विचार/लेख
-रमेश अनुपम
आज इस बात पर यकीन कर पाना थोड़ा मुश्किल साबित हो सकता है कि एक ऐसा जीनियस कभी इस शहर की शान हुआ करते थे ,जिनकी प्रतिभा का लोहा पूरी दुनिया मानती थी।
ऐसे जीनियस थे अद्भुत प्रतिभा के धनी महान भाषाविद हरिनाथ डे।
कोतवाली से कालीबाड़ी चौक की ओर जाने वाले मार्ग पर आज भी डे भवन अपना सिर ऊंचा कर खड़ा हुआ है। इसी डे भवन में इस जीनियस का बचपन और किशोरावस्था व्यतीत हुआ है ।मुख्य सडक़ पर स्थित डे भवन में भीतर घुसते ही बाईं ओर जो पत्थर लगा हुआ है उसमें उन छत्तीस भाषाओं का उल्लेख आज भी पढ़ा जा सकता है, जिसके ज्ञाता महान जीनियस हरिनाथ डे थे।
क्या आप किसी ऐसे शख्स की कल्पना कर सकते हैं जिसे मात्र चौंतीस वर्षों का छोटा सा जीवन मिला हो और जो दुनिया की छत्तीस भाषाओं का ज्ञाता हो। जिसकी शिक्षा-दीक्षा ,लालन-पालन रायपुर शहर में हुआ हो तथा जो रायपुर नगर के गौरव रायबहादुर भूतनाथ डे जैसे विद्वान पिता के मेधावी संतान हों।
लैटिन, ग्रीक, हिब्रू, स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन, रशियन, पुर्तगीज, पोलिश, जापानी, टर्किश, अरबिक, पर्शियन,चीनी जैसी दुनिया की छत्तीस मशहूर और क्लिष्ट भाषा में निष्णात होना अपने आप में कोई कम दुष्कर या असंभव कार्य नहीं है।
आज इस बात पर यकीन कर पाना मुश्किल हो सकता है कि एक ऐसा ही जीनियस का संबंध रायपुर शहर से रहा है।
रायबहादुर भूतनाथ डे के इस महान प्रतिभाशाली सुपुत्र हरिनाथ डे की कीर्ति गाथा के लिए शायद मेरे पास उस तरह के शब्द या भाषा नहीं है जिसके महान हरिनाथ डे उत्तराधिकारी हैं।
ऐसे महान शख्शियत पर कुछ लिखते हुए कलम भी कुछ देर ठहर कर सोचने लग जाती है कि क्या ऐसा संभव है ? क्या कोई ऐसा शख्स भी कभी कोई रहा होगा ? जिसकी वाणी से छत्तीस भाषाएं कभी फूल की पंखुड़ी की तरह झरती रहीं होंगी?
जिस महान जीनियस से यह शहर, यह छत्तीसगढ़ राज्य पूरी तरह से अपरिचित है ,उस महान जीनियस के विषय में तत्कालीन गवर्नर जरनल इंडिया, लॉर्ड कर्जन तथा एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल डॉ.ए.ए. सुहरावर्दी ने क्या कहा था, उसे भी जानना आवश्यक है। बिना जाने हम उस महान शख्शियत के अवदान को नहीं जान पाएंगे।
लॉर्ड कर्जन ने कहा था ‘इस समय भारत में जो ढाई जीनियस हैं उनमें से में एक पूरा जीनियस मैं हरिनाथ डे को मानता हूं। ‘डॉक्टर ए.ए.सुहरावर्दी ने कहा था कि " महाराजा आते-जाते रहते हैं, पर हरिनाथ डे जैसे जीनियस हमेशा जीवित रहेंगे।आज, कल और सदियां उन जैसे जीनियस को याद करेगी। ’
महान जीनियस हरिनाथ डे की ऐसी प्रतिभा से प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार द्वारा उन्हें कोलकाता स्थित प्रसिद्ध लाइब्रेरी इंपीरियल लाइब्रेरी ( वर्तमान में नेशनल लाइब्रेरी ) का लाइब्रेरियन नियुक्त किया गया।
यह उसी हरिनाथ डे की विरल गाथा है जो मां श्रीमती एलोकेशी डे की गोद में लेटे हुए मात्र छ: माह के शिशु थे जब रायबहादुर भूतनाथ डे अपने मित्र विश्वनाथ दत्त और उसके पूरे परिवार को जिसमें, ग्यारह वर्षीय नरेंद्रनाथ दत्त भी शामिल थे जो कालांतर में स्वामी विवेकानन्द के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुए, उन्हें बैलगाडिय़ों में लेकर नागपुर से रायपुर आए थे।
इसी शिशु को अपनी गोद में लेकर किशोर नरेंद्र डे भवन में घूमा करते थे।
शेष अगले रविवार... महान जीनियस हरिनाथ डे की शिक्षा - दीक्षा और जीवनी.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सरकार ने ज्यों ही 25 फरवरी को दूरसंचार तंत्र को नियंत्रित करने की आचार संहिता जारी की, इंटरनेट, अखबारों और टीवी चैनलों पर हायतौबा मच गई। वह तो मचनी ही थी, क्योंकि लोगों के मन में यह भाव पहले से ही बैठा हुआ है कि सरकार सारे खबरतंत्र को अपनी कठपुतली बनाकर रखना चाहती है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस भाव को ही अभाव में बदल दिया है। उसने सरकार को उलटे डांट लगाई कि आपने जो आचार-संहिता जारी की है, वह निरर्थक है, क्योंकि उसमें दोषियों को सजा का न तो कोई प्रावधान है और उसमें न तो यह बताया गया है कि इंटरनेट पर चलनेवाले असंख्य अश्लील चित्र और कहानियों को रोकने का क्या इंतजाम है? अपनी आचार-संहिता में सरकार ने यह भी नहीं बताया है कि यदि इन सूचना-माध्यमों पर कोई आपत्तिजनक या अपमानजनक सामग्री भेजी जाती है तो उसके पास ऐसे कौन से तरीके हैं, जिनके द्वारा वह उन्हें रोक सकेगी?
एक तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने यह कडक़ मांग की है और दूसरी तरफ देश के खबरतंत्र में यह डर फैल गया है कि अब जबकि यह आचार-संहिता कानून का रूप ले लेगी तो भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दम घुट जाएगा। यह डर स्वाभाविक है लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए कि दूरसंचार माध्यमों का दुरुपयोग अन्य देशों में बहुत पहले से ही इतने भयंकर रूप में हो रहा था कि उन्हें उसे रोकने के लिए सख्त कानून बनाने पड़े हैं। ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, यूरोपीय देशों और अमेरिका आदि में इन आधुनिक सूचना-माध्यमों पर निगरानी के लिए कठोर कानून काफी पहले से लागू हैं।
मैं स्वयं यह मानता हूं कि इंटरनेट पर उपलब्ध अश्लील सामग्री पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए। उसके कारण देश में दुराचार और यौन अपराधों में वृद्धि हो रही है। बच्चे और नौजवान संस्कारहीन होते जा रहे हैं। सरकार को आतंकवादियों, तस्करों, पेशेवर अपराधियों, सामूहिक हिंसकों और विदेशी जासूसों आदि के टेलिफोन, ई-मेल, व्हाट्सऐप आदि पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए लेकिन यह काम बहुत ही संकोच और सावधानीपूर्वक होना चाहिए। इसमें पूरी जवाबदेही की जरूरत है। यह गंभीर और नाजुक कार्रवाई एक संसदीय कमेटी की देख-रेख में हो तो बेहतर रहेगा ताकि मंत्री या अफसर अपनी मनमानी न कर सकें।
जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल है, उस पर किसी प्रकार की रोक-टोक का सवाल ही नहीं उठता, बशर्ते कि वह अपने संवैधानिक दायरे में रहे। देशद्रोह संबंधी धारा 124ए में संशोधन नितांत आवश्यक है। स्वतंत्र भारत में वह गुलामी की प्रतीक है। उसका उपयोग कम और दुरुपयोग ज्यादा होता है।
सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को आश्वस्त किया है कि देश के सूचना तंत्र को सन्मार्ग पर चलाने के लिए वह शीघ्र ही नया आदेश जारी करेगी या कानून बनाएगी। बेहतर तो यह हो कि संसद के इसी सत्र में पूरी और खुली बहस के बाद एक ऐसा कानून पारित किया जाए, जो भारत के सूचना तंत्र को अभिव्यक्ति की मर्यादा और स्वतंत्रता का पर्याय बना दे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अल्पसंख्यक अधिकारों की उपसमिति में 17 अप्रेल 1947 को सुझावों का एक नोट दिया था। मौजूदा भाजपा नेतृत्व को ये सुझाव चुनौती के साथ पेश किए जाएं तो दुनिया का अपने को सबसे बड़ा कहता कथित दल अपने पितृपुरुष को तर्पण तक नहीं कर पाएगा। डाॅ. मुखर्जी ने मुख्यतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1931 के प्रस्तावों को समर्थन देते अपनी सिफारिशें लिखी थीं। उन्होंने उस देश के संविधान पर भी ज़्यादा भरोसा किया जो भारत में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में हमलावर बनकर घुस आया है। डाॅ. मुखर्जी ने चीन के संविधान सहित सोवियत संविधान और कैनेडा तथा आयरलैंड के संविधानों की कंडिकाओं का भी उद्धरण और समर्थन दिया।
डाॅ. मुखर्जी के लिखित नोट में है किसी व्यक्ति को किसी अदालत के आदेश या मुनासिब तौर पर बनाए गए कानून के अभाव में गिरफ्तार, प्रतिबंधित, निरोधित या दंडित नहीं किया जाए और न ही उसकी कोई संपत्ति ऐसे आरोप लगाकर सरकार द्वारा जप्त की जा सके। उत्तरप्रदेश की योगी सरकार इसके ठीक उलट आचरण मूंछों पर ताव देकर कर रही है और डाॅ. मुखर्जी की याद भी उसे नहीं होगी। नागरिक अधिकारों पर डकैती करते कानून उत्तरप्रदेश में बना है। जो पार्टी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का शोशा छोड़ती रहती है, क्या उसने पढ़ा है डाॅ. मुखर्जी ने लिखा था कि भारत का कोई एक खास (राष्ट्रीय) धर्म नहीं होगा। यह राज्य की जवाबदेही है कि वह सभी धर्मों से बराबरी का बर्ताव करेगी। क्या भाजपा में हिम्मत है कि कहे वह डॉ. मुखर्जी से असहमत है? यह भी कहा कि हर नागरिक को सरकार को सम्बोधित याचिका और शिकायत देने का अधिकार होगा और उसके खिलाफ मुकदमा करने का भी। (ब्रिटिश तथा चीनी संविधान से उद्धृत)।
यह भी मुखर्जी ने लिखा कि हर नागरिक को अपने पत्र व्यवहार की गोपनीयता बनाए रखने का अधिकार होगा। कोई नरेन्द्र मोदी सरकार से पूूछे कि पूरी दुनिया में अपनी फजीहत भी कराते मौजूदा सरकार नागरिकों की आज़ादी की गोपनीयता को किस तरह तार तार कर रही है। आधार कार्ड का प्रकरण हो। बैकों से संव्यवहार हो। सोशल मीडिया हो। इंटरनेट हो या अन्य जो भी तकनीकी ज्ञान के अवयव होते हैं। वहां घुसकर मोदी सरकार ने निजता के कानून का क्रूर उल्लंघन कई बार किया है और अब भी आमादा है। सुप्रीम कोर्ट तक को इस संबंध में संविधान पीठ बनाकर फैसला करना पड़ा है। सरकार का यह कृत्य तो डाॅ. मुखर्जी के अनुसार चीनी संविधान के अनुच्छेद 12 के खिलाफ है।
दिलचस्प है भाजपा सरकार और पार्टी संगठन को बताना ज़रूरी है कि डाॅ. मुखर्जी ने अपने नोट में लिखा था कि कोई लोकसेवक गैरकानूनी तरीके से किसी व्यक्ति की आज़ादी या अधिकार में दखल देता है तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही तो हो। इसके अलावा उसे फौजदारी और दीवानी कानून में भी आरोपी बनाया जाए। पीड़ित नागरिक चाहे तो ऐसे कृत्यों के लिए वह संबंधित सरकार से हर्जाने का दावा कर सकता है। (अनुच्छेद 26 चीनी संविधान)। देश में एक तो क्या लाखों प्रकरण हैं जिनमें मौजूदा केन्द्र सरकार की नकेल डाॅ. मुखर्जी के नोट की इमला में कसी जा सकती है। चाहे किसान आंदोलन हो। श्रमिक यूनियनों का खात्मा हो। आदिवासियों का विस्थापन हो। महिलाओं का रसूखदार नेताओं द्वारा बलात्कार हो या कोरोना पीड़ित लाखों गुमनाम देशवासियों की बेबसी और लाचारी के सरकारी कारण हों। मीडिया और नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ताओं की जबरिया गिरफ्तारी हो। क्या हो रहा है डा0 मुखर्जी? हिन्दू-मुसलमान करने वाली भाजपा के पितृपुरुष ने कांग्रेस के प्रस्तावों पर निर्भर होकर कहा था कि अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा और लिपि की पूरी रक्षा की जाएगी। उन्हें अपनी शिक्षण और अन्य संस्थाएं चलाने और धर्म का पालन करने की पूरी आज़ादी होगी। क्या कहती है भाजपा उर्दू भाषा और मदरसों को लेकर? अब तो गुरुमुखी पढ़ने वालों को आतंकी और खालिस्तानी भी कहा जा रहा है!
मुखर्जी ने तो यह भी कहा था कि सरकारी नौकरी के 50 प्रतिशत पदों को योग्यता के आधार पर भरा जाए और बाकी पदों को प्रत्येक समुदाय से आबादी के अनुपात में उम्मीदवार लेकर भरा जाए। क्या देश नौकरियों में यह अनुपात भाजपा लाने का वचन दे सकती है? यह भी डाॅ. मुखर्जी ने अपने नोट में लिखा था कि विधायिका और अन्य स्वायत्तशासी संस्थाओं में अल्पसंख्यकों का मुनासिब आनुपातिक संख्या में निर्वाचन या मनोनयन किया जाए। भाजपा तो कभी कभी पूरे राज्य में लोकसभा या विधानसभा चुनाव में एक भी टिकट अल्पसंख्यकों को नहीं देती। 14 वर्ष तक बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने के अधिकार की सिफारिश करते उन्होंने लिखा था प्रदेश, जिला या नगरपालिक संस्थाओं के बजट में हर हालत में शिक्षा पर कुल बजट का 30 प्रतिशत खर्च किया जाए। है हिम्मत किसी भी सरकार की जो शिक्षा पर बजट का लगभग तिहाई तो क्या चौथाई खर्च करने की कहे भी? यह भी कि राज्य किसी को कोई उपाधि नहीं देगा। सावरकर जी का क्या होगा? राष्ट्रीय राजमार्ग पर धार्मिक भावना या भवन आदि बना रहा हो तो लोगों के यातायात में कोई दिक्कत पैदा नहीं करे। (कांग्रेस प्रस्ताव)।
महत्वपूर्ण है उन्होंने यह भी लिखा था कि भारत के हर नागरिक को हथियार रखने का अधिकार उस संबंध में बनाए गए विनियमों और आरक्षण आदि के आधार पर दिया जाएगा। सोचिए आज हर नागरिक के हाथ में हथियार होता! सरकारी अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में किसी भी विद्यार्थी को अपना धर्म छोड़कर अन्य धर्म संबंधी शिक्षा या औपचारिकता को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। भारत में यदि रहना होगा, वन्देमातरम् कहना होगा का क्या होगा? महत्वपूर्ण है उन्होंने कहा था कि अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित स्कूल, काॅलेज, तकनीकी और अन्य संस्थाओं को राज्य से सहायता पाने का बराबर का अधिकार होगा जितना अन्य उसी तरह की सार्वजनिक संस्थाओं या बहुसंख्यक वर्ग की संस्थाओं के लिए दिया जा सकता है। किसी धार्मिक समुदाय को लेकर कोई विधेयक या प्रस्ताव विधायिका में प्रस्तुत किया जाना है, तो यदि उस प्रभावित धर्म के विधायकों में तीन चौथाई विरोध करें तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी।
सौ साल के सफर में बिहार विधानसभा कई घटनाक्रमों की गवाह बनी। अंग्रेजों के विदेशी शासन के दौरान बनी विधानसभा ने सौ सालों में कानूनी स्तर पर बड़े बड़े बदलाव देखे जिससे लोकतंत्र आहिस्ता-आहिस्ता मजबूत हुआ।
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
बिहार विधानसभा फरवरी में सौ साल की हो गई। अपने भवन में इसकी पहली बैठक वर्ष 1921 की सात फरवरी को हुई थी। तब इसे बिहार-उड़ीसा विधान परिषद के नाम से जाना जाता था। बिहार विधानसभा ने सौ साल के सफर बहुत सी घटनाएं देखी हैं। देश की आजादी से लेकर राज्य के विभाजन तक। इस दौरान कई ऐतिहासिक फैसले लिए गए जो देशभर में चर्चित हुए। इसी सदन में बिहार-उड़ीसा के पहले राज्यपाल ने लोगों से स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए स्वदेशी चरखा अपनाने की अपील की थी जो बाद में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जनांदोलन का हिस्सा बनी।
इन फैसलों में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के कार्यकाल में पारित किया गया जमींदारी उन्मूलन अधिनियम आजाद भारत में सबसे अहम रहा। इसी के आधार पर बाद में चकबंदी एक्ट लाया गया जिसके तहत अधिकतम जमीन रखने की सीमा तय की गई। इसके अतिरिक्त शराबबंदी कानून, पंचायती राज में महिलाओं को पचास फीसद आरक्षण तथा पर्यावरण को बचाने के लिए जल-जीवन-हरियाली अभियान जैसे कई ऐसे फैसले हुए जिसे विधायकों ने एक सुर में पारित किया। देश में पहली बार बिहार में पंचायती राज में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी जिसे कई राज्यों ने बाद में अपनाया। ये ऐसे फैसले थे जिनके प्रभाव व्यापक व दूरगामी रहे। शताब्दी समारोह के मौके पर आयोजित कार्यक्रमों का सिलसिला सालभर चलेगा।
बिहार को मिला अलग
राज्य का दर्जा
बिहार में विधायिका के इतिहास के झरोखे में झांक कर देखें तो साल 1911 काफी महत्वपूर्ण रहा। इसी साल 12 दिसंबर को बिहार-उड़ीसा को बंगाल से अलग कर पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। 22 मार्च,1912 को विधायी परिषद गठित हुई जिसके 43 सदस्य थे। इनमें मात्र 24 सदस्य ही निर्वाचित थे जबकि शेष सदस्यों का मनोनयन किया जाता था। अलग राज्य बनने के बाद विधान परिषद की पहली बैठक पटना कालेज के सभागार में 20 जनवरी,1913 को हुई थी। चूंकि परिषद का अपना कोई सचिवालय या सभागार नहीं था इसलिए इसकी बैठक अलग-अलग जगहों पर होती रही। बंगाल से अलग होने के बाद परिषद के लिए एक सचिवालय की जरूरत तो महसूस की ही जा रही थी।
विधानसभा भवन के सौ साल पूरे होने के मौके पर सालभर चलने वाले शताब्दी समारोह हो रहे हैं। वर्ष 1920 में विधान परिषद का अपना भवन बनकर तैयार हो गया। यही इमारत बिहार विधानसभा का मौजूदा भवन है। सौ साल पहले सात फरवरी,1921 को तत्कालीन राज्यपाल सत्येंद्र प्रसन्न सिन्हा ने विधान परिषद के पहले भवन का उद्घाटन किया था। इस मौके पर आयोजित बैठक को राज्यपाल सिन्हा ने संबोधित किया था और वॉल्टर मॉड सदन के अध्यक्ष थे। तब सदन के सदस्यों को मात्र 2404 लोग चुनते थे। बाद में इनकी संख्या तीन लाख से अधिक हो गई जिनमें यूरोपियन, जमींदार और विशेष निर्वाचन क्षेत्र के वोटर भी शामिल थे। वर्ष 1935 में पारित अधिनियम के तहत बिहार और उड़ीसा को अलग राज्य बनाया गया तथा बिहार में विधानमंडल के तहत दो सदनों, विधान परिषद और विधानसभा की व्यवस्था अस्तित्व में आई। 1936 में उड़़ीसा भी बिहार से अलग हो गया। इस लोकतांत्रिक संस्था के सतत विकास को इससे ही समझा जा सकता है कि आज सात करोड़ से अधिक मतदाता विधानसभा के 243 सदस्यों को चुनते हैं। झारखंड के अलग होने के पहले बिहार विधानसभा के सदस्यों की संख्या 324 थी जो विभाजन के बाद 243 रह गई है।
इतालवी आर्किटेक्चर
का नायाब नमूना
मौजूदा विधानसभा भवन के आर्किटेक्ट एएम मिलवुड थे। इतालवी रेनेसां शैली में बनी यह इमारत कई मायने में बेमिसाल है। बीच के वर्षों में इस भवन का विस्तार भी किया गया। जहां आज विधानमंडल के संयुक्त अधिवेशन की बैठक होती है, उसे सेंट्रल हॉल का नाम दिया गया है। विशिष्ट श्रेणी की इस इमारत में समानुपातिक गणितीय संतुलन के साथ ही सादगी व भव्यता का अद्भुत समन्वय है। अर्द्ध वृताकार मेहराब व गोलाकार स्तंभ इसकी खास विशेषता में शुमार है जो इसे रोमन शैली से प्रभावित दर्शाती है।
विधानसभा का सभा कक्ष आयताकार ब्रिटिश पार्लियामेंट से इतर रोमन एम्फीथियेटर की तर्ज पर अर्द्ध गोलाकार शक्ल में बनाया गया है। मूल सभा कक्ष की आंतरिक संरचना साठ फीट लंबी व पचास फीट चौड़ी है जिसका विस्तार भवन की दोनों मंजिलों में है। विधानसभा भवन के अगले हिस्से पर जो प्लास्टर किया गया है उस पर एक निश्चित अंतराल पर कट मार्क बनाया गया है जिससे इसकी खूबसूरती काफी बढ़ जाती है। वास्तुविद इसे इंडो सारसेनिक पद्धति का उदाहरण मानते हैं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायकों को एक-दूसरे का सम्मान करने की अपील की
विधायकों को अपराध से
दूर रहने की सीख
विधानसभा भवन के सौ साल पूरे होने के मौके पर सालभर चलने वाले शताब्दी समारोह हो रहे हैं। औपचारिक बैठक में सदन के सुव्यवस्थित संचालन के अलावा विधायकों की भूमिका तथा लोक महत्व के मामलों को सदन में उठाने की प्रक्रिया विमर्श के केंद्र में रही। जनहित के सवालों पर सकारात्मक चर्चा के साथ बिहार का विकास मुख्य मुद्दा रहा। इन सबसे दीगर बिहार विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा ने सबसे अहम बात कही कि अब विधायक अपने घर में बाहर यह लिखेंगे कि उनके परिवार का अपराध और नशे से कोई नाता नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायकों को एक-दूसरे का सम्मान करने की अपील की कहा कि सबसे महत्वपूर्ण है कि सबकी बात सुनी जाए।
नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर वृद्ध हो चुके एक पूर्व विधायक ने कहा, ‘बाकी बहुत कुछ तो नहीं बदला है, किंतु मुझे नहीं लगता कि जनप्रतिनिधियों का व्यवहार उतना शालीन रह गया है। लगता है जैसे धैर्य चूक रहा है। मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता व विपक्ष के बीच स्वस्थ विमर्श की परंपरा का निर्वहन जरूरी है।’ कुछ ऐसा ही खगडिय़ा जिले के बेलदौर से पांचवीं बार विधायक चुने गए पन्नालाल पटेल का भी कहना है। वे कहते हैं, ‘सदस्यों के व्यवहार में रूखापन आया है। विपक्षी सदस्यों का व्यवहार बदला दिखता है। अब तो निजी हमले तक किए जाते हैं।’ शायद यही वजह रही होगी कि उपमुख्यमंत्री रेणु देवी ने भी कहा कि सार्वजनिक व व्यक्तिगत जीवन में व्यवहार ऐसा रखना चाहिए कि जनप्रतिनिधियों के प्रति आमलोगों का विश्वास का कायम रहे।
सदन के सौ साल तो पूरे हो गए किंतु लोकतंत्र के संबंध में तत्कालीन राज्यपाल सिन्हा के कहे शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं कि अपने मतभेद भुलाकर अधिक से अधिक मुद्दों पर आपसी सहमति स्थापित करें। तथा राजनीतिक तंत्र का उपयोग कर दलितों की स्थिति उन्नत करने का साथ ही जाति, नस्ल तथा शत्रुतापूर्ण स्वार्थों की दीवारें गिरा दें। सौ साल की लोकतांत्रिक परंपराओं के बावजूद ये समस्याएं ज्यों कि त्यों हैं, जाति, नस्ल और स्वार्थ की दीवारें और मजबूत हो गई हैं। (डायचे वैले)
-संजय श्रमण
जब देश में, अर्थव्यवस्था और राजनीति ठीक चल रही होती है तब समाज में बाबा लोग बहुत सक्रिय रहते हैं।
शहरीकरण, वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण से जन्मी सुविधा और सुरक्षा का सबसे ज्यादा लाभ उठाते हुए ये धूर्त परजीवी इन्हीं उपलब्धियों को गालियां देते हुए आत्मा-परमात्मा की बकवास करते हैं।
फिर जैसे ही समाज में पैसा आता है और लोगों के पास खाली समय होता है वैसे ही ये परजीवी उन्हें आत्मा-परमात्मा, ध्यान-समाधि-निर्वाण आदि सिखाने निकाल पड़ते हैं। लेकिन जैसे ही राजनीति अस्थिर होती है, अर्थव्यवस्था खतरे मे ंपड़ती है, वैसे ही ये नालायक धूर्त अचानक गायब हो जाते हैं।
फिर मज़े की बात ये कि इनको पूजने वाली पब्लिक भी इनसे सवाल नहीं पूछती कि बाबाजी आपकी शिक्षाओं का क्या परिणाम हो रहा है?
इनसे कोई नहीं पूछता कि आपके ध्यान समाधि इत्यादि की बकवास के बावजूद इस देश में लोग अपने पड़ोसी का घर क्यों जला रहे हैं?
इन अनपढ़ और अंधविश्वासी बाबाओं से कोई नहीं पूछता कि अध्यात्म और धर्म की शक्ति इतने बड़े देश को सभ्यता कब तक सिखा पाएगी?
जब भी देश में आग लगती है, तब सबसे पहले इन बाबाओं की गर्दन पकड़ी जानी चाहिए। ये ही वे असली लोग हैं जो एक अंधविश्वासी और प्रतिगामी राजनीति को समर्थन देकर गुंडों और बलात्कारियों को संसद में पहुंचाते हैं।
जब महंगाई बढ़े और देश में दंगे हों इन बाबाओं को पकडक़र पूछिए कि आपके प्रवचनों और साधनाओं ने इस देश को क्या दिया है?
जिस धर्म या आध्यात्म से समाज को कोई लाभ नहीं उसे भी एक नालायक सरकार की तरह ही उखाड़ कर फेंक देना चाहिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के बाइडन-प्रशासन ने दो-टूक शब्दों में घोषणा की है कि वह कश्मीर पर ट्रंप-प्रशासन की नीति को जारी रखेगा। अपनी घोषणा में वह ट्रंप का नाम नहीं लेता तो बेहतर रहता, क्योंकि ट्रंप का कुछ भरोसा नहीं था कि वह कब क्या बोल पड़ेंगे और अपनी ही नीति को कब उलट देंगे। ट्रंप ने कई बार पाकिस्तान की तगड़ी खिंचाई की और उसके साथ-साथ ही कश्मीर पर मध्यस्थता की बांग भी लगा दी, जिसे भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों ने दरकिनार कर दिया। ट्रंप तो अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाने पर आमादा थे। इसीलिए वे कभी पाकिस्तान पर बरस पड़ते थे और कभी उसकी चिरौरी करने पर उतर आते थे लेकिन बाइडन-प्रशासन काफी संयम और संतुलन के साथ पेश आ रहा है, हालांकि उनकी ‘रिपब्लिकन पार्टी’ के कुछ भारतवंशी नेताओं ने कश्मीर को लेकर भारत के विरुद्ध काफी आक्रामक रवैया अपनाया था। उस समय रिपब्लिकन पार्टी विपक्ष में थी।
उसे वैसा करना उस वक्त जरूरी लग रहा था लेकिन बाइडन-प्रशासन चाहे तो कश्मीर-समस्या को हल करने में महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकता है। उसने अपने अधिकारिक बयान में कश्मीर के आंतरिक हालात पर वर्तमान भारतीय नीति का समर्थन किया है लेकिन साथ में यह भी कहा है कि दोनों देशों को आपसी बातचीत के द्वारा इस समस्या को हल करना चाहिए। गृहमंत्री अमित शाह ने स्वयं संसद में कहा है कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दुबारा शीघ्र ही मिल सकता है, बशर्ते कि वहां से आतंकवाद खत्म हो। बाइडन-प्रशासन से मैं उम्मीद करता था कि वह कश्मीर में चल रही आतंकी गतिविधियों के विरुद्ध जऱा कड़ा रूख अपनाएगा। इस समय पाकिस्तान की आर्थिक हालत काफी खस्ता है और उसकी राजनीति भी डांवाडोल हो रही है।
इस हालत का फायदा चीन को यदि नहीं उठाने देना है तो बाइडन-प्रशासन को आगे आना होगा और पाकिस्तान को भारत से बातचीत के लिए प्रेरित करना होगा। चीन के प्रति अमेरिका की कठोरता तभी सफल होगी, जब वह प्रशांत-क्षेत्र के अलावा दक्षिण एशिया में भी चीन पर लगाम लगाने की कोशिश करेगा। यदि भारत और पाक के साथ अमेरिका घनिष्ट संबंध बनाएगा तो उसे अफगानिस्तान में भी फंसे रहने से छुटकारा मिल सकता है। जोजफ़ बाइडन चाहें तो आज दक्षिण एशिया में वही रोल अदा कर सकते हैं, जो 75-80 साल पहले यूरोपीय ‘दुश्मन-राष्ट्रों’ को ‘नाटो’ में बदलने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमेन और आइजनहावर ने अदा किया था।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
जुबैर अहमद
भारत में शायद पहली बार पेट्रोल की कीमत कुछ शहरों में 100 रुपए प्रति लीटर हो गई हैं। अगर अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतों के हालिया रुझान को देखें, तो तेल और भी महँगा हो सकता है।
तो क्या आम उपभोक्ताओं को जल्द राहत नहीं मिलने वाली है? क्या हमें तेल और डीजल पर धीरे-धीरे निर्भरता कम करनी होगी?
तेल की आसमान छूती कीमतों पर विपक्ष सरकार की लगातार आलोचना कर रहा है। कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कुछ दिन पहले एक प्रेस कॉंफ्रेंस में कहा था कि सरकार को पेट्रोल और डीजल पर अतिरिक्त करों को तुरंत हटाना चाहिए। इससे कीमतों को नीचे लाने में मदद मिलेगी।
उन्होंने कहा कि मोदी सरकार लोगों के लिए सबसे महंगी सरकार रही है, जिसने लोगों पर भारी कर लगाया है।
क्या घट सकती हैं कीमतें?
खबर ये है कि केंद्र सरकार एक्साइज ड्यूटी को थोड़ा कम करने पर विचार कर रही है। सूत्रों के मुताबिक इस पर वित्तीय और तेल मंत्रालयों में आम सहमति अब तक नहीं बन सकी है।
लेकिन अगर सरकार थोड़ा बहुत एक्साइज ड्यूटी कम कर भी देती है, लेकिन दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल का दाम बढ़ता ही जाता है, जिसकी पूरी संभावना है, तो भारत में उपभोक्ताओं को अधिक राहत नहीं मिलेगी।
अगले कुछ हफ्तों और महीनों में पेट्रोल और डीज़ल के दाम में उतार-चढ़ाव आ सकता है, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि आने वाले समय में दाम में काफी उछाल आएगा।
इन दिनों अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम लगभग 66-67 डॉलर प्रति बैरल है। तो क्या इस साल ये 100 डॉलर तक पहुँच सकता है?
सिंगापुर में भारतीय मूल की वंदना हरी पिछले 25 सालों से तेल उद्योग पर गहरी नजऱ रखती हैं। वो कहती हैं, ‘100 (डॉलर) क्या 100 (डॉलर) से ज़्यादा भी बढ़ सकता है।’
केंद्र सरकार तेल के दाम को नियंत्रण में करने की कोशिश जरूर कर रही है, लेकिन सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के आर्थिक मामलों के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल के विचार में सरकार के हाथ बँधे हैं।
वो कहते हैं, ‘कुल मिलाकर सरकार के रेवेन्यू कलेक्शन (राजस्व संग्रह) में 14.5 प्रतिशत की कमी आई है। इस अवधि में सरकार का खर्च 34.5 प्रतिशत बढ़ गया है। इसके बावजूद सरकार ने टैक्स नहीं बढ़ाया है। इसके कारण राजकोषीय घाटा 9.5 प्रतिशत हो गया है। सकल घरेलू उत्पाद उधार का 87 प्रतिशत है। तो मुझे केंद्र की ओर से कोई राहत देने की गुंजाइश नजर नहीं आती। राज्य सरकारों को राहत देनी चाहिए।’ लेकिन अगर केंद्र सरकार के हाथ बँधे हैं, तो राज्य सरकारें भी मजबूर हैं। तेल से होने वाली कमाई में केंद्र का हिस्सा सबसे ज़्यादा है। हर 100 रुपए के तेल पर केंद्र और राज्य सरकारों के कर और एजेंट के कमीशन को जोड़ें, तो 65 रुपए बनते हैं जिनमे 37 रुपए केंद्र का है और 23 रुपए पर राज्य सरकारों का हक है।
लॉकडाउन के दौरान जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल का भाव बुरी तरह से गिर कर 20 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच आया था, तब लोगों को उम्मीद थी कि पेट्रोल और डीजल के दाम कम होंगे, लेकिन ये बढ़ते ही गए। ऐसा क्यों हुआ?
वंदना हरी कहती हैं, ‘पिछले साल जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम काफ़ी कम हो गए थे, लेकिन आपके (देश में) दाम इसलिए कम नहीं हुए, क्योंकि केंद्र सरकार ने तेल पर टैक्स दो बार बढ़ा दिए थे।’
उनका कहना है कि पिछले साल आम लोगों पर इसका इतना असर नहीं हुआ, क्योंकि कच्चे तेल का बेस प्राइस (20 डॉलर) काफी कम था। अब ये 67 डॉलर है, यानी ये 80 प्रतिशत महँगा है।
देश में पेट्रोल पंप पर मिलने वाले पेट्रोल और डीजल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार के भाव से जुड़े होते हैं। इसका मतलब ये हुआ कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल का दाम घटे या बढ़े, तो भारत में भी इसी तरह का उतार-चढाव नजर आना चाहिए। लेकिन पिछले छह साल में ऐसा हुआ नहीं।
आयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड (ओएनजीसी) के पूर्व अध्यक्ष आरएस शर्मा कहते हैं, ‘2014 में जब यह सरकार सत्ता में आई, तो तेल की कीमत 106 डॉलर प्रति बैरल थी। उसके बाद से कीमतों में कमी आ रही है। हमारे पीएम ने भी मजाक में कहा था कि मैं भाग्यशाली हूँ कि जब से मैं सत्ता में आया हूँ, तेल की दरें कम हो रही हैं। उस समय पेट्रोल की कीमत 72 रुपए प्रति लीटर थी। सरकार ने भारत में कीमत कम नहीं होने दीं, इसके बजाय सरकार ने उत्पाद शुल्क में वृद्धि की।’
आम आदमी को राहत देने के नुस्खे
तो क्या आगे चल कर पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते ही जाएँगे और जनता को अब कोई राहत नहीं मिलेगी? विशेषज्ञ पेट्रोल और डीजल के दाम को कम करने के कई नुस्खे बताते हैं, लेकिन वो सारे कठिन हैं।
पहला, केंद्र और राज्य सरकारें तेल पर लगाए एक्साइज ड्यूटी कम करें, लेकिन दोनों ऐसा करने के मूड में नहीं हैं।
दूसरा सब्सिडी बहाल करने का सुझाव, जो मोदी सरकार की आर्थिक विचारधारा के खिलाफ है।
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल कहते हैं, ‘सब्सिडी पीछे की ओर लौटने वाला कदम है। सोचिए अगर पेट्रोल की कीमतें घटती हैं, तो अमीरों को भी फायदा होगा, न केवल गरीबों को। गैस में हम ऐसा कर पाए। पीएम कहते हैं कि अच्छी अर्थव्यवस्था, अच्छी राजनीति है और लोग इसे महसूस कर रहे हैं।’
वंदना हरी ये आइडिया आजमाने की सलाह देती हैं कि स्कूटर इत्यादि चलाने वालों को पेट्रोल में सब्सिडी दी जाए जैसे कि एलपीजी सिलेंडर में बड़े रेस्टोरेंट और होटलों को सब्सिडी नहीं दी जाती है, केवल गरीबों को दी जाती है।
लोगों को राहत पहुँचाने का एक तीसरा विकल्प भी है। तेल को जीएसटी के अंतर्गत लाने का विकल्प। लेकिन ये एक सियासी मुद्दा है और जैसा कि ओएनजीसी के पूर्व अध्यक्ष आरएस शर्मा ने कहा कि राज्य सरकारों ने इसी शर्त पर जीएसटी बिल पर हामी भरी थी कि शराब और तेल को जीएसटी से बाहर रखा जाए।
इसकी वजह ये है कि शराब और पेट्रोल, डीजल इत्यादि पर एक्साइज ड्यूटी लगा कर राज्य सरकारें खूब पैसे कमाती हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मंत्रिमंडल के सभी मंत्री पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के अंतर्गत लगाने की भरपूर वकालत करते रहे हैं
तेल सस्ता करने का और कोई विकल्प
बीजेपी के गोपाल कृष्णा अग्रवाल एक और विकल्प की बात करते हैं और वो ये है कि भारत सरकार ईरान और वेनेजुएला से कच्चा तेल खरीदने की कोशिश कर रही है। इन दोनों देशों पर अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ये आयात खटाई में पड़ा है। ईरान से भारत डॉलर की बजाय रुपए में तेल खरीदने का इरादा रखता है, जिसके लिए ईरान तैयार है।
कुछ विशेषज्ञ ये भी सलाह देते हैं कि भारत तेल के अपने स्ट्रेटेजिक रिजर्व भंडार को बढाए। फिलहाल देश में तेल की पूरी तरह से आयात रूेकने पर लोगों की जरूरतों के लिए इन भंडारों में 10 दिनों की जरूरत का तेल मौजूद है। निजी कंपनियों के पास कई दिनों के लिए तेल के भंडार हैं।
सरकार 10 दिनों से 90 दिनों तक के लिए रिजर्व बढ़ाना चाहती है, जिस पर काम शुरू हो गया है। हालाँकि स्ट्रेस्ट्रेटेजिक रिज़र्व आपातकालीन समय के लिए होता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में आपदा या युद्ध के कारण अगर तेल के दाम आसमान छूने लगे, तो भंडार में जमा किए गए तेल का इस्तेमाल किया जा सकता है।
इस समय दुनिया में ऐसे सबसे बड़े भंडार अमेरिका ने बना रखे हैं। अमेरिका और चीन के बाद तेल का सबसे अधिक आयात भारत करता है। इसलिए विशेषज्ञ जोर देकर रिजर्व को बढ़ाने की बात करते हैं।
आयात पर निर्भरता
भारत में पेट्रोलियम और गैस जरूरत से बहुत कम मात्रा में उपलब्ध हैं, इसीलिए इनका आयात होता है। देश को पिछले साल अपने खर्च का 85 प्रतिशत हिस्सा पेट्रोलियम उत्पाद को विदेश से आयात के लिए करना पड़ा था, जिसकी लागत 120 अरब डॉलर थी।
विशेषज्ञों के बीच एक विचार काफ़ी समय से बहस का मुद्दा है और वो ये कि भविष्य में विशेषज्ञ लंबे अरसे के लिए हल ढूँढें और तेल पर निर्भरता कम करें। मोदी सरकार लंबे अरसे से हल के लिए कई योजनाओं को शुरू करने का इरादा रखती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 फरवरी को तमिलनाडु में एक भाषण में ऊर्जा में विविधता और इस पर निर्भरता को कम करने पर काफी जोर भी दिया था।
तेल पर निर्भरता कम करने की कोशिश
सिंगापुर में वंदा इनसाइट्स संस्था की संस्थापक वंदना हरी के मुताबिक भारत सरकार को आगे के लिए सोचना चाहिए। उनकी सलाह थी कि 10-15 सालों को सामने रख कर योजनाएँ बनानी चाहिए।
वो कहती हैं, ‘अंत में तेल का इस्तेमाल कम होगा। हम इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ बढ़ रहे हैं, हाइड्रोजन की तरफ बढ़ रहे हैं या प्राकृतिक गैस की तरफ बढ़ रहे हैं, जो अच्छी बात है। लेकिन ये 2030-35 से पहले ये मुमकिन नहीं।’
वंदना मेट्रो जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट के विस्तार की भरपूर वकालत करती हैं। लंबे अरसे बाद तेल के उपभोक्ताओं को राहत तो मिल सकती है, लेकिन आने वाले कुछ महीनों और सालों में शायद कोई राहत न मिले।
लेकिन आरएस शर्मा की दो बातें यहाँ अहम हैं- एक ये कि उनके अनुसार सरकारें आम तौर पर पाँच साल की अवधि को लेकर चलती हैं और उसी हिसाब से योजनाएँ बनाती हैं। 15 साल के लंबे अरसे को लेकर योजनाएँ नहीं बनाई जातीं।
उनका दूसरा तर्क ये है कि लंबे अरसे से तेल पर निर्भरता घटाने के सारे उपायों पर अमल करने के बाद भी निर्भरता केवल 15 प्रतिशत कम होगी। हाँ इसके बावजूद वो उन लोगों में शामिल हैं, जो तेल पर निर्भरता को कम करने और ऊर्जा के विविधिकरण के पक्ष में हैं।
फिलहाल गोपाल कृष्ण अग्रवाल पेट्रोल और डीजल के दामों में कमी ‘न करने के फ़ैसले को सही करार देते हैं।’ लोग इसे सरकार की मजबूरी कह सकते हैं और च्वाइस भी।
वे कहते हैं, ‘अगर हम एक्साइज ड्यूटी घटाकर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें कम करते हैं, तो हमें कर में कुछ बढ़ोतरी करनी होगी। यह तो एक ही बात है। इसलिए च्वाइस के साथ सरकार ने ऐसा नहीं किया है।’
‘जैसा कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कहती हैं ये एक धर्म संकट है। अभी सबसे अच्छा विकल्प यही है। अगर राजस्व संग्रह बढ़ता है, तो कीमतों में कमी आ सकती है।’
भारत की विशाल अर्थव्यवस्था के विकास में तेल ईंधन का काम करता है। अगर तेल की कीमतें बढ़ती रहीं, तो मुद्रा स्फीति, जीडीपी और चालू खाता पर दबाव बढ़ेगा। जिससे अर्थव्यवस्था की सेहत खराब हो सकती है और इसका गंभीर असर माँग पर पड़ सकता है और फिर आर्थिक विकास भी प्रभावित होगा। (bbc.com)
-डॉ राजू पाण्डेय
सरकार के नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 को लेकर बहुत कुछ अस्पष्ट है, संभवतः यह अस्पष्टता सायास और सप्रयोजन है और यह सरकार को अपनी सुविधानुसार इन नियमों की मनमानी व्याख्या करने की सुविधा प्रदान करेगी। बहरहाल नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के विषय में जो कुछ स्पष्ट है वह भी कम चिंताजनक नहीं है- मसलन सरकार की नीयत और इस नए नियम की घोषणा की टाइमिंग।
कॉरपोरेट घरानों द्वारा नियंत्रित मीडिया के माध्यम से अघोषित सेंसरशिप की स्थिति बना देने की सरकारी रणनीति अब तक कामयाब रही थी। अनावश्यक एवं आभासी मुद्दों पर विमर्श को केंद्रित करने का करतब बड़े मीडिया हाउसेस बड़ी खूबी से अंजाम दे रहे थे। विपक्ष पर हमलावर होता और अपनी इच्छानुसार नायक तथा खलनायक गढ़ता मुख्यधारा का मीडिया सरकार के सबसे सशक्त और वफादार सहयोगी की भूमिका निभा रहा था। किंतु किसान आंदोलन ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। किसान आंदोलन के विषय में मुख्यधारा के मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा की गई षड्यंत्रपूर्ण कवरेज अपने नापाक इरादों में नाकामयाब रही। इस आंदोलन को राष्ट्र विरोधी, खालिस्तानी, पाकिस्तान प्रायोजित तथा हरियाणा-पंजाब के संपन्न किसानों का आंदोलन सिद्ध करने की शरारती कोशिशें असफल रहीं। दरअसल इस बार किसान आंदोलन की जमीनी कवरेज करते जांबाज और साहसी पत्रकारों की व्यक्तिगत कोशिशों एवं जनपक्षधर पत्रकारिता पर विश्वास करने वाले न्यूज़ पोर्टल्स के ईमानदार प्रयासों से किसान आंदोलन का शांतिप्रिय और अहिंसक स्वरूप आम लोगों के सम्मुख बड़ी मजबूती और पारदर्शिता के साथ रखा गया। ट्रॉली टाइम्स जैसे अखबारों ने जन्म लिया और किसान आंदोलन को वह स्पेस प्रदान किया जिससे उसे मुख्यधारा के मीडिया द्वारा वंचित किया गया था। अनेक यू ट्यूब चैनल अस्तित्व में आए जिन पर किसानों और किसानी से संबंधित खबरें दिखाई जाने लगीं। इन स्वतंत्र पत्रकारों और न्यूज़ पोर्टल्स द्वारा आंदोलन की जो कवरेज की गई वह किसी भी तरह एकपक्षीय नहीं थीं। किसान आंदोलन में राजनीतिक दलों के प्रवेश का मसला या ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा का मामला या बॉर्डर पर स्थानीय लोगों के आक्रोश का सवाल और ऐसे ही हर ज्वलंत मुद्दे बड़ी बेबाकी से इन पत्रकारों एवं पोर्टल्स द्वारा उठाया गए। किसान नेताओं से चुभते हुए सवाल भी पूछे गए और जनता की आशंकाओं एवं आकांक्षाओं को उन तक पहुंचाया भी गया। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग न केवल किसान आंदोलन बल्कि बुनियादी मुद्दों से जुड़ी अन्य खबरों के लिए भी इस वैकल्पिक मीडिया की ओर उन्मुख होने लगे। जब जनता में इन न्यूज़ पोर्टल्स और यू ट्यूब चैनलों की लोकप्रियता बढ़ने लगी तो अनेक युवा पत्रकार इस ओर उन्मुख होने लगे और वैकल्पिक मीडिया बहुत तेजी से अपनी जड़ें जमाने लगा। यह सरकार के लिए किसी झटके से कम नहीं था।
सरकार जिस दूसरी बात से घबराई वह किसान आंदोलन के संचालन एवं इसके प्रचार प्रसार में सोशल मीडिया का सधा हुआ उपयोग था। सोशल मीडिया का प्रयोग किसी भी अभियान के संगठित एवं सुचारु संचालन हेतु किया जाना आजकल एक सामान्य प्रक्रिया है और इसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। असाधारण तो सरकार की प्रतिक्रिया है जिसने दिशा रवि जैसी सामान्य सामाजिक कार्यकर्ता को केवल इस कारण प्रताड़ित करने का प्रयास किया कि उसने किसान आंदोलन के लिए पूरी दुनिया में सामाजिक सरोकारों और किसानों के हक के लिए काम करने वाले लोगों और संगठनों का समर्थन हासिल करने की कोशिश की थी।
प्रायः सभी राजनीतिक दल, बड़ी बड़ी कंपनियां एवं अलग अलग लक्ष्यों के लिए कार्य करने वाले समूह जब भी किसी अभियान को संचालित करते हैं तब उनके सोशल मीडिया सेल टूल किट का प्रयोग अनिवार्यतः करते हैं। टूल किट दरअसल उस अभियान से जुड़े लोगों के मध्य कार्य योजना के महत्वपूर्ण बिंदुओं और अभियान के भावी स्वरूप को साझा करने हेतु प्रयुक्त होती है। इसमें न केवल अभियान को सोशल मीडिया में लोकप्रिय बनाने संबंधी सुझाव और निर्देश होते हैं बल्कि अभियान के जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन की रणनीति का भी जिक्र होता है। सोशल मीडिया एवं मार्केटिंग स्ट्रेटेजी के जानकारों के अनुसार, टूलकिट का प्रमुख उद्देश्य किसी मुहिम से जुड़े लोगों एवं उस मुहिम के समर्थकों के मध्य समन्वय स्थापित करना होता है। सामान्यतया टूलकिट में इस बात से संबंधित निर्देश होते हैं कि अभियान से जुड़े लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर क्या लिखा जाए, किस हैशटैग का प्रयोग किया जाए, ट्वीट और सोशल मीडिया पोस्ट करने का सर्वाधिक उपयुक्त और लाभकारी समय कौन सा है और किन्हें ट्वीट्स अथवा फ़ेसबुक पोस्ट्स में टैग करने से लाभ होगा। जब किसी अभियान से जुड़े लोग और उनके समर्थक सोशल मीडिया पर एक साथ सक्रिय होते हैं तो वह अभियान या मुहिम सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगती है और समूचे विश्व का ध्यान इसकी ओर जाता है। कई बार जमीनी स्तर पर होने वाले धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल आदि की जानकारी भी टूलकिट में होती है। स्वाभाविक रूप से आज के आंदोलनकारी सोशल मीडिया का खुलकर प्रयोग करते हैं और टूलकिट इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है।
हाल के वर्षों में ऐसे कितने ही आंदोलन हैं जिनमें सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है बल्कि अनेक आंदोलन ऐसे भी हैं जो सोशल मीडिया की ही पैदाइश थे। अरब स्प्रिंग, कनाडा की मेपल स्प्रिंग, चिली और वेनेजुएला के छात्र आंदोलन, बांग्लादेश का शाहबाग आंदोलन, यादवपुर विश्विद्यालय के छात्रों का होक कलरव आंदोलन यह सारे सोशल मीडिया पर किसी न किसी रूप से आधारित थे। यदि हम केवल वर्ष 2020 की बात करें तो क्लाइमेट स्ट्राइक कैंपेन, एन्टी लॉक डाउन प्रोटेस्ट, द ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट, द ब्लैक फ्राइडे अमेज़न प्रोटेस्ट्स, अमेरिकी राजधानी की घेरेबंदी, हांगकांग और शाहीनबाग के विरोध प्रदर्शन जैसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें जन आंदोलनों में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यदि सोशल मीडिया के उभार के बाद के आंदोलनों के इतिहास पर नजर डालें तो हम अनेक सत्ता विरोधी और सत्ता समर्थक जन आंदोलनों को सोशल मीडिया द्वारा प्रेरित, नियंत्रित और संचालित होता देखते हैं। इनमें से अनेक आंदोलन हिंसक भी हुए हैं और इनमें जनहानि भी हुई है किंतु इनमें हुई हिंसा के लिए अकेले सोशल मीडिया को उत्तरदायी ठहराना उचित नहीं है। आंदोलन के नेतृत्व की प्राथमिकताएं और गलतियां तथा अनेक बार सरकार द्वारा की गई दमनात्मक और उकसाने वाली कार्रवाई भी हिंसा भड़कने के लिए जिम्मेदार रही हैं। अतः किसी ऐसे सामान्यीकरण का सहारा लेना ठीक नहीं है जो सारे आंदोलन हिंसक और राष्ट्र विरोधी होते हैं या सोशल मीडिया हमेशा ही हिंसा फैलाने वाला और शत्रु देशों के षड्यंत्र का एक भाग होता है जैसी मिथ्या पूर्वधारणाओं पर आधारित होता है।
हमें प्रत्येक आंदोलन और उससे जुड़े सोशल मीडिया एक्टिविस्ट्स की पृथक केस स्टडी करनी होगी। साथ ही संबंधित सरकारों के असहमत स्वरों के साथ किए जा रहे व्यवहार के पैटर्न को भी समझना होगा। दिशा रवि को जमानत देते हुए दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट कॉम्प्लेक्स के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा की टिप्पणी वर्तमान सरकार के अहंकार, अलोकतांत्रिक सोच एवं दमनकारी रवैये को समझने में सहायक है। माननीय न्यायाधीश ने लिखा- "मेरे विचार से नागरिक एक लोकतांत्रिक देश में सरकार पर नजर रखते हैं। केवल इस कारण कि वे राज्य की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें कारागार में नहीं रखा जा सकता। राजद्रोह का आरोप इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को उनकी असहमति या विरोध से चोट पहुंची है। मतभेद, असहमति, अलग विचार, असंतोष, यहां तक कि अस्वीकृति भी राज्य की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए आवश्यक उपकरण हैं। एक सजग एवं मुखर नागरिकता एक उदासीन या विनम्र नागरिकता की तुलना में निर्विवाद रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र का संकेत है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत असंतोष का अधिकार बहुत सशक्त रूप से दर्ज है। महज पुलिस के संदेह के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस तलाशने का अधिकार सम्मिलित है। संचार पर किसी प्रकार की कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। प्रत्येक नागरिक के पास विधि के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। यह समझ से परे है कि प्रार्थी पर अलगाववादी तत्वों को वैश्विक मंच देने का लांछन किस प्रकार लगाया गया है? एक लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार पर नजर रखते हैं, केवल इस कारण से कि वे सरकारी नीति से असहमत हैं, उन्हें कारागार में नहीं रखा जा सकता। देशद्रोह के कानून का ऐसा उपयोग नहीं हो सकता। सरकार के घायल अहंकार पर मरहम लगाने के लिए देशद्रोह के मुकदमे नहीं थोपे जा सकते। हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता अलग-अलग विचारों की कभी भी विरोधी नहीं रही। ऋग्वेद में भी पृथक विचारों का सम्मान करने विषयक हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का उल्लेख है। ऋग्वेद के एक श्लोक के अनुसार- हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से भी रोका न जा सके तथा जो अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।"
दिशा रवि की सोशल मीडिया गतिविधियों पर भी माननीय न्यायाधीश की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है-' मुझे नहीं लगता कि एक वॉट्सऐप ग्रुप का निर्माण करना अथवा किसी हानिरहित टूलकिट का एडिटर होना कोई अपराध है। तथाकथित टूलकिट से यह ज्ञात होता है कि इससे किसी भी प्रकार की हिंसा भडक़ाने की चेष्टा नहीं की गई थी।' किंतु सरकार के नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के प्रावधान इस प्रकार से बनाए गए हैं कि असहमति और विरोध के स्वरों को सहजता से कुचला जा सके।
ऐसा प्रतीत होता है कि इन नियमों के क्रियान्वयन के बाद डिजिटल मीडिया से जुड़े मसलों पर निर्णय लेने की न्यायालयीन शक्तियां कार्यपालिका के पास पहुँच जाएंगी और सरकार के चहेते नौकरशाह डिजिटल मीडिया कंटेंट के बारे में फैसला देने लगेंगे। समसामयिक विषयों पर आधारित कोई भी प्रकाशन न केवल संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित होता है बल्कि यह नागरिक के सूचना प्राप्त करने के अधिकार और भिन्न भिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से अवगत होने के अधिकार का भी प्रतिनिधित्व करता है। कार्यपालिका को न्यूज़ पोर्टल्स पर प्रकाशित सामग्री के विषय में निर्णय लेने का पूर्ण और एकमात्र अधिकार मिल जाना संविधान सम्मत नहीं है। यह लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है।
इसी प्रकार मानहानि के संबंध में न्यायिक सिद्धांतों के अनुरूप अदालतों में सुनवाई और विधिक प्रक्रिया के बाद ही कोई निर्णय होता है। किंतु इन नियमों के क्रियान्वयन के बाद मानहानि से संबंधित मामलों में केंद्र सरकार द्वारा चयनित और नियंत्रित नौकरशाहों का एक समूह यह निर्णय कर सकेगा कि समसामयिक मामलों से संबंधित कोई समाचार या आलेख क्या अनुपयुक्त है और इसे ब्लॉक भी कर सकेगा। इसी प्रकार कोई सामग्री पोर्नोग्राफी की श्रेणी में आती है या नहीं, इसका निर्णय भी न्यायालय के स्थान केंद्र सरकार द्वारा निर्मित ब्यूरोक्रेट्स का एक समूह करेगा। सरकार अनुच्छेद (19)(2) का हवाला दे रही है जिसके अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से किसी भी तरह देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए। इन तीन चीजों के संरक्षण के लिए यदि कोई कानून है या बन रहा है, तो उसमें भी बाधा नहीं आनी चाहिए। किंतु यदि ऐसे गंभीर विषयों पर निर्णय सरकार के हित के लिए कार्य करने वाले कुछ नौकरशाह करने लगें और न्यायपालिका की भूमिका लगभग खत्म कर दी जाए तो डिजिटल मीडिया के लिए कार्य करना असंभव हो जाएगा। लिखित समाचार माध्यमों के विषय में व्यापक और पर्याप्त न्यायिक सिद्धांत उपस्थित हैं जो एक स्वर से यह कहते हैं कि इन्हें कार्यपालिका या प्रशासन तंत्र के किसी भी प्रकार के नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त होना चाहिए। समसामयिक समाचारों को स्थान देने वाला न्यूज़ पोर्टल भी एक प्रकार का समाचार पत्र ही है, अंतर केवल इतना है कि यह डिजिटल फॉर्मेट में होता है। प्रेस काउंसिल का गठन भी समाचार पत्रों को कार्यपालिक अथवा प्रशासनिक नियंत्रण से मुक्त रखने और आत्म अनुशासन को सशक्त बनाने के ध्येय से किया गया था। यही स्थिति टेलीविजन की है जहाँ न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी जैसी संस्थाएं अस्तित्व में हैं। फिर डिजिटल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण की हड़बड़ी का कोई कारण नहीं दिखता।
आईटी एक्ट 2000 अपने संरचनात्मक स्वरूप में किसी भी प्रकार डिजिटल मीडिया को समाहित नहीं करता। समाचार पत्र, प्रकाशक एवं समाचार तथा समसामयिक विषयों पर केंद्रित सामग्री जैसी अभिव्यक्तियाँ और परिभाषाएं इस एक्ट का हिस्सा नहीं हैं। ऐसी दशा में यह कहाँ तक उचित है आईटी एक्ट के दायरे में डिजिटल मीडिया को लाया जाए जबकि इस हेतु यह निर्मित ही नहीं हुआ है। यह प्रयास इसलिए और भी असंगत लगता है जब हमारे पास डिजिटल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए नियमों और प्रक्रियाओं का एक सक्षम ढांचा मौजूद है।
यही कारण है कि डिजिपब न्यूज इंडिया फाउंडेशन की अगुवाई में ऑनलाइन प्रकाशनों ने इन नए नियमों को अनुचित, इनके नियमन की प्रक्रिया को अलोकतांत्रिक तथा इनके क्रियान्वयन की विधि को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए सूचना और प्रसारण मंत्री को पत्र लिखा है जिसमें इन सारी आशंकाओं का उल्लेख है। इन ऑनलाइन प्रकाशकों ने यह भी कहा है कि इन नियमों को तैयार करते वक्त उनसे कोई भी सलाह मशविरा नहीं किया गया था।
सोशल मीडिया के महत्व और उसकी शक्ति को प्रधानमंत्री जी और उनकी भाजपा से बेहतर कौन जानता है। गुजरात के विवादास्पद मुख्यमंत्री को देश और दुनिया के सबसे चर्चित और ताकतवर नेता की छवि प्रदान करने वाला सोशल मीडिया ही रहा है। आज भी प्रधानमंत्री जी को अलौकिक एवं अविश्वसनीय गुणों से विभूषित करने वाली ढेरों पोस्ट्स रोज परोसी जा रही हैं। प्रधानमंत्री जी के विवादास्पद निर्णयों और उनकी विफलताओं को उनकी चमकीली उपलब्धियों के रूप में प्रस्तुत करने का हुनर भी सोशल मीडिया के पास ही है।
देश की गंगा जमनी तहजीब को खंडित करने लिए ऐतिहासिक तथ्यों और सत्यों के साथ खिलवाड़ कर तैयार की गई सोशल मीडिया पोस्ट्स एक नफ़रत पसंद समाज बनाने की ओर अग्रसर हैं। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की चरित्र हत्या करने वाली और इन्हें देश की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी ठहराने वाली पोस्ट्स की संख्या हजारों में है। गांधी और सुभाष , गांधी और आंबेडकर एवं गांधी और पटेल को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने वाली पोस्ट्स की संख्या इससे कम नहीं है। प्रमुख विरोधी दलों के नेताओं के चरित्र को कलंकित करने वाली नई पोस्ट्स रोज तैर रही हैं जिनमें ये भ्रष्ट, चरित्रहीन, आलसी, प्रमादी और विदूषकों के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के नए हिंसक पाठ को तेजी से जन स्वीकृति दिलाने का कार्य भी सोशल मीडिया ने ही किया है। साम्प्रदायिक और जातीय वैमनस्य को बढ़ावा देकर घृणा तथा हिंसा फैलाने वाली पोस्ट्स की दुनिया बहुत डरावनी है। मुसलमानों को हिंदुओं की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी ठहराया जा रहा है। दलितों को सवर्णों की बदहाली के जिम्मेदार बताया जा रहा है। अल्पसंख्यक राष्ट्रद्रोही के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। लोगों को धीरे धीरे उस बिंदु तक पहुंचाया जा रहा है जब हिंसक प्रतिशोध उन्हें सहज लगने लगे।
यदि कानून मंत्री आदरणीय रविशंकर प्रसाद के शब्दों का प्रयोग करें तो यह जानना आवश्यक है कि यह सारी खुराफात कहाँ से प्रारंभ हुई है। भाजपा का आई टी सेल तो जाहिर है कि इन जहरीली पोस्ट्स से साफ किनारा कर लेगा। फिर हम सच तक कैसे पहुंचेंगे? क्या उन जन चर्चाओं का सत्य कभी भी सामने नहीं आएगा जिनके अनुसार भाजपा के आईटी सेल को जितना हम जानते हैं वह विशाल हिम खण्ड का केवल ऊपर से दिखाई देने वाला हिस्सा है? अब तो प्रत्येक राजनीतिक पार्टी का आई टी सेल है। दुर्भाग्य से अधिकांश राजनीतिक पार्टियां भाजपा को आदर्श मान रही हैं और इनके आई टी सेल नफरत का जवाब नफरत और झूठ का उत्तर झूठ से देने की गलती कर रहे हैं। सारी पार्टियां फेक एकाउंट्स की अधिकतम संख्या के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही हैं, नकली फॉलोवर्स की संख्या के लिए होड़ लगी है। ऐसी दशा में क्या फेसबुक और ट्विटर से सच्चाई सामने आ पाएगी? जब सरकार यह कहती है कि इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के व्यापार का एक बड़ा भाग भारत से होता है और इन्हें भारत के कानून के मुताबिक चलना होगा तो क्या इसमें यह संकेत भी छिपा होता है कि इन प्लेटफॉर्म्स को सरकार के हितों का ध्यान रखना होगा और सत्ता विरोधी कंटेंट से दूरी बनानी होगी?
सूचना और प्रसारण मंत्री एवं कानून मंत्री अपनी पत्रकार वार्ता में आक्रामक दिखे और उन्होंने इन नियमों को कठोर निर्णय लेने वाली मजबूत सरकार के अगले कदम के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की। किंतु वास्तविकता यह है कि सरकार भयभीत है। सरकार का विरोध करने वाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों पर ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई के छापे डाले जा रहे हैं। यह अलग बात है कि इससे इन संस्थाओं की विश्वसनीयता ही कम हुई है और ऐसी कार्रवाइयों के प्रति लोगों का भय भी घटा है। असहमत स्वरों पर राजद्रोह के मुकदमे कायम किए जा रहे हैं किंतु अधिकांश मामलों में दोष सिद्ध नहीं हो पा रहा है। डिजिटल मीडिया ऐसा सच दिखा रहा है जो सरकार की नाकामियों को उजागर करता है। इसीलिए सरकार बौखलाई हुई है। किंतु नियंत्रण, दमन और दंड द्वारा न तो विरोध को समाप्त किया जा सकता है न ही सच की आवाज़ दबाई जा सकती है। जनता विरोध के नए तरीके तलाश लेगी। बढ़ता जनाक्रोश गलत दिशा भी ले सकता है। यह हमारे लोकतंत्र के लिए घातक होगा। सरकार को चाहिए कि वह असहमति का आदर करे और समावेशी एवं सहिष्णु लोकतंत्र की स्थापना की ओर प्रयत्नशील हो।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-गिरीश मालवीय
मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार की वापसी हुई है तो व्यापम जैसे घोटाले दुबारा होने शुरू हो गए हैं। मध्यप्रदेश में फरवरी के मध्य में हुई कृषि विभाग अधिकारी के लिए हुई परीक्षा में टॉप 10 स्थानों पर कब्जा जमाने वाले उम्मीदवारों को सामान्य ज्ञान की परीक्षा में ना केवल बराबर नंबर मिले हैं, बल्कि सबकी गलतियां भी एक जैसी हैं।
है न कमाल?
इससे भी बड़ी बात यह है कि इनकी जाति, कॉलेज और अकादमिक प्रदर्शन भी लगभग एक जैसे हैं। और सभी चंबल क्षेत्र के हैं।
इंदौर से एक परीक्षार्थी रंजीत रघुनाथ ने कहा, ‘यह तो घोटाले का छोटा हिस्सा है। परीक्षा में टॉप टेन स्टूडेंट चंबल डिवीजन से हैं और इनमें से 9 एक ही जाति के हैं। इन्होंने बीएससी (कृषि विज्ञान) राजकीय कृषि कॉलेज ग्वालियर से की है। लगभग सभी स्टूडेंट्स ने चार साल की डिग्री को पांच या अधिक सालों में पूरा किया।’ रघुनाथ ने कहा, ‘उन्हें 200 में से 195 और 194 अंक मिले हैं जो कि परीक्षा के इतिहास में सर्वाधिक है।’
एक ओर परीक्षार्थी सचित आनंद ने कहा, ‘कैंडिडेट्स को सामान्य ज्ञान की परीक्षा में फुल माक्र्स मिले, लेकिन शक उस समय बढ़ गया जब व्यापम ने आंसर शीट जारी की और तीन सवालों के गलत जवाब दिए। दिलचस्प यह है कि टॉप स्कोरर परीक्षार्थियों ने भी उन्हीं तीनों सवालों के गलत जवाब दिए हैं। हम नहीं जानते कि यह संयोग है या साजिश, लेकिन यह कैसे संभव है कि उन्होंने समान गलत उत्तर दिए खासकर बेसिक सवाल का जो कक्षा 11 में पढ़ाया जाता है।’ आनंद ने कहा कि टॉप स्कोरर में से एक को गणित में फुल माक्र्स मिले है, लेकिन सांख्यिकी की परीक्षा में कम से कम चार बार फेल हुआ था और 8 साल में उसकी डिग्री पूरी हुई।
ग्वालियर कृषि कॉलेज के एक प्रोफेसर ने भी इन उम्मीदवारों के नंबर पर हैरानी जाहिर की। नाम गोपनीय रखने की शर्त पर उन्होंने कहा, ‘हो सकता है कि रातों-रात उन्होंने ज्ञान अर्जन कर लें और चलिफाई हो जाएं, लेकिन यह विश्वास करना मुश्किल है कि उन्हें सर्वाधिक नंबर मिले हैं।’
इस घोटाले से पर्दा तब उठा जब कुल 862 पदों पर हुई परीक्षा की आंसर शीट 17 फरवरी को जारी की गई ओर साथ ही संभावित चयनित उम्मीदवारों की सूची भी जारी की गई।
इस परीक्षा में 2 पेपर हुए थे पहले पेपर ने सामान्य ज्ञान सामान्य हिंदी, सामान्य अंग्रेजी, गणित, सामान्य तर्कशक्ति परिक्षण, सामान्य विज्ञान, सामान्य कम्प्यूटर विज्ञानं से संबंधित प्रश्न पूछे गए थे तथा दूसरे पेपर में परीक्षार्थियों द्वारा चुने गए विषय से संबंधित प्रश्न पूछे गए थे दोनों पेपर भी 100 रूड्डह्म्द्मह्य के थे
सवाल पहले पेपर को लेकर उठ रहे हैं
स्टूडेंट्स का कहना है कि व्यापम ने ब्लैक लिस्टेड कंपनी हृस्श्वढ्ढञ्ज को परीक्षा के आयोजन के लिए चुना। यह वही कंपनी है जिसे यूपी में 2017 सब इंस्पेक्टर के लिए हुई परीक्षा में पेपर लीक की वजह से ब्लैक लिस्ट कर दिया गया था।
मध्यप्रदेश का व्यापमं घोटाला शिक्षा जगत में अब तक का सबसे बड़ा घोटाला माना जाता है इसमें 55 केस दर्ज हुए, 2,530 आरोपी बनाए गए और करीब 1,980 लोगों को गिरफ्तार किया गया। घोटाले का पर्दाफाश होने से लेकर अब तक 42 ऐसे लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो चुकी है, सीएम शिवराज सिंह विधानसभा में स्वीकार कर चुके हैं कि 1000 भर्तियां अवैध रूप से हुईं हैं, घोटाले में जब आरएसएस के सरसंघचालक केसी सुदर्शन और सुरेश सोनी जैसे बड़े नेताओं के नाम आए थे लेकिन सब दबा दिया गया।
कांग्रेसी विधायकों और सूबे के बड़े नेताओं को तोडक़र सत्ता हासिल की गई है। शिवराज सरकार द्वारा ऐसे में इस तरह के घोटाले तो होंगे ही।
- ध्रुव गुप्त
स्वर्गीय फणीश्वर नाथ रेणु को हिंदी कहानी में देशज समाज की स्थापना का श्रेय प्राप्त है। उनके दो उपन्यासों- ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’ और उनकी दर्जनों कहानियों के पात्रों की जीवंतता, सरलता, निश्छलता और सहज अनुराग हिंदी कथा साहित्य में संभवत: पहली बार घटित हुआ था। हिंदी कहानी में पहली बार लगा कि शब्दों से सिनेमा की तरह दृश्यों को जीवंत भी किया जा सकता है और संगीत की सृष्टि भी की जा सकती है।
रेणु ने लोकगीत, ढोल-खंजड़ी, लोकनृत्य, लोकनाटक, लोक विश्वास और किंवदंतियों के सहारे बिहार के कोशी अंचल की जो संगीतमय और जीती-जागती तस्वीर खींची है, उससे गुजऩा एक बिल्कुल अलग और असाधारण अनुभव है। उनकी तुलना अक्सर कथासम्राट प्रेमचंद से की जाती है। एक अर्थ में रेणु प्रेमचंद से आगे के कथाकार हैं। प्रेमचंद में गांव का यथार्थ है, रेणु में गांव का संगीत। प्रेमचंद को पढऩे के बाद हैरानी होती है कि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी किसान अपने गांव और अपने खेत से बंधा कैसे रह जाता है।
रेणु का कथा-संसार यह रहस्य खोलता है कि जीवन से मरण तक गांव के घर-घर से उठते संगीत और मानवीय संवेदनाओं की वह नाजुक डोर है जो लोगों में अपनी मिट्टी और रिश्तों के प्रति असीम राग पैदा करती है। उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित गीतकार शैलेंद्र द्वारा निर्मित, बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित और राज कपूर-वहीदा रहमान द्वारा अभिनीत फिल्म ‘तीसरी कसम’ को हिंदी सिनेमा का मीलस्तंभ माना जाता है।
आज रेणु की जयंती पर उनकी स्मृतियों को नमन!
भारत में पर्यावरण के हाल का सबसे विस्तृत ब्यौरा देने वाली स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट (एसओई) रिपोर्ट के मुताबिक पर्यावरण से जुड़े 50 हजार से ज्यादा मामले अदालतो में लंबित हैं. फैसलों में देरी का असर पर्यावरण पर पड़ता है.
पढ़ें डॉयचे वैले पर शिवप्रसाद जोशी की रिपोर्ट-
रिपोर्ट में आधिकारिक आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि अदालतों में आने वाले नए मामलों की तुलना में मामलों को निपटाने की दर बहुत कम है. और इससे लंबित मामलों का ढेर ऊंचा होता जा रहा है. 2019 में पर्यावरण से जुड़े करीब 35 हजार अपराध दर्ज किए गए थे. सात हजार से ज्यादा मामलों की पुलिस जांच चल रही है और करीब 50 हजार मामले अदालत में सुनवाई पूरी होने और फैसले का इंतजार कर रहे हैं. पर्यावरण से जुड़े विशेषज्ञों ने चिंता जताई है कि जिस रफ्तार से पर्यावरणीय अपराध बढ़ रहे हैं, उनकी सुनवाई और निपटारों की प्रक्रिया सुस्त और बोझिल है. पर्यावरण की प्रतिष्ठित संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) और विज्ञान और पर्यावरण की उसकी पत्रिका 'डाउन टू अर्थ' मिलकर हर साल यह स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट (एसओई) रिपोर्ट तैयार करते हैं.
अभी तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक देश में 2019 और 2020 के बीच वन्यजीव अपराधों की संख्या में गिरावट आई थी. इसके बावजूद भारत में हर रोज दो मामले दर्ज किए जाते हैं. कुल वन्यजीव अपराधों के 77 प्रतिशत मामले उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में दर्ज किए गए. जिन राज्यों में ऐसे अपराध बढ़े उनमें गुजरात, बिहार, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्य भी बताए जाते हैं. मामलों की कछुआ चाल पर डाउन टू अर्थ का कहना है, "एक साल में मौजूदा बैकलॉग खत्म करने के लिए अदालतों को हर रोज 137 मामले निपटाने होंगे.” अदालतों पर दबाव का आलम यह है कि 2019 में औसतन करीब 85 मामले निपटाए जा सके थे. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों को निपटाने में अदालतों को 20 साल से ज्यादा समय लग सकता है. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के मामलों के लिए 13 साल चाहिए.
अगर थोड़ा पीछे जाएं तो इस निराशाजनक सिलसिले का पता चलता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) का डाटा बताता है कि 2016 और 2017 के बीच पर्यावरणीय अपराधों में आठ गुना वृद्धि हुई थी. एनसीआरबी के अपराध डाटा के मुताबिक 2016 मे पुलिस ने 4,732 पर्यावरणीय अपराध दर्ज किए थे. 2017 में ये मामले बढ़कर 42,143 हो गए. करीब 30 हजार मामले तो तंबाकू कानून के थे. उसकी तुलना में वायु और जल प्रदूषण के 36 मामले ही दर्ज हो पाए. जबकि एक सच्चाई यह भी है कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत में ही है. ध्वनि प्रदूषण की नई श्रेणी के तहत पुलिस ने 8,400 मामले दर्ज किए. पुलिस ने अगर अन्य कानूनों के तहत अपराध दर्ज भी किए हैं तो वे जंगलों में रहने वाली जनजातियों और आदिवासियों पर ही अधिक हैं. वन अधिनियम और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत 3,842 मामले दर्ज हुए थे.
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि अगर जंगलों, संरक्षित वनों, अभ्यारण्यों और आरक्षित क्षेत्रों में अवैध कटान, अवैध खनन, अवैध निर्माण, अवैध शिकार, वन उत्पाद और जानवरों के अंगों की तस्करी आदि गैरकानूनी और अपराध माना जाता है, तो फिर कुदरती लैंडस्केप और पर्यावरण और पारिस्थितिकी के अत्यंत नाजुक तानेबाने को छिन्नभिन्न करने वाले और कई संवेदनशील प्राकृतिक हलचलों को ट्रिगर कर देने वाले कथित निर्माण को क्या कहेंगे. विकास के लिए कुछ समझौते करने पड़ते हैं या कुछ कीमत चुकानी होती है जैसी दलीलें उस कोप से नहीं बचा सकती हैं जो प्रकृति अपने भीतर दबाए रहती है और रह रह कर उसे हमारी ओर फेंकती रहती है. विकास के पक्षधर कह सकते हैं कि अगर इसे अपराध कह देंगे तो फिर देश कैसे तरक्की करेगा. लेकिन बुनियादी चिंताओं की अनदेखी एक किस्म का नैतिक अपराध तो है ही. पर्यावरणीय नैतिकता या पर्यावरणीय आचार की हिफाजत भी कोई कोरी या खोखली बातें नहीं हैं, उनके वास्तविक अर्थ हैं.
विकास कही जाने वाली वो चीज आखिर किस कीमत पर हासिल होती है, यह छिपी बात नहीं हैं. कुदरती तबाहियों से हम जानते हैं, इसीलिए बात सिर्फ शहरों के प्रदूषण, गंदगी और कूड़े के ढेर, वाहनों के शोर, हाईजीन, पेयजल, सैनिटेशन, सीवेज आदि की नहीं है, बात पहाड़ों, नदियों, जंगलों और उनके जीव-जंतुओं और वनस्पतियों और जंगल में रहने वाली जनजातियों और आदिवासी समुदायों के अस्तित्व की भी है. इसीलिए अनापशनाप विकास की होड़ के बीच बार बार समावेशी विकास पर जोर देने की बात की जाती रही है. जानकारों का कहना है कि अंततः उसी से सतत और टिकाऊ विकास संभव है. सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर अपनी टिप्पणियों और फैसलों के जरिए इस बारे में आगाह कराता रहा है.
पेड़ों को बचाने के ऐतिहासिक चिपको आंदोलन के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड के रैणी गांव के पास छोटी नदियों पर जलबिजली परियोजनाओं का निर्माण हो चुका था, हो रहा था. लेकिन पिछले दिनों वहां आया जल प्रलय क्या सिर्फ कुदरती कोप कहकर टाल दिया जाएगा या उस परिघटना के मूल कारणों की तलाश करते हुए यह देखा जाएगा कि वह आपदा मानव निर्मित भी हो सकती है और एक तरह का अपराध ही है. लेकिन ऐसा नहीं माना जाता. केदारनाथ हादसा हो या भूस्खलन की घटना या बाढ़ या भूकंप. बेशक कुदरत की यह कभी स्वाभाविक कभी अस्वाभाविक करवटें हैं, लेकिन इस अस्वाभाविकता को भड़काने वाले फैक्टरों की जांच भी तो आखिर की जानी चाहिए.
इसके अलावा पर्यावरणीय अपराध का मुकम्मल डाटा हासिल करने के लिए सभी राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और तमाम पर्यावरणीय नियामक संस्थाओं का सोर्स डाटा भी लिया जाना चाहिए. विशेषज्ञों के मुताबिक एनसीआरबी के पास इतने कम पर्यावरणीय अपराधों का डाटा इसलिए हैं क्योंकि वह सिर्फ आपराधिक मामलों को दर्ज करता है, जबकि पर्यावरण से जुड़े कई मामले सिविल प्रकृति के होते हैं. संयुक्त राष्ट्र कह चुका है कि पर्यावरणीय अपराध सतत विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने की क्षमता रखते हैं. (dw.com)
-अपूर्व भारद्वाज
यह वो ही कपिल सिब्बल है जिनके उलूल-जुलूल बयानों से कांग्रेस गाहे-बगाहे परेशानी में फंसती रहती है। जिन्होंने दिल्ली के एक लोकसभा सीट को छोडक़र कभी जमीनी राजनीति नहीं की। जिन्होंने अपना प्रोफेशन राजनीति के लिए कभी नहीं छोड़ा। जिन्होंने केवल अपने लोकसभा सीट के गणित के लिए पूरी कॉंग्रेस को तुष्टिकरण की तरफ मोड़ दिया। आज वो भगवा पगड़ी पहने कांग्रेस को सेक्युलिरिज्म सीखा रहे हैं।
जिन्होंने 0 लास की थ्योरी दी थी और कांग्रेस का बेड़ा गर्क कर दिया था। जिसे मीडिया ने दिन-रात चलाया और अण्णा जैसे आंदोलनजीवी को सँजीवनी दे दी और पूरा करप्शन का परसेप्शन यूपीए के विरूद्ध बन गया, पहचाना की नहीं..!!!
आनंद शर्मा ने शायद ही कभी लोकसभा चुनाव लड़ा हो लेकिन वीरभद्र सिंह जैसे खांटी जमीनी नेता को सदा राजनीति के पाठ पढ़ाते रहते थे। कांग्रेस ने उनको हिमाचल प्रदेश जैसी छोटी प्रदेश के बाद राज्यसभा सांसद से लेकर केंद्रीय मंत्री तक बनाया। वो आज कांग्रेस को बंगाल में राजनीति का ककहरा सीखा रहे हैं। यह इतने दोगले हैं कि इन्हें केरल में मुस्लिम लीग से गठबंधन नजर नहीं आ रहा था लेकिन वाम दलों का ढ्ढस्स्न को सीट देना आज अखर रहा है।
अब बात करें ‘गुलाम’ साहब की जिन्होंने पूरी जिंदगी नेहरू और गांधी की कृपा से निकाल दी लेकिन आज इनके अंदर का लोकतंत्र जग गया है। इन्हें कांग्रेस का वंशवाद नजर आ रहा है। गुजरात दंगों के समय साहब में इनको शैतान नजर आ रहा था। अब एक राज्यसभा की सीट के लिए भगवान नजर आ रहा है। मतलब जिस पार्टी ने आपको बनाया उसे ही नीचे दिखा रहे हैं। ऐसी नकली आजादी से पार्टी की गुलामी ही ठीक है।
राज बब्बर, मनीष तिवारी जैसे नेताओं के बारे में बात करना पोस्ट को लंबा करना होगा। कांग्रेस को इस मामले में बीजेपी से सीखना चाहिए। वो वक्त पडऩे पर जसवंत सिंह और कल्याण सिंह जैसे नेताओं को निकाल बाहर कर देती है। सत्ता में हो या न हो लेकिन अनुशासन से कोई समझौता नहीं करती हैं। अब समय आ गया है राहुल गाँधी को पार्टी रूपी नदी की सारी कीचड़ और गंदगी साफ कर देना चाहिए। देर से ही सही इस सुखी नदी में निर्मल और स्वच्छ जल तो आएगा।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हम लोग कितने बड़े ढोंगी हैं? हम डींग मारते हैं कि हमारे भारत में नारी की पूजा होती है। नारी की पूजा में ही देवता रमते हैं। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते तत्र देवताः।’ अभी-अभी विश्व बैंक की एक रपट आई है, जिससे पता चलता है कि नारी की पूजा करना तो बहुत दूर की बात है, उसे पुरूष के बराबरी का दर्जा देने में भी भारत का स्थान 123 वां है। याने दुनिया के 122 देशों की नारियों की स्थिति भारत से कहीं बेहतर है।190 देशों में से 180 देश ऐसे हैं, जिसमें नर-नारी समानता नदारद है। सिर्फ दस देश ऐसे हैं, जिनमें स्त्री और पुरुषों के अधिकार एक-समान हैं। ये हैं–बेल्जियम, फ्रांस, डेनमार्क, लातविया, लग्जमबर्ग, स्वीडन, आइसलैंड, कनाडा, पुर्तगाल और आयरलैंड ! ये देश या तो भारत के प्रांतों के बराबर हैं या जिलों के बराबर ! इनमें से एक देश भी ऐसा नहीं है, जिसकी संस्कृति और सभ्यता भारत से प्राचीन हो।
ये लगभग सभी देश ईसाई धर्म को मानते हैं। ईसाई धर्म में औरत को सभी पापों की जड़ माना जाता है। यूरोप में लगभग एक हजार साल तक पोप का राज चलता रहा। इसे इतिहास में अंधकार-युग के रूप में जाना जाता है लेकिन पिछले ढाई-तीन सौ साल में यूरोप ने नर-नारी समता के मामले में क्रांति ला दी है लेकिन भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अभी भी शासन, समाज, अर्थ-व्यवस्था और शिक्षा आदि में पुरूषवादी व्यवस्था चल रही है। केरल और मणिपुर को छोड़ दें तो क्या वजह है कि सारे भारत में हर विवाहित स्त्री को अपना उपनाम बदलकर अपने पति का नाम लगाना पड़ता है ? पति क्यों नहीं पत्नी का उपनाम ग्रहण करता है? विवाह के बाद क्या वजह है कि पत्नी को अपने पति के घर जाकर रहना पड़ता है ? पति क्यों नहीं पत्नी के घर जाकर रहता है ? पैतृक संपत्ति तो होती है लेकिन ‘मातृक’ संपत्ति क्यों नहीं होती?
पिता की संपत्ति का बंटवारा उसके बेटों को तो होता है, बेटियों को क्यों नहीं ? बच्चों के नाम के आगे सिर्फ उनके पिता का नाम लिखा जाता है, माता का क्यों नहीं? दुनिया के कितने देशों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री महिलाएं हैं ? इंदिराजी भारत में प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बनीं कि वे महिला थीं, बल्कि इसलिए बनीं कि वे नेहरूजी की बेटी थीं। भारत में कुछ ऋषिकाएं और साध्वियां जरूर हुई हैं लेकिन दुनिया के देशों और धर्मों में लगभग सभी मसीहा और पैगंबर पुरुष ही हुए हैं। दुनिया के सभी समाजों में बहुपत्नी व्यवस्था चलती है, बहुपति व्यवस्था क्यों नहीं ? स्त्रियां ही ‘सती’ क्यों होती रहीं, पुरूष ‘सता’ क्यों न हुए ? इस पुरुषप्रधान विश्व का रूपांतरण अपने आप में महान क्रांति होगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- ईश्वर सिंह दोस्त
कांग्रेस में तेईस नेताओं का समूह कहलाने वाले नेताओं में से कुछ ने जम्मू में इकट्ठे होकर जो किया है, उसे बगावत का बिगुल कहा जाता है। अब तक समझा जा रहा था कि ये नेता कांग्रेस को फिर से एक देशव्यापी मजबूत पार्टी बनाने के लिए बेचैन हैं और इसके लिए ज्यादा आंतरिक जनतंत्र की मांग कर रहे हैं। मगर जम्मू के तुरंत बाद ही गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा के बयानों से यह शक भी होने लगा है कि कहीं इनकी दाल किसी और के ईंधन पर तो नहीं पक रही है। एकजुट होकर चिट्ठी लिखने या कोई मांग उठाने से आगे जाकर यह समूह एक धड़े की शक्ल में उभर आया है, जो जम्मू के बाद हिमाचल और हरियाणा में अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है।
इस समूह के नेताओं की राहुल से नहीं बनती, यह अब जगजाहिर है। इशारों में इसके पहले राहुल गांधी के बयानों पर भी इस समूह के कुछ नेता हमला बोल चुके हैं। यह सब तब हो रहा है जब पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। अप्रैल तक इन नेताओं को सब्र नहीं है तो इसके पीछे यह डर है कि चुनावों में राहुल के अच्छे प्रदर्शन से उनका कांग्रेस अध्यक्ष बनना कहीं तय न हो जाए। लगता है कि इनमें से कुछ नेता यह मन बना चुके हैं कि राहुल अध्यक्ष बनते हैं तो दूसरी पार्टी या गठबंधन बनाया जाए।
इन नेताओं में से भूपिंदर सिंह हुड्डा और आजाद को छोड़कर कोई भी न तो बड़ा क्षेत्रीय नेता है और न अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस में उसकी स्वीकार्यता है। इसलिए अगर ये कांग्रेस छोड़ते हैं और राजग का हिस्सा नहीं बनते हैं तो एकमात्र चारा संग-साथ होकर असंतुष्टों को इकट्ठा करने और तीसरे मोर्चे जैसे किसी गठबंधन की राह पकड़ने का हो सकता है। यह बात इसलिए कि भले ही कांग्रेस अभी इन पर कोई अनुशासन की कार्रवाई कर इन्हें शहादत देना न चाहती हो, मगर अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को कुछ नेता शायद समझते-बूझते हुए ही पार कर चुके हैं।
इन नेताओं में से एक पीजे कुरियन ने 2 मार्च को कहा भी कि कांग्रेस में सुधार होना चाहिए, मगर लक्ष्मण रेखा पार नहीं की जानी चाहिए। इसी तरह की बातें तीन और नेताओं वीरप्पा मोइली, संदीप दीक्षित और अजय सिंह ने कही। पृथ्वीराज चौहान, शशि थरूर, जितेन प्रसाद आदि पहले ही जी-23 से किनारा कर चुके हैं। अब अजीब नजारा है। कुछ नेता लक्ष्मण रेखा के उस पार चले गए हैं। कुछ रेखा पर हैं और कुछ रेखा के पहले ठिठक गए हैं।
राज्यसभा से गुलाम नबी आजाद की विदाई के वक्त मोदी के बहाए आंसूओं से रिश्ते की जिस जमीन को सींचा गया था, आजाद ने मोदी को सत्यवादी बता कर उसमें खाद डाल दी है। इसी तरह आनंद शर्मा के बयान हैं, जो कांग्रेस के बाहर से दिए गए नजर आते हैं। हालांकि बहुत से नेताओं के इस समूह से किनारा कर लेने के कारण यह असल में जी-23 से जी-10 हो चुका है। जम्मू में भी आजाद, आनंद, हुड्डा, सिब्बल, राज बब्बर, विवेक तन्खा और मनीष तिवारी ही जुटे थे। 23 तो वे थे, जिन्होंने कांग्रेस में चुनाव और आंतरिक जनतंत्र के लिए सोनिया को खत लिखा था। इसके बाद इनकी सोनिया के साथ बैठक हो चुकी है और जून में अध्यक्ष पद के चुनाव पर सहमति बन चुकी है।
कांग्रेस के भीतर की ऐसी असंतुष्ट गतिविधि में सत्तारूढ़ दल की खासी रुचि हो सकती है, जिसने कांग्रेस-मुक्त राजनीति की अपनी आकांक्षा को कभी छिपाया नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं होगी यदि इसके पीछे कॉर्पोरेट हित भी हों, क्योंकि कांग्रेस के अमरिंदर सिंह, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत जैसे जमीनी पकड़ वाले नेताओं की किसान समर्थक राजनीति की आंच कॉर्पोरेटी हितों तक पहुंच रही है। कांग्रेस का अतीत जो भी रहा हो, मगर आज की राजनीति में कार्पोरेट के हित में यही है कि कांग्रेस और कमजोर हो जाए।
कांग्रेस भले ही कम सीटों पर सिमट गई हो, मगर अपने अखिल भारतीय प्रसार के अलावा यह अब भी विमर्शों के शतरंज में भाजपा से आमने-सामने की स्थिति में है। इसलिए केंद्र सरकार के खिलाफ बिखरे हुए असंतोष को एक राजनीतिक कहानी में अगर कभी गूंथा गया तो कांग्रेस की भूमिका बनेगी। यह स्वयं भाजपा के नेहरू और गांधी परिवार को मुख्य निशाना बनाए रखने से जाहिर है। इसीलिए पहले कांग्रेस के समर्थन में नहीं रहे कई विश्लेषक भी अब यह मानते हैं कि कांग्रेस का और कमजोर होना भारत में लोकतंत्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।
सवाल सिर्फ लक्ष्मण रेखा का नहीं, बल्कि इन नेताओं के इरादों का भी है। सिंधिया के सफल और पायलट के असफल प्रयासों के बाद एक रुझान यह भी हो गया है कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं लिए पार्टी के नेतृत्व के सामने ब्लैकमेल जैसी स्थिति निर्मित की जाए। फिर कांग्रेस की विचारधारा की कसमें खाते हुए कदम भाजपा की तरफ लड़खड़ाते जाएं! इन नेताओं को सहानुभूति भी मिल जाती है कि बेचारे कांग्रेस में कितने घुट रहे थे और गांधी परिवार इतने समर्पित, होनहार और भोले नेताओं को संभाल कर नहीं रख पा रहा है। आज जब पाला बदलने के लिए बड़ा समर्थन मूल्य उपलब्ध हो, तब कांग्रेस नेतृत्व की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह लक्ष्मण रेखा के पार चले गए और लक्ष्मण रेखा में रहकर आंतरिक सुधार की बात उठाने वाले नेताओं में फर्क करे और उनसे वास्तविक व प्रभावी संवाद कायम करे।
ध्रुव गुप्त
प्रेम, विरह, सौंदर्य और जिंदगी की खूबसूरती तथा तल्खियों के बेहतरीन शायर रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी का जिक्र शायरी के एक अलग अहसास, एक अलग आस्वाद का जिक्र है। उन्हें उर्दू के महानतम आधुनिक शायरों में एक माना जाता है। वे उन शायरों में एक थे जिन्होंने शायरी में नई परंपरा की बुनियाद रखी थी। जिस दौर में उन्होंने लिखना शुरू किया, उस दौर की शायरी का एक बड़ा हिस्सा परंपरागत रूमानियत और रहस्यों से बंधा था। समय की सच्चाई और लोकजीवन के विविध रंग उसमें लगभग अनुपस्थित थे। नजीर अकबराबादी और इल्ताफ हुसैन हाली की तरह फिराक ने इस रिवायत को तोडक़र शायरी को नए मसलों, नए विषयों और नई भाषा के साथ जोड़ा। उनकी गजलों में सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर ढला है। वहां रूमान के साथ जि़न्दगी की कड़वी सच्चाइयां भी हैं और आने वाले कल की उम्मीद भी। उर्दू गजल की बारीकी, नाजुकमिजाजी और सौंदर्य को देश की संस्कृति और प्रतीकों से जोडक़र फिराक ने अपनी शायरी का एक अनूठा महल खड़ा किया था। अदबी दुनिया में फिराक की बेबाकी, दबंगई और मुंहफटपन के किस्से खूब कहे-सुने जाते हैं। अपनी शायरी की अनश्वरता पर खुद उनका आत्मविश्वास किस कदर गहरा था, यह उनके इस शेर से समझा जा सकता है- आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअसरों जब भी उनको ध्यान आएगा तुमने फिराक को देखा है।
आज फिराक गोरखपुरी की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन, उनकी एक गजल के चंद अशआर के साथ !
सितारों से उलझता जा रहा हूं
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूं
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमां ये है कि धोखे खा रहा हूं
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूं
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूं
ये सन्नाटा है मेरे पांव की चाप
‘फिराक’अपनी ही आहट पा रहा हूं।
-कमलेश
समलैंगिक विवाह को लेकर दायर की गईं याचिकाओं के जवाब में केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपना जवाब दाखिल किया है.
सरकार ने समलैंगिक विवाह को मंजूरी दिए जाने का विरोध किया है. गुरुवार को सरकार ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों के पार्टनर की तरह रहने और यौन संबंध बनाने की तुलना भारतीय पारिवारिक इकाई से नहीं की जा सकती.
इन याचिकाओं में हिंदू विवाह अधिनियम 1955, विशेष विवाह अधिनियम 1954 और विदेशी विवाह अधिनियम 1969 के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग की गई है. साथ ही समलैंगिक विवाह को मान्यता न देना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया गया है.
न्यायाधीश राजीव सहाय एंडलॉ और अमित बंसल की बेंच ने इस पर सरकार ने अपना जवाब दाखिल करने के लिए कहा था.
सरकार ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों के पार्टनर की तरह रहने और यौन संबंध बनाने की तुलना भारतीय पारिवारिक इकाई से नहीं की जा सकती जिसमें एक जैविक पुरुष को पति, एक जैविक महिला को पत्नी और दोनों के बीच मिलन से उत्पन्न संतान की पूर्व कल्पना है.
हलफ़नामे में कहा गया कि संसद ने देश में विवाह क़ानूनों को केवल एक पुरुष और एक महिला के मिलन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया है. ये क़ानून विभिन्न धार्मिक समुदायों के रीति-रिवाजों से संबंधित व्यक्तिगत क़ानूनों/ संहिताबद्ध क़ानूनों से शासित हैं. इसमें किसी भी हस्तक्षेप से देश में व्यक्तिगत क़ानूनों के नाजुक संतुलन के साथ पूर्ण तबाही मच जाएगी.
सरकार ने आगे कहा कि भारत में विवाह से "पवित्रता" जुड़ी हुई है और एक "जैविक पुरुष" और एक "जैविक महिला" के बीच का संबंध "सदियों पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार और सामाजिक मूल्यों" पर निर्भर करता है. केंद्र सरकार ने इसे मौलिक अधिकार के तहत भी मान्य नहीं माना है.
क्या हैं याचिकाएं
याचिका दायर करने वाले एक याचिकाकर्ता जोड़े की शादी को विदेशी विवाह अधिनियम के तहत रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट नहीं दिया गया. वहीं, दूसरे जोड़े को विशेष विवाह अधिनियिम के तहत शादी की इजाजत नहीं दी गई.
इन याचिकाओं में कहा गया कि विशेष विवाह अधिनियम और विदेशी विवाह अधिनियम की व्याख्या इस तरह कि जाए कि वो समलैंगिक विवाह पर भी लागू हो सके.
एक अन्य याचिकाकर्ता उदित सूद ने विशेष विवाह अधिनियम को जेंडर न्यूट्रल बनाने की मांग की ताकि वो सिर्फ़ महिला और पुरुष की बात न करे.
करनजवाला एंड कंपनी ने उनकी तरफ से याचिका दायर की है जिसमें कहा गया है कि इस समय विशेष विवाह अधिनियम जिस तरह बनाया गया है उसमें एक दूल्हे और एक दुल्हन की ज़रूरत होती है. ये व्याख्या हमारे शादी करने के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करती है. विशेष विवाह अधिनियम की व्याख्या इस तरह की जानी चाहिए जो लैंगिक पहचान और सेक्शुएलिटी को लेकर निष्पक्ष हों.
उदित सूद कहते हैं, “किसी के लिए अपना घर छोड़ना आसाना नहीं होता. भारत के भेदभावपूर्व क़ानूनों के कारण हमें एक सम्मानजनक ज़िंदगी के लिए अपना देश छोड़ना पड़ा.”
याचिक दायर करने की वजह को लेकर वह कहते हैं कि भारतीय एलजीबीटी समुदाय के सभी लोगों को परिवार, दोस्त और कार्यस्थल पर सहयोग नहीं मिल पाता. लेकिन, जिन्हें वो सहयोग मिला है उन्हें दूसरों की मदद के लिए इसका उपयोग करना चाहिए.
कहां हैं अड़चनें
सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था. इसके अनुसार आपसी सहमति से दो व्यस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध नहीं माना जाएगा. इसमें धारा 377 को चुनौती दी गई थी जो समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाती है.
अब मसला समलैंगिकों के विवाह का है. लेकिन, सरकार के जवाब के मुताबिक विवाह से जुड़े मौजूदा क़ानूनों के तहत समलैंगिक विवाह मान्य नहीं ठहराया जा सकता.
वहीं, याचिकाकर्ता इन क़ानूनों में बदलावों की मांग करते हैं ताकि उन्हें भी शादी का अधिकार मिल सके.
लेकिन, मौजूदा व्यवस्था में क्या ये संभव है और इसके लिए कितना लंबा रास्ता तय करने की ज़रूरत है.
"पूरी क़ानूनी संरचना बदलनी पड़ेगी"
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि शादी की व्यवस्था अलग-अलग क़ानूनों से मिलकर बनी है. अगर इसमें बदलाव होता है तो वो बहुत व्यापक और क्रांतिकारी बदलवा होगा.
उन्होंने बताया, “भले ही थर्ड जेंडर को क़ानूनी मान्यता मिली है, पर मान्यता मिलने और अधिकार मिलने में फर्क है. अधिकार मिलने के लिए ज़रूरी है कि उन परंपरागत क़ानूनों में बदलाव किया जाए जिनमें शादी को स्त्री और पुरुष के बीच संबंध माना गया है. साथ ही इनसे जुड़े अन्य क़ानूनों जैसे घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और मैरिटल रेप आदि में भी बदलाव करना होगा. लेकिन, इसमें कई सवाल और जटिलताएं सामने आती हैं.”
“जैसे अगर एक ही जेंडर के लोग शादी करेंगे तो गुजारा भत्ता कौन किसको देगा? घरेलू हिंसा में अगर एक ही जेंडर के लोग हैं तो इसमें पीड़ित और अभियुक्त पक्ष कौन होगा? ससुराल-मायका, पितृधन और मातृधन क्या है, इस पर विचार करना पड़ेगा. उसी तरीके से, मैरिटल रेप के भी प्रावधान हैं. इन सभी बातों का आपस में एक संबंध है. एक पूरी क़ानूनी संरचना बदलनी पड़ेगी क्योंकि विवाह के क़ानून की जड़ में स्त्री-पुरुष के संबंधों को ही निर्धारित किया गया है.”
विराग गुप्ता कहते हैं कि अब अगर इसको मान्यता देनी है तो सिर्फ़ संसद के माध्यम से दी जा सकती है. कोई क़ानून ग़लत है या नहीं ये कोर्ट तय कर सकता है लेकिन पूरी क़ानून व्यवस्था को बदलने के लिए कोर्ट निर्देश दे भी दे, तो भी बदलाव संसद के माध्यम से ही संभव है. विवाह क़ानूनों और उनसे जुड़े अन्य क़ानूनों में बदलाव करना होगा तभी सही अर्थों में मांग पूरी हो पाएगी. ये बहुत ही क्रांतिकारी बात होगी.
मौलिक अधिकार का उल्लंघन
दिल्ली हाई कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि समलैंगिकों को शादी का अधिकार न मिलना उन्हें समानता के मौलिक अधिकार से वंचित करता है.
याचिकाकर्ता उदित सूद कहते हैं कि हमारी याचिका विवाह की समानता को लेकर है. अपनी पसंद के किसी व्यक्ति से शादी करना आधारभूत मानवाधिकार है जो भारत के संविधान में सभी को मिला हुआ है. समलैंगिक भी इसके पूरे हकदार हैं.
उनकी याचिका में जिन मौलिक अधिकारों की बात की गई है वो हैं-
● राज्य किसी नागरिक के खिलाफ धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद नहीं कर सकता है. भारतीय क़ानून सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं.
● अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
● किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से क़ानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जाएगा.
लेकिन, सरकार इसे मौलिक अधिकार का मसला नहीं मानती.
सरकार का पक्ष है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार क़ानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन है और समलैंगिक विवाह के मौलिक अधिकार को शामिल करने के लिए इसका विस्तार नहीं किया जा सकता है. समलैंगिक विवाह "किसी भी व्यक्तिगत क़ानून या किसी भी सांविधिक वैधानिक क़ानून में मान्यता प्राप्त या स्वीकृत नहीं हैं.
समलैंगिक विवाह और मौलिक अधिकारों को लेकर विराग गुप्ता कहते हैं, “दरअसल, मौलिक अधिकार भी उसी चीज़ के लिए बनता है जिसके लिए देश में क़ानून हो. जिसके लिए क़ानून ही नहीं है उसके लिए मौलिक अधिकार कैसे बन जाएगा.”
“मौलिक अधिकार के तहत अगर वो अपनी पसंद का पार्टनर चुनते भी हैं तो भी वो शादी कैसे करेंगे क्योंकि उनकी शादी के लिए कोई क़ानून ही नहीं है. शादी की आज़ादी है लेकिन अगर आप क़ानूनी शादी करना चाहते हैं तो क़ानून के अनुसार ही करनी पड़ेगी. ऐसे में मौलिक अधिकार का उल्लंघन कैसे होगा. हालाँकि, विवाह संबंधी क़ानूनों में बदलाव करके ज़रूर इस अधिकार को पाया जा सकता है.”
यही याचिकाकर्ताओं की मांग भी है, कि समलैंगिकों की समानता के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए विवाह क़ानूनों में बदलाव किया जाए.
दुनिया भर में 29 देश ऐसे हैं जहाँ ऐसे ही क़ानूनी उलझनों के बावजूद समलैंगिक विवाह को मंज़ूरी दी गई है. कुछ देशों में कोर्ट के ज़रिए ये अधिकार मिला तो कुछ में क़ानून में बदलाव करके तो कुछ ने जनमत संग्रह करके ये अधिकार दिया.
शादी से जुड़े अन्य क़ानूनों को लेकर अब भी चर्चा जारी है जैसे समलैंगिकों के लिए घरेलू हिंसा के क़ानून के तहत मामला दर्ज कराने में समस्या आती है. लेकिन, उनकी शादी को मान्यता मिली हुई है.
इसे लेकर समानाधिकार कार्यकर्ता हरीश अय्यर कहते हैं कि जिस तरह विवाह क़ानून में बदलाव अन्य क़ानूनों को प्रभावित करेगा उसी तरह विवाह का अधिकार नहीं मिलने से समलैंगिकों के कई और अधिकार भी प्रभावित हो रहे हैं.
उन्होंने बताया, “शादी को मान्यता नहीं मिलने से होता ये है कि वो कपल शादी से जुड़े अन्य अधिकारों से भी वंचित हो जाता है. जैसे किडनी देने की इज़ाजत परिवार के ही सदस्य को होती है. अगर समलैंगिक जोड़े में किसी एक को किडनी की ज़रूरत है और दूसरा देने में सक्षम और इच्छुक भी है तो भी वो किडनी नहीं दे सकता क्योंकि वो क़ानूनी तौर पर शादीशुदा नहीं हैं.”
“इसी तरह आप उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित हो जाते हैं. मेडिक्लेम, इंश्योरेंस और अन्य दस्तावेजों में भी अपने पार्टनर का नाम नहीं लिख सकते. जबकि मेरा पार्टनर कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. समलैंगिक जोड़ा प्यार, समर्पण, इच्छा होने पर भी एक-दूसरे को परिवार नहीं बना सकता.”
इस मामले पर सरकार के रुख को लेकर हरीश अय्यर का कहते हैं, “हमें सरकार से इसी तरह के जवाब की उम्मीद थी क्योंकि उन्होंने धारा 377 के समय पर भी कोई पक्ष लेने से इनकार कर दिया था. सरकार ने कभी नहीं कहा कि वो एलजीबीटी के साथ है. हाँ, व्यक्तिगत तौर पर सरकार में शामिल नेताओं ने एलजीबीटी के समर्थन में बयान दिया है लेकिन सरकार के स्तर पर समर्थन नहीं मिला है.”
“बस हम ये चाहते हैं कि समलैंगिक विवाह को क़ानूनी दर्जा दिलाने का कोई तरीका ढूंढे, कोई प्रावधान करें या सिविल पार्टनरशिप ही करें. क़ानून ऐसा हो कि जेंडर और सेक्शुएलिटी के परे कोई भी दो लोग शादी कर सकें.”
इस मामले में सरकार को अभी कुछ और याचिकाओं पर भी कोर्ट में जवाब दाखिल करना है. मामले की अगली सुनवाई 20 अप्रैल को होगी. (bbc.com)
-गोपाल राठी
अहमदाबाद में मोटेरा स्टेडियम को नरेंद्र मोदी स्टेडियम नाम दिए जाने पर विवाद शुरू हो गया है। पहले यह मैदान सरदार पटेल स्टेडियम कहलाता था। स्टेडियम के नाम पर विवाद के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से जुड़ा किस्सा बरबस ही सोशल मीडिया में शेयर होने लगा है।
किताब ‘नेहरू मिथक और सत्य’ के लेखक पीयूष बबेले (श्चद्ब4ह्वह्यद्ध ड्ढड्डड्ढद्गद्यद्ग) ने अपनी पुस्तक का एक अंश ट्वीट किया है। इसमें नेहरू की खेलों को बढ़ावा देने की चिंता के साथ ही स्टेडियम के नामों को लेकर उनकी साफगोई का जिक्र है।
1951 में देश में पहली बार एशियाई खेलों के आयोजन होना था। नेहरू खेलों के बहाने दुनिया में एक राजनीतिक ध्रुव की नींव रखना चाहते थे। 11 फरवरी 1949 को नेहरू ने क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के मानद सचिव एएस डिमेलो के पत्र के जवाब में एक नोट लिखा-
मैंने मिस्टर डिमेलो द्वारा बनाया वह नोट पढ़ा। जिसमें उन्होंने नई दिल्ली में ‘नेहरू स्टेडियम इन पार्क’ और बंबई में ‘वल्लभ भाई पटेल ओलंपिक स्टेडियम’ बनाने का सुझाव दिया है। मैं भारत में खेलकूद और एथलेटिक्स को पूरा प्रोत्साहन देने के पक्ष में हूं। यह बहुत अफसोस की बात है कि देश में कोई ढंग का स्टेडियम नहीं है। पटियाला या एक दो जगहों को छोड़ दिया जाए तो देश में कहीं भी कायदे का रनिंग ट्रैक तक नहीं है। इसलिए मुझे लगता है कि सरकार को हर तरह के स्टेडियम के निर्माण के काम को बढ़ावा देना चाहिए।
मैं कभी भी किसी स्टेडियम का नाम अपने या किसी दूसरे व्यक्ति के नाम पर रखे जाने के सख्त खिलाफ हूं। यह एक बुरी आदत है इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। स्टेडियम का नाम नेशनल स्टेडियम या इसी तरह का कोई दूसरा नाम भी हो सकता है।
गौरतलब है कि बुधवार को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अहमदाबाद के मोटेरा के अत्याधुनिक स्वरूप का लोकार्पण किया है। इस मौके पर गृहमंत्री और अहमदाबाद के सांसद अमित शाह ने ऐलान किया कि इस स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी स्टेडियम होगा। जिसके बाद इसका विरोध होना शुरू हो गया था।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
खाद्य-पदार्थों और दवाइयों में मिलावट करनेवाले अब जरा डरेंगे, क्योंकि बंगाल, असम और उप्र की तरह अब मध्यप्रदेश भी उन्हें उम्र कैद देने का प्रावधान कर रहा है। अब तक उनके लिए सिर्फ 6 माह की सजा और 1000 रु. के जुर्माने का ही प्रावधान था। इस ढिलाई का नतीजा यह हुआ है कि आज देश में 30 प्रतिशत से भी ज्यादा चीजों में मिलावट होती है। सिर्फ घी, दूध और मसाले ही मिलावटी नहीं होते, अनाजों में भी मिलावट जारी है। सबसे खतरनाक मिलावट दवाइयों में होती है। इसके फलस्वरूप हर साल लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं, करोड़ों बीमार पड़ते हैं और उनकी शारीरिक कमजोरी के नुकसान सारे देश को भुगतने पड़ते हैं। मिलावट-विरोधी कानून पहली बार 1954 में बना था लेकिन आज तक कोई भी कानून सख्ती से लागू नहीं किया गया।
2006 और 2018 में नए कानून भी जुड़े लेकिन उनका पालन उनके उल्लंघन से ही होता है। उसके कई कारण हैं। पहला तो यही कि उस अपराध की सजा बहुत कम है। वह नहीं के बराबर है। मैं तो यह कहूंगा कि वह सजा नहीं, बल्कि मिलावटखोर को दिया जानेवाला इनाम है। यदि उसे 6 माह की जेल और एक हजार रु. जुर्माना होता है तो वह एक हजार रु. याने लगभग डेढ़ सौ रुपए महिने में जेल में मौज मारेगा। उसका खाना-पीना, रहना और दवा-सब मुफ्त!
अपराधी के तौर पर कोई सेठ नहीं, उसका नौकर ही पकड़ा जाता है। अब कानून ऐसा बनना चाहिए कि मिलावट के अपराध में कंपनी या दुकान के शीर्षस्थ मालिक को पकड़ा जाए। उसे पहले सरे-आम कोड़े लगवाए जाएं और फिर उसे सश्रम कारावास दिया जाए। उसकी सारी चल-संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। यदि हर प्रांत में ऐसी एक मिसाल भी पेश कर दी जाए तो देखिए मिलावट जड़ से खत्म होती है कि नहीं। थोड़ी-बहुत सजा मिलावटी समान बेचनेवालों को भी दी जानी चाहिए। इसके अलावा मिलावट की जांच के नतीजे दो-तीन दिन में ही आ जाने चाहिए। मिलावटियों से सांठ-गांठ करनेवाले अफसरों को नौकरी से हमेशा के लिए निकाल दिया जाना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय सभी भाषाओं में विज्ञापन देकर लोगों को यह बताए कि मिलावटी चीजों को कैसे घर में ही जांचा जाए। दवाइयों और खाद्य-पदार्थों में मिलावट करना एक प्रकार का हत्या-जैसा अपराध है। यह हत्या से भी अधिक जघन्य है। यह सामूहिक हत्या है। यह अदृश्य और मौन हत्या है। इस हत्या के विरुद्ध संसद को चाहिए कि वह सारे देश के लिए कठोर कानून पारित करे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा और कांग्रेस के बागी नेताओं के नए तेवर कांग्रेस पार्टी के लिए नई चुनौतियां पैदा कर रहे हैं। प. बंगाल, असम, पुदुचेरी, तमिलनाडु और केरल— इन पांच राज्यों में से अगर किसी एक राज्य में भी कांग्रेस जीत जाए तो उसे मां-बेटा नेतृत्व की बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। केरल और पुदुचेरी में कांग्रेस अपने विरोधियों को तगड़ी टक्कर दे सकती है, इसमें शक नहीं है। वह भी इसलिए कि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व जऱा प्रभावशाली है।
प्रभाव उनका ही होगा लेकिन उसका श्रेय मां-बेटा नेतृत्व को ही मिलेगा और यदि पांचों राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह से पिट गई तो माँ-बेटा नेतृत्व के खिलाफ कांग्रेस में जबर्दस्त लहर उठ खड़ी होगी। उसके संकेत अभी से मिलने लग गए हैं। जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस की दुर्दशा पर पुनर्विचार करने की गुहार पहले लगाई थी, वे अब पहले जम्मू में और फिर कुरूक्षेत्र में बड़े आयोजन करने वाले हैं। जम्मू का आयोजन गुलाम नबी आजाद के सम्मान में किया जा रहा है, क्योंकि मां-बेटा नेतृत्व ने उन्हें राज्यसभा के पार्टी-नेतृत्व से विदा कर दिया है। गुलाम नबी की तारीफ में भाजपा ने प्रशंसा के पुल बांध रखे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि उसके बावजूद वे भाजपा में जानेवाले नहीं हैं।
कांग्रेस के ‘चिंतित नेताओं’ को साथ जोडक़र अब वे नई कांग्रेस घडऩे में लगे हैं। उनके साथ जो वरिष्ठ नेतागण जुड़े हुए हैं, उनमें से कई अत्यंत गुणी, अनुभवी और योग्य भी हैं लेकिन उनमें साहस कितना है, यह तो समय ही बताएगा। उनकी पूरी जिंदगी जी-हुजूरी में कटी है। अब वे बगावत का झंडा कैसे उठाएंगे, यह देखना है। उनकी दुविधा इस शेर में वर्णित है।
इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई ‘मोमिन’
आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे ?
मुझे नरसिंहरावजी के प्रधानमंत्री-काल के वे अनुभव याद आ रहे हैं, जब मेरे पिता की उम्र के कांग्रेसी नेता मेरे सम्मान में तब तक खड़े रहते थे, जब तक कि मैं कुर्सी पर नहीं बैठ जाता था, क्योंकि नरसिंहरावजी मेरे अभिन्न मित्र थे। अब वे दिन गए जब पुरूषोत्तम दास टंडन, आचार्य कृपालानी, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश, महावीर त्यागी जैसे स्वतंत्रचेता लोग कांग्रेस में सक्रिय थे लेकिन फिर भी हमें उम्मीद नहीं छोडऩी चाहिए। कांग्रेस तो दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टियों में से रही है और स्वाधीनता संग्राम में इसने विलक्षण भूमिका निभाई है।
भारतीय लोकतंत्र की उत्तम सेहत के लिए इसका दनदनाते रहना जरूरी है। मार्च-अप्रैल में होने वाले पांच चुनावों का जो भी परिणाम हो, यदि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र किसी तरह स्थापित हो जाए तो कांग्रेस को नया जीवन-दान मिल सकता है। यदि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र सबल होगा तो भाजपा भी भाई-भाई पार्टी बनने से बचेगी।
कई प्रांतीय पार्टियां, जो प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं, उनमें भी कुछ खुलापन आएगा और उनमें नया रक्त-संचार होगा। हमारे भारत की सभी पार्टियां अपना सबक कांग्रेस से ही सीखती हैं। कांग्रेस के सारे दुर्गुण हमारे अन्य राजनीतिक दलों में भी धीरे-धीरे बढ़ते चले जा रहे हैं। यदि कांग्रेस सुधरी तो देश की पूरी राजनीति सुधर जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
राजद्रोह को दंड संहिता से निकाल फेंकने से सुप्रीम कोर्ट ने इंकार कर दिया है। आवेदक केदारनाथ सिंह ने यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंग्रेजों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन गुंडों को गद्दी सौंप दी। लोगों की गलती से गुंडे गद्दी पर बैठ गए हैं। हम अंग्रेजों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आखिर ेप्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है। उसमें उन लोगों को सजा देने की शक्ति होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में’ नामक शब्दांश बहुत व्यापक है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह अपराध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्य द्वारा सक्षम प्रतिबंध के रूप में मुनासिब समझा जा सकता है।
पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक करार दिया, लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाले मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के प्रतिकूल। तो न्यायालय पहली स्थिति के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया। कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई। राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्दों का कचूमर निकल रहा है। धारा 124-क के अनुसार-जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या इशारों द्वारा, या दिखाते हुए अन्यथा कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना पैदा करेगा, या पैदा करने की कोषिष करेगा या मनमुटाव उकसाएगा या उकसाने की कोषिष करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा। राजद्रोह का अपराध राजदंड है। वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर पड़ता है। अंग्रेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं। राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने भी तो खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं।
2010 में कश्मीर के अध्यापक नूर मोहम्मद भट्ट को कश्मीरी असंतोष को प्रश्न पत्र में शामिल करने, टाईम्स ऑफ इंडिया के अहमदाबाद स्थित संपादक भरत देसाई को पुलिस तथा माफिया की सांठगांठ का आरोप लगाने, विद्रोही नामक पत्र के संपादक सुधीर ढवले को कथित माओवादी से कम्प्यूटर प्राप्त करने, डॉक्टर विनायक सेन को माओवादियों तक संदेश पहुंचाने, ओडिशा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी द्वारा माओवादी साहित्य रखने, एमडीएमके के नेता वाइको द्वारा यह कहने कि श्रीलंका में युद्ध नहीं रुका तो भारत एक नहीं रह पाएगा और पर्यावरणविद पीयूष सेठिया द्वारा तमिलनाडु में सलवा-जुडूम का विरोध करने वाले परचे बांटने जैसे कारणों से राजद्रोह का अपराध चस्पा किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के फैसले में सिद्धांत स्थिर किया कि किसी भी कानून में इतनी अस्पष्टता तो हो कि निर्दोष लोगों के खिलाफ यदि इस्तेमाल किया जा सके तो ऐसा कानून असंवैधानिक होगा। राजद्रोह के लिए मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है। इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया वगैरह में भी इस कानून की उपयोगिता अब बची नहीं है। राजद्रोह को आज़ादी कुचलने के सरकारी या पुलिसिया डंडे के रूप में रखे जाने का संवैधानिक औचित्य भी नहीं है। विनोद दुआ ने भी ऐसा कुछ घातक तो नहीं कहा था जिसको लेकर सरकारी तरफदारी करने वाले कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता बवाल मचा गए। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ के प्रकरण में राजद्रोह की संवैधानिकता पर मुहर लगाई है। तब इंग्लैंड में प्रचलित समानान्तर प्रावधानों का सहारा लिया था। इंग्लैंड में संबंधित धारा का विलोप कर दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह की संविधान पीठ में भाषा की केचुल तो उतारी लेकिन राजद्रोह के सांप को फनफनाने का मौका मिला। अंग्रेज जज कहते थे राज्य और सरकार के खिलाफ नफरत और असहयोग तो दूर मन में सरकार के नकार की भावना तक का प्रदर्शन नहीं करना है। (बाकी पेज 8 पर)
धीरे-धीरे उस पर तर्क की इस्तरी चलती चलाते भारतीय जजों ने कहा कि सरकार का मतलब राज्य के नुमाइंदों से नहीं है। सरकार एक भाववाचक संज्ञा है जो व्यक्तियों के जरिए तो उपस्थित है लेकिन वे व्यक्ति सरकार नहीं हैं। इससे कुछ सहूलियत मिली लेकिन आखिर यही तय हुआ कि यदि सरकार के खिलाफ लगभग गांधीवादी जुमले में असहयोग निष्क्रिय प्रतिरोध, सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी कोई करेगा तो उससे एक ऐसी मनोवैज्ञानिकता पसर सकती है कि जनता को सरकार नामक उपस्थिति या तंत्र से कोई लेना देना नहीं है बल्कि सरकार का नकार है। ऐसे में सरकार के माध्यम से कोई हुकूमत कैसे करेगा। दुभागर््य है कि तिलक से लेकर दिशा रवि तक किसी ने भी हथियारों के जरिए किसी राज्य की मान्यता या संस्था को नेस्तनाबूद करने का आह्वान नहीं किया। अब तक यही कहा और ठीक कहा कि हम अंगरेजों के गुलाम नही रहेंगे लेकिन हमारी आजादी देष की सरकार में होगी। आज भी भारतीय नागरिक आजादी का जयघोष हो रहा है कि राज्य हमारा है क्योंकि हम संविधान के निर्माता हैं। हम सरकारें चुनते हैं। उन्हें हटा देने का हक हमारा है। इसलिए हमारे चुने हुए नुमाइंदों के उनके गलतसलत कामों को प्रतिबंधित करने के हमारे संवैधानिक अधिकार को राजद्रोह का कोड़ा फटकारते हमें डरा नहीं सकते। सैकड़ों मुकदमे हैं जिनमें दिशा रवि की तरह पहली फुर्सत में अदालतों को नागरिक आजादी के पैरोकारों के पक्ष में राय दे सकनी थी।
यदि राज्य की हुकूमत जुर्म करे तो संविधान का तीसरा स्तंभ न्यायपालिका के रूप में ही मुनासिब इंसाफ करने में ढिलाई क्यों करेगा? उसकी तपिश का अहसास तिलक और गांधी जैसे महान नेताओं ने अंगरेजी जुर्म से तंग आकर किया था। उन्होंने आजाद भारत के लिए मनुष्य के अधिकारों का अंतरिक्ष फैलाया था।
-रमेश अनुपम
छत्तीसगढ़ और विशेषकर रायपुर का इतिहास लिखा जाए और उस इतिहास में रायबहादुर भूतनाथ डे का उल्लेख न हो, ऐसा संभव नहीं है। रायबहादुर भूतनाथ डे एक ऐसे अनमोल शख्शियत थे जिन्होंने इस शहर को शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं से महरूम किया।
रायपुर शहर को एक नई पहचान दिलाने की कोशिश ही नहीं की अपितु एक नए रायपुर को गढऩे में आगे बढ़ कर रुचि भी दिखाई। सेंट्रल प्रोविनेंस एंड बरार के इस नवविकसित शहर को एक नई पहचान दिलाने में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शिक्षा के विकास में और जनजागृति के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को उन्होंने अंजाम दिया। जिसके फलस्वरूप उन्हें उस समय सी पी एंड बरार का ईश्वरचंद्र विद्यासागर कहा जाता था। जो कार्य बंगाल में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने किया ठीक उसी तरह के नवजागरण का कार्य रायबहादुर भूतनाथ डे ने इस शहर के लिए किया।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बंगाल में नवजागरण के समय कोलकाता में शिक्षा, स्त्री शिक्षा, महिलाओं को आगे बढ़ाने तथा जनजागृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए ठीक उसी तरह के उल्लेखनीय कार्यों को राय बहादुर भूतनाथ डे ने रायपुर में अंजाम दिया।
वे बीस वर्षों तक (सन् 1880 से 1900 तक) रायपुर म्यूनिस्पल के सेक्रेटरी रहे। उस बीच उन्होंने पेयजल के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय कार्य किए। राजनांदगांव के तत्कालीन राजा की आर्थिक सहायता से रायपुर में उन्होंने पेयजल की आपूर्ति को संभव बनाया। वे रायपुर के वकीलों के एक छात्र नेता रहे। सन 1902 में रायपुर के यूनियन क्लब की स्थापना में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही है।
वे दो दशक से भी अधिक समय तक इस शहर के सिरमौर रहे। इस शहर को उन्होंने जिस तरह से प्यार किया, जिस तरह से संवारा वह अद्भुत है। आज के इस दौर में तो यह सब नामुमकिन है। उनके इन कार्यों को देखकर ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर की पदवी से विभूषित किया।
भूतनाथ डे के रायपुर आने की कहानी और उनका पिछला जीवन भी कोई कम दिलचस्प नहीं है। राय बहादुर भूतनाथ डे का जन्म बंगाल के बेहाला के श्रीनाथ देब के परिवार में सन 1850 में हुआ था। बहुत कम उम्र में पिता की मृत्यु हो जाने के पश्चात अपनी विधवा मां के साथ चौबीस परगना के बहड़ गांव के उदार हृदय जमींदार द्वारकानाथ भंज के यहां उन्हें शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा।
भूतनाथ डे ने सन 1869 में एफ. ए. तथा 1872 में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
सन 1874 में एम. ए. तथा 1876 में कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी. एल. की परीक्षा पास की।
बी.एल. की परीक्षा उत्तीर्ण के पश्चात भूतनाथ डे का विवाह चौबीस परगना के उमाचरण मित्र की द्वितीय कन्या एलोकेशी के साथ संपन्न हुआ।
विवाह के पश्चात कोर्ट में प्रैक्टिस करने के लिए उन्होंने उपयुक्त स्थान की खोज करना प्रारंभ किया। खोज करते-करते उन्हें रायपुर के बारे में पता लगा।
सन् 1876 में वे पहली बार रायपुर आए, तब तक इलाहाबाद से नागपुर तक रेल सेवा शुरू हो चुकी थी। कोलकाता से रायपुर आवागमन संभव हो चुका था। सन 1876 में रायपुर आने के बाद उन्होंने रायपुर को ही अपनी कर्मभूमि बनाना उचित समझा।
रायपुर को उन्होंने पूरी तरह से अपना लिया और रायपुर ने उन्हें। दोनों ने एक दूसरे से भरपूर प्यार किया और भरपूर सम्मान भी।
मात्र तिरपन वर्ष की अल्प आयु में 10 जुलाई 1903 को रायपुर में इस महाप्राण ने इस पृथ्वी को छोडक़र महाप्रयाण किया। उस समय कोलकाता से प्रकाशित सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘ञ्जद्धद्ग क्चद्गठ्ठद्दड्डद्यद्गद्ग’ के 15 जुलाई 1903 के पांचवें पृष्ठ में उनके निधन के समाचार को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया गया।
छत्तीसगढ़ और रायपुर का एक चमकता हुआ सितारा सदा-सदा के लिए अस्त हो गया। एक उल्का पिंड जिसकी रोशनी से यह शहर दमक उठा था वह सदा-सदा के लिए पृथ्वी के गर्भ में समा गया।
निधन के पश्चात उनकी स्मृति में कोतवाली से गांधी चौक होकर जाने वाले मार्ग का नाम उनके नाम पर किया गया, पर इसे कितने लोग जानते हैं ?
छत्तीसगढ़ और रायपुर शहर के लिए जिस रायबहादुर भूतनाथ डे ने इतना कुछ किया। उस नगर के लोग ही आज राय बहादुर भूतनाथ डे को पूरी तरह से भूल चुके हैं।
शेष अगले रविवार..
विश्व का महान जीनियस हरिनाथ डे...
- सतीश जायसवाल
माघ पूर्णिमा के साथ छत्तीसगढ़ में ग्रामीण वार्षिक मेलों की शुरुआत हो जाती है। और होली पर्व पर, धूल पँचमी तक इन मेलों की बहार होती है।
पहले के दिनों में छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक-पारंपरिक स्वरूप की एक झलक इन मेलों में मिल जाती थी।अब धीरे-धीरे वह धूमिल पड़ने लगी है। उस पर व्यापारिक और राजनैतिक प्रभाव गहराने लगा है।
यहां के तीन प्रमुख मेलों ने फिर भी इन प्रभावों से अपने को काफी हद तक बचाकर रखा है। और अपने सांस्कृतिक स्वरूप को सहेजा हुआ है। ये मेले हैं -- शिवरीनारायण, सिरपुर और पीथमपुर।
माघ पूर्णिमा के साथ शुरू होने वाले शिवरीनारायण मेला का एक प्रमुख और विशिष्ट आकर्षण यहां के रामनामी समुदाय के लोग होते हैं।
ये लोग, स्त्री-पुरुष और बच्चे तक अपने पूरे शरीर पर राम-राम नाम का गोदना गोदवाते हैं। और सर पर बाँस के बने मोरपंखी मुकुट सर पर धारण करते हैं।
ऐसे में ये लोग और भी दर्शनीय हो जाते हैं। और मेले का एक विशिष्ठ आकर्षण बन जाते हैं।
इन्हें देखने के लिए देश-विदेश के लोग स्वाभविक तौर पर यहां पहुंचते है। मीडियाकर्मी और स्कॉलर्स भी यहां आते हैं।
इस वर्ष माघ पूर्णिमा के पर्व पर रामनामियों के एक समूह ने यहां, महानदी में स्नान किया।और यहां से निकल गए। अब, हो सकता है कि अगले वर्ष इसी अवसर पर फिर दिखें। नहीं भी दिखें। कोई निश्चय नहीं।
-प्रकाश दुबे
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से अश्वमेध यज्ञ आरंभ करने की परंपरा थी। यज्ञ का आयोजन करने वाले ठोंक बजाकर अश्व चुनते हैं। तेलंगाना में रक्तक्रांति रोकने के लिए पहले जवाहर लाल नेहरू और आपात्काल लगाने से पहले और पूरे कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने सत्ता बचाने के लिए आचार्य विनोबा भावे को अश्वमेध के लिए सजाया। कुछ लोगों को यह बात नागवार लग सकती है। पश्चिम बंगाल से पुडुचेरी तक दलबदल शब्द का प्रयोग होता है। समय ही बताएगा कि ये योद्धा थे? विजयी हुए, वीरगति को प्राप्त हुए या किसी चुनावी अश्वमेध के बाद प्रसाद के रूप में वितरित किए गए?
अश्वमेध के घोड़े को अपना अंत पता होता होगा? काजू-किशमिश चबाते समय बकरे को अपनी कुरबानी का पता नहीं होता। उसकी पौष्टिकता स्वाद बनकर दान का गर्व और उत्सव का उल्लास बनकर बिखरती है। महत्वपूर्ण, परंतु काल्पनिक सा सवाल है-घोड़ा क्या सोचता होगा? सज-धज का आनंद। औरों से अलग दिखने का गर्व। पीछे-पीछे भागती श्रद्धालुओं की उत्तेजित भीड़। आरती, पूजा, अभिषेक। उसकी चाल तो बदल जाती है। सोच बदलने में क्षण नहीं लगता। अश्व सोचता होगा-मैं ही शूरवीर। युद्ध विजेता। कागज पर कलम चलाकर राजपाट की रजिस्ट्री करना संभव है। ऐसे प्रसंग से हम आपका मनोरंजन होता है। केन्द्र तथा राज्य की कुलीन सभाओं में प्रवेश मिलता है। धरती को रौंदने वाले अश्व की हिनहिनाहट में विजय का दर्प शामिल है।
रूसी क्रांति की कूंची से दुनिया के दर्जनों देश लाल हो गए। विचार और कर्म के घालमेल की बदौलत लेनिन रूस और बाद में सोवियत संघ के शिखर पद पर विराजमान हुए। लेनिन के देहांत के बाद सेंट पीटरबर्ग का नाम बदल कर सम्मान स्वरूप लेनिनग्राद किया गया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की आंधी में सत्ता, समय और पुराने विचार उखड़ कर ताश के पत्तों की तरह धराशायी हुए। लेनिनग्राद शहर का नाम फिर सेंट पीटरबर्ग हो चुका है। क्रांति का जनक व्लादिमीर इलीयिच उल्यानोव लेनिन अंतिम दिनों में खुश होकर यह कहने में असमर्थ था कि दुनिया के मजदूरों तुम बड़े जल्दी एकजुट होने लगे। लाल सलाम कहना दूर, एक अक्षर उसके मुंह से नहीं निकलता था। साम्यवाद की तुलना दिग्विजय के लिए किए जाने वाले अश्वमेध यज्ञ से करें। अपने सम्राट के नाम की पट्टी के साथ ऐंठकर चलते हुए घोड़े के पीछे पीछे सेनापति और सेना चलती है। घोड़े का तिलक कर अधीनता स्वीकार करो वरना युद्ध करो। घोड़ा सम्राट का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में ऐसे कई अवसर आए जब घोड़े के आगे अनेक शूर सर नवाजे गए।
गांधी के विचार और कर्म से प्रभावित भारत ने महात्मा और बापू जैसा संबोधन दिया। अहिंसक सत्याग्रह का घोड़ा भारत की स्वतंत्रता का अश्व बना। अश्वमेध यज्ञ पूरा होने के बाद घुड़सवारों ने प्राचीन परंपरा निभाई। उन्होंने घोड़े को अज यानी बकरे के साथ खंभे से बांधा। विधिवत पूजा के बाद अश्व की देह के टुकड़े प्रसाद के रूप में विजयी प्रजा में वितरित किए गए। हर अश्वमेध के बाद लगभग उसी तरीके से यह परिपार्टी अपनाई जाती है। अपने घोड़े से असहमत सम्राट याद नहीं रखा जाता। उसका भी अपने अश्व जैसा ही अंत हाने की आशंका बनी रहती है। अनेक बड़े उदाहरण पाठकों के मन को झकझोरते होंगे। एक अल्पज्ञात मिसाल देना उचित होगा।
डॉ. राम मनोहर लोहिया के बाद गैर कांग्रेसवाद के विचार को नंदमूरि तारक रामाराव ने हथियार बनाया। लोकसभा चुनाव में वर्तमान भाजपा से लेकर हर कांग्रेस विरोधी दल के उम्मीदवार को रामाराव ने उम्मीदवार बनाया। सिर्फ माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उनका तोहफा लेने से इंकार किया। विचार का अश्व रेड़ लगाकर लक्ष्य के करीब जा पहुंचा। एनटीआर गोता खा गए। अपने को सम्राट समझने की भूलकर पसंद की महिला से विवाह किया। इस बहाने दामादों, बेटियों और समर्थकों ने एनटीआर को सत्ता से बाहर कर दिया। लेनिन का हश्र सर्वश्रूत है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अपना विचार है। इस विचार की ताकत तब भी थी, जब सत्ता नहीं थी। उस समय कुपु सी सुदर्शन सरसंघचालक थे। उनके निर्देश पर लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा। रथयात्री आडवाणी अश्वमेध के घोड़े साबित हुए। आदेशक सुदर्शन जी अंतिम दिनों में याददाश्त खो बैठे थे। भोपाल में टहलने निकले। अचानक सांस थमी। देर तक लोग पहचान नहीं पाए। उनकी ही तरह प्रतिभाशाली कलमकार चलपति राव का काल से मुकाबला हुआ। नेशनल हेराल्ड का संपादक प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लेख में कतरब्यौंत करता था। प्रधानमंत्री बनी बेटी ने निकाल बाहर किया। एक दिन लावारिस लाश मिली। चलपतिराव का नश्वर शरीर। विचार के अश्वमेध के अश्व और घोड़े को रवाना करने वालों का हश्र सर्वविदित है। इसके बावजूद मेट्रोमेन ई श्रीधरन राजनीतिक यज्ञ में हवि देने आतुर हैं। मुख्यमंत्री बनने की उनकी चाह से चकित न हों। तीन महीने से व्यापक स्तर पर किसान आंदोलन चल रहा है। प्रचार वंचित किसान डटे हुए हैं। उनका संकल्प देखकर अण्णा हजारे जैसे मुनि विश्वामित्र को फिर एक बार प्रचार की अप्सरा मेनका याद आई।
प्रधानमंत्री ने आंदोलनजीवियों की फजीहत की। समय रहते अण्णा हजारे ने अपने आप को संभाला होगा। अचरज इस बात पर हो सकता है कि किसान और कृषि की जानकारी रखने वालों के बीच जाने-पहचाने स्वामीनाथन ने तमिलनाडु के लघु अश्वमेध का घोड़ा बनने की ललक नहीं दिखाई। उन्हें भी तो व्हील चेयर पर बिठाकर मुख्यमंत्री बनाया जा सकता था। याद करिए दिल्ली के चुनाव। किरण बेदी पुलिसिया रोब के साथ सलामी लेने पहुंच गई थीं।
अश्व सोचे या न सोचे। जीत के जयकारे में मस्त, दिग्विजय के लिए अश्व चुनने वाले अश्वमेध के विजयी घोड़ों की वेदना पर विचार करें? उनका काम यज्ञ है। घोड़े सोचते नहीं। घोड़ा बेचकर सोना मुहावरा है। यह तो सब जानते हैं। इसका अर्थ समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-गिरीश मालवीय
एक साधारण सा फिल्म अभिनेता जिसकी कुछ दो चार फिल्म हिट हुई है संभवत: नशे की सही डोज न मिलने के कारण आत्महत्या कर लेता है और भारत का मीडिया उसकी आत्महत्या पर बवाल मचा देता है। लगभग पूरी फिल्म इंडस्ट्री शक के घेरे में आ जाती है। महीने दो महीने तक सुबह-शाम न्यूज चैनलों पर सिर्फ उसी से संबंधित न्यूज चलती है।
लेकिन जब देश के सबसे वरिष्ठ सांसदों में से एक जो सात बार लोकसभा का चुनाव जीतकर आया हो जो पूरे होशोहवास में आत्महत्या करने से पहले एक या दो नहीं, बल्कि 14 पन्नों का एक पत्र, ‘सुसाइड नोट’ के शीर्षक के साथ, वो भी अपने ऑफिशियल लेटरहैड पर लिखकर मुंबई के एक होटल के कमरे में पँखे पर झूल जाता है तो न सांसद की कोई चर्चा करता है न उसके सुसाइड नोट की कोई चर्चा करता है न उन परिस्थितियों की कोई चर्चा करता है जिसमें उलझ कर एक सांसद जैसे अधिकार संपन्न आदमी को अपनी जान देनी पड़ी और न उन नामों पर चर्चा करता है जिनका नाम उस सुसाइड नोट में लिखा है।
तो ऐसा क्यों होता है आपने कभी सोचा?
मीडिया में आज वो ताकत है जो किसी भी भी आलतू-फालतू मुद्दे को हमारे दिमाग में फिट कर दे और जिन जनसरोकार के मुद्दों का हमसे सीधा संबंध है उन्हें हमसे दूर कर दे। यह मीडिया का दानव जिसके वश में है वही हमारे सोचने-समझने की शक्ति को अपने कंट्रोल में किए हुए हैं वही राज कर रहे हैं।
खैर!...जाने दीजिए...यह सब बातें एक न एक दिन आपको समझ में आ ही जाएगी, मैं आपको यहाँ वो बता दूं जो हमारा मीडिया खासतौर पर हिंदी मीडिया बिल्कुल भी नहीं बता रहा है। कल मोहन डेलकर के युवा पुत्र अभिनव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर न्याय की माँग की है। गुजराती में लिखे गए पत्र में अभिनव डेलकर ने लिखा है, ‘मेरे पिता मोहन डेलकर को कुछ समय के लिए मानसिक रूप से तनाव में रखा गया है और इस पत्र को लिखने का उद्देश्य न्याय प्राप्त करना है
अभिनव लिखते हैं ‘मेरे पिता पर बहुत दबाव था। स्थानीय प्रशासन ने उनके और हमारे समर्थकों के लिए चीजों को बहुत कठिन बना दिया था। अभिनव ने कहा कि सांसद होने के बावजूद एक प्रकार असहायता की भावना उनमें आ गई थी वह अपने समर्थकों की मदद करने तक में स्वयं असमर्थ महसूस कर रहे थे।
अभिनव ने कहा कि डेल्कर के कई समर्थकों और आदिवासी श्रमिकों को एक स्थानीय सरकारी स्कूल में नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने जिला परिषद चुनाव में उनका समर्थन किया था। ‘ये लोग मेरे पिता से मदद मांगने आएंगे। लेकिन वह असहाय थे क्योंकि स्थानीय प्रशासन उन्हें या मेरे पिता की उचित सुनवाई के लिए तैयार नहीं था। 27 जून, 2020 को बुलडोजर के साथ हमारे कॉलेज के बाहर 350 से अधिक पुलिस कर्मियों ने बिल्डिंग का ढांचा ढहा दिया था। उन्होंने तभी इस कार्य को तभी रोका जब मेरे पिता अदालत से स्टे लेकर के आए।
अभिनव इस पत्र में बताते हैं कि डेलकर को सरकारी कार्यों के लिए भी आमंत्रित नहीं किया जा रहा था। ‘पिछले कुछ वर्षों में, प्रशासन ने उन्हें भाषण देने से रोक दिया था। जब गृह मंत्री नित्यानंद राय एक अधिकारी के लिए आए थे, तब उन्होंने उन्हें आमंत्रित नहीं किया था। महाराष्ट्र के गृह मंत्री द्वारा दिया गया बयान 24 फरवरी को कहा गया है कि ष्ठहृ॥ प्रशासक सीधे मेरे पिताजी को आत्महत्या के लिए मजबूर करने में शामिल है। हम ष्ठहृ॥ के लोग ऐसे व्यक्ति को स्वीकार नहीं कर सकते। हम आपसे अनुरोध करते हैं कि आप तुरंत ष्ठहृ॥ से प्रशासक प्रफुल्ल पटेल को हटा दें। मुझे मुंबई पुलिस द्वारा की गई जांच पर पूरा भरोसा है। यह एक बेटे की आपसे अपील है।’
उनके बॉडी गार्ड नंदू वानखेड़े का बयान भी सामने आया है जिसमे कहा गया है कि डेलकर पिछले कुछ दिनों से उदास थे। वानखेड़े ने कहा कि एक रात पहले मैं उनके साथ कमरे में था और उसे कुछ लिखते देखा। बाद में उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा क्योंकि उन्होंने कहा कि वह अध्ययन करना चाहते हैं। ड्राइवर अशोक पटेल 1 बजे तक उनके साथ रहे। उन्होंने मुझे बताया कि सर (डेलकर) ने उनके जाने तक लिखना जारी रखा। अब हम मानते हैं कि यह सुसाइड नोट था।
इस सुसाइड नोट में भी इस ‘अन्याय’, ‘अपमान’ और उनके साथ बरते गए पूर्वाग्रह का उल्लेख किया गया है।
58 वर्षीय मोहन डेलकर आदिवासियों के बड़े हितैषी के रूप में गिने जाते थे। सांसद मोहन डेलकर, जो आदिवासी कोटे से चुने गए सांसद थे। बेहद आश्चर्य की बात है कि उनके लिए देश का आदिवासी समाज भी कुछ नही बोल रहा है, बड़े-बड़े आदिवासी नेता भी इस मसले पर खामोश है।
भारतीय राजनीति की यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि एक उच्च शिक्षित साधन संपन्न नेता, जो सात बार सांसद रहा है, उसे ऐसी असहाय अवस्था में अपना जीवन समाप्त करना पड़ रहा है। लेकिन न मीडिया में न सोशल मीडिया में कोई इस बारे में बात तक करने को तैयार नहीं है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और पाकिस्तान को लेकर इधर कुछ ऐसी खबरें आई हैं कि यदि उन पर काम हो गया तो दोनों देशों के रिश्ते काफी सुधर सकते हैं। पहली खबर तो यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में ऐसी बात कह दी है, जो दक्षिण एशिया का नक्शा ही बदल सकती है। दूसरी बात भारत-पाक नियंत्रण-रेखा पर शांति बनाए रखने का समझौता हो गया है। तीसरी बात यह कि सुरक्षा परिषद में सहमति हो गई है कि जब कोई आतंकी हमला किसी देश की जमीन से हो तो उस देश के अंदर घुसकर उन आतंकियों को खत्म करना जायज है। चौथी बात यह कि पाकिस्तान को अब भी अंतराष्ट्रीय वित्तीय टास्क फोर्स ने भूरी सूची में बनाए रखा है।
श्री मोहन भागवत ने हैदराबाद में आज ऐसी बात कह दी है, जो आज तक किसी आरएसएस के मुखिया ने कभी नहीं कही। उन्होंने कहा कि अखंड भारत से सबसे ज्यादा फायदा किसी को होगा तो वह पाकिस्तान को होगा। हम तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान को भारत का अंग ही समझते हैं। वे हमारे हैं। हमारे परिवार के हिस्से हैं। वे चाहें, जिस धर्म को मानें। अखंड भारत का अर्थ यह नहीं कि ये देश भारत के मातहत हो जाएंगे। यह सत्ता नहीं, प्रेम का व्यापार है। यही सनातन धर्म है, जिसे हिंदू धर्म भी कहा जाता है। मोहनजी वास्तव में उसी अवधारणा को प्रतिपादित कर रहे हैं, जो मैं 50-55 साल से अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जाकर अपने भाषणों के दौरान करता रहा हूं। उनकी बात की गहराई को हिंदुत्व और इस्लाम के उग्रवादी समझें, यह बहुत जरूरी है। मैंने कल ही श्रीलंका में दिए गए इमरान के भाषण का स्वागत किया था। अब कितना अच्छा हुआ है कि दोनों देशों के बड़ै फौजी अफसरों ने नियंत्रण-रेखा (778 कि.मी.) और सीमा-रेखा (198 किमी ज.क.) पर शांति बनाए रखने की सहमति जारी की है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों तरफ से हजारों बार उनका उल्लंघन हुआ है और दर्जनों लोग मारे गए हैं। यह असंभव नहीं कि दोनों देश कश्मीर और आतंकी हमलों के बारे में शीघ्र ही बात शुरु कर दें। इसका एक कारण तो अमेरिका के बाइडन प्रशासन का दबाव भी हो सकता है, क्योंकि वह अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए पाकिस्तान की मदद चाहता है और वह पाकिस्तान को चीनी चंगुल से भी बचाना चाहता है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल इस मामले में काफी चतुराई से काम कर रहे हैं। भारत भी चाहेगा कि पाकिस्तान चीन का मोहरा बनने से बचे। इमरान खान को पता चल गया है कि सउदी अरब और यूएई जैसे मुस्लिम देशों का सहयोग भी अब उन्हें आंख मींचकर नहीं मिलनेवाला है। पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का दबाव भी बढ़ गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी आंतकियों के कमर तोडऩे वाले बालाकोट-जैसे हमलों का समर्थन कर दिया है। यदि इन सब परिस्थितियों के चलते भारत-पाक वार्ता शुरू हो जाए तो उसके क्या कहने ?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)