर अमेरिका कोई प्रतिबंध तो नहीं लगा देगा। ट्रंप-प्रशासन के दौरान यह खतरा जरूर था लेकिन अब इसकी संभावना कम ही है। ये रूसी मिसाइल इस वक्त दुनिया के सबसे तेज मिसाइल हैं। दूसरा, कोरोना महामारी से निपटने में दोनों राष्ट्र परस्पर खूब सहयोग कर रहे हैं।
यों भी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन और मोदी अब तक 19 बार मिल चुके हैं। कोराना-काल में पिछले साल उनकी चार बार बात भी हुई है। तीसरा, मुद्दा है-भारत-प्रशांत का याने रूस को यह चिंता है कि प्रशांत महासागर क्षेत्र में भारत कहीं अमेरिका का मोहरा बनकर चीन और रूस के विरूद्ध मोर्चाबंदी तो नहीं कर रहा है ? इसके जवाब में श्रृंगला ने कहा है कि भारत किसी भी देश के विरुद्ध नहीं है। वह चेन्नई से व्लादिवस्तोक तक समुद्री गलियारा बनाने की भी तैयारी कर रहा है।चौथा, अफगानिस्तान के सवाल पर श्रृंगला ने कहा कि भारत को इस बात से कोई एतराज नहीं है कि रूस और पाकिस्तान के बीच सीधा संवाद चल रहा है। यदि यह संवाद अफगानिस्तान में शांति लाता है तो भारत इसका स्वागत करेगा लेकिन अफगानिस्तान पर वह किसी राष्ट्र के कब्जे को बर्दाश्त नहीं करेगा।
इधर भारत की चिंता यह है कि अफगानिस्तान के बहाने रूस-पाक फौजी-सहकार जोरों से बढ़ रहा है। अभी-अभी अफगानिस्तान पर रूस के विशेष दूत जमीर काबुलोव ने इस्लामाबाद-यात्रा की है। दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई तो यह है कि अफगान-समस्या को हल करने में भारत की भूमिका नगण्य है। भारत सरकार और भाजपा में ऐसा कोई नहीं है, जो अफगान-स्थिति को ठीक से जानता-समझता हो। वैसे भी हमारी सर्वज्ञ सरकार अपने बयानों की नौटंकी से ही खुश होती रहती है। दक्षिण एशिया के सबसे बड़े देश होने के नाते हमारी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है लेकिन अफगान-मामले में हम हाशिए में पड़े हुए हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्राण चड्ढा
बेमेतरा के गिधवा डेम के बाद बिलासपुर जिले के कोपरा डेम के किनारे पक्षी उत्सव का आयोजन किया गया। 21 फरवरी को जब कोपरा पक्षी उत्सव का आयोजन किया गया। उसके पहले प्रवासी पक्षी रुखसत हो चुके थे। वैसे भी इस के आसपास जो कुछ पारिस्थतिकी से खिलवाड़ हो रहा है, उस सब वजह कोपरा जलाशय के बजाय प्रवासी पक्षियों ने कोपरा के बजाय वहां से कोई सात किमी दूर गांव सकर्रा के करीब ‘वेटलैंड’ में पड़ाव डाला जिसे कुछ पक्षी प्रेमी ही जानते थे।
वन विभाग का ‘पक्षी प्रेम’ अब तक ‘उत्सव’ तक सिमटा नजर आया है। पक्षी विहार की स्थापना छतीसगढ़ में राज्योदय के बाद वाइल्ड लाइफ बोर्ड के मेंबर व देशबंधु रायपुर परिवार के प्रमुख ललित सुरजन ने की थी। पर कोई पक्षी विहार कैसे बनेगा या क्या जरूरी है। इसका ‘टूलकिट’ वन विभाग के कदाचित अब तक कोई ठोस काम नहीं किया, अगर किया होता तो ऐसे उत्सवों में धन का अपव्यय नहीं होता और कोई जमीनी काम दिखता।
पिछले कुछ साल के दौरान छत्तीसगढ़ के पक्षी प्रेमी फोटोग्राफरों ने प्रवासी परिन्दों के जो डॉक्यूमेंटेशन अपनी लगन वह मेहनत से किया उसके नतीजे से यह प्रतीत होता है कि छत्तीसगढ़ राज्य से पक्षियों का लगाव है। मगर उनकी आवश्कताओं को समझकर तालमेल से कोई काम नहीं हो रहा इसलिए वो बिखरे और डिस्टर्ब चल रहे हैं। यदि उनकी आवास स्थली और आसपास, मानव की दखलंदाजी बंद कर दी जाए तो और पक्षी यहां खुद उडक़र आएं।
पक्षियों के लिए उत्सव की जरूरत से अधिक उनका संरक्षण और वाइल्ड लाइफ एक्ट के तहत पोचर्स को दंडित करना है। इसके लिए जशपुर से राजनादगांव और ‘कोरिया से बस्तर’ तक पक्षियों के ठिकाने और वेटलैंड में पिछले पांच से दस साल में हर बरस आने वाले देसी विदेशी पक्षियों की संख्या उनकी सुरक्षा बन्दोबस्त जैसे इंतजाम और प्रबंधन की योजना बनानी होगी।
जैसे कोपरा जलाशय में पक्षियों की सुरक्षा प्रबंधन का काम कानन पेंडारी बिलासपुर के स्टाफ का हो, चाहे डेम सिंचाई विभाग का हो। इसी तरह बिलासपुर के घोंघा जलाशय की सुरक्षा व्यवस्था अचानकमार्ग टाइगर रिजर्व के बफर जोन का स्टाफ देखे। पूरे प्रदेश में पक्षियों की सुरक्षा, रहवास और उनके लिए मौसमी चारा उपलब्ध हो इसके लिए संभावित स्थलों में उनकी दीगर आवश्यकता के अनुरूप काम करना होगा।
पक्षियों के काम जानकर और ईमानदार जुनूनी स्टाफ की जरूरत होगी, जो लगन और मेहनत से सौंपे गए काम को अंजाम तक पहुंचा सके। यह दफ्तर के ऐसी चेंबर में ड्यूटी देने वाले अफसर के बूते का नहीं। इसके लिए देश के कुछ प्रख्यात पक्षी विहार और नेशनल पार्क का अध्य्यन किये जानकर को विभाग पदस्थ करें न कि नए ठेकेदारों की जमात को काम सौप देवें अथवा भाड़े का सलाहकार रख लेवें। सदा ध्यान में रहे कि हर सरकारी योजनाओं में लगने वाला धन जनता के खून-पसीने की पैदावार है। इसकी बन्दरबांट या उत्सव में फिजूल खर्च नहीं हो।
-गिरीश मालवीय
किसान आंदोलन से संबंधित टूलकिट केस में गिरफ्तार जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि की जमानत पर चल रही सुनावई के दौरान दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में पुलिस से एक बहुत अहम सवाल पूछा गया........एडिशनल सेशन जज धर्मेंद्र राणा ने दिल्ली पुलिस से पूछा कि 'मंदिर का चंदा मांगने अगर मैं डकैत के पास जाऊं तो क्या में डकैती में शामिल माना जाऊंगा?'
दिशा के वकील ने जज के सामने जो दलीले दी वो भी इस केस को समझने में बहुत महत्वपूर्ण है वकील ने कहा कि टूलकिट में तो केवल लोगों को आगे आने, रैली में हिस्सा लेने और वापस घर जाने के लिए लिखा था।
क्या लोगों को रैली में जाने के लिए प्रेरित करना देशद्रोह है?
क्या मैं ऐसा करूंगा तो देशद्रोही हो जाऊंगा ?
टूलिकट में लोगों को सरकारी दफ्तरों में एकत्रित होने के लिए लिखा था, क्या ये देशद्रोह है?
दिल्ली पुलिस ने 149 लोगों को गिरफ्तार किया, क्या उनमें से किसी ने भी यह कहा कि उसने टूलकिट पढ़ी या उसको पढ़ने की वजह से उसमें रोष जागा और उसने गणतंत्र दिवस वाले दिन लाल किले पर झंडा फहरा दिया या हिंसा की?
कोई साक्ष्य नहीं है, सामग्री नहीं है, तो साजिश का आरोप लगा दिया। यहां कोई विरोध-प्रदर्शन कर रहा है और आप उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हाइलाइट कर रहे हैं तो वह राजद्रोह हो गया! अगर ऐसा है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हम सब राजद्रोही हैं और सब अंदर चलते हैं। यह है पुलिस का केस!
आपको याद दिलाना चाहूँगा कि यह वही एडिशनल सेशन जज धर्मेंद्र राणा है जिन्होंने कुछ दिनों।पहले एक पुराने केस में यह फैसला दिया था कि.......किसी असंतुष्ट व्यक्ति को चुप कराने के लिए राजद्रोह का क़ानून नहीं लगाया जा सकता.
उस केस में उनका डिसीजन था कि......'राजद्रोह क़ानून शांति और क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य को मिला एक अच्छा क़ानून है, लेकिन इसका उपयोग अपनी बात रख रहे लोगों को चुप कराने के लिए नहीं किया जा सकता. और ये क़ानून भी साफ़ करता है कि इसे उन्हीं परिस्थितियों में लागू किया जाता है, जहां हिंसा के जरिए समाज की शांति भंग करने का प्रयास किया जाता हो. लेकिन जहां हिंसा न हो, लोगों को भड़काया न गया हो, या कोई ऐसा बयान नहीं दिया गया हो, ऐसे में मुझे संदेह है कि राजद्रोह का क़ानून इन परिस्थितियों में लागू होता है.'
फिलहाल दिशा रवि की जमानत पर कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। इस केस में 23 फरवरी को फैसला सुनाया जाएगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका और यूरोप से भारत की दृष्टि से दो अच्छी खबरें आई हैं। एक तो अमेरिका की बेहतर वीज़ा नीति और दूसरी जी-7 राष्ट्रों की बैठक में से उभरी विश्वनीति। डोनाल्ड ट्रंप ने गोरे अमेरिकियों के वोट पटाने के लिए अपनी वीज़ा-नीति को काफी कठोर बनाने की घोषणा कर दी थी। ताकि भारतीयों का अमेरिका में जाना घट जाए और जो वहां पहले से हैं, उन्हें लौटना पड़े और वयस्क होने पर उनके बच्चे भी वहां न टिक सकें।
ट्रंप ने यह दिखाने के लिए यह किया था कि यदि अमेरिका से भारतीय लोग भागेंगे तो उनके रोजगार गोरों को मिलेंगे लेकिन ट्रंप के विरुद्ध हमारे मोदी-ट्रंप भक्तों ने भी अमेरिका में शोर मचाया तो चुनाव-अभियान के दौरान ही ट्रंप को झुकना पड़ा लेकिन बाइडन प्रशासन ने ट्रंप की वीजा-नीति को उलट दिया है। अब भारतीयों को कार्य-वीजा मिलना आसान होगा और ग्रीन कार्ड भी। बाइडन-प्रशासन की दूसरी घोषणा अमेरिका की समग्र विश्व नीति के बारे में है। यह घोषणा जी-7 देशों की दूर-बैठक (वर्चुअल मीटिंग) में हुई। इस बैठक में अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली, जापान और कनाडा ने भाग लिया। इस बैठक में सबसे पहले तो सभी देशों के नेताओं ने कोरोना महामारी के बाद विश्व की अर्थ-व्यवस्था के पुनरोद्धार का संकल्प किया। दूसरा, उन्होंने गरीब देशों को कोरोना का टीका बंटवाने की घोषणा की। अमेरिका ने 400 करोड़ रु. खर्च करने का वादा किया। एक विश्व-स्वास्थ्य संधि संपन्न करने पर भी विचार किया गया।
तीसरा, अमेरिका ने पेरिस-जलवायु समझौते में फिर से शामिल होने की घोषणा की। चौथा, बाइडेन ने म्युनिख सुरक्षा बैठक में कहा कि चीन की गलत और स्वार्थी नीतियों का डटकर मुकाबला किया जाएगा लेकिन बाइडन का रवैया ट्रंप की तरह आक्रामक नहीं था। पांचवाँ, नाटो के 30 सदस्य-राष्ट्रों की पीठ थपथपाते हुए बाइडन ने रूस और चीन के दांवपेंचों से निपटने की घोषणा भी की। छठा, ईरान के साथ ट्रंप द्वारा तोड़े गए 2015 के परमाणु-समझौते को पुनर्जीवित करने की भी घोषणा हुई। भारत को इससे काफी आर्थिक और सामरिक लाभ होगा। सातवां, जब चीन पर अमेरिका और यूरोप लोकतांत्रिक बनने का दबाव डालेंगे तो उस दबाव का असर भारत-चीन संबंधों पर पड़ेगा। भारत उसका फायदा उठा सकता है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
किशोर नरेन्द्र की रायपुर यात्रा
-रमेश अनुपम
उन्हीं दिनों बूढ़ापारा में शुक्ला भवन के पास स्थित पुत्री शाला ( वर्तमान में शासकीय प्राथमिक शाला) से बाईं ओर जाने वाली सडक़ पर जोरावलमल डागा का मकान था। लंबा चौड़ा आंगन तथा साथ में एक बड़ा सा कुंआ वाला यह मकान विश्वनाथ दत्त को अपने परिवार के अनुरूप लगा।
यह मकान डे भवन तथा कोतवाली के पास भी था सो रहने के लिए इस मकान को ही सबसे उपयुक्त माना गया। कहा जाता है कि इसी मकान में विश्वनाथ दत्त अपने परिवार के साथ लगभग सवा साल तक रहे।
भूतनाथ डे के छोटे सुपुत्र अनादिनाथ डे की सुपुत्री श्रीमती आभा बसु के पति श्री निखिल रंजन बसु कुछ वर्षों पूर्व जब वे जीवित थे तो मुझे पुत्री शाला के निकट स्थित उस मकान तक ले गए थे जहां पर आज शरद डागा और गंगाराम शर्मा का मकान है। निखिल रंजन बसु का यह अभिमत था कि विश्वनाथ दत्त डे भवन में तीन महीने तक रहने के पश्चात रायपुर प्रवास तक इसी घर में किराए पर रहे थे और यह पूर्व में जोरावलमल डागा का मकान था।
रायपुर से प्रकाशित ‘नवभारत’ के 31 अगस्त 1983 में स्वामी विवेकानंद के प्रवास से संबंधित एक समाचार प्रकाशित हुआ था। इस समाचार में उन दिनों जीवित 87 वर्षीय जे.एन.चौधरी जो बूढ़ापारा में ही रहते थे से विवेकानंद के रायपुर प्रवास को लेकर बातचीत की गई थी।
जे एन चौधरी ने अपने पिता रायबहादुर देवेन्द्र नाथ चौधरी के मुंह से सुना था कि विश्वनाथ दत्त पहले मेघ मार्केट के पास स्थित डे भवन में रहते थे फिर बाद में वे अपने परिवार सहित शुक्ला भवन के पास जोरावलमल डागा की जमीन पर स्थित मकान में आ गए थे।
स्वामी विवेकानंद के रायपुर प्रवास को लेकर भी कई तरह के अभिमत हैं। विश्वनाथ दत्त अपने परिवार सहित किस सन में रायपुर आए इसे लेकर भी मत भिन्नता रही है।
कुछ लोग यह मानते हैं कि विश्वनाथ दत्त अपने परिवार के साथ सन 1877 में रायपुर आए थे साथ ही वे यह भी मानते हैं कि जिस समय विश्वनाथ दत्त और भूतनाथ डे अपने परिवार सहित कोलकाता से रायपुर आ रहे थे उस समय भूतनाथ डे की पत्नी श्रीमती एलोकेशी डे की गोद में छह माह का शिशु हरिनाथ डे भी था।
हरिनाथ डे का जन्म 12 अगस्त 1877 में हुआ था इस हिसाब से फरवरी 1878 में हरिनाथ डे की आयु छह माह की होती है। इस तरह कई विद्वान यह मानते हैं कि विश्वनाथ दत्त 1878 के फरवरी माह में रायपुर आए थे।
बांग्ला के शोधकर्ता प्रताप मुखोपाध्याय जिन्होंने विवेकानंद के रायपुर प्रवास पर लंबे समय तक शोध कार्य किया है, उन्होंने अपने ग्रंथ ‘नाना बिध प्रसंग ‘के एक अध्याय’ स्वामी विवेकानंद प्रथम रायपुर गमन एवं अब स्थिती प्रसंग में लिखा है कि स्वामी विवेकानन्द अपने परिवार सहित फरवरी 1878 में रायपुर आए थे और जुलाई 1879 में वापस कोलकाता गए थे।
इसके प्रमाण में वे बताते हैं कि स्वामी विवेकानंद 1879 में वापस कोलकाता पहुंचते हैं तथा 1 नवंबर 1879 को स्वामी विवेकानंद एंट्रेंस एग्जाम का फार्म भरते हैं और 1 दिसंबर से होने वाली परीक्षा में सम्मिलित होते हैं। 1880 में वे एंट्रेंस एग्जाम की परीक्षा पास करते हैं।
स्वामी विवेकानंद की कोलकाता वापसी का वर्णन करते हुए श्री सत्येन्द्र नाथ मजूमदार ने अपने ग्रंथ ‘विवेकानंद चरित’ में लिखा है ‘लगभग दो वर्ष बाद प्रियदर्शन नरेंद्रनाथ शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन प्राप्त कर रायपुर से अपने मित्रों के बीच पुन: लौटे। बहुत दिनों के बाद उन्हें पाकर उन लोगों के आंनद की सीमा न रही।लगभग दो वर्ष तक अनुपस्थित रहने के कारण प्रवेशिका श्रेणी में भर्ती होने में उन्हें कुछ अड़चन हुई। अंत में उनके गुनमुग्ध शिक्षकों ने अधिकारियों की विशेष अनुमति पाकर उन्हे भर्ती कर लिया। दो वर्ष की पाठ्य पुस्तकों को कठोर परिश्रम से एक ही वर्ष में समाप्त कर वे प्रवेशिका परीक्षा के लिए तैयार हुए। जब वे प्रशंसा के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए तब उनके मित्र और परिवारवालों के आंनद का पारावर न रहा।’
किशोर नरेंद्र के रायपुर प्रवास को लेकर भी श्री सत्येन्द्र नाथ मजूमदार ने अपने इसी ग्रंथ में लिखा है ‘नरेंद्रनाथ ने दो वर्ष तक। पिता के साथ रहकर केवल ज्ञान लाभ ही नहीं किया बल्कि उनके किशोर चरित्र पर पिता के महानता की गंभीर छाप भी पड़ी। तेजस्विता, दूसरों को दुखी देखकर दुखी होना, विपत्ति में धैर्य को न छोड़ते हुए निर्विकार चित्त से अपना कर्तव्य करते जाना, नरेंद्र ने अपने पिता से ही सीखा था।’
इस तरह किशोर नरेंद्र का रायपुर प्रवास किशोर नरेंद्र के लिए किसी स्वर्णिम युग से कम नहीं था।स्वामी विवेकानंद अपने रायपुर प्रवास के सुमधुर दिनों को कभी भुला नहीं पाए थे।
रायपुर ने किशोर नरेंद्र को जो कुछ दिया वह अतुलनीय है और स्वामी विवेकानन्द ने जो दुनिया को दिया वह वंदनीय है। स्वामी विवेकानन्द के जीवन के स्वर्णिम पल इसी शहर में बीते हैं। कोलकाता के पश्चात सबसे लंबा प्रवास उनका रायपुर में ही रहा है। रायपुर शहर ने ही किशोर नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद बनने की सुदीर्घ यात्रा को संभव बनाया है।
दुखद यह है कि स्वामी विवेकानंद के रायपुर प्रवास की स्मृति को अक्षुण्ण बनाने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास अब तक नहीं किया गया है।
आज की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानंद के रायपुर प्रवास के बारे में जानकर गौरवान्वित हो सके ऐसी पहल भी दुर्भाग्यवश अभी तक छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा नहीं की गई है।
(अगले अंक में पढि़ए रायपुर और महान शख्सियत भूतनाथ डे...)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मेट्रोमेन ई. श्रीधरन को देश में कौन नहीं जानता ? जितने भी पढ़े-लिखे और समझदार लोग हैं, उन्हें पता है कि दिल्ली, कोलकाता और कोंकण में मेट्रो और रेल लाइन का चमत्कार कर दिखानेवाले सज्जन का नाम क्या है। दिल्ली की मेट्रो ऐसी है, जैसी कि दुनिया की कोई भी मेट्रो है। मैंने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान आदि की मेट्रो-रेलों में कई बार यात्राएं की हैं। बस, जापानी मेट्रो की तेज गति को छोड़ दें तो भारत की मेट्रो शायद दुनिया की सबसे बढ़िया मेट्रो मानी जाएगी। इसका श्रेय उसके चीफ इंजीनियर श्री श्रीधरन को है। अब वे 21 फरवरी के दिन भाजपा में प्रवेश लेंगे। राजनीति में उनका यह प्रवेश उनकी मर्जी से हो रहा है। उन पर किसी का कोई दबाव नहीं है। उन्होंने जब तक सरकारी नौकरी की, तब तक उनका जीवन इतना स्वच्छ रहा है कि उन्हें किसी आरोप से बचने के लिए किसी सत्तारुढ़ पार्टी की शरण में जाने की जरूरत भी नहीं है। फिर भी 88 साल की आयु में वे भाजपा में क्यों शामिल हो रहे हैं ? उनका कहना है कि वे केरल में रहते हैं और वहां की कम्युनिस्ट सरकार ठीक से काम नहीं कर रही है। मई-जून में होनेवाले प्रांतीय चुनाव में वह हारेगी। वे चुनाव भी लड़ेंगे।
श्रीधरनजी से मेरा सवाल यह है कि राजनीति के कीचड़ में कूदकर क्या वे देश का ज्यादा भला कर सकेंगे? उन्होंने जिन प्रदेशों में मेट्रो और रेल बनाई और नाम कमाया, उनमें क्या उस समय भाजपा की सरकारें थीं ? उनके लिए तो सभी पार्टियां बराबर हैं। वे अपने आपको किसी एक पार्टी की जंजीर में क्या जकड़ रहे हैं ? वे तो सबके लिए समान रूप से सम्मानीय हैं। उनका सम्मान देश के किसी भी नेता से कम नहीं है। देश और दुनिया के कई बड़े से बड़े नेताओं को हमने कुर्सी छोड़ते ही इतिहास के कूड़ेदान में पड़े पाया है। श्रीधरनजी— जैसे लोग यदि उनकी श्रेणी में शुमार होने लगें तो हमें अफसोस ही होगा। इससे बड़ा सवाल यह है कि भाजपा को यह कौनसा ताजा बुखार चढ़ा है ? सर्वश्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, शांताकुमार, सुमित्रा महाजन जैसे निष्कलंक और दिग्गज भाजपा नेताअेां को तो आपने घर बिठा दिया है, क्योंकि वे 75 साल से ज्यादा के हैं तो मैं पूछता हूं कि भाई-लोग, आप गणित भूल गए क्या ? क्या 88 का आंकड़ा 75 से कम होता है ? श्रीधरनजी के कंधे पर सवार भाजपा को केरल में वोट तो ज्यादा जरुर मिलेंगे लेकिन उनका कद छोटा हो जाएगा। एक राष्ट्रीय धरोहर, पार्टी-पूंजी बन जाएगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-राकेश दीवान
साल-दर-साल माघ महीने के शुक्लपक्ष की सप्तमी को ‘नर्मदा जयन्ती’ मनाने वालों, आदि-गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित ‘नर्मदा अष्टक’ का दैनिक परायण करने वालों और बात-बात पर ‘नरबदा माई’ की ‘सौं’ खाने वालों को कभी उस जीनदायिनी नदी की दुर्दशा का रत्तीभर भी अहसास हो पाता है जो अब तेजी से अपनी समाप्ति की ओर बढ रही है? क्या वे समझ पाते हैं कि बिजली, सिंचाई और बाढ-नियंत्रण के उन्हीं के कथित सुखों के शिगूफों की खातिर 1312 किलोमीटर लंबी नदी को उन दस विशालकाय तालाबों में तब्दील किया जा रहा है जिनमें से आधे अब तक बनकर तैयार भी हो गए हैं? क्या वे अपने जैसे नर्मदा तट के उन लाखों रहवासियों के बारे में कभी सोच पाते हैं जिन्हें बडे बांधों के नाम पर अपने-अपने घर-बार से जबरन खदेड दिया गया है और जिनके पुनर्वास के बारे में विचार तक करना सरकारें भूल चुकी हैं? क्या उन्हें नर्मदा के उत्तरी तट की 19 और दक्षिणी तट की 22, यानि हिरन, बंजर, बुढनेर, डेब, गोई, कारम, सुक्ता, बारना, बेदा जैसी 41 सहायक नदियों के स्वास्थ्य की कोई चिंता सताती है? ‘नर्मदा जयन्ती’ मनाने वालों की इन अनदेखियों का मतलब आखिर क्या है? क्या यह नदियों के प्रति हमारे पाखंडी नजरिए की ही बानगी नहीं है?
पाखंड का यह परनाला पडौस की पवित्र क्षिप्रा में भी खासा उजागर होता है। बारह साला महाकुंभ से लगाकर हर छठे-चौमासे पडने वाले पर्व-स्नानों में जिस जल को क्षिप्रा का मानकर डुबकी का पुण्य लूटा जाता है वह असल में लाखों रुपयों की बिजली फूंककर, कई किलोमीटर दूर से उठाकर लाया गया नर्मदा का पानी है। इस पानी में और जो भी हो, देव-दानवों की छीना-झपटी में गिरी अमृत की वह बूंद नहीं होगी जो सीधी क्षिप्रा में टपकी थी। पाइप लगाकर नदी जोडने की फर्जी कवायद की मार्फत कभी-कभार क्षिप्रा को सदानीरा बताने के इस पाखंड के बरक्स एक सरल-सा, सामान्य ज्ञान का सवाल उठता है कि देश के चार में से एक महाकुंभ, सिंहस्थ को सदियों से पनाह देने वाली क्षिप्रा में आखिर पानी का यह टोटा क्यों हो गया? और दो-दो सिंहस्थ करवाने वाली धर्म-धुरीण भाजपा की मौजूदा सरकार क्षिप्रा को पुनर्जीवित क्यों नहीं कर सकी? और सबसे जरूरी सवाल कि क्या तट पर बसे और उसे वापरते लाखों-लाख निवासियों का क्षिप्रा के जल के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है?
जानने वाले जानते हैं कि 2004 के सिंहस्थ में टेंकरों से लाए गए नलकूपों के पानी से क्षिप्रा को ‘जलवान’ बनाया गया था। बारह साल बाद 2016 के सिंहस्थ में दुनियाभर में थुक्का-फजीहत झेल रही ‘नदी-जोड परियोजना’ को संकट-मोचक बनाया गया। कहा गया कि क्षिप्रा-नर्मदा के इस जोड से रास्ते के अनेक गांव, शहर ‘तर’ हो जाएंगे और अंतत: सिंहस्थ का पुण्य भी मिलेगा। इस समूची जानकारी में चालाकी से बिजली के उस भारी-भरकम खर्च को छिपा लिया गया जो ‘नीचे’ बसी नर्मदा के पानी को ‘ऊंचाई’ की क्षिप्रा तक पहुंचाने में लगने वाला था। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि दो-दो सिंहस्थ करवाने वाली सरकार समेत किसी तटवासी को क्षिप्रा को साफ, सदानीरा बनाने, बनाए रखने का खयाल क्यों नहीं आता? क्या ऐसा करना कोई बडे ‘रॉकेट साइंस’ का काम है?
सत्ता, सरकार और समाज के पाखंड का यह कारनामा कोविड-19 महामारी ने खुलकर उजागर कर दिया था। इस बीमारी ने और कुछ किया हो, न किया हो, गटर बनती जाती हमारी वे नदियां अचानक साफ-सुथरी दिखाई देने लगीं थीं जिन्हें हम मां-बाप से लगाकर पुण्य-सलिला तक न जाने कितनी तरह के विशेषणों से संबोधित करते, पूजते नहीं थकते। गंगा उनमें से एक हैं जिनके प्रदूषण, गंदगी को साफ करने की सद्इच्छा रखने वालों में राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटलबिहारी बाजपेई, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी जैसे प्रतापी प्रधानमंत्री भी शामिल थे। इन सबने अपने-अपने कार्यकाल में गंगा को साफ बनाए रखने की खातिर प्राधिकरण, विभाग और फिर मंत्रालय बनाकर लाखों-करोड रुपयों का बजट आवंटित किया था। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कई-कई बार गंगा को साफ करने-रखने के लिए तत्कालीन सरकारों को निर्देशित-आदेशित किया और संसद, विधासभाओं ने अपने-अपने तौर-तरीकों से गंगा-माई के डूबते अस्तित्व पर भावुक, निर्णायक बहसें कीं–करवाईं, लेकिन सब जानते हैं कि इस सारी मार-मशक्कत के बावजूद मार्च ‘2020 के अंतिम हफ्ते तक गंगा कतई साफ नहीं हो पाईं थीं।
महामारी से निपटने के लिए लगाए गए ‘लॉकडाउन’ ने ऐसे में भौंचक करते हुए गंगा के अलावा दूसरी कई नदियों को जीने लायक बना दिया था। इनमें से एक गंगा की सहायक और एन देश की राजधानी के बीचम-बीच से गुजरने और उसका मल-मूत्र समेत तरह-तरह का रासायनिक, मेडिकल कचरा धोने वाली, मृत्यु के देवता यम की बहन यमुना हैं। इंसानी हस्तक्षेप के बिना हुई यमुना की सफाई की वजह बताई गई थी - रासायनिक कचरे से लगभग पूरी मुक्ति। नदियों और अन्य जलस्रोतों में यह रासायनिक कचरा कारखानों, अस्पतालों और मशीनी कामकाजों की मार्फत बहता रहा है और चूंकि ‘लॉकडाउन’ में ये सारे प्रतिष्ठान बंद थे, इसलिए गंगा, नर्मदा समेत यमुना प्रदूषण-मुक्त हो गईं थीं। इस सारे धतकरम में इंसानी मल-मूत्र, सीवर लाइनों आदि को ‘पाप’ का भागीदार नहीं माना गया, क्योंकि आखिर ‘लॉकडाउन’ में भी ‘नित्य-क्रियाओं’ से तो मुक्ति नहीं पाई जा सकती। दिल्ली और यमुना की बात करें तो स्पष्ट है, जल-प्रदूषण के लिए छोटे-बडे सैकडों कारखाने जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। जाहिर है, हम बहु-चर्चित, बहु-उद्धृत ‘विकास’ की नींव नदियों की मौत पर रखते रहे हैं।
पिछली सदी में हमारे यहां एक प्रख्यात प्रवासी लेखक हुए हैं - नीरद सी. चौधरी। उन्होंने भारतीय समाज के पाखंड को लेकर विस्तार से लिखा है और अपने लेखन के चलते भारी लानत-मलामत झेली है। नदियों के प्रति हम अपने रोजमर्रा के व्यवहार को देखें तो चौधरी साहब की बात एकदम सटीक बैठती है। एक तरफ तरह-तरह के कर्मकांडों के जरिए भारी जोर-शोर के साथ नदियों की पूजा-आरती की जाती है और ठीक दूसरी तरफ, उन्हीं पूज्य मानी जाने वाली नदियों में हर प्रकार का कूडा-करकट, मल-मूत्र और रासायनिक जहर बेरहमी से बहाया जाता है, उसके आसपास की वन-संपदा और पर्यावरण को नेस्त-नाबूद किया जाता है। कमाल यह है कि जैसे-जैसे विकास की भगदड में इजाफा होता जाता है, वैसे-वैसे नदियों और दूसरे जलस्रोतों में गंदगी उलीचने की रफ्तार भी बढती जाती है।
एक जमाने में नदियों को लेकर समाज में भी चेतना थी। नर्मदा के दक्षिणी तट के होशंगाबाद शहर को ही लें तो विश्वेश्वर प्रसाद दीक्षित उर्फ ‘बिस्सू महराज’ को कोई कैसे भूल सकता है जो शहर के सेठानी घाट की साफ-सफाई के स्व-नियुक्त पालक थे। बाद में नगरपालिका ने उन्हें बाकायदा औपचारिक रूप से यह जिम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन उनके रहते किसी की मजाल नहीं थी कि नर्मदाजी में कचरा डाल सके। राधेश्याम लोहिया यानि स्वामीजी वैसे तो बच्चों को तैरना सिखाने, नर्मदाष्टक सिखाने की सामाजिक जिम्मेदारी निभाते थे, लेकिन घाटों की चमाचम सफाई उनकी ही पहल पर की जाती थी। धीरे-धीरे समाज का ऐसा जैविक नेतृत्व समाप्त होता गया और नदियों समेत हमारे दूसरे प्राकृतिक स्रोत बाजार और बर्बादी के हवाले होने लगे। स्थानीय और बेहद छोटे स्तर पर होने वाले ये निजी और सामाजिक प्रयास आम लोगों में नदियों और जलस्रोतों को मान देना और उनके प्रति ठीक व्यवहार करना सिखाते थे। अब, जैसा सब जानते हैं, समूचा संसार बाजार की चपेट में है और नतीजे में नदियां भी पानी का केवल एक स्रोतभर रह गई हैं। ध्यान रखिए, नदियां सिर्फ पानी उपलब्ध करवाने वाली 'टोंटी' भर नहीं हैं। उनके साथ किया जाने वाला सम्मान का हमारा व्यवहार, बदले में हमें उनकी सद्भावना प्राप्त करने की पात्रता देगा, वरना कुछ सालों में हम नदियों को देखने-सुनने के लिए भी तरसते रह जाएंगे।
दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र भारत में कई जनतांत्रिक देशों से प्रेरणा और प्रावधान लेकर रचे शासन में जन अधिकारों का अनंत आकाश बुना तो गया है। अनुभव में लेकिन आया है कि बोलने और प्रतिरोध करने का लोकमत तो क्या सोचने तक की मानसिकता को एक तरह से सत्तानशीन हुक्मनामे के नागपाश में बांध दिया गया है। किसी ने नहीं सोचा होगा कि भारत में जम्हूरियत लागू होकर भी राजशाही से ज्यादा क्रूर तानाशाही के तेवर टर्राने लगेंगे कि हर मनुष्य अभिव्यक्ति को कोलाहल कह दिया जाएगा। जीवन को तानाशाही के तेवरों की मिन्नतें करनी पड़ेंगी, बल्कि देश के क्रमश: बड़े होते जाते जनतांत्रिक हुकूमतशाह के सामने उसी अनुपात में नाक तक रगड़नी पड़ेगी। यह तो आईन बनाने वाले वसीयतकारों ने अपनी मासूमियत के चलते सोचा ही नहीं होगा कि जिन्हें नागरिकों की अस्मिता के रक्षा के लिए मुकर्रर कर रहे हैं, वे जल्लाद की भूमिका चुनकर अपने रचे अहंकारमहल में अट्टहास करते खुद अपने को अमर होने का प्रमाणपत्र जारी करेंगे।
मुख्यतः अमेरिका के फिलाडेल्फिया के घोषणापत्र से मनुष्य को नागरिक बनाते रहने के समीकरण को हल करने के सूत्र लम्बी बहस के बाद आयातित और अंगीकृत किए गए। प्रशासन को विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के त्रिभुज, त्रिदेव, त्रिलोक में प्रशासन प्रबंध को त्रिशंकु बनने से रोकने के लिए कई नसीहतें भी दी गईं। मामला फिर भी तो सिफर होता गया। 137 करोड़ों की नागरिक-यात्रा तेज ढलान पर ही है। आगे घुमावदार अंधा मोड़ है। अगले छोर पर हिन्दू-मुस्लिम नफरत, गरीबों का काॅरपोरेटी-शोषण, संसदीय बहुमत का धनुष टंकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बंधुआ मीडियाकर्मियों का हुजूम, पुलिस, गुंडे, सेना और हर तरह के सत्ताई अत्याचार-कुल की अंधभक्ति की खाई लोकतंत्र के भविष्य का अंत पाने की सुगबुगाहट में है। साफ लिखा है इस देश की सबसे मुकम्मिल, प्रतिनिधिक जनतांत्रिक पोथी में ‘हम भारत के लोगों का ऐलान है कि देश समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, आर्थिक समानता और हर तरह के मतभेद को दरकिनार कर हर मनुष्य की बराबरी के अधिकारों का देश है।'
13 नवम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के मकसद वाला प्रस्ताव रखा। सार्थक आपत्ति डाॅ0 अंबेडकर ने की कि लोकतंत्र और समाजवाद शब्दों को साफ साफ अभिव्यक्त नहीं किया गया है। लोकतंत्र शब्द तो जुड़ा। समाजवाद का तेवर संविधान की इमला में होने के बावजूद देश की आर्थिक हालत, पूंजीवादियों और सामंतवादियों के गठजोड़ की संदिग्ध भूमिका और अंतरराष्ट्रीय व्यापार बाजार में स्वायत्त हैसियत नहीं होने से पंथनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को मुखर नहीं किया गया। 1973 में सुप्रीम कोर्ट में अपने सबसे बड़े मुकदमे केशवानंद भारती में 13 जजों की बेंच ने पत्थर की लकीर उकेर दी कि पंथनिरपेक्षता भारत के संविधान का बुनियादी ढांचा है। उसे संविधान संशोधन के जरिए भी नहीं बदला जा सकता। भारत दुनिया के सामने अपनी पंथनिरपेक्षता का चेहरा उजला कर दिखाता रहता है। इंदिरा गांधी ने तो उसके चार वर्ष बाद पंथनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को संविधान के मुखड़े में जोड़ा। ऊहापोह, मतभेद और प्रयोगमूलक शास्त्रार्थ के चलते अनुच्छेद 39 में साफ लिखा कि देश की प्राकृतिक संपदा का दोहन इस तरह ही होगा कि कुदरती दौलत देश के सभी लोगों के काम आए। कहीं नहीं लिखा कि राष्ट्रीयकरण को नेस्तनाबूद करते सारी दौलत काॅरपोरेटियों को सौंप सकें। अमीरों को देश की संपत्ति का ट्रस्टी कहते हुए भी गांधी ने दो टूक कहा था बड़े उद्योगों और चुनिंदा कार्य व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया जाए।
अभिव्यक्ति और आंदोलन आदि की आजादी के अमेरिकी तत्व संविधान की वाचालता में गूंजते हैं। निजाम का लेकिन तंत्र इतना अकड़ गया है कि अनुच्छेद 19 में सरकार के सीमित प्रतिबंधात्मक अधिकारों को भी आकाश समझ कर अपनी हेकड़ी को अनंत कर लिया है। बिल्कुल साफ है कि नागरिकों को हर सरकारी हुक्म बल्कि विधायिका के विधायन के खिलाफ आवाज उठाने और आंदोलन करने का पूरा हक है। सुप्रीम कोर्ट को असाधारण अधिकार हैं कि नुकीले सरकारी तेवरों को जनता की समझ के खिलाफ होने पर भोथरा कर दे। पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट ने रहस्य की चादर ओढ़ रखी है। उसने अपनी अभिव्यक्ति के जनाभिमुखी चेहरे पर सरकारी नस्ल का नकाब झिलमिला लिया है। सुप्रीम कोर्ट नागरिक आजादी का कैदघर या अनाथालय नहीं उसका गुरुकुल कहा गया है। यह समीकरण उलझ क्यों रहा है?
राज्यों की सीमाओं में घटबढ़ करने का संसद के जरिए केन्द्र को अधिकार है। उसका यह अर्थ नहीं कि प्रभावित प्रदेशों के नागरिकों की आवाज को गूंगा समझ या बना लिया जाए। भारतीय नागरिकता अपनी उदारता के लिए जगत प्रसिद्ध है। नागरिकों में मजहब, जाति, कुल, गोत्र की मानसिकता उन कंकड़ों की तरह है जो अपने चावल के दानों के बीच घुसकर पक जाएं तो दांतों और पेट तक में गड़ते हैं। केन्द्र सरकार को मसलन अमेरिका के भी मुकाबले भारत में ताकतवर बना दिया गया। देश तब भारत-पाक विभाजन के कारण खूंरेजी, हिंसा और बटवारे की आग में राख होने को उद्यत था। फिर भी परन्तुक लगाया कि अभिभावक भूमिका वाला केन्द्र राज्यों के साथ सौतेले पिता की तरह आचरण नहीं करेगा। केन्द्र बाद में करता रहा है। फेडरल नस्ल के देश के प्रदेश केन्द्र के अनुचर नहीं अनुज हैं। कहते हैं बड़े भाई राम ने छोटे भाई के हक में राजगद्दी छोड़ दी। छोटे भाई भरत ने लेकिन खंड़ाऊ राज्य स्थापित किया। बड़ा भाई केन्द्र प्रदेशों का सब कुछ लूट खसोट कर काॅरपोरेटियों को देता चला जा रहा है। भरत भूमिका के प्रदेश भी असहयोग लेकिन असमर्थता के बावजूद बड़े भाई से अधिकारों से खुलासा और बटवारा चाहते हैं।
दुनिया की भी हालत ऐसी है कि प्रकट युद्ध नहीं होने पर भी शांति नहीं है। राज्य और केन्द्र के अधिकारों में पहले ही संविधान ऋषियों ने पुख्ता बटवारा कर दिया है। फिर भी कहीं ज़्यादा अधिकार प्राप्त केन्द्र प्रदेशों के इलाकों में इस तरह घुसता रहता है जैसे गायों के रेवड़ में कोई उन्मत्त सांड़ घुसने की कोशिश करे। संविधान हर नागरिक को व्यापार करने की अनुमति देता है लेकिन मध्यवर्ग, मुफलिसों और गरीबों की सांसों की कीमत पर नहीं। रेलगाड़ी, वायुयान, अस्पताल, स्कूल, काॅलेज, दवाएं, पेट्रोल, डीजल, खाद्य सामग्री सबके बाजार निजी हाथों में सत्तापुरुषों द्वारा दहेज की तरह सौंपे जा रहे हैं। मुनाफाखोरी, जमाखोरी, कालाबाजारी कुछ लोगों के जीवन का मकसद हैं। वह हविश सरकार की गोद में बैठकर आंकड़ों की अंकगणित से चलते चलते बदनाम रिश्तों की बीजगणित में तब्दील हो गई है। दुनिया के सामने भारत का चेहरा विज्ञानसम्मत, प्रोन्नत, आधुनिक लेकिन मर्यादा कुल के देश की तरह हो पाना संभावित और आशान्वित किया गया था। कहां गए वे लोग जिन्होंने अपनी संवैधानिक औलादों पर भरोसा किया था? उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि उनके बाद की नागरिक पीढ़ियां भी नपुंसकता को नए भारत का चरित्र बनाएंगी। इतिहास अलबत्ता कुरबानी और अच्छाई करने वालों का ही यादनामा होता है। अपने पुरखों के रहमोकरम से ग़ाफिल रहकर करोड़ों भारतीय फकत जिंदा रहने भर को जीवन कैसे समझ सकते हैं।
-राकेश दीवान
सत्ता पर चढ़ती-उतरती राजनीतिक जमातों के निस्तेज पड़ते जाने के कारण समाज ने अपने गैर-दलीय समूह गठित कर लिए। ये समूह दलीय राजनीती के चुनाव-केन्द्रित ढांचे से बाहर, आम लोगों के बुनियादी सवालों को लेकर सामने आने लगे। प्रधानमंत्री द्वारा ‘आंदोलनजीवी’ की हैसियत से नवाजे जाने वाले आंदोलनकारी असल में ये ही हैं। ध्यान रखिए, समाज का इन कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के बिना नहीं चलता।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में सरकार का पक्ष रखते हुए प्रधानमंत्री ने भले ही ‘आंदोलनजीवी,’ ‘परजीवी’ आदि कहकर आंदोलनकारियों की खिल्ली उड़ाई हो, लेकिन प्रकारांतर से उन्होंने हाल की भारतीय राजनीति और अपनी राजनीतिक बिरादरी की पोल ही खोली है। इससे राज्य और केन्द्र में राजनीति करने वाली मुख्यधारा की उन तमाम राजनीतिक जमातों पर भी सवाल उठ गया है जिनने अस्सी के दशक के बाद समाज को मथने, हलाकान करने वाले मुद्दों को सिरे से अनदेखा छोड़ दिया था।
राष्ट्रीय स्तर पर घटित हाल की घटनाओं को ही लें तो राजनीति के सरोकार साफ हो जाते हैं। अभी पिछले ही हफ्ते उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में आई भीषण बाढ़ और नतीजे में सैकड़ों इंसानों के जीवन समेत उनके घर-बार की बर्बादी हुई है। इस त्रासदी की वजह बताई जा रहीं और उसमें ध्वस्त हो चुकीं नव निर्मित दो जल-विद्युत परियोजनाओं-तपोवन और ऋषिगंगा के औचित्य को लेकर कथित ‘आंदोलनजीवी’ ही आवाज उठाते रहे हैं। इन और हिमालय जैसे ‘बच्चा पहाड़’ में बन रहीं ऐसी ही दर्जनों परियोजनाओं को तत्काल बंद करवाने के लिए देश के एक जाने-माने ‘आंदोलनजीवी’ और वैज्ञानिक, प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद ने 112 दिन के अनशन के बाद प्राण त्याग दिए थे। उनके पहले स्वामी निगमानंद और बाद में अनेक संत-महात्माओं ने भी गंगा को अविरल बहने देने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी।
‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ (आईआईटी)-कानपुर के प्राध्यापक, ‘केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ के पहले सदस्य-सचिव, ‘राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय’ के सलाहकार और ‘चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ में प्राध्यापक जैसे जिम्मेदार पदों पर रहे कथित ‘आंदोलनजीवी’ जीडी अग्रवाल उत्तराखंड की 14 नदी-घाटियों में बनी और बन चुकी 220 से अधिक छोटी-बड़ी विनाशकारी जल-विद्युत परियोजनाओं को तत्काल रोकने के लिए प्राणों की आहुति दे रहे थे, उस समय राजनीतिक जमातें क्या कर रही थीं? भरी-पूरी राजनीतिक बिरादरी के मुख्यधारा कुनबे में सिर्फ दो नाम सामने आते हैं-प्रणव मुखर्जी और उमा भारती, जिन्होंने गंगा और उनकी सहायक नदियों को बचाने की अपने स्तर पर कोई पहल की थी।
सन् 2010 में डॉ.मनमोहन सिंह की सरकार में केन्द्रीय जल-संसाधन विभाग संभाल रहे प्रणव मुखर्जी ने जीडी अग्रवाल के उपवास की प्रतिक्रिया-स्वरूप गंगा के एन मुहाने पर बन रही ‘लोहारी-नागपाला’ परियोजना पर ताला जड दिया था। इसी तरह तत्कालीन ‘गंगा संरक्षण’ मंत्री उमा भारती ने अपने मंत्रालय की तरफ से शपथ-पत्र देकर सुप्रीम कोर्ट में गंगा पर बनी या प्रस्तावित जल-विद्युत परियोजनाओं को रोकने की मांग की थी। कमाल यह था कि उमा भारती की पार्टी के ही पर्यावरण मंत्री ने ‘गंगा संरक्षण’ मंत्रालय के ठीक विपरीत बांध परियोजनाओं की तरफदारी की थी।
राजनेताओं के बीच का यह दुराव अभी भी दिखाई दे रहा है। उत्तराखंड की त्रासदी के दौरान वहां की यात्रा कर रहीं उमा भारती का कहना है कि ‘उत्तराखंड के बांधों के बारे में मंत्री रहते हुए मैंने शपथ-पत्र देकर आग्रह किया था कि हिमालय एक बहुत संवेदनशील स्थान है, इसलिए गंगा और उसकी सहायक नदियों पर पॉवर प्रोजेक्ट नहीं बनना चाहिए। ‘लेकिन उन्हीं की पार्टी के केन्द्रीय ‘ऊर्जा मंत्री’ आरके सिंह ने तपोवन त्रासदी का सिर्फ जायजा लेते हुए घोषित कर दिया कि ‘तपोवन परियोजना का काम दुबारा शरू होगा।’ विडंबना यह है कि 85 फीसदी बन चुकी ‘तपोवन’ परियोजना को 2023 में लोकार्पित किया जाना था, लेकिन हाल की त्रासदी ने उसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया है।
समाज की बुनियादी समस्याओं को पीठ दिखाने की राजनेताओं की आदत दिल्ली की चौहद्दी पर जारी किसान आंदोलन में भी दिखाई देती है। करीब तीन महीने से कडक़ती ठंड, बरसात और बिजली-पानी-शौचालय की अनुपस्थिति में धरना देकर बैठे कथित ‘आंदोलनजीवी’ किसानों ने राजनीतिक पार्टियों से जुड़े लोगों को अपने मंचों से कोई यूं ही सेंत-मेंत में दूर नहीं रखा है। इसकी वजहें हैं। अव्वल तो तरह-तरह के डंडों-झंडों वाली राजनीतिक जमातों में मुद्दे पर एकमत नहीं बन पाता और दूसरे, उनकी प्राथमिकता वोट यानि चुनाव यानि सत्ता की सवारी गांठना भर होती है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या किसानों की समस्याएं राजनीतिक जमातों के एजेंडे में पहले नहीं उठीं होतीं?
साठ के दशक में ‘भारी लागत से भारी उत्पादन’ वाली ‘हरित क्रांति’ तब के राजनीतिक नेतृत्व की पहल पर लाई गई थी, लेकिन क्या उसके बाद के राजनेताओं ने ‘हरित क्रांति’ के प्रभावों पर रत्तीभर भी ध्यान दिया? क्या इसी ‘हरित क्रांति’ के बहाने देशभर में बनाए गए बड़े बांधों के प्रभावों, यहां तक कि लाभ-हानि पर भी किसी राजनीतिक फोरम में चर्चा हुई? विशालकाय बांधों और उनकी मार्फत होने वाली ‘असीमित’ सिंचाई ने उत्पादक मिट्टी को बर्बाद कर दिया है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मिट्टी की उत्पादकता आधी रह गई है, लेकिन क्या किसी राजनीतिक पार्टी ने इसकी गंभीरता को समझकर इस पर चर्चा की?
देश के बीचमबीच बसे शहर भोपाल में 1984 में दुनिया की सर्वाधिक भीषण औद्योगिक त्रासदी हुई थी। इसकी चपेट में आए हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पडी थी और आज भी लाखों भोपाली इसकी भीषणता को भोगते देखे जा सकते हैं। लेकिन बदल-बदलकर सत्ता पर काबिज होने वाली राजनीतिक पार्टियों ने इस मसले को या तो छिपाने की कोशिशें कीं या फिर औने-पौने मुआवजे से निपटा दिया। जिन ‘आंदोलनजीवियों’ ने इस मुद्दे को जिलाए रखा वे हमेशा ही राजनीतिक जमातों के निशाने पर रहे।
हमारे समय का सर्वाधिक विवादास्पद शब्द ‘विकास’ है और इसके प्रभाव में अधिकांश देशवासी कराह रहे हैं, लेकिन इसे लेकर किसी राजनीतिक मंच पर गहराई से विचार-विमर्श नहीं होता। उलटे मौजूदा विकास की अवधारणा को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां एकमत हैं। जल, जंगल, जमीन, पुनर्वास-विस्थापन, कृषि, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे राजनीतिक जमातों की गतिविधियों के बाहर होकर अब कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के सरोकारों में शामिल हो गए हैं। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
अस्सी के दशक तक राजनीतिक पार्टियां जमीनी मुद्दों पर सक्रिय रहीं। जमीन, पानी, भूख, मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे राजनीतिक मुद्दे हुआ करते थे और उन्हें लेकर राजनीतिक पार्टियां खासी सक्रिय रहती थीं। धीरे-धीरे संसदीय लोकतंत्र ने राजनीति को चुनाव की चपेट में ले लिया। अब राजनीतिक जमातों का एकमात्र और सर्वाधिक जरूरी काम चुनावों में जीतना हो गया। जाहिर है, चुनाव केन्द्रित राजनीति ने आम लोगों के मुद्दों को राजनीति से दूर कर दिया। अब एक-सी त्रासदियां बार-बार होती हैं, लेकिन किसी राजनीतिक पार्टी को उससे सीखने की जरूरत महसूस नहीं होती। उत्तराखंड में ही करीब सात साल पहले, 2013 में, केदारनाथ में ठीक ऐसी ही त्रासदी घटी थी। कई गैर-दलीय संगठनों, कथित ‘आंदोलनजीवियों,’ स्वतंत्र वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने इस पर अपनी रायें दी थीं, लेकिन राज करने वाली राजनीतिक जमातों ने इससे कुछ नहीं सीखा। विकास के नाम पर ठीक केदारनाथ के पहले की हरकतें दुहराई गईं और नतीजे में एक और त्रासदी झेलनी पड़ी।
जाहिर है, सत्ता पर चढ़ती-उतरती राजनीतिक जमातों के निस्तेज पड़ते जाने के कारण समाज ने अपने गैर-दलीय समूह गठित कर लिए। ये समूह दलीय राजनीती के चुनाव-केन्द्रित ढांचे से बाहर, आम लोगों के बुनियादी सवालों को लेकर सामने आने लगे। प्रधानमंत्री द्वारा ‘आंदोलनजीवी’ की हैसियत से नवाजे जाने वाले आंदोलनकारी असल में ये ही हैं। ध्यान रखिए, समाज का इन कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के बिना नहीं चलता।
-ध्रुव गुप्त
इसमें दो राय नहीं कि आतंक का कारखाना कहा जाने वाला हमारा पड़ोसी पाकिस्तान खुद भी आतंक का बड़ा भुक्तभोगी रहा है। धार्मिक कट्टरता की बुनियाद पर खड़े इस मुल्क में ऐसा कोई दिन नहीं गुजऱता जब वहां आतंकी हमलों में पांच-दस बेगुनाह नहीं मारे जाते। बावज़ूद इसके भारत-विरोध में अंधे हो चुके उस देश में हालात को बदलने की कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती। वह वैसा देश है जहां आतंकी दहशतगर्दी के पक्ष में खुलेआम सभाएं करते हैं। जहां सेना और सियासत न केवल आतंक का खुला समर्थन करती है, बल्कि आतंकियों को प्रश्रय, प्रशिक्षण और आर्थिक मदद भी मुहैया कराती है। जहां सुविधा के अनुसार आतंकियों का वर्गीकरण होता है - जो पाक का अहित करे वह बुरा आतंकी और जो पड़ोसी भारत सहित दूसरे देशों में अव्यवस्था फैलाए वह अच्छा आतंकी। पाक वह लोकतंत्र है जहां नीति-निर्धारण में आम जनता की कभी कोई भूमिका नहीं रही। वहां की गृह नीति मुल्ले-मौलवी तय करते हैं, अर्थनीति चीन तथा अमेरिका और विदेश नीति सेना तय करती है। आश्चर्य यह है कि उस देश में आम लोगों के बीच से असहमति और प्रतिरोध की कभी कोई गंभीर आवाज़ नहीं उठी। आज हालत यह है कि दुनिया के तमाम देश या तो पाक से नफरत करते हैं या अपने हितों के लिए उसका इस्तेमाल। चीन आज उसके साथ खड़ा ज़रूर दिखता है, लेकिन उसकी दिलचस्पी इस मरते देश की खाल तक नोच लेने भर में है।
दुनिया के इस भूभाग में आतंक की समस्या को अगर सुलझना है तो यह पाकिस्तान और आतंक के भुक्तभोगी उसके हमसाया मुल्क़ों - भारत और अफगानिस्तान के आपसी सहयोग से ही सुलझेगा। दुखद यह है कि ऐसी कोई संभावना दूर तक नजऱ नहीं आती। आज अपने ही अंतर्विरोधों, आतंक और अर्थसंकट की वज़ह से वह देश नष्ट होने के कगार पर खड़ा है। अपने देश की मीडिया के एक बड़े हिस्से में पाक की बर्बादी का जश्न चल रहा है। क्या सचमुच हमें पाकिस्तान की बर्बादी से ख़ुश होना चाहिए ? बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान अगर मरेगा तो उसके साथ थोड़ा-थोड़ा भारत भी ज़रूर मरेगा ! आखिर कल तक तो वह हमारे अपने वज़ूद का ही हिस्सा रहा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह ठीक है कि अमेरिका, चीन और कुछ यूरोपीय राष्ट्र आर्थिक क्षेत्र में भारत से आगे हैं, लेकिन इस वक्त दुनिया में किसी एक राष्ट्र का डंका सबसे ज्यादा जोर से बज रहा है तो वह भारत है। दुनिया के 15 देशों में भारतीय मूल के नागरिक या तो वहां के सर्वोच्च पदों पर हैं या उनके बिल्कुल निकट हैं। या तो वे उन देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हैं या सर्वोच्च न्यायाधीश हैं या सर्वोच्च नौकरशाह हैं या उच्चपदस्थ मंत्री आदि हैं। पांच राष्ट्रों के शासनाध्यक्ष भारतीय मूल के हैं। तीन उप-शासनाध्यक्ष, 59 केंद्रीय मंत्री, 76 सांसद और विधायक, 10 राजदूत, 4 सर्वोच्च न्यायाधीश, 4 सर्वोच्च बैंक प्रमुख और दो महावाणिज्य दूत भारतीय मूल के हैं। इनमें दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों को नहीं जोड़ा गया है। यदि उन सबको भी जोड़ लिया जाए तो उक्त 200 की संख्या दुगुनी-तिगुनी हो सकती है। ये सब राष्ट्र भी सदियों से भारत के अंग रहे हैं और भारत उनका अंग रहा है। आप बताएं कि क्या आपके भारत-जैसा कोई अन्य राष्ट्र सारी दुनिया में दिखाई पड़ता है? अब तो संयुक्तराष्ट्र संघ के विभिन्न संगठनों में भी दर्जनों महत्वपूर्ण पदों पर भारतीय लोग विराजमान हैं।
इस समय लगभग साढ़े तीन करोड़ भारतीय मूल के नागरिक दुनिया में दनदना रहे हैं। जिन-जिन देशों में वे गए हैं, वहां उनकी हैसियत क्या है? वे कभी गए थे वहां मजदूरी, शिक्षा और रोजगार वगैरह की तलाश में लेकिन वे अब उन देशों की रीढ़ बन गए हैं। आज यदि ये साढ़े तीन करोड़ भारतीय अचानक भारत लौट आने का फैसला कर लें तो अमेरिका-जैसे कई संपन्न देशों की अर्थ-व्यवस्था घुटनों के बल रेंगने लगेगी। इस समय भारतीय लोग अमेरिका के सबसे संपन्न, सबसे सुशिक्षित और सबसे सुसंस्कृत लोग माने जाते हैं। अमेरिका सहित कई देशों में भारतीय लोग ज्ञान-विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थानों पर प्रतिष्ठित हैं। उनकी जीवन-शैली और संस्कृति वहां किसी योजनाबद्ध प्रचारतंत्र के बिना ही लोकप्रिय होती चली जा रही है। भारत एक अघोषित विश्व-गुरू बन गया है। भारतीयता का प्रचार करने के लिए उसे तोप, तलवार, बंदूक और लालच का सहारा नहीं लेना पड़ रहा है। विदेशों में बसे भारतीय अपने मूल देश की अर्थ-व्यवस्था को मजबूत बनाने में तो भरसक योगदान करते ही हैं, वे लोग भारतीय विदेश नीति के क्षेत्र में भी हमारे बहुत बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। कभी-कभी भारत के आंतरिक मामलों पर उनका बोल पडऩा हमें आपत्तिजनक लग जाता है लेकिन उनके लिए वह स्वाभाविक है। इसका हमें ज्यादा बुरा नहीं मानना चाहिए। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि भारत को ऐसा बनाएं कि यहां से प्रतिभा-पलायन कम से कम हो।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अक्षित संगोमला
विरोध की आवाजों का दमन करने के लिए सरकार की गैर-कानूनी नीतियों को लेकर भी चिंता बढ़ गई है
21 वर्षीय जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ़्तारी में टेक्नोलॉजी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी गूगल की भूमिका को लेकर इंटरनेट पर जमकर चर्चा हो रही है, खासतौर से माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर।
इन चर्चाओं में इस बात को लेकर भी चिंता जाहिर की जा रही है कि सरकार अपने विरोध में उठने वाली आवाजों का दमन करने के लिए गैर-कानूनी तरीके अपना रही है।
रटगर्स विश्वविद्यालय की मीडिया, कल्चर व फेमिनिस्ट स्टडीज की पत्रकार और अध्यक्ष नाओमी क्लेन ने ट्विटर पर लिखा, "दिल्ली पुलिस ने 21 साल की जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार किया कि उसने किसानों का समर्थन करती हुई एक हितकारी टूलकिट में बेहद मामूली बदलाव किए, जिसके लिए पुलिस का अजीब दावा है कि ये किसी गुप्त आतंकी षड़यंत्र का हिस्सा है। संभव है कि दिशा को निशाना बनाने में गूगल ने पुलिस की मदद की होगी।"
इसी ट्वीट के आगे क्लेन ने एएनआई के 15 फरवरी के ट्वीट को कोट किया, जिसमें टूलकिट दस्तावेज से जुड़े दिल्ली पुलिस के सवालों पर गूगल ने जवाब दिए थे।
रवि को दिल्ली पुलिस ने राजद्रोह और आपराधिक षड़यंत्र रचने के आरोप में 13 फरवरी को गिरफ्तार किया था। उन्हें 5 दिन की न्यायिक हिरासत में भेजा गया है।
दिल्ली पुलिस का कहना है की दिशा रवि ने नए कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन के बारे में टूलकिट प्लान की, उसमें बदलाव किए और स्वीडन की जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के साथ उन्हें शेयर किया।
किसान आंदोलन लगभग तीन महीनों से चल रहा है और इसे हाल ही में गायिका रिहाना और थनबर्ग जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लोगों का समर्थन मिला है।
भारत के कानूनी शोधकर्ता रवि की गिरफ्तारी को लेकर चिंतित हैं, खासतौर से तब जब इस गिरफ्तारी में गूगल और ट्विटर जैसी दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनियां शामिल हैं।
नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक कानूनी शोधकर्ता ने बताया कि,"जानकारी का इस तरीके से उपयोग, जहां मध्यस्थ कंपनी (इस मामले में गूगल) से अपने उपयोगकर्ताओं का डाटा शेयर करने को कहा जा सकता है, इसे सूचना व तकनीक कानून के प्रावधानों व आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत नियंत्रित किया जाता है। इनमें से हर एक प्रावधान कानूनी संरक्षण के साथ आते हैं। उदाहरण के तौर पर इसमें डाटा लेने के लिए लिखित में निवेदन देना होता है।"
कठोर शब्द
रवि पर लगाए गए दिल्ली पुलिस के आरोप काफी गंभीर हैं। 4 फरवरी को टूलकिट दस्तावेज का संज्ञान लेते हुए दिल्ली पुलिस ने ट्वीट किया था: "इसका उद्देश्य आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय युद्ध को शुरू करना था।"
4 फरवरी को किसान आंदोलन के समर्थन में ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट करने के बाद दिल्ली पुलिस ने टूलकिट दस्तावेज बनाने वालों के खिलाफ मामला दर्ज किया।
दिशा रवि की गिरफ्तारी के एक दिन बाद, 14 फरवरी को, पुलिस विभाग ने एक ट्वीट करके कहा कि, "रवि ने एक व्हाट्सऐप ग्रुप शुरू किया और टूलकिट दस्तावेज बनाने में सहयोग किया। उन्होंने दस्तावेज बनाने वालों के साथ करीबी से काम किया।"
दिल्ली पुलिस ने यह भी आरोप लगाया कि टूलकिट बनाने वाले लोगों ने "भारत के खिलाफ असंतोष फैलाने के लिए खालिस्तान समर्थक पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन के साथ मिलकर काम किया।"
दिशा ने 14 फरवरी को पटियाला हाउस कोर्ट में दावा किया कि उन्होंने दस्तावेज कि कुछ लाइन में ही बदलाव किया था। इसके जवाब में दिल्ली पुलिस ने कहा कि उन्होंने जो किया, वो एक नहीं कई बार किया गया था।
तस्वीर बोलती हैं: ग्रेटा का असर, जलवायु परिवर्तन पर अंकुश के लिए आगे आए भारत के बच्चे
ग्रेटा ने दुनिया भर के हुक्मरानों को चेतावनी दी, माफ नहीं करेगी युवा पीढ़ी
शोधकर्ता ने इशारा किया कि ट्विटर और गूगल जैसी ऑनलाइन कंपनियों की जिम्मेदारी है कि वे सिर्फ सूचना के उपयोग के लिए कानूनी अनुरोधों का पालन करें।
"इसका परिणाम यह होना चाहिए कि सरकार द्वारा किए गए ऐसे अनुरोध, जिसमें उपयोगकर्ताओं की सूचना को गैर-कानूनी ढंग से हासिल किया जाना हो, उन्हें यह कंपनियां खुद नकार दें, जैसा कि अमेरिकी सरकार के बारे में स्नोडेन लीक्स ने खुलासा किया था।
शोधकर्ता ने अमेरिका स्थित गैर लाभकारी संस्था इलेक्ट्रॉनिक फ्रीडम फ्रंटियर (ईईएफ) की रिपोर्ट 'हू हैस योर बैक' का उदाहरण दिया। यह संस्था डिजिटल प्राइवेसी, बोलने की आजादी और नवोन्मेष से जुड़े मसलों पर काम करती है।
यह रिपोर्ट यह आकलन करती है कि क्या कंपनियों में ऐसी कोई सार्वजनिक नीति है जिसके तहत सूचना प्राप्त करने के लिए कानूनी अनुरोध किया जाना ज़रूरी है और वे अपने उपयोगकर्ताओं के साथ धोखा नहीं कर रही हैं।
भारतीय सन्दर्भ में भी इन कंपनियों को अनुपालन और सार्वजनिक दायित्व के उसी स्तर का प्रदर्शन करना चाहिए।
हाल ही में ट्विटर की आलोचना की गई थी, जब उसने किसान आंदोलन से जुड़े 500 ट्विटर हैंडल डीएक्टिवेट कर दिए थे।
शोधकर्ता ने ट्विटर जैसे अन्य प्लेटफॉर्म्स को दोष देते हुए कहा कि इन प्लेटफॉर्म्स ने पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और छात्रों की ट्रोलिंग और उत्पीड़न रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए, जिसके चलते लोग खुद ही अपनी सूचना को सेंसर करने लगे हैं।
खतरे में आंदोलन
रवि की गिरफ़्तारी से देश में जलवायु न्याय आंदोलन को भी नुकसान पहुंच सकता है। दिशा रवि, थनबर्ग द्वारा शुरू किए गए वैश्विक जलवायु न्याय आंदोलन फ्राइडे फॉर फ्यूचर, इंडिया के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और उसकी अध्यक्ष भी हैं।
स्वीडन से शुरू हुआ यह आंदोलन 215 देशों के 7800 शहरों में फैल गया है और इससे 1.4 करोड़ लोग जुड़े हैं।
फ्राइडे फॉर फ्यूचर, इंडिया की वेबसाइट के मुताबिक, "मौजूदा जलवायु संकट और पारिस्थितिकी संकट पर ध्यान देने की हमारी मांगों से केंद्रीय और राज्य की सरकारों को अवगत करने के लिए क्लाइमेट स्ट्राइक हमारा शांतिपूर्ण, अहिंसक तरीका है।"
संस्था का दावा है कि दुनियाभर में अब तक 78,000 स्ट्राइक कार्यक्रम आयोजित किए जा चुके हैं। खुद रवि ने भारत में ऐसी कई स्ट्राइक में हिस्सा लिया है और वे अपने गृहनगर बेंगलुरु में अन्य पर्यावरण सम्बन्धी समूहों में भी सक्रिय हैं।
स्थानीय आवाजें
रवि की गिरफ्तारी के खिलाफ मणिपुर से नौ वर्षीया जलवायु कार्यकर्ता लिसीप्रिया कांगुजम ने गहरी आपत्ति दर्ज कराई है। उन्होंने कहा कि रवि की गिरफ़्तारी देश की बच्चियों और महिलाओं की आवाज दबाने की एक कोशिश है। उन्होंने यह भी कहा कि वे पृथ्वी के लिए अपनी लड़ाई से नहीं हटेंगी।
प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (पीटीआई) के मुताबिक, नोएडा स्थित सोशल एक्शन फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट के संस्थापक विक्रांत तोंगड़ ने कहा कि, यह गिरफ़्तारी जलवायु कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ने का काम करेगी।
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संस्था की सचिव कविता कृष्णन ने कहा कि, "हमारा देश फिलहाल लोकतंत्र की तरह काम नहीं कर रहा है। अगर हम विरोध प्रदर्शन को षड़यंत्र रचने की नज़र से देख रहे हैं तो यह लोकतंत्र नहीं है।"
पीटीआई के मुताबिक, कोएलिशन फॉर एनवायरनमेंट जस्टिस इन इंडिया के बैनर तले देश के 50 से भी ज्यादा शिक्षाविदों, कलाकारों और कार्यकर्ताओं ने संयुक्त बयान देते हुए दिशा रवि के समर्थन में आवाज़ उठाई है और उनकी गिरफ्तारी को निराशाजनक, गैर-कानूनी और केंद्र सरकार की तरफ से अनावश्यक प्रतिक्रिया बताया है।
बयान में यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार कि नीतियां विभाजनकारी हैं, जिससे "लोगों का असली मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके।" (downtoearth.org.in)
रूस में बीते कुछ समय से विरोध प्रदर्शन खूब हो रहे हैं। नावाल्नी तो इन प्रदर्शनों का चेहरा और एक वजह हैं लेकिन देश में बढ़ती गरीबी और आय का संकट भी लोगों को इसके लिए मजबूर कर रही है।
कोरोना वायरस की महामारी शुरू होने के बाद से ही मॉस्को के मार्था एंड मैरी कॉन्वेंट में लोगों की भीड़ बढ़ गई है। सफेद दीवारों वाली इस मोनेस्ट्री में कई समाजसेवी संस्थाओं के केंद्र हैं। ये संस्थाएं दूसरे कार्यक्रमों के अलावा यहां लोगों को मुफ्त में खाने के पैकेट बांटती हैं।
मिलोसेर्डी नाम की संस्था में समाज सेवा करने वाली येलेना तिमोश्चुक बताती हैं, ‘महामारी से पहले हमारे यहां हर रोज 30-40 लोग आते थे। अब 50-60 लोग आने लगे हैं, काम बहुत ज्यादा बढ़ गया है।’ तिमोश्चुक की टेबल पर सूरजमुखी के तेल के ढेर सारे पैकेट रखे हैं।
कतार में खड़े हो कर कूटू, चीनी, चाय और दूसरी चीजें लेने आने वाले लोगों में ज्यादातर रिटायर लोग हैं। हालांकि इनके साथ ही उनमें ऐसे भी लोग शामिल हो रहे हैं जिनकी या तो नौकरी चली गई है या फिर जिनका वेतन काटा गया है।
कोरोना वायरस की महामारी ने रूस की खराब अर्थव्यवस्था का और बुरा हाल कर दिया है। पश्चिमी देशों के प्रतिबंध, तेल की घटती कीमतें और कमजोर कारोबारी निवेश के चलते हालात और बिगड़ते जा रहे हैं। विशेलेषकों का कहना है कि बढ़ती गरीबी, घटती कमाई और महामारी के दौर में पर्याप्त सरकारी सहयोग के अभाव में राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के लिए समर्थन घट रहा है। प्रचंड बहुमत के साथ दो दशकों से रूस की सत्ता पर पुतिन काबिज हैं लेकिन अब उनके विरोधी मजबूत हो रहे हैं।
जेल में बंद पुतिन के प्रमुख विरोध की एक पुकार पर बीते कुछ हफ्तों हजारों की संख्या में लोग रूस में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। सितंबर में होने वाले संसदीय चुनाव से पहले नावाल्नी की टीम और ज्यादा प्रदर्शनों की योजना बना रही है।
रूस में लोगों के पास मौजूद मुद्रा बीते करीब आधे दशक में 3.5 फीसदी सिकुड़ चुकी है। इसी बीच खाने पीने की चीजों के दाम बहुत बढ़ गए हैं। गिरते जीवन स्तर से लोगों के बढ़ते गुस्से को भांप कर बीते दिसंबर में राष्ट्रपति पुतिन ने मंत्रियों को कीमतों की वृद्धि रोकने के लिए आपातकालीन उपाय करने के आदेश दिए। इसके बावजूद जनवरी में चीनी की कीमत एक साल पहले की तुलना में करीब 64 फीसदी ज्यादा थी। 66 साल की सांड्रा ने बताया कि उन्होंने सुपरमार्केट जाना छोड़ दिया है और इसकी बजाय मुफ्त में बंटने वाला खाना लेने समाजसेवी संगठनों के पास जा रही हैं। पेंशन पर गुजारा करने वाली सांड्रा का कहना है, ‘आप कुछ नहीं खरीद सकते। पहले तो मैं चिडिय़ों को भी दाना डाल देती थी लेकिन अब तो अनाज खरीदना भी मुश्किल हो गया है।’
एफबीके ग्रांट थॉर्नटन में स्ट्रैटजिक एनालिसिस के प्रमुख इगोर निकोलायेव कहते हैं, ‘राजनीतिक नतीजों के लिहाज से मौजूदा स्थिति अच्छी नहीं लग रही है। अधिकारियों के लिए जोखिम बढ़ गया है।’ निकोलायेव का कहना है कि बुजुर्ग रूसी खास तौर से बढ़ती (बाकी पेज 8 पर)
कीमतों को लेकर बहुत ‘संवेदनशील’ हैं। इन लोगों ने महंगाई का वो दौर देखा है जिसके बाद 1991 में सोवियत संघ का विघटना हुआ। निकोलायेव मानते हैं कि लोगों की नाराजगी को देखते हुए रूसी सरकार संसदीय चुनावों से पहले कोई नया आर्थिक पैकेज ले कर आ सकती है।
हाल ही में एक स्वतंत्र एजेंसी लेवाडा सेंटर के कराए सर्वे में 43 फीसदी रूसियों ने इस बात से इनकार नहीं किया कि मौजूदा विरोध-प्रदर्शनों को आर्थिक मांगों की वजह से प्रेरणा मिल रही है। इससे पहले यह स्तर 1998 में दिखा था। सर्वे में यह भी पता चला कि जवाब देने वालों में 17 फीसदी लोग खुद प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए तैयार थे।
लेवाडा के उपनिदेशक डेनिस वोल्कोव का कहना है कि हाल में हुए प्रदर्शन ये दिखाते हैं कि अधिकारियों के प्रति लोगों में गुस्सा केवल हाशिए पर खड़े विपक्षियों में ही नहीं बल्कि बहुत सारे प्रदर्शनकारी आर्थिक मुश्किलों की वजह से बाहर आ रहे हैं।
फोब्र्स पत्रिका के रूसी संस्करण में वोल्कोव ने लिखा है, ‘अधिकारियों के पास उन लोगों को देने के लिए कुछ नहीं है जो नीतियों से नाखुश हैं।’ इसके साथ ही उन्होंने रूसी रईसों की बढ़ती संपत्ति और समाज में बढ़ते विभाजन की ओर भी इशारा किया है।
नावाल्नी के समर्थन में होने वाली व्लादीवोस्तोक के पैसिफिक पोर्ट की रैली में शामिल येकातेरिना निकिफोरोवा ने कहा कि देश ठहरा हुआ है। राजनीति शास्त्र की इस छात्रा ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा कि उन्हें किसी तरह के आर्थिक मौके या राजनीतिक विकास नजर नहीं आता। 22 साल के आर्सेनी दमित्रियेव सेंट पीटर्सबर्ग की रैली में शामिल हुए और उनकी भी यही राय है। समाज शास्त्र के इस छात्र ने कहा, ‘आंकड़ों को देख कर मैं समझ गया हूं कि हाथ में आने वाला आय घटती जा रही है और जीवन के स्तर में सुधार नहीं हो रहा है।’ एनआर/आईबी (एएफपी)
-विजय शंकर सिंह
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने 21 वर्षीय जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी का कारण बने ‘टूलकिट’ के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘मैं देख रहा हूं कि हिंसा के संबंध में टूलकिट में कुछ भी नहीं है या लोगों को उकसाने के संबंध में कुछ भी नहीं है। मैं नहीं देख पा रहा कि इस दस्तावेज में क्या देशद्रोह है। कोई प्रदर्शनकारियों के साथ सहमत हो सकता है या नहीं, यह एक अलग मामला है। लेकिन यह कहना कि यह देशद्रोह है, कानून में पूरी तरह से समझ में नहीं आ रहा है।’
न्यायमूर्ति गुप्ता ने 1962 केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले का उल्लेख किया, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ्र की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखा गया था, और कहा था कि राजद्रोह केवल तभी हो सकता है जब हिंसा के लिए उकसाया गया हो या सार्वजनिक अव्यवस्था हुई हो, जो तात्कालिक मामले में अनुपस्थित थी।
जस्टिस दीपक गुप्त ने कहा,
‘राजद्रोह कानून को साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी शासक, ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा लागू गया था, जो भारत पर शासन करना चाहते थे। उस समय भी, कानून ने देशद्रोह को आजीवन कारावास के साथ दंडनीय एक गंभीर अपराध बना दिया। मैं उम्मीद कर रहा था कि हमारे अनुभवों के साथ जिस तरह बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी को देशद्रोह के आरोप में सलाखों के पीछे भेजा गया था, हम इस कानून को रद्द कर देंगे या कम से कम इस खंड को हल्का कर देंगे। लेकिन दुर्भाग्य से, इस कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है। असहमति पर अंकुश लगाने के लिए देशद्रोही कानून का दुरुपयोग हो रहा है।’
क्या दिशा रवि को न्यायिक हिरासत में भेजने के दौरान न्यायिक विवेक का आवेदन किया गया था ?
इस पर उनका कहना है कि ‘मैंने कई मामलों को देखा है, जहां लगता है कि वह भूल गए हैं कि जेल नहीं जमानत नियम है। इस स्तर पर, वे दस्तावेजों को भी नहीं पढ़ते। वे बस देखते हैं कि पुलिस उनसे क्या मांगती है। मुझे पता है कि इस स्तर पर एक विस्तृत जांच की आवश्यकता नहीं है, लेकिन कम से कम उन्हें अपना विवेक लगाना चाहिए। पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नहीं पढ़ा होगा, लेकिन न्यायाधीश से अपेक्षा की जाती है कि वह कम से कम इसे पढ़ें।’
वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा ने जस्टिस दीपक गुप्त की बातो से सहमति जताते हुए कहा कि,
‘ राजद्रोह का इस्तेमाल टोपी के गिरने पर ही किया जा रहा है।’
मामले की खूबियों में न जाते हुए, लूथरा ने कहा कि बेंगलुरु में मजिस्ट्रेट के सामने पेश ना कर रवि को दिल्ली लाने के साथ-साथ संवैधानिक मापदंडों की जांच करने की आवश्यकता होगी जैसे कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के तहत वकील तक पहुंच का अधिकार आदि।
सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने कहा कि ‘राज्य असहमति के लिए बहुत असहिष्णु हो गया है।’
विकास सिंह ने आगे कहा, ‘हमारे पास स्वतंत्र भाषण का अधिकार है जिसे सीधे प्रेस को प्रदान नहीं किया जा रहा है जैसा कि अमेरिका में किया गया है। यहां यह केवल भारत के नागरिकों को दिया जाता है। यह कुछ को फिर से रीट्वीट करने के लिए जाता है।’
एक अन्य वरिष्ठ वकील रेबेका एम जॉन ने भी इस पर वजन दिया और टिप्पणी की कि ‘कहानी को तथ्य को अलग करने की आवश्यकता है।
आगे रेबेका जॉन का कहना है, ‘मैं निम्नलिखित कारणों से इस [दिशा रवि की गिरफ्तारी] की आलोचक हूं। मैं सप्ताहांत में गिरफ्तारी और पेश करने का विरोध करती हूं। दिल्ली पुलिस सोमवार की गिरफ्तारी और मंगलवार को पेश करने का इंतजार कर सकती थी। रविवार को एक आरोपी व्यक्ति को पेश करके, आप मूल रूप से यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि उसके कानूनी अधिकारों से छेड़छाड़ की जाए क्योंकि वकीलों के लिए उपस्थित होना बहुत मुश्किल है। अधिकांश वकीलों को यह भी पता नहीं होता कि उनके मुव्वकिल को अदालत में पेश किया जा रहा है।’
रेबेका जॉन ने ‘ चूहे और बिल्ली के खेल’ पर एक प्रकाश डाला, जो दिल्ली पुलिस और बचाव पक्ष के बीच होता है, जिसमें पेश करने से संबंधित समय और स्थान के बारे में भी नहीं बताया जाता है। इसी के चलते, रवि की पसंद का वकील उपस्थित नहीं हो सका और यह उसके अधिकारों का एक गंभीर उल्लंघन था।
वकील डॉ अभिनव चंद्रचूड़, जो पैनल का एक हिस्सा भी थे, ने 1832 से पहले अंग्रेजी कानून के अनुरूप राजद्रोह के अपराध को लाने पर एक बयान दिया जिसमें अपराध को केवल एक साधारण अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
( यह अंश लाइव लॉ से लिया गया है )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देशद्रोह और अशांति भडक़ाने के आरोप में दिल्ली की पुलिस ने तीन लोगों पर अपना शिकंजा कस लिया है। बेंगलुरु की सामाजिक कार्यकर्ता युवती दिशा रवि को गिरफ्तार कर ही लिया गया है और निकिता जेकब और शांतनु को भी वह जल्दी पकडऩे की फिराक में है। इन तीनों पर आरोप है कि इन्होंने मिलकर षडय़ंत्र किया और भारत में चल रहे किसान आंदोलन को भडक़ाया। इतना ही नहीं, इन्होंने स्वीडी नेता ग्रेटा टुनबर्ग के भारत-विरोधी संदेश को इंटरनेट पर फैलाकर 26 जनवरी के लालकिला झंडाकांड को भी भडक़ाया।
पुलिस ने काफी खोज-पड़ताल करके कहा है कि कनाडा के एक खालिस्तानी संगठन ‘पोइटिक जस्टिस फाउंडेशन’ के साथ मिलकर इन लोगों ने यह भारत-विरोधी षडय़ंत्र किया है। इस आरोप को सिद्ध करने के लिए पुलिस ने इन तीनों के बीच फोन पर हुई बातचीत, पारस्परिक संदेश तथा कई अन्य दस्तावेज खोज लिये हैं। यदि पुलिस के पास ठोस प्रमाण होंगे तो निश्चय ही यह माना जाएगा कि यह अत्यंत आपत्तिजनक और दंडनीय घटना है। अदालत तय करेगी कि इन अपराधियों को कितनी सजा मिलेगी। इसमें तो कुछ समय लगेगा लेकिन इस घटना ने भारत के सत्तारुढ़ और विरोधी दलों के बीच भारत-पाकिस्तान मचा दिया है।
वे एक-दूसरे के खिलाफ इतने कटु और हास्यास्पद बयान जारी कर रहे हैं कि मुझे आश्चर्य होता है। भाजपा के लोग कह रहे हैं कि ये तीनों देशद्रोही हैं। इन्हें कठोरतम सजा मिलनी चाहिए। ये देश के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। इन्हीं की वजह से लाल किले का अपमान हुआ और 500 पुलिसवाले घायल हुए। इधर कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और शिव सेना के नेता इन लोगों के उस काम को बाल-बुद्धि का व्यतिक्रम बता रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा और सरकार अब तानाशाह हो गई है और वह अभिव्यक्ति का गला घोटने पर उतारू हो गई है। पक्ष और विपक्ष की ये दोनों मत अतिवाद के द्योतक हैं। ऐसा लगता है कि उनका लक्ष्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है बल्कि एक-दूसरे की टांग खींचना है। क्या भारत कांच का ढक्कन है, जो इन संदेशों से टूट जाएगा? जहां तक ट्विटर पर उटपटांग संदेशों का सवाल है, उन पर नियंत्रण जरूरी है, जैसे कि यह संदेश कि ‘मोदी किसानों का हत्यारा है’ लेकिन यह भी सत्य है कि इस तरह के मूर्खतापूर्ण संदेश तो अपनी मौत खुद मर जाते हैं। उनके लिए नेता लोग एक-दूसरे के साथ ल_बाजी करें, यह जऱा अटपटा-सा लगता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कल राज्यसभा में साफ शब्दों में कहा है कि सरकार कीमत पर काबू करने के लिए कुछ नहीं कर सकती है, अब एक बार आप पिछली यूपीए सरकार के समय में कच्चे तेल के दामों से आज के दामों की तुलना कीजिए।
आज कच्चा तेल ब्रेंट क्रूड 63.57 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है और दिल्ली में पेट्रोल के रेट 89 रुपये प्रति लीटर है। अब जरा यूपीए के दौर पर नजर डालिए, यूपीए के दूसरे कार्यकाल में 2009 से लेकर मई 2014 तक क्रूड की कीमत 70 से लेकर 110 डॉलर प्रति बैरल तक थी। जबकि इस बीच पेट्रोल की कीमत 55 से 80 रुपये के बीच झूलती रही।
साल 2014 की शुरुआत में ब्रेंट क्रूड ऑयल की कीमत 115 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी तब पेट्रोल की कीमत 82 रु. प्रति लीटर थी और देश में हाहाकार मच गया था।
यानी कच्चे तेल की कीमत तब भी आज से लगभग दुगुनी थी लेकिन इसके बावजूद पेट्रोल की कीमत 82 रु लीटर थी लेकिन जब आज 2014 की तुलना में कच्चे तेल की कीमत लगभग आधी है तो पेट्रोल की कीमत 89 रु लीटर है।
मई 2014 में सत्ता में आने से पहले भाजपा अंतरराष्ट्रीय कीमतों के अनुपात में तेल की कीमतों में हो रही बढ़ोत्तरी को लेकर यूपीए सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाए हुए थी, मोदी जी लगातार अपनी चुनावी रैली में ईंधन की बढ़ती कीमतों को लेकर यूपीए की कड़ी आलोचना कर रहे थे, बीजेपी के बड़े-बड़े नेता संसद के सामने पेट्रोल-डीजल ओर गैस सिलेंडर की महंगी कीमतों के खिलाफ नाच नाचकर प्रदर्शन करते थे।
मई 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बनाई कुछ दिनों में फिर कच्चे तेल का बाज़ार पलटने लगा। जनवरी 2016 तक कच्चे तेल के दाम 34 डॉलर प्रति बैरल तक लुढक़ गए। मोदी सरकार ने कच्चे तेल की गिरावट की रैली का खूब फायदा उठाया। इस दौरान, पेट्रोल-डीजल पर 9 बार उत्पाद कर (एक्साईज ड्यूटी) बढ़ाया गया। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच पेट्रोल पर ये बढ़ोत्तरी 11 रुपये 77 पैसे और डीजल पर 13 रुपये 47 पैसे थे पेट्रोलियम उत्पादों की बिक्री की केंद्र सरकार को मिलने वाला राजस्व लगभग तीन गुना हो गया
जून 2017 में मोदी सरकार ने एक नया फार्मूला लागू किया अब कहा गया कि अंतरराष्ट्रीय तेल की कीमतों में रोज बदलाव के तर्क के आधार पर पेट्रोल-डीजल के दाम बदले जाएंगे।...इससे पहले कच्चे तेल के 15 दिनों के औसत मूल्यों के आधार पर पेट्रोल डीजल के दाम तय किये जाते थे लेकिन इस निर्णय के बाद से यह कहा कि यदि क्रूड गिरेगा तो कीमत घटेगी और बढ़ेगा तो बढ़ेगी!..
लेकिन पिछले 4 सालों का इतिहास गवाह हैं कि देश की जनता को एक बार भी कच्चे तेल की गिरी हुई कीमत से उपलब्ध लाभ लेने नही दिया गया बल्कि हर बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ा कर खजाना भरा गया, कोरोना काल की शुरुआत में तो अंतरराष्ट्रीय मार्केट में कच्चे तेल यानी ब्रेंट क्रूड की कीमत 14।25 डॉलर प्रति बैरल गिर गयी तब भी किसी तरह का लाभ भारत की जनता को नहीं दिया गया। आज भी यदि मोदी जी चाहे तो एक झटके में पेट्रोल डीजल के दाम आधे से भी कम कर सकते है, क्योंकि उन्होंने 2015 से कच्चे तेल की कीमतों में आई कमी से खूब फायदा उठाया है और सरकारी खजाना एक्साइज ड्यूटी बढ़ा बढ़ा कर भरा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के ऐसे अकेले राष्ट्रपति बन गए, जिन पर अमेरिकी संसद ने दो बार महाभियोग का मुकदमा चलाया और वे दोनों बार बरी हो गए। वे ऐसे पहले राष्ट्रपति हैं, जिन पर पद छोडऩे के बाद भी महाभियोग चलाया गया। यदि यह महाभियोग सफल हो जाता तो वे दुबारा चुनाव नहीं लड़ पाते, उनकी पेंशन तथा अन्य सुविधाएं भी बंद हो जातीं लेकिन वे जीत गए अर्थात अमेरिकी संसद में उनके विरोधी डेमोक्रेटस उन्हें हराने लायक वोट नहीं खींच पाए।
यदि अमेरिकन सीनेट के 100 सदस्यों में से दो-तिहाई याने 67 सदस्य उनके विरुद्ध वोट दे देते तो वे हार जाते लेकिन 67 की बजाय 57 वोट ही उनके विरुद्ध पड़े। 10 वोट कम पड़ गए। सीनेट में डेमोक्रेटिक और उनकी रिपब्लिकन पार्टी के 50-50 सदस्य हैं। उनकी पार्टी के सिर्फ 7 सदस्यों ने ही उनके खिलाफ वोट दिए। सीनेट में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के नेता मेककानेल ने भी ट्रंप के पक्ष में वोट दिया लेकिन अपना भाषण उन्होंने ट्रंप के विरुद्ध दिया।
वे शुरु से ही ट्रंप के विरुद्ध बोलते रहे हैं। मेककानेल ने 6 जनवरी को अमेरिकी संसद पर हुए भीड़ के हमले के लिए ट्रंप को ही जिम्मेदार ठहराया।
उन्होंने कहा कि ट्रंप ने ही उस भीड़ को भडक़ाया था, जो संसद भवन में घुसकर तोड़-फोड़ कर रही थी और जिसने उप-राष्ट्रपति पर जानलेवा हमला कर दिया था। यह सब हारे हुए ट्रंप के खिसियाने पर ही हुआ था। मेककॉनेल के इस पैंतरे की खास वजह यह हो सकती है कि वे ट्रंप की जगह लेना चाहते हों। वे ट्रंप के विरुद्ध जरूर बोले लेकिन वे पार्टी की बहुसंख्या का साथ देते रहे। अब ट्रंप ने दुबारा सक्रिय होने की घोषणा कर दी है।
‘अमेरिका महान’ का नारा बुलंद करके वे फिर से राष्ट्रपति बनने की कोशिश करेंगे। यों भी उन्हें साढ़े सात करोड़ वोट मिले थे। दुनिया भर में उनके चरित्र, उनके वाणी-विलास और उनके निजी उन्मुक्त आचरण आदि की चाहे भर्त्सना होती रही हो लेकिन अमेरिका के करोड़ों लोग उन्हें राष्ट्रवाद का प्रबल प्रवक्ता मानते हैं। वे रिपब्लिकन पार्टी को अपने कब्जे में फिर से लेने की पूरी कोशिश करेंगे। अगर रिपब्लिकन पार्टी उनके नेतृत्व को रद्द कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे इसे तोड़ दें या एकदम नई पार्टी खड़ी कर लें।
इसके लिए उनके पास पर्याप्त धन भी है और उनके पर्याप्त अंधभक्त भी हैं। ट्रंप की जीत पर राष्ट्रपति जोजफ बाइडन ने काफी संतुलित प्रक्रिक्रया व्यक्त की है। उन्होंने कहा है कि इस महाभियोग से ट्रंप जरूर बच गए हैं लेकिन इस मुकदमे ने हमें यह चेतावनी दी है कि लोकतंत्र की रक्षा का मामला बहुत नाजुक है।
लापरवाही और असंयम के कारण लोकतंत्र का भीड़तंत्र में बदलना आसान हो जाता है। जो बीत गया सो बीत गया। उन्होंने कहा कि अमेरिका के सामने असली और तात्कालिक चुनौती है। कोरोना-कोविड महामारी। इससे पैदा हुई बेरोजगारी, मृत्युएं और सामाजिक तनाव ! लेकिन बाइडन-प्रशासन को डोनाल्ड ट्रंप का सामना करने की भी पूरी तैयारी करनी पड़ेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
साठ बरस हो गए। यह बात तब से मेरे सीने में दफ्न है। समझ ही नहीं पाता था कि इसे उजागर करूं या नहीं करूं। 1960 में मैं रायपुर के साइंस कॉलेज में बीएससी प्रीवियस का विद्यार्थी था। जनरल नॉलेज की एक प्रतियोगिता के लिए हमीदिया कॉलेज भोपाल से निमंत्रण आया था। प्रिंसिपल ने मुझे और एक मेरे वरिष्ठ मित्र एसजे गाॉटलिब को चुना। वे मुझसे उम्र में 10 साल बड़े थे। बीच में पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने गए थे। वहां से फिर आकर पढ़ने लगे थे। बहरहाल हम भोपाल गए। रुकने का प्रबंध हमीदिया कॉलेज के हॉस्टल में ही था। भोपाल में वह हमारे लिए नई जगह थी। गॉटलिब के एक मित्र डॉ हेनरी बिलासपुर के थे। मेडिकल कॉलेज भोपाल में अंतिम वर्ष के विद्यार्थी थे। वे उनके कमरे में ठहरे और उनके बगल के कमरे में एक सिक्ख वरिष्ठ विद्यार्थी थे। उनके कमरे में मुझे ठहरा दिया गया। हम लगभग दो दिन वहां रहे। इसलिए उस अज्ञात मित्र से मित्रता हो गई।
उसके बाद की गर्मी की छुट्टियों में मैं अपने शहर राजनांदगांव से बिलासपुर, कटनी गाड़ियां बदलता हुआ इलाहाबाद के प्लैटफार्म पर पहुंचा। वहां से मुझे कानपुर जाना था। कानपुर में पांच नंबर गुमटी में मेरी बुआ रहती थीं। मेरे उक्त सिक्ख मित्र की बुआ भी पांच नंबर गुमटी में ही रहती थीं। अजीब संयोग था कि वह मित्र मुझे इलाहाबाद के रेलवे प्लैटफार्म पर मिला। हम दोनों बहुत खुश हो गए और एक लंबी सी सीमेंट की बेंच पर बैठ गए जिस पर करीब चार लोग बैठ सकते थे। लगभग बीच में एक अधेड़ बल्कि बुजुर्ग उम्र के बहुत प्रतिभाशाली देखते कुछ मटमैले भूरे से ढीले ढाले कपड़े पहने एक सज्जन बैठे थे। हल्की सी खिचड़ी हो चली दाढ़ी रही थी, बाल लंबे से। हम दोनों को गाड़ी बदलने के पहले खाना भी खाना था। हम दोनों अपने अपने घरों से पूरी सब्जी लाए थे। मैंने बुजुर्गवार से कहा कि थोड़ा सा खिसक जाए ताकि हम लोग बैठकर खाना खा लें। वे खिसक तो गए। दस मिनट बाद ही उठकर धीरे धीरे चले गए।
मैंने देखा गेट पर टिकट चेकर खड़ा था। उसने उन्हें देखते ही झुककर सलाम किया। लगभग पैर ही छुए। दो मिनट बाद मेरे दिमाग की घंटी बजी। रेलवे टिकट चेकर ने ऐसा क्यों किया। यह कौन है। मैं तेज कदमों से रेलवे टिकट चेकर के पास पहुंचा। ये कौन हैं? उन्होंने कहा पहचाना नहीं। यह तो निराला जी हैं। मैं प्लेटफार्म के बाहर बदहवास भागता हुआ दौड़ा। रिक्शा वालों के पास पहुंचा। वे समझे कि कोई ग्राहक है। मैंने कहा मुझे कही नहीं जाना है। अभी-अभी एक बुजुर्ग से सज्जन काफी तंदुरुस्त से यहां आए थे क्या? रिक्शा वालों ने कहा। हां निराला जी थे और हमारा फलांफलां साथी उनको ले गया है। अब तो मेरे पास कोई चारा नहीं था सिवाय इसके कि अपना सिर धुनूं। बहुत भारी कदमों से लौटा।
वर्षों तक सोचता रहा कि यह बात कैसे उजागर करूं। कितनी सच होगी। उनके विवेक पर कैसे भरोसा करूं। कभी इलाहाबाद आना ठीक से हुआ नहीं। अभी अक्टूबर 2019 में आया। आज रेलवे प्लैटफार्म पर हूं, वाराणसी जाने के लिए। अब प्लैटफॉर्म पहचाना नहीं जा रहा है। सीमेंट की वह बेंच यहां अब नहीं है। सब कुछ आधुनिक हो गया । कुछ अरसा पहले हिंदी के कई विद्वान सूर्यनारायण, बसंत त्रिपाठी, सुबोध शुक्ला वगैरह कॉफी हाउस में मुझसे मिलने आए। उनमें निरालाजी के पौत्र विवेक निराला भी थे। तब मैंने उनसे पूछा कि निराला जी तो शायद 1961 में चले गए। 1960 का जो वाकया मैं बता रहा, उस समय उनकी शारीरिक स्थिति क्या इतनी रही होगी कि वे स्टेशन पर आ जाते। उन्होंने कहा कि हां इतने बीमार नहीं थे और लीडर प्रेस स्टेशन के पास ही होने से आने की पूरी संभावना बनती है। तब मैंने हिम्मत की कि अज्ञात टिकट चेकर पर, अज्ञात रिक्शा वाले मित्रों पर भरोसा करके लिख दूं। तब से लेकर आज तक मैं इतना मूर्ख क्यों रहा? मन में कांटा चुभ रहा है। चुभता रहा। चुभता रहेगा। यह अपराध मुझे सालता रहेगा।
-दयानिधि
अध्ययन से अब यह पुष्टि हुई है कि पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) का एक छोटा भाग तंबाकू के धुएं से आता है, इसलिए हवा तंबाकू के धुएं से भी प्रदूषित होती है।
माल्टा विश्वविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग के डॉ. नोएल एक्विलीना और प्रोफेसर इमैनुएल सिनाग्रा के द्वारा एक अध्ययन किया गया है। यह अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि कई जहरीले घटकों के अलावा एयरबोर्न पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) या कण प्रदूषण भी तंबाकू के धुएं से भी प्रदूषित होते हैं।
इस अध्ययन ने शोधकर्ताओं के 30 वर्षों के इंतजार को खत्म किया। 2016 में दुनिया भर में लगभग 6 ट्रिलियन सिगरेटों का उपयोग किया गया था। दुनिया भर में जाने-अंजाने दूसरों द्वारा किया जाने वाला धूम्रपान (सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस)) अकेले सिगरेट पीने से, लगभग 2.2 करोड़ किलोग्राम निकोटीन और लगभग 13.5 करोड़ किलोग्राम पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) हर साल वायुमंडल में मिलता है।
सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) के उपयोग का पर्यावरणीय परिस्थितियों के तहत और कम सांद्रता में इसका पता लगाया जा सकता है। इस उद्देश्य के लिए, ऐतिहासिक रूप से कई अध्ययनों ने परिवेशी सेकेंड हैंड स्मोक के हवा तक पहुंच को दिखाने के लिए एक सबूत (मार्कर) खोजने की कोशिश की। जो 1991 से मुख्य सबूत के रूप में निकोटीन था।
बाद के अध्ययनों ने पुष्टि की है कि निकोटीन विशेष रूप से गैसीय अवस्था में भी पाया जाता है जबकि सेकेंड हैंड स्मोक के कणों की इस अवस्था के संपर्क को अबतक कम करके आंका गया था। अन्य पदार्थों से अलग-अलग समय पर अन्य सेकेंड हैंड स्मोक घटकों के साथ जुड़ता है। इसकी अलग-अलग सतहों पर सोखने की दर अधिक होती है और जब धूम्रपान अधिक नहीं होता है तो यह सतहों पर से आसानी से कम हो जाता है।
इसका मतलब था कि निकोटीन पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) में सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) के सबूत के रूप में पर्याप्त नहीं था। पिछले 3 दशकों में, इसके 16 अलग-अलग निशानों/मार्करों को जानने की कोशिश की गई और इनका परीक्षण किया गया लेकिन सभी आवश्यक मार्कर विशेषताओं को पूरा करने के तरीके में विफल रहे।
2013 में डिवीजन ऑफ कार्डियोलॉजी, क्लिनिकल फार्माकोलॉजी प्रोग्राम ने पाया कि तंबाकू के पत्तों और तंबाकू के धुएं में ट्राईपीरिडीन एल्कलॉइड पाया जाता है। इसकी स्थिरता कम होने के कारण, यह मुख्य रूप से पार्टिकुलेट मैटर में जो कि सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) और तंबाकू के धुएं में इसका पता लगाया जा सकता है। यह माना गया था कि निकोटेलिन को एसएचएस के लिए किए गए पहले परीक्षण की तुलना में वातावरण में इन कणों के अधिक स्थिर होने की आशंका है। यह अध्ययन एनवायर्नमेंटल इंटरनेशनल नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
परीक्षण के नमूने इन कणों के वायुमंडल में स्थिर रहने के सबसे महत्वपूर्ण तथ्य को उजागर करते हैं, इसलिए इनकी गणना की जा सकती है। विज्ञान संकाय द्वारा इसे 2018 में माल्टा विश्वविद्यालय, सुश्रीडा परिसर में मोबाइल एयर क्वालिटी लेबोरेटरी उपकरण का उपयोग करके एकत्र किया गया है। वायुमंडलीय परिस्थितियों को सत्यापित करने के लिए स्थानीय मौसम संबंधी आंकड़ों के साथ इसको जोड़ा गया। वास्तविक समय में निगरानी किए गए एक समूह का उपयोग किया गया था, जिसके नमूना लेने के दौरान यह फिल्टर पर निकोटेलिन की स्थिरता को प्रभावित कर सकता है।
अध्ययन से पता चला है कि:
सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) में निकोटेलीन को तंबाकू के धुएं से बनने वाले पार्टिकुलेट मैटर पाए गए हैं
यह कम सांद्रता और जनसंख्या घनत्व और तंबाकू के उपयोग के अनुसार अपनी उपस्थिति दिखाता है
एयरबोर्न पार्टिकुलेट मैटर में तंबाकू के धुएं के कण का औसत भार 0.06 फीसदी है।
2010 में, वैश्विक मृत्यु दर के लगभग 1 फीसदी के लिए सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) के खतरे को जिम्मेदार ठहराया गया था। 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में श्वसन संबंधी संक्रमण, वयस्कों में इस्केमिक हृदय रोग और वयस्कों और बच्चों में अस्थमा से संकेत मिलता है कि एसएचएस के संपर्क से कई तरह के खतरे हो सकते हैं।
हालांकि एयरबोर्न पीएम आम तौर पर कई प्रदूषकों से भरा होता है जो विभिन्न स्रोतों के कारण उत्परिवर्तन, जीनोटॉक्सिक और कार्सिनोजेनिक (कैंसर फैलाने वाले) हो सकते हैं, अब यह पुष्टि की गई है कि पीएम का एक छोटा भाग विशेष रूप से तंबाकू के धुएं से आता है, इसलिए हवा तंबाकू के धुएं से भी दूषित होती है।
यद्यपि इसका भार तत्काल खतरे के रूप में बहुत कम प्रतीत होता है, इसने वर्तमान में धूम्रपान न किए जाने वाले वातावरण में भी पार्टिकुलेट मैटर में सांस लेने से सेकेंड हैंड स्मोक/ थर्डहैंड स्मोक (टीएचएस) के संभावित पुराने खतरे पर एक नया मानक स्थापित किया है।
इस अध्ययन का महत्व यह है कि इसने पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) में मौजूद शक्तिशाली तम्बाकू से भरे विशिष्ट कार्सिनोजेन (कैंसर फैलाने वाले) पर शोध करने के लिए एक प्रवेश द्वार खोला है। यह फेफड़े के कैंसर को लेकर एक महत्वपूर्ण मार्ग दिखाता हैं। थर्डहैंड स्मोक (टीएचएस) घटक हैं जो तंबाकू के धुएं और इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से जुड़े मामलों को सामने लाता है। तम्बाकू के धुएं के संपर्क पर आने के ध्यान देने की आवश्यकता है, जिसमें त्वचा से, हाथ से मुंह में जाने और सहायक कणों को निगलना इनमें सांस लेना शामिल हैं जो सतहों से पुन: उत्सर्जन के बाद बनते हैं। (downtoearth.org.in)
-विवेक मिश्रा
बाढ़ आपदा के कारण सर्वाधिक मृतकों की संख्या गंगा के पहाड़ी और मैदानी राज्यों में है
पर्यावरण की नाजुक जगहें यदा-कदा चेताती रहती हैं। उत्तराखंड में 7 फरवरी, 2021 को चमोली में बिना किसी सूचना के अचानक आई भयावह बाढ़ एक और चेतावनी है। इस त्रासदी ने कई जिंदगियों को मिनटों में खत्म कर दिया। अब तक मिली सूचना के मुताबिक मलबे से अब तक करीब 52 शव निकाले जा चुके हैं जबकि अन्य 154 की तलाश जारी है।
बाढ़ इतनी भयावह है तो इसका इलाज क्यों नहीं? हिमालयी उत्तराखंड की छोटी से छोटी हलचल नीचे मैदानों तक भी आती ही रहती है। लेकिन यदि बीते वर्षों की बाढ़ के कारण खत्म होने वाली जिदंगियों का आकलन करें तो उत्तराखंड का नाम सबसे ऊपर है।
बीते सात दशकों (1953-2017) तक 107,487 लोगों ने बाढ़ के कारण जिंदगियां खो चुके हैं। यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बाढ़ मृतकों की करीब एक चौथाई संख्या महज दस (2008-2019) वर्षों की है। करीब 25 हजार लोग 2008 से 2019 तक बाढ़ और वर्षा के दौरान घटने वाली आपदाओं की वजह से मारे गए। इनमें 23,297 मृतक सिर्फ 15 राज्यों से हैं। बाढ़ आपदा के कारण सर्वाधिक मृतकों की संख्या गंगा के पहाड़ी और मैदानी राज्यों में है। वहीं, बाढ़ के भुक्तभोगियों में शीर्ष पर उत्तराखंड है इसके बाद उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार का नाम शामिल है।
बाढ़ के भुक्तभोगियों में उत्तराखंड ही शीर्ष पर क्यों है? इस सवाल पर “गंगा आह्वान” से जुड़ी मलिका भनोट ने डाउन टू अर्थ को बताया कि बाढ़ की विभीषिका का एक बड़ा कारण गंगा में अवरोध है। नदी को रोका जाए तो वह विभीषक बन जाती है। इसके अलावा उत्तराखंड में विकास के कार्यक्रम भी बहुत हद तक बाढ़ की विभीषिका को बढ़ा रहे हैं। 2013 की त्रासदी के बावजूद कदम संभाल कर नहीं रखा जा रहा। चारधाम परियोजना के लिए सड़क चौड़ीकरण में हजारों की संख्या में पेड़ काटे गए। यह पेड़ ही मिट्टी को बांधे रखते हैं। नतीजा है कि आए दिन भूस्खलन होता है। मलबे की अनियंत्रित डंपिंग ने नदियों की व्यवस्था को बिगाड़ दिया है। इसी समय बादल फटने या कम समय में ज्यादा वर्षा का होना आग में घी का काम करता है। उत्तराखंड में इस हलचल का दुष्परिणाम गंगा के मैदानी भागों में भी पड़ता रहता है। हिमालय में फूंक-फूंक कर कदम रखा जाना चाहिए।
वहीं, केंद्रीय जल आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1953 से लेकर 2011 तक के बाढ़ के नुकसान का आकलन यह दर्शाता है कि जिंदगियों के नुकसान के आधार पर सर्वाधिक तबाही वाले वर्षों में 1977 सबसे ऊपर है। 1977 में 11,316 लोगों की मृत्यु बाढ़ की वजह से हुई थी। फिर 1978 में 3,396 लोगों की मृत्यु हुई। 1979 में 3,637 लोगों की मृत्यु बाढ़ में हुई। इसके करीब एक दशक बाद 1988 में बाढ़ ने 4,252 जिंदगियां खत्म कर दी। करीब दो दशक बाद 2007 में 3,389 लोगों की जिदंगी बाढ़ में नेस्तानाबूद हो गई। यह सर्वाधिक मौत वाले वर्षों के आंकड़ों की सूची यही खत्म नहीं होती। बेहद अल्पविराम के बाद 2013 में उत्तराखंड में भीषण बाढ़ आई। इस बाढ़ में सरकारी आंकड़े के मुताबिक 3,547 लोगों की मृत्यु हुई। यह बीते चार दशकों की सबसे भीषण बाढ़ में एक थी। मृत्यु के यह आंकड़े उन मासूम लोगों के हैं जो शासन की अनीतियों के शिकार हुए।
यह डिस्कलेमर भी देना जरूरी है कि मृतकों की गिनती और बाढ़ के नुकसान का कोई आकलन केंद्र सरकार नहीं करती है। केंद्र सरकार का कहना है कि बाढ़ राज्यों का विषय हैं। इसलिए बाढ़ के नुकसान के आकलन की जिम्मेदारी भी राज्यों की है। यह राज्य भी टेढ़ी खीर हैं। जब केंद्रीकरण होता है तब शोर मचता है कि राज्यों की हिस्सेदारी खत्म हो रही है, जब मानवता के काम उनके जिम्मे हैं तो वे गेंद केंद्र के पाले में डाल देती हैं। केंद्र और राज्यों के बीच गेंदों की फेंका-फेंकी का यह काम अनवरत चलता रहता है। गेंदों को एक-दूसरे के पाले में फेंकते रहना अदालतों में राज्य और केंद्र की नुमाइंदगी करने वाले प्रतिनिधि वकीलों की यह एक खास रणनीति भी रही है।
1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (आरबीए) की सिफारिशों में नदी के डूब क्षेत्र के अतिक्रमण एक बड़ी चिंता का विषय था। यह चिंता कुछ पन्नों की सिफारिशों में बदल गई और फिर कभी चिंतन का विषय नहीं बनी। पर्यावरण और कानून के जानकार एमसी मेहता ने 1985 में गंगा और उससे जुड़े मामले पर पहली बार शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। डाउन टू अर्थ से बातचीत में एमसी मेहता बताते हैं कि 1985 और उसके बाद 1986-87 में गंगा बेसिन को लेकर बातचीत शुरु हुई थी, इसमें बाढ़ के डूब क्षेत्र और उसके अतिक्रमण को लेकर भी बहस-मुबाहिसे हुए। अदालतों से तो लड़ाई जीत ली है लेकिन जमीनी नतीजा आजतक हासिल नहीं हुआ। सरकारें बदलती रहीं और किसी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई।
डूब क्षेत्र के अतिक्रमण के अलावा एक दूसरा और अहम पहलू बाढ़ को काबू में लाने का है। बाढ़ को काबू में लाने के लिए स्वच्छंद और उन्मुक्त नदियों को ही बांधने की हमेशा जुगत की गई। नदी से उसका घर-आंगन ही छीना गया। मानों सरकारें महाभारत की दुर्योधन हो गई हों और नदियों को उसके पांच ग्राम भी देने को तैयार न हों। इस बीच बहुत से कृष्ण नदियों का संदेशा लेकर सरकारों के पास पहुंचे भी लेकिन दुर्भाग्य यह कि सरकारें नदियों की स्वतंत्रता और उनकी अपनी जमीन देने के बजाए उलटे उन्हें जकड़ने की ही बात पर अमादा रहीं। क्या कृष्ण की भाँति विकराल रूप धरने वाली यह नदियां दुर्योधन रूपी सरकारों को ललकार नहीं रही…जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हां, हां दुर्योधन! बांध मुझे…
तटबंधों और भारी-भरकम बांधों के बारे में बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक और लेखक दिनेश मिश्र डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि 1952 तक देश में कोई भी सरकारी तटबंध नहीं था। उसके बाद 1953 से तटबंध बनने लगे और यह तबसे बन और टूट रहे हैं। बांधों का भी यही हाल है। वे सुख देने के बजाए अनवरत दुख देते जा रहे हैं। कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव ने डाउन टू अर्थ से बताया कि नर्मदा से लेकर कोसी तक पुनर्वास को लेकर एक ही लड़ाई चल रही है। सरदार सरोवर डैम के फाटक बंद कर दिए गए हैं, इससे निमाड़ के डूब क्षेत्र में लोगों को जबरदस्त परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उसी डूब क्षेत्र में दो लोगों की करंट लगने से मौत भी हो गई। बाढ़ के पुनर्वास को लेकर यहां भी काम नहीं किया गया। यह जिम्मेदारी सरकार की है।
विकास के युग में बाढ़ ने भी विकास किया है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने 1980 में देश के 21 जिलों में थी अब यह बढ़कर 39 जिलों में पहुंच गई हैं। करीब चार दशक में एक करोड़ हेक्टेयर अधिक भूमि पर बाढ़ बढ़ गई है।(संबंधित खबर पढ़ने के लिए क्लिक करें)। जलवायु परिरवर्तन की अवधारणा भी तेज हो गई है। असमय और अत्यधिक वर्षा के आंकड़े अब पक्की तरह से यह बता चुके हैं कि नीतियों में हमें भी ध्यान में रखा जाए।
राज्यसभा में 29 अप्रैल, 2015 को दिए गए लिखित जवाब में कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र के यूएनआईएसडीआर के जरिए वैश्विक आकलन रिपोर्ट 2015 में जारी की गई थी। इसमें यह अंदाजा लगाया गया था कि भारत में प्राकृतिक आपदाओं के कारण सालाना औसत 9.8 बिलियन डॉलर (697,338,600,000.00 रुपये) का नुकसान होता है। वहीं, गृह मंत्रालय का कहना था कि देश में 58.6 फीसदी भूभाग भूकंप, 8.5 फीसदी चक्रवात, और 5 फीसदी बाढ़ प्रभावित है।
अंत में यह बताना जरूरी है कि ऐसा भी नहीं है कि सरकारों ने कुछ नहीं किया। सरकारें हर साल एक बड़ा बजट बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाती और जारी करती हैं। 1978 में बाढ़ बचाव के नाम पर केंद्र ने 1727.12 करोड़ रुपये की परियोजना बनाई थी। 2019 में बाढ़ नियंत्रण के लिए केंद्र सरकार का यह बजट आकार लेकर 13238.36 करोड़ रुपये का हो चुका है। यह तय समय पर तैयार हो जाता है और सरकारी जेबों तक पहुंच भी जाता है लेकिन इस बजट का फायदा कभी समय से जनता तक नहीं पहुंचा,
देश की पहली बाढ़ नीति 3 सितंबर, 1954 को बनी थी। करीब 65 बरस गुजर रहे हैं। इस बीच राज ने नदियों से रिश्ता कभी बनाया नहीं और समाज का रिश्ता टूटता चला गया। यह टूटन ही मलबे के जोखिम को बढ़ाने वाला साबित हो सकता है। (downtoearth.org.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रदर्शनों के बारे में जो ताज़ा फैसला किया है, उससे उन याचिकाकर्ताओं को निराशा जरूर हुई होगी, जो विरोध-प्रदर्शन के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। यदि किसी राज्य में जनता को विरोध-प्रदर्शन का अधिकार न हो तो वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। विपक्ष या विरोध तो लोकतंत्र की मोटरकार में ब्रेक की तरह होता है। विरोधरहित लोकतंत्र तो बिना ब्रेक की गाड़ी बन जाता है।
अदालत ने विरोध-प्रदर्शन, धरने, अनशन, जुलूस आदि को भारतीय नागरिकों का मूलभूत अधिकार माना है लेकिन उसने यह भी साफ़-साफ़ कहा है कि उक्त सभी कार्यों से जनता को लंबे समय तक असुविधा होती है तो उन्हें रोकना सरकार का अधिकार है। अदालत की यह बात एकदम सही है, क्योंकि आम जनता का कोई हुक्का-पानी बंद कर दे तो यह भी उसके मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है। यह सरकार का नहीं, जनता का विरोध है।
प्रदर्शनकारी तो सीमित संख्या में होते हैं लेकिन उनके धरनों से असंख्य लोगों की स्वतंत्रता बाधित हो जाती है। लाखों लोगों को लंबे-लंबे रास्तों से गुजरना पड़ता है, धरना-स्थलों के आस-पास के कल-कारखाने बंद हो जाते हैं और सैकड़ों छोटे-व्यापारियों की दुकानें चौपट हो जाती हैं। गंभीर मरीज़ अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देते हैं।
शाहीन बाग और किसानों जैसे धरने यदि हफ्तों तक चलते रहते हैं तो देश को अरबों रु. का नुकसान हो जाता है। रेल रोको अभियान सडक़बंद धरनों से भी ज्यादा दुखदायी सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रदर्शनकारी जनता की भी सहानुभूति खो देते हैं। उनसे कोई पूछे कि आप किसका विरोध कर रहे हैं, सरकार का या जनता का ? इस तरह के धरने चलाने के पहले अब पुलिस की अनुमति लेना जरुरी होगी, वरना पुलिस उन्हें हटा देगी। पता नहीं, दिल्ली सीमा पर चल रहे लंबे धरने पर बैठे किसान अब अदालत की सुनेंगे या नहीं। इन धरनों और जुलूसों से एक-दो घंटे के लिए यदि सडक़ें बंद हो जाती हैं और कुछ सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शनकारियों का कब्जा हो जाता है तो कोई बात नहीं लेकिन यदि इन पैंतरों से मानव-अधिकारों का लंबा उल्लंघन होगा तो पुलिस-कार्रवाई न्यायोचित ही कही जाएगी।
पिछले 60-65 वर्षों में मैंने ऐसे धरने, प्रदर्शन, जुलूस और अनशन दर्जनों बार स्वयं आयोजित किए हैं लेकिन इंदौर, दिल्ली, लखनऊ, वाराणसी, भोपाल, नागपुर आदि शहरों की पुलिस ने उन पर कभी भी लाठियां नहीं बरसाईं। महात्मा गांधी ने यही सिखाया है कि हमें अपने प्रदर्शनों को हमेशा अहिंसक और अनुशासित रखना है। उन्होंने चौरीचौरा का आंदोलन बंद क्यों किया था, क्योंकि आंदोलनकारियों ने वहां हत्या और हुड़दंग मचा दिया था।
(नया इंडिया की अनुमति से)