विचार/लेख
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश के सिर्फ पांच राज्यों में आजकल चुनाव हो रहे हैं। ये पांच राज्य न तो सबसे बड़े हैं और न ही सबसे अधिक संपन्न लेकिन इनमें इतना भयंकर भ्रष्टाचार चल रहा है, जितना कि हमारे अखिल भारतीय चुनावों में भी नहीं देखा जाता। अभी तक लगभग 1000 करोड़ रु. की चीजें पकड़ी गई हैं, जो मतदाताओं को बांटी जानी थीं। इनमें नकदी के अलावा शराब, गांजा-अफीम, कपड़े, बर्तन आदि कई चीजें हैं।
गरीब मतदाताओं को फिसलाने के लिए जो भी ठीक लगता है, उम्मीदवार लोग वही बांटने लगते हैं। ये लालच तब ब्रह्मास्त्र की तरह काम देता है, जब विचारधारा, सिद्धांत, जातिवाद और संप्रदायवाद आदि के सारे पैंतरे नाकाम हो जाते हैं। कौनसी पार्टी है, जो यह दावा कर सके कि वह इन पैंतरों का इस्तेमाल नहीं करती ? बल्कि, कभी-कभी उल्टा होता है। कई उम्मीदवार तो अपने मतदाताओं को रिश्वत नहीं देना चाहते हैं लेकिन उनकी पार्टियां उनके लिए इतना धन जुटा देती हैं कि वे रिश्वत का खेल आसानी से खेल सकें।
पार्टियों के चुनाव खर्च पर कोई सीमा नहीं है। हमारा चुनाव आयोग अपनी प्रशंसा में चुनावी भ्रष्टाचार के आंकड़े तो प्रचारित कर देता है लेकिन यह नहीं बताता कि कौनसी पार्टी के कौनसे उम्मीदवार के चुनाव-क्षेत्र में उसने किसको पकड़ा है। जो आंकड़े उसने प्रचारित किए हैं, उनमें तमिलनाडु सबसे आगे है। अकेले तमिलनाडु में 446 करोड़ का माल पकड़ा गया है। बंगाल में 300 करोड़, असम में 122 करोड़, केरल में 84 करोड़ और पुदुचेरी में 36 करोड़ का माल पकड़ा गया है। कोई राज्य भी नहीं बचा।
याने चुनावी भ्रष्टाचार सर्वव्यापक है। 2016 के चुनावों के मुकाबले इन विधानसभाओं के चुनाव में भ्रष्टाचार अबकी बार लगभग पांच गुना बढ़ गया है। भ्रष्टाचार की इस बढ़ोतरी के लिए किसको जिम्मेदार ठहराया जाए? क्या नेताओं और पार्टियों के पास इतना ज्यादा पैसा इन पांच वर्षों में इकट्ठा हो गया है कि वे लोगों को खुले हाथ लुटा रहे हैं ? उनके पास ये पैसा कहां से आया ? शुद्ध भ्रष्टाचार से! अफसरों के जरिए वे पांच साल तक जो रिश्वतें खाते रहते हैं, उसे खर्च करने का यही समय होता है।
हमारी चुनाव-पद्धति ही राजनीतिक भ्रष्टाचार की जड़ है। इसे सुधारे बिना भारत से भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं हो सकता। चुनाव आयोग को यह अधिकार क्यों नहीं दिया जाता कि भ्रष्टाचारी व्यक्ति और भ्रष्टाचारी राजनीतिक दल को वह दंडित कर सके ? उन्हें जेल भेज सके और उन पर जुर्माना ठोक सके। जब तक हमारे राजनीतिज्ञों की व्यक्तिगत और पारिवारिक संपन्नता पर कड़ा प्रतिबंध नहीं लगेगा, हमारे लोकतंत्र को भ्रष्टाचार-मुक्त नहीं किया जा सकेगा। आजकल की राजनीति का लक्ष्य सेवा नहीं, मेवा है। इसीलिए चुनाव जनता की सेवा करके नहीं, उसे मेवा बांटकर जीतने की कोशिश की जाती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मन: स्थिति का केवल गुरुदेव ही आंकलन कर सकते थे। उनके हृदय सिंधु में उमड़ रहे ज्वार-भाटे को उनके अतिरिक्त भला और कौन समझ सकता था।
कभी-कभी जीवन में ऐसी भी विपदा की घड़ी आ जाती है कि हमारा विवेक, हमारा ज्ञान और हमारा अनुभव धरा का धरा रह जाता है, हमारी आत्मा की नाव अंधेरी रात में किसी गहरी नदी में भटकने लगती है, दूर-दूर तक कोई किनारा हमें दिखाई नहीं देता है। गुरुदेव की स्थिति कुछ-कुछ ऐसी ही है।
गुरुदेव अतीत के गलियारों में भटक रहे हैं। जीवन और समय में बहुत पीछे लौटकर मृणालिनी देवी की स्मृति के गहरे सागर में धीरे-धीरे उतर रहें हैं। जैसे यह सब कुछ दिनों पहले की ही बात हो।
जब खुलना जिले के फूलतला ग्राम के बेनी माधब रायचौधुरी के घर जन्म लेने वाली भवतारिणी देवी उसके जीवन के निविड भुवन में चिरसंगिनी के रूप में उनकी पुश्तैनी हवेली जोड़ासांको आई थी।
गुरुदेव स्मरण कर रहे हैं तब भवतारिणी देवी की उम्र ही कितनी थी नौ वर्ष, नौ माह। स्वयं गुरुदेव उस समय 22 वर्ष 7 माह के थे, जब 9 दिसंबर सन 1883 को उनका विवाह हुआ था।
भवतारिणी देवी को उन्होंने स्वयं अपने लिए पसंद किया था। भवतारिणी देवी का श्यामल वर्ण उन्हें भा गया था। उनकी आंखें उसे सामने देख कर जैसे सब कुछ भूल गई थी। ‘जे देखाय से आमार चोख भूलियेछे।’
Rabindranath Tagore’s son Rathindranath and daughters Madhurilata Devi (Bela), Mira Devi and Renuka Devi.
Image crdit: Ministry of Culture. Government of India
दोनों बड़ी भाभियां ज्ञानानंदिनी देवी, कादंबरी देवी और ज्येष्ठ भ्राता ज्योतिन्द्रनाथ के साथ वधु की खोज में निकले रवींद्रनाथ ठाकुर को भवतारिणी देवी भा गई थी। उन्हें लगा जिसकी वर्षों से खोज थी वह मिल गई है।
कच्चे धान की श्यामल आभा से दीप्त नौ वर्षीय भवतारिणी देवी। ‘ओरे कची धानेर चिकन आभा।’
गुरुदेव के मन में यह छवि सदैव के लिए अंकित हो गई थी। भवतारिणी देवी को कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने विवाह के पश्चात एक नया नाम दिया मृणालिनी। गुरुदेव की वह सबसे सुंदर (बांग्ला में कहें तो दारुण सुंदर) एक कविता ही थी मृणालिनी। अब वह भवतारिणी नहीं गुरुदेव की सबसे सुंदर कविता मृणालिनी हो गई थी।
भवतारिणी तो वह तब थी, जब वह फुलतला गांव में थी, जब कविगुरु उसके जीवन में सौरभ की भांति महकने और अपनी सुगंध लुटाने के लिए नहीं आए थे। गुरुदेव ने बहुत सोच-समझकर मृणालिनी नाम रखा था। बुद्धिमती और कमल दोनों ही अर्थ मृणालिनी के होते हैं।
कमल के फूल के सदृश्य सुंदर और विदुषी थी भवतारिणी, इसलिए मृणालिनी नाम ही उनके अनुरूप हो सकता था।
उसी मृणालिनी के साथ उन्होंने छल किया था वह भी मात्र पच्चीस रुपए के लिए। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर इसलिए क्लांत और विचलित थे। गहन दुख के भार में डूबे हुए। गहन शोक में लीन।
बार-बार अतीत और वर्तमान की पगडंडियों में भटक रहे थे। मात्र उनतीस वर्ष की अल्पायु में 23 नवंबर सन 1902 में उसकी सबसे सुंदर कविता मृणालिनी उससे कोसों दूर चली गई थी । गुरुदेव के इस मर्मांतक वेदना को भला कौन समझ सकता था। जो समझ सकती थी वही उसे छोडक़र सदा के लिए कहीं खो गई थी।
जोड़ासांको के जिस घर ने उसे एक कुलवधू के रूप में देखा और अंगीकार किया था उसी घर के आंगन से वह विदा लेकर चली गई थी ।
जीवन का यह विचित्र खेल है। जीवन-मृत्यु , नूतन-पुरातन, शेष-अशेष ,पृथ्वी पर शुभागमन और विदाई न जाने इस सृष्टि में कब से चला आ रहा है।
सबकी यही नियति भी है, पर असमय घटित इस वेदना को क्या कहा जाए, गुरुदेव समझ नहीं पा रहे हैं।
उस पर पच्चीस रुपए के लिए किए गए छल को याद कर वे अपने ही प्रति घृणा से बार बार भर उठते हैं।
‘फांकि ’ कविता में गुरुदेव लिखते हैं-
‘बीनू जे सेई दू मासटीर निये गेछे आपन साथे।
जानलो ना तो फांकि सुधु दिलेम तराई हाते।’
( बीनू जो अपने साथ जिन दो महीनों को ले गई है, उसमें वह जान ही नहीं पाई कि उसके साथ मैंने किस तरह का छल किया है। )
मृणालिनी देवी की मृत्यु के पश्चात गुरुदेव अपने लिए एक कठोर निर्णय लेते हैं और वह निर्णय है बिलासपुर जाकर रूखमणी को ढूंढने का। शेष अगले हफ्ते...
In face of high food insecurity, more and more people are eating unhealthy
Richard Mahapatra
In his 56 years, Sukru Ojha, a resident of Koraput, Odisha has experienced hunger more than food. “Hunger is an adaptation method for me. If I am forced to cut down on daily food intakes or on the quality of my diet, I know that I have a survival crisis.” He has been telling me this for years whenever I get in touch with him.
I met him way back in 1996 in Koraput while reporting a severe drought. That point of time this district reported at least 50 starvation deaths. Sukru used to work as a daily wage labourer. “Don’t know exactly when but landed up as a child in this town escaping starvation,” he told me then. I have been in touch with him, tracking his life, time and critically, his experience with hunger.
A healthy diet, as we understand or define using WHO guidelines, has always been an impossible dream for him. But switching to a meal of basic grains, irrespective of its nutritional values or his need for a balanced diet that his occupation as a manual worker demands, is what people resort to in crisis situations. “Good food or just food? Our choice is always the latter. We need to survive.”
“How are you managing during the pandemic?” I asked him recently. “I am hungry again. I have cut down on my vegetables, eggs, and lentils.” He replied.
“Only rice…it means I am again adapting to a crisis situation,” he said, adding “But this time it is too long a period to endure and the future is not certain.” In the last seven months, he earns around Rs. 1,000 a month. He has to sustain a family of four. Before that he could earn up to Rs. 3,000 in a month.
Sukru’s adaptation method in face of food insecurity is a common practice among the poor. First, they cut down expenditures on non-essentials, like education and festivals. Second, and a measure of crisis, they cut down on vegetables, dairy and non-vegetarian foods. Third, they do away with basic accompaniments like lentils and potatoes and onions. Fourth, and the extreme measure of crisis, they just stick to a diet of foodgrains like rice and that also once a day. “I am having two meals a day currently, but only rice. I could collect a few raw mangoes. That is a luxury,” he said.
With COVID-19 resurging and the pandemic becoming wider, lockdowns and shutdowns are back. Government has already curtailed many activities, like construction, that generate employment. Sukru had been making rounds of many colonies in search of daily works. “People have stopped constructing.”
“Rural Indians — mostly an informal workforce and poor by any accepted definition — have lived with irregular jobs for over a year. Anecdotal stories of precarious survival are pouring out. People are cutting back on food items; many have stopped having the basics like lentil as food inflation has spiked,” reported Down To Earth (HYPERLINK: https://www.downtoearth.org.in/.../mass-poverty-is-back...) recently. Pew Research Center, using World Bank data, has estimated that the number of poor in India (with income of $2 per day or less in purchasing power parity) has more than doubled from 60 million to 134 million in just a year due to the pandemic-induced recession.
It is not just India; poverty has increased across the world, more in developing and emerging economies. But, as Sukru’s experience explains, food insecurity is getting more pronounced. And to adapt to such a situation, millions of already poor and malnourished population is further compromising on quality of food.
According to the recently released Global Food Policy Report 2021 by the International Food Policy Research Institute (IFPRI), “The impacts of rising poverty and reduced livelihoods are reflected clearly in rising levels of food insecurity and decreasing diet quality.” For instance, as the report has quoted various countries’ experiences, in Bangladesh a significant percentage of the poor population stopped eating for an entire day to save the dipping food reserve. In Nepal, 30 per cent of rural households had reduced spending on food.
Before the pandemic, there were 3 billion people who could not afford a “healthy diet”. Currently due to the impacts of the pandemic, some 267.6 million more people would join this list in 2020-2022.
“Widespread food insecurity and a shift toward consumption of low-quality diets could, in turn, have devastating consequences for health and nutrition in low and middle income countries, especially among women of reproductive age and young children,” say Marie Ruel, director of the Poverty, Health, and Nutrition Division, IFPRI and Inge D. Brouwer, an associate professor in the Division of Human Nutrition and Health, Wageningen University & Research, the Netherlands who have written a chapter in the report.
According to the World Health Organization, poor diet is a major reason for malnutrition, stunting and wasting among children, obesity, overweight and underweight and also diet-related non-communicable diseases. WHO estimates that poor diets are responsible for 22 per cent of all deaths among adults in the world.
Studies, as quoted by Ruel and Brouwer, estimate that due to food insecurity and shift to unhealthy diet could lead to 9.3 million new wasted and 2.6 million additional cases of stunted children in 2020-2022. In addition, this situation can aggravate the already high level of obesity and overweight in low and middle income countries, particularly in Asia and Africa.
A healthy diet usually consisted of vegetables, eggs and animal-sourced protein food like meat and fish, besides the staple foodgrains. Experiences show that in face of economic hardships, people take out these critical food items from their plate. In recent times, in India particularly, prices of these food items have been increasing.
It means, for long people might be accessing food but will be without the nutrition needed for a healthy life. For instance, take Sukru. He will not be starved as he has access to government-subsidised rice. But he is not going to have all other elements that comprise a healthy diet. This is just because he can’t afford them currently.
More and more people falling into the malnutrition trap means the world is also staring at another pandemic, rather a slow and steady killer one. (downtoearth.org.in)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना महामारी का दूसरा हमला जितनी ज़ोरों से भारत में हो रहा है, शायद दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं हुआ। एक दिन में सवा दो लाख मरीज़ों का होना भयंकर खतरे की घंटी है। हजारों लोग रोज़ मर रहे हैं। उनमें बुजुर्ग तो हैं ही, अब जवानों की संख्या भी बढ़ने लगी है। कई शहरों में श्मशान घाट और कब्रिस्तान छोटे पड़ रहे हैं। मरीज़ लोग दवा और पलंगों की कमी के कारण दम तोड़ रहे हैं। कोरोना की दवा की कालाबाजारी शुरु हो गई है। मध्यवर्गीय और गरीब आदमी तो उसे खरीद भी नहीं सकता। किसी दवा-विक्रेता के पास कल सैकड़ों फर्जी इंजेक्शन इंदौर में पकड़े गए हैं। इससे ज्यादा दुखद और शर्मनाक बात क्या हो सकती है ? यदि वे इंजेक्शन नकली हों तो उनके निर्माता और विक्रेताओं को तत्काल मृत्युदंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए ? सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने अभी तक बहुत सराहनीय काम कर दिखाया है लेकिन अब उसकी असली परीक्षा की घड़ी आ गई है। यह वक्त सीना फुलाकर डींग मारने का नहीं है। अपने देश में लोग दवाई के अभाव में मर रहे हैं और हम डींग मार रहे हैं कि भारत ने 80 देशों को अपनी दवाएं देकर उपकृत किया है। उसने सही किया है लेकिन उसने तब ज़रा भी ख्याल नहीं किया कि यह महामारी भारत के दरवाजे पर दुबारा दस्तक दे सकती है।
सरकार का गणित थोड़ा जरुर गड़बड़ाया लेकिन यह महामारी बढ़ी है, सरकार के नहीं, जनता के कारण ! भारत की जनता ने सावधानी लगभग छोड़ दी। कई शहरों में हजारों लोग मुखपट्टी के बिना घूमते हुए आज भी देखे जा सकते हैं। इसके अलावा कुंभ-स्नान के लिए लाखों लोगों का हरिद्वार में इकट्ठे होना और मस्जिदों में बैठकर नमाज़ का आग्रह करना घनघोर अंधविश्वास और लापरवाही का प्रमाण है। हरिद्वार में हजारों लोग संक्रमित हो गए और एक महंत भी चल बसे। हमारे नेता हमारे साधुओं से भी एक कदम आगे हैं। प. बंगाल में चुनावों के दौरान क्या हो रहा है ? न तो नेताओं के मुख पर पट्टी है और न ही भीड़ के ! कई राज्यों में रात का कर्फ्यू लगा दिया गया है। उससे कोरोना कितना काबू होगा, पता नहीं लेकिन पुलिसवालों की जेबें जरुर गर्म हो जाएंगी। आश्चर्य तो यह है कि संक्रमण को रोकने के पारंपरिक भारतीय तरीकों पर कोई जोर नहीं दे रहा है, क्योंकि वे सस्ते और सुलभ हैं। उनसे डाॅक्टरों को मोटी कमाई भी नहीं होनी है। कोरोना की इस भयंकर वापसी के दौरान भी लोग जन्म-दिन, शादी-समारोह, श्रद्धांजलि सभा आदि के लिए भीड़ जुटाने में ज़रा भी संकोच नहीं कर रहे हैं। यदि भारत के लोग अगले 15 दिन के लिए अपने पर खुद कर्फ्यू लगा लें तो निश्चय ही कोरोना को काफी काबू किया जा सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अर्जुन परमार
गुजरात में बीते दस सालों के दौरान हुए अपराध के आंकड़ों से पता चलता है कि हर चार दिन में अनुसूचित जाति की एक महिला के साथ बलात्कार होता है.
यह जानकारी बीबीसी गुजराती के सूचना के अधिकार के इस्तेमाल के ज़रिए मांगी गई जानकारी के जवाब में गुजरात पुलिस मुख्यालय से मिली है. ये आंकड़े सरकार के सुरक्षित गुजरात के दावे के उलट हैं.
महात्मा गांधी के गुजरात में भयावह आकंड़ों के बाद भी राज्य के नेताओं में इसको लेकर चुप्पी दिखती है. सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक नेताओं की चुप्पी संवैधानिक व्यवस्था का मखौल उड़ाने वाली है.
14 अप्रैल को भीमराव अंबेडकर की 130वीं जयंती पर अंबेडकरवादियों ने माना कि भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध का शोक मनाने के सिवा कोई विकल्प नहीं हैं, जबकि अंबेडकर हमेशा महिलाओं की विशेष सुरक्षा के हिमायती रहे.
क़ानूनी तौर पर भारत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों पर अत्याचार को रोकने के लिए भारत में 1989 से ही एससी-एसटी अत्याचार निषेधात्मक क़ानून लागू है. इस क़ानून के तहत विभिन्न नियमों का निर्धारण 1995 में हुआ.
10 दिन में एक एसटी महिला का रेप
ग्राफ़िक्स
इस क़ानून का उद्देश्य अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों पर दूसरी जाति के लोगों द्वारा किए जाने वाले अपराधों को रोकना है. विकसित समझे जाने वाले गुजरात में इस क़ानून के बाद भी बीते दस सालों में महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले में बढ़ोतरी हुई है.
विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि दूसरे समुदाय के महिलाओं की तुलना में दलित महिलाओं को कहीं ज़्यादा ख़तरे का सामना करना पड़ता है.
आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी के जवाब में गुजरात पुलिस ने बताया है कि बीते दस सालों में अनुसूचित जाति की 814 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई है. इसी समयावधि में अनुसूचित जनजाति की 395 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई है.
अगर इन आंकड़ों को समझने के नज़रिए से देखें तो हर चार दिन में अनुसूचित जाति यानी दलित परिवार की एक महिला के साथ बलात्कार हुआ है जबकि प्रत्येक दस दिन में एक अनुसूचित जनजाति
अहमदाबाद में दस साल के दौरान 152 मामले देखने को मिले जबकि राजकोट में 96 मामले सामने आए हैं. बनासकांठा, सूरत और भावनगर क्रमश: 49, 45 और 36 मामलों के साथ तीसरे, चौथे और पांचवें पायदान पर हैं.
10 सालों में 395 दलित महिलाओं का बलात्कार
पिछले दस सालों में अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों को देखें तो ये मामले लगभग दोगुने हो गए हैं.
ग्राफ़िक्स
2011 में गुजरात में अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के 51 मामले दर्ज हुए थे. 2020 में ऐसे मामलों की संख्या 102 हो गई है.
अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ-साथ अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के साथ भी बलात्कार के मामलों में तेज़ी देखने को मिली है.
बीते दस सालों में गुजरात में अनुसूचित जनजाति की 395 महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ है. इन दस सालों में सूरत में सबसे ज़्यादा 50 अनुसूचित जनजाति की महिला के साथ बलात्कार हुआ है, जबकि भरूच में 41, पंचमहल में 25 और साबरकांठा और बनासकांठा में 18-18 महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ है.
दलित कार्यकर्ता चंदू मेहरिया ने दलित महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों की बढ़ती संख्या की वजह बताते हुए कहा, "ये महिलाएं ग़रीब घरों की हैं. सामाजिक स्तर पर इनकी मामूली हैसियत है. महिला होने के साथ साथ दलित होने के चलते भी इनका जीवन कहीं ज़्यादा मुश्किल भरा होता है और उन्हें ख़तरा ज़्यादा होता है."
दलित महिला अधिक ख़तरे में होती हैं?
गुजरात के सामाजिक कल्याण विभाग के उपनिदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए डॉ हसमुख परमार भी मानते हैं कि महिलाओं का दलित होना उनके साथ अपराध होने की आशंका को बढ़ाता है.
उन्होंने बताया, "जैसा कि कहते हैं कि ग़रीब की जोरू, सबकी ग़ुलाम. दलित महिलाओं के सामने ख़तरा ज़्यादा होता है. यह उनके जेंडर और सामाजिक हैसियत के चलते होता है और यह एक तरह से उनकी सामाजिक हत्या है."
अनुसूचित जनजाति के हितों के लिए काम करने वाली संस्था आनंदी से जुड़ी नीता हार्दिकर का मानना है कि दूसरी महिलाओं की तुलना में दलितों के साथ बलात्कार होने की आशंका ज़्यादा होती है.
इसकी वजहों को बताते हुए नीता ने बताया, "अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की दूसरी महिलाओं की तुलना में सामाजिक हैसियत कितनी कम होती है, ये अपराध करने वाले जानते हैं और यह उनके दिमाग़ में होता है."
डॉ. हसमुख परमार के मुताबिक ज़्यादातर मामलों में मुक़दमा दर्ज भी नहीं होता है. उन्होंने बताया, "गुजरात के गांवों में आज भी पीड़िता पहले सरपंच के पास जाती है. स्थानीय स्तर पर कई मामले सुलझा लिए जाते हैं. पुलिस और अदालत तक मामला पहुंचता ही नहीं है."
उन्होंने बताया, "जनजातीय इलाकों में पुलिस अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के मामले भी दर्ज नहीं करती. इसके अलावा पितृसत्तात्मक समाज होने के चलते, घर के बड़े बुज़ुर्ग मामले को दर्ज नहीं कराते हैं, उन्हें अपने घर परिवार की चिंता होती है. इसलिए वैसे मामलों की संख्या बहुत ज़्यादा है जो दर्ज नहीं होते हैं."
गुजरात में अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं की स्थिति
नीता हार्दिकर के मुताबिक अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है. उन्होंने कहा, "अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना की एक बड़ी वजह पलायन भी है."
गै़र-सरकारी संगठन विकल्प के प्रमुख हिमांश बांकर का भी यही मानना है. अहमदाबाद स्थित मानव विकास अनुसंधान केंद्र से जुड़े महेशभाई बताते हैं, "जनजातीय समुदाय के लोग काम की तलाश में अपने परिवार के साथ पलायन करते हैं. वे किराए पर खेती करते हैं. इन परिवारों की महिलाओं के सामने मुश्किल परिस्थिति होती है, कई बार कांट्रैक्टर और नियोक्ता ही उनके साथ अपराध करते हैं."
गुजरात महिला आयोग की चेयरपर्सन नीलाबहन अंकोलिया अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय की महिलाओं की सुरक्षा के लिए किए जा रहे प्रयासों के बारे में बताती हैं, "शहरी क्षेत्रों में, यौन उत्पीड़न के मामले तो सामने आ जाते हैं. ग्रामीण और पिछड़े इलाक़ों में ऐसे मामले दर्ज हों, इसकी व्यवस्था की जा रही है. इसके लिए राज्य भर में 270 महिला अदालतें शुरू की गई हैं."
महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकारी कोशिशों के बारे में नीलाबहन बताती हैं, "हम लोगों ने 400 महिलाओं को नियुक्त किया है, जिसमें महिला वकील और स्नातक तक पढ़ी लिखी महिलाएं शामिल हैं.
"इसके अलावा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की चार हज़ार स्वयंसेवी बहनों को नियुक्त किया गया है. इससे इन महिलाओं के साथ होने वाले अपराध को कम करने में मदद मिली है."
गुजरात महिला आयोग की अध्यक्ष नीलाबहन अंकोलिया ने बताया, "अनुसूचित जाति और जनजाति इलाकों में महिला अदालतों में इन्हीं वर्ग की महिलाओं को नियुक्त किया गया है. ताकि महिलाएं अपनी स्थानीय बोली में अपनी शिकायतें दर्ज करा सकें. हमारी कोशिशों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातीय इलाकों में सामान्य छेड़छाड़ की घटनाओं में भी कमी देखी गई है क्योंकि पीड़िता को जल्दी ही क़ानूनी सहायता मिल जाती है और इन प्रावधानों से महिलाओं में जागरूकता भी आयी है."
नीता हार्दिकर के मुताबिक गुजरात सरकार के उठाए गए क़दम पर्याप्त नहीं हैं. उन्होंने कहा, "'टीवी पर सुरक्षित गुजरात के विज्ञापनों और रैलियों में नारे लगाने से राज्य की महिलाओं की स्थिति नहीं सुधरने वाली है. इसके लिए ज़मीन पर काम करने की ज़रूरत है. महिलाओं की समस्याओं को समझने की ज़रूरत है और उस पर तत्काल क़दम उठाने की ज़रूरत है. तभी जाकर स्थिति बेहतर होगी."
दलित एक्टिविस्ट चंदू मेहरिया का भी मानना है कि 'सुरक्षित गुजरात' महज़ एक सरकारी घोषणा है. उनका मानना है कि सरकार पिछड़े राज्यों की तुलना में गुजरात को सुरक्षित मान रही है जो उपयुक्त नहीं है.
द टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिदिन 88 महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, इसमें महज़ 30 प्रतिशत मामले में दोषियों को सज़ा मिलती है.
न्यूज़ 18 डॉटकॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक भारत में 2019 में प्रतिदिन दस दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना हुई, इस सूची में 11,829 महिलाओं के साथ उत्तर प्रदेश शीर्ष पर था.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ अत्याचार निषेध क़ानून नौ सितंबर, 1989 को लाया गया था जिसके नियम 31 मार्च, 1995 को लागू किए गए. इस क़ानून में 22 तरह के अपराधों के ख़िलाफ़ प्रावधान बनाए गए हैं. इन अपराधों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को आर्थिक, लोकतांत्रिक और सामाजिक अधिकार नहीं देने की कोशिश से लेकर शोषण, भेदभाव और उत्पीड़न तक शामिल हैं.
इस क़ानून की धारा 14 के तहत ऐसे मामलों की ज़िला अदालतों में तेज़ी से सुनवाई का प्रावधान है. इस दौरान पीड़िता को एफ़आईआर दर्ज कराने से लेकर चार्जशीट दाख़िल करने तक विभिन्न स्तरों में आर्थिक मदद का भी प्रावधान है, लेकिन पीड़िताओं को इस मदद को हासिल करने में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. (bbc.com)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस और आस्ट्रेलिया के विदेश मंत्रियों के साथ ‘रायसीना डायलाग’ में हमारे विदेश मंत्री ने कहा कि भारत किसी ‘एशियाई नाटो’ के पक्ष में नहीं है। वे रुस और चीन के विदेश मंत्रियों के बयानों पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे। उन्होंने अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया के चौगुटे को ‘एशियाई नाटो’ की शुरुआत कहा था। अमेरिका के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक सहकार के इस गठबंधन की यदि चीन और रुस यूरोप के सैन्य-गठबंधन से तुलना कर रहे हैं तो यह ज्यादती ही है लेकिन उनका डर एकदम निराधार भी नहीं है।
अमेरिका ने भारत-चीन सीमांत-मुठभेड़ के वक्त जो भारतपरस्त रवैया अपनाया, उससे चीन का चिढ़ जाना स्वाभाविक है। इधर रुस और चीन की घनिष्टता भी बढ़ रही है। इसीलिए इन दोनों राष्ट्रों के नेता अपने अमेरिका-विरोध के खातिर भारत पर उंगली उठा रहे हैं। वे इस तथ्य से भी चिढ़े हुए है कि भारत के खुले सामुद्रिक क्षेत्र में यदि कोई चीनी जहाज घुस आए तो भारतीय थल-सेना उसे तत्काल खदेड़ देती है और पाकिस्तानी नावें भारत की जल-सीमा में आ जाती है तो उन्हें वह पकड़ लेती है लेकिन 7 अप्रैल को अमेरिकी जंगी जहाज भारतीय ‘अनन्य आर्थिक क्षेत्र’ में घुसा बैठा है लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने सिर्फ हकलाते हुए उसका औपचारिक विरोध भर किया है।
अमेरिका के प्रति भारत की यह नरमी रुस और चीन को बहुत ज्यादा खल रही है। इन राष्ट्रों को यह भी लग रहा है कि भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा और शक्तिशाली राष्ट्र है लेकिन अपने पड़ौसी अफगानिस्तान के मामले में वह अमेरिका का पिछलग्गू बना हुआ है। इस तथ्य के बावजूद रुसी विदेश मंत्री ने दावा किया है कि भारत के साथ रुस के संबंध अत्यंत घनिष्ट हैं और वह पाकिस्तान को सिर्फ वे ही हथियार बेच रहा है, जो आतंकियों से लड़ने के काम आएंगे।
भारत को अमेरिका के साथ-साथ रुस से भी अपने संबंधों को सहज बनाकर रखना है। चीन के साथ भी वह कोई मुठभेड़ की मुद्रा बनाकर नहीं रख रहा है लेकिन आश्चर्य है कि उसके पास भारत की एशियाई भूमिका का कोई विराट नक्शा क्यों नहीं है ? भारत नाटो की तरह कोई एशियाई या दक्षिण एशियाई सैन्य-गठबंधन न बनाए लेकिन यूरोपीय संघ की तरह एशियाई या दक्षिण एशियाई संघ बनाने से उसे कौन रोक सकता है?
यदि बड़े एशियाई महासंघ में चीन से प्रतिस्पर्धा की आशंका है तो भारत दक्षिण एशिया और मध्यएशिया का एक महासंघ तो खड़ा कर ही सकता है। इस महासंघ में साझा बाजार, साझी संसद, समान मुद्रा, मुक्त आवागमन आदि की व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती ? इसके फायदे इतने ज्यादा हैं कि वे पाकिस्तान की आपत्तियों को भी धो डालेंगे। अधमरा दक्षेस (सार्क) उठकर दौड़ने लगेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-जुबैर अहमद
आंबेडकर को संविधान का जनक कहा जाता है क्योंकि वे संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष थे। ये भी कहा जाता है कि संविधान के चलते ही भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था काफी मजबूत बनी हुई है। हालांकि बीच में आपातकाल के 18 महीनों का दौर भी देश में रहा है, अगर इसको अपवाद मानें तो देश में लोकतंत्र पर कभी पड़ोसी देशों की तरह खतरा नहीं दिखा। लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार के लगातार दूसरे कार्यकाल में स्थिति बदलती दिख रही है। विदेश ही नहीं देश के अंदर भी मोदी सरकार पर संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को किनारे करने का आरोप लग रहा है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर सवाल पश्चिमी देशों की संस्थाओं ने भी उठाए हैं।
वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री के समर्थकों के बीच ये धारणा बन रही है कि पश्चिमी देशों के लोकतंत्र पर भारत भी सालाना रिपोर्ट जारी करे और उन्हें यह पैगाम दे कि भारत के लोकतंत्र पर भाषण देने से पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखें। अमेरिका में काली नस्ल के लोगों पर आए दिन पुलिस और प्रशासन द्वारा अत्याचार और दूसरे पश्चिमी देशों में नस्लीय भेदभाव में इजाफा, भारत को ऐसी रिपोर्ट जारी करके वापस जवाब देने का मौका भी दे रहे हैं।
पिछले दिनों अमेरिका की संस्था फ्रीडम हाउस ने अपने वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के अंतर्गत ‘भारतीय लोकतंत्र अब पूर्ण रूप से आजाद के बजाए केवल आंशिक रूप से आजाद रह गया है और यह अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा है।
अमेरिका की मानवधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वाच ने इस साल की अपनी सालाना रिपोर्ट में लिखा कि ‘सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों ने हाशिए के समुदायों, सरकार की आलोचना करने वालों, और धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों पर, अधिकाधिक दबाव डाला है।’
स्वीडन में गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय-स्थित वी-डेम संस्था की ताजा वार्षिक रिपोर्ट में भारतीय लोकतंत्र की रैंकिंग 97 रखी गयी है जो पिछले साल की तुलना में खराब हुई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत 2010 के चुनावी लोकतंत्र से अब चुनावी निरंकुशता में बदल गया है।
मोदी समर्थक इन रिपोर्टों से सहमत नहीं
भारत में एक वर्ग है जो इन रिपोर्ट्स से सहमत हैं और वर्तमान स्थिति को लेकर चिंतित है लेकिन इसके बावजूद विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर और वित्तीय मंत्री निर्मला सीतारमण ने इन रिपोर्टों को निरस्त करते हुए कहा है कि इन संस्थाओं से भारत को लोकतंत्र की सीख लेने की ज़रुरत नहीं है।
वहीं देश में मोदी समर्थक एक बड़े वर्ग का यह भी मानना है कि ‘दुनिया के सबसे बड़े और जीवंत लोकतंत्र’ के आलोचकों को आड़े हाथों लिया जाना चाहिए। यह तबका सोशल मीडिया पर मुखर है और ये देश की आबादी के एक बड़े हिस्से का नेतृत्व करता नजर आता है। प्रसार भारती के पूर्व अध्यक्ष और दक्षिणपंथी चिंतक डॉ. ए. सूर्य प्रकाश ने पिछले साल नवंबर में वी-डेम की 2020 रिपोर्ट के बाद प्रधानमंत्री मोदी को एक चि_ी लिखी थी जिसमें उन्होंने पश्चिमी देशों से जारी की गई रिपोर्टों को चुनौती देने की सलाह दी थी।
उनकी चि_ी पर विचार करने के लिए प्रधानमंत्री दफ्तर ने इसे विदेश मंत्रालय में भेजा। संयोग ऐसा हुआ है कि दो सप्ताह पहले दिल्ली की एक थिंकटैंक ने सात देशों में मानवाधिकार के उल्लंघन पर एक रिपोर्ट जारी की लेकिन इनमें पश्चिमी देश शामिल नहीं थे। कहा जा रहा है कि इस रिपोर्ट को बाहर से भारत सरकार का समर्थन हासिल था। अभी इस पर बहुतों का ध्यान भी नहीं गया लेकिन शायद ये एक शुरुआत है।
ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाले दिनों भारत में भी पश्चिमी देशों के लोकतंत्र पर सालाना रिपोर्ट जारी होने का सिलसिला जोर पकड़े। पश्चिमी देशों की संस्थाओं की रिपोर्टों में ऐसी कौन-सी बातें हैं जिन पर कई देशवासी आपत्ति जता रहे हैं?
वी-डेम संस्था की रिपोर्ट के अनुसार डेनमार्क दुनिया का सब से बढिय़ा लोकतंत्र है, तीसरे नंबर पर स्वीडन और पांचवें नंबर पर नॉर्वे है, जबकि भारत 97वें स्थान पर है। सूर्य प्रकाश को इस पर आपत्ति है, ‘इस रिपोर्ट को पूरी ताकत के साथ रद्द करना चाहिए। डेनमार्क को नंबर वन लोकतंत्र बताया गया है जबकि वहां धर्म और राज्य को अलग नहीं रखा गया है। डेनमार्क के संविधान का कहना है कि इवैंजेलिकल लूथेरन चर्च देश का स्थापित चर्च होगा जो राज्य द्वारा समर्थित होगा। जबकि भारत का संविधान धर्म और राज्य को अलग रखता है और यह सेक्युलर है लेकिन इसके बावजूद भारत को 97वां स्थान दिया गया है।’
सूर्य प्रकाश कहते हैं, ‘स्वीडन का संविधान बताता है कि राजा हमेशा शुद्ध इवैंजेलिकल धर्म का समर्थन करेगा और राजकुमार या राजकुमारी को शादी करने के लिए सरकार की अनुमति की आवश्यकता होगी! नॉर्वे का संविधान कहता है कि राजा हर समय इवैंजेलिकल लूथेरन धर्म का प्रचार करेगा। दूसरी ओर, यह एजेंसी भारत में शायद ही लोकतंत्र बता रही है जो ज़माने से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और यहां तक कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की प्रस्तावना में दर्ज है।’
स्टेफन लिंडबर्ग राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर और वी-डेम संस्थान के निदेशक हैं। सूर्य प्रकाश और भारत में संस्था की रिपोर्ट के आलोचकों को जवाब में वो क्या कहते हैं?
स्वीडन से बीबीसी को ईमेल पर जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘डेनमार्क, स्वीडन और नॉर्वे के बारे में ये कहना कि ये देश राजतंत्र हैं और ये कि इन देशों के संविधान के अनुसार शासकों को एक खास धर्म का ही होना चाहिए, गुमराह करने वाला तर्क है। लोकतंत्र केवल इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि एक शासन गणतंत्रात्मक और राजतंत्रात्मक है या नहीं। दुनिया की कुछ सबसे निरंकुश सरकारें गणतंत्र हैं, जिनमें चीन, सीरिया और उत्तर कोरिया शामिल हैं।’
‘हमारे आलोचकों ने जिन देशों का उल्लेख किया है, वे संवैधानिक राजतंत्र हैं, जहां सम्राट औपचारिक शक्ति रखते हैं और असल में वास्तविक सत्ता लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित पार्लियामेंट के हाथों में है और एक ऐसी सरकार के हाथों में है जो संसदीय समर्थन पर निर्भर करती है।’
‘सोशल मीडिया पर मोदी की सबसे
अधिक आलोचना होती है’
वी-डेम की रिपोर्ट का दावा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है। इस पर सूर्य प्रकाश कहते हैं, ‘सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा गालियां आज हमारे पीएम मोदी को दी जा रही हैं। जऱा उनके विरोधियों द्वारा उत्पन्न एंटी मोदी हैशटैग को देखें। असल में हम दुनिया में धर्म के संदर्भ में सबसे विविध समाज हैं। 122 भाषाएँ, 170 स्थानीय बोलियां, और हमारी राजनीति। हमारे पास राजनीतिक दलों का एक पूरा स्पेक्ट्रम मौजूद है।’
सूर्य प्रकाश कहते हैं, ‘अजीब बात है कि वी-डेम रिपोर्ट का दावा है ‘संघ की स्वतंत्रता’ भारतीय नागरिकों के हाथों से फिसल रही है। फ्ऱीडम हाउस की रिपोर्ट कहती है कि भारत में राजनीतिक अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता कम हो रही है।’
सूर्य प्रकाश का तर्क है कि अगर ऐसा होता तो 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बीजेपी के अलावा 44 सियासी पार्टियां सत्ता में कैसे हैं?
सूर्य प्रकाश के अनुसार वी-डेम की रिपोर्ट का सबसे आपत्तिजनक हिस्सा भारतीय चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना है। उन्होंने कहा, ‘देश के संविधान और चुनावी इतिहास को महत्व देने वाले प्रत्येक भारतीय को इस रिपोर्ट की निंदा इसलिए करनी चाहिए: पहला यह संस्था मानती है कि भारत पर एक दल का शासन है और दूसरे यह कि अन्य दलों के होने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।’
वी-डेम का तर्क
वी-डेम संस्थान के निदेशक स्टीफन लिंडबर्ग इस आलोचना पर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि भारत के लोकतंत्र पर उनकी निजी राय दर्ज नहीं की गई है।
वो कहते हैं, ‘वी-डेम रैंकिंग 180 देशों के 3,500 स्थानीय विशेषज्ञों से एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित है। हम पारदर्शी और निष्पक्ष रूप से दुनिया भर विशेषज्ञों की मदद से डेटा का इस्तेमाल करते हैं।’
वी-डेम संस्था से जुड़े डेनमार्क में आरहस यूनिवर्सिटी के राजीनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर स्वेन्ड-एरिक स्कानिंग इस मसले पर अपनी राय देते हुए कहते हैं, ‘उदार लोकतंत्र के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं उसमें पहला तो यह है कि क्या सभी नागरिकों को चेतना और धर्म की स्वतंत्रता हासिल है? दूसरा, कोई धार्मिक समूह चुनावी प्रक्रिया पर बाहर अनुचित प्रभाव तो नहीं डालते? दोनों पैमानों पर डेनमार्क खरा उतरता है।’
डेनमार्क स्थित एक प्रवासी भारतीय की डेनमार्क और भारत के लोकतंत्र के बीच तुलना
आरहस यूनिवर्सिटी के ही भारतीय मूल के प्रोफेसर ताबिश खैर पिछली 25 सालों से डेनमार्क में रह रहे हैं। वो बिहार के गया शहर से हैं, जहां उनका जन्म हुआ और जहाँ वो पले-बढ़े। वो हर साल भारत का दौरा करते हैं। उन्होंने कहा, ‘दुनिया की कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था सही नहीं है, लेकिन डेनमार्क जैसी जगहें भारत जैसी जगहों से कहीं बेहतर हैं। इसके चार मुख्य कारण हैं- जवाबदेही, पारदर्शिता, राजनीतिक शक्तियों का विकेंद्रीकरण और एक सक्रिय सिविल सोसाइटी। ये सभी चार भारत में कमजोर रहे हैं, और हाल के वर्षों में और भी खराब हुए हैं।’ उनका तर्क है कि भारत का लोकतंत्र पीछे जा रहा है। ‘हम 1975 में इंदिरा गांधी के दौर में पीछे गए। और हम 2014 से पीछे जा रहे हैं। इसके कारण एकसमान हैं- शीर्ष पर बैठे शख्स का कल्ट में बदलना, उचित जवाबदेही की कमी, गुटबाजी को बढ़ावा देने वाली राजनीति, शासन व्यवस्था की बढ़ती फिजूलखर्ची, नौकरशाहों और व्यापारियों की सांठगांठ और संविधान की अनदेखी करना।’ अमरीका में शिकागो यूनिवर्सिटी के राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर टॉम गिन्सबर्ग की निगाह भारत के लोकतंत्र पर सालों से है और वो अक्सर भारत का दौरा करते हैं। उन्होंने कहा, ‘भारत में लोकतांत्रिक गिरावट की आलोचनाओं को भारत में वह समूह भी उठा रहा है जिन्हें महसूस होता है कि उन्हें खामोश किया जा रहा है। फ्रीडम हाउस और वी-डेम के आंकलन विद्वानों द्वारा पूरी स्वतंत्रता के साथ तैयार किए जाते हैं। इन रिपोर्टों को पश्चिमी देशों की सरकारें नहीं तैयार करती हैं। संदेशवाहक को दोष देना बहुत आसान है, लेकिन संदेश सही हो सकता है।’
लोकतंत्र और आंबेडकर का संविधान अब भी जिंदा है
डॉक्टर आंबेडकर के जन्म दिवस पर भारत में लोकतंत्र और संविधान में आती कमज़ोरियों पर बहस इस बात का प्रतीक है कि भारत में लोकतंत्र और आंबेडकर के संविधान के प्रति आस्था बनी हुई है। सूर्य प्रकाश भी इस बात पर सहमत हैं कि आतंरिक आवाजें उठनी चाहिए। सूर्यप्रकाश कहते हैं कि उन्हें अफसोस है कि देश के गिनेचुने लोग ही संविधान के बारे में ठीक से जानते हैं। वे डॉ.आंबेडकर के उस भाषण को याद कराते हैं जो उन्होंने 25 नवंबर, 1949 को दिया था। संविधान बन जाने पर संविधान सभा में उन्होंने आखिरी और ऐतिहासिक भाषण में संविधान और लोकतंत्र की रक्षा पर सम्पूर्ण जोर दिया था।
अगर वो आज जीवित होते तो देश में वर्तमान के लोकतंत्र और संविधान के अब तक के सफऱ से खुश होते?
‘नहीं होते’, ये था खरा जवाब था सूर्य प्रकाश का। उनका कहना है कि लोकतंत्र और संविधान के बगैर भारत का कोई भविष्य नहीं। आंबेडकर क्यों खुश नहीं होते? इस पर सूर्य प्रकाश कहते हैं, संविधान सभा को दिए आखिरी संबोधन में आंबेडकर ने कहा था कि केवल राजनीतिक लोकतंत्र से काम नहीं चलेगा। राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में बदलना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता, लोकतंत्र भारत की धरती पर सिफऱ् ऊपरी पहनावा भर होगा।’
भारत राजनीतिक लोकतंत्र से सामाजिक लोकतंत्र में कितना बदला है? सूर्य प्रकाश कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि हम संवैधानिक और कानूनी माध्यमों से इस दिशा में आगे बढ़े हैं, लेकिन अभी भी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है।’
भारत की लोकतंत्र में कुछ खामियों को सूर्य प्रकाश स्वीकार करते हैं लेकिन कहते हैं, ‘यदि आप भारत को नीचे दिखा रहे हैं, तो आप लोकतंत्र को नीचे दिखा रहे हैं।’ (bbc.com)
-गिरीश मालवीय
बहुत से लोग आज टेक्नोलॉजी को खुदा माने बैठे हैं लेकिन जिनके हाथों में टेक्नोलॉजी का विकास की कमान है वो किस तरह से डिस्क्रिमिनेशन कर सकते हंै ये लोग नहीं जानते।
यहाँ हम किसी कांस्पीरेसी थ्योरी की बात नहीं कर रहे। भास्कर के संपादकीय पेज पर एक खबर छपी है कि ऑक्सीमीटर अश्वेतों में गलत ऑक्सीजन लेवल की गणना दे रहे हैं। कोविड के दौर में यह गलती जानलेवा साबित हो गई है। जब अमेरिका में कोविड अपने चरम पर पहुंचा तो हजारों अश्वेत सही समय पर सही इलाज के लिए वंचित रह गए क्योंकि ऑक्सीमीटर की रीडिंग अश्वेतों में ज्यादा दिखा दी गई। नतीजा यह हुआ हजारों अश्वेत की मौत हो गई।
अमरीका की प्रमुख स्वास्थ्य नियामक एफडीए ने हाल के शोध में कहा है कि अश्वेत रोगियों को खतरनाक रूप से निम्न रक्त ऑक्सीजन का स्तर लगभग तीन गुना पाया गया है, जो कि श्वेत रोगियों के रूप में पल्स ऑक्सीमेट्री द्वारा पता लगाया गया।
सिर्फ यही नहीं 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया कि एक सॉफ्टवेयर के कारण श्वेतों को अश्वेतों की तुलना में हॉस्पिटल में इलाज में प्राथमिकता मिली। आने वाले दौर में कोरोना के बाद किस तरह से दुनिया एक सर्विलांस विश्व में बदल रही है। इस पर जब मैंने एक वीडियो बनाने के दौरान रिसर्च की तो मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि चेहरे की पहचान करने वाली टेक्नोलॉजी फेशियल रिकग्निशन बड़े पैमाने पर भेदभाव कर रही है।
स्टडी से पता चलता है कि अधिकांश फेशियल रिकग्निशन सॉफ्टवेयर का एल्गोरिदम श्वेत लोगों की तुलना में काले लोगों और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के चेहरे की गलत पहचान कर रहा है।
ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के प्रमुख। कारण अफ्रीकी अमेरिकी व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के बाद पुलिस की कार्यनीति के साथ लॉ इन्फोर्समेंट के लिए इस्तेमाल की गई फेसिअल रिकग्निशन की इस टेक्नोलॉजी को गहन जांच के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है।
अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन ने कहा कि पुलिस बॉडी कैमरा फुटेज पर चेहरे की पहचान के सभी उपयोग पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए क्योंकि यह गलत पहचान कर रहे हैं। चेहरे की पहचान करने वाली इस टेक्नोलॉजी को अमरीका के सैन फ्रांसिस्को में बैन कर दिया गया है।
यह तो हुई अमरीका की बातें आपको लग रहा होगा कि वहाँ यह होता है!...हमारे यहाँ थोड़ी ही न यह सब होता है!. जबकि यह समस्या भारत मे बहुत बड़े पैमाने पर है।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार द्वारा लगभग तीन करोड़ राशन कार्ड रद्द किए जाने के खिलाफ याचिका लगाई गई। दरअसल गुडिय़ा देवी की ओर से जनहित याचिका दायर की गई जिसकी झारखंड में सिमडेगा जिले की 11 वर्षीय बेटी संतोषी की 28 सितंबर, 2018 को भुखमरी से मृत्यु हो गई।
याचिका में कहा गया है कि संतोषी, जो एक गरीब दलित परिवार से संबंध रखती थी, की मृत्यु हो गई क्योंकि स्थानीय अधिकारियों ने उसके परिवार का राशन कार्ड रद्द कर दिया था क्योंकि वे इसे आधार से जोडऩे में विफल रहे थे। मार्च 2017 से परिवार को राशन मिलना बंद हो गया और इसके परिणामस्वरूप, पूरा परिवार भूख से मर गया। उस वक्त यह मामला खूब सुर्खियां बटोर रहा था।
आप जानते हैं कि राशन कार्ड को आधार से क्यों नही जोड़ा जा सका? क्योंकि आधार में जो बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी उपयोग की गई है वह संतोषी के परिवार की सही पहचान नहीं कर पाई। सिर्फ संतोषी का ही नहीं बल्कि ऐसे तीन करोड़ परिवारों का राशन कार्ड रदद् कर दिया गया।
2018 में उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने बताया था कि राशन कार्डों के डिजिटलीकरण और आधार सीडिंग के दौरान 3 करोड़ राशन कार्ड फर्जी पाए गए जिन्हें रद्द किया गया।
अब बताइये, आप यह क्या कर रहे हैं ! आपने टेक्नोलॉजी को एक ऐसे फ्रैंक्सटाइन में तब्दील कर दिया हैं जो haves और haves not के बीच की दूरी को और अधिक बढ़ा रही है।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का खेल कितना मजेदार है, इसका पता हमें चीन और अमेरिका के ताजा रवैयों से पता चल रहा है। चीन हमसे कह रहा है कि हम अमेरिका से सावधान रहें और अमेरिका हमसे कह रहा है कि हम चीन पर जरा भी भरोसा न करें। लेकिन मेरा सोचना है कि भारत को चाहिए कि वह चीन और अमेरिका, दोनों से सावधान रहे। आँख मींचकर किसी पर भी भरोसा न करे।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘ग्लोबल हेरल्ड’ ने भारत सरकार को अमेरिकी दादागीरी के खिलाफ चेताया है। उसने कहा है कि अमेरिकी सातवें बेड़े का जो जंगी जहाज 7 अप्रैल को भारत के ‘अनन्य आर्थिक क्षेत्र’ में घुस आया है, यह अमेरिका की सरासर दादागीरी का प्रमाण है। जो काम पहले उसने दक्षिण चीनी समुद्र में किया, वह अब हिंद महासागर में भी कर रहा है। उसने अपनी दादागीरी के नशे में अपने दोस्त भारत को भी नहीं बख्शा।
चीन की शिकायत यह है कि भारत ने अमेरिका के प्रति नरमी क्यों दिखाई ? उसने इस अमेरिकी मर्यादा-भंग का डटकर विरोध क्यों नहीं किया ? चीन का कहना है कि अमेरिका सिर्फ अपने स्वार्थों का दोस्त है। उसके स्वार्थों के खातिर वह किसी भी दोस्त को दगा दे सकता है। उधर अमेरिकी सरकार के गुप्तचर विभाग ने अपनी ताजा रपट में भारत के लिए चीन और पाकिस्तान को बड़ा खतरा बताया है। उसका कहना है कि चीन आजकल सीमा-विवाद को लेकर भारत से बात जरुर कर रहा है लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति से ताइवान, हांगकांग, द.कोरिया और जापान आदि सभी तंग हैं। वह पाकिस्तान को भी उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।
भारत की मोदी सरकार पाकिस्तानी कारस्तानियों को शायद बर्दाश्त नहीं करेगी। यदि किसी आतंकवादी ने कोई बड़ा हत्याकांड कर दिया तो दोनों परमााणुसंपन्न पड़ौसी देश युद्ध की मुद्रा धारण कर सकते हैं। चीन की कोशिश है कि वह भारत के पड़ौसी देशों में असुरक्षा की भावना को बढ़ा-चढ़ाकर बताए और वहां वह अपना वर्चस्व जमाए। वह पाकिस्तानी फौज की पीठ तो ठोकता ही रहता है, आजकल उसने म्यांमार की फौज के भी हौंसले बुलंद कर रखे हैं।
उसने हाल ही में ईरान के साथ 400 बिलियन डालर का समझौता किया है और वह अफगान-संकट में भी सक्रिय भूमिका अदा कर रहा है जबकि वहां भारत मूक दर्शक बना हुआ है। अब अमेरिका ने घोषणा की है कि वह 1 मई की बजाय 20 सितंबर 2021 को अपनी फौजें अफगानिस्तान से हटाएगा। ऐसी हालत में भारत के विदेश मंत्रालय को अधिक सावधान और सक्रिय होने की जरुरत है। हमारे विदेश मंत्री डा. जयशंकर पढ़े-लिखे विदेश मंत्री और अनुभवी कूटनीतिज्ञ अफसर रहे हैं। विदेश नीति के मामले में भाजपा नेतृत्व से ज्यादा आशा करना ठीक नहीं है लेकिन जयशंकर यदि कोई मौलिक पहल करेंगे तो भाजपा नेतृत्व उनके आड़े नहीं आएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-तारण प्रकाश सिन्हा
महामारियों और मानवता के बीच जंग का इतिहास सदियों पुराना है। हर सदी में किसी न किसी महामारी ने मानवता के सामने चुनौतियां पेश कीं, और हर बार मनुष्यता की ही जीत हुई। अब एक बार फिर एक विषाणु ने मनुष्य के ज्ञान और विज्ञान को चुनौती है। हर बार की तरह इस बार भी हम निश्चित ही जीतेंगे। वह हमारी जिजीविषा ही थी, जिसने हमेशा हमारे अस्तित्व की रक्षा की। जब कभी संकट गहराया, हमारी जिजीविषा उतनी ही तीव्र होती रही। संकट के बीच जीवन को बचाए रखने की कला हमने विकसित की। कोविड-19 के संक्रमण के इस दूसरे दौर में जो परिस्थितियां निर्मित हुई हैं, उसने कुछ पल के हमें हतप्रभ जरूर कर दिया है, लेकिन हम निराश नहीं हैं। हमारे योद्धा एक बार फिर कोविड के खिलाफ मैदान पर हैं, और इस बार वे ज्यादा कौशल, अनुभव और संसाधनों के साथ जंग लड़ रहे हैं। संक्रमण के पहले दौर की तुलना में हमारे योद्धाओं में कई गुना ज्यादा आत्मविश्वास है। वे कई गुना ज्यादा हौसले के साथ लड़ाई लड़ रहे हैं। कोविड-19 ने इस बार हालांकि ज्यादा तेज हमला किया है, लेकिन उस पर पलटवार भी उतनी ही तेजी से हो रहा है।
कोविड-19 की दूसरी लहर की अचनाक हुई शुरुआत के कारण हालांकि शुरुआती बढ़त महामारी के पक्ष में नजर आ रही है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछली बार की तरह इस बार भी बहुत जल्द कोविड को पीछे धकेल दिया जाएगा।
हमें यह देखना होगा कि पिछली बार की तुलना में इस बार कोविड-19 हमें ज्यादा नुकसान क्यों पहुंचा पा रहा है। इस बार देखा जा रहा है कि अपने बदले हुए स्वरूप में यह वायरस ज्यादा संक्रामक है, इस बार युवाओं और बच्चों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। हर परिवार में एक से ज्यादा सदस्य इस बार वायरस की चपेट में आ रहे हैं। वायरस की इसी आक्रमकता की वजह से पूरे देश में हालात तेजी से बिगड़े और संसाधनों की किल्लत होने लगी। यह तो तय है कि नयी आवश्यकताओं के अनुरूप शीघ्र ही नये संसाधनों का इंतजाम कर लिया जाएगा, लेकिन तब तक हो रहे नुकसान को टालना हम सबकी जिम्मेदारी है। सबसे ज्यादा जरूरी है कि परिवार में किसी को संक्रमण ही आशंका होते ही उसे आइसोलेटेड करते हुए टेस्ट कराया जाए ताकि दूसरे सदस्य सुरक्षित रह सकें। जिन सदस्यों की उम्र 45 वर्ष से अधिक है, उनका टीकाकरण करवाया जाए। मास्क का प्रयोग घर के भीतर भी किया जाए। बार-बार हाथों को धोया जाए। उपलब्ध चिकित्सा संसाधनों का लाभ जरूरतमंद लोगों को मिल सके इसके लिए जरूरी है कि अस्पतालों में दाखिले के लिए आपाधापी न मचाई जाए। जिन लोगों का उपचार होम आइसोलेशन में रहते हुए हो सकता है, उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। किसी भी दवा की खरीद और उसका उपयोग डाक्टर की सलाह पर ही किया जाना चाहिए, अनावश्यक रूप से की गई खरीदी से भी बाजार में दवाइयों की किल्लत हो सकती है और जरूरतमंद लोग उनसे वंचित हो सकते हैं।
कोरोना से लड़ी जा रही इस दूसरी जंग में संसाधनों के साथ-साथ समझदारी भी एक प्रभावी हथियार साबित हो सकती है। हम लोगों ने पिछली जंग भी इसी समझदारी और एकजुटता के बल पर जीती थी। हालांकि इस समय परिस्थितियां बहुत विकट हैं, लेकिन हम सब मिलकर बहुत जल्द इन पर विजय पा लेंगे। हम सबके लिए एक-एक जान बहुत कीमती है, हमें इस दूसरी लहर के कारण मिले सामुहिक सदमे की स्थिति से शीघ्र ही बाहर आकर महामारी का मुकाबला पूरी ताकत के साथ करना ही होगा। निश्चित ही यह अंधकार छंटेगा और प्रकाश की नयी किरणें फूटेंगी।
साहिर लुधियानवी जी लिखते हैं-
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस हफ्ते मैंने अपने दो मित्र खो दिए। एक तो पाकिस्तान के श्री आई.ए. रहमान और दूसरे इंदौर के श्री महेश जोशी ! ये दोनों अपने ढंग के अनूठे लोग थे। दोनों ने राजनीति और सार्वजनिक जीवन में नाम कमाया और ऐसा जीवन जिया, जिससे दूसरों को भी कुछ प्रेरणा मिले। श्री आई.ए. रहमान का पूरा नाम इब्न अब्दुर रहमान था। 90 वर्षीय रहमान साहब का जन्म हरियाणा में हुआ था और वे विभाजन के बाद पाकिस्तान में रहने लगे थे।
वे विचारों से मार्क्सवादी थे लेकिन उनके स्वभाव में कट्टरपन नहीं था। इसीलिए पाकिस्तानी राजनीतिक दलों के सभी नेता उनका सम्मान करते थे। उन्होंने जिंदगीभर इंसानियत का झंडा बुलंद किया। 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान में याह्याखान सरकार ने जुल्म ढाए तो उन्होंने उसके खिलाफ आवाज उठाई। जनरल अयूब और जनरल जिया-उल-हक के ज़माने में भी वे बराबर लोकतंत्र और मानवीय अधिकारों के लिए लड़ते रहे। जब जनरल ज़िया ने पाकिस्तानी अखबारों पर शिकंजा कसा तो उसके खिलाफ आंदोलन खड़ा करने वालों में वे प्रमुख थे। फौजी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया था।
उसी दौरान 1983 के आस-पास मेरी मुलाकात रहमान साहब और प्रसिद्ध बौद्धिक और जुल्फिकार अली भुट्टो के वित्त मंत्री रहे डा. मुबशर हसन से लाहौर में हुई थी। मुबशर साहब का जन्म भी पानीपत में हुआ था। दोनों ने भारत और पाकिस्तान के बीच शांति, मैत्री और लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए कई संगठन खड़े किए थे। उन्होंने लाहौर, दिल्ली और कोलकाता में इनके अधिवेशन भी आयोजित किए थे। इन अधिवेशनों में मेरे-जैसे कुछ भारतीय अतिथियों को हमेशा निमंत्रित किया जाता था। भारत-पाक संबंधों पर हमारे दो-टूक विचारों को उन्होंने हमेशा सम्मानपूर्वक सुना है।
वे अपने मतभेद भी प्रकट करते थे तो भी उनकी भाषा कभी आक्रामक नहीं होती थी। वे इतने मधुरभाषी, मिलनसार और गर्मजोश थे कि उनसे मिलते वक्त हमेशा ऐसा लगता था कि हम किसी अपने बुजुर्ग हमजोली के साथ हैं। वे पाकिस्तान के प्रसिद्ध अखबार ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के संपादक और मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष भी रहे। अस्वस्थता के बावजूद वे, ‘डान’ अखबार में अपने निर्भीक और निष्पक्ष लेख भी लिखते रहे। उन्हीं के प्रयत्नों से हामिद अंसारी नामक एक भारतीय नौजवान को लंबी जेल से छुटकारा मिला। जो लोग सारे दक्षिण एशिया को एक परिवार समझते हैं, वे रहमान साहब, मुबशरजी और असमा जहाँगीर— जैसे लोगों को कभी भुला नहीं सकते।
इसी प्रकार मेरे दूसरे मित्र और इंदौर क्रिश्चियन कालेज में छह साल मेरे सहपाठी रहे महेश जोशी (82 वर्ष) इंदौर से कई बार कांग्रेसी विधायक रहे। मेरे आंदोलनों में उन्होंने मेरे साथ जेल भी काटी और पुलिस की लाठियां भी खाईं। मेरे आंदोलनकारी साथियों में से महेश जोशी मप्र में मंत्री बने और विक्रम वर्मा (भाजपा) केंद्र में। जोशीजी का जन्म राजस्थान के कुशलगढ़ में हुआ था लेकिन वे इंदौर के ही होकर रहे। महेश जोशी यद्यपि अपनी दो-टूक शैली के लिए जाने जाते थे लेकिन वे बिना किसी राजनीतिक भेद-भाव के सबकी सहायता करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। ऐसे दोनों मित्रों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि ! (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के मेरीलेंड नामक प्रांत की विधानसभा में एक ऐसा विधेयक लाया गया है, जो भारतीय लोगों के लिए बड़ी मुसीबत पैदा कर सकता है। वह विधेयक यदि कानून बन गया तो बाइडन और मोदी प्रशासनों के बीच भी तनाव बढ़ सकता है।
भारत और अमेरिका के रिश्तों पर अमेरिका के सातवें बेड़े ने पहले ही छींटे उछाल रखे हैं और मेरीलैंड विधानसभा ने यदि इस विधेयक को कानून बना दिया तो भारत की इस तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार को अपनी चुप्पी तोडऩी ही पड़ेगी। क्या है, यह विधेयक ? इस विधेयक में ‘स्वास्तिक’ को घृणास्पद चिन्ह बताया गया है और इसे कपड़ों, घरों, बर्तनों, बाजारों या कहीं भी इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगाने का प्रावधान है। इस स्वास्तिक का आजकल अमेरिका के नए नाज़ी या वंशवादी गोरे लोग जमकर दिखावा करते हैं।
माना जाता है कि हिटलर ने अपनी नाजी पार्टी का प्रतीक-चिन्ह इसी ‘स्वास्तिक’ को बनाया था और इसे दिखाकर ही लाखों यहूदियों को मारा और जर्मनी से भगाया था। लेकिन सच्चाई कुछ और ही है।
हिटलर ने अपनी कुख्यात पुस्तक ‘मीन केम्फ’ में ‘स्वास्तिक’ शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया है। इस नाजी प्रतीक चिन्ह के लिए उसने जर्मन शब्द ‘हेकन क्रूज़’ इस्तेमाल किया है। हिटलर को न संस्कृत आती थी और न ही हिंदी ! उसे क्या पता था कि ‘स्वास्तिक’ का अर्थ क्या होता है ? हेकन क्रूज का अर्थ है— मुड़ा हुआ क्रॉस। लेकिन अंग्रेज पादरी जेम्स मर्फी ने जब ‘मीन केम्फ’ का अंग्रेजी अनुवाद किया तो उसने ‘हेकन क्रूज़’ को ‘स्वास्तिक’ कह दिया ताकि यूरोप के ईसाई हिटलर के विरुद्ध हो जाएं, क्योंकि क्रॉस तो ईसाइयत का प्रतीक है और स्वास्तिक हिंदुत्व का! लेकिन लोगों को यह अंदाज नहीं है कि यहूदियों को ईसा का हत्यारा घोषित करके पिछली कई सदियों से ईसाई शासक और पोप उन पर घोर अत्याचार करते रहे हैं। हिटलर ने इसी अत्याचार को घोर वीभत्स रुप दे दिया। उसका ‘स्वास्तिक’ शब्द से कुछ लेना-देना नहीं है। हिटलर का स्वास्तिक टेढ़ा है, भारत का स्वास्तिक सीधा है। यूनान, यूरोप और अरब देशों में जिस ‘क्रॉस’ का इस्तेमाल होता है, वह प्राय: टेढ़ा और कभी-कभी उल्टा भी होता है।
भारत का स्वास्तिक कुशल-क्षेम का प्रतीक है जबकि हिटलर का ‘स्वास्तिक’ घृणा और द्वेष का प्रतीक है। भारत के स्वास्तिक से किसी भी अमेरिकी यहूदी या ईसाई या मुसलमान को कोई आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन अंग्रेजी भाषा की मेहरबानी के कारण हमारे भारतीय स्वास्तिक को हिटलर का ‘हेकन क्रूज़’ समझने की गलतफहमी हो रही है। आशा है, इस मामले में हमारा राजदूतावास चुप नहीं बैठेगा, वरना अमेरिका में भारतीयों का रहना मुश्किल हो जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
क्या आपको पता है कि कोविड हो जाने के बाद टीका लगवाना है या नहीं, या फिर पहली खुराक के बाद संक्रमित होने पर क्या करना सही होगा?
-अंजलि मिश्रा
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल का पहला सप्ताह बीतने के साथ देश में 8.70 करोड़ लोगों को कोविड-19 वैक्सीन लगाया जा चुका था. रोज़ाना लगाए जाने वाले टीकों की बात करें तो मंत्रालय के ही आंकड़े बताते हैं कि सात अप्रैल तक इनका औसत 30,93,861 था. इतने बड़े पैमाने पर चल रहे इस टीकाकरण अभियान में वैक्सीन लगवा चुके या लगवाना चाह रहे लोग, इसकी ज़रूरत और महत्व को समझने के बावजूद कई तरह की आशंकाओं से भी घिरे हुए हैं. सत्याग्रह यहां पर कुछ ऐसे सवालों के जवाब खोजने की कोशिश कर रहा है जो वैक्सीनेशन से जुड़ी आपकी तमाम दुविधाओं और आशंकाओं को खत्म कर सकते हैं.
क्या वैक्सीन लगने के बाद कोरोना संक्रमण नहीं होगा?
यह जानना थोड़ा चौंकाने वाला हो सकता है कि वैक्सीन कोरोना संक्रमण से नहीं बचाती है यानी कि वैक्सीन लगने के बाद भी किसी को कोरोना वायरस का संक्रमण हो सकता है. इतना ही नहीं, इसके बाद वह और लोगों को संक्रमित भी कर सकता है. वैक्सीन से मिली रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी कोविड-19 की गंभीरता को कम करती है. ऐसे ज्यादातर मामलों में संक्रमित को अस्पताल ले जाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती है और अगर ले जाना भी पड़े तो उसे न्यूमोनिया होने या शरीर के किसी और अंग को कोई गंभीर नुकसान पहुंचने का खतरा बहुत कम हो जाता है. इसके अलावा, वैक्सीनेशन के चलते आसपास के लोगों को संक्रमित करने की संभावना भी कुछ हद तक कम हो जाती है. इसलिए अपने साथ-साथ वरिष्ठ नागरिकों, गंभीर बीमारियों से पीड़ित लोगों और बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से भी वैक्सीनेशन ज़रूरी है.
वैक्सीन के दोनों डोज़ के बीच कितने दिनों का अंतराल रखा जाना चाहिए?
भारत में कोविड-19 से बचने के लिए दो टीके – कोवीशील्ड और कोवैक्सिन – उपलब्ध हैं. शुरूआत में दोनों ही वैक्सीनों के पहले और दूसरे डोज़ के बीच 28 से 42 दिनों का अंतराल रखा गया था. स्वास्थ्य विज्ञानियों का कहना है कि वैक्सीन का पहला डोज़ लगने के बाद, शरीर में एंटीबॉडीज बनने में दो से तीन हफ्ते का समय लगता है. इस दौरान शरीर में धीमी रफ्तार से रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होना शुरू होती है जिसके लिए कम से कम 28 दिनों का समय दिया जाना ज़रूरी है. इस समयांतराल के बाद दिया गया दूसरा डोज़ या बूस्टर डोज़ एंटीबॉडीज़ बनाने की इस प्रक्रिया को तेज़ कर देता है.
कोवैक्सिन के लिए दोनों डोज़ के बीच रखा गया अंतर अभी भी 4-6 सप्ताह ही है. लेकिन कोवीशील्ड की बात करें तो हाल ही में इसके लिए निर्धारित समयांतराल को बढ़ाकर अब चार से आठ सप्ताह कर दिया गया है. यानी अब 28 दिन बाद तो वैक्सीन लिया ही जा सकता है लेकिन 56 दिन पूरे होने का इंतज़ार भी किया जा सकता है. दरअसल बीती फरवरी में हुए एक अध्ययन में यह पाया गया था कि जब वैक्सीन का दूसरा डोज छह हफ्ते के भीतर दिया गया तो यह 54.9 फीसदी असरकारी रहा. अवधि को छह से आठ हफ्ते करने पर यह आंकड़ा 59.9, नौ से 11 हफ्ते के बीच करने पर 63.7 और 12 हफ्ते या उससे ज्यादा करने पर बढ़कर 82.4 फीसदी तक पहुंच गया.
कोवीशील्ड की निर्माता कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदर पूनावाला भी अपने कई साक्षात्कारों में कह चुके हैं कि ‘अगर दोनों डोज़ के समयांतराल को तीन महीने रखा जाता है तो वैक्सीन की एफिकेसी 90 फीसदी रहती है.’ कई देशों में एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन यानी कोवीशील्ड के लिए तय समयांतराल 12 हफ्ते ही है लेकिन भारतीय नियामकों ने इसे अभी आठ हफ्ते तक ही सीमित रखा है. ऐसा माना जा रहा है कि भविष्य में समुचित डेटा मुहैया हो जाने पर इसे और बढ़ाया जा सकता है. फिलहाल सबसे अच्छा विकल्प इसे सात से आठ सप्ताह के बीच लगवाना होना चाहिए.
वैक्सीन कितने समय के लिए प्रभावी होगी?
कोरोना वायरस से निपटने में इस्तेमाल किए जा रहे तमाम टीकों को इमरजेंसी इस्तेमाल के लिए अनुमति दी गई है. ये सभी टीके बीते कुछ महीनों में ही विकसित किए गए हैं यानी इनमें से किसी भी वैक्सीन को विकसित करने के लिए सालों-साल चलने वाले ट्रायल नहीं किए जा सके हैं. इसलिए वैज्ञानिक वैक्सीन्स के लंबे समय तक प्रभावी होने के बारे में अभी किसी भी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाए हैं.
कुछ उदाहरणों पर गौर करें तो अमेरिका में इस्तेमाल की जा रही मोडेर्ना और फाइज़र वैक्सीन के छह महीने के लिए प्रभावी होने की बात कही जा रही है. वहीं, भारत में इस्तेमाल की जा रही है कोवीशील्ड के मामले में यह आंकड़ा आठ महीने बताया जा रहा है. कोवीशील्ड से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि इस वैक्सीन का पहला इस्तेमाल हुए अभी तक महज आठ महीने बीते हैं, इसलिए मौजूदा डेटा कम से कम आठ महीने सुरक्षा देने की बात कहते हैं लेकिन आने वाले समय में यह अवधि बढ़ भी सकती है.
मोडेर्ना, फाइज़र, कोवीशील्ड समेत तमाम टीकों को विकसित करने वाले वैज्ञानिक इशारा देते हैं कि अगर वैक्सीन से लंबे समय के लिए, इम्युनिटी विकसित नहीं होती है तो कुछ समय बाद एक और बूस्टर डोज़ दिया जा सकता है. कुछ संभावनाएं कहती हैं कि हर साल डोज़ दिए जाने की ज़रूरत भी पड़ सकती है. फिलहाल, ज्यादातर वैक्सीनों के एक से डेढ़ साल तक प्रभावी होने की उम्मीद की जा रही है. इतने समय में वैज्ञानिक तबका वैक्सीन के कई और विकल्प और इलाज के आधुनिक तरीके विकसित होने की उम्मीद भी जताता दिखता है.
क्या वैक्सीन बच्चों को दी जा सकती है?
वैक्सीन आम तौर पर पहले केवल वयस्कों पर आजमाई जाती हैं. एक बार यह स्थापित हो जाने पर कि कोई वैक्सीन वयस्कों के लिए पूरी तरह से सुरक्षित और प्रभावी है, बच्चों पर इसका परीक्षण करना शुरू किया जाता है. भारत में लगाई जा रही वैक्सीनों की बात करें तो कुछ समय पहले ही बच्चों पर कोवीशील्ड का परीक्षण शुरू हुआ है जिसके नतीजे अगले तीन-चार महीनों में आएंगे. इसके बाद ही कहा जा सकेगा कि यह बच्चों के लिए सुरक्षित है या नहीं.
वहीं, कोवैक्सिन के मामले में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) ने 12 साल से अधिक उम्र वालों के लिए इसके इस्तेमाल की अनुमति दी है. चूंकि फिलहाल फ्रंट लाइन वर्कर्स, वरिष्ठ नागरिकों और स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त लोगों को वैक्सीनेशन में वरीयता दी जा रही हैं इसलिए युवा और बच्चों को यह वैक्सीन नहीं दी जा सकती. वैसे कोरोना वायरस के दुष्प्रभाव बच्चों पर अपोक्षाकृत कम देखने को मिल रहे हैं इसलिए दुनिया भर में 16 साल से अधिक आयु वालों को ही वैक्सीन दी जा रही है. वहीं, बच्चों के लिए सुरक्षा उपाय के तौर पर मास्क लगाना, हाथ धोना, सोशल डिस्टेंसिंग जैसी सावधानियों को ही बरतने की सलाह दी जा रही है.
क्या सर्दी-बुखार होने पर वैक्सीन लगवानी चाहिए?
सर्दी-बुखार होने पर वैक्सीन ना लगवाने की सलाह दी जाती है क्योंकि ऐसे समय में व्यक्ति की इम्युनिटी कमजोर होती है और शरीर वायरस से लड़ रहा होता है. चूंकि वैक्सीन भी शरीर में इम्यून रिस्पॉन्स को वैसे ही ट्रिगर करती है जैसे कि कोई बीमारी करती है, इसलिए सर्दी-बुखार के दौरान वैक्सीन लेने पर ये लक्षण गंभीर हो सकते हैं. इसके अलावा, सर्दी-बुखार कोरोना संक्रमण के लक्षणों में से भी एक है, इसलिए भी इस दौरान वैक्सीन न लेने की सलाह दी जाती है. यहां पर यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि अगर कोई कोरोना संक्रमित है तो उसे वैक्सीन नहीं लेनी चाहिए. इसके साथ ही, अगर पहला डोज़ लगने के बाद किसी को कोरोना संक्रमण हो जाता है तो भी उसे अगला डोज़ तब तक नहीं लेना चाहिए, जब तक संक्रमण के लक्षण पूरी तरह से चले न जाएं.
वैज्ञानिक सलाह देते हैं कि सर्दी-बुखार के अलावा अगर किसी को किसी तरह की एलर्जी हो, किसी तरह का ब्लीडिंग डिसऑर्डर या रोग प्रतिरोधक क्षमता से संबंधित कोई समस्या हो तो उसे भी वैक्सीन नहीं लगवानी चाहिए. इसके साथ ही, गर्भवती और दूध पिलाने वाली महिलाओं या प्रेग्नेंसी प्लान कर रही महिलाओं को भी वैक्सीन न लगवाने की सलाह दी जा रही है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वैक्सीन महिलाओं (या पुरुषों) की प्रजनन क्षमता पर किसी तरह का बुरा असर डालती है. इसके अलावा, पीरियड्स के दौरान वैक्सीन लगवाने में भी स्वास्थ्य विज्ञानी कोई समस्या नहीं देखते हैं.
अगर कोई पहले ही कोरोना संक्रमित हो चुका हो तो क्या उसे वैक्सीन लेने की ज़रूरत है?
वैज्ञानिकों को कहना है कि संक्रमण से शरीर में विकसित होने वाली इम्युनिटी, अलग-अलग लोगों में अलग-अलग तरह से काम करती है. चूंकि संक्रमण की गंभीरता और उस समय शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता के मुताबिक शरीर संक्रमण का सामना करता है और ठीक होने पर, शरीर में इसी के मुताबिक (कम या ज्यादा मात्रा में) मेमोरी सेल्स सक्रिय होती हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह इम्युनिटी कितनी प्रभावी और कितने समय तक रहने वाली है. इसीलिए संक्रमण का शिकार हो चुके लोगों को भी वैक्सीन लेने की सलाह दी जाती है, फिर चाहे संक्रमण एक साल पहले हुआ हो या कुछ ही हफ्ते पहले. और इस तरह के लोगों को भी वैक्सीन के दोनों डोज़ लेना ज़रूरी है. और अगर किसी को पहला डोज़ लेने के बाद कोरोना संक्रमण हो जाए तो उसे संक्रमण के लक्षण खत्म होते ही दूसरा डोज़ ले लेना चाहिए.
पूरे देश का टीकाकरण होने में कितना समय लगेगा?
केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण बीते हफ्ते मीडिया से बात करते हुए, यह कहते नज़र आए थे कि ‘वैक्सीन उनके लिए है जिन्हें इसकी ज़रूरत है न कि उनके लिए जो वैक्सीन लगवाना चाहते हैं. कई लोग पूछ रहे हैं कि हम सभी के लिए टीका क्यों नहीं उपलब्ध करवा रहे हैं. टीकाकरण अभियान के दो मुख्य उद्देश्य कोविड से होने वाली मौतों को कम करना और हेल्थकेयर सिस्टम को अतिरिक्त दबाव से बचाना है.’ फिलहाल राजनीतिक नेतृत्व से लेकर वैज्ञानिकों तक का कहना यही है कि इन परिस्थितियों में यह कहना मुश्किल है कि पूरी जनसंख्या का टीकाकरण होने में कितना समय लग सकता है.
तमाम जगहों पर वैक्सीन की कमी और उसके उत्पादन में हो रही देरी भी इस सवाल का कोई निश्चित जवाब ना मिल पाने की एक वजह है. साथ ही अभी यह भी नहीं पता कि वैक्सीन कितने दिन प्रभावी रहेगी. यानी कि ऐसा भी हो सकता है कि वैक्सीन लगवा चुके लोगों की इम्युनिटी सबको वैक्सीन लगने से पहले ही खत्म हो जाए. लेकिन इस बात की भी प्रबल संभावना है कि कुछ समय में कुछ और वैक्सीन भारत में उपलब्ध हो जाएं. और जो पहले से ही उपलब्ध हैं उनका उत्पादन आज की तुलना में काफी बढ़ जाए. लेकिन इनका असर महसूस होने में इस साल के अंत तक का समय लग सकता है.
कोवीशील्ड के चलते ब्रेन में ब्लड क्लॉटिंग की शिकायतों को कितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए?
यूरोप के कुछ देशों में, वैक्सीन लेने के बाद लोगों के मस्तिष्क में खून के थक्के (ब्लड क्लॉट) जमने की शिकायतें सामने आई थीं. इसके बाद कुछ समय के लिए कोवीशील्ड के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई थी. इन शिकायतों की गंभीरता परखने के लिए आंकड़ों पर गौर करें तो पचास लाख लोगों को वैक्सीन लगाए जाने के बाद 30 लोगों के मस्तिष्क में ब्लड क्लॉटिंग देखने को मिली थी. इनमें सात लोगों की मौत भी हो चुकी है. इन मामलों की संख्या बहुत कम होने के चलते ज्यादातर स्वास्थ्यविद इसे वैक्सीन का दुष्प्रभाव मानने से इनकार करते हैं. वहीं, कोवीशील्ड के निर्माताओं का कहना है कि यूरोपियन मेडिसिन्स एजेंसी (ईएमए) इस मामले की जांच कर रही है. निर्माता तर्क देते हैं कि इससे पहले वैक्सीन के चलते लोगों में प्रतिकूल न्यूरोलॉजिकल बदलावों की बात भी कही गई थी लेकिन बाद में हुई जांच में वैक्सीन को इसका जिम्मेदार नहीं पाया गया. उन्हें उम्मीद है कि ब्लड क्लॉटिंग के मामले में यही नतीजे दोहराए जा सकते हैं.
क्या भारत में लगाए जा रहे टीके वायरस के अलग-अलग वैरिएंट्स के लिए प्रभावी होंगे?
ज्यादातर वैक्सीन इस तरह डिजाइन किए जाते हैं कि वे वायरस के एक से अधिक वैरिएंट के लिए भी प्रभावी हों. कोवीशील्ड के बारे में दावा किया जा रहा है कि यह वैक्सीन वुहान वायरस (कोरोना वायरस के शुरूआती वैरिएंट) के लिए जहां 85 फीसदी तक प्रभावी है. वहीं, यूके, साउथ अफ्रीका और अन्य वैरिएंट के लिए 40 से 60 फीसदी तक प्रभावी पाई गई है. भारत में यूके वैरिएंट से जुड़े संक्रमण के मामलों में पाया गया है कि वैक्सीन लगने के बाद संक्रमण होने पर किसी को भी अस्पताल में भर्ती कराने की नौबत नहीं आई है. कोवैक्सिन की बात करें तो जनवरी में एक शोध के हवाले से आईसीएमआर का कहना था कि यह यूके, ब्राजील और साउथ अफ्रीका वैरिएंट से भी बचा सकती है.
कोवैक्सिन या कोवीशील्ड?
कोवैक्सिन की दो खुराकों के बीच का अंतराल कम होने की वजह से उसका सुरक्षा कवच कोवीशील्ड से थोड़ा पहले काम करना शुरू कर सकता है. इसके अलावा कोवैक्सिन का एफिकेसी रेट 81% बताया जा रहा है. वहीं, एस्ट्राज़ेनेका या कोवीशील्ड के मामले में दोनों डोज़ में रखे गए समयांतराल के हिसाब से यह 60 से 90 फीसदी हो सकता है. कोवीशील्ड और कोवैक्सिन, दोनों को ही लगाए जाने के बाद टीके की जगह पर दर्द, सूजन, खुजली, गर्माहट या लाली देखने को मिल सकती है. इसके अलावा वैक्सीन की वजह से बुखार, सिरदर्द, जोड़ों में दर्द, कमजोरी आदि लक्षण भी देखने को मिल सकते हैं. इसके लिए खूब पानी पीने की जरूरत है और पैरासिटामॉल भी ली जा सकती हैं. अगर लक्षण ज्यादा गंभीर हों तो तुरंत अस्पताल जाने की सलाह दी जाती है. जानकारों के मुताबिक कोवैक्सिन की तुलना में कोवीशील्ड के साइड इफेक्ट्स कम देखने को मिल रहे हैं.
दरअसल कोवीशील्ड आधुनिक वायरल वेक्टर टेक्नॉलजी से बनाई गई वैक्सीन है. इसमें चिंपाज़ियों में सर्दी-जुकाम के लिए जिम्मेदार एडनोवायरस का इस्तेमाल वाहक की तरह किया गया है. इसकी मदद से शरीर में कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन (या कहें वायरस के जेनेटिक कोड्स) को शरीर में पहुंचाने की व्यवस्था की गई है. इस तरह की वैक्सीन से बगैर वायरस का प्रवेश करवाए, अपने आप शरीर में उसकी मेमोरी सेल्स तैयार की जाती हैं. ऐसा करने से वैक्सीन के साइड इफेक्ट्स आशंका कम हो जाती है. दूसरी तरफ, कोवैक्सीन के निर्माण में असक्रिय कोरोना वायरस का इस्तेमाल किया गया है. यह वैक्सीन बनाने का दशकों पुराना और आजमाया हुआ तरीका है. कुल मिलाकर यह कहना मुश्किल है कि दोनों में से कौन सी वैक्सीन बैहतर है. और अगर इस मामले में किसी नतीजे पर पहुंच भी गए तो फिलहाल अस्पताल में वैक्सीन चुनने की आज़ादी किसी को नहीं है. इस समय कोवैक्सिन के मुकाबले कोवीशील्ड का उत्पादन काफी बड़े स्तर पर हो रहा है इसलिए ज्यादातर लोगों को वही लगाई जा रही है.
केंद्र सरकार और चुनाव आयोग ने रिकॉर्ड तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती कर विधान सभा चुनावों में हिंसा पर अंकुश लगाने का दावा किया था. बावजूद इसके चौथे चरण में केंद्रीय बलों की फायरिंग में ही चार लोगों की मौत हो गई.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
पश्चिम बंगाल विधान सभा के चुनावों में मतदान के चार चरण हो चुके हैं और चौथे दौर के मतदान में हुई हिंसा के बाद बाकी चार चरणों के दौरान भी हिंसा का अंदेशा बढ़ने लगा है. दूसरी ओर, इस हिंसा के लिए बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने में जुटी हैं. पश्चिम बंगाल की छवि भद्रलोक वाली रही है. लेकिन राज्य में चुनावों के दौरान यह छवि कहीं गुम हो जाती है.
भारी सुरक्षा के बावजूद हिंसा
यूं तो राज्य में चुनावी हिंसा की परंपरा बहुत पुरानी रही है. लेकिन मौजूदा विधानसभा चुनावों में जैसी हिंसा शुरू हुई है वैसी पहले कभी नहीं हुई थी. यह पहला मौका है जब शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए तैनात केंद्रीय सुरक्षा बलों की फायरिंग में ही चार लोगों की मौत हुई हो. चौथे चरण के चुनाव में हिंसा के दौरान कुल पांच लोगों की मौत हुई है. वैसे वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस बार भी हिंसा की आशंका तो बहुत पहले से जताई जा रही थी. बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कामयाबी के बाद राज्य में राजनीतिक हिंसा की घटनाएं लगातार तेज हुई हैं. कोई भी महीना ऐसा नहीं बीता है जिस दौरान किसी न किसी पार्टी के कार्यकर्ता की हत्या नहीं हुई हो.
मौजूदा विधानसभा चुनाव के पहले तीनों चरण भी हिंसा से अछूते नहीं रहे थे. इस तथ्य के बावजूद कि टीएमसी पर हिंसा का आरोप लगाने वाली बीजेपी और उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने इस बार रिकॉर्ड तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती की है. पहले चरण में कई नेताओं के काफिले पर हमले हुए तो दूसरे चरण में नंदीग्राम में भी मतदान केंद्रों पर कब्जा करने और हमले के आरोप सामने आए. इस दौरान टीएमसी और बीजेपी से जुड़े कुछ लोगों की रहस्यमय हालत में मौतें भी हुईं. दोनों दलों ने इनको हत्या करार देते हुए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराया था. लेकिन चौथे चरण ने अब तक की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया है. इससे यह भी बात साबित हो गई है कि राज्य के चप्पे-चप्पे में केंद्रीय बलों की तैनाती के बावजूद इस हिंसा पर लगाम लगाना संभव नहीं है.
आजादी जितना पुराना है हिंसा का इतिहास
पश्चिम बंगाल देश विभाजन के बाद से ही हिंसा के लंबे दौर का गवाह रहा है. विभाजन के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे पर भी बंगाल में भारी हिंसा होती रही है. वर्ष 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है. उसके बाद इस इतिहास में ऐसे कई और नए अध्याय जुड़े. दरअसल, साठ के दशक के द्वितीयार्ध में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था. किसानों के शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं. वर्ष 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ उसने पहले की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया. वर्ष 1977 के विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन की भी वजह बनी. सत्तर के दशक में भी वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और सीपीएम की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है.
लेफ्ट के सत्ता में आने के बाद कोई एक दशक तक राजनीतिक हिंसा का दौर चलता रहा था. बाद में विपक्षी कांग्रेस के कमजोर पड़ने की वजह से टकराव धीरे-धीरे कम हो गया था. लेकिन वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया. उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई. उसके बाद राज्य के विभिन्न इलाकों में जमीन अधिग्रहण समेत विभिन्न मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों और माओवादियों की बढ़ती सक्रियता की वजह से भी हिंसा को बढ़ावा मिला. उस दौरान ममता बनर्जी जिस स्थिति में थीं अब उसी स्थिति में बीजेपी है. नतीजतन टकराव लगातार तेज हो रहा है.
आरोप-प्रत्यारोप तेज
अब चौथे चरण की हिंसा के बाद टीएमसी और बीजेपी के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर लगातार तेज हो रहा है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जहां इस हिंसा के लिए केंद्र सरकार, बीजेपी और गृह मंत्री अमित शाह को जिम्मेदार ठहराया है वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह तक ने इसके लिए ममता के भड़काऊ बयानों को जिम्मेदार ठहराया है. ममता बनर्जी कहती हैं, "मैं तो पहले से ही केंद्रीय बल के जवानों के जरिए अत्याचार के आरोप लगाती रही हूं. अब मेरी बात आखिर सच साबित हो गई है. यह फायरिंग अमित शाह के इशारे पर की गई है. उनको तुरंत अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए.” टीएमसी महासचिव पार्थ चटर्जी कहते हैं, "यह बंगाल के चुनावी इतिहास में अपनी किस्म की पहली घटना है.”
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस हिंसा के लिए टीएमसी और उसकी गुंडा वाहिनी को जिम्मेदार ठहराया है. मोदी ने अपनी रैली में कहा, "अपनी हार तय जान कर दीदी (ममता बनर्जी) और उनकी पार्टी हिंसा पर उतर आई है. उन्होंने केंद्रीय बल के जवानों का घेराव करने जैसे भड़काऊ बयान देकर ऐसी हालत पैदा कर दी है.”
समाजशास्त्रियों का कहना है कि इस बार बंगाल की सत्ता के लिए जैसी कांटे की लड़ाई है उसमें चुनावी नतीजों के बाद खासकर ग्रामीण इलाकों में भी बड़े पैमाने पर हिंसा के अंदेशे से इंकार नहीं किया जा सकता. इसलिए राजनीतिक और सामाजिक हलकों में यह मांग उठ रही है कि चुनावी नतीजों के बाद भी कुछ दिनों तक संवेदनशील इलाकों में केंद्रीय बलों को तैनात रखा जाना चाहिए. समाजशास्त्री प्रोफेसर कालीपद दास कहते हैं, "राज्य के ग्रामीण समाज में धर्म और जाति के आधार पर विभाजन साफ नजर आ रहा है. ऐसे में चुनावी नतीजों के बाद भी हिंसा का अंदेशा है. चुनाव आयोग को इस पहलू का भी ध्यान रखना चाहिए.” कोलकाता पुलिस के पूर्व आयुक्त गौतम चक्रवर्ती कहते हैं, "जिलों में मतदान के दौरान हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग को नई रणनीति बनानी चाहिए.” (dw.com)
-प्रेम रेंझाई
एक बहुत बड़े मनसविद कार्ल गुस्ताव जुंग ने अपने संस्मरणों में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात लिखी है। उसने लिखा है कि मनुष्य के सारे दुखों का कारण मनुष्य की कल्पना की शक्ति है। कोई पशु दुखी नहीं है, क्योंकि कोई पशु कल्पना नहीं कर सकता। कल्पना की शक्ति मनुष्य के बड़े से बड़े दुख का कारण है। क्यों? क्योंकि मनुष्य जिस हालत में भी हो, उससे बेहतर की कल्पना कर सकता है।
एक सुंदर स्त्री आपको पत्नी की तरह मिल जाए, प्रेयसी की तरह मिल जाए, लेकिन ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो उससे सुंदर स्त्री की कल्पना न कर सके। और अगर आप अपनी पत्नी से सुंदर स्त्री की कल्पना भी कर सकते हैं तो दुखी हो गए। यह पत्नी व्यर्थ हो गई। कितना ही सुंदर महल हो, आप उससे बेहतर महल की कल्पना तो कर ही सकते हैं, न भी बना सकें। बस उस कल्पना के साथ ही तुलना शुरू हो गई। और महल झोपड़े से बदतर हो गया।
जब बेहतर कुछ हो सकता हो तो जो भी हमारे पास है वह गैर-बेहतर हो गया। कल्पना की शक्ति मनुष्य के दुख का भी कारण है, उसकी सृजनात्मकता का, उसकी क्रिएटिविटी का भी। कोई पशु सृजन नहीं करता। पशु एक पुनरावृत्ति में जीते हैं। लाखों वर्ष तक उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही ढंग का जीवन व्यतीत करती है। आदमी नए की खोज करता है, नए का सृजन करता है। कल्पना के कारण वह देख पाता है-कुछ बदलाहट की जा सकती है, कुछ बेहतर बनाया जा सकता है। लेकिन जिस शक्ति से सृजनात्मकता पैदा होती है उसी शक्ति से मनुष्य का दुख भी पैदा होता है।
इसलिए बड़े हैरान होंगे आप जान कर कि सृजनात्मक लोग सर्वाधिक दुखी होते हैं। जो व्यक्ति भी क्रिएटिव है, कुछ सृजन कर सकता है-चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं, वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, बहुत दुखी होते हैं। क्योंकि किसी भी स्थिति में उन्हें अंत नहीं मालूम हो सकता, उस स्थिति से बेहतर हो सकता है। और जब तक वे बेहतर को न पा लें तब तक दुखी होंगे। और ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती जिससे बेहतर की कल्पना न की जा सके।
-रिचर्ड महापात्रा
दुनिया में सबसे तेजी से गरीबी कम करने वाले भारत में 45 साल के बाद एक साल में सबसे ज्यादा गरीब बढ़े
कोरोना महामारी भारत में ऐसे समय आई, जब देश में एक दशक में सबसे कम आर्थिक वृद्धि दर्ज की गई थी। सुस्त अर्थव्यवस्था ने असंगत रूप से ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा असर डाला, जहां देश के बहुसंख्यक उपभोक्ता और गरीब रहते हैं। यहां तक कि बिना किसी आधिकारिक आंकड़े के हम यह मान सकते हैं कि गांवों में एक साल में गरीबी बढ़ी है।
पिछले साल तक बेरोजगारी बढ़ रही थी, उपयोग की जाने वाली चीजों पर खर्चा कम हो रहा था, और जनता के लिए किया जाने वाला विकास कार्य स्थिर था। यही तीनों कारक एक साथ यह दर्शाते हैं कि कोई अर्थव्यवस्था कितनी बेहतर है।
अब 2021 पर आते हैं, गांवों में रहने वाले ज्यादातर असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले और गरीब हैं। पिछले एक साल से वे अनियमित काम पा रहे हैं। कठिन हालात में गुजर बसर करने के उनके किस्से अब सामने भी आ रहे हैं। लोगों ने खाने में कटौती करनी शुरु कर दी है। राशन के दाम बढऩे से लोगों ने दाल खाना बंद कर दिया। लोगों को रोजगार देने वाली मनरेगा जैसी योजना उनके काम की मांग को पूरा नहीं कर पा रही। तमाम लोग अपनी छोटी सी जमा पूंजी पर गुजारा कर रहे हैं। कोरोना की दूसरी लहर के तेज होने के चलते पूरी तरह निराशा के हालात बन रहे हैं। कोई यह दलील दे सकता है कि अर्थव्यवस्था का बुरा दौर बीत चुका है और हाशिये के लोगों के लिए सरकार ने कई उपाय किए हैं। सवाल यह है कि इसका नतीजा क्या रहा?
विश्व बैंक के आंकडों के आधार पर प्यू रिसर्च सेंटर ने अनुमान लगाया है कि कोरोना के बाद की मंदी के चलते देश में प्रतिदिन दो डालर या उससे कम कमाने वाले लोगों की तादाद महज पिछले एक साल में छह करोड़ से बढक़र 13 करोड़, चालीस हजार यानी दोगुने से भी ज्यादा हो गई है। इसका साफ संकेत है कि भारत 45 साल बाद एक बार फिर ‘सामूहिक तौर पर गरीब देश’ बनने की ओर बढ़ रहा है। इसके साथ ही 1970 के बाद से गरीबी हटाने की ओर बढ़ रही देश की निर्बाध यात्रा भी बाधित हो चुकी है। पिछली बार आजादी के बाद के पहले 25 सालों में गरीबी में बढ़त दर्ज की गई थी। तब, 1951 से 1954 के दौर में गरीबों की आबादी कुल आबादी के 47 फीसद से बढक़र 56 फीसद हो गई थी।
हाल के सालों में भारत ऐसे देश के तौर पर उभरा था, जहां गरीबी कम करने की दर सबसे ज्यादा थी। 2019 के गरीबी के वैश्विक बहुआयामी संकेतकों के मुताबिक, देश में 2006 से 2016 के बीच करीब 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर निकाला गया। इसके उलट 2020 में दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबों की तादाद बढ़ाने वाले देश के तौर पर भारत का नाम दर्ज हो रहा है।
देश में 2011 के बाद गरीबों की गणना नहीं हुई है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के हिसाब से 2019 में देश में करीब 36 करोड़, 40 लाख गरीब थे, जो कुल आबादी का 28 फीसद है। कोरोना के कारण बढ़े गरीबों की तादाद इन गरीबों में जुड़ेगी।
दूसरी ओर, शहरी क्ष़ेत्रों में रहने वाले लाखों लोग भी गरीबी रेखा से नीचे आ गए हैं। प्यू रिसर्च सेंटर के अनुमान के मुताबिक, मध्यम वर्ग सिकुड़ कर एक तिहाई रह गया है। कुल मिलाकर चाहे पूरी आबादी के बात करें या देश को भौगोलिक खंडों में बांटकर देखें, देश में करोड़ों लोग या तो गरीब हो चुके हैं या गरीब होने की कगार पर हैं।
क्या यह एक अस्थायी स्थिति है ? सामान्य धारणा यह है कि आर्थिक प्रगति होने पर तमाम लोग गरीबी रेखा से ऊपर आ जाएंगे। लेकिन सवाल यह है कि यह कैसे होगा ? लोगों ने खर्च कम कर दिया है या वे खर्च करने के लायक ही नहीं बचे हैं। उन्होंने अपनी सारी बचत गंवा दी है, जिससे भविष्य में भी उनके खर्च करने की क्षमता कम हो चुकी है।
सरकार भी इस त्रासदी के दौर में नापतौल कर ही लोगों को राहत दे रही है। इसका मतलब है कि यह आर्थिक स्थिति फिलहाल बनी रहेगी। महामारी की तरह इससे निकलने का रास्ता भी अभी तय नहीं है। (downtoearth.org.in)
-शालिनी सहाय
नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के कुछ कार्यकर्ताओं को रात में ले जाया गया और अगले दिन उनके शव परिवारों को भेजे दिए गए। कोई जानकारी नहीं दी गई कि क्या हुआ, कैसे हुआ। मुकदमा, सुनवाई और जेल तो दूर की बात है। चेहरे समेत पूरे शव पर चोट के ढेरों निशान थे।
मैं जिन सोशल मीडिया हैंडल को फॉलो करती हूं, उनकी आवाज गुम हो गई है। हर बीतते दिन के साथ म्यांमार में जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है, यह जानना और मुश्किल होता जा रहा है। जो रिपोर्ट छन-छनकर आ रही है, उसके मुताबिक, म्यांमार वायुसेना ने थाईलैंड से लगती सीमा पर बमबारी की है और सेना अंधाधुंध तरीके से आम लोगों को मार रही है। ऐसी स्थिति में भारत के सामने अलग तरह की पसोपेश की स्थिति आ खड़ी हुई है। वह खुलकर विरोध नहीं कर रहा है कि पिछली बार ऐसी ही स्थिति में उसने तो अपने को काट लिया था, लेकिन चीन ने तब म्यांमार से रिश्तों को बेहतर करने का मौका ताडक़र हालत अपने पक्ष में कर लिया था। म्यांमार से जो भी खबरें आ रही हैं, उनमें से एक संगीतकार के हवाले से उभरती तस्वीर दिल को झकझोरने वाली है। विभिन्न प्लेटफार्मों पर आई जानकारी यह अंदाजा लगाने के लिए काफी है कि म्यांमार में आम लोगों की हालत कैसी है। नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं को रात में ले जाया गया और अगले दिन उनके शव परिवारों को भेजे दिए गए। कोई जानकारी नहीं दी गई कि क्या हुआ, कैसे हुआ। मुकदमा, सुनवाई और जेल तो दूर की बात है। चेहरे समेत पूरे शव पर चोट के ढेरों निशान थे। एक आदमी के मुंह में कोई दांत नहीं था और उसके शरीर के कई अंग भी गायब थे। वे उसे रात में ले गए थे और परिवार वालों को खबर भिजवाई थी कि आकर शव ले जाएं।
वे छात्रों, प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लेते हैं और पकड़े गए कुछ लोगों को सरेआम सडक़ों-गलियों में सिर पर बंदूक तानकर गोली मार देते हैं, जिससे लोगों में खौफ बने। हम जानते हैं कि उनका मुकाबला ईंट-पत्थरों से नहीं कर सकते। लेकिन हम वह सब कर रहे हैं जो कर सकते हैं। हम बंदूकों से डरकर चुप नहीं बैठना चाहते। हर व्यक्ति लडऩे के लिए तैयार है, और अब हर कोई बंदूक प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है।
अब सामान्य जीवन नहीं रह गया है। मेरा मतलब है, सब बंद है। सब कुछ थम गया है। शहर के बाहर से खाने-पीने का कोई सामान नहीं आ रहा है। आने-जाने का कोई साधन नहीं। लोग कैद होकर रह गए हैं। सभी बैंक बंद हैं, हम अपना पैसा भी नहीं निकाल सकते। वही खा रहे हैं जो पास है। लगता है, जल्दी ही भुखमरी की हालत होगी। कोई सुरक्षित नहीं है। वे आपके पर्स की तलाशी लेंगे। पैसे मिले तो रख लेंगे। वे सुरक्षा बलों की तरह तो सलूक ही नहीं कर रहे। लगता है जैसे डाकू हों।
एक बैंड के एक गायक को ले जाया गया। उन्हें एनएलडी समर्थक के रूप में जाना जाता था क्योंकि वे पार्टी के नेताओं और लोकतंत्र को बढ़ावा देते थे। कोई नहीं जानता कि वह अभी कहां हैं। वह रॉक योर वोट नाम के बैंड में थे। यह बैंड लोगों को वोट देने के लिए जागरूक करता था। बैंड का टॉक शो और गीत-संगीत का खासा असर हुआ और युवाओं में वोट के प्रति जागरूकता आई भी। अब बैंड के गायक को उठा लिए जाने से युवाओं में खासा गुस्सा है।
सोशल मीडिया पर एक नागरिक ने कहा कि उन्होंने बर्मी शिक्षा प्रणाली को नष्ट कर दिया है क्योंकि वे तब बेवकूफ लोगों को स्मार्ट लोगों की तुलना में आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं। 1988 में मैं सात साल का था। अभी मेरे बेटे की उम्र ठीक इतनी ही है। मेरे बचपन में मुझे समझना-सीखना पड़ा कि संघर्ष कैसे करें, दुनिया के दूसरे हिस्सों के कलाकारों की तुलना में मुझे कितनी अधिक मेहनत करनी होगी। मुझे संतोष था कि मेरे बेटे को वैसे हालात से नहीं गुजरना होगा, क्योंकि चीजें बेहतर दिख रही थीं। अब जब मैं अपने बेटे को देखता हूं तो अफसोस होता है कि उसे भी उन्हीं हालात से दो-चार होना होगा।
बड़े दर्द भरे और नाउम्मीदी में उन्होंने कहा कि शर्तिया है कि हमें यूएन बचाने नहीं आ रहा। यूएन शायद 1,000 और बयान जारी करेगा और शायद बड़ा सख्त भी, लेकिन... सेना कहीं नहीं जाने वाली। अगर गृहयुद्ध होता है, तो वे हम पर बम बरसाएंगे। म्यांमार की सेना युद्ध की तैयारी कर रही है। सेना अस्पतालों, स्कूलों में बलों को तैनात कर रही है। अगर अंतरराष्ट्रीय हवाई हमले होते हैं तो वे इन अस्पतालों और स्कूलों पर कब्जा करके मोर्चा खोलेंगे। (navjivanindia.com)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय की यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि भारत का संविधान नागरिकों को अपने ‘धर्म-प्रचार’ की पूरी छूट देता है और हर व्यक्ति को पूरा अधिकार है कि वह जिसे चाहे, उस धर्म को स्वीकार करे। हर व्यक्ति अपने जीवन का खुद मालिक है। उसका धर्म क्या हो और उसका जीवन-साथी कौन हो, यह स्वयं उसे ही तय करना है।
यह फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति रोहिंगटन नारीमन ने अश्विन उपाध्याय की एक याचिका को खारिज कर दिया। उस याचिका में उपाध्याय ने यह मांग की थी कि भारत में जो धर्म-परिवर्तन लालच, भय, ठगी, तिकड़म, पाखंड आदि के जरिए किए जाते हैं, उन पर रोक लगनी चाहिए। धर्म-परिवर्तन पर रोक के कानून देश के आठ राज्यों ने बना रखे हैं लेकिन 1995 के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला देते हुए इस याचिका में मांग की गई थी कि शीघ्र ही एक केंद्रीय कानून बनना चाहिए।
न्यायमूर्ति नारीमन ने न सिर्फ इस याचिका को रद्द कर दिया बल्कि यह कहा है कि याचिकाकर्ता इस याचिका को वापस ले ले, वरना अदालत उस पर जुर्माना ठोक देगी। अश्विन उपाध्याय बिदक गए और उन्होंने अपनी याचिका वापस ले ली। अब वे गृह मंत्रालय, विधि आयोग, विधि मंत्रालय और सांसदों से अनुरोध करेंगे कि वे वैसा कानून बनाएं। मेरी समझ में नहीं आता कि अश्विन उपाध्याय जज की धमकी से क्यों डर गए? वे जुर्माना लगाते तो उन्हें जुर्माना भर देना था और अपने मुद्दे को दुगुने उत्साह से उठाना था। अगर मैं उनकी जगह होता तो एक कौड़ी भी जुर्माना नहीं भरता और जज से कहता कि माननीय जज महोदय आप यदि मुझे जेल भेजना चाहें तो भेज दीजिए। मैं सत्य के मार्ग से नहीं हटूंगा। मैं जेल में रहकर अपनी याचिका पर बहस करुंगा और अदालत को मजबूर कर दूंगा कि देशहित में वह वैसा कानून बनाने का समर्थन करे।
जस्टिस नारीमन से कोई पूछे कि दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने समझ-बूझकर, पढ़-लिखकर और स्वेच्छा से किसी धर्म को स्वीकार किया है ? एक करोड़ में से एक आदमी भी ऐसा नहीं मिलेगा। सभी आंख मींचकर अपने मां-बाप का धर्म ज्यों का त्यों निगल लेते हैं। जो उसे चबाते हैं, वे बागी या नास्तिक कहलाते हैं। जो लोग भी अपना धर्म-परिवर्तन करते हैं, क्या वे वेद या बाइबिल या जिन्दावस्ता या कुरान या ग्रंथसाहब पढक़र करते हैं ? ऐसे लोग भी मैंने देखे जरुर हैं लेकिन वे अपवाद होते हैं।
ज्यादातर वे ही लोग अपना पंथ, संप्रदाय, धर्म या पूज्य-पुरुष परिवर्तन करते हैं, जो या तो भेड़चाल, अंधविश्वास या लालच या भय या ढोंग के शिकार होते हैं। मैं अंतरधार्मिक, अंतरजातीय, अंतरप्रांतीय विवाहों का प्रशंसक हूं लेकिन उनके बहाने धर्म-परिवर्तन की कुचाल घोर अनैतिक और निंदनीय है। इसीलिए अदालत के मूल भाव से मैं सहमत हूँ लेकिन उक्त याचिका पर उसका फैसला मुझे बिल्कुल तर्कसंगत नहीं लगता। इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की किसी नई और बड़ी पीठ को विचार करना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
1) पिछली बार सरकार प्रो एक्टिव नजर आ रही थी..... लोगो को पकड़ पकड़ कर टेस्ट करने के लिए ले जा रही थी इस बार नजारा बदल गया है लोग खुद सामने आकर टेस्ट कराने को तैयार है लेकिन सरकार पर्याप्त संसाधन तक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है.....टेस्ट कराने के लिए लोग दिन दिन भर इंतजार कर रहे हैं
2) पिछली बार सरकार ने कोविड सेंटर्स खोले थे क्वारंटाइन करने के लिए लोगो को गाड़ियों में भर भर कर वहाँ भेजा जा रहा था, उनके खाने पीने सोने की सारी व्यवस्था की थी.....रेल के डिब्बों को कोविड सेंटर्स में बदला गया, ......लेकिन इस बार कहीं से भी कोई खबर नहीं आ रही कि कहीं भी कोई भी कोविड सेंटर काम कर रहा हो.....बल्कि जो कोविड सेंटर चालू थे उन्हें भी एक एक कर के बन्द करवा दिया गया.... अब जिनके घर मे एक ही रूम है और उनके परिवार का सदस्य पॉजिटिव हो गया है वे लोग पूछ रहे हैं कि हमको अलग रखने के लिये सरकार ने क्या व्यवस्था की है सरकार के पास कोई जवाब नहीं है ?
3) पिछली बार सरकारी अधिकारियों ने लॉक डाउन के दौरान अपने रुकने के लिए महामारी एक्ट के नाम पर शहर के बड़े बड़े होटलों पर कब्जा जमा।लिया था, बाद में जब वो होटल खाली किये गए तो बुरी हालत में ऑनर को मिले ओर सबसे बड़ी बात तो यह कि आज तक होटल के मालिकों को सरकार की तरफ से कोई भुगतान नहीं किया गया, बिल दिए उनको महीने बीत गए हैं....... शायद इसलिए ही इस बार होटल गेस्ट हाउस के अधिग्रहण का कदम अभी तक नहीं उठाया गया है
4) पिछली बार सबसे ज्यादा हल्ला वेंटिलेटर को लेकर मचाया जा रहा था ओर उस हल्ले का फायदा उठाकर घटिया वेंटिलेटर की सप्लाई की गयी जो आज बन्द पड़े हुए हैं....PM केयर के फंड की रकम से गुजरात की कम्पनियो से खूब वेंटिलेटर खरीदे गए और जमकर घोटाला किया इस बार कोई वेंटिलेटर का नाम भी नहीं ले रहा......
5) पिछली बार एक लाख तक रोज मरीज मिल रहे थे लेकिन किसी भी हॉस्पिटल में ऑक्सीजन की सप्लाई को लेकर ऐसी खबरें नहीं आ रही थी जैसी खबरे अब आ रही है कई शहरों में हॉस्पिटल में ऑक्सीजन सप्लाई खत्म होने की कगार पर है....... यहाँ पूरे एक साल में सरकार सोती रही आक्सीजन सप्लाई की व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.
6) पिछली बार सड़को पर मच्छर मारने का धुंआ उड़ाकर कोरोना वायरस को मारने का खूब प्रयास किया गया लेकिन इससे कोरोना वायरस की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा..... इस बार सरकार ने वैसी कोई बेवकूफी नहीं की......
7) पिछली बार आपको याद होगा कि छूने से कोरोना फैलता है यह बात को खूब फैलाया गया इंदौर जैसे शहर में तो सब्जियों को बिकने से रोक दिया गया, पिछली बार तो आलू प्याज में भी कोरोना वायरस निकल रहा था, इस बार सरकार को थोड़ी अकल आयी है इस तरह की बेवकूफियां नहीं की जा रही, अब यह कहा जा रहा है कि यह सिर्फ साँस के जरिए फैल रहा है बाकी छूने से नहीं फैल रहा है.......
-रमेश अनुपम
आखिरकार गुरुदेव ने मन ही मन एक युक्ति ढूंढ ही निकाली। उन्होंने रूखमणी से अपने साथ आने के लिए कहा ताकि प्लेटफार्म में किसी दुकान से सौ रुपए का चिल्हर करवा कर वे उसे पच्चीस रुपए दे सकें। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इस फैसले को देखकर मृणालिनी देवी प्रसन्न हुई।
गुरुदेव अपने साथ रूखमणी को लेकर प्लेटफार्म की ओर बढ़ गए। थोड़ी दूर जाने के बाद गुरुदेव अपने असली रूप में आ गए। जेब से दो रुपए निकाले और रूखमणी को डांटते हुए बोले तुम मुसाफिरों को लुटती हो मैं अभी तुम्हारी शिकायत करता हूं और तुम्हें जेल भिजवाता हूं। रूखमणी गुरुदेव की डांट से घबरा गई वह उसके चरणों में गिर गई।रूखमणी डर कर कांपने लगी और कहने लगी मुझे कुछ नहीं चाहिए, मुझे जाने दीजिए, मेरी शिकायत मत कीजिए।
यह सारी कथा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में ‘फांकि ’ कविता में कुछ इस तरह से है-
‘ऐई बोले सेई मेयेटाके
आड़ा लेते निये गेलेम डेके
आच्छा करेई दिलेम तारे हेंके
केमन तोमार नोकरी थाके
देखबो आमी
पैसेंजरे के ठकीये बेडाओ
घोंचार नाष्टामी
केंदे जखन पडलो पाये धरे
दूई टाका तार हाथे दीये
दिलेम बिदाय करे। ’
(यह बोलकर उस स्त्री को एक आड़ में ले जाकर मैंने उसे अच्छे से डांटा। मैंने उससे कहा कि मैं देखता हूं कि तुम्हारी नौकरी कैसे बचती है, पैसेंजर को तुम ठगती हो। तब रोते हुए उसने पांव पकड़ लिए। उसी समय मैंने उसे दो रुपए का नोट देकर विदा कर दिया। )
रूखमणी को दो रुपए थमाकर उसे विदा करने के बाद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर वापस यात्री प्रतीक्षालय में पहुंचे। मृणालिनी देवी तो जैसे उनकी प्रतीक्षा ही कर रही थीं, गुरुदेव के आते ही पूछा कि क्या सौ रुपए तुड़वाकर रूखमणी को पच्चीस रुपए दे दिए। गुरुदेव ने मृणालिनी देवी से झूठ बोलते हुए कहा कि हां मैंने सौ रुपए तुड़वाकर रूखमणी को पच्चीस रुपए दे दिए हैं।
मृणालिनी देवी ने खुश होकर कहा कि अब रूखमणी अपनी बेटी की शादी के लिए आभूषण बनवा सकेगी और अपनी बेटी को दुल्हन के रूप में अच्छे से विदा कर सकेगी। यह कल्पना कर ही मृणालिनी देवी का हृदय एक अलौकिक आनंद से भर उठा था। उसे लगा कि उसके जीवन की एक बड़ी साध अब शीघ्र ही पूरी होने वाली है।
पेंड्रा रोड पहुंचकर भी बार-बार मृणालिनी देवी यह सोच-सोच कर मन ही मन आनंदित होती रहती थी कि रूखमणी की बेटी को उसके ब्याह में आभूषण बनवाने के लिए पच्चीस रुपए देकर उन लोगों ने एक बड़े पुण्य का कार्य किया है ।
अपनी बीमारी के पूरे दो महीनों में मृणालिनी देवी कई-कई बार इस घटना का गुरुदेव से उल्लेख करतीं और मन ही मन खुश होती थी। इन दो महीनों में रूखमणी की बेटी के लिए उन्होंने जो कुछ किया था उसका स्मरण कर, मृणालिनी देवी के हृदय में जैसे अमृत का संचार होने लगता था।
अंतत: जब मृणालिनी देवी इस पृथ्वी से विदा ले रही थीं तब भी वे इस घटना को जो उनके जीवन की सबसे मूल्यवान घटना थी, याद कर रहीं थीं। वे अपने अंतिम समय में भी इस घटना को भूल नहीं पा रही थी और बार-बार उसका स्मरण कर रही थीं।
गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में लिखा है-
‘ऐई दूटी मास सुधाय दिलो भरे। बिदाय नीलेम सेई कथाटी स्मरण करे।’
मृणालिनी देवी के जीवन के ये दो मास जैसे अमृत से भरे हुए थे। जब विदा हो रही थीं तब भी उनके अधरों पर इसी एक घटना का स्मरण था।)
इस समय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के हृदय में जो कुछ घटित हो रहा था उसे अभिव्यक्त करने के लिए शब्द भी शायद कम पड़ जायेंगे। उनकी वेदना को प्रदर्शित कर सके, ऐसी शक्ति भी किसी भी शब्द में नहीं थी।
ऐसी मर्मांतक वेदना जो गुरुदेव के हृदय को छलनी किए जा रही थी, उसे प्रकट करने की शक्ति भला किस भाषा में हो सकती थी।
गुरुदेव क्लांत हैं। उनके जीवन के सबसे मार्मिक क्षण यहीं हैं जब उन्हें उनके द्वारा किए गए छल के लिए जो क्षमा प्रदान कर सकती थी आज वही उससे दूर चली गई है।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अंतर्यामी से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे मृणालिनी देवी को आज सत्य से परिचित करवाना चाहते हैं। इन दो महीनों में उन्होंने मृणालिनी देवी को जो दुख दिया है, जो कष्ट पहुंचाया है, मात्र पच्चीस रुपए के लिए जो झूठ बोला है, उसके साथ छल किया है, उस जघन्य पाप से से वे मुक्त होना चाहते हैं ।
‘फांकि’ कविता में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की वेदना कुछ इस तरह से प्रकट हुई है -
‘ओगो अंतर्यामी
बिनूर आज जानाते चाई आमी
सेई दू मासेर अर्धेय आमार विषम बाकी
पंचिस टाकार फांकि ’ ( हे अंतर्यामी ! आज मैं बीनू को बताना चाहता हूं। वे दो मास का अर्ध्य जो विषम है मेरे मन में शेष है ,जो पच्चीस रुपए के लिए मैने छल किया था )
गुरुदेव सोच रहे हैं कि आज रूखमणी को एक लाख रुपए देने पर भी मैं मृणालिनी देवी से किए गए छल से मुक्त नहीं हो पाऊंगा। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर यह सोच-सोच कर द्रवित हो रहें हैं कि मृणालिनी देवी जिन बीते हुए दो महीनों को अपने साथ लेकर गई हैं उसमें वे जान ही नहीं पाई हैं कि मैंने उसके साथ कितना बड़ा छल या धोखा किया है।
गुरुदेव आहत हैं, उनका हृदय अपार वेदना से द्रवित है। गुरुदेव अपने किए गए इस छल से, धोखे से क्षुब्ध हैं। वे इसके लिए हर तरह के प्रायश्चित करने के लिए तैयार हैं।
उन्होंने मृणालिनी देवी से जो छल किया है, उस छल से मुक्त होने के लिए वे अपना सब कुछ अर्पण करने के लिए प्रस्तुत हैं । पर इसे संभव करें तो भला कैसे करें बस इसी एक चिंतन में आकंठ डूबे हुए हैं।
(शेष अगले हफ्ते)
-विनोद कुमार शर्मा
आज (10 अप्रैल) खलील जिब्रान के देहावसान का दिन है। आज ही के दिन 1930 में न्यूयार्क में एक सडक़ दुर्घटना में उनकी मृत्यू हो गई थी। इस समय उनकी उम्र कुल अड़तालीस वर्ष थी। उनका जन्म लेबनान के एक कैथोलिक मान्यता के परिवार में हुआ। इस समय लेबनान तुर्क आथमन वंश के अति कठोर शासन के आधीन था। यहां सब ओर भूख और गरीबी का साम्राज्य ही था। काम की तलाश में परिवार अमेरिका आया पर जिब्रान कुछ समय बाद अपनी मातृभूमि चले आये और बेरूत के एक कॉलेज से उन्होंने आगे की शिक्षा पूरी की । वे अंग्रेजी फ्रांसीसी और अरबी भाषाओं के जानकार थे ।
इक्कीस वर्ष की उम्र में उनकी पहली पुस्तक स्पिरिट्स रिबेलियंस प्रकाशित हुई और लेबनान के धार्मिक कट्टर समाज की जड़ें हिला दीं । कैथोलिक चर्च ने सभी प्रतियों को आग लगाने, एवं खलील जिब्रान को देश तथा धर्म सभी से निष्कासित कर दिया । इस पुस्तक में तीन कहानियां थीं, इसमें से तीसरी कहानी तत्कालीन ईसाई पाखंड की निर्ममता और क्रूरता को उजागर करती थी। कुछ समय जिब्रान अपने पेरिस के चित्रकार मित्र के पास चित्रकला का अभ्यास किया और बाद में न्यूयार्क आ गए। दुर्घटना में मारे जाने के समय तक उनके साहित्य से लोग इतना प्रेम करने लगे थे कि उनके शरीर को लेबनान के राष्ट्रीय झण्डे में लपेट कर लेबनान ले जाया गया। और ईसाई, शिआ, सुन्नी और यहूदियों का जनसैलाब उनको विदा देने आया । आज भी उनकी समाधि उनके प्रेमियों को खींचती है , जहां लगातार यात्री पहुंचते हैं ।
उनकी लगभग पच्चीस पुस्तकें प्रकाशित हैं । वे चित्रकार होने से अपनी पुस्तकों के आवरण और अंदर भी अपने ही चित्रों से सजाते थे । ओशो ने अमेरिका में सार्वजनिक प्रवचन न देने के दिनों में चार पांच मित्रों के बीच दो बातचीत श्रृंखला चलाईं, जिनकी रिकॉर्डिंग से दो पुस्तकें बनी ‘पुस्तकें जिन्हे मैं प्यार करता हूं’ और ‘स्वर्णिम बचपन।’ पहली में उन्होंने अपनी प्रिय पुस्तकों को एक एक करके बताया है कि इस पुस्तक में क्या है और इसे क्यों पढ़ी जाए। दूसरी में उन्होंने अपने बचपन और अपने गांव की बातों को सुनाया है। अपनी प्रिय पुस्तकों के उन्होंने दस दस के समूह में वर्णन किये हैं। उनकी पुस्तक सूची में संभतया पहली तीन पुस्तकों में दस स्पेक जरथुस्त्र है। फिर जब वे अगली दस पुस्तकों की सूची देते हैं तो पहली पुस्तक पैगम्बर ही चुनते हैं । यह कहते हुए कि यह पुस्तक दस स्पेक जरथुस्त्र की ही अनुकृति है । मैं पढऩे में बहुत ढीला होने से यह पुस्तक कभी देख नहीं पाया पर पैगम्बर को जरूर देखने समझने का मौका मिला, उस तरह से देखें तो यह पुस्तक ओशो की पसंद की पुस्तक सूची में भी बिल्कुल ऊपर है ।
इस पुस्तक से जिब्रान को भी बहुत प्रेम था, पूरी हो जाने पर भी चार साल तक इसकी पाण्डुलिपि को और-और अधिक सुन्दर करने का प्रयास करते रहे । इसके अंदर विचारों और अधिक कह पाने के लिये चित्र बनाये । जिब्रान की यह क्षमता थी कि वे काव्य को गद्य की तरह स्थूल और गंभीरता दे सकें और गद्य को काव्य की तरह रहस्य और लोच से भर सकें। जीवन में जिन चीजों को भी लक्ष्य की तरह मानव जाति ने चुना है वे सभी बातें किसी न किसी तरह के आध्यात्मिक लोगों द्वारा ही आदमी से कही गई हैं। यह पुस्तक भी जीवन के यथार्थ और रहस्य को शब्दों में उतार पाती है। बाहर की दुनिया को जानना कह पाना भी अधूरा सा है और केवल अनुभूतियों में डूबते उतराते रहना भी इसे केवल मानसिक करके अनुपयोगी बनाता है।
यहां कोई चीज पूरी है भी नहीं है न तो गणित और न ही दर्शन। विरोधाभासों का मेल ही जीवन है। दो विपरीतताओं को खुला आमंत्रण और इस बात के डर का अभाव कि मैं इसे कैसे सिद्ध कर पाऊंगा या कह पाऊंगा। यह स्वीकृति ही हमें जीवन के थोड़े-बहुत नज़दीक लाती है। नहीं तो यहां है तो सब कुछ बेबूझ। जिब्रान की पुस्तक पैगम्बर का अलमुस्तफा अपने मूल में जाने से पहले लोगों को हर विषय पर अपने विचार देता है, उत्तर की तरह। ये उत्तर धर्मग्रंथों के क्विंटलों कचरे से कुछ एक कीमती चीजें चुनने की तुलना में बिना कचरे वाला सीधा खजाना ही हैं। जो परिशुद्ध है। काम का है। यह भारत के ब्रहृमसूत्र और उपनिषदों के सामने भी कहीं कमजोर नहीं पड़ता, कहना चाहिए और ज्यादा संघनित। जिब्रान को मरे नब्बे साल हो गए। इतने पहले भी धरती पर रहकर खुद को इतना हरा भरा करने के अवसर थे, आज के हम कुपोषित से आदमी जिनके शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा सब कुछ कुपोषित हैं। सब एकतरफा, बौने और अधूरे से। कोशिश करेंगे कि जिब्रान जैसे लोगों से कुछ तो संपन्नता अर्जित करें, जिससे धरती पर हमारे खाने पीने का कुछ तो बदला हम समाज को दे सकें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
म्यांमार में सेना का दमन जारी है। 600 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। आजादी के बाद भारत के पड़ौसी देशों— पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, मालदीव— आदि में कई बार फौजी और राजनीतिक तख्ता-पलट हुए और उनके खिलाफ इन देशों की जनता भडक़ी भी लेकिन म्यांमार में जिस तरह से 600 लोग पिछले 60-70 दिनों में मारे गए हैं, वैसे किसी भी देश में नहीं मारे गए।
म्यांमार की जनता अपनी फौज पर इतनी गुस्साई हुई है कि कल कुछ शहरों में प्रदर्शनकारियों ने फौज का मुकाबला अपनी बंदूकों और भालों से किया। म्यांमार के लगभग हर शहर में हजारों लोग अपनी जान की परवाह किए बिना सडक़ों पर नारे लगा रहे हैं। लेकिन फौज है कि वह न तो लोकनायक सू ची को रिहा कर रही है और न ही अन्य छोटे-मोटे नेताओं को! उन पर उल्टे वह झूठे आरोप मढ़ रही है, जिन्हें हास्यास्पद के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।
यूरोप और अमेरिका के प्रतिबंधों के बावजूद म्यांमार की फौज अपने दुराग्रह पर क्यों डटी हुई है ? इसके मूल में चीन का समर्थन है। चीन ने फौज की निंदा बिल्कुल नहीं की है। अपनी तटस्थ छवि दिखाने की खातिर उसने कह दिया है कि फौज और नेताओं के बीच संवाद होना चाहिए। चीन ऐसा इसलिए कर रहा है कि म्यांमार में उसे अपना व्यापार बढ़ाने, सामुद्रिक रियायतें कबाडऩे और थाईलैंड आदि देशों को थल-मार्ग से जोडऩे की उसकी रणनीति में बर्मी फौज उसका पूरा साथ दे रही है।
भारत ने भी संयुक्तराष्ट्र संघ में दबी जुबान से म्यांमार में लोकतंत्र की तरफदारी जरुर की है लेकिन उसके रवैए और चीन के रवैए में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। भारत सरकार बड़ी दुविधा में है। उसकी परेशानी यह है कि वह बर्मी लोकतंत्र का पक्ष ले या अपने राष्ट्रीय स्वार्थों की रक्षा करे? जब म्यांमार से शरणार्थी सीमा पार करके भारत में आने लगे तो केंद्र सरकार ने उन्हें भगाने का आग्रह किया लेकिन मिजोरम सरकार के कड़े रवैए के आगे हमारी सरकार को झुकना पड़ा। सरकार की रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजने की नीति का सर्वोच्च न्यायालय ने समर्थन कर दिया है, जो ठीक मालूम पड़ता है लेकिन फौजी अत्याचार से त्रस्त लोगों को अस्थाई शरण देना भारत की अत्यंत सराहनीय नीति शुरु से रही है।
म्यांमार की फौजी सरकार ने अपने लंदन स्थित राजदूत क्याव जवार मिन्न को रातोंरात अपदस्थ कर दिया है। उन्हें दूतावास में घुसने से रोक दिया गया है। शायद उनका घर भी वहीं है। उन्होंने अपनी कार में ही रात गुजारी। ब्रिटिश सरकार ने इस पर काफी नाराजी जाहिर की है लेकिन उसे कूटनीतिक नयाचार को मानना पड़ेगा। राजदूत मिन्न ने फौजी तख्ता-पलट की निंदा की थी। अमेरिका ने हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाली सरकारी बर्मी कंपनी पर प्रतिबंध लगा दिया है।
भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा जरुर करनी है लेकिन यदि वह फौजी तख्ता-पलट के विरुद्ध थोड़ी दृढ़ता दिखाए तो उसकी अन्तरराष्ट्रीय छवि तो सुधरेगी ही, म्यांमार में आंशिक लोकतंत्र की वापसी में भी आसानी होगी। भारत फौज और नेताओं की बीच सफल मध्यस्थ सिद्ध हो सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव और पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कल इस्लामाबाद में बड़ी चतुराई दिखाने की कोशिश की। दोनों ने दुनिया को यह बताने की कोशिश की कि रूस और पाकिस्तान आतंकवाद से लडऩे के लिए कटिबद्ध हैं। रूस ने वादा किया कि वह पाकिस्तान को ऐसे विशेष हथियार देगा, जो आतंकवादियों के सफाए में उसके बहुत काम आएंगे। यहां पहली बात यह कि वह कौनसा आतंकवाद है, जिसे रूस खत्म करना चाहता है? क्या तालिबान का? क्या कश्मीरियों का? क्या बलूचों का? क्या पठानों का? इनमें से किसी का भी नहीं।
रूस की चिंता उसके चेचन्या-क्षेत्र में चल रहे मुस्लिम आतंकवाद की हो सकती है लेकिन उसका कोई प्रभाव पाकिस्तान में नहीं है। उसकी जड़ों में तो व्लादीमीर पूतिन ने पहले ही से म_ा डाल रखा है। सच्चाई तो यह कि इधर रूस का फौजी उद्योग जरा ढीला पड़ गया है। उसके सबसे बड़े शस्त्र-खरीददार भारत ने अपनी खरीद एक-तिहाई घटा दी है। पूर्वी यूरोप के देश भी उसके हथियार कम खरीद रहे हैं। यदि ये हथियार पाकिस्तान को रूस अगर मुक्त रुप से बेचेगा तो भारत को नाराजगी हो सकती है।
इसीलिए लावरोव ने आतंकवाद की ओट ले ली है। आतंकियों को मारने के लिए कौन-से मिसाइलों की जरुरत होती है ? पाकिस्तान की फौज उन्हें चाहे तो बाएं हाथ से ढेर कर सकती है। जहां तक तालिबान का सवाल है, वे अभी भी अफगानिस्तान में लगभग रोज ही खून बहा रहे हैं। लेकिन रूस तो उन्हें पटाने में लगा हुआ है। वह उन्हें मास्को बुला-बुलाकर बिरयानी खिलाने में जुटा हुआ है। लावरोव को पता है कि रुस के हथियार सिर्फ भारत के खिलाफ ही इस्तेमाल होंगे। फिर भी वह उन्हें पाकिस्तान को बेचने पर डटे हुए हैं।
लावरोव की लौरी पर ताल ठोकते हुए पाक सेनापति कमर जावेद बाजवा ने भी डींग मार दी। उन्होंने कह दिया कि पाकिस्तान की किसी भी देश के साथ कोई दुश्मनी नहीं है। दक्षिण एशिया क्षेत्र में वह शांति और सहयोग का वातावरण बनाना चाहता है। उनसे कोई पूछे कि फिर कश्मीर को हथियाने की माला आप क्यों जपते रहते हैं ? लावरोव ने आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक मामलों में पाकिस्तान को पूर्ण सहयेाग का वादा किया है। शांघाई सहयोग संगठन के सदस्य होने के नाते अब रूस चाहेगा कि पाकिस्तान को रुस और चीन की गलबहियों में लपेट लिया जाए और अफगानिस्तान और ईरान को भी।
ईरान के साथ चीन का 25 वर्षीय समझौता हो ही चुका है। यह अघोषित गठबंधन दक्षिण एशिया में अमेरिकी रणनीति की काट करेगा। ‘एशियाई नाटो’ की टक्कर में अब ‘एशियाई वारसा-पेक्ट’ की नींव पड़ रही है। भारत से उम्मीद यही है कि वह इन दोनों अघोषित गठबंधनों से खुद को मुक्त रखेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गोपाल राठी
जाति और उपजाति में बटे भारतीय समाज में जाति एक सच्चाई है जिसे आप नकार नहीं सकते। जाति के आधार पर ही आप सम्मान या तिरस्कार पाने के अधिकारी बन जाते है। हमारे समाज मे जातीय विषमता का हमें कदम कदम पर साक्षात्कार होता है। भारतीय व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति का नाम और ठांव पूछने के पहले जाति जानने की कोशिश करता है और उनके आपसी सम्बन्ध और व्यवहार जाति के आधार पर ही निर्धारित होते हैं । एक दूसरे से बिल्कुल अपरिचित और भाषा और संस्कृति के लिहाज से अलग अलग व्यक्ति अगर सजातीय होते है तो उनकी आंखों में चमक आ जाती है और भाव भंगिमा बदल जाती है।
नर्मदा की परिक्रमा हजारों साल से की जा रही है । परिक्रमा वासियों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था जगह जगह पर रहती है । कहीं किसी आश्रम में या कही गांव में सामूहिक रूप से यह व्यवस्था चल रही है ।
परिक्रमा में मेरा जो अवलोकन रहा वह यह है कि नर्मदा तट के हर गांव में परिक्रमा को एक तपस्या माना जाता है और परिक्रमा करने वाले को तपस्वी। इस भावना के कारण नर्मदा परिक्रमा वासियों को हर जगह श्रद्धा पूर्वक सम्मान मिलता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सम्मान किसी को उसकी जाति देखकर नहीं मिलता। रास्ते मे हम चाय आदि के लिए कई जगह।के तो दुकानदार ने हमसे पैसे ही नहीं लिए । दुकानदार ने ना हमारा नाम पूछा ,ना जाति पूछी ,ना गांव पूछा । उसके लिए हमारा परिकमा वासी होना ही पर्याप्त था । बड़वानी जिले के परसूद में तो चाय वाले के बाजू में एक मुस्लिम भाई की पान की दुकान थी उसने भी हमसे पान के पैसे नहीं लिए बल्कि रास्ते के लिए पान के चार बीड़े बनाकर रख दिए।
हमने सिवनी जिले के कहानी ग्राम में रात्रि विश्राम किया । वहां ग्राम पंचायत भवन में ठहरे हम सभी परिक्रमा वासियों का रात्रि भोजन एक परिवार में था । वहां हमारे साथ गए सभी परिकमा वासियों को भोजन उपरांत एक नारियल और दस ।पये भेंट के साथ परिवार के सदस्यों ने हम सबके बारी बारी से पांव पड़े । इस तरह पांव पढ़वाने से हम थोड़े असहज हुए ,थोड़ा पीछे हटे लेकिन कोई नहीं माना । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम परिक्रमा वासियों के समूह में एक सज्जन आदिवासी समाज के जो उदयपुरा तहसील जिला रायसेन के निवासी थे और एक दम्पत्ति दलित समाज से थे जो दमोह जिले के रहने वाले थे । हम सबको "महाराज" के संबोधन से पुकारा जा रहा था । जात पांत की कोई बात ही नहीं थी । आगे अन्य आश्रमों में भी जात पांत पूछे बिना भोजन और आवास की व्यवस्था हो गई ।
नर्मदा परिक्रमा जैसे धार्मिक अनुष्ठान में कोई पूछता ही नहीं है कि तुम कौन जात हो ? जातिगत भेदभाव से मुक्त परिक्रमा के इस पक्ष से हमें अत्यंत खुशी हुई । ऐसा लगा कि जैसे जाति विहीन ,वर्ग विहीन समाज बनाने का हमारा सपना साकार हो गया है ।
हमारे संत भी तो यही कहते रहे हैं ।
जात-पात पूछे ना कोई,
हरि को भजे सो हरि का होई
*जाति न पूछो साधु की,
पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का,
पड़ा रहन दो म्यान।
बीजापुर में रिहा किये गए जवान को सकुशल वापिस लाने के पीछे जो शख्स हैं, वह है 92 साल के युवा और बस्तर के ताऊ जी धर्मपाल सैनी। उन्हें बस्तर का गांधी कहा जाता है।
वे कोई 45 साल पहले अपनी युवावस्था में बस्तर की लड़कियों से जुड़ी एक खबर पढ़ कर इतने विचलित हुए कि यहां आए और यहीं के हो गए।
अपने गुरु विनोबा भावे से डोनेशन के रूप में 5 रुपए लेकर वे 1976 में बस्तर पहुंचे। वह युवा पिछले 40 सालों से बस्तर में है। पद्मश्री धरमपाल सैनी अब तक देश के लिए 2000 से ज्यादा एथलीट्स तैयार कर चुके हैं।
मूलतः मध्यप्रदेश के धार जिले के रहने वाले धरमपाल सैनी विनोबा भावे के शिष्य रहे हैं।
60 के दशक में सैनी ने एक अखबार में बस्तर की लड़कियों से जुड़ी एक खबर पढ़ी थी। खबर के अनुसार दशहरा के आयोजन से लौटते वक्त कुछ लड़कियों के साथ कुछ लड़के छेड़छाड़ कर रहे थे।लड़कियों ने उन लड़कों के हाथ-पैर काट कर उनकी हत्या कर दी थी।
यह खबर उनके मन में घर कर गई। उन्होंने बस्तर की लड़कियों की हिम्मत और ताक़त को सकारात्मक बनाने की ठानी।
कुछ सालों बाद अपने गुरु विनोबा भावे से बस्तर आने की अनुमति मांगी लेकिन शुरू में वे नहीं माने। कई बार निवेदन करने के बाद विनोबा जी ने उन्हें 5 रुपए का एक नोट उन्हें थमाया और इस शर्त के साथ अनुमति दी कि वे कम से कम दस साल बस्तर में ही रहेंगे।
आगरा यूनिवर्सिटी से कॉमर्स ग्रेजुएट सैनी खुद भी एथलीट रहे हैं।
वे बताते हैं कि जबवे बस्तर आए तो देखा कि छोटे-छोटे बच्चे भी 15 से 20 किलोमीटर आसानी से चल लेते हैं। बच्चों की इस क्षमता को खेल और शिक्षा में इस्तेमाल करने की योजना उन्होंने बनाई।
उनके डिमरापाल स्थित आश्रम में हजारों की संख्या में मेडल्स और ट्रॉफियां रखी हुई हैं।आश्रम की छात्राएं अब तक स्पोर्ट्स में ईनाम के रूप में 30 लाख से ज्यादा की राशि जीत चुकी हैं।
धर्मपाल जी को बालिका शिक्षा में बेहतर योगदान के लिए 1992 में सैनी को पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया। 2012 में 'द वीक' मैगजीन ने सैनी को मैन ऑफ द इयर चुना था। श्री सैनी के बस्तर में आने के बाद साक्षरता का ग्राफ 10 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत के करीब पहुंच चुका है।
उनके विद्यालय की बच्चियां एथलीट, डॉक्टर और प्रशासनिक सेवाओं में जा चुकी हैं ।
आज सैनीजी 92 साल के हैं और राकेश्वर सिंह को सकुशल लाने का अनुरोध मुख्यमंत्री भूपेश्वर बघेल ने किया था।
खबर तो यह भी है कि वे कई महीने से नक्सलियों से शांति वार्ता के लिए प्रयास कर रहे थे। वार्ता के शुरू होने से पहले केंद्रीय बलों ने यह दबिश दी और वार्ता को पटरी से नीचे उतार दिया। बहरहाल सैनी जी के प्रति आभार। उनकी सहयोगी मुरुतुण्डा की सरपंच सुखमती हक्का का भी आभार। चित्र में खड़ी सुखमती बानगी है कि बस्तर में औरत कितनी ताकतवर है।
(पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के फेसबुक पेज से )