विचार/लेख
-राजेश अग्रवाल
सवाल- छत्तीसगढ़ के देवभोग में हीरा खनन की प्रक्रिया क्यों रुकी है?
एक आलेख के रूप में जवाब मिला- हाल के समय में हीरे के खनन में रुकावट आईं हैं। पहला कारण है कि हीरे की कीमतों में अधिकतम गिरावट के चलते उत्पादन में कमी आई है। दूसरा कारण है कि खनन कंपनियों को स्थानीय निवासियों को नौकरी देने और सामाजिक उत्थान के लिए संबंधित स्थानों के साथ समझौते करने की आवश्यकता है। तीसरा कारण है कि हीरे के खनन में उपयोग किए जाने वाले तकनीकों की उन्नति नहीं हुई है। सभी कारणों के अलावा कोविड-19 महामारी ने भी हीरे के उत्पादन और खनन में बाधा डाली है। महामारी के कारण लोगों के संचार और उत्पादन की व्यवस्था में बदलाव हुए हैं, जिससे हीरे के उत्पादन में विलंब हुआ है।
यह सवाल ओपन आई वेबसाइट के फीचर चैट जीपीटी से किया गया था। फिर ठीक यही सवाल गूगल से किया गया।
गूगल ने अपनी ओर से कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि 0.24 सेकंड में इंटरनेट पर मौजूद बहुत से लिंक साझा कर दिए। थोड़ा वक्त लगा लेकिन उनमें से एक सबसे ठीक लगने वाला जवाब मिल गया। एक अखबार की वेबसाइट की खबर थी जिसमें बताया गया कि 5 महीने पहले रायपुर में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने खनिज विभाग की एक बैठक ली थी, जिसमें गरियाबंद जिले के 6 स्थानों पर हीरे की मौजूदगी और उसके खनन में आ रही बाधाओं को लेकर चर्चा की गई। इसमें बताया गया कि मुख्यमंत्री ने खनिज विभाग के अफसरों को न्यायालय से लगी रोक हटवाने के लिए कोशिश करने का निर्देश दिया है। स्टे आर्डर को वापस लेने के लिए आवश्यक कार्रवाई सुनिश्चित की जाए ताकि वह हीरा खदान संचालित करने की प्रक्रिया शुरू हो सके। इसी में यह भी पता चला कि सन् 1990 से पायलीखंड और बेहराडीह के करीब 40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में हीरे के भंडार का पता लग चुका है। तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सन् 1992 में इसकी खुदाई के लिए कोशिश शुरू की थी। एक प्रमुख खनन कंपनी डी बियर्स को पट्टा भी मिल गया लेकिन कुछ शिकायतों की वजह से टेंडर रद्द कर दिया गया। सन् 1998 में एक बार फिर कोशिश हुई। इस बार भ्रष्टाचार के आरोप लगे और विवाद बढ़ा तो फिर से खनन में रुकावट आ गई। नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन गया। उसके बाद खनिज संसाधन विभाग ने पट्टा धारी कंपनी को नोटिस जारी किया। सरकार और कंपनी के बीच सहमति नहीं बन पाई, कंपनी हाईकोर्ट चली गई। हाईकोर्ट ने यह मामला मिनिस्ट्री आफ माइन्स के दिल्ली ट्रिब्यूनल के पास भेज दिया। अब वहां करीब 13 साल से यह प्रकरण चल ही रहा है।
गूगल पर नवीनतम जवाब 5 महीने पहले छपी खबर है। इस बीच मुख्यमंत्री के निर्देश के परिपालन में अधिकारियों ने कौन से कदम उठाए, अदालती अवरोध की अभी स्थिति क्या है, कब तक गरियाबंद में हीरा का खनन शुरू हो सकता है? यह जानने के लिए संबंधित दफ्तरों और अफसरों से ही संपर्क करना होगा।
पर, चैट जीपीटी का जवाब तो सिरे से गलत है। यह दावा हम इसलिए कर सकते हैं क्योंकि हमारे पास इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के अलावा भी अखबारों और चर्चा-परिचर्चा से मिली जानकारी उपलब्ध है। देश दुनिया के ऐसे कई सवाल हमारे मन में उठते हैं और यदि चैट जीपीटी के विवरण को सही मान लिया जाए तो बड़ी भूल हो जाएगी। इस्तेमाल करने वाले बताते हैं कि निबंध, एप्लीकेशन, रिज्यूमे आदि तैयार करने, हलवा आदि बनाने की विधि जानने के लिए चैट जीपीटी से अच्छी मदद मिल जाती है। पर उसके पास हर बात का जवाब नहीं है। ख़ुद यह वेबसाइट कहती है कि उसकी जानकारी 2021 के बाद की नहीं है।
इंसानी दिमाग के पास सहज बोध और तार्किकता होती है। नतीजा इसी दोनों के बीच द्वंद और चिंतन से निकलता है।
किसी समझदार डॉक्टर से या स्कूल कॉलेज में विद्वान प्रोफेसर से बात करेंगे तो वे कहेंगे कि ज्यादा गूगल मत किया करो। चैट जीपीटी इस मामले गूगल सर्च से भी बढ़कर है। गूगल जो हजारों नतीजे देता है, उसमें आपके पास विकल्प होता है कि आप विश्वसनीय सूचना कौन सी है यह तय कर सकें, पर चैट जीपीटी में यह सुविधा नहीं है। आने वाले दिनों में लोग कहेंगे, ज्यादा जीपीटी मत किया करो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे देश में आयकर याने इनकम टैक्स फार्म भरनेवालों की संख्या 7 करोड़ के आस-पास है लेकिन उनमें से मुश्किल से 3 करोड़ लोग टैक्स भरते हैं। क्या भारत-जैसे 140 करोड़ के देश में ढाई-तीन करोड़ लोग ही इस लायक हैं कि सरकार उनसे टैक्स वसूल सकती है? क्या ये ढाई-तीन करोड़ लोग भी अपना टैक्स पूरी ईमानदारी से चुकाते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं! ईमानदारी से पूरा टैक्स चुकानेवाले लोगों को ढूंढ निकालना लगभग असंभव है।
याने जो टैक्स भरते हैं, वे भी टैक्स-चोरी करते हैं। जो नहीं भरते हैं और जो भरते हैं, वे सब टैक्स-चोर बना दिए जाते हैं। हमारी टैक्स व्यवस्था ऐसी है कि जो हर नागरिक को चोर बनने पर मजबूर कर देती है। हर मोटी आमदनीवाला मालदार आदमी ऐसे चार्टर्ड एकाउंट की शरण लेता है, जो उसे टैक्स चोरी के नए-नए गुर सिखाता है। इस सच्चाई को यदि हमारी सरकारें स्वीकार कर लें तो भारत में टैक्स-व्यवस्था में इतना सुधार हो सकता है कि कम से कम 30 करोड़ लोग टैक्स भरने लगें।
देश में 30-40 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें हम मध्यम श्रेणी का मानते हैं। हर मध्यम श्रेणी का नागरिक टैक्स देना चाहेगा लेकिन यदि वह आयकर 10-15 प्रतिशत से शुरु होगा तो उसका पेट भरना भी मुश्किल हो जाएगा। इसकी बजाय आयकर का प्रतिशत एकदम घटा दिया जाए तो इतने ज्यादा लोग टैक्स भरने लगेंगे कि वह 11 लाख करोड़ रू. से कहीं डेढ़ा-दुगुना हो सकता है। लोगों में जिम्मेदारी का भाव भी पैदा होगा और सरकार की जवाबदेही भी बढ़ेगी।
आम आदमी पर हमारी नौकरशाही का रोब-दाव भी घटेगा। कई देश ऐसे हैं, जिनमें आमदनी पर कोई टैक्स ही नहीं लगता। कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री वसंत साठे और मैंने लगभग 35 साल पहले एक मुहीम शुरु की थी, जिसमें हमारी मांग थी कि आयकर को खत्म किया जाए और उसकी जगह जायकर लगाया जाए याने आमदनी पर नहीं, खर्च पर टैक्स लगाया जाए। इसके कई फायदे होंगे।
पहला तो यही कि टैक्स-चोरी की आदत पर लगाम लगेगी। दूसरा, लोगों के खर्च घटेंगे। उपभोक्तावाद और फिजूलखर्ची घटेगी और बचत बढ़ेगी। तीसरा, आयकर विभाग बंद होगा, जिससे सरकार का करोड़ों रूपया बर्बाद होने से बचेगा। चौथा, नागरिकों का सिरदर्द घटेगा। पांचवां, डिजिटल व्यवस्था के कारण हर खरीदी पर उपभोक्ता का टैक्स तत्काल कट जाएगा।
अभी टैक्स-चेारी के बावजूद अकेले गुड़गांव में विभिन्न कंपनियों पर 13 हजार करोड़ रु. का आयकर बक़ाया है। पूरे भारत में इस साल सिर्फ 11 लाख 35 हजार करोड़ रू. का आयकर वसूला गया है। लेकिन इससे कई गुना ज्यादा पैसा चोरी हुआ है और बक़ाया है। यदि आयकर घटे या खत्म हो तो सरकार की आमदनी बढ़ेगी और लोगों को भी राहत मिलेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा के अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा के बयान पर हमारे अखबारों और टीवी चैनलों ने कोई ध्यान नहीं दिया। नड्डा सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष हैं और जिस मुद्दे पर उन्होंने भाजपा को संबोधित किया है, वह मुद्दा उन सब मुद्दों से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जो देश के अन्य नेतागण उठा रहे हैं। वह मुद्दा है- हिंदू राष्ट्र, हिंदू-मुस्लिम, हिंदू धर्मगुरूओं जैसे मुद्दों पर बयान आदि का!
कई अन्य मुद्दे जैसे अडानी, बीबीसी, शिवसेना, त्रिपुरा का चुनाव आदि पर भी आजकल जमकर तू-तू–मैं-मैं का दौर चल रहा है लेकिन ये सब तात्कालिक मुद्दे हैं लेकिन जिन मुद्दों की तरफ भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने इशारा किया है, उनका भारत के वर्तमान से ही नहीं, भविष्य से भी गहरा संबंध है। यदि भारत में सांप्रदायिक विद्वेष फैल गया तो 1947 में इसके सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब इसके सौ टुकड़े हो जाएंगे। इसके शहर-शहर, गांव-गांव और मोहल्ले-मोहल्ले टूटे हुए दिखाई पड़ेंगे।
हमारे कुछ युवा लोग, जो कि पर्याप्त पढ़े-लिखे नहीं हैं और जिन्हें इतिहास का ज्ञान भी नहीं है, वे लाखों लोगों को अपना ज्ञान बांटने पर उतारू हैं। लोगों ने उन्हें ‘बाबा’ बना दिया है। उन्हें खुद पता नहीं है कि वे अपने भक्तों से जो कुछ कह रहे हैं, उसका अर्थ क्या है? यह हो सकता है कि वे किसी का भी बुरा न चाहते हों लेकिन उनके कथन से जो ध्वनि निकलती है, वह देश में संकीर्ण सांप्रदायिकता की आग फैला सकती है। जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का दावा करते हैं, उन बाबाओं से आप पूछें कि आपको ‘हिंदू’ शब्द की उत्पत्ति और अर्थ का भी कुछ ज्ञान है तो आप उन्हें शून्य का अंक दे देंगे।
हमारे नेताओं का भी यही हाल है। आजकल हमारे साधु और नेता लोग इतने अधिक नौटंकीप्रिय हो गए हैं कि वे एक-दूसरे की शरण में सहज भाव से समर्पित हो जाते हैं। इसे ही संस्कृत में ‘अहो रूपम्, अहो ध्वनि’ का भाव कहते हैं याने गधा ऊँट से कहता है कि वाह! क्या सुंदर रूप है, तेरा? और ऊँट गधे से कहता है कि ‘क्या मधुर है, तेरी वाणी? इसी घालमेल के विरूद्ध नड्डा ने अपने सांसदों को चेताया है।
अपने आप को परम पूज्य, महामहिम और महर्षि कहलवाने वाले भगवाधारियों को मैंने कई भ्रष्ट नेताओं के चरण-चुंबन करते हुए देखा है और ऐसे संत जो बलात्कार, व्यभिचार, ठगी, हत्या आदि कुकर्मों के कारण आजकल जेलों में सड़ रहे हैं, उन संतों के आगे दुम हिलाते हुए नेताओं को किसने नहीं देखा हे? संत और नेता, दोनों ही अपनी दुकानें चलाने के लिए अघोषित गठजोड़ में बंधे रहते हैं।
यही गठजोड़ जरूरत पड़ने पर सांप्रदायिकता, भविष्यवाणियों, चमत्कारों का जाल बिछाता है और साधारण लोग इस जाल में फंस जाते हैं। भाजपा के अध्यक्ष ने अपने सांसदों को जो सबक दिया है, वह सभी पार्टियों के नेताओं पर भी लागू होता है। आजकल बेसिर-पैर की बात करनेवाले बाबाओं की खुशामद में किस पार्टी के नेता शीर्षासन करते हुए दिखाई नहीं पड़ रहे हैं? चुनावों का दौर शुरु हो गया है। इसीलिए थोक वोट पाने के लिए जो भी तिकड़म मुफीद हो, नेता लोग उसे आजमाने लगते हैं। भाजपा अध्यक्ष ने अपने सांसदों को जो चेतावनी इस दौर में दी है, उसके लिए वे सराहना के पात्र हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सचिन कुमार जैन
आजादी के 75 वर्षों में भारत को मूर्खता और विवेकहीनता का विश्वगुरु बनाने की योजना है। संविधान कहता है कि किसी भी धर्म को अपने व्यवहार की स्वतंत्रता है लेकिन लोकव्यवस्था के अधीन। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देगी, अंधविश्वास को नहीं। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश में संविधान ताक पर है और समाज नशे में धुत्त। बाबाओं की यह व्यवस्था बताती है कि भारत किस हद तक अवसाद से ग्रस्त है। किस कदर और किस हद तक लोग नाउम्मीद हो चुके हैं। भारत के इतिहास में संभवत: कभी भी लोगों ने पुरुषार्थ और कर्म पर उम्मीद करना नहीं छोड़ा होगा, लेकिन आज छोड़ दिया है। अब उन्हें लगता है कि रुद्राक्ष से ही कुछ समस्या हल हो तो हो।
राजनीति का धर्म के आधार पर सत्ता हासिल करने का षडय़ंत्र भारत को अकल्पनीय बर्बादी की तरफ धकेल रहा है।
हम आज उस मुकाम पर हैं, जहां विवेक, तर्क और विज्ञान की बात करने से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है और सरकार उन भावनाओं को सहलाने के लिए देश हित, समाज हित, विवेक, तर्क और मानवीय मूल्यों का पक्ष लेने वालों को राष्ट्रद्रोही और अपराधी घोषित करती है। इससे ही यह अनुमान लग जाता है कि हालात क्या हैं?
समाज से आग्रह है कि अब कृपया अपने बच्चों को स्कूल कालेज भेजना बंद कर दीजिए।
अब वक्त आ गया है कि यह तो इन तथाकथित चमत्कारी बाबाओं को चुनिए या सभ्यता, विज्ञान, मानवीय नैतिक मूल्यों और विवेक को चुनिए। कम से कम पहचान में स्पष्टता तो रहेगी।
हम, भारत के लोग, भारत को बर्बाद करने का ठान चुके हैं क्या? अगर ऐसा है तो सरकारों से निवेदन है कि कृपया शिक्षा और स्वास्थ्य के कामों पर प्रतिबंध लगा दीजिए। आप लोग सरकार से हट जाइए। विज्ञान के बात करने को अपराध घोषित कर दीजिए। आत्महत्या को राष्ट्रीय कर्म घोषित कर दीजिए। अरे, देश आगे जीवित रह सके, इसके लिए कम से कम बुद्धि तत्व को तो जिंदा रहने दीजिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान इस समय दक्षिण एशिया का सबसे गया बीता देश बन गया है। यों तो श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और बांग्लादेश की भी हालत अच्छी नहीं है। इन सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं संकट में हैं लेकिन पाकिस्तान में मंहगाई इस कदर छलांग मार रही है कि आम लोगों का रोजाना का भरण-पोषण भी मुश्किल हो गया है। पेट्रोल पौने तीन सौ रू. लीटर, गेहूं सवा सौ रू. किलो, टमाटर ढाई सौ रू. किलो और चिकन साढ़े सात सौ रु. किलो हो गया है। लोग घी-तेल की छीना-झपटी पर उतारू हो गए हैं। सरकार ने अपने लघु बजट में नागरिकों पर तरह-तरह के नए टैक्स ठोक दिए हैं।
विदेशी मुद्रा का भंडार भी लगभग खाली हो गया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पाकिस्तान को 1.1 बिलियन डाॅलर का कर्ज देने को तैयार है लेकिन उसकी शर्त है कि पाकिस्तान की सरकार पहले अपनी आमदनी बढ़ाये। कर्ज में डूबी सरकार का अब एक ही नारा है- ‘मरता, क्या नहीं करता?’ वित्तमंत्री इशाक डार ने जो कि मियां नवाज़ शरीफ के समधी हैं, जो अभी पूरक बजट पेश किया है, उसमें 170 बिलियन रूपए के नए टैक्स उगाहने का वादा किया है। इधर पाकिस्तान की अर्थ-व्यवस्था इतने भयंकर संकट में है याने वह किसी युद्ध की स्थिति से भी बदतर है लेकिन पाकिस्तान की राजनीति का हाल बिल्कुल बेहाल है।
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान और प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। इमरान की गिरफ्तारी की खबर आंधी की तरह लाहौर को घेरे हुए है। इमरान-समर्थक हजारों लोग उनके घर पर जमा हो गए हैं ताकि उन्हें कोई गिरफ्तार न कर सके। सरकार का जितना ध्यान अपने देश की डूबती हुई अर्थ व्यवस्था को उबारने में लगा है, उससे ज्यादा इमरान के साथ दंगल करने में लगा हुआ है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि इस्लामाबाद को बलूच, पठान और सिंधी लोग घूंसा दिखाने लगे हैं।
वे पाकिस्तान से अलग होने का नारा लगाने लगे हैं। जिन तालिबान को टेका देने में पाकिस्तान की फौज ने जमीन-आसमान एक कर दिए थे, वे ही तालिबान अब डूरेंड लाइन को खत्म करने की मांग कर रहे हैं। इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह हो रही है कि जिस चीन पर तक़िया था, वही अब हवा देने लगा है। चीन ने अपना वाणिज्य दूतावास बंद कर दिया है।
चीन अपनी रेशम महापथ योजना के तहत पाकिस्तान में सड़कें, रेल, पाइपलाइन और बंदरगाह बनाने पर लगभग 65 बिलियन डाॅलर खर्च कर रहा है। लेकिन चीनी कंपनियां कुछ भी माल भेजने के पहले अग्रिम भुगतान की मांग कर रही हैं। पाकिस्तान के पास पैसे ही नहीं है। वह अग्रिम भुगतान कैसे करे?
चीनी नागरिकों की हत्या से भी चीन नाराज है। पाकिस्तान को अन्य मुस्लिम देश भी उबारने के लिए तैयार नहीं हैं। यदि इस मौके पर शाहबाज सरकार में दम हो तो पाक-भारत व्यापार फिर से शुरु करे और मोदी से मदद मांगे तो एक पंथ, कई काज सिद्ध हो सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देकर भारत सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाद्य उत्पादन में एक बड़े बदलाव की कोशिश कर रहा है. लेकिन इस अभियान की राह में कई रोड़े हैं. संयुक्त राष्ट्र 2023 को मिलेट्स (मोटे अनाज) के अंतरराष्ट्रीय साल के रूप में मना रहा है. आने वाले महीनों में इस अभियान के तहत संयुक्त राष्ट्र कई कार्यक्रमों और गतिविधियों का आयोजन करेगा. भारत इस अभियान की अगुवाई कर रहा है.
पढ़ें डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
संयुक्त राष्ट्र में इस अभियान के प्रस्ताव को भारत ही लेकर आया था. प्रस्ताव को 72 देशों का समर्थन मिला और संयुक्त राष्ट्र ने इसे अपना लिया. इसके लिए भारत को कूटनीतिक स्तर पर भी काफी मेहनत करनी पड़ी, लेकिन यह पड़ाव एक ऐसी लंबी यात्रा के बाद आया है जिसकी शुरुआत भारत में करीब 10 साल पहले हुई थी.
प्राचीन फसलें
मोटे अनाज यानी छोटे दानों वाले अनाज, जैसे ज्वार, बाजरा, रागी इत्यादि. ये प्राचीन फसलें हैं, यानी माना जाता है कि करीब 7,000 सालों से इन्हें उगाया और खाया जा रहा है. बल्कि एक तरह से मानव सभ्यता के इतिहास में खेती की शुरुआत ही इन्हीं फसलों से हुई थी.
ज्वारज्वार
संयुक्त राष्ट्र 2023 को मिलेट्स (मोटे अनाज) के अंतरराष्ट्रीय साल के रूप में मना रहा है भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों द्वारा भी मोटे अनाजों को उगाने और खाने के पुरातत्व संबंधी सबूत मिले हैं. आधुनिक युग में जब धीर-धीरे चावल और गेहूं ज्यादा लोकप्रिय हो गए तो मोटे अनाज हाशिए पर धकेल दिए गए, लेकिन आज भी इन्हें दुनिया भर में कम से कम 130 देशों में उगाया जाता है.
चावल और गेहूं के मुकाबले मोटे अनाजों के कई फायदे हैं. संयुक्त राष्ट्र की संस्था फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन (एफएओ) के मुताबिक मोटे अनाज सूखी जमीन में न्यूनतम इनपुट लगा कर भी उगाए जा सकते हैं. ये जलवायु परिवर्तन का भी प्रभावशाली रूप से सामना कर सकते हैं. एफएओ का कहना है, "इसलिए ये उन देशों के एक आदर्श समाधान हैं जो आत्मनिर्भरता बढ़ाना चाहते हैं और आयातित अन्न पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहते हैं."
इसके अलावा पोषण की दृष्टि से भी मोटे अनाजों को बेहद लाभकारी माना जाता है. एफएओ का कहना है कि ये प्राकृतिक रूप से ग्लूटेन-फ्री होते हैं और इनमें प्रचुर मात्रा में फाइबर, एंटीऑक्सीडेंट, मिनरल, प्रोटीन और आयरन होता है. संस्था के मुताबिक ये विशेष रूप से "उन लोगों के एक बहुत अच्छा विकल्प हो सकते हैं जिन्हें सीलिएक बीमारी, ग्लूटेन इनटॉलेरेंस, उच्च ब्लड शुगर या मधुमेह है.
संभावनाओं के साथ चुनौतियां भी
मोटे अनाज मुख्य रूप से एशिया और अफ्रीका में उगाए जाते हैं और भारत इनका सबसे बड़ा उत्पादक है. भारत के बाद उत्पादन में अफ्रीकी देश नाइजर, फिर चीन और फिर नाइजीरिया का स्थान है. अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में पूरी दुनिया में मोटे अनाजों के उत्पादन में भारत की 39 प्रतिशत हिस्सेदारी थी, नाइजर की 11 प्रतिशत, चीन की नौ प्रतिशत और नाइजीरिया की सात प्रतिशत.
जलवायु परिवर्तन का पोषण पर असर
लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तरपर भले भारत का उत्पादन विशाल लगता हो, भारत के अंदर धान और गेहूं के मुकाबले मोटे अनाज का उत्पादन बहुत ही कम होता है. केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2020-21 में देश में सिर्फ 1.7 करोड़ टन मोटे अनाज का उत्पादन हुआ. इसके मुकाबले 23 करोड़ टन से भी ज्यादा धान और गेहूं का उत्पादन हुआ.
ये आंकड़े दिखाते हैं कि मोटे अनाजों को गेहूं और चावल का विकल्प बनाना कितनी बड़ी चुनौती है. सरकार ने इस दिशा में कई कदम उठाए हैं लेकिन कई जानकारों का कहना है कि ये कदम काफी नहीं हैं. कृषि मामलों के जानकार और रूरल वॉयस वेबसाइट के संपादक हरवीर सिंह का मानना है कि सरकार के इस अभियान के पीछे कोई केंद्रित कोशिश नहीं है.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "जब सरकार को कोई लक्ष्य हासिल करना होता है तो वो उसके लिए एक मिशन की शुरुआत करती है. मिशन का मतलब होता है ठोस लक्ष्य, उन्हें हासिल करने की समय सीमा और बजटीय आवंटन. लेकिन मोटे अनाज को लेकर आज तक ऐसे किसी भी मिशन की घोषणा नहीं की गई है."
कीमतेंभी इस अभियान का एक बड़ा पहलु हैं. महाराष्ट्र के कमोडिटी बाजार में रागी इस समय करीब 3,800 रुपए प्रति क्विंटल के भाव बिक रही है, जबकि गेहूं करीब 2,500 रुपए है. खुदरा बाजार में यानी आम उपभोक्ता के लिए रागी का आटा गेहूं के आटे से करीब ढाई गुना ज्यादा दाम पर मिल रहा है. दाम में इतने बड़े अंतर की वजह से विशेष रूप से गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए मोटे अनाज को चावल और गेहूं का विकल्प बनाने की चुनौती और बड़ी लगने लगती है.
ऐसी होती है फाइबर वाली डाइट
मोटे अनाज के दामों को नीचे लाने के लिए उनकी पैदावार बढ़ानी पड़ेगी और गेहूं और धान को छोड़ कर मोटे अनाज उगाने के लिए उन लाखों किसानों को मनाना पड़ेगा जो पहले से ही कम आय के बोझ के तले दबे हुए हैं. इस पर काम तो करीब एक दशक पहले ही शुरू हो गया था, लेकिन अभी तक उत्साहवर्धक नतीजे सामने नहीं आए हैं.
यूपीए से शुरू हुई मुहिम
मोटे अनाज के उत्पादन को प्रोत्साहन देने की शुरुआत यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2012-13 में ही हो गई थी. उसी साल पहली बार विशेष मोटे अनाजों के लिए धान और गेहूं से ज्यादा एमएसपी दी गई थी. 2011-12 में सबसे अच्छे किस्म के धान, गेहूं और देश में सबसे ज्यादा उगाए जाने वाले मोटे अनाज रागी की एमएसपी थी 1,110, 1,285 और 1,050 रुपए प्रति क्विंटल.
लेकिन 2012-13 में पहली बार रागी के लिए एमएसपी को इतना बढ़ा दिया गया कि वो गेहूं और धान की एमएसपी से भी ज्यादा हो गया. उस साल सबसे अच्छे किस्म के धान, गेहूं और रागी की एमएसपी हो गई थी 1,280, 1,350 और 1,500 रुपए प्रति क्विंटल. सरकारी खरीद भी किसानों को मोटे अनाज उगाने के लिए प्रोत्साहित करने का एक जरिया हो सकता है लेकिन उसके आंकड़े भी प्रोत्साहक नहीं हैं.
भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के आंकड़ों के मुताबिक इस समय निगम के भंडार में जहां सिर्फ 11.9 लाख टन मोटा अनाज पड़ा हुआ है वहीं 1.6 करोड़ टन से भी ज्यादा धान और 1.5 करोड़ टन से भी ज्यादा गेहूं पड़ा हुआ है.
रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से अनाज की कमी
हालांकि मोटे अनाजों के फायदे इतने हैं कि उन्हें देखते हुए कई जानकार उन्हें लेकर बहुत उत्साहित हैं और चाहते हैं कि उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए केंद्र सरकार और भी कदम उठाए. कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि वो कई राज्यों में मोटे अनाज उगाने वाले किसानों से मिले हैं और देखा है कि बढ़ी हुई एमएसपीभी उनकी आय को बढ़ा नहीं पाई है.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "मौजूदा एमएसपी बहुत कम है. मोटे अनाज उगाने में बहुत ही कम पानी खर्च होता है, उनको उगाने से फसलों में विविधता भी आएगी और स्वास्थ्य के लिए तो वो काफी लाभकारी हैं ही. सरकार को इतने फायदों को ध्यान में रख कर एमसएसपी को और बढ़ाना चाहिए."
शर्मा मोटे अनाजों के महंगे होने की दलील को भी ठुकराते हैं और कहते हैं कि जो लोग रेस्तरां में एक कप कॉफी पीने के लिए 300 रुपए खर्च कर सकते हैं वो एक किलो रागी के आटे के लिए 100 रुपए आसानी से खर्च कर सकते हैं. उनका मानना है कि मोटे अनाज में कई लोगों की रुचि जग चुकी है और अगर अच्छी मार्केटिंग की जाए तो मोटे अनाज को निश्चित रूप से लोकप्रिय बनाया जा सकता है.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवा-निवृत्त जज एस. अब्दुल नज़ीर को सरकार ने आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया है। इस नियुक्ति पर विपक्ष हंगामा कर रहा है। उसका कहना है कि जजों को फुसलाने का यह सबसे अच्छा तरीका है। पहले उनसे अपने पक्ष में फैसला करवाओ और फिर पुरस्कारस्वरूप उन्हें राज्यपाल, राजदूत या राज्यसभा का सदस्य बनवा दो। जो विपक्ष मोदी पर यह आरोप लगा रहा है, क्या उसने अपने पिछले कारनामों पर नज़र डाली है? इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के ज़माने के कई राज्यपालों, राजदूतों और सांसदों से मेरा परिचय रहा है, जो पहले या तो जज या नौकरशाह या संपादक रहे हैं।
उन्होंने जज या संपादक या नौकरशाह के तौर पर सरकार को उपकृत किया है तो सरकार ने उन्हें उक्त पद देकर पुरस्कृत किया है। वे लोग समझते रहे हैं कि वह पुरस्कार पाकर वे सम्मानित हुए हैं लेकिन उनके अपमान का इससे बड़ा प्रमाण-पत्र क्या हो सकता है? यदि उन्होंने अदालत में बिल्कुल ठीक-ठाक फैसला दिया है, यदि उन्होंने निष्पक्ष और निर्भीक संपादकीय लिखे हैं और यदि किसी नौकरशाह ने निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य–कर्म किया है तो भी ये सरकारी पुरस्कार पानेवालों की ईमानदारी पर लोगों को शक होने लगता है। यह शक तब और भी तगड़ा हो जाता है, यदि वह पुरस्कार तुरंत मिला हो।
ऐसे पुरस्कारों और सम्मानों से संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा भंग होती है, क्योंकि, न्यायपालिका और कार्यपालिका को अपनी लक्ष्मण-रेखाओं में ही रहना चाहिए और खबरपालिका को तो अपने प्रति और भी ज्यादा सख्ती बरतना चाहिए। यदि संपादक और पत्रकार इन पदों और सम्मानों के लिए लार टपकाते रहे तो वे पत्रकारिता क्या खाक करेंगे? मेरे कई पत्रकार मित्र विभिन्न सरकारों में मंत्री, राजदूत, और प्रधानमंत्रियों के सरकारी सलाहकार भी बने। उनमें से कइयों ने सराहनीय कार्य भी किए।
इस तरह के कई सरकारी पद विभिन्न प्रधानमंत्रियों द्वारा पिछले 60-65 साल में मुझे कई बार प्रस्तावित किए गए लेकिन मेरा दिल कभी नहीं माना कि मैं हाँ कर दूं। इसका अर्थ यह नहीं है कि संपादकों, जजों और नौकरशाहों की प्रतिभा से सरकारें लाभ न उठाएं। जरूर उठाएं लेकिन उनके सेवा-निवृत्त होते ही उन्हें यदि नियुक्तियां मिलती हैं तो उससे यह साबित होता है कि सरकार उनकी प्रतिभा का लाभ उठाने की बजाय उन्होंने सरकार की जो खुशामद की है, वह उसका लाभ उन्हें दे रही है।
इससे दाता और पाता, दोनों की प्रतिष्ठा पर आंच आती है। तो होना क्या चाहिए? होना यह चाहिए कि अपने पद से सेवा-निवृत्त होने के बाद पांच साल तक किसी भी जज, पत्रकार और नौकरशाह को कोई सरकारी पद या पार्टी-पद नहीं दिया जाना चाहिए। नौकरशाहों पर पहले दो साल की पाबंदी थी लेकिन उसे घटाकर अब एक साल कर दिया गया है। वर्तमान में कितने ही नौकरशाह मंत्री और राज्यपाल बने हुए हैं? यह हमारी पार्टियों और सरकारों के बौद्धिक दिवालिएपन का भी सूचक है। (नया इंडिया की अनुमति से)
विवाद न खड़ा किया जाए कि आजादी के आंदोलन में कांग्रेस ही मुख्य भारवाहक पार्टी रही है। मुस्लिम लीग के योगदान को दाएं बाएं नहीं किया जा सकता। हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने आजादी की लड़ाई में जनता के पक्ष में खड़े होने के बदले अंगरेजों के कान भरने और चुगली करने का मौका नहीं छोड़ा। दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा देती कम्युनिस्ट पार्टी भी आजादी की लड़ाई में क्षमता के अनुरूप कुछ कर नहीं पाई। हालांकि अब बहुत खोजबीन मची हुई है कि हिन्दू महासभा और आरएसएस एक तरफ तथा कम्युनिस्ट पार्टी दूसरी तरफ, ने स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेख करने के लायक योगदान किया है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने बुद्धिजीवी वी. के. कृष्ण मेनन से युद्ध की खंदकों में बैठकर समाजवाद के तेवर और गुर पर बहस मुबाहिसा किया था। नेहरू मोटे तौर पर फेबियन समाजवादी समझे जाते हैं जिनमें हेराल्ड लास्की, जॉर्ज बर्नर्ड शॉ, बर्टेंड रसेल और तमाम बुद्धिजीवियों का नाम जोड़ा जाता है।
नेहरू आज़ादी के युवा योद्धा की तरह वामपंथियों के पक्षधर थे। उनके और सुभाष बोस के संयुक्त हो जाने से कांग्रेस को लगभग दो फाड़ करते गांधी से अहसमत होकर उन्होंने भगतसिंह के पक्ष में पैैरवी की थी। भगतसिंह ने अपने पंजाब के मित्रों को लिखा कि भविष्य के भारत के लिए वे नेहरू के वैज्ञानिक समाजवाद से जुड़ जाएं। नेेहरू ने समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया को कांग्रेस पाटी में महत्वपूर्ण पद और जिम्मेदारियां देकर आगे बढ़ाया। उनका ऐसा सलूक जयप्रकाश, नरेन्द्र देव और अन्य समाजवादी नेताओं के साथ भी रहा। हालांकि बाद मेें कांग्रेस के अंदर रहते कांग्रेस सोशलिस्ट घटक ने पार्टी से छोड़ छुट्टी कर ली, तो नेहरू आग बबूला हो गए। कृष्ण मेनन के अतिरिक्त कम्युनिस्ट केशव देव मालवीय, चंद्रजीत यादव, मोहन कुमार मंगलम और समाजवादी खेमे से अशोक मेहता, मोहन धारिया, चंद्रशेखर जैसे कई नेता कांग्रेस पार्टी में समय समय पर आवाजाही करते रहे।
मौजूदा कांग्रेस कार्यकर्ता बरसों से किताबों से बैर किए बैठे हैं। आरोप भले हो संघ परिवार और भाजपा में स्तरीय बुद्धिजीवियों का टोटा है। यह नहीं देखा जाता कि संघ परिवार में जो जितना भी आलिम फाजिल है, उस पर भरोसा करते जिम्मेदारी के काम सौंप दिए जाते हैं। वह धीरे धीरे प्रोन्नत होता सशक्त भी होता चलता है। उसे इत्मीनान होता है कि पार्टी नेतृत्व उसके पीछे है। कांग्रेस में टांग घसीटो अभियान लगातार चलता है। निष्ठावान लोगों को चीन्ह चीन्ह कर रेवड़ी देती भाजपा ने हाईकोर्ट के रास्ते चलते सुप्रीम कोर्ट के जजों तक पर अपना वैचारिक कब्जा भी कर लिया लगता है। कांग्रेस के कई नेताओं को पार्टी के आदर्ष सहित इतिहास और किए गए आधे अधूरे वायदे और पार्टी का संविधान तथा उसके राष्ट्रीय सम्मेलनों के ऐलान तक मालूम नहीं होंगे।
लगता नहीं कांग्रेस दफ्तरों में किसी पुस्तकालय संस्कृति का बीजारोपण हुआ है। कांग्रेस सांसदों और विधायकों को ऐसे बौड़म जवाब देते इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट मीडिया में दिखाया जाता है कि उनकी अक्ल और कांग्रेस के भविष्य पर तरस आता है। एयर कंडीशन्ड हॉल में बैठकर मु_ी भर लोगों के सामने जश्न और जलसे किए जाने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं को क्या बौद्धिक खूराक मिलती है? खत्म होते होते भी कांग्रेस में कुछ न कुछ बुद्धिजीवी शेष हैं। वे अन्य विचारों से से प्रेरणा लेने के बदले कांग्रेस की वैचारिक परंपरा के पक्षधर हैं। उन्हें गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, पुरुषोत्तमदास टंडन बल्कि कांग्रेस में रहे समाजवादी जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव से सरोकार और सहमति है। उनकी लेकिन कांग्रेस के मौजूदा सत्ता संकुल में पूछपरख नहीं है।
यह भी दुखद है कि एक लोकतांत्रिक पार्टी में अब मुख्यमंत्री ही सर्वेसर्वा हो गए हैं। पीर, बवर्ची, भिश्ती, खर की भी भूमिका निर्वाह करते मुख्यमंत्री अपने मुंह मियां मि_ू बनते रहते हैं। पार्टी को हर स्तर पर एक जेबी संगठन बनाया जा रहा है।
राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के कई तरह के अर्थ निकाले जा रहे हैं। लोग उम्मीदजदां हैं लेकिन उनकी शिकायत है कि राहुल में सैद्धांतिक तेवर के साथ साथ समयसिद्ध बुद्धिजीवी लक्ष्मण इस तरह उगते दिखाई दें कि भाजपा के महाबली से मुकाबला करने की उम्मीदें जनदृष्टि में लहलहाने लगें। उनके निधन के 55 वर्ष से ज्यादा होने के बाद भी भाजपा, नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार का हमला सबसे ज्यादा जवाहरलाल नेहरू पर है। उन्हें मालूम है कि नेहरू के विचार, कर्म और उनकी सेवा का इतिहास देश के लिए अब भी एक सार्थक विकल्प है। विरोधाभास है कि जवाहरलाल नेहरू का वैचारिक फलसफा कांग्रेस नेताओं तक पहुंचता ही नहीं है। कई कांग्रेसी भाजपा के धर्मांध एजेंडा में फंसकर साफ्ट हिन्दुत्व का आचरण करते हैंं, मानो कांग्रेस भाजपा की बी टीम है। शुरू कांग्रेस की वैचारिकता दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, आबादी और बहुसंख्यक धर्मों के सामूहिक विष्वास का कोलाज रही है। कांग्रेस के इतिहास की भविष्यमूलकता और उसके द्वारा संविधान में गूंथी गई वैश्विक समझ से भी सराबोर उद्देष्य पत्र को हर कांग्रेस कार्यकर्ता के जेहन में जज्ब करा देना कांग्रेस के नेतृत्व की बड़ी जिम्मेदारी है। परिवार की परंपराओं को अग्रसर करना और उनमें नए मूल्य जोडऩा तथा समायोजित करना परिवार के लोगों का ही दायित्व होता है। किराए के लोगों से मदद लेकर करना कांग्रेस क्यों समझती है कि क्रांति करना तो जरूरी है लेकिन पड़ोसियों के बच्चों के दम पर करना चाहिए, अपने बच्चों के दम पर नहीं।
देश के संविधान, लोकतंत्र और जनमानस की संतुलित समझ की प्रतिनिधि रही कांग्रेस सत्तानषीन होकर एक मैनेजमेंट संगठन में तब्दील होती गई। उसे गुरूर या मतिभ्रम भी रहा कि कांग्रेस और भारत एक दूसरे के पर्याय हैं। यह भी कि देश में ऐसा कोई परिवार नहीं होगा जिसका कम से कम एक सदस्य प्रतिबद्ध कांग्रेसी की तरह नहीं हो। हालांकि यह मिथक अब इतनी बुरी तरह टूट चुका है कि उसका पुराना चेहरा तलाष करना भी मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि निष्ठावान कार्यकर्ताओं ने अपना अध्ययन क्रम जारी नहीं रखा। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में खासतौर पर केन्द्रीय मंत्री और बौद्धिक मणिशंकर अय्यर ने मैदानी स्तर पर जाकर भी पंचायती राज के संवैधानिक, ऐतिहासिक और सामाजिक फलक को विस्तारित और व्याख्यायित किया। कांग्रेस पार्टी आत्मसंतुष्ट और अनुर्वर विचारों के साथ क्यों हिलगती गई कि उसके वैचारिक फलक पर उन व्यापारिक सामंती और खुशामदखोर तत्वों का कब्जा होता गया जो कांग्रेस के मूल विचार, इतिहास, दर्शन और सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से पूरी तौर पर अलग थलग, बेरुख और अपरिचित थे। श्रीकांत वर्मा अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनाए गए। तब उन्हें राजनीति में प्रोन्नत करने का एक प्रमुख कारण यह भी था वे श्रीकांत सक्रिय और सार्थक बौद्धिक योगदान करने वाले बुद्धिजीवियों को कांग्रेस पार्टी के आदर्षों और वैचारिकी से जोड़ पाने में समर्थ होंगे। कांग्रेस अभियान विभाग के तहत राष्ट्रीय लेखक मंच, राष्ट्रीय अधिवक्ता मंच, राष्ट्रीय डॉक्टर मंच और न जाने इस तरह के कितने मंच बनाए गए और उन पर काम करना षुरू भी हुआ। आज यह सब भुला दिए गए अतीत की बातें हैं।
कांग्रेस ने देश में ऐसे बुद्धिजीवियों को जानबूझकर उपेक्षित भी किया है जिनके पूर्वज-परिवार कांग्रेस के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण बाद की पीढ़ी को भी अपने संस्कार दे गए। आज कांग्रेस संगठन पर गैरबुद्धिजीवियों का जमावड़ा हुकूमत कर रहा है। लोग सत्याग्रह, अहिंसा, सर्वोदय, सिविल नाफरमानी जैसे तत्वों को अपने विवेक के माइक्रोस्कोप से देख भले नहीं पाते होंगे लेकिन उनके आचरण की ईमानदारी पर इतिहास ने कभी शक नहीं किया। देश में अब भी कई ऐसे बुद्धिजीवी हैं जिन्हें कांग्रेसियों से ज्यादा कांग्रेस को बचाए रखने की चिंता है। हालिया विष्वविद्यालय के कई प्राध्यापक इस काम को अपने दम पर आगे बढ़ाए हुए हैं। लेकिन उन्हें समयानुकूल करने की जरूरत है। समय ठहरा हुआ नहीं होता। वह नए परिवर्तनों के साथ भी चलता होता है।
- चंदन कुमार जजवाड़े
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 4 जनवरी से राज्य की ‘समाधान यात्रा’ पर निकले थे। यह यात्रा 16 फरवरी को समाप्त हो रही है। इस यात्रा का मकसद बिहार के सभी 38 जि़लों की यात्रा कर लोगों से बात करना और सरकारी योजनाओं के बारे में उनकी राय जानना था।
नीतीश कुमार ने सबसे पहले साल 2005 में राज्य की यात्रा की थी, जिसके बाद वो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। इस बार की यात्रा नीतीश कुमार के लिए बिहार में उनकी राजनीतिक ताकत को समझने के लिए काफी अहम है।
नीतीश की इस समाधान यात्रा को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी से भी जोडक़र देखा जा रहा है। उन्हें इस यात्रा के दौरान विरोधियों के हमले भी झेलते पड़े हैं और उन्हें अपनी ही पार्टी में चल रहे विवाद का भी सामना करना पड़ा है।
इन सारे मुद्दों पर हम विस्तार से आगे बात करेंगे, लेकिन पहले दो तस्वीरों का जिक्र करते हैं। पहली तस्वीर मुजफ्फरपुर की है जहां शेरपुर ब्लॉक ऑफि़स में अचानक ही लोगों की भीड़ ने नारा लगाना शुरू कर दिया, ‘हमारा पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो।’
दरअसल नारे लगाने वाले ये लोग जेडीयू के कार्यकर्ता थे। नीतीश को अपनी यात्रा के दौरान ऐसे कई नारे सुनने को मिले हैं जो शायद उन्हें रास आते हों। लेकिन ‘जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे’ के उलट भी नीतीश को बहुत कुछ सुनना पड़ा है।
पिछले हफ्ते कटिहार में नीतीश की यात्रा के दौरान कुछ लोगों ने ‘मोदी-मोदी’ के नारे भी लगाए। खबरों के मुताबिक, ये लोग नीतीश कुमार से मिलना चाह रहे थे, लेकिन जब नहीं मिल पाए तो गुस्से में उनका विरोध करने लगे।
कुढऩी चुनाव से मिला झटका
मुजफ्फरपुर समाहरणालय में सीएम के कार्यक्रम के दौरान हमारी नजर अचानक एक इमारत पर गई जिस पर लिखा था, ‘कुढऩी विधानसभा उप निर्वाचन- 2022 जिला नियंत्रण कक्ष।’
दरअसल नीतीश की असल समस्या इसी चुनाव से शुरू हुई थी। मुजफ्फरपुर की ही कुढऩी विधानसभा सीट के लिए दिसंबर में हुए उपचुनाव में नीतीश की पार्टी जेडीयू की हार हुई थी। यह सीट बीजेपी ने महागठबंधन से छीन ली थी।
माना जा रहा था कि अगस्त 2022 में बिहार में महागठबंधन के सत्ता में आने के बाद आरजेडी और जेडीयू की ताकत के आगे बीजेपी को बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
लेकिन पिछले साल नवंबर में भी महागठबंधन को गोपालगंज सीट पर हुए उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा था, जबकि मोकामा सीट पर उसे सफलता मिली थी।
कुढऩी विधानसभा उपचुनाव का यह परिणाम हाल के दिनों में नीतीश कुमार के लिए बड़ा राजनीतिक झटका था। माना जाता है कि बिहार में शराब बंदी की वजह से करीब पांच लाख लोगों पर हुए मुकदमे की इसमें अहम भूमिका है।
इसके अलावा दिसंबर महीने में ही सारण जिले में जहरीली शराब से हुई मौतों और शराबबंदी की सफलता के सवाल भी नीतीश को लगातार घेर रहे थे। इस शराब कांड की गूंज बिहार विधानसभा से लेकर दिल्ली में संसद तक सुनाई दी थी।
वहीं पूरी यात्रा में आरजेडी विधायक सुधाकर सिंह भी लगातार सीएम नीतीश पर हमले कर रहे थे। रही सही कसर खुद नीतीश की पार्टी जेडीयू के नेता उपेंद्र कुशवाहा की बगावत ने पूरी कर दी।
सुधाकर सिंह लगातार नीतीश कुमार को एक कमजोर सीएम बताकर आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं। जबकि उपेंद्र कुशवाहा सार्वजनिक तौर पर जेडीयू को एक कमजोर होती पार्टी बता रहे हैं।
अमित शाह का बिहार दौरा
ऐसे मौके को विपक्षी बीजेपी भी हाथ से जाने देने वाली नहीं थी। यात्रा की शुरुआत से लेकर उसके अंत तक बीजेपी नीतीश कुमार पर सवाल खड़े करती रही। बीजेपी ने इस यात्रा को सरकारी पैसे की बर्बादी तक बताया।
4 जनवरी को नीतीश कुमार अपनी यात्रा पर निकलते, इससे पहले बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बिहार पहुंचकर नीतीश कुमार पर हमले तेज कर दिए। नड्डा ने नीतीश पर बीजेपी को धोखा देने का आरोप भी लगाया।
नीतीश कुमार की राजनीतिक घेरेबंदी करने और 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिहाज से 25 फरवरी को बीजेपी नेता अमित शाह बिहार आ रहे हैं। ख़बरों के मुताबिक वो वाल्मीकिनगर और पटना में सभा करेंगे।
अब नीतीश कुमार भी 25 फरवरी को महागठबंधन के सभी बड़े नेताओं के साथ बीजेपी के खिलाफ बिहार के पूर्णियां में रैली करने वाले हैं। पूर्णिया बिहार के सीमांचल का इलाका है।
यानी आने वाले दिनों में नीतीश कुमार को घरेलू मोर्चे से लेकर विरोधियों तक को जवाब देना है। सीएम नीतीश कुमार के सामने उनकी खुद की कई समस्याएं हैं जिनका समाधान वो इस यात्रा में तलाश रहे हैं।
समाधान यात्रा को कितना समर्थन
मंगलवार सुबह जब हम मुजफ्फरपुर के शेरपुर ब्लॉक पहुंचे तो महिलाओं की लंबी कतार और दीवारों पर ‘जीविका योजना’ के बैनर और पोस्टर बता रहे थे कि नीतीश कुमार के लिए यह योजना काफी अहम है।
जीविका योजना के तहत बिहार के ग्रामीण इलाकों में मूल रूप से सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर महिलाओं के आर्थिक विकास के लिए प्रयास किए जाते हैं।
नीतीश कुमार जीविका दीदियों से मिलने वाले फीडबैक को खासा महत्व देते हैं। बिहार में जीविका योजना से करीब डेढ़ करोड़ महिलाएं जुड़ी हुई हैं।
बिहार के ग्रामीण विकास विभाग के सचिव एस बालामुर्गन का कहना है, ‘देखा गया है कि महिलाओं के जरिए योजना चलाने से यह परिवार तक ज्यादा पहुंचती है। बिहार के ग्रामीण इलाके में इसका बहुत असर हुआ है। महिलाएं न केवल आर्थिक मोर्चे पर आगे बढ़ रही हैं, बल्कि जीविका के जरिए दहेज प्रथा, शिक्षा और बाकी कई अहम मुद्दों पर सफलतापूर्वक जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है।
यहीं कतार में खड़ी कुछ महिलाएं मुख्यमंत्री के लिए स्वागत गान गा रही थीं। हाथों में बैनर और पोस्टर लिए ये महिलाएं शराब का विरोध और शराबबंदी का समर्थन कर रही थीं।
ऐसी ही एक महिला रागिनी देवी का कहना था, ‘सीएम भैया ने हमारे लिए बहुत कुछ किया है। पहले हम घर में बंद थे। बाहर नहीं निकलते थे। कोई हमारी कद्र भी नहीं करता था। अब हम ग्रुप से जुड़ कर काम करती हैं। हमारा सम्मान बढ़ा है।’
मुजफ्फरपुर की रहने वाली राजकुमारी देवी उर्फ किसान चाची ने भी सीएम की समाधान यात्रा के एक कार्यक्रम की जगह पर अपने प्रोडक्ट का एक स्टॉल लगाया था। किसान चाची को भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार भी दिया है।
उनका कहना है, ‘नीतीश कुमार ने महिलाओ के लिए बहुत कुछ किया है। विकास के लिए महिलाओं का साथ बहुत जरूरी है। महिलाओं को नीतीश जी के राज में बहुत सम्मान मिला है।’
यहां सडक़ों से लेकर छतों पर मौजूद महिलाओं की कतार और बरसते फूल नीतीश कुमार को यात्रा में ‘फील गुड’ करा सकते हैं।
नहीं दिखी पुरुषों की भागीदारी
बिहार में आधी आबादी यानी महिलाओं के एक बड़े तबके की सक्रियता नीतीश की यात्रा में दिखी। लेकिन हमें यह एहसास भी हुआ कि इसमें पुरुषों की भागीदारी काफी कम है।
हमने नीतीश कुमार से सीधा पूछा कि पुरुषों की कम दिलचस्पी के पीछे क्या वजह है तो नीतीश ने इसे स्वीकार नहीं किया और दावा किया कि पुरुष भी उनके कार्यक्रम में शामिल हो रहे हैं और वो सबके लिए काम कर रहे हैं।
मुजफ्फरपुर में एक व्यक्ति ने हमें बताया कि अपनी जमीन का कागज बनवाने के लिए वो पटना तक दौड़ रहे हैं, लेकिन उनका काम नहीं हो रहा है। वो नीतीश कुमार से मिलने आए थे, लेकिन उन्हें नहीं मिलने दिया गया।
वहां मौजूद एक और व्यक्ति रमेश कुमार का कहना था कि वो सीएम के कार्यक्रम के लिए नहीं आए थे, बल्कि वहां से गुजऱ रहे थे तो भीड़ देखकर रूक गए।
यानी नीतीश कुमार की समाधान यात्रा लोगों की निजी समस्या के समाधान के लिए नहीं थी। इसलिए कई जगहों पर यात्रा के दौरान उनका विरोध भी देखा गया।
नीतीश कुमार का विरोध
कई समाचार माध्यमों में एक वीडियो के आधार पर दावा किया गया कि इसी सोमवार को औरंगाबाद में समाधान यात्रा के दौरान नीतीश कुमार के ऊपर कुर्सी का एक हिस्सा फेंका गया था। हालांकि वहां मौजूद भीड़ मुख्यमंत्री के समर्थन में नारे लगाती हुई दिख रही थी।
अधिकारियों का कहना है कि कई लोग प्लास्टिक की कुर्सियों पर खड़े थे, इसी वजह से कुर्सी टूट गई और उसका एक टुकड़ा सीएम की तरफ चला गया। हालांकि इससे नीतीश कुमार को कोई चोट नहीं आई थी।
इससे पहले कटिहार में समाधान यात्रा के दौरान भी लोगों ने नीतीश कुमार पर ऐसा ही आरोप लगाकर नारेबाज़ी की थी। लोगों ने आरोप लागाया था कि नीतीश कुमार उनसे मिलने के लिए गाड़ी से बाहर तक नहीं निकले।
समाधान यात्रा के दौरान ही वैशाली में नीतीश कुमार ने बढ़ती जनसंख्या को लेकर जो बयान दिया था उससे बड़ा विवाद खड़ा हो गया था। बिहार में विपक्षी दल बीजेपी ने इसे महिलाओं के अपमान तक से जोड़ दिया था।
यानी जिन महिलाओं के समर्थन के सहारे नीतीश की यह यात्रा चल रही है, उन्हीं को नीतीश कुमार से दूर करने की सियासत भी इस समाधान यात्रा के दौरान देखी गई। ऐसा भी नहीं है कि समाधान यात्रा में नीतीश कुमार को हर जगह जीविका दीदियों का समर्थन ही मिला है।
खबरों के मुताबिक पिछले हफ्ते मधेपुरा की यात्रा में जीविका दीदियों ने नीतीश कुमार की यात्रा के दौरान जमकर विरोध-प्रदर्शन और नारेबाजी की। महिलाओं ने बिहार में अवैध शराब की बिक्री के लिए नीतीश कुमार को ही जिम्मेदार ठहराया।
हालांकि राज्य सरकार में वित्त मंत्री विजय कुमार चौधरी किसी तरह के विरोध से साफ इंकार करते हैं।
उनका कहना है, ‘कहां विरोध हुआ है? हमने तो कहीं भी विरोध नहीं देखा। जो हमारे कार्यक्रम में थे, उन लोगों ने कोई नारा नहीं लगाया। अब कोई अपने घर में बैठकर नारा लगाए तो किसी को मनाही नहीं है। हमने इस कार्यक्रम में कहीं कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं देखी।’
नीतीश को क्या हासिल हुआ
बिहार सरकार में वित्त मंत्री विजय कुमार चौधरी भी नीतीश कुमार के साथ मुजफ़्फ़ऱपुर में मौजूद थे। हमने उनसे पूछा कि सरकार को समाधान यात्रा से क्या हासिल हुआ है?
विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ‘हमने अनेक जिलों में देखा है कि समाधान यात्रा अपने मकसद में सौ फीसदी क़ामयाब रही है। हमें जानना था कि ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए, महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए, ग्रामीण क्षेत्रों में छात्रवृत्ति या बाकी योजनाएं जो सरकार चला रही है उससे धरातल पर क्या बदलाव आया है।’
उनका कहना था कि सरकारी योजनाओं का लाभ पाने वाला तबका कैसा महसूस कर रहा है, यही जानना सरकार का मक़सद था। उन्होंने बताया कि इस फीडबैक के आधार पर योजनाओं को और बेहतर बनाने की दिशा में काम किया जा सकता है।
समाधान यात्रा से जुड़ी सुखद तस्वीरों को अक्सर राज्य सरकार भी प्रचारित करती है। ऐसी तस्वीरें जहां लोग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए नारे लगा रहे हों, या उनके स्वागत और सम्मान में खड़े हों।
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण मानते हैं कि इस बार की यात्रा क्यों निकाली गई, यह समझ से परे है, ‘लगता है नीतीश कुमार ख़ुद भी यात्रा के मकसद को लेकर कन्फ्यूज थे। यह काफी निराशाजनक यात्रा थी।’
नचिकेता नरायण कहते हैं, ‘पिछली यात्रा में नीतीश ने साफ तौर पर शराबबंदी के प्रचार को मुद्दा बनाया था। इस बार वो जेडीयू और आरजेडी के वोटरों को एकजुट कर सकते थे। लेकिन उन्होंने कोई जनसभा तक नहीं की और राजनीतिक सवालों से भी बचते रहे।’
नीतीश कुमार ने अपनी इस यात्रा में उपेंद्र कुशवाहा को लेकर बयान तो दिया, लेकिन केंद्र की राजनीति से जुड़े सवालों को वो आमतौर पर टालते दिखे।
पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर नीतीश कुमार की इस यात्रा पर अलग राय रखते हैं। उनका कहना है, ‘ऐसा लगता है नीतीश कुमार अपनी आगे की राजनीति के लिहाज से जनता की नब्ज टटोल रहे थे। उन्होंने लोगों से मुलाकात की है, अब इसकी समीक्षा करेंगे और फैसले लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली और मुंबई के बी.बी.सी. दफ्तरों पर भारत सरकार ने जो छापे मारे हैं, उन पर भारत के विरोधी दलों ने काफी खरी-खोटी टिप्पणियां की हैं लेकिन वे यह क्यों नहीं समझते कि यह छापे के बदले छापा है। मोदी सरकार लाख सफाई दे कि यह बी.बी.सी. पर आयकर विभाग का छापा नहीं है, सिर्फ सर्वेक्षण है लेकिन सबको पता है कि यह छापामारी उस फिल्म के जवाब में हुई है, जो बी.बी.सी. ने ‘इंडियाः द मोदी क्वेश्चन’ के नाम से छापामारी की है।
मोदी सरकार ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया है। अब यह न तो हमारे सिनेमाघरों में दिखाई जा सकती है और न ही उसे आप आनलाइन देख सकते हैं। ‘पठान’ नामक फिल्म पर भी काफी एतराज हुए थे लेकिन जब वह चली तो ऐसी चली कि वह अपनी दौड़ में आज तक की सभी फिल्मों से आगे निकल गई है। अब इस मोदी फिल्म पर सरकार ने छापा मारा है तो वह पूछ सकती है कि क्या इस फिल्म ने मोदी पर छापा नहीं मारा है? जिस दुर्घटना को बीते हुए दो दशक हो गए, उसे बी.बी.सी. ने किसलिए याद किया है? क्या लंदन की यह आकाशवाणी भारत में दुबारा दंगे करवाना चाहती है? 2002 के गुजराती रक्तपात के बाद देश में दंगे लगभग नगण्य हो गए हैं तो फिर उन्हें याद करवाने का मकसद क्या है?
मोदी को ‘मौत का सौदागर’ सिद्ध करने के पीछे असली मकसद क्या है? क्या बी.बी.सी. भारत में 1947 को दोहरवाने की फिराक में है? यदि भारत में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की पुरानी ब्रिटिश राजनीति फिर चल पड़ी तो क्या होगा? उस समय भारत की जमीन के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब उसके दिलों के सौ टुकड़े हो सकते हैं। इसीलिए ऐसी फिल्में, ऐसी किताबें, ऐसी तेहरीकें किसी काम की नहीं। लेकिन उन पर प्रतिबंध लगाना तो और भी उल्टा सिद्ध हो सकता है।
अब जो लोग मोदी के अंधभक्त हैं, वे भी उसे चोरी-छिपे देखने की कोशिश करेंगे। दूसरे शब्दों में हमारी सरकार जान-बूझकर बी.बी.सी. का मोहरा बन रही है। हमारे कुछ पत्रकार संगठन भी खीज रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है। देश में इंदिरा गांधी का आपात्काल फिर से शुरु हो रहा है। जो पत्रकार लोग डरपोक हैं, उन्हें तो हर सरकार आपात्काल की माता मालूम पड़ती है और जिन अखबारों और टीवी चैनलों की चड्डियां पहले से गीली हैं, उन्हें डर लगता है कि कहीं उन पर भी छापा न पड़ जाए। जै
से आप डरपोक हैं, यह सरकार भी उतनी ही डरपोक है। सरकारें डर के मारे छापे मारती हैं और पत्रकार डर के मारे खुशामद करते हैं। यदि सरकार बी.बी.सी. की इस फिल्म पर प्रतिबंध नहीं लगाती तो इसकी थोड़ी-बहुत चर्चा होकर रह जाती लेकिन सरकार में बैठै हुए हमारे नेता लोग कोई ईसा मसीह तो हैं नहीं कि वे अपने ‘हत्यारो’ (आलोचकों) के लिए ईश्वर से कहें कि ‘इन्हें माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं? (नया इंडिया की अनुमति से)
विवेक कुमार
भारतीय साहित्य के हजारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। मिर्जा गालिब उनमें से एक हैं। विलक्षण अनुभूतियों के इस अनोखे शायर के सौंदर्यबोध से गुजरना एक दुर्लभ अनुभव है।
लफ्जों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, नए-नए अर्थ खुलते हैं। वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज होती हैं, लेकिन अपने दौर की पीडाओं की नक्काशी का गालिब का अंदाज भी अलग था और तेवर भी जुदा। वहां कोई बंधा-बंधाया जीवन-मूल्य या स्थापित जीवन-दर्शन नहीं है। रूढिय़ों का अतिक्रमण ही जीवन मूल्य है और आवारगी जीवन दर्शन। गालिब में हर कहीं एक अजीब-सी बेचैनी नजऱ आती है।
रवायतों को तोडक़र आगे निकल जाने की बेचैनी। जीवन और मृत्यु के उलझे हुए रिश्ते को सुलझाने की बेचैनी। दुनियादारी और आवारगी के बीच तालमेल बिठाने की बेचैनी। इश्क के उलझे धागों को खोलने और उसके सुलझे हुए सिरों को फिर से उलझा देने की बेचैनी। यह बेचैनी उनकी शायरी की रूह है।
मनुष्य के मन की गुत्थियों और वक़्त के साथ उसके अंतर्संघर्ष का जैसा चित्र ग़ालिब की शायरी में मिलता है, वह उर्दू ही नहीं विश्व की किसी भी भाषा के लिए गर्व का विषय हो सकता है। आज उनकी पुण्यतिथि पर खिराज-ए-अकीदत, उनके शेर के साथ-
‘गालिब’ बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सेंट वेलेन्टाइन डे’ का विरोध अगर इसलिए किया जाता है कि वह प्रेम-दिवस है तो इससे बढ़कर अभारतीयता क्या हो सकती है? प्रेम का, यौन का, काम का जो मुक़ाम भारत में है, हिन्दू धर्म में है, हमारी परम्परा में है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। धर्म शास्त्रों में जो पुरुषार्थ-चतुष्टय बताया गया है–धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष– उसमें काम का महत्व स्वयंसिद्ध है। काम ही सृष्टि का मूल है। अगर काम न हो तो सृष्टि कैसे होगी? काम के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। इसीलिए काम पर रचे गए ग्रन्थ को कामशास्त्र कहा गया? शास्त्र किसे कहा जाता है? क्या किसी अश्लील ग्रंथ को कोई शास्त्र कहेगा? शास्त्रकार भी कौन है? महर्षि है! महर्षि वात्स्यायन! वैसे ही जैसे कि महर्षि वेलेन्टाइन जो पैदा हुए, तीसरी सदी में| वे भारत में नहीं, इटली में पैदा हुए।
वात्स्यायन को किसी सम्राट से टक्कर लेनी पड़ी या नहीं, कुछ पता नहीं लेकिन कहा जाता है कि तीसरी सदी के रोमन सम्राट क्लॉडियस द्वितीय और वेलेन्टाइन के बीच तलवारें खिंच गई थीं। क्लॉडियस ने विवाह वर्जित कर दिए थे। उसे नौजवान फ़ौजियों की जरूरत थी। कुँवारे रणबाँकुरों की जरूरत थी। सम्राट के चंगुल से निकल भागनेवाले युवक और युवतियाँ, जिस ईसाई सन्त की शरण में जाते थे, उसका नाम ही वेलेन्टाइन है।
वेलेन्टाइन उनका विवाह करवा देता था, उन्हें प्रेम करने की सीख देता था और जो सम्राट की कारागार में पड़े होते थे, उन्हें छुड़वाने की गुपचुप कोशिश करता था। कहते हैं कि इस प्रेम के पुजारी सन्त को सम्राट क्लॉडियस ने आखिरकार मौत के घाट उतार दिया। किंवदन्ती यह भी है कि मौत के घाट उतरने के पहले वेलेन्टाइन डे प्रेम की नदी में स्नान किया। वे क्लॉडियस की जेल में रहे और जेल से ही उन्होंने जेलर की बेटी को अपना प्रेम-सन्देसा पढ़ाया- कार्ड के जरिए, जिसके अन्त में लिखा हुआ था ‘तुम्हारे वेलेन्टाइन की ओर से’। यह वह पंक्ति है, जो यूरोप के प्रेमी-प्रेमिका अब 1700 साल बाद भी एक-दूसरे को लिखना पसंद करते हैं !
ऐसे सन्त वेलेन्टाइन से भारतीयता का भला क्या विरोध हो सकता है? वेलेन्टाइन नाम का कोई सन्त सचमुच हुआ या नहीं, इस पर यूरोपीय इतिहासकारों में मतभेद है। अगर यह मान भी लें कि वेलेन्टाइन सिर्फ कपोल-कल्पना है तो भी इसमें त्याज्य क्या है? वेलेन्टाइन का दिन आखिर कब मनाया जाता है? फरवरी में, 14 तारीख को! फरवरी तक, मध्य फरवरी तक प्रकृति में, पुरूष में, नारी में, पशु-पक्षी में चराचर जगत में क्या कोई परिवर्तन नहीं होता? आया वसन्त, जाड़ा उड़न्त!
वसन्त के परिवर्तनों का जैसा कालिदास ने ऋतुसंहार में, श्रीहर्ष ने रत्नावली में, भास ने स्वप्नवासवदत्तम् में और विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में अंकन किया है, क्या किसी पश्चिमी नाटककार या कवि ने किया है? सौन्दर्य का, प्रेम का, श्रृंगार का, रति का, मौसम की मजबूरियों का इतना सूक्ष्म चित्रण इतना गहन और स्पष्ट है कि उसे यहाँ लिखने की बजाय वहाँ पढ़ने की सलाह दी जा रही है।
प्रेम के इस व्यापार में हजार वेलेंटाइन को पछाड़ने के लिए एक कालिदास ही काफी है। अगर प्रेम की पूजा के लिए वेलेन्टाइन की भर्त्सना करेंगे तो कालिदास का क्या करेंगे? श्रीहर्ष का क्या करेंगे? बाणभट्ट का क्या करेंगे? संस्कृत के इन महान कवियों के लिए तो बाक़ायदा कोई बूचड़खाना ही खोलना पड़ेगा। खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों को ढहाने के लिए तो गज़नियों और गोरियों को बुलाना पड़ेगा।
‘वेलेन्टाइन डे’ के पीछे लट्ठ लेकर पड़े हमारे नौजवानों को शायद पता नहीं कि भारत में मदनोत्सव, वसन्तोत्सव और कौमुदी महोत्सव की शानदार परम्परा रही हैं। इन उत्सवों के आगे ‘वेलेन्टाइन डे’ पानी भरता नज़र आता है। यदि मदनोत्सवों के सम्भाषणों की तुलना ‘वेलेन्टाइन डे’ कार्डों से की जाए तो लगेगा कि किसी सर्चलाइट के आगे लालटेन रख दी गई है, शेर के आगे बकरी खड़ी कर दी गई है और मन भर को कन भर से तौला जा रहा है कौमुदी महोत्सवों में युवक और युवतियाँ बेजान कार्डों का लेन-देन नहीं करते, प्रमत्त होकर वन-विहार करते हैं, गाते-बजाते हैं, रंगरलियाँ करते हैं, गुलाल-अबीर उड़ाते हैं, एक-दूसरे को रंगों से सरोबार करते हैं और उनके साथ चराचर जगत भी मदमस्त होकर झूमता है।
मस्ती का वह संगीत पेड़-पौधों, लता-गुल्मों, पशु-पक्षियों, नदी-झरनों–प्रकृति के चप्पे-चप्पे में फूट पड़ता है। सम्पूर्ण सृष्टि प्रेम के स्पर्श के लिए आतुर दिखाई पड़ती है। सुन्दरियों के पदाघात से अशोक के वृक्ष खिल उठते हैं। सृष्टि अपना मुक्ति-पर्व मनाती है। इस मुक्ति से मनुष्य क्यों वंचित रहे? मुक्ति-पर्व की पराकाष्ठा होली में होती है सारे बन्धन टूटते हैं। मान-मर्यादा ताक पर चली जाती है। चेतन में अचेतन और अचेतन में चेतन का मुक्त-प्रवाह होता है। राधा कृष्ण और कृष्ण राधामय हो जाते हैं।
सम्पूर्ण अस्तित्व दोलायमान हो जाता है, रस में भीग जाता है, प्रेम में डूब जाता है। पद्माकर ने क्या खूब कहा है -“बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में। बनन में, बागन में बगरौ बसंत है।” ब्रज की गोरी, कन्हैया की जैसी दुर्गति करती है, क्या वेलेन्टाइन के प्रेमी उतनी दूर तक जा सकते हैं? अगर वे जाना चाहें तो जरूर जाएँ लेकिन जाएँगे कैसे? काठ के पाँवों पर आखिर वे कितनी देर नाच पाएँगे? वेलेन्टाइन के भारतीय प्रेमी वह ऊर्जा कहाँ से लाएँगे, जो अपनी ज़मीन से जुड़ने पर पैदा होती है?
काम का भारतीय अट्टहास यूरोप को मूर्छित कर देने के लिए काफी है। अगर वेलेन्टाइन के यूरोपीय समाज में आज कोई होली उतार दे तो वहाँ एक बड़ा सामाजिक भूकम्प हो जाएगा। ऐसे अधमरे-से वेलेन्टाइन को भारत का जो भद्रलोक अपनी छाती से चिपकाए रखना चाहता है, जिसकी जड़ें उखड़ चुकी हैं। उसके रस के स्रोत सूख चुके हैं। उसे अपनी परम्परा का पता नहीं। वह नकल पर जिन्दा है। उसकी अपनी कोई भाषा नहीं, साहित्य नहीं, संस्कृति नहीं। वह अंधेरे में राह टटोल रहा हैं। अपने भोजन, भजन, भेषज, भूषा और भाषा- हर क्षेत्र में पश्चिम की नकल को ही अकल मानता है।
इसीलिए शुभ्रा, धवला प्रेम दिवानी मीरा उसकी नज़र से ओझल हो जाती है और किंवदन्तियों के कुहरे में लिपटे हुए वेलेन्टाइन उसके कण्ठहार बन जाते हैं। मीरा और राधा के देश का आदमी अगर वेलेन्टाइन की खोज में इटली जाता है तो उसे क्या कहा जाएगा? वाटिका में बैठा आदमी कागज के फूल सूंघ रहा हो तो उसे क्या कहा जाएगा? हवाई जहाज में उड़ता हुआ आदमी बैलगाड़ी की गति पर गीत लिख रहा हो तो उसे क्या कहा जाएगा?
भारत का आधुनिक भद्रलोक भी बड़ा विचित्र है! सयाना कौआ है। उससे चतुर दुनिया में कौन है? चतुराई इतनी कि अमेरिकियों को उनकी ज़मीन पर ही उसने दे मारा लेकिन वह जितना सयाना है, उतनी ही गलत जगह पर जा बैठता है! मल्टीनेशनल कम्पनियों के जाल में सबसे ज्यादा वही फँसता है, उपभोक्तावाद की तोप का भूसा वही बनता है, नकलची की भूमिका वही सहर्ष निभाता है। ‘वेलेंटाइन डे’ के नाम पर करोड़ों डॉलर के कार्ड, उपहार और विज्ञापन का धंधा होता है। जैसे क्रिसमस आनन्द का पर्व कम, धंधे का पर्व ज्यादा बन गया है, वैसे ही ‘वेलेंटाइन डे’ पर तीसरी दुनिया में फिजूलखर्ची की एक नई लहर उठ खड़ी हुई है।
इसका विरोध जरूरी है। विरोध इसलिए भी जरूरी है कि नुकसान आखिरकार नकलची का ही होता है। नकलची की जेब कटती है और असलची की जेब भरती है। तीसरी दुनिया का पैसा, उसके खून-पसीने की कमाई आखिरकार ईमानदार देशों में चली जाती है, चाहे वह कार्डों के रास्ते जाए, चाहे जीन्स और टाइयों के रास्ते जाए और चाहे पीज़ा और चिकन के ज़रिए जाए! इस रास्ते को बंद करने के लिए यदि कोई शोर मचाए तो बात समझ में आती है लेकिन बेचारे वेलेन्टाइन ने आपका क्या बिगाड़ा है?
वेलेन्टाइन ने रोम के नौजवानों को न अनैतिकता सिखाई, न अनाचार का मार्ग दिखाया और न ही दुश्चारित्र्य को प्रोत्साहित किया। वह तो डूबतों को तिनका था, अंधेरे का दीपक था।जैसे हिन्दू समाज के बागी युवक-युवतियों के लिए आर्य समाज सहारा बनता है, वैसे ही रोम के प्रेमी-प्रेमिकाओं का सहारा वेलेन्टाइन था। वेलेन्टाइन की आड़ में अगर पश्चिमी कम्पनियाँ अपना शिकार खेल रही हैं तो बेचारा वेलेन्टाइन क्या करे? वेलेन्टाइन तो किसी मल्टीनेशनल का मालिक नहीं था! देने के लिए उसके पास कोई उपहार भी क्या रहा होगा?
अगर जेलर की बेटी को कोई कार्ड उसने भेजा भी होगा तो वह हाथ से ही लिखा होगा और डाक टिकट चिपकाकर नहीं, किसी की मिन्नतें करके ही भिजवाया होगा। सम्राट क्लॉडियस जिस पर दाँत पीस रहा हो, वह वेलेन्टाइन अपने प्रेम की अभिव्यक्ति भला विज्ञापन के ज़रिए कैसे कर सकता था। इसीलिए वेलेन्टाइन को नायक बनाना जितना हास्यास्पद है, उतना ही खलनायक बनाना भी है। वास्तव में ये दोनों कर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो वेलेन्टाइन को नायक बनाते हैं, वे अपनी परम्परा से उतने ही बेगाने हैं जितने कि वे जो उसे खलनायक बनाते हैं।
वेलेन्टाइन का विरोध करनेवाले क्या भारत को एक बन्द गोभी बनाना चाहते हैं? क्या वे भारत को मध्यकालीन यूरोप की पोपलीला में फँसाना चाहते हैं? क्या वे आधुनिक भारत को किसी शेखडम में परिणत करना चाहते हैं? क्या वेलेन्टाइन की आड़ में वे भारत को मुक्त संस्कृति का गला घोटना चाहते हैं? क्या वे वेलेन्टाइन की आड़ में कालिदास पर प्रहार करना चाहते हैं? जो भारत चार्वाकों को चर्वण करता रहा है, क्या वह वेलेन्टाइन को नहीं पचा सकता?
प्रतिबन्धों, प्रताड़नाओं, वर्जनाओं का भारत कभी हिन्दू भारत तो हो ही नहीं सकता। जिसे हिन्दू भारत कहा जाता है, वह ग्रन्थियों से ग्रस्त कभी नहीं रहा। वह भारत मानव-मात्र की मुक्ति का सगुण सन्देश है। उस भारत को वेलेन्टाइन से क्या डर है? उसे हर पहलू में हजारों वेलेन्टाइन बसे हुए हैं। उसे वेलेन्टाइन के आयात नहीं, होली के निर्यात की जरूरत है।
चीन, जापान, थाईलैंड, सिंगापुर आदि देशों के दमित यौन के लिए वेलेन्टाइन निकास-गली बन सकते हैं लेकिन जिस देश में गोपियाँ कृष्ण की बाहें मरोड़ देती हैं, पीताम्बर छीन लेती हैं, गालों पर गुलाल रगड़ देती हैं, और नैन नचाकर कहती हैं लला, फिर आइयो खेलन होरी,’ उस देश में वेलेन्टाइन को लाया जाएगा तो वह बेचारा बगले झाँकने के अलावा क्या करेगा? कृष्ण के मुकाबले वेलेन्टाइन क्या है? कहाँ कृष्ण और कहाँ वेलेन्टाइन? भारत को असली खतरा वेलेन्टाइन से नहीं, उस पिलपिले भद्रलो से है, जो पिछले पचास साल में उग आया है। वेलेन्टाइन-विरोध के नाम पर जो वितण्डा हुआ, वह इस पिलपिले भद्रलोक और सिरफरे भद्रलोक के बीच हुआ है।
वेलेन्टाइन को ये दोनों जानते हैं लेकिन जनता उसे नहीं जानती। वह तो उसके नाम का उच्चारण भी नहीं कर सकती। उसे वेलेंटाइन से क्या लेना-देना है? जैसे आम जनता को वेलेन्टाइन से कुछ लेना-देना नहीं, वैसे ही इन दोनों भद्रलोकों को आम-जनता से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर होता तो पहला भारत समतामूलक समाज की जरूरत के प्रति थोड़ा सचेत दिखाई पड़ता और दूसरा भद्रलोक उन मुद्दों पर लड़ाई छेड़ता, जिनके उठने पर धन, धरती, अवसर आदि समाज में समान रूप से बँटते।
‘वेलेंटाइन डे’ का विरोध करके माँ-बहनों की इज़्ज़त बचाने का दावा करने की बजाय यह कहीं बेहतर होता कि ये ही स्वयंसेवक दहेज और बहू दहन आदि के विरूद्ध मोर्चे लगाते। क्या यह विडम्बना नहीं कि ‘वैलेंटाइन डे’ के प्रेमी और विरोधी, दोनों ही स्त्री-शक्ति को दृढ़तर बनाने के बारे में बेख़बर हैं? (नया इंडिया की अनुमति से)
-मनीष सिंह
वाचटेल नाम की लीगल फर्म अडानी में हायर की है। ये वही फर्म है, जिसने एलन मस्क को ट्विटर खरीदने पर मजबूर किया था।
इसे हिंडनबर्ग को सबक सिखाने को हायर किया, अथवा भविष्य की सुरक्षा के लिए, यह स्पष्ट नहीं है। मगर हिन्डनबर्ग पर मुकदमे का ख्याल है, तो बहुत बढिय़ा कदम है।
पहला तो यह होगा कि हिण्डनबर्ग 88 सवालों पर, लीगल फर्म ही अडानी से उत्तर पूछेगी। वे हर बिंदु बताएंगे कि असलियत क्या है।
अगर लीगल फर्म को लगा कि यहां तो अडानी ने गलत किया है, या हिंडनबर्ग सही है। वो खुद ही सलाह देगी की मुकदमा मत करो, वरना ज्यादा फंस जाओगे।
इस तरह यह बात जो दुनिया जानती है, बताने की मोटी फीस लेगी।
हिंडनबर्ग दो दर्जन से अधिक बड़ी बड़ी कंपनियों के खिलाफ रिपोर्ट पेश कर चुकी है। ये सब इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन थे। लेकिन बाल बांका नहीं हुआ है, तो जाहिर है कि ये कच्चे खिलाड़ी नहीं, रिसर्च तगड़ी होती है।
अगर येन केन मामला कोर्ट में गया तो मजा आएगा। मेरा मानना है, कि दो चार सबसे ज्यादा नुकसानदेह पॉइन्ट हिंडनबर्ग ने अभी स्लीव्स में छुपाए रखे होंगे।
पार्टली इसलिए की ये लोग शॉर्ट सेलिंग करना चाहते हैं, बर्बाद नहीं। इसलिए एक सीमा में खुलासे करते हैं। लेकिन कोर्ट में प्रतिष्ठा, और हार जीत का प्रश्न आएगा, तो और गहरा खोदेंगे। फिर, अडानी तो खदान है। खोदते जाओ, निकलता जाएगा।
मुझे लगता है, अभी कुछ दिखावटी केस कोर्ट में करेंगे। लेकिन चार छह माह बाद, आउट ऑफ कोर्ट सेटल कर लेंगे। अडानी वाचटेल को भी पैसे देंगे, हिन्डनबर्ग को भी सेटलमेंट का खर्च देंगे।
बाकी जो अपने शेयरों को खऱीदवा कर रेट बचाने में पैसे लग रहे हैं, वो तो लग ही रहे हैं।
रीवा एस. सिंह
कहकर सिफऱ् वही वादे किये जाते हैं जो आवेश में किये गये हों नहीं तो ज़बाँ की दरकार कहाँ होती है वादों के लिये! भाषा और सभ्यताओं के आने से बहुत पहले ही आ चुकी थी प्रतिबद्धता।
प्राचीनतम लिपि से भी प्राचीन रहा भावनाओं का सम्प्रेषण। शायद इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि एक जोड़ी आँखें मनुष्य के पास हमेशा से थीं। जिन्हें पढऩे-समझने के लिये किसी ज़बाँ की ज़रूरत कभी नहीं रही। आँखें बोलती हैं, बात करती हैं, हँसती भी हैं और जितने प्रभावशाली ढंग से भावनाएँ उड़ेल देती हैं उतनी क्षमता अबतक किसी ज़बाँ ने विकसित नहीं की।
मनुष्य जब उन्माद या अवसाद में होता है तो शब्द दुर्बल लगते हैं, कहाँ समेट पाते हैं हम मन में उठते हिलोरों को या उसी मन के बिखरे टुकड़ों को किसी भी ज़बाँ में! लेकिन आँखें सब बयाँ करती हैं। और किसी को हाल-ए-दिल बताने के लिये अगर ये एक जोड़ी आँखें नाकाफ़ी हों तो वो कमबख़्त ज़बाँ से भी क्या जान सकेगा।
वादे भी आँखों से होते हैं, प्रतिबद्धता आँखों से टपकती है। नहीं तो हज़ार बातें कहकर भी, सात जतन करने के बाद भी, अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर भी वादे टूट जाते हैं।
कोई मीरा कहीं बावरी होती है कि उसने कृष्ण से वादा किया है, दुनिया को यह पागलपन लगता है लेकिन मीरा को तो हर हाल में निभाना है।
किसी पुरानी डायरी में अब भी सूखे फूल पड़े हैं जिन्हें फेंका नहीं गया लेकिन चुभन देते हैं कि कर लेनी थी हिमाक़त, निभा लेना था वादा।
मन भरोसा करता है तो ख़ुद से भी वादा करता है और फिर दुनिया में उस एक चेहरे के सिवा सब धुंधला पड़ जाता है।
लोग वादे नहीं करते, उनकी नजऱें करती हैं, साँसों की गर्माहट करती है, एकाएक तेज़ हुई धडक़नें करती हैं। अक्सर ही जब सबसे मज़बूत और सबसे ज़रूरी वादे हो रहे होते हैं, ज़बाँ कुछ नहीं करती। लिखित या मौखिक समझौते नहीं होते, नहीं होते हस्ताक्षर किसी श्वेतपत्र पर लेकिन वो एक नाम अंकित हो जाता है मन के आखिरी कोने में सर्वदा के लिये।
वादे सोच-समझकर नहीं किये जाते, माप तौल कर तो बिल्कुल नहीं। सबसे ख़ूबसूरत वादे बिना नियम व शर्तों के स्वत: ही हो जाते हैं। ऐसे वादे जब मिट्टी को छूते हैं तो सृष्टि जीना सीखती है और जब हवा में घुलते हैं तो वसंत आता है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फिजी में 15 फरवरी से 12 वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन होने जा रहा है। यह सम्मेलन 1975 में नागपुर से शुरु हुआ था। उसके बाद यह दुनिया के कई देशों में आयोजित होता रहा है। जैसे मोरिशस, त्रिनिदाद, सूरिनाम, अमेरिका, ब्रिटेन, भारत आदि! पिछले दो सम्मेलनों को छोड़कर बाकी सभी सम्मेलनों के निमंत्रण मुझे मिलते रहे हैं। मुझे 1975 के पहले सम्मेलन से ही लग रहा था कि यह सम्मेलन हिंदी के नाम पर करोड़ों रु. फिजूल बहा देने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।
नागपुर सम्मेलन के दौरान मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ में एक संपादकीय लिखा था, जिसका शीर्षक था, ‘‘हिंदी मेलाः आगे क्या?’’ 38 साल बीत गए लेकिन जो सवाल मैंने उस समय उठाए थे, वे आज भी ज्यों के त्यों जीवित हैं। तत्कालीन दो प्रधानमंत्रियों के आग्रह पर मैंने मोरिशस और सूरिनाम के सम्मेलनों में भाग लिया। वहां दो-तीन सत्रों की अध्यक्षता भी की और दो-टूक भाषण भी दिए। कुछ ठोस प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित भी करवाए लेकिन सारे विश्व हिंदी सम्मेलन सैर-सपाटा सम्मेलन बनकर रह गए हैं।
अब अच्छा है कि मोदी-राज में मेरे-जैसे स्पष्टवक्ताओं को इन सैर-सपाटा सम्मेलनों से दूर ही रखा जाता है। यह खुशी की बात है कि यह 12 वां सम्मेलन उस फिजी में हो रहा है, जहां प्रवासी भारतीयों के अन्य देशों की बजाय हिंदी का चलन ज़रा ज्यादा है लेकिन हिंदी की जो दुर्दशा भारत में हैं, वही हाल हिंदी का उन प्रवासी देशों में भी है। इन देशों में तो हिंदी की बजाय आम लोग अपनी बोलियों में ही बातचीत करते हैं।
यदि इन देशों में महर्षि दयानंद का आर्यसमाज सक्रिय न होता तो वहां हिंदी का नामो-निशान ही मिट जाता। इन देशों में भी संसदीय कार्रवाई, अदालती बहस और फैसले तथा सारी ऊँची पढ़ाई अंग्रेजी या फ्रांसीसी में ही होती है। ऐसा वहां क्यों न हो? जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत अंग्रेजी की गुलामी में डूबा हुआ है तो इन छोटे-मोटे देशों को हम दोष क्यों दे?
1975 में ही ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में मेरे वरिष्ठ मित्र गोविंदप्रसादजी केजरीवाल ने विश्व हिंदी सम्मेलन पर लिखते हुए कहा था कि ‘घर में नहीं दाने! अम्मा चली भुनाने!!’ आजकल हम आजादी का 75 वां वर्ष मना रहे हैं लेकिन हमारे कानून, हमारे सरकारी आदेश, हमारे ऊँचे अदालती फैसले, हमारी ऊँची पढ़ाई और शोध-कार्य सभी काम-काज अंग्रेजी में चल रहे हैं और हम हिंदी को विश्व भाषा बनाने पर तुले हुए हैं।
यह ठीक है कि अन्तरराष्ट्रीय व्यापार, कूटनीति और शोधकार्य के लिए हमें कई विदेशी भाषाओं को अवश्य सीखना चाहिए लेकिन हम अकेली अंग्रेजी की गुलामी में डूबे हुए हैं। हिंदी को संयुक्तराष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनवाने का प्रस्ताव मैंने सूरिनाम में पारित करवाया था लेकिन यदि वह बन भी जाए तो भी क्या होगा? क्या हमारे नेताओं को कुछ शर्म आएगी? क्या वे नौकरशाहों की नौकरी करना बंद कर पाएंगे? यदि वे वे ऐसा कर सकें तो अंग्रेजी की गुलामी से हिंदी अपने आप मुक्त हो जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सनियारा खान
पश्चिम बंगाल के एक गांव में जन्मी लक्ष्मीबाला 102 साल में भी सब्जी भाजी बेच रही है। इस महिला ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। इनका बेटा भी चाय दुकान ही चलाता है। अजीब बात है कि स्वाधीनता सेनानी की हालत देखिए और स्वाधीनता आंदोलन में खामोश रहनेवालों का रुतबा देखिए।
कोलकाता में आरएसएस ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती को बहुत ही धूमधाम से मनाने से पहले ही बोस की बेटी अनिता बोस ने कह दिया कि नेताजी कभी भी आरएसएस के विचारों से सहमत नहीं थे। वे हिंदू हो कर भी सभी धर्मो को सम्मान देना पसंद करते थे। तो फिर ये कार्यक्रम क्यों? अच्छा होता अगर आरएसएस नेताजी के विचारों को अपनाते। सभी नायकों को ‘हमारा नायक’ घोषित कर हाईजैक करने के चक्कर में कभी कभी फजीहत भी हो जाती है।
ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था कि हर संत का एक अतीत होता है और हर अपराधी का एक भविष्य । अलग अलग लोग इसे अलग अलग ढंग से समझेंगे। वैसे समझ में तो यही आ रहा है कि काले अतीत को सब से छुपाने के लिए संत बन जाना एक आसान तरीका है। लेकिन अपराधी का काला अतीत कभी न कभी उसके भविष्य में सामने आ ही जाता है। हां, वह अगर खास वाशिंग मशीन में चला गया तो बात दूसरी हो जाती है। फिर तो उसमें दूध सी सफेदी ही सफेदी दिखने लगती है।
अखबारों के पहले पेज में गुटके के विज्ञापन छपते हैं। लेकिन उसके खिलाफ़ कुछ नहीं बोला जाता है। खिलाडिय़ों को प्रताडऩा के खिलाफ़ धरना देना पड़ता हैं । लेकिन उनके हक में आवाज़ उठानेवाले बहुत ही कम मिलते हैं। कोई सैनिक अगर अपने विभाग के कुछ भी गलत काम के खिलाफ़ बोलता है तो उसे भी देशद्रोही बना दिया जाता है। कोई बलात्कारी को समाज में सम्मान देने की परंपरा शुरू हो जाए तो लोग उसे सही प्रथा मानते हैं। जब खामोशी को ही सही माना जाता है तो फिर ईश्वर से यही प्रार्थना करना चाहिए कि अब वे बगैर ज़बान के ही इंसान बना कर दुनिया में भेजना शुरू कर दे। जिस चीज़ का हम इस्तमाल ही करना नहीं जानते हैं, उसका न होना ही ठीक है।
असम सरकार ने 2022 के 14 नवंबर को गुवाहाटी हाईकोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था कि मई 2021 से अब तक पुलिस ने 171 लोगों पर गोली चलाई और पुलिस हिरासत में 4 लोगों की मौत हुई। फिर उसके बाद 28 दिसम्बर 2022 को असम सरकार के एक मंत्री ने असम विधान सभा में बताया कि अब तक असम में पुलिस एनकाउंटर में कोई भी नहीं मरा । है ना ये अजीब बात कि एक ही सरकार करीब करीब एक ही समय में दो अलग अलग बातें कहती है। सच क्या झूठ क्या ये कौन बताएगा? वैसे तो कहते है कि अभी के असम उच्छेद और एनकाउंटर के मामलों में ही ज़्यादा ख्याति बटोर रही है।
सोशल मीडिया में ही पढ़ी हुई एक कहानी से अपनी बातें फिलहाल ख़त्म करना चाहती हूं।
फ्रेंच रिवोल्यूशन के दौरान पेरिस से जान बचा कर एक आदमी निकल भागा। वह किसी तरह छुपते छुपाते एक गांव पहुंच गया। उस गांव के किसी एक दोस्त ने उससे पूछा कि शहर में क्या हो रहा है? उसने दुखी होकर जवाब दिया कि बहुत ही बुरा हाल है। वहां हजारों लोगों के गले काटे जा रहे हैं और लोग बेमौत मर रहे हैं। बात सुनते ही पास खड़े एक दुकानदार ने चिल्लाया,- ‘अरे, अब तो हमारा टोपी का धंधा मंदा हो जाएगा।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के मुखिया महमूद मदनी के बयान पर इधर हंगामा मचा हुआ है। हमारे टीवी चैनलों पर आजकल यही सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। मदनी के इस कथन का कोई एतिहासिक प्रमाण नहीं है कि ‘‘इस्लाम का जन्म-स्थान अरब देश नहीं, भारत है। पहले नवी का जन्म भारत में ही हुआ है। यह मुसलमानों की मातृभूमि है। इस्लाम को विदेशी मजहब मानना एतिहासिक दृष्टि से गलत है और बिल्कुल निराधार है।’’ ये वाक्य मदनी ने पढ़कर सुनाए थे, जमीयत के 34 वें अधिवेशन में।
यों तो मदनी अपने आप में उत्तम वक्ता हैं लेकिन यह समझ में नहीं आया कि ये विवादास्पद वाक्य उन्होंने पढ़कर क्यों सुनाए? हो सकता है कि जैसे हमारे बड़े नेताओं के भाषण उनके अफसर लिखकर दे देते हैं और वे उन्हें श्रोताओं के सामने पढ़ डालते हैं, वैसे ही यह गलती मदनी से भी हो गई है। लेकिन इस गलती के पीछे छिपी भावना को समझने की कोशिश की जाए तो लगेगा कि मदनी किसी भी बड़े से बड़े हिंदू से भी कम नहीं हैं।
मदनी के पूरे भाषण का सार यह है कि भारत के मुसलमानों की श्रद्धा और आस्था का सर्वोच्च केंद्र अगर कहीं है तो वह भारत में ही है। भारत जितना हिंदुओं का है, उतना ही मुसलमानों का भी है। यदि जिन्ना को यह बात समझ में आ जाती तो पाकिस्तान बनता ही क्यों? मैं तो चाहता हूं कि मदनी, ओवैसी तथा कई मुस्लिम नेता मेरे उस कथन को दोहराएं, जो कई वर्ष पहले मैंने दुबई में हमारे दूतावास द्वारा आयोजित एक बड़ी सभा में कहे थे। उस सभा की अगली पंक्ति में कई जाने-माने अरब शेख लोग भी बैठे थे।
मैंने कहा था कि मुझे हमारे भारतीय मुसलमानों पर गर्व है, क्योंकि वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मुसलमान हैं। वे सर्वश्रेष्ठ इसलिए हैं कि उनके रगों में पैगंबर मुहम्मद के क्रांतिकारी सुधारों की धारा के साथ-साथ भारतीय संस्कारों की सदियों पुरानी पवित्र गंगा भी बहती है। मदनीजी का यह भाषण मेरे इस कथन को और भी अधिक मजबूत बनाता है, क्योंकि भारत के मुसलमान कौन हैं?
वे सब पहले भारतीय ही थे, हिंदू ही थे और आजकल जिन्हें मुसलमान कहा जाता है। अरब, ईरान, तुर्कीए और अफगानिस्तान से आनेवाले फौजियों और सूफी संतों की संख्या कितनी थी? अब तो उनकी संतान कौन है और कौन नहीं, यह पता लगाना भी लगभग असंभव है। वे विदेशी लोग आटे में नमक की तरह एक-मेक हो गए हैं। इसीलिए संघ-प्रमुख मोहन भागवत ठीक ही कहते हैं कि हिंदु और मुसलमानों का डीएनए तो एक ही है।
यही बात कुछ नए ढंग से महमूद मदनी कहने की कोशिश कर रहे हैं। भारत के हिंदू लोग जिस ‘हिंदू’ शब्द को बड़े गर्व से अपने लिए बोलते हैं, वह भी उन्हें विदेशी मुसलमानों का ही दिया हुआ है। भारत के किसी भी प्राचीन ग्रंथ में ‘हिंदू’ शब्द कहीं नहीं आया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अडानी समूह के तथाकथित भांडाफोड़ पर हमारी संसद का पूरा पिछला हफ्ता खप गया लेकिन अभी तक देश के लोगों को सारे घपले के बारे में कुछ भी ठोस जानकारी नहीं मिली है। हालांकि अडानी समूह ने सैकड़ों पृष्ठों का खंडन जारी करके दावा किया है कि उसने कोई गलत काम नहीं किया है। उसका सारा हिसाब-किताब एकदम साफ-सुथरा है। भारत के रिजर्व बैंक ने भी नाम लिये बिना अपने सारे लेन-देन को प्रामाणिक बताया है लेकिन आश्चर्य है कि भारत सरकार से अभी तक इस मुद्दे पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के भाषण पर हुई बहस का जवाब देते हुए हमेशा की तरह काफी आक्रामक भाषण दिया और कांग्रेस की लगभग मिट्टी पलीत कर दी लेकिन अडानी-समूह के बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं बोला। यही बात शक पैदा करती है कि कहीं दाल में कुछ काला तो नहीं है? राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने मोदी पर कई गंभीर आरोप लगाए और मोदी-अडानी सांठ-गांठ के कई उदाहरण भी दिए लेकिन एक मूल बात पर ध्यान देना जरूरी है।
वह यह कि भारत-जैसे देश में क्या आर्थिक उन्नति के लिए यह जरुरी नहीं है कि सरकार और उद्योगपतियों के बीच घनिष्ट सामंजस्य बना रहे। पं. नेहरु की समाजवादी सरकार के दौरान भी टाटा, बिड़ला, डालमिया आदि समूहों की नजदीकी का पता किसे नहीं था? अडानी और अंबानी समूह कांग्रेस-राज के दौरान ही आगे बढ़े और मोदी-राज में अब वे दौड़ने भी लगे। दोनों समूह गुजराती हैं और हमारे दोनों भाई- नरेंद्र मोदी और अमित शाह- भी गुजराती ही हैं।
इनका संबंध परस्पर थोड़ा घनिष्ट और अनौपचारिक भी रहा हो सकता है लेकिन यह देखना बेहद जरूरी है कि इन उद्योगपतियों को आगे बढ़ाने में कहीं गैर-कानूनी हथकंडों का सहारा तो नहीं लिया गया है? ये गैर-कानूनी हथकंडे इसलिए भी आसान बन जाते हैं कि हमारी भ्रष्ट नौकरशाही को संबंधों की फुलझड़ी दिखाकर पटाना कहीं अधिक आसान होता है। अडानी-समूह को अरबों रु. का धक्का लगभग रोज़ ही लगता जा रहा है।
यदि लाखों शेयरधारकों की गाढ़ी कमाई बहने लगी तो वह गुस्सा मोदी सरकार पर ही फूट पड़ेगा। विदेशी उद्योगपति और पूंजीपति भी प्रकंपित हो जाएंगे। इसीलिए बेहतर होगा कि सरकार पर जो कीचड़ उछल रहा है, वह उसकी उपेक्षा न करे। अभी तो दिवालिया विपक्ष ही इस कीचड़ को उछाल रहा है लेकिन यह कीचड़ यदि जनता के बीच उछलने लगा तो उसमें से उगा हुआ कमल मलिन हुए बिना नहीं रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले हफ्ते दुबई में मुझे कई अफगान और पाकिस्तानी मिले। सब के सब पाकिस्तान के हालात पर बहुत परेशान दिखे। आर्थिक दृष्टि से तो पाकिस्तान का संकट सारी दुनिया को पता चल ही गया है लेकिन अभी-अभी वहां के मानव अधिकार आयोग की जो ताजा रपट आई है, उसे देखने से पता चलता है कि पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों- हिंदुओं, ईसाइयों, सिखों, शियाओं और अहमदिया लोगों की हालत कितनी बुरी है। उनके मंदिरों, गिरज़ों, गुरूद्वारों और मस्जिदों के जलाए जाने की खबरें तो टीवी चैनलों और अखबारों में छपती ही रहती हैं। वे छिपाए भी नहीं छिपती हैं।
लेकिन वहां गैर-मुस्लिमों को मार-मारकर जो मुसलमान बनाया जाता है, उसके बारे में जो ताजा तथ्य और आंकड़े सामने आए हैं, उनसे पाकिस्तान ही नहीं, इस्लाम की भी छवि मलिन होती है। पाकिस्तानी मानव अधिकार आयोग ने दावा किया है कि अकेले सिंध प्रांत में एक साल में 60 जबरन धर्मांतरण के किस्से सामने आए हैं। ये तो वे किस्से हैं, जो सामने आए हैं। जो सामने नहीं आते हैं, वो किस्से कई गुना ज्यादा हैं। पूरे पाकिस्तान में जबरन मुसलमान बनाए जानेवालों की संख्या हर साल सैकड़ों में होती है।
इनमें ज्यादातर 14 से 20 साल की हिंदू लड़कियां होती हैं, जिनका या तो अपहरण कर लिया जाता है या जिनसे बलात्कार किया जाता है। इनसे शादी करनेवाले मुसलमानों की उम्र इनसे प्रायः दुगुनी-तिगुनी होती है। इसे क्या हम धर्म-परिवर्तन कहेंगे? यदि कोई स्वेच्छा से समझ-बूझकर अपना धर्म बदलना चाहे तो उसे ही धर्म-परिवर्तन कहा जा सकता है लेकिन यह तो अधार्मिक बलात्कार है। जो लोग यह अधार्मिक बलात्कार करते हैं, क्या उन्हें इस्लाम के सिद्धांतों से कुछ लेना-देना है? बिल्कुल नहीं।
वे इस्लाम के नहीं, अपनी वासना के गुलाम हैं। ऐसे लोगों को दंडित करना किसी भी इस्लामी राज्य का पुनीत कर्तव्य है लेकिन पाकिस्तान में इसका उल्टा होता है। वासना या अंधभक्ति से प्रेरित ऐसे लोगों को दंडित करने की बजाय पाकिस्तान का कानून ‘इस्लामद्रोहियों’ को मौत की सजा देने को तैयार रहता है। इस्लामद्रोहियों को धर्मद्रोही कहा जाता है और उन्हें फांसी पर लटका दिया जाता है। अदालत और सरकारें तो उनके खिलाफ बाद में कार्रवाई करती हैं। उनके पहले ही इस्लामप्रेमी लोग उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं।
उन्होंने इस्लाम जैसे क्रांतिकारी मजहब को, जिसने अरबों के अंधकारमय जीवन में रोशनी लाई थी, अब शुद्ध पोंगापंथ का रूप दे दिया है। इस्लाम के नाम पर क्या-क्या नहीं चल पड़ा है? पाकिस्तान यदि इस्लामी राष्ट्र है, जैसा कि वह दावा करता है तो वहां हर बड़े घर में शराबखाने क्यों खुले हुए हैं? बेगुनाह लोगों की हत्या क्यों की जाती है? पाकिस्तान दुनिया का सबसे भयंकर आतंकवादी देश क्यों बन गया है? क्या वजह है कि अब दुनिया के कई मालदार इस्लामी राष्ट्र भी पाकिस्तान की डूबती हुई आर्थिक नय्या को उबारने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं? (नया इंडिया की अनुमति से)
-अजीत साही
छह हफ्ते पहले अडानी का शेयर लगभग चार हज़ार दो सौ रुपए था। कल यानी बुधवार को ये शेयर बाइस सौ रुपए था। यानी छह हफ़्ते पहले का कऱीब आधा।
लेकिन ख़बर वाले चिल्ला रहे हैं कि अडानी के शेयर में तेज़ उछाल आया है। उसकी वजह ये है कि परसों ये शेयर कऱीब एक हज़ार रुपए तक पहुँच गया था। तब से लगभग दोगुना बढ़ा है।
आखिर क्यों बढ़ा है? क्या अडानी वापस चार हज़ार पर पहुँच जाएगा?
पहले सवाल का जवाब देखते हैं।
भारत एक अपराधी समाज है। उसका क़ानून से कोई लेना देना नहीं है। शेयर बाज़ार का तो बिल्कुल नहीं है। शेयर की खऱीद-फऱोख्त वाले चाहे हमारे आपके जैसे फुटकर लोग हों या बड़े बड़े बैंक और पूँजीपति निवेशक, उनको इससे मतलब नहीं होता है कि कंपनी में कितना दम है, कि वो कितनी कमाई कर रही है, कि उसका भविष्य कितना उज्ज्वल है। उनको सिर्फ़ इससे मतलब है कि कंपनी का वैल्यूएशन कितना है।
भारत में किसी कंपनी के वैल्यूएशन के बढऩे में बैंकों से मिले कर्ज़़े का बड़ा हाथ होता है। क्योंकि कर्ज़ा पाकर कंपनी की बैलेंस शीट मोटी हो जाती है। बाक़ी तो हवा-हवाई बातें छाप कर भारत की कंपनियाँ ख़ूब गोली देती हैं। कि हम पाँच साल में यहाँ होंगे, दस साल में वहाँ होंगे। सच्चाई किसी को नहीं पता होती है।
मैं तो सालों से ज्यादातर कंपनियों के वित्तीय परिणाम पर भी यकीन नहीं करता हूँ। जिस देश में ऊपर से नीचे हर प्राणी झूठ बोलता हो उसका व्यापारी सच बोलेगा ये तो मूर्ख ही मानेगा। अडानी प्रकरण खुलने पर ये सामने आया है कि अडानी जैसे अरबपति की लेखा परीक्षा भी फर्जी कंपनी से हो रही थी। और कोई सवाल पूछने वाला नहीं है। तो बाकी कंपनियों का क्या हाल होगा ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
पंद्रह दिन पहले अडानी के शेयर बेतहाशा गिरने शुरू हुए। इसलिए नहीं क्योंकि उसकी बेईमानी उजागर हो गई। बेईमान तो इंडिया में हर कोई है। शेयर इसलिए गिरे कि अपराध सामने आ जाए तो सवाल खड़ा हो जाता है कि अब क्या होगा। क्या इसको नुक़सान होगा? क्या ये फँस गया? कोई ये नहीं सोच रहा था कि इसे अपराध की सज़ा मिलनी चाहिए। अडानी अकेला बेईमान तो है नहीं। फिर निवेशक क्यों चाहेगा कि वो फँसे?
शेयर आज इसलिए बढ़े क्योंकि संसद में मोदी के भाषण के बाद सबको समझ आ गया है कि ये सरकार पूरी तरह अडानी को बचा लेगी। उसका बाल भी बाँका नहीं होगा। उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। उसके खिलाफ़ केस होना तो दूर उसको सिस्टम का हर जर्ऱा बचाने के लिए तैयार खड़ा है। बस, निवेशक को यही आश्वासन तो चाहिए। जब अपराध ही सामाजिक मूल्य बन जाए तो फिर नीति और विवेक गंगाजी में बह जाता है।
अब दूसरा सवाल- क्या अडानी के शेयर वापस चार हजार तक पहुँचेंगे?
ये इस पर निर्भर करेगा कि विदेशी बैंक अडानी से वापस मुहब्बत करेंगे कि नहीं। फिलहाल तो ये मुश्किल दिखता है। वजह ये कि अडानी का कारोबार ताश के पत्ते का है। अंदरूनी हालत ख़स्ता है क्योंकि उसने अपना ही पैसा दो नंबर के रास्ते बाहर भेज कर दोबारा अपनी कंपनी में लगा कर अपने शेयर का दाम और वैल्यूएशन आर्टिफिशियली बढ़ाया है। इसे ही हिंडनबर्ग ने लेखा धोखाधड़ी और शेयर हेरफेर कहा है। तो भारतीय कंपनियों और बैंकों में ये सब आम है। दिन रात हम पढ़ते हैं कि बैंकों के लाखों करोड़ों डूब गए। क्योंकि यहां कोई कानून का पालन तो तो होता नहीं है। सब मिलकर खा रहे हैं। क्या बैंक मैनेजर, क्या नेता, क्या व्यापारी। देखने वाला कौन है?
लेकिन पश्चिम के बैंक सरकारी नहीं हैं। वो प्राइवेट हैं। उन्हें नफा नुकसान दिखाना होता है। उनको समझ आ गया है कि अडानी का पराक्रम अंदर से खोखला है। एक न एक दिन इसका भंडाफोड़ होगा और ये ध्वस्त होगा। और ये भी कि कंपनी का वैल्युएशन फर्जी है। तो मुनाफ़ा नहीं होगा। इसलिए पश्चिमी बैंक और निवेशक अडानी से दूर भागेंगे।
फिलहाल तो ये है कि अडानी के पास उतने पैसे नहीं हैं जितने वो दावे कर रहे थे। तो धंधे में पैसा लगाने में किल्लत आएगी जिसके आसार दिखने शुरू हो गए हैं। और दूसरी ओर कंपनी ने कर्ज़ा भरपूर ले रखा है। तो कर्ज़ा तो चुकाना ही होगा।
देखते जाइए।
- संजय श्रमण
संत रैदास और संत कबीर को गौर से देखिए। वे गौतम बुद्ध और गोरखनाथ की परंपरा से आते हैं। इनकी वाणियों में जो विद्रोह है वह काल्पनिक ईश्वर के खिलाफ रचा गया विद्रोह है।
एक काल्पनिक और सगुण ईश्वर की आवश्यकता राजाओं और राजसत्ताओं को होती है ताकि वे ईश्वर से अपने ‘निजी’ संबंधों की घोषणा करते हुए राज्य और जनता के बीच के संबंधों को मनचाहे ढंग से चला सकें। इस पूरे खेल में ईश्वर का प्रवक्ता अर्थात पुरोहित या पुजारी सारे खेल को अंजाम देता है। राजा इस प्रवक्ता को सुरक्षा और धन देता है। इस प्रकार ईश्वर, राजा और पुरोहित का यह मॉडल कृषि आधारित एवं नगरीय जीवन का सबसे सफल मॉडल बन गया है। आजकल इस मॉडल में राजा की बजाय राजनेता आ गया है और एक नया किरदार भी या घुसा है वह है – व्यापारी। पहले शस्त्र की ताकत चलती थी अब धन की ताकत चलती है।
कबीर और रैदास इसी मॉडल को तोड़ने निकले हैं। बुद्ध और महावीर के जमाने में जबकि जीवन सरल था, ईश्वर का जन्म नहीं हुआ था और बड़े राजतंत्रों का उदय हो रहा था, उस समय इस मॉडल के खतरों की तरफ इशारे किए जाने लगे थे। गौतम बुद्ध के घर छोड़कर जंगल जाने का कारण ही यही था कि गणतंत्रों के संघों में जो फूट नजर आने लगी थी उसे रोका जाए। बाद में गौतम बुद्ध के जो वचन हैं उनमें व्यक्तिगत मोक्ष से सामाजिक मुक्ति की तरफ जाने का साफ इशारा दिखाई देता है। गौतम बुद्ध से पहले व्यक्तिगत और सामाजिक का उतना स्पष्ट विभाजन नजर नहीं आता।
श्रमण परंपरा जिस पृष्ठभूमि में जन्म लेती है वह कृषि प्रधान समाज है जो प्रकृति के नजदीक जी रहा है और सामूहिक और व्यक्तिगत में बहुत अधिक अंतर नहीं है। इसीलिए ऐसे समाजों को ईश्वर की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। इसीलिए बुद्ध महावीर और उनके पहले की तांत्रिक और भौतिकवादी परंपराओं में ईश्वर और राजा के वैसे संबंध नहीं हैं जो व्यक्ति की वासना के लिए समूह के शोषण की मशीनरी का आविष्कार कर सकें। तंत्र का और भौतिकवाद का पूरा प्रोजेक्ट सामूहिक जीवन और ईश्वर के जन्म के पहले की पृष्ठभूमि में चल रहा है। भौतिकवाद में और तंत्र में किसी ईश्वर की जरूरत नहीं होती, ये वे विचारधाराएं हैं जो ईश्वर और राज्य के जन्म से पहले आकार ले चुकी थीं।
इसके बाद आर्यों का आगमन होता है उनके घोड़ों की पीठ पर लोहे की तलवार और काल्पनिक ईश्वर की कहानियाँ लिए आर्य भारत को रौंदना शुरू करते हैं। गौतम बुद्ध और महावीर की परंपराओं वाले भारत में आर्यों की तलवार और उनके ईश्वर के अंधविश्वास का जादू काम करने लगता है। पूरे उपमहाद्वीप में इसी समय कृषि की उपज या पशुधन अब सामूहिक संपत्ति काम और व्यक्तिगत संपत्ति अधिक बनने लगती हैं। ऐसे में व्यक्ति की संपत्ति के आने के साथ ही व्यक्ति का व्यक्तिगत ईश्वर भी जरूरी नजर आने लगता है।
ठीक इसी समय राजतंत्रों का उदय हो रहा है और राजा को खुद के लिए और अपने बेटे के राजतिलक के लिए ईश्वरीय आज्ञाओं की जरूरत महसूस होने लगती है। इन काल्पनिक आज्ञाओं के प्रचार से प्रजा को मूर्ख बनाने के लिए “ईश्वर आधारित धर्म” का नया प्रोजेक्ट भारत में शुरू होता है। यह प्रोजेक्ट पहले यूरेशीया में अब्राहमिक धर्मों ने लागू कर के देख लिया था। यूरेशीया और मिडिल ईस्ट की सफलता अब भारत में दोहराई जाने लगती है।
इसी के साथ वर्ण और जाति का विभाजन उस रूप मे नजर आने लगता है जिसके खिलाफ बुद्ध उठ खड़े हुए थे। बुद्ध के बाद इस वर्ण और जाति के खिलाफ उठ खड़े होने वाले लोगों की एक लंबी शृंखला है। वर्ण और जाति असल मे राजनीतिक उपकरण हैं जो उत्पादन के तरीकों के बदलने के बाद राज्य और राजा की सुरक्षा के लिए निर्मित हुए, और इस पूरी डिजाइन को वैधता देने के लिए ईश्वर को पैदा किया गया। वह ईश्वर जो की भारत के मूल धर्मों में कभी था ही नहीं, लेकिन बाद मे धीरे धीरे ईश्वर का वाइरस भारत के मूल प्राचीन धर्मों में भी घुस जाता है।
यह ईश्वर घोड़े और तलवार से भी ज्यादा ताकतवर साबित होता है। इसके आने के बाद पर शोषण की मशीन बहुत तेजी से काम करने लगती है और स्वर्ग नरक सहित मोक्ष पुनर्जन्म और पाप पुण्य की परलोकवादी व्याख्याओं का जन्म होता है। हर परंपरा के दार्शनिक चूंकि राज्य और राजसत्ता के अधीन जी रहे थे इसलिए अधिकांश विचारकों और दार्शनिकों ने ईश्वर का पक्ष लिया।
नई परिस्थितियों में ईश्वर के प्रति विद्रोह का मतलब होता था राज्य और राजा से विद्रोह।
इसीलिए बाद के ईमानदार और क्रांतिकारी दार्शनिकों ने राज्य की कृपा पाने से इनकार कर दिया और वे भयानक गरीबी में जीने लगे। याद रखिए, राज्य और ईश्वर के खिलाफ अमीर आदमी कभी खड़ा नहीं हो सकता। इसीलिए कबीर और रैदास पूरी तरह गरीबी में जीने लगते हैं और ईश्वर और राज्य के षड्यंत्रों के खिलाफ हल्ला बोल देते हैं।
रैदास की क्रांति को इस बिन्दु से समझना शुरू कीजिए। इस भूमिका में जाए बिना आप नहीं समझ पाएंगे कि कबीर और रैदास जिस निर्गुण की बात कर रहे हैं वह आर्य-ब्राह्मणों के ईश्वर से कैसे भिन्न है। आर्य-ब्राह्मणों का ईश्वर शोषण की मशीन की वह बिजली है, जिससे यह मशीन चलती है।
कबीर और रैदास इसी बिजली का तार काट देना चाहते हैं। रैदास जिस निर्गुण की बात करते हैं वह ब्राह्मणों का ईश्वर नहीं है। रैदास का निर्गुण असल में आर्यों के ईश्वर के जन्म से पहले भारत में मौजूद था। बहुत सारी परंपराओं में मानव समाज और प्रकृति के बीच के रिश्तों पर आधारित धर्मों का अस्तित्व रहा है। इन धर्मों में ईश्वर की बजाय प्रकृति और सामूहिक जीवन के शुभ को जीवन के आदर्श की तरह खड़ा किया गया है।
रैदास का निर्गुण असल में सगुण ईश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं है, बल्कि यह ईश्वर मात्र की धारणा के खिलाफ विद्रोह है। कबीर भी यही काम कर रहे हैं। गोरखनाथ भी इन दोनों के पहले इसी जंग में शहीद हो चुके हैं और गुरु नानक बाद में आकर इसी मैदान में मोर्चा संभालते हैं।
इन सबके बाद बाबा साहेब अंबेडकर आते हैं और इस ईश्वर सहित इसके पुजारियों के रचे हुए जाल के साथ आखिरी और निर्णायक लड़ाई छेड़ते हैं। बाबा साहेब एक नई रणनीति अपनाते हैं, वे इस ईश्वर रूपी सांड को गोरख, कबीर या रैदास की तरह सीधे सीधे उसके सींग से नहीं पकड़ते, बल्कि उसकी पूँछ से पकड़ते हैं। ईश्वर का पुजारी और उस पुजारी के रचे हुए शास्त्र ही ईश्वर की पूंछ है जिसे आसानी से पकड़ा जा सकता है।
इसीलिए बाबा साहेब अंबेडकर ईश्वर के सींग अर्थात राज्य और परलोक की बजाय उसकी पूंछ अर्थात उसके सामाजिक आचार शास्त्र से पकड़ते हैं। सौभाग्य से बाबा साहेब के जमाने मे ब्राह्मणों के ईश्वर का सींग अंग्रेजों ने बहुत पहले ही तोड़ दिया था। इसलिए बाबा साहेब को ब्राह्मणी राज्य और ईश्वर से सीधे सीधे टकराने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई।
कबीर और रैदास की तुलना में बाबा साहेब नए जमाने की जरूरत के अनुसार ईश्वर के बाजार में आग लगाते हैं। ईश्वर नाम के वायरस के काम करने के ढंग को समझकर उसके खिलाफ निरीश्वरवादी धर्म का टीका डिजाइन करते हैं। वह टीका बौद्ध धर्म है।
गौतम बुद्ध से रैदास और रैदास से बाबा साहब तक की यात्रा को इस तरह से देखिए, आपको भविष्य का रास्ता अपने आप नजर आने लगेगा। लेकिन अगर आप वेदांती बाबाओं और ओशो रजनीश स्टाइल धूर्तों की किताबों से रैदास को समझने चलेंगे तो आप वेदान्त के दलदल में फिर से फंस जाएंगे। वेदांती बाबा आपको आगे का नहीं बल्कि सतयुग का रास्ता दिखाएंगे।
रैदास और कबीर को ठीक से समझना है तो इनके काम को गौतम बुद्ध और बाबा साहब अंबेडकर के बीच में रखकर देखिए। गौतम बुद्ध से बाबा साहेब तक और बाबा साहब से गौतम बुद्ध तक जो विराट सर्कल पूरा हो रहा है उसके बीच में गोरखनाथ, कबीर और रैदास को रखिए।
तब आप देख पाएंगे कि कबीर और रैदास ब्राह्मणों के ईश्वर के भक्त नहीं हैं बल्कि उस ईश्वर के बनाए हुए यातना शिविर और डिटेन्शन कैंप में आग लगा देने वाले क्रांतिकारी हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तुर्किए और सीरिया में आए भूकंप ने सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। ऐसे भूकंपों ने ईरान, अफगानिस्तान और नेपाल जैसे पड़ौसी देशों में भी कई बार हड़कंप मचाया है लेकिन वर्तमान भूकंप में लगभग 10 हजार लोग मारे गए हैं और लाखों लोग घायल हो गए हैं। बेघरबार हुए लोगों की संख्या तो और भी बड़ी है। आशा करें कि अभी कोई और झटका न आ जाए। इस वक्त दुनिया के कई देश तुर्किए की मदद के लिए आगे आ रहे हैं लेकिन भारत ने इस मामले में जितनी फुर्ती और दरियादिली दिखाई है, उसने उसे दुनिया के महान राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा कर दिया है।
तुर्किए और भारत के रिश्ते पिछले कुछ वर्षों में बहुत अच्छे नहीं रहे। तुर्किए ने भारत सरकार के उन कदमों का कड़ा विरोध किया था, जो उसने कश्मीर के बारे में उठाए थे। उसने कश्मीर के सवाल पर अन्य मुस्लिम राष्ट्रों को भड़काने का भी प्रयत्न किया था जबकि सउदी अरब जैसे राष्ट्रों ने इस मुद्दे को भारत का आंतरिक मामला बताया था लेकिन भारत सरकार ने इस वक्त तुर्किए के मजहबी जूनून को दरकिनार करके इंसानियत के दरवाजे खोल दिए हैं। चार-चार चार्टर जहाजों से उसने लगभग 100 डाॅक्टरों और नर्सों को अंकारा और इस्तांबूल भेज दिया है।
उसने ऐसे बचावकर्मियों को भी बड़ी संख्या में वहां भेजा है, जो मलवे में दबे लोगों की जान बचाने की कोशिश करेंगे। ऐसी ही मदद हमारी सरकारों ने 2011 में जापान और 2015 में नेपाल में जब भूकंप आया था, तब तुरंत मदद भिजवाई थी। तुर्किए के राष्ट्रपति रिसेप तय्यब एर्दोगन ने दिल्ली में हुए दंगों पर एकतरफा भर्त्सना करने का दुस्साहस दिखाया था लेकिन हमारी सरकार ने तुर्किए की मदद करते समय हिंदू-मुसलमान का कोई भेद नहीं किया। इससे मोदी सरकार की छवि भारत के अल्पसंख्यकों में भी सुधरेगी।
भारत और तुर्किए के प्रतिनिधियों की संयुक्तराष्ट्र संघ में टक्कर होती रही है लेकिन पिछले साल सितंबर में समरकंद में हुए शांघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में जब मोदी और एर्दोगन की भेंट हुई तो आपसी संबंधों में काफी नरमी पैदा हो गई। मैं इसीलिए बराबर तर्क देता रहता हूं कि यदि इस वक्त हम पाकिस्तान की संकटग्रस्त जनता की मदद के लिए हाथ बढ़ा दें तो दोनों देशों के संबंधों में अपूर्व सुधार हो सकता है।
दिल्ली स्थित तुर्किए के राजदूत फिरत सुनेल ने भारतीय मदद के बारे में क्या खूब कहा है कि ‘‘दोस्त वही होता है, जो आड़े वक्त काम आता है।’’ तुर्किए को अगर जरूरत हो तो भारत अपनी मदद बढ़ा सकता है। अन्य संपन्न देशों को भी उसकी मदद के लिए वह प्रेरित कर सकता है। उसकी यह पहल दुनिया के सभी मुस्लिम राष्ट्रों में भारत के प्रति आदर की भावना को जगाएगी। तुर्किए में आए इस भयंकर भूकंप से भारत को भी सबक लेना होगा, क्योंकि भारत में छोटे-मोटे भूकंप आते ही रहते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
विश्व के असाधारण नाटककार और कवि विलियम शेक्सपियर ने ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ नाम का हास्य नाटक भी लिखा था। उसमें सभी प्रमुख चरित्रों के दोहरे चेहरे बार बार दृश्य पटल पर लटक आते हैं। दर्शक या पाठक को नाटक की थीम के साथ जुडक़र हंसने और गुदगुदी खिलाने का काफी मौसम मिलता है। इसी नाटक पर आधारित कॉमेडी फिल्म ‘अंगूर’ बनी थी जिसने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया था। छत्तीसगढ़ में आरक्षण विवाद को लेकर मुख्य किरदारों के परेशान दिमाग चरित्रों को पढ़ते हुए और ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ की याद आना स्वाभाविक है।
किस्सा कोताह यह है कि 19 सितंबर, 2022 को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के आरक्षण संबंधी 2012 के राज्य के संशोधन विधेयक को दो तीन आधारों पर खारिज कर दिया था। पहला यह कि कुल आरक्षण सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले इंदिरा साहनी में की गई बंदिष के कारण 50 प्रतिशत से ज्यादा सामान्य तौर पर नहीं हो सकता। दूसरा यह कि राज्य सरकार अर्थात् भाजपा सरकार ने 2012 में संशोधन विधेयक पारित करने के बावजूद क्वांटिफाइबल डाटा (परिमाणात्मक आंकड़े) संतोषजनक ढंग से नहीं बनाए कि किस तरह कमजोर वर्गों को आरक्षण की ज़रूरत है। कितने पद खाली हैं और सरकार द्वारा प्रस्तावित संख्या में नियुक्त कर दिए जाने से प्रशासकीय स्तर कैसे कायम रहेगा। मजा यह है कि बहस तो कांग्रेस सरकार के वक्त हुई जिसके कानूनी कर्ताधर्ताओं ने भी यह देखने की जहमत नहीं उठाई कि भाजपा सरकार के फैसले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में दिए गए निर्देषों का ठीक से पालन नहीं हुआ है। भाजपा की आधी अधूरी वर्जिश की ताईद करते कांग्रेसी वकीलों ने बहस कर दी। नतीजा पुनर्मूशको भव रहा। चीफ जस्टिस ने साफ कहा कि सरकार संतुष्ट करने में असमर्थ रही है। संवैधानिक सलाह पाकर छत्तीसगढ़ सरकार ने दुबारा संशोधन विधेयक 2022 पारित किया। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ स्थगन नहीं मिलने के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट में आखिरी बहस में भी हाईकोर्ट का फैसला कायम रह जाने की संभावना रही होगी। दुबारा संशोधन करने से राज्य सरकार को उम्मीद रही होगी कि औपचारिक रूप से राज्यपाल द्वारा उस पर हस्ताक्षर कर दिया जाएगा।
पेंच यहीं पर अटक गया। राज्यपाल को राज्य सरकार के विधायी आचरण से शायद संतुष्टि नहीं हुई। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट निर्णयों के निर्देषों के प्रकाश में कई तरह के स्पष्टीकरण मांगे। स्पष्टीकरण की मांग को पब्लिक डोमेन में नहीं आना चाहिए था लेकिन उसे छबि बरकरार करने के कारण लाया गया। राज्य सरकार ने जो जवाब दिया उसमें संविधान के उसी अनुच्छेद 163 पर निर्भर होना ही दिखा कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह से बिना किसी ना नुकुर के चलना होगा। अनुच्छेद 163 कहता है, ‘राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि-परिषद्-(1) जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे, उन बातों को छोडक़र राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद् होगी जिसका प्रधान, मुख्य मंत्री होगा।’ (2) यदि कोई प्रष्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं। (3) इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी, और यदि दी तो क्या दी। फिर शायद राज्यपाल की ओर से सवाल उछाला गया कि राज्यपाल ने तो केवल आदिवासी वर्गों के लिए ही दुबारा संषोधन विधेयक पारित करने की इच्छा जाहिर की थी क्योंकि आदिवासी वर्ग का आबादी के अनुपात में 32 प्रतिशत आरक्षण घटाकर 20 प्रतिशत हो गया था। सरकार और राजभवन के बीच गोपनीय पत्राचार मीडिया में भी उछलता रहा जो कतई मुनासिब परम्परा नहीं है। लोकप्रिय होने की हविश ने भी आग में घी डालने का काम किया। ऐसे गंभीर प्रश्नों को सडक़ के प्रदर्शनों पर डालने के साथ साथ मीडिया में वाहवाही लूटने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाए गए। राजभवन तक जनमार्च भी किया गया। भाजपा चुप कैसे बैठे? आग लगाए जमालो दूर खड़ी का मुहावरा उस पर भी चस्पा किया गया।
यह अनुभव में है कि राज्यपाल का पद हकीकत और व्यवहार में तो केन्द्र सरकार का किसी भी राज्य में एक्सटेंशन काउंटर ही हो जाता है। संविधान कहता रहे कि राज्यपाल एक स्वायत्त संवैधानिक इकाई है। राज्यपाल ने चुप्पी मार दी तब छत्तीसगढ़ सरकार को संवैधानिक सलाह और व्यूह रचना शायद दिल्ली से सिखाई गई होगी। क्योंकि बड़े मुकदमों के पैरवीकार तो वहीं रहते हैं। फिर सरकार और निजी व्यक्ति की ओर से हाईकोर्ट में हालिया याचिका दायर कराई गई कि राज्यपाल को लंबे वक्त तक केवल चुप बैठने का संवैधानिक क्षेत्राधिकार नहीं है। याचिका में राज्यपाल पर कई तरह के आरोप भी लगाए गए जो संवैधानिक भाषा में लिखने के बावजूद राजनीति की गंध से सराबोर हैं। अब जानकारी है कि राज्यपाल की ओर से हाईकोर्ट की नोटिस का कोई जवाब नहीं दिया जाना है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 361 के अनुसार (1) राष्ट्रपति अथवा राज्य का राज्यपाल या राजप्रमुख अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिए या उन शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने द्वारा किए गए या किए जाने के लिए तत्यार्पित किसी कार्य के लिए किसी न्यायालय को उत्तरदायी नहीं होगा।
राज्यपाल की ओर से सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक पीठ के एक निर्णय रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ पर भरोसा किया जा रहा है। राज्यपाल के खिलाफ उनके तहत कार्य कर रही सरकार द्वारा ही हाईकोर्ट में मामला दायर करना एक अजीबोगरीब संवैधानिक परिस्थित है। अनुच्छेद 154 (1) कहता है ‘राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।’ लगता नहीं कि हाईकोर्ट कुछ कर पाएगा। ऐसी संवैधानिक पेचीदगियों का अंतिम निराकरण हाईकोर्ट के एकल जज द्वारा तो क्या दूसरी बड़ी पीठ द्वारा भी किया जाने की संवैधानिक संभावना या परम्परा दिखती नहीं। मामले में केन्द्र सरकार को भी पक्षकार बनाए जाने से गेंद अब केन्द्र सरकार के पाले में भी है। राज्य के विधेयक को संविधान की नौवीं अनुसूची में जगह दिलाने का राज्य सरकार का इरादा बिना संसद की मंजूरी के वैसे भी नहीं हो सकता। बेचारा आरक्षण तो हाशिए पर चला गया। राजनीतिक मल्ल युद्ध के लिए अखाड़े की धरती तैयार हो रही है। इसी साल विधानसभा के चुनाव भी हैं। इसलिए वोट बैंक पर पकड़ की अहमियत संविधान के प्रति निष्ठा से कहीं ज्यादा राजनेताओं को होगी।
विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर राज्यपाल का कितना अधिकार होना चाहिए। इस पर संविधान सभा में बहस हुई थी। ब्रजेश्वर प्रसाद ने कहा था कि राज्यपाल को किसी विधेयक को स्वविवेक से नामंजूर करने की शक्ति प्राप्त होनी चाहिए, चाहे विधानसभा ने उसे एक बार पारित किया हो या दो बार।
उन्होंने कहा था कि मैं जानता हूं कि यह प्रस्ताव लोकतन्त्रात्मक प्रवृत्तियों से असंगत है। लोगों का यह विश्वास है कि वे लोकतन्त्र के युग में जीवन व्यतीत कर रहे हैं, किन्तु मेरी यह धारणा है कि हमारा युग निरंकुश सत्ताधारियों का युग है। कनाडा के संविधान में इस प्रकार का प्रावधान है। देश के राजनैतिक जीवन को देखते हुए चाहता हूं कि हमारे संविधान में भी इस प्रकार का उपबन्ध होना चाहिए। यदि राष्ट्रपति और राज्यपाल को किसी विधेयक को नामंजूर करने की शक्ति प्राप्त होगी तो विघटनकारी विधेयक पारित नहीं हो सकेंगे। देश में विघटनकारी विधेयकों के पारित होने की बहुत आशंका है। यह आशंका काल्पनिक नहीं है बल्कि वास्तविक है। मैं यह भी चाहता हूं कि राज्यपाल इस अस्वीकार करने की शक्ति का अमूमन ही प्रयोग करते ही रहें। प्रदेश के मंत्रियों पर मेरा विश्वास नहीं है। राज्यपाल कोई बाहर का आदमी नहीं होगा। वह भारत सरकार का प्रतिनिधि होगा। उसकी राय प्रान्त के किसी अन्य प्राधिकारी की राय से श्रेष्ठ समझी जानी चाहिए। उनसे असहमत प्रोफेसर शिब्बनलाल सक्सेना ने कहा था मैं जानता हूं कि राज्यपाल पद पर राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित व्यक्ति होगा, किन्तु यह हो सकता है कि किसी प्रदेश में जो दल सत्ता में हो, वह केन्द्र में सत्ताधारी दल से अलग हो और राष्ट्रपति उस दल का व्यक्ति न हो। इसलिए मेरे विचार से यह एक बहुत ही गलत सिद्धान्त है कि राज्यपाल को विधानसभा की (और विधान परिषद्) की इच्छा के विरुद्ध कदम उठाने दिया जाय। तब टीटी कृष्णमाचारी ने कहा था कि डॉ. अम्बेडकर ध्यान दिला चुके हैं, कि राज्यपाल किसी विधेयक को अपने संदेश के साथ सदन को स्वविवेक से नहीं लौटाएगा। अब राज्यपाल को स्वविवेक से कार्य करने की शक्ति नहीं प्राप्त है। यदि राज्यपाल किसी संशोधन विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाएगा तो वह मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से ही लौटाएगा। इससे उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल की शक्ति किसी प्रकार कम नहीं होती। न इस से राज्यपाल को ही अधिक शक्ति प्राप्त होती है।
निर्वाचित विधायिका के ऊपर राज्यपाल को एकाधिकार नहंीं हैं कि अधिकारों के प्रतिरोध के कारण संविधान को ही गतिरोध का सामना करना पड़े। राज्यपाल के अधिकारों में एक शब्द ‘यथाशीघ्र’ भी है। उसका आशय कई महीनों तक हस्ताक्षर नहीं करना तो नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त राज्यपाल के पद को राजनीति में घसीटा जाना भी कतई मुनासिब नहीं है। इससे संविधान की हेठी होती है। यह कई बार हुआ है कि राज्यपाल केन्द्र के एजेंट के तौर पर काम करते हैंं लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक व्याख्या की है कि राज्यपाल का पद स्वायत्त है। उस पर नियुक्त होने के बाद उन्हें केवल संवैधानिक आचरण करना चाहिए। हालांकि व्यवहार में ऐसा होता नहीं है क्योंकि केन्द्र सरकार तो राज्यपाल पद पर संवैधानिक ज्ञान के ही प्रतिनिधियों का मनोनयन नहीं करती है। कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ वह राज्य है जहां कांग्रेस भाजपा के मल्ल युद्ध के कारण अखाड़े में पिटना तो आदिवासी और अन्य उपेक्षित वर्गों को ही है। न तो उसके पास कोई बड़ा वकील है। न उनमें कोई जागरूक चेतना है। न ही राजनीतिक पार्टियों में उनकी हिस्सेदारी के लिए जम्हूरियत की चेतना है। आरक्षण प्रकरण में नायाब संवैधानिक आचरण की छटाएं देखने के बदले राजनीतिक पैंतरेबाजी को ही अगर सहारा बनाया जाएगा। तो संविधान बेचारा टुकुर-टुकर देखने के अलावा क्या करेगा। हालांकि संवैधानिक अधिकारों की हेठी और दुर्भावना दिखाई पडऩे पर संविधान न्यायालय लाचार नहीं होंगे।
-ध्रुव गुप्त
हमारे दौर में वैलेंटाइन डे या सप्ताह एक अजानी-सी चीज़ थी। हां, प्रेम की भावनाएं तो तब भी थीं, उबाल भी मारती थीं और यदाकदा व्यक्त भी होती थीं। हमारे स्कूल के दिनों में प्रेम के अंदाज़ अलग और तेवर ज़ुदा हुआ करते थे। इश्क़ का मतलब चाहे पता न हो, लेकिन ज़ांबाजी इतनी थी कि इश्क़ के ख़त तब स्याही से नहीं, खून से लिखे जाते थे। स्कूली दिनों में मैंने भी खून से ऐसा ही एक ख़त लिखकर अपनी एक सहपाठिनी को प्रोपोज़ किया था। ख़त 'ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर कि तुम नाराज़ ना होना' से शुरू हुआ और उस दौर के सबसे धांसू शेर के साथ अंजाम तक पहुंचा - लिखता हूं ख़त खून से स्याही न समझना / मरता हूं तेरे नाम पे जिंदा न समझना। तब जैसा आमतौर पर होता था, मेरा वह ख़त घूम-फिरकर क्लास टीचर के हाथों में पहुंच गया। फिर मेरे प्रणय-निवेदन का जो अवदान मिला, वह था कटी उंगली वाली हथेली पर सौ-पचास छड़ी और क्लास रूम के बाहर स्कूल की आखिरी घंटी तक मुर्गा बनकर अपनी उस निर्दयी प्रेमिका और उसकी सहेलियों का मनोरंजन। प्रेमिका थोड़ी ज्यादा 'कोमल-ह्रदय' थी सो चिट्ठी वाली बात घर तक भी पहुंचा दी गईं। फिर घर में भी इश्क़ का भूत झाड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। उफ़्फ़ कैसी तो जालिम होती थीं हमारे ज़माने की प्रेमिकाएं ! ऐसी दुर्दशा करवाने के बाद हमदर्दी का मरहम लगाना तो दूर, ससुरी हंसती हुई बगल से ऐसे निकल जाती थीं कि उस दौर का दूसरा सबसे लोकप्रिय शेर जुबान पर आ जाता था - आकर हमारी कब्र पे तुमने जो मुस्कुरा दिया / बिजली चमक के गिर गई सारा कफ़न जला दिया !
उसके बाद स्कूल-कॉलेज में जिस-जिसपर भी प्यार आया,वह अव्यक्त ही रहा। प्रणय-निवेदन का वैसा खूंखार प्रतिदान पाकर भला कौन दोबारा प्रोपोज करने का साहस जुटा पाएगा।
बहरहाल आप सभी मित्रों को 'प्रोपोज डे' की शुभकामनाएं !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दुबई के इस चार दिन के प्रवास में मेरा कुछ समय तो समारोहों में बीत गया लेकिन शेष समय कुछ खास-खास लोगों से मिलने में बीता। अनेक भारतीयों, अफगानों, पाकिस्तानियों, ईरानियों, नेपालियों, रूसियों और कई अरब शेखों से खुलकर संवाद हुआ। इस संवाद से पहली बात तो मुझे यह पता चली कि दुबई के हमारे प्रवासी भारतीयों में भारत की विदेश नीति का बहुत सम्मान है। हम लोग नरेंद्र मोदी और विदेश नीति की कई बार दिल्ली में कटु आलोचनाएं भी सुनते हैं लेकिन यहां तो उसका असीम सम्मान है।
संयुक्त अरब अमारात के टीवी चैनलों और अखबारों का स्वर भी इस राय से काफी मिलता-जुलता है। पड़ौसी देशों के प्रमुख लोगों ने, इधर मैं जो दक्षिण और मध्य एशिया के 16 देशों का जन-दक्षेस नामक नया संगठन खड़ा कर रहा हूँ, उसमें भी पूर्ण सहयोग का इरादा प्रकट किया है। मुझे यह जानकर और भी अच्छा लगा कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ प्रमुख लोगों ने भारत द्वारा काबुल को प्रेषित 50 हजार टन अनाज और दवाइयों की पहल की बहुत तारीफ की।
उनका सुझाव यह भी था कि इस संकट के वक्त यदि भारत पाकिस्तान की मदद के लिए हाथ बढ़ा दे तो पाकिस्तान की जनता मोदी की मुरीद हो जाएगी। यदि शाहबाज़ शरीफ और फौज मोदी की दरियादिली को नकार दें तो उनकी काफी किरकिरी हो सकती है। इसी प्रकार कई प्रमुख अफगान नेताओं ने मुझसे सुदीर्घ वार्ताओं में कहा कि वे भारत सरकार द्वारा दी गई मदद से तो अभिभूत हैं ही, लेकिन वे ऐसा मानते हैं कि अफगानिस्तान की अस्थिरता को यदि कोई मुल्क खत्म कर सकता है तो सिर्फ भारत ही कर सकता है।
अमेरिका और रूस ने अफगानिस्तान में फौजें भेजकर देख लिया, करोड़ों रूबल और डाॅलर उन्होंने वहां बहा दिए और बड़े बेआबरू होकर वे वहां से निकले। उनका मानना है कि अकेला भारत अगर पहल करे और अमेरिका के जो बाइडन या कमला हैरिस और ब्रिटेन के ऋषि सुनाक को अपने साथ जोड़ ले तो अफगानिस्तान में शांति और व्यवस्था कायम हो सकती है।
इन तीनों राष्ट्रों की संयुक्त पहल को मानने से न तो तालिबान इन्कार कर सकते हैं, न ही पूर्व अफगान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री और न ही पाकिस्तान! यूक्रेन के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री डाॅ. जयशंकर ने जैसा संतुलित रवैया अपनाया है, उसने विश्व राजनीति में भारत की छवि को चमका दिया है। इसी चमक का इस्तेमाल वह अपने पड़ौस के अंधेरे को दूर करने में क्यों न करे? (नया इंडिया की अनुमति से)