विचार/लेख
-मृणाल पाण्डे
अपने यहां कहा जाता है कि एक समय ऐसा था जब सारी धरती जल में डूबी हुई थी, तब विष्णु ने ‘जलौघमग्ना’ धरा का वाराह अवतार में आकर जल और फिर कीचड़ से उद्धार किया और मानव जाति को दोबारा इस पर बसाया।
अपने यहां कहा जाता है कि एक समय ऐसा था जब सारी धरती जल में डूबी हुई थी, तब विष्णु ने ‘जलौघमग्ना’ धरा का वाराह अवतार में आकर जल और फिर कीचड़ से उद्धार किया और मानव जाति को दोबारा इस पर बसाया। उधर, पश्चिमी धर्मग्रंथ बाइबिल का पुराना टेस्टामेंट भी कहता है कि पृथ्वी पर एक बार भीषण बाढ़ आई और सब कुछ डूब गया। तब दैवी प्रेरणा से सिर्फ नोआ नामक एक भला आदमी (जिनको इस्लामी ग्रंथ हजरत नूह भी कहते हैं) बच सका। इससे पहले उसने पूर्वसूचना पाकर अपनी बड़ी-सी नाव में जतन से तमाम तरह के बीज और जीवों की जोडिय़ां लादीं जो बाढ़ के बीच भी सलामत रहीं। जब बाढ़ उतरी, तो इन्हीं बचे-खुचे जीवों और बीजों के जहूरे से दुनिया में फिर आदम की संतानें और तरह-तरह के पशु-पक्षी आबाद हुए तथा अन्न-धन पैदा होने लगा। कहानी और आगे जाती है कि किस तरह होश में आकर मनुष्यों ने तय किया कि एक बहुत बड़ी मीनार बनाएं जिसमें हर जाति, धर्म और भाषा बोलने वाले अलग-अलग तल्लों पर रहें। टावर ऑफ बेबल नाम की एक मीनार बनी, पर मीनार बनते ही उसमें भाषा और धर्म पर विभिन्न मंजिलों के बीच झगड़े शुरू हो गए। ईश्वर को उससे उठते हो-हल्ले से बहुत परेशानी होने लगी। आखिरकार तंग आकर उन्होंने तय किया कि यह मीनार ढहा दी जाए ताकि उसमें बसे अलग-अलग भाषा बोलने वाले दुनिया भर में बिखर जाएं और फिर उनको एक-दूसरे की भाषा समझ ही न आए। न रहेंगे भाषा-धर्म के बांस, न बजेंगी बांसुरियां।
90 के दशक में जब इंटरनेट आया, तो अलग-अलग देशों-सूबों में बिखरी दुनिया ने अंतर्जाल की मार्फत चैट रूम्स, ब्लॉग्स और कई तरह के बोर्ड एकसार करके अपने लिए एक नई तरह का टॉॅवर ऑफ बेबल रचना शुरू किया। फिर 2000-2009 के बीच गूगल जैसे सर्च इंजन, फेसबुक, ट्विटर, माय स्पेस जैसे सूक्ष्म कमेंट मंच बने और जिनकी मार्फत नए टावर ऑफ बेबल में हर कोई बंदा, पात्रता हो या न हो, बिना किसी प्रमाण पत्र या क्लियरेंस के, अपने विचार व्यक्त करने के लिए इस आभासी दुनिया में जगह पाता चला गया। 2011 में गूगल ने अनुवाद की सुविधा दी, तब से तो हो-हल्ला इस कदर बढ़ा है कि क्षण भर में किसी भी भाषा का कमेंट अनूदित होकर दुनिया की हर भाषा में वायरल होने लगा है।
पर इसी के साथ हम देख रहे हैं कि मनुष्य की फितरत है कि अगर सूचना और अभिव्यक्ति की दुनिया इतनी विस्फोटक बन जाए, तो लंबा और तर्क पर आधारित सोच-विचार फैलने की बजाय सिकुडऩे लगता है और उसकी जगह छिटपुट फब्तियां और फतवे लेने लगते हैं। यह होना बहुत खतरनाक है। एक आम आदमी किसलिए जीता-मरता है? साख के लिए। पर अगर बरसों की मेहनत से कमाई साख क्षण भर में किसी फेक न्यूज और फिर उस पर बिन पूरा मसला समझे उमड़ पड़े, सैकड़ों लाइक्स या जहरीले कमेंट्स की बाढ़ टूट पड़े, तो वह तुरंत मिट सकती है। कंगाली में इस आटे को और गीला होना था। जो टॉवर बना था जनहितकारी सूचना और लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए, आज उसमें दुनिया भर में राजनीतिक दलों के स्वार्थ के तहत काम करने वाले हैकर्स तथा ट्रोल्स दीमकों की तरह पैठा दिए गए हैं। कुछ सरकारों द्वारा ऐसी नई तकनीक खरीदने की भी सूचना है जिसकी मदद से आप देश के किसी भी जन के कम्प्यूटर में घुसकर जानकारी ही नहीं चुरा सकते, उसमें कई तरह की आपत्तिजनक सामग्री भी प्लांट कर सकते हैं। ऐसे लोगों को बाद को अकारण जेल की हवा खिलवाई जा रही है। उदाहरण साफ है और उनको यहां गिनाने की जरूरत नहीं।
कुल मिलाकर कभी अरब स्प्रिंग, यानी लोकतांत्रिक जागृति की आवाज बना हुआ सोशल मीडिया 2022 में सामाजिक सहभागिता के मंच की बजाय बाजार का वह कोलाहलमय चौराहा बन गया है जहां झूठी खबरों, वीडियोज और छिछोरेपन से भरपूर बिना पृष्ठभूमि दिखाए आंशिक झलक के बूते लगाए आक्षेप गंदे कपड़ों की तरह दिन-रात फींचे जा रहे हैं। नतीजा यह कि जनता को किसी पर भरोसा नहीं रहा। न सरकार पर, न विपक्ष पर, न ही मीडिया, कार्यपालिका या न्यायपालिका पर। अब ऐसी सार्वजनिकता का तोड़ क्या हो जो लोकतंत्रों में दंगे और शैतानी राजनीतिक झूठ और अधिनायकवाद न्योतती है और जनता को लगातार धड़ेबंद, शंकालु, भ्रमित और मूक बना रही है?
आज का सच तो यह है कि डिजिटल क्रांति जो कभी दुनिया को सचाई का शीशा दिखाती थी, राजनीतिक और कॉरपोरेट हितस्वार्थियों के टकराव से किरचों में बिखर चुकी है। हर कोई एक किरच उठाकर उसमें झलकती आंशिक सचाई को ही अपने हित पोसने के लिए सही पिक्चर मानने-मनवाने पर उतारू है। यह अनायास नहीं कि दुनिया के इतने तमाम देशों में हमको सोशल मीडिया अधिनायकवाद और नस्ली हिंसा के उफान को खाद-पानी देता मिल रहा है।
जब कोविड आया, तो उम्मीद बनी थी कि महामारी से विकल दुनिया में सोशल मीडिया जानकारी और ज्ञान का सार्वजनिक मंच बनेगा और घर में बंद लोगों के पास इतना समय होगा कि वे इसकी मार्फत मानव जीवन और लोकतंत्र की बुनियादी सच्चाइयों पर पीड़ाजनक और ईमानदार तरीके से समवेत सोच-विचार करेंगे। पर बड़ों की दुनिया तो नहीं बदली लेकिन इसका बेहद बुरा असर उन बच्चों और किशोरों पर पड़ रहा है जो कोविड पीरियड में घर कैद झेलते हुए इस आभासी दुनिया में कैद हो गए। आज घर-घर में ऐसे किशोर हैं जो अंतर्मुखी, कुंठित और समाज से पूरी तरह कटे हुए हैं। राजनीति हो कि अर्थनीति, बतौर नागरिक मतदाता उनकी मनोवृति ‘कोऊ नृप होय हमें का हानी’ की दिखाई देती है। सीमाहीन नेट पहुंच मिलती रहे, ओटीटी प्लेटफॉर्म और वीडियो गेम्स मिलते रहें, फिर किसका परिवार, कैसा राज-समाज? यह नशा मादक पदार्थों से कम खतरनाक नहीं। हाल में एकाधिक मामलों में पबजी या ऐसे ही गेम्स के लती बच्चों ने टोके जाने पर अभिभावक को मार डाला। क्या ऐसी जमात वक्त रहते हालात न सुधारे गए, तो एक सबको साथ लेकर चलनेवाले राज-समाज, एक जिम्मेदार लोकतंत्र का निर्माण कर पाएगी?
अमृत वर्ष में नाना तरह के पॉजिटिव ब्योयरों का अमृत बरसाया जा रहा है। गिनाने को बहुत कुछ हुआ है। जीवन बीमा निगम से इंडियन एयरलाइंस तक सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण हो चुका है। करोड़ों को मुफ्फ राशन मिलेगा। हर घर में नल लग गया है। (जल नहीं, यह दूसरी बात है) सडक़ों का विस्तार हुआ है। पर्यटन में नई जान आई है आदि। नेता विदेश जाकर तेल उत्पादक देशों से हाथ मिलाकर उनकी झिडक़ी सुनकर भी कान पकडक़र वादा कर आए हैं कि हां, हम पर्यावरण और अल्पसंख्यकों की रक्षा करेंगे। हां, हम टीवी, सोशल मीडिया पर बकवास पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे और दोषियों को तुरत दंड दिया जाएगा। पर घर भीतर फिर वही बुलडोजर, वही भद्दी नारेबाजी जबकि पर्यावरण क्षरण के सूचकांक रसातल को जा रहे हैं और पानी छीजने से करोड़ों लोग जैसे-तैसे जान हथेली पर रखकर लाए गए एक कनस्तर जल पर जिंदा हैं।
सवाल आज और अधिक नेट तक पहुंच या और ज्यादा राजनीतिक सत्ता का नहीं, नेट के दिए मंचों और उनके कुहासे में रची गई सत्ता के स्वरूप का है। सारे लोग सहमत हैं कि आज सरकार के हाथों में और दोनों सदनों में भी जितनी सत्ता है, उतनी नेहरू या इंदिरा काल में भी नहीं थी। सरकारी नुमाइंदों के वक्तवयों में गर्व साफ झलकता है कि उनमें वह निर्ममता है जिसकी कमी से नेहरू ने कश्मीर का एक भाग गंवा दिया और इंदिरा जी शिमला में टेंटुआ दबाकर वह जनाब भुट्टो से वापिस नहीं करवा सकीं। लेकिन इतनी निर्ममता सत्ता के बीच विश्व के लोकतांत्रिक देशों के बीच भारत इतना एकाकी और असहाय क्यों नजर आ रहा है? वह रूस की भी जै-जै, अमीरात, कुवैत, ओमान अमेरिका सब को विनम्र जै-जै करता नजर आता है। चीन लगातार जो सीमा पर सडक़ें, पुल बना रहा है, गांव बसा रहा है, उस पर और तमाम सूबों में हुए सांप्रदायिक दंगे एक जबर्दस्त संदेश से रुकवाने की बजाय खामोश है।
लोकतंत्र जागने के मौके देता है, जागे हुओं को सत्ता के शेयर दे देता है (हमारा श्रेष्ठिवर्ग ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी फूलता रहा है), पर हमारे यहां लोकतंत्र की सीमित वैरायटी है जो 75 सालों से सत्ता जगाने का हल्ला भले करे, जनता को चुसनियां देती रहती है, सचमुच जगाती नहीं। कई बार तो प्रिवी पर्स निरस्तीकरण या नेट के बॉलीवुड मार्का राष्ट्रभक्त फिल्मों के करमुक्त सार्वजनकि प्रदर्शन से ऊंघते लोगों को अफीम चटाकर और गहरी नींद सुला देती है। हमारे नेट की विकृतियां भी इसी ऊंधती सतत दुविधामयी की देन हैं। अधिकतर लोग सोशल मीडिया पर बर्ताव ऐसा करते हैं जैसे वे खाते-पीते मध्यवर्ग के नहीं, सर्वहारा जन के बीच खड़े हों। जब दवा और रोग, थीसिस और एंटीथीसिस के बीच समझौते अलग-अलग पिछवाड़ों में मिलकर होने लगें, तो लगता है इस टॉवर ऑफ बेबल में पलीता लगाने पर गंभीरता से विचार करने का क्षण आ रहा है। वरना पर्यावरणविदों की मानें, तो महाविनाशक बाढ़ बस कोने तक पहुंच ही चुकी है। तब तक इस नेट को ही नोआ की किश्ती समझकर सवारी करें और टंच रहें। (नवजीवनइंडिया)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
26 जून 1975 का काला दिन आज 46 साल बाद मुझे फिर याद आया। 25 जून 1975 की मध्य रात्रि को राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा पर आंख मींचकर हस्ताक्षर कर दिए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीहुजूरों ने दिल्ली के कई बड़े अखबारों की बिजली कटवा दी थी और देश के जो अखबार जल्दी छपते थे, उनमें वह खबर ही नहीं छपी। उस दिन मैं इंदौर में था। मैं सुबह-सुबह मेरे घनिष्ट मित्र और आर.एस.एस. के प्रचारक कुप्प सी. सुदर्शनजी से मिलने गया।
वे जवाहर मार्ग के एक अस्पताल में पांव की हड्डी का इलाज करवा रहे थे। सुबह 8 बजे जैसे ही उन्होंने अपना ट्रांजिस्टर खोला, पहली खबर थी कि देश में आपातकाल की घोषणा हो गई है। मैं तुरंत वहीं से हिंदी के तत्कालीन श्रेष्ठ अखबार ‘नई दुनिया’ के दफ्तर पहुंचा। मैं छोटी उम्र से ही उसमें लिखने लगा था। उस समय माना जाता था कि वह एक कांग्रेसी अखबार है। उसके मालिक लाभचंदजी छजलानी, प्रधान संपादक राहुल बारपुते और संपादक अभय छजलानी समेत सभी प्रमुख लोग दफ्तर में उपस्थित थे।
मेरे सुझाव पर यह तय हुआ कि संपादकीय की जगह को खाली छोड़ देना विरोध का सर्वोत्तम उपाय है, क्योंकि आपातकाल के विरोध पर भी प्रतिबंध की घोषणा हो चुकी थी। मैं दोपहर की रेल पकडक़र दिल्ली आ गया। मैं उस समय ‘नवभारत टाइम्स’ (देश के सबसे बड़े अखबार) का सह-संपादक था। संपादक श्री अक्षयकुमार जैन ने सभी पत्रकारों की सभा बुलाई और आपातकाल का विरोध नहीं करने की सख्त हिदायत दी। सभा के बाद मैंने अक्षयजी से कहा कि मैं इस्तीफा दे देता हूं। मैं सरकार की खुशामद में एक शब्द भी नहीं लिखूंगा।
उन्होंने कहा कि आप विदेशी मामलों के विशेषज्ञ हैं। मैं आपसे राष्ट्रीय राजनीति पर कोई संपादकीय ही नहीं लिखवाऊंगा। दूसरे दिन प्रेस क्लब में कुलदीप नय्यर ने आपातकाल के विरोध में दिल्ली के पत्रकारों की एक सभा बुलाई। पहले उनका भाषण हुआ, दूसरा मेरा। मैंने सारे उपस्थित पत्रकारों से कहा कि वे सब आपातकाल के विरोध-पत्र पर दस्तखत करें। दो-तीन मिनिट में ही सारा हाल खाली हो गया।
उन दिनों हम जो भी संपादकीय या लेख लिखते थे, उसे चपरासी के हाथों शास्त्री भवन में बैठे एक मलयाली अफसर के पास भिजवाना पड़ता था। उसकी हां होने पर ही वह छपता था। जून 1976 में मेरे द्वारा संपादित महाग्रंथ ‘हिंदी पत्रकारिता: विविध आयाम’ का राष्ट्रपति भवन में विमोचन हुआ। उप-राष्ट्रपति ब.दा. जत्ती सहित कई वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री और सैकड़ों पत्रकार देश भर से उपस्थित थे। लैकिन मैंने प्रधानमंत्री इंदिराजी को उसमें निमंत्रित नहीं किया था।
अक्षयजी को मैंने बता दिया था कि यदि आप उन्हें निमंत्रित करेंगे तो मैं उनके साथ मंच पर नहीं बैठूंगा, हालांकि इंदिराजी मुझे खूब जानती थीं और मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान भी था लेकिन आपातकाल के दौरान मेरे पिताजी (इंदौर) में और जयप्रकाशजी, चंद्रशेखरजी, अटलजी, मोरारजी भाई और ढेरों समाजवादी और जनसंघी मित्र लोग जेल में बंद थे।
आपातकाल के दौरान मधु लिमये, जार्ज फर्नाडीज़, कमलेश शुक्ल, स्वामी अग्निवेश आदि मित्रगण से जैसे-तैसे संपर्क बना हुआ था। कई समाजवादी, जनसंघी और पूर्व कांग्रेसी नेता सफदरजंग एनक्लेव के मेरे उस घर में लुक-छिपकर रहा भी करते थे। उन दिनों जहां भी मेरे भाषण हुए, मैंने आपातकाल की आलोचना की, एक बार सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल की उपस्थिति में जबलपुर विश्वविद्यालय के एक समारोह में भी। अन्य कई संस्मरण फिर कभी! (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
‘ब्रिक्स’ याने ब्राजील, एशिया, इंडिया, चाइना और साउथ अफ्रीका! इन देशों के नाम के पहले अक्षरों को जोडक़र इस अंतरराष्ट्रीय संगठन का नाम रखा गया है। इसका 14 वाँ शिखर सम्मेलन इस बार पेइचिंग में हुआ, क्योंकि आजकल चीन इसका अध्यक्ष है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन नहीं गए लेकिन इसमें उन्होंने दिल्ली में बैठे-बैठे ही भाग लिया। उनके चीन नहीं जाने का कारण बताने की जरुरत नहीं है, हालांकि गलवान-विवाद के बावजूद चीन-भारत व्यापार में इधर काफी वृद्धि हुई है।
ब्रिक्स के इस संगठन में भारत अकेला ऐसा राष्ट्र है, जो दोनों महाशक्तियों के नए गठबंधनों का सदस्य हैं। भारत उस चौगुटे का सदस्य है, जिसमें अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया भी सम्मिलत हैं और उस नए चौगुटे का भी सदस्य है, जिसमें अमेरिका, इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात (यू.ए.ई.) सदस्य हैं। चीन खुले-आम कहता है कि ये दोनों गुट शीतयुद्ध-मानसिकता के प्रतीक हैं। ये अमेरिका ने इसलिए बनाए हैं कि उसे चीन और रूस के खिलाफ जगह-जगह मोर्चे खड़े करने हैं।
यह बात चीनी नेता शी चिन फिंग ने ब्रिक्स के इस शिखर सम्मेलन में भी दोहराई है लेकिन भारत का रवैया बिल्कुल मध्यममार्गी है। वह न तो यूक्रेन के सवाल पर रूस और चीन का पक्ष लेता है और न ही अमेरिका का! इस शिखर सम्मेलन में भी उसने रूस और यूक्रेन में संवाद के द्वारा सारे विवाद को हल करने की बात कही है, जिसे संयुक्त वक्तव्य में भी उचित स्थान मिला है। इसी तरह मोदी ने ब्रिक्स राष्ट्रों के बीच बढ़ते हुए पारस्परिक सहयोग की नई पहलों का स्वागत किया है। उन्होंने जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया है, वह है— इन राष्ट्रों की जनता का जनता से सीधा संबंध!
इस मामले में भारत के पड़ौसी दक्षेस (सार्क) के देशों का ही कोई प्रभावशाली स्वायत्त संगठन नहीं है तो ब्रिक्स और चौगुटे देशों की जनता के सीधे संपर्कों का क्या कहना? मेरी कोशिश है कि शीघ्र ही भारत के 16 पड़ौसी राष्ट्रों का संगठन ‘जन-दक्षेस’ (पीपल्स सार्क) के नाम से खड़ा किया जा सके। ब्रिक्स के संयुक्त वक्तव्य में आतंकवाद का विरोध भी स्पष्ट शब्दों में किया गया है और अफगानिस्तान की मदद का भी आह्वान किया गया है। किसी अन्य देश द्वारा वहां आतंकवाद को पनपाना भी अनुचित बताया गया है।
चीन ने इस पाकिस्तान-विरोधी विचार को संयुक्त वक्तव्य में जाने दिया है, यह भारत की सफलता है। ब्रिक्स के सदस्यों में कई मतभेद हैं लेकिन उन्हें संयुक्त वक्तव्य में कोई स्थान नहीं मिला है। ब्रिक्स में कुछ नए राष्ट्र भी जुडऩा चाहते हैं। यदि ब्रिक्स की सदस्यता के कारण चीन और भारत के विवाद सुलझ सकें तो यह दुनिया का बड़ा ताकतवर संगठन बन सकता है, क्योंकि इसमें दुनिया के 41 प्रतिशत लोग रहते हैं, इसकी कुल जीडीपी 24 प्रतिशत है और दुनिया का 16 प्रतिशत व्यापार भी इन राष्ट्रों के द्वारा होता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-बादल सरोज
कोलम्बिया नाम के देश की राजधानी बोगोटा हमसे 8246 मील यानी 13271 किलोमीटर की दूरी पर है। इसे तय करने में बिना स्टॉपेज के लगातार हवाई यात्रा से 20 घंटे लगते हैं। भारत की प्रचलित लोक भाषा में कहें तो भारत के लिए पाताल लोक है-तकरीबन ठीक हमारे नीचे। इतनी दूरी पर बसे देश के बारे में इन पंक्तियों को लिखते हुये और इससे कुछ अधिक दूरी पर बैठे आपके द्वारा पढ़ते हुए पहला सवाल यही कौंधा कि इत्ती दूर हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों पर हमें क्यों खुश होना चाहिए? कहने की जरूरत नहीं कि अंतरराष्ट्रीयतावाद की वैचारिक परवरिश और वसुधैव कुटुम्बकम मानने वाले देश भारत में पैदाइश इस प्रश्न को निरर्थक बनाती है। फिर भी सवाल उठा है टी इसकी वजहें ढूंढने चाहिए।
इसकी अनेक वजहें हैं -
हालांकि हमारे लिए तो इसकी एक ही वजह काफी है कि यह हमारे सर्वकालिक प्रिय लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्कवेज का देश है। अपनी जादुई यथार्थवादी शैली के लिए विख्यात मार्केज(6 मार्च 1927-17 अप्रैल 2014) -इन्हें मार्खेज भी उच्चारित करते हैं-स्पेनिश भाषा के उपन्यास लेखक और कथाकार थे। 70-80 के दशक से उनकी अंगरेजी और हिंदी में अनूदित लगभग हर किताब ढूंढकर और उस जमाने में खरीद कर पढ़ी है जब पॉकेट मनी के नाम पर मात्र अठन्नी मिला करती थी! उनकी नोबल सम्मानित हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड (एकांत के सौ बरस) कृति एक असाधारण उपन्यास है। इसे पढ़ा जाना चाहिए।
यूं तो उनका लिखा हर शब्द पठनीय है मगर फिर भी जिन्हे बिना इतिहास पढ़े, लैटिन अमेरिका और उसके मिजाज के बारे में जानना है उन्हें उनकी एक किताब और पढऩी चाहिए; दि जनरल इन हिज लैब्रिंथ। इसी के साथ फिदेल कास्त्रो के 17 घंटे लंबे इंटरव्यू के साथ लिखी उनकी भूमिका ‘पर्सनल पोर्टेट ऑफ फिदेल’ तथा ‘फिदेल कास्त्रो; माय अर्ली इयर्स’ निबंध भी पढ़े जा सकते हैं।
(टेंशन नहीं लेने का; धीरज से खंगालेंगे तो सब कुछ इंटरनेट पर मिल जाएगा। छपे रूप में बहुत कुछ लेफ्टवर्ड और वाम प्रकाशन पर भी है।)
बहरहाल इस निजी कारण को छोड़ दें तब भी हमे इसलिए खुश होना चाहिए ;
कि कोलंबिया ने अपने 212 वर्षों के इतिहास में पहली बार कोई वामपंथी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुना है। दूसरे दौर तक गए मुकाबले में गुजरे रविवार 19 फरवरी को वामपंथी गठबंधन के उम्मीदवार गुस्ताव पेट्रो ने 50.48 फीसदी वोट पाकर निर्णायक जीत हासिल की। दक्षिणपंथी प्रत्याशी को 47.26 फीसदी वोट मिले। उपराष्ट्रपति के लिए दूसरों के घरों में काम करने वाली मेड वामपंथी उम्मीदवार मिस फ्राँसिया मार्केज जीती; वे मजदूरिन के साथ साथ पहली काली महिला है जो इस पद पर पहुंची हैं।
कि पिछली 20-25 वर्षों से दक्षिण अमरीका के 12 संप्रभु देशों में से 11 में वाम या वामोन्मुखी राष्ट्रपति और सरकारें बनी हैं, बनती रही हैं, सिर्फ यही दूसरा बड़ा देश कोलम्बिया इस बदलाव से बचा रहा था- अब वहां भी वामपंथ की जीत एक बड़ी राजनीतिक घटना है। यह सिर्फ दुनिया के स्वयंभू दरोगा-सह-लुटेरे संयुक्त राज्य अमरीका के गाल पर तमाचा भर नहीं है ; यह साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ जनादेश भी है, उनके विरुद्ध वर्गसंघर्ष का उच्चतर स्थिति में पहुंचना है। ध्यान रहे कि नवउदार नीतियों का पहला कसाईखाना इसी दक्षिण अमरीका के देशों को बनाया गया था। यूं साम्राज्यबवादी लूट का भी शुरुआती निशाना यही था; कम्बखत क्रिस्टोफर कोलम्बस अपनी तीसरी यात्रा में इसी के पड़ोस वेनेजुएला में पहुंचा था।
कि इस महाद्वीप को इस कदर रौंदा गया कि बाकी सब तो छोडिय़े इनकी भाषाएँ-जो कई हजार थीं, जी कई हजार-भी मिटा दी गईं। आज इस महाद्वीप में बोली जानेवाली पांचो प्रमुख भाषाएँ स्पेनिश, पुर्तगाली, जर्मन, डच, इटैलियन और अंगरेजी है, जो हजारों किलोमीटर दूर से आये लुटेरों की भाषा हैं, यहां के बाशिंदों की नहीं हैं।
कि इस ‘अँधेरे के महाद्वीप’ में कोलंबिया अमरीकी साम्राज्यवाद का आखिरी विकेट था। क्यूबा में पिछले 6 दशक से भी ज्यादा समय से कम्युनिस्ट हुकूमत है। ह्यूगो शावेज के बाद से अब बस ड्राइवर निकोलस मादुरो तक वेनेजुएला में वामपंथ अडिग है। बोलीविया में इवो मोरालेस से शुरू हुआ वामपंथी दौर लुइस आर्क के राष्ट्रपति बनने तक जारी है। पिछली साल ही चिली, पेरू और होंडुरास नाम के देशों में वामपंथी राष्ट्रपति जीते हैं। ब्राजील भी कुछ महीनों में जुझारू वाम नेता लूला डी सिल्वा को फिर से चुनने जा रहा है।
गरज ये कि संयुक्त राज्य अमरीका-यूएसए-का पिछवाड़ा कहे जाने वाले महाद्वीप ने साम्राज्यवाद के पिछवाड़े पर लात मारकर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया है।
कि कोलम्बिया सामान्य देश नहीं है। यह मु_ी भर धनपिशाचों-ओलिगार्क-की जकडऩ में जकड़ा यातनागृह है। यह दुनिया की नशे की राजधानी-ड्रग कैपिटल-है, जहाँ बर्बर ड्रग तस्करों की तूती बोलती है। कभी ‘दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी’ कहा जाने वाला पाब्लो एस्कोबार, कोकीन का अब तक का सबसे चालबाज सौदागर यहीं का था। आज भी सबसे ज्यादा कोकीन का निर्यात यहीं से होता है। इस ड्रग माफिया का सरकार के हर तंत्र पर कब्जा है।
कि इनके विरोध में जो भी बोलता है उनकी ह्त्या करवा देना आम बात है। पिछले समय में राष्ट्रपति पद के जिन जिन उम्मीदवारों ने इस ओलिगार्की के खिलाफ आवाज उठाई वे दिनदहाड़े मार डाले गए। इनमें जॉन एलीसर गैटन, जैमे पार्दो लील, बरनार्डो जरामीलो, कार्लोस पिजारो, लुइस कार्लोस गलन शामिल हैं।
कि यहां जब जब वामपंथ ने एक राजनीतिक पार्टी के रूप में खुद को संगठित करने की कोशिश की, उनका कत्लेआम जैसा कर दिया गया। पेट्रियोटिक यूनियन इसकी मिसाल है। पिछली 8 वर्षों में इस पार्टी के 1163 नेता मार डाले गए। इनमें राष्ट्रपति पद के 2 उम्मीदवार, 13 सांसद और 11 महापौर शामिल हैं। इस लिहाज से यह जीत निस्संदेह और असाधारण हो जाती है।
कि इन सब कठिन और जानलेवा हालात में कोलम्बियन कम्युनिस्ट पार्टी, कोलम्बिया ह्यूमाना सहित सारी वामपंथी पार्टियों ने एक जन गठबंधन-मॉस कोलिशन-बनाकर चुनाव लड़ा; पूर्व गुरिल्ला फाइटर पेट्रो को राष्ट्रपति तथा जुझारू आंदोलनकारी सुश्री फ्रांसिया मार्केज को उपराष्ट्रपति के लिए जिताया।
कि यह लंबे समय से कोलम्बिया अशांत है। आंतरिक कलह और टकरावों के कोई ढाई लाख लोग मारे जा चुके हैं, 25 हजार गायब किए हैं, 60 लाख अपने इलाकों से विस्थापित कर शरणार्थी बने हुए हैं। यह चुनाव परिणाम इन नागरिकों के लिए शांति की बहाली की उम्मीद लेकर आया है।
कि यह वह कोलम्बिया है ;
जहाँ 34 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, 1 करोड़ 27 लाख कोलम्बियन्स मात्र 2 डॉलर प्रति दिन की आमदनी पर गुजारा करने के लिए अभिशप्त हैं।
जहाँ ऊपर के 10 प्रतिशत आबादी की प्रतिव्यक्ति आय नीचे के 10 प्रतिशत की तुलना में 46 गुना ज्यादा है।
जहां आबादी का 17 फीसद से अधिक बेरोजगार है और बेरोजगारी की दर पूरी लैटिन अमरीका में सबसे ज्यादा है।
जहां करीब 30 प्रतिशत नागरिकों के पास समुचित आवास नहीं है-इनके अलावा 662146 परिवार यानी आबादी का कोई 5 प्रतिशत बेघर हैं।
जहाँ गरीब ग्रामीण घरों में 81 प्रतिशत ऐसे हैं जिनके पास नल के पानी की सुविधा नहीं है।
जहाँ करीब 68 प्रतिशत आबादी भीड़-भड़क्के वाले घरों में रहने को मजबूर है।
जहाँ शहरों की आधी और गाँवों की 80 प्रतिशत श्रम शक्ति असंगठित क्षेत्र-इसे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था कहा जाता है-में काम करते हैं। इनमें बहुतायत खेत मजदूर, टैक्सी ड्राइवर्स, ठेला-खोमचा लगाने वाले श्रमिक हैं जिन्हें पेंशन या किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है; 2014 में कुल श्रम शक्ति का दो तिहाई असंगठित क्षेत्र में था, अब यह और बढ़ गया है।
कि यह जीत सिर्फ असंतोष और खीज का नतीजा नहीं है, यह उन शानदार संघर्षों का फल है जो हाल के समय में कोलम्बिया के मेहनतकशों ने किए। अप्रैल, मई और जून 2021 में हर महीने राष्ट्रीय स्तर की हड़तालें हुईं, इन हड़तालों के नतीजों में सरकार को अनेक राहतें देने, सब्सिडी बढ़ाने की घोषणायें करनी पड़ी। यह संघर्ष उस दौर में हुए जब आंदोलनकारियों पर पुलिस ने बेइंतहा जुल्म ढाये, हत्याओं की पूरी श्रृंखला सी चली, बर्खास्तगियों और दमन की सारी सीमाएं लांघ दी गयीं।
वह भी उस समय
जब समझदार और ईमानदार बुद्धिजीवी कहते हैं कि यह समय दुनिया में दक्षिणपंथ के उभार का समय है। फ्रैंकली कहें तो हमे यह अधूरी बात लगती है ।
क्यों ?
इसलिए कि हम जिस विचार को मानते हैं उसका कहना है कि ‘अब तक जितने भी दर्शन हुए हैं उन्होंने बताया है कि ये दुनिया क्या है, मगर सवाल यह है कि इसे बदला कैसे जा सकता है।’
उसी दर्शन ने यह भी कहा है कि ‘परिस्थितियां अपनी इच्छा के मुताबिक नहीं होती हैं । वे ‘होती’ हैं-बदलाव के लिए काम करने वालों को उन्हीं परिस्थितियों में परिवर्तन करने के रास्ते खोजने होते हैं। हमें इसलिए खुश होना चाहिए कि कोलम्बिया ने उस रास्ते की तलाश की है ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह मानकर चला जा सकता है कि महाराष्ट्र की गठबंधन-सरकार का सूर्य अस्त हो चुका है। यदि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अपने बाकी नेता एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री पद देने को भी तैयार हों तो भी यह गठबंधन की सरकार चलने वाली नहीं है, क्योंकि शिंदे उस नीति के बिल्कुल खिलाफ हैं, जो कांग्रेस और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के प्रति ठाकरे की रही है।
शिवसेना के बागी विधायकों की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि ठाकरे ने अपनी कुर्सी के खातिर कांग्रेस और एनसीपी को न सिर्फ महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंप दिए हैं बल्कि शिवसेना के विधायकों की वे जऱा भी परवाह नहीं करते हैं। इसके अलावा ठाकरे के खिलाफ लगभग सभी शिवसेना के विधायकों की गंभीर शिकायत यह है कि मुख्यमंत्री अपने विधायकों को भी मिलने का समय नहीं देते हैं। विधायक अपने निर्वाचकों की शिकायतें दूर करने के लिए आखिर किसके पास जाएं?
शिवसेना में बरसों से निष्ठापूर्वक सक्रिय नेताओं को इस बात पर भी नाराजी है कि शिवसेना ने हिंदुत्ववादी भाजपा का साथ छोड़ दिया और जिस कांग्रेस के खिलाफ बालासाहब ठाकरे ने शिवसेना बनाई थी, उद्धव ठाकरे उसी की गोद में बैठ गए। उद्धव ने किसी वैचारिक मतभेद के कारण नहीं, बल्कि व्यक्तिगत राग-द्वेष और आरोपों-प्रत्यारोपों के कारण भाजपा से वर्षों पुराना संबंध तोड़ लिया। शिवसेना को वे एक राजनीतिक पार्टी की तरह नहीं, बल्कि किसी सेना की तरह चलाते हैं।
हर शिव सैनिक अपने कमांडर की हां में हां मिलाने के लिए मजबूर है। सेना से भी ज्यादा यह पार्टी एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गईं है। जैसे बालासाहब की कुर्सी पर उद्धव जा जमे हैं, वैसे ही वे अपने बेटे आदित्य को अपनी कुर्सी पर जमाने के लिए उद्यत हैं। शिवसेना के अन्य नेताओं के मन में पल रही ये ही चिंगारियां आज ज्वाला के रूप में प्रकट हो रही हैं। शिंदे के पास 2/3 बहुमत की बात सुनते ही उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री निवास छोड़ दिया है। वे ऐसे बयान दे रहे हैं, जैसे उन्हें मुख्यमंत्री पद की कोई परवाह ही नहीं है।
वे कह रहे हैं कि सरकार रहे या जाए, शिवसेना के लाखों कार्यकर्त्ता उनके साथ हैं। लेकिन इस सरकार के गिरने के बाद शिवसेना के ये कार्यकर्ता पता नहीं किधर जाएंगे? वे शिंदे को अपना नेता मानेंगे या उद्धव ठाकरे को? जाहिर है कि शिंदे अब कांग्रेस और शरद पवार से हाथ नहीं मिलाएंगे। उनकी गठबंधन सरकार अब भाजपा के साथ ही बनेगी।
भाजपा उन्हें खुशी-खुशी उप-मुख्यमंत्री का पद देना चाहेगी। उद्धव ठाकरे को सबक सिखाने के लिए शिंदे को भाजपा मुख्यमंत्री पद भी दे सकती है। यह घटना-क्रम देश के सभी नेताओं के लिए बड़ा सबक सिद्ध हो सकता है। एक तो राजनीतिक पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी न बनने दिया जाए और दूसरा पदारुढ़ नेता लोग अहंकारग्रस्त न हों। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्राण चड्ढा
कहने वालों ने कभी सच ही कहा है एक जंगल में दो टाइगर नहीं रह सकते। आज यह प्रमाणित हो चुका है।
टाइगर एक जंगल से दूसरे जंगल प्रवास करते हैं। जिसके कारण भी है।
टाइगर अपने शिकार, पानी, और प्रजनन लिए एरिया बदलते हैं इसके अलावा सुरक्षागत कारणों से जंगल छोड़ दूसरे जंगल में चले जाते हैं। टाइगर रात में मीलों चल सकता है और बहुत लंबी दूरी तय कर प्रवास कॉल बाद वापस भी आ सकता है। बान्धवगढ़ टाइगर रिजर्व की एक साल में दो टाइगर के अचानकमार टाइगर रिजर्व में मिलने की पुष्टि हुई है।
किसी एरिया में आम तौर एक प्रभावी टाइगर रहता है, दूसरे को वह खदेड़ देता है। प्रत्येक टाइगर अपने एरिया की हदबन्दी पेड़ों पर नाखून से निशान बनाकर अथवा मूत्र गन्ध का छिडक़ाव कर करता है। लेकिन उसके इस इलाके में एक से अधिक टाइग्रेस रह संगनी बन कर अलग-अलग रह सकती हैं। टाइगर निरन्तर अपने इलाके की गश्त करते रहता है और अपने इलाके में किसी प्रतिद्वंदी को फटकने नहीं देता। पर जब वह उम्रदराज, अशक्त हो जाए तो कोई युवा और शक्तिशाली टाइगर से जान बचाने अपना एरिया छोड़ कर दूसरे एरिया जाना पड़ता है जहाँ उसको जीवन के चौथे पड़ाव पर शिकार मिल सके और अन्य किसी टाइगर का खतरा भी नहीं हो।
वन्य जीवों में इनब्रीडिंग से बचाने के प्राकृतिक तरीका है। शाकाहारी वन्य जीवों में प्रजनन योग्य नर को झुंड से बाहर कर दिया जाता है वो साथ-साथ रहते हैं और बाद मजबूत होने पर किसी दूसरे झुंड के नर को परास्त करके उसके हरम पर काबिज हो जाते हैं। मगर नर टाइगर की बात अलग है वह अकेला रहता है और वक्त आने पर कमजोर हो रहे किसी दूसरे नर का एरिया उसे हरा के अपना बना लेता है। इस तरह इनब्रीडिंग से टाइगर परिवार बचा चला आ रहा है।
शिकार ही नहीं पानी का संकट और उसकी खुराक श्रंगधारी जीवों की कमी की वजह टाइगर एक से दूसरे जंगल जाना पड़ता है। टाइगर गर्मी में नहाता है और अच्छा तैराक भी होता है, सुंदरवन में टाइगर को लम्बी दूरी तैर के तय करते देखा जाता है।
कभी-कभी मानव की करतूतों से परेशान टाइगर एक जंगल छोड़ दूसरी जगह चला जाता है, जैसे उसके रहवास में पेड़ कटाई, खान-कर्म या फिर मानव की आवाजाही वृद्धि। शिकारी या जाल के खौफ को भी टाइगर समझता है जिस वजह वह पलायन कर जाता है। यह भी जांच या शोध का विषय हो सकता है कि बाँधवगढ़ में उड़ीसा के लिए ‘सुंदरी’ को पकड़े जाने के बाद झुमरी ने किसी भय से अचानकमार टाइगर रिजर्व में पनाह तो नहीं ली।
टाइग्रेस भी शावकों की सुरक्षा के मद्देनजऱ पलायन करतीं है। जहां टाइगर अधिक होते हैं वहाँ पिता को छोड़ अन्य टाइगर के द्वारा उसके शावकों को मारे जाने का खतरा होता है। कहा तो यह भी जाता है कि इस खतरे से बचने के टाइग्रेस, आसपास के इलाके के एक से अधिक टाइगर के सम्पर्क में आती है जिससे उसके शावकों को सभी टाइगर अपना शावक समझे और उनकी हत्या कोई नहीं करें। इस संदर्भ में वह गर्भकाल में प्रवास कर अन्यत्र भी बच्चे देती है जहाँ टाइगर कम हो। जैसे कि अचानकमार का जंगल, यहां चीतल सांभर कम है। लेकिन गाय और भैंसे यहां इफराद जो कम मेहनत में मदर टाइग्रेस की शिकार बन जाते हैं। यहां वह शावकों को कम भागदौड़ कर शिकार करने का हुनर सीखा सकतीं हैं।
-दिलनवाज पाशा
एकनाथ शिंदे की बागी चाल में फंसे और सरकार बचाने की चुनौती का सामना कर रहे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने बुधवार शाम एक लाइव भाषण में शिव सेना के विधायकों से कहा कि ‘अगर एक भी विधायक मुझे पद से हटाना चाहता है तो मैं पद छोड़ दूंगा, मेरा इस्तीफा तैयार है।’
उद्धव ठाकरे ने स्पष्ट किया कि गठबंधन सहयोगी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का समर्थन तो उन्हें प्राप्त है लेकिन अपनी ही पार्टी शिव सेना का नहीं।
सियासी रूप से कमज़ोर पड़ चुके उद्धव ठाकरे ने पद छोडऩे से पहले ही सरकारी आवास ‘वर्षा’ छोड़ दिया और वो अपना सामान समेट कर मातोश्री पहुँच गए।
28 नवंबर 2019 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीति में ख़ास असर रखने वाले ठाकरे परिवार के संवैधानिक पद पर बैठने वाले पहले व्यक्ति बने थे।
ठाकरे का मुख्यमंत्री बनना महाराष्ट्र की राजनीति की ऐतिहासिक घटना थी। विचारधारा के दो विपरीत छोर पर खड़ी पार्टियां सियासी मजबूरियों की वजह से साथ आईं और महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन बना।
मुख्यमंत्री बनने के लिए उद्धव ठाकरे ने भाजपा के साथ दशकों चला गठबंधन तोड़ा।
शिव सेना और बीजेपी 1984 में करीब आईं और 1989 लोकसभा चुनावों से पहले दोनों दलों का गठबंधन हो गया। बीच में 2014 में कुछ समय के लिए इस गठबंधन में दरार आई।
हिंदुत्व ने शिव सेना और बीजेपी को जोड़े रखा और 2019 विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने मिलकर लड़ा। लेकिन सरकार गठन से ठीक पहले उद्धव ठाकरे बीजेपी से अलग हो गए और विपरीत विचारधारा वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई।
उद्धव ठाकरे की सरकार ने कई उतार-चढ़ावों से गुजरते हुए ढाई साल पूरे किए और अब एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी विधायकों की बगावत के बाद उनकी सरकार संकट में है।
अब उद्धव ठाकरे के सामने सिर्फ सरकार ही नहीं अपनी पार्टी बचाने की भी चुनौती है क्योंकि बागी एकनाथ शिंदे ने शिव सेना पर ही दावा ठोक दिया है।
महाराष्ट्र के मौजूदा सियासी घमासान में का एक नतीजा ये भी हो सकता है कि एकनाथ शिंदे बागी शिव सेना विधायकों के साथ बीजेपी से हाथ मिले लें और राज्य में सत्ता बदल जाए। इसी के साथ उद्धव ठाकरे के लगभग ढाई साल के कार्यकाल का भी अंत हो जाएगा।
शिवसेना ने भले ही धर्मनिरपेक्ष दलों से गठबंधन किया लेकिन वो हमेशा ये दावा करती रही कि उसकी विचारधारा हिंदुत्व ही है
शिवसेना ने भले ही धर्मनिरपेक्ष दलों से गठबंधन किया लेकिन वो हमेशा ये दावा करती रही कि उसकी विचारधारा हिंदुत्व ही है
उद्धव ठाकरे जब मुख्यमंत्री बने थे तो लोगों की दिलचस्पी उनमें थी। पहली बार ठाकरे परिवार का कोई व्यक्ति संवैधानिक पद पर बैठा था। इससे पहले ठाकरे परिवार के किसी सदस्य ने कभी ना ही कोई चुनाव लड़ा था और ना ही कभी कोई संवैधानिक पद संभाला था।
उद्धव ठाकरे जब सत्ता में आए थे तब उनकी छवि बेदाग थी। उन पर कभी किसी तरह के भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा था।
उद्धव ठाकरे के कार्यकाल को देखा जाए तो उस पर कोविड महामारी हावी नजऱ आती है। विश्लेषक मानते हैं कि इन ढाई सालों में उद्धव ठाकरे ने कोविड के ख़िलाफ़ तो जमकर काम किया लेकिन इसके अलावा वो कुछ और उल्लेखनीय नहीं कर पाए।
कोविड में हीरो
उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बने हुए चार महीने भी नहीं हुए थे कि महाराष्ट्र में कोविड के पहले मामले की पुष्टि हो गई थी। भारत में महाराष्ट्र कोविड से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में से एक था।
कोविड महामारी के दौरान उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री के रूप में सोशल मीडिया पर सुपर एक्टिव थे और जनता से सीधा संवाद कर रहे थे। महामारी के दौरान हुए एक सर्वे में उन्हें देश के सर्वश्रेष्ठ पाँच मुख्यमंत्रियों में शामिल किया गया था।
लोकमत अखबार के वरिष्ठ सहायक संपादक संदीप प्रधान कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे ने सबसे अच्छा काम कोरोना के समय किया। मुंबई के धारावी जैसी झुग्गी बस्ती में कोरोना को नियंत्रित करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। उद्धव ठाकरे ने इन मुश्किल हालात को सही से संभाला।’
बीबीसी मराठी के संपादक आशीष दीक्षित भी मानते हैं कि कोविड के दौरान उद्धव ठाकरे ने फ्रंटफुट पर आकर काम किया। दीक्षित कहते हैं, ‘महाराष्ट्र कोविड से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में था। जब कोविड के आंकड़े बढ़ रहे थे तब उद्धव ठाकरे ने सोशल मीडिया के माध्यम से जनता से सीधा संवाद स्थापित किया और सरकार की बात लोगों तक पहुंचाई।’
दीक्षित कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि कोविड के दौरान उद्धव सक्रिय दिखे और उन्होंने संवाद बनाए रखा। उस समय लोगों को उद्धव ठाकरे को बहुत अच्छे लग रहे थे क्योंकि उनका बात करने का तरीका बिल्कुल सामान्य था। वो लोगों से ऐसे बात करते थे जैसे दोस्त आपस में बैठकर बात करते हैं। लोगों को लग रहा था कि ये हमारे बीच का ही कोई है जो हमसे बात कर रहा है। उद्धव ठाकरे भले ही एकतरफा संवाद कर रहे थे लेकिन लोगों को ये अच्छा लग रहा था।’
कोविड के दौरान उद्धव सरकार ने जंबो कोविड सेंटर शुरू किए। दूसरी लहर के दौरान जब दिल्ली-लखनऊ जैसे शहरों में ऑक्सीजन नहीं मिल रही थी, मुंबई में स्थिति नियंत्रण में थी। शिव सेना ये दावा करती रही है कि कोविड महामारी के दौरान उसने मुंबई जैसे बड़ी आबादी वाले शहर में हालात नियंत्रण में रखे।
उद्धव ठाकरे ने अपने आप को घर तक ही सीमित रखा और वो बहुत कम बाहर निकले। उद्धव दिल के मरीज़ हैं और 2012 में सर्जरी के बाद उन्हें 8 स्टेंट भी लग चुके हैं। नवंबर 2021 में उद्धव अस्पताल में भर्ती हुए थे और उनकी रीढ़ की सर्जरी की गई थी।
उद्धव ठाकरे ने अधिकतर कैबिनेट बैठकें वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए ही कीं। वो बहुत कम बार मंत्रालय गए। सरकारी आवास वर्षा, जहाँ से सरकार चलती है, वहाँ भी वो कम ही रहे और अपने निजी बंगले में ही अधिक रहे।
आशीष दीक्षित कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे वर्चुअली तो लोगों को दिख रहे थे लेकिन उनकी फिजिकल विजीबिलिटी नहीं थी। वो एक तरह से नदारद थे। मुख्यमंत्री हमेशा प्रदेश का दौरा करता रहता है, जिलों में होता है, लेकिन उद्धव ठाकरे मुंबई से बाहर एक-दो बार ही निकले। वास्तव में वो अपने घर से बाहर भी नहीं निकले।’
दीक्षित कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे कई बार विधानसभा सत्रों में भी नहीं गए। ये चर्चाएं होती थीं कि उद्धव सदन में आएंगे या नहीं।’
वहीं संदीप प्रधान मानते हैं कि उद्धव के बहुत अधिक लोगों के बीच में ना जानें की वजह उनका स्वास्थ्य और स्वभाव है।
संदीप प्रधान कहते हैं, ‘उद्धव जब पार्टी के अध्यक्ष थे तब भी अपनी शर्तों पर ही लोगों से मिलते थे। वो बहुत घुलते मिलते नहीं है और आमतौर पर लोगों के बीच नहीं जाते हैं।’
उद्धव ठाकरे स्वास्थ्य की वजह से भी अपने आप को सीमित रखते हैं। हालांकि महाराष्ट्र में ही शरद पवार जैसे बुज़ुर्ग नेता हैं जो बहुत सक्रिय रहते हैं और आमतौर पर दौरे करते रहते हैं।
संदीप प्रधान कहते हैं, ‘शरद पवार अलग-अलग जिलों में घूमते रहते हैं। लेकिन उनकी तुलना में उद्धव ठाकरे कभी सक्रिय नजर नहीं आए। इसकी एक ही साफ वजह दिखती है कि वो अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित रहते हैं।’
संदीप प्रधान कहते हैं, ‘गवर्नेंस (शासन) के मामले में उद्धव बहुत प्रभावी नहीं रहे। उनकी सरकार में फाइलें लंबित पड़ी रहीं। मंत्रियों और विधायकों से संवाद कमजोर रहा। संवाद ना होना ही मौजूदा राजनीतिक संकट की जड़ में है।’
उद्धव ठाकरे तीन पार्टियों के गठबंधन की सरकार चला रहे थे। उनके पास अपना पूर्ण बहुमत नहीं था। विश्लेषक ये भी मानते हैं कि जिस तरह का नियंत्रण एक गठबंधन सरकार पर मुख्यमंत्री का होना चाहिए था वैसा वो बना नहीं पाए थे।
संदीप प्रधान कहते हैं, ‘अलग-अलग विचारों की पार्टियों का गठबंधन है। उन पर नियंत्रण करने के लिए जो अथॉरिटी चाहिए वो उद्धव के पास नहीं रहा। उद्धव के पास प्रशासन या सरकार चलाने का बहुत अनुभव भी नहीं था।’
कोई ऐसा काम नहीं जिस पर उद्धव की छाप हो
उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री कार्यकाल के अधिकतर समय कोविड हावी रहा। कोविड के दौरान भले ही उन्होंने वाहवाही लूटी हो लेकिन इसके अलावा ऐसा कोई उल्लेखनीय काम महाराष्ट्र सरकार का नजऱ नहीं आता जिस पर उद्धव ठाकरे की छाप हो।
आशीष दीक्षित कहते हैं, ‘कोविड छोडक़र अगर दूसरे कामों की बात करें तो शायद ही ऐसा कोई बड़ा काम हो जो महाराष्ट्र सरकार ने उद्धव के शासन काल में किया हो। जो पहले से बड़े प्रोजेक्ट चल रहे थे, जैसे नागपुर-मुंबई समृद्धि महामार्ग, ये बड़ा प्रोजेक्ट पिछली सरकार ने शुरू किया था और उद्धव सरकार ने इसे आगे बढ़ाया। पुणे और मुंबई मेट्रो का काम भी चल रहा है। ये भी पिछली सरकारों के शुरू किए प्रोजेक्ट हैं। उद्धव सरकार का ऐसा कोई बड़ा काम या प्रोजेक्ट नजर नहीं आता जिसमें उनका विजऩ या सोच दिखाई दे।’
कई मोर्चों पर नाकाम
उद्धव ठाकरे के शासन काल में महाराष्ट्र में स्टेट ट्रांसपोर्ट की बसों की सबसे लंबी हड़ताल हुई। छह महीनों से अधिक समय तक बसें हड़ताल पर रहीं और उद्धव सरकार इस संकट का समाधान नहीं कर पाई। ये हड़ताल लंबी होती गई और सरकार स्थिति को संभाल नहीं पाई।
महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड की परिक्षाओं को लेकर भी असमंजस की स्थिति बनीं रही। परिक्षाओं की तारीख़ें बदलती रहीं। बेसब्र होकर छात्रों को सडक़ पर उतरना पड़ा और ये एक बड़ा मुद्दा बन गया।
आशीष दीक्षित मानते हैं कि उद्धव ठाकरे को काम करने के लिए बहुत अधिक समय भी नहीं मिल पाया। दीक्षित कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे के कार्यकाल के ढाई साल में से लगभग दो साल कोविड में ही चले गए। सरकार का बहुत अधिक पैसा कोविड प्रबंधन में भी ख़र्च हुआ। दूसरे कामों के लिए सरकार के पास बहुत कम पैसा बचा।’
केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर
उद्धव ठाकरे ने केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी से नाता तोडक़र विपक्षी दलों के साथ गठबंधन सरकार बनाई थी।
विश्लेषक मानते हैं कि इसी वजह से उनकी सरकार केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर भी रही।
‘केंद्रीय एजेंसियां महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी को खासतौर पर निशाना बना रहीं थीं। पिछले लगभग 6-7 महीनों से शिवसेना के विधायक केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर हैं। हर सप्ताह किसी ना किसी विधायक या मंत्री के घर या दफ्तर पर छापा पड़ता है। कई आयकर विभाग, कभी नार्कोटिक्स तो कभी प्रवर्तन निदेशालय। किसी राजनेता की पत्नी तो किसी के रिश्तेदारों से पूछताछ की जाती है।’
उद्धव ठाकरे सरकार के दो मंत्री (दोनों ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से) नवाब मलिक और अनिल देशमुख गिरफ़्तार हो चुके हैं। अनिल देशमुख गृहमंत्री थे और इस्तीफ़ा दे चुके हैं। नवाब मलिक अभी भी मंत्री हैं और जेल में हैं।
विश्लेषक मानते हैं कि केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाइयों ने भी उद्धव ठाकरे सरकार को तनाव में रखा।
मंगलवार को जब महाराष्ट्र में सियासी ड्रामा चल रहा था और शिवसेना संकट में थी तब उद्धव ठाकरे के सबसे भरोसमंद लोगों में से एक अनिल परब ईडी के दफ्तर में सवालों के जवाब दे रहे थे। अनिल परब उद्धव ठाकरे सरकार में ट्रांसपोर्ट मंत्री हैं। प्रवर्तन निदेशालय उन्हें गिरफ्तार भी कर सकता है।
आशीष कहते हैं, ‘केंद्रीय एजेंसियां महाराष्ट्र में कुछ अधिक ही सक्रिय थीं। इससे उद्धव ना सिर्फ तनाव में थे बल्कि कहीं और ध्यान भी नहीं दे पा रहे थे।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मालदीव की राजधानी माले में एक अजीब-सा हादसा हुआ। 21 जून को योग-दिवस मनाते हुए लोगों पर हमला हो गया। काफी तोड़-फोड़ हो गई। कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। मालदीव में यह योग-दिवस पहली बार नहीं मनाया गया था। 2015 से वहां बराबर योग-दिवस मनाया जाता है। उसमें विदेशी कूटनीतिज्ञ, स्थानीय नेतागण और जन-सामान्य लोग होते हैं। इन योग-शिविरों में देसी-विदेशी या हिंदू-मुसलमान का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता है। इसके दरवाजे सभी के लिए खुले होते हैं।
यह योग-दिवस सिर्फ भारत में ही नहीं मनाया जाता है। यह दुनिया के सभी देशों में प्रचलित है, क्योंकि संयुक्तराष्ट्र संघ ने इस योग-दिवस को मान्यता दी है। मालदीव में इसका विरोध कट्टर इस्लामी तत्वों ने किया है। उनका कहना है कि योग इस्लाम-विरोधी है। उनका यह कहना यदि ठीक होता तो संयुक्तराष्ट्र संघ के दर्जनों इस्लामी देशों ने इस पर अपनी मोहर क्यों लगाई है? उन्होंने इसका विरोध क्यों नहीं किया?
क्या मालदीव के कुछ उग्रवादी इस्लामी लोग सारी इस्लामी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं? सच्चाई तो यह है कि मालदीव के ये विघ्नसंतोषी लोग इस्लाम को बदनाम करने का काम कर रहे हैं। इस्लाम का योग से क्या विरोध हो सकता है? क्या योग बुतपरस्ती सिखाता है? क्या योगाभ्यास करने वालों से यह कहा जाता है कि तुम नमाज़ मत पढ़ा करो या रोजे मत रखा करो?
वास्तव में नमाज और रोज़े, एक तरह से योगासन के ही सरल रूप हैं। यह ठीक है कि योगासन करने वालों से यह कहा जाता है कि वे शाकाहारी बनें। शाकाहारी होने का अर्थ हिंदू या काफिर होना नहीं है। कुरान शरीफ की कौनसी आयत कहती है कि जो शाकाहारी होंगे, वे घटिया मुसलमान माने जाएंगे? जो कोई मांसाहार नहीं छोड़ सकता है, उसके लिए भी योगासन के द्वार खुले हुए हैं। योग का ताल्लुक किसी मजहब से नहीं है। यह तो उत्तम प्रकार की मानसिक और शारीरिक जीवन और चिकित्सा पद्धति है, जिसे कोई भी मनुष्य अपना सकता है।
क्या मुसलमानों के लिए सिर्फ वही यूनानी चिकित्सा काफी है, जो डेढ़-दो हजार साल पहले अरब देशों में चलती थी? क्या उन्हें एलोपेथी, होमियोपेथी और नेचरोपेथी का बहिष्कार कर देना चाहिए? बिल्कुल नहीं! आधुनिक मनुष्य को सभी नई और पुरानी पेथियों को अपनाने में कोई एतराज क्यों होना चाहिए? इसीलिए यूरोप और अमेरिका में एलोपेथी चिकित्सा इतनी विकसित होने के बावजूद वहां के लोग बड़े पैमाने पर योग सीख रहे हैं, क्योंकि योग सिर्फ चिकित्सा ही नहीं है, यह शारीरिक और मानसिक रोगों के लिए चीन की दीवार की तरह सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम भी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अग्निपथ को हमारे नेताओं ने कीचड़पथ बना दिया है। सरकार की अग्निपथ योजना पर पक्ष-विपक्ष के नेता कोई गंभीर बहस चलाते, उसमें सुधार के सुझाव देते और उसकी कमजोरियों को दूर करने के उपाय बताते तो माना जाता कि वे अपने नेता होने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं लेकिन सत्तारुढ़ भाजपा के नेता आंख मींचकर अग्निपथ का समर्थन कर रहे हैं और सारे विपक्षी नेता उस पर कीचड़ उछाल रहे हैं।
सरकार और फौज अपनी मूल योजना पर रोज ही कुछ न कुछ रियायतों की घोषणा कर रही है ताकि हमारे भावी फौजियों की निराशा दूर हो और उनमें थोड़े उत्साह का संचार हो लेकिन लगभग सभी विपक्षी दलों को यह एक ऐसा मुद्दा मिल गया है, जिसे भुनाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। यह तथ्य है कि अग्निपथ योजना के खिलाफ जो जबर्दस्त तोड़-फोड़ देश में हुई है, उसकी पहल स्वत: स्फूर्त थी। उसके पीछे किसी विपक्षी नेता या दल का हाथ नहीं था लेकिन अब आप टीवी चैनलों पर देख सकते हैं कि विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्त्ता और नेता हाथ में अपने झंडे लिए हुए नारे लगाते घूम रहे हैं।
ये वे लोग हैं, जिन्हें न तो खुद फौज में भर्ती होना है और न ही इनके बच्चों को फौजी नौकरी पाना है। जिन नौजवानों को फौजी नौकरी पाना है, उनका गुस्सा स्वाभाविक था। हर आदमी अपने जीवन में स्थायी सुरक्षा और सुविधा की कामना करता है। कोई भी नौजवान चार साल फौज में बिताने के बाद क्या करेगा, यह प्रश्न उसे विचलित किए बिना नहीं रहेगा। फौज में जाने को ग्रामीण, गरीब और अल्पशिक्षित नौजवान इसलिए भी प्राथमिकता देते हैं कि उन्हें युद्ध तो यदा-कदा लडऩा पड़ता है लेकिन उनका शेष समय पूरी सुविधाओं और सुरक्षा में बीतता है और सेवा-निवृत्त होने पर 30-40 साल तक पेंशन और मुफ्त इलाज आदि की सुविधाएं भी मिलती रहती हैं और वे चाहें तो दूसरी नौकरी भी कर सकते हैं।
लेकिन यह परंपरागत व्यवस्था दुनिया के सभी प्रमुख देशों में बदल रही है, क्योंकि फौज में कम उम्र के नौजवानों की ज्यादा जरुरत है। सारी फौज के शस्त्रास्त्रों की खरीद पर जितना पैसा खर्च होता है, उससे ज्यादा पेंशन पर हो जाता है। फौज का आधुनिकीकरण बेहद जरुरी है। सरकार के ये तर्क तो समझ में आते हैं लेकिन कितना अच्छा होता कि अग्निपथ की ज्वाला अचानक भडक़ाने की बजाय वह इस मुद्दे पर संसद और खबरपालिका में पहले सर्वांगीण बहस करवा देती।
अब उसकी इस घोषणा का असर जरुर पड़ेगा कि इस आंदोलन में भाग लेनेवाले जवानों को अग्निपथ की नौकरी नहीं मिलेगी। यह आंदोलन ठप्प भी हो सकता है। लेकिर बेहतर तो यह होता कि फौजी अफसर इस योजना को तुरंत लागू करने की घोषणा करने की बजाय इस पर सांगोपांग बहस होने देते और जो भी उत्तम सुझाव आते, उन्हें स्वीकार कर लिया जाता। अग्निपथ को कीचड़पथ होने से बचाना बहुत जरुरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
करीब चालीस अरब डॉलर का है योग उद्योग। योग से मिली उर्जा का उपयोग पूंजीवादी अच्छी तरह करते हैं। योग से कर्मचारी ज्यादा उर्जावान महसूस करेंगे और ज्यादा काम करने में सक्षम होंगें। काम से होने वाले तनाव को भी योग कम करेगा। कम तनाव यानी ज्यादा लगन से काम करने की क्षमता। अमेरिका में ध्यान और योगाभ्यास कॉर्पोरेट संस्कृति का जरूरी हिस्सा बनते जा रहे हैं। यह संस्कृति कहती है कि बड़ी कंपनियों में काम करने वालों का ‘ख्याल’ रखना जरूरी है। उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल करना बहुत ही जरूरी है। सतही तौर पर देखने पर यह बात ठीक लगती है, पर इसका वास्तविक उद्देश्य तो यही है कि कर्मचारी अच्छी मशीन में तब्दील हो सकें और बगैर किसी गिले-शिकवे के फिट रहकर काम कर सकें। मन शांत रहें उनके, तनाव से दूर रहें, और ‘मोह माया’ से दूर बस अपने काम पर एकाग्रचित्त रहें।
भोग के लिए भी योग का इस्तेमाल हो रहा है। योग के जरिये सेक्स का ज्यादा आनंद उठायें, अपने पार्टनर को ज्यादा खुश रखें, इस तरह के फायदे योग को ज्यादा लुभावना बनाते हैं। योग को सेक्स के साथ जोडक़र उसे एक बढिय़ा बिकाऊ बेस्टसेलर सामान में तब्दील कर दिया गया है और यह खास किस्म की दुकान खूब चल निकली है। ओशो इस कला में माहिर थे और ‘सम्भोग से समाधि तक’ नाम की पुस्तक लिख कर उन्होंने योग और भोग की मिली जुली रेसिपी पेश करके दुनिया में एक विस्फोट-सा किया था।
योग को लेकर भारत की एक बड़ी ही गलत छवि फैलने का खतरा है। भारत तो एक आध्यात्मिक देश के रूप में लोग पहचानते हैं, जबकि सच्चाई यह है अक्सर जब एक आम विदेशी पर्यटक भारत आता है तो उसे कुछ और ही देखने को मिलता है। हर तीर्थ स्थान पर ‘योगा’ के नाम पर विदेशियों को मूडऩे वाले जोगी आपको दिखेंगे जो तथाकथित ध्यान के तरीके सिखा कर उन्हें बेवकूफ बनाते हैं। तीर्थ स्थानों पर ऐसे कई ठग और ठगे गए पर्यटक मिलेंगे।
योग कोई सरकारी संस्कार नहीं। असंख्य साधकों-मनीषियों ने सदियों के शोध और अभ्यास से इसे स्थापित किया है। सबसे बड़ी बात यह कि योग का कोई अंतिम या रूढ़ रूप नहीं है। वह अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रूपों में विकसित हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसके प्रसारकों का आग्रह तत्व पर था, रूप पर नहीं। लेकिन अभी जो कुछ किया जा रहा है, उसके बाद योग की अविरल धारा अपने स्वाभाविक स्वरूप में बहती रहेगी, इसमें संदेह है। जिन्होंने वास्तव में इस क्षेत्र में गंभीर काम किया वे आम तौर पर गुमनामी में ही रहे। इनमे से एक थे दक्षिण भारत के योग गुरु आयंगर जिनको शायद ही किसी ने कभी टीवी पर देखा हो। अब वह नहीं रहे पर उनकी योग पर लिखी पुस्तकें ‘लाइट ऑन योग’ और ‘लाइट ऑन प्राणायम’ योग की दुनिया में बहुत ही ऊंचा स्थान रखती हैं।
योग के बारे में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जब योगाभ्यास और मानव देह पर उसके अच्छे प्रभावों की बात शुरू हुई, उस समय वातावरण कुछ और ही था। प्रदूषण नहीं था, हवा-पानी स्वच्छ थे और देह इतनी असंवेदनशील नहीं हुई थी। अब तो हर सांस के साथ कितना ज़हर अन्दर जा रहा है, इसका कोई हिसाब ही नहीं। ख़ास कर शहरों में। इस जहरीली हवा में कोई योग-प्राणायाम करे तो फेफड़ों का क्या हाल होगा यह फेफड़े ही जानेंगे। योग पर इतनी तरह के लोग, इतने तरीकों से टूट पड़े हैं कि कुल मिलाकर जीवन की समग्र समझ को बचाने के लिए विकसित की गई एक कला धीरे-धीरे एक बेस्टसेलिंग आइटम में तब्दील होती जा रही है। एक अच्छी खासी विधि को हम लोगों ने बाजारू बना डाला है।
-गौरव गुलमोहर
बात ज्यादा नहीं दो साल पुरानी है। गांव के बगल से लखनऊ-बनारस को जोडऩे वाली एक फोर लेन सडक़ गुजर रही थी। फोर लेन सडक़ गुजरने से सरल होने वाले यातायात का उत्साह उतना नहीं था जितना फोर लेन में खेत जाने से मिलने वाले पैसे का था।
दिलचस्प बात यह थी कि सडक़ बनने से पहले रोज सुबह चाय की दुकानों से एक अफवाह उठती, जिसमें गांव का कोई नेता टाइप आदमी पीडब्ल्यूडी में अपने सम्पर्क के माध्यम से बताता कि सडक़ लम्भुआ बाजार से दो किलोमीटर उत्तर दिशा से होकर गुजरेगी। अगले दिन कोई दूसरा नेता मंत्रालय में चल रही वार्ता के मध्यम से बताता कि सडक़ बाजार से तीन किलोमीटर उत्तर दिशा से होकर गुजरेगी।
इसी तरह लम्भुआ बाजार की उत्तर दिशा में बसने वाले लगभग दसियों गांव नोटों की गड्डियों के कल्पना लोक में विचरण करने लगे। गांव के लोगों को चाय की दुकानों से ही पता चला कि सरकार जमीन का दोगुना रेट दे रही है और अगर चार बीघा खेत भी सडक़ में गया तो एक झटके में आदमी करोड़पति बन जाएगा।
गांव में चर्चा तब और गर्म हो गई जब बिजली के तार को ले जाने के लिए ड्रोन कैमरे की मदद से सर्वे होने लगा। गांव में ख़बर पहुंच गई कि हेलीकॉप्टर से सडक़ जाने के लिए खेतों का फोटो खींचा जा रहा है। देखते ही देखते पूरा गांव नहर के किनारे पहुंच गया। जिनके खेतों के ऊपर से हेलीकॉप्टर (ड्रोन) गुजरता वो अंदर ही अंदर खुशी से फुट पड़ते और जिनके खेतों से ड्रोन नहीं गुजर रहा था वो भगवान भोलेनाथ से मन्नत मान रहे थे कि उनके खेत का भी फ़ोटो खींच लिया जाय।
गांव के लोगों के बीच गणित विषय अचानक वार्ता के केंद्र में आ गया। गांव में स्टेशनरी की एक दो दुकानें ही थीं जो टूटी-फूटी हालत में चल रही थीं। दिनभर में दो चार बच्चे पेंसिल, रबर, कटर और एक-दो कॉपियां लेने आ जाएं वही बहुत था। लेकिन सडक़ में खेत जाने की चर्चा के बाद से पूरा गांव कैपिटल कॉपी खरीदने पर टूट पड़ा। दुकानदार सुबह कॉपियों का एक बंडल लाता शाम तक कापियां गायब। गांव की जनता कैपिटल कापियों पर बिस्वा, धुर, बीघा, बाग, तालाब, बैनामा, हिस्सेदारी के हिसाब से जोड़ घटाव करने लगी।
यह सिलसिला लगभग छ: महीने तक चला। कोई मुम्बई से फोन कर खबर लेता कोई दिल्ली से और कोई कलकत्ता से। हर आदमी इस उम्मीद में था कि उसका खेत जाएगा तो वह पहले एक बोलेरो लेगा, फिर एक ट्रैक्टर और दो तल्ला घर बनवायेगा। जो थोड़े पढ़े-लिखे बेरोजगार थे वो सडक़ में खेत जाने के बाद मिलने वाले पैसे से एक स्कूल खोलने का प्लान करते क्योंकि इस समय स्कूल से अच्छा कोई दूसरा धंधा नहीं माना जाता है।
अंतत: हुआ यह कि जिन्होंने जोड़-घटाव, गुणा-भाग करके ज्यादा कैपिटल कापियां भरी थीं उनका खेत नहीं गया बल्कि पहले से तय जगह से फोर लेन सडक़ गुजरी और जिधर से फोर लेन गुजरी उधर के लोगों के हाथ में अचानक दस लाख से लेकर पचास लाख, एक करोड़ तक रुपये मिले। कई परिवार ऐसे थे रुपयों का हिसाब रखना उनके बस के बाहर की बात हो गई थी। कुछ ने बोलेरो निकलवाया, कुछ ने मारुति, कुछ ने ट्रैक्टर और कुछ ने घर बनवाया।
दो साल गुजरते-गुजरते जो दस बीस पचास लाख रुपये वाले लोग थे वो दोबारा वहीं आकर खड़े हो गए जहां पहले खड़े थे। उनके लिए एक मुश्त दस-बीस लाख रुपये बहुत थे लेकिन जब वे उससे अपना जीवन स्तर उठाना चाहे वहीं आकर खड़े हो गए जहां पहले खड़े थे। आज पचास लाख पाने वाले सैकड़ों लोग गांव में माछी मार रहे हैं। लाख रुपये भी खाते में नहीं बचे हैं। घर पर खड़ी बोलेरो बिकने का इंतजार कर रही है।
सरकार जिन नौजवानों को अग्निपथ योजना के तहत चार साल बाद बारह लाख रुपये देने की बात कर रही है वो क्या कर पाएंगे? एक टॉप मॉडल बोलेरो की कीमत आज लगभग बारह लाख रुपये है। एक बोलेरो खरीदते ही बारह लाख पाने वाला नौजवान की हालत फोर लेन सडक़ में गई जमीन के बाद कंगाल हुए किसान की हो जाएगी। रिटायर्ड अग्निवीर अपने परिवार का खर्चा, बच्चों की पढ़ाई, मां-बाप का इलाज, बहन-बेटी की शादी के लिए पैसे कहाँ से लाएगा?
-प्रकाश दुबे
ताजिंदगी साला मैं तो फौजी अफसर बन गया, गाने वाले लाल बत्ती की चकाचौंध में बौराकर कलमीजीवी को अपमानित करने अंगरेजी झाड़ते हैं। प्रेस को प्रेस्टीट्यूट कहते वक्त तनिक नहीं सोचा कि वर्दी से लेकर नीयत तक किस किस चीज की बोली लगाकर संसद की देहरी चढ़ पाए? भूत हो चुके प्रेस परिषद के एक अध्यक्ष कुर्सी के नशे में धुत्त होकर पत्रकारों को अनपढ़ कहकर मुदित होते थे। अपने-पराए के भेद से न्याय व्यवस्था अछ़ूती नहीं है। ऐसे दौर में न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई ने सबकी सहमति से भारतीय प्रेस परिषद की कप्तानी स्वीकारी। पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद ने न्यायमूर्ति रंजना के चयन को बहुत अच्छा निर्णय बताया। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश आफताब आलम ने न्या देसाई को सदा धैर्य बंधाया। बरसों पहले क्षुद्र गुटबाजी के कारण रंजना सहायक महाधिवक्ता के पद से त्यागपत्र देने लगीं। महाराष्ट्र के तत्कालीन महाधिवक्ता एडवोकेट वी आर मनोहर के समझाने बुझाने पर मानी। उसके बाद पीछे मुडक़र नहीं देखा।
दे दाता के नाम
कहते हैं, उन्हें महाराज। ज्ञानी और विनयशील। दादा गुलाब सिंह की दो सौं वीं जयंती पर पोता अकिंचन की तरह याचना कर रहा था-दे दाता के नाम, तुझको-आगे वाला शब्द आप समझें। इन दिनों शब्द भी आतंकवादी होने लगे हैं। हम असली कहानी की ओर मुड़ें। जम्मू के हरि निवास में डोगरा राजा की जयंती मनाई गई। संविधान के अनुुच्छेद-370 को हटाने के बाद के फायदे गिनाने की केन्द्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा में होड़ लगी थी। डा कर्णसिंह से महाराजा और सदरे रियासत का ओहदा छिन गया। डाक्टर का पद शिक्षा अर्जित है। भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा-कश्मीर को भारतमाता के भाल का मुकुट कहते थे। देश के सबसे बड़े सूबों में शामिल था। केन्द्रशासित इकाई बनने के बाद अब जम्मू कश्मीर की हरियाणा और हिमाचल से कम औकात रह गई। विवश पूर्व सदरे रियासत ने रक्षा मंत्री या उपराज्यपाल से यह मांग नहीं की। जम्मू विश्वविद्यालय में महाराजा गुलाब सिंह की विरासत पर आयोजित संगोष्ठी में बोल रहे थे। डा सिंह की नाखुशी और याचना विद्यार्थियों ने सुनी।
कैफे काफी डे
यूं तो कन्नड़, उडुपी, मंगलोरियन काफी हाउसों की दिल्ली में कमी नहीं है। तीन तीन कर्नाटक भवन और कन्नड़ नागरिकों के संगठन हैं। सांसद, मंत्री और दर्जनों नौकरशाह हैं। कैफे काफी डे के वी जी सिद्धार्थ का कर्नाटक मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा से संबंध था। दोनों इस दुनिया में नहीं हैं। मुख्यमंत्री बसवराज पाटील को दिल्ली में काफी पीने के लिए अनोखी जगह तलाश करनी पड़ी। बसवराज उन बदकिस्मत मुख्यमंत्रियों में से हैं जिन्हें दिल्ली परिक्रमा के दौरान नेताओं से मुलाकात का समय नहीं मिलता। मंत्रिमंडल विस्तार की अर्जी पलटकर देखना और बात करना बहुत दूर की बात है। अपनी और औरों की पार्टी के नेता एक ही सवाल पूछ कर डराते हैं-मुख्यमंत्री बदलने की चर्चा तेजी पकड़ रही है। मुख्यमंत्री बोम्मई ने दिल्ली के भवनों या अन्य सार्वजनिक काफी हाउसों में जाना बंद कर दिया। प्रदेश के नेताओं से मुलाकात से बचते हैं। अधिकांश समय जोशी कैफे में बिताते हैं। वहां काफी और सलाह दोनों मुफ्त मिलते हैं। कन्नड़ पत्रकार के अनुसार केन्द्रीय संसदीय कार्य और कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी पर बोम्मई का भरोसा कायम है।
बड़ो बड़ो प्रधान
दिल्ली का जाना पहचाना ठिकाना है-तीन मूर्ति। पढऩे लिखने वाले ग्रंथालय और दस्तावेज पलटते। चटपटे चटखारे लेने वाले मथाई नुमा लेखकों की किताबों के सही गलत किस्से सुनाया करते थे। पहले प्रधानमंत्री ने किस पेड़ के नीचे सिगरेट फूंकी? किस विदेशी महिलाओं के अधरों पर अधर रखे, किस प्रधानमंत्री की कितने बजे किससे अंतरंग मुलाकात होती थी? कहानियों और परियों के पंख घटते बढ़ते रहते हैं। उसी हिसाब से किस्से अदृश्य आत्माओं की तरह घूमते रहते हैं। जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी लंबे समय तक रहे। पिछले छह साल में उनके किस्सों को देशभक्ति के खास रंग में रंगा गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आदेश पर तहत मूर्ति भवन का नया रूप प्रधानमंत्री संग्रहालय तैयार है। दिल्ली में राहुल गांधी ईडी की देहरी पर हाजिरी दे रहे थे, कांग्रेसजन धरना और नारेबाजी में व्यस्त रहकर राज्यसभा चुनाव की पराजय पर मरहम लग रहे थे, उस दिन उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू सपत्नीक प्रधानमंत्री संग्रहालय पहुंचे। देर तक मुआयना करते रहे। प्रसन्न हुए। चटखारे लेने वाले भक्त प्रसन्न हैं या दुखी? वर्तमान प्रधानमंत्री निवास में मात्र चार बड़ी कोठियां समा चुकी हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काबुल के कार्ते-परवान में गुरुद्वारे पर हुए हमले ने अफगान सिखों को हिलाकर रख दिया है। जिस अफगानिस्तान के शहरों और गांवों में लाखों सिख रहा करते थे, वहां अब मुश्किल से डेढ़-दो सौ परिवार बचे हुए हैं। उनमें से भी 111 सिखों को भारत सरकार ने इस हमले के बाद तुरंत वीजा दे दिया है। अब से 50-55 साल पहले जब मैं काबुल विश्वविद्यालय में अपना शोधकार्य किया करता था, तब मैं देखता था कि काबुल, कंधार, हेरात और जलालाबाद के सिख सिर्फ मालदार व्यापारी ही नहीं हुआ करते थे, काफी शानदार और सुरक्षित जीवन बिताया करते थे।
औसत पठान, ताजिक, उजबेक और हजारा लोग सिखों को बहुत ही सम्मान की नजर से देखते थे। सिखों को भी अपने अफगान होने पर बड़ा नाज़ हुआ करता था। गजऩी में एक वयोवृद्ध सिख से मैंने पूछा था कि आप कब से यहां रहते हैं तो उन्होंने तपाक से कहा कि जब से अफगानिस्तान बना, तभी से! ऐसे देशभक्त सिखों को अफगानिस्तान से भागना पड़ गया है, यह क्या शर्म की बात नहीं है? लेकिन यह संतोष और आश्चर्य का विषय है कि जिन तालिबान को अत्यंत कट्टरपंथी माना जाता है, उनकी पुलिस तो उस गुरुद्वारे की रक्षा कर रही थी लेकिन खुरासानी इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी गुरुद्वारे पर हमला कर रहे थे।
हमले में एक सिख और एक तालिबान सिपाही मारा गया। इसके पहले जलालाबाद और हर राई साहब के गुरुद्वारों पर हुए हमलों में दर्जनों लोग मारे गए थे। तालिबान सरकार ने उक्त हमले में मृतकों के परिवारों को एक-एक लाख रु. और गुरुद्वारे के पुनरोद्धार के लिए डेढ़ लाख रु. दिए हैं। ये तथ्य बहुत ही गौर करने लायक हैं। क्या पाकिस्तान और बांग्लादेश की सरकारों को भी यही नहीं करना चाहिए? इससे यह भी जाहिर होता है कि भारत के प्रति तालिबान शासन के मन में कितनी सदभावना है।
भारत सरकार ने भी तालिबान शासन के दौरान अफगान जनता की मदद के लिए हजारों टन गेहूं और दवाइयां काबुल भिजवाईं। भारत सरकार ने अपना एक प्रतिनिधि मंडल विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जेपी सिंह के नेतृत्व में काबुल भेजा था ताकि अन्य 13 राष्ट्रों के राजदूतावासों की तरह हमारा राजदूतावास भी दुबारा सक्रिय हो सके लेकिन अब इस दुर्घटना के बाद भारत को जऱा ज्यादा सतर्क होना पड़ेगा।
गुरुद्वारे पर यह जो हमला हुआ है, वह भाजपा प्रवक्ता के पैगंबर संबंधी बयान के बहाने हुआ है लेकिन 2018 और 2020 के हमलों के वक्त तो ऐसा कुछ नहीं था। इसके पहले भी काबुल के शहरे-नव में स्थित हमारे राजदूतावास और जरंज-दिलाराम सडक़ पर काम कर रहे हमारे मजदूरों पर जानलेवा हमले हुए हैं।
इन हमलों के पीछे असली गुनाहगार कौन है, यह हमें पाकिस्तान ही बता सकता है और वह ही इन्हें रोक भी सकता है। ये हमलावर इस्लाम को कलंकित कर रहे हैं। ये हमलावर भारत और तालिबान के बीच संबंधों के सहज होने से शायद घबरा गए हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जैसा कि मैंने परसों लिखा था, अग्निपथ योजना के विरुद्ध चला आंदोलन पिछले सभी आंदोलन से भयंकर सिद्ध होगा। वही अब सारे देश में हो रहा है। पहले उत्तर भारत के कुछ शहरों में हुए प्रदर्शनों में नौजवानों ने थोड़ी-बहुत तोड़-फोड़ की थी लेकिन अब पिछले दो दिनों में हम जो दृश्य देख रहे हैं, वैसे भयानक दृश्य मेरी याददाश्त में पहले कभी नहीं देखे गए। दर्जनों रेलगाडिय़ों, स्टेशनों और पेट्रोल पंपों में आग लगा दी गई, कई बाजार लूट लिये गए, कई कारों, बसों और अन्य वाहनों को जला दिया गया और घरों व सरकारी दफ्तरों को भी नहीं छोड़ा गया। अभी तक पुलिस इन प्रदर्शनकारियों का मुकाबला बंदूकों से नहीं कर रही है लेकिन यही हिंसा विकराल होती गई तो पुलिस ही नहीं, सेना को भी बुलाना पड़ जाएगा।
कोई आश्चर्य नहीं कि अगर सरकार का पारा गर्म हो गया तो भारत में चीन के त्येन आन मान स्कवेयर की तरह भयंकर हत्याकांड शुरु हो सकता है। मुझे विश्वास है कि मोदी सरकार इस तरह का कोई बर्बर और हिंसक कदम नहीं उठाएगी। ऐसा कदम उठाते समय हो सकता है कि छात्रों और नौजवानों को भडक़ाने का दोष विपक्षी नेताओं के मत्थे मढ़ा जाए लेकिन मैं पहले ही कह चुका हूं कि नौजवानों का यह आंदोलन स्वत: स्फूर्त है। इसका कोई नेता नहीं है। यह किसी के उकसाने पर शुरु नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि विरोधी दल अब इस आंदोलन का फायदा उठाने के लिए इसका डटकर समर्थन करने लगें, जैसा कि उन्होंने करना शुरु कर दिया है। इस आंदोलन से डरकर सरकार ने कई नई रियायतों की घोषणाएं जरुर की हैं और वे अच्छी हैं। रक्षामंत्री राजनाथसिंह का रवैया काफी रचनात्मक है और भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने तो यहां तक कह दिया है कि चार साल तक फौज में रहनेवाले जवान को वे अपने दफ्तर में सबसे पहले मौका देंगे।
चार साल का फौजी अनुभव रखनवाले जवानों को कहीं भी उपयुक्त रोजगार मिलना ज्यादा आसान होगा। इसके अलावा इस अग्निपथ योजना का लक्ष्य भारतीय सेना को आधुनिक और शक्तिशाली बनाना है और पेंशन पर खर्च होनेवाले पैसे को बचाकर उसे आधुनिक शास्त्रास्त्रों की खरीद में लगाना है। अमेरिका, इस्राइल तथा कई अन्य शक्तिशाली देशों में भी कमोबेश इसी प्रणाली को लागू किया जा रहा है लेकिन मोदी सरकार की यह स्थायी कमजोरी बन गई है कि वह कोई भी बड़ा देशहितकारी कदम उठाने के पहले उससे सीधे प्रभावित होनेवाले लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश नहीं करती। जो गलती उसने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने, नोटबंदी करने और नागरिकता कानून लागू करते वक्त की वही गलती उसने अग्निपथ पर चलने की कर दी! यह सैन्य-पथ स्वयं सरकार का अग्निपथ बन गया है। अब वह भावी फौजियों के लिए कितनी ही रियायतें घोषित करती रहे, इस आंदोलन के रूकने के आसार दिखाई नहीं पड़ते। यह अत्यंत दुखद है कि जो नौजवान फौज में अपने लिए लंबी नौकरी चाहते हैं, उनके व्यवहार में आज हम घोर अनुशासनहीनता और अराजकता देख रहे हैं। क्या ये लोग फौज में भर्ती होकर भारत के लिए यश अर्जित कर सकेंगे? सच्चाई तो यह है कि हमारी सरकार और ये नौजवान, दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा का पालन नहीं कर रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन होने वाला है, जिसमें चीन और भारत के नेता आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त रणनीति बनाएंगे और उधर चीन ने पाकिस्तान के आतंकवादी अब्दुल रहमान मक्की को बड़ी राहत दिला दी है। अमेरिका और भारत ने मिलकर मक्की का नाम आतंकवादियों की विश्व सूची में डलवाने का प्रस्ताव किया था लेकिन चीन ने सुरक्षा परिषद के सदस्य होने के नाते अपना अड़ंगा लगा दिया। अब यह काम अगले छह माह तक के लिए टल गया है।
यदि चीन अड़ंगा नहीं लगाता तो मक्की पर भी वैसे ही अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लग जाते, जैसे कि जैश-ए-मुहम्मद के मुखिया मसूद अजहर पर लगे हैं। उसके मामले में भी चीन ने अड़ंगा लगाने की कोशिश की थी। समझ में नहीं आता कि एक तरफ तो चीन आतंकवाद को जड़मूल से उखाडऩे की घोषणा करता रहता है लेकिन दूसरी तरफ वह आतंकवादियों की पीठ ठोकता रहता है। जिन आतंकवादियों के खिलाफ पाकिस्तान सरकार ने काफी सख्त कदम उठाए हैं, उनकी हिमायत चीन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर क्यों करना चाहता है?
क्या इसे वह पाकिस्तान के साथ अपनी ‘इस्पाती दोस्ती’ का प्रमाण मानता है? खुद पाकिस्तान की सरकारें इन आतंकवादियों से तंग आ चुकी हैं। इन्होंने पाकिस्तान के आम नागरिकों की जिंदगी तबाह कर रखी है। ये डंडे के जोर पर पैसे उगाते हैं। ये कानून कायदों की परवाह नहीं करते हैं। पाकिस्तान की सरकारें इन्हें सींखचों के पीछे भी डाल देती हैं लेकिन फिर भी चीन इनकी तरफदारी क्यों करता है? इससे चीन को क्या फायदा है? चीन को बस यही फायदा है कि ये आतंकवादी भारत को नुकसान पहुंचाते हैं।
याने भारत का नुकसान ही चीन का फायदा है। चीन का यह सोच किसी दिन उसके लिए बहुत घातक सिद्ध हो सकता है। उसे इस बात का शायद अंदाज नहीं है कि ये आतंकवादी किसी के सगे नहीं होते। ये कभी भी चीन के उइगर मुसलमानों की पीठ ठोककर चीन की छाती पर सवार हो सकते हैं। यदि चीन पाकिस्तान के आतंकवादियों की तरफदारी इसलिए करता है कि वे भारत में आतंकवाद फैलाते हैं तो उसे यह पता होना चाहिए कि इन आतंकवादियों के चलते पाकिस्तान की छवि सारी दुनिया में चौपट हो गई है।
पाकिस्तान के सभ्य और सज्जन नागरिकों को भी सारी दुनिया में संदेह की नजर से देखा जाने लगा है। पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय ‘द फिनांशियल एक्शन टास्क फोर्स’ ने जो प्रतिबंध लगाए थे, उन्हें हटाने की जो शर्तें थीं, वे पाकिस्तान ने लगभग पूरी कर ली हैं लेकिन फिर भी टास्क फोर्स को उस पर विश्वास नहीं है।
पाकिस्तान को हरी झंडी तब तक नहीं मिलेगी, जब तक कि टास्क फोर्स के पर्यवेक्षक खुद पाकिस्तान आकर सच्चाई को परख नहीं लेंगे। पाकिस्तान को चाहिए कि वह यदि इन आतंकवादियों को खुद काबू नहीं कर सके तो उन्हें वह अंतरराष्ट्रीय दंडालयों के हवाले कर दे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक पांडे
सच कहूँ तो खुद को असफल मानता हूँ लगातार। व्यक्ति ही नहीं पीढ़ी के रूप में असफल। 16-17 की उम्र में निजीकरण के खिलाफ शहर की गली-गली में प्रचार कर रहे थे। असफल हुए। साम्प्रदायिकता के खिलाफ तीसेक साल से लड़ रहे हैं, असफल हुए। परिवार के मोर्चे पर तो खैर बुरी तरह असफल हुए। नौकरी की, बस की। असफल हुए और बाहर निकल आए।
जब देश अन्ना आंदोलन के पीछे पागल था लगभग अकेले हम कुछ लोग बता रहे थे कि इसके पीछे बहुत बड़ी चाल है। लोगों को समझा पाने में असफल हुए। जब देश गुजरात मॉडल के पीछे लहालोट था, हम उसकी बखिया उधेड़ रहे थे लेकिन समझा पाने में असफल हुए। मजेदार यह कि उस दौर में अन्ना आंदोलन की जय करने वाले और गुजरात मॉडल का प्रचार करने वाले लोगों में से कुछ अचानक विरोधी बन गए और अब वही विरोध के प्रतिनिधि माने जाते हैं-हमें असफल होना था, असफल हुए!
अब भी क्या कर रहे हैं? दिन रात इतिहास से वर्तमान पर तथ्य-तर्क बताने की कोशिश कर रहे हैं, असफल हैं। कश्मीर पर बोलता-लिखता हूँ तो दोस्त चिंतित हो जाते हैं, पर लिखने-बोलने का असर कितना है? घृणा के पाँच लाख ग्राहक हैं तो तथ्य के पाँच हजार भी मुश्किल से।
बाकी लेखन वगैरह की सफलता-असफलता पर बात करना ही बेकार है। लेखन अपने आप में एक असफल विधा है। तारीफ वगैरह मिल जाती है पर जो ख्वाब देखा था वह नजर से दूर होता जाता है।
दाल-रोटी का जुगाड़ एक सतत संघर्ष है ही। दो वक्त खाने का अब तक चैन से मिल रहा है उसे सफलता मानकर ख़ुश हो लेने के अलावा चारा क्या है?
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
उन दिनों संचार के साधन बहुत कम थे, पत्रों के माध्यम से जानकारियाँ दूर-सुदूर आती-जाती थी। भारतीय डाक सेवा का जाल पूरे देश में फैला था, असंख्य डाक कार्यकर्ता चि_ियों को एक से दूसरे स्थान पर ले जाते थे और खाकी पोशाक में लाखों डाकिए राह तकती अंखियों तक उनके स3देश पत्र पहुँचाते थे। डाकिया के समय से तनिक देर हो जाए तो लोगों में बेचैनी सी होने लगती- ‘क्या बात है ? अभी तक डाकिया नहीं आया!’
महानगर, नगर, कस्बा हो या गाँव, पोस्ट ऑफिस सबका सहारा हुआ करता था। मनीआर्डर के सहारे लाखों लोगों का भरण-पोषण जुड़ा हुआ था, तार के जरिए अति महत्व के सन्देश शीघ्रता से मिल जाते थे, वैसे, तार आना अक्सर किसी अप्रिय घटना के समाचार की संभावना से भी जुड़ा रहता था। तार आने पर लोगों के मन में सबसे पहले यह भाव आता- ‘तार आया, न जाने क्या हो गया?’
लिफाफा पच्चीस पैसे में, अंतर्देशीय पत्र पन्द्रह पैसे में और पोस्टकार्ड पांच पैसे में मिलता था। परिवारों के रिश्ते, दु:ख-सुख के समाचार, पति-पत्नी के उलाहने, प्रेमियों के दर्द, कवियों की कविताएँ, लेखकों के लेख, सरकारी आदेश और व्यापारिक प्रपत्र उन्हीं लिफाफों की मदद से हस्तांतरित होते थे। लिफाफे का उपयोग आवश्यक होने पर ही किया जाता था क्योंकि वह महँगा था, आम तौर पर सस्ते होने के कारण कार्ड सबसे अधिक लोकप्रिय थे। पोस्टकार्ड का बहुआयामी उपयोग होता था, जैसे, सामान्य सूचनाओं का आदान-प्रदान, व्यापारिक कामकाज एवं भाव-ताव, विवाह संबंध की बातचीत, आवागमन की सूचना, साहित्यकारों की रचनाओं की स्वीकृति, अस्वीकृत रचनाओं की बुरी खबर, लाल स्याही से भरपूर राम राम राम राम का लिखित जप, पत्रप्रेषण से देवी-देवताओं की कृपा के आगमन की सूचना और वैसे ही पत्र अपने परिचितों को लिखकर न भेजने पर भीषण आर्थिक हानि और पुत्रशोक होने की धमकी, शोक संदेश जिसके कार्ड का एक कोना फटा रहता था, आदि-आदि।
पत्र लिखना अब इतिहास की बात हो गई, मोबाइल फोन ने उस अद्भुत विधा को एक किनारे लगा दिया। याद है आपको वे मधुर गीत- ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है, प्रियतम मेरे मुझको लिखना, क्या ये तुम्हारे काबिल है ?‘ इस गीत की मधुरता में आप खो सकते हैं परन्तु इसे ‘फील’ केवल वे कर सकते हैं जिन्होंने अपनी किशोरावस्था में ऐसे पत्र किसी को लिखे हों।
गाँव-खेड़े में अनपढ़ लोग पोस्टमेन से आग्रह करके पत्र लिखवाते थे, सदाशयी पोस्टमैन उनकी मदद करते थे और स्वयं उस पत्र को पोस्ट भी कर देते थे। एक मधुर गीत की आपको याद दिलाता हूँ, जरा विरहिणी की पीड़ा को महसूस करिए-
‘खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू
कोरे कागज पे लिख दे सलाम बाबू
वे जान जाएंगे पहचान जाएंगे।
कैसे होती है सुबह से शाम बाबू
वे जान जाएंगे पहचान जाएंगे।
लिख दे...न !’
अब जिक्र निकल गया है तो पत्र लिखने और पढऩे की ‘फीलिंग’ से जुड़ा हसरत जयपुरी का लिखा यह मर्मस्पर्शी गीत आपको याद दिला दूँ-
‘मेहरबां लिखूँ , हसीना लिखूँ या दिलरुबा लिखूँ , हैरान हूँ कि आपको इस खत में क्या लिखूँ ?’
(आत्मकथा का एक अंश है यह)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
सन् 1882 में नागपुर से राजनांदगांव के बीच जब मीटर गेज रेल लाईन बिछाने का काम शुरू हुआ तब बीच का इलाका घने जंगलों और नदी नालों वाला, किन्तु आमतौर पर सपाट था। लाईन आसानी से बिछ गई। सिर्फ एक हिस्सा छूट रहा था। गोंदिया के पास जहां मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सीमाएं मिलती हैं, वहां पहाड़ था और बिना सुरंग (बोगदा) बने लाइन नहीं जा सकती थी।
प्रचलित कहानी के अनुसार बड़े इंजीनियर ने दीवार पर टंगे नक्शे पर निशान लगाते कर कहा था यहां से पहाड़ खोदना शुरू करो। किन्तु युवा अंग्रेज इंजीनियर अनुभवहीन था और काम शुरू करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उसे किसी जबर्दस्त मोटिवेशन की आवश्यकता थी। सो बड़े ने सुझाव दिया- कल्पना करो कि पहाड़ के उस पार तुम्हारी पत्नी खड़ी है। तुम्हें वहां पहुंचना है और उसे ‘किस’ करना है। लेकिन इंजीनियर के लिए हिम्मत जुटाना आसान नहीं था। काम शुरू करने से पहले मजदूरों ने अपने साहब को दसियों बार बड़बड़ाते सुना- ‘शैल आय किस हर?’ ‘शैल आय किस हर?’ (मैं उस छोर को ‘किस’ कर पाऊंगा?)। युवा इंजीनियर के तमाम अविश्वास और शंकाओं के बावजूद काम शुरू हुआ। तब तक यह वाक्य, मजदूरों की अपनी जुबान में, उनके उच्चारण में, उनका नारा बन गया था।
और एक दिन मजदूरों ने वह पत्थर हटाया जिसके दूसरी ओर रौशनी थी, सिरा मिल गया था। युवा इंजीनियर खुशी के मारे चीख उठा -‘देयर आय किस हर’ (मैंने सही सिरा चूम ही लिया)। खुश मजदूर भी थे। उनके बीच भी नारा उठा, उनकी जुबान में- ‘देअर आय किस हर’। पहले छोर की तरह यहां भी मजदूरों की दूसरी बस्ती बसी। दोनों बस्तियों के स्थान पर-सुरंग के दोनों सिरों पर-स्टेशन बने। इनके नाम मजदूरों ने पहले ही तय कर दिये थे। सलेकसा (शैल आय किस हर) और दरेकसा (देअर आय किस हर)।
नागपुर-राजनांदगांव सेक्शन शुरू होते ही छत्तीसगढ़ को अपना घर बनाने वाले गुजरातियों के आगमन का मार्ग खुल गया।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध का समय, विशेषकर 1870 के बाद का, गुजरातियों के लिए बहुत कष्ट का दौर था। सूखे और अकाल के इन वर्षों में अंग्रेजों के व्यावसायिक लालच का दुष्परिणाम कृषि पर दिखने लगा था। आमदनी के स्रोत घटने पर राज्य ने भूमि, नमक और शराब पर टैक्स अनाप-शनाप बढ़ा दिये थे। गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से लड़ाई हारते हजारों परिवार गुजरात छोडऩे के लिए मजबूर हुए। उन्नीसवीं सदी के ‘द ग्रेट इंडियन माईग्रेशन’ में बड़ी संख्या में गुजराती समुद्र पार गए। लेकिन उतनी ही संख्या में लोगों ने देश के भीतर पूर्व की दिशा में बंगाल और बर्मा तक पलायन किया। ऐसे लोगों का बड़ा हिस्सा अंग्रेजों के सेन्ट्रल प्रॉविन्सेज (सी.पी.) में आया।
सन् 1870 में जब नागपुर और मुम्बई के बीच रेलमार्ग बनना शुरू हुआ, तब तक नागपुर से आगे छत्तीसगढ़ की ओर रेल लाईन लाने का अंग्रेजों का कोई ठोस इरादा नहीं बन पाया था। लेकिन यहां लाईन जनता की मांग के कारण नहीं बल्कि अंग्रेजों की मजबूरी और उनके स्वार्थ के चलते आई। मध्य प्रान्त में रेल लाना अपरिहार्य हो गया था।
दो रेल पटरियों को जोडऩे के लिए बीच में बिछाई जाने वाली पट्टी-रेलवे स्लीपर-जो अब कांक्रीट की होती हैं, कुछ समय पहले तक लोहे की और उससे भी पहले शुरुआती दौर में लकड़ी की बनी होती थी। वनों को काटकर बड़े वृक्षों से स्लीपर बनाये जाते थे। भारत भर में इनकी भारी मांग थी और अधिकांश जंगल मध्य भारत में थे। इंजिन भाप से चलते थे और इसी इलाके में कोयला के भंडार भी थे।
छत्तीसगढ के महानदी कछार में, विशेषकर धमतरी-राजिम-कुरुद इलाके में सरप्लस धान पैदा हो रहा था। इसे गुजरात जैसे उन इलाकों में भेजा जा सकता था जहां के खेत अफीम, कपास, तम्बाखू और नील से पाट दिये गये थे और जहां खाने के लिए अनाज नहीं था। साथ ही यहां की वनोपजों का तब तक व्यापारिक दोहन शुरू नहीं हुआ था लेकिन इसकी असीम संभावनाएं जगजाहिर थी। प्रमुख था तेन्दूपत्ता जिससे बीड़ी बनती थी।
इस पृष्ठभूमि में नागपुर और राजनांदगांव के बीच रेल लाइन की शुरुआत हुई थी। बनाने की जिम्मेदारी दी गयी सी.पी. सरकार की छत्तीसगढ़ स्टेट रेलवे को (1888 में बंगाल-नागपुर रेलवे ने इसे खरीदकर ब्रॉडगेज में बदला और हावड़ा से जोड़ा)।
गुजरातियों की कहानी रेल लाइन, वनोपज, चावल मिलों और बीड़ी के बिना बताना संभव नहीं है।
यहां ‘गुजराती’ शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त है जिनकी भाषा, बोली, खान-पान की पद्धतियां, जीवन-शैली आदि समान थीं। लेकिन एक और समानता इन्हे आपस में बांधती थी। ये सारे परिस्थितियों के मारे, मजबूरी में, अपनी जड़ों से उखडक़र आजीविका की तलाश में यहां आये थे। सब ने गरीबी देखी थी। कुछ ने भुखमरी की हद तक। अनेक के पास हुनर और सब के पास भविष्य के लिए सपने और विश्वास था। इन गुजरातियों में जैन, वैष्णव हिन्दू, पाटीदार, कच्छी मेमन, खोजा, पारसी और दाऊदी बोहरा परिवार शामिल हैं। केवल एक समुदाय था जो आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत खुशहाल था। फिर भी बेहतर भविष्य की तलाश में बाहर निकला था। यही वह समाज था जो बाकी गुजरातियों की उंगली पकड़ उन्हे रास्ता दिखाते इस इलाके में लाया था। यह समुदाय था ‘कच्छी गुर्जर क्षत्रिय’ समुदाय।
गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र इलाके में बसे कच्छी-गुर्जर-क्षत्रिय समाज को निर्माण (कंस्ट्रक्शन) और माईनिंग के क्षेत्र में पुश्तैनी महारत हासिल थी। जिन दिनों भारत में इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं खुले थे, इस समाज के बच्चे पैदा होते ही, पिता, भाई और समुदाय के अन्य लोगों के साथ सिविल इंजीनियरिंग का काम सीखने में जुट जाते थे। और यह परम्परा सदियों से चली आ रही थी। कच्छ और सौराष्ट्र में महलों, किलों, नहरों आदि का निर्माण यही समाज करता आया था। समय के साथ देश में इनकी ख्याति आर्किटेक्ट और निर्माण-ठेकेदार के रूप में स्थापित हो गई थी। स्थानीय लोग इन्हे ‘मिस्त्री’ या ‘ठेकेदार’ के रूप में संबोधित करते थे। कच्छ के राजा साहब के दिये धनोटी, कुम्भारिया, लोवारिया, मालपार, मेघपार, जैसे अठारह गांवों में बसा यह समुदाय राठौड़, सोलंकी, परमार, चौहान, सावरिया जैसी उपजातियों में बंटा रहा है। सरनेम का चलन आने पर अनेक लोग ‘मिस्त्री’ शब्द का प्रयोग भी करते हैं।
उन्नीसवीं सदी में गुजरात के दूसरे लोगों की तरह यह समुदाय भी बेहतर जीवन की संभावनाएं कच्छ के बाहर तलाश रहा था। 1850 के दशक में जब अंग्रेज़ों ने रेल निर्माण का फैसला किया तो इस समुदाय ने लपक कर इस अवसर को जकड़ लिया और समय के साथ रेलमार्गों पर अपना लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया। सिन्ध और रावलपिंडी से लेकर असम और चेन्नई तक इन्होने रेल लाइनों में और झारखण्ड की कोयला खदानों तक में इन्होने ठेकेदारी की। किन्तु लेख की बढ़ती लंबाई मुझे विवश करती है मैं फोकस छत्तीसगढ़ और मध्य प्रान्त पर रखूं।
रेल से पहुंचे गुजरातियों के शुरुआती जत्थे में अनेक मिस्त्री ठेकेदार परिवार थे। इनमें कुम्भरिया (कच्छ) के गंगानी परिवार के सात भाईयों का समूह भी था, जिनमें से एक भाई जगमल गांगजी सावरिया ने जयराम मंदान के साथ मिलकर 1890 में बिलासपुर का स्टेशन बनाया। इनमें वालजी रतनजी चौहान भी थे। जगमल सावरिया के बेटे मूलजी सावरिया के साथ साथ वालजी के बेटे जयराम वालजी चौहान को आगे चलकर अंग्रेजों ने ‘राय साहब’ के खिताब से नवाजा। रेल्वे ने अपने ठेकेदार के सम्मान में बम्बई-हावड़ा लाइन पर बिलासपुर के पास एक स्टेशन पाराघाट का नाम बदलकर जयरामनगर रखा। टाटानगर के अलावा संभवत: यह एकमात्र स्टेशन है जिसका नाम अंग्रेजों ने किसी भारतीय पर रखा। सावरिया भाईयों में वालजी मेघजी सावरिया ने रायपुर का रेलवे-स्टेशन बनाया और वहीं बसे, श्यामजी गांगजी सावरिया ने रायगढ़ का स्टेशन बनाया और वहीं बसे और वस्ता गांगजी सावरिया ने खरसिया का स्टेशन बनाया। सिंगूरा गांव के रघु पान्चा टांक ने राजनांदगांव स्टेशन बनाया। बहुत लंबी लिस्ट हैं मिस्त्री समाज के लोगों की उपलब्धियों की।
गैर-मिस्त्री परिवार आमतौर पर धान/चावल और वनोपज (हर्रा, बहेरा, चिरौंजी, शहद आदि के अलावा मुख्य रूप से तेन्दू पत्ता) के व्यापार में रहे। ऐसे अधिकांश गुजराती कच्छ और सौराष्ट्र जैसी पृष्ठभूमि से आये थे और छत्तीसगढ़ के राजे-रजवाड़ों के माहौल में घुल-मिल जाने में उन्हे परेशानी नहीं हुई। कुछ मदद अंग्रेजों ने भी की।
जैसे सौराष्ट्र के राजकोट के पास उपलेटा से निकलकर आये हाजी अब्बा हुसैन हाजी मोहम्मद दल्ला जिन्होंने शुरुआत सुहेला में की थी, वनोपज और चावल के व्यापार के साथ। पड़ोसी राज्य फुलझर के राजा साहब लाल बहादुर सिंहजी से परिचय कराकर उन्हे राज्य मुख्यालय सरायपाली में बसाने में अंग्रेज मददगार रहे। बाद में इनका और राजा साहब का संबंध घनिष्ठ हुआ और हाजी अब्बा हुसैन के पुत्र हाजी अब्दुल सत्तार दल्ला बसना में स्थापित हुए। हाजी अब्दुल सत्तार के पुत्र डॉ. अब्दुल रज्जाक (ऐ.आर.) दल्ला छत्तीसगढ़ के ख्यातनाम वरिष्ठ सर्जन हैं। अपनी पत्नी डॉ. नूरबानो दल्ला तथा बहू डॉ. तबस्सुम दल्ला के साथ रायपुर में जुबेस्ता अस्पताल का संचालन करते हैं। सिकल-सेल बीमारी पर इनके किये काम की देश भर में प्रशंसा हुई है।
युवा गुजराती गोरधनदास भगवानदास दोशी जी ने हर्रा का व्यवसाय करने के इरादे से धमतरी से जगदलपुर पहुंच कर बस्तर राजा साहब से जंगल ठेके पर ले लिया। किन्तु अनुभव न होने के कारण पहले ही साल गहरे नुकसान में चले गये। तब राजा साहब के सामने वकालत करने अंग्रेज अधिकारी ही आया। उसने समझाया कि यदि इस युवा को हतोत्साहित होने दिया गया तो आगे और कोई इतनी दूर जंगल में आये, इसकी संभावना कम ही है। गोरधनदास जी के लिये अगले दो साल तक जंगल टैक्स-फ्री कर दिया गया। उनका व्यवसाय चल निकला। गोरधनदास जी के बेटे किरीट दोषी (श्री भुजीत दोषी के पिता) प्रख्यात पत्रकार रहे। इस परिवार की श्रीमती जयाबेन धमतरी से विधायक रहीं।
गुजरात के मेहसाणा इलाके से निकलकर खरसिया के पास बंजारी गांव में आकर बसे छन्नालाल मेहता के परिवार ने बिलासपुर से आगे की यात्रा बैलगाड़ी पर की थी। रायगढ़ के श्री यतीश गांधी की दादी श्रीमती समरत बेन और खरसिया के श्री हितेंद्र मोदी की दादी श्रीमती तारा बेन छन्नालाल मेहता जी की बेटियां थीं।
हंसराज राकुण्डला जी के परिवार की बैलगाड़ी यात्रा रायपुर तक रेल पहुंचने के बाद हुई थी। वे रायपुर से कोई तेरह मील पर रसनी गांव में बसे। कुछ वर्षों के बाद सन् 1901 में रायपुर से धमतरी तक रेल लाईन बनी और धान की पैदावार बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने घमतरी के पास नदी पर एक बांध भी बना दिया। उद्घाटन करने पहुंचे सी.पी. के गवर्नर सर फ्रैंक जॉर्ज स्ली। इंजीनियर ने सुझाव दिया नये बांध का नाम गवर्नर की पत्नी-मैडम स्ली के नाम पर रखा जाये। सबने हामी भरी। और ‘मैडम स्ली’ बांध उद्धाटित हो गया। समय के साथ ‘मैडम’ और ‘स्ली’ का स्थानीयकरण हुआ। अब यह बांध ‘माड़म सिल्ली’ के नाम से जाना जाता है। खेती बढ़ी तो किसान मेढ़ों पर दाल उगाने लगे और राकुण्डला परिवार ने रसनी से वहां पहुंच कर पहली दाल मिल स्थापित कर दी।
इन गुजरातियों ने छत्तीसगढ़ में चावल मिलों की स्थापना में भी अगुवाई की। सरायपाली-बसना की पहली मिल दल्ला परिवार ने, रायगढ़ के खरसिया के पास पहली मिल छन्नालाल मेहता के परिवार ने और सारंगढ़ की पहली चावल मिल पारसी खुदादाद डूंगाजी ने स्थापित की।
गोंदिया से नैनपुर और वहां से जबलपुर जुड़ते ही तब तक गोंदिया पहुंचे गुजरातियों के लिए जबलपुर के साथ साथ आगे दमोह और सागर जैसे तेन्दूपत्ता से समृद्ध वनाच्छादित इलाकों में पहुंचने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
1919 में गुजरात के खैरा (नादियाड) जि़ले से छोटाभाई पटेल अपने बेटे जेठाभाई के साथ व्यवसाय करने गोंदिया पहुंचे। गुजरात में खैरा, वदोडरा और आणन्द जिलों में ही तम्बाखू ही मुख्य पैदावार होती रही है। कर्नाटक जैसे अन्य इलाकों की तम्बाखू जहां सिगरेट के लिए उपयुक्त माना जाता है, वहीं गुजरात की तम्बाखू बीड़ी के लिए प्रयुक्त होती रही है। अधिकांश तम्बाखू उत्पादक पाटीदार हैं। इन्होंने अपने फर्म की एक शाखा मध्यप्रदेश के सागर में खोली और उसे अपना मुख्यालय बना लिया। लगभग एक दशक के बाद छोटाभाई के भतीजे मनोहरभाई भी गुजरात से आ गए और गोंदिया का काम भतीजे ने संभाल लिया। तम्बाखू गुजरात से मंगा कर यहीं बीड़ी बनाने और बेचने का क्षेत्र और काम बढ़ गया। एक समय इनकी 27 नम्बर (और बंदर छाप) बीड़ी देश की दूसरी सबसे अधिक बिकने वाली बीड़ी थी। मनोहरभाई ने कम समय में बहुत सफलताएं पायीं। एक समय चालीस से अधिक फैक्ट्रियों में पांच से छह करोड़ बीडिय़ां रोज बनती थीं। उनका अपना ‘सेसना’ विमान और अपनी हवाई पट्टी भी थी। समय के साथ बीड़ी का चलन कम होता गया और छोटाभाई जेठाभाई के नाम पर शुरू हुए सीजे ग्रुप का कारोबार अब बीड़ी से हट कर दवा-उत्पादन, रियल एस्टेट, पैकेजिंग, फायनेन्स, और तेल के क्षेत्रों में फैल चुका है। लगभग साठ हजार लोग अब भी रोजगार पा रहे हैं। मनोहरभाई के बेटे हैं सांसद श्री प्रफुल्ल पटेल जो विदर्भ (महाराष्ट्र) के बीड़ी-किंग कहलाते हैं।
सागर की फर्म छोटाभाई जेठाभाई ही कहलाई। हालांकि बाद में परिवार के मुखिया मणिभाई पटेल हुए किन्तु उनके परिवार के वि_ल भाई पटेल को फिल्म गीतकार के रूप में अधिक प्रसिद्धि मिली। वे बॉबी फिल्म में ‘झूठ बोले कौवा काटे’ के अलावा अनेक गानों के रचयिता के रूप में याद किये जाते हैं।
श्री मोहनलाल जबलपुर में सडक़ के किनारे बैठकर बीड़ी बनाया करते थे। यह सन् 1902 की बात है। और फिर उन्होने अपनी बीड़ी को ‘शेर’ ब्रांड के साथ बेचना शुरू किया। मेहनत रंग लायी और ‘मोहनलाल हरगोविंद दास’ देश की ‘नम्बर वन’ बीड़ी उत्पादक फर्म बनी। मोहनलाल ने अपना कारोबार दत्तक पुत्र परमानन्द भाई को सौंपा। उनके बाद पुत्र श्रवण पटेल ने कमान सम्भाली।
1930 के आसपास जिन दिनों मोहनलाल हरगोविंद दास फ़र्म अपना कारोबार बढ़ा रही थी, प्रभुदास भाई फ़र्म में मुनीम थे। उन्होने काम छोड़ अपना कारोबार शुरू किया। बेटों जसवन्तलाल और प्रह्लाद भाई ने कुछ समय पिता के साथ काम करने के बाद दमोह में एक बीड़ी फैक्टरी स्थापित की। एक समय ऐसा आया जब इनके ‘टेलीफोन’ छाप की प्रतिदिन दस करोड़ बीडिय़ां बनने लगीं और फर्म लगभग चार लाख रुपये प्रतिदिन एक्साइज ड्यूटी के रूप में पटाने लगी।
रायपुर में डी.एम. ग्रुप रियल एस्टेट सेक्टर में बहुत बड़ा नाम है। डायालाल मेघजी भाई के नाम से स्थापित यह कम्पनी किसी समय अपनी मशहूर बादशाही बीड़ी के लिए जानी जाती थी। धमतरी के मीरानी परिवार की गोला बीड़ी हो या रायगढ़ के पास भूपदेवपुर की बाबूलाल बीड़ी, अनेक गुजराती परिवार बीड़ी उद्योग से जुड़े और सफल हुए। इनमें गैर-पाटीदार भी शामिल हैं।
बीड़ी व्यवसाय में उतरे गुजरातियों में से अनेक मध्य प्रान्त की राजनीति में भी आये। आर्थिक सम्पन्नता के साथ साथ हज़ारों की संख्या में रोजगार के लिये बीड़ी पर आश्रित ग्रामीण आमतौर पर इनके राजनीतिक करियर का आधार बने। उदाहरण अनेक हैं (पर स्थान कम है)। गुजराती समाज छत्तीसगढ़ और मध्य प्रान्त की संस्कृति में रच-बस जाने के बावजूद अपनी भाषा, खान-पान और सांस्कृतिक परम्पराओं को सहेज कर रखने में काफी हद तक सफल रहा है। इनकी जीवनशैली में सादगी आमतौर पर अब भी बरकरार है।
डॉ. परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़
-पुष्य मित्र
असली मसला बेरोगजारी का है। जिसका गुस्सा कभी आरआरबी के गलत रिजल्ट के बहाने निकल जाता है, तो कभी सेना की नौकरी में ठेका प्रथा शुरू करने के फैसले के विरोध में। यह उन लाखों युवाओं का गुस्सा है जो लंबे समय से दबा है। जो हर छोटे-बड़े शहरों में एक छोटे से कमरे में बंद होकर सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं। फिर चाहे वह कोई भी नौकरी हो, एसएससी की, रेलवे की या सेना की। वे हर जगह कोशिश करते हैं, क्योंकि आजादी के बाद के वर्षों के अनुभव ने भारत के लोगों को यही सिखाया है कि अगर भविष्य सुरक्षित करना है तो किसी न किसी तरह सरकारी नौकरी हासिल कर लो।
ये लोग बहुत आम घरों के लडक़े हैं। इनके अभिभावकों के पास इतना पैसा नहीं था कि ये किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेज में जा पाते। न इनमें इतनी मेधा थी कि गरीबी के दुष्चक्र को तोडक़र मेहनत के दम पर कोई बड़ी सफलता हासिल कर लेते। लिहाजा पटना, दिल्ली, इलाहाबाद, भागलपुर, आरा, पूर्णिया जैसे शहरों के सीलन भरे छोटे कमरे में पैक होकर ये तपस्या करते रहते हैं।
आजकल शाम के वक्त आप गांधी मैदान जायें तो ऐसे सैडक़ों लडक़े-लड़कियां मिलेंगे तो सेना और पुलिस की नौकरी की तैयारी के लिए हाई जंप और लांग जंप करते दिखेंगे। गर्दनीबाग हाईस्कूल के मैदान में भी ऐसे युवा खूब जुटते हैं। दूसरे शहरों में भी ऐसे कई ठिकाने होंगे। ये जुटे रहते हैं। इसके बावजूद कि मुश्किल से इनमें से किसी एक को सरकारी नौकरी मिलती होगी फिर भी।
उम्मीद इनके भरोसे की डोर होती है। ये टकटकी लगाये वेकेंसी की राह देखते रहते हैं। घर से कह कर आते हैं कि दो साल का खर्च दीजिये, नौकरी हासिल करके लौटेंगे। मगर नौकरियां पंचवर्षीय योजना में बदल जाती हैं। फिर भी ये किसी न किसी तरह उम्मीद को टिकाये रहते हैं। इनके मानसिक तनाव का आप और हम अंदाजा नहीं लगा सकते।
इसी वजह से जब नौकरी से जुड़ी किसी सरकारी फैसले के विरोध में, जिस फैसले में युवाओं का हित कम और झांसे बाजी अधिक होती है, ये सडक़ पर उतर आते हैं। और फिर जगह-जगह बेरोजगारी का फ्रस्ट्रेशन दिखने लगता है। तोडफ़ोड़, आगजनी, पथराव। हम और आप इन्हें शांति की सलाह दे सकते हैं, जो उचित ही है। मगर इनका तनाव इतना गंभीर है कि ये समझते नहीं। कल बीबीसी की एक रिपोर्ट देख रहा था, इसमें एक युवा कह रहा था, हम शांति से आंदोलन कर सकते हैं, मगर क्या सरकारें शांतिपूर्ण आंदोलन को नोटिस करती हैं?
यह बड़ा सवाल है। सरकारें भी हिंसक आंदोलन पर सक्रिय होती हैं। वरना शांतिपूर्ण आंदोलन होते रहते हैं जंतर मंतर पर। खैर, फिर भी रास्ता गांधी का ही अच्छा है और किसान आंदोलन ने यह साबित किया है। उचित सलाह यही है कि आंदोलन शांतिपूर्ण हो।
मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार बेरोजगारी के मसले को ठीक से एड्रेस क्यों नहीं करती। अभी कल की तारीख में देश की बेरोजगारी दर 7.5 फीसदी है, बिहार की मई की बेरोजगारी दर 13.3 फीसदी। हालांकि वास्तविक बेरोजगारी इससे कहीं अधिक बड़ी है। युवाओं के पास कोई काम नहीं है। सरकारी विभागों में पद खाली हैं, मगर सरकार की इन्हें भरने में कोई दिलचस्पी नहीं है। सरकारों ने लगभग तय कर लिया है कि रोजगार देना, नौकरी देना इनका काम नहीं है।
ये इसलिए कहते हैं कि युवा आत्मनिर्भर बनें। पकौड़ा तलें। अपनी रोजी रोटी खुद कमायें। स्टार्टअप योजना का लाभ लें। मगर स्टार्टअप के आंकड़े टटोलिये, कितने फीसदी युवा सफल होते हैं। मुश्किल से एक परसेंट, बाकी 99 असफल होकर तनाव झेलते हैं। कह देना आसान है कि आत्मनिर्भर बन जाइये। मगर आज की तारीख में यह इतना भी आसान नहीं।
इसलिए सरकारों को बेरोजगारी के मसले पर संवेदनशीलता से विचार करना चाहिए। देश के युवा इस वक्त भीषण तनाव में हैं। उन्हें तनाव से बाहर निकालना जरूरी है। जो दृश्य नजर आ रहे हैं, उसका इशारा यही है कि देश 1974 के इमरजेंसी आंदोलन जैसे आंदोलन की तरफ बढ़ रहा है। यह बड़े विस्फोट का रूप ले सकता है।
ऐसा न हो, यही सबके हित में है। क्योंकि अराजकता कभी अच्छी नहीं होती। मगर इस अराजकता के दोषी सिर्फ युवा नहीं। सरकारें उनसे कहीं अधिक दोषी हैं। क्योंकि वे अपनी जिम्मेदारी से हाथ झटक रही हैं। उन्हें झांसा दे रही हैं। उनके लिए कुछ कर नहीं रहीं। अभी भी वक्त है कि सरकारें चेत जायें और युवाओं के मसले पर गंभीरता से विचार करें। यही इस वक्त का सबसे बड़ा संदेश है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मोदी सरकार ने जो नई अग्निपथ योजना घोषित की है, उसके खिलाफ सारे देश में जन-आंदोलन शुरु हो गया है। यह आंदोलन रोजगार के अभिलाषी नौजवानों का है। यह किसानों और मुसलमानों के आंदोलन से अलग है। वे आंदोलन देश की जनता के कुछ वर्गो तक ही सीमित थे। यह जाति, धर्म, भाषा और व्यवसाय से ऊपर उठकर है। इसमें सभी जातियों, धर्मों, भाषाओं, क्षेत्रों और व्यवसायों के नौजवान सम्मिलित है। इसके कोई सुनिश्चित नेता भी नहीं हैं, जिन्हें समझा-बुझाकर चुप करवाया जा सके।
यह आंदोलन स्वत: स्फूर्त है। जाहिर है कि इस स्वत:स्फूर्त आंदोलन के भडक़ने का मूल कारण यह है कि नौजवानों केा इसके बारे में गलतफहमी हो गई है। वे समझ रहे हैं कि 75 प्रतिशत भर्तीशुदा जवानों को यदि 4 साल बाद हटा दिया गया तो कहीं के नहीं रहेंगे। न तो नई नौकरी उन्हें आसानी से मिलेगी और न ही उन्हें पेंशन आदि मिलने वाली है। इस आशंका का जिक्र मैंने परसों अपने लेख में किया था।
इसे लेकर ही सारे देश में आंदोलन भडक़ उठा है। रेले रूक गई हैं, सडक़े बंद हो गई हैं और आगजनियां भी हो रही हैं। बहुत से नौजवान घायल और गिरफ्तार भी हो गए हैं। एक जवान ने आत्महत्या भी कर ली है। यह आंदोलन पिछले सभी आंदोलनों से ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि ज्यादातर आंदोलनकारी वे ही नौजवान हैं, जिनके रिश्तेदार, मित्र या पड़ौसी पहले से भारतीय फौज में है। इस आंदोलन से वे फौजी भी अछूते नहीं रह सकते।
सरकार ने इस अग्निपथ योजना को थोड़ा ठंडा करने के लिए भर्ती की उम्र को साढ़े सतरह साल से 21 साल तक जो रखी थी, उसे अब 23 तक बढ़ा दिया है। यह राहत जरुर है लेकिन इसका एक दुष्परिणाम यह भी है कि चार साल बाद याने 27 साल की उम्र में बेरोजगार होना पहले से भी ज्यादा हानिकर सिद्ध हो सकता है। यह ठीक है कि सेना से 4 साल बाद हटनेवाले 75 प्रतिशत नौजवानों को सरकार लगभग 12-12 लाख रु. देगी तथा सरकारी नौकरियों में उन्हें प्राथमिकता भी मिलेगी।
लेकिन असली सवाल यह है कि मोदी सरकार ने इस मामले में भी क्या वही गलती नहीं कर दी, जो वह पिछले आठ साल में एक के बाद एक करती जा रही है? 2014 में सरकार बनते ही उसने भूमि-ग्रहण अध्यादेश जारी किया, अचानक नोटबंदी घोषित कर दी, कृषि कानून बना दिए और पड़ौसी देशों के मामले में कई बार गच्चा खा गई।
इससे यही साबित होता है कि वह नौकरशाहों के मार्गदर्शन पर एक अनेक देशहितकारी कदम उठाने का सत्साहस तो करती है लेकिन उनके कदमों का जिन पर असली असर होना है, उन्हें वह बिल्कुल भी घांस नहीं डालती है। वह यह भूल रही है कि वह लोकतंत्र की सरकार है। वह किसी बादशाह की सल्तनत नहीं है कि उसने जो भी हांक लगाई तो सारे दरबारियों ने कह दिया ‘जी हुजूर’! (नया इंडिया की अनुमति से)
-रितिका सिहाग
एक लडक़ी है
हरपाल कौर नाम है
पंजाब की पहली वेल्डिंग गर्ल ...!!!
सिखों की एक बेहद जुझारू लडक़ी...!!!
पंजाब के लुधियाना और जालंधर के बिल्कुल बीच में फगवाड़ा से मात्र 13 किलोमीटर दूर गुरा नामक गाँव में रहती है।
मात्र बीस वर्ष की उम्र में पिता ने शादी कर दी। ससुराल वालों से मतभेद हुए, पिता के पास आकर रहने लगी।
नौ साल का एक लडक़ा है उसे भी साथ ले आई। तीन कुंवारी बहनें पहले से घर मे थी। पिता ने ससुराल में रहने को फोर्स करने की बजाय उसे खुद की लाइफ अपने हिसाब से जीने को स्वंतत्र किया और उसके फैसले के साथ रहे।
अब 9 वर्ष के लडक़े के साथ मायके में रहना भी लडक़ी के लिए आसान नहीं होता। तलाक का केस चल रहा। परिवार रिश्तेदारों के व्यंग्य बाण रोज सुनने को मिलते। रोज पिता से खर्च मांगना भी आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता....!!!
कहीं जॉब शुरू करके जीवन को पटरी पर लाने की कोशिश की लेकिन नहीं कर पाई।
पिता की एक दुकान है वेल्डिंग करके कृषि उपकरण बनाने की। दुकान के ऊपर उनका घर है लडक़ी ने पिता को कहा यहीं दुकान पर काम कर लेती हूँ, जो खर्च एक मजदूर को देते हो वही मुझे दे दो, साथ में अपनी जगह रहूंगी तो सेफ्टी भी रहेगी।
लडक़ी ने 300 रुपये रोजाना के हिसाब से वहीं काम शुरू कर दिया, लोहे को वेल्डिंग करके उपकरण बनाने का।
पंजाब की पहली वेल्डिंग गर्ल बनी। हाथ में सफाई इतनी कि ट्रैंड लडक़े भी उसके जैसा काम न कर सकते। वेल्डिंग की तेज रोशनी से आंखों से रोज पानी बहता, लोहे उठाने से हाथ काले पड़ जाते और दर्द करते, जुराबें गर्म होकर जूते के अंदर ही पैर से चिपक जाती पर ऐसी फंसी होती कि उसे निकाल भी न पाती।
कई लडक़ी उसे देखकर दुकान पर काम सीखने आई पर वहां की मेहनत देखकर दोबारा मुडक़र उस शॉप पर नहीं गयी। हरपाल रोजाना सुबह जल्दी उठकर और शाम को सबसे बाद में काम छोड़ती। जितना काम दूसरा मजदूर एक दिन में करके देता उतने ही पैसे में वो दुगना काम पिता को करके देती वो भी एकदम सफाई से।
टिक टोक पर वीडियो बनाने शुरू किए। वो बन्द हुई तो इंस्टाग्राम पर अपने वेल्डिंग करते के वीडियो पोस्ट किए। लोगों को पता लगने लगा फिर एक पंजाबी चैनल ने इंटरव्यू किया तो पूरे पंजाब समेत विदेशों में भी लडक़ी की चर्चा होने लगी। भारत समेत इंग्लैंड कनाडा और यूरोप के अन्य देशों से भी लडक़ी के लिए रिश्ते आ रहे पर वो अपने देश की मिट्टी में रहकर ही काम करना चाहती है चाहे पैसे कम मिले।
इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर लाखों सब्सक्राइबर होने की वजह से हरियाणा पंजाब और राजस्थान से भी लोग कृषि उपकरण बनवाने के लिए आने लगे। दोनों जगह ब्राउन कुड़ी के नाम से चैनल है जिनके लिंक कॉमेंट बॉक्स में दे दूंगी। बेटी की वजह से भगवान सिंह धंजल की दुकान की कीर्ति पूरे भारत में फैल गई।
हरपाल कौर सबसे बड़ी है उससे छोटी की शादी कर दी गई उससे छोटी पंजाब पुलिस में सेलेक्ट हो गई। सबसे छोटी इसी के साथ दुकान पर काम करती है। बेटी की जी तोड़ मेहनत की वजह से आज पिता का व्यवसाय पहले से कई गुना बढ़ गया। लडक़ी के पास खुद का बैंक एकाउंट है खूब पैसे हैं पर फिर भी रोज जी तोड़ मेहनत करती है। एक दिन दुकान पर मैले कुचैले कपड़ों और काले हाथों के साथ लोहे को वेल्ड कर रही होती है तो दूसरे दिन बुलेट पर चलती एक खूबसूरत परी जैसी दिखती है।
सोशल मीडिया पर इन्हें चन्द गालियां देने वाले लोग भी हैं जो कहते हैं 2 कोड़ी की नचनिया है पैसे के लिए नाचती है या दस मिनट काम करती है पर लाखों लोग इन्हें प्रेम देने वाले भी हैं। दस-दस पिज्जा एक साथ अनजान लोग इनकी शॉप पर गिफ्ट्स भेज देते हैं बिना अपना नाम जाहिर किये। आए दिन दुकान पर कोई न कोई गिफ्ट आता रहता है।
हमारे समाज में ऐसी देवी जैसी लड़कियां भी हैं वो चाहती तो कब की शादी करके अपने लिए जीना शुरू कर देती। पर बेटे के भविष्य को देखकर फूंक-फूंककर कदम रखती है !
-अतहर फारूकी
उर्दू के जानेमाने साहित्यकार और आलोचक प्रोफेसर गोपी चंद नारंग ने बुधवार रात लगभग 10 बजे अमेरिकी प्रांत नॉर्थ कैरोलाइना के एक शहर में अंतिम सांस ली। उनकी मौत यूं तो एक आलिम (बुद्धिजीवी) की मौत थी जो बकौल एक फिलॉसफर एक आलम (दुनिया) की मौत होती है। मगर गोपी चंद नारंग ने जिस तरह की जिंदगी जी है, ये उनकी एक यात्रा का समापन और दूसरी अनंत यात्रा का आरंभ है, और ये मातम का नहीं बल्कि जश्न का वक्त है।
पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज गुट) के सांसद इरफान सिद्दीकी ने उनकी मौत पर गुरुवार को देश की संसद में उन्हें श्रद्धांजलि दी।
उन्होंने कहा, ‘हमारे यहां अपने शायरों, अपने लिखनेवालों को लोग बहुत कम जानते हैं। लिहाज़ा गोपी चंद नारंग के बारे में भी मालूमात नहीं है। लेकिन उर्दू अदब और उर्दू आलोचना की जितनी सेवा गोपी चंद नारंग ने की, शायद पाकिस्तान के अंदर भी उतनी सेवा किसी ने नहीं की।’
‘वो जिस तरह भारत के अंदर साहित्यिक परंपरा के रखवाले थे, पाकिस्तान के अंदर भी उनकी बड़ी कद्र थी। वो पाकिस्तान हमेशा आया करते थे और यहां के सम्मेलन और संगोष्ठियों में शरीक होते थे। गोपी चंद का जाना उर्दू अरब का एक बड़ा नुकसान है।’
बलूचिस्तान में हुआ जन्म
गोपी चंद नारंग का जन्म 11 फरवरी, 1931 को ब्रिटिश इंडिया के दुकी में हुआ था जो कि अब पाकिस्तान के बलूचिस्तान में है।
उर्दू में ऐसा कोई सम्मान नहीं है जो उन्हें न मिला हो। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें केवल वही सम्मान नहीं मिले जिसकी ज्यूरी में वो ख़ुद थे जिसमें ज्ञानपीठ सबसे ऊपर है जिसकी उर्दू ज्यूरी के वो सर्वेसर्वा थे।
मगर ज्ञानपीठ वालों का मूर्तिदेवी अवार्ड भी उन्हें मिला। उन्हें साहित्य अकादमी की सबसे बड़ी फेलोशिप मिली, उन्हें पद्मभूषण सम्मान भी मिला।
पाकिस्तान का सबसे बड़ा अवार्ड सितारा-ए इम्तियाज भी उन्हें मिला।
भारत और पाकिस्तान दोनों से मिला सम्मान
वो उर्दू के पहले ऐसे स्कॉलर थे जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों से नागरिक सम्मान मिला। उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला और फिर बरसों बाद वो साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी बने। ये संस्था भारत की 24 भाषाओं में साहित्य के विकास के लिए काम करती है।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी जैसे बड़े विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधियां दीं। उन्होंने कई बरसों तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया और दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाया। गोपी चंद नारंग जामिया उर्दू विभाग के पहले प्रोफ़ेसर थे।
यह भी याद रखना चाहिए कि जिस समय गोपी चंद नारंग साहब जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग में प्रोफेसर बने, ठीक उसी समय जामिया के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर मुजीब रिजवी थे। इसे जामिया की गंगा-जमनी तहजीब की एक शानदार मिसाल के तौर पर भी देखा जाता है।
रिटायरमेंट के बाद वो जामिया और दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एमिरेट्स भी बनाए गए। उन्होंने सेंट स्टीफेन्स कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी से अपने टीचिंग करियर का आगाज किया।
फिर वह दिल्ली यूनिवर्सिटी के ही डिपार्टमेंट ऑफ उर्दू में रीडर बने। वहां से वो यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन और फिर मैडिसन गए। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा और ऑस्लो यूनिवर्सिटी में भी छात्रों को पढ़ाया।
मैडिसन में रहने के दौरान नोबेल पुरस्कार विजेता हर गोबिंद खुराना उनके बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे। जब खुराना एमआईटी जा रहे थे तो उन्होंने नारंग साहब से भी साथ चलने को कहा।
खुराना साहब के इस ऑफर पर नारंग साहब ने जो कहा उसकी मिसाल लोग आज भी देते हैं।
उस वक्त नारंग साहब ने खुराना साहब से कहा था, ‘आपकी प्रयोगशाला एमआईटी में है और मेरी भारत में।’
भारत ने नहीं किया मायूस
भारत ने भी नारंग को मायूस नहीं किया। गोपीचंद नारंग ने जब हरगोविंद खुराना से कहा था कि भारत उनकी प्रयोगशाला है तो उनके जेहन में दूसरे कामों के अलावा दिल्ली की करखंदारी भाषा पर काम करना भी रहा होगा।
इस भाषा में उन्हें शुरुआत से ही दिलचस्पी थी। दिल्ली की उर्दू की करखंदारी बोली पर उनका काम महत्वपूर्ण था जिससे अब शायद बहुत कम लोग परिचित होंगे।
भाषा विज्ञान का उर्दू में वह आरम्भिक दौर था। बाद में नारंग ने उर्दू साहित्य पर अधिक ध्यान दिया। उर्दू साहित्य में टीका को एक पूर्ण शाखा बनाने में गोपी चंद नारंग का अहम किरदार था। उन्होंने उर्दू के 400 साल लंबे सांस्कृतिक इतिहास को अपने शोध का अहम बिंदु बनाया।
उर्दू साहित्य की भारतीय जड़ों की तलाश
अपनी जिंदगी के आखिरी पच्चीस सालों से ज्यादा का वक्त उन्होंने उर्दू साहित्य की भारतीय जड़ों की तलाश में गुजार दिए।
उर्दू किस्सों से माखूज उर्दू मसनवियां (2002), उर्दू गजल और हिंदुस्तानी जेहन-ओ-तहजीब (2002), गालिब : मानी आफरीनी (2013) इस सिलसिले की महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।
91 साल की जिंदगी में गोपी चंद नारंग को कम से कम 10 बड़े सम्मान मिले और दुनिया की छह बड़ी फेलोशिप मिली। उन्होंने सात जगहों पर पढ़ाने का काम किया और उन्होंने 70 से अधिक किताबें लिखीं जिनमें से आठ अंग्रेजी जुबान में, सात हिंदी में और 50 से अधिक उर्दू भाषा में थीं। उनकी किताबों का दुनिया की कई जुबानों में अनुवाद तो हुआ ही, खुद गोपी चंद नारंग पर करीब 30 किताबें लिखी गईं हैं। इससे ज्यादा की कामना किसी लिखनेवाले से करना शायद नाइंसाफी होगी।
उर्दू के चाहने वालों ने भी उन्हें खूब मोहब्बत और इज्जत दी। इतनी मोहब्बत और इज्जत भारत में उर्दू के दूसरे लिखने वालों को कम ही नसीब हुई है।
गोपी चंद नारंग ने अपनी पूरी जिंदगी उर्दू को सांप्रदायिकता की कैद से निकालने में लगा दी। वो कहा करते थे, ‘जुबान एडजस्ट कर लेगी और वो जिंदा रहेगी, दरिया की तरह जो अपने किनारे बदलता रहता है।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन अगले माह सउदी अरब की यात्रा पर जा रहे हैं। उस दौरान वे इजराइल और फिलीस्तीन भी जाएंगे लेकिन इन यात्राओं से भी एक बड़ी चीज जो वहां होने जा रही है, वह है— एक नए चौगुटे की धमाकेदार शुरुआत! इस नए चौगुटे में अमेरिका, भारत, इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) होंगे। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जो चौगुटा चल रहा है, उसके सदस्य हैं— अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया। इस और उस चौगुटे में फर्क यह है कि उसे चीन-विरोधी गठबंधन माना जाता है जबकि इस पश्चिम एशिया क्षेत्र में चीन के जैसा कोई राष्ट्र नहीं है, जिससे अमेरिका प्रतिद्वंद्विता महसूस करता हो।
इसके अलावा इस चौगुटे के तीन सदस्यों का आपस में विशेष संबंध बन चुका है। भारत और सं.अ.अ. के बीच मुक्त व्यापार समझौता है तो ऐसा ही समझौता इजराइल और सं.अ.अ. के बीच भी हो चुका है। ये समझौते बताते हैं कि पिछले 25-30 साल में दुनिया कितनी बदल चुकी है। इजराइल- जैसे यहूदी राष्ट्र और भारत—जैसे पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्र के साथ एक मुस्लिम राष्ट्र यूएई के संबंधों का इतना घनिष्ट होना अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हो रहे बुनियादी परिवर्तनों का प्रतीक है।
अमेरिका के राष्ट्रपति का इजराइल और फिलीस्तीन एक साथ जाना भी अपने आप में अति-विशेष घटना है। यों तो पश्चिम एशिया के इस नए चौगुटे की शुरुआत पिछले साल इसके विदेश मंत्रियों की बैठक से शुरु हो गई थी लेकिन अब इसका औपचारिक शुभारंभ काफी धूम-धड़ाके से होगा। मध्य जुलाई में इन चारों राष्ट्रों के शीर्ष नेता इस सम्मेलन में भाग लेंगे। जाहिर है कि यह नाटो, सेंटो या सीटो की तरह कोई सैन्य गठबंधन नहीं है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की उपस्थिति को सैन्य-इरादों से जोड़ा जा सकता है लेकिन पश्चिम एशिया में इस तरह की कोई चुनौती नहीं है।
ईरान से परमाणु-मुद्दे पर मतभेद अभी भी हैं लेकिन उसके विरुद्ध कोई सैन्य गठबंधन खड़ा करने की जरुरत अमेरिका को नहीं है। जहां तक भारत का सवाल है, वह किसी भी सैन्य संगठन का सदस्य न कभी बना है और न बनेगा। हिंद-प्रशांत क्षेत्र के चौगुटे में भी उसका रवैया चीन या रूस विरोधी नहीं है। भारत इस मामले में बहुत सावधानी बरत रहा है। वह इन चौगुटों में सक्रिय है लेकिन वह किसी महाशक्ति का पिछलग्गू बनने के लिए तैयार नहीं है।
इस वक्त भारत शाघांई सहयोग संगठन और एसियान देशों की बैठकें भी आयोजित कर रहा है। इन सबका लक्ष्य यही है कि आपसी आर्थिक और व्यावसायिक संबंधों की श्रीवृद्धि हो। क्या ही अच्छा होता कि इन सभी संगठनों में पाकिस्तान भी सम्मिलित होता लेकिन इस प्रश्न का हल तो पाकिस्तान ही कर सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व गर्ग
फेसबुक में कुछ लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। सोशल मीडिया के अलावा इनका कोई लेखन का इतिहास नहीं है। कई लोगों ने सोशल मीडिया में लिख-लिखकर अपनी जगह बनाई, इसमें कोई शक नहीं।
ये भी एक तथ्य है कि बड़े -बड़े स्तम्भकार , इतिहासकार, गद्य लेखक जिनकी किताबें देश भर में सर्वाधिक पढ़ी जाती रहीं, जिनके स्तम्भ सबसे चर्चित होते रहे सोशल मीडिया में खास फेसबुक में उनके पाठक खांटी फेसबुक लेखकों के मुकाबले नगण्य हैं।
क्या सोशल मीडिया का लेखन ज़्यादा प्रभावी, प्रामाणिक ,विश्वसनीय और स्वीकार्य है?
डिजिटल युग के नौजवानों से पूछिए वो इसी के पक्ष में हाथ उठाएंगे पर अखबारों, किताबों, पत्रिकाओं और साहित्य के गंभीर पाठकों से बात करिये वो बताएँगे सोशल मीडिया का लेखन क्षणिक है, यहाँ शब्दों का कोई भविष्य नहीं।
उनकी निगाह में सोशल मीडिया सबसे बड़ा कूड़ादान है, जहाँ लेखन के नाम पर सबसे ज़्यादा कूड़ा-करकट है।
दरअसल, सोशल मीडिया के बढ़ते पाठक आज के इस डिजिटल युग की बड़ी सच्चाई है। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी कहें या फेसबुक की पाठशाला इसका गहरा प्रभाव देश और दुनिया की राजनीति पर है। इसमें सत्ता हिलाने-बदलने की असीम क्षमता है, इसलिए राजनीतिक दलों ने अपने बजट के बड़े हिस्से को साइबर सेल में झोंका हुआ है।
सवाल यहीं से शुरू होता है कि जब सोशल मीडिया आज आज इतना ज़्यादा महत्वपूर्ण है तो इसमें गंभीर विमर्श, चिंतन और सार्थक लेखन क्यों गायब है ?
उत्तेजना पर सवार लेखक कल की बात और बीते इतिहास को दफनाकर कोई तात्कालिक मुद्दे को पकड़ते हैं और दूसरी ब्रेकिंग न्यूज़ मिलते ही उस मुद्दे को भी दफऩ कर देते हैं।
ये एक बड़ी जि़म्मेदारी वरिष्ठ लेखकों की बनती है कि वो सोशल मीडिया लेखन के विरोध ,उपेक्षा और तिरस्कार के बदले इन लेखकों के साथ सीधा संवाद करें।
इस सच्चाई को स्वीकार करें कि सोशल मीडिया आम जनता तक खासकर आज के युवा वर्ग तक पहुँचने की सीढ़ी है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि पिछले कुछ साल सोशल मीडिया फेसबुक हो या ट्विटर या व्हाट्सएप या इंस्टाग्राम से सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं।
इसलिए बीच-बीच में जब बुद्धिजीवी अपने सोशल मीडिया का अकाउंट ‘डीएक्टिवेट’ करते हैं या लिखना बंद कर देते हैं या दूर रहने कि घोषणा करते हैं तो सोशल मीडिया को ‘अनाथ’ करने जैसी बात होती है। और ज़्यादा दिशाहीन होने का खतरा बढ़ता है।
ये तथ्य है किसी साहित्यकार, लेखक, कवि के पास सोशल मीडिया में भले ही अपेक्षाकृत काम फॉलोवर हों पर सोशल मीडिया के बड़े फॉलोवर रखनेवाले भी उनसे दिशा लेते हैं।
अपने अनुभव, अध्ययन और आज की पूरी तस्वीर को देखकर दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमारे प्रगतिशील लेखक अगर सोशल मीडिया में न रहें, न लिखें तो यकीनन सोशल मीडिया के नौजवान अराजक लश्कर में दिखेंगे !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने रोजगार के बारे में जो घोषणाएं की हैं, यदि उन्हें वास्तव में अमली जामा पहनाया जा सके तो लोगों को काफी राहत मिलेगी। मोदी ने कहा है कि अगले डेढ़ साल में 10 लाख लोगों को सरकारी नौकरियां मिलेगी और राजनाथ सिंह ने तो भारतीय सेना में भर्ती और सेवाओं के नियम ही बदल दिए हैं। इस समय देश में करोड़ों लोग पूर्णरूपेण बेरोजगार हैं और उससे भी ज्यादा लोग अर्धरोजगार हैं। याने उन्हें पूरे समय कोई काम मिलता ही नहीं है।
यदि 10 लाख को रोजगार मिल जाए तो यह तो ऊँट के मुंह में जीरे के समान ही होगा। सरकार की दृष्टि अपनी नौकरियों तक ही सीमित है। केंद्र सरकार के पास 40 लाख पद हैं। उनमें से लगभग 9 लाख खाली पड़े हैं। उसका कर्तव्य क्या इतना ही है कि वह इन्हें भर दे? वह तो है ही, उनसे अलग नए गैर-सरकारी रोजगार पैदा करना उससे भी ज्यादा जरुरी है। सरकारी नौकरों को वेतन, भत्ता और पेंशन आदि तो पूरे-पूरे मिलते रहते हैं लेकिन वे अपना काम कितना करते हैं, इस पर कड़ी निगरानी का कोई तरीका हमारे यहां नहीं है जबकि चीन में मैंने कई बार देखा कि सरकारी और प्राइवेट कंपनियां अपने कार्यकर्ताओं से डटकर काम लेती हैं।
इसीलिए भारत से पिछड़ा हुआ चीन हमसे पांच गुना ज्यादा मजबूत हो गया है। सरकारी नौकरियों की संख्या जरुर बढ़े लेकिन उनकी उपयोगिता के मानदंड काफी सख्त होने चाहिए और हर पांच साल में उनकी समीक्षा होनी चाहिए। जो भी अयोग्य पाया जाए, उस कर्मचारी को छुट्टी दी जानी चाहिए। फौज में नौकरियों के नए नियम बनाने के लिए रक्षा मंत्री राजनाथसिंह बधाई के पात्र हैं लेकिन कुछ अनुभवी अफसरों ने चिंता भी व्यक्त की है।
इस साल 46 हजार नौजवानों को फौज में भर्ती किया जाएगा। उनकी उम्र 17.5 से 21 साल तक होगी। सभी जवानों को 4 साल तक फौज में रहना होगा। 4 साल बाद सिर्फ 25 प्रतिशत जवान वे ही रह पाएंगे, जो बहुत योग्य पाए जाएंगे। शेष 75 प्रतिशत जवानों को सेवा-निवृत्त कर दिया जाएगा। उन्हें पेंशन भी नहीं मिलेगी लेकिन नौकरी छोड़ते वक्त उन्हें 11 लाख 71 हजार रु. मिलेंगे, जिनसे वे कोई भी नया काम शुरु कर सकेंगे। उन्हें सरकार विभिन्न क्षेत्रों में प्राथमिकता भी दिलवाती रहेगी।
इस नए प्रावधान पर एक प्रतिक्रिया यह भी है कि सिर्फ चार साल की नौकरी के लिए कौन आगे आएगा? उस चारवर्षीय अनुभव का फायदा अन्य नौकरियों में कुछ काम देगा या नहीं? ये प्रश्न तो जायज हैं लेकिन इस नई पहल के कई फायदे हैं। एक तो फौज में नौजवानों की संख्या बढ़ेगी और सदा कायम रहेगी। सरकार का पैसा जो दीर्घावधि वेतन और पेंशन पर खर्च होता है, वह बचेगा।
इसके अलावा नई सैन्य तकनीकों के कारण यों भी सारे देश अपने फौजियों के संख्या-बल को घटा रहे हैं। चीन ने अपनी सेना को 45 लाख से घटाकर 20 लाख कर दिया है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और इस्राइल में फौजियों की कार्यवधि को काफी सिकोड़ दिया गया है। अब भारतीय फौज में जो भर्तियां होंगी, अंग्रेज की बनाई जातीय रेजिमेंटों में नहीं होगी। यह भी बड़ा सुधार है। (नया इंडिया की अनुमति से)