राजपथ - जनपथ
छुट्टी पर जाने की अनुमति
अपर मुख्य सचिव रेणु पिल्लै मेहनती अफसर मानी जाती हैं. ऐसे समय में जब उनके पति, डीजी संजय पिल्ले कोरोना संक्रमण से जूझ रहे थे, अंबेडकर अस्पताल में ऑक्सीजन सपोर्ट पर थे। रेणु पिल्लै छुट्टी लिए बिना स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख होने के नाते पूरे प्रदेश में कोरोना को नियंत्रित करने में जुटी रहीं।
रेणु पिल्लै ने कठिन समय में अपना धैर्य नहीं खोया। ऐसेे विपरीत समय में भी वे रोजाना 12 घंटे से अधिक काम करती रहीं। अब जब संजय पिल्ले ने पखवाड़े भर अस्पताल में भर्ती रहने के बाद कोरोना की जंग जीत ली है, और विशेषकर रायपुर-दुर्ग में कोरोना कुछ हद तक नियंत्रित होता दिख रहा है। तब जाकर रेणु ने 15 दिन अवकाश पर जाने की अर्जी दी। सरकार ने भी उदारता दिखाते हुए उन्हें छुट्टी पर जाने की अनुमति दे दी है। स्वास्थ्य विभाग का प्रभार प्रमुख सचिव डॉ. आलोक शुक्ला को दिया गया है, जो कि विभाग की हर गतिविधियों से परिचित हैं, खुद मेडिकल डॉक्टर भी हैं, और रायपुर के मेडिकल कालेज में ही पढ़े हुए भी हैं।
ऐसे दुस्साहसी लोगों की वजह से
देश में कोरोना संक्रमण का कहर बरपा है। छत्तीसगढ़ में रोजाना दो सौ के करीब मौतें हो रही हैं। कोरोना संक्रमण रोकने के लिए दर्जनभर शहरों में लॉकडाउन है। मगर ऐसे भी लोग है, जो कि कोरोना खतरे से बेपरवाह हैं। ऐसे ही रायपुर के एक मोहल्लेे के करीब सौ से अधिक लोग पंचायत चुनाव में वोट डालने उत्तरप्रदेश चले गए। उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनाव के पहले चरण की वोटिंग 26 तारीख को थी और दूसरा चरण 29 को। यह जानते हुए भी कि उत्तरप्रदेश में कोरोना संक्रमण छत्तीसगढ़ से ज्यादा है। बावजूद इसके इन लोगों ने वोटिंग में हिस्सा लिया, और वोट डालने के बाद ही लौटे हैं। अब ऐसे दुस्साहसी लोगों की वजह से मोहल्ले में कोरोना संक्रमण बढऩे के आसार दिख रहे हैं।
टावर नहीं तो पेड़ पर मोबाइल फोन
मई 2018 में जब तत्कालीन भाजपा सरकार ने स्काई योजना शुरू की थी तो कई तथ्य सामने आये थे। जैसे, सामाजिक आर्थिक जनगणना 2011 के अनुसार लगभग 40 प्रतिशत वनों से आच्छादित इस प्रदेश के सिर्फ 29 प्रतिशत परिवारों के पास फोन है, जबकि देश का औसत 72 प्रतिशत है। 10 जिलों में 50 प्रतिशत से कम नेटवर्क कवरेज है और चार जिलों में यह 15 प्रतिशत है। इसी आधार पर 55 लाख हितग्राहियों की पहचान की गई और उन्हें 1230 करोड़ की स्मार्ट फोन बांटने की स्कीम लांच हुई। भरसक प्रयास के बाद भी चुनाव आचार संहिता लागू होने के तक फोन बांटे नहीं जा सके और जब प्रदेश में सरकार बदली तो स्कीम को बंद कर दिया गया। इसी स्काई स्कीम में एक हजार से अधिक आबादी वाले गांवों को नेटवर्क कनेक्टिविटी देने के लिये मोबाइल टावर देने की योजना बनाई गई। स्मार्ट फोन तो जितने बंटने थे बंटे, पर मोबाइल टावर नहीं लग पाये। इनमें बस्तर के इलाके सर्वाधिक प्रभावित हैं। निजी कम्पनियां वहां के दूरदराज इलाकों में टावर लगाना नहीं चाहती। हालांकि केन्द्र की अन्य योजनाओं के तहत यहां बीएसएनएल ने बहुत से टावर लगाये हैं और ज्यादातर सौर ऊर्जा से चलने वाले हैं। पर जिस तरह से बस्तर की भौगौलिक स्थिति है कई-कई किलोमीटर तक नेटवर्क अभी भी नहीं सुधरा है। ऐसे में जो जवान अकेले दुर्गम जंगलों में ड्यूटी करते हैं उन्हें परिवार से सम्पर्क करना बड़ा मुश्किल होता है।
लेकिन कई जवान इस मुश्किल को अपने तरीके से हल भी कर रहे हैं। वे अपने परिवार वालों से बातचीत के लिये मोबाइल फोन को रस्सी से बांधकर पेड़ की ऊंचाई पर ले जाते हैं फिर नीचे ब्लू ट्रूथ से बातें करते हैं। और इस तरह बिना नेटवर्क वाले इलाकों में भी वे अपने दोस्तों और परिवार से सम्पर्क कर लेते हैं। (फोटो ट्विटर-रितेश मिश्रा)
युवाओं के टीकाकरण का श्रीगणेश
केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मंशा के अनुरूप तीसरे चरण में आज एक मई से युवाओं को टीका लगाने की शुरूआत करने वाले ज्यादातर राज्य भाजपा शासित हैं। दूसरी ओर छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने आखिरी वक्त में कल इस बारे में फैसला लिया। राजधानी रायपुर में कुल 13 सेंटर तो बिलासपुर में 10 सेंटर ही बनाये गये हैं जिनमें 18 से 45 आयु वर्ग के अति गरीब परिवारों के लोगों को टीका लगाया जायेगा। बस्तर जैसे कुछ दूरस्थ जिलों में यह अभियान 2 मई से शुरू किया जा रहा है। यानि यह शुभ मुहूर्त का टीका होगा, जिसके दो चार दिन में बंद हो जाने की संभावना है। राज्य सरकारों को वैक्सीन निर्माता कम्पनियों ने कह दिया है कि मई आखिरी या जून के पहले सप्ताह में ही टीके की आपूर्ति हो पायेगी। यह देखने की बात है कि पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में भी इसी तरह से टोकन के तौर पर ही सही, अभियान शुरू हो सकता था। पर, वहां 5 मई तिथि तय की गई है। कुछ दूसरे राज्यों ने भी देर से टीका शुरू करने का निर्णय लिया है। क्या देर से टीकाकरण करने वाले राज्यों को आवश्यकता के अनुसार नियमित आपूर्ति हो पायेगी? क्या छत्तीसगढ़ की तरह उनको एक माह इंतजार नहीं करना पड़ेगा? उन सरकारों से दवा निर्माता कम्पनियों के साथ उन राज्यों की बातचीत सामने नहीं आई है। पर यह तो तय है कि आपूर्ति के संकट का समाधान दो चार दिन अभियान को आगे खिसका देने से नहीं होने वाला है। हां, छत्तीसगढ़ को लेकर यह जरूर कहा जा सकता है कि मई तक जो खाली समय बच रहा है, उसमें 45 प्लस का टीकाकरण दूसरे डोज के साथ पूरा कर लिया जाये इसके व्यवस्था बनाये रखने में भी मदद मिलेगी।
कोरोना सेंटर में कम्पीटिशन की तैयारी
कोविड वैक्सीनेशन कराते हुए फोटो खिंचवाना फिर उसे सोशल मीडिया पार डालना, आम बात हो गई है। अब इस पर वाहवाही नहीं मिलती। लोगों का ध्यान खींचने के लिये अलग करना पड़ रहा है। जैसे कोई मातृत्व अवकाश लेने के बजाय सडक़ पर ड्यूटी लगे, जैसे गोद में नवजात को लिये दफ्तर आ जायें। यानि, तस्वीरें इस तरह से भी ली जानी चाहिये मानो आप तस्वीर लेने और वायरल किये जाने से अनजान हैं। ऐसी तस्वीरों की कुछ लोगों की आलोचना झेलनी पड़ती है पर ज्यादातर तारीफ तो हजारों लोग करते हैं। कोविड सेंटर में एक प्रतियोगी युवा किताबें लेकर पहुंच गया है। वह पढ़ाई का मौका नहीं गंवाना चाह रहा है। इस तस्वीर की तारीफ में तो बहुत से टिप्पणियां हैं पर कई लोगों को यह ‘नाटक’ भी लग रहा है। वे कहते हैं पढ़ाकू हैं तो अच्छी बात है पर जहां कोरोना के लिये एक-एक बिस्तर के अभाव में लोगों की जान जा रही है, बेड को ऐसे घेरकर रखना नहीं चाहिये। हालत ठीक है तो घर पर जाकर सेहत सुधार लें। एक ने कहा कि पर एफआईआर दर्ज होनी चाहिये। वैसे तस्वीर छत्तीसगढ़ की नहीं। झारखंड की हो सकती है क्योंकि वहीं के एक राज्य प्रशासनिक अधिकारी के पेज पर यह मिली है।
वेंटिलेटर बेड पर आंकड़े और हकीकत
हाईकोर्ट के कर्मचारियों और उनके परिवारों को ऑक्सीजन और वेंटिलेटर हासिल करने में बड़ी दिक्कत जा रही है। इसके चलते हाईकोर्ट प्रशासन ने एक नोडल अधिकारी के साथ टीम बना दी है जो बेड मिलने में विलम्ब के कारण इलाज में हो रही दिक्कत की समस्या प्रशासन के साथ तालमेल बिठाकर दूर करेगी।
जिसने भी सरकार का वह दावा सुना, भौचक्का रह गया था। वे कौन काबिल अधिकारी थे जिन्होंने अदालत में जवाब भेजा था कि राज्य में कोविड मरीजों के लिये वेंटिलेटर, ऑक्सीजन बेड और नर्सिंग बेड की कोई कमी नहीं है। कल ही कोरोना से जूझ रहे एक आईएएस के परिवार की महिला सदस्य की मौत हो गई और उनके पति अभी भी कोरोना से अस्पताल में कोरोना से संघर्ष कर रहे हैं। घंटों इधर-उधर फोन घनघनाने के बाद भी उन्हें वेंटिलेटर बेड नहीं मिल पा रहे थे। बेड मिली तब तक काफी देर हो चुकी थी। कई नेता, अधिकारी और वकीलों से बात करें तो पता चलता है कि उनका कोई न कोई करीबी इस समय वेंटिलेटर की कमी का शिकार हो चुका है। फाइलों में महामारी के मौसम को तो गुलाबी बताया जा रहा है। मगर वेंटिलेटर के अभाव में हो रही मौतों को देखकर कह सकते हैं कि ये आंकड़े झूठे और दावे किताबी हैं।
न्यूज चैनल आज शाम से नहीं डरायेंगे..
आज शाम 6 बजे से कोरोना से आपको राहत मिलने लगेगी। जी, ठीक ही फरमा रहे हैं। कोरोना को लेकर जितनी दहशत हो रही है वह न्यूज चैनल और सोशल मीडिया की वजह से ही तो है। और आज शाम 6 बजे से विधानसभा चुनावों के एग्जिट पोल के अलावा उनमें कुछ दिखाई नहीं देगा। यह अलग बात है कि परिजन वैसे ही रेमडेसिविर के लिये कतार में होंगे, मरीज ऑक्सीजन के बगैर दम तोड़ रहे होंगे और श्मशान घाटों पर लाशों को जलाने के लिये टोकन बंट रहे होंगे। पर चुनाव नतीजों से बढक़र तो नहीं। न्यूज चैनल कभी हमें दुख के सागर में गोते लगवाते हैं, कभी भक्तिभाव से ओत-प्रोत कर देते हैं, कभी एक को दूसरे के खिलाफ भडक़ाकर खून खौला देते हैं। पांच राज्यों खासकर पश्चिम बंगाल में क्या होता है इस जिज्ञासा में दर्शक आज शाम से ऐसे उलझेंगे कि दो तीन दिन तो भूल ही जाने वाले हैं कि महामारी क्या है कोरोना किस बला का नाम है।
वैक्सीन का सौदा कितने में होगा?
अपने देश में मोल-भाव के बिना कोई सौदा पक्का होता है क्या? दुकानदार कीमत ऊंची करके इसीलिये बताता है क्योंकि उसे अंदाजा होता है कि मोलभाव होगा। उसको तो तुम एक शीशी 150 रुपये में दे रहे हो, हमें 400 में क्यों? इतनी मुनाफाखोरी? जरूरत आ पड़ी है तो कुछ भी रेट लगाओगे?
केन्द्र की ओर से तो कोई जवाब नहीं आ रहा है। उसे तो 150 में मिल गया। वैक्सीन का उत्पादन करने के लिये केन्द्र से आर्थिक सहायता मिली है तो उसे तो सस्ते में लेने का हक है। पर केन्द्र ने सिर्फ अपने स्टोर के लिये मांगी। राज्यों को कह दिया, खुद ही पक्का कर लो। अब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य की स्थिति यह है कि कि ऑर्डर देने के बाद सीरम से जवाब भी नहीं आ रहा है कि कब से वैक्सीन की आपूर्ति शुरू होगी। जैसा कि होता आया है फैसले केन्द्र लेती है अमल करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर होती है। पहले लॉकडाउन के समय से ही यही दिखाई दे रहा है। एक मई से वैक्सीन लगाने का निर्णय भी कुछ ऐसा ही है। इधर वैक्सीन की अलग-अलग दाम को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी पूछ लिया है। बिना बातचीत शुरू हुए ही 100 रुपये कीमत घटा दी गई है। पर एक राष्ट्र, एक दाम की मांग हो रही है। इस पर केन्द्र से जवाब आना चाहिये जो छत्तीसगढ़ को नहीं मिल रहा है। ऐसे राज्य में जहां कोरोना एक बड़ी चुनौती हो, वैक्सीन न्यूनतम कीमत पर तो मिलनी ही चाहिये।
एम्बुलेंस के भाड़े पर लगाम
जिसके हिस्से जो बन पड़ रहा है कोरोना पीडि़तों की मदद करने में लगा हुआ है। पर इस दौरान जिनका व्यवसाय चमक उठा है उनमें टैक्सी वाले भी हैं। बीमार को अस्पताल ले जाना हो, वहां से डायग्नोस्टिस सेंटर ले जाना हो, तबियत ठीक होने पर घर लाना हो या मौत हो जाने पर श्मशान गृह ले जाना हो, हर किसी को एम्बुलेंस की जरूरत पड़ रही है। मजबूरी को देखते हुए कई टैक्सी चालकों ने अनाप-शनाप किराया वसूल करना शुरू कर दिया है। शिकायतें ज्यादा आने लगी तो रायपुर कलेक्टर ने टैक्सी का भाड़ा तय कर दिया। यह निर्धारण सामान्य दिनों में प्रचलित भाड़े से ज्यादा ही है, पर बहुत अधिक नहीं। आदेश रायपुर कलेक्टर की ओर से जारी हुआ जो सिर्फ रायपुर के लिये है। अस्पतालों के बिल की तरह यह भी जरूरी खर्च है जो हर मरीज या उसके परिजन के सिर पर आता है। हो सकता है आदेश के बाद टैक्सी भाड़े पर रायपुर में थोड़ी लगाम लग जाये पर बाकी जिलों का क्या? अब तो लगभग हर जिले में कोविड केयर सेंटर हैं। परिवहन विभाग से पूरे राज्य के लिये आदेश जारी हो तो बात बने।
वैक्सीनेशन को लेकर हिचक भारी न पड़े
छत्तीसगढ़ की उपलब्धि है कि टीकाकरण की स्थिति यहां कई विकसित कहे जाने वाले राज्यों से बेहतर है। देश के बड़े राज्यों में अपने प्रदेश का स्थान दूसरा है। पर अगली बार जब फिर से डेटा तैयार किया जायेगा तो यही तस्वीर बनी रहेगी इसकी संभावना कम दिखाई दे रही है। इसकी वजह यह है कि हर दिन टीकाकरण की रफ्तार घटती जा रही है। ज्यादातर जिलों में 20-30 प्रतिशत ही रोजाना का लक्ष्य हासिल हो पा रहा है। दरअसल, सरकारी स्तर पर वैक्सीन की कमी तो दूर कर ली गई है और अस्थायी वैक्सीनेशन सेंटर भी जगह-जगह बनाये जा रहे हैं पर एक कमी यह दिखाई दे रही है कि वहां पहुंचने वालों से कोरोना गाइडलाइन का पालन कराने वाला कोई नहीं। सब मास्क लगाकर जरूर पहुंचते हैं पर ज्यादातर केन्द्रों में सैनेटाइजर नहीं है। कुछ समझदार लोग अपने साथ सैनेटाइजर ले आते हैं। दूसरी बात, दो गज की दूरी के नियम का पालन नहीं हो रहा है। वैक्सीनेशन तब तक शुरू नहीं किया जाता जब तक कम से कम 10 लोग रजिस्टर्ड नहीं हो जाते। इसके पहले वैक्सीन लगवा चुके लोगों को भी आधे घंटे तक वैक्सीन का कोई साइड इफेक्ट तो नहीं हो रहा है यह देखने के लिये बिठाकर रखते हैं। वैक्सीनेशन की टीम को जोड़ दें तो एक समय पर एक कमरे में 25, 30 लोगों का मौजूद होना सामान्य है। इन सबको दो गज की दूरी पर बिठाना, वैक्सीनेशन के लिये बुलाये जाने पर पर्याप्त दूरी रखते हुए अपनी बारी का इंतजार करना जरूरी है, पर इसका पालन नहीं हो रहा है। इसे देखने के लिये वालेंटियर्स की कमी भी वैक्सीनेशन सेंटर्स में महसूस हो रही है। ज्यादातर केन्द्रों में ये होते नहीं। इन दिनों छत्तीसगढ़ में जिस तेजी से कोरोना का संक्रमण बढ़ा है वैक्सीनेशन कराने के इच्छुक लोग भी थोड़ा इंतजार करना चाहते हैं, लेकिन आगे तो भीड़ इससे ज्यादा होने की उम्मीद है। क्योंकि 18 वर्ष से ऊपर के आयु वालों का रजिस्ट्रेशन शुरू हो चुका है। मई में उन्हें भी टीके लगेंगे। लॉकडाउन खत्म हो गये तो घरों से ज्यादा लोग वैक्सीनेशन के लिये निकलेंगे।
मौका मिला गंगा नहा लिये
18 प्लस वालों का वैक्सीनेशन के लिये पंजीयन आज से शुरू हो गया है। एक मई से युवाओं को वैक्सीनेशन शुरू करने की केन्द्र सरकार की घोषणा के बीच छत्तीसगढ़ में संशय की स्थिति है। वैक्सीन का ऑर्डर तो कर दिया है पर दवा कम्पनियों ने यह नहीं बताया है कि कब आपूर्ति होगी। स्वास्थ्य मंत्री को तो लगता है कि जिस मात्रा में वैक्सीन की जरूरत है जून माह से ही युवाओं को वैक्सीन लगाने का मौका मिलेगा। इधर कल कोरबा जिले के कटघोरा अनुविभाग के दर्जनों टीकाकरण केन्द्रों में युवक कांग्रेस और सेवादल के कार्यकर्ताओं ने टीका लगवा लिया। यह तब हुआ है जब टीकाकरण तो दूर पंजीयन की प्रक्रिया भी शुरू नहीं हुई थी। इस बारे में ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर की नरमी भी ध्यान देने लायक है। कहा है- गलतफहमी में कुछ केन्द्रों में ऐसा हो गया। जानबूझकर कोई गलती नहीं की गई इसलिये किसी पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। इनका पंजीयन भी एक मई के बाद करा लिया जायेगा। स्वास्थ्य मंत्री ने कहा तो था कि हम 18 प्लस के लिये पूरी तरह तैयार हैं पर इतनी दुरुस्त है कि समय से पहले टीका लगना शुरू हो जाये, अंदाजा नहीं था।
घबराहट से बचे रहने के दो उपाय
इन दिनों अनेक लोगों ने सोशल मीडिया, खासकर वाट्सअप खोलना बंद कर दिया है। न्यूज चैनल भी नहीं देख रहे हैं। दिल की बीमारी से पीडि़त एक 60 प्लस बुजुर्ग ने अपना नुस्खा बताया। वे कोरोना की स्थिति भयावह होने से पहले तक टीवी और वाट्सअप में पूरा दिन बिता लेते थे, समय कब कट जाता था पता नहीं चलता था। पर, उन्होंने पहला काम किया, सभी न्यूज चैनल लॉक। कोई सा भी नहीं देखना है। वाट्सएप एकाउन्ट ही मोबाइल से डिलीट। अख़बार में खबर को छोडक़र लेख, मनोरंजन की चीजें हो तो वे पढ़ते हैं। और सबसे बड़ा काम वो ये करते हैं कि डब की हुई साउथ की फिल्में टीवी औ देखते रहते हैं। वजह? उनमें हीरो का जबरदस्त एक्शन होता है। बीस बीस गुंडों को धराशायी करता है.. कांफिडेंस बढ़ता है। बॉलीवुड की फिल्मों में वो बात नहीं है।
ऑटो चलाते पीएचडी हासिल की थी
कोरोना से जंग लड़ते हुए छत्तीसगढ़ जनसंपर्क विभाग के सहायक संचालक डॉ. छेदीलाल तिवारी भी अब हमारे बीच नहीं रहे। छेदी लाल जी को जो लोग जानते हैं उनके लिए यह बहुत दुखद खबर है। उन्होंने काफी संघर्ष के बाद विभाग में एक मुकाम हासिल किया था। शुरू में वे उसी विभाग में एक चतुर्थ वर्ग कर्मचारी थे। विभाग में वे एक ड्रायवर बनकर कभी जीप, तो कभी आटो चलाते थे। दिनभर काम करने के बाद वे रोज शाम को आटो चलाकर अख़बारों को प्रेस नोट भी बांटा करते थे। उन दिनों आज की तरह इंटरनेट नहीं था। शाम होते ही सभी प्रेस वाले छेदीलाल का इंतजार करते थे। छेदीलाल खुद आटो चलाकर सभी प्रेस जाते और प्रेस नोट बांटा करते थे। प्रेस नोट देकर सभी का वे मुस्कुराकर अभिवादन भी करते थे। इतने विनम्र कि देरी होने पर कुछ प्रेसवाले उन्हें डांट भी दिया करते थे, लेकिन वे किसी को कोई जवाब नहीं देते और मुस्कुराकर आगे बढ़ जाते थे। छेदीलाल देर रात तक विभाग में काम करते और घर आकर पढ़ाई भी करते थे। छेदीलाल ने अभाव को कभी मुश्किल नहीं माना। एक दिन अचानक लोगों को पता चला कि छेदीलाल ने पीएचडी कर ली है। तत्कालीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने डॉ. छेदीलाल जी को भोपाल बुलाकर उनका सार्वजनिक रूप से सम्मान किया। विभाग में उन्हें चतुर्थ वर्ग कर्मचारी से अधिकारी बना दिया। अपने अच्छे और मिलनसार व्यवहार के कारण वे सबके प्रिय थे। बीती रात कोरोना उन्हें ले गया। (गोकुल सोनी की फेसबुक पोस्ट)
घर पर मास्क लगाने की सलाह
नीति आयोग ने यह कहकर एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है कि घरों में मास्क पहनना शुरू किया जाये। कोरोना संक्रमण से बचने के लिये लोगों को बाहर निकलने से मना करते हुए लोगों को दार्शनिक तरीके से अब तक समझाया जाता रहा है कि घरों में रहिये, परिवार के साथ समय बितायें। जिन लोगों से बात करने का, साथ बैठकर टीवी देखने, खाना-खाने, हाल-चाल जानने, बताने का मौका नहीं मिल रहा था, अब घर में रहकर वह सब कीजिये। आंकड़े हैं कि इस बार पूरे परिवार को कोरोना संक्रमण का सिलसिला चल पड़ा है। युवा और बच्चे भी नहीं बच पा रहे हैं। कई परिवारों में एक से अधिक सदस्यों की मौत भी हो गई। ऐसा इसलिये भी हुआ कि कोई एक सदस्य किसी काम से घर से बाहर निकला और अपने साथ वायरस चिपका लाया। वायरस घर के दूसरे सदस्यों पर भी वार कर गया। इसलिये, घर पर मास्क पहनने की बात अटपटी जरूर लग रही हो, पर ऐसी स्थिति में जब कोरोना मरीजों को बेहतर इलाज मिल पाना युद्ध जीतने की तरह हो, सुझाव पर विचार तो करना ही पड़ेगा।
एमपी पर सवाल तो बनता है..
वैक्सीन की कीमत राज्यों से अधिक लिये जाने के विरोध में कांग्रेस नेताओं ने कल भाजपा के सांसदों, विधायकों को गुलाब फूल दिया और केन्द्र सरकार से दाम कम कराने की सिफारिश की। इस तरह के फ्लावर पॉलिटिक्स से कोई फ्लेवर निकलेगा इसकी उम्मीद तो कम है पर पक्ष-विपक्ष की लड़ाई में कई बातों की तरफ आम लोगों का ध्यान जरूर खिंच जाता है। गुलाब सौंपने पर भाजपा की तरफ से आई प्रतिक्रियाओं में एक यह भी है कि राज्यसभा सदस्य केटीएस तुलसी जी क्या कर रहे हैं, उनका पता बतायें। वे छत्तीसगढ़ से चुनकर गये हैं। वे गुलाब लेकर प्रधानमंत्री के पास जाते और वैक्सीन तथा अन्य संसाधन उपलब्ध कराने के लिये धन्यवाद देते।
वैसे आज की बात नहीं, पहले भी देखा गया है कि ऐसे राज्यसभा सदस्य जो संख्या बल के आधार पर दिल्ली में शीर्ष नेताओं के बीच पकड़ रखने के कारण चुने जाते हैं उनका चुने गये राज्य की समस्याओं, जरूरतों, मांगों की तरफ कोई ध्यान नहीं रहता। कम से कम वे 6 साल उस राज्य के साथ अपने को जोड़ सकते हैं। पर, शायद वे सोचते हैं कि ऐसा करने की जरूरत क्या है, कौन सा आगे चलकर यहां से चुनाव लडऩा है, आलोचना या शिकायत हो तो होती रहे।
दिल्ली को मिला छत्तीसगढ़ से ऑक्सीजन
दिल्ली की टूटती सांसों को थामने में छत्तीसगढ़ ने भी अपनी जिम्मेदारी निभाई। आज सुबह 64.55 टन ऑक्सीजन रेलवे के रास्ते से दिल्ली पहुंच गया। इसे कल सुबह रायगढ़ से रवाना किया गया था। दिल्ली देश की राजधानी है। कोरोना पीडि़तों की हाहाकार सब न्यूज चैनल, सोशल मीडिया और अखबारों में है। हालांकि छत्तीसगढ़ की स्थिति भी अच्छी नहीं है। ऑक्सीजन की कमी नहीं होते हुए भी यहां मरीजों की मौतें थम नहीं रही हैं। इसके दूसरे कई कारण है। कवर्धा का ही लें, यह केबिनेट मंत्री मोहम्मद अकबर और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का क्षेत्र है। यहां सात वेंटिलेटर हैं, पर एक भी काम नहीं कर रहा। राजधानी और एक दो बड़े शहरों को छोड़ दें तो अन्य जिलों, कस्बों में भी यही हाल है। कई जगह वेंटिलेटर बिगड़े हैं तो कई अस्पतालों में इन्हें ऑपरेट करने के लिये दक्ष लोगों की कमी है। ऑक्सीजन तो हैं, पर ऑक्सीजन बेड तैयार नहीं हैं। ऑक्सीजन की फिलिंग के लिये सिलेंडर्स की कमी से भी कई शहर जूझ रहे हैं।
70 हजार शादियां पर सब फीकीं
ठीक शादियों के वक्त कोरोना महामारी ने इस तरह पैर पसारा है कि लगभग पूरा प्रदेश लॉकडाउन के दायरे में आ चुका है। लॉकडाउन का पहला चरण यदि 20-22 अप्रैल तक समाप्त हो जाता तो बहुत से विवाह समारोह हो जाते। 22 अप्रैल से लेकर देवशयनी एकादशी 15 जुलाई तक विवाह के 37 मुहूर्त हैं। पर ज्यादातर शहरों में लॉकडाउन दूसरी और तीसरी बार बढ़ा दिया गया है। यह मई के पहले सप्ताह तक चलने वाला है। जिस तेजी से महामारी फैल रही है उसके चलते यह संभावना भी नहीं दिख रही है कि हालात सामान्य हो जाये और अगले माह लोगों को भीड़ जमा करने की छूट मिल जाये। यदि 15 जुलाई तक हालात नहीं सुधरे तो शादियों का ये सीजन तो गया। उसके बाद फिर देवउठनी एकादशी के बाद ही 15 नवंबर से मुहूर्त है। तब दिसम्बर तक 13 शादियां की जा सकेंगीं।
ज्यादातर लोगों को कोरोना के प्रकोप से जल्दी छुटकारा मिलने की उम्मीद नहीं है। इसीलिये एक तरफ से सिर्फ 10 लोगों को शामिल करने की अनुमति होने के बावजूद प्रदेशभर में करीब 73 हजार आवेदन शादियों के लिये किये गये हैं। इनमें से कई लोगों ने कड़ी पाबंदी को देखते हुए अर्जी वापस ले ली है, जबकि कुछ निरस्त भी किये गये हैं। जाहिर ये शादियां सादगी और सीमित मेहमानों के बीच होगी। कोई भव्यता नहीं होगी। इसका सबसे ज्यादा नुकसान उन्हें हुआ है जिनके साल भर की आमदनी इन्हीं शादियों पर टिकी है, जैसे केटरिंग, बैंड बाजे, होटल, टेंट, पुरोहित, फोटोग्रॉफर आदि। अब इसे विडम्बना भी कहेंगे कि पिछले साल भी कोरोना के चलते लॉकडाउन इसी सीजन में लगाया गया था। तब इन व्यवसायों से जुड़े लोगों को उम्मीद थी कि 2020 के गुजर जाने के बाद सब अच्छा हो जायेगा, पर 2021 उससे कहीं ज्यादा बुरे दिन दिखा रहा है।
कब इस्तेमाल करेंगे इन पैसों का?
कोरोना मरीजों के लिये जीवनरक्षक रेमडेसिविर इंजेक्शन की प्रदेश में आपूर्ति पर्याप्त शुरू हो जाने के दावे के बावजूद इसकी कालाबाजारी थमने का नाम नहीं ले रही है। कई डॉक्टर, वार्ड ब्वाय और नर्स और मेडिकल स्टोर संचालक इस भयंकर आपदा में मुनाफा देख रहे हैं। कल एक ही दिन में सरगुजा, बिलासपुर और रायपुर में पुलिस ने कई लोगों को गिरफ्तार किया। स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े बहुत से लोगों का विद्रूप चेहरा दिखाई दे रहा है। महामारी में जहां से मिले लूट-खसोट कर रहे हैं। निजी अस्पतालों में सरकार की तय दर से कई गुना ज्यादा फीस जमा कराई जा रही है। अनाप-शनाप अनावश्यक टेस्ट कराये जा रहे हैं ताकि बिल बढ़े। इलाज क्या हुआ, परिजनों को पता नहीं चलता, सीधे लाश सौंप दी जाती है। एम्बुलेंस तक का किराया पांच-दस गुना बढ़ा दिया गया है। जो लोग मरीजों और उनके परिजनों को पीड़ा को समझे बगैर अपनी जेबें भरने में लगे हुए हैं, उनके साथ ए सोच पॉजिटिव है। वो ये कि इस भयंकर आपदा के बाद भी सामान्य दिन आ जायेंगे, तब वह अपनी अनाप-शनाप कमाई हुई रकम का उपभोग कर पायेंगे।
कोरोना मृतकों को सहायता
कोरोना महामारी राष्ट्रीय आपदा ही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि देश में मेडिकल इमरजेंसी के हालात है। ऐसे में कोरोना के चलते मारे गये लोगों के लिये यदि परिजनों की मांग है कि उन्हें मुआवजा मिलना चाहिये तो इसमें गलत क्या है? राजस्व पुस्तक परिपत्र 6-4 में प्रावधान तो है कि आकस्मिक मृत्यु में मृतकों के आश्रितों को आर्थिक सहायता दी जाये। पर प्रदेश में मरने वालों की संख्या अब 7 हजार से ऊपर पहुंचने जा रही है। सब मामलों में 4-4 लाख रुपये दिये गये तो एक बड़ा हिस्सा इन पर खर्च करना पड़ेगा, जबकि अभी स्वास्थ्य सेवाओं पर आई आपदा को दुरुस्त करने में ही बड़ी राशि की जरूरत पड़ रही है।
इधर प्रदेश भर में लोगों ने इसी आधार पर राजस्व विभाग को आवेदन करना शुरू कर दिया है। कोविड मरीजों की सहायता के लिये बनाये गये कंट्रोल रूम में भी लगातार फोन कर पूछा जा रहा है कि कहां आवेदन करें? इसके जवाब में शासन ने दिसम्बर 2020 का एक पुराना पत्र फिर से निकालकर बताया है कि कोविड-19 से होने वाली मौतों में मुआवजे या अनुदान का प्रावधान नहीं रखा गया है। वैसे लोग समझ रहे हैं कि मौजूदा परिस्थिति में कम से कम इस तरह की सहायता तो नहीं की जा सकती है, पर मांग उठ रही है। सोशल मीडिया पर भी अभियान चल ही रहा है।
टीकाकरण की रफ्तार इतनी घटी क्यों?
राज्य में जिस तेजी से कोरोना का संक्रमण बढ़ता जा रहा है, उसी रफ्तार से वैक्सीनेशन धीमा पड़ता जा रहा है। अप्रैल की शुरुआत में जहां दो लाख से ज्यादा लोगों को टीके लगाये जा रहे थे, अब वह 50-50 हजार के बीच सिमटकर चुका है। टीकाकरण में लगे डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना के नये स्ट्रेन के बारे में लोगों के मन में यह बात घर कर रही है कि बाहर निकलने पर उन्हें संक्रमण घेर लेगा। महामारी का असर कुछ कम हो तो टीका लगवाने निकलें। आंकड़ों के साथ सरकार द्वारा दिये गये स्पष्टीकरण के बावजूद बहुत से यह भी सोच रहे हैं कि टीके लगवाने के बाद नहीं होने हो तब भी कोरोना न हो जाये। अप्रैल के पहले हफ्ते में लोगों ने यह भी देखा कि हर दिन नये संक्रमित लोगों और मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है। अब एक मई से 18 साल से अधिक उम्र के लोगों को टीका लगाने का अभियान शुरू हो रहा है। इसके लिये बड़ी संख्या में नये वैक्सीनेशन सेंटर तो खोलने ही पड़ेंगे। वरना मौजूदा केन्द्रों में फिर बड़ी भीड़ जमा होगी और फिर टीका लगवाने से लोग कतरायेंगे।
उद्योगों में ताले लगने का असर?
यह बात साफ है कि छत्तीसगढ़ में अस्पतालों को सप्लाई करने के लिये ऑक्सीजन की कमी नहीं है। दिक्कत ऑक्सीजन बेड और सिलेंडर की है। छत्तीसगढ़ के सरप्लस ऑक्सीजन की महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में आपूर्ति भी की जाती है। पर केन्द्र ने निर्देश दिया है कि उद्योगों को दिया जाने वाला ऑक्सीजन तुरंत बंद कर दिया जाये। ऑक्सीजन की सबसे ज्यादा औद्योगिक खपत स्टील इंडस्ट्री में होती है। छत्तीसगढ़ इसका हब है। राजस्व का बड़ा हिस्सा इन्हीं उद्योगों से मिलता है। बड़ी संख्या में, अनुमानित करीब 4 लाख लोगों को इससे रोजगार भी मिला हुआ है। इससे किसी को इन्कार नहीं है कि अस्पतालों को सबसे पहले ऑक्सीजन मिलनी चाहिये, लेकिन यदि ऐसा उद्योगों को पूरी तरह बंद किये बिना क्यों नही किया जा सकता? सीएम ने प्रधानमंत्री के साथ हुई बैठक में ऐसा कहा भी था कि एक सिरे से सारे ऑक्सीजन निर्भर उद्योगों को बंद न किया जाये। आगे क्या रास्ता निकलता है देखना होगा।
100 शिक्षकों की मौत!
शिक्षकों का सेटअप किसी भी राज्य में सबसे बड़ा होता है। इसलिये जब भी व्यापक स्तर पर मैदानी अमले की जरूरत होती है तो सबसे पहले उनको ही ड्यूटी लगाई जाती है। जनगणना, आर्थिक सर्वेक्षण, मतदान जैसे कार्यों में तो उनकी ड्यूटी हर बार लगती ही है। इस बार अभूतपूर्व कोरोना संकट में भी उन पर बड़ी-बड़ी जिम्मेदारी डाली गई है। अस्पतालों में आने वाले मरीजों के रजिस्ट्रेशन से लेकर श्मशान घाट में जलाये जाने वाले शवों की गिनती तक कई काम उन्हें सौंपे जा रहे हैं। इधर, शिक्षक संगठनों का दावा है कि उनसे जोखिम भरा काम लिया जा रहा है पर सुरक्षा के कोई साधन नहीं दिये गये हैं। इसके चलते अब तक प्रदेश के 100 से ज्यादा शिक्षकों की मौत हो चुकी है। अब शिक्षकों के लिये 50 लाख रुपये का बीमा और आश्रितों के लिये नौकरी की मांग की जा रही है। यदि मौतों का आंकड़ा सही है तो बेहद चिंताजनक है। ड्यूटी करने के दौरान इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिये कि उन्हें मौत के मुंह में न जाना पड़े।
बारातियों का कोविड टेस्ट
बस्तर के बोरपदर गांव में चैनसिंह ठाकुर के घर से एक बारात निकाली। मेजबान चैन सिंह ठाकुर ने रास्ते में सबको रुकने के लिये कहा। सामने कोविड टेस्ट सेंटर था। मेजबान ने कहा सब अपना-अपना एंटिजन टेस्ट करा लें। कुछ हैरान हुए, कुछ ने ना नुकर की लेकिन आखिर सब तैयार हो गये। दो घंटे में सबकी टेस्ट रिपोर्ट भी आ गई। संयोग से सभी की रिपोर्ट निगेटिव मिली। इसके बाद बारात आगे बढ़ी और सब शादी के लिये कुमाकोलेंग गांव रवाना हुए।
कल ही एक ख़बर आई थी जिसमें तखतपुर के एक परिवार ने विवाह में मास्क और सैनेटाइजर जरूरी कर दिया था। वर, वधू ने भी मास्क पहनकर शादी की सारी रस्म पूरी की। पर, बस्तर का उदाहरण तो अमल में लाने योग्य है। लॉकडाउन के दौरान पहले 40-50 लोगों को शादी में शामिल होने की अनुमति थी, इस बार ज्यादा प्रकोप फैला है इसलिये 20 की मंजूरी दी गई। मगर, कोरोना फैलने के लिये 20 का होना भी तो काफी है। क्यों न प्रशासन यह आदेश निकाले कि 20 की जगह भले ही 40 लोग शामिल हो जायें, लेकिन जितने लोग भी समारोह में जाना चाहते हैं वे पहले कोविड टेस्ट करायें और शामिल तभी हों जब रिपोर्ट निगेटिव हो।
कोरोना भगाने का एक और तरीका
गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अरुण दिवाकर बाजपेयी को तो देखने से ही समझ आता है कि वे आध्यात्मिक विचारों के व्यक्ति हैं। भारतीय परम्पराओं और इतिहास का उदाहरण अपनी गतिविधियों में सामने रखते हैं। उन्होंने अपना कार्यभार ग्रहण करते समय कार्यालय में हवन भी किया था। अब कोरोना को लेकर भी उनकी दृष्टि सामने आई है। उन्होंने अपने दफ्तर के दरवाजे पर नीम की पत्तियां लटका रखी हैं। जो प्रवेश करेगा इन्हें मुंह में लेकर चबायेगा, तब भीतर प्रवेश करेगा। मानना यह है कि आगंतुक के मुंह से कोई वायरस निकलेगा तो नीम पत्तियां उसे नष्ट कर देगी। अब उन्होंने एक चिकित्सकीय सलाह अपने स्टाफ और आम लोगों को दी है। उन्होंने कहा है कि नीम की पत्ती, तुलसी, हल्दी और प्याज का इस्तेमाल करें। इससे कोरोना वायरस आप पर आक्रमण करता है तब भी आपको कुछ नहीं बिगड़ेगा, वायरस नष्ट हो जायेगा।
वैसे प्रो. बाजपेयी की सोच एकतरफा नहीं है। शिक्षाविद् हैं, वैज्ञानिक सोच रखते हैं। अपने दावे के बावजूद, उन्होंने कोरोना वैक्सीन की दोनों डोज जो लगवा ली है। हल्दी, नीम, प्याज वगैरह के फायदे से तो किसी को इंकार नहीं, पर यह दावा करना कि इसके इस्तेमाल से कोरोना का वायरस नष्ट हो जायेगा, कुछ अधिक बड़ी बात लगती है। ठीक यही बात बाबा रामदेव करते हैं। वैसे, प्रो. बाजपेयी भी इससे पहले अपनी सेवायें उत्तराखंड में दे रहे थे।
घरों में जाम ऑक्सीजन सिलेंडर
कोरोना से संक्रमित बहुत से मरीजों को ऑक्सीजन सिलेंडर की जरूरत पड़ रही है। बहुत से ऐसे मरीज हैं जिनका घरों मे इलाज चल रहा है पर उन्हें ऑक्सीजन जरूरी है। अस्पताल में बेड नहीं मिलने और वहां के खर्च देखकर लोग घरों में ही इलाज करा रहे हैं।
कई समाजसेवी संस्थाओं ने इस समस्या को देखते हुए कुछ जमानत राशि लेकर ऑक्सीजन सिलेंडर देने की सेवा शुरू की है। जब मरीज या उनके परिजन ऑक्सीजन सिलेंडर लौटायेंगे तो यह अमानत राशि वापस भी कर दी जायेगी। यानि किराया कुछ नहीं लगेगा। इस पुण्य का नुकसान यह हो रहा है कि बहुत लोगों ने सिलेंडर घर लाकर रख लिया है, चाहे उन्हें इसकी जरूरत न हो। जो ठीक हो गये हैं उन्हें भी डर सता रहा है कि क्या पता कब इसकी दुबारा जरूरत पड़ जाये। इसका परिणाम यह निकल रहा है कि सरकारी स्तर पर ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी तो है ही, समाजसेवियों के ऑक्सीजन सिलेंडर बड़ी संख्या में घरों में जाम हो गये हैं। जिन्हें अब सिलेंडर की जरूरत नहीं रह गई है अगर वे इसे लौटा दें तो दूसरे गंभीर, जरूरतमंद मरीजों की जान बच जायेगी। संस्थाओं ने भी अब पता लगाना शुरू किया है कि जिन्हें सिलेंडर दी गई है वे उनके घर खाली तो नहीं रखे हैं। कई ऐसे सिलेंडर घरों से वापस भी लाये जा रहे हैं।
स्पीकर ने मांगा बिटिया के लिये आशीर्वाद
कोरोना की आपदा ने लोगों को झकझोर कर रख दिया है। चाहे वे आम लोग हों या खास। लोग, अपने बच्चों की शादी में रिश्तेदार और मित्र पहुंचे और उनका आशीर्वाद मिल जाये। पर लॉकडाउन में मेहमान-मेजबानों की संख्या 20 पर बांध दी गई है। रोज मरीजों के बीमार होने और मौतों के इतने भयावह आंकड़े आ रहे हैं कि लोग विवाह के शुभ कार्य को भी उत्सव का रूप न देकर सिर्फ जरूरी रस्म पूरी कर समेट रहे हैं। ऐसे में स्पीकर डॉ. चरण दास महन्त ने भी अपने करीबियों को बताया है कि उन्होंने अपनी बेटी के विवाह पर निर्धारित आशीर्वाद समारोह स्थगित कर दिया है।
समारोह की तारीख जब तय की गई थी तब कोरोना के इस व्यापक प्रसार का अनुमान किसी को नहीं था। जाहिर है कि वे कोई छोटा समारोह भी रख लेते तो जानने वाले पहुंच ही जाते, फिर कोविड प्रोटोकॉल का टूटना तय था। इसलिये समारोह ही नहीं होगा। डॉ. महन्त ने अपने शुभचिंतकों से कहा है कि वे अपने घर से ही नव-दम्पती को आशीर्वाद दें।
मास्क पहनकर लिये फेरे
अप्रैल-मई में विवाह के बहुत से मुहूर्त होने के बावजूद उन लोगों ने शादियां टाल दी हैं, जिन्हें लगता है कि वे कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं कर पायेंगे। वे इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि उनके घर में ही 50 लोग हैं, फिर दूसरे पक्ष से भी कम से कम इतने लोग तो शामिल होंगे। पर, अनुमति तो 20 लोगों की ही मिल रही है। वह भी आयोजन सार्वजनिक भवन में नहीं, घर पर ही किया जाना है। अब ऐसे लोग कोरोना का असर कम होने का इंतजार कर रहे हैं। भले ही विवाह का अगला मुहूर्त चार-पांच महीने बाद हो।
पर कुछ लोग जो इस कठिन समय में निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार विवाह कर रहे हैं उनमें भी कम समझदारी नहीं है। अब तखतपुर के पूर्णिमा और घनश्याम को ही लीजिये। जब दोनों ही ओर से मम्मी-पापा ने तय कर लिया कि शादी रामनवमी को ही होगी, तारीख आगे नहीं बढ़ानी है। तो, उन्होंने भी उनको मना लिया कि समारोह में कोरोना गाइडलाइन का सख्ती से पालन होगा। घर पर शादी हुई, निर्धारित 20 लोग ही शामिल हुए और विवाह की सारी रस्म, जयमाला पहनने से लेकर फेरे लेने तक की पूरी प्रक्रिया के दौरान दोनों ने मास्क पहना। जब दूल्हा-दुल्हन ने मास्क पहना, तो जाहिर है रिश्तेदारों, मेहमानों को भी इस पर अमल करना पड़ा।
सूने रिसोर्ट में पुलिस कप्तान की तफरी
पुलिस ने जोर-शोर से अभियान चला रखा है। सोशल मीडिया पर चेतावनी दी गई कि लॉकडाउन पर सूनी सडक़ें कैसी दिखाई देती हैं-इसका मजा लूटने के लिये भी बाहर न निकलें। इधर कोरबा पुलिस ने बता दिया कि ये चेतावनी तो आम लोगों के लिये हैं, उन पर यह लागू नहीं होगा। और कप्तान की बात हो तब तो बिल्कुल नहीं। जैसा देखने वाले लोग बता रहे हैं कि अपने एक मित्र के साथ कप्तान साहब सतरेंगा डेम पहुंच गये। पर्यटन केन्द्र पर उनके मातहतों ने पहुंचकर पहले से ही सारे इंतजाम कर दिये थे। एक नई-नई बोट वहां खऱीदी गई है। मित्र के साथ उन्होंने बोटिंग का खूब मजा लिया और शाम तक रुक कर पर्यटन का आनंद लेते रहे। सबको पता ही है, लॉकडाउन के कारण लोगों का घर से निकलना तो बंद है ही, पर्यटन स्थलों पर भी ताला लगाकर रखने का निर्देश है। पर्यटन केन्द्र के रिसोर्ट के मैनेजर की क्या बिसात कि लॉकडाउन, महामारी, धारा 144 या फिर शासन के किसी भी कानून के बारे में कानून के रखवाले को समझाये?
ऊपर के तीनों प्रसंग, कोरोना प्रोटोकॉल के उल्लंघन और पालन से जुड़े हैं। एक वीआईपी होने के कारण नियमों को तोड़ सकते थे, दूसरे मामले में परिवार अपनी नामसझी का हवाला देकर बचाव कर सकता था। पर, गाइडलाइन के पालन को लेकर वे गंभीर थे। उल्लंघन उन्होंने किया जिन पर जिम्मेदारी है, इसका पालन कराने की।
माइक्रो जोन की निगरानी कौन करेगा?
लॉकडाउन से बचने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संदेश सुनकर लोग खुश हो रहे हैं कि चलो उनका काम-धंधा रुकेगा नहीं। मोदी जी ने कहा है कि कोरोना से निपटने के लिये कोई माइक्रो कंटेनमेन्ट जोन बनाने जैसा फैसला लिया जायेगा। इससे दो तरह की बातें निकली। एक तो कई लोगों को लगा कि मोदी जी कहीं अंतिम विकल्प को लागू करने से पहले पुचकार तो नहीं रहे? अब तो प्रवासी मजदूरों को रुके रहने या लौटने पर काम धंधे से नहीं निकालने, उनका इलाज करने, वैक्सीन लगवाने सब की जिम्मेदारी राज्यों पर उन्होंने डाल दी है और शायद अगले चरण के चुनाव प्रचार के लिये वे फिर बंगाल निकलने वाले हैं।
अब माइक्रो कंटेनमेन्ट जोन क्या है और इसे लागू करना कितना संभव है, अफसरों के बीच इस बात की चर्चा हो रही है। पिछली बार शहरों को, और फिर शहरों के भीतर इलाकों को लाल, नारंगी और हरे जोन में परिभाषित कर वहां की गतिविधियों पर पाबंदियां लगाई गई थी। माइक्रो जोन उससे भी छोटे होंगे। यानि जिस अपार्टमेंट या कॉलोनी में ज्यादा केस हैं, वहीं तालाबंदी होगी। आप इस इलाके से न जाकर दूसरे रास्ते से अपने दफ्तर, फैक्ट्री या दुकान जा सकते हैं। बीते माह पुणे जैसे शहरों में इस तरह के जोन एक हजार से ज्यादा बनाये गये थे। उसके बाद भी नये केस मिलने की रफ्तार नहीं घटी। वजह यह थी इस तरह के जोन में नियम का पालन करने के लिये नागरिकों को खुद आना है, पुलिस या प्रशासन के बस की बात नहीं है। अब भी देख रहे हैं कि दूध, सब्जी, टीकाकरण के नाम से दी गई छूट का फायदा उठाते हुए सडक़ों पर भीड़ निकल ही रही है। ऐसे मे माइक्रो कंटेनमेंट जोन का प्रयास भी विफल हो सकता है। कोरोना के केस ऐसे में तो थम नहीं पायेंगे और ऐसे में मोदी जी ने बता दिया है कि अंतिम विकल्प क्या है?
लॉकडाउन उठने की अफवाह
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के कुछ घंटे बाद सोशल मीडिया पर लोग पुरानी तस्वीरें और अधिकारियों के पुराने बयानों को साझा करने लगे। यह अफवाह फैलाने की कोशिश की गई कि मोदी जी ने लॉकडाउन को लेकर आपत्ति जताई है इसलिये शहरों से लॉकडाउन खत्म कर दिया गया हैष अगले ही दिन बाजार खुल जायेंगे। सोशल मीडिया पर एक के बाद एक फारवर्ड हो रहे इस तरह के मेसैज को देखकर अधिकारियों के फोन भी घनघनाये जाने लगे। बात साफ हुई कि ये तो अफवाह है। ज्यादातर शहरों में लॉकडाउन का पहला चरण खत्म हो चुका है और बढ़ाई गई अवधि में अब भी यह जारी है। वैसे प्रशासनिक आदेश में कहीं पर भी लॉकडाउन शब्द का जिक्र नहीं है। शहर और जिले कंटेनमेन्ट जोन ही घोषित किये गये हैं।
खान-पान स्टाल चलाने वालों की मौज
देशभर में बढ़ते कोरोना संक्रमण के बीच ट्रेनों का आवागमन जारी है। इन दिनों घरों को लौट रहे श्रमिकों की भीड़ भी स्टेशनों पर पहुंच रही है। लम्बे समय से बंद किये गये फूड स्टाल और रेस्टोरेन्ट भी अब रेलवे ने खोल दिये हैं। यहां से बंद खाना पैकेट और पानी की बिक्री शुरू की गई है। इसके ज्यादातर खरीददार मजदूर वर्ग के लोग ही हैं। आईआरसीटीसी और प्राइवेट वेंडर्स के खिलाफ खाना और पानी अधिक कीमत पर बेचने, बासी खाना देने की शिकायत आम रही है। जब भी फूड सेफ्टी विभाग के अधिकारियों ने छापा मारा, कोई न कोई गड़बड़ी उन्होंने पकड़ी है और जुर्माना भी किया । पर इन दिनों खाना पानी बेचने वाले वेंडर सुकून का अनुभव कर रहे हैं। कोरोना के डर से जांच करने वाले अधिकारी घरों से निकल नहीं रहे हैं। वेंडर न तो रेट लिस्ट टांग रहे हैं न पैकेट में दाम लिख रहे हैं। यहां तक कि पैकिंग कब की गई यह भी नहीं बता रहे हैं। यात्रियों से ज्यादा कीमत भी ली जा रही है और बासी खाना भी खपाया जा रहा है।
अपराध होने के पहले कौन जिम्मेदार?
गश्त ढीली हो और लूट चोरी की वारदात हो जाये तो पुलिस पर ऊंगली उठेगी ही। पर बहुत सी जघन्य वारदात ऐसी होती है जिसकी पृष्ठभूमि तैयार करने में पुलिस की भूमिका बहुत कम रहती है। सरकार के दूसरे विभागों की ढिलाई, भ्रष्टाचार, आपसी रंजिश, टकराव की वजह इनमें होती है। कोरबा में पूर्व उप मुख्यमंत्री स्व. प्यारेलाल कंवर के बेटे हरीश, उनकी पत्नी व चार साल की मासूम बेटी की हत्या कर दी गई। कुछ आरोपियों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।
फरवरी माह में आपसी विवाद के चलते तीन लोगों की हत्या कोरबा जिले के ही लेमरू थाने के अंतर्गत एक गांव में कर दी गई थी। इसमें भी एक बच्चे की जान ले ली गई थी। जान पहचान वालों ने वारदात को अंजाम दिया था, जिसका अंदाजा गांव के लोगों को भी नहीं था। अमलेश्वर थाने के खुड़मुड़ा गांव में चार लोगों की हत्या के आरोप में काफी जांच पड़ताल के बाद पुलिस ने मृतक परिवार के सदस्य को ही गिरफ्तार किया। पाटन के बठेना गांव का मामला अब तक पूरा नहीं सुलझा है पर इसमें बात आई कि चार लोगों की हत्या कर जिस व्यक्ति ने फांसी लगाई वह सूदखोरों और अपने बेटे के जुए के लत से परेशान था। कुछ आत्महत्या की घटनायें भी हो जाती है। खराब बीज के चलते फसल खराब हो गई- परेशान किसान ने फांसी लगा ली। पटवारी के रिश्वत लेने के बावजूद किसान ऋण पुस्तिका वक्त पर नहीं पा सका, उसने खुदकुशी कर ली। धान बेचने के दस्तावेज नहीं बने तो एक ने खुद की जान ले ली। ऐसे मामलों में पुलिस यदि घटना के बाद अपराधियों तक नहीं पहुंच पाती है और सजा नहीं दिला पाती तो उसकी नाकामी है।
ऐसी घटनायें पहले भी होती रही हैं, पर बीते एक साल के भीतर कोरोना संक्रमण के कारण लोगों में तनाव बढ़ा, अवसाद से घिरे और पारिवारिक वैमनस्यता भी बढ़ी। अब दूसरी लहर फिर आ गई है। हर एक वारदात को सीधे इस महामारी से नहीं जोड़ा जा सकता, पर अपराधों का ग्रॉफ ऊपर नीचे होने में इसी तरह के कई कारण सामने आते हैं। हमारे यहां सिटीजन चार्टर हैं, जन समस्या शिविर लगती है, समाज कल्याण विभाग है, लोगों की समस्यायें सुनने के लिये सुलझाने के लिये। पर जो लोग मानसिक अवसाद और आपसी कलह से जूझ रहे हैं उनके लिए शासन और समाज के स्तर पर भी बहुत सीमित गतिविधियां हैं। लोग खुलकर अपनी तकलीफ बतायें, जिम्मेदार लोग उसे सुनें और समय पर हल निकाल दें तो कुछ हद तक अपराध कम होने उम्मीद कर सकते हैं।
वकीलों पर दुबारा आई विपदा
बीते साल कोरोना महामारी के बाद लम्बे समय तक अदालती कामकाज ठप रहा। हाईकोर्ट के अधिवक्ता और निचली अदालतों में लम्बे समय से अपनी पहचान बना चुके अधिवक्ताओं को छोडक़र बाकी सब आर्थिक संकट से घिरते गये। मुश्किल इतनी थी कि तंजावूर के एक अधिवक्ता ने तो पारम्परिक बांस की टोकरी बुनने का काम शुरू कर दिया था। टॉइम्स ऑफ इंडिया में इस खबर को पढक़र छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने उसे अपनी ओर से सहायता राशि भी भेजी थी।
इस बार कोरोना की मार ज्यादा बुरी है। फिर अदालतें बंद हो चुकी हैं। फिर रोजगार के संकट से अधिवक्ता घिर गये हैं। खासकर जिनकी आठ-दस साल या उससे कम की नई प्रैक्टिस है। जो बड़ी मुश्किल से पैर जमा रहे हैं उनको परिवार चलाना मुश्किल हो गया है। इस दूसरी लहर में जिन लोगों ने जान गंवाई उनमें अब तक 10 अधिवक्ताओं के नाम भी आ गये हैं। अधिवक्ता संगठन उनके परिवार को तथा खाली बैठे निचली अदालतों के वकीलों को सहायता राशि देने की मांग कर रहे हैं। पिछली बार कुछ राशि बार काउन्सिल की ओर से दी गई थी। इनका अपना अधिवक्ता कल्याण कोष होता है। इस बार भी राशि के लिये पत्राचार हो रहा है। राज्यसभा सदस्य केटीएस तुलसी और विवेक तन्खा दोनों कांग्रेस के हैं, उन्होंने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखा है। बार कौंसिल के पास अलग आवेदन विचार के लिये रखा है। विधि मंत्री के पास भी फरियाद पड़ी है। पर, मदद हो नहीं पाई है, सारी प्रक्रियायें बहुत धीमी चल रही हैं।
खाईवालों का वर्क फ्रॉम होम
लॉकडाउन के चलते लोग घरों में बंद हैं। अपराधी भी बाहर नहीं निकल रहे हैं। पुलिस को थोड़ा सुकून है। पर एक क्राइम घर बैठे हो रहा है। वह है आईपीएल में सट्टा लगाने का। रायपुर, कोरबा, बिलासपुर सब जगह से ख़बरें आ रही हैं कि खाईवाल इन दिनों घरों से ही ऑनलाइन सट्टा खिला रहे हैं। पैसे भी ऐप से ऑनलाइन ट्रांसफर कर रहे हैं। मैच देखने, सट्टा लगाने, बुकिंग लेने से लेकर क्लेम को निपटाने तक का कोई भी काम ऐसा नहीं है जिसके लिये घर के बाहर निकलना पड़े। पिछली बार पुलिस जंगलों में छिपे यहां तक कि गोवा जाकर दांव लगा रहे सट्टेबाजों को दबोच चुकी थी। पर इस बार सटोरियों के साथ-साथ मुखबिर भी लॉकडाउन के कारण नहीं निकल रहे हैं। एक दो मामले ही हाथ आ रहे हैं। सूचनायें कम, कार्रवाई सीमित और आईपीएल के समानान्तर सट्टे का खेल भरपूर चल रहा है।
क्या फिर खाली रह जायेंगे रेलवे के बेड?
रेलवे ने बीते साल कोरोना का प्रकोप बढऩे पर बोगियों में आइसोलेशन बेड बनाये। बिलासपुर व रायपुर में 52 बोगियों को इसके लिये तैयार किया गया, जिनमें 400 से अधिक बेड उसी समय से बनकर तैयार हैं। रेलवे को राज्य सरकार से शिकायत थी कि हमारे परिवर्तित बोगियां स्टेशनों पर खड़ी हैं पर उनका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। अब इस दूसरी लहर में इतने मरीज आ रहे हैं कि रेलवे की इन बोगियों की जरूरत पडऩे लगी है। कांग्रेस नेताओं ने इसके लिये रेलवे के अधिकारियों से बात की, उन्होंने कोच का निरीक्षण भी किया। बिस्तर तो लगे हुए हैं। एयर कंडीशन्स भी चालू किये जा सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ी समस्या आ गई है, कोविड मरीजों के देखभाल की। रेलवे ने कहा है कि हम डॉक्टर, तकनीशियन, नर्सिंग स्टाफ नहीं दे सकते। ऑक्सीजन और वेंटिलेटर तो है ही नहीं।
समस्या तो राज्य सरकार के पास भी यही है। जिस रफ्तार से नये केस रोजाना बढ़ रहे हैं आने वाले दिनों में और भी बहुत से डॉक्टर, नर्सिंग और साफ-सफाई के स्टाफ की जरूरत पड़ेगी। राज्य सरकार अपने साधनों से हॉस्टल, सार्वजनिक भवनों में बेड बढ़ाने की कोशिश कर रही है, जिनका इस्तेमाल करना रेलवे की बोगियों के मुकाबले ज्यादा आसान होगा। क्या एक बार फिर रेलवे की आइसोलेशन बोगियों का इस्तेमाल नहीं हो पायेगा? यह तय होगा आने वाले दिनों में महामारी कितने और लोगों को अपने चपेट में लेती है।
अस्पताल की आग ठंडी हो गई?
पुलिस किसी मामले में तत्परता से कार्रवाई करती है तो इसे प्रचारित भी किया जाता है। हत्या, चोरी, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के मामले में पुलिस के हाथ आरोपी तुरंत लग जाये तो उसे वह अपनी उपलब्धि के रूप में पेश करती है, पर जिन घटनाओं में लोगों की अपेक्षा होती है कि तुरंत कार्रवाई हो वहां ऐसा नहीं दिखता। राजधानी अस्पताल में हुई आगजनी को ही मामले में देख लें। पुलिस ठोस कार्रवाई में कितने सारे रोड़े बता रही है। जैसे वह प्रत्यक्षदर्शियों का बयान नहीं ले पाई है। बिजली विभाग, स्वास्थ्य विभाग, फायर सेफ्टी विभाग का प्रतिवेदन, अस्पताल को मिली कोरोना इलाज की अनुमति, मरीजों की निर्धारित क्षमता जैसी कितनी ही रिपोर्ट चाहिये जो तय करेंगे संचालकों पर कार्रवाई किस हद तक की जाये। पर आम लोगों की आखों के सामने वो निर्दोष आधा दर्जन लोगों की मौत झूल रही है।
यह सही है कोविड से लडऩे के लिये विषम परिस्थितियों में अस्पताल, डॉक्टर्स और अधीनस्थ कर्मचारी दिन रात विषम परिस्थिति में भारी दबाव के बीच काम कर रहे हैं। पर इन्हीं में से कुछ के खिलाफ गंभीर शिकायतें भी हैं। रेमडेसिविर की कालाबाजारी करते हुए पकड़े गये आरोपियों पर भी पुलिस की नरमी ही दिखी। क्या यह ऊपर से कोई आदेश है कि चिकित्सा पेशे से जुड़े लोगों के खिलाफ शिकायत आने पर सिर्फ कार्रवाई करते दिखा जाये पर कोई कड़ा एक्शन न लिया जाये?
और ये मौतें कोरोना से नहीं हुई..
यूपी एक चिमनी भ_े में में काम करने वाले छत्तीसगढ़ के एक मजदूर की एक ट्रैक्टर की चपेट में आने से मौत हो गई। शव को उसके गांव रानी झिरिया लाने के लिये एक एम्बुलेंस की व्यवस्था की गई। पर एम्बुलेंस चालक रात को दो बजे गढ़वा (झारखंड) जिले के चिनिया थाना क्षेत्र में शव उतारकर भाग गया। साथ आ रहे लोगों को भी उतार दिया और कहा कि वह डीजल भरवाकर आ रहा है। घंटों पुलिस के आने तक वह शव वहीं पड़ा रहा। शव को गांव भिजवाने के बाद अब कानूनी कार्रवाई के लिये पुलिस एम्बुलेंस चालक की तलाश कर रही है।
दूसरी घटना तो बिलासपुर की ही है। कल एक 72 साल के वृद्ध की सामान्य मौत घर पर हो गई। उसके घर के लोग उन्हें बीमारी की अवस्था में ही छोडक़र दूसरे घर चले गये थे। पास-पड़ोस के लोग भी उसके अंतिम संस्कार के लिये नहीं निकल रहे थे। किसी ने इसकी जानकारी महापौर रामशरण यादव तक पहुंचा दी। महापौर ने उनके रिश्तेदारों को फोन कर बताया और दाह संस्कार करने कहा, कोई नहीं पहुंचा। तब लॉकडाउन के बीच बांस, कफन की व्यवस्था की गई और दाह संस्कार किया गया। चार कांधे देने वाले बड़ी मुश्किल से जुटे, जिनमें एक खुद महापौर थे।
ये दोनों मौतें कोरोना से नहीं थी, पर इन दिनों इससे होने वाली मौतें शायद समाज को यह पाठ भी सिखा रही है कि शवों के साथ भी कितना अमानवीय बर्ताव किया जा सकता है।
कोरोना और मदद
कोरोना के खिलाफ लड़ाई में जनप्रतिनिधि भी बेबस नजर आ रहे हैं। कई मंत्री-विधायक तो बेड, ऑक्सीजन-रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए गुहार लगा रहे लोगों का फोन उठाना तक बंद कर चुके हैं। प्रशासन के दरवाजे पहले ही बंद हो चुके थे। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में कुछ नेता संक्रमण के खतरे को नजर अंदाज कर लोगों की भरपूर मदद कर रहे हैं।
बृजमोहन अग्रवाल ने जनसंगठनों के साथ मिलकर विधानसभा रोड में अपने कृति इंजीनियरिंग कॉलेज को कोविड अस्पताल बनवाया है, और वहां निशुल्क उपचार की सुविधा मुहैया करवाई है। ऐसे ही पूर्व मंत्री सत्यनारायण शर्मा, और उनसे जुड़े लोग पीडि़तों की हर संभव मदद करते देखे जा सकते हैं।
पूर्व मंत्री के पुत्र पंकज और विशाल, तो पीपीई किट पहनकर कोरोना संक्रमितों के इलाज की व्यवस्था करने में जुटे हैं। मोवा के पास रहने वाले बेहद सामान्य परिवार के कोरोना पीडि़त लोगों ने फोन कर सत्यनारायण शर्मा से मदद की गुहार लगाई। परिवार की महिला सदस्य का ऑक्सीजन लेवल लगातार गिर रहा था। उनकी हालत गंभीर बनी हुई थी। ऐसे में सत्यनारायण शर्मा के पुत्र विशाल तुरंत पीपीई किट पहनकर पीडि़त के घर पहुंचे, और महिला को अस्पताल में दाखिल करवाया। अब महिला की हालत बेहतर बताई जा रही है।
कुछ इसी तरह बीरगांव में पिछले दिनों एक कोरोना पीडि़त व्यक्ति की मौत हो गई। परिवार में सिर्फ पत्नी और पुत्री थी। ऐसे कठिन समय में पंकज पीपीई किट पहनकर वहां पहुंचे, परिवार को दिलासा दिया, और खुद वहां मौजूद रहकर अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरी करवाई। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर सत्यनारायण शर्मा के दोनों पुत्रों की सेवाभावी कार्यों की जमकर सराहना हो रही है।
पर्सनल नंबर दिया था, वह आपने...
प्रशासन ने कोरोना पीडि़तों के मदद के लिए कई अफसरों के मोबाइल नंबर सार्वजनिक किए हैं, ताकि पीडि़तों को मदद मिल सके। मगर हाल यह है कि चाहे जिला प्रशासन हो या फिर स्वास्थ्य अमला, सबने हाथ खड़े कर दिए हैं। और आम लोगों के फोन उठाने बंद कर दिए हैं।
रविवार को एक निजी कोविड अस्पताल के उद्घाटन मौके पर सांसद सुनील सोनी, सीएमएचओ डॉ. मीरा बघेल से यह शिकायत करते सुने गए कि आप फोन नहीं उठाती हैं। इस पर सीएमएचओ ने तपाक से जवाब दिया कि मैंने आपको अपना पर्सनल नंबर दिया था, वह आपने अन्य परिचितों को दे दिए हैं। अब रोज सैकड़ों फोन, बेड और ऑक्सीजन-रेमडेसिविर के लिए आते हैं। यह सब व्यवस्था कर पाना उनके बस की बात नहीं है। ऐसे में फोन उठाना मुश्किल है।
योगग्राम में कैसे मिले संक्रमित?
चिकित्सकों की इस सलाह पर किसी को भी संदेह नहीं है कि व्यायाम, योगाभ्यास और संतुलित दिनचर्या से शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाई जा सकती है। पर यह कोई नहीं कह सकता कि ऐसा करके आप कोरोना के संक्रमण से 100 फीसदी बचे रहेंगे। बाबा रामदेव के अलावा।
छत्तीसगढ़ में भी बाबा रामदेव की बातों पर यकीन करने वाले हजारों लोग हैं। वे हर सुबह बारी-बारी कई टीवी चैनलों पर कार्यक्रम देखकर यकीन कर लेते हैं कि योग करने से कोरोना पास नहीं फटकेगा और कोरोनिल खाने से कोरोना का वायरस मर जायेगा। कोरोनिल की लाचिंग केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन और सडक़ परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने की थी, तब से बाबा की बात पर लोगों का यकीन और बढ़ गया।
इधर हरिद्वार के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी की बुलेटिन में बताया गया है कि पतंजलि योगपीठ में कोरोना के 10, आचार्यकुलम में 9 और योग ग्राम में कोरोना के 20 केस निकले हैं। बाबा रामदेव कहते हैं आरटीपीसीआर टेस्ट रिपोर्ट भी गलत होती है। हो सकता है ऐसा ही हो। पर बाबा, आप तो सावधानी रखिये और डॉक्टरों की सलाह भी सुन लीजिये। अपने-आपको क्यों बेवकूफ बनाना, देश भर के ग्राहक क्या मर गए हैं?
डर के आगे जीत है...
हर रोज सैकड़ों संक्रमितों और दर्जनों मौतों की कोरोना खबर से लोगों का मन डूबा जा रहा है। लॉकडाउन में घर बैठे लोग संक्रमितों की मौत, ऑक्सीजन और बिस्तरों की कमी, अस्पतालों में जगह पाने के लिये टूटती सांस लिये बैठे मरीज के बारे में ही ज्यादा सोचने लगे हैं। केन्द्र और राज्य सरकार संसाधनों के इंतजाम में हो रही देरी के चलते बदहवास दिखाई दे रही है। अखबार भी रोज सुबह आ रहे हैं। उसमें भी पहले पन्ने पर भयानक तस्वीरों और मोटी-मोटी हेडिंग के साथ बीते बढ़ती मौतों और नये मरीजों की दुर्दशा बताई जा रही है। अब लगता है कि इस त्रासदी में भी जो कुछ अच्छा हो रहा है, उसे भी लोगों तक पहुंचाया जाये। जैसे एक दिन में कितने लोग स्वस्थ हुए वह पहले बताया जाये, कितने और संक्रमित हो गये बाद में बताया जाता। बीते एक दो दिन से ऐसा हो रहा है। वैसे इन दिनों सरकार और प्रशासन की विफलताओं, अव्यवस्था की इतनी अधिक खबरें फूट-फूट कर निकल रही हैं कि सकारात्मक खबरों की आड़ में उन्हें छिपाया जाना बहुत मुश्किल है।
डॉलर के मुकाबले गुड़ाखू
बीते साल लॉकडाउन में गुड़ाखू और तम्बाकू बेचने वालों को पुलिस ने चुन-चुन कर ढूंढा, पिटाई की और केस भी बनाया। फेरी, टपरे में छिप छुपाकर जो लोग छोटी-मोटी कमाई कर लेने की उम्मीद में थे उनका अनुभव बुरा रहा। किस फैक्ट्री का या होलसेलर का माल निकलकर आया, यह पुलिस ने पता नहीं किया। उनका कुछ नहीं बिगड़ा। इस बार संभलकर सब चल रहे हैं। पुलिस के हाथ ज्यादा केस नहीं आ रहे हैं। लोग बता रहे हैं कि चूंकि लॉकडाउन लगाने की तारीख पहले से ही सबको मालूम थी इसलिये लोगों ने अपनी व्यवस्था कर ली थी। गड़बड़ तो इसलिये हो गई क्योंकि लॉकडाउन की तारीख बढ़ा दी गई है। अब फिर ब्लैक में इसकी डिमांड हो रही है। एक ऐसे ही गुड़ाखू प्रेमी का दर्द है- गुड़ाखू तो डॉलर से भी महंगा हो गया है- एक रुपये का डिब्बा 150 रुपये में मिल रहा है।
मास्क पर जुर्माना तो पास बैठने पर क्यों नहीं?
रेलवे ने एक बार फिर आपदा को अवसर बना लिया। ट्रेन में सफर के दौरान मास्क नहीं पहनने पर 500 रुपये जुर्माना लगाया जायेगा। यदि प्लेटफॉर्म पर थूका गया तो गंदगी फैलाने के चलते रेलवे अधिनियम के तहत कार्रवाई की जायेगी। ठीक है, मास्क पहनने पर सख्त नियम तो लागू किया जाना चाहिये। पर रेलवे की ओर से यह नहीं बताया जा रहा है कि वह सोशल डिस्टेंस रखना भी जरूरी है। ट्रेनों के स्पेशल होने बावजूद हर एक सीट पर सवारी बैठ रहे है। एक बर्थ की लम्बाई करीब 1.9 मीटर होती है। स्लीपर ट्रेन में तीन लोगों को और पैसेंजर ट्रेनों में चार लोगों को टिकट दी जाती है। और उनके बीच आधा मीटर दूरी भी नहीं रह जाती। कोरोना वायरस फैलने के लिये तो वैसे कुछ मिनटों का ही ऐसे साथ-साथ काफी है, पर यात्री पूरी सफर में साथ बैठे होते हैं। रेलवे के पास इसका क्या जवाब न है? न कोई उससे पूछ रहा है और न ही इसका कोई जवाब मिल रहा है। एक जवाब तो तैयार ही होगा कि जब चुनावी रैलियों और धार्मिक समागमों पर आखें बंद कर ली गई हो, तो फिर हमसे ही ये बात क्यों पूछी जा रही है?
हाथ खड़े करते नोडल अधिकारी
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कोरोना पर अपने केबिनेट की बैठक बुलाई। उन्होंने वहीं से कुछ अस्पतालों को आम लोगों की तरह फोन लगाया। रिकार्ड दिखा रहे थे कि बेड हैं पर अस्पताल वाले भर्ती करने से मना कर रहे थे। केजरीवाल ने ऐसे अस्पताल प्रबंधकों को फटकार लगाई और सबकी निगरानी के लिये एक-एक अफसर लगा दिया। अब ऐसा तो हमारे यहां भी किया गया है। पर यहां, सचमुच बेड की भारी कमी है। न केवल बिस्तरों की बल्कि दवाईयों और ऑक्सीजन सिलेंडर की भी। जिन अधिकारियों का फोन नंबर जिला प्रशासन ने जारी किया है वह किसी तरह की राहत नहीं पहुंचा पा रहे हैं। असल जरूरत तो युद्ध स्तर पर दवा, बेड और ऑक्सीजन की उपलब्धता बढ़ाने की है। अस्पताल तैयार करने में समय तो लगता है पर उतना नहीं जितना अभी देखने में आ रहा है। आखिर लॉकडाउन का एक उद्देश्य यह भी तो है कि तेजी से संसाधन इतने बढ़ा लिये जायें कि खुलने के बाद नये मरीजों को इलाज की जगह मिल सके।
कोविड मरीजों के मौत की जिम्मेदारी
राजधानी के राजधानी अस्पताल में पांच कोरोना पीडि़त मरीजों की मौत पर संवेदना और मुआवजा की औपचारिकता को पूरी की जा रही है। हादसे के बाद संवेदनाओं को झकझोरने वाले दृश्य दिखे पर इस की वजह क्या थी, कौन इसकी जिम्मेदारी लेगा, इसकी बात नहीं हो रही है। शॉपिंग मॉल, अस्पताल, होटल, सिनेमाघर के संचालक प्राय: इतने ताकतवार तो होते हैं कि अपने मनमाफिक रिपोर्ट बना लें। लेने वाला भी तैयार और देने वाला भी। नगर निगम के कर्मचारियों के हाथ में फायर सेफ्टी प्रमाण पत्र बनाने का अधिकार होता है जो बिना किसी जांच पड़ताल के ही तैयार कर दिया जाता है। इस मामले में ऐसा हुआ होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। अब बात हो रही है सभी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के फायर सेफ्टी मेजर्स की जांच की जाये। हो सकता है राजधानी के कुछ अस्पताल, होटलों में जांच हो जाये, पर बाकी जिलों के प्रशासन में तो अभी तक इस गंभीर घटना को लेकर कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही है।
न मिलें ऐसी तस्वीरें देखने को
यह तस्वीर ट्विटर पर एक यूजर ने शेयर की है। यह कहते हुए कि सबसे ऊंची प्रतिमा बन गई, सबसे बड़ा स्टेडियम बन गया। इनका हम क्या करें। जब अस्पतालों में ही जगह न हो, इलाज न मिले। एक अन्य ने लिखा है मंदिर वहीं बन रहा है। अस्तालों में बेड मांगकर शर्मिंदा न करें।
फोन नंबर किसी काम के नहीं
कोरोना आपदा के चलते डॉक्टरों पर काम का जो बोझ आया है शायद वे ही इसे महसूस कर सकते हैं। कई घटनायें सामने आ रही हैं, जिनमें साथ पढ़े लिखे दोस्तों का भी फोन वे नहीं उठा रहे हैं। फोन उठ रहा भी है तो उनके स्टाफ की आवाज आ रही है।
प्रशासन ने सारे कोविड अस्पतालों के डॉक्टर्स के फोन नंबर जारी किये हैं। पर ज्यादातर डॉक्टरों ने अपना निजी फोन नंबर दिया ही नहीं है। उनके नंबर दिये गये हैं जो ओपीडी की सूची बनाते हैं। वे आपकी डॉक्टर से बात भी नहीं करायेंगे। कहा जायेगा, वे बहुत व्यस्त हैं। चाहे आप अपनी रिश्तेदारी का भी हवाला क्यों न दें।
इसके अलावा डिप्टी क्लेक्टर्स के नंबर भी प्रशासन ने जारी किये हैं। पर इन अधिकारियों के हाथ में भी ज्यादा कुछ नहीं है। फोन लगाने पर वे सिर्फ सलाह दे रहे हैं कि इस अस्पताल में तो जगह नहीं है, उस अस्पताल में पता कर लीजिये। आप कोई मदद करिये न सर? वे कह रहे हैं बिस्तर ही नहीं तो मैं क्या कर सकता हूं।
एक सुझाव यह भी आया है कि जब प्रदेश में अस्पतालों की संख्या 700 से ज्यादा है तो कोविड के लिये गिने-चुने अस्पताल ही क्यों तय किये गये? बाकी अस्पतालों में भी इलाज की सुविधा शुरू कर देनी चाहिये।
योग की तरफ बढ़ता रुझान
कोरोना के दूसरे स्ट्रेन में ज्यादातर मरीजों को ऑक्सीजन सिलेंडर की जरूरत पड़ रही है। हर दूसरी मौत ऑक्सीजन लेवल कम हो जाने के चलते हो रही है। डॉक्टर्स बता रहे हैं कि यदि ऑक्सीजन लेवल 90 से कम है तो वह आपके लिये खतरे की घंटी है। ऑक्सीजन का स्तर ठीक रखने के लिये ऐलोपैथी में सिलेंडर लगाना ही उपाय है। पर अस्पतालों में बिस्तरों के लिये हो रही मारा-मारी के बीच इस सुझाव पर लोग अमल कर रहे हैं कि अनुलोम-विलोम और प्राणायाम करें। बहुत से लोगों से हो रही चर्चा में यह बात सामने आ रही है कि कोरोना के खतरे को महसूस करते हुए उन्होंने योगासन के उन अभ्यासों को अपनाना शुरू कर दिया है जो उनके ऑक्सीजन के स्तर को नियंत्रित कर रहा है।
परीक्षा नहीं दिला पाना भी एक बड़ी परीक्षा
सेंट्रल बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन ने 10वीं बोर्ड परीक्षा रद्द कर दी है और 12वीं की परीक्षा टाल दी है। बच्चे स्कूल से ज्यादा कठिन पाठ से इस वक्त गुजर रहे हैं। बचपन इस तरह से घर में दुबके हुए तो नहीं बिताया जा सकता, जिसमें दोस्तों से मुलाकात न हो, मेल-मिलाप और झगड़े न हो। टीचर्स से फटकार और प्यार न मिले। ध्यान सिर्फ बोर्ड परीक्षाओं पर है पर बाकी परीक्षाओं को तो पहले से ही बच्चे बिना दिलाये पास कर चुके हैं।
अपने अनुभवों से पालक इस आपदा का सामना करने के लिये तैयार हैं पर बच्चों के लिये तो यह बहुत बुरा दौर है। हाल के कुछ शोध बता रहे हें कि एक कमरे में कैद बच्चे इंटरनेट, लैपटॉप, ऑनलाइन पढ़ाई से भी ऊबने लगे हैं। वे घर के काम में हाथ बंटाने और किताबें पढऩे के लिये उत्सुक हैं।
सरकार और समाज का पूरा ध्यान स्वास्थ्य सेवा ठीक करने, लोगों को राशन पहुंचाने तक सीमित है। बच्चों के मन में क्या गुजर रहा है इसका आकलन करना और समाधान निकालना भी एक बड़ा काम है।
इतना आसान भी नहीं कोरोना से लडऩा
हमें कोरोना से लडऩा तो है, पर उसके पहले भी बहुत सी और लड़ाई लडऩी है। पहली लड़ाई कोरोना जांच की है। फिर समय पर उसकी रिपोर्ट मिल जाने के लिये लडऩा है। पॉजिटिव आ गये हैं तो अस्पताल में बिस्तर के लिये लडऩा है। बेड मिल भी गई तो ऑक्सीजन की लड़ाई लडऩी है, रेमडिसिविर इंजेक्शन के लिये लडऩा है। बच गये तो ठीक। नहीं बचे तो श्मशान में शव जलाने के लिये लड़ाई लडऩी है।
डुबकी लगाकर लौटे लोगों का हाल
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर है, 3 दिन में हरिद्वार कुंभ पहुंचे 13 सौ लोगों को कोरोना पॉजिटिव पाया गया है। जाहिर है भीड़ है और भीड़ के दौरान कई लोगों से मेल मुलाकात होती रही। न भी हुई हो तो सोशल डिस्टेंस का तो उल्लंघन हुआ ही। संतों ने किस तरह घाटों पर स्नान किया तस्वीरों में हमने देखा ही है। मेले में स्नान के दौरान कितने और लोगों को इन्होंने संक्रमित कर दिया, कोई हिसाब नहीं। सुनने में आया है कि छत्तीसगढ़ से भी बड़ी संख्या में लोग कुंभ गये हैं। ट्रेन चल रही है इसलिये आने-जाने में खास दिक्कत नहीं है। पर ये जब अपने शहर लौटेंगे तो कितने लोग टेस्ट करायेंगे और क्वारांटीन पर रहेंगे? अपनी सेहत का ख्याल रखिये।
न्यूज चैनल न देखें, अख़बार तो पढ़ लें
कोरोना संक्रमण से जूझ रहे आईपीएस रतनलाल डांगी ने अपनी दिनचर्या शेयर की है। सुबह 5.30 बजे उठकर गरम पानी पीते हैं। बीबीसी न्यूज़ सुनते हैं, मोटिवेशनल वीडियो देखते हैं। हल्दी मिलाकर दूध पीते हैं। नींद न आये तब तक किताबें पढ़ते रहते हैं। पूरी दिनचर्या में न्यूज चैनल देखने का जिक्र नहीं हैं। यह तो ठीक है, न्यूज़ चैनल बड़ी नकारात्मकता फैला रहे हैं, पर पता नहीं, अखबार क्यों नहीं पढ़ रहे। अख़बारों की रिपोर्टिंग इतनी बुरी भी नहीं होती। बहुत से आलेख तो मोटिवेट भी करते हैं।
गवर्नर की बैठक में हाजिरी
विपक्ष का यह सवाल जायज है कि राज्यपाल की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव क्यों शामिल नहीं हुए। कोविड संक्रमण को रोकने और मरीजों के लिये बेहतर व्यवस्था करने की यह बैठक थी। स्वास्थ्य विभाग से ही जुड़ा मसला है। उनको तो होना ही चाहिये था। इसके जवाब में कांग्रेस ने सवाल उठा दिया है कि प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष क्यों नहीं आये?
वैसे बैठक में नेता प्रतिपक्ष सहित भाजपा के अनेक नेता थे। क्या लगता है, स्वास्थ्य मंत्री और विपक्ष के प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी को एक तराजू पर तौला जा सकता है?
हौसले से जीत कोरोना पर...
चिकित्सक मानते हैं कि इच्छा शक्ति मजबूत हो, तो कोरोना पर आसानी से काबू पाया जा सकता है। कई गंभीर मरीज अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बूते पर कोरोना के खिलाफ जंग जीतने में कामयाब रहे। सीकॉस्ट के चेयरमैन और सीनियर पीसीसीएफ मुदित कुमार सिंह 35 दिनों तक एक निजी अस्पताल में कोरोना से जंग लड़ते रहे, और आखिरकार कोरोना को हराने में कामयाब रहे। मुदित कुमार सिंह तो 24 दिन तक आईसीसीयू में रहे। उनकी हालत चिंताजनक बनी रही, लेकिन धीरे-धीरे वे इससे उबर गए।
भरपाई संभव नहीं
कोरोना की दूसरी लहर के आगे प्रशासनिक तंत्र भी बेबस नजर आ रहा है। पहले जैसी मुस्तैदी गायब है। प्रभारी मंत्री तो कोरोना लहर से बचने के लिए अपने बंगलों के कपाट बंद कर रखे हैं। प्रभारी सचिव को अपने प्रभार वाले जिलों में जाकर प्रशासन का मार्गदर्शन करते नहीं सुना गया। सीएम भूपेश बघेल असम से लौटे, तो थोड़ी बहुत हलचल हुई। अब सीएम-स्वास्थ्य मंत्री जरूर काफी कुछ करते दिख रहे हैं, लेकिन हालात अभी भी काबू में नहीं है। अलबत्ता, कोरोना-मौतों में थोड़ी कमी जरूर आई है। उम्मीद की जा रही है कि अप्रैल के आखिरी तक स्थिति कुछ हद तक काबू में आ जाएगी। मगर अब तक जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई संभव नहीं है।
बयानबाजी तक ही सीमित
प्रदेश के ज्यादातर विधायक कोरोना की चपेट में आए हैं। दो-तीन विधायकों को छोड़ दें, तो तकरीबन पूरा विपक्ष कोरोना से प्रभावित रहा है। नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक, पूर्व सीएम रमन सिंह, बृजमोहन अग्रवाल, नारायण चंदेल, पुन्नूलाल मोहिले, अजय चंद्राकर, शिवरतन शर्मा, डमरूधर पुजारी, सौरभ सिंह और ननकीराम कंवर भी कोरोना की चपेट में आ चुके हैं।
इसी तरह डॉ. रेणु जोगी को छोड़ दें, तो जोगी पार्टी के प्रमुख धर्मजीत सिंह, प्रमोद शर्मा और देवव्रत सिंह भी कोरोना पॉजिटिव हो चुके हैं। हालांकि ये सभी कोरोना से उबर चुके हैं। बावजूद इसके विपक्ष ने कोरोना से सचेत करने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की। विपक्ष सिर्फ बयानबाजी तक ही सीमित रहा।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ विपक्ष ही कोरोना की चपेट में आया था, बल्कि सत्तापक्ष के भी कई मंत्री विधायक कोरोना पॉजिटिव रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत भी पॉजिटिव हो गए थे। इसके अलावा स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव, जयसिंह अग्रवाल, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम, मोहम्मद अकबर, हाउसिंग बोर्ड के अध्यक्ष कुलदीप जुनेजा भी कोरोना संक्रमित रहे। बड़ी संख्या में जनप्रतिनिधि भी कोरोना संक्रमित हुए। भाजपा-कांग्रेस के कई संगठन के पदाधिकारियों की मृत्यु भी हुई है। कुल मिलाकर कोरोना का कहर हर किसी पर बरपा है।
सकारात्मक या नकारात्मक?
जब हवा में चारों तरफ महज बीमारी और मौत की चर्चा हो और लोग दहशत में जी रहे हो तो बहुत से लोग यह नसीहत देते हैं कि नकारात्मक बातें बंद कर देना चाहिए, केवल सकारात्मक बातें करनी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि आसपास जब हर कुछ घंटों में किसी परिचित की मौत की खबर आती हो और मीडिया या सोशल मीडिया में हर मिनट यह खबर रहती हो कि अस्पताल किस तरह बदहाल हो गए हैं और वहां अब लाशों के लिए भी जगह नहीं रह गई है तो सकारात्मक कैसे हुआ जाए? और एक सवाल यह भी उठता है कि ऐसे माहौल में सकारात्मक होने की बात कौन कर सकते हैं? क्या सरकारों की दिलचस्पी इसमें हो सकती है कि लोगों को ऐसे नकारात्मक हालात में भी सकारात्मक रहने की नसीहत दी जाए ताकि बदइंतजामी के खिलाफ उनके मन में कोई गुबार इक_ा ना हो सके? यह सवाल बहुत मुश्किल है क्योंकि अगर महज सकारात्मक हुआ जाए तो लोगों के मन में बद बदइंतजामी के खिलाफ गुस्सा इक_ा कैसे होगा ? और अगर गुस्सा इक_ा नहीं होगा तो हालात कैसे बदलेंगे? वक्त खराब तो चल रहा है, लेकिन अपने-आपको दिमागी रूप से खुश रखने के लिए ऐसे खराब वक्त को भी अनदेखा करना कितना जायज होगा यह पता नहीं। हो सकता है कि ऐसी हालत में एक मनोचिकित्सक और एक सामाजिक आंदोलनकारी की प्राथमिकताएं बिल्कुल अलग-अलग हों, मनोचिकित्सक को लगता हो कि नकारात्मक बातों को अनदेखा करना बेहतर है और सामाजिक आंदोलनकारी को लगता हो कि बदलाव का मौका ऐसी ही बदइंतजामी के बीच होता है।
तारीफ काम आती है
वक्त इतना खराब चल रहा है कि अखबारों के दफ्तरों में भी कई कोरोना पॉजिटिव निकल गए हैं या कई लोगों के घरों में दूसरे लोग पॉजिटिव आ गए हैं। नतीजा यह है कि काम करने के लिए लोग कम बचे हैं। और ऐसे में गलतियां भी तरह-तरह की हो रही हैं। एक अखबार के संपादक से जब एक पाठक ने शिकायत की कि अखबार में शीर्षकों भी गलतियां हो रही हैं, तो संपादक ने पाठक को खुश करते हुए कहा-हमें आपकी समझदारी पर पूरा भरोसा है कि आप ऐसी छोटी मोटी चूक के बीच भी सही बात को एकदम सही समझ जाते होंगे।
वक्त से पहले करें इंतजाम
एक जानकार तजुर्बेकार ने अपने आसपास के लोगों से कहा कि अगर तबीयत बिल्कुल ठीक हो तो घर में फल सब्जी इक_ी करके रखो, जाने कब लॉक डाउन कितना लंबा हो जाये, और अगर तबीयत जरा सी गड़बड़ लगे तो बाजार का सबसे महंगे वाला इंजेक्शन जुटा कर रखो। तबीयत थोड़ी सी और गड़बड़ लगे तो किसी पहचान के अस्पताल में बिस्तर जुटाकर रखो, और अगर अस्पताल दाखिल होना ही पड़ा तो समय रहते शव वाहन का इंतजाम कर लें शमशान में जगह और लकडिय़ों का भी। किस मरघट पर जगह मिलेगी यह भी देखें, यह पहचान भी निकाल कर रखें कि अस्पताल से शव जल्दी कैसे मिल जाएगा। अगर जान ना बच सके तो कम से कम शव का सम्मान तो बचाया जाए। समय रहते, वक्त आने के पहले किया गया इंतजाम ही आज काम आ रहा है।
लॉकडाउन का हिसाब दो..
नागपुर, महाराष्ट्र के व्यापारी लॉकडाउन के खिलाफ़ आंदोलन पर उतर आये। बर्डी बाजार, इतवारी बाजार जैसे दर्जन भर बड़े इलाकों के दुकानदारों का बड़ा जायज सवाल था। कहा- एक साल पहले भी हमने लॉकडाउन किया। तब कहा गया कि संक्रमण को फैलने से तो रोकेंगे ही, व्यवस्था भी दुरुस्त करेंगे। अब आप दुबारा लॉकडाउन कर रहे हैं तो, बताइये इतने 12 महीनों में आपने क्या किया? अस्पतालों में कितने बिस्तर बढ़ाये, कितने आइसोलेशन सेंटर बनाये, ऑक्सीजन सिलेंडर का उत्पादन कितना बढ़ा। सरकार तो जैसे ही कोरोना प्रकोप कम हुआ, फीता काटने में लग गई। मौका था, इंतजाम बढ़ाया क्यों नहीं?
नागपुर के सर्वाधिक प्रसारित साप्ताहिक ‘राष्ट्र पत्रिका’ के सम्पादक कृष्ण नागपाल बता रहे हैं कि यहां एक माह से ज्यादा लम्बे लॉकडाउन के चलते हजारों लोगों की रोजी-रोटी मारी गई है। जब पहले लॉकडाउन कराया, तब क्या व्यवस्था बढ़ाई। हम बिना डिग्री देखे एक-एक दुकान में दस-दस युवकों को नौकरी देते हैं। हमारी दुकान खुलती है तो उनका परिवार चलता है। दरअसल, वे हमारे परिवार का हिस्सा है। दुकान बंद कर देंगे तो हम कैसे उनको पालेंगे? हम तो दुकान के मालिक हैं, चलो दो चार महीने गाड़ी खींच लेंगे, पर कर्मचारियों के घर की क्या हालत होगी?
आपको क्या लगता है? ये सवाल सिर्फ नागपुर से है या छत्तीसगढ़ के व्यापारियों का भी है?
वादा राम मंदिर का था..
सोशल मीडिया पर हर किसी को छूट है कि संसदीय भाषा में कुछ भी राय जाहिर कर दे। एक यूजऱ ने यह तस्वीर यह बताते हुए पोस्ट की है कि- वादा राम मंदिर का था। अस्पताल और वेंटिलेटर मांग कर शर्मिंदा न करें।
छूट के बावजूद उद्योगों में ताले
प्रदेश के अधिकांश हिस्से इन दिनों लॉकडाउन के घेरे में हैं। बीते साल लॉकडाउन के समय पाया गया की अधिकांश उद्योग धंधे ठप पड़ जाने से मजदूरों, श्रमिकों के सामने भूखों मरने की स्थिति आ गई थी। इस बार सरकार चाहती नहीं थी लॉकडाउन लगे पर परिस्थिति भयावह हो चुकी है। उद्योगों को इस बार छूट दी गई है कि वे परिसर के भीतर श्रमिकों के रुकने की व्यवस्था कर सकते हैं तो फैक्ट्री चालू रख सकते हैं। इसके बावजूद रायपुर, कोरबा, बिलासपुर सब तरफ से खबर है कि 50 फीसदी से ज्यादा उद्योगों में काम बंद हो गया है। इसकी वजह सामने यह आ रही है कि अनेक उद्योगों के पास रुकने की जगह नहीं है, है भी तो वहां मजदूर रुकना नहीं चाहते। वे छुट्टी लेकर घर चले गये हैं। जिस तरह से अनेक जरूरी कार्य करने वालों को घरों से निकलने की छूट दी गई है, ऐसा श्रमिकों के लिये भी किया जा सकता था लेकिन शायद प्रशासन को लगा कि इस छूट का दुरुपयोग हो सकता है और बड़ी संख्या में लोग सडक़ों पर दिखेंगे। इससे लॉकडाउन का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। निर्माण कार्यों पर रोक लगा देने से श्रमिक खाली हाथ रह गये हैं। यात्री परिवहन सेवा में लगे कर्मचारी, सडक़ किनारे दुकान लगाने वाले, होटल, रेस्तरां में काम करने वाले लोग लॉकडाउन खत्म हुए बगैर रोजी-रोटी नहीं कमा पायेंगे। लॉकडाउन के चलते आर्थिक गतिविधियों पर मार तो पड़ी है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती, यह साफ हो गया।
इलाज की दर से किसका फायदा?
निजी अस्पतालों के खिलाफ आ रही लगातार शिकायतों के बाद आखिरकार राज्य सरकार ने कोविड मरीजों के लिये शुल्क निर्धारित कर दिया। सरसरी तौर पर दिखता है कि यह मरीजों के हक में है पर कई शंकायें लोग खड़ी कर रहे हैं। एक दिन के बेड का न्यूनतम किराया 6800 रुपये रखा गया है जो आईसीयू, एसी तक जाने पर 17 हजार रुपये प्रतिदिन लिया जा सकता है। ऑक्सीजन सिलेंडर, एनेस्थेटिक, कंसल्टेन्ट, पीपीई किट जैसे कुछ खर्च इस दर में शामिल है। यह दर काफी ज्यादा है जो किसी स्टार लेवल के अस्पतालों का होता है। इसके अलावा भी कई सुराख छोड़ दिये गये हैं। वेंटिलेटर और सीटी स्कैन का खर्च इसमें नहीं जोड़ा गया है। अक्सर गंभीर होने पर ही मरीज को निजी अस्पतालों की जरूरत पड़ती है वरना तो वह सरकारी बेड नहीं मिलने पर होम आइसोलेशन पर रहना पसंद करता है। ऐसे मरीज को प्राय: वेंटिलेटर की जरूरत होती है। इस समय जो कोरोना मरीज आ रहे हैं उनमें से ज्यादातर लोगों को निमोनिया और फेफड़े में संक्रमण की शिकायत है। ऐसे मरीजों का बार-बार सीटी स्कैन किया जा रहा है। कोरोना के स्तर की जांच का यह तरीका डॉक्टरों ने अपनी ओर से निकाला है। सीटी स्कैन का बिल भारी-भरकम होता है। एक मरीज को 10 से 12 दिन भर्ती करना पड़ता है। ऐसे में कुल खर्च कितना आयेगा, इसका हिसाब लगाया जा सकता है। मतलब यह है कि जो दरें घोषित की गई हैं, उससे ऐसा लगता है कि कोरोना पीडि़तों से ज्यादा अस्पताल संचालकों ने राहत महसूस की है।
राशन दुकान बंद रखने का औचित्य
लॉकडाउन में इस बार राशन दुकानों को बंद रखा गया था। पिछली बार मार्च माह में जब केन्द्र सरकार की ओर से अचानक लॉकडाउन की घोषणा की गई थी तब सभी दुकानें बंद कर दी गई थीं और इसके बाद विशेषकर रोज कमाने खाने वाले बीपीएल परिवारों को खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा था। उसके बाद जब राज्य सरकार के हिस्से में लॉकडाउन लगाने का अधिकार आया तो राशन दुकानें खोली ही नहीं गई बल्कि दो-दो माह का राशन एक साथ दिया गया। इस बार लॉकडाउन को देखते हुए पहले से कोई आबंटन नहीं है न ही ऐलान किया गया कि अपने हिस्से का पीडीएस चावल उठा लें। राज्य सरकार का तर्क है कि जिन्हें जरूरत होगी, वे उनके लिये हेल्पलाइन नंबर दिये गये हैं। उन्हें राशन घर पहुंचाकर दिया जायेगा। । गरीबों का राशन उठाने वाले बहुत से लोग नि:शक्त जन और अत्यंत वृद्ध भी हैं, जिन्हें पता ही नहीं कैसे राशन मंगाना है। किस नंबर पर कॉल करना है, कैसे उन तक राशन पहुंचेगा। पिछली बार जिस तरह से तीन चार माह तक बीपीएल परिवारों को मुफ्त राशन दिया गया, इस बार भी लोगों के हाथ में कम से आठ दिन के लिये कोई काम नहीं है। थोड़े दिनों का कोटा ही सही, मुफ्त राशन फिर देने की व्यवस्था की जा सकती थी। वैसे भी धान, चावल की सरकार के पास कोई कमी है नहीं।
एडवांस लेने-देने वालों में तनातनी
छत्तीसगढ़ में लॉकडाउन भी ऐसे वक्त पर लगा है जब एक के बाद एक शादियों का मुहूर्त है। अकेले अप्रैल माह में 10 से अधिक शुभ मुहूर्त हैं। पर सब लॉकडाउन की भेंट चढ़ गये। साल भर से कोरोना महामारी के चलते मंगल भवन, बैंड बाजा, कैटरिंग, डीजे, फूल माला, टैक्सी, पार्लर का कारोबार ठप पड़ा हुआ था। इस बार फरवरी माह से ऐसा लगा था कि प्रकोप अब खत्म हो जायेगा। लोगों ने रिश्ते ठीक किये, विवाह भवन, बैंड बाजा, कैटरिंग की एडवांस बुकिंग करा ली। काफी पैसे इसमें निकल गये। कई ने कार्ड भी छपवा डाले। अब अचानक लॉकडाउन लग गया है। ये दौर अगले हफ्ते दस दिन में खत्म हो भी जाये तो भी ऐसे हालात हैं कि बड़ा आयोजन करने की इजाजत मिलने वाली नहीं है। प्रकोप का अचानक छू मंतर होना भी संभव नहीं है।
अब बुकिंग लेने वालों और अग्रिम राशि देने वालों के बीच विवाद हो रहा है। जिन लोगों ने एडवांस दिया, पैसे वापस मांग रहे हैं। लेने वाले कह रहे हैं बुकिंग तो आप कैंसिल कर रहे हैं, हम क्यों वापस करें। हमने भी तो मजदूरों को आपके भरोसे एडवांस दे दिया। एक इवेंट मैनेजर ने तो कह दिया कि हमने तो आपकी बरात के लिये बग्घी और घोड़े भी खरीद लिये हैं। इतनी रियायत दे सकते हैं कि आप तारीख आगे खिसका दीजिये हम बिल में से एडवांस ली गई रकम को कम कर देंगे। आफत है। ये महामारी बीमार ही नहीं, दुश्मन भी पैदा कर रही है।
वर्क फ्रॉम होम की नसीहत
लॉकडाउन को लेकर जिले के कलेक्टरों के कॉपी-पेस्ट आदेशों में एक खास बात यह है कि उन्होंने मीडिया के लोगों को ‘वर्क फ्रॉम होम’ की सलाह दी है। अच्छी सलाह है, मीडिया से जुड़े लोगों की सेहत की परवाह कर रहा है प्रशासन। पर, अफसोस सौ फीसदी ऐसा करना मुमकिन नहीं। घड़ी चौक पर मुस्तैद जवानों की तस्वीर तो घर बैठे मिल जायेगी, पर फाफाडीह में होने वाली पिटाई की रपट घर बैठकर नहीं बनाई जा सकती। सूचनायें मिलने से आम लोगों तक पहुंचाने के बीच किसी ख़बर को कई चरणों से गुजरना पड़ता है। जिस तरह से प्रशासन और पुलिस के कामकाज की पूरी समझ मीडिया को नहीं है, उसी तरह से उन्हें भी मीडिया के काम की एबीसीडी मालूम नहीं है।
यह सलाह मीडिया के काम को कमतर आंकने की है। बीते दो दिनों के भीतर दो पत्रकारों को कोरोना ने लील लिया है। बिलासपुर के प्रदीप आर्य और दुर्ग के जितेन्द्र साहू को। हर शहर में दर्जन, दो दर्जन पत्रकार कोरोना संक्रमित हैं। जाहिर है ये इन खतरों को अपनी जवाबदेही समझकर गले लगा रहे हैं, मनोरंजन के लिये नहीं। अस्पतालों में भर्ती और इस दौरान जरूरी दवाई हासिल करना उन नसीहत देने वाले लोगों की तरह आसान नहीं हैं जो शासन-प्रशासन के अंग हैं। कुछ राजनेताओं ने हाल ही में मीडियाकर्मियों को कोरोना वारियर्स का दर्जा देने की मांग उठाई है और कहा है कि इलाज और वैक्सीनेशन में उन्हें भी स्वास्थ्य, प्रशासन, पुलिस से जुड़े लोगों की तरह प्राथमिकता मिले। पर मीडिया कर्मी ऐसे हैं कि वे इन सुविधाओं को हासिल करने के लिये गिड़गिड़ा नहीं रहे हैं, खतरे मोल कर काम किये जा रहे हैं।
इतने त्यौहार और इतनी वीरानी
नववर्ष, नवरात्रि, चेट्रीचंड, उगादी, गुड़ी पड़वा, बैसाखी, नौरोज़ और कल से रमजान। देश के हर कोने में आज का दिन उत्सवों का है। पर स्वास्थ्य और सुरक्षा का सवाल है। बीते साल की तरह इस बार भी संक्रमण ने इस तरह घेर रखा है कि न तो नववर्ष की जुलूस सडक़ों पर है, न चेट्रीचंड की बाइक रैली दिखाई दे रही है। बैसाखी पर होने वाले भांगड़ा का उत्सव भी फीका पड़ा है। देवी मंदिरों में भक्तों की कतार नहीं लगी है। महामारी शायद सबक दे रही है कि आस्था का प्रदर्शन किये बिना भक्ति कैसे होती है, मन को जगाओ और महसूस करो।
उत्सव मनाने का दिल नहीं करता..
कोरोना की जबरदस्त मार से कराह रहे लोगों को इस बार ताली-थाली बजाने का बिल्कुल मन नहीं हो रहा है। फिर भी प्रधानमंत्री की ओर से अपील की गई है, टीका उत्सव मनाने की। इस समय हर किसी के जान-पहचान का या परिवार का कोई न कोई संक्रमित है। अचानक उनमें से किसी की मौत की ख़बर भी मिल रही है। यह पिछले कोरोना काल से बिल्कुल अलग है जिसमें लोगों को विपदा से निपट लेने का ज्यादा भरोसा था। लोग लॉकडाउन में फंसे लोगों को राशन पानी देने, घर पहुंचाने और दवायें पहुंचाने का काम कर रहे थे। इस बार अब तक बच गये लोगों को लग रहा है कि पता नहीं किस दिन खुद या परिवार मुसीबत से घिर जाये। बीमार होंगे तो बिस्तर मिलेगा या नहीं, बिस्तर मिलेगा तो ऑक्सीजन बेड मिलेगा नहीं, ये भी मिल गये तो इंजेक्शन मिलेगा या नहीं। जो लोग मोदी विरोधी हैं वे तो टीकाकरण को उत्सव का नाम देने की आलोचना कर ही रहे हैं, जैसे राहुल गांधी। पर उनके समर्थकों की तरफ से भी इस उत्सव को लेकर कोई उत्साह दिखाई नहीं दे रहा है।
भाजपा नेताओं ने हाल ही में कहा है कि वे कोरोना महामारी से निपटने के लिये प्रशासन का हर प्रकार से सहयोग करने के लिये तैयार हैं, बताइये क्या करें? क्या करना है, यह मोदी जी ने टीका उत्सव की अपील करते हुए खुद ही बता दिया है। एक, जो लोग कम पढ़े लिखे हैं या बुजुर्ग हैं, जो खुद टीका नहीं लगवा सकते उनकी मदद करें। दो, जिन लोगों के पास साधन नहीं, जानकारी नहीं कोरोना के इलाज में उनकी मदद करें। तीन, स्वयं मास्क पहनकर खुद को सुरक्षित रखूं, दूसरों को भी रखूं-इस पर बल देना है। चार, जहां पर भी कोई कोरोना पॉजिटिव मिलता है वहां परिवार और समाज के लोग मिलकर माइक्रो कंटेनमेन्ट जोन बनायें।
हालांकि प्रधानमंत्री की अपील सभी के लिये है पर उम्मीद की जानी चाहिये भाजपा की ओर से इसकी पहल होगी। जब कोविड वैक्सीनेशन शुरू हुआ था तब भी उन्होंने टीकाकरण केन्द्रों में जाकर, गुलाब देकर, लोगों का अभिनंदन करने की पहल की थी और यह काम अब भी हो रहा है। बस इसी में प्रधानमंत्री के इन चार बिन्दुओं के उत्सव को और जोडऩा है। उनकी देखा-देखी में बाकी लोग भी आगे आयेंगे।
महिला सिपाही की वाहवाही
पुलिस विभाग में नीचे के कर्मचारियों के पास काम का इतना बोझ होता है कि अलग हटकर कुछ रचनात्मक करने का समय नहीं होता। यह काम तो आईएएस, आईपीएस अधिकारियों के लिये आसान होता है जिनके पास अपनी समाज सेवा और रुचि को जमीन पर उतारने के लिये आसानी से टीम मिल जाती है। थोड़े प्रयासों पर बड़ी वाहवाही मिल जाती है। ऐसे में कबीरधाम (कवर्धा) जिले की महिला सिपाही अंकिता गुप्ता के हौसले का लोहा मानना ही चाहिये। उन्हें इस बात श्रेय है कि मामूली आरक्षक पद पर होते हुए भी करीब 200 लड़कियों को उन्होंने इस तरह प्रशिक्षित किया कि उन्हें पुलिस व केन्द्रीय बल में ज्वाइनिंग मिल गई। अंकिता एथलेटिक्स भी है और 9 बार राष्ट्रीय स्तर की स्पर्धाओं में अपने महकमे का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। वह आत्मरक्षा के लिये प्रशिक्षण कैम्प चलाती हैं और स्कूलों में गुड टच, बैड चट को लेकर जागरूकता लाने कार्यक्रम करती हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने एक नया अवार्ड वीरनी पुरस्कार इस साल से शुरू किया है। अंकिता गुप्ता उन सात महिलाओं में एक हैं, जिन्हें 14 अप्रैल को मुख्यमंत्री के हाथों वर्चुअली यह पुरस्कार दिया जायेगा।
दुकान जायें तो मास्क जरूर लगायें, कोई चुनावी रैली तो अपने यहां हो ही नहीं रही, जो छूट मिले।
रेमडेसिविर इतना जरूरी भी नहीं
कोरोना को लेकर बेड, दवाओं की मची मारामारी के बीच सोशल मीडिया में टेक्स्ट, ऑडियो और वीडियो फार्मेट में ढेर सारी सलाहें भरी पड़ी हैं। ऐसे में समझ नहीं आता कि किस पर भरोसा करें, किस पर नहीं। इतनी सलाहें जितनी बैगा-गुनिया और नीम हकीम भी नहीं देते। घबराहट में लोग हर नुस्खे आजमाये जा रहे हैं। दहशत इतनी है कि कोरोना संक्रमण होते ही लोग किसी भी कीमत पर अस्पताल में भर्ती होने के लिये उतावले हैं। डॉक्टर भी तौल लेते हैं कि मरीज की कितनी क्षमता है। कितने ही अस्पतालों में एक-एक दिन का बिल एक लाख रुपये से अधिक पहुंच रहा है। यह उस बीमारी या महामारी के इलाज में हो रहा खर्च है जिसकी कोई दवा अब तक निकली ही नहीं।
ऐसे में एक वीडियो वाट्सएप, ट्विटर और यू-ट्यूब पर तेजी से वायरल हो रहा है जो किसी अनजान इलाके के अविश्सनीय डॉक्टर का नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के ही रामकृष्ण केयर हॉस्पिटल के चेस्ट फिजिशियन डॉ. गिरीश अग्रवाल का है। इसमें वे एक हद तक इलाज से जुड़ी अनेक घबराने वाली बातों, अफवाहों पर बड़ा स्पष्टीकरण दे रहे हैं। इनके वीडियो से यह निष्कर्ष निकलता है कि सेमडेसिविर इंजेक्शन की जरूरत बहुत कम मरीजों को है, जिसकी आज मारामारी मची है। इस इंजेक्शन का अनावश्यक इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं। सिटी स्कैन भी जरूरी नहीं। ऑक्सीजन बेड भी हर मरीज को जरूरी नहीं है। डेक्सोना जैसे स्टारायड खाने की आवश्यकता नहीं है। लोग बहुत से टेस्ट करा रहे हैं, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। इस समय निजी अस्पतालों में इन्हीं के नाम पर लूट मची हुई है। यह भ्रम भी न पालें कि आपका एम्यून सिस्टम अच्छा है तो कोरोना नहीं होगा। सारा खेल ऑक्सीजन लेवल का है। कोविड टेस्ट किसी मरीज के सम्पर्क में आने के चार पांच दिन बाद कराना सही होगा। ऐसी अनेक दवायें, इंजेक्शन मरीज ले रहे हैं जो डब्ल्यूएचओ की प्रोफाइल एक्स में है ही नहीं। जो दवायें वास्तव में जरूरी है वह तो बहुत सस्ती हैं।
आपके वाट्सएप ग्रुप में अब तक नहीं पहुंचा हो तो अब करीब आठ मिनट का यह वीडियो गिरीश अग्रवाल के चैनल पर यू ट्यूब पर जाकर देख सकते हैं। दो दिन के भीतर यह लाखों लोगों तक पहुंच चुका है। बहुत सी मौतें नासमझी और गलत इलाज के कारण हो रही हैं। कोरोना को मात देना मुमकिन है बस समझदारी रखें। इस वीडियो को देखने से कई शंकाओं का समाधान मिलेगा। कोरोना को लेकर घबराहट कम होगी।
लोकल ट्रेनों में यात्री कैसे मिलें?
एक ओर रेलवे ने हाईकोर्ट में दायर याचिका के दबाव में आकर छत्तीसगढ़ के सभी मार्गों के लिये लोकल व पैसेंजर ट्रेन शुरू कर दिये, दूसरी ओर एक के बाद राज्य के विभिन्न जिलों में लॉकडाउन लगता जा रहा है। इसके चलते लोकल ट्रेनों में सफर करने लोग निकले भी तो क्यों? काम धंधा बंद है तो किसी शहर में क्या करेंगे जाकर। इसके चलते कल से शुरू हुई लोकल ट्रेनों में यात्रियों का भारी संकट पैदा हो गया है। जब इन ट्रेनों की घोषणा की गई तो कोरोना संक्रमण इतनी तेजी से नहीं फैला हुआ था। याचिका दायर करने वालों को भी शायद पता नहीं था। स्थिति यह है कि टिटलागढ़, गोंदिया, झारसुगुड़ा आदि के लिये चलने वाली ट्रेनों में यात्री न के बराबर हैं और ट्रेन खाली डिब्बों के साथ दौड़ रही हैं। अधिकांश जिलों में अगले एक सप्ताह के लिये लॉकडाउन है। जहां नहीं है वह भी एक दो दिन में होने वाला है। अब रेलवे इन ट्रेनों को चलाती रहेगी या रद्द करेगी, यह देखा जाना है।
अति उत्साह ने मुश्किल में डाला, पोस्ट हटाया
कसडोल विधायक शकुन्तला साहू सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हैं। हर दिन पांच दस अपडेट तो दिख ही सकते हैं। पर कल डाली गई एक पोस्ट ने उन्हें बैकफुट पर ला दिया। उन्होंने कोविड का टीका लगवाया और फोटो ट्विटर पर डाल दी। अपील की सबसे कि टीका लगवायें। विधायक शकुंतला 45 प्लस की तो हैं ही नहीं। अभी इस उम्र को हासिल करने में उन्हें 10 से 12 साल लगने वाले हैं, फिर उन्होंने टीका कैसे लगवा लिया? अभी तो कम उम्र वालों को टीका लगाने का चरण शुरू ही नहीं हुआ है।
भाजपा ने इसे मुद्दा बना लिया और एक के बाद कांग्रेस तथा विधायक पर वार होने लगे। कहा- ऐसे ही नियम विरुद्ध दबाव डालकर टीका लगवाने के कारण प्रदेश में वैक्सीन की कमी हो गई है। एफआईआर दर्ज करने की मांग भी करने लगे। शायद विधायक घबरा गईं और उन्होंने सोशल मीडिया से अपना पोस्ट हटा लिया। बात यह है कि अभी तो विधायक ने पहला ही डोज लगवाया, कोर्स पूरा करने के लिये दूसरा डोज भी लगवाना जरूरी है। वरना वैक्सीन का असर नहीं होगा। बस इतना ही करना है कि सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने से बचना है।
रेल यात्रियों को क्वारंटीन से छूट?
रायपुर, बिलासपुर के हवाईअड्डों में उतरने वाले यात्रियों को अब 72 घंटे पहले का आरटीपीसीआर कोविड टेस्ट रिपोर्ट दिखाना जरूरी कर दिया गया है। एक सामान्य धारणा यह बन रही है कि दूसरे राज्यों से पहुंचने वाले यात्रियों के कारण छत्तीसगढ़ में कोरोना संक्रमितों की संख्या में एकदम से उछाल आया है। इसलिये ऐसा कदम प्रत्याशित था। हालांकि इसमें कुछ देर कर दी गई। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के बीच अंतर्राज्यीय बस सेवा तो पहले से ही बंद कर दी गई है। राज्य की सीमाओं पर चेकिंग की जा रही है। इधर लोग भी मुख्य मार्ग के बजाय गांवों के रास्ते एक राज्य से दूसरे राज्य की सीमा पार कर रहे हैं।
इस आदेश में कहा गया है कि जो लोग टेस्ट रिपोर्ट लेकर नहीं आयेंगे उनका हवाईअड्डे पर ही टेस्ट किया जायेगा। पॉजिटिव ही नहीं, निगेटिव होने पर भी उन्हें सात दिन स्वयं के व्यय पर क्वारंटीन पर रहना होगा। सडक़ मार्ग की यात्रा करने वालों को यह छूट तो दी गई है कि वे किसी जरूरी काम से किसी शहर में एक दो दिन के लिये दूसरे प्रदेश से आये हैं तो बिना क्वारंटीन हुए लौट सकते हैं पर हवाई यात्रा करने वालों के बारे में निर्देश में कुछ नहीं है।
बीते साल जब कोरोना का संक्रमण फैला तो हवाई सेवायें लम्बे समय तक बंद रहीं, ट्रेनें भी ठहर गईं। बाद में फंसे यात्रियों को मंजि़ल तक पहुंचाने के लिये ट्रेनें चलाई गई थीं। तब स्टेशन पर एक-एक यात्री का टेस्ट किया गया और क्वारंटीन अनिवार्य किया गया। पिछले अप्रैल माह के मुकाबले छत्तीसगढ़ में ही इस बार कई गुना अधिक केस हैं। पर दूसरे राज्यों से पहुंच रहे रेल यात्रियों के लिये हवाई या बस यात्रियों की तरह कोई बंदिश नहीं है। रेल यात्रियों के लिये अब तक कोई निर्देश जारी नहीं हुआ कि दूसरे राज्यों से आने वाले अपना अनिवार्य टेस्ट करायें और क्वारंटीन पर रहें, जबकि स्पेशल ट्रेनों की संख्या बढऩे के बाद अधिकतर लोग ट्रेन से एक से दूसरे राज्य आना-जाना कर रहे हैं। राजस्थान सरकार ने रेल यात्रियों के लिये कोविड निगेटिव रिपोर्ट अनिवार्य किया है तो तमिलनाडु ने ई पास को जरूरी किया है। जहां आदेशों और जुर्माने के बावजूद सोशल डिस्टेंस और मास्क के निर्देशों का पालन कराना मुश्किल काम हो, वहां रेल यात्रियों से भी उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे सख्त आदेश और निगरानी के बिना ही अपनी जिम्मेदारी से कोविड टेस्ट कराएं और क्वारंटीन हो जायेंगे।
परीक्षा के लिये यह भी एक सुझाव..
माध्यमिक शिक्षा मंडल की 10वीं बोर्ड परीक्षा आखिर स्थगित कर दी गई है। बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर पालक एक तरफ जहां निश्चिन्त हुए वहीं दूसरी ओर बोर्ड परीक्षा जैसे महत्वपूर्ण पड़ाव पर आये ठहराव ने उन्हें चिंता में भी डाल दिया। ज्यादातर बच्चों ने पूरा साल घर में बिताया, झुंझलाए पालकों ने फीस पूरी पटाई। बच्चों की मानसिक स्थिति को समझना होगा, जो परीक्षा न होने, स्कूल कैम्पस से दूर रहते हुए अपने भविष्य को लेकर क्या सोचते हैं।
बीते साल कई परीक्षाएं घर से बैठकर दी गई। प्रश्न पत्र हाथ में तो उत्तर बताने वाले नोट्स भी। इसके चलते उत्तीर्ण छात्रों का प्रतिशत काफी बढ़ा। अब सुझाव आ रहा है कि जिस तरह से मोहल्ला क्लास और पढ़ाई तुंहर द्वार योजना चलाई गई उसी तरह से मोहल्ला परीक्षा और परीक्षा तुंहर द्वार जैसा कुछ करना चाहिये। है तो यह कुछ अजीब सुझाव, लेकिन विचार करते रहने से कोई अच्छा विकल्प तो सामने आ ही सकता है।
वैक्सीन आपूर्ति के दांव-पेंच
छत्तीसगढ़ देश के उन टॉप प्रदेशों में है जहां कोरोना संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है। जिस वैक्सीनेशन अभियान को गति देने में सरकार और प्रशासन को मुश्किल का सामना करना पड़ा, अब लोग उसके लिये बेचैन हैं। किसी भी जिले में मांग के अनुरूप वैक्सीन की आपूर्ति नहीं हो पा रही है और वैक्सीनेशन लक्ष्य तक नहीं पहुंच पा रहा है। लोग सोच रहे होंगे कि वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियां तो मालामाल हो गई होंगी। इधर, कोविशील्ड बनाने वाली कम्पनी सीरम इंस्टीट्यूट ने कहा है कि उसे उत्पादन बढ़ाने के लिए तत्काल तीन हजार करोड़ रुपये की आवश्यकता है। केन्द्र को कम्पनी ने पत्र लिखकर कंपनी ने कर्ज नहीं, अनुदान मांगा है। कंपनी का कहना है कि ऐसा नहीं है कि हम मुनाफा नहीं कमा रहे हैं पर सरकार के कहने पर हम वैक्सीन बहुत रियायती दर पर दे रहे हैं। ज्यादा उत्पादन के लिये ज्यादा मुनाफा कमाने की जरूरत है। इसलिये अनुदान मिले।
यानि छत्तीसगढ़ ही नहीं, दूसरे राज्य भी जहां कोरोना से जंग लड़ी है सीरम कम्पनी के मालिक उदार पूनावाला की उदारता के भरोसे हैं। वैसे बीच में केन्द्र सरकार है। वही लेन-देन की बात करती है। सवाल महामारी से निपटने का है, कम्पनी की डिमांड का तो कोई न कोई रास्ता वह निकालेगी। वैसे कम्पनी ने यह मांग तब उठाई है जब ब्रिटेन और स्वीडन से उसे आपूर्ति में कमी को लेकर कानूनी नोटिस दी गई है।
क्या आगे भी इनकी मदद ली जाएगी?
बीजापुर हमले के दौरान बंधक बनाए गए जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को रिहा करने के लिए नक्सलियों ने जो तरीका अपनाया वह पहले से कुछ हटकर था। कोई शर्त मनवाए बगैर जल्दी ही उन्होंने जवान को छोड़ दिया। मध्यस्थों में धर्मपाल सैनी को छोडक़र बाकी का नाम बस्तर से बाहर पहले नहीं सुना गया होगा। सरकार के लिए एक उम्मीद बनती है कि वह शांति वार्ता के लिए इन्हें या इनके जैसे ही लोगों की आगे मदद ले और बस्तर में शांति की नई पहल हो।
कमाई की भी दूसरी लहर शुरू
कोरोना संक्रमण के फैलाव को यह लॉकडाउन रोक पाएगा या नहीं यह तो भविष्य में ही पता चलेगा लेकिन सरकार और प्रशासन ने किसे बेहतर विकल्प माना है इसलिए विरोध जताने का कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता। जिस तरह सोशल डिस्टेंस के नियम का उल्लंघन बीते दो-तीन दिनों की बाजार में पहुंची भीड़ से हो गया है, उसने शायद 10 दिनों की आपस में दूरी बनाए रखने के लिए की गई कोशिश पर पानी फेर दिया। बीते साल भी जब कोरोना के पहले दौर में कई शहरों में लॉकडाउन लगाया गया था तो उसके बाद नए संक्रमित की संख्या में बहुत कमी नहीं आई थी। शायद इसकी वजह बंद से पहले पैदा हुई इसी तरह की परिस्थितियां थी। इस बार भी किराना सामान और सब्जी अनाप-शनाप दामों पर बेचा गया और प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। उसका सारा जोर किस समय संक्रमण से लोगों को बचाने अस्पतालों की व्यवस्था देखने, लाक डाउन को सही तरीके से लागू कराने में है और इसका फायदा कुछ कारोबारी उठा रहे हैं। प्रशासन ने शायद पिछली बार की तरह संवेदना भी नहीं दिखाई है कि जिन लोगों ने क्षमता थी 10 दिन की खरीददारी कर ली लेकिन जो लोग रोज कमाने खाने वाले हैं उनका क्या होगा?
कोरोना के पीछे क्या है?
छत्तीसगढ़ में कोरोना के विस्फोट पर लोगों की अलग-अलग अटकलें लग रही हैं। इन अटकलों का तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि अपनी सोच से लेना-देना है। जिसे जिस तबके पर निशाना लगाना है, वे उसी तबके को कोरोना फैलाने के लिए जिम्मेदार ठहरा दे रहे हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि छत्तीसगढ़ में हुए क्रिकेट मैच की वजह से कोरोना बुरी तरह फैला है और तीन दिग्गज क्रिकेट खिलाड़ी भी रायपुर से कोरोना लेकर लौटे। दूसरी तरफ बहुत से लोगों का यह मानना है कि लोगों ने सरकारी सलाह के खिलाफ जाकर जमकर होली खेली, और उसी का नतीजा है कि होली खेलने वालों में बड़ी संख्या में कोरोना पॉजिटिव मिल रहे हैं।
अब क्रिकेट का कोई धर्म है नहीं, लेकिन जिस धर्म के व्यवहार के वक्त प्रदूषण न फैलाने की सलाह दी जाती है, उसे बुरी लग जाती है, जिसे जुलूस निकालने से मना किया जाता है, उसकी धार्मिक भावनाएं लहूलुहान हो जाती है। जब होली पर भीड़ न लगाने की सलाह दी गई थी, तब भी लोगों ने इसे हिन्दू धर्म को ही सलाह देने की बात कही थी। जो भी हो क्रिकेट के भगवान की भीड़ हो, या होली की धार्मिक भीड़ हो, कोरोना को भीड़ पसंद आ रही है। यह अलग बात है कि बंगाल के चुनाव में देश की सबसे बड़ी भीड़ लग रही है, और शायद वहां कोई भी पार्टी कोरोना की जांच नहीं चाहती है।
अस्पतालों की लूट पर नजर क्यों नहीं?
कोरोना का संक्रमण जितनी तेजी से फैल रहा है उसने लोगों के होशो-हवास उड़ा दिये हैं। अस्पतालों में बेड, ऑक्सीजन यूनिट व वेंटिलेटर के लिये मारामारी तब मची हुई है, जब कोई विशेषज्ञ यह नहीं कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा है कि यह संक्रमण का अधिकतम है। कितने हजार या लाख लोग चपेट में आयेंगे और कितनी जिंदगियां यह वायरस लीलने वाला है, यह कोई नहीं जानता। यह तय है कि कुछ दिन यही रफ्तार बनी रही तो संख्या इतनी बढ़ सकती है कि इलाज के निजी और सरकारी सभी प्रबंध फेल हो जायेंगे। इधर लगातार खबरें आ रही है कि मरीजों को सिफारिश के आधार पर अथवा उनकी आर्थिक क्षमता को तौलकर भर्ती और इलाज का फैसला निजी अस्पताल कर रहे हैं। एकाएक प्रतिदिन के बिस्तर और दवाओं का बिल 10-10 गुना बढ़ा दिया गया है। रेमडेसिवर इंजेक्शन, जिसकी सांसों का लेवल बढ़ाने में बड़ी भूमिका है की जमाखोरी और कालाबाजारी शुरू हो गई है। इसे भी पांच गुना अधिक दाम पर बेचा जा रहा है। इस बारे में सरकार की ओर से निजी अस्पतालों, दवा विक्रेताओं को कोई चेतावनी नहीं दी गई है, न ही उन पर निगरानी स्थानीय प्रशासन कर रहा है। हालात खराब तो हो ही चुके हैं इसे बदतर होने से बचाने के लिये एक एक्शन प्लान तो तुरंत बनना ही चाहिये।
रेलवे की तैयारियों पर पानी फिरा
अप्रैल माह में 10 अप्रैल से रेलवे करीब एक दर्जन पैसेंजर और आधा दर्जन एक्सप्रेस स्पेशल ट्रेन शुरू करने की घोषणा करीब 15 दिन पहले कर चुकी थी। यह घोषणा तब की गई थी जब कोरोना के इतने मामले बढऩे का अनुमान नहीं था। हजारों यात्रियों ने इन ट्रेनों के लिये टिकट कटा रखी है लेकिन कोरोना और लॉकडाउन के चलते अब वे अपनी यात्रा का प्लान कैंसिल कर रहे हैं। रेलवे ने भी ज्यादातर ट्रेनों में, खासकर जो एक राज्य से दूसरे राज्य जाती है में चलने वाले यात्रियों के लिये आरटीपीसीआर टेस्ट की रिपोर्ट को अनिवार्य कर दिया है। बहुत से यात्री इस झंझट से भी बचने के लिये यात्रा के प्रति उदासीन हुए हैं। कोरोना की रफ्तार नहीं थमी तो हो सकता है कि ट्रेनें खाली गुजरें और संचालन रोकना पड़े। वैसे भी घोषणा में लिखा गया है कि ये ट्रेनें अगले आदेश तक ही चलेंगीं। यानि कभी भी बंद की जा सकेंगीं।
मजदूर फिर घर वापस लौट रहे
कोरोना का प्रकोप कम होने के बाद दूसरे राज्यों में काम के लिये जाने वाले मजदूर बड़ी संख्या में एक बार फिर घर वापस लौटने के लिये अपना बोरिया-बिस्तर समेट रहे हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, एमपी, कर्नाटक जैसे राज्यों में कमाने-खाने के लिये गये प्रवासी मजदूरों ने पिछली बार लॉकडाउन के बाद जिस त्रासदी को भोगा था, उसे याद कर वे अब भी कांप रहे हैं। वे नहीं चाहते कि वैसी स्थिति दुबारा पैदा हो। हालांकि जिन ठेकेदारों ने उन्हें बुलाया है वे आश्वस्त कर रहे हैं कि इस बार हम उनकी हिफाजत की तैयारी रखकर चल रहे हैं, पर मजदूर जानते हैं कि फैक्ट्रियां और निर्माण कार्य लम्बे समय तक बंद होंगे तो उन्हें आखिर कितने दिन मदद मिल सकेगी। इन मजदूरों में छत्तीसगढ़ के भी हैं। रेलवे ने तो मजदूरों के लिये बिहार के लिये स्पेशल ट्रेन तक चलाने का निर्णय लिया है। हो सकता है कि लॉकडाउन की पहले से चेतावनी के चलते पिछली बार की तरह घर तक पहुंचने में मजदूरों को बीते साल की तरह परेशानी न हो लेकिन घर पहुंचने पर पेट पालने की समस्या से तो छुटकारा नहीं मिल पायेगा।
मास्क की अनिवार्यता पर शाह का संदेश
दिल्ली के एक वकील विराग गुप्ता ने एक माह पहले चुनाव आयोग को एक लीगल नोटिस जारी करके कहा था कि चुनाव प्रचार अभियान में आयोग के दिशानिर्देशों का खुला उल्लंघन हो रहा है। आयोग ने चुनावी सभाओं और रैलियों को लेकर निर्देश दिया है कि इसमें आयोजक तथा पहुंचने वाले सभी लोगों को मास्क पहनना तथा सोशल डिस्टेंस का पालन करना जरूरी है, लेकिन इसका कहीं भी पालन नहीं हो रहा है। पश्चिम बंगाल, असम सहित अन्य तीन राज्यों में हो रहे चुनावों में पहुंची भीड़ का हवाला देते हुए गुप्ता ने आयोग से अनुच्छेद 334 के अंतर्गत कार्रवाई की मांग की है।
छत्तीसगढ़ में भी कई वीआईपी नेताओं और आईएएस अधिकारियों की तस्वीरें लगातार सामने आ रही हैं, जिनमें देखा जा सकता है कि भीड़ के बीच भी वीआईपी मास्क नहीं पहनते। बीजापुर नक्सली हमले के बाद छत्तीसगढ़ पहुंचे केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की विभिन्न स्थानों पर ली गई तस्वीरों से यह साफ दिखाई दे रहा है कि उन्हें भी कोरोना का खौफ नहीं है और वे मास्क पहनना पसंद नहीं करते। ऐसा तब है जब वे दो बार खुद भी कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं। जब वीआईपी ही मास्क पहनने को अपनी आदत में शामिल नहीं करेंगे तो फिर आम लोगों को कैसे इसके लिये तैयार किया जा सकता है?
12वीं बोर्ड की मार्कशीट का क्या होगा?
राजधानी में एक बार जो जम गया उसे बाहर जाने की इच्छा नहीं होती है, जब तक कोई बेहतरीन मौका न मिले। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही विभिन्न विभागों में यह बात देखी जा रही है। राजधानी होने के नाते रायपुर में रहन-सहन सहूलियत से भरी है। अधिकारियों की भरमार होने के कारण काम का बोझ भी कम होता है। बच्चों की शिक्षा और कैरियर से लेकर सेवानिवृत्ति तक के अवसर यहां जो उपलब्ध हैं वह दूसरी जगह नहीं मिल सकती। शायद यही वजह है कि नेहरू मेडिकल कॉलेज के कई डॉक्टरों ने अपना प्रमोशन लेने से इंकार कर दिया है और डीन को आवेदन दिया है कि उनको रिलीव नहीं किया जाये। नियम कहता है कि यदि कोई प्रमोशन पर नहीं जाना चाहता तो उन्हें रिलीव न किया जाये, पर डीन ने आवेदन मिलने के पहले ही सबको रिलीव कर दिया है। हवाला शासन के आदेश का दिया गया है। अब देखना है कि तकनीकी दृष्टि से डीन का आदेश सही ठहराया जायेगा या रिलीव नहीं होने के इच्छुक डॉक्टरों का।
प्रमोशन वापस ले लो, यहां से नहीं हिलेंगे
राजधानी में एक बार जो जम गया उसे बाहर जाने की इच्छा नहीं होती है, जब तक कोई बेहतरीन मौका न मिले। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही विभिन्न विभागों में यह बात देखी जा रही है। राजधानी होने के नाते रायपुर में रहन-सहन सहूलियत से भरी है। अधिकारियों की भरमार होने के कारण काम का बोझ भी कम होता है। बच्चों की शिक्षा और कैरियर से लेकर सेवानिवृत्ति तक के अवसर यहां जो उपलब्ध हैं वह दूसरी जगह नहीं मिल सकती। शायद यही वजह है कि नेहरू मेडिकल कॉलेज के कई डॉक्टरों ने अपना प्रमोशन लेने से इंकार कर दिया है और डीन को आवेदन दिया है कि उनको रिलीव नहीं किया जाये। नियम कहता है कि यदि कोई प्रमोशन पर नहीं जाना चाहता तो उन्हें रिलीव न किया जाये, पर डीन ने आवेदन मिलने के पहले ही सबको रिलीव कर दिया है। हवाला शासन के आदेश का दिया गया है। अब देखना है कि तकनीकी दृष्टि से डीन का आदेश सही ठहराया जायेगा या रिलीव नहीं होने के इच्छुक डॉक्टरों का।