विचार/लेख
आशुतोष भारद्वाज
गांधी ब्रह्मचर्य के तेरहवें वर्ष में थे, उम्र का पचासवां वर्ष था, जब उन्हें अपनी हमउम्र सरलादेवी चौधरानी से प्रेम हुआ। सभी नियमों को चीरता हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को गहन प्रेम में डूबे खत लिखे, गांधी ने उन्हें अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ कहा, उनके लेख ‘यंग इंडिया’ में प्रमुखता से प्रकाशित किये। यह संसर्ग दैहिक मिलन की कगार पर जा ठहरा कि गांधी के सहकर्मी कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें यह समझा पीछे खींच लिया कि यह संबंध न सिफऱ् गांधी बल्कि समूचे स्वतंत्रता संग्राम को शर्मसार कर सकता है।
गांधी पीछे हट गये। कुछ समय बाद उन्होंने सत्य के साथ अपने प्रयोगों पर आत्मकथा लिखी, अपने जीवन के तमाम अंतरंग क्षणों को लिख दिया, विफलताओं और ग्लानियों को साहसपूर्वक स्वीकार किया लेकिन सरलादेवी के साथ अपना हालिया प्रेम छुपा ले गये। वह महात्मा जिसने अपने सार्वजनिक और निजी जीवन में कोई फर्क नहीं किया, जिसने अपना प्रत्येक कर्म सूर्य के प्रकाश को समर्पित किया, वह इस प्रेम को क्यों न लिख सका?
इसकी कई व्याख्यायें हो सकती हैं। पहली, गांधी में शायद साहस न था कि अपने विवाहेत्तर प्रेम को लिख पाते। कस्तूरबा के प्रति अपनी कामना को लिखना आसान था, सरलादेवी के प्रति कामेच्छा को लिखना नहीं। दूसरी, गांधी को लगा कि उनका व्यक्तिगत प्रेम उस राष्ट्र से कहीं कमतर है जिसका नेतृत्व वे कर रहे थे। अगर उनके किसी सार्वजनिक स्वीकार से राष्ट्रीय आन्दोलन को क्षति पहुँचती है, तो उससे बचा जा सकता है।
या शायद गांधी को अपने आप पर, अपने प्रेम पर भरोसा न था। उन्हें शायद एहसास होने लगा था कि जिस भाव को हम अक्सर प्रेम घोषित करते हैं, वह अतिरेक और अतिश्योक्ति से निर्मित होता है, कि दरअसल कई बार औदात्य की आड़ में प्रेम दूसरे पर ईर्ष्यालु एकाधिकार चाहता है, कि विचारधारा के झंडे तले हुई हिंसा की तरह प्रेम के नाम पर हुई क्रूरता का आक्रांता को बोध नहीं होता, कि प्रेम की घोषणायें करते वक्त हम ख़ुद को धीमे-से फुसलाते हैं, अपनी चेतना को सुला देते हैं, इस उम्मीद में कि हम शब्दों से अपना समर्पण साबित कर देंगे जिसके लिये हम सर्वथा अयोग्य थे।
क्योंकि महान प्रेम-पत्र भी उन्हीं शब्दों से रचे जाते हैं, जिनके सहारे हमने अपने पिछले प्रेम को चुपचाप छला था।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिताजी के लिए जिस नाम का प्रयोग किया है, वह घोर आपत्तिजनक है। उसने नरेंद्र दामोदर दास मोदी की जगह ‘नरेंद्र गौतम दास’ शब्द का प्रयोग किया याने आजकल जो उद्योगपति गौतम अडानी का मामला चल रहा है, उसमें उसने अडानी के नाम का इस्तेमाल मोदी के पिताजी की जगह कर दिया। दूसरे शब्दों में यह अपमानजनक कथन यदि भूलवश भी किया गया है तो यह बताता है कि कांग्रेस कितनी दिवालिया हो गई है।
उसे अब सोनिया गांधी और राहुल गांधी नहीं बचा सकते। केवल गौतम अडानी ही बचा सकता है। इसीलिए आजकल सारे कांग्रेसी अडानी के नाम की माला जपते रहते हैं। जैसे कई तथाकथित ‘अनपढ़ हिंदुत्ववादी’ यह प्रचारित करने में जरा भी संकोच नहीं करते कि जवाहरलाल नेहरु और शेख अब्दुल्ला सगे भाई थे। इस तरह के निराधार और फूहड़ बयानों से आजकल भारत की राजनीति अत्यंत त्रस्त है। यह अच्छा हुआ कि खेड़ा ने अपने बयान पर माफी मांग ली है और कहा है कि वह वाक्य अनजाने ही उसके मुंह से निकल गया था।
लेकिन यह भी गौर करने लायक है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ दो-तीन घंटे में ही खेड़ा को गिरफ्तारी से मुक्त कर दिया, जमानत दे दी और सारे मामले को सुनवाई के लिए अगले हफ्ते तक आगे बढ़ा दिया। इस मामले की पैरवी प्रसिद्ध वकील अभिषेक सिंघवी ने की थी। सिंघवी ने भी खेड़ा के बयान को अनुचित बताया और क्षमा-याचना की बात कही।
लेकिन सिंघवी ने खेड़ा के पक्ष में बड़े मजबूत तर्क दिए। उन्होंने कहा कि जिन पांच धाराओं के तहत खेड़ा को गिरफ्तार किया गया है, उनमें से एक धारा भी उस पर लागू नहीं होती है। खेड़ा के बयान से न तो धार्मिक विद्वेष फैलता है, न राष्ट्रीय एकता भंग होती है और न ही देश में अशांति फैलती है। सर्वोच्च न्यायालय ने खेड़ा को जमानत पर तो छोड़ दिया है लेकिन उनके कथन पर काफी अप्रसन्नता जाहिर की है, जो कि ठीक है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या असम सरकार की पुलिस ने दिल्ली सरकार की मदद से जो कुछ किया है, क्या वह ठीक है?
खेड़ा को पुलिस ने हवाई जहाज से उतारकर गिरफ्तार किया। क्या उसने कोई इतना संगीन अपराध किया था? कांग्रेसियों का मानना है कि उसने गौतम अडानी का नाम लेकर मोदी की दुखती रग पर हाथ धर दिया था जैसा कि बीबीसी ने मोदी पर फिल्म बनाकर किया था, इसीलिए असम और दिल्ली की पुलिस ने यह असाधारण कदम उठा लिया। इस कदम ने उक्त आपत्तिजनक कथन को देशव्यापी तूल दे दिया। हताश और निराश कांग्रेसियों के अतिवादी बयानों पर आजकल कौन ध्यान देता है लेकिन सत्तारुढ़ भाजपा की ऐसी उग्र प्रतिक्रिया का असर क्या उल्टा नहीं होता है ? (नया इंडिया की अनुमति से)
राजशेखर चौबे
उस जमाने के सोवियत रूस के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर में भी शतरंज काफी लोकप्रिय था। सडक़ किनारे खेलने वालों की भीड़ होती और एक शक्तिशाली प्लेयर के विरुद्ध हम जैसे दसों लोग खेलते फिर भी वही जीतता था। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध विपक्ष की हालत भी वैसी ही है। विपक्ष कमजोर है और हमेशा कमजोर का साथ देना चाहिए इसलिए मैं विपक्ष के साथ हूँ। विपक्ष की भलाई इसी में है कि वे यह समझ ले कि वह पांच मैचों में पहले दो मैच हार चुके हैं और बचे हुए तीनों मैच उन्हें जीतना है। मोदी जी बढ़त ले चुके हैं। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा को लेकर अति उत्साह में दिख रही है लेकिन 2024 के आम चुनाव में इसका विशेष असर नहीं होगा। जिससे आपको लडऩा है आपको उनकी ताकत और कमजोरी पता होना चाहिए। पहले हम भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (हृष्ठ्र) के ताकत की चर्चा करेंगे।
नरेंद्र मोदीजी के नेतृत्व में इस सरकार ने हिंदुत्व को बढ़ावा दिया जिसके अंतर्गत अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 की समाप्ति , काशी कॉरिडोर का निर्माण, सीएएएनआरसी का केवल विधेयक पारित करना आदि है। मौजूदा सरकार की दूसरी ताकत है रेवड़ी यानी फ्रीबिस का वितरण। लगभग 80 करोड़ गरीब लोगों को अभी भी मुफ्त राशन दिया जा रहा है , प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्जवला योजना जैसे कई योजनाएं हैं। इस सरकार की तीसरी ताकत है आक्रामक राष्ट्रवाद का हिमायती होना। कार्ल माक्र्स ने धर्म को अफीम बताया था लेकिन मैं इसमें उग्र राष्ट्रवाद को भी जोडऩा चाहूंगा। उग्र राष्ट्रवाद का रास्ता घृणा से होकर गुजरता है। इस सरकार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि और ताकत है मीडिया का अधिग्रहण। आज प्रत्येक निष्पक्ष नागरिक यह जानता है कि कुछ गिने-चुने अखबारों को छोडक़र पूरा मीडिया सरकार के कब्जे में है। सोशल मीडिया खासकर व्हाट्सएप का इस सरकार ने बेहतर इस्तेमाल किया है और अपना एजेंडा आगे बढ़ाने का काम किया है। इस सरकार को मोदी जी की मनमोहक छवि का भी लाभ मिल रहा है। इस छवि को गढऩे में मीडिया का विशेष रोल है हालांकि वे उन्हें इसका श्रेय नहीं देते हैं। अब हम मौजूदा सरकार की कमजोरियों की चर्चा करेंगे। इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी है गरीबी महंगाई और बेरोजगारी का बढऩा । इस सरकार की आर्थिक नीतियां खासकर नोटबंदी जीएसटी तालाबंदी ने आम जनता की कमर ही तोड़ दी है। केंद्र सरकार को जी एस टी का लाभ हुआ है परंतु राज्य सरकारों की केंद्र पर निर्भरता बढ़ी है और वे याचक की भूमिका में आ गए हैं। पिछले नौ वर्षों में गरीब और गरीब हुआ है और अमीर और अमीर हुआ है इसे कोई नकार नहीं सकता। प्रतिवर्ष दो करोड़ रोजगार का वादा किया गया परंतु इन नौ वर्षों में एक लाख बेरोजगारों को भी रोजगार नहीं मिला है। इस सरकार की दूसरी कमजोरी है कारपोरेट का हिमायती होना। पहले कारपोरेट छिपकर अपना काम करते थे। अब वे छुपकर चंदा ( इलेक्टोरल बांड ) देते हैं परंतु खुलकर अपना काम करते हैं। कोविड के दौरान पूरी दुनिया की दौलत कम हुई परंतु देश के कारपोरेट घरानों के धन में बेतहाशा वृद्धि हुई। कॉरपोरेट टैक्स घटाकर सरकार ने अपनी पक्षधरता बता दी है। कॉरपोरेट के द्वारा सरकार ने मीडिया पर कब्जा जमा रखा है । आज गरीबी महंगाई बेरोजगारी की बात करने वालों को देशद्रोही करार दिया जा रहा है। इस सरकार से मुस्लिम ,अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और पिछड़े समुदाय का एक बड़ा तबका नाराज है। उन्हें लगता है कि उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है । सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग केवल विरोधियों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है। सत्ता पक्ष के किसी भी नेता पर आज तक कोई भी कार्रवाई नहीं हुई है, जनता इन बातों से वाकिफ है। इस सरकार में भी भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई है। आज भाजपा को विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बताया जा रहा है।
भाजपा की चुनावी रैलियों और अन्य खर्चों को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उन्हें धन की कोई कमी नहीं है। आज वह सबसे धनवान पार्टी है। इलेक्टोरल बांड से भी उसे ही सबसे अधिक धन मिला है। आप यह भी नहीं जान सकते कि किसने उन्हें चंदा दिया है। क्या ईमानदारी से ऐसे चुनाव लड़े जा सकते हैं और क्या जनप्रतिनिधियों की इस पैमाने पर खरीद-फरोख्त की जा सकती है? जन प्रतिनिधियों को धमकाने व डराने के लिए केंद्रीय एजेंसियों की मदद जगजाहिर है। संवैधानिक संस्थाएं जैसे चुनाव आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक भी दबाव में नजर आ रहे हैं। न्यायपालिका के निर्णय भी विभिन्न कारणों से प्रभावित होते रहे हैं। कॉलेजियम को समाप्त कर न्यायपालिका पर भी कब्जे का प्रयास प्रारंभ हो गया है। विरोध में लिखने और बोलने वाले मीडिया संस्थानों को डराया व दबाया जा रहा है। बीबीसी पर छापा इसका ताजा उदाहरण है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा रहा है। इन वर्षों में हमें एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस के लायक नहीं समझा गया।
इस समय विपक्ष के पास कोई ताकत नहीं है केवल सत्ता पक्ष की कमजोरी ही विपक्ष की ताकत है। विपक्ष में सभी विरोधी दल शामिल हैं। ये सभी विरोधी दल यह समझ लें कि यदि वे 2024 में नहीं जीत सके तो 2029 में भी नहीं जीत सकेंगे। भारतीय जनता पार्टी के पुराने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हो चुके हैं । अभी जो भी सहयोगी एन डी ए से जुड़े हुए हैं वे या तो डर से जुड़े हैं या लालच से। जिस दिन यह डर व लालच खत्म हो जाएगा वे भी अलग हो जाएंगे। एनडीए का अर्थ केवल और केवल भारतीय जनता पार्टी है। भाजपा जिन क्षेत्रों में मजबूत है वहां बेहद मजबूत है और जहां कमजोर है वहां काफी कमजोर है।
भाजपा प्राय: हिंदीभाषी क्षेत्र, कर्नाटक और गुजरात में मजबूत है । इस क्षेत्र में लोकसभा की 250 सीटें हैं । बची हुई 293 सीट पर भाजपा कमजोर है। इन 293 सीटों में भाजपा को अधिकतम 60 सीट मिल सकती हैं। बची हुई 250 सीटों में यदि विपक्ष 65त्न यानी लगभग 163 सीटों पर भाजपा को रोक ले तो वह भाजपा को 2024 में बेदखल कर सकता है। इस तरह भाजपा को 223 सीट पर रोका जा सकता है। सत्ता की मुख्य लड़ाई का केंद्र वही 250 सीट है जिस पर भाजपा मजबूत है । विपक्ष को उसी पर मुख्य ध्यान देना होगा।
सबसे पहले विपक्ष को वही करना होगा जो भाजपा करती आई है यानी कुछ मुद्दों को छोडऩा होगा जैसे धारा 370 की समाप्ति, समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण कानून सीएएएनआरसी कानून आदि। लगभग पूरे विपक्ष को एकजुट होना होगा। सीटों के लिए सबको दिल बड़ा रखना होगा। जिस राज्य में जो विपक्षी पार्टी अधिक ताकतवर है उसे ही कमान संभालनी होगी। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं यदि 75 सीटों पर समझौता हो जाता है तो पांच सीटों पर फ्रेंडली कंटेस्ट भी हो सकता है। कांग्रेस जब सत्ता में थी तब यही कहा जाता था कि विपक्ष एक साल से अधिक न तो साथ साथ रह सकता है और न ही अलग-अलग। यह बात अब भी लागू होती है। विपक्ष को चुनाव पूर्व अपना नेता चुनने की गलती नहीं करनी चाहिए अन्यथा क्या होगा हम सभी जानते हैं। मोदीजी के सामने कोई भी विपक्षी चेहरा टिकने वाला नहीं है। किसी चेहरे को चुनने का मतलब है मोदी जी को वाकओवर देना। यह अधिक अच्छा होगा कि राहुल गांधी जी यह घोषणा कर दें कि मैं या गांधी परिवार का कोई भी सदस्य 2024 में प्रधानमंत्री पद की रेस में नहीं है। 1977 और 1989 का आम चुनाव 2024 में विपक्ष के लिए सबक हो सकता है। यदि इन चुनावों में चुनाव पूर्व नेता चुना जाता तो वह विपक्ष का ही नेता बनता। भाजपा भी इस मुद्दे पर मुखर नहीं हो सकती क्योंकि 2017 में उत्तरप्रदेश के चुनाव के बाद ही योगी जी को नेता चुना गया था। सोशल मीडिया प्रचार का सशक्त माध्यम बन गया है। भाजपा ने इसकी ताकत को भांप लिया है। विपक्ष को भी इस पर ध्यान केंद्रित करना होगा। आम आदमी को समझाना होगा कि यह सरकार क्रोनी कैपिटलिज्म वाली सरकार है और अमीरों के हित में ही फैसले लिए जा यह हैं। इस सरकार से गरीब किसी चीज की उम्मीद न करें सिवाय खैरात के। अमीरों की बढ़ती अमीरी और गरीबों की बढ़ती गरीबी इस बात का प्रमाण है।
2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस ने प्रत्येक गरीब परिवार को प्रतिवर्ष 72000 देने का वादा किया था । विपक्ष इस तरह के अविश्वसनीय वादों से परहेज करे। ऐसे वादे प्राय: हारने वाला दल ही करता है। पंद्रह लाख प्रत्येक परिवार को देने का वादा कर और कुछ भी न देकर दो बार चुनाव जीतने वाले बिरले ही होते हैं। आप जो वादे पूरे कर सके वही वादे किए जाने चाहिए। सत्ता पक्ष की मुख्य कमजोरी गरीबी महंगाई बेरोजगारी पर विपक्ष को पूरा जोर लगाना होगा। भाजपा को ध्रुवीकरण का लाभ मिलता है और इसके लिए वे प्रयास भी कर सकते हैं। इसके लिए विपक्ष को तैयार रहना होगा और विपक्ष के बयानवीरों को जुबान पर लगाम लगाना होगा। वर्ष 1977 में जनता दल का गठन अभूतपूर्व प्रयोग था जिसमें अधिकांश विपक्षी दल एक ही छतरी के नीचे आ गए थे। इसी तरह 1989 के चुनाव में भाजपा और कम्युनिस्ट एक साथ थे और कांग्रेस के विरुद्ध मिलकर लड़े थे। 2024 में भी भारतीय राष्ट्रीय पार्टी (क्चक्रस्) जैसी किसी पार्टी का गठन अधिकांश विपक्षी दल मिलकर कर सकते हैं। भूले भटके यदि विपक्ष सत्ता में आ गया तो उसके लिए एक जरूरी संदेश है कि भ्रष्टाचार पर हर हालत में नियंत्रण पाना होगा।
किसान आंदोलन ने किसानों की ताकत का एहसास करा दिया है । अब आम व गरीब आदमी की बारी है। अभी भी देश में कुछ हद तक लोकतंत्र कायम है और आम और गरीब आदमी अपने वोट के सहारे बहुत कुछ बदल सकता है। कारण चाहे जो भी हो लेकिन आम आदमी त्रस्त है और उसकी कहीं भी सुनवाई नहीं है। भले ही राहुल, ममता, अरविंद, नीतीश आदि 2029 तक इंतजार कर सकते हैं लेकिन आम आदमी 2029 तक इंतजार करने के मूड में नहीं है जरूरत है उसे नेतृत्व प्रदान करने की । विपक्ष को ऐसा मौका दोबारा नहीं मिलेगा। देखना होगा क्या विपक्ष आम जनता की उम्मीदों पर खरा उतरेगा अन्यथा जैसे दस वर्ष बीते हैं वैसे ही और पांच वर्ष भी ‘अच्छे दिन’ की आस में गुजर जाएंगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के सिएटल नामक शहर में जाति-आधारित भेदभाव पर प्रतिबंध लग गया है। सिएटेल के नगर निगम ने यह घोषणा उसकी एक सदस्य क्षमा सावंत के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए की है। इस घोषणा ने सिएटल को अमेरिका का ऐसा पहला शहर बना दिया है, जहां जातीय भेदभाव अब समाप्त हो जाएगा। सिएटल अमेरिका के सुंदर शहरों में गिना जाता है। मैं उसमें रह चुका हूं। वहां के एक प्रसिद्ध बाजार में भारतीयों, पाकिस्तानियों और नेपालियों की कई दुकानें हैं। उस शहर में लगभग पौने दो लाख लोग ऐसे हैं, जो दक्षिण एशियाई मूल के हैं।
आप सोचते होंगे कि भारत में सदियों से चली आ रही यह जातिवादी भेदभाव की बीमारी अमेरिका में कैसे फैल गई है? विदेशों में भी रहकर भारतीय और पड़ौसी देशों के लोगों में यह तथाकथित ‘हिंदुआना हरकत’ कैसे फैली हुई है। पाकिस्तान में जातिवाद और मूर्तिपूजा को लोग ‘हिंदुआना हरकत’ ही कहते हैं लेकिन देखिए इस हरकत का चमत्कार कि यह भारत, पाकिस्तान और पड़ौसी देशों के मुसलमानों, ईसाई और सिखों में भी ज्यों की त्यों फैली हुई है। यहां तक कि अफगानों में भी यह किसी न किसी रूप में फैली हुई हैं।
वहां भी मजहब के मुकाबले जाति की महत्ता कहीं ज्यादा है। अब से 50-55 साल पहले जब मैं अमेरिका में पढ़ता था, तब भारतीयों की संख्या वहां काफी कम थी। तब किसी की जांत-पांत का कोई खास महत्व नहीं होता था। न्यूयार्क के बाजारों में दिन भर में एक-दो भारतीय दिख जाते थे तो उन्हें देखकर मन प्रसन्न हो जाता था लेकिन अब तो अमेरिका के छोटे शहरों और कस्बों में भी आपको भारतीय लोग अक्सर मिल जाते हैं। उनमें अब आपसी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या-द्वेष भी काफी बढ़ गया है।
वे सभी क्षेत्रों में बड़े-बड़े पदों पर भी विराजमान हैं। वहां भी अब जातिवाद का जहरीला पौधा पनप रहा है। ‘इक्वेलिटी लेव’ नामक संस्था ने जो आंकड़े इकट्ठे किए हैं, वे चौंकानेवाले हैं। उसके अनुसार नौकरियों और शिक्षा में तो जातीय भेदभाव होता ही है, सार्वजनिक शौचालयों, बसों, होटलों और अस्पतालों में भी यह फैल रहा है। सिएटल नगर निगम ने इस पर जो प्रतिबंध लगाए हैं, उनका कुछ प्रवासी संगठनों ने स्वागत किया है लेकिन लगभग 100 प्रवासी संगठनों ने क्षमा सावंत की इस पहल का विरोध किया है।
इस पहल को उन्होंने बेबुनियाद कहा है। इसे दक्षिण एशिया और विशेषकर भारत को बदनाम करने का हथकंडा भी माना जा रहा है। इस मामले में सबसे अच्छा तो यह हो कि भेदभाव के ठोस आंकड़े और प्रमाण इक्ट्ठे किए जाएं और यदि वे प्रामाणिक हों तो उनके विरूद्ध प्रवासियों में इतनी जन-जागृति पैदा की जाए कि कानूनी कार्रवाई की जरूरत ही न पड़े। (नया इंडिया की अनुमति से)
फेसबुक मित्रों के बीच जिज्ञासा उठी है कि रायपुर में क्या कभी अखिल भारतीय कांग्रेस सम्मेलन हुआ था। या इस वर्ष 2023 में पहली बार हो रहा है। इस सिलसिले में ‘अमर उजाला’ से संबद्ध पत्रकार सुदीप ठाकुर की किताब ‘लाल श्याम शाह: एक आदिवासी की कहानी’ से उद्धरण आए हैं। उससे भी जानकारी लेकर डा0 परिवेश मिश्रा ने कल ही एक बेहतर लेख लिखा है। अपूर्व गर्ग ने जिज्ञासा जाहिर की है कि शायद नेहरू जी पहली बार इंजीनियरिंग कॉलेज का उद्घाटन करने के नाम पर रायपुर 1963 में ही आए थे। फिर सबने चाहा कि मैं इस संबंध में कुछ कहूं क्योंकि मैं उस सम्मेलन का चश्मदीद गवाह रहा हूं।
शुरू में कह देना चाहिए शायद 1960 की अक्टूबर में रायपुर में हुआ अखिल भारतीय कांग्रेस का सम्मेलन वैसा औपचारिक अधिवेशन नहीं था जिसे कांग्रेस कार्यसमिति के फैसले के तहत आयोजित किया जाता है। लेकिन अपने कलेवर और रखरखाव के लिहाज से वह विशेष अधिवेशन अखिल भारतीय कांग्रेस सम्मेलन ही था। उसमें नेहरू के साथ साथ कांग्रेस के तमाम बड़े नेता और मंत्रिगण शामिल हुए थे।
मैं उस वक्त बीएससी फाइनल का छात्र था और हॉस्टल नंबर 1 में प्रीफेक्ट था। उसका बाद में नामकरण कॉलेज के संस्थापक प्राचार्य रहे उमादास मुखर्जी के नाम पर हो गया है। सभी हॉस्टल और कई प्रोफेसरों के निवास स्थान खाली करा लिए गए थे क्योंकि वहां कॉलेज के डेलीगेट्स और अतिथियों को ठहराना था। अपने निजी कारणों से मैं हॉस्टल खाली नहीं कर सकता था। लिहाजा मित्र ललित तिवारी और कवि राधिका नायक आदि की मदद से मैं रायपुर के विधायक तथा स्वागताध्यक्ष शारदाचरण तिवारी से मिला। उन्होंने बीच का रास्ता निकाला और मुझे अपने हॉस्टल में ठहरने वाले अतिथियों की देखभाल के लिए स्वागत सचिव बना दिया।
अचानक मेरे हॉस्टल में एक बड़ी सी बस में भरकर कई कांग्रेस कार्यकर्ता उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त की अगुवाई में उतरे। चंद्रभानु गुप्त धाकड़ नेता थे। चुस्त पाजामा कुरता और सिर पर टोपी पहने मुझसे मुखातिब हुए। कहा कि इन सब साथियों को कमरे दिखाओ। मुझे अच्छी तरह याद है नेहरू प्रणीत राष्ट्रीय एकीकरण की मुहिम के चलते वहां कई राज्यों के डेलिगेट्स को ठहरना था। चंद्रभानु गुप्त अड़ गए। बोले तुम्हारी व्यवस्था कुछ भी हो। मेरे सब साथी यहीं ठहरेंगे। मैं क्या कर सकता था। बाकी साथियों को पीछे छोडक़र वे मेरे साथ हॉस्टल में आए और कहा कि जो सबसे बड़ा कमरा है। वहां हम एक साथ बैठेंगे। तो मैंने उनको संभवत: सामने की ओर का कोने का 9 नंबर का कमरा दिखाया। वे अपने साथ कपड़े का बैनर लाए थे। मुझसे हथोड़ी और खीले मांगे। उसे ठोककर साथियों को बुलाया और कहा ये अपना दफ्तर है। सब कमरे इनसे देखकर घुस जाओ। सारी व्यवस्था तहस नहस हो गई।
उनके आने के कुछ पहले पंडित कमलापति त्रिपाठी कुछ चुनिंदा लोगों के साथ आए थे। पूरी तौर पर पहले उन्होंने एक छोटे कमरे में अपने निवास का प्रबंध किया और पूजा पाठ की व्यवस्था भी चाक चौबंद कर ली। शायद पूर्वमुखी कमरे 47 और 48 लिए थे। पूरा हॉस्टल उत्तरप्रदेश के डेलिगेट्स से भर गया। बाकी भारत को जहां जाना है जाए।
हॉस्टल से बाहर निकलकर एक खाली पड़े ड्रम पर गुुप्त जी स्थापित हो गए। मुझसे पूछा। मैं कहां का रहने वाला हूं। उन्हें खुश करने की गरज से मैंने कहा। मेरे पूर्वज कानपुर के हैं। गुप्त जी ने मेरी पीठ ठोकी और कहा। तुम तो घर के लडक़े हो। हम सही जगह आए हैं। अचानक उसी बीच एक कार साइंस कॉलेज के हमारे प्रो. सुरेन्द्रदेव मिश्र के निवास की ओर से मुडक़र हॉस्टल के सामने आ गई। ड्राइवर ने रोककर मुझसे पूछा। कागज की परची में प्रो. डीडी शर्मा का नाम लिखा था कि यह क्वार्टर कौन सा है। हॉस्टल नंबर 1 और हॉस्टल नंबर 2 के बीच प्रो. डीडी शर्मा और उनसे लगा हुआ क्वार्टर प्रो. एसके मिश्रा का था। कार चली गई। मैंने गौर नहीं किया था। चंद्रभानु गुप्त बुदबुदा कर बोले। कार में लाल बहादुर शास्त्री थे। वे प्रो. डी.डी. शर्मा के खाली कर दिए गए क्वार्टर में ठहरे।
शास्त्रीजी का नाम सुनकर मुझे अंदर से कीड़े ने काटा कि उनका ऑटोग्राफ लिया जाए। उस वक्त शायद वे बिना विभाग के मंत्री थे। वे तैयार होकर अखबार और कुछ कागजात पढ़ रहे थे। मुझे बाहर सोफे पर बिठा दिया गया। बेहद विनम्र शास्त्रीजी मुखातिब हुए। मैंने उनसे विनम्रता में ऑटोग्राफ देने कहा। भारत का एक केन्द्रीय नेता कितना विनम्र था! उन्होंने ऊपर से नीचे मुझे देखते पूछा। किस कक्षा में पढ़ते हो। बीएससी फाइनल को एक बड़ी क्लास समझाते मैंने कहा। मैं गणित का विद्यार्थी हूं। विनम्रता में दूसरा हथियार दिखाया। वे बोले। आप तो काफी ऊंची कक्षा में हैं। इतना तो मैं नहीं पढ़ पाया। फिर धीरे से आजादी के आंदोलन की ओर इशारा करते पूछा। क्या आप खादी नहीं पहनते। मेरे इंकार करने पर वे समझाते हैं कि आप जैसे युवक अगर एक जोड़ी खादी के कपड़े ही पहनने लगें। तो खादी ग्राम उद्योग की काया पलट सकती है। पराजित होकर मैं कहता हूं। कि मैं खादी के कपड़े पहनकर आता हूं। तभी ऑटोग्राफ लूंगा। एक दोस्त से उधार लेकर बेंसली रोड/ मालवीय रोड के खादी भंडार से किसी तरह एक जोड़ी कुरता पाजामा का जुगाड़ करता हूं। हालांकि उस समय पूरी तरह फिट नहीं हुआ। शास्त्रीजी ने ऑटोग्राफ दिया। संयोगवश उसी समय उनके पास एक फोन आया। जो राजकुमार कॉलेज से नेहरूजी के किसी सहायक ने किया होगा। उन्होंने अपनी विनम्रता में लेकिन जवाब दिया कि नहीं नहीं मैं यहीं ठीक हूं। वहां बड़े-बड़े आदमियों के पास ठहकर मैं क्या करूंगा। यहां कोई तकलीफ नहीं है। फोन बंद हुआ। दुबारा फिर आया। उन्होंने फिर अपना उत्तर दोहराया। मुझे लगा अच्छा हुआ। मैंने खादी पहनने की उस व्यक्ति की बात मान ली जो व्यक्ति विनम्र दिखने पर भी नेहरूजी के आमंत्रण नहीं मांगता। मुझे याद है चंद्रभानु गुप्त उनकी गुजरती मोटर देखकर सिहर उठे थे। पता नहीं शास्त्रीजी क्या थे?
अपने हॉस्टल की जिम्मेदारियों के बावजूद मैं एकाध बार सम्मेलन में भाषण सुनने गया था। हालांकि सब कुछ भूल सा गया है कि कौन क्या बोला। नेहरूजी भाषण देने के बाद कॉलेज के अंदर की सडक़ से जीई रोड अर्थात नेशनल हाइवे की ओर खुली जीप पर बढ़ रहे थे। तो भीड़ के कारण जीप बहुत धीरे चल रही थी। टाइम्स ऑफ इंडिया का एक संवाददाता नेहरू से मुखातिब पीछे की ओर दौड़ता हुआ उनकी तस्वीर लेना चाहता था। लेकिन एक इंस्पेक्टर उसे धकिया देता था। एक जगह सघन नारेबाजी और फूलों के हार नेहरूजी की ओर फेंके जाने के करतब के कारण जीप खड़ी हो गई। तो उस पत्रकार ने लगभग चीखकर पुलिस के सबसे बड़े अधिकारी का नाम लेकर कहा। रूस्तम जी योर डॉग डज़ नॉट नो हाउ टू बिहेव विथ ए प्रेस मैन। (तुम्हारा श्वान नहीं जानता कि एक पत्रकार से किस तरह का सलूक करना चाहिए।) नेहरूजी के चले जाने के बाद उस पत्रकार ने मुझसे मदद मांगी थी कि मैं उसके लिए टैक्सी का प्रबंध कर दूं। ताकि वो शहर जा सके। उन दिनों के रायपुर में तत्काल टैक्सी की कहीं से भी सुविधा कहां थी? मैंने अपने एक परिचित को वहां देखकर उनके वाहन के जरिए उस पत्रकार को शहर की ओर रवाना कर दिया।
मुझे लगता है नेहरू जी रायपुर में दो दिन रुके थे और अधिवेशन तीसरे दिन समाप्त होने को था। यह तो कांग्रेस कमेटी के पास रेकॉर्ड होना चाहिए कि यह कौन सा सम्मेलन था। उसके स्थानीय पदाधिकारी कौन थे। किसकी क्या भूमिका थी। उस वक्त की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के पास अपना कोई विश्वस्त रेकॉर्ड तो होना चाहिए। मेरी सीमा अपने हॉस्टल और शास्त्रीजी की देखभाल तक सीमित थी। उस वक्त का एक युवा छात्र नेहरू समेत कांग्रेस के बड़े धाकड़ नेताओं से बेतकल्लुफ होकर मिलने की मानसिकता में कहां था? सुदीप ठाकुर की किताब में कुछ तथ्यपरक उल्लेख हैं। जो उन्होंने कई महत्वपूर्ण नेताओं से निजी बातचीत के बाद विस्तारित किए हैं। स्मरण शक्ति और तथ्यों के वेरिफिकेशरन की विश्वसनीयता तो होती है। बाकी कांग्रेस के कर्णधार जानें।
रायपुर कांग्रेस सम्मेलन के ठीक एक साल बाद मैं साइंस कॉलेज यूनियन का प्रेसिडेंट बना। तब नई दिल्ली के तालकटोरा गार्डन्स में आयोजित अंतरविश्वविद्यालयीन यूथ फेस्टिवल में वाद विवाद प्रतियोगिता में मैं स्वामी आत्मानंद के छोटे भाई और बाद में भूपेश बघेल के ससुर बने डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के साथ हिस्सेदार था। उसी वक्त मैंने जवाहरलाल नेहरू से एक छोटा इंटरव्यू भी लिया था। छत्तीसगढ़ में यह भी बहुत प्रचारित किया गया है कि 1920 में गांधीजी पहली बार छत्तीसगढ़ में धमतरी और कंदेल ग्राम आए थे। इस संबंध में कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं मिलता। लेकिन स्थानीय लोगों ने कई लेख लिखे हैं। पुरातत्वविद राहुल कुमार सिंह ने इस संबंध में बेहतर खोज की है। इतिहास के तथ्यों और वस्तुओं को सुरक्षित रखने में हमारी निर्ममता और अनदेखी है कि यह भी कांग्रेस कमेटी के पास नहीं है कि 1960 में क्या हुआ था, जबकि सरकार के स्तर पर भी तमाम तरह का सहयोग तो दिया ही गया था। वह भी तो सरकारी कागजों में कहीं न कहीं दर्ज होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब से लगभग 65 साल पहले मैंने इंदौर में एक आंदोलन चलाया था कि सारे दुकानदार अपने नामपट हिंदी में लगाएं। अंग्रेजी नामपट हटाएं। दुनिया के सिर्फ ऐसे देशों में दुकानों और मकानों के नामपट विदेशी भाषाओं में लिखे होते हैं, जो उन देशों के गुलाम रहे होते हैं। भारत को आजाद हुए 75 साल हो रहे हैं लेकिन भाषाई गुलामी ने हमारा पिंड नहीं छोड़ा है। जो हाल हमारा है, वही पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यांमार का भी है। नेपाल, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों में ऐसी गुलामी का असर काफी कम दिखाई पड़ता है।
इस मामले में पंजाब की आप पार्टी की सरकार ने कमाल कर दिया है। उसने अब यह नियम कल (21 फरवरी) से लागू कर दिया है कि दुकानों पर सारे नामपट पंजाबी भाषा में होंगे और सारी सरकारी वेबसाइट भी पंजाबी भाषा में होंगी। जो इस नियम का उल्लंघन करेगा, उसे 5 हजार रु. तक जुर्माना भरना पड़ेगा। इससे भी सख्त नियम महाराष्ट्र में लागू हैं। वहां नामपट यदि मराठी भाषा और देवनागरी लिपि में नहीं होंगे तो एक लाख रु. तक जुर्माना ठोका जा सकता है। तमिलनाडु में भी जुर्माने की व्यवस्था है। कर्नाटक में भी नामपटों को कन्नड़ भाषा में लिखने का आंदोलन जमकर चला है।
यदि सारे भारत के प्रांत इसी पद्धति का अनुकरण करें तो कितना अच्छा हो। सबके घरों और दुकानों पर नामपट मोटे-मोटे अक्षरों में अपनी प्रांतीय भाषाओं में हों और छोटे-छोटे अक्षरों में राष्ट्रीय संपर्क भाषा हिंदी में हों और यदि कोई किसी विदेशी भाषा में भी रखना चाहें तो रखें। यदि यह नियम सारे देश में लागू हो जाए तो एक-दूसरे की भाषा सीखना भी काफी सरल हो जाएगा। यदि पंजाब की आप सरकार इतनी हिम्मत दिखा रही है तो दिल्ली में केजरीवाल की सरकार भी यही पहल क्यों नहीं करती?
दिल्ली अगर सुधर गई तो उसका असर सारे देश पर होगा। हमारे सभी राजनीतिक दल आजकल वोट और नोट के चक्कर में पागल हुए हैं। उन्हें समाज-सुधार से कोई मतलब नहीं है। भाषा के सवाल पर कानून बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ रही है? यह तो लोकप्रिय जन-आंदोलन बनना चाहिए। जैसे 5-7 साल पहले मैंने ‘‘स्वभाषा में हस्ताक्षर’’ अभियान चलाया था। अब तक लगभग 50 लाख लोगों ने अपने हस्ताक्षर अंग्रेजी से बदलकर स्वभाषाओं में करवा लिए हैं।
भारत के लोगों में स्वभाषा-प्रेम कम नहीं है लेकिन उसे जागृत करने का जिम्मा हमारे राजनीतिक दल और नेता लोग ले लें तो भारत को महाशक्ति बनने में देर नहीं लगेगी। दुर्भाग्य है कि हमारे साधु-संत, मौलवी और पादरी लोग भी भाषा के मुद्दे पर मौन रहते हैं। क्या उन सब पर मैं यह रहस्य उजागर करूं कि कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा के दम पर महाशक्ति नहीं बना है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रोहित देवेन्द्र
‘हमारे पिता बहुत बड़े डायरेक्टर-प्रोड्यूसर थे। मैं बहुत बड़ा डायरेक्टर था। हमारे पास सक्सेजफुल फिल्म स्टूडियो था। बावजूद इसके हम अपने छोटे भाई को स्टार नहीं बना सके। मतलब साफ है कि जिसे पब्लिक नहीं पसंद करती उसे उस पर थोपा नहीं जा सकता’ यह बात आदित्य चोपड़ा अपने भाई उदय चोपड़ा के लिए कह रहे हैं। आदित्य ऐसी कई सारी बातें कहते हैं जो नई हैं। उससे नया यह है कि हम पहली बार उन्हें कैमरे पर कुछ कहता हुआ देख रहे हैं।
नेटफ्लिक्स पर 4 एपिसोड की एक मिनी सीरीज ‘द रोमांटिक्स’ के नाम से स्ट्रीम हुई है। उसे फिल्म कहें? यशराज फैमली पर बनी डाक्यूमेंट्री कहें या यशराज द्वारा खुद के पैसों से खुद की आरती उतारने का उपक्रम कहें। यह आप पर निर्भर करता है। इस मिनी वेब सीरीज में यश चोपड़ा की पहली फिल्म से लेकर यशराज बैनर की अंतिम फिल्म पठान तक पहुंचने की कहानी बताई गई है। इस बैनर से अब तक जो फिल्में आई हैं उनके पीछे के कुछ किस्से हैं। फिल्मों को चुनने के पीछे की फिलॉसफी है। कई दर्जन फिल्म स्टार्स के छोटे-छोटे इंटरव्यू हैं। इस पूरे कहानी को एक तरह से एंकर आदित्य चोपड़ा कर रहे हैं।
आदित्य ऐसे निर्माता-निर्देशक रहे हैं जो मीडिया फैमिलियर नहीं रहे हैं। मैंने उन्हें कभी इंटरव्यू देते नहीं देखा। एक प्रोड्यूसर की तरह फिल्म प्रमोट करते नहीं देखा। वीकेंशन की फोटो शेयर करते नहीं देखी। अपनी फिल्मों की एक्ट्रेसेस के साथ अफेयर की गॉसिप नहीं सुनी। रानी मुखर्जी के साथ नाम जुडऩे की गॉसिप से पहले शादी की तारीख आ गई थी। तो एक तरह से इस सीरीज का सबसे बड़ा हासिल आदित्य को बोलते हुए देखना है।
आदित्य एक बड़े और लोकप्रिय फिल्मी घराने के मालिक हैं। कई सारी सुपरहिट फिल्में खुद भी डायरेक्ट की हैं। सैकडों फिल्म स्टार्स को लॉन्च किया है। बहुत सारे निर्देशकों को पहले निर्देशक और फिर क्रिएटिव प्रोड्यूसर बनने के मौके दिए हैं। हिंदी सिनेमा के स्पॉट लाइट में खड़े उस व्यक्ति को देखते हुए अच्छा लगता है। सुनकर लगता है कि आदित्य के पास फिल्मों की मैथमेटिक्स, रसायन शास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को समझने की बेहतर समझ है। कला की समझ तो है ही।
कई दफे यह एहसास हो सकता है कि यह खुद पर पुष्प वर्षा के लिए बनाई गई फिल्म है। लेकिन जब आप यशराज बैनर की फिल्मोग्राफी देखते हैं। सिनेमा को दिए गए उनके योगदान का वजन करते हैं तो पाते हैं कि थोड़ा शो ऑफ करना बनता है। फिल्म की एडीटिंग अच्छी की गई है। यशराज फिल्म के बहुत सारे गानों और दृश्यों को सही जगह यूज किया गया है।
किसी फिल्मकार की सफलता को बताने का यह थोड़ा महंगा और अमीरी वाला तरीका है। जावेद अख्तर ने जी के साथ मिलकर क्लासिक लीजेंड नाम का एक शो किया है। उसके कई सारे सीजन आ चुके हैं। जावेद उसमें जिस अधिकार से किसी फिल्ममेकर, एक्टर, गीतकार, संगीतकार के बारे में बताते हैं वह सुनकर सच सा लगता है।
सच यह डाक्यूमेंट्री भी लगती है लेकिन उतना सच यह भी है कि कई जगह यह सिर्फ आरती भी लगती है...
-डॉ. परिवेश मिश्रा
कांग्रेस पार्टी के रायपुर में होने वाले राष्ट्रीय अधिवेशन की इन दिनों बहुत चर्चा है। इससे पहले ऐसा ही अधिवेशन रायपुर में अक्टूबर 1960 में हुआ था। स्थान था साइंस कॉलेज का विशाल खेल मैदान।
साइंस कॉलेज नये विकसित हो रहे भिलाई के मार्ग पर शहर के छोर पर स्थित था। आसपास बसाहट नहीं थी। शहर की दिशा में कॉलेज कैम्पस की सीमा के सामने का हिस्सा आयुर्वेदिक कॉलेज से और पीछे का राजकुमार कॉलेज से जुड़ा था। राजकुमार कालेज की सीमा पर एक गेट था जो उपयोग में न होने के कारण बंद रखा जाता था। इसे कॉलेज का पूर्वी गेट कहते थे। शहर की ओर एक पश्चिमी गेट भी था। दरअसल इन दोनों गेट के बीच में बंद हो चुकी सडक़ का वह हिस्सा था जिसे अंग्रेज़ ‘द ग्रेट ईस्टर्न रोड’ कहते थे।
1817 में नागपुर में मुधोजी राव भोंसले और अंग्रेज़ों के बीच हुए युद्ध हुआ था। लोकमान्यता के अनुसार इस स्थान का नामकरण सत्रहवीं सदी में रहे यहां के दो यदुवंशी शासकों शीतला प्रसाद और बद्रीप्रसाद ग्वाली की याद में शीतलाबद्री किया गया था किन्तु अंग्रेज़ी भाषा में इस लड़ाई को ‘बैटल ऑफ़ सीताबर्डी’ के रूप में याद किया जाता है।
इस युद्ध के बाद नागपुर से दस मील दूर कामठी में एक छावनी बनाकर फ़ौज को रखा गया। कुछ सालों के बाद इस फ़ौज के एक हिस्से को जबलपुर और दूसरे को सम्बलपुर की ओर रवाना किया गया। सम्बलपुर की ओर मार्च करने वाली फ़ौज के कदमों के साथ साथ सदियों में उपयोग में आ रहे मार्ग ने ‘द ग्रेट ईस्टर्न रोड’ के रूप में अवतार लेना शुरू कर दिया था।
इसी ग्रेट ईस्टर्न रोड के हिस्से पर मुझे पण्डित जवाहर लाल नेहरू को पहली बार देखने और गुलाब का फूल पकड़ाने का अवसर मिला था। 1960 के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान वे राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल (श्री रघुराज सिंह) के आवास में रह रहे थे। कॉलेज का पूर्वी गेट खोल दिया गया था और उसी से निकल कर कर वे खुली गाड़ी में रास्ते के किनारे बच्चों का अभिवादन स्वीकार करते हुए अधिवेशन स्थल पर आना जाना करते थे। मेरा घर पुराने ग्रेट ईस्टर्न रोड के उस छोटे से हिस्से के किनारे था जो तब तक साइंस कॉलेज कैम्पस का हिस्सा बन चुका था।
ये सारी बातें याद आयीं जब श्री सुदीप ठाकुर की लिखी बेहतरीन पुस्तक ‘लाल श्याम शाह : एक आदिवासी की कहानी’ में इस अधिवेशन के बारे में पढ़ा और जाना कि मेरे साथ साथ हजारों आदिवासी भी उनमें शामिल थे जो नेहरू को पहली बार देख सुन रहे थे। कोई तीस-चालीस हजार आदिवासी छत्तीसगढ़, विदर्भ, और उड़ीसा के बड़े दायरे से निकलकर अलग अलग जत्थों में पैदल चलते हुए रायपुर पहुंचे थे।
सुदीप ठाकुर लिखते हैं ‘क्या बड़े क्या महिलाएं और क्या बच्चे, गाते-बजाते सब चल पड़े थे....सिर्फ पैदल चलते जाना और कहीं रास्ते में खाना बनाने के लिए रुक जाना...... देश के मध्य भाग में घने जंगलों के बीच से होकर गुजरने वाली आदिवासियों की इस यात्रा को दर्ज करने के लिए तब कोई पत्रकार या इतिहासकार मौजूद नहीं था। छह दशक पहले छत्तीसगढ़ का यह हिस्सा घने जंगलों से घिरा था। सडक़ों का विस्तार नहीं हुआ था। बताते हैं जिन रास्तों से दिन रात चलने वाले आदिवासियों के जत्थे निकले, सुबह लोगों ने देखा वहां पैरों से कुचलकर सांप-बिच्छू तक मरे पड़े हैं।’
श्री सुदीप ठाकुर की यह पुस्तक मेरे पास काफ़ी पहले आ चुकी थी। मुझे अफ़सोस यही है कि इसे पढऩे में मैंने इतना समय क्यों लगा दिया। शीर्षक से भ्रम हुआ था कि पुस्तक व्यक्ति केन्द्रित होगी। व्यक्ति केन्द्रित तो यह बेशक है। किन्तु केन्द्र का दायरा इतना व्यापक है कि इतिहास का बहुत बड़ा - महत्वपूर्ण और रोचक - हिस्सा इसमें समाया हुआ है।
कथा नायक लाल श्याम शाह राजकुमार कॉलेज में शिक्षा प्राप्त गोड़ ज़मींदार भी थे और विधानसभा और लोकसभा के सदस्य भी रह चुके थे। हस्ताक्षर में अपने नाम के साथ वे बहुधा ‘आदिवासी’ लिखते थे। भारत के विशाल मध्य भाग के रहने वाले आदिवासियों का उन्हे अपार स्नेह, प्रेम और विश्वास प्राप्त हुआ था। लोग उन्हे लाल श्याम शाह महाराज कहते थे। और उन्होंने अपने आप को आदिवासियों की हित-रक्षा के संघर्ष में झोंक दिया था।
आदिवासियों को आज़ाद भारत में न्याय पूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिलाने के लिये लाल श्याम शाह के द्वारा किये गये संघर्षों को बताने के साथ साथ श्री सुदीप ठाकुर उन अन्यायों का विस्तार से वर्णन करते हैं जिनसे आदिवासियों को मुक्ति दिलाना उनके संघर्ष के मूल कारण बने थे। और इस बहाने बेहद रोचक शैली में वे अनेक नयी जानकारियों को सामने ले आते हैं।
भारत के अधिकांश घने जंगल इसी मध्य भाग में थे। आज़ादी से पहले तक ये जंगल राजाओं और ज़मींदारों के नियंत्रण में थे। आज़ादी के बाद खेत तो उन पर काबिज़ किसानों के हो गये किन्तु खेत की मेढ़ों के अलावा आस पास की खुली भूमि पर लगे बेशकीमती वृक्षों की मिल्कियत पर किसी का ध्यान नहीं गया था। यह वह दौर था जब ‘मालिक-मकबूजा’ शब्द का इस्तेमाल रातों रात बढ़ गया था। मान लिया गया कि जिसकी ज़मीन है वही वृक्ष का मालिक भी है। सैकड़ों हजारों रुपयों के मूल्य वाले वृक्ष आदिवासियों से कौडिय़ों के भाव खरीद कर रातों रात काट लिये गये। यही वह काल था जब उत्तर भारत से अनेक ऐसे परिवारों का छत्तीसगढ़ आगमन हुआ जो सिर्फ लकड़ी का कारोबार करने आये थे और फिर यही बस गये। सुदीप ठाकुर बस्तर की एक घटना लिखते हैं जिसमें एक आदिवासी ने अपनी ज़मीन के विशाल वृक्ष बेचने के लिए सहमति दे दी। कीमत के रूप में ठेकेदार ने उसे तथा उसकी बेटियों को रायपुर लाकर सिनेमा दिखाया था। अंतत: 1956 में कानून बना और बिना कलेक्टर की अनुमति के वृक्ष कटाई पर रोक लगी।
मालिक मकबूजा से जुड़ा इतिहास का यह महत्वपूर्ण अध्याय पुस्तक में वर्णित है क्योंकि इसके तार लाल श्याम शाह से सीधे जुड़े थे। 1956 के आदेश यूं ही सामने नहीं आये थे। सरकार का इस ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए लाल श्याम शाह को अपनी विधान सभा सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा था।
1960 के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान हजारों आदिवासियों को पैदल मार्च का आह्वान कर रायपुर बुलाने के पीछे भी लाल श्याम शाह का उद्देश्य ज्ञापन देकर पण्डित जवाहर लाल नेहरू का ध्यान आदिवासियों की समस्याओं की ओर आकृष्ट करना ही था।
1956 में राज्य पुनर्गठन हुआ और विदर्भ का हिस्सा छत्तीसगढ़ के हिस्से से अलग हो गया। एक झटके में छत्तीसगढ़ के किसानों के लिये बैलगाडिय़ों में लादकर गोंदिया, भण्डारा जैसे स्थानों में ले जाकर धान और चावल बेचने का काम अवैध घोषित हो गया।
इस तरह के तमाम वे मुद्दे हैं जो आज विस्मृत हो चुके हैं किन्तु उस काल में गांवों और जंगलों में रहने वाले लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण विषय थे। इन सब ने सतत रूप से लाल श्याम शाह को आंदोलन के लिए मजबूर किया। इन सब की पृष्ठभूमि में एक विषय जो पुस्तक में बार बार आता है वह है इस मध्य भाग के निवासियों के लिये छत्तीसगढ़ (या गोंडवाना) के रूप एक अलग राज्य की आवश्यकता का जिसके लिए मांग की प्रभावी शुरुआत करने वाले व्यक्तियों में लाल श्याम शाह अग्रणी थे।
पुस्तक लिखने में श्री सुदीप ठाकुर ने जितना गहन रिसर्च किया है, सरकारी दस्तावेजों, किताबों और रिपोर्टिंग्स को खंगाला है, जितने लोगों से साक्षात्कार किया है, यह सब हर पन्ने पर नजऱ आता है। पुस्तक की प्रस्तावना में मशहूर इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा लिखते हैं ‘बहुत सावधानीपूर्वक किये गये शोध के साथ बहुत प्यारे ढंग से लिखी गयी यह किताब एक असाधारण भारतीय को एक बेहतरीन श्रद्धांजलि है’।
-ध्रुव गुप्त
मनचाहा प्यार, वशीकरण, पारिवारिक कलह, सौतन से मुक्ति, मुकदमे में जीत, गुप्त खजाने के लिए संपर्क करें फलां बाबा से। सफलता की सौ प्रतिशत गारंटी। ऐसे विज्ञापन अखबारों के वर्गीकृत विज्ञापनों और स्थानीय टीवी चैनलों पर अक्सर दिखाई दे जाते हैं।
ऐसा ही एक विज्ञापन देख एक दिन ख्याल आया कि क्यों न आज किसी बाबा से थोड़ा-बहुत मनोरंजन कर लिया जाय। एक तंत्र सम्राट को चुनकर मैंने नंबर डायल कर दिया। उधर से बड़ी मुलायम आवाज आई- ‘क्या चाहिए बच्चा?’ मैंने कहा- ‘आप सर्वज्ञाता हैं, बाबा। मेरी समस्या आप खुद समझ लें। मुझे कहने में संकोच हो रहा है।’ बाबा हंसे- ‘मनचाहा प्यार?’ मेरे हां कहने पर बाबा ने मेरी उम्र और वैवाहिक स्थिति पूछी। मैंने अपनी असली उम्र बताते हुए कहा- ‘बीवी के दिन-रात के झगड़ों से परेशान हूं। शादी तो मुझे नहीं करनी, लेकिन कहीं से थोड़ा प्यार मिल जाय तो मेरा आगे का जीवन आसान हो। क्या इस उम्र में मनचाहा प्यार पाने की कोई गुंजाइश बची है, बाबा?’ बाबा ने कहा- ‘तुम्हारी उम्र को देखते हुए काम मुश्किल है। मुझे लंबी और कठिन तांत्रिक साधना करनी होगी। बहुत सारी सामग्री लगेगी। तीस-चालीस हजार का खर्च बैठेगा।’ बड़ी मिन्नतों के बाद यह सौदा बीस हज़ार पर आकर फाइनल हुआ।
बाबा ने कहा- ‘तत्काल सरसो के कुछ दाने लो और 10 दिनों में एक लाख’? हूं ‘मंत्र से सिद्ध कर रख लो। तुम्हारे पैसे मिल जाने के बाद मेरी साधना शुरू होगी। उसके बाद वह मंत्रसिद्ध सरसो तुम जिसके सिर पर डाल दोगे, वह चौबीस घंटों में तुम्हारे पीछे दौड़ी आएगी। काम न हुआ तो पैसे वापसी की फुल गारंटी।’ मैंने कहा- ‘बाबा रिटायर्ड आदमी हूं।
20 हजार का बड़ा जुआ खेलने में थोड़ा डर लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप पहले मेरा काम करा दो, पैसे मैं काम होते ही दे दूंगा। मेरी तरफ से भी फुल गारंटी है।’
गुस्साए बाबा ने शुद्ध उर्दू में मुझे पांच-दस श्राप देकर फोन काट दिया। अगले दिन मैंने एक दूसरे नंबर से फोन लगाकर बाबा को शुद्ध भोजपुरी में दस-बीस गालियां दीं और कहा कि आपका नंबर अब पुलिस के पास है। मेरा मनचाहा प्यार आपने नहीं दिलाया, अब आप अनचाहे पुलिसिया रोमांस के लिए तैयार रहिए!
पिछले कई दिनों से बाबा का नंबर बंद है।
-प्रकाश दुबे
बाबा वेलेंटाइन के भक्तों को भिगोता पूर्वोत्तर में बहार का सप्ताह आरंभ हुआ। गौरा के साथ नटराज महाशिवरात्रि बूटी प्रसादी बांटने आ पहुंचे। जुडऩे और जी जुड़ाने के मौसम में कामरूप में सूर्योदय के साथ अनोखा ऐलान हुआ-आप सबको प्रेम के त्यौहार वेलेंटाइन दिवस की शुभकामना। अवयस्क रिश्तेदारों की विवाह बाद गिरफ्तारी के बाद घबराए यात्रियों के चेहरों पर भी मुस्कान पुत गई। विमान यात्रियों को देशभक्तों की सूचना दी जाती है। 1857 के सेनानायक तात्या टोपे की जयंती पर श्रद्धांजलि देते हुए बताया गया- फिरंगियों की मदद कर रहे सिंधिया के ग्वालियर इलाके पर तात्या टोपे ने कब्जा कर लिया था। गोरिल्ला युद्ध विशेषज्ञ तात्या टोपे के बारे में हवाई अड्डों पर जारी घोषणाओं की नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को जानकारी भले न हो, विमानतल पर उनकी होर्डिंग कंपकंपाई होगी। होर्डिंग में मुस्कराते मंत्री माल ढुलाई यानी कार्गो कार्यालय खुलने पर पूर्वोत्तर की जनता को बधाई देते नजऱ आ रहे थे। अरुणाचल, मिजोरम 20 फरवरी को राज्य बने।
तिथि और मुहूर्त का अमृत बाजार
अंक गणित में प्रधानमंत्री को अच्छे नंबर मिलते थे या ममता बनर्जी को? हो सकता है, इस जानकारी के आड़े राष्ट्रीय गोपनीयता कानून डंडा लेकर खड़ा हो। आंकड़ों के खेल में दोनों अंकशास्त्रियों को मात देते हैं। दोनों के जासूस एक दूसरे की शतरंजी चाल पर बारीक नजऱ रखते हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय की पहल के कारण 16 फरवरी से आदि महोत्सव शरू हुआ। वह भी राजीव गांधी के नामपट्ट पोत कर हाकी के जादूगर ध्यानचंद को समर्पित स्टेडियम में। विधानसभा चुनाव और 2024 की लोकसभा तैयारी में इसका महत्व समझते हुए देश के दूरदराज इलाकों से जनजातीय कारीगर, उद्योजक, कलाकार, पाक विशेषज्ञ बुलाए गए हैं। मुख्यमंत्री ममता ने उसी दिन पश्चिम बंगाल के जंगलमहल क्षेत्र में बांकुरा में जल धरो, जल भरो योजना में चार सौ पोखर सहित चार अरब रुपए की योजनाएं शुरु कीं। पश्चिम मेदिनीपुर में सात सौ करोड़ लागत वाली 96 योजनाएं पहले ही शुरु की जा चुकी हैं। वर्ष 2019 में जंगल महल की सारी लोकसभा सीटें प्रधानमंत्री की पार्टी के पास चली गई थीं। ममता उनकी वापसी चाहती हैं। अमृत बाजार पत्रिका का स्थापना दिवस
स सडक़ का
डॉ. टी आर पारिवेंदर को संसद में भले लोकसभा सदस्य के रूप में जाना जाता हो, उनकी असली पहचान शिक्षाशास्त्री की है। तमिलनाडु के एस आर एम विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालय के समकक्ष मान्यता दी है। पेरम्बलूर से चुनाव लड़ते समय संस्थापक-कुलपति पारिवेंदर ने जरूरतमंद विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा देने का वादा किया था। हर बरस तीन सौ विद्यार्थी के हिसाब से आंकड़ा हजार के आसपास है। बर्मिंघम विवि से मानद डाक्टरेट पाने वाले सांसद पारिवेंदर ने विशेष दीक्षांत समारोह में गाजियाबाद केंपस में राष्ट्रीय राजमार्ग और सडक़ परिवहन मंत्री नितीन गडकरी को मानद डाक्टरेट से विभूषित किया। उसी दिन केन्द्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने चीनी मिल में इथानाल संयंत्र का शिलान्यास किया। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने अमित भाई की मौजूदगी और प्रधानमंत्री की तस्वीरों से काम चलाया। पानीपत से मराठे वापस लौटते हैं। इथानाल के लिए अभियान चलाने वाले गडकरी समारोह से करीब सौ किलोमीटर दूरी पर थे। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ऐतिहासिक लाहौर बस यात्रा का दिन।
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है
राजनीति में डिग्री के बजाय फब्तियां सहने के लिए गैंडे के लिए गैंडे की चमड़ी अधिक मूल्यवान होती है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खुराफात करने की अतिरिक्त योग्यता है। उन्होंने सूचना अधिकार के अंतर्गत गुजरात विश्वविद्यालय से प्रधानमंत्री की स्नातकोत्तर डिग्री मांगी। 1983 में दी गई एम ए की कथित डिग्री देने का निर्देश दिया गया, यह पहला अचम्भा। गुजरात में लंबे समय पत्रकारिता कर चुके उदय माहोरकर इन दिनों केन्द्रीय सूचना सलाहकार हैं। वे ही बता सकते थे। दूसरा अचम्भा यह, कि गर्वीले गुजरात के दिल्ली जा बसे सालिसिटर जनरल तुषार मेहता गुजरात उच्च न्यायालय में विवि की तरफ से जिरह करने पहुंचे। तुषार भाई ने दलील दी, उस पर किसी को अचम्भा नहीं हुआ। उन्होंने सवाल किया-केजरीवाल कहते हैं कि मैं अपनी डिग्री दिखाता हूं। प्रधानमंत्री अपनी दिखाएं। बचकानेपन भरी उत्सुकता की खातिर सूचना के अधिकार का उपयोग किया जा सकता है? इससे कौन सा सार्वजनिक हित सधेगा? बात में दम है। तभी सारी दलीलें सुनने के बाद उच्च न्यायालय ने कहा-फैसला बाद में सुनाएंगे।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 1947 में 20 फरवरी को भारत आजाद करने की घोषणा की थी। आजादी मिली-15 अगस्त को।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की यूक्रेन-यात्रा ने सारी दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया है। वैसे पहले भी कई अमेरिकी राष्ट्रपति जैसे जार्ज बुश, बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप इराक और अफगानिस्तान में गए हैं लेकिन उस समय तक इन देशों में अमेरिकी फौजों का वर्चस्व कायम हो चुका था लेकिन यूक्रेन में न तो अमेरिकी फौजें हैं और न ही वहां युद्ध बंद हुआ है। वहां अभी रूसी हमला जारी है। दोनों देशों के डेढ़ लाख से ज्यादा सैनिक मर चुके हैं। हजारों मकान ढह चुके हैं और लाखों लोग देश छोड़कर परदेश भागे चले जा रहे हैं। यूक्रेन फिर भी रूस के सामने डटा हुआ है। आत्म-समर्पण नहीं कर रहा है।
इसका मूल कारण अमेरिका का यूक्रेन को खुला समर्थन है। अमेरिका के समर्थन का अर्थ यही नहीं है कि अमेरिका सिर्फ डालर और हथियार यूक्रेन को दे रहा है, उसकी पहल पर यूरोप के 27 नाटो राष्ट्र भी यूक्रेन की रक्षा के लिए कमर कसे हुए हैं। बाइडेन तो युद्ध शुरु होने के साल भर बाद यूक्रेन पहुंचे हैं लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति इम्नुएल मेक्रों, जर्मन चासंलर ओलफ शुल्ज, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जाॅनसन और ऋषि सुनाक भी यूक्रेन की राजधानी कीव जाकर वोलोदोमीर झेलेंस्की की पीठ थपथपाए हैं।
राष्ट्रपति बाइडन का कीव पहुंचना इसलिए भी आश्चर्यजनक रहा कि इस समय रूसी हमला बहुत जोरों पर है और बाइडन के जीवन को कोई भी खतरा हो सकता था। इसीलिए यह यात्रा बिल्कुल गोपनीय रही लेकिन अमेरिकी शासन ने यात्रा के कुछ घंटे पहले मास्को को चेताया कि बाइडन कीव जा रहे हैं ताकि इस युद्ध को समाप्त किया जा सके। लेकिन बाइडन ने वहां जाकर क्या किया?
झेलेंस्की की पीठ ठोकी और 500 मिलियन डालर के हथियार और सौंप दिए। इसके अलावा उन्होंने रूस और चीन को चेतावानियां दे डालीं। अमेरिकी प्रवक्ता ने चीन पर आरोप लगाया कि वह रूस को हथियार सप्लाय कर रहा है। चीन ने इस आरोप को रद्द कर दिया और अमेरिका से कहा कि वह यूक्रेन को भड़काने की बजाए समझाने का काम करे।
अमेरिका के भी कुछ रिपब्लिकन नेता बाइडन की नीतियों को गलत बता चुके हैं। मुझे संदेह है कि बाइडन ने झेलेंस्की को कोई ऐसे सुझाव दिए होंगे, जिनसे यह युद्ध बंद हो सके। वास्तव में विश्व महाशक्ति बनते हुए चीन से अमेरिका ने ऐसा पंगा ले रखा है कि वह इस युद्ध को चलते रहना ही देखना चाहता है। इससे अमेरिका का शास्त्रास्त्र उद्योग भी परम प्रसन्न रहता है। इस मौके पर भारत की भूमिका बेजोड़ हो सकती है, लेकिन भारत के पास उस स्तर का कोई नेता या कोई कूटनीतिज्ञ होना जरूरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस पार्टी का वृहद अधिवेशन रायपुर में होने जा रहा है। इसमें कांग्रेस कमेटी के 1800 सदस्य और लगभग 15 हजार प्रतिनिधि भाग लेंगे। इस अधिवेशन में 2024 के आम चुनाव की रणनीति तय होगी। इस रणनीति का पहला बिंदु यही है कि कांग्रेस और बाकी सभी विरोधी दल एक होकर भाजपा का विरोध करें, जैसा कि 1967 के आम चुनाव में डाॅ. राममनोहर लोहिया की पहल पर हुआ था। उस समय सभी कांग्रेस-विरोधी दल एक हो गए थे। न तो नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं आड़े आईं और न ही विचारधारा की बाधाएँ खड़ी हुईं। इस एकता को कुछ राज्यों में सफलता जरूर मिल गई लेकिन वे सरकारें कितने दिन टिकीं। यह अनुभव 1977 में भी हुआ, जब आपात्काल के बाद मोरारजी देसाई और चरणसिंह की सरकारें बनीं। इससे भी कटु हादसा हुआ, विश्वनाथ प्रतापसिंह और चंद्रशेखर की सरकारों के दिनों में। विरोधी दलों की इस अस्वाभाविक एकता के दुष्परिणाम इतने कष्टदायी रहे हैं कि भारत की जनता क्या इस कृत्रिम एकता से 2024 में प्रभावित होकर मोदी को अपदस्थ करना चाहेगी?
इसके अलावा पिछले गठबंधनों के समय आपात्काल और बोफोर्स ने जैसी भूमिका अदा की थी, वैसा कोई मुद्दा अभी तक विपक्ष के हाथ नहीं लगा है। जहां तक अडानी के मामले का प्रश्न है, विपक्ष उसे अभी तक बोफोर्स का रूप नहीं दे पाया है। इसके अलावा आज विपक्ष के पास न तो लोहिया, न जयप्रकाश या चंद्रशेखर या वी.पी. सिंह जैसा कोई नेता है। नीतीश में वह संभावना थोड़ी-बहुत जरूर है लेकिन कांग्रेस अपने सामने किसी को भी क्यों टिकने देगी? उसके लिए तो राहुल गांधी ही सबसे बड़ा नेता है। लेकिन देश का कोई भी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय या प्रांतीय पार्टी राहुल को नेता मानने के लिए तैयार नहीं है। राहुल ने भारत-जोड़ो यात्रा के द्वारा थोड़ा-बहुत आत्म-शिक्षण जरूर किया है लेकिन कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं के मन में भी राहुल को लेकर दुविधा है।
कांग्रेसी नेता जयराम रमेश का यह कहना बिल्कुल ठीक है कि कांग्रेस के बिना विपक्ष की एकता संभव ही नहीं है, क्योंकि आज भी देश के हर शहर और हर गांव में कांग्रेसी कार्यकर्त्ता सक्रिय हैं। मोदी सरकार चाहे देश में कोई क्रांतिकारी और बुनियादी परिवर्तन अभी तक नहीं कर सकी है लेकिन उसने अभी भी देश की जनता के मन पर अपना सिक्का जमा रखा है। कांग्रेस जैसी महान पार्टी का दुर्भाग्य यह है कि उसके पास न तो आज कोई सक्षम नेता है और न ही कोई आकर्षक नीति है। उसके पास ‘गरीबी हटाओ’ जैसा कोई फर्जी नारा तक नहीं है। कांग्रेस में अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है लेकिन यदि कांग्रेस के असली मालिक खुद को थोड़ा पीछे हटा लें, अपने आप को मार्गदर्शक की भूमिका में डाल लें, पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र ले आएं और अनुभवी नेताओं को पार्टी की कमान सौंप दें और वे वैकल्पिक रणनीति तैयार कर लें तो इस बार कांग्रेस खत्म होने से बच सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-शची नेल्ली, शोनोत्रा कुमार
एथेंस में प्निक्स नाम का एक पहाड़ है, जहां एथेंस के निवासी इक_ा होकर राजनीतिक मुद्दों पर बातचीत करते थे और अपने शहर-कस्बों के भविष्य से जुड़े फ़ैसले लेते थे। यह दुनिया के इतिहास में पहली लोकतांत्रिक परंपरा में एक सार्वजनिक मंच का एथेनियन संस्करण था। इन चर्चाओं में सभी नागरिकों ने हिस्सा लिया था जिसमें 18,000-मजबूत एक्लेसिया या एथेनियन संसद का हिस्सा रहने वाले लोग भी शामिल हैं। यह अपने साथी नागरिकों से सीखने और अपने विचारों और नजरियों को बेहतर बनाने का अवसर था जिससे पूरे समाज को लाभ पहुंच सकता था। आज भी, एक लोकतांत्रिक प्रणाली में नागरिकों की भागीदारी अपनी तत्कालीन सरकार के साथ बातचीत करने से अधिक मानी जाती है। नागरिक आंदोलन लोकतांत्रिक मूल्यों की आधारशिला हैं और ये मूल्य सरकारी व्यवस्थाओं से बाहर निकलकर, नागरिकों के साथ जुडऩे से ही हासिल किए जा सकते हैं।
आधुनिक लोकतांत्रिक सरकार के तीन प्रमुख तत्व हैं: स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से सरकार को चुनने/बदलने की प्रणाली, सभी नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा, और सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू नियम-कानून। लेकिन आप अपनी सरकार को लोकतांत्रिक तभी कह सकते हैं जब एक नागरिक इन तीनों बातों को अपने व्यवहार में शामिल करता है। अर्थात, लोकतंत्र तभी जीवित रहता है जब उस देश के नागरिक की सक्रिय भागीदारी होती है।
लोकतंत्र में नागरिक भागीदारी के महत्व के बारे में सभी जानते हैं और यह सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य है। इसके बावजूद हम उन नागरिकों के बीच उल्लेखनीय अंतर पाते हैं जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से जुडऩा चाहते हैं और जो वास्तविक रूप से जुड़ते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं जिनमें से एक प्रभावी ढंग से जुडऩे के तरीकेों के बारे में जागरूकता की कमी है। भारत में एक नागरिक, सरकार से उसके कई स्तरों- संघ, राज्य और स्थानीय प्रशासन के साथ-साथ साथी नागरिकों के साथ भी जुड़ सकते हैं। इसके कुछ तरीके निम्नलिखित हैं-
केंद्र सरकार के साथ जुड़ाव
1. प्रतिनिधियों का चुनाव
हर पांच साल (सामान्य परिस्थितियों में) में, ‘हम भारत के लोगों’ को लोकसभा में उन प्रतिनिधियों को वोट देने के लिए कहा जाता है, जिनके बारे में हमें यह विश्वास होता है कि वे अपनी भूमिकाएं निभाने के योग्य और सक्षम हैं। मतदान के आंकड़ों की बात करें तो 2009 में 58 प्रतिशत से बढक़र 2019 में मतदान दर 67 फीसदी तक पहुंच गया था। इस आंकड़े को देखकर यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय आबादी का आधा से अधिक हिस्सा इस माध्यम से केंद्र सरकार से जुड़ता है।
2. कानूनों का सह-निर्माण
केंद्र सरकार के कई मंत्रालय नीतियों, संशोधनों, प्रस्तावित योजनाओं और विचारों पर आम जनता की प्रतिक्रिया जानना चाहते हैं। विशिष्ट विषयों पर कानूनों का मसौदा तैयार करने वाले केंद्रीय मंत्रालय अक्सर नागरिकों और हितधारकों से उनकी टिप्पणियां मांगते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रस्तावित कानून में उन लोगों के जीवंत अनुभव शामिल हों जो इससे सबसे अधिक प्रभावित होंगे। नागरिक अपनी प्रतिक्रिया सीधे मंत्रालयों को भेज सकते हैं या परामर्श की इस प्रक्रिया को सक्षम बनाने वाले हमारे जैसे मंचों का उपयोग कर सकते हैं।
सार्वजनिक प्रतिक्रिया एकत्र करने की इस प्रक्रिया को 2014 की सरकार द्वारा बनाई गई पूर्व-विधायी परामर्श नीति (प्री-लेजिस्लेटिव कन्सल्टेशन पॉलिसी) नामक नीति प्रोत्साहित करती है। यह नीति सांसदों को कम से कम 30 दिनों की अवधि के लिए, सार्वजनिक परामर्श के लिए दस्तावेज का एक मसौदा सार्वजनिक करने को कहती है। सिविस.वोट (ष्टद्ब1द्बह्य.1शह्लद्ग) पर अपने अनुभवों से हमने पाया है कि अक्सर समुदायों से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं के लगभग 30 से 70 प्रतिशत हिस्से को अंतिम दस्तावेज़ों में शामिल कर लिया जाता है। ऐसा करने से बनाए गए नए कानून में नागरिकों की आवाज़ भी शामिल हो जाती है। उदाहरण के लिए, सिविस पर ट्रांसजेंडर (अधिकारों का संरक्षण) नियमों के मसौदे पर एकत्र की गई प्रतिक्रियाओं में से 52 प्रतिशत को अंतिम कानून में शामिल किया गया था। कानून बनाने की प्रक्रिया में भाग लेने से, नागरिकों में स्वामित्व की भावना विकसित होती है और संवाद के माध्यम से आम सहमति बनती है।
3. प्रश्न करना
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में नागरिकों को सरकार से पारदर्शिता, जवाबदेही और जवाब मांगने के अधिकार की गारंटी दी गई है। हालांकि जवाबदेही बनाए रखने का दायित्व निर्वाचित और अन्य सरकारी अधिकारियों पर होता है, लेकिन एक नागरिक को सार्वजनिक सूचना और सरकार के कामकाज से संबंधित कोई भी प्रश्न पूछने का अधिकार है। आरटीआई अधिनियम ने एक ऐसी संरचना तैयार की है जो नागरिकों को सार्वजनिक अधिकारियों से उनके कामकाज, विभागों के कामकाज, बजट और परियोजनाओं, कुछ क्षेत्रों के नाम पर सवाल पूछने की अनुमति देती है। कानूनन सार्वजनिक अधिकारी 30 दिनों की अवधि के भीतर ऐसे सवालों का जवाब देने के लिए बाध्य होते हैं। अच्छी बात यह है कि इस कानून के तहत सूचना के अनुरोध की प्रक्रिया बहुत सरल है और आवेदन ऑफलाइन या ऑनलाइन दोनों तरह से किया जा सकता है।
4. संसद का अवलोकन
संसद के ऊपरी और निचले सदनों की सभी कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण सभी भारतीय नागरिकों के लिए बिना किसी शुल्क किया जाता है। इन कार्यवाहियों को देखने से हमें अपने द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों और सत्ता में सरकार के प्रदर्शन की गहरी समझ मिलती है। ये जानकारियां हमारे भविष्य के विकल्पों को हमारे सामने लाती हैं। संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही को टेलीविजन पर या उनकी आधिकारिक वेबसाइट के जरिए देखा जा सकता है। यह वेबसाइट सदस्यों द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तर सहित कार्यवाही के अभिलेखागार तक नागरिकों की पहुंच भी प्रदान करती है।
5. MyGov.in के माध्यम से ऑनलाइन भाग लेना
26 जुलाई, 2014 को लॉन्च किया गया रू4त्रश1.द्बठ्ठ सरकार का एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म है। यह प्लेटफॉर्म विभिन्न परामर्शों, क्विज, चुनावों, सर्वेक्षणों और प्रतियोगिताओं के माध्यम से सक्रिय नागरिक भागीदारी को बढ़ावा देता है। बड़े पैमाने पर लोकप्रिय यह प्लेटफॉर्म नागरिकों को शासन के तरीकों से जुड़े विचारों को जुटाने का एक अवसर देता है। उदाहरण के लिए, नमामि टेट अभियान के एक हिस्से के रूप में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ साइयन्सेज) ने हाल ही में नागरिकों से समुद्र तट को साफ करने से जुड़े नए तरीकों पर सुझाव मांगे हैं। इस पहल के तहत मंत्रालय को सीधे प्रभावित समूहों से लगभग 2,000 सुझाव मिले हैं। तटीय प्रदूषण को कम करने के लिए बनाई जाने वाली योजनाओं में इन सभी सुझावों को शामिल किए जाने की उम्मीद है। कोई भी नागरिक रू4त्रश1.द्बठ्ठ पर सीधे अपना अकाउंट बनाकर भागीदारी कर सकता है।
अपनी राज्य सरकार से जुडऩा
राज्य के चुनावों में मतदान करने और विभिन्न मंत्रालयों को आरटीआई दाखिल करने के साथ-साथ, आपकी राज्य सरकार के साथ जुडऩे के अन्य तरीको के बारे में यहां जानें-
टाउन हॉल में भाग लेना
केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा आयोजित सार्वजनिक परामर्शों की तरह ही राज्य सरकारें अक्सर उन जगहों पर टाउन हॉल्स और सार्वजनिक बैठकों का आयोजन करती है, जहां नीति में किसी प्रकार की कमी है या उसमें संशोधन की आवश्यकता है। ये टाउन हॉल्स नागरिकों को उनके अनुभवों, विचारों और समस्याओं के बारे में बताने का अवसर देते हैं। किसी भी नीति का मसौदा तैयार करने या आवश्यक बदलावों को करते समय, राज्य सरकारें नागरिकों के अनुभवों, विचारों और समस्याओं का ध्यान रखती हैं। ऐसे टाउन हॉल या इन जैसे मंचों का संचालन करने वाले अधिकारी आमतौर पर ऑनलाइन और अन्य पारंपरिक मीडिया स्रोतों का उपयोग करके उनका प्रचार करते हैं।
इसका सबसे ताजा उदाहरण तमिलनाडु सरकार है। तमिलनाडु सरकार ने ऑनलाइन गेम्स पर प्रतिबंध लगाने या उन्हें विनियमित करने का फैसले लेने के लिए इस तरीके को अपनाया था। इस मामले में नए कानून पर विचार करने के लिए न्यायमूर्ति (सेवानिवृत) के चंद्रु की अध्यक्षता में गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट दी थी। इस रिपोर्ट के मिलने के बाद सरकार ने सभी संबंधित हितधारकों (आम जनता, अभिभावक, शिक्षक, छात्र, युवा, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और ऑनलाइन गेमिंग प्रोवाइडर) को संभावित प्रतिबंध या विनियमितता पर अपने विचार रखने के लिए टाउन हॉल में आमंत्रित किया था। लोगों को एक ऐसा मंच प्रदान किया गया जहां विभिन्न खेल सेवाओं का लाभ उठाने वालों पर पडऩे वाले, इसके नतीजों पर चर्चा तो हुई ही। साथ ही, इस उद्योग में शामिल लोगों पर पडऩे वाले इसके प्रभाव पर भी बातचीत सम्भव हो सकी। इसके तुरंत बाद ही राज्य के कैबिनेट ने एक अध्यादेश जारी किया जिसके तहत राज्य में ऑनलाइन गेमिंग पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
अपने नगर निगम से जुडऩा
नगरपालिका, पंचायत, और अन्य स्थानीय चुनावों में मतदान करने और विभिन्न विभागों में आरटीआई दाखिल करने के साथ-साथ, आपकी स्थानीय सरकार के साथ जुडऩे के कुछ तरीके-
वार्ड/पंचायत/ब्लॉक, निर्वाचन क्षेत्रों से छोटे होते हैं, और इसलिए उन्हें चलाने के लिए चुने गए लोगों में अपने नागरिकों के साथ जुडऩे और प्रक्रियाओं में शामिल होने की क्षमता अधिक होती है। हालांकि एक वार्ड के निर्वाचित प्रतिनिधियों का दायरा पानी, स्वच्छता, पार्क और सडक़ों जैसे सार्वजनिक स्थानों के रखरखाव जैसे नगर निगम के मुद्दों को हल करने तक सीमित है। लेकिन जब आप इन प्रतिनिधियों से जुड़ते हैं, तब नागरिक मुद्दों पर इनके प्रत्यक्ष और सार्थक प्रभाव की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा, ऐसे कई कारक हैं जो तेज और सकारात्मक परिणामों के पक्ष में काम करते हैं: एक सक्रिय और भागीदारी करने वाला नागरिक वर्ग, वार्ड कार्यालयों तक सीधी पहुंच और नागरिक निकायों का पारदर्शी कामकाज।
नागरिक अपने वार्ड/पंचायत कार्यालयों में जाकर, उन्हें पत्र लिखकर या उनके हेल्पलाइन नंबरों पर कॉल करके अपने स्थानीय सरकारी अधिकारियों से संपर्क कर सकते हैं। कुछ स्थानीय सरकारों- जैसे मुंबई- ने भी अपने सोशल मीडिया इकोसिस्टम को इस तरह से बनाया है कि नागरिक अपनी समस्याएं बताने के लिए इन प्लेटफॉर्म का उपयोग कर सकें।
किसी विशेष मुद्दे पर अधिकारियों से संपर्क साधने के अलावा नागरिकों को नगर निगमों या पंचायतों द्वारा लिए जाने वाले बजट संबंधी फैसलों या नीतियों पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आमंत्रित किया जाता है। नागरिक, प्रजा जैसे संगठनों द्वारा जारी की गई रिपोर्टों के माध्यम से अपनी स्थानीय सरकारों के काम की समीक्षा कर सकते हैं।
नागरिक से नागरिक का जुड़ाव
1. नागरिक/राजनीतिक आंदोलनों में शामिल होना
नागरिकों को उन मुद्दों से जुड़े आंदोलनों या प्रदर्शनों में सक्रियता से भाग लेना चाहिए जिनसे वे सीधे रूप से प्रभावित होते हैं या फिर जिनसे वे सहमत होते हैं। ऐसा करने से समुदायों के बीच एकजुटता विकसित होती है। वैकल्पिक रूप से, स्टडी सर्कल या राजनीतिक दल के मंचों के जरिए, राजनीतिक विचारधाराओं के बारे में जानना अपनी नागरिक भागीदारी की ताकत का प्रयोग करने का एक और तरीका है।
2. अपने समुदाय का निर्माण
अपने समुदाय की बेहतरी के लिए नागरिक समाज संगठनों या क्लबों से स्वेच्छापूर्वक जुडक़र काम करना, किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे शक्तिशाली हथियार है। सफाई-अभियानों में शामिल होने या एडवांस लोकल मैनेजमेंट (एएलएम) जैसे नागरिक आंदोलनों में शामिल होने से एक सशक्त समुदाय के निर्माण में मदद मिल सकती है। अपने कौशल के आधार पर काम शुरू करना सबसे अधिक लाभदायक होता है।
3. अपनी आवाज उठाना
नागरिकों के पास शासन के मुद्दों पर अपने विचार और राय व्यक्त करने के कई विकल्प हैं। इन विकल्पों में प्रतियोगिताओं में बहस करना, सामाजिक कार्यक्रमों की बातचीत में शामिल होना या सोशल मीडिया पर रचनात्मक रूप से अपनी राय व्यक्त करना वगैरह शामिल हैं। अपने विचारों को सामने रखने और प्रसारित करने जैसा एक सामान्य सा काम एक सक्रिय नागरिक बनने की लंबी सीढ़ी पर पहला कदम है। लेख लिखकर या अपनी राय व्यक्त करने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करके अपने विचारों और अभिव्यक्तियों का योगदान देना और राजनीतिक या शासन के मुद्दों पर संवाद शुरू करना भी नागरिक जुड़ाव का एक महत्वपूर्ण तरीका है। यूथकीआवाज और यौरस्टोरी जैसे प्लेटफॉर्म नागरिकों को जोडऩे के लिए एक मंच प्रदान करने में सहायक रहे हैं।
4. सामुदायिक जागरूकता का निर्माण
स्थानीय और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों के बारे में नागरिक जागरूकता लाना लेखन से परे है। महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बातचीत शुरू करने के लिए रंगमंच समूह और अन्य कला समूह अक्सर अपनी कला का उपयोग करते हैं। उनके प्रदर्शनों ने उत्पीडऩ पर संवाद को उचित ठहराने में मदद की है और नागरिकों को संगठित होने और संस्थागत परिवर्तन लाने का एक अवसर प्रदान किया है। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के हरदा गांव के कॉम्यूटिनी संगठन से जुड़े युवा नागरिकों के एक समूह—या ‘जस्टिस जाग्रिक्स’ ने नागरिकों को संवैधानिक अधिकारों की जानकारी देने के लिए ‘कबीर के दोहे’ का इस्तेमाल किया है। रंगमंच (थिएटर) कलाकारों के कई ऐसे समूह भी हैं जो महिलाओं के अधिकारों पर बातचीत शुरू करने के लिए दिल्ली में नुक्कड़ नाटकों का आयोजन करते हैं।
5. विरोध प्रदर्शन में शामिल होना
आजादी से पहले से ही विरोध प्रदर्शन भारत में नागरिक समाज आंदोलनों का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। आज भी यह साथी नागरिकों और सरकारों के साथ स्वतंत्र रूप से अपनी राय व्यक्त करने के लिए एक स्थापित तरीका बना हुआ है। भारत में विरोध करना कानूनी है। विरोध के अधिकार को संविधान से दो मौलिक अधिकारों- भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इक_ा होने का अधिकार द्वारा समर्थन प्राप्त है। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि किसी भी विरोध-प्रदर्शन का आयोजन तभी किया जाना चाहिए जब आवश्यक अनुपालन पूरा हो और इसकी शर्तें पूरी हों (उदाहरण के लिए, लाउडस्पीकर और टेंट के लिए अनुमति प्राप्त करना)। यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कानून के पूर्ण अनुपालन के बावजूद अधिकारियों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग हो सकती हैं। ऐसी परिस्थितियों के लिए आपके पास नागरिकों के अधिकारों और आपके लिए उपलब्ध संसाधनों से जुड़ी सही जानकारियां होना हितकर होता है।
नागरिकों के लिए सरकारों के साथ जुडऩे के कई स्थापित तरीके हैं- कुछ कानूनों से और कुछ सीधे समुदायों से। हालांकि जुडऩे का कोई एक सही तरीका नहीं है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था नागरिकों को ऐसी कई सुविधाएं और विकल्प प्रदान करती है। इनके माध्यम से वे सरकार के साथ बातचीत एवं आपसी संवाद दोनों के लिए उपयुक्त तरीके का चयन कर सकते हैं। (idronline.org)
-राजेश अग्रवाल
सवाल- छत्तीसगढ़ के देवभोग में हीरा खनन की प्रक्रिया क्यों रुकी है?
एक आलेख के रूप में जवाब मिला- हाल के समय में हीरे के खनन में रुकावट आईं हैं। पहला कारण है कि हीरे की कीमतों में अधिकतम गिरावट के चलते उत्पादन में कमी आई है। दूसरा कारण है कि खनन कंपनियों को स्थानीय निवासियों को नौकरी देने और सामाजिक उत्थान के लिए संबंधित स्थानों के साथ समझौते करने की आवश्यकता है। तीसरा कारण है कि हीरे के खनन में उपयोग किए जाने वाले तकनीकों की उन्नति नहीं हुई है। सभी कारणों के अलावा कोविड-19 महामारी ने भी हीरे के उत्पादन और खनन में बाधा डाली है। महामारी के कारण लोगों के संचार और उत्पादन की व्यवस्था में बदलाव हुए हैं, जिससे हीरे के उत्पादन में विलंब हुआ है।
यह सवाल ओपन आई वेबसाइट के फीचर चैट जीपीटी से किया गया था। फिर ठीक यही सवाल गूगल से किया गया।
गूगल ने अपनी ओर से कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि 0.24 सेकंड में इंटरनेट पर मौजूद बहुत से लिंक साझा कर दिए। थोड़ा वक्त लगा लेकिन उनमें से एक सबसे ठीक लगने वाला जवाब मिल गया। एक अखबार की वेबसाइट की खबर थी जिसमें बताया गया कि 5 महीने पहले रायपुर में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने खनिज विभाग की एक बैठक ली थी, जिसमें गरियाबंद जिले के 6 स्थानों पर हीरे की मौजूदगी और उसके खनन में आ रही बाधाओं को लेकर चर्चा की गई। इसमें बताया गया कि मुख्यमंत्री ने खनिज विभाग के अफसरों को न्यायालय से लगी रोक हटवाने के लिए कोशिश करने का निर्देश दिया है। स्टे आर्डर को वापस लेने के लिए आवश्यक कार्रवाई सुनिश्चित की जाए ताकि वह हीरा खदान संचालित करने की प्रक्रिया शुरू हो सके। इसी में यह भी पता चला कि सन् 1990 से पायलीखंड और बेहराडीह के करीब 40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में हीरे के भंडार का पता लग चुका है। तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सन् 1992 में इसकी खुदाई के लिए कोशिश शुरू की थी। एक प्रमुख खनन कंपनी डी बियर्स को पट्टा भी मिल गया लेकिन कुछ शिकायतों की वजह से टेंडर रद्द कर दिया गया। सन् 1998 में एक बार फिर कोशिश हुई। इस बार भ्रष्टाचार के आरोप लगे और विवाद बढ़ा तो फिर से खनन में रुकावट आ गई। नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन गया। उसके बाद खनिज संसाधन विभाग ने पट्टा धारी कंपनी को नोटिस जारी किया। सरकार और कंपनी के बीच सहमति नहीं बन पाई, कंपनी हाईकोर्ट चली गई। हाईकोर्ट ने यह मामला मिनिस्ट्री आफ माइन्स के दिल्ली ट्रिब्यूनल के पास भेज दिया। अब वहां करीब 13 साल से यह प्रकरण चल ही रहा है।
गूगल पर नवीनतम जवाब 5 महीने पहले छपी खबर है। इस बीच मुख्यमंत्री के निर्देश के परिपालन में अधिकारियों ने कौन से कदम उठाए, अदालती अवरोध की अभी स्थिति क्या है, कब तक गरियाबंद में हीरा का खनन शुरू हो सकता है? यह जानने के लिए संबंधित दफ्तरों और अफसरों से ही संपर्क करना होगा।
पर, चैट जीपीटी का जवाब तो सिरे से गलत है। यह दावा हम इसलिए कर सकते हैं क्योंकि हमारे पास इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के अलावा भी अखबारों और चर्चा-परिचर्चा से मिली जानकारी उपलब्ध है। देश दुनिया के ऐसे कई सवाल हमारे मन में उठते हैं और यदि चैट जीपीटी के विवरण को सही मान लिया जाए तो बड़ी भूल हो जाएगी। इस्तेमाल करने वाले बताते हैं कि निबंध, एप्लीकेशन, रिज्यूमे आदि तैयार करने, हलवा आदि बनाने की विधि जानने के लिए चैट जीपीटी से अच्छी मदद मिल जाती है। पर उसके पास हर बात का जवाब नहीं है। ख़ुद यह वेबसाइट कहती है कि उसकी जानकारी 2021 के बाद की नहीं है।
इंसानी दिमाग के पास सहज बोध और तार्किकता होती है। नतीजा इसी दोनों के बीच द्वंद और चिंतन से निकलता है।
किसी समझदार डॉक्टर से या स्कूल कॉलेज में विद्वान प्रोफेसर से बात करेंगे तो वे कहेंगे कि ज्यादा गूगल मत किया करो। चैट जीपीटी इस मामले गूगल सर्च से भी बढ़कर है। गूगल जो हजारों नतीजे देता है, उसमें आपके पास विकल्प होता है कि आप विश्वसनीय सूचना कौन सी है यह तय कर सकें, पर चैट जीपीटी में यह सुविधा नहीं है। आने वाले दिनों में लोग कहेंगे, ज्यादा जीपीटी मत किया करो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे देश में आयकर याने इनकम टैक्स फार्म भरनेवालों की संख्या 7 करोड़ के आस-पास है लेकिन उनमें से मुश्किल से 3 करोड़ लोग टैक्स भरते हैं। क्या भारत-जैसे 140 करोड़ के देश में ढाई-तीन करोड़ लोग ही इस लायक हैं कि सरकार उनसे टैक्स वसूल सकती है? क्या ये ढाई-तीन करोड़ लोग भी अपना टैक्स पूरी ईमानदारी से चुकाते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं! ईमानदारी से पूरा टैक्स चुकानेवाले लोगों को ढूंढ निकालना लगभग असंभव है।
याने जो टैक्स भरते हैं, वे भी टैक्स-चोरी करते हैं। जो नहीं भरते हैं और जो भरते हैं, वे सब टैक्स-चोर बना दिए जाते हैं। हमारी टैक्स व्यवस्था ऐसी है कि जो हर नागरिक को चोर बनने पर मजबूर कर देती है। हर मोटी आमदनीवाला मालदार आदमी ऐसे चार्टर्ड एकाउंट की शरण लेता है, जो उसे टैक्स चोरी के नए-नए गुर सिखाता है। इस सच्चाई को यदि हमारी सरकारें स्वीकार कर लें तो भारत में टैक्स-व्यवस्था में इतना सुधार हो सकता है कि कम से कम 30 करोड़ लोग टैक्स भरने लगें।
देश में 30-40 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें हम मध्यम श्रेणी का मानते हैं। हर मध्यम श्रेणी का नागरिक टैक्स देना चाहेगा लेकिन यदि वह आयकर 10-15 प्रतिशत से शुरु होगा तो उसका पेट भरना भी मुश्किल हो जाएगा। इसकी बजाय आयकर का प्रतिशत एकदम घटा दिया जाए तो इतने ज्यादा लोग टैक्स भरने लगेंगे कि वह 11 लाख करोड़ रू. से कहीं डेढ़ा-दुगुना हो सकता है। लोगों में जिम्मेदारी का भाव भी पैदा होगा और सरकार की जवाबदेही भी बढ़ेगी।
आम आदमी पर हमारी नौकरशाही का रोब-दाव भी घटेगा। कई देश ऐसे हैं, जिनमें आमदनी पर कोई टैक्स ही नहीं लगता। कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री वसंत साठे और मैंने लगभग 35 साल पहले एक मुहीम शुरु की थी, जिसमें हमारी मांग थी कि आयकर को खत्म किया जाए और उसकी जगह जायकर लगाया जाए याने आमदनी पर नहीं, खर्च पर टैक्स लगाया जाए। इसके कई फायदे होंगे।
पहला तो यही कि टैक्स-चोरी की आदत पर लगाम लगेगी। दूसरा, लोगों के खर्च घटेंगे। उपभोक्तावाद और फिजूलखर्ची घटेगी और बचत बढ़ेगी। तीसरा, आयकर विभाग बंद होगा, जिससे सरकार का करोड़ों रूपया बर्बाद होने से बचेगा। चौथा, नागरिकों का सिरदर्द घटेगा। पांचवां, डिजिटल व्यवस्था के कारण हर खरीदी पर उपभोक्ता का टैक्स तत्काल कट जाएगा।
अभी टैक्स-चेारी के बावजूद अकेले गुड़गांव में विभिन्न कंपनियों पर 13 हजार करोड़ रु. का आयकर बक़ाया है। पूरे भारत में इस साल सिर्फ 11 लाख 35 हजार करोड़ रू. का आयकर वसूला गया है। लेकिन इससे कई गुना ज्यादा पैसा चोरी हुआ है और बक़ाया है। यदि आयकर घटे या खत्म हो तो सरकार की आमदनी बढ़ेगी और लोगों को भी राहत मिलेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा के अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा के बयान पर हमारे अखबारों और टीवी चैनलों ने कोई ध्यान नहीं दिया। नड्डा सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष हैं और जिस मुद्दे पर उन्होंने भाजपा को संबोधित किया है, वह मुद्दा उन सब मुद्दों से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जो देश के अन्य नेतागण उठा रहे हैं। वह मुद्दा है- हिंदू राष्ट्र, हिंदू-मुस्लिम, हिंदू धर्मगुरूओं जैसे मुद्दों पर बयान आदि का!
कई अन्य मुद्दे जैसे अडानी, बीबीसी, शिवसेना, त्रिपुरा का चुनाव आदि पर भी आजकल जमकर तू-तू–मैं-मैं का दौर चल रहा है लेकिन ये सब तात्कालिक मुद्दे हैं लेकिन जिन मुद्दों की तरफ भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने इशारा किया है, उनका भारत के वर्तमान से ही नहीं, भविष्य से भी गहरा संबंध है। यदि भारत में सांप्रदायिक विद्वेष फैल गया तो 1947 में इसके सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब इसके सौ टुकड़े हो जाएंगे। इसके शहर-शहर, गांव-गांव और मोहल्ले-मोहल्ले टूटे हुए दिखाई पड़ेंगे।
हमारे कुछ युवा लोग, जो कि पर्याप्त पढ़े-लिखे नहीं हैं और जिन्हें इतिहास का ज्ञान भी नहीं है, वे लाखों लोगों को अपना ज्ञान बांटने पर उतारू हैं। लोगों ने उन्हें ‘बाबा’ बना दिया है। उन्हें खुद पता नहीं है कि वे अपने भक्तों से जो कुछ कह रहे हैं, उसका अर्थ क्या है? यह हो सकता है कि वे किसी का भी बुरा न चाहते हों लेकिन उनके कथन से जो ध्वनि निकलती है, वह देश में संकीर्ण सांप्रदायिकता की आग फैला सकती है। जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का दावा करते हैं, उन बाबाओं से आप पूछें कि आपको ‘हिंदू’ शब्द की उत्पत्ति और अर्थ का भी कुछ ज्ञान है तो आप उन्हें शून्य का अंक दे देंगे।
हमारे नेताओं का भी यही हाल है। आजकल हमारे साधु और नेता लोग इतने अधिक नौटंकीप्रिय हो गए हैं कि वे एक-दूसरे की शरण में सहज भाव से समर्पित हो जाते हैं। इसे ही संस्कृत में ‘अहो रूपम्, अहो ध्वनि’ का भाव कहते हैं याने गधा ऊँट से कहता है कि वाह! क्या सुंदर रूप है, तेरा? और ऊँट गधे से कहता है कि ‘क्या मधुर है, तेरी वाणी? इसी घालमेल के विरूद्ध नड्डा ने अपने सांसदों को चेताया है।
अपने आप को परम पूज्य, महामहिम और महर्षि कहलवाने वाले भगवाधारियों को मैंने कई भ्रष्ट नेताओं के चरण-चुंबन करते हुए देखा है और ऐसे संत जो बलात्कार, व्यभिचार, ठगी, हत्या आदि कुकर्मों के कारण आजकल जेलों में सड़ रहे हैं, उन संतों के आगे दुम हिलाते हुए नेताओं को किसने नहीं देखा हे? संत और नेता, दोनों ही अपनी दुकानें चलाने के लिए अघोषित गठजोड़ में बंधे रहते हैं।
यही गठजोड़ जरूरत पड़ने पर सांप्रदायिकता, भविष्यवाणियों, चमत्कारों का जाल बिछाता है और साधारण लोग इस जाल में फंस जाते हैं। भाजपा के अध्यक्ष ने अपने सांसदों को जो सबक दिया है, वह सभी पार्टियों के नेताओं पर भी लागू होता है। आजकल बेसिर-पैर की बात करनेवाले बाबाओं की खुशामद में किस पार्टी के नेता शीर्षासन करते हुए दिखाई नहीं पड़ रहे हैं? चुनावों का दौर शुरु हो गया है। इसीलिए थोक वोट पाने के लिए जो भी तिकड़म मुफीद हो, नेता लोग उसे आजमाने लगते हैं। भाजपा अध्यक्ष ने अपने सांसदों को जो चेतावनी इस दौर में दी है, उसके लिए वे सराहना के पात्र हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सचिन कुमार जैन
आजादी के 75 वर्षों में भारत को मूर्खता और विवेकहीनता का विश्वगुरु बनाने की योजना है। संविधान कहता है कि किसी भी धर्म को अपने व्यवहार की स्वतंत्रता है लेकिन लोकव्यवस्था के अधीन। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देगी, अंधविश्वास को नहीं। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश में संविधान ताक पर है और समाज नशे में धुत्त। बाबाओं की यह व्यवस्था बताती है कि भारत किस हद तक अवसाद से ग्रस्त है। किस कदर और किस हद तक लोग नाउम्मीद हो चुके हैं। भारत के इतिहास में संभवत: कभी भी लोगों ने पुरुषार्थ और कर्म पर उम्मीद करना नहीं छोड़ा होगा, लेकिन आज छोड़ दिया है। अब उन्हें लगता है कि रुद्राक्ष से ही कुछ समस्या हल हो तो हो।
राजनीति का धर्म के आधार पर सत्ता हासिल करने का षडय़ंत्र भारत को अकल्पनीय बर्बादी की तरफ धकेल रहा है।
हम आज उस मुकाम पर हैं, जहां विवेक, तर्क और विज्ञान की बात करने से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है और सरकार उन भावनाओं को सहलाने के लिए देश हित, समाज हित, विवेक, तर्क और मानवीय मूल्यों का पक्ष लेने वालों को राष्ट्रद्रोही और अपराधी घोषित करती है। इससे ही यह अनुमान लग जाता है कि हालात क्या हैं?
समाज से आग्रह है कि अब कृपया अपने बच्चों को स्कूल कालेज भेजना बंद कर दीजिए।
अब वक्त आ गया है कि यह तो इन तथाकथित चमत्कारी बाबाओं को चुनिए या सभ्यता, विज्ञान, मानवीय नैतिक मूल्यों और विवेक को चुनिए। कम से कम पहचान में स्पष्टता तो रहेगी।
हम, भारत के लोग, भारत को बर्बाद करने का ठान चुके हैं क्या? अगर ऐसा है तो सरकारों से निवेदन है कि कृपया शिक्षा और स्वास्थ्य के कामों पर प्रतिबंध लगा दीजिए। आप लोग सरकार से हट जाइए। विज्ञान के बात करने को अपराध घोषित कर दीजिए। आत्महत्या को राष्ट्रीय कर्म घोषित कर दीजिए। अरे, देश आगे जीवित रह सके, इसके लिए कम से कम बुद्धि तत्व को तो जिंदा रहने दीजिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान इस समय दक्षिण एशिया का सबसे गया बीता देश बन गया है। यों तो श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और बांग्लादेश की भी हालत अच्छी नहीं है। इन सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं संकट में हैं लेकिन पाकिस्तान में मंहगाई इस कदर छलांग मार रही है कि आम लोगों का रोजाना का भरण-पोषण भी मुश्किल हो गया है। पेट्रोल पौने तीन सौ रू. लीटर, गेहूं सवा सौ रू. किलो, टमाटर ढाई सौ रू. किलो और चिकन साढ़े सात सौ रु. किलो हो गया है। लोग घी-तेल की छीना-झपटी पर उतारू हो गए हैं। सरकार ने अपने लघु बजट में नागरिकों पर तरह-तरह के नए टैक्स ठोक दिए हैं।
विदेशी मुद्रा का भंडार भी लगभग खाली हो गया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पाकिस्तान को 1.1 बिलियन डाॅलर का कर्ज देने को तैयार है लेकिन उसकी शर्त है कि पाकिस्तान की सरकार पहले अपनी आमदनी बढ़ाये। कर्ज में डूबी सरकार का अब एक ही नारा है- ‘मरता, क्या नहीं करता?’ वित्तमंत्री इशाक डार ने जो कि मियां नवाज़ शरीफ के समधी हैं, जो अभी पूरक बजट पेश किया है, उसमें 170 बिलियन रूपए के नए टैक्स उगाहने का वादा किया है। इधर पाकिस्तान की अर्थ-व्यवस्था इतने भयंकर संकट में है याने वह किसी युद्ध की स्थिति से भी बदतर है लेकिन पाकिस्तान की राजनीति का हाल बिल्कुल बेहाल है।
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान और प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। इमरान की गिरफ्तारी की खबर आंधी की तरह लाहौर को घेरे हुए है। इमरान-समर्थक हजारों लोग उनके घर पर जमा हो गए हैं ताकि उन्हें कोई गिरफ्तार न कर सके। सरकार का जितना ध्यान अपने देश की डूबती हुई अर्थ व्यवस्था को उबारने में लगा है, उससे ज्यादा इमरान के साथ दंगल करने में लगा हुआ है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि इस्लामाबाद को बलूच, पठान और सिंधी लोग घूंसा दिखाने लगे हैं।
वे पाकिस्तान से अलग होने का नारा लगाने लगे हैं। जिन तालिबान को टेका देने में पाकिस्तान की फौज ने जमीन-आसमान एक कर दिए थे, वे ही तालिबान अब डूरेंड लाइन को खत्म करने की मांग कर रहे हैं। इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह हो रही है कि जिस चीन पर तक़िया था, वही अब हवा देने लगा है। चीन ने अपना वाणिज्य दूतावास बंद कर दिया है।
चीन अपनी रेशम महापथ योजना के तहत पाकिस्तान में सड़कें, रेल, पाइपलाइन और बंदरगाह बनाने पर लगभग 65 बिलियन डाॅलर खर्च कर रहा है। लेकिन चीनी कंपनियां कुछ भी माल भेजने के पहले अग्रिम भुगतान की मांग कर रही हैं। पाकिस्तान के पास पैसे ही नहीं है। वह अग्रिम भुगतान कैसे करे?
चीनी नागरिकों की हत्या से भी चीन नाराज है। पाकिस्तान को अन्य मुस्लिम देश भी उबारने के लिए तैयार नहीं हैं। यदि इस मौके पर शाहबाज सरकार में दम हो तो पाक-भारत व्यापार फिर से शुरु करे और मोदी से मदद मांगे तो एक पंथ, कई काज सिद्ध हो सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देकर भारत सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाद्य उत्पादन में एक बड़े बदलाव की कोशिश कर रहा है. लेकिन इस अभियान की राह में कई रोड़े हैं. संयुक्त राष्ट्र 2023 को मिलेट्स (मोटे अनाज) के अंतरराष्ट्रीय साल के रूप में मना रहा है. आने वाले महीनों में इस अभियान के तहत संयुक्त राष्ट्र कई कार्यक्रमों और गतिविधियों का आयोजन करेगा. भारत इस अभियान की अगुवाई कर रहा है.
पढ़ें डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
संयुक्त राष्ट्र में इस अभियान के प्रस्ताव को भारत ही लेकर आया था. प्रस्ताव को 72 देशों का समर्थन मिला और संयुक्त राष्ट्र ने इसे अपना लिया. इसके लिए भारत को कूटनीतिक स्तर पर भी काफी मेहनत करनी पड़ी, लेकिन यह पड़ाव एक ऐसी लंबी यात्रा के बाद आया है जिसकी शुरुआत भारत में करीब 10 साल पहले हुई थी.
प्राचीन फसलें
मोटे अनाज यानी छोटे दानों वाले अनाज, जैसे ज्वार, बाजरा, रागी इत्यादि. ये प्राचीन फसलें हैं, यानी माना जाता है कि करीब 7,000 सालों से इन्हें उगाया और खाया जा रहा है. बल्कि एक तरह से मानव सभ्यता के इतिहास में खेती की शुरुआत ही इन्हीं फसलों से हुई थी.
ज्वारज्वार
संयुक्त राष्ट्र 2023 को मिलेट्स (मोटे अनाज) के अंतरराष्ट्रीय साल के रूप में मना रहा है भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों द्वारा भी मोटे अनाजों को उगाने और खाने के पुरातत्व संबंधी सबूत मिले हैं. आधुनिक युग में जब धीर-धीरे चावल और गेहूं ज्यादा लोकप्रिय हो गए तो मोटे अनाज हाशिए पर धकेल दिए गए, लेकिन आज भी इन्हें दुनिया भर में कम से कम 130 देशों में उगाया जाता है.
चावल और गेहूं के मुकाबले मोटे अनाजों के कई फायदे हैं. संयुक्त राष्ट्र की संस्था फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन (एफएओ) के मुताबिक मोटे अनाज सूखी जमीन में न्यूनतम इनपुट लगा कर भी उगाए जा सकते हैं. ये जलवायु परिवर्तन का भी प्रभावशाली रूप से सामना कर सकते हैं. एफएओ का कहना है, "इसलिए ये उन देशों के एक आदर्श समाधान हैं जो आत्मनिर्भरता बढ़ाना चाहते हैं और आयातित अन्न पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहते हैं."
इसके अलावा पोषण की दृष्टि से भी मोटे अनाजों को बेहद लाभकारी माना जाता है. एफएओ का कहना है कि ये प्राकृतिक रूप से ग्लूटेन-फ्री होते हैं और इनमें प्रचुर मात्रा में फाइबर, एंटीऑक्सीडेंट, मिनरल, प्रोटीन और आयरन होता है. संस्था के मुताबिक ये विशेष रूप से "उन लोगों के एक बहुत अच्छा विकल्प हो सकते हैं जिन्हें सीलिएक बीमारी, ग्लूटेन इनटॉलेरेंस, उच्च ब्लड शुगर या मधुमेह है.
संभावनाओं के साथ चुनौतियां भी
मोटे अनाज मुख्य रूप से एशिया और अफ्रीका में उगाए जाते हैं और भारत इनका सबसे बड़ा उत्पादक है. भारत के बाद उत्पादन में अफ्रीकी देश नाइजर, फिर चीन और फिर नाइजीरिया का स्थान है. अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में पूरी दुनिया में मोटे अनाजों के उत्पादन में भारत की 39 प्रतिशत हिस्सेदारी थी, नाइजर की 11 प्रतिशत, चीन की नौ प्रतिशत और नाइजीरिया की सात प्रतिशत.
जलवायु परिवर्तन का पोषण पर असर
लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तरपर भले भारत का उत्पादन विशाल लगता हो, भारत के अंदर धान और गेहूं के मुकाबले मोटे अनाज का उत्पादन बहुत ही कम होता है. केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2020-21 में देश में सिर्फ 1.7 करोड़ टन मोटे अनाज का उत्पादन हुआ. इसके मुकाबले 23 करोड़ टन से भी ज्यादा धान और गेहूं का उत्पादन हुआ.
ये आंकड़े दिखाते हैं कि मोटे अनाजों को गेहूं और चावल का विकल्प बनाना कितनी बड़ी चुनौती है. सरकार ने इस दिशा में कई कदम उठाए हैं लेकिन कई जानकारों का कहना है कि ये कदम काफी नहीं हैं. कृषि मामलों के जानकार और रूरल वॉयस वेबसाइट के संपादक हरवीर सिंह का मानना है कि सरकार के इस अभियान के पीछे कोई केंद्रित कोशिश नहीं है.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "जब सरकार को कोई लक्ष्य हासिल करना होता है तो वो उसके लिए एक मिशन की शुरुआत करती है. मिशन का मतलब होता है ठोस लक्ष्य, उन्हें हासिल करने की समय सीमा और बजटीय आवंटन. लेकिन मोटे अनाज को लेकर आज तक ऐसे किसी भी मिशन की घोषणा नहीं की गई है."
कीमतेंभी इस अभियान का एक बड़ा पहलु हैं. महाराष्ट्र के कमोडिटी बाजार में रागी इस समय करीब 3,800 रुपए प्रति क्विंटल के भाव बिक रही है, जबकि गेहूं करीब 2,500 रुपए है. खुदरा बाजार में यानी आम उपभोक्ता के लिए रागी का आटा गेहूं के आटे से करीब ढाई गुना ज्यादा दाम पर मिल रहा है. दाम में इतने बड़े अंतर की वजह से विशेष रूप से गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए मोटे अनाज को चावल और गेहूं का विकल्प बनाने की चुनौती और बड़ी लगने लगती है.
ऐसी होती है फाइबर वाली डाइट
मोटे अनाज के दामों को नीचे लाने के लिए उनकी पैदावार बढ़ानी पड़ेगी और गेहूं और धान को छोड़ कर मोटे अनाज उगाने के लिए उन लाखों किसानों को मनाना पड़ेगा जो पहले से ही कम आय के बोझ के तले दबे हुए हैं. इस पर काम तो करीब एक दशक पहले ही शुरू हो गया था, लेकिन अभी तक उत्साहवर्धक नतीजे सामने नहीं आए हैं.
यूपीए से शुरू हुई मुहिम
मोटे अनाज के उत्पादन को प्रोत्साहन देने की शुरुआत यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2012-13 में ही हो गई थी. उसी साल पहली बार विशेष मोटे अनाजों के लिए धान और गेहूं से ज्यादा एमएसपी दी गई थी. 2011-12 में सबसे अच्छे किस्म के धान, गेहूं और देश में सबसे ज्यादा उगाए जाने वाले मोटे अनाज रागी की एमएसपी थी 1,110, 1,285 और 1,050 रुपए प्रति क्विंटल.
लेकिन 2012-13 में पहली बार रागी के लिए एमएसपी को इतना बढ़ा दिया गया कि वो गेहूं और धान की एमएसपी से भी ज्यादा हो गया. उस साल सबसे अच्छे किस्म के धान, गेहूं और रागी की एमएसपी हो गई थी 1,280, 1,350 और 1,500 रुपए प्रति क्विंटल. सरकारी खरीद भी किसानों को मोटे अनाज उगाने के लिए प्रोत्साहित करने का एक जरिया हो सकता है लेकिन उसके आंकड़े भी प्रोत्साहक नहीं हैं.
भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के आंकड़ों के मुताबिक इस समय निगम के भंडार में जहां सिर्फ 11.9 लाख टन मोटा अनाज पड़ा हुआ है वहीं 1.6 करोड़ टन से भी ज्यादा धान और 1.5 करोड़ टन से भी ज्यादा गेहूं पड़ा हुआ है.
रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से अनाज की कमी
हालांकि मोटे अनाजों के फायदे इतने हैं कि उन्हें देखते हुए कई जानकार उन्हें लेकर बहुत उत्साहित हैं और चाहते हैं कि उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए केंद्र सरकार और भी कदम उठाए. कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि वो कई राज्यों में मोटे अनाज उगाने वाले किसानों से मिले हैं और देखा है कि बढ़ी हुई एमएसपीभी उनकी आय को बढ़ा नहीं पाई है.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "मौजूदा एमएसपी बहुत कम है. मोटे अनाज उगाने में बहुत ही कम पानी खर्च होता है, उनको उगाने से फसलों में विविधता भी आएगी और स्वास्थ्य के लिए तो वो काफी लाभकारी हैं ही. सरकार को इतने फायदों को ध्यान में रख कर एमसएसपी को और बढ़ाना चाहिए."
शर्मा मोटे अनाजों के महंगे होने की दलील को भी ठुकराते हैं और कहते हैं कि जो लोग रेस्तरां में एक कप कॉफी पीने के लिए 300 रुपए खर्च कर सकते हैं वो एक किलो रागी के आटे के लिए 100 रुपए आसानी से खर्च कर सकते हैं. उनका मानना है कि मोटे अनाज में कई लोगों की रुचि जग चुकी है और अगर अच्छी मार्केटिंग की जाए तो मोटे अनाज को निश्चित रूप से लोकप्रिय बनाया जा सकता है.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवा-निवृत्त जज एस. अब्दुल नज़ीर को सरकार ने आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया है। इस नियुक्ति पर विपक्ष हंगामा कर रहा है। उसका कहना है कि जजों को फुसलाने का यह सबसे अच्छा तरीका है। पहले उनसे अपने पक्ष में फैसला करवाओ और फिर पुरस्कारस्वरूप उन्हें राज्यपाल, राजदूत या राज्यसभा का सदस्य बनवा दो। जो विपक्ष मोदी पर यह आरोप लगा रहा है, क्या उसने अपने पिछले कारनामों पर नज़र डाली है? इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के ज़माने के कई राज्यपालों, राजदूतों और सांसदों से मेरा परिचय रहा है, जो पहले या तो जज या नौकरशाह या संपादक रहे हैं।
उन्होंने जज या संपादक या नौकरशाह के तौर पर सरकार को उपकृत किया है तो सरकार ने उन्हें उक्त पद देकर पुरस्कृत किया है। वे लोग समझते रहे हैं कि वह पुरस्कार पाकर वे सम्मानित हुए हैं लेकिन उनके अपमान का इससे बड़ा प्रमाण-पत्र क्या हो सकता है? यदि उन्होंने अदालत में बिल्कुल ठीक-ठाक फैसला दिया है, यदि उन्होंने निष्पक्ष और निर्भीक संपादकीय लिखे हैं और यदि किसी नौकरशाह ने निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य–कर्म किया है तो भी ये सरकारी पुरस्कार पानेवालों की ईमानदारी पर लोगों को शक होने लगता है। यह शक तब और भी तगड़ा हो जाता है, यदि वह पुरस्कार तुरंत मिला हो।
ऐसे पुरस्कारों और सम्मानों से संसदीय लोकतंत्र की मर्यादा भंग होती है, क्योंकि, न्यायपालिका और कार्यपालिका को अपनी लक्ष्मण-रेखाओं में ही रहना चाहिए और खबरपालिका को तो अपने प्रति और भी ज्यादा सख्ती बरतना चाहिए। यदि संपादक और पत्रकार इन पदों और सम्मानों के लिए लार टपकाते रहे तो वे पत्रकारिता क्या खाक करेंगे? मेरे कई पत्रकार मित्र विभिन्न सरकारों में मंत्री, राजदूत, और प्रधानमंत्रियों के सरकारी सलाहकार भी बने। उनमें से कइयों ने सराहनीय कार्य भी किए।
इस तरह के कई सरकारी पद विभिन्न प्रधानमंत्रियों द्वारा पिछले 60-65 साल में मुझे कई बार प्रस्तावित किए गए लेकिन मेरा दिल कभी नहीं माना कि मैं हाँ कर दूं। इसका अर्थ यह नहीं है कि संपादकों, जजों और नौकरशाहों की प्रतिभा से सरकारें लाभ न उठाएं। जरूर उठाएं लेकिन उनके सेवा-निवृत्त होते ही उन्हें यदि नियुक्तियां मिलती हैं तो उससे यह साबित होता है कि सरकार उनकी प्रतिभा का लाभ उठाने की बजाय उन्होंने सरकार की जो खुशामद की है, वह उसका लाभ उन्हें दे रही है।
इससे दाता और पाता, दोनों की प्रतिष्ठा पर आंच आती है। तो होना क्या चाहिए? होना यह चाहिए कि अपने पद से सेवा-निवृत्त होने के बाद पांच साल तक किसी भी जज, पत्रकार और नौकरशाह को कोई सरकारी पद या पार्टी-पद नहीं दिया जाना चाहिए। नौकरशाहों पर पहले दो साल की पाबंदी थी लेकिन उसे घटाकर अब एक साल कर दिया गया है। वर्तमान में कितने ही नौकरशाह मंत्री और राज्यपाल बने हुए हैं? यह हमारी पार्टियों और सरकारों के बौद्धिक दिवालिएपन का भी सूचक है। (नया इंडिया की अनुमति से)
विवाद न खड़ा किया जाए कि आजादी के आंदोलन में कांग्रेस ही मुख्य भारवाहक पार्टी रही है। मुस्लिम लीग के योगदान को दाएं बाएं नहीं किया जा सकता। हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने आजादी की लड़ाई में जनता के पक्ष में खड़े होने के बदले अंगरेजों के कान भरने और चुगली करने का मौका नहीं छोड़ा। दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा देती कम्युनिस्ट पार्टी भी आजादी की लड़ाई में क्षमता के अनुरूप कुछ कर नहीं पाई। हालांकि अब बहुत खोजबीन मची हुई है कि हिन्दू महासभा और आरएसएस एक तरफ तथा कम्युनिस्ट पार्टी दूसरी तरफ, ने स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेख करने के लायक योगदान किया है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने बुद्धिजीवी वी. के. कृष्ण मेनन से युद्ध की खंदकों में बैठकर समाजवाद के तेवर और गुर पर बहस मुबाहिसा किया था। नेहरू मोटे तौर पर फेबियन समाजवादी समझे जाते हैं जिनमें हेराल्ड लास्की, जॉर्ज बर्नर्ड शॉ, बर्टेंड रसेल और तमाम बुद्धिजीवियों का नाम जोड़ा जाता है।
नेहरू आज़ादी के युवा योद्धा की तरह वामपंथियों के पक्षधर थे। उनके और सुभाष बोस के संयुक्त हो जाने से कांग्रेस को लगभग दो फाड़ करते गांधी से अहसमत होकर उन्होंने भगतसिंह के पक्ष में पैैरवी की थी। भगतसिंह ने अपने पंजाब के मित्रों को लिखा कि भविष्य के भारत के लिए वे नेहरू के वैज्ञानिक समाजवाद से जुड़ जाएं। नेेहरू ने समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया को कांग्रेस पाटी में महत्वपूर्ण पद और जिम्मेदारियां देकर आगे बढ़ाया। उनका ऐसा सलूक जयप्रकाश, नरेन्द्र देव और अन्य समाजवादी नेताओं के साथ भी रहा। हालांकि बाद मेें कांग्रेस के अंदर रहते कांग्रेस सोशलिस्ट घटक ने पार्टी से छोड़ छुट्टी कर ली, तो नेहरू आग बबूला हो गए। कृष्ण मेनन के अतिरिक्त कम्युनिस्ट केशव देव मालवीय, चंद्रजीत यादव, मोहन कुमार मंगलम और समाजवादी खेमे से अशोक मेहता, मोहन धारिया, चंद्रशेखर जैसे कई नेता कांग्रेस पार्टी में समय समय पर आवाजाही करते रहे।
मौजूदा कांग्रेस कार्यकर्ता बरसों से किताबों से बैर किए बैठे हैं। आरोप भले हो संघ परिवार और भाजपा में स्तरीय बुद्धिजीवियों का टोटा है। यह नहीं देखा जाता कि संघ परिवार में जो जितना भी आलिम फाजिल है, उस पर भरोसा करते जिम्मेदारी के काम सौंप दिए जाते हैं। वह धीरे धीरे प्रोन्नत होता सशक्त भी होता चलता है। उसे इत्मीनान होता है कि पार्टी नेतृत्व उसके पीछे है। कांग्रेस में टांग घसीटो अभियान लगातार चलता है। निष्ठावान लोगों को चीन्ह चीन्ह कर रेवड़ी देती भाजपा ने हाईकोर्ट के रास्ते चलते सुप्रीम कोर्ट के जजों तक पर अपना वैचारिक कब्जा भी कर लिया लगता है। कांग्रेस के कई नेताओं को पार्टी के आदर्ष सहित इतिहास और किए गए आधे अधूरे वायदे और पार्टी का संविधान तथा उसके राष्ट्रीय सम्मेलनों के ऐलान तक मालूम नहीं होंगे।
लगता नहीं कांग्रेस दफ्तरों में किसी पुस्तकालय संस्कृति का बीजारोपण हुआ है। कांग्रेस सांसदों और विधायकों को ऐसे बौड़म जवाब देते इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट मीडिया में दिखाया जाता है कि उनकी अक्ल और कांग्रेस के भविष्य पर तरस आता है। एयर कंडीशन्ड हॉल में बैठकर मु_ी भर लोगों के सामने जश्न और जलसे किए जाने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं को क्या बौद्धिक खूराक मिलती है? खत्म होते होते भी कांग्रेस में कुछ न कुछ बुद्धिजीवी शेष हैं। वे अन्य विचारों से से प्रेरणा लेने के बदले कांग्रेस की वैचारिक परंपरा के पक्षधर हैं। उन्हें गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, पुरुषोत्तमदास टंडन बल्कि कांग्रेस में रहे समाजवादी जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव से सरोकार और सहमति है। उनकी लेकिन कांग्रेस के मौजूदा सत्ता संकुल में पूछपरख नहीं है।
यह भी दुखद है कि एक लोकतांत्रिक पार्टी में अब मुख्यमंत्री ही सर्वेसर्वा हो गए हैं। पीर, बवर्ची, भिश्ती, खर की भी भूमिका निर्वाह करते मुख्यमंत्री अपने मुंह मियां मि_ू बनते रहते हैं। पार्टी को हर स्तर पर एक जेबी संगठन बनाया जा रहा है।
राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के कई तरह के अर्थ निकाले जा रहे हैं। लोग उम्मीदजदां हैं लेकिन उनकी शिकायत है कि राहुल में सैद्धांतिक तेवर के साथ साथ समयसिद्ध बुद्धिजीवी लक्ष्मण इस तरह उगते दिखाई दें कि भाजपा के महाबली से मुकाबला करने की उम्मीदें जनदृष्टि में लहलहाने लगें। उनके निधन के 55 वर्ष से ज्यादा होने के बाद भी भाजपा, नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार का हमला सबसे ज्यादा जवाहरलाल नेहरू पर है। उन्हें मालूम है कि नेहरू के विचार, कर्म और उनकी सेवा का इतिहास देश के लिए अब भी एक सार्थक विकल्प है। विरोधाभास है कि जवाहरलाल नेहरू का वैचारिक फलसफा कांग्रेस नेताओं तक पहुंचता ही नहीं है। कई कांग्रेसी भाजपा के धर्मांध एजेंडा में फंसकर साफ्ट हिन्दुत्व का आचरण करते हैंं, मानो कांग्रेस भाजपा की बी टीम है। शुरू कांग्रेस की वैचारिकता दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, आबादी और बहुसंख्यक धर्मों के सामूहिक विष्वास का कोलाज रही है। कांग्रेस के इतिहास की भविष्यमूलकता और उसके द्वारा संविधान में गूंथी गई वैश्विक समझ से भी सराबोर उद्देष्य पत्र को हर कांग्रेस कार्यकर्ता के जेहन में जज्ब करा देना कांग्रेस के नेतृत्व की बड़ी जिम्मेदारी है। परिवार की परंपराओं को अग्रसर करना और उनमें नए मूल्य जोडऩा तथा समायोजित करना परिवार के लोगों का ही दायित्व होता है। किराए के लोगों से मदद लेकर करना कांग्रेस क्यों समझती है कि क्रांति करना तो जरूरी है लेकिन पड़ोसियों के बच्चों के दम पर करना चाहिए, अपने बच्चों के दम पर नहीं।
देश के संविधान, लोकतंत्र और जनमानस की संतुलित समझ की प्रतिनिधि रही कांग्रेस सत्तानषीन होकर एक मैनेजमेंट संगठन में तब्दील होती गई। उसे गुरूर या मतिभ्रम भी रहा कि कांग्रेस और भारत एक दूसरे के पर्याय हैं। यह भी कि देश में ऐसा कोई परिवार नहीं होगा जिसका कम से कम एक सदस्य प्रतिबद्ध कांग्रेसी की तरह नहीं हो। हालांकि यह मिथक अब इतनी बुरी तरह टूट चुका है कि उसका पुराना चेहरा तलाष करना भी मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि निष्ठावान कार्यकर्ताओं ने अपना अध्ययन क्रम जारी नहीं रखा। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में खासतौर पर केन्द्रीय मंत्री और बौद्धिक मणिशंकर अय्यर ने मैदानी स्तर पर जाकर भी पंचायती राज के संवैधानिक, ऐतिहासिक और सामाजिक फलक को विस्तारित और व्याख्यायित किया। कांग्रेस पार्टी आत्मसंतुष्ट और अनुर्वर विचारों के साथ क्यों हिलगती गई कि उसके वैचारिक फलक पर उन व्यापारिक सामंती और खुशामदखोर तत्वों का कब्जा होता गया जो कांग्रेस के मूल विचार, इतिहास, दर्शन और सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से पूरी तौर पर अलग थलग, बेरुख और अपरिचित थे। श्रीकांत वर्मा अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनाए गए। तब उन्हें राजनीति में प्रोन्नत करने का एक प्रमुख कारण यह भी था वे श्रीकांत सक्रिय और सार्थक बौद्धिक योगदान करने वाले बुद्धिजीवियों को कांग्रेस पार्टी के आदर्षों और वैचारिकी से जोड़ पाने में समर्थ होंगे। कांग्रेस अभियान विभाग के तहत राष्ट्रीय लेखक मंच, राष्ट्रीय अधिवक्ता मंच, राष्ट्रीय डॉक्टर मंच और न जाने इस तरह के कितने मंच बनाए गए और उन पर काम करना षुरू भी हुआ। आज यह सब भुला दिए गए अतीत की बातें हैं।
कांग्रेस ने देश में ऐसे बुद्धिजीवियों को जानबूझकर उपेक्षित भी किया है जिनके पूर्वज-परिवार कांग्रेस के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण बाद की पीढ़ी को भी अपने संस्कार दे गए। आज कांग्रेस संगठन पर गैरबुद्धिजीवियों का जमावड़ा हुकूमत कर रहा है। लोग सत्याग्रह, अहिंसा, सर्वोदय, सिविल नाफरमानी जैसे तत्वों को अपने विवेक के माइक्रोस्कोप से देख भले नहीं पाते होंगे लेकिन उनके आचरण की ईमानदारी पर इतिहास ने कभी शक नहीं किया। देश में अब भी कई ऐसे बुद्धिजीवी हैं जिन्हें कांग्रेसियों से ज्यादा कांग्रेस को बचाए रखने की चिंता है। हालिया विष्वविद्यालय के कई प्राध्यापक इस काम को अपने दम पर आगे बढ़ाए हुए हैं। लेकिन उन्हें समयानुकूल करने की जरूरत है। समय ठहरा हुआ नहीं होता। वह नए परिवर्तनों के साथ भी चलता होता है।
- चंदन कुमार जजवाड़े
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 4 जनवरी से राज्य की ‘समाधान यात्रा’ पर निकले थे। यह यात्रा 16 फरवरी को समाप्त हो रही है। इस यात्रा का मकसद बिहार के सभी 38 जि़लों की यात्रा कर लोगों से बात करना और सरकारी योजनाओं के बारे में उनकी राय जानना था।
नीतीश कुमार ने सबसे पहले साल 2005 में राज्य की यात्रा की थी, जिसके बाद वो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। इस बार की यात्रा नीतीश कुमार के लिए बिहार में उनकी राजनीतिक ताकत को समझने के लिए काफी अहम है।
नीतीश की इस समाधान यात्रा को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी से भी जोडक़र देखा जा रहा है। उन्हें इस यात्रा के दौरान विरोधियों के हमले भी झेलते पड़े हैं और उन्हें अपनी ही पार्टी में चल रहे विवाद का भी सामना करना पड़ा है।
इन सारे मुद्दों पर हम विस्तार से आगे बात करेंगे, लेकिन पहले दो तस्वीरों का जिक्र करते हैं। पहली तस्वीर मुजफ्फरपुर की है जहां शेरपुर ब्लॉक ऑफि़स में अचानक ही लोगों की भीड़ ने नारा लगाना शुरू कर दिया, ‘हमारा पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो।’
दरअसल नारे लगाने वाले ये लोग जेडीयू के कार्यकर्ता थे। नीतीश को अपनी यात्रा के दौरान ऐसे कई नारे सुनने को मिले हैं जो शायद उन्हें रास आते हों। लेकिन ‘जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे’ के उलट भी नीतीश को बहुत कुछ सुनना पड़ा है।
पिछले हफ्ते कटिहार में नीतीश की यात्रा के दौरान कुछ लोगों ने ‘मोदी-मोदी’ के नारे भी लगाए। खबरों के मुताबिक, ये लोग नीतीश कुमार से मिलना चाह रहे थे, लेकिन जब नहीं मिल पाए तो गुस्से में उनका विरोध करने लगे।
कुढऩी चुनाव से मिला झटका
मुजफ्फरपुर समाहरणालय में सीएम के कार्यक्रम के दौरान हमारी नजर अचानक एक इमारत पर गई जिस पर लिखा था, ‘कुढऩी विधानसभा उप निर्वाचन- 2022 जिला नियंत्रण कक्ष।’
दरअसल नीतीश की असल समस्या इसी चुनाव से शुरू हुई थी। मुजफ्फरपुर की ही कुढऩी विधानसभा सीट के लिए दिसंबर में हुए उपचुनाव में नीतीश की पार्टी जेडीयू की हार हुई थी। यह सीट बीजेपी ने महागठबंधन से छीन ली थी।
माना जा रहा था कि अगस्त 2022 में बिहार में महागठबंधन के सत्ता में आने के बाद आरजेडी और जेडीयू की ताकत के आगे बीजेपी को बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
लेकिन पिछले साल नवंबर में भी महागठबंधन को गोपालगंज सीट पर हुए उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा था, जबकि मोकामा सीट पर उसे सफलता मिली थी।
कुढऩी विधानसभा उपचुनाव का यह परिणाम हाल के दिनों में नीतीश कुमार के लिए बड़ा राजनीतिक झटका था। माना जाता है कि बिहार में शराब बंदी की वजह से करीब पांच लाख लोगों पर हुए मुकदमे की इसमें अहम भूमिका है।
इसके अलावा दिसंबर महीने में ही सारण जिले में जहरीली शराब से हुई मौतों और शराबबंदी की सफलता के सवाल भी नीतीश को लगातार घेर रहे थे। इस शराब कांड की गूंज बिहार विधानसभा से लेकर दिल्ली में संसद तक सुनाई दी थी।
वहीं पूरी यात्रा में आरजेडी विधायक सुधाकर सिंह भी लगातार सीएम नीतीश पर हमले कर रहे थे। रही सही कसर खुद नीतीश की पार्टी जेडीयू के नेता उपेंद्र कुशवाहा की बगावत ने पूरी कर दी।
सुधाकर सिंह लगातार नीतीश कुमार को एक कमजोर सीएम बताकर आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं। जबकि उपेंद्र कुशवाहा सार्वजनिक तौर पर जेडीयू को एक कमजोर होती पार्टी बता रहे हैं।
अमित शाह का बिहार दौरा
ऐसे मौके को विपक्षी बीजेपी भी हाथ से जाने देने वाली नहीं थी। यात्रा की शुरुआत से लेकर उसके अंत तक बीजेपी नीतीश कुमार पर सवाल खड़े करती रही। बीजेपी ने इस यात्रा को सरकारी पैसे की बर्बादी तक बताया।
4 जनवरी को नीतीश कुमार अपनी यात्रा पर निकलते, इससे पहले बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बिहार पहुंचकर नीतीश कुमार पर हमले तेज कर दिए। नड्डा ने नीतीश पर बीजेपी को धोखा देने का आरोप भी लगाया।
नीतीश कुमार की राजनीतिक घेरेबंदी करने और 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिहाज से 25 फरवरी को बीजेपी नेता अमित शाह बिहार आ रहे हैं। ख़बरों के मुताबिक वो वाल्मीकिनगर और पटना में सभा करेंगे।
अब नीतीश कुमार भी 25 फरवरी को महागठबंधन के सभी बड़े नेताओं के साथ बीजेपी के खिलाफ बिहार के पूर्णियां में रैली करने वाले हैं। पूर्णिया बिहार के सीमांचल का इलाका है।
यानी आने वाले दिनों में नीतीश कुमार को घरेलू मोर्चे से लेकर विरोधियों तक को जवाब देना है। सीएम नीतीश कुमार के सामने उनकी खुद की कई समस्याएं हैं जिनका समाधान वो इस यात्रा में तलाश रहे हैं।
समाधान यात्रा को कितना समर्थन
मंगलवार सुबह जब हम मुजफ्फरपुर के शेरपुर ब्लॉक पहुंचे तो महिलाओं की लंबी कतार और दीवारों पर ‘जीविका योजना’ के बैनर और पोस्टर बता रहे थे कि नीतीश कुमार के लिए यह योजना काफी अहम है।
जीविका योजना के तहत बिहार के ग्रामीण इलाकों में मूल रूप से सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर महिलाओं के आर्थिक विकास के लिए प्रयास किए जाते हैं।
नीतीश कुमार जीविका दीदियों से मिलने वाले फीडबैक को खासा महत्व देते हैं। बिहार में जीविका योजना से करीब डेढ़ करोड़ महिलाएं जुड़ी हुई हैं।
बिहार के ग्रामीण विकास विभाग के सचिव एस बालामुर्गन का कहना है, ‘देखा गया है कि महिलाओं के जरिए योजना चलाने से यह परिवार तक ज्यादा पहुंचती है। बिहार के ग्रामीण इलाके में इसका बहुत असर हुआ है। महिलाएं न केवल आर्थिक मोर्चे पर आगे बढ़ रही हैं, बल्कि जीविका के जरिए दहेज प्रथा, शिक्षा और बाकी कई अहम मुद्दों पर सफलतापूर्वक जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है।
यहीं कतार में खड़ी कुछ महिलाएं मुख्यमंत्री के लिए स्वागत गान गा रही थीं। हाथों में बैनर और पोस्टर लिए ये महिलाएं शराब का विरोध और शराबबंदी का समर्थन कर रही थीं।
ऐसी ही एक महिला रागिनी देवी का कहना था, ‘सीएम भैया ने हमारे लिए बहुत कुछ किया है। पहले हम घर में बंद थे। बाहर नहीं निकलते थे। कोई हमारी कद्र भी नहीं करता था। अब हम ग्रुप से जुड़ कर काम करती हैं। हमारा सम्मान बढ़ा है।’
मुजफ्फरपुर की रहने वाली राजकुमारी देवी उर्फ किसान चाची ने भी सीएम की समाधान यात्रा के एक कार्यक्रम की जगह पर अपने प्रोडक्ट का एक स्टॉल लगाया था। किसान चाची को भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार भी दिया है।
उनका कहना है, ‘नीतीश कुमार ने महिलाओ के लिए बहुत कुछ किया है। विकास के लिए महिलाओं का साथ बहुत जरूरी है। महिलाओं को नीतीश जी के राज में बहुत सम्मान मिला है।’
यहां सडक़ों से लेकर छतों पर मौजूद महिलाओं की कतार और बरसते फूल नीतीश कुमार को यात्रा में ‘फील गुड’ करा सकते हैं।
नहीं दिखी पुरुषों की भागीदारी
बिहार में आधी आबादी यानी महिलाओं के एक बड़े तबके की सक्रियता नीतीश की यात्रा में दिखी। लेकिन हमें यह एहसास भी हुआ कि इसमें पुरुषों की भागीदारी काफी कम है।
हमने नीतीश कुमार से सीधा पूछा कि पुरुषों की कम दिलचस्पी के पीछे क्या वजह है तो नीतीश ने इसे स्वीकार नहीं किया और दावा किया कि पुरुष भी उनके कार्यक्रम में शामिल हो रहे हैं और वो सबके लिए काम कर रहे हैं।
मुजफ्फरपुर में एक व्यक्ति ने हमें बताया कि अपनी जमीन का कागज बनवाने के लिए वो पटना तक दौड़ रहे हैं, लेकिन उनका काम नहीं हो रहा है। वो नीतीश कुमार से मिलने आए थे, लेकिन उन्हें नहीं मिलने दिया गया।
वहां मौजूद एक और व्यक्ति रमेश कुमार का कहना था कि वो सीएम के कार्यक्रम के लिए नहीं आए थे, बल्कि वहां से गुजऱ रहे थे तो भीड़ देखकर रूक गए।
यानी नीतीश कुमार की समाधान यात्रा लोगों की निजी समस्या के समाधान के लिए नहीं थी। इसलिए कई जगहों पर यात्रा के दौरान उनका विरोध भी देखा गया।
नीतीश कुमार का विरोध
कई समाचार माध्यमों में एक वीडियो के आधार पर दावा किया गया कि इसी सोमवार को औरंगाबाद में समाधान यात्रा के दौरान नीतीश कुमार के ऊपर कुर्सी का एक हिस्सा फेंका गया था। हालांकि वहां मौजूद भीड़ मुख्यमंत्री के समर्थन में नारे लगाती हुई दिख रही थी।
अधिकारियों का कहना है कि कई लोग प्लास्टिक की कुर्सियों पर खड़े थे, इसी वजह से कुर्सी टूट गई और उसका एक टुकड़ा सीएम की तरफ चला गया। हालांकि इससे नीतीश कुमार को कोई चोट नहीं आई थी।
इससे पहले कटिहार में समाधान यात्रा के दौरान भी लोगों ने नीतीश कुमार पर ऐसा ही आरोप लगाकर नारेबाज़ी की थी। लोगों ने आरोप लागाया था कि नीतीश कुमार उनसे मिलने के लिए गाड़ी से बाहर तक नहीं निकले।
समाधान यात्रा के दौरान ही वैशाली में नीतीश कुमार ने बढ़ती जनसंख्या को लेकर जो बयान दिया था उससे बड़ा विवाद खड़ा हो गया था। बिहार में विपक्षी दल बीजेपी ने इसे महिलाओं के अपमान तक से जोड़ दिया था।
यानी जिन महिलाओं के समर्थन के सहारे नीतीश की यह यात्रा चल रही है, उन्हीं को नीतीश कुमार से दूर करने की सियासत भी इस समाधान यात्रा के दौरान देखी गई। ऐसा भी नहीं है कि समाधान यात्रा में नीतीश कुमार को हर जगह जीविका दीदियों का समर्थन ही मिला है।
खबरों के मुताबिक पिछले हफ्ते मधेपुरा की यात्रा में जीविका दीदियों ने नीतीश कुमार की यात्रा के दौरान जमकर विरोध-प्रदर्शन और नारेबाजी की। महिलाओं ने बिहार में अवैध शराब की बिक्री के लिए नीतीश कुमार को ही जिम्मेदार ठहराया।
हालांकि राज्य सरकार में वित्त मंत्री विजय कुमार चौधरी किसी तरह के विरोध से साफ इंकार करते हैं।
उनका कहना है, ‘कहां विरोध हुआ है? हमने तो कहीं भी विरोध नहीं देखा। जो हमारे कार्यक्रम में थे, उन लोगों ने कोई नारा नहीं लगाया। अब कोई अपने घर में बैठकर नारा लगाए तो किसी को मनाही नहीं है। हमने इस कार्यक्रम में कहीं कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं देखी।’
नीतीश को क्या हासिल हुआ
बिहार सरकार में वित्त मंत्री विजय कुमार चौधरी भी नीतीश कुमार के साथ मुजफ़्फ़ऱपुर में मौजूद थे। हमने उनसे पूछा कि सरकार को समाधान यात्रा से क्या हासिल हुआ है?
विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ‘हमने अनेक जिलों में देखा है कि समाधान यात्रा अपने मकसद में सौ फीसदी क़ामयाब रही है। हमें जानना था कि ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए, महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए, ग्रामीण क्षेत्रों में छात्रवृत्ति या बाकी योजनाएं जो सरकार चला रही है उससे धरातल पर क्या बदलाव आया है।’
उनका कहना था कि सरकारी योजनाओं का लाभ पाने वाला तबका कैसा महसूस कर रहा है, यही जानना सरकार का मक़सद था। उन्होंने बताया कि इस फीडबैक के आधार पर योजनाओं को और बेहतर बनाने की दिशा में काम किया जा सकता है।
समाधान यात्रा से जुड़ी सुखद तस्वीरों को अक्सर राज्य सरकार भी प्रचारित करती है। ऐसी तस्वीरें जहां लोग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए नारे लगा रहे हों, या उनके स्वागत और सम्मान में खड़े हों।
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण मानते हैं कि इस बार की यात्रा क्यों निकाली गई, यह समझ से परे है, ‘लगता है नीतीश कुमार ख़ुद भी यात्रा के मकसद को लेकर कन्फ्यूज थे। यह काफी निराशाजनक यात्रा थी।’
नचिकेता नरायण कहते हैं, ‘पिछली यात्रा में नीतीश ने साफ तौर पर शराबबंदी के प्रचार को मुद्दा बनाया था। इस बार वो जेडीयू और आरजेडी के वोटरों को एकजुट कर सकते थे। लेकिन उन्होंने कोई जनसभा तक नहीं की और राजनीतिक सवालों से भी बचते रहे।’
नीतीश कुमार ने अपनी इस यात्रा में उपेंद्र कुशवाहा को लेकर बयान तो दिया, लेकिन केंद्र की राजनीति से जुड़े सवालों को वो आमतौर पर टालते दिखे।
पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर नीतीश कुमार की इस यात्रा पर अलग राय रखते हैं। उनका कहना है, ‘ऐसा लगता है नीतीश कुमार अपनी आगे की राजनीति के लिहाज से जनता की नब्ज टटोल रहे थे। उन्होंने लोगों से मुलाकात की है, अब इसकी समीक्षा करेंगे और फैसले लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली और मुंबई के बी.बी.सी. दफ्तरों पर भारत सरकार ने जो छापे मारे हैं, उन पर भारत के विरोधी दलों ने काफी खरी-खोटी टिप्पणियां की हैं लेकिन वे यह क्यों नहीं समझते कि यह छापे के बदले छापा है। मोदी सरकार लाख सफाई दे कि यह बी.बी.सी. पर आयकर विभाग का छापा नहीं है, सिर्फ सर्वेक्षण है लेकिन सबको पता है कि यह छापामारी उस फिल्म के जवाब में हुई है, जो बी.बी.सी. ने ‘इंडियाः द मोदी क्वेश्चन’ के नाम से छापामारी की है।
मोदी सरकार ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया है। अब यह न तो हमारे सिनेमाघरों में दिखाई जा सकती है और न ही उसे आप आनलाइन देख सकते हैं। ‘पठान’ नामक फिल्म पर भी काफी एतराज हुए थे लेकिन जब वह चली तो ऐसी चली कि वह अपनी दौड़ में आज तक की सभी फिल्मों से आगे निकल गई है। अब इस मोदी फिल्म पर सरकार ने छापा मारा है तो वह पूछ सकती है कि क्या इस फिल्म ने मोदी पर छापा नहीं मारा है? जिस दुर्घटना को बीते हुए दो दशक हो गए, उसे बी.बी.सी. ने किसलिए याद किया है? क्या लंदन की यह आकाशवाणी भारत में दुबारा दंगे करवाना चाहती है? 2002 के गुजराती रक्तपात के बाद देश में दंगे लगभग नगण्य हो गए हैं तो फिर उन्हें याद करवाने का मकसद क्या है?
मोदी को ‘मौत का सौदागर’ सिद्ध करने के पीछे असली मकसद क्या है? क्या बी.बी.सी. भारत में 1947 को दोहरवाने की फिराक में है? यदि भारत में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की पुरानी ब्रिटिश राजनीति फिर चल पड़ी तो क्या होगा? उस समय भारत की जमीन के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब उसके दिलों के सौ टुकड़े हो सकते हैं। इसीलिए ऐसी फिल्में, ऐसी किताबें, ऐसी तेहरीकें किसी काम की नहीं। लेकिन उन पर प्रतिबंध लगाना तो और भी उल्टा सिद्ध हो सकता है।
अब जो लोग मोदी के अंधभक्त हैं, वे भी उसे चोरी-छिपे देखने की कोशिश करेंगे। दूसरे शब्दों में हमारी सरकार जान-बूझकर बी.बी.सी. का मोहरा बन रही है। हमारे कुछ पत्रकार संगठन भी खीज रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है। देश में इंदिरा गांधी का आपात्काल फिर से शुरु हो रहा है। जो पत्रकार लोग डरपोक हैं, उन्हें तो हर सरकार आपात्काल की माता मालूम पड़ती है और जिन अखबारों और टीवी चैनलों की चड्डियां पहले से गीली हैं, उन्हें डर लगता है कि कहीं उन पर भी छापा न पड़ जाए। जै
से आप डरपोक हैं, यह सरकार भी उतनी ही डरपोक है। सरकारें डर के मारे छापे मारती हैं और पत्रकार डर के मारे खुशामद करते हैं। यदि सरकार बी.बी.सी. की इस फिल्म पर प्रतिबंध नहीं लगाती तो इसकी थोड़ी-बहुत चर्चा होकर रह जाती लेकिन सरकार में बैठै हुए हमारे नेता लोग कोई ईसा मसीह तो हैं नहीं कि वे अपने ‘हत्यारो’ (आलोचकों) के लिए ईश्वर से कहें कि ‘इन्हें माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं? (नया इंडिया की अनुमति से)
विवेक कुमार
भारतीय साहित्य के हजारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। मिर्जा गालिब उनमें से एक हैं। विलक्षण अनुभूतियों के इस अनोखे शायर के सौंदर्यबोध से गुजरना एक दुर्लभ अनुभव है।
लफ्जों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, नए-नए अर्थ खुलते हैं। वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज होती हैं, लेकिन अपने दौर की पीडाओं की नक्काशी का गालिब का अंदाज भी अलग था और तेवर भी जुदा। वहां कोई बंधा-बंधाया जीवन-मूल्य या स्थापित जीवन-दर्शन नहीं है। रूढिय़ों का अतिक्रमण ही जीवन मूल्य है और आवारगी जीवन दर्शन। गालिब में हर कहीं एक अजीब-सी बेचैनी नजऱ आती है।
रवायतों को तोडक़र आगे निकल जाने की बेचैनी। जीवन और मृत्यु के उलझे हुए रिश्ते को सुलझाने की बेचैनी। दुनियादारी और आवारगी के बीच तालमेल बिठाने की बेचैनी। इश्क के उलझे धागों को खोलने और उसके सुलझे हुए सिरों को फिर से उलझा देने की बेचैनी। यह बेचैनी उनकी शायरी की रूह है।
मनुष्य के मन की गुत्थियों और वक़्त के साथ उसके अंतर्संघर्ष का जैसा चित्र ग़ालिब की शायरी में मिलता है, वह उर्दू ही नहीं विश्व की किसी भी भाषा के लिए गर्व का विषय हो सकता है। आज उनकी पुण्यतिथि पर खिराज-ए-अकीदत, उनके शेर के साथ-
‘गालिब’ बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सेंट वेलेन्टाइन डे’ का विरोध अगर इसलिए किया जाता है कि वह प्रेम-दिवस है तो इससे बढ़कर अभारतीयता क्या हो सकती है? प्रेम का, यौन का, काम का जो मुक़ाम भारत में है, हिन्दू धर्म में है, हमारी परम्परा में है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। धर्म शास्त्रों में जो पुरुषार्थ-चतुष्टय बताया गया है–धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष– उसमें काम का महत्व स्वयंसिद्ध है। काम ही सृष्टि का मूल है। अगर काम न हो तो सृष्टि कैसे होगी? काम के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। इसीलिए काम पर रचे गए ग्रन्थ को कामशास्त्र कहा गया? शास्त्र किसे कहा जाता है? क्या किसी अश्लील ग्रंथ को कोई शास्त्र कहेगा? शास्त्रकार भी कौन है? महर्षि है! महर्षि वात्स्यायन! वैसे ही जैसे कि महर्षि वेलेन्टाइन जो पैदा हुए, तीसरी सदी में| वे भारत में नहीं, इटली में पैदा हुए।
वात्स्यायन को किसी सम्राट से टक्कर लेनी पड़ी या नहीं, कुछ पता नहीं लेकिन कहा जाता है कि तीसरी सदी के रोमन सम्राट क्लॉडियस द्वितीय और वेलेन्टाइन के बीच तलवारें खिंच गई थीं। क्लॉडियस ने विवाह वर्जित कर दिए थे। उसे नौजवान फ़ौजियों की जरूरत थी। कुँवारे रणबाँकुरों की जरूरत थी। सम्राट के चंगुल से निकल भागनेवाले युवक और युवतियाँ, जिस ईसाई सन्त की शरण में जाते थे, उसका नाम ही वेलेन्टाइन है।
वेलेन्टाइन उनका विवाह करवा देता था, उन्हें प्रेम करने की सीख देता था और जो सम्राट की कारागार में पड़े होते थे, उन्हें छुड़वाने की गुपचुप कोशिश करता था। कहते हैं कि इस प्रेम के पुजारी सन्त को सम्राट क्लॉडियस ने आखिरकार मौत के घाट उतार दिया। किंवदन्ती यह भी है कि मौत के घाट उतरने के पहले वेलेन्टाइन डे प्रेम की नदी में स्नान किया। वे क्लॉडियस की जेल में रहे और जेल से ही उन्होंने जेलर की बेटी को अपना प्रेम-सन्देसा पढ़ाया- कार्ड के जरिए, जिसके अन्त में लिखा हुआ था ‘तुम्हारे वेलेन्टाइन की ओर से’। यह वह पंक्ति है, जो यूरोप के प्रेमी-प्रेमिका अब 1700 साल बाद भी एक-दूसरे को लिखना पसंद करते हैं !
ऐसे सन्त वेलेन्टाइन से भारतीयता का भला क्या विरोध हो सकता है? वेलेन्टाइन नाम का कोई सन्त सचमुच हुआ या नहीं, इस पर यूरोपीय इतिहासकारों में मतभेद है। अगर यह मान भी लें कि वेलेन्टाइन सिर्फ कपोल-कल्पना है तो भी इसमें त्याज्य क्या है? वेलेन्टाइन का दिन आखिर कब मनाया जाता है? फरवरी में, 14 तारीख को! फरवरी तक, मध्य फरवरी तक प्रकृति में, पुरूष में, नारी में, पशु-पक्षी में चराचर जगत में क्या कोई परिवर्तन नहीं होता? आया वसन्त, जाड़ा उड़न्त!
वसन्त के परिवर्तनों का जैसा कालिदास ने ऋतुसंहार में, श्रीहर्ष ने रत्नावली में, भास ने स्वप्नवासवदत्तम् में और विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में अंकन किया है, क्या किसी पश्चिमी नाटककार या कवि ने किया है? सौन्दर्य का, प्रेम का, श्रृंगार का, रति का, मौसम की मजबूरियों का इतना सूक्ष्म चित्रण इतना गहन और स्पष्ट है कि उसे यहाँ लिखने की बजाय वहाँ पढ़ने की सलाह दी जा रही है।
प्रेम के इस व्यापार में हजार वेलेंटाइन को पछाड़ने के लिए एक कालिदास ही काफी है। अगर प्रेम की पूजा के लिए वेलेन्टाइन की भर्त्सना करेंगे तो कालिदास का क्या करेंगे? श्रीहर्ष का क्या करेंगे? बाणभट्ट का क्या करेंगे? संस्कृत के इन महान कवियों के लिए तो बाक़ायदा कोई बूचड़खाना ही खोलना पड़ेगा। खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों को ढहाने के लिए तो गज़नियों और गोरियों को बुलाना पड़ेगा।
‘वेलेन्टाइन डे’ के पीछे लट्ठ लेकर पड़े हमारे नौजवानों को शायद पता नहीं कि भारत में मदनोत्सव, वसन्तोत्सव और कौमुदी महोत्सव की शानदार परम्परा रही हैं। इन उत्सवों के आगे ‘वेलेन्टाइन डे’ पानी भरता नज़र आता है। यदि मदनोत्सवों के सम्भाषणों की तुलना ‘वेलेन्टाइन डे’ कार्डों से की जाए तो लगेगा कि किसी सर्चलाइट के आगे लालटेन रख दी गई है, शेर के आगे बकरी खड़ी कर दी गई है और मन भर को कन भर से तौला जा रहा है कौमुदी महोत्सवों में युवक और युवतियाँ बेजान कार्डों का लेन-देन नहीं करते, प्रमत्त होकर वन-विहार करते हैं, गाते-बजाते हैं, रंगरलियाँ करते हैं, गुलाल-अबीर उड़ाते हैं, एक-दूसरे को रंगों से सरोबार करते हैं और उनके साथ चराचर जगत भी मदमस्त होकर झूमता है।
मस्ती का वह संगीत पेड़-पौधों, लता-गुल्मों, पशु-पक्षियों, नदी-झरनों–प्रकृति के चप्पे-चप्पे में फूट पड़ता है। सम्पूर्ण सृष्टि प्रेम के स्पर्श के लिए आतुर दिखाई पड़ती है। सुन्दरियों के पदाघात से अशोक के वृक्ष खिल उठते हैं। सृष्टि अपना मुक्ति-पर्व मनाती है। इस मुक्ति से मनुष्य क्यों वंचित रहे? मुक्ति-पर्व की पराकाष्ठा होली में होती है सारे बन्धन टूटते हैं। मान-मर्यादा ताक पर चली जाती है। चेतन में अचेतन और अचेतन में चेतन का मुक्त-प्रवाह होता है। राधा कृष्ण और कृष्ण राधामय हो जाते हैं।
सम्पूर्ण अस्तित्व दोलायमान हो जाता है, रस में भीग जाता है, प्रेम में डूब जाता है। पद्माकर ने क्या खूब कहा है -“बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में। बनन में, बागन में बगरौ बसंत है।” ब्रज की गोरी, कन्हैया की जैसी दुर्गति करती है, क्या वेलेन्टाइन के प्रेमी उतनी दूर तक जा सकते हैं? अगर वे जाना चाहें तो जरूर जाएँ लेकिन जाएँगे कैसे? काठ के पाँवों पर आखिर वे कितनी देर नाच पाएँगे? वेलेन्टाइन के भारतीय प्रेमी वह ऊर्जा कहाँ से लाएँगे, जो अपनी ज़मीन से जुड़ने पर पैदा होती है?
काम का भारतीय अट्टहास यूरोप को मूर्छित कर देने के लिए काफी है। अगर वेलेन्टाइन के यूरोपीय समाज में आज कोई होली उतार दे तो वहाँ एक बड़ा सामाजिक भूकम्प हो जाएगा। ऐसे अधमरे-से वेलेन्टाइन को भारत का जो भद्रलोक अपनी छाती से चिपकाए रखना चाहता है, जिसकी जड़ें उखड़ चुकी हैं। उसके रस के स्रोत सूख चुके हैं। उसे अपनी परम्परा का पता नहीं। वह नकल पर जिन्दा है। उसकी अपनी कोई भाषा नहीं, साहित्य नहीं, संस्कृति नहीं। वह अंधेरे में राह टटोल रहा हैं। अपने भोजन, भजन, भेषज, भूषा और भाषा- हर क्षेत्र में पश्चिम की नकल को ही अकल मानता है।
इसीलिए शुभ्रा, धवला प्रेम दिवानी मीरा उसकी नज़र से ओझल हो जाती है और किंवदन्तियों के कुहरे में लिपटे हुए वेलेन्टाइन उसके कण्ठहार बन जाते हैं। मीरा और राधा के देश का आदमी अगर वेलेन्टाइन की खोज में इटली जाता है तो उसे क्या कहा जाएगा? वाटिका में बैठा आदमी कागज के फूल सूंघ रहा हो तो उसे क्या कहा जाएगा? हवाई जहाज में उड़ता हुआ आदमी बैलगाड़ी की गति पर गीत लिख रहा हो तो उसे क्या कहा जाएगा?
भारत का आधुनिक भद्रलोक भी बड़ा विचित्र है! सयाना कौआ है। उससे चतुर दुनिया में कौन है? चतुराई इतनी कि अमेरिकियों को उनकी ज़मीन पर ही उसने दे मारा लेकिन वह जितना सयाना है, उतनी ही गलत जगह पर जा बैठता है! मल्टीनेशनल कम्पनियों के जाल में सबसे ज्यादा वही फँसता है, उपभोक्तावाद की तोप का भूसा वही बनता है, नकलची की भूमिका वही सहर्ष निभाता है। ‘वेलेंटाइन डे’ के नाम पर करोड़ों डॉलर के कार्ड, उपहार और विज्ञापन का धंधा होता है। जैसे क्रिसमस आनन्द का पर्व कम, धंधे का पर्व ज्यादा बन गया है, वैसे ही ‘वेलेंटाइन डे’ पर तीसरी दुनिया में फिजूलखर्ची की एक नई लहर उठ खड़ी हुई है।
इसका विरोध जरूरी है। विरोध इसलिए भी जरूरी है कि नुकसान आखिरकार नकलची का ही होता है। नकलची की जेब कटती है और असलची की जेब भरती है। तीसरी दुनिया का पैसा, उसके खून-पसीने की कमाई आखिरकार ईमानदार देशों में चली जाती है, चाहे वह कार्डों के रास्ते जाए, चाहे जीन्स और टाइयों के रास्ते जाए और चाहे पीज़ा और चिकन के ज़रिए जाए! इस रास्ते को बंद करने के लिए यदि कोई शोर मचाए तो बात समझ में आती है लेकिन बेचारे वेलेन्टाइन ने आपका क्या बिगाड़ा है?
वेलेन्टाइन ने रोम के नौजवानों को न अनैतिकता सिखाई, न अनाचार का मार्ग दिखाया और न ही दुश्चारित्र्य को प्रोत्साहित किया। वह तो डूबतों को तिनका था, अंधेरे का दीपक था।जैसे हिन्दू समाज के बागी युवक-युवतियों के लिए आर्य समाज सहारा बनता है, वैसे ही रोम के प्रेमी-प्रेमिकाओं का सहारा वेलेन्टाइन था। वेलेन्टाइन की आड़ में अगर पश्चिमी कम्पनियाँ अपना शिकार खेल रही हैं तो बेचारा वेलेन्टाइन क्या करे? वेलेन्टाइन तो किसी मल्टीनेशनल का मालिक नहीं था! देने के लिए उसके पास कोई उपहार भी क्या रहा होगा?
अगर जेलर की बेटी को कोई कार्ड उसने भेजा भी होगा तो वह हाथ से ही लिखा होगा और डाक टिकट चिपकाकर नहीं, किसी की मिन्नतें करके ही भिजवाया होगा। सम्राट क्लॉडियस जिस पर दाँत पीस रहा हो, वह वेलेन्टाइन अपने प्रेम की अभिव्यक्ति भला विज्ञापन के ज़रिए कैसे कर सकता था। इसीलिए वेलेन्टाइन को नायक बनाना जितना हास्यास्पद है, उतना ही खलनायक बनाना भी है। वास्तव में ये दोनों कर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो वेलेन्टाइन को नायक बनाते हैं, वे अपनी परम्परा से उतने ही बेगाने हैं जितने कि वे जो उसे खलनायक बनाते हैं।
वेलेन्टाइन का विरोध करनेवाले क्या भारत को एक बन्द गोभी बनाना चाहते हैं? क्या वे भारत को मध्यकालीन यूरोप की पोपलीला में फँसाना चाहते हैं? क्या वे आधुनिक भारत को किसी शेखडम में परिणत करना चाहते हैं? क्या वेलेन्टाइन की आड़ में वे भारत को मुक्त संस्कृति का गला घोटना चाहते हैं? क्या वे वेलेन्टाइन की आड़ में कालिदास पर प्रहार करना चाहते हैं? जो भारत चार्वाकों को चर्वण करता रहा है, क्या वह वेलेन्टाइन को नहीं पचा सकता?
प्रतिबन्धों, प्रताड़नाओं, वर्जनाओं का भारत कभी हिन्दू भारत तो हो ही नहीं सकता। जिसे हिन्दू भारत कहा जाता है, वह ग्रन्थियों से ग्रस्त कभी नहीं रहा। वह भारत मानव-मात्र की मुक्ति का सगुण सन्देश है। उस भारत को वेलेन्टाइन से क्या डर है? उसे हर पहलू में हजारों वेलेन्टाइन बसे हुए हैं। उसे वेलेन्टाइन के आयात नहीं, होली के निर्यात की जरूरत है।
चीन, जापान, थाईलैंड, सिंगापुर आदि देशों के दमित यौन के लिए वेलेन्टाइन निकास-गली बन सकते हैं लेकिन जिस देश में गोपियाँ कृष्ण की बाहें मरोड़ देती हैं, पीताम्बर छीन लेती हैं, गालों पर गुलाल रगड़ देती हैं, और नैन नचाकर कहती हैं लला, फिर आइयो खेलन होरी,’ उस देश में वेलेन्टाइन को लाया जाएगा तो वह बेचारा बगले झाँकने के अलावा क्या करेगा? कृष्ण के मुकाबले वेलेन्टाइन क्या है? कहाँ कृष्ण और कहाँ वेलेन्टाइन? भारत को असली खतरा वेलेन्टाइन से नहीं, उस पिलपिले भद्रलो से है, जो पिछले पचास साल में उग आया है। वेलेन्टाइन-विरोध के नाम पर जो वितण्डा हुआ, वह इस पिलपिले भद्रलोक और सिरफरे भद्रलोक के बीच हुआ है।
वेलेन्टाइन को ये दोनों जानते हैं लेकिन जनता उसे नहीं जानती। वह तो उसके नाम का उच्चारण भी नहीं कर सकती। उसे वेलेंटाइन से क्या लेना-देना है? जैसे आम जनता को वेलेन्टाइन से कुछ लेना-देना नहीं, वैसे ही इन दोनों भद्रलोकों को आम-जनता से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर होता तो पहला भारत समतामूलक समाज की जरूरत के प्रति थोड़ा सचेत दिखाई पड़ता और दूसरा भद्रलोक उन मुद्दों पर लड़ाई छेड़ता, जिनके उठने पर धन, धरती, अवसर आदि समाज में समान रूप से बँटते।
‘वेलेंटाइन डे’ का विरोध करके माँ-बहनों की इज़्ज़त बचाने का दावा करने की बजाय यह कहीं बेहतर होता कि ये ही स्वयंसेवक दहेज और बहू दहन आदि के विरूद्ध मोर्चे लगाते। क्या यह विडम्बना नहीं कि ‘वैलेंटाइन डे’ के प्रेमी और विरोधी, दोनों ही स्त्री-शक्ति को दृढ़तर बनाने के बारे में बेख़बर हैं? (नया इंडिया की अनुमति से)