विचार/लेख
-अपूर्व भारद्वाज
यह वो ही कपिल सिब्बल है जिनके उलूल-जुलूल बयानों से कांग्रेस गाहे-बगाहे परेशानी में फंसती रहती है। जिन्होंने दिल्ली के एक लोकसभा सीट को छोडक़र कभी जमीनी राजनीति नहीं की। जिन्होंने अपना प्रोफेशन राजनीति के लिए कभी नहीं छोड़ा। जिन्होंने केवल अपने लोकसभा सीट के गणित के लिए पूरी कॉंग्रेस को तुष्टिकरण की तरफ मोड़ दिया। आज वो भगवा पगड़ी पहने कांग्रेस को सेक्युलिरिज्म सीखा रहे हैं।
जिन्होंने 0 लास की थ्योरी दी थी और कांग्रेस का बेड़ा गर्क कर दिया था। जिसे मीडिया ने दिन-रात चलाया और अण्णा जैसे आंदोलनजीवी को सँजीवनी दे दी और पूरा करप्शन का परसेप्शन यूपीए के विरूद्ध बन गया, पहचाना की नहीं..!!!
आनंद शर्मा ने शायद ही कभी लोकसभा चुनाव लड़ा हो लेकिन वीरभद्र सिंह जैसे खांटी जमीनी नेता को सदा राजनीति के पाठ पढ़ाते रहते थे। कांग्रेस ने उनको हिमाचल प्रदेश जैसी छोटी प्रदेश के बाद राज्यसभा सांसद से लेकर केंद्रीय मंत्री तक बनाया। वो आज कांग्रेस को बंगाल में राजनीति का ककहरा सीखा रहे हैं। यह इतने दोगले हैं कि इन्हें केरल में मुस्लिम लीग से गठबंधन नजर नहीं आ रहा था लेकिन वाम दलों का ढ्ढस्स्न को सीट देना आज अखर रहा है।
अब बात करें ‘गुलाम’ साहब की जिन्होंने पूरी जिंदगी नेहरू और गांधी की कृपा से निकाल दी लेकिन आज इनके अंदर का लोकतंत्र जग गया है। इन्हें कांग्रेस का वंशवाद नजर आ रहा है। गुजरात दंगों के समय साहब में इनको शैतान नजर आ रहा था। अब एक राज्यसभा की सीट के लिए भगवान नजर आ रहा है। मतलब जिस पार्टी ने आपको बनाया उसे ही नीचे दिखा रहे हैं। ऐसी नकली आजादी से पार्टी की गुलामी ही ठीक है।
राज बब्बर, मनीष तिवारी जैसे नेताओं के बारे में बात करना पोस्ट को लंबा करना होगा। कांग्रेस को इस मामले में बीजेपी से सीखना चाहिए। वो वक्त पडऩे पर जसवंत सिंह और कल्याण सिंह जैसे नेताओं को निकाल बाहर कर देती है। सत्ता में हो या न हो लेकिन अनुशासन से कोई समझौता नहीं करती हैं। अब समय आ गया है राहुल गाँधी को पार्टी रूपी नदी की सारी कीचड़ और गंदगी साफ कर देना चाहिए। देर से ही सही इस सुखी नदी में निर्मल और स्वच्छ जल तो आएगा।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हम लोग कितने बड़े ढोंगी हैं? हम डींग मारते हैं कि हमारे भारत में नारी की पूजा होती है। नारी की पूजा में ही देवता रमते हैं। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते तत्र देवताः।’ अभी-अभी विश्व बैंक की एक रपट आई है, जिससे पता चलता है कि नारी की पूजा करना तो बहुत दूर की बात है, उसे पुरूष के बराबरी का दर्जा देने में भी भारत का स्थान 123 वां है। याने दुनिया के 122 देशों की नारियों की स्थिति भारत से कहीं बेहतर है।190 देशों में से 180 देश ऐसे हैं, जिसमें नर-नारी समानता नदारद है। सिर्फ दस देश ऐसे हैं, जिनमें स्त्री और पुरुषों के अधिकार एक-समान हैं। ये हैं–बेल्जियम, फ्रांस, डेनमार्क, लातविया, लग्जमबर्ग, स्वीडन, आइसलैंड, कनाडा, पुर्तगाल और आयरलैंड ! ये देश या तो भारत के प्रांतों के बराबर हैं या जिलों के बराबर ! इनमें से एक देश भी ऐसा नहीं है, जिसकी संस्कृति और सभ्यता भारत से प्राचीन हो।
ये लगभग सभी देश ईसाई धर्म को मानते हैं। ईसाई धर्म में औरत को सभी पापों की जड़ माना जाता है। यूरोप में लगभग एक हजार साल तक पोप का राज चलता रहा। इसे इतिहास में अंधकार-युग के रूप में जाना जाता है लेकिन पिछले ढाई-तीन सौ साल में यूरोप ने नर-नारी समता के मामले में क्रांति ला दी है लेकिन भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अभी भी शासन, समाज, अर्थ-व्यवस्था और शिक्षा आदि में पुरूषवादी व्यवस्था चल रही है। केरल और मणिपुर को छोड़ दें तो क्या वजह है कि सारे भारत में हर विवाहित स्त्री को अपना उपनाम बदलकर अपने पति का नाम लगाना पड़ता है ? पति क्यों नहीं पत्नी का उपनाम ग्रहण करता है? विवाह के बाद क्या वजह है कि पत्नी को अपने पति के घर जाकर रहना पड़ता है ? पति क्यों नहीं पत्नी के घर जाकर रहता है ? पैतृक संपत्ति तो होती है लेकिन ‘मातृक’ संपत्ति क्यों नहीं होती?
पिता की संपत्ति का बंटवारा उसके बेटों को तो होता है, बेटियों को क्यों नहीं ? बच्चों के नाम के आगे सिर्फ उनके पिता का नाम लिखा जाता है, माता का क्यों नहीं? दुनिया के कितने देशों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री महिलाएं हैं ? इंदिराजी भारत में प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बनीं कि वे महिला थीं, बल्कि इसलिए बनीं कि वे नेहरूजी की बेटी थीं। भारत में कुछ ऋषिकाएं और साध्वियां जरूर हुई हैं लेकिन दुनिया के देशों और धर्मों में लगभग सभी मसीहा और पैगंबर पुरुष ही हुए हैं। दुनिया के सभी समाजों में बहुपत्नी व्यवस्था चलती है, बहुपति व्यवस्था क्यों नहीं ? स्त्रियां ही ‘सती’ क्यों होती रहीं, पुरूष ‘सता’ क्यों न हुए ? इस पुरुषप्रधान विश्व का रूपांतरण अपने आप में महान क्रांति होगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- ईश्वर सिंह दोस्त
कांग्रेस में तेईस नेताओं का समूह कहलाने वाले नेताओं में से कुछ ने जम्मू में इकट्ठे होकर जो किया है, उसे बगावत का बिगुल कहा जाता है। अब तक समझा जा रहा था कि ये नेता कांग्रेस को फिर से एक देशव्यापी मजबूत पार्टी बनाने के लिए बेचैन हैं और इसके लिए ज्यादा आंतरिक जनतंत्र की मांग कर रहे हैं। मगर जम्मू के तुरंत बाद ही गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा के बयानों से यह शक भी होने लगा है कि कहीं इनकी दाल किसी और के ईंधन पर तो नहीं पक रही है। एकजुट होकर चिट्ठी लिखने या कोई मांग उठाने से आगे जाकर यह समूह एक धड़े की शक्ल में उभर आया है, जो जम्मू के बाद हिमाचल और हरियाणा में अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है।
इस समूह के नेताओं की राहुल से नहीं बनती, यह अब जगजाहिर है। इशारों में इसके पहले राहुल गांधी के बयानों पर भी इस समूह के कुछ नेता हमला बोल चुके हैं। यह सब तब हो रहा है जब पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। अप्रैल तक इन नेताओं को सब्र नहीं है तो इसके पीछे यह डर है कि चुनावों में राहुल के अच्छे प्रदर्शन से उनका कांग्रेस अध्यक्ष बनना कहीं तय न हो जाए। लगता है कि इनमें से कुछ नेता यह मन बना चुके हैं कि राहुल अध्यक्ष बनते हैं तो दूसरी पार्टी या गठबंधन बनाया जाए।
इन नेताओं में से भूपिंदर सिंह हुड्डा और आजाद को छोड़कर कोई भी न तो बड़ा क्षेत्रीय नेता है और न अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस में उसकी स्वीकार्यता है। इसलिए अगर ये कांग्रेस छोड़ते हैं और राजग का हिस्सा नहीं बनते हैं तो एकमात्र चारा संग-साथ होकर असंतुष्टों को इकट्ठा करने और तीसरे मोर्चे जैसे किसी गठबंधन की राह पकड़ने का हो सकता है। यह बात इसलिए कि भले ही कांग्रेस अभी इन पर कोई अनुशासन की कार्रवाई कर इन्हें शहादत देना न चाहती हो, मगर अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को कुछ नेता शायद समझते-बूझते हुए ही पार कर चुके हैं।
इन नेताओं में से एक पीजे कुरियन ने 2 मार्च को कहा भी कि कांग्रेस में सुधार होना चाहिए, मगर लक्ष्मण रेखा पार नहीं की जानी चाहिए। इसी तरह की बातें तीन और नेताओं वीरप्पा मोइली, संदीप दीक्षित और अजय सिंह ने कही। पृथ्वीराज चौहान, शशि थरूर, जितेन प्रसाद आदि पहले ही जी-23 से किनारा कर चुके हैं। अब अजीब नजारा है। कुछ नेता लक्ष्मण रेखा के उस पार चले गए हैं। कुछ रेखा पर हैं और कुछ रेखा के पहले ठिठक गए हैं।
राज्यसभा से गुलाम नबी आजाद की विदाई के वक्त मोदी के बहाए आंसूओं से रिश्ते की जिस जमीन को सींचा गया था, आजाद ने मोदी को सत्यवादी बता कर उसमें खाद डाल दी है। इसी तरह आनंद शर्मा के बयान हैं, जो कांग्रेस के बाहर से दिए गए नजर आते हैं। हालांकि बहुत से नेताओं के इस समूह से किनारा कर लेने के कारण यह असल में जी-23 से जी-10 हो चुका है। जम्मू में भी आजाद, आनंद, हुड्डा, सिब्बल, राज बब्बर, विवेक तन्खा और मनीष तिवारी ही जुटे थे। 23 तो वे थे, जिन्होंने कांग्रेस में चुनाव और आंतरिक जनतंत्र के लिए सोनिया को खत लिखा था। इसके बाद इनकी सोनिया के साथ बैठक हो चुकी है और जून में अध्यक्ष पद के चुनाव पर सहमति बन चुकी है।
कांग्रेस के भीतर की ऐसी असंतुष्ट गतिविधि में सत्तारूढ़ दल की खासी रुचि हो सकती है, जिसने कांग्रेस-मुक्त राजनीति की अपनी आकांक्षा को कभी छिपाया नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं होगी यदि इसके पीछे कॉर्पोरेट हित भी हों, क्योंकि कांग्रेस के अमरिंदर सिंह, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत जैसे जमीनी पकड़ वाले नेताओं की किसान समर्थक राजनीति की आंच कॉर्पोरेटी हितों तक पहुंच रही है। कांग्रेस का अतीत जो भी रहा हो, मगर आज की राजनीति में कार्पोरेट के हित में यही है कि कांग्रेस और कमजोर हो जाए।
कांग्रेस भले ही कम सीटों पर सिमट गई हो, मगर अपने अखिल भारतीय प्रसार के अलावा यह अब भी विमर्शों के शतरंज में भाजपा से आमने-सामने की स्थिति में है। इसलिए केंद्र सरकार के खिलाफ बिखरे हुए असंतोष को एक राजनीतिक कहानी में अगर कभी गूंथा गया तो कांग्रेस की भूमिका बनेगी। यह स्वयं भाजपा के नेहरू और गांधी परिवार को मुख्य निशाना बनाए रखने से जाहिर है। इसीलिए पहले कांग्रेस के समर्थन में नहीं रहे कई विश्लेषक भी अब यह मानते हैं कि कांग्रेस का और कमजोर होना भारत में लोकतंत्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।
सवाल सिर्फ लक्ष्मण रेखा का नहीं, बल्कि इन नेताओं के इरादों का भी है। सिंधिया के सफल और पायलट के असफल प्रयासों के बाद एक रुझान यह भी हो गया है कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं लिए पार्टी के नेतृत्व के सामने ब्लैकमेल जैसी स्थिति निर्मित की जाए। फिर कांग्रेस की विचारधारा की कसमें खाते हुए कदम भाजपा की तरफ लड़खड़ाते जाएं! इन नेताओं को सहानुभूति भी मिल जाती है कि बेचारे कांग्रेस में कितने घुट रहे थे और गांधी परिवार इतने समर्पित, होनहार और भोले नेताओं को संभाल कर नहीं रख पा रहा है। आज जब पाला बदलने के लिए बड़ा समर्थन मूल्य उपलब्ध हो, तब कांग्रेस नेतृत्व की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह लक्ष्मण रेखा के पार चले गए और लक्ष्मण रेखा में रहकर आंतरिक सुधार की बात उठाने वाले नेताओं में फर्क करे और उनसे वास्तविक व प्रभावी संवाद कायम करे।
ध्रुव गुप्त
प्रेम, विरह, सौंदर्य और जिंदगी की खूबसूरती तथा तल्खियों के बेहतरीन शायर रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी का जिक्र शायरी के एक अलग अहसास, एक अलग आस्वाद का जिक्र है। उन्हें उर्दू के महानतम आधुनिक शायरों में एक माना जाता है। वे उन शायरों में एक थे जिन्होंने शायरी में नई परंपरा की बुनियाद रखी थी। जिस दौर में उन्होंने लिखना शुरू किया, उस दौर की शायरी का एक बड़ा हिस्सा परंपरागत रूमानियत और रहस्यों से बंधा था। समय की सच्चाई और लोकजीवन के विविध रंग उसमें लगभग अनुपस्थित थे। नजीर अकबराबादी और इल्ताफ हुसैन हाली की तरह फिराक ने इस रिवायत को तोडक़र शायरी को नए मसलों, नए विषयों और नई भाषा के साथ जोड़ा। उनकी गजलों में सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर ढला है। वहां रूमान के साथ जि़न्दगी की कड़वी सच्चाइयां भी हैं और आने वाले कल की उम्मीद भी। उर्दू गजल की बारीकी, नाजुकमिजाजी और सौंदर्य को देश की संस्कृति और प्रतीकों से जोडक़र फिराक ने अपनी शायरी का एक अनूठा महल खड़ा किया था। अदबी दुनिया में फिराक की बेबाकी, दबंगई और मुंहफटपन के किस्से खूब कहे-सुने जाते हैं। अपनी शायरी की अनश्वरता पर खुद उनका आत्मविश्वास किस कदर गहरा था, यह उनके इस शेर से समझा जा सकता है- आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअसरों जब भी उनको ध्यान आएगा तुमने फिराक को देखा है।
आज फिराक गोरखपुरी की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन, उनकी एक गजल के चंद अशआर के साथ !
सितारों से उलझता जा रहा हूं
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूं
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमां ये है कि धोखे खा रहा हूं
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूं
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूं
ये सन्नाटा है मेरे पांव की चाप
‘फिराक’अपनी ही आहट पा रहा हूं।
-कमलेश
समलैंगिक विवाह को लेकर दायर की गईं याचिकाओं के जवाब में केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपना जवाब दाखिल किया है.
सरकार ने समलैंगिक विवाह को मंजूरी दिए जाने का विरोध किया है. गुरुवार को सरकार ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों के पार्टनर की तरह रहने और यौन संबंध बनाने की तुलना भारतीय पारिवारिक इकाई से नहीं की जा सकती.
इन याचिकाओं में हिंदू विवाह अधिनियम 1955, विशेष विवाह अधिनियम 1954 और विदेशी विवाह अधिनियम 1969 के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग की गई है. साथ ही समलैंगिक विवाह को मान्यता न देना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया गया है.
न्यायाधीश राजीव सहाय एंडलॉ और अमित बंसल की बेंच ने इस पर सरकार ने अपना जवाब दाखिल करने के लिए कहा था.
सरकार ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों के पार्टनर की तरह रहने और यौन संबंध बनाने की तुलना भारतीय पारिवारिक इकाई से नहीं की जा सकती जिसमें एक जैविक पुरुष को पति, एक जैविक महिला को पत्नी और दोनों के बीच मिलन से उत्पन्न संतान की पूर्व कल्पना है.
हलफ़नामे में कहा गया कि संसद ने देश में विवाह क़ानूनों को केवल एक पुरुष और एक महिला के मिलन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया है. ये क़ानून विभिन्न धार्मिक समुदायों के रीति-रिवाजों से संबंधित व्यक्तिगत क़ानूनों/ संहिताबद्ध क़ानूनों से शासित हैं. इसमें किसी भी हस्तक्षेप से देश में व्यक्तिगत क़ानूनों के नाजुक संतुलन के साथ पूर्ण तबाही मच जाएगी.
सरकार ने आगे कहा कि भारत में विवाह से "पवित्रता" जुड़ी हुई है और एक "जैविक पुरुष" और एक "जैविक महिला" के बीच का संबंध "सदियों पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार और सामाजिक मूल्यों" पर निर्भर करता है. केंद्र सरकार ने इसे मौलिक अधिकार के तहत भी मान्य नहीं माना है.
क्या हैं याचिकाएं
याचिका दायर करने वाले एक याचिकाकर्ता जोड़े की शादी को विदेशी विवाह अधिनियम के तहत रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट नहीं दिया गया. वहीं, दूसरे जोड़े को विशेष विवाह अधिनियिम के तहत शादी की इजाजत नहीं दी गई.
इन याचिकाओं में कहा गया कि विशेष विवाह अधिनियम और विदेशी विवाह अधिनियम की व्याख्या इस तरह कि जाए कि वो समलैंगिक विवाह पर भी लागू हो सके.
एक अन्य याचिकाकर्ता उदित सूद ने विशेष विवाह अधिनियम को जेंडर न्यूट्रल बनाने की मांग की ताकि वो सिर्फ़ महिला और पुरुष की बात न करे.
करनजवाला एंड कंपनी ने उनकी तरफ से याचिका दायर की है जिसमें कहा गया है कि इस समय विशेष विवाह अधिनियम जिस तरह बनाया गया है उसमें एक दूल्हे और एक दुल्हन की ज़रूरत होती है. ये व्याख्या हमारे शादी करने के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करती है. विशेष विवाह अधिनियम की व्याख्या इस तरह की जानी चाहिए जो लैंगिक पहचान और सेक्शुएलिटी को लेकर निष्पक्ष हों.
उदित सूद कहते हैं, “किसी के लिए अपना घर छोड़ना आसाना नहीं होता. भारत के भेदभावपूर्व क़ानूनों के कारण हमें एक सम्मानजनक ज़िंदगी के लिए अपना देश छोड़ना पड़ा.”
याचिक दायर करने की वजह को लेकर वह कहते हैं कि भारतीय एलजीबीटी समुदाय के सभी लोगों को परिवार, दोस्त और कार्यस्थल पर सहयोग नहीं मिल पाता. लेकिन, जिन्हें वो सहयोग मिला है उन्हें दूसरों की मदद के लिए इसका उपयोग करना चाहिए.
कहां हैं अड़चनें
सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था. इसके अनुसार आपसी सहमति से दो व्यस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध नहीं माना जाएगा. इसमें धारा 377 को चुनौती दी गई थी जो समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाती है.
अब मसला समलैंगिकों के विवाह का है. लेकिन, सरकार के जवाब के मुताबिक विवाह से जुड़े मौजूदा क़ानूनों के तहत समलैंगिक विवाह मान्य नहीं ठहराया जा सकता.
वहीं, याचिकाकर्ता इन क़ानूनों में बदलावों की मांग करते हैं ताकि उन्हें भी शादी का अधिकार मिल सके.
लेकिन, मौजूदा व्यवस्था में क्या ये संभव है और इसके लिए कितना लंबा रास्ता तय करने की ज़रूरत है.
"पूरी क़ानूनी संरचना बदलनी पड़ेगी"
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि शादी की व्यवस्था अलग-अलग क़ानूनों से मिलकर बनी है. अगर इसमें बदलाव होता है तो वो बहुत व्यापक और क्रांतिकारी बदलवा होगा.
उन्होंने बताया, “भले ही थर्ड जेंडर को क़ानूनी मान्यता मिली है, पर मान्यता मिलने और अधिकार मिलने में फर्क है. अधिकार मिलने के लिए ज़रूरी है कि उन परंपरागत क़ानूनों में बदलाव किया जाए जिनमें शादी को स्त्री और पुरुष के बीच संबंध माना गया है. साथ ही इनसे जुड़े अन्य क़ानूनों जैसे घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और मैरिटल रेप आदि में भी बदलाव करना होगा. लेकिन, इसमें कई सवाल और जटिलताएं सामने आती हैं.”
“जैसे अगर एक ही जेंडर के लोग शादी करेंगे तो गुजारा भत्ता कौन किसको देगा? घरेलू हिंसा में अगर एक ही जेंडर के लोग हैं तो इसमें पीड़ित और अभियुक्त पक्ष कौन होगा? ससुराल-मायका, पितृधन और मातृधन क्या है, इस पर विचार करना पड़ेगा. उसी तरीके से, मैरिटल रेप के भी प्रावधान हैं. इन सभी बातों का आपस में एक संबंध है. एक पूरी क़ानूनी संरचना बदलनी पड़ेगी क्योंकि विवाह के क़ानून की जड़ में स्त्री-पुरुष के संबंधों को ही निर्धारित किया गया है.”
विराग गुप्ता कहते हैं कि अब अगर इसको मान्यता देनी है तो सिर्फ़ संसद के माध्यम से दी जा सकती है. कोई क़ानून ग़लत है या नहीं ये कोर्ट तय कर सकता है लेकिन पूरी क़ानून व्यवस्था को बदलने के लिए कोर्ट निर्देश दे भी दे, तो भी बदलाव संसद के माध्यम से ही संभव है. विवाह क़ानूनों और उनसे जुड़े अन्य क़ानूनों में बदलाव करना होगा तभी सही अर्थों में मांग पूरी हो पाएगी. ये बहुत ही क्रांतिकारी बात होगी.
मौलिक अधिकार का उल्लंघन
दिल्ली हाई कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि समलैंगिकों को शादी का अधिकार न मिलना उन्हें समानता के मौलिक अधिकार से वंचित करता है.
याचिकाकर्ता उदित सूद कहते हैं कि हमारी याचिका विवाह की समानता को लेकर है. अपनी पसंद के किसी व्यक्ति से शादी करना आधारभूत मानवाधिकार है जो भारत के संविधान में सभी को मिला हुआ है. समलैंगिक भी इसके पूरे हकदार हैं.
उनकी याचिका में जिन मौलिक अधिकारों की बात की गई है वो हैं-
● राज्य किसी नागरिक के खिलाफ धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद नहीं कर सकता है. भारतीय क़ानून सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं.
● अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
● किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से क़ानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जाएगा.
लेकिन, सरकार इसे मौलिक अधिकार का मसला नहीं मानती.
सरकार का पक्ष है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार क़ानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन है और समलैंगिक विवाह के मौलिक अधिकार को शामिल करने के लिए इसका विस्तार नहीं किया जा सकता है. समलैंगिक विवाह "किसी भी व्यक्तिगत क़ानून या किसी भी सांविधिक वैधानिक क़ानून में मान्यता प्राप्त या स्वीकृत नहीं हैं.
समलैंगिक विवाह और मौलिक अधिकारों को लेकर विराग गुप्ता कहते हैं, “दरअसल, मौलिक अधिकार भी उसी चीज़ के लिए बनता है जिसके लिए देश में क़ानून हो. जिसके लिए क़ानून ही नहीं है उसके लिए मौलिक अधिकार कैसे बन जाएगा.”
“मौलिक अधिकार के तहत अगर वो अपनी पसंद का पार्टनर चुनते भी हैं तो भी वो शादी कैसे करेंगे क्योंकि उनकी शादी के लिए कोई क़ानून ही नहीं है. शादी की आज़ादी है लेकिन अगर आप क़ानूनी शादी करना चाहते हैं तो क़ानून के अनुसार ही करनी पड़ेगी. ऐसे में मौलिक अधिकार का उल्लंघन कैसे होगा. हालाँकि, विवाह संबंधी क़ानूनों में बदलाव करके ज़रूर इस अधिकार को पाया जा सकता है.”
यही याचिकाकर्ताओं की मांग भी है, कि समलैंगिकों की समानता के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए विवाह क़ानूनों में बदलाव किया जाए.
दुनिया भर में 29 देश ऐसे हैं जहाँ ऐसे ही क़ानूनी उलझनों के बावजूद समलैंगिक विवाह को मंज़ूरी दी गई है. कुछ देशों में कोर्ट के ज़रिए ये अधिकार मिला तो कुछ में क़ानून में बदलाव करके तो कुछ ने जनमत संग्रह करके ये अधिकार दिया.
शादी से जुड़े अन्य क़ानूनों को लेकर अब भी चर्चा जारी है जैसे समलैंगिकों के लिए घरेलू हिंसा के क़ानून के तहत मामला दर्ज कराने में समस्या आती है. लेकिन, उनकी शादी को मान्यता मिली हुई है.
इसे लेकर समानाधिकार कार्यकर्ता हरीश अय्यर कहते हैं कि जिस तरह विवाह क़ानून में बदलाव अन्य क़ानूनों को प्रभावित करेगा उसी तरह विवाह का अधिकार नहीं मिलने से समलैंगिकों के कई और अधिकार भी प्रभावित हो रहे हैं.
उन्होंने बताया, “शादी को मान्यता नहीं मिलने से होता ये है कि वो कपल शादी से जुड़े अन्य अधिकारों से भी वंचित हो जाता है. जैसे किडनी देने की इज़ाजत परिवार के ही सदस्य को होती है. अगर समलैंगिक जोड़े में किसी एक को किडनी की ज़रूरत है और दूसरा देने में सक्षम और इच्छुक भी है तो भी वो किडनी नहीं दे सकता क्योंकि वो क़ानूनी तौर पर शादीशुदा नहीं हैं.”
“इसी तरह आप उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित हो जाते हैं. मेडिक्लेम, इंश्योरेंस और अन्य दस्तावेजों में भी अपने पार्टनर का नाम नहीं लिख सकते. जबकि मेरा पार्टनर कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. समलैंगिक जोड़ा प्यार, समर्पण, इच्छा होने पर भी एक-दूसरे को परिवार नहीं बना सकता.”
इस मामले पर सरकार के रुख को लेकर हरीश अय्यर का कहते हैं, “हमें सरकार से इसी तरह के जवाब की उम्मीद थी क्योंकि उन्होंने धारा 377 के समय पर भी कोई पक्ष लेने से इनकार कर दिया था. सरकार ने कभी नहीं कहा कि वो एलजीबीटी के साथ है. हाँ, व्यक्तिगत तौर पर सरकार में शामिल नेताओं ने एलजीबीटी के समर्थन में बयान दिया है लेकिन सरकार के स्तर पर समर्थन नहीं मिला है.”
“बस हम ये चाहते हैं कि समलैंगिक विवाह को क़ानूनी दर्जा दिलाने का कोई तरीका ढूंढे, कोई प्रावधान करें या सिविल पार्टनरशिप ही करें. क़ानून ऐसा हो कि जेंडर और सेक्शुएलिटी के परे कोई भी दो लोग शादी कर सकें.”
इस मामले में सरकार को अभी कुछ और याचिकाओं पर भी कोर्ट में जवाब दाखिल करना है. मामले की अगली सुनवाई 20 अप्रैल को होगी. (bbc.com)
-गोपाल राठी
अहमदाबाद में मोटेरा स्टेडियम को नरेंद्र मोदी स्टेडियम नाम दिए जाने पर विवाद शुरू हो गया है। पहले यह मैदान सरदार पटेल स्टेडियम कहलाता था। स्टेडियम के नाम पर विवाद के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से जुड़ा किस्सा बरबस ही सोशल मीडिया में शेयर होने लगा है।
किताब ‘नेहरू मिथक और सत्य’ के लेखक पीयूष बबेले (श्चद्ब4ह्वह्यद्ध ड्ढड्डड्ढद्गद्यद्ग) ने अपनी पुस्तक का एक अंश ट्वीट किया है। इसमें नेहरू की खेलों को बढ़ावा देने की चिंता के साथ ही स्टेडियम के नामों को लेकर उनकी साफगोई का जिक्र है।
1951 में देश में पहली बार एशियाई खेलों के आयोजन होना था। नेहरू खेलों के बहाने दुनिया में एक राजनीतिक ध्रुव की नींव रखना चाहते थे। 11 फरवरी 1949 को नेहरू ने क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के मानद सचिव एएस डिमेलो के पत्र के जवाब में एक नोट लिखा-
मैंने मिस्टर डिमेलो द्वारा बनाया वह नोट पढ़ा। जिसमें उन्होंने नई दिल्ली में ‘नेहरू स्टेडियम इन पार्क’ और बंबई में ‘वल्लभ भाई पटेल ओलंपिक स्टेडियम’ बनाने का सुझाव दिया है। मैं भारत में खेलकूद और एथलेटिक्स को पूरा प्रोत्साहन देने के पक्ष में हूं। यह बहुत अफसोस की बात है कि देश में कोई ढंग का स्टेडियम नहीं है। पटियाला या एक दो जगहों को छोड़ दिया जाए तो देश में कहीं भी कायदे का रनिंग ट्रैक तक नहीं है। इसलिए मुझे लगता है कि सरकार को हर तरह के स्टेडियम के निर्माण के काम को बढ़ावा देना चाहिए।
मैं कभी भी किसी स्टेडियम का नाम अपने या किसी दूसरे व्यक्ति के नाम पर रखे जाने के सख्त खिलाफ हूं। यह एक बुरी आदत है इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। स्टेडियम का नाम नेशनल स्टेडियम या इसी तरह का कोई दूसरा नाम भी हो सकता है।
गौरतलब है कि बुधवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अहमदाबाद के मोटेरा के अत्याधुनिक स्वरूप का लोकार्पण किया है। इस मौके पर गृहमंत्री और अहमदाबाद के सांसद अमित शाह ने ऐलान किया कि इस स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी स्टेडियम होगा। जिसके बाद इसका विरोध होना शुरू हो गया था।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
खाद्य-पदार्थों और दवाइयों में मिलावट करनेवाले अब जरा डरेंगे, क्योंकि बंगाल, असम और उप्र की तरह अब मध्यप्रदेश भी उन्हें उम्र कैद देने का प्रावधान कर रहा है। अब तक उनके लिए सिर्फ 6 माह की सजा और 1000 रु. के जुर्माने का ही प्रावधान था। इस ढिलाई का नतीजा यह हुआ है कि आज देश में 30 प्रतिशत से भी ज्यादा चीजों में मिलावट होती है। सिर्फ घी, दूध और मसाले ही मिलावटी नहीं होते, अनाजों में भी मिलावट जारी है। सबसे खतरनाक मिलावट दवाइयों में होती है। इसके फलस्वरूप हर साल लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं, करोड़ों बीमार पड़ते हैं और उनकी शारीरिक कमजोरी के नुकसान सारे देश को भुगतने पड़ते हैं। मिलावट-विरोधी कानून पहली बार 1954 में बना था लेकिन आज तक कोई भी कानून सख्ती से लागू नहीं किया गया।
2006 और 2018 में नए कानून भी जुड़े लेकिन उनका पालन उनके उल्लंघन से ही होता है। उसके कई कारण हैं। पहला तो यही कि उस अपराध की सजा बहुत कम है। वह नहीं के बराबर है। मैं तो यह कहूंगा कि वह सजा नहीं, बल्कि मिलावटखोर को दिया जानेवाला इनाम है। यदि उसे 6 माह की जेल और एक हजार रु. जुर्माना होता है तो वह एक हजार रु. याने लगभग डेढ़ सौ रुपए महिने में जेल में मौज मारेगा। उसका खाना-पीना, रहना और दवा-सब मुफ्त!
अपराधी के तौर पर कोई सेठ नहीं, उसका नौकर ही पकड़ा जाता है। अब कानून ऐसा बनना चाहिए कि मिलावट के अपराध में कंपनी या दुकान के शीर्षस्थ मालिक को पकड़ा जाए। उसे पहले सरे-आम कोड़े लगवाए जाएं और फिर उसे सश्रम कारावास दिया जाए। उसकी सारी चल-संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। यदि हर प्रांत में ऐसी एक मिसाल भी पेश कर दी जाए तो देखिए मिलावट जड़ से खत्म होती है कि नहीं। थोड़ी-बहुत सजा मिलावटी समान बेचनेवालों को भी दी जानी चाहिए। इसके अलावा मिलावट की जांच के नतीजे दो-तीन दिन में ही आ जाने चाहिए। मिलावटियों से सांठ-गांठ करनेवाले अफसरों को नौकरी से हमेशा के लिए निकाल दिया जाना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय सभी भाषाओं में विज्ञापन देकर लोगों को यह बताए कि मिलावटी चीजों को कैसे घर में ही जांचा जाए। दवाइयों और खाद्य-पदार्थों में मिलावट करना एक प्रकार का हत्या-जैसा अपराध है। यह हत्या से भी अधिक जघन्य है। यह सामूहिक हत्या है। यह अदृश्य और मौन हत्या है। इस हत्या के विरुद्ध संसद को चाहिए कि वह सारे देश के लिए कठोर कानून पारित करे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा और कांग्रेस के बागी नेताओं के नए तेवर कांग्रेस पार्टी के लिए नई चुनौतियां पैदा कर रहे हैं। प. बंगाल, असम, पुदुचेरी, तमिलनाडु और केरल— इन पांच राज्यों में से अगर किसी एक राज्य में भी कांग्रेस जीत जाए तो उसे मां-बेटा नेतृत्व की बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। केरल और पुदुचेरी में कांग्रेस अपने विरोधियों को तगड़ी टक्कर दे सकती है, इसमें शक नहीं है। वह भी इसलिए कि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व जऱा प्रभावशाली है।
प्रभाव उनका ही होगा लेकिन उसका श्रेय मां-बेटा नेतृत्व को ही मिलेगा और यदि पांचों राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह से पिट गई तो माँ-बेटा नेतृत्व के खिलाफ कांग्रेस में जबर्दस्त लहर उठ खड़ी होगी। उसके संकेत अभी से मिलने लग गए हैं। जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस की दुर्दशा पर पुनर्विचार करने की गुहार पहले लगाई थी, वे अब पहले जम्मू में और फिर कुरूक्षेत्र में बड़े आयोजन करने वाले हैं। जम्मू का आयोजन गुलाम नबी आजाद के सम्मान में किया जा रहा है, क्योंकि मां-बेटा नेतृत्व ने उन्हें राज्यसभा के पार्टी-नेतृत्व से विदा कर दिया है। गुलाम नबी की तारीफ में भाजपा ने प्रशंसा के पुल बांध रखे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि उसके बावजूद वे भाजपा में जानेवाले नहीं हैं।
कांग्रेस के ‘चिंतित नेताओं’ को साथ जोडक़र अब वे नई कांग्रेस घडऩे में लगे हैं। उनके साथ जो वरिष्ठ नेतागण जुड़े हुए हैं, उनमें से कई अत्यंत गुणी, अनुभवी और योग्य भी हैं लेकिन उनमें साहस कितना है, यह तो समय ही बताएगा। उनकी पूरी जिंदगी जी-हुजूरी में कटी है। अब वे बगावत का झंडा कैसे उठाएंगे, यह देखना है। उनकी दुविधा इस शेर में वर्णित है।
इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई ‘मोमिन’
आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे ?
मुझे नरसिंहरावजी के प्रधानमंत्री-काल के वे अनुभव याद आ रहे हैं, जब मेरे पिता की उम्र के कांग्रेसी नेता मेरे सम्मान में तब तक खड़े रहते थे, जब तक कि मैं कुर्सी पर नहीं बैठ जाता था, क्योंकि नरसिंहरावजी मेरे अभिन्न मित्र थे। अब वे दिन गए जब पुरूषोत्तम दास टंडन, आचार्य कृपालानी, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश, महावीर त्यागी जैसे स्वतंत्रचेता लोग कांग्रेस में सक्रिय थे लेकिन फिर भी हमें उम्मीद नहीं छोडऩी चाहिए। कांग्रेस तो दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टियों में से रही है और स्वाधीनता संग्राम में इसने विलक्षण भूमिका निभाई है।
भारतीय लोकतंत्र की उत्तम सेहत के लिए इसका दनदनाते रहना जरूरी है। मार्च-अप्रैल में होने वाले पांच चुनावों का जो भी परिणाम हो, यदि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र किसी तरह स्थापित हो जाए तो कांग्रेस को नया जीवन-दान मिल सकता है। यदि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र सबल होगा तो भाजपा भी भाई-भाई पार्टी बनने से बचेगी।
कई प्रांतीय पार्टियां, जो प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं, उनमें भी कुछ खुलापन आएगा और उनमें नया रक्त-संचार होगा। हमारे भारत की सभी पार्टियां अपना सबक कांग्रेस से ही सीखती हैं। कांग्रेस के सारे दुर्गुण हमारे अन्य राजनीतिक दलों में भी धीरे-धीरे बढ़ते चले जा रहे हैं। यदि कांग्रेस सुधरी तो देश की पूरी राजनीति सुधर जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
राजद्रोह को दंड संहिता से निकाल फेंकने से सुप्रीम कोर्ट ने इंकार कर दिया है। आवेदक केदारनाथ सिंह ने यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंग्रेजों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन गुंडों को गद्दी सौंप दी। लोगों की गलती से गुंडे गद्दी पर बैठ गए हैं। हम अंग्रेजों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आखिर ेप्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है। उसमें उन लोगों को सजा देने की शक्ति होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में’ नामक शब्दांश बहुत व्यापक है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह अपराध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्य द्वारा सक्षम प्रतिबंध के रूप में मुनासिब समझा जा सकता है।
पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक करार दिया, लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाले मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के प्रतिकूल। तो न्यायालय पहली स्थिति के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया। कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई। राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्दों का कचूमर निकल रहा है। धारा 124-क के अनुसार-जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या इशारों द्वारा, या दिखाते हुए अन्यथा कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना पैदा करेगा, या पैदा करने की कोषिष करेगा या मनमुटाव उकसाएगा या उकसाने की कोषिष करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा। राजद्रोह का अपराध राजदंड है। वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर पड़ता है। अंग्रेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं। राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने भी तो खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं।
2010 में कश्मीर के अध्यापक नूर मोहम्मद भट्ट को कश्मीरी असंतोष को प्रश्न पत्र में शामिल करने, टाईम्स ऑफ इंडिया के अहमदाबाद स्थित संपादक भरत देसाई को पुलिस तथा माफिया की सांठगांठ का आरोप लगाने, विद्रोही नामक पत्र के संपादक सुधीर ढवले को कथित माओवादी से कम्प्यूटर प्राप्त करने, डॉक्टर विनायक सेन को माओवादियों तक संदेश पहुंचाने, ओडिशा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी द्वारा माओवादी साहित्य रखने, एमडीएमके के नेता वाइको द्वारा यह कहने कि श्रीलंका में युद्ध नहीं रुका तो भारत एक नहीं रह पाएगा और पर्यावरणविद पीयूष सेठिया द्वारा तमिलनाडु में सलवा-जुडूम का विरोध करने वाले परचे बांटने जैसे कारणों से राजद्रोह का अपराध चस्पा किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के फैसले में सिद्धांत स्थिर किया कि किसी भी कानून में इतनी अस्पष्टता तो हो कि निर्दोष लोगों के खिलाफ यदि इस्तेमाल किया जा सके तो ऐसा कानून असंवैधानिक होगा। राजद्रोह के लिए मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है। इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया वगैरह में भी इस कानून की उपयोगिता अब बची नहीं है। राजद्रोह को आज़ादी कुचलने के सरकारी या पुलिसिया डंडे के रूप में रखे जाने का संवैधानिक औचित्य भी नहीं है। विनोद दुआ ने भी ऐसा कुछ घातक तो नहीं कहा था जिसको लेकर सरकारी तरफदारी करने वाले कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता बवाल मचा गए। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ के प्रकरण में राजद्रोह की संवैधानिकता पर मुहर लगाई है। तब इंग्लैंड में प्रचलित समानान्तर प्रावधानों का सहारा लिया था। इंग्लैंड में संबंधित धारा का विलोप कर दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह की संविधान पीठ में भाषा की केचुल तो उतारी लेकिन राजद्रोह के सांप को फनफनाने का मौका मिला। अंग्रेज जज कहते थे राज्य और सरकार के खिलाफ नफरत और असहयोग तो दूर मन में सरकार के नकार की भावना तक का प्रदर्शन नहीं करना है। (बाकी पेज 8 पर)
धीरे-धीरे उस पर तर्क की इस्तरी चलती चलाते भारतीय जजों ने कहा कि सरकार का मतलब राज्य के नुमाइंदों से नहीं है। सरकार एक भाववाचक संज्ञा है जो व्यक्तियों के जरिए तो उपस्थित है लेकिन वे व्यक्ति सरकार नहीं हैं। इससे कुछ सहूलियत मिली लेकिन आखिर यही तय हुआ कि यदि सरकार के खिलाफ लगभग गांधीवादी जुमले में असहयोग निष्क्रिय प्रतिरोध, सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी कोई करेगा तो उससे एक ऐसी मनोवैज्ञानिकता पसर सकती है कि जनता को सरकार नामक उपस्थिति या तंत्र से कोई लेना देना नहीं है बल्कि सरकार का नकार है। ऐसे में सरकार के माध्यम से कोई हुकूमत कैसे करेगा। दुभागर््य है कि तिलक से लेकर दिशा रवि तक किसी ने भी हथियारों के जरिए किसी राज्य की मान्यता या संस्था को नेस्तनाबूद करने का आह्वान नहीं किया। अब तक यही कहा और ठीक कहा कि हम अंगरेजों के गुलाम नही रहेंगे लेकिन हमारी आजादी देष की सरकार में होगी। आज भी भारतीय नागरिक आजादी का जयघोष हो रहा है कि राज्य हमारा है क्योंकि हम संविधान के निर्माता हैं। हम सरकारें चुनते हैं। उन्हें हटा देने का हक हमारा है। इसलिए हमारे चुने हुए नुमाइंदों के उनके गलतसलत कामों को प्रतिबंधित करने के हमारे संवैधानिक अधिकार को राजद्रोह का कोड़ा फटकारते हमें डरा नहीं सकते। सैकड़ों मुकदमे हैं जिनमें दिशा रवि की तरह पहली फुर्सत में अदालतों को नागरिक आजादी के पैरोकारों के पक्ष में राय दे सकनी थी।
यदि राज्य की हुकूमत जुर्म करे तो संविधान का तीसरा स्तंभ न्यायपालिका के रूप में ही मुनासिब इंसाफ करने में ढिलाई क्यों करेगा? उसकी तपिश का अहसास तिलक और गांधी जैसे महान नेताओं ने अंगरेजी जुर्म से तंग आकर किया था। उन्होंने आजाद भारत के लिए मनुष्य के अधिकारों का अंतरिक्ष फैलाया था।
-रमेश अनुपम
छत्तीसगढ़ और विशेषकर रायपुर का इतिहास लिखा जाए और उस इतिहास में रायबहादुर भूतनाथ डे का उल्लेख न हो, ऐसा संभव नहीं है। रायबहादुर भूतनाथ डे एक ऐसे अनमोल शख्शियत थे जिन्होंने इस शहर को शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं से महरूम किया।
रायपुर शहर को एक नई पहचान दिलाने की कोशिश ही नहीं की अपितु एक नए रायपुर को गढऩे में आगे बढ़ कर रुचि भी दिखाई। सेंट्रल प्रोविनेंस एंड बरार के इस नवविकसित शहर को एक नई पहचान दिलाने में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शिक्षा के विकास में और जनजागृति के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को उन्होंने अंजाम दिया। जिसके फलस्वरूप उन्हें उस समय सी पी एंड बरार का ईश्वरचंद्र विद्यासागर कहा जाता था। जो कार्य बंगाल में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने किया ठीक उसी तरह के नवजागरण का कार्य रायबहादुर भूतनाथ डे ने इस शहर के लिए किया।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बंगाल में नवजागरण के समय कोलकाता में शिक्षा, स्त्री शिक्षा, महिलाओं को आगे बढ़ाने तथा जनजागृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए ठीक उसी तरह के उल्लेखनीय कार्यों को राय बहादुर भूतनाथ डे ने रायपुर में अंजाम दिया।
वे बीस वर्षों तक (सन् 1880 से 1900 तक) रायपुर म्यूनिस्पल के सेक्रेटरी रहे। उस बीच उन्होंने पेयजल के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय कार्य किए। राजनांदगांव के तत्कालीन राजा की आर्थिक सहायता से रायपुर में उन्होंने पेयजल की आपूर्ति को संभव बनाया। वे रायपुर के वकीलों के एक छात्र नेता रहे। सन 1902 में रायपुर के यूनियन क्लब की स्थापना में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही है।
वे दो दशक से भी अधिक समय तक इस शहर के सिरमौर रहे। इस शहर को उन्होंने जिस तरह से प्यार किया, जिस तरह से संवारा वह अद्भुत है। आज के इस दौर में तो यह सब नामुमकिन है। उनके इन कार्यों को देखकर ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर की पदवी से विभूषित किया।
भूतनाथ डे के रायपुर आने की कहानी और उनका पिछला जीवन भी कोई कम दिलचस्प नहीं है। राय बहादुर भूतनाथ डे का जन्म बंगाल के बेहाला के श्रीनाथ देब के परिवार में सन 1850 में हुआ था। बहुत कम उम्र में पिता की मृत्यु हो जाने के पश्चात अपनी विधवा मां के साथ चौबीस परगना के बहड़ गांव के उदार हृदय जमींदार द्वारकानाथ भंज के यहां उन्हें शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा।
भूतनाथ डे ने सन 1869 में एफ. ए. तथा 1872 में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
सन 1874 में एम. ए. तथा 1876 में कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी. एल. की परीक्षा पास की।
बी.एल. की परीक्षा उत्तीर्ण के पश्चात भूतनाथ डे का विवाह चौबीस परगना के उमाचरण मित्र की द्वितीय कन्या एलोकेशी के साथ संपन्न हुआ।
विवाह के पश्चात कोर्ट में प्रैक्टिस करने के लिए उन्होंने उपयुक्त स्थान की खोज करना प्रारंभ किया। खोज करते-करते उन्हें रायपुर के बारे में पता लगा।
सन् 1876 में वे पहली बार रायपुर आए, तब तक इलाहाबाद से नागपुर तक रेल सेवा शुरू हो चुकी थी। कोलकाता से रायपुर आवागमन संभव हो चुका था। सन 1876 में रायपुर आने के बाद उन्होंने रायपुर को ही अपनी कर्मभूमि बनाना उचित समझा।
रायपुर को उन्होंने पूरी तरह से अपना लिया और रायपुर ने उन्हें। दोनों ने एक दूसरे से भरपूर प्यार किया और भरपूर सम्मान भी।
मात्र तिरपन वर्ष की अल्प आयु में 10 जुलाई 1903 को रायपुर में इस महाप्राण ने इस पृथ्वी को छोडक़र महाप्रयाण किया। उस समय कोलकाता से प्रकाशित सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘ञ्जद्धद्ग क्चद्गठ्ठद्दड्डद्यद्गद्ग’ के 15 जुलाई 1903 के पांचवें पृष्ठ में उनके निधन के समाचार को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया गया।
छत्तीसगढ़ और रायपुर का एक चमकता हुआ सितारा सदा-सदा के लिए अस्त हो गया। एक उल्का पिंड जिसकी रोशनी से यह शहर दमक उठा था वह सदा-सदा के लिए पृथ्वी के गर्भ में समा गया।
निधन के पश्चात उनकी स्मृति में कोतवाली से गांधी चौक होकर जाने वाले मार्ग का नाम उनके नाम पर किया गया, पर इसे कितने लोग जानते हैं ?
छत्तीसगढ़ और रायपुर शहर के लिए जिस रायबहादुर भूतनाथ डे ने इतना कुछ किया। उस नगर के लोग ही आज राय बहादुर भूतनाथ डे को पूरी तरह से भूल चुके हैं।
शेष अगले रविवार..
विश्व का महान जीनियस हरिनाथ डे...
- सतीश जायसवाल
माघ पूर्णिमा के साथ छत्तीसगढ़ में ग्रामीण वार्षिक मेलों की शुरुआत हो जाती है। और होली पर्व पर, धूल पँचमी तक इन मेलों की बहार होती है।
पहले के दिनों में छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक-पारंपरिक स्वरूप की एक झलक इन मेलों में मिल जाती थी।अब धीरे-धीरे वह धूमिल पड़ने लगी है। उस पर व्यापारिक और राजनैतिक प्रभाव गहराने लगा है।
यहां के तीन प्रमुख मेलों ने फिर भी इन प्रभावों से अपने को काफी हद तक बचाकर रखा है। और अपने सांस्कृतिक स्वरूप को सहेजा हुआ है। ये मेले हैं -- शिवरीनारायण, सिरपुर और पीथमपुर।
माघ पूर्णिमा के साथ शुरू होने वाले शिवरीनारायण मेला का एक प्रमुख और विशिष्ट आकर्षण यहां के रामनामी समुदाय के लोग होते हैं।
ये लोग, स्त्री-पुरुष और बच्चे तक अपने पूरे शरीर पर राम-राम नाम का गोदना गोदवाते हैं। और सर पर बाँस के बने मोरपंखी मुकुट सर पर धारण करते हैं।
ऐसे में ये लोग और भी दर्शनीय हो जाते हैं। और मेले का एक विशिष्ठ आकर्षण बन जाते हैं।
इन्हें देखने के लिए देश-विदेश के लोग स्वाभविक तौर पर यहां पहुंचते है। मीडियाकर्मी और स्कॉलर्स भी यहां आते हैं।
इस वर्ष माघ पूर्णिमा के पर्व पर रामनामियों के एक समूह ने यहां, महानदी में स्नान किया।और यहां से निकल गए। अब, हो सकता है कि अगले वर्ष इसी अवसर पर फिर दिखें। नहीं भी दिखें। कोई निश्चय नहीं।
-प्रकाश दुबे
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से अश्वमेध यज्ञ आरंभ करने की परंपरा थी। यज्ञ का आयोजन करने वाले ठोंक बजाकर अश्व चुनते हैं। तेलंगाना में रक्तक्रांति रोकने के लिए पहले जवाहर लाल नेहरू और आपात्काल लगाने से पहले और पूरे कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने सत्ता बचाने के लिए आचार्य विनोबा भावे को अश्वमेध के लिए सजाया। कुछ लोगों को यह बात नागवार लग सकती है। पश्चिम बंगाल से पुडुचेरी तक दलबदल शब्द का प्रयोग होता है। समय ही बताएगा कि ये योद्धा थे? विजयी हुए, वीरगति को प्राप्त हुए या किसी चुनावी अश्वमेध के बाद प्रसाद के रूप में वितरित किए गए?
अश्वमेध के घोड़े को अपना अंत पता होता होगा? काजू-किशमिश चबाते समय बकरे को अपनी कुरबानी का पता नहीं होता। उसकी पौष्टिकता स्वाद बनकर दान का गर्व और उत्सव का उल्लास बनकर बिखरती है। महत्वपूर्ण, परंतु काल्पनिक सा सवाल है-घोड़ा क्या सोचता होगा? सज-धज का आनंद। औरों से अलग दिखने का गर्व। पीछे-पीछे भागती श्रद्धालुओं की उत्तेजित भीड़। आरती, पूजा, अभिषेक। उसकी चाल तो बदल जाती है। सोच बदलने में क्षण नहीं लगता। अश्व सोचता होगा-मैं ही शूरवीर। युद्ध विजेता। कागज पर कलम चलाकर राजपाट की रजिस्ट्री करना संभव है। ऐसे प्रसंग से हम आपका मनोरंजन होता है। केन्द्र तथा राज्य की कुलीन सभाओं में प्रवेश मिलता है। धरती को रौंदने वाले अश्व की हिनहिनाहट में विजय का दर्प शामिल है।
रूसी क्रांति की कूंची से दुनिया के दर्जनों देश लाल हो गए। विचार और कर्म के घालमेल की बदौलत लेनिन रूस और बाद में सोवियत संघ के शिखर पद पर विराजमान हुए। लेनिन के देहांत के बाद सेंट पीटरबर्ग का नाम बदल कर सम्मान स्वरूप लेनिनग्राद किया गया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की आंधी में सत्ता, समय और पुराने विचार उखड़ कर ताश के पत्तों की तरह धराशायी हुए। लेनिनग्राद शहर का नाम फिर सेंट पीटरबर्ग हो चुका है। क्रांति का जनक व्लादिमीर इलीयिच उल्यानोव लेनिन अंतिम दिनों में खुश होकर यह कहने में असमर्थ था कि दुनिया के मजदूरों तुम बड़े जल्दी एकजुट होने लगे। लाल सलाम कहना दूर, एक अक्षर उसके मुंह से नहीं निकलता था। साम्यवाद की तुलना दिग्विजय के लिए किए जाने वाले अश्वमेध यज्ञ से करें। अपने सम्राट के नाम की पट्टी के साथ ऐंठकर चलते हुए घोड़े के पीछे पीछे सेनापति और सेना चलती है। घोड़े का तिलक कर अधीनता स्वीकार करो वरना युद्ध करो। घोड़ा सम्राट का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में ऐसे कई अवसर आए जब घोड़े के आगे अनेक शूर सर नवाजे गए।
गांधी के विचार और कर्म से प्रभावित भारत ने महात्मा और बापू जैसा संबोधन दिया। अहिंसक सत्याग्रह का घोड़ा भारत की स्वतंत्रता का अश्व बना। अश्वमेध यज्ञ पूरा होने के बाद घुड़सवारों ने प्राचीन परंपरा निभाई। उन्होंने घोड़े को अज यानी बकरे के साथ खंभे से बांधा। विधिवत पूजा के बाद अश्व की देह के टुकड़े प्रसाद के रूप में विजयी प्रजा में वितरित किए गए। हर अश्वमेध के बाद लगभग उसी तरीके से यह परिपार्टी अपनाई जाती है। अपने घोड़े से असहमत सम्राट याद नहीं रखा जाता। उसका भी अपने अश्व जैसा ही अंत हाने की आशंका बनी रहती है। अनेक बड़े उदाहरण पाठकों के मन को झकझोरते होंगे। एक अल्पज्ञात मिसाल देना उचित होगा।
डॉ. राम मनोहर लोहिया के बाद गैर कांग्रेसवाद के विचार को नंदमूरि तारक रामाराव ने हथियार बनाया। लोकसभा चुनाव में वर्तमान भाजपा से लेकर हर कांग्रेस विरोधी दल के उम्मीदवार को रामाराव ने उम्मीदवार बनाया। सिर्फ माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उनका तोहफा लेने से इंकार किया। विचार का अश्व रेड़ लगाकर लक्ष्य के करीब जा पहुंचा। एनटीआर गोता खा गए। अपने को सम्राट समझने की भूलकर पसंद की महिला से विवाह किया। इस बहाने दामादों, बेटियों और समर्थकों ने एनटीआर को सत्ता से बाहर कर दिया। लेनिन का हश्र सर्वश्रूत है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अपना विचार है। इस विचार की ताकत तब भी थी, जब सत्ता नहीं थी। उस समय कुपु सी सुदर्शन सरसंघचालक थे। उनके निर्देश पर लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा। रथयात्री आडवाणी अश्वमेध के घोड़े साबित हुए। आदेशक सुदर्शन जी अंतिम दिनों में याददाश्त खो बैठे थे। भोपाल में टहलने निकले। अचानक सांस थमी। देर तक लोग पहचान नहीं पाए। उनकी ही तरह प्रतिभाशाली कलमकार चलपति राव का काल से मुकाबला हुआ। नेशनल हेराल्ड का संपादक प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लेख में कतरब्यौंत करता था। प्रधानमंत्री बनी बेटी ने निकाल बाहर किया। एक दिन लावारिस लाश मिली। चलपतिराव का नश्वर शरीर। विचार के अश्वमेध के अश्व और घोड़े को रवाना करने वालों का हश्र सर्वविदित है। इसके बावजूद मेट्रोमेन ई श्रीधरन राजनीतिक यज्ञ में हवि देने आतुर हैं। मुख्यमंत्री बनने की उनकी चाह से चकित न हों। तीन महीने से व्यापक स्तर पर किसान आंदोलन चल रहा है। प्रचार वंचित किसान डटे हुए हैं। उनका संकल्प देखकर अण्णा हजारे जैसे मुनि विश्वामित्र को फिर एक बार प्रचार की अप्सरा मेनका याद आई।
प्रधानमंत्री ने आंदोलनजीवियों की फजीहत की। समय रहते अण्णा हजारे ने अपने आप को संभाला होगा। अचरज इस बात पर हो सकता है कि किसान और कृषि की जानकारी रखने वालों के बीच जाने-पहचाने स्वामीनाथन ने तमिलनाडु के लघु अश्वमेध का घोड़ा बनने की ललक नहीं दिखाई। उन्हें भी तो व्हील चेयर पर बिठाकर मुख्यमंत्री बनाया जा सकता था। याद करिए दिल्ली के चुनाव। किरण बेदी पुलिसिया रोब के साथ सलामी लेने पहुंच गई थीं।
अश्व सोचे या न सोचे। जीत के जयकारे में मस्त, दिग्विजय के लिए अश्व चुनने वाले अश्वमेध के विजयी घोड़ों की वेदना पर विचार करें? उनका काम यज्ञ है। घोड़े सोचते नहीं। घोड़ा बेचकर सोना मुहावरा है। यह तो सब जानते हैं। इसका अर्थ समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-गिरीश मालवीय
एक साधारण सा फिल्म अभिनेता जिसकी कुछ दो चार फिल्म हिट हुई है संभवत: नशे की सही डोज न मिलने के कारण आत्महत्या कर लेता है और भारत का मीडिया उसकी आत्महत्या पर बवाल मचा देता है। लगभग पूरी फिल्म इंडस्ट्री शक के घेरे में आ जाती है। महीने दो महीने तक सुबह-शाम न्यूज चैनलों पर सिर्फ उसी से संबंधित न्यूज चलती है।
लेकिन जब देश के सबसे वरिष्ठ सांसदों में से एक जो सात बार लोकसभा का चुनाव जीतकर आया हो जो पूरे होशोहवास में आत्महत्या करने से पहले एक या दो नहीं, बल्कि 14 पन्नों का एक पत्र, ‘सुसाइड नोट’ के शीर्षक के साथ, वो भी अपने ऑफिशियल लेटरहैड पर लिखकर मुंबई के एक होटल के कमरे में पँखे पर झूल जाता है तो न सांसद की कोई चर्चा करता है न उसके सुसाइड नोट की कोई चर्चा करता है न उन परिस्थितियों की कोई चर्चा करता है जिसमें उलझ कर एक सांसद जैसे अधिकार संपन्न आदमी को अपनी जान देनी पड़ी और न उन नामों पर चर्चा करता है जिनका नाम उस सुसाइड नोट में लिखा है।
तो ऐसा क्यों होता है आपने कभी सोचा?
मीडिया में आज वो ताकत है जो किसी भी भी आलतू-फालतू मुद्दे को हमारे दिमाग में फिट कर दे और जिन जनसरोकार के मुद्दों का हमसे सीधा संबंध है उन्हें हमसे दूर कर दे। यह मीडिया का दानव जिसके वश में है वही हमारे सोचने-समझने की शक्ति को अपने कंट्रोल में किए हुए हैं वही राज कर रहे हैं।
खैर!...जाने दीजिए...यह सब बातें एक न एक दिन आपको समझ में आ ही जाएगी, मैं आपको यहाँ वो बता दूं जो हमारा मीडिया खासतौर पर हिंदी मीडिया बिल्कुल भी नहीं बता रहा है। कल मोहन डेलकर के युवा पुत्र अभिनव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर न्याय की माँग की है। गुजराती में लिखे गए पत्र में अभिनव डेलकर ने लिखा है, ‘मेरे पिता मोहन डेलकर को कुछ समय के लिए मानसिक रूप से तनाव में रखा गया है और इस पत्र को लिखने का उद्देश्य न्याय प्राप्त करना है
अभिनव लिखते हैं ‘मेरे पिता पर बहुत दबाव था। स्थानीय प्रशासन ने उनके और हमारे समर्थकों के लिए चीजों को बहुत कठिन बना दिया था। अभिनव ने कहा कि सांसद होने के बावजूद एक प्रकार असहायता की भावना उनमें आ गई थी वह अपने समर्थकों की मदद करने तक में स्वयं असमर्थ महसूस कर रहे थे।
अभिनव ने कहा कि डेल्कर के कई समर्थकों और आदिवासी श्रमिकों को एक स्थानीय सरकारी स्कूल में नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने जिला परिषद चुनाव में उनका समर्थन किया था। ‘ये लोग मेरे पिता से मदद मांगने आएंगे। लेकिन वह असहाय थे क्योंकि स्थानीय प्रशासन उन्हें या मेरे पिता की उचित सुनवाई के लिए तैयार नहीं था। 27 जून, 2020 को बुलडोजर के साथ हमारे कॉलेज के बाहर 350 से अधिक पुलिस कर्मियों ने बिल्डिंग का ढांचा ढहा दिया था। उन्होंने तभी इस कार्य को तभी रोका जब मेरे पिता अदालत से स्टे लेकर के आए।
अभिनव इस पत्र में बताते हैं कि डेलकर को सरकारी कार्यों के लिए भी आमंत्रित नहीं किया जा रहा था। ‘पिछले कुछ वर्षों में, प्रशासन ने उन्हें भाषण देने से रोक दिया था। जब गृह मंत्री नित्यानंद राय एक अधिकारी के लिए आए थे, तब उन्होंने उन्हें आमंत्रित नहीं किया था। महाराष्ट्र के गृह मंत्री द्वारा दिया गया बयान 24 फरवरी को कहा गया है कि ष्ठहृ॥ प्रशासक सीधे मेरे पिताजी को आत्महत्या के लिए मजबूर करने में शामिल है। हम ष्ठहृ॥ के लोग ऐसे व्यक्ति को स्वीकार नहीं कर सकते। हम आपसे अनुरोध करते हैं कि आप तुरंत ष्ठहृ॥ से प्रशासक प्रफुल्ल पटेल को हटा दें। मुझे मुंबई पुलिस द्वारा की गई जांच पर पूरा भरोसा है। यह एक बेटे की आपसे अपील है।’
उनके बॉडी गार्ड नंदू वानखेड़े का बयान भी सामने आया है जिसमे कहा गया है कि डेलकर पिछले कुछ दिनों से उदास थे। वानखेड़े ने कहा कि एक रात पहले मैं उनके साथ कमरे में था और उसे कुछ लिखते देखा। बाद में उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा क्योंकि उन्होंने कहा कि वह अध्ययन करना चाहते हैं। ड्राइवर अशोक पटेल 1 बजे तक उनके साथ रहे। उन्होंने मुझे बताया कि सर (डेलकर) ने उनके जाने तक लिखना जारी रखा। अब हम मानते हैं कि यह सुसाइड नोट था।
इस सुसाइड नोट में भी इस ‘अन्याय’, ‘अपमान’ और उनके साथ बरते गए पूर्वाग्रह का उल्लेख किया गया है।
58 वर्षीय मोहन डेलकर आदिवासियों के बड़े हितैषी के रूप में गिने जाते थे। सांसद मोहन डेलकर, जो आदिवासी कोटे से चुने गए सांसद थे। बेहद आश्चर्य की बात है कि उनके लिए देश का आदिवासी समाज भी कुछ नही बोल रहा है, बड़े-बड़े आदिवासी नेता भी इस मसले पर खामोश है।
भारतीय राजनीति की यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि एक उच्च शिक्षित साधन संपन्न नेता, जो सात बार सांसद रहा है, उसे ऐसी असहाय अवस्था में अपना जीवन समाप्त करना पड़ रहा है। लेकिन न मीडिया में न सोशल मीडिया में कोई इस बारे में बात तक करने को तैयार नहीं है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और पाकिस्तान को लेकर इधर कुछ ऐसी खबरें आई हैं कि यदि उन पर काम हो गया तो दोनों देशों के रिश्ते काफी सुधर सकते हैं। पहली खबर तो यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में ऐसी बात कह दी है, जो दक्षिण एशिया का नक्शा ही बदल सकती है। दूसरी बात भारत-पाक नियंत्रण-रेखा पर शांति बनाए रखने का समझौता हो गया है। तीसरी बात यह कि सुरक्षा परिषद में सहमति हो गई है कि जब कोई आतंकी हमला किसी देश की जमीन से हो तो उस देश के अंदर घुसकर उन आतंकियों को खत्म करना जायज है। चौथी बात यह कि पाकिस्तान को अब भी अंतराष्ट्रीय वित्तीय टास्क फोर्स ने भूरी सूची में बनाए रखा है।
श्री मोहन भागवत ने हैदराबाद में आज ऐसी बात कह दी है, जो आज तक किसी आरएसएस के मुखिया ने कभी नहीं कही। उन्होंने कहा कि अखंड भारत से सबसे ज्यादा फायदा किसी को होगा तो वह पाकिस्तान को होगा। हम तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान को भारत का अंग ही समझते हैं। वे हमारे हैं। हमारे परिवार के हिस्से हैं। वे चाहें, जिस धर्म को मानें। अखंड भारत का अर्थ यह नहीं कि ये देश भारत के मातहत हो जाएंगे। यह सत्ता नहीं, प्रेम का व्यापार है। यही सनातन धर्म है, जिसे हिंदू धर्म भी कहा जाता है। मोहनजी वास्तव में उसी अवधारणा को प्रतिपादित कर रहे हैं, जो मैं 50-55 साल से अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जाकर अपने भाषणों के दौरान करता रहा हूं। उनकी बात की गहराई को हिंदुत्व और इस्लाम के उग्रवादी समझें, यह बहुत जरूरी है। मैंने कल ही श्रीलंका में दिए गए इमरान के भाषण का स्वागत किया था। अब कितना अच्छा हुआ है कि दोनों देशों के बड़ै फौजी अफसरों ने नियंत्रण-रेखा (778 कि.मी.) और सीमा-रेखा (198 किमी ज.क.) पर शांति बनाए रखने की सहमति जारी की है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों तरफ से हजारों बार उनका उल्लंघन हुआ है और दर्जनों लोग मारे गए हैं। यह असंभव नहीं कि दोनों देश कश्मीर और आतंकी हमलों के बारे में शीघ्र ही बात शुरु कर दें। इसका एक कारण तो अमेरिका के बाइडन प्रशासन का दबाव भी हो सकता है, क्योंकि वह अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए पाकिस्तान की मदद चाहता है और वह पाकिस्तान को चीनी चंगुल से भी बचाना चाहता है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल इस मामले में काफी चतुराई से काम कर रहे हैं। भारत भी चाहेगा कि पाकिस्तान चीन का मोहरा बनने से बचे। इमरान खान को पता चल गया है कि सउदी अरब और यूएई जैसे मुस्लिम देशों का सहयोग भी अब उन्हें आंख मींचकर नहीं मिलनेवाला है। पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का दबाव भी बढ़ गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी आंतकियों के कमर तोडऩे वाले बालाकोट-जैसे हमलों का समर्थन कर दिया है। यदि इन सब परिस्थितियों के चलते भारत-पाक वार्ता शुरू हो जाए तो उसके क्या कहने ?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राकेश दीवान
आखिर दुनियाभर के अधिकांश देशों के मौजूदा राजनेताओं और आधुनिक विज्ञान को ठेंगे पर मारते हुए धार्मिक संगठनों और धर्मगुरुओं को धरती बचाने का जिम्मा दिया जा रहा है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (यूएनओ) के ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यूएनईपी) की पहल पर शुरु की जा रही ‘फेथ फॉर अर्थ’ मुहीम के जरिए दुनियाभर के धार्मिक संगठनों, धर्म-गुरुओं और आध्यात्मिक नेताओं की मार्फत सन् 2030 तक धरती के 30 फीसदी हिस्से को वापस उसके प्राकृतिक गुणों से भरपूर बनाने का लक्ष्य तय किया गया है। कार्यक्रम के निदेशक डॉ. इयाद अबु मोगली का कहना है कि जलवायु-परिवर्तन दुनियाभर के लिए गंभीर खतरा है, लेकिन कोई इसकी अहमियत समझता नहीं दिखता। ‘जलवायु-परिवर्तन को रोकने के तरह-तरह के प्रयासों का अध्ययन करके हम आखिर इस नतीजे पर पहुचे हैं कि सिर्फ धर्म में ही वह ताकत है जो दुनिया को इस संकट से बचा सकती है।‘ विज्ञान आंकडों की मार्फत संकट की गंभीरता तो बता सकता है, लेकिन आस्था ही धरती को बचाने का जुनून पैदा कर सकती है।
विनोबा भावे मानते थे कि आधुनिक समय राजनीति और धर्म की बजाए विज्ञान और आध्यात्म का होगा। इसी तर्ज पर डॉ. इयाद का विश्वास है कि विज्ञान और धार्मिक आस्था में ठीक वैसा ही संबंध है जैसा ‘ज्ञान’ और ‘क्रियान्वय’ में होता है। यानि एक के बिना दूसरा अधूरा है और यही ‘फेथ फॉर अर्थ’ मुहीम शुरु करने के पीछे का विचार है। सन् 2017 में ‘यूएनओ’ के 193 सदस्य देशों की बैठक में – गरीबी हटाने, सबको शिक्षा देने और पर्यावरण बचाने के तीन लक्ष्य रखे गए थे। इस बैठक में ही उजागर हुआ था कि पर्यावरण की रक्षा के लिए धार्मिक संगठनों का अपेक्षित योगदान नहीं मिल पा रहा है। दुनियाभर के करीब 80 फीसदी लोगों के भरोसे पर टिकी और दुनिया की चौथी सबसे बडी अर्थ-व्यवस्था मानी जाने वाली धार्मिक संस्थाएं 60 प्रतिशत स्कूल और 50 प्रतिशत अस्पतालों के अलावा दुनिया की करीब दस प्रतिशत जमीन की मालिक हैं। इस विशाल आकार की धार्मिक संस्थाएं और उनके धर्मगुरु क्या सचमुच दुनिया को बचाए रखने की इस मशक्कत में शामिल हो पाएंगे? और क्या अब तक दुनिया पर राज करने वाले राजनेता इस पहल के नतीजे में नकारा साबित नहीं हो जाएंगे?
कुछ साल पहले अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में राजनेताओं को लेकर एक दिलचस्प अध्ययन हुआ था जिसके नतीजे में पता चला था कि आज के अधिकांश राजनेता ‘क्रेजी’ यानि नीम-पागल हैं। इसे साबित करने के लिए किए गए प्रयोगों से पता चला था कि दुनियाभर के ये राजनेता एक ही बात को, उसकी खामियों को जानने के बावजूद, दोहराते रहते हैं और यह नीम-पागलों का बहुत स्पष्ट लक्षण है। जलवायु-परिवर्तन के सन्दर्भ में देखें तो हमारे राजनेताओं को कहावत की हरियाली की बजाए ‘विकास’ के अन्धत्व में चहुंदिस विकास ही दिखाई देता है। यदि ऐसा नहीं होता तो 2013 में हुई ‘केदारनाथ त्रासदी’ के बाद, ठीक उन्हीं वजहों से हाल में 2021 की ‘चमोली त्रासदी’ नहीं हुई होती। दुर्घटना के बाद हालचाल जानने आए केन्द्र सरकार के एक मंत्री ने इतिहास से न सीखते हुए एक ही बात के दोहराव की बानगी देते हुए कहा था कि उत्तराखंड में जल-विद्युत परियोजनाओं का निर्माण जारी रहेगा।
भूकंम्प प्रभावित चौथे और पांचवें ‘जोन’ में पडने वाले उत्तराखंड के एक गांव रैणी की चार दर्जन महिलाओं ने अपनी बुजुर्ग गौरादेवी की अगुआई में करीब 47 साल पहले जंगल बचाने के लिए ‘चिपको आंदोलन’ चलाया था। उसके बाद तत्कालीन सरकार ने वृक्ष कटाई के अपने आदेश वापस भी ले लिए थे, लेकिन फिर 2007 में विकास की पालकी में सवार होकर जल-विद्युत परियोजनाओं के रूप में जंगल कटान, खनन और निर्माण के समय भारी विस्फोटों की बारात वापस लौटी। सत्तर के दशक में जंगल-कटाई का विरोध करते हुए अनेक वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों ने सरकार और उसके ‘विकास-वादियों’ को समझाने की कोशिश की थी, लेकिन, जैसा कि आमतौर पर होता है, किसी ने उनकी बात पर कान नहीं धरे। इसी का परिणाम था कि 7 फरवरी 2021 को नंदा देवी पर्वत से टूटकर आये ग्लेशियर या एवलांच के भारी मलवे ने सबसे पहले ऋषि गंगा पर बनी जल-विद्युत परियोजना के उस हिस्से को पूरा ध्वस्त किया, जहां नदी को बहने से रोका गया था। इसके आगे ‘विष्णु प्रयाग जल-विद्युत परियोजना’ (420 मेगावाट) के पावर हाउस को ठप करते हुये ‘तपोवन-विष्णु गाड़ परियोजना’ (520 मेगावाट) की टनल और बैराज को क्षतिग्रस्त किया। यहां पर काम कर रहे लगभग 200 से अधिक लोगों की जान गई। मारे गये अधिकतर लोगों के शवों का पता तो नहीं चला, लेकिन कुछ शव और अंगों के हिस्से कर्णप्रयाग, श्रीनगर तक अलकनंदा में मिल रहे हैं।
कहा जा रहा है कि केदारनाथ आपदा के बाद 2014 में उच्चतम न्यायालय ने ऋषिगंगा पर ध्वस्त हुये प्रोजेक्ट के अलावा ‘ऋषिगंगा-1,’ ‘ऋषिगंगा-2’ और ‘लाटा-तपोवन जल-विद्युत परियोजनाओं’ पर रोक न लगाई होती तो इस दुर्घटना में पांच गुनी हानि हो सकती थी। यदि राजनेताओं को अपनी गलती सुधारने की रत्तीभर भी मंशा होती तो वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा, पर्यावरणविद् रवि चोपडा की अगुआई में गठित ‘विशेषज्ञ समिति’ की सिफारिशों को सुनते और इसके बाद सभी निर्मित व निर्माणाधीन बांधों के गेट हमेशा के लिये खोल देते। अनसुनी करने की अपनी गलती को सही साबित करने के लिए राजनेताओं का तर्क है कि ‘चमोली त्रासदी’ प्राकृतिक आपदा है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना क्या बताता है? ग्लेशियरों से आने वाला मलवा और जल-सैलाब जब नदी को रोकने वाले बांध को तोड़कर नीचे की ओर भारी जन-धन को विनाश पहुंचाता है, तो यह मानव-जनित आपदा का रूप लेकर तबाही का कारण बनता है।
सवाल है कि ‘चमोली त्रासदी’ जैसी आपदाओं को, अपनी विकास की हठ में बार-बार खडी करने वाले राजनेताओं से धर्मगुरु किस मायने में भिन्न और बेहतर साबित होंगे? क्या वे अपने पास-पडौस के समाज, वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की कोई बात ध्यान से सुनेंगे? अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि राजनेताओं की तरह धर्मगुरु भी अपनी-अपनी मान्यताओं की जिद के दायरे में सिमटे बैठे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो विशाल हिन्दू आबादी के विश्वविख्यात कुंभ में पवित्र डुबकी लगवाने वाली उज्जैन की क्षिप्रा, हरिद्वार-प्रयागराज की गंगा और नासिक की गोदावरी अब तक साफ-सुथरी बनी रहतीं। ‘इको-योद्धा’ बनाने के ‘यूएनईपी’ के ताजा प्रयास में कैथोलिक धर्मगुरु पोप फ्रांसिस और शिया इस्माइली मुसलमानों के इमाम के साथ भारत के श्रीश्री रविशंकर और सद्गुरु जग्गी वासुदेव का नाम भी लिया जा रहा है। ‘राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण’ (एनजीटी) द्वारा पर्यावरण की शर्तों के उल्लंघन पर जुर्माना भरने के कारण श्रीश्री और तमिलनाडु के आरक्षित वन में निर्माण के अरोप झेल रहे सद्गुरु जलवायु-परिवर्तन से कैसे निपटेंगे? वैसे भी आधुनिक भारत के ये धर्मगुरु आमतौर पर शहरी मध्यमवर्ग को ही आकृष्ट कर पाते हैं। जाहिर है, अपने समाज का असली धर्म-धुरीण इन्हें नहीं जानता, लेकिन जिन लाखों-लाख लोगों को वह जानता है उसका पर्यावरण, जलवायु-परिवर्तन जैसी आधुनिक अवधारणाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। उसके जीवन में तो परंपराएं, आदतें और बुजुर्गों की हिदायतें भर रहती हैं। तो क्या जलवायु-परिवर्तन को बरकाने के लिए उन तक कोई पहुंच पाएगा?
-कृष्ण कांत
कुछ लोग कहते हैं कि सावरकर की तरह कई कांग्रेसी और वामपंथी नेताओं ने भी अंग्रेजों से माफी मांगी थी, लेकिन सावरकर को वामपंथियों ने बदनाम कर दिया।
ऐसे लोग आंख मूंदकर इतिहास पढ़ते हैं। क्या जिन कांग्रेसियों या वामपंथियों ने जेल से छूटने के लिए माफी मांगी, वे सब बाद में अंग्रेजों का साथ देने लगे थे? कुछ सावरकर समर्थक नेहरू और डांगे की माफी का जिक्र करते हैं। क्या जेल से छूटकर नेहरू या डांगे भी अंग्रेजों के लिए रंगरूटों की भर्ती कर रहे थे?
क्या कभी वामपंथियों, समाजवादियों या कांग्रेसियों ने भी अंग्रेजों का साथ दिया? गांधी कभी भी अंग्रेजों की हत्या के पक्ष में नहीं थे तो क्या गांधी को अंग्रेजपरस्त कह दिया जाएगा?
यह सच है कि सावरकर 1910-11 तक क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे और इसके लिए वे सम्मान के पात्र हैं। वे पकड़े गए और 1911 में उन्हें अंडमान की कुख्यात जेल में डाल दिया गया। उन्हें 50 वर्षों की सजा हुई थी, लेकिन सजा शुरू होने के कुछ महीनों में ही उन्होंने अंग्रेज सरकार के समक्ष याचिका डाली कि उन्हें रिहा कर दिया जाए।
इसके बाद उन्होंने कई याचिकाएं लगाईं। अपनी याचिका में उन्होंने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि ‘यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम से ख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिट्रिश सरकार के प्रति अपनी वफादारी निभाउंगा।’ अंडमान जेल से छूटने के बाद उन्होंने यह वादा निभाया भी और कभी किसी क्रांतिकारी गतिविधि में न शामिल हुए, न पकड़े गए। सजा से बचने के लिए माफी एक रणनीति हो सकती है. मसला ये नहीं है कि सावरकर ने जेल से छूटने के लिए माफी मांगी, मसला ये है कि वे जेल से छूटकर अंग्रेजों के साथ और भारत की आजादी आंदोलन के खिलाफ हो गए।
सावरकर को सबसे महान बनाने और गांधी-नेहरू से बड़ा दिखाने की कोशिश करके दक्षिणपंथी उन्हें और नीचा दिखाते हैं। उन्हें ये कोशिश बंद कर देनी चाहिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान पिछले साल नवंबर में अफगानिस्तान गए थे और अब वे श्रीलंका गए हैं। उनका काबुल जाना तो स्वाभाविक था लेकिन उनके कोलंबो जाने पर कुछ पलकें ऊपर उठी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि श्रीलंका की राजपक्ष-सरकार, चीन और पाकिस्तान का दक्षिण एशिया में कोई नया त्रिभुज उभर रहा है?
राजपक्ष-सरकार और भारत के बीच कई वर्षों तक श्रीलंकाई तमिलों की वजह से तनाव चलता रहा है और उस काल के दौरान राजपक्ष बंधुओं ने चीन के साथ घनिष्टता भी काफी बढ़ा ली थी लेकिन इधर दूसरी बार सत्तारूढ़ होने के बाद भारत के प्रति उनकी लिहाजदारी बढ़ गई है। इसीलिए उन्होंने श्रीलंकाई संसद में होनेवाले इमरान के भाषण को स्थगित कर दिया था, क्योंकि इमरान अपने भाषण में कश्मीर का मुद्दा जरूर उठाते। लेकिन इमरान चूके नहीं।
उन्होंने कश्मीर का मुद्दा उठा ही दिया, एक अंतरराष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन में। इस बार इमरान ने कश्मीर पर बहुत ही व्यावहारिक और संतुलित रवैया अपनाया है। उन्होंने कहा कि कश्मीर समस्या भारत और पाकिस्तान को बातचीत से हल करनी चाहिए। यदि जर्मनी और फ्रांस-जैसे, आपस में कई युद्ध लडऩे वाले राष्ट्र प्रेमपूर्वक रह सकते हैं तो भारत और पाक क्यों नहीं रह सकते?
पाक कब्जेवाले कश्मीर के कई ‘‘प्रधानमंत्रियों’’ और खुद पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और कई आतंकवादियों को मैं अपनी मुलाकातों में यही समझाता रहा हूं कि कश्मीर ने पाकिस्तान का जितना नुकसान किया है, उतना नुकसान दो महायुद्धों ने यूरोप का भी नहीं किया है। कश्मीर-विवाद ने पाकिस्तान की नींव को खोखला कर दिया है। जिन्ना के सपनों को चूर-चूर कर दिया है। कश्मीर के कारण पाकिस्तान युद्ध और आतंकवाद पर अरबों रू. खर्च करता है। साधारण पाकिस्तानियों को रोटी, कपड़ा, मकान, दवा और तालीम भी ठीक से नसीब नहीं है। नेताओं और नौकरशाहों पर फौज हावी रहती है।
इमरान खान जैसे स्वाभिमानी नेता को भीख का कटोरा फैलाने के लिए बार-बार मालदार देशों में जाना पड़ता है। पूरे कश्मीर पर कब्जा होने से पाकिस्तान को जितना फायदा मिल सकता था, उससे हजार गुना ज्यादा नुकसान कश्मीर उसका कर चुका है। बेहतर हो कि इमरान खान जनरल मुशर्रफ के जमाने में जो चार-सूत्री योजना थी, उसी को आधर बनाएं और भारत के साथ खुद बात शुरू करें। यदि वे सफल हुए तो कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना के बाद पाकिस्तान के इतिहास में उन्हीं का बड़ा नाम होगा।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-निधि राय
23 जनवरी, 2018 को पहली बार भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024-25 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को पाँच ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचाने की अपने महत्वाकांक्षी सपने को सार्वजनिक किया था.
वे दावोस में वर्ल्ड इकॉनामिक फ़ोरम की बैठक में अंतरराष्ट्रीय नेताओं को संबोधित कर रहे थे.
प्रधानमंत्री के विज़न को ध्यान में रखते हुए 2018-19 का आर्थिक सर्वे तैयार किया गया था, जिसमें उम्मीद जताई गई थी कि 2020-21 से लेकर 2024-25 तक भारत की अर्थव्यवस्था आठ प्रतिशत की रफ़्तार से बढ़ेगी. यह माना गया था कि जीडीपी में औसत वृद्धि दर 12 प्रतिशत के आसपास होगी जबकि महंगाई की दर चार प्रतिशत रहेगी.
मार्च, 2025 में एक डॉलर का मूल्य 75 रुपये तक पहुँचने का अनुमान लगाया गया था. जीडीपी की वृद्धि दर का आकलन सामान और सेवाओं के मौजूदा दर के आकलन के आधार पर होता है. जबकि वास्तविक जीडीपी का आकलन मंहगाई दर को घटा कर आंका जाता है.
यही वजह है कि लंबे समय में वास्तविक जीडीपी के आंकड़े से अर्थव्यवस्था की बेहतर स्थिति का अंदाज़ा होता है. अगर भारत इस लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब होता है तो वह जर्मनी को पछाड़कर अमेरिका, चीन और जापान के बाद चौथे नंबर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा.
मौजूदा समय में भारत की अर्थव्यवस्था 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की है.
लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था इस उम्मीद के मुताबिक़ नहीं बढ़ रही थी और मार्च, 2020 में कोविड संक्रमण का दौर शुरू हो गया.
कोविड से पहले देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर बहुत अच्छी थी, ऐसा भी नहीं था. हमारी अर्थव्यवस्था कोविड संक्रमण का दौर शुरू होने से पहले ही सुस्ती की ओर थी.
अप्रैल से जून, 2020 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में 23.9 प्रतिशत की गिरावट देखी गई जबकि इसके बाद वाली तिमाही में 7.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी.
यह वह दौर था जब देश में कोविड संक्रमण का असर अर्थव्यवस्था पर दिख रहा था और देश भर में लॉकडाउन की स्थिति थी.
अब सबकी नज़रें वित्तीय साल 2021 की तीसरे तिमाही के जीडीपी आंकड़ों पर टिकी है. कई रेटिंग एजेंसियों और अर्थशास्त्रियों ने उम्मीद जताई है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में तीसरे तिमाही में आशंकि वृद्धि देखी जाएगी. इन लोगों का मानना है कि देश में आर्थिक गतिविधियों ने रफ़्तार पकड़ी है और रफ़्तार का दौर बना रहेगा.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने भी उम्मीद जताई है कि 2022-23 में धीमा होकर 6.8 प्रतिशत होने से पहले अगले साल देश की जीडीपी में 11.5 प्रतिशत की विकास दर से बढ़ोत्तरी होगी. आईएमएफ़ की ओर से यह भी कहा गया है कि इन दोनों सालों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनी रहेगी.
'भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी पटरी पर है'
बीबीसी से ईमेल इंटरव्यू के दौरान पूर्व केंद्रीय आर्थिक सलाहकार डॉ. अरविंद विरमानी ने कहा है, "सितंबर, 2019 से ही सरकार घरेलू बाज़ार में प्रतिस्पर्धा और उत्पादकता की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कई प्रावधान किए हैं, इसके चलते भारतीय जीडीपी में 2021-30 के दौरान सात से आठ प्रतिशत के बीच औसत बढ़ोत्तरी होने का अनुमान है."
बीबीसी को एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में भारत के प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ने भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहमति जताते हुए कहा कि हो सकता है कि एक साल का नुक़सान हुआ हो लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी पटरी पर है.
संजीव सान्याल ने कहा, "जैसा कि हम सब लोग जानते हैं कि कोविड संक्रमण का असर देश की प्रत्येक अर्थव्यवस्था पर पड़ा है. कोई भी देश इसका अपवाद नहीं है. हालांकि अब आर्थिक गतिविधियां बढ़ रही हैं और आने वाले वित्तीय साल में, हमारे अनुमान के मुताबिक़ वास्तविक जीडीपी में 11 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी जबकि सामान्य जीडीपी में 15.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी संभव है. इससे हम ठीक वहां पहुँच जाएंगे जहां कोविड संक्रमण की शुरुआत से ठीक पहले थे."
उन्होंने कहा, "हो सकता है कि हमलोगों को एक साल का नुक़सान हुआ हो, लेकिन मेरे ख्याल से भारत दुनिया की उन गिनी चुनी अर्थव्यवस्थाओं में से जो पटरी पर हैं. हो सकता है कि हमें पाँच ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचने में थोड़ा ज़्यादा वक़्त लगे लेकिन कोविड संक्रमण के झटके को देखते हुए यह सराहनीय होगा. मेरा यह भी ख़्याल है कि दुनिया भर में कोविड संक्रमण के असर के बीच में भारतीय अर्थव्यवस्था उससे उबरने में कामयाब रही है."
हालांकि दूसरे अर्थशास्त्री इसको लेकर उतने उत्साहित नहीं हैं. एमके ग्लोबल फ़ाइनेंशियल सर्विसेज़ की लीड इकॉनामिस्ट मेधावी अरोड़ा ने कहा कि पूंजी और लाभ के हिसाब से तो अर्थव्यवस्था में रिकवरी हो रही है लेकिन श्रम और मज़दूरी में ऐसा नहीं हुआ है.
मेधावी ने बीबीसी से कहा, "इस बात को समझना होगा कि भारत ने वायरस के प्रसार को उम्मीद से पहले तोड़ा है जिसके चलते लोगों का आना जाना बढ़ा है. हालांकि हमें इस विकास दर के उत्साह से आगे बढ़ने की ज़रूरत है. कोविड के बाद के दौर में विकास दर का ग्राफ़ मामूली है. यह डराने वाला है और श्रम बाज़ार को भी विभाजित करता है."
पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था को दो साल का नुक़सान हुआ है कि पाँच ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य को 2029-30 तक हासिल कर पाना असंभव दिख रहा है.
उन्होंने कहा, "इस लक्ष्य को पूरा करने में महज़ चार साल का समय बचा है और इसके लिए जीडीपी की वृद्धि दर 18 प्रतिशत की ज़रूरत होगी और यह असामान्य बात लग रही है. अगर आप लक्ष्य को हासिल करने का समय बढ़ाकर 2026-27 कर दें तो भी जीडीपी को 11 प्रतिशत की दर से बढ़ना होगा. अगर इस रफ़्तार से जीडीपी नहीं बढ़ी और इस वक़्त ऐसा होना मुश्किल दिख रहा है तो लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल होगा."
गर्ग के मुताबिक़, "अगर बेहतर मूलभूत नीतियों को लागू किया जाए और तेज़ी की स्थिति लौटे तो इस लक्ष्य को 2029-30 तक हासिल किया जा सकता है. सरकार ने जिस तरह से निजीकरण की घोषणाएं की है, कोयला सेक्टर के नक़्शे और खदानों के निजीकरण की प्रक्रिया को अंत तक लागू किया जाए और सरकार इसे प्रभावी ढंग से लागू करे तो 2023-24 तक एक बार फिर से सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था भारत की होगी."
उन्होंने कहा, "सरकार को निजीकरण के एजेंडे को तेज़ रफ़्तार से लागू करना होगा. इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नॉलॉजी सेक्टर की नीतिगत समस्याओं को दूर करना होगा और उसे प्राइवेट प्लेयरों के लिए दिलचस्प बनाना होगा. सरकार को बैंकों और एमटीएनएल को छोड़कर सार्वजनिक सुविधाओं यानी बेहतर पर्यावरण, सड़क, बांध के क्षेत्र में निवेश करना चाहिए."
उन्होंने कहा, "कोविड के बिना भी अर्थव्यवस्था में बीते दो साल से कोई तेज़ी नहीं थी. कोरोना संक्रमण के चलते गिरावट भी काफ़ी ज़्यादा देखने को मिली, इसलिए इस साल ग्रोथ तो ज़्यादा दिखेगी लेकिन कोरोना संक्रमण से पहले वाली स्थिति तक नहीं पहुँचेंगे.
"मेरे ख्याल से वित्तीय साल 21 की तीसरी तिमाही में भी हमारा ग्रोथ नहीं हो रहा है. सरकारी आंकड़ों में असंगठित क्षेत्र के आंकड़े शामिल नहीं होते हैं जबकि कोविड संकट की सबसे ज़्यादा मार असंगठित क्षेत्र पर ही पड़ा है. सरकार के आंकड़े सही नहीं हैं.
"अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) आंकड़े संग्रह करने वाली कोई स्वतंत्र एजेंसी नहीं है. वह सरकार के आंकड़ों पर भरोसा करती है. वे किसी तरह से घबराहट की स्थिति को भी नहीं पैदा करना चाहते हैं, लिहाज़ा वे गुलाबी तस्वीर ही पेश करते हैं. लेकिन उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. 2024-25 तक पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था तक पहुँचने का अनुमान किसी हाल में पूरा नहीं हो सकता." (bbc.com)
मुंबई के एक ऑटो ड्राइवर ने अपनी पोती की शिक्षा के लिए पूरी जिंदगी खपा दी। अपने दो बेटों की मौत के बाद उसकी पोती ने पूछा था ‘दादाजी क्या मुझे स्कूल छोडऩा पड़ेगा?’ ऑटो ड्राइवर के संकल्प के आगे गम और आंसू बौने पड़ गए।
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
ऑटो ड्राइवर देसराज ज्योतसिंह ने अपनी जिंदगी में बहुत दुख झेले-दो-दो जवान बेटों की मौत और बूढ़े कंधों पर परिवार और पोती-पोते की शिक्षा और बेहतर भविष्य की जिम्मेदारी। वो कहते हैं, ‘मेरा यह मानना है कि तकलीफें चाहें छोटी हों या बड़ी, समंदर की लहरों की तरह होती हैं - आती हैं और जाती हैं। वैसे ही जिन मुसीबतों से हम गुजरते हैं वो हमारी जिंदगी में सदा के लिए नहीं रहती हैं। ‘ 74 साल के ऑटो ड्राइवर देसराज ने इसे जिंदगी का आदर्श वाक्य बना लिया और तकलीफों से पार पाते चले गए। ‘ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे‘ ने देसराज की कहानी सोशल मीडिया पर साझा की और कुछ लोगों ने इस बूढ़े ऑटो ड्राइवर की मदद के लिए क्राउड फंडिंग शुरू की। फंडिंग के जरिए देसराज को 24 लाख रुपये मिल गए।
देसराज की प्रेरणादायक कहानी
‘ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे‘ ने देसराज की कहानी साझा करते हुए बताया, ‘6 साल पहले मेरा बड़ा बेटा घर से गायब हो गया था। एक सप्ताह बाद लोगों ने उसका शव एक ऑटो में पाया, उसकी मृत्यु के बाद एक तरह से मैं भी आधा मर गया। लेकिन मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई। मुझे शोक मनाने का समय भी नहीं मिला। मैं अगले दिन दोबारा सडक़ पर ऑटो चलाने निकल गया।‘ देसराज के जीवन में दोबारा एक मुसीबत उस वक्त आ गई जब दो साल बाद उनके छोटे बेटे की लाश रेलवे ट्रैक पर मिली। वे कहते हैं, ‘दो बेटों की चिताओं को आग दिया है मैंने, इससे बुरी बात एक बाप के लिए क्या हो सकती है?‘
अपनी कहानी बताते हुए देसराज कहते हैं कि मेरी बहू और उसके चार बच्चों की जिम्मेदारी ने मुझे चलते रहने दिया। वे कहते हैं जब अंतिम संस्कार हो गया तो उनकी पोती जो कि 9वीं कक्षा में थी, ने सवाल किया ‘दादाजी, क्या मुझे स्कूल छोडऩा पड़ेगा?’ देसराज कहते हैं, ‘मैंने अपना पूरा साहस जुटाया और उसे आश्वस्त किया कभी नहीं। तुम जितना चाहो पढ़ाई करो।’
इसके बाद देसराज ने कई-कई घंटे काम करना शुरू कर दिया। वह सुबह 6 बजे घर से निकलते और आधी रात तक ऑटो चलाते। वह इतना कमा पाते कि सात लोगों का परिवार किसी तरह से चल पाता जिसमें करीब 6 हजार रुपये स्कूल की फीस भी शामिल है।
पोती की शिक्षा के लिए बेच दिया घर
देसराज की जीतोड़ मेहनत एक दिन रंग लाई। पिछले साल उनकी पोती ने 12वीं के बोर्ड में 80 फीसदी अंक हासिल किए। उसके बाद देसराज की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने उस दिन अपने सभी यात्रियों को मुफ्त में यात्रा कराई। ‘ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे’ ने अपनी पोस्ट में लिखा कि देसराज कि पोती ने उनसे कहा कि वह बीएड करने के लिए दिल्ली जाना चाहती है। इसके बाद देसराज के सामने एक नई चुनौती आ खड़ी हुई लेकिन वह कहते हैं कि उसका सपना सच किसी भी हाल में पूरा करना था इसलिए उन्होंने अपना घर बेच दिया और अपनी पत्नी, बहू और बच्चों को अपने रिश्तेदार के पास गांव भेज दिया।
पिछले एक साल से देसराज बिना छत के मुंबई में दिन और रात काट रहे हैं। उन्होंने ऑटो रिक्शा को ही अपना घर बना लिया है। जब सवारी नहीं होती है तो देसराज ऑटो में ही बैठे रहते हैं। वे बताते हैं कि कभी-कभी उनके पैरों में दर्द हो जाता है लेकिन वह दर्द तब गायब हो जाता है जब उनकी पोती फोन करती है और कहती है वह क्लास में अव्वल आई है।
देसराज को इंतजार है अपनी पोती के टीचर बनने का ताकि वह गर्व से उसे गले से लगा सके। क्राउड फंडिंग से मिले 24 लाख रुपये के बाद देसराज बेहद खुश हैं और उन्होंने लोगों का शुक्रिया अदा किया है। (डायचे वैले)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
मोदोजी ने स्टेडियम को अपने नाम क्या किया, कल से सोशल मीडिया में उनका बचाव करते भक्त कांग्रेस के नेताओं के नामों पर स्थापित संस्थाओं की लिस्ट जारी करने में लग गए हैं। यह भी आरोप दिख रहे हैं कि नेहरूजी और इंदिरा जी ने प्रधानमंत्री रहते स्वयं को भारत रत्न दे दिया था।
भारत में स्थानों/संस्थाओं के साथ नेताओं के नाम चस्पा करने की परम्परा पुरानी रही है। अंग्रेज (क्वीन) विक्टोरिया और राजाओं (किंग जॉर्ज और एडवर्ड जैसे) के नामों का उपयोग करते थे। अब अधिकांश नाम बदल दिये गये हैं वह अलग बात है।
कॉलेज में मेरा दाखिला जबलपुर में हुआ था। वह कॉलेज अब नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज कहलाता है। पहला साल पूरा होते ही स्थानांतरित हो कर मैं भोपाल चला गया। भोपाल विश्वविद्यालय (बाद में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय) उसी वर्ष स्थापित हुआ था और सुभाष स्कूल की बिल्डिंग से संचालित होता था। आगे की मेरी शिक्षा भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज में हुई। जीवन में बहुत कम शहर ऐसे मिले जहां का मुख्य मार्ग महात्मा गांधी (एम.जी. रोड) के नाम पर न हो। करेंसी नोट ने तो गांधी की पहुंच देश के हर व्यक्ति तक पहुंचा दी थी।
गांधी से लेकर दीन दयाल उपाध्याय तक, सभी दलों ने-जिसे जब मौका मिला-नामकरण करने का अवसर लपक कर हथियाया। सभी नामों की लिस्ट बनाना समय की बर्बादी है। आमतौर पर नामकरण एक तरह से नेताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का तरीका रहा है। उन व्यक्तियों के योगदान को रेखांकित करने का तरीका। कलकत्ता को दिल्ली से जोडऩे वाले नेशनल हाईवे क्र. 2 को अंग्रेज ग्रैन्ड ट्रंक (जी.टी.) रोड कहते थे। समय समय पर इसे उत्तरपथ, फौजों के कारण जरनैली सडक़ और सडक़-ए-आजम का नाम भी मिला। एक समय काबुल तक पहुंचाने वाली इस सडक़ को आजादी के बाद इसके निर्माता के नाम पर शेरशाह सूरी मार्ग कर दिया गया था।
बेशक अपवाद भी रहे हैं- हर काल और हर क्षेत्र में, हर राजनैतिक दल के दौर में। दूध का धुला कोई नहीं है।
एक बात अवश्य कॉमन रही- नामकरण नेताओं की स्मृति में किए गए-मरणोपरांत। भारतीय संस्कृति में किसी के जीवनकाल में इस तरह के नामकरण करना (या फोटो पर माला अर्पण करना) अशुभ माना जाता रहा है (या कम से कम अशोभनीय या अवांछित)। पहला चर्चित अपवाद मायावती जी रहीं। दूसरे अब मोदी जी बने हें। बीच में एक कम चर्चित अपवाद और आया था जब छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने हर ग्राम पंचायत में दो-दो लाख की राशि दे कर ‘अटल चौक’ बनवा दिए थे। अटल जी तब तक जीवित और स्वस्थ थे।
भारत रत्न इंदिराजी को पाकिस्तान पर ऐतिहासिक सैन्य विजय प्राप्त करने तथा बांग्लादेश के नाम से एक नये राष्ट्र के निर्माण में उनकी भूमिका की पृष्ठभूमि में 1971 में दिया गया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह पुरस्कार 1955 में दिया गया था। तकनीकी रूप से आरोप लगाया जा सकता हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री के पद का उपयोग कर स्वयं इसे हासिल कर लिया। किन्तु यह सच नहीं होगा।
नेहरू को यह सम्मान स्वतंत्रता आंदोलन तथा उसके बाद देश के नव-निर्माण में उनकी भूमिका के कारण दिया गया था। और वे अकेले नहीं थे। उनके साथ डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, गोविन्द वल्लभ पन्त, डॉ. बिधान चन्द्र रॉय जैसे लोगों को भी भारत रत्न सम्मान दिया गया था।
और ये सारे के सारे उस समय राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, गृह मंत्री, मुख्यमंत्री जैसे पदों पर आसीन थे। सिर्फ नेहरू का उल्लेख करना पूर्वाग्रह-ग्रसित माना जाएगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने एतिहासिक फैसला दे दिया है। उसने संसद को बहाल कर दिया है। दो माह पहले 20 दिसंबर को प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने नेपाली संसद के निम्न सदन को भंग कर दिया था और अप्रैल 2021 में नए चुनावों की घोषणा कर दी थी। ऐसा उन्होंने सिर्फ एक कारण से किया था। सत्तारुढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में उनके खिलाफ बगावत फूट पड़ी थी। पार्टी के सह-अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने मांग की कि पार्टी के सत्तारुढ़ होते समय 2017 में जो समझौता हुआ था, उसे लागू किया जाए।
समझौता यह था कि ढाई साल ओली राज करेंगे और ढाई साल प्रचंड ! लेकिन वे सत्ता छोडऩे को तैयार नहीं थे। पार्टी की कार्यकारिणी में भी उनका बहुमत नहीं था। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रपति विद्यादेवी से संसद भंग करवा दी। नेपाली संविधान में इस तरह संसद भंग करवाने का कोई प्रावधान नहीं है। ओली ने अपनी राष्ट्रवादी छवि चमकाने के लिए कई पैंतरे अपनाए। उन्होंने लिपुलेख-विवाद को लेकर भारत-विरोधी अभियान चला दिया। नेपाली संसद में हिंदी में बोलने और धोती-कुर्त्ता पहनकर आने पर रोक लगवा दी। (लगभग 30 साल पहले लोकसभा-अध्यक्ष दमननाथ ढुंगाना और गजेंद्र बाबू से कहकर इसकी अनुमति मैंने दिलवाई थी।) ओली ने नेपाल का नया नक्शा भी संसद से पास करवा लिया, जिसमें भारतीय क्षेत्रों को नेपाल में दिखा दिया गया था लेकिन अपनी राष्ट्रवादी छवि मजबूत बनाने के बाद ओली ने भारत की खुशामद भी शुरु कर दी।
भारतीय विदेश सचिव और सेनापति का उन्होंने काठमांडो में स्वागत भी किया और चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी से कुछ दूरी भी बनाई। उधर प्रचंड ने भी, जो चीनभक्त समझे जाते हैं, भारतप्रेमी बयान दिए। इसके बावजूद ओली ने यही सोचकर संसद भंग कर दी थी कि अविश्वास प्रस्ताव में हार कर चुनाव लडऩे की बजाय संसद भंग कर देना बेहतर है लेकिन मैंने उस समय भी लिखा था कि सर्वोच्च न्यायालय ओली के इस कदम को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। अब उसने ओली से कहा है कि अगले 13 दिनों में वे संसद का सत्र बुलाएं।
जाहिर है कि तब अविश्वास प्रस्ताव फिर से आएगा। हो सकता है कि ओली लालच और भय का इस्तेमाल करें और अपनी सरकार बचा ले जाएं। वैसे उन्होंने पिछले दो माह में जितनी भी नई नियुक्तियां की हैं, अदालत ने उन्हें भी रद्द कर दिया है। अदालत के इस फैसले से ओली की छवि पर काफी बुरा असर पड़ेगा। फिर भी यदि उनकी सरकार बच गई तो भी उसका चलना काफी मुश्किल होगा। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि नेपाल के इस आंतरिक दंगल का वह दूरदर्शक बना रहे। (नया इंडिया की अनुमति से)
- डॉ. परिवेश मिश्रा
मोदोजी ने स्टेडियम को अपने नाम क्या किया, कल से सोशल मीडिया में उनका बचाव करते भक्त कांग्रेस के नेताओं के नामों पर स्थापित संस्थाओं की लिस्ट जारी करने में लग गए हैं। यह भी आरोप दिख रहे हैं कि नेहरूजी और इंदिरा जी ने प्रधानमंत्री रहते स्वयं को भारत रत्न दे दिया था।
भारत में स्थानों/संस्थाओं के साथ नेताओं के नाम चस्पा करने की परम्परा पुरानी रही है। अंग्रेज (क्वीन) विक्टोरिया और राजाओं (किंग जॉर्ज और एडवर्ड जैसे) के नामों का उपयोग करते थे। अब अधिकांश नाम बदल दिये गये हैं वह अलग बात है।
कॉलेज में मेरा दाखिला जबलपुर में हुआ था। वह कॉलेज अब नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज कहलाता है। पहला साल पूरा होते ही स्थानांतरित हो कर मैं भोपाल चला गया। भोपाल विश्वविद्यालय (बाद में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय) उसी वर्ष स्थापित हुआ था और सुभाष स्कूल की बिल्डिंग से संचालित होता था। आगे की मेरी शिक्षा भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज में हुई। जीवन में बहुत कम शहर ऐसे मिले जहां का मुख्य मार्ग महात्मा गांधी (एम.जी. रोड) के नाम पर न हो। करेंसी नोट ने तो गांधी की पहुंच देश के हर व्यक्ति तक पहुंचा दी थी।
गांधी से लेकर दीन दयाल उपाध्याय तक, सभी दलों ने-जिसे जब मौका मिला-नामकरण करने का अवसर लपक कर हथियाया। सभी नामों की लिस्ट बनाना समय की बर्बादी है। आमतौर पर नामकरण एक तरह से नेताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का तरीका रहा है। उन व्यक्तियों के योगदान को रेखांकित करने का तरीका।कलकत्ता को दिल्ली से जोडऩे वाले नेशनल हाईवे क्र. 2 को अंग्रेज ग्रैन्ड ट्रंक (जी.टी.) रोड कहते थे। समय समय पर इसे उत्तरपथ, फौजों के कारण जरनैली सडक़ और सडक़-ए-आज़म का नाम भी मिला। एक समय काबुल तक पहुंचाने वाली इस सडक़ को आजादी के बाद इसके निर्माता के नाम पर शेरशाह सूरी मार्ग कर दिया गया था।
बेशक अपवाद भी रहे हैं- हर काल और हर क्षेत्र में, हर राजनैतिक दल के दौर में। दूध का धुला कोई नहीं है।
एक बात अवश्य कॉमन रही- नामकरण नेताओं की स्मृति में किए गए-मरणोपरांत। भारतीय संस्कृति में किसी के जीवनकाल में इस तरह के नामकरण करना (या फोटो पर माला अर्पण करना) अशुभ माना जाता रहा है (या कम से कम अशोभनीय या अवांछित)। पहला चर्चित अपवाद मायावती जी रहीं। दूसरे अब मोदी जी बने हें। बीच में एक कम चर्चित अपवाद और आया था जब छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने हर ग्राम पंचायत में दो-दो लाख की राशि दे कर ‘अटल चौक’ बनवा दिए थे। अटल जी तब तक जीवित और स्वस्थ थे।
भारत रत्न इंदिराजी को पाकिस्तान पर ऐतिहासिक सैन्य विजय प्राप्त करने तथा बांग्लादेश के नाम से एक नये राष्ट्र के निर्माण में उनकी भूमिका की पृष्ठभूमि में 1971 में दिया गया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह पुरस्कार 1955 में दिया गया था। तकनीकी रूप से आरोप लगाया जा सकता हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री के पद का उपयोग कर स्वयं इसे हासिल कर लिया। किन्तु यह सच नहीं होगा। नेहरू को यह सम्मान स्वतंत्रता आंदोलन तथा उसके बाद देश के नव-निर्माण में उनकी भूमिका के कारण दिया गया था। और वे अकेले नहीं थे। उनके साथ डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, गोविन्द वल्लभ पन्त, डॉ. बिधान चन्द्र रॉय जैसे लोगों को भी भारत रत्न सम्मान दिया गया था। और ये सारे के सारे उस समय राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, गृह मंत्री, मुख्यमंत्री जैसे पदों पर आसीन थे। सिर्फ नेहरू का उल्लेख करना पूर्वाग्रह-ग्रसित माना जाएगा।
-डॉ राजू पाण्डेय
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में ‘चौरी चौरा’ शताब्दी समारोह के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए सम्बोधन को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के -हाल के दिनों में लोकप्रिय बनाए जा रहे- उस घातक पुनर्पाठ के रूप में देखा जा सकता है जो गांधी और उनकी अहिंसा को पूर्णरूपेण खारिज करता है। संघ परिवार और कट्टर हिंदुत्व की हिमायत करने वाली शक्तियों का गांधी विरोध जगजाहिर रहा है और अनेक बार यह तय करने में कठिनाई होती है कि इस विचारधारा के अनुयायियों को गांधी अधिक अस्वीकार्य हैं या उनकी अहिंसा। मोदी जी की वैचारिक पृष्ठभूमि निश्चित ही गांधी से उन्हें असहमत बनाती होगी। संभव है कि उन्होंने श्री सावरकर द्वारा लिखित गांधी और उनकी अहिंसा का उपहास उड़ाते उन निबंधों को भी पढ़ा हो जो गांधी गोंधळ शीर्षक पुस्तिका में संकलित हैं।
लेकिन हम यह भी विश्वास करते हैं कि गांधी को मुस्लिम परस्त, क्रांतिकारियों से घृणा करने वाले, स्वतंत्रता प्राप्ति में बाधक, ढुलमुल अंग्रेज हितैषी नेता के रूप में प्रस्तुत करने वाली जहरीली सोशल मीडिया पोस्ट्स से बतौर प्रधानमंत्री वे हम सब की तरह आहत अनुभव करते होंगे।
किंतु 4 फरवरी 2022 को पूर्ण होने जा रही चौरी चौरा घटना की शतवार्षिकी से ठीक एक वर्ष पहले सालाना आयोजनों की श्रृंखला का एक शासकीय कार्यक्रम द्वारा शुभारंभ करते देश के प्रधानमंत्री को चौरी चौरा की हिंसा का खुला एवं सार्वजनिक समर्थन करते देखना आश्चर्यजनक था। अब एक वर्ष तक सरकार गांधी पर प्रच्छन्न -और शायद प्रकट रूप से भी- प्रहार कर सकेगी और इन कार्यक्रमों के माध्यम से हिंसा का महिमामंडन हो सकेगा।
प्रधानमंत्री जी ने गांधी और उनकी अहिंसा को खारिज करने के लिए भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के एक ऐसे प्रसंग का चयन किया जिसमें गांधी के निर्णय की व्यापक आलोचना हुई थी। चौरी चौरा में थाने में 23 भारतीय पुलिस कर्मियों को आक्रोशित भीड़ द्वारा जिंदा जलाए जाने के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन रोक दिया था। इस समय अधिकांश नेताओं को यह लग रहा था कि आंदोलन निर्णायक दौर में पहुंच रहा है और स्वाधीनता का लक्ष्य अब अत्यंत निकट है। इसके बाद प्रायः सभी नेताओं ने खुलकर गांधी की आलोचना की थी और अंत में जो सहमति बनी उसके पीछे इन नेताओं का गांधी के प्रति आदरभाव भी था और शायद यह भय भी था कि गांधी की अपार लोकप्रियता के कारण उनसे असहमति इन नेताओं को अप्रासंगिक बना सकती थी।
प्रधानमंत्री जी ने अपने उद्बोधन में कहा- "सौ वर्ष पहले चौरी -चौरा में जो हुआ, वो सिर्फ एक आगजनी की घटना, एक थाने में आग लगा देने की घटना सिर्फ नहीं थी। चौरी–चौरा का संदेश बहुत बड़ा था, बहुत व्यापक था। अनेक वजहों से पहले जब भी चौरी–चौरा की बात हुई, उसे एक मामूली आगजनी के संदर्भ में ही देखा गया। लेकिन आगजनी किन परिस्थितियों में हुई, क्या वजहें थीं, ये भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। आग थाने में नहीं लगी थी, आग जन-जन के दिलों में प्रज्ज्वलित हो चुकी थी। चौरी–चौरा के ऐतिहासिक संग्राम को आज देश के इतिहास में जो स्थान दिया जा रहा है, उससे जुड़ा हर प्रयास बहुत प्रशंसनीय है। मैं, योगी जी और उनकी पूरी टीम को इसके लिए बधाई देता हूं। आज चौरी–चौरा की शताब्दी पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया है। आज से शुरू हो रहे ये कार्यक्रम पूरे साल आयोजित किए जाएंगे। इस दौरान चौरी–चौरा के साथ ही हर गाँव, हर क्षेत्र के वीर बलिदानियों को भी याद किया जाएगा। इस साल जब देश अपनी आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, उस समय ऐसे समारोह का होना, इसे और भी प्रासंगिक बना देता है।
चौरी–चौरा, देश के सामान्य मानवी का स्वतः स्फूर्त संग्राम था।ये दुर्भाग्य है कि चौरी -चौरा के शहीदों की बहुत अधिक चर्चा नहीं हो पाई। इस संग्राम के शहीदों को, क्रांतिकारियों को इतिहास के पन्नों में भले ही प्रमुखता से जगह न दी गई हो लेकिन आज़ादी के लिए उनका खून देश की माटी में जरूर मिला हुआ है जो हमें हमेशा प्रेरणा देता रहता है। अलग अलग गांव, अलग–अलग आयु, अलग अलग सामाजिक पृष्ठभूमि, लेकिन एक साथ मिलकर वो सब माँ भारती की वीर संतान थे। आजादी के आंदोलन में संभवत: ऐसे कम ही वाकये होंगे, ऐसी कम ही घटनाएं होंगी जिसमें किसी एक घटना पर 19 स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी के फंदे से लटका दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत तो सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी देने पर तुली हुई थी। लेकिन बाबा राघवदास और महामना मालवीय जी के प्रयासों की वजह से करीब–करीब 150 लोगों को लोगों को फांसी से बचा लिया गया था। इसलिए आज का दिन विशेष रूप से बाबा राघवदास और महामना मदन मोहन मालवीय जी को भी प्रणाम करने का है, उनका स्मरण करने का है।"
अपने पूरे उद्बोधन में गांधी का नामोल्लेख तक न करते हुए प्रधानमंत्री जी ने मालवीय जी की चर्चा अवश्य की जिन्हें श्री गोलवलकर गांधी से असहमत किंतु श्रद्धावश उनका विरोध न कर पाने वाले राजनेताओं में शुमार करते थे।
चौरी चौरा प्रकरण का एक पाठ इसे किसान विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करता है। वर्तमान में जब देश भर में किसान आंदोलित हैं तब इन साल भर तक चलने वाले समारोहों के माध्यम से उन्हें यह अवश्य बताया जाएगा कि जिन किसान स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत को गांधी और उनके अनुयायियों की कांग्रेस ने अनदेखा कर दिया था उन्हें सौ साल बाद मोदी सरकार ने सम्मान दिया। इसी बहाने यह भी जोड़ दिया जाएगा कि गांधी-नेहरू की जोड़ी द्वारा हाशिए पर डाली गई सरदार पटेल और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसी विभूतियों का उद्धार भी मोदी जी ने ही किया।
चौरी चौरा प्रकरण का एक पाठ और भी है। यह पाठ चौरी चौरा प्रकरण एवं बाद में इतिहास में उसके प्रस्तुतिकरण को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में दलित एवं अल्पसंख्यक वर्ग की भूमिका को गौण बनाने वाले सवर्ण वर्चस्व के आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि चौरी चौरा के उपेक्षित दलित और अल्पसंख्यक स्वाधीनता सेनानियों को सम्मानित कर मोदी-योगी सरकार आज की अपनी अल्पसंख्यक एवं दलित विरोधी दमनात्मक नीतियों से लोगों का ध्यान हटाने में सफलता प्राप्त करे। इसी बहाने यह चर्चा भी जोर पकड़ सकती है कि आंबेडकर को गांधी-नेहरू ने किनारे लगा दिया था किंतु यह मोदी ही थे जिन्होंने आंबेडकर को उनका गौरवपूर्ण स्थान वापस दिलाया।प्रधानमंत्री जी प्रतीकों की राजनीति में निपुण हैं और अपनी असफलताओं एवं वर्तमान समस्याओं से ध्यान हटाकर लोगों को अतीतजीवी बनाए रखने का उनका कौशल अनूठा है।
प्रधानमंत्री जी ने चौरी चौरा प्रसंग के चयन द्वारा वाम दलों और वाम रुझान रखने वाले बुद्धिजीवियों को असमंजस में डाल दिया है। वाम रुझान रखने वाले इतिहासकारों के एक बड़े वर्ग ने गांधी जी को सम्पूर्ण क्रांति के मार्ग में एक बड़े अवरोध के रूप में चित्रित किया है जिन्होंने अपने करिश्मे और लोगों की धर्मभीरुता का उपयोग जमींदारों और पूंजीपतियों के शोषण की रक्षा हेतु किया था। यह इतिहासकार चौरी चौरा प्रकरण को गांधी जी के असली वर्ग चरित्र और उनकी वास्तविक प्राथमिकताओं (जो इन इतिहासकारों के मतानुसार शोषकों के पक्ष में थीं) को उजागर करने वाली प्रतिनिधि घटना मानते हैं।
उत्तरप्रदेश में पैर रखने की जगह तलाशती कांग्रेस तथा अपने पिछड़े-अल्पसंख्यक-दलित वोट बैंक को वापस लाने की कोशिश में लगी सपा-बसपा जैसी पार्टियों से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे गांधी और उनकी अहिंसा के समर्थन में खड़ी होंगी। उत्तरप्रदेश में विधान सभा के चुनाव धीरे धीरे निकट आ रहे हैं और इनमें से कोई भी दल अपने वोटरों को नाराज करने वाला कदम नहीं उठाना चाहेगा।
चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने के गांधी के निर्णय ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम की दिशा तय कर दी थी, यह तय हो गया था कि हमारा स्वाधीनता आंदोलन अहिंसक होगा और नैतिक नियमों के दायरे में होगा। हमने अहिंसक संघर्ष की शक्ति का अनुभव पूरे विश्व को कराया। हमसे प्रेरित हो पूरी दुनिया में अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध होने वाले कितने ही कामयाब आंदोलनों ने अहिंसा की रणनीति अपनाई। किंतु आज ऐसा लगता है कि हम गांधी के उस निर्णय पर शर्मिंदा हैं। हम गांधी की अहिंसा को एक भूल मानते हैं।
प्रधानमंत्री जी का यह भाषण और इस भाषण के बाद बुद्धिजीवी वर्ग में व्याप्त चुप्पी दोनों ही चिंताजनक हैं। हिंसा का आश्रय तो हम पहले से ही लेने लगे थे किंतु क्या अब यह स्थिति भी आ गई है कि हम सार्वजनिक रूप से अहिंसा को खारिज कर गौरवान्वित अनुभव करने लगेंगे? क्या प्रधानमंत्री आंदोलनरत किसानों को यह संदेश देना चाहते हैं कि वे चौरी चौरा की घटना को अपना रोल मॉडल मानें? क्या प्रधानमंत्री संघ प्रमुख मोहन भागवत के फरवरी 2020 के उस वक्तव्य से असहमत हैं जब उन्होंने सीएए विरोधी आंदोलन कारियों को गांधी जी का उदाहरण देते हुए कहा था कि जब असहयोग आंदोलन हिंसक हो गया और आंदोलनकारी कानून और व्यवस्था भंग करने पर आमादा हो गए तो गांधी जी ने प्रायश्चित किया और आंदोलन रोक दिया? क्या संघ प्रमुख और प्रधानमंत्री जी में मतभेद है? या फिर दोनों अपनी सुविधानुसार गांधी का समर्थन और विरोध कर रहे हैं? क्या हमें साम्प्रदायिक हिंसा का विरोध करते गांधी केवल इसलिए स्वीकार हैं क्योंकि यहाँ हमारे विचार मिलते हैं? किंतु हम चौरी चौरा की हिंसा की निंदा करते गांधी को नकार देते हैं क्योंकि हमें लगता है कि यह अत्याचारी शासकों एवं शोषकों के विरुद्ध खूनी क्रांति का प्रारंभ था। क्या हमें मॉब लिंचिंग इसलिए स्वीकार है क्योंकि यह उन लोगों द्वारा की गई है जो हमारी दृष्टि में धर्म रक्षक एवं राष्ट्र भक्त हैं और नक्सल हिंसा इसलिए हमें नागवार गुजरती है कि यह हमारी सत्ता को चुनौती देती है? या हम मॉब लिंचिंग की इसलिए निंदा करते हैं क्योंकि हमारी दृष्टि में यह धार्मिक-साम्प्रदायिक उन्मादियों का पागलपन है और नक्सल हिंसा का इसलिए समर्थन करते हैं कि हमारे मन के किसी गुप्त कोने में हिंसक क्रांति द्वारा व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद शेष है? जब राज्य अपनी नीतियों की समीक्षा एवं समालोचना को षड्यंत्र बताकर असहमत स्वरों को कुचलने के लिए योजनाबद्ध हिंसा और दमन का सहारा लेता है तो क्या इसे न्यायोचित माना जा सकता है? क्या राज्य की हिंसा को राष्ट्र रक्षा के लिए आवश्यक बताना उचित है? क्या हम अच्छी हिंसा और बुरी हिंसा जैसी शब्दावली का अविष्कार कर रहे हैं? क्या हम न्यायोचित हिंसा और अन्यायपूर्ण हिंसा जैसी भाषा में सोचने लगे हैं? क्या हमें हिंसा पसंद है किंतु प्रतिहिंसा नहीं? क्या अब हमें नफरत से भी परहेज नहीं है क्योंकि हिंसा और घृणा तो साथ साथ चलते हैं? क्या लोकतंत्र में अब हिंसा को सरकारी स्वीकृति मिल गई है?
चौरी चौरा प्रकरण से पहले और उसके बाद भी स्थानीय लोग शोषण और दमन के शिकार हुए। इनकी जैसी समझ थी गांधी के विचारों उन्होंने उसी तरह और उतना ही समझा। उसमें इनका दोष नहीं है। हम भी गांधी को समझ नहीं पाते या अपनी तरह व्याख्यायित कर लेते हैं। इन लोगों की राष्ट्रभक्ति पर संदेह करना भी नितांत अनुचित है। निश्चित ही यह देश को स्वतंत्र देखने के लिए हर कुर्बानी देने को तत्पर थे। यह भी गलत था कि स्वाधीनता के बाद भी इन्हें और इनके परिजनों को अपराधियों एवं खलनायकों की भांति देखा गया। स्वतंत्र भारत में हमने क्रांतिकारियों की हिंसा से असहमत होते हुए भी उनके कुर्बानी के जज्बे को हमेशा सराहा है। किंतु हमेशा यह रेखांकित भी किया है कि अहिंसा हमारे स्वाधीनता आंदोलन का मूलाधार थी। यही दृष्टिकोण चौरी चौरा के शहीदों और उनके परिजनों के लिए भी उचित होता।
जवाहरलाल नेहरू ने असहयोग आंदोलन रोकने के गांधी जी के कदम का विश्लेषण करते हुए अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत किया है-" उस समय हमारा आंदोलन बाहर से शक्तिशाली लगने और तमाम जोश के बावजूद बिखर रहा था। संगठन एवं अनुशासन समाप्त हो रहा था। हमारे प्रायः सभी अच्छे लोग कारागार में थे और जनता को तब तक इतना प्रशिक्षण नहीं मिला था कि आंदोलन को स्वयं आगे चला सके। कोई भी अनजान व्यक्ति चाहता तो कांग्रेस की किसी समिति की बागडोर संभाल सकता था। सत्य तो यह है कि ऐसे बहुत से गलत लोग जिनमें अंग्रेजों के एजेंट भी शामिल थे बड़ी संख्या में कांग्रेस और खिलाफत की स्थानीय संस्थाओं में प्रमुख स्थान पा गए थे और उनमें अनेक लोगों ने तो नेतृत्व ही संभाल लिया था। इन लोगों को रोकने का कोई तरीका न था।
लोगों की उत्तेजना एवं उत्साह के पीछे ठोस कुछ भी नहीं था। इसमें कम ही संदेह है कि यदि आंदोलन जारी रहता तो अनेक स्थानों पर हिंसा की छिटपुट वारदातें होती रहतीं। इसे सरकार बड़ी बर्बरता से कुचल देती और भय का ऐसा राज्य कायम हो जाता कि लोगों का मनोबल पूर्णतः टूट जाता।" शायद नेहरू यह कहना चाहते हों कि गांधी की साधन की शुद्धता का आग्रह और अहिंसा की पूजा न केवल नैतिक दृष्टि से सही थी बल्कि रणनीतिक तौर पर भी उचित थी।
यह कहना एकदम अनुचित होगा कि गांधी कभी कोई गलती नहीं कर सकते थे। अपने महापुरुषों के हर आचरण और विचार पर प्रश्न उठाकर, उसे तर्क की कसौटी पर कस कर ही हम इन महापुरुषों की चिंतन प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते हैं और तब ही हम इन्हें आत्मसात भी कर सकते हैं। जिन लोगों ने भी गांधी के जीवन में थोड़ा बहुत प्रवेश किया है वे यह जानते हैं कि अपनी आस्थाओं, विश्वासों और यहां तक कि अपनी मानसिक संरचना की सामाजिक-धार्मिक-नैतिक विशेषताओं को भी गांधी ने तर्क और आचरण की कसौटी पर कसने की कोशिश की थी। फिर भी यह बिल्कुल संभव है कि वे कहीं कहीं स्वयं को प्रकृति, समाज और धर्म द्वारा दिए गए गुण-अवगुणों के मूल्यांकन और परिवर्तन-परिष्कार में नाकामयाब रहे हों। किंतु उनके प्रयास की ईमानदारी और गंभीरता पर संशय नहीं किया जा सकता। इसीलिए चंद फतवों और सामान्यीकरणों द्वारा उनका मूल्यांकन दुःखद और निंदनीय है।
पिछले कुछ वर्षों में हमें हिंसा का अभ्यस्त बनाया जा रहा है, हिंसा का विमर्श तभी जीवित रह पाता है जब चारों ओर संदेह, घृणा और अविश्वास का वातावरण हो, वैमनस्य, कटुता और शत्रुता अपने चरम पर हों। प्रधानमंत्री जी ने चौरी चौरा की हिंसा का समर्थन कर एक तीर से कई शिकार करने का प्रयास किया है-गांधी विरोध, स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसक स्वरूप की आलोचना, कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करना, किसानों की सहानुभूति प्राप्त करना, दलितों एवं अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण, वामपंथी शक्तियों को असमंजस में डालना आदि आदि। किंतु भय यह है कि इस घातक तीर का शिकार हमारी सामाजिक समरसता और बहुलवाद पर आधारित हमारा लोकतंत्र ही न हो जाएं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-गिरीश मालवीय
मुझे लगता है कि भारत में पत्रकारिता मर चुकी है, कल एक खबर का जो हश्र देखा है उसे देखकर बिल्कुल यही महसूस हुआ।
कल मुंबई में एक होटल से वर्तमान लोकसभा के एक सांसद की लाश बरामद हुई है और वो भी संदिग्ध परिस्थितियों में। ‘वो भी कोई साधारण सांसद नही बल्कि वह सांसद सात बार लोकसभा में चुनकर आया है।
हम बात कर रहे हैं, केंद्रशासित प्रदेश दादर नगर हवेली से चुनकर आए निर्दलीय सांसद मोहन डेलकर की पुलिस प्रथम दृष्टया इसे आत्महत्या मान रही है।
अब यह एक बड़ी घटना है लेकिन आप मीडिया में इस घटना की रिपोर्टिंग देखेंगे तो लगेगा कि यह बड़ी साधारण सी घटना है। आप ही बताइए कि पिछले 70 सालों में आखिर अब तक ऐसी कितनी घटनाएं होगी जिसमें निवर्तमान सांसद की संदेहास्पद परिस्थितियों में लाश बरामद हो और उस स्टोरी पर कोई खोजबीन तक न हो!
मैंने कल रात 12 बजे तक सैकड़ों न्यूज़ वेबसाइट खँगाल लिए लेकिन सब में वही मैटर मिला जो एजेंसी ने दिया था। किसी भी पत्रकार ने यह तलाश करने तक करने की कोशिश नहीं की कि आखिरकार उस सांसद ने तथाकथित रूप से आत्महत्या क्यों की होगी?
इसके बदले फिल्म इंडस्ट्री का कोई साधारण सा अभिनेता यदि आत्महत्या कर ले तो आप मीडिया के पत्रकारों की भूमिका को देखिए पूरा नेशन वान्ट्स टू नो हो जाता कि उक्त अभिनेता ने आत्महत्या क्योंकि लेकिन एक सांसद पँखे से लटक गया/लटका दिया पर कोई नहीं पूछ रहा।
जब सांसद मोहन डेलकर से संबंधित खबरों को मैंने गहराई में जाकर खंगालना शुरू किया तो एक वीडियो हाथ लगा यह वीडियो कुछ ही महीने पुराना है यह वीडियो लोकसभा टीवी का था इस वीडियो में सदन में मौजूद स्व. मोहन डेलकर आसन्दी पर बैठे ओम बिरला को संबोधित करके कह रहे हैं कि सर मेरी बात सुन लीजिए। इस सम्बोधन में डेलकर अपने खिलाफ स्थानीय प्रशासन के द्वारा किए जा रहे षडय़ंत्र की जानकारी दे रहे है। इस वीडियो से ही हंगामा मच जाना चाहिए था, लेकिन कुछ नहीं हुआ, बात आई गई कर दी गई।
लोकसभा के इस संबोधन के कुछ समय पहले सिलवासा में उनका एक ओर वीडियो वायरल हुआ था जिसमे उन्होंने यह ऐलान किया था कि मैं अगले लोकसभा सत्र में इस्तीफा दे दूंगा और अपने इस्तीफे के लिए जिम्मेदार सभी लोगों के नामों का खुलासा करूंगा।’ उन्होंने कहा, ‘मैं लोकसभा में बताऊंगा कि मुझे इस्तीफा क्यों देना पड़ा।’ आदिवासी क्षेत्रों में विकास के लिए दिल्ली स्तर पर प्रयास किए गए हैं लेकिन स्थानीय निकायों द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई है। सिलवासा में, विकास के नाम पर लोगों की दुकानों और घरों को ध्वस्त किया जा रहा है। और सरकारी शिक्षकों और अन्य नौकरियों के लिए परेशान किया जा रहा है।
इस वीडियो में मोहन डेलकर ने गंभीर आरोप लगाया कि देश अराजकता की स्थिति में है और एक तानाशाही राजशाही की तरह शासन चल रहा है, उन्होंने कहा कि आदिवासी क्षेत्र का विकास एक ठहराव पर आ गया था क्योंकि स्थानीय स्तर पर प्रशासन ने उनके प्रयासों या विकास कार्यों को मंजूरी देने से इंकार कर दिया था।
उन्होंने इस वीडियो में यह भी कहा था कि मेरे पास स्थानीय अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों के खिलाफ भी सबूत हैं,’ यानी आप देखिए कि, एक निर्वाचित सांसद खुलेआम सदन में स्थानीय प्रशासन के रवैये को लेकर तानाशाही का आरोप लगा रहा है। स्थानीय अधिकारियों की मनमानी की बात कर रहा है और कुछ दिन बाद उसकी लाश मुंबई के एक होटल में पंखे से लटकती पाई जाती है लेकिन कोई इस बात पर चर्चा तक नहीं कर रहा है। तो यह किसका दोष है। यह दोष सीधा भारत की पत्रकारिता का ही है कि वह सही संदर्भों के साथ खबर पेश नहीं करती है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पुदुचेरी में नारायणस्वामी की कांग्रेस सरकार को तो गिरना ही था। सो वह गिर गई लेकिन किरन बेदी को उप-राज्यपाल के पद से अचानक हटा देना सबको आश्चर्यचकित कर गया। उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं था। उन्होंने कोई कानून नहीं तोड़ा। उन्होंने किसी केंद्रीय आदेश का उल्लंघन नहीं किया फिर भी उन्हें जो हटाया गया, उसके पीछे ऐसा लगता है कि भाजपा की लंबी राजनीति है। नारायणस्वामी और किरन बेदी पहले दिन से ही मुठभेड़ की मुद्रा में रहे हैं।
ऐसा कभी लगा ही नहीं कि एक राज्यपाल और दूसरा मुख्यमंत्री हैं। हर मुद्दे पर उनकी टकराहट के समाचार अखबारों में छाए रहते थे। ऐसा लगता था कि ये दोनों दो विरोधी पार्टियों के नेता हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि नारायणस्वामी पुदुचेरी के मतदाताओं की सहानुभूति अर्जित करते गए। भाजपा और विरोधियों को लगा कि कुछ हफ्तों बाद होनेवाले चुनाव में नारायणस्वामी कहीं बाजी न मार ले जाएं। इसीलिए किरन बेदी को अचानक हटा दिया गया। दूसरी तरफ कांग्रेस में भी अंदरूनी बगावत चल रही थी। 2016 में नारायणस्वामी को कांग्रेस ने अचानक पुदुचेरी का मुख्यमंत्री बना दिया था।
कांग्रेस के दिल्ली दरबार में नारायणस्वामी की पकड़ काफी मजबूत थी। उस समय पुदुचेरी के कांग्रेस अध्यक्ष थे ए. नमासिवायम्। वे हाथ मलते रह गए। उन्होंने और उनके साथियों ने बगावत का झंडा खड़ा कर दिया। कांग्रेस के विधायकों ने इस्तीफे दे दिए। सरकार अल्पमत में चली गई। नारायणस्वामी ने भी इस्तीफा दे दिया। चुनाव के तीन माह पहले हुई यह नौटंकी अब क्या गुल खिलाएगी, कुछ नहीं कहा जा सकता है। कांग्रेस की साथी पार्टी द्रमुक के विधायक ने भी इस्तीफा दे दिया है। अकेली कांग्रेस का फिर से लौट पाना मुश्किल ही लगता है। हो सकता है कि कांग्रेस कोई नए नेता का नाम आगे बढ़ा दे। हो सकता है कि पुदुचेरी में पहली बार भाजपा की सरकार बन जाए।
पुदुचेरी भी कर्नाटक के चरण चिन्हों पर चल पड़े। जो भी हो इस वक्त पूरे दक्षिण भारत से कांग्रेस का सूंपड़ा साफ हो गया है। दक्षिण भारत के सभी प्रांतों में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकारें आ गई है। कांग्रेस की अपनी सरकारें सिर्फ तीन प्रांतों में रह गई हैं। राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़। महाराष्ट्र और झारखंड में वह सहकारी है। कांग्रेस नेतृत्व की यह दुर्दशा भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। कांग्रेस की कृपा से भाजपा बिना ब्रेक की मोटर कार बनती जा रही है। भाई-भाई पार्टी को सबसे बड़ा वरदान है, माँ-बेटा पार्टी। जब तक कांग्रेस माँ-बेटा पार्टी बनी रहेगी, भाई-भाई पार्टी का डंका बजता रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)