विचार/लेख
पढ़ें बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
राहुल गांधी का भाषण पहले केंब्रिज विश्वविद्यालय में हुआ, फिर ब्रिटिश संसद में हुआ और फिर लंदन के चेथम हाउस में हुआ। इन तीनों संस्थाओं में मैं पिछले 50-55 साल से जाता रहा हूं। मुझे आश्चर्य हुआ कि हमारे नेताओं में एक नेता इतना योग्य निकला कि इन विश्व-प्रसिद्ध संस्थाओं में भाषण देने के लिए उसे बुलाया गया। मेरा सीना गर्व से फूल गया। लेकिन सच यह है कि इन संस्थाओं के सभा-भवनों को कोई भी किराए पर बुक कर सकता है। राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं और सांसद हैं, इस नाते सरकार की आलोचना करने का उन्हें पूरा अधिकार है लेकिन यह काम बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए। ऐसी अतिवादी बातें नहीं कही जानी चाहिए जिनसे देश की छवि बिगड़ती हो, हालांकि भाजपा के प्रवक्ता जरूरत से ज्यादा परेशान मालूम पड़ते हैं।
उन्हें क्या यह पता नहीं है कि विदेशी लोग राहुल की बातों को उतना महत्व भी नहीं देते, जितना हमारी जनता के कुछ लोग दे देते हैं। राहुल की इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि भारत का लोकतंत्र खतरे में है। यदि भाजपा पर मोदी के शिकंजे की तरफ वे इशारा कर रहे हैं तो वह तो ठीक है लेकिन क्या नेहरु, इंदिरा और सोनिया-काल में ऐसा ही नहीं था। और अब तो कांग्रेस बिल्कुल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है। देश की सभी पार्टियां अब कांग्रेस के ही ढर्रे पर चल पड़ी हैं। इसके बावजूद देश में लोकतंत्र जिंदा है, इस सत्य का सबूत यह तथ्य है कि हर पांच-दस साल में इधर हमारी सरकारें उलटती-पलटती रही हैं। यदि भारत में तानाशाही होती तो राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी और छोटे-मोटे नेताओं के कई अनर्गल बयानों को क्या हमारे अखबार और टीवी चैनल प्रसारित कर सकते थे? लोकतंत्र की हत्या तो इंदिराजी के आपात्काल में ही हुई थी। क्या वैसी हालत आज भारत में है? राहुल को अमेरिका और यूरोप के देशों से यह कहना कि वे भारत के लोकतंत्र को बचाएं, अपनी हैसियत को हास्यास्पद बनाना है।
पता नहीं, हर भाषण के पहले राहुल को कौन अपरिपक्व सलाहकार गुमराह कर देता है? कांग्रेस खत्म हो रही है, कुछ भाजपाइयों का यह कहना अनुचित है। कांग्रेस का मजबूत होना भारत के लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है लेकिन राहुल का यह कहना कि संघ सांप्रदायिक और तानाशाही संगठन है, यह भी गलत है। संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने इधर मुस्लिम नेताओं, बुद्धिजीवियों और मौलानाओं को मुख्यधारा में लाने का जैसा प्रयत्न किया है, किसी पार्टी के नेता ने भी नहीं किया है। यह ठीक है कि संघ में आंतरिक चुनाव नहीं होते लेकिन राहुल बताए कि किस पार्टी-संगठन में आंतरिक चुनाव होते हैं? जिन संगठनों को आम चुनाव नहीं लड़ने हैं, उनके अंदर चुनाव अनिवार्य क्यों हों? क्या संघ कोई राजनीतिक पार्टी है? राहुल ने कहा कि संसद में उन्हें बोलने की अनुमति नहीं मिलती। कुछ हद तक यह ठीक है लेकिन आपके बोलने में कुछ दम तो होना चाहिए। विपक्ष को जितनी अनुमति मिलती है, क्या वह उसका सदुपयोग कर पाता है? मुझे याद है कि 1965-66 में डाॅ. राममनोहर लोहिया को संसद में 5 मिनिट का भी मौका मिलता था, तो भी उसी में इंदिरा सरकार को वे थर्रा देते थे। इस मौके पर मुझे अल्लामा इकबाल का एक शेर याद आ रहा है-
‘‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले।
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है।।’’ (नया इंडिया की अनुमति से)
कनक तिवारी
दिनांक 2 मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अनुच्छेद 324 की व्याख्या और पुनरर्चना करते फैसला किया। अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सीधे केन्द्र सरकार अर्थात प्रधानमंत्री के नियंत्रण से बाहर होकर तीन सदस्यों की सिफारिश के आधार पर की जाएगी। सिफारिश समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के चीफ जस्टिस होंगे। बेंच में न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ, अजय रस्तोगी, हृषिकेश राय और सी. टी. रविकुमार थे। जानना जरूरी है चुनाव आयोग संबंधी संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के अनुसार निर्वाचन आयोग, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और उतने अन्य निर्वाचन आयुक्तों से यदि, कोई हों, जितने राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे, मिलकर बनेगा। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति, संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
आजाद भारत में चुनाव आयोग की स्थापना और उसके जरिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुुनावों का संचालन करना लोकतंत्र की स्थापना और मजबूती के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। संविधान के निर्देश के बावजूद पिछले 70 वर्षों में संसद में चुनाव आयोग की स्थापना और उसके कर्तव्य पालन के कानून बनाने की जहमत नहीं उठाई गई। दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र में चुनाव केन्द्र सरकार के मुखिया के हुक्मशाही के तहत लगभग प्रतिबद्ध चुनाव आयोग द्वारा कराए जाने का प्रावधान राजनेताओं ने जीवित रखा। प्रधानमंत्री नेहरू पर चुनावों को प्रदूषित करने का आरोप नहीं लगा क्योंकि नेहरू की जम्हूरियत में आस्था किसी बाहरी व्यक्ति की तरह नहीं थी। वे ही संविधान की मूल भावना के प्रारूपकार थे। धीरे धीरे चुनाव आयोग की निष्पक्षता धूमिल होती गई। अब तो नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में पक्षपात का आसमान सिर पर उठा लिया गया है। मौजूदा प्रमुख चुनाव आयुक्त अरुण गोयल केन्द्रीय सचिव रहे हैं। उनका इस्तीफा कराकर उन्हें आनन फानन में लगभग चौबीस घंटे में ही प्रमुख चुनाव आयुक्त बना दिया गया। उसका भरपूर डिविडेंड भाजपा के सिद्धांत पुरुष को मिल रहा है। हालिया जितने चुनाव हुए, वे नरेन्द्र मोदी और भाजपा के पक्ष में चुनाव आयोग की भूमिका को पक्षपात से रंगते नजऱ आ रहे हैं।
भारत को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत संविधान बनाने की प्रेरणा मिली। उस अंगरेजी अधिनियम में तथाकथित चुनाव आयोगों की नियुक्ति का अधिकार केन्द्र सरकार को ही रहा। भारत की संविधान सभा यदि चाहती तो तय कर सकती थी कि चुनाव आयोग किस अधिनियम या कानून के तहत स्थापित हो और निष्पक्ष कार्यसंचालन किस तरह सुनिश्चित किया जाए। संवैधानिक पुरखों के प्रति सम्मान रखने भी कहना पड़ेगा कि उनसे कई तरह की भूल चूक हुई। भले ही सद्भावनाजन्य हुई होगी। उसका खमियाजा लोकतंत्र को भुगतना पड़ा है।
संविधान सभा की कार्यवाही में 15 जून और 16 जून 1949 को चुनाव आयोग की स्थापना को लेकर गंभीर बहस हुई। मजा यह कि बहस के ठीक पहले भारसाधक सदस्य डॉ. अंबेडकर ने पहले के प्रस्तावित प्रारूप को काफी बदल दिया। इस पर सदस्यों को कई तरह की आपत्तियां हुईं। तेज-तर्रार सदस्य शिब्बनलाल सक्सेना ने दो टूक कहा चुनाव आयोग को कार्यपालिका अर्थात केन्द्र सरकार से बिल्कुल अलग रखा जाना चाहिए। राष्ट्रपति को चुनाव आयोग की नियुक्ति करने का अधिकार दिया जाता है। तो साफ क्यों नहीं कहते कि प्रधानमंत्री ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेगा। जो प्रधानमंत्री खुद चुनाव लडक़र अपने पद पर आता है। उसकी यह इच्छा क्यों नहीं होगी कि उसकी सल्तनत कायम रहे, और उसके लिए ऐसा चुनाव आयोग हो जो उसकी मर्जी से चले। फिर वे स्वतंत्र होकर कैसे काम कर सकते हैं। सक्सेना ने दो टूक कहा आज वैसी स्थिति नहीं है। मुमकिन है अगला कोई सत्ताधारी दल अपने चुनाव में सुलभ होने के लिए अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा रखने वाले चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करे। सक्सेना ने यहां तक कहा कि उसे चुनाव आयुक्त बनाएं जो राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों को मिलाकर दो तिहाई सदस्यों का समर्थन हासिल कर सके। ऐसी स्थिति में एक से अधिक राजनैतिक पार्टियों का उसे समर्थन लेना पड़ेगा। एच. वी. पाटस्कर को आपत्ति थी कि राज्यों के चुनाव के लिए भी यदि सारी ताकत केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री की मु_ी में बंद की जा रही है तो भारत राज्यों का संघ कहां हुआ?
लगता है कि अब सब कुछ केन्द्र को ही करना होगा। राष्ट्रपति प्रदेशों के लिए अलग निर्वाचन आयुक्त क्यों नहीं नियुक्त कर सकते? हालांकि इसके उलट कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और नज़ीरुद्दीन अहमद वगैरह ने अंबेडकर की सिफारिशों के पक्ष में अपनी राय जाहिर की।
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और अधिकार का मामला कई उपसमितियों में भी आया था। अल्पसंख्यक उपसमिति में 17 अप्रैल 1947 को स्वीकृत सिफारिशों में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सुझाव भी था कि ऐसे चुनाव आयोगों में अल्पसंख्यकों को कम से कम आबादी के अनुपात में आरक्षण नियुक्ति में मिलना चाहिए। अंबेडकर चुनाव के अधिकार को मूल अधिकारों में शामिल करने के पक्ष में रहे हैं। फिर भी भारत की संसद ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार आखिरकार केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया। उसका खमियाजा देश को भुगतना तो पड़ रहा है।
ऐसे हालात में कुछ याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गईं और काफी बहस मुबाहिसा हुआ। कई पुराने मुकदमों का हवाला दिया गया और संविधान पीठ ने प्रजातांत्रिक मूल्यों की महत्ता और उनके अमल में लाए जाने को लेकर सार्थक विचार विमर्श किया। अब सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले से असहमत और असहज केन्द्र सरकार को क्या करना होगा? बंद मु_ी लाख की होती है लेकिन खुल गई तो? अरुण गोयल जैसे चुनाव आयुक्त और अरुण मिश्रा जैसे सुप्रीम कोर्ट जज संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करने के कारण ही तो पुष्पित, पल्लवित और प्रोन्नत हुए हैं। प्रधानमंत्री की मुस्कान में यह फसल कभी कभी लहलहाती रहती है। भारत और न्यायिक और अर्ध न्यायिक संस्थाओं ने अपने यश और अपने सम्मान से बेरुख रहकर कई गुल गपाड़े किए हैं। गनीमत है भारत के सुप्रीम कोर्ट को लगातार सोने की आदत नहीं है। वैसे जागना भी तो चाहिए। फिलवक्त फिसल पड़ेे तो हर गंगा कहने में जनता को सुप्रीम कोर्ट का साथ तो देना चाहिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गौतम अडानी और हिंडनबर्ग रिपोर्ट के मामले पर नए रहस्योद्घाटन लगभग रोज़ ही हो रहे हैं। इस बार का संसद का सत्र भी इसी मामले का शिकार होनेवाला है, क्योंकि विपक्ष के पास इसके अलावा कोई बड़ा मुद्दा है ही नहीं। वैसे एक मुहावरे में कहा भी गया है कि ‘भागते भूत की लंगोटी ही काफी।’ अब अंग्रेजी के ‘हिंदू’ अखबार में श्रीलंका के विदेश मंत्री अली साबरी की एक भेंटवार्ता छपी है। उसमें साबरी ने दावा किया है कि श्रीलंका की सरकार के साथ अडानी के कोलंबो बंदरगाह और विद्युत परियोजना के जो सौदे हुए हैं, वे ऐसे ही हैं, जैसे कि दो सरकारों के बीच होते हैं।
यह कथन बहुत मायने रखता है। पता नहीं, यह बोलते हुए साबरी को इस बात का ध्यान रहा या नहीं कि अडानी और हमारी सरकार के संबंधों को लेकर यहां बड़ा बावेला उठ खड़ा हुआ है। साबरी ने श्रीलंका के इस भयंकर संकट के समय भारत द्वारा दी गई प्रचुर सहायता के लिए मोदी सरकार का बड़ा आभार माना है लेकिन उन्होंने मोदी और अडानी को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया है। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत के विपक्षी नेताओं को अब एक छड़ी हाथ लग जाए, जिससे वे मोदी सरकार पर प्रहार कर सकें।
अभी तक तो हमारा विपक्ष सिर्फ अडानी की खाली तूती बजा रहा है, जिसका असर शेयर मार्केट पर तो पड़ा है लेकिन वह जनता के कानों में नहीं गूंज पा रही है। श्रीलंका के विदेश मंत्री साबरी ने भी कहा है कि अडानी के शेयरों में हालांकि 140 बिलियन डालर का पतन हो गया है लेकिन उन्हें अडानी समूह की कार्यक्षमता पर पूरा भरोसा है। साबरी शायद कहना यह चाह रहे हैं कि अडानी में उनका भरोसा इसलिए है कि भारत सरकार में उनका भरोसा है।
दूसरे शब्दों में भारत सरकार और अडानी को वे एक ही सिक्के के दो पहलू समझ रहे हैं। जैसा उत्साह श्रीलंका ने अडानी की परियोजनाओं के बारे में दिखाया है, वैसा ही उत्साह इजराइल ने भी दिखाया है। हमारा विपक्ष इजराइल से हुए अडानी के सौदे का प्रधानमंत्री की इजराइल-यात्रा का ही परिणाम बताता है। इजराइल का हैफा बंदरगाह सामरिक दृष्टि से पश्चिम एशिया का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। अडानी ने उसे 1.2 बिलियन डालर में खरीद लिया है। इस तरह के कई सौदे अडानी समूह ने देश और विदेश में किए हैं।
हमें देखना यह है कि क्या इन सौदों से भारत का कोई नुकसान हुआ है? यदि नहीं हुआ है तो विपक्ष द्वारा खाली-पीली शोर मचाने का कोई नतीजा नहीं निकलनेवाला है। देश में आज तक एक भी सरकार ऐसी नहीं हुई है, जिसने भारतीय उद्योगपतियों के साथ पूर्ण असहयोग का रास्ता अपनाया हो। वे असहयोग करेंगी तो देश की हानि ही होगी। उनके सहयोग का वित्तीय फायदा उन्हें जरूर मिलता है। उसके बिना भी राजनीति चल नहीं सकती।
यदि अडानी-समूह ने कोई कानून-विरोधी कार्य किया है या उसके किसी काम से देश या जनता की हानि हुई है तो वह दंड का भागीदार अवश्य होगा। यदि अडानी-समूह ने फर्जीवाड़ा किया है तो वह भुगतेगा लेकिन इसमें मोदी क्या करें? मोदी कुछ बोलते क्यों नहीं? मोदी की चुप्पी विपक्ष की आवाज को बुलंद कर रही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
डॉ. परिवेश मिश्रा
लम्बे समय तक चले अकाल ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में राजस्थान और गुजरात जैसे हिस्सों से अनेक लोगों को पलायन के लिए मजबूर किया। देश की पश्चिमी सीमा पर जोधपुर के पास भोजासर गांव के श्वेतांबर जैन धर्मावलम्बी वणिक सेठ श्री आसकरण श्रीश्रीमाल के तीन बेटे भी इनमें शामिल थे। आसपास के बीकानेर, चुरू, सीकर जैसे इलाकों से कलकत्ता पहुंचे कुछ लोग तब तक नयी शुरू हुई हावड़ा-बम्बई रेल लाईन के जरिये भारत के मध्य की ओर आकर बसने लगे थे। श्री आसकरण के बेटे भी रायपुर होते हुए पहले चालीस किलोमीटर दूर महानदी के किनारे राजिम, और कुछ ही सालों के बाद वहां से पचास किलोमीटर आगे जंगल मे खल्लारी नामक स्थान पर पहुंचे। तीनों भाईयों ने शुरुआत कपड़ों के व्यापार से की।
1877 में नागपुर में टाटा की एम्प्रेस मिल की शुरुआत के बाद 1892 में राजनांदगांव के राजा के प्रयासों से कलकत्ता की एक मैक्बेथ ब्रदर्स नामक ब्रिटिश कम्पनी ने वहां कपड़ा मिल स्थापित कर दी थी। उन दिनों राजनांदगांव छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा शहर था। श्रीमती इलीना सेन (‘इनसाइड छत्तीसगढ़’ में) के अनुसार ‘सीपी मिल’ नामक इस मिल को श्री जगन्नाथ शुक्ल ने खरीद लिया और मिल का नाम रखा ‘बंगाल-नागपुर-कॉटन (बीएनसी) मिल’। श्री जगन्नाथ शुक्ल श्री रविशंकर शुक्ल के पिता थे। रेल के कारण मिलों में उत्पादित कपड़ा रायपुर पहुंचने लगा था। और वहां से बैलगाडिय़ों पर कई दिन और घण्टों की यात्रा कर यह माल खल्लारी जैसे छत्तीसगढ़ के अंदरूनी इलाकों तक पहुंचता था।
यह क्षेत्र सडक़ों और आवागमन के आज के प्रचलित साधनों से विहीन, घने जंगलों वाला इलाका था। वन्य-जीवों के मामले में अति समृद्ध। रास्ते में रातें भी बितानी पड़ती थीं जहां चोर-लुटेरों से कहीं अधिक बाघ, भालू जैसे हिंसक वन्य प्राणियों से चौकसी प्राथमिकता होती थी। यह संयोग नहीं है कि अनेक दशकों तक सारंगढ़ समेत बाकी छत्तीसगढ़ में भी बीएनसी मिल की बनी और बहुत लोकप्रिय रही सफेद धोती ‘बाघ-छाप’ ही कहलाती थी।
गांव-गांव घूमकर साप्ताहिक बाजारों में कपड़े बेचने का काम चल रहा था कि भाईयों के बीच अनबन हो गयी। एक भाई धनराज जी एक दिन पत्नी और पांच बेटों वाले अपने परिवार को लेकर घर छोड़ पैदल निकल गये और उसी जंगल से घिरे कोई 15-20 किलोमीटर दूर खोपली गांव पहुंच गये। यहां बसकर वही कपड़े का काम फिर जमाया।
जब सेठ आसकरण जोधपुर के भोजासर गांव से अपने बेटों को छत्तीसगढ़ रवाना कर रहे थे तब उन्हें मालूम नहीं था कि भारत के पूर्वी तट पर हो रही एक महत्वपूर्ण घटना छत्तीसगढ़ की आर्थिक सामाजिक दशा को हमेशा के लिए बदल देने की तैयारी कर रही थी।
उन्नीसवीं सदी का अंत होने से पहले अंग्रेज़ों ने कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में बंदरगाहों को रेल मार्ग से आपस में जोड़ दिया था। लेकिन भारत के मध्य क्षेत्रों को समुद्र तट से जोडऩा बाकी था। इन क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ प्रमुख था जहां का मैंगनीज़ अयस्क इंगलैंड भी पहुंचाना था और अमेरिका भी। तिलहन, जूट, नील जैसे अन्य अनेक माल का निर्यात भी सुगम करना था।
समाधान के रूप में मौज़ूद था विशाखापत्तनम बंदरगाह। इसका इस्तेमाल तो सैकड़ों सालों से हो रहा था लेकिन यह बंदरगाह छोटा था। बंगाल-नागपुर रेल कम्पनी तब तक वहां वाल्टेयर नाम से रेलवे-स्टेशन बना चुकी थी। उसी कम्पनी ने विशाखापत्तनम बंदरगाह को बड़े जहाजों के लायक बनाने का काम शुरू किया। साथ ही तत्काल रायपुर को वाल्टेयर से जोडऩे के लिए एक नयी रेल लाईन बिछाने का काम भी शुरू कर दिया गया। जिन दिनों सेठ आसकरण के बेटे धनराज जी अपना कारोबार खपोली में बढ़ा रहे थे, यह नयी रेल लाईन रायपुर से बिछना शुरू होकर और महानदी पार कर कोई अस्सी किलोमीटर दूर इनके खपोली गांव से कोई तीन किलोमीटर दूरी तक पहुंच गयी। पता चला जंगल में उस स्थान पर एक स्टेशन भी बन रहा है। स्टेशन के पास कोई आबादी तो थी नहीं सो उसका नामकरण करने के लिए कम्पनी के अधिकारियों ने अपनी बुद्धि और कल्पनाशीलता का उपयोग किया। जिस भौगोलिक स्थान पर स्टेशन बन रहा था वह ऐसा स्थान था जो निचले लेवल पर था। पानी का बहाव ऐसी भूमि की दिशा में होता है और छत्तीसगढ़ में ऐसे स्थान को ‘बहरा’ जमीन कहा जाता था। इलाके में बाघ इफरात में हैं यह तो वहां काम करने वालों ने स्वयं जान ही लिया था सो स्टेशन का नामकरण हो गया ‘बाघबहरा’।
इलाके में धान की प्रचुरता हमेशा से रही है। तब भी थी। लेकिन चावल बाजार में नहीं बेचा जाता था। जिस को जब जितनी जरूरत हो घर में कूट लिया जाता था। रेल लाईन और स्टेशन बनाने बनाने वाले ठेकेदार अपने साथ बड़ी संख्या में मजदूरों और मिस्त्रियों के गैंग लेकर चलते थे। उनके साथ पटरियों पर आगे बढ़ते जाने वाली एक पोर्टेबल राइस मिलिंग मशीन भी होती जिसे एक अलग मोटर से चलाया जाता था। इस तरह धान से चावल प्राप्त करने की मशीन को इलाके में पहली बार देखा गया।
सेठ धनराज जी के बड़े बेटे श्री खेमराज ने अपने व्यावसायिक बुद्धि और उद्यमशीलता के बल पर इस मशीन के साथ अपने और अपने इलाके के भविष्य को जोडक़र अपार संभावनाओं को आंका और ठेकेदार के पीछे पडक़र वैसी ही एक मशीन अपने लिए मंगवा ली।
यह मशीन दरअसल वह नींव का पत्थर साबित हुई जिस पर आगे चलकर छत्तीसगढ़ में राइस मिलों का साम्राज्य खड़ा हुआ।
नये बने स्टेशन के आसपास की ज़मीन खरीदकर सेठ खेमराज ने अपना घर बनाया। मिल की स्थापना की, काम करने वालों के लिए घर बनाए, अस्पताल और पुलिस स्टेशन बने, दुकानें बनीं, और इस तरह बागबहरा नाम की एक बस्ती पैदा हुई जिसे आज कोई 25-30 हजार आबादी वाली नगर पंचायत का दजऱ्ा प्राप्त है।
सेठ खेमराज ने अपने भाईयों - विशेषकर सेठ नेमीचंद के साथ मिलकर रायपुर से वाल्टेयर की रेल लाइन के साथ साथ चावल और तेल मिलों की कतार खड़ा करने का सपना देखा और उसे पूरा करने में लग गये। कुछ मिलें स्वयं खड़ी कीं किन्तु अधिकांश में राजस्थान से आये अन्य परिवारों के साथ जानकारी, अनुभव और संसाधन साझा कर भागीदारी की। देखते देखते खरियार रोड, केसिंगा, भीमखोज (खल्लारी का स्टेशन), नवापारा-राजिम, महासमुंद, बसना जैसे अनेक स्थानों में मिलें शुरू होने लगीं। विशाखापत्तनम में 1933 में लॉर्ड विलिंगडन के हाथों बंगाल नागपुर रेल्वे द्वारा बनाए गए बंदरगाह का उद्घाटन हो चुका था। वहां भी सेठ नेमीचंद ने एक तेल मिल स्थापित कर दी।
और फिर आया 1940 का साल जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होते ही ब्रिटेन में अनाज की कमी पडऩा शुरू हो गयी थी। कुछ ही समय में युद्ध क्षेत्र का विस्तार बर्मा में हो गया। भारत पर दबाव बना कि जहाजों से अधिक से अधिक अनाज भेजा जाए। यह अपने किस्म का पहला मौका था। सन 1940-41 में मध्य छत्तीसगढ़ में भी अवर्षा के कारण सूखे की विकराल स्थिति बनी थी।
उस जमाने में आज की तरह की फूड कार्पोरेशन जैसी कोई एजेंसी नहीं थी। अंग्रेजों के लिए श्रीश्रीमाल भाईयों की मदद अपरिहार्य हो गई। सेठ खेमराज और छोटे भाई सेठ नेमीचंद ऐसे कॉमन सूत्र थे जो इलाके की सारी राईस मिलों को आपस में बांधते थे। अंग्रेजों ने इन्हें अपना ऐजेन्ट नियुक्त किया। इनके जिम्मे था रायपुर जिले के धमतरी, भाटापारा, नावापारा, राजिम, तिल्दा, नेवरा, बागबहरा, महासमुंद, आरंग, बसना और रायपुर जैसे स्थानों में फैली लगभग पचास राईस मिलों से हर रोज आवश्यक मात्रा में चावल एकत्र करना, परिवहन कर विभिन्न स्टेशनों पर पहुंचाकर गंतव्य के लिए डिस्पैच करना, सरकार से रायपुर स्थित इम्पीरियल बैंक (जयस्तंभ के किनारे स्थित अब का स्टेट बैंक) से भुगतान कलेक्ट करना और मिलों तक पैसों का वितरण सुनिश्चित करना।
यही वह समय था जब सेठ नेमीचंद श्रीश्रीमाल को ‘राइस-किंग’ की अनौपचारिक उपाधि मिली। आजादी के बाद छत्तीसगढ़ समेत मध्यप्रदेश में राइस मिलों की संख्या में इजाफा होता गया और साथ ही राइस मिल मालिकों के प्रवक्ता और प्रतिनिधि के रूप में सेठ नेमीचंद के नाम के साथ ‘राईस-किंग’ का तमगा मजबूत होता चला गया।
छत्तीसगढ़ में इस परिवार को आये लगभग सवा सौ साल बीत चुके हैं। सेठ आसकरण श्रीश्रीमाल की चौथी पीढ़ी के सदस्य श्री स्वरूपचंद जैन ने अपने परिवार के सफर को हाल ही में एक पुस्तक ‘द जॉय ऑफ गिविंग’ में लिपिबद्ध किया है। इस लेख में पुस्तक से संदर्भ लिए गये हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारी दो दवा-निर्माता कंपनियों के कारनामों से सारी दुनिया में भारत की बदनामी हो रही है। इस बदनामी से भी ज्यादा दर्दनाक बात यह है कि इन दोनों कंपनियों- मेडेन फार्मा और मेरियन बायोटेक- की दवाइयों से गांबिया में 60 बच्चों और उजबेकिस्तान में 16 बच्चों की मौत हो गई। जब पहले-पहल ये खबरें मैंने अखबारों में देखी तो मैं दंग रह गया। मुझे लगा कि भारत से अरबों रु. की दवाइयों का जो निर्यात हर साल होता है, उस पर इन घटनाओं का काफी बुरा असर पड़ेगा।
भारत की प्रामाणिक दवाइयों पर भी विदेशियों के मन में संदेह पैदा हो जाएगा। हमारी दवाएं अमेरिका और यूरोप की तुलना में बहुत सस्ती होती हैं। मुझे यह भी लगा कि इस मामले ने यदि तूल पकड़ लिया तो एशिया और अफ्रीका के जिन गरीब मरीजों की सेवा इन दवाइयों से होती हैं, अब वे वंचित हो जाएंगे। हो सकता है कि गांबिया और उजबेकिस्तान के उन बच्चों की मौत का कारण कुछ और रहा हो।
लगभग दो माह पहले जब ये खबरें आईं तो यह भी अपुष्ट सूत्रों ने कहा कि इन दवाइयों के नमूनों की जांच यहीं की गई है और वे ठीक पाई गई हैं लेकिन इन देशों के जाँच कर्ताओं ने अब जांच पूरी होने पर कहा है कि इन दवाइयों में कुछ नकली और हानिकर तरलों को मिला देने के कारण ही ये जानलेवा बन गई थीं। इस निष्कर्ष की पुष्टि अब एक अमेरिका की एक जांच कंपनी ने भी कर दी है।
भारत सरकार ने इन कंपनियों के खिलाफ पुलिस में रपट लिखवा दी है और उनके कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार भी कर लिया है लेकिन दोनों कंपनियों के मालिक और वरिष्ठ प्रबंधक फरार हैं। यदि उनको विश्वास है कि उनकी दवाइयों में कोई मिलावट नहीं की गई है तो उन्हें डरने की जरूरत क्या है? यह भी हो सकता है कि मालिकों और मेनेजरों की जानकारी के बिना भी मिलावट की गई होगी।
यदि ऐसा है तो उन कर्मचारियों को कठोरतम सजा दी जानी चाहिए और यदि मालिक और प्रबंधक भी इस जानलेवा मिलावटखोरी के लिए जिम्मेदार हैं तो उनकी सजा तो और भी सख्त होनी चाहिए। इन लोगों पर दस-बीस लाख या करोड़ रु. का जुर्माना बेमतलब होगा। इन सबको 76 बच्चों की सामूहिक हत्या का जिम्मेदार मानकर इनकी सजा भी इतनी भयंकर होनी चाहिए कि भावी मिलावटखोरों की नींद हराम हो जाए।
यह सजा जल्दी से जल्दी दी जानी चाहिए ताकि आम लोगों को पता चले कि किस कुकर्म के लिए उन्हें दंडित किया गया है। उन्हें जेल के बंद दरवाजों के पीछे नहीं, चौराहों पर लटकाया जाना चाहिए और हर टीवी चैनल पर उसका जीवंत प्रसारण किया जाना चाहिए। उसके बाद आप देखेंगे कि देश में किसी भी तरह के मिलावटखोर आपको ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-श्रवण गर्ग
‘आम आदमी पार्टी’ के एक ख़ास नेता और दिल्ली के पूर्व उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इस समय सीबीआई की हिरासत में हैं। शराब नीति से संबंधित एक मामले में जाँच एजेंसी द्वारा कथित तौर जुटाए गए अनियमितताओं के सुबूतों के आधार पर उनकी गिरफ़्तारी हुई है। कहा जा रहा है कि कार्रवाई की तलवार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सिर पर भी लटक रही है। जाँच एजेंसियों के ज़रिए जिस तरह की राजनीति देश में इस समय चलाई जा रही है उसमें अब कुछ भी नामुमकिन नहीं बचा है !
सवाल यह है कि ‘आप’ के मामले में उस ‘आम’ आदमी की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए जिसने कोई बारह साल पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में तब 74-वर्षीय किशन बाबूभाई हज़ारे उर्फ़ अन्ना हज़ारे की अगुवाई में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ चले आंदोलन (‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’) का अपनी संपूर्ण सामर्थ्य से समर्थन किया था और इंडिया गेट पर उम्मीदों की मोमबत्तियाँ जलाईं थीं ? क्या नागरिकों को 2011 की तरह ही ‘आप’ नेताओं पर हो रही कार्रवाई के ख़िलाफ़ भी फिर से खड़े हो जाना चाहिए ? (शायद) नहीं ! चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटना होगा :
बारह साल पहले की दिल्ली और उसके रामलीला मैदान का नज़ारा अगर याद किया जाए तो एक ऐसा माहौल बन गया था कि 1974 के बाद देश में एक नई जनक्रांति की शुरुआत होने जा रही है और उसके नायक केजरीवाल हैं।मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने जब करतल ध्वनि के बीच अन्ना आंदोलन की अधिकांश माँगें संसद में मंज़ूर कर लीं तब रामलीला मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के बाद मैंने लिखा था :
‘’27 अगस्त 2011 का दिन स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक अप्रतिम अध्याय बनकर एक सौ बत्तीस करोड़ नागरिकों के हृदयस्थलों पर अंकित हो गया है। सत्ता के अहिंसक और शांतिपूर्ण हस्तांतरण की यह गूंज अब दूर-दूर तक सुनाई देगी । शर्त केवल यह है कि परिवर्तन की अगुवाई करने वालों की आँखों में बेईमानी का काजल नहीं बल्कि ईमानदारी का साहस होना चाहिए।’’ क्या अंत में ऐसा ही हुआ ? अन्ना कहाँ ग़ायब हो गए ? अन्ना और केजरीवाल हक़ीक़त में किन उद्देश्यों (या लोगों!) के लिए काम कर रहे थे ? क्या केंद्र से मनमोहन सिंह की सरकार को अपदस्थ करने में संघ-भाजपा की मदद के लिए ? ख़ुद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ?
आंदोलन की समाप्ति के बाद केजरीवाल ने सुझाव दिया था कि मुझे भी ‘आप’ के साथ जुड़ जाना चाहिए। मैंने सहमति भी व्यक्त कर दी। हमारी दो बैठकें भी हुईं। इसी बीच ‘आप’ से जुड़े प्रमुख लोगों की (शायद) हिमाचल के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पालमपुर में कोई महत्वपूर्ण बैठक हुई जिसमें आगे के काम की रूपरेखा पर विचार-विमर्श होना था। पालमपुर बैठक से लौटने के बाद केजरीवाल ने मुझे फ़ोन किया और अपने काम के साथ जोड़ने से पहले एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर मेरी राय जानना चाही ! राय जानने का मुख्य मुद्दा यह था कि ‘आप’ को चुनावी राजनीति में भाग लेना चाहिए या नहीं ?
केजरीवाल को मैंने उत्तर दिया कि ‘आप’ को चुनावी राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए। रामलीला मैदान में चले आंदोलन के ज़रिए युवाओं की जो अभूतपूर्व शक्ति प्रकट हुई है उसे संगठित करके एक देशव्यापी आंदोलन में परिवर्तित किए जाने की ज़रूरत है। यह काम कोई राजनीतिक दल नहीं कर सकता।केजरीवाल ने मेरी बात पूरी सुनी और अंत में जवाब दिया कि वे शीघ्र ही फिर संपर्क करेंगे। यह उनसे आख़िरी संवाद था।उन्होंने कोई संपर्क नहीं किया। बाद में जानकारी मिल गई कि पालमपुर बैठक में तय किया जा चुका था कि ‘आप’ चुनावी राजनीति में भाग भी लेगी और सरकारें भी बनाएगी।बाद में स्थितियां ऐसी बना दीं गईं कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव जैसे सिविल सोसाइटी के कई प्रतिष्ठित लोगों को केजरीवाल का साथ छोड़ना पड़ा।
यह सब की जानकारी में है कि किस तरह दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार को गिराने में कांग्रेस-विरोधी ताक़तों की मदद करके केजरीवाल दिसंबर 2013 में पहली बार मुख्यमंत्री बने। उसके कुछ ही महीनों बाद केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार भी चली गई और मोदी सत्ता में आ गए। आरोप है कि यूपीए सरकार की बर्ख़ास्तगी के उद्देश्य से अन्ना के आंदोलन पर संघ-भाजपा से जुड़े लोगों का क़ब्ज़ा हो गया था। दिल्ली विजय के बाद केजरीवाल एक-एक कर उन तमाम राज्यों में पहुँचते गए जहां भाजपा के मुक़ाबले में खड़ी कांग्रेस को कमजोर किया जा सकता था। गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब, गुजरात इसके उदाहरण हैं।आरोप है कि पंजाब से लगे हिमाचल को छोड़ केजरीवाल इसलिए चुनाव लड़ने गुजरात पहुँच गए कि ‘आप’ की हिमाचल में उपस्थिति से नुक़सान कांग्रेस के बजाय भाजपा को पहुँच सकता था।
शाहीनबाग का शांतिपूर्ण आंदोलन हो या तबलीगी जमात के धार्मिक लोगों के ख़िलाफ़ किया गया दक्षिणपंथी संगठनों का दुर्भावनापूर्ण प्रचार और सरकार की द्वेषपूर्ण कार्रवाई ! या फिर दिल्ली के दंगों में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ कथित पुलिस ज़्यादतियाँ ! केजरीवाल हरेक मौक़े पर केंद्र के एजेंडे के साथ ही खड़े नज़र आए। भाजपा से लड़ने के लिए विपक्षी दलों के बीच एकता की कोशिशों से भी वे हमेशा दूरी बनाते हुए दिखे। भाजपा के सत्ता में आने के बाद जाँच एजेंसियों द्वारा कुल जितने अपराध क़ायम किए गए आरोप हैं कि उनमें 95 प्रतिशत से अधिक में विपक्षी नेताओं को ही निशाना बनाया गया।आम आदमी पार्टी पर आरोप है कि उसने कभी विपक्ष का बचाव नहीं किया। स्वयं के मामले में पार्टी अब ‘विक्टिम कार्ड’ खेल कर जनता की सहानुभूति प्राप्त करना चाह रही है !
पूछा जा सकता है कि इस समय जब केजरीवाल की हुकूमत पर प्रहार हो रहे हैं, दिल्ली की जनता 2011 की तरह ‘आम आदमी पार्टी' के साथ क्यों खड़ी नज़र नहीं आ रही है ? अंत में सवाल यह है कि क्या ‘आप’ के कमज़ोर पड़ने से देश में विपक्ष की राजनीति पर कोई विपरीत असर पड़ सकता है ? अगर ‘नहीं’ तो फिर हमें और विपक्षी दलों को ‘आप’ से कोई भी मतलब क्यों होना चाहिए ?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जी-20 और क्वाड के सम्मेलन भारत में संपन्न हुए। इनसे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत की छवि तो खूब चमकी और भारत के कई राष्ट्रों के साथ आपसी संबंध भी बेहतर हुए लेकिन जी-20 ने कोई खास फैसले किए हों, ऐसा नहीं लगता। वह रूस-यूक्रेन युद्ध रूकवाने में सफल नहीं हो सका। आतंकवाद और सरकारी भ्रष्टाचार को रोकने पर दो अलग-अलग बैठकों में विस्तार से चर्चा हुई लेकिन उसका नतीजा क्या निकला? शायद कुछ नहीं। सभी देशों के वित्तमंत्रियों और विदेश मंत्रियों ने दोनों मुद्दों पर जमकर भाषण झाड़े लेकिन उन्होंने क्या कोई ऐसी ठोस पहल की, जिससे आतंकवाद और भ्रष्टाचार खत्म हो सके या उन पर कुछ काबू पाया जा सके?
इन दोनों मुद्दों पर रटी-रटाई इबारत फिर से पढ़ दी गई। क्या दुनिया के किसी देश में ऐसी सरकार हैं, जिसके नेता ये दावा कर सकें कि वे सत्ता में आने और बने रहने के लिए साम, दाम, दंड, भेद का सहारा नहीं लेते? तानाशाही और फौजी सरकारें इस मामले में निरंकुश तो होती ही हैं, लोकतांत्रिक सरकारें भी कम नहीं होतीं। चुनाव लोकतंत्र की श्वास नली है। इस श्वास नली को चालू रखने के लिए असीम धनराशि की जरूरत होती है। वह भ्रष्टाचार के बिना कैसे इकट्ठा की जा सकती है? दुनिया के दर्जनों राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री आखिर जेल में बंद क्यों किए जाते हैं? वे बेईमानी करते हैं तो उनके इस अभियान में उनके नौकरशाह और पूंजीपति उनका पूरा साथ देते हैं।
इस जी-20 सम्मेलन में इस तरह की बेइमानियों से बचने के अचूक उपायों पर क्या कोई ठोस सुझाव सामने आए? इसी तरह आतंकवाद के खिलाफ जिन राष्ट्रों ने आग उगली, वे खुद ही आतंकवाद के संरक्षक रहे हैं। अपने राष्ट्रहितों की रक्षा के लिए वे आतंकवाद क्या, किसी भी बुरे से बुरे हथकंडे का इस्तेमाल कर सकते हैं। जी-20 और चौगुटे (अमेरिका, भारत, जापान, आस्ट्रेलिया) के सम्मेलनों में यूक्रेन का मसला सबसे महत्वपूर्ण बना रहा। रूसी और अमेरिकी विदेश मंत्री दिल्ली में मिले लेकिन वे कोई हल की तरफ नहीं बढ़ सके। इस मामले में भारत की नीति काफी लचीली और व्यावहारिक रही। उसने रूस के साथ भी मधुर संबंध बनाए रखने की पूरी कोशिश की और अमेरिका के साथ भी। नेहरू की गुट निरपेक्षता के मुकाबले वर्तमान भारत की नीति गुट-सापेक्षता की हो गई है। वह दोनों तरफ हाँ में हाँ मिलाता है। रामाय स्वास्ति और रावणाय स्वास्ति भी! राम और रावण दोनों की जय! चीन के साथ भी दोस्ती और दुश्मनी, दोनों तरह के तेवर बनाए रखने की उस्तादी भी आजकल भारत जमकर दिखा रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बादल सरोज
पिछले दिनों राजस्थान के घाटमीका गाँव के दो युवाओं जुनैद और नासिर के जले हुए कंकाल हरियाणा के भिवानी में जिस हालत में मिले हैं, वह इस तरह की घटनाओं के हिसाब से भी एक नयी और डरावनी नीचाई है। मोदी की भाजपा के सरकार में आने के बाद से शुरू हुयी इस तरह की भीड़-हत्याओं (मॉब लींचिंग) के अब तक के पैटर्न से भिन्न और ज्यादा खतरनाक है। इस तरह के सारे हत्याकांडो में जाने की बजाय सिर्फ दादरी के अख़लाक़ (2015), लातेहर के मज़लूम अंसारी और उनके 12 वर्ष के बेटे इम्तियाज़ खान (2016), अलवर के पहलू खान(2017), झारखंड के ही तबरेज़ अंसारी (2017) जैसे कुछ प्रतिनिधि हादसों की तो तुलना में ही देखें, तो इस दूसरे जुनैद और नासिर की हत्याएं उनसे कुछ, काफी कुछ नयी और गंभीर स्थिति का संकेत देने वाली हैं।
पहली तो यह कि अब तक इस तरह की भीड़-हत्याओं - हालांकि इन्हे भीड़ हत्या कहना पर्याप्त नहीं है - की आजमाई जाने वाली प्रणाली - मोड्स ऑपरेंडी - में अफवाह फैलाकर भीड़ जुटाना, उन्हें उकसाकर उन्मादी बनाना, जो कार्यवाही में शामिल हो सकते हैं, उन्हें शामिल कर, बाकियों को दर्शक बनाकर किसी निहत्थे, निरपराधी इंसान पर हमला बोल देना और मार डालना हुआ करता था। इस तरह की आपराधिक योजना में कथित रूप से जनता की आस्था के आहत होने, उनकी भावनाओं के अचानक उमड़ पडऩे आदि-इत्यादि के बहाने और आड़ हुआ करते थे। जुनैद और नासिर हत्याकांड की क्रोनोलॉजी इससे अलग है। इसकी एक खतरनाक विशिष्टता इस मायने में है कि इसमें स्वत:स्फूर्तता का दिखावा तक नहीं किया गया। हरियाणा के गुण्डे बजरंगी मोनू मानेसर का गिरोह इन दोनों को उनके राजस्थान के गाँव से उठाता है, हरियाणा के जींद में ले जाकर उन्हें निर्मम यातनाएं देकर अधमरा कर देता है। उसके बाद उन्हें इधर-उधर घुमाते हुए, बिना किसी भय के धड़ल्ले के साथ हरियाणा के एक पुलिस थाने में ले जाता है। थाने वाली खट्टर पुलिस इन दोनों की हालत देखकर उन्हें लेने से ही मना कर देती है, इसे आगे के काम की स्वीकृति मानकर ये गिरोह भिवानी की सडक़ पर जुनैद और नासिर को उनकी गाड़ी सहित जि़ंदा जलाकर भून देता है। बात इतने भर पर नहीं रुकती - हत्यारो का सरगना इसके बाद बाकायदा इंस्टाग्राम और सोशल मीडिया पर एक वीडियो जारी करता है, उसमें ‘मार डालने, काट डालने’ का अपना काम जारी रखने का एलान दोहराता है। इसी के साथ अपने सोशल मीडिया माध्यमों पर हरियाणा के आला पुलिस अफसरों के साथ दोस्ताने की तस्वीरें भी चिपकाता है।
देश की राजधानी से एकदम सटे इलाकों मेवात, रेवाड़ी, गुरुग्राम और फरीदाबाद में सक्रिय मोनू मानेसर की राजनीतिक संबद्धताएं किसी से छुपी हुयी नहीं है, वह खुद भी नहीं छुपाता। हिटलर के तूफानी जत्थों की तर्ज पर बने आरएसएस के बजरंग दल का नेता होना और भाजपा का समर्थक होना सार्वजनिक रूप से स्वीकारता है। यह बात अलग है कि अपने आजमाए अंदाज में फिलहाल बजरंग दल ने इस हत्याकांड से अपनी किसी भी संबद्धता से इंकार किया है, हालांकि यह भी सिर्फ दिखावा है, इस खंडन में मोनू मानेसर के बजरंग दली होने का इंकार नहीं है। भीड़-हत्याएं क़ानून इत्यादि का रास्ता तो पहले ही छोड़ चुकी थीं, अब उन्हें दिखावे की भीड़ भी नहीं चाहिए। ये गिरोह कहीं भी, किसी भी राज्य में जाकर किसी को भी उठाकर उसकी हत्या कर सकते हैं - पुलिस थानों को बताकर भी अपने अपराधों को अंजाम दे सकते हैं। यह गौ-गुण्डई (इन्हे काऊ विजिलान्ते कहना शाब्दिक अपराध है, ये विजिलान्ते यानि सजग चौकस दस्ते नहीं है, हत्यारे गिरोह हैं) इस समय,जो पहले से ही हिंसक समय है, को अराजक समय में बदलने का चरण है।
इसकी दूसरी और कहीं ज्यादा सांघातिक विशिष्टता यह है कि अब इन वारदातों को अंजाम देने वाले गिरोह, बिखरे उत्पातियों के पार्ट टाइम समूह नहीं हैं, वे संगठित, शासन-प्रशासन के साथ नत्थी और बाकायदा अनुमोदित स्वीकृत दल हैं। एक-डेढ़ दशक पहले तक पुलिस के साथ इनका ढीला ढाला, अघोषित समन्वय हुआ करता था। कानून व्यवस्था में स्वैच्छिक नागरिक भागीदारी की आड़ में बनी नगर रक्षा समितियों की तरह पुलिस इनकी, इनमें से कुछ की मदद लिया करती थी। अब यह ढीला ढाला समन्वय बाकायदा सांस्थानिक रूप ले चुका है। हरियाणा में गौरक्षा टास्क फ़ोर्स के नाम पर इस तरह के गिरोहों की समितियां बना दी गयी हैं - उन्हें खुलेआम हथियार रखने और उनका इस्तेमाल करने की छूट दे दी गयी है। अब वे किसी आते-जाते पशुपालक या विक्रेता को घेरकर निशाना नहीं बना रहे हैं -- वे खुलेआम हथियार लहराते हुए दबिश दे रहे हैं, छापे मार रहे हैं, मुस्लिम बहुल आबादी में जाकर उकसावे की कार्यवाहियां कर रहे हैं। टास्क फ़ोर्स की आड़ में हर तरह के अपराध कर रहे हैं। सरकार और पुलिस की खुली छत्रछाया है, इसलिए बेधडक़ काम कर रहे हैं। प्रशासन उनके साथ है, किस तरह साथ है यह जुनैद और नासिर वाले मामले में पंचायत विभाग की सरकारी गाड़ी के इस्तेमाल से सामने आ चुका है। ये किस तरह के लोग हैं, यह खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार सार्वजनिक रूप से बता चुके हैं, जब भीड़-हत्याओं की दुनिया भर में हुयी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए उन्होंने बयान दिया था। इस बयान में उन्होंने इन्हें ऐसा अपराधी बताया था, जो दिन में गौरक्षक बनते हैं और रात में अपराध करते हैं। मोदी ने राज्य सरकारों से इनकी अपराध कुंडली - डोजियर - भी तैयार करने को कहा था। डोजियर तो खैर क्या बनना था, उनकी पार्टी की सरकारों ने उन्हें आधिकारिक दर्जा ही दे दिया।
यह इसलिए और ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि यह सरकार प्रायोजित अराजकता है। इसलिए वे तो जहां चाहें, वहां जा कर कोई भी अपराध कर सकते हैं, मगर क़ानून-व्यवस्था की मशीनरी उन तक नहीं पहुँच सकती। जुनैद, नासिर की हत्या के बाद यह बजरंगी गिरोह राजस्थान से हरियाणा तक खुलेआम घूमता रहा, लेकिन जब राजस्थान की पुलिस उसके गाँव जाकर छापा मारने गयी, तो किसी कैथल बाबा को सामने लाकर उसके राजनीतिक गिरोह ने पंचायतों, महापंचायतों का तूमार खड़ा कर दिया। हरियाणा का राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व भी एक तरह से उसकी ढाल बनकर खड़ा हो गया। हत्यारे वीडियो लाइव करते छुट्टा घूमते रहते हैं, न्याय मांगने के लिए आवाज उठाने वालों पर मुकद्दमों का पहाड़ लाद दिया गया। इसे राज्य प्रायोजित अराजकता के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। बात-बात पर बोलने वाले प्रधानमंत्री मोदी अपनी नाक के नीचे, अपनी ही पार्टी की सरकार, जिसका एक इंजन वे खुद को बताकर इसे डबल इंजन की सरकार कहते नहीं थकते, के राज में घटी इन घटनाओं पर एक शब्द नहीं बोलते। विपक्ष शासित प्रदेशों की गली-मोहल्लों की घटनाओं पर दुबले होने वाले उनके गृह मंत्री अमित शाह का बोल भी नहीं फूटता। यह चुप्पी अनायास नहीं है। यह इस तरह की अराजकता के साथ सहमति है, उसका अनुमोदन है। ठीक इसीमाबंदीलिए यह एक संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, संवैधानिक गणराज्य के लिए खतरनाक बात है।
देश को बुरी-से-बुरी आशंकाओं से भी ज्यादा बुरी स्थिति में पहुंचा दिया गया है। यह उन्माद और साम्प्रदायिकता के फासीवाद में रूपांतरित होने की तरफ बढ़ता पैटर्न है। भाजपा, उसकी सरकारें, उनका राजनैतिक नेतृत्व अब तक इस तरह के मामलों में अपराधियों को संरक्षण दिया करती थीं, प्रोत्साहन देती थीं, झीने छिपाव के साथ उनका बचाव किया करतीथीं, थोड़े बहुत अगर-मगर के साथ बयान देकर उनके किये को साख दिया करती थीं। मगर अब सीधे-सीधे उनके साथ उतरने में भी उन्हें लाज नहीं आती। मोनू मानेसर को दिए अभयदान सहित, उसके लिए वकीलों की भीड़ खड़ी कर दी जाएगी, जैसे एलान किये जा रहे हैं। इनका मतलब क्या है, इसे अब तक के इस तरह के काण्डों में हुए, ज्यादातर अनहुए और लम्बित इन्साफ की मौजूदा दशा के साथ देखने से स्थिति स्पष्ट हो जाती है। पानसरे, कलबुर्गी, दाभोलकर, गौरी लंकेश हत्याकांडों के मुकदमों की स्थिति क्या है? गुजरात के नरसंहार के अपराधियों को सजा दिए जाने का रिकॉर्ड क्या है, क्यों है, इसे फिलहाल यहीं रहने देते हैं। यही देख लेते हैं कि भीड़-हत्याओं के बड़े-बड़े मामलों का हश्र क्या है ?
पिछ्ला जुनैद 2017 की जून में इसी हरियाणा के फरीदाबाद की खंदावली में हुआ था। ईद की खरीदारी करके घर लौट रहे एक किशोर को उसकी पोशाक के कारण ट्रेन में मार डाला गया था। ज्यादातर अभियुक्त कुछ महीनों में बाहर आ आ गये, बाकी बचे डेढ़ साल में जमानत पर रिहा हो गए। छ: वर्ष होने को हैं, सजा होना तो दूर की बात रही, मुकद्दमा ही तरीके से शुरू नहीं हुआ। जुनैद के पिता बताते हैं कि हत्याकांड के बाद देश-दुनिया में उपजे क्षोभ और आक्रोश को देख उस समय मुख्यमंत्री खट्टर ने 10 लाख और सांसद ने 20 लाख रूपये की राहत राशि देने की घोषणा की थी। यह राशि आज तक नहीं मिली। अब मुख्यमंत्री और सांसद मिलने तक को तैयार नहीं है। जब वे बगल के गाँव में दौरे पर आये मुख्यमंत्री से मिलने पहुँच गए, तो उन्होंने बाकी सबसे बात की, जुनैद के पिता की सुनी तक नहीं। बाकी ज्यादातर ऐसे प्रकरणों में भी यही हालत है। तारीख पर तारीख है - गुरमीत राम रहीम की तरह किसी मामले में धोखे से सजा मिल भी गयी, तो पैरोल पर पैरोल है। जमानत मिलने पर छूटने और रिहाई पर बाहर आने पर मालाओं से स्वागत ही स्वागत है, अभिनंदन ही अभिनंदन है।
यह सिर्फ यहीं तक महदूद रहने वाला है? नहीं। अराजकता सर्वग्रासी होती है और कहीं राज्य प्रायोजित हो, तो सर्वनाशी हो जाती है। यह हिन्दू, मुसलमान नहीं देखती। वह 2017 में पहले जुनैद के साथ जो करती है, 2018 में बुलंदशहर के पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के साथ भी वही करती है। इनकी हत्या के मामले में भी जिन 44 पर चार्जशीट दायर हुयी थी, उनमे से 4 को छोड़ बाकी सब बाहर हैं। ये 4 भी इसलिए जेल में हैं, क्योंकि उनकी जमानत को चुनौती देने सुबोध कुमार सिंह की पत्नी सुप्रीम कोर्ट गयी थीं, वरना वे भी बाहर आ चुके थे। पिछले महीने ही सोलापुर के आईटी प्रशिक्षित युवा मोहसिन शेख की पुणे में की गयी भीड़ हत्या पर 9 साल बाद सुनाये फैसले में अदालत ने सभी 21 आरोपियों को ससम्मान बरी कर दिया। ये वही अपराधी हैं, जिन्हे जमानत देते समय महाराष्ट्र हाईकोर्ट की जस्टिस मृदुला भाटकर ने स्तब्धकारी टिप्पणी की थी कि ‘चूँकि मोहसिन शेख दाढ़ी और टोपी में था, इसलिए निशाना बन गया।
भिवानी के लोहारू में जली जीप में भुने मिले जुनैद और नासिर के कंकाल आरएसएस नियंत्रित मोदी नीत कॉरपोरेट मीत भाजपा सरकार के न्यू इंडिया सीरीज के नए सीजन का ट्रेलर है। उनका मकसद इसे पूरे सीरियल में बदलना है। इसे रोकना ही होगा। जो इसके विनाशकारी असर से वाकिफ हैं, उन्हें बिना देरी किए इसके खिलाफ उतरना होगा, जो अभी भी किन्तु-परन्तु में उलझे हैं, उन्हें भी उठाना होगा।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव है।)
-अंजलि मिश्रा
सुष्मिता सेन हमारी उमर की एक्टर है ।
मेरी उमर की कई महिलायें जो दिखने में फिट ना दिखे मोटी लगे लेकिन वो सुष्मिता से ज़्यादा फिट है, दिल के मामले में।
आजकल फिट एक्टर को जिस तरह हार्ट अटैक आ रहे है उनकी जीवन शैली, शराब, उमर कम करने के लिए की जाने वाली सर्जरी, स्ट्राइड जैसे कई कारण हो सकते है इसके पीछे।
लम्बी लिस्ट होती जा रही है और सुष्मिता का नाम भी अब इसमें जुड़ गया।
पहले सुनते थे महिलायें दिल की बीमारी की शिकार नहीं होती है क्यूँकि वो दिल खोल लेती है, रो लेती है। आज भी पुरुष हार्ट संबंधी बीमारी के ज्यादा शिकार है।
सिद्धार्थ शुक्ला, रेमो डिसूजा जैसे फिट दिखने वाले लोग सिर्फ फिट दिख रहे थे असल में उनका दिल नहीं फिट नहीं था।
बाजार जिस तरह की फिटनेस दिखा रहा है और जैसा बनाने में सबको लगा है वो असल फि़टनेस नहीं है सर्फ दुबका हो जाना चेहरा और पेट पिचक जाना फिट हो जाना नहीं है।
वरना ये एक्टर फिट ही लगते थे।
सोनाक्षी सिन्हा, हुमा कुरैशी की बॉडी ऐसी है कि वो कितनी दुबली हो जाए बाजारवाद की शिकार दुनिया के हिसाब से मोटी ही कहलायेंगी।
चौड़ी हड्डी वाला बोनी स्ट्रक्चर है उन दोनों का।
ऐसी लड़कियों को लोग नकार देते है अमृता सिंग को कहा गया मर्द फि़ल्म में दो मर्द है।
जैसे टाइटल दिये जाते।
मार्केट ने हर किसी के लिए एक सा फिगर बनवा दिया है और सब वैसा होने में लगे है ।सबकी एक सी बॉडी नहीं होती।
लेकिन दुबका होना कभी भी फिट होना नहीं होता इस कॉन्सेप्ट को भी समझना होगा।
उमर के हिसाब से आप स्वस्थ दिखे।
अगर थोड़ा मोडा पेट भी निकला है तो भी यदि आपके एचडीएल, एलडीएल, ट्राई गिल्सराइड आदि का लेवल ठीक है तो आप ठीक है।
हालाँकि अब हार्ट अटैक के लिए सिर्फ इतनी चीजों को नहीं और भी कई रेशियो को डॉक्टर चेक करते है।
लेकिन जो एक्टर फिट दिख रहे है वो असल में फिट भी है क्या ?
उनको देख पगलाना बंद कीजिए।
खुद की फिटनेस और एक्सरसाईज और ब्लड रिपोर्ट पर ध्यान देते रहे।
अब ये बीमारी युवा लोगो की भी बीमारी है सर्फ 40 पार वाले ही अब इसके शिकार नहीं है।
और हाँ दिल खोलिए इस बात की बहुत चिंता मत कीजिए कि वो आपकी बाते चार लोगो को बता देगा। खुद को इस संसार का सबसे महत्वपूर्ण इंसान ना समझिए।
आपके पास इतना खुफिया जानकारी होती नहीं कि इससे आपका परिवार या इमेज तबाह हो जाएगी।
जो आपको जानते है वो आपको जानते है।
जो ऐसी बातो से आपको जज करे अलग कीजिए उनको।
उसने दूसरे को बता दिया वो उसकी प्रॉब्लम है , आपकी नहीं।
वो अच्छा दोस्त नहीं बना।
फिर भी आप लोगो पर भरोसा कीजिए और दिल खोलिए।
दिल में दबा कर ख़ुद को प्रेशर में मत डालिए और दिल में दबाकर ऊपर वो बाते अपने साथ ले जाकर क्या करेंगे?
वहाँ कोई सुनेगा भी नहीं तो यही इसी दुनिया में दोस्तों से दिल खोलिए।
बिखरने का मुझको शौक है बड़ा
समेटेगा मुझको तू बता जरा
पूछिए ईश्वर से।
ईश्वर पर छोडिय़े ख़ुद को (आध्यात्मिक होने को मैं इसलिए पॉजिटिव मानती हूँ क्यूँकि यहाँ दिल लोग खोलते है जो कही नहीं खोल पाते।
मैं बीमारी में ख़ुद को असहाय होने को सबसे बड़ा दुख मानती हूँ।
लोगो से मत सीखिए कैसे जीना है ख़ुद तय कीजिए आप क्या चाहते है?
खुद को खुश कीजिए, जब मौका मिले।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल भारत में घटी चार घटनाओं ने विशेष ध्यान खींचा। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव परिणाम, चुनाव आयोग की नियुक्ति, अडानी-हिंडनबर्ग विवाद की जांच और जी-20 का विदेश मंत्री सम्मेलन। यह सम्मेलन पिछली तीनों घटनाओं के मुकाबले कम ध्यान आकर्षित कर सका लेकिन इसमें भारत के द्विपक्षीय हितों का उत्तम संपादन हो सका। यूक्रेन का मामला छाया रहा, कोई संयुक्त वक्तव्य जारी नहीं हुआ लेकिन पहली बार रूस और अमेरिका के विदेश मंत्री मिले।
भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री से कई विदेशी नेताओं की आपसी भेंट में कई नए समीकरण बने। जहां तक त्रिपुरा, नगालैंड और मणिपुर के चुनावों का सवाल है, तीनों राज्यों में भाजपा का बोलबाला हो गया है। मणिपुर में भी भाजपा सत्ता में शामिल हो जाएगी। दूसरे शब्दों में पूर्वोत्तर में भाजपा का बढ़ता हुआ वर्चस्व राष्ट्रीय एकता के लिए शुभ-संकेत है। एक तो पूर्वोत्तर के राज्यों में जो अलगाववादी प्रवृत्तियां सक्रिय रहती हैं, वे अब शिथिल पड़ जाएंगी। उनको हतोत्साहित करने में कांग्रेस से बड़ी भूमिका भाजपा की होगी।
दूसरा, भाजपा के अपने स्वरूप को बदलने में इन चुनावों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भाजपा और नरेंद्र मोदी को हिंदुत्व का कट्टर समर्थक माना जाता है, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों के ईसाइयों का समर्थन उनकी इस छवि को काफी नरम बनाएगा। गोवा और पूर्वोत्तर के ईसाइयों का यह समर्थन भाजपा के लिए दुनिया के ईसाई राष्ट्रों में भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है। पूर्वोत्तर के ये राज्य जनसंख्या की दृष्टि से छोटे हैं लेकिन इनमें भाजपा की जीत 2024 के आम चुनावों को भी प्रभावित जरूर करेंगे। उसके पहले जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, उनमें भी भाजपा के कार्यकर्त्ताओं का उत्साह बढ़ेगा। इन चुनावों की जीत पर नरेंद्र मोदी ने जो भाषण दिया, वह काफी संतुलित, तर्कपूर्ण और प्रभावशाली था।
कल सर्वोच्च न्यायालय ने जो दो फैसले दिए हैं, उनसे हमारी न्यायपालिका की इज्जत में इजाफा ही हुआ है। उसने चुनाव आयोग की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, विपक्षी नेता और मुख्य न्यायाधीश- ये तीन सदस्य अनिवार्य बताए हैं लेकिन यह भी कह दिया है कि यह प्रावधान संसद के कानून द्वारा लागू किया जाना चाहिए। कानून बनने तक अदालत का फैसला प्रभावी रहेगा। इस फैसले से चुनाव आयोग की प्रामाणिकता बढ़ेगी।
जहां तक अडानी-हिंडनबर्ग विवाद का सवाल है, इस मामले में विपक्ष मोदी सरकार की काफी खिंचाई कर रहा था। ‘सेबी’ ने जांच तो बिठाई है लेकिन सरकार की चुप्पी विपक्ष को काफी मुखर कर रही थी। अब सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज ए.एम. सप्रे की अध्यक्षता में जिन पांच लोगों की कमेटी बनी है, वह अगले दो माह में सारे मामले की जांच करके सर्वोच्च न्यायालय को अपनी रपट देगी। इस कमेटी के सदस्य काफी प्रतिष्ठित, प्रामाणिक और जानकार लोग हैं। इसके बावजूद विपक्ष अब भी संसदीय कमेटी से जांच की मांग पर अड़ा हुआ है, क्योंकि उसके अनुसार यह मामला राजनीतिक भ्रष्टाचार से संबंधित है। (नया इंडिया की अनुमति से)
कल दिनांक 2 मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अनुच्छेद 324 की व्याख्या और पुनरर्चना करते फैसला किया। अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सीधे केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री के नियंत्रण से बाहर होकर तीन सदस्यों की सिफारिश के आधार पर की जाएगी। सिफारिश समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के चीफ जस्टिस होंगे। बेंच में न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ, अजय रस्तोगी, हृषिकेश राय और सी. टी. रविकुमार थे। जानना ज़रूरी है चुनाव आयोग संबंधी संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के अनुसार निर्वाचन आयोग, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और उतने अन्य निर्वाचन आयुक्तों से यदि, कोई हों, जितने राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे, मिलकर बनेगा। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति, संसद् द्वारा इस निमित्त बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
आज़ाद भारत में चुनाव आयोग की स्थापना और उसके जरिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुुनावों का संचालन करना लोकतंत्र की स्थापना और मजबूती के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। संविधान के निर्देश के बावजूद पिछले 70 वर्षों में संसद में चुनाव आयोग की स्थापना और उसके कर्तव्य पालन के कानून बनाने की जहमत नहीं उठाई गई। दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र में चुनाव केन्द्र सरकार के मुखिया के हुक्मशाही के तहत लगभग प्रतिबद्ध चुनाव आयोग द्वारा कराए जाने का प्रावधान राजनेताओं ने जीवित रखा। प्रधानमंत्री नेहरू पर चुनावों को प्रदूषित करने का आरोप नहीं लगा क्योंकि नेहरू की जम्हूरियत में आस्था किसी बाहरी व्यक्ति की तरह नहीं थी। वे ही संविधान की मूल भावना के प्रारूपकार थे। धीरे धीरे चुनाव आयोग की निष्पक्षता धूमिल होती गई। अब तो नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में पक्षपात का आसमान सिर पर उठा लिया गया है। मौजूदा प्रमुख चुनाव आयुक्त अरुण गोयल केन्द्रीय सचिव रहे हैं। उनका इस्तीफा कराकर उन्हें आनन फानन में लगभग चौबीस घंटे में ही प्रमुख चुनाव आयुक्त बना दिया गया। उसका भरपूर डिविडेंड भाजपा के सिद्धांत पुरुष को मिल रहा है। हालिया जितने चुनाव हुए, वे नरेन्द्र मोदी और भाजपा के पक्ष में चुनाव आयोग की भूमिका को पक्षपात से रंगते नज़र आ रहे हैं।
भारत को गवर्नमेंट आॅफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत संविधान बनाने की प्रेरणा मिली। उस अंगरेजी अधिनियम में तथाकथित चुनाव आयोगों की नियुक्ति का अधिकार केन्द्र सरकार को ही रहा। भारत की संविधान सभा यदि चाहती तो तय कर सकती थी कि चुनाव आयोग किस अधिनियम या कानून के तहत स्थापित हो और निष्पक्ष कार्यसंचालन किस तरह सुनिश्चित किया जाए। संवैधानिक पुरखों के प्रति सम्मान रखने भी कहना पडे़गा कि उनसे कई तरह की भूल चूक हुई। भले ही सद्भावनाजन्य हुई होगी। उसका खमियाजा लोकतंत्र को भुगतना पड़ा है।
संविधान सभा की कार्यवाही में 15 जून और 16 जून 1949 को चुनाव आयोग की स्थापना को लेकर गंभीर बहस हुई। मज़ा यह कि बहस के ठीक पहले भारसाधक सदस्य डा. अंबेडकर ने पहले के प्रस्तावित प्रारूप को काफी बदल दिया। इस पर सदस्यों को कई तरह की आपत्तियां हुईं। तेज तर्रार सदस्य शिब्बनलाल सक्सेना ने दो टूक कहा चुनाव आयोग को कार्यपालिका अर्थात् केन्द्र सरकार से बिल्कुल अलग रखा जाना चाहिए। राष्ट्रपति को चुनाव आयोग की नियुक्ति करने का अधिकार दिया जाता है। तो साफ क्यों नहीं कहते कि प्रधानमंत्री ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेगा। जो प्रधानमंत्री खुद चुनाव लड़कर अपने पद पर आता है। उसकी यह इच्छा क्यों नहीं होगी कि उसकी सल्तनत कायम रहे, और उसके लिए ऐसा चुनाव आयोग हो जो उसकी मर्जी से चले।
फिर वे स्वतंत्र होकर कैसे काम कर सकते हैं। सक्सेना ने दो टूक कहा आज वैसी स्थिति नहीं है। मुमकिन है अगला कोई सत्ताधारी दल अपने चुनाव में सुलभ होने के लिए अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा रखने वाले चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करे। सक्सेना ने यहां तक कहा कि उसे चुनाव आयुक्त बनाएं जो राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों को मिलाकर दो तिहाई सदस्यों का समर्थन हासिल कर सके। ऐसी स्थिति में एक से अधिक राजनैतिक पार्टियों का उसे समर्थन लेना पडे़गा। एच. वी. पाटस्कर को आपत्ति थी कि राज्यों के चुनाव के लिए भी यदि सारी ताकत केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री की मुट्ठी में बंद की जा रही है तो भारत राज्यों का संघ कहां हुआ? लगता है कि अब सब कुछ केन्द्र को ही करना होगा। राष्ट्रपति प्रदेशों के लिए अलग निर्वाचन आयुक्त क्यों नहीं नियुक्त कर सकते? हालांकि इसके उलट कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और नज़ीरुद्दीन अहमद वगैरह ने अंबेडकर की सिफारिशों के पक्ष में अपनी राय जाहिर की।
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और अधिकार का मामला कई उपसमितियों में भी आया था। अल्पसंख्यक उपसमिति में 17 अप्रैल 1947 को स्वीकृत सिफारिशों में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सुझाव भी था कि ऐसे चुनाव आयोगों में अल्पसंख्यकों को कम से कम आबादी के अनुपात में आरक्षण नियुक्ति में मिलना चाहिए। अंबेडकर चुनाव के अधिकार को मूल अधिकारों में शामिल करने के पक्ष में रहे हैं। फिर भी भारत की संसद ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार आखिरकार केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया। उसका खमियाजा देश को भुगतना तो पड़ रहा है।
ऐसे हालात में कुछ याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गईं और काफी बहस मुबाहिसा हुआ। कई पुराने मुकदमों का हवाला दिया गया और संविधान पीठ ने प्रजातांत्रिक मूल्यों की महत्ता और उनके अमल में लाए जाने को लेकर सार्थक विचार विमर्श किया। अब सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले से असहमत और असहज केन्द्र सरकार को क्या करना होगा? बंद मुट्ठी लाख की होती है लेकिन खुल गई तो? अरुण गोयल जैसे चुनाव आयुक्त और अरुण मिश्रा जैसे सुप्रीम कोर्ट जज संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करने के कारण ही तो पुष्पित, पल्लवित और प्रोन्नत हुए हैं। प्रधानमंत्री की मुस्कान में यह फसल कभी कभी लहलहाती रहती है। भारत और न्यायिक और अर्द्ध न्यायिक संस्थाओं ने अपने यश और अपने सम्मान से बेरुख रहकर कई गुल गपाड़े किए हैं। गनीमत है भारत के सुप्रीम कोर्ट को लगातार सोने की आदत नहीं है। वैसे जागना भी तो चाहिए। फिलवक्त फिसल पडे़े तो हर गंगा कहने में जनता को सुप्रीम कोर्ट का साथ तो देना चाहिए।
-गिरीश मालवीय
बहुत से लोग आश्चर्य कर रहे हैं कि बिल गेट्स ने भारत आकर सबसे पहले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास से मुलाकात की! लेकिन मुझे इस बात का बिलकुल भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि कुछ साल पहले ही आपको बता चुका हूं कि नरेंद्र मोदी ने 8 नवम्बर 2016 को नोटबंदी ही बिल गेट्स के इशारों पर की थी।
कल शाम रिजर्व बैंक ने ट्वीट किया, ‘‘श्री गेट्स आज आरबीआई, मुंबई आए और उन्होंने गवर्नर के साथ विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श किया।’’ दुनिया का इतना बड़ा पूंजीपति आता है और सीधा आरबीआई गवर्नर से मिलता है तो उसके दिमाग में क्या चल रहा है ये समझना बहुत जरूरी है!
बिल गेट्स के भारत के रिजर्व बैंक से संबंध कई साल पुराने है नचिकेत मोर 2016 में भारत मे बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के भारत में प्रमुख थे जो 2019 तक उसी पद पर रहते हुए रिजर्व बैंक के डिप्टी डायरेक्टर तक बने रहे।
2015 दिसंबर में भी बिल गेट्स भारत आए थे नवभारतटाइम्स.कॉम में एक खबर छपी थी शीर्षक था .... ‘डिजिटल फाइनेंशियल इन्क्लूजन के मामले में दुनिया को राह दिखाएगा भारत- बिल गेट्स।’
बिल गेट्स की मौजूदगी में वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने उस वक्त अपने एक वक्तव्य में कहा कि "भारत को कैशलेस सोसायटी बनाने का ढांचा तैयार है, लेकिन लोगों की व्यवहार बदलने में थोड़ा वक्त लगेगा।’
जी हां ‘कैशलेस सोसायटी’...यही जुमला आपने नोटबंदी के ठीक बाद नरेंद्र मोदी जी के मुंह से सुना होगा।
दरअसल नकदी, यानी कैश ही व्यक्तिगत स्वायत्तता का आखिरी क्षेत्र बचा है... इसमें ऐसी ताकत है जिसे सरकारें नियंत्रित नहीं कर सकतीं, इसलिए इसका खात्मा जरूरी है।
नोटबंदी के जरिए ठीक यही
करने की कोशिश की गई
2012 में विश्व में ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ लांच किया गया, इस एलायंस में 80 देश आते है जिसमे भारत भी एक है भारत ने 1 सितम्बर 2015 को इस संगठन की सदस्यता ली थीं और जन धन अभियान चलाकर बड़े पैमाने पर बैंक खाते खोले गए।
बेटर दैन कैश एलायंस दरअसल इन्ही बिल गेट्स का ब्रेन चाइल्ड है उसके साथ वीजा, मास्टरकार्ड, सिटीग्रुप, ओमिडयार नेटवर्क, फ़ोर्ड फाउंडेशन और अमेरिकी सरकार की संस्था यूएसएआईडी इस एलायंस मे हिस्सेदार है।
इसके अंतर्गत यह बताया जाता है कि कई कारणों से नकदी छापना, उसकी निगरानी, भंडारण, चलन को नियंत्रित करना महँगा है और इससे भी बढक़र कैशलेस सोसायटी सरकारों को जनता पर और अधिक नियंत्रण का मौका देता है।
कैशलेस समाज का असली मकसद है सम्पूर्ण नियंत्रण : चौतरफा नियंत्रण और इसे हमारे सामने ऐसे आसान और कारगर तरीके के रूप में पेश किया जाएगा जो हमें अपराध से मुक्ति दिलाएगा यानी फासीवाद को चाशनी में लपेटकर पेश किया जाएगा।
भारत में कोई डेटा सुरक्षा कानून नहीं है, न ही बनाया जा रहा है जिससे मुद्रा का डिजिटलीकरण उसकी ट्रेकिंग करना बहुत आसान हो जाता है। बिल गेट्स को भारत की यही बात सबसे अधिक पसंद हैं आधार कार्ड और कोरोना टी के के जरिए हेल्थ आईडी बनाकर लोगों की डिजीटल पहचान दर्ज की जा चुकी है ये स्कीम भी बिल गेट्स के निर्देशन में लाई गई थी।
सच यह है कि 2030 तक जो न्यू वल्र्ड ऑर्डर के लागू होना है उसमें नकदी का चलन सबसे बड़ी दिक्कत है आज भी भारत में नकदी दुनिया के किसी भी और देश से कहीं ज्यादा इस्तेमाल की जाती है और इसी दिक्कत को दूर करने के लिए बिल गेट्स आए हैं।
बिल गेट्स आरबीआई गवर्नर से मिले है तो संभव है जल्द ही आपको नोटबंदी सरीखी एक और सर्जिकल स्ट्राइक देखने को मिले।
-ध्रुव गुप्त
ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती तथा तल्खियों के शायर रघुपति सहाय 'फ़िराक' गोरखपुरी का ज़िक्र शायरी के एक अलग अहसास, एक अलग आस्वाद का ज़िक्र है। वे उर्दू के कुछ बड़े आधुनिक शायरों में एक थे जिन्होंने शायरी में एक नई परंपरा की बुनियाद रखी थी। जिस दौर में उन्होंने लिखना शुरू किया, उस दौर की शायरी का एक बड़ा हिस्सा परंपरागत रूमानियत और रहस्यों से बंधा था। समय की सच्चाई और लोकजीवन के विविध रंग उसमें लगभग अनुपस्थित थे। नजीर अकबराबादी और इल्ताफ हुसैन हाली की तरह फ़िराक ने इस रिवायत को तोड़कर शायरी को नए मसलों, नए विषयों और नई भाषा के साथ जोड़ा। उनकी गजलों में सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर ढला है। वहां रूमान के साथ ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाइयां भी मौजूद हैं। उर्दू ग़ज़ल की बारीक़ी, तेवर, नाज़ुकमिजाजी और सौंदर्य को देश की संस्कृति और प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का महल खड़ा किया था। अदबी दुनिया में फ़िराक़ की बेबाक़ी, दबंगई और मुंहफटपन के किस्से ख़ूब कहे-सुने जाते हैं। अपनी शायरी की अनश्वरता पर उनका आत्मविश्वास किस क़दर गहरा था, यह उनके इस शेर से समझा जा सकता है - आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअसरों / जब भी उनको ध्यान आएगा तुमने फ़िराक़ को देखा है। आज फ़िराक़ की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन, उनकी ही एक ग़ज़ल के चंद अशआर के साथ !
गैर क्या जानिए क्यों मुझको बुरा कहते हैं
आप कहते हैं जो ऐसा तो बजा कहते हैं
हो जिन्हें शक वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इन्सान को दुनिया का खुदा कहते हैं
शिकवा-ए-हिज़्र करें भी तो करें किस दिल से
हम खुद अपने को भी अपने से जुदा कहते हैं
लोग जो कुछ भी कहें तेरी सितमकोशी को
हम तो इन बातों को अच्छा ना बुरा कहते हैं
और का तजुरबा जो कुछ हो मगर हम तो फ़िराक
तल्खी-ए-ज़ीस्त को जीने का मजा कहते हैं
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान और उत्तरप्रदेश में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आ रही है लेकिन ज़रा रूस की तरफ देखें। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने कल एक राजाज्ञा पर दस्तखत किए हैं, जिसके अनुसार अब रूस के सरकारी कामकाज में कोई भी रूसी अफसर अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल नहीं करेगा। इस राजाज्ञा में यह भी कहा गया है कि अंग्रेजी मुहावरों का प्रयोग भी वर्जित है। लेकिन जिन विदेशी भाषा के शब्दों का कोई रूसी पर्याय ही उपलब्ध नहीं है, उनका मजबूरन उपयोग किया जा सकता है।
रूस ही नहीं, चीन, जर्मनी, फ्रांस, और जापान जैसे देशों में स्वभाषाओं की रक्षा के कई बड़े अभियान चल पड़े हैं। आजकल दुनिया काफी सिकुड़ गई है। सभी देशों में अंतरराष्ट्रीय व्यापार, कूटनीति, आवागमन आदि काफी बढ़ गया है। इसीलिए इन क्षेत्रों से जुड़े लोगों को विदेशी भाषाओं का ज्ञान जरूरी है लेकिन भारत-जैसे अंग्रेजों के पूर्व गुलाम राष्ट्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व इतना बढ़ गया है कि स्वभाषाएं अब दिवंगत होती जा रही हैं। हमारे नेताओं का बौद्धिक स्तर इतना सतही है कि वे इस स्वभाषा-पतन के दूरगामी खतरों से अनभिज्ञ हैं। क्या भाजपाई, क्या कांग्रेसी, क्या समाजवादी और क्या साम्यवादी नेता सभी अंग्रेजी की फिसलपट्टी पर फिसल रहे हैं।
उन्हें पता ही नहीं है कि भाषा को खत्म करके आप अपनी संस्कृति और परंपरा को बचा ही नहीं सकते। भाषा बदलने से आदमी का सोच बदलने लगता है, रिश्ते बदलने लगते हैं, मौलिकता समाप्त हो जाती है। जो देश पिछले दो-तीन सौ साल में महाशक्ति और महासंपन्न बने हैं, वे अपनी भाषाओं के जरिए ही बने हैं। मैं दुनिया के पांचों महाशक्ति राष्ट्रों में रहकर उनकी भाषा नीति को निकट से देख चुका हूं। उनमें से किसी भी राष्ट्र की पाठशालाओं में विदेशी भाषा अनिवार्य रूप से नहीं पढ़ाई जाती है।
हमारे बच्चों पर सिर्फ अंग्रेजी नहीं लादी जाए। उन्हें बड़े होकर कई विदेशी भाषाएं सीखने की छूट हो लेकिन यदि प्राथमिक कक्षाओं में उन पर अंग्रेजी थोपी गई तो यह हिरण पर घांस लादनेवाली बात हो गई। इसे सीखने में वे रट्टू तोते बन जाते हैं और उनमें हीनता ग्रंथि पनपने लगती है। महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया ने इस बात को काफी अच्छी तरह समझा था।
लेकिन कैसा दुर्भाग्य है कि राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है और अशोक गहलोत जैसे संस्कारवान नेता उसके मुख्यमंत्री हैं और उन्होंने उन अंग्रेजी स्कूलों का नाम ‘महात्मा गांधी इंग्लिश मीडियम स्कूल’ रख दिया है। अशोक गहलोत जो कि कांग्रेसी नेता हैं और उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जो कि भाजपा के नेता हैं, दोनों ज़रा महात्मा गांधी और गुरू गोलवलकर के इन कथनों पर ध्यान देंः – ‘‘यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता।’’ गुरू गोलवलकर, ‘‘आज देश की दुर्दशा यह है कि अंग्रेजी प्रमुख भाषा बन बैठी है और सब भाषाएं गौण बन गई हैं। यदि हम स्वतंत्र राष्ट्र हैं तो हमें अंग्रेजी के स्थान पर स्वभाषा लानी होगी।’’ (नया इंडिया की अनुमति से)
वेब पत्रिका समालोचन के लिए अरविंद दास की बातचीत
पचास हज़ार डॉलर के अन्तर्राष्ट्रीय पेन/नाबाकोव पुरस्कार के कारण विश्व स्तर पर विनोद कुमार शुक्ल चर्चा के विषय बने हुए हैं वहीं बच्चों के लिए उनके लेखन पर भी इधर ध्यान गया है.
इन दिनों दिल्ली में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य नए कलेवर में पाठकों के लिए उपस्थित हैं. साथ ही मेले के दौरान इकतारा ट्रस्ट से छपी उनकी बच्चों के लिए लिखी किताबों- ‘एक चुप्पी जगह’, ‘गोदाम’, ‘एक कहानी’, ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’ तथा ‘बना बनाया देखा आकाश: बनते कहाँ दिखा आकाश’ (कविता संग्रह) दिखाई देता है. इन सब के बीच उनके बाल साहित्यकार रूप में उनकी चर्चा छूट जाती है, जबकि हाल के वर्षों में विनोद कुमार शुक्ल बच्चों के लिए साहित्य रचने पर जोर दे रहे हैं.
पिछले कुछ सालों में पुस्तक मेले में बाल साहित्य में बच्चों और वयस्कों की दिलचस्पी काफी दिखाई देती रही है, लेकिन हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों का लेखन यहाँ नहीं दिखता. सच तो यह है कि हिंदी में साहित्यकारों ने बच्चों को ध्यान में रख कर बहुत कम लिखा है. प्रकाशकों ने भी इस वर्ग के पाठकों में रुचि नहीं दिखाई. इसके क्या कारण है? जहाँ हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशक बच्चों के लिए किताबें छापने से बचते रहे हैं, वहीं हाल के दशकों में एकलव्य, इकतारा, कथा, प्रथम जैसी संस्थाओं में हिंदी में रचनात्मक और सुरुचिपूर्ण किताबें छापी हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट बच्चों के लिए किताबें छापता रहा है, पर बदलते समय के अनुसार विषय-वैविध्य और गुणवत्ता का अभाव है यहाँ. ऐसे में विनोद कुमार शुक्ल का बाल साहित्यकार रूप अलग से रेखांकित करने की मांग करता है. -अरविंद दास
* आपने वयस्क पाठकों के लिए ‘नौकर की कमीज’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ जैसी औपन्यासिक कृतियाँ रची हैं, ‘महाविद्यालय’ और ‘पेड़ पर कमरा’ जैसे कहानी संग्रह. ‘वहीं लगभग जयहिंद’, ‘सब कुछ बचा रहेगा’ जैसा कविता संग्रह भी उपलब्ध है. पिछले करीब एक दशक से आप बच्चों के लिए लिख रहे हैं. उम्र के इस पड़ाव पर बच्चों के लिए साहित्य लिखने का आपने कैसे सोचा?
** बच्चों के बारे में मैं लिखता नहीं था, पर साइकिल पत्रिका (इकतारा) के संपादक सुशील शुक्ल ने मुझे बच्चों के बारे में लिखने को कहा. मैंने कभी बच्चों के लिए लिखा नहीं था. मैंने अपने लेखन में कभी नहीं सोचा कि इसका पाठक कौन होगा. मैंने कहा कि अब मुझे सोच करके लिखना पड़ेगा कि मेरे पाठक बच्चे हैं. कितनी उम्र के बच्चे पढ़ेंगे और कैसे पढ़ेंगे. फिर उन्होंने कहा कि किसी भी विषय पर लिखिए-हाथी पर, घोड़े पर, चींटी पर, मछली पर …इसी तरह की उन्होंने बात की.
जब मैं बच्चों के लिए लिखने बैठा तब सबसे पहले यही सोचा कि एक पाठक के रूप में अभी तक मैंने बच्चों के बारे में जो पढ़ा है, ऐसा लगता है कि यह बहुत छोटे बच्चे के लिए लिखा गया है. संभवतः जिसे खुद बच्चे नहीं पढ़ते होंगे कोई दूसरा पढ़ कर सुनाता होगा. मुझे लगा कि बच्चों को स्वयं का एक पाठक वर्ग तैयार होना चाहिए. मैंने मान लिया कि मैं बच्चों के लिए लिखूंगा यह सोच करके कि संभवत: शायद इसे पाँच साल या छह साल या आठ साल के बच्चे समझेंगे. मैं उनसे कहीं ज्यादा उम्र के बच्चों की समझ के अनुसार लिखूंगा. यदि कहीं इसका पाठक कई दस साल का लड़का है जो मैं लिखूंगा वह संभवत: 15 साल के किशोर के उम्र तक की पहुँच का होना चाहिए. इकतारा से दो पत्रिका प्रकाशित होती थी जैसा कि सुशील ने बताया था. मैं ‘प्लूटो’ पत्रिका के लिए लिखता था, बाद में ‘साइकिल’ पत्रिका के लिए लिखा (सुशील साइकिल में चले गए और उनसे एक संपर्क बन गया). ‘प्लूटो’ के लिए मैं छोटे बच्चों के लिए लिखता था पर तब भी यह सोच कर लिखता था कि इनकी समझ कुछ बड़ी होगी.
मैंने फिर बाद में बड़े बच्चों के लिए साइकिल में लिखा. मैंने इस तरह से लिखा कि इसे बड़े लोग या किशोर लोग भी पढ़े तो उनको लगना चाहिए कि उन्होंने भी कुछ पढ़ा और बच्चे तो पढ़ेंगे ही. यही मेरी सोच का हिस्सा रहा.
* मैंने अपनी नौ साल की बेटी-कैथी के लिए ‘गोदाम’ किताब खरीदी, पर जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे इस कहानी का कथ्य और संवेदना ने प्रभावित किया. इसमें पेड़-पौधे के प्रति जो लेखक का लगाव है, वहीं मकान मालिक की जो समझ है वह आज के समय को प्रतिबिंबित करता है. आप लिखते है: ‘पेड़ वाले घर मुझे अच्छे लगते है.’ कहानी के आखिर में मकान मालिक पेड़ कटवा कर कहता है: ‘आपका अब यह एक पेड़ वाला घर नहीं है.’ ऐसा लगता है आधुनिक सभ्यता में क्या हम गोदाम में रहने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ यह आपके जीवनानुभवों से पाठकों को जोड़ता है.
** जी, मैंने जो कुछ लिखा है अपने अनुभव से लिखा है. मेरा लिखा हुआ मेरी आत्मकथा ही है. मेरा सारा कुछ मेरा जाना-पहचाना रहा है. मैंने जो अनुभव किया- आस-पास के लोगों से, मिलने-जुलने वालों से, जो किताबें मैंने पढ़ी थी, उन किताबों के अनुभव से जो मैंने पाया और जो अनुभव बनाया वही मेरा अनुभव रहा है. वही मेरे लेखन में रहा है.
* बड़ों के लिए लेखन और बच्चों के लिए लेखन की भाषा-शैली के बारे में आप क्या सोचते हैं? आप किस रूप में बच्चों के लिए लेखन की तैयारी करते हैं?
** जब मैं बड़ों के लिए लिखता हूँ तब बिलकुल नहीं सोचता हूँ कि कितने बड़ों के लिए लिख रहा हूँ. उसमें ऐसा कोई कारण नहीं है. एक स्थिति में आकर के पुस्तक से, अपने अनुभव के अनुसार से… अपना अनुभव बनाने की उम्र तो कभी भी हासिल हो सकती है. आदमी जब 18-19 या 20 साल का हुआ तो वह किताबों की समझ को अपने में चाहे वह किसी के लिए लिख रहा हो, एक पाठक के रूप में अपनी समझ में एक स्थिति तो बना ही लेता है.
* ‘तीसरा दोस्त’ कहानी पढ़ते हुए मैं अपने बचपन में लौटा. आप लिखते हैं: ‘उसी की चप्पल पहनकर मैं उसे ढूंढने निकला. मैं अपने मन से और चप्पल के मन से चल रहा था कि चप्पल मुझे वहाँ तक पहुँचा देगी जहाँ वह जाता है.’ क्या लिखते हुए आप अपने बचपन में लौट रहे हैं इन दिनों?
** हां, इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है. मैं अपने बचपने को याद करता हूँ जो भूला हुआ सा है. इसलिए पास-पड़ोस के जो बच्चे हैं, सड़क पर जो मेरे घर के सामने खेलते हैं जिन्हें आता-जाता मैं देखता है. बच्चों को देख कर मैं अपने बचपने को याद करता हूँ. इस उम्र में वो क्या सोचते हैं? मनुष्य रूप में एक बच्चे का जन्म होता है जिसके पास सोचने समझने की शक्ति होती है. जो नवजात शिशु होता है वह इस संसार का अनुभवहीन एक जीव होता है. उस बच्चा की दुनिया के बारे में कोई खबर नहीं है. लेकिन मैंने देखा कि उनमें एक प्रतिक्रिया का अनुभव जन्म लेते ही बन जाता है. चिड़िया चहचहाती है तो नवजात शिशु की आँख उस ओर मुड़ जाती है, ऐसा मैंने अपने बच्चों के जन्म में महसूस किया था अस्पताल में.
* बचपन में पढ़ने-लिखने का कैसा अनुभव रहा है आपका?
** घर में एक साहित्यिक वातावरण था, मैं पढ़ता था. मैं नाँदगाँव का हूँ, पदुमलाल बख्शी नाँदगाँव के ही थे. मेरी माँ जो थी उसके बचपन का काफी समय बांग्लादेश के जमालपुर में बीता, वहां क्या स्थिति थी मुझे ठीक से मालूम नहीं. मेरे नाना लोगों का परिवार कानपुर का था, मेरे बाबा भी उत्तर प्रदेश के थे जो नाँदगाँव में बसने आ गए थे. मेरी अम्मा के घर में हम बच्चों पर एक अच्छा प्रभाव पड़ा था, खासकर अपने साथ वह बंगाल के साहित्य का संस्कार भी लेकर आ गई थी. दूसरे भाई-बहन भी लिखने की कोशिश करते थे, पर उनका लिखता रस्ते में ही छूट गया, बढ़ती उम्र के साथ . लेकिन मैंने लिखना जारी रखा.
* आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं, जिन्हें आप अभी याद करते हैं?
** नाम लेकर के तो बताना नहीं है लेकिन बहुत सी किताब के लेखक मेरे प्रिय रचनाकार रहे हैं. मैं बहुत से बड़े लेखकों के संपर्क में रहा. मेरे लिखने की याद के शुरुआत दिनों में जैनेंद्र भी कुछ सालों तक रहे, मेरी उनसे मुलाकात नहीं हुई. अज्ञेय से मेरी मुलाकात रही. अशोक वाजपेयी से मेरी मुलाकात रही, लंबे समय तक संबंध बना रहा. केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह से भी मेरा लंबे समय तक संबंध बना रहा. तो बड़े लेखकों के संपर्क में एक साधारण छोटे लेखक के रूप में मैं हमेशा उपस्थित रहता रहा.
* गद्य के अलावे आपने कविता की पुस्तक भी बच्चों के लिए लिखी है-‘बना बनाया देखा आकाश, ‘बनते कहां दिखा आकाश’ आदि
** हां, जैसा मैं बच्चों के पाठक के रूप में अभी देख रहा हूँ, मैंने सोचा कि बच्चे भी इस तरह अपने देखने को सुधारें. उनका देखना भी सुधरना चाहिए और यह महसूस होना चाहिए आकाश कितना अनंत होता है और हम कितना थोड़ा सा देख पाता हैं. यह आकाश है जिसको दूसरों ने जमाने से देखा. इसे ऋषि-महर्षियों ने देखा. उन्होंने सितारों-तारों की गणना की, पंचांग बनाया. जिससे उन्हें नक्षत्रों की क्या स्थिति थी, इस बात की जानकारी मिली. उन्होंने पंचांग को वैज्ञानिकों की मेल खाती स्थिति के रूप में बनाया है, यह बड़ी अद्भुत सी बात है. ये सारी चीजें उस जमाने में कैसे सोचते होंगे. उस सोच का दायरा कितना संपूर्ण था. मनुष्यों की उपस्थिति कितनी कम थी. ऐसी उपस्थिति मनुष्य की नहीं थी, जैसी आज की दिखती है. आज मनुष्य तो केवल भीड़ में ही दिखता है. चाहे वह घर की भीड़ हो या बाहर की भीड़ हो. या चाहे जैसी स्थितियाँ हों.
* क्या लिख रहे हैं बच्चों के लिए अभी आप?
** अभी मेरी सोच में बच्चों के लिए लिखने का अधिक रहता है. क्योंकि मैं इस उम्र में छोटा लिखता हूँ और कम लिखता हूँ क्योंकि ज्यादा देर तक किसी एक चीज पर कायम रहना बहुत कठिन है, लेखन में भी. ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह सकता, बैठ भी नहीं सकता (हंसते हैं)…मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति अब वैसे नहीं है, लेकिन तब भी मैं बच्चों के लिए लिख रहा हूँ. आज ही मैंने बच्चों के लिए एक-डेढ़ पेज की कहानी के रूप में भाजी वाले को सोचा. उस भाजी वाले के संबंध में, कुछ अपनी ही स्थिति के अनुसार एक कहानी पढ़ने का कारण बन जाए ऐसा कुछ लिखूं. एक कहानी जो सात-आठ पेज की हो, ऐसा सोच रहा हूँ.
(वेब पत्रिका समालोचन से साभार)
(samalochan.com/vinod-kumar-shukla-5/)
अरुण माहेश्वरी
अडानी मामले को दबाना अब मोदी के लिए संभव नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने आज अडानी मामले की जाँच के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अभय मनोहर सपरे की अध्यक्षता में पाँच सदस्यों की एक कमेटी के गठन का महत्वपूर्ण फ़ैसला लिया है । इस कमेटी के अन्य सदस्यों के नाम हैं -
1. श्री ओपी भट्ट- भारतीय स्टेट बैंक के पूर्व अध्यक्ष। वर्तमान में, तेल और प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड (ओएनजीसी), टाटा स्टील लिमिटेड और हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड (एचयूएल) के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशक।
2. न्यायमूर्ति जेपी देवधर- बॉम्बे उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रतिभूति अपीलीय न्यायाधिकरण के पूर्व पीठासीन अधिकारी।
3. श्री के.वी. कामत- ब्रिक्स देशों के न्यू डेवलपमेंट बैंक के पूर्व प्रमुख और इन्फोसिस लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष।
4. श्री नंदन नीलेकणि- इन्फोसिस के सह-संस्थापक, यूआईडीएआई के पूर्व अध्यक्ष।
समिति को जिन विषयों पर काम करने के लिए कहा गया है, वह इस प्रकार होगा-
1. उन कारकों और स्थितियों का एक समग्र मूल्यांकन प्रदान करें जिनके कारण अभी प्रतिभूति बाजार में अस्थिरता आई है।
2. निवेशक जागरूकता बढ़ाने के उपायों का सुझाव दें ।
3. इस बात की जाँच करें कि अडानी समूह या अन्य कंपनियों के द्वारा प्रतिभूति बाजार से संबंधित कानून के कथित उल्लंघन से निपटने के लिए नियामक ढांचा था या नहीं ।
4. निवेशकों की सुरक्षा के लिए मौजूदा वैधानिक ढांचे और नियामक ढांचे को मजबूत करने और मौजूदा ढांचे में शिकायतों पर अमल के उपाय सुझाएँ ।
सुप्रीम कोर्ट ने सेबी के अध्यक्ष से इस समिति को सभी जानकारी प्रदान करने का अनुरोध किया है। केंद्र सरकार की सभी एजेंसियों को भी इस कमेटी से सहयोग के लिए कहा गया है। कमेटी अन्य विशेषज्ञों का सहारा लेने के लिए भी स्वतंत्र है। कमेटी के सदस्यों का मानदेय अध्यक्ष तय करेंगे और केंद्र सरकार उसका खर्च वहन करेगी। सचिव, वित्त मंत्रालय, एक वरिष्ठ अधिकारी को कमेटी के लिए सामग्री जुटाने के लिए एक नोडल अधिकारी के रूप में कार्य करने के लिए नामित करेगा। कमेटी के कार्य में होने वाला समस्त व्यय केन्द्र सरकार द्वारा वहन किया जायेगा।
कमेटी को दो महीने में अपनी रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में उच्चतम न्यायालय को सौंपने के लिए कहा गया है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि कमेटी का गठन अन्य नियामक एजेंसियों के कामों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगा। इसके साथ ही, न्यायालय ने सेबी को भी दो महीने की अवधि के भीतर अडानी-हिंडनबर्ग मामले में अपनी जांच पूरी करने और अदालत के समक्ष एक स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कहा है ।
राजेन्द्र शर्मा
यह कहने में शायद ज्यादा अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय राजनीति में बाबा युग आ पहुंचा है। एक दिन खबरों में गुरमीत राम रहीम की पैरोल पर एक और अपेक्षाकृत लंबी रिहाई और उसके दौरान सार्वजनिक आयोजनों में हिस्सेदारी की चर्चा होती है, तो अगले दिन छत्तीसगढ़-मप्र में विशेष रूप से सक्रिय बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री जैसे किसी तेजी से उभरते, नये बाबा के कारनामों की चर्चा होती है। उसके अगले दिन शासन द्वारा अनुमोदित, पोषित जग्गी वासुदेव जैसे किसी सद्गुरु के किसी भव्य सार्वजनिक आयोजन की चर्चा होती है, तो इसी बीच स्थानीय ख्याति के किंतु विवाद में लोकप्रियता खोजने वाले किसी बाबा के, किसी की ‘धर्म/जाति-द्रोही’ की जीभ काटकर लाने वालेे के लिए लाखों-करोड़ों रुपए के ईनाम के ऐलानों या अल्पसंख्यकों के कत्लेआम के आह्वानों, की खबरें आने लगती हैं।बेशक, इन बाबाओं में भारी भिन्नताएं हैं। मोटे तौर पर कम से कम तीन-चार ढीली-ढाली श्रेणियां तो आसानी से बनाई ही सकती हैं। इनमें एक श्रेणी तो राम रहीम, आसाराम बापू, रामपाल, प्रज्ञा ठाकुर आदि से लेकर, पिछले ही महीने अपने मठ में बच्चियों के यौन उत्पीडऩ के लिए गिरफ्तार किए गए कर्नाटक के एक मठ के स्वामी तक, ऐसे साधु वेशधारियों की ही बनाई जा सकती है, जो आपराधिक मामलों के लिए सजा काट रहे हैं या मुकदमों का सामना कर रहे हैं। बेशक, यह श्रेणी खासी भीड़-भाड़ वाली है। फिर भी, इसकी याद दिलाने का मकसद कम से कम यह इशारा करना नहीं है कि साधु-वेशधारी सब ऐसे ही ठग या अपराधी ही होते हैं। हां! इस वेश के ऐसे दुरुपयोग की संभावनाओं के संबंध में और सबसे बढक़र इसके परजीवियों की ओट बन सकने के संबंध में, हिंदीभाषी समाज बहुत पहले से सचेत रहा है। ‘नारि मुई, घर संपत्ति नासी, मूंड मुड़ाए भये सन्यासी’ जैसी लोकोक्तियां, इसी सहज-सावधानी का तकाजा करती हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे भगवावेशधारियों का कानून के सामने अभियुक्त बनना तथा उनका सजा तक पहुंचना भी, विरले ही कभी हो पाता है और हरेक मामले में इसके लिए उनकी जघन्यता के शिकार हुए लोगों के तथा पत्रकारों के, बहुत लंबे तथा कठिन संघर्ष और राजनीतिक-न्यायिक व्यवस्था के कई-कई संयोगों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
राम रहीम तथा आसाराम बापू इसके खास उदाहरण हैं। यानी जो मामले इस तरह उजागर होते हैं, वे तो सिर्फ पानी में तैरते हिमखंड की ऊपर से दिखाई देने वाली चोटी भर हैं। बेशक, यह सब नया हर्गिज नहीं है। लेकिन, इन भगवाधारी अपराधियों के लिए सत्ता के संरक्षण की दीदादिलेरी और इसलिए इनकी खुद को सभी नियम-कानूनों से ऊपर मानने की बढ़ती हेकड़ी जरूर नई है। और इससे भी ज्यादा नई है इस श्रेणी के संबंध में खासतौर पर गौर करने वाली एक और बात, और वह यह कि विभिन्न स्तरों पर, इन सभी धर्मगुरु पद के दावेदारों का, सत्ता के साथ जो परस्पर उपयोगिता का संबंध रहा है, उसमें देश के कानून के अंतर्गत उन्हें सजा मिलने या उनके अभियुक्त होने से, शायद ही कोई अंतर पड़ता है।
उल्टे सत्ताधारियों के सामने उनकी सौदेबाजी की ताकत कुछ कमजोर पडऩे से, अब उनका राजनीतिक उपयोग और ज्यादा खुलकर होने लगता है। राम-रहीम का हरियाणा-पंजाब में उपचुनावों तक में सत्ताधारियों द्वारा खुलेआम इस्तेमाल, इसी का साक्ष्य है। रामपाल जरूर अपने विशेष सामाजिक समर्थक आधार के चलते, इसका अपवाद हो सकता है।
एक और श्रेणी में हम यती नरसिम्हानंद, साध्वी शकुन पांडे, बजरंग मुनि, कालीचरण जैसे भगवावेशधारियों की विशाल और मौजूदा शासकों के आशीर्वाद व अनुमोदन से पिछले करीब एक दशक में जबर्दस्त तेजी से बढ़ी तथा ज्यादा से ज्यादा उग्र होती जाती फौज को रख सकते हैं। यह बढ़ती फौज, साधुओं के अखाड़ों तथा गद्दियों के परंपरागत फिर भी बढ़ते ताने-बाने के बीच, विहिप समेत आरएसएस नियंत्रित संगठनों व शासन के प्रभाव से धीरे-धीरे बढ़ती हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक गोलबंदी से भिन्न, एक दबाव समूह का काम कर रही है। यह दबाव समूह हिंदू धार्मिकता की पूरी संकल्पना को ही, सांप्रदायिक उग्रता और खासतौर पर मुस्लिम द्वेष की ओर धकेल रहा है। यह श्रेणी वर्तमान सत्ताधारी राजनीति का हाशिया ही बनाती है। हाशिया से आशय यह कि उसके द्वारा पोषित, संरक्षित होते हुए भी, जरा सी सुरक्षित दूरी से पोषित, संरक्षित है, जो इन भगवाधारियों को उग्रता की कुछ अधिक स्वायत्तता देता है और सत्ताधारियों को, उनके संबंध में किसी भी जिम्मेदारी से इंकार करने की छूट।
जाहिर है कि एक तीसरी श्रेणी परंपरागत अखाड़ों व गद्दियों से जुड़े बाबाओं की ही है, जो अपनी धार्मिक आस्थाओं के हिंदुत्ववादी सांप्रदायीकरण से बहुत खुश चाहे न हों, पर अनेकानेक कारणों से, जिनमें सत्ता से नजदीकी से हासिल होने वाले अतिरिक्त प्रभाव से लेकर, हिंदू धार्मिक प्रतीकों के बढ़ते बोलबाले से हासिल होने वाला अतिरिक्त महत्व तक शामिल हैं, वे अपने धार्मिक विश्वासों के सांप्रदायीकरण के बुलडोजर का मुकाबला करने में असमर्थ हैं और प्राय: अनिच्छुक भी हैं। वास्तव में, उनके बीच से प्रतिरोध की ऐसी इच्छा के उदाहरण भी ज्यादा से ज्यादा दुर्लभ ही होते गए हैं।
बेशक, रामकृष्ण मिशन जैसे कुछेक सम्मानजनक अपवाद अब भी बचे हुए हैं। दूसरी ओर, आर्य समाज को जिस तरह से हिंदुत्ववादी सांप्रदायीकरण की मुहिम ने पूरी तरह से पचा लिया है, इस मुहिम के बोलबाले का आंखें खोलने वाला उदाहरण है। इस तरह आर्य समाज की सीमित सामाजिक सुधार की ही नहीं, हिंदू श्रेष्ठïता की अपनी दावेदारी की सीमाओं में ही सही, फिर भी धार्मिक सुधार की उसकी सीमित भूमिका के भी पूरी तरह से खत्म कर दिए जाने का, इससे मुखर साक्ष्य क्या होगा कि तथाकथित सनातनी हिंदू परंपरा की मूर्ति पूजा, जातिवादी भेदभाव तथा स्त्री-अधिकारहीनता के काफी उग्र विरोध के आधार पर, स्वामी दयानंद ने, अक्सर शास्त्रार्थ तक पहुंच जाने वाले शास्त्रार्थों के जरिए जिस आर्य समाज को खड़ा किया था, वह पिछली सदी के आखिर तक आते-आते, न सिर्फ विहिप आदि की ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की मुहिम में बढ़-चढक़र शामिल हो चुका था, बल्कि अब बाकायदा उसी ‘सनातन धर्म’ का झंडा फहराने वालों में शामिल है, जिसके खिलाफ स्वामी दयानंद ने कभी अपनी ‘पाखंड खंडिनी पताका’ गाड़ी थी।
चौथी और एक आखिरी श्रेणी हम रामदेव, श्री श्री, जग्गी वासुदेव, माता आनंदमयी जैसे उन अत्याधुनिक बाबाओं/ माताओं की बना सकते हैं, जिनका धर्म का कारोबार कारपोरेट तौर-तरीकों से चलता है। वास्तव में यह संयोग ही नहीं है कि इस श्रेणी का एक पांव बाकायदा कारोबार में है यानी मालों के उत्पादन तथा मुनाफा लेकर वितरण में। और जैसे आज देश की सत्ता, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतों और कारपोरेटों के गठजोड़ के हाथों में है, उसी प्रकार धर्म के ये कारोबारी, वर्तमान सत्ताधारी गठजोड़ का जरूरी हिस्सा हैं।
सत्ताधारी संघ परिवार के धार्मिक मोर्चे के भगवाधारी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष कारकूनों से अलग, जो धर्म के नाम पर सीधे आम लोगों के बीच वर्तमान सत्ता के लिए समर्थन जुटाने का काम करते हैं, यह श्रेणी देश में और विदेश में भी, अपेक्षाकृत संपन्नतर तबके के बीच, उसके लिए अनुमोदन-समर्थन जुटाने का काम करती है। बेशक, रामदेव की जगह इस श्रेणी में भी जरा अलग है, जो कारपोरेट के रूप में आयुर्वेदिक उत्पादों से लेकर, खाद्य सामग्री तथा सौंदर्य प्रसाधनों तक के आम उपभोक्ताओं तक पहुंच बनाने कामयाब रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि बाबाओं का यह उभार, सिर्फ हिंदू धार्मिक परंपरा तक ही सीमित नहीं है। उस पैमाने पर न सही, पर विभिन्न रूपों में यही परिघटना अन्य धार्मिक परंपराओं के मामले में भी देखी जा सकती है। फिर भी सत्ता से जैसा अभिन्न गठजोड़, हिंदू धर्म के नाम लेवा कारपोरेट बाबाओं का है, वैसी स्थिति दूसरी धार्मिक परंपराओं के कारपोरेटनुमा धर्मगुरुओं को हासिल नहीं है।
यह भी याद रहे कि इन श्रेणियों के बीच कोई चीन की दीवार नहीं खिंची हुई है और इनमें काफी आवाजाही चलती रहती है। आदित्यनाथ का देश के सबसे बड़े और राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर जमा होना, इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। बेशक, उनसे पहले भी उन्हीं की पार्टी ने मध्य प्रदेश में एक भगवाधारी मुख्यमंत्री का तजुर्बा कर के देखा था।
लेकिन, वह तजुर्बा ज्यादा नहीं चला और महिला होने के नाते, भगवावेश के बावजूद उमा भारती की मुख्यमंत्री की पारी काफी कम समय में ही निपट गई। शायद, इसलिए भी कि वह मोदी-पूर्व काल की भाजपा थी, जो शासन का उस तरह खुलेआम हिंदुत्ववादी सांप्रदायीकरण करने में झिझकती थी, जैसा अब नया नार्मल बन चुका है। वैसे उनसे पहले भी देश के एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर कई वर्ष तक एक केसरियाधारी रहा था, जो परंपरागत अर्थों में राजनीतिक नेता भी नहीं था। हमारा इशारा अविभाजित आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, एन टी रामाराव की ओर है। पर आदित्यनाथ, उमा भारती आदि से उनकी समानता शायद, भगवा वेश की भारतीय परंपरा से जुड़ी, अतिरिक्त स्वीकार्यता के उपयोग तक ही सीमित है।
दूसरी ओर, आदित्यनाथ एक परंपरागत मठ की धार्मिक परंपरा से, जिसका हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक दिशा में राजनीतिकरण तो उनके गुरु, अवैद्यनाथ के समय में ही हो गया था, सीधे संघ परिवार द्वारा संचालित हिंदुत्ववादी राजनीतिक श्रेणी में संक्रमण का प्रतिनिधित्व करते हैं। देश के पैमाने पर विधिवत बाबा राज, यहां से एक प्रकार से एक कदम ही दूर रह जाता है। बेशक, भारत में त्याग की और उसके चिन्ह के रूप में भगवावेश के सम्मान की परंपरा बहुत पुरानी है। ऋषियों-मुनियों के व्यापक सम्मान के अलावा, जिसमें हर प्रकार के राजाओं द्वारा आदर-सम्मान तथा दक्षिणा दिया जाना भी शामिल था, गौतम बुद्घ और एक हद तक अशोक भी, त्याग के लिए सम्मान के अनोखे उदाहरण हैं। लेकिन, वह परंपरा सत्ता से दूरी, उससे स्वतंत्रता, उसके त्याग के, सम्मान की परंपरा है। त्याग के प्रतीक सन्यास का सत्ता तक पहुंचने के लिए उपयोग करने की परंपरा, उस प्राचीन भारतीय परंपरा को सिर के बल खड़ा करना है।
राजनीति में बाबाओं के उभार की यह समूची परिघटना, भारत में इस समय सत्तारूढ़ हिंदुत्व-कारपोरेट-बाबा गठजोड़ का ही परिणाम है। और यह सत्तासीन गठजोड़ खुद, उस नवउदारवादी व्यवस्था का परिणाम है, जो मूलत: एक असमानता बढ़ाने वाली और इसलिए, समाज के विकास को कुंठित तथा बाधित करने वाली व्यवस्था है। ऐसी व्यवस्था को चलते रहने के लिए, बढ़ते पैमाने पर उसी प्रकार धार्मिक वैधता का सहारा चाहिए, जैसे कि मध्यकाल तक के शासकों को इस वैधता के सहारे की जरूरत होती थी। वास्तव में उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन व्यवस्थाओं तथा उनकी जरूरतों से जुड़े वर्तमान चेतना के विकास को देखते हुए तो, उन्हें कथित धार्मिक वैधता के सहारे की और ज्यादा तथा धार्मिक पहचान के आधार पर शत्रुओं को खोजने व उनके खिलाफ युद्घ की मुद्रा में रहने की हद तक, जरूरत होती है। दुनिया भर में इस समय नव-फासीवादी ताकतों का जिस तरह का उभार देखने को मिल रहा है, इसी का सबूत है। आखिरकार, लोगों से भूखे पेट भजन कराना भी आसान तो नहीं ही है।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात की विधानसभा ने सर्वसम्मति से जैसा प्रस्ताव पारित किया है, वैसा देश की हर विधानसभा को करना चाहिए। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि गुजरात की सभी प्राथमिक कक्षाओं में गुजराती भाषा अनिवार्य होगी। पहली कक्षा से आठवीं कक्षा के छात्रों के लिए गुजराती पढ़ना अनिवार्य होगा। जो स्कूल इस प्रावधान का उल्लंघन करेंगे, उन पर 50 हजार से 2 लाख रु. तक का जुर्माना लगाया जाएगा। जो स्कूल इस नियम का उल्लंघन एक साल तक करेंगे, राज्य सरकार उनकी मान्यता रद्द कर देगी। गुजरात में बाहर से आकर रहनेवाले छात्रों पर उक्त नियम नहीं लागू होगा।
मेरी राय यह है कि गैर-गुजराती छात्रों पर भी यह नियम लागू होना चाहिए, क्योंकि भारत के किसी भी प्रांत से आनेवाले छात्र-छात्राओं के लिए गुजराती सीखना बहुत आसान है। उसकी लिपि तो एक-दो दिन में ही सीखी जा सकती है और जहां तक भाषा का सवाल है, वह भी कुछ हफ्तों में ही सीखना कठिन नहीं है। यह बात सभी भारतीय भाषाओं के बारे में लागू होती है, क्योंकि सभी भारतीय भाषाएं संस्कृत की पुत्री हैं। यह ठीक है कि जिन अफसरों और व्यापारियों को अल्प समय में ही अपना प्रांत बदलना पड़ता है, क्या उनके बच्चों की मुसीबत नहीं हो जाएगी? वे कितनी भाषाएं सीखेंगे? इस तर्क का जवाब यह है कि बचपन में कई भाषाएं सीख लेना काफी आसान होता है। मैंने फारसी लिपि कुछ ही घंटों में सीख ली थी और अंग्रेजी, रूसी, जर्मन और फारसी जैसी विदेशी भाषाएं सीखने में भी मुझे कुछ हफ्ते ही लगे थे। यदि हमारे देश के बच्चों पर स्थानीय भाषा सीखना अनिवार्य कर दिया जाए तो भारत के करोड़ों बच्चे बहुभाषाविद बन जाएंगे। आधुनिक भारत में करोड़ों लोग एक-दूसरे के प्रांतों में रहते और आते-जाते हैं। यह प्रक्रिया राष्ट्रीय एकता को मजबूत बनाएगी और हमारे युवकों की बौद्धिक प्रतिभा को नई धार देगी। यदि भारत में स्थानीय भाषा की अनिवार्य पढ़ाई का नियम लागू हो जाए तो हमारे पड़ौसी देश भी उसका अनुकरण करने लग सकते हैं।
नेपाल में नेपाली और हिंदी, श्रीलंका में सिंहली और तमिल, अफगानिस्तान में पश्तो और दरी तथा पाकिस्तान में पंजाबी, पश्तो, सिंधी और बलूच भाषाओं को एक साथ जाननेवालों की संख्या बढ़ेगी। ऐसा होने पर उन देशों की एकता तो मजबूत होगी ही, उनमें पारस्परिक सदभाव भी बढ़ेगा। जब मातृभाषाओं के प्रति प्रेम बढ़ेगा तो प्रत्येक राष्ट्र की राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा को भी उसका उचित स्थान मिलेगा। भारत में अंग्रेजी की गुलामी क्यों बढ़ती जा रही है? क्योंकि हमने अपनी मातृभाषाओं को अपनी पढ़ाई में नौकरानी का दर्जा दे रखा है। इसीलिए भारत में आज भी अंग्रेजी महारानी बनी हुई है। हमारे बच्चे बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई और पीएच.डी. के शोध-कार्य में एक मात्र अंग्रेजी ही नहीं, बल्कि विविध विदेशी भाषाओं का फायदा उठाएं, यह भी जरूरी है लेकिन बचपन से ही मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की उपेक्षा किसी भी राष्ट्र को महाशक्ति या महासंपन्न नहीं बना सकती। (नया इंडिया की अनुमति से)
अभी नहीं तो कभी नहीं’
जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा ने अपने देश के लोगों को इसी अंदाज में आगाह किया। वो देश की जन्मदर में तेजी से आ रही कमी को लेकर बात कर रहे थे। प्रधानमंत्री किशिदा ने जापान की जन्मदर में हुई ऐतिहासिक गिरावट पर चिंता जताई और कहा कि इसकी वजह से उनका देश एक समाज के तौर पर संतुलन बनाए रखने में नाकाम हो रहा है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जापान में बीते साल आठ लाख से कम बच्चे पैदा हुए। ऐसा सौ साल में पहली बार हुआ है कि किसी एक साल में इतने कम बच्चों का जन्म हुआ हो।
1970 के दशक में ये संख्या बीस लाख से ज्यादा थी।
विकसित देशों में जन्मदर में कमी की दिक्कत आम है लेकिन जापान में ये समस्या ज़्यादा गंभीर है। हालिया बरसों में औसत आयु बढ़ी है। इसके मायने ये हैं कि बुजुर्गों की संख्या लगातार बढ़ रही है जबकि ऐसे कामकाजी लोगों की संख्या कम है जो उनकी देखभाल कर सकें।
बुजुर्गों की बढ़ती संख्या
वल्र्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में मोनाको के बाद सबसे ज्यादा बुजुर्ग आबादी जापान में है। किसी भी देश के लिए अपनी अर्थव्यवस्था की रफ्तार को बनाए रखना उस स्थिति में बहुत मुश्किल हो जाता है, जहां आबादी का बड़ा हिस्सा रिटायर हो जाता है और कामकाजी आबादी की संख्या घट जाती है। वहां हेल्थ सर्विस और पेंशन सिस्टम अपनी क्षमता के सबसे ऊंचे पायदान को छू लेते हैं।
जापान इसी दिक्कत से जूझ रहा है। इसे देखते हुए प्रधानमंत्री किशिदा ने एलान किया कि वो जन्मदर को बढ़ावा देने के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर सरकार की ओर से खर्च होने वाली रकम को दोगुना कर रहे हैं। इसके जरिए बच्चों की परवरिश में मदद की जाएगी।
इसके मायने ये हैं कि इस क्षेत्र में सरकार का खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब चार फीसदी बढ़ जाएगा। जापान की सरकार पहले भी ऐसी रणनीतियां आजमा चुकी है लेकिन उन्हें मनचाहे नतीजे हासिल नहीं हुए हैं।
दिक्कत की वजह
जापान में अभी एक महिला औसतन 1.3 बच्चों को जन्म देती है। इस लिहाज से जापान सबसे कम दर वाले देशों में शामिल है। सबसे पीछे दक्षिण कोरिया है जहां ये औसत 0.78 प्रति महिला है। इस वजह से कई तरह के संकट सामने हैं। इनमें से कुछ दुनिया के दूसरे विकिसत देशों में भी दिखते हैं, जबकि कुछ समस्याएं खास जापान तक सीमित हैं।
ऑस्ट्रिया के विएना स्थित इंस्टीट्यूट फॉर डेमोग्राफी के डिप्टी डायरेक्टर टॉमस सोबोत्का कहते हैं कि ये कुछ कारण हैं जिनके इक_ा होने से जन्मदर में कमी आती है। वो कहते हैं, ‘जापान की कार्य संस्कृति ऐसी है कि जहां घंटों तक काम करने की जरूरत होती है। कर्मचारियों से जी जान लगाने और बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद की जाती है।’ वो बताते हैं, ‘ये साफ़ है कि परिवारों को आर्थिक प्रोत्साहन देने से ये समस्या हल हो जाएगी। इस दिक्कत की अहम वजह देश की जन्मदर में कमी आना है।’ सोबोत्का कहते हैं कि आम आर्थिक उपाय, बच्चों की परवरिश पर होने वाले भारी भरकम खर्च की भरपाई करने में काफी नहीं होंगे।
प्रवासी श्रमिकों से मिलेगी मदद?
कामकाजी लोगों की संख्या में भारी की कमी की भरपाई प्रवासियों के जरिए करने के सुझाव को जापान की सरकार ख़ारिज कर चुकी है। कामकाजी लोगों की संख्या कम होने से स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा के ढांचे पर लगातार दबाव बढ़ रहा है।
जापान में बीबीसी के संवाददाता रहे रूपर्ट विंगफील्ड हेज कहते हैं, ‘प्रवासियों को दूर रखने का भाव कम नहीं हुआ है।’
जापान की आबादी का सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा बाहर पैदा हुए लोगों का है। ब्रिटेन जैसे दूसरे देशों में ये हिस्सा करीब 15 प्रतिशत है।
रूपर्ट कहते हैं, ‘यूरोप और अमेरिका में दक्षिणपंथी लोग के ऐसे अभियान को नस्लीय शुद्धता और सामाजिक समरसता का उज्जवल उदाहरण बताते हैं लेकिन प्रशंसकों की सोच के उलट जापान में ऐसी नस्लीय शुद्धता नहीं है।’ वो कहते हैं, ‘अगर आप ये देखना चाहते हैं कि जन्मदर में गिरावट की समस्या के समाधान के लिए प्रवासियों के विकल्प को खारिज करने वाले देश का अंजाम कैसा हो सकता है तो ऐसे अध्ययन की शुरुआत के लिए जापान एक अच्छी जगह है।’
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में सेंटर फ़ॉर ग्लोबल माइग्रेशन के संस्थापक निदेशक जोवैनी पेरी कहते हैं कि जापान की चुनौती का समाधान प्रवासियों के जरिए ही मिल सकता है।
वो कहते हैं, ‘बड़े पैमाने पर प्रवासी आते हैं तो जनसंख्या और कामकाजी लोगों की कमी समस्या का समाधान प्रभावी तरीके से किया जा सकता है।’ वो आगाह करते हैं, ‘जापान की आबादी बढ़ाने के लिए सरकार बड़े पैमाने पर प्रवासियों को आने देगी, मुझे ऐसा नहीं लगता है।’
जापान उसी दुनियावी संकट का सामना कर रहा है जिससे दूसरे विकसित देश जूझ रहे हैं। पेरी कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए प्रवासियों ख़ासकर युवाओं का आना ज़रूरी लगता है। ज़्यादा प्रवासी आएंगे तो श्रमिक बल की संख्या घटने में कमी आएगी। इससे टैक्स के जरिए होने वाली आय भी बढ़ेगी।
पैसे से हल हो सकता है संकट?
जापान की सरकार पहले ही साफ कर चुकी है कि प्रवासियों के जरिए वो समस्या का समाधान नहीं करना चाहती है। वो पैसे खर्च करके दिक्कत दूर करने के इरादे में है। प्रधानमंत्री किशिदा की योजना है कि ‘चाइल्ड केयर’ की मदद के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रमों पर सरकार की ओर से होने वाले खर्च को दोगुना कर दिया जाए।
सिंगापुर की नेशनल यूनिवर्सटी के ली कुआन यू स्कूल ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी की स्कॉलर पोह लिन टैन कहती हैं कि एशिया के दूसरे देशों मसलन सिंगापुर में जन्मदर को बढ़ाने के ले ज्यादा पैसे खर्च करने की नीति कारगर नहीं रही। सिंगापुर में सरकार 1980 के दशक से जन्मदर में गिरावट की समस्या से जूझ रही है।
साल 2001 में वहां सरकार ने जन्मदर बढ़ाने के लिए आर्थिक सहूलियतों के एक पैकेज का एलान किया। इसे कई सालों में तैयार किया गया था। पोह बताती हैं कि फिलहाल उस पैकज के तहत वहां पेड मैटरनिटी लीव दी जाती है। चाइल्ड केयर यानी बच्चे की देखभाल के लिए सब्सिडी दी जाती है। टैक्स में छूट और दूसरी रियायतें मिलती हैं। जो कंपनियां कर्मचारियों को माकूल सहूलियतें दे रही हैं, उन्हें कैश गिफ्ट और अनुदान मिलते हैं। वो कहती हैं, ‘इन सब प्रयासों के बावजूद जन्मदर लगातार गिर रही है।’
जन्मदर सिफऱ् जापान और सिंगापुर में नहीं घट रही है। दक्षिण कोरिया, ताइवान, हॉन्ग कॉन्ग और चीन के शंघाई जैसे उच्च आय वाले शहरों में कमी आ रही है।
विरोधाभास की वजह से दिक्कत
सिंगापुर और एशिया के दूसरे देशों में कामयाबी को लेकर एक तरह का विरोधाभास दिखता है। पोह कहती हैं, ‘जन्मदर को बढ़ा न पाने को नीतिगत नाकामी के तौर पर वैसे नहीं देखा जाता है, जैसे कि आर्थिक और समाजिक ढांचे की अभूतपूर्व कामयाबी की तारीफ होती है जहां कामयाबी हासिल करने पर भरपूर इनाम मिलते हैं वहीं सफलता की रेस जीतने की ख्वाहिश न दिखाने पर दंडित किया जाता है।’ वो कहती हैं कि इस वजह से ऐसे बदलाव किए जाने चाहिए जो आर्थिक सहूलियतों पर निर्भर नहीं हों। वो कहती हैं कि इस मामले में एक बेहतर नीति की ज़रूरत है जिससे ऐसे दंपतियों को मदद मिले जो कम से कम दो बच्चे चाहते हैं। ऐसी नीति लाना युवतियों को गर्भधारण करने के लिए प्रोत्साहित करने से बेहतर होगा।
हॉन्ग कॉन्ग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में सोशल साइंस के प्रोफेसर स्टुअर्ट जिएटल बेस्टन भी इस बात से सहमति जाहिर करते हैं। वो कहते हैं कि जन्मदर बढ़ाने के लिए आपको ऐसे लोगों की मदद करनी चाहिए जिनका एक बच्चा है और उनसे दूसरे बच्चे के बारे में सोचने के लिए कहा जाए। वो कहते हैं, ‘जन्मदर से जुड़ी नीतियों के कारगर न होने की वजह ये है कि ये नीतियां बुनियादी कारणों का समाधान नहीं करती हैं।’
स्टुअर्ट कहते हैं, ‘ये कारण हैं, कामकाज की असुरक्षा, घरेलू कामकाज में लैंगिक असमानता, दफ्तरों में भेदभाव और जीवन यापन पर होने वाला ऊंचा खर्च।’ वो कहते हैं, ‘कम जन्मदर दूसरी दिक्कतों के लक्षणों को जाहिर करती है।’
अतीत में अटका समाज
टॉमस सोबोत्का कहते हैं कि जन्मदर को प्रोत्साहित करने के लिए लोगों के जिंदगी जीने की स्थितियों को बेहतर बनाना जरूरी है। नौकरी की शर्तों में लचीलापन, बच्चों की देखभाल की अच्छी सुविधाएं, अच्छे मानदेय के साथ पैरेंटल लीव की सुविधा और जेब के माकूल मिलने वाले घर जैसे उपाय किए जाने चाहिए। वो आगाह करते हैं कि जापान में जन्मदर बढ़ाने के लिए ये सब करना भी काफी नहीं होगा। वो कहते हैं कि जापान में बड़े बदलाव की ज़रूरत है।
टॉमस कहते हैं, ‘समाज के लैंगिक और पारिवारिक नियम कायदे और अपेक्षाओं की जड़ें अतीत में अटकी हुई हैं।’ वो कहते हैं, ‘तमाम मौकों पर परिवार की देखभाल, घरेलू कामकाज, बच्चों को बड़ा करने और पढ़ाई में उनकी कामयाबी के लिए सिफऱ् मां को जि़म्मेदार मान लिया जाता है।’
टॉमस कहते हैं कि यूरोप के कुछ देशों ने जन्मदर बढ़ाने में कामयाबी हासिल की है। जर्मनी में कुछ हद तक ऐसा हुआ है। बीते 20 साल में वो वहां नीतियां बदली गई हैं। जो लोग बच्चे चाहते हैं, उनके लिए कामकाज और 'चाइल्ड केयर' की स्थितियां बेहतर हुई हैं। उनका कहना है, ‘कम से कम यूरोप में जिन देशों ने दीर्घकालिक फैमिली पॉलिसी में ज़्यादा संसाधन लगाएं हैं, वहां औसतन जन्मदर ज़्यादा है।’ वो कहते हैं कि फ्रांस ने ऐसा किया है। वो सबसे ज़्यादा जन्मदर वाले यूरोपीय देशों में शामिल हैं।
टॉमस अपने शोध से जुड़े अनुभवों के आधार पर बताते हैं कि 'सीमित फोकस' वाली नीतियां काम नहीं करती हैं। ऐसा तब होता है जब सरकारें माता-पिता को आर्थिक सहूलियतें देने के आधार पर जन्मदर बढ़ाने का लक्ष्य तय करती हैं। वो कहते हैं, ‘ये नीतियां तब और कम असरदार होती हैं जब आर्थिक सहूलियत तो हो लेकिन सेक्सुअल हेल्थ और गर्भपात की सुविधा आसानी से न मिले।’
जापान के प्रधानमंत्री किशिदा के जन्मदर बढ़ाने के लिए सरकारी खर्च दोगुना करने की नीति छोटी अवधि में कितनी कारगर होती है, ये आगे पता चलेगा। अगर ये तरीका काम नहीं आया तब हो सकता है कि जापान को लगे कि उन्हें अपने समाज के पारंपरिक मूल्यों को बदलना होगा और एक लचीली प्रवासी नीति बनानी होगी। हालांकि, इसके लिए एक लंबा इंतज़ार करना पड़ सकता है। (bbc.com/hindi)
-लक्ष्मण सिंह देव
शाजी जमा की लिखी किताब अकबर आज पढ़ी। इतिहास का रोचक वर्णन है और ईमानदारी से लिखी है। अकबर का धर्मांध एवं सेकुलर दोनों पक्षो का वर्णन है। सबसे रोचक बात है उस समय के बादशाहों का ज्योतिषियों में विशवास। किताब में लिखा है कि तैमूर की भी कुंडली थी और उसे साहिब किरान कहा जाता था क्योंकि जब वो पैदा हुआ तो उसकी कुंडली में उस समय बृहस्पति और शुक्र का योग था। इब्राहिम लोदी के दरबार में हिन्दू मुसलमान दोनों ही ज्योतिषी थे। अकबर की कुंडली इस किताब में पूरी डिटेल में बताई गई है। पूरे 4 पेज कुंडली और उसके योगों पर ही है। इससे पता चलता है कि मुसलमान भी उस समय ज्योतिष में यकीन करते थे। जहां तक मेरी जानकारी है इस्लाम धर्म में भविष्यवाणी करना हराम है?
एक रोचक वर्णन में अधम खान से अकबर पूछता है-तूने हमारे अटका को क्यों मारा। पेज के एंड नोट में लिखा है कि अकबर ने यही लाइन कही यह रेकॉर्डेड बात है। बुधवार के दिन अकबर हजरत अली के नाम का रोजा रखता था। एक बार अकबर कहीं से वापस आ रहा था तो आमेर में रुकने पर उसे एक पुच्छल तारा दिखाई दिया।उसने ज्योतिषी से पूछा तो बताया गया कि जिस और तारा दिखा है उस दिशा में किसी राजा की मृत्यु होगी। अकबर इस बात से बहुत डर गया और उसने बहुत दान दिया। बाद में ईरान का राजा शाह तस्मासप मर गया। लोग खुश हुए कि अब तबर्रा नहीं होगा।
शाह कट्टर शिया था, संभवत: इसलिए (तबर्रा= रसूल अल्लाह मुहम्मद साहेब के कुछ चुनिंदा साथियों को कोसना एवं उनकी निंदा करना)। शाह तस्मासप ने हुमायूं को शरण भी दी थी। शाह तस्मासप ने हुमायूं को शिया बनाने की कोशिश की। शाह ने हुमायूं से कहा कि ईरानी स्टाइल में बाल कटवा लो और सफ़वी ताज पहन लो (सफ़वी ताज वस्तुत: एक पगड़ी होती थी। जिसे 12 बार लपेट के पहना जाता था। 12 बार इसलिए क्योंकि इशना असरी शियाओं के इमामो का प्रतीक है, शाह तस्मासप के दादा हैदर को हजरत अली सपने में दिखाई दिए कहा कि एक ताज बनवाओ तो इस पगड़ी को ईजाद किया गया।
अकबर ने चितौड़ को जीतने के बाद वहां कत्लेआम भी करवाया। अकबर के बारे में 2 ऐसे प्रसंग लिखे हैं जहां उसे विवाहित औरतें पसन्द आई तो उसने उनके पतियों से उनके तलाक करवा के उनसे विवाह कर लिया। उन्माद में वह बकता था कि हिन्दू खाये गाय, मुसलमान खाए सुअर, तो कुछ चमत्कार हो वह अक्सर यह बात बड़बड़ाता था। मान सिंह की प्रशंसा में लिखे ग्रंथ मान सिंह रासो के अनुसार अकबर पिछले जन्म में ब्राह्मण था और इस जन्म में वह सनातन की रक्षा करने पैदा हुआ। एक अन्य अफवाह भी उस समय कुछ ब्राह्मणों ने ऐसी ही उड़ाई।
अकबर जब अभियान पर जाता था तो 2 तलों वाले तंबू में रहता था। इब्राहिम लोदी की बूढ़ी माँ द्वारा बाबर को जहर दिए जाने की घटना का भी वर्णन है। शेरशाह सूरी की 4 इच्छाओं का जिक्र है जिसमे एक इच्छा है कि वह पानीपत में इब्राहिम लोदी का मकबरा बनवाये और उसके सामने की मुग़लो की याद में एक स्मारक। दुश्मनों की याद में एक स्मारक बनवाये जिससे वो इतिहास में अमर हो जाये। इसी सिद्धांत पर चलते हुए संभवत: अकबर ने चितौड़ के किले में मुगल सेना का डटकर मुकाबला करने वाले जयमल एवं पत्ता की हाथी पर बैठी संगमरमर की मूर्तियां आगरा के किले के द्वार पर स्थापित करवाई।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल में नई सरकार को बने मुश्किल से दो माह हुए हैं और वहां के सत्तारुढ़ गठबंधन में जबर्दस्त उठापटक हो गई है। उठापटक भी जो हुई है, वह दो कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच हुई है। ये दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां नेपाल में राज कर चुकी हैं। दोनों के नेता अपने आप को तीसमार खां समझते हैं। हालांकि पिछले चुनाव में ये दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां नेपाली कांग्रेस के मुकाबले फिसड्डी साबित हुई हैं। नेपाली कांग्रेस को पिछले चुनाव में 89 सीटें मिली थीं. जबकि पुष्पकमल दहल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी को सिर्फ 32 और के.पी. ओली की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 78 सीटें मिली थीं।
दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने कुछ और छोटी-मोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़कर भानमती का कुनबा खड़ा कर लिया। शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस धरी रह गई लेकिन पिछले दो माह में ही दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों में इतने मतभेद खड़े हो गए कि प्रधानमंत्री प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया और अब राष्ट्रपति पद के लिए ओली की पार्टी को दरकिनार करके उन्होंने नेपाली कांग्रेस के नेता रामचंद्र पौडेल को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया है। ओली इस बात पर क्रोधित हो गए।
उन्होंने दावा किया कि प्रचंड ने वादाखिलाफी की है। इसीलिए वे सरकार से अलग हो रहे हैं। उनके उप-प्रधानमंत्री सहित आठ मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है। इन इस्तीफों के बावजूद फिलहाल प्रचंड की सरकार के गिरने की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि नए गठबंधन को अभी भी संसद में बहुमत प्राप्त है। नेपाली संसद में इस समय प्रचंड के साथ 141 सांसद हैं जबकि सरकार में बने रहने के लिए उन्हें कुल 138 सदस्यों की जरूरत है। सिर्फ तीन सदस्यों के बहुमत से यह सरकार कितने दिन चलेगी?
अन्य लगभग आधा दर्जन पार्टियां इस गठबंधन से कब खिसक जाएंगी, कुछ पता नहीं। उन्हें खिसकाने के लिए बड़े से बड़े प्रलोभन दिए जा सकते हैं। राष्ट्रपति का चुनाव 9 मार्च को होना है। अगले एक हफ्ते में कोई भी पार्टी किसी भी गठबंधन में आ-जा सकती है। नेपाल की राजनीतिक स्थिति इतनी अनिश्चित हो सकती है कि राष्ट्रपति का चुनाव ही स्थगित करना पड़ सकता है। नेपाल की इस उठापटक में भारत की भूमिका ज्यादा गहरी नहीं है, क्योंकि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां कभी पूरी तरह भारत-विरोधी रही हैं और कभी-कभी मुसीबत में फंसने पर भारत के साथ सहज बनने की कोशिश भी करती रही हैं।
इस संकट के समय नेपाली राजनीति में चीन की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रहनेवाली है। दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां उत्कट चीन-प्रेमी रही हैं। इस संकट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सत्ता ही ब्रह्म है, विचारधारा तो माया है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां भी आपस में लड़ती रही हैं लेकिन नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता ही सर्वोपरि है, चाहे वह हर साल बदलती चली जाए। नेपाल में जैसी अस्थिरता हम पिछले डेढ़-दो दशक में देखते रहे हैं, वैसी दक्षिण एशिया के किसी देश में नहीं रही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
गिरीश मालवीय
हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को आए अभी 40 दिन भी पूरे नहीं हुए हैं और गौतम अडानी तीसरे से सीधे चालीसवे नंबर पर पहुंच गये है इतने दिन हो गये लेकिन अडानी ने हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के खिलाफ़ कही मुकदमा लिखाया हो ऐसी कोई ख़बर नहीं है जाहिर है कि मुकदमे में अदानी को अपनी बात साबित करने को सुबूत देने होंगे और जैसे ही वो सुबूत पेश करेगा खुद अपने जाल में फंस जाएगा।
एक ही महीने में साफ दिख गया है कि इस मामले में हिंडनबर्ग सही था उसने अडानी ग्रुप की कंपनियों के शेयर की 85 प्रतिशत ओवर वैल्यू होने की बात की थी वो बिलकुल सही निकली।
भारत का शेयर बाजार इस रिपोर्ट के बाद झटके पे झटका खा रहा है बीते सात कारोबारी दिन में सेंसेक्स 2,031 अंक यानी 3.4 फीसदी गिर चुका है जबकि निफ्टी में 643 अंक यानी 4.1 फीसदी की गिरावट आई है
शेयरों में रोज गिरावट देखी जा रही है। पिछले एक महीने में अडानी ग्रुप का मार्केट कैप रेकॉर्ड स्तर तक गिर चुका है। 27 फरवरी 2023 को अडानी ग्रुप का मार्केट कैप 19.2 लाख करोड़ रुपये से लुढक़कर 6.8 लाख करोड़ रुपये तक गिर गया है। यानी एक तिहाई ही मार्केट कैप बचा हुआ है।
लेकिन असली संकट तो एलआईसी और सरकारी बैंकों पर नजऱ आ रहा है अदानी पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद एलआईसी के शेयर 17 फीसदी तक टूट गए हैं और महीने भर में भारतीय जीवन बीमा निगम का बाजार पूंजीकरण 75 हजार करोड़ से ज्यादा गिर गया है.अडानी समूह की 5 कंपनियों में रुढ्ढष्ट का बड़ा निवेश है। अडानी इंटरप्राइजेज, अडानी टोटल गैस, अडानी ग्रीन एनर्जी, अडानी ट्रांसमिशन और अडानी पोर्ट्स में रुढ्ढष्ट ने निवेश किया हैं। 23 जनवरी को इस निवेश का टोटल वैल्यू 72,193.87 करोड़ रुपये था, जो अब घटकर 25 हजार करोड़ रुपये के भी नीचे पर पहुंच गया है
अदानी को भारतीय स्टेट बैंक ने 27,000 करोड़ रुपये, बैंक ऑफ बड़ौदा ने 5,500 करोड़ रुपये और पंजाब नेशनल बैंक ने 7,000 करोड़ रुपये का लोन दिया है और हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद से कई सरकारी बैंकों के शेयर टूट गए हैं।
23 जनवरी को एसबीआई के शेयर 604.60 रुपये था, 28 फरवरी को गिरकर 524 रुपये पर बंद हुआ है।इसका शेयर प्राइस 12.66त्न गिर गया है. बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 18 फीसदी टूट गया है। इंडियन ओवरसीज बैंक का शेयर 17 फीसदी टूट गया है। पंजाब एंड सिंध बैंक का शेयर 15.6त्न टूटा,सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 16.47त्न टूटा है यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 16त्न टूटा गया है।
लेकिन इतना होने पर भी मोदी सरकार अडानी के साथ खड़ी हुई है उसने उसकी गलत प्रैक्टिस के खिलाफ़ किसी भी प्रकार की जांच करवाने का आश्वासन तक नहीं दिया है स्पष्ट है कि मोदी आज भी अडानी के साथ खड़े हुए हैं।
हेमंत कुमार झा
अमेरिका के न्यायिक इतिहास में एक मशहूर जज हुए हैं लुइस ब्रैंडिस। एक सौ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट में दिए गए एक चर्चित फैसले में उन्होंने कहा था, ‘किसी भी देश में लोकतंत्र और चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण एक साथ नहीं चल सकते। अगर चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण होगा तो लोकतंत्र महज मखौल बन कर रह जाएगा और अंतत: वह पूंजी के हाथों का खिलौना बन जाएगा।’
हालांकि, कालांतर में खुद अमेरिका में ब्रैंडिस के इस कथन के उलट पूंजी का संकेंद्रण निर्लज्ज तरीके से बढऩे लगा और बावजूद अपनी आंतरिक मजबूती के, अमेरिकी लोकतंत्र और उसकी नीतियों पर कुछ खास पूंजीपतियों का प्रभुत्व कायम हो गया।
अब चूंकि अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व महाशक्ति बन कर अंतरराष्ट्रीय पटल पर छा गया तो पूंजीपतियों के इशारों पर बनने वाली उसकी नीतियों का नकारात्मक असर दुनिया के गरीब और कमजोर देशों पर पडऩा स्वाभाविक था।
हालात बेहद संगीन तब होने लगे जब 1950 के दशक में आइजनहावर अमेरिका के राष्ट्रपति बने। असल में पूर्व सैन्य अधिकारी आइजनहावर अमेरिकी हथियार कंपनियों के अप्रत्यक्ष राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में राष्ट्रपति चुनाव में उतरे थे। पहले विश्वयुद्ध से त्रस्त और दूसरे विश्वयुद्ध से ध्वस्त मानवता अंतरराष्ट्रीय शांति की तलाश में थी और सोवियत संघ के भी महाशक्ति बन कर उभरने के बाद दुनिया में रणनीतिक संतुलन जैसा बनने लगा था।
अब...युद्ध हो ही नहीं तो हथियार कंपनियों का व्यापार कैसे फले फूले। तो, उन्होंने चुनाव में आइजनहावर का खुलकर समर्थन किया और जीत के बाद राष्ट्रपति ने भी उन्हें निराश नहीं किया। उन्होंने बढ़ते सोवियत प्रभाव को बहाना बना कर मध्य पूर्व के देशों सहित कई अन्य देशों को सैन्य सहायता के नाम पर बड़े पैमाने पर हथियार मुहैया कराना शुरू किया। अब तो द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद सुस्त पड़ी हथियार कंपनियों की चल निकली। उनका व्यापार तेजी से बढऩे लगा।
आइजनहावर ने अमेरिकी-सोवियत शीतयुद्ध को अपनी आक्रामक नीतियों से एक नए मुकाम पर पहुंचाया। अमेरिकी इतिहास में इन नीतियों को ‘आइजनहावर सिद्धांत’ के नाम से जाना जाता है।
1950 के दशक में अमेरिकी राजनीति और अर्थनीति में बड़ी हथियार कंपनियों के बढ़ते प्रभुत्व ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उसके बाद जितने भी राष्ट्रपति आए, सबने बातें तो शांति की की लेकिन दुनिया के हर कोने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष युद्ध को बढ़ावा देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। इतनी कि मानवता त्राहि-त्राहि कर उठी।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हथियार उद्योग की बड़ी भूमिका है और वहां की राजनीति को बड़े हथियार सौदागरों ने हमेशा अपने निर्णायक प्रभावों के घेरे में रखा। नतीजा, उन पूंजीपतियों के असीमित लालच ने दुनिया को फिर कभी चैन और शांति से जीने नहीं दिया। युद्ध पर युद्ध होते रहे, उनका मुनाफा बढ़ता गया। आजकल चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध में भी अमेरिकी-यूरोपीय बहुराष्ट्रीय हथियार कंपनियों के प्रभावों को महसूस किया जा सकता है।
तकनीक के विकास और उसके विस्तार ने पूंजीपतियों के लिए अवसरों के नए द्वार खोले क्योंकि उन्होंने तकनीक पर अपनी पूंजी के बल पर कब्जा कर लिया। धीरे धीरे जनता उनकी गुलाम होती गई और वे देश और दुनिया को हांकने लगे। राजनीति उनके इशारों पर नाचने वाली नृत्यांगना बन गई।
इन वैश्विक रुझानों से भारत जैसे गरीब और विकासशील देशों को भी प्रभावित होना ही था। विशेषकर 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की तीव्र होती प्रवृत्तियों ने भारत में भी चंद हाथों में पूंजी के संकेंद्रण को बढ़ावा देना शुरू किया। यद्यपि यहां की राजनीति में भी आजादी के बाद से ही पूंजीपतियों का प्रभाव बना रहा था लेकिन नई सदी तक आते आते यह प्रभाव एक नए मुकाम पर पहुंच गया। क्रोनी कैपिटलिज्म के प्रतीक के रूप में अंबानी घराने के उत्थान ने भारतीय राजनीति के नैतिक पतन का एक नया अध्याय लिखना शुरू किया।
देखते ही देखते अंबानी घराना इस देश का शीर्षस्थ अमीर बन गया। उनकी संपत्ति में इतनी तेजी से बढ़ोतरी कैसे हुई यह आम लोगों ही नहीं, अर्थशास्त्रियों के लिए भी जिज्ञासा का विषय बना रहा। देश की आर्थिक नीतियों के निर्माण पर इस घराने की पकड़ जगजाहिर रही।
लेकिन, क्रोनी कैपिटलिज्म को गैंगस्टर कैपिटलिज्म में बदलते देर नहीं लगी जब नई सदी के दूसरे दशक में राजनीति के मोदी काल ने गौतम अडानी के नाम को कारपोरेट जगत के शीर्ष पर ला खड़ा किया।
नियमित अंतराल पर जारी होती रही ऑक्सफैम सहित अन्य कई रिपोर्ट्स में चेतावनी दी जाती रही कि भारत में चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण बेहद खतरनाक तरीके से बढ़ता जा रहा है और यह एक कैंसर की तरह भारतीय राजनीति और समाज को अपने घेरे में लेता जा रहा है।
किंतु, मीडिया पर बढ़ते कॉरपोरेट प्रभावों और राजनीति के नैतिक पतन ने आम लोगों को वैचारिक रूप से दरिद्र बनाने का अभियान छेड़ दिया। दुष्प्रचार और गलत बयानी मीडिया का स्थायी भाव बन गया और नवउदारवादी नीतियों की अवैध संतानों के रूप में जन्मे नव धनाढ्य वर्ग ने समाज में नेतृत्व हासिल कर लिया।
समाज में बढ़ती विचारहीनता ने अनैतिक जमातों के नेतृत्व हासिल करने में प्रभावी भूमिका निभाई और भारतीय राजनीति ने पूंजी के कदमों तले बिछने में शर्माना छोड़ दिया। चुने हुए जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त अब खुले आम होने लगी और पूंजी राजनीति के सिर चढ़ कर अपने खेल खेलने लगी।
नतीजा, मतदाताओं का निर्णय अपनी जगह, राजनीति और कारपोरेट के अनैतिक गठजोड़ के खेल अपनी जगह। ऐसे में लोकतंत्र को मखौल के रूप में बदलना ही था। अब, ऐसे दृश्य आम हो गए कि मतदाताओं ने किसी सरकार को चुना और सत्ता में कोई अन्य सरकार आ गई। चार्टर्ड हवाई जहाज, उन पर बिकी हुई सामग्रियों की शक्ल में बैठाए और उड़ा कर ले जाए गए जनप्रतिनिधियों के समूह, फाइव स्टार होटलों या सात सितारा रिजार्ट्स में शर्मनाक बैठकों की शक्ल में अनैतिक मोल भाव के अंतहीन सिलसिले...।
सबको पता रहता है कि करोड़ों अरबों की ऐसी राजनीतिक डीलिंग्स में किन पूंजीपतियों का पैसा लग रहा है और अपनी मन माफिक सरकार बनवा लेने के बाद वे क्या करेंगे, लेकिन इन अनैतिक और अलोकतांत्रिक गतिविधियों के विरुद्ध जन प्रतिरोध की कोई सुगबुगाहट कहीं नजर नहीं आती , उल्टे आम लोग टीवी चैनलों के सामने बैठ इन खबरों और विजुअल्स का मजा लेते हैं, उन पर चटखारे लेते हैं। लोगों का वोट ले कर करोड़ों में बिक जाने वाले जनप्रतिनिधि अपने मतदाताओं की हिकारत के पात्र तो नहीं ही बनते।
पूंजी का चंद हाथों में अनैतिक संकेंद्रण, राजनीति का उसकी दासी बन जाना, मीडिया का उसका भोंपू बन जाना अंतत: ऐसे ही विचारहीन, खोखले समाज को जन्म देता है जहां न अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध उपजता है न राजनीतिक अनाचार के प्रति कोई जुगुप्सा का भाव उत्पन्न होता है।
अनैतिक पूंजी जब किसी को हीरो बनाती है तो वह समाजोन्मुख या जनोन्मुख हो ही नहीं सकता। उसे उन इशारों पर नाचना ही है जो उनको फर्श से अर्श पर पहुंचाते हैं।
निष्कर्ष में एक नई तरह की गुलामी आती है जिसमें जनता को पता भी नहीं चलता कि वह किन तत्वों की गुलाम बनती जा रही है। अपनी भावी पीढिय़ों के प्रति दायित्व बोध का नैतिक भाव उसके मन से तिरोहित हो जाता है।
आज का भारत इसी रास्ते पर है जहां चंद हाथों में पूंजी का सिमटना अब कोई रहस्य नहीं रह गया है, न यह रहस्य रह गया है कि राजनीति और कारपोरेट के वे खिलाड़ी कौन हैं जो जनता को गुलाम बनाने की साजिशों में शामिल हैं। और...मानसिक रूप से गुलाम होते लोग भला प्रतिरोध की भाषा क्यों बोलेंगे? वे तो प्रतिरोध और विचारों की बात करने वालों का मजाक उड़ाएंगे।
आज के भारत का स्याह सच यही है। एक सौ वर्ष पहले अपने उसी फैसले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज लुइस ब्रैंडिस ने यह पंक्ति भी लिखी थी, ‘चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण अंतत: मानवता के खिलाफ अनैतिक शक्तियों को ही मजबूत करेगा।’ आज वह आशंका सच में तब्दील हो कर हमारे सामने एक सामूहिक विपत्ति की तरह खड़ी हो चुकी है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली राज्य के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार कर लिया गया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने दिल्ली के शराब-विक्रेताओं से लगभग 100 करोड़ रु. खाए हैं। भ्रष्टाचार के आरोप में आप पार्टी के वित्तमंत्री सत्येन्द्र जैन पिछले कई महिनों से जेल काट रहे हैं। सिसोदिया पर भ्रष्टाचार के आरोप की जांच सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय कर रहा है। उसने दिल्ली सरकार के कई अफसरों, शराब व्यापारियों और दलालों को पहले से जेल में डाल रखा है।
सीबीआई ने इन लोगों के घरों ओर मोबाइल फोनों पर छापे मारकर कुछ तथाकथित ठोस प्रमाण भी जुटाए हैं लेकिन मनीष सिसोदिया के घर और बैंक में की गई तलाशियों में अभी तक कुछ हाथ नहीं लगा है। फिर भी उन्हें गिरफ्तार इसलिए किया गया है कि उनका एक सहयोगी ही एजेंसी की शरण में चला गया है और उसने सब रहस्य खोल दिए हैं। जाहिर है कि सीबीआई केंद्र सरकार के इशारे के बिना यह कार्रवाई क्यों करता? यह तो सबको पता है कि यदि आपको राजनीति करनी है तो भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है, इस सिद्धांत को आपको सबसे पहले मानना पड़ेगा।
इस तथ्य का मुझे अब से 65 साल पहले ही पता चल गया था, जब इंदौर में 1957 के चुनाव में मैं एक स्थानीय उम्मीदवार के लिए भाषण देते हुए शहर में घूमता फिरता था। केजरीवाल और सिसोदिया तो क्या, यदि गांधी और विनोबा भी चुनावी राजनीति में उलझ जाते तो उन्हें भी मजबूरन वही करना पड़ता, जो सभी नेता आजकल करते हैं। देश में एक नेता भी किसी पार्टी में आपको ऐसा नहीं मिल सकता जो शपथपूर्वक यह कह दे कि उसने कभी भ्रष्टाचार नहीं किया है।
जब चुनावों में करोड़ों-अरबों रु. खर्च होते हैं तो इतना पैसा आप कहां से लाएंगे? कई पार्टियों के शीर्ष नेताओं को मैंने स्वयं देखा है, अपने उम्मीदवारों से यह कहते हुए कि तुम इतने करोड़ रु. पहले लाओ, फिर तुम्हे टिकिट मिलेगा। सरकार के कई बड़े अफसर और यहां तक न्यायाधीशों ने, जो कभी मेरे सहपाठी रहे हैं, मुझसे कहा है कि हमें पैसा खाने के लिए मजबूर किया जाता है, हमारे नेताओं द्वारा! कई खास-खास पदों पर कई चुनींदा लोगों की नियुक्ति भी इसीलिए की जाती है।
वर्तमान मोदी सरकार यदि नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए ये छापे और गिरफ्तारियां कर रही है तो मैं इसका पूर्ण समर्थन करता लेकिन यह तब होता जबकि ये छापे भाजपा के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और अफसरों पर भी पड़ते। यदि वे निर्दोष होते तो भाजपा की छवि और ज्यादा चमक जाती। जो कार्रवाई बी.बी.सी., पवन खेड़ा और मनीष सिसोदिया वगैरह के खिलाफ हुई है, वही कार्रवाई गौतम अडानी के खिलाफ क्यों नहीं हुई?
अगर हो जाती तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जाता। इसमें शक नहीं है कि आप पार्टी भाजपा के लिए इस समय बड़ी चुनौती नहीं है लेकिन इस तरह के छापे डलवाकर आप पार्टी के प्रति भाजपा सहानुभूति की लहर उठवा रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कुछ दिनों बाद अंदर भेज दिए जाएं लेकिन ऐसी कार्रवाइयां एकतरफा होती रहीं तो यह भाजपा के लिए 2024 के चुनाव में बड़ा सिरदर्द बन सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
गणेश एन देवी
आजादी की पूर्व संध्या पर, अपनी विराट सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और आर्थिक स्थिति के बावजूद समस्त भारतवासियों के लिए सम्माजनक स्थान बनाना भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लिए एक बड़ी लेकिन विनम्र राजनीतिक चुनौती थी। उनके पास ठंडे बस्ते में डालने के लिए कुछ नहीं था- उन्हें देश को और ज्यादा विखंडन से बचाने और ‘राज्यों के एक संघ’ के रूप में इसकी अखंडता की रक्षा करनी ही थी, जिसका आजादी बाद की पीढ़ी के लिए एक स्वाभाविक उपक्रम मान बैठना सहज था। सौभाग्यवश उनके पास, भारत के पास- कांग्रेस के अंदर और उसके बाहर भी ऐसे बौद्धिक दिग्गज उपलब्ध थे, जो इन मसलों को अपने ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ तोल सकते थे और देश के युवा लोकतंत्र के वाजिब सवालों से टकराने में सक्षम थे। इन्हीं पेचीदा चुनौतियों में एक सवाल भाषा का भी था।
कुछ यूरोपीय देशों के विपरीत भारत कभी ‘एकभाषी’ नहीं था। यह धरती हमेशा, हर ऐतिहासिक दौर में बहुभाषी रही है। भारत को एक भाषी राष्ट्रवाद पर मजबूर करने से निश्चित रूप से इसका विखंडन होता, और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के नाम पर यह किसी भी तरह की भाषाई अराजकता को तो अनुमति दे नहीं सकता था। अपने स्वयं और हम सभी को एक साथ बांधे रखने के राजनीतिक उद्देश्य के लिए अपने भाषाई वैविध्य और समृद्धि को पोषित करना न सिर्फ नाजुक बल्कि मुश्किल कवायद भी थी। देश की एकता की रक्षा करते हुए भारत की बहुभाषिक स्वायत्तता बनाए रखने के लिए यह संतुलन संविधान की अनुसूचियों और विभिन भाषा-भाषिक राज्यों से हासिल किया गया था।
26 नवंबर, 1949 को जब संविधान सभा ने भारत का संविधान अंगीकार किया, उस वक्त संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाएं सूचीबद्ध थीं। बोलने वालों की आबादी के क्रम में उनका क्रम कुछ ऐसा था: हिन्दी, तेलुगु, बंगाली, मराठी, तमिल, उर्दू, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, उडिय़ा, पंजाबी, कश्मीरी, असमिया और संस्कृत। पिछले 55 वर्षों में आठवीं अनुसूची में तीन संशोधन हुए हैं और मौजूदा समय में इसमें 22 भाषाएं दर्ज हैं।
हैदराबाद और पंजाब के भाषाई आंदोलनों के बाद इनके जवाब में आंशिक रूप से राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। लेकिन यह एक नए उभरते राष्ट्र के संघीय ढांचे को परिभाषित करने की आवश्यकता का प्रतिफल भी था। कहना न होगा कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब,
महाराष्ट्र और कर्नाटक के भाषाई आंदोलनों का न सिर्फ एक मजबूत भावनात्मक आधार था बल्कि इन्हें व्यापक जनसमर्थन भी हासिल था। इतिहास के उस कालखंड में हमारे पास जनजातीय भाषाओं में ऐसे आंदोलन खड़े करने की क्षमता नहीं थी। वह क्षमता दशकों बाद आई और सन 2000 में झारखंड-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का अस्तित्व में आना उसी का प्रतिफल है। भाषाई सरकारों का गठन दरअसल भारत की बहुभाषिक गरिमा का स्वीकार तो था ही, उन सभी को ‘राज्यों के संघ’ के तौर पर भारत के विचार प्रति प्रतिबद्ध भी बनाए रखना था। इसने संघीय राष्ट्र के रूप में भारत के हमारे विचार का आधार तैयार किया।
आधुनिकता और राष्ट्रवाद पर नेहरू की समझ की छाप इन दोनों कार्रवाइयों में साफ देखी जा सकती है। प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने इस बात का खास ध्यान रखा कि औपनिवेशिक युग की तुलना में जनगणना की कवायद कहीं ज्यादा व्यापक और उपयोगी हो सके। अक्सर भुला दिया जाता है कि यह एकमात्र भारत ही था जिसकी जनगणना में हर मातृभाषा को शामिल किया गया था और यह काम 1961 में नेहरू के समय में ही हुआ था। इससे पहले या बाद में भी कभी किसी भी जनगणना में भारत का भाषाई परिदृश्य इतनी व्यापकता और ऐसी पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत नहीं हुआ। 1961 की जनगणना में ‘मातृभाषाओं’ की सूची में 1,652 प्रविष्टियां दर्ज थीं।
आजादी के बाद से भारतीयों ने हमारी भाषाई विविधता को एक सामाजिक मानदंड और इस राष्ट्र की एक अविछिन्न विशेषता के तौर पर स्वीकार किया है। नागरिकों के रूप में, हम अन्य भाषाओं के प्रति अपनी सहिष्णुता, अपना सम्मान जताने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते हैं। 19वीं सदी में जब यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था, तो इसे एक ‘राष्ट्रीय भाषा’ के अनुरूप नागरिकता की विशेषता के तौर पर देखा गया। हालांकि यूरोपीय राष्ट्रवाद के विचारों से प्रेरित, भारत की आजादी का संघर्ष किसी भी तरह के भाषाई रूढि़वाद में कभी नहीं उलझा।
1971 की जनगणना में तत्कालीन सरकार ने सिर्फ वही भाषाएं सूचीबद्ध करने का फैसला लिया जिन्हें 10,000 से अधिक लोग बोलते थे: उस सूची में 108 प्रविष्टियां थीं और 109वीं पर ‘शेष सभी’ था। कट-ऑफ आंकड़े की इस परिपाटी ने पहले से ही हाशिये पर पड़ी छोटी भाषाओं को और अलग-थलग कर दिया। धीरे-धीरे वे राजनीतिक विमर्श से भी लुप्त होने लगे और स्वाभाविक रूप से इसका असर सामाजिक जीवन में इसके क्षरण के रूप में सामने आया और यह वहां से भी लुप्त होने लगे।
इसका दूरगामी असर होना ही था और उन इलाकों में जहां हाशिये की ये भाषाएं बोली जाती हैं, वहां से वैसे इलाकों के लिए पलायन शुरू हो गया जहां मुख्यधारा की भाषाएं बोली जाती थीं। यह भारत की भाषाई विविधता में व्यापकता की भावना को ठेस पहुंचाने वाला था। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि बीते पचास सालों के दौरान अनुमानत: 250 भाषाएं हमारे नक्शे से गायब ही हो गई हैं। दूसरे शब्दों में, ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता के बाद से भारत ने अपने ‘विश्व विचारों’ का लगभग एक चौथाई हिस्सा कहीं खो दिया है।
2018 में जारी हुए पिछली जनगणना (2011) के आंकड़े के अनुसार, भारत के नागरिकों ने अपनी ‘मातृभाषाओं’ के तौर पर 19,569 नाम दिए जिन्हें तकनीकी तौर पर ‘रॉ रिटर्न’ का नाम दिया गया है। पहले से उपलब्ध भाषाई और समाजशास्त्रीय जानकारी के आधार पर अधिकारियों ने फैसला किया कि इनमें से 18,200 किसी भी ज्ञात स्रोत या जानकारी से ‘तार्किक रूप’ से मेल नहीं खाते। भाषाओं के नाम के तौर पर कुल 1,369 नाम या ‘लेबल’ तकनीकी रूप से ज्ञात के आधार पर चुने गए थे। छोड़ दिए गए ‘रॉ रिटर्न’ में लगभग 6 लाख की भाषाई नागरिकता को समाप्त कर दिया गया। इन्हें विचार के लायक भी नहीं समझा गया।
इस आकलन में चुने गए 1,369 ‘मातृभाषा’ नामों के अलावा भी 1,474 अन्य नाम मातृभाषा के तौर पर शामिल थे। उन्हें सामान्य लेबल ‘अन्य’ के तहत रखा गया था क्योंकि वर्गीकरण प्रणाली उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की पहचान नहीं कर सकती थी। भाग्यशाली 1,369 को कुल 121 ‘समूह लेबल’ के तहत एक साथ रखा गया और इन्हें देश के सामने ‘भाषा’ के रूप में प्रस्तुत किया गया। इनमें से 22 भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया है जिन्हें तथाकथित ‘अनुसूचित भाषाएं’ कहा जाता है। शेष 99 को ‘गैर अनुसूचित’ भाषाओं के रूप में व्याख्यायित किया गया था।
इनमें से अधिकांश समूहों को मजबूर किया गया था। उदाहरण के लिए, ‘हिन्दी’ के अंतर्गत लगभग 50 अन्य भाषाएं भी थीं। 50 लाख से ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली और अपना खुद का सिनेमा, रंगमंच, साहित्य और शब्दावली वाली भोजपुरी को ‘हिन्दी’ के रूप में दर्शाया गया। राजस्थान की लगभग 30 लाख आबादी की अपनी भाषाएं थीं लेकिन उनकी मातृभाषा के नाम पर भी हिन्दी ही दर्शाई गई। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में आदिवासियों की पावरी उसी तरह हिन्दी से जुड़ी थी, जैसे उत्तराखंड की कुमाउनी।
जमीनी सच्चाई के विपरीत रिपोर्ट में दर्शाया गया कि 528,347,193 (528 लाख से ज्यादा) लोग अपनी मातृभाषा के तौर पर हिन्दी बोलते हैं। 2011 की जनगणना राजनीतिक कारणों से जिस तरह स्थगित रखी गई है, उससे कम-से-कम 2024 तक तो इसके होने के आसार नहीं ही
हैं। 2031 तक भी इसे इसी तरह खींच लिया जाए तो हैरानी नहीं होगी। मान लेना चाहिए कि तब तक तो छोटी भाषाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा और जिस विविधता का वह प्रतिनिधित्व करते हैं, उसका सफाया ही हो चुका होगा!
लगभग तय हो चुका है कि सबसे अधिक प्रभावित होने वाले समुदाय आदिवासी और खनाबदोश होंगे जिनकी संख्या अपेक्षाकृत काफी कम है। हालांकि ऐसे समुदायों की कुल संख्या जिनकी भाषाएं अगली जनगणना में दर्ज भी नहीं होंगी, चिंता पैदा करने के लिए काफी बड़ी हैं। जाहिर है, इन समुदायों के लोगों को अन्य भाषाओं, मुख्य रूप से हिन्दी के तकनीकी आंकड़ों में शामिल कर लिया जाएगा, क्योंकि आदिवासी समुदायों का बड़ा वर्ग हिन्दी भाषी क्षेत्रों के हाशिये पर ही तो रहता है। संविधान भले ही अभिव्यक्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकर करता हो, कोई फर्क नहीं पड़ता कि भाषा जो हम इंसानों के लिए अभिव्यक्ति का प्राथमिक साधन है, ‘हिन्दी-हिन्दू राष्ट्रवाद की सेवा में’ भारत में आदिवासियों और घुमंतू खानाबदोश समुदाय की सैकड़ों भाषाओं को आधिकारिक रिकार्ड से ही समाप्त कर दिए जाने की आशंका सामने है। मुगालते में न रहें, एक ‘बहुभाषी राष्ट्र वाला भारत’ का वह महान सोच (नजरिया) अब खतरे में आ चुका है। (नवजीवनइंडिया)
(जीएन देवी भाषाविद और सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं)