विचार/लेख
-विवेक मिश्रा
बाढ़ आपदा के कारण सर्वाधिक मृतकों की संख्या गंगा के पहाड़ी और मैदानी राज्यों में है
पर्यावरण की नाजुक जगहें यदा-कदा चेताती रहती हैं। उत्तराखंड में 7 फरवरी, 2021 को चमोली में बिना किसी सूचना के अचानक आई भयावह बाढ़ एक और चेतावनी है। इस त्रासदी ने कई जिंदगियों को मिनटों में खत्म कर दिया। अब तक मिली सूचना के मुताबिक मलबे से अब तक करीब 52 शव निकाले जा चुके हैं जबकि अन्य 154 की तलाश जारी है।
बाढ़ इतनी भयावह है तो इसका इलाज क्यों नहीं? हिमालयी उत्तराखंड की छोटी से छोटी हलचल नीचे मैदानों तक भी आती ही रहती है। लेकिन यदि बीते वर्षों की बाढ़ के कारण खत्म होने वाली जिदंगियों का आकलन करें तो उत्तराखंड का नाम सबसे ऊपर है।
बीते सात दशकों (1953-2017) तक 107,487 लोगों ने बाढ़ के कारण जिंदगियां खो चुके हैं। यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बाढ़ मृतकों की करीब एक चौथाई संख्या महज दस (2008-2019) वर्षों की है। करीब 25 हजार लोग 2008 से 2019 तक बाढ़ और वर्षा के दौरान घटने वाली आपदाओं की वजह से मारे गए। इनमें 23,297 मृतक सिर्फ 15 राज्यों से हैं। बाढ़ आपदा के कारण सर्वाधिक मृतकों की संख्या गंगा के पहाड़ी और मैदानी राज्यों में है। वहीं, बाढ़ के भुक्तभोगियों में शीर्ष पर उत्तराखंड है इसके बाद उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार का नाम शामिल है।
बाढ़ के भुक्तभोगियों में उत्तराखंड ही शीर्ष पर क्यों है? इस सवाल पर “गंगा आह्वान” से जुड़ी मलिका भनोट ने डाउन टू अर्थ को बताया कि बाढ़ की विभीषिका का एक बड़ा कारण गंगा में अवरोध है। नदी को रोका जाए तो वह विभीषक बन जाती है। इसके अलावा उत्तराखंड में विकास के कार्यक्रम भी बहुत हद तक बाढ़ की विभीषिका को बढ़ा रहे हैं। 2013 की त्रासदी के बावजूद कदम संभाल कर नहीं रखा जा रहा। चारधाम परियोजना के लिए सड़क चौड़ीकरण में हजारों की संख्या में पेड़ काटे गए। यह पेड़ ही मिट्टी को बांधे रखते हैं। नतीजा है कि आए दिन भूस्खलन होता है। मलबे की अनियंत्रित डंपिंग ने नदियों की व्यवस्था को बिगाड़ दिया है। इसी समय बादल फटने या कम समय में ज्यादा वर्षा का होना आग में घी का काम करता है। उत्तराखंड में इस हलचल का दुष्परिणाम गंगा के मैदानी भागों में भी पड़ता रहता है। हिमालय में फूंक-फूंक कर कदम रखा जाना चाहिए।
वहीं, केंद्रीय जल आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1953 से लेकर 2011 तक के बाढ़ के नुकसान का आकलन यह दर्शाता है कि जिंदगियों के नुकसान के आधार पर सर्वाधिक तबाही वाले वर्षों में 1977 सबसे ऊपर है। 1977 में 11,316 लोगों की मृत्यु बाढ़ की वजह से हुई थी। फिर 1978 में 3,396 लोगों की मृत्यु हुई। 1979 में 3,637 लोगों की मृत्यु बाढ़ में हुई। इसके करीब एक दशक बाद 1988 में बाढ़ ने 4,252 जिंदगियां खत्म कर दी। करीब दो दशक बाद 2007 में 3,389 लोगों की जिदंगी बाढ़ में नेस्तानाबूद हो गई। यह सर्वाधिक मौत वाले वर्षों के आंकड़ों की सूची यही खत्म नहीं होती। बेहद अल्पविराम के बाद 2013 में उत्तराखंड में भीषण बाढ़ आई। इस बाढ़ में सरकारी आंकड़े के मुताबिक 3,547 लोगों की मृत्यु हुई। यह बीते चार दशकों की सबसे भीषण बाढ़ में एक थी। मृत्यु के यह आंकड़े उन मासूम लोगों के हैं जो शासन की अनीतियों के शिकार हुए।
यह डिस्कलेमर भी देना जरूरी है कि मृतकों की गिनती और बाढ़ के नुकसान का कोई आकलन केंद्र सरकार नहीं करती है। केंद्र सरकार का कहना है कि बाढ़ राज्यों का विषय हैं। इसलिए बाढ़ के नुकसान के आकलन की जिम्मेदारी भी राज्यों की है। यह राज्य भी टेढ़ी खीर हैं। जब केंद्रीकरण होता है तब शोर मचता है कि राज्यों की हिस्सेदारी खत्म हो रही है, जब मानवता के काम उनके जिम्मे हैं तो वे गेंद केंद्र के पाले में डाल देती हैं। केंद्र और राज्यों के बीच गेंदों की फेंका-फेंकी का यह काम अनवरत चलता रहता है। गेंदों को एक-दूसरे के पाले में फेंकते रहना अदालतों में राज्य और केंद्र की नुमाइंदगी करने वाले प्रतिनिधि वकीलों की यह एक खास रणनीति भी रही है।
1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (आरबीए) की सिफारिशों में नदी के डूब क्षेत्र के अतिक्रमण एक बड़ी चिंता का विषय था। यह चिंता कुछ पन्नों की सिफारिशों में बदल गई और फिर कभी चिंतन का विषय नहीं बनी। पर्यावरण और कानून के जानकार एमसी मेहता ने 1985 में गंगा और उससे जुड़े मामले पर पहली बार शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। डाउन टू अर्थ से बातचीत में एमसी मेहता बताते हैं कि 1985 और उसके बाद 1986-87 में गंगा बेसिन को लेकर बातचीत शुरु हुई थी, इसमें बाढ़ के डूब क्षेत्र और उसके अतिक्रमण को लेकर भी बहस-मुबाहिसे हुए। अदालतों से तो लड़ाई जीत ली है लेकिन जमीनी नतीजा आजतक हासिल नहीं हुआ। सरकारें बदलती रहीं और किसी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई।
डूब क्षेत्र के अतिक्रमण के अलावा एक दूसरा और अहम पहलू बाढ़ को काबू में लाने का है। बाढ़ को काबू में लाने के लिए स्वच्छंद और उन्मुक्त नदियों को ही बांधने की हमेशा जुगत की गई। नदी से उसका घर-आंगन ही छीना गया। मानों सरकारें महाभारत की दुर्योधन हो गई हों और नदियों को उसके पांच ग्राम भी देने को तैयार न हों। इस बीच बहुत से कृष्ण नदियों का संदेशा लेकर सरकारों के पास पहुंचे भी लेकिन दुर्भाग्य यह कि सरकारें नदियों की स्वतंत्रता और उनकी अपनी जमीन देने के बजाए उलटे उन्हें जकड़ने की ही बात पर अमादा रहीं। क्या कृष्ण की भाँति विकराल रूप धरने वाली यह नदियां दुर्योधन रूपी सरकारों को ललकार नहीं रही…जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हां, हां दुर्योधन! बांध मुझे…
तटबंधों और भारी-भरकम बांधों के बारे में बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक और लेखक दिनेश मिश्र डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि 1952 तक देश में कोई भी सरकारी तटबंध नहीं था। उसके बाद 1953 से तटबंध बनने लगे और यह तबसे बन और टूट रहे हैं। बांधों का भी यही हाल है। वे सुख देने के बजाए अनवरत दुख देते जा रहे हैं। कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव ने डाउन टू अर्थ से बताया कि नर्मदा से लेकर कोसी तक पुनर्वास को लेकर एक ही लड़ाई चल रही है। सरदार सरोवर डैम के फाटक बंद कर दिए गए हैं, इससे निमाड़ के डूब क्षेत्र में लोगों को जबरदस्त परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उसी डूब क्षेत्र में दो लोगों की करंट लगने से मौत भी हो गई। बाढ़ के पुनर्वास को लेकर यहां भी काम नहीं किया गया। यह जिम्मेदारी सरकार की है।
विकास के युग में बाढ़ ने भी विकास किया है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने 1980 में देश के 21 जिलों में थी अब यह बढ़कर 39 जिलों में पहुंच गई हैं। करीब चार दशक में एक करोड़ हेक्टेयर अधिक भूमि पर बाढ़ बढ़ गई है।(संबंधित खबर पढ़ने के लिए क्लिक करें)। जलवायु परिरवर्तन की अवधारणा भी तेज हो गई है। असमय और अत्यधिक वर्षा के आंकड़े अब पक्की तरह से यह बता चुके हैं कि नीतियों में हमें भी ध्यान में रखा जाए।
राज्यसभा में 29 अप्रैल, 2015 को दिए गए लिखित जवाब में कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र के यूएनआईएसडीआर के जरिए वैश्विक आकलन रिपोर्ट 2015 में जारी की गई थी। इसमें यह अंदाजा लगाया गया था कि भारत में प्राकृतिक आपदाओं के कारण सालाना औसत 9.8 बिलियन डॉलर (697,338,600,000.00 रुपये) का नुकसान होता है। वहीं, गृह मंत्रालय का कहना था कि देश में 58.6 फीसदी भूभाग भूकंप, 8.5 फीसदी चक्रवात, और 5 फीसदी बाढ़ प्रभावित है।
अंत में यह बताना जरूरी है कि ऐसा भी नहीं है कि सरकारों ने कुछ नहीं किया। सरकारें हर साल एक बड़ा बजट बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाती और जारी करती हैं। 1978 में बाढ़ बचाव के नाम पर केंद्र ने 1727.12 करोड़ रुपये की परियोजना बनाई थी। 2019 में बाढ़ नियंत्रण के लिए केंद्र सरकार का यह बजट आकार लेकर 13238.36 करोड़ रुपये का हो चुका है। यह तय समय पर तैयार हो जाता है और सरकारी जेबों तक पहुंच भी जाता है लेकिन इस बजट का फायदा कभी समय से जनता तक नहीं पहुंचा,
देश की पहली बाढ़ नीति 3 सितंबर, 1954 को बनी थी। करीब 65 बरस गुजर रहे हैं। इस बीच राज ने नदियों से रिश्ता कभी बनाया नहीं और समाज का रिश्ता टूटता चला गया। यह टूटन ही मलबे के जोखिम को बढ़ाने वाला साबित हो सकता है। (downtoearth.org.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रदर्शनों के बारे में जो ताज़ा फैसला किया है, उससे उन याचिकाकर्ताओं को निराशा जरूर हुई होगी, जो विरोध-प्रदर्शन के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। यदि किसी राज्य में जनता को विरोध-प्रदर्शन का अधिकार न हो तो वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। विपक्ष या विरोध तो लोकतंत्र की मोटरकार में ब्रेक की तरह होता है। विरोधरहित लोकतंत्र तो बिना ब्रेक की गाड़ी बन जाता है।
अदालत ने विरोध-प्रदर्शन, धरने, अनशन, जुलूस आदि को भारतीय नागरिकों का मूलभूत अधिकार माना है लेकिन उसने यह भी साफ़-साफ़ कहा है कि उक्त सभी कार्यों से जनता को लंबे समय तक असुविधा होती है तो उन्हें रोकना सरकार का अधिकार है। अदालत की यह बात एकदम सही है, क्योंकि आम जनता का कोई हुक्का-पानी बंद कर दे तो यह भी उसके मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है। यह सरकार का नहीं, जनता का विरोध है।
प्रदर्शनकारी तो सीमित संख्या में होते हैं लेकिन उनके धरनों से असंख्य लोगों की स्वतंत्रता बाधित हो जाती है। लाखों लोगों को लंबे-लंबे रास्तों से गुजरना पड़ता है, धरना-स्थलों के आस-पास के कल-कारखाने बंद हो जाते हैं और सैकड़ों छोटे-व्यापारियों की दुकानें चौपट हो जाती हैं। गंभीर मरीज़ अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देते हैं।
शाहीन बाग और किसानों जैसे धरने यदि हफ्तों तक चलते रहते हैं तो देश को अरबों रु. का नुकसान हो जाता है। रेल रोको अभियान सडक़बंद धरनों से भी ज्यादा दुखदायी सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रदर्शनकारी जनता की भी सहानुभूति खो देते हैं। उनसे कोई पूछे कि आप किसका विरोध कर रहे हैं, सरकार का या जनता का ? इस तरह के धरने चलाने के पहले अब पुलिस की अनुमति लेना जरुरी होगी, वरना पुलिस उन्हें हटा देगी। पता नहीं, दिल्ली सीमा पर चल रहे लंबे धरने पर बैठे किसान अब अदालत की सुनेंगे या नहीं। इन धरनों और जुलूसों से एक-दो घंटे के लिए यदि सडक़ें बंद हो जाती हैं और कुछ सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शनकारियों का कब्जा हो जाता है तो कोई बात नहीं लेकिन यदि इन पैंतरों से मानव-अधिकारों का लंबा उल्लंघन होगा तो पुलिस-कार्रवाई न्यायोचित ही कही जाएगी।
पिछले 60-65 वर्षों में मैंने ऐसे धरने, प्रदर्शन, जुलूस और अनशन दर्जनों बार स्वयं आयोजित किए हैं लेकिन इंदौर, दिल्ली, लखनऊ, वाराणसी, भोपाल, नागपुर आदि शहरों की पुलिस ने उन पर कभी भी लाठियां नहीं बरसाईं। महात्मा गांधी ने यही सिखाया है कि हमें अपने प्रदर्शनों को हमेशा अहिंसक और अनुशासित रखना है। उन्होंने चौरीचौरा का आंदोलन बंद क्यों किया था, क्योंकि आंदोलनकारियों ने वहां हत्या और हुड़दंग मचा दिया था।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-एंथनी जर्चर
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ पांच दिनों तक महाभियोग के प्रस्ताव पर सुनवाई करने के बाद आखिरी फैसला आ गया है और उन्हें कैपिटल हिल में हिंसा भड़काने के आरोप से बरी कर दिया गया है. व्यापक स्तर पर इसी तरह के नतीजे का अनुमान भी लगाया जा रहा था.
अमेरिकी इतिहास में अब चार ऐसे राष्ट्रपति हो चुके हैं जिनके ख़िलाफ़ लाए गए महाभियोग पर प्रस्ताव पर सुनवाई हुई है.
महाभियोग के ऊपर यह भले ही सबसे कम दिनों तक चलने वाली कार्यवाही रही लेकिन यह प्रक्रिया अमेरिकी लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाली रही है.
यहाँ पर हम उन कुछ प्रमुख लोगों पर एक नज़र डालने जा रहे हैं जो इस दौरान अमेरिकी इतिहास में उभरकर सामने आए.
डोनाल्ड ट्रंप
डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ दूसरी बार लाए गए महाभियोग प्रस्ताव के नजीते भी वही रहे जो पहली बार के रहे. एक बार फिर अमेरिकी सीनेट में उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया क्योंकि बड़े पैमाने पर रिपब्लिकन उनके साथ बने रहे.
वोटिंग का आखिरी नतीजा 57-43 का रहा. सीनेटरों के 57 वोट उनके ख़िलाफ़ पड़े तो 43 वोट उनके पक्ष में पड़े. इस तरह से जरूरी दो तिहाई बहुमत से 10 वोट उनके ख़िलाफ़ कम रहे और वो दोषी करार नहीं दिए गए.
यह प्राथमिक स्तर पर उनके लिए एक जीत रही. वो अब भी दोबारा अगर लड़ना चाहे तो 2024 में चुनाव लड़ सकते हैं.
उनका आधार अब भी उनके साथ बना हुआ है. संसद के दोनों ही सदनों प्रतिनिधि सभा और सीनेट में ज्यादातर रिपब्लिकन उनके ख़िलाफ़ महाभियोग चलाए जाने के ख़िलाफ़ रहे हैं. जिन रिपब्लिकन ने ऐसा नहीं किया है, उन्हें कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी है.
प्रेस को दिए एक बयान में पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने खुद को बरी किए जाने पर खुशी जाहिर की है और डेमोक्रेट्स की आलोचना की है. उन्होंने कहा है कि उनकी राजनीति अब शुरू हुई है.
हालांकि ट्रंप पूरी तरह से इस सुनवाई से बेदाग निकल गए हो ऐसा भी नहीं है. अभियोजन पक्ष की ओर से जो नए वीडियो पेश किए गए, उसमें ट्रंप के समर्थक 'अमेरिका को फिर से महान' बनाने वाली टोपी और ट्रंप के समर्थन वाले झंडों के साथ कैपिटल हिल में तोड़फोड़ करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं.
ये तस्वीरें हमेशा के लिए अब ट्रंप की छवि के साथ जुड़े चुकी हैं. अब जब कभी भी वो किसी तरह का राजनीतिक नेतृत्व करेंगे तो इस हिंसा की यादें ताज़ा होंगी.
यह भले ही रिपब्लिकन पार्टी के अंदर उनकी स्थिति को कमजोर ना करे लेकिन निष्पक्ष वोटरों और समर्थकों के जेहन से शायद ही ये बाद कभी जाए.
एक साल पहले सिर्फ़ एक रिपब्लिकन सीनेटर ने उनके ख़िलाफ़ वोटिंग की थी. लेकिन इस बार छह और रिपब्लिकन्स ट्रंप की मुखालफत में उनके साथ आ गए हैं. यह कोई इत्तेफाक़ की बात नहीं हैं हालांकि जिन सीनेटरों ने पार्टी से अलग जाकर स्टैंड लिया है, उनमें से सुसान कोलिंस, बेन सैसे और बिल कैसिडी दोबारा से चुन कर आए हैं और उन्हें छह सालों तक अपने वोटरों का सामना करने की नौबत नहीं आएगी.
दो अन्य पेंसिल्वेनिया के पैट टूमी और उत्तरी कैरोलिना के रिचर्ड बर रिटायर हो रहे हैं.
लेकिन इससे कई रिपब्लिकन के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है क्योंकि इससे रिपब्लिकन पार्टी के प्राथमिक वोटर नाराज़ हो सकते हैं. वे ट्रंप को दोषी साबित करने के लिए किए गए वोट को ट्रंप के ख़िलाफ़ धोखे के तौर पर ले देखेंगे. जो रिपब्लिकन के हिसाब से सुरक्षित माने जाने वाले राज्यों में हैं, उनके ऊपर अपने डेमोक्रेट्स प्रतिद्वंदवियों की तुलना में और दबाव होगा.
फ्लोरिडा, विस्कॉन्सिन और आयोवा जैसे स्विंग स्टेट्स में अगले साल फिर से होने वाले चुनावों में रिपब्लिकन सीनेटर्स को डेमोक्रेट्स उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
उस वक्त कैपिटल हिल में हुई हिंसा और उससे जुड़े वीडियो की बातें किसी के ख्याल में आ सकती हैं.
बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करने वाला है कि ट्रंप आगे क्या करते हैं. क्या वो दोबारा से अमेरिका की राजनीति में पूरी तरह से सक्रिय होते हैं या फिर खुद को प्राइवेट क्लब की ज़िंदगी और गोल्फ कोर्स तक महदूद रखते हैं?
हर रिपब्लिकन सीनेटर का सीनेट में वोट देने का अपना राजनीतिक गुणा-भाग रहा होगा. उन्होंने पार्टी को नाराज़ करने के जोखिम और आम चुनावों में आए फैसले के मद्देनज़र कोई निर्णया लिया होगा. इसमें से खासतौर पर एक सीनेटर का व्यवहार लोगों के नज़र में रहा है.
उनका नाम हैं मिच मैककोनेल. वो सीनेट में अपने दल के नेता है. वो हफ़्तों से 6 जनवरी की घटना को लेकर डोनाल्ड ट्रंप के आलोचक रहे हैं. हालांकि इस बात को लेकर असमंजस बना हुआ था कि वो महाभियोग की सुनवाई के दौरान आखिरकार किस तरफ वोट करेंगे. शनिवार को उन्होंने अपने साथी सीनेटरों को बताया कि वो ट्रंप को बरी करने के पक्ष में वोट करेंगे.
लेकिन जब उन्होंने वाकई में ऐसा ही किया तब बताया कि ऐसा उन्होंने क्यों किया. उन्होंने ट्रंप के व्यवहार की आलोचना की और कहा कि उन्होंने "अपने कर्तव्य का अपमानजनक तरीके से निर्वहन किया है."
मिच मैककोनेल ने कहा, "इसमें कोई शक नहीं कि उस दिन जो घटना हुई, उसके लिए ट्रंप नैतिक रूप से जिम्मेवार हैं."
लेकिन ट्रंप के निर्दोष होने के पक्ष में वोटिंग करने पर उन्होंने कहा कि पूर्व राष्ट्रपति पर महाभियोग की सुनवाई नहीं होनी चाहिए थी. उन्होंने कहा कि अगर इस तरह का मिसाल अपनाया जाता है तब किसी भी आम नागरिक को संसद के द्वारा किसी सार्वजनिक भूमिका के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है.
ट्रंप को लेकर मैककोनेल की आलोचना को खुद को बचाने के एक तरीके के तौर पर देखा जाएगा ना कि किसी सैद्धांतिक रुख के तौर पर. उनके इस कदम से वो पार्टी में बहुमत के खिलाफ जाने से भी बच गए.
यह मिच के लिए भी एक सुरक्षित रास्ता है. अब समय बताएगा कि उनके रिपब्लिकन साथी उनकी आलोचना को लेकर नहीं तो कम से कम सुनवाई से तो संतुष्ट हुए.
डेमोक्रेट्स
अपने करियर के ज्यादातर वक्त में प्रतिनिधि सभा के सदस्य गुमनामी में ही रहते हैं. सदन के 435 सदस्यों में से कुछ को ही राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह से अपनी पहचान बनाने का मौका मिलता है जैसा कि इस बार महाभियोग के प्रस्ताव की सुनवाई के दौरान कुछ सीनेटर्स के साथ देखने को मिला.
पांच दिनों तक चली इस सुनवाई में नौ सदस्यों की एक टीम ने शानदार ढंग से अपनी बात रखी. इस दौरान उन्होंने छह जनवरी के दिन की वीडियोज भी सदन में रखे. उन्होंने इसके लिए मैप का सहारा लेकर भी बताया कि उस दिन भीड़ अमेरिकी नेताओं के कितने करीब पहुँच गई थी. इन नेताओं में उप-राष्ट्रपति माइक पेंस भी शामिल थे.
इस दल का नेतृत्व करने वाले जैमी रैस्किन को सुनवाई की शुरुआत बेहद भावनात्मक संबोधन से करने के लिए याद किया जाएगा. उनका गला इस संबोधन के दौरान उस समय रुंध गया था जब वो कैपिटल हिस से निकलने के बाद अपनी 24 साल की बेटी से हुई बातचीत का प्रसंग सुना रहे थे.
इसके बाद जैसे बाकी के पांच दिनों में उन्होंने अभियोजन पक्ष का नेतृत्व किया वो उनके अमेरिकन यूनिवर्सिटी में संवैधानिक क़ानून के प्रोफेसर होने की पृष्ठभूमि को दर्शाने वाला था.
दूसरी बार संसद में आए जो नगुसे को डेमोक्रेटिक पार्टी की राजनीति में एक उभरते हुए नेता के तौर पर देखा जा रहा है. उन्होंने जिस तरह से अपनी बात रखी है, उसने इस धारणा को देश के सामने और मज़बूत ही किया है.
इस टीम की ओर से सबसे बड़ी सरप्राइज पैकेज स्टैसी प्लास्केट रहीं. वो अमेरिकी वर्जिन आइलैंड से हैं.
एक वोट नहीं देने वाली प्रतिनिधि के तौर पर उनका संसद में प्रभाव भले ही कम है लेकिन उन्होंने पूरी सुनवाई के दौरान यादगार दलीलें दी हैं. डेमोक्रेट्स संसद में उनके इस प्रदर्शन के बाद वर्जिन आइलैंड को राज्य का दर्जा देने को लेकर लामबंद हो सकते हैं.
अभियोजन पक्ष का नेतृत्व करने वालों के ख़िलाफ़ जो एक बात जाती है वो यह था कि वो प्रमाण जुटाने की कोशिश को लेकर अनियमित थे. शानदार शुरुआत करने के बाद ट्रैक से उतर जाने से कइयों को कड़वे अनुभव हुए होंगे.
मौजूदा राष्ट्रपति ने पूर्व राष्ट्रपति के महाभियोग के प्रस्ताव पर सुनवाई को लेकर दूरी बना रखी थी. व्हाइट हाउस के अधिकारियों ने बताया कि वो इस पूरी प्रक्रिया में कोई खास दिलचस्पी नहीं ले रहे थे. पूरी सुनवाई के दौरान वो कोरोना वायरस से जुड़े कार्यक्रमों में व्यस्त रहे.
बाइडन की टिप्पणी सिर्फ़ कैपिटल हिल की हिंसा से जुड़े नए वीडियो पर आई जिसे बार-बार टेलीविजन पर दिखाया जा रहा था. बाइडन प्रशासन का मानना है कि उनकी राजनीति की किस्मत इस बात पर निर्भर करेगी कि वो कितनी कामयाबी से इस महामारी से निपटते हैं.
इसके अलावा वो अर्थव्यवस्था और अमेरिका के दूसरे मुद्दों से कैसे निपटते हैं. ट्रंप के महाभियोग की सुनवाई से उनकी राजनीति पर कोई असर नहीं पड़ने वाला.
इस सुनवाई का जो बाइडन के सदन के एजेंडे पर बहुत कम प्रभाव पड़ा. सीनेट को अपनी सामान्य कार्यवाही सिर्फ़ तीन दिनों तक बंद करनी पड़ी. चैम्बर बाइडन के कोविड राहत कोष को तब तक अनुमति नहीं दे सकता जब तक कि सदन उसे पारित नहीं करता. इस चक्कर में एक हफ्ता गुजर चुका है.
सुनवाई खत्म होने के बाद अब सीनेट बाइडन प्रशासन की नियुक्तियों पर मुहर लगाएगा. इसमें अटॉर्नी जनरल के लिए नामित मेरिक गारलैंड भी शामिल हैं.
बाइडन प्रशासन और उनकी टीम इस प्रगति को लेकर अब खुश होंगे. हालांकि बाइडन के एजेंडे के साथ आगे बढ़ने की क़ीमत ट्रंप पर पूरी तरह से नकेल नहीं कसने को लेकर चुकानी पड़ रही है. उदाहरण के तौर पर बिना गवाहों के जल्दी में की गई सुनवाई की वजह से राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ सकती है.
आगे की राजनीतिक लड़ाई के लिए बाइडन को एक एकजुट डेमोक्रेटिक पार्टी की जरूरत होगी. लेकिन इस महाभियोग की सुनवाई के बाद पार्टी में दरार पड़ने की शुरुआत हो सकती है.
ब्रुस कैस्टर को डोनाल्ड ट्रंप के क़ानूनी टीम का मुख्य वकील माना जाता है. उन्होंने उस पुरानी कहावत को चरितार्थ किया है कि किसी को परखने के लिए 'बुरे प्रचार जैसा कुछ नहीं होता.'
पूर्व राष्ट्रपति के बचाव की शुरुआत उन्होंने एक लंबे और थकाऊ भाषण से की जिसकी वजह से ही हो सकता है कि लुइसियाना के बिल कैसिडी डेमोक्रेट्स की ओर चले गए.
इसके बाद डोनाल्ड ट्रंप के नाखुश होने की रिपोर्ट्स के बीच कैस्टर पीछे चले गए और उनकी जगह माइकल वान डेर वीन ने ले ली. माइकल ने पूर्व राष्ट्रपति की राजनीति को लेकर अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से अपनी बात रखी. वो महाभियोग के सूत्रधारों का जिक्र करते हुए अक्सर उन पर व्यंग्य करते हुए नज़र आए.
आखिरकार वो सुनवाई को और लंबा खींचने की संभावना को कमजोर करने में कामयाब करते हुए दिखे और इसे जल्द निपटा कर एक संतोषजनक निष्कर्ष पर निकाल लाए.
वकीलों का आखिरकार उनकी जीत और हार से ही मूल्यांकन किया जाता है और इकल वान डेर वीन, कैस्टर और उनके साथी वकील अपने मुवक्किल को बचाने में कामयाब रहे.
वो मानते हैं कि उस दौर में हुए दूसरे युद्ध की तुलना में ये युद्ध सबसे बड़े युद्ध की लिस्ट में शामिल नहीं है लेकिन वो उन्हे यक़ीन है कि कई लोग इस युद्ध को कभी भूल नहीं पाएंगे. (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इंदौर पहले से ही देश का सर्वाधिक स्वच्छ शहर लगातार कई बार घोषित हो चुका है। यहाँ के व्यापारियों ने मिलावटखोरी के विरुद्ध जो शपथनामा भरा है, उसने भी सारे देश को नई दिशा दिखाई है और अब राजनीति की दृष्टि से भी एक और उल्लेखनीय काम यहाँ हो गया है। अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जो सीख कभी गांधीजी, नेहरूजी, लोहियाजी, श्रीपाद डांगेजी, दीनदयाल उपाध्यायजी आदि दिया करते थे, वही सीख मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने अपने भाजपा कार्यकर्ताओं को दी है। वे आजकल अपने कार्यकर्ता शिविर की खातिर उज्जैन और इंदौर में प्रवास कर रहे हैं। चौहान ने अपने मंत्रियों और विधायकों से इस समस्या पर तो खुला विचार-विमर्श किया ही कि वे पिछला चुनाव क्यों हारे लेकिन उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को सफलता, लोकप्रियता और जन-सेवा के जो गुर बताए हैं, वे सिर्फ भाजपा ही नहीं, देश की सभी पार्टियों के लिए अनुकरणीय हैं।
उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया है कि वे जनता से अपना सीधा संपर्क बढ़ाएँ। उन्होंने मंत्रियों और विधायकों से कहा है कि वे अपने निजी सहायकों (पीए आदि) से सतर्क रहें, क्योंकि उनके अहंकार का गुब्बारा उनमें अपने स्वामी से भी ज्यादा फूल जाता है। चाय से ज्यादा गर्म केटली हो जाती है।
याने अपने सहायकों को नेता लोग विनम्रता और ईमानदारी सिखाएं। कई देशी और विदेशी प्रधानमंत्रियों को अपने सहायकों के भ्रष्ट और फूहड़ आचरण के कारण बहुत बुरे दिन देखने पड़े हैं। चौहान ने बिचौलिए और दलालों से भी सावधान रहने के लिए कहा है। आजकल यह ‘लाएसाँ’ नामक बड़ा धंधा बन गया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मंत्रियों से कहा है कि वे भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए प्रति सप्ताह कुछ घंटे सीधे संवाद के लिए निकाला करें। मैं कहता हूँ कि वे आम जनता से भी सीधे उनके दुख-दर्द सुनने का समय क्यों नहीं रोज निकालते ? यदि यही काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करें, चाहे सप्ताह में एक बार ही करें, तो भी देश की जनता बड़ी राहत महसूस करेगी। जरा याद कीजिए, इंदिरा गांधी के ‘जनता दरबारों’ को। वह प्रधानमंत्री का नहीं, जनता का दरबार होता था। ‘जनता के दरबार’ में प्रधानमंत्री खुद पेश होती थीं। यदि मोदी इसे करेंगे तो देश के सभी पार्टियों के मुख्यमंत्री भी यह काम जोर-शोर से करने लगेंगे। भारत का लोकतंत्र बहुत ही स्वस्थ और सबल बनेगा।
नौटंकियों के बिना राजनीति को चलाना बहुत मुश्किल है। वे चलती रहें लेकिन उनके साथ-साथ जनता (और पत्रकारों) के साथ यदि आपका सीधा संवाद नहीं है तो आपकी सरकार कैसे पैंदे में बैठती जा रही है, यह आपको पता ही नहीं चलेगा। सरकारें जो जनहितकारी श्रेष्ठ काम करती हैं, उन पर सीधे जनता की प्रतिक्रिया सुनें तो क्या प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के सीने खुशी से फूलने नहीं लगेंगे ? उनमें विशेष उत्साह जागृत नहीं हो जाएगा ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
किशोर नरेंद्र की रायपुर यात्रा
-रमेश अनुपम
कोतवाली की स्थापना अंग्रेजों द्वारा सन् 1802 में ही हो चुकी थी। यहीं रायपुर कचहरी संचालित होती थी। कानूनी मुकदमेबाजी भी यहीं निपटाए जाते थे। जिसके चलते भूतनाथ डे ने कोतवाली के नजदीक ही घर खरीद लिया था। कचहरी घर से एकदम पास होने के कारण उन्हें आने-जाने में काफी सहूलियत होती थी। इसलिए वे विश्वनाथ दत्त के परिवार के लिए भी पास में ही कोई मकान किराए पर लेना चाहते थे।
भूतनाथ डे और विश्वनाथ दत्त के कारण डे भवन उन दिनों बांग्लाभाषी भद्र लोगों का केंद्र बिंदु बन चुका था। प्राय: सांयकाल होते-होते डे भवन भद्र बंगालियों का अड्डा बन जाता था।
तारादास बंद्योपाध्याय, कैलाशचंद्र बंद्योपाध्याय, बिनोद बिहारी राय चौधुरी, केदारनाथ बागची, पंचानन भट्टाचार्य तथा मन्मथनाथ सेन जैसे भद्र लोग उन दिनों डे भवन में सांयकाल जुटा करते थे।
उन दिनों बीस हजार की आबादी वाले रायपुर शहर में इने-गिने ही बंगाली समाज के लोग हुआ करते थे। जिनमें से तारादास बंद्योपाध्याय, कैलाश चंद्र बंद्योपाध्याय, बिनोद बिहारी राय चौधुरी, केदारनाथ बागची, पंचानन भट्टाचार्य तथा मन्मथनाथ सेन प्रमुख थे।
किशोर नरेंद्र के रायपुर प्रवास के दिनों में तारादास बैनर्जी उनके सबसे घनिष्ठ एवं आत्मीय मित्र हुआ करते थे। तारादास बैनर्जी डॉक्टर यू. डी.बैनर्जी के मंझले भाई थे। नरेंद्र और तारादास एक साथ घूमते, विभिन्न विषयों पर बातचीत करते, दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे। दोनों मित्र ज्ञान-विज्ञान के अलावा धर्म तथा दर्शन में भी रुचि रखते थे।
रायपुर आने के पश्चात् नरेंद्र में जिस बदलाव को उनके परिवार के सदस्यों द्वारा लक्ष्य किया गया वह था कोलकाता की तुलना में शारीरिक एवं मानसिक रूप से नरेंद्र का पहले से कहीं अधिक हृष्ट-पुष्ट होना। कहा जाए तो रायपुर की जलवायु और वातावरण सबसे अधिक नरेंद्र को ही रास आया था।
कोलकाता में प्राय: वे उदर रोग से पीडि़त होने के कारण अपने बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। रायपुर आने के कुछ दिनों पश्चात् ही उनका यह रोग दूर हो गया था और वे पूर्णत: रोग मुक्त हो गए थे। यह सब के लिए चकित करने वाला प्रसंग था।
तब रायपुर हर तरह के प्रदूषण से मुक्त हरे-भरे वृक्षों से घिरा हुआ एक सुरम्य शहर हुआ करता था और डे भवन साहित्य एवं संस्कृति का अभिनव केंद्र था।
मस्तिष्क और हृदय के लिए डे भवन उर्वर खाद का कार्य कर रहा था, तो शरीर के लिए रायपुर की उत्तम जलवायु उन दिनों किशोर नरेंद्र के लिए उपयोगी साबित हो रही थी। ये दोनों ही किशोर नरेंद्र के समग्र विकास के लिए बेहद जरूरी संसाधन थे ।
इस तरह रायपुर में रहते-रहते ही किशोर नरेंद्र के भीतर भविष्य के स्वामी विवेकानन्द की रूपरेखा का आविर्भाव होना प्रारंभ हो चुका था।
एक नया और सुवासित पुष्प खिलने के लिए लगभग तैयार हो चुका था, जिसके मधुर सुवास से संपूर्ण विश्वरूपी उपवन सुवासित होने वाला था।
संपूर्ण विश्व को अपनी उज्ज्वल किरणों से आलोकित करने वाले एक नए सूर्य के उदय की पृष्ठभूमि का सूत्रपात भी रायपुर में रहते हुए ही संभव होने लगा था ।
डे भवन में तीन माह बीतते न बीतते विश्वनाथ दत्त के परिवार को वह घर कुछ छोटा प्रतीत होने लगा था। डे भवन के ऊपर के दो कमरों में विश्वनाथ दत्त की भरी पूरी गृहस्थी समा नहीं पा रही थी।
परिवार के पांच लोगों का गुजर-बसर वहां हो पाना मुश्किल जान पड़ रहा था।
घर आने-जाने वालों तथा अड्डेबाजी के लिए भी एक अलग कमरे की व्यवस्था डे भवन में संभव नहीं हो पा रही थी। बंगाल तथा बंगाल से बाहर बसे बंगालियों में अड्डेबाजी की एक खास परम्परा होती है। आपस में मिल बैठकर ‘चा’ के साथ राजनीति, साहित्य, कला तथा संस्कृति पर गंभीर बहसें होती हैं।
इस अड्डेबाजी के बिना बांग्ला भाषियों की कल्पना ही असंभव है।
सो तय हुआ कि विश्वनाथ दत्त और उनके परिवार के लिए कहीं कोई अलग से एक ऐसे मकान की व्यवस्था की जाए जो सर्व सुविधा युक्त भी हो, साथ ही कोतवाली एवं डे भवन से ज्यादा दूर भी न हो।
कोतवाली की स्थापना अंग्रेजों द्वारा सन् 1802 में ही हो चुकी थी। यहीं रायपुर कचहरी संचालित होती थी। कानूनी मुकदमेबाजी भी यहीं निपटाए जाते थे। जिसके चलते भूतनाथ डे ने कोतवाली के नजदीक ही घर खरीद लिया था। कचहरी घर से एकदम पास होने के कारण उन्हें आने-जाने में काफी सहूलियत होती थी। इसलिए वे विश्वनाथ दत्त के परिवार के लिए भी पास में ही कोई मकान किराए पर लेना चाहते थे।
यह सत्य है कि डे भवन में विश्वनाथ दत्त तथा उनका परिवार केवल तीन-चार महीने ही रहा है। अर्थात् किशोर नरेंद्र का डे भवन में प्रवास केवल तीन-चार माह का रहा है।
रायबहादुर भूतनाथ डे की धर्मपत्नी श्रीमती एलोकेसी डे ने पुष्पमाला देवी को दिए गए अपने साक्षात्कार में भी यह स्वीकार किया है कि ‘विश्वनाथ बाबू केवल तीन महीने ही डे भवन में रहे हैं।’ इस तरह यह कहा जाना विश्वनाथ दत्त अपने परिवार सहित डे भवन में छह माह या दो वर्ष तक रहे हैं उचित प्रतीत नहीं होता है।
सत्य यह है कि विश्वनाथ दत्त अपने परिवार के साथ शुरुआती दौर के तीन महीने तक ही डे भवन में निवासरत रहे हैं।
तीन महीने के पश्चात् उन्हें डे भवन छोडक़र एक अन्य मकान को किराए पर लेना पड़ा था। इस मकान को किराए से लेने में भूतनाथ डे की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
(बाकी अगले रविवार)
-कनक तिवारी
चुनावी बांड के मामले में अगर गोगोई आम चुनाव के पहले कोई फैसला करते तो पता नहीं किसकी सरकार बनती। राफेल विमान के मामले में कोई दूसरा फैसला होता तो? सबरीमाला मामले को पांच सदस्यों की संविधान पीठ में भेज दिया। राम मंदिर, बाबरी मस्जिद में एक पक्ष से सबूत मांगे। दूसरे पक्ष को कहा उनकी आस्था का मामला है। चार न्यायाधीशों ने तो उनके खिलाफ प्रेस कॉंफ्रेंस की। वह सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में कभी नहीं हुआ। उसमें भी मामला जस्टिस लोया की हत्या का था।
राज्यसभा सदस्य बन जाने की लालच में जस्टिस गोगोई भूल गए कि कुछ अरसा पहले उन्होंने खुद कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के जज के रिटायर होने के बाद यदि उसे किसी सरकारी मदद से पद लाभ होता है, तो वह तो उसकी न्यायिक स्वतंत्रता पर एक तरह से कलंक होगा। इसी सिलसिले में प्रख्यात अध्येता मधु किश्वर ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी कि यह नियुक्ति अवैध, संवैधानिक और अनैतिक है। उन्होंने कई मुद्दों का स्पर्श किया।
उन्होंने लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 की धारा का उल्लेख करते बताया कि लोकपाल में जो भी सदस्य नियुक्त होंगे (जिनके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज होंगे और सदस्य हाईकोर्ट के वर्तमान जजों में से भी हो सकते हैं। वे सब अधिकतम 70 वर्ष या 65 वर्ष तक जो भी अवधि प्रावधानित है) कार्यरत होंगे। उसके बाद सरकार उन्हें और किसी पद का लाभ नहीं दे सकती। यह इस अधिनियम में प्रावधान है।
तब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को एक असाधारण लाभ कैसे मिल सकता है? वे यह लाभ अपने जीवित रहने तक उठाते रहेंगे क्योंकि संविधान में सद्भावना के कारण संविधान सभा के सदस्यों ने इस तरह की कोई लिखित मुमानियत नहीं की थी। यह अलग बात है कि संविधान सभा की पूरी बहस को पढऩे के बाद साफ साफ नजर आता है कि राष्ट्रपति, सरकार और रंजन गोगोई के विवेक पर निर्भर रहा है कि उन्हें संविधान सभा के पुरखों की मंशाओं का आदर करना चाहिए था।
उनकी भ्रूण हत्या नहीं करनी चाहिए थी। अनुच्छेद 80 (3) कहता है राष्ट्रपति द्वारा खंड (1) के उपखंड (क) के अधीन नाम-निर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे, जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यवहारिक अनुभव है, अर्थात साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा। जस्टिस गोगोई इनमें से किस श्रेणी के लायक हैं, देश इसे पहले नहीं जानता था। इतिहास आगे भी नहीं जानेगा।
यह भी प्रसंगवश है:
सुप्रीम कोर्ट के जजों ने ही परंपरा बनाई कि रिटायर होने के बाद कुछ वर्षों तक (कम से कम 2 वर्षों तक) कोई भी पद सरकार से जुडक़र नहीं लेना चाहिए। वरना अवाम को लगेगा किसी अहसान का बदला चुकाया जा रहा है। लोग पिछले फैसलों की उधेड़बुन में लग जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट में ज्यादा मुकदमे तो सरकार को ही लेकर होते हैं।
12 जनवरी 2018 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यवाही से कथित तौर पर व्यथित होकर सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने साझा प्रेस कॉफ्रेंस की थी। उसमें जस्टिस जे.चेलमेश्वर, मदन बी लोकुर, रंजन गोगोई और कुरियन जोसेफ थे। रंजन गोगोई के राज्यसभा सदस्य बन जाने के कारण मदन लोकुर और जोसेफ कुरियन ने उनके खिलाफ बयान दिए हैं। कुरियन जोसेफ ने कहा है कि गोगोई ने यह पद स्वीकार कर संविधान के बुनियादी ढांचे के साथ छेड़छाड़ की है। उन्होंने अवाम के मन में न्यायपालिका के प्रति एक तरह का अविश्वास पैदा कर दिया है। ऐसा लग रहा था कि उनके किसी कृत्य से खतरा तो है लेकिन यह खतरा इतनी जल्दी आ जाएगा। इस तरह इसकी उम्मीद नहीं थी। कुरियन जोसेफ ने कहा हमने देश के हित में काम करना शुरू कर दिया था। पता नहीं रंजन गोगोई ने ऐसा क्यों किया।
जोसेफ कुरियन ने कहा कभी जस्टिस गोगोई ने नैतिक साहस दिखाया था। अब वह न्यायपालिका की गरिमा के साथ इस तरह समझौता कर चुके हैं। दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह और सेवानिवृत्त हाईकोर्ट जज आरएस सोढ़ी ने भी रंजन गोगोई के कदम की कड़ी आलोचना की है। 12 जनवरी 2018 की संयुक्त प्रेस कॉफ्रेंस के बाद गोगोई ने कहा था कि हम देश की जनता को अपना कर्ज चुका रहे हैं। हैरत की बात है ठीक इसके उलट कदम उठा लिया।
रंजन गोगोई के साथ यह भी तो है कि एक के बाद एक उन्होंने मोदी सरकार को अपने फैसले एक तरह से तोहफे के रूप में भेंट किए। फैसलों की पूरी दुनिया में आलोचना भी हुई है। कई फैसले तो कानूनी मान्यताओं और सिद्धांतों पर भी उतने खरे नहीं उतरते। जज का अलग दृष्टिकोण किसी मुद्दे को या मामले को समझने में हो सकता है लेकिन सैद्धांतिकता के मामले में कोई संशय नहीं होना चाहिए। वैसे भी असम के, एनआरसी के मामले में उन्हें उसी राज्य का होने की वजह से न्याय करने नहीं बैठना चाहिए था। लेकिन वह बैठे रहे और फैसला भी इस तरह से नहीं आया कि जिससे कोई न्याय की समझ को ताजा हवा का झोंका लगा हो या रोशनी मिली हो।
सुप्रीम कोर्ट के जज पद से हटने के बाद सामान्य नागरिक की हैसियत में आ जाते हैं। तब जो अधिकार नागरिक को अनुच्छेद 19 वगैरह में मिले हैं, उनका भरपूर फायदा उठा सकते हैं। साधारण नागरिक की तरह किसी पार्टी के टिकट पर भी चुनाव लड़ सकते हैं। लोकसभा तथा राज्यसभा में पार्टी के कोटे से मंत्री भी बन सकते हैं। कई पूर्व जजों ने ऐसा किया भी है। जस्टिस गोगोई का मामला अलग है। यहां तो सीधे-सीधे प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति के जरिए अहसान का बदला चुका दिया है।
चुनावी बांड के मामले में अगर गोगोई आम चुनाव के पहले कोई फैसला करते तो पता नहीं किसकी सरकार बनती। राफेल विमान के मामले में कोई दूसरा फैसला होता तो? सबरीमाला मामले को पांच सदस्यों की संविधान पीठ में भेज दिया। राम मंदिर, बाबरी मस्जिद में एक पक्ष से सबूत मांगे। दूसरे पक्ष को कहा उनकी आस्था का मामला है। चार न्यायाधीशों ने तो उनके खिलाफ प्रेस कॉंफ्रेंस की। वह सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में कभी नहीं हुआ। उसमें भी मामला जस्टिस लोया की हत्या का था।
-प्रकाश दुबे
शुक्रवार 12 फरवरी को दोपहर बाद वेब विमर्श में बाधा पहुंचाने का पुराना तथा परखा हुआ तरीका अपनाया गया। संघर्ष क्षेत्र में समाचार संकलन पर पहली वक्ता मालिनी सुब्रमण्यम अपनी बात शुरू करतीं उससे पहले अजीब आवाजें आनी शुरू हुईं। भोंडे गीत-संगीत के साथ अश्लील मुद्राओं वाली तस्वीर झलकने लगीं। विचार की चाह करने वालों को हमलावर अपने खजाने की अभद्रता परोसने लगे।
एक तरफ नक्सलवाद के नाम पर हिंसा और उसके मुकाबले अतिवादी संगठनों का सफाया करने की आड़ में कुछ स्वार्थी सरकारी महकमों के शोषण की घटनाएं कई दशक से हो रही हैं। टकराव और संघर्ष में फंसे इलाकों की वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित कर लोकतंत्र को मजबूत बनाने के दायित्व से संवाद माध्यम पीछे नहीं हट सकते। छत्तीसगढ़ की जेल में बंद पत्रकार माओवादी होने या उनसे संबंध रखने के नाम पर जेलों में बंद किए गए। आरोप की सत्यता जानने के लिए सरकार और स्वैच्छिक संगठनों के प्रयासों के बीच संपादकों की संस्था ने पहल की। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पत्रकार-प्रताडऩा की छानबीन के लिए एक तथ्यान्वेषण समिति भेजने का निर्णय किया।
चार पांच वर्ष पुरानी बात है। एडिटर्स गिल्ड के तीन सदस्यों की समिति ने जेल में बंद पत्रकारों से मुलाकात करने के साथ ही राजधानी रायपुर और प्रभावित क्षेत्र के अनेक पत्रकार संगठनों, संपादकों आदि से चर्चा की। पुलिस और प्रशासन का पक्ष जाना। समिति ने तत्कालीन मुख्यमंत्री डा रमन सिंह से भी मुलाकात की थी। राजधानी के शहर रायपुर में स्थानीय अखबारों के संपादकों ने शीर्ष अधिकारियों की मौजूदगी में वरिष्ठ नौकरशाहों ने पल्ला झाड़ते हुए कह दिया-गिरफ्तार लोग पत्रकार हैं ही नहीं। स्थानीय संपादकों ने मुख्यमंत्री के समक्ष अफसरों की गलतबयानी का भांडा फोड़ा।
स्पष्ट कहा- वे पत्रकार हैं। हमारे लिए समाचार भेजते हैं। पुलिस का वरिष्ठ अधिकारी पत्रकारों को धमकाता था। उसे शायद फर्जी एनकाउंटर और प्रताडऩा की खबरें भेजने वाले पत्रकारों को दुरुस्त करने के इरादे से ही तैनात किया गया था। इस पुलिस अधिकारी ने जगदलपुर में पत्रकार मालिनी के निवास पर जाकर उत्पात मचाकर परेशान करने के लिए फर्जी पत्रकार बना दिए। उन्हें सरकारी सहायता और मान दिया जाने लगा। परेशान मालिनी को छत्तीसगढ़ छोडऩा पड़ा। तथ्यान्वेषण समिति की जांच रपट सार्वजिनक होते ही गंभीर प्रतिक्रिया हुई। बंदी पत्रकारों को छोडऩा पड़ा। इसके साथ ही अनेक निरपराध आदिवासियों की मुक्ति का रास्ता आसान हुआ। प्रशासन और उनके आका शांत नहीं बैठे।
गिल्ड की तथ्य अन्वेषण रपट सार्वजनिक होने के कुछ दिन बाद कार्यसमिति के सदस्य और फैक्ट फांइंडिंग कमेटी के एक सदस्य विनोद वर्मा को छत्तीसगढ़ पुलिस ने दिल्ली में गिरफ्तार कर लिया। उन पर किसी मंत्री का चरित्र हनन करने की साजिश रचने का आरोप मढ़ा। मुख्यमंत्री तो विधानसभा चुनाव में सत्ता से जाते भये। पत्रकारों को दुरुस्त करने के काम पर लगाया गया पुलिस अधिकारी अभी सेवा में कायम है। मजे कर रहा है।
इस पृष्ठभूमि में डर कर नहीं बैठा जा सकता। संपादकों की संस्था ने फिर एक बार पहल की। महामारी के दौर में सार्वजनिक संवाद और संपर्क संभव नहीं है। इसलिए वेबिनार का सहारा लिया। वर्ष 2020 के अंतिम चरण में उपेक्षित पूर्वोत्तर की स्थिति पर चर्चा से शुरुआत की। पूर्वोत्तर के विशेषज्ञ पत्रकारों ने स्थिति का विश्लेषण किया। प्रयास की सराहना से उत्साह बढ़ा। कल शुक्रवार का विषय माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में पत्रकारिता की समस्या पर केन्द्रित था। गिल्ड के महासचिव संजय कपूर ने आरंभ में ही कहा था कि सीमा पर अपना पराया पहचाना जा सकता है। नक्सली क्षेत्रों में मित्र या शत्रु की पहचान नहीं हो सकती। पत्रकारिता के लिए इस विषम परिस्थिति में हर पल परीक्षा का क्षण है।
मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा आदि राज्यों में माओवादियों का प्रभाव है। कुछ क्षेत्रों में समाचार जुटाना, चुनाव कराना, विकास काम कराना मुश्किल होता है। इस समस्या पर विमर्श होता तो शासन, प्रशासन और पत्रकारिता समेत सबका भला होता। फैसल अनुराग, पी वी कोंडल राव, मिलिंद उमरे, तमेश्वर सिन्हा, पूर्णिमा त्रिपाठी ने इन क्षेत्रों में काम किया है। झारखंड-बिहार में फैसल की बेबाक, निष्पक्ष कलम का लोहा माना जाता है। अनसुनी आवाजें नाम से आरंभ की गई श्रंखला में उपेक्षित क्षेत्रों की स्थिति का विश्लेषण करने से पहले सुनियोजित शोरगुल से किसको परेशानी है? साइबर सेल पता लगा सकता है, यदि उसकी गहराई में जाकर जांच करने में दिलचस्पी हो। पत्रकार और संपादकों के साथ ही पाठक इतना समझ गए कि दो टूक राय देने में अड़ंगे आते हैं। गिल्ड संपादकों का अराजनीतिक संगठन है। इस प्रसंग को लेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर आक्रमण जैसा शोर मचाने का लाभ नहीं है। हाल ही में कुछ संपादक देशद्रोह के अभियुक्त बनाए जा चुके हैं। वैचारिक आयोजन में हुड़दंग मचाकर दखलंदाज क्या साबित करना चाहते थे?
संपादकों के कार्यक्रम को निशाना बनाने की हिमाकत यानी हैकर्स प्रहार पर अनेक जन सहानुभूति जताएंगे। रोने-कलपने जैसी कोई बात नहीं। हैकर्स तो कुछ मंत्रियों और मंत्रालयों तक के खाते हैक कर चुके हैं। संभवत: संचार मंत्री उनके निशाने पर आए थे। ऐसे में विचार का खाता उड़ाने यानी अकाउंट हैक करने या विचार पर अश्लील बमबारी की हरकत नई घटना नहीं है। नई बात यह है कि हुड़दंगिए निडर होकर आपके संवाद उपकरणों पर हमला करते हैं। देश के कानून और संविधान के प्रावधानों पर कुठाराघात करने के लिए अश्लील तस्वीरों का प्रयोग करते हैं। वह भी आदिवासियों के बीच सक्रिय रही महिला वक्ता के मुंह खोलने से भी पहले। अपराध रोकने में शासन की तकनीकी ताकत को अंगूठा दिखा सकते हैं। पिछले अनुभव से वे इस निष्कर्ष तक आसानी से पहुंच चुके हैं कि विचार पर कुठार चला कर बचने के तरीके खुले हैं। कलम, कंप्यूटर और कैमराजीवी पहले भी कीमत चुकाते आए हैं। अक्षर-विश्व में कदम रखते समय चेतावनी दी जाती है-इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। अफसोस उन सबको होगा, उनकी गर्दन लज्जा से झुकेगी जो अभिव्यक्ति की आजादी की कुर्बानी की बदौलत भाग्य विधाता बनते हैं। जो इसे बचाए रखने का वचन देते हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन के साथ लद्दाख में चल रहे सीमा-विवाद का अब हल होता नजर आ रहा है। बस, वह नजर आ रहा है। अभी हम यह नहीं कह सकते कि वह हल हो गया है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि पिछले साल मई में जब चीन के साथ हमारी मुठभेड़ हुई थी, तब टकराव पांच क्षेत्रों में हुआ था। दोनों देशों के बीच की जो वास्तविक नियंत्रण रेखा है, उसके आस-पास के वे चार इलाके ये हैं- (1) गोगरा पोस्ट का पेट्रोलिंग पांइट 17 ए (2) पीपी के पास हॉट स्प्रिंग (3) गलवान घाटी (4) देपसांग प्लेस !
इन पर अभी समझौता होना बाकी है। इन इलाकों में चीनी सैनिकों ने घुसपैठ कर ली थी। भारतीय और चीनी सैनिकों की मुठभेड़ में हमारे 20 जवान शहीद हुए और यह समझा जाता है कि चीनियों के लगभग 50 जवान मारे गए। अब रक्षा मंत्री राजनाथसिंह का संसद में बयान आया है कि चीन ने भारतीय जमीन खाली करना शुरु कर दिया है। यदि राजनाथसिंह की यह बात ठीक है तो मानना पड़ेगा कि नरेंद्र मोदी का यह बयान बिल्कुल गलत था कि चीन के फौजियों ने हमारी एक इंच जमीन पर भी कब्जा नहीं किया है। यदि ऐसा है तो क्या वे अपनी ही जमीन से पीछे हट रहे हैं और उस पर हमारे कब्जे को स्वीकार कर रहे हैं ? अभी तो सिर्फ पेंगांग झील क्षेत्र से दोनों सेनाओं ने पीछे हटने पर हाँ भरी है।
देखें, यह प्रारंभिक पहल भी ठीक से पूरी होती है कि नहीं? वास्तव में ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ (एलएसी) अवास्तविक है। उसे बताने के लिए न तो कोई दीवार खड़ी है, न तार लगे हैं, न कोई खाई है और न ही कोई नदी है। साल मैं सैकड़ों बार दोनों तरफ के सैनिक उसका उल्लंघन जाने-अनजाने करते रहते हैं। फिर भी 1962 के बाद से अब तक उस रेखा पर कभी कोई गंभीर मुठभेड़ नहीं हुई है। यह बात मैं हमेशा पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों और जनरलों को अपनी बातचीत के दौरान बताता रहा हूँ। यह बताकर उनसे मैं कश्मीर पर शांतिपूर्ण वार्ता चलाने की अपील करता रहा हूँ। अब जो भारत-चीन समझौते की शुरूआत हुई है, मुझे विश्वास है कि शेष सभी नुक़्तों पर भी समझौता हो जाएगा, क्योंकि चीन पर अमेरिका के बाइडन-प्रशासन का दबाव बढ़ता जा रहा है और चीनी सरकार पर वे चीनी कंपनियां भी दबाव डाल रही हैं, जो भारत से हर साल करोड़ों-अरबों रुपया कमाती हैं।
आप जऱा गौर करें कि लद्दाख मुठभेड़ पर मोदी ने जब-जब भाषण दिए, उनमें चीन का एक बार भी नाम नहीं लिया। क्या चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग ने मोदी के इस शी-प्रेम पर ध्यान नहीं दिया होगा ? क्या ही अच्छा हो कि दोनों मित्र सीधी बात करें और भारत-चीन संबंधों को पुन: पटरी पर ले आएँ।(अध्यक्ष, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
पिता और पुत्र के बीच होने वाला टकराव लंबे समय से रचनाकारों की दिलचस्पी का विषय रहा है। शेक्सपीयर के नाटकों से लेकर 'मुगल-ए-आज़म' और 'शक्ति' जैसी फिल्में हों, 'गांधी विरुद्ध गांधी' जैसा नाटक हो या तुर्गेनेव का 'पिता और पुत्र' जैसा क्लासिक उपन्यास हो। लोग इसे दो पीढ़ियों के जीवन मूल्यों के बीच टकराव की तरह देखते हैं। इतना लोकप्रिय होने की वजह शायद यह भी है कि ऐसा टकराव हर समय में और आम तौर पर हर परिवार में देखा जाता है। जरूरी नहीं कि इस टकराव में उतनी ही तल्ख़ी हो जैसी हम साहित्यिक रचनाओं या फिल्मों में देखते हैं, मगर हर परिवार में असमति के स्वर उठते ही रहते हैं।
इसकी एक बड़ी वजह जो मुझे समझ में आती है वह यह कि पिता की मौजूदगी में जब बेटा अपनी खुद की पहचान के प्रति सचेत होना आरंभ करता है तो वह अपने अवचेतन में हर उस चीज से बचना चाहता है, जिससे उसकी पहचान को उसके पिता की पहचान से जोड़ा जाए। पिता की पहचान से जोड़ा जाना ही दरअसल उसकी खुद की आइडेंटिटी के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए उसकी स्वतंत्र शख़्सियत हमेशा पिता के साथ असहमतियों पर टिकी होती है। आम तौर पर यह कान्फ्लिक्ट बड़े बेटे और पिता के बीच सबसे पहले आता है। क्योंकि तब तक पिता ने अपनी घरेलू और सामाजिक सत्ता छोड़ी नहीं होती है और बेटे का उस परिधि में प्रवेश हो रहा होता है। पिता का एकाधिकार और वर्चस्व कहीं न कहीं उसकी स्वतंत्र पहचान को बाधित कर रहा होता है।
यहां पिता का पक्ष समझना भी दिलचस्प होगा। पिताओं के बेटे जिस वक्त वयस्क हो रहे होते हैं, पिता को यह समझ में आने लगता है कि उनकी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा हमेशा वैसी नहीं रहने वाली कि वह उनकी ताकत से अपने आपको स्थापित किए रहें। लिहाजा वह कुछ 'टूल्स' और 'पिलर्स' का सहारा लेता है, जिनका निर्माण करना उन्होंने अपनी जवानी के संघर्ष के दिनों में सीखा है। ये 'टूल्स' अक्सर अकाट्य और कठोर सिद्धांतों के रूप में उनके जीवन में प्रवेश लेते हैं। वह अपने चारो तरफ एक सिस्टम एक तंत्र खड़ा करते हैं, जो उनकी चुकती हुई, क्षय की तरफ बढ़ती ऊर्जा को सहारा देते हैं।
किसी भी व्यवस्था, बिजनेस या निजी ज़िंदगी में जब सिस्टम का निर्माण होता है तो काम की प्रक्रिया आसान हो जाती है तथा समय और हालात के थपेड़ों से वह काफी हद तक अप्रभावित भी रहता है, मगर दूसरे स्तर पर यहां भी एक क्षय होना आरंभ हो जाता है। जब सिस्टम अपना लचीलापन खो देता है तो उसमें बदलते समय के अनुरूप खुद को बदलने की क्षमता भी खत्म हो जाती है। कहा जाता है कि अतीत में डॉयनासार पूरी सृष्टि में इतने शक्तिशाली हो गए कि यही उनके विनाश का कारण बन गया। वहीं छोटे सरिसृप या कीड़े-मकोड़े अनुकूलन के जरिए लाखों वर्षों से सरवाइव कर रहे हैं।
किसी काम को पहले से तय किए गए तरीके से ही किया जाएगा यह हर नई पीढ़ी में सबसे ज्यादा चिढ़ पैदा करती है। ऐसे किसी भी सिस्टम का निर्माण उसके वजूद को निरर्थक बता देता है। इसलिए युवा जिद करते हैं, जल्दीबाजी करते हैं और गलतियां करते हैं। वे हर उस काम को अपने तरीके से, अपनी छाप से करना चाहते हैं, जो अब तक किसी और के बताए तरीके से होता आया है। यही उनके भीतर की अपार ऊर्जा को बाहर निकलने का स्वाभाविक मौका देता है। यह इतना स्वाभाविक है कि अगर किसी नई पीढ़ी में बीते के प्रति असंतोष न हो तो हमें यह मानना चाहिए कि उसके विकास में ही कुछ दोष है।
आम तौर पर हमारे समाज में परवरिश की जितनी भी थ्योरी गढ़ी गई है, उसका सार यही होता है कि बच्चों को, युवाओं को, भावी पीढ़ी को उसी तरीके से विकसित करना है, जिसे पिछली पीढ़ियों ने समय की कसौटी पर खरा पाया है। इस तरह की धारणा गढ़ते समय में लोग यह भूल जाते हैं कि इस तरीके में आने वाली पीढ़ी की अपनी पहचान, उसकी खुद की रचनात्मकता के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं गई है। इसीलिए बहुत बार युवा उन मूल्यों के प्रति भी विद्रोह करता है जो वास्तव में अनुकरणीय होते हैं। सत्तर के दशक में युवाओं के बीच पनपा हिप्पी मूवमेंट इसकी दिलचस्प मिसाल है। इस काउंटरकल्चर की जड़ में उपभोक्तावाद, शहरी संस्कृति, बढ़ती औपरिकता का विरोध था मगर कालांतर में यह एक अराजक दर्शन में बदल गया, जिसमें नशीली दवाएं और यौन क्रांति शामिल हो गया।
परंपरा और नवीनता का सतत् सिद्धांत है कि हमेशा पुराने मूल्यों में जो श्रेष्ठ है उसे अगली पीढ़ी स्वीकार करती है और जो मूल्य समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं, उन्हें छोड़ दिया जाता है। मगर यह प्रक्रिया टकराव में ही अपना आकार लेती है। सवाल यह उठता है कि क्या इस टकराव और संघर्ष का कोई विकल्प भी है? मुझे लगता है कि सबसे पहले हमारे समाज में इस टकराव को अस्मिताओं के संघर्ष के रूप में देखना बंद करना चाहिए। पुरानी पीढ़ी यानी पिता को हमेशा यह खतरा महसूस होता है कि अगर उन्होंने नए पनपने का मौका दे दिया, उसे सामाजिक स्वीकृति दे दी तो वे खुद मिट जाएंगे। अपने जीवन के तीस-चालीस सालों में हासिल की गई सत्ता को वह इतनी आसानी से मिटने नहीं देना चाहते।
पुरानी कृषि और जमीन आधारित पारिवारिक व्यवस्था में यह पितृ सत्ता के रूप में दिखता था, वहीं आधुनिक समाज में पिछली पीढ़ी की यह 'जिद' उन्हें अकेलेपन की तरफ धकेल रही है, क्योंकि आधुनिक समाज व्यवस्था जिसमें हर 10 साल में बदल रही टेक्नोलॉजी का वर्चस्व है, युवाओं को ही पूरी अर्थव्यवस्था का केंद्र बना रहे हैं, पुरानी पीढ़ी अपने पुराने मूल्यों के साथ अकेली पड़ गई और हाशिये पर चली गई है। इसलिए यह मान कर चलें कि खासतौर पर भारतीय समाज में अस्मिताओं का यह संघर्ष और गहराने वाला है।
जो समस्या की जड़ है, वो यह है हमारी पूरी समाज व्यवस्था में दो पीढ़ियों के बीच सतत संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। प्राचीन भारतीय समाज जो उपनिषदों तथा पुराणों की कथाओं के माध्यम से हमारे सामने आता है, उसमें भी कठोर पितृसत्तात्मकता होने के बावजूद संवाद के बहुत से मौके खुले होते थे। हमारी युवा पीढ़ी के पास रिसेंट हिस्ट्री यानी कि तात्कालिक इतिहास का कोई एक्सेस नहीं है। हम एक ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं, जिसकी स्मृति बहुत क्षीण है। हम 10 साल से ज्यादा पुरानी बातों को भूलने लगते हैं। हम अपने श्रेष्ठतम प्रयासों, विचारों और व्यक्तियों का कोई आर्काइव नहीं बनाते। अतीत में भारतीय समाज अपने विचारों को एक सनातन शृंखला में बदलने का प्रयास करता था, जिसमें एक पीढ़ी अपने बाद वाली पीढ़ी को अपने मूल्य, विचार और अनुभव उत्तराधिकार में दे जाती थी। यह परंपरा 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भारतीय परिवारों में चलती रही।
वहीं पश्चिम में विचारों और अनुभवों को एक इंस्टीट्यूशन में बदल दिया गया। यानी कि उसका एक्सेस हर किसी के लिए था। इसलिए वहां पर विचारों को किताबों में, प्रयोगशालाओं में, विश्वविद्यालयों में बदलने की कवायद रही। इसीलिए वहां पर इंटैलेक्चुअल प्रॉपर्टी, पेटेंट और ज्ञान के सार्वजनिकीकरण जैसे मुद्दों पर बहस आरंभ हुई। हमारे समाज का कठोर जाति आधारित ढांचा ऐसा करने से रोकता था। यहां पर एक जाति अपने कारोबारी हुनर को गोपनीय बनाकर रखना चाहती थी, ताकि उसकी अपनी संतानें सुरक्षित रहें। यहां ज्ञान को सबके सीखने के लिए खुला छोड़ने की परंपरा रही ही नहीं।
हमने 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में जब पूरी तरह से ग्लोबल होते संसार से अपना नाता जोड़ लिया है तो हमें भी विचारों के सांस्थानिकरण की तरफ बढ़ना होगा। विचार और अनुभवों को इस तरह संचित करना होगा कि वह किसी कठोर सिस्टम में न बदलें बल्कि वह एक ज्यादा 'मुक्त समाज' में विचार, बहस और आलोचना के लिए उपलब्ध हों। इस तरह विचार, सिद्धांत और अनुभव पुरानी पीढ़ी के लिए 'सुरक्षा कवच' नहीं रहेंगे बल्कि एक सतत् प्रक्रिया का हिस्सा होंगे, हर पुरानी पीढ़ी युवाओं से सीखेगी और अपने अनुभवों को समृद्ध करेगी। युवा पिछले संचित ज्ञान में अपनी मौलिकता को जोड़कर उसे बेहतर बनाने में अपना योगदान देंगे। टकराव तब भी होंगे मगर वह समय का पहिया आगे की तरफ ले जाएंगे। (फेसबुक से)
-सांवर अग्रवाल
‘यह क्या एंटीबायोटिक है?’
पर्चे पर एक अंगुली ठिठकती है, एक प्रश्न दागती है!
‘नहीं, यह एंटीबायोटिक नहीं है।’
‘पर, मेरा बच्चा बिना एंटीबायोटिक के ठीक नहीं होता, बहुत बार आज़माया हुआ है। आप प्लीज लिख ही दीजिये।’
‘ मैं वायरल फीवर के लिये एंटीबायोटिक नहीं लिखता’
‘पर बहुत सारे डॉक्टर्स तो लिखते हैं’
‘मैं नहीं लिखता।’
‘फिर वे क्यों लिखते हैं?’
‘इस प्रश्न का जवाब देने के लिये तो वे ही उपयुक्त हैं’
‘वैसे तो मैं भी ज्यादा दवाइयों के फेवर में नहीं हूँ, पर हमारे फ्लैट के ऊपर एक आंटीजी रहती हैं वे हमेशा कहती हैं कि बच्चाों को जल्दी ठीक करने के लिये एंटीबायोटिक जरूरी होता है।’
‘वो आंटीजी डॉक्टर हैं?’
‘नहीं है, पर बच्चों का काफी अनुभव है उन्हें, प्लीज लिख दीजिये!’
‘मुझे क्षमा करें, मैं नहीं लिख पाऊंगा ’
‘मुझे मेरी किटी पार्टी वाली दोस्तों ने पहले ही आगाह किया था कि आप चाहे जो हो जाए एंटीबायोटिक नहीं लिखेंगे।’
‘मैंने एंटीबायोटिक के खिलाफ कोई जिहाद नहीं छेड़ा हुआ कि जो हो जाए पर एंटीबायोटिक नहीं लिखना है, मैं जो कर रहा हूँ उसकी जवाबदेही है मेरी।’
उसने मेरा पर्चा मेरी टेबल पर छोड़ा और ‘आती हूँ’ कहकर बिना फीस दिये निकल कर चली गई!
मैं ठगा सा देर तक उस पर्चे को घूरता रहा!
याद आया कि आज तो Rational antibiotics पर एक CME में जाना है! फिर स्पीकर का नाम देखा और घर लौट गया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इंदौर के कुछ प्रमुख व्यापारियों ने कल एक ऐसा काम कर दिखाया है, जिसका अनुकरण देश के सभी व्यापारियों को करना चाहिए। इंदौर के नमकीन और मिठाई व्यापारियों ने शपथ ली है कि वे अपने बनाए नमकीनों और मिठाइयों में किसी तरह की मिलावट नहीं करेंगे। वे इनमें कोई ऐसे घी, तेल और मसाले का उपयोग नहीं करेंगे, जो सेहत के लिए नुकसानदेह हो। यह शपथ मुंहजबानी नहीं है। 400 व्यापारी यह शपथ बाकायदा 50 रु. के स्टाम्प पेपर पर नोटरी करवाकर ले रहे हैं। इन व्यापारियों के संगठनों ने घोषणा की है कि जो भी व्यापारी मिलावट करता पाया गया, उसकी सदस्यता ही खत्म नहीं होगी, उसके खिलाफ त्वरित कानूनी कार्रवाई भी होगी। व्यापारियों पर नजर रखने के लिए इन संगठनों ने जांच-दल भी बना लिया है लेकिन मप्र के उच्च न्यायालय ने जिला-प्रशासन को निर्देश दिया है कि किसी व्यापारी के खिलाफ थाने में रपट लिखवाने के पहले उसके माल पर जांचशाला की रपट को आने दिया जाए।
एक-दो व्यापारियों को जल्दबाजी में पकडक़र जेल में डाल दिया गया था। नमकीन और मिठाई का कारोबार इंदौर में कम से कम 800 करोड़ रु. सालाना का है। इंदौर की ये दोनों चीजें सारे भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय हैं। इनमें मिलावट के मामले सामने तो आते हैं लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। महीने में मुश्किल से 8-10 ! लेकिन इन संगठनों का संकल्प है कि देश में इंदौर जैसे स्वच्छता का पर्याय बन गया है, वैसे ही यह खाद्यान्न शुद्धता का पर्याय बन जाए।
इंदौर के व्यापारी लगभग 50 टन तेल रोज वापरते हैं। इनमें से 40 व्यापारी अपने तेल को सिर्फ एक बार ही इस्तेमाल करते हैं। इस्तेमाल किए हुए तेल को वे बायो-डीजल बनाने के लिए बेच देते हैं। यदि सारे देश के व्यापारी इंदौरियों से सीखें तो देश का नक्शा ही बदल जाए। इंदौर के व्यापारियों ने अभी सिर्फ खाद्यान्न की शुद्धता का रास्ता खोला है, यह रास्ता भारत से मिलावट, भ्रष्टाचार और सारे अपराधों को लगभग शून्य कर सकता है। इसने सिद्ध किया है कि कानून से भी बड़ी कोई चीज है तो वह है-आत्म-संकल्प! देश के करोड़ों लोग शराब नहीं पीते, मांस नहीं खाते, व्यभिचार नहीं करते तो क्या यह सब वे कानून के डर से नहीं करते ? नहीं। ऐसा वे अपने संस्कार, अपने संकल्प, अपनी पारिवारिक पंरपरा के कारण करते हैं। यदि देश के नेता और नौकरशाह भी स्वच्छता की ऐसी कोई शपथ ले लें तो इस देश की गरीबी जल्दी ही दूर हो जाएगी, भ्रष्टाचार की जड़ों में म_ा डल जाएगा और भारत महाशक्ति बन जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह द्वारा 4 नवंबर 1979 को हुबली में किसान सम्मेलन में दिए गए भाषण के संपादित अंश
चौधरी चरण सिंह
हमारे साहित्य में एक दृष्टांत आया है कि एक शेर का बच्चा गलती से भेड़ और बकरियों के झुंड में पड़ गया। एक शेर आया तो भेड़ और बकरियों की तरह शेर के बच्चे ने भी भागना शुरू किया। शेर इस बच्चे को पकड़ कर एक कुएं के पास ले गया और यह कहा कि देखो, “मैं और तुम एक हैं। तुम भेड़ या बकरी नहीं हो। अपनी ताकत को पहचानो। तुम भी शेर के बच्चे हो। तुम भेड़ और बकरियों की तरह भागना बंद करो।” मेरा कहने का अर्थ यह है कि किसान इस देश का मालिक है लेकिन अपने स्वरूप को भूला हुआ है और अपने आपको गीदड़ और भेड़ समझकर भाग रहा है।
अंग्रेजों के जमाने में कांग्रेस ने एक किसान सभा कायम की थी और जैसे ही देश आजाद हो गया, तो मेरी राय यह थी कि किसान सभा की जरूरत नहीं है, क्योंकि उनको अंग्रेजों से लड़ना था। स्वराज हासिल हो गया तो जिम्मेदारी खत्म हो गई। मेरे कहने पर उत्तर प्रदेश की कांग्रेस कमेटी ने किसान सभा को उस समय बंद कर दिया था। मेरा खयाल यह था कि देश की जनता का बड़ा भारी अंश किसान है। कोई भी राजनीतिक दल उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह किसी भी राजनीतिक दल में जाए, उस दल के मालिक होंगे और हिन्दुस्तान के मालिक अंत में किसान ही होंगे, इसलिए किसानों को संगठन की जरूरत नहीं है। लेकिन 15 साल के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि मैंने गलती की। यह बात ठीक है कि किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है लेकिन वे असंगठित हैं।
गांधी जी कहते थे कि असली भारत गांव में रहता है। शहर में पैदा हुए जो लीडर हैं, जो नेता है, वे कितने ही गंभीर हों, कितने ही नेकनीयत हों, कितने ही ईमानदार हों, उनको आपकी तकलीफों का पता नहीं है। उन्हें आपके मनोविज्ञान का पता नहीं। आपकी कठिनाइयों का पता नहीं। उनको यह नहीं मालूम कि सिंचाई से क्या फायदा होगा। उनको भैंस और गाय में ही फर्क मालूम नहीं।
मैं अगर गांव वालों की बात करता हूं तो इसलिए कि मैं खुद एक किसान के घर पैदा हुआ हूं। मैं छप्पर छवाये मकान में पैदा हुआ, जो छप्पर कच्ची दीवार पर रखा हुआ था। वह खानदान किसानों का था और वे अपने जमीन के मालिक नहीं थे, काश्तकार थे। हमारे घर के सामने कच्चा कुआं था। खेतों के लिए भी और पीने के लिए भी उसी कुएं से पानी लिया जाता था। आदमी के संस्कार का असर उसके विचारों पर पड़ता है, शिक्षा का नहीं। मेरा बेटा किसान का बेटा नहीं है। उसे आपकी समस्याओं के बारे में नहीं पता।… इंजीनियरिंग पास करके चाहता था कि मैं उसे नौकरी दिलवाऊं। मैंने उससे कहा था, “चार सौ रुपए की नौकरी मिलती है। सरकार में जगह खाली है, उसे ले ले। लेकिन वह कहता था, “मुझसे पीछे रहने वाले लोगों को आज 800 रुपए की नौकरी मिल गई है। उन्हें सेठों की सिफारिश से नौकरी मिली है।” अब उसने मुझसे कहा कि उसे बाहर पढ़ने के लिए भेज दें। यूपी सरकार बाहर तकनीकी शिक्षा हासिल करने वाले लड़कों को दस हजार रुपए का कर्जा देती थी। मैंने वो कर्जा लेकर उसे दिया और वह चला गया, नौकर हो गया। अगर कल को वह प्रधानमंत्री हो जाए तो ठीक वही करेगा, जो जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा ने किया है।
मैं आपकी बात करता हूं। कोई परोपकार की बात नहीं करता। मेरी आत्मा का तकाजा है, मेरे संस्कारों का तकाजा है कि आपकी और गरीबों की बातों को जानूं और ये लीडर आपकी बातों को जानें। किसानों को अपनी ताकत पहचान लेनी चाहिए। हिन्दुस्तान तब तक नहीं उठेगा, जब तक किसानों की हालत अच्छी नहीं होगी। किसान की आमदनी का जरिया है खेती। खेती की पैदावार जितनी बढ़ेगी, उतने ही दूसरे धंधे बढ़ेंगे और देश मालदार होगा। जिस देश में किसानों की तादाद ज्यादा है वो देश गरीब हैं। दूसरे पेशा करने वाले लोगों की तादाद जब ज्यादा होती है तो वह देश मालदार होता है। इसीलिए अमेरिका सबसे मालदार देश है। 100 में से चार आदमी खेती करते हैं और 96 आदमी दूसरा पेशा करते हैं।
हमारे देश में जब अंग्रेज आए तो 100 में से 60 आदमी खेती करते थे और 25 आदमी उद्योग-धंधे में लगे हुए थे। अब 100 में 72 आदमी खेती करते हैं और 9 या 10 आदमी उद्योग-धंधे में लगे हुए हैं। तो जब अंग्रेज आए, हमारा देश मालदार था, अब देश गरीब है।
मैं जो बात कह रहा था वह बात बीच में रह गई। मैंने किसान सभा को बर्खास्त करवा दिया था। लेकिन 15 साल के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि किसानों को संगठन की जरूरत है। आखिर क्यों? जितने छोटे-छोटे वर्ग वाले लोग हैं, वे बहुत आगे बढ़ रहे हैं और गांव के लोग, आमतौर पर किसान, सबसे पीछे रह गए। जब अंग्रेजों के जमाने में हम उनकी खिलाफत करते थे, व्याख्यान देते थे, तो एक बात हमारे कहने की यह थी, हमारा यह तर्क था कि शहर में बड़े-बड़े सेठ बढ़ गए, मालदार आदमी बहुत बढ़ गए और गांव के लोग जो हैं वे कमजोर और गरीब हो गए। उन दोनों की आमदनी का फर्क बढ़ गया। हमने सोचा था कि स्वराज होगा तो हम इस अंतर को कम करेंगे लेकिन आपको सुनकर अचरज होगा कि बात उल्टी हो गई। सन 1950-1951 में अगर किसान की आमदनी 100 रुपए थी, तो शहर में रहने वाले गैर किसानों की आमदनी 175 रुपए थी। 1976-77 में क्या हुआ? 26 साल के स्वराज के बाद क्या किसान की आमदनी बढ़ी? जब अंग्रेज गए तो आम किसान की आमदनी 175-350 रुपए थी। तीस साल के स्वराज्य के बाद भी आमदनी 350 रुपए तक क्यों है?
रेलवे के लोग हड़ताल करते हैं, तो सरकार झुकती है। जो लोग जहाजों को लादते हैं या उससे सामान उतारते हैं, वे हड़ताल करते हैं तो सरकार झुकती है। जो लोग बिजली में काम करते हैं, वे हड़ताल करते हैं तो सरकार झुकती है। जो लोग बैंकों में काम कर रहे हैं, वे क्लर्क 1,700 रुपए पाते हैं... और तीन बजे क्लर्क रजिस्टर उठाकर रख देता है। उसे लगता है कि आज का मेरा काम खत्म हो गया। अगर दो घंटे और काम करते हैं तो बाइस रुपए घंटा ओवर टाइम मिलता है। क्लर्क 1,700 तनख्वाह की जगह चार-चार हजार रुपए पा रहे हैं। हमारे पास हवाई जहाजों का मेला है। उसके ड्राइवर को 1,350-1,400 रुपए महीने मिलता है। हवाई जहाज में जो लड़कियां रहती हैं, चाय आदि देने के लिए उन्हें 700 रुपए तनख्वाह मिलती है और 1,500 रुपए महंगाई भत्ता अलग से पाती हैं। वे कुल 2,200 रुपए पाती हैं। फिर भी हड़ताल होती है और सरकार झुकती चली जाती है।
किसान हड़ताल नहीं कर सकते। और न मैं चाहता हूं कि वे हड़ताल करें। लेकिन किसानों को अपना संगठन बनाना चाहिए। दुनिया में आज कोई किसी को संगठन के बिना पूछता नहीं है, चाहे उनकी मांग कितनी ही वाजिब क्यों न हो।
किसानों को कर्जा देने के लिए एक अलग बैंक होना चाहिए। अपने जितने बैंक हैं, सरकार की तरफ से वे दूसरे लोगों को कर्जा देते हैं। कायदे-कानून के मुताबिक, उनको किसानों को भी कर्जा देना चाहिए। लेकिन किसान चक्कर काटते रहते हैं। मान लो अन्य लोगों को बैंकों से 10 करोड़ रुपए नौ फीसदी ब्याज पर कर्जा मिलता है, तो एक करोड़ रुपए किसानों को भी कर्जा मिलना चाहिए। खेती करने वालों की तादाद 72 फीसदी है। इतने लोग जिस पेशे में लगे हुए हैं तो उस पेशे के विकास के लिए एक करोड़ रुपए और बाकी 28 फीसदी लोगों के लिए नौ करोड़ रुपए। इसमें किसी सरकार का कसूर नहीं है। आप शहर के बड़े आदमी को लीडर बना देंगे तो आपका सांसद और विधायक वहां जाकर कुछ नहीं करेगा। वह शहर के लोगों के पक्ष में खड़ा होगा।
समस्याएं अनेक हैं। उन समस्याओं का हल एकदम नहीं कर सकते। गांवों में सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों, बिजली आदि की कमी है। भ्रष्टाचार तब तक नहीं मिटेगा जब तक गांव के रहने वाले लड़के दिल्ली और कर्नाटक में जाकर राजसत्ता छीन नहीं लेंगे। बिना इसके चलने वाला नहीं। मैं कहना चाहता हूं कि उठो और जागो। अपनी ताकत को पहचानो। तुम्हें बहुत दिन हो गए सोते हुए। यह हिन्दुस्तान तुम्हारा है। केवल शहरों और पूंजीपतियों का नहीं। (downtoearth.org.in)
(पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह द्वारा 4 नवंबर 1979 को हुबली में किसान सम्मेलन में दिए गए भाषण के संपादित अंश)
-गिरीश मालवीय
किसी भी महत्वपूर्ण कार्य के लिए फंड जुटाने के लिए एक आदर्श तरीका क्या होता है ?
पूरी दुनिया में माने जाने वाला और अमल में लाए जाने वाला तरीका यह है कि पहले उस कार्य की एक अनुमानित लागत निकाल ली जाए और पब्लिक से उतने पैसे के दान की अपील की जाए और जैसे ही अनुमानित लागत जितनी रकम इकठ्ठी हो जाए दान देने की अपील तुरन्त वापस ले ली जाए।
यही एक आदर्श तरीका है भी और यही तरीका अपनाया भी जाता है ! लेकिन राम मंदिर के निर्माण के लिए जब चन्दा मांगा जा रहा है वहाँ सब उल्टा-पुल्टा है।
हम सभी जानते हैं कि अयोध्या में मंदिर का निर्माण देश की बड़ी निर्माण कंपनी लार्सन एंड टूब्रो कर रही है। इतनी बड़ी कंपनी है! कम्पनी हर प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत निकालती है। यहाँ भी पूरा नक्शा है, ‘ट्रस्ट के पास मंदिर का मॉडल है’ मंदिर निर्माण में कहां किस चीज का इस्तेमाल होना है पूरी डिटेल है।
मंदिर के पत्थरों पर सालों पहले से ही खुदाई चल रही हैं वे भी यहाँ लगने को तैयार है, मंदिर बनाने के लिए पत्थरों को तराशने का काम 50 फीसदी पूरा भी हो चुका है। ज्भूमि विवाद पर फैसला हो ही गया है, उत्तरप्रदेश सरकार पूरी अयोध्या में मंदिर प्रांगण के आसपास के क्षेत्रों में निर्माण कार्य करवा रही है।
अब सिर्फ मंदिर निर्माण में ही जो पैसा लगना है वो लगना है।
तो आखिर यह रकम कितनी होनी चाहिए इसका पूर्व अनुमान तो आसानी से लग जाना चाहिए!
हम खुद भी अगर अपने रहने के लिए घर बनवाते हंै तो रोड़ी गिट्टी, सरिया, सीमेंट, रेती आदि कितनी लगेगी? इसका इंजीनियर से अनुमान लगवाते हैं कि नहीं? और उस आधार पर एक अनुमानित लागत हमारे सामने आ जाती हैं।
तो मंदिर निर्माण की अनुमानित कीमत बताइये और उस रकम से 50 या 100 करोड़ ऊपर रक़म इक_ी हो जाए तो तुरंत देश भर में चन्दा इक_ा करने की प्रक्रिया रोक दी जाए ! लेकिन ऐसा होगा नहीं!
क्यो ंनहीं होगा ! यह पूछने में आपके धर्म द्रोही और गद्दार कहे जाने का खतरा है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 1989 में मंदिर का जो मॉडल बनाया गया था, जिस मॉडल की तस्वीरें अब तक दिखा-दिखा कर पब्लिक से पैसा इक_ा किया जा रहा था वह मॉडल विश्व हिंदू परिषद ने 30 साल पहले, गुजरात के आर्किटेक्ट चंद्रकांत भाई सोमपुरा से बनवाया था, जब पिछले साल राम मंदिर बनने की संभावना बनती देख आर्किटेक्ट चंद्रकांत भाई सोमपुरा से इस मंदिर की अनुमानित लागत पूछी गई तो उनका कहना था कि इस मंदिर के निर्माण पर 40 से 50 करोड़ का खर्च आएगा। सरयू नदी के समीप बनने वाले इस मंदिर की बुनियाद तैयार करने में करीब 8 माह लगेंगे। इसके बाद पत्थरों को लगाने का काम शुरू किया जाएगा।,
अगस्त में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया ही था तब ट्रस्ट सूत्रों के अनुसार राम मंदिर निर्माण पर करीब 300 करोड़ रुपये के खर्च आने की संभावना बताई गई थी, कुछ समय पहले राम मंदिर ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष स्वामी गोविंद देव गिरि ने कहा था कि इसकी लागत ‘कई सौ करोड़ रुपये’ होगी।
जब अनुमानित लागत आपके पास आ ही गई है तो जैसे ही एकाउंट में उतनी रकम इक_ा हो जाए तुरन्त चन्दा लेने पर रोक लगा दी जाए, लेकिन नहीं आपको तो कोरोना काल में वैसे ही बुरी तरह से आर्थिक परेशानियों में घिरे 10 करोड़ परिवारों पर दबाव बनाना है, उन्हें परेशान करना है। वैसे भी कई सौ करोड़ रुपये तो अब तक आसानी से इकठ्ठे हो गए हैं। यानी आपको जितनी रकम मंदिर निर्माण के लिए चाहिए वह तो जमा हो ही गई है तो तुरंत प्रभाव से यह चन्दा वसूली अभियान आप रोक क्यों नहीं देते ?
क्या मैं गलत कह रहा हूँ ?.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद की संसद से बिदाई अपने आपमें एक अपूर्व घटना बन गई। पिछले साठ-सत्तर साल में किसी अन्य सांसद की ऐसी भावुक विदाई हुई हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। इस विदाई ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के एक अज्ञात आयाम को उजागर किय। गुजराती पर्यटकों के शहीद होने की घटना का जिक्र करते ही उनकी आंखों से आंसू आने लगे। लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह हुई कि गुलाम नबी आजाद ने अपनी जीवन-यात्रा का जिक्र करते हुए ऐसी बात कह दी, जो सिर्फ भारतीय मुसलमानों के लिए ही नहीं, प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व की बात है। उन्होंने कहा कि मुझे गर्व है कि मैं एक हिंदुस्तानी मुसलमान हूँ। यही बात अब से 10-11 साल पहले मेरे मुँह से अचानक दुबई में निकल गई थी। मैंने अपने एक भाषण में कह दिया कि भारतीय मुसलमान तो दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मुसलमान है। दुबई में हमारे राजदूतावास ने एक बड़ी सभा करके वहाँ मेरा व्याख्यान रखवाया था, जिसका विषय था, भारत-अरब संबंध। उस कार्यक्रम में सैकड़ों प्रवासी भारतीय तो थे ही दर्जनों शेख और मौलाना लोग भी आए थे।
मेरे मुंह से जैसे ही वह उपरोक्त वाक्य निकला, सभा में उपस्थित भारतीय मुसलमानों ने तालियों से सभा-कक्ष गुंजा दिया लेकिन अगली कतार में बैठे अरबी शेख लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। उनकी परेशानी देखकर मैंने उस पंक्ति की व्याख्या कर डाली। मैंने कहा कि हर भारतीय मुसलमान की नसों में हजारों वर्षों से चला आ रहा भारतीय संस्कार ज्यों का त्यों दौड़ रहा है और उसे निर्गुण-निराकार ईश्वर का समतामूलक क्रांतिकारी इस्लामी संस्कार भी पैगंबर मुहम्मद ने दे दिया। इसीलिए वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मुसलमान है। यही बात गुलाम नबी आजाद ने संसद में कह डाली। उनका यह कथन सत्य है, यह मैंने अपने अनुभव से भी जाना है। दुनिया के कई मुस्लिम देशों में रहते हुए मैंने पाया कि हमारे मुसलमान कहीं अधिक धार्मिक, अधिक सदाचारी, अधिक दयालु और अधिक उदार होते हैं। लेकिन मैं भाई गुलाम नबी की दो बातों से सहमत नहीं हूं। एक तो यह कि वे खुश हैं कि वे कभी पाकिस्तान नहीं गए और दूसरी यह कि पाकिस्तानी मुसलमानों की बुराइयाँ हमारे मुसलमानों में न आए। पाकिस्तान जाने से वे क्यों डरे? मैं दर्जनों बार गया और वहां के सर्वोच्च नेताओं और फौजी जनरलों से खरी-खरी बात की। वे जाते तो कश्मीर समस्या का कुछ हल निकाल लाते। दूसरी बात यह कि पाकिस्तान में आतंकवाद, संकीर्णता और भारत-घृणा ने घर कर रखा है लेकिन ज्यादातर पाकिस्तानी बिल्कुल वैसे ही हैं, जैसे हम भारतीय हैं। वे 70-75 साल पहले भारतीय ही थे। निश्चय ही भारतीय मुसलमानों की स्थिति बेहतर है लेकिन दक्षिण एशिया के सबसे बड़े देश होने के नाते हमारा कर्तव्य क्या है? हमें पुराने आर्यावर्त के सभी देशों और लोगों को जोडऩा और उनका उत्थान करना है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बीते लगभग एक साल से भारत समेत पूरी दुनिया में कोरोना और इस महामारी के चलते मरने वालों के आंकड़े सुर्खियों में हैं. लेकिन भारत में सड़क हादसों में होने वाली मौतें इस आंकड़े को भी पीछे छोड़ रही हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने भी माना है कि सड़क हादसे कोरोना महामारी से भी खतरनाक हैं. देश में रोजाना ऐसे हादसों में 415 लोगों की मौत हो जाती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वर्ष 2030 तक सड़क हादसों में मरने और घायल होने वालों की तादाद घटा कर आधी करने का लक्ष्य रखा है. नितिन गडकरी ने कहा है कि सरकार उससे पांच साल पहले यानी 2025 तक ही इस लक्ष्य तक पहुंचने की दिशा में ठोस पहल कर रही है.
गडकरी के मुताबिक, देश में हर साल साढ़े चार करोड़ सड़क हादसों में डेढ़ लाख लोगों की मौत हो जाती है और साढ़े चार लाख लोग घायल हो जाते हैं. उन्होंने ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए तमाम राज्यों को तमिलनाडु मॉडल अपनाने की सलाह दी है. वहां हादसों में 38 फीसदी और इनमें होने वाली मौतों में 54 फीसदी की कमी दर्ज की गई है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि ऐसे हादसों में होने वाली मौतों की तादाद सरकारी आंकड़ों के मुकाबले ज्यादा है. दूर-दराज के इलाकों में होने वाले हादसों की अक्सर खबर ही नहीं मिलती.
लॉकडाउन के बाद बढ़े हादसे
बीते साल कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन के दौरान तमाम सड़क परिवहन ठप होने की वजह से हादसों में भारी कमी दर्ज की गई थी. लेकिन उसके बाद अनलॉक के दौरान इन हादसों में वृद्धि दर्ज की गई है. केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 में देश में 4.49 लाख सड़क हादसे हुए थे. उनमें 4.51 लाख लोग घायल हुए और 1.51 लाख लोगों की मौत हो गई. इसमें कहा गया है कि देश में रोजाना 1,230 सड़क हादसे होते हैं जिनमें 414 लोगों की मौत हो जाती है.
इससे पहले अंतरराष्ट्रीय सड़क संगठन (आईआरएफ) की रिपोर्ट में कहा गया था कि दुनिया भर में 12.5 लाख लोगों की प्रति वर्ष सड़क हादसों में मौत होती है. उस रिपोर्ट में कहा गया था कि दुनिया भर में वाहनों की कुल संख्या का महज तीन फीसदी हिस्सा भारत में है, लेकिन देश में होने वाले सड़क हादसों और इनमें जान गंवाने वालों के मामले में भारत की हिस्सेदारी 12.06 फीसदी है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक 2018 में 1.52 लाख लोगों की मौत हुई थी जबकि साल 2017 में यह आंकड़ा डेढ़ लाख लोगों का था. सड़क हादसों में मारे गए लोगों में से 54 फीसदी हिस्सा दुपहिया वाहन सवारों और पैदल चलने वालों का है. यानी नई सड़कों के निर्माण और ट्रैफिक नियमों के कड़ाई से पालन की तमाम कवायद के बावजूद इन आंकड़ों पर कोई अंतर नहीं पड़ा है.
कोविड-19 महामारी की रोकथाम के लिए देशभर में जो लॉकडाउन लगाया गया था उससे सड़क हादसों में लगभग बीस हजार लोगों की जान जाने से बचाई गई. अप्रैल से लेकर जून 2020 तक सड़क हादसों में 20 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई.
ध्यान भटकना
दुनिया भर में हर साल सबसे ज्यादा सड़क हादसे ध्यान भटकने की वजह से होते हैं. बेख्याली में लोगों का ध्यान सड़क से बाहर चला जाता है. मोबाइल फोन, खाना-पीना या फिर बाहर का नजारा देखना इसके मुख्य कारण हैं.
लगातार बढ़ते सड़क हादसों की वजह क्या है?
केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 67 फीसदी हादसे निर्धारित सीमा से तेज गति से चलने वाले वाहनों की वजह से होते हैं. 15 फीसदी हादसे बिना वैध लाइसेंस के गाड़ी चलाने वालों के कारण होते हैं. सरकारी आंकड़ों में कहा गया है कि करीब 10 फीसदी हादसे ओवरलोड वाहनों के कारण होते हैं और 15.5 फीसदी मामले हिट एंड रन के तौर पर दर्ज किए जाते हैं. इसके साथ ही करीब 26 फीसदी हादसे लापरवाही से वाहन चलाने या ओवरटेकिंग की वजह से होते हैं.
केंद्रीय मंत्री गड़करी का कहना है कि विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) की तकनीकी खामियां ही सड़क हादसों की सबसे प्रमुख वजह हैं. विभिन्न एजंसियों की ओर से तैयार की गई इन त्रुटिपूर्ण रिपोर्टों के चलते ज्यादातर हादसे ट्रैफिक चौराहों पर होते हैं. हालांकि सरकार का दावा है कि मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम के लागू होने के बाद सड़क हादसों में कुछ कमी दर्ज की गई है.
अंकुश के उपायमंत्री नितिन गडकरी का कहना है, "सरकार इन हादसों की तादाद घटा कर आधी करने की दिशा में ठोस कदम उठा रही है. उच्चाधिकार सड़क सुरक्षा परिषद के पहले चेयरमैन की नियुक्ति एक सप्ताह के भीतर कर दी जाएगी.” उनका कहना है कि राज्य सरकारों को सड़क सुरक्षा चुस्त करने के लिए इंसेटिव देने की खातिर सरकार ने 14 हजार करोड़ का एक समर्थन कार्यक्रम शुरू किया है. इसमें से आधी रकम एशियाई विकास बैंक और विश्व बैंक की ओर से मिलेगी जबकि आधी केंद्र सरकार देगी.
मंत्री के मुताबिक सरकार देश के हाइवे नेटवर्क पर पांच हजार से ज्यादा उन जगहों की शिनाख्त का काम कर रही है जो हादसों के लिहाज से सबसे संवेदनशील हैं. उसके बाद जरूरी दिशा-निर्देश बनाए जाएंगे. इसके साथ ही 40 हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबे हाइवे की सुरक्षा जांच कराई जा रही है.
सरकारी दावे तो अपनी जगह हैं लेकिन सड़क सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि हादसों पर अंकुश लगाने के लिए इनके अलावा भी बहुत कुछ करना जरूरी है. मिसाल के तौर पर सबसे पहले राज्य सरकारों के साथ मिल कर वाहन चालकों में जागरूकता पैदा करनी होगी. इसके साथ ही ट्रैफिक नियमों के कड़ाई से पालन के जरिए यह सुनिश्चित करना होगा कि तमाम वाहन निर्धारित गति से ही चलें. लोक निर्माण विभाग (सड़क) के एक पूर्व इंजीनियर संजय कुमार जायसवाल कहते हैं, "इस समस्या के कई पहलू हैं. इनमें लाइसेंस जारी करने से पहले तमाम मानकों की कड़ाई से जांच करना भी शामिल हैं. खासकर कोरोना महामारी के दौर में सार्वजनिक परिवहन कम होने और सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों के पालन की वजह से कारों व दोपहिया वाहनों की बिक्री तो बढ़ी है. लेकिन उस लिहाज से सड़कों का विस्तार नहीं हो सका है.”जायसवाल का कहना है कि विदेशों की तर्ज पर तमाम राज्यों में साइकिल की सवारी को बढ़ावा देने और इसके लिए अलग सुरक्षित लेन बनाना भी इस काम में काफी मददगार साबित हो सकता है.
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-रमणिक मोहन
संसद में बहुत ही सहज भाव से कह दिया गया कि कोई तो बताएं कि इन कानूनों में काला क्या है? हैरत होती है इस कथन पर। जून 2020 से किसान यही तो बताते चले आ रहे हैं। दिसंबर 2020 के शुरुआत में सरकार और किसान मोर्चा के बीच वार्ता में भी किसानों ने कानूनों में 39 ऐसे बिंदु गिनवाए-बताए थे जिन पर उन्हें आपत्ति थी। एक छोटी सी फ़ेहरिस्त यहाँ भी देखिए-इसे देख-पढक़र समझिएगा कि कुल मिलाकर क्यों ये कानून रद्द होने चाहिए।
1. आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव कर के खाद्य-पदार्थों पर इस की पकड़ ढीली कर दी गई है। खाद्य-उद्योग या निर्यात आदि में लगी कम्पनियों पर तो यह कानून अब लागू ही नहीं होगा यानी अब कम्पनियों द्वारा जमाखोरी पर कोई पाबंदी नहीं होगी। किसानों को तो इस का कोई फायदा होगा नहीं क्योंकि किसान तो फसल को सीधे खेत से मंडी ले जाता है।
फायदा तो बड़ी कम्पनियों को ही होगा। नुकसान आम आदमी, छोटे दुकानदार और व्यापारी को होगा। महंगाई बढ़ेगी।
2. करार खेती कानून की धारा 2 (डी), धारा 2 (जी) (द्बद्ब), धारा 8 (बी) और सरकार द्वारा सदन में रखे गए बिल के पृष्ठ 11 से साफ है कि अब कम्पनियाँ खुद खेती कर सकेंगी। छोटे-छोटे खेतों को मिलाकर 50-100 एकड़ के खेत बना सकेंगी। पांच-दस साल में जमीन को चूस कर, उस को बंजर बना कर दूसरे गाँव-जिले में चली जायेंगी। जब कम्पनियाँ खेती करेंगी तो मशीनों का प्रयोग ज्यादा और इंसान के श्रम का कम होगा। कुछ किसान मजदूर बनेंगे पर ज़्यादातर बेरोजगार हो जाएँगे। अड़ोसी-पड़ोसियों के 2-4 एकड़ ले कर गुजारा करने वाला बेरोजगार हो जाएगा।
शहर में बेरोजगारों/छोटे दुकानदारों की लाइन और लंबी हो जायेगी।
3. ए.पी.एम.सी. मंडी में ज्यादातर उपज तो व्यापारी ही खऱीदता है न कि सरकार। पर अब मंडी बाइपास कानून के चलते छोटे आढ़ती या व्यापारी की जगह बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय कम्पनियाँ आ जायेंगी। नए कानून के चलते ए.पी.एम.सी./नियंत्रित मंडी का वही हाल हो जाएगा जो सरकारी स्कूलों और हस्पतालों का हुआ है, या जो मुफ्त जियो के आने के बाद बाकी टेलिकॉम कम्पनियों का हुआ। ये एकदम से बंद न होकर धीरे-धीरे बंद होंगी और भोजन महंगा हो जाएगा-जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाएँ महँगी हो गई हैं।
4. सरकार 23 फसलों के एम.एस.पी. या न्यूनतम समर्थन यानी न्यूनतम जायज भाव की घोषणा करती है लेकिन अगर उसे वह न्यूनतम जायज भाव मिलता ही नहीं, तो इस का किसान को क्या फायदा?
किसान यही तो कह रहे हैं कि जिसे सरकार ख़ुद न्यूनतम जायज भाव मानती है, उस का मिलना भी सुनिश्चित करे।
5. नए कृषि कानूनों में क्या यह कम कालापन है? क्या यह इन को रद्द किए जाने के लिए काफी नहीं है?
सरकार जिन संशोधनों पर तैयार हुई है वो मुद्दे छोटे हैं, बुनियादी नीति में सरकार ने अब तक कोई परिवर्तन स्वीकार नहीं किया है।
6. यह भी ध्यान रहे कि अगर खेती में कम्पनियाँ घुस गईं और सरकार ने अपना पल्ला किसान से झाड़ लिया, तो अर्थव्यवस्था का कोई क्षेत्र, कोई मजदूर, कर्मचारी, छोटा दुकानदार, कारीगर सुरक्षित नहीं रहेगा। देश चंद रईसों का बंधक हो जाएगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
स्वतंत्र भारत को अंग्रेजी ने कैसे अपना गुलाम बना रखा है, इसका पता मुझे आज इंदौर में चला। इंदौर के प्रमुख अखबारों के मुखपृष्ठों पर आज खास खबर यह छपी है कि कोरोना का टीका लगवाने के लिए 8600 सफाईकर्मी लोगों को संदेश भेजे गए थे लेकिन उनमें से सिर्फ 1651 ही पहुँचे। बाकी को समझ में ही नहीं आया कि वह संदेश क्या था? ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि वह संदेश अंग्रेजी में था। अंग्रेजी की इस मेहरबानी के कारण पाँच टीका-केंद्रों पर एक भी आदमी नहीं पहुँचा। भोपाल में भी मुश्किल से 40 प्रतिशत लोग ही टीका लगवाने पहुंच सके। कोरोना का टीका तो जीवन-मरण का सवाल है, वह भी अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण देश के 80-90 प्रतिशत लोगों को वंचित कर रहा है तो जरा सोचिए कि जो जीवन-मरण की तात्कालिक चुनौती नहीं बनते हैं, ऐसे महत्वपूर्ण मसले अंग्रेजी के कारण कितने लोगों का कितना नुकसान करते होंगे? देश की संसद, अदालतें, सरकारें, नौकरशाही, अस्पताल और उच्च-शिक्षण संस्थाएं अपने सारे काम प्राय: अंग्रेजी में करती हैं। उन्होंने आजादी के 74 साल बाद भी भारतीय लोकतंत्र को जादू-टोना बना रखा है। भारत में ही अंग्रेजी ने एक फर्जी भारत खड़ा कर रखा है। यह फर्जी भारत नकली तो है ही, नकलची भी है, ब्रिटेन और अमेरिका की नकल करनेवाला। यह देश के 10-15 प्रतिशत मुट्टीभर लोगों के हाथ का खिलौना बन गया है। ये लोग कौन हैं ? ये शहरी हैं, ऊँची जाति के हैं, संपन्न हैं, शिक्षित हैं। इनके भारत का नाम ‘इंडिया’ है।
एक भारत में दो भारत हैं। जिस भारत में 100 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं, वह विपन्न, अल्प-शिक्षित है, पिछड़ा है, ग्रामीण है, श्रमजीवी है। भारत में आज तक बनी किसी सरकार ने इस सड़ी-गली गुलाम व्यवस्था को बदलने का दृढ़ संकल्प नहीं दिखाया। मैंने अब से 55 साल पहले इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिंदी (मातृभाषा) में लिखने का आग्रह किया तो मुझे स्कूल से निकाल दिया गया। कई बार संसद में हंगामा हुआ। अंत में मेरी विजय हुई लेकिन वह ढर्रा आज भी ज्यों का त्यों चल रहा है। सारे देश में आज भी उच्च अध्ययन और शोध अंग्रेजी में ही होता है। दुनिया के किसी भी संपन्न और महाशक्ति-राष्ट्र में ये काम विदेशी भाषा में नहीं होते। इस संदर्भ में नरेंद्र मोदी को पहली बार मैंने यह कहते सुना है कि हर प्रदेश में एक मेडिकल कॉलेज और एक तकनीकी कॉलेज उसकी अपनी भाषा में क्यों नहीं हो सकता? यह ठीक है कि असम की जनता के वोट पटाने के लिए मोदी ने यह गोली उछाली है कि ‘असमिया भाषा में डॉक्टरी की पढ़ाई क्यों नहीं हो सकती?’ कोई नेता अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए ही सही, यदि कोई देशहितकारी बात करे तो उसे शाबाशी देने में हमें संकोच क्यों होना चाहिए?अपने पूर्व स्वास्थ्य मंत्री ज.प्र. नड्डा और वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने मुझसे कई बार वादा किया कि वे मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में शुरु करेंगे लेकिन अब तो उनके नेताजी ने भी घोषणा कर दी है। अब देर क्यों?
(नया इंडिया की अनुमति से)
करीब डेढ़ साल पहले मैंने सांसद महुआ मोइत्रा पर एक लेख लिखा था जब उन्होंने लोकसभा में पहली बार अपना तेजतर्रार भाषण दिया था। महुआ के तेवर जस के तस हैं जो अभी लोकसभा में फिर उनकी तकरीर में देखने मिला।
-कनक तिवारी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शेरनी की तरह दहाड़ती हैं। फिलवक्त उन्होंने अपनी पार्टी का एक नुमाइंदा लोकसभा में महुआ मोइत्रा के नाम से निर्वाचित कराया है। अपने पहले भाषण में महुआ ने दो तिहाई बहुमत की संसदीय हेकड़ी के तैश को समझा दिया कि कपड़ा धोबी के यहां कितना भी साफ सांप्रदायिक भावनाएं भडक़ाकर धो लिया गया हो। उस पर लोकतंत्रीय इस्तरी चलाने से ही संसद की व्यापक समझ का मानक पाठ तैयार किया जा सकता है। अपने पहले क्रिकेट मैच या मेडन स्पीच में महुआ ने लोकसभा की पिच पर छक्का लगा दिया। वे शेरनी के जुमले में नहीं गरजीं। उन्होंने बहुत कम समय में जनसंसद में एक प्राथमिकी दर्ज करने के साथ भवियमूलक चुनौतियों का कोलाज भी बिखेरा। उस तर्कमहल की एक एक ईंट इतनी मजबूत रखी कि बीच बीच में दो तिहाई वाले भारी भरकम सत्ता पक्ष की ओर से की जा रही व्यवधानी हुल्लड़ तुलसीदास की रामचरितमानस की चौपाइयों के बीच में क्षेपक या गड़बड़ रामायण की तरह सुनने में बेहूदी लगी।
बेहद संयत, सटीक, व्याकरणसम्मत, संसूचित करती जवाबदेह अंगरेजी गद्य में महुआ ने सैद्धांतिक सवाल उठाए। तकनीक की भाषा में कहें तो उसका डेमो सत्ता पक्ष के मुंह पर दे मारा। महुआ के बेहद कुलीन और ईंट ईंट जोडक़र तराशे गए भाषण के तर्कमहल को हिन्दी में अनुवादित कर सुना जाए। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोकसभा के स्मरणीय नायक मधु लिमये का संसदीय इतिहास में पुनराविष्कार दिखा। शालीन मुद्रा में एनडीए सरकार के दो तिहाई बहुमत को पराजित नहीं लेकिन असहमत विपक्ष के रूप में महुआ ने कबूला। जैसे पोरस ने सिकंदर के सामने युद्ध में पराजय के बावजूद स्वाभिमानी सिर ऊंचा रखा।
तृणमूल सांसद ने दो टूक कहा कि दो बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को विस्फोटक मुहाने पर शातिर साजिशी सियासत द्वारा बिठा दिया गया है। यह लोकतंत्र के लिए ट्रेजडी या अशुभ संकेत हो सकता है। उन्होंने कहा अल्पसंख्यकों के सडक़ों, बाजारों पर एक उन्मादी हिंसक और खुद को वहशी सांप्रदायिकता की सांस्कृतिक उत्तराधिकारी समझते लोगों द्वारा जानवर की तरह पीट पीटकर मारा और कत्ल किया जा रहा है। यह युग इस देश के इतिहास के नए परिच्छेद के रूप में लिखा जा रहा है। उन्हें बरगलाकर हिंसक बनना सिखाया भी जा रहा है। देश कूढ़मगज, कुंद, गैरप्रगतिशील और कुंठाग्रस्त सलाहकारों के रेवड़ में फंसा दिया गया है। वहां विज्ञानसम्मतता, आधुनिक भावबोध और सभ्यतामूलक समकालीन मूल्यों की कोई जरूरत नहीं रह गई है।
लोकसभा में दिया जा रहा महुआ का भाषण महज नये सदस्य द्वारा बिखेरी गई चेतावनी का अहसास नहीं था। लगा जैसे हिन्दुस्तान का जख्मी और कराहता हुआ मौजूदा इतिहास खुद एक इंसानी प्रतिनिधि बनकर देश के नागरिकों की चेतना को झिंझोड़ रहा है। वह अभिमन्यु शैली का साहसी लेकिन सहायता मांगता हुआ चीत्कार नहीं था। उसमें महाभारत उपदेशक का भाव भी नहीं था। महुआ ने अद्भुत संयम, सावधानी और मुक्तिबोध के शब्दों की ‘दृढ़-हन’ की विनम्रता चेहरे पर कायम रखी। यह बताने के लिए कि विनम्रता मूल्यों को रचने में ज्यादा नायाब और स्थायी कारगर हथियार होती है। एक शब्द का दोहराव किए बिना, अटके बिना, सांसों के आरोह अवरोह का अभिनय कौशल इस सांसद को याद दिला गया कि इस नई महाभारत में उसे दुर्योधन और दु:शासन को भी नए रूपक में ढालकर ओज के हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर से उनकी पंक्तियों में आशीर्वाद लेना है। वह उसने अद्भुत सामायिकता के साथ किया। शायर राहत इंदौरी का शेर भी बहुत मौंजू तरीके से इस महिला सांसद ने सूत्रबद्ध चेतावनी के रूप में लोकसभा के रेकार्ड में लिखा तो दिया। महुआ मोइत्रा की तरह यदि छह सांसद भी संसद की तकरीरोंं में इसी तरह सजग रहे, तो भारी भरकम सत्तामूलक धड़े का हुल्लड़बाज हिस्सा अपने उस लक्ष्य तक तो पहुंचने में कठिनाई महसूस करेगा, जो एक बरसाती नदी के मजहबी, उद्दाम उफान की तरह हिन्दुस्तानियत की सदियों पुरानी उगी फसल को बेखौफ होकर काफी कुछ बहा ले गया।
एक भौंचक सरकार को अंगरेजी भाषा सरिता में चप्पू चलाती सांसद ने तर्क और तथ्य के दोहरे आक्रमण में फंसाकर पूछा जिसका जवाब ‘मोदी है तो मुमकिन है‘ के नारे में नहीं दिया जा सकता। 120 सरकारी नुमाइंदे हैं जो सूचना प्रसारण मंत्रालय में बैठकर हिन्दुस्तान की मीडिया के सेंसर अधिकारी हैं। उनके आदेश, निर्देश और समीक्षा के बाद ही मीडिया में खबरें तराशी, खंगाली और छापी जाती हैं। देश की अवाम की दौलत का केवल एक पार्टी और एक नेता के लिए दुरुपयोग हो रहा है। देश के चुनिंदा कॉरपोरेटी ही मीडिया मुगल हैं। सत्ता और संपत्ति के गठजोड़ का खुला खेल चल रहा है। उसकी परत-परत नोचकर महुआ ने संसद को अभियुक्त भाव से आंज भी दिया। यह मार्मिक सवाल पूछा कि देश की सेना तो देश की सेना है। वह एक व्यक्ति की सेवा में चुनाव प्रचार का एजेंडा कैसे बन सकती है। चाहे कुछ हो निराशा का एक बादल तो उनके भाषण से छंटा। एक लोकसभा सदस्य ने पूरी लोकसभा को उसके इतिहास, संगठन, मकसद और भविष्य का साफ सुथरा आईना दिखा दिया। यह तो वह भाषण है जिसने मार्क एंटोनी भले न हो, मधु लिमये, हीरेन मुखर्जी, नाथ पई, हेम बरुआ, सोमनाथ चटर्जी और राममनोहर लोहिया की एक साथ याद दिला दी।
मौजूदा लोकसभा का भारी भरकम सत्ता पक्ष केवल संख्या बल के आधार पर ही अपना कीर्तिमान स्थापित नहीं कर सकता। कई नए तनाव जबरिया उठाए जा रहे हैं। सरकार के मुख्य घटक भाजपा की पूरी नीयत और ताकत जवाहरलाल नेहरू के रचे लोकशाही के एक एक अवयव पर सैद्धांतिकता की आड़ में निजी हमला करने की है। महुआ ने भी राजस्थान के पहलू खान और झारखंड के तबरेज अंसारी का नाम लेकर मॉब लिंचिंग की ओर अपनी आवेशित करुणा के जुमले में हमला किया। हैरत की बात है प्रधानमंत्री को अशोका होटल में भोज के वक्त या बिहार के स्वास्थ्य मंत्री को विश्व कप में भारत के खिलाड़ी रोहित शर्मा की बल्लेबाजी पर खुश होकर तालियां बजाते वक्त बिहार के मुजफ्फरपुर में 200 से भी ज्यादा बच्चों के सरकारी बदइंतामी के फलवरूप मर जाने पर भी अफसोस करते नहीं सुना देखा गया। महुआ मोइत्रा देश के लिए दिए गए बंग-संदेश में भारतीय नवोदय के अशेष हस्ताक्षरों राजा राममोहन राय, रवींद्रनाथ टैगोर, काज़ी नजरुल इस्लाम, विवेकानन्द और सुभाष बोस आदि की सामूहिक सांकेतिक अनुगूंज थी। तब भी हिन्दुस्तान की संसद में आधे से ज्यादा चार्जशीटेड सदस्य देश की रहनुमाई कर रहे हों-यही पेचीदा सवाल महाभारत में उठाए गए यक्ष प्रश्नों के मुकाबले कहीं अधिक तकलीफदेह हैै।
सांसद मोइत्रा ने बहुत कम समय मिलने के बावजूद अपनी विज्ञान और गणित की छात्र जीवन की डिग्रियों और अनुभवों से लैस होकर देश के समाने आई मुश्किलों को सात सूत्रों में बताने की कोशिश की। यह साफ है कि अवाम को तकलीफ दे रही मुसीबतों की संख्या नहीं होता। उसका घनत्व और परिणाम होता है। भारतीय और अन्य संस्कृतियों में सात का आंकड़ा तरह तरह से रेखांकित होता रहा है। उसे भी किसी गणितीय संख्या की तरह स्थिर करने के उद्देश्य से ईजाद नहीं किया गया होगा। हिन्दू विवाह के सात फेरे हों या सात वचन। आकाश के सात तारे हों। साल के सात दिन हों। सात समंदर हों। दूसरी संस्कृति में सात पाप हों। या किलों के सात दरवाजे कहे जाते रहे हों। ये यब लोकजीवन की खोज हैं। उनमें संख्या का महत्व नहीं है। उसके पीछे दर्शाए गए हेतु का महत्व होता है। महुआ मोइत्रा के भाषण में हिन्दुस्तान के अवाम की वेदना की कहानी शब्दों के साथ साथ उनकी आवाज के उतार चढ़ाव, चेहरे पर उग रहे तेवरों के झंझावातों के साथ हिलकोले खा रही थीं। पूरे सदन में सत्ताधारी पार्टी के प्रधानमंत्री सहित नए सांसदों और पुराने दिग्गजों ने तार्किक मुकाबला करने की कोशिश तो की लेकिन जो पैनापन भारतीय जनता की तकलीफों की आह से उठता हुआ तृणमूल कांग्रेस की युवा सांसद के ऐलान में समा गया था। वह एक तरह से हिन्दुस्तानियत का यादनामा बनकर उभरा है।
लगभग कारुणिक तैश में आकर इस महिला सांसद ने कहा आज भारत में एकल तरह की राष्ट्रीयता या संस्कृति सायास फैलाई और विकसित की जा रही है। वह अपने अमल में लगभग हत्यारिणी है। लोगों को उनके घरों से निकालकर सडक़ों पर कत्ल किया जा रहा है। असम का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा राष्ट्रीय नागरिकता, रजिस्टर जैसे मुद्दे की आड़ में इस देश के गरीब, मजलूम और अशिक्षित लोगों से पूछा जा रहा है। वे दस्तावेजी सबूत दें कि कब से भारत के नागरिक हैं। अपनी व्यंग्य की भृकुटि में महुआ ने चेहरे पर कसैलापन लाते हुए सरकारी बेंच की तरफ तीखा सवाल किया। इस देश में तो मंत्री तक अपनी पढ़ाई की डिग्री बताने में नाकाबिल रहे हैं। 2014 से 2019 के बीच देश में मानव अधिकारों का उल्लंघन तो कम से कम दस गुना बढ़ गया है। यह संसद इस बात का घमंड नहीं करे कि सरकार के पास जरूरत से ज्यादा बहुमत है। उस बहुमत का स्वीकार तो करना पड़ेगा लेकिन उससे कमतर संख्या के विपक्ष को ज्यादा जवाबदारी के साथ जम्हूरियत की हिफाजत करनी होगी। आंकड़ों में यदि ज्यादा अंतर नहीं होता तो विपक्षी सरकार के ऊपर आवश्यक होने पर वैचारिक नियंत्रण तो कर सकता था।
उनका यह भी कहना था कि सत्ताधारी पार्टी को वहम है। भले ही वह इसका प्रचार करती रहे कि अच्छे दिन आ गए हैं या और भी आने वाले हैं। लेकिन हकीकत यह है कि लगातार और बार बार झूठ बोलने से कोई बात लोगों को सच की तरह लगने लगती है और वे इस हिमाकत का शिकार हो जाते हैं। धर्म और राजनीति का इस कदर घालमेल कर दिया गया है कि दोनों अशुद्ध हो गए हैं। यह सब सायास और जतन के साथ किया जा रहा है। अब इस देश की एकता के लिए न तो कोई इकलौता नारा है या कोई इकलौता प्रतीक। महुआ मोइत्रा के इस कथन की अनुगूंज में हिन्दुस्तान के इतिहास को ‘इंकलाब जिन्दाबाद’, ‘वंदे मातरम’, ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’, ‘आराम हराम है’, ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, ‘जयहिन्द’ वगैरह की याद तो संसद सदस्यों के दिमागों के जरिए आई होगी।
शुरुआत में ही अपने भाषण के संयत आचरण के लिए भी महुआ ने बहुत अदब और सम्मान के साथ देश के महान नेता मौलाना आजाद की याद की और उनके कहे हुए उद्धरण का पाठ किया। यह भी बताया कि संसद में प्रवेश करने के पहले मौलाना आजाद की प्रतिमा देश को उसकी बहुलवादी संस्कृति और सभी वैश्विक सभ्यताओं के आपसी सहकार की भी याद दिलाती रहती है। वही भारतीय सोच का प्रतिनिधि अक्स है। उसकी अनदेखी किसी भी कीमत पर संविधान निर्माताओं की उत्तराधिकारी पीढ़ी द्वारा लोकसभा में कैसे की जा सकती है। सच है, लोगों को भले अन्यथा समझाया जाता हो लेकिन 70 बरस पुराना लोकतंत्र और संविधान कहीं न कहीं दरक तो जरूर रहे हैं। उनके भाषण में एक देशभक्त की पीड़ा एक बुद्धिजीवी के कथन की भविष्यमूलकता और एक आम नागरिक से सरोकार रखने की सैद्धांतिक और प्रतिनिधिक कशिश ने एक साथ तृणमूल कांग्रेस की इस युवा सांसद के भाषण को संसद के अभिलेखागार में अपनी सम्मानित जगह पर रखने का वचन तो वक्त ने दिया होगा।
-प्रकाश दुबे
गांव में बचत एक नया कारोबार है। रकम जमा करने का धंधा ऐसे कर्ज देने की प्रवीणता में बदलता है जो आम तौर पर गैरजरूरी हैं। सूक्ष्म वित्त यानी माइक्रो फाइनेंस के कारोबार में जुटी बड़ी कंपनियों की सूची पर ध्यान दें मुनाफाखोरी के खेल का भांडा फूट जायेगा विलासिता या सुविधा की चीजें खरीदने का प्रोत्साहन।
गोदावरी और नर्मदा भारत की सप्त नदियों में शामिल है। आस्थावान लोग उसकी प्रतिदिन आराधना करते हैं। शेर, शक्कर, हिरन, पांडाझिर, पैनगंगा छोटी नदियां हैं। आसपास के इलाकों की खेती और खुशहाली में उनका योगदान कम नहीं है। नदी तट ग्रामवासी किसान और छोटे कारोबारी की कर्ज पर निर्भरता कायम है। बैंक देश के करोड़ों लोगों की पहुंच से बाहर हैं। बचत गट, गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं और छोटे परिचित साहूकार ही उनके लिए फरिश्ते हैं। महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में अनेक किसान परिवारों का जीवन और घरबार बैंक के बाहर से मिलने वाले कर्ज की बदौलत चलता है।
माइक्रो फाइनेंसिंग कंपनियां कर्ज उपलब्ध कराती हैं। महाराष्ट्र में बचत गट सक्रिय हैं। मध्यप्रदेश में नर्मदा तट की जमीन सबसे उर्वरा है। वहां के किसान और गांव-कस्बे वाले साहूकार पर निर्भर हैं। तेलंगाना में घर घर जाकर कर्ज बांटने वाले बड़े और स्थानीय समूह सक्रिय हैं। वर्ष 2016-17 और 2019 में किसानों की कर्जमाफी के फायदे से वंचित महाराष्ट्र में अनेक किसान हैं। बैंक नहीं खुला। किसी का कर्जमाफी सूची में नाम नहीं आया। तेलंगाना सीमा से सटे गांवों के मराठी किसान बाहर से कर्ज पाकर संतुष्ट हैं।
ठीक विपरीत आदिलाबाद, निजामाबाद आदि जिलों में किसानों के गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं के कारण बर्बाद होने के कारण तहलका मचा है। महाराष्ट्र का यवतमाल जिला पूरी दुनिया में किसान आत्महत्याओं के कारण जाना जाता है। कर्ज बांटने वाली संस्थाओं और समूहों का स्वागत करने वालों में आत्महत्या कर चुके किसानों की विधवाएं भी हैं और किसी तरह खेती पर जीवित किसान भी। मध्यप्रदेश के गांवों में आत्महत्या की घटनाएं कम हैं।
तेलंगाना में किसान आत्महत्या और कर्जदार के भागकर हैदराबाद या कहीं और जाकर काम तलाशते हैं। तीनों राज्यों में, और संभवत: सभी जगह एक बात समान है। गैर बैंकिंग संस्थाएं 20 से 36 प्रतिशत तक ब्याज वसूल करती हैं। अच्छी उपज के लिए प्रसिद्ध मध्यप्रदेश के खलौटी इलाके में आपात् स्थिति में कुछ लोग इससे भी अधिक ब्याज दर पर कर्ज लेते हैं। इस क्षेत्र के सामाजिक जीवन से जुड़े डॉ. प्रभु दयाल का अनुमान है कि 20 प्रतिशत से कम ब्याज दर पर तो शायद ही किसी को कर्ज मिलता है।
खेती को लाभदायी बनाने का कोई भी दावा खरा नहीं उतरा। कर्ज और आत्महत्या का सीधा संबंध है। महिलाओं के बचत गट बनाकर कर्ज और बचत के बीच संतुलन से समाधान पाने का प्रयास किया गया। महिलाओं को आत्मनिर्भरता बनाकर सामाजिक समता का सपना कुछ जगह कारोबार बनकर रह गया। महाराष्ट्र के सबसे संपन्न नगर निगमों में शामिल पिंपरी चिंचवड़ में बचत गट प्रयोग ने मुनाफा कमाया। महिलाएं समिति बनाकर बचत करतीं।
राजनीति में सक्रिय उनके पति उस रकम से निर्मित उत्पाद अधिक मूल्य पर निगम को बेचते। जाने माने अर्थशास्त्री डॉ. श्रीनिवास खांदेवाले ने इसे शहरी साहूकारी का ही एक रूप माना। अनेक राज्यों में कर्जबांटू कंपनियों के कर्मचारी सबेरे कर्ज बांटते हैं और शाम को वसूली करने जा धमकते हैं। देर रात कर्जदार के घर पर डटे रहना, धौंस, मारपीट सब संभव है। महिला बालविकास की प्रभारी भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी नीला सत्यनारायण ने ऐसे प्रतिनिधिमंडल को ग्राम और गरीब द्रोही कहकर सचिवालय से बाहर कर दिया था।
सामान्य महिलाओं के बजाय ऐसे समूहों को उन्होंने राजनीतिक लोगों के कमाई के औजार बताया। ग्रामीण आर्थिक विकास में मददगार कुछ संस्थाएं ही इसका अपवाद हैं। गांव में बचत एक नया कारोबार है। रकम जमा करने का धंधा ऐसे कर्ज देने की प्रवीणता में बदलता है जो आम तौर पर गैरजरूरी हैं। सूक्ष्म वित्त यानी माइक्रो फाइनेंस के कारोबार में जुटी बड़ी कंपनियों की सूची पर ध्यान दें मुनाफाखोरी के खेल का भांडा फूट जायेगा विलासिता या सुविधा की चीजें खरीदने का प्रोत्साहन। हैदराबाद में केन्द्रीय विश्वविद्यालय के ऊंचे ओहदे पर कार्यरत डा फरियाद अली ने ग्रामीण कर्जबाजारी का अध्ययन किया। उनके जैसे लोगों का मत है कि विषचक्र में फंसकर गांवों की अर्थ व्यवस्था जर्जर हो रही है। गांव यदि इतने संपन्न हैं और बचत के आंकड़े इतने अधिक हैं तो गरीबी फिर है कहां? क्यों किसान आत्महत्या करते हैं और क्यों लोग गांव छोडक़र भागते हैं? क्यों उन्हें आंदोलन करना पड़ता है? गरीबी पर कर्ज का अभिशाप।
सब्जी, फल जैसे जरूरत का माल बेचने वाले प्रात: कर्ज से सामान खरीदते हैं। कमाई का बड़ा हिस्सा शाम को वसूली करने वाला ऐंठ लेता है। केन्द्रीय वित्तमंत्री ने देहात की जरूरत को देखते हुए 16 लाख करोड़ रुपए छोटे कर्ज बांटने का प्रावधान किया है। लगभग आधी रकम गैरबैंकिंग वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से ही वितरित कराने का लक्ष्य रखा है।
महाराष्ट्र में किसानों को आत्महत्या से रोकने के लिए वसंतराव नाईक शेतकरी मिशन बना। इसके अध्यक्ष किसान नेता लगातार बैंकिंग पक्ष को किसान हितैषी बनाने की मांग कर रहे हैं। बैंक 24 घंटे सेवा और छोटे बकायेदार को अधिक मुहलत दे सकते हैं। कर्जदाताओं पर कोई नियमन आवश्यक है। किसानों की मांगों पर विचार एक पक्ष है। डा स्वामीनाथन की रपट वाल्मीकि रामायण की तरह है। पढ़ा किसी ने नहीं और लागू करने के दावे अनेक। शोषण की मशीन में गांव की अर्थ व्यवस्था की पेराई कर समता पर आधारित समाज नहीं बन सकता। कर्ज शोषण रोके बिना देहात और शहर के बीच विषमता की खाई नहीं पट सकती। (लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-गिरीश मालवीय
अगर आप सोच रहे हैं कि जैसे आप सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट अपने हाथ से करते हैं वैसे ही ये बड़े-बड़े सेलेब्रिटी अपने ट्वीट खुद अपने हाथ लिखते हंै और जो वो पोस्ट कर रहे हैं वही उनका पर्सनल ओपिनियन है ! तो माफ कीजिए आप बिल्कुल गलत सोच रहे हैं। चाहे वह रिहाना हो या ग्रेटा थुनबर्ग हो या कँगना राणावत हो या सचिन तेंदुलकर, यह लोग कुछ भी अपने आप से नहीं लिख रहे हैं। हर सेलेब्रिटी के हर ट्वीट के पीछे कोई न कोई एजेंसी जरूर काम करती है। और हर चीज का बाजार है। समर्थन का भी बाजार है तो विरोध का भी बाजार है, इस पूरे खेल को समझना-समझाना बहुत जरूरी है
डेढ़-दो साल पहले की घटना है। हमारे शहर इंदौर में एक ‘महाराज’ ने दोपहर में 2 बजे आत्महत्या की, संयोग से उस दिन कोई त्यौहार था। दोपहर तीन बजे उनके ट्विटर एकाउंट से एक ट्वीट हुआ और देशवासियों को त्योहार की बधाई दी गई। पुलिस ने पता किया कि आखिर यह ट्वीट किया किसने ? तो पता लगा कि उनका ट्विटर एकाउंट जो एजेंसी चला रही थी उसे पता ही नहीं था कि महाराज तो आत्महत्या कर चुके हैं। ‘महाराज’ जी के कोई 10- 15 लाख फॉलोअर नहीं थे लेकिन इसके बावजूद उन्होंने एक एजेंसी हायर कर रखी थी और आप आज भी यह सोचते हैं कि कँगना अपने ट्वीट अपने हाथ से लिख रही हंै या ग्रेटा थुनबर्ग को वाकई भारत के किसानों से हमदर्दी है इसलिए वह ऐसे ट्वीट कर रही हंै तो आपको एक बार दुबारा विचार करने की जरूरत है
बहुत बारीकी से रचा जाता है यह खेल!
रिहाना का नाम भी अब तक भारत में बहुत से लोगों ने नहीं सुना होगा! उसके पास यहाँ खोने के लिए कुछ भी नहीं है, और ग्रेटा थुनबर्ग जैसे लोग इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे किसी व्यक्ति को इस डिजिटल वल्र्ड में सेलेब्रिटी बनाया जाता है, ( इस बात का बहुत से मित्रों को बुरा लग सकता है लेकिन जो सच है वह सच है )
2018 में कोबरापोस्ट के रिपोर्टरों ने एक छद्म पीआर एजेंसी के प्रतिनिधि बनकर भारत के बड़े-बड़े फिल्मी सितारों से मुलाकात की थी। उन्हें बताया गया कि आपको अपने फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम अकाउंट के जरिये एक राजनीतिक पार्टी को प्रोमोट करना है ताकि आने वाले 2019 के चुनावों से पहले पार्टी के लिए माकूल माहौल तैयार हो सके। उनसे जो कहा गया था वह ध्यान से समझिए उनसे कहा गया था, ‘हम आपको हर महीने अलग-अलग मुद्दों पर कंटैंट देंगे, जिसे आप अपने शब्दों और शैली में लिखकर अपने फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम अकाउंट से पोस्ट करेंगे। आपके और हमारे बीच आठ-नौ महीने का एक दिखावटी करार होगा। यही नहीं जब पार्टी किसी मुद्दे पर घिर जाए तो आपको ऐसे मौकों पर पार्टी का बचाव भी करना होगा।’
इस स्टिंग में शामिल लगभग सभी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों ने उस साल होने वाले लोकसभा चुनावों में किसी दल के लिए अनुकूल माहौल बनाने में पैसे के बदले अपने सोशल मीडिया अकाउंट का इस्तेमाल करने पर रजामंदी जाहिर की थी। इसमें सोनू सूद भी शामिल थे। सोनू सूद हर महीने 15 मैसेज के लिए 1.5 करोड़ की फीस पर तैयार नहीं थे। सूद एक दिन में पांच से सात मैसेज करने को तैयार थे लेकिन प्रति मैसेज वे 2.5 करोड़ रुपये की मांग कर रहे थे।
यह है इन तथाकथित सेलेब्रिटीज की सच्चाई और यह बात भी समझ लीजिए कि हर बात को सिर्फ पैसों से ही नहीं तौला जा सकता, बहुत से और अन्य फायदे होते हैं जो बहुत बाद में जाहिर होते या जाहिर नहीं भी होते।
एक बात पर गौर किया आपने ! किसानों का आंदोलन तो लगभग छह महीने से चल रहा है। 60-70 किसान अब तक शहीद हो चुके हैं, तो अचानक परसो ही ऐसा क्या हो गया जो अचानक दुनिया की बड़ी-बड़ी सेलेब्रिटीज का ध्यान उनकी तरफ आकृष्ट हो गया, दो दिन से ऐसे ट्वीट पर ट्वीट आ रहे हैं जैसे कोई ट्रिगर दब गया है। क्या यह अनयुजुअल नहीं लगता आपको ?
यह ट्वीट पर ट्वीट करना और उन ट्वीट की खबरें मीडिया में छाई रहना, सरकार द्वारा उन ट्वीट का संज्ञान लेना, उस पर हमारे द्वारा सोशल मीडिया में प्रतिक्रिया व्यक्त करना, यह सब एक तरह का स्यूडो वातावरण है, ताकि विरोध की तीव्रता को एक निश्चित दायरे में समेटा जा सके। इसमें सबसे अधिक भूमिका मीडिया की है इंटरनेट की ताकत को नेताओं, विचारधाराओं और संगठनों ने अब अच्छे से पहचान लिया है। और ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम का भी आधिपत्य एक तरह की मीडिया कम्पनियों के ही पास में है।
आज पाठक या दर्शक ही मीडिया का प्रोडक्ट हो चुका है। जाहिर-सी बात है कि हर प्रोडक्ट को एक बाजार की जरूरत होती है। नोम चोमस्की जैसे लोग शुरू से समझाते आए हैं कि डिजिटल वल्र्ड में सोशल मीडिया का स्वामित्व पूरी तरह से कॉरपोरेट के हाथों में है और ज्यादा उत्साहित होने का कोई कारण नहीं है।
इस वक्त चल रही ट्विटर वार सिर्फ मुद्दों को उलझाकर प्रेशर रिलीज के ही काम आएगी, इस बात को आप जितना जल्दी समझ लें उतना अच्छा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में बहस हुई। बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री का जो भाषण हुआ, उसके तथ्य और तर्क काफी प्रभावशाली रहे। जिन अफसरों या सलाहकारों ने उनका भाषण तैयार किया है, वे बधाई के पात्र हैं। उस भाषण की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उसमें मोदी की अहंकारिता और आक्रामकता नदारद थी। शायद किसान आंदोलन ने उनके व्यक्तित्व में यह नया आयाम जोड़ दिया है। इससे उनको और देश को भी निश्चित ही कुछ न कुछ लाभ जरूर होगा। अपने लंबे भाषण में उन्होंने किसान आंदोलन के विरुद्ध कोई भी उत्तेजक बात नहीं कही। वे अपनी सरकार की कृषि-नीति के बारे में थोड़ा ज्यादा गहरा विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते थे लेकिन उन्होंने जो भी तथ्य और तर्क पेश किए, उन्हें यदि देश के करोड़ों आम किसानों ने सुना होगा तो उन्हें लगा होगा कि जैसे भारत में दुग्ध-क्रांति हुई है, वैसे ही अब कृषि-क्रांति का समय आ गया है। इसमें शक नहीं कि पंजाब और हरियाणा के मालदार किसान कुछ असमंजस में जरूर पड़ गए होंगे लेकिन चौधरी चरणसिंह और गुरु नानक का हवाल देकर जाट और सिख किसानों का दिल जीतने की कोशिश भी उन्होंने की है।
उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्रियों, लालबहादुर शास्त्रीजी व देवेगौड़ाजी का जिक्र करके और मनमोहन सिंहजी को उद्धृत करके विपक्ष की हवा निकाल दी। वे दोनों सदन में उपस्थित थे। उन्होंने विपक्षी नेताओं- शरद पवार, गुलाम नबी आजाद और रामगोपाल यादव का उल्लेख भी बड़ी चतुराई से कर दिया। उन्होंने विपक्ष के विघ्नसंतोषी स्वरुप को उजागर करते हुए एक नए शब्द का उपयोग कर दिया, ‘आंदोलनजीवी’। उन्होंने विरोध की राजनीति पर भी काफी मजेदार व्यंग्य किए और उसका स्वागत किया। कुल मिलाकर संसद के इस सत्र में किसान आंदोलन पर विपक्ष का पक्ष कमजोर रहा। किसानों की मांगों को प्रभावशाली ढंग से पेश करने में जैसे किसान नेता बाहर असमर्थ रहे, वैसे ही विरोधी नेता भी संसद में असमर्थ दिखाई पड़े। यही बड़ी बहस कृषि-कानूनों के बारे में पहले होती तो शायद उसमें भी ढाक के तीन पात ही निकलते। मोदी के इस भाषण में आंदोलनकारी मालदार किसानों के लिए आनंद की सबसे बड़ी बात यह हुई है कि प्रधानमंत्री ने संसद में स्पष्ट आश्वासन दिया है कि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की जो व्यवस्था पहले थी, वह अब भी है और आगे भी जारी रहेगी। मंडी-व्यवस्था भी कायम रहेगी। इन दोनों वायदों पर मोहर इस बात से लगती है कि देश के 80 करोड़ लोगों को सरकार सस्ता अनाज मुहय्या करवाती रहेगी। यदि कोई प्रधानमंत्री संसद में दिए गए अपने आश्वासन से डिगेगा तो उसे उसकी गद्दी पर कौन टिकने देगा ? इसमें शक नहीं कि कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर किसान नेताओं से अत्यंत शिष्टतापूर्ण संवाद चला रहे हैं लेकिन मोदी अब किसानों नेताओं से खुद सीधे बात क्यों नहीं करते ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-संजय अलंग
आज जयंती पर याद
जगजीत सिंह के प्रसंग में एक रोचक स्मरण है। बात ग्वालियर की है। तब मैं वहाँ पदस्थ था। तब वहाँ जगजीत सिंह का एक कार्यक्रम के अनुक्रम में आना हुआ। उसके कुछ समय पूर्व, दीपावली के तत्काल उपराँत, ग्वालियर में वह एक दिवसीय अंतरराष्र्टीय क्रिकेट मैच हुआ था, जिसमें सचिन ने आस्ट्रेलिया के विरूद्ध शतक बनाया था और भारत विजयी रहा था। दोनों दल ग्वालियर आए हुए थे।
एक रात्रि होटल में पूल साईड डिनर का आयोजन था। इसमें दोनों दलों के साथ मात्र 4-5 परिवार ही थे। मेरा परिवार भी था। इस मौके पर मेरे दोनों चिरंजीव सर्वज्ञ और सौहार्द ने दोनों दलों के कोच और समस्त खिलाडिय़ों के आटोग्राफ, एक अटोग्राफ बुक में ले लिए। यह दुर्लभ संग्रह बन पड़ा। सचिन, कुम्बले, द्रविड़, बाडऱ्र, पोंटिंग आदि सभी।
इसके कुछ समय उपराँत जब जगजीत ग्वालियर आए, तब उनका सानिध्य भी रहा। सायं कार्यक्रम में जाते हुए मैंने उनकी सभी सीडी और कैसेट साथ रख लीं। जब वे आए, और स्टेज एवं व्यवस्था का पूर्व जायजा लेने के लिए स्टेज की ओर मुखातिब हुए, तभी उनकी नजर मुझ पर पड़ी और वह मुझसे बातें करने लगे तथा इसी अनुक्रम में मेरे कंधे पर हाथ रख मुझे ग्रीनरूम ले गए।
हम दोनों सोफे पर अगल-बगल बैठ गए। मैंने सभी सीडी और कैसेट तो टेबल पर रख दिए। बातों में वर्तमान कविता, गज़़ल, लेखक और साहित्य का विषय भी सम्मिलित था। बातों के दौरान ही बिना इस हेतु कुछ कहे, जगजीतजी ने सीडी और कैसेट के कव्हर खोले और मेरी जेब से मॉर्कर पेन निकालकर सभी कव्हर और सीडी पर हस्ताक्षर करने लगे। मेरी जेब में वह आटोग्राफ बुक भी थी, जिस पर सर्वज्ञ और सौहार्द्र ने, खिलाडिय़ों के हस्ताक्षर लिए थे। मैंने सहजता देख उस पर भी हस्ताक्षर करा लिए और उसे भी टी टेबल पर ही रख दिया, जो सभी चीजों के खुल जाने से अस्त-व्यस्त हो चली थी।
तभी किशोरियों के दल ने प्रवेश किया और सभी जगजीत पर झूम पड़े। फोटोग्राफ, आटोग्राफ आदि की व्यवस्था की सुचारूता के कारण मैं उनकी बगल से उठकर साइड के सोफे पर बैठ गया। किशोरियों ने जब विदा ली, तब मैं भी टेबल पर बिखरी सामग्री समेटने को उद्दत हुआ। तभी ज्ञात हुआ कि, वह आटोग्राफ बुक वहाँ नहीं है, जिस में अब जगजीत सहित खिलाडिय़ों के भी हस्ताक्षर थे। मैं तत्काल बाहर आया। दरवाजे के दहाने पर खड़ी किशोरियों से पूछा। सबने अनभिज्ञता बताई। आटोग्राफ बुक गुम चुकी थी।
वापस आकर जब यह बात सर्वज्ञ और सौहार्द को पता चली तो वे उदास हो गए।
अब इसे काफी अरसा बीत चुका है, पर पारिवारिक माहौल में जब उल्हाने की बारी आती है, तब बच्चे यह प्रसंग उठाते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में हर साल 5 फरवरी को कश्मीर-दिवस मनाया जाता है। इस साल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनापति कमर जावेद बाजवा ने थोड़े सम्हलकर बयान दिए हैं। भारत के साथ गाली-गुफ्ता नहीं किया है। बाजवा ने कहा है भारत कश्मीर का कोई सम्मानपूर्ण हल निकाले लेकिन इमरान खान ने परंपरा से हटकर कोई बात नहीं की। पुराने प्रधानमंत्रियों की तरह उन्होंने कश्मीर पर संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को लागू करने, और जनमत-संग्रह करवाने की बात कही और धारा 370 दुबारा लागू करने का आग्रह किया। यहाँ इमरान खान से मेरा पहला सवाल यह है कि उन्होंने संयुक्तराष्ट्र संघ का 1948 का कश्मीर-प्रस्ताव पढ़ा भी है या नहीं ? जब प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने उनसे मेरी पहली मुलाकात में यही बात इस्लामाबाद में मुझसे कही थी, तब मैंने उनसे यही सवाल पूछा था। उनका असमंजस देखकर मैंने उस प्रस्ताव का मूलपाठ, जो मैं अपने साथ ले गया था, उन्हें पढ़वा दिया। उसकी पहली धारा कहती है कि जनमत-संग्रह के पहले तथाकथित ‘आज़ाद कश्मीर’ में से प्रत्येक पाकिस्तानी नागरिक को हटाया जाए।
क्या इस धारा का आज तक पूरी तरह उल्लंघन नहीं हो रहा है? पाकिस्तानी नागरिक ही नहीं, फौज के हजारों जवान उस ‘आजाद’ कश्मीर को गुलाम बनाए हुए हैं। 1983 में जब इस्लामाबाद के ‘इंस्टीट्यूट आफ स्ट्रेटजिक स्टडीज़’ में मेरा भाषण हुआ तो उसकी अध्यक्षता पाकिस्तान के प्रसिद्ध नेता आगा शाही कर रहे थे। वहाँ भी यही सवाल उठा तो मैंने उनसे उस आजाद कश्मीरी लेखक की ताजा किताब पढऩे को कहा, जिसके अनुसार ‘पाकिस्तानी कश्मीर’ गर्मियों के दिन में विराट वेश्यालय बन जाता है। आज असलियत तो यह है कि पाकिस्तान की फौज और नेता कश्मीर को लेकर थक गए हैं। उन्होंने हर पैंतरा आजमा लिया है। युद्ध, आतंक, अंतरराष्ट्रीय दबाव, इस्लाम को खतरे का नारा आदि। अब वे बातचीत का नारा लगा रहे हैं। बातचीत क्यों नहीं हो सकती ? जरुर हो। कश्मीर उसी तरह आजाद होना चाहिए जैसे दिल्ली और लाहौर हैं लेकिन उसे अलग करने की बात सबसे ज्यादा कश्मीरियों के लिए ही हानिकर होगी।क्या पाकिस्तान अपने कश्मीर को अलग करेगा ? कदापि नहीं। भारत-पाक से घिरे अलग कश्मीर का दम घुट जाएगा। कश्मीर के शानदार और खूबसूरत लोग पूर्ण आजादी का आनंद ले सकें, इसके लिए जरुरी है कि पाकिस्तानी फौज़ उसे अपने वर्चस्व का मोहरा बनाना बंद करे। धारा 370 तो असल में कभी की खत्म हो चुकी थी। अब उसका रोना रोने से कोई फायदा नहीं है। भारत और पाक इस कश्मीर की गुत्थी को कैसे सुलझाएं, इस पर विस्तार से फिर कभी!
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
पड़ोसी देश म्यांमार में तख्तापलट के बाद मची राजनीतिक उथल-पुथल से मिजोरम में चिन समुदाय के लोगों की चिंता बढ़ गई है. उन्हें म्यांमार में हालात बिगड़ने के बाद वहां रहने वाले रिश्तेदारों के पलायन का डर सता रहा है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
बीते दिनों म्यांमार में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई आंग सान सू ची की सरकार के खिलाफ तख्तापलट करते हुए सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. मिजोरम के अलावा मणिपुर से लगी म्यांमार की सीमा पर भी सुरक्षा बढ़ा दी गई है ताकि सीमा पार से संभावित घुसपैठ पर अंकुश लगाया जा सके.
म्यांमार के साथ मिजोरम की 404 किलोमीटर लंबी सीमा लगी है. सीमावर्ती इलाकों में चिन समुदाय की बड़ी आबादी रहती है. यह लोग म्यांमार में हुई कोई तीन दशक पहले हिंसा के बाद शरण के लिए सीमा पार कर मिजोरम आ गए थे. मिजोरम की राजधानी आइजोल में ही चिन समुदाय के तीन हजार से ज्यादा लोग रहते हैं.
पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर और मिजोरम की सीमाएं म्यांमार से सटी हैं. हाल के वर्षों में वहां होने वाली भारी हिंसा के बाद चिन, कूकी, मिजो और जोमी समुदाय के लोगों ने बड़े पैमाने पर पलायन कर मिजोरम के सीमावर्ती इलाकों के अलावा राजधानी आइजल में शरण ली थी. अब तख्तापलट के बाद आपातकाल लागू होने के बाद म्यांमार में एक बार फिर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों पर हिंसा के अंदेशे के बीच पलायन की संभावना बढ़ रही है.
पलायन का इतिहास दशकों पुराना
राजधानी आइजल में रहने वाले चिन समुदाय के लोगों के हजारों परिजन भी सीमा पार फंसे हुए हैं. अब उनके भाग कर भारत में आने का अंदेशा है. चिन समुदाय के लालुनतुआंगा कहते हैं, "हमें डर है कि अब और लोग यहां आएंगे. हमारे कई करीबी रिश्तेदार म्यामांर में रहते हैं. फिलहाल वह इंतजार कर रहे हैं. वहां की सैन्य सरकार ने फिलहाल आम लोगों की आवाजाही पर रोक नहीं लगाई है. लेकिन उनके वहां फंसने का अंदेशा है. ऐसे में एक बार फिर पलायन तेज हो सकता है.'
म्यांमार से चिन समुदाय के लोगों के मिजोरम पलायन का इतिहास तीन दशकों से भी ज्यादा पुराना है. वर्ष 1988 में म्यांमार में लोकतंत्र के समर्थन में हुए विरोध प्रदर्शन के दौरान सैन्य बलों ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शनकारियों पर अत्याचार किया था. उसके बाद चिन समुदाय के कई लोग सीमा इलाके के अलावा घने जंगलों के रास्ते या फिर नदी पार करके आइजल आ गए. अब दोबारा वहां तख्तापलट होने से चिन और मिजो दोनों समुदायों को वहां से लोगों के भागकर मिजोरम आने का डर सता रहा है.
म्यांमार के सीमावर्ती इलाकों में मिजो समुदाय के भी हजारों लोग रहते हैं. मिजो और चिन समुदाय के लोग ईसाई हैं. हालांकि इन दोनों समुदायों के बीच शुरू से ही तनातनी रही है.
मिजोरम के कई संगठन म्यांमार में तख्तापलट का विरोध करते हुए वहां शीघ्र लोकतंत्र बहाल करने की मांग में प्रदर्शन कर चुके हैं. आइजल में बीते सप्ताह कई छात्र संगठनों ने म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए प्रदर्शन किया था. इसमें चिन समुदाय के लोगों ने भी हिस्सा लिया. भारत में चिन समुदाय के लोगों की कानूनी स्थिति साफ नहीं है. इनको फिलहाल शरणार्थी का दर्जा नहीं मिला है.
मणिपुर सीमा पर भी सुरक्षा चुस्त
सेना के तख्तापलट के बाद पूर्वोत्तर के मणिपुर से लगी 365 किलोमीटर लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा को सील कर दिया गया है. सामान्य परिस्थिति में मणिपुर के मोरे से म्यांमार जाने के लिए वैध सीमा द्वार है. लेकिन बीते साल कोरोना का प्रकोप बढ़ने के बाद इस सीमा को बंद कर दिया गया था. आपसी समझौते के तहत सीमा के दोनों ओर के लोग वहां लगने वाले हाट में खरीददारी के लिए बिना किसी कागजात के ही सीमा पार कर सौ मीटर की दूरी तक आवाजाही कर सकते थे.
नवंबर 2019 में म्यांमार में होने वाले चुनावों से पहले भी आंग सान सू की अगुवाई वाली नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के हजारों कार्यकर्ता और समर्थक भाग कर मणिपुर आए थे. उनको सीमावर्ती शहर मोरे में ही एक शरणार्थी शिविर में रखा गया था. लेकिन कुछ दिनों पहले म्यांमारी सैनिकों ने सादे कपड़ों में मोरे पहुंच कर उन शरणार्थियों को घर लौटने या गंभीर नतीजे भुगतने की धमकी दी. उसके बाद किसी हिंसा या सैन्य कार्रवाई के अंदेशे से मणिपुर सरकार ने उन शरणार्थियों को चंदेल जिले में मणिपुर राइफल्स के शिविर में शिफ्ट कर दिया. अब वहां भी सीमा पर असम राइफल्स के अतिरिक्त जवानों को तैनात कर दिया गया है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि म्यांमार में तख्तापलट का भारत और उस देश के साथ आपसी रिश्तों पर गंभीर प्रतिकूल असर पड़ने का अंदेशा है. सत्ता संभालने वाली सैन्य सरकार की विदेश नीति में अगर चीन के प्रति झुकाव नजर आता है तो हाल के दशकों में आपसी संबंधों को मजबूत करने की भारत की तमाम कोशिशों पर पानी फिर सकता है. एक पर्यवेक्षक लालमुनियाना कहते हैं, "फिलहाल सबसे बड़ी समस्या सीमा पार से पलायन कर मिजोरम में आने वाले लोगों की है. बोली और वेशभूषा में समानता की वजह से चिन समुदाय के लोग आसानी से स्थानीय आबादी में घुल-मिल जाते हैं. इससे सामाजिक तनाव बढ़ने का भी अंदेशा है. केंद्र और राज्य सरकारों को इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाना होगा.' (dw.com)
भारत और बांग्लादेश के बीच करीबी रिश्ते रहे हैं. लेकिन अब कई मुद्दे दोनों के बीच अविश्वास का बीज बो रहे हैं. बांग्लादेश के साथ चीन और पाकिस्तान की बढ़ती नजकीदियां भारत के लिए और मुश्किलें बन रही हैं.
डॉयचे वैले पर अंकिता मुखोपाध्याय का लिखा-
मार्च में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश का दौरा करेंगे. इस साल बांग्लादेश की आजादी और भारत के साथ उसके राजनयिक संबंध स्थापित होने के 50 साल पूरे हो रहे हैं. पीएम मोदी के दौरे में दोनों देशों के बीच दशकों पुरानी दोस्ती की अहमियत पर जोर दिया जाएगा. लेकिन दोतरफा रिश्तों में आजकल सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है.
2021 की शुरुआत में दोनों देशों के बीच ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राजेनेका की कोरोना वैक्सीन की डिलीवरी को लेकर विवाद हो गया. भारत का सीरम इंस्टीट्यूट भी इसमें पार्टनर है. इंस्टीट्यूट के सीईओ अदार पूनावाला ने कहा कि जब तक भारत में सारे लोगों को टीका नहीं लग जाता, तब तक सरकार ने सीरम इंस्टीट्यूट को निजी बाजार में टीका बेचने से रोका है.
इस बयान पर बांग्लादेश में विवाद खड़ा हो गया क्योंकि उसने पिछले साल ही भारत से तीन करोड़ डोज खरीदने की डील की थी. बहुत से बांग्लादेशियों को लगा कि भारत डील के मुताबिक अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रहा है. कई लोगों ने सोशल मीडिया पर भारत को "गैर भरोसेमंद" पड़ोसी बताया.
बाद में पूनावाला ने एक बयान जारी कर वैक्सीन के निर्यात पर सफाई दी. उन्होंने कहा कि सभी देशों को निर्यात की अनुमति है. बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमेन ने भी पुष्टि की कि उनके देश को वैक्सीन मिल रही है. लेकिन इस पूरे मामले से बांग्लादेशी लोगों के मुंह का स्वाद कसैला हो गया. ढाका यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर लतीफुर यास्मीन कहते हैं, "पूनावाला के बयान को लेकर बांग्लादेश में हलचल हुई क्योंकि जब हमारी डील हो गई थी तो फिर हमें वैक्सीन देने से इनकार क्यों किया गया."
अधूरे वादे
यास्मीन कई ऐसे मौकों का जिक्र करते हैं जब बांग्लादेशियों को लगा कि भारत अपने वादे पूरे नहीं करता. सितंबर 2020 में बांग्लादेश ने भारत से प्याज का निर्यात बहाल करने को कहा था. भारत ने अचानक बांग्लादेश को प्याज भेजना बंद कर दिया था. भारत बांग्लादेश के लिए प्याज का सबसे बड़ा निर्यातक है. बांग्लादेश भारत से हर साल साढ़े तीन लाख टन प्याज खरीदता है.
भारत से प्याज आनी बंद हुई तो बांग्लादेश में उसके दामों में 50 प्रतिशत तक का उछाल आ गया. सरकार को अन्य देशों से प्याज मंगाकर उसे सब्सिडी पर बेचना पड़ा. यास्मीन कहते हैं, "बांग्लादेश के साथ भारत के ऐतिहासिक रूप से अच्छे संबंध रहे हैं, लेकिन इस दोस्ती को और मजबूत करने के लिए भारत ने कई मौके गंवाए हैं."
दिसंबर में दोनों देशों के बीच एक वर्चुअल शिखर सम्मेलन हुआ जिसमें व्यापार, निवेश और यातायात संपर्कों को बेहतर बनाने पर चर्चा हुई. लेकिन इस दौरान तीस्ता नदी के जल बंटवारे जैसे विवादित मुद्दों से बचा गया. यह नदी भारत के सिक्किम और पश्चिम बंगाल राज्यों से गुजरती हुई बांग्लादेश पहुंचती है.
तीस्ता नदी लंबे समय से दोनों देशों के बीच विवाद का कारण बनी हुई है
बंगाल का विरोध
बांग्लादेश नदी के निचले इलाके में पड़ता है, तो वह चाहता है कि भारत उसे इस नदी का ज्यादा पानी दे. दोनों देशों के बीच अब तक इस पर कोई समझौता नहीं हो पाया है, जिसकी मुख्य वजह पश्चिम बंगाल का तीखा विरोध है. राज्य की तृणमूल सरकार का कहना है कि तीस्ता में जिन ग्लेशियरों का पानी आता है, वे लगातार पिघल रहे हैं और अगर बांग्लादेश को ज्यादा पानी दिया गया तो इससे पश्चिम बंगाल के कई हिस्से सूखे की चपेट में आ सकते हैं.
तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद सुखेंदु शेखर रॉय कहते हैं, "अगर पानी देना है तो फिर यह भी सोचना होगा कि पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से में लोगों की पानी की जरूरतें कैसे पूरी की जाएंगी. वरना तीस्ता भी उसी तरह सूख जाएगी जैसे 1996 में जल बंटवारा समझौता करने पर गंगा नदी सूख गई थी."
दिल्ली स्थित थिंक टैंक ऑबर्जरवर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो जोएता बनर्जी कहती हैं कि केंद्र की सरकार बांग्लादेश के साथ तीस्ता जल विवाद को सुलझाने के प्रति गंभीर है, लेकिन इसके साथ पश्चिमी बंगाल के बहुत हित जुड़े हैं. वह कहती हैं, "अगर पश्चिम बंगाल ने अपना रुख नहीं बदला तो फिर किसी तरह की डील कर पाना बहुत मुश्किल होगा."
चीन का असर
एक तरफ भारत जहां बांग्लादेश के साथ तीस्ता जल विवाद को सुलझाने में लगा है, वहीं चीन ने बांग्लादेश को इस नदी पर सिंचाई परियोजना शुरू करने के लिए एक अरब डॉलर देने की पेशकश की है. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि बांग्लादेश चीन की तरफ से मिलने वाले आर्थिक फायदों को लेना चाहता है. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के आयोजन सचिव इमरान सालेह प्रिंस कहते हैं, "चूंकि भारत ने तीस्ता का मुद्दा नहीं सुलझाया है, तो बांग्लादेश मदद के लिए चीन की तरफ देखने को मजबूर है. भारत के पास कदम उठाने के लिए अब भी समय है, ताकि हमें चीन से मदद ना लेनी पड़े."
न्यूज वेबसाइट द ईस्टर्न न्यूज लिंक के एडिटोरियल डायरेक्टर सुबीर भौमिक कहते हैं कि अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के खराब रिश्तों के कारण ही बांग्लादेश चीन की मदद लेने के लिए मजबूर है. वह कहते हैं, "प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में अपने पड़ोसियों के साथ भारत के रिश्ते खराब हुए हैं. शेख हसीना दक्षिण एशिया में भारत की सबसे भरोसेमंद सहयोगी हैं लेकिन उनकी नाराजगी जायज है क्योंकि तीस्ता जल बंटवारा संधि नहीं हुई है. भारत के नागरिकता संशोधन कानून पर भी हसीना की सरकार और बांग्लादेश के लोग चिंतित हैं. सीमा पर होने वाली मौतें भी बढ़ी हैं. भारत के गृह मंत्री अमित शाह की तरफ से बांग्लादेशी आप्रवासियों को दीमक कहे जाने पर लोगों में बहुत नाराजगी देखी गई."
नजदीकियां बढ़ाता पाकिस्तान
पाकिस्तान चीन का सबसे नजदीकी सहयोगी है. वह भी अब बांग्लादेश के साथ अपने रिश्तों को बेहतर बनाना चाहता है. हालांकि बहुत से लोग मानते हैं कि बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच संबंधों का सुधरना इस बात पर निर्भर करता है कि पाकिस्तान 1971 के युद्ध में हुए अत्याचारों को किस हद तक स्वीकार करता है.
1971 से पहले बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था. पाकिस्तान की सेना पर आरोप है कि उसने ताकत के दम पर बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को कुचलने की कोशिश की और बड़े पैमाने पर लूट, हत्याएं और बलात्कार की घटानाएं अंजाम दी गईं. बांग्लादेश का कहना है कि पाकिस्तान ने युद्ध के दौरान 30 लाख लोगों को मौत के घाट उतारा.
विशेषज्ञ मानते हैं कि बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच रिश्ते सामान्य होने के लिए अभी लंबा सफर तय किया जाना बाकी है. फिर भी, बांग्लादेश के एक कैबिनेट मंत्री सलमान एफ रहमान पर्दे के पीछे से पाकिस्तान के संबंध बेहतर बनाने में जुटे हैं. उनसे जुड़े एक सूत्र ने नाम गोपनीय रखने की शर्त पर यह जानकारी दी है.
बावजूद इसके विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि बांग्लादेश अपनी विदेश नीति में कोई स्थाई बदलाव लाते हुए चीन और पाकिस्तान को भारत पर प्राथमिकता देगा. उनका कहना है कि बांग्लादेश को अपनी विदेश नीति और रणनीतिक विकल्पों को बहुत ही सावधानी से चुनना होगा. (dw.com)