विचार/लेख
दिलीप कुमार शर्मा
मणिपुर में बीते 48 घंटों में अलग-अलग जगह पर हुई हिंसा में पांच नागरिकों समेत दो सुरक्षाकर्मियों की मौत हुई है।
इसमें से एक मामला विष्णुपुर जि़ले का है। यहां संदिग्ध हथियारबंद चरमपंथियों ने गुरुवार शाम एक पिता-पुत्र समेत चार लोगों की हत्या कर दी।
मरने वाले लोगों की पहचान थियाम सोमेन सिंह,ओइनम बामोइजाओ सिंह, उनके बेटे ओइनम मनितोम्बा सिंह और निंगथौजम नबादीप मैतेई के रूप में की गई है।
वहीं बुधवार रात इंफाल पश्चिम जि़ले के कांगचुप में हमलावरों ने एक मैतेई बहुल गांव के ग्राम रक्षक की हत्या कर दी। बुधवार को ही संदिग्ध चरमपंथियों ने टैंगनोपल जि़ले में म्यांमार सीमा से सटे मोरेह शहर में सुरक्षाबलों पर हमला किया था। इसमें पुलिस के दो जवानों की मौत हो गई थी।
हिंसा की इन अलग-अलग घटनाओं में मारे गए सभी लोग मैतेई समुदाय के थे। इसके बाद राजधानी इंफाल से लेकर बिष्णुपुर जैसे मैतेई बहुल इलाकों में सुरक्षा व्यवस्था को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए है।
मणिपुर में 3 मई से रह-रहकर हो रही हिंसा के बीच पिछले कुछ दिनों से शांति का माहौल बना हुआ था। लेकिन बुधवार को मोरेह शहर से फिर शुरू हुई हिंसा ने राज्य में भय और दहशत का माहौल पैदा कर दिया है।
मणिपुर में चरमराई कानून-व्यवस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि आखिर इस ताज़ा हिंसा के पीछे क्या वजह है? क्यों पिछले आठ महीनों से यहां हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है?
मोरेह में कैसे भडक़ी हिंसा
पिछले 8 महीनों में मणिपुर के जिन शहरी इलाकों में व्यापक स्तर पर हिंसा हुई, उसमें सीमावर्ती मोरेह शहर भी एक है।
कुकी जनजाति बहुल इस शहर में हिंसा के दौरान मैतेई लोगों के अधिकतर घरों को जला दिया गया था। इस समय मोरेह में एक भी मैतेई परिवार नहीं है।
मोरेह में असम राइफल्स और बीएसएफ के साथ मणिपुर पुलिस कमांडो की तैनाती को लेकर विरोध होता रहा है। वहां कुकी जनजाति के लोग मणिपुर पुलिस कमांडो को इलाके से हटाने की मांग करते आ रहे हैं। उनका कहना है कि मणिपुर पुलिस कमांडो में मैतेई समुदाय के जवान हैं, जिसके कारण वे लोग सुरक्षित महसूस नहीं करते। उनका यह भी आरोप है कि पुलिस कमांडो के साथ कुछ मैतेई हमलावर भी इलाके में आ गए हैं।
कुकी जनजाति के प्रमुख संगठन कुकी इंग्पी के वरिष्ठ नेता थांगमिलन किपजेन की मानें तो इस लड़ाई को रोकने के लिए भारत सरकार का हस्तक्षेप ज़रूरी है।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘राज्य में तुलनात्मक शांति थी। क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जी ने कहा था कि पहाड़ी इलाकों की कानून-व्यवस्था वे खुद देखेंगे और घाटी वाले इलाकों को मुख्यमंत्री बीरेन सिंह संभालेंगे। लिहाज़ा अब तक राज्य पुलिस के कमांडो पहाड़ी इलाके में नहीं आ रहे थे। अब हिंसा इसलिए बढ़ गई कि मणिपुर सरकार मैतेई समुदाय के पुलिस कमांडो को हेलीकॉप्टर के जरिए मोरेह भेज रही है। राज्य सरकार को शांति कायम करने के लिए इन कमांडो को वापस बुलाने की ज़रूरत है।’
कुछ कुकी संगठनों ने मोरेह शहर से मणिपुर पुलिस कमांडो को हटाने की मांग पर कई बार विरोध प्रदर्शन भी किया है।
पिछले साल अक्टूबर महीने में मोरेह में सब डिविजनल पुलिस अधिकारी (एसडीपीओ) चिंगथम आनंद कुमार की संदिग्ध चरमपंथियों ने हत्या कर दी थी जिसके बाद से इलाके में संघर्ष बढ़ता गया।
गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन
मणिपुर पुलिस की स्पेशल कमांडो टीम ने सोमवार की शाम एक मुठभेड़ के बाद दो संदिग्ध लोगों को पकड़ा था। पुलिस का दावा है कि ये दोनों लोग मोरेह शहर के एसडीपीओ रहे आनंद कुमार की हत्या में शामिल हैं।
पुलिस ने इस मामले में दो लोगों को गिरफ़्तार किया। ये दोनों लोग कुकी-ज़ो जनजाति से जुड़े थे। ऐसे में कुकी लोगों, ख़ासकर इस समुदाय की महिलाओं ने दोनों की रिहाई के लिए मोरेह थाने के सामने प्रदर्शन किया।
पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए बल का प्रयोग किया। इसमें कई महिलाएं घायल हो गईं। इसके अगले दिन ही हथियारबंद संदिग्ध चरमपंथियों ने मोरेह शहर के तीन अलग-अलग जगहों पर हमला कर दो पुलिस कमांडो की जान ले ली।
मणिपुर में कुकी चरमपंथियों की ओर से ताज़ा हमले किए जाने के सवाल पर किपजेन कहते हैं, ‘म्यांमार में अभी संघर्ष चल रहा है। लिहाज़ा इस समय वहां कई चरमपंथी संगठन सक्रिय हैं। मणिपुर का बॉर्डर सील नहीं है, इसलिए यहां मूवमेंट होता रहता है। लेकिन मोरेह में सुरक्षाबलों पर हुए हमले में विदेशी चरमपंथियों का हाथ नहीं है।’
सुरक्षा सलाहकार के इस्तीफे की मांग और उनका जवाब
राज्य की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे कुछ संगठनों ने मणिपुर में राज्य और केंद्रीय बलों की एकीकृत कमान के अध्यक्ष कुलदीप सिंह के इस्तीफे की मांग की है।
राज्य में मैतेई महिलाओं के सबसे ताकतवर संगठन मीरा पैबी ने भी यही मांग उठाई है।
जबकि मणिपुर के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह का कहना है कि सुरक्षाबलों के जवान असम राइफल्स के साथ मिलकर हमला करने वाले चरमपंथियों का मुकाबला कर रहे हैं।
सुरक्षाबलों पर हुए हमले पर गुरुवार शाम इंफाल में कुलदीप सिंह ने कहा, ‘म्यांमार की सीमा पर स्थित मोरेह शहर में बुधवार को पुलिसकर्मियों पर हुए हमले से पहले एक खुफिया रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि विद्रोही गुटों के साथ ‘बर्मा से आए सैनिक’ सुरक्षाबलों पर हमला कर सकते हैं।’
उन्होंने कहा कि कुकी समूहों से मिली धमकी के बाद खुफिया जानकारी इक_ा की गई थी कि मोरेह में तैनात मणिपुर पुलिस कमांडो को निशाना बनाया जाएगा। क्योंकि कूकी इंग्पी और नागरिक समाज संगठन के कई लोग मोरेह में सुरक्षित स्थानों पर आ रहे थे और वे कह रहे थे कि पुलिस के कमांडो को वहां से हटा दिया जाए।
लेकिन उस घटना में विदेशी हमलावरों की संलिप्तता के संबंध में अभी भी कोई सबूत नहीं है।
मैतेई समाज के हितों के लिए बनी कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ मणिपुर इंटीग्रिटी अर्थात कोकोमी के वरिष्ठ नेता किरेन कुमार मानते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार मणिपुर में स्थिति संभालने में सफल नहीं हो रहे हैं।
वो कहते है, ‘सरकार कुकी आतंकियों को नियंत्रित नहीं कर पा रही है। कुकी बॉर्डर टाउन मोरेह पर कब्जा करना चाहता है। म्यांमार के विद्रोही इन कुकी आतंकियों के साथ मिलकर आरपीजी विस्फोटक से हमला कर रहे हैं। किसी भी जातीय हिंसा में आरपीजी चलाने की बात किसी ने नहीं सुनी होगी।’
राज्य में शांति स्थापित करने के सवाल पर मैतेई नेता किरेन कुमार कहते हैं, ‘प्रदेश में शांति केवल भारत सरकार के हस्तक्षेप से ही कायम हो सकती है। हिंसा को शुरू हुए आठ महीने से ज्यादा हो चुके हैं। बीरेन सरकार पूरी तरह फेल हो गई है। लोगों की हत्या की जा रही है। घरों को जलाया जा रहा है लेकिन किसी को मणिपुर की चिंता नहीं है।’
सुरक्षा इंतज़ामों में बदलाव
राज्य में सामने आई हिंसा की इन ताज़ा घटनाओं के बाद नए सिरे से सुरक्षा इंतज़ाम किए गए हैं। क्योंकि पहले चरमपंथी इस तरह के हमले दूर-दराज़ के इलाकों से कर रहे थे।
लेकिन हाल ही में पुलिस के कमांडो पर पास से आकर हमला किया गया है। लिहाज़ा सीमावर्ती इलाकों में असम राइफल्स, बीएसएफ और पुलिस कमांडो के जवानों ने हमलावरों को खोजने के लिए व्यापक अभियान शुरू किया है।
इस बीच राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से सैन्य और मेडिकल संबंधी मदद के साथ-साथ इमरजेंसी सिचुएशन में इस्तेमाल किया जाने वाला विशेष हेलिकॉप्टर मांगा। केंद्र सरकार ने ये हेलिकॉप्टर उपलब्ध भी करा दिया है।
मणिपुर के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह ने बताया, ‘मोरेह में बीएसएफ की एक कंपनी, सेना की दो टुकडिय़ां और चार कैस्पर वाहनों सहित अतिरिक्त बल तैनात किया गया है। इसके अलावा केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक हेलीकॉप्टर को भी इलाके में उतारा गया है।’
मणिपुर में पिछले 8 महीनों से जारी हिंसा पर नजऱ रख रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप फनजौबाम कहते हैं, ‘पहाड़ी इलाकों के लिए अलग प्रशासन की मांग की जा रही है जिसका मैतेई समुदाय विरोध कर रहा है। बीते कुछ दिन बिना हिंसा के बीतने के बाद चरमपंथियों ने सरकार का ध्यान खींचने के लिए फिर से हमला करना शुरू कर दिया है।’
‘लोकसभा चुनाव नज़दीक है। चरमपंथियों को लगता है कि इस तरह से वे अपनी मांगें मनवा सकते हैं। अगर केंद्र सरकार अलग प्रशासन देने जैसा कोई फैसला लेती है तो मणिपुर के साथ नागालैंड और मेघालय जैसे राज्यों में भी लड़ाइयां शुरू हो जाएंगी।’ (bbc.com)
शंभूनाथ
सनातन धर्म के नाम पर प्राचीन भारत में कभी कोई एक सर्वमान्य धार्मिक आस्था नहीं रही है, कोई एक सुनिर्धारित रीतिरिवाज और जीवन शैली नहीं रही है। यह संयोग नहीं है कि महाभारत के अलावा सनातन का उल्लेख बौद्धों के ग्रंथ ‘महावग्ग’ में भी है। ‘सनातन’ का अर्थ सामान्यत: ‘शाश्वत सत्य’ है। रामानुजाचार्य ने कहा था, ‘इसका न कोई आदि है और न अंत’। फिर भी खुद उन्होंने कई प्राचीन विचारों और परंपराओं पर सवाल खड़े किए। सैकड़ों साल के धार्मिक विकास को देखते हुए कहा जा सकता है कि सनातन धर्म से हिंदू धर्म बहुत व्यापक है।
महाभारत के संवाद में कई जगहों पर सदाचरण के संदर्भ में कहा गया है, ‘यह धर्म है’। यह कथन भी है, ‘कौरवों ने सनातन धर्म का ध्वंस कर दिया’। फिर भी वैदिक साहित्य और महाभारत दोनों जगहों पर प्रधानता धर्म की व्याख्या की है। बृहदारण्यक उपनिषद में है, ‘यह जो धर्म है, वह सत्य ही है। धर्म बोलने वाले के लिए कहते हैं कि सत्य बोलता है।’ (1.4.14)। खुद वैदिक दर्शनों ने ‘सनातन’ और ‘अंध परंपरा’ को चुनौती दी थी।
यदि महाभारत महाकाव्य के अनुसार सनातन धर्म का कोई समेकित स्वरूप निर्धारित किया जाए तो हम पाते हैं कि सनातन के तीन प्रमुख अंग हैं- ‘वर्णाश्रम व्यवस्था’, ‘स्त्री की पुरुष-अधीनता’ और ‘भाग्यवाद’। अगर ये सनातन के मुख्य आधार हैं तो ये हिंदू धर्म के लिए बड़ी समस्याएं हैं।
‘गीता’ में एक जगह कुलधर्म के क्षय को सनातन धर्म के क्षय के रूप में देखा गया है। दूसरी जगह अर्जुन कृष्ण के विश्वस्वरूप को सनातन धर्म का रक्षक बताते हैं (14.27)। हिंदू धर्म में कृष्ण के अलावा कई अन्य बड़े देवता हैं, जैसे- सूर्य, शिव, राम (विष्णु के एक अन्य अवतार), गणेश और दुर्गा। इसका अर्थ है, ‘सनातन’ विविधतापूर्ण है।
एक समय की खास धार्मिक व्यवस्था से असहमति व्यक्त करते हुए गौतम बुद्ध ने ‘सनातन’ के समानांतर ‘अनित्य’ का प्रतिपादन किया था, ताकि ‘वर्ण व्यवस्था’ जैसी चीजों को चुनौती दी जा सके। अनित्य का अर्थ है कुछ भी नित्य या शाश्वत नहीं है। इसलिए वर्ण व्यवस्था भी शाश्वत नहीं है। बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख तत्वों में एक है अनित्यता। कहा गया है, ‘सब्बे संखारा अनिक्का (अनित्य), सब्बे संखारा दुक्खा, सब्बे धम्मा अनात्ता (अनात्मवाद)।’ बौद्ध धर्म ‘शाश्वत’ की जगह ‘परिवर्तन’ की बात करता है। बुद्ध भारतीय संस्कृति के बाहर नहीं हैं।
सनातन यदि कुछ है तो वह बहुवचनात्मक और सृजनात्मक है
सनातन के बारे में प्रधान तथ्य यह है कि उसका एक रूप नहीं है। वह बहुवचनात्मक है, क्योंकि हिंदू धर्म बहुकेंद्रिक है। दूसरी बात, अथर्ववेद में कहा गया है, सनातन हमेशा पुनर्नवा होता रहता है (10.8.23), अर्थात सनातन स्थिर मामला नहीं है। सनातन की पुनर्नवता का अर्थ पुरानी चीजों का ही नया-नया रूप लेना नहीं है, उन पुरानी चीजों का बदलना भी है।
हिंदू धर्म को सनातन की एकरूपता में सीमित करने की संगठित कोशिशें 19वीं सदी के नवजागरण, सुधारवादी आंदोलनों और आगे चलकर गांधी के उदारवाद के विरोध में हुई थीं। 1886 में ‘सनानत धर्म सभा’ बनी, जो धार्मिक सुधार आंदोलन के विरोध में थी।
कर्मणा वर्ण व्यवस्था काफी पहले जन्मना वर्ण व्यवस्था में बदल चुकी थी। यदि ‘सनातन’ जैसा कुछ है, तो पुरोहित वर्गों द्वारा कर्मणा वर्ण व्यवस्था क्यों नहीं बनी रहने दी गई? वर्ण व्यवस्था विघटित होकर इतनी जाति–बिरादरियों में क्यों बदल गई? देखा जा सकता है कि 19वीं सदी में सनातन धर्म सभाएं दलितों और स्त्रियों को पुरानी दशा में ही रखना चाहती थीं। इसी तरह मुसलमानों के वहाबी और देवबंद आंदोलन भी मजहबी सुधारों के विरोध में थे और कट्टरताओं के बीच होड़ थी।
कट्टरवादी धार्मिक संगठन अंग्रेजी राज के समर्थन में किस तरह थे, यह काशी के एक संगठन भारत धर्म महामंडल की एक पुस्तिका ‘भारत धर्म महामंडल रहस्य’ (1910) से जाना जा सकता है, ‘परम दयालु परमेश्वर की कृपा से आर्य प्रजा को इस प्रकार की नीतिज्ञ और उदार गवर्नमेंट मिली है कि ऐसी उन्नति और प्रजारक्षक गवर्नमेंट विदेशियों के हित के लिए पृथ्वी भर में और कहीं देखने में नहीं आती।’ कुछ सदियों से प्रचारित किए गए सनातन की एक अन्य बड़ी सीमा ‘आर्यावर्तत’ को अर्थात उत्तर भारत को भारत समझने की है, जबकि भारत एक बड़ा देश है।
उपनिवेशवाद से गुजरे देशों में भेदभाव-भरी पिछड़ी मानसिकता अस्वाभाविक नहीं है। उपनिवेशवाद जिस देश में गया, उस देश में लोगों के विश्वासों को सामान्यत: कठोर बना देने का उसने हर संभव प्रयास किया। अंग्रेजों ने अपना यह लक्ष्य सबको आधुनिक जीवन शैली में प्रवृत्त करते हुए पूरा किया। जीवन शैली आधुनिक, पर जीवन दृष्टि रूढि़वादी! आधुनिक शिक्षा भी पुरानी निर्बुद्धिपरक मानसिकता को बदल नहीं पाई। राजा राममोहन राय, विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, फुले, रानाडे, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि के सुधार आंदोलन और शिक्षण-कार्यक्रम बहुत प्रभावी नहीं हो सके, हालांकि ये उदारवाद के कुछ दबाव बनाने में सफल हुए।
यदि सनातन का अर्थ नैरंतर्य है तो प्राचीन धार्मिक परंपराएं, जिन्हेें ‘सनातन’ कहा जाता है हमेशा सुधार, परिवर्तन और ‘उच्चतर’ की खोज से गुजरी हैं -यह स्वीकार करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि ॠग्वेद में ‘वस्तुओं’ और ‘सुखों’ की कामना प्रधान है, जबकि उपनिषदों में इससे भिन्न ‘आत्मज्ञान’ की प्रधानता है। अपर, वसवण्णा, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, कबीर, सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों ने शाश्वत में सुधार किया। उन्होंने सामान्यत: जाति भेदभाव, कर्मकांड और भाग्यवाद को नहीं माना।
सैकड़ों साल से भारत में ‘सनातन’ इतना विविधतापूर्ण और परिवर्तनशील रहा है कि अंतत: कुछ भी सनातन नहीं रह गया है। आज हम एक बदले वातावरण में हैं। इसका उच्च मूल्यबोध से संबंध नहीं बचा है। वर्तमान धार्मिक दौर में लोभ और भय ज्यादा छाया है। खुद ईश्वर असुरक्षित है। जिन हिंदुओं में धर्म बचा है, वे बहुत अकेलेपन का अनुभव करते हैं। ऐसे शांतिप्रिय लोग हर हिंसक झुंड और शोर के बाहर हैं!
भारतीय साहित्य की परंपरा में लक्षित किया जा सकता है कि विभिन्न युगों में सनातन कई सृजनात्मक बदलावों से गुजरता आया है। रामकथा ही सृजनात्मक बदलाव से नहीं गुजरती, महाभारत भी गुजरता है। महाभारत के कृष्ण से जयदेव, चैतन्य और सूरदास-मीरा के कृष्ण भिन्न हैं। वे लालित्य से भरे हैं। गौर करने की चीज है, सूर-मीरा के कृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र की जगह बांसुरी सुशोभित है!
साहित्य ही नहीं, सैकड़ों साल के अजंता-एलोरा जैसे स्थापत्य, चित्र और मूर्ति कलाओं में नई-नई कल्पनाएं हैं। सनातनता को सृजनात्मकता ने बार-बार बंधनों से मुक्त किया है और ज्ञान के नए द्वार खोले हैं। सनातनता और सृजनात्मकता के द्वंद्वात्मक संबंध को देखना चाहिए। सनातन का कुछ विद्वान अर्थ निकालते हैं, ‘अतीत में जो भी था वह सब शाश्वत है’। यह अतीत का वर्तमान पर आक्रमण है, यह अतीत का मानव भविष्य पर आक्रमण है।
सनातनता को समझने के लिए अपने ज्ञान के दरवाजे को खुला रखना जरूरी है। इसका साहित्य की आधुनिक परंपराओं और हाशिये की आवाजों के नकार के लिए उपयोग घातक है। सनातनता ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति, सुधार और सृजनात्मकता से विच्छिन्न होकर कूपमंडूकता में बदल जाती है। वैदिक युवा नचिकेता की शिक्षा है, जिज्ञासा के द्वार हमेशा खुले रखें, जड़ताओं पर प्रश्न उठाते रहें!
‘वागर्थ’ जनवरी 2024 का संपादकीय, अंश
पीने का साफ़ पानी इंसान की बुनियादी ज़रूरतों में से एक है.
जब कभी हम यात्रा कर रहे हों या ऐसी जगह हो, जहाँ साफ़ पानी न मिल पाए, वहां हमारी कोशिश रहती है कि बोलतबंद पानी मिल जाए.
हम यह मानते हैं कि इस पानी में गंदगी नहीं होंगी. लेकिन इस पानी के अंदर माइक्रोप्लास्टिक यानी प्लास्टिक के असंख्य महीन कण हो सकते हैं.
बीबीसी फ़्यूचर पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी और रटगर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि बोतलबंद पानी में पहले के अनुमानों की तुलना में 100 गुना ज़्यादा माइक्रोप्लास्टिक हो सकते हैं.
उन्होंने पाया कि एक लीटर पानी में क़रीब ढाई लाख नैनोप्लास्टिक कण हो सकते हैं.
इन शोधकर्ताओं ने पानी के तीन ब्रैंड की बोतलों की पड़ताल की तो उन्हें एक लीटर में एक लाख दस हज़ार से चार लाख नैनोप्लास्टिक कण मिले.
वैज्ञानिकों के मुताबिक़, पानी में ज़्यादातर प्लास्टिक कण उसी बोतल से घुले थे.
भारत में भी माइक्रोप्लास्टिक का प्रदूषण
अगर आप अपने आसपास नज़र दौड़ाएंगे तो आपको प्लास्टिक की कई सारी चीज़ें नज़र आएंगी.
ऐसी ही चीज़ों के बारीक़ टुकड़े जब बहुत छोटे आकार में टूट जाते हैं तो उन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है.
आमतौर पर पाँच मिलीमीटर से छोटे टुकड़े माइक्रो प्लास्टिक कहलाते हैं. कुछ टुकड़े इससे भी छोटे होते हैं, जिन्हें नैनो स्केल में ही मापा जा सकता है. उन्हें नैनो प्लास्टिक कहा जाता है.
ये दोनों ही तरह के आसानी से नज़र नहीं आते. मगर ये दुनिया के लगभग हर हिस्से में मौजूद हैं. फिर चाहे वह नदियों का पानी हो, समंदर की तलहटी हो, या फिर अंटार्कटिक में जमी बर्फ़.
आईआईटी पटना के एक शोध में बारिश के पानी में भी माइक्रोप्लास्टिक कण मिले थे.
इसी तरह एक अन्य शोध में पाया गया कि भारत में ताज़ा पानी की नदियों और झीलों तक में माइक्रोप्लास्टिक मिल रहा है. इनमें फ़ाइबर, छोटे टुकड़े और फ़ोम शामिल हैं.
इस शोध के मुताबिक़, फ़ैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी और शहरी इलाक़ों से निकलने वाले प्लास्टिक वेस्ट जैसे कई कारणों से ये हालात बने हैं.
क्या हैं माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरे
एक समस्या तो यह है कि पीने के पानी तक में माइक्रोप्लास्टिक हो सकते हैं. लेकिन दूसरी समस्या यह भी है कि अभी तक पक्के तौर पर नहीं मालूम कि इंसान के शरीर पर माइक्रोप्लास्टिक का क्या असर होता है.
साल 2019 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक रिव्यू किया था और समझने की कोशिश की थी कि माइक्रोप्लास्टिक अगर इंसानों के शरीर के अंदर चले जाएं तो क्या ख़तरे हो सकते हैं.
लेकिन सीमित शोधों के कारण डब्ल्यूएचओ किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका. फिर भी उसने अपील की थी कि प्लास्टिक के प्रदूषण को कम किया जाना चाहिए.
दिल्ली के पुष्पांजलि मेडिकल सेंटर के वरिष्ठ चिकित्सक मनीष सिंह ने बीबीसी सहयोगी आदर्श राठौर को बताया कि माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को लेकर अभी ज़्यादा जानकारी नहीं है, इसलिए इस विषय पर और सावधान रहने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, “माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को लेकर अभी सीमित शोध सामने आए हैं. कुछ शोध ऐसे भी हैं कि ये हमारे एंडोक्राइन ग्रंथियों (हारमोन पैदा करने वाली ग्रंथियों) के काम में समस्या पैदा करती हैं. हो सकता है भविष्य में पता चले कि माइक्रोप्लास्टिक बहुत गंभीर नुक़सान कर सकते हैं, इसलिए अभी से सजग रहने की ज़रूरत है.”
हर जगह माइक्रोप्लास्टिक
माइक्रो प्लास्टिक पानी के अलावा यह उस ज़मीन में भी बहुतायत में पाए जाने लगे हैं, जहाँ खेती होती है.
अमेरिका में साल 2022 में एक पड़ताल की गई थी. इसके मुताबिक़, सीवर की जिस गाद को वहां फसलों के लिए खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, उसमें माइक्रोप्लास्टिक होने के कारण 80 हज़ार वर्ग किलोमीटर खेती योग्य ज़मीन दूषित हो गई थी.
इस गाद में माइक्रोप्लास्टिक्स के अलावा, कुछ ऐसे केमिकल भी थे, जो कभी विघटित नहीं होते यानी उसी अवस्था में बने रहते हैं.
वहीं, ब्रिटेन में कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी ने पाया था कि यूरोप में हर साल खेती वाली ज़मीन में खरबों माइक्रोप्लास्टिक कण मिल रहे हैं जो हर निवाले के साथ लोगों के शरीर के अंदर पहुंच रहे हैं.
बीबीसी फ़्यूचर के लिए इसाबेल गेरेटसेन लिखती हैं कि कुछ पौधे ऐसे हैं, जिनमें बाक़ियों की तुलना में माइक्रोप्लास्टिक ज्यादा होता है.
दरअसल, कुछ शोध बताते हैं कि जड़ों वाली सब्ज़ियों में माइक्रोप्लास्टिक ज़्यादा पाए जाते हैं. यानी पत्ते वाली सब्जियों में कम माइक्रोप्लास्टिक होंगे, जबकि मूली और गाजर जैसी सब्ज़ियों में ज्यादा.
माइक्रोप्लास्टिक से कैसे बचा जाए?
डॉक्टर मनीष सिंह बताते हैं कि समस्या यह भी है कि भारत में अधिकतर जगह कचरे के निपटान की सही व्यवस्था नहीं है. इसी कारण माइक्रोप्लास्टिक नदियों और खेती वाली ज़मीन तक पहुंच रहा है.
उन्होंने कहा, “खाने-पीने की असंख्य चीज़ें प्लास्टिक में पैक होती हैं. फिर समस्या ये है कि लोग घरों में प्लेट और चॉपिंग बोर्ड तक प्लास्टिक के इस्तेमाल करते हैं. इस सबसे बचना चाहिए. लेकिन सरकार को भी इस विषय पर ध्यान देना चाहिए.”
प्लास्टिक और संबंधित उत्पादों का इस्तेमाल कम करने के लिए भारत सरकार ने एक जुलाई 2022 से सिंगल यूज़ यानी एक बार इस्तेमाल किए जा सकने वाले प्लास्टिक पर रोक लगा दी थी.
सिंगल यूज़ प्लास्टिक के उत्पादन, आयात, भंडारण और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. दुनिया के कई देश पहले ही ऐसा क़दम उठा चुके थे.
लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि बायोडीग्रेडेबल विकल्प को समस्या को और गंभीर कर रहे हैं. ब्रिटेन की प्लाइमाउथ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पाया कि जिन बैगों में बायोडीग्रेडेबल लिखा होता है, उन्हें विघटित होने में भी कई साल लग सकते हैं.
यही नहीं, वे भी छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाते हैं और प्रदूषण फैलाते हैं.
माइक्रोप्लास्टिक खाने-पीने की चीज़ों में न मिले, इसके लिए शीशे की बोतलें इस्तेमाल करने की भी सलाह दी जाती है.
लेकिन, बीबीसी फ़्यूचर के लिए इसाबेल गेरेटसेन लिखती हैं कि भले ही ग्लास की बोतलें कई बार रीसाइकल की जा सकती हों लेकन शीशा बनाने के लिए सिलिका (रेत) का इस्तेमाल होता है. ऐसे में इसकी प्रक्रिया में भी पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है.
और फिर समस्या सिर्फ़ माइक्रोप्लास्टिक की ही नहीं, माइक्रोफ़ाइबर की भी है. पानी, समुद्री नमक और बीयर में भी माइक्रोफ़ाइबर पाए गए हैं और इनका बड़ा हिस्सा कपड़ों से आता है.
कैसे कम किया जा सकता है प्रदूषण
बीबीसी फ़्यूचर पर प्रकाशित लेख के अनुसार, माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को कम करने की दिशा में एक उम्मीद जगी है.
शोधकर्ताओं ने ऐसे फंगस (फफूंद) और बैक्टीरिया की पहचान की है, जो प्लास्टिक को विघटित करने में मदद करते हैं.
इसी तरह, बीटल (गुबरैले) की एक क़िस्म का लारवा पॉलीस्टीरीन (एक तरह का प्लास्टिक) को विघटित कर सकता है.
इसके अलावा, पानी को ख़ास तरह के फ़िल्टरों और केमिकल ट्रीटमेंट से भी शुद्ध किया जा सकता है.
लेकिन डॉ. मनीष सिंह का कहना है कि इन उपायों से बेहतर है कि एक ओर तो सरकार प्लास्टिक का इस्तेमाल घटाने पर नीतियां बनाए और दूसरी ओर लोग भी अपने स्तर पर प्लास्टिक पर निर्भरता कम करें.
वह कहते हैं, “जैसे कि जूट या कपड़े के थैले इस्तेमाल करें. कपड़े खरीदते समय भी सिंथेटिक फ़ाइबर के कपड़ों के बजाय कॉटन के कपड़ों को तरजीह दें. प्लास्टिक के कचरे का सही से निपटारा करें. हमारी कोशिश होनी चाहिए कि प्लास्टिक से बनी चीज़ों का इस्तेमाल कम करें.” (bbc.com)
डेनमार्क के लोग अब भारत समेत दूसरे देशों से बच्चे गोद नहीं ले पाएंगे. बच्चे गोद लेने के लिए काम करने वाली देश की एकमात्र एजेंसी ने कहा है कि अनियमितताओं के चलते उसने कामकाज बंद कर दिया है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
डेनमार्क इंटरनेशनल अडॉप्शन एजेंसी (ष्ठढ्ढ्र) अपना कामकाज बंद कर रही है। लोगों को दूसरे देशों से बच्चे गोद लेने में मदद करने वाली इस एजेंसी ने अनियमितताओं के आरोपों के बाद काम बंद करने का फैसला किया है। सिलसिलेवार तरीके से एजेंसी की गतिविधियां बंद कर दी जाएंगी।
एक बयान में डीआईए ने कहा कि वह ‘सिलसिलेवार तरीके से अपनी गतिविधियां समेटना शुरू कर रही है।’ इससे पहले डेनमार्क के सामाजिक मामलों के मंत्रालय ने उन छह देशों से बच्चे गोद लेने पर रोक का ऐलान किया, जिनके साथ डीआईए काम कर रही थी। यह छह देश थे: चेक रिपब्लिक, भारत, फिलीपींस, दक्षिण अफ्रीका, ताइवान और थाईलैंड।
मेडागास्कर में डीआईए का कामकाज पिछले साल ही बंद हो गया था क्योंकि वहां फ्रॉड के आरोप लगे थे। अब एजेंसी ने कहा है कि उसके पास काम बंद करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। अपने बयान में उसने कहा, ‘डेनमार्क में जो मौजूदा हालात हैं, उनमें विदेशों से बच्चे गोद लेने का काम डीआईए जैसी गैरसरकारी संस्था नहीं कर सकती।’
नॉर्वे में भी रोक
डेनमार्क की संस्था के मुताबिक फिलहाल उसके पास 36 मामले हैं। लेकिन अब इन मामलों का क्या होगा, यह जानकारी नहीं दी गई है। 2010 के बाद डेनमार्क में विदेशों से बच्चों के गोद लेने के मामले में 10 गुना से ज्यादा की कमी आई है। 2010 में वहां 418 बच्चे गोद लिए गए थे।
दिसंबर में नॉर्वे ने भी फिलीपींस, ताइवान और थाईलैंड से बच्चे गोद लेने पर रोक लगा दी थी, जब मीडिया में अवैध रूप से बच्चे गोद लिए जाने की खबरें आई थीं।
इन खबरों पर कार्रवाई करते हुए नॉर्वे के डायरोक्टोरेट फॉर चिल्ड्रन, यूथ ऐंड फैमिली अफेयर्स ने दिसंबर में इन देशों से बच्चे गोद लेने पर रोक का ऐलान किया था। इस साल की शुरुआत से दक्षिण कोरिया से बच्चे गोद लेने पर भी रोक लगा दी गई है।
डायरेक्टोरेट ने दो साल के लिए विदेशों से बच्चे गोद लेने पर पूरी तरह से रोक लगाने की सिफारिश की है जब तक कि आरोपों की जांच पूरी नहीं हो जाती। हालांकि सरकार ने उसकी सिफारिश नहीं मानी है और जांच को जल्द से जल्द खत्म करने को कहा है।
कहां-कहां है बच्चे गोद लेने की सुविधा
हाल ही में वल्र्ड पॉप्युलेशन रिव्यू नामक संस्था ने 20 उन देशों की सूची जारी की थी जहां से बच्चे गोद लेना सबसे आसान है। इसमें पहले नंबर पर प्रार्थी के अपने देश का नाम रखा गया था। डब्ल्यूपीआर के मुताबिक अपने देश में बच्चा गोद लेना सबसे आसान होता है।
उसने अमेरिका की मिसाल देते हुए कहा, ‘देश के फॉस्टर केयर सिस्टम में बेशक बहुत सी खामियां हैं और बच्चा गोद लेने में बहुत वक्त लग सकता है। यहां तक कि कई साल का इंतजार करना पड़ सकता है। लेकिन तब भी खर्च बहुत कम होगा और आपको बच्चे के परिवार व स्वास्थ्य के बारे में कहीं ज्यादा जानकारी मिल पाएगी। साथ ही, बच्चे की तस्करी की संभावना लगभग ना के बराबर होगी।’
जिन देशों से बच्चा गोद लेना सबसे आसान बताया गया है, उनमें कजाखस्तान, भारत, हैती, चीन, थाईलैंड, कोलंबिया, मलावी, ताइवान, साउथ कोरिया, बहामास, यूक्रेन, फिलीपींस, बुल्गारिया, हांग कांग, युगांडा, होंडुरास, घाना, ब्रूंडी और इथियोपिया का नाम है।
भारत के बारे में संस्था ने कहा, ‘वहां जाने की जरूरत नहीं है और बहुत से ऐसे अनाथ बच्चे हैं जिन्हें परिवारों की जरूरत है। इनमें शिशुओं से लेकर बड़ी उम्र के बच्चे और विशेष जरूरत वाले बच्चे शामिल हैं।’
हाल के सालों में भारत में बच्चे कम गोद लिए जा रहे हैं। 2022 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में करीब तीन करोड़ बेसहारा बच्चे थे जिनमें से सालाना तीन से चार हजार बच्चे ही गोद लिए जाते हैं। भारत में बच्चा गोद लेने की प्रक्रिया बेहद जटिल है। जुलाई 2022 तक 16,000 से ज्यादा भारतीय परिवार बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया पूरी होने का इंतजार कर रहे थे। (dw.com)
-स्मिता
लगता है आजकल मेरा रानीवास किसी पौराणिक नगरी में हो गया है। शाम 4 बजते ही पास के मंदिर के लाउडस्पीकर में पुजारी का पूजा पाठ , स्तुति अपने पूरे दमखम से सुनाई देने लगता है।
33 करोड़ देवी देवताओं में से 0.00000000001 प्रतिशत नाम की जयकार लगाना, आसपास जमा होने वाली भीड़ के आधार पर उसकी स्मृति तय करती है।
रात होते होते मेरे पड़ोसी के घर से किसी फिल्मी धुन में स्मार्ट तरीके से पिरोई गई धार्मिक शब्दावली के भजन हवा में लहराने लगती है।
लोकप्रिय गानों का उपयोग कर बाजार कैसे लोगो की धार्मिक भावनाओं को उद्वेलित कर सकता है, मैं यही पर फंस जाती हूं।
तब तक पड़ोसी का समूचा परिवार कैलाश पर्वत जाकर कैलाशपति की चरण वंदना कर चुका होता है उनके मानसिक तरंगों की गति 5 जी से भी अधिक स्पीड से चलती है।
देवों के देव के एक तथाकथित एजेंट की सरस वाणी हमारे ऑफिस में भी उनके भक्तजन अपने मोबाइल में गाहे बगाहे बजा देते है।
मुझ पापी के कान में भी उनके अद्भुत आख्यान सुनाई देते है । पुण्य कमाने की लालसा में गौर करती हूं तो अहिल्या का इंद्र के गौतम ऋषि के छद्म रूप के साथ संसर्ग की कहानी का प्रसंग चल रहा होता है।
कथावाचक इतने भाव-विभोर होकर रसमय तरीके से व्याख्यान दे रहे थे मानो उनकी आत्मा इंद्र के शरीर में प्रवेश कर गई हो।
इतने ज्ञान की बातें सुनकर मेरी वैतरणी पार होने ही वाली थी कि अचानक खबर पर नजर चले जाती है , कि बागेश्वर धाम की कलश यात्रा गुढिय़ारी में निकल पड़ी है। उनके मुखमंडल के तेज से मेरी आंखे चौंधियाने लगी है। अब उनके चरणों तक पहुंच कैसे पाऊं।
इतने पुण्यप्रताप आत्मा इतने शक्तिमान हैं कि उनके ओजस्वी वचन सुनकर जनता अमीर गरीबी की खाई , 75त्न प्रतिशत के संसाधन 1त्न के पास, बेरोजगारी, बढ़ते अपराध, जोशीमठ, आदिवासियों के प्रति हिंसा, पर्यावरण असंतुलन सब भूलकर भक्तिरस में सराबोर है।
बहुतों के स्टेटस में कलश लेकर चलने की होड़ लगी हुई है, मुझसे एक प्राणी 22 तारीख के लिए 5000 प्रसाद वितरण करने के नाम पर चंदा मांगते है। मैं मांडवाली करके 1000 में तय करती हूं। विशिष्टता बोध के लिए इतनी रकम काफी थी।
सब ओर तैयारी चल रही है दवाई दुकान वाले झंडा बेच रहे है नाश्ते वाले सुबह 5 बजे उठकर पोहा बनाने की तैयारी कर रहे हैं। कबीर के राम से इतर, राम बाजार है, राम अहंकार है, राम विशिष्ट होने का बोध है।
और मैं तुच्छ प्राणी क्रेडिट डेबिट, एटीएम आहरण, ऋण और डिपॉजिट का टारगेट, बोनस का भुगतान के बीच रखे दो भागवत कथा के कार्ड और एक अखंड रामायण के निमंत्रण के बीच अनिर्णय की स्थिति में बैठी हूं।
असमंजस में हलक सूख गया है, भृत्य को पानी के लिए आवाज लगाती हूं तो पता चलता है कि वह एकादशी उद्यापन के लिए जल्दी घर चली गई है।
कबीर ने कहा था-
सकल हंस में राम बिराजे ,
राम बिना कोई धाम नहीं।
-जियार गोल
ईरान के इस्लामिक रिवॉल्युशनरी गार्ड कोर यानी आईआरजीसी ने हाल के वर्षों में क्षेत्रीय ताकतों के बीच अपनी स्थिति मजबूत की है।
आईआरजीसी खुलेआम कहता है कि मध्य पूर्व में अमेरिकी बेस, तेल अवीव और हाफिया में इसराइली बेस सभी उसकी मिसाइलों की जद में हैं।
सोमवार की रात ईरान की रिवॉल्युशनरी गार्ड ने इराक़ के अर्द्ध-स्वायत्त कुर्दिस्तान की राजधानी इरबिल में 11 बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं।
कुर्दिस्तान प्रशासन का कहना है कि इन हमलों में कम से कम चार आम लोगों की मौत हुई है और छह जख्मी हुए हैं।
कुर्दिस्तान इलाक़े के प्रधानमंत्री मसरूर बरज़ानी ने इन हमलों को कुर्दिश लोगों के खिलाफ अपराध बताया है।
आईआरजीसी की कऱीबी फार्स न्यूज एजेंसी ने दावा किया है कि इन हमलों में इसराइल की खुफिया सर्विस मोसाद से जुड़े तीन ठिकानों को नष्ट किया गया है।
इराक की कुर्दिस्तान सरकार ने अपनी ज़मीन पर विदेशी एजेंटों की मौजूदगी से इनकार किया है। हालांकि इस मामले में इसराइल ने अब तक कुछ भी नहीं कहा है।
एक साथ तीन देशों पर हमला
आईआरजीसी ने जाने-माने कुर्दिश करोड़पति कारोबारी पेश्राव डिज़ायी को उनके आवास पर हमला कर मार दिया है। ईरान ने यह दिखाया है कि वह टारगेट कर हमला करने में सफल है।
2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद डिजायी ने फाल्कन ग्रुप और एम्पायर वल्र्ड नाम की दो कंपनियां बनाई थीं। समाचार एजेंसी रॉयटर्स का कहना है कि पेश्राव डिजायी कुर्दिस्तान के प्रधानमंत्री बरजानी परिवार के करीबी थे।
पेश्राव डिजायी के घर पर चार मिसाइलें दागी गईं। स्थानीय मीडिया की खबरों के अनुसार, इस हमले में डिजायी की 11 महीने की बेटी की भी मौत हो गई है।
फाल्कन ग्रुप का दखल सुरक्षा, कंस्ट्रक्शन, तेल और गैस सेक्टर में है। इराक में फाल्कन ग्रुप का सिक्योरिटी डिविजन अमेरिकी और कई पश्चिमी प्रतिनिधियों के साथ कंपनियों को मदद पहुँचाता रहा है।
आईआरजीसी ने इन हमलों से संदेश देने की कोशिश की है कि वह न केवल नागरिक सुविधाओं को निशाना बना सकता है बल्कि इरबिल इंटरनेशनल एयरपोर्ट के कऱीब सैन्य ठिकानों को भी टारगेट कर सकता है।
इरबिल एयरपोर्ट से अमेरिकी नेतृत्व वाला गठबंधन का बेस कुछ मिल की दूरी पर है।
इराक में हमला क्यों?
इराक में अभी अमेरिका के 2500 सैनिक हैं। इनमें से कुछ सैनिक इरबिल में भी हैं। ये सैनिक इस्लामिक स्टेट ग्रुप के खिलाफ अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन के हिस्सा रहे हैं।
अमेरिका का कहना है कि उनके सैनिक स्थानीय लोगों की मदद के लिए हैं ताकि आईएस का फिर से उभार को रोका जा सके। आईएस का इन इलाक़ों में एक वक्त में काफी दबदबा था।
हालांकि इन हमलों को ईरान के घरेलू मकसदों के आईने में भी देखा जा रहा है। सीरिया में इसराइली हमले के जवाब के तौर पर देखा जा रहा है।
सीरिया की राजधानी दमिश्क के बाहरी इलाकों में 25 दिसंबर को आईआरजीसी के एक सीनियर कमांडर को मार दिया गया था। ऐसा माना जा रहा कि ईरानी कमांडर की मौत इसराइली हमले में हुई थी।
15 जनवरी को आईआरजीसी ने उत्तर-पश्चिम सीरिया के इदलिब प्रांत में भी बैलिस्टिक मिसाइल से हमला किया। कहा जा रहा है कि ईरान ने इन हमलों के जरिए आईएस और अन्य आतंकवादी समूहों को निशाना बनाया है।
इदलिब करीब 30 लाख विस्थापित सीरियाई नागरिकों का इलाका है, जिन्होंने 2011 में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ विद्रोह का समर्थन किया था।
ईरान बशर अल-असद का समर्थन करता है। ईरान शिया मुस्लिम बहुल देश है और बशर अल-असद सुन्नी बहुल सीरिया के शिया प्रधानमंत्री हैं।
ईरान का संदेश
पश्चिमी मुल्कों ने बशर अल-असद को सत्ता से हटाने की पूरी कोशिश की लेकिन ईरान और रूस की मदद से असद अब भी सत्ता में हैं।
इदलिब में इस्लामिक ग्रुप हयात तहरीर अल-शर्म की मौजूदगी काफी मजबूत है और साथ में आईएस के अलावा अल-कायदा का भी प्रभाव है।
आईआरजीसी ने कहा है कि इदलिब में मिसाइल हमला तीन जनवरी को दक्षिणी ईरान के कर्मन में आत्मघाती हमले के जवाब में था।
कर्मन में आईआरजीसी के कमांडर क़ासिम सुलेमानी को श्रद्धांजलि देने बड़ी संख्या में भीड़ जुटी थी, तभी आत्मघाती हमला हुआ था।
आईआरजीसी ने कहा है कि इदलिब में उसने हमले में कैस्टल बस्टर मिसाइल का इस्तेमाल किया है जो 1450 किलोमीटर की दूरी तक जा सकती है।
आईआरजीसी ने कहा है कि उसने मिसाइल हमला दक्षिणी ईरान के खुजेस्तान से किया है।
हालांकि आईआरजीसी इदलिब में मिसाइल हमला पश्चिमी अजरबैजान प्रांत से भी कर सकता है, जो इदलिब के ज्यादा करीब है।
लेकिन ईरान ने जिस मिसाइल को जिस जगह से छोड़ा वो दुनिया को दिखाने की कोशिश थी कि उसकी पहुँच इसराइल के कई इलाकों तक है।
ईरान ने इराक और सीरिया के बाद पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में भी एक चरमपंथी संगठन के ठिकाने पर मिसाइल और ड्रोन से हमला किया है।
पाकिस्तान ने कहा है कि इस हमले में दो बच्चों की मौत हुई है और तीन जख्मी हुए हैं। पाकिस्तान ने इस हमले को अपनी संप्रभुता का उल्लंघन बताया है और गंभीर नतीजे की चेतावनी दी है। ईरान इससे पहले भी पाकिस्तान में घुसकर हमला कर चुका है। (bbc.com/hindi/)
प्रमोद भार्गव
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चुनाव परिणाम आने और 163 विधानसभा सीटें जीतने के बाद कहते रहे हैं कि मुझे लोकसभा की 29 सीटें जीतकर प्रधानमंत्री मोदी के गले में माला डालनी है, इसलिए मैं दिल्ली किसी पद की मांग के लिए बिना बुलाए नहीं जाऊंगा। हम जानते हैं कि वे दिल्ली गए भी नहीं थे। संभव है पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने इसे शिवराज का अंहकार माना हो और इसे ठंडा करने के लिए, उनकी बजाय मोहन यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया हो? लेकिन अब पुष्ट सूत्रों से ऐसी खबरें आ रहीं है कि शिवराज को छिंदवाड़ा लोकसभा सीट का प्रत्याशी बनाया जा सकता है। जिससे मध्यप्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटों पर भाजपा के काबिज होने की संभावना बढ़ जाए। फिलहाल यहां से पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र नकुलनाथ सांसद हैं। कांग्रेस के पास मध्यप्रदेश में एकमात्र यही अविजित सीट रह गई है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस में आने से पहले गुना-शिवपुरी सीट भी कांग्रेस के खाते में शामिल हो जाती थी। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में सिंधिया अपने की नुमाइंदे भाजपा प्रत्याशी केपी यादव से पराजित हो गए थे। इस पराजय से सिंधिया इतने आहत हुए कि भाजपा के शरणम् गच्छामि हो गए। अब वे केंद्रीय मंत्री होने के साथ भाजपा के ताकतवर नेताओं में गिने जाते हैं।
हालांकि कमलनाथ या नकुलनाथ से छिंदवाड़ा सीट छीनना आसान नहीं है। क्योंकि इस जिले की सातों विधानसभा सीटों पर 2023 के विधानचुनाव में कांग्रेस ने परचम फहराया हुआ है। इसके पहले 2018 में भी कमलनाथ के प्रभाव के चलते सभी सातों सीटों पर विजय हासिल की थी। छिंदवाड़ा में कांग्रेस ने भाजपा उम्मीदवार विवेक बंटी साहू को लगभग 37 हजार वोटों से करारी शिकस्त दी है। इसी तरह अमरवाड़ा से गोंडवाना छोड़ कर आई मोनिका शाह बट्टी को कांग्रेस प्रत्याशी और कांग्रेस से ही दो बार विधायक रहे कमलेश शाह ने लगभग 25 हजार मतों से हराकर तीसरी बार जीत का इतिहास रच दिया है। जुन्नारदेव से कांग्रेस के सुनील उईके ने भाजपा के नत्थन शाह कवडेती को करीब 3 हजार मतों से शिकस्त दी है। परासिया विधानसभा सीट से कांग्रेस के सोहन वाल्मिक ने भाजपा उम्मीदवार ज्योति डेहरिया को 1700 से ज्यादा वोटों से पराजय का स्वाद चखा दिया है। सोंसर में कांग्रेस उम्मीदवार विजय चैरे ने भाजपा के नाना मोहोड़ को करीब 11 हजार मतों से पराजय का मुख दिखाया है। इसी तरह पांढुर्णा में कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश उईके ने भाजपा प्रत्याषी प्रकाश उईके को 10 हजार से भी अधिक वोटों से करारी शिकस्त दी है। चैरई में कांग्रेस के सुजीत चैधरी ने भाजपा प्रत्याशी लखन वर्मा को करीब 8 हजार वोटों से पराजित किया है। साफ है, भाजपा की लहर छिंदवाड़ा जिले में कोई सेंध नहीं लगा पाई। जबकि छिंदवाड़ा में भाजपा की जीत के लिए शिवराज सिंह चौहान ने पांढुर्णा को जिला भी बना दिया था। इस जिले के निर्माण के बाद मध्यप्रदेश में कुल जिलों की संख्या 55 हो गई है।
छिंदवाड़ा जिले का चुनाव परिणाम सामने आने के बाद से भाजपा के चुनावी रणनीतिकार इस कोशिश में लग गए हैं कि क्यों न यहां से षिवराज सिंह को मैदान में उतार दिया जाए। यदि कांग्रेस छिंदवाड़ा के वर्तमान सांसद नकुलनाथ को ही फिर से मैदान में उतारती है, तो शिवराज की जीत आसान हो सकती है। क्योंकि नकुलनाथ इस सीट से अत्यंत मामूली अंतर 37,536 मतों से बमुश्किल जीत पाए थे। दरअसल कमलनाथ के 2018 में मुख्यमंत्री बनने के बाद यह सीट उनके बेटे के हिस्से में आई हुई है। यहां से भाजपा ने नत्थन षाह को मैदान में उतारा था। अब नत्थन शाह विधानसभा का चुनाव भी हार गए हैं। छिंदवाड़ा लोकसभा सीट की यह खासियत रही है कि आजादी के बाद से लगातार यह सीट कांग्रेस जीतती रही हैं। इसलिए भाजपा शिवराज को दांव पर लगाना चाहती हैं।
शिवराज को दांव पर लगाने के कई मायने निकाले जा रहे हैं, एक तो यह कि यदि वाईदवे शिवराज जीत जाते हैं तो प्रदेश की सभी 29 सीटों पर भाजपा अपना परचम फहराने में सफल हो सकती है ? हालांकि कमलनाथ के प्रभाव के चलते सीट जीतना शिवराज को आसान नहीं होगा। ऐसे में यदि शिवराज के मुकाबले में स्वयं कमलनाथ छिंदवाड़ा से लोकसभा उम्मीदवार बन जाते हैं तो शिवराज की जीत और कठिन हो जाएगी। बहरहाल, यदि शिवराज हार जाते हैं तो उनकी बोलती और हेंकड़ी दोनों ही बंद हो जाएंगे। क्योंकि आज कल शिवराज तो शिवराज उनके पुत्र कार्तिकेय भी कुछ ज्यादा ही बोलने लगे हैं। हाल ही में कार्तिकेय का एक बड़ा बयान आया है। सीहोर में 12 जनवरी को कार्तिकेय ने भेंरूदा के कोसमी में विकसित भारत संकल्प यात्रा के दौरान जनता को संबोधित करते हुए कहा कि यदि आपसे किए गए वादे निभाने के लिए अगर अपनी सरकार से भी लडऩा पड़े तो कार्तिकेय चौहान तैयार है। हालांकि मैं नेता नहीं हूं, मेरा राजनीति में आने की कोई मंशा भी नहीं है। लेकिन यहां पापा शिवराज नहीं मैं आपसे वोट मांगने आया था। अतएव सरकार ने वादे पूरे नहीं किए तो मुझे सरकार से भी लडऩा पड़ा तो इस लड़ाई में कार्तिकेय पीछे नहीं हटेगा।
शिवराज और उनके पुत्र के प्रदेश सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाले बयान अब सरकार समेत भाजपा नेतृत्व को भी खटकने लगे हैं। इसलिए भाजपा संगठन और संघ चाहता है कि शिवराज को छिंदवाड़ा से लोकसभा का उम्मीदवार बना दिया जाए। ऐसा होने पर भाजपा के लिए शिवराज की जीत हों या हार दोनों ही स्थितियां अनुकूल रहेंगी। शिवराज यदि जीतते है तो प्रदेष की सभी सीटों पर भाजपा का कब्जा हो जाएगा और यदि शिवराज हारते हैं तो उनकी गति दोई गए पांडे, हलुआ मिले न मांडे।
ममता सिंह
अक्सर किसी तेज़ तर्रार सुंदर मुंदर बेसिक के टीचर से मिलने पर लोग कहते हैं अरे आप इस नौकरी के लायक नहीं, यहां कहां फंस गए! आपको तो अधिकारी बनना चाहिए था या कम से कम इंटर या डिग्री कॉलेज में होना चाहिए था(यूं तो नब्बे प्रतिशत बेसिक वाले इसी कुंठा में जीते हैं कि कहां तो उन्हें बनना अधिकारी था पर बन गए मास्टर) सो बेसिक वाला मास्टर बेचारा आधा तीतर आधा बटेर बनकर नौकरी करता है मतलब उसका शरीर तो बेसिक में रहता है पर उसकी आत्मा लोक सेवा आयोग के गेट पर धरना दिए रहती।
यही खैरख्वाह लोग इंटर कॉलेज वाले को डिग्री कॉलेज भेजते फिरते और जो डिग्री कॉलेज में हो उसे यूनिवर्सिटी ..और तो और यूनिवर्सिटी वाले को यह लोग विदेश की यूनिवर्सिटी के सपने दिखाते फिरते।
फिर भाई लोग लोअर वाले को पीसीएस..पीसीएस को आईएएस लायक बताते हैं (आईएएस को किस लायक बताते मुझे नहीं मालूम क्योंकि हमारी तरफ़ सबसे बड़ी और शान की नौकरी यही मानी जाती है) मने जो जहां है वहां खुश न रहे, मन न लगाए इसका पूरा इंतजाम यह शुभचिंतक लोग किए रहते हैं वह भी तब जबकि हमारे यहां हर किसी को यह मुगालता रहता कि वह जिस काबिल था उसके हिसाब से नौकरी (या छोकरी/छोकरा)नहीं मिली/मिला।
इन लोगों का बस चले तो चींटी को हाथी की जगह लेने और मछली को उडऩे, चिडिय़ा को पानी में रहने का मशवरा दे चुके होते।
भाई जो जहां है वहीं पर क्यों नहीं अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकता? ऐसे लोग जब मुझसे कहते हैं कि तुम गलत जगह फंसी हो, तुम इससे बेहतर डिजर्व करती थी तो मेरा जवाब होता है कि आप बिल्कुल फिक्र न करें मैं ठीक उसी जगह पर हूं जहां मुझे होना था और मुझे हमेशा हमेशा के लिए बिना कुंठा, बिना अफसोस के यहीं रहना है।
‘मुझे जैसे ही पता चला कि मैं कैंसर की शिकार हो चुकी हूँ तो मेरा दिमाग कुछ सेकंड के लिए सुन्न हो गया। लेकिन फिर मैंने अगले ही पल तय कर लिया कि मुझे जितना जल्दी हो इस जानलेवा बीमारी से छुटकारा पाना है।’’
यह कहना है दिल्ली से सटे गाजियाबाद इलाके में रहने वाली अनीता शर्मा का।
वो बताती हैं कि जब उन्हें पता चला कि उन्हें स्तन या ब्रेस्ट कैंसर हो चुका है तो थोड़ा सदमा लगा। उनके मुताबिक, ‘मेरे परिवार का हाल तो और भी खराब था।’
उनके अनुसार, ‘फिर मैंने ठान लिया कि इससे हार नहीं मानने वाली हूँ। एक हफ्ते बाद ही मैंने अपना ऑपरेशन कराया और कभी भी इस ख्याल को ख़ुद को हावी नहीं होने दिया कि मैं किसी गंभीर बीमारी से पीडि़त हूँ।’’
अनीता का ऑपरेशन साल 2013 में हुआ था। वे अब एक सामान्य जीवन जी रही हैं। वो लोगों को सकारात्मक सोच बनाए रखने के लिए प्रेरित भी कर रही हैं।
वे न केवल ख़ुद नियमित तौर पर कसरत करती हैं बल्कि लोगों को योग और मेडिटेशन सिखाती भी हैं।
योग और मेडिटेशन का महत्व
ये अनीता शर्मा की इच्छाशक्ति ही थी जिसने उन्हें कभी कमजोर नहीं पडऩे दिया। वे जानती थीं कि उनकी बीमारी चुनौतीपूर्ण है लेकिन अपने विश्वास के ज़रिए ही वह उससे सहजता से निपटने में सफल रहीं।
जानकार मानते हैं कि अगर आप ख़ुद पर विश्वास रखें तो शारीरिक और मानसिक रूप से मज़बूत बन सकते हैं।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मिसिसिपी स्टेट यूनिवर्सिटी के एक्सरसाइज फिजियोलॉजी विभाग से जुड़े डॉ. जचारी एम गिलेन कहते हैं कि आत्मविश्वास ख़ुद को प्रेरित करने में मदद करता है और इसका सकारात्मक असर होता है।
डॉ. जचारी एम गिलेन, बीबीसी रील्स से बातचीत में कहते हैं, ‘इससे एपिनेफ्राइन, एड्रिनालिन और नोराएड्रिनालिन हार्मोन के स्तर में भारी इजाफा होता है, जो ताक़त का अहसास बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं।’’
डॉ. गिलेन के मुताबिक, ‘अगर पूरे आत्मविश्वास के साथ करसत करें तो मांसपेशियों की ताक़त काफी ज्यादा बढ़ाई जा सकती है। एथलीटों की ताकत का असली राज़ यही है।’
वह कहते हैं, ‘मांसपेशियां जितनी बड़ी होती हैं, शरीर उतना ही मज़बूत और ताकतवर होता है। जो एथलीट ज़्यादा ताकतवर होते हैं, उनकी मांसपेशियों का आकार उतना ही बड़ा होता है।’
सकारात्मक सोच और खुद पर विश्वास क्यों जरूरी
डॉ. जचारी एम गिलेन के मुताबिक, ‘मांसपेशियां शरीर की जरूरतों के हिसाब से अपनी भूमिका निर्धारित करने में सक्षम होती है। आम आदमी भले ही किसी एथलीट जितना शानदार प्रदर्शन नहीं कर सकता, लेकिन वह ताक़तवर हो सकता है और अपने प्रदर्शन में लगातार सुधार ला सकता है। वहीं, सकारात्मक सोच आपको अपने लक्ष्य की तरफ एकाग्र करने में भी मददगार साबित होती है।’
जैसा, अनीता शर्मा के मामले में साफ़ नजऱ आता है। इलाज के दौरान उनका दाहिना हाथ ही खऱाब हो गया था।
अनीता ने बीबीसी के सहयोगी आर द्विवेदी को बताया कि कीमो के दौरान ग़लत ढंग से दवा चढऩे के कारण उनका हाथ अचानक सूज गया और फिर तीन उंगलियों ने काम करना बंद कर दिया।
अनीता बताती हैं कि पहले तो उन्हें लगा था कि इस हाथ से कोई काम ही नहीं कर पाएंगी। लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी और धीरे-धीरे इन उंगलियां को चलाती रहीं। अब चाहे आटा गूंथना हो या फिर कोई वजन वाली चीज उठाना, इन उंगलियों के टेढ़े होने के बावजूद उन्हें रोजमर्रा के कामों में कोई दिक्कत नहीं होती।
ख़ुद को कभी असहाय महसूस न करें
अनीता का मानना है कि इंसान को किसी भी हालत में ख़ुद को असहाय नहीं मानना चाहिए और ख़ुद पर भरोसा होना ही सबसे बड़ी ताक़त है। यही वजह है कि ऑपरेशन के बाद भी उन्हें एकदम निढाल होकर बिस्तर पर पड़े रहना पसंद नहीं था।
अनीता को जुलाई 2013 में पता चला कि उन्हें ब्रेस्ट कैंसर है और एक हफ़्ते बाद ही उन्होंने ऑपरेशन करा लिया। ऑपरेशन के अगले दिन से ही वह वॉशरूम तक जाने में भी किसी की मदद नहीं लेती थीं।
वे सकारात्मक सोच पर जोर देती हैं।
उनका कहना है कि कसरत शरीर को मज़बूत बनाती है और सकारात्मक सोच से मानसिक दृढ़ता बढ़ती है और उसके आगे हर कठिनाई या चुनौती छोटी नजऱ आने लगती है।
मनोरोग में भी कारगर है कसरत
विशेषज्ञों की मानें तो मनोरोग की समस्या अगर ज्यादा गंभीर न हो तो योग और व्यायाम की मदद से भी इस पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।
देहरादून स्थित राजकीय दून मेडिकल कॉलेज में वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. जेएस बिष्ट ने बीबीसी के सहयोगी आर द्विवेदी से कहा, ‘फिजिकल फिटनेस आपकी मांसपेशियां मजबूत करके शारीरिक क्षमता को तो बढ़ाती ही है, यह मानसिक स्वास्थ्य के लिहाज से भी बहुत अहम साबित होती है।’
डॉ. बिष्ट कहते हैं, ‘घबराहट, डिप्रेशन, एंजाइटी जैसी मानसिक समस्याओं से उबरने में नियमित एक्सरसाइज से बेहतर कुछ नहीं हो सकता है।’
डॉ. जेएस बिष्ट का कहना है कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को अलग करके नहीं देखा जा सकता और इसमें आत्मविश्वास भी अहम भूमिका निभाती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा में भी दोनों को एक-दूसरे का पूरक माना गया है।
वे बताते हैं कि तमाम मनोचिकित्सक अपने मरीज़ों को दवाओं के साथ नियमित व्यायाम की सलाह देते हैं क्योंकि शारीरिक तौर पर सक्रिय रहने वाले लोगों के लिए मानसिक चुनौतियों से उबरना ज्यादा आसान साबित होता है।
वे कहते हैं चाहे व्यक्ति किसी भी उम्र का हो, उन्हें कसरत ज़रूर करनी चाहिए क्योंकि इसके तमाम फायदे हैं।
करसत करने से मांसपेशियां मजबूत होती है और उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है।
नियमित तौर पर जॉगिंग, एरोबिक, रस्सीकूद जैसी गतिविधियां फायदेमंद होती हैं।
बैडमिंटन, टेबिल टेनिस जैसे खेलों में हाथ आजमाने से भी शारीरिक क्षमता बढ़ती है
अगर ज्यादा कुछ संभव न हो तो ब्रिस्क वॉकिंग को आजमाया जा सकता है।
बढ़ती उम्र में याददाश्त दुरुस्त रखने में बेहद कारगर है हल्की-फुल्की कसरत
जचारी एम गिलेन कहते हैं, आत्मविश्वास हो तो कसरत के सहारे आप अपनी मांसपेशियों को मजबूत कर एथलीट जैसी ताकत हासिल कर सकते हैं। लेकिन अति-आत्मविश्वास से बचना भी बहुत जरूरी है।
वे कहते हैं कि अभ्यास के दौरान अपनी मांसपेशियों की आवाज की कतई अनसुनी न करें, जितना आराम से संभव हो, उतनी ही कसरत करें और भार उठाने में कतई जल्दबाजी न दिखाएं। किसी दिन कम तो किसी दिन अधिक भार उठाने की कोशिश करें। इससे मांसपेशियां आसानी से शरीर की जरूरतों के हिसाब से ढल जाएंगी। साथ ही वे कसरत के बाद तुरंत प्रोटीन लेने की सलाह देते हैं।
डॉ. रविन्द्र के.बह्मे
नीति निर्माण में साक्ष्य मायने रखता है। लेकिन जीवंत अनुभव भी ऐसा ही है। और उस युवा लडक़ी का अनुभव क्या कहेगा जिसने अपने पिता को कैंसर के कारण खो दिया है? कैंसर सिर्फ एक व्यक्ति को नहीं बल्कि पूरे परिवार को प्रभावित करता है। इसका परिवारों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है, और आने वाली पीढिय़ाँ पीडि़त होती हैं। कई मामलों में पाया गया कि कैंसर का इलाज परिवार को दिवालिया बना देता है, संसाधन सूख जाते हैं, भविष्य खतरे में पड़ जाता है। इसलिए, जीवन बचाने के लिए नीति स्तर पर हस्तक्षेप और बदलाव की सख्त जरूरत हो जाती है।
सितंबर 2022 में, स्वास्थ्य पर संसद की स्थायी समिति ने कैंसर देखभाल योजना और प्रबंधन पर एक समयबद्ध, प्रासंगिक और व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें उसने भारत में कैंसर के कारणों का विस्तृत अध्ययन किया और आवश्यक नीतिगत बदलावों के लिए सिफारिशें कीं। रिपोर्ट में तंबाकू के सेवन से होने वाले कैंसर पर विशेष जोर दिया गया है। समिति ने चिंता जताते हुए कहा कि भारत में, ‘तंबाकू के कारण होने वाले मुंह के कैंसर के कारण सबसे ज्यादा लोगों की जान जाती है, इसके बाद फेफड़े, ग्रासनली और पेट का कैंसर होता है।’ इसमें यह भी कहा गया कि तम्बाकू का उपयोग कैंसर से जुड़े सबसे प्रमुख जोखिम कारकों में से एक है। विशेष रूप से, भारत के उत्तर पूर्व क्षेत्रों के लिए, रिपोर्ट में कहा गया है कि तम्बाकू कैंसर का प्रमुख कारण है, पुरुषों में कैंसर के सभी मामलों में 50-60त्न और महिलाओं में 20-30त्न मामले होते हैं।
राज्यसभा में प्रस्तुत कैंसर संबंधी जवाब में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में कैंसर के मामलों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई (2019- 27113 मामले) जो बढक़र (2022-29253) हो गए।
इन चिंताजनक टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए, समिति ने सरकार को तम्बाकू की खपत को हतोत्साहित करने की सिफारिश की है, विशेष रूप से इस तथ्य के कारण तम्बाकू पर कर बढ़ाकर कि तम्बाकू की कीमतें भारत में सबसे कम हैं।भारत में तम्बाकू की कीमतें सस्ती रखने से इसकी आबादी पर भारी लागत आती है। भारत में तंबाकू की खपत का स्वास्थ्य और आर्थिक बोझ 2017 में 1.77 लाख करोड़ रुपये या भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.04त्न होने का अनुमान लगाया गया था।कैंसर के अलावा, तंबाकू का उपयोग कई एनसीडी से जुड़ा है, जिससे हर साल लगभग 13.5 लाख मौतें होती हैं।हालाँकि, भावनात्मक आघात और वित्तीय संकट के कारण वास्तविक जीवन पर प्रभाव बहुत अधिक और गणना से परे होगाढ्ढ
यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि तंबाकू उत्पादों पर कर बढ़ाना इसकी खपत को कम करने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है। शोध से पता चलता है कि सिगरेट की कीमत में 10त्न की वृद्धि से भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में धूम्रपान को 8त्न तक कम किया जा सकता है और बीड़ी की खुदरा कीमत में समान 10त्न की वृद्धि से इसकी खपत 9त्न तक कम हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने तंबाकू उत्पादों के खुदरा मूल्य पर न्यूनतम 75त्न कर लगाने की सिफारिश की है और दुनिया भर के 40 देशों ने 75त्न या उससे अधिक कर लगाया है, जिसमें श्रीलंका (77त्न) और थाईलैंड (78.6) शामिल हैं। हमारे क्षेत्र में त्न)। इसकी तुलना में, भारत में सबसे अधिक धूम्रपान किए जाने वाले उत्पाद बीड़ी पर कर की दर केवल 22त्न है। यदि भारत को 2025 तक तंबाकू की खपत में 30त्न की कमी का लक्ष्य हासिल करना है, जो उसने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में निर्धारित किया है, तो अब कार्रवाई करने और तंबाकू करों को बढ़ाने का समय आ गया है।
इस स्तर पर, यह बताना प्रासंगिक है कि किसी भी कराधान नीति के कई उद्देश्य हो सकते हैं। जबकि कराधान सरकार के लिए देश के स्वास्थ्य और विकास एजेंडे में निवेश करने के लिए राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, यह एक महत्वपूर्ण प्रोत्साहन या हतोत्साहित करने वाला उपाय भी हो सकता है। जब भारत सरकार ने बीड़ी और धुआं रहित तंबाकू सहित सभी तंबाकू उत्पादों को जीएसटी के उच्चतम 28त्न कर स्लैब में डालने का फैसला किया, तो इसने एक स्पष्ट संदेश दिया कि तंबाकू एक पाप उत्पाद है और इसकी खपत को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। जीएसटी-पूर्व युग (2017 से पहले) में तम्बाकू की खपत को कम करने के लिए कई महत्वपूर्ण उपाय किए गए, जिनमें केंद्र सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क करों में क्रमिक और लगातार वृद्धि और राज्य सरकारों द्वारा पूर्ववर्ती मूल्य वर्धित कर (वैट) शामिल थे। सरकार के अपने वैश्विक वयस्क तंबाकू सर्वेक्षण के अनुसार, इन निरंतर प्रयासों के कारण 2010 और 2017 के बीच तंबाकू उपभोक्ताओं में 81 लाख की कमी आई।
जीएसटी के बाद, तंबाकू उत्पादों के करों या कीमतों में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है।दरअसल, सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि तंबाकू उत्पाद अधिक किफायती हो गए हैं क्योंकि उनकी कीमतें अन्य आवश्यक वस्तुओं की तरह उसी दर से नहीं बढ़ी हैं।इससे क्या संदेश जाता है?पोषण पर खर्च करना अब कैंसर पैदा करने वाले उत्पादों पर खर्च करने से महंगा है।
प्रोफेसर एंड हेडएस ओएस इन इकोनॉमिक्स
पंडित रविशंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी, रायपुर
आभा शुक्ला
तुलसीदास ने कई ऐसी बातें लिखीं जिनसे समाज पथभ्रष्ट हुआ। खासकर जो उन्होंने हम महिलाओं के बारे में लिखा उसके लिए मेरी निजी खुन्नस है। तुलसीदास से आपको उनमें आस्था है तो रखिए,पर अगर अब के समय वो होते तो मैने उनके खिलाफ मुकदमा दायर कर रखा होता इसमें भी कोई दो राय नहीं।
ढोल,गंवार,शूद्र,पशु, नारी सकल ताडऩा के अधिकारी पर आप उनका बचाव ये कहकर कर लेते हैं कि यहां ताडऩा का वो अर्थ नहीं है। मंै इस चौपाई को छोड़ ही देती हूं, बाकी को देख लीजिए।
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना, अंध बधिर क्रोधी अति दीना
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना, नारि पाव जमपुर दुख नाना,
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा, कायँ बचन मन पति पद प्रेमा, भावार्थ- वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दु:ख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है।
आप बताइए ये कोई न्याय है। वृद्ध और रोगी का एक बात ठीक है पर मूर्ख, अंधा, घरेलू हिंसा करने वाला व्यक्ति अगर पति है तो उसके चरणों से भी प्रेम करना स्त्री का धर्म है वाह ये था तुलसी का सामाजिक न्याय अगर देवी होना ये है तो फिर दासी होना क्या है ?
और देखिए आगे-
नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।
अब बताइए हम कैसे डाइजेस्ट कर लें इन बातों को आपकी आस्था है तो मुझे इससे आपत्ति नहीं पर मेरा बैर है तुलसी से और वो हमेशा रहेगा मेरी नजर वो घोर स्त्री विरोधी व्यक्ति थे। आप कहां-कहां उनका बचाव करेंगे ताडऩ का अर्थ बदल कर नहीं कर पाएंगे। बेहतर है गलती मान कर सरेंडर कर दीजिए और महाकाव्य में बदलाव करने का सोचिए बाकी लकीर के फकीर तो आप हैं ही।
कृष्ण कल्पित
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मिरे हिस्से में मां आई!
एक जीती-जागती मां की तुलना किसी जड़ दूकान से करने वाले उर्दू के मशहूर शाइर मुनव्वर राना नहीं रहे। वे एक अरसे से बीमार थे और कल हृदयाघात से लखनऊ के एक अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। वे इकहत्तर वर्ष के थे।
मुनव्वर राना की एक और प्रसिद्ध रचना है- मुहाजिरनामा। इस तवील नज़्म में वे अपनी मां को सोना और अपनी अहलिया यानी पत्नी को पीतल बता रहे हैं-
हमारी अहलिया तो आ गई मां छूट गई आखिर
के हम पीतल उठा लाए सोना छोड़ आए हैं!
दरअसल शाइरी की दूकानों पर मुनव्वर राना से पहले माशूक ही अलहदा-अलहदा अंदाज में बिका करते थे। मुनव्वर राना शायद गजल के पहले दूकानदार थे, जिन्होंने गजल की दूकान में मां को या उसकी भावनाओं को बेचना शुरू किया। इससे पहले सलीम जावेद इस मां को, मेरे पास मां है कहकर, बाजार में ला चुके थे और सिनेमा में बेच चुके थे।
मुनव्वर राना राहत इंदौरी की तरह मुशाइरों के मकबूल और कामयाब शाइर थे । मुनव्वर राना, राहत इंदौरी के साथ नवाज देवबंदी ने मुशाइरों की शाइरी को पूरी तरह बदल दिया । इन तीनों ने मिलकर मुशाइरों से तरन्नुम और शाइरी से तगजज़ुल को देश निकाला दे दिया और एक नई तरह की सडक़ की शाइरी का ईजाद किया, जो पिछले तीन दशकों से भारतीय भीड़ों को पागल बनाती रही।
मुनव्वर राना अपनी शायरी में गांव लाए, आंगन, छप्पर, दुपट्टा, अमरूद के पेड़ और मां को लेकर आए । अदब की दुनिया में इस शाइरी का क्या मोल है, पता नहीं लेकिन उनकी शाइरी जनता में और सुनने वालों में बेहद लोकप्रिय थी ।
इब्ने बतूता ने भारत के बारे में शताब्दियों पूर्व जो किताब लिखी थी उसमें वे एक दिलचस्प बात कहते हैं कि भारत के लोगों की एक विचित्र आदत है कि ये बात-बात में तालियां बजाते रहते हैं। तुक या काफिया मिलते ही ये ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजाते हैं। आजकल के मुशाइरे और कथित कवि सम्मेलन जब सुनता हूं तो मुझे इब्नबतूता की बात याद आती है। वे बिना अर्थ समझे सिर्फ तुक मिलने पर तालियां बजाने लगते हैं ।
गांव-देहात के इतने सारे बिंबों के साथ मुनव्वर राना की गज़़लों को आसानी से आप ग्रामीण शाइरी कह सकते हैं। मुनव्वर राना मुशाइरों के सबसे लोकप्रिय और महंगे शाइरों में से एक थे । विचारों से वे कई बार कठमुल्ला लगते थे। वे पहले कोलकाता में और इन-दिनों लखनऊ में गजल ट्रांसपोर्ट नाम की कम्पनी भी चलाते थे। यही कारण रहा होगा कि मुनव्वर राना अपनी गजलों के काफिये भी ट्रक के टायरों की तरह बदलते थे, जो बहुत खडख़ड़ाहट और शोर करते हैं ।
उर्दू के एक लोकप्रिय शाइर मुनव्वर राना को हिन्दी के एक कवि की तरफ से खिराजे अकीदत और विनम्र श्रद्धांजलि !
वह कबूतर क्या उड़ा छप्पर अकेला हो गया
मां के आंखें मूंदते ही घर अकेला हो गया!
टेसा वांग
बहुत कड़े मुक़ाबले में ताइवान के राष्ट्रपति चुनाव में विलियम लाई के जीतने के साथ जैसे ही सरगर्मी कम हुई, एक अप्रत्याशित विजेता का नाम चर्चा में है।
शनिवार को हुए राष्ट्रपति चुनाव में ताइवान के एक चौथाई मतदाताओं, जिनमें अधिकांश युवा हैं, ने एक ऐसे राजनेता वेन-जे को वोट किया, जो स्वतंत्र विचार वाले माने जाते हैं।
वेन की नई नवेली ताइवान पीपल्स पार्टी (टीपीपी) ने आठ सीटें जीती हैं, जो कि संसद में सत्ता तक भी पहुँच सकती है, जहाँ अभी किसी का बहुमत नहीं है।
हालांकि टीपीपी की बढ़त अभी उतनी नहीं है और ख़ुद को वेन-जे तीसरे नंबर पर रहे हैं लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि उन्होंने ताइवान के राजनीतिक परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया है।
यहां लंबे समय से दो पार्टियों का दबदबा था, कोमिंतांग (केएमटी) और विलियम लाई की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी)।
अटलांटिक काउंसिल्स ग्लोबल चाइना हब के नॉन रेजिड़ेंट फ़ेलो और राजनीति विज्ञानी वेन-ती सुंग के अनुसार, ‘अब यह दो पार्टियों का मुक़ाबला नहीं रहा, यह त्रिकोणीय हो गया है।’
हालांकि को वेन-जे ताइपे के पूर्व मेयर रहे हैं और मंझे हुए राजनीतिज्ञ हैं लेकिन राष्ट्रपति पद की दौड़ में यह उनका पहला मौक़ा था।
उन्होंने अपने चुनाव प्रचार अभियान में चीन और ताइवान के रिश्ते में मध्य-मार्ग अपनाते हुए नीले और हरे को हटाने का अह्वान किया- नीला केएमटी के और हरा डीपीपी के झंडे का रंग है।
नौजवानों में लोकप्रिय
साल 2016 से ही ऐसी अन्य पार्टियां रही हैं, जिन्होंने चुनावों में कुछ सफ़लता हासिल की। लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि टीपीपी का प्रदर्शन बताता है कि मतदाता अब अधिक बहलुवादी राजनीतिक माहौल चाहते हैं और यह भावना ताइवान के नौजवानों में अधिक है।
शनिवार को जब नतीजे आए तो बहुत से नौजवान निराश हुए। कुछ ने तो सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों पर चुनावी धांधली के भी आरोप लगाए।
आकर्षण के केंद्र में ख़ुद को वेन-जे थे जो सीधी बात करने वाले राजनेता हैं तो कभी-कभार आक्रामक रुख़ अपना सकते हैं।
युवा लोग उन्हें उत्सुकता और अपनापन से देखते हैं, हालांकि मर्दवादी और समलैंगिकता विरोधी माने जाने वाले उनके कुछ बयानों को लेकर उनकी आलोचना भी हुई है।
लेकिन नौजवानों में मौजूदा राजनीतिक पार्टियों को लेकर धैर्य टूट रहा है, जो लंबे समय से चले आ रहे आर्थिक मुद्दों को हल नहीं कर पाईं, जैसे, कम वेतन और महंगे आवास का मुद्दा, जिससे युवा पीढ़ी सबसे अधिक प्रभावित है।
युवा पीढ़ी ने साल 2000 से ही देखा है कि शासन में बारी-बारी से डीपीपी या केएमटी ही शासन करती है, हालांकि इस बार विलियम लाई ने यह चक्र तोड़ा है।
पुरानी पार्टियों का ज़माना ख़त्म होगा
28 साल के सैनिक हुआंग ने बीबीसी से कहा, ‘एक नई पार्टी डीपीपी और केएमटी का ज़माना ख़त्म कर रही है। यह नई पीढ़ी के उठने का समय है और टीपीपी मुझे ज़्यादा नई लग रही है।’
नेशनल चेंगची यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान पढ़ाने वाले लेव नेचमैन ने कहा, ‘वैकल्पिक राजनीति की यह मांग इतनी अधिक नहीं है कि राजनीति तंत्र को बिखरा दे, लेकिन यह अन्य पार्टियों को और व्यापक मतदाताओं तक पहुंचने के लिए मजबूर करती है।’
सुंग कहते हैं कि लेकिन साथ ही यह टीपीपी को भविष्य में एक ताक़त और ताइवान में दूसरी राजनीतिक शक्ति बनने का मौक़ा भी देती है।
को वेन-जे का मत प्रतिशत, केएमटी के उम्मीदवार हू यू-इह से महज 7त्न कम था। लेकिन चीज़ें तभी सही दिशा में जाएंगी जब वो सधा हुआ क़दम उठाएंगे।
कार्नेगी चाइना में नॉन रेजिडेंट फ़ेलो इयान चोंग ने कहा, ‘टीपीपी का समर्थन मज़बूत है लेकिन सवाल है कि क्या वो टिक पाएगी?’
‘यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इसकी टीम ज़मीन पर कितनी है और विधायिका में इसका कैसा प्रदर्शन रहता है और साथ ही सिद्धांतों, नीतियों और मूल्यों पर भी बहुत कुछ निर्भर होगा।’
टीपीपी की चुनौतियां
वर्तमान में टीपीपी उन मतदाताओं को आकर्षित करने की कोशिश में है जो नाख़ुश हैं और को वेन-जे पर ही पूरी पार्टी टिकी है।
वो कहते हैं, ‘सामाजिक आंदोलन के लिए शख़्सियतों की ज़रूरत होती है। लेकिन इसे आगे के लिए टिकाए रखने और अपने आइडिया से समर्थकों को आकर्षित करने की ज़रूरत होती है।’
टीपीपी समर्थक हैरिसन वू ने कहा, ‘मुझे लगता है कि को वेन-जे को अब अपनी पार्टी को और व्यवस्थित करना होगा। वो भी जानते हैं कि यह वन मैन पार्टी है, उन्हें अपने उत्तराधिकारियों को विकिसित करना होगा। क्योंकि वो खुद 64 साल के हो चुके हैं।’
शनिवार को विलियम लाई से हारने के बाद को वेन-जे ने माना कि उनका रास्ता अभी लंबा है और वो इसे तय करेंगे।
उन्होंने अपने समर्थकों से कहा, ‘मैं आप लोगों से कहूंगा कि हार न मानें क्योंकि मैंने हार नहीं माना है, टीपीपी हार नहीं मानेगी। मैं जानता हूं कि आज रात आप सभी दुखी हैं। लेकिन असल में हमारे पास दुखी होने सा समय नहीं है।’
उन्होंने कहा, ‘अगर हम अगले चार सालों में धैर्य पूर्वक काम जारी रखते हैं तो हम और अधिक पहचान के साथ जीतेंगे और अधिक ताक़त हासिल करेंगे। अगली बार हम सत्ता संभालेंगे और निश्चित रूप से इस देश का भी भरोसा जीतेंगे। हमने पहले ही काफ़ी चमत्कार किए हैं।’ (bbc.com)
-दिलीप कुमार
आजकल एनिमल फिल्म चर्चा का विषय बनी हुई है। बनना भी चाहिए, क्योंकि हिन्दी सिनेमा की दूसरी सबसे कामयाब फिल्म बन गई है। मैं रणबीर का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं, फिर भी एनिमल फिल्म मैं झेल नहीं पाया, और फिल्म आधी छोडक़र ही चला आया। मुझे तो विचित्र नहीं लगा, और भारी मन से इस बात को स्वीकार करता हूँ, क्योंकि मैं फिल्म देखने से पहले कहानी, निर्देशक, एक्टर सब कुछ समझने के बाद अपने तीन घंटे खर्च करता हूँ। मैं जानता हूं एक फिल्म बनने में कई परिवारों के लोगों की मेहनत शामिल होती है, इसलिए फिल्म न देखने का आव्हान मैं कभी नहीं कर पाता, अत: लिख देता हूं फिल्म मुझे पसंद नहीं आई, हालांकि मेरी पसंद सार्वभौमिक सत्य नहीं है, हो सकता है आपको पसंद आए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, हर कोई अपने विचार रख सकता है। हमारे विचार ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचते, लेकिन जावेद अख्तर साहब जैसे नामचीन हस्तियों का बोलना मतलब पूरे समाज में उनका भाषण असर करता है। जावेद अख्तर साहब ने कहा- ‘एनिमल फिल्म में नायक- नायिका को मारता है, और कहता है मेरे जूते चाटो’ गर ऐसी फिल्में ब्लॉकबस्टर हो रहीं हैं तो यह समाज के लिए बहुत खतरनाक बात है’। यह सुनकर एनिमल फिल्म के रायटर संदीप रेड्डी वांगा ने जावेद अख्तर साहब की रायटिंग स्किल पर ही सवाल उठा दिया, जो न काबिले बर्दाश्त है। आप अपनी बात रख सकते थे, कोई प्रश्न कर सकते थे, जावेद अख्तर साहब सम्मानित इंसान हैं, वो खुद बड़ी विनम्रतापूर्वक जवाब देते, मुझे संदीप का जवाब अभद्र लगा हमें अपने से बड़ों के प्रति ऐसे कटुता के शब्द नहीं बोलने चाहिए।
मैं जावेद अख्तर साहब से पूर्णत: सहमत हूँ, ऐसी फि़ल्में समाज के लिए हानिकारक हैं, लेकिन मेरा एक छोटा सवाल यह भी है ‘जैसा कि मैंने पहले बोला कि मेरी पसंद सार्वभौमिक सत्य नहीं है, और न ही जावेद अख्तर साहब की फिर भी वो कौन से लोग हैं जिन्होंने एनिमल फिल्म को’ ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर’ बना दिया? सवाल तो करना पड़ेगा। मैं जवाब देना चाहता हूं, वो इसलिए कि ‘सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है’। जी हां यह बात मैं बड़ी जिम्मेदारी से कह रहा हूं।
जब हिन्दी सिनेमा में अमर प्रेम, आराधना, गोलमाल, चुपके-चुपके जैसी शुद्ध पारिवारिक फि़ल्में बन रही थीं, दूसरी ओर पार, बाजार, चश्मे बद्दूर, अर्धसत्य, सद्गति, स्पर्श, मासूम, आक्रोश जैसी कला फिल्में बन रहीं थीं, तब कौन से लोग थे, जिन्होंने डॉन, दीवार, जंजीर जैसी फिल्में इन फिल्मों को खारिज करते हुए नई धारा की फिल्में चलने लगी थीं। जावेद अख्तर साहब सलीम साहब ने हिन्दी सिनेमा की दुनिया ही बदल डाली थी। मैं अपनी कोई हैसियत नहीं समझता कि जावेद साहब से सवाल कर सकूं फिर भी अभिव्यक्त की स्वतंत्रता है तो पूछना चाहूँगा ‘आदरणीय जावेद अख्तर साहब मेरी गुस्ताखी मुआफ कीजिएगा, डॉन, दीवार, जंजीर, शराबी फिल्मों से क्या सीख मिलती है? समाज क्या सीखेगा? आप दार्शनिक इंसान हैं आप बेहतर समझा सकते हैं, फिर भी मेरे शब्दों से कोई ठेस पहुंची हो तो आप मेरे बड़े हैं, मैं आपका छोटा हूं मुझे मुआफ कर दीजिएगा, क्योंकि आप मेरे अपने हैं।
चूंकि आप तक मेरे सवाल नहीं पहुंच पाएंगे।फिर भी मुझे अपने सवालों के जवाब तो चाहिए थे, फिर मैंने खुद को समझाया कि फिल्में सिर्फ मनोरंजक उद्देश्य से देखी जानी चाहिए। ज्यादा भावुकतापूर्ण उद्देश्य से फि़ल्मों को देखना हानिकारक हो सकता है। समाज फि़ल्मों से प्रभावित होता है, फिर भी, हिन्दी सिनेमा की अधिकांश फिल्मों में कानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं, समाज में अपराधीकरण का प्रमुख कारण यह हो सकता है।
शाहरुख खान की डर, बाजीगर, अंजाम फिल्म देखकर तब के युवाओं ने सिर्फ और सिर्फ लड़कियों को परेशान करना सीखा होगा। अजय देवगन की संग्राम फिल्म को देखकर तब के युवाओं ने लडक़ी को अपने जूते पर नाक रगडऩा ही सीखा होगा। अन्यथा ऐसी फिल्में देखकर सीख क्या मिलेगी? हिन्दी फिल्मों में अधिकांश फिल्मों में लड़कियों, महिलाओं की बेज्जती ही की जाती रही है, एक फिल्म है, रानी मुखर्जी एक ऐसी लडक़ी का किरदार करती हैं, जिसमें उस लडक़ी किरदार का बलात्कार हो जाता है, वही लडक़ी अदालत के जरिए उस रेपिस्ट से पत्नी का हक मांगती है, बताइए कितनी दु:खित बात है। 90 के दशक में अधिकांश फिल्मों में नायिका नायक के पीछे भागती हुई बार-बार बेइज्जत करती हुई दिखाई देती है। क्या असल में ऐसे होता है?
अमिताभ बच्चन की शराबी फिल्म के बाद न जाने कितने युवाओं ने शराब पीना शुरू किया होगा। आज फिल्मों के पोस्टर एक्टर के हाथ में सिगरेट के बिना बनते ही नहीं है। युवाओं को इससे क्या सीख मिलेगी?अंतत: मैंने खुद को समझाया कि फिल्मों को मनोरंजक उद्देश्य से देखना चाहिए, जो बात सीखने लायक हो सीख लो अन्यथा बुरे विसंगति वाले लोगों से हम घिरे रहते हैं, हम यहां से भी सीख सकते हैं। जिसे बुरी आदतें सीखना होता है सीखता ही है, उसे कोई रोक नहीं सकता, लेकिन युवाओं का मन ब्रेनवॉश तो होता ही है। आज के जो बुजुर्ग हैं, वो शराबी, डॉन, जैसी फिल्में बड़ी चाव से देखते थे, आज उन्हें एनिमल बर्दाश्त नहीं हो रही, आज के युवा जो एनिमल बड़े चाव से देख रहे हैं, भविष्य में उन्हें आने वाली फिल्में बर्दाश्त नहीं होंगी। क्योंकि समय समय पर सिनेमा बदलता है, और लोगों की रुचि बदलती है।
पहले पारिवारिक, संजीदा, सामाजिक, थ्रिलर, सस्पेंस फिल्में बन रहीं थीं, फिर एक विधा आई एक्शन। एडल्ट फि़ल्मों की भी भरमार है, जिनमे नग्नता होती है, उसमे लिखा होता है, यह फिल्म फलाने वर्ग के लिए है। हमें उदारवादी होना पड़ेगा, अब समाज बदल रहा है। हमेशा बदलता रहा है, मैं एनिमल फिल्म को वाहियात श्रेणी में रखते हुए भी यही कहना चाहता हूं, कि आप को जो फिल्म पसन्द आए तो देखिए अन्यथा छोड़ दीजिए, और अपनी पसंद की फिल्मों का इंतजार कीजिए, अब तो ढेर सारे ऑप्शन हैं। वहीं संदीप रेड्डी ने जावेद अख्तर साहब को जो बोला है, उसमे भी हैरां नहीं हूं, क्योंकि अब बड़ों की इज्जत न करने का रिवाज़ भी ट्रेंड में है। हम सब को गर अपने जीवन को कुढ़ते हुए नहीं बिताना तो उदारवादी बनना पड़ेगा, क्योंकि समाज चल पड़ता है, हम पीछे छूट जाते हैं। क्योंकि ‘सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है’।
समरेंद्र शर्मा
राम नाम की चर्चा कोई नई नहीं है। चर्चा भी होती रही है, राम नाम का जाप भी होता है, लेकिन राम नाम का जो दर्शन है, उसका अनुभव नहीं होता। क्योंकि हम राम नाम की चर्चा या जाप कर रहे हैं, तो हमारे जीवन में रामायण चलनी चाहिए। नहीं चल रही है, तो इसका आशय गोस्वामी जी बताते हैं कि अब भी बुद्धिरूपी अहिल्या पत्थर बनी हुई है। दुराशा की ताडक़ा मौजूद है और मन में मोह का रावण बना हुआ है।
धर्म-कर्म को लेकर भी असमंजस की स्थिति रहती है। दरअसल, जब हम अहंकारग्रस्त होकर धर्म के बारे में फैसला करते हैं, तो हम धर्म के केवल शब्दों को पकड़ते हैं और उसके भाव को भूल जाते हैं।
राम तो सदैव से हैं, लेकिन हमको कब पता कि राम हैं, जब राम जी प्रकट किए गए। उनकी लीलाओं का विस्तार हुआ और संसार की समस्याओं का समाधान हुआ। ऐसे ही जब तक हम राम जी को मन में प्रकट नहीं करेंगे। हमारे जीवन में रामायण सक्रिय नहीं हो सकती।
मौजूदा समय में राम नाम को लेकर सभी एकमत हैं। असल मतभेद एक-दूसरे से है। दोनों एक दूसरे की बात न सुनने तैयार हैं न ही समझने के लिए तैयार हैं। आवश्यकता ऐसे व्यक्ति की है, जो दोनों की बात को सुने, समझे और एक दूसरे को समझाए। राम नाम ही ऐसा माध्यम है, जो एक दूसरे को मिला सकता।
तुलसीदासजी और कबीरदासजी के ग्रंथों को पढऩे से लग सकता है कि दोनों की मान्यताएं एकदम अलग-अलग हैं, लेकिन राम नाम के संदर्भ में दोनों एक दिखाए पड़ते हैं। रूप और अरूप को लेकर विवाद हो सकता है, लेकिन नाम के जरिए दोनों को मिलाया जा सकता है।
1990 में राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि वो केवल रथ के सारथी रहे लेकिन ये भाग्य का फैसला है कि एक दिन राम मंदिर हकीकत बन जाएगा।
अख़बार द इंडियन एक्सप्रेस लिखता है कि ‘राष्ट्रधर्म’ नाम की एक हिन्दी पत्रिका के लिए लिखे एक लेख में लालकृष्ण आडवाणी ने 33 साल पहले की घटनाओं को याद किया और कहा कि वो राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के लिए अयोध्या जाना चाहते हैं।
उन्होंने ये भी कहा कि उन्हें खुशी है कि भगवान राम ने मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए अपने भक्त को चुना है।
‘श्री राम मंदिर: एक दिव्य स्वप्न की पूर्ति’ नाम का ये लेख, 76 साल पुरानी इस पत्रिका के 15 जनवरी के अंक में छपने वाला है। इसमें लालकृष्ण आडवाणी ने 1990 में सोमनाथ मंदिर से अयोध्या तक निकाली गई रथ यात्रा को याद करते हुए लिखा, ‘मैं तो केवल सारथी था, नियति ने तय कर लिया था कि अयोध्या में श्रीराम का मंदिर अवश्य बनेगा।’
पत्रिका का ये अंक 22 तारीख को अयोध्या में होने वाले प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल होने वाले सभी लोगों को दिया जाएगा।
उन्होंने लिखा, ‘रथ यात्रा शुरू होने के कुछ दिन बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ एक सारथी था। रथ यात्रा का मुख्य संदेशवाहक रथ ही था और पूजा के योग्य था क्योंकि यह मंदिर निर्माण के पवित्र उद्देश्य को पूरा करने के लिए श्री राम की जन्मस्थली अयोध्या जा रहा था।’
उन्होंने यात्रा में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका के बारे में लिखा कि मोदी उस वक्त अधिक चर्चित नहीं थे और वो यात्रा के समय उनके साथ थे।
उन्होंने लिखा, ‘जब प्रधानमंत्री मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा करेंगे, उस वक्त वो भारत के हर नागरिक का प्रतिनिधित्व कर रहे होंगे। मुझे उम्मीद है कि भगवान राम के मूल्यों को सीखने में ये मंदिर लोगों की मदद करेगा।’
लोग अपनी आस्था छिपाकर जी रहे थे- आडवाणी
अख़बार के अनुसार आडवाणी ने लिखा है कि 1990 के दौर में उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि उनकी रथ यात्रा एक बड़े आंदोलन का रूप ले लेगी। उन्होंने मंदिर को हक़ीक़त में बदलने और बीजेपी का वादा पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को बधाई दी है और लिखा है, ‘मोदी उस वक्त लोगों के सामने नहीं आए थे और मेरे साथ थे। भगवान राम ने अपने भक्त को मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए चुना है।’
उन्होंने यात्रा के बारे में लिखा कि इसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।
वो लिखते हैं, ‘मैंने देखा कि मंदिर के लिए लोगों का समर्थन बढ़ता जा रहा था। ‘जय श्री राम’ और ‘सौगन्ध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा चारों तरफ गूंज रहा था।’
अखबार के अनुसार वो लिखते हैं, ‘रथ यात्रा ने मुझे कुछ ऐसे अनुभव दिए जिनका मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। सुदूर गांवों में अनजान ग्रामीण रथ देखकर मेरे पास आते थे। वो लोग भावुक हो जाते थे। वो मुझे बधाई देते, फिर भगवान राम के नारे लगाते और चले जाते।’
वो लिखते हैं कि वो इस बात से आश्वस्त हो गए थे कि हजारों लोग अयोध्या में राम मंदिर का सपना देखते हैं लेकिन वो अपनी आस्था छिपाकर जी रहे थे।
आडवाणी ने लिखा आखिरकार 22 जनवरी को हजारों गांववालों की छिपाकर रखे गए सपने सच्चाई का रूप लेंगे।
उन्होंने ये भी लिखा कि उनके सामने ये एक ऐसा मौका है जब वो लंबे वक्त तक अपने वरिष्ठ रहे नेता अटल बिहारी वाजपेयी को याद कर रहे हैं। 2018 में वाजपेयी का निधन हो गया था। (bbc.com/hindi)
नीदरलैंड्स के हेग में मौजूद इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में बीते दो दिनों से इसराइल के खिलाफ मामले की सुनवाई हो रही है।
कोर्ट से गुहार लगाई गई है कि वो ये तय करे कि इसराइल गज़़ा में फ़लस्तीनियों के साथ जो कर रहा है क्या वो जनसंहार है।
अंतरराष्ट्रीय अदालत में ये मामला दक्षिण अफ्ऱीका लेकर गया है। इसराइल ने उसके लगाए आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए इन्हें ‘बेबुनियाद’ कहा है।
पढि़ए दो दिन चली कार्ट की कार्रवाई में क्या कुछ हुआ, किसने क्या कहा।
क्या कहना है दक्षिण अफ्रीका का?
दक्षिण अफ्रीका का दावा है कि गजा में फिलीस्तीनियों के खिलाफ इसराइल जो कर रहा है वो जनसंहार है क्योंकि उसकी कार्रवाई ‘फिलीस्तीनी क्षेत्र में रहने वाले में एक नस्लीय समूह की बड़े पैमाने पर तबाही के उद्देश्य से है।’
दक्षिण अफ्रीका ने कोर्ट से गुजारिश की है कि वो इसराइल को अपना सैन्य अभियान बंद करने का आदेश दे।
दक्षिण अफ्रीका ने कहा है कि इसराइल 1948 में हुए जीनोसाइड कन्वेन्शन (जनसंहार समझौते) का उल्लंघन कर रहा है। इसराइल और दक्षिण अफ्रीका दोनों ने ही इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं और ये समझौता जनसंहार होने से रोकने के लिए दोनों पक्षों को प्रतिबद्ध करता है।
11 जनवरी को अदालत की 17 जजों की बेंच ने दक्षिण अफ्रीका के हाई कोर्ट के वकील टेम्बेका एनजीकुकेतोबी की दलील सुनी।
उन्होंने कहा कि इसराइल ने ‘जनसंहार के उद्देश्य से’ सैन्य कार्रवाई की है और ‘जिस तरह सैन्य हमले किए गए उससे ये साबित हो जाता है।’
उन्होंने कहा कि इसराइल की योजना गजा को ‘तबाह’ करने की योजना थी जिसके लिए ‘राष्ट्र के उच्चतम स्तर पर समर्थन मिला।’
वहीं मामले में दक्षिण अफ्रीका की तरफ से पैरवी कर रही आदिला हाशिम ने कोर्ट से कहा, ‘यहां हर रोज संपत्ति, सम्मान और मानवता के लिहाज से फिलीस्तीनी लोगों का नुकसान बढ़ रहा है और इसकी कोई भरपाई नहीं का जा सकती।’
‘कोर्ट के आदेश के अलावा कोई भी और चीज़ नहीं जो इस कष्ट से निजात दिला सके।’
इसराइल की क्या रही प्रतिक्रिया?
इसराइली क़ानूनी सलाहकार ताल बेकर ने कोर्ट में कहा कि दक्षिण अफ्रीका सच को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है, वो इसराइल-फिलीस्तीन संघर्ष के बारे में ‘सच से परे व्यापक विवरण पेश कर रहा है।’
12 जनवरी को कोर्ट में अपनी दलील शुरू करते हुए ताल बेकर ने ये स्वीकार किया कि गज़़ा में आम नागरिक जो कष्ट झेल रहे हैं वो ‘त्रासदी है’, हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि फिलीस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास ‘इसराइल और फ़लस्तीनियों को हो रहे नुक़सान को बढ़ाना’ चाहता है जबकि ‘इसराइल इसे कम करना चाहता है।’
उन्होंने कहा कि ‘ये दुख की बात है कि दक्षिण अफ्रीका ने कोर्ट के सामने बेहद तोड़-मरोड़ कर तथ्यात्मक और क़ानूनी तस्वीर को पेश किया है। ये पूरा मामला मौजूदा संघर्ष की हकीकत के संदर्भ से हटकर और जोड़-तोड़ वाले विवरण के आधार पर जानबूझकर बनाया गया है।’
गुरुवार को इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में मौजूद नहीं थे। हालांकि दक्षिण अफ्रीका की तरफ से दलील पेश किए जाने के बाद उन्होंने कहा कि ‘दक्षिण अफ्रीका चिल्लाने का ढोंग कर रहा है।’
उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की आलोचना की और कहा कि जब सीरिया और यमन में ‘हमास के सहयोगी संगठन’ लोगों पर अत्याचार कर रहे थे, वो खामोश रहा था।
उन्होंने कहा, ‘हम आतंकवाद से लड़ रहे हैं, हम झूठ से लड़ रहे हैं। आज हमने एक उलटी दुनिया देखी। इसराइल पर जनसंहार का आरोप लगाया जा रहा है जबकि वो जनसंहार के खिलाफ लड़ रहा है।’
इसराइली सेना ने कहा है कि उसके हमलों में आम नागरिकों को कम से कम नुक़सान हो इसके लिए वो हर तरह के कदम उठा रहा है।
सेना ने कहा इन कदमों में हमलों के बारे में जानकरी देने वाले पर्चे गिराने, किसी इमारत को निशाना बनाने से पहले आम नागरिकों को फ़ोन कर उन्हें इमारत खाली करने को कहने और रास्ते में आम लोगों के होने पर हमला रोकने जैसे कदम शामिल हैं।
इसके साथ इसराइली सरकार भी बार-बार कहती रही है कि उसके हमलों का निशाना हमास के ठिकाने हैं और वो आम फिलीस्तीनी नागरिकों को अपना निशाना नहीं बनाना चाहता।
आरोन बराक कौन हैं?
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के 17 जजों की बेंच में आरोन बराक भी शामिल हैं। इसराइल ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व अध्यक्ष आरोन बराक को आईसीजे में बतौर जज नामित किया है।
आईसीजे के नियमों के अनुसार जजों की बेंच में अगर पहले से ही किसी मुल्क की राष्ट्रीयता के कोई जज नहीं हैं, तो वो अपने मामले की सुनवाई में शामिल होने के लिए एक एड-हॉक जज चुन सकते हैं जो बेंच का हिस्सा होंगे।
इसराइल में दक्षिणपंथी झुकाव पाली पार्टियां आरोन बराक की निंदा करती रही हैं। उन्हें नामित करने का इसराइल का फैसला यहां के सत्ताधारी गठबंधन के लिए भी चौंकाने वाला था।
आरोन बराक इसराइली सुप्रीम कोर्ट के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं। वो बीते साल न्यायिक सुधारों के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के विवादित प्रस्ताव का विरोध करने के लिए जाने जाते हैं।
मामले की सुनवाई से पहले दक्षिण अफ्रीका ने भी पूर्व डिप्टी चीफ़ जस्टिस दिक्गांग मोसेनेक को अपनी तरफ से एड-हॉक जज नामित किया है।
विरोध प्रदर्शन क्यों हो रहे हैं?
एक तरफ कोर्ट के भीतर दोनों पक्ष एक-दूसरे के आमने सामने हैं तो दूसरी तरफ कोर्ट के बाहर भी हलचल कम नहीं थी। यहां पुलिस ने भारी सुरक्षा व्यवस्था की है ताकि फिलीस्तीनी समर्थक और इसराइली समर्थक एक-दूसरे के आमने-सामने न आने पाएं।
मामले की सुनवाई की प्रक्रिया दिखाने के लिए कोर्टरूम से लाइव फीड की व्यवस्था की गई है और इसके लिए कोर्ट के बाहर बड़ी-सी स्क्रीन लगाई गई है। इस स्क्रीन के नीचे कई लोग फिलीस्तीनी झंडे लिए खड़े हैं।
वहीं कई लोग अपने हाथों में नेल्सन मंडेला की तस्वीरें लिए हैं और गजा में मानवीय स्थिति के बारे में दलील पेश कर रही दक्षिण अफ्रीका की कानूनी टीम के सामने इसकी तुलना और मंडेला के दौर में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के दौर करने की कोशिश कर रहे हैं।
इस जगह से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक सांकेतिक सबात टेबल (कुछ धर्म को मानने वालों के लिए आराम करने का दिन) लगाया गया है।
इसके साथ लगी कुर्सियों को खाली छोड़ दिया गया है, लेकिन उन पर उन 130 से अधिक लोगों की तस्वीरें रखी हैं, जो हमास के हमले में या तो मारे गए हैं या फिर जिन्हें हमास के लड़ाके अपने साथ अगवा कर ले गए हैं।
आगे क्या होगा?
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस संयुक्त राष्ट्र की सर्वोच्च कोर्ट है। इसका फैसला सैद्धांतिक और कानूनी रूप से उन देशों पर बाध्यकारी है जो आईसीजे के सदस्य हैं। इसराइल और दक्षिण अफ्रीका दोनों ही इसके सदस्य हैं, लेकिन कोर्ट के पास फैसले को लागू कराने की अपनी कोई शक्ति नहीं है।
ऐसे में जनसंहार के आरोप से जुड़ा जो भी फैसला आईसीजे देगी उसे केवल उसकी राय माना जाएगा। हालांकि इस पर पूरी दुनिया की नजर जरूर रहेगी।
इस मामले में आखिरी फैसला आने में सालों का वक्त लग सकता है, लेकिन दक्षिण अफ्रीका की गुजारिश पर कोर्ट जल्द इस मामले में अपना फैसला दे सकती है और इसराइल से अपना सैन्य अभियान रोकने के लिए कह सकती है।
बीते साल सात अक्तूबर को हमास ने गजा सीमा की तरफ से इसराइल पर हमला किया था। हमास के हमले में 1,300 लोग मारे गए और 240 लोगों को अगवा कर अपने साथ बंधक बनाकर ले गए।
इस हमले की जवाबी कार्रवाई में इसराइल ने पूरे गजा के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
हमास के नियंत्रण वाले स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि इसराइल के हमलों में गजा में अब तक 23,350 लोगों की मौत हुई है, हजारों घायल हुए हैं जबकि लाखों विस्थापित हैं। यहां मरने वालों में बड़ी संख्या महिलाएं और बच्चे शामिल हैं।
दक्षिण अफ्रीका चाहता है आईसीजे ‘इसराइल को जल्द से जल्द गजा में अपना सैन्य अभियान रोकने’ का आदेश दे। लेकिन ये भी एक तरह से तय है कि इसराइल इस तरह के आदेश को नजरअंदाज करेगा और इसे लागू करने को लेकर उस पर दबाव नहीं बनाया जा सकेगा।
साल 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध का मामला भी आईसीजे पहुंचा था। आईसीजे ने रूस को आदेश दिया था कि वो यूक्रेन में ‘जल्द से जल्द अपना सैन्य अभियान रोके’। लेकिन रूस ने इस आदेश को नजरअंदाज कर दिया।
रूस-यूक्रेन युद्ध अगर कुछ और सप्ताह जारी रहा तो इसे दो साल पूरे हो जाएंगे। (bbc.com/hindi)
दीपाली अग्रवाल
एक ही किताब को मन की अलग-अलग तह में पढ़ा जाए तो उसका असर भी वैसा ही पड़ता है।
ओशो का एक व्याख्यान है जिसमें मिस्र के पिरामिड की चर्चा है। वे बता रहे हैं कि मन की स्थिति से उसके भीतर के तहखाने खुल गए थे। वह बना ही यूं है कि, जो जैसा अनुभव कर रहा होगा वैसे कमरे में वहां पहुँच जाएगा।
किताबों के साथ भी वैसा नहीं है? गुनाहों का देवता तीन बार पढ़ी, तीनों बार अलग परिस्थिति में, हर बार भाव अलग थे। सो आखिऱी पेज को पढ़ते वक़्त जो शेष मिला, वह भिन्न था, हर बार।
2017 में पढ़ी थी आषाढ़ का एक दिन, सिफऱ् इसलिए कि एक अच्छा नाटक है, पढऩा चाहिए यानी पढऩे के लिए पढ़ी थी। किताब में संवाद अच्छे लगे, बारिश और परिवेश भी। पात्रों के नाम मोहक महसूस हुए मातुल, निक्षेप, प्रियंगुमंजरी। जैसे मोहन राकेश ने शब्दकोश के सबसे सुंदर शब्द खोजने चाहे। मुझे भी सब आकर्षक लगा। इसी के साथ किताब पढ़ी और रख दी।
पिछले दिनों फिर नजऱ पढ़ी तो लगा दोहरा ली जाए। लेकिन इस बार की छाप उस बरस से अलग थी। किताब बिना बदले ऐसा जादू कैसे कर पाती हैं, मैं सोचती हूँ। मैं सोचती हूँ कि मल्लिका का वह उपन्यास जो उसने कोरे पृष्ठ पर ही लिख दिया, मैंने तब महसूस क्यों न किया। जबकि कालिदास तो उसका उल्लेख सरलता से करते हैं। वह उपन्यास जो कालिदास की तमाम रचनाओं से बड़ा था, जिसे एक नाटक में लेखक ने सरलता से लिख दिया। जिसे मैंने पहली बार में पढ़ा ही न था।
इस बार मैं शायद मल्लिका के घर के प्रकोष्ठ में थी, वहां जहां सिवा उसके अस्तित्व और उस ग्रंथ के कुछ न था। मुझे लगता है कि, किताबें मिस्र के पिरामिड जैसी हैं, मन की स्थिति से खुलते हैं उसके तहख़ाने।
के.जी.कदम
कल शाम घर आया ही था कि एक जानकार ने तुरंत दौडक़र सूचना दी कि शर्मा जी ने ‘क्रियेटा’ खरीद ली है।
मैंने स्कूटर स्टैंड पर लगाया और बोला इस ‘क्रियेटा’ की किस्त मुझे भरनी है क्या?
वे घबराकर बोले कि ‘नहीं तो.. मैं तो ऐसे ही आपको बता रहा था।’
मैंने कहा अच्छा किया.. बता दिया..जाइए .. उधर चौराहे पर चालीस आदमी और है.. जिनको अभी तक पता नहीं है कि शर्मा जी ने क्रियेटा खरीद ली है.. जाइये ‘बता दीजिए सबको’
आपका वहां आधा घंटा और निकल जायेगा।
वे श्रीमान नाराज होकर मुंह फुलाए निकल गये।
मैं अन्दर आने के बाद सोचने लगा कि देश में शायद 90 फीसदी लोग तो सिर्फ सूचना देने के लिए जिन्दा है ‘उधर की खबर पकड़ी.. इधर परोस दो.. बस’
और खबर फिर चटपटी मसालेदार या मजेदार हो तो परोसना और भी जरूरी हो जाता है.. खबर के महत्व अनुसार ये ही लोग चलकर, दौडक़र या घर में घुस घुसकर सूचना देते हैं।
किसी की बेटी ने प्रेम विवाह कर लिया तो पड़ोसी ने दौडक़र दौडक़र हांफते हुए सबको बताया ऐसी खबरें पेट में आफरा बनाती है समय पर उल्टी ना हो तो पेट फटकर मृत्यु भी हो सकती है।
फलानी आंटी के.. पता है, ब्रेस्ट में कैंसर है .. कल ही डॉक्टर ने सैंपल भेजा है। अभी तो साठ साल की भी नहीं है एक लडक़ी तो अभी कुंवारी बैठी है.. हे भगवान।
डॉक्टर ने अभी तो सिर्फ रिपोर्ट भेजी है, पर इन्होंने कर दिया डिक्लियर ले लिया मजा सूचना देने का फिर ऊपर से सहानुभूति का नाटक..
जबकि सच्चाई यह है कि उन आंटी से इनका कोई लेना देना ही नहीं पर ये खबरी जीव है खबर पकड़ी है तो आगे भी पहुंचानी है।
यही हाल सोशल मीडिया पर है.. कोई भी, कैसा भी वीडियो, मैसेज, खबर, वचन, प्रवचन कहीं से मिला नहीं कि करो उल्टी फिर दूसरों के मोबाइल में एक सज्जन रोज मेरे को श्री प्रेमानन्द जी महाराज के वीडियो भेजते है.. शायद इस भाव से कि बेटा मैंने अपने जीवन को तो पूर्णतया प्रेमानन्द जी जैसा बना दिया है। अब ऐसे विडियो छलक रहे है तुम इन्हें देखो। और मेरी तरह हो जाऔ।
वीडियो भेजने वाले सज्जन शातिर आदमी है पर विडियो के साथ ये सच्चाई कभी नहीं दिखाई देती।
कुछ लोग मैसेज इस तरह भेजते है मानो वो मैसेज ‘वरदान’ की तरह सिर्फ उन्हें ही मिले हो और खुद भगवान ने प्रकट होकर उनको कहा हो कि ‘प्यारे पुत्र.. इस दुर्लभ मैसेज को पचास लोगों में, और पचास ग्रुप में पटक वरना मैं तुम्हें उठा लूंगा।
ये सूचना देने की, अनावश्यक मैसेज फॉरवर्ड करने की लत जो है वो आपके व्यक्तित्व का परिचय देती है कि आप कितने निठ्ठल्ले है ।
इस युग में जहां सबके हाथ मोबाइल है। उसको जो भी जरूरत है वो देख सकता है। बीमारी हो, दवा हो, गीता ज्ञान, प्रवचन, इतिहास, विज्ञान, जीवन मृत्यु से लेकर मां बाप की सेवा के फायदेज् सब गूगल पर है।
फिर क्यों अपना समय खराब करना।
और अब तक जीतने ज्ञान के विडियो देखे, मैसेज पढ़े वो कम है क्या उनको ही जी लेगें तो नैया पार लग जायेगी ये परोसने ढूंसने की आदत खत्म होनी चाहिए।
जो भी ये डाकियापंथी करते है तो आज से ही सबक ले ले दुनिया में सब लोग होशियार है सब समझदार है.. आपके ज्ञान की जरूरत नहीं है किसी कोज् हां, अपना कुछ सृजन अनुभव, विचार, या ऐसी जानकारी जो जरूरी हो.. वहां तक ठीक है।
लेकिन ये उल्टियां झेलना और करना.. आप और आपसे जुड़े लोगों के लिए खतरनाक हो सकती है।
.. जै राम जी की।
ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती
कृष्ण कांत
दो दिन पहले चंपत राय ने कहा था कि राम मंदिर रामानंद संप्रदाय का है, शैव, शाक्त और संन्यासियों का नहीं है। इस पर शंकराचार्य का कहना है कि राम मंदिर रामानंद संप्रदाय का है तो चंपत राय वहां क्या कर रहे हैं? राम मंदिर रामानंद संप्रदाय को सौंप देना चाहिए। चंपत राय और अन्य पदाधिकारियों को इस्तीफा सौंप देना चाहिए। इसमें संत समाज को कोई आपत्ति नहीं होगी।
ज्योतिष पीठ से फेसबुक और ट्विटर पर जारी बयान में शंकराचार्य ने कहा कि चारों शंकराचार्य प्राण-प्रतिष्ठा में नहीं जा रहे हैं। कोई राग द्वेष नहीं है। शंकराचार्यों को कोई राग द्वेष नहीं है लेकिन उनका मानना है कि शास्त्र सम्मत विधि का पालन किये बिना मूर्ति स्थापित किया जाना सनातनी जनता के लिये अनिष्टकारक होने के कारण उचित नहीं है। आधे अधूरे मंदिर में भगवान को स्थापित किया जाना न्यायोचित और धर्म सम्मत नहीं है। वे प्रधानमंत्री मोदी के विरोधी नहीं है, बल्कि उनके हितैषी हैं और इसलिए उन्हें सलाह दे रहे हैं कि वे शास्त्र सम्मत कार्य करें। विरोधी तो वे हैं जो उनसे अशास्त्रीय कार्य करवा कर उनके अहित का मार्ग खोल रहे हैं।
उन्होंने कहा कि शंकराचार्यों का अपना कोई भी मंदिर नहीं होता है। वे केवल धर्म व्यवस्था देते हैं। चंपत राय को जानना चाहिए कि शंकराचार्य और रामानन्द सम्प्रदाय के धर्मशास्त्र अलग अलग नहीं होते। उन्होंने सवाल किया कि चंपत राय बताएं कि क्या रामानंद संप्रदाय अधूरे मंदिर में प्रतिष्ठा को शास्त्र सम्मत मानता है?
शंकराचार्य ने चंपत राय के बयान पर कहा कि पहले रामानंद संप्रदाय की उपेक्षा की और अब प्रेम उमड़ रहा है। रामानंद संप्रदाय के प्रति उनकी आस्था को इस बात से समझा जा सकता है कि रामानन्द संप्रदाय निर्मोही अखाड़े के एक सदस्य को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर रखा गया और दूसरे सदस्य को नाम मात्र का अध्यक्ष बनाकर बैठक के पहले दिन ही अभिलेखों में उनके हस्ताक्षर करने के अधिकार को भी छीन लिया गया था, यह सर्वविदित तथ्य है।
शंकराचार्य ने कहा यदि राम मंदिर रामानंद संप्रदाय से जुड़े लोगों का है तो इस मंदिर को प्रतिष्ठा से पूर्व रामानंद संप्रदाय से जुड़े लोगों को दे दिया जाना चाहिए। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी। शंकराचार्य ने कहा कि निर्मोही अखाड़े को पूजा का अधिकार दिए जाने के साथ ही रामानंद संप्रदाय को मंदिर व्यवस्था की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लक्षद्वीप में पर्यटन को बढ़ावा देने की पहल की तो यह सोशल मीडिया पर बहस विवाद के रूप में शुरू हो गई। इसका असर मालदीव से संबंधों पर सीधा पड़ा।
मालदीव में मोहम्मद मुइज़्ज़ू के राष्ट्रपति बनने के बाद से संबंधों में पहले से ही तनातनी थी।
पीएम मोदी को लेकर अपमानजनक टिप्पणी के कारण मालदीव में तीन मंत्रियों का निलंबन भी हुआ।
आज अंग्रेजी अखबार द हिन्दू का एक विश्लेषण पढि़ए।
भारत ने पूरे विवाद पर अपनी चिंता जताई और मालदीव में भारतीय पर्यटकों की बुकिंग्स रद्द होने की खबरें आने लगीं। सोशल मीडिया पर मालदीव का बहिष्कार ट्रेंड करने लगा।
मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने मालदीव की सत्ता में आने से पहले चुनाव में ‘इंडिया आउट’ कैंपेन चलाया था।
हिन्द महासागर में मालदीव भारत का एक अहम समुद्री पड़ोसी देश है। मालदीव की भौगोलिक स्थिति भारत की रणनीति के लिहाज से काफी अहम है।
हिन्द महासागर में चीन की बढ़ती दिलचस्पी के कारण मालदीव की अहमियत भारत के लिए और बढ़ गई है। पिछले कई सालों से भारत और मालदीव के संबंध गहरे रहे हैं।
मालदीव में 2013 से 2018 के बीच अब्दुल्ला यामीन सरकार रही और इस सरकार की करीबी चीन से थी।
यामीन की सरकार के दौरान ही मालदीव चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ड एंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बना था।
लेकिन 2018 में यामीन की सरकार गई और इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के नेतृत्व में मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) की सरकार बनी तो भारत के साथ संबंधों में तेजी से सुधार हुआ।
इब्राहिम सोलिह ने अपनी विदेश नीति में भारत को तवज्जो देते हुए ‘इंडिया फस्र्ट’ की नीति अपनाई थी। सोलिह के नेतृत्व में मालदीव और भारत के बीच कई रक्षा और आर्थिक समझौते हुए।
सोलिह भारत के साथ गहरे संबंधों को लेकर प्रतिबद्ध रहे। लेकिन भारत के साथ बढ़ती करीबी को मालदीव के विपक्ष ने सोलिह सरकार के ख़िलाफ़ लोगों को गोलबंद करने का हथियार बनाया।
विपक्ष ने सोलिह की इंडिया फस्र्ट की नीति के खिलाफ इंडिया आउट कैंपेन चलाया।
सोलिह सरकार के आलोचकों ने कहना शुरू कर दिया कि भारत के साथ संबंधों में संप्रभुता को किनारे रखा जा रहा है और भारत के सैनिकों को मालदीव की जमीन पर रहने की अनुमति दी गई।
जब सोलिह सरकार ने भारत के साथ 2021 में उथुरु थिला फलहु (यूटीएफ) समझौते पर हस्ताक्षर किया तो विपक्ष और हमलावर हो गया। यह एक रक्षा समझौता था, जिसके तहत संयुक्त रूप से नेशनल डिफेंस फोर्स कोस्ट गार्ड हार्पर बनाना था।
मालदीव में पिछले साल राष्ट्रपति चुनाव हुआ और भारत विरोधी अभियान एक लोकप्रिय मुद्दा बन गया।
कुछ ही महीनों में मोहम्मद मुइज़्ज़ू विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में उभरे क्योंकि कई मामलों के कारण पूर्व राष्ट्रपति यामीन चुनाव में हिस्सा नहीं ले सके। मुइज़्ज़ू राष्ट्रपति बनने से पहले मालदीव की राजधानी माले के मेयर थे।
मुइज़्ज़ू ने वोटरों को लुभाने के लिए ‘इंडिया आउट’ कैंपेन का नेतृत्व किया। मुइज़्ज़ू ने यह भी वादा किया था कि वह सत्ता में आएंगे तो मालदीव की जमीन से भारतीय सैनिकों को हटाएंगे और भारत से व्यापारिक रिश्तों को भी संतुलित करेंगे। ऐसा कहा जाता था कि सोलिह सरकार की ट्रेड पॉलिसी भारत की तरफ झुकी हुई थी।
मुइज़्ज़ू ने ख़ुद को चीन परस्त होने के आरोपों को ख़ारिज किया और खुद को मालदीव परस्त कहा। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार मालदीव में भारत या चीन के अलावा किसी भी देश के सैनिकों की मौजूदगी की अनुमति नहीं देगी।
हालांकि चीन के साथ मजबूत संबंधों के संकेत वो दे चुके थे। मुइज़्ज़ू चाहते हैं कि उनकी सरकार को चीन से आर्थिक मदद का फायदा मिले।
पद पर आने के बाद मुइज़्ज़ू के फैसले
पिछले साल सितंबर में 54 फीसदी वोटों के साथ राष्ट्रपति चुनाव में मोहम्मद मुइज़्ज़ू को जीत मिली थी। नवंबर में मुइज़्ज़ू ने द्वीपीय देश मालदीव के आठवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली थी।
मुइज़्ज़ू ने राष्ट्रपति बनते ही संकेत दे दिया कि उनकी विदेश नीति में भारत से दूरी बनाना प्राथमिकता में है। उन्होंने पहला विदेश दौरा तुर्की का किया। मुइज़्ज़ू ने एक परंपरा तोड़ी क्योंकि इससे पहले मालदीव का नया राष्ट्रपति पहला विदेशी दौरा भारत का करता था।
तुर्की के बाद मुइज़्ज़ू यूएई गए और अभी चीन के पाँच दिवसीय दौरे पर हैं। मुइज़्ज़ू ने चीन को अहम साझेदार बताया है और कई महत्वपूर्ण समझौते किए हैं।
मुइज़्ज़ू ने शपथ लेने के बाद राष्ट्र के नाम पहले संबोधन में मालदीव से भारतीय सैनिकों की वापसी की बात दोहराई। उन्होंने कहा कि मुल्क की स्वतंत्रता और संप्रभुता उनकी सरकार के लिए ज़्यादा जरूरी है।
मुइज़्ज़ू के संबोधन को भारत के मीडिया में हाथोंहाथ लिया गया। मुइज़्ज़ू के इस रुख के मायने निकाले गए कि उनकी सरकार इंडिया फस्र्ट की नीति छोड़ चुकी है और इंडिया आउट को लागू करने लगी है। भारत ने मालदीव की नई सरकार से कहा कि वह भारतीय सैनिकों की मौजूदगी को सही संदर्भ में देखे।
मोदी से पहली मुलाकात में उठाया मुद्दा
मुइज़्जू़ ने पिछले साल दिसंबर में यूएई में आयोजित कॉप-28 जलवायु सम्मेलन में पीएम मोदी से मुलाक़ात की थी। उन्होंने इस मुलाक़ात के बाद कहा था कि पीएम मोदी के सामने भारतीय सैनिकों की वापसी की बात उठाई थी और भारतीय प्रधानमंत्री उनकी बातों से सहमत थे। भारत सरकार का कहना है कि इस मुद्दे पर अभी बातचीत जारी है।
मालदीव की नई सरकार भारत के साथ किसी भी रक्षा सहयोग से अब बच रही है। मॉरिशस में पिछले महीने कोलंबो सिक्यॉरिटी कॉन्क्लेव आयोजित हुआ था और इसमें मालदीव ने अपने किसी भी प्रतिनिधि को नहीं भेजा था।
साल 2019 में मालदीव के समुद्री इलाक़े में सर्वे को लेकर भारत से समझौता हुआ था, जिसे मुइज्ज़़ू की सरकार ने खत्म कर दिया। इब्राहिम सोलिह के राष्ट्रपति रहते पीएम मोदी ने मालदीव का दौरा किया था, तभी हाइड्रोग्राफिक सर्वेइंग को लेकर एमओयू हुआ था। इसका मकसद समुद्री सुरक्षा में सहयोग बढ़ाना था। सोलिह सरकार इस समझौते को लेकर भी विपक्ष के निशाने पर रही थी। दिसंबर में मुइज़्ज़ू सरकार ने घोषणा कर दी कि यह समझौता अब आगे नहीं बढ़ेगा।
इन समझौते से अलग होने को मुइज़्ज़ू की चीन से बढ़ती कऱीबी के रूप में देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि मालदीव में जो रक्षा बढ़त भारत को सोलिह सरकार में मिली थी वो अब पूरी तरह से चीन के साथ शिफ़्ट हो गई है।
(द हिन्दू, और बीबीसी )
सच्चिदानंद जोशी
मां को इलाज के लिए अस्पताल में एडमिट कराया। जितना बड़ा अस्पताल उतनी ज्यादा औपचारिकताएं। पता नहीं कितने तो फॉर्म भरे और कितनी जगह हस्ताक्षर किए। उन्हीं फॉर्म में से एक में एक कॉलम था occupation of the patient (मरीज का पेशा )। मैंने उसे भरते समय थोड़ी देर सोचा और फिर बड़े गर्व से लिखा writer (लेखक)।
औपचारिकताएं करवाने वाली महिला ने पूरी जानकारी कंप्यूटर में भरी और रजिस्ट्रेशन नंबर के लिए इंतजार करने लगी। दो-तीन बार परेशान होने के बाद बेहद सकुचाते हुए लाचारी से बोली ‘माफ करें सर, कंप्यूटर writer ले नहीं रहा है, उसका कॉलम ही नहीं है। आप please कोई और पेशा बता दीजिए।’
मैं क्या कहता बस इतना कह पाया ‘ writer की जगह house wife लिख दीजिए।’ उसने खुशी खुशी लिखा और कंप्यूटर ने झट रजिस्ट्रेशन नंबर दे दिया।
मां को जब कमरे में स्थिर कर दिया और उनका इलाज शुरू हो गया तो मन थोड़ा शांत हुआ। वैसे भी अस्पताल , फिर चाहे वह कितना भी अच्छा हो, आपको तनाव में तो डाल ही देता है। मन शांत हुआ तो पुरानी यादों की गलियों में चला गया।
एम ए पास किया था प्रथम श्रेणी में और उन दिनो कॉलेज में लेक्चरर की तदर्थ नियुक्तियां बड़ी आसानी से मिल रही थी। लेकिन कुछ दिनों से लिखने और छपने का भूत सवार हो गया था। अपने खर्चे और शौक के लायक लिख कर और रेडियो पर नाटक करके कमा लेते थे। इलस्ट्रेटेड वीकली में खुशवंत सिंह जी का कॉलम और बल्ब में उनका कैरीकेचर बहुत लुभाता था। लगता था कि ऐसा ही लेखक बनना चाहिए जिसका लिखा पढऩे के लिए लोग इंतजार करें और जाकर पत्रिका खरीदें।
शरद जोशी जी को व्यंग्य लेखन में अपना आदर्श मानता था और उनके जैसा लिखने का प्रयास भी करता था। उनको आदर्श माना तो उनकी सभी बातों का अनुसरण भी करना चाहिए ऐसा विचार भी मन में आया। लेकिन उनकी पत्नी इरफान आंटी, मां की अच्छी मित्र थी और डांटने डपटने का पूरा हक रखती थी। इसलिए उन्होंने डपट कर हिदायत भी दी कि लेखक बनो लेकिन नौकरी धंधा भी साथ-साथ करो क्योंकि लेखन से आजीविका चलाना बहुत कठिन है। लेकिन अपन कहां मानने वाले थे। लेखक बनाने का भूत सवार था।
1981 में एक और घटना हुई ‘सिलसिला’ फिल्म का आना। अमिताभ बच्चन के बहुत बड़े पंखे होने के कारण इस फिल्म का लगभग दस बार तो पारायण कर ही लिया होगा। वो जमाना OTT का नहीं था इसलिए हर बार टिकट लेकर फिल्म देखनी पड़ती थी। उसमेwriter अमित मल्होत्रा का किरदार इतना पसंद आया की पूछिए मत। लेखक बनकर हौज खास में कोठी बनाने की कामयाबी दिल को छू गई। बहुत सारी ‘चांदनिया’ भी सपनों में आने लगी और writer बनने का निश्चय और पक्का होता गया।
इसलिए पिताजी को बड़ी शान से कह दिया ‘नौकरी नहीं करेंगे , लेखक बनेंगे।’
पिताजी भी दिलेर थे बोले ‘बेटा, जैसा मन चाहे करो। बस जब तक ठीक से कमाने न लग जाओ , शादी मत करना। क्योंकि तुम्हारा तो खर्चा मैं अपनी पेंशन से भी उठा लूंगा लेकिन दो लोगो का भारी पड़ जाएगा।’ कुछ दिन बिना नौकरी किए लेखन के दम पर गुजारा करने का प्रयास भी किया और सच कहें तो किया भी। लेकिन उन दिनो की सामाजिक मानसिकता में सिर्फ लेखक बन कर जीना स्वीकारा नहीं गया। अपने अस्तित्व को साबित करने के लिए कुछ तो करना जरूरी ही था। कुछ रिश्तेदारों ने दया की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया तो पिताजी बोले ‘कम से कम इन्हें ये साबित करके दिखाने के लिए कि तुम नाकारा नहीं हो कोई नौकरी कर लो।’ उसके बाद की नौकरी की कहानी एक अलग इतिहास है।
जब मराठी साहित्य पढऩे का शौक था तो पु.ल. देशपांडे जी को बहुत पढ़ा। उनके एक व्यक्ति चित्र ‘अंतू बरवा’ में अंतू उनका परिचय गांव के एक दूसरे सज्जन के कराते है कि ये अपने गांव के दामाद हैं और लेखक हैं। तो वो व्यक्ति भोले पन से पूछता है ‘लेखक तो ठीक है लेकिन करते क्या हैं।’ अंतू बरवा फिर खीज कर उन सज्जन को पु.ल. जी की महानता का बखान करते हैं। मन में संतोष होता था ये पढक़र कि जब पु.ल. जैसे लेखक को ये भुगतना पड़ा तो अपनी क्या बिसात है।
कहानी लेखक के रूप में मां की पहली किताब जरा देर से ही आयी। लेकिन जब एक आई तो उसके बाद लगातार काफी किताबें आई। मेरे मंझले मामा उन दिनों इंग्लैंड में थे और साल में एक बार सबसे मिलने भारत आते थे। जब उन्हें पता चला कि मां की दस बारह किताब आ गई हैं तो वे बड़े खुश हुए। उस साल जब वे भारत आए तो उन्होंने हमारी स्थिति देखी। वो वैसी ही थी जैसी पिछले साल थी। उन्हे घोर निराशा हुई। वे मां से बोले ‘दीदी मुझे तो लगा था कि आप लोग अब लखपति हो गए होगे ( बात 1985 की है जब लाख रुपए बहुत ज्यादा होते थे )। मुझे तो लगा था कि अब जीजाजी भी नौकरी छोड़ तुम्हारे अकाउंट ही सम्हाल रहे होंगे। ’ मां और पिताजी मुस्कुराए। मां बोली ‘घर और मेरे लेखन का सारा भार अभी भी तुम्हारे जीजाजी पर ही है। मैं तो अपनी रॉयल्टी से अपनी पसन्द या घर की जरूरत की एक आध चीज ही ले पाती हूं बस। ये भारत है भाई इंग्लैंड नही।’
आज मां की पचास से अधिक पुस्तकें हैं । इंग्लैंड वाले मामाजी अब इस दुनिया में नहीं है। लेकिन अगर आज वो होते तो भी उन्हें ये जानकर दुख ही होता कि भारत में अपनी पुस्तकों की रॉयल्टी पर जीवन का गुजारा लेखक के लिए आज भी एक स्वप्न ही है जो शायद बहुत कम लोगों का पूरा हो पाता है।
अभी कुछ दिन पहले भारत की जनसंख्या एकत्रित करने वाला फार्म देखने का अवसर आया। उसमे पेशा या व्यवसाय के कॉलम में कलाकार और लेखक सम्मिलित नहीं थे। पता नहीं इस बार की जनसंख्या के फॉर्म में ये विकल्प जुड़े हैं या नहीं। बहरहाल इतना सच कि अस्पताल के पंजीकरण में तो ये विकल्प उपलब्ध नहीं है।और जब तक ये विकल्प उपलब्ध नहीं होते , लेखक को पेशे के रूप में कोई दूसरा विकल्प भरना ही पड़ेगा। मां के लिए तो मैने ‘हाउस वाइफ’ का प्रयोग कर लिया पुरुष लेखक क्या लिखेंगे , ‘हाउस हसबैंड’? जरा सोचिए!
शुमाइला जाफरी
डॉक्टर सवीरा प्रकाश पाकिस्तान के उत्तर पूर्वी ख़ैबर पख़्तूनख्वा प्रांत में बूनेर की सामान्य सीट से चुनाव लडऩे वाली पहली हिंदू महिला हैं।
बूनेर एक पश्तून बहुल क़स्बा है और विभाजन से पहले यह स्वात की रियासत का हिस्सा रहा है।
बूनेर जि़ला पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के उत्तर में कऱीब 100 किलोमीटर दूर है।
साल 2009 में तहरीक-ए-तालिबान, जिसने पास की स्वात घाटी को अपने क़ब्ज़े में ले लिया था, उसने इस्लामिक क़ानून लागू करने के बहाने बूनेर में अपना विस्तार करने की कोशिश की।
उन्होंने प्रमुख जगहों पर चेक पोस्ट स्थापित किए और पहाडिय़ों के ऊपर कब्ज़ा कर लिया। बाद में सैन्य अभियान के द्वारा उन्हें वहाँ से खदेड़ा गया।
सवीरा बताती हैं, ‘पहले बूनेर को ऑपरेशन ब्लैक थंडरस्टॉर्म के लिए जाना जाता था। अब यह अन्य कारणों, ख़ासकर सकारात्मक वजहों से चर्चा में है। एक सामान्य सीट पर उम्मीदवार के रूप में मेरा नामांकन ऐसी ख़बरों में से एक है। मुझे ख़ुशी होती है कि मेरी वजह से अपना क़स्बा चर्चा में है।’
ये बताते हुए उनकी आंखों में चमक दिखती है।
स्वात, बूनेर, निचला दीर और शांगला जि़लों को तहरीक-ए-तालिबान से छुड़ाने के लिए पाकिस्तानी सेना, एयर फ़ोर्स और नेवी द्वारा संयुक्त रूप से अभियान चलाया गया था, जिसका नाम ब्लैक थंडरस्टॉर्म रखा गया।
सवीरा प्रकाश के पिता एक डॉक्टर हैं और समाजसेवी हैं। वो 30 सालों से अधिक समय से पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सदस्य हैं।
सवीरा कहती हैं कि सामाजिक कार्यों की प्रेरणा उन्हें उनके पिता से मिली है। सवीरा ने अभी अभी अपना काम ख़त्म करके पीपीपी के टिकट पर प्रांतीय विधानसभा सीट के लिए कागज़़ात जमा कराए हैं।
वो कहती हैं, ‘जब मैंने राजनीति में जाने का फ़ैसला किया तो उसके पीछे मानवीय पहलू अधिक अहम थे। डॉक्टरी की पढ़ाई के पीछे भी यही प्रेरणा थी। मैं अपने लोगों की मदद करना चाहती थी लेकिन घर के कामों के दौरान मुझे लगा कि मैं बहुत कुछ बदल नहीं सकती। मैं मरीज़ों का इलाज कर सकती थी लेकिन मैं और अधिक करना चाहती थी। मैं सिस्टम बदलना चाहती थी। इसलिए मैंने राजनीति में जाने का तय किया।’
सवीरा बहुत सारे मुद्दों के लिए काम करना चाहती हैं जैसे, स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण लेकिन उन्हें महिलाओं के सशक्तीकरण की ज़रूरत अधिक महसूस होती है।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘मेरे इलाके में आम तौर पर शिक्षा एक मुद्दा है लेकिन लड़कियों के लिए बहुत कम मौक़े हैं। बहुत सारे लोग अपने बच्चों की शिक्षा का भार नहीं वहन कर सकते, इसलिए वे अपने लडक़ों को मदरसा भेजते हैं, जहां शिक्षा नि:शुल्क है, लेकिन लड़कियां घर पर भी रह जाएंगी। कुछ मामलों में उन्हें देश के अन्य हिस्सों में घरेलू नौकरानी के रूप में भेज दिया जाता है। मैं इन चीज़ों को ठीक करना चाहती हूं और केवल डॉक्टरी पेशे में रह कर इस बारे में कुछ नहीं कर सकती।’
बूनेर के बारे में सवीरा ने कहा कि यह एक संकीर्ण जि़ला है, जहाँ महिलाओं को अपने घर से बिना पूरी तरह शरीर ढंके या परिवार के किसी सदस्य के बिना साथ के बाहर जाने की इजाज़त नहीं है।
पार्टी लाइन से अलग मिल रहा समर्थन
ये पूछे जाने पर कि ऐसे माहौल में वो अपना चुनावी अभियान कैसे चलाएंगी, डॉक्टर सवीरा कहती हैं कि शुरू में वो डरी हुई थीं लेकिन नामांकन भरने के बाद मिली प्रतिक्रियाओं से अब उनका सारा डर ख़त्म हो गया है।
वो कहती हैं, ‘बूनेर से कोई महिला राजनीतिज्ञ नहीं है। कुछ इलाक़ों में तो, पहले महिलाओं को वोट देने की भी इजाज़त नहीं थी। जब मैंने पहली बार नुक्कड़ सभा की, मैं बहुत डरी हुई थी। वहां भाषण देने वाले कुछ पुरुष भी थे, लेकिन मुझे सबसे अधिक तालियां मिलीं। जब मैंने अपना भाषण ख़त्म किया तो लोग एक मिनट तक ताली बजाते रहे।’
सवीरा के अनुसार, केवल अपने परिवार और समर्थकों से ही उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है।
‘अपनी राजनीतिक लाइन से ऊपर उठकर चारों ओर से लोगों ने अपने पूरे दिल से मेरा समर्थन किया। उन्होंने मुझे ‘बूनेर की बेटी’ और ‘बूनेर का गर्व’ नाम दिया।’
‘अलग अलग दलों के लोगों ने मेरे पिता से मिलकर बताया कि वे चुनाव में मेरे खड़े होने को लेकर कितने ख़ुश हैं और आने वाले चुनावों में मुझे वोट देने का वादा किया।’
मानसिकता में बदलाव
सवीरा कहती हैं, ‘लोगों की मानसिकता बदल रही है। लोगों को अब अहसास होने लगा है कि युवा, महिलाएं और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को मुख्यधारा में लाने और शामिल करने ज़रूरत है। और मैं इन मानदंडों पर खरी उतरती हूं। हर कोई बिना भेदभाव के मेरा समर्थन कर रहा है।’
सवीरा कहती हैं कि एक हिंदू के तौर पर उन्हें कभी भेदभाव नहीं झेलना पड़ा और अपने धार्मिक विश्वासों के कारण न ही कभी उन्हें ग़लत व्यवहार का निशाना बनाया गया।
वो कहती हैं, ‘हम पश्तून हैं। हमारी अपनी परम्पराएं और रीति रिवाज हैं और वे बहुत समावेशी हैं। हिंदू होने की वजह से कभी भेदभाव नहीं हुआ और न तो हमारे पूर्वज ने विभाजन के बाद भारत पलायन करने के बारे में सोचा। हम हमारा घर है, हम यहीं के रहने वाले हैं।’ (bbc.com)
डॉ. आर.के. पालीवाल
कांग्रेस के प्रथम परिवार में अभी तक प्रियंका गांधी का नाम ही आर्थिक घोटाले के आरोपों से बचा हुआ था। हाल ही में प्रियंका गांधी का नाम भी पति रॉबर्ट वाड्रा के विवादित जायदाद मामले में चार्जशीट में शामिल होने के बाद अब नेहरू/ गांधी परिवार के राजनीति में सक्रिय तीनों सदस्य सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी किसी न किसी आपराधिक मामले में जांच एजेंसियों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। केंद्रीय जांच एजेंसियों के चक्रव्यूह में फंसने वाले बड़े नेता सिर्फ प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के ही नहीं हैं। जांच एजेंसियों के निरंतर व्यापक होते चक्रव्यूह में इण्डिया गठबंधन में शामिल कई विपक्षी दलों के नेता या तो बुरी तरह फंस चुके हैं या निकट भविष्य में फंसने की कगार पर हैं। आम आदमी पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस और शिव सेना आदि कई राजनीतिक दल के बड़े नेता केंद्रीय जांच एजेंसियों के निशाने पर सबसे ऊपर हैं।
इन दिनों सबसे ज्यादा मुसीबत दिल्ली और झारखंड के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन के सिर पर है जो प्रवर्तन निदेशालय के कई कई समन की तामील के बावजूद प्रवर्तन निदेशालय के कार्यालय में उपस्थित नहीं हो रहे हैं। उनके दल के लोग और वे खुद भी बार-बार यह आरोप लगा रहे हैं कि सत्ता पक्ष उन्हें विरोध की राजनीति को कुचलने के लिए षडय़ंत्र रचकर लोकसभा चुनाव से पहले जेल में बंद करना चाहता है ताकि बड़े नेता भाजपा के विरोध में चुनाव प्रचार न कर सकें। इन लोगों के आरोपों को पूरा सच तो नहीं माना जा सकता लेकिन इनमें अर्ध सत्य जरूर दिखता है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के किसी मुख्यमंत्री तो दूर किसी पूर्व मुख्यमंत्री या मंत्रियों के यहां भी केंद्रीय जांच एजेंसियों ने कोई नोटिस जारी नहीं किया है।जिन मुख्यमंत्रियों की छवि थोडी बेहतर है और जिनका राष्ट्रीय राजनीतिक कद काफी बड़ा है उनके मंत्रियों और परिजनों पर तड़ातड़ कार्यवाही हो रही हैं।
यह कहना उचित नहीं है कि जांच एजेंसियों की कार्यवाही पूरी तरह हवाई हैं। यह जरूर कह सकते हैं कि अधिकांश कार्यवाही चुनाव के पहले विरोधियों पर दबाव बढ़ाने के उद्देश्य से हो रही हैं। जिनके खिलाफ जांच एजेंसी कार्यवाही कर रही हैं निश्चित रूप से उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूत हैं इसलिए जांच एजेंसियों पर केवल यही आरोप लगाया जा सकता है कि वे समभाव से कार्यवाही नहीं कर रही। भाजपा के वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों पर भी विगत में संगीन आरोप लगते रहे हैं लेकिन उनके खिलाफ कोई जांच शुरू नहीं हुई। यहां तक कि सरकार से नजदीकी रखने वाले औद्योगिक घरानों यथा अडानी समूह पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गम्भीर आरोपों के बावजूद त्वरित जांच नहीं होना न केवल जांच एजेंसियों की कोताही दर्शाता है अपितु यह चिंता का विषय भी है। मध्य प्रदेश में विधान सभा चुनावों के दौरान तत्कालीन केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के पुत्र का भ्रष्टाचार का कथित वीडियो काफी चर्चित हुआ था लेकिन उस पर केंद्रीय जांच एजेंसियों की कोई कार्यवाही सामने नहीं आई। इसी तरह भाजपा के लंबे शासन के दौरान भ्रष्टाचार के बहुत से मामले चर्चित हुए लेकिन किसी मामले में केंद्रीय जांच एजेंसियों की तरफ से कोई कार्यवाही नहीं हुई। यहां तक कि असम के मुख्यमंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के खिलाफ खुद भाजपा संगीन आरोप लगाती थी लेकिन भाजपा से हाथ मिलाने के बाद उन पर कार्यवाही तो दूर किसी एजेंसी ने जांच के लिए समन तक नहीं भेजा। केंद्रीय जांच एजेंसियों का सत्ताधारी दल के विरोधियों के खिलाफ इकतरफा कार्यवाही करना नैतिक और संवैधानिक दृष्टि से बेहद गलत है। लोकतंत्र में जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर आंच आना सरकार की छवि को धूमिल करता है।
दिलीप कुमार
प्रत्येक पिता अपनी बेटियों के लिए खत लिखता है, ऐसे ही पण्डित नेहरू जी, अर्नेस्तो चे ग्वेरा, एवं महान सर चार्ली चैप्लिन आदि तीनों ने भी कभी अपने बच्चों को ख़त लिखे। इन तीनों के लिखे गए पत्र पूरी दुनिया के लिए मनुष्यता का पाठ बन गए। इन तीनों के पत्रों को लगभग पूरी दुनिया के गहन पढऩे वालों ने पढ़ा, समझा। इनके द्वारा लिखे गए ख़त सभी को पढऩा चाहिए। सर चार्ली चैपलिन नाम को दुनिया में जितने भी लोग जानते हैं, उनके सम्मान में झुक जाते हैं।
महान सर चार्ली चैपलिन जिनके सामने विश्व सिनेमा पैदा हुआ। जो गरीबी, भुखमरी, युद्ध की विभीषिका पर श्वेत श्याम युग में मूक फि़ल्मों के ज़रिए गरीब तंगहाल लोगों के चेहरे पर मुस्कान ले आते थे , लेकिन जब रंगीन फिल्म बना कर मुँह खोला तो दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह के सीने पर चढक़र उसके मुँह पर कालिख पोत दी। महान सर चार्ली चैपलिन जिन्होंने अपने आंसुओ को बेचकर दुनिया के लिए कुछ मुस्कान खरीदी थी। जब जि़न्दगी के आखिरी पड़ाव में थे तब भी वो दुनिया को खूबसूरत देखने का ख्वाब देख रहे थे। जहां तक उनकी आवाज पहुंच सकती थी, उन्होंने पहुंचाने की कोशिश की।।। इसी कोशिश में उन्होंने अपनी डांसर बेटी को ख़त लिखा। जो बाद में समस्त विश्व के लिए मानवता का सबक बन गया।
महान सर चार्ली चैपलिन लिखते हैं। ‘- मेरी प्रिय बेटी मैं हमेशा सत्ता के विरुद्ध खड़ा रहा, और हमेशा अपनी कला के ज़रिए उसको ताक पर रखकर जरूरतमंद लोगों के लिए हमेशा खड़ा रहा। बेटी तुम भी गऱीबी को जानो, उसके कारण को ढूंढो मुफलिसी को महसूस करो, एक उत्तम आचरण इंसान बनो, इंसानियत के लिए खड़ी रहो, जीवन में मनुष्यता के लिए सब कुछ त्यागना पड़े तो संकोच मत करना। मैं तमाशा दिखाने वाला, किसी के हाथ का खिलौना नहीं बना, पूरी दुनिया को हँसाकर मैं खुद रोया हूं, मैंने कभी किसी को अपने आंसू नहीं दिखाए। मैं बारिश का इंतज़ार करता था, तब रोया करता था कि कोई मेरे आँसुओं को देखकर मुझ पर दया न करने लगे। मैं अपने आंसुओ को बेचकर दुनिया के लिए कुछ मुस्कान खरीद लाता था। तुम बस हँसती रहना, हमेशा खुश रहना।
मेरी प्यारी बेटी रात्रि का समय है, क्रिसमस की हसीन रात है। मेरे अन्दर एवं बाहर की सभी लड़ाइयां खत्म हो चुकी हैं। तुम्हारे भाई-बहिन भी नींद की गोद में हैं, तुम्हारी माँ भी सो चुकी है, केवल और केवल मैं जग रहा हूं, पता नहीं कब अंतिम नींद की गोद में मैं चला जाऊँ। कमरे में हल्की सी रोशनी है, तुम अभी मुझसे कितनी दूर हो, लेकिन मैं तुम्हें देख सकता हूँ। जिस दिन मैं तुम्हें नहीं देख पाऊँगा समझूँगा मैं अंधा हो गया।। तुम्हारी तस्वीर मेरे सामने टेबल पर रखी हुई है, और एक तुम्हारी तस्वीर मेरे दिल में भी सजी हुई है, फिर भी मुझे पता है तुम ख्वाबों के शहर पेरिस में हो जेम्स एलिसेस के उस खूबसूरत भव्य मंच पर डांस कर रही हो। इस सुनसान रात में मैं तुम्हारे पैरों की आहट सुन सकता हूँ। सर्द हवाओं की इस ऋतु में आकाश में चमकते तारो की चमक मैं तुम्हारी आँखों में देख सकता हूँ, ऐसा रोमांचक नृत्य, तुम खुद एक सितारा बनो, अनवरत चमकती रहो। बेटी ध्यान रखना इस चमक में कई बार हमारी खुद की चमक गायब हो जाती है। जब कभी तुम्हें अपने चाहने वालों की तालियों की गूँज, उनके फेंके गए फूलों की खुशबू तुम्हारे सिर चढक़र बोलने लगे तो मंच के कोने पर तुम देखना मैं न होकर भी खड़ा दिखाई दे रहा होऊँगा, तब तुम मेरा यह खत पढऩा और अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनना।
मैं तुम्हारा पिता चार्ली। ‘चार्ली चैपलिन’, तुम्हें याद है? जब तुम छोटी सी बच्ची थीं, तब मैं तुम्हें अपनी गोद में सुलाकर या कभी-कभार तुम्हारे सिरहाने बैठकर सुन्दर-सुन्दर कहानियां सुनाया करता था। मैं तुम्हारे ख्वाबों का गवाह हूं, मैंने तुम्हारा भविष्य भी देखा है। मंच पर नाचती एक लडक़ी जैसे कोई परी आसमान पर उड़ रही है। प्रशंसनीय शब्दों तालियों के बीच ऐसी प्रशंसा मैंने सुना है। उस लडक़ी को देखो वो कोई और नहीं एक बूढ़े कॉमेडियन की बेटी है, जिसका नाम चार्ली चैपलिन था, हां मैं चार्ली चैपलिन हूं। अब इस मंच को अपने कांधे पर तुमने उठा लिया है, बहुत मुश्किल है, लेकिन तुम अब इस रास्ते पर हो। मेरी बेटी मैं फटे हुए कपड़े पहनकर, भूखे पेट भूख भी ऐसी की पेट और पीठ का फर्क ही खत्म हो जाए, लेकिन तुम बहुत महंगे रेशमी कपड़े पहनकर बड़े-बड़े मंचों पर प्रस्तुति दे रही हो।
ऐसी तालियां, प्रशंसा तुम्हें सातवें आसमान पर ले जाएगी, लेकिन तुम खूब उड़ो मेरी प्यारी बेटी, लेकिन ध्यान रखना अपने पांव कभी जमीन से उठने मत देना। अपने पैर जमीन पर ही रखना। तुम्हें लोगों को करीब से देखना चाहिए, तरह-तरह की जिन्दगी लोग जी रहे हैं। सडक़ों नुक्कड़, बाजार, में नचाते हुए गरीबों को देखो उन्हें महसूस करो, जो हड्डियां जमा देने वाली सर्दी में फटे कपड़े पहने हुए, भूखे पेट दो वक़्त की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। कभी मैं भी ऐसे ही सडक़ों पर नाचता था। उन रूहानी रातों में जब मैं तुम्हें कहानियां सुनाया करता था, और तुम सो जाया करती थीं। मैं तुम्हें देखता रहता था, और खुद से पूछता था ‘चार्ली क्या यह बच्ची तुम्हें कभी समझ पाएगी? बेटी तुम मुझे नहीं जानती। मैंने तुम्हें जाने कितनी सुन्दर-सुन्दर कहानियां सुनाई हैं। हाँ लेकिन अपनी कहानी नहीं सुनाई, यह कहानी भी बहुत दिलचस्प है।
यह कहानी एक गरीब कॉमेडियन की कहानी है। जो लन्दन की गंदी बस्तियों में नाच गाकर अपने लिए दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करता था। यह मेरी कहानी है। मैं जानता हूं भूख-प्यास किसे कहते हैं! मैंने भोगा है, जब सिर पर छत नहीं होती और कडक़ड़ाती ठंड हवा में सर्द हवाओं के साथ बारिश का दंश भी झेला है। शाबाशी में उछाले गए सिक्कों की खनक के बीच मेरा आत्मसम्मान सडक़ों पर लोगों के बूटों तले रौंद डाला जाता था। फिर भी मैं अपनी जिन्दगी की जद्दोजहद को छोड़ नहीं सका। बेटी तुम्हारे नाम के साथ मेरा नाम भी आता है, और मैंने इसी नाम के साथ लगभग 5 दशक दुनिया भर का मनोरंजन किया है, लोगों को हंसाया है, लेकिन मैं खुद पूरे जीवन रोता रहा हूं। जब तुम मंच से नीचे आना तो तुम चाहे अपने अमीर प्रशंसकों को भूल जाना, लेकिन जो तुम्हें उस मंच से नीचे जाओगी तो तुम्हें एक गरीब मिलेगा, बस देखने की दरकार होना चाहिए, जो तुम्हें अपनी टैक्सी में होटेल या घर छोड़े उसे कभी मत भूलना, उससे पूछना घर में उसकी पत्नी कैसी है? उसके बच्चे कैसे हैं? क्या उनके पास खिलौने हैं? क्या तुम्हारे बच्चों के खाने के लिए रोटी है? उन बच्चों के लिए उस गरीब के जेब में पैसे डालना मत भूलना। मैंने अपनी जिन्दगी की कमाई तुम्हारे नाम पर बैंक में जमा करा दिया है, बहुत सोच समझकर खर्च करना। कभी-कभार ट्रांसपोर्ट बसों में सफर करना, कभी पैदल चलना, लोगों को करीब से देखना क्यों कि सडक़ों पर चल रहे हर किरदार की एक कहानी होती है। गरीबों, बच्चों, विधवाओं के प्रति सहानुभूति रखना। गरीबों की बस्तियों में जाना बच्चों को चॉकलेट, खिलौने लेकर जाना फिर तुम उन बच्चों की खुशियां देखना, उसे ही गॉड कहा जाता है। दिन में एक बार ज़रूर सोचना कि तुम इनमें से कोई एक हो। हाँ तुम इनमें से ही एक की बेटी हो।
किसी भी कलाकार को कला गॉड उपहार स्वरूप देता है, लेकिन कलाकार को उसकी महँगी कीमत चुकानी पड़ती है। बेटी जिस दिन तुम्हें लगे कि तुम अपने चाहने वालों से ज्यादा बड़ी हो गई हो तो तुम उसी दिन उस मंच को छोड़ देना। एक टैक्सी लेकर पेरिस की गलियों में देखना एक से बढक़र एक नाचने वाली, बहुत खूबसूरत नाचने वाली मिल जाएंगी। तुमसे कहीं ज्यादा प्रभावशाली, फर्क सिर्फ इतना होगा कि उनके पास महंगे रेशमी वस्त्र, एवं यह भव्य मंच नहीं होगा। उनकी सर्चलाइट चंद्रमा और सूरज हैं। जब तुम्हें यह आभास हो जाए तब उसे अपनी जगह ले आना। इस दुनिया में बहुत से लोग हमसे बेहतर होते हैं, बड़े दिल से स्वीकार कर लेना। ऐसे ही पूरी जि़ंदगी निरंतर सीखते चलना, कोई भी कलाकार परिपूर्ण नहीं होता। बेटी मैं बूढ़ा हो गया हूं, मैं इस दुनिया से चला जाऊँगा। तुम बहुत बाद तक इस दुनिया में रहोगी, मैं नहीं चाहता कि तुम गरीबी झेलो। इस ख़त के साथ मैं चेकबुक भी भेज रहा हूं। ताकि तुम खर्च कर सको, लेकिन दो सिक्के खर्च करने के बाद सोचना तीसरा सिक्का तुम्हारा नहीं है। यह सिक्का किसी जरूरतमंद का है, जिसे उसकी बेहद आवश्यकता है। मैं पैसे की बात इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मैं इस क्रूर दौलत की ताकत मैं जानता हू।
आगे यह भी होगा। हो सकता है, कोई प्रिंस तुम्हारा दीवाना हो जाए, लेकिन याद रखना। अपने दिल का सौदा बाहरी चमक देखकर न करना। याद रखो सबसे बड़ा हीरा तो सूरज है, जो सभी के लिए चमकता है। तुम भी सूरज तरह चमकना। हाँ जब तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए तो उसे पूरी शिद्दत से प्यार करना। मैं कलाकार का जीवन जानता हूं, बहुत कठिन होता है, तुम्हारा बदन रेशमी वस्त्रों में ढंका रहता है, लेकिन कला धीरे-धीरे अपना मुकाम बना लेती है।। मैं बुजुर्ग हो गया हूं। हो सकता है, इसलिए तुम्हें मेरी बातें विचित्र लगें, लेकिन तुम्हारे शरीर का हकदार वही हो सकता है, जो तुम्हारा और तुम्हारी आत्मा की सच्चाई का सम्मान करे। मैं यह भी जानता हूं, बच्चों और पिता के बीच एक अजीब सा तनाव रहता है। मुझे ज्यादा आज्ञाकारी बच्चे पसंद नहीं है। गॉड से प्रार्थना कर रहा हूं, कि इस क्रिसमस की रात में कोई मोजजा हो जाए, और तुम मेरे विचारों को समझ पाओ। बेटी अब मैं बूढ़ा हो गया हूं, देर सबेर तुम्हें काले कपड़े में लिपटे चार्ली की कब्र पर आना ही होगा। मैं तुम्हें ज्यादा परेशान होते नहीं देखना चाहता, लेकिन कभी-कभार खुद को आईने में देखना तुम्हें खुद में मेरे चेहरे का अक्स दिखेगा। मेरी धमनियों का खून जम जाएगा, लेकिन तुम्हारी शिराओं में दौड़ता खून मेरी याद दिलाएगा तो यह सोचना तुम्हारा पिता कोई महान नहीं है, कोई जीनियस नहीं है, तुम्हारा पिता चार्ली चैपलिन एक उत्तम आचरण का इंसान बनने की जद्दोजहद में ही पूरी जिंदगी बसर कर दी। याद रखना जि़न्दगी में आखऱि उद्देश्य एक बेहतर इंसान बनना ही है। अलविदा
फिर आई 25 दिसंबर 1977 क्रिसमस की वो रात जब यह मूक आवाज जो दर्द में भी उफ़ न करती थी। वो चार्ली चैपलिन जो बारिश में रोते थे।। ताकि कोई उनके आंसुओं को देख न सके। क्रिसमस की रात चार्ली चैपलिन अनन्त यात्रा में चले गए, और दुनिया को दे गए अपने आचरण की सीख। आदमी का उद्देश्य एक बेहतर इंसान बनना ही होना चाहिए। इतने महान इंसान की कब्र से लोगों ने उनकी लाश तक को नहीं बक्शा और कंकाल को खोद ले गए। बाद में फिर से उन्हें दफनाया गया। महान सर चार्ली चैपलिन जैसे फरिश्ते आते हैं और दुनिया को गुलजार कर जाते हैं।