विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से कल तीन महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो अलास्का में अमेरिकी और चीनी विदेश मंत्रियों की झड़प, दूसरी मास्को में तालिबान-समस्या पर बहुराष्ट्रीय बैठक और तीसरी अमेरिकी रक्षा मंत्री की भारत-यात्रा। इन तीनों घटनाओं का भारतीय विदेश नीति से गहरा संबंध है। यदि अमेरिकी और चीनी विदेशमंत्रियों के बीच हुई बातचीत में थोड़ा भी सौहार्द्र दिखाई पड़ता तो वह भारत के लिए अच्छा होता, क्योंकि गलवान-मुठभेड़ के बावजूद चीन के साथ भारत मुठभेड़ की मुद्रा नहीं अपनाना चाहता है। लेकिन अलास्का में दोनों पक्षों ने तू-तू-मैं-मैं का माहौल खड़ा कर दिया है। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विरुद्ध खुलेआम भाषण दिए हैं।
इसका अर्थ यही हुआ कि बाइडन प्रशासन में भी चीन के प्रति ट्रम्प-नीति जारी रहेगी। अब भारत को दोनों राष्ट्रों के प्रति अपना रवैया तय करने में सावधानी और चतुराई दोनों की जरूरत होगी। दूसरी घटना मास्को में तालिबान-समस्या को लेकर हुईं। उस वार्ता में रुस के साथ-साथ अमेरिका, भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया।
अफगान सरकार और तालिबान के प्रतिनिधि वहां उपस्थित थे ही। दोहा-समझौते के मुताबिक अफगानिस्तान में अमेरिका और यूरोपीय देशों के जो लगभग 10 हजार सैनिक अभी भी जमे हुए हैं, वे 1 मई तक वापस लौट जाने चाहिए लेकिन मास्को बैठक में इस मुद्दे पर कोई सहमति नहीं हो पाई है। तालिबान के प्रवक्ता ने कहा है कि वे काबुल में इस्लामी सरकार स्थापित करने के लिए कटिबद्ध हैं जबकि वार्तारत देशों का कहना है कि वहां मिली-जुली सरकार बने। यदि 1 मई को विदेशी फौजों की वापसी नहीं हुई तो तालिबान ने सख्त कार्रवाई की धमकी दी है।
आश्चर्य है कि वहां भारत गूंगी गुडिय़ा क्यों बना रहता है ? वह कोई पहल क्यों नहीं करता है? वह अमेरिका का पिछलग्गू क्यों बना रहता है? यह ठीक है कि भाजपा के पास विदेश-नीति विशेषज्ञों का अभाव है और वह गैर-भाजपाइयों विशेषज्ञों को संदेहास्पद श्रेणी में रखती है लेकिन हमारा विदेश मंत्रालय कोई ऐसी पहल क्यों नहीं करता, जिससे तालिबान और गनी-अब्दुल्ला सरकार भी सहमत हो। अफगानिस्तान में स्वतंत्र चुनाव के बाद जिसकी भी सरकार बने, सभी राष्ट्र उसे मान्यता क्यों न दें?
तीसरा घटना है, अमेरिकी रक्षामंत्री लायड आस्टिन की हमारे नेताओं से भेंट। वे रूसी एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की बात जरूर करेंगे। वे अपने हथियार भी बेचेंगे लेकिन भारत को सावधान रहना होगा कि अफगानिस्तान में वे अमेरिका की जगह भारत को फंसाने की कोशिश नहीं करें। (नया इंडिया की अनुमति से)
महान जीनियस हरिनाथ डे
-रमेश अनुपम
एफ.ए.की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात हरिनाथ डे ने कोलकाता के प्रसिद्ध कॉलेज प्रेसीडेंसी में बी.ए. की कक्षा में प्रवेश लिया।
सन् 1896 में हरिनाथ डे ने लेटिन तथा अंग्रेजी ऑनर्स के साथ बी. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
सन् 1896 में ही उन्होंने प्राइवेट छात्र के रूप में कोलकाता विश्वविद्यालय से एम. ए.लैटिन की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
The Calcutta University Magazine ने प्रकाशित किया-
' We congratulate mr Harinath De of our college who , having passed his B.A. E&amination in Latin and has stood First class, having secured as much as || percent of the ma&imum marks'
सन् 1897 के अप्रैल माह में हरिनाथ डे ने इंग्लैंड के प्रख्यात कॉलेज कैम्ब्रिज क्राइस्ट कॉलेज में दाखिला लिया। कैंब्रिज कॉलेज में पढ़ते-पढ़ते हरिनाथ डे ने कोलकाता विश्वविद्यालय से ग्रीक भाषा में भी एम.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय द्वारा स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया।
सन् 1898 में भारत सरकार द्वारा उन्हें प्रति वर्ष 200 पौंड की स्कॉलरशिप प्रदान की गई ।
कैंब्रिज में पढ़ते हुए हरिनाथ डे ने क्लासिकल ट्राईपास की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली थी।
हरिनाथ डे से पूर्व केवल एक भारतीय विद्यार्थी ने यह परीक्षा उत्तीर्ण की थी और वह भारतीय कोई और नहीं अरबिंदो घोष थे, जिन्होंने सन् 1892 में यह परीक्षा उत्तीर्ण की थी जो कालांतर में श्री अरबिंदो के नाम से चर्चित हुए।
सन 1900 में हरिनाथ डे ने उस समय की सर्वाधिक प्रतिष्ठापूर्ण I.C.S. की परीक्षा भी अच्छे नंबरों से पास कर ली, पर उन्होंने I.C.S. की सेवा में जाना स्वीकार नहीं किया।
सन 1901 में उन्होंने Medieval and Morden Languages Tripose की परीक्षा भी कैंब्रिज से उत्तीर्ण कर ली। उसी वर्ष उन्हें अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर तथा फ्रांसीसी अंग्रेजी साहित्यकार जेफ्री चौसर पर किए गए काम के लिए स्किट एवार्ड से सम्मानित किया गया।
कैंब्रिज में अध्ययन के दरम्यान ही उन्होंने फ्रांस और जर्मनी की यात्रा की। इन्हीं वैश्विक यात्राओं के मध्य वे अरबिक भाषा के विषय में शोध के लिए इजिप्ट भी गए।
सन् 1901 में वे इंडियन एजुकेशनल सर्विस (I.E.S.) में चयनित होकर भारत लौटे। 7 दिसंबर को उन्होंने सुप्रसिद्ध ढाका कॉलेज में अंग्रेजी भाषा और साहित्य के प्राध्यापक के रूप में पदभार ग्रहण किया।
वे पहले भारतीय आई.ई.एस. थे, उनसे पूर्व किसी भी भारतीय को यह गौरव प्राप्त नहीं हुआ था।
Christ's College Magazine में उन्हीं दिनों प्रकाशित हुआ 'Harinath De ,B.A. has been appointed to a post in the Imperial branch of the Educational Service of India . Mr. De is the first native of India to obtian a post in this service, as he was the first to be placed in the First class in the Classical Tripos'.
सन् 1904 में लॉर्ड कर्जन ढाका गए। वहां उन्होंने हरिनाथ डे से मिलने की अपनी इच्छा प्रकट की। लॉर्ड कर्जन भले ही अन्य मामलों में भारत में कुख्यात रहें हों, पर शिक्षा के प्रति उनमें गहरा रुझान था। वे विद्वानों का आदर करते थे, इसलिए स्वाभाविक था वे ढाका में हरिनाथ डे से मिलने की अपनी इच्छा को दबा नहीं पाए थे।
सन् 1905 में हरिनाथ डे का ट्रांसफर ढाका से प्रेसीडेंसी कॉलेज कोलकाता हो गया। संस्कृत, अरबिक तथा ओडिय़ा भाषा में उत्कृष्टता के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा पांच हजार रुपए की पुरुस्कार राशि से सम्मानित किया गया।
सन् 1907 में हरिनाथ डे कोलकाता के प्रसिद्ध इंपीरियल लाइब्रेरी (वर्तमान में नेशनल लाइब्रेरी) के लाइब्रेरियन नियुक्त किए गए। इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए भी हरिनाथ डे ने अपना पढऩा-लिखना और विविध भाषाओं के प्रति अपने अनुराग को कभी समाप्त नहीं होने दिया। अपने भीतर के ज्ञान की लौ को कभी बुझने नहीं दिया।
सन् 1908 में उन्होंने संस्कृत भाषा में प्रथम श्रेणी से एम. ए. की परीक्षा पास की, उन्हें पुरस्कार स्वरूप दो गोल्ड मेडल प्रदान किए गए।
सन् 1909 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय में अपनी पी-एच. डी. की थिसिस जमा की। कोलकाता विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें अंग्रेजी, ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, आर्मेनियन, संस्कृत, अरबिक, पर्शियन, उर्दू भाषाओं का परीक्षक नियुक्त किया गया।
दुनिया की छत्तीस भाषाओं में एक साथ अपनी किरण बिखेरने वाला यह सूर्य 30 अगस्त सन 1911 को सदा-सदा के लिए बादलों में कहीं छिप गया।
छत्तीसगढ़ और रायपुर का इतिहास जब भी लिखा जायेगा वह महान जीनियस हरिनाथ डे के बिना कभी पूरा नहीं होगा।
आज भले ही छत्तीसगढ़ ने उसे भूला दिया हो पर आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ न केवल अपने इस सपूत को याद करेगा, अपितु गर्व के साथ सिर ऊंचा उठाकर कह भी सकेगा कि हरिनाथ डे छत्तीसगढ़ के सचमुच हीरा थे और हमेशा रहेंगे।
अगले रविवार.. ‘जब बिलासपुर रेलवे स्टेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने किया अपनी पत्नी मृणालिनी देवी से छल।’
-प्राण चढ्डा
संकुचित हो रहा हरियाली का छत, सूखती नदियां और वनोषधियों के लिए जंगल का निर्मम दोहन का नतीजा है यह जैवविविधता पर संकट के दौर में है। प्रकृति के खुले खजाने की लूट मची है। वन्य जीव अब नेशनल पार्क और सेंचुरी में बचे हैं, आबादी जंगल तक पँहुच रही है और जंगल वन्य जीव पानी के लिए भटके आबादी के करीब पहुंच गए तो समझो उनकी मौत खींच लाई है।
आजादी के बाद देश में चीता खत्म हुआ।1950 के आसपास छत्तीसगढ़ की कोरिया रियासत में नाइट ड्राइव में भारत के अंतिम तीन चीते मारे गए। फिर देश में चीता नहीं दिखा। भेडि़ए तेजी से खत्म हो रहे हैं, गांव के करीब दिखने वाले लकड़बघ्घा, जंगली बिल्ली, खरगोश, लोमड़ी का दिखना तो अब सौभाग्य की बात है।
टाइगर के वह तेवर नहीं रहे कि जब उनकी सँख्या अधिक थी तब जो होते। अब नेशनल पार्क में टाइगर जिप्सी के आगे, पीछे सडक़ की रैम्प पर ‘कैटवाक’ करता महसूस होता है। कभी टाइगर का खौफ जंगल की रक्षा करता, और जंगल उसको आश्रय देता। सदियों से चल रहा, यह नाता जंगल की कटाई, और वैध अवैध कटाई के कारण विनष्ट हो गया है। हर साल जंगल की इन दिनों में लगने वाली आग जंगल और वन्यजीवों के लिए समान घातक बनी रहती है।
छत्तीसगढ़ का राजकीय पशु लुप्त होने के कगार पर है। डब्ल्यूटीआई और वन विभाग की इसके संवर्धन के लिए प्रयास किया जा रहा है, जिसके तहत एक जोड़ा युवा वन भैसा असम से लाकर बारनवापारा सेंचुरी में रखा गया है।
छत्तीसगढ़ के बहतरीन जंगल इंद्रावती नेशनल पार्क में, नक्सलियों की चलती है। यहां वन भैसे या टाइगर शेष है या नहीं और हैं तो कितने यह कोई प्रमाण देते हुए नहीं कहा सकता। वन विभाग नक्सलियों के भय से यहां वन्यजीवों की गिनती भी नहीं करा सकता। जैव विविधता की एक कड़ी टूटी तो माला बिखरते देर नहीं लगती। मधुमक्खी, तिलती या पतंगे कम हुए तो इसका असर जंगल की हरियाली पर दिखता है। जब पराग वाहक ही नहीं तो जंगल में बीज कैसे बनेगा। नए पौधों की कमी से जंगल हरियाली कम होती जाएगी।
जिसका बुरा असर सींग और खुर वॉले वन्यजीवों पर पड़ेगा, ये जीव पंजे और केनाईन वाले जीवों का शिकार हैं। उनको भी पेट भरने के लाले पड़ेंगे। यह है जैव श्रृंखला में कीट-पतंगों की कमी का दुष्प्रभाव। कोई कड़ी टूटी माला बिखरी।
जंगल में पुराने बड़े पेड़ों की कमी होने और मानव की दखलंदाजी के वजह कोटर आशियाना बनने वॉले बड़ा काला धनेश, बड़े उल्लू अब कम हो गए है। गिद्ध जिस गति से शहरी इलाके में खत्म हुई वह चिन्तनीय है। अब ये पहुंच विहीन इलाकों में है, जैसे बाँधवगढ़ के राज बेहरा, अचानकमार के औरापानी, कान्हा नेशनल पार्क में।
कान्हा नेशनल पार्क की बड़ी उपलब्धि कड़ी जमीन पर रहने वाले सख्त खुरों वाला बारहसिंघा जिसे लुप्त होने से बचा लिया गया और अब खतरे की रेखा को यह पार कर गए हैं। बाइसन याने इंडियन गौर भी छत्तीसगढ़ में काफी है। पर छत्तीसगढ़ में टाइगर को सौभाग्यशाली ही देख पता है। उडऩे वाली गिलहरी अब यदाकदा दिखतीं हैं। मासूम चिडिय़ा और सरीसृप खमोशी से कम होते जा रहे हैं और किसी को पता भी नहीं लगता।
साल का सदाबहार शीतल जंगल बचना होगा, क्योंकि इसका रोपण सफल नहीं होता। यह कुदरती तरीके से उगते और फिर बढ़ते हैं। चंदन, कत्थे याने खैर के पेड़ नित्य कम हो रहे, इसकी भरपाई कठिन है। कोई पेड़ सालों में बढ़ता है और कुछ घँटे की अवधि में टुकड़े होकर बिखर जाता है।
आर्युवेदिक दवा के लिए जंगल को फिक्स डिपाजिट माने, जिस कंपनी को दवा बनना हो वह अपना जंगल खुद तैयार करे। जंगल में उनकी वसूली से जनकल्याण हो रहा है लेकिन जंगल के विनाश की कीमत पर यह बहुत मंहगा है। जंगल के हाट बाजार में कोई इसकी खरीद फरोख्त नहीं करे इसके लिए सख्त कदम उठाने का वक्त आ गया है। इसकी भरपाई के लिए, कुल्लू, अर्जुन, दहीमन तेंदू बिल्व और चार जैसे कई पेड़ कम हो रहे हंै उनका प्लान्टेशन कैसे और बढ़े इस तरफ कदम अब जरूरी है। वेटलैंड की निरन्तर हो कमी से बछ, ब्रह्मी बूटी जैसी दिव्य वनोषधि की कमी जैवविवधता संकट में जा रहीं हैं। वेटलैंड की कमी से जीव और वनस्पतियों को क्षति हो रही है।
चीन और अमेरिका के संबंधों में राष्ट्रपति ट्रंप के समय की कड़वाहट जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद यदि किसी ने खत्म होने की उम्मीद की थी, तो दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बातचीत से उम्मीद की किरणें बुझ सी गई हैं.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लिखा-
बातचीत की जैसी शुरुआत हुई उससे लगता चीन के विदेश मंत्री वांग यी और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के विदेश मामलों के प्रमुख यांग जेइची की अमेरिका यात्रा चीन-अमेरिका संबंधों में और कड़वाहट घोल देगी. अमेरिका के अलास्का प्रांत के एंकरेज में अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन और राष्ट्रपति जो बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सलीवान के साथ चीनी नेताओं की मुलाकात रूखे माहौल में हुई. दोनों पक्षों के बीच यह तय था कि बैठक की शुरुआत वह बारी-बारी से मीडिया को दो-दो मिनट के वक्तव्य देकर करेंगे. लेकिन बात यहीं से बिगड़ने लगी.
विदेश मंत्री ब्लिंकेन ने चीनी सरकार के द्वारा हाल में उठाए कुछ कदमों पर चिंता जताई जिसमें शिनजियांग, ताइवान और हांगकांग में मानवाधिकार उल्लंघनों का जिक्र भी था. साथ ही यह भी कि चीन से लगातार अमेरिकी सरकारी संस्थानों और कंपनियों पर साइबर हमले हो रहे हैं और अमेरिका इन बातों से चिंतित है क्योंकि यह घटनायें नियमबद्ध अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चोट पहुंचा रही हैं. अपने मित्र देशों पर चीन की आर्थिक ज्यादतियों की बात भी अमेरिका ने रखी. हालांकि इसमें कुछ नया नहीं था क्योंकि ट्रंप सरकार की तर्ज पर ही बाइडेन सरकार भी इन मुद्दों को पूरी ताकत से उठाती आ रही है. लेकिन चीनी पक्ष इस बात से कुछ ज्यादा ही भड़क गया.
शुरुआती बयानों के बाद तल्खी
कूटनीति में बिन बात तैश में आने का कोई काम नहीं मगर चीनी पक्ष को ब्लिंकेन की बात नागवार गुजरी और जवाब में चीन के पार्टी नेता यांग जेइची ने अमेरिकी नीतियों की धुलाई करते हुए काफी कुछ कह डाला. उन्होंने कहा कि अमेरिका का खुद का इतिहास मानवाधिकार उल्लंघनों से भरा है, खास तौर पर अश्वेत अमेरिकी नागरिकों को लेकर. दो मिनट के बजाय लगभग आठ मिनट के इस लम्बे वक्तव्य में यांग जेइची ने अमेरिकी सरकार को मानवाधिकार मुद्दे पर पहले अपने गिरेबान में झांकने की नसीहत दी और साथ ही यह भी कह डाला कि अमेरिकी लोकतंत्र में भी खामियां बहुत हैं और अब तो कुछ अमेरिकी नागरिक भी इससे असंतुष्ट हैं.
बस फिर क्या था जेक सलीवान भी जवाब देने का लोभ संवरण न कर सके और सभा से बाहर जाते मीडियाकर्मियों को वापस बुला कर उन्होंने कहा कि अमेरिका और चीन में अंतर यही है कि जहां चीनी सरकार देश में मानवाधिकार हनन और अल्पसंख्यकों की चिंताओं को स्वीकार तक नहीं कर रही, अमेरिका में रंगभेद और लोकतंत्र की खामियों पर खुलेआम सार्वजनिक बात होती है और यही बात अमेरिका को खास बनाती है. सलीवान की यह बात बेशक दिल जीतने वाली है. किसी भी लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यही है कि वहां बेहतरी और सुधार की कोशिशें लगातार जारी रहें और इस बारे में खुल कर बहस मुबाहिसा भी हो सके. अमेरिका के नेतृत्व में चल रही नियमबद्ध अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के समर्थन में सलीवान ने चीन की विदेशनीति पर सीधा निशाना साधते हुए कहा कि ऐसी व्यवस्था का विकल्प अगर जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी व्यवस्था है, तो वह दुनिया के लिए और भी खतरनाक होगी.
क्यों बिगड़ा बातचीत का माहौल
किसी भी मंत्री स्तरीय वार्ता के लिए यह काफी बुरी शुरुआत है, और यहां तो विश्व राजनीति के दोनों धुरंधरों की बैठक थी. तो ऐसा क्या हुआ कि बात इतनी बिगड़ गई? सबसे पहली बात तो यही है कि चीन ने सोचा था कि अब जब कि डॉनल्ड ट्रंप सत्ता में नहीं रहे और जो बाइडेन सत्ता में आ चुके हैं, चीन और बाइडेन सरकार के बीच सब कुछ ठीक हो जायेगा. बाइडेन सरकार की ओर से चीन पर आ रहे वक्तव्यों को चीन ने गंभीरता से नहीं लिया. अमेरिकी शासन व्यवस्था के किताबी ज्ञान के अनुसार तो रिपब्लिकन और डेमोक्रेट सरकारों की विदेश नीतियों में व्यापक अंतर होने चाहिए लेकिन बाइडेन सरकार ने कुछ भी नहीं बदला है, आखिर उन्हें रिपब्ल्किन सांसदों का भी समर्थन चाहिए.
ट्रंप सरकार की इंडो-पैसिफिक नीति हो या क्वाड, अब्राहम अकॉर्ड हो या चीन के साथ आर्थिक संबंध. बाइडेन सरकार ने रिपब्लिकन-डेमोक्रेट के चक्कर में न पड़कर मुद्दों की खूबी देख कर उन्हें जारी रखा है. कहीं न कहीं इस बात को समझने में चीन ने चूक की और बातचीत के इस दौर को दो महाशक्तियों के बीच संवाद की शुरुआत का जामा पहनाने की कोशिश भी की. अमेरिकी प्रशासन को यह बात नहीं पसंद आयी और इसे खुले तौर पर मीडिया के सामने रखा भी गया. साफ है, कूटनीतिक मेसेजिंग की चीन की योजना फिस्स हो चुकी है. साथ ही बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जीनपिंग के बीच पृथ्वी दिवस पर 22 अप्रैल को होने वाली ऑनलाइन बैठक भी खटाई में पड़ती दिख रही है.
तीन साल से आमने सामने हैं चीन अमेरिका
चीन और अमेरिका के बीच पिछले काफी समय से तनातनी बनी हुई है जिसकी शुरुआत लगभग तीन साल पहले ट्रंप के कार्यकाल में ही हो गयी थी. ट्रंप के राष्ट्रपति रहते ही अमेरिका और चीन के बीच दोनों देशों के बीच व्यापार युद्ध छिड़ा जो समय के साथ और ज्यादा तल्ख होता चला गया. इसमें दो राय नहीं है कि चीन ने ट्रंप को कम करके आंका और व्यापार युद्ध में मुंहकी खायी. पिछले 2-3 वर्षों में अमेरिका ने एक तरफ इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को मजबूत किया और भारत की इसमें बड़ी भूमिका भी सुनिश्चित की. साथ ही अमेरिका ने भारत, जापान, अमेरिका और आस्ट्रेलिया के साझा सामरिक सहयोग के मंच क्वाड को भी मजबूती दी. सामरिक और कूटनीतिक मसलों पर अच्छी समझ का परिचय देते हुए तो फिलहाल बाइडेन प्रशासन ट्रंप की कई नीतियों को अपने ढंग से आगे बनाता दिखा रहा है, जो दुनिया के तमाम देशों के लिए भी राहत की खबर है.
दूसरी ओर चीन अपनी बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत की वजह से अपने को अमेरिका से कहीं भी कमतर नहीं आंकता. अमेरिकी प्रधानता और वर्चस्व को चुनौती देने की चीन की मंशा भी धीरे धीरे सामने आती जा रही है. लेकिन चीन अभी भी आर्थिक, सैन्य, और सामरिक स्तर पर अमेरिका से काफी पीछे है. चीन को यह समझना होगा कि सिर्फ सरकार बदल जाने से अमेरिका के साथ उसके संबंध नहीं सुधरेंगे. संबंधों में सुधार के लिए दोनों पक्षों को व्यापक पैमाने पर कदम उठाने होंगे. शायद इस दिशा में चीन को कुछ दूर आगे बढ़ कर शांति और समझौते की पहल करनी पड़ेगी. अंततः दोनों देश यदि आपसी बातचीत को सही रास्ते पर ला सकें तो सबके लिए अच्छा होगा, लेकिन फिलहाल ऐसा होना मुश्किल लग रहा है. (dw.com)
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
-हेमंत कुमार झा
चाहे जितने मुर्दाबाद कर लें, आज दो सरकारी बैंक निजी हो रहे हैं, कल चार होंगे, परसों आठ होंगे। आज सौ रेलवे प्लेटफार्म निजी हो रहे हैं, कल हजार होंगे। जैसे, शुरू में बड़े शहरों में निजी स्कूल खुले और धनाढ्य-नवधनाढ्य वर्ग ने उस पर पैसों की बरसात कर उसे अंगीकार किया। आज कस्बों-गांवों में भी निजी स्कूलों की भरमार है और रिक्शावाला, दिहाड़ी मजदूर भी अपना पेट काट कर बच्चों की फीस भरने के लिए विवश है, क्योंकि यह तथ्य स्वीकृत कर लिया गया है कि बच्चों को अगर बड़ा आदमी बनना है तो निजी स्कूलों ही विकल्प हैं।
अपनी हड़ताल के दौरान बैंकों के बाबू लोग नारे लगाते देखे गए ‘नीति आयोग, मुर्दाबाद।’ इसमें कोई हैरत की बात भी नहीं थी क्योंकि यह नीति आयोग ही है जो व्यापक निजीकरण का खाका खींच रहा है और यह उसी की दृष्टि है जिसके अनुसार बैंकों के निजीकरण की ओर कदम बढ़ाए जा रहे हैं। तो नीति आयोग का मुर्दाबाद तो बनता है।
हैरत तब भी नहीं हुई थी जब इन्हीं बाबू लोगों के बड़े हिस्से ने योजना आयोग को अप्रासंगिक ठहराए जाने का समर्थन किया था और उसकी जगह नीति आयोग के गठन की घोषणा का उल्लास के साथ खैरमकदम किया था।
एक वह दिन था और एक आज का दिन है।
खैरमकदम से शुरू होकर मुर्दाबाद तक पहुंचने में कई वर्ष लग गए इन बाबू लोगों को। हालांकि, इस बीच नीति आयोग से जुड़े अधिकारियों और विशेषज्ञों ने कभी भी निजीकरण को लेकर अपने विचारों को नहीं छुपाया। वे शुरू से ही स्पष्ट थे कि पब्लिक सेक्टर की इकाइयों से लेकर स्कूल और अस्पताल तक निजी हाथों को दे देना चाहिये। यहां तक कि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने तो ‘कम्प्लीट प्राइवेटाइजेशन ऑफ एलिमेंट्री एडुकेशन’ जैसी खतरनाक बातें भी की। वे सरकारी जिला अस्पतालों तक में निजी हिस्सेदारी बढ़ाने की न सिर्फ वकालत करते रहे थे बल्कि इस विचार को मूर्त रूप देने के लिये योजनाओं पर काम भी कर रहे थे।
गौर करने की बात यह है कि यह सब 2019 के आम चुनाव से बहुत पहले, नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले कार्यकाल के पूर्वार्ध में ही हो रहा था। जब योजना आयोग को खत्म कर नीति आयोग का गठन किया गया था तो कहा गया था कि बदलते दौर में भारत के विकास को दिशा देने में इसकी बड़ी भूमिका होगी।
लेकिन, शुरू से ही स्पष्ट था कि नीति आयोग में ऐसे विशेषज्ञों का जमावड़ा है जो हर मर्ज का इलाज निजीकरण में ही तलाशते हैं। वे कल्पनाशून्य विशेषज्ञ भारत की विशिष्ट आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार योजनाएं बनाने में कोई भी रुचि लेने के बजाय सब कुछ कारपोरेट के हवाले करने की योजनाओं पर काम करते रहे और इधर राजनीतिक नेतृत्व जम कर राष्ट्रवाद, धर्मवाद, अस्मितावाद, मिथकीय अतीत के सहारे पुनरुत्थानवाद आदि को विमर्श के केंद्र में स्थापित करता रहा।
ये पढ़े लिखे बाबू लोग, जो आज नीति आयोग का मर्सिया गा रहे हैं, तब इस ओर ध्यान देने की जरूरत भी महसूस नहीं कर रहे थे कि असल में नीति आयोग है क्या, यह कर क्या रहा है और इसके किए का हमारे या हमारे बाल-बच्चों के भविष्य पर कैसा असर पड़ेगा। जिस दिन अमिताभ कांत ने प्रारंभिक शिक्षा के ‘कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन’ की जरूरत बताई थी और सरकारी अस्पतालों में निजी वार्ड बनाने की कार्य योजनाओं पर काम शुरू किया था उस वक्त इस बाबू वर्ग का बड़ा हिस्सा राजनीतिक सत्ता के गढ़े गए नैरेटिव्स का मुखर प्रवक्ता बनकर अपने ड्राइंग रूम्स को संवेदनहीन विचारहीनता की उत्सवस्थली में बदल रहा था।
यह जरूर है कि बैंकिंग-बीमा सहित तमाम पब्लिक सेक्टर इकाइयों की कर्मचारी यूनियनों ने शुरू से ही निजीकरण की किसी भी योजना का विरोध किया और यदा-कदा धरना-प्रदर्शन भी करते रहे। लेकिन, इनका महत्व रस्मी विरोध से अधिक कभी नहीं रहा क्योंकि दिन में ‘निजीकरण मुर्दाबाद’ का नारा लगाने वाला बाबू रात के प्राइम टाइम में टीवी पर चीखते एंकरों के शोर में पाकिस्तान को धूल चाटते और अपने देश को महाशक्ति बनते देख सब कुछ भूल जाता रहा। यह उस देश के शहरी मध्यवर्ग की आत्महंता आत्ममुग्धता थी जिसने इस तथ्य को स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि जिस देश में दुनिया के सबसे अधिक बेरोजगार बसते हों, सबसे अधिक कुपोषित माताएं और नौनिहाल बसते हों, जहाँ के किसानों की आत्महत्या की दर दुनिया में सर्वाधिक हो, जहां के कस्बाई-ग्रामीण इलाकों की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था ध्वस्त हो वह किसी भी सूरत में विश्व महाशक्ति तो नहीं ही बन सकता।
आर्थिक उदारवाद से उपजी समृद्धि और राजनीतिक वर्ग के गढ़े गए नैरेटिव्स से उपजी विचारहीनता ने शहरी मध्यवर्ग को विकल उपभोक्ता में बदल डाला जिसके उपभोग की ललक कभी कम न होती हो। खुद के स्वार्थों में डूबे और नतीजे में घोर आत्मकेंद्रित होते इस वर्ग ने इस देश की दो तिहाई आबादी, जो निहायत ही निर्धन है, के सरोकारों से खुद को न केवल पूरी तरह काट लिया बल्कि उनके शोषण का लाभान्वित भागीदार भी बन गया।
जो निजी क्षेत्र के कामगारों के बढ़ते शोषण से आंखें मूंदे रहे, श्रम कानूनों में मनुष्य और मनुष्यता विरोधी बदलाव लाती राजनीतिक सत्ता के समर्थन आधार बने रहे, जब खुद उनके बिल में पानी जाने लगा तो आज बिलबिलाते चूहों की तरह निकल कर, सडक़ों पर इधर-उधर जमावड़े लगा कर ‘जिंदाबाद-मुर्दाबाद’ के नारे लगा रहे हैं। वे आंदोलित हैं और सरकार को धमकी दे रहे हैं कि उनकी मांगों पर अगर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में वे और अधिक ‘उग’ आंदोलन करेंगे।
कितनी हवाई और निराधार कल्पनाएँ कर रहे हैं ये बाबू लोग कि सरकार उनके आंदोलन से ठिठक जाएगी और उनकी संस्थाओं का निजीकरण नहीं होगा। वे चाहते हैं कि हर चीज का निजीकरण हो जाए लेकिन उनके संस्थान का निजीकरण न हो ताकि नौकरी की सरकारी सुरक्षा के साथ वे नियमित और अबाध मोटी पगार पाते रहें और प्रस्तावित निजी रेलवे प्लेटफार्म के लकदक माहौल में आरामदेह निजी एक्सप्रेस ट्रेन की प्रतीक्षा करते रहें, कि निजी ट्रेन की सुविधासम्पन्न बोगियों में सफर करते छुट्टियां मनाने मनपसंद जगहों पर जाते रहें कि अपने बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में पढ़ाते रहें, महंगे निजी अस्पतालों में अपना इलाज करवाते रहें।
वे निजीकरण के विरोध में आज नारे लगाते देखे गए लेकिन उनसे बढक़र निजीकरण का कोई पैरोकार नहीं रहा। वे आंदोलन कर रहे हैं और सोचते हैं कि इससे शायद कोई फर्क पड़ जाए। कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। जैसे, निजीकृत हो चुकी या होती जा रहीं पब्लिक सेक्टर की अन्य इकाइयों के कर्मियों के आंदोलन से कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि, बतौर आंदोलनकारी, चरित्र बल के मामले में सब के सब एक समान हैं।
दुनिया के इतिहास में आज तक कोई भी ऐसा आंदोलन सफल नहीं हुआ जिसके आंदोलनकारियों की जमात बतौर आंदोलनकारी, चरित्रबल के मामले में दरिद्र हो। आंदोलनकारियों का चरित्र आंदोलन का चरित्र निर्धारित करता है।
चाहे जितने मुर्दाबाद कर लें, आज दो सरकारी बैंक निजी हो रहे हैं, कल चार होंगे, परसों आठ होंगे।
आज सौ रेलवे प्लेटफार्म निजी हो रहे हैं, कल हजार होंगे। जैसे, शुरू में बड़े शहरों में निजी स्कूल खुले और धनाढ्य-नवधनाढ्य वर्ग ने उस पर पैसों की बरसात कर उसे अंगीकार किया। आज कस्बों-गांवों में भी निजी स्कूलों की भरमार है और रिक्शावाला, दिहाड़ी मजदूर भी अपना पेट काट कर बच्चों की फीस भरने के लिए विवश है, क्योंकि यह तथ्य स्वीकृत कर लिया गया है कि बच्चों को अगर बड़ा आदमी बनना है तो निजी स्कूलों ही विकल्प हैं।
आप निजीकरण विरोधी नारे लगाते रहो, उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे आपके नारे का दम जानते हैं। वे जानते हैं कि जल्दी ही आपका दम उखड़ जाने वाला है।
उपनिवेशवाद से लडऩे में सामूहिक भागीदारी ने आंदोलन को प्रभावी बनाया था, नवउपनिवेशवाद ने इस सामूहिकता को ही नष्ट कर अपना जाल बिछाया है। हितों के अलग-अलग द्वीपों पर लड़ती कामगारों की जमातें लड़ाई शुरू होने के पहले ही हार रही हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक बार फिर भारत के साथ अपने संबंधों को सहज बनाने की पहल की है। उन्होंने इस्लामाबाद में आयोजित सुरक्षा-संवाद में बोलते हुए कहा कि भारत यदि पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध बना ले तो उसे मध्य एशिया के पांचों राष्ट्रों तक पहुंचने की बड़ी सुविधा मिल जाएगी लेकिन यह तभी होगा जबकि भारत कश्मीर में जनमत—संग्रह कराने को तैयार हो।
इमरान खान को शायद याद नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के जनमत-संग्रह के प्रस्ताव को खुद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रद्द कर चुके हैं। वह कभी का मर चुका है। खुद पाकिस्तान उसके लिए कभी तैयार नहीं हुआ है। उस प्रस्ताव के शुरु में कहा गया है कि पाक-कब्जे के कश्मीर में से पाक-फौजें और अफसर बिल्कुल हटें। क्या उन्हें पिछले 70 साल में कभी पाकिस्तान सरकार ने हटाने की कोशिश भी की है? इस्लामाबाद में जब प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने मुझसे जनमत-संग्रह की बात की थी तो मैंने उनसे यही सवाल पूछा था। वे चुप हो गईं।
प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, जनरल मुशर्रफ तथा पाकिस्तान के अन्य कई राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से मैं पूछता था कि क्या आप कश्मीरियों को तीसरा विकल्प देने याने आजादी के लिए सहमत हैं तो वे कहते थे कि इसकी जरुरत ही नहीं है। सिर्फ दो ही विकल्प है। या तो वह पाकिस्तान में मिले या भारत में !
क्या इमरान खान तीसरे विकल्प के लिए तैयार हैं ? यदि नहीं तो फिर जनमत-संग्रह की बात बेमतलब है। कश्मीर निश्चय ही एक समस्या है। इसे बातचीत से हल किया जा सकता है। अटलजी, डॉ. मनमोहन सिंह और जनरल मुशर्रफ ने एक चार-सूत्री रास्ता निकाला था। इमरान उसे लेकर ही आगे क्यों नहीं बढ़ते ? जहां तक मध्य एशिया के राष्ट्रों से भारत के फायदे की बात है, इमरान बिल्कुल सही हैं। यदि भारत-पाक संबंध सहज हो जाएं तो भारत को पाकिस्तान से होकर आने-जाने का रास्ता मिल सकता है।
मध्य एशिया के इन पांचों राष्ट्रों— उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमानिस्तान और किरगिजिस्तान में अपार खनिज संपदा भरी पड़ी है। तेल, गैस, लोहे, तांबे, एल्यूमिनियम और कीमती पत्थरों के अनगिनत भंडार अभी तक अनछुए पड़े हैं। इन देशों में पिछले 50 साल में मैं कई बार जाकर रहा हूँ। 1200 किमी की आमू दरिया (वक्षु सरिता) के किनारे मैं कई बार पैदल भी- घूमा हूं। यदि इस क्षेत्र की खनिज-संपदा का हम दोहन कर सकें तो अगले पांच साल में भारत और पाकिस्तान यूरोप से भी अधिक मालदार बन सकते हैं।
दोनों देशों के करोड़ों लोगों को रोजगार मिल सकता है। भारत की कोशिश है कि जो रास्ता उसे पाकिस्तान और अफगानिस्तान से हो कर नहीं मिल रहा है, वह ईरान से होकर मिल जाए। ऐसा हुआ तो पाकिस्तान किनारे लग जाएगा। ऐसा न हो, इसके लिए जरुरी है कि इमरान खान आतंकवाद के खिलाफ बेहद सख्ती से पेश आएं और कश्मीर पर बातचीत शुरु करें। यदि ऐसा हुआ तो भारत से ज्यादा पाकिस्तान का भला होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विष्णु नागर
सुप्रीम कोर्ट में कल यह सामने आया कि देश के दो से चार करोड़ लोगों के राशनकार्ड मोदी सरकार के आदेश पर रद्द कर दिए गए हैं। जाहिर है राशन कार्ड उन्हीं के बनते हैं, जो देश के निर्धनतम वर्गों से हैं। आदिवासी हैं, दलित आदि हैं। सरकार ने इन राशन कार्डों को बोगस बताते हुए रद्द कर दिया है क्योंकि ये आधार कार्ड से जुड़े नहीं हैं।सुप्रीम कोर्ट ने भी इतने बड़े पैमाने पर राशन कार्ड रद्द करने को बहुत गंभीर मामला बताया है।
दिलचस्प यह है कि देश का सर्वोच्च न्यायालय पहले ही यह निर्णय दे चुका है कि नागरिकों की मूल जरूरतों के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता पर जोर नहीं दिया जा सकता मगर यह सरकार कब किसी आदेश-अनुदेश को मानती है?अभी दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश का मामला फिर सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट रूप से उपराज्यपाल के अधिकारों को सीमित कर चुका था मगर मोदी सरकार फिर एक विधेयक लेकर आई है, जिसमें दिल्ली विधानसभा की हैसियत नगरपालिका से भी बदतर हो जाएगी जो भाजपा कभी दिल्ली को राज्य का दर्जा देने की बात घोषणापत्र में शामिल करती थी, वह राज्य सरकार के अधिकारों को सीमित करके भी खुश है। भाजपा की सिद्धांत निष्ठा, मोदी निष्ठा में बदल चुकी है।
सब जानते हैं कि ग्रामीण-आदिवासी अंचलों में रहने वालों के लिए आधार कार्ड बनवाना कितना कठिन है। बन जाए तो इंटरनेट की सुविधा की हालत बेहद इन इलाकों में खस्ता है। ज्यादातर ऐसे अंचलों में ये काम नहीं करते। इसके अलावा एक उम्र के बाद मध्यवर्ग के लोगों के अंगूठे के निशान तक काम नहीं करते तो मेहनती गरीब वर्गों के लिए यह कितना कठिन है?
इस कारण बिना सूचना दिए बड़े पैमाने पर कार्ड रद्द कर दिए गए हैं। इस कारण उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश आदि राज्यों के लोगों के राशनकार्ड रद्द कर दिए गए हैं।
गरीबों-आदिवासियों को राशन न देकर मारो, रसोई गैस पर सब्सिडी खत्म कर के मारो। उनके जंगल और जमीनें छीनकर मारो। विकास के नाम पर उन्हें मारो। उन्हें हिन्दू बना कर (या ईसाई बना कर) उनकी संस्कृति को भी मारो। नक्सली बता कर भी मारो। शहर आएँ तो गंदगी और बेरोजगारी से मारो। सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा है। इस नाम पर उनकी झुग्गी-झोपडिय़ों को खत्म करके उन्हें मारो। उन्हें मारने के लिए गोली चालन ही जरूरी नहीं। गोली चलाकर भी मारो तो जरूरी है प्रेस ऐसे मामलों को कवर करना चाहे और चाहे तो सरकार कवर करने दे?
भक्तों के दिमाग कुंद हैं, दिल में कंकर-पत्थरों का निवास जमा लिया है। लोकसभा का हाल यह है कि वहाँ विरोध सुना नहीं जाता और सरकारी पक्ष केवल जय मोदी, जय मोदी करना जानता है। अदालतें भी कभी-कभी ही आशा जगाती हैं मगर उनकी भी सुनता कौन है?
राशन का मुद्दा किसान आंदोलन का ही मुद्दा नहीं बनना चाहिए, अन्य उतने ही सशक्त लोकतांत्रिक आंदोलन भी जरूरी हैं वरना लाकडाऊन में अंबानियों- अडाणियों की संपत्ति बेतहाशा बढ़ती रहेगी और साधारणजन मरते, डूबते रहेंगे। टीवी चैनल सुशांत सिंह राजपूत और कंगना रनौत की माला जपते रहेंगे।
-अनुपमा सक्सेना
भला हो इलाहाबाद की कुलपति महोदया का। अजान से डिस्टर्ब हो रही हैं तो बंद करने के प्रयास शुरू कर दिए। बहुत कुछ याद आ गया और बहुत उम्मीदें जाग गईं।
लगभग 09-10 वर्ष पहले की घटना याद आ गई। सरकंडा में नए-नए शिफ्ट हुए थे हम लोग। पास की नूतन कॉलोनी में पानी की बड़ी टंकी के ऊपर 10 लाउड स्पीकर लगाकर 24 घंटे की नवधा रामायण शुरू हो गई। घर में दो पढऩे वाले बच्चे, दो हम प्रोफेसर, और 85 वर्ष की वृद्ध माँ थीं। जाकर वहां बैठे 2-4 भक्तों से जो ष्टष्ठ लगाकर बैठे हुए थे, हाथ जोडक़र निवेदन किया कि कृपया वॉल्यूम धीमा कर दें। फिर जैसा होता है, मेरे सामने तो कर दिया जैसे ही मेरी गाड़ी आगे बढ़ी, फुल वॉल्यूम। फिर सक्सेना साहेब गए उनके साथ भी यही हुआ।
दूसरे दिन नूतन कॉलोनी में रहने वाले बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारियों से जाकर अनुरोध किया। वो बस यह बोलकर चुप हो गए , परेशानी तो बहुत है मैडम पर बोले कौन। आसपास मोहल्ले-पड़ोस से बोला। परेशान सब थे किन्तु कोई ऊपर वाले के डर से कोई नीचे वाले के डर से, बोले कोई कुछ नहीं। दो दिन बाद जब अनुनय विनय से काम नहीं बना तो रात 12 बजे पुलिस थाने फोन किया। बोले मैडम आप निश्चिंत रहें, अभी बंद करवाते हैं , बड़ी खुशी लगी, किन्तु सुबह हो गई वो ‘अभी’, ‘कभी’ नहीं आया। तीसरे दिन, दिन मैं फिर पुलिस को दो-तीन बार फोन किया, हर बार आश्वासन तो मिला, हुआ कुछ नहीं।
चौथे दिन मेरा धैर्य जवाब दे गया और उनका वॉल्यूम और तेज होता गया। यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकले तो सीधे पहले गाड़ी मोड़ी और सरकंडा थाना जाकर रोकी। मैंने कहा उनसे कि अभी के अभी एफआईआर लिखिए नहीं तो मैं 15 दिन की छुट्टी लेकर उच्च न्यायालय में याचिका दायर करूंगी और उसमें यह भी लिखूंगी कि पुलिस ने कुछ नहीं किया। बोले मैडम आप जाएँ यूनिवर्सिटी, आने के पहले सब बंद हो जायेगा।
शाम पांच बजे जब लौटे तो मुख्य सडक़ से वही जोर का शोर। गाड़ी फिर सीधी सरकंडा थाने। अबकी थाना प्रभारी को भी गुस्सा आ गया क्यूँकि वे स्वयं, आयोजनकर्ताओं को मना करके गए थे सुबह। फिर उन्होंने जीप ली, पुलिस वालों से गाड़ी भरी और मुझे बोले चलिए आप पीछे-पीछे। आकर सारे लाउडस्पीकर उतरवाए , जब्ती बनाई। तो फाइनली चौथे दिन 10 लॉउडस्पीकर्स के शोर से छुटकारा मिला। ना तो ऊपर वाला नाराज हुआ ना नीचे वाले ?
उसके बाद और भी कई घटनाएं हो चुकीं। एक बार होली पर ष्ठड्डठ्ठद्दद्ब छ्वद्ब जैसे पुलिस अधिकारी थे जिन्होंने एक मैसेज पर लाउड स्पीकर्स बंद करवा दिए थे अन्यथा हमेशा कई दिनों तक ऊपर जैसा ही कार्यक्रम होने के बाद ही शोर बंद होता था। दोनों बच्चे जब घर से बाहर पढऩे चले गए तो मैंने भी तौबा बोल ली। जिनको परेशानी है वे लडें़, सारी दुनिया का ठेका नहीं ले रखा।
परेशानियां तो अभी भी हैं। कुलपति महोदया का प्रयास सफल हो तो हमें भी अपने आसपास के रोज सुबह मंदिरों में घंटों बजने वाले लाउड स्पीकर्स, वर्ष में कई बार होने वाली भागवत, नवधा, शादियों में बजने वाले डीजे , दुर्गापूजा पर देर रात कॉलोनी में होने वाले गरबा, आदि के समय होने वाले अनावश्यक शोर से छुटकारा मिले।
हम भी कुलपति तो नहीं पर प्रोफेसर तो हैं हीं, डिस्टर्ब तो हम भी होते हैं। और हाँ, कुलपति महोदया की ही बात हम भी दोहरा रहे हैं, हमारे इन सब कर्मों और इच्छाओं में किसी धर्म के विरूद्ध जैसा कुछ भी नहीं है। भगवान अल्लाह कोई भी हो, लाउडस्पीकर से तो खुश होते नहीं ना।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(क्वाड) चौगुटे की असलियत जल्दी ही सामने आ गई। चौगुटे के चारों राष्ट्रों के नेताओं ने अपने-अपने भाषण में चीन का नाम तक नहीं लिया था और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक लचीले और समावेशी संगठन की बात कही थी लेकिन कल ही जापान पहुंचे अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन और रक्षा मंत्री लॉयड आस्टिन ने चीन के विरुद्ध गोलंदाजी शुरु कर दी। यहां पहला सवाल तो यही है कि अभी बाइडन-प्रशासन को सत्ता में आए ढाई महिने ही हुए हैं लेकिन उसके विदेश और रक्षा मंत्री जापान कैसे पहुंच गए। उन्होंने अपनी पहली विदेश-यात्रा के लिए जापान को ही क्यों चुना है ? और दोनों वहां साथ-साथ गए हैं ? वे वहां इसीलिए गए हैं कि उन्हें वहां जाकर चीन पर दबाव पैदा करना है। उसे यह बताना है कि चौगुटे में जो ढीली-पोली बातें हुई हैं, वे अपनी जगह ठीक हैं लेकिन अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसका घेराव करने पर आमादा है।
जापानी मंत्रियों के साथ जारी किए गए अपने संयुक्त वक्तव्य में उन्होंने चीन का नाम साफ़-साफ़ लिया और कहा कि उसका बर्ताव बहुत ही आक्रामक है। उसके पड़ौसी देशों और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसने सैनिक, आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। जापान के सेंकाको द्वीप और दक्षिण चीनी समुद्र में अन्य देशों के साथ चीन की दादागीरी को चुनौती देते हुए उन्होंने कहा है कि ‘‘यदि चीन हिंसा और आक्रमण पर उतारु हो गया तोज्.. हम उसे पीछे धकेल देंगे।’’ उन्होंने हांगकांग और ताइवान में चीन के अत्याचारों का भी जिक्र किया। तिब्बत और सिंक्यांग में चल रहे दमन पर भी उन्होंने उंगली उठाई। ब्लिंकन ने नॉर्थ कोरिया के परमाणु-निरस्त्रीकरण की बात को तो दोहराया ही, उन्होंने म्यांमार में फौजी बल प्रयोग की भी निंदा की। ये दोनों अमेरिकी मंत्री जापान के बाद अब दक्षिण-कोरिया भी जाएंगे। जाहिर है कि अमेरिका इन चार राष्ट्रों के इस गुट में कई अन्य नए सदस्य-राष्ट्रों को भी जोडऩा चाहेगा लेकिन यह तो स्पष्ट ही है कि उक्त सभी मुद्दों पर भारत की राय बिल्कुल वैसी ही नहीं है, जैसी कि अमेरिका की है।
यदि भारत अमेरिका की कुछ रायों से कहीं-कहीं सहमत भी है तो भी वह उससे अपनी सहमति सार्वजनिक तौर पर व्यक्त नहीं करता है। जैसे म्यांमार में फौजी सत्ता-पलट और नार्थ कोरिया के बारे में वह तटस्थ है। अब अमेरिकी रक्षा मंत्री आस्टिन भारत भी आ रहे हैं। वे भारत को पटाएंगे कि वह चीन के खिलाफ थोड़ा-बहुत जहर जरुर उगले लेकिन गलवान घाटी मुठभेड़ के बावजूद भारत काफी संयम से पेश आता रहा है और अमेरिका मुठभेड़ की कितनी ही बांग लगाए, वह अपने अलास्का में बैठकर चीन से धंधे की बात मजे से कर रहा है। चौगुटे के पीछे अमेरिका के असली इरादे इन दोनों मंत्रियों ने बिल्कुल साफ कर दिए हैं। भारत को बहुत सावधान रहना होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने महिलाओं की फटी जींस पर जो बयान दिया है उसका सोशल मीडिया पर जमकर विरोध हो रहा है. खासकर महिलाएं और युवतियां आगे आकर उनके बयान की आलोचना कर रही हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
सोशल मीडिया पर उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के रिप्ड या फटी जींस को लेकर दिए बयान पर खासा बवाल मचा हुआ है. खासतौर पर महिलाएं और लड़कियां इस मुद्दे पर मुखर होकर अपने विचार रख रही हैं. लड़कियां ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफार्म का इस्तेमाल कर अपनी बात दुनिया तक पहुंचा रही हैं साथ ही रावत की मानसिकता पर सवाल उठा रही हैं. वे अपनी फटी जींस वाली तस्वीर भी पोस्ट कर टिप्पणी कर रही हैं. महिला राजनीतिक कार्यकर्ता, फिल्मी हस्तियां और आम लड़कियां मुख्यमंत्री से अपनी सोच बदलने को कह रही हैं.
रावत ने 17 मार्च को देहरादून में बाल संरक्षण आयोग की ओर से नशा मुक्ति को लेकर कार्यशाला में कहा कि युवा पीढ़ी गलत दिशा में जा रही है. रावत ने एक यात्रा का जिक्र करते हुए कहा, "मैं एक दिन हवाई जहाज से जयपुर से आ रहा था. मेरे बगल में एक बहनजी बैठी थी. मैंने उनकी तरफ देखा नीचे गम बूट थे. जब और ऊपर देखा तो जींस घुटने से फटी हुई थी. उनके साथ दो बच्चे थे. महिला खुद भी एनजीओ चलाती थी."
रावत ने पूछा कि फटी जींस में महिला समाज के बीच जाती है, तो वहा क्या संस्कार देगी? उन्होंने कहा महिलाओं को फटी जींस में देखकर हैरानी होती है और इससे समाज में क्या संदेश जाएगा.
रावत का यह बयान तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हुआ और समाज की हर वर्ग की महिलाओं ने इसकी आलोचना की. गायिका सोना महापात्रा ने ट्विटर पर अपनी एक तस्वीर डाली है जिसमें उनके घुटने दिख रहे हैं और वह रिप्ड टी शर्ट पहनी नजर आ रही हैं. उन्होंने लिखा जो लड़कियां रिप्ड जींस पहनती हैं उन्हें भारत में किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं है.
I don’t wear jeans owing to the humidity & heat here but happy for this ripped T shirt with my संस्कारी घुटना’s showing!..& #GirlsWhoWearRippedJeans don’t need anyone’s permission in #India . We are the land of the glorious Konark, Khajurao, Modhera, Thirumayam, Virupaksha! ????????♀️???? https://t.co/zP98bBiLkd pic.twitter.com/gZQfWjN6Rb
— Sona Mohapatra (@sonamohapatra) March 17, 2021
अमिताभ बच्चन की नातिन नव्या नवेली नंदा ने तीरथ के बयान पर अपनी प्रतिक्रिया इंस्टाग्राम स्टोरीज के जरिए दी. नव्या ने लिखा, "हमारे कपड़े बदलने से पहले अपनी मानसिकता बदलिए." उन्होंने अपनी एक पुरानी तस्वीर फटी हुई जींस के साथ भी पोस्ट की.
एक आम महिला यूजर ने ट्विटर पर अपनी फटी जींस के साथ तस्वीर पर लिखा, "मैं मां हूं और रिप्ड जींस पहनती हूं."
I am a mom and I wear ripped jeans.#rippedjeans #RippedJeansTwitter pic.twitter.com/y62imtEVRx
— Tina BK (@tina_bkaran) March 17, 2021
अभिनेत्री गुल पनाग ने भी एक तस्वीर रिप्ड जींस के साथ साझा की.
#RippedJeansTwitter pic.twitter.com/zwitZiIE9k
— Gul Panag (@GulPanag) March 17, 2021
दूसरी ओर दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालिवाल ने ट्विटर पर लिखा, "उत्तराखंड के सीएम को लड़कियों के जींस पहनने से दिक्कत है. मुख्यमंत्री तो बन गए पर दीमाग अभी भी सड़क छाप है. वो दिन दूर नही जब जींस पहनने पर ये यूएपीए लगा देंगे."
तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने ट्विटर पर तीरथ के बयान की तीखी आलोचना करते हुए लिखा, "सीएम साहब जब आपको देखा तो ऊपर-नीचे, आगे-पीछे हमें बेशर्म आदमी दिखता है."
रावत ने अपने बयान में कहा था, "हम ये सब पश्चिमीकरण की पागल दौड़ में कर रहै हैं जबकि पश्चिमी दुनिया हमारा अनुसरण कर रही है, अपना शरीर ढंक कर, योग कर रही है."
गुरुवार को शिवसेना की राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने मुद्दे को राज्यसभा में उठाया और चर्चा की मांग की. विवाद के बाद रावत ने अब तक अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
(dw.com)
( "आईना साज" से उध्दृत पंक्तियां)
-रमेश अनुपम
क्या आपको लगता है जब उदयप्रकाश से लेकर मंगलेश डबराल तक साहित्य अकादमी का पुरस्कार यह कहकर लौटा चुके हों कि यह सरकार फासीवादी सरकार है, जो घृणा की राजनीति में विश्वास करती है। उसी सरकार से साहित्य अकादमी का पुरस्कार स्वीकार करना क्या अनामिका जैसी लेखिका को शोभा देता है ?
जिस पुरस्कार की दौड़ में भारत सरकार के शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक’ भी थे, जिस ज्यूरी में चित्रा मुदगल को छोड़कर दो गैर साहित्यकार सदस्य थे, जिनका हिंदी साहित्य से कोई लेना देना ही नहीं है, उनमें से एक हमारे रायपुर के सिरमौर भी हैं।
ऐसे साहित्य अकादमी पुरस्कार के बारे में आप क्या कहेंगे ?
घोर असहिष्णुता के सबसे खराब दौर में जब देश के अनेक जाने माने बुद्धिजीवियों को जेलों में ठूंस दिया जा रहा है। देश के किसान अपनी जायज मांगों को लेकर तीन महीने से ऊपर हो गए सड़कों पर हैं, यूएपीए, सीएए और एनआरसी जैसे काले कानून का डर दिखाया जा रहा है।
कश्मीर में 370 और 35 ए को खत्म कर घाटी में लोकतंत्र की हत्या की जा रही है, छद्म राष्ट्रवाद बनाम हिंदू राष्ट्रवाद का खुलेआम बिगुल फूंका जा रहा है।
जिस देश में गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्या को दूर करने की जगह जोर शोर से अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में पूरी सरकार जुट गई हो, उस देश में बेचारी जनता और असहाय लोकतंत्र की हालत क्या होगी आप सब जानते-समझते हैं।
तो साहित्य क्या समाज और राजनीति से अलग किसी अंधेरी और बहरी गुफा में पाई जाने वाली कोई मृतप्राय वस्तु है, जिसे अपनी जनता और समाज से कोई लेना देना नहीं है।
नहीं, साहित्य हर देश और युग में अपनी जनता और समाज के सुख-दुख से सरोकार रखने वाला वह जीवंत सूर्य की तरह है जिसे काले बादलों की ओट में बहुत समय तक छिपा पाना मुश्किल होता है।
अनामिका जी से मेरा बहुत पुराना परिचय है। केदार नाथ सिंह के साथ दो तीन बार उनके घर जाना भी हुआ। अभी हाल में जब मैं उनके नए उपन्यास "आईना साज” की समीक्षा ’वागर्थ’ के लिए कर रहा था, उस दरम्यान भी उनसे काफी बातें होती रही।
अमीर खुसरो को केंद्र में रख कर लिखे गए "आईना साज” को लेकर मेरे प्रश्नों का भी उन्होंने सुंदर जवाब दिए थे।
बावजूद इन सबके और अनामिकाजी के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित करते हुए मैं उनसे तथा हिंदी साहित्य जगत से यह जरूर कहना चाहूंगा पुरस्कार आते-जाते रहते हैं, लेकिन एक ईमानदार लेखक की निष्ठा पर कोई आंच आए इसे समाज कभी माफ नहीं कर पाएगा।
अनामिका ने स्वयं अपने उपन्यास '' आईना साज ” में अमीर खुसरो के वसीयत में लिखा है :
"मेरे बच्चों, तुम यह न करना। मेहनत और हुनर की रोटी खाना-मेहनत की कुव्वतेबाजू की रोटी। किसी अमीर, किसी शाह, किसी सुलतान, हाकिम हुकूमत को खुश रखने के पीछे उम्रे अजीज़ न बिताना। इसके एवज में कुछ पाकर भी खुशी नहीं होती और जो कुछ मिलता है, वह ठहरता नहीं।
आज मेरे पास क्या बचा है ? दौलत शान शौकत निभाने में लूटी, कुछ मैंने बांट भी दी, लूटा दी, कुछ यों ही बर्बाद कर दी। बची है तो मेरी यह शायरी बची है, यही मेरे लहू पसीने की कमाई। यही चंद किताबें जो मेरी जिंदगी के तजुर्बे, हालात, इतिहास, फलसफे, खुदा और इंसान के इश्क के ताजादम हैं।
तुम भी इश्क अख्तियार करना, सच्चाई की जिंदगी जीना, जुल्म से नफरत करना और आदमी से मोहब्बत। बाकी तमाम उम्र सभी नफरतों से आजाद रहना।”
("आईना साज" पृष्ठ 115)
यहां अनामिका के उपन्यास "आईना साज" के एक पात्र के कथन को भी उद्धृत करना चाहूंगा :
"अगर मेरी चले तो अयोध्या के विवादित ढांचे पर एक ऐसा पुस्तकालय खड़ा कर दूं जिसमें दुनिया के सब मजहबों की किताबें एक साथ रखी हों, और उनके धर्म-निरपेक्ष साहित्यिक भाष्य...देश कालसापेक्ष व्याख्या हो धर्म की..तभी अनर्गल विवाद थम सकते हैं"।
("आईना साज" पृष्ठ 224)
-गिरीश मालवीय
पूरी दुनिया में लॉकडाउन का विरोध होता है पर मैंने कभी नहीं सुना कि भारत जैसे बड़े देश के किसी शहर में लोग संगठित रूप से सडक़ पर उतरे हो... यहाँ सरकारें एक से बढक़र एक परस्पर विरोधी निर्णय लेती हैं लेकिन जनता इसको भी सही मानती है और उसको भी सही मानती है, अब आप ही देखिए कि उत्तराखंड का मुख्यमंत्री कहता है कि आप बिना निगेटिव रिपोर्ट के कुम्भ में शामिल होने के लिए हरिद्वार आ जाइये हम आपको नहीं रोकेंगे, वहीं दूसरी ओर राजस्थान सरकार कहती है कि इन इन राज्यों के व्यक्ति बिना कोरोना की निगेटिव रिपोर्ट बताए हमारे राज्य में प्रवेश न करे।
बंगाल में राजनीतिक रैलियों में कितने भी लोगों के इकट्ठे होने की छूट है लेकिन मध्यप्रदेश में शादी 250 से अधिक लोग एक साथ सम्मिलित नहीं हो पाएंगे।
कुछ लोग यहाँ चिढ़ जाएंगे जब मैं एक ओर तुलना करूँगा आपको याद होगा कि पिछले साल इन्ही दिनों दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज में तब्लीगी जमात का सम्मेलन आयोजित किया गया था, उस फंक्शन में हजारों लोग देश-विदेश से इकठ्ठा हुए थे, हम सभी जानते हैं कि उसके बाद क्या हुआ।
जो लोग कोरोना के उस दौर में वहाँ आकर फंस गए उनके लिये हमारे मीडिया ने कहा कि वे वहाँ ‘छुप’ हुए हैं ओर कोरोना फैला रहे हैं तब दिल्ली के केजरीवाल सरकार तब्लीगी जमात के कोरोना पीडि़तों के नाम अलग से जारी करती थी, उस वक्त इस सम्मेलन के आयोजनकर्ता मौलाना साद पर सम्मेलन आयोजित करने के लिए गैरइरादतन हत्या का आरोप लगाया गया, दिल्ली पुलिस के हिसाब से वह आज भी कही छुपे हुए हैं, उनकी गिरफ्तारी का एक साल बाद भी कुछ लोग बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
लेकिन उन्हीं लोगों से यदि कुंभ की बात करेंगे तो बिल्कुल दूसरी ही बात करेंगे, जब 12 साल पहले हरिद्वार में कुंभ हुआ था तो आप जानते है कि कितने लोग वहाँ स्नान करने गए थे ?..... हरिद्वार के कुंभ मेले में उस वक्त सात करोड़ से भी अधिक लोगों ने भाग लिया था ? दो साल पहले हुए इलाहाबाद संगम के कुम्भ में 22 करोड़ लोगों के आने की बात प्रशासन कर रहा था।
चलिए मान लेते हैं कि बिना कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट के 22 करोड़ तो नही पिछली बार जितने सात करोड़ लोग ही आएंगे, चलिए चार करोड़ लोग ही मान लीजिए...... तो क्या होगा !.....वहाँ से पूरे देश में कोरोना नहीं फैलेगा ? क्योंकि आपने तो हमेशा ऐसा ही बताया है कि भीड़ भरे स्थानों में कोरोना वायरस का संक्रमण तेजी से फैलता है।
हरिद्वार में जहाँ कुम्भ आयोजित होता है वह अन्य शहरों के धार्मिक स्थलों की अपेक्षा बहुत संकरा और बेहद घनी आबादी वाला क्षेत्र है, सम्भव ही नहीं है कि वहाँ कोई सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन हो पाए।
पूरे देश में कोरोना मरीजों की संख्या को बढ़ता हुआ दिखाया जा रहा है ऐसे में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री महाकुंभ में कोविड निगेटिव रिपोर्ट की अनिवार्यता खत्म कर रहे हैं और अधिक से अधिक श्रद्धालुओं के हरिद्वार पहुंचने के आह्वान कर रहे हैं।
अब न्याय की दृष्टि से बताइये कि इन पर भी मौलाना साद की तरह गैर इरादतन हत्या का आरोप लगा कर मुकदमा कायम क्यों नहीं किया जाए !....... जबकि मौलाना साद ने तो जब निमंत्रण भेजा होगा उस वक्त कोरोना का इतना भय भी नहीं था लेकिन आज की सिचुएशन तो सभी को मालूम है कि चार करोड़ की भीड़ जब हरिद्वार में इकट्ठा होगी और जब वापस अपने-अपने घर जाएगी तब क्या होगा ?
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केंद्र सरकार अब ऐसा कानून बनाने पर उतारु हो गई है, जो दिल्ली की केजरीवाल-सरकार को गूंगा और बहरा बनाकर ही छोड़ेगी। दिल्ली की यह सरकार अब ‘आप’ पार्टी की सरकार नहीं कहलाएगी। वह होगी, उप-राज्यपाल की सरकार याने दिल्ली की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार नहीं, बल्कि गृह मंत्रालय के द्वारा नियुक्त अफसर की सरकार ! दिल्ली की जनता का इससे बड़ा अपमान क्या होगा ? यह तो वैसा ही हुआ, जैसा कि ब्रिटिश राज में होता था। लंदन में थोपे गए वायसराय को ही सरकार माना जाता था और तथाकथित मंत्रिमंडल तो सिर्फ हाथी के दांत की तरह होता था। अपने आप को राष्ट्रवादी पार्टी कहने वाली भाजपा यह अराष्ट्रीय काम क्यों कर रही है, समझ में नहीं आता। उसके दिल में यह डर तो नहीं बैठ गया है कि अरविंद केजरीवाल कहीं मोदी का तंबू उखाड़ न दे।
देश में आज एक भी नेता ऐसा नहीं है, जो मोदी के मुकाबले खड़ा हो सके। सारे विपक्षी मुख्यमंत्रियों में केजरीवाल इस समय सबसे अधिक चर्चित और प्रशंसित नेता है। दिल्ली प्रांत छोटा है, केंद्र-प्रशासित क्षेत्र है, फिर भी दिल्ली दिल्ली है। इसके मुख्यमंत्री को देश में ज्यादा प्रचार मिलता है। केजरीवाल ने अभी-अभी हुए उप-चुनाव और स्थानीय चुनाव में भी भाजपा को पटकनी मार दी है।केजरीवाल की बढ़ती हुई लोकप्रियता से घबरा कर केंद्र सरकार यह जो नया कानून ला रही है, वह भाजपा की प्रतिष्ठा को पैंदे में बिठा देगा। पुदुचेरी में किरन बेदी और दिल्ली में उप-राज्यपालों ने स्थानीय सरकारों के साथ जैसा बर्ताव किया है, वह किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अशोभनीय है। अब तक दिल्ली की विधानसभा सिर्फ तीन मामलों में कानून नहीं बना सकती थी— पुलिस, शांति-व्यवस्था और भूमि लेकिन अब हर कानून के लिए उसे उप-राज्यपाल से सहमति लेनी होगी। वह किसी भी विधेयक को कानून बनने से रोक सकता है।
इस नए विधेयक को लादते हुए केंद्र ने यह भी कहा है कि ये सब प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय के 4 जुलाई 2018 के निर्णय के अनुसार ही किए गए हैं लेकिन यदि आप संविधान पीठ के उस निर्णय को पढ़ें तो आपको उन अफसरों की बुद्धि पर तरस आने लगेगा, जिन्होंने यह विधेयक तैयार किया है और गृहमंत्री को पकड़ा दिया है। यह विधेयक उस फैसले का सरासर उल्लंघन है।हो सकता है कि इस अविवेकपूर्ण विधेयक को लोकसभा पारित कर दे और इस पर समुचित बहस भी न हो लेकिन सर्वोच्च न्यायालय इसे रद्द किए बिना नहीं रहेगा। देश में सबसे बड़ी अदालत तो जनता की अदालत होती है। दिल्ली की जनता की अदालत में भाजपा ने खुद को दंडित करवाने का पुख्ता इंतजाम कर लिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
मौत अड़ जाती है। काल का दूत कहता है-साथ चलो। निडर घायल तपाक से कहे-अपनी मर्जी से प्रस्थान करेंगे। महाभारत के भीष्म या सावित्री सत्यवान की ऐसी कहानियां पुराणों की परिक्रमा करती हुई राजस्थान के राणा सांगा तक पहुंच जाती हैं। इतिहास के खंडहर में न तो प्रेत बनकर मंडराती हैं और न चमगादड़ की तरह तिरस्कृत होती हैं। अतीत के गहरे खारे सागर में डूबने वालों का नामोनिशान मिट जाता है। विविध कारणों से विद्याचरण शुक्ल को अतीत अनदेखी के कफन में नहीं लपेट सका। शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। आयु के अंतिम छोर के पास जा पहुंचे शिकार को पाकर मौत का दूत निश्चित ही उत्साहित रहा होगा। हर दिन मौत को इंतजार कराते, छकाते, वापस लौटाते अचेत विद्याचरण पर काबू पाने में असहाय काल उपचार करने वाले चिकित्सकों की तरफ बेबसी से ताकता। डॉक्टर भी हथियार डाल चुके थे। सात दशक से अधिक समय तक सक्रिय देह ने मौत को खूब छकाया।
शुक्लजी के देहावसान के कई बरस बाद पत्रकार ने काल को खूब नाच नचाया। का है। 86 वर्ष पूरे कर 87 वें कदम रख चुके मेघनाद यज्ञेश्वर बोधनकर का दिल और दिमाग इतनी फुर्ती से काम करता रहा कि फेफड़े अपनी समस्या बताने मेें सकुचाते रहे। बोधनकर जी परेशानियों को चुस्की और चुटकी में उड़ाने में माहिर थे। उन्हें नेशनल केंसर इंस्टीट्यूट में भर्ती करने की बहुत कम लोगों को जानकारी थी। जिन्हें पता लगा वे चकित होकर अपने आप से सवाल करते रहे- एनसीआई में क्यों?
खबर के खैरख्वाह बोधनकर जी ने गले में तकलीफ के कारण बस इतना ही कहा- बोलने में थोड़ी परेशानी होती है। खतरे के निशान तक पहुंची परेशानी की उपेक्षा करते हुए अस्पताल में बोधनकर जी ने बेटे से पूछा-सुमित, टेस्ट का नतीजा क्या हुआ? वे क्रिकेट के शौकीन थे। अस्पताल में तीन बार उन्हें दिल का दौरा पड़ा। रविवार को तीसरे दौरे के बाद आंखें मूंदे मूंदे वे बुदबुदाए होंगे-विकेट लेकर दिखाओ। मध्यरात्रि से मात्र कुछ पल पहले काल ने कैच लपक लिया।
राजनीति की गहरी समझ रखने वाले दो ही संपादक-पत्रकारों को मैंने क्रिकेट पर इस तरह फिदा देखा है। प्रभाष जोशी मैच देखते देखते जनसत्ता अपार्टमेंट के पहले मंजिल के अपने फ्लैट में काल के हाथों कैच हुए थे। चार दशक से अधिक समय तक निरंतर ए शेड लाइटर कालम लिखकर प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर के रिकार्ड को बोधनकर ने चुनौती दी। श्री नैयर राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर अंतिम दिनों तक कलम चलाते रहे। बोधनकर ने सिनेमा, साहित्य, क्रिकेट सहित खेल जैसे अनेक विषयों को अपने कालम में समेटा। रविवार को सुबह उनका स्तंभ अखबार में गायब था। उसी रात उनकी जीवन फिल्म का दी ऐंड हुआ। अच्छी फिल्मों की समझ विकसित करने के लिए नागपुर में सिने मोंताज़ संस्था बनी। बोधनकर उसके संस्थापक अध्यक्ष थे। संयोग यह, कि कुछ दिन के लिए लाकडाउन खुलने पर सिने मोंताज़ के अंतिम कार्यक्रम में बतौर अध्यक्ष उन्होंने संबोधित किया। विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन की सदस्यता संस्थापकों में से एक एडवोकेट वी आर मनोहर ने उन्हें स्वयं बुलाकर दी थी।
विद्याचरण शुक्ल का उल्लेख अनायास ही नहीं किया। आपातकाल से कुछ पहले नागपुर से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक हितवाद की नैया डूबने लगी। रायपुर से दि स्टेट्समैन को खबरें भेजने और दोस्तों में रमने वाले बोधनकर हितवाद के लिए रायपुर से काम करने के बाद नागपुरआ चुके थे। उन दिनों विद्याचरण शुक्ल देश की राजनीति में महाबली के रूप में स्थापित हो रहे थे। बोधनकर जी दि हितवाद के कर्मचारियों की यूनियन में सक्रिय थे। वीसी ने उन्हें दिल्ली बुलाया। बड़ी सी कोठी में प्रवेश करते ही इंतजार कर रहे वीसी ने अंदर बुलाया। शुक्ल जी गुसलखाने में दाढ़ी बना रहे थे। वहीं बात हुई। बोधनकरजी की इस मांग को वीसी ने मान लिया कि किसी कर्मचारी को निकाला नहीं जाए। प्रोग्रेसिव राइटर्स एंड पब्लिशर्स नाम का नया प्रबंधन हितवाद का संचालन करने लगा। शुक्ल ने वैचारिक कट्टरता छोडक़र संपादकीय कर्मियों को कायम रखा। बोधनकर ने माक्र्सवादी विचार थोपने के बजाय माक्र्स के सिद्धांत को अपनाते हुए विरोधी वैचारिक पृष्ठभूमि वाले हर साथी की नौकरी बचाने में सफलता पाई। एन राजन जैसे वामपंथी वरिष्ठ और दाईं रुझान वाले गोविंदराव परांडे। सबने मिलकर हितवाद को नया जीवन दिया। शुक्लजी बोधनकर की वैचारिक पृष्ठभूमि से भली भांति परिचित थे। इसके बावजूद परस्पर विश्वास का दोनों का रिश्ता आजीवन अटूट रहा। कामरेड बोधनकर निरी सिद्धांतवादिता के बजाय सही मायने में कामरेड थे। उनकी यह खूबी बलवंत सिंह गर्चा के साथ नागपुर की छात्र राजनीति में सक्रिय होने के साथ् विकसित होती चली गई। शरद कोठारी, लज्जाशंकर हरदेनिया आदि ने मिलकर विद्यार्थियों का अखबार निकाला। कोठारी ने बाद में राजनांदगांव से अपना दैनिक समाचार पत्र शुरु किया। गर्चा ने अमेरिका पहुंचकर पत्रकारिता की। हरदेनिया जी मध्यप्रदेश की पत्रकारिता और राजनीति में सक्रिय हैं। बोधनकर अंतिम सांस तक सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता में मग्न रहे। हितवाद के संपादक पद से निवृत्ति का कारण नए मालिक की राजनीतिक रुझान में बदलाव माना जाता है। दि हितवाद के सौ बरस पूरे होने पर जश्न हुआ। मरणासन्न समाचार पत्र को जिलाने में बोधनकर की भूमिका का सही सही आंकलन और आदर उस जश्न में नहीं हो सका।
अध्येंदुभूषण बर्धन,एस के सान्याल, सुधीर मुखर्जी सहित अनेक वाम नेता उनके मित्र रहे। कांग्रेस और अन्य दलों में उनके मित्रों की कमी नहीं रही। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पूर्णो संगमा छिंदवाड़ा से आधी रात में नागपुर पहुंचे। उन्होंने वादा किया था-मैं आ रहा हूं। रात का खाना साथ खाएंगे। रात ढलती जा रही थी। मित्र रात को ठेंगा दिखाते डटे रहे। बोधनकर की पत्रकारिता में दोस्ती और तथ्यों के आदान-प्रदान के ऐसे कई किस्से शामिल हैं।
प्रवीरचंद्र भंजदेव की मौत का रोंगटे खड़े करने वाला किस्सा जिन्हें याद है, उन्हें यह भी याद होगा कि बस्तर पर लाडली मोहन निगम ने रपट तैयार की थी। रपट के आधार पर लोकसभा में बोलते हुए समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया ने प्रधानमंत्री को चेतावनी दी थी-गोली दागने वाले काल के जिन हाथों ने भंजदेव और आदिवासियों का खून किया, वे हाथ आपकी तरफ आ सकते हैं। बरसों बाद यह चेतावनी सच साबित हुई। शायद ही कोई बचा हो जो यह बताए कि लाडली जी रायपुर के शारदा चौक में सबेरा होटल में रुकते थे।
सारी रात चाय पीते हुए वे जिन पत्रकार मित्रों से बतियाते रहते उनमें बोधनकर के सिवा रम्मू श्रीवास्तव, राज नारायण मिश्र और सत्येन्द्र गुमाश्ता शामिल थे। सिहावा के जंगल सत्याग्रह और बस्तर रपट के तथ्यों को उपलब्ध कराने और उनकी सत्यता की पड़ताल करने में इन पत्रकारों का योगदान रहा। जगदलपुर के किन्ही वाजपेयी पत्रकार समाजसेवी की मदद का बोधनकर जी कई बार उल्लेख करते थे। रायपुर के पंकज शर्मा से लेकर पत्रकारिता छोडक़र रेशम बोर्ड के अधिकारी अब्न उफ अहमद, काला जल के रचनाकार गुलशेर अहमद शानी, चंदूलाल चंद्राकर से लेकर गुरुदेव काश्यप और रमेश नैयर, ललित सुरजन के बाद की पीढी से आत्मीयता कायम रही। राजनीति में सक्रिय अरविंद नेताम समेत कई नाम और किस्से उनकी यादों में शामिल रहे। छत्तीसगढ़ को समर्पित चार व्यक्तियों में से दो का पत्रकारिता से नाता रहा। श्यामाचरण शुक्ल और रामचंद्रसिंह देव छत्तीसगढ़ के जल संसाधनों को सुरक्षित रखना चाहते थे। नर्मदा पर सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई को विरोध करते हुए मुख्यमंत्री शुक्ल ने तत्कालीन केन्द्रीय सिंचाई मंत्री के एल राव को काला राव कह दिया था। शालीन, संयत, संवेदनशील शुक्ल के मुंह से का ला राव सुनकर चकित होने वाले बोधनकर अकेले नहीं थे। बोधनकर के बाद स्टेट्समैन के रायपुर संवाददाता एन के-बाबू तिवारी सरकारी नौकरी में भी छत्तीसगढ़ को नहीं भूले। बोधनकर का पिच सुदूर ओडिशा तक जाता था।
सीखने वालों ने कहे-अनकहे तरीके से बोधनकर से बहुत कुछ सीखा। पहली बात, पत्रकार के लिए बहुभाषी होना सदा लाभदायी होता है। वर्तमान ओडिशा के नवापारा में जन्मे बोधनकर ने नवीन और उनके पिता बीजू पटनायक, नंदिनी सत्पथी से लेकर अंतिम नौकरी के संपादक नायक तक ओडिया में संवाद किया। अंगरेजी, हिंदी, मराठी के सिवा उन्हें बांग्ला आती थी। संपादन और समाचार संकलन की उनकी शैली अनोखी थी। गज़ल को नई ऊंचाई देने वाली बेग़म अख्तर अहमदाबाद के कार्यक्रम में पहुंचीं। वहीं उनका देहावसान हुआ। उन दिनों,(और आज भी ) किसी कलाकार के निधन की खबर दो पैराग्राफ में निबटाने का रिवाज़ था। बोधनकर दि हितवाद के समाचार संपादक थे। उन्होंने छोटी सी खबर को अपनी जानकारी सहित संपादित किया। अखबार के पहले पेज पर एंकर छपा। रोमन लिपि में इटैलिक में शीर्षक था-अय मोहब्बत तेरे अंज़ाम पै रोना आया। अंगरेजी अखबार का यह मार्मिक शीर्षक भारतीय जनसंचार संस्थान से लेकर देश के अनेक पत्रकारिता विश्विवद्यालयों, विभागों और कार्यशालाओं में चिर्चत रहा। रायपुर और नागपुर के पत्रकारिता विभाग में बरसों तक पढ़ाते समय उनकी सीख थी-काम नफासत से करो। खबर का मर्म पहचानो। खबर हो या कोई लेख, टाइपराइटर और इन दिनों लैप टाप पर बैठने के बाद उनकी अंगुलियां फटाफट नाचते हुए चुटकियों में काम आसान कर देती। बांधनकर नदी की तरह, मेघों से बरसने वाले जल की तरह रहे। जल ही जीवन है कहने के बावजूद यदि संरक्षण नहीं करो, तो तुम्हारा ही नुकसान है। मैंने तो जो पाया, वह पत्रकारिता को समर्पित कर दिया। तकनीकी विकास के बावजूद किसी बोधनकर पर वीडियो फिल्म नहीं बनी। समकालीन पत्रकारिता और इतिहास को सहेजने में अक्षम पत्रकारों की बिरादरी अपने संगठन, शराब की कमाई से पुलकित क्लब-कारोबार, साहित्य संस्कृति का जतन करने के दावेदार संस्था-संगठन और सरकारें अपनी विरासत की उपेक्षा पर अविचलित हैं।
मराठी मुहावरे का प्रयोग करूं तो बोधनकर हाड़- मांस और विचार से मार्क्सवादी थे। इसके बावजूद उनकी जीवन शैली का संतुलन चौंकाता है। सहधर्मिणी आशा भाभी जब तक बैंक की नौकरी में रहीं तब तक वे नियम से प्रतिदिन छोडऩे और लेने जाते थे। भाभी जी धार्मिक प्रवृत्ति की हैं। गजानन महाराज पर उनकी अगाध श्रद्धा है। बोधनकर जी ने कभी उनके आयोजन में बाधा नहीं आने दी।सदा सहयोग किया। एक बार मैंने उन्हें ईएमएस नम्बूदिरिपाद का किस्सा सुनाया। मार्क्सवादी ईएमएस को गुरुवयुर के देव द्वार पर देखकर किसी ने पूछा-कामरेड आप तो कम्युनिस्ट हैं? हकलाते हुए ईएमएस ने उत्तर दिया- मैं पति भी हूं। इसी लोकतांत्रिक भाव को अपनाने वाले बोधनकर जी ने तपाक से कहा-यह बात मैं बिना हकलाए कह सकता हूं।
उनके अंतिम संस्कार के दिन कोरोना महामारी के कारण नागपुर में लाक डाउन था। हर पीढ़ी में घुलमिल जाने वाले, हर चुनौती से जूझने वाले बोधनकर यदि दो पल के लिए शव वाहन से देख पाते तो चकित रह जाते। अपनी जिजीविषा, साहस और मिलनसारिता से पीढिय़ों का हौसला बढ़ाने वाले बोधनकर देख पाते कि पद अर्जित करने वाली संपादकों की पीढ़ी, सरकार, प्रशासन और कोरोना महामारी के प्रकोप-प्रचार से आतंकित है। बोधनकर जी की चहेती गज़ल गायिका बेगम अख्तर ने भले आखिरी दिन कशिश के साथ कहा होगा-कभी तक्दीऱ का मातम कभी दुनिया का गिला, मंजिले इश्क में हर गाम पै रोना आया। लेकिन हमारे पारिवारिक जीवन और वर्तमान पत्रकारिता में पिता तुल्य बोधनकर जी के चेहरे पर आखिरी पल तक वही पारदर्शी मुस्कान रही। वे रोते नहीं। रुआंसे न होते।
नागपुर में लाक डाउन के दौरान इस आतंक और कापुरुषता को पहचान कर वे निश्छल हंसी के साथ चुटकी लेने से न चूकते।
कभी तक़्दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंजि़ल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया
जो सुप्रीम कोर्ट के आदेशों, फैसलों, प्रतिष्ठा की धज्जियां उड़ाए, उसे ही मोदी सरकार लोग कहते हैं। केन्द्र सरकार ने दिल्ली विधानसभा और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार को घटाने एक विधेयक पेश किया है। वह 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सांविधानिक प्रावधानों के फैसले के खिलाफ ही है।
कभी आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल मंत्रियों सहित दिल्ली के लेफ्टिनेंट गर्वनर के सरकारी आवास के गेस्ट हाउस में पांच दिनों तक धरने पर बैठे थे। उनकी पहली मांग थी कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए। दूसरी कि केन्द्र के उकसावे पर दिल्ली के आईएएस आफिसर्स जो तीन महीनों से हड़ताल पर हैं, को काम पर लौटने के आदेश दिए जाएं। आरोप लगा कि केजरीवाल काम छोड़ धरने पर बैठकर खोई हुई राजनीतिक जमीन पाने की कोशिश करते रहे हैं। संविधान का अनुच्छेद 239-कक. कहता है-‘दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र को दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र कहा जाएगा और अनुच्छेद 239 के अधीन नियुक्त उसका प्रशासक उपराज्यपाल होगा।‘ दिल्ली की विधानसभा में 70 विधायक चुने जाते हैं। दस प्रतिशत मंत्री बन सकते हैं। बाकी राज्यों में पंद्रह प्रतिशत विधायक मंत्री बन सकते हैं। दिल्ली के लिए चुनाव कराने हेतु संसद को अधिकार हैं। अन्य राज्यों की तरह कई अधिकार दिल्ली विधानसभा को नहीं हैं।
राज्यपाल और मंत्रिपरिषद के रिश्तों पर अनुच्छेद 163 कहता है ‘राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा।‘ लगता तो है राज्यपाल पर मंत्रिपरिषद की सलाह मानने की कोई बाध्यता नहीं है लेकिन डॉ. अंबेडकर ने साफ कहा था राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानना जरूरी होगा सिवाय उन बातों के जहां संवैधानिक स्वायत्तता हो। अनुच्छेद 239 क क (4) में दिल्ली के लिए पर कतर दिए गए हैं। अनुच्छेद कहता है-‘उप राज्यपाल और उसके मंत्रियों के बीच किसी विषय पर मतभेद की दशा में, उप राज्यपाल उसे राष्ट्रपति को विनिश्चय के लिए निर्देशित करेगा और राष्ट्रपति द्वारा उस पर किए गए विनिश्चय के अनुसार कार्य करेगा तथा ऐसा विनिश्चय होने तक उप राज्यपाल किसी ऐसे मामले में, जहां वह विषय, उसकी राय में, इतना आवश्यक है जिसके कारण तुरन्त कार्रवाई करना उसके लिए आवश्यक है वहां, उस विषय में ऐसी कार्रवाई करने या ऐसा निर्देश देने के लिए, जो वह आवश्यक समझे, सक्षम होगा।‘ अरविन्द केजरीवाल का मुख्य आरोप रहा है कि जितने अधिकार पिछली कांग्रेस और भाजपाई दिल्ली सरकारों के पास थे, वे भी एक के बाद एक आम आदमी पार्टी की सरकार से केन्द्र द्वारा छीन लिए गए।
पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और केरल के मुख्यमंत्री केजरीवाल को समर्थन देने और प्रधानमंत्री द्वारा हस्तक्षेप करने को लेकर दिल्ली प्रवास पर पहुंचे थे। गोदी मीडिया कायर और पक्षपाती आचरण करता रहा। चार प्रदेशों के मुख्यमंत्री दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल से मिल नहीं पाए। संविधान की आयतों का गला घोंटने का केन्द्र सरकार और लेफ्टिनेंट गर्वनर का उदाहरण बना। मुख्यमंत्रियों की प्रेस वार्ता को प्रकाशित तक नहीं किया। चाकू चाहे खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर। कटना तो दिल्ली की जनता को ही हुआ। अरविंद केजरीवाल परेशानी की फितूर के हुनरमंद सियासी खिलाड़ी हैं। आम आदमी पार्टी संविधान की मूल इबारत के राजपथ के बनिस्बत पगडंडियों से चलकर लक्ष्य तक जाना चाहती है। राजपथ पर सत्ता की ठसक-गाडिय़ों के कारण जाम लगा होता है।
इतिहास याद रखे दो मुखर कम्युनिस्ट सदस्यों इंद्रजीत गुप्त और दशरथ देव ने दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य और समस्त अधिकार सम्पन्न विधानसभा की धारदार पैरवी की थी। दशरथ देव ने कड़े शब्दों में मनोनीत सदस्यों के किसी मनोनीत निकाय के बदले विधानसभा की उपयोगिता पर जोर दिया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमूर्त दार्शनिक शैली में दिल्ली निवासियों की कठिनाइयों को जोर शोर से उठाया था। यह भी जोड़ा दिल्ली में तमाम विदेशी राजनयिकों और दूतावासों की उपस्थिति के कारण प्रशासन व्यवस्थित हो और संवैधानिक दुर्बोध से मरहूम रखा जाए। उन्होंने माना था कि संविधान में कमियां हैं।
दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की ओर देखता मौजूदा अनुच्छेद 239 क क संविधान के 74 वें संशोधन के जरिए आया। केन्द्रीय गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण ने प्रस्ताव रखते दो टूक कहा था कि फिलहाल दिल्ली का प्रशासन दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट 1966 के तहत चल रहा है। मेट्रोपोलिटन काउंसिल प्रशासक को केवल सलाह दे सकती थी। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के जज आर.एस. सरकारिया की अध्यक्षता में 24 दिसम्बर 1987 को कमेटी गठित की। उसे एस. बालाकृष्णन ने 14 दिसम्बर 1989 को पूरा किया। कहा दुनिया की अन्य राजधानियों के मद्देनजर दिल्ली की संवैधानिक स्वायत्तता पर फैसला मुनासिब होगा। नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, शंकरराव चव्हाण के दिए गए नीति, व्यावहारिकता और संभावनाओं के त्रिभुज पर आधारित तर्क त्रिशंकु नहीं रहे हैं। वे लेकिन दिल्ली के लोगों की महत्वाकांक्षाओं का त्रिलोक भी नहीं हैं।
केजरीवाल का तर्क है कि अन्य राज्यों के बराबर समान संवैधानिक अधिकार दिए जाएं। केवल तीन बिन्दुओं पुलिस, विधि तथा व्यवस्था और राजस्व के महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार नहीं होने से केन्द्र सरकार के लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथों विधानसभा, मंत्रिपरिषद और दिल्ली के नागरिकों की अश्वगति की ख्वाहिषों पर सईस की नकेल है। राजस्व उगाही के अरबों रुपयों का इस्तेमाल विरोधी पार्टी भाजपा के नुमाइंदे पुलिस, राजस्व उगाही और कानून तथा व्यवस्था के नाम पर अधिकारियों को भडक़ा-फुसलाकर राज्य सरकार के खिलाफ काम ही नहीं करने दें। संविधान क्या टुकुर टुकुर देखता भर रहे? सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली विधानसभा, राज्य सरकार और उप राज्यपाल के संवैधानिक रिश्तों को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया था। फैसला अहम है लेकिन दिल्ली विधानसभा के लिए संविधान ने जो मर्यादाएं तय की हैं, उनका खुलासा व्याख्या करने तक सीमित रहा है। केजरीवाल सरकार ने अपने संवैधानिक अधिकारों की ठीक मीमांसा की थी कि उपराज्यपाल केन्द्र की कठपुतली की तरह होते हैं। केजरीवाल के तेवर खामोशी, समझौते, खुशामदखोरी या समर्पण के नहीं होते।
दिल्ली विधानसभा को राज्य सूची के विषय क्रमांक 1, 2, 18, 64, 65 और 66 को छोडक़र तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों में अन्य विधानसभाओं के बराबर अधिकार हैं। उपराज्यपाल ने समझा होगा विधानसभा कोई भी कानून बनाए। वे फाउल की सीटी बजा देंगे और गेंद को अंपायर राष्ट्रपति के मैदान में ठेल देंगे। राष्ट्रपति की भी केंद्रीय मंत्रिपरिषद से अलग से राय कैसे होगी? 70 में से 67 सीटें जीतने वाली केजरीवाल सरकार का मुर्गमुसल्लम बनाया जा सकेगा। उपराज्यपाल चूक गए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने ठीक पकड़ा।
सुप्रीम कोर्ट ने कुछ सैद्धान्तिक स्थापनाएं कीं। उसके अनुसार संविधान की समझ के लिए लोकतंत्रीय भावना, सामूहिक नागरिक प्रतिनिधित्व, संवैधानिक चरित्र और सत्ता के विकेन्द्रीकरण को लेकर समझौता नहीं किया जा सकता। संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा है कि हम भारत के लोग अपना संविधान खुद को दे रहे हैं। यही समीकरण सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि उपराज्यपाल को असहमत होने के असीमित अधिकार मिल जाएंगे तो लोकतंत्र की मर्यादा ही नहीं रहेगी। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों को परस्पर सहयोग से काम करने की हिदायत भी दी क्योंकि भारत एक संघीय राज्य है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत पहले आ जाता तो दिल्ली प्रशासन पर छाई धुंध नागरिक अधिकारों के लिए साफ की जा सकती थी।
पृथक फैसले में जज डी वाय चंद्रचूड़ ने कुछ अतिरिक्त बातों का समावेश किया। उससे फैसला बहुआयामी हो गया है। राजधानी क्षेत्र के निवासियों की उम्मीद को उन्होंने देश की राजधानी दिल्ली के राजनैतिक प्रतीक और राष्ट्रीय सरकार की संवैधानिकता के साथ जोडक़र भी देखने की कोशिश की। उन्होंने साफ किया कि आखिरकार यह जनता है जिसके सबसे बड़े और अंतिम अधिकार हैं कि उसकी इच्छा से कोई लोकप्रिय सरकार कैसे चले। उनका तर्क यह भी है कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को लेकर चुने गए प्रतिनिधियों को जवाबदेह होना पड़ता है, संविधान प्रमुख को नहीं। उपराज्यपाल को सलाह तथा सहायता देने की मंत्रिपरिषद की शक्ति जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के इरादों की अभिव्यक्ति का दूसरा नाम है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने बेहतर लिखा कि अनुच्छेद का अनुदेश संस्थागत सरकार से है। उसमें ही जनता की सहभागिता है। एक महत्वपूर्ण वाक्य यह भी लिखा कि राज्य मंत्रिपरिषद की शक्ति और दिल्ली विधानसभा की कार्यपालिका शक्ति एक दूसरे में अंतर्निहित है। उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। राज्यपाल उन विषयों के लिए मंत्रिपरिषद से अलग हैं जिन विषयों के लिए विधानसभा को संविधान ने अधिकार नहीं दिए हैं। संविधान में ‘किसी भी विषय’ का जो उल्लेख आया उसे ‘प्रत्येक विषय’ की तरह नहीं पढ़ा जा सकता। ऐसे में विधानसभा और मंत्रिपरिषद की उपादेयता, अस्तित्व और लोकतांत्रिक भूमिका का क्या होगा? अलबत्ता राज्यपाल उन्हेें विशेष दिए गए अधिकारों पर निर्णय ले सकते हैं। यह केवल कुछ चुने गए विषयों को लेकर ही है। बहरहाल यह फैसला केंद्रीय राज्य क्षेत्र के अंतर्गत बनी विधानसभाओं के अधिकारों का नया दरवाजा खोलता लेकिन मोदी सरकार के कारण फिर पचड़ा है।
-डॉ राजू पाण्डेय
अंततः किसान आंदोलन के नेताओं ने यह निर्णय ले ही लिया कि पांच राज्यों में हो रहे विधान सभा चुनावों में संबंधित प्रदेशों का दौरा कर वे मतदाताओं से भाजपा को उसके किसान विरोधी रवैये के मद्देनजर सत्ता से दूर रखने की अपील करेंगे। संयुक्त किसान मोर्चा ने इस संबंध में पत्र के रूप में मतदाताओं हेतु एक अपील भी जारी की है। इस अपील में कहा गया है- हम केंद्र एवं भाजपा शासित राज्यों की कठोर वास्तविकता को आपके संज्ञान में लाना चाहेंगे- भाजपा सरकार तीन किसान विरोधी कानून लेकर आई, जो निर्धन कृषकों एवं उपभोक्ताओं हेतु किसी भी प्रकार के शासकीय संरक्षण को समाप्त कर देते हैं, और साथ ही कॉरपोरेट और बड़े पूंजीपतियों को विस्तार की सुविधा प्रदान करते है। उन्होंने किसानों से बिना पूछे किसानों के लिए इस तरह के निर्णय लिए हैं। यह ऐसे कानून हैं जो हमारे भविष्य के साथ-साथ हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी नष्ट कर देंगे।
भाजपा सरकार ने इन कानूनों के विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ करने वाले किसानों को बदनाम किया। उन्हें राजनीतिक दलों के एजेंट, चरमपंथियों और राष्ट्र-विरोधियों के रूप में प्रस्तुत किया गया एवं लगातार उनका अपमान किया गया।
भाजपा सरकार के मंत्रियों ने किसान नेताओं के साथ अनेक दौर की चर्चा करने का दिखावा किया किंतु वास्तव में किसानों ने जो कहा उस पर ध्यान नहीं दिया। भाजपा सरकारों ने प्रदर्शनकारी किसानों पर आंसू गैस के गोले छोड़ने, वाटर कैनन का प्रयोग करने, लाठीचार्ज करने और यहां तक कि झूठे मामले दर्ज करने एवं निर्दोष किसानों को गिरफ्तार करने के आदेश दिए। भाजपा के सदस्य किसानों के विरोध स्थलों में किसानों पर पथराव की हिंसक घटनाओं में सम्मिलित थे। किसानों के अपमान और उन पर इस आक्रमण का उत्तर देने के लिए हम अब आपकी सहायता चाहते हैं। कुछ दिनों में आप सभी राज्य विधानसभाओं के लिए अपने अपने राज्यों में हो रहे चुनावों में मतदान करेंगे। हम समझ चुके हैं कि मोदी सरकार संवैधानिक मूल्यों, सच्चाई, भलाई, न्याय आदि की भाषा नहीं समझती है। यह लोग वोट, सीट और सत्ता की भाषा समझते हैं। आपमें इनमें सेंध लगाने की शक्ति है।
भाजपा दक्षिणी राज्यों में अपने प्रसार को लेकर बहुत उत्साहित है और इस हेतु सहयोगी दलों के साथ गठबंधन कर रही है। यही वह समय है जब असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किसान सत्ता की भूखी और किसान विरोधी भाजपा को अच्छा सबक सिखा सकते हैं। भाजपा को यह सबक मिलना चाहिए कि भारत के किसानों का विरोध करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। यदि आप उन्हें यह सबक सिखाने में कामयाब होते हैं, तो इस पार्टी का अहंकार टूट सकता है, और हम वर्तमान किसान आंदोलन की मांगों को इस सरकार से मनवा सकते हैं।
‘संयुक्त किसान मोर्चा’ का इरादा यह नहीं है कि आपको बताए कि किसे वोट देना चाहिए, लेकिन हम आपसे केवल भाजपा को वोट नहीं देने का अनुरोध कर रहे हैं। हम किसी पार्टी विशेष की वकालत नहीं कर रहे हैं। हमारी केवल एक अपील है- कमल के निशान पर गलती से भी वोट न दें। विगत साढे़ तीन महीनों से किसान दिल्ली के आसपास स्थित धरना स्थलों से वापस अपने घर नहीं गए हैं। दिल्ली की सीमाओं पर संघर्षरत प्रदर्शनकारी किसान अपने परिवारों से कब मिल सकेंगे यह तय करना आपके हाथों में है। एक किसान ही दूसरे किसान के दर्द और पीड़ा को समझेगा। असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के किसानों की संघर्षशीलता से सभी परिचित हैं और हमें विश्वास है कि आप हमारे इस आह्वान पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देंगे। हमें विश्वास है कि आप मतदान करते समय इस अपील को ध्यान में रखेंगे।'
निश्चित ही यह संयुक्त किसान मोर्चा के लिए एक कठिन निर्णय रहा होगा कि वह चुनावी राजनीति में प्रवेश करे और वह भी स्थानीय मुद्दों पर आधारित विधानसभा चुनावों के माध्यम से जहाँ किसी एक राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर जनता को मतदान के लिए तैयार करना असंभवप्राय होता है। संभवतः संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने यह सोचा होगा कि खेती और किसानों से जुड़ी समस्याएं इस देश में उतनी ज्यादा सुर्खियों में कभी नहीं रहीं जितनी आज हैं और शायद आम किसान भी अब इतना शिक्षित हो चुका है कि वह मतदाता के रूप में अपने हितों की रक्षा करने वाले दल को ही चुनेगा। शायद संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं को लगता होगा कि वे मतदान में दो-तीन प्रतिशत की भाजपा विरोधी स्विंग पैदा कर पाएंगे जो नजदीकी मुकाबलों में निर्णायक सिद्ध होगी।
किंतु किसान नेताओं की इस रणनीति के अपने खतरे हैं। किसान आंदोलन के स्वरूप को अराजनीतिक बनाए रखने के आग्रह ने किसान नेताओं को बाध्य किया कि वे किसी दल विशेष का स्पष्ट समर्थन करने से परहेज करें। चुनावों में हस्तक्षेप करने के बाद किसान आंदोलन को अराजनीतिक मानने वालों की संख्या में भारी कमी आएगी यह तय है। केंद्र सरकार और सरकार समर्थक मीडिया निश्चित ही इस निर्णय का उपयोग किसान आंदोलन को विरोधी दलों द्वारा प्रायोजित गतिविधि सिद्ध करने हेतु करेगा। किसान आंदोलन का आत्मस्फूर्त और अराजनीतिक होना वह अभेद्य नैतिक कवच था जो सरकार के सारे आंदोलन विरोधी षड्यंत्रों को नाकाम करने के लिए अकेला ही काफी था। इस निर्णय के बाद यह तय है कि इस कवच पर आक्रमण होंगे।
किसान नेताओं ने चुनावी राजनीति में प्रवेश तो किया किंतु चुनावों में उनका यह हस्तक्षेप भाजपा को परास्त करने की इच्छा तक सीमित रह जाता है। यह भाजपा के स्पष्ट विकल्प की ओर संकेत नहीं करता। यदि मतदाता इस अपील से प्रभावित भी होता है तो इस बात की पूरी पूरी आशंका रहेगी कि वह किसी ऐसे विकल्प का चयन कर ले जिसकी नीतियां कहीं न कहीं वर्तमान सरकार की नीतियों से संगति रखती हैं।
उदाहरणार्थ यदि बंगाल में मतदाता यह समझता है कि तृणमूल कांग्रेस ही भाजपा को हराने में सक्षम है और वह उसके पक्ष में मतदान करता है तो यह वाम दलों को हानि पहुंचाएगा जो निर्विवाद रूप से इन तीन कृषि कानूनों के विरोधी हैं और एक ऐसी पार्टी को सत्ता में लाने में सहायक होगा जिसका डीएनए यदि बिल्कुल भाजपा जैसा नहीं है तो उससे मिलता जुलता अवश्य है। स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार केरल में एलडीएफ और यूडीएफ आमने सामने हैं जबकि बंगाल और असम में वाम दलों का कांग्रेस से गठबंधन है, किसी राष्ट्रीय मुद्दे से प्रभावित मतदाता के लिए यह भ्रम की स्थिति हो सकती है। केरल और तमिलनाडु में भाजपा निर्णायक जीत हासिल करेगी या सत्ता प्राप्ति में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी इसकी संभावना नगण्य है और यहां प्रादेशिक चुनावों में भाजपा विरोध का कोई खास महत्व नहीं है। बंगाल और असम में सीएए, बाहरी-मूल निवासी, हिन्दू-मुस्लिम जैसे मुद्दों को आधार बनाकर नफरत और बंटवारे का जो जहरीला नैरेटिव तैयार किया गया है, चुनाव उसके समर्थन और विरोध के इर्द गिर्द ही घूमेगा और इन मुद्दों के शोर से गूंजता चुनावी वातावरण किसानों की समस्याओं की चर्चा के लिए शायद अनुपयुक्त ही होगा।
इस बात की भी आशंका है कि संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं पर नकारात्मकता, अंध भाजपा विरोध, सरकार के साथ मुद्दों की लड़ाई छोड़ कर अहं की लड़ाई की शुरुआत जैसे आरोप भी लगेंगे। इस बात का भय भी व्यक्त किया जाएगा कि भाजपा हराओ के नारे के बाद एनडीए के वे घटक दल जो किसान आंदोलन से सहानुभूति रखते थे अब इससे दूरी बना लेंगे। यह भी कहा जाएगा कि अब इन नेताओं का उद्देश्य किसानों की समस्याओं का हल निकालने से ज्यादा भाजपा से अपनी खुन्नस निकालना हो गया है। इन आरोपों की सफाई किसान आंदोलन के नेतृत्व को देनी होगी और यह उसका दुर्भाग्य ही होगा कि सही होने के बावजूद इस सफाई को स्वीकार करना कठिन होगा।
यह एक कठोर सच है कि वाम दलों के अतिरिक्त किसी भी दल में एलपीजी (लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन,ग्लोबलाइजेशन) का खुला विरोध करने का साहस नहीं है। कांग्रेस तो भारत में एलपीजी के प्रारंभ का श्रेय लेती नहीं थकती। और यह भी कड़वी सच्चाई है कि 1991 के बाद के 30 सालों में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है,निर्धन और निर्धन हुए हैं, अमीर और अमीर हुए हैं, बेरोजगारी चरम पर है, इसके बावजूद वाम दलों का जनाधार आश्चर्यजनक रूप से कम हुआ है और आज स्थिति यह है कि भाजपा जैसी घोर दक्षिणपंथी पार्टी न केवल सत्ता में है बल्कि अजेय भी समझी जा रही है। यह परिदृश्य एक ही तथ्य की ओर संकेत करता है वह यह कि किसानों और मजदूरों की राष्ट्रव्यापी दुर्दशा चुनावों का निर्णायक मुद्दा नहीं है बल्कि यह एक मुद्दा ही नहीं है। सारे राजनीतिक दलों ने साम्प्रदायिक और जातीय समीकरणों पर आधारित राजनीति को प्रश्रय दिया है जिसमें बुनियादी मुद्दों को दरकिनार कर भावनात्मक मुद्दों को तरजीह दी जाती है। भाजपा तो आभासी मुद्दों के बल पर सत्ता हासिल करने में विशेषज्ञता रखती है।
क्या किसान नेताओं को ऐसा लगता है कि महज साढ़े तीन महीने पुराना किसान आंदोलन इतना व्यापक और शक्तिशाली हो गया है कि इस तीन दशक पुराने खतरनाक तिलिस्म को तोड़ सके। कहीं किसान नेता अपने आंदोलन को परिणाम मूलक बनाने की हड़बड़ी में किसान आंदोलन के अब तक के हासिल(जो किसी भी तरह छोटा या कम नहीं है) को दांव पर लगाने का खतरा तो मोल नहीं ले रहे हैं? क्या किसान नेता संबंधित प्रान्तों के किसानों को उन पर मंडरा रहे आसन्न संकट की बात पर्याप्त शिद्दत और ताकत के साथ बता पाएंगे? क्या हर मतदाता तक उनकी बात पहुंच पाएगी? भाजपा की आईटी सेल एवं पार्टी कैडर तथा आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन व भाजपा समर्थक मीडिया हिंसक होने की सीमा तक आक्रामक तेजी के साथ नफरत, घृणा, विभाजन और संदेह की भाषा में सोचने का प्रशिक्षण आम मतदाता को पिछले कई वर्षों से देते रहे हैं। क्या किसान नेताओं ने आभासी मुद्दों और नफरती सोच की इस बम वर्षा को रोकने के लिए कोई समर्थ तंत्र तैयार कर लिया है? यदि ऐसा नहीं है तो इन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि उनका चुनावी हस्तक्षेप सांकेतिक और प्रतीकात्मक है और इसे केंद्र सरकार और उसकी एलपीजी आधारित अर्थ नीतियों के साथ निर्णायक संघर्ष की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। अन्यथा केंद्र सरकार और सरकार समर्थक मीडिया हाउस तो इस बात के लिए तैयार बैठे हैं कि बंगाल जैसे किसी राज्य में भाजपा विजयी हो और इन चुनावों को कृषि कानूनों के विषय में जनमत संग्रह की भांति प्रस्तुत किया जा सके। सरकार पहले भी नोटबन्दी, जीएसटी, सीएए, तीन तलाक कानून, धारा 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाने तथा अविचारित लॉक डाउन जैसे विवादित फैसलों को न्यायोचित ठहराने के लिए चुनावी सफलता का हवाला देती रही है। हमारी चुनाव प्रणाली के दोष और हमारे राजनीतिक दलों के वित्त पोषण में व्याप्त भ्रष्टाचार जैसे अनेक कारक हैं जो चुनावी नतीजों को प्रभावित करते हैं। यह सही है कि भाजपा और शायद कांग्रेस भी वोट, सीट और सत्ता की भाषा ही समझते हैं किंतु क्या वैकल्पिक विचारधारा के समर्थकों में इतनी सामर्थ्य आ चुकी है कि वे चुनावी खेल के महारथियों के इस तंत्र को ध्वस्त कर सकें? दुर्भाग्य से इसका उत्तर नकारात्मक है।
यह बिल्कुल संभव है कि इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहे और उसे पराजय का सामना करना पड़े किंतु इसके लिए भी क्षेत्रीय मुद्दे, क्षेत्रीय दलों के समीकरण, पूर्व की प्रदेश सरकारों का प्रदर्शन आदि ही मुख्यतया उत्तरदायी होंगे। इसलिए यह मान लेना कि सारे मतदाता और विशेषकर किसान मतदाता अब अपनी समस्याओं के निराकरण हेतु मतदान कर रहे हैं एक ऐसी आत्म मुग्धता और आत्म प्रवंचना को उत्पन्न करेगा जो किसान आंदोलन को कमजोर ही करेगी।
चुनावी राजनीति में प्रवेश परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए एक अनिवार्यता है किंतु इसमें निर्णायक सफलता प्राप्त करना एक श्रम साध्य और समय साध्य प्रक्रिया है। शोषण तंत्र से लड़ाई का कोई छोटा रास्ता नहीं होता। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का उदाहरण सामने है जिसमें जन शिक्षण और समाज सुधार पर गांधी जी ने इतना अधिक जोर दिया था कि कई बार ऐसा लगता था कि वे स्वाधीनता के मूल लक्ष्य से भटक गए हैं। किंतु लंबे अहिंसक संघर्ष के बाद जो स्वाधीनता मिली वह टिकाऊ और स्थायी थी क्योंकि जनमानस को इस स्वाधीनता को ग्रहण करने के लिए तैयार किया जा चुका था।
आने वाले समय में सघन जनसंपर्क के बाद किसान आंदोलन के नेता किसानों की आकांक्षाओं पर आधारित प्रदेश वार घोषणा पत्र तैयार कर प्रमुख राजनीतिक दलों से यह ठोस आश्वासन ले सकते हैं कि चुनावों में विजय के बाद वे इस घोषणा पत्र का अक्षरशः पालन करेंगे और इसके बाद इन पार्टियों के समर्थन और विरोध का निर्णय लिया जा सकता है। यही नीति लोकसभा चुनावों हेतु भी अपनाई जा सकती है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-करन सिंह चौहान
हिंदी में पुरस्कारधर्मी मानसिकता और उससे जुड़े साहित्यिक भ्रष्टाचार के सवाल न तो किसी एक संस्था से जुड़े हैं न किसी एक व्यक्ति या पुरस्कार से और न ही वे आज पहली बार उठे हैं । ये हिंदी में पनपे और लगातार बढ़ते जाते भ्रष्टाचार के अहम सवाल हैं जो साहित्यिक पुरस्कारों से जुड़ी अधिकांश सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं, व्यक्तिगत पहलों में दिखाई पड़ता है और लेखकों में अनैतिक किस्म की गुटबाजियों, तिकड़मों, अस्वस्थ प्रतियोगिताओं और साहित्येतर महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा देता है ।
कुछ हिंदी के पुरस्कारधर्मी लेखकों ने इस बड़े और ऐतिहासिक सवाल को जान-बूझकर एक व्यक्ति में केंद्रित करने की कोशिश की और तर्क दिया कि उनकी कविताएं महत्वपूर्ण हैं जिनपर पुरस्कार मिलना वाजिब है । फिर कहा कि कुछ लोग निषेधात्मकता या विद्वेष के कारण ऐसा कर रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार मिलने से हिंदी भाषा, कविता, स्त्री का गौरव बढ़ता है और अंतत: साहित्य महिमामंडित होता है । इस तरह एक बड़े सवाल को व्यक्ति में, जेंडर में सीमित करने की यह कोशिश नए-नए तर्क गढ़ रही है आम भ्रष्टाचार के मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए ।
ये लोग या तो हिंदी साहित्य की तमाम नैतिक परंपराओं और सिद्धांतों पर हुई बहसों को अनदेखा कर एक नया भ्रम इन सबके बारे में फैला रहे हैं या शायद उनसे अनजान दिखा रहे हैं । अभी तक साहित्य में इन संस्थाओं के आचरण पर लगातार बहसें हुईं हैं और उन्हें अधिकतर निर्णयों में साहित्येतर इरादों से प्रेरित पाया गया है । कुछ ही दिन तो हुए हैं उस पुरस्कार वापसी आंदोलन को जिसमें सबने इन्हें दोषी पाया था । इस बीच में ऐसा क्या हो गया कि अचानक ये संस्थाएं इतनी पवित्र हो गईं कि उसके निर्णयों पर लहालोट होने लगे । एक व्यक्ति-विशेष का सहारा लेकर ये पुरस्कारधर्मी लोग अपनी महत्वाकांक्षाओं को फलीभूत करने को लालायित हैं ।
पुरस्कार देने वाली संस्थाओं के बारे में केवल हिंदी में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं पर भी प्रबुद्ध लोगों की यह आम राय रही है कि अपने निर्णयों की अनैतिकता और आधारहीनता को छुपाने के लिए और अपनी विश्वसनीयता बहाल करने के लिए ये बीच-बीच में योग्य व्यक्ति को चुनकर अपने अपराधों पर पर्दा डालने का काम करती हैं । यही अनामिका के मामले में हुआ है।
हिंदी के लेखक उन्हें एक महत्वपूर्ण कवयित्री और लेखिका समझते हैं । वे हिंदी लेखकों के बीच लगभग अजातशत्रु की हैसियत रखती हैं । यह पुरस्कार उन्हें क्या नया गौरव देगा जो उनके साहित्य ने उन्हें पहले ही नहीं दिया हुआ! निहित स्वार्थ उनका नाम लेकर, उनके साहित्य के बहाने, जेंडर के बहाने पूरी बहस को एक गलत रूप देना चाहते हैं । उन्हें अपने साहित्य और लेखन से जो गौरव, लोकप्रियता और महत्व पहले ही प्राप्त है उसमें यह पुरस्कार क्या इजाफा करेगा भला! दर असल उन्हें पुरस्कार देकर अकादमी स्वयं को गौरवान्वित कर अपने तमाम अपराधों को सफेद करने का काम कर रही है, यह मुख्य सवाल है जो न तो हिंदी में और न केवल अकादमी के बारे में पहली बार उठ रहा है ।
कई उत्सवप्रेमी और पुरस्कारधर्मी नारीवादी स्त्री लेखिकाओं ने इसे जेंडर का सवाल बनाने की कोशिश की है । यह न किसी लेखक के साहित्य के मूल्यांकन का प्रश्न है, न जेंडर का बल्कि इन संस्थाओं के प्रश्रय में पलते उस साहित्यिक भ्रष्टाचार का है जो इस तरह के पुरस्कार से अपनी तमाम कारगुजारियों से बरी होने की कोशिश करती है और लेखकों में इस भ्रष्टाचार को संगत ठहराने का भाव जगाती है। ये प्रश्न आज के नहीं हैं, आजादी के बाद से लगातार उठते और उठाए जाते रहे हैं। हमारे देश में नहीं पूरी दुनिया में उठाए जाते रहे हैं, किसी एक व्यवस्था में नहीं सब व्यवस्थाओं में उठाए जाते रहे हैं।
हां ये जरूर है कि ज्यां पाल सार्त्र की तरह हिंदी में सैद्धांतिक साहस दिखाने वाले लेखकों का एकांत अभाव है । इनाम इकराम यश की भूख तो सामान्य वासनाएं है, उनकी पूर्ति के लिए लेखक होने की जरूरत नहीं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल डॉक्टरी, वकालत और शिक्षा— ये तीन सेवाएं नहीं, धंधे माने जाते हैं। यदि कोई धंधा करता है तो पैसा तो वह बनाएगा ही! इन तीनों सेवाओं को सीखने के दौरान जो अनाप-शनाप खर्च करना पड़ता है, अगर उसे वसूला नहीं जाए तो काम कैसे चलेगा? वसूली के इस दौर में शहरी, संपन्न और ऊँची जातियों के लोग तो किसी तरह अपना काम धका ले जाते हैं लेकिन देश के लगभग 100 करोड़ लोग आज भी समुचित शिक्षा, चिकित्सा और न्याय के लिए तरसते रह जाते हैं। आज एक अंग्रेजी अखबार ने देश के पांच प्रांतों के ऐसे पांच डॉक्टरों के बारे में विस्तृत खबर छापी है, जो अपने मरीजों से फीस के नाम पर कुछ नहीं लेते या इतनी फीस लेते हैं, जो एक प्याला चाय की कीमत से भी कम होती है। ऐसे डॉक्टर, वैद्य, हकीम और होमियोपेथ सारे भारत में पहले सैकड़ों की संख्या में पाए जाते थे। दिल्ली के निजामुद्दीन में वैद्यराज बृहस्पतिदेव त्रिगुणाजी का नाम किसने नहीं सुना है ?
उनकी वैद्यशाला में कोई करोड़पति आए या कौड़ीपति, कोई प्रधानमंत्री आए या चपरासी— वे किसी से कोई फीस नहीं लेते थे। इंदौर में डॉ. मुखर्जी को लोग ईश्वरतुल्य मानते थे। 60-70 साल पहले हमारे मोहल्ले में किसी मरीज को देखने वे उसके घर जाते थे तो वे मुझसे पूछते थे कि उससे फीस लेना है कि नहीं ? यही हाल गुरुकुलों का भी था। हमारी संस्कृत पाठशाला के किसी भी ब्रह्मचारी को हमने फीस देते हुए नहीं देखा। डॉक्टरों और अध्यापकों को अपने अस्पतालों और स्कूलों से जो वेतन मिलता था, उसमें वे अपना गुजारा करते थे लेकिन अपने ऐशो-आराम या अहंकार-तृप्ति के लिए उन्होंने अपने सेवा-कार्य को कभी धंधे में तब्दील नहीं होने दिया। हाँ, पारमार्थिक शिक्षा और चिकित्सा संस्थाओं के दरवाजे पर दान-पात्र रखे होते थे। जिसका जितना मन हो, उतने पैसे वह उसमें डाल देता था। यह प्रसन्नता की बात है कि सरकार द्वारा कोरोना का टीका करोड़ों लोगों को मुफ्त में लगवाया जा रहा है लेकिन यही पद्धति देश की संपूर्ण चिकित्सा-व्यवस्था पर लागू क्यों नहीं की जाती? निजी अस्पतालों की लूटपाट पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता? यदि देश की शिक्षा-व्यवस्था उच्चतम स्तर तक मुफ्त हो और स्वभाषा में हो तो भारत को यूरोप से भी आगे निकलने में बहुत कम समय लगेगा। तन के लिए चिकित्सा और मन के लिए शिक्षा सुलभ हो तो भारत को सबल और संपन्न बनने से कौन रोक सकता है? यदि हमारी सरकारें इन दोनों मामलों में मुस्तैदी न दिखाएँ तो भी उन पाँच देवतुल्य डाक्टरों से देश के लाखों डॉक्टर कुछ न कुछ प्रेरणा जरूर ले सकते हैं और इस धंधे को दुबारा सेवा में परिणत कर सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
महान जीनियस और विश्व प्रसिद्ध भाषाविद हरिनाथ डे का जन्म 12 अगस्त सन् 1877 को बंगाल के चौबीस परगना जिले के आडियादह नामक गांव में हुआ था। आडियादह गांव श्रीमती एलोकेशी डे का मायका था।
श्रीमती एलोकेशी डे प्रसव के लिए अपने मायका आई हुई थी। हरिनाथ डे के जन्म के पश्चात जब वह 6 माह का था, राय बहादुर भूतनाथ डे उन्हें अपने साथ रायपुर ले आए थे। उसी यात्रा में उनके अभिन्न मित्र विश्वनाथ दत्त और उनका पूरा परिवार भी नागपुर से बैलगाडिय़ों से रायपुर आया था।
हरिनाथ डे को बचपन से ही श्रीमती एलोकेशी डे बांग्ला वर्णमाला से परिचित करवाने लगी थीं।
हरिनाथ डे दो तीन वर्ष की उम्र से ही कुशाग्र बुद्धि का था। वह अपनी मां द्वारा सिखाए गए बांग्ला वर्णमाला को तुरंत याद कर लेता था। वह सीखे हुए वर्णमाला को घर की दीवारों पर, दरवाजे पर कोयला से लिख भी देता था। उन्ही दिनों विश्वनाथ दत्त का परिवार भी डे भवन में ही रुका हुआ था।
श्रीमती एलोकेशी डे एक विदुषी महिला थी। वह बांग्ला भाषा के साथ ही अंग्रेजी, हिंदी तथा मराठी भाषा की भी अच्छी जानकार थी। हरिनाथ डे के पांच वर्ष के हो जाने पर प्राथमिक शिक्षा के लिए उसे मिशन स्कूल में दाखिल करवाया गया।
प्राइमरी स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए गवर्नमेंट स्कूल में भर्ती करवाया गया।
इसी समय की एक घटना है। हरिनाथ डे का एक मित्र था नाटू जो उसी की क्लास में पढ़ता था। नाटू पढ़ाई-लिखाई में होशियार था जबकि हरिनाथ डे पढ़ाई-लिखाई में बहुत कमजोर था।
एक दिन वह किसी काम से नाटू के घर गया था। नाटू के पिता भी उस दिन घर पर थे, वे हरिनाथ डे को देखते ही क्रोधित हो उठे। उन्होंने हरिनाथ डे को न केवल भविष्य में अपने घर पर आने के लिए मना किया वरन् अपने पुत्र से भी उसे अलग हो जाने के लिए कहा। हरिनाथ डे को पूरी क्लास में पढ़ाई में सबसे अधिक कमजोर विद्यार्थी माना जाता था। इसलिए नाटू के पिता नहीं चाहते थे कि हरिनाथ डे के साथ उसका बुद्धिमान पुत्र दोस्ती रखे।
मिडिल स्कूल में आने के बाद पता नहीं क्यों हरिनाथ डे का मन पढ़ाई में न लगकर अन्य विषयों में ज्यादा लगता था। वह स्कूल से भागकर बगीचे में बैठा रहता था। उस दिन हरिनाथ डे नाटू के घर से अपमान का घूंट पीकर लौटा था।
घर आकर उसने सारी बातें सच-सच अपने पिता भूतनाथ डे को बता दी। पिता भी जानते थे कि हरिनाथ डे की रिपोर्ट स्कूल में कोई बहुत अच्छी नहीं है। स्कूल के एक-दो शिक्षक भी उन्हें यह बता चुके थे। बालक हरिनाथ डे के लिए यह बेहद मर्मांतक घटना थी, उसने कभी सोचा नहीं था कि नाटू के पिता उसे इस तरह से अपमानित करेंगे।
पिता को लगा कि यही समय है जब हरिनाथ डे को शिक्षा के महत्व के बारे में बताया जाए। लोहा जब गर्म हो जाता है तभी उसे कोई आकार दिया जा सकता है, लोहा एकदम गर्म था ,इसलिए बिना देर किए भूतनाथ डे ने अपने बेटे को प्यार से समझाया।
उसने अपने बेटे से कहा कि तुम्हें जो कुछ भी पढऩे-लिखने के लिए चाहिए, वह सब मैं तुम्हें लाकर दूंगा। इस तरह भूतनाथ डे उसे रायपुर में प्रसिद्ध पारसी की दुकान में ले जाते और हर तरह की किताबें दिलवाते। पिता और मां के प्रेम तथा प्रेरणा के फलस्वरूप बालक हरिनाथ डे का मन पढऩे-लिखने में लगने लगा। अब हरिनाथ डे पहले वाला मंद बुद्धि का हरिनाथ डे नहीं रहा,अब वह पूरी तरह से बदल चुका था।
मिडिल स्कूल में पढ़ते-पढ़ते हरिनाथ डे का संपर्क एक ईसाई मिशनरी के फॉदर से हुआ। उस फॉदर ने बालक हरिनाथ डे की प्रतिभा को भांप लिया था सो उसने हरिनाथ डे को बाइबिल का हिंदी में अनुवाद करने के लिए कहा। बालक हरिनाथ डे ने कुछ ही दिनों में बाइबिल का हिंदी अनुवाद करके उसे सौंप दिया था।
सन् 1890 में हरिनाथ डे ने मिडिल स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। मिडिल स्कूल में सर्वाधिक अंकों से परीक्षा पास करने पर आगे पढऩे के लिए उन्हें सरकार की ओर से स्कॉलरशिप प्रदान की गई। आगे की पढ़ाई के लिए हरिनाथ डे को कोलकाता भेजा गया।
सन 1891 में हरिनाथ डे का एंट्रेंस क्लास में दाखिला कोलकाता के सुप्रसिद्ध स्कूल सेंट जेवियर्स में करवाया गया। सन 1892 में हरिनाथ डे ने एंट्रेंस क्लास की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। एंट्रेंस की परीक्षा पास करने के बाद हरिनाथ डे ने सन 1893 में सेंट जेवियर्स कॉलेज में प्रवेश लिया जहां से वे सन् 1894 में एफ.ए. की परीक्षा फस्र्ट डिवीजन से पास की।
सन् 1895 में 18 वर्ष में उनका विवाह कोलकाता के नंदलाल बसु की सुकन्या शरत शोभा देवी के साथ संपन्न हुआ।
(शेष अगले रविवार)
-प्रकाश दुबे
केन्द्रीय वित्त मंत्री सीतारामन के कामकाज की धज्जियां उड़ाते हुए सुप्रिया ने चुटकी ली-वित्तीय मामलों का महकमा कैसे संभालना चाहिए यह महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री अजीत-दादा- पवार से सीखें। अजीत और सुप्रिया के बीच अनबन के किस्से उछलते रहते हैं। अपने दादा को अनमोल रतन बताकर सुप्रिया ने पिता को भी चकित कर दिया।
होली और गाली का तुक ठीक नहीं जमता? मत जमने दो। राजनीतिक बयानबाजी बिना गाली के मज़ा नहीं देती। होली समाजवादी त्यौहार है और देश को अपने कंधों पर ढो रहे रंग-बिरंगे महानुभाव गाली सदाचार में पारंगत है। इस सद् आचरण में सबको छूट है। विरोधियों को आलोचना के साथ कई तरह का प्रसाद मिलता है। छापे, पुलिस केस, गिरफ्तारी आदि-आदि। है गांधी-महात्मा का देश, इसलिए कई बार अच्छी मिसाल मील के पत्थर की तरह गढ़ी जाती है। राजे-रजवाड़ों के राजस्थान में कुछ ऐसा ही कमाल हुआ।
राज्य में चार कन्या महाविद्यालय खोले जा रहे हैं। चारों महाविद्यालय कोविड महामारी के दौरान विदा होने वाले विधायकों को समर्पित हैं। अब, इसमें नई बात क्या है? यह तो श्रद्धांजलि देने का राजनीतिक तरीका है। ऐसा कहने-सुनने वाले गौर करें। राजसमंद में बनने वाला कन्या महाविद्यालय किरण माहेश्वरी को समर्पित हैं। वे भारतीय जनता पार्टी की तरफ से चार बार इसी क्षेत्र से चुनाव जीतीं। प्रदेश में सरकार कांग्रेस की है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हैं।
बिरादरी की बात
कूड़ादान और कलम-कंप्यूटर-कैमरावाली बिरादरी के बीच यूं तो कोई समानता नजर नहीं आती। सिवा इसके, कि कचरा दान करने के लिए कूड़ादान। किसी गलती के लिए पत्रकार बिरादरी पर ठीकरा फोड़ दो। ऐसा तब अक्सर होता है, जब खबर की जान-बूझकर कतरब्यौंत की जाए। छपी और कही गई खबर यह है कि पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ पार्टी के पांच विधायक जनता पार्टी में शामिल हुए। इतना ही नहीं, तृणमूल कांग्रेस की घोषित उम्मीदवार भी पार्टी छोडक़र भाजपा में जा पहुंचीं। दोनों खबरें अर्धसत्य थीं। कुछ कलम चलाने वाले कलाकार इतना बताने से कतरा गए कि पांचों के टिकट उनकी दीदी ने काट दिए थे। इनमें दो विद्यमान विधायकों की आयु 80 वर्ष से कुछ अधिक है इसलिए उम्मीदवारी नहीं मिली। दोनों ने मेट्रोमैन श्रीधरन से प्रेरणा ली। जिस महिला ने पाला बदला, पार्टी ने ऐनमौके पर उसके बजाय अन्य को टिकट थमा दिया। हमारी बिरादरी वालों के पास पूरी कहानी बताने के लिए कागज और समय की कमी नहीं थी। सच की भी नहीं, सोच की कमी रही होगी।
आमार सोनार वोटर
घर बैठे सोशल मीडिया पर नुक्स निकालने वालों को बिना शर्त मंजूर करना चाहिए कि प्रधानमंत्री की सिर्फ दाढ़ी ही बड़ी नहीं है। उनकी प्रचार योजना भी लंबी है। विरोधी दल वाले तुलना में कहीं नहीं ठहरते। उनकी दूरगामी सोच की मिसाल देखो। महिला दिवस पर प्रधानमंत्री ने दस्तकारी का सामान खरीदा। इनमें जूट का फाइल फोल्डर शामिल था। प्रधानमंत्री बताना नहीं भूले कि पश्चिम बंगाल में बने इस फाइल फोल्डर का उपयोग जरूर करेंगे। वहीं असमिया गमूसा भी खरीदा। इसे हिंदी में गमछा कहते हैं। अगले ही दिन वीडियो के जरिये भारत-बांग्लादेश के बीच मैत्री सेतु का उद्घाटन किया। दाढ़ी, बांग्ला के दो वाक्य और खरीदी पर बिना सोचे फब्ती कसने वाले जान लें। मतदान के घमासान के बीच प्रधानमंत्री बांग्लादेश के दौरे पर रहेंगे। वह भी ऐन होली से पहले। बंगाल में बांग्लादेशी घुसपैठ का आरोप कई बार लगा है। किसने लगाया, यह भूलकर सोचो कि बांग्लादेशी घुसपैठियों का रंग दे बसंती चोला होगा कि नहीं?
मेरा अनमोल रतन
जाने कितने लोग हैं जो संसद में होने वाली चर्चा को सुनते हैं? वैसे भी राज्यसभा टीवी के लोकसभा टीवी में विलय के बाद विकल्प घटे हैं। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री ने शरद पवार के कृषि मंत्री की हैसियत से लिखे पत्र के कुछ अंश संसद में पढ़े। पवार को पलटूराम प्रमाणित करना चाहा। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सुप्रिया सुले ने पिता शरद पवार के पत्र का वह अंश लोकसभा में पढ़ा, जिसे प्रधानमंत्री छुपा गए थे। सुप्रिया ने प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के मनरेगा, जीएसटी आदि कुछ फैसलों पर यू टर्न के प्रमाण दिए। इससे अधिक दिलचस्प था, उनका चचेरे भाई अजीत दादा पवार की तारीफ करना। केन्द्रीय वित्त मंत्री सीतारामन के कामकाज की धज्जियां उड़ाते हुए सुप्रिया ने चुटकी ली-वित्तीय मामलों का महकमा कैसे संभालना चाहिए यह महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री अजीत-दादा- पवार से सीखें। अजीत और सुप्रिया के बीच अनबन के किस्से उछलते रहते हैं। अपने दादा को अनमोल रतन बताकर सुप्रिया ने पिता को भी चकित कर दिया।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसे कानून पर पुनर्विचार की याचिका स्वीकार कर ली है, जिसका उद्देश्य था-भारत के मंदिर-मस्जिदों के विवादों पर हमेशा के लिए तालाबंदी कर देना। अब से 30 साल पहले जब बाबरी-मस्जिद के विवाद ने बहुत जोर पकड़ लिया था, तब नरसिंहराव सरकार बाबरी मस्जिद के विवाद को तो हल करना चाहती थी लेकिन इस तरह के शेष सभी विवादों को विराम देने के लिए वह 1991 में एक कानून ले आई। इस कानून के मुताबिक देश के हर पूजा और तीर्थ स्थल जैसे हैं, उन्हें वैसे ही बनाए रखा जाएगा, जैसे कि वे 15 अगस्त 1947 को थे। अब इस कानून को एक वकील अश्विन उपाध्याय ने अदालत में चुनौती दी है। उनके तर्क हैं कि मुसलमान हमलावरों ने देश के सैकड़ों-हजारों मंदिरों को तोड़ा और भारत का अपमान किया। अब उसकी भरपाई होनी चाहिए। उसे रोकने का 1991 का कानून इसलिए भी गलत है कि एक तो 15 अगस्त 1947 की तारीख मनमाने ढंग से तय की गई है। उसका कोई आधार नहीं बताया गया।
दूसरा, हिंदू, बौद्ध, सिखों और ईसाइयों पर तो यह कानून लागू होता है लेकिन मुसलमानों पर नहीं, क्योंकि वक्फ-कानून की धारा 7 के अनुसार वे अपनी मजहबी जमीन पर वापिस कब्जे का दावा कर सकते हैं। तीसरा, यह भी कि जमीनी कब्जों के मामले राज्य का विषय होते हैं। केंद्र ने उन पर कानून कैसे बना दिया? उपाध्याय के इन तर्को का विरोध अनेक मुस्लिम संगठनों ने जमकर किया है लेकिन विश्व हिंदू परिषद की इस पुरानी मांग ने फिर जोर पकड़ लिया है।उसकी मांग है कि काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि पर जो मस्जिदें जबरन बनाई गई थीं, उन्हें भी ढहाया जाए। अब सवाल यही है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय 1991 का कानून रद्द कर देगा तो देश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा या नहीं? सैकड़ों-हजारों मस्जिदों, दरगाहों और कब्रिस्तानों को तोडऩे के आंदोलन उठ खड़े होंगे। देश में सांप्रदायिकता की आंधी आ जाएगी। मेरी अपनी राय है कि मंदिर-मस्जिद के मामले हिंदू-मुसलमान के मामले हैं ही नहीं। ये मामले हैं— देशी और विदेशी के! विदेशी हमलावर मुसलमान जरुर थे लेकिन उन्होंने सिर्फ मंदिर ही नहीं तोड़े, मस्जिदें भी तोड़ीं।
उन्होंने अपने और पराए मजहब, दोनों को अपनी तलवार की नोंक पर रखा। अफगानिस्तान में बाबर ने, औरंगजेब ने भारत में और कई सुन्नी आक्रांताओं ने शिया ईरान में मस्जिदों को ढहाया है। अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री रहे बबरक कारमल (1969 में) मुझे बाबर की कब्र पर ले गए और उन्होंने कहा कि बाबर इतना दुष्ट था कि उसकी कब्र पर कुत्तों से मुतवाने का मन करता है। यह खेल मजहब का नहीं, सत्ता का रहा है। लेकिन सैकड़ों वर्षों के अंतराल ने इसे हिंदू-मुसलमान का सवाल बना दिया है। नेता लोग इसे लेकर राजनीति क्यों नहीं करेंगे ? लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च मुखिया मोहन भागवत का यह कहना काफी ठीक है कि इस मुद्दे पर देशवासी जरा धैर्य रखें, सारे पहलुओं पर विचार करें और सर्वसम्मति से ही फैसला करें। इस मुद्दे पर देश में जमकर विचार-मंथन आवश्यक है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रवीश कुमार
2020 का साहित्य अकादमी पुरस्कार अनामिका को मिला है। कविता की श्रेणी में अनामिका हिन्दी की पहली स्त्री कवि हैं जिन्हें यह पुरस्कार मिला है। इसलिए भी गौरव की बात है। पुरस्कार किसी कवि की रचना संसार के लिए पूर्ण विराम नहीं होता है। एक घंटी होती है जो चारों तरफ बज जाती है कि देखो कि कोई है जो चुपचाप रची जा रही थी। जो उन्हें पढ़ते रहे हैं उनके लिए सिर्फ ख़ुशी की बात हो सकती है लेकिन जो उन्हें जानने पढऩे से रह गए उनके लिए यह घंटी बजी है।
कवि दूसरी दुनिया में नहीं रहते हैं । न अपनी दुनिया में रहते हैं। वे हमारी दुनिया में रहा करते हैं। मुनीम बन कर हमारे अहसासों का हिसाब दर्ज करते हुए। यह भी सीमित सोच है कि कविता अहसासों का दस्तावेज है। कवि ने महसूस किया तो लिख दिया। कवि ने पहले देखा होगा, जाना होगा, उसे अपने भीतर की गहराई तक उतारा होगा, आपके भोगे हुए को अपने भीतर के यथार्थ में परिवर्तित किया होगा तब जाकर निकलती है कविता। इस पूरी प्रक्रिया में कवि कई बार तकलीफों से गुजरता है। गुजरती है। अनामिका के यहाँ भी आपको अपनी ही दुनिया मिलेगी। हैरत भी कि उन्होंने कैसे जान लिया और नोट कर लिया। अनामिका को खूब बधाई।
अनामिका की कुछ कविताएँ कविता कोश नाम की वेबसाइट पर मौजूद हैं। आप उनकी रचनाओं को पढ़ सकते हैं। आज सुबह यही काम सबसे पहले किया। अनामिका की कविताओं का पाठ किया। केवल बधाई देने से काम नहीं चलेगा। हम अक्सर किसी की सफलता के वक्त कहते हैं। लेकिन अगर वाकई आपको अनामिका को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने से खुशी हो रही है तो क्या सबसे पहले उनकी रचनाओं का पाठ नहीं करना चाहिए।
अंग्रेजी के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार अरुंधति सुब्रमण्यम को मिला है। उनके बारे में कल ही जाना। लेकिन अरुंधति हमारे मित्रों की काफी पसंदीदा कवि हैं। उनसे मिली कुछ कविताओं को पढ़ा। वाकई अच्छी कवि हैं। उन्हें भी बधाई।
किसी सोचते हुए आदमी की
आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।
पंडुक बहुत खुश थे
उनके पंखों के रोएँ
उतरते हुए जाड़े की
हल्की-सी सिहरन में
उत्फुल्ल थे।
सडक़ पर निकल आए थे खटोले।
पिटे हुए दो बच्चे
गले-गले मिल सोए थे एक पर-
दोनों के गाल पर ढलक आए थे
एक-दूसरे के आँसू।
‘औरतें इतना काटती क्यों हैं ?’
कूड़े के कैलाश के पार
गुड्डी चिपकाती हुई लडक़ी से
मंझा लगाते हुए लडक़े ने पूछा-
‘जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़
गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर
किसका उतारती हैं गुस्सा?’
हम घर के आगे हैं कूड़ा-
फेंकी हुई चीजें भी
खूब फोड़ देती हैं भांडा
घर की असल हैसियत का !
लडक़ी ने कुछ जवाब देने की जरूरत नहीं समझी
और झट से दौडक़र, बैठ गई उधर
जहाँ जुएँ चुन रही थीं सखियाँ
एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से
नारियल-तेल चपचपाकर।
दरअसल-
जो चुनी जा रही थीं-
सिर्फ जुएँ नहीं थीं
घर के वे सारे खटराग थे
जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।
क्या जाने कितनी शताब्दियों से
चल रहा है यह सिलसिला
और एक आदि स्त्री
दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के
छितराए हुए केशों से
चुन रही है जुएँ
सितारे और चमकुल!
-अनामिका
-शिखा सर्वेश
अरे! बिन बाप का बच्चा है, सिर्फ अकेली मां है, तभी इतना शैतान है।
घर पर कोई आदमी नहीं है न, तभी बच्चे इतने बिगड़े हुए हैं।
कुछ ऐसे ही वाक्यों का ठप्पा लगाया जाता है हमारे पितृसत्तात्मक समाज में उन बच्चों के ऊपर जिनका पालन-पोषण उनकी मां ने अकेले किया है। सदियों से ही यह पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को अबला, असहाय समझता आया है। यह समाज मां दुर्गा को तो देवी और जननी मानता है लेकिन असल में जन्म देने वाली मां को कमजोर समझता है, इतना कमजोर कि एक महिला इनकी नजऱ में बच्चे जन सकती है, नौ महीने उसे अपने पेट में रख सकती है, बच्चा जनने का दर्द अकेले झेल सकती है लेकिन अकेली अपने बच्चे की परवरिश नहीं कर सकती।
इस पितृसत्तात्मक समाज ने हमेशा से ही महिलाओं को पुरुषों पर आश्रित ही देखना चाहा और यही कारण है कि लीक से हटकर अगर किसी महिला ने कोई काम किया तो वह इस समाज में बुरी औरत के ताज से नवाज़ी गई। परंपरागत सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है, जिसमें समाज से लेकर परिवार तक हर मामले में पुरूषों का नियंत्रण रहा है। यह व्यवस्था पुरूषों को महिलाओं से ज्यादा योग्य और श्रेष्ठ मानती है और उन्हें समाज में विशेष दर्जा और सुविधा प्रदान करती है।
लोगों को जब पता चलता है कि एक अकेली मां बच्चों को पाल रही है और घर में कोई मर्द नहीं है तो उनके चेहरे पर एक अलग भाव होता है। ऐसा भी कई बार हुआ है कि समाज उन्हें तंग करता है और वह यकीनन यही सोचता होगा कि यह तो अबला है, किस से शिकायत करेगी। यह समाज शोषण करने की ताक में बैठा रहेता है। 6 जुलाई 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया गया जिसमें कहा गया कि अविवाहित मां अपने बच्चे की अकेली अभिभावक बन सकती है। इसमें उसके पिता की रजामंदी लेने की आवश्यकता नहीं है। यह फैसला उन एकल महिलाओं के लिए मील का पत्थर था जो अपने बच्चों के गार्डियनशिप के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रही थी।
दरअसल यह पितृसत्तात्मक समाज डरता है जिस दिन महिलाओं के चुनौती भरे जीवन को उसने स्वीकार कर लिया वह उनसे हार जाएगा।
जब से महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने लगी हैं, पुराने ढाचें चरमराने लगे हैं लेकिन अकेली स्त्री को स्वीकार करना अभी भी समाज में असंभव है। इस पितृसत्तात्मक समाज को यह गवारा नहीं होता कि कोई महिला बिना पुरुष की छाया के जिए और अपने सभी निर्णय स्वतंत्रता के साथ ले सके। महिलाएं चाहे कितने भी बड़े मुकाम छू लें, फिर भी उनका अकेले होना इस समाज को चुभता है। इस समाज में महिला की छवि आत्मनिर्भर की ना हो कर दूसरों पर निर्भर रहने की बनी हुई है। इस समाज ने महिलाओं को लेकर एक छवि गढ़ रखी है जिसमें एकल महिलाएं और सिंगल मदर फिट नहीं बैठती हैं। इस पितृसत्तात्मक समाज में अकेली मांओं का चरित्र हनन करना सबसे आसान होता है।
हाल ही में महिलाओं के मुद्दों पर मुखर होकर बोलने वाली गीता यथार्थ ट्रेंड में है। हुआ कुछ यूे गीता ने अपनी कमोड पर बैठी एक फोटो सोशल मीडिया पर अपलोड किया, उनका मकसद सिंगल मदर्स को बच्चे पालने में आने वाली चुनौतियों के बारे में अवगत कराना था। इस फोटो के अपलोड होते ही लोग दो हिस्सों में बंट गए, कुछ ने इसे स्वीकारा तो कुछ ने बहुत भद्दी टिप्पणियां कीं। इसी मुद्दे पर हमने बात की गीता से। फेमिनिज़म इन इंडिया ने गीता से पूछा कि सिंगल पेरेंटिंग की क्या विशेषताएं हैं? मुश्किलें तो काफी हैं मगर क्या उसके कुछ फायदे भी हैं? साथ ही उन्होंने समाज में किन मुश्किलों का सामना किया?’
पूछे जाने पर गीता कहती हैं, सिंगल पेरेंटिंग की विशेषताओं की बात करें तो नॉर्मल पेरेंटिंग से अधिक ज्यादा जि़म्मेदारियां बढ़ जाती हैं। बाकी बात करें फायदों की तो सबसे बड़ा फायदा है कि सिंगल पेरेंटिंग में बच्चे को ‘घरेलू हिंसा’ जैसी चीजें नहीं झेलनी पड़ती, उसे लैंगिक भेदभाव नहीं झेलने पड़ते, उसके मन में ‘पापा मम्मी को मारते हैं’ वाला डर नहीं बैठता है। हां, बेशक सिंगल पेरेंटिंग में संघर्ष है लेकिन वह कहते हैं न कि संघर्ष में ही जीवन है तो संघर्ष के साथ-साथ फायदों की लिस्ट भी कम नहीं है। मेरे हिसाब से सिंगल मदर के बच्चे ज्यादा समझदार होते हैं, जल्दी बड़े हो जाते हैं, जिम्मेदार हो जाते हैं। अब बात करूं समाज ने मेरे रास्ते में कितनी मुश्किलें खड़ी की तो जैसा कि हमारे समाज के लिए बिना पति की महिला कमजोर, असहाय है, अबला है और मेरी तरह अगर पति को छोड़ देती है तो समाज की जुबां और दिमाग में एक ही सवाल कि कहीं बाहर अफ़ेयर तो नहीं चल रहा? कहीं ये बच्चा बॉयफ्रेंड का तो नहीं है? इन्हीं सब सवालों को झेलना पड़ा मुझे भी लेकिन मैंने हार नहीं मानी।
फेमिनिज्म इन इंडिया ने यह भी पूछा कि भारत में सिंगल मदर को देखते ही लोग तरह तरह के कयास लगाने लगते हैं। क्या उन्हें भी भारतीय समाज से ऐसा ही रिस्पांस मिला? गीती बताती हैं, ‘रेस्पॉन्स की बात करूं तो जो लोग मुझे नहीं जानते उनसे तो मुझे सकारात्मक और नकारात्मक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। लेकिन जो मुझे जानते हैं चाहे वे मेरे दोस्त हो, ऑफिस का स्टाफ हो, चाहे सोशल मीडिया पर बहुत समय से जुड़े हुए लोग हो, उनसे हमेशा मुझे सपोर्ट ही मिला है। मेरे परिवार का मुझे हमेशा साथ ही मिला है, सोशल मीडिया पर मेरे लेखों पर, फोटो पर कमेंट को लेकर मेरे परिवार ने कभी मुझसे कोई सवाल नहीं किया, हमेशा मेरा साथ दिया। बाकी बात करूं इस पितृसत्तात्मक की तो इस समाज ने मुझे तानों की सौगात दी है, जो कि इसका हमेशा का रवैया है। लोगों ने मुझ पर तमाम सवालात उठाए, तोहमतें लगाई और तंज कसे जैसे कि पति से नहीं बनी होगी तभी तलाक ले लिया,कहीं अय्याशी के लिए तो नहीं पति को छोड़ दिया? इन सबके बावजूद मैंने हार नहीं मानी। मैं कमज़ोर नहीं पड़ी। मैंने कदम पीछे नहीं खीचें शायद यही मेरी सबसे बड़ी ताकत है।
यह पितृसत्तात्मक समाज इतनी कुंठित मानसिकता से भरा हुआ है कि महिलाएं अपनी तकलीफ़ें, चुनौतियों के बारे में खुलकर बात नहीं कर सकती। इस समाज ने अपने हिसाब से अच्छी और बुरी महिलाओं का दर्जा रखा है। कोई महिला पीरियड्स के बारे में खुलकर बात करती है तो वह बुरी है, बहुत तेज है। महिलाएं अपने यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के मुद्दों पर खुल बात करें तो वह बुरी हैं। दरअसल यह पितृसत्तात्मक समाज डरता है जिस दिन महिलाओं के चुनौती भरे जीवन को उसने स्वीकार कर लिया वह उनसे हार जाएगा। यह समाज जहां शादी में हो रहे बलात्कार को स्वीकार नहीं करता, जो शादीशुदा जीवन में हो रही घरेलू हिंसा को सहना हर औरत का धर्म समझता है, यही समाज किसी महिला को खुले में बच्चे को दूध पिलाने की बात पर आंखे तरेरता है। यह समाज बच्चों को पालने की जिम्मेदारी को पूरी तरह से मां का धर्म समझता है। यह तब तक नहीं सुधर सकता जब तक गीता जैसी कई और महिलाएं इन मुद्दों पर मुखर होकर नहीं बोलेंगी। अपनी चुनौतियों, संघर्ष को लेकर जब तक महिलाएं खुल कर बोलना नहीं शुरू करेंगी तब तक इस पितृसत्तात्मक समाज की व्यवस्था नहीं सुधरने वाली। (feminisminindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तराखंड में भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्रसिंह रावत को क्यों बदला ?उनकी जगह तीरथसिंह रावत को मुख्यमंत्री क्यों बनाया ? तीरथसिंह विधायक भी नहीं हैं, सांसद हैं, फिर भी उन्हें क्यों लाया गया ? एक रावत की जगह दूसरे रावत को क्यों लाया गया? इन सवालों के जवाब जब हमें ढूंढेंगे तो उनमें से भाजपा ही नहीं, देश के सभी दलों के शीर्ष नेताओं के लिए कई सबक निकलेंगे। सबसे पहला सबक तो यही है कि किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को यह नहीं समझ बैठना चाहिए कि वह शासक है याने वह बादशाह बन गया है। सारे सांसदों, विधायकों और जनता को उसकी हुकुम उदुली करनी ही है। मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही खुद को देश का प्रधान सेवक कहा था। यही कसौटी है। हर पदारुढ़ नेता को चाहिए कि वह अपने को इसी कसौटी पर कसता रहे।
त्रिवेंद्र राव ने इस कसौटी को ताक पर रख दिया था। उन्होंने उत्तराखंड के आम नागरिकों की गुहार पर कान देना तो बंद कर ही दिया था, वे भाजपा के अपने विधायकों की भी उपेक्षा करने लगे थे। ये भाजपा विधायक इसलिए भी परेशान थे कि कांग्रेस से आए कुछ विधायकों को मंत्री बना दिया गया लेकिन भाजपाई विधायकों को यह मौका नहीं दिया गया जबकि चार मंत्रिपद खाली पड़े रहे।
एक सांसद को भाजपा ने इसलिए मुख्यमंत्री बनाया है कि वह उसे विधायकों में से बना देती तो उनकी आपसी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या सरकार को ले डूबती। तीरथसिंह रावत को यह मौका इसलिए मिला है कि वे अजातशत्रु हैं। वे विनम्र और शिष्ट व्यक्ति हैं। वे जनता से जुड़े हुए हैं। उत्तराखंड के 70 विधायकों में से 30 गढ़वाल के होते हैं। तीरथ गढ़वालियों के प्रिय नेता हैं। वे अफसरों के हाथ की कठपुतली नहीं हैं। नेताओं और नौकरशाहों में यदि वे ठीक से तालमेल बिठा सके तो 2022 के चुनाव में भाजपा दुबारा जीत सकती है।
तीरथसिंह रावत को अपनी योग्यता की परीक्षा के लिए सिर्फ एक डेढ़ साल ही मिला है। इस अल्प अवधि में उत्तराखंड के विकास के लिए कुछ चमत्कारी कदम उठाना और पार्टी-एकता बनाए रखना, ये बड़ी चुनौतियां उनके सामने हैं। वे उत्तराखंड की भाजपा के अध्यक्ष रहे हैं और बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसंघ के प्रचारक रहे हैं। केंद्रीय नेताओं से भी उनके संबंध घनिष्ट हैं। इस चुनावी-चुनौती के दौर में कोई भाजपा-विधायक भी उनका विरोध नहीं कर पाएंगे।अगले चुनाव के बाद उत्तराखंड की भाजपा में कई ऐसे वरिष्ठ नेता हैं, जो मुख्यमंत्री पद पर आसीन होना चाहेंगे। त्रिवेंद्रसिंह रावत भी गढ़वाली हैं। वे अपनी असमय पदमुक्ति को क्या चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगे ? वे चाहे जो करें, लेकिन उनकी पदमुक्ति ने देश के सभी पदारुढ़ नेताओं को तगड़ा सबक सिखा दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
भारत में हर साल करीब 10 लाख टन ई-कचरा निकलता है. कबाड़ बन चुके इलेक्ट्रॉनिक गैजेट हवा, पानी और मिट्टी को दूषित तो करते ही हैं, वे जलवायु परिवर्तन को भी उकसा रहे हैं.
डॉयचे वैले पर शिवप्रसाद जोशी का लिखा-
ई-वेस्ट से आशय पुराने, उम्र पूरी कर चुके, फेंक दिए गए बिजली चालित तमाम उपकरणों से हैं. इसमें कम्प्यूटर, फोन, फ्रिज, एसी से लेकर टीवी, बल्ब, खिलौने और इलेक्ट्रिक टूथब्रश जैसे गैजेट तक शामिल हैं. ई-कबाड़ में लेड, कैडमियम, बेरिलियम, या ब्रोमिनेटड फ्लेम जैसे घातक तत्व पाए जाते हैं. ताजा रिपोर्टें और अध्ययन बताते हैं कि भारत में ई-कचरे को न सही ढंग से इकट्ठा किया जाता है और न ही वैज्ञानिक तरीके उसका निस्तारण हो पाता है. इसके चलते हवा पानी मिट्टी जहरीली और दूषित होती जा रही है और लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा पैदा हो रहा है.
ई-वेस्ट प्रबंधन और परिचालन नियम 2011 के बदले केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ई-वेस्ट प्रबंधन नियम 2016 को अधिसूचित किया था. 2018 में इसमें उत्पादकों से जुड़े कुछ मुद्दों को लेकर संशोधन भी किए गए थे. विषैले और खतरनाक पदार्थों के अपशिष्ट (कचरे) के निपटान के लक्ष्य निर्धारत करने के अलावा विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (एक्सटेन्डेड प्रोड्युसर रिस्पॉन्सिबिलिटी- ईपीआर) योजना बनाई गई है. सरकारी आदेश की भाषा में कहें तो ई-अपशिष्ट संग्रहण लक्ष्यों के मुताबिक 2019-20 में ईपीआर के तहत अपशिष्ट उत्पादन की मात्रा का वजन के हिसाब से 40 प्रतिशत संग्रहण का लक्ष्य रखा गया था. 2021-22 के लिए ये 50 प्रतिशत, 2022-23 के लिए 60 प्रतिशत और उससे आगे के लिए 70 प्रतिशत है. संशोधित नियमों में कहा गया है कि "ई-अपशिष्ट का संग्रहण, भंडारण, परिवहन, नवीकरण, भंजन, पुनर्चक्रण और निपटान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडेन्स के अनुसार होगा.”
लेकिन सीपीसीबी की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरे देश में लाखों टन ई-कचरे का महज तीन से दस फीसदी ही इकठ्ठा किया जाता है. एनजीटी में पिछले साल दिसंबर में पेश इस रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में ई-कचरा कलेक्शन का लक्ष्य था 35422 टन लेकिन वास्तविक कलेक्शन हुआ 25325 टन. इसी तरह 2018-19 में लक्ष्य था 154242 टन लेकिन जमा हुआ 78281 टन. और अगले ही साल यानी 2019-20 का हाल देखिए कि लक्ष्य पर पहुंचना तो दूर भारत में 1014961 टन ई-कचरा पैदा कर दिया गया! यानी दस लाख टन से अधिक! करीब 1630 इलेक्ट्रॉनिक गैजेट निर्माताओं को ईपीआर मिली हुई है जिनके पास बताते हैं कि सात लाख टन से ज्यादा की ई-वेस्ट प्रोसेसिंग की क्षमता है. यानी दायित्व के निर्वाह में वे पीछे हैं. और ऐसा सीपीसीबी की चेतावनी के बावजूद है.
गंभीर स्थिति
ई-कचरे से छुटकारा पाने के लिए एक समयबद्ध और युद्धस्तर की कार्ययोजना की जरूरत है. सरकारी, गैर-सरकारी एजेंसियों, उद्योगों, निर्माताओं, उपभोक्ताओं, स्वयंसेवी समूहों और सरकारों के स्तर पर जागरूकता पैदा करने और उसे बनाए रखने की जरूरत है. ई-कचरे के संग्रहण लक्ष्य और वास्तविक संग्रहण के अंतर को कम किया जाना चाहिए. डिसमैंटल क्षमता को बढ़ाने की जरूरत भी है. पर्यावरणीय लिहाज से जुर्माने या मुआवजा जैसी व्यवस्थाएं रखनी चाहिए, और ई-कचरे को लेकर सतत निगरानी और निरीक्षण की जरूरत भी है.
यह भी जरूरी है कि गैरआधिकारिक और गैरकानूनी स्तर पर चल रही डिसमेन्टिल और रिसाइक्लिंग कारोबार को बंद किया जाना चाहिए, बेहतर होगा कि उन्हें सही दिशा में प्रशिक्षित और जागरूक कर वैध बनाया जाए, लेकिन ये भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि ऐसे ठिकाने आबादी और हरित क्षेत्र से दूर बनाए जाएं ताकि पर्यावरण पर कम से कम प्रभाव पड़े. एनजीटी का कहना है कि सीपीसीबी को कम से कम छह महीने के एक निश्चित अंतराल पर ई-कचरे के निस्तारण से जुड़ा स्टेटस अपडेट करते रहना चाहिए.
जाहिर है यह काम सभी राज्यों के प्रदूषण बोर्डों के साथ समन्वय से ही संभव हो पाएगा. और राज्यों में भी सभी उत्तरदायी एजेंसियों को इस बारे में न सिर्फ मुस्तैद रहना होगा बल्कि उन ठिकानों को चिन्हित भी करते रहना होगा जो इस अवैध निस्तारण के चलते पर्यावरणीय लिहाज से नाजुक हो रहे हैं. फिर चाहे वो वहां का भूजल हो या वहां की हवा या वहां के लोगों की सेहत.
कैसे कम करें ई-कचरा
इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट को सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ता हुआ कचरा स्रोत माना गया है. कड़े निर्देशों और कानूनों के अभाव में आज अधिकतर ई-वेस्ट सामान्य कचरा प्रवाह का हिस्सा बन जाता है. यहां तक विकसित देशों के रिसाइकिल होने वाले ई-कचरे का 80 प्रतिशत हिस्सा विकासशील देशों में जाता है. कचरे का ये भूमंडलीकरण पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक है. ई-कचरे के प्रभावी निस्तारण में बहुत लंबा समय लगेगा, ये तय है, लेकिन सबसे आदर्श स्थिति तो यही है कि इन इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों और उपकरणों में ऐसे रसायनों, पदार्थों, खनिजों या विधियों का इस्तेमाल न्यूनतम किया जाए जो पर्यावरणीय और स्वास्थ्य के लिहाज से ही नहीं, बल्कि अंततः एक समूची अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह खा जाने की आशंका के लिहाज से बेहद खतरनाक हैं. विज्ञान और प्रौद्योगिकी इतनी तरक्की कर रहे हैं तो क्यों न उनकी रोशनी में ऐसी उपयोगी डिवाइसें और प्रोडक्ट बनाए जाएं जो 100 प्रतिशत पर्यावरण-अनुकूल हों. लेकिन क्या ऐसा हो पाना संभव है? क्या बेइन्तहां और बेकाबू हो चुके उपभोक्तावाद पर लगाम लगा पाना संभव है?
ई-कचरे की नीतिगत कमजोरियों, व्यवस्थागत उदासीनताओं, व्यापारगत अवहेलनाओं और उपभोक्तागत असवाधानियों के बीच केद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का एक ताजा अध्ययन भी चिंता में डालने वाला है. इसके मुताबिक भारत में जहरीले और नुकसानदायक पदार्थो से दूषित और प्रभावित सबसे ज्यादा ठिकाने ओडीशा में पाए गए हैं. देश के ऐसे 112 ठिकानों में सबसे ज्यादा 23 ओडीशा में, 21 उत्तर प्रदेश में और 11 दिल्ली में हैं. 168 ठिकानों को लेकर आशंका है. एनजीटी के आदेश के बाद सात राज्यों के 14 दूषित ठिकानों की सफाई का अभियान शुरू कर दिया गया है. ये राज्य हैं गुजरात, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, ओडीशा, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश.
भारत में हरित विकास की अवधारणा अभी जोर नहीं पकड़ पाई है और ई-कचरा ही नहीं, प्लास्टिक कचरा, उद्योग फैक्ट्री का रासायनिक कचरा भी पसरता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन से निपटने की चुनौतियों में ऐसी बहुत सी अलक्षित, साधारण सी दिखने वाली और लगभग अदृश्य चीजें भी हैं जिन पर सुचिंतित कार्ययोजना की जरूरत बनी हुई है. इस काम में देरी का अर्थ है वैश्विक तापमान में उत्तरोतर वृद्धि, जलवायु परिवर्तन के कारणों को अनचाहा उकसावा और हरित विकास के निर्धारित लक्ष्यों में और दूरी. (dw.com)